UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation (जैव विविधता एवं संरक्षण)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (i) जैव-विविधता का संरक्षण निम्न में से किसके लिए महत्त्वपूर्ण है?
(क) जन्तु ।
(ख) पौधे
(ग) पौधे और प्राणी
(घ) सभी जीवधारी
उत्तर-(घ) सभी जीवधारी।।

प्रश्न (ii) निम्नलिखित में से असुरक्षित प्रजातियाँ कौन-सी हैं?
(क) जो दूसरों को असुरक्षा दें।
(ख) बाघ व शेर
(ग) जिनकी संख्या अत्यधिक हो ।
(घ) जिन प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा है।
उत्तर-(घ) जिन प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा है।

प्रश्न (iii) नेशनल पार्क (National Parks) और पशु विहार (Sanctuaries) निम्न में से किस उद्देश्य के लिए बनाए गए हैं?
(क) मनोरंजन ।
(ख) पालतू जीवों के लिए
(ग) शिकार के लिए
(घ) संरक्षण के लिए
उत्तर-(घ) संरक्षण के लिए।

प्रश्न (iv) जैव-विविधता समृद्ध क्षेत्र है|
(क) उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र
(ख) शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र
(ग) ध्रुवीय क्षेत्र
(घ) महासागरीय क्षेत्र
उत्तर-(क) उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र।

प्रश्न (v) निम्न में से किस देश में पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) हुआ था?
(क) यू०के० (U.K.)
(ख) ब्राजील
(ग) मैक्सिको
(घ) चीन
उत्तर-(ख) ब्राजील।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) जैव-विविधता क्या है?
उत्तर-किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाले जीवों की संख्या और उनकी विविधता को जैव-विविधता कहते हैं।

प्रश्न (ii) जैव-विविधता के विभिन्न स्तर क्या हैं?
उत्तर-जैव-विविधता के निम्नलिखित तीन स्तर हैं

  1. आनुवंशिक विविधता,
  2. प्रजातीय विविधता,
  3. पारितन्त्रीय विविधता।

प्रश्न (iii) हॉट स्पॉट (Hot Spot) से आप क्या समझते हैं?
उतर-वह क्षेत्र जहाँ जैव-विविधता अधिक पाई जाती है उन क्षेत्रों को ‘हॉटस्पॉट’ कहते हैं। विश्व में ऐसे क्षेत्रों का पता लगाया गया है जो जैव-विविधता की दृष्टि से सम्पन्न हैं, किन्तु जीवों के आवास लगातार नष्ट होने के कारण वहाँ की अनेक जातियाँ संकटग्रस्त या क्षेत्र विशेषी हो गई हैं। अतः ऐसे स्थल जहाँ किसी प्राणी अथवा वनस्पति जाति की बहुलता हो या निरन्तर घट रही विलुप्तप्राय जातियाँ हों, को जैव-विविधता के संवेदनशील क्षेत्र या तप्त स्थल (हॉट स्पॉट) कहते हैं।

प्रश्न (iv) मानव जाति के लिए जन्तुओं के महत्त्व का वर्णन संक्षेप में करें।
उत्तर-विभिन्न जीव-जन्तु मानव समाज के अभिन्न अंग हैं। कृषि, पशुपालन, आखेट एवं वनोपज एकत्रीकरण पर निर्भर मानव समुदाय के लिए जीव-जन्तुओं की विविधता जीवन का आधार है। विभिन्न घुमक्कड़ जातियाँ व आदिवासी समाज आज भी जैव-विविधता से प्रत्यक्षतः प्रभावित होते हैं। उनके सामाजिक संगठन व रीति-रिवाजों में विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं का विशिष्ट स्थान रहा है। जीव-जन्तुओं के माध्यम से जीवनोपयोगी शिक्षाओं को सरल रूप में व्यक्त किया गया है; जैसे—शेर जैसी । निडरता, बगुले जैसी एकाग्रता, कुत्ते जैसी वफादारी आदि आज भी मानव आचरण के प्रतिमान माने जाते हैं।

प्रश्न (v) विदेशज प्रजातियों (Exotic Species) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-वे प्रजातियाँ जो स्थानीय आवास की मूल जैव प्रजाति नहीं हैं, लेकिन इस तन्त्र में स्थापित की गई हैं, उन्हें विदेशज प्रजातियाँ कहा जाता है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (1) प्रकृति को बनाए रखने में जैव-विविधता की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर-प्रकृति अजैव एवं जैव तत्त्वों का समूह है। इसकी कार्यशीलता इन दोनों तत्त्वों की पारस्परिक क्रिया द्वारा ही संचालिव्र होती है। जैव तत्त्वों के अन्तर्गत विद्यमान जैव-विविधता प्रकृति के सन्तुलित संचालन का ही परिणाम है। अत: प्रकृति को बनाए रखने के लिए जैव-विविधता एवं जैव-विविधता की सुरक्षा के लिए प्रकृति के साथ मानव के मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अपना विशिष्ट महत्त्व है। दूसरे शब्दों में, प्रकृति एवं जैव-विविधता में घनिष्ट सम्बन्ध है तथा ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

आज जो जैव-विविधता हम देखते हैं वह 2.5 से 3.5 अरब वर्षों के विकास का परिणाम है। पारितन्त्र में मौजूद विभिन्न प्रजातियाँ कोई-न-कोई क्रिया करती रहती हैं। पारितन्त्र में कोई भी प्रजाति न तो बिना कारण के विकसित हो सकती है और न ही उसका अस्तित्व बना रह सकता है अर्थात् प्रत्येक जीव अपनी आवश्यकता पूरी करने के साथ-साथ दूसरे जीवों के विकास में भी सहायक होता है। जीव वे प्रजातियाँ ऊर्जा ग्रहण कर उसका संरक्षण करती हैं। जैव-विविधता कार्बनिक पदार्थ विघटित तथा उत्पन्न करती हैं और पारितन्त्र में जल व पोषक तत्त्वों के चक्र को बनाए रखने में सहायक होती है। यह जलवायु को नियन्त्रित करने में सहायक है और पारितन्त्र को सन्तुलित रखती हैं। इस प्रकार जैव-विविधता प्रकृति कों बनाए रखने में सहायक है।

प्रश्न (ii) जैव-विविधता के ह्रास के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारकों का वर्णन करें। इसे रोकने के उपाय भी बताएँ।
उत्तर-पृथ्वी पर जीवों के उद्भव एवं विकास में करोड़ों वर्ष लगे हैं। विभिन्न पारिस्थितिक तन्त्र भाँति-भाँति के जीव-जन्तुओं एवं पादपों के प्राकृतिक आवास बने। कालान्तर में मानवजनित एवं प्राकृतिक कारणों से अनेक जीवों की जातियाँ धीरे-धीरे लुप्त होने लगीं। वर्तमान में पौधों एवं प्राणी जातियों के विलोपन की दर बढ़ गई। इससे पृथ्वी की जैव-विविधता को खतरा उत्पन्न हो गया। भू-पृष्ठ पर जैव-विविधता में ह्रास के लिए उत्तरदायी कारक निम्नलिखित हैं

1. आवासों का निवास-वन एवं प्राकृतिक घास स्थल अनेक जीवों के प्राकृतिक आवास होते हैं, किन्तु जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि एवं मानव आवास के लिए भूमि आपूर्ति को पूरा करने के लिए जैव-विविधता क्षेत्र का विनाश किया गया है।

2. वन्य जीवों का अवैध शिकार-मानव ने उत्पत्ति काल से ही वन्य जीवों का शिकार प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु तब यह सीमित मात्रा में था। वर्तमान में मनोरंजन के अतिरिक्त अवैध धन कमाने (तस्करी) के लिए जैव-विविधता का बड़ी बेहरमी से शोषण किया जा रहा है।

3. मानव-वन्यप्राणी द्वन्द्व-मानव जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण भोजन और आवास की माँग बढ़ी है। इसीलिए जीवों एवं पादप आवास स्थलों पर अतिक्रमण में वृद्धि हुई है। विभिन्न आर्थिक
लाभों के लिए भी मानव-वन्य प्राणी द्वन्द्व चरम पर है।

4. प्राकृतिक आपदाएँ-ऐसी अनेक प्राकृतिक आपदाएँ हैं जिनके कारण जैव-विविधता का ह्रास बड़ी मात्रा में होता है। अकाल, महामारी, दावानल, बाढ़, सूखा, तूफान; भू-स्खलन, भूकम्प आदि के कारण वनस्पति एवं प्राणियों का व्यापक विनाश हुआ है। उपर्युक्त के अतिरिक्त आणविक हथियारों का प्रयोग, औद्योगिक दुर्घटनाएँ समुद्रों में तेल रिसाव, हानिकारक अपशिष्ट उत्सर्जन आदि भी ऐसे कारक हैं जिनके कारण जैव-विविधता ह्रास में वृद्धि हुई है।

रोकने के उपाय-जैव-विविधता ह्रास या विनाश को रोकने के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

  • जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण,
  • वनारोपण में वृद्धि
  • मृदा अपरदन को रोकना,
  • कीटनाशकों के प्रयोग पर नियन्त्रण,
  • विभिन्न प्रकार के प्रदूषण पर नियन्त्रण,
  • वन्य प्राणियों के शिकार पर कठोर प्रतिबन्ध,
  • संकटापन्न प्रजातियों का संरक्षण,
  • वन्य-जीव एवं वनस्पति के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर रोक।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. कॉर्बेट नेशनल पार्क कहाँ पर है?
(क) रामनगर (नैनीताल)
(ख) दुधवा (लखीमपुर)
(ग) बाँदीपुर (राजस्थान)
(घ) काजीरंगा (असम)
उत्तर-(क) रामनगर (नैनीताल)।

प्रश्न 2. ‘काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान कहाँ स्थित है?
(क) उत्तर प्रदेश में
(ख) असम में
(ग) ओडिशा में
(घ) गुजरात में
उत्तर-(ख) असम में।।

प्रश्न 3. वह राज्य जहाँ सर्वाधिक शेर पाये जाते हैं
(क) उत्तर प्रदेश
(ख) गुजरात
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) आन्ध्र प्रदेश
उत्तर-(ख) गुजरात।

प्रश्न 4. भारत का राष्ट्रीय पक्षी है
(क) कबूतर
(ख) मोरे
(ग) गौरैया
(घ) हंस
उत्तर-(ख) मोर।।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. निम्नलिखित के उत्तर दीजिए
(अ) विश्व वानिकी दिवस कब मनाया जाता है?
(ब) भारत का पहला जीन अभयारण्य कहाँ पर स्थित है?
(स) भारतीय वन्य जैवमण्डल की स्थापना कहाँ हुई?
(द) वन्य-जीव सप्ताह कब मनाया जाता है?
(य) वन महोत्सव कब मनाया जाता है?
उत्तर-(अ) विश्व वानिकी दिवस (World Forestryday) प्रतिवर्ष 21 मार्च को मनाया जाता है।
(ब) भारत में सबसे पहला जीन अभयारण्य (Gene sanctuary) बंगलौर (बंगलुरु) में स्थापित किया गया है।
(स) भारत में सन् 1952 में भारतीय वन जैवमण्डल (Indian Board for Wild Life-IBW) की स्थापना की गई। भारतीय संविधान में वन्य-जीवों के शिकार करने पर प्रतिबन्ध है।
(द) प्रतिवर्ष 1 से 8 अक्टूबर तक वन्य जीव सप्ताह मनाया जाता है।
(य) प्रतिवर्ष फरवरी तथा जुलाई में वन महोत्सव मनाया जाता है।

प्रश्न 2. संकटग्रस्त प्रजातियाँ किन्हें कहते हैं ।
उत्तर-संकटग्रस्त प्रजातियाँ वे प्रजातियाँ हैं जिनके विलुप्त होने का भय है, क्योंकि इनके आवास अत्यधिक कम हो गए हैं। निकट-भविष्य में इन प्रजातियों के विलुप्त होने की सम्भावना अधिक बढ़ती जा रही है। इससे इनकी संख्या भी बहुत कम हो गई है।

प्रश्न 3. दुर्लभ प्रजातियाँ क्या हैं?
उत्तर-वे प्रजातियाँ जो संख्या में कम तथा कुछ विशेष स्थानों पर अवशिष्ट हैं। इनके विलुप्त होने का भय अधिक है।

प्रश्न 4 आपत्तिग्रस्त एवं सुभेछ प्रजातियों का क्या अर्थ है?
उत्तर-पत्तिग्रस्त प्रजातियाँ-वे प्रजातियाँ जिनके आवास इतने नष्ट हो चुके हैं कि उनके शीघ्र ही संकटग्रस्त स्थिति में आ जाने की सम्भावना है या ये संकट-सीमा तक पहुंच चुकी हैं। सुभेद्य या असुरक्षित प्रजातियाँ-वे प्रजातियाँ जिनकी निकट-भविष्य में आपत्तिग्रस्त श्रेणी में आने की सम्भावना है।

प्रश्न 5. नए प्रकार के बीजों एवं रासायनिक खादों के क्या परिणाम है?
उत्तर-नए प्रकार के बीज एवं रासायनिक खादों के प्रयोग से हरित क्रान्ति आई है। उत्पादन में वृद्धि हुई है, किन्तु जैव-विविधता का ह्रास और विभिन्न प्रकार के प्रदूषण में भी वृद्धि हुई है।

प्रश्न 6. राष्ट्रीय पार्क तथा अभयारण्य में अन्तर बताइए।
उत्तर-राष्ट्रीय पार्क–यह वह क्षेत्र है जहाँ प्राकृतिक वनस्पति एवं वन्य जीव और अन्य प्राकृतिक सुन्दरता को सुरक्षित रखा जाता है। अभयारण्ये—यह वह सुरक्षित क्षेत्र है जहाँ लुप्तप्राय प्रजातियों को संरक्षित रखने के प्रयास किए जाते हैं।

प्रश्न 7. किसी जैव-विविधता सम्मेलन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-सन् 1992 में ब्राजील के रियो-डि-जेनेरियो (Rio-de-Janerio) में जैव-विविधता को विश्वस्तरीय सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में जैव-विविधता संरक्षण हेतु भारत संहित विश्वें के 155. देश हस्ताक्षरी (कृत संकल्पी) हैं।

प्रश्न 8. भारत सरकार ने प्रजातियों को बचाने के लिए कौन-सा मुख्य कानूनी प्रयास किया है?
उत्तर-भारत सरकार ने प्रजातियों को बचाने, संरक्षित करने और विस्तार के लिए वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम, 1972 पारित किया है, जिसके अन्तर्गत राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य स्थापित किए गए तथा देश में कुछ क्षेत्रों को जीवमण्डल आरक्षित घोषित किया गया है।

प्रश्न 9. जैव-विविधता की आर्थिक भूमिका क्या है?
उत्तर-जैव-विविधती की एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक भूमिका फसलों की विविधता के कारण है। इसके अतिरिक्त जैव-विविधता को संसाधनों के उन भण्डारों के रूप में भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिनकी उपयोगिता भोज्य पदार्थ, औषधियों और सौन्दर्य प्रसाधन आदि बनाने में है।
प्रश्न 10. अन्तर्राष्ट्रीय संस्था (IUCN) ने संरक्षण के उद्देश्य से संकटापन्न पौधों व जीवों को कितने वर्गों में विभक्त किया है?
उत्तर-अन्तर्राष्ट्रीय संस्था (IUCN) ने संरक्षण के उद्देश्य से संकटापन्न पौधों व जीवों को तीन निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया है
(i) संकटापन्न प्रजातियाँ,
(ii) सुभेद्य प्रजातियाँ,
(ii) दुर्लभ प्रजातियाँ।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. प्रजातियों की विलुप्तता के मुख्य कारण लिखिए।
उत्तर-प्रजातियों की विलुप्तता के मुख्य कारण निम्नवत् है
1. बाढ़ (flood), सूखा (drought), भूकम्प (earthquakes) आदि प्राकृतिक विपदाएँ।
2. पादप रोगों का संक्रमण (epidemic) के रूप में।
3. परागण करने वाले साधनों या कारकों में कमी।
4. समाज में प्रजातियों की विलुप्तता के सम्बन्ध में ज्ञान न होना।
5. वनों का अत्यधिक कटाव।
6. मनुष्य द्वारा पौधों के प्राकृतिक आवासों में परिवर्तन।
7. औद्योगीकरण, बाँध (dams), सड़क आदि के निर्माण से वनों की कटाई।
8. पशुओं के अति चरण (over grazing) के कारण पौधों का नष्ट होना।
9. प्रदूषण तथा पारितन्त्र का असन्तुलन।
10. पौधों का व्यापार।

प्रश्न 2. जीन बैंक पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-वे संस्थान, जो महत्त्वपूर्ण व उपयोगी पौधों के जर्मप्लाज्म (germplasm) को सुरक्षित रखते हैं, जीन बैंक के नाम से जाने जाते हैं। जर्मप्लाज्म से तात्पर्य है कि जिसके द्वारा उस पौधे का परिवर्धन होता है। जीन बैंक में बीज, परागकण, बीजाण्डों, अण्ड कोशिकाओं (egg cells), ऊतक संवर्द्धन (tissue culture) के सहयोग से तने के शीर्ष भागों को कम ताप पर (-10° से -20°C) तथा कर्म ऑक्सीजन अवस्था में सुरक्षित रखते हैं, परन्तु कुछ पौधों के जर्मप्लाज्म (बीज) कम ताप व कम ऑक्सीजन अवस्था में मर जाते हैं। इस प्रकार के बीजों को रिकेल्सीटेण्ट बीज (Recalcitrant seeds) कहते हैं। आवश्यकता पर इन जर्मप्लाज्म से उन पौधों का परिवर्द्धन किया जा सकता है।

प्रश्न 3. विभिन्न संकटग्रस्त (जन्तु) जातियों के नाम लिखिए।
उत्तर-स्तनधारी-लंगूर, मेकाकू, चीता, शेर, सफेद भौंह वाला गिब्बन, बाघ, सुनहरी बिल्ली, मरुस्थली बिल्ली तथा भारतीय भेड़िया आदि। पक्षी सफेद पंख वाली बतख, भारतीय बस्टर्ड आदि। उभयचर तथा सरीसृप-घड़ियाल, मगर, वैरेनस, सेलामेण्डर आदि। भारत में लगभग 94 राष्ट्रीय उद्यान व 501 अभयारण्य हैं। राष्ट्रीय उद्यान में महत्त्वपूर्ण प्राणिजात व पादपंजात को उनके प्राकृतिक रूप में ऐतिहासिक इमारतों के साथ संरक्षित किया जाता है। इस क्षेत्र में शिकार व पशुचारण आदि की अनुमति नहीं दी जाती है। अभयारण्य-वन्य जन्तुओं व पक्षियों को सुरक्षित रहने व प्रजनन आदि की स्वतन्त्रता प्राकृतिक परिस्थितियों में प्रदान की जाती है।

प्रश्न 4. विश्व के विभिन्न वन्य जीव संगठनों के विषय में लिखिए।
उत्तर-1. आई०यू०सी०एन०आर० (International Union for Conservation of Natural Resources-I.U.C.N.R.)-इसकी स्थापना 1948 ई० में हुई थी तथा इसका कार्यालय स्विट्जरलैण्ड में है।

2. आई०बी०डब्ल्यू ०एल०–(Indian Boards of Wildlife-I.B.W.L.)-भारतवर्ष में इसकी स्थापना 1952 ई० में हुई थी।

3. डब्ल्यू डब्ल्यू०एफ० (World Wildlife Fund-W.W.F.)—इसकी स्थापना 1962 ई० में हुई थी तथा इसका कार्यालय स्विट्जरलैण्ड में है।

4. बी०एन०एच०एस० (The Bombay Natural History Society-B.N.H.S.)-यह गैर-सरकारी संस्थान है। इसकी स्थापना 1881 ई० में बम्बई (मुम्बई) में हुई।।

5. इल्यू०पी०एस०आई० (Wildlife Preservation Society of India-W.P.S.I.) इसकी स्थापना 1958 ई० में देहरादून में हुई। यह एक गैर-सरकारी संस्था है।

प्रश्न 5. संसार के कुछ मुख्य हॉट-स्पॉट के नाम लिखिए।
उत्तर-संसार के मुख्य हॉट-स्पॉट निम्नवत् हैं
1. अमेजन [Amazon (लैटिन अमेरिका)]
2. आर्कटिक टुण्डा Arctic Tundra (उत्तरी ध्रुव)]
3. अलास्का [Alaska (उत्तरी अमेरिका)]
4. मेडागास्कर द्वीप [Islands of Madagaskar (पूर्वी अफ्रीका के तट)]
5. आल्प्स [Alps (यूरोप)]
6. मालदीव द्वीप [Maldiv Island. (दक्षिण-पूर्वी एशिया)]
7. कैरीबियन द्वीप [Caribbean Islands (दक्षिण प्रशान्त)]
8. मॉरिशस [Mauritius (पूर्वी अफ्रीका के तट)]
9. विक्टोरिया झील [Lake of Victoria (कीनिया)]
10. अण्टार्कटिका [Antarctica (दक्षिणी ध्रुव)]

प्रश्न 6. जैव-विविधता के संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर क्या प्रयास किए जा रहे हैं?
उत्तर-ब्राजील के रियो-डि-जेनेरियो (Rio-de-Janerio) में 1992 ई० में पृथ्वी सम्मेलन (Earth summit) आयोजित किया गया जिसमें जैव-विविधता के संरक्षण के लिए प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव 29 दिसम्बर, 1993 ई० से अमल में लाया गया। इस प्रस्ताव के मुख्य विषय निम्न प्रकार हैं|
(i) जैव-विविधता का संरक्षण,
(ii) जैव-विविधता (Sustainable) का उपयोग,
(iii) आनुवंशिक स्रोतों के उपयोग से उत्पन्न लाभ का सही बँटवारा।। वल्र्ड कन्जर्वेशन यूनियन (World Conservation Union) तथा वर्ल्ड वाइड फण्ड फॉर नेचर [World Wide Fund for Nature-WWF] सम्पूर्ण संसार में संरक्षण व जैवमण्डल रिजर्व (Biosphere reserve) के रखरखाव को प्रोन्नत करने वाले प्रोजेक्ट को सहायता दे रही है।

प्रश्न 7. वन्य जीव प्रबन्धन/संरक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-वन्य-जीवन के अन्तर्गत वे जीव (पादप, जन्तु तथा सूक्ष्म जीव) सम्मिलित हैं जो अपने प्राकृतिक आवासों में मिलते हैं। मानवजाति के लिए वन्य जन्तु भी वनों के समान ही महत्त्वपूर्ण हैं। औद्योगीकरण, सड़क निर्माण, विद्युत परियोजनाओं तथा अन्य आधुनिक गतिविधियों के कारण वनों का विनाश हुआ है। जिससे वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट हुए हैं। इसी कारण अनेक वन्य जन्तुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं या विलुप्तीकरण की ओर अग्रसर हैं जिनमें बाघ, काला चीतल, हिरण, जंगली सूअर, शेर आदि प्रमुख हैं। एक अनुमान के अनुसार वन्य जन्तुओं की लगभग 81 संकटग्रस्त जातियाँ विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। वन्य जन्तुओं के प्रबन्धन से तात्पर्य जन्तुओं की वृद्धि, विकास प्रजनन, उपयोग तथा संरक्षण से है। प्रबन्धन का मूल उद्देश्य यह भी है कि किसी भी जाति का अधिक शोषण न हो, रोग तथा अन्य प्राकृतिक . आपदाओं उसके विलुप्त होने का कारण न बने तथा मानवजाति अधिक-से-अधिक लाभान्वित हो सके।

प्रश्न 8. वन्य-जीव संरक्षण का महत्त्व बताइए।
उत्तर-भारत में वन्य जीवों का संरक्षण एक दीर्घकालिक परम्परा रही है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि ईसा से 6000 वर्ष पूर्व के आखेट-संग्राहक समाज में भी प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग पर विशेष ध्यान दिया जाता था। प्रारम्भिक काल से ही मानव समाज कुछ जीवों को विनाश से बचाने के प्रयास करते रहे हैं। हिन्दू महाकाव्यों, धर्मशास्त्रों, पुराणों, जातकों, पंचतन्त्र एवं जैन धर्मशास्त्रों सहित प्राचीन भारतीय साहित्य में छोटे-छोटे जीवों के प्रति हिंसा के लिए भी दण्ड का प्रावधान था। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में वन्य-जीवों को कितना सम्मान दिया जाता था। आज भी अनेक समुदाय वन्य-जीवों के संरक्षण के प्रति पूर्ण रूप से सजग एवं समर्पित हैं। विश्नोई समाज के लोग पेड़-पौधों तथा जीव-जन्तुओं के संरक्षण के लिए उनके द्वारा निर्मित सिद्धान्तों का पालन करते हैं। महाराष्ट्र में भी मोरे समुदाय के लोग मोर एवं चूहों की सुरक्षा में विश्वास रखते हैं। कौटिल्य द्वारा लिखित ‘अर्थशास्त्र में कुछ पक्षियों की हत्या पर महाराजा अशोक द्वारा लगाये गये प्रतिबन्धों का भी उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 9. संसार में जैव-विविधता के संरक्षण के विभिन्न प्रकारों की रूपरेखा बनाइए।
उत्तर
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प्रश्न 10. निम्नलिखित की परिभाषा जैव-विविधता के सन्दर्भ में दीजिए(अ) विलुप्त, (ब) संकटग्रस्त, (स) असुरक्षित।
उत्तर-(अ) विलुप्त-वह प्रजाति जिसका अन्तिम जीव भी मर चुका हो, जिसका कोई भी जीव वर्तमान में नहीं मिलता हो, विलुप्त मानी जाती है।
(ब) संकटग्रस्त–एक प्रजाति संकटग्रस्त (endangered) तब मानी जाती है जब उसके जीव लगभग समाप्त हो रहे हों अथवा समाप्ति के कगार पर हों।
(स) असुरक्षित-वह प्रजातियाँ जो संकटग्रस्त तो नहीं हैं, परन्तु निकट भविष्य में संकटग्रस्त हो सकती हैं,,असुरक्षित कहलाती हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जैवमण्डल रिजर्व क्या हैं? इसके अन्तर्गत सम्मिलित क्षेत्र का सीमांकन कीजिए तथा जैवमण्डल रिजर्व के कार्य बताइए।
उत्तर-जैवमण्डल रिजर्व
जैवमण्डल रिजर्व वह संरक्षित क्षेत्र है जिसमें ‘आबादी’ तन्त्र की अल्पता होती है। ये प्राकृतिक जीवोम (Natural biomes) हैं जहाँ के जैविक समुदाय विशिष्ट होते हैं। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संघ (UNESCO) के मानव व जैवमंण्डल (man and bisophere) कार्यक्रम में 1975 ई० में जैवमण्डल रिजर्व के सिद्धान्त (concept) को रखा गया जिसके अन्तर्गत पारितन्त्र का संरक्षण आनुवांशिक स्रोतों (genetic resources) के संरक्षण से किया जाना सुझाया गया। मई, 2002 : ई० तक 408 जैवमण्डलों का 94 देशों में पता लगा है। भारत में कुल 14 जैवमण्डल रिजर्व मिलते हैं। भारत में जैवमण्डल रिजर्व के रूप में राष्ट्रीय उद्यानों को भी रखा गया है।

जैवमण्डल रिजर्व के अन्तर्गत कोर (core), बफर (buffer) तथा उदासीन क्षेत्र (Transition zones) आते हैं। प्राकृतिक अथवा कोर क्षेत्र वह है जहाँ का पारितन्त्र पूर्ण तथा कानूनी रूप से संरक्षित होता है। बफर क्षेत्र कोर क्षेत्र को घेरता है तथा इसमें विभिन्न प्रकार के स्रोत मिलते हैं जिन पर शैक्षिक व शोध गतिविधियाँ चलती रहती हैं। संक्रमण क्षेत्र जैवमण्डल रिजर्व का सबसे बाहरी क्षेत्र है। यहाँ पर स्थानीय लोगों द्वारा बहुत-सी क्रियाएँ; जैसे—रहन-सहन, खेती-बाड़ी, प्राकृतिक सम्पदा का आर्थिक उपयोग आदि होती रहती हैं।

जैवमण्डल रिजर्व के मुख्य कार्य

1. संरक्षण–आनुवंशिक स्रोतों, जातियों, पारितन्त्र आदि का संरक्षण करना।
2. विकास–सांस्कृतिक, सामाजिक तथा पारिस्थितिकीय स्रोतों का विकास।
3. वैज्ञानिक शोध तथा शैक्षणिक उपयोग–संरक्षण सम्बन्धी इन क्रियाओं से वैज्ञानिक शोध व सूचना का राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विनिमय होता है।

प्रश्न 2. जैव-विविधता के विभिन्न स्तरों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-संसार में विभिन्न प्रकार के जीव मिलते हैं। इनके मध्य जटिल पारिस्थितिकीय सम्बन्ध, प्रजातियों के मध्य आनुवंशिक विविधता तथा अनेक प्रकार के पारितन्त्र आदि सम्मिलित हैं। जैव विविधता में तीन प्रमुख स्तर हैं
1. आनुवंशिकीय जैव विविधता (Genetic biodiversity),
2. जाति विविधता (Species diversity),
3. समुदाय व पारितन्त्र विविधता (Community and Ecosystem diversity)। ये सभी स्तर एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, परन्तु इन्हें अलग से जाना व पहचाना जा सकता है

1. आनुवंशिकीय विविधता–प्रत्येक जाति चाहे जीवाणु हो या बड़े पादप अथवा जन्तु आनुवंशिक सूचनाओं को संचित रखते हैं, जो जीन में संरक्षित होती हैं। उदाहरण के लिए माइकोप्लाज्मा में लगभग 450.700 जीन।।

2. जाति विविधता–जाति, विविधता की पृथक् व निश्चित इकाई है। प्रत्येक जाति इकोसिस्टम अथवा पारितन्त्र में महत्त्वपूर्ण है। अतः किसी भी जाति की विलुप्तता पूरे पारितन्त्र पर प्रभाव डालती है। जाति विविधता किसी निश्चित क्षेत्र के अन्दर जातियों में विभिन्नता है। जाति की संख्या प्रति इकाई क्षेत्रको जाति धन्यता कहते हैं। जितनी जाति धन्यता अधिक होती है उतनी ही जाति विविधता अधिक होती है। प्रत्येक जाति के जीवों की संख्या भिन्न हो सकती है। इससे समानता (equality) पर प्रभाव पड़ता है।

3.समुदाय व पारितन्त्र विविधिता–समुदाय के स्तर पर पारितन्त्र में विविधता तीन प्रकार की होती है
(अ) एल्फा विविधता–यह विविधता समुदाय के अन्दर होती है। इस प्रकार की विविधता एक ही आवास व समुदाय में मिलने वाले जीवों के मध्य मिलती है। समुदाय/आवास बदलते ही जाति भी बदल जाती है।
(ब) बीटा विविधता–समुदायों व प्रवासों के मध्य बदलते जाति के विभव को बीटा विविधता कहते हैं। समुदायों में विभिन्न जातियों के संघटन में भिन्नता मिलती है।
(स) गामा विविधता-भौगोलिक क्षेत्रों में मिलने वाली सभी प्रकार जैव विविधता को गामा विविधता कहते हैं।

प्रश्न 3. जैव-विविधता से क्या अभिप्राय है? भारत में जैव-विविधता की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए क्या उपाय किये जा रहे हैं?
उत्तर-जैव-विविधता
जैव-विविधता से अभिप्राय जीव-जन्तुओं तथा पादप जगत् में पायी जाने वाली विविधता से है। संसार के अन्य देशों की भाँति हमारे देश के जीव-जन्तुओं में भी विविधता पायी जाती है। हमारे देश में जीवों की 81,000 प्रजातियाँ, मछलियों की 2,500 किस्में तथा पक्षियों की 2,000 प्रजातियाँ विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त 45,000 प्रकार की पौध प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं। इनके अतिरिक्त उभयचरी, सरीसृप, स्तनपायी तथा छोटे-छोटे कीटों एवं कृमियों को मिलाकर भारत में विश्व की लगभग 70% जैव विविधता, पायी जाती है।

जैव-विविधता की सुरक्षा तथा संरक्षण के उपाय

वन जीव-जन्तुओं के प्राकृतिक आवास होते हैं। तीव्र गति से होने वाले वन-विनाश का जीव-जन्तुओं के आवास पर दुष्प्रभाव पड़ा है। इसके अतिरिक्त अनेक जन्तुओं के अविवेकपूर्ण तथा गैर-कानूनी आखेट के कारण अनेक जीव-प्रजातियाँ दुर्लभ हो गयी हैं तथा कई प्रजातियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। अतएव उनकी सुरक्षा तथा संरक्षण आवश्यक हो गया है। इंसी उद्देश्य से भारत सरकार ने अनेक प्रभावी कदम उठाये हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं

1. देश में 14 जीव आरक्षित क्षेत्र (बायोस्फियर रिजर्व) सीमांकित किये गये हैं। अब तक देश में आठ जीव आरक्षित क्षेत्र स्थापित किये जा चुके हैं। सन् 1986 ई० में देश का प्रथम जीव आरक्षित क्षेत्र नीलगिरि में स्थापित किया गया था। उत्तर प्रदेश के हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में नन्दा देवी, मेघालय में नोकरेक, पश्चिम बंगाल में सुन्दरवन, ओडिशा में सिमलीपाल तथा अण्डमान- निकोबार द्वीप समूह में जीव आरक्षित क्षेत्र स्थापित किये गये हैं। इस योजना में भारत के विविध प्रकार की जलवायु तथा विविध वनस्पति वाले क्षेत्रों को भी सम्मिलित किया गया है। अरुणाचल प्रदेश में पूर्वी हिमालय क्षेत्र, तमिलनाडु में मन्नार की खाड़ी, राजस्थान में थार का मरुस्थल, गुजरात में कच्छ का रन, असोम में काजीरंगा, नैनीताल में कॉर्बेट नेशनल पार्क तथा मानस उद्यान को जीव आरक्षित क्षेत्र बनाया गया है। इन जीव आरक्षित क्षेत्रों की स्थापना का उद्देश्य पौधों, जीव-जन्तुओं तथा सूक्ष्म जीवों की विविधती तथा एकता को बनाये रखना तथा पर्यावरण-सम्बन्धी अनुसन्धानों को प्रोत्साहन देना है।

2. राष्ट्रीय वन्य-जीव कार्य योजना वन्य-जीव संरक्षण के लिए कार्य, नीति एवं कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। प्रथम वन्य-जीव कार्य-योजना, 1983 को संशोधित कर अब नयी वन्य-जीव कार्य योजना (2002-16) स्वीकृत की गयी है। इस समय संरक्षित क्षेत्र के अन्तर्गत 89 राष्ट्रीय उद्यान एवं 490 अभयारण्य सम्मिलित हैं, जो देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 1 लाख 56 हजार वर्ग किमी क्षेत्रफल पर विस्तृत हैं।

3. वन्य जीवन( सुरक्षा) अधिनियम, 1972 जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर (इसका अपना पृथक् अधिनियम है) शेष सभी राज्यों द्वारा लागू किया जा चुका है, जिसमें वन्य-जीव संरक्षण तथा विलुप्त होती जा रही प्रजातियों के संरक्षण के लिए दिशानिर्देश दिये गये हैं। दुर्लभ एवं समाप्त होती जा रही प्रजातियों के व्यापार पर इस अधिनियम द्वारा रोक लगा दी गयी है। राज्य सरकारों ने भी ऐसे ही कानून बनाये हैं।

4. जैव-कल्याण विभाग, जो अब पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय का अंग है, ने जानवरों को अकारण दी जाने वाली यन्त्रणा पर रोक लगाने सम्बन्धी शासनादेश पारित किया है। पशुओं पर क्रूरता पर रोक सम्बन्धी 1960 के अधिनियम में दिसम्बर, 2002 ई० में नये नियम सम्मिलित किये गये हैं। अनेक वन-पर्वो के साथ ही देश में प्रति वर्ष 1-7 अक्टूबर तक वन्यजन्तु संरक्षण सप्ताह मनाया जाती है, जिसमें वन्य-जन्तुओं की रक्षा तथा उनके प्रति जनचेतना जगाने के लिए विशेष प्रयास किये जाते हैं। इन सभी प्रयासों के अति सुखद परिणाम भी सामने आये हैं। आज राष्ट्रहित में इस बात की आवश्यकता है कि वन्य-जन्तु संरक्षण का प्रयास एक जन-आन्दोलन का रूप धारण कर ले।

प्रश्न 4. जैव संवेदी क्षेत्र अथवा हॉट-स्पॉट किसे कहते हैं? विश्व मानचित्र पर संसार के मुख्य हॉट- स्पॉट प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर-जैव संवेदी क्षेत्र वे क्षेत्र हैं जिनमें जैव विविधता स्पष्ट रूप से मिलती है। इस स्थान को मानव द्वारा अधिक हानि नहीं पहुँचानी चाहिए, ये स्थान धरोहर के रूप में रखने चाहिए जिससे दुर्लभ प्रजातियों को भी बचाकर रखा जा सके तथा प्राकृतिक पर्यावरण में उन्हें उगाया जा सके। नार्मन मेयर ने 1988 ई० में हॉट स्पॉट संकल्पना (Hot Spot Concept) विकसित की जिससे उन स्थानों का पता लगाया जहाँ स्वस्थाने (in situ) संरक्षण किया जा सके। हॉट स्पॉट धरती पर पादप व जन्तु के जीवन में दुर्लभ प्रजातियों के सबसे धनी भण्डार (richest reservoirs) कहते हैं। हॉट स्पॉट को पहचानने के लिए निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है

1. एण्डेमिक (endemic) प्रजातियों की संख्या अर्थात् ऐसी प्रजातियाँ जो और कहीं नहीं मिलती हैं।
UP Board Solutions for Class 11 Geography Fundamentals of Physical Geography Chapter 16 Biodiversity and Conversation (जैव विविधता एवं संरक्षण) img 2

2. प्राकृतिक आवास के बिगड़ते सन्दर्भ में प्रजातियों को होने वाली हानि अथवा चेतावनी के आधार पर संसर में लगभग 25 स्थलीय हॉट स्पॉट जैव विविधता को संरक्षित करने के लिए पहचाने गए हैं। ये सभी हॉट स्पॉट पृथ्वी के लगभग 1.4% भू-भाग पर विस्तृत हैं। 15 हॉट स्पॉट में ट्रॉपिकल वनों (Tropical Forest), 5 मेडीटेरेनियन प्रकार के क्षेत्रों में (Mediterranean type zone) , तथा लगभग 9 हॉट स्पॉट द्वीपों (Islands) में विस्तृत हैं। 16 हॉट स्पॉट उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र में | मिलते हैं (चित्र 16.1)। लगभग 20% जनसंख्या इन हॉट स्पॉट क्षेत्रों में रहती है।

संसार के 25 हॉट स्पॉट क्षेत्रों में से 2 भारत में मिलते हैं जो समीपवर्ती पड़ोसी देशों तक फैले हुए हैं; जैसे–पश्चिमी घाटे व पूर्वी हिमालय क्षेत्र।

प्रश्न 5. संकटापन्न प्रजातियों से आप क्या समझते हैं? संकटापन्न प्रजातियों को वर्गीकृत कीजिए।
उत्तर-इसमें वे सभी प्रजातियाँ सम्मिलित हैं जिनके लुप्त हो जाने का खतरा है। जिस तेजी से वनों का विनाश विभिन्न मानवीय आवश्यकताओं के लिए हो रहा है तथा जलवायु में परिवर्तन हुए हैं, उससे विश्व की विभिन्न प्रजातियाँ संकटग्रस्त हो गई हैं। विलुप्त हो रही प्रजातियों को निम्नलिखित वर्गों में रखा जाता है

I. संकटग्रस्त जातियाँ
ये जीवों (पादप तथा जन्तु) की वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या कम हो गई है या तेजी से कम हो रही है। तथा इनके आवास इतने कम हो गए हैं कि इनके लुप्त होने का भय है।

II. सुभेद्य जातियाँ
इसमें जीवों की वे जातियाँ सम्मिलित हैं जिनके पौधे पर्याप्त संख्या में अपने प्राकृतिक आवासों में पाए। जाते हैं, परन्तु यदि भविष्य में इनके वातावरण में प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, तो इनका निकटभविष्य मे विलुप्त होने का भय है।

III. दुर्लभ जातियाँ
ये उन पौधों की जातियाँ हैं, जिनकी संख्या संसार में बहुत कम है। इनके आवास विश्व में सीमित संख्या मे हैं। इनके विलुप्त होने का भय सदैव बना रहता है।

प्रश्न 6. भारत के प्रमुख वन्य जन्तुओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर-भारत के प्रमुख जन्तुओं को निम्नलिखित वर्गों में रखा जा सकता है

  • उभयचर-मेंढक, टोड, पादविहीन उभयचर (limbless amphibians), सरटिका आदि।
  • सरीसृप-जंगली छिपकली, गिरगिट, घड़ियाल, मगर, सर्प, कछुआ आदि।
  • पक्षी–गिद्ध, बाज, मोर, मैना कोयल, गरुड़ सारस, बतख, उल्लू, नीलकंठ, हंस, बुलबुल, कठफोड़वा, बगुला आदि।
  • स्तनी–बब्बर शेर, भेड़िया, रीछ, लोमड़ी, बन्दर, हाथी लकड़बग्घा, हिरण, गिलहरी, याक, खरहा, लंगूर गिब्बन, गैंडा, भेड़, लोरिस, गधा आदि।
    भारत में मुख्य वन्य जन्तु निम्नलिखित हैं

(क) भारतीय मगरमच्छ—ये तीन प्रकार के होते हैं(i) घड़ियाल (यथा Goviglis gungeticus), (ii) खारे जल के मगरमच्छ (यथा Crocodylus parosus), (iii) स्वच्छ जल के मगरमच्छ (यथा Crocodylus palustrust)। इनके प्रजनन के मुख्य केन्द्र आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, केरल, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक तथा ओडिशा आदि राज्य हैं।
(ख) भारतीय मोर—यह भारत का राष्ट्रीय पक्षी (national bird) है।
(ग) भारतीय बस्टर्ड—यह विश्व का सबसे तेज उड़ने वाला पक्षी है, यह अब दुर्लभ है। यह पक्षी गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक तथा राजस्थान के वनों में मिलता है।
(घ) भारतीय हाथी—यह हिमालय की तराई, केरल, कर्नाटक आदि राज्यों में मिलता है।
(ङ) भारतीय शेर—यह गुजरात के गिर वन (Gir forest) में मिलता है।
(च) भारतीय बाघ– भारतवर्ष में बाघ अभयारण्य (Tiger reserves) हैं–काबेंट, दुधवा, कान्हा, रणथम्भौर, सरिस्का, सुन्दर वन, भेलघाट, बद्रीपुर, बुक्स, पेरियार, नमदफ आदि।
(छ) होर्न बिल–यह एक बड़ा पक्षी है जिसका शिकार आदिवासियों द्वारा मांस के लिए किया जाता है।
(ज) भारतीय गेंडा—इसका शिकार सींगों (horms) के लिए किया जाता है। यह उत्तरी भारत के गंगा नदी के मैदानी भागों में मिलता है।

प्रश्न 7. वन्य जन्तुओं की विलुप्ति के मुख्य कारण बताइए।
उत्तर-वन्य जन्तुओं की विलुप्ति के निम्नलिखित कारण हैं

1. जनसंख्या में तीव्र वृद्धि-विश्व में जनसंख्या अनियन्त्रित रूप से बढ़ रही है। इसके लिए मानव ने अव्यवस्थित रूप से वन्य जन्तुओं के प्राकृतिक आवासों को हानि पहुँचाई है। कृषि योग्य भूमि, आवास व्यवस्था, सड़क निर्माण, उद्योग के विकास के लिए वनों को काटा गया। इन सभी के कारण वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में कमी आई है। यह वन्य जातियों की विलुप्ति का प्रमुख कारण है।

2. औद्योगीकरण-औद्योगीकरण के लिए बिना किसी योजना के वनों का शोषण बड़े स्तर पर हुआ | है जिस कारण वन्य जन्तुओं के आवास सीमित हुए हैं। इससे अनेक प्रजातियों के संकटग्रस्त होने को भय उत्पन्न हो गया है।

3. प्रदूषण-प्राकृतिक आवासों में प्रदूषण होने से जन्तुओं को विषमताओं का सामना करना पड़ता है। प्रदूषण के कारण कभी-कभी कुछ अति हानिकारक गैसें उत्पन्न होती हैं जिससे जन्तुओं के स्वास्थ्य को हानि होती है तथा वे मर भी सकते हैं।

4. आखेट-प्राचीनकाल से ही भारववर्ष में अनेक मुगल सम्राटों, अंग्रेजी शासकों व राजा-महाराजाओं का आखेट करना प्रिय शौक रहा, फलस्वरूप वन्य जन्तुओं को मारा गया। मांस का भोजन के रूप में प्रयोग भी इनकी विलुप्ति का प्रमुख कारण है। स्वतन्त्रता के बाद आखेट पर सरकार ने कानूनी नियन्त्रण स्थापित किया है।

5. मानवीय क्रियाकलापमानव-की धन के लिए लालसा सर्वविदित है। वन्य जन्तुओं का शिकार कर उनकी खाल, दाँत, सींग, नख आदि का निर्यात करंके करोड़ों रुपये कमाने के लालच में वन्य जन्तुओं का विनाश किया जा रहा है।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 4 Social Justice

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 4 Social Justice (सामाजिक न्याय)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला है?
उत्तर-
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का मतलब है न्याय में प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित भाग प्रदान करना। यह बात आज भी न्याय का महत्त्वपूर्ण अंग बनी हुई है। आज इस बात पर निर्णय के लिए विचार किया जाता है कि किसी व्यक्ति का प्राप्य क्या है? जर्मन दार्शनिक काण्ट के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य की गरिमा होती है। अगर सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है, तो उनमें से हर एक को प्राप्य यह होगा कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हों। न्याय के लिए आवश्यक है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और समान महत्त्व दें।

समान लोगों के प्रति समान व्यवहार – आधुनिक समाज में बहुत-से लोगों को समान महत्त्व देने के बारे में आम सहमति है, लेकिन यह निर्णय करना सरल नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाए। इस विषय में अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं। उनमें से एक है समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त। यह माना जाता है कि मनुष्य होने के कारण सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसीलिए वे समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी हैं। आज अधिकांश उदारवादी जनतन्त्रों में कुछ महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान किए गए हैं। इनमें जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार जैसे नागरिक अधिकार शामिल हैं। इसमें समाज के अन्य सदस्यों के साथ समान अवसरों के उपभोग करने का सामाजिक अधिकार और मताधिकार जैसे राजनीतिक अधिकार भी शामिल हैं। ये अधिकार व्यक्तियों को राज-प्रक्रियाओं में भागीदार बनाते हैं।

समान अधिकारों के अतिरिक्त समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के लिए आवश्यक है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभव न किए जाए। उन्हें उनके काम और कार्य-कलापों के आधार पर जाँचा जाना चाहिए। इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं। इसीलिए अगर भिन्न जातियों के दो व्यक्ति एक ही काम करते हैं, चाहे वह पत्थर तोड़ने का काम हो या होटल में कॉफी सर्व करने का; उन्हें समान पारिश्रमिक मिलना चाहिए।

प्रश्न 2.
अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धान्तों की संक्षेप में चर्चा करो। प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइए।
उत्तर-
अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. समान लोगों के लिए समान व्यवहार – इसका विवेचन हम प्रश्न 1 में कर चुके हैं।

2. समानुपातिक न्याय – समान व्यवहार न्याय का एकमात्र सिद्धान्त नहीं है। ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिनमें हम यह अनुभव करें कि प्रत्येक के साथ समान व्यवहार करना अन्याय होगा। उदाहरण के लिए; किसी विद्यालय में अगर यह निर्णय लिया जाए, कि परीक्षा में सम्मिलित होने वाले सभी लोगों को समान अंक दिए जाएँगे क्योंकि सभी एक ही स्कूल के विद्यार्थी हैं और सभी ने एक ही परीक्षा दी है, यह स्थिति कष्टपूर्ण हो सकती है, तब अधिक उचित यह रहेगा। कि छात्रों को उंनकी उत्तर-पुस्तिकाओं की गुणवत्ता और सम्भव हो तो इसके लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास के अनुसार अंक प्रदान किए जाएँ। यह न्याय का समानुपातिक सिद्धान्त है।

3. मुख्य आवश्यकताओं का विशेष ध्यान – न्याय का तीसरा सिद्धान्त है-पारिश्रमिक या कर्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की मुख्य आवश्यकताओं का ध्यान रखने का सिद्धान्त। इसे सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का एक तरीका माना जा सकता है। समाज के सदस्यों के रूप में लोगों की बुनियादी अवस्था और अधिकारों की दृष्टि से न्याय के लिए यह आवश्यक हो सकता है कि लोगों के साथ समान बरताव किया जाए, लेकिन लोगों के बीच भेदभाव न करना और उनके परिश्रम के अनुपात में उन्हें पारिश्रमिक देना भी यह सुनिश्चित करने के लिए शायद पर्याप्त न हो कि समाज में अपने जीवन के अन्य सन्दर्भो में भी लोग समानता का उपभोग करें या कि समाज समग्ररूप से न्यायपूर्ण हो जाए। लोगों की विशेष आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखने का सिद्धान्त समान व्यवहार के सिद्धान्त को अनिवार्यतया खण्डित नहीं, बल्कि उसका विस्तार ही करता है।

प्रश्न 3.
क्या विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के विरुद्ध है?
उत्तर-
विशेष जरूरतों या विकलांग व्यक्तियों को कुछ विशेष मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है। लेकिन इस पर सहमत होना सरल नहीं होता कि लोगों को विशेष सहायता देने के लिए उनकी किन असमानताओं को मान्यता दी जाए। शारीरिक विकलांगता, उम्र या अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच न होना कुछ ऐसे कारक हैं, जिन्हें विभिन्न देशों में बरताव का आधार समझा जाता है। यह माना जाता है कि जीवनयापन और अवसरों के बहुत उच्च स्तर के उपभोक्ता और उत्पादक जीवन जीने के लिए आवश्यक न्यूनतम बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित लोगों से हर मामले में एक समान बरताव करेंगे उनके ऐसा करने पर यह आवश्यक नहीं है कि परिणाम समतावादी और न्यायपूर्ण समाज होगा बल्कि एक असमान समाज भी हो सकता है।

प्रश्न 4.
निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा सकता है। रॉल्स ने इस तर्क को आगे बढ़ाने में अज्ञानता के आवरण के विचार का उपयोग किस प्रकार किया?
उत्तर-
जीवन में विभिन्न प्रकरणों में हमारे समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न हो जाता है कि हम ऐसे निर्णय पर कैसे पहुँचे जो निष्पक्ष हो और न्यायसंगत भी।
जॉन रॉल्स ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है। रॉल्स तर्क प्रस्तुत करते हैं कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यही है कि हम स्वयं को ऐसी परिस्थितियों में होने की कल्पना करें जहाँ हमें यह निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित किया जाए। जबकि हमें यह ज्ञात नहीं है कि उस समाज में हमरा क्या स्थान होगा। अर्थात् हम नहीं जानते कि किस प्रकार के परिवार में हम जन्म लेंगे, हम उच्च जाति के परिवार में जन्म लेंगे या निम्न जाति के, धनी होंगे या गरीब, सुविधासम्पन्न होंगे अथवा सुविधाहीन। रॉल्स तर्क प्रस्तुत करते हैं कि अगर हमें यह नहीं मालूम हो, इस मायने में, कि हम कौन होंगे और भविष्य के समाज में हमारे लिए कौन-से विकल्प खुले होंगे, तब हम भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय का समर्थन करेंगे, वह समाज के अनेक सदस्यों के लिए अच्छा होगा।

रॉल्स ने इसे ‘अज्ञानता के आवरण’ में सोचना कहा है। रॉल्स आशा करते हैं कि समाज में अपने सम्भावित स्थान और सामर्थ्य के बारे में पूर्ण अज्ञानता की दशा में प्रत्येक व्यक्ति, आमतौर पर जैसे सब करते हैं, अपने स्वयं के हितों को दृष्टिगत रखकर निर्णय करेगा। चूँकि कोई नहीं जानता कि वह कौन होगा और उसके लिए क्या लाभप्रद होगा, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति सबसे बुरी स्थिति को दृष्टिगत रखकर समाज की कल्पना करेगा। स्वयं के लिए सोच-विचार कर सकने वाले व्यक्ति के सामने यह स्पष्ट रहेगा कि जो जन्म से सुविधासम्पन्न हैं, वे कुछ विशेष अवसरों का उपभोग करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य से यदि उनका जन्म समाज के वंचित वर्ग में हो जहाँ वैसा कोई अवसर न मिले, तब क्या होगा? इसलिए, अपने स्वार्थ में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यही उचित होगा कि वह संगठन के ऐसे नियमों के विषय में सोचे जो कमजोर वर्ग के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सके। इस प्रयास से यह होगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन सभी लोगों को प्राप्त हों-चाहे वे उच्च वर्ग के हों या निम्न वर्ग के।

निश्चित रूप से अपनी पहचान को विस्मृत करना और अज्ञानता के आवरण’ में खड़ा होने की कल्पना करना किसी के लिए सहज नहीं है। लेकिन तब, अधिकांश लोगों के लिए यह भी उतना ही कठिन है। कि वे आत्मत्यागी बनें और अजनबी लोगों के साथ अपने सौभाग्य को बाँटें। यही कारण है कि हम आदतस्वरूप आत्मत्याग को वीरता से जोड़ते हैं। इन मानवीय दुर्बलताओं और सीमाओं को दृष्टिगत रखते हुए हमारे लिए ऐसे ढाँचे के बारे में सोचना अच्छा रहेगा जिसमें असाधारण कार्यवाहियों की आवश्यकता न रहे। ‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की विशेषता यह है कि उसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बँधती है। उनसे अपने लिए सोचने और अपने हित में जो अच्छा हो, उसे चुनने की अपेक्षा रहती है।

अज्ञानता का कल्पित आवरण ओढ़न उचित कानूनों और नीतियों की प्रणाली तक पहुँचने का पहला कदम है। इससे यह प्रकट होगा कि विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे सन्दर्भ को दृष्टिगत रखकर चीजों को देखेंगे, बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। दोनों चीजों को साथ-साथ चलना है। चूंकि कोई नहीं जानता कि वे वे आगामी समाज में कौन-सी जगह लेंगे, इसलिए हर कोई ऐसे नियम चाहेगी जो, अगर वे सबसे बुरी स्थिति में जीने वालों के बीच पैदा हों, तब भी उनकी रक्षा कर सके। लेकिन उचित तो यही होगा कि वे यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास करें, कि उनके द्वारा चुनी गई नीतियाँ बेहतर स्थिति वालों को कमजोर न बना दे, क्योंकि यह सम्भावना भी हो सकती है कि वे स्वयं भविष्य के उस समाज में सुविधासम्पन्न स्थिति में जन्म लें। इसलिए यह सभी के हित में होगा कि निर्धारित नियमों और नीतियों से सम्पूर्ण समाज को लाभ होना चाहिए, किसी एक विशिष्ट वर्ग का नहीं। यहाँ निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्यवाही का परिणाम है, न कि परोपकार अथवा उदारता का।

इसलिए रॉल्स तर्क प्रस्तुत करते हैं कि नैतिकता नहीं बल्कि विवेकशील चिन्तन हमें समाज में लाभ और भार के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार करने की ओर प्रेरित करती है। इस उदारहण में हमारे पास पहले से बना-बनाया कोई लक्ष्य या नैतिकता के प्रतिमान नहीं होते हैं। हमारे लिए सबसे अच्छा क्या है, यह निर्धारित करने के लिए हम स्वतन्त्र होते हैं। यही विश्वास रॉल्स के सिद्धान्त को निष्पक्ष और न्याय के प्रश्न को हल करने को महत्त्वपूर्ण और सबल रास्ता तैयार कर देता है।

प्रश्न 5.
आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं। इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार की क्या जिम्मेदारी है?
उत्तर-
आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की बुनियादी न्यूनतम जरूरतें शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों की मात्रा, आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी मानी गई हैं।
गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए। इसके लिए वह विभिन्न कार्यक्रम चला सकती है, निजी एजेंसियों की सेवाएँ भी ले सकती है। राज्य के लिए यह आवश्यक हो सकता है कि वह उन वृद्धों और रोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे जो प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। लेकिन इसके आगे राज्य की भूमिका नियम-कानून का ढाँचा बरकरार रखने तक ही। सीमित होनी चाहिए।

प्रश्न 6.
सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए राज्य की कार्यवाही को निम्न में से कौन-से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है?
(क) गरीब और जरूरतमन्दों को निःशुल्क सेवाएँ देना एक धर्मकार्य के रूप में न्यायोचित है।
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिए।
(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।
उत्तर-
(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारत में न्याय का सम्बन्ध था?
(क) धर्म से
(ख) ध्यान से
(ग) राज्य से
(घ) राजा से
उत्तर :
(क) धर्म से

प्रश्न 2.
‘दि रिपब्लिक’ किसकी रचना है?
(क) अरस्तू की
(ख) प्लेटो की
(ग) मैकियावली की
(घ) बोदां की
उत्तर :
(ख) प्लेटो की।

प्रश्न 3.
सुकरात कौन था?
(क) एक दार्शनिक
(ख) एक राजनीतिज्ञ
(ग) एक राजा
(घ) एक विद्यार्थी
उत्तर :
(क) एक दार्शनिक।

प्रश्न 4.
“हर मनुष्य की गरिमा होती है।” यह किसका कथन है?
(क) प्लेटो का
(ख) अरस्तू का
(ग) इमैनुएल काण्ट का।
(घ) रॉल्स का
उत्तर :
(ग) इमैनुएल काण्ट का।

प्रश्न 5.
न्याय की देवी आँखों पर पट्टी इसलिए अँधे रहती है क्योंकि –
(क) उसे निष्पक्ष रहना है।
(ख) वह देख नहीं सकती
(ग) यह एक परम्परा है।
(घ) वह स्त्री है।
उत्तर :
(क) उसे निष्पक्ष रहना है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक न्याय का लक्ष्य क्या है?
उत्तर :
सामाजिक न्याय का लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक न्याय की प्राप्ति है ताकि समाज निरन्तर अपने निर्धारित लक्ष्यों की ओर बढ़ सके।

प्रश्न 2.
न्याय के तीन सिद्धान्त कौन-से हैं?
उत्तर :

  1. समान लोगों के प्रति समान बरताव।
  2. समानुपातिक न्याय।
  3. विशेष जरूरतों का विशेष ध्यान।

प्रश्न 3.
जॉन रॉल्स ने कौन-सा सिद्धान्त प्रस्तुत किया था?
उत्तर :
सुप्रसिद्ध राजनीतिक दार्शनिक जॉन रॉल्स ने न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 4.
बुनियादी आवश्यकताएँ कौन-सी हैं?
उत्तर :
स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों की बुनियादी मात्रा, आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी बुनियादी आवश्यकताएँ हैं।

प्रश्न 5.
मुक्त बाजार की एक विशेषता लिखिए।
उत्तर :
मुक्त बाजार साधारणतया पूर्व से ही सुविधासम्पन्न लोगों के लिए काम करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपूर्ण विभाजन के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर :
सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू हों। लेकिन इतना ही काफी नहीं है इसमें कुछ और अधिक करने की आवश्यकता है। सामाजिक न्याय का सम्बन्ध वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है, चाहे यह राष्ट्रों के बीच वितरण का मामला हो या किसी समाज के अन्दर विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच का। यदि समाज में गम्भीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं तो यह आवश्यक होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों की पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समतल धरातल मिल सके। इसलिए किसी देश के अन्दर सामाजिक न्याय के लिए यह आवश्यक है कि न केवल लोगों के साथ समाज के कानूनों और नीतियों के सन्दर्भ में समान बरताव किया जाए। बल्कि जीवन की स्थितियों और अवसरों के मामले में भी वे बहुत कुछ बुनियादी समानता का उपभोग करें।

प्रश्न 2.
नीचे दी गई स्थितियों की जाँच करें और बताएँ कि क्या वे न्यायसंगत हैं। अपने तर्क के साथ यह भी बताएँ कि प्रत्येक स्थिति में न्याय का कौन-सा सिद्धान्त काम कर रहा है –

  1. एक दृष्टिहीन छात्र सुरेश को गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए साढ़े तीन घण्टे मिलते हैं, जबकि अन्य सभी छात्रों को केवल तीन घण्टे।
  2. गीता बैसाखी की सहायता से चलती है। अध्यापिका ने गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए उसे भी साढ़े तीन घण्टे का समय देने का निश्चय किया।
  3. एक अध्यापक कक्षा के कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने के लिए कुछ अतिरिक्त अंक देता है।
  4. एक प्रोफेसर अलग-अलग छात्राओं को उनकी क्षमताओं के मूल्यांकन के आधार पर अलग-अलग प्रश्नपत्र बाँटता है।
  5. संसद में एक प्रस्ताव विचाराधीन है कि संसद की कुल सीटों में से एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएँ।

उत्तर :

  1. न्यायसंगत है। विशेष जरूरतों का ख्याल रखने का सिद्धान्त।
  2. न्यायसंगत नहीं। यहाँ उपर्युक्त सिद्धान्त लागू नहीं होता।
  3. न्यायसंगत नहीं। यहाँ समानुपातिक सिद्धान्त लागू नहीं होता।
  4. न्यायसंगत नहीं। यहाँ न्यायपूर्ण बँटवारा नहीं है।
  5. न्यायसंगत है। यहाँ ‘विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल’ सिद्धान्त लागू होता है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में सरकार ने विकलांगों के लिए क्या कार्य किया है।
उत्तर :
विकलांगता के कारण विकलांगों को सामाजिक घृणा का सामना करना पड़ता है तथा उन्हें जीवन में आगे बढ़ने के अवसरों से मात्र उनकी विकलांगता के कारण वंचित कर दिया जाता है। इससे न केवल विकलांग व्यक्ति को वरन् उसके पूरे परिवार को अनेक अवांछित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

भारतीय संविधान विकलांगों को उनके काम, शिक्षा तथा सार्वजनिक सहायता के अधिकार दिलावने हेतु राज्यों को निर्देश देता है जिससे कि वे प्रभावी व्यवस्था लागू करें। भारत के विकलांगों के हितों से सम्बन्धित मुख्यतया निम्नलिखित तीन कानून पारित किए गए हैं –

  1. भारतीय पुनर्वास परिषद् अधिनियम, 1992;
  2. विकलांग-व्यक्ति को समान अवसर, अधिकारों की रक्षा और पूर्ण सहभागिता अधिनियम, 1995; तथा
  3. आत्मविमोह, मस्तिष्क पक्षाघात, अल्पबुद्धिता तथा बहुविकलांगता प्रभावित व्यक्तियों के कल्याणार्थ राष्ट्रीय न्याय अधिनियम, 1999.

भारतीय पुनर्वास परिषद् अधिनियम, 1992 के द्वारा पुनर्वास परिषद् को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। यह विकलांगता के क्षेत्र में काम करने वाले विभिन्न श्रेणियों के कर्मचारियों के लिए चल रहे कार्यक्रमों तथा संस्थाओं को नियन्त्रित करता है।

प्रश्न 2.
विकलांग व्यक्ति अधिनियम, 1995 के क्या प्रावधान हैं?
उत्तर :
‘विकलांग व्यक्ति अधिनियम, 1995′ सर्वाधिक व्यापक है जो विकलांगों के लिए समग्र दृष्टिकोण रखता है। इसके अनसुार –

  1. विकलांगों को सरकारी नौकरियों में 3 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा तथा उन सार्वजनिक एवं निजी संस्थानों को प्रोत्साहन दिया जाएगा जो पाँच या पाँच से अधिक विकलांगों को अपने यहाँ नौकरी पर रखेंगे;
  2. सरकार का उत्तरदायित्व है कि प्रत्येक विकलांग को 18 वर्ष की आयु तक नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करे;
  3. विकलांगों को घर बनाने के लिए व्यापार या फैक्टरी स्थापित करने के लिए अथवा विशेष मनोरंजन केन्द्र, विद्यालय या अनुसन्धान संस्थान खोलने के लिए भूमि का आवंटन रियायती दरों पर और प्राथमिकता के आधार पर दिया जाएगा;
  4. इनके लिए रोजगार कार्यालय, विशेष बीमा पॉलिसियाँ तथा बेकारी भत्ते की व्यवस्था की जाएगी; तथा
  5. विकलांगों के कल्याण के लिए एक मुख्य आयुक्त की नियुक्ति की जाएगी जो राज्यों के आयुक्तों द्वारा इन लोगों के कार्यों के लिए सामंजस्य स्थापित करे, इनके हितों की सुरक्षा हेतु । कार्य करे और उनकी शिकायतों की सुनवाई करे।

प्रश्न 3.
भारत में सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में क्या कदम उठाए गए हैं?
उत्तर :
भारत में सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं

अनुच्छेद 38 – राज्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की प्राप्ति और संरक्षण द्वारा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं का मार्गदर्शन करता है, जनसामान्य की भलाई को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 39 – विशेषतौर पर राज्य अपनी नीति को इन चीजों की उपलब्धि के लिए निर्देशित करेगा

(क) कि नागरिक, पुरुष और स्त्रियाँ, जीवन यापन के उचित साधनों पर समान अधिकार रखते हों।
(ख) कि आर्थिक ढाँचे का क्रियान्वयन ऐसा न हो कि साधारण मनुष्यों का अहित हो और सम्पत्ति तथा उत्पादन के साधन केन्द्रित हो जाएँ।
(ग) कि कामगारों के स्वास्थ्य, शक्ति और बच्चों की सुकुमार उम्र का दुरुपयोग न हो।

अनुच्छेद 43 – श्रमिकों के लिए जीवनोपयोगी वेतन प्राप्त कराने का राज्य प्रयत्न करे।

अनुच्छेद 46 – राज्य समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों की विशेष रूप से वृद्धि करे और उनका सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से संरक्षण करे।

अनुच्छेद 47 राज्य अपने नागरिकों के पौष्टिक स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाने और सामाजिक स्वास्थ्य को उन्नत करने को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझे।।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक न्याय से आप क्या समझते हैं? सामाजिक न्याय के लक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
एक अवधारणा के रूप में सामाजिक न्याय अपेक्षाकृत नया है। सर सी०के० एलन अपनी पुस्तक ‘आस्पैक्ट्स ऑफ जस्टिस’ में लिखते हैं –

आज हम ‘सामाजिक न्याय के बारे में बहुत कुछ सुनते हैं। मैं नहीं समझता कि वे जो इस कथन को बड़ी वाचालता से प्रयोग करते हैं, इसके क्या अर्थ लेते हैं, कुछ इसकी व्याख्या ‘अवसर की समानता के रूप में करते हैं। जो एक भ्रमिक कथन है, क्योंकि अवसर सभी लोगों के बीच समान नहीं हो सकता क्योंकि इसे ग्रहण करने की क्षमताएँ असमान हैं, मुझे भय है, कुछ इसका अर्थ यह लेते हैं कि यह उचित है मैं कहूँगा–विशाल हृदय कि प्राकृतिक मानवी असमानता की सूक्ष्मता को कम किए जाने के लिए हर प्रयास किया जाए और आत्मोन्नति के व्यावहारिक अवसरों में कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए, वरन् उन्हें मदद पहुँचानी चाहिए।

सर एलन का यह कथन इस बात को प्रकट करता है कि सामाजिक न्याय की धारणा अस्पष्ट सी है। फिर भी इसमें कुछ तथ्य हैं। सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक उचित और सुन्दर सामाजिक व्यवस्था जो सबके लिए उचित और सुन्दर है, सम्मिलित है।

सामाजिक न्याय का तात्पर्य उन लोगों को ऊपर उठाना है जो किन्हीं कारणों से कमजोर और कम अधिकारसम्पन्न हैं और जो जीवन की दौड़ में पीछे छूट गए हैं। अतः सामाजिक न्याय समाज के अधिक कमजोर और पिछड़े वर्गों को विशेष सुरक्षा प्रदान करता है।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के० सुब्बाराव के अनुसार-‘सामाजिक न्याय’ शब्द के सीमित और व्यापक दोनों अर्थ हैं। अपने सीमित अर्थ में इसका अभिप्राय है मनुष्य के व्यक्तिगत सम्बन्धों में व्याप्त अन्याय को सुधार। अपने विस्तृत अर्थ में यह मनुष्यों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के असन्तुलन को दूर करता है। सामाजिक न्याय को दूसरे या बाद वाले अर्थ में समझा जाना चाहिए, क्योंकि तीनों ही क्रियाएँ आपस में सम्बद्ध हैं। सामाजिक न्याय अच्छे समाज के निर्माण में सहायक होता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक न्याय स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण में सन्तुलन बनाए रखने का प्रयास करता है।’ विवेचना कीजिए।
उत्तर :
सामाजिक न्याय आधुनिक कल्याणकारी राज्य का निदेशक सिद्धान्त बन गया है। सामाजिक सुरक्षा के कदम, जैसे कि बेरोजगारी के मामले में सहायता, प्रसवकालीन लाभ और बीमारी, वृद्धावस्था तथा अपंगता के विरुद्ध बीमा, समाज के उन सदस्यों को सामाजिक न्याय दिलाने को उठाए गए हैं। जिनके पास अपने भरण-पोषण के साधन नहीं हैं और जो अपने परिवारों की देख-रेख नहीं कर पाते। सामाजिक न्याय को मात्र सामाजिक सुरक्षा के बराबर समझना गलत होगा। यह सामाजिक सुरक्षा से अधिक बड़े अर्थ का सूचक है और यह कमजोर तथा पिछड़े हुओं पर विशेष ध्यान दिए जाने पर जोर देता है। सामाजिक न्याय तथा समाजवाद के अर्थों में प्रायः भ्रान्ति पैदा हो जाती है क्योंकि दोनों ही असमानताओं को हटाने का प्रयास करते हैं। इन दोनों शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयोग करना गलत है। समाजवाद अन्तिम विश्लेषण में उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार को समाप्त करने का उद्देश्य रखता है। समाजवादी व्यवस्था के अन्तर्गत उत्पादन के सभी साधन; जैसे-भूमि, पूँजी, कारखाने आदि सार्वजनिक अधिकार में ले लिए जाते हैं। एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में जो सामाजिक न्याय के लिए वचनबद्ध है इस सीमा तक जाना आवश्यक नहीं है। सामाजिक न्याय की माँगों को उस देश में भी पूरा किया जा सकता है जिसने पूँजीवाद को अपनी आर्थिक व्यवस्था का आधार बनाए रखा है। आवश्यक यह है कि कानून, कर और अन्य युक्तियों से यह सुनिश्चित कर दिया जाए कि अच्छे जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम हालात प्रत्येक सदस्य को अधिकाधिक रूप में उपलब्ध कराए जाएँ। अनिवार्यतः इसका तात्पर्य समृद्ध लोगों के हाथ से समाज के गरीब वर्ग के हाथ में साधनों का हस्तान्तरण होना है, परन्तु इससे पूँजीवाद का अन्त नहीं होता। सामाजिक न्याय सदैव आर्थिक और सामाजिक असन्तुलनों को दूर करने का प्रयास करता है जैसा कि भारतीय उच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में कहा था-“यह स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण में सन्तुलन बनाए रखने का प्रयास करता है।”

प्रश्न 3.
‘मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप’ विषय पर लघु निबन्ध लिखिए।
उत्तर :

मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप

मुक्त बाजार के समर्थकों का मानना है कि जहाँ तक सम्भव हो, लोगों को सम्पत्ति अर्जित करने के लिए तथा मूल्य, मजदूरी और लाभ के मामले में दूसरों के साथ अनुबन्ध और समझौतों में शामिल होने के लिए स्वतन्त्रत रहना चाहिए। उन्हें लाभ की अधिकतम मात्रा प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिद्वन्द्विता करने की छूट होनी चाहिए। यह मुक्त बाजार का सरल चित्रण है। मुक्त बाजार के समर्थक मानते हैं कि अगर बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया जाए, तो बाजारी कारोबार का योग कुल मिलाकर समाज में लाभ और कर्तव्यों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित कर देगा। इससे योग्य और प्रतिभासम्पन्न लोगों को अधिक प्रतिफल प्राप्त होगा जबकि अक्षम लोगों को कम प्राप्त होगा। उनकी मान्यता है कि बाजारी वितरण का जो भी परिणाम हो, वह न्यायसंगत होगा।

हालाँकि, मुक्त बाजार के सभी समर्थक आज पूर्णतया अप्रतिबन्धित बाजार का समर्थन नहीं करेंगे। कई लोग अब कुछ प्रतिबन्ध स्वीकार करने के लिए तैयार होंगे। उदाहरण के रूप में, सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन-मानक सुनिश्चित करने के लिए राज्य हस्तक्षेप करे, ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्धा करने में समर्थ हो सकें। लेकिन वे तर्क कर सकते हैं कि यहाँ भी स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा तथा ” ऐसी अन्य सेवाओं के विकास के लिए बाजार को अनुमति देना ही लोगों के लिए इन बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति का सबसे उत्तम उपाय हो सकता है। दूसरों शब्दों में, ऐसी सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए निजी एजेंसियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जबकि राज्य की नीतियाँ इन सेवाओं को खरीदने के लिए लोगों को सशक्त बनाने का प्रयास करें। राज्य के लिए यह भी आवश्यक हो सकता है कि वह उन वृद्धों और रोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे, जो प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। लेकिन इसके आगे राज्य की भूमिका नियम-कानून का ढाँचा बनाए रखने तक ही सीमित रहनी चाहिए, जिससे व्यक्तियों के बीच जबरदस्ती और अन्य बाधाओं से मुक्त प्रतिद्वन्द्विता सुनिश्चित हो। उनका मानना है कि मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है। कहा जाता है कि बाजार किसी व्यक्ति की जाति या धर्म की परवाह नहीं करता। वह यह भी नहीं देखता कि आप पुरुष हैं या स्त्री। वह इन सबसे निरपेक्ष रहता है और उसका सम्बन्ध आपकी प्रतिभा और कौशल से है। अगर आपके पास योग्यता है। तो शेष सब बातें बेमानी हैं।

बाजारी वितरण के पक्ष में एक तर्क यह रखा जाता है कि यह हमें अधिक विकल्प प्रदान करता है। इसमें शक नहीं कि बाजार प्रणाली उपभोक्ता के तौर पर हमें अधिक विकल्प देती है। हम जैसा चाहें वैसा चावल पसन्द कर सकते हैं और रुचि के अनुसार विद्यालय जा सकते हैं, बशर्ते उनकी कीमत चुकाने के लिए हमारे पास साधन हों। लेकिन, बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। यदि निजी एजेंसियाँ इसे अपने लिए लाभदायक नहीं पाती हैं, तो वे उसे विशिष्ट बाजार में प्रवेश नहीं करेंगी अथवा सस्ती और घटिया सेवाएँ उपलब्ध कराएँगी। यही वजह है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में बहुत कम निजी विद्यालय हैं और कुछ खुले भी हैं; तो वे निम्नस्तरीय हैं। स्वास्थ्य सेवा और आवास के मामले में भी सच यही है। इन परिस्थितियों में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है।

मुक्त बाजार और निजी उद्यम के पक्ष में अक्सर सुनने में आने वाला दूसरा तर्क यह है कि वे जो सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं, उनकी गुणवत्ता सरकारी संस्थानों द्वारा प्रदत्त सेवाओं से प्रायः अच्छी होती हैं। लेकिन इन सेवाओं की कीमत उन्हें गरीब लोगों की पहुँच से बाहर कर सकती है। निजी व्यवसाय वहीं जाना चाहता है, जहाँ उसे सर्वाधिक लाभ मिले और इसीलिए मुक्त बाजार ताकतवर, धनी और प्रभावशाली लोगों के हित में काम करने के लिए प्रवृत्त होता है। इसका परिणाम अपेक्षाकृत कमजोर और सुविधाहीन लोगों के लिए अवसरों का विस्तार करने की अपेक्षा अवसरों से वंचित करना हो सकता है।

तर्क तो वाद-विवाद दोनों पक्षों के लिए प्रस्तुत किए जा सकते हैं, लेकिन मुक्त बाजार साधारणतया पूर्व से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखाते हैं। इसी कारण अनेक लोग तर्क करते हैं कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को यह सुनिश्चित करने की पहल करनी चाहिए कि समाज के सदस्यों को बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध हों।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 3 Equality

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 3 Equality (समानता)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है जबकि कुछ अन्य का कहना है कि वास्तव में समानता प्राकृतिक है और जो असमानता हम चारों ओर देखते हैं उसे समाज ने पैदा किया है। आप किस मत का समर्थन करते हैं? कारण दीजिए।
उत्तर-
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों की जन्मजात विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम मानी जाती हैं। यह कथन सत्य है। इसे हम बदल नहीं सकते। दूसरी ओर वे सामाजिक असमानताएँ हैं जिन्हें समाज ने बदल दिया है। उदाहरण के लिए, कुछ समाज बौद्धिक कार्य करने वालों को शारीरिक कार्य करने वालों से अधिक महत्त्व देते हैं और उन्हें अलग तरीके से लाभ देते हैं। वे विभिन्न वंश, रंग या जाति के लोगों के साथ भिन्न-भिन्न व्यवहार करते हैं। हम इसी मत का समर्थन करते हैं क्योंकि बौद्धिक कार्य करने वाले पहले कार्य की संरचना करते हैं तभी शारीरिक कार्य करना सम्भव होता है।

प्रश्न 2.
एक मत है कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो सम्भव है और न ही वांछनीय। एक समाज ज्यादा-से-ज्यादा बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। क्या आप इस तर्क से सहमत हैं? अपना तर्क दीजिए।
उत्तर-
हम इस तर्क से सहमत हैं। अगर किसी समाज में कुछ विशिष्ट वर्ग के लोग पीढ़ियों से बेशुमार धन-दौलत और इसके साथ प्राप्त होने वाली सत्ता का उपयोग करते हैं, तो समाज वर्गों में बँट जाता है। एक ओर वे, जो पीढ़ियों से धन, विशेषाधिकार और सता का उपयोग करते आए हैं और दूसरी ओर अन्य जो पीढ़ियों से गरीब बने हुए हैं। कालक्रम में यह वर्ग भेद, आक्रोश और हिंसा को बढ़ावा दे सकता है। इसलिए अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को कम करने के प्रयास किए जा सकते हैं, इसे पाटा नहीं जा सकता।

प्रश्न 3.
नीचे दी गई अवधारणा और उसके उचित उदाहरणों में मेल बैठाएँ
(क) सकारात्मक कार्यवाही – (1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।
(ख) अवसर की समानता – (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ग) समान अधिकार – (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए।
उत्तर-
(ख) 1, (ग) 2, (क) 3.

प्रश्न 4.
किसानों की समस्या से सम्बन्धित एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार छोटे और सीमान्त किसानों को बाजार से अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। रिपोर्ट में सलाह दी गई कि सरकार को बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। लेकिन यह प्रयास केवल लघु और सीमान्त किसानों तक ही सीमित रहना चाहिए। क्या यह सलाह समानता के सिद्धान्त से सम्भव है?
उत्तर-
समानता के विषय पर सोचते समय हमें प्रत्येक व्यक्ति को बिल्कुल एक जैसा मानने और प्रत्येक व्यक्ति को मूलतः समान मानने में अन्तर करना चाहिए। मूलतः समान व्यक्तियों को विशेष स्थितियों में अलग-अलग व्यवहार की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना हो होगा। समानता के लक्ष्य को पाने के लिए अलग या विशे बर्ताव के बारे में सोंचा जा सकता है। इसके लिए औचित्य सिद्ध करना और सावधानीपूर्वक पुनर्विचार आवश्यक होता है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस में समानता के किस सिद्धान्त का उल्लंघन होता है और क्यों?
(क) कक्षा का हर बच्चा नाटक का पाठ अपना क्रम आने पर पढ़ेगा।
(ख) कनाडा सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को कनाड़ा में आने और बसने के लिए प्रोत्साहित किया।
(ग) वरिष्ठ नागरिकों के लिए अलग से रेलवे आरक्षण की एक खिड़की खेली गई।
(घ) कुछ वन क्षेत्रों को निश्चित आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित कर दिया गया है।
उत्तर-
(घ) में प्राकृतिक समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ। वन क्षेत्र प्राकृतिक है, इस पर सभी का समान अधिकार है पर इसे आदिवासियों के लिए आरक्षित कर दिया गया है।

प्रश्न 6.
यहाँ महिलाओं को मताधिकार देने के पक्ष में कुछ तर्क दिए गए हैं। इनमें से कौन-से तर्क समानता के विचार से संगत हैं। कारण भी दीजिए।
(क) स्त्रियाँ हमारी माताएँ हैं। हम अपनी माताओं को मताधिकार से वंचित करके अपमानित नहीं करेंगे।
(ख) सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं इसलिए शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिए।
(ग) महिलाओं को मताधिकार न देने से परिवारों में मदभेद पैदा हो जाएँगे।
(घ) महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लम्बे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है।
उत्तर-
(ख) तर्क समानता के विचार से संगत है। वास्तव में शासकीय निर्णय सम्पूर्ण समाज को प्रभावित करते हैं, इनमें महिलाएँ भी होती हैं इसलिए उन्हें मताधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
(घ) संसार में महिलाओं की भी पर्याप्त संख्या है ऐसे में उन्हें मताधिकार से दीर्घकाल के लिए वंचित नहीं किया जा सकता।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
समानता का सही अर्थ क्या है?
(क) प्रत्येक व्यक्ति को अपने सही विकास के लिए समान सुविधाएँ प्राप्त हों और देश के
कानून के समक्ष सभी समान हों।
(ख) सभी को समान मजदूरी व सम्पत्ति प्राप्त हो
(ग) सभी को निवास की सुविधा
(घ) सभी को समान शिक्षा व रोजगार
उत्तर-
(क) प्रत्येक व्यक्ति को अपने सही विकास के लिए समान सुविधाएँ प्राप्त हों और देश के कानून के समक्ष सभी समान हों।

प्रश्न 2.
नागरिक या कानूनी समानता निम्नलिखित में किसकी विशेषता है?
(क) सभी प्रजातान्त्रिक सरकारों की
(ख) सभी प्रकार की सरकारों की
(ग) केवल तानाशाही सरकारों की
(घ) जिन देशों में लिखित संविधान है।
उत्तर-
(क) सभी प्रजातान्त्रिक सरकारों की।

प्रश्न 3.
कानून के समक्ष समानता निम्नलिखित श्रेणियों में किसके अन्तर्गत हैं?
(क) राजनीतिक समानता के अन्तर्गत
(ख) सामाजिक समानता के अन्तर्गत ।
(ग) नागरिक समानता के अन्तर्गत
(घ) आर्थिक समानता के अन्तर्गत
उत्तर-
(ग) नागरिक समानता के अन्तर्गत।

प्रश्न 4.
नकारात्मक दृष्टि से समानता का क्या अर्थ है?
(क) विशेष अधिकारों का अभाव
(ख) कमजोर वर्ग के लिए विशेष अधिकारों का प्रावधान
(ग) शासक वर्ग के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क) विशेष अधिकारों का अभाव।

प्रश्न 5.
समानता को सकारात्मक अर्थ क्या है?
(क) समाज के सभी सदस्यों की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति
(ख) सभी के लिए पर्याप्त अवसरों की व्यवस्था
(ग) समानता जो कानून की शक्ति द्वारा समर्थित होती है।
(घ) प्रकृति प्रदत्त समानता
उत्तर-
ख) सभी के लिए पर्याप्त अवसरों की व्यवस्था।

प्रश्न 6.
सामाजिक समानता का क्या अर्थ है?
(क) प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करे
(ख) वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को बदलने का कोई प्रयत्न न हो
(ग) जाति व धर्म के अन्तर के कारण किसी भी व्यक्ति को हीनता के भाव से पीड़ित न होना पड़े
(घ) कमजोर वर्ग की आर्थिक उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न हों।
उत्तर-
(ग) जाति व धर्म के अन्तर के कारण किसी भी व्यक्ति को हीनता के भाव से पीड़ित न होना पड़े।

प्रश्न 7.
“आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक भ्रम है।” यह मत किसका है?
(क) प्लेटो
(ख) मार्क्स
(ग) कोल
(घ) लॉस्की
उत्तर-
(ग) कोल।

प्रश्न 8.
“स्वतन्त्रता तथा समानता एक-दूसरे की विरोधी हैं।” यह कथन किसका है?
(क) लॉर्ड एक्टन
ख) लॉस्की
(ग) कार्ल मार्क्स
(घ) प्लेटो
उत्तर-
(क) लॉर्ड एक्टन।

प्रश्न 9.
‘एक व्यक्ति एक वोट का सिद्धान्त किससे सम्बन्धित है? |
(क) आर्थिक समानता ।
(ख) राजनीतिक समानता
(ग) सामाजिक समानता
(घ) नागरिक समानता
उत्तर-
(ख) राजनीतिक समानता।

प्रश्न 10.
“समानता की उत्कट अभिलाषा के कारण स्वतन्त्रता की आशा ही व्यर्थ हो गई है। यह कथन किस विद्वान का है?
(क) लॉर्ड एक्टन
(ख) लासवैल
(ग) डेविड ईस्टन
(घ) फाइनर
उत्तर-
(क) लॉर्ड एक्टन।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक समानता का अर्थ लिखिए।
उत्तर–
प्रत्येक व्यक्ति को समाज में रहकर अपने सर्वांगीण विकास का अवसर प्राप्त होना ही सामाजिक समानता के अर्थ का परिचायक है।

प्रश्न 2.
समानता के दो प्रकार लिखिए।
उत्तर–
समानता के दो प्रकार हैं
(i) राजनीतिक समानता, तथा
(ii) आर्थिक समानता।

प्रश्न 3.
“स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे की पूरक हैं।” एक तर्क दीजिए।
उत्तर-
लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्रता और समानता दोनों ही आवश्यक हैं, इसलिए ये दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं।

प्रश्न 4.
समानता के अधिकार को भारत के संविधान में किस अनुच्छेद से किस अनुच्छेद तक वर्णित किया गया है?
उत्तर-
समानता के अधिकार को भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 तक वर्णित किया गया है।

प्रश्न 5.
“आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।” यह कथन किसका है?
उत्तर-
यह कथन प्रो० सी०ई०एम० जोड का है।

प्रश्न 6.
समानता के किसी एक प्रकार का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
समानता का एक प्रकार है—प्राकृतिक समानता।

प्रश्न 7.
नागरिक समानता का क्या अर्थ है?
उत्तर-
नागरिक समानता का अर्थ है कि राज्य प्रत्येक नागरिक को वंश, जाति, धर्म, लिंग इत्यादि के आधार पर बिना भेदभाव किए समान रूप से नागरिक अधिकार प्रदान करे।

प्रश्न 8.
राजनीतिक समानता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर–
राजनीतिक समानता से तात्पर्य है–समान राजनीतिक अधिकार।

प्रश्न 9.
प्राकृतिक समानता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर–
प्राकृतिक समानता का अभिप्राय है कि प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है।

प्रश्न 10.
सकारात्मक समानता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
सकारात्मक समानता से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के विकास के समान अवसर प्रदान किए जाएँ।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता के मार्क्सवादी दृष्टिकोण को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर-
समानता के सन्दर्भ में मार्क्सवादी दृष्टिकोण इस बात का प्रतिपादन करता है कि जब तक समाज में विरोधी वर्गों का अस्तित्व रहेगा तब तक किसी भी रूप में समानता की स्थापना नहीं की जा सकती है। आर्थिक समानता को तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित व्यक्तिगत पूँजी को समाप्त करके उत्पादन, वितरण विनिमय के साधनों को समाज के सभी वर्गों में विभक्त न कर दिया जाए। अत: मार्क्सवादी आर्थिक असमानता को भी समाज में एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण एवं उत्पीड़न के लिए उत्तरदायी मानता है। माक्र्स को यह भी मत है कि पूँजीवादी राज्यों में राजनीतिक एवं सामाजिक समानता का जो आडम्बर रचा जा रहा है उसने पूर्णतया भ्रमपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी है। क्योंकि आर्थिक समानता के अभाव में किसी प्रकार की भी समानता स्थापित नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 2.
नकारात्मक समानता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर–
सामान्य रूप में नकारात्मक स्वतन्त्रता का अर्थ है, ‘विशेषाधिकारों का अन्त’। समाज के किसी वर्ग-विशेष को जन्म, धर्म, जाति या रंग के आधार पर किसी प्रकार के विशेष अधिकार प्रदान न किए जाएँ, तो यह नकारात्मक समानता का द्योतक है। राज्य को चाहिए कि वह बिना भेदभाव के नागरिकों को व्यक्ति के विकास के समान अवसर प्रदान करे। लोगों में प्राकृतिक कारणों से अर्थात् जन्मजात असमानता हो सकती है, परन्तु अप्राकृतिक कारणों से अर्थात् पैतृक परिस्थितियों अथवा राज्य द्वारा किए गए भेदभाव के परिणामस्वरूप किसी प्रकार की असमानता नहीं होनी चाहिए। छुआछूत का अन्त व सबको शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश का अधिकार नकारात्मक समानता के उदाहरण हैं।

प्रश्न 3.
सकारात्मक समानता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर–
सामान्यतया इसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास हेतु पर्याप्त अवसर मिलें तथा राज्य के द्वारा उनमें कोई बाधा उत्पन्न न की जाए। यदि सभी को समान अवसर न मिलें तो मनुष्य का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता व प्रतिभा विकसित करने का समान अवसर प्राप्त होना चाहिए। लॉस्की के अनुसार, “समानता का तात्पर्य एक-सा व्यवहार करना नहीं, इसका तो आग्रह इस बात के लिए है कि मनुष्यों को सुख का समान अधिकार प्राप्त होना चाहिए। उनके अधिकारों में किसी प्रकार का आधारभूत अन्तर स्वीकार नहीं किया जा सकता है। समानता मूलतः समाजीकरण की एक प्रक्रिया है—प्रथमतः इसका अभिप्राय विशेषाधिकारों की समाप्ति है -” और दूसरे, व्यक्तियों को विकास के पर्याप्त एवं समान अवसर उपलब्ध कराने से है।”
इस प्रकार राजनीति विज्ञान के समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है जिससे व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर मिलें, जिससे असमानता का अन्त हो जाए जिसका मूल सामाजिक असमानता है।

प्रश्न 4.
कानून के समक्ष समानता के सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
कानून के समक्ष समानता का अर्थ होता है कि कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान है तथा इसके अन्तर्गत सभी व्यक्तियों के लिए राज्य समान कानून बनाता है तथा उन्हें समान रूप से लागू करता है। कानून के सम्बन्ध में राज्य धनी-निर्धन, ऊँच-नीच, गोरे-काले, साक्षर-निरक्षर आदि का कोई भेद नहीं करता है। जन्म, वंश, लिंग तथा जन्म-स्थान के आधार पर कानून किसी भी व्यक्ति को प्राथमिकता प्रदान नहीं करता है। पश्चिम बंगाल बनाम अनवर अली के मुकदमे में भारतीय उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि समान परिस्थितियों में सभी लोगों के साथ कानून का व्यवहार एक-सा होना चाहिए। कानूनी समानता के सम्बन्ध में इसी प्रकार की बात डायसी ने भी कही थी। डायसी के शब्दों में, “हमारे देश में प्रत्येक अधिकारी चाहे वह प्रधानमंत्री हो या पुलिस का सिपाही अथवा का वसूल करने वाला, अवैधानिक कार्यों के लिए उतना ही दोषी माना जाएगा, जितना कि कोई अन्य नागरिका”

प्रश्न 5.
आर्थिक समानता के किन्हीं पाँच तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर–
आर्थिक समानता के पाँच तत्त्व निम्नलिखित हैं

  1.  प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए; जैसे-वस्त्र, भोजन तथा आवास आदि की सुविधाएँ।
  2.  प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार, पर्याप्त मजदूरी तथा विश्राम के लिए पर्याप्त अवकाश प्राप्त होना चाहिए।
  3.  समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए।
  4.  बेकारी, वृद्धावस्था, बीमारी व अन्य ऐसी स्थितियों में लोगों को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए।
  5.  विभिन्न लोगों में आर्थिक विषमता की दूरी कम-से-कम होनी चाहिए।

प्रश्न 6.
नीचे दी गई तालिका में विभिन्न समुदायों की शैक्षिक स्थिति से जुड़े कुछ आँकड़े दिए गए हैं। इन समुदायों की शैक्षिक स्थिति में जो अन्तर हैं, क्या वे महत्त्वपूर्ण हैं? क्या इन अन्तरों का होना केवल एक संयोग है या ये अन्तर जाति-व्यवस्था केअसर की ओर संकेत करते हैं? आप यहाँ जाति-व्यवस्था के अलावा और किन कारणों का प्रभाव देखते हैं।
शहरी भारत में उच्च शिक्षा में जातिगत समुदायों में असमानता
UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 3 Equality s 1
स्रोत- नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गेनाइजेशन, 55 वाँ राउण्ड सर्वे,1999-2000.
उत्तर–
शैक्षिक स्थिति में अन्तर महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि सभी को शिक्षा का समान अधिकार प्राप्त है। फिर भी यह अन्तर बना हुआ है जो हमारी शिक्षा व्यवस्था की कमियों पर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। इन अन्तरों का होना संयोग नहीं है। यह असफल शिक्षा प्रणाली का परिणाम है। इसका अन्य कारण
आर्थिक असमानता, जागरूकता की कमी भी है।

प्रश्न 7.
इन चित्रों पर एक नजर डालें।
UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 3 Equality s 2
ये चित्र क्या संकेत करते हैं?
उत्तर-
ये चित्र मनुष्यों के बीच नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव की ओर संकेत करते हैं। यह हममें से अधिकांश को अस्वीकार्य हैं। वास्तव में इस प्रकार का भेदभाव समानता के हमारे आत्म-बोध का उल्लंघन करता है। समानता का हमारा आत्म-बोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर, सम्मान और परवाह के हकदार हैं।

प्रश्न 9.
अवसरों की समानता से क्या आशय है?
उत्तर-
अवसरों की समानता-
समानता की अवधारणा में यह निश्चित है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं। इसका आशय यह है कि समाज में लोग अपनी पसन्द और प्राथमिकताओं के मामलों में अलग हो सकते हैं। उनकी प्रतिभा और योग्यताओं में भी अन्तर हो सकता है और हो सकता है इस कारण कुछ लोग अपने चुने हुए क्षेत्रों में शेष लोगों से अधिक सफल हो जाएँ। लेकिन केवल इसलिए कि कोई क्रिकेट में पहले पायदान पर पहुँच गया है या कोई बहुत सफल वकील बन गया है, समाज को असमान नहीं माना जा सकता। दूसरे शब्दों, में सामाजिक दर्जा, सम्पत्ति या विशेषाधिकारों में समानता का अभाव होना महत्त्वपूर्ण नहीं है लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षित आवास जैसी बुनियादी चीजों की उपलब्धता में असमानताओं से कोई समाज असमान और अन्यायपूर्ण बनता है।

प्रश्न 10.
नीचे दी गई स्थितियों पर विचार करें। कया इनमें से किसी भी स्थिति में विशेष और विभेदकारी बरताव करना न्यायोचित होगा? ।

कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना चाहिए।

  •  एक विद्यालय में दो छात्र दृष्टिहीन हैं। विद्यालय को उनके लिए कुछ विशेष उपकरण खरीदने के लिए धनराशि खर्च करनी चाहिए।
  • गीता बास्केटबॉल बहुत अच्छा खेलती है। विद्यालय को उसके लिए बॉस्केटबॉल कोर्ट | बनाना चाहिए जिससे वह अपनी योग्यता को और भी विकास कर सके।
  • जीत के माता-पिता चाहते हैं कि वह पगड़ी पहने। इरफान चाहता है कि वह जुम्मे (शुक्रवार) को नमाज पढे, ऐसी बातों को ध्यान में रखते हुए स्कूल को जीत से यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि वह क्रिकेट खेलते समय हेलमेट पहने और इरफान के अध्यापक को शुक्रवार को उससे दोपहर बाद की कक्षाओं के लिए रुकने को नहीं कहना चाहिए।

उत्तर-
कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना चाहिए; इस स्थिति में विभेदकारी बरताव करना न्यायोचित होगा शेष प्रकरणों में विभेदकारी बरताव आवश्यक नहीं

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता से क्या आशय है? समानता के अन्तर्गत कौन-सी बातें आती हैं।
उत्तर–
समानती का वास्तविक अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को अपने विकास के लिए समान सुअवसर प्राप्त हों। जन्म, सम्पत्ति, जाति, धर्म, रंग आदि के आधार पर जो सामाजिक जीवन के कृत्रिम आधार हैं। व्यक्ति में विभेद न किया जाए अर्थात् राज्य सभी नागरिकों को किसी प्रकार के भेदभाव के बिना उसकी बुद्धि और व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए समुचित अवसर प्रदान करे। आकांक्षा और योग्यता के रहते किसी व्यक्ति के विकास में बाधा नहीं आनी चाहिए। समानता के अन्तर्गत तीन मौलिक बातें आती हैं
प्रथम, किसी नागरिक, समुदाय, वर्ग या जाति के विरुद्ध किसी प्रकार की वैधिक अनर्हता (disqualification) नहीं रखनी चाहिए। द्वितीय, सभी को उन्नति और विकास के अवसर दिए जाएँ।
तृतीय, सभी को शिक्षा, आवास, भोजन और प्राथमिक सुविधाओं की प्राप्ति का पूरा-पूरा हक हो।” समानता की व्याख्या करते हुए लॉस्की ने कहा है-“समानता का पहला अर्थ है कि समाज में कोई विशेष हित वाला न हो, दूसरा प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति के समान अवसर प्राप्त हों।

प्रश्न 2.
“आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है।” स्पष्ट कीजिए।
या आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
प्रो० लॉस्की ने लिखा है, “राजनीतिक समानता आर्थिक समानता के बिना निरर्थक है; क्योंकि राजनीतिक शक्ति आवश्यक रूप से आर्थिक शक्ति के हाथों में खिलवाड़ ही सिद्ध होगी। यदि व्यक्ति को समस्त राजनीतिक अधिकार; जैसे-मतदान का, चुनाव में प्रत्याशी होने का, सार्वजनिक पद धारण करने का आदि दे दिए जाएँ परन्तु उसे पेट भर खाना न मिले तो उसके लिए सम्पूर्ण प्रदत्त राजनीतिक अधिकार व्यर्थ हैं। एक गरीब व्यक्ति का धर्म, ईमान व राजनीति आदि सब-कुछ रोटी तक ही सीमित हैं। भारत में नागरिकों को मत अधिकार है पर रोजी छोड़कर मतदान केन्द्र पर जाने का परिणाम क्या होगा। लोगों को चुनाव में खड़े होने का अधिकार है, किन्तु चुनाव कितने महँगे होते हैं। क्या एक सामान्य व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है। सामान्य व्यक्ति के पास जीवन-यापन करने के सीमित साधन होते हैं, फिर वह राजनीतिक अधिकारों का कैसे उपभोग करेगा? समाजवादी विचारक इस बात पर बल देते हैं कि आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनीतिक स्वन्तत्रता व्यर्थ है। राजनीतिक स्वतन्त्रता की उपलब्धि के लिए आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। आर्थिक विषमता को समाप्त करना। चाहिए जिससे मनुष्य का शोषण न हो।

प्रश्न 3.
समाजवाद क्या है? लोहिया की सप्तक्रान्तियाँ क्या थीं?
उत्तर–
समाजवाद असमानताओं के जवाब में उत्पन्न हुए कुछ राजनीतिक विचारों का समूह है। ये विशेषकर वे असमानताएँ थीं, जो औद्योगिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से उत्पन्न हुईं और उसमें बाद तक बनी रहीं। समाजवाद का मुख्य उद्देश्य वर्तमान असमानताओं को न्यूनतम करना और संसाधनों का न्यायपूर्ण विभाजन है। हालाँकि समाजवाद के पक्षधर पूरी तरह से बाजार के विरुद्ध तो नहीं होते, लेकिन वे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसे आधारभूत क्षेत्रों में सरकारी नियमन, नियोजन और नियन्त्रण का समर्थन अवश्य करते हैं।
भारत में प्रमुख समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया ने पाँच प्रकार की असमानताओं की पहचान की, जिनके विरुद्ध एक साथ लड़ना होगा-स्त्री-पुरुष असमानता, त्वचा के रंग पर आधारित असमानता, जातिगत असमानता, कुछ देशों का अन्य पर औपनिवेशिक शासन और नि:सन्देह आर्थिक असमानता है। यह आज स्वप्रमाणितं धारण लग सकती है, लेकिन लोहिया के समय में, समाजवादियों के बीच आमतौर पर यही तर्क चलता था कि असमानता का एकमात्र रूप वर्गीय असमानता है जिसके विरुद्ध संघर्ष अपरिहार्य है। दूसरी असमानताएँ गौण हैं या आर्थिक असमानता के समाप्त होते ही वे स्वतः समाप्त हो जाएगी। लोहिया का कहना था कि इन असमानताओं में से प्रत्येक की अलग-अलग जड़े हैं और इन सबके विरुद्ध अलग-अलग लेकिन एक साथ संघर्ष छेड़ने होंगे। उन्होंने एकांगी क्रान्ति की बात नहीं कही। उनके लिए उपर्युक्त पाँच असमानताओं के विरुद्ध संघर्ष का अर्थ था—पाँच क्रान्तियाँ। उन्होंने इस सूची में दो और क्रान्तियों को शामिल किया–व्यक्तित्व जीवन पर अन्यायपूर्ण अतिक्रमण के विरुद्ध नागरिक स्वतन्त्रता के लिए क्रान्ति तथा अंहिसा के लिए सत्याग्रह के पक्ष में शस्त्र त्याग के लिए क्रान्ति। ये ही सप्तक्रान्तियाँ थीं। यही लोहिया के अनुसार समाजवाद का आदर्श है।

दीर्घ उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता के कितने प्रकार होते हैं?
या समानता के विविध रूपों का विवेचन कीजिए। \
उत्तर-
समानता के भेद अथवा प्रकार
समानता के विभिन्न भेदों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. प्राकृतिक समानता– प्लेटो के अनुसार, “प्राकृतिक समानता से अभिप्राय यह है कि सब मनुष्य जन्म से समान होते हैं। स्वाभाविक रूप से सभी व्यक्ति समान हैं, हम सबका निर्माण एक ही विश्वकर्मा ने एक ही मिट्टी से किया है। हम चाहे अपने को कितना ही धोखा दें, ईश्वर को निर्धन, किसान और शक्तिशाली राजकुमार सभी समान रूप से प्रिय हैं।”
आधुनिक युग में प्राकृतिक समानता को कोरी कल्पना माना जाता है। कोल के अनुसार, “मनुष्य शारीरिक बल, पराक्रम, मानसिक योग्यता, सृजनात्मक शक्ति, समाज-सेवा की भावना और सम्भवतः सबसे अधिक कल्पना-शक्ति में एक-दूसरे से मूलतः भिन्न हैं।” संक्षेप में, वर्तमान युग में प्राकृतिक समानता का आशय यह है कि प्राकृतिक रूप से नैतिक आधार पर ही सभी व्यक्ति समान हैं तथा समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की असमानताएँ कृत्रिम हैं।

2. सामाजिक समानता- सामाजिक समानता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को समाज में
समान अधिकार प्राप्त हों और सबको समान सुविधाएँ मिलें। जिस समाज में जन्म, जाति, धर्म, लिंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता, वहाँ सामाजिक समानता होती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा जो मानव-अधिकारों की घोषणा की गयी है, उसमें सामाजिक समानता पर
विशेष बल दिया गया है।

3. नागरिक या कानूनी समानता– नागरिक समानता का अर्थ नागरिकता के समान अधिकारों से होता है। नागरिक समानता के लिए यह आवश्यक है कि सब नागरिकों के मूलाधिकार सुरक्षित हों तथा सभी नागरिकों को समान रूप से कानून का संरक्षण प्राप्त हो। नागरिक समानता की पहली अनिवार्यता यह है कि समस्त नागरिक कानून के समक्ष समान हों। यदि कानून धन, पद, जाति अथवा अन्य किसी आधार पर भेद करता है तो उससे नागरिक समानता समाप्त हो जाती है और नागरिकों में असमानता का उदय होता है।

4. राजनीतिक समानता- जब राज्य के सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त हो तो वहाँ के लोगों को राजनीतिक समानता प्राप्त रहती है। राजनीतिक समानता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को मत देने, निर्वाचन में खड़े होने तथा सरकारी नौकरी प्राप्त करने का समान अधिकार होता है। उनके साथ जाति, धर्म या अन्य किसी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता। राजनीतिक समानता लोकतन्त्र की आधारशिला होती है।

5. धार्मिक समानता- धार्मिक समानता का अर्थ यह है कि धार्मिक मामलों में राज्य तटस्थ हो और सब नागरिकों को अपनी इच्छा से धर्म मानने की स्वतन्त्रता हो। राज्य धर्म के आधार पर | किसी प्रकार का भेदभाव न करे। प्राचीन और मध्यकाल में इस प्रकार की धार्मिक समानता का
अभाव था, परन्तु आज धर्म और राजनीति एक-दूसरे से अलग हो गये हैं और सामान्यत: राज्य नागरिकों के धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता।

6. आर्थिक समानता- आर्थिक समानता का अभिप्राय यह है कि समाज में धन के वितरण की उचित व्यवस्था हो तथा मनुष्यों की आय में बहुत अधिक असमानता नहीं होनी चाहिए। लॉस्की के अनुसार, “आर्थिक समानता का अभिप्राय यह है कि राज्य में सभी को समान सुविधाएँ तथा अवसर प्राप्त हों।” इस सन्दर्भ में लॉर्ड ब्राइस का मत है कि “समाज से सम्पत्ति के सभी भेदभाव समाप्त कर दिये जाएँ तथा प्रत्येक स्त्री-पुरुष को भौतिक साधनों एवं सुविधाओं का समान भाग दिया जाए।”
संक्षेप में, आर्थिक समानता से सम्बन्धित प्रमुख बातें इस प्रकार हैं—
(i) समाज में सभी को समान रूप से व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता हो।
(ii) प्रत्येक मनुष्य को इतना वेतन या पारिश्रमिक अवश्य प्राप्त हो कि वह अपनी न्यूनतम आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।
(iii) राज्य में उत्पादन और उपभोग के साधनों का वितरण और विभाजन इस प्रकार से हो कि
आर्थिक शक्ति कुछ ही व्यक्तियों या वर्गों के हाथों में केन्द्रित न हो सके। सी० ई० एम० जोड के अनुसार, “स्वतन्त्रता का विचार, जो राजनीतिक विचारधारा में बहुत महत्त्वपूर्ण है, जब आर्थिक क्षेत्र में लागू किया गया तो उससे विनाशकारी परिणाम निकले, जिसके फलस्वरूप समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं का उदय हुआ, जो आर्थिक समानता पर विशेष बल देती हैं और जिनकी यह निश्चित धारणा है कि आर्थिक समानता के अभाव में वास्तविक राजनीतिक स्वतन्त्रता कदापि प्राप्त नहीं हो सकती।” वास्तविकता यह है कि आर्थिक समानता सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं का आधार है और आर्थिक समानता के बिना राजनीत्रिक स्वतन्त्रता केवल एक भ्रम है। प्रो० जोड के अनुसार, “आर्थिक समानता के
बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।’ |
(iv) सुदृढ़ राजनीतिक एवं नागरिक समानता की कल्पना अपेक्षित आर्थिक समानता की पृष्ठभूमि
| पर ही की जा सकती है।

7. शैक्षिक एवं सांस्कृतिक समानता- शैक्षिक समानता का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने तथा अन्य योग्यताएँ विकसित करने का समान अवसर मिलना चाहिए और शिक्षा के क्षेत्र में जाति, धर्म, वर्ण और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। समानता का तात्पर्य यह है कि सांस्कृतिक दृष्टि से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सभी वर्गों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति बनाये रखने का अधिकार होना चाहिए। इसका महत्त्व इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि इसे भारतीय संविधान में मूल अधिकारों के अन्तर्गत रखा जाता है। ‘

8. नैतिक समानता- इस समानता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने चरित्र का विकास करने के लिए अन्य व्यक्तियों के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।

9. राष्ट्रीय समानता- प्रत्येक राष्ट्र समान है, चाहे कोई राष्ट्र छोटा हो या बड़ा। इसलिए प्रत्येक राष्ट
को विकास करने के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।

प्रश्न 2.
समानता से आप क्या समझते हैं? क्या समानता और स्वतन्त्रता एक-दूसरे के पूरक हैं?
या स्वतन्त्रता एवं समानता का सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए।
या “स्वतन्त्रता की समस्या का केवल एक ही हल है और वह हल समानता में निहित है।” इस
कथन की विवेचना कीजिए।
या समानता को परिभाषित कीजिए तथा स्वतन्त्रता के साथ इसके सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
समानता का अर्थ
साधारण रूप से समानता का अर्थ यह लगाया जाता है कि सभी व्यक्तियों को ईश्वर ने बनाया है; अतः सभी समान हैं और इसी कारण सभी को समान सुविधाएँ व आय का समान अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार का मत व्यक्त करने वाले व्यक्ति प्राकृतिक समानती में विश्वास व्यक्त करते हैं, किन्तु यह विचार भ्रमपूर्ण है, क्योंकि प्रकृति ने ही मनुष्यों को बुद्धि, बल तथा प्रतिभा के आधार पर समान नहीं बनाया है। अप्पादोराय के शब्दों में, “यह स्वीकार करना कि सभी मनुष्य समान हैं, उतना ही भ्रमपूर्ण है जितना कि यह कहना कि भूमण्डल समतल है।”

मनुष्यों में असमानता के दो कारण हैं—प्रथम, प्राकृतिक और द्वितीय, सामाजिक या समाज द्वारा उत्पन्न। अनेक बार यह देखने में आता है कि प्राकृतिक रूप से समान होते हुए भी व्यक्ति असमान हो जाते हैं, क्योंकि आर्थिक समानता के अभाव में सभी को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के समान अवसर उपलब्ध नहीं हो पाते। इस प्रकार समाज द्वारा उत्पन्न परिस्थितियाँ मनुष्य के बीच असमानता उत्पन्न कर देती हैं।

नागरिकशास्त्र की अवधारणा के रूप में समानता से हमारा तात्पर्य समाज द्वारा उत्पन्न इस असमानता का अन्त करने से होता है। दूसरे शब्दों में, समानता का तात्पर्य अवसर की समानता से है। सभी व्यक्तियों को अपने विकास के लिए समान सुविधाएँ व समान अवसर प्राप्त हों, ताकि किसी भी व्यक्ति को यह कहने का अवसर न मिले कि यदि उसे यथेष्ट सुविधाएँ प्राप्त होतीं तो वह अपने जीवन का विकास कर सकता था। इस प्रकार समाज में जाति, धर्म व भाषा के आधार पर व्यक्तियों में किसी प्रकार का भेद न किया जाना अथवा इन आधारों पर उत्पन्न विषमता का अन्त करना ही ‘समानता है। समानता की परिभाषा व्यक्त करते हुए लास्की ने लिखा है कि “समानता मूल रूप से समतल करने की प्रक्रिया है। इसीलिए समानता का प्रथम अर्थ विशेषाधिकारों का अभाव और द्वितीय अर्थ अवसरों की समानता से है।”

समानता के दो पक्ष : नकारात्मक और सकारात्मक– समानता की परिभाषा का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समानता के दो पक्ष हैं
(1) नकारात्मक तथा
(2) सकारात्मक। नकारात्मक पक्ष से तात्पर्य है कि सामाजिक क्षेत्र में किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव न हो तथा सकारात्मक पक्ष का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकाधिक विकास के लिए समान अवसर प्राप्त हों। उदाहरणार्थ-शिक्षा की आवश्यकता सबके लिए होती है; अतः राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने सब नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर प्रदान करे।

समानता के विविध रूप

समानता के विविध रूपों में नागरिक समानता, सामाजिक समानता, राजनीतिक समानता, आर्थिक समानता, प्राकृतिक समानता, धार्मिक समानता एवं सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी समानता प्रमुख हैं।

स्वतन्त्रता और समानता का सम्बन्ध

स्वतन्त्रता और समानता के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर राजनीतिशास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद हैं। और इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो विचारधाराओं का प्रतिपादन किया गया है, जो इस प्रकार हैं
1. स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं— कुछ व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता के जन-प्रचलित अर्थों के आधार पर इन्हें परस्पर विरोधी बताया गया है। उनके अनुसार स्वतन्त्रता अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है, जब कि समानता का तात्पर्य प्रत्येक प्रकार से सभी व्यक्तियों को समान समझने से है। इस आधार पर सामान्य व्यक्ति ही नहीं, वरन् डी० टॉकविले और एक्टन जैसे विद्वानों द्वारा भी इन्हें परस्पर विरोधी माना गया है। लॉर्ड एक्टन ‘एक स्थान पर लिखते हैं कि “समानता की उत्कृष्ट अभिलाषा के कारण स्वतन्त्रता की आशा ही
व्यर्थ हो गयी है।”

2. स्वतन्त्रता और समानता परस्पर पूरक हैं— उपर्युक्त प्रकार की विचारधारा के नितान्त विपरीत दूसरी ओर विद्वानों का बड़ा समूह है, जो स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी नहीं, वरन्। पूरक मानते हैं। रूसो, टॉनी, लॉस्की और मैकाइवर इस मत के प्रमुख समर्थक हैं और अपने मत की पुष्टि में इन विद्वानों ने निम्नलिखित तर्क दिये हैंस्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी बताने वाले विद्वानों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता की गलत धारणा को अपनाया गया है।

स्वतन्त्रता का तात्पर्य प्रतिबन्धों के अभाव’ या स्वच्छन्दता से नहीं है, वरन् इसका तात्पर्य केवल यह है कि अनुचित प्रतिबन्धों के स्थान पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था की जानी चाहिए और उन्हें अधिकतम सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए, जिससे उनके द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास किया जा सके। इसी प्रकार पूर्ण समानता एक काल्पनिक वस्तु है और समानता का तात्पर्य पूर्ण समानता जैसी किसी काल्पनिक वस्तु से नहीं, वरन् व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक और पर्याप्त सुविधाओं से है, जिससे सभी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें और इस प्रकार उसे असमानता का अन्त हो सके, जिसका मूल कारण सामाजिक परिस्थितियों का भेद है। इस प्रकार स्वतन्त्रता और समानता दोनों ही व्यक्तित्व के विकास हेतु नितान्त आवश्यक हैं।

प्रश्न 3.
नारीवाद’ पर लघु निबन्ध लिखिए।
उत्तर-
नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है। वे स्त्री व पुरुष नारीवादी कहलाते हैं, जो मानते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच की अनेक असमानताएँ न तो नैसर्गिक हैं और न ही आवश्यक। नारीवादियों का मानना है कि इन असमानताओं को बदला जा सकता है और स्त्री-पुरुष एक सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

नारीवाद के अनुसार, स्त्री-पुरुष असमानता ‘पितृसत्ता’ से आशय एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था से है जिसमें पुरुष को स्त्री से अधिक महत्त्व और शक्ति दी जाती है। पितृसत्ता इस मान्यता पर आधारित है कि पुरुष और स्त्री प्रकृति से भिन्न हैं और यही भिन्नता समाज में उनकी असमान स्थिति को न्यायोचित ठहराती है। नारीवादी इस दृष्टिकोण को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। इसके लिए वे स्त्री-पुरुष के जैविक विभेद और स्त्री-पुरुष के बीच सामाजिक भूमिकाओं के विभेद के बीच अन्तर करने का आग्रह करते हैं। जैविक या लिंग भेद प्राकृतिक और जन्मजात होता है, जबकि लैंगिकता समाजजनित है। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि मनुष्य का नर या मादा के रूप में जन्म होता है, लेकिन स्त्री या पुरुष को जिन सामाजिक भूमिकाओं में हम देखते हैं उन्हें समाज गढ़ता है। उदाहरण के लिए, यह जीव-विज्ञान का एक तथ्य है कि केवल स्त्री ही गर्भधारण करके बालक को जन्म दे सकती है, लेकिन जीव-विज्ञान के तथ्य में निहित नहीं है कि जन्म देने के बाद केवल स्त्री ही बालक का लालन-पालन करे। नारीवादियों ने यह स्पष्ट किया है कि स्त्री-पुरुष असमानता का अधिकांश भाग प्रकृति ने नहीं समाज ने पैदा किया है।

‘पितृसत्ता’ ने श्रम का कुछ ऐसा विभाजन किया है जिसमें स्त्री ‘निजी’ और ‘घरेलू’ किस्म के कार्यों के लिए जिम्मेदार है जबकि पुरुष की जिम्मेदारी सार्वजनिक’ और ‘बाहरी दुनिया में है। नारीवादी इस विभेद पर भी सवाल खड़े करते हैं। उनका कहना है कि अधिकतर महिलाएँ घर से बाहर अनेक क्षेत्रों में कार्यरत हैं। लेकिन घरेलू कामकाज की पूरी जिम्मेदारी केवल स्त्रियों के कन्धों पर है। नारीवादी इसे स्त्रियों के कन्धे पर दोहरा बोझ’ बताते हैं। हालाँकि इस दोहरे बोझ के बावजूद स्त्रियों को सार्वजनिक क्षेत्र के निर्णयों में ना के बराबर महत्त्व दिया जाता है।
नारीवादियों का मानना है कि निजी/सार्वजनिक के बीच यह विभेद और समाज या व्यक्ति द्वारा गढ़ी हुई लैगिक असमानता के सभी रूपों को मिटाया जा सकता है और मिटाया भी जाना चाहिए।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 2 Freedom

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता से क्या आशय है? क्या व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता और राष्ट्र के लिए स्वतन्त्रता में कोई सम्बन्ध है?
उत्तर-
व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतन्त्रता है। बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव और ऐसी स्थितियों का होना जिसमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, स्वतन्त्रता के ये दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं। एक स्वतन्त्र समाज वह होगा, जो अपने सदस्यों को न्यूनतम सामाजिक अवरोधों के साथ अपनी सम्भावनाओं के विकास में समर्थ बनाएगा।

राष्ट्र की स्वतन्त्रता और व्यक्ति की स्वतन्त्रता में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि राष्ट्र स्वतन्त्र नहीं होगा तो व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। स्वतन्त्र राष्ट्र में ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास और उत्तरदायित्वों का निर्वाह भली-भाँति कर सकता है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में क्या अन्तर है?
उत्तर-
सकारात्मक स्वतन्त्रता के पक्षधरों का मानना है कि व्यक्ति केवल समाज में ही स्वतन्त्र हो सकता है, समाज से बाहर नहीं और इसीलिए वह इस समाज को ऐसा बनाने का प्रयास करते हैं, जो व्यक्ति के विकास का मार्ग प्रशस्त करे। दूसरी ओर नकारात्मक स्वतन्त्रता का सम्बन्ध अहस्तक्षेप के अनुलंघनीय क्षेत्र से है, इस क्षेत्र से बाहर समाज की स्थितियों से नहीं। नकारात्मक स्वतन्त्रता अहस्तक्षेप के इस छोटे क्षेत्र का अधिकतम विस्तार करना चाहेगी। साधारणतया दोनों प्रकार की स्वतन्त्रताएँ साथ-साथ चलती हैं और एक-दूसरे का समर्थन करती हैं।

प्रश्न 3.
सामाजिक प्रतिबन्धों से क्या आशय है? क्या किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक हैं?
उत्तर-
सामाजिक प्रतिबन्धों से आशय है; वे प्रतिबन्ध जिनसे समाज की व्यवस्था भंग न हो और समाज निरन्तर गतिशील रहे।
स्वतन्त्रता मानव समाज के केन्द्र में है और गरिमापूर्ण मानव-जीवन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसलिए स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध विशेष परिस्थितियों में ही लगाए जा सकते हैं। प्रतिबन्ध स्वतन्त्रता के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। बिना प्रतिबन्धों के स्वतन्त्रता उद्दण्डता में बदल जाएगी।

प्रश्न 4.
नागरिकों की स्वतन्त्रता को बनाए रखने में राज्य की क्या भूमिका है?
उत्तर-
नागरिकों की स्वतन्त्रता बनाए रखने में राज्य की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-

  • यदि नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करनी है तो राज्य द्वारा नागरिकों के कार्यों पर नियन्त्रण किया जाना चाहिए। राज्य का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति को ऐसे कार्यों को करने से रोक दे जो दूसरों के हितों का उल्लघंन करते हैं।
  • राज्य न्यायालयों के माध्यम से व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं।
  • राज्य में लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली की स्थापना से नागरिकों को अनेक स्वतन्त्रताएँ प्राप्त हो जाती हैं।
  • राज्य व्यक्तियों को विभिन्न अधिकार प्रदान कर उनकी स्वतन्त्रता को बढ़ावा देता है।

प्रश्न 5.
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है? आपकी राय में इस स्वतन्त्रता पर समुचित प्रतिबन्ध क्या होंगे? उदाहरण सहित बताइए।
उत्तर-
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से आशय यह है कि प्रत्येक नागरिक को विचाराभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है, परन्तु शर्त यह है कि अभिव्यक्ति समाज में अव्यवस्था उत्पन्न न करे। अपने विचार पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्रों में प्रकाशित करने और करवाने की दृष्टि से लेखक और प्रकाशक दोनों स्वतन्त्र हैं, लेकिन ये विचार अश्लील और विघटनकारी नहीं होने चाहिए।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के नकारात्मक पहलू का विचारक था
(क) ग्रीन
(ख) गांधी जी
(ग) लॉस्की
(घ) रूसो
उत्तर-
(घ) रूसो।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता के सकारात्मक (वास्तविक) पहलू का विचारक था
(क) हॉब्स
(ख) सीले
(ग) कोल
(घ) मैकेंजी
उत्तर-
(घ) मैकेंजी।

प्रश्न 3.
“स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं।” इस विचारधारा का समर्थक था
(क) लॉस्की
(ख) सी० ई० एम० जोड
(ग) क्रोचे
(घ) पोलार्ड
उत्तर-
(ग) क्रोचे।

प्रश्न 4.
“स्वतन्त्रता एवं समानता एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस विचारधारा का समर्थक है-
(क) डी० टॉकविले
(ख) लॉर्ड एक्टन
(ग) क्रोचे
(घ) लॉस्की
उत्तर-
(घ) लॉस्की।

प्रश्न 5.
“आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।” यह कथन किसका है?
(क) लॉस्की को
(ख) प्रो० जोड का
(ग) रूसो को
(घ) क्रोचे का
उत्तर-
(ख) प्रो० जोड का।

प्रश्न 6.
नागरिक स्वतन्त्रता निम्नलिखित में से किसे कहते हैं?
(क) रोजगार पाने की स्वतन्त्रता
(ख) कानून के समक्ष समानता
(ग) चुनाव लड़ने की स्वतन्त्रता
(घ) राजकीय सेवा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता
उत्तर-
(ख) कानून के समक्ष समानता।

प्रश्न 7.
‘लिबर्टी’ (स्वतन्त्रता) की व्युत्पत्ति लिबर’ शब्द से हुई है, जो शब्द है
(क) संस्कृत भाषा का
(ख) लैटिन भाषा का
(ग) फ्रांसीसी भाषा का
(घ) हिब्रू भाषा का
उत्तर-
(ख) लैटिन भाषा का।

प्रश्न 8.
“स्वतन्त्रता अति-शासन की विरोधी है।” यह कथन किसका है?
(क) कोल
(ख) सीले
(ग) लॉस्की
(घ) ग्रीन
उत्तर-
(ख) सीले।

प्रश्न 9.
यदि किसी व्यक्ति को आवागमन की स्वतन्त्रता नहीं प्राप्त है, तो उसे निम्नांकित में से किस
स्वतन्त्रता से वंचित किया जा सकता है?
(क) नागरिक स्वतन्त्रता
(ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता
(ग) आर्थिक स्वतन्त्रता
(घ) धार्मिक स्वतन्त्रता
उत्तर-
(ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ क्या है?
उत्तर–
अनुचित बन्धनों के स्थान पर उचित बन्धनों की व्यवस्था ही स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता की एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर-
बार्कर के अनुसार, “स्वतन्त्रता प्रतिबन्धों का अभाव नहीं, वरन् वह ऐसे नियन्त्रणों का अभाव है, जो मनुष्य के विकास में बाधक हों।”

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के दो प्रकार लिखिए।
उत्तर-
(i)राजनीतिक स्वतन्त्रता- राज्य के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेने की शक्ति ही राजनीतिक स्वतन्त्रता है।
(ii)आर्थिक स्वतन्त्रता- प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार व अपने श्रम का पारिश्रमिक प्राप्त करने की स्वतन्त्रता।

प्रश्न 4.
“स्वतन्त्रता और कानून एक-दूसरे के पूरक हैं।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–
स्वतन्त्रता और कानून एक-दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि कानूनों के पालन में ही मनुष्य की स्वतन्त्रता सुरक्षित रहती है।

प्रश्न 5.
“जहाँ कानून नहीं है, वहाँ स्वतन्त्रता नहीं हो सकती।” यह मत किस विद्वान् का है।
उत्तर—
यह मत उदारवादी विचारक लॉक का है।

प्रश्न 6.
कानून किस प्रकार स्वतन्त्रता का रक्षक है?
उत्तर-
कानून स्वतन्त्रता को जन्म देते हैं और उन्हें मर्यादित करते हैं।

प्रश्न 7.
‘ऑन लिबर्टी’ (स्वतन्त्रता) नामक ग्रन्थ किसने लिखा?
उत्तर-
‘ऑन लिबर्टी’ (स्वतन्त्रता) नामक ग्रन्थ जे०एस० मिल ने लिखा।

प्रश्न 8.
नकारात्मक स्वतन्त्रता का समर्थक विचारक कौन है?
उत्तर–
जे०एस० मिला।

प्रश्न 9.
प्राकृतिक स्वतन्त्रता का समर्थक कौन था? ।
उत्तर-
रूसो।

प्रश्न 10.
“स्वतन्त्रता अति शासन की विरोधी है।” यह मत किसने व्यक्त किया है।
उत्तर–
सीले ने।

प्रश्न 11.
नेल्सन मण्डेला की आत्मकथा का शीर्षक क्या है?
उत्तर–
नेल्सन मण्डेला की आत्मकथा का शीर्षक ‘लाँग वाक टू फ्रीडम’ (स्वतन्त्रता के लिए लम्बी यात्रा) है।

प्रश्न 12.
आँग सान सू कौन है?
उत्तर–
आँग सान सू म्यांमार की राष्ट्रवादी नेता हैं। उन्हें म्यांमार सरकार ने नजरबन्द कर रखा है।

प्रश्न 13.
आँग सान सू की पुस्तक का शीर्षक क्या है?
उत्तर-
आँग सान सू की पुस्तक का शीर्ष ‘फ्रीडम फ्रॉम फीयर (भय की मुक्ति) है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर—
मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार स्वतन्त्रता ऐसी स्थिति नहीं है जिसमें व्यक्ति को अकेला छोड़ दिया जाए। इसके विपरीत, स्वतन्त्रता की स्थितियाँ सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भो से सम्बद्ध होती हैं। मार्क्सवादी विचारकों के अनुसार तर्कसंगत उत्पादन प्रणाली के अन्तर्गत ही व्यक्ति सच्चे अर्थों में स्वतन्त्र हो सकते हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति में उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सम्पूर्ण समाज का स्वामित्व होगा, कोई किसी का शोषण नहीं करेगा और उत्पादन की शक्तियाँ इतनी विकसित हो जाएँगी कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा और आवश्यकता की पूर्ति आसानी से कर सकेगा। माक्र्सवाद के अनुसार व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता का सच्चा अर्थ तो उस समय सम्भव हो सकता है जब वह अभावों से मुक्त हो। उसे आत्मविश्वास के लिए जिन चीजों की जरूरत हो वे सब भरपूर मात्रा में उपलब्ध हों। मार्क्स नकारात्मक स्वतन्त्रता का विरोधी व सकारात्मकं स्वतन्त्रता का समर्थक है।

प्रश्न 2.
नागरिक स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
नागरिक स्वतन्त्रता
समाज को सदस्य होने के कारण व्यक्ति को जो स्वतन्त्रता प्राप्त होती है, उसको नागरिक स्वतन्त्रता की उपमा दी जाती है। नागरिक स्वतन्त्रता की रक्षा राज्य करता है। इसमें नागरिकों की निजी स्वतन्त्रता, धार्मिक स्वतन्त्रता, सम्पत्ति का अधिकार, विचार-अभिव्यक्ति करने की स्वतन्त्रता, इकड़े होने तथा संघ इत्यादि बनाने की स्वतन्त्रता सम्मिलित हैं। गैटिल ने नागरिक स्वतन्त्रता का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि “नागरिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य उन अधिकारों एवं विशेषाधिकारों से है जिन्हें राज्य अपनी प्रजा हेतु उत्पन्न करता है तथा उन्हें सुरेक्षा प्रदान करता है।”
नागरिक स्वतन्त्रता विभिन्न राज्यों में अलग-अलग होती है। जहाँ लोकतन्त्रीय राज्यों में यह स्वतन्त्रता अधिक होती है, वहीं तानाशाही राज्यों में कम। भारत के संविधान में नागरिक स्वतन्त्रता का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 3.
आर्थिक स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
आर्थिक स्वतन्त्रता
आर्थिक स्वतन्त्रता से आशय आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी उस स्थिति से है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपना जीवन-यापन कर सके। लॉस्की के शब्दों में, आर्थिक स्वतन्त्रता का यह अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका अर्जित करने की समुचित सुरक्षा तथा सुविधा प्राप्त हो।”
जिस राज्य में भूख, गरीबी, दीनता, नग्नता तथा आर्थिक अन्याय होगा वहाँ व्यक्ति कभी भी स्वतन्त्र नहीं होगा। व्यक्ति को पेट की भूख, अपने बच्चों की भूख तथा भविष्य में दिखाई देने वाली आवश्यकताएँ प्रत्येक पल दु:खी करती रहेंगी। व्यक्ति कभी भी स्वयं को स्वतन्त्र अनुभव नहीं करेगा तथा न ही वह नागरिक एवं राजनीतिक स्वतन्त्रता का भली-भाँति उपभोग कर सकेगा। अत: राजनीतिक एवं नागरिक स्वतन्त्रता को हासिल करने के लिए आर्थिक स्वतन्त्रता का होना परमावश्यक है। लेनिन ने उचित ही कहा है कि “आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में राजनीतिक अथवा नागरिक स्वतन्त्रता अर्थहीन है।”

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता और सत्ता के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
कतिपय विद्वानों का विचार है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता एवं सत्ता परस्पर विरोधी हैं। प्रभुसत्ता असीम है परन्तु स्वतन्त्रता पर कोई अंकुश नहीं होना चाहिए। सत्ता एवं स्वतन्त्रता साथ-साथ नहीं रह सकती हैं। वास्तव में न तो प्रभुसत्ता असीमित होती है और न ही स्वतन्त्रता अप्रतिबन्धित होती है। राज्य की प्रभुसत्ता के ऊपर अनेक प्रतिबन्ध होते हैं। स्वतन्त्रता की प्रकृति में ही प्रतिबन्ध निहित है, अन्यथा स्वतन्त्रता उच्छंखलता में परिवर्तित हो जाएगी। स्वतन्त्रता के ऊपर अंकुश इसलिए जरूरी है कि अन्य नागरिकों को समान अवसर प्राप्त हों और सबल वर्ग समाज के विरुद्ध आचरण न कर सके। गैटिल ने इस सम्बन्ध में कहा है, “बिना प्रतिबन्धों के प्रभुसत्ता निरंकुश बन जाती है और बिना सत्ता के स्वतन्त्रता अराजकता को जन्म देती है।”

प्रश्न 5.
संक्षेप में स्वतन्त्रता के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
यदि यह सत्य है कि बिना सत्ता के सामाजिक शक्ति और व्यवस्था नहीं रह सकतीं, तो यह भी उतना ही आवश्यक है कि सत्ता द्वारा स्थापित इस व्यवस्था के अन्तर्गत नागरिकों को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए स्वतन्त्रता उपलब्ध हो। मानव के व्यक्तित्व के विकास में स्वतन्त्रता एक अनमोल निधि है। वैयक्तिक व राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए हजारों लोगों के अनेक प्रकार की यातनाएँ हँसते हुए झेली हैं। बर्टेण्ड रसेल के अनुसार, “स्वतन्त्रता की इच्छा व्यक्ति की एक स्वाभाविक प्रकृति है और इसी के आधार पर सामाजिक जीवन का निर्माण सम्भव है।” प्रसिद्ध विधिवेत्ता पालकीवाला के शब्दों में, “मनुष्य सदा ही स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर सर्वाधिक बहुमूल्य बलिदान देते रहे हैं। वे भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा आत्मा व धर्म की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राण तक देते रहे हैं।” संक्षेप में, स्वतन्त्रता यदि मानव-जाति का अन्तिम लक्ष्य नहीं, तब उसकी प्रेरणा का अन्तिम स्रोत तो सदा ही रही है।

प्रश्न 6.
उदारवाद क्या है?
उत्तर-
एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में उदारवाद को सहनशीलता के मूल्य के साथ जोड़कर देखा जाता है। उदारवादी चाहे किसी व्यक्ति से असहमत हों, तब भी वे उसके विचार और विश्वास रखने और व्यक्त करने के अधिकार का पक्ष लेते हैं। लेकिन उदारवाद इतना भर नहीं है और न ही उदारवाद एकमात्र आधुनिक विचारधारा है जो सहिष्णुता का समर्थन करती है। आधुनिक उदारवाद की विशेषता यह है कि इसमें केन्द्र बिन्दु व्यक्ति है। उदारवाद के लिए परिवार, समाज या समुदाय जैसी इकाइयों का स्वयं में कोई महत्त्व नहीं है। उनके लिए इन इकाइयों का महत्त्व तभी है, जब व्यक्ति इन्हें महत्त्व दे। उदाहरण के लिए, उदारवादी कहेंगे कि किसी से विवाह करने का निर्णय व्यक्ति को लेना चाहिए, परिवार, जाति या समुदाय को नहीं। उदारवादी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को समानता जैसे अन्य मूल्यों से अधिक वरीयता देते हैं। वे साधारणतया राजनीतिक सत्ता को भी संदेह की दृष्टि से देखते हैं।

प्रश्न 7.
स्वराज से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-
भारतीय राजनीतिक विचारों में स्वतन्त्रता की समानार्थी अवधारणा ‘स्वराज’ है। स्वराज का अर्थ ‘स्व’ का शासन भी हो सकता है और ‘स्व’ के ऊपर शासन भी। भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष के सन्दर्भ में ‘स्वराज’ राजनीतिक और संवैधानिक स्तर पर स्वतन्त्रता की माँग है और सामाजिक स्तर पर यह एक मूल्य है। इसीलिए स्वराज स्वतन्त्रता आन्दोलन में एक महत्त्वपूर्ण नारा बन गया जिसने तिलक के प्रसिद्ध कथन “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा” को प्रेरित किया।

प्रश्न 8.
प्रतिबन्धों के स्रोत क्या हैं?
उत्तर–
व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध प्रभुत्व और बाहरी नियन्त्रण से लग सकते हैं। ये प्रतिबन्ध . बलपूर्वक या सरकार द्वारा ऐसे कानून की सहायता से लगाए जा सकते हैं, जो शासकों की ताकत का । प्रतिनिधित्व करें। ऐसे प्रतिबन्ध उपनिवेशवादी शासकों ने या दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की व्यवस्था ले लगाए। सरकार की कोई-न-कोई जरूरत हो सकती है, लेकिन सरकार लोकतान्त्रिक हो तो राज्य के नागरिकों का अपने शासकों पर कुछ नियन्त्रण हो सकता है। इसलिए लोकतान्त्रिक सरकार लोगों की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए एक आवश्यक माध्यम मानी गई है।

प्रश्न 9.
जे०एस० मिल ने ‘स्वसम्बद्ध’ और ‘परसम्बद्ध’ कार्यों में क्या अन्तर बताया है?
उत्तर–
पाश्चात्य विचारक जे०एस० मिल ने ‘स्वसम्बद्ध’ और ‘परसम्बद्ध कार्यों में अन्तर बताया है। स्वसम्बद्ध वे कार्य हैं, जिनके प्रभाव केवल इन कार्यों को करने वाले व्यक्ति पर पड़ते हैं जबकि परसम्बद्ध वे कार्य हैं जो कर्ता के अलावा शेष लोगों पर भी प्रभाव डालते हैं। मिल का तर्क है कि स्वसम्बद्ध कार्य और निर्णयों के मामले में राज्य या किसी बाहरी सत्ता को कोई हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। सरल शब्दों में कहें तो, स्वसम्बद्ध कार्य वे हैं जिनके बारे में कहा जा सके कि ये मेरा काम है, मैं इसे वैसे करूंगा, जैसा मेरा मन होगा।’ परसम्बद्ध कार्य वे हैं जिनके बारे में कहा जा सके कि अगर तुम्हारी गतिविधियों से मुझे कुछ नुकसान होता है तो किसी-न-किसी बाहरी सत्ता को चाहिए कि मुझे इन नुकसानों से बचाए।”

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“स्वतन्त्रता और कानून की घनिष्ठता के कारण इन्हें एक-दूसरे का पूरक कहा जाता है।” इस कथन पर टिप्पणी लिखिए।
या कानून तथा स्वतन्त्रता के मध्य सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के सकारात्मक स्वरूप का तात्पर्य है- व्यक्ति को व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करना। कानून व्यक्तियों के व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्रदान करते हुए उन्हें वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। वर्तमान समय में लगभग सभी राज्यों द्वारा जनकल्याणकारी राज्य के विचार को अपना लिया गया है और राज्य कानूनों के माध्यम से एक ऐसे वातावरण के निर्माण में संलग्न है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके। राज्य के द्वारा की गयी अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था, अधिकतम श्रम और न्यूनतम वेतन के सम्बन्ध में कानूनी व्यवस्था, जनस्वास्थ्य का प्रबन्ध आदि कार्यों द्वारा नागरिकों को व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं और इस प्रकार राज्य नागरिकों को वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान कर रहा है। यदि राज्य सड़क पर चलने के सम्बन्ध में किसी प्रकार के नियमों का निर्माण करता है, मद्यपान पर रोक लगाता है या टीके की व्यवस्था करता है तो राज्य के इन कार्यों से व्यक्तियों की स्वतन्त्रता सीमित नहीं होती, वरन् उसमें वृद्धि ही होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि साधारण रूप से राज्य के कानून व्यक्तियों की स्वतन्त्रता की रक्षा और उसमें वृद्धि करते हैं।
स्वतन्त्रता और कानून के इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण ही रैम्जे म्योर ने लिखा है कि “कानून और स्वतन्त्रता इस प्रकार अन्योन्याश्रित और एक-दूसरे के पूरक हैं।”

प्रश्न 2.
“स्वतन्त्रता व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर–
स्वतन्त्रता अमूल्य वस्तु है और उसका मानवीय जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। स्वतन्त्रता का मूल्य व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर समान है। स्वतन्त्रता का महत्त्व न होता तो विभिन्न देशों में लाखों व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान न दिया जाता। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है और इन विविध अधिकारों में स्वतन्त्रता का स्थान निश्चित रूप से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य का सम्पूर्ण भौतिक, मानसिक एवं नैतिक विकास स्वतन्त्रता के वातावरण में ही सम्भव है। स्वतन्त्रता की व्याख्या करते हुए लास्की ने भी कहा है कि “स्वतन्त्रता उस वातावरण को बनाए रखना है जिसमें व्यक्ति को जीवन का सर्वोत्तम विकास करने की सुविधा प्राप्त हो।’ इस प्रकार स्वतन्त्रता का । तात्पर्य ऐसे वातावरण और परिस्थितियों की विद्यमानता से है जिसमें व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके। स्वतन्त्रता निम्नलिखित आदर्श दशाएँ प्रस्तुत करती हैं

  1.  न्यूनतम प्रतिबन्ध– स्वतन्त्रता का प्रथम तत्त्व यह है कि व्यक्ति के जीवन पर शासन और समाज के दूसरे सदस्यों की ओर से न्यूनतम प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिससे व्यक्ति अपने विचार और कार्य-व्यवहार में अधिकाधिक स्वतन्त्रता का उपभोग कर सके तथा अपना विकास सुनिश्चित कर सके।
  2.  व्यक्तित्व विकास हेतु सुविधाएँ– स्वतन्त्रता का दूसरा तत्त्व यह है कि समाज और राज्य द्वारा व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकाधिक सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए। इस प्रकार स्वतन्त्रता जीवन की ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबन्ध हों और व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकतम सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।

प्रश्न 3.
“स्वतन्त्रता तथा कानून परस्पर विरोधी हैं।” इस विचार को मान्यता प्रदान करने वालों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
कुछ विद्वानों का विचार है कि स्वतन्त्रता तथा कानून परस्पर विरोधी हैं, क्योंकि कानून स्वतन्त्रता पर अनेक प्रकार के बन्धन लगाता है। इस विचार को मान्यता देने वालों में व्यक्तिवाद, अराजकतावादी, श्रम संघवादी तथा कुछ अन्य विद्वान् हैं। इस मत के अलग-अलग विचार निम्नलिखित हैं

  1. व्यक्तिवादियों के विचार- व्यक्तिवादी विचारधारा राज्य के कार्यों को सीमित करने के पक्ष में है। व्यक्तिवादियों के अनुसार, “वही शासन-प्रणाली श्रेष्ठ है जो सबसे कम शासन करती है।’ जितने कम कानून होंगे, उतनी ही अधिक स्वतन्त्रता होगी।
  2.  अराजकतावादियों के विचार- अराजकतावादियों की मान्यता है कि राज्य अपनी शक्ति के प्रयोग से व्यक्ति की स्वतन्त्रता को नष्ट करता है। इसीलिए अराजकतावादी राज्य को समाप्त कर देने के समर्थक हैं। अराजकतावादी विचारक विलियम गॉडविन के मतानुसार, “कानून सर्वाधिक घातक प्रकृति की संस्था है।”‘राज्य का कानून, दमन तथा उत्पीड़न का एक नवीन यन्त्र है।”
  3.  श्रम संघवादियों के विचार- मजदूर संघवादियों की मान्यता है कि राज्य के कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित करते हैं। इन कानूनों का प्रयोग सदैव ही पूँजीपतियों के हितों को बढ़ावा देने हेतु किया गया, है। इससे मजदूरों की स्वतन्त्रता नष्ट होती है। चूंकि राज्य के कानून मजदूरों के हितों का विरोध कर पूँजीपतियों का समर्थन करते हैं, इसलिए मजदूर संघवादी भी राज्य को समाप्त करने के पक्षधर हैं।
  4.  बहुलवादियों के विचार–बहुलवादियों की मान्यता है कि राज्य के पास जितनी अधिक सत्ता होगी, व्यक्ति को उतनी ही कम स्वतन्त्रता होगी। इसलिए राज्य-सत्ता को अलग-अलग समूहों में विभाजित कर दिया जाना चाहिए।
    उपर्युक्त विभिन्न विचारों के अध्ययनोपरान्त हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि कानून एवं स्वतन्त्रता में कोई सम्बन्ध नहीं है, अर्थात् ये परस्पर विरोधी हैं।

प्रश्न 4.
‘लाँग वाक टू फ्रीडम’ पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-
20वीं शताब्दी के एक महानतम व्यक्ति नेल्सन मण्डेला की आत्मकथा को शीर्षक ‘लाँग वाक टू फ्रीडम’ (स्वतन्त्रता के लिए लम्बी यात्रा) है। इस पुस्तक में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन के विरुद्ध अपने व्यक्तित्व संघर्ष, गोरे लोगों के शासन की अलगाववादी नीतियों के विरुद्ध लोगों के प्रतिरोध और दक्षिण अफ्रीका के काले लोगों द्वारा झेले गए अपमान, कठिनाइयों और पुलिस अत्याचार के विषय में बातें की हैं। इन अलगाववादी नीतियों में एक शहर में घेराबन्दी किए जाने और देश में मुक्त आवागमन पर रोक लगाने से लेकर विवाह करने में मुक्त चयन तक पर प्रतिबन्ध लगाना । शामिल है। सामूहिक रूप से इन सभी प्रतिबन्धों को नस्ल के आधार पर भेदभाव करने वाली रंगभेदी सरकार ने जबरदस्ती लागू किया था। मण्डेला और उनके साथियों के लिए इन्हीं अन्यायपूर्ण प्रतिबन्धों और स्वतन्तत्रा के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का संघर्ष ‘लाँग वाक टू फ्रीडम’ (स्वतन्त्रता के लिए लम्बी यात्रा) था। विशेष बात यह कि मण्डेला का संघर्ष केवल काले या अन्य लोगों के लिए ही नहीं वरन् श्वेत लोगों के लिए भी था।

प्रश्न 5.
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर राजनीतिक विचारक मिल के विचार लिखिए।
उत्तर-
19वीं सदी के ब्रिटेन के एक राजनीतिक विचारक जॉन स्टुअर्ट मिल ने अभिव्यक्ति तथा विचार और विवाद की स्वतन्त्रता का बहुत ही भावपूर्ण पक्ष प्रस्तुत किया है। अपनी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में उसने केवल चार कारण प्रस्तुत किए हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता उन्हें भी होनी चाहिए जिनके विचार आज की स्थितियों में गलत या भ्रामक लग रहे हों।
प्रथम कारण तो यह कि कोई भी विचार पूर्ण रूप से गलत नहीं होता। जो हमें गलत लगता है उसमें सच्चाई को तत्त्व होता है। अगर हम गलत विचार को प्रतिबन्धित कर देंगे तो इसमें छिपे सच्चाई के अंश को भी खो देंगे।
द्वितीय कारण पहले कारण से सम्बन्धित है। सत्य स्वयं में उत्पन्न नहीं होता। सत्य विरोधी विचारों के टकराव से उत्पन्न होता है। जो विचार आज गलत प्रतीत होता है, वह सही तरह के विचारों के उदय में बहुमूल्य हो सकती है।
तृतीय, विचारों का यह संघर्ष केवल अतीत में ही मूल्यवान नहीं था, बल्कि हर समय इसका सतत महत्त्व है। सत्य के विषय में यह खतरा हमेशा होता है कि वह एक विचारहीन और रूढ़ उक्ति में परिवर्तित हो जाए। जब हम इसे विरोधी विचार के समक्ष रखते हैं तभी इस विचार का विश्वसनीय होना। सिद्ध होता है।
अन्तिम बात यह है कि हम इस बात को लेकर भी निश्चित नहीं हो सकते कि जिसे हम सत्य समझते हैं। वही सत्य है। कई बार जिन विचारों को किसी समय पूरे समाज ने गलत समझा और दबाया था, बाद में सत्य पाए गए। कुछ समाज ऐसे विचारों का दमन करते हैं जो आज उनके लिए स्वीकार्य नहीं हैं, लेकिन ये विचार आने वाले समय में बहुत मूल्यवान ज्ञान में बदल सकते हैं। दमनकारी समाज ऐसे सम्भावनाशील ज्ञान के लाभों से वंचित रह जाते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता से आप क्या समझते हैं? स्वतन्त्रता कितने प्रकार की होती है? विवेचना कीजिए।
या स्वतन्त्रता की परिभाषा देते हुए इसके विभिन्न प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
या स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? सकारात्मक स्वतन्त्रता तथा नकारात्मक स्वतन्त्रता की ‘ अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
या स्वतन्त्रता से आप क्या समझते हैं। नागरिकों को प्राप्त विभिन्न स्वतन्त्रताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
स्वतन्त्रता जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। बर्स के अनुसार-“स्वतन्त्रता न केवल सभ्य जीवन का आधार है, वरन् सभ्यता का विकास भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर ही निर्भर करता है।’ स्वतन्त्रता मानव की सर्वप्रिय वस्तु है। व्यक्ति स्वभाव से स्वतन्त्रता चाहता है क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वतन्त्रता सबसे आवश्यक तत्त्व है। मानव के समस्त अधिकारों में स्वतन्त्रता का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसके अभाव में अन्य अधिकारों का उपयोग नहीं हो सकता है।

स्वतन्त्रता का अर्थ

स्वतन्त्रता का अर्थ दो रूपों में स्पष्ट किया जाता है

1. स्वतन्त्रता का निषेधात्मक अर्थ- 
‘स्वतन्त्रता’ शब्द अंग्रेजी भाषा के लिबर्टी’ (Liberty) शब्द का हिन्दी अनुवाद है। ‘लिबर्टी’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘लिबर’ (Liber) शब्द से हुई। ‘लिबर’ का अर्थ ‘बन्धनों का न होना’ होता है। अतः स्वतन्त्रता का शाब्दिक अर्थ ‘बन्धनों से मुक्ति’ है अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी बन्धन के अपनी इच्छानुसार सभी कार्यों को करने की सुविधा प्राप्त होना ही ‘स्वतन्त्रता है।
वस्तुत: स्वतन्त्रता का यह अर्थ अनुचित है क्योंकि यदि हम कहें कि कोई भी व्यक्ति किसी की हत्या करने के लिए स्वतन्त्र है, तो यह स्वतन्त्रता न होकर अराजकता है। इस दृष्टि से मैकेंजी ने ठीक ही लिखा है, “पूर्ण स्वतन्त्रता जंगली गधे की आवारागर्दी की स्वतन्त्रता है।” इस सम्बन्ध में बार्कर (Barker) का मत है-“कुरूपता के अभाव को सौन्दर्य नहीं कहते, इसी प्रकार बन्धनों के अंभाव को स्वतन्त्रता नहीं कहते, अपितु अवसरों की प्राप्ति को स्वतन्त्रता कहते हैं।”

2. स्वतन्त्रता का सकारात्मक अर्थ-
स्वतन्त्रता को वास्तविक अर्थ मनुष्य के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा तथा ऐसे बन्धनों का अभाव है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में बाधक हों। स्वतन्त्रता के सकारात्मक पक्ष को स्पष्ट करते हुए ग्रीन ने लिखा है, ‘योग्य कार्य करने अथवा उसके उपयोग करने की सकारात्मक शक्ति को स्वतन्त्रता कहते हैं। इसी प्रकार सकारात्मक पक्ष के सम्बन्ध में लॉस्की का कथन है, “स्वतन्त्रता से अभिप्राय ऐसे वातावरण को बनाए रखना है, जिसमें कि व्यक्ति को अपना पूर्ण विकास करने का अवसर मिले। स्वतन्त्रता का उदय अधिकारों से होता है। स्वतन्त्रता पर विवेकपूर्ण प्रतिबन्ध आरोपित करने का पक्षधर है।

स्वतन्त्रता की परिभाषाएँ

स्वतन्त्रता की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का विवेचन निम्नलिखित है

  1. लॉस्की के अनुसार- “स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ राज्य की ओर से ऐसे वातावरण का निर्माण करना है, जिसमें कि व्यक्ति आदर्श नागरिक जीवन व्यतीत करने योग्य बन सके तथा अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके।
  2.  मैकेंजी के अनुसार- “स्वतन्त्रता सब प्रकार के बन्धनों का अभाव नहीं, अपितु तर्करहित प्रतिबन्धों के स्थान पर तर्कसंगत प्रतिबन्धों की स्थापना है।’
  3.  बार्कर के अनुसार – स्वतन्त्रता प्रतिबन्धों का अभाव नहीं, परन्तु वह ऐसे नियन्त्रणों का अभाव है, जो मनुष्य के विकास में बाधक हो।”
  4.  हरबर्ट स्पेंसर के अनुसार- “प्रत्येक व्यक्ति जो चाहता है, वह करने के लिए स्वतन्त्र है, बशर्ते। |, कि वह किसी अन्य व्यक्ति की समान स्वतन्त्रता का अतिक्रमण न करे।”
  5.  रूसो के अनुसार- “उन कानूनों का पालन करना जिन्हें हम अपने लिए निर्धारित करते हैं, स्वतन्त्रता है।”
  6.  मॉण्टेस्क्यू के अनुसार- “स्वतन्त्रता उन सब कार्यों को करने का अधिकार है जिनकी स्वीकृति कानून देता है।”
  7.  ग्रीन के अनुसार- “स्वतन्त्रता उन कार्यों को करने अथवा उन वस्तुओं के उपभोग करने की
    शक्ति है जो करने या उपभोग के योग्य हैं।”
    उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि स्वतन्त्रता स्वेच्छाचारिता का नाम नहीं है आप वहीं तक स्वतन्त्र हैं जहाँ तक दूसरे की स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती। ऐसी स्थिति में सामान्य मानदण्डों का ध्यान रखना पड़ता है।

स्वतन्त्रता के प्रकार (रूप)

स्वतन्त्रता के विभिन्न रूप तथा उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
1. प्राकृतिक स्वतन्त्रता- इस प्रकार की स्वतन्त्रता के तीन अर्थ लगाए जाते हैं। पहला अर्थ यह है।
कि स्वतन्त्रता प्राकृतिक होती है। वह प्रकृति की देन है तथा मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र होता है। इसी विचार को व्यक्त करते हुए रूसो ने लिखा है, “मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होता है; किन्तु वह सर्वत्र बन्धनों में जकड़ा हुआ है।” (Man is born free but everywhere he is in chains.) इस प्रकार प्राकृतिक स्वतन्त्रता का अर्थ मनुष्यों की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता है। दूसरे अर्थ के अनुसार, मनुष्य को वही स्वतन्त्रता प्राप्त हो, जो उसे प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त थी। तीसरे अर्थ के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः यह अनुभव करता है कि स्वतन्त्रता का विचार इस रूप में मान्य है कि सभी समान हैं और उन्हें व्यक्तित्व के विकास हेतु समान
सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए।

2. नागरिक स्वतन्त्रता- नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय व्यक्ति की उन स्वतन्त्रताओं से है। जिनको एक व्यक्ति समाज या राज्य का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। गैटिल के शब्दों में, “नागरिक स्वतन्त्रता उन अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को कहते हैं, जिनकी सृष्टि राज्य अपने नागरिकों के लिए करता है। सम्पत्ति अर्जित करने और उसे सुरक्षित रखने की स्वतन्त्रता, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा कानून के समक्ष समानता आदि
स्वतन्त्रताएँ नागरिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत ही सम्मिलित की जाती है।

3. राजनीतिक स्वतन्त्रता- इस स्वतन्त्रता के अनुसार प्रत्येक नागरिक बिना किसी वर्णगत, लिंगगत, वंशगत, जातिगत, धर्मगत भेदभाव के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से शासन-कार्यों में भाग ले सकता है। इस स्वतन्त्रता की व्याख्या करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “राज्य के कार्यों में सक्रिय भाग लने की शक्ति ही राजनीतिक स्वतन्त्रता है।” राजनीतिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत मताधिकार, निर्वाचित होने का अधिकार तथा सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार, राजनीतिक दलों तथा दबाव-समूहों के निर्माण आदि सम्मिलित किए जाते हैं। शान्तिपूर्ण साधनों के आधार पर सरकार का विरोध करने का अधिकार भी राजनीतिक स्वतन्त्रता में सम्मिलित किया जाता है।

4. आर्थिक स्वतन्त्रता- आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार अथवा अपने श्रम के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त करने की स्वतन्त्रता है। आर्थिक स्वतन्त्रता की परिभाषा देते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आर्थिक स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिदिन की जीविका उपार्जित करने की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। वस्तुत: यह स्वतन्त्रता रोजगार प्राप्त करने की स्वतन्त्रता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार या अपने श्रम के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो तथा किसी प्रकार भी उसके श्रम को दूसरे के द्वारा शोषण न किया जा सके।

5. धार्मिक स्वतन्त्रता- प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की सुविधा ही धार्मिक स्वतन्त्रता कहलाती है। इस प्रकार की स्वतन्त्रता के लिए यह आवश्यक है कि राज्य किसी धर्म-विशेष के साथ पक्षपात न करके सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करे। साथ ही किसी व्यक्ति को बलपूर्वक धर्म परिवर्तन हेतु प्रेरित न किया जाए और न ही उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाई जाए।

6. नैतिक स्वतन्त्रता- व्यक्ति को अपनी अन्तरात्मा के अनुसार व्यवहार करने की पूरी सुविधा प्राप्त होना ही नैतिक स्वतन्त्रता है। काण्ट, हीगल, ग्रीन आदि विद्वानों ने नैतिक स्वतन्त्रता का प्रबल समर्थन किया है।

7. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता- व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति के उन कार्यों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए, जिनका सम्बन्ध केवल उसके व्यक्तित्व से ही हो। इस प्रकार के कार्यों में भोजन, वस्त्र, धर्म तथा पारिवारिक जीवन को सम्मिलित किया जा सकता है।

8. सामाजिक स्वतन्त्रता- सभी व्यक्तियों को समाज में अपना विकास करने की सुविधा प्राप्त होना ही सामाजिक स्वतन्त्रता है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक क्रिया-कलापों आदि में बिना किसी भेदभाव के सम्मिलित होने के लिए स्वतन्त्र है।

9. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता- राष्ट्रीय स्वतन्त्रता; राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा आत्म-निर्णय के अधिकार से सम्बन्धित है। इस प्रकार की स्वतन्त्रता के अन्तर्गत राष्ट्र को भी स्वतन्त्र होने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक विधियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या “स्वतन्त्रता का मूल्य निरन्तर सतर्कता है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने की विधियाँ नागरिकों की स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित विधियों को अपनाया गया है

1. विशेषाधिकार- विहीन समाज की स्थापना–स्वतन्त्रता की सुरक्षा उसी समय सम्भव है। जबकि समाज में कोई वर्ग अथवा समूह विशेषाधिकारों से युक्त नहीं होता है तथा सभी व्यक्ति एक-दूसरे के विचारों का आदर तथा सम्मान करते हैं। व्यक्तियों में ऊँच-नीच की भावना स्वतन्त्रता का हनन करती है। यदि समाज में कोई विशेषाधिकारयुक्त वर्ग होता है तो वह अन्य वर्गों के विकास में बाधक बन जाता है तथा दूसरे वर्ग अपनी सामाजिक व राजनीतिक स्वतन्त्रता का उपभोग नहीं कर सकते हैं।

2. अधिकारों की समानता- अधिकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता के द्योतक हैं। जिस समाज में व्यक्तियों को सामाजिक व राजनीतिक अधिकार प्रदान नहीं किए जाते हैं, उस समाज के नागरिक स्वतन्त्रता का वास्तविक उपभोग नहीं कर पाते हैं। यदि अधिकारों में समानता नहीं होगी
तो स्वतन्त्रता का उपभोग नागरिक नहीं कर सकेंगे।

3. राज्य द्वारा कार्यों पर नियन्त्रण– यदि नागरिकों की स्वतन्त्रता की सुरक्षा करनी है तो राज्य द्वारा नागरिकों के कार्यों पर नियन्त्रण किया जाना चाहिए। राज्य का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति को ऐसे कार्यों को करने से रोक दे जो दूसरों के हितों का उल्लंघन करते हैं।

4. लोक- हितकारी कानूनों का निर्माण-कभी- कभी सरकार वर्ग-विशेष के हितों का ध्यान रखकर कानून का निर्माण करती है। उस परिस्थिति में सरकार द्वारा निर्मित कानून आलोचना का विषय बन जाते हैं और समाज में असन्तोष व्याप्त हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता का उपभोग करने से वंचित हो जाते हैं। इस विषम परिस्थिति पर नियन्त्रण करने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार जो भी कानून बनाए वह लोकहित का ध्यान रखकर ही बनाए। लोकहित के आधार पर निर्मित कानून समाज में समानता व स्वतन्त्रता की सुरक्षा • करते हैं।

5. मौलिक अधिकारों को मान्यता–  विभिन्न प्रकार के अधिकारों के उपभोग की सुविधा का होना ही स्वतन्त्रता मानी जाती है, अतएव विद्वानों का मत है कि मौलिक अधिकारों को संवैधानिक मान्यता होनी चाहिए। मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करने वालों को न्यायालय द्वारा दण्डित किए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि मौलिक अधिकारों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की जाती है तो स्वतन्त्रता की सुरक्षा स्वयं ही हो जाएगी।

6. लोकतन्त्रात्मक शासन- प्रणाली की स्थापना-लोकतन्त्रात्मक शासन- प्रणाली में नागरिकों को भाषण, भ्रमण तथा विचार व्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिलती है, अतएव लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली की स्थापना करके हम नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकते हैं।

7. निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्यायालये-  न्याय नागरिकों की स्वतन्त्रता की सुरक्षा की प्रथम दशा है। यदि नागरिकों को निष्पक्ष व स्वतन्त्र न्याय मिलने में बाधा आएगी तो वे निराश हो जाएँगे, उनके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाएगा अतएव व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए
यह आवश्यक है कि स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना की जाए।

8. स्थानीय स्वशासन की स्थापना- नागरिकों के राजनीतिक ज्ञान की वृद्धि उसी समय सम्भव है। जबकि नागरिक स्वतन्त्र रूप से शासन के कार्यों में भाग लें और शासन-सम्बन्धी नीतियों से परिचित हों। इस प्रकार की व्यवस्था करने का एकमात्र उपाय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण और
स्थानीय स्वशासन की स्थापना करना है।

9. नागरिक चेतना- नागरिक अपनी स्वतन्त्रता समाप्त कर सकते हैं, यदि वे उसके प्रति जागरूक न रहें। शिथिलता व उदासीनता आने पर नागरिक अपनी स्वतन्त्रता समाप्त कर देते हैं इसलिए स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए यह अनिवार्य है कि नागरिक शासन की निरंकुशता के प्रति जागरूक रहें।

10. राजनीतिक दलों को सुदृढ़ संगठन– राजनीतिक दल शासन की नीति के आलोचक होते हैं।
यदि सरकार नागरिकों की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात करती है तो राजनीतिक दल सरकार के विरुद्ध जन-क्रान्ति कराकर शासन सत्ता को परिवर्तित करते हैं। इस सम्बन्ध में लॉस्की का कथन है, “राजनीतिक दल देश में सीजरशाही से हमारी रक्षा करने के सर्वोत्तम साधन हैं।”

11. प्रचार के साधनों की प्रचुरता- स्वतन्त्रता के प्रति नागरिकों को जागरूक बनाए रखने के लिए देश में प्रचार तथा प्रसार के साधनों की प्रचुरता होना आवश्यक है। इनके माध्यम से नागरिकों को राजनीतिक क्षेत्र में जाग्रत रखा जा सकता है। स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष प्रेस के माध्यम से नागरिकों में स्वतन्त्रता के प्रति चेतना अथवा जागरूकता उत्पन्न की जा सकती है।

12. संवैधानिक उपचारों की व्यवस्था– यदि राज्य या कोई व्यक्ति नागरिक के अधिकारों का अतिक्रमण करे तो न्यायालय को हस्तक्षेप करके नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा करनी चाहिए। इसी को संवैधानिक उपचार भी कहा जाता है।

13. आर्थिक असमानता का अन्त– स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए आर्थिक असमानता का अन्त
करके आर्थिक समानता की व्यवस्था करनी चाहिए।

14. शक्ति-पृथक्करण तथा अवरोध और सन्तुलन– स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए कुछ सीमा तक शक्ति-पृथक्करण तथा कुछ सीमा तक अवरोध एवं सन्तुलन के सिद्धान्त को अपनाना आवश्यक है।
स्वतन्त्रता को स्थिर एवं सुदृढ़ बनाने के लिए उपर्युक्त साधनों का होना अनिवार्य है। लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में ये व्यवस्थाएँ सम्भव हो सकती हैं क्योंकि इस प्रणाली में वास्तविक सत्ता का केन्द्र जनता ही होती है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं, भावनाओं तथा आकांक्षाओं की अवहेलना करके अधिक समय तक सत्ता में कायम नहीं रह सकती है। अतः लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में नागरिकों की स्वतन्त्रता पूर्ण रूप से सुरक्षित रहती है।

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UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 1 Political Theory : An Introduction

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 1 Political Theory : An Introduction (राजनीतिक सिद्धान्त : एक परिचय)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
राजनीतिक सिद्धान्त के बारे में नीचे लिखे कौन-से कथन सही हैं और कौन-से गलत?
(क) राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों पर चर्चा करते हैं जिनके आधार पर राजनीतिक संस्थाएँ बनती हैं।
(ख) राजनीतिक सिद्धान्त विभिन्न धर्मों के अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं।
(ग) ये समानता और स्वतन्तत्रा जैसी अवधारणाओं के अर्थ की व्याख्या करते हैं।
(घ) ये राजनीतिक दलों के प्रदर्शन की भविष्यवाणी करते हैं।
उत्तर-
(क) सही, (ख) गलत, (ग) सही, (घ) गलत।

प्रश्न 2.
‘राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं।’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर-
‘राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं।’ हम इस कथन से सहमत हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीति का सम्बन्ध किसी भी तरीके से निजी स्वार्थ साधने के धन्धे से जुड़ गया है। राजनीति किसी भी समाज का महत्त्वपूर्ण और अविभाज्य अंग है। महात्मा गांधी ने एक बार कहा था, राजनीति ने हमें साँप की कुण्डली की तरह जकड़ रखा है और इससे जूझने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।” राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय के किसी ढाँचे के बिना कोई भी समाज जिन्दा नहीं रह सकता। जो समाज अपने अस्तित्व को बचाए रखना चाहता है, उसके लिए अपने सदस्यों की विभिन्न आवश्यकताओं और हितों का ध्यान रखना अनिवार्य होता है। परिवार, जनजाति और आर्थिक संस्थाओं जैसी अनेक सामाजिक संस्थाएँ लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने में सहायता करने के लिए पनपी हैं। ऐसी संस्थाएँ हमें साथ रहने के उपाय खोजने और एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने में सहायता करती हैं। इन संस्थाओं के साथ सरकारें भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

प्रश्न 3.
लोकतन्त्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों को जागरूक होना जरूरी है। टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-
लोकतान्त्रिक राज्य में नागरिक के रूप में, हम किसी संगीत कार्यक्रम के श्रोता जैसे होते हैं। हम गीत और लय की व्याख्या करने वाले मुख्य कलाकार नहीं होते। लेकिन हम कार्यक्रम तय करते हैं, प्रस्तुति का रसास्वादन करते हैं और नए अनुरोध करते हैं। संगीतकार तब और बेहतर प्रदर्शन करते हैं। जब उन्हें श्रोताओं के जानकार और क्रददान होने का पता रहता है। इसी तरह जागरूक नागरिक भी लोकतन्त्र के सफल संचालन के लिए आवश्यक हैं।

प्रश्न 4.
राजनीतिक सिद्धान्त को अध्ययन हमारे लिए किन रूपों में उपयोगी है? ऐसे चार तरीकों की पहचान करें जिनमें राजनीतिक सिद्धान्त हमारे लिए उपयोगी हों?
उत्तर-
राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमारे लिए अग्रलिखित रूपों में उपयोगी है-
1. अधिकार सम्पन्न नागरिक – हम सभी मत देने और अन्य मामलों के फैसले करने के लिए अधिकार सम्पन्न नागरिक हैं। दायित्वपूर्ण कार्य निर्वहन के लिए राजनीतिक सिद्धान्तों की जानकारी हमारे लिए उपयोगी होती है।
2. पीड़ा निवारण हेतु – हम समाज में रहकर अपने से भिन्न लोगों से पूर्वाग्रह रखते हैं, चाहे वे अलग जाति के हों, अलग धर्म के अथवा लिंग या वर्ग के। यदि हम उत्पीड़न अनुभव करते हैं, तो हम पीड़ा का निवारण चाहते हैं और यह राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन करने से ही दूर होती है।
3. विचारों और भावनाओं का परीक्षण – राजनीतिक सिद्धान्त हमें राजनीतिक चीजों के बारे में अपने विचारों और भावनाओं के परीक्षण के लिए प्रोत्साहित करता है। थोड़ा अधिक सतर्कता से देखने पर हम अपने विचारों और भावनाओं के प्रति उदार होते जाते हैं।
4. सही गलत की पहचान – छात्र के रूप में हम बहस और भाषण प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं। हमारी अपनी राय होती है, क्या सही है क्या गलत, क्या उचित है क्या अनुचित, पर यह हम नहीं जानते कि वे तर्क-संगत हैं या नहीं। यही बात हमें राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन से पता चलती है।

प्रश्न 5.
क्या एक अच्छा/प्रभावपूर्ण तर्क दूसरों को आपकी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकता है?
उत्तर-
तर्क-संगत ढंग से बहस करने और प्रभावी तरीके से सम्प्रेषण करने से हम दूसरों को अपनी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकते हैं। ये सम्प्रेषण कौशल वैश्विक सूचना व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण गुण साबित होते हैं।

प्रश्न 6.
क्या राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ना, गणित पढ़ने के समान है। अपने उत्तर के पक्ष में कारण दीजिए।
उत्तर-
हाँ, राजनीतिक सिद्धान्तं पढ़ना गणित पढ़ने के समान है। जिस प्रकार प्रत्येक गणित पढ़ने वाला व्यक्ति गणितज्ञ या इंजीनियर नहीं बनता परन्तु जीवन में गणित अवश्य उपयोग में आता रहता है। इसी प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त भी जीवन में बहुपयोगी होते हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
सरकारें कैसे बनती हैं और कैसे कार्य करती हैं, यह स्पष्ट होता है
(क) राजनीति से
(ख) दर्शन से
(ग) इतिहास से
(घ) भूगोल से
उत्तर-
(क) राजनीति से।

प्रश्न 2.
आधुनिककाल में सर्वप्रथम यह किसने सिद्ध किया कि स्वतन्त्रता मानव मात्र का मौलिक अधिकार है।
(क) रूसो
(ख) अरस्तू
(ग) गांधी
(घ) जवाहरलाल नेहरू
उत्तर-
(क) रूसो।

प्रश्न 3.
‘हिन्द स्वराज किसकी रचना है?
(क) जवाहरलाल नेहरू
(ख) महात्मा गांधी
(ग) स्वराज पॉल
(घ) अरस्तू।
उत्तर-
(ख) महात्मा गांधी।

प्रश्न 4.
अंग्रेजी में इण्टरनेट का उपयोग करने वालों को कहा जाता है।
(क) नेटिजन
(ख) सिटीजन
(ग) इंटरनेटी
(घ) नेटीवैल
उत्तर-
(क) नेटिजन।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्य किन मामलों में अन्य प्राणियों से अद्वितीय होता है?
उत्तर-
मनुष्य दो मामलों में अद्वितीय है-प्रथम उसके पास विवेक होता है, दूसरे उसके पास भाषा का प्रयोग और एक-दूसरे से संवाद करने की क्षमता होती है।

प्रश्न 2.
राजनीतिक सिद्धान्त क्या बताते हैं?
उत्तर–
राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों और नीतियों को व्यवस्थित रूप से प्रतिबिम्बित करते हैं। जिनसे हमारे सामाजिक जीवन, सरकार और संविधान ने आकार ग्रहण किया है।

प्रश्न 3.
प्लेटो किसका शिष्य था?
उत्तर–
पाश्चात्य विचारक प्लेटो सुकरात का शिष्य था।

प्रश्न 4.
‘दि रिपब्लिक किसकी रचना है?
उत्तर-
‘दि रिपब्लिक’ प्लेटो की रचना है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीतिक सिद्धान्त हमारे जीवन में क्या भूमिका निभाता है?
उत्तर-
राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों और नीतियों को व्यवस्थित रूप से प्रतितिम्बित करता है, जिनसे हमारे सामाजिक जीवन, सरकार और संविधान ने आकार ग्रहण किया है। यह स्वतन्त्रता, समानता, न्याय, लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं का अर्थ स्पष्ट करता है। यह कानून को राज, अधिकारों का बँटवारा और न्यायिक पुनरावलोकन जैसी नीतियों की सार्थकता की जाँच करता है। यह इस काम को विभिन्न विचारकों द्वारा इन अवधारणाओं के बचाव में विकसित युक्तियों की जाँच-पड़ताल के माध्यम से करता है। हालाँकि रूसो, माक्र्स या गांधी जी राजनेता नहीं बन पाए लेकिन उनके विचारों ने हर जगह पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजनेताओं को प्रभावित किया। साथ ही ऐसे बहुत से समकालीन विचारक हैं, जो अपने समय में लोकतन्त्र या स्वतन्तत्रा के बचाव के लिए उनसे प्रेरणा लेते हैं। विभिन्न तर्को की जाँच-पड़ताल के अलावा राजनीतिक सिद्धान्तकार मानव के नवीन राजनीतिक अनुभवों की छानबीन करते हैं और भावी रुझानों तथा सम्भावनाओं को चिह्नित भी करते हैं।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीतिक सिद्धान्त का विषय-क्षेत्र और उद्देश्य लिखिए।
उत्तर-
मनुष्य दो मामलों में अद्वितीय है-उसके पास विवेक होता है और उसमें गतिविधियों द्वारा उसे व्यक्त करने की योग्यता होती है। मनुष्य के पास भाषा का प्रयोग और एक-दूसरे से संवाद करने की क्षमता भी होती है। अन्य प्राणियों से अलग मनुष्य अपनी अन्तरतम भावनाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त कर सकता है; वह जिन्हें अच्छा और वांछनीय मानता है, अपने उन विचारों को वह दूसरों के साथ बाँट सकता है और उन पर चर्चा कर सकता है। राजनीतिक सिद्धान्त की जड़े मानव अस्मिता के इन जुड़वाँ पहलुओं में होती है। यह कुछ विशिष्ट बुनियादी प्रश्नों का विश्लेषण करता है; जैसेसमाज को किस प्रकार संगठित होना चाहिए? हमें सरकार की आवश्यकता क्यों है? सरकार का सर्वश्रेष्ठ रूप कौन-सा है? क्या कानून व्यक्ति की आजादी को सीमित करता है? राजसत्ता की अपने नागरिकों के प्रति क्या देनदारी होती है? नागरिक के रूप में एक-दूसरे के प्रति हमारी क्या देनदारी होती है?

राजनीतिक सिद्धान्त इस तरह के प्रश्नों की जाँच करता है और राजनीतिक जीवन को अनुप्राणित करने वाले स्वतन्त्रता, समानता और न्याय जैसे मूल्यों के विषय में सुव्यवस्थित रूप में विचार करता है। यह इनके और अन्य सम्बद्ध अवधारणाओं के अर्थ और महत्त्व की विवेचना भी करता है। यह अतीत और वर्तमान के कुछ प्रमुख राजनीतिक चिन्तकों को केन्द्र में रखकर इन अवधारणाओं की वर्तमान परिभाषाओं को स्पष्ट करता है। यह विद्यालय, दुकान, बस, ट्रेन या सरकारी कार्यालय जैसे दैनिक जीवन से जुड़ी संस्थाओं में स्वतन्त्रता या समानता के विस्तार की वास्तविकता की जाँच भी करता है। और आगे जाकर, यह देखता है कि वर्तमान परिभाषाएँ कितनी उपयुक्त हैं और कैसे वर्तमान संस्थाओं (सरकार, नौकरशाही) और नीतियों के अनुपालन को अधिक लोकतान्त्रिक बनाने के लिए उनका परिमार्जन किया जा सकता है। राजनीतिक सिद्धान्त का उद्देश्य नागरिकों को राजनीतिक प्रश्नों के बारे में तर्कसंगत ढंग से सोचने और सामयिक राजनीतिक घटनाओं को सही तरीके से आँकने का प्रशिक्षण देना है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति क्या है? आधुनिक सन्दर्भो में तर्कपूर्ण ढंग से समझाइए।
उत्तर-
भारतीय समाज में लोग राजनीति के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण रखते हैं। राजनेता और चुनाव लड़ने वाले लोग अथवा राजनीतिक पदाधिकारी कह सकते हैं कि राजनीति एक प्रकार की जनसेवा है। राजनीति से जुड़े अन्य लोग राजनीति को दावँ-पेंच मानते हैं तथा आवश्यकताओं और महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के कुचक्र में फंसे रहते हैं। कई अन्य के लिए राजनीति वही है, जो राजनेता करते हैं। अगर वे राजनेताओं को दल-बदल करते, झूठे वायदे और बढ़-चढ़े दावे करते, समाज के विभिन्न वर्गों से जोड़-तोड़ करते, निजी या सामूहिक स्वार्थों में निष्ठुरता से रत और घृणित रूप में हिंसा पर उतारू होता देखते हैं तो वे राजनीति का सम्बन्ध ‘घोटालों से जोड़ने लगते हैं। इस तरह की सोच इतनी प्रचलित है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जब हम हर सम्भव तरीके से अपने स्वार्थ को साधने में लगे लोगों देखते हैं, तो हम कहते हैं कि वे राजनीति कर रहे हैं।

यदि हम एक क्रिकेटर को टीम में बने रहने के लिए जोड़-तोड़ करते या किसी सहपाठी को अपने पिता की हैसियत का उपयोग करते अथवी कार्यालय में किसी सहकर्मी को बिना सोचे-समझे बॉस की हाँ में हाँ मिलाते देखते हैं, तो हम कहते हैं कि वह ‘गन्दी राजनीति कर रहा है। स्वार्थपरता के ऐसे कार्यों से मोहभंग होने पर हम राजनीति से विरक्त हो जाते हैं। हम कहने लगते हैं-“मुझे राजनीति में रुचि नहीं है या मैं राजनीति से दूर रहता हूँ।” केवल साधारण लोग ही राजनीति से निराश नहीं हैं। बल्कि इससे लाभ प्राप्त करने वाले और विभिन्न दलों को चन्दा देने वाले व्यवसायी और उद्यमी भी अपनी मुसीबतों के लिए आये दिन राजनीति को ही कोसते रहते हैं।

प्रतिदिन हमारा सामना राजनीति की इसी प्रकार की परस्पर विरोधी छवियों से होता रहता है। क्या राजनीति अवांछनीय गतिविधि है, जिससे हमें अलग रहना चाहिए, और पीछा छुड़ाना चाहिए? या यह इतनी उपयोगी गतिविधि है कि विकसित विश्व बनाने के लिए हमें इसमें निश्चित ही शामिल होना चाहिए?

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीति का सम्बन्ध किसी भी तरीके से निजी स्वार्थ साधने के धन्धे से जुड़ गया है। हमें यह समझना चाहिए कि राजनीति किसी भी समाज का महत्त्वपूर्ण और अविभाज्य अंग है। राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय के किसी ढाँचे के बगैर कोई भी समाज जीवित नहीं रहू सकता। जो समाज अपने अस्तित्व को बचाए रखना चाहता है, उसके लिए अपने सदस्यों की विविध जरूरतों और हितों का ध्यान रखना आवश्यक होता है। परिवार, जनजाति और आर्थिक संस्थाओं जैसी अनेक सामाजिक संस्थाएँ लोगों की जरूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने में सहायता करने के विकसित हुई हैं। ऐसी संस्थाएँ हमें साथ रहने के उपाय खोजने और एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों को स्वीकार करने में सहायता करती हैं। इन संस्थाओं के साथ सरकारें भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती हैं। सरकारें कैसे बनती हैं और कैसे कार्य करती हैं, यह राजनीति में दर्शाने वाली महत्त्वपूर्ण बातें हैं।

लेकिन राजनीति सरकार के कार्य-कलापों तक ही सीमित नहीं होती है। वास्तव में, सरकारें जो भी कार्य करती हैं वह प्रासंगिक होता है क्योंकि वह कार्य लोगों के जीवन को भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रभावित करता है। हम देखते हैं कि सरकारें हमारी आर्थिक नीति, विदेश नीति और शिक्षा नीति को निर्धारित करती हैं। ये नीतियाँ लोगों के जीवन को उन्नत करने में सहायता कर सकती हैं, लेकिन एक अकुशल और भ्रष्ट सरकार लोगों के जीवन और सुरक्षा को संकट में भी डाल सकती है। अगर सत्तारूढ़ सरकार जातीय और साम्प्रदायिक संघर्ष को बढ़ावा देती है तो बाजार और स्कूल बन्द हो जाते हैं। इससे हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, हम अत्यन्त आवश्यक वस्तुएँ भी नहीं खरीद सकते, बीमार लोग अस्पताल नहीं पहुँच सकते, स्कूल की समय-सारणी भी प्रभावित हो जाती है, पाठ्यक्रम पूरा नहीं हो पाता। दूसरी ओर, सरकार अगर साक्षरता और रोजगार बढ़ाने की नीतियाँ बनाती हैं, तो हमें अच्छे स्कूल में जाने और बेहतर रोजगार पाने के अवसर प्राप्त हो सकते हैं।

चूंकि सरकार की कार्यवाहियों का जनसामान्य पर गहरा असर पड़ता है, जनता सरकार के कामों में रुचि लेती है। जब जनता सरकार की नीतियों से असहमत होती है तो उसका विरोध करती है और वर्तमान कानून को बदलने के लिए अपनी सरकारों को राजी करने के लिए प्रदर्शन आयोजित करती है। निष्कर्ष यह है कि राजनीति का जन्म इस तथ्य से होता है कि हमारे और हमारे समाज के लिए क्या उचित एवं वांछनीय है और क्या नहीं। इस बारे में हमारी दृष्टि अलग-अलग होती है। इसमें समाज में चलने वाली बहुविध वार्ताएँ शामिल हैं, जिनके माध्यम से सामूहिक निर्णय किए जाते हैं। एक स्तर से इन वार्ताओं में सरकारों के कार्य और इन कार्यों का जनता से जुड़ा होना शामिल होता है।

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