Class 10 Sanskrit Chapter 6 UP Board Solutions नागाधीरजः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 6 Nagadhiraja Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 6 हिंदी अनुवाद नागाधीरजः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

महाकवि कालिदास संस्कृत-साहित्य में ‘कविकुलगुरु’ की उपाधि से समलंकृत तथा विश्व के कवि-समाज में सुप्रतिष्ठित हैं। इनकी जन्मभूमि भारतवर्ष थी। इन्होंने निष्पक्ष होकर भारतभूमि व उसके प्रदेशों के वैशिष्ट्य का वर्णन किया है। इनके काव्यों व नाटकों में हिमालय से लेकर समुद्रतटपर्यन्त भारत का दर्शन होता है। प्रस्तुत पाठ महाकवि कालिदास द्वारा विरचित ‘कुमारसम्भवम्’ नामक महाकाव्य से संगृहीत है। इस महाकाव्य (UPBoardSolutions.com) में सत्रह सर्ग हैं और इसका प्रारम्भ हिमालय-वर्णन से होता है। प्रस्तुत पाठ के आठ श्लोक उसी हिमालय-वर्णन से संगृहीत हैं।

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पाठ-सारांश

भारतवर्ष के उत्तर में नगाधिराज हिमालय, पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मानदण्ड के समान स्थित है। सभी पर्वतों ने इसे बछड़ा और सुमेरु पर्वत को ग्वाला बनाकर पृथ्वीरूपी गाय से रत्नों और महौषधियों को प्राप्त किया। अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले हिमालय के सौन्दर्य को बर्फ कम नहीं कर सकी; क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष चन्द्रमा की किरणों में उसके कलंक के समान ही छिप जाता है। सिद्धगण हिमालय के मध्यभाग में घूमने वाले मेघों की छाया में बैठकर वर्षा से पीड़ित होकर उसके धूप वाले शिखरों पर पहुँच जाते हैं। हाथियों को मारने से पंजों में लगे हुए रक्त के पिघली हुई बर्फ द्वारा धुल जाने पर यहाँ रहने वाले भील लोग सिंहों के नखों में से गिरे हुए गज-मोतियों से सिंहों के जाने के मार्ग को जान लेते हैं। हाथियों के द्वारा (UPBoardSolutions.com) अपने गालों की खाज को खुजाने के लिए चीड़ के वृक्षों से रगड़ने पर उनसे बहते दूध से हिमालय के शिखर सुगन्धित हो जाते हैं। हिमालय दिन में डरे हुए और अपनी शरण में आये हुए अन्धकार
को अपनी गुफाओं में शरण देकर सूर्य से उसकी रक्षा करता है। चमरी गायें, अपनी पूँछ को इधर-उधर हिलाने के कारण अपनी पूँछ के बालों के चँवरों से हिमालय के ‘गिरिराज’ शब्द को सार्थक करती हैं।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
स्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ॥ [2007,11, 14, 15]

शब्दार्थ अस्ति = है। उत्तरस्यां दिशि = उत्तर दिशा में। देवतात्मा = देवगण हैं आत्मा जिसकी। हिमालयः नाम = हिमालय नामका नगाधिराजः = पर्वतों का राजा। पूर्वापरौ = पूर्व और पश्चिम तोयनिधी = समुद्रों को। वगा= अवगाहन करके; प्रविष्ट होकर। स्थितः = स्थित है। पृथिव्याः = पृथ्वी के मानदण्डः इवे = मापने के दण्ड के समान

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘नगाधिराजः’ शीर्षक पाठ से लिया गया है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय की स्थिति और उसके भौगोलिक महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अन्वय उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयः नाम नगाधिराजः अस्ति, (यः) पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य पृथिव्याः (UPBoardSolutions.com) मानदण्डः इव स्थितः (अस्ति)।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि (भारतवर्ष की) उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा वाला पर्वतों का राजा हिमालय है, जो पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मापने के दण्ड के समान स्थित है। तात्पर्य यह है कि हिमालय का विस्तार ऐसा है कि वह पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं के समुद्रों को छू रहा है।

(2)
यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरि दोहदक्षे
भास्वन्ति रत्नानि महौषधींश्च पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् ॥ [2006]

शब्दार्थ यं = जिस हिमालय को। सर्वशैलाः = सभी पर्वतों ने परिकल्प्य = बनाकर। वत्सम् = बछड़ा। मेरी = सुमेरु पर्वत के स्थिते = स्थित होने पर दोग्धरि = दुहने वाला। दोहदक्षे = दुहने में निपुण। भास्वन्ति = देदीप्यमाना रत्नानि = रत्नों को। महौषधी (महा + ओषधी) = उत्तम जड़ी-बूटियों को। पृथूपदिष्टाम् = राजा पृथु के द्वारा आदेश दी गयी। दुदुहुः = दुहा। धरित्रीम् = पृथ्वी को।।

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प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय को बछड़ा, सुमेरु को दुहने वाला तथा पृथ्वी को गाय का प्रतीक मानकर उसके दोहन की कल्पना की गयी है।

अन्वय सर्वशैलाः यं वत्सं परिकल्प्य दोहदक्षे मेरौ दोग्धरि स्थिते पृथूपदिष्टां धरित्रीं भास्वन्ति रत्नानि महौषधीन् च दुदुहुः।।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि सभी पर्वतों ने जिस हिमालय को बछड़ा बनाकर दुहने (UPBoardSolutions.com) में निपुण सुमेरु पर्वत के दुहने वाले के रूप में स्थित रहने पर पृथु के द्वारा आदेश दी गयी पृथ्वीरूपी गाय से देदीप्यमान रत्नों और संजीवनी आदि महान् ओषधियों को दुहा।

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(3)
अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम्
एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः॥ [2007, 11]

शब्दार्थ अनन्तरत्नप्रभवस्य = अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले। यस्य = जिस (हिमालय) के। हिमम् = बर्फ। न = नहीं। सौभाग्यविलोपि = सौन्दर्य का विनाश करने वाली। जातम् = हुई। एकः = एक हि = निश्चित ही, क्योंकि दोषः = दोष। गुणसन्निपाते = गुणों के समूह में। निमज्जति = डूब जाता है, विलीन हो जाता है। इन्दोः = चन्द्रमा की। किरणेषु = किरणों में। इव = समान। अङ्कः = कलंक।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय के महान् यश का वर्णन किया गया है।

अन्वय हिमम् अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य सौभाग्यविलोपि न जातम्। हि एकः दोषः गुणसन्निपाते इन्दोः किरणेषु अङ्कः इव निमज्जति।

व्याख्या अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले जिस पर्वत की शोभा को उस पर सदा जमी रहने वाली बर्फ मिटा नहीं पायी है, क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है, जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों में कलंका तात्पर्य यह है कि हिमालय से अनन्त रत्नों की उत्पत्ति (UPBoardSolutions.com) होती है किन्तु उसके अन्दर एक ही दोष है कि वह सदैव हिमाच्छादित रहता है। उसके इस दोष से भी उसका महत्त्व कम नहीं होता; क्योंकि चन्द्रमा में स्थित कलंक उसके गुणों को कम नहीं करता।।

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(4)
आमेखलं सञ्चरतां घनानां छायामधः सानुगतां निषेव्य।
उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते शृङ्गाणि यस्यातपवन्ति सिद्धाः ॥ [2007]

शब्दार्थ आमेखलम् = पर्वत के मध्य भाग तक। सञ्चरताम् = घूमने वाले। घनानां = बादलों के छायां = छाया का। अधः = नीचे। सानुगताम् = नीचे के शिखरों पर पड़ती हुई। निषेव्य = सेवन करके। उद्वेजिताः = पीड़ित किये गये। वृष्टिभिः = वर्षा द्वारा आश्रयन्ते = आश्रय करते हैं। शृङ्गाणि = शिखरों का। आतपवन्ति = धूप से युक्त। सिद्धाः = सिँद्ध नामक देवता अथवा तपस्वी साधक।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय पर तपस्या करने वाले सिद्धगणों के क्रिया-कलापों का वर्णन किया गया

अन्वय सिद्धाः आमेखलं सञ्चरतां घनानाम् अधः सानुगतां छायां निषेव्य वृष्टिभिः उद्वेजिताः (सन्तः) यस्य आतपवन्ति शृङ्गाणि आश्रयन्ते।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि सिद्धगण (तपस्वी या साधक या सिद्ध नामक देव जाति के) हिमालय पर्वत के मध्य भाग तक घूमने वाले बादलों के नीचे शिखरों पर पड़ती हुई छाया का सेवन करके वर्षा के द्वारा पीड़ित किये जाते हुए हिमालय के धूप वाले शिखरों का आश्रय लेते हैं। तात्पर्य यह है कि बादलों की पहुँच हिमालय के मध्य भाग तक ही है। जब वे वर्षा करने लगते हैं, तब सिद्धगण धूप वाले ऊपर के शिखरों पर चले जाते हैं; अर्थात् उनकी पहुँच बादलों से भी ऊपर है।

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(5)
पदं तुषारसुतिधौतरक्तं यस्मिन्नदृष्ट्वाऽपि हतद्विपानाम्।
विदन्ति मार्गे नखरन्ध्रमुक्तैर्मुक्ताफलैः केसरिणां किराताः॥

शब्दार्थ पदम् = पैर (के निशान) को। तुषारसुतिधौतरक्तम् = बर्फ के पिघलकर बहने से धुले हुए रक्त वाले। यस्मिन्नदृष्ट्वाऽपि (यस्मिन् + अदृष्ट्वा + अपि) = जिस (हिमालय) पर बिना देखे भी। हतद्विपानां = हाथियों को मारने वाले। विदन्ति = जान जाते हैं। मार्गं = मार्ग को। नखरन्ध्रमुक्तैः = नखों के छिद्रों से गिरे हुए। मुक्ताफलैः = मोतियों के दानों जैसे। केसरिणाम् =सिंहों के। किराताः =(पहाड़ों पर रहने वाली) भील जाति के लोग।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में किरातों द्वारा हिमालय के बर्फीले भाग में भी मार्ग ढूँढ़ने के संकेतों का वर्णन किया गया है।

अन्वय किराताः यस्मिन् तुषारसुतिधौतरक्तं हतद्विपानां (सिंहानां) पदम् अदृष्ट्वा अपि नखरन्ध्रमुक्तैः मुक्ताफलैः केसरिणां मार्गं विदन्ति।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि भील जाति के लोग जिस हिमालय पर पिघली हुई बर्फ के बहने से धुले हुए रक्त वाले, हाथियों को मार डालने वाले सिंहों के पदचिह्नों को न देखकर भी उनके नाखूनों के मध्य भाग के छिद्रों से गिरते हुए मोतियों से सिंहों के (जाने के) मार्ग को जाने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि हाथियों के मस्तक में मोती होते हैं। जब सिंह अपने पैरों से हाथी के मस्तक को विदीर्ण करता है तो उसके पंजे में मोती फँस जाते हैं और चलते समय वे (UPBoardSolutions.com) मार्ग में गिर जाते हैं। ऐसी स्थिति में उन सिंहों का शिकार करने वाले किरात उन गज-मुक्ताओं को देखकर ही उनके जाने के मार्ग का पता लगा लेते हैं क्योंकि रक्त के निशान तो बहती हुई बर्फ से धुल जाते हैं।

(6)
कपोलकण्डूः करिभिर्विनेतुं विघट्टितानां सरलद्माणाम्।
यत्र खुतक्षीरतया प्रसूतः सानूनि गन्धः सुरभीकरोति ॥

शब्दार्थ कपोलकण्डूः = गोलों की खुजली को। करिभिः = हाथियों के द्वारा। विनेतुम् = मिटाने के लिए। विघट्टितानाम् = रगड़े गये। सरलद्माणाम् = सरल (चीड़) के वृक्षों केा ‘तुतक्षीरतया = दूध के बहने के कारण। प्रसूतः = उत्पन्न। सानूनि = शिखरों को। गन्धः = गन्धा सुरभीकरोति = सुगन्धित करती है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हाथियों की रगड़ से छिले चीड़ के वृक्षों की गन्ध से पर्वत शिखरों के सुवासित होने का वर्णन है।

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अन्वय यत्र कपोलकंण्डू: विनेतुं करिभिः विघट्टितानां सरलद्माणां सुतक्षीरतया प्रसूतः गन्धः सानूनि सुरभीकरोति।।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि जहाँ गालों की खोज को मिटाने के लिए हाथियों के द्वारा रगड़े गये चीड़ के वृक्षों से दूध के बहने के कारण उत्पन्न हुई गन्ध हिमालय के शिखरों को सुगन्धित करती रहती है।

(7)
दिवाकराद्रक्षति सो गुहासु लीनं दिवा भीतमिवान्धकारम्।
क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव ॥ [2006, 09]

शब्दार्थ दिवाकरात् = सूर्य से। रक्षति = बचाता है। सः = वह। गुहासु = गुफाओं में लीनं = छिपे हुए। दिवा भीतम् इव = दिन में डरे हुए के समान| अन्धकारम् = अँधेरे को। क्षुद्रेऽपि = नीच मनुष्य के भी। नूनं = निश्चय ही। शरणं प्रपन्ने = शरण में पहुँचने पर। ममत्वम् = आत्मीयता, अपनापन। उच्चैः शिरसाम् = ऊँचे मस्तक वालों का, महापुरुषों का। सतीव = श्रेष्ठ पुरुष की तरह।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय को शरणागतवत्सल के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

अन्वये यः दिवा दिवाकरात् भीतम् इव गुहासु लीनम् अन्धकारम् रक्षति। नूनं क्षुद्रे अपि शरणं प्रपन्ने सतीव उच्चैः शिरसां ममत्वं (भवति एव)।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि जो (हिमालय) दिन में सूर्य से डरे हुए की तरह गुफाओं में छिपे (UPBoardSolutions.com) अन्धकार की रक्षा करता है। निश्चय ही नीच व्यक्ति के शरण में आने पर भी श्रेष्ठ पुरुष की तरह उच्चाशय वाले महापुरुषों का अपनापन होता ही है।

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(8)
लाङगूलविक्षेपविसर्पिशोभैरितस्ततश्चन्द्रमरीचिगौरैः ।।
यस्यार्थयुक्तं गिरिराजशब्दं कुर्वन्ति बालव्यजनैश्चमर्यः॥

शब्दार्थ लागूलविक्षेपविसर्पिशोभैः = पूँछ को हिलाने से फैलने वाली शोभा वाली। इतस्ततः = इधर-उधर। चन्द्रमरीचिगौरैः = चन्द्रमा की किरणों के समान उजले। यस्य = जिसके अर्थात् हिमालय के अर्थयुक्तं = अर्थ से युक्त सार्थका गिरिराजशब्दम् = गिरिराज शब्द को। कुर्वन्ति = कर रही हैं। बाल-व्यजनैः = बालों के पंखों अर्थात् चँवरों से। चमर्यः = चमरी गायें, सुरा गायें (इनके पूँछ के बालों की चँवर बनती है)।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में हिमालय के पर्वतों का राजा होने की कल्पना को सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है।

अन्वय चमर्यः इतस्तत: लागूलविक्षेपविसर्पिशोभैः चन्द्रमरीचिगौरै: बालव्यजनैः यस्य गिरिराजशब्दम् अर्थयुक्तं कुर्वन्ति।

व्याख्या महाकवि कालिदास कहते हैं कि चमरी गायें; जिनकी शोभा पूँछों के हिलाने से इधर-उधर फैलती रहती है तथा जो चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत बालों के चँवरों से जिस हिमालय के ‘गिरिराज शब्द को सार्थक करती हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सिंहासन पर बैठे हुए राजा पर चँवर डुलाये जाते हैं, उसी प्रकार हिमालय पर ‘गिरिराज’ होने के कारण चमरी गायें अपने पूँछों के बालों के चँवर डुलाती रहती हैं।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयों नाम नगाधिराजः।

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘नगाधिराजः’ नामक पाठ से ली गयी है।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसग प्रस्तुत सूक्ति में हिमालय की महानता पर प्रकाश डाला गया है। अर्थ उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मास्वरूप हिमालय नाम का पर्वतों का राजा स्थित है।

व्याख्या भारत की उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मास्वरूप पर्वतों का राजा हिमालय नाम का पर्वत स्थित है। (UPBoardSolutions.com) हिमालय को क्योकि भगवान् शिव का निवासस्थान माना जाता है और भगवान् शिव समस्त देवताओं के आराध्य हैं; इसीलिए उसे देवताओं की आत्मा कहा गया है।

(2) स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः।। [2010, 12, 13, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में हिमालय की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।

अर्थ पृथ्वी पर स्थित मानदण्ड के समान है।

व्याख्या भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित हिमालय पर्वत अत्यन्त महान् और सुविस्तृत है। इसको देखकर ऐसा लगता है कि यह पृथ्वी के एक छोर से आरम्भ होकर दूसरे छोर (किनारा) तक फैला हुआ है। हिमालय की इसी विशालता और सुविस्तार को व्यक्त करने के लिए कवि कल्पना करता है कि यह धरती की विशालता को मापने के लिए मापदण्ड (पैमाना) के रूप में पृथ्वी पर स्थित है। मापदण्ड के रूप में इसकी विशालता और महत्ता के आधार पर ही पृथ्वी की भी विशालता और महत्ता का अनुमान भली-भाँति लगाया जा सकता है।

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(3) एको हि दोषो गुणसन्निपाते, निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः। [2007, 11, 12, 14]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि किसी व्यक्ति के एकाध दोष उसके गुणों में ही छिप जाते हैं।

अर्थ गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है, जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों में उसका काला धब्बा।।

व्याख्या कविकुलगुरु कालिदास ने प्रस्तुत सूक्ति में बताया है कि यदि किसी व्यक्ति में बहुत-से गुण हों तो उसके एकाध दोष का पता भी नहीं लग पाता है; क्योंकि लोगों का ध्यान उसके गुणों की ओर होता है, उसके दोष पर उनका ध्यान ही नहीं जाता है। जैसे चन्द्रमा की किरणों के जाल में उसका काला धब्बा छिप जाता है; क्योंकि लोग चन्द्रमा की किरणों के सौन्दर्य में ही लीन हो जाते हैं। उसके काले धब्बे की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता है। जहाँ हिमालय में अनन्त रत्न और ओषधियाँ पायी जाती हैं, वहाँ उसके शिखरों पर सदैव भारी मात्रा में बर्फ का जमा रहना बड़ा दोष भी है, लेकिन अनन्त रत्नों को उत्पन्न करने वाले हिमालय पर गिरने (UPBoardSolutions.com) वाली बर्फ उसके महत्त्व को कम नहीं करती; क्योंकि गुणों के समूह में एक दोष नगण्य होता है।

(4) क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने, ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव। [2010]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कहा गया है कि यदि कोई क्षुद्र व्यक्ति उच्च आशय वाले व्यक्ति के पास जाता है। तो वे उसके प्रति भी श्रेष्ठ पुरुष की तरह ही आत्मीयता प्रकट करते हैं।

अर्थ क्षुद्र व्यक्ति के शरण में आने पर महान् व्यक्ति उन पर भी सज्जनों के समान ही स्नेह करते हैं।

व्याख्या महापुरुषों की शरण में छोटा-बड़ा या सज्जन-दुर्जन जो भी आता है, वे उस पर अत्यधिक ममता दिखलाते हैं। यदि उनकी शरण में कोई तुच्छ व्यक्ति भी जाता है तो वे उस पर भी उतनी ही ममता दिखाते हैं, जितनी शरण में आये हुए सज्जन व्यक्ति के प्रति उनके मन में छोटे-बड़े, अपने-पराये और सज्जन-दुर्जन का भेदभाव नहीं होता है। नगाधिराज हिमालय इसका आदर्श उदाहरण है। दिन के समय अन्धकार उसकी चोटियों पर नहीं रहता है, वरन् उसकी गुफाओं के भीतर रहता है। कवि की कल्पना है कि अन्धकार ने सूर्य के भय से हिमालय की चोटियों से भागकर उसकी गुफाओं में शरण प्राप्त की है और उन्नत शिखरों वाले हिमालय ने भी तुच्छ अन्धकार को अपनी गुफाओं में शरण देकर उसकी सूर्य से रक्षा की है। यहाँ हिमालय को महान् तथा अन्धकार को क्षुद्र बताया गया है। प्रस्तुत सूक्ति शरणागत की रक्षा के महत्त्व को भी प्रतिपादित करती है।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) अस्त्युत्तरस्यां ………………………………………. इव मानदण्डः ॥ (श्लोक 1) (2010]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः कथयति यत् भारतस्य उत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयः नाम पर्वतानां नृपः अस्ति, यः पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य पृथिव्याः मानदण्डः इव स्थितः अस्ति अर्थात् तस्य विस्तारं इदृशं अस्ति यत् पूर्वस्य पश्चिमस्य च तोयनिधीः स्पर्शयति।

(2) अनन्तरत्नप्रभवस्य ………………………………………. किरणेष्विवाङ्कः॥ (श्लोक 3)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः हिमालयस्य सौन्दर्यं वर्णयन् कथयति यत् हिमालये बहूनि रत्नानि उत्पन्नं भवन्ति, तस्य शिखरेषु हिमम् अपि भवति, परम् तत् हिमं तस्य सौन्दर्यं क्षीणं न अकरोत्। तस्य हिमस्य अयं दोष: रत्नानां गुणेषु प्रभावरहितः अभवत्। गुणेषु एकः दोष: तथैव प्रभावहीनं भवति यथा चन्द्रस्य किरणेषु तस्य कलङ्क अदृश्यः भवति।।

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(3) दिवाकराद्रक्षति ………………………………………. शिरसां सतीव॥ (श्लोक 7)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः कालिदासः कथयति यत् हिमालयस्य गुहासु अन्धकारं वर्तते। अत्र कविः (UPBoardSolutions.com) उत्प्रेक्षां करोति यत्र दिवाकरात् भीत: अन्धकारः हिमालये शरणं प्राप्तवान्, अतएव हिमालयः अन्धकारस्य रक्षां करोति। इदं सत्यमेव यदि क्षुद्रः अपि महात्मनां शरणं प्राप्नोति तदा महात्मनां ममत्वं नूनम् एव उत्पन्नं भवति।

(4) लाङ्गूलविक्षेपविसर्पिशोभैः ………………………………………. बालव्यजनैश्चमर्यः ॥ (श्लोक 8)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकवि कालिदासः कथयति—-हिमालयः पर्वतानां राजा अस्ति, अतएव स: गिरिराजः इति कथ्यते। तत्र स्थिताः चमर्यः धेनवः स्वपुच्छविक्षेपविसर्पिशोमैः चन्द्रधवलगौरे: बालव्यजनैः तस्योपरि व्यजनं कृत्वा ‘गिरिराज’ शब्दं अर्थयुक्तं कुर्वन्ति।

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Class 10 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions क्षान्ति – सौख्यम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 5 Kshanti Saukhyam Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद क्षान्ति – सौख्यम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ महर्षि व्यास द्वारा प्रणीत महाभारत से संगृहीत है। धृतराष्ट्र के सारथी संजय को दिव्य-दृष्टि व्यास जी ने ही दी थी जिसके द्वारा उसने महाभारत के युद्ध का आँखों देखा वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाया था। प्रस्तुत पाठ में महाभारत के युद्ध के अन्त में शर-शय्या पर (UPBoardSolutions.com) लेटे हुए भीष्म पितामह द्वारा युधिष्ठिर को दिये गये उपदेश का अंश है। इस अंश में क्षमा गुण का महत्त्व वर्णित है। क्षमा द्वारा ही मनुष्य को जीवन की सार्थकता प्राप्त होती है और यही उसका सर्वोपरि गुण भी है।

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पाठ-सारांश

युद्धभूमि में घायलावस्था में शर-शय्या पर पड़े हुए, भीष्म पितामह युधिष्ठिर को नैतिकता का उपदेश देते हुए कहते हैं कि मानव-जन्म संसार के समस्त जन्मों में श्रेष्ठ है। जो व्यक्ति इसे पाकर भी प्राणियों से द्वेष करता है, धर्म का अनादर करता है और वासनाओं में डूबा रहता है, वह अपने आपको धोखा देता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति दूसरों के दुःखों को समझकर उन्हें सान्त्वना देता है, दान इत्यादि कर्म करता हुआ सबसे मीठे वचन बोलता है, वह परलोक में भी प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

क्षमाशील व्यक्ति गाली के प्रत्युत्तर में गाली नहीं देते, वरन् सहिष्णुता का परिचय देते हुए गाली देने वाले को भी क्षमा कर देते हैं। ऐसा करने पर गाली देने वाले का क्रोध स्वयं उसे ही जला डालता है। संसार के माया-मोह में फँसे व्यक्ति की चंचल बुद्धि उसे माया-मोह में और अधिक (UPBoardSolutions.com) लिप्त करती है और वह व्यक्ति इहलोक एवं परलोक में दुःख प्राप्त करता है।

सहनशील एवं क्षमाशील व्यक्ति कभी अभिमान नहीं करते। क्रोध दिलाये जाने पर व गाली दिये जाने पर भी मधुर और प्रिय वचन ही कहते हैं।

दु:ख से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय यह है कि व्यक्ति दु:ख की चिन्ता ही न करे; क्योंकि चिन्ता करने पर दु:ख घटता नहीं, वरन् बढ़ जाता है। संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान् है। संचय क्षय के द्वारा, ऊँचाई (उन्नति) पतन के द्वारा, संयोग वियोग के द्वारा और जीवन मृत्यु के द्वारा सभी नष्ट हो जाते हैं। इन्द्रियों को वश में रखना, क्षमा, धैर्य, तेज, सन्तोष, सत्य बोलना, लज्जा, हिंसा न करना, व्यसनरहित होना और कार्य में कुशल होना ही सुख के साधन हैं। क्रोध पर नियन्त्रण रखने वाले व्यक्ति समस्त विपत्तियों पर सरलता से विजय प्राप्त करते हैं। ऐसे अक्रोधी व्यक्ति क्रोधी को भी शान्त करने में समर्थ होते हैं। क्षमाशील एवं देहाभिमान से रहित व्यक्ति को संसार की किसी भी वस्तु से डर नहीं रहता।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुषं द्विषते नरः।
धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत् स खलु वञ्चते ॥

शब्दार्थ यः = जो। दुर्लभतरं = कठिनाई से प्राप्त होने वाला प्राप्य = प्राप्त करके। मानुषम् = मनुष्य जन्म को। द्विषते = द्वेष करता है। धर्मावमन्ता = धर्म का अनादर करने वाला। कामात्मा = वासनाओं में आसक्त रहने वाला। खलु = निश्चय ही। वञ्चते = अपने को धोखा देता है।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तके ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘क्षान्ति-सौख्यम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

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प्रसग प्रस्तुत श्लोक में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उपदेश देते हैं कि इस संसार में मनुष्य जन्म पाकर व्यक्ति को धर्म का निरादर नहीं करना चाहिए।

अन्वय यः नरः दुर्लभतरं मानुषं (जन्म) प्राप्य द्विषते, धर्मावमन्ता कामात्मा (च) भवेत्, सः खलु (आत्मनं) वञ्चते।।

व्याख्या जो मनुष्य अन्य जन्मों से अधिक दुर्लभ मनुष्य के जन्म को पाकर प्राणियों (UPBoardSolutions.com) से द्वेष करता है, धर्म का अनादर करने वाला और वासनाओं में आसक्ति रखने वाला होता है, वह निश्चय ही अपने आप को धोखा देता है।

(2)
सान्त्वेनानप्रदानेन प्रियवादेन चाप्युत।
समदुःखसुखो भूत्वा स परत्र महीयते ॥ [2013, 14]

शब्दार्थ सान्त्वेन = सान्त्वना के द्वारा। अन्नप्रदानेन = अन्न (भोजन) देकर। प्रियवादेन = प्रिय वचन बोलकर। समदुःखसुखःभूत्वा = दुःख और सुख में समान भाव रखने वाला होकर। परत्र = परलोक में। महीयते = प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भीष्म पितामह इहलोक और परलोक में प्रतिष्ठा-प्राप्ति के साधनों के विषय में बता रहे हैं।

अन्वय सः सान्त्वेन अन्न प्रदानेन उत प्रियवादेन च अपि समदु:खसुख: भूत्वा परत्र महीयते।

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व्याख्या वृह मनुष्य सान्त्वना (तसल्ली बँधाने वाले शब्दों) से, अन्न (भोजन) के दान से अथवा प्रिय वचन के बोलने से भी सुख और दुःख को समान समझने वाला होकर परलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति सांसारिक प्राणियों के कष्ट दूर करके स्वयं समभाव में स्थित हो जाता है, (UPBoardSolutions.com) उसे परलोक में भी सम्मान मिलता है।

(3)
आक्रुश्यमानो नाक्रुश्येन्मन्युरेनं तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं च तितिक्षतः॥

शब्दार्थ आक्रुश्यमानः = गाली दिया (अपशब्द कहा) जाता हुआ। न आक्रुश्येत् = गाली नहीं देनी चाहिए। मन्युः = दबा हुआ क्रोध। एनं = इस। तितिक्षतः = क्षमाशील व्यक्ति का। आक्रोष्टारम् = गाली देने वाले को। निर्दहति = जला देता है। सुकृतम् = पुण्य च = और।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भीष्म पितामह द्वारा क्षमाशील व्यक्ति के पुण्य-संचय का उल्लेख किया गया है।

अन्वय आक्रुश्यमानः न आक्रुश्येत्। तितिक्षत: मन्युः एनम् आक्रोष्टारं निर्दहति, तितिक्षत: च सुकृतम् (भवति)।

व्याख्या दूसरों के द्वारा गाली दिये जाने पर भी व्यक्ति को बदले में गाली नहीं देनी चाहिए। (गाली को) क्षमा (सहन) केर देने वाले व्यक्ति को क्रोध उस गाली देने वाले को पूर्णतया जला देता है और क्षमा करने वाले का पुण्य होता है। तात्पर्य यह है कि गाली देने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है और गाली सह लेने वाले को पुण्य होता है।

(4)
सक्तस्य बुद्धिश्चलति मोहजालविवर्धिनी।
मोहजालावृतो दुःखमिह चामुत्र चाश्नुते ॥

शब्दार्थ सक्तस्य = संसार के प्रति आसक्ति रखने वाले का। बुद्धिः = बुद्धि। चलति = चलायमान रहती है, अस्थिर रहती है, भटकती रहती है। मोहजालविवर्धिनी = मोहजाल को बढ़ाने वाली। मोहजालावृतः = मोहरूपी जाल में फँसकर यह व्यक्ति। इह = इस लोक में। (UPBoardSolutions.com) अमुत्र = परलोक में। अश्नुते = प्राप्त करता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भीष्म पितामह द्वारा सुख-दु:ख प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय सक्तस्य मोहजालविवर्धिनी बुद्धिः चलति। मोहजालावृतः (सह) इह च अमुत्र च दु:खम् अश्नुते।

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व्याख्या संसार से अत्यधिक लगाव (आसक्ति) रखने वाले व्यक्ति की मोहजाल को बढ़ाने वाली बुद्धि गतिशील रहती है, अर्थात् भटकती रहती है। मोहजाल में फंसा हुआ व्यक्ति इसे लोक में और परलोक में भी दुःख प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि सुख चाहने वाले व्यक्ति को संसार में आसक्त नहीं होना चाहिए।

(5)
अतिवादस्तितिक्षेत नाभिमन्येत कञ्चन।
क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयादाक्रुष्टः कुशलं वदेत्॥

शब्दार्थ अतिवादान् = कटु वचनों को। तितिक्षेत = सहन करना चाहिए। न अभिमन्येत = अभिमान प्रकट नहीं करना चाहिए। कञ्चन = किसी के प्रति क्रोध्यमानः = क्रोध का शिकार होने पर भी अर्थात् किसी के द्वारा क्रोध दिलाये जाने पर भी। प्रियं ब्रूयात् = प्रिय बोलना चाहिए। आक्रुष्टः =गाली दिये जाने पर कुशलं वदेत् =हितकर वचन बोलना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सज्जनों के स्वभाव का उल्लेख किया गया है।

अन्वय अतिवादान् तितिक्षेत। कञ्चन न अभिमन्येत। क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयात्। आक्रुष्टः कुशलं वदेत्।।

व्याख्या सज्जनों को कटु वचनों को सहन करना चाहिए। किसी के प्रति अभिमान प्रकट नहीं करना चाहिए; अर्थात् स्वयं को बड़ा और अन्य को छोटा मानकर व्यवहार नहीं करना चाहिए। क्रोध दिलाये जाने पर भी प्रिय वचन बोलना चाहिए; अर्थात् दूसरों के द्वारा उत्तेजित किये जाने (UPBoardSolutions.com) पर भी मधुर वचन ही बोलना चाहिए। गाली दिये जाने पर; अर्थात् अपशब्द कहे जाने पर भी कुशल वचन बोलना चाहिए।

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(6)
भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत्।
चिन्त्यमानं हि नव्येति भूयश्चापि प्रवर्धते ॥ [2007]

शब्दार्थ भैषज्यम् = औषध। एतत् = यह दुःखस्य = दुःख की। यत् = कि। एतत् = इसके बारे में। न अनुचिन्तयेत् = चिन्तन नहीं करना चाहिए। चिन्त्यमानम् = सोचा जाता हुआ। हि = क्योंकि नव्येति = कम नहीं होता है, घटता नहीं है। भूयश्चापि (भूयः + च + अपि) = वरन् और भी (अधिक)। प्रवर्धते = बढ़ता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में दु:ख-निवारण के उपाय के विषय में बताया गया है।

अन्वय एतद् दुःखस्य भैषज्यम् (अस्ति) यत् एतत् न अनुचिन्तयेत् हि चिन्त्यमानम् (दुःखम्) न व्येति, भूयः च अपि प्रवर्धते।।

व्याख्या यह दुःख की औषध है कि इसकी (इसके बारे में) चिन्ता (सोचना) नहीं करनी चाहिए: क्योंकि चिन्तन किया गया दु:खे कम नहीं होता है, अपितु और भी बढ़ जाता है। तात्पर्य यह है कि दुःख को भूलने का प्रयास करना चाहिए।

(7)
सर्वे क्षयान्ताः निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्याः।
संयोगाः विप्रयोगान्ताः मरणान्तं हि जीवितम् ॥ [2009, 10]

शब्दार्थ सर्वे = सभी। क्षयान्ताः = क्षय में अन्त वाले; अर्थात् अन्त में नष्ट हो जाने वाले। निचयाः = संग्रह। पतनान्ताः = पतन में अन्त वाले; अर्थात् अन्त में नीचे गिरने वाले। समुच्छ्याः = ऊँचाइयाँ, उत्थान, उन्नति। संयोगाः = संयोग, मिलन। विप्रयोगान्ताः = वियोग में अन्त वाले; अर्थात् अन्त में बिछुड़ जाने वाले मरणान्तम् = मरण में अन्त वाला; अर्थात् अन्त में मर जाने वाला हि = निश्चय ही। जीवितम् = जीवित, जन्म।

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प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में जीवन में सुख-दुःख से सम्बन्धित स्थितियों के साथ-साथ रहने तथा अन्तत: सभी स्थितियों का पर्यवसान होने की बात कही गयी है।

अन्वय सर्वे निचयाः क्षयान्ताः (सन्ति); (सर्वे) समुच्छुयाः पतनान्ताः (सन्ति)। (सर्वे) संयोगा: विप्रयोगान्ताः (सन्ति)। (सर्वेषां) जीवितं हि मरणान्तम् (अस्ति)।

व्याख्या सभी संग्रह क्षय में अन्त वाले हैं; अर्थात् नष्ट हो जाने वाले हैं। सभी ऊँचाइयाँ पतन में अन्त वाली हैं; अर्थात् सभी पतन को प्राप्त हो जाने वाले हैं। सभी संयोग वियोग में अन्त वाले हैं; अर्थात् सभी मिलने वाले अन्त में बिछुड़ जाने वाले हैं। सभी जीवन निश्चित ही मृत्यु में अन्त वाले हैं; (UPBoardSolutions.com) अर्थात् सभी जीवधारी अन्ततः मृत्यु को प्राप्त हो जाएँगे। तात्पर्य यह है कि जब सब कुछ एक दिन समाप्त हो ही जाने वाला है तब इसके लिए व्यक्ति को नाना प्रकार के कुकर्म नहीं करने चाहिए।

(8)
दमः क्षमा धृतिस्तेजः सन्तोषः सत्यवादिता ।।
ह्रीरहिंसाऽव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः ॥ [2008, 13]

शब्दार्थ दमः = इन्द्रियों को वश में रखना। धृतिः = धैर्य, धीरता। सत्यवादिता = सत्य बोलना। हीः = लज्जा। अव्यसनिता = दुर्व्यसनों से रहित होना। दाक्ष्यम् = कार्य की कुशलता। सुखावहाः = सुख देने वाले।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में मानव-जीवन को सुखी बनाने वाले गुणों पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय दमः, क्षमा, धृतिः, तेजः, सन्तोषः, सत्यवादिता, ह्रीः, अहिंसा, अव्यसनिता दाक्ष्यम् च-इति (दश गुणाः) सुखावहाः (सन्ति)।

व्याख्या मन और इन्द्रियों को वश में रखना, क्षमा, धैर्य, तेज, सन्तोष, सत्य बोलना, लज्जा, हिंसा न करना, व्यसनों से रहित होना और कार्य की कुशलता-ये दस गुण सुख देने वाले हैं। तात्पर्य यह है कि इन गुणों से युक्त व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता।

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(9)
ये क्रोधं सन्नियच्छन्ति क्रुद्धान् संशमयन्ति च।
न कुप्यन्ति च भूतानां दुर्गाण्यति तरन्ति ते ॥

शब्दार्थ ये = जो लोग। क्रोधं = क्रोध को। सन्नियच्छन्ति =नियन्त्रित रखते हैं। क्रुद्धान् = क्रोधित हुए व्यक्तियों को। संशमयन्ति = शान्त करते हैं। न कुप्यन्ति = क्रोध नहीं करते हैं। च = और। भूतानि = प्राणियों पर। ते = वे। दुर्गाणि = दुर्गम स्थानों को, विषम परिस्थितियों को। अति तरन्ति = पार कर जाते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में क्रोध पर नियन्त्रण करने का सन्देश दिया गया है।

अन्वय ये क्रोधं सन्नियच्छन्ति, क्रुद्धान् च संशमयन्ति, भूतानां च न कुप्यन्ति, ते दुर्गाणि अतितरन्ति।

व्याख्या जो लोग क्रोध को वश में रखते हैं तथा क्रोधित हुओं को शान्त करते हैं और प्राणियों पर क्रोध नहीं करते हैं, वे अत्यधिक कठिनाइयों; अर्थात् विषम परिस्थितियों को पार कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि क्रोध सबसे बड़ा शत्रु होता है। उसे अपने से दूर रखना चाहिए।

(10)
अभयं यस्य भूतेभ्यो भूतानामभयं यतः।
तस्य देहाविमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥ [2006,09,14]

शब्दार्थ अभयं = भय नहीं है। यस्य = जिसको भूतेभ्यः = प्राणियों से। भूतानाम् = प्राणियों को। यतः = जिससे। तस्ये = उसका। देहाद् विमुक्तस्य = शरीर से मुक्ति प्राप्त हुए; अर्थात् देह अभिमान से रहित। भयं नास्ति = भय नहीं रहता है। कुतश्चन = कहीं से भी।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भयमुक्ति का उपाय बताया गया है।

अन्वय यस्य भूतेभ्यः अभयम् (अस्ति), यतः भूतानाम् अभयम् (अस्ति)। देहाद् विमुक्तस्य तस्य कुतश्चन भयं न अस्ति।।

व्याख्या जिसको प्राणियों से भय नहीं है, जिससे प्राणियों को भय नहीं है। शरीर से मुक्ति प्राप्त किये हुए; अर्थात् देह-अभिमान से रहित हुए व्यक्ति को कहीं से या किसी से भय नहीं है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुषं द्विषते नरः। [2009]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘क्षान्ति-सौख्यम्’ पाठ से अवतरित है।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में मनुष्य-जन्म को दुर्लभ बताने के साथ-साथ द्वेषरहित होना भी (UPBoardSolutions.com) आवश्यक बताया गया है। अर्थ जो मनुष्य दुर्लभतर मनुष्य जीवन को प्राप्त करके द्वेष करता है (वह स्वयं को धोखा देता है)।

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व्याख्या भारतीय वाङमय के अनुसार समस्त जीवधारियों की चौरासी लाख (84,00,000) योनियाँ अर्थात् जन्म माने गये हैं, जिनके अण्डज, स्वेदज, उभिज और जरायुज चार विभाग हैं। इन समस्त योनियों अर्थात् जन्मों में मनुष्य-जन्म को दुर्लभतर की श्रेणी में रखा गया है। इस दुर्लभ श्रेणी के व्यक्ति को द्वेष से । रहित होना चाहिए। द्वेष को व्यक्ति का अति सामान्य दुर्गुण माना जाता है। इसीलिए अत्यन्त दुर्लभ मानव शरीर प्राप्त करने वाला लोगों से द्वेष करता रहे और अपने कर्तव्यों के प्रति ध्यान न रखे तो ऐसा जीवन प्राप्त करना व्यर्थ है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति स्वयं को ही धोखा देता है।

(2) धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत् स खलु वञ्चते। [2006]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में कामनाओं में आसक्त रहने वाले और धर्म की निन्दा करने वाले व्यक्ति की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ धर्म का अनादर करने वाला और वासनाओं में आसक्त रहने वाला स्वयं को ही धोखा देता है।

व्याख्या जो व्यक्ति विषय-वासनाओं अथवा कामनाओं में आसक्त रहकर धर्म की उपेक्षा करता है, उसका अनादर करता है, ऐसा करके वह किसी दूसरे की हानि नहीं करता वरन् स्वयं अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है, अर्थात् अपनी ही हानि करता है। इसका कारण यह है कि धर्म व्यक्ति में कर्तव्य-अकर्तव्य तथा औचित्य-अनौचित्य का विवेक उत्पन्न करता है। इससे व्यक्ति पापकर्मों से विरत रहता है और सदैव पुण्य कर्म करने का प्रयास करता है। इसके परिणामस्वरूप वह (UPBoardSolutions.com) उच्च से उच्चतर और अन्तत: परमपद का अधिकारी बनता है। इसके विपरीत धर्म का अनादर करने वाला और विषयी व्यक्ति केवल पापकर्मों का संचय करता है तथा जीवन-मरण के चक्र में फँसा ही रहता है, उससे कभी निकल नहीं पाता। अत: ऐसा करने वाला व्यक्ति स्वयं को ही धोखा देता है, किसी अन्य को नहीं।

(3) मोहजालावृतो दुःखमिह चामुत्र चाश्नुते।।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सुख-दु:ख प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ मोह के जाल में फंसा हुआ प्राणी दोनों ही लोकों में दुःख भोगता है।

व्याख्या माया-मोह के जाल में फंसे हुए व्यक्ति को प्रत्येक क्षण और अधिक धन-सम्पत्ति अर्जित करने की चाह बनी रहती है और वह उसकी प्राप्ति के लिए सभी प्रकार के उचित-अनुचित उपायों का प्रयोग करता है। इस प्रकार और अधिक धन प्राप्त करने की चाह में वह अर्जित साधनों और धन-सम्पत्ति का उपयोग करते हुए भी उनसे कोई सुख प्राप्त नहीं कर पाता। परलोक में सुख प्राप्त करने के लिए भी वह कोई सद्कर्म नहीं कर पाता; क्योंकि उसके मन से माया-मोह का जाल नहीं हट पाता। इस प्रकार से माया-मोह में हँसा व्यक्ति ने तो इस लोक में सुख प्राप्त कर सकता है और न परलोक में।

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(4) भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत्।।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में दु:ख-निवारण का उपाय बताया गया है।

अर्थ यह दुःख की औषध है कि उसका चिन्तन नहीं करना चाहिए।

व्याख्या सुख और दुःख व्यक्ति के अपने हाथ में नहीं होते और न ही इनको किसी प्रकार से नियन्त्रित किया जा सकता है। दुःख की जितनी अधिक चिन्ता की जाती है, वह बढ़ता ही जाता है। उसे किसी औषध के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता। औषध भी तभी कार्य करती है, जब व्यक्ति मानसिक रूप से दुःख से लड़ने के लिए उद्यत हो। इसलिए यदि व्यक्ति अपने दुःख को दूर करना चाहता है तो उसे दु:ख के विषय में सोचना छोड़ देना चाहिए। जब वह दु:ख के विषय में न सोचकर सुख के विषय में सोचेगा और यह अनुभव करेगा कि वह अन्य बहुत-से लोगों से सुखी है तो निश्चित रूप से उसके मन को सुख-शान्ति मिलेगी। वास्तव में सुख-दु:ख कुछ भी नहीं हैं, ये तो केवल मन के विकल्प हैं। व्यक्ति जैसा सोचेगा, उसे वैसा ही अनुभव होगा। यदि वह अपने मन में स्वयं को सुखी मानेगा तो उसे सुख का अनुभव होगा और दुःखी मानेगा तो उसे दु:ख का अनुभव होगा।

(5) सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्याः। [2009, 11, 12, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में संसार की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ सभी संग्रह नाशवान् और सभी ऊँचाइयाँ पतन में अन्त वाली हैं।

व्याख्या इस संसार में जितने भी संग्रह हैं, वे सब एक-न-एक दिन समाप्त अवश्य होंगे, अर्थात् उनका नाश अवश्यम्भावी है। जितनी भी ऊँची-ऊँची वस्तुएँ और भवन आदि हमें दिखाई देते हैं, एक दिन वे सब भी धराशायी हो जाएँगे। हमने उन्नतिरूपी जितनी भी ऊँचाइयाँ प्राप्त की हैं, एक दिन उनका (UPBoardSolutions.com) पतन भी अवश्य होगा। आशय यह है कि यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं है, वरन् क्षणभंगुर है। अतः व्यक्ति को इस संसार में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।

(6)
संयोगाः विप्रयोगान्ताः मरणान्तं हि जीवितम्। [2006, 08,09,11]
मरणान्तं हि जीवितम्।।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में मृत्यु की शाश्वतता पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ मिलन की अवधि वियोग और जीवन की अवधि मृत्यु है।

व्याख्या यह संसार दुःखप्रधान है। इसमें संयोग के क्षण अत्यल्प हैं, जब कि वियोग चिरकालीन है। प्रत्येक सुख का अन्त::दु:ख है, किन्तु प्रत्येक दुःख का अन्त सुख नहीं है। जो आज है, वह कल नहीं रहेगा और जो कल रहेगा वह आगे नहीं रह जाएगा। जो मिला है, वह बिछुड़ता भी अवश्य है और जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; अर्थात् जीवन की अन्तिम परिणति मृत्यु है; अत: व्यक्ति को इस संसार में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) यो दुर्लभतरं ……………………………………………………………….. खलु वञ्चते ॥ (श्लोक 1) [2013]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महापुरुष: भीष्मः युधिष्ठिरम् उपदिशति-य: नरः दुर्लभतरं मनुष्य-जन्म प्राप्य जीवेभ्यः द्वेषं केरोति, स: धर्मस्य अवमन्ता कामात्मा च भवेत्, सः खलु स्व-आत्मानं वञ्चते।

(2) आक्रुश्यमानो ……………………………………………………………….. च तितिक्षतः ॥ (श्लोक 3)
संस्कृतार्थः महात्मा भीष्मः कथयति—यः पुरुषः आक्रुष्यमानः अपि क्रोधं न कुर्वति क्रोधमपि सहते, आक्रुष्टारम् अपि क्षमा करोति; सः क्षमाशील: पुरुष: पुण्यशाली भवति।

(3) भैषज्यमेतद् दुःखस्य ……………………………………………………………….. भूयश्चापि प्रवर्धते ॥ (श्लोक 6) (2009)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके भीष्मपितामहः युधिष्ठिरम् उपदिशः–अस्मिन् संसारे दुःखस्य निवृत्तेः एकमात्र उपायः अस्ति यत् तस्य चिन्तनं न कुर्यात। एतत् दुःखस्य औषधम् अस्ति। यतः चिन्त्यमानं दुःखम् अल्पतां न प्राप्नोति, अपितु अत्यधिकं वृद्धि प्राप्नोति।

(4) सर्वे क्षयान्ताः ……………………………………………………………….. हि जीवितम् ॥ (श्लोक 7) [201]
संस्कृतार्थः महर्षिः वेदव्यासः कथयति यत् संसारे ये सङ्ग्रहा: सन्ति, अन्ते तेषां विनाशः (UPBoardSolutions.com) भवति, ये चे उत्तुङ्गाः सन्ति, अन्ते तेषां पतनम् अवश्यं भवति। संयोगा: अन्ते वियोगरूपे परिणताः भवन्ति, एवमेव जीवितम् अपि अन्ते मृत्युं प्राप्नोति।।

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(5) दमः क्षमा ……………………………………………………………….. चेति सुखावहाः ॥ (श्लोक 8) [2008, 15]
संस्कृतार्थः महात्मा भीष्मः कथयति यत् जीवने इन्द्रियाणां नियन्त्रणः, क्षमा, धैर्यं, तेजः, सन्तोषः सत्यवादिता, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसनरहिता, कार्यदक्षता च इति सुखसाधनाः सन्ति।

(6) ये क्रोधं ………………………………………………………………..“तरन्ति ते ॥ (श्लोक 9) [2007, 10, 15)
संस्कृतार्थः महात्मा भीष्मः कथयति यत् ये जनाः क्रोधं सन्नियच्छन्ति, क्रुद्धान् च संशमयन्ति, जीवानां च क्रोधं न कुर्वन्ति, ते जना: दुर्गाणि अतितरन्ति। क्रोध: मनुष्यस्य महद्रिपुः अस्ति; अतः मनुष्यः क्रोधं न कुर्यात् अत्र इति भावः।।

(7) अभयं यस्य ……………………………………………………………….. कुतश्चन ॥ (श्लोक 10) [2006, 08, 12]
संस्कृतार्थः महात्मा भीष्मः कथयति यत् यस्य भूतेभ्यः अभयं भवति, यतः भूतानाम् अभयं प्राप्नोति, (UPBoardSolutions.com) तस्मात् देहात् विमुक्तस्य पुरुषस्य कुतश्चन भयं न भवति।

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Class 10 Sanskrit Chapter 6 UP Board Solutions ज्ञानं पूततरं सदा Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 6 Gyanam Puttaram Sada Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 6 हिंदी अनुवाद ज्ञानं पूततरं सदा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

संस्कृत कथा-साहित्य के शिरोमणि, कश्मीरी पण्डित सोमदेव की अनुपम रचना ‘कथासरित्सागर’ है। इनके स्थिति-काल और परिवार का कोई भी परिचय अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। इन्हें कश्मीर के राजा अनन्त का आश्रित माना जाता है तथा उन्हीं के स्थिति-काल से इनके स्थिति-काल का भी अनुमान किया जाता है। ‘कथासरित्सागर’ नाम से ही इस ग्रन्थ में अनेक कथाओं का होना स्पष्ट है। इसकी अधिकांश कथाएँ गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ (UPBoardSolutions.com) से ली गयी हैं। ‘कथासरित्सागर’ में 18 लम्बक, 124 तरंग और 21,389 पद्य हैं। ‘पञ्चतन्त्र’ और ‘हितोपदेश’ के समान ही इसकी कथाओं में भी मुख्य कथा के भीतर अनेक छोटी-छोटी अन्तर्कथाएँ निहित हैं। इसमें पशु-पक्षियों, भूत-पिशाचों, मायावी कन्याओं, जादू-टोने, राजाओं, राज्यतन्त्र के षड्यन्त्रों इत्यादि विषयों को लेकर अनेकानेक कथाएँ लिखी गयी हैं, जिनमें से कुछ सत्य पर आधारित हैं तो कुछ नितान्त कपोल-कल्पित। रचना की भाषा-शैली के रोचक, सरल और प्रवाहपूर्ण होने के कारण कहानियाँ व तत्सम्बन्धित ज्ञान हृदयग्राही हैं।

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पाठ-सारांश

दीपकर्णि को शंकर द्वारा पुत्र-प्राप्ति का उपाय बताना – प्राचीनकाल में दीपकर्णि नाम के एक पराक्रमी राजा थे। उनकी शक्तिमती नाम की पत्नी थी। एक दिन उपवन में सोते हुए उसको साँप ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गयी। प्राणों से अधिक प्रिय रानी के दु:ख से दु:खी होकर पुत्रहीन होने पर भी दीपकर्ण ने दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार स्वप्न में भगवान् शंकर ने उसे आदेश दिया कि “दीपकर्णि वन में घूमते हुए सिंह पर सवार जिस बालक को तुम देखोगे, उसे लेकर घर आ जाना। वही तुम्हारा पुत्र होगा।”

राजा को पुत्र की प्राप्ति – एक दिन वह राजा शिकार खेलने के लिए जंगल में गया। वहाँ उसने सूर्य के समान तेजस्वी एक बालक को सिंह पर आरूढ़ देखा। राजा ने स्वप्न के अनुसार जल पीने के इच्छुक उस सिंह को बाण से मार दिया। तब सिंह उस शरीर को छोड़कर पुरुष की (UPBoardSolutions.com) आकृति का हो गया।

पुरुषाकृति द्वारा राजा को अपना वृत्तान्त सुनाना – राजा के पूछने पर उसने बताया कि मैं कुबेर का मित्र ‘सात’ नाम का यक्ष हूँ। मैंने पहले एक ऋषि कन्या को गंगा के समीप देखा था और उससे गान्धर्व विधि से विवाह कर अपनी पत्नी बना लिया। उसके बन्धुओं ने क्रोध में आकर शाप दिया कि तुम दोनों सिंह हो जाओ। उसके शाप से हम दोनों सिंह हो गये। सिंहनी तो पुत्र को जन्म देते ही मृत्यु को प्राप्त हो गयी। मैंने इस पुत्र का दूसरी सिंहनियों के दूध से पालन किया है। अब आपका बाण लगने से मैं भी शाप-मुक्त हो गया हूँ। अब आप इस पुत्र को स्वीकार कीजिए, यह कहकर वह यक्ष अन्तर्हित हो गया।

बालक का नामकरण – राजा उस बालक को लेकर घर आ गया और सात नामक यक्ष पर आरूढ़ होने के कारण उसका नाम सातवाहन रख दिया। कालान्तर में दीपकर्णि के वन चले जाने पर अर्थात् वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करने पर सातवाहन सार्वभौम राजा हो गया।

रानी द्वारा सातवाहन का अपमान – इसके बाद किसी समय सातवाहन देवी के उद्यान में बहुत समय तक घूमता हुआ जल-क्रीड़ा करने के लिए वापी में उतर गया। वहाँ पत्नी के साथ परस्पर जल डालकर क्रीड़ा करता रहा। उसकी एक कोमलांगी रानी जल-क्रीड़ा करती हुई थक गयी और राजा से बोली-राजन्! ‘मोदकै ताडय’ (मुझे जल से मत मारो)। राजा ने इसका अर्थ ‘मुझे लड्डुओं से मारो’ समझकर बहुत-से लड्डू मँगवाये। तब रानी (UPBoardSolutions.com) हँसकर बोली-राजन्! जल में लड्डुओं का क्या काम? मैंने तो मुझे जल से मत मारो’ ऐसा कहा था। तुम कैसे अल्पज्ञ हो, जो ‘मा’ और ‘उदकैः’ की सन्धि और प्रकरण भी नहीं जानते हो। यह सुनकर राजा अत्यधिक लज्जित हुआ और उसी क्षण जल-क्रीड़ा छोड़कर घर आ गया और पूछने पर कुछ भी नहीं बोला। मैं पाण्डित्य या मृत्यु को प्राप्त करूंगा, इस प्रकार सोचते हुए वह दु:खी हो गया।

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गुणाढ्य और शर्ववर्मा का राजा के पास जाना – राजा की ऐसी दशा देखकर सब सेवक घबरा गये। गुणाढ्य और शर्ववर्मा उसकी उस दशा को जान गये। उन्होंने राजहंस नाम के सेवक को भेजकर अन्य रानियों से कारण जान लिया कि विष्णुशक्ति की पुत्री ने उसकी यह दशा की है। यह सुनकर शर्ववर्मा ने सोचते हुए जान लिया कि राजा के सन्ताप का कारण बुद्धिमान न होना है। वह हमेशा पाण्डित्य चाहता रहा है। इसी कारण राजा अपमानित है। इस प्रकार आपस में विचार करते हुए शर्ववर्मा और गुणाढ्य प्रातः होते ही राजा के भवन में गये और उसके पास बैठकर उसकी उदासी का कारण पूछा।

शर्ववर्मा द्वारा प्रतिज्ञा करना – राजा के उत्तर न देने पर शर्ववर्मा ने कहा कि मैंने आज स्वप्न में आकाश से गिरे हुए एक कुसुम में से निकल कर श्वेतवस्त्रधारिणी एक सुन्दर स्त्री को आपके मुख में प्रवेश करते देखी है। मुझे तो वह साक्षात् सरस्वती जान पड़ी। निश्चय ही आप शीघ्र विद्वान् हो जाएँगे। मन्त्री गुणाढ्य ने कहा कि “राजन्! मनुष्य सभी विद्याओं में प्रमुख व्याकरण का बारह वर्षों में ज्ञाता हो जाता है। परन्तु मैं आपको छः वर्षों में ही इसका (UPBoardSolutions.com) ज्ञान करा सकता हूँ।” ऐसा सुनकर वहीं पर खड़े शर्ववर्मा ने छः महीने में ही सिखाने को कहा। यह सुनकर क्रोध से गुणाढ्य ने कहा कि यदि महाराज को तुमने छः महीने में ही शिक्षित कर दिया तो मैं संस्कृत, प्राकृत और देशभाषा तीनों का व्यवहार नहीं करूंगा। शर्ववर्मा ने कहा कि यदि मैं छ: महीने में न सिखा सका तो बारह वर्ष तक आपकी खड़ाऊँ ढोऊँगा। शर्ववर्मा ने अपनी उस कठोर प्रतिज्ञा को अपनी पत्नी से बताया।

राजा का विद्वान् होना  अपनी पत्नी की सलाह पर शर्ववर्मा मौन धारण करके कार्तिकेय के मन्दिर में जाकर कठोर तपस्या करने लगा। कार्तिकेय ने प्रसन्न होकर वरदान दिया। उसने राजा को समस्त विद्याएँ प्रदान कर दीं। राजा विद्वान् हो गया और (UPBoardSolutions.com) उसने प्रसन्न होकर शर्ववर्मा को भरुकच्छ प्रदेश का राज्य दे दिया। विष्णुशक्ति की पुत्री को भी उसने अपनी प्रधान रानी बना लिया।

चरित्र-चित्रण

शर्ववर्मा [2006]

परिचय शर्ववर्मा राजा सातवाहन का विश्वासपात्र मन्त्री है। वह राजा का कल्याण चाहने वाला, विद्याओं में निपुण एवं बुद्धिमान व्यक्ति है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. राजा का शुभचिन्तक – शर्ववर्मा अपने स्वामी राजा सातवाहन का कल्याण चाहने वाला सच्चा शुभचिन्तक मन्त्री है। यही कारण है कि वह राजा की अस्वस्थता का समाचार सुनते ही प्रधान अमात्य गुणाढ्य के साथ राजा के पास पहुँच जाता है। राजा की आन्तरिक (UPBoardSolutions.com) पीड़ा को समझकर कमल में से सरस्वती के निकलने और राजा के मुख में प्रवेश करने का स्वप्न सुनाकर राजा को विद्वान् होने के लिए पूर्ण आश्वस्त कर देता है। उसकी इस सान्त्वना से राजा की चिन्ता दूर हो जाती है।

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2. बुद्धिमान् – शर्ववर्मा अत्यन्त बुद्धिमान है। उसकी बुद्धि दुरूह विषयों को भी सरलता से हल कर देती है। वह मानव-मनोविज्ञान का पारंगत वेत्ता मन्त्री है। वह राजा की चिन्ता का कारण उसका विद्वान् न होना जान लेता है। जैसा कि उसके कथन-“अहं जानाम्यस्य राज्ञः मौख्नु तापतः मन्युः” से स्पष्ट होता है। वह बुद्धि के बल पर राजा को छ: मास में संस्कृत व्याकरण का ज्ञान कराकर उसे श्रेष्ठ विद्वानों की श्रेणी में बिठाता है।

3. तपस्वी एवं कर्मनिष्ठ – राजा को विद्वान् बनाने के लिए शर्ववर्मा कार्तिकेय के मन्दिर में मौन धारण करके निराहार कठोर तपस्या करता है और कार्तिकेय के वरदान से प्राप्त समस्त विद्याओं के ज्ञान को वह राजा सातवाहन को प्रदत्त कर देता है।

4. दृढ़-प्रतिज्ञ – शर्ववर्मा राजा को छ: मास में ही विद्वान् बनाने की कठोर प्रतिज्ञा करता है और अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए कार्तिकेय के मन्दिर में घोर तपस्या करता है तथा छः माह के अन्दर राजा को समस्त विद्याएँ सिखाकर अपनी प्रतिज्ञा का पालन करता है।

5. साहसी – शर्ववर्मा सारी विद्याएँ राजा को छ: माह में सिखाने की बात कहकर अपूर्व साहस का परिचय देता है। वह नम्रतापूर्वक सारी बात अपनी पत्नी से बताता है और उसके बताये उपाय के अनुसार निराहार रहकर कार्तिकेय के मन्दिर में तपस्या करता है। (UPBoardSolutions.com) उसकी यह घोषणा कि वह राजा को छ: माह में ही विद्वानों की श्रेणी में ला देगा, उसके अपूर्व साहस का ही परिचायक है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शर्ववर्मा राजा का शुभचिन्तक; योग्य मन्त्री, दृढ़-प्रतिज्ञ, विद्वान्, साहसी और कर्मनिष्ठ व्यक्ति है।

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सातवाहन [2006, 09, 10, 13, 14, 15]

परिचय सात नामक यक्ष को अपना वाहन बनाये जाने के कारण इसका नाम सातवाहन रखा गया था। यह वीर, साहसी और लोक-व्यवहार में निपुण था, किन्तु इसे संस्कृत भाषा का कोई विशेष ज्ञान नहीं था। इसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं

1. वीर और साहसी – बचपन में सिंह आदि वन्यप्राणियों के मध्य पाले जाने के कारण राजा सातवाहन परम वीर और साहसी है। अपने इसी साहस और वीरता के कारण वह आगे चलकर सार्वभौम राजा बनता है। कथा में उसके सार्वभौम राजा होने का वर्णन इस प्रकार किया गया है-”भूपतिः सातवाहनः सार्वभौमो संवृत्तः।”

2. प्राकृत भाषा का ज्ञाता – राजा सातवाहन के राज्य की अधिकांश प्रजा प्राकृत भाषा बोलती है; अत: राजा सातवाहन भी इसी भाषा में पारंगत है। संस्कृत भाषा का उसे बहुत अधिक ज्ञान नहीं है। यही कारण है। कि मोदकैः’ का शुद्ध विच्छेद नहीं कर पाने के कारण वह अपनी रानी के द्वारा अपमानित होता है।

3. प्रेमी – राजा सातवाहन सच्चे प्रेमी हैं। वे अपनी प्रिय रानी की इच्छा को पूर्ण करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उसके मुख से किसी बात के निकलने के साथ ही राजा उसे पूर्ण करने का उपक्रम कर देते हैं। यही कारण है कि स्नान के समय रानी (UPBoardSolutions.com) के द्वारा ”मौदकै परिताडय” कहते ही राजा तुरन्त लड्डू मँगवाते हैं।

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4. भावुक और मानी – भावुक व्यक्ति को मान-अपमान की बातें अधिक लगती हैं। यही स्थिति राजा सातवाहन की भी है। अपनी रानी द्वारा उपहास का पात्र बनाये जाने पर वे उसी समय प्रतिज्ञा करते हैं कि या तो संस्कृत में पाण्डित्य प्राप्त करूंगा या मृत्यु का वरण कर लूंगा और अन्तत: वे पाण्डित्य प्राप्त करके अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करते हैं। यह घटना उनके भावुक और मानी होने की परिचायक है।

5. कुशाग्रबुद्धि – राजा सातवाहन कुशाग्रबुद्धि हैं, यही कारण है कि वे संस्कृत व्याकरण जैसे कठिन विषय में भी छ: माह में पाण्डित्य प्राप्त कर लेते हैं, जब कि विद्वानों का मानना है कि सतत अध्ययन करने पर व्यक्ति बारह वर्ष में संस्कृत व्याकरण में निपुणता प्राप्त कर लेता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कुशाग्रबुद्धि, वीर, साहसी और स्वाभिमानी होने के साथ-साथ राजा सातवाहन में एक श्रेष्ठ व्यक्ति के समस्त गुण विद्यमान हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वप्ने भगवानिन्दुशेखरः राजानं किमादिदेश?
उत्तर :
भगवान् इन्दुशेखरः स्वप्ने राजानम् आदिदेश यत् अटव्यां (UPBoardSolutions.com) भ्राम्यन् सिंहारूढं कुमारकं द्रक्ष्यसि, तं गृहीत्वा गृहं गच्छे: सः ते पुत्रो भविष्यति।

प्रश्न 2.
सिंहः राजानं किमवदत्? [2006, 15]
उत्तर :
सिंह: राजानम् अवदत् यत् भूपते! अहं धनदस्य सखा सातीनामा यक्षोऽस्मि।

प्रश्न 3.
सिंहारूढं बालकं दृष्ट्वा राजा किमकरोत्। [2009, 13]
उत्तर :
सिंहारूढं बालकं दृष्ट्वा राजा बाणेन सिंहं जघान।

प्रश्न 4.
‘मोदकैर्देव’ इत्यस्य कोऽभिप्रायः?
उत्तर :
‘मोदकैर्देव’ इत्यस्य अभिप्राय: अस्ति–“हे देव! उदकैः मा।”

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प्रश्न 5.
शर्ववर्मणः भार्या स्वपतये किं न्यवेदयत्?
उत्तर :
शर्ववर्मणः भार्या स्वपतये न्यवेदयत् यत् प्रभो! सङ्कटेऽस्मिन् (UPBoardSolutions.com) स्वामिकुमारेण विना तव गतिरन्या न दृश्यते।

प्रश्न 6.
राजा सातवाहनः कथं सर्वाः विद्याः प्राप्तवान्?
उत्तर :
राजा सातवाहनः शर्ववर्मणः माध्यमेन परमेश्वरप्रसादात् सर्वाः विद्याः प्राप्तवान्।

प्रश्न 7.
दीपकर्ण कस्मात् हेतोः अटवीं गतः?
उत्तर :
दीपकर्णि पुत्र प्राप्ति हेतोः अटवीं गतः

प्रश्न 8.
सिंहः कः आसीत्?
उत्तर :
सिंहः धनदस्य सखा ‘सात’ नामकः एकः यक्षः आसीत्।

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प्रश्न 9.
राजानं मूर्ख कथितवती राज्ञी कस्या तनया आसीत्?
उत्तर :
राजानं मूर्ख कथितवती राज्ञी विष्णुशक्त्याः तनया आसीत्।

प्रश्न 10.
कः राजानं सातवाहनं विद्यायुक्तं चकार?
उत्तर :
शर्ववर्मणः राजानं सातवाहनं (UPBoardSolutions.com) विद्यायुक्तं चकार।

प्रश्न 11.
दीपक भार्यायाः किं नाम आसीत्? [2007, 10]
या
‘दीपकणिः’ इति प्राज्यविक्रमस्य राज्ञः भार्यानाम किम्? [2010]
उत्तर :
दीपक भार्यायाः नाम शक्तिमती आसीत्।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए –
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘ज्ञानं पूततरं सदा’नामक कथा लोककथा साहित्य के किस ग्रन्थ से संकलित है? [2008]

(क) ‘कथासरित्सागर’ से
(ख) ‘जातकमाला’ से
(ग) ‘पञ्चतन्त्रम्’ से
(घ) “हितोपदेशः’ से

2. ‘कथासरित्सागर’ के रचयिता का क्या नाम है? [2007, 09, 12]

(क) बल्लाल सेन
(ख) सोमदेव
(ग) विष्णु शर्मा
(घ) विद्यापति

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3. कश्मीर के निवासी सोमदेव किस राजा के आश्रित कवि थे?

(क) पृथ्वीराज चौहान के
(ख) जयसिंह के
(ग) हर्षवर्द्धन के
(घ) अनन्त के

4. “तं स्वप्ने भगवानन्दुशेखरः इत्यादिदेश।” में भगवानिन्दुशेखरेः’ से कौन संकेतित हैं?

(क) भगवान् इन्द्र
(ख) भगवान् विष्णु
(ग) भगवान् शंकर
(घ) भगवान् ब्रह्मा

5. “तत्रनन्दने महेन्द्रइव सुचिरं विहरन्”:”।”वाक्य में’ महेन्द्र’ से किसका अर्थबोध होता है?

(क) सातवाहन का
(ख) इन्द्रका
(ग) दीपकर्ण का
(घ) शंकर का

6. राजमहिषी द्वारा कहे गये’मौदकैर्देव मां परिताडय।” कथन में ‘मोदकैः’ का क्या अर्थ है?

(क) पानी से नहीं
(ख) पानी द्वारा
(ग) लड्डूओं से
(घ) लड्डूओं से नहीं

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7. गुणाढ्य ने राजा सातवाहन को कितने वर्षों में व्याकरण सिखाने की बात कही?

(क) चार वर्ष में
(ख) पाँच वर्ष में
(ग) छः वर्ष में
(घ) सात वर्ष में

8. शर्ववर्मा ने राजा सातवाहन को कितने मासों में व्याकरण सिखाने की बात कही?

(क) चार मास में
(ख) पाँच मास में
(ग) छः मास में
(घ) सात मास में

9. सातवाहन ने मन्त्री शर्ववर्मा को कहाँ का राजा बनाया?

(क) प्रयाग का
(ख) धारानगरी का
(ग) उज्जयिनी का
(घ) भरुकच्छ का

10. “तं ………………… भगवानिन्दुशेखरः इत्यादिदेश।”वाक्य के रिक्त-स्थान की पूर्ति के लिए उचित शब्द है

(क) उद्याने
(ख) अटव्यां
(ग) प्रासादे
(घ) स्वप्ने

11. ‘अयं मया अन्यासां सिंहीनां ……………………. वर्धितो।”वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी

(क) पयसा’ से
(ख) रक्तेन’ से
(ग) “वयसेन’ से
(घ) “पयसेन’ से

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12. अद्य त्वया बाणाहतोऽहं ……………………. विमुक्तोऽस्मि।

(क) “तापाद्’ से
(ख) “शापाद्’ से
(ग) व्याध्यात्’ से
(घ) ‘पीडात्’ से

13. ‘तत्छुत्वा राजा द्रुतं बहून् ………………. आनयनादिदेश।’ वाक्य में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) ‘मिष्टान्न’ से
(ख) ‘पक्वान्न’ से
(ग) मोदकान्’ से
(घ) “मूलान्’ से

14. ‘तस्य राजचेटस्य मुखादेतत् श्रुत्वा ……………… संशयादित्यचिन्तयत्।”वाक्य-पूर्ति के लिए उपयुक्त शब्द है –

(क) दीपकर्ण
(ख) शक्तिमती
(ग) गुणाढ्य
(घ) शर्ववर्मा

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15. “सङ्कटेऽस्मिन् …………………….. विना तव गतिरन्या न दृश्यते।” वाक्य-पूर्ति के लिए उपयुक्त शब्द है|

(क) स्वामिकुमारेण
(ख) स्वामीन्द्रेण
(ग) स्वामिस्कन्देन
(घ) स्वामिलम्बोदरेण

16. पुरा ……………….. इति ख्यातो प्राज्य विक्रमः राजाभूत्। [2006]

(क) गुणाढ्यः
(ख) दीपकणिः
(ग) शर्ववर्मा
(घ) वीरवरः

17. राजा सिंहारूढं ……………….. अपश्यत्। [2015]

(क) पुरुषं
(ख) बालकम्
(ग) नारीम्

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Class 10 Sanskrit Chapter 9 UP Board Solutions संस्कृतभाषायाः गौरवम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 9 Sanskrit Bhashaya Gauravam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 9 हिंदी अनुवाद संस्कृतभाषायाः गौरवम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में सर्वाधिक प्राचीन भाषा है। यह ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, मधुर, सरस और मनोहर है। इस बात को सभी पाश्चात्य भाषाविद् भी स्वीकार करते हैं। संस्कृत भाषा के दो रूप हैं—

  • वैदिक और
  • लौकिक।

हमारे प्राचीनतम ग्रन्थों, वेद, उपनिषद् आदि में जो भाषा मिलती है, (UPBoardSolutions.com) वह वैदिक संस्कृत है और जिस भाषा का आजकल अध्ययन किया जाता है वह लौकिक संस्कृत। वैदिक संस्कृत की तुलना में लौकिक संस्कृत अधिक सरल है।

संस्कृत को सभी भारतीय भाषाओं की जननी कहा जाता है। संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और विभिन्न अपभ्रंशों से वर्तमान समय की विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं का विकास माना जाता है। भारत का समस्त प्राचीन साहित्य संस्कृत में ही है। गद्य, पद्य, नाटक, व्याकरण, ज्योतिष, दर्शन, गणित आदि विषयों का विशाल साहित्य इस भाषा को आदरणीय बनाता है। इसीलिए इसका देववाणी, गीर्वाणवाणी, देवभाषा कहकर आदर किया जाता है।

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प्रस्तुत पाठ में संस्कृत भाषा की प्राचीनता, वैज्ञानिकता, ज्ञान-सम्पन्नता, भावात्मकता आदि का परिचय देते हुए इसके महत्त्व को समझाया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि इसी के द्वारा विश्व-शान्ति की स्थापना की जा सकती है।

पाठ-सारांश [2006, 07,08, 09, 10, 11, 12, 13, 14]

प्राचीनता संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में प्राचीनतम, विपुल साहित्य और ज्ञान-सम्पन्न, सरल, मधुर, सरसे और मनोहर है। संस्कृत भाषा को देववाणी या गीर्वाणभारती भी कहा जाता है। इस बात को पाश्चात्य भाषाविद् भी मानते हैं कि यह ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं से भी पुरातन और प्रचुर साहित्य सम्पन्न भाषा है। इस बात को दो सौ वर्ष पहले ही सर विलियम जोन्स ने घोषित कर दिया था। प्राचीन काल में यही भाषा सर्वसाधारण लोगों की और व्यवहार की भाषा थी। इस भाषा की प्राचीनता एवं अन्न- समान्य के भाई होने के विश्व में एक दृ ५५ति है। कल जाता है कि कोई रातकड़ी का गट्ठर सिर पर रखे हुए जा रहा था। (UPBoardSolutions.com) उसे देखकर राजा ने पूछा—-** भो भार धति?” अरे भार परेशान कर रहा है)। तब लकड़हारे ने कहा कि राजन् लकड़ियों का भार इतना परेशान नहीं कर रहा है, जितना कि आपके द्वारा प्रयुक्त ‘बाधति’ शब्द। राजा द्वारा प्रयुक्त ‘बाधति’ परस्मैपदी होने के कारण अशुद्ध था, यहाँ आत्मनेपद का रूप ‘बाधते’ प्रयुक्त होना था। यही बात लकड़हारे ने राजा से अन्योक्ति के माध्यम से कहीं है, जो संस्कृत का लोक-भाषा होना प्रमाणित करती है। इसके अतिरिक्त रामायणकालीन समाज में भी यह भाषा लोकभाषा के रूप में व्यवहृत होती थी। ‘रामायण’ में एक स्थान पर संस्कृत को द्विजाति की भाषा कहा गया है।

विशाल और प्राचीन साहित्य संस्कृत भाषा का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। यह गद्य, पद्य और चम्पू तीन प्रकार का है। संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद’ इसी भाषा में है। इसी भाषा में वेद, वेदांग, दर्शन, उपनिषद्, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र, महाभारत, रामायण आदि लिखे गये हैं। इन सभी में साहित्य के विषयानुरूप सरल और क्लिष्ट रूप प्रकट होते हैं। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, कालिदास, अश्वघोष, बाण, सुबन्धु, दण्डी, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि संस्कृत के महान कवि और लेखक हैं, जो संस्कृत भाषा के गौरव को द्योतित करते हैं। संस्कृत का व्याकरण तो संसार में अद्वितीय है। इसमें सन्धि, समास, अलंकारों आदि का सूक्ष्म विवेचन है। इसके काव्य में ध्वनि-माधुर्य और श्रुति-माधुर्य है।

भाषागत विशिष्टता संस्कृत भाषा के वाक्य-विन्यास में शब्दों का स्थान निर्धारित नहीं होता, अर्थात् वाक्य के अन्तर्गत प्रयुक्त शब्दों को कहीं भी रखा जा सकता है। इससे वाक्य के अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता। संस्कृत में व्युत्पत्ति अर्थ के अनुसार और व्युत्पत्ति के अनुसार सार्थक शब्दों की रचना की जाती है।

सामाजिक विशिष्टता संस्कृत भाषा की सामाजिक विशिष्टता भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी कुछ एक सूक्तियों का अधोलिखित हिन्दी रूपान्तर इसे स्पष्ट करता है–

  • जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से। बढ़कर है।
  • यह अपना है और यह पराया है; यह भावना संकीर्ण विचारकों की हैं।
  • उदार चरित वाले व्यक्तियों के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी ही कुटुम्ब के समान हैं।
  • कुत्ते और चाण्डाल के प्रति भी समान भाव रखने वाले पण्डित होते हैं, आदि।

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अध्ययन की आवश्यकता संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना एकता और अखण्डता का पाठ निरर्थक है। प्राचीन भारतीय मनीषियों के उत्तमोत्तम विचार और अन्वेषण इसी भाषा में निबद्ध हैं। अपनी सभ्यता, धर्म और संस्कृति को अच्छी तरह समझने के लिए संस्कृत का अध्ययन परमावश्यक है। (UPBoardSolutions.com) इस भाषा की उन्नति करने के लिए हमें सदैव तत्पर रहना चाहिए। पं० जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में संस्कृत भाषा के महत्त्व के विषय में लिखा है कि “संस्कृत भाषी भारत की अमूल्य निधि है। इसकी सुरक्षा का दायित्व स्वतन्त्र भारत पर है।”

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
संस्कृतभाषा विश्वस्य सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा विपुलज्ञानविज्ञानसम्पन्ना सरला सुमधुरा हृद्या चेति सर्वैरपि प्राच्यपाश्चात्यविद्वद्भिरेकस्वरेणोररीक्रियते। भारतीयविद्याविशारदैस्तु “संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः” इति संस्कृतभाषा हि गीर्वाणवाणीति नाम्ना सश्रद्धं समाम्नाता।

शब्दार्थ प्राचीनतमा = सबसे अधिक प्राचीन सम्पन्ना = परिपूर्ण। हृद्या = हृदय को आनन्दित करने वाली। प्राच्य = पूर्वीया उररीक्रियते = स्वीकार किया जाता है। विद्याविशारदैः = विद्या में कुशल वागन्याख्याता = ।वाणी कही गयी। सश्रद्धम् = श्रद्धासहित। समाम्नाता = मानी गयी है। सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘संस्कृतभाषायाः गौरवम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की प्राचीनता और उसे देवभाषा होना बताया गया है।

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अनुवाद संस्कृत भाषा विश्व की सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन, अत्यधिक ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, अत्यन्त मधुर और सभी के मनों को हरने वाली है। ऐसा पूर्वी (भारतीय) और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा एक स्वर से स्वीकार किया गया है। भारतीय विद्वानों के द्वारा “संस्कृत महर्षियों द्वारा दैवी वाणी कही गयी है” इस प्रकार (मानी गयी) संस्कृत भाषा देवताओं की वाणी इस नाम से श्रद्धा के साथ मानी गयी।

(2)
ग्रीकलैटिनादि प्राचीनासु भाषासु संस्कृतभाषैव प्राचीनतमा प्रचुरेसाहित्यसम्पन्ना चेति। श्रीसरविलियमजोंसनाम्ना पाश्चात्यसमीक्षकेणापि शतद्वयवर्षेभ्यः प्रागेव समुद्घोषितमिति सर्वत्र विश्रुतम्।।

शब्दार्थ प्रचुरसाहित्यसम्पन्ना = अधिक साहित्य से युक्त। शतद्वयवर्षेभ्यः = दो सौ वर्ष से। प्रागेव = पहले ही। विश्रुतं = प्रसिद्ध है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की प्राचीनता और विपुल साहित्य की पुष्टि के लिए पाश्चात्य विद्वान् का सन्दर्भ दिया गया है।

अनुवाद ग्रीक, लैटिन आदि प्राचीन भाषाओं में संस्कृत भाषा ही सबसे प्राचीन और विशाल साहित्य से युक्त है। श्री सर विलियम जोन्स नाम के पाश्चात्य आलोचक ने भी दो सौ वर्ष पहले ही घोषणा कर दी थी, ऐसा सब जगह प्रसिद्ध है।

(3)
संस्कृतभाषा पुराकाले सर्वसाधारणजनानां वाग्व्यवहारभाषा चासीत्। तत्रेदं श्रूयते यत्.पुरा कोऽपि नरः काष्ठभारं स्वशिरसि निधाय काष्ठं विक्रेतुमापणं गच्छति स्म। मार्गे नृपः तेनामिलदपृच्छच्च, भो!भारं बाधति? काष्ठभारवाहको नृपं तत्प्रश्नोत्तरस्य प्रसङ्गेऽवदत्, (UPBoardSolutions.com) भारं न बाधते राजन्! यथा बाधति बाधते। अनेनेदं सुतरामायाति यत्प्राचीनकाले भारतवर्षे संस्कृतभाषा साधारणजनानां भाषा आसीदिति। रामायणे यदा भगवतो रामस्य प्रियसेवको हनूमान् कनकमयीं मुद्रामादाय सीतायै दातुमिच्छति तदा विचारयति स्म [2014]

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वाचं चोदाहरिष्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ॥

एतेनापि संस्कृतस्य लोकव्यवहारप्रयोज्यता अवगम्यते।

संस्कृतभाषा पुराकाले ………………………………………………… भाषा आसीदिति। [2010]

शब्दार्थ वाग्व्यवहार-भाषा = बोल-चाल के व्यवहार की भाषा। तत्रेदं = इस विषय में यह पुरा = पहले, प्राचीन काल में। निधाय = रखकर विक्रेतुमापणं = बेचने के लिए बाजार को अपृच्छत् = पूछा। बाधते = कष्ट दे रही है। अनेनेदम् = इससे यह कनकमयीम् = सोने की बनी। मुद्राम् = अँगूठी को। द्विजातिरिव = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों के समान। संस्कृताम् = संस्कार की हुई। मन्यमाना = मानती हुई। भीता = डरी हुई। प्रयोज्यता = प्रयोग में आना। अवगम्यते = जानी जाती है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में उदाहरणों द्वारा बताया गया है कि प्राचीनकाल में संस्कृत सामान्यजन की बोलचाल की भाषा थी।

अनुवाद संस्कृत भाषा प्राचीन काल में सर्वसाधारण लोगों की वाणी और व्यवहार की भाषा थी। इसके विषय में यह सुना जाता है कि प्राचीन काल में कोई मनुष्य लकड़ी का बोझे अपने सिर पर रखकर लकड़ी बेचने के लिए बाजार को जा रहा था। मार्ग में राजा उससे मिला और पूछा-“अरे! क्या बोझ पीड़ा पहुँचा रहा है (भो! भारं बाधति)?” लकड़ी का बोझा ढोने वाले (लकड़हारे) ने राजा से उसके प्रश्न के उत्तर के प्रसंग में कहा-“हे राजन्! बोझ पीड़ा नहीं दे रहा है, (UPBoardSolutions.com) जैसा ‘बाधति’ (का प्रयोग) पीड़ा पहुँचा रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में भारतवर्ष में संस्कृत भाषा साधारणजनों की भाषा थी। रामायण में जब भगवान् राम के प्रिय सेवक हनुमान् सोने की अँगूठी को लेकर सीता को देना चाहते हैं, तब वह सोचते हैं मैं ब्राह्मण के समान संस्कृत वाणी बोलूंगा तो सीता मुझे रावण समझते हुए डर जाएँगी। इससे भी संस्कृत का – लोक-व्यवहार में प्रयोग होना माना जाता है।

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(4)
अस्याः भाषायाः साहित्यं सर्वथा सुविशालं विद्यते। तत्र संस्कृतसाहित्यं गद्य-पद्य-चम्पू-प्रकारैः त्रिधा विभज्यते। संस्कृतसाहित्यं नितान्तमुदात्तभावबोधसामर्थ्यसम्पन्नसाधारणं श्रुतिमधुरञ्चेति निर्विवादम्। वस्तुतः साहित्यं खलु निखिलस्यापि समाजस्य प्रत्यक्ष प्रतिबिम्बं प्रस्तौति। अस्मिन् साहित्ये विश्व-प्राचीनतमा ऋग्यजुः सामाथर्वनामधेयाश्चत्वारो वेदाः, शिक्षा-कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमित्येतानि वेदानां षडङ्गानि, न्याय-वैशेषिक-साख्य-योग-मीमांसा-वेदान्तेति आस्तिकदर्शन शास्त्राणि; चार्वाक्-जैन-बौद्धेति नास्तिकदर्शनशास्त्राणि, उपनिषदः, स्मृतयः, सूत्राणि, धर्मशास्त्राणि, पुराणानि, रामायणं महाभारतमित्यादयः ग्रन्थाः संस्कृतसाहित्यस्य ज्ञानरत्नप्राचुर्यं समुद्घोषयन्ति। वाल्मीकि-व्यास-भवभूति-दण्डि-सुबन्धु-बाण-कालिदास-अश्वघोष-भारवि-जयदेव-माघ-श्रीहर्षप्रभृतयः कवयः लेखकाश्चास्याः गौरवं वर्धयन्ति। अहो! संस्कृतभाषायाः भण्डारस्य’ निःसीमता, यस्याः शब्दपारायणस्य विषये महाभाष्ये लिखितं वर्तते यद दिव्यं वर्षसहस्रं वृहस्पतिः इन्द्राय शब्दपारायणमिति कोष-प्रक्रिया आसीत्। संस्कृतव्याकरणेन एवंविधा शैली प्रकटिता पाणिनिना, यथा शब्दकोषाः अल्पप्रयोजना एवं जाता। तस्य व्याकरणं विश्वप्रसिद्धम् एव न अपितु अद्वितीयमपि मन्यते।।

अस्याः भाषायाः ………………………………………………… समुदघोषयन्ति । [2015]

शब्दार्थ सर्वथा सुविशालं = अत्यन्त विस्तृत। त्रिधा = तीन प्रकार से। विभज्यते = विभक्त किया जाता है। निर्विवादम् = विवाद से रहित प्रस्तौति = प्रस्तुत करता है। षडङ्गानि = छ: अंग। प्राचुर्यम् = अधिकता को। समुद्घोषयन्ति = उद्घोषित करते हैं। वर्धयन्ति = बढ़ाते हैं। निःसीमता = असीमता, सीमाहीनता। दिव्य वर्षसहस्रम् = हजार दिव्य वर्षों तक पारायणम् = पढ़ना। अल्पप्रयोजना = थोड़े प्रयोजन वाले।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत-साहित्य की विशालता बतायी गयी है तथा उसके ग्रन्थ, कवि, व्याकरण-कोशादि का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस भाषा का साहित्य सब प्रकार से अत्यन्त विशाल है। वहाँ संस्कृत-साहित्य गद्य, पद्य और चम्पू के भेद से तीन प्रकार का विभाजित किया जाता है। संस्कृत-साहित्य अत्यन्त उच्च भावों के ज्ञान की योग्यता से युक्त, असाधारण वे सुनने में मधुर है-यह बात विवादरहित है। वास्तव में साहित्य निश्चय ही सम्पूर्ण समाज का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है। इस साहित्य में विश्व के सबसे प्राचीन ऋक्, यजुः, साम और अथर्व नाम के चार वेद; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष—ये वेदों के छ: अंग; न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त-ये आस्तिक दर्शनशास्त्र; चार्वाक, जैन, बौद्ध–ये नास्तिक दर्शनशास्त्र; उपनिषद्, स्मृतियाँ, सूत्र, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ संस्कृत-साहित्य के ज्ञान-रत्न की अधिकता को घोषित करते हैं। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाण, (UPBoardSolutions.com) कालिदास, अश्वघोष, भारवि, जयदेव, माघ, श्रीहर्ष आदि कवि और लेखक इसके गौरव को बढ़ाते हैं। अहो! संस्कृत भाषा के भण्डार का सीमारहित होना आश्चर्यजनक है, जिसके शब्दों के पारायण (व्याख्यान) के विषय में महाभाष्य में लिखा है कि बृहस्पति ने दिव्य हजार वर्ष तक इन्द्र को शब्द का व्याख्यान किया। यह कोश की प्रक्रिया थी। महर्षि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के द्वारा ऐसी शैली का प्रतिपादन किया, जिससे शब्दकोश कम प्रयोजन वाले ही हो गये। उनका व्याकरण विश्वप्रसिद्ध ही नहीं, अपितु अद्वितीय भी माना जाता है।

(5)
अन्यासु भाषासु वाक्ययोजने प्रथमं कर्तुः प्रयोगः पुनः अन्येषां कारकाणां विन्यासः, पश्चात् क्रियायाः उक्तिः। कस्याञ्चित् भाषायां क्रियायाः विशेषणानां कारकाणाञ्च पश्चात् प्रयोगः, किन्तु संस्कृतव्याकरणे नास्ति एतादृशाः केऽपि नियमाः। यथा–आसीत् पुरा दशरथो नाम राजा अयोध्यायाम्। अस्यैव वाक्यस्य विन्यासः एवमपि भवति-पुरा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा आसीत्, अयोध्यायां दशरथो नाम राजा पुरा आसीत्, इति वा। कस्यापि पदस्य कुत्रापि स्थानं भवेत् न कापि क्षतिः। [2008, 10]

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शब्दार्थ वाक्ययोजने = वाक्य की योजना (प्रयोग) में। अन्येषां = दूसरे। विन्यासः = रचना। उक्तिः = कथन। एतादृशाः = इस प्रकार के। अस्यैव = इसका ही। कुत्रापि = कहीं भी। क्षतिः = हानि।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत की वाक्य-योजना के विषय में बताया गया है।

अनुवाद” अन्य भाषाओं में वाक्य-योजना में पहले कर्ता का प्रयोग, फिर दूसरे कारकों का प्रयोग, बाद में क्रिया का कथन होता है। किसी भाषा में क्रिया का प्रयोग विशेषणों और कारकों के बाद होता है, किन्तु संस्कृत व्याकरण में इस प्रकार के कोई नियम नहीं हैं; जैसे—आसीत् पुरा दशरथो नाम राजा अयोध्यायाम्। (प्राचीन काल में अयोध्या में दशरथ नाम का राजा था।) इसी वाक्य की रचना ऐसी भी होती है-पुरा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा आसीत्, अथवा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा पुरा आसीत्; ऐसी भी। किसी भी पद का कहीं भी स्थान हो, कोई हानि नहीं है।

(6)
सन्धीनां विधानेन वाक्यस्य विन्यासे सौकर्यं जायते। एकस्यां पङ्क्त समासेन बहूनां शब्दानां योजना भवितुं शक्या, यथा-कविकुलगुरुकालिदासः। एकस्याः क्रियायाः विभिन्नार्थद्योतनाय दशलकारा वर्णिताः। लकाराणां प्रयोगज्ञानेन इत्थं ज्ञायते इयं घटना कियत्कालिकी, किंकालिकी, यथा—हरिश्चन्द्रो राजा बभूव। रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह वनं जगाम अत्र लिट्प्रयोगेण ज्ञायते इयं घटना पुरा-कालिकी सहस्रवर्षात्मिका लक्षात्मिका वा स्यात्। गन्तास्मि वाराणसी (UPBoardSolutions.com) कथनेनैव ज्ञायते श्वः गन्तास्मि। सामान्यभविष्यत्काले लुट् प्रयोगो भवति, एवं भूतकालेऽपि अद्यतनस्य अनद्यतनस्य च भूतकालस्य कृते पृथक् पृथक् लकारस्य प्रयोगोऽस्ति।

शब्दार्थ सौकर्यम् = सरलता। विभिन्नार्थ = भिन्न-भिन्न अर्थ। द्योतनाय = बताने के लिए। कियत्कालिकी = कितने समय की। किंकालिकी = किस समय की। सहस्रवर्षात्मिका = हजार वर्ष की। लक्षात्मिका = एक लाख वर्ष की। गन्तास्मि = जाने वाला हूँ। अद्यतनस्य = आज का। अनद्यतनस्य = आज से भिन्न का।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत में सन्धि, समास तथा लकारों के प्रयोग के महत्त्व को बताते हुए इस भाषा की लोकप्रियता बतायी गयी है।

अनुवाद सन्धियों के करने में वाक्य की रचना में सरलता हो जाती है। समास के द्वारा एक पंक्ति में बहुत-से शब्दों का प्रयोग हो सकता है; जैसे-कविकुलगुरुकालिदासः (कवियों के समूह के गुरु कालिदास)। एक क्रिया के विभिन्न अर्थों को बताने के लिए दस लकारों का वर्णन किया गया है। लकारों के प्रयोग के ज्ञान से इस प्रकार ज्ञात हो जाता है कि यह घटना कितने समय की और किस समय की है; जैसे—हरिश्चन्द्रो राजा बभूव (हरिश्चन्द्र राजा थे)। रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह वनं जगाम (राम, लक्ष्मण और सीता के साथ वन गये)। यहाँ (बभूव और जगाम में) लिट् लकार का प्रयोग करने से ज्ञात होता है कि यह घटना प्राचीन समय की-हजार वर्ष की या लाख वर्ष की-है। गन्तास्मि वाराणसीम् (वाराणसी जाऊँगा) कहने से ही ज्ञात हो जाता है—कल जाऊँगा। सामान्य भविष्यकाल में लुट् लकार का प्रयोग होता है। इसी प्रकार भूतकाल में भी अद्यतन, अनद्यतन और भूतकाल के लिए अलग-अलग लकार का प्रयोग है।

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(7)
संस्कृते अर्थान् गुणांश्च क्रोडीकृत्य शब्दानां निष्पत्तिः, यथा-पुत्रः कस्मात् पुत्रः? पुं नरकात् त्रायतेऽसौ पुत्रः, आत्मजः कस्मादात्मजः? आत्मनो जायतेऽसौ आत्मजः, सूर्यः कस्मात् सूर्यः? सुवति कर्मणि लोकं प्रेरयति अतः सूर्यः। सूर्यः यदा नभोमण्डलमारोहति प्रेरयति लोकं, कस्मात् शेषे? उत्तिष्ठ, वाति वातः, स्वास्थ्यप्रदायकं प्राणवायुं गृहाण, नैत्त्यिकानि कर्माणि कुरु, इत्थं प्रेरयन्, आकाशमागच्छति अतः सूर्य इति। खगः कस्मात्? खे (आकाशे) गच्छति अस्मात् खगः? एवमर्थज्ञानाय व्यवस्थान्यासु भाषासु नास्ति। अव्युत्पन्नाः शब्दाः तेषामपि निरुक्तिः अर्थानुसन्धानिकी भवत्येव इति नैरुक्ताः। सर्वं नाम च धातुजमाह इति शाकटायनः, उणादिसूत्रेषु एषैव प्रक्रिया वर्तते।।

शब्दार्थ क्रोडीकृत्य = मिलाकर, क्रोड में लेकर। निष्पत्तिः = निर्माण, व्युत्पत्तिा पुं नरकात् त्रायते =’पुम्’ नामक नरक से रक्षा करता है। सुवति = प्रेरित करता है। नभोमण्डलमारोहति = आकाश-मण्डल पर चढ़ता है। प्रेरयति = प्रेरित करता है। नैत्यिकानि = नित्य करने योग्य। इत्थं प्रेरयन् = इस प्रकार प्रेरणा करता हुआ। खे = आकाश में। अव्युत्पन्नाः = बिना व्युत्पत्ति के अर्थानुसन्धानिकी = अर्थ की खोज से होने वाली। नैरुक्ताः = निरुक्त शास्त्र के आचार्य। धातुजमाह = धातु से उत्पन्न कहा है। एषैव = यह ही।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शब्दों की निष्पत्ति के बारे में बताया गया है।

अनुवाद संस्कृत में अर्थ और गुणों को मिलाकर शब्दों की व्युत्पत्ति होती है; जैसे-‘पुत्र’ किस कारण से पुत्र है? (पुम् नाम्नः नरकात् त्रायते इति पुत्रः) पुम्’ नामक नरक से बचाता है; अत: वह ‘पुत्र’ है। ‘आत्मज’ किस कारण से आत्मज (पुत्र) है? अपने से उत्पन्न होता है; अतः वह ‘आत्मज’ (आत्मनः जायते) है। ‘सूर्य’ किस कारण से सूर्य हैं? संसार को कर्म में प्रेरित करता है; अत: वह ‘सूर्य’ (सुवति कर्मणि लोकम्) है। सूर्य जब आकाशमण्डल में चढ़ता है, संसार को प्रेरित करता है। (UPBoardSolutions.com) किस कारण सो रहे हो? उठो, हवा चल रही है, स्वास्थ्यप्रद प्राणवायु को ग्रहण करो। नित्य के कर्मों को करो-इस प्रकार प्रेरित करता हुआ आकाश में आता है; अतः वह सूर्य (सुवति कर्मणि लोकम्) है। ‘खग’ (पक्षी) किस कारण खग है? आकाश में जाता है, इस कारण से ‘खग’ (खे गच्छति) है। इस प्रकार अर्थ को जानने की व्यवस्था अन्य भाषाओं में नहीं है। जो व्युत्पत्तिरहित शब्द हैं, उनकी भी व्याख्या अर्थ की खोज से ही होती है; ऐसा निरुक्त में कहा गया है। सभी संज्ञाशब्द धातु से बनते हैं-ऐसा शाकटायन ने कहा है। उणे आदि सूत्रों में भी यही प्रक्रिया है।।

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(8)
इयं वाणी गुणतोऽनणीयसी, अर्थतो गरीयसी, एकस्य श्लोकस्य षषडर्थाः प्रदर्शिताः नैषधे, वाङ्मयदृष्ट्या महीयसी, भावतो भूयसी, अलङ्कारतो वरीयसी, सुधातोऽपि स्वादीयसी, सुधाशनानामपि प्रेयसी, अत एव जातकलेखकाः बौद्धाः सर्वात्मना पालिं प्रयोक्तुं कृतप्रतिज्ञा अपि संस्कृतेऽपि स्वीयान् ग्रन्थान् व्यरीरचन्। एवं जैनाः कवयः दार्शनिका अपि संस्कृतभाषामपि स्वीकृतवन्तः यद्यपि ते विचारेषु विपक्षधरा एवं आसन्।

शब्दार्थ गुणतोऽनणीयसी = गुणों के कारण अधिक विस्तृता गरीयसी = गौरवशालिनी। वाङमयदृष्ट्या = साहित्य की दृष्टि से। महीयसी = महत्त्वपूर्ण भूयसी = श्रेष्ठ। वरीयसी = वरिष्ठ। सुधांतोऽपि = अमृत से भी। स्वादीयसी = अधिक स्वादिष्ट सुधाशनानाम् = अमृत का भोजन (UPBoardSolutions.com) करने वालों की। स्वीयान् = अपनों को। व्यरीरचन् = रचना की। स्वीकृतवन्तः = स्वीकार किया। विपक्षधराः = विरोधी पक्ष धारण करने वाले।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा का महत्त्व बताते हुए इसकी लोकप्रियता बतायी गयी है।

अनुवाद यह वाणी गुण से भी बड़ी है, अर्थ से महान् है, नैषध (श्रीहर्ष द्वारा रचित ग्रन्थ) में एक श्लोक के छः-छः अर्थ दिखाये हैं। वाङ्मय (साहित्य) की दृष्टि से महान् है। भाव से भी अधिक (धनी) है, अलंकार से श्रेष्ठ है, अमृत से भी स्वादिष्ट है। अमृतपान करने वालों को भी प्रिय है। अतएव जातक’ (बौद्ध ग्रन्थ) के लेखक बौद्धों ने सब प्रकार से पालि का प्रयोग करने की प्रतिज्ञा करते हुए संस्कृत में भी अपने ग्रन्थों की रचना की। इसी प्रकार जैन दार्शनिकों और कवियों ने भी संस्कृत भाषा को स्वीकार किया। यद्यपि वे विचारों में विरोधी पक्ष को धारण करने वाले थे।

(9)
अस्याः काव्यभाषायाः शब्दगतमर्थगतञ्च ध्वनिमाधुर्यं श्रावं आवं सुराङ्गनापदनूपुरध्वनिमाधुर्यं धिक्कुर्वन्ति वाङ्मयाध्वनीनाः, काव्यक्षेत्रे शब्दगतानर्थगतांश्च विस्फुरतोऽलङ्कारान् विलोक्य पुनर्नावलोकयन्ति मणिमयानलङ्कारान्।।

अस्याः काव्यभाषायाः ………………………………………………… मणिमयानलङ्कारान् [2011]

शब्दार्थ ध्वनिमाधुर्यं आवं आवं = ध्वनि की मधुरता को सुन-सुनकर। सुराङ्गनापदनूपुरध्वनिमाधुर्यम् = देवांगनाओं के पैरों के नूपुरों की ध्वनि की मधुरता को। धिक्-कुर्वन्ति = अपमानित करते हैं। विस्फुरतः = स्फुरित होते हुए। मणिमयान् = मणि के बने।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की मधुरता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इसके काव्य की भाषा की शब्दगत और अर्थगत ध्वनि की मधुरता को सुन-सुनकर संस्कृत-साहित्य का अध्ययन करने वाले विद्वान् देवांगनाओं की पायलों की ध्वनि की मधुरता की भी निन्दा करते हैं। काव्य के क्षेत्र में शब्दगत और अर्थगत अलंकारों को स्फुरित होते हुए देखकर फिर मणि के बने आभूषणों को नहीं देखते हैं।

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(10)
भारतीय धर्म इव संस्कृतभाषापि भारतीयानां वरिष्ठः शेवधिः। इयमेव भाषा शाखाप्रशाखारूपेण प्रान्तीयासु तासु-तासु भाषासु तिरोहिता वर्तते। अद्य केचन धर्मान्धाः राजनीतिभावनाभाविताः भारतस्य खण्डनमभिलषन्ति। कारणं तेषां संस्कृतभाषायाः अज्ञानम्। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”, “अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्”, “उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्”, “शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः”, “मा हिस्स र्वभूतानि”;”मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव” इमे उपदेशाः यदि भारतीयानां संमक्षं समीक्ष्यन्तां तदा सकलं भारतं स्वयमेव एकसूत्रे अखण्डतासूत्रे च निबध्येत| “अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः”, “मानसं यान्ति हंसाः न पुरुषा एव?” इति सडिण्डिमं घोषयति इयं भाषा। [2006]

भारतीय धर्म इव ………………………………………………… निबध्येत [2009,11]
भारतीय धर्म इव ………………………………………………… तिरोहिता वर्तते [2011]

शब्दार्थ वरिष्ठः = उत्तम शेवधिः = निधि, खजाना। तासु-तासु = उन-उन। तिरोहिता = छिपी हुई। खण्डनमभिलषन्ति = टुकड़े करना चाहते हैं। परोवेति = अथवा पराया है, ऐसी| वसुधैव = धरती ही। शुनि = कुत्ते में। श्वपाके = चाण्डाल में प्रोतं = पिरोया हुआ है। निबध्येत = बँध जाएगा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने संस्कृत भाषा के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।

अनुवाद भारतीय धर्म के समान संस्कृत भाषा भी भारतीयों की सर्वश्रेष्ठ निधि है। यही भाषा शाखा-प्रशाखा के रूप में प्रान्तों की उन-उन भाषाओं में छिपी हुई है। आज कुछ धर्मान्ध राजनीतिक भावना से युक्त होकर भारत के टुकड़े करना चाहते हैं। इसमें उनका संस्कृत को न जानना कारण है। “माता और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है’, “यह अपना अथवा यह पराया है, यह तुच्छ चित्तवृत्ति वालों का विचार है, “उदार चरित्र वाले मनुष्यों के लिए तो सारी पृथ्वी (UPBoardSolutions.com) ही कुटुम्ब के समान है”, “पण्डित कुत्ते और चाण्डाल में समान दृष्टि रखने वाले होते हैं”, “सब प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए”, “मुझ (कृष्ण) में यह सारा संसार धागे में मणियों के समान पिरोया हुआ है, ये उपदेश यदि भारतीयों के समक्ष समीक्षा करके देखे जाएँ तो सारा भारत स्वयं अखण्डता के एक सूत्र में बँध जाए। “उत्तर दिशा में देवात्मस्वरूप हिमालय नाम को पर्वतराज है”, “क्या मानसरोवर पर हंस ही जाते हैं, पुरुष नहीं यह भाषा इस प्रकार ढिंढोरा पीटकर घोषणा करती है।

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(11)
संस्कृतं विना एकताया अखण्डतायाः पाठः निरर्थक एव प्रतीयते। नेहरूमहाभागेनापि स्वकीयायाम् आत्मकथायां लिखितं यत् संस्कृतभाषा भारतस्य निधिस्तस्याः सुरक्षाया उत्तरदायित्वं स्वतन्त्रे भारते आपतितम्। अस्माकं पूर्वजानां विचाराः अनुसन्धानानि चास्यामेव भाषायां सन्ति। स्वसभ्यतायाः धर्मस्य राष्ट्रियेतिहासस्य, संस्कृतेश्च सम्यग्बोधाय संस्कृतस्य ज्ञानं परमावश्यकमस्ति। केनापि कविना मधुरमुक्तम्
भवति भारतसंस्कृतिरक्षणं प्रतिदिनं हि यया सुरभाषया। सकलवाग्जननी भुवि सा श्रुता बुधजनैः सततं हि समादृती ॥ तथा भूतायाः अस्याः भाषायाः पुनरभ्युदयाय भारतीयैः पुनरपि सततं यतनीयम्।

अस्माकं पूर्वजानां ………………………………………………… सततं यतनीयम्। [2010]
संस्कृतं विना ………………………………………………… परमावश्यकमस्ति
संस्कृतं विना ………………………………………………… भाषायां सन्ति।

शब्दार्थ निरर्थक = व्यर्थ, बेकार प्रतीयते = प्रतीत होती है। निधिः = खजाना। आपतितम् = आ पड़ा है। अनुसन्धानानि = खोजें। सम्यग्बोधाय = अच्छी तरह से ज्ञान के लिए। भारतसंस्कृतिरक्षणम् = भारत की संस्कृति की रक्षा। सुरभाषया = देवभाषा संस्कृत के द्वारा। सकलवाग्जननी = सभी भाषाओं की माता। सततं = सदा। समादृता = आदर के योग्य| यतनीयम् = प्रयत्न करना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में भाषा की सुरक्षा, उसका ज्ञान और उसका अभ्युदय करने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया गया है।

अनुवाद संस्कृत के बिना एकता और अखण्डता का पाठ व्यर्थ ही प्रतीत होता है। नेहरू जी ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि संस्कृत भाषा भारत की निधि है, उसकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वतन्त्र भारत पर आ पड़ा है। हमारे पूर्वजों के विचार और खोजें इसी भाषा में हैं। अपनी सभ्यता, धर्म, राष्ट्रीय इतिहास और संस्कृति के अच्छी तरह से ज्ञान के लिए संस्कृत का ज्ञान परम आवश्यक है। किसी कवि ने अपनी मधुर वाणी में कहा हैजिस संस्कृत भाषा के द्वारा प्रतिदिन भारत की संस्कृति की रक्षा होती है, पृथ्वी पर वह सभी भाषाओं की जननी है, ऐसा विद्वानों ने सुना है। निश्चय ही, वह निरन्तर आदर के योग्य है। ऐसी इस भाषा के पुनरुत्थान (UPBoardSolutions.com) के लिए भारतीयों को फिर से निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए।

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लघु उत्तटीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृत भाषा में निबद्ध वेदांगों की संख्या तथा नाम लिखिए। [2009]
या
वेदांगों के नाम लिखिए। [2006, 08,09, 10, 11, 12, 13, 14]
उत्तर :
संस्कृत भाषा में निबद्ध वेदांगों की संख्या छः है। इनके नाम हैं—

  • शिक्षा,
  • कल्प,
  • व्याकरण,
  • निरुक्त,
  • छन्द तथा
  • ज्योतिषः

प्रश्न 2.
चार वेदों के नाम लिखिए। [2007, 15]
उत्तर :
चार वेदों के नाम हैं-

  • ऋग्वेद,
  • यजुर्वेद,
  • सामवेद और
  • अथर्ववेद।

प्रश्न 3.
संस्कृत भाषा का महत्त्व समझाइए। [2006,07]
उत्तर :
संस्कृत भाषा विश्व की सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन, अत्यधिक ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, अत्यन्त मधुर और सभी के मन को हरने वाली है। यह बात पूर्वी (भारतीय) और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा एक स्वर से स्वीकार की गयी है। ग्रीक, लैटिन आदि प्राचीन भाषाओं में संस्कृत (UPBoardSolutions.com) भाषा ही सबसे प्राचीन और विशाल साहित्य से युक्त है।

प्रश्न 4.
दर्शन मुख्य रूप से कितने भागों में विभक्त हैं?
उत्तर :
दर्शन मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त हैं-
(क) आस्तिक दर्शन और
(ख) नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन के अन्तर्गत छ: दर्शन आते हैं-

  • न्याय,
  • वैशेषिक,
  • सांख्य,
  • योग,
  • मीमांसा तथा
  • वेदान्त।

नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत तीन दर्शन आते हैं—

  • चार्वाक,
  • जैन और
  • बौद्ध।

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प्रश्न 5.
संस्कृत भाषा की विपुल साहित्य-राशि का संक्षेप में परिचय दीजिए।
उत्तर :
संस्कृत साहित्य में विश्व के सबसे प्राचीन ऋक्, यजुः, साम और अथर्व नाम के चार वेद; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष-ये वेदों के छ: अंग; न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त-ये छः आस्तिक दर्शन; चार्वाक, जैन, बौद्ध-ये तीन नास्तिक दर्शन; उपनिषद्, स्मृतियाँ, सूत्र, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ संस्कृत साहित्य की विपुल राशि के परिचायक हैं।

प्रश्न 6.
संस्कृत साहित्य किन तीन प्रकारों में से विभाजित है? इसके कुछ प्रमुख कवियों-लेखकों के नाम बताइए। [2006,09]
या
सुप्रसिद्ध संस्कृत कवियों में से पाँच के नाम लिखिए। [2006, 09, 12]
या
सुप्रसिद्ध संस्कृत कवियों के नाम बताइए। [2014]
उत्तर :
संस्कृत साहित्य-गद्य, पद्य और चम्पू-तीन प्रकारों में विभाजित है। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाण, कालिदास, अश्वघोष, भारवि, जयदेव, माघ, श्रीहर्ष आदि कवि और लेखक इसके गौरव को बढ़ाते हैं।

प्रश्न 7.
राजा ने लकड़हारे से किस शब्द का गलत प्रयोग किया था? सही शब्दक्या होना चाहिए था?
उत्तर :
राजा ने लकड़हारे से ‘बाधति’ क्रिया का प्रयोग किया था, जो कि परस्मैपदी होने के कारण अशुद्ध था। इसके स्थान पर क्रिया को आत्मनेपदी प्रयोग ‘बाधते’ होना चाहिए था।

प्रश्न 8.
रामायण के अनुसार हनुमान ने सीताजी से किस भाषा में बातचीत की थी? उद्धरणपूर्वक लिखिए।
उत्तर :
रामायण के अनुसार हनुमान ने सीताजी से सामान्य लोगों में प्रचलित संस्कृत भाषा में निम्नवत् विचार करते हुए बातचीत की थी–

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वाचं चोदाहरिष्यामि, द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमानां मां, सीता भीता भविष्यति ॥

प्रश्न 9.
भारतीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने वाली भाषा कौन-सी है? [2010, 12]
उत्तर :
भारतीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने वाली भाषा संस्कृत है, क्योंकि इस भाषा में (UPBoardSolutions.com) रचित सम्पूर्ण साहित्य भारतीय समाज को प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 10.
संस्कृत भाषा के सम्बन्ध में नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा में क्या लिखा था?
उत्तर :
पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्म-कथा में संस्कृत के महत्त्व के विषय में लिखा है कि, संस्कृत भाषा»भारत की अमूल्य निधि है। उसकी सुरक्षा का दायित्व स्वतन्त्र भारत पर है।”

प्रश्न 11.
हनुमान् ने सीता को मुद्रिका देते समय सीता से संस्कृत में वार्तालाप क्यों नहीं किया? [2010]
उत्तर :
सीता को मुद्रिका देते समय हनुमान ने उनसे ब्राह्मणों के द्वारा बोली जाने वाली संस्कृत में वार्तालाप इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें भय था कि सीता उनको रावण समझते हुए डर जाएँगी।

प्रश्न 12.
भारत की अखण्डता को बनाये रखने वाली दो सूक्तियाँ लिखिए। [2012]
उत्तर :
भारत की अखण्डता को बनाये रखने वाली दो सूक्तियाँ निम्नलिखित हैं

  • अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
  • मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।

प्रश्न 13.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कथन का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रस्तुत कथन का अर्थ है-माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् हैं। वास्तव में स्वर्ग को किसी ने देखा नहीं है कि वह है भी या नहीं और वहाँ वास्तव में परम सुख मिलता भी है अथवा नहीं । लेकिन माता
और जन्मभूमि हमारे समक्ष प्रत्यक्ष उपस्थित हैं। माता हमें जन्म देती है और अनेकानेक दुःख-कष्ट सहनकर हमें हर सम्भव सुख प्रदान करती है। इसी प्रकार हमारी मातृभूमि हमारे भरण-पोषण के लिए अन्न-जल और विविध प्रकार के धन-धान्य उपलब्ध कराकर हमें स्वर्ग (UPBoardSolutions.com) का-सा सुख प्रदान करती है। इसीलिए यह कहना उचित ही है कि “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”

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प्रश्न 14.
“शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः” का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर  :
ण्डाल और कुत्ते दोनों का स्वभाव एक जैसा होता है, क्योंकि ये दोनों अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। अपना पेट भरने के लिए ये अपने परिजनों, माता-पिता, पुत्र-पुत्री आदि किसी को भी मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसलिए विद्वान् लोग चाण्डाल और कुत्ते को एक समान दृष्टि से देखते हैं।

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Class 10 Sanskrit Chapter 4 UP Board Solutions सूक्ति – सुधा Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 4 Sukti Sudha Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 4 हिंदी अनुवाद सूक्ति – सुधा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ के अन्तर्गत कुछ सूक्तियों का संकलन किया गया है। ‘सूक्ति’ का अर्थ ‘सुन्दर कथन है। सूक्तियाँ प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में प्रत्येक मनुष्य के लिए समान रूप से उपयोगी होती हैं। जिस प्रकार सुन्दर वचन बोलने से बोलने वाले और सुनने वाले दोनों का (UPBoardSolutions.com) ही हित होता है, उसी प्रकार काव्यों में लिखित सूक्तियाँ आनन्ददायिनी होने के साथ-साथ जीवन में नैतिकता और सामाजिकता भी लाती हैं। ये मनुष्यं को अमृत-तत्त्व की प्राप्ति की ओर बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करती हैं।

पाठ-सारांश

प्रस्तुत पाठ में नौ सूक्तियाँ संकलित हैं। उनका संक्षिप्त सार इस प्रकार है

  1. संसार की समस्त भाषाओं में देववाणी कही जाने वाली भाषा संस्कृत सर्वश्रेष्ठ है। इसका काव्य सुन्दर है। और इसके सुन्दर एवं मधुर वचन (सूक्तियाँ) तो अद्वितीय हैं।
  2. मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न मानते हैं, जब कि इस पृथ्वी पर रत्न तो अन्न, जल एवं मधुरं वचन हैं।
  3. बुद्धिमान् लोग अपना समय ज्ञानार्जन में लगाते हैं, जब कि मूर्ख लोग अपने समय को सोने अथवा निन्दित कार्यों में व्यर्थ गॅवाते हैं।
  4. जहाँ सज्जन निवास करते हैं, वहाँ संस्कृत के मधुर श्लोक सर्वत्र आनन्द का प्रसार करते हैं। इसके विपरीत जहाँ दुर्जन निवास करते हैं, वहाँ ‘श्लोक’ के ‘ल’ का लोप होकर केवल ‘शोक’ ही शेष रह जाता है, अर्थात् वहाँ पर आनन्द का अभाव हो जाता है।
  5. व्यक्ति को सदैव समयानुसार ही बात करनी चाहिए। समय के विपरीत बात करने पर तो बृहस्पति भी उपहास के पात्र बने थे।
  6. श्रद्धा के साथ कही गयी तथा पूछी गयी बात सर्वत्र आदरणीय होती है और बिना श्रद्धा के वह वन में रोने के समान व्यर्थ होती है।
  7. विद्या सर्वश्रेष्ठ धन है; क्योंकि यह राजा द्वारा छीनी नहीं जा सकती, भाइयों द्वारा विभाजित नहीं की जा सकती। इसीलिए देवताओं और विद्वानों द्वारा इसकी उपासना की जाती है।
  8. याचकों के दु:खों को दूर न करने वाली लक्ष्मी, विष्णु की भक्ति में मन को न लगाने (UPBoardSolutions.com) वाली विद्या, विद्वानों में प्रतिष्ठा प्राप्त न करने वाला पुत्र, ये तीनों न होने के बराबर ही हैं।
  9. व्यक्ति की शोभा स्नान, सुगन्ध-लेपन एवं आभूषणों से नहीं होती है, वरन् उसकी शोभा तो एकमात्र सुन्दर मधुर वाणी से ही होती है।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्माद्धि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम् ॥ [2009, 10, 12, 13]

शब्दार्थ भाषासु = भाषाओं में मुख्या = प्रमुख। मधुरा = मधुर गुणों से युक्त। दिव्या = अलौकिक गीर्वाणभारती = देवताओं की वाणी, संस्कृत। तस्मात् = उससे। हि = निश्चयपूर्वका अपि = भी। सुभाषितम् = सुन्दर या उपदेशपरक वचन। सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ में संकलित ‘सूक्ति-सुधा’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में संस्कृत भाषा और सुभाषित की विशेषता बतायी गयी है।

अन्वय भाषासु गीर्वाणभारती मुख्या, मधुरा दिव्या (च अस्ति)। तस्मात् हि काव्यं मधुरम् (अस्ति), तस्मात् अपि सुभाषितम् (मधुरम् अस्ति)।।

व्याख्या विश्व की समस्त भाषाओं में देवताओं की वाणी अर्थात् संस्कृत प्रमुख, मधुर गुण से युक्त (UPBoardSolutions.com) और अलौकिक है। इसलिए उसका काव्य भी मधुर है। उससे भी मधुर उसके सुन्दर उपदेशपरक वचन अर्थात् सुभाषित हैं। तात्पर्य यह है कि संस्कृतभाषा सर्वविध गुणों से युक्त है।

(2)
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढः पाषाण-खण्डेषु रत्न-संज्ञा विधीयते ॥ [2006,07,08,09, 10,12]

शब्दार्थ पृथिव्यां = भूतल पर, पृथ्वी पर त्रीणि रत्नानि = तीन रत्न। सुभाषितम् =अच्छी वाणी। मूढः = मूर्ख लोगों के द्वारा पाषाणखण्डेषु = पत्थर के टुकड़ों में। रत्नसंज्ञा = रत्न का नाम विधीयते = किया जाता है।

प्रसग प्रस्तुत श्लोक में जल, अन्न और सुन्दर वचन को ही वास्तविक रत्न बताया गया है।

अन्वय पृथिव्यां जलम्, अन्नं, सुभाषितम् (इति) त्रीणि रत्नानि (सन्ति)। मूढ: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।

व्याख्या पृथ्वी पर जल, अन्न और सुन्दर (उपदेशपरक) वचन–ये तीन रत्न अर्थात् श्रेष्ठ पदार्थ हैं। मूर्ख लोगों ने पत्थर के टुकड़ों को रत्न का नाम दे दिया है। तात्पर्य यह है कि जल, अन्न और मधुर वचनों का प्रभाव समस्त संसार के कल्याण के लिए होता है, जब कि रल जिनके पास होते हैं, केवल उन्हीं का कल्याण करते हैं। अत: जल, अन्न और मधुर वचन ही वास्तविक रत्न हैं।

(3) काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्। व्यँसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥ [2007,08, 10]

शब्दार्थ काव्यशास्त्रविनोदेन = काव्य और शास्त्रों के अध्ययन द्वारा मनोरंजन से। कालः = समय। गच्छति = बीतता है। धीमताम् = बुद्धिमानों का। व्यसनेन = निन्दनीय कर्मों के करने से। निद्रया = निद्रा द्वारा कलहेन = झगड़ा करने से। वा = अथवा।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में मूर्खा और बुद्धिमानों के समय बिताने के साधन में अन्तर बताया गया है।

अन्वय धीमतां कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति, मूर्खाणां (कालः) च व्यसनेन, निद्रया कलहेन वा (गच्छति)।

व्याख्या बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्रों के अध्ययन द्वारा मनोरंजन (आनन्द प्राप्त करने) और पठन-पाठन में व्यतीत होता है। मूर्खा का समय निन्दित कार्यों के करने में, सोने में अथवा झगड़ने में व्यतीत होता है।

(4)
श्लोकस्तु श्लोकतां याति यत्र तिष्ठन्ति साधवः।
लकारो लुप्यते यत्र तत्र तिष्ठन्त्यसाधवः ॥ [2006,08,09, 10]

शब्दार्थ श्लोकस्तु = यश तो। लोकताम् याति = कीर्ति की प्राप्ति करता है। यत्र = जहाँ। (UPBoardSolutions.com) तिष्ठन्ति = रहते हैं। साधवः = सज्जन पुरुष लकारो लुप्यते = श्लोक का ‘ल’ वर्ण लुप्त हो जाता है अर्थात् श्लोक ‘शोक’ बन जाता है। तत्र = वहाँ। असाधवः = दुर्जन पुरुष।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सज्जनों और दुर्जनों की संगति का प्रभाव दर्शाया गया है।

अन्वय यत्र साधवः तिष्ठन्ति, श्लोकः तु श्लोकताम् याति। यत्र असाधवः तिष्ठन्ति, तत्र लकारो लुप्यते (अर्थात् श्लोकः शोकतां याति)।

व्याख्या जहाँ सज्जन रहते हैं, वहाँ श्लोक (संस्कृत का छन्द) कीर्ति की प्राप्ति करता है। जहाँ दुर्जन रहते हैं, वहाँ श्लोक का ‘लु’ लुप्त हो जाता है अर्थात् श्लोक ‘शोक’ की प्राप्ति कराता है। तात्पर्य यह है कि अच्छी बातों, उपदेशों या सूक्तियों का प्रभाव सज्जनों पर ही पड़ता है; दुष्टों पर तो उसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। यह भी कहा जा सकता है कि सज्जनों की उपस्थिति वातावरण को आनन्दयुक्त कर देती है और दुर्जनों की उपस्थिति दुःखपूर्ण बना देती है।

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(5)
अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन्।
प्राप्नुयाद् बुद्ध्यवज्ञानमपमानञ्च-शाश्वतम् ॥ [2011]

शब्दार्थ अप्राप्तकालम् = समय के प्रतिकूल वचन = बात। बृहस्पतिः = देवताओं के गुरु बृहस्पति अर्थात् अत्यधिक ज्ञानवान् व्यक्ति। अपि = भी। बुवन् = बोलता हुआ। प्राप्नुयात् = प्राप्त करता है। बुद्ध्यवज्ञानम् = बुद्धि की उपेक्षा; बुद्धि की अवमानना। शाश्वतम् = निरन्तर।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में समय के प्रतिकूल बात न कहने की शिक्षा दी गयी है।

अन्वय अप्राप्तकालं वचनं ब्रुवन् बृहस्पतिः अपि बुद्ध्यवज्ञानं शाश्वतम् अपमानं च प्राप्नुयात्।

व्याख्या समय के विपरीत बात को कहते हुए देवताओं के गुरु बृहस्पति भी बुद्धि की अवज्ञा और सदा रहने वाले अपमान को प्राप्त करते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को समय के अनुकूल बात ही करनी चाहिए।

(6)
वाच्यं श्रद्धासमेतस्य पृच्छतश्च विशेषतः
प्रोक्तं श्रद्धाविहीनस्याप्यरण्यरुदितोपमम् ॥

शब्दार्थ वाच्यम् = कहने योग्य। श्रद्धासमेतस्य = श्रद्धा से युक्त का। पृच्छतः = (UPBoardSolutions.com) पूछने वाले का। प्रोक्तं = कहा हुआ। श्रद्धाविहीनस्य = श्रद्धारहित के लिए। अरण्य-रुदितोपमम् = अरण्यरोदन के समान निरर्थक है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में श्रद्धा के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।

अन्वये श्रद्धासमेतस्य विशेषतः पृच्छतः च वाच्यम्। श्रद्धाविहीनस्य प्रोक्तम् अपि अरण्यरुदितोपमम् (अस्ति )।

व्याख्या श्रद्धा से युक्त अर्थात् श्रद्धालु व्यक्ति की और विशेष रूप से पूछने वाले की बात कहने योग्य होती है। श्रद्धा से रहित अर्थात् अश्रद्धालु व्यक्ति का कहा हुआ भी अरण्यरोदन अर्थात् जंगल में रोने के समान निरर्थक है। तात्पर्य यह है कि ऐसे ही व्यक्ति या शिष्य को ज्ञान देना चाहिए, जो श्रद्धालु होने के साथ-साथ जिज्ञासु भी हो।

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(7)
वसुमतीपतिना नु सरस्वती, बलवता रिपुणा न च नीयते
समविभागहरैर्न विभज्यते, विबुधबोधबुधैरपि सेव्यते ॥ [2006, 10]

शब्दार्थ वसुमतीपतिना = राजा के द्वारा| सरस्वती = विद्या| बलवता रिपुणी = बलवान् शत्रु के द्वारा न नीयते = नहीं ले जायी जाती है। समविभागहरैः = समान हिस्सा लेने वाले भाई-बहनों के द्वारा। न विभज्यते = नहीं विभक्त की जाती है। विबुधबोधबुधैः = ऊँचे से ऊँचे विद्वानों के द्वारा। सेव्यते = सेवित होती है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में विद्या को अमूल्य धन बताया गया है।

अन्वय सरस्वती वसुमतीपतिना बलवता रिपुणा च न नीयते। समविभागहरैः न विभज्यते, विबुधबोधबुधैः अपि सेव्यते।।

व्याख्या विद्या राजा के द्वारा और बलवान् शत्रु के द्वारा (हरण करके) नहीं ले जायी जाती है। यह समान हिस्सा लेने वाले भाइयों के द्वारा भी बाँटी नहीं जाती है तथा देवताओं के ज्ञान के समान ज्ञान वाले विद्वानों के द्वारा भी सेवित होती है। तात्पर्य यह है कि विद्या को न तो राजा ले सकता है और न ही बलवान् शत्रु। इसे भाई-बन्धु भी नहीं बाँटते अपितु यह तो ज्ञानी-विद्वानों द्वारा भी सेवित है।

(8)
लक्ष्मीनं या याचकदुः खहारिणी, विद्या नयाऽप्यच्युतभक्तिकारिणी।
पुत्रो न यः पण्डितमण्डलाग्रणीः, सा नैव सा नैव स नैव नैव ॥ [2012]

शब्दार्थ या = जो लक्ष्मी। याचकदुःखहारिणी = याचकों के दुःख को दूर करने वाली। अच्युतभक्तिकारिणी = विष्णु की भक्ति उत्पन्न करने वाली। पण्डितमण्डलाग्रणीः = पण्डितों के समूह में आगे रहने वाला, श्रेष्ठ। सानैव = वह नहीं है।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वास्तविक लक्ष्मी, विद्या तथा पुत्र के विषय में बताया गया है।

अन्वय या लक्ष्मीः याचकदु:खहारिणी न (अस्ति) सा (लक्ष्मीः) नैव (अस्ति)। या विद्या अपि अच्युतभक्तिकारिणी न (अस्ति) सा (विद्या) नैव (अस्ति)। यः पुत्रः पण्डितमण्डलाग्रणी: न (अस्ति) सः (पुत्र) एव न (अस्ति), नैव (अस्ति)।

व्याख्या जो लक्ष्मी याचकों अर्थात् माँगने वालों के दु:खों को दूर करने वाली नहीं है, वह लक्ष्मी ही नहीं है, जो विद्या भी भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करने वाली नहीं है, वह विद्या ही नहीं है, जो पुत्र पण्डितों के समूह में आगे रहने वाला (श्रेष्ठ) नहीं है; वह पुत्र ही नहीं है। (UPBoardSolutions.com) तात्पर्य यह है कि वास्तविक धन वही है, जो परोपकार में प्रयुक्त होता है; विद्या वही है, जिससे आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है और पुत्र वही है जो विद्वान् होता है।

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(9)
केयूराः न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः।
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्द्धजाः ॥ [2012]
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥ [2009]

शब्दार्थ केयूराः = बाजूबन्द (भुजाओं में पहना जाने वाला सोने का आभूषण)। हाराः = हार। विभूषयन्ति = सजाते हैं। चन्द्रोज्ज्वलाः = चन्द्रमा के समान उज्ज्वला विलेपनम् = शरीर में किया जाने वाला चन्दन आदि का लेप। कुसुमं = फूल। अलङ्कृताः = सजे हुए। मूर्द्धजाः = बाल। वाण्येका (वाणि + एका) = एकमात्र वाणी। समलङ्करोति = सजाती है। संस्कृती = संस्कार की गयी, भली-भाँति अध्ययन आदि के द्वारा शुद्ध की गयी। धार्यते = धारण की जाती है। क्षीयन्ते = नष्ट हो जाते हैं। खलु = निश्चित ही। भूषणानि = समस्त आभूषण। सततं = सदा| वाग्भूषणम् = वाणीरूपी आभूषण। भूषणं = आभूषण।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में संस्कारयुक्त वाणी का महत्त्व बताया गया है।

अन्वय केयूराः पुरुषं न विभूषयन्ति, चन्द्रोज्ज्वला: हाराः न (विभूषयन्ति)। न स्नानं, न विलेपनं, न कुसुमं, न अलङ्कृताः मूर्द्धजाः पुरुषं (विभूषयन्ति)। एकावाणी, या संस्कृता धार्यते, पुरुषं समलङ्करोति। भूषणानि खलु क्षीयन्ते। वाग्भूषणं (वास्तविकं) सततं भूषणम् (अस्ति)।

व्याख्या पुरुष को सुवर्ण के बने बाजूबन्द सुशोभित नहीं करते हैं। चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार शोभित नहीं करते हैं। स्नान, चन्दनादि का लेप, फूल, सुसज्जित बाल पुरुष को शोभित नहीं करते हैं। एकमात्र वाणी, जो अध्ययनादि द्वारा संस्कार करके धारण की गयी है, पुरुष को सुशोभित करती है। अन्य आभूषण तो निश्चित ही नष्ट हो जाते हैं। वाणीरूपी आभूषण ही सदा आभूषण है। तात्पर्य यह है कि वाणी-रूपी आभूषण ही सच्चा आभूषण है, जो कभी नष्ट नहीं होता।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती। [2011]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के . ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग इस सूक्ति में संस्कृत भाषा के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ सभी भाषाओं में संस्कृत सबसे प्रमुख, मधुर और अलौकिक है।

व्याख्या विश्व की समस्त भाषाओं में संस्कृत भाषा को ‘गीर्वाणवाणी’ अर्थात् देवताओं की भाषा बताया गया है। यह भाषा शब्द-रचना की दृष्टि से दिव्य, भाषाओं की दृष्टि से मधुर तथा विश्व की भाषाओं में प्रमुख है। इस भाषा में उत्तम काव्य, सरस नाटक और चम्पू पाये जाते हैं। (UPBoardSolutions.com) इस भाषा में धर्म, दर्शन, इतिहास, चिकित्सा आदि सभी विषयों पर प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। इतनी सम्पूर्ण भाषा विश्व में कोई और नहीं है।

(2) भाषासु काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्। [2005]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सुभाषित के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ (संस्कृत) भाषा में काव्य मधुर है तथा उससे भी अधिक सुभाषित।

व्याख्या भाषाओं में संस्कृत भाषा सबसे दिव्य, मुख्य और मधुर है। इससे भी अधिक मधुर इस भाषा के काव्य हैं और काव्यों से भी अधिक मधुर हैं इस भाषा के सुभाषित। सुभाषित से आशय ऐसी उक्ति या कथन से होता है जो बहुत ही अच्छी हो। इसे सूक्ति भी कहते हैं। सूक्तियाँ प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में प्रत्येक मनुष्य के लिए समान रूप से उपयोगी होती हैं। जिस प्रकार सुन्दर वचन बोलने से वक्ता और श्रोता दोनों का ही हित होता है, उसी प्रकार काव्यों में निहित सूक्तियाँ आनन्ददायिनी होने के साथ-साथ जीवन में नैतिकता का समावेश कराती हैं तथा अमृत-तत्त्व की प्राप्ति में प्रेरणा प्रदान करती हैं। यही कारण है कि (संस्कृत) भाषा में सूक्ति को सर्वोपरि मान्यता प्रदान की गयी है।

(3)
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषितम्। [2006,07, 08, 11, 12, 14]
मूढः पाषाणखण्डेषु, रत्नसंज्ञाविधीयते ॥ [2007,08, 11, 15]

प्रसंग इन सूक्तियों में जल, अन्न और अच्छे वचनों को ही सर्वोत्कृष्ट रत्न की संज्ञा प्रदान की गयी है।

अर्थ पृथ्वी पर जल, अन्न और सुभाषित ये तीन रत्न हैं। मूर्ख व्यक्ति ही पत्थरों को रत्न मानते हैं।

व्याख्या मानव ही नहीं पशु-पक्षी भी अन्न-जल और सुन्दरवाणी के महत्त्व को भली प्रकार पहचानते हैं। अन्न से भूख शान्त होती है, जल से प्यास बुझती है और सुन्दर वचनों से मन को सन्तोष मिलता है। बिना अन्न और जल के तो जीवधारियों का जीवित रहना कठिन ही नहीं वरन् असम्भव ही है। इसीलिए इन्हें सच्चे रत्न कहा गया है। सांसारिक मनुष्य अपनी अल्पज्ञता के कारण सभी प्रकार से धन-संग्रह की प्रवृत्ति में लगा रहता है। वह हीरे, रत्न, जवाहरात, मणियों का संचय करके धनी एवं वैभवशाली बनना चाहता है। वह इन्हें ही अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण मानता है, परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। ये तो पत्थर के टुकड़े मात्र हैं। वास्तव में जल, अन्न और सुवाणी (अच्छे वचन) ही सच्चे रत्न हैं।

(4) काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्। [2006,07,08, 09, 10, 11, 14, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सज्जनों के समय व्यतीत करने के विषय में बताया गया है।

अर्थ बुद्धिमानों का समय काव्य-शास्त्र के पठन-पाठन में ही बीत जाता है।

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व्याख्या विद्वान् और सज्जन अपने समय को शास्त्रों और काव्यों का अध्ययन करने में लगाते हैं। वे यदि अपना मनोरंजन भी करते हैं तो इसी प्रकार के अच्छे कार्यों से करते हैं और सदैव लोकोपकार की बात सोचते हैं, क्योंकि वे समय के महत्त्व को जानते हैं। वे समझते हैं कि “आयुषः क्षण एकोऽपि न लभ्यः स्वर्णकोटिकैः । सचेन्निरर्थकं नीतः का नु हानिस्ततोऽधिकाः ।।”; अर्थात् आयुष्य का एक भी क्षण सोने की करोड़ों मुद्राओं के द्वारा नहीं खरीदा जा (UPBoardSolutions.com) सकता। यदि इसे व्यर्थ बिता दिया गया तो इससे बड़ी हानि और क्या हो सकती है? इसीलिए वे अपना समय काव्य-शास्त्रों के अध्ययन में व्यतीत करते हैं क्योंकि आत्म-उद्धार के लिए भी ज्ञान परम आवश्यक है।

(5) व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रयाकलहेन वा। [2010]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में मूर्ख लोगों के समय व्यतीत करने के विषय में बताया गया है।

अर्थ मूख का समय बुरी आदतों, निद्रा व झगड़ने में व्यतीत होता है।

व्याख्या मूर्ख लोग अपना समय सदैव ही व्यर्थ के कार्यों में बिताते हैं। समय बिताने के लिए वे जुआ, शराब आदि के व्यसन करते हैं और स्वयं को नरक में धकेलते हैं। कुछ लोग अपना समय सोकर बिता देते हैं। और कुछ लड़ाई-झगड़े में अपना समय लगाकर दूसरों को पीड़ा पहुँचाते हैं। इनके किसी भी कार्य से किसी को कोई लाभ अथवा सुख नहीं मिलता है; क्योंकि परोपकार करना इनको आता ही नहीं है। इन्हें तो दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में ही सुख की प्राप्ति होती है।

(6), श्लोकस्तु श्लोकतां याति यत्र तिष्ठन्ति साधवः। [2012]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सज्जनों की उपस्थिति का महत्त्व समझाया गया है।

अर्थ जहाँ सज्जन निवास करते हैं, वहाँ श्लोक तो यश को प्राप्त करता है।

व्याख्या सज्जन अच्छी और सुन्दर बातों को बढ़ावा देकर उनके संवर्द्धन में अपना योगदान देते हैं। इसीलिए सज्जनों के मध्य विकसित श्लोक; अर्थात् संस्कृत कविता का छन्द; कवि की कीर्ति या यश को चतुर्दिक फैलाता है। आशय यह है कि कविता सज्जनों के मध्य ही आनन्ददायक होती है तथा कवि को यश व कीर्ति प्रदान करती है। दुर्जनों के मध्य तो यह विवाद उत्पन्न कराती है तथा शोक (दुःख) का कारण बनती है।

(2) वसुमतीपतिना नु सरस्वती।। [2011]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में विद्या के विषय में वर्णन किया गया है।

अर्थ राजा के द्वारा भी विद्या (नहीं छीनी जा सकती है)।

व्याख्या विद्या न तो राजा के द्वारा अथवा न ही किसी बलवान् शत्रु के द्वारा बलपूर्वक छीनी जी सकती है। यह विद्यारूपी धन किसी के द्वारा बाँटा भी नहीं जा सकता, अपितु यह तो जितनी भी बाँटी जाए, उसमें उतनी ही वृद्धि होती है। यह धन तो बाँटे जाने पर बढ़ता ही रहता है। प्रस्तुत सूक्ति विद्या की महत्ता को परिभाषित करती है।

(8) लक्ष्मीनं या याचकदुःखहारिणी। [2012]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में लक्ष्मी की सार्थकता पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ जो याचक (माँगने वालों) के दु:खों को दूर करने वाली नहीं है, (वह) लक्ष्मी (नहीं है)।

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व्याख्या किसी भी व्यक्ति के पास लक्ष्मी अर्थात् धन है तो उस लक्ष्मी की सार्थकता इसी में है कि वह उसके द्वारा याचकों अर्थात् माँगने वालों के दु:खों को दूर करे। आशय यह है कि धनसम्पन्न होने पर भी कोई व्यक्ति यदि किसी की सहायता करके उसके कष्टों को दूर नहीं करता है तो उसका धनसम्पन्न होना व्यर्थ ही है। व्यक्ति का धनी होना तभी सार्थक है जब वह याचक बनकर अपने पास आये लोगों को निराश न करके अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनकी सहायता करे। (UPBoardSolutions.com) कविवर रहीम ने सामर्थ्यवान् लेकिन याचक की मदद न करने वाले लोगों को मृतक के समान बताया है रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाय। उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाय ॥

(9) विद्या न याऽप्यच्युतभक्तिकारिणी।। [2008, 1]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में विद्या की सार्थकता पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ जो विद्या भगवान विष्णु की भक्ति में प्रवृत्त करने वाली नहीं है, (वह विद्या नहीं है)।

व्याख्या वही विद्या सार्थक है, जो व्यक्ति को भगवान विष्णु अर्थात् ईश्वर की भक्ति में प्रवृत्त करती है। जो विद्या व्यक्ति को ईश्वर की भक्ति से विरत करती है, वह किसी भी प्रकार से विद्या कहलाने की अधिकारिणी ही नहीं है। विद्या वही है, जो व्यक्ति को जीवन और मरण के बन्धन से मुक्त करके मोक्ष-पद प्रदान करे। मोक्ष-पद को भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्ति को भक्ति में विद्या ही अनुरक्त कर सकती है। इसीलिए विद्या को प्रदान करने (UPBoardSolutions.com) वाले गुरु को कबीरदास जी ने ईश्वर से भी श्रेष्ठ बताया है गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाँय।। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥

(10) पुत्रो न यः पण्डितमण्डलाग्रणीः। [2006,09]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सच्चे पुत्र की विशेषता बतायी गयी है।

अर्थ जो पुत्र विद्वानों की मण्डली में अग्रणी नहीं, वह पुत्र ही नहीं है।

व्याख्या सूक्तिकार का तात्पर्य यह है प्रत्येक व्यक्ति पुत्र की कामना इसीलिए करता है कि वह उसके कुल के नाम को चलाएगा; अर्थात् अपने सद्कर्मों से अपने कुल के यश में वृद्धि करेगा और यह कार्य महान् पुत्र ही कर सकता है। मूर्ख पुत्र के होने का कोई लाभ नहीं होता; क्योंकि उससे कुल के यश में वृद्धि नहीं होती। ऐसा पुत्र होने से तो नि:सन्तान रह जाना ही श्रेयस्कर है। वस्तुतः पुत्र कहलाने का अधिकारी वही है, जो विद्वानों की सभा में अपनी विद्वत्ता का लोहा मनवाकर अपने माता-पिता तथा कुल के सम्मान को बढ़ाता है।

(11) वाण्येको समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते [2006, 11]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वाणी को ही वास्तविक आभूषण कहा गया है।

अर्थ मात्र वाणी ही, जो शुद्ध रूप से धारण की जाती है, मनुष्य को सुशोभित करती है।

व्याख्या संसार का प्रत्येक प्राणी सांसारिक प्रवृत्तियों में उलझा रहता है और उन्हीं प्रवृत्तियों में वह (भौतिक) सुख का अनुभव करता है। इसीलिए वह अपने आपको सजाकर रखना चाहता है और दूसरों के समक्ष स्वयं को आकर्षक सिद्ध करना चाहता है, अर्थात् आत्मा की अपेक्षा वह शरीर को अधिक महत्त्व देता है। वह विभिन्न आभूषणों को धारण करता है, परन्तु ऐसे आभूषण तो समय बीतने के साथ-साथ नष्ट हो जाते हैं। सच्चा आभूषण तो मधुर वाणी है, जो कभी भी नष्ट नहीं होती। मधुर वाणी मनुष्य का एक ऐसा गुण है। जिसके कारण उसकी शोभा तो बढ़ती ही है, साथ ही वह समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा को भी अर्जित करता है तथा इससे (UPBoardSolutions.com) उसको आत्मिक आनन्द की भी अनुभूति होती है।

(12)
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं, वाग्भूषणं भूषणम् ॥ [2009, 12, 13]
वाग्भूषणं भूषणम्।। [2007,08,09, 10, 12]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सुसंस्कारित वाणी को ही मनुष्य का एकमात्र आभूषण बताया गया है।

अर्थ सभी आभूषण धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं, सच्चा आभूषण वाणी ही है।

व्याख्या मनुष्य अपने सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के आभूषणों और सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग करता है। ये आभूषण और सुगन्धित द्रव्य तो नष्ट हो जाने वाले हैं; अत: बहुत समय तक मनुष्य के सौन्दर्य को बढ़ाने में असमर्थ होते हैं। मनुष्य की संस्कारित मधुर वाणी सदा उसे आभूषित करने वाली है; क्योंकि वह सदा मनुष्य के साथ रहती है, वह कभी नष्ट नहीं होती। उसका प्रभाव तो मनुष्य के मरने के बाद भी बना रहता है। मनुष्य अपनी प्रभावशालिनी वाणी से ही दुष्टों और अपराधियों को भी बुराई से अच्छाई के मार्ग पर ले जाता है; अत: वाणी ही सच्चा आभूषण है।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) भाषासु मुख्या …………………………………………………….. तस्मादपि सुभाषितम् ॥ (श्लोक 1) [2009, 10, 14, 15]

संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके संस्कृतभाषायाः महत्त्वं प्रतिपादयन् कविः कथयति-संस्कृतभाषा सर्वासु भाषासु श्रेष्ठतमा अस्ति। इयं भाषा अलौकिका मधुरगुणयुक्ता च अस्ति। तस्मात् हि तस्य काव्यं मधुरम् अस्ति। तस्मात् अपि रम्यं मधुरं च तस्य सुभाषितम् अस्ति। अस्मात् कारणात् इयं गीर्वाणभारती कथ्यते। |

(2) पृथिव्यां त्रीणि …………………………………………………….. रत्नसंज्ञा विधीयते ॥ (श्लोक 2) [2006, 09, 14]

संस्कृतार्थः कविः कथयति-भूतले जलम् अन्नं सुभाषितं च इति त्रीणि रत्नानि सन्ति। मूर्खः पाषाणखण्डेषु रत्नस्य संज्ञा विधीयते। वस्तुत: जलम् अन्नं सुभाषितञ्च अखिलं विश्वं कल्याणार्थं भवन्ति।

(3) काव्यशास्त्रविनोदेन …………………………………………………….. निद्रया कलहेन वा ॥ (श्लोक 3) [2008, 10, 12, 13, 14, 15]

संस्कृतार्थः
कवि मूर्खाणां बुद्धिमतां च समययापनस्य अन्तरं वर्णयति यत् बुद्धिमन्तः जनाः स्वसमयं काव्यशास्त्राणां पठनेन यापयन्ति, एतद् विपरीतं मूर्खाः जनाः स्वसमयं दुराचारेण, शयनेन, विवादेन वा यापयन्ति।

(4) श्लोकस्तु श्लोंकता …………………………………………………….. “यत्र तिष्ठन्त्यसाधवः॥ (श्लोक 4) [2006, 08, 15]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति-यत्र सज्जनाः निवसन्ति, तत्र श्लोकः तु कीर्ति याति। यत्र दुर्जना: निवसन्ति, तत्र श्लोकस्य लकारः लुप्यते। एवं श्लोकः शोकं भवति। सदुपदेशैः सज्जना प्रभाविताः दुष्टाः न इति भावः।

(5) अप्राप्तकालं वचनं …………………………………………………….. अपमानञ्च शाश्वतम् ॥ (श्लोक 5) [2009]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति यत् बृहस्पतिः अपि असामयिकं वचनं ब्रुवन् बुद्धेः अधोगति शाश्वतम् अपमानञ्च प्राप्नोति। अतएव असामयिकं वचनं कदापि न ब्रूयात्।।

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(6) वाच्यं श्रद्धासमेतस्य …………………………………………………….. रुदितोपमम् ॥ (श्लोक 6) [2011]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति-श्रद्धायुक्तस्य पुरुषस्य पृच्छतः सन् विशेषरूपेण वक्तव्यम्। श्रद्धाहीनस्य पुरुषस्य पृच्छतः वचनम् अरण्ये रुदितम् इव भवति।

(7) वसुमतिपतिना नु …………………………………………………….. बुधैरपि सेव्यते ॥ (श्लोक 7) [2010]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके सरस्वत्याः विशेषता वर्णिता अस्ति। सरस्वती राज्ञा तथा बलवता रिपुणा न नेतुं शक्यते न च भ्रातृबन्धुभिः विभक्तुं शक्यते अपितु विद्वद्भिः सेव्यते।

(8) लक्ष्मीनं या …………………………………………………….. स नैव नैव॥ (श्लोक 8) [2007]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति-या लक्ष्मी याचक दुःखहारिणी न भवति, सा (UPBoardSolutions.com) लक्ष्मीति कथितुं न शक्यते। या विद्या विष्णुभक्तिकारिणी न भवति सापि विद्या कथितुं न शक्यते। यः पुत्रः पण्डितमण्डलाग्रणीः न भवति सः पुत्रः कथितुं न शक्यते।।

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(9)
केयूराः न विभूषयन्ति …………………………………………………….. वाग्भूषण भूषणं ॥ (श्लोक 9) [2002]
केयूराः न विभूषयन्ति …………………………………………………….. नालङ्कृता मूर्द्धजाः॥ [2005]

संस्कृतार्थः
अस्मिनु श्लोके वाणीम् एव सर्वश्रेष्ठं भूषणं कथितम् अस्ति। कर्णाभूषणानि चन्द्रोपमः रमणीयः हारः स्नान-विलेपनादि पुष्पाणि विभूषिता मूर्द्धजा: पुरुषं न भूषयन्ति परन्तु संस्कृता वाणी एव (या अमृतोपमा मधुरावाणी) सा एव वास्तविकम् आभूषणम्। अन्यानि आभूषणानि कालक्रमेण क्षीयन्ते परन्तु वाग्भूषणं कदापि न क्षीयते।

(10) वाण्येका समलङ्करोति …………………………………………………….. वाग्भूषण भूषणम् ॥ (श्लोक 9) [2007]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोकाद्धे कविः कथयति–अस्मिन् संसारे एकावाणी, या अध्ययनेन विनयेन च संस्कृता धार्यते, सर्वोत्तमं भूषणं अस्ति। सा पुरुषं विभूषयन्ति। अन्यानि भूषणानि खलु नष्टाः भवन्ति। वाग्भूषणं वास्तविक भूषणम् अस्ति, यः कदापि न विनश्यति।।

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