UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 15 वैवाहिक समायोजन

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Board UP Board
Class Class 12
Subject Home Science
Chapter Chapter 15
Chapter Name वैवाहिक समायोजन
Number of Questions Solved 13
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 15 वैवाहिक समायोजन

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
एक संस्था है।
(a) जन्म
(b) विवाह
(c) समाज
(d) जाती
उत्तर
(b) विवाह

प्रश्न 2.
वैवाहिक समायोजन के तत्त्व है।
(a) सहयोग
(b) संस्था
(c) पर्यावरण
(d) ये सभी
उत्तर:
(a) सहयोग

प्रश्न 3.
सहयोग सामाजिक एवं ………… समायोजन है।
(a) गुणों का
(b) आर्थिक
(c) लैंगिक
(d) व्यापारिक
उत्तर:
(c) लैंगिक

प्रश्न 4.
पति-पत्नी के बीच असामंजस्य के कारण ।
(a) संवेगात्मक असन्तुलन
(b) आर्थिक अभाव
(c) संयुक्त परिवार
(d) ये सभी
उत्तर:
(d) ये सभी

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
विवाह क्या है?
उत्तर:
विवाह एक सामाजिक संस्था है, जो किसी-न-किसी रूप में विश्व के सभी समाजों में पाई जाती है। विवाहित स्त्री-पुरुष को एक सिक्के के दो पहलू अथवा गृहस्थ जीवन को गाड़ी के दो पहुए माना जाता है। इस प्रकार वैवाहिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए स्त्री-पुरुष दोनों का समय होना 
अनिवार्य है।

प्रश्न 2.
वैवाहिक समायोजन में कौन-कौन से तत्त्व सम्मिलित होते हैं?
उत्तर:
वैवाहिक समायोजन में सहयोग, दायित्वों की पूर्ति, प्रेमपूर्ण व्यवहार, 
अटूट विश्वास, मनपसन्द गौवन साथी तथा धार्मिक विश्णास मुख्य तत्व हैं।

प्रश्न 3.
सहयोग किस प्रकार का समायोजन है?
उत्तर:
सहयोग सामाजिक एवं लैगिक समायोजन है। पति तथा पत्नी दोनों के कार्य अलग-अलग होते हैं। इनमें पत्नी घर के काम-काज देखती है तथा पति कृत्रि में बाहरी कार्यों को देखता है। अत: दोनों को परस्पर सहयोग की 
आवश्यकता होती है।

प्रश्न 4.
बेमेल विवाह की मुख्य समस्या क्या है।
उत्तर:
बेमेल विवाह की मुख्य समस्या आपसी विचारों का न मिलना होता है। विवाह में सड़के व सड़की की आयु यदि एक-दूसरे से बहुत कम अथवा बहुत 
आपके हो तब भी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

प्रश्न 5.
वैवाहिक अनुकूलन के कोई दो उपाय बताइट।
उत्तर:
वैवाहिक सम्बन्धों में अनुकूलन के दो उपाय निम्नलिखित हैं।

  • संवेगों में सामंजस्य
  • शिक्षा का प्रसार होना

लघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1.
वैवाहिक समायोजन के किन्हीं दो तत्त्वों को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
विशाह संग्ग्या में पति व फनी एक-दूसरे के पूरक होते हैं। अतः समायोजन के बिना किसी भी स्त्री-पुरुष का वैवाहिक जीवन सुचारु रूप से नहीं चल सकता। समायोजन में संवेगात्मक, सामाजिक एवं शैगिक तथा आर्थिक सहित कई आवश्यक तत्त्व समिति होते हैं, जिन्हें प्यान में रखका वैवाहिक जीवन को सफल बनाया जा सकता है।

  1. सहयोग सहयोग सामाजिक एवं गक समायोजन है। पति तथा पो दोनों के कार्य अलग अलग होते हैं। इनमें पत्नी पर के काम-काज देखती है तथा पति खेतों एवं बाहरी कार्यों को देखता हैं। अतः दोनों को परस्पर सहयोग को आवश्यकता होती है।
  2. दायित्वों की पूर्ति यदि विवाहोपरान्त पति व पत्नी दोनों ही जोबिकौशन के लिए नौकरी करते हैं तब दोनों को अपने परिवार के प्रति दायित्वों का निर्वहन अपना कार्य सम्झकर करना चाहिए। इससे वैवाहिक सामंजस्य बना रहता है।

प्रश्न 2.
वैवाहिक जीवन में सामंजस्य क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
चक विवाह एक सामाजिक संस्था है, जहाँ त सभी एक-दूसरे के पूरक कहलाते हैं। इस सभा में समायोजन के बिना पति-पत्नी के गृहस्थी की गाढ़ी ठीक इंग से नहीं चल सकती हैं। वैवाकि जैन को सफल बनाने के लिए कुछ वैवाहिक सम्योजन के तत्वों की आवश्यकता होती है, जो निम्नलिखित हैं।

  1. प्रेमपूर्ण व्यवहार पति-पत्नी के बीच एक दूसरे के सेट में वफादारी का व्यवहार होना चाहिए। सम्बन्ध मधुर रहने से दाम्पत्य जीवन सुखमय होता है।
  2. अटूट विश्वास वाह सम्बन्ध विश्वास पर टिका होता है। यदि पति-पत्नी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते हैं तो उनका परिवार टूट जाता है।
  3. मनपसन्द जीवन साथी होना भारतीय समाज में अधिकांशतः वैवाहिक सम्बन्। माता-पिता द्वारा ही जोड़े जाते हैं। अत: माता-पिता को चाहिए कि वह एक-दूसरे | के अनुरूप ही जीवन साथी का चुनाव करे।
  4. धार्मिक विश्वास भारतीय सामाजिक परिप्रेक्ष्य में गिह एक पवित्र एवं धार्मिक क्या है, जहाँ पति-पत्नी का सम्बन्ध ईश्वर की इड़ा से जोड़ा जाता है। यहाँ विवाह के समय लिए गए मन्त्रों से वनभर सम्म निभाए जाते हैं।

प्रश्न 3.
लड़के और लड़कियों में पाए जाने वाले सामाजिक भेद लिखिए (2018)
उत्तर:
लड़के से लड़कियों में पाए जाने वाले सभी सामाजिक भेदों का आधार लैंगिक असमानता ही होता है। गगक असमानता से तात्पर्य ही भार पर लड़कियों के साथ भेदभाव से है। परम्परागत रुप से समाज में लड़कियों को कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता है। वे घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपन और भेदभाव से पॉड़ित होती हैं। इस प्रकार लड़के एवं लड़कियों में पाए जाने वाले सामाजिक भेद निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है

  1. भारत में पुरुष प्रधान समाज की व्यवस्था रही है, जिसमें स्त्रियों पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है।
  2. भारत में ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों को घर के अन्दर रहकर घरेलू कार्य करने होते हैं।
  3. स्त्रियों में अशिक्षा होने के कारण वे अन्यविश्वास तथा मनगढन्त धार्मिक गाथाओं की झूठी बातों में दबी रहती हैं।
  4. भारतीय समाज में स्त्रियों की सम्पत्ति में समान अधिकार न मिलने के कारण भी उनका वर्चस्व अपेक्षाकृत कम रहता है।
  5. स्त्रियों को शारीरिक एवं मानसिक दृष्टिकोण से कमजोर माना जाता है, जिसके रूण उन्हें रोजगार सम्बन्धी कार्यों में भी लैंगिक विभेदता का सामना करना पड़ता हैं।
  6. स्त्रियों के आर्थिक रूप से सम्पन्न न होने के कारण वे सदैव पिता, पति भाई अथवा बच्चों पर ही आश्रित रहती है।
  7. विभिन्न धार्मिक कार्यों में भी पुरुषों को अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया जाता है।
  8. पितृसत्ताक समाज होने के कारण लड़की की अपेक्षा तहके के जन्म पर अधिक उल्लास एवं खुशी मनाई जाती है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (5 अंक)

प्रश्न 1.
वैवाहिक असमायोजन के क्या कारण हैं? इस समस्या का निराकरण कैसे हो सकता है? समझाइए। 
(2018)
या
अधरा वैवाहिक समायोजन क्या है? विवाहित जीवन में असामंजस्य के प्रमुख 
कारणों का उल्लेख करते हुए वैवाहिक अनुकूलन के उपाय बताइट।
या
अधरा वैवाहिक समायोजन क्या है तथा इसमें असामंजस्य के कौन-कौन से 
कारण होते हैं।
उत्तर:
विवाह एक सामाजिक संस्था है, जो किसी-न-किसी रूप में विश्व के सभी समाजों में पाई जाती हैं। विहित रु-पुरुष को एक सिक्वे के दो पहलू अश्या गृह जीवन की गाड़ी के दो पहिए माना जाता है। इस प्रकार वैवाहिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए स्त्री-पुरुष दोनों का माझ होना अनिवार्य है। 

वैवाहिक समायोजन का अर्थ

विवाह के पश्चात् पति-पत्नी को एक दूसरे के स्वभाव, चि एवं भावनाओं के अनुसार कार्य करना सुखी वैवाहिक जीवन कहलाता है। यदि वैवाहिक जीवन में अनुतन न हो तो आपसी समय बिताया जा सकता, किन्तु जब पति व पत्नी त्याग व सहयोग से ओवन व्यतीत करते हैं, वह वैवाहिक समायोजन कलाता है।

विवाहिक जीवन में असामंजस्य तथा उसके कारण

वैाहिक जीवन में प्रेम, सहानुभूति, विश्वास तथा सहयोग की आवश्यकता होती है, जिसे पति-पत्नी अपना कर्तव्य समझकर उसका पालन करते हैं, किन्तु कभी-कभी इस जीवन में कुछ असमानता आ आती है और परिवार बिखर जाता है। वैवाहिक जीवन में असामंजस्य के कारण म्नलिखित हैं।
1. संवेगात्मक असन्तुलन मार में जन्म से ही संवेग होते है, जिसमें 
मुख-दुख परस्पर आते-जाते रहते हैं। विवाह के चात् जब पति य पत्नी साम ते हैं तब दोनों ही मुख-दुख के भागी होते हैं और एक-दूसरे को मान देने के लिए स्वयं उनके अनुरूप ढाल लेते हैं, किनु कहीं-कहीं पर यह भी सम्भावना होती है कि पति-पानी के विचार आपस में मिलते हों, जिसके कारण उनमें आपसी संघर्ष होते हैं।

2. आर्थिक अभाग मानव जीवन की आवश्यकताएँ कभी समाप्त नहीं होती। एक के बाद एक नई आवश्यकताएँ उत्पन्न होती रहती हैं, जिन्हें पूर्ण करना क-कभी असम्भव होता है। मध्यम आय वर्ग वाले परिवार में कि। स्त्री की आवश्यकता पूर्ण नहीं होती, तो वह अपने पति से संपर्ष करने लगती है। इससे घर में लेश या जाता हैं। धीरे-धीरे यह क्लेश इतना बढ़ जाता है कि दोनो सम्बन्ध बिच्छेद के लिए तैयार हो जाते हैं।

3. यौन इच्छाओं की पूर्ति न होना आधुनिक युग में यौन सम्बन्धो को लेकर युवक व युवतियों को कई प्रान्तिय राहती हैं। यही कारण है कि विवाह के पश्चात् वे एक दूसरे की कारों को पूर्ण नहीं कर पाते तथा इनमें आपस में तनाव उत्पन्न होता है, जो वैहिक जीवन में परेशानियों खड़ी करते हैं।

4. संयुक्त परिवार ज्यादातर संयुक्त परिवारों के सदस्यों के बीच आपसी तालमेल की कमी होती है, इनके विचार भी आपस में नहीं मिलते। चाही समस्या पति-पत्नी के बीच भी उत्पन्न होती है, जो बहू और घर के अन्य सदस्यों को आपस में नहीं बनती। पति अथ । की अपेक्षा अपने परिवार को भा।। का पालन करता है तब पति और पत्नी के बोच मनमुटाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं।

5. बेमेल विवाह विवाह में लड़के व लड़की की आयु यदि एक-दूसरे से चात कम् असा मत ज्यादा हो य भो मरमा आग होती हैं। इनकी समस्या के मूल में आपसी विचारों का न मिलना ही मुख्य होता है।

वैवाहिक अनुकूलन के उपाय
वैवाहिक अनुलन के उपाय निम्नलिखित हैं।

  1. पति-पत्नी का स्कोर रूप से व्यवहार पति-पान को आपसी मतभेदों का त्यागकर आपसी समस्या रखना चाहिए, ताकि एक-दूसरे के प्रति पूर्ण व्यवहार बना रहे।
  2. उचित विवाह विवाह लड़के-लड़किओं की वियों, आदतों व स्वभाव के अनुकूल विवाह होना चाहिए, उम्र में ज्यादा अंतर नहीं होना चाहिए ।
  3. शिक्षा यदि लड़के व लड़की दोनों शिक्षित होते हैं, तो वैवाक जीवन सुचारु रुप से चलता है तथा परिवार ज्यादा समायोजित होता है।
  4. विश्वास में सहयोग विश्वास ही परिवार की बुनियाद है। पति-पत्नी को एक-दूसरे के प्रति विश्वास व सहयोग को भग्न रखनी चाहिए।
  5. मनोरंजन करना वैवाहिक जीवन में पति पत्नी को घोड़ा समय निकालकर मनोरंजन करना चाहिए, जिससे दोनों को कुछ बदलाव तया प्रसन्नता की अनुभूति होती हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 20 बाल कल्याण की आधुनिक गतिविधियाँ, संगठन

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Board UP Board
Class Class 12
Subject Home Science
Chapter Chapter 20
Chapter Name बाल कल्याण की आधुनिक गतिविधियाँ, संगठन
Number of Questions Solved 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 20 बाल कल्याण की आधुनिक गतिविधियाँ, संगठन

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
शिशु सुरक्षा के संगठन हैं।
(a) भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी
(b) यूनिसेफ
(c) कस्तूरबा गाँधी ट्रस्ट
(d) ये सभी
उत्तर:
(d) ये सभी

प्रश्न 2.
यूनीसेफ की स्थापना कब हुई थी? (2005, 16)
(a) वर्ष 1945
(b) वर्ष 1949
(c) वर्ष 1946
(d) वर्ष 1944
उत्तर:
(c) वर्ष 1946

प्रश्न 3.
यूनीसेफ का मुख्यालय कहाँ है?
(a) पेरिस
(b) न्यूयॉर्क
(C) टोकियो
(d) हेग
उत्तर:
(b) न्यूयॉर्क

प्रश्न 4.
यूनीसेफ का क्या कार्य है? (2014)
(a) वन जीवों की सुरक्षा करना.
(b) माता एवं शिशुओं के स्वास्थ्य की रक्षा करना
(c) सैनिकों की सुरक्षा करना
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(b) माता एवं शिशुओं के स्वास्थ्य की रक्षा करना

प्रश्न 5.
भारत में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का मुख्य कार्यालय है।
(a) दिल्ली
(b) कोलकाता
(C) मुम्बई
(d) हैदराबाद
उत्तर:
(a) दिल्ली

प्रश्न 6.
राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान, भारत सरकार के किस मन्त्रालय के अन्तर्गत कार्यरत् है?
(a) महिला एवं बाल विकास मन्त्रालय
(b) युवा मामले का मन्त्रालय
(c) स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मन्त्रालय
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(a) महिला एवं बाल विकास मन्त्रालय

प्रश्न 7.
एकीकृत बाल विकास योजना का लक्ष्य है।
(a) छ: वर्ष तक के बच्चों को पोषण
(b) गर्भवती महिलाओं को उत्तम स्वास्थ्य
(c) स्तनपान कराने वाली माताओं का पोषण
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(d) उपरोक्त सभी

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक, 25 शब्द)

प्रश्न 1.
बाल कल्याण से क्या तात्पर्य है? (2005)
अथवा
बाल कल्याण संगठन के कार्य क्या है? (2018)
उत्तर:.
शिशु के जन्म एवं उसके उचित पालन-पोषण के लिए नियमों एवं उपायों का व्यवस्थित अध्ययन एवं उस अध्ययन का क्रियान्वयन करना बाल कल्याण कहलाता है।

प्रश्न 2.
रेडक्रॉस सोसायटी द्वारा मातृ एवं बाल कल्याण के लिए क्या कार्य किया जाता है?
उत्तर:
यह सोसायटी अनाथालय एवं अस्पतालों में असहाय लोगों को नि:शुल्क दूध एवं दवाइयाँ आदि सामग्री वितरित करती है।

प्रश्न 3.
कस्तूरबा गाँधी ट्रस्ट के द्वारा मातृ एवं बाल कल्याण के लिए कौन-सा कार्य किया जाता है?
उत्तर:
यह संस्था गर्भवती महिलाओं को प्रसव से पूर्व, प्रसव के दौरान एवं प्रसव के बाद प्रत्येक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करती है; जैसे-नि:शुल्क दूध एवं दवा का वितरण, प्रसव सम्बन्धी जागरूकता फैलाना इत्यादि।

प्रश्न 4.
भारत में केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड’ किस मन्त्रालय के अधीन कार्य करता है?
उत्तर:
भारत में केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड केन्द्रीय मानव संसाधन मन्त्रालय के अधीन कार्य करता है।

प्रश्न 5.
शिशु कल्याण योजनाएँ कौन-कौन सी हैं? (2006)
उत्तर:
एकीकृत बाल विकास सेवा योजना, इन्दिरा गाँधी मातृत्व सहयोग योजना, जननी सुरक्षा योजना आदि केन्द्र प्रायोजित मातृ एवं बाल कल्याण योजनाएँ हैं।इसके अतिरिक्त मातृ-शिशु कल्याण केन्द्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र आदि की स्थापना भी बाल कल्याण कार्यक्रम के अंग हैं।

प्रश्न 6.
प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र कहाँ पर बनाए गए हैं? (2009)
उत्तर:
हमारे देश में ग्रामीण क्षेत्रों के सभी विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित किए गए हैं।

प्रश्न 7.
बाल कल्याण कार्यक्रमों की सफलता हेतु दो सुझाव बताइए।
उत्तर:
बाल कल्याण कार्यक्रमों की सफलता हेतु दो सुझाव निम्नलिखित हैं।

  1. कार्यक्रमों के समय-समय पर निरीक्षण हेतु एक उत्तरदायी एवं निरपेक्ष संस्था की व्यवस्था होनी चाहिए।
  2. बाल कल्याण कार्यक्रमों एवं नीतियों के क्रियान्वयन में स्थानीय संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक, 50 शब्द)

प्रश्न 1.
बाल कल्याण कार्यक्रमों के असन्तोषजनक परिणामों के कारणों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत जैसे देश में विभिन्न संस्थाओं एवं सरकार द्वारा बाल कल्याण के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए गए हैं, लेकिन आज भी इन योजनाओं का लाभ पूरी तरह से वांछित लोगों तक नहीं पहुँच पाता है, इसके निम्नलिखित कारण हैं।

  1. मातृ एवं शिशु कल्याण के कार्यक्रम बन तो जाते हैं, लेकिन वे फाइलों में ही बन्द पड़े रहते हैं, उनका क्रियान्वयन उचित तरीके से नहीं हो पाता है।
  2. बाल कल्याण कार्यक्रम के लिए देश के लगभग प्रत्येक कोने में केन्द्र स्थापित किए गए, लेकिन इन केन्द्रों में आवश्यक सामग्री प्राप्त नहीं हो पाती है।
  3. दूध पिलाने वाली माताओं के लिए नि:शुल्क दिया जाने वाला दूध, औषधि एवं अन्य सामग्री चोरी कर ली जाती है।
  4. अनेक केन्द्रों पर कुशल कर्मी नहीं हैं और जहाँ कुशल कर्मी हैं, तो वे ठीक से अपना काम नहीं करते हैं।
  5. अशिक्षा के कारण ग्रामीण महिलाएँ इन योजनाओं का लाभ नहीं ले पाती हैं।
  6. इन सबके अतिरिक्त अस्पतालों में अशिक्षित एवं गरीब ग्रामीणों से अवैध | वसूली की जाती है। उनसे सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार नहीं किया जाता है, जिससे परेशान होकर वे अस्पताल जाने से डरते हैं।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (5 अंक, 100 शब्द)

प्रश्न 1.
बाल कल्याण संगठन और संस्थाओं के प्रकार। (2018)
अथवा
बाल कल्याण से आपका क्या अभिप्राय है? विभिन्न बाल कल्याणकारी योजनाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। ‘बाल कल्याण आन्दोलन’ का उल्लेख करें (2006, 17)
अथवा
विभिन्न आधुनिक मातृ एवं शिशु कल्याण संगठनों एवं सेवाओं के बारे में विस्तार से लिखिए। (2006)
अथवा
बाल कल्याण संगठन क्या हैं? बाल कल्याण संगठन के कार्यों का वर्णन कीजिए। (2011)
अथवा
बाल कल्याण से आपका क्या अभिप्राय है? बाल कल्याण के लिए आजकल शासकीय और अशासकीय कौन-कौन सी योजनाएँ हैं? वर्णन कीजिए। | (2009, 10, 16)
उत्तर:
ऐसे कार्यक्रम, जिनसे बच्चों के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित किया जा सके, बाल कल्याण कार्यक्रम कहलाता है। बाल कल्याण कार्यक्रम के | अन्तर्गत माताओं की देखभाल भी शामिल होती है, क्योंकि जब माँ स्वस्थ होगी तभी बच्चा भी स्वस्थ होगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न नगरों एवं ग्रामों में बाल कल्याण की योजनाओं को जरूरतमन्दों तक पहुँचाने के लिए विभिन्न संस्थाओं एवं संगठनों की स्थापना की गई है। ये संगठन सरकारी एवं गैर-सरकारी दोनों प्रकार के होते हैं। सरकार द्वारा व्यापक रूप से बॉल कल्याण के कार्यक्रम चलाए जाते हैं। विभिन्न संगठनों एवं सरकार द्वारा संचालित बाल कल्याण कार्यक्रम का योगदान इस प्रकार है।

बाल कल्याण संगठन
इन संगठनों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है

  • यूनीसेफ
  • केयर
  • भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी
  • कस्तूरबा गाँधी ट्रस्ट
  • विकलांगों हेतु शिक्षा-प्रबन्धन संस्थाएँ

यूनीसेफ
द्वितीय विश्वयुद्ध से पीड़ित माताओं एवं । बच्चों के कल्याण के लिए इस संगठन की बाल कल्याण संगठन स्थापना वर्ष 1946 में की गई। इसके द्वारा प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को भी सहायता दी जाती है। संक्रामक रोगों की रोकथाम एवं बालकों के पोषण के सम्बन्ध में यह संगठन विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health संस्थाएँ। Organisation) और खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organisation) की भी सहायता करता है।

केयर
इसके द्वारा बाल कल्याण के कार्य किए जाते हैं। यह संस्था मुख्यतः पोषण सम्बन्धी समस्याओं के समाधान का कार्य करती है।

भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी
इस संगठन का मुख्यालय दिल्ली में स्थित है। भारत में मातृ एवं बाल कल्याण के क्षेत्र में सर्वप्रथम इसी संगठन ने अपना योगदान दिया। यह संस्था अनाथालय एवं अस्पतालों में असहाय लोगों को निःशुल्क सामग्री वितरित करती है।

कस्तूरबा गाँधी ट्रस्ट
कस्तूरबा गाँधी ट्रस्ट विभिन्न नगरों एवं गाँवों में महिलाओं एवं शिशुओं की सुरक्षा के लिए विभिन्न प्रकार से सहायता करती है। यह संस्था प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान एवं प्रसव के बाद उत्पन्न समस्याओं के समाधान के बारे में ग्रामीण महिलाओं को जागरूक करने का भी काम करती है।

विकलांगों हेतु शिक्षा-प्रबन्धन संस्थाएँ
प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो अपने धन का उपयोग करके विकलांगों के लिए शिक्षा व्यवस्था का प्रबन्धन करते हैं। ऐसे परोपकारी व्यक्तियों एवं समाज सेवकों के कारण ही विकलांग बच्चे अपने जीवन में कुछ आनन्द प्राप्त कर पाते। हैं। भारत के अनेक नगरों में मूक-बधिर स्कूल स्थापित किए जा चुके हैं।

सरकार द्वारा संचालित बाल कल्याण कार्यक्रम
इन संगठनों के अतिरिक्त सरकार की ओर से भी विभिन्न स्तर पर कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

नगरों में बाल कल्याण सम्बन्धी योजनाएँ
विभिन्न नगरों में अनेक मातृ-शिशु कल्याण केन्द्र खोले गए हैं, जहाँ माँ और बच्चा दोनों के स्वास्थ्य की देखभाल की जाती है। इन केन्द्रों में विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं ।

प्रसव पूर्व की सुरक्षा इन केन्द्रों पर प्रसव से पूर्व गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य की जाँच के साथ नि:शुल्क परामर्श दिए जाते हैं, ताकि जच्चा और बच्चा दोनों स्वस्थ रहें।

प्रसव के दौरान की सुरक्षा प्रसव के लिए इन केन्द्रों पर सुव्यवस्थित प्रसवगृह की व्यवस्था की गई है, जहाँ प्रसव के दौरान महिलाओं को कुशल चिकित्सक एवं प्रशिक्षित नर्मों की सेवाएँ मिलती रहती हैं। ये सारी सुविधाएँ महिलाओं को नि:शुल्क दी जाती हैं।

प्रसव के बाद की सुरक्षा प्रसव के बाद माँ एवं बच्चा दोनों की नियमित जाँच की जाती है तथा रोगग्रस्त होने पर उनका नि:शुल्क उपचार किया जाता है।

गाँवों में बाल कल्याण सम्बन्धी योजनाएँ
सरकार के द्वारा गाँवों में जगह-जगह सामुदायिक विकास केन्द्रों की स्थापना की गई, जो लोगों को स्वास्थ्य से सम्बन्धित शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त विकासखण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोले गए

प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र आज लगभग सभी विकासखण्डों में प्राथमिक केन्द्र खोले जा चुके हैं। यहाँ ग्रामीणों को नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। इन केन्द्रों पर गर्भवती महिलाओं को प्रसव पूर्व, प्रसव के दौरान एवं प्रसव के बाद देखभाल सम्बन्धी परामर्श दिया जाता है।

जन-स्वास्थ्य परिचारिका (स्वास्थ्यचर) जनस्वास्थ्य परिचारिकाओं द्वारा घर-घर जाकर स्वास्थ्य सम्बन्धी शिक्षा दी जाती है। ये ग्रामीण महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान एवं प्रसव के बाद दिए जाने वाले आहार के बारे में जानकारी देती हैं। प्रत्येक स्वास्थ्य परिचारिका को लगभग 200 गर्भवती महिलाओं, 200 शिशुओं और 700 बालकों, जिनकी आयु 3 से 4 वर्ष हो, की देखभाल करनी होती है।

दाइयों को प्रशिक्षित करना प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर प्रसव कराने के लिए प्रशिक्षित दाइयों की आवश्यकता होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में दाइयों के लोग घर पर भी प्रसव करा लेते हैं। अत: इनका प्रशिक्षित होना अतिआवश्यक है। इस प्रकार ग्रामीण महिलाएँ इन प्रशिक्षित दाइयों के सहयोग से अपने तथा अपने शिशु की रक्षा कर सकती हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 14 विवाह के कानूनी तथा जीवशास्त्रीय गुण

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Class Class 12
Subject Home Science
Chapter Chapter 14
Chapter Name विवाह के कानूनी तथा जीवशास्त्रीय गुण
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 14 विवाह के कानूनी तथा जीवशास्त्रीय गुण

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
विवाह का शाब्दिक अर्थ है।
(a) वधू को घर के घर ले जाना
(b) वर को बापू के घर से जाना
(c) ‘a’ और दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) वधू को वर के घर से जाना

प्रश्न 2.
विवाह की विशेषताओं में शामिल हैं।
(a) आर्थिक सहयोग
(b) वैघ सन्तानोत्पत्ति का माध्यम
(c) धार्गिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(d) उपरोक्त सभी

प्रश्न 3.
अन्तर्विवाह ग आशय है।
(a) अपने समूह में विवाह करना
(b) समूह से बाहर विवाह 
‘ना।
(c) गाँव की सीमा से बार विवाह करना
(d) जमरो में से कोई नहीं ।
उत्तर:
(a) अपने समूह में विवाह करना

प्रश्न 4.
गोत्र शब्द के अर्थ हैं।
(a) गौशाता
(b) मा क गर
(c) किना या पर्गत 
में सभी
(d) ये सभी
उत्तर:
(d) ये सभी

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस अधिनियम के द्वारा सपिण्ड बहिर्विवाह को। 
मान्यता प्रदान की गई है।
(a) धनियम, 1955
(b) अधिनियम, 1955
(c) अधिनियम, 1954
(d) अधिनियम, 1961
उत्तर:
(b) अधिनियम, 1955

प्रश्न 6.
अनुलोम विवाह में लइका विन्स कुत से सम्वन्ध रखता है?
(a) उच्च
(b) निम्न्
(c) उच्च या निम्न में से कोई भी
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) उच्च

प्रश्न 7.
बाल विवाह निरोधक अधिनियम का पारित किया गया?
(a) वर्ष 1896
(b) वर्ष 1829
(c0 वर्ष 1929
(d) वर्ष 1937
उत्तर:
(c) वर्ष 1929

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
उसी मेयर ने विवाह को किस प्रकार परिभाषित किया है?
उत्तर:
लुसी मेयर ने विवाह को परिभाषित करते हुए लिखा है कि विवाह स्त्री-पुरुष 
का ऐसा योग है, जिससे जमी सन्तान वैध मानी जाती है।

प्रश्न 2.
बहिर्विवाह से क्या तात्पर्य है? ।
उत्तर:
बहिर्विवाह से तात्पर्य है एक व्यक्ति जिस समूह का सदस्य है इससे बाहर विवाह को अद। म विवाह में परिवार, गोत्र, प्रर, पिण्ड शम, डोटम आदि में चार विवाह करना पड़ता है।

प्रश्न 3.
ग्राम बहिर्विवाह का प्रचलन किन क्षेत्रों में पाया जाता है? गाँवों में ये क्या कहलाते हैं?
उत्तर:
शाम बहिर्विवाह का प्रचलने उत्तरी भारत और पुतः पंजाब एवं दिल्ली के आस-पास है। गाँवों में इस प्रकार के विवाह को ‘खेड़ा बहिर्विवाह 
के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 4.
1937 का अधिनियम किस उद्देश्य से बना था?
उत्तर:
हिन्दू जी के विधवा होने पर मृत्त पति की सम्पत्ति में अधिकार प्रदान 
करने की दृष्टि से वर्ष 1997 में यह अधिनियम पारित किया गया है।

प्रश्न 5.
किस अधिनियम में हिन्दु विवाह-विच्छेद की व्यवस्था है?
उत्तर:
सामाजिक एवं कानूनी रूप से पति-पत्नी के विवाह सम्बन्धों को समाप्ति ही विवाह-विच्छेद कहलाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में 
विवाह-विच्छेद की व्यस्था की गई है।

प्रश्न 6.
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1966 किसलिए पारित किया गया 
था?
उत्तर:
स्त्रियों को पुरुष के समान अधिकार प्रदान करने की दृष्टि से हिन्दू 
उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 पारित किया गया।

प्रश्न 7.
दहेज़ निरोधक अधिनियम कब पारित हुआ?
उत्तर:
दहेज निरोधक अधिनियम 1961 में पारित किया गया। इस नियम के अनुसार दहेज लेना और देना दण्डनीय अपराध है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (3 अंक)

प्रश्न 1.
अनुलोम विवाह किस प्रकार सम्पन्न किया जाता है?
उत्तर:
जब एक उच्च वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं गोत्र के लड़के का विवाह ऐसी हड़की से किया जाए, जिसका वर्ण, जाति, उपजात, कुल लड़के से नीचा हो तो ऐसे विवाह को अनुलोम विवाह कहते हैं। अन्य शब्दों में, इस प्रकार के विवाह में लड़का उच्च सामाजिक समूह का होता है और लड़की निम्न सामाजिक समूह को। उदाहरण के लिए, एक प्राण लवे का विवाह एक अत्रिय या वैश्य लड़की से होता है, तो इसे हम अलोम विवाह कहेंगे। वैदिककाल से लेकर स्मृतिकाल तक अनुलोम विवाहों का प्रचलन रहा है। मनुस्मृति में लिखा है कि एक ब्राह्मन को अपने से मि तन व अत्रिय, वैश्य एवं शुद की कन्या से, क्षत्रिय को अपने से निम दी य वैश्य एवं शूद से और वैश्य अपने वर्ग के अतिरिक्त शुद्र कन्या से भी विवाह कर सकता है, किन्तु मनु नपण संस्कार करने की स्वीकृति के गवर्ण विवाह के लिए ही देते हैं। याङ्गषम्य ने ब्राह्मण को चार, क्षत्रिय को तीन, वैश्य को दो एवं 
शूद्र को एक विवाह करने की बात कही है।

प्रश्न 2.
प्रतिलोम विवाह क्या है?
उत्तर:
प्रतिलोम विवाह अनुलोम विवाह का विपरीत रुप प्रतिलोम विवाह है। इस प्रकार के विवाह में लड़को उच्च वर्ण, आति, उपजाति, कुल या वेश की होती है और लड़का निम्न वर्ण, जाति, उपजाति, कुल या वंश का होता है। इसे परिभाषित करते हुए कपाडिया लिखते हैं, “एक मि पण के व्यक्ति का जय वर्ग को स्त्री के साक्ष वितार प्रतिलोम कालात का।” उदाहरण के लिए, यदि एक ब्राह्मण सड़की का विवाह किसी क्षत्रिय, वैश्य अपणा शूद्र सड़के से होता है, तो ऐसे विवाह को प्रतिलोम विवाह कहा जाता है। इस प्रकार के विवाह में स्त्री की स्थिति निम्न हो जाती है। स्मृतिकारों ने ऐसे विवाह को क्यु आलोचना की है। ऐसे विवाह को पन मान को ‘चाहत’ अथवा ‘निषाद कहा जाता हो। दू विवाह वैधता अधिनियम, 11 एवं हिन्दू विवाह अधिनियम, 1965 में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह दोनों को ही वैध माना गया है।

प्रश्न 3.
विवाह की शारीरिक योग्यताओं को बताइट।
उत्तर:
विवाह की शारीरिक योग्यताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. विवाह की आयु विवाह का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि विशाह के समय वर एवं वम् की आयु परिपक्व होनी चाहिए। हिन्दू धर्म-शास्त्रों में विवाह की आयु को लेकर मतभेद पाया जाता है। वैदिक युग में 15 या 18 वर्ष की कन्या और 30 वर्ष के लड़के का विवाह होता था। गृहसूत्र में ‘नॉमिका’ अथवा ‘ननिका’ के क्विाह का सुझाव दिया गया है। 4 से 12 वीं की कन्या को ‘नन्का ‘ कहा गया है। वर्तमान में एक निश्चित आयु प्राप्त करने के पश्चात् ही वैधानिक रूप से उपयुक्त माना जाता है।
  2. स्वास्थ्य विवाह के पश्चात् दम्पत्ति को सन्तान उत्पत्ति के दायित्व का निर्वहन सना होता है, इसलिए दोनों का स्वस्थ होना अनिवार्य है। स्वास्थ्य खराब होने की स्थिति में परेशानी हो सकती हैं।
  3. संक्रामक रोग विवाह संक्रामक रोगों की जांच करके ही करना चाहिए, क्योकि पति-पत्र दोनों में तो किसी एक को भी यदि कोई संक्रामक रोग होता है तो विष पश्चात् एक-दूसरे को भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त रात्र को भी वह रोग हो जाता है।
  4. प्रजनन सम्वन्धी रोग पति-पत्नी में से कोई भी यौन रोग आदि का शिकार नहीं होना चाहिए। इससे पारिवारिक स्थिति दु:खद होने के साथ ही सन्तान प्राप्ति का लक्ष्य पूरा होने में बाधाएँ आ सकता है। अत: दोनों संतान उत्पत्ति के योग्य हों और प्रजनन सम्बन्धी उत्तम स्वास्थ्य रखते हों।
  5. मानसिक रोग मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ होना भी विवाह का एक आवश्यक पास है। इसके अन्त में धात्य और कष्टमय हो सकता है। दोनों में से किसी को भी कोई अंग विकार नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 4.
विवाह-विचकुंद क्या है? विवाह किन परिस्थितियों में रद्द किया 
ज्ञा सकता हैं?
उत्तर:
सामाजिक एवं कानूनी रूप से पति-पत्नी के विवाह सम्बन्धों की समाप्ति हो विवाह-विच्छेद कहलाती है। विवाह विच्छेद पति-पत्नी के वैवाहिक एवं पारिवारिक जीवन में असामंजस्य एवं आसप्ता का सूचक है। इसका अर्थ यह है कि जिन उद्देश्यों को लेकर विवाह किया गया वे पूर्ण नहीं हुए हैं। यह एक दुःखद घटना है, विश्वास को समाप्त है, प्रतिज्ञा एवं मोह भंग की रियत है। यद्यपि भारत के विभिन्न प्रान्तों; जैसे- महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात एवं केरल में तक के सम्बन्धित अधिनियम बनते रहे, किन्तु सम्पूर्ण भारत के सन्दर्भ में 1951 में विशेष विवाह अधिनियम तथा 1955 में हिन्दू विवाह 
अधिनियम’ तलाक की व्यवस्था है। विवाह रद्द होना विमांकित इशाओं में विवाह होने पर भी इसे रद्द किया जा सकता है।

  1. विवाह के समय दोनों पक्षों में से किसी एक का भी जीवन-साधी जीवित हो और उससे तलाक नहीं हुआ हो।
  2. विवाह के समय एक पक्ष नपुंसक हो।
  3. विशाह के समय कोई भी एक प जड़-बुद्धि य पागल हो।
  4. विवाह के एक वर्ष के अन्दर यह प्रमाणित हो जाए कि प्राय अपवा उसके संरक्षक की स्यीकृति बलपूर्वक या कपट से ली गई यौ।
  5. विवाह के एक वर्ष के भीतर यह प्रामाणित हो जाए कि विवाह के समय पानी किसी अन्य पुरुष गर्भवती दी और प्रार्थी इस बात से अनभिज्ञ था।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (5 अंक)

प्रश्न 1.
विवाह का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसके उद्देश्य एवं विशेषताओं पर प्रकाशा हालिए।
उत्तर:
विवाह का अर्थ एवं परिभाषाएँ विवाह का शाब्दिक अर्थ है ‘उह’ अर्थात् वधू को वर के घर ले जाना। विवाह दो विषमलिगों का पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की सामाजिक, धार्मिक एवं कानूनी स्वीकृति हैं। लूसी मेयर ने विवाह को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “शियडू स्त्री-पुरुष का ऐसा योग है, जिससे स्त्री से जन्मो सन्तान वैध मानी जाती है।” इस परिभाषा में विवाह को स्त्री व पुरुष के ऐसे सम्बन्धो के रूप में स्वीकार किया गया है, जो सन्तानों को जन्म देते हैं, उन्हें वैध घोधित करते है तथा इसके फलस्वरूप माता-पिता एवं बच्चों को समाज में कुछ अधिकार एवं प्रस्थितियाँ प्राप्त होती हैं।

बोगार्स के अनुसार, “विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है।” मजूमदार एवं मदान ने लिखा है कि, “विवाह में कानूनी या धार्मिक आयोजन के रूप में उन सामाजिक स्वीकृतियों का समावेश होता है, जो विषमतगयों की यौन-क्रिया और उससे सम्बन्धित सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों में सम्मिलित होने का अधिकार प्रदान करते हैं।”

बिल के अनुसार, “विवाह सामाजिक आदर्श-मनदण्डों की वह समग्रता है, जो विवाहित व्यतियों के आपसी सम्बन्धों को उनके रक्त सम्बन्धियों, सन्तानो तथा सत्र के साथ सम्बन्धों को परिभावित और नियन्त्रित करती है।” अतः विवाह के परिणामस्वरूप माता-पिता एवं बच्चों के बीच कई अधिकारों एवं दायित्वों का जन्म होता है।

विवाह के उददेश्य
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा सामाजिक संस्थाएँ, व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि पक्षों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निवाहन करती हैं। लिहू का उद्देश्य केवल यौन सन्तुष्टि ही नहीं होगा, वरना कभी-कभी तो यह केवल सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हो किया जाता है।

विवाह के अलग-अलग समजों में अलग-अलग उद्देश्य है; जैसे ईसाई धर्म में प्रमुख उद्देश्य यौन सन्तुष्टि है, तो हिन्दू समाज में धर्म की रक्षा करना या धार्मिक संस्कार करना, मुस्लिम समाजों में विवाह का उद्देश्य वैध सन्तानोत्पत्ति को जन्म देना, वहीं जनजातीय उद्देश्य साथ-साथ रहने का सामाजिक समझौता है, परन्तु समाजशास्त्रीय उद्देश्य स्त्री और पुरुष को एक प्रस्थिति देकर उसके अनुसार, भूमिकाओं का निर्वहन करना है। मजूमदार एवं मदान ने उद्देश्यों की चर्चा करते हुए लिखा है कि, “विवाह से वैयक्तिक स्तर पर या शारीरिक स्तर पर यौन सन्तुष्टि और मनोवैज्ञानिक स्तर पर सन्तान प्राप्त करना और सामाजिक स्तर पर पद की प्राप्ति होती है।

विवाह की प्रारम्भिक विशेषताएँ
विवाह की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिति हैं।

  • विवाह दो विषमलिनियों का सम्बन्ध है।
  • विवाह एक सार्वभौमिक सामाजिक संस्था है।
  • इसके माध्यम से किया सम्बन्धों का नियमन करता है।
  • बच्चों का पालन पोषण एवं समाजीकरण उपयुक्त तरीके से होता है।
  • विवाड़ में परिवार एवं समाज में अधिक सहयोग मिलता है।
  • विवाह मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है। इसके साप ही सामाजिक सुरक्षा भौ सम्भव हो पाती है।
  • विवाह द्वारा संस्कृति का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरण सूत्र हो पाता है।
  • वैद्य सन्तानोत्पत्ति प्राप्त करने का माध्यम है।
  • माता-पिता एवं बच्चों में नवीन अधिकारों, दायित्वों एवं भूमिकाओं को जन्म देना भी विवाह की विशेषता है।
  • यह पार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्देश्यों की पूर्ति करता है। वेटरमार्क ने विवाह को एक सामाजिक संस्था के अतिरिक्त एक आर्थिक संस्था भी मना है।

प्रश्न 2.
विवाह के प्रतिबन्धों में अन्तर्विवाह का क्या आशय है? इसके 
कारण और प्रभाव बताइट।
उत्तर:
विवाह के प्रतिवन्धों में अन्तर्विवाह अन्तर्विवाह का तात्पर्य हैं एक व्यक्ति अपने जीवन साथी का चुनाव अपने ही समूह से करे। इसे परिभाषित करते हुए रियर्स ने लिखा है, “अनार्यवाह से अभिप्राय उन विनिमय से है, जिसमें अपने समूह में से ही विवाह कमायो चुनना अनिवार्य होता है।”

वैदिक एवं उतरवैदिक काल में द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) का एक ही वर्ग वा और द्विज वर्ग के लोग अपने य (द्विज) में ही विवाह करते थे। शत्र वर्ग पृथक् था। स्मृतिकाल में अन्तर्षियाहों को स्पीकृति प्रदान की गई थी, लेकिन जब एक वर्ण कई जातियों एवं उपजातियों में विभक्त हुआ तो विवाह का दायरा सौमित होता गया और लोग अपनी जाति एवं उपजाति में विवाह करने लगे, इसे ही अन्तबिंबाह माना जाने लगा। 

कुछ उपजातियों में ‘गोल’, ‘एकड़ा’ आदि हैं, जो चुनाव के क्षेत्र को एक स्थानीय सीमा तक संवित कर देते हैं। वर्तमान समय में एक व्यक्ति अपनी ही जाति, उपजाति, प्रजाति, धर्म, क्षेत्र, भषा एवं वर्ग के सदस्यों से ही विवाह करता है। केतकर के अनुसार कुछ हिन्दु जातियाँ ऐसी हैं, जो पन्द्रह परिवारों के बाहर विवाह नहीं करतीं।

अन्तर्विवाह के कारण विवाह के क्षेत्र को इस प्रकार पॉम्ति करने के अनेक सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक रहे हैं। इनमें प्रमुख कारक निम्नलिखित है

  1. अन्तर्रजातीय मिश्रण को रोकने के लिए अन्तर्वर्ण विवाहों पर प्रतिबन्ध लगाए गए। विशेषतः आर्य एवं इविड़ प्रजातियों के बीच रस्त मिश्रण को रोकने के लिए ऐसा किया गया।
  2. प्रत्येक जाति और उपजाति अपनी सांस्कृतिक विशेषता को बनाए रखना चाहती थी, अल; न्। अ चाह पर बल दिया।
  3. जैन एवं बौद्ध धर्म में शिथिलता आने से ब्राह्मणों ने अपनी लोई प्रतिष्ठ को पुनः प्राप्त करने के लिए कठोर जातीय नियम बनाए।
  4. मध्य युग में बाल विवाह में वृद्धि के कारण जातीय नियमों पर बल दिया आने लगा।
  5. प्रत्येक गति का एक परम्परात्मक व्यवसाय पाया जाता है। अपने व्यावसायिक ज्ञान को गुप्त रखने की इच्छा ने भी अन्तर्निवाह को प्रोत्साहित किया।

अत्तर्विवाह का समाज पर प्रभाव

अन्तर्विवाह में समाज पर निम्नलिखित प्रभाव दिखाई दिए

  1. इससे लोगों के सम्पर्क का दायरा समंत हो गया, जिससे उपयुक्त वर-वधु चुनने में ना आने लगी।
  2. संकीर्णता की भावना पनपी, शारिक मृणा, द्वेष एवं कटुता में वृद्धि हुई।
  3. क्षेत्रोक्ता की भावना उत्पन हुई, जातिवाद बढ़ा।
  4. व्यावसायिक ज्ञान एक समूह तक ही सीमित हो गया।
  5. इससे समाज की प्रगति में अवर-द्धता आई।

प्रश्न 3.
बहिर्विवाह के विभिन्न स्वरूपों का ऊत्तेख कीजिए।
उत्तर:
बहिर्विवाह से तात्पर्य है एक व्यक्ति जिस समूह का सदस्य है उससे बाहर विवाह करे। रिवर्स के अनुसार विवाह वह विनिमय है, जिसमें एक सामाजिक समूह के सदस्य के लिए यह अनिवार्य होता है कि वह दूसरे सामाजिक समूह से अपने जीवनसाथी का चुनाव करे। हिन्दुओ में बहिर्विवाह के नियमानुसार एक व्यक्ति को अपने परिवार, गोत्र, प्रर, पिण्ड आदि समूहों से बाहर विवाह करना पड़ता है। जनजातियों में एक ही टोटम को मानने वाले मोगों को भी परस्पर विवाह करने की मनाही हैं। हिन्दुओं में प्रचलित बहिर्विवाह के विभिन्न स्वरूप निम्नलिखित है।

1. गोत्र बहिर्विवाह हिन्दुओं में सगोत्र विवाह निषेध हैं। गोत्र का सामान्य अर्थ उन व्यक्तियों के समूह से है, जिनकी उत्पत्ति एक आणि पर्यज से हुई हो। सवाषाड़ हिरण्यकेशी औतसूत्र के अनुसार, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप और गस्त्य नामक आठ ऋषियों को सन्तानों को गोत्र के नाम से पुकारा गया।

गोत्र शब्द के तीन या चार अप हैं; जैसे- गौशाला, गाय का समूह, किला तया पर्वत। गोत्र का शाब्दिक अर्थ अर्थात् गायों के बांधने का स्थान (गौशाला या धावा) अथवा गौपालन करने वाले समूह में है। जिन लोगों की गाएँ एक स्थान पर बैधती थी, उनमें नैतिक सम्बन्ध बन आते थे और सम्पतः ये रक्त सम्बन्की भी होते थे, अत; वे परस्पर विवाह नहीं करते थे। विज्ञानेश्वर ने क्षेत्र का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि वंश-परम्परा में जो नाम प्रसिद्ध होता है, उसी को गोत्र कहा जाता है। इस प्रकार एक गोत्र के सदस्यों द्वारा अपने गोत्र से बाहर विवाह करना ही गोत्र बहिनिंबाह कहलाता है।

2. सप्रवर बहिर्विवाह गोत्र से सम्बन्धित ही एक शब्द है प्रगार’ जिसका वैदिक इण्डेक्स के अनुसार शाब्दिक अर्थ है ‘आह्वान करना। (invitation Summon) कर्वे के अनुसार, “श्वर का अर्थ क्षत्रियों में गभग वंशकार वा कुलकर की तरह ही है। प्रवर का अर्थ है ‘महान् (Great on) आहाण लोग हवन-यज्ञ आदि के समय गोत्र व अंशकार के नाम का उच्चारण करते थे। इस अर्थ में प्रवर का तात्पर्य ‘श्रेष्ठ (The Excellent 00) से था। इस प्रकार समान पत्र और अमान मषियों के नाम का अरण करने वाले यति अपने को एक ही प्रवर से सम्बद्ध मानने लगे। एक प्रवर के व्यक्ति अपने को सामान्य आणि पूर्वजों से संस्कारात्मक एवं आध्यात्मिक रूप से सम्बन्धित मानते हैं, अतः वे परस्पर विवाह नहीं करते। हो,कपाडिया लिखते हैं, “प्रवर संस्कार अथवा ज्ञान के उस समुदाय की ओर संकेत करता है, जिसमें एक व्यक्ति सम्बन्धित होता है।” प्रवर आध्यात्मिक दृष्टि से परस्पर सम्बन्धित लोगों के समूह की ओर संकेत करता है न क र जान्थयों की ओर। हिन्दू विवाह अधिनियम द्वारा ‘सप्रखर विवाह सम्बन्धी निषेधों को समाप्त कर दिया गया है ।

3. सपिण्ड हेर्षियाहू सवर और सगोत्र बहिर्विवाह के नियम पिच पक्ष के । सम्यन्मियों में विवाह की स्वीकृति नहीं देते। सपिण्ड विषङ्ग निषेध के नियम मातृ एवं पितृ पक्ष की कुछ पीढ़ियों में विवाह पर रोक लगाते हैं। इरावती – कर्वे सपिण्हता का अर्थ बताती है स + पिण्ड (Together + thall of rice, abody) अर्थात् मृत व्यक्ति को पिण्ड दान देने वाले या उसके रक्त कण से सम्बन्धित लोग। स्मृति में सपिण्ड का प्रयोग दो अर्षों में हुआ है-

  • वे सभी व्यक्ति सपिण्डी है, जो एक व्यक्ति को पिण्ड दान करते हैं
  • मिताक्षरा के अनुसार वे सभी व्यक्ति जो एक ही शरीर में पैदा हुए हैं,

पिता और पुत्र सपिण्डी हैं, क्योंकि पिता के शरीर के अवयव पुत्र में आते हैं। इसी प्रकार से माँ व सन्ताने, दादा-दादी एवं पोते भी सपिण्ड हैं। सपिण्ड विवाह भी निषिद्ध रहे हैं। रामायण एवं महाभारत काल में सपिण्डता का निदम एक स्थान पर निवास करने वाले पितृपय लोगों पर लागू होता था। मध्ययुगीन टोकाकारों के अनुसार पिता की ओर से सात व माता की ओर से पाँच पीदियों में विवाह नहीं किया जाना चाहिए। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 ने सपिण्ड बहिर्निवाह को मान्यता प्रदान की हैं। माता एवं पिता दोनों पक्षों से तीन तीन पीदियों के सपिडियों में परस्पर विवाह पा रोक लगा दी गई है। फिर भी यदि किमी मह व प्रथा अपना परम्परा इसे निषिद्ध नहीं है, तो सा विवाह भी वैध माना।

4. ग्राम बहिर्विवाड़ उत्तर भारत और प्रमुखत: पंजाब एवं दिल्ली के आस-पास यह नियम है कि एक व्यक्ति अपने ही गांव में विवाह नहीं करेगा। पंजाब में तो उन गाँवों में भी विवाह करने की मनाही है, जिनकी सीमा व्यक्ति के गाँव को सीमा को सूती हो। इस प्रकार के खिलाह का कारण गाँव की जनसंख्या का सीमित होना, उसमें एक ही गोत्र, वंश अथवा परिवार के सदस्यों का निवास होना, आदि रहे हैं। सगोत्री एवं सपड़ियों से विवाह के निषेध के कारण हो ऐसे विवाह प्रक्ष में आए। गांवों में इस प्रकार के विड़ को खेड़ा बहिर्नियाह’ के नाम से जाना जाता है।

5. टोटम बहिर्विवाह इस प्रकार के विवाह का नियम भारतीय जनजातियों में प्रचलित है। टोटम कोई भी एक पशु, पक्षी, पेड़-पौधा अथवा निर्जीव वस्तु हो सकती है, जिसे एक गोत्र के लोग आदर एवं श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, उससे अपना आध्यात्मिक सम्बन्ध जोड़ते हैं। एक गोत्र का एक टोटन होता है और एक टोटम को मानने से परस्पर भाई-बहन समझे जाते हैं, अत: वे परस्पर विवाह नहीं कर सकते।

प्रश्न 4.
विवाह सम्वन्धी वैधानिक योग्यताओं में ब्रिटिश काल के 
अधिनियमों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
विवाह नामक संस्था प्रत्येक काल में देखने को मिलती है। यद्यपि इसका स्वरूप समय के अनुसार बदला रहा हैं। विशाह से सन्त अधिनियम भी बनाए गए, जिनमें ब्रिटिश काल में बने अधिनियम तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सरकार द्वारा बनाए गए अधिनियम महत्वपूर्ण हैं। ब्रिटिश काल के विवाह सम्बन्धी वैधानिक प्रमुख अधिनियम इस प्रकार से है।
1. सती–प्रथा निषेध अधिनियम 1829 (Regulation o. XVII, 1529) 
1829 से पूर्व भारत में सती–प्रथा का प्रचलन था। एक ओर हिन्दुओं में बाल-विवाह का प्रचलन था और दूसरी ओर विधवा हो जाने पर स्त्रियों पति के साथ चिता में जल जाने के लिए मजबूर किया जाता था। उन्हें यह प्रलोभन दिया जाता था कि सती होने पर स्वर्ग मिलेगा। कई बार तो विधवाओं को जबरन मृत पति के साथ सती होने के लिए मजबूर किया जाता था और चिता में पकेल दिया जाता था। इस अमानुषिक प्रथा को समाप्त करने के लिए राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारको कठोर परिश्रम और आन्दोलन किया और उनके प्रयासों से 1829 में सती–प्रथा निषेध अपिनियम बना।

2. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1858 (Hindu Widow marriage Act, 1866) 155 से पूर्व विधाओं को न तो पुननिता को स्वीकृति पी और न उन्हें अपने मूत पति को सम्पनि में कोई असर हो बाल-विवाह एवं बेमेल विवाह के कारण सत्र में विधवाओं की संख्या बढ़ गई थी त उनको दशा बड़ी दयनीय पी। कई विपाएँ तो धर्म परिवर्तन कर मुसलमान या ईसाई बन गई दी। आर्य सामान, ब्रहा सगाज, ईश्वरचन्द्र मिशागर राममोहन राय ने सरकार का इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया। इनके प्रयासों से 186 में हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बना। इस अधिनियम द्वारा हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बना। इस अधिनियम द्वारा हिन्दु विषयाओं के पुनर्विवाह को कानूनी बाधाओं को समाप्त कर दिया गया।

3. बाल-विवाह निरोधक अधिनियम, 1121 Child Murriat kaistraint Act, 1929 1929 बाल-विवाह रोकने का अधिनियम पारित किया गया। यद्यपि इससे पूर्व भो छोटे छोटे बच्चों के विवाह पर रोक लगाने के लिए 100 1 1881 में यह अधिनियम पारित का विवाह की आयु सङ्गकियों के लिए मशः 10 तथा 12 वर्ष कर दी गई थी, किन्तु 1929 में हरविलास शारदा के प्रयत्नों से बाल-विवाह विरोधक अधिनियम पारित हुआ, जिसे ‘शरदा एक्ट’ के नाम से भी जाना जाता हैं। इस अधिनियम को मुख्य बातें इस प्रकार है-इस अधिनियम के अनुसार विवाह के समय तड़के की आयु 18 वर्ष तथा सड़कों की आयु 15 वर्ष होनी चाहिए। इससे कम आयु के बिगह को बात-वि। माना जाएगा, कना या पनि बाल-विवाह को रोकने में अधिक सफल नहीं रहा। 1978 में इस अधिनियम में शोपन कर दिया गया। यह अधिनियम अन्य बाल-विवाह निरोधक (संशोधित) अधिनियम 1978 के नाम से जाना जाता है। इस नियम के अन्तर्गत सड़कों के लिए 1 का न्यूनतम आयु 21 वर्ष और सकियों के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष कर दी गई।

4. हिन्दू स्त्रियों को सम्पत्ति पर अधिकार अधिनियम, 1937 (Hindu Wom Rigtit to EProperty Act, 1937) हिन्दू स्त्री के विधवा होने पर मृत पति की सम्पत्ति में अधिकार प्रदान करने की दृष्टि से 1837 में यह अधिनियम पारित किया। गया है।

5. अलग रहने और भरण-पोषण हेतु स्त्रियों को अधिकार अधिनियम, 1946 इस अधिनियम के अनुसार हिन्दू स्त्रियों को कुछ परिस्थितियों में पति से अलग रहने पर। भरण-पोषण के अधिकार प्राप्त होते हैं। जौ को पाण-पोषण का अधिकार तभी मिलेगा जब

  • ति किसी ऐसे घृणित रोग से पीड़ित हो जो उसे पत्नी के संसर्ग से न हुआ हो।
  • पति निर्दयता का व्यवहार करता हो अथवा पत्नी पति के साथ रहना। खतरनाक समझी हो।
  • पत्नी को उसके पति ने छोड़ हो।
  • पति ने दूसरा विवाह कर लिया हो।
  • पति ने धर्म परिवर्तन का लिया हो।
  • पति किसी अन्य स्त्री से सम्बन्ध राखता हो।

विवाह के जीवशास्त्रीय योग्यताएँ

बियाह के लिए जीवशास्त्रीय योग्यताएँ निम्नलिखित हैं

  1. विवाह से सम्बन्धित लड़का व लहको दोनों शारीरिक एवं मानसिक रूप से परिपक्व
  2. लड़का एवं लड़की दोनों की आयु 18 अर्ष हों।
  3. विवाह में जाति वन्धन अनिवार्य नहीं है।
  4. जैविक रूप से लड़का एवं सड़की दोनों ही 18 वर्ष की आयु में विवाह के योग्य हो जाते हैं। अतः जैविक रूप से आयु को वन्धन नहीं माना जाता हैं।

प्रश्न 5.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात विवाह से सम्बन्धित अधिनियमों का 
उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् विवाह से सम्बन्धित प्राणु अधिनियम निम्नलिखित हैं।
1. विशेष विवाह अधिनियम, 1951 (Special Marrian Act, 1964) किसी भी 
धर्म को मानने वालों को पास्पर मिह को स्वीकृति देने के लिए 1872 ई. में विशेष विवाह अधिनयम पारित किया गया। 1921 में इस अधिनियम को संशोधित कर विभिन शनियों के बीच होने वाले विवाह को वैध घोषित किया गया।1951 के इस अधिनियम द्वारा विभिन्न धर्मों एवं जातियों के रोगों को परस्पर विवाह की स्वीकृति प्रदान कर दी गई। इस अधिनियम में एक-विया की व्यवस्था है तथा 21 वर्ष से कम आयु के लड़के व 18 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह उनके माता-पिता अशा संरक्षकों की स्वीकृति से होगा।

2. हिन्दू विवाह अधिनियम, 1965 (Hindu Marriage Act. 1955) 18 मई, 1965 से अम्मू और कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में निवास करने वाले भो, जिनमें जैन, बौद्ध, सिक्छ । सम्मिलित है, हिन्दू विवाह अधिनियम लागू कर दिया गया। इस अधिनियम के द्वारा विवाह से सम्बन्धित पूर्व में पास किए गए सभी अधिनियम रद्द कर दिए गए और सभी हिंदुओं पर एकसमान कानून सगू किया गया। इस अधिनियम में हिंदू विवाह की प्रचलित विभिन्न विधियों को मान्यता प्रदान की गई है, साथ ही सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को विवाह एवं तलाक के अधिकार प्रदान किए गए। है। इसकी प्रमुख विशेषताओं पर इस अध्याय में पूर्व में विचार किया जा चुका है।

3. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Butteesaian Act, 191sti) 1837 के हिन्दू स्त्रियों को सम्पत्ति पर अधिकार अधिनयम में विधवा को अपने मत पति की सम्पत्ति में समेत अधिकार प्रदा था तथा भिरा र दायभाग ही सम्पत्ति में। उत्तराधिकार के भिन्न-भिन्न नियम । सम्पत्ति अधिकार को बाधाओं को समाप्त करने और स्त्रियों को पुरुष के समान अधिकार प्रदान करने की दृष्टि से हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 पारित किया गया।

4. हिन्दू नाबालिग तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 (The Hindu Minority and Guardianship Act, 1956) अधिनियम के पूर्व नाबालिग बच्चे के पिता की मृत्यु होने पर संरक्षक बनने का अधिकार केवल पितृ पक्ष के लोगों को हो सम्पत्ति का दुरुपयोग होने पर भी मा छ नहीं कर सकती थी। इस अधिनियम ने इस कमी को दूर कर दिया हैं।

5. हिन्दू दत्तक ग्रहण ओर भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (Hindu Adaptation and Maintenance Act, 1956) अधिनियम में गोद ने । त्रों का उनके आश्रितों के भरण पोषण के बारे में विस्तार से व्यवस्था की गई है।

6. स्त्रियों व कन्याओं का अनतिक व्यापार निरोधक अधिनियम, 1956 (Suppression of Immoral Trafic in Women and Girls Act, 1958) वेश्यावृति और अनैतिक व्यवहार को रोकने की दृष्टि से भारत सरकार ने 1955 में यह अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम को मुख्य विशेषतई निम्न प्रकार हैं।

  • वेश्यावृत्ति एक दण्डनीय अपराध हैं। इस अधिनियम के अनुसार, “कोई भी स्त्री जो घन या वस्तु के बदले यौन सम्बन्ध के लिए अपना शरीर अर्पत करती है, वेश्या’ हैं तथा अपने शरीर को इस प्रकार यौनसम्बन्ध के लिए अर्पण करना ‘वेश्यागृति’ है।”
  • वेश्यालयों में रहने वाला व्यक्ति (सन्तान को छोड़कर) यदि यह 18 वर्ष से अधिक का है और वेश्या की आय पर आश्रित रहता है तो उसे दो वर्ष का कारावास अथवा एक हजार रुपये तक का दण्ड़ दिया जा सकता है।
  • वेश्यालय चलाने वाले व्यक्ति को 1 से 15 वर्ष तक का कारावास तथा दो हजार रुपये तक का जुर्माना आदि दड़ दिया जा सकता है।

7. दहेज निरोधक अधिनियम, 1961 (Lowry Prohibition Act, 1961) हिन्दू समाज में दहेज की भीषण समस्या का समाधान करने के लिए मई, 1961 में ‘दहेज निरोधक अधिनियम’ पारित किया गया। इसकी प्रमुख विशेषताओं पर सो अध्याय में पूर्व में विचार किया जा चुका है। 1956 में दहेज निरोधक अधिनियम, 1961 में संशोधन कर इसे और कठोर बनाया गया है। 

प्रश्न 6.
विवाह-विच्छेद किसे कहते हैं? विवाह-विच्छेद के लाभ और हानियों का वर्णन कीजिए। का विवाह विच्छंद से कौन-कौन से लाभ होते हैं?
उत्तर:
विवाह-विच्छेद इसके लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 4 देखें। विवाह-विच्छेद से लाभ विवाह-विच्छेद में निम्नलिखित लाभ होते हैं।

  1. समानता का अधिकार वर्तमान में स्त्री-पुरुषों को सभी क्षेत्रों में समान अधिकार प्रदान किए गए हैं, ऐसी स्थिति में विवाह-विच्छेद का अधिकार केवल पुरुषों को ही नही वरन् स्त्रियों को भी प्राप्त होना चाहिए। उन्हें भी असाधारण परिस्थितियों में अपने पति को त्यागने का अधिकार होना चाहिए।
  2. पारिवारिक संगठन को सुदृढ़ बनाने के लिए वर्तमान में एकाकी परिवारों में पति के दुराचारी होने या वैवाहिक दायित्व न निभाने पर पत्नी व बच्चों को कोई अन्य सहारा नहीं होता। ऐसी दशा में स्त्री व बच्चों की रक्षा के लिए एवं परिवार को सुसंगठिा बनाने के लिए विशिष्ट परिस्पितियों में विवाह विच्छेद की स्पोति दी उनी चाहिए।
  3. स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए स्त्रियों को विवाह-विच्छेद का अश्किार मिलने पर उनकी पारिवारिक एवं सामवक प्रतिष्ठा में वृद्धि होंगी, साथ ही पुरुषों की मनमानी पर भी अंकुश लगेगा।
  4. वैवाहिक समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए हिन्दू विवाह से सम्बन्धित समस्याओं जैसे—बाल-विवाह, अनमेल विवाह, दहेज, विधवा विवाह निषेध आदि से छुटकारा पाने के लिए विवाह-विच्छेद का अधिकार स्त्री-पुरुषों को समान रूप से दिया जाना चाहिए।
  5. सामाजिक जीव को सन्तुलित बनाने के लिए स्त्रियों को विवाह के क्षेत्र में पुरुषों के समन अधिकार देने से समाज व्यवस्था में असन्तुलन पैदा होगा। इस स्थिति में बचने के लिए एवं मानवीय दृष्टिकोण से भी स्त्रियों को विवाह- विछंद का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
  6. परम्परा व संस्कृति को संरक्षण स्त्रियों को तलाक का अधिकार देने से भारत को प्राचीन परम्परा व संस्कृति को संरक्षण मि। वैदिक . कल और उसके काफी समय बाद तक दोनों पक्षों को तलाक देने के अधिकार थे। मध्य गुग में इन अधिकारों का रोक लगायी गई। इस प्रकार तलाक से हमारी भारतीय परम्परा व संस्कृति को कोई खतरा नहीं होगा, बल्कि इससे तो उनका क्षण ही होग
  7. स्त्रियों को तलाक का अधिकार देने से हिन्दू विवाह पर लगाया जाने वाला यह आरोप कि त एक तर अधध। पों के प में है, भिट जाएगा। यह दोनों पक्षों को समान रूप से सुदृढ़ बनाएगा।

विवाह-विच्छेद से हानियाँ
विवाह विच्छेद से निम्नलिखित हानियाँ होती हैं।

  1. पारिवारिक विघटन की समस्या तलाक से पारिवारिक विघटन व सामाजिक विपटन भी होता है।
  2. स्त्रियों के भरण-पोषण की समस्या तलाक होने पर स्त्रियाँ बेसहारा, बेघर हो जाती है, उन्हें आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कई आर अनैतिक स्थिति का भी सामान करना पड़ जाता है।
  3. बच्चों की समस्या तलाक के कारण बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उनके लालन पालन, शिक्षा दीक्षा की समस्या पैदा हो जाती है। माता-पिता के अभाव में उनके व्यक्तित्व का भी समुचित विकास नहीं हो पाता।
  4. तलाक की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन विवाह-विदद से तलाक की प्रवृत्ति बढ़ती है, इससे जीवन में ठहराव नहीं आता और समाज में अनतिका बड़ती है। तलाक से पुनर्बाह में भी वृद्धि होती है।
  5. तलाक के प्रभाव में मंगामक किट पैदा होता हैं नशा पति-पत्नी को आएँ टूट जाती है। उनमें हौन भावना पैदा होती है।

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UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 14 क्लासेज एवं ऑब्जेक्ट्स

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Computer
Chapter Chapter 14
Chapter Name क्लासेज एवं ऑब्जेक्ट्
Number of Questions 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Computer Chapter 14 क्लासेज एवं ऑब्जेक्ट्स

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
क्लास किंस प्रोग्रामिंग सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु होता है?
(a) ऑब्जेक्ट ओरिएण्टेड
(b) क्लास ओरिएण्टेड
(c) ऑब्जेक्ट
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(a) ऑब्जेक्ट ओरिएण्टेड

प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा कथन असत्य है?
(a) C++ क्लास में डाटा आइटम तथा फंक्शन होते हैं।
(b) C++ क्लास में मात्र फंक्शन होते हैं।
(c) एक क्लास में अनेक ऑब्जेक्ट डिक्लेयर किए जाते हैं।
(d) ऑब्जेक्ट का प्रारूप क्लास की भाँति होता है।
उत्तर
(b) दिए गए विकल्पों में (b) असत्य है, क्योंकि C++ क्लास फंक्शन के साथ-साथ डाटा आइटम भी रखता है।

प्रश्न 3.
सदस्य फंक्शन को कितने प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है?
(a) तीन
(b) चार
(c) दो
(d) एक
उत्तर
(c) सदस्य फंक्शन को दो प्रकार से परिभाषित किया जा सकता हैक्लास बॉडी के अन्दर तथा क्लास बॉडी के बाहर।

प्रश्न 4.
फंक्शन को क्लास के बाहर परिभाषित करने के लिए किस चिह्न का प्रयोग किया जाता है?
(a) :
(b) :
(c) : ?
(d) ::
उत्तर
(d) ::

प्रश्न 5.
क्लास में प्रयुक्त एक्सेस स्पेसीफायर कितने प्रकार के होते हैं?
(a) तीन
(b) दो
(c) चार
(d) पाँच
उत्तर
(a) एक्सेस स्पेसीफायर तीन प्रकार के होते हैं –
private, protected 24 public

प्रश्न 6.
किस क्लास के डाटा आइटम व फंक्शन को अन्य क्लास द्वारा एक्सेस किया जा सकता है?
(a) public
(b) private
(c) protected
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(a) public क्लास में परिभाषित डाटा आइटम व फंक्शन को किसी भी अन्य क्लास द्वारा एक्सेस किया जा सकता है।

प्रश्न 7.
निम्न में से ऑब्जेक्ट को परिभाषित करने का प्रारूप कौन-सा है?
(a) class_name object_name
(b) class_name object_name;
(c) object_name class_name;
(d) object_name;
उत्तर
(b) class_name object_name;

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
क्लास का अर्थ समझाइट। (2011, 06)
उत्तर
क्लास एक ऐसा डाटा तत्त्व है, जिसमें प्रोग्राम के सभी डाटा सदस्यों व फंक्शनों को एक संरचना में व्यवस्थित किया जाता है।

प्रश्न 2.
क्लास के सदस्य कौन होते हैं?
उत्तर
क्लास में प्रयुक्त डाटा आइटम तथा फंक्शन क्लास के सदस्य होते हैं।

प्रश्न 3.
स्कोप रिजोल्यूशन ऑपरेटर की व्याख्या केवल एक वाक्य में कीजिए। (2018)
उत्तर
फंक्शन को क्लास के बाहर परिभाषित करने के लिए :: चिह्न का प्रयोग किया जाता है, जिसे स्कोप रिजोल्यूशन ऑपरेटर कहते हैं।

प्रश्न 4.
क्लास में प्रयुक्त protected वई क्या है?
उत्तर
protected एक एक्सेस स्पेसीफायर है, जो प्रोग्राम में किसी क्लास के अन्दर प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 5.
ऑब्जेक्ट क्या होते हैं? (2016, 13)
उत्तर
किसी वस्तु, स्थान, व्यक्ति अथवा अन्य इकाई या कार्य को ऑब्जेक्ट कहा जाता है।

प्रश्न 6.
ऑब्जेक्ट को कैसे पहचाना जाता है?
उत्तर
ऑब्जेक्ट को ऑब्जेक्ट के नाम से पहचाना जाता है।

प्रश्न 7.
फ्रेण्ड फंक्शन की व्याख्या केवल एक वाक्य में कीजिए। (2018)
उत्तर
फ्रेण्ड फंक्शन का प्रयोग friend की-वर्ड के साथ किया जाता है। ये क्लास के मेम्बर फंक्शन नहीं होते, परन्तु उस क्लास के private और protected मेम्बर को एक्सेस कर सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न। (2 अंक)

प्रश्न 1.
क्लास से क्या तात्पर्य है? किसी क्लास को किस प्रकार से डिक्लेयर किया जा सकता है? समझाइए। (2008)
उत्तर
क्लास एक ऐसा डाटा तत्त्व है, जिसमें प्रोग्राम के सभी डाटा सदस्यों व फंक्शनों को एक संरचना में व्यवस्थित किया जाता है। C++ भाषा में, क्लास को class की-वर्ड द्वारा परिभाषित किया जाता है।
क्लास को डिक्लेयर करना क्लास को डिक्लेयर करते समय, क्लास के सभी डाटा सदस्य व फंक्शन को क्लास के अन्दर ही व्यवस्थित किया जाता है।
प्रारूप

class class_name
{
private:
Variable declarations;
Function declarations;
public:
Variable declarations;
Function declarations;
};

प्रश्न 2.
क्लासेज तथा ऑब्जेक्ट के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। (2006)
अथवा
क्लासेज तथा ऑब्जेक्ट का वर्णन कीजिए। (2018, 09)
उत्तर
क्लास क्लास एक ऐसा तत्त्व है, जिसमें प्रोग्राम के सभी डाटा सदस्यों व फंक्शनों को एक संरचना में व्यवस्थित किया जाता है। वस्तुओं को उनके समान व्यवहार और सम्भव स्थितियों के अनुसार समूहों में बाँटा जाता है, ऐसे प्रत्येक समूह को क्लास कहा जाता है।
ऑब्जेक्ट किसी वस्तु, स्थान, व्यक्ति अथवा अन्य इकाई या कार्य को ऑब्जेक्ट कहा जाता है। कोई ऑब्जेक्ट किसी क्लास का एक बिन्दु या तत्त्व होता है, जो उस क्लास के नाम से बनाया जा सकता है।

प्रश्न 3.
किसी ऑब्जेक्ट को कैसे बनाया जाता है? समझाइए।
उत्तर
कोई ऑब्जेक्ट किसी क्लास का एक बिन्दु या तत्त्व होता है, जो उस क्लास के नाम से बनाया जा सकता है। ऑब्जेक्ट बनाने का प्रारूप इस प्रकार है –
class_name object_name;
यहाँ, class_name उस क्लासे का नाम है, जिसका ऑब्जेक्ट बनाना है। और object_name उस ऑब्जेक्ट का नाम है, जिसे परिभाषित करना है।
उदाहरण
student S;
यहाँ, क्लास Student का एक ऑब्जेक्ट S है।

लघु उत्तरीय प्रश्न।। (3 अंक)

प्रश्न 1.
सदस्य या मेम्बर फंक्शन को कितने प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है? उदाहरण सहित समझाइए। (2008)
उत्तर
सदस्य या मेम्बर फंक्शन को दो प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है, जो निम्न प्रकार हैं
(i) क्लास की बॉडी के अन्दर यदि कोई सदस्य फंक्शन बहुत छोटा होता है, तो उसे क्लास की बॉडी में ही परिभाषित कर दिया जाता है ऐसे सदस्यों को इनलाइन माना जाता है।
उदाहरण

class student
{
private:
char name [20];
public:
void enter ()
{
gets (name);
}
void show ()
{
puts (name);
}
};

(ii) क्लास की बॉडी के बाहर यदि फंक्शन बड़े होते हैं, तो क्लास के बाहर ही परिभाषित किए जाने चाहिए, जिसे :: चिह्न का प्रयोग करके परिभाषित किया जाता है। इस चिह्न को स्कोप रिजोल्यूशन ऑपरेटर (Scope resolution operator) कहा जाता हैं।
उदाहरण

class student
{
private:
chiar name [20];
public:
void enter ();
void show ();
};
void Student :: enter ()
{
gets (name);
}
void Student :: show ()
{
puts (name);
}

प्रश्न 2,
पब्लिक सदस्य, प्राइवेट सदस्य व प्रोटेक्टेड सदस्य में भेद कीजिए। (2008)
अथवा
डाटा हाइडिंग क्या है? क्लास के माध्यम से इसे कैसे प्राप्त किया जाता है? उदाहरण सहित समझाइए। (2006)
उत्तर
वैरिएबल और फंक्शन की घोषणा private की-वर्ड के द्वारा करने पर इसकी उपलब्धता फंक्शन के बाहर नहीं रहती है अर्थात् इनका प्रयोग उसी फंक्शन में किया जा सकता है, जिस फंक्शन में इन्हें घोषित किया गया है। क्लास की घोषणा का यह गुण डाटा हाइडिंग कहलाता है।
C++ में प्रयुक्त private, public तथा protected सदस्यों को एक्सेस स्पेसीफायर कहा जाता है, जो डाटा हाइडिंग में भी प्रयुक्त होते हैं।
इनका विवरण निम्न है –

  1. private किसी भी क्लास के private भाग में परिभाषित डाटा आइटम व फंक्शन केवल उसी क्लास के सदस्य फंक्शन द्वारा एक्सेस किए जा सकते हैं।
  2. protected किसी भी क्लास के protected भाग में परिभाषित डाटा आइटम व फंक्शन उस क्लास के सदस्य फंक्शन तथा डिराइब्ड क्लास के सदस्य फंक्शन द्वारा एक्सेस किए जा सकते हैं।
  3. public किसी क्लास के public भाग में परिभाषित डाटा आइटम व फंक्शन प्रोग्राम में किसी के भी द्वारा एक्सेस किए जा सकते हैं।

उदाहरण

class Employee
{
private:
char name;
public:
int emp-id;
void input ();
protected:
float salary;
void output ();
};

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (5 अंक)

प्रश्न 1.
क्लास की परिभाषा का प्रारूप लिखिए और उसके प्रत्येक भाग का अर्थ समझाइए। (2014)
उत्तर
क्लास एक ऐसा डाटा तत्त्व है, जिसमें प्रोग्राम के सभी डाटा सदस्यों व फंक्शनों को एक संरचना में व्यवस्थित किया जाता है। C++ भाषा में, क्लास को class कीवर्ड द्वारा परिभाषित किया जाता है।
क्लास को घोषित करने का प्रारूप

class class_name
{
private:
Variable declaration 1;
Function declaration 1;
public:
Variable declaration 2;
Function declaration 2;
};

उपरोक्त प्रारूप में, class एक की-वर्ड है, जो किसी क्लास की शुरुआत करता है। class_name उस क्लास का नाम है, जो यूजर द्वारा रखा जाता है।

  • private इसे एक्सेस स्पेसीफायर कहा जाता है, जिसमें परिभाषित डाटा आइटम व फंक्शन केवल उसी क्लास के सदस्य फंक्शन द्वारा एक्सेस किए जा सकते हैं।
  • Variable declaration 1 यह क्लास में परिभाषित डाटा आइटम है, जो private भाग में परिभाषित हैं। यह केवल इसी क्लास के अन्दर इसके सदस्य फंक्शन द्वारा एक्सेस किए जा सकते हैं।
  • Function declaration 1 यह क्लास में परिभाषित फंक्शन है, जो private भाग के अन्दर परिभाषित है। यह केवल इसी क्लास के अन्दर इसके सदस्य फंक्शन द्वारा एक्सेस किए जा सकते हैं।
    public यह एक एक्सेस स्पेसीफायर है, जिसमें परिभाषित डाटा आइटम व फंक्शन किसी के भी द्वारा एक्सेस हो सकते हैं।
  • Variable declaration 2 यह क्लास में परिभाषित पब्लिक डाटा आइटम है, जो प्रोग्राम में किसी के भी द्वारा एक्सेस किए जा सकते हैं।
  • Function declaration 2 यह क्लास में परिभाषित पब्लिक फक्शन है, जो प्रोग्राम में किसी के भी द्वारा एक्सेस किए जा सकते हैं।

}; यह क्लास के अन्त को प्रदर्शित करता है।
उदाहरण

class Teacher
{
public:
int Id;
void Subject ();
private:
int no_of_lecture;
void Department ();
};

प्रश्न 2.
किसी विद्यार्थी की सूचना प्रदर्शित करने वाले एक ऐसे क्लास की संरचना करें, जिसमें निम्न सदस्य हों (2006)
डाटा सदस्य

  • विद्यार्थी का रोल न.                  विद्यार्थी का नाम
  • विद्यार्थी का विषय                     विद्यार्थी का एड्रेस

सदस्य फंक्शन

  • डाटा सदस्यों को वैल्यू देना
  • विद्यार्थी का रोल न., नाम, विषय व एड्रेस प्रदर्शित करना। सदस्य फंक्शनों का कोड भी लिखिए।

उत्तर

class student
{
private:
int roll;
char name [30], subject [20];
char address [50];
public:
void Input ();
void Show ();
};
void Student :: Input ()
{
cout<<"Enter Roll No."<>roll;
cout<<"Enter Name"< gets (name);
cout<<"Enter Subject"< gets (subject);
cout<<"Enter Address" gets (address);
}
void Student :: Show ()
{
cout<<"Student DetailsK"< cout<<"Roll No. : "<<roll< cout<<"Name: ";
puts (name);
cout<<"Subject: ";
puts (subject);
cout<<"Address: ";
puts (address);
}

प्रश्न 3.
क्लास व ऑब्जेक्ट का प्रयोग करके किसी कर्मचारी (Employee) का ब्योरा (Detail) इनपुट कराके उसे प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर

#include<iostrean.h>
#include<conio.h>
#include<stdio.h>
class Employee
{
int code;
char name [20], dept [20];
float salary;
public:
void Enter();
void Display();
};
void Employee: : Enter()
{
cout<<"Enter Employee Code:"<<end1; cin>>code;
cout<<"Enter Employee Name:"<<end1;
gets (name);
cout<<"Enter Employee Department:
"<<end1;
gets (dept);
cout<<"Enter Employee Salary:"
<<end1; cin>>salary;
}
void Employee :: Display ( )
{
cout<<"Employee Code:"<<code<<end1;
cout<<"Employee Name:";
puts (name);
cout<<"Employee Department:";
puts (dept);
cout<<"Employee Salary:"<<salary;
}
void main()
{
clrscr();
Employee E;
E.Enter();
E.Display();
getch();
}

आउटपुट
Enter Employee Code:
2550
Enter Employee Name:
Sonam Sharma
Enter Employee Department:
Coordinator
Enter Employee Salary:
35000
Employee Code:2550
Employee Name:Sonam Sharma
Employee Department:Coordinator
Employee Salary:35000

प्रश्न 4.
C++ में प्रोटेक्टेड मेम्बर फंक्शन द्वारा m की घात n के मान ज्ञात कीजिए।
उत्तर

#include<iostream.h>
#inclde<conio.h>
class Pow
{
int P, r;
public:
Pow()
{
p=1;
}
protected:
int comp_pow (int a, int b)
{
int i;
for (i=1; i<=b; i++)
p=p*a;
return p;
}
public:
void Result (int m, int n)
{
r=comp_pow (m, n) ;
cout<<"m to the power of n = "<<r;
}
};
void main()
{
clrscr();
Pow obj:
int m, n;
cout<<"Enter the values of m and n:"; cin>>m>>n;
obj. Result (m, n) ;
getch();
}

आउटपुट
Enter the values of m and n: 5
3
m to the power of n = 125

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UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 18 शिशु की देखभाल

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Board UP Board
Class Class 12
Subject Home Science
Chapter Chapter 18
Chapter Name शिशु की देखभाल
Number of Questions Solved 21
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 18 शिशु की देखभाल

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
शिशु के शारीरिक क्रिया का प्रथम परीक्षण है।
(a) वमन
(b) दस्त
(c) रुदन
(d) हँसना
उत्तर:
(c) रुदन

प्रश्न 2.
शिशु के जन्म के समय भार होता है।
(a) लगभग 5-7 पौण्ड
(b) लगभग 7-8 पौण्ड
(c) लगभग 2-3 पौण्ड
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(d) लगभग 5-7 पौण्ड

प्रश्न 3.
माँ का दूध शिशु के लिए उपयोगी है, क्योंकि (2018)
(a) इसमें रोग से लड़ने की क्षमता होती है
(b) इसमें सभी पोषक तत्त्व पाए जाते हैं
(c) यह शीघ्र पचता है
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(d) उपरोक्त सभी

प्रश्न 4.
शिशु की किस अवस्था में स्तन त्याग करना चाहिए?
(a) 5 से 7 माह
(b) 6 से 9 माह
(c) 8 से 9 माह
(d) 4 से 5 माह
उत्तर:
(b) 6 से 9 माह

प्रश्न 5.
दूध के अतिरिक्त अन्य सम्पूरक आहार शिशु की किस आयु से शुरू होता है?
(a) 2 माह
(b) 6 माह
(c) 1 वर्ष
(d) 2 वर्ष
उत्तर:
(b) 6 माह

प्रश्न 6.
शिशु में अस्थायी दाँत (दूध के दाँत) की संख्या है।
(a) 20
(b) 22
(c) 24
(d) 30
उत्तर:
(a) 20

प्रश्न 7.
शिशु में लघु पाचक व्याधि है।
(a) अतिसार
(b) घेघा
(c) खसरा
(d) ज्वर
उत्तर:
(d) अतिसार

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक, 25 शब्द)

प्रश्न 1.
शिशु का भार क्यों ज्ञात करते रहना चाहिए?
उत्तर:
जन्म के तुरन्त बाद शिशु का भार लगभग 5-7 पौण्ड तक होता है, जो धीरे-धीरे कम होकर कुछ औंस में बदलता है। अत: एक महीने तक हर हफ्ते तथा 6 माह तक हर 15 दिन के पश्चात् भार ज्ञात करते रहने चाहिए, जिससे बच्चे की प्रगति ज्ञात होती रहती है।

प्रश्न 2.
स्तन त्याग से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
शिशु की आयु बढ़ने के साथ-साथ उसकी शारीरिक वृद्धि भी तीव्र गति से बढ़ती है। इस वृद्धि के कारण उसकी भूख भी बढ़ती है, जिससे उसे अधिक पोषण की आवश्यकता होती है। अतः अब उसे माँ के दूध के अतिरिक्त भी भोजन की आवश्यकता होगी। इस स्थिति में माँ को शिशु के लिए अतिरिक्त भोजन तथा ऊपरी दूध पिलाने की आवश्यकता होती है, जिसके लिए उसे बच्चे को स्वयं का स्तनपान छुड़ाना होता है, इसे ही स्तन त्याग कहते हैं।

प्रश्न 3.
दूध के दाँत से आप क्या समझती हैं? |
उत्तर:
शिशुओं में दाँत निकलने का समय 6-7 माह के बाद का होता है। दाँत निकलने की यह प्रक्रिया 2 से [latex]2 \frac { 1 } { 2 }[/latex] वर्ष तक होती है, जिसमें 20 दाँत निकलते हैं।इन्हें दूध के दाँत कहते हैं।

प्रश्न 4.
दाँत आसानी से निकल आए इसके लिए क्या उपाय करना चाहिए?
उत्तर:
सुहागा को तवे पर भूनकर शहद मिलाकर मसूड़ों पर लगाने से दाँत जल्दी व आसानी से निकलते हैं।

प्रश्न 5.
शिशुओं में लघु पाचक व्याधियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर:
कब्ज, पेट फूलना, दस्त आना, अतिसार, वमन (उल्टियाँ), पेट दर्द होना, चुनचुने लगना आदि।

लघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक, 50 शब्द)

प्रश्न 1.
स्तनपान छुड़ाने की विधि लिखिए। (2018)
उत्तर:
शिशु जैसे-जैसे बड़ा होता है उसका स्तनपान बन्द करके उसे पूरी तरह ठोस आहार पर निर्भर बनाना होता है, क्योंकि एक समय बाद शारीरिक और मानसिक विकास की जरूरत केवल स्तनपान से पूरी नहीं हो सकती है। अत: स्तनपान छोडना शिश के लिए जरूरी होता है। माँ शिशु को 6 महीने बाद स्तनपान कराना बन्द कर सकती है, क्योंकि इस उम्र के बाद बच्चे कुछ ठोस आहार लेना शुरू कर देते हैं। ऐसे में, आप धीरे-धीरे करके उसे अपना दूध पिलाना बन्द करें। हालाँकि जब आपका शिश ठोस आहार लेना शुरू कर देता है। तब वह आपकों ज्यादा दूध पीने की माँग नहीं करता है, क्योंकि इससे शिशु का पेट भरा रहता है, लेकिन बाहरी आहार देने के बाद इस बात की जाँच कर लें कि आपके बच्चे का पेट भर रहा है या नहीं।

धीरे-धीरे स्तनपान छुड़ाने का प्रयास करें, न की एक बार में अचानक से बच्चे को दूध पिलाना छोड़ दें। यदि आप अचानक से बच्चे को स्तनपान छुड़ाने की कोशिश करेंगी तो हो सकता है कि आपका बच्चा बीमार हो जाए। एक बार में स्तनपान छुड़ाना माँ और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।

यदि आप शिशु को पहले पूरे दिन में 6 बार स्तनपान कराती थीं, तो अब उसे आप 2 से 3 बार दूध पिलाएँ, क्योंकि दिन के समय आप अपने बच्चे का दिमाग किसी और चीज़ों में लगा सकती हैं और ऐसे में शिशु धीरे-धीरे दूध स्तनपान करना बन्द कर देता है।

प्रश्न 2.
स्तन त्याग के पश्चात् शिशु को किस प्रकार का आहार देना चाहिए?
उत्तर:
स्तन त्याग के बाद शिशु का सर्वांगीण विकास हो सके, अत: उसके लिए भोजन में शरीर निर्माणक व रक्षक दोनों प्रकार के तत्त्व उचित मात्रा में मिले होने चाहिए। शिशु के भोजन में दूध, दही, पनीर, हरी पत्तेदार सब्जियाँ, आलू, गेहूँ, दालें सम्मिलित होनी चाहिए। इससे शिशु को शारीरिक व मानसिक विकास उचित रूप से होगा। अतः शिशु के आहार में निम्नलिखित तत्त्व होने चाहिए

1. प्रोटीन यह शरीर निर्माणक तत्त्व है। यह कोशिका निर्माण का प्रमुख पदार्थ है। प्रोटीन की कमी के लिए बच्चे के आहार में दूध, गोभी, गाजर, पनीर, मटर, शलजम और हरी पत्तेदार सब्जियाँ, दालें, बादाम, लेकिन मांसाहारी हैं तो गोश्त, अण्डे इत्यादि भी दिए जा सकते हैं।

2. वसा शिशु को वसा की प्राप्ति के लिए मक्खन, कॉड लीवर ऑयल देना चाहिए। वैसे तो शिशु को वसा अपनी आवश्यकतानुसार दूध से ही प्राप्त हो जाती है।

3. कार्बोहाइड्रेट 6 महीने में शिशु काफी क्रियाशील हो जाती है। उसे ऊर्जा की प्राप्ति की भी आवश्यकता होती है। अतः उसके आहार में दलिया, चावल, डबलरोटी, साबुदाना, शकरकन्दी इत्यादि देनी चाहिए।

4. विटामिन दूध, दही, मछली, टमाटर, पनीर, गाजर, अण्डे, हरी पत्तेदार सब्ज़ियाँ इत्यादि शिशु के आहार में होनी चाहिए।

5. खनिज लवण शिशु को कैल्शियम, फास्फोरस, खनिज लवण की अधिक आवश्यकता होती है। खनिज लवण की प्राप्ति के लिए शिशु के आहार में अण्डा, पनीर, दही, फलों का रस, हरी सब्जियों का सूप, केला, सेब इत्यादि देने चाहिए।

प्रश्न 3.
शिशु के दाँत निकलते समय कौन-कौन सी सावधानियाँ बरतनी चाहिए?
उत्तर:
शिशु के दाँत निकलते समय माता को निम्नलिखित सावधानी बरतनी चाहिए

  1. दाँत निकलते समय बच्चे के मसूड़े फूले हुए होते हैं, अतः मसूड़ों में मिस-मिसी-सी आती है तथा बच्चा कठोर वस्तु चबाने का प्रयत्न करता है। ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा किसी अस्वच्छ कठोर वस्तु को न चबाए, अन्यथा कीटाणु शिशु के शरीर में प्रविष्ट होकर उसे रोगी बना देंगे। इस समय डबलरोटी सेंककर, गाजर, खीरा इत्यादि बच्चे को देना चाहिए।
  2. सुहागा तवे पर भूनकर पीसकर उसे शहद में मिलाकर मसूड़ों पर लगाना | चाहिए। यह दाँत निकलने में सहायता करता है।
  3. बच्चा 6-7 माह के पश्चात् अन्न खाने लगता है। अत: बच्चे के दाँत साफ करने चाहिए। टूथ-ब्रुश से बच्चे के दाँत नहीं साफ करने चाहिए, इससे बच्चे के मसूड़े छिलने का भय रहता है, इसलिए हाथ की अँगुली में मंजन लगाकर धीरे-धीरे दाँत साफ करने चाहिए।
  4. बच्चों को विटामिन डी, कैल्शियम, फास्फोरस दवा या टॉनिक के रूप में दे देने चाहिए। होम्योपैथिक की 20 नं. या B21 नं, दवाई की गोलियाँ भी दाँतों के लिए अच्छी रहती हैं, बच्चों को दे देनी चाहिए।
  5. चूने का पानी पिलाना चाहिए, इससे कैल्शियम मिलता है।

प्रश्न 4.
शिशुओं के वस्त्र तैयार करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
अथवा
टिप्पणी कीजिए- शिशु के वस्त्र का चुनाव (2018)
उत्तर:
छोटे शिशुओं के वस्त्रों का चुनाव करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. सर्वप्रथम कपड़ा बच्चे के अनुकूल लेना चाहिए।
  2. ऐसे वस्त्र बनाए जाने या खरीदने चाहिए, जो आसानी से पहनाए जा सकें।
  3. शिशु के वस्त्र सामने या पीछे से खुले होने चाहिए।
  4. शिशु के वस्त्रों में अन्दर दबाव काफी रखना चाहिए। शिशु की लम्बाई तीव्र गति से बढ़ती है, इसलिए जरूरत पड़ने पर वस्त्र खोलकर बड़ा किया जा सकता है।
  5. घुटने चलने वाले बच्चों के वस्त्र ऐसे होने चाहिए, ताकि घुटने में न अटके।
  6. शिशु के वस्त्रों में बटन, डोरी कम होनी चाहिए।
  7. बच्चों के ऊनी वस्त्र बारीक व मुलायम ऊन के होने चाहिए, मोटी ऊन के वस्त्र बच्चों को चुभते हैं। वस्त्र रोएँदार भी नहीं होने चाहिए, अन्यथा रोया बच्चे के मुँह में चला जाता है।
  8. शीतऋतु में बच्चे को स्वेटर प पजामी के साथ टोपी-मौजे पहनाने चाहिए, किन्तु टोपी-मौजे रात को पहनाकर कदापि नहीं सुलाना चाहिए।
  9. शिशु की बिब अवश्य बनानी चाहिए, ताकि खाना खाते समय कपड़े गन्दे न करें।
  10. शिशु के वस्त्र में कभी बटन टूट जाए, तो पिन लगाकर नहीं पहनाने चाहिए

प्रश्न 5.
शिशुओं में नियमित उत्सर्जन की आदत का निर्माण किस प्रकार किया जा सकता है?
उत्तर:
शिशु में नियमित उत्सर्जन की आदत का निर्माण इस प्रकार किया जाता है

  1. शिशु में मल-मूत्र त्यागने की आदत का निर्माण शुरू से ही डालनी चाहिए। शिशु के जन्म से 6 माह तक मल त्याग का समय निश्चित नहीं होता। कुछ शिशु दिन में 5-6 बार तथा कुछ 2-3 बार मल त्याग करते हैं।
  2. जब शिशु भोजन ग्रहण करने लगता है, तो उसके मल त्याग का समय भी निश्चित हो जाता है। यह आदत भी शिशुओं में डाली जाती है, अन्यथा उनके पेट में कब्ज सहित अनेक बीमारियाँ होने लगती हैं।
  3. मल-मूत्र त्यागने के पश्चात् शिशु स्वयं तो सफाई नहीं कर सर्कता। अतः माता को चाहिए कि उसके अंगों को भली-भाँति साफ करें और पुनः सूखे पोतड़े या नए डायपर पहनाएँ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (5 अंक, 100 शब्द)

प्रश्न 1.
दाँत निकलते समय शिशु को कौन-कौन सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है? दाँत निकलने के सन्दर्भ में संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:

दाँत निकलना
जन्म के समय शिशु के दाँत नहीं होते। दाँत निकलने का सही समय 6-7 महीने के बाद का होता है। कुछ शिशुओं को आठवें माह में दाँत निकलते हैं। दाँत निकलने की यह प्रक्रिया 2 से [latex]2 \frac { 1 } { 2 }[/latex] वर्ष तक चलती है, जिसमें लगभग शिशु को 20 दाँत निकलते हैं। इस अवस्था तक प्राय: प्रत्येक शिशु का आहार दूध ही होता है, अतः इन्हें दूध के दाँत कहते हैं।

दाँत निकलने के लक्षण
दाँत निकलते समय शिशु को कई परेशानियाँ होती हैं, जो निम्नलिखित हैं।

  1. मसूड़े सूजने लगते हैं तथा शिशु प्रत्येक वस्तु को अपने मसूड़ों से बल लगाकर दबाने की कोशिश करता है।
  2. दस्त आना, ज्वर आना, मुँह से लार बहना तथा सिर हमेशा गर्म रहता है।
  3. दाँत निकलते समय शिशुओं में चिड़चिड़ापन आता है तथा बार-बार दस्त आने की वजह से वह काफी कमजोर हो जाता है।

दाँत निकलते समय सावधानियाँ इसके लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 3 देखें।

दाँत निकलने का क्रम व स्वच्छता
सबसे पहले शिशु के नीचले दो दाँत निकलते हैं। किसी-किसी शिशु के कुछ ऊपरी दाँत पहले निकलते हैं। दाँतों के निकलने का क्रम इस प्रकार है।

  • कुतरने वाले दाँत (कृन्तक) 6 से 8 माह के अन्दर निकलते हैं, जिनकी संख्या 2 होती है।
  • पार्श्व कृन्तक 8 से 10 माह के अन्दर निकलते हैं, जिनकी संख्या 4 होती है।
  • पीसने वाले दाँत 12 से 16 माह के अन्दर निकलते हैं, जिनकी संख्या 6 होती है।
  • कीले 18-22 माह के अन्दर निकलते हैं, जिनकी संख्या 4 होती है।
  • दाढ़ 22-24 माह के अन्दर निकलती हैं, जिनकी संख्या 4 होती है।

दाँत निकलने के पश्चात् इनकी स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें। सुबह-शाम पेस्ट कराएँ। मीठी वस्तु कम खिलाएँ। समय-समय पर चिकित्सक से परामर्श लेते रहें।

प्रश्न 2.
शिशुओं में होने वाली तीन लघु पाचक बीमारियों को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
शिशुओं में होने वाली तीन लघु पाचक बीमारियाँ निम्नलिखित हैं।

कब्ज
लक्षण

  1. शिशु शौच नियमित समय पर नहीं करता है।
  2. मेल बहुत कड़ा होता है व कठिनाई से होता है।
  3. मल 2-3 दिन में एक बार होता है।

कारण

  1. शिशु को दूध की सही मात्रा न मिलने पर (दूध की मात्रा अधिक हो या कम)
  2. भोजन सही न हो या पेट में कोई खराबी हो।
  3. माँ के भोजन में कुछ कमी होने पर।

उपचार

  1. शिशु को उबला हुआ पानी पिलाना चाहिए।
  2. शिशु के दूध में देशी लाल रंग की चीनी ज्यादा डालनी चाहिए।
  3. मुनक्का या अंजीर दूध में पकाकर देना चाहिए।
  4. एक-दो बूंद जैतून का तेल देने से भी कब्ज दूर होता है।
  5. शिशु को हरी साग-सब्जी का सूप पिलाना चाहिए।

दस्त
शिशु को जहाँ कब्ज होता है, वहीं दस्त भी जल्दी हो जाते हैं। दस्त के लक्षण निम्नलिखित हैं।

लक्षण

  1. शिशु को शौच कई बार आती है।
  2. शौच झागदार, पतले होते हैं।
  3. इनका रंग अलग-अलग हो सकता है।

कारण

  1. दूध में चिकनाई ज्यादा होने पर।
  2. दूध के हजम न होने पर।
  3. निपिल व बोतल की स्वच्छता न होने पर।
  4. माता के दूध में कुछ कमी होने पर।
  5. दूध के बदल जाने पर अर्थात् माँ का दूध छुड़ाकर डिब्बे का दूध देते हैं।

उपचार

  1. यदि दस्त के समय गाय या भैंस का या डिब्बे का दूध दिया जा रहा है, तो उसे बन्द करके माँ का दूध ही पिलाना चाहिए। फिर धीरे-धीरे दूसरा दूध देना आरम्भ करना चाहिए।
  2. बाल जीवन घुट्टी ठण्डे पानी में घोलकर बच्चे को पिलानी चाहिए।
  3. पान व बादाम भी घिसकर देना चाहिए।
  4. अनार का छिलको घिसकर देने से भी दस्तों में आराम मिलता है।
  5. यदि कोई भी दूध हजम नहीं हो रहा हो तो दूध फाड़कर फटे दूध का पानी | पिलाना चाहिए।

पेट में दर्द होना
लक्षण

  1. पेट कड़ा होने लगता है।
  2. पेट फूल जाता है।.
  3. दर्द होने के कारण बच्चा बहुत रोता है।
  4. बच्चा दध नहीं पीता है।
  5. अपनी टाँगें पेट की ओर सिकोड़ने लगता है।

कारण

  1. दूध में प्रोटीन व शक्कर की मात्रा ज्यादा होने पर।
  2. पेट में वायु इकट्ठी होने पर।
  3. गाढ़ा दूध पिलाने पर।
  4. दस्त ज्यादा होने पर
  5. माता का ठण्डी वस्तुएँ खाने पर।

उपचार

  1. शिशु का पोतड़ा लेकर उसे प्रेस से गर्म करके सिकाई करनी चाहिए।
  2. नाभि के चारों ओर हींग-नमक को पानी में घोलकर रुई से लगा देनी चाहिए।
  3. हींग व काला नमक का घोल बनाकर एक-दो चम्मच पिला देना चाहिए।
  4. सरसों के तेल में लहसुन व अजवाइन पकाकर पेट, पर मल देना चाहिए।
  5. शिशु के दूध में चूने का पानी मिलाकर देना चाहिए।

प्रश्न 3.
टिप्पणी लिखिए-
(i) दूध हजम न होना
(ii) चुनचुने होना
(iii) अतिसार
(iv) वमन
उत्तर:

दूध हजम न होना
लक्षण

  1. दूध पीने के तुरन्त बाद बच्चा दूध निकालने लगता है।
  2. दूध फटा-फटा-सा होता है।

कारण

  1. कुछ बच्चों को ऊपर का दूध हजम नहीं होता है।
  2. दूध ज्यादा पीने पर भी हजम नहीं होता है।
  3. दूध में कुछ कमी हो जाने पर भी ऐसा होता है।
  4. बच्चे की तबीयत सही न होने पर।

उपचार

  1. ऊपर का दूध हजम नहीं हो रहा हो तो माँ का दूध पिलाना चाहिए। यदि | माँ का दूध नहीं मिल पा रहा है तो फटे दूध का पानी देना चाहिए।
  2. दूध पिलाने के बाद डकार दिलानी चाहिए।
  3. सुहागा दूध में मिलाकर देना चाहिए।
  4. बाल जीवन घुट्टी देनी चाहिए।
  5. बच्चे को बिस्तर पर खुला छोड़ दीजिए, जिससे वह हाथ-पैर चला | सके, इससे उसका व्यायाम होता है।

चुनचुने होनी
लक्षण

  1. बच्चा रात में रोता है।
  2. मलद्वार लाल हो जाता है।
  3. सोते समय दाँत किट-किटाते हैं।
  4. बच्चे का रंग पीला पड़ने लगता है व कमजोर हो जाता है।
  5.  शिशु बार-बार मलद्वार को खुजाता है।

कारण

  1. पेट में बारीक-बारीक कीड़े हो जाते हैं।
  2. ये कीड़े मलद्वार में भी हो जाते हैं।
  3. दूध की अस्वच्छता के कारण।
  4. दूध में अधिक शक्करे होने पर।
  5. मलद्वार की सफाई ठीक से न होने पर।

उपचार

  1. मलद्वार की सफाई ढंग से करनी चाहिए।
  2. रात्रि के समय मलद्वार में सरसों का तेल लगा देना चाहिए।
  3. पोतड़े साफ पहनाने चाहिए।
  4. स्वच्छ बोतल में स्वच्छ दूध देना चाहिए।

अतिसार
लक्षण

  1. दस्तों की संख्या बहुत ज्यादा हो जाती है।
  2. मल पतला, पीला या राख के रंग का फेनदार होता है।
  3. मल दुर्गन्धयुक्त होता है।
  4. बच्चे को ज्वर हो जाता है।

कारण

  1. दाँत निकलने के समय भी यह रोग हो जाता है।
  2. जीवाणुओं के संक्रमण के कारण।
  3. यकृत की खराबी के कारण।
  4. शक्कर की मात्रा अधिक हो जाने पर।
  5. सब्जी की ज्यादा मात्रा देने पर।

उपचार

  1. शिशु को दूध कम देना चाहिए।
  2. पानी उबालकर पिलाना चाहिए।
  3. दूध पिलाने वाली माँ को भी पानी अधिक पीना चाहिए।
  4. अंगूर का रस, सन्तरे का रस देना चाहिए।
  5. बच्चे के आहार में पूर्णरूपेण सफाई रखनी चाहिए।

वमन
लक्षण

  1. कई बार बच्चा उल्टी करता है।
  2. बच्चे को कब्ज, तेज बुखार हो जाता है।
  3. बच्चा जो कुछ खाता है, तुरन्त उल्टी कर देता है।

कारण

  1. जब बच्चा अधिक दूध पी लेता है।
  2. बीमार होने पर।
  3. बच्चे को दूध पिलाने के बाद उछाला जाए या डकार न दिलाई जाए।

उपचार

  1. दूध पिलाने के बाद डकार दिलानी चाहिए।
  2. सुपाच्य वस्तु खाने को देनी चाहिए।
  3. सुहागा शहद में मिलाकर चटाना चाहिए।
  4. दूध कुछ समय तक नहीं पिलाना चाहिए।

प्रश्न 4.
एक नवजात शिशु की देखभाल करते समय किन-किन बातों पर बल दिया जाना चाहिए? (2018)
उत्तर:
नवजात शिशु की देखभाल Care of New Born शिशु के जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है। बच्चे के जन्म के बाद बच्चे को माँ का दूध सही तरीके से और पर्याप्त मात्रा में कैसे मिले, उसके पहनने के कपड़े कैसे हों, उसका बार-बार रोना, बार-बार नेपी गन्दा करना आदि बातों का ध्यान रखना जरूरी होता है। नवजात शिशु की देखभाल का सबसे पहला और जरूरी हिस्सा है कि उसे जन्म के तुरन्त बाद बच्चों के डॉक्टर (Pediatrician) को दिखाकर निश्चित कर लेना चाहिए कि बच्चा बिल्ल ठीक है।

नवजात शिशु अपना अधिकतर समय सोने में व्यतीत करते हैं, परन्तु बच्चे को प्रत्येक कुछ घण्टों के बाद जगा देना चाहिए। और जागने पर उसे अच्छी तरह से आहार देना, चाहिए। आपको उसकी नियमित दिनचर्या में आने वाले परिवर्तन के बारे में विशेष रूप से सजग रहना चाहिए, क्योंकि यह किसी गम्भीर बिमारी के लक्षण हो सकते हैं। यदि वह बहुत अधिक थका हुआ अथवा उनींदा नज़र आए, बहुत कम सजग दिखाई दे और आहार लेने के लिए न जागे, तो आपको अपने बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।

नवजात शिशु को साँस लेने के सामान्य तरीके पर स्थिर होने के लिए अर्थात् प्रति मिनट 20-40 साँस लेना शुरू करने के लिए सामान्य रूप से कुछ घण्टे का समय लगता है। अक्सर जब वह सो रहा होता है, तो वह सबसे अधिक नियमित रूप से साँस लेता है। कभी-कभी जब वह जागता है, तो बहुत थोड़ी देर के लिए तेजी से साँस ले सकता है और उसके बाद सामान्य तरीके पर लौट सकता है।

यदि आपको निम्नलिखित में से कुछ नजर आए, तो आपको अपने बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए

  1. लगातार तेज साँस लेना अर्थात् यदि उसकी आयु दो माह से कम है, तो प्रति मिनट साठ से अधिक साँस लेना अथवा यदि उसकी आयु 2-3 माह है, तो प्रति मिनट पचास से अधिक साँस लेना।
  2. साँस लेने के लिए प्रयास करना पड़ रहा हो और निगलने में कठिनाई हो रही हो।.
  3. साँस लेते समय नथुने चौड़े दिखाई देते हों।
  4. त्वचा और होंठों का रंग साँवला अथवा नीला दिखाई देता हो।

कई बार बच्चे को पेट निरन्तर फूला हुआ और कठोर महसूस हो रहा है और साथ ही उसने एक दिन अथवा अधिक समय से मल त्याग नहीं किया हो या पेट की गैस नहीं निकली है अथवा वह बार-बार उल्टी कर रहा हो, तो आपको उसे तत्काल डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए, क्योंकि यह आँतों से सम्बन्धित गम्भीर समस्या हो सकती है। जब कभी भी आपको बच्चा असामान्य तौर पर चिड़चिड़ा अथवा गर्म महसूस हो, तो उसका तापमान मापें। कान का तापमान मापना ज्यादा सुरक्षित विकल्प है और 3 माह से कम आयु के बच्चों के लिए ऐसा करने की विशेष सलाह दी जाती हैं।

यदि कान का तापमान 37.3°C/99.1°F से अधिक है अथवा कान का तापमान 100.4°F से अधिक है, तो आपको उसे डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए, क्योंकि यह संक्रमण का लक्षण हो सकता है। जल्दी चिकित्सीय सहायता मुहैया करना आवश्यक है, क्योंकि छोटे बच्चों की स्थिति बहुत जल्दी खराब हो सकती है।

शिशुओं में आसानी से और जल्दी ही पानी की कमी हो जाती है। सुनिश्चित करें कि आपका बच्चा पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थों का सेवन कर रहा है, विशेषकर जब वह उल्टी कर रहा हो अथवा उसे दस्त लग गए हों। पिछले 24 घण्टों में उसके द्वारा पीए गए दूध की मात्रा की गणना करें और इसकी उसके सामान्य आहार से तुलना करें, जोकि पहले महीने के दौरान प्रतिदिन 10-20 आउंस (300-600 मिली) होती है।

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