Class 10 Sanskrit Chapter 7 UP Board Solutions भरते जनसंख्या – समस्या Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 7 Bharat Jansankhya – Samasya Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 7 हिंदी अनुवाद भरते जनसंख्या – समस्या के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

आज हमारा देश भारत जनसंख्या-वृद्धि की भयंकर समस्या से ग्रसित है जिससे ‘बढ़ता मानव घटता अन्न’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है, क्योंकि भूमि तो बढ़ाई नहीं जा सकती। मकान, दुकान, सड़क, कारखाने, विद्यालय, अस्पताल आदि सभी का निर्माण भूमि (UPBoardSolutions.com) पर ही होता है; अत: कृषि-योग्य भूमि दिनों-दिन कम होती जा रही है। सरकार के पास साधन सीमित हैं, फलतः असीमित जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं हो सकती। आज भारत की जनसंख्या लगभग एक सौ बीस करोड़ से भी अधिक हो गयी है, जिससे जनता को लगभग सभी आवश्यक स्थानों पर स्थानाभाव की समस्या झेलनी पड़ रही है। इन सभी समस्याओं का निदान परिवार नियोजन से ही सम्भव है। यदि एक परिवार में मात्र एक-दो बच्चे जन्म लेंगे, तभी यह समस्या सुलझ सकती है।

प्रस्तुत पाठ जनसंख्या वृद्धि की विकराल समस्या के परिप्रेक्ष्य में परिवार नियोजन की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से सामने रखता है।

पाठ-सारांश [2006, 08, 09, 10, 12, 14]

प्रस्तावना स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 67 वर्ष (पाठ में उल्लिखित है ‘40 वर्ष) बाद भी भारत में दरिद्रता की समस्या हल नहीं हुई है। आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें भोजन के लिए मुट्ठीभर अनाज और शरीर ढकने के लिए दो हाथ कपड़ा भी नहीं मिल पाता है। खाद्य और उपभोग की वस्तुओं में उत्पादन-वृद्धि के अनुपात में जनसंख्या की वृद्धि अधिक हो रही है। यहाँ पर प्रतिवर्ष सवा करोड़ बच्चे पैदा होते हैं; अत: सुरसा के मुँह के समान निरन्तर वृद्धिमान जनसंख्या की वृद्धि से अधिक बढ़ा हुआ उत्पादन भी ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान सिद्ध हो रहा है।

जनसंख्या-वृद्धि के दुष्परिणाम :
(क) वर्ग-संघर्ष जनसंख्या की अबाधगति से वृद्धि से नगरों, ग्रामों, बाजारों, स्कूलों, अस्पतालों में सभी स्थानों पर भीड़-ही-भीड़ दिखाई देती है। योग्य व शिक्षित युवक भी रोजगार न मिलने से दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। ऐसी विकट स्थिति में सब जगह मैं-मैं के कारण अव्यवस्था और भ्रष्टाचार व्याप्त है जिसके परिणामस्वरूप गलत सिफारिश, रिश्वत, भाई-भतीजावाद, जाति और वर्ग-संघर्ष समाज को दूषित कर रहे हैं।.

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(ख) प्रदूषण की समस्या मनुष्य के पास व्यक्तिगत साधन और राष्ट्र के पास साधन सीमित ही हैं, अतः जनसंख्या वृद्धि पर रोकथाम की आवश्यकता है। बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए प्रतिवर्ष लाखों भवनों, हजारों विद्यालयों और सैकड़ों अस्पतालों की आवश्यकता पड़ती है। छोटे-छोटे घरों में रहने वाले अधिक लोग पशुओं के बाड़े में रहने वाली भेड़ों की तरह रह रहे हैं और चारों ओर गन्दगी फैला रहे हैं। रोजगार की तलाश में गाँव के लोग (UPBoardSolutions.com) नगरों की ओर भाग रहे हैं, जिससे नगरों में भी आवास की समस्या जटिल होती जा रही है। वहाँ फुटपाथों पर, सार्वजनिक उपवनों और झोपड़ियों में रहकर लोग नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनके यत्र-तत्र मल-मूत्र त्याग के द्वारा वातावरण दूषित हो रहा है और जन-सामान्य को पेयजल भी शुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।

(ग) शान्ति-व्यवस्था की समस्या विभिन्न प्रकार के अभावों के कारण उन वस्तुओं की प्राप्ति और जीविका के लिए आपाधापी मची हुई है। आपसी सौहार्द समाप्त हो गया है और हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जीविका के अभाव में युवक असामाजिक हो रहे हैं, जिससे अपराध बढ़ रहे हैं और बिना कारण के झगड़े हो रहे हैं। शान्ति-व्यवस्था की समस्या भी उत्पन्न होती जा रही है और परिवारों में अधिक बच्चे होने से उनका पालन-पोषण भी ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है।

(घ) बाढ़ एवं भूक्षरण की समस्या जनसंख्या की निरन्तर वृद्धि के कारण वन काट डाले गये हैं और अब पर्वतों को नग्न किया जा रहा है अर्थात् पर्वतों पर उगी वनस्पतियाँ भी काटी जा रही हैं। वृक्षों और वनों को अन्धाधुन्ध काटने से भूमि का क्षय हो रहा है। बाढ़े आती हैं जिससे खेतों की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। और अरबों की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। नदियों के किनारे स्थित नगरों की गन्दगी नदियों में बहा दी जाती है, जिससे गंगा जैसी पवित्र नदियों का जल भी अपेय हो गया है।

समस्याओं का निदान : परिवार-नियोजन जनसंख्या के विस्फोट के कारण सभी तरह का विकास होने पर भी जन-जीवन संघर्षमय, जीने की इच्छा से व्याकुल, निराश और क्षुब्ध हो गया है। हत्या जैसी पाप-कथाओं को सुनकर अब मन उद्विग्न नहीं होता। यद्यपि विचारक, विद्वान्, नेता और प्रशासक इस समस्या के समाधान में लगे हुए हैं तथापि इसका एकमात्र हल परिवार नियोजन है; अर्थात् परिवार सीमित रहे और एक परिवार में दो से अधिक बच्चे पैदा न हों। बच्चों का पालन-पोषण ठीक प्रकार से हो। अधिक बच्चों के होने पर भोजन, वस्त्र आदि की आवश्यकता भी अधिक होती है। सीमित आय में उनकी शिक्षा-दीक्षा सही ढंग से नहीं हो सकती है। परिवार नियोजन से आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणिक आदि समस्त प्रकार के असन्तुलन समाप्त हो जाएँगे और मानव-जीवन में सुख-समृद्धि का संचार हो जाएगा।

सरकारी प्रयास एवं परिणाम राष्ट्रसंघ, भारत सरकार और राज्य सरकारें जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए विविध योजनाएँ बना रही हैं और उनको लागू कर रही हैं। इसके लिए उनके द्वारा अनेक साधन सुलभ कराये जा रहे हैं। लेकिन सभी वर्गों के सहयोग के अभाव में अपेक्षित परिणाम नजर नहीं आ रहे हैं। सरकार तो साधन जुटा सकती है और वह यथाशक्ति जुटा भी रही है। परिवार नियोजन तो सबको अपने देश के, कुल के, समाज के विकास और कल्याण के लिए करना चाहिए। हम सभी का यह परम कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने परिवार को संयमित तथा सीमित रखे।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
स्वतन्त्रताप्राप्तेश्चत्वारिंशद्वर्षपश्चादपि अस्माकं देशे दरिद्रतायाः समस्या नैव समाहिता। अद्यापि कोटिशो जना निर्धनतायाः स्तरादपि अधस्ताद वर्तमाना उदरपूरणाय मुष्टिपरिमितं धान्यं शरीराच्छादनाय च हस्तद्वयं यावत् कर्पटं च नो लभन्ते, अन्येषां सौविध्यानां तु कथैव का। नास्त्येतद् यद् अस्मिन् काले साधनानां विकासो, भोज्यानां भोग्यानां च वस्तूनां परिवृद्धिर्न जातेति। वस्तुतः सत्यप्यनेकगुणिते धान्यादीनामुत्पादने तस्य लाभो नैव दृश्यते यतो हि जनसङ्ख्यापि तदनुपातेन ततोऽप्यधिकं वा वर्धते। सम्प्रति तु दशेयं जाता सपादैककोटिसख्यका बालकाः प्रतिवर्षमुत्पद्यन्ते। एवं वक्तव्यं यद् आस्ट्रेलियामहाद्वीपे यावन्तो जनाः निवसन्ति तावन्तः प्रतिवर्षमत्र भारते जन्म लभन्ते। एवं सुरसाया मुखस्येव जनस्य वृद्धिरत्र भवति येन सर्वात्मना प्रभूतवृद्धि गतमपि उत्पादनम् उष्ट्रस्य मुखे जीरकमिव एकपदे एव विलीयते।।

शब्दार्थ पश्चादपि = बाद भी। दरिद्रतायाः = निर्धनता की। नैव = नहीं ही। समाहिता = हल हुई। अधस्तात् = नीचे। मुष्टिपरिमितम् = मुट्ठीभरा शरीराच्छादनाय = शरीर ढकने के लिए। हस्तद्वयम् = दो हाथ| कर्पटम् = कपड़ा। सौविध्यानाम् = सुविधाओं की। कथैव = बात ही। नास्त्येतद् = नहीं है, (UPBoardSolutions.com) ऐसा। सत्यप्यनेकगुणिते = वस्तुतः अनेक गुना होने पर भी न दृश्यते = दिखाई नहीं देता। तदनुपातेन = उसके अनुपात से। ततोऽप्यधिकम् (ततः +,अपि + अधिक) = उससे भी अधिक। सम्प्रति = आजकल। सपादैककोटिसङ्ख्य काः = सवा करोड़ की संख्या में उत्पद्यन्ते = जन्म लेते हैं। यावन्तः = जितने। तावन्तः = उतने। सुरसायाः मुखस्येव = सुरसा के मुख के समान। सर्वात्मना = सभी प्रकार से। प्रभूतवृद्धि गतमपि = अधिक वृद्धि होने पर भी। उष्ट्रस्य मुखे जीरकम् इवे = ऊँट के मुँह में जीरे के समान। एकपदे = एक साथ ही। विलीयते = समा जाता है, विलीन हो जाता है।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘भारते जनसंख्या-समस्या’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में भारत में जनसंख्या-वृद्धि की समस्या पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद स्वतन्त्रता-प्राप्ति के सड़सठ वर्ष पश्चात् भी (मूल पाठ में उल्लिखित है 40 वर्ष) हमारे देश में गरीबी की समस्या हल नहीं हुई है। आज भी करोड़ों लोग गरीबी के स्तर से भी नीचे रहते हुए पेट भरने के लिए मुट्ठीभर धान्य (अन्न) और शरीर ढकने के लिए दो हाथ जितना वस्त्र नहीं प्राप्त करते हैं। दूसरी सुविधाओं का तो कहना ही क्या? ऐसी बात नहीं है कि इस समय साधनों का विकास, खाने योग्य और उपयोग के योग्य वस्तुओं की वृद्धि नहीं हुई है। वास्तव में अनेक गुना धन-धान्यादि का उत्पादन होने पर भी उसका लाभ नहीं दिखाई देता है; क्योंकि जनसंख्या भी उस अनुपात से या उससे भी अधिक बढ़ जाती है। इस समय तो यह दशा हो (UPBoardSolutions.com) गयी है कि सवा करोड़ बच्चे प्रतिवर्ष पैदा होते हैं। ऐसा कहना चाहिए कि ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में जितने लोग रहते हैं, उतने प्रतिवर्ष यहाँ भारत में जन्म लेते हैं। इस प्रकार सुरसा के मुख के समान लोगों की वृद्धि यहाँ पर हो रही है, जिससे बहुत बढ़ा हुआ उत्पादन भी ‘ऊँट के मुंह में जीरा के समान एक बार में ही समाप्त हो जाता है।

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(2)
जनसङ्ख्याया अनिरुद्धवृद्धेः परिणामोऽयं जातो यत् नगरेषु, ग्रामेषु, आपणेषु, चिकित्सालयेषु, विद्यालयेषु, न्यायालयेषु किं बहुना, यत्र तत्र सर्वत्रापि जनानां महान्तः सम्मर्दाः दृश्यन्ते। यात्रिणो यानेषु, छात्राः विद्यालयेषु, रोगिणः चिकित्सालयेषु च स्थानं न लभन्ते। योग्याः प्रशिक्षिताः शिक्षिता अपि युवानो जीविकामलभमाना द्वाराद् द्वारं भृशम् अटन्ति। ‘एकं दाडिमं, शतं रोगिणाम्’ एवंविधे व्यतिकरे सर्वत्रापि अहमहमिकाकारणात् न केवलम् अव्यवस्था अपितु भ्रष्टाचारोऽपि अलर्कविषमिव प्रसरति। कुसंस्तुतिः, उत्कोचः, भ्रातृ-भ्रातृजवादः, जातिदलसङ्घर्ष इत्यादयो विकाराः समाजशरीरं दूषयन्ति। येन सर्वोऽपि समाजो मनोरोगीव सजायते।

जनसङ्ख्याया अनिरुद्धवृद्धेः ………………………………………………………….. स्थानं न लभन्ते।

शब्दार्थ अनिरुद्धवृद्धेः = बेरोक-टोक वृद्धि से। आपणेषु = बाजारों में। किंबहुना = अधिक क्या। सम्मर्दाः = भीड़। प्रशिक्षिताः = प्रशिक्षित लोग। युवानः = युवा लोग। जीविकामलभमानाः = जीविका न प्राप्त करते हुए। द्वाराद्वारम् = द्वार से द्वार तक। भृशम् = अधिक अटन्ति = घूमते हैं। दाडिमम् = अनार। व्यतिकरे = कठिन परिस्थिति में अहमहमिकाकारणात् = पहले मैं, पहले मैं के कारण। अलर्कविषमिव = पागल कुत्ते के विष के समान। प्रसरति = फैल रहा है। कुसंस्तुतिः = गलत सिफारिश। उत्कोचः = घूस भ्रातृ-भ्रातृजवादः = भाई-भतीजावाद। मनोरोगीव = मानसिक रोगी के समान। सञ्जायते = हो रहा है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की बेरोक-टोक वृद्धि के दुष्परिणाम के विषय में बताया गया है।

अनुवाद जनसंख्या की बेरोक-टोक वृद्धि का परिणाम यह हुआ कि नगरों, ग्रामों, बाजारों, अस्पतालों, विद्यालयों, न्यायालयों में अधिक क्या, जहाँ-तहाँ सभी जगह लोगों की बहुत भीड़ दिखाई देती है। गाड़ियों में यात्री, विद्यालयों में छात्र और चिकित्सालयों में रोगी स्थान नहीं प्राप्त करते हैं। (UPBoardSolutions.com) योग्य, प्रशिक्षित, पढ़े-लिखे युवक भी रोजगार न प्राप्त करते हुए द्वार-द्वार पर अधिकता से घूम रहे हैं। एक अनार सौ बीमार’ इस प्रकार की कठिन परिस्थिति में सभी जगह पहले मैं पहले मैं’ के कारण केवल अव्यवस्था ही नहीं, अपितु भ्रष्टाचार भी पागल कुत्ते के विष के समान फैल रहा है। गलत सिफारिश, घूस, भाई-भतीजावाद, जाति और वर्ग को संघर्ष इत्यादि विकार समाज के शरीर को दूषित कर रहे हैं, जिससे सारा समाज ही मानसिक रोगी के समान हो रहा है।

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(3)
मनुष्याणां व्यक्तिगतसाधनानि राष्ट्रस्य च साधनानि तु सीमितान्येव, आवश्यकता तु जनवृद्धेः वारणान्महती आपद्यते। प्रतिवर्षी लक्षशः आवासाः, सहस्रशो विद्यालयाः, शतशश्चिकित्सालयाः, बहूनि चान्यानि साधनान्यपेक्ष्यन्ते न सीमितसाधनैः सम्पादयितुं शक्यन्ते। फलतो लघिष्ठेष्वपि गृहेषु अतिसङ्ख्यकाः जना पशुवाटेषु अजा मेषा इव निवसन्ति परितश्च मालिन्यं प्रसारयन्ति। जीविकां मृगयमाणाः ग्रामीणाः जनाः नगरं धावन्ति। तत्रे च सहस्रशो लक्षशो जनाः पद्धतिमभितः, सार्वजनिकेषु उद्यानादिस्थानेषु, अनधिकारनिर्मितेषु पर्पोटजेषु निवसन्तः निषिद्धस्थान एव यत्र तत्र मलमूत्रादित्यागेन वातावरणं मलिनयन्ति रोगग्रस्ताश्च जायन्ते। चिकित्साशिक्षादि सौविध्यस्य तु दूर एवास्तां कथा शुद्ध पेयं जलमपि नोपलभ्यते। एतादृशं जीवनमपि किं जीवनमू? [2013]

शब्दार्थ व्यक्तिगतसाधनानि = व्यक्तिगत साधन। सीमितान्येव = सीमित ही हैं। आपद्यते = आ पड़ी है। लक्षशः = लाखों। सहस्रशः = हजारों। शतशः = सैकड़ों। अपेक्ष्यन्ते = अपेक्षित हैं। सम्पादयितुं शक्यन्ते = बनाये जा सकते हैं। लघिष्ठेषु = अत्यन्त छोटे। पशुवाटेषु = पशुओं के बाड़े में। (UPBoardSolutions.com) अजा मेषा इव = भेड़-बकरियों के समान/ परितश्च = और चारों ओर। मालिन्यं = गन्दगी। प्रसारयन्ति = फैलाते हैं। मृगयमाणाः = ढूंढ़ते हुए। पद्धतिमभितः = मार्ग के दोनों ओर। पर्पोटजेषु = झोपड़ियों में। मलिनयन्ति,= मलिन (दूषित) करते हैं। सौविध्यस्य = सुविधा की। दूर एवास्तां कथा = दूर ही रहे बात। नोपलभ्यते = नहीं प्राप्त होता है।।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या-वृद्धि के दुष्परिणामों के विषय में बताया गया है।

अनुवाद मनुष्यों के व्यक्तिगत साधन और राष्ट्र के साधन तो सीमित ही हैं, तो जनवृद्धि को रोकने की बड़ी आवश्यकता आ पड़ी है। प्रतिवर्ष लाखों आवास, हजारों विद्यालय, सैकड़ों अस्पताल और बहुत-से दूसरे साधनों की आवश्यकता है, किन्तु सीमित साधनों से वे सम्पादित (बनाये) नहीं किये जा सकते हैं। फलस्वरूप अत्यन्त छोटे घरों में अधिक संख्या में लोग पशुओं के बाड़ों में भेड़-बकरियों की तरह रहते हैं।
और चारों ओर गन्दगी फैलाते हैं। जीविका को ढूंढ़ते हुए गाँव के लोग नगर की ओर दौड़ते हैं और वहाँ हजारों-लाखों लोग मार्ग के दोनों ओर, सार्वजनिक उपवन आदि स्थानों में, अनधिकार रूप से बनी हुई। झोपड़ियों में रहते हुए, गलत स्थान पर इधर-उधर मल-मूत्र आदि के त्याग द्वारा वातावरण को गन्दा करते हैं। और बीमार हो जाते हैं। चिकित्सा, शिक्षा आदि की सुविधा की बात तो दूर रहे, उनको पीने का शुद्ध जल भी प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार का जीना भी क्या जीना है?

(4)
विभिन्नानामभावानां कारणात् तत्तद्वस्तुप्राप्तये जीविकार्थं च महती प्रतिद्वन्द्विता प्रवर्तते। मिथः सौमनस्यं विलीयते, हिंसायाः भावः प्रादुर्भवति यतो हि क्षीणा जनाः निष्करुणा भवन्ति। क्षुधाहतः किं न कुरुते। अवृत्तिका युवानः असामाजिका जायन्ते। अपराधा वर्धन्ते। स्थाने स्थाने (UPBoardSolutions.com) अकारणादेव कलहा जायन्ते शान्तिव्यवस्थायाः महती समस्या उत्पद्यते। परिवारेषु बालकानामधिकताय तेषां पालनं सुष्ठ न भवति। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ इति नीतिवाक्यानुसारेण सम्प्रति बालकानामपि सङ्ख्यावृद्धिर्वर्जनीया एव। [2007]

शब्दार्थ विभिन्नानामभावानां = विभिन्न प्रकार के अभावों का। जीविकार्थम् = रोजगार के लिए। प्रतिद्वन्द्विता = होड़। प्रवर्त्तते = बढ़ रही है। मिथः = आपस में। सौमनस्यम् = सद्भाव। विलीयते = नष्ट हो रहा है। यतो हि = क्योंकि निष्करुणाः = निर्दयी, करुणाहीन। क्षुधाहतः = भूख से पीड़िता अवृत्तिकाः = बेरोजगार। कलहाः = झगड़े। उत्पद्यते = उत्पन्न होती है। सुष्टुः = भली प्रकार वर्जयेत् = त्यागनी चाहिए। वर्जनीया एव = वर्जनीय; अर्थात् त्याज्य ही है।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए बल दिया गया है।

अनुवाद अनेक प्रकार के अभावों के कारण उस-उस वस्तु की प्राप्ति के लिए और जीविका के लिए अत्यधिक होड़ बढ़ती जाती है। आपसी सद्भाव नष्ट हो जाता है, हिंसा का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि कमजोर मनुष्य निर्दयी होते हैं। भूख से पीड़ित क्या नहीं करता? बेरोजगार युवक असामाजिक हो जाते हैं। अपराध बढ़ जाते हैं। जगह-जगह बिना कारण ही झगड़े हो जाते हैं। शान्ति-व्यवस्था की बड़ी समस्या उत्पन्न हो जाती है। परिवारों में बच्चों की अधिकता से उनका पालन भी ठीक नहीं हो पाता है। अति सब जगह छोड़ देनी चाहिए’ इस नीति-वाक्य के अनुसार इस समय बच्चों की भी संख्या की वृद्धि को रोकना चाहिए।

(5)
निरन्तरं वर्धमानया जनसङ्ख्यया बहूनि वनान्यपि निगिलितानि। पर्वताः नग्ना कृताः। वृक्षेषु प्रतिक्षणं कुठाराघातः क्रियते। वृक्षाणां वनानां च अन्धान्धकर्तनेन वर्षासु भूक्षरणं जायते। उर्वरकां मृत्स्नां वर्षाजलम् अपवाहयति, नदीनां तलानि उत्थलानि भवन्ति। येन जलप्लावनानि भवन्ति अर्बुदानां च सम्पत् प्रतिवर्ष नश्यति। नदीतटे स्थितानां नगराणाम् उत्तरोत्तरं विवर्धमानं मालिन्यं महाप्रणालैनंदीषु पात्यते येन गङ्गासदृश्योऽपि सुधास्वादुजला नद्यो स्थाने स्थाने अपेया अस्नानीया च जायन्ते। [2006, 07 08]

शब्दार्थ वनान्यपि = वन भी। निगिलितानि = नष्ट हो गये हैं। अन्धान्धकर्तनेन = अन्धाधुन्ध काटने से। भूक्षरणम् = भूमि का कटाव उर्वरकां = उपजाऊ। मृत्स्नाम् = मिट्टी को। अपवाहयति = बहा ले जाता है। उत्थलानि = उथले, कम गहरे। जलप्लावनानि = बाढे। अर्बुदानां (UPBoardSolutions.com) च सम्पत् = अरबों की सम्पत्ति। उत्तरोत्तरं = दिन-प्रतिदिन विवर्धमानं = बढ़ता हुआ। महाप्रणालैः = बड़े नालों के द्वारा पात्यते = गिराया जाता है। सुधास्वादुजला = अमृत के समान स्वादयुक्त जल वाली। अपेया = न पीने योग्य अस्नानीया = स्नान के अयोग्य।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की वृद्धि के दुष्परिणामों पर प्रकाश डाला गया है।

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अनुवाद निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या से बहुत-से वन भी नष्ट कर दिये गये। पर्वत नग्न कर दिये गये। वृक्षों पर प्रत्येक क्षण कुल्हाड़ी से प्रहार किया जा रहा है। वृक्षों और वनों के अन्धाधुन्ध काटने से वर्षा-ऋतु में भूमि का कटाव हो जाता है। उपजाऊ मिट्टी को वर्षा का जल बहा ले जाता है। नदियों के तल उथले (कम गहरे) हो जाते हैं, जिससे बाढ़े आती हैं और अरबों की सम्पत्ति प्रतिवर्ष नष्ट हो जाती है। नदी के किनारे पर स्थित नगरों की लगातार बढ़ती हुई गन्दगी बड़े नालों से नदियों में गिरायी जाती है, जिससे गंगा जैसी अमृत के समान स्वादिष्ट जल वाली नदियाँ भी जगह-जगह न पीने योग्य और स्नान न करने योग्य हो गयी हैं।

(6)
अभिप्रायोऽयं यज्जनसङ्ख्याविस्फोटकारणात् सर्वविध विकासे सत्यपि राष्ट्रे जन-जीवनं सङ्घर्षमयं जिजीविषाकुलं, नैराश्यपीडितं मनःक्षोभकरं च जातम्। मानवीयगुणानां हासो भवति। अत एव तु हत्यादिमहापातकानां श्रवणं न मनुष्यान् पुरेव उद्वेजयाति। यद्यपि सर्वेऽपि विचारकाः, मनीषिणः, नेतारः, प्रशासकाश्च समस्यामेनां समाधातुं प्रयतमानाः सन्ति। अस्या एकमात्र समाधानं परिवार नियोजनम्। परिवारः सीमितो भवेत्। तच्च तदैव सम्भवति यदा परिवारे बालकानाम् उत्पत्तिरधिका न भवेत्, एक एव द्वौ वा बालकौ स्यातां, येन तत्पालनं पोषणं च सुष्ठ भवेत्। अधिकानां कृते अधिकानि भोजनवस्त्रादिवस्तूनि अपेक्ष्यन्ते, परिवारस्य आयस्तु सीमितो भवति।।

शब्दार्थ अभिप्रायोऽयम् = अभिप्राय यह है। यज्जनसङ्ख्याविस्फोटकारणात् = जनसंख्या की अधिक वृद्धि के कारण से। सत्यपि = हो जाने पर भी। जिजीविषाकुलम् = जीवित रहने की इच्छा से व्याकुला मनः क्षोभकरं = मन में दुःख उत्पन्न करने वाला। ह्रासः = घटती। पुरेव (पुरा + इव) = पहले की तरह उद्वेजयति = पीड़ित करता है। समाधातुम् = समाधान करने के लिए। प्रयतमानाः = प्रयत्नशील। उत्पत्तिरधिका = अधिक उत्पत्ति। सुष्टुं भवेत् = अच्छी प्रकार से हो जाए। अपेक्ष्यन्ते = अपेक्षित होती है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की वृद्धि को रोकने का उपाय परिवार नियोजन को बताया गया है।

अनुवाद अभिप्राय यह है कि जनसंख्या के विस्फोट के कारण से सभी प्रकार का विकास होने पर भी राष्ट्र में लोगों का जीवन संघर्षों से भरा, जीने की इच्छा से व्याकुल, निराशा से पीड़ित तथा मन को क्षुब्ध करने वाला हो गया है। मानवीय गुणों का ह्रास होता जा रहा है। इसीलिए हत्या आदि बड़े पापों का सुनना मनुष्यों को पहले की तरह दु:खी नहीं करता है। यद्यपि सभी विचारक, विद्वान्, नेता, प्रशासक इस समस्या का समाधान करने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, तथापि इसका एकमात्र समाधान परिवार नियोजन है। परिवार सीमित होना चाहिए। वह तभी हो सकता है, जब परिवार में बच्चों की उत्पत्ति अधिक न हो, एक या दो ही बालक (UPBoardSolutions.com) होवें, जिससे उनका पालन-पोषण अच्छी तरह से हो सके। अधिक के लिए अधिक भोजन, वस्त्र आदि वस्तुओं की आवश्यकता होती है। परिवार की आय तो सीमित होती है।

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(7)
अधिका बालका भविष्यन्ति चेत् तेषां शिक्षा-दीक्षाऽपि चारुतया न भविष्यति। एकः द्वौ वा बालको दम्पत्योः स्यातां यथाकाले शिक्षाविवाहादयः करणीयाः। एतदेव परिवार नियोजनम्। राष्ट्रसङ्घन भारतसर्वकारेण राज्यशासनेन च जनसङ्ख्यां नियन्तुं विविधाः परिवारकल्याणयोजनाः प्रवर्तिताः अनेकानि साधनानि च प्रापितानि तथापि अपेक्षितः परिणामो नाद्यापि दृश्यते। कारणं त्विदं यद्देशवासिनां सर्वेषां वर्गाणां सहयोगो नैव प्राप्यते।

शब्दार्थ चारुतया = ठीक से, भली प्रकार से। भारतसर्वकारेण = भारत सरकार ने। प्रवर्तिताः = आरम्भ की है। प्रापितानि = प्राप्त करा दिये हैं। अपेक्षितः = मनचाहा। नाद्यापि = आज भी नहीं। त्विदम् (तु + इदम्) = तो यह है। प्राप्यते = प्राप्त होता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए किये गये शासकीय प्रयासों की चर्चा की गयी है।

अनुवाद यदि अधिक बच्चे होंगे तो उनकी शिक्षा-दीक्षा भी ठीक प्रकार से नहीं होगी। पति-पत्नी के एक या दो बच्चे ही हों तो उचित समय पर शिक्षा, विवाह आदि करना चाहिए। यही परिवार-नियोजन है। राष्ट्रसंघ, भारत सरकार और राज्य सरकार द्वारा जनसंख्या को रोकने के लिए अनेक प्रकार की परिवार कल्याण की योजनाएँ प्रारम्भ की गयी हैं और अनेक साधन उपलब्ध कराये गये हैं तो भी अपेक्षित परिणाम आज भी नहीं दिखाई दे रहे हैं। इसका कारण यह है कि देशवासियों के सभी वर्गों का सहयोग प्राप्त नहीं हो रहा है।

(8)
एषा समस्या तु न केवलं राष्ट्रस्यैव अपितु सर्वस्यापि परिवारस्यैव मुख्यतया विद्यते। नियोजित एव परिवारः प्रत्येकपरिवारजनस्य सुखशान्तिकारको भविष्यति। सर्वकारस्तु यथाशक्ति साधनानि दातुं शक्नोति तच्चासौ करोत्येव। सन्ततिनिरोधस्तु प्रत्येक मनुष्येण स्वस्य, स्वकुलस्य, समाजस्य, राष्ट्रस्य, विश्वस्य च उन्नतये शान्तये च धर्मानुष्ठानमिव स्वत एव सर्वात्मना विधेयस्तदैव समस्यायाः समाधानं भवेत्, मातृकल्याणं बालकल्याणं च स्यात्। [2015]

शब्दार्थ प्रत्येकपरिवारजनस्य = परिवार के प्रत्येक जन का। करोत्येव = करती ही है। सन्ततिनिरोधस्तु = परिवार नियोजन, सन्तानोत्पत्ति का रोकना तो। उन्नतये = उन्नति के लिए। धर्मानुष्ठानमिव = धार्मिक अनुष्ठान की तरह। सर्वात्मना = पूरी तरह से। विधेयः = करना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि नियोजित परिवार ही सुख और शान्ति का मूल कारण है।

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अनुवाद यह समस्या तो केवल राष्ट्र की नहीं है, अपितु मुख्य रूप से सभी परिवारों की ही है। नियोजित परिवार ही परिवार के प्रत्येक व्यक्ति की सुख-शान्ति का करने वाला अर्थात् कारक होगा। सरकार तो यथाशक्ति साधनों को दे सकती है, यह तो वह करती ही है। सन्तति-निरोध (UPBoardSolutions.com) तो प्रत्येक मनुष्य को अपनी, अपने कुल की, समाज की, राष्ट्र की और विश्व की उन्नति और शान्ति के लिए धर्मानुष्ठान की तरह स्वयं ही पूरी तरह से करना चाहिए, तभी समस्या का समाधान हो सकेगा, (इसी से) माता का कल्याण और बच्चों का कल्याण होगा।

लघु उत्तटीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने के उपाय बताइए। या जनसंख्या वृद्धि के समाधान क्या हैं? [2006,07]
उत्तर :
भारत में जनसंख्या वृद्धि को रोकने का एकमात्र उपाय परिवार-नियोजन है। परिवार-नियोजन का तात्पर्य है-सीमित परिवार, अर्थात् किसी दम्पति के एक या दो बच्चे होना ही परिवार नियोजन है। नियोजित परिवार ही परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को सुख-शान्ति प्रदान कर सकता है। सरकार तो केवल साधनों की उपलब्धता ही सुनिश्चित कर सकती है लेकिन इसके लिए प्रयास तो प्रत्येक व्यक्ति को इसे एक धर्मानुष्ठान मानकर करना होगा। तभी इस समस्या का समाधान हो सकता है।

प्रश्न 2.
जनसंख्या विस्फोट का क्या अर्थ है? इसका राष्ट्र के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? [2006,07,08, 11]
या
यो जनसंख्या विस्फोट से क्या तात्पर्य है? [2011]
उत्तर :
जनसंख्या विस्फोट का अर्थ है-जनसंख्या को उपलब्ध साधनों की तुलना में तीव्र गति से बढ़ना। जनसंख्या का विस्फोट होने पर सभी प्रकार के साधनों के रहने पर भी राष्ट्र में जन-जीवन संघर्षपूर्ण हो जाता है, जीने की इच्छा व्याकुल करने लगती है, मन में निराशा-क्षोभ उत्पन्न हो जाता है तथा मानवीय गुणों की हानि होती है।

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प्रश्न 3.
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने में सबसे बड़ी बाधा क्या है? [2006]
उत्तर :
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने में सबसे बड़ी बाधा देशवासियों का अल्पशिक्षित होना है। यही वह प्रमुख बाधा है, जिसके चलते सरकार द्वारा चलाये जा रहे परिवार कल्याण कार्यक्रम को जनता का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता, क्योंकि भारतवासी यह नहीं समझते कि यह मुख्य रूप से राष्ट्र की समस्या है। वे यह समझते हैं कि यह परिवारों की समस्या है, राष्ट्र की नहीं।

प्रश्न 4.
जनसंख्या-वृद्धि से होने वाली किन्हीं दो समस्याओं का उल्लेख कीजिए। [2006]
उत्तर जनसंख्या वृद्धि से होने वाली दो समस्याएँ निम्नलिखित हैं

(क) जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि होने के कारण योग्य, प्रशिक्षित और पढ़े-लिखे युवकों को भी रोजगार नहीं मिल पा रहा है।
(ख) जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न होने वाली दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या है–भूमि की सीमितता की समस्या।

प्रश्न 5.
जनसंख्या-वृद्धि में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ उक्ति की समीक्षा कीजिए।
या
राष्ट्र की उन्नति के लिए जनसंख्या-वृद्धि किस प्रकार घातक है?
या
प्रत्येक व्यक्ति को सन्तति-निरोध क्यों करना चाहिए? [2007]
उत्तर :
“अति सर्वत्र वर्जयेत्” उक्ति का तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु की अति सर्वथा वर्जना योग्य अर्थात् त्यागने योग्य होती है। भारत के पास विश्व में उपलब्ध भू-भाग का मात्र 2% ही है, लेकिन जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 1/6 भाग (लगभग 17%) से अधिक है। भारत में प्रतिवर्ष उतने (UPBoardSolutions.com) लोग जन्म ले लेते हैं, जितनी ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप की कुल जनसंख्या है। इसके चलते खाद्यान्नों के उत्पादन में हो रही अत्यधिक वृद्धि भी ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान व्यर्थ सिद्ध हो रही है। निश्चित ही यह जनसंख्या-वृद्धि या की अति है। अतः जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न समस्याओं के समाधान के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सन्तति-निरोध करना चाहिए।

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प्रश्न 6.
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने के उपाय बताइए। [2011]
या
हमारे देश में जनसंख्या समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? [2006,07, 11, 12]
उत्तर :
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने का एकमात्र उपाय परिवार-नियोजन है। परिवार-नियोजन को तात्पर्य है-सीमित परिवार अर्थात् किसी दम्पति के एक या दो बच्चों का होना । देश और राज्य की सरकारें तो केवल साधनों की उपलब्धता ही सुनिश्चित कर सकती हैं, लेकिन इसके (UPBoardSolutions.com) लिए प्रयास तो प्रत्येक व्यक्ति को करना होगा। जब प्रत्येक व्यक्ति परिवार के नियोजन को एक धर्मानुष्ठान मानकर प्रयास करेगा, तभी जनसंख्या की समस्या का समाधान हो सकता है।

प्रश्न 7. प्राकृतिक वातावरण पर जनसंख्या-वृद्धि का क्या प्रभाव पड़ रहा है? [2009]
उत्तर :
जनसंख्या वृद्धि के कारण वन काटे जा रहे हैं और पर्वतों को नंगा किया जा रहा है। वनों और वृक्षों के कट जाने से भूमि का कटाव बढ़ता जा रहा है, बाढ़ आ रही है, खेतों की उपजाऊ मिट्टी समाप्त होती जा रही है। नगरों के मल-मूत्र नदियों में बहाये जाने से इनका जल प्रदूषित हो रहा है। गंगा जैसी पवित्र और सदानीरा नदी का जल अपेय; अर्थात् न पीने योग्य; हो गया है।

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Class 10 Sanskrit Chapter 4 UP Board Solutions भारतीय जनतन्त्रम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 4 Bharatiya Jantantram Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 4 हिंदी अनुवाद भारतीय जनतन्त्रम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

आज विश्व में मुख्य रूप से तीन शासन-प्रणालियाँ–राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र एवं जनतन्त्र प्रचलित हैं। इसमें जनतन्त्र शासन-प्रणाली सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। हमारे देश में जनतान्त्रिक शासन-प्रणाली ही प्रचलित है। इस प्रणाली के अन्तर्गत देश का शासन जनता (UPBoardSolutions.com) द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में रहता है। जनतन्त्र को ही ‘प्रजातन्त्र’ अथवा ‘गणतन्त्र’ के नाम से जाना जाता है। भारत में शासन की यह प्रणाली 26 जनवरी, सन् 1950 ई० से लागू हुई थी। प्रस्तुत पाठ में राजतन्त्र और कुलीनतन्त्र के दोषों का निदर्शन करके उनकी निन्दा तथा जनतन्त्र की प्रशंसा की। गयी है। यह पाठ जनतन्त्र से होने वाले लाभों को भी इंगित करता है।

पाठ-सारांश     [2006,07,08, 10, 11, 13, 14]

शासन-प्रणाली के भेद राजनीतिशास्त्र के विद्वानों ने शासन-प्रणाली के तीन भेद बताये हैं—

  • राजतन्त्र में राजा का शासन होता है।
  • कुलीनतन्त्र में कुलीन (विशिष्ट) लोगों का शासन होता है।
  • जनतन्त्र में जनता का शासन होता है। भारतवर्ष में जनतन्त्र प्रणाली प्रचलित है।

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प्रत्येक प्रकार के शासन को संक्षिप्त वर्णन निम्नवत् है—
(1) राजतन्त्र राजतन्त्र में व्यक्ति विशेष का शासन होता है और वह सर्वोच्च शासक राजा कहलाता है। वह जीवनपर्यन्त शासन करता है। उसकी मृत्यु के बाद उसका वरिष्ठ पुत्र या पुत्र के न रहने पर पुत्री सिंहासन पर बैठकर शासन करते हैं। राजतन्त्र के पक्षधर विद्वान् राजा को ईश्वरं का प्रतिनिधि मानकर उसके उचित या अनुचित आदेश का पालन करना अनिवार्य मानते हैं। प्राचीन काल में प्रजा को सन्तान के समान मानने वाले अनेक राजा हुए। वे दयालु, न्यायी और प्रजा के कल्याण के लिए राजकोष का व्यय करने वाले होते थे, परन्तु इसके विपरीत ऐसे भी राजा हुए, जो क्रूर, कृपण, प्रजा-पीड़क और अपने स्वार्थ के लिए राजकोष का व्यय करते थे; अत: लोगों के मन में राजतन्त्र के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गयी।

(2) कुलीनतन्त्र
कुलीन अथवा विशिष्ट लोगों का शासन भी प्रजा के लिए हितकर नहीं होता। समाज में धनी और बलवान ही विशिष्टजनों की श्रेणी में आते हैं। इनके शासन में इन्हीं वर्गों का हित सम्भव है। निर्धन और निर्बल लोग इनके शासन में अत्यन्त पीड़ित रहते हैं। इस शासन-प्रणाली में सामान्यजनों के कल्याण की कल्पना भी नहीं की जा सकती।।

(3) जनतन्त्र
जनता के शासन को जनतन्त्र या प्रजातन्त्र कहते हैं। इसमें प्रभुत्वशक्ति जनता में निहित होती है। इस प्रणाली में जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि शासन करते हैं। जनता अपने मतों से अपना प्रतिनिधि स्वयं चुनती है। ये जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। जो प्रतिनिधि जनता के विरुद्ध (UPBoardSolutions.com) आचरण करते हैं, वे जनता द्वारा पुनः निर्वाचित नहीं किये जाते। अतः इस शासन में जनहित के विपरीत कार्यों की सम्भावना नहीं रहती है। अधिकांश देशों में यही जनतन्त्र प्रणाली प्रचलित है।

अनेक प्रजातान्त्रिक देशों में अब भी राजा होते हैं, परन्तु वे जन-प्रतिनिधियों की सलाह से ही कार्य करते हैं। वहाँ भी प्रजातन्त्र जैसा ही शासन चलता है। राजा उन्हीं अधिकारों को उपभोग करता है, जो प्रतिनिधि उसे देते हैं।

जनतन्त्र का आविर्भाव जनतन्त्र प्रणाली का आविर्भाव सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में हुआ था, वहीं से वह अन्य देशों में भी फैली। प्राचीन भारत में गणतन्त्र शासन-प्रणाली के होने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में गण शब्द तथा जैन और बौद्ध ग्रन्थों में गणराज्यों की चर्चा मिलती है। नीति-विशारद चाणक्य ने भी अपने ‘अर्थशास्त्र में गणराज्यों का उल्लेख किया है। गुप्तकाल में भारत में अनेक गणराज्य थे।

जनतन्त्र की विशेषता राजतन्त्र में लोग राजदण्ड के भय से ही कार्य करते थे, परन्तु जनतन्त्र में लोग कर्तव्य-भावना से प्रेरित होकर कार्य करते हैं। कर्तव्य करने के लिए सदा तत्पर रहने वाले परिश्रमी देशवासी नागरिक ही देश की उन्नति करने में समर्थ होते हैं। हमारा देश भारतवर्ष 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को स्वतन्त्र हुआ था। विदेशी शासन में फैले हुए गरीबी, अशिक्षा, बीमारी आदि दोषों को दूर करता हुआ भारत सतत उन्नति के मार्ग पर अग्रसर है। भारत की उन्नति को देखकर विश्व के अन्य राष्ट्र दाँतों तले अँगुली दबा लेते हैं।

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भारत के बालक-बालिकाएँ ही देश के स्वामी और सेवक हैं। वे जैसा आचरण (UPBoardSolutions.com) करेंगे, देश का स्वरूप वैसा ही होगा; अत: उन्हें अनुशासित और सावधान रहकर, राष्ट्रहित के लिए स्वार्थ का त्याग करते हुए, राष्ट्र की रक्षा के लिए सदा तत्पर रहकर देश की उन्नति करनी चाहिए।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
जनतन्त्राभिधाना शासनप्रणाली अस्माकं देशे प्रवर्तमानाऽस्ति। राजनयशास्त्रज्ञैः विद्वद्भिः राजतन्त्रं कुलीनतन्त्रं प्रजातन्त्रमिति शासनप्रणाल्यास्त्रयो भेदाः प्रतिपादिताः। राजतन्त्रम्-राज्ञः शासनम् कुलीनतन्त्रम्-कुलीनानां विशिष्टजनानां शासनं, जनतन्त्रम्-जनानां शासनमिति तैराधुनिकैः व्याख्यातम्।

शब्दार्थ जनतन्त्राभिधाना = जनतन्त्र नाम वाली। अस्माकं = हमारे प्रवर्तमाना = प्रचलित, लागू राजनयशास्त्रज्ञैः = राजनीतिशास्त्र के विद्वानों के द्वारा प्रतिपादिताः = प्रतिपादित किये गये हैं। तैराधुनिकैः (तैः + आधुनिकैः) = उन आधुनिकों ने। व्याख्यातम् = व्याख्या की है।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘भारतीय-जनतन्त्रम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शासन-प्रणालियों के तीन भेद बताये गये हैं।

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अनुवाद हमारे देश में जनतन्त्र’ नाम की शासन-प्रणाली प्रचलित है। राजनीतिशास्त्र को जानने वाले विद्वानों ने राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र, प्रजातन्त्र—ये शासन-प्रणाली के तीन भेद बताये हैं। राजतन्त्र’ का अर्थ राजा का,शासन, ‘कुलीनतन्त्र’ का अर्थ कुलीन अर्थात् विशिष्ट लोगों का शासन, ‘जनतन्त्र’ (UPBoardSolutions.com) का अर्थ जनता को शासन है; इस प्रकार सभी आधुनिक विद्वानों के द्वारा व्याख्या की गयी है।

(2)
राजतन्त्रम्-राजतन्त्रं व्यक्तिविशेषस्य शासनं भवति। स एव सर्वोच्चशासकः राजा भवति। यावज्जीवनं सः राजसिंहासने तिष्ठति शासनञ्च कुरुते। तस्य मृत्योः परं तस्य ज्येष्ठः पुत्रः, पुत्राभावे तस्य ज्येष्ठा पुत्री तत्पदमलङकुरुते। राजतन्त्रपक्षग्रहाः विपश्चितः राजानमीश्वरप्रतिनिधिभूतमेवाङ्गीकुर्वन्ति। तस्योचितोऽनुचितो वा आदेशः नोल्लङ्घनीयः इति तेषां मतम्।

शब्दार्थ सर्वोच्चशासकः = सबसे ऊपर शासन करने वाला। यावज्जीवनम् = समस्त जीवन, जीवनभर पुत्राभावे = पुत्र के अभाव में। तत्पदमलङकुरुते = उसके पद को सुशोभित करता है। राजतन्त्रपक्षग्रहाः = राजतन्त्र के पक्षधर। विपश्चितः = विद्वान्। राजानमीश्वरप्रतिनिधिभूतमेवाङ्गीकुर्वन्ति = राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि समझकर स्वीकार करते हैं। नोल्लङ्घनीयः = उल्लंघन करने योग्य नहीं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में राजतन्त्र के विषय में बताया गया है।

अनुवाद राजतन्त्र–राजतन्त्र व्यक्ति विशेष का शासन होता है। वही सर्वोच्च शासक राजा होता है। वह जीवनपर्यन्त राज-सिंहासन पर बैठती है और शासन करता है। उसकी मृत्यु के बाद उसका सबसे बड़ा पुत्रे, पुत्र न होने पर उसकी सबसे बड़ी पुत्री उसके पद को सुशोभित करते हैं। राजतन्त्र का पक्ष लेने वाले विद्वान् राजा को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में ही स्वीकार करते हैं। “उसका उचित या अनुचित आदेश उल्लंघन करने योग्य नहीं है, अर्थात् सर्वथा मान्य है, ऐसा उनका मत है।

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(3)
पुरा बहवो राजानः प्रजां सन्ततिमिव मन्यमानाः शासनमकुर्वन यशोभागिनश्चाभूवन्। ते दयार्दहृदयाः न्यायरताः प्रजाकल्याणतत्पराः राज्यकोषस्य प्रजाहिताय प्रयोक्तारोऽभवन् परं बहवश्चेतरे क्रूाः, कृपणाः प्रजोत्पीडकाः राज्यकोषस्य स्वगर्हितमनोरथस्य पूर्तये व्ययशीलाः (UPBoardSolutions.com) स्वमनोवृत्तानुसारिणश्चासन्। एतादृशानां निरङकुशानां नृपतीनां शासने जनानां कीदृशी दशा स्यादिति सहज कल्पयितुं शक्यते। अतः शनैः शनैः कालेऽतीते राजतन्त्रं प्रति जनमानसेऽरुचिरुत्पन्ना।

शब्दार्थ सन्ततिमिव = सन्तान के समान। अभूवन् = होते थे। प्रयोक्तारः = प्रयोग करने वाले। अभवन् = हुए। बहवश्चेतरे (बहवः + च + इतरे) = और बहुत-से अन्य। प्रजोत्पीडकाः = प्रजा को पीड़ित करने वाले स्वगर्हितमनोरथस्य = अपने निन्दनीय मनोरथ की। स्वमनोवृत्तानुसारिणः = अपनी मनोवृत्ति के अनुसार चलने वाले। निरङ्कुशानां = अनियन्त्रितों का। स्यादिति = हो सकती है, यहा कालेऽतीते = समय बीतने पर। अरुचिः उत्पन्ना = अरुचि उत्पन्न हो गयी।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि जनता की राजतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में कैसे अरुचि हुई।

अनुवाद प्राचीनकाल में बहुत-से राजा प्रजा को सन्तान के समान मानते हुए शासन करते थे और उनका यश फैला हुआ था। वे अत्यन्त दयालु, न्यायशील, प्रजा के कल्याण में तत्पर, राजकोष (खजाने) का प्रजा के हित के लिए प्रयोग करते थे, परन्तु बहुत-से दूसरे क्रूर, कंजूस, प्रजा को सताने वाले, राजकोष को अपने निन्दित मनोरथ की पूर्ति के लिए व्यय करने वाले और अपने मन के अनुसार आचरण करने वाले थे। इस प्रकार के निरंकुश राजाओं के शासन में लोगों की क्या दशा होगी, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। अतः धीरे-धीरे समय बीतने पर राजतन्त्र के प्रति लोगों के मन में अरुचि पैदा हो गयी।

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(4)
कुलीनतन्त्रम्-कुलीनानां विशिष्टजनानां शासनमपि जनानां कृते श्रेयस्करं न सम्भाव्यते। समाजे विशिष्टजनाः बहुधा धनिनो बलिनो वा भवन्ति। धनिनां शासनं धनिनां कृते। बलवतां शासनं बलवतामेव कृते कल्याणकृत् सम्पत्स्यते। एवंविधे शासने निर्धनाः दुर्बलाश्च भृशमुत्पीडिता (UPBoardSolutions.com) भवेयुर्नात्र संशयलेशः। तन्त्रेऽस्मिन् सामान्यजनानां कल्याणस्य कल्पनाऽपि खपुष्पमिव भवेत्। अतएवेदं तन्त्रं कदापि जनहृदि हृद्यं पदं नाऽलभत्।

शब्दार्थ कुलीनतन्त्रम् = विशिष्ट लोगों का शासन। विशिष्टजनानां = विशिष्ट मनुष्यों का। श्रेयस्करम् = लाभकारी, कल्याणकारी। न सम्भाव्यते = नहीं सम्भव होता है। बलिनः = बलशाली। कल्याणकृत् = कल्याण करने वाला। सम्पत्स्यते = होगा। भृशम् = अत्यधिक संशयलेशः = जरा भी संशय। खपुष्पमिव = आकाश-कुसुम के समान अर्थात् असम्भव हृद्यम् = हृदय को आनन्दित करने वाला। नाऽलभत् = नहीं प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कुलीनतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली का वर्णन किया गया है।

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अनुवद्ध कलीनतन्त्र-कुलीनों विशिष्टजनों का शासन भी लोगों के लिए कल्याणकारी सम्भव नहीं हो सकता है। समाज में विशेष लोग प्रायः धनी या बलवान् होते हैं। धनिकों का शासन धनियों के लिए, बलवानों का शासन बलवान् लोगों के लिए कल्याणकारी होगा। इस प्रकार के शासन में निर्धन और कमजोर अत्यधिक सताये जाते रहेंगे, इसमें थोड़ा भी सन्देह नहीं है। इस शासन में सामान्य लोगों के कल्याण की कर पना भी आकाश के फूल के समान अर्थात् असम्भव हो जाएगी। अतएव इस शासन ने कभी भी लोगों के हृदय में अच्छा स्थान प्राप्त नहीं किया।

(5)
जनतन्त्रम्-जनानां तन्त्रं जनानां शासनं जनतन्त्रं प्रजातन्त्रं वोच्यते। अस्मिन् तन्त्रे राज्ञः स्थानं जनाः गृह्णन्ति। राजतन्त्रे राजनि स्थिता प्रभुत्वशक्तिः जनतन्त्रे जनेषु सन्निहिता जायते। अतोऽस्यां पद्धतौ न कश्चिज्जनः शासकोऽपितु जनैः निर्वाचिताः प्रतिनिधयः शासनकार्यं कुर्वते। जनाः स्वप्रतिनिधीन् भारते पञ्चवर्षेभ्यश्चिन्वन्ति। निर्वाचनप्रसङ्ग न कश्चिच्छ्रेष्ठः, न वा कश्चिद्धीनः, न च बलवान्, न वा दुर्बलः विगण्यते। जातिधर्मवर्णलिङ्गनिर्विशेषाः सर्वे जनाः अष्टादशवर्षवयस्काः नराः नार्यश्च निर्वाचने

मताधिकृताः सन्ति। सर्वेषां मतमूल्यं तुल्यमेव भवति। एवंविधाः जननिर्वाचिताः प्रतिनिधयः जनताम्प्रत्येवोत्तरदायिनो भवन्ति। अतः ये प्रतिनिधयः जनविरोधिकार्यं कुर्वन्ति जनमतविरुद्धाचरणं वाऽऽचरन्ति ते पुनर्निर्वाचने साफल्यं न लभन्ते। एतदेव जनभयं तेषां पथच्युतिं रुणद्धि। निर्वाचनात्प्रागपि क्रियमाणजनहितविरुद्धकार्याणां विरोधाय जनाः संविधानप्रदत्तैरधिकारैः शासनं विरुन्धन्ति। शासनकार्ये रताः प्रतिनिधयस्तदा तथाविधस्य विचारस्य नीतेर्वा परित्यागाय परिवर्तनाय वा विवशाः सजायन्ते। अतएवास्यां शासनसरण्यां जनहितविपरीतनीतेः कार्यस्य च सम्भावनाऽल्पीयसी वर्तते इति सर्वेषां मतम्। स्ववैशिष्ट्यैः जनतन्त्रमिदानीं जगति सर्वेषामितरतन्त्राणां मूर्धानमधिशेते।।

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शब्दार्थ उच्यते = कहा जाता है। गृह्णन्ति = ग्रहण करते हैं। प्रभुत्वशक्तिः = सर्वोच्च राजत्व शक्ति, सत्ताधिकार सन्निहिता = स्थित, छिपी हुई, रखी हुई। पञ्चवर्षेभ्यः = पाँच वर्षों के लिए। चिन्वन्ति = चुनते हैं। निर्वाचनप्रसङ्गे = चुनाव के समय। कश्चिच्छेष्ठः = कोई श्रेष्ठ कश्चित् हीनः = कोई हीना विगण्यते = गिना जाता है। जातिधर्मवर्णलिङ्गनिर्विशेषाः = जाति, धर्म, वर्ण, लिंग आदि से रहित। अष्टादशवर्षवयस्कोः = अठारह वर्ष की आयु वाले। मताधिकृताः = मत के (UPBoardSolutions.com) अधिकारी जनताम्प्रत्येवोत्तरदायिनः (जनताम् + प्रति + एव + उत्तरदायिनः) = जनता के प्रति ही उत्तरदायी। साफल्य = सफलता को। पथच्युतिम् = पथभ्रष्ट होने को। रुणद्धि = रोकता है। प्रागपि = पहले-भी। विरुन्धन्ति = रोकते हैं, विरोध करते हैं। सञ्जायन्ते = हो जाते हैं। अल्पीयसी = बहुत कम| स्ववैशिष्ट्यैः = अपनी विशेषताओं से। इतरतन्त्रणां = दूसरे तन्त्रों का। मूर्धानमधिशेते = शीश पर सोता है, अर्थात् श्रेष्ठ है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली की अच्छाइयों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद जनतन्त्र–जनता के शासन को जनतन्त्र या प्रजातन्त्र कहा जाता है। इस शासन में राजा के स्थान को जनता ले लेती है। राजतन्त्र में राजा में स्थित प्रभुत्वशक्ति, जनतन्त्र में लोगों में स्थित हो जाती है। अत: इस प्रणाली में कोई व्यक्ति शासक नहीं होता है, अपितु जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि शासन का कार्य करते हैं। भारत में लोग पाँच वर्ष के लिए अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। निर्वाचन के सम्बन्ध में कोई बड़ा या छोटा नहीं होता है, न कोई बलवान् अथवा न कोई दुर्बल समझा जाता है। जाति, धर्म, वर्ण, लिंग के अन्तर के बिना सभी अठारह वर्ष के स्त्री या पुरुष चुनाव में मत के अधिकारी होते हैं। सबके मत का मूल्य समान ही होता है। इस प्रकार से जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। अतः जो प्रतिनिधि जन-विरोधी कार्य करते हैं अथवा जनमत के विरुद्ध आचरण करते हैं, वे पुनः चुनाव में सफलता प्राप्त नहीं करते हैं। लोगों का यही भय उनको पथभ्रष्ट होने से रोकता है। चुनाव से पूर्व भी किये गये जनहित के विरुद्ध कार्यों के विरोध के लिए लोग संविधान के द्वारा दिये गये अधिकारों से शासन का विरोध करते हैं। सब लोगों का ऐसा मत है कि शासन के कार्य में लगे हुए प्रतिनिधि तब उस प्रकार के विचार अथवा नीति को त्यागने के लिए या बदलने के लिए विवश हो जाते हैं। (UPBoardSolutions.com) इसलिए इस शासन-प्रणाली में जनहित के विपरीत नीति और कार्य की सम्भावना बहुत कम रह जाती है, यह सभी का मत है। अपनी विशेषताओं से जनतन्त्र इस समय संसार में सब दूसरे शासनों में श्रेष्ठ है।

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(6)
अनेकेषु प्रजातन्त्रीयेषु देशेष्वधुनाऽपि राजानः सन्ति, किन्तु ते तत्रालङ्कारमात्रभूताः जनप्रतिनिधिभिः नियमिताधिकाराः वर्तन्ते। सत्स्वपि राजसु तत्रापि च प्रजातन्त्ररीत्या एव शासन सञ्चरते। तत्रापि शासनस्य सर्वेऽधिकाराः जननिर्वाचितप्रतिनिधिसदसि सन्निहितास्तिष्ठन्ति। ते. एवाधिकारा राज्ञोपभुज्यन्ते ये प्रतिनिधिभिः तस्मै प्रदत्ताः। [2006]

शब्दार्थ अधुनापि = आज भी। अलङ्कारमात्रभूताः = मात्र अलंकार स्वरूप। नियमिताधिकाराः = निर्धारित अधिकारों वाले। सञ्चरते = चलता है। सदसि = सदन में या सभा में। सन्निहिताः = निहित। राज्ञोपभुज्यन्ते = राजा के द्वारा भोगे जाते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि अनेक प्रजातान्त्रिक देशों में राजा जनता का ही प्रतिनिधि होता है।

अनुवाद आज भी अनेक प्रजातन्त्र प्रणाली वाले देशों में राजा हैं, किन्तु वे वहाँ की शोभास्वरूप हैं, उनके अधिकार जन-प्रतिनिधियों द्वारा नियमित या निर्धारित हैं। राजाओं के रहने पर भी वहाँ भी प्रजातन्त्र की रीति से ही शासन चलता है। वहाँ भी शासन के सभी अधिकार जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि सभा में निहित हैं। राजा उन्हीं अधिकारों का उपभोग करता है, जो प्रतिनिधियों ने उसे दिये हैं।

(7)
जनतन्त्रशासनप्रणाल्याः आविर्भावादिविषये सुनिश्चिततरमिदं यदस्याः जन्म इङ्ग्लैण्डदेशेऽभवत्। तस्मादेव देशादेषाऽन्येदेशेषु प्रसृता तत्र तत्र देशेषु च प्रचलिता वर्तते।।

प्राचीनभारते गणतन्त्राभिधाना शासनपद्धतिः राजतन्त्रभिन्ना प्रचलिताऽभूदितीतिहासग्रन्थेषु तथाविधोल्लेखो दरीदृश्यते। विश्वस्य सर्वातिशायिप्राचीनग्रन्थे ऋग्वेदे ‘गण’ शब्दस्य बहुबारं प्रयोगो विहितः। जैनग्रन्थेषु बौद्धग्रन्थेषु गणाधीनराज्यानां चर्चा समुपलभ्यते। इतरेतरराज्यनामभिः विभक्तां (UPBoardSolutions.com) भारतभुवमेकसूत्रे आबद्धं बद्धपरिकरो, राजनयविचक्षणो विलक्षण आचार्यः कौटिल्यः स्वरचिते अर्थशास्त्राभिधाने ग्रन्थे गणराज्यानामुल्लेखं कृतवान्। गुप्तकालिकेतिहासे हिमगिरिविन्ध्ययोर्मध्येऽनेकेषां गणराज्यानामुपवर्णनं कृतमितिहासज्ञैः। यत्र तत्र प्रयुक्तो गणशब्दः बहुसङ्ख्यकान् जनानेव बोधयति। अनेन प्राचीनभारते राजतन्त्रेतरा शासनप्रणाली गणतन्त्ररूपा प्रचलिता आसीदिति सिद्ध्यति।

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(2013)
प्राचीनभारते गणतन्त्रा …………………………………. कृतमिति इतिहासज्ञैः। [2008, 14]

शब्दार्थ आविर्भावादिविषये = उत्पत्ति आदि के विषय में। प्रसृता = फैली। गणतन्त्राभिधाना= गणतन्त्र नाम की। राजतन्त्रभिन्ना = राजतन्त्र से भिन्न। तथाविधोल्लेखः = उस प्रकार की विधा का उल्लेख। दरीदृश्यते = प्रायः देखा जाता है। विहितः = किया गया है। समुपलभ्यते = प्राप्त होती है, मिलती है। इतरेतर = भिन्न-भिन्न। बद्धपरिकरः = दृढ़ता से तैयार। राजनय-विचक्षणः = राजनीति में कुशल। हिमगिरिविन्ध्ययोर्मध्येऽनेकेषाम् = हिमालय और विन्ध्याचल के बीच में अनेक का। बोधयति = बताता है। राजतन्त्रेतरा = राजतन्त्र से भिन्न| आसीदिति (आसीद् + इति) = थी, ऐसा। सिद्ध्यति = सिद्ध होता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली के आविर्भाव और प्राचीन भारत में इसके प्रचलन के विषय में बताया गया है।

अनुवाद जनतन्त्र शासन-प्रणाली की उत्पत्ति के मत के विषय में यह निश्चित मत है कि इसका जन्म इंग्लैण्ड देश में हुआ था। उसी देश से ही अन्य देशों में फैली हुई यह उन-उन देशों में प्रचलित है। इतिहास के ग्रन्थों में प्रायः इस प्रकार का उल्लेख दिखाई पड़ता है कि प्राचीन भारत में राजतन्त्र से भिन्न ‘गणतन्त्र’ नाम की शासन-प्रणाली प्रचलित थी। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में ‘गण’ शब्द का बहुत बार प्रयोग किया गया है। जैन और बौद्ध ग्रन्थों में ‘गण’ के अधीन राज्यों की चर्चा प्राप्त होती है। दूसरे-दूसरे अलग-अलग राज्य के नामों से विभक्त भारत-भूमि को एक सूत्र में बाँधने के लिए दृढ़ता से तैयार राजनीति में कुशल आचार्य कौटिल्य (चाणक्य) ने स्वरचित ‘अर्थशास्त्र’ नाम के ग्रन्थ में गणराज्यों का उल्लेख किया है। गुप्तकाल के इतिहास में इतिहास के जानकारों ने हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य में अनेक गणराज्यों का वर्णन किया है। जहाँ-तहाँ प्रयोग किया गया ‘गण’ शब्द बहुत अधिक मनुष्यों को ही ज्ञान कराता है। इससे प्राचीन भारत में राजतन्त्र से भिन्न शासन-प्रणाली ‘गणतन्त्र’ के रूप में प्रचलित थी, ऐसा सिद्ध होता है।

(8)
राजतन्त्रे दण्डभयाद् कार्यं निष्पादयन्ति जनाः। जनतन्त्रे स्वत एव कर्तव्यभावनया स्वकार्दै निष्पादनीयं भवेत्। कर्तव्यबोधः एव जनतन्त्रस्य मूलाधारः। यस्मिन् कस्मिन् वा कार्ये नियुक्ताः कर्तव्यसम्पादनसमुत्सुकाः सततं राष्ट्रविकासनिरताः विहितसाध्यं साधयन्तोऽन्ताः श्रमशीला देशवासिनो मगरिका (UPBoardSolutions.com) एव स्वराष्ट्रमुन्नेतुं क्षमन्ते इति जनतन्त्रपद्धत्याः महद्वैशिष्ट्यम्। [2008, 10, 12, 15]

राजतन्त्रे दण्डभयाद् …………………………………. उन्नेतुं क्षमन्ते।

शब्दार्थ दण्डभयाद्
= दण्ड के भय से। निष्पादयन्ति = सम्पन्न करते हैं। स्वत एव = स्वयं ही। कर्त्तव्यबोधः = कर्तव्य का ज्ञान। मूलाधारः = मूल आधार। कर्त्तव्यसम्पादनसमुत्सुकाः = कर्तव्य पूरा करने के लिए अधिक उत्सुक। निरताः = लगे हुए। विहितसाध्यम् = इच्छित कार्य को। साधयन्तः = सिद्ध करते हुए। अश्रान्ताः = थकावटरहित, उत्साहसम्पन्न| उन्नेतुम् = उन्नति करने के लिए। क्षमन्ते = सफल होते हैं। महवैशिष्ट्यम् = महान् विशेषता।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनतन्त्र प्रणाली की विशेषता बतायी गयी है।

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अनुवाद राजतन्त्र में लोग दण्ड के भय से कार्य सम्पन्न करते हैं। जनतन्त्र में स्वयं ही कर्त्तव्य की भावना से अपना काम करने योग्य होता है। कर्तव्य का ज्ञान ही जनतन्त्र का मूल आधार है। जनतन्त्र प्रणाली की यह महान् विशेषता है कि जिस किसी भी कार्य में लगाये गये, देशवासी नागरिक ही अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए उत्साहित, लगातार राष्ट्र के विकास में लगे हुए, इच्छित कार्य को पूरा करते हुए, उत्साहयुक्त, परिश्रमी और राष्ट्र की उन्नति करने में समर्थ होते हैं।

(9)
अस्माकं देशो भारतवर्षमपि सप्तचत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतिशततमे खीष्टाब्दे अगस्तमासस्य पञ्चदशदिनाङ्के वैदेशिकक्रूरकरान्मुक्तं सत् जनतन्त्रप्रणालीमूरीचकार। विदेशीयशासनजनितान् दारिद्रयाशिक्षाऽऽमयादिदोषान् अपाकुर्वन् सततं विकासोन्मुखोऽस्माकं देशस्त्वरितगत्याऽग्रेसरन्नस्ति। साश्चर्यमेतस्योन्नतिं विश्वराष्ट्राणि पश्यन्ति। देशवासिनां देशप्रेम्णः परिणामोऽयं विद्यते।।

अस्माकं देशो …………………………………. अग्रेसरन्नस्ति

शब्दार्थ सप्तचत्वारिंशदुत्तरैकोनविंशतशतमे = उन्नीस सौ सैंतालीस में। ख्रीष्टाब्दे = ईस्वी में। वैदेशिकक्रूरकरान्मुक्तम् (वैदेशिक + क्रूरकरात् + मुक्तम्) = विदेशियों के कठोर हाथों से छूटा हुआ। ऊरीचकार = स्वीकार किया। आमयादिदोषान् = बीमारी आदि दोषों को। अपाकुर्वन् = दूर करते हुए। त्वरितगत्या = तीव्र गति से। अग्रेसरन्नस्ति = आगे बढ़ रहा है।

प्रसंग प्रस्तु गद्यांश में वर्तमान जनतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली द्वारा भारत की उन्नति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद हमारे देश भारतवर्ष ने भी सन् 1947 ईस्वी में अगस्त मास की 15 तारीख को विदेशियों के क्रूर हाथों से मुक्त होते हुए जनतन्त्र प्रणाली को स्वीकार किया। विदेशी शासन के कारण उत्पन्न हुई गरीबी, अशिक्षा, बीमारी आदि दोषों को दूर करता हुआ निरन्तर विकास के लिए उन्मुख हमारा (UPBoardSolutions.com) देश तीव्रगति से आगे बढ़ रहा है। संसार के राष्ट्र इसकी उन्नति को आश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं। यह देशवासियों के देशप्रेम का परिणाम है।

(10)
यूयमेव बालकबालिकाश्चास्य राष्ट्रस्य स्वामिनः सेवकाश्च स्थ। यूयं यथा समाचरिष्यथ तथैव राष्ट्ररूपं भविष्यति। यदि यूयं स्वकर्तव्यानि सदा सावधाना अनुशासिताः सम्पादयन्तः राष्ट्रहिताय स्वहितं परिहरन्तः राष्ट्ररक्षायै राष्ट्रविकासाय तत्पराः स्थास्यथ तदैवास्माकं राष्ट्र भारतवर्षं जगद्गुरुगौरवपदं पुनरुपलप्स्यते।। [2005]

शब्दार्थ समाचरिष्यथ = आचरण करोगे। स्वकर्तव्यानि = अपने कर्तव्य सम्पादयन्तः = सम्पन्न करते हुए। परिहरन्तः = त्यागते हुए। तत्पराः स्थास्यथ = तत्पर रहोगे। जगद्गुरुगौरवपदम् = संसार के गुरु होने का • गौरवशाली पद। उपलप्स्यते = प्राप्त करेगा।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में देशवासी बालक-बालिकाओं को राष्ट्र की उन्नति करने के लिए सम्बोधित किया गया है।

अनुवाद बालक-बालिकाओ! तुम सभी राष्ट्र के स्वामी और सेवक हो। तुम सब जैसा आचरण करोगे, वैसा ही राष्ट्र का स्वरूप होगा। यदि तुम लोग सदा सावधान और अनुशासित रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, राष्ट्रहित के लिए अपने हितों का त्याग करते हुए राष्ट्र की रक्षा हेतु राष्ट्र के विकास के लिए तैयार रहोगे, तभी हमारा राष्ट्र भारतवर्ष संसार के गुरु होने के गौरवपूर्ण पद को पुनः प्राप्त कर सकेगा।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जनतन्त्र की विशेषता लिखिए। [2006]
या
जनतन्त्र का महत्त्व समझाइए। [2012]
या
जनतन्त्रको परिभाषित कीजिए। [2006,09]
उत्तर :
जनता के शासन को जनतन्त्र या प्रजातन्त्र कहते हैं। इसमें प्रभुत्व-शक्ति जनता के हाथ में निहित होती है। इसमें जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि शासन करते हैं, जो जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। जो प्रतिनिधि जनता के विरुद्ध आचरण करते हैं, वे जनता के द्वारा पुनः (UPBoardSolutions.com) निर्वाचित नहीं किये जाते। इस शासन में जनहित के विपरीत कार्यों के किये जाने की सम्भावना नहीं रहती।

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प्रश्न 2.
शासन-प्रणाली के कितने भेद होते हैं? स्पष्ट कीजिए। [2006]
या
राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र और जनतन्त्र का अन्तर बताइए। [2007]
उत्तर :
राजनीतिवेत्ताओं ने शासन-प्रणाली के निम्नलिखित तीन भेद बताये हैं

  • राजतन्त्र – इसमें राजा का शासन होता है।
  • कुलीनतन्त्र – इसमें कुलीन अर्थात् विशिष्ट लोगों का शासन होता है।
  • जनतन्त्र – इसमें जनता का शासन होता है।

प्रश्न 3.
जनतन्त्र का आविर्भाव सर्वप्रथम कहाँ हुआ था? भारत में राजतन्त्र से भिन्न कौन-सी शासन-प्रणाली प्रचलित थी?
उत्तर :
जनतन्त्र प्रणाली का आविर्भाव सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में हुआ था। वहीं से यह प्रणाली विश्व के अन्य देशों में फैली। प्राचीन भारत में राजतन्त्र से कुछ भिन्न ‘गणतन्त्र’ शासन-प्रणाली प्रचलित थी। ऋग्वेद में गणतन्त्र शब्द का प्रयोग बहुत बार हुआ है। जैन और बौद्ध ग्रन्थों में भी ‘गण’ के अधीन राज्यों के उल्लेख मिलते हैं। आचार्य कौटिल्य (चाणक्य) ने भी ‘अर्थशास्त्र में गणराज्यों का उल्लेख किया है। गुप्तकालीन इतिहास में हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य अनेक (UPBoardSolutions.com) गणराज्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 4.
राजतन्त्र क्या है? [2006, 08,09]
या
राजतन्त्र किसे कहते हैं? [2010]
या
राजतन्त्र का स्वरूप बताइए। राजतन्त्र में कौन सर्वोच्च शासक होता है? [2006]
या
राजतन्त्र के प्रमुख दोष बताइए। [2011, 12, 13]
या
व्यक्ति-विशेष के शासन को क्या कहते हैं? [2010, 11]
या
जनता में राजतन्त्र के प्रति अरुचि क्यों उत्पन्न हुई। राजतन्त्र में राजा कैसे बनता है? [2006]
उत्तर :
राजतन्त्र में व्यक्ति विशेष का शासन होता है, वह सर्वोच्च शासक राजा कहलाता है। वह जीवनपर्यन्त शासन करता है। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र या पुत्री (पुत्र न होने की स्थिति में) उसके पद से जनता पर शासन करते हैं। राजतन्त्र के पक्षधर विद्वान् राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर उसके उचित या अनुचित आदेश का पालन करना अनिवार्य मानते हैं। प्राचीन काल में प्रजा को सन्तान के समान मानने वाले दयालु, न्यायी और प्रजा के कल्याण के लिए राजकोष का व्यय करने वाले अनेक राजा हुए। इसके विपरीत ऐसे भी राजा हुए, जो क्रूर, कृपण, प्रजापीड़क, अपने स्वार्थ के लिए राजकोष का व्यय करने वाले और मनोनुकूल आचरण करने वाले थे। साथ ही राजतन्त्र में लोग दण्डों के भय से कार्य सम्पन्न करते थे, कर्तव्य की भावना से नहीं। ऐसे ही दोषों के कारण लोगों के मन में राजतन्त्र के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गयी।

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प्रश्न 5.
हमारे देश में कौन-सी शासन-प्रणाली प्रवर्तमान है? [2011, 13]
या
भारतवर्ष ने किस सन्, महीने व दिनांक को जनतन्त्र प्रणाली को स्वीकार किया था? [2009]
उत्तर :
हमारे देश भारतवर्ष में 15 अगस्त, 1947 के बाद से जनतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली प्रवर्तमान है।

प्रश्न 6.
राजतन्त्र और जनतन्त्र का प्रमुख अन्तर स्पष्ट कीजिए [2006,07,13]
उत्तर :
राजतन्त्र में राजा का शासन होता है, जब कि जनतन्त्र में जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का। (UPBoardSolutions.com) राजतन्त्र में लोग दण्ड के भय से कार्य सम्पन्न करते हैं, जब कि जनतन्त्र में कर्तव्य की भावना से कार्य सम्पन्न किया जाता है।

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प्रश्न 7.
राजनीतिज्ञों ने शासन-प्रणाली के कौन-कौन से तन्त्र स्वीकार किये हैं? किसी एक तन्त्रको संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कीजिए।
या
राजनीतिज्ञों/विद्वानों द्वारा शासन-तन्त्रों के कौन-कौन से भेद स्वीकृत हैं? [2008, 09, 10]
उत्तर :
[ संकेत प्रश्न सं० 2 और प्रश्न सं० 1 के उत्तर को लिखें।]

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Class 10 Sanskrit Chapter 16 UP Board Solutions दीनबन्धु ज्योतिबाफुले Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 16 Deenbandhu Jyotiba Phule Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 16 हिंदी अनुवाद दीनबन्धु ज्योतिबाफुले के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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पाठ का सारांश

ग्यारह अप्रैल, सन् 1827 ई० में पुणे नामक स्थान पर जन्मे ज्योतिबा फुले एक भारतीय विचारक, समाज-सेवक, लेखक, दार्शनिक और क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। इन्होंने महाराष्ट्र में सत्यशोधक संस्था को संगठित किया था। दलित स्त्रियों के उत्थान के लिए अनेक कार्यों को करने वाले ज्योतिबा फुले का विचार था कि भारतीय समाज में सभी शिक्षित हों।

ज्योतिबा फुले के पूर्वज सतारा से पुणे आकर फूलों की माला बेचकर जीवन-यापन करते थे। इसी कारण से ये ‘फुले’ नाम से विख्यात हुए। आरम्भ काल में मराठी भाषा का अध्ययन करने वाले फुले की शिक्षा बीच में ही रुक गयी। इक्कीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने (UPBoardSolutions.com) अंग्रेजी भाषा से सातवीं कक्षा की शिक्षा पूरी की। 1840 में इनका विवाह सावित्री नाम की कन्या के साथ हुआ। पत्नी के साथ मिलकर इन्होंने स्त्री-शिक्षा के लिए कार्य किया। उन्होंने विधवा तथा अन्य स्त्रियों के साथ-साथ कृषकों की दशा को सुधारने का प्रयत्न किया। 1848 में स्त्रियों के लिए प्रथम विद्यालय संचालित किया। इस प्रयत्न में उच्चवर्गीय लोगों ने अवरोध भी उत्पन्न किया किन्तु वे उनके आगे टिक न सके।

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फुले के मन में सन्तों के प्रति अगाध श्रद्धा थी। दलितों की सहायता के लिए ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। इनके सेवा कार्य को देखकर इन्हें मुम्बई की एक सभा में महात्मा’ की उपाधि दी गई। ज्योतिबा ने बिना ब्राह्मण के विवाह कराने की मान्यता मुम्बई न्यायालय से दिलाई। उन्होंने तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। ज्योतिबा फुले क्रान्तिकारी विचारक, समाजसेवक, दार्शनिक और लेखक थे। अस्पृश्यता के दु:ख के उन्मूलन में इनकी भूमिका अकथनीय रही है। इन महापुरुष का स्वर्गवास 28 नवम्बर, 1890 ई० में पुणे में हुआ था। माली समाज के महात्मा ज्योतिबा फुले एक ऐसे महामानव थे जिन्होंने निम्न जाति को समानता का (UPBoardSolutions.com) अधिकार दिलाने के लिए आजीवन कार्य किया। हमारे देश के इतिहास में सावित्री फुले को प्रथम दलित शिक्षिका का गौरव प्राप्त हुआ था।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
ज्योतिराव गोविन्दराव इत्याख्यस्य जन्म अप्रैलमासस्य एकादशदिनाङ्के सप्तविंशत्याधिके अष्टादशखीष्टाब्दे पुणे नामके स्थानेऽभवत्। अयं महात्मा फुले एवं ज्योतिबा फुले नाम्ना प्रचलितो एको महान् भारतीय विचारकः, समाजसेवकः, लेखकः, दार्शनिकः क्रान्तिकारी कार्यकर्ता चासीत्। त्रयोधिकसप्ततिः अष्टादशशते ख्रीष्टाब्दे अयं महाराष्ट्र ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्थां संगठितवान्। नारीणां दलितानाञ्चोत्थानायायमनेकानि कार्याण्यकरोत्। ‘भारतीयाः मानवाः सर्वे शिक्षिताः स्युः’, अस्य एतत् चिन्तनमासीत्।।

शब्दार्थ इत्याख्यस्य = इस नाम वाले। स्थानेऽभवत् =स्थान पर हुआ। संगठितवान् = संगठित किया। दलितानाञ्चोत्थानायायमनेकानि = और दलितों के उत्थान के लिए अनेक, सर्वे शिक्षिताः स्युः = सभी शिक्षित हों।।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘दीनबंधु ज्योतिबा फुले’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

प्रसंग इस गद्यांश में ज्योतिबा फुले के जन्म और उनके गुणों के विषय में बताया गया है।

अनुवाद ज्योतिराव गोविन्दराव इस नाम वाले (पुरुष) का जन्म ग्यारह अप्रैल अठारह सौ सत्ताईस ई० में पुणे नामक स्थान पर हुआ। यह महात्मा फुले और ज्योतिबा फुले नामों से प्रचलित एक महान् भारतीय विचारक, समाजसेवक, लेखक, दार्शनिक और क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। सन् अठारह सौ तिहत्तर ई० में इन्होंने महाराष्ट्र में ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था को संगठित किया। नारियों और दलितों के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए। सभी भारतीय मानव शिक्षित हों, यह इनका चिन्तन था।

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(2)
तस्य पूर्वजाः पूर्वं सतारातः आगत्य पुणे नगरं प्रत्यागत्य पुष्पमालां गुम्फयन् स्वजीवनं निर्वापयामास। परिणामस्वरूपे मालाकारस्य कार्ये संलग्नाः इमे ‘फुले’ नाम्ना विख्याताः अभवन्। महानुभावोऽयं प्रारम्भिककाले मराठीभाषां अपठत् किन्तु दैववशात् अस्य शिक्षा मध्येऽवरुद्धा संजाता। सः पुनः पठितुं मनसि विचार्य एकविंशतिं वर्षस्यावस्थायां आंग्लभाषायाः सप्तम्याः कक्षायाः शिक्षा पूरितवान्। चत्वारिंशत् अधिकाष्टादशशतमे (1840) खीष्टाब्दे अस्य विवाहः सावित्री नाम्न्याः कन्यया साकमभवत्। अस्य भार्यापि स्वयमपि एका प्रसिद्ध समाजसेविका संजाता। समाजस्योन्नतये स्वभार्यया सह मिलित्वाऽयं दलितोत्थानाय स्त्रीशिक्षायै च कार्यमकरोत्।। (UPBoardSolutions.com) शब्दार्थ सतारातः आगत्य = सतारा से आकर पुष्पमालां गुम्फयन् =फूलमाला बनाते हुए। मालाकारस्य कायें संलग्नाः = माली के कार्य में संलग्न होने से। दैववशात् =भाग्यवश होकर| मनसि विचार्य = मन से सोचकर। भार्यापि = पत्नी भी। स्त्रीशिक्षायै = स्त्री-शिक्षा के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक दीनबंधु ज्योतिबा के उपनाम तथा शिक्षा के विषय में बताते हुए लिखता है।

अनुवाद उनके पूर्वज पहले सतारा से आकर पुणे नगर में पुनः लौटकर फूलमाला बनाते हुए अपने जीवन का निर्वाह करने लगे। इसके परिणामस्वरूप माली के कार्य में संलग्न होने के कारण ये ‘फुले’ नाम से विख्यात हो गये। इस महोदय ने प्रारम्भिक काल में मराठी को पढ़ा किन्तु भाग्यवश इनकी शिक्षा बीच में ही रुक गयी। उन्होंने पुनः पढ़ने का विचार करके इक्कीस वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी भाषा से सातवीं कक्षा की शिक्षा पूरी की। सन् 1840 ई० में इनका विवाह सावित्री नाम की कन्या के साथ हुआ। इनकी पत्नी भी स्वयं ही एक प्रसिद्ध समाजसेविका हुईं। समाज की उन्नति के लिए अपनी पत्नी के साथ मिलकर इन्होंने दलितों के उत्थान और स्त्री-शिक्षा के लिए कार्य किए।

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(3)
ज्योतिबा फुले भारतीयसमाजे प्रचलिताः जात्याः आधारिताः विभाजनस्य पक्षौ नाऽसीत्। सः वैधव्ययुक्तानां नारीणाम् एवम् अपराणां नारीणां कृते महत्त्वपूर्ण कार्यं कृतवान्। कृषकाणां दशां वीक्ष्य दुःखितोऽयं तेषाम् उद्धाराय सतत् प्रयत्नशीलः आसीत्। ‘स्त्रीणामसफलतायाः कारणं तेषामशिक्षैव विद्यते’ इति विचार्य सः अष्टाचत्वरिंशत् अधिकाष्टदशखष्टाब्दे एकः विद्यालयः संचालितवान् अस्य कार्याय देशस्यायं प्रथमो विद्यालयः आसीत्। बालिका शिक्षायै शिक्षिकायाः स्वल्पतां दृष्ट्वा सः स्वयमेव शिक्षकस्य भूमिका निर्वहत्। अनन्तरं स्वभार्या शिक्षिकारूपेण नियुक्तवान्। उच्च सवंर्गीयाः जनाः प्रारम्भ कालादेव तस्य कार्ये बाधां स्थापयितु कटिबद्धाः आसन्। परञ्च अयं (UPBoardSolutions.com) स्वकार्ये प्रयतमानः अग्रगण्यः अभवत्। तं अग्रे गतिशीलं दृष्ट्वा ते दुर्जनाः तस्य पितरं प्रति अशोभनीयं कथनमुक्ता। दम्पत्तिं स्वगृहात् बहिः प्रेषितवान्। स्वगृहात् बर्हिगमने सतितस्य कार्यावरुद्धं संजातम् परंच शीघ्रातिशीघ्रमेव सः बलिकाशिक्षायै त्रयोः विद्यालयाः उदघाटितवान्।

शब्दार्थ प्रचलितजात्याधारितविभाजनस्य = प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन के वैधव्ययुक्तानां नारीणाम् = विधवा स्त्रियों के अपराणां नारीणाम् = अन्य (दूसरी) नारियों के वीक्ष्य = देखकर/जानकर/समझकरे त्रीणामसफलतायाः कारणम् =स्त्रियों की असफलता का कारण स्वल्पता दृष्ट्वा = अपनी कमी को जानकर कार्ये बाधां स्थापयितुम = कार्य में अड़चन (बाधा डालने के लिए प्रयतमानः = प्रयास में लगे रहने वाले

प्रसंग इस गद्यांश में समाजसेवी ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद ज्योतिबा फुले भारतीय समाज में प्रचलित जातिगत विभाजन के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने विधवा स्त्रियों और दूसरी नारियों के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए, किसानों की दशा को देखकर दु:खी होकर ये उनके उद्धार के लिए सतत् प्रयत्नशील हुए। ‘स्त्रियों की असफलता का कारण उनकी अशिक्षा ही है। ऐसा विचार करके उन्होंने सन् 1848 ई० में एक विद्यालय चलाया। इस कार्य के लिए देश का यह प्रथम विद्यालय था। लड़कियों की शिक्षा के लिए अध्यापिकाओं की कमी जानकर (देखकर) उन्होंने स्वयं ही शिक्षक की भूमिका का निर्वहन किया। बाद में अपनी पत्नी को शिक्षिका के रूप में नियुक्त किया। उच्चवर्गीय लोग प्रारम्भिक काल से ही उनके कार्य में बाधा डालने के लिए कटिबद्ध थे। परन्तु ये अपने कार्य में निरन्तर अग्रगण्य रहे। उनकी आगे बढ़ने की गतिशीलता को देखकर उन दुर्जनों ने उनके पिता के प्रति अशोभनीय बातें भी कहीं। पति-पत्नी को अपने घर से बाहर भेज दिया। अपने घर से बाहर निकलने से उनका कार्य रुक गया, परन्तु अति शीघ्र ही उन्होंने बलिकाओं की शिक्षा के लिए तीन विद्यालय खोल दिए।

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(4)
अस्य हृदि सन्त-महात्मानं प्रति बहुरुचिरासीत्। तस्य विचारेषु ‘ईश्वस्य सम्मुखे नर-नारी सर्वे समानाः सन्ति, तेषु श्रेष्ठता लघुता अशोभनीया विद्यते। दलितजनानामसहायञ्च न्यायार्थं महापुरुषोऽयं ‘सत्यशोधक समाजम्’ स्थापितवान्। अस्य सामाजिक सेवाकार्यं विलोक्य अष्टाशीति अष्टादशशतख्रीष्टाब्दे मुम्बईनगरस्य एका विशाला सभा तं ‘महात्मा’ इत्युपाधिना अलङ्कृतवान्। ज्योतिबा महोदयेन ब्राह्मणेन पुरोहितेन बिनैव विवाहसंस्कारमकारयत्। (UPBoardSolutions.com) अस्य संस्कारस्य मुम्बई न्यायालयात् मान्यता संप्राप्ता। सः तु बालविवाहस्य विरोधं एवञ्च विधवाविवाहस्य समर्थकः आसीत्।

शब्दार्थ हृदि = हृदय में। विचारेषु = विचारों में। दलितजनानामसहायांनाञ्च = दलितों और असहाय जनों का। विलोक्य = देखकर

प्रसंग इस गद्यांश में लेखक ज्योतिबा फुले की रुचियों का ज्ञान तथा उनको मिली उपाधि आदि के विषय में चर्चा करता हुआ कहता है।

अनुवाद इनके (ज्योतिबा फुले के) हृदय में संत-महात्माओं के प्रति अत्यधिक रुचि थी। उनके विचारों में भगवान के सामने स्त्री-पुरुष सभी समान हैं और उनके बीच लघुता और श्रेष्ठता प्रकट करना अशोभनीय है। दलितों और असहाय जनों के न्याय के लिए इस महापुरुष ने ‘सत्यशोधक समाज’ स्थापित किया। इनके सामाजिक सेवा कार्य को देखकर 1888 ई० में मुम्बई नगर की एक विशाल सभा में इन्हें महात्मा’ इस उपाधि से अलंकृत किया गया। ज्योतिबा महोदय के द्वारा ब्राह्मण और पुरोहितों के बिना विवाह संस्कार कराया गया। इस संस्कार की मुम्बई न्यायालय से मान्यता मिली। वे बाल विवाह के विरोधक और विधवा विवाह के समर्थक थे।

(5)
स्वजीवनकाले स तु अनेकानि पुस्तकानि अलिखत्, यथा—तृतीयरत्नं, छत्रपतिशिवाजी, राजाभोसले इत्याख्यस्य पँवाडा, ब्राह्मणानां चातुर्यम्, कृषकस्य कशा अस्पृश्यानां समाचारं इत्यादयः। महात्मा ज्योतिबा एवं तस्य संगठनस्य संघर्ष कारणात् सर्वकारेण ‘एग्रीकल्चरएक्ट’ इति स्वीकृतम्। धर्मसमाजस्य परम्परायाः सत्यं सर्वेर्षां सम्मुखमानेतुं तेन अन्यानि अपराणि पुस्तकानि-रचितानि। ज्योतिबा बुद्धिमान् महान् क्रान्तिकारी-भारतीयविचारकः समाजसेवकः लेखकः दार्शनिकश्चासीत्। महाराष्ट्रनगरे धार्मिकसंशोधनमान्दोलनं प्रचलनासीत्। जातिप्रथामुन्मूलनार्थमेकेश्वरवादं स्वीकर्ते ‘प्रार्थना समाजस्य स्थापना संजाता। अस्य प्रमुखः (UPBoardSolutions.com) गोविन्द रानाडे आरजी भण्डारकरश्चासीत्। अयं महान् समाजसेवकः अस्पृश्यानां उद्धाराय सत्यशोधक समाजस्य स्थापनाम् अकरोत्। महात्मा ज्योतिबा फुले (ज्योतिराव गोविन्दराव फुले) महोदयस्य मृत्युः नवम्बर मासस्य अष्ट विंशति दिनांके नवत्यधिक अष्टादशशततमे खीष्टाब्दे (28 नवम्बर, 1890 ई०) पुणे नगरे अभवत्।।

शब्दार्थ स्वजीवनकाले = अपने जीवनकाल में। कृषकस्य कशाः = किसानों का कोड़ा। अस्पृश्यानां समाचारम् =अछूतों की कैफियत। सर्वेषां सम्मुखमानेतुम् = सभी के सामने लाने के लिए। जातिप्रथामुन्मूलनार्थम् =जाति प्रथा को जड़ से मिटाने के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा ज्योतिबा फुले के लेखन कार्य के द्वारा दी गई समाज-सेवा का उल्लेख किया गया है।

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अनुवाद अपने जीवनकाल में तो उन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की; जैसे–तीसरे रत्न छत्रपति शिवाजी, राजा भोसले आदि की जीवनियाँ, ब्राह्मणों की चतुरता, किसानों का कोड़ा, अछूतों की कैफियत
आदि। महात्मा ज्योतिबा एवं उनके संगठन के संघर्ष के कारण से सरकार के द्वारा ‘एग्रीकल्चर एक्ट स्वीकार किया गया। धर्म समाज की परम्परा की सत्यता को सबके सम्मुख लाने के लिए इनके द्वारा अनेक दूसरी पुस्तकों की रचना की गई। ज्योतिबा बुद्धिमान, महान् क्रान्तिकारी, भारतीय विचारक, समाजसेवक, लेखक और दार्शनिक थे। महाराष्ट्र नगर में धार्मिक संशोधन आन्दोलन प्रचलित था। जाति प्रथा को जड़ से उखाड़ने के लिए और एक ईश्वरवाद को स्वीकार करने के लिए प्रार्थना समाज’ की स्थापना की गई। इसके प्रमुख गोविन्द रानाडे और आर०जी० भण्डारकर थे। इस महान् समाजसेवक ने अछूतों के उद्धार के लिए सत्यशोधक समाज की स्थापना की। महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु 28 नवम्बर, 1890 ई० में पुणे नगर में हुई।

(6)
अस्पृश्यनां दुःखेनोन्मूलने अस्य भूमिका अकथनीया विद्यते। पुणेनगरे दलितानां गृतिः शोचनीयासीत्। उच्चजातीनां कुपात् जलं नेतुं ते मुक्ताः नासन्। ते दलितानामेतादृशीं दुर्दशां दृष्ट्वा-दृष्ट्वा तस्य हृदयं विदीर्णोजातः तदैव सः स्वमनसि विचारयामास यत् एषाम् दुःखम् दूरीकरणीयम्। अयं महापुरुषः तेषाम्। अमानवीयव्यवहारं दृष्ट्वा सः स्वगृहस्य जलसंचय कूपम् अपृश्यानां कृते मुक्तं कृतवान्। सः नगरपालिकायाः सदस्यः आसीत् अतः तेषां कृते सार्वजनिकस्थाने (UPBoardSolutions.com) जलसंचय कूपं स्यात् एतत् प्रबन्धनं कृतम्। मालाकारसमाजस्य महात्मा ज्योतिबा फुले एव एतादृशः महामानवः आसीत् यः निम्नजातीनां जनानां कृते समानतायाः अधिकारस्य आजीवनं कार्यमकरोत्।।

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शब्दार्थ दलितानां गतिः = दलितों की स्थिति हृदयं विदीर्णोजातः = मन दुःखी हो जाता था, जलसंचय कूपम् = पानी की हौज।।

प्रसंग अछूत जातियों के दुःख के उन्मूलन में इनकी भूमिका का वर्णन इस गद्यांश में किया गया है।

अनुवाद अछूत वर्ग (की जाति) के दु:खों को दूर करने में इनकी भूमिका अकथनीय है। पुणे नगर में दलितों की गति सोचनीय थी। उच्च जाति के लोगों के कुएँ से पानी लेने के लिए वे मुक्त नहीं थे (अर्थात् पानी नहीं ले सकते थे)। उन दलितों की ऐसी दुर्दशा देख-देखकर उनका हृदय विदीर्ण हो जाता था तभी उन्होंने अपने मन में विचार किया कि इनके दुःख को दूर करना होगा। इन महापुरुष ने उनके अमानवीय व्यवहार को देखकर अपने घर में जलसंचय करने के लिए कुएँ को अछूतों के लिए मुक्त कर दिया। वे नगरपालिका के सदस्य थे अत: उनके लिए सार्वजनिक स्थानों से जलसंचय करने के लिए कुआँ हो, ऐसा प्रबन्ध किया। माली समाज के महात्मा ज्योतिबा फुले ऐसे ही महामानव थे जिन्होंने निम्न जाति के लोगों के समानता के अधिकार के लिए आजीवन कार्य किया।

(7)
अस्य सहधर्मचारिणी सावित्रीबाई अस्य कार्येण प्रभाविता आसीत्। अतः सा नारी शिक्षयितुं कटिबद्धासीत्। यदा सा नारी पाठयितुं प्रारब्धवती तदैव दलितविरोधिनः उच्चस्वरैः विरोधं प्रकटयन उक्तवन्तः यत् एकाहिन्दूनारी शिक्षिका भूता समाजस्य धर्मस्य च विरोधं कर्तुं शक्नोति। नारी जातेः पठनं पाठनं वा धर्मविरुद्धं वर्तते। सावित्रीबाई यदा विद्यालयं गच्छति स्म तदा तस्योपरि मृत्तिका-गोमय-प्रस्तरखण्डान् नारीशिक्षाविरोधिनः प्रक्षेपयन्ति स्म एवञ्च व्यंग्यबाणैः अपीड़यन् तथापि सा स्वकर्तव्यात् विमुखा न सजाता| मराठी शिक्षकः शिवराम भवालकरः अस्याः प्रशिक्षकः आसीत्। इयं उपेक्षितानां दलितनारीणां कृते बहुविद्यालयं संचालितवती।।

शब्दार्थ सहधर्मचारिणी = धर्मपत्नी। पाठयितुं प्रारब्धवती = पढ़ाना आरम्भ किया, उच्चस्वरैः = ऊँची आवाजों में उक्तवन्तः = कहने लगे। गोमयम् = गोबर व्यंग्यबाणैः = उपहास के बाणों से।

प्रसंग इस गद्यांश में ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई के स्वभाव और सामाजिक कार्यों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई इनके कार्यों से प्रभावित थीं। अतः वे नारी शिक्षा के लिए कटिबद्ध थी। जब उन्होंने नारियों को पढ़ाना प्रारम्भ किया तभी दलित विरोधियों ने उच्च स्वरों में विरोध प्रकट करते हुए कहा कि एक हिन्दू नारी शिक्षक होने से समाज और धर्म का विरोध कर सकती है। नारी जाति को पढ़ना या पढ़ानी धर्म के विरुद्ध है। सावित्रीबाई जब विद्यालय जाती थीं तब उनके ऊपर मिट्टी-गोबर-पत्थर के टुकड़े नारी-शिक्षा के विरोधी फेंकते थे और व्यंग्य के बाणों से पीड़ित करते थे। तब भी वे अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं हुईं। मराठी शिक्षक शिवराम भवालकर इनके प्रशिक्षक थे। इन्होंने उपेक्षित दलित स्त्रियों के लिए अनेक विद्यालय संचालित किए।

(8)
द्विपंचाशताधिकाष्टादशखीष्टाब्दे फरवरीमासस्य सप्तदशदिनाङ्के अस्य विद्यालयस्य निरीक्षणं सजातम् परिणामस्वरूपे अस्य अष्टादशविद्यालयाः संचालिताः अभवन्। नवम्बरमासस्य षोडशदिनाङ्के ‘विश्रामबाडा’ इति स्थाने सार्वजनिव-अभिनन्दनसमारोहे अस्याः अभिनन्दनं सम्पन्नम्। अस्माकं देशस्य इतिहासे सावित्री फूले प्रथमा दलिताशिक्षिकायाः गौरवेणालङ्कृता।

शब्दार्थ निरीक्षणं सञ्जातम् = निरीक्षण किया गया। इति स्थाने = इस नाम वाले स्थान पर। देशस्य इतिहासे = देश के इतिहास में।।

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प्रसंग इस गद्यांश में ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई’ के द्वारा शिक्षा जगत् के लिए किया गया प्रयास और उनकी सफलता का वर्णन किय गया है।

अनुवाद सत्रह फरवरी, सन् 1852 ई० में इनके (UPBoardSolutions.com) विद्यालय का निरीक्षण हुआ जिसके परिणामस्वरूप इनके अठारह विद्यालय संचालित हुए। नवम्बर मास की सोलह दिनांक को विश्रामबाडा नामक स्थान पर सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह में इनका अभिनन्दन किया गया। हमारे देश के इतिहास में सवित्री फुले प्रथम दलित शिक्षिका के गौरव से अलंकृत हुईं।

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Class 10 Sanskrit Chapter 11 UP Board Solutions जीवनं निहितं वने Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 11 Jeevanam Nihitam Vane Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 11 हिंदी अनुवाद जीवनं निहितं वने के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

भारतवर्ष के लोगों द्वारा वनों का सदा से आदर किया जाता रहा है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि वनों में ही आश्रम बनाकर रहते थे। वैदिक धर्म में जो चार आश्रम माने गये हैं उनमें तीसरा आश्रम, अर्थात् वानप्रस्थाश्रम; वनों से ही सम्बन्धित है। वैदिक वाङ्मय के एक भाग ‘आरण्यक्’ ग्रन्थ हैं। अरण्य में रचित होने के कारण ही इन्हें यह नाम दिया गया है। वनों का ऐतिहासिक, आध्यात्मिक महत्त्व होने के साथ-साथ भौतिक महत्त्व भी है। वनों से (UPBoardSolutions.com) हमें लकड़ी, ओषधियाँ तथा अन्य बहुत-सी उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से आज वातावरण दूषित हो गया है, वर्षा कम हो रही है, गरमी बढ़ रही है और भूमिगत जल का स्तर भी कम होता जा रहा है। अतः जीवन को सुचारु रूप से चलाने, पर्यावरण को सुरक्षित करने तथा वन्य-जीवों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि वनों की अनियन्त्रित कटाई पर रोक लगायी जाए तथा जो वृक्ष काटे जा चुके हैं, उनके स्थान पर नये पौधे लगाये जाएँ। प्रस्तुत पाठ में उपर्युक्त सभी तथ्यों पर प्रकाश डालकर जीवन में वन के महत्त्व को समझाया गया है।

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पाठ-सारांश [2006,07,08, 10, 11, 12, 14]

वनों का महत्त्व ‘वन’ शब्द सुनने से ही मन में कुछ भय और आदर उत्पन्न होता है। भय इसलिए कि वन में सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक पशु और अजगर आदि सर्प रहते हैं। वन में इतनी निर्जनता होती है कि विपत्ति में पड़े हुए मानव को करुण-क्रन्दन वन में ही विलीन हो जाता है। आदर इसलिए कि हमारे भौतिक
और सांस्कृतिक विकास में वनों का बड़ा योगदान है। ब्रह्म विद्या के विवेचक, उपनिषद् आदि ग्रन्थों की रचना वनों में ही हुई। तपोवनों में दशलक्षणात्मक मानव धर्म और पुरुषार्थ चतुष्टयों का आविर्भाव हुआ है। इसलिए प्राचीन काल में लोगों ने वन के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की। वन मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप में जो कुछ प्रदान करते हैं उससे कहीं अधिक वे परोक्ष रूप में देते हैं। इसलिए प्राचीन लोग वृक्षों को पुत्रवत् । पालते थे और वन्य जन्तुओं की रक्षा करते थे।

वनों की रक्षा के प्रयास लोभी मनुष्य अपने थोड़े-से लाभ के लिए वनों को इस प्रकार लगातार काटता जा रहा है कि एकाएक उसके स्वयं के जीवन के लिए भी संकट पैदा हो गया है; क्योंकि जीवन अन्नमय है। अन्न कृषि से उत्पन्न होता है और कृषि हेतु अनुकूल वातावरण बनाने के लिए वनों की अत्यधिक आवश्यकता है। यही कारण है कि आजकल संसार में सभी राष्ट्र वनों की रक्षा करने में लगे हुए हैं। भारत में भी सरकार के द्वारा लोगों को वन-संरक्षण के प्रति जागरूक करने के लिए आन्दोलन चलाये जा रहे हैं और वन-महोत्सव आयोजित किये जा रहे हैं। इनके माध्यम से लोगों को अधिकाधिक वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

वनों के प्रकार वनों की रचना वनस्पति और पक्षियों सहित जन्तुओं से होती है। मनुष्य को दोनों से ही पर्याप्त लाभ हैं। वृक्षों से फल, फूल, ईंधन और मकान बनाने की लकड़ी प्राप्त होती है। औद्योगिक उत्पादन के लिए उपयोगी जैतून का तेल और दूसरे उपयोगी द्रव-पदार्थ भी वनस्पतियों से ही उपलब्ध होते हैं। आजकल प्रचलित वस्त्रों के निर्माण में काम आने वाले तन्तुओं को बनाने में एक विशिष्ट प्रकार के वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग होता है। वृक्षों की शाखाओं से सन्दूक आदि गृहोपयोगी सामग्री का निर्माण होता है। रस्सी और चटाइयाँ भी वनस्पति से ही निर्मित होती हैं। इस प्रकार वनस्पतियों को बिना विचारे काटना महापाप है। यदि (UPBoardSolutions.com) किसी विशेष परिस्थिति में वृक्ष काटने ही पड़े तो वृक्षों की हानि की पूर्ति के लिए अतिरिक्त वृक्षों को लगाया जाना चाहिए। हरे वृक्षों के काटने पर रोक लगायी जानी चाहिए। वन वायु-शुद्धि, भू-क्षरण निरोध और बादलों को बरसने में सहायता करके मानव का उपकार करते हैं।

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पशु-पक्षियों की रक्षा वृक्षों के काटने के समान ही मनुष्यों ने जंगली जानवरों का भी विनाश किया है। खाल, दाँत, पंख आदि के लालच से मनुष्य ने इतने अधिक पशु-पक्षियों का वध कर दिया है कि उनकी न जाने कितनी जाति-प्रजातियाँ ही नष्ट हो गयीं। वह सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं को ही नहीं, वरन् हिरन जैसे भोले-भाले, सुन्दर पशुओं को भी मारने लगा है। हिंसक पशु भी प्रकृति का सन्तुलन कर मनुष्य को महान् उपकार करते हैं। पक्षी कृषि को हानि पहुँचाने वाले कीड़ों को, तीतर दीमकों को, सिंह आदि भी अन्य पशुओं को मारकर उनको अधिक बढ़ने से रोकते हैं। अतः मनुष्य को वन्य जन्तुओं और पशु-पक्षियों की रक्षा करनी चाहिए।

भारत में पक्षियों की साढ़े बारह सौ प्रजातियाँ पायी जाती हैं। वे ऋतु-परिवर्तन, प्रजनन और भोजन-प्राप्ति के कारणों से अन्यत्र जाते हैं और वापस यहाँ आते हैं। शीतकाल में साइबेरिया से हजारों पक्षी भरतपुर के पास घाना पक्षी-विहार में आते हैं। पक्षियों की मित्रता, दाम्पत्य-प्रेम, काम-व्यापार, भोजन की विधियाँ, घोंसले बनाना और विपत्ति में अपनी रक्षा करना, ये सब मनुष्य के लिए अध्ययन के विषय हैं।

विश्नोई जाति द्वारा वृक्षों का संरक्षण हमारे देश में सलीम अली ने पक्षी-विज्ञान के सम्बन्ध में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। हरियाणा और राजस्थान में विश्नोई सम्प्रदाय के लोग प्राण देकर. भी पशु-पक्षियों और हरे वृक्षों की रक्षा करते हैं। वृक्षों को न काटने देने और उनका संरक्षण-संवर्द्धन करने में इस जाति के लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जोधपुर नरेश की आज्ञा से वृक्षों को काटे जाने पर 300 विश्नोई स्त्री-पुरुषों ने अपने प्राण त्याग दिये थे। हमें भी वृक्षों के संरक्षण-संवर्द्धन हेतु इनके जैसा ही उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।

वनों से ग्राह्य लाभ वनों से जो लाभ प्राप्त करने योग्य हैं, उन्हें अवश्य प्राप्त करना चाहिए। योजना बनाकर ही पुराने वृक्षों को काटना चाहिए और उनसे दुगुने नये वृक्ष पहले ही लगा देने चाहिए। घरों के आँगनों में, खेतों की सीमाओं पर, पर्वतों की तलहटियों में, खेल के मैदान में चारों ओर तथा मार्गों के दोनों ओर जितना भी स्थान मिले, वृक्ष लगाने चाहिए। यह कार्य योजनाबद्ध रूप में किया जाना चाहिए। जन्म-मृत्यु और विवाह के अवसरों पर वृक्ष लगाये जाने चाहिए। यदि योजना बनाकर उत्साहपूर्वक वृक्ष लगाये जाएँ और उनका पोषण किया जाए तो अभी भी क्षतिपूर्ति हो सकती है। वन-संरक्षण के लिए हमें-‘वनेन जीवनं

रक्षेत्, जीवनेन वनं पुनः– आदर्श का पालन करना चाहिए।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
वनमिति शब्दः श्रुतमात्र एव कमपि दरमादरं वा मनसि कुरुते। तत्र सिंहव्याघ्रादयो भयानका हिंस्रकाः पशवोऽजगरादयो विशालाश्च सरीसृपाः वसन्ति, निर्जनता तु तादृशी यत्तच्छायायामापदि निपतितस्य जनस्य आर्तः स्वरो मानवकणें प्रविशेदिति घुणाक्षरीयैव सम्भावना, प्रायशस्तु स वनगहन एव विलीयेतेति नियतिः। एतां स्थितिमेव विबोध्य संस्कृते मनीषिभिररण्यरोदनन्याय उद्भावितः। सत्यमेव स्थितिमेतामनुस्मृत्यापि भिया वपुष्येकपदे एव रोमाञ्चो जायते। परन्त्वस्माकं न केवलं भौतिके प्रत्युत सांस्कृतिकेऽपि विकासे वनानां सुमहान् दायो यत आरण्यकोपनिषदादयः पराविद्याविवेचका ग्रन्थाः वनेष्वेवाविर्भूताः। वनस्थेषु (UPBoardSolutions.com) तपोवनेष्वेव दशलक्षणात्मको मानवधर्मश्चतुष्टयात्मकं जीवनोद्देश्यं च उत्क्रान्तमितीतिहासः सुतरां प्रमाणयति तस्मात् वनेष्वस्माकमादरोऽपि भवति। प्राक्तनैस्तु वनं विना जीवनमेव न परिकल्पितम्। संस्कृतकवीनां वनदेवताकल्पना वानप्रस्थाश्रमे च वननिवासविधानं तदेव सङ्केतयति। एतदपि बोध्यं यत् प्रत्यक्षतो वनानि मनुजजात्यै यावद् ददति परोक्षतस्तु ततोऽप्यधिकम्, तस्मादेव कारणात् प्राञ्चः स्वपुत्रकानिव पादपान् पालयन्ति स्म जन्तूञ्च रक्षन्ति स्म, अजर्यं तेषां तैः सङ्गतमासीत्।

शब्दार्थ श्रुतमात्र एव = सुनते ही दरम् = भय। आदरम् = आदर। हिंस्रकाः = हिंसा करने वाले। सरीसृपाः = सर्प आदि रेंगने वाले जन्तु। तादृशी = उसी प्रकार की। यत्तच्छायायामापदि (यत् + तत् + छायायाम् + आपदि) = कि उसकी छाया में आपत्ति में। घुणाक्षरीयः = घुणाक्षर न्याय से, संयोग से, अकस्मात्। विलीयेत = नष्ट हो जाये। नियतिः = भाग्य। विबोध्य = जानकर। अरण्यरोदनन्यायः = वन में रुदन करने की कहावता उद्भावितः = कल्पना की है। वपुष्येकपदे (वपुषि + एकपदे) = शरीर में एक साथ)। दायः = योगदान आरण्यकोपनिषदादयः = आरण्यक उपनिषद् आदि। पराविद्या = आध्यात्मिक विद्या। वनेष्वेवाविर्भूताः (वनेषु + एव + आविर्भूताः) = वन में ही प्रकट हुए हैं। वनस्थेषु = वनों में स्थिता तपोवनेष्वेव = तपोवनों में ही। उत्क्रान्तम् = प्रकट हुआ। प्राक्तनैः = प्राचीन विद्वानों के द्वारा| वननिवासविधानम् = वन में निवास करने का नियम्। बोध्यम् = जानना चाहिए। मनुजजात्यै = मनुष्य जाति के लिए यावद् ददति = जितना देते हैं। परोक्षतस्तु = अप्रत्यक्ष रूप से तो। प्राञ्चः = प्राचीन पुरुष। अजय॑म् = अटूट, कम न होने वाला। सङ्गतमासीत् = सम्बन्ध था।

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सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संगृहीत ‘जीवनं निहितं वने’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों में यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग इस गद्यावतरण में वनों की भयंकरता तथा आध्यात्मिक महत्व के बारे में बताया गया है।

अनुवाद ‘वन’ यह शब्द केवल सुननेमात्र से ही मन में कुछ डर और आदर (उत्पन्न) करता है। वहाँ सिंह, व्याघ्र आदि भयानक हिंसक पशु, अजगर आदि विशाल सर्प (रेंगने वाले विषैले जीव) रहते हैं। वहाँ निर्जनता वैसी है कि उसकी छाया में आपत्ति में पड़े मनुष्य का करुण-क्रन्दन मानव के कान में प्रवेश कर जाये, यह घुणाक्षर न्याय; अर्थात् संयोग से ही सम्भव है, प्रायः वह (आर्त स्वर) वन की गहनता में स्वाभाविक रूप से विलीन हो जाता है। इस स्थिति में जान करके संस्कृत में विद्वानों ने ‘अरण्यरोदन न्याय की कल्पना की है। सचमुच में ही, इस स्थिति को याद करके भी डर से शरीर में एकदम ही रोमांच हो जाता है, परन्तु हमारे केवल भौतिक विकास में ही नहीं, प्रत्युत सांस्कृतिक विकास में भी वनों का बहुत बड़ा योगदान है; क्योंकि आरण्यके, उपनिषद् आदि अध्यात्म विद्या का विवेचन करने वाले ग्रन्थ वनों में ही रचे गये। वनों में स्थित तपोवन में ही दस लक्षणों वाला मानव धर्म, पुरुषार्थ चतुष्टयों से युक्त जीवन का उद्देश्य प्रकट हुआ, ऐसा (यह) इतिहास अच्छी तरह प्रमाणित करता है। इस कारण (UPBoardSolutions.com) वनों के विषय में हमारा आदर भी होता है। प्राचीन विद्वानों ने वन के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की। संस्कृत कवियों की वन-देवता की कल्पना करना और वानप्रस्थ आश्रम में वन में रहने का नियम उसी (बात) का संकेत करता है। यह भी समझ लेना चाहिए कि प्रत्यक्ष रूप से वन मनुष्य जाति को जितना देते हैं, परोक्ष रूप से उससे भी अधिक देते हैं। इसी कारण से प्राचीन लोग वृक्षों का अपने पुत्र के समान पालन करते थे और वन के प्राणियों की रक्षा करते थे। उनके साथ उनका अटूट सम्बन्ध था।

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(2)
किन्तु हन्त! निरन्तरविवर्धितसङ्ख्यो विवृद्धलोभो मानवस्तात्कालिकाल्पलाभहेतोर्विचारमूढ़तया वनानि तथा अचीकृन्तत् चङकृन्तति च यत्तस्य निजजीवनस्यैव नैकधा भीरुपस्थिता, जानात्येव लोको यज्जीवनमन्नमयम्, अन्नं च कृष्योत्पाद्यम्, कृषिविकासार्थं समुचितं वातावरणं घटयितुं प्राकृतिकं सामञ्जस्यं च रक्षितुं वनानामद्यत्वे यादृश्यावश्यकता न तादृशी क्वापि पुराऽन्वभूयत्। यतोऽहर्निशं विद्यमानानां वनानां तावानेवांशोऽवशिष्टः यावान् भारतभूभागस्य प्रतिशतं केवलमेकादशमंशमावृणोति, तत्राप्युत्कृष्टवनानि तु प्रतिशतं चतुरंशात्मकान्येव। भद्रमिदं यदधुना विश्वस्य सर्वेष्वपि राष्ट्रेषु वनानां रक्षार्थं प्रयासाः क्रियन्ते। भारतेऽपि सर्वकारेण तदर्थं जनं प्रबोधयितुमेकमान्दोलनमेव चालितं यदधीनं समये-समये नैकत्र वनमहोत्सवा आयोज्यन्ते, व्यक्तयः सार्वजनीनाः संस्थाश्चापि वृक्षान् रोपयितुं प्रोत्साह्यन्ते।

शब्दार्थ निरन्तरविवर्धितसङ्ख्यः = लगातार बढ़ती हुई संख्या वाला। मानवस्तात्कालिकालाभहेतोर्विचारमूढतया = मनुष्य ने तुरन्त होने वाले थोड़े लाभ के कारण विचारहीनता से। अचीकृन्तत् = काट डाला। कृन्तति = काट रहा है। नैकधा (न + एकधा) = अनेक प्रकार से। भीः = भय। कृष्योत्पाद्यम् = खेती (कृषि) के कारण उत्पन्न होने वाला। घटयितुम् = जुटाने (बनाने के लिए। सामञ्जस्यम् = सन्तुलन, तालमेल। पुरा = पहले। अन्वभूयत् = अनुभव की गयी। अहर्निशम् = रात-दिन। तावानेवांशोऽवशिष्टः (तावान् + एव + अंशः + अवशिष्टः) = उतना ही भाग बचा है। आवृणोति = ढकता है। तत्रापि = उनमें भी। चतुरंशात्मकान्येव = चार भाग ही है। सर्वकारेण = सरकार ने। प्रबोधयितुम् = जाग्रत करने के लिए। नैकत्र = अनेक स्थानों पर। आयोज्यन्ते = आयोजित किये जाते हैं। प्रोत्साह्यन्ते = प्रोत्साहित किये जाते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में अल्प लाभ के लिए स्वार्थी मनुष्य के द्वारा वनों के काटे जाने और सरकार द्वारा वृक्षारोपण को प्रोत्साहित किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद किन्तु खेद है, निरन्तर बढ़ी हुई संख्या (जनसंख्या) वाले और बढ़े हुए लोभ वाले मानव ने तात्कालिक थोड़े-से लाभ के लिए विचारशून्य होने से वनों को इस प्रकार काट डाला और अभी भी काट रहा है कि उसके अपने जीवन को ही अनेक प्रकार से भय उत्पन्न हो गया है। संसार जानता ही है कि जीवन अन्नमय है और अन्न कृषि से उत्पन्न होता है। कृषि के विकास के लिए समुचित वातावरण जुटाने के लिए और प्रकृति के सन्तुलन की रक्षा (बनाये रखने) के लिए आज के समय में वनों की जैसी आवश्यकता है, वैसी पहले कहीं भी अनुभव नहीं की गयी; क्योंकि रात-दिन विद्यमान वनों का उतना ही अंश बचा है, जितना (UPBoardSolutions.com) भारत की भूमि के केवल 11 प्रतिशत भाग को ही ढक पाता है। उसमें भी अच्छे वन तो चौथाई प्रतिशत ही हैं। यह अच्छा है कि अब विश्व के सभी राष्ट्रों में वनों की रक्षा के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। भारत में भी सरकार ने उसके लिए लोगों को जागरूक करने के लिए एक आन्दोलन ही चला रखा है, जिसके अन्तर्गत समय-समय पर अनेक जगह वन-महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, व्यक्तियों और सार्वजनिक संस्थाओं को भी वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

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(3)
वनसङ्घटकास्तावद् द्विविधा वनस्पतयः सविहगा जन्तवश्च। उभयस्मादपि मानवस्य लाभस्तद् द्वयमपि च यथायोग्यं रक्षणीयम्। वृक्षेभ्यो न केवलं फलानि, पुष्पाणि, इन्धनार्माणि भवनयोग्यानि च काष्ठानि, अपितु भैषज्यसमुचितानि नानाप्रकाराणि वल्कलमूलपत्रादीनि वस्तून्यपि लभ्यन्ते, नानाविधौद्योगिकोत्पादनसमुचितानि जतूनि, तैलानि तदितरद्रवपदार्थाश्चापि प्राप्यन्ते। स्वास्थ्यकरं मधुरं सुस्वादु औषधभोजनं मधु अपि वनपतिभ्यः एवोपलभ्यते। कर्गदस्येव नाइलोन इति प्रसिद्धस्य उत्तमपटनिर्मितिप्रयुक्तस्य सूत्रस्योत्पादनेऽपि वृक्षविशेषाणां काष्ठमुपादानं जायते। तेषां शाखानामुपयोगो मञ्जूषापेटिकादिनिर्माण क्रियते। रज्जवः कटाश्चापि वानस्पतिकमुत्पादनमिति कस्याविदितम्? एवंविधस्य वनस्पतिसमूहस्य अविचारितकर्तनं न केवलं कृतघ्नता, अपितु ब्रह्महत्येव महापातकमपि। सम्प्रति यावद् वनानां या हानिः कृता तत्पूर्त्यर्थं हरितवृक्षाणां कर्तनावरोधो नूतनानां प्रतिदिनमधिकाधिकारोपश्च सर्वेषामपि राष्ट्रियं कर्तव्यम्। वायुशुद्धिः, भूक्षरणनिरोधः पर्जन्यसाहाय्यं च वनानां मानवस्य जीवनप्रदः परोक्ष उपकारः।

वनसङ्कटकास्तावद …………………………………………… पदार्थाश्चापि प्राप्यन्ते।

शब्दार्थ वनसङ्कटकास्तावत् = वनों का संघटन करने वाली। सविहगाः = पक्षियों सहिता ईन्धनार्माणि = ईंधन के योग्य। भैषज्यसमुचितानि = दवाई के योग्य। जतूनि = लाख। औषधभोजनम् = औषध और भोजन। कर्गदस्येव = कागज़ के समान ही। उत्तमपटनिर्मितिप्रयुक्तस्य = उत्तम कपड़ों के बनाने में प्रयुक्त होने वाले को। उपादानम् = प्रमुख कारण। मञ्जूषा = सन्दूका रज्जवः = रस्सियाँ। कटाः = चटाइयाँ। वानस्पतिक-मुत्पादनमिति = वनस्पतियों से होने वाला उत्पादन है, ऐसा। अविचारितकर्तनम् = बिना विचारे काटना। महापातकमपि = महापाप भी। कर्त्तनावरोधः = काटने पर रोका आरोपः = लगाना| पर्जन्यसाहाय्यम् = मेघों की सहायता।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में वनों में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लाभों को बताया गया है।

अनुवाद वनों के संघटक (रचना करने वाले तत्त्व) दो प्रकार के होते हैं-वनस्पतियाँ और पक्षियोंसहित जीव-जन्तु। दोनों से ही मनुष्य का लाभ है। इसलिए उन दोनों की यथायोग्य रक्षा करनी चाहिए। वृक्षों से केवल फल, फूल, ईंधन के योग्य और मकान बनाने के योग्य लकड़ियाँ ही प्राप्त नहीं होती हैं, अपितु ओषधियों के योग्य नाना प्रकार के वल्कल (छाल), जड़े, पत्ते आदि. वस्तुएँ भी प्राप्त होती हैं। नाना प्रकार के औद्योगिक उत्पादन के योग्य लाख, तेल और द्रव पदार्थ भी प्राप्त होते हैं। स्वास्थ्यकारी, मीठा, स्वादिष्ट, औषध में खाने योग्य शहद भी वनस्पतियों से ही प्राप्त होता है। कागज के समान नाइलोन नाम से प्रसिद्ध, उत्तम कपड़ों के बनाने के काम में आने वाले धागे के उत्पादन में भी विशेष वृक्षों की लकड़ी सामग्री (कच्चे माल) का काम करती है। उनकी शाखाओं का उपयोग सन्दूक, पेटी आदि के बनाने में (UPBoardSolutions.com) किया जाता है। रस्सियाँ और चटाइयाँ भी वनस्पतियों से ही बनती हैं, यह किसे अज्ञात है? इस प्रकार की वनस्पतियों के समूह का बिना विचारे काटना केवल कृतघ्नता ही नहीं है, अपितु ब्रह्म-हत्या के समान महान् पाप भी है। अब तक वनों की जो हानि की गयी, उसकी पूर्ति के लिए हरे वृक्षों के काटने पर रोक और प्रतिदिन अधिक-से अधिक नये (वृक्षों को) लगाना सभी का राष्ट्रीय कर्तव्य है। वायु की शुद्धता, पृथ्वी के कटाव को रोकना और मेघों की सहायता करना वनों का मनुष्यों को जीवन प्रदान करने वाला परोक्ष (अप्रत्यक्ष) उपकार है।

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(4)
यथा वृक्षाणामुच्छेदस्तथैव मानवेन वन्यजन्तूनामप्यमानवीयो विनाश आचरितः।। चर्मदन्त-पक्षादिलोभेन मांसलौल्येन च पशुपक्षिणां तावान् वधः कृतो यदनेकास्तेषां प्रजातयो भूतलाद् विलुप्ताः, नैकाश्च लुप्तप्रायाः। सिंहव्याघ्रादीनां तु दूर एवास्तां कथा, हरिणादिमुग्धपशूनु तित्तिरादिकान् उपयोगिनः पक्षिणोऽपि निघ्नन्नासौ विरमति। हिंस्रकाः जन्तवोऽपि प्राकृतिक सन्तुलनं रक्षन्ति मनुष्यस्य चोपकारका एव भवन्ति। पक्षिणः कृषिहानिकरान् कीटान् भक्षयन्ति यथा तित्तिरः सितपिपीलिकाः तथैव सिंहादयाः पशून हत्वा परिसीमयन्ति। एवं स्वत एवं प्रकृतिः स्वयं सन्तुलनं साधयति। एवमद्यानुभूयते यत् मनुष्यस्य तदितरेषां प्राणिनां च मध्ये सौहार्दै स्थापनीयम्। तत्र मनुष्य एव प्रथमं प्रबोधनीयः शिक्षणीयश्च यतः स निरर्थकं मनोरञ्जनायापि मृगयां क्रीडन् हिंसा करोति।

यथा वृक्षाणामुच्छेदः …………………………………………… एव भवन्ति [2008]

शब्दार्थ वृक्षाणां = वृक्षों को। उच्छेदः = काटना| पक्ष = पंख। लौल्येन = लालच से। दूर एव आस्तां कथा = दूर ही रहे कहानी। तित्तिरादिकान् = तीतर आदि को। निघ्नन् = मारते हुए। विरमति = रुकता है। सितपिपीलिकाः = दीमक परिसीमयन्ति = सीमित कर देते हैं। एवमद्यानुभूयते = इस प्रकार आज अनुभव किया जा रहा है। सौहार्दम् = मित्रता। मृगयां क्रीडन् = शिकार खेलता हुआ।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मानव द्वारा वन्य पशु-पक्षियों के विनाश करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद मानव ने जिस प्रकार वृक्षों को काटा, उसी प्रकार जंगली जानवरों का भी अमानवीय (नृशंस) विनाश किया। खाल, दाँत, पंख आदि के लालच से और मांस के लालच से पशु-पक्षियों का इतना वध किया है। कि उनकी अनेक जातियाँ पृथ्वी से ही लुप्त हो गयीं और अनेक समाप्त होने वाली (लुप्तप्राय) हैं। सिंह, बाघ आदि की बात तो दूर है, हिरन आदि भोले-भाले पशुओं, तीतर आदि उपयोगी पक्षियों को भी मारते हुए (वह) नहीं रुक रहा है। हिंसक जानवर भी प्रकृति के सन्तुलन की रक्षा करते हैं और मनुष्य का उपकार करने वाले ही। होते हैं। पक्षी खेती को हानि पहुँचाने वाले कीड़ों को खाते हैं। जैसे तीतर सफेद चीटियों (दीमकों) को, उसी प्रकार सिंह आदि (भी अन्य) पशुओं को मारकर (उनकी वृद्धि को) सीमित कर देते हैं। इस प्रकार प्रकृति स्वयं ही अपना सन्तुलन कर लेती है। इस प्रकार आज अनुभव किया जा रहा है कि मनुष्य और उससे भिन्न प्राणियों के बीच में मित्रता स्थापित होनी चाहिए। उनमें पहले मनुष्य को ही समझाना चाहिए और शिक्षा देनी चाहिए, क्योंकि वह व्यर्थ ही मनोरंजन के लिए भी शिकार खेलता हुआ हिंसा करता है।

(5)
अस्माकं विशाले भारतवर्षे सार्धद्वादशशतजातीयाः पक्षिणः प्राप्यन्ते। तेषु बहवः ऋतुपरिवर्तनकारणात् प्रजननहेतोभॊजनस्य दुष्प्राप्यत्वात् काले-काले पत्र व्रजन्ति। एवमेव देशान्तरादपि बहवः पक्षिणोऽत्रागत्य प्रवासं कुर्वन्ति। रूसप्रदेशस्य साइबेरियाप्रान्तात् सहस्रशो विहगाः शीतकाले (UPBoardSolutions.com) भारतस्य भरतपुरनिकटस्थे घानापक्षिविहारम् आगच्छन्ति। पक्षिणां मैत्रीभावः, दाम्पत्यं, मिथो व्यापाराः, भोजनविधयः, नीइनिर्माणं विपदि आचरणं सर्वमपि प्रेक्षं प्रेक्षमध्येयं भवति। तन्न केवलं मनोरञ्जकमपितु शिक्षाप्रदमात्मानन्दजनकं चापि भवति।

शब्दार्थ सार्धद्वादशशतजातीयाः = साढ़े बारह सौ जातियों वाले। प्राप्यन्ते = प्राप्त होते हैं। परत्र = दूसरे स्थान पर। व्रजन्ति = चले जाते हैं। देशान्तरादपि = दूसरे देश से भी। प्रवासं = निवास। मिथो व्यापाराः = काम-व्यापार नीडनिर्माणम् = घोंसला बनाना। विपदि आचरणम् = विपत्ति में आचरण| प्रेक्षं-प्रेक्षं = देख-देखकर।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में भारत में विद्यमान पक्षी-प्रजातियों और दूसरे देशों से आने वाले पक्षियों के बारे में बताया गया है।

अनुवाद हमारे विशाल भारत देश में साढ़े बारह सौ जाति के पक्षी प्राप्त होते हैं। उनमें बहुत-से ऋतु-परिवर्तन के कारण, प्रजनन के लिए, भोजन कठिनाई से प्राप्त होने के कारण समय-समय पर दूसरी जगह चले जाते हैं। इसी प्रकार दूसरे देशों से भी बहुत-से पक्षी यहाँ आकर निवास करते हैं। रूस देश के ‘साइबेरिया’ प्रान्त से ठण्ड के समय में हजारों पक्षी भारत के ‘भरतपुर’ नामक स्थान के समीप घाना पक्षीविहार में आते हैं। पक्षियों की मित्रता, दाम्पत्य-प्रेम, आपसी व्यवहार (काम-व्यापार), भोजन के तरीके, घोंसले बनाना, विपत्ति के समय उनका व्यवहार सभी के लिए बार-बार दर्शनीय और अध्ययन के योग्य होता है। वह केवल मनोरंजन करने वाला ही नहीं, अपितु शिक्षाप्रद और आत्मा से आनन्द उत्पन्न करने वाला भी होता है।

(6)
अस्माकं देशे सलीमअलीनामा महान् विहगानुवीक्षको जातो येन पक्षिविज्ञानविषये बहूनि पुस्तकानि लिखितानि सन्ति। हरियाणाप्रदेशे राजस्थाने च निवसन्तो विश्नोईसम्प्रदायस्य पुरुषा वनानां पक्षिणां च रक्षणे स्वप्राणानपि तृणाय मन्यन्ते। न ते हरितवृक्षान् छिन्दन्ति नापि चान्यान् छेत्तुं सहन्ते। वन्यपशूनामाखेटोऽपि तेषां वसतिषु नितरां प्रतिषिद्धः। जोधपुरनरेशस्य प्रासादनिर्माणार्थं काष्ठहेतोः केजरीवृक्षाणां कर्तनाज्ञाविरुद्धम् एकैकशः शतत्रयसङ्ख्यकैर्विश्नोईस्त्रीपुरुषैः विच्छेदिष्यमाणवृक्षानालिङ्गदिभः, प्रथममस्माकं वपुश्छेद्यं पश्चाद् वृक्षाः इत्येवं जल्पभिः स्वप्राणा दत्ता इति तु जगति विश्रुतं नामाङ्कनपुरस्सरं तत्राङ्कितं च।

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शब्दार्थ तृणाय मन्यन्ते = तिनके के समान मानते हैं। आखेटः = शिकार। वसतिषु = बस्तियों में। नितरां = पूर्ण रूप से। प्रतिषिद्धः = निषिद्ध है। प्रासादनिर्माणार्थं = महल बनाने के लिए। कर्तनाज्ञाविरुद्धम् = काटने की आज्ञा के विरोध में। एकैकशः = एक-एक करके। शतत्रय = तीन सौ। विच्छेदिष्यमाणवृक्षानालिङ्गभिः = काटे जाते हुए वृक्षों का आलिंगन करते हुए। वपुः = शरीर। छेद्यम् = काटना चाहिए। जल्पभिः = कहते हुए। विश्रुतं = प्रसिद्ध है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में विश्नोई जाति के स्त्री-पुरुषों का वृक्षों की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद हमारे देश में ‘सलीम अली’ नाम का महान् पक्षी-निरीक्षक हुआ है, जिसने पक्षियों के विज्ञान के विषय में बहुत-सी पुस्तकें लिखी हैं। हरियाणा प्रदेश और राजस्थान में रहने वाले ‘विश्नोई सम्प्रदाय के पुरुष वनों और पक्षियों की रक्षा करने में अपने प्राणों को भी तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं। वे हरे वृक्षों को नहीं काटते, न ही दूसरों के द्वारा काटना सह सकते हैं। जंगली पशुओं का शिकार भी उनकी बस्तियों में बिल्कुल निषिद्ध है। जोधपुर के राजा की; महल (UPBoardSolutions.com) बनाने हेतु लकड़ी के लिए केजरी वृक्षों के काटने की; आज्ञा के विरुद्ध एक-एक करके तीन सौ ‘विश्नोई जाति के स्त्री-पुरुषों ने काटे जाने वाले वृक्षों का आलिंगन करते हुए पहले हमारा शरीर काटो, बाद में वृक्ष काटना’ ऐसा कहते हुए अपने प्राण दे दिये थे। ऐसा जगत् । प्रसिद्ध है और नामांकित हुआ वहाँ (घटनास्थल पर) अंकित है।

(7)
नास्त्येषोऽस्माकमभिप्रायो यद्वनेभ्यः प्राप्यो लाभो ग्राह्य एव न। स तु अवश्यं ग्राह्यः यथा मधुमक्षिका पुष्पाणां हानि विनैव मधु नयति तथैव भवननिर्माणाय अन्यकारणाद् वा काष्ठं काम्यत एव, किन्तु पुरातना एव वृक्षा योजना निर्माय कर्तनीया, न नूतनाः। यावन्तः कर्त्तनीयास्तद्विगुणाश्च पूर्वत एव आरोपणीयाः। गृहाणां प्राङ्गणेषु, केदाराणां सीमसु, पर्वतानामुपत्यकासु, मार्गानुभयतः क्रीडाक्षेत्राणि परितश्च यत्रापि यावदपि स्थलं विन्दते तत्र यथानुकूल्यं विविधा वृक्षा रोपणीयाः। प्रत्येकं देशवासिनैवमेव विधेयं, प्रत्येक जन्म मृत्युर्विवाहश्च वृक्षारोपणेनानुसृतः स्यात्। यद्येवं सोत्साहं योजनाबद्धं च कार्यं भवेत् आरोपितानां वृक्षाणां च निरन्तरपोषणमुपचर्येत तर्हि वर्षदशकेनैव निकामं क्षतिपूर्तिर्भवेत्। किं बहुना, वृक्षाणां पशुपक्षिणां चं रक्षणे विश्नोई सम्प्रदायस्यादर्शः सर्वैरपि पालनीयः। एवं च ब्रूमः

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वनेन जीवनं रक्षेत् जीवनेन वनं पुनः।
मा वनानि नरश्छिन्देत् जीवनं निहितं वने ॥

शब्दार्थ मधुमक्षिका = शहद की मक्खी। काम्यत = चाहा जाता है। तद्विगुणाः = उससे दोगुने। आरोपणीयाः = लगाये जाने चाहिए। केदाराणां सीमसु = खेतों की सीमाओं पर। उपत्यकासु = निचली घाटियों में। मार्गानुभयतः = मार्गों के दोनों ओर परितः = चारों ओर। देशवासिनैवमेव (देशवासिना + एवं + एव) = देशवासियों के द्वारा इसी प्रकार। विधेयम् = करना चाहिए। अनुसृतः = अनुसरण किया हुआ। पोषणमुपचर्येत = पोषण किया जाए। निकामम् = पर्याप्त। सम्प्रदायस्यादर्शः = सम्प्रदाय का आदर्श। बूमः = कहते हैं। जीवनेन = : जीवन के द्वारा। मा = नहीं। नरश्छिन्देत् = मनुष्य को काटना चाहिए। निहितं = सुरक्षित है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में वनों से प्राप्त होने वाले लाभों को प्राप्त करने व पुराने वृक्षों के काटने से पूर्व नये वृक्ष लगाने के लिए उपदेश दिया गया है।

अनुवाद हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि वनों से प्राप्त करने योग्य लाभ को ग्रहण ही नहीं करना चाहिए। उसे तो अवश्य ग्रहण करना चाहिए। जैसे मधुमक्खी पुष्पों की हानि के बिना ही पराग ले जाती है, उसी प्रकार भवन-निर्माण के लिए अथवा अन्य कारणों के लिए लकड़ी तो चाहिए ही, किन्तु योजना बनाकर पुराने वृक्षों को ही काटना चाहिए, नये नहीं। जितने काटे जाने हों, उससे दुगुने पहले से ही लगाये जाने चाहिए। घरों के आँगनों में, खेतों की सीमाओं पर, पर्वतों की तलहटियों में, मार्गों के दोनों ओर तथा खेल के मैदानों के चारों ओर जहाँ भी जितना भी स्थान मिलता है, वहाँ अनुकूलता के अनुसार अनेक प्रकार के वृक्ष लगाये जाने चाहिए। प्रत्येक देशवासी को ऐसा ही करना चाहिए। प्रत्येक जन्म, मृत्यु और विवाह वृक्षों के लगाने के साथ ही हों। यदि इस प्रकार उत्साहसहित योजना बनाकर कार्य किया जाये और लगाये (UPBoardSolutions.com) गये वृक्षों का निरन्तर पोषण किया जाये तो दस वर्ष में ही अत्यधिक क्षतिपूर्ति हो सकती है। अधिक क्या कहें, वृक्षों और पशु-पक्षियों की रक्षा करने में विश्नोई सम्प्रदाय के आदर्श का सबको पालन करना चाहिए। हम इस प्रकार कहते हैंवन से जीवन की रक्षा करनी चाहिए और जीवन से वन की रक्षा करनी चाहिए। मनुष्य को वनों को नहीं काटना चाहिए। वन में जीवन निहित है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वन और मनुष्य में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध के विषय में लिखिए।
या
वनों का महत्त्व समझाइए। [2006,07,08, 10, 12, 14]
या
वृक्षों के महत्त्व पर आलेख लिखिए। [2012]
उत्तर :
हमारे केवल भौतिक विकास में ही नहीं, प्रत्युत् सांस्कृतिक विकास में भी वनों का बहुत बड़ा योगदान है। आरण्यक, उपनिषद् आदि अध्यात्म विद्या का विवेचन करने वाले ग्रन्थ वनों में ही रचे गये। वनों में स्थित तपोवन में ही दस लक्षणों वाला मानव धर्म, पुरुषार्थ चतुष्टयों से युक्त जीवन का उद्देश्य प्रकट हुआ। यह इतिहास अच्छी तरह प्रमाणित करता है। प्राचीन विद्वानों ने वन के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की। संस्कृत कवियों की वन-देवता की कल्पना करना और वानप्रस्थ आश्रम में वन में रहने का नियम इसी बात की ओर संकेत करता है। प्रत्यक्ष रूप से वन मनुष्य जाति को जितना देते हैं, परोक्ष अर्थात् अप्रत्यक्ष रूप से उससे भी अधिक देते हैं। इसी कारण से प्राचीन लोग वृक्षों को अपने पुत्र के समान पालन करते थे और वन के प्राणियों की रक्षा करते थे। इनके साथ उनका अटूट और अन्योन्याश्रय सम्बन्ध उचित ही था।

प्रश्न 2.
वनों से हमें किस प्रकार लाभ ग्रहण करना चाहिए?
उत्तर :
वनों से प्राप्त होने वाले लाभों को हमें उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिस प्रकार मधुमक्खी फूलों को हानि पहुँचाए बिना उससे पराग ले जाती है। भवन निर्माण अथवा अन्य प्रयोजनों हेतु लकड़ी की आवश्यकता पड़ने पर पुराने वृक्षों को ही योजनाबद्ध रूप से काटना चाहिए, नये वृक्षों को नहीं और जितने वृक्ष काटे जाने हों उनसे दुगुने वृक्ष पहले ही लगाये जाने चाहिए।

प्रश्न 3.
‘वन में जीवन निहित है’, अतः इस जीवन को बचाये रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर :
‘वन में जीवन निहित है, अत: इस जीवन को बचाये रखने के लिए हमें नये वृक्षों को नहीं काटना चाहिए और पुराने वृक्षों को भी योजनाबद्ध रूप से काटना चाहिए। जितने वृक्ष काटे जाने हों उससे पहले उनसे दुगुने वृक्षों को लगाया जाना चाहिए। घरों के आँगनों में, खेतों की सीमाओं पर, पर्वतों की तलहटियों में, मार्गों के दोनों ओर, खेल के मैदानों के चारों ओर तथा जहाँ भी जितना भी स्थान मिलता हो वहाँ अनुकूलता के अनुसार अनेक प्रकार के वृक्ष लगाये जाने चाहिए। प्रत्येक देशवासी को प्रत्येक जन्म, मृत्यु, विवाह आदि अवसरों पर निश्चित ही वृक्षारोपण करना चाहिए।

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प्रश्न 4.
वन में पाये जाने वाले पशु-पक्षियों से हमें क्या लाभ हैं?’जीवनं निहितं वने’ पाठ के आधार पर बताइए।
उत्तर :
वनों के समान वन्य जन्तु और पशु-पक्षी भी हमें अनेक लाभ पहुँचाते हैं। ये प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं। पक्षी खेती को नुकसान पहुँचाने वाले दीमक आदि कीड़ों को खा जाते हैं। सिंह
आदि हिंसक पशु अन्य पशुओं को मारकर उनकी अनियन्त्रित वृद्धि को रोकते हैं। पशु-पक्षी हमारे (UPBoardSolutions.com) मनोरंजन में तो सहायक होते ही हैं, उनके जीवन से हमें बहुत कुछ सीखने को भी मिलता है। अतः हमें इनके मांस, चर्म, दाँत, पंख आदि के लोभ में इनका संहार नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 5.
आज हमारे देश में वनों का प्रतिशत क्या है? [2006, 11, 14]
उत्तर :
आज हमारे देश के 11% भाग पर ही वन विद्यमान हैं।

प्रश्न 6.
पर्यावरण की सुरक्षा पर पाँच/तीन वाक्य लिखिए। [2011, 12, 13]
उत्तर :
पर्यावरण की सुरक्षा पर पाँच वाक्य निम्नलिखित हैं

  • योजना बनाकर ही पुराने वृक्षों को काटना चाहिए। नये वृक्षों को कभी नहीं काटना चाहिए।
  • जितने भी वृक्ष काटे जाने हों, उससे दो-गुने वृक्ष पहले ही लगा लिये जाने चाहिए।
  • घर के आँगन में, खेतों की सीमाओं पर, पर्वतों की तलहटियों में, मार्गों के दोनों ओर, खेल के मैदानों के चारों ओर; अर्थात् जहाँ भी स्थान मिले; वृक्ष लगाये जाने चाहिए।
  • प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में होने वाले प्रत्येक कार्यक्रमों; यथा-जन्म, मृत्यु, विवाह आदि; का प्रारम्भ वृक्षों के लगाने के साथ ही करना चाहिए।
  • वृक्षों को लगाने के साथ-साथ उनकी निरन्तर देखभाल और पोषण भी करना चाहिए।

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प्रश्न 7.
वन-संरक्षण और वृक्षारोपण से क्या-क्या लाभ हैं?
उत्तर :
वृक्षों से हमें केवल फल, फूल, ईंधन के लिए व मकान बनाने के लिए लकड़ियाँ ही प्राप्त नहीं होती हैं वरन् ओषधियों के योग्य नाना प्रकार की छालें, जड़े, पत्ते आदि वस्तुएँ भी प्राप्त होती हैं। नाना प्रकार के औद्योगिक उत्पादन के योग्य लाखे, तेल और द्रव पदार्थ भी प्राप्त होते हैं। शहद भी वृक्षों-वनस्पतियों से ही प्राप्त होता है। कागज और धागे के उत्पादन में भी वृक्षों की लकड़ी कच्चे माल का काम करती है। सन्दूक, रस्सी, चटाइयाँ आदि विभिन्न सामान वृक्षों और वनस्पतियों से ही बनते हैं। वायु की शुद्धता, भूमि के कटाव को रोकना, मेघों की सहायता करना आदि भी वृक्षों के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए हमें वन-संरक्षण और वृक्षारोपण करना चाहिए।

प्रश्न 8.
‘अरण्य-रोदन न्याय’ का आशय स्पष्ट कीजिए। [2005]
उत्तर :
वन निर्जन प्रदेश होते हैं। अत: यदि विपत्ति आने पर कोई व्यक्ति वहाँ बैठकर रोने लगे कि मेरे रुदन (UPBoardSolutions.com) को सुनकर कोई मेरी सहायता के लिए आएगा, तो उसका रोना व्यर्थ होता है, क्योकि वहाँ उसके रोने को सुनने वाला कोई नहीं होता। इसी प्रकार जब व्यावहारिक जीवन में किसी की बात को सुनने वाला कोई नहीं होता, तब उसके व्यर्थ प्रयत्न को ‘अरण्य-रोदन न्याय’ की संज्ञा दी जाती है।

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 11 are helpful to complete your homework.
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UP Board Class 10th English Chapter 3 Question Answer The Village Song (Sarojini Naidu).

Class 10 English Poetry Chapter 3 Questions and Answers UP Board The Village Song (Sarojini Naidu).

कक्षा 10 अंग्रेजी पाठ 3 प्रश्न उत्तर

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 English. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 English Poetry Chapter 3 The Village Song (Sarojini Naidu).

Comprehension Questions 

In the examination paper ,there are asked only two questions from each paragraph .Given below are some more questions for extra practice

Read the following stanzas and answer the questions put there upon:

(1) Honey,child…………………to wed you.

Question .
1. From which poem has the above stanza been taken? Who has composed this poem?
(किस कविता से उपर्युक्त छन्द अवतरित किया गया है? इस कविता की रचना किसने की है?)
2. Which ceremony is about to begin in the above stanza?
(उपर्युक्त छन्द में कौन सा धार्मिक अनुष्ठान प्रारम्भ होने वाला है?)
3. For what the girl’s mother draws her attention?
(उसकी माँ किस बात की  ओर लड़की का ध्यान आकृष्ट करती है?)
Answer:
1. The above stanza has been taken from the poem “The Village Song’. The composer of this poem is Sarojini Naidu.
(उपर्युक्त छन्द ‘ग्राम गीत’ से अवतरित किया गया है। इसकी रचयिता सरोजिनी नायडू हैं।)
2. The wedding ceremony of the daughter is about to begin in the above stanza.
(उपर्युक्त छन्द में पुत्री का विवाह संस्कार/अनुष्ठान होने वाला है।)
3. Girl’s mother draws her attention to the fact that the bridegroom whom she
loves, is coming on horseback to get (UPBoardSolutions.com) wedded with her..
(लड़की की माँ उसका ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट करती है कि वह, जिसे कि वह प्रेम करती है, घोड़े पर बैठकर उससे विवाह करने के लिये आ रहा है।)

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(2) Mother mine…………0 listen!

Question .
1. What did the daughter tell her mother?
(पुत्री ने अपनी माँ से क्या कहा?)
2. Why does the girl want to go to the forest?
(लड़की वेन जाना क्यों चाहती है?)
3. Who has tiny islands?
(छोटे-छोटे टापू किसमें है?).
Answer:
1. The girl told her mother that she was going to the wild forest.
(पुत्री अपनी माँ से कहती है कि वह घने वन को जा रही है।)
2. The girl wants to go to the forest because there the champ a buds are blowing on the branches. The cuckoo resounds the isle with its cooing. The fairy folks are calling her.
(पुत्री वन में जाना चाहती है क्योंकि वहाँ चम्पा (UPBoardSolutions.com) की कलियाँ शाखाओं पर झोंके खा रही हैं। कोयल अपनी कूक से टापू को गुंजायमान कर देती है। परियाँ उसे पुकार रही हैं।)
3. The river has tiny islands.
( (छोटे टापू नदी में स्थित हैं।)

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3. Honey, child…………are you going.

Question .
1. What does the mother remind of the girl?
(माँ पुत्री को क्या पुनस्र्मरण कराती है?)
2. Where are the bridal robes?
(वधू के (विवाह) वस्त्र कहाँ हैं?
Answer:
1. The mother reminds the girl of the bridal songs, cradle songs and sandal-scented leisure.
(माँ विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों व पालने में शिशुओं को सुलाने हेतु गाई जाने वाली लोरियों तथा वैवाहिक सुगन्धित शय्या पर विश्राम का पुनस्र्मरण कराती है।)
2. The silver and saffron glowing (UPBoardSolutions.com) bridal robes are in the loom.
(विवाह को रजत व केसरिया चमक-दमक वाला जोड़ा घे पर है।)

4. The bridal-song………… are calling

Question .
1. Why does the girl seem un impressed?
(पुत्री क्यों अप्रभावित प्रतीत होती है?)
2. Why is the girl leaving home?
(पुत्री गृह त्याग क्यों कर रही है?)
Answer:
1. The girl seems unimpressed because she flatly says that the bridal songs and cradle songs seem to end in sorrow. The laughter of the present day full of sun, will end in the strong wind of death soon after. Thus, she proves that there is no real happiness in worldly life.
(पुत्री अप्रभावित प्रतीत होती है क्योंकि वह यह स्पष्ट कर देती है कि विवाह के उत्सव पर गाये जाने वाले (मंगल) गीत व शिशु को पालने में झुलाते समय गाई जाने वाली लोरियाँ दु:ख के स्वर में समाप्त होती हैं। आज के धूप भरे दिन का हास्य शीघ्र पश्चात् मृत्यु के तूफान में समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार वह यह सत्य सिद्ध कर देती है कि सांसारिक जीवन में कोई यथार्थ सुख नहीं है।)
2. The girl is leaving home because the forest notes, where forest steams fall and flow, are far sweeter than the bridal songs and cradle songs. Moreover, the fairies are calling her.
(पुत्री घर छोड़ रही है क्योंकि वन की संगीत लहरी, जहाँ वन झरने प्रवाहित हो रहे हैं, विवाह के उत्सव पर गाये जाने वाले (मंगल) गीतों व शिशु को पालने में झुलाते समय गाई जाने वाली लोरियों से अधिक मधुर हैं। इसके अतिरिक्त, परियाँ उसे पुकार रही हैं।)

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APPRECIATION OF THE POEM

Question 1.
What does the poetess want to tell us?
(कवियत्री हमसे क्या कहना चाहती है?)
Answer:
The poetess wants to tell us that the worldly material pleasures are fake ones. The cycle of life that runs in pleasure some day or the other, ends in the lasting sorrows. The joy of bridal songs, cradle’s songs, lullabiers to make child steep and sandal-scented leisure have underlying sorrow. A time comes when the material pleasures prove hollow and are overpowered by the ultimate sorrows. As such, while living in the world, we should not be materialistic. Nature is our mother.
(कवयित्री हमसे यह कहना चाहती है कि सांसारिक भौतिक आनन्द ढोंग है। जीवन का चक्र जो आनन्द में चलता है, एक न एक दिन, स्थायी दु:खों में समाप्त हो जाता है। वधू-विषयक गीत अर्थात् वे गीत जो विवाह के उत्सव पर गाये (UPBoardSolutions.com) जाते हैं। पालने (शिशु को सुलाने हेतु गाई जाने वाली लोरियों) तथा वैवाहिक सुगन्धित शय्या पर विश्राम में दुःख अन्तर्निहित रहता है। एक समय आता है जब भौतिक आनन्द खोखले सिद्ध होते हैं। तथा स्थायी दुःखों के द्वारा अधीन कर लिये जाते हैं। अतएव संसार में रहते हुए भी हमें भौतिकवादी नहीं होना चाहिए। प्रकृति हमारी माँ है।) माँ विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों व पालने में शिशुओं को सुलाने हेतु गाई जाने वालीलोरियों तथा वैवाहिक सुगन्धित शय्या पर विश्राम का पुनस्र्मरण कराती है।)

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CENTRAL IDEA OF THE POEM.

The theme of the poem is a comparison between the world of Human beings that abounds in material pleasures and the world of Nature that is contrary to it. The Mother represents the material world. She recounts some of the features of this human’s material world like jewellery, marriage bridal songs, cradle songs sandal-scented leisure. It implies marriage, births of children and honeymoon. The Daughter represents the world of Nature. The blossoming of champa, the islands in the river resounding with cuckoo’s cooing, gurgling of streams attract her. She knows that laughter and all the songs will end in sorrows. (कविता का मुख्य विषय मानव संसार जो भौतिक आनन्दों से पूर्ण है तथा प्रकृति का संसार, जो इसके विपरीत है, के मध्य अन्तर है। माँ भौतिक संसार का प्रतिनिधित्व करती है। वह मानव के भौतिक संसार की कतिपय विशेषताओं, जैसे आभूषण, विवाह, विवाह के समय गाये जाने वाले गीतों, शिशु को सुलाने के लिए गाई गई लोरियों, मधुरमिलन के क्षणों को गिनाती है। (UPBoardSolutions.com) इसका तात्पर्य विवाह, शिशुओं के जन्म व मधुरमिलन के क्षणों से है। पुत्री प्रकृति के संसार का प्रतिनिधित्व करती है। चम्पा का पुष्पित होना, नदी में स्थित कोयल की कूक से गॅजना। टापू-झरनों का कल-कल स्वर उसे आकृष्ट करते हैं। उसे यह विदित है कि हास्य व समस्त गीत दु:ख में समाप्त होते हैं।)

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