UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 21 Effect of Environment on Indian Social Life

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 21
Chapter Name Effect of Environment on Indian Social Life (पर्यावरण का भारतीय सामाजिक जीवन पर प्रभाव)
Number of Questions Solved 30
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 21 Effect of Environment on Indian Social Life (पर्यावरण का भारतीय सामाजिक जीवन पर प्रभाव)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
‘पर्यावरण की परिभाषा दीजिए। भारतीय जीवन पर भौगोलिक पर्यावरण के प्रत्यक्ष प्रभावों का विवेचन कीजिए। [2007]
या
भौगोलिक पर्यावरण किस प्रकार से सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है? [2013]
या
पर्यावरण की परिभाषा दीजिए। भौगोलिक पर्यावरण के प्रत्यक्ष प्रभावों की विवेचना कीजिए। [2007, 12]
या
पर्यावरण को परिभाषित कीजिए। [2015]
या
पर्यावरण क्या है? सामाजिक जीवन पर पर्यावरण का प्रभाव बताइए। [2016]
उत्तर:
‘पर्यावरण’एक विस्तृत अवधारणा है, इसे अंग्रेजी में ‘एनवायरनमेण्ट’ (Environment) कहते हैं। पर्यावरण का हमारे जीवन से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि पर्यावरण को स्वयं से पृथक् करना एक असम्भव-सी बात लगती है। सामाजिक मानव के विषय में पूर्ण अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पर्यावरण का अध्ययन किया जाये। यही कारण है कि समाजशास्त्र विषय के अन्तर्गत मनुष्य का अध्ययन पर्यावरण के सन्दर्भ में ही किया जाता है।

पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
‘पर्यावरण’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। ये शब्द हैं-‘परि’ और आवरण। ‘परि’ का अर्थ है चारों ओर’ तथा ‘आवरण’ का अर्थ है ‘घिरे हुए’ अथवा ढके हुए। इस प्रकार पर्यावरण का अर्थ हुआ – चारों ओर से घिरे हुए अथवा ढके हुए। दूसरे शब्दों में, ‘पर्यावरण’ शब्द का अर्थ उन वस्तुओं से है जो मनुष्य से अलग होने पर भी उसे चारों ओर से ढके या घेरे रहती है। संक्षेप में, वे सभी परिस्थितियाँ जो एक प्राणी के अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं तथा उसको चारों ओर से घेरे हुए अथवा ढके हुए हैं, उसका पर्यावरण कहलाती हैं। पर्यावरण को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं

इलियट के मतानुसार, “चेतन पदार्थ की इकाई से प्रभावकारी उद्दीपन और अन्तक्रिया के क्षेत्र को पर्यावरण कहते हैं।”
रॉस के अनुसार, “कोई भी बाहरी शक्ति, जो हमें प्रभावित करती है, पर्यावरण होती है।” प्रो० गिलबर्ट के शब्दों में, “वह वस्तु जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरती एवं उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालती है, पर्यावरण है।

उपर्युक्त परिभाषाओं द्वारा यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरण से तात्पर्य उस ‘सब कुछ से होता है जिसका अनुभव सामाजिक मनुष्य करता है तथा जिससे वह प्रभावित भी होता है।

भारतीय सामाजिक जीवन पर भौगोलिक पर्यावरण के प्रभाव

भौगोलिक पर्यावरण को प्राकृतिक पर्यावरण’ (Natural Environment) अथवा ‘अनियन्त्रित पर्यावरण’ (Uncontrolled Environment) भी कहते हैं। इस प्रकार के पर्यावरण से तात्पर्य हमारे चारों ओर के प्राकृतिक वातावरण से है। मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “भौगोलिक पर्यावरण उन दशाओं से मिलकर बनता है जिन्हें प्रकृति ने मनुष्य के लिए प्रदान किया।” लैण्डिस ने कहा है कि, “इसमें वे समस्त प्रभाव सम्मिलित होते हैं जो यदि मनुष्य द्वारा पृथ्वी से पूर्ण रूप से हटा दिये जाएँ, तब भी उनका अस्तित्व बनी रहे।” भौगोलिक पर्यावरण का मानव-जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से प्रभाव पड़ता है। भारतीय सामाजिक जीवन भी इस नियम का अपवाद नहीं है। भौगोलिक विभिन्नताओं के कारण ही हमारे देशवासियों की जीवन-शैली, प्रथाओं, परम्पराओं, खान-पान, वेशभूषा आदि में भी भिन्नता है। भौगोलिक पर्यावरण के भारतीय सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

(क) प्रत्यक्ष प्रभाव

1. जनसंख्या पर प्रभाव – मनुष्य उन्हीं स्थानों पर रहना अधिक पसन्द करता है, जहाँ की जलवायु ऋतुएँ, भूमि की बनावट व जल इत्यादि की सुविधाएँ उत्तम हैं। बहुत अधिक गर्म और बहुत अधिक ठण्डे तथा अत्यधिक वर्षा वाले भागों में लोग रहना पसन्द नहीं करते। कहने का तात्पर्य यह है कि जहाँ भौगोलिक पर्यावरण अनुकूल होता है वहाँ जनसंख्या का घनत्व भी अधिक होता है तथा प्रतिकूल पर्यावरण वाले स्थानों पर जनसंख्या का घनत्व बहुत कम पाया जाता है। यही कारण है कि हमारे देश में गंगा-यमुना वाले क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है और उसकी अपेक्षाकृत रेगिस्तान और हिमालय आदि
क्षेत्रों में जनसंख्या कम पायी जाती है।

2. “आवास की प्रकृति अथवा मानव निवास पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का ‘आवास’ की प्रकृति अथवा मनुष्य के निवास पर भी प्रभाव पड़ता है। बहुत अधिक गर्म प्रदेशों के लोग हवादार मकान बनवाते हैं; जैसे – भारत में बिहार, राजस्थान आदि प्रदेशों में। इसके विपरीत ठण्डे प्रदेशों में मकान ऐसे बनवाये जाते हैं जिनमें ठण्ड से बचाव किया जा सके। भारत के मैदानी प्रदेशों में गारा-मिट्टी और ईंटों के मकान बनाये जाते हैं, जब कि पहाड़ी क्षेत्रों में पत्थरों और लकड़ी के मकान बनाये जाते हैं।

3. वेशभूषा एवं खानपान पर प्रभाव – ठण्डी जलवायु वाले स्थानों के लोग अधिकांशतः मांसाहारी होते हैं तथा ऊनी वस्त्र धारण करते हैं, जब कि गर्म स्थानों के लोग अधिकांशतः शाकाहारी होते हैं और वर्ष में अधिक समय वे सूती वस्त्र धारण करते हैं। उदाहरण के लिए, कश्मीर में रहने वाले लोग मांस, मछली, अण्डा और इसी प्रकार के अन्य गर्म खाद्य-पदार्थों का सेवन अधिक करते हैं तथा चमड़े, खाल और ऊन से बने वस्त्रों का अधिक प्रयोग करते हैं। इसके विपरीत गर्म प्रदेशों; जैसे-राजस्थान, बिहार आदि के लोग सूती, हल्के व ढीले वस्त्रों का अधिक प्रयोग करते हैं तथा ठण्डे व शीघ्र पचने वाले खाद्य-पदार्थों का सेवन करते हैं।

4. व्यवसाय पर प्रभाव – मनुष्य के मूल व्यवसाय भी भौगोलिक पर्यावरण पर आधारित होते हैं। उदाहरणार्थ-भारत के हर प्रदेश में हर प्रकार की फसल उगाना जलवायु की विभिन्नता के कारण सम्भव नहीं है। अत: जिस प्रदेश में जो फसल पैदा नहीं होती, उस प्रदेश से वह कृषि-उपज जहाँ वह खूब पैदा करती हैं मँगाकर अपनी जरूरत पूरी करता है और इस प्रकार विनिमय व्यापार (Exchange Trade) का जन्म होता है।

5. आवागमन के साधनों पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव आवागमन के साधनों पर भी पड़ता है। जिन स्थानों पर अति शीत के कारण भूमि तथा समुद्र बर्फ से ढके रहते हैं। वहाँ पर किसी भी प्रकार के आने-जाने के रास्ते बनाना सम्भव नहीं है। अधिक वर्षा वाले भागों में भी रेलवे ट्रैक या सड़कें नहीं बनायी जा सकतीं। मरुस्थलों में भी रेतीली भूमि होने के कारण सड़कें बनाना बहुत कठिन होता है। कुहरायुक्त वातावरण में वायुयान की उड़ान असम्भव है। इसीलिए समतल भूमि पर जहाँ वर्षा सामान्य होती है, मार्ग (सड़कें, रेलवे ट्रैक) बनाना बहुत आसान होता है। यही कारण है कि भारत के अनेक भागों में (जो कि अधिकांशतः मैदानी क्षेत्र हैं) आवागमन के साधन अधिक हैं। परन्तु पर्वतीय प्रदेशों में ऐसा नहीं है।

(ख) अप्रत्यक्ष प्रभाव

1. उद्योग-धन्धों पर प्रभाव  – अर्थशास्त्रीय उद्योगों के स्थानीयकरण का सिद्धान्त यही स्पष्ट करता है कि किसी भी विशेष उद्योग की स्थापना के लिए विशेष भौगोलिक पर्यावरण की आवश्यकता पड़ती है। लोहे के कारखानों का बिहार में अधिक मात्रा में होने का मुख्य कारण वहाँ कोयले की खानों का अधिक होना है। अहमदाबाद और मुम्बई में कपास की खेती अधिक होने के कारण वहाँ कपड़ा मिलों की अधिकता है। इसी प्रकार फिल्म उद्योग के लिए साफ आसमान, प्रकाश और स्वच्छ मौसम की आवश्यकता होती है। इसीलिए यह उद्योग मुम्बई में सबसे अधिक विकसित है।।

2. धर्म, साहित्य व कला पर प्रभाव – जिन वस्तुओं से मनुष्य अपने जीवन का निर्वाह करता है उसके प्रति उसके मन में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वह उनकी पूजा करने लगता है। उदाहरण के लिए, भारत के लोगों द्वारा गंगा, यमुना, सूर्य आदि की पूजा की जाती है। साहित्य पर भी पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ-रेगिस्तानी क्षेत्र में रहने वाला साहित्यकार अपने साहित्य में ऊँट’ या खजूर के पेड़ों का वर्णन करते हुए मिलता है। इसी प्रकार समुद्री तट के निकटतम प्रदेश में रहने वाला चित्रकार जितनी अच्छी तरह समुद्र का चित्र चित्रित कर सकता है, उतना पहाड़ी इलाके में रहने वाला नहीं। रामायण, महाभारत आदि रचनाओं पर भी पर्यावरण का ही प्रभाव देखने को मिलता है।

3. समाज-जीवन पर प्रभाव – विभिन्न प्राकृतिक या भौगोलिक परिस्थितियों के कारण ही भिन्न-भिन्न रीति-रिवाजों का जन्म होता है। हमारे देश के विभिन्न प्रदेशों के रीति-रिवाजों, प्रथाओं, भोजन, साहित्य, कला आदि में जो विभिन्नताएँ विद्यमान हैं, उनके पीछे मूल कारण भौगोलिक अथवा प्राकृतिक पर्यावरण की विभिन्नता ही है।

4. सामाजिक संगठन पर प्रभाव – भौगोलिक पर्यावरण का सर्वाधिक प्रभाव सामाजिक संगठन पर पड़ता है। लीप्ले ने लिखा है कि ‘‘ऐसे पर्वतीय प्रदेशों में जहाँ खाद्यान्न की कमी होती है। वहाँ जनसंख्या की वृद्धि अभिशाप मानी जाती है और ऐसी विवाह संस्थाएँ स्थापित की जाती हैं जिनसे जनसंख्या न बढ़ पाये।” यही कारण है कि भारत में जौनसार बाबर में बहुत-से “भाइयों की केवल एक ही पत्नी होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भौगोलिक पर्यावरण का भारतीय सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 2
भौगोलिक कारकों का मानव के सामाजिक जीवन पर कैसे प्रभाव पड़ता है.?
उत्तर:
कई भूगोलविदों ने भौगोलिक कारकों एवं सामाजिक संस्थाओं का सम्बन्ध प्रकट किया है। उदाहरण के लिए, जिन स्थानों पर खाने-पीने एवं रहने की सुविधाएँ होती हैं, वहाँ संयुक्त परिवार पाये जाते हैं और जाँ-इनका अभाव होता है, वहाँ एकाकी परिबार। जहाँ प्रकृति से संघर्ष करना होता है, वहाँ पुरुषप्रधान समाज होते हैं। इसी प्रकार से जहाँ जीविकोपार्जन की सुविधाएँ सरलता से मिल जाती हैं और कृषि की प्रधानता होती है, वहाँ बहुपत्नी प्रथा तथा जहाँ जीवन-यापन कठिन होता है, वहाँ बत्तिाप्रथा अथवा एक विवाह की प्रथा पायी जाती है। इसका कारण यह है कि संघर्षपूर्ण पर्यावरण में स्त्रियों का भरण-पोषण सम्भव न होने से कन्या-वध आदि की प्रथा पायी जाती है, जिससे उनकी संख्या घट जाती है। जिन स्थानों पर जीवन-यापन के लिए कठोर श्रम एवं सामूहिक प्रयास करना होता है, वहाँ सामाजिक संगठन सुदृढ़ होता है।

भारत के भौगोलिक पर्यावरण ने यहाँ के सामाजिक जीवन को प्रभावित किया है। खस एवं टोडा जनजातियाँ पहाड़ी भागों में निवास करती हैं, जहाँ परिवार को आर्थिक भरण-पोषण कठिनाई से होता है। उन्हें जीवन-यापन के लिए प्रकृति से घोर संघर्ष करना पड़ता है। इस संघर्ष में स्त्रियाँ और भी कमजोर होती हैं। अत: वहाँ जन्म के समय ही लड़कियों को मार देने की प्रथा पायी जाती है, जिसके कारण इन समाजों में पुरुषों की अधिकता एवं स्त्रियों की कमी पायी जाती है। इस विषम लिंग अनुपात के कारण यहाँ बहुपति विवाह की प्रथा विकसित हुई। दूसरी ओर उत्तरी भारत के मैदानी भागों में जीवन-यापन सरल है; इससे वहाँ लिंग-अनुपात लगभग समान है, अतः वहाँ एक विवाह प्रथा विकसित हुई और सम्पन्न लोग एकाधिक पत्नियाँ भी रखने लगे, जिनसे बहुपत्नी प्रथा का जन्म हुआ।

दक्षिणी भारत के पठारी क्षेत्र होने के कारण लोगों को दूर क्षेत्र तक गमन कठिन था। अत: उनका विवाह एवं नातेदारी का क्षेत्र अपने गाँवों या निकटवर्ती गाँवों तक ही सीमित रहा, जब कि उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में विवाह एवं नातेदारी का विस्तार दूर-दराज के क्षेत्रों तक पाया जाता है। मैदानी क्षेत्रों में पुरुष का दबदबा अधिक होने से पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था ने जन्म लिया। गारो, खासी और जयन्तिया जनजातियाँ जो कि मातृसत्तात्मक हैं, पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती हैं। इनमें पुरुष जीवन-यापन की सुविधाएँ जुटाने, शिकार करने एवं जंगलों से कन्द-मूल-फल एकत्रित करने एवं कृषि के लिए अधिकांश समय तक घर से बाहर ही रहता है। ऐसी स्थिति में परिवार एवं बच्चों के पालन-पोषण का दायित्व महिलाओं पर आ जाता है, इससे परिवार में महिलाओं को प्रभुत्व स्थापित हुआ एवं मातृसत्तात्मक परिवार पनपे।

प्रश्न 3
सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण का भारतीय सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
सामाजिक जीवन केवल भौगोलिक पर्यावरण से ही प्रभावित नहीं होता, वरन् सामाजिकसांस्कृतिक पर्यावरण भी उसे प्रभावित करता है। सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण स्वयं मानव द्वारा निर्मित होता है। उसमें मानव द्वारा निर्मित भौतिक वस्तुएँ; जैसे—पेन, घड़ी, रेडियो, मकान, सड़क, मशीनें, कलाकृतियाँ, धार्मिक स्थल और हजारों-लाखों वस्तुएँ सम्मिलित हैं। अभौतिक वस्तुओं में सामाजिक संस्थाएँ, कला, विज्ञान, धर्म, विश्वास, परम्पराएँ, कानून और मानव का ज्ञान आदि आते हैं। भारत इन भौतिक एवं अभौतिक तथ्यों से निर्मित सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण की भूमि रहा है। यहाँ समय-समय पर आक्रमणकारियों के रूप में विभिन्न प्रजातियों, धर्मों एवं संस्कृतियों से सम्बन्धित लोग भी आते रहे हैं, जिन्होंने यहाँ के निवासियों की जीवन-विधि को प्रभावित किया है।

भारतीयों का खान-पान, रहन-सहन, परिवार, विवाह, नातेदारी की प्रथाएँ, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन सदैव एक-से नहीं रहे हैं, वरन् समय के साथ-साथ बदलते रहे हैं। वैदिक काल, धर्मशास्त्र काल, मुगलकाल, अंग्रेजों के शासन के समय एवं स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद के सामाजिक जीवन में भिन्नताएँ पायी जाती हैं। वैदिक युग में वर्ण एवं आश्रम-व्यवस्था ने भारतीयों के जीवन को प्रभावित किया। उस समय धर्मशास्त्र काल में विभिन्न धर्म-ग्रन्थों की रचना की गयी। जिनमें परिवार, विवाह, शिक्षा, आर्थिक जीवन से सम्बन्धित विभिन्न नियमों का भी उल्लेख किया गया। इसी समय वर्णव्यवस्था ने कठोर जाति-व्यवस्था का रूप ले लिया और जाति ने भारतीय जीवन के प्रत्येक पक्ष को निर्धारित किया। स्त्रियों को भी अनेक अधिकारों से वंचित कर दिया गया।

मुगलकाल में विवाह व सती–प्रथा का प्रचलन बढ़ा तथा विधवा विवाहों पर रोक लगा दी गयी। अन्तर्जातीय एवं अन्तर्वर्गीय विवाहों पर भी रोक लगी। इस्लाम ने भारतीयों के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन, खान-पान एवं पहनावे में कई परिवर्तन किये। अंग्रेजी काल में भारतीयों का जीवन पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित हुआ। उनके समय में सम्पूर्ण भारत एक राजनीतिक सत्ता के अधीन शासित हुआ, औद्योगीकरण की नींव रखी गयी, अनेक नवीन आविष्कार जो पश्चिम में हुए, उनसे भारतीय भी परिचित हुए। कृषि एवं उत्पादन के नये तरीके अपनाये गये। मशीनों का प्रचलन बढ़ा। अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली प्रचलित हुई, खान-पान एवं पहनावे में परिवर्तन आया। चुकन्दर, शलगम, मांस-मदिरा का प्रयोग बढ़ा। टेबल-कुर्सी पर बैठकर, काँटे-छुरी एवं क्रॉकरी के माध्यम से भोजन किया जाने लगा। पैण्ट, शर्ट, टाई एवं कोट का प्रचलन हुआ।

आजादी के बाद भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण में एक बार फिर परिवर्तन हुआ। एकाकी परिवार, अन्तर्जातीय विवाह, विलम्ब विवाह का प्रचलन बढ़ा, विधवा पुनर्विवाह होने लगे, नातेदारी का महत्त्व घटने लगा, धर्मनिरपेक्ष मूल्य पनपे। सार्वभौमिक शिक्षा प्रदान की जाने लगी। प्रजातान्त्रिक मूल्य स्थापित हुए। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं एवं सामुदायिक विकास योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण भारत एवं सम्पूर्ण भारत के सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक जीवन को उन्नत करने का प्रयास किया गया, जिसके फलस्वरूप वर्तमान में भारतीयों का जो सामाजिक जीवन है वह वैदिक काल एवं मध्यकाल से एकदम भिन्न दिशा की ओर अग्रसर हुआ। फिर भी धर्म एवं अध्यात्मवाद की प्रधानता, कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त, संयुक्त परिवार प्रणाली और जाति-प्रथा आज भी भारतीयों के सामाजिक जीवन का मूलाधार बने हुए हैं। स्पष्ट है कि भारतीयों के सामाजिक जीवन को प्रभावित करने में भौगोलिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण ने पर्याप्त योगदान दिया।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
भौगालिक पर्यावरण मानव के अपराधी व्यवहारों को कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर:
अनेक अपराधशास्त्रियों का मत है कि भौगोलिक पर्यावरण का अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति पर भी प्रभाव पड़ता है। गर्मियों में व्यक्ति के विरुद्ध एवं सर्दियों में सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध अधिक होते हैं। उपजाऊ भूमि, अनुकूल वर्षा एवं प्राकृतिक साधनों की अधिकता होने पर अपराध कम होंगे और इसके विपरीत स्थितियों में अधिक। उत्तरी भारत के आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण यहाँ जनाधिक्य है। जनसंख्या के दबाव के कारण यहाँ चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या आदि अपराधों की घटनाएँ अधिक पायी जाती हैं। इनकी तुलना में दक्षिणी भारत शान्त क्षेत्र है।
इसी प्रकार जब भारत में अकाल पड़ता है तब भी अपराधों की दर में वृद्धि होती है तथा जब वर्षा पर्याप्त होती है, फसलों की पैदावार अच्छी होती है तो आर्थिक प्रवृत्ति के अपराध घट जाते हैं।

प्रश्न 2
भौगोलिक पर्यावरण किस प्रकार से सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है ? [2009]
उत्तर:
भौगोलिक पर्यावरण सामाजिक जीवन को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों रूपों में प्रभावित करता है। कुछ भौगोलिकविदों का कहना है कि भौगोलिक दशाएँ ही मनुष्य के सम्पूर्ण सामाजिकसांस्कृतिक जीवन, विभिन्न संस्थाओं, मानवीय व्यवहारों एवं सभ्यता के स्वरूप का निर्धारण करती हैं। भौगोलिकविदों के मतानुसार

  1. जनसंख्या की रचना एवं घनत्व,
  2. व्यवसाय,
  3.  सामाजिक व्यवहार,
  4. मकान-निर्माण,
  5. भोजन,
  6. वेशभूषा,
  7. सामाजिक संस्थाओं (अर्थात् विवाह, अधिकार, विश्वास आदि),
  8. उद्योग-धन्धों,
  9. आवागमन के साधन,
  10.  कला व साहित्य इत्यादि पर भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है।

इतना ही नहीं; कुछ विद्वानों (हंटिंग्टन, बकल, मॉण्टेस्क्यू, डेक्सटर आदि) ने तो यहाँ तक कहा है कि सभी मानवीय व्यवहारों; जैसे – मनुष्य की कार्यकुशलता, आत्महत्या, सम्पत्ति एवं व्यक्ति के विरुद्ध अपराध, मानसिक सन्तुलन, जन्म एवं मृत्यु-दर इत्यादि पर जलवायु तथा ऋतुओं का प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 3
पर्यावरण के प्रकार अथवा भेद बताइए। [2015]
उत्तर:
पर्यावरण के प्रकारों अथवा भेदों के विषय में विद्वानों ने विभिन्न प्रकार के मत व्यक्त किये हैं; जैसे(क) लैण्डिस (Landis) के अनुसार, पर्यावरण के तीन प्रकार हैं
(i) प्राकृतिक,
(ii) सामाजिक तथा
(iii) सांस्कृतिक।

(ख) ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार पर्यावरण के दो प्रकार हैं
(i) प्राकृतिक तथा
(ii) मनुष्यकृत।।

(ग) गिलिन तथा गिलिन के अनुसार भी पर्यावरण के दो भेद हैं
(i) प्राकृतिक पर्यावरण तथा
(ii) सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण।

सामान्य आधार पर पर्यावरण को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है

  1. भौगोलिक या प्राकृतिक पर्यावरण – इसमें प्रकृति प्रदत्त वस्तुएँ आती हैं; जैसे-स्थलमण्डल, जलमण्डल, वायुमण्डल इत्यादि। ये सभी अपनी-अपनी शक्तियों से अनेक क्रियाएँ करते हैं। जिससे पृथ्वी पर अनेक भौगोलिक दशाओं की उत्पत्ति होती है तथा ये सभी दशाएँ मानव के जीवन पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालती हैं।
  2. सामाजिक पर्यावरण – सभी सामाजिक रीति-रिवाज, प्रथाएँ, परम्पराएँ, लोकाचार आदि सामाजिक पर्यावरण के अन्तर्गत आती हैं।
  3.  सांस्कृतिक पर्यावरण – किसी समाज का सांस्कृतिक पक्ष सांस्कृतिक पर्यावरण कहलाता है। इसके अन्तर्गत उन समस्त वस्तुओं का समावेश होता है जिनको निर्माण स्वयं मनुष्य ने किया है; जैसे-धर्म, नैतिकता, भाषा, साहित्य, प्रथाएँ, लोकाचार, कानून, व्यवहार-प्रतिमान इत्यादि। इस प्रकार के पर्यावरण को सामाजिक विरासत’ या ‘संस्कृति’ (Culture) भी कहते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
भौगोलिक पर्यावरण का सामाजिक संगठन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
भौगोलिक पर्यावरण विविध प्रकार से सामाजिक संगठन को प्रभावित करता है। इसके प्रभाव प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में पड़ते हैं। सामाजिक संगठन पर पड़ने वाले इसके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. भौगोलिक पर्यावरण जनसंख्या के घनत्व का निर्धारण करता है। अधिक जनसंख्या अथवा कम जनसंख्या सामाजिक जीवन को प्रभावित करती है।
  2. भौगोलिक पर्यावरण का खान-पान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि भौगोलिक पर्यावरण अनुकूल होता है तो आर्थिक समृद्धि के कारण व्यक्तियों का खान-पान उच्च स्तर को होता है।
  3. भौगोलिक पर्यावरण धार्मिक विश्वासों को प्रभावित करता है। उदाहरणार्थ कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ इन्द्र अर्थात् वर्षा के देवता की पूजा का विशेष महत्त्व होता है।
  4. भौगोलिक पर्यावरण मानव व्यवहार को प्रभावित करता है। भारत के विभिन्न राज्यों के रीति| रिवाज, खान-पान तथा साहित्य आदि में अन्तर पाए जाने का मूल कारण भौगोलिक पर्यावरण की विभिन्नता ही है।

प्रश्न 2
सांस्कृतिक पर्यावरण का मानव जीवन के आर्थिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
सांस्कृतिक पर्यावरण व्यक्तियों के आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करता है। यदि सांस्कृतिक मूल्य आर्थिक विकास में सहायता देने वाले हैं तो वहाँ व्यक्तियों को आर्थिक जीवन अधिक उन्नत होगा। मैक्स वेबर के अनुसार, प्रोटेस्टेण्ट ईसाइयों की धार्मिक मान्यताएँ पूँजीवादी प्रवृत्ति के विकास में सहायक हुई हैं। इसीलिए प्रोटेस्टेण्ट ईसाइयों के बहुमत वाले देशों में पूँजीवाद अधिक है। यदि सांस्कृतिक मूल्य आर्थिक विकास में बाधक हैं तो व्यक्तियों के आर्थिक जीवन पर इनका कुप्रभाव पड़ता है तथा वे आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए रहते हैं।

प्रश्न 3
भौगोलिक पर्यावरण का मानसिक क्षमता पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
भौगोलिक पर्यावरण का मानसिक क्षमता पर प्रभाव के सन्दर्भ में हंटिंग्टन का मत है कि जब तापमान बहुत गिर जाता है तो मानसिक योग्यता की अधिक हानि होती है और जलवायु में शीघ्र पुनः परिवर्तन न हो तो इसमें निरन्तर कमी आती जाती है। यदि हवा में कुछ गर्मी आ जाए तो इसमें कुछ सुधार होता है, लेकिन हवी अधिक गर्म हो जाने पर मानसिक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अत्यधिक गर्मी में शीत ऋतु की तुलना में भारतीयों की मानसिक क्षमता कम हो जाती है।

प्रश्न 4
प्रदूषण के प्रमुख दो सामाजिक प्रभावों को लिखिए।
उत्तर:
प्रदूषण मानव तथा अन्य जीवों के जीवन-चक्र पर हानिकारक प्रभाव डालता है। अत: यह मानव तथा समाज दोनों के लिए हानिकारक है। प्रदूषण के दो प्रमुख हानिकारक प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. मानव के जीवन-स्तर पर प्रभाव – मानव-जीवन पर प्राकृतिक सम्पदाओं का प्रभाव पड़ता है। यह प्राकृतिक सम्पदाएँ भूमि, पेड़-पौधे, खनिज-पदार्थ, जल, वायु आदि के रूप में मनुष्य को उपलब्ध हैं। प्रदूषण के कारण इन सभी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण के कारण फसलों, फलों, सब्जियों आदि पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जलीय जीव (मछलियाँ आदि) नष्ट हो जाते हैं। इससे वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि हो जाती है तथा लोगों को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ता है।
  2. प्राणियों के खाद्य-पदार्थों में कमी – वनों की अन्धाधुन्ध कटाई के परिणामस्वरूप जीव जन्तुओं को चारा तक उपलब्ध नहीं हो पा रहा है, जिस कारण हमें पशुओं से जो पदार्थ प्राप्त होते हैं, वे नष्ट होते जा रहे हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
नगरीकरण से पर्यावरण प्रभावित होता है। (हाँ/नहीं)
या
जनसंख्या से पर्यावरण प्रभावित है। (हाँ/नहीं) [2015]
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 2
भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव प्रत्यक्ष भी होता है और …….. भी।
उत्तर:
अप्रत्यक्ष

प्रश्न 3
सभ्यता की वृद्धि के साथ भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव भी …….. जाता है।
उत्तर:
घटता।

प्रश्न 4
उस बाह्य शक्ति को क्या कहते हैं जो हमें प्रभावित करती है?
उत्तर:
पर्यावरण।

प्रश्न 5
किस विद्वान ने प्राकृतिक परिस्थितियों को धार्मिक व्यवहार से जोड़ने का प्रयास किया है।
उत्तर:
मैक्स मूलर।।

प्रश्न 6
‘भौगोलिक निर्णायकवाद’ की संकल्पना को किसने विकसित किया? [2008]
उत्तर:
बकल ने।

प्रश्न 7
“संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
हर्सकोविट्स का।।

प्रश्न 8
चिपको आन्दोलन किसने चलाया? [2009]
उत्तर:
सुन्दरलाल बहुगुणा ने।

प्रश्न 9
प्रदूषण की एक परिभाषा दीजिए। [2009]
उत्तर:
प्रदूषण हमारी वायु, मृदा एवं जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविके लक्षणों में अवांछनीय परिवर्तन है जो मानव जीवन तथा अन्य जीवों पर हानिकारक प्रभाव डालता है।

प्रश्न10
संस्कृति मानव……….वातावरण है। [2009]
उत्तर:
निर्मित।

प्रश्न 11
संस्कृति के दो प्रकार लिखिए। [2009]
उत्तर:
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति।

प्रश्न 12
सांस्कृतिक पर्यावरण की एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
हर्सकोविट्स के अनुसार, “सांस्कृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत वे सभी भौतिक और अभौतिक वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिनका निर्माण मानव ने किया है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“पर्यावरण किसी भी उस बाह्य शक्ति को कहते हैं जो हमें प्रभावित करती है।” यह परिभाषा किस विद्वान ने प्रस्तुत की है?
(क) जिसबर्ट
(ख) रॉस
(ग) मैकाइवर
(घ) डेविस

प्रश्न 2
प्रकृति द्वारा मनुष्य को प्रदत्त दशाओं से निर्मित पर्यावरण को क्या कहा जाता है?
(क) भौगोलिक
(ख) सामाजिक
(ग) सांस्कृतिक
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 3
निम्नलिखित में से किस विद्वान ने भौगोलिक निश्चयवाद का समर्थन किया है?
(क) बकल
(ख) लीप्ले
(ग) हटिंग्टन
(घ) ये सभी

प्रश्न 4
भौगोलिक पर्यावरण किन तत्त्वों से बनता है?
(क) मनुष्य
(ख) प्राकृतिक दशाएँ
(ग) धार्मिक विश्वास
(घ) प्रथाएँ

प्रश्न 5
वह कौन-सा सिद्धान्त है जो सम्पूर्ण मानवीय क्रियाओं को भौगोलिक पर्यावरण के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयास करता है?
(क) भौगोलिक निर्णायकवाद
(ख) तकनीकी निर्णायकवाद
(ग) सांस्कृतिक निर्णायकवाद
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 6
हंटिंग्टन किस सम्प्रदाय का समर्थक है?
(क) भौगोलिक निर्णायकवाद
(ख) तकनीकी निर्णायकवाद
(ग) सांस्कृतिक निर्णायकवाद
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 7
भारतीय सरकार ने गंगा विकास प्राधिकरण’ की स्थापना किस सन में की थी?
(क) सन् 1984 में
(ख) सन् 1985 में
(ग) सन् 1986 में
(घ) सन् 1987 में

प्रश्न 8
पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। [2009]
(क) 5 जून को
(ख) 24 जून को
(ग) 6 जून को
(घ) 20 जून को

उत्तर
1, (ख) रॉस,
2. (ख) सामाजिक,
3. (घ) ये सभी,
4. (ख) प्राकृतिक दशाएँ,
5. (क) भौगोलिक निर्णायकवाद,
6. (क) भौगोलिक निर्णायकवाद,
7. (ख) सन् 1985 में,
8. (क) 5 जून को।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 4 Social Control

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 4 Social Control (सामाजिक नियन्त्रण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 4 Social Control (सामाजिक नियन्त्रण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 4
Chapter Name Social Control
(सामाजिक नियन्त्रण)
Number of Questions Solved 51
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 4 Social Control (सामाजिक नियन्त्रण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक नियन्त्रण से आप क्या समझते हैं ?  इसके क्या उद्देश्य हैं? सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका पर प्रकाश डालिए। [2009, 10]
या
सामाजिक नियन्त्रण क्या है? धर्म सामाजिक नियन्त्रण को कैसे प्रभावित करता है? [2016]
या
सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2012, 13, 16]
या
धर्म से आप क्या समझते हैं? सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका की व्याख्या कीजिए। [2007, 10, 11, 13]
या
सामाजिक नियन्त्रण पर आत्म-नियन्त्रण के प्रभाव को दर्शाइए। [2017]
उतर:

सामाजिक नियन्त्रण का अर्थ

समाज एक व्यवस्था का नाम है। समाज का अस्तित्व तभी तक है जब तक उसमें व्यवस्था बनी रहती है। समाज के सदस्यों के व्यवहारों को नियन्त्रित करके ही यह व्यवस्था बनी रह सकती है। इस व्यवस्था के बनाने में कुछ शक्तियाँ प्रभावी होती हैं। वास्तव में, ये शक्तियाँ ही सामाजिक नियन्त्रण के रूप में जानी जाती हैं। समाज के प्रत्येक व्यक्ति का प्रयास रहता है कि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरों के हितों को कुचल डाले। वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में उचित-अनुचित का विचार न करके अव्यवस्था को जन्म देता है। सामाजिक नियन्त्रण ही वह शक्ति है जो उसे उच्छंखलता करने से रोकती है। जिस विधि से समाज के सदस्यों के व्यवहारों को सुव्यवस्थित तथा नियन्त्रित किया जाता है, उसे ही सामाजिक नियन्त्रण कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, समाज द्वारा व्यक्तियों एवं समूहों के सामान्य व्यवहारों पर जो नियन्त्रण लगाया जाता है, सामान्य रूप से उसे ही सामाजिक नियन्त्रण की संज्ञा दी जाती है। वास्तव में सामाजिक नियन्त्रण समाजीकरण का पालक व रक्षक है तथा मानव के

सामाजिक जीवन की एक अनिवार्य दशा है।

सामाजिक नियन्त्रण की परिभाषा सामाजिक नियन्त्रण का वास्तविक अर्थ जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं पर दृष्टि निक्षेप करना। होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक नियन्त्रण को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है|

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, सामाजिक नियन्त्रण का तात्पर्य उस तरीके से है जिससे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की एकता और उसका स्थायित्व बना रहता है। इसके द्वारा यह समस्त व्यवस्था एक परिवर्तनशील सन्तुलन के रूप में क्रियाशील रहती है।”

जोसेफ रोसेक के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण उन नियोजित या अनियोजित क्रियाओं के लिए प्रयोग किया जाने वाला सामूहिक शब्द है जिससे व्यक्ति को समूह के मूल्यों एवं रीति-रिवाजों को सिखाया जाता है, उन्हें मानने का अनुरोध किया जाता है अथवा विवश किया जाता है।’

लुण्डबर्ग के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण एक दशा है जिसमें व्यक्तियों को अन्य व्यक्तियों द्वारा कार्य या विश्वास के सामूहिक प्रमापों को मानने के लिए, जब अन्य आदर्श भी प्राप्त हों, विवश किया जाता है।

जॉर्ज एटबरी व अन्य के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण से तात्पर्य उस तरीके से है जिससे समाज सामाजिक सम्बन्धों में एकरूपता एवं स्थिरता प्राप्त करता है।”

ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, “दबाव के वे प्रतिमान जो व्यवस्था एवं प्रस्थापित नियमों को बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं, सामाजिक नियन्त्रण कहे जा सकते हैं।”

धर्म

धर्म कुछ अलौकिक विश्वासों और ईश्वरीय सत्ता पर आधारित एक शक्ति है जिसके नियमों का पालन व्यक्ति “पाप और पुण्य” अथवा ईश्वरीय शक्ति के भय के कारण करता है। धर्म एक आन्तरिक अलौकिक प्रभाव के द्वारा व्यक्ति और समूह के जीवन को नियन्त्रित करता है।

सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका तथा उद्देश्य या महत्त्व

सामाजिक जीवन में धर्म का महत्त्व बहुत अधिक है। यह व्यक्ति को बुरे कार्यों से बचाकर सामाजिक मूल्यों और आदर्शों की रक्षा करता है। सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में धर्म की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण रहती है। धर्म धार्मिक मूल्यों की सुरक्षा करके समाज को संगठित रखते हैं। धार्मिक नियमों को तोड़ना, पाप बटोरना है। धर्म के विरुद्ध जाकर ईश्वर को नाराज करना है। इन सब भावनाओं से अभिभूत मानव सामाजिक आदर्शों का पालन करके सामाजिक नियन्त्रण को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करता है। सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका के रूप में धर्म के महत्त्व को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है

1. धर्म मानव-व्यवहार को नियन्त्रित करता है-धर्म मानव के व्यवहार को नियन्त्रित करने का महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। अलौकिक सत्ता के भय से व्यक्ति स्वत: अपने व्यवहार को नियन्त्रित रखता है। धर्म का जादुई प्रभाव व्यक्ति को सत्य भाषण, अचौर्य, अहिंसक, दयावान, निष्ठावान तथा आज्ञाकारी बनने की प्रेरणा देकर सामाजिक आदर्शों के पालन में सहायक होता है। नियन्त्रित मानव-व्यवहार सामाजिक नियन्त्रण का पथ प्रशस्त करता है।

उदाहरणार्थ-ईसाइयों और मुसलमानों में पादरी और मुल्ला-मौलवी अपनेअपने अनुयायियों के सामाजिक जीवन के नियन्त्रक के रूप में कार्य करते हैं। वास्तव में, धर्म के नियमों के विरुद्ध आचरण ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन माना जाता है। वह पाप है। इससे व्यक्ति का न केवल इहलोक, वरन् परलोक भी बिगड़ जाता है। हिन्दुओं में व्याप्त जाति-प्रथा का आधार भी धर्म है, जो व्यक्ति के जीवन का सम्पूर्ण सन्दर्भ बन गयी है; अतः भारतीय राजनीति भी जातिवाद से कलुषित हो गयी है।

2. सामाजिक संघर्षों पर नियन्त्रण-समाज सहयोग और संघर्ष का गंगा-जमुनी मेल है। व्यक्तिगत स्वार्थ समाज में संघर्ष को जन्म देते हैं। धर्म व्यक्ति को कर्तव्य-पालन, त्याग और बलिदान के पथ पर अग्रसर करके व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति के स्थान पर यह समष्टि के कल्याण की राह दिखाता है, जिससे संघर्ष टल जाते हैं। और सामाजिक नियन्त्रण बना रहता है।

3. सदगुणों का विकास-सभी धर्म आदर्शों और मूल्यों की खान होते हैं। धर्म का पालन व्यक्ति में सद्गुणों का बीज रोप देता है। व्यक्ति प्रेम, त्याग, दया, सच्चाई, ईमानदारी, अहिंसा और सहयोग आदि सद्गुणों का संचय करके सदाचरण द्वारा सामाजिक नियन्त्रण को अक्षुण्ण बनाये रखता है।

4. पवित्रता की भावना का उदय-धर्म पवित्रता की पृष्ठभूमि से उदित होता है। धर्म-पालन से मन में पवित्रता का भाव अंकुरित होता है। पवित्रता का यह भाव व्यक्ति को दुष्कर्म करने से बचाता है। अपवित्र कार्य सामाजिक मूल्यों का हनन कर विघटन उत्पन्न करते हैं। धर्म पवित्र भाव जगाकर सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देता है।

5. संस्कारों का उदय-धर्म संस्कार और कर्मकाण्डों की डोर से बँधा है। व्यक्ति विभिन्न संस्कारों की पूर्ति के लिए धर्माचरण करता है। इस प्रकार संस्कारों का निर्वहन करने वाला व्यक्ति स्वतः सामाजिक नियन्त्रण” बन जाता है।

6. सामाजिक परिवर्तन-की प्रक्रिया तीव्र होने के साथ ही सामाजिक टने लगता है। धर्म सामाजिक परिवर्तन पर अंकुश लगाकर सामाजिक, को, ये रखता है। धर्म मनुष्यों को सामाजिक आदर्शों को ग्रहण कर की प्रेरणा सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा करता है। धार्मिक विश्वास सामाजिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

7. आर्थिक जीवन पर नियन्त्रण-आर्थिक क्रियाएँ सामाजिक अभिन्न अंग हैं। धनोत्पादन में व्यक्ति उचित-अनुचित भूल जाता है, परन्तु धर्म उसके आर्थिक जीवन पर भी अपना नियन्त्रण बनाये रखता है। हिन्दू दर्शन में भोग के स्थान पर त्याग का आदर्श है। हिन्दू धर्म भौतिक विकास के स्थान पर आध्यात्मिक विकास पर बल देता है। जैन धर्म ने अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर त्याग का महत्त्व स्पष्ट किया है। मैक्स वेबर के अनुसार, प्रत्येक धर्म में कुछ ऐसे नैतिक नियम या आधारे होते हैं जो कि उस धर्म के मानने वाले समुदाय के सदस्यों की आर्थिक व्यवस्था को निश्चित करते हैं। सभी धर्म उचित ढंग से धन कमाने और व्यय करने की प्रेरणा देकर सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग प्रदान करते

8. व्यक्तित्व के विकास में सहायक-व्यक्तित्व के विकास में धर्म का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। धर्म व्यक्तित्व के सम्मुख जो आदर्श प्रस्तुत करता है वे सब उसे ज्ञान, धैर्य, साहस, दया, क्षमा आदि गुणों से विभूषित करते हैं। ये सब गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक होते हैं। निराशा और कुण्ठाओं से ग्रस्त व्यक्ति समाज को विघटित करता है, जबकि प्रबुद्ध नागरिक सामाजिक नियन्त्रण को आधार स्तम्भ होता है।

9. अपराध पर नियन्त्रण-धर्म व्यक्ति में सद्गुणों का विकास करके अपराध बोध कराने में सहायक होता है। धर्म से अभिभूत व्यक्ति का अन्त:करण कभी भी उसे आपराधिक एवं समाज-विरोधी कार्य करने की अनुमति ही नहीं देता। धार्मिक नियमों के उल्लंघन मात्र से ही धर्मानुरागी व्यक्ति को अपराध बोध हो जाता है। धर्म अपराध पर नियन्त्रण लगाकर सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में सहायता प्रदान करता है।

10. राजनीतिक क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण-राजनीति और धर्म का सम्बन्ध अटूट है। धर्म राजा और राज्य का मार्गदर्शक होता है। धर्माचरण सत्तासीन व्यक्तियों का प्रथम कर्तव्य होता है। राजा धर्म के सिद्धान्तों के अनुरूप शासन चलाता है। राजा को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। धर्म के सिद्धान्तों पर आधारित राज्य और राजनीति दीर्घगामी होते हैं। धर्म वह कवच है जो राजा और राज्य दोनों की सुरक्षा करता है। धर्म मूल्यविहीन राजनीति की आज्ञा नहीं देता। इस प्रकार धर्म सामाजिक आदर्शों का उल्लंघन करने वाली राजनीति एवं राजनेता पर अंकुश लगाकर सामाजिक नियन्त्रण को दृढ़ बनाता है। इस प्रकार भारतीय समाज में सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। धर्म के सन्दर्भ को बिना ध्यान में रखे भारतीय समाज को समझना कठिन है।

प्रश्न 2
सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की भूमिका पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए। [2008, 10, 11, 12, 13]
या
सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की भूमिका की व्याख्या कीजिए। [2016]
उतर:

सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की भूमिका

सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरणों में राज्य सर्वशक्तिसम्पन्न सर्वोच्च अभिकरण है जो नियन्त्रण के क्षेत्र में अनेक प्रकार से अपनी भूमिका निभाता है। सामाजिक नियन्त्रण के रूप में राज्य की भूमिका निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट की जा सकती है

1. पारिवारिक जीवन पर नियन्त्रण-आधुनिक युग में राज्य परिवार पर अनेक प्रकार के नियन्त्रण लगाता है जो कि परिवार को विघटित होने से बचाने के लिए आवश्यक है। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार परिवार को राज्य से अधिक कोई अन्य संस्था नियन्त्रित नहीं कर सकती। नियमों द्वारा राज्य विवाह की आयु, शर्त, अवधि और परिवार के स्वरूप का निर्धारण करता है। 1929 ई० में बाल विवाह पर नियन्त्रण लगे तथा आयु-सीमा निश्चित हुई। आज ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955′ में संशोधन करके लड़की तथा लड़के के लिए आयु निर्धारित (लड़की के लिए 18 वर्ष और लड़के लिए 21 वर्ष) कर दी गई है। 1961 ई० में ‘दहेज विरोधी अधिनियम’ भी पारित हुआ। 1956 ई० में ‘हिन्दू उत्तर:ाधिकार अधिनियम’ द्वारा स्त्रियों को भी सम्पत्ति में हिस्सा मिलने लगा है। 1978 ई० के शिक्षा अधिनियम’ द्वारा प्राथमिक शिक्षा सार्वजनिक रूप से अनिवार्य कर दी गई है। इन सब अधिनियमों द्वारा राज्य परिवार को नियन्त्रित करता है।

2. आर्थिक व्यवस्था पर नियन्त्रण-जीवन-यापन और क्षुधापूर्ति के लिए विभिन्न आर्थिक साधनों का समाज में उपयोग किया जाता है। इस अर्थव्यवस्था पर राज्य जैसे प्रभुतासम्पन्न शक्ति का नियन्त्रण होना आवश्यक है। इससे ही अर्थव्यवस्था को संरक्षण मिलता है। इस उद्देश्य से अर्थव्यवस्था में सन्तुलन लाने के लिए राज्य आवश्यकतानुसार विशिष्ट उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर उन पर अपना नियन्त्रण रखता है। अनेक श्रम अधिनियमों द्वारा वेतन एवं पारिश्रमिक निश्चित करता है तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति का समान वितरण भी राज्य की अनुपम विशिष्टता होती है। आर्थिक संकट के समय दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ उपलब्ध कराना तथा आर्थिक विकास में सहयोग देना राज्य का कर्तव्य है तथा असन्तुलन और अनियमितता पर नियन्त्रण करना भी इसी का अधिकार है।

3. सामाजिक क्रियाओं पर नियन्त्रण और निर्देशन-राज्य समाज के समक्ष एक नियमावली रखता है जिसमें अनेक प्रकार की सामाजिक क्रियाओं के नियन्त्रण एवं निर्देशन का वर्णन होता है। ये सभी सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं। प्रचार द्वारा राज्य व्यक्ति को बताता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। भारत में अखण्डता और एकता बनाए रखने के लिए साम्प्रदायिकता, भाषावाद, प्रान्तीयता, क्षेत्रीयता आदि के विरुद्ध प्रचार द्वारा नियन्त्रण रखकर राज्य समाज के हित में कल्याणकारी कार्य करता है। राज्य सामाजिक अधिनियमों को पारित करके कुप्रथाओं पर नियन्त्रण करता है। 1829 ई० में सती प्रथा निरोधक अधिनियम’ तथा 1955 ई० में ‘अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम द्वारा इन्हें (सती प्रथा तथा अस्पृश्यता को) सामाजिक अपराध घोषित किया गया है।

4. बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा-राज्य का महत्त्वपूर्ण कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना है; अत: इसके लिए अस्त्र-शस्त्र, सेना, पुलिस चौकियों, सड़कों एवं युद्धपोतों आदि का प्रबन्ध राज्य ही करता है जिससे आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त इनका उपयोग किया सके। ऐसे समय में एवं शान्ति के समय भी समाज-विरोधी तत्वों की सक्रियता पर नियन्त्रण रखना राज्य का आवश्यक कार्य है।

5. आन्तरिक सुव्यवस्था और शान्ति बनाए रखना-प्रत्येक समाज में कुछ-न-कुछ समाज-विरोधी तत्त्व अवश्य होते हैं जिन पर नियन्त्रण रखकर राज्य देश की आन्तरिक सुव्यवस्था और शान्ति बनाए रखता है। इसके लिए राज्य कानून, पुलिस और सेना का भी सहयोग लेता है क्योंकि सामान्य स्थिति बनाए रखना आवश्यक है जिससे हड़ताल, तालाबन्दी, घेराव, साम्प्रदायिक दंगे इत्यादि न हो सकें।

6. मौलिक अधिकारों की रक्षा-किसी कल्याणकारी राज्य में मौलिक अधिकारों का संरक्षण करके समाज-विरोधी तत्त्वों को नियन्त्रित किया जाता है। ये मौलिक अधिकार ही जनता की स्वतन्त्रता के प्रतीक हैं। स्वतन्त्रता (भाषण, लेखन और विचारों की स्वतन्त्रता), शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने का अधिकार, सम्पत्ति और शिक्षा प्राप्ति का अधिकार आदि मौलिक अधिकार ही हैं। यदि कोई व्यक्ति इन अधिकारों को भंग करता है तो राज्य उसे कठोर दण्ड देता है तथा जिसके अधिकारों का हनन किया गया है उसे संरक्षण प्रदान
करता है।

7. कानून द्वारा नियन्त्रण-राज्य ने अपनी उत्पत्ति के समय ही अपने कार्यों की शक्ति कुछ नियमों व उपनियमों में निहित कर ली थी। वे आज्ञाएँ और आदेश ही कानून कहलाते हैं। जिनका पालन न करने पर दण्ड की व्यवस्था होती है जो सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। दण्ड विधान दो प्रकार से सामाजिक नियन्त्रण रखता है–

  • अपराधियों पर कठोर दृष्टि रखते हुए उन्हें बन्दी बनाकर एवं उनका समाज से बहिष्कार करके तथा
  • दण्ड के भय द्वारा अपराध रोककर।

8. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का नियमन-राज्य राष्ट्रीय कार्य-व्यवहारों पर तो नियन्त्रण रखता ही है, साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों पर भी नियन्त्रण लगाता है क्योंकि आज के इस प्रगतिशील युग में मानव का कार्य-क्षेत्र देश की सीमा से बाहर विदेशों तक हो गया है; अतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार विकसित हुए हैं। इनका प्रभाव आन्तरिक व्यवस्था पर भी पड़ता है; अत: संचार, उद्योग, यातायात, सांस्कृतिक आदान-प्रदान आदि को राज्य निर्देशित व नियन्त्रित रखता है।

मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की महत्ता के बारे में ठीक ही कहा है, “राज्य आवश्यक रूप से एक व्यवस्था उत्पन्न करने वाला संगठन है। यह व्यवस्था को बनाए रखने के लिए है; परन्तु नि:सन्देह यह केवल व्यवस्था-मात्र के लिए ही नहीं अपितु जीवन की उन समस्त सम्भावनाओं के लिए है जिनको सुव्यवस्था के आधार की अपेक्षा है। इस प्रकार सिद्ध होता है कि सामाजिक नियन्त्रण में सबसे प्रमुख औपचारिक अभिकरण राज्य ही है जो जनहित के लिए नियन्त्रण लगाता है।

प्रश्न 3
सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में परिवार की भूमिका स्पष्ट कीजिए। [2008, 09, 10, 11, 12, 14, 16]
या
सामाजिक नियन्त्रण में प्राथमिक समूह की क्या भूमिका है ? [2010]
या
सामाजिक नियन्त्रण के किन्हीं दो अनौपचारिक साधनों की विवेचना कीजिए। [2010, 11]
या
परिवार सामाजिक नियन्त्रण का एक शक्तिशाली अभिकरण है।
टिप्पणी लिखिए। सामाजिक नियन्त्रण में परिवार की भूमिका स्पष्ट कीजिए। [2012, 13, 17]
या
सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में परिवार का महत्त्व घट रहा है। इस कथन का मूल्यांकन कीजिए। [2012, 13]
उत्तर:
परिवार समाज की प्रथम इकाई है और सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख साधन है। सामजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में कोई भी दूसरा समूह व्यक्ति के जीवन को इतना प्रभावित नहीं करता जितना कि परिवार। इसी आधार पर परिवार को सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख अभिकर्ता कहा जाता है। व्यक्ति के विकास में परिवार की अहम भूमिका है। परिवार ही व्यक्ति को समाज सम्बन्धी आदर्शों, रूढ़ियों और प्रचलित रीति-रिवाजों से परिचित कराती है। त्याग, बलिदान, सहायता, दया, सहनशीलता, धैर्य आदि की शिक्षा व्यक्ति को परिवार के माध्यम से ही प्राप्त होती है। परिवार व्यक्ति के बुरे कार्यों की निन्दा और अच्छे कार्यों की प्रशंसा करता है। परिवार की परिस्थितियाँ ही व्यक्ति को अच्छा या बुरा बना देती हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि सामाजिक नियन्त्रण में परिवार अहम भूमिका निभाता है। संक्षिप्त रूप में सामाजिक नियन्त्रण में परिवार की भूमिका का वर्णन निम्न प्रकार से है

1. शिक्षा द्वारा नियन्त्रण-परिवार शिक्षा की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावशाली पाठशाला है। अनेक महापुरुषों का चरित्र-गठन उनके परिवार में ही हुआ है। इटली के प्रजातन्त्र के जन्मदाता मैजिनी का कथन है, “नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुम्बन और पिता के दुलार में ही सीखा जाता है।” अब्राहम लिंकन ने परिवार की महत्ता स्पष्ट करते हुए कहा है, जो कुछ भी मैं आज हूँ और जो कुछ भी बनने की आशा करता हूँ, वह सब कुछ मेरी देवीस्वरूप माता के कारण है।” परिवार में ही हम आत्म-संयम की अमूल्य शिक्षा प्राप्त करते हैं। हमारा सामाजिक विकास परिवार में ही होता है। यदि परिवार का नियन्त्रण शिथिल पड़ जाता है तो समाज में विघटने प्रारम्भ हो जाता है।

2. दण्ड-व्यवस्था द्वारा नियन्त्रण-व्यक्ति को अनुशासित और सामाजिक नियन्त्रण में रखने के लिए प्रत्येक परिवार में दण्ड की व्यवस्था होती है, जिसके भय से व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण में बँधा रहता है। परिवार कभी भी अपने सदस्यों को शारीरिक दण्ड नहीं देता और न ही उत्पीड़न का सहारा लेता है, बल्कि सहानुभूति के द्वारा सदस्यों पर नियन्त्रण लगाता है। साधारणतया, आलोचना, व्यंग्य तथा परिहास आदि साधनों के द्वारा ही सदस्यों को दण्डित किया जाता है और इस प्रकार उनके व्यवहारों पर नियन्त्रण लगाया जाता है।

3. यौन-व्यवहारों का नियन्त्रण-प्राणिशास्त्रीय कार्य के रूप में यौन-इच्छाओं की पूर्ति को एकमात्र साधन परिवार ही है। परिवार ही विवाह संस्कार के माध्यम से युवक-युवतियों को दाम्पत्य सूत्र में बाँधकर उन्हें यौन-इच्छाओं की सन्तुष्टि करने के अवसर जुटाता है। परिवार ही यह निश्चित करता है कि एक विशेष सदस्य का विवाह कब और किसके साथ तथा किस प्रकार हो। परिवार अपनी जाति में ही विवाह करने को बाध्य करता है। इस प्रकार परिवार विवाह सम्बन्धी नियन्त्रण लगाता है। इस प्रकार के नियन्त्रण के कारण व्यक्ति अनेक बुराइयों से बच जाता है तथा स्त्रियों को बुरी दृष्टि से नहीं देखता, जिससे समाज में व्यवस्था बनी रहती है।

4.समाजीकरण और सामाजिक नियन्त्रण-समाजीकरण के दृष्टिकोण से सामाजिक नियन्त्रण में परिवार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। परिवार ही व्यक्ति को समाजीकरण करता है। वह समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति को सामाजिक नियमों के अनुकूल बनाता है। इस प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति को सामाजिक आदर्शों, संस्कृति, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है तथा वह आगे चलकर जीवन में इन सीखी हुई बातों को प्रयोग में लाता। है, जो सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं।

5. सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा द्वारा नियन्त्रण-प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है। परिवार में उसी संस्कृति के अनुसार कार्य किये जाते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय समाज में वृद्ध व्यक्तियों के सम्मान और संयुक्त परिवार व्यवस्था को अच्छा समझा जाता है। परिवार में व्यक्ति को इसी के अनुसार कार्य करने की शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार वह वृद्ध व्यक्तियों तथा संयुक्त परिवार का आदर करना सीख जाता है। इस तरह सामाजिक जीवन संगठित बना रहता है। वास्तविकता तो यह है कि समाज में नियन्त्रण का अभाव तभी उत्पन्न होता है जब व्यक्ति अपने सांस्कृतिक मूल्यों के अनुसार कार्य नहीं करते। परिवार ही अपने सदस्यों को समाज के सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत कराता है। इस प्रकार परिवार के सदस्य सांस्कृतिक प्रतिमानों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करके सांस्कृतिक कार्य के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे सामाजिक संस्कृति के अस्तित्व के साथ-ही-साथ सामाजिक संगठन तथा नियन्त्रण बना रहता है।

6. सामंजस्य तथा सुरक्षा द्वारा नियन्त्रण-पारिवारिक जीवन में सुख, दु:ख, बीमारी, बेकारी आदि अनेक प्रकार की समस्याएँ जन्म लेती हैं। इन परिस्थितियों से सामंजस्य करने की प्रेरणा भी परिवार में ही दी जाती है। पारिवारिक समायोजन का यह कार्य व्यक्ति को विघटित होने से बचाता है।

7. सदस्यों की देख-रेख द्वारा नियन्त्रण-परिवार अपने सदस्यों की सामान्य देख-रेख करके यह विश्वास दिलाता है कि उनकी वास्तविक आवश्यकताएँ परिवार में ही पूरी हो सकती हैं। साथ ही परिवार व्यक्ति को इस प्रकार की शिक्षा भी देता है जो जीवन के लिए सबसे अधिक उपयोगी होती है। इससे व्यक्ति यह समझने लगता है कि उसका सामाजिक जीवन तभी प्रगतिशील बन सकेगा जब वह परिवार के आदर्शों का पालन करेगा। इस भावना ‘ के साथ ही व्यक्ति जीवन नियन्त्रण में बँध जाता है।

8. मानवीय गुणों का विकास द्वारा नियन्त्रण-परिवार बालक में अनेक मानवीय गुणों को विकसित करता है। मानवीय गुणों में प्रेम, सहयोग, दया, सहानुभूति, आत्म-त्याग, सहिष्णुता, परोपकार, कर्तव्यपालन तथा आज्ञापालन प्रमुख हैं। ये सभी ऐसे गुण हैं जिनके द्वारा व्यक्ति का जीवन स्वयं नियन्त्रित हो जाता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि परिवार सामाजिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाता है। परिवार का नियन्त्रण अधिक स्थायी और प्रभावशाली सिद्ध होता है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि परिवार केवल सामाजिक नियन्त्रण में सहायता ही नहीं करता वरन् यह समाजीकरण की प्रक्रिया को भी सम्भव बनाता है।

सामाजिक नियन्त्रण के एक अभिकरण के रूप में परिवार के महत्त्व में कमी

यद्यपि सामाजिक नियन्त्रण के एक अभिकरण के रूप में परिवार की सदैव से ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। परन्तु औद्योगीकरण, नगरीकरण, लोकतन्त्रीकरण, शिक्षा का प्रसार, आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यक्तिवादिता आदि कारकों के परिणामस्वरूप आज अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों का परिवार की संरचना पर भी प्रभाव पड़ा है, जिसके फलस्वरूप आज परिवार सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में अपना महत्त्व खोता जा रहा है, क्योंकि इन सभी तथा अन्य और भी कई कारकों ने परिवारिक नियन्त्रण एवं बन्धनों को सर्वथा शिथिल कर दिया है।

उदाहरणार्थ-आज के परिवारों में पिता की शक्ति का ह्रास हुआ है। परिवारों में न तो पिता की आज्ञाओं को अन्तिम माना जाता है और न ही उसकी शक्ति को ईश्वरीय समझा जाता है; अतः एक ही परिवार के सदस्य पृथक्-पृथक् मार्गों पर चलकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति करना चाहने लगे हैं। परिवार के सभी सदस्यों में एकमत का अभाव होता जा रहा है, किसी के ऊपर किसी को नियन्त्रण नहीं है। अब परिवार के सभी सदस्य अपनी इच्छा, दृष्टि, विचार तथा हित को ध्यान में रखकर कार्य करने लगे हैं। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि वर्तमान युग में सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में परिवार का महत्त्व घटता जा रहा है।

प्रश्न 4
औपचारिक तथा अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2010]
उत्तर:
औपचारिक तथा अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण में निम्नलिखित अन्तर हैं

  1. औपचारिक नियन्त्रण में दण्ड देने का कार्य राज्य अथवा सरकार द्वारा किया जाता है, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण में दण्ड का स्रोत स्वयं समाज, समुदाय या समूह होता है।
  2. औपचारिक नियन्त्रण में नियमों को सोच-विचारकर बनाये जाने के कारण वे सुपरिभाषित व लिखित होते हैं, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण में नियम पूर्ण रूप से लिखित नहीं होते, अपितु सामाजिक अन्त:क्रियाओं के दौरान अपने आप स्पष्ट होते हैं।
  3. औपचारिक नियन्त्रण में नियमों को न मानने पर राज्य या अन्य किसी प्रशासनिक संगठन द्वारा व्यक्ति को निश्चित दण्ड देने की व्यवस्था होती है, अर्थात् व्यक्तियों के लिए नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। इसके विपरीत, अनौपचारिक नियन्त्रण में इस प्रकार दण्ड देने की कोई व्यवस्था नहीं होती है।
  4. औपचारिक नियन्त्रण मानव-व्यवहार के बाह्य पक्ष को अधिक प्रभावित करता है। दूसरी | ओर अनौपचारिक नियन्त्रण का विशेष सम्बन्ध व्यक्तित्व के आन्तरिक पक्ष से होने के कारण इसे व्यक्ति स्वयं स्वीकार कर लेता है।
  5. औपचारिक नियन्त्रण आधुनिक विशाल एवं जटिल समाजों की विशेषता है, क्योंकि ऐसे समाजों में व्यक्ति के अधिकांश व्यवहारों पर नियन्त्रण औपचारिक नियन्त्रण के साधनों; जैसे—दण्ड, भय, उत्पीड़न एवं शक्ति प्रदर्शन द्वारा सम्भव है। इसके विपरीत, अनौपचारिक नियन्त्रण का महत्त्व छोटे एवं सरल समाजों में अधिक होता है, क्योंकि इन समाजों के सदस्य अधिकांशतः प्रथा, परम्परा, धार्मिक नियम एवं रूढ़ियों द्वारा नियन्त्रित एवं निर्देशित होते हैं।
  6. औपचारिक नियन्त्रण में परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है, अर्थात् इसमें आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों के बदलने पर परिवर्तन होता रहता है, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण में परम्परागत व्यवहारों को बदलना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होता है।
  7. औपचारिक सामाजिक नियन्त्रण सामाजिक मूल्यों के विपरीत भी हो सकता है, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण सदैव परम्परागत सामाजिक मूल्यों के अनुरूप ही होता है।
  8. औपचारिक नियन्त्रण से सम्बन्धित व्यवहार-संहिताएँ या नियम राज्य या अन्य प्रशासनिक संगठनों द्वारा बनाये जाते हैं। इसके विपरीत, अनौपचारिक नियन्त्रण में इन नियमों को समाज द्वारा निर्मित किया जाता है।
  9. औपचारिक नियन्त्रण का विकास योजनाबद्ध रूप से होता है, जबकि अनौपचारिक नियन्त्रण का विकास लम्बी अवधि में धीरे-धीरे स्वतः होता है।
  10. औपचारिक नियन्त्रण के प्रभावशाली साधन कानून, न्यायालय व पुलिस हैं, जिनके द्वारा नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति को निश्चित दण्ड देने की व्यवस्था की जाती है। दूसरी ओर, अनौपचारिक नियन्त्रण के प्रभावशाली साधन परम्पराएँ, धार्मिक नियम इत्यादि होते हैं जिनके द्वारा निश्चित दण्ड न देकर सामान्यत: व्यक्ति की सामाजिक निन्दा की जा सकती है अथवा जाति से निष्कासित किया जा सकता है।

प्रश्न 5
सामाजिक नियन्त्रण एवं समाजीकरण में सम्बन्ध स्थापित कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण एवं समाजीकरण में सम्बन्ध
1. सामाजिक संगठन में स्थायित्व लाना-सामाजिक संगठन को स्थायी बनाना सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख कार्य है। नियन्त्रण की व्यवस्था के द्वारा समाज में अनावश्यक परिवर्तनों को रोका जाता है तथा व्यक्तियों को मनमाने ढंग से कार्य करने की स्वतन्त्रता नहीं मिल पाती। इससे सामाजिक जीवन में स्थिरता का गुण उत्पन्न होता है।

2. परम्पराओं की रक्षा-
परम्पराएँ लम्बे अनुभवों पर आधारित होती हैं तथा इनका कार्य व्यवस्थित रूप से व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। सामाजिक संगठन को बनाये रखने में भी परम्पराओं की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जब कभी भी परम्पराएँ टूटने लगती हैं, तब समाज में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। सामाजिक नियन्त्रण सभी व्यक्तियों को परम्पराओं के अनुसार व्यवहार करने का प्रोत्साहन देता है। इसी से संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है।।

3. समूह में एकता की स्थापना-
सामाजिक संगठन के लिए किसी भी समूह के सदस्यों में समान दृष्टिकोण तथा समान मनोवृत्तियों का होना अत्यधिक आवश्यक है। यही विशेषताएँ सामाजिक एकता का आधार हैं। सामाजिक नियन्त्रण एक समूह के सदस्यों को समान नियमों के अनुसार कार्य करना ही नहीं सिखाता बल्कि नियमों का उल्लंघन करने पर उन्हें दण्ड भी देता है। समान नियमों के अन्तर्गत कार्य करने से समान दृष्टिकोण का विकास होता है और इस प्रकार समूह में एकरूपता (Uniformity) बढ़ती है।

4. पारस्परिक सहयोग की प्रेरणा-
एक संगठित समाज के लिए इसके सदस्यों में पारस्परिक सहयोग का होना सबसे अधिक आवश्यक है। व्यक्तियों के व्यवहारों पर यदि कोई नियन्त्रण ने हो तो वे सदैव संघर्ष के द्वारा अपने स्वार्थों को पूरा करने का प्रयत्न करेंगे। इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण सामाजिक जीवन अभियन्त्रित और विघटित हो सकता है। नियन्त्रण के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति के अनुसार अपने विभिन्न दायित्वों का निर्वाह करता है। नियन्त्रण की व्यवस्था व्यक्ति को यह बताती है कि पारस्परिक सहयोग के द्वारा लक्ष्य को प्राप्त करना ही सभी के हित में है।

5. मनोवृत्तियों तथा व्यवहारों में सन्तुलन-
सामाजिक संगठन के लिए यह आवश्यक है कि समूह में व्यक्तियों की मनोवृत्तियों तथा उनके विचारों में सन्तुलन हो। यदि हमारी मनोवृत्तियाँ रूढ़िवादी हों लेकिन व्यवहार आधुनिकता को महत्त्व देते हों, तो इससे न केवल व्यक्तिगत जीवन में तरह-तरह के तनाव उत्पन्न होते हैं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था भी कमजोर पड़ जाती है। सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा व्यक्ति की मनोवृत्तियों में इस तरह परिवर्तन किया जाता है कि वे व्यवहार के नये ढंगों के अनुकूल बन सकें। ऐसा सन्तुलन सामाजिक जीवन के लिए बहुत उपयोगी होता है।

6. मानसिक तथा बाह्य सुरक्षा-
व्यक्तियों को मानसिक तथा बाह्य सुरक्षा प्रदान करने के क्षेत्र में भी सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। मानसिक सुरक्षा का तात्पर्य यह है कि व्यक्तियों को यह विश्वास हो कि कोई भी व्यक्ति उनके हितों पर आघात नहीं करेगा, जबकि बाह्य सुरक्षा का अभिप्राय आजीविका तथा सम्पत्ति के क्षेत्र में सुरक्षा प्राप्त करना है। सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था व्यक्ति की समाज-विरोधी प्रवृत्ति को दबाकर अनेक नियमों के द्वारा उसे समाज से अनुकूलन करना सिखाती है तथा ऐसे व्यवहार करने के लिए बाध्य करती है जो समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हों। इसका तात्पर्य यह है कि समाज के आन्तरिक संगठन के लिए सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इस आधार पर लैण्डिस ने यहाँ तक निष्कर्ष दिया है कि मनुष्य नियन्त्रण के कारण ही वास्तविक मानव है।

7. व्यक्तित्व का विकास-
सामाजिक नियन्त्रण के सभी कार्यों में व्यक्तित्व का समुचित विकास सम्भवत: सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यक्तित्व के विकास के लिए सामाजिक गुणों की सीख तथा कुशलताओं का विकास आधारभूत हैं। सामाजिक नियन्त्रण के अभाव में व्यक्ति ने तो सामाजिक सीख के द्वारा उन गुणों को प्राप्त कर सकता है जो उसकी संस्कृति का अभिन्न अंग होते हैं और न ही उन क्षमताओं को विकसित कर सकता है जो विभिन्न प्रकार के आविष्कारों तथा समाचारों के लिए आवश्यक होते हैं। जिन समाजों में सामाजिक नियन्त्रण कमजोर होता है, वहाँ लोगों का व्यक्तित्व अपनी संस्कृति के अनुरूप नहीं होता। वास्तविकता यह है कि सामाजिक नियन्त्रण वैयक्तिक तथा सामाजिक सुरक्षा में वृद्धि करके पारस्परिक सहयोग तथा एकता को बढ़ाता है। इसके बाद भी किसी भी समाज में नियन्त्रण की व्यवस्था एक विशेष संस्कृति के अन्तर्गत ही कार्य करती है। यही कारण है कि अलग-अलग संस्कृतियों में सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था के रूप में भी कुछ भिन्नता देखने को मिलती है।

प्रश्न 6
परम्परागत समाज में सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरणों की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2008, 11]
या
सामाजिक नियन्त्रण में कानून की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2016]
या
कानून सामाजिक नियन्त्रण का अनौपचारिक साधन है या औपचारिक? स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण का अभिप्राय समाज की सम्पूर्ण व्यवस्था को इस तरह नियमित करना है जिससे पारस्परिक सहयोग में वृद्धि हो सके। वास्तव में, सामाजिक नियन्त्रण ही वह आधार है जिसके द्वारा सामाजिक परिवर्तन के सन्तुलन को बनाये रखा जा सकता है। परिवार, राज्य, शिक्षा संस्थाएँ, नेतृत्व, धर्म आदि सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख अभिकरण हैं, जबकि जनरीतियाँ, लोकाचार, नैतिकता, प्रथाएँ, कानून, जनमत, पुरस्कार, हास्य-व्यंग्य और दण्ड आदि इन अभिकरणों के साधन हैं। समाज में सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरणों की भूमिका निम्नवत् है

1. परिवार-
सामाजिक नियन्त्रण में परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। यद्यपि वर्तमान सामाजिक जीवन में इतने क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गये हैं, लेकिन व्यक्ति को संस्कृति की शिक्षा देने और व्यवहार के नियम सिखाने में परिवार को महत्त्व आज भी सबसे अधिक मौलिक है। परिवार आरम्भिक जीवन से ही बच्चे को जनरीतियों, लोकाचारों और प्रथाओं की शिक्षा देता है, समाज की नैतिकता से परिचित कराता है। समय-समय पर अनजाने में भी भूल हो जाने पर उससे प्रायश्चित्त कराता है तथा अनेक पौराणिक गाथाओं और अनुष्ठानों के द्वारा धार्मिक विश्वासों को दृढ़ बनाता है। प्रेम और स्नेह स्वयं ही नियन्त्रण के प्रमुख साधन हैं जो केवल परिवार में ही सम्भव हैं। एक प्राथमिक समूह होने के कारण नियन्त्रण के क्षेत्र में भी परिवार का प्रभाव प्राथमिक ही होता है।

2. राज्य-
वर्तमान जटिल समाजों में राज्य सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रभावपूर्ण अभिकरण
बन गया है। औद्योगीकरण, नगरीकरण और व्यक्तिवादिता के कारण आज मानव समूहों के बीच संघर्षों और तनावों में इतनी अधिक वृद्धि हो गयी है कि केवल वही सत्ता व्यक्तियों के व्यवहारों पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण रख सकती है जिसके पास शक्ति और दण्ड के विकसित साधन हों। राज्य इसी प्रकार एक सत्ता है जो प्रशासन, कानून, सेना, पुलिस और न्यायालयों के द्वारा व्यक्ति व समूह के व्यवहारों पर औपचारिक रूप से नियन्त्रण की स्थापना करती है। मैकाइवर का कथन है, कि “राज्य व्यक्ति में उन सभी क्षमताओं को उत्पन्न करता है। जो सामाजिक नियन्त्रण के लिए आवश्यक हैं।”

3. शिक्षण संस्थाएँ-सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में आज शिक्षण संस्थाओं का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। शिक्षण संस्थाएँ व्यक्तित्व के आन्तरिक व बाह्य दोनों पक्षों को नियन्त्रित करती हैं। इन संस्थाओं में व्यक्ति के जीवन का वह भाग व्यतीत होता है जो सबसे अधिक तनावपूर्ण होता है। यह वह समय होता है जिसमें एक किशोर अपने आपको सबसे योग्य समझता है, जबकि वास्तव में, उसके अधिकतर कार्य अनुभव के अभाव में बहुत अनुत्तरदायी प्रकृति के होते हैं। इस काल का नियन्त्रण सम्पूर्ण जीवन को नियन्त्रित रखने और सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण करने में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से व्यक्ति के तर्क और विवेक में वृद्धि होने से वह स्वयं प्रत्येक व्यवहार के परिणामों को समझने लगता है। यही कारण है कि अशिक्षित समाज की अपेक्षा एक शिक्षित समाज कहीं अधिक नियन्त्रित और नियमबद्ध जीवन व्यतीत करता है।

4. नेता तथा नेतृत्व-महान नेताओं के विचार समाज को नियन्त्रित रखने में सदैव से ही महत्त्वपूर्ण रहे हैं। समाज के अधिकांश सदस्यों में स्वयं विचार करने और परिस्थिति के अनुसार कार्य करने की क्षमता नहीं होती। वे केवल दूसरों का अनुसरण ही करते हैं। ऐसी स्थिति में यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि उचित नेतृत्व के द्वारा उनके व्यवहारों पर नियन्त्रण रखा जाए और उन्हें एक विशेष प्रकार से कार्य करने का निर्देश दिया जाए। यही कारण है कि जिस समाज में नेतृत्व स्वस्थ और संगठित होता है, वहाँ व्यक्तियों का जीवन भी उतना ही अधिक नियन्त्रित और सन्तुलित बना रहता है।

5. धर्म-धर्म सामाजिक नियन्त्रण का सदैव से ही एक प्रमुख अभिकरण रहा है। धर्म कुछ। अलौकिक विश्वासों और ईश्वरीय सत्ता पर आधारित एक शक्ति है जिसके नियमों का पालन व्यक्ति ‘पाप और पुण्य’ अथवा ईश्वरीय शक्ति के भय के कारण करता है। धर्म के नियमों का पालन व्यक्ति किसी मनुष्य के भय से नहीं करता बल्कि मनुष्य से कहीं उच्च अलौकिक शक्ति के भय से करता है। व्यक्ति यह विश्वास करते हैं कि धर्म के आदेशों और निषेधों का पालन न करना ‘पाप’ है और उनके अनुसार कार्य करना ‘पुण्य है। इस प्रकार धर्म एक आन्तरिक अलौकिक प्रभाव के द्वारा व्यक्ति और समूह के जीवन को नियन्त्रित करता है।

6. कानून-वर्तमान युग में कानून नियन्त्रण का सर्वप्रमुख औपचारिक (Formal) साधन है। यह परम्पराओं और काल्पनिक विश्वासों पर आधारित न होकर समाज की वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार होता है। इसका कार्य समूह के लिए उपयोगी व्यवहारों को करने का प्रोत्साहन देना और इनकी अवहेलना करने वाले लोगों को निश्चित दण्ड देना है। वर्तमान समाज में जहाँ अनेक धर्मों, मतों और सम्प्रदायों के व्यक्ति एक साथ रहते हैं, प्रथाएँ और लोकाचार आज अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं। इस कमी को दूर करने और व्यवहार के नियमों को स्पष्ट रूप देने में कानून का महत्त्व सबसे अधिक है। एक लम्बे समय तक प्रचलित रहने के बाद प्रथाएँ और लोकाचार रूढ़ियों के रूप में बदल जाते हैं जिनको पुन: उपयोगी बनाना केवल कानूनों के द्वारा ही सम्भव होता है। कानून सभी समाजों में एक-से नहीं होते। आदिम समाजों में अधिकतर कानून अलिखित होते हैं, लेकिन इनकी अवहेलना करना सबसे अधिक कठिन होता है, जबकि सभ्य समाजों में ये पूर्णतया लिखित और स्पष्ट होने के बाद भी उतने अधिक प्रभावशाली नहीं होते। इसके बाद भी वर्तमान जटिल और परिवर्तनशील समाजों में कानून नियन्त्रण का सर्वप्रमुख साधन है। इसलिए रॉस (Ross) ने कानून को ‘सामाजिक नियन्त्रण की सबसे विशेषीकृत और पूर्ण साधन’ (Most specialized and highly finished means) माना है।

7. नैतिकता-सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में नैतिकता का स्थान भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उचित-अनुचित का विचार ही नैतिकता है। नैतिकता व्यक्ति को सदाचार का मार्ग दिखाती है। नैतिकता के व्यवहार के लिए कोई बाध्यता नहीं है। व्यक्ति कार्य के औचित्य-अनौचित्य पर विचार कर अपनी आत्मा की आज्ञा मानकर कर्तव्य का पालन करता है। नैतिकता की भावना सामाजिक नियन्त्रण को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती। है। नैतिकता के द्वारा व्यक्ति बुद्धि और तर्क की कसौटी पर उचित-अनुचित का निर्णय करना सीख जाता है। उसको सामूहिक व्यवहार नैतिकता के अनुरूप हो जाता है। सत्य का अनुपालन, हिंसा से बचाव, न्याय, दया, त्याग, सहानुभूति और सम्मान नैतिक आदर्श हैं। इनका अनुपालन करके व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण में स्वत: सहायक बन जाता है।

8. प्रथाएँ-प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण का एक महत्त्वपूर्ण अनौपचारिक अभिकरण हैं। जनरीतियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती हुई जब समूह के व्यवहार का अंग बन जाती हैं तब उन्हें प्रथाएँ कहा जाता है। मनुष्य जन्म से ही अनेक प्रथाओं से घिरा रहता है। अत: उनकी अवहेलना करना उसकी शक्ति से बाहर है। बेकन ने प्रथाओं को ‘मनुष्य के जीवन के प्रमुख न्यायाधीश’ कहकर सम्बोधित किया है। प्रथाएँ मानव संस्कृति का अभिन्न अंग होती हैं। अतः मानव-व्यवहार उन्हीं के द्वारा निर्धारित होता है। प्रथाओं को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है। जाति में विवाह करना, जाति निषेधों का पालन करना, मृत्यु पर सम्बन्धी के यहाँ शोक प्रकट करना तथा मृत्युभोज देना आदि प्रथाएँ हैं। लोक-निन्दा के भय से सभी व्यक्ति इनका हृदय से पालन करते हैं। आदिम समाजों में प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण को आज भी सशक्त अभिकरण बनी हुई हैं। व्यक्ति बिना तर्क आँख मूंदकर प्रथाओं का अनुपालन कर सामाजिक नियन्त्रण में सहायक बने रहते हैं।

प्रश्न 7
सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यह सच है कि आधुनिक जटिल और बड़े समाजों में औपचारिक साधनों के द्वारा सामाजिक नियन्त्रण स्थापित किया जाता है, लेकिन प्रत्येक समाज में नियन्त्रण के औपचारिक साधनों के साथ कुछ ऐसे अनौपचारिक साधनों को भी उपयोग में लाया जाता है जिनके द्वारा आत्म-नियन्त्रण को प्रोत्साहन दिया जा सके। नियन्त्रण के औपचारिक साधनों में जहाँ बाध्यता, दबाव और शक्ति का समावेश होता है, वहीं नियन्त्रण के अनौपचारिक साधने अपनी प्रकृति से सामाजिक होते हैं। इनका उद्देश्य शक्ति के द्वारा लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करना नहीं होता, बल्कि लोगों में स्वेच्छा से सामाजिक मानदण्डों और मूल्यों के अनुसार व्यवहार करने की आदत को विकसित करना होता है।

इनका दूसरा उद्देश्य व्यक्तित्व के आन्तरिक पक्ष को अनुशासित बनाना होता है, क्योंकि अनौपचारिक साधनों के प्रभाव को व्यक्ति स्वेच्छा से स्वीकार करता है। यही कारण है कि समूह-कल्याण में वृद्धि करने के लिए औपचारिक साधनों की तुलना में सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों को महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन मुख्यतः सरल और छोटे समाजों में अधिक प्रभावपूर्ण होते हैं, लेकिन जटिल और बड़े समाजों में भी इनका उपयोग करना उतना ही आवश्यक समझा जाता है। साधारणतया नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन किन्हीं लिखित नियमों के द्वारा व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित नहीं करते, लेकिन इनके अनुसार व्यवहार करना लोग अपना नैतिक कर्तव्य मानते हैं।

प्रथाएँ, परम्पराएँ, लोकाचार, नैतिक नियम, धार्मिक विश्वास, सामूहिक निर्णय, प्रशंसा, तिरस्कार आदि वे तरीके हैं जिनके माध्यम से नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन समाज में एकरूपता लाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों द्वारा नियमों का उल्लंघन करने वाले लोगों को दण्डित करते हैं, लेकिन यह दण्ड राज्य के द्वारा नहीं बल्कि समूह के द्वारा दिया जाता है। ऐसे दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति के विचारों और व्यवहारों में रचनात्मक सुधार लाना होता है। समाज व्यक्ति से यह आशा करता है कि सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों के अनुसार वह अपनी प्रवृत्तियों और इच्छाओं को स्वयं नियन्त्रित करे। इसके बाद भी सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों की प्रकृति औपचारिक साधनों की तुलना में कम परिवर्तनशील होती है, क्योंकि यह साधन सामाजिक मूल्यों, सांस्कृतिक मानदण्डों तथा परम्पराओं के आधार पर व्यक्तिगत व्यवहारों को नियन्त्रित करते हैं। परिवार, धर्म, प्रचार, जनमत, पुरस्कार, हास्य तथा व्यंग्य आदि सामाजिक नियन्त्रण के कुछ प्रमुख अनौपचारिक साधन हैं।

प्रश्न 8
सामाजिक नियन्त्रण क्या है? समाज में नियन्त्रण का होना क्यो आवश्यक है? [2017]
उत्तर:
(सामाजिक नियन्त्रण के अर्थ के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का आरम्भिक भाग देखें।)

सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता एवं महत्त्व अथवा उद्देश्य

सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता प्रत्येक देश-कोल परिस्थिति में महसूस होती रही है। सामाजिक नियन्त्रण निम्न उद्देश्यों की पूर्ति व महत्त्व की दृष्टि से रखा जाता है
1. सुरक्षा प्रदान करने के लिए अन्य व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा तथा व्यक्तियों के अनावश्यक हस्तक्षेप को रोकने के लिए सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता पड़ती है। अतः सामाजिक नियन्त्रण का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को अधिकतम सुरक्षा प्रदान करना

2. एकता की स्थापना
सामाजिक नियन्त्रण का दूसरा उद्देश्य व्यक्तियों के व्यवहार को अनुशासित करना है ताकि वे एक-दूसरे की सहायता करें तथा आपस में मिल-जुलकर रहे व कार्य करें। अनावश्यक परिवर्तन पर रोक सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा बार-बार व जल्दीजल्दी होने वाले

3. अनावश्यक परिवर्तनों पर रोक
लगाई जाती है जिससे समाज में संगठन व व्यवस्था बनी रहे। इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति नियन्त्रित रहकर व्यवहार करता है तथा अपनी स्थिति व भूमिका में सन्तुलन व सामंजस्य बनाए रखता है।

4. परम्पराओं के प्रभाव को बनाए रखना
समाज में नियन्त्रण रखने के लिए परम्पराएँ अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। ये परम्पराएँ समाज की पहचान होती हैं तथा समाज के लिए उपयोगी होती हैं। अतः सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा इन परम्पराओं के प्रभाव को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है।

5. सहयोग की भावना का विकास
संघर्ष किसी समस्या का समाधान नहीं, यह अपने
समाज के व्यक्तियों को समझाने के लिए सामाजिक नियन्त्रण रखा जाता है। सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया के द्वारा समाज के व्यक्तियों के मध्य सहयोग की भावना का विकास किया जाता है ताकि वे मिल-जुलकर रहें व समाज में व्यवस्था बनाए रखकर अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति करें।

6. कथनी और करनी में समरूपता लाना
सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा व्यक्ति के विचारों व कथन को इस तरह निर्मित करने का प्रयास किया जाता है, जिससे कि वे सही सोचें तथा सही व्यवहार व क्रिया करें, ताकि समाज में एकता व व्यवस्था बनी रहे। अर्थात् सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा समाज के सदस्यों की कथनी व करनी को समरूप तथा हितकारी बनाने का प्रयास किया जाता है।

7. प्राचीन व्यवस्था को बनाए रखना
समाज में चले आ रहे रीति-रिवाजों, प्रथाओं, रूढ़ियों, परम्पराओं, आदर्श-प्रतिमानों आदि के पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण तथा अपनाने के कारण समाज में व्यवस्था बनी रहती है जिससे किसी समाज की प्राचीनता नष्ट नहीं होती तथा सदस्यों में अपनी प्राचीन धरोहरों के प्रति सम्मान बना रहता है। सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा इस प्राचीन व्यवस्था को बनाए रखने का निरन्तर प्रयास किया जाता है।

8. व्यक्तियों का समाजीकरण करना
सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है तथा इस कार्य में समाजीकरण की प्रक्रिया अपना सहयोग देती है। समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति को आदर्शानुरूप व्यवहार करने की प्रेरणा दी जाती है ताकि वह सन्तुलित व्यवहार करे तथा असामाजिक क्रिया-कलापों से दूर रहे।

9. मनमाने व्यवहार पर रोक
सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति के व्यवहार पर नियन्त्रण रखा जाता है तथा समाजोपयोगी व्यवहार करने पर प्रशंसा पुरस्कार व सहयोग आदि के द्वारा उसे पुरस्कृत किया जाता है तथा मनमाना व समाजविरोधी व्यवहार करने पर उसका बहिष्कार किया जाता है जिससे कि वह समाज में अव्यवस्था ना फैलाये। निन्दा व बहिष्कार से बचने के लिए व्यक्ति गलत व्यवहार करने से बचता है, जिससे कि समाज में नियन्त्रण व व्यवस्था बनी रहती है।

10. सामाजिक सन्तुलन की स्थापना
समाज में पाए जाने वाले आदर्शों एवं मूल्यों की रक्षा के द्वारा समाज में सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास किया जाता है, जोकि सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया के द्वारा ही सम्भव हो पाता है। अगर समाज में नियन्त्रण रखने में आदर्श एवं मूल्यों का सहयोग न लिया जाए तो समाज में अव्यवस्था फैलने का खतरा रहता है, जिससे समाज को संगठन, सुरक्षा तथा विकास बाधित होता है।

11. अनुकूलन क्षमता का विकास समाज में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों से व्यक्ति को अनुकूलन करने में सामाजिक नियन्त्रण बहुत सहयोग करता है। अगर व्यक्ति इन परिवर्तनों से सामंजस्य ना बैठा पाए तो सामाजिक संरचना व व्यवस्था के अस्त-व्यस्त होने की सम्भावना बनी रहती है। अत: सामाजिक नियन्त्रण अनुकूलन क्षमता का विकास करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।

स्पष्ट है कि सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा ही समाज में व्यवस्था बनी रहती है। अत: पुरानी पीढ़ी का हमेशा यह प्रयास रहता है कि नयी पीढ़ी अपने आदर्शों, रीति-रिवाजों व परम्पराओं का सम्मान करे तथा उन्हें आगे हस्तान्तरित करके सामाजिक नियन्त्रण की प्रक्रिया में अपना सहयोग दे।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक नियन्त्रण की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण में पायी जाने वाली विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है

  1. सामाजिक नियन्त्रण एक सतत घटित होने वाली प्रक्रिया है।
  2. सामाजिक नियन्त्रण सार्वभौमिक प्रक्रिया है। कोई भी समाज ऐसा नहीं है जिसमें सामाजिक नियन्त्रण न होता हो।
  3. सामाजिक नियन्त्रण और आत्म-नियन्त्रण (Self-control) में अन्तर होता है। आत्म नियन्त्रण सदैव अन्तर्जनित होता है। व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से अपने ऊपर नियन्त्रण लगाता है। अपना कानूनी हक होते हुए भी वह उसे त्याग सकता है। सामाजिक नियन्त्रण सदैव बाहरी दबाव होता है। वह बाध्यकारी होता है।
  4. समाज सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था है। अतः वह अमूर्त है। वह स्वयं नियन्त्रण लागू करने नहीं आता। इसीलिए अन्ततोगत्वा, सामाजिक नियन्त्रण समाज के नाम में और समाज की ओर व्यक्ति या समूहों द्वारा अन्य व्यक्तियों और समूहों पर लगाया जाता है।
  5. सामाजिक नियन्त्रण तभी महसूस होता है जब कोई व्यक्ति समाज के किसी नियम का विरोध करता है या उसका उल्लंघन करता है; समाज द्वारा निर्देशित पथ से हटकर विपथगामी होता है।
  6. सामाजिक नियन्त्रण सामाजिक व्यवस्था की अनिवार्य दशा है।
  7. यह सामाजिक एकीकरण का प्रमुख साधन है।
  8. सामाजिक नियन्त्रण समाज में समरूपता और स्थायित्व बनाये रखता है।
  9. सामाजिक नियन्त्रण सामाजिक परिवर्तन लाने में भी सहायक है, क्योंकि वह परिवर्तनकारी शक्तियों को परिवर्तन के लिए उचित साधन और तरीके अपनाने के लिए बाध्य करता है।
  10. सामाजिक नियन्त्रण व्यक्ति को समाज के आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करने के लिए प्रेरणा देता है।
  11. सामाजिक नियन्त्रण के अनेक साधन और अभिकरण हैं। 12. दण्ड और पुरस्कार दोनों का इस कार्य में समान महत्त्व होता है।

प्रश्न 2
सामाजिक नियन्त्रण में ‘नैतिकता’ एवं ‘प्रथाओं की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

सामाजिक नियन्त्रण में ‘नैतिकता’ एवं ‘प्रथाओं की भूमिका

नैतिकता-सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में नैतिकता का स्थान भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उचित-अनुचित का विचार ही नैतिकता है। नैतिकता व्यक्ति को सदाचार का मार्ग दिखाती है। नैतिकता की भावना सामाजिक नियन्त्रण को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। नैतिकता के द्वारा व्यक्ति बुद्धि और तर्क की कसौटी पर उचित-अनुचित का निर्णय करना सीख जाता है। सत्य का अनुपालन, हिंसा से बचाव, न्याय, दया, त्याग, सहानुभूति और सम्मान नैतिक आदर्श हैं। इनका अनुपालन करके व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण में स्वत: सहायक बन जाता है।

प्रथाएँ-धर्म की तरह प्रथाएँ भी सामाजिक नियन्त्रण का एक महत्त्वपूर्ण अनौपचारिक अभिकरण हैं। जनरीतियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती हुई जब समूह के व्यवहार का अंग बन जाती हैं, तब उन्हें प्रथाएँ कहा जाता है। मनुष्य जन्म से ही अनेक प्रथाओं से घिरा रहता है; अत: उनकी अवहेलना करना उसकी शक्ति से बाहर है। प्रथाएँ मानव संस्कृति का अभिन्न अंग होती हैं; अतः मानवव्यवहार उन्हीं के द्वारा निर्धारित होता है। प्रथाओं को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है। जाति में विवाह करना, जाति निषेधों का पालन करना, मृत्यु पर सम्बन्धी के यहाँ शोक प्रकट करना तथा मृत्युभोज देना आदि प्रथाएँ हैं। व्यक्ति बिना तर्क आँख मूंदकर प्रथा का अनुपालन कर सामाजिक नियन्त्रण में सहायक बने रहते हैं।

प्रश्न 3
सामाजिक नियन्त्रण में दण्ड की भूमिका पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में कानून और दण्ड सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख साधन हैं। जब किसी समाज में धर्म का महत्त्व कम हो जाता है, परम्पराएँ और प्रथाएँ जीवन को नियन्त्रित करने में असफल हो जाती हैं तब कानून ही व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करते हैं और समाज-विरोधी व्यवहार करने वाले व्यक्तियों के लिए दण्ड की व्यवस्था करते हैं। दण्ड से व्यक्ति के समाजविरोधी कार्यों पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है, समाज के अन्य व्यक्ति दण्डित व्यक्ति से शिक्षा लेते हैं तथा समाज-विरोधी कार्य करने से डरते व बचते हैं। इस प्रकार कानून व दण्ड व्यक्ति और समूह के व्यवहारों पर नियन्त्रण स्थापित करने वाले प्रभावी साधन हैं। यह कार्य न्यायालय और पुलिस की सहायता से होता है। दण्ड प्रक्रिया में व्यक्तिगत इच्छा और अनिच्छा पर कोई प्रश्न नहीं उठता। दण्ड प्रक्रिया में धनी, निर्धन, निर्बल और सबल सभी एक समान होते हैं।

प्रश्न 4
सामाजिक नियन्त्रण कितने प्रकार का होता है ? वर्णन कीजिए। [2011]
या
सामाजिक नियन्त्रण के दो प्रकार क्या हैं? [2016]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के स्वरूप को लेकर समाजशास्त्री एकमत नहीं हैं। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने इसे निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया है
1. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सामाजिक नियन्त्रण-प्रसिद्ध समाजशास्त्री कार्ल मॉनहीम ने सामाजिक नियन्त्रण को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सामाजिक नियन्त्रण के रूप में वर्गीकृत किया है। जब कोई नियन्त्रण व्यक्ति पर उसके निकटतम सदस्यों द्वारा लागू किया जाता है तब उसे प्रत्यक्ष नियन्त्रण कहा जाता है। प्रशंसा, आलोचना, दण्ड और पुरस्कार प्रत्यक्ष नियन्त्रण के ही उदाहरण हैं। माता-पिता, भाई-बहन, मित्र, पड़ोसी तथा अध्यापक प्रत्यक्ष नियन्त्रण के अभिकरण होते हैं। प्राकृतिक पर्यावरण अथवा अन्य समितियों द्वारा लागू किया गया नियन्त्रण अप्रत्यक्ष सामाजिक नियन्त्रण कहलाता है। अप्रत्यक्ष नियन्त्रण में नियन्त्रण का
स्रोत दूर होते हुए भी यह सम्पूर्ण समूह को नियन्त्रित बनाये रखता है।

2. चेतन और अचेतन सामाजिक नियन्त्रण-चार्ल्स कूले और एल०एल० बर्नार्ड ने सामाजिक नियन्त्रण को चेतन और अचेतन दो भागों में वर्गीकृत किया है। सोच-समझकर लागू किया गया नियन्त्रण चेतन’ नियन्त्रण कहलाता है। इस नियम में प्रथाएँ, कानुन और परम्पराएँ प्रमुख भूमिका निभाती हैं। सामाजिक अन्त:क्रियाओं द्वारा लागू किया गया नियन्त्रण अचेतन नियन्त्रण कहलाता है। धर्म, संस्कार, विश्वास और मानव का व्यवहार अचेतन नियन्त्रण में सहभागिता निभाते हैं। अचेतन सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण मानव व्यक्तित्व के अंग बन जाते हैं; अत: मानव उनका पालन स्वतः करने लगता है।

3. सकारात्मक और नकारात्मक नियन्त्रण-प्रसिद्ध समाजशास्त्री किम्बाल यंग ने सामाजिक नियन्त्रण को सकारात्मक नियन्त्रण और नकारात्मक नियन्त्रण के रूप में दो भागों में वर्गीकृत किया है। परम्पराओं, मूल्यों तथा आदर्शों द्वारा व्यवहार को नियन्त्रित करना सकारात्मक सामाजिक नियन्त्रण है। दण्ड के भय से व्यक्ति जब सामाजिक नियमों का पालन करता है, तो उसे नकारात्मक नियन्त्रण कहते हैं।

4. औपचारिक और अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण-लिखित कानूनों और निश्चित नियमों द्वारा किया जाने वाला नियन्त्रण सामाजिक नियन्त्रण कहलाता है। राज्य, कानून, न्यायालय, पुलिस, प्रशासन, शिक्षा और जेल आदि अभिकरण औपचारिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। | प्रथाओं, परम्पराओं, लोकाचारों, विश्वासों, संस्कारों, धर्म, नैतिक आदर्शों, मित्र-मण्डली और परिवार द्वारा जो नियन्त्रण लागू किया जाता है उसे अनौपचारिक नियन्त्रण कहा जाता है। अनौपचारिक नियन्त्रण केवल प्राथमिक समूहों द्वारा ही लागू होता है।

प्रश्न 5
अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण से आप क्या समझते हैं? [2013]
या
सामाजिक नियन्त्रण के दो अनौपचारिक साधनों का वर्णन कीजिए। [2010, 11, 15, 16]
उत्तर:
अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण इस प्रकार के नियन्त्रण को व्यक्ति मन से स्वीकार करते हैं तथा इसमें शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता। इस प्रकार के नियन्त्रण में जनरीतियाँ, लोकाचार, प्रथाएँ, नैतिकता, धर्म, परिवार तथा क्रीड़ा समूह आते हैं। इनमें से दो साधनों का वर्णन इस प्रकार है।

  1. जनरीतियाँ मैकाइवर ने जनरीतियों को समझाते हुए कहा है, “जनीतियाँ व्यवहार करने की वे विधियाँ हैं जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। इन जनरीतियों का पालन व्यक्ति अचेतन रूप से करता है। इस प्रकार से किया जाने वाला पालन अनौपचारिक नियन्त्रण के अन्तर्गत आता है। अलग-अलग समाज की अलग-अलग जनरीतियाँ हो सकती हैं; जैसे—प्रत्येक समाज में अभिवादन करने के अलग-अलग तरीके पाये जाते हैं।
  2. लोकाचार लोकाचारों के अन्तर्गत उन जनरीतियों को शामिल किया जाता है, जिन्हें समूह के कल्याण के लिए आवश्यक मान लिया जाता है। इन लोकाचारों का पालन व्यक्ति स्वयं ही करता है। इनके पालन न करने की स्थिति में उसे समाज द्वारा बहिष्कार, निन्दा तथा शारीरिक दण्ड मिलने का भय रहता है। उपहास, तानों आदि के डर से भी व्यक्ति लोकाचारों का पालन करता है।

प्रश्न 6
सामाजिक नियन्त्रण में धर्म के किन्हीं दो कार्यों को स्पष्ट कीजिए। [2009, 133]
या
सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में धर्म की भूमिका पर प्रकाश डालिए। [2008]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की अहम भूमिका है। इसके दो कार्य निम्नलिखित हैं-
1. धर्म मानव-व्यवहार को नियन्त्रित करता है-धर्म मानव के व्यवहार को नियन्त्रित करने का महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। अलौकिक सत्ता के भय से व्यक्ति स्वतः अपने व्यवहार को नियन्त्रित रखता है। धर्म का जादुई प्रभाव व्यक्ति को सत्य भाषण, अचौर्य, अहिंसक, दयावान, निष्ठावान तथा आज्ञाकारी बनने की प्रेरणा देकर सामाजिक आदर्शों के पालन में सहायक होता है। नियन्त्रित मानव-व्यवहार सामाजिक नियन्त्रण का पथ प्रशस्त करता है।

उदाहरणार्थ-ईसाइयों और मुसलमानों में पादरी और मुल्ला-मौलवी अपने-अपने अनुयायियों के सामाजिक जीवन के नियन्त्रक के रूप में कार्य करते हैं। वास्तव में, धर्म के नियमों के विरुद्ध आचरण ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन माना जाता है जो कि पाप है। इससे व्यक्ति का न केवल इहलोक, वरन् परलोक भी बिगड़ जाता है। हिन्दुओं में व्याप्त जाति-प्रथा का आधार भी धर्म है, जो व्यक्ति के जीवन का सम्पूर्ण सन्दर्भ बन गयी है; अतः भारतीय राजनीति भी जातिवाद से कलुषित हो गयी है।

2. सामाजिक संघर्षों पर नियन्त्रण-समाज सहयोग और संघर्ष का गंगा-जमुनी मेल है। व्यक्तिगत स्वार्थ समाज में संघर्ष को जन्म देते हैं। धर्म व्यक्ति को कर्तव्य-पालन, त्याग और बलिदान के पथ पर अग्रसर करके व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति के स्थान पर यह समष्टि के कल्याण की राह दिखाता है, जिससे संघर्ष टल जाते हैं। और सामाजिक नियन्त्रण बना रहता है।

प्रश्न 7
सामाजिक नियन्त्रण के किसी एक औपचारिक अभिकरण की भूमिका की विवेचना कीजिए।
या
सामाजिक नियन्त्रण के साधन के रूप में शिक्षा का क्या महत्त्व है? [2010]
या
सामाजिक नियन्त्रण में शिक्षा की भूमिका को स्पष्ट कीजिए। [2015]
उत्तर:
शिक्षा सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षा सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन है वह व्यक्ति का समाजीकरण करती है तथा उसमें आत्म-नियन्त्रण की शक्ति पैदा करती है। शिक्षा व्यक्ति में आदर्श नागरिकता के गुणों का विकास करती है ताकि वह राज्य के कानूनों का पालन कर सके। शिक्षा व्यक्ति की प्रस्थिति एवं भूमिका में सामंजस्य स्थापित करने में योग देती है। शिक्षा व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि करती एवं उसकी तर्क-शक्ति को बढ़ाती है। इससे व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण को समझने लगता है, समूह कल्याण की दृष्टि से उसे मानने लगता है। शिक्षा व्यक्ति का समाजीकरण कर उसे सामाजिक नियमों का ज्ञान कराती है। शिक्षा व्यक्ति की बौद्धिक शक्ति का विकास करती है। शिक्षित व्यक्ति ही उचित व अनुचित तथा अच्छे-बुरे में भेद कर सकता है। उचित व्यवहार करके ही हम सामाजिक नियन्त्रण बनाये रखने में योग दे सकते हैं। शिक्षा व्यक्ति को अतार्किक व्यवहारों से मुक्ति दिलाती है। शिक्षा व्यक्ति को आत्म-नियन्त्रण सिखाती है। व्यक्ति स्वयं पर नियन्त्रण रखकर सामाजिक नियन्त्रण में योग देता है। शिक्षा हमारी संस्कृति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित कर सामाजिक नियन्त्रण में योग देती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक नियन्त्रण के दो अनौपचारिक साधन लिखिए।
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के दो अनौपचारिक साधन निम्नलिखित है|

  • धर्म-धर्म सामाजिक नियन्त्रण का सदैव से ही एक प्रमुख अभिकरण रहा है।
  • परिवार-सामाजिक नियन्त्रण में परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण अभिकरण हैं।

प्रश्न 2
सामाजिक नियन्त्रण में जाति-समूह की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जाति-समूह व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के आचरण को नियन्त्रित करता है। हम क्या खाएँ, किसके साथ विवाह करें, क्या पहनें, किन जातियों के यहाँ भोजन व पानी स्वीकार या अस्वीकार करें, कौन-सा व्यवसाय करें, किन से छुआछूत बरतें आदि सभी बातें जाति द्वारा निर्धारित होती रही हैं। जाति के नियमों का पालन कराने के लिए जाति-पंचायत होती है। जाति के नियमों का उल्लंघन करने पर जाति-पंचायत व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत कर सकती है अथवा उसको शारीरिक व आर्थिक दण्ड दे सकती है।

प्रश्न 3
सामाजिक नियन्त्रण के साधन से क्या तात्पर्य है ? इसके उदाहरण भी दीजिए। [2012]
उत्तर:
साधन से तात्पर्य किसी विधि या तरीके से है, जिसके द्वारा कोई भी अभिकरण या एजेन्सी अपनी नीतियों और आदेशों को लागू करती है। उदाहरण के लिए-प्रथा, परम्परा, लोकाचार आदि।

प्रश्न 4
सामाजिक नियन्त्रण से सामाजिक सुरक्षा कैसे प्राप्त होती है ?
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण लोगों को मानसिक एवं बाह्य सुरक्षा प्रदान करता है। व्यक्ति को जब यह विश्वास होता है कि उसके हितों की रक्षा होगी तो वह मानसिक रूप से सन्तुष्ट एवं सुरक्षित अनुभव करता है। सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा व्यक्ति की शारीरिक एवं धन-सम्पत्ति की रक्षा की जाती है।

प्रश्न 5
सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण से क्या तात्पर्य है ? इसके उदाहरण भी दीजिए। [2011, 12]
उत्तर:
अभिकरण का तात्पर्य उन समूहों, संगठनों एवं सत्ता से है, जो नियन्त्रण को समाज पर लागू करते हैं। नियमों को लागू करने का माध्यम अभिकरण कहलाता है। उदाहरण के लिए, परिवार, राज्य, शिक्षण आदि।

प्रश्न 6
सकारात्मक और नकारात्मक नियन्त्रण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
सकारात्मक नियन्त्रण में पुरस्कार प्रदान कर अन्य लोगों को भी वैसा ही व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नकारात्मक नियन्त्रण में समाज-विरोधी कार्य करने वाले व्यक्ति को दण्डित किया जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“धर्म अलौकिक शक्तियों पर विश्वास है।” यह किसका कथन है ?
उत्तर:
यह हॉबेल का कथन है।

प्रश्न 2
शिक्षा सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन है/ ‘हाँ या नहीं लिखिए।
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 3
सामाजिक तथ्य की अवधारणा किसने दी ? [2008, 12, 16]
उत्तर:
सामाजिक तथ्य’ की अवधारणा दुर्चीम ने दी।

प्रश्न 4
“परिवार, सामाजिक नियन्त्रण का साधन है।” क्या यह सत्य है ? [2011, 16]
उत्तर:
हाँ, यह सत्य है। परिवार, सामाजिक नियन्त्रण का एक अनौपचारिक साधन है।

प्रश्न 5
सामाजिक नियन्त्रण के चार प्रमुख साधन एजेन्सियाँ बताएँ। [2011]
या
सामाजिक नियन्त्रण के दो अभिकरणों को उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के चार प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं–

  • परिवार,
  • धर्म,
  • कानून तथा
  • दण्ड।

प्रश्न 6
‘सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा का प्रयोग पहली बार किसने किया ?
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण की अवधारणा का प्रयोग पहली बार रॉस ने किया।

प्रश्न 7
सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधन कौन-कौन से हैं ? [2017]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधनों में कानून, न्याय-व्यवस्था, पुलिस, प्रशासन, शिक्षा आदि आते हैं।

प्रश्न 8
सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों का उल्लेख कीजिए। [2017]
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों में जनरीतियाँ, प्रथाएँ, रूढ़ियाँ, धर्म, नैतिकता आदि आते हैं।

प्रश्न 9
मैरिज एण्ड फैमिली इन इण्डिया’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए।
उत्तर:
मैरिज एण्ड फैमिली इन इण्डिया’ नामक पुस्तक के लेखक हैं-के० एम० कपाड़िया।

प्रश्न 10
‘सोशल कण्ट्रोल’ किसकी कृति है ? [2008]
उत्तर:
‘सोशल कण्ट्रोल’ जोसेफ रोसेक की कृति है।

प्रश्न 11
‘द साइकोलॉजी ऑफ सोसायटी’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए।
उत्तर:
‘द साइकोलॉजी ऑफ सोसायटी’ नामक पुस्तक के लेखक हैं—मॉरिस जिन्सबर्ग।

प्रश्न 12
समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्था और प्रगति का विज्ञान है? यह कथन किसका है? [2017]
उत्तर:
आगस्त कॉम्टे।

प्रश्न 13
‘ह्वाट इज सोशियोलॉजी’ नामक पुस्तक किसने लिखी है? [2017]
उत्तर:
एलेक्स इंकलिस ने।।

प्रश्न 14
सामाजिक नियन्त्रण से धर्म के किन्हीं दो कार्यों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

  • मानव व्यवहार को नियन्त्रित करना तथा
  • सामाजिक संघर्षों पर नियन्त्रण करना।

प्रश्न 15
किस समाजशास्त्री ने सामाजिक नियन्त्रण को चेतन एवं अचेतन नियन्त्रण की श्रेणियों में विभाजित किया है? [2015]
उत्तर:
कूले तथा एल०एल० बर्नार्ड।

प्रश्न 16
सामाजिक नियन्त्रण के दो अभिकरणों के नाम बताइए।
उत्तर:

  • राज्य तथा
  • परिवार।

प्रश्न 17
सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक सुरक्षा की स्थापना करना है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
सामाजिक नियन्त्रण का उद्देश्य है
(क) व्यापार का विकास करना
(ख) व्यक्ति की राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति
(ग) सामाजिक सुरक्षा की स्थापना
(घ) मनुष्य को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना।

प्रश्न 2.
दुर्णीम के अनुसार सामाजिक नियन्त्रण का सबसे प्रभावशाली साधन क्या है ?
(क) राज्य
(ख) समुदाय
(ग) सामूहिक प्रतिनिधान
(घ) व्यक्ति

प्रश्न 3.
सर्वप्रथम किसने ‘सामाजिक नियन्त्रण’ शब्द का प्रयोग किया? [2017]
(क) रॉस
(ख) समनर
(ग) कॉम्टे
(घ) कुले

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से सामाजिक नियन्त्रण का अभिकरण नहीं, बल्कि एक साधन कौन-सा है?
(क) परिवार
(ख) राज्य
(ग) पुरस्कार एवं दण्ड
(घ) शिक्षा संस्थाएँ

प्रश्न 5.
रॉस ने सामाजिक नियन्त्रण में किसकी भूमिका को महत्त्वपूर्ण माना है ?
(क) सन्देह की
(ख) विश्वास की
(ग) भ्रम की
(घ) शंका की

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सा सामाजिक नियन्त्रण का साधन नहीं है ?
(क) शिक्षा एवं निर्देशन
(ख) शक्ति एवं पारितोषिक
(ग) सामाजिक अन्तःक्रिया
(घ) अनुनय

प्रश्न 7.
सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन कौन-सा है ?
(क) धर्म
(ख) परिवार
(ग) शिक्षा
(घ) प्रथाएँ

प्रश्न 8.
सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन निम्न में से क्या है ? [2013, 17]
(क) जनरीतियाँ
(ख) कानून
(ग) प्रथाएँ
(घ) रूढ़ियाँ

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में सामाजिक नियन्त्रण का अनौपचारिक साधन है
(क) कानून
(ख) शिक्षा-व्यवस्था
(ग) परिवार
(घ) राज्य

प्रश्न 10.
सामाजिक नियन्त्रण का अनौपचारिक साधन कौन-सा है ?
(क) प्रथा
(ख) कानून
(ग) राज्य
(घ) शिक्षा

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किसने प्रजाति चेतना’ की अवधारणा दी है? [2015]
(क) एल०एफ० वार्ड।
(ख) एफ०एच० गिडिंग्स
(ग) एम० जिन्सबर्ग।
(घ) आर०एम० मैकाइवर

प्रश्न 12.
‘सोसायटी’ पुस्तक किसने लिखी है? [2017]
(क) कुले
(ख) मैकाइवर एवं पेज
(ग) सोरोकिन
(घ) इमाइल दुखम

प्रश्न 13.
समाजशास्त्र का जनक किसे कहा जाता है? [2017]
(क) राधा कमल मुखर्जी
(ख) अगस्त कॉम्टे
(ग) एम०एन० श्री निवास
(घ) योगेन्द्र सिंह

उत्तर:
1. (ग) सामाजिक सुरक्षा की स्थापना, 2. (ग) सामूहिक प्रतिनिधान, 3. (क) रॉस, 4. (ग) पुरस्कार एवं दण्ड,
5. (ख) विश्वास की, 6. (ग) सामाजिक अन्त:क्रिया, 7. (ग) शिक्षा, 8. (ख) कानून, 9. (ग) परिवार,
10. (क) प्रथा, 11. (ख) एफ०एच० गिडिग्स, 12. (ख) मैकाइवर एवं पेज, 13. (ख) आगस्त कॉम्टे।

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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning (अधिगम या सीखना) are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 3 Learning (अधिगम या सीखना).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 3
Chapter Name Learning
(अधिगम या सीखना)
Number of Questions Solved 70
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning (अधिगम या सीखना)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
अधिगम अथवा सीखने (Learning) से आप क्या समझते हैं? सीखने की प्रक्रिया में सहायक कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
सीखने (अधिगम) का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। सीखने की अनुकूल परिस्थितियों अथवा सहायक कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सीखने या अधिगम का अर्थ । सीखना जीवन-पर्यन्त चलने वाली एक सार्वभौम क्रिया है जो हमारे ज्ञान में निरन्तर वृद्धि करती है। मनुष्य शैशवकाल से मृत्यु तक जाने-अनजाने, औपचारिक-अनौपचारिक साधनों से नयी-नयी बातें सीखने की प्रवृत्ति रखता है। सीखने की प्रक्रिया में मानव एवं पशु अपने पूर्व-अनुभवों से लाभ उठाते हैं। वस्तुत: पूर्व-अनुभवों से लाभ उठाने की क्रिया को ही हम सीखना कहते हैं।

दूसरे शब्दों में, अतीत से लाभ उठाना तथा अपनी प्रक्रियाओं को उपयुक्त बनाना ही सीखना (Learning) है। उदाहरण के लिए, आग से जला हुआ बच्चा दोबारा आग के पास नहीं जाता, क्योंकि अनुभव ने उसे सिखा दिया है कि आग उसे जला देगी; अतः वह सीख गया है कि आग से दूर रहना चाहिए। सीखने की क्रिया द्वारा मनुष्य के मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार में इतना परिवर्तन आ जाता है कि आगे चलकर मूल प्रवृत्तियों के असली रूप को पहचानना ही दूभर हो जाता है। इस प्रकार सीखने से हमारा तात्पर्य पर्यावरण के प्रति उपयुक्त प्रतिक्रिया को अपनाने की प्रक्रिया अर्जित करने से है। सीखने का एक नाम ‘अधिगम’ भी है।

सीखने की परिभाषा

अनेक विद्वानों ने सीखने की परिभाषाएँ दी हैं। प्रमुख विद्वानों की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. क्रो एवं क्रो के अनुसार, “सीखना आदतों, ज्ञान तथा अभिवृत्तियों को अर्जन है।”
  2. गेट्स एवं अन्य के अनुसार, “अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में जो परिवर्तन होता है, उसी को सीखना कहते हैं।”
  3. वुडवर्थ के अनुसार, “सीखना वह कोई भी क्रिया है जो बाद की क्रिया पर अपेक्षाकृत स्थायी प्रभाव डालती है।”
  4. चार्ल्स स्किनर के अनुसार, “सीखना, प्रगतिशील रूप से व्यवहार को ग्रहण करने की प्रक्रिया है।”
  5. कॉलविन के अनुसार, “अनुभव द्वारा पहले से बने बनाये (अर्थात् मौलिक) व्यवहार में परिवर्तन ही सीखना है।”
  6. बर्नहर्ट के अनुसार, “सीखना व्यक्ति के कार्यों में एक स्थायी रूपान्तर लाना है जो निश्चित परिस्थितियों में किसी लक्ष्य को प्राप्त करने या किसी समस्या को सुलझाने के प्रयास में अभ्यास द्वारा किया जाता है।”
  7. बी०एन० झा के शब्दों में, “उपयुक्त अनुक्रिया अर्जित करने की प्रक्रिया ही सीखना है।”
  8. हिलगार्ड के अनुसार, “सीखना वह क्रिया है जिससे कि कोई क्रिया प्रारम्भ होती है अथवा जो किसी परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करने के कारण परिवर्तित होती है; शर्त यह है कि इस प्रकार के परिवर्तन की विशेषताओं की व्याख्या जन्मजात प्रतिक्रिया, प्रवृत्तियों, परिपक्वता अथवा प्राणी की अस्थायी अवस्थाओं द्वारा नहीं की जा सके।”

विभिन्न सम्प्रदायों की दृष्टि में सीखना

मानव स्वभाव के व्यापक अध्ययन की दृष्टि से मनोविज्ञान के विभिन्न सम्प्रदायों का विकास हुआ। इन सम्प्रदायों ने भी अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार सीखने की प्रक्रिया को समझाया है।

व्यवहारवाद के अनुसार, “सीखना मानव-व्यवहार में परिवर्तन की एक प्रक्रिया है।” प्रयोज़ावाद की दृष्टि में, “सीखना मानव-जीवन के लक्ष्य (प्रयोजन) से सम्बन्धित है तथा यह लक्ष्योन्मुख उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।’ गैस्टाल्टवाद स्वीकार करता है, “मानव सम्पूर्ण परिस्थिति से सम्बन्ध स्थापित करके सीखता है। वह सीखे गये ज्ञान को अपने पूर्व-अनुभव से जोड़कर आत्मसात् करता है।

निष्कर्षतः सीखना या अधिगम मनुष्य द्वारा वातावरण से समायोजन स्थापित करने की, जीवन-पर्यन्त चलने वाली एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। सीखना वस्तुतः एक प्रकार का मानसिक विकास है जिससे मानव का ज्ञानवर्द्धन होता है तथा उसकी विविध मानसिक प्रक्रियाओं का विकास होता है। विश्व के सभी प्राणी थोड़ी या अधिक, किन्तु हरदम कुछ-न-कुछ सीखते ही रहते हैं।

सीखने की अनुकूल परिस्थितियाँ अथवा सहायक कारक

सीखने की सफलता कुछ विशेष परिस्थितियों अथवा कारकों पर निर्भर करती है जिन्हें हम सीखने की अनुकूल परिस्थितियाँ अथवा सहायक कारक कहते हैं। ये परिस्थितियाँ अथवा कारक निम्नलिखित हैं

(1) शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य- सीखने की तीव्रता व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य अच्छा न होने पर ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक काम नहीं कर पातीं, व्यक्ति रुचि लेकर कार्य नहीं करता और जल्दी ही थक जाता है। जो व्यक्ति देखने, सुनने, बोलने आदि क्रियाओं में निर्बल होते हैं, वे सीखने में पर्याप्त उन्नति नहीं कर पाते। वस्तुत: सीखने की प्रक्रिया का भौतिक और शारीरिक आधार स्नायु-संस्थान है। स्नायु-संस्थान के अन्तर्गत मस्तिष्क और स्नायु आते हैं जिनके कार्य करने की शक्ति पर सीखने की प्रक्रिया निर्भर करती है। मस्तिष्क और स्नायु की शक्ति, व्यक्ति के स्वास्थ्य पर निर्भर है। स्पष्टतः सीखने की क्रिया शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य से सीधे रूप में प्रभावित होती है।

(2) आयु– आयु का सीखने से गहरा सम्बन्ध है। आयु बढ़ने से सीखने की योग्यता क्यों कम हो। जाती है, इस संम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि आयु वृद्धि के कारण कुछ परिवर्तन आते हैं; जैसे-नाड़ी-मण्डल में विकार आ जाता है, उत्साह फीका पड़ने लगता है, विविध कार्यों में व्यस्तता के कारण अरुचि हो जाती है तथा व्यक्ति पर्याप्त रूप से श्रम नहीं कर पाता। हालाँकि, आयु बढ़ने के साथ-साथ अनुभव बढ़ता है, किन्तु सीखने की योग्यता घटती जाती है। प्रौढ़ों की अपेक्षा बालक जल्दी सीखते हैं। इसका कारण यह है कि बालकों का मस्तिष्क संसार की समस्याओं के बोझ से मुक्त रहता है, उनका नाड़ी-मण्डल अधिक स्वस्थ एवं लचीला होता है और जिज्ञासावश वे अधिक रुचि लेते हैं। सच तो यह है कि सीखना एक प्रगतिशील क्रिया है जिसे जीवन की किसी भी अवस्था में शुरू किया जा सकता है। केवल रुचि, अवधान, निष्ठा एवं श्रम की आवश्यकता है।

(3) उपयुक्त वातावरण– उपयुक्त वातावरण सीखने की प्रक्रिया में सहायक होता है। यदि वातावरण शान्त, सुन्दर, स्वस्थ तथा खुला होगा तो उससे मन को एकाग्र करने में सहायता मिलेगी। शोर-शराबे से युक्त, दूषित, गर्म तथा घुटन-भरे वातावरण में बालक तत्परता से नहीं सीख पाएगा। वह जल्दी थकान अनुभव करेगा और आलस्य के कारण झपकी मारने लगेगा। |

(4) प्रेरणा- सीखने में प्रेरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सीखने में उन्नति लाने की दृष्टि से उसे प्रेरणायुक्त एवं प्रयोजनशील बना देना चाहिए। प्रेरणायुक्त व्यवहार उत्साह के कारण सीखने की प्रक्रिया को तीव्र कर देता है; अतः तीव्र प्रेरणा से सीखने की गति में तीव्रता आती है। प्रेरणा का सम्बन्ध लक्ष्य या प्रयोजन से है। यदि सीखने का लक्ष्य अच्छा है तो व्यक्ति उसे शीघ्र सीखने के लिए प्रेरित होता है। अतएव, सीखने की प्रक्रिया को त्वरित करने के लिए उसे उद्देश्यपूर्ण एवं प्रेरणायुक्त कर देना उचित है।

(5) रुचि- सीखने में रुचि का होना आवश्यक है। कोई कार्य सीखने या सिखाने से पहले व्यक्ति को उस कार्य में रुचि पैदा करनी चाहिए। रुचि लेकर किया गया कार्य शीघ्र होता है। रुचि एक प्रकार की आन्तरिक प्रेरणा है जो व्यक्ति को निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचाने में सहायता करती है तथा रुचि  का सम्बन्ध इच्छाओं और उद्देश्यों से है। बालक की सीखने में रुचि तभी होगी जबकि सीखने की सामग्री उसके उद्देश्य एवं इच्छा से सम्बन्धित होगी। अतः बालक में सीखने के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए इन सभी बातों का ध्यान रखना चाहिए।

(6) अवधान- अवधान सीखने की एक आवश्यक शर्त तथा अनुकूल दशा है। सीखने के दौरान, विविध साधनों के माध्यम से व्यक्ति के अवधान को विषय-सामग्री में केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए। शान्त भाव से विषय में केन्द्रित अवधान सीखने की प्रक्रिया को तीव्र करता है।

(7) तत्परता- सीखने-सिखाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पहले व्यक्ति में तत्परता का गुण होना आवश्यक है। सीखने की तीव्र इच्छा के साथ, सीखने के लिए तत्पर बच्चे शीघ्रतापूर्वक सीखते हैं। इसके विपरीत इच्छा एवं तत्परता के अभाव में सीखने की क्रिया न केवल अधिक समय लेती है बल्कि इस भाँति सीखा गया विषय स्थायी प्रकृति का भी नहीं होता।

(8) समय- किसी कार्य को लगातार लम्बे समय तक करने से थकान तथा ऊब पैदा होती है। थके हुए मस्तिष्क से सीखी गयी बातों का मस्तिष्क पर अच्छा असर नहीं पड़ता है। यही कारण है कि दीर्घ काल के अन्तिम भाग में सीखा गया ज्ञान समझ से बाहर होता जाता है। सीखने की क्रिया को सार्थक बनाने की दृष्टि से शिक्षार्थियों को थोड़ी-थोड़ी देर का अन्तर करके याद करना चाहिए। इससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावकारी व उपयोगी बनती है।

(9) सीखने की विधि– सीखने की विधि की उपयुक्तता सीखने की सहायक दशा है। सीखने की अच्छी एवं उपयुक्त विधि मनोवैज्ञानिक एवं अर्थपूर्ण ढंग की तार्किक विधि होती है। यह विधि, विषय-सामग्री और बालक की बुद्धि व सीखने के लिए उपलब्ध समय को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए।’

(10) करके सीखना– वर्तमान समय में सभी शिक्षा प्रणालियाँ ‘करके सीखना’ (Learning by doing) पर बल देती हैं। स्वयं करके सीखने से बालक का ध्यान सम्बन्धित कार्य में लम्बे समय तक केन्द्रित रहता है और वह द्रुत गति से सीखता है।

(11) सफलता का ज्ञान- सीखने वाले को सफलता का ज्ञान होने से प्रेरणा प्राप्त होती है। यदि सीखने वाले व्यक्ति को समय-समय पर यह अहसास कराया जाता रहे कि उसे कार्य में सफलता मिल रही है तो वह अधिक उत्साह के साथ करने लगता है। अतः सीखने की प्रक्रिया में सफलता का ज्ञान कराते रहना चाहिए।

(12) अभ्यास- सीखने में वांछित उन्नति के लिए विषय का निरन्तर अभ्यास जरूरी है। अभ्यास की अवधि न तो बहुत कम हो और न ही बहुत अधिक। मनोवैज्ञानिकों ने तीस मिनट की अभ्यास अवधि को सभी प्रकार से यथोचित बताया है। सीखी गयी बात को पुष्ट करने के लिए अभ्यास आवश्यक है। अतः पाइल (Pile) का यह कथन उचित ही है कि प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करना चाहिए।

(13) प्रतिस्पर्धा- सीखने वालों में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा की भावना जाग्रत होने पर वे और अधिक सीखने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। प्रतिस्पर्धा का विचार व्यक्ति को एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए प्रेरित करता है; अतः शिक्षक को शिक्षार्थियों में प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा का भाव पैदा करते। रहना चाहिए।

(14) पुरस्कार और प्रशंसा– पुरस्कृत व्यक्ति सीखने के लिए प्रेरित तथा उत्साहित होता है। समय-समय पर प्रशंसा या पुरस्कार का विचार सीखने में सहायक सिद्ध होता है। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, बड़े लड़कों तथा मन्दबुद्धि बालकों पर प्रशंसा का अधिक प्रभाव पड़ता है, किन्तु लड़कियों पर लड़कों की अपेक्षा प्रशंसा या निन्दा का कम प्रभाव पड़ता है।

(15) दण्ड और निन्दा- यद्यपि दण्ड सीखने की क्रिया में बाधा उत्पन्न करते हैं तथापि बालकों को गलत कार्यों से रोकने के लिए दण्ड का प्रयोग करना ही पड़ता है। बालक के बुरे कार्यों की निन्दा की जानी चाहिए। तीव्र बुद्धि बालक पर निन्दा का अच्छा प्रभाव देखा गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि निन्दा, फल की अवहेलना से अधिक उत्साहवर्द्धक होती है।

उपर्युक्त अनुकूल दशाओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को । व्यवस्थित किया जाएगा तो निश्चय ही, सीखने की प्रक्रिया तीव्र, प्रभावकारी एवं स्थायी होगी।

प्रश्न 2
सीखने की विभिन्न विधियाँ क्या हैं? सोदाहरण समझाइए।
या
प्रमुख अधिगम विधियों की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर
सीखने की विधि का अर्थ सीखने की विधि या अधिगम विधि से अभिप्राय उस प्रविधि से है जो किसी भी पाठ्य-सामग्री को सीखने के लिए अपनायी जाती है। सीखने की विधि तथा इससे सम्बन्धित कारक अधिगम (सीखना) को पर्याप्त रूप से प्रभावित करते हैं; क्योंकि सीखने की विधियाँ सिर्फ मानवीय अधिगम क्षेत्र में ही प्रयोग की जाती हैं; अतः इनकी प्रधान एवं विशिष्ट भूमिका मानवीय अधिगम के सम्बन्ध में ही है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर पता चलता है कि अलग-अलग तरह से सीखने के कार्यों में अलग-अलग प्रकार की अधिगम/सीखने की विधियाँ प्रयुक्त होती हैं।

सीखने की विधियाँ सीखने की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं जिनमें से मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन की प्रमुख चार विधियों को अधिक उपयोगी माना है। ये विधियाँ इस प्रकार हैं-

  1. अविराम तथा विराम विधि
  2. पूर्ण तथा अंश विधि
  3. साभिप्राय तथा प्रासंगिक विधि और
  4. सक्रिय सीखना तथा निष्क्रिय सीखना। इन विधियों की व्याख्या निम्नलिखित हैं-

(1) अविराम तथा विराम विधि (Massed Method and Spaced Method)– अविराम विधि, सीखने की एक ऐसी विधि है जिसमें किसी पाठ्य-सामग्री/पाठ को सीखते समय किसी तरह का विश्राम नहीं दिया जाता और सीखने के लिए जो समय तय होता है, व्यक्ति उसमें एक ही सत्र में अविराम (लगातार) कार्य करके सीखता रहता है। इसे संकलित विधि भी कहा जाता है। विराम विधि, जिसे वितरित विधि भी कहते हैं, किसी पाठ्य-सामग्री को विश्राम सहित तथा वितरित प्रयासों के द्वारा अलग-अलग सत्रों में सीखा जाता है। यदि कोई व्यक्ति लगातार दो घण्टे तक बैठकर एक ही सत्र में अपना पाठ याद करता है और इस बीच विश्राम नहीं करता, तो यह अविराम या संकलित विधि कही जाएगी; किन्तु यदि उसे बिना विश्राम किये पढ़ने में थकान या ऊब महसूस हो तो वह विराम या वितरित विधि का सहारा ले सकता है। वह पहले एक घण्टा पढ़ सकता है और पन्द्रह मिनट विश्राम के बाद फिर एक घण्टा पढ़ सकता है। इस भाँति, विश्राम के साथ एक से ज्यादा सत्रों में सीखने की विधि विराम विधि है।।

(2) पूर्ण तथा अंश विधि (Whole Method and Part Method)- अधिगम अर्थात् सीखने को संगठित तथा सुगम बनाने वाली दूसरी विधि पूर्ण तथा अंश विधि है। जब व्यक्ति पूरे कार्य को एक साथ करके सीखता है तो उसे पूर्ण विधि कहते हैं और जब वह पूरे कार्य को कई खण्डों/अंशों में बाँटकर प्रत्येक अंश को एक-दूसरे के बाद सीखता है तो उसे अंश विधि कहा जाता है। पूर्ण विधि में पाठ्य-सामग्री को आरम्भ से अन्त तक एक बार दोहरा लेने के बाद उसे फिर से दोहराकर अधिगम किया जाता है, किन्तु अंश विधि में पहले सम्पूर्ण पाठ्य-सामग्री को कुछ अंशों में बाँट लिया जाता है।

और फिर प्रत्येक अंश का अलग-अलग अधिगम करने के बाद सभी अंशों को एक साथ अधिगम कर लिया जाता है। पूर्ण विधि में 10 पृष्ठों के एक प्रश्नोत्तर को पहली पंक्ति में अन्तिम पंक्ति तक लगातार अनेक बार पढ़कर सीखा जाता है, किन्तु अंश विधि में इन 10 पृष्ठों की पाठ्य-सामग्री को सुविधानुसार कुछ अंशों में बाँटकर याद किया जाता है।

(3) साभिप्राय तथा प्रासंगिक विधि (Intentional Learning Method and Incidental Learning Method)- साभिप्राय विधि के अन्तर्गत व्यक्ति अपनी इच्छा तथा निश्चित उद्देश्य के साथ किसी कार्य या पाठ को सीखता है, जबकि प्रासंगिक विधि में व्यक्ति किसी कार्य या पाठ को स्वयं ही सीख जाता है-उसमें कार्य को सीखने की कोई इच्छा या उद्देश्य नहीं होता। यदि बालक अभिरुचि एवं निश्चित उद्देश्य के साथ पाठ याद करे; जैसे कि उस पाठ की परीक्षा में आने की अत्यधिक सम्भावना है तो इस प्रकार सीख जाना साभिप्राय सीखने की विधि का उदाहरण है; किन्तु निरुद्देश्य एवं बिना अभिरुचि के स्वत: ही सीख जाना प्रासंगिक विधि में आता है; जैसे किसी कैलेण्डर में दिन व दिनांक देखते-देखते व्यक्ति को उसे पर छपा विज्ञापन याद हो जाता है।

प्रयोगात्मक अध्ययन बताते हैं कि साभिप्राय विधि द्वारा सीखना, प्रासंगिक विधि द्वारा सीखने से अधिक अच्छा व उपयोगी है; क्योंकि इस तरह के सीखने में व्यक्ति की अभिरुचि तथा अभिप्रेरणा अधिक रहती है और वह सीखे गये कार्य को अधिक समय तक याद रख सकता है। आमतौर पर हम पाते हैं कि व्यक्ति उद्देश्य एवं अभिरुचि के साथ कार्य जल्दी सीख जाता है और उसका प्रभाव भी देर तक बना रहता है, किन्तु वह निरुद्देश्य तथा बिना रुचि के कार्य ढंग से नहीं सीख पाता। |

(4) सक्रिय सीखना तथा निष्क्रिय सीखना (Active Learning and Passive Learning)- अधिगम की एक विधि सक्रिय एवं निष्क्रिय विधि भी है। जब व्यक्ति किसी कार्य या पाठ को काफी तत्परता तथा सक्रियता के साथ सीखता है, सामग्री को बोल-बोलकर कण्ठस्थ करता है या उसे लिखता है तो इस तरह के सीखने को सक्रिय सीखना कहते हैं। | इस विधि का एक नाम मौखिक आवृत्ति विधि (Recitation Method) भी है। ह्विटेकर (Whittaker) नामक मनोवैज्ञानिक ने सक्रिय सीखने को परिभाषित किया है कि इसमें व्यक्ति

आत्म-परीक्षण (Self-testing) द्वारा या बोलकर या लिखकर किसी पाठ को सीखता है और उसे याद करता है। निष्क्रिय विधि में व्यक्ति किसी कार्य या पाठ को मन-ही-मन पढ़कर कण्ठस्थ करता है। और आराम से लेटकर या आराम कुर्सी पर बैठकर शुरू से आखिर तक पढ़कर सीखता है।

परीक्षा के दिनों में बच्चे प्रश्न के उत्तरों को सिर्फ पढ़ते ही नहीं हैं, बल्कि बीच-बीच में पढ़ना बन्द करके सामग्री को बोलने की कोशिश करते हैं या उसे लिखकर जाँच करते हैं कि वे कार्य या पाठ को अच्छी तरह सीख गये हैं या नहीं-यह सक्रिय विधि द्वारा सीखना है। किन्तु आमतौर पर जब बच्चे बिस्तर पर लेटकर या आरामकुर्सी पर बैठकर किसी प्रश्न का उत्तर पढ़कर सीखने का प्रयास करते हैं। तो यह निष्क्रिय विधि द्वारा सीखने का उदाहरण होगा।

प्रश्न 3
अनुकरण से आप क्या समझते हैं? अनुकरण की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। अनुकरण द्वारा सीखने को प्रभावित करने वाले आधारभूत कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
सीखने में अनुकरण की क्या भूमिका है? अनुकरण की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर।
अनुकरण का अर्थ और परिभाषा | अनुकरण (Imitation) सीखने की एक प्रमुख विधि है जिसे मानव-जाति के बालकों व वयस्कों के अतिरिक्त पशु-पक्षियों द्वारा भी बहुतायत से अपनाया जाता है।

अनुकरण का सामान्य अर्थ है देखकर या सुनकर कार्य करने की विधि अथवा ‘नकल के माध्यम से सीखना। जब कोई प्राणी किसी अन्य प्राणी को देखकर या उसकी नकल करके किसी विशिष्ट क्रिया को सीखता है तो उसे अनुकरण द्वारा सीखना कहा जाता है। अनुकरण पशु, पक्षी और नुष्यों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यह जन्मजात प्रवृत्ति प्रत्येक प्राणी में मिलती है। बच्चों में भी अनुकरण की तीव्र एवं प्रबल प्रवृत्ति मिलती है।

मैक्डूगल ने अनुकरण को इस प्रकार परिभाषित किया है, “अनुकरण एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं और शारीरिक व्यवहार की नकल करने को कहते हैं।”

अनुकरण विधि की विशेषताएँ

हम किसी भाषा को बोलना, चलना-फिरना तथा सामान्य जीवन की असंख्य बातें अनुकरण द्वारा ही सीखते हैं। वस्तुतः सीखने की दिशा में मनुष्यों तथा पशुओं द्वारा यही विधि सर्वाधिक अपनाई जाती है।

अनुकरण विधि की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. अनुकरण करते समय अनुकरणकर्ता को प्रायः सोच-विचार की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
  2. अनुकरणकर्ता के लिए अनुकरण की जाने वाली क्रिया सर्वथा नयी होती है, वह उस क्रिया से परिचित नहीं होता।
  3. अनुकरण की विधि के अन्तर्गत क्रिया प्रदर्शन पर आधारित होती है।
  4. अनुकरण करने वाला अनुकरणीय क्रिया को देखते या सुनते ही तत्काल उसकी नकल करना प्रारम्भ कर देता है, वह सीखने की अन्य विधियों का प्रयोग नहीं करता।
  5. अनुकरण के सिद्धान्तानुसार क्रिया का जटिल होना आवश्यक समझा जाता है।
  6. अनुकरण में त्रुटियों की बहुत कम सम्भावनाएँ निहित हैं।
  7. मौलिकता के अभाव के कारण इसके अन्तर्गत क्रिया का स्वरूप अपरिवर्तनीय रहता है।
  8. अनुकरण योग्य कार्य की कठिनाई व्यक्ति की क्षमता एवं योग्यता के अनुरूप होनी चाहिए

निष्कर्षत: अनुकरण आत्माभिव्यक्ति (Self-expression) का सशक्त साधन है। इसका उपयोग नृत्य, संगीत तथा खेल आदि के शिक्षण में महत्त्वपूर्ण है। अच्छी आदतों का निर्माण अनुकरण के माध्यम से होता है। अनुकरण से स्पर्धा की भावना जन्म लेती है और बालक का विकास तीव्र गति से होता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य सामाजिक व्यवहार अनुकरण के माध्यम से ही सीखता है।

अनुकरण द्वारा सीखने को प्रभावित करने वाले आधारभूत कारक 

अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया को अनेक आधारभूत कारक प्रभावित करते हैं। इनमें प्रमुख कारकों का विवरण निम्नलिखित है|

(1) अभिप्रेरणा- अधिगम या सीखने पर अभिप्रेरणा का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि अनुकरण द्वारा सीखने वाला व्यक्ति या प्राणी अभिप्रेरित नहीं होगा तो सीखने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। प्रायः बच्चे प्रतिभाशाली बच्चों की उपलब्धियों से प्रेरित होकर उनका अनुकरण करते हैं और परिणामत: अधिक लगन से सीखने में जुट जाते हैं। पशु के सीखने में शारीरिक अभिप्रेरणा तथा मनुष्य के सीखने में मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणा का अधिक महत्त्व होता है। |

(2) अभ्यास तथा सूझ- अभ्यास से सीखने में दृढ़ता प्राप्त होती है। एक बार अनुकरण करके सीख लेने के उपरान्त उसका बार-बार अभ्यास किया जाना आवश्यक है। सीखने में अभ्यास के साथ-साथ सूझ-बूझे का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रयोगों द्वारा सिद्ध हुआ है कि कोई कार्य जितनी ही अधिक बार किया जाता है, कार्यकुशलता और पूर्णता उतनी ही अधिक आती है। अत: अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया में सही अनुक्रियाओं को दोहराकर अभ्यास करना अपरिहार्य है।

(3) अधिगम-धारक- अनुकरण द्वारा सीखना इस बात पर भी निर्भर करता है कि अधिगम-धारक अर्थात् सीखने वाला कैसा है? पशुओं की अपेक्षा मनुष्य अनुकरण द्वारा अधिक अच्छा सीख पाते हैं। अधिगम-धारक की बुद्धि, मानसिक योग्यताएँ, भावनाएँ, इच्छाएँ तथा आकांक्षा-स्तर भी अनुकरण को प्रभावित करते हैं। निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि बुद्धि मानसिक योग्यताएँ तथा आकांक्षा का स्तर आदि अधिक मात्रा में होने पर अनुकरण द्वारा अधिगम में मात्रात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि होती है।

(4) अभिरुचि एवं अभिक्षमता- अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया पर सीखने वाले व्यक्ति की अभिरुचि एवं अभिक्षमता का प्रभाव पड़ता है। किसी कार्य को सीखने में अभिरुचि व्यक्त करने तथा उसके लिए विशेष अभिक्षमता होने पर व्यक्ति अधिक अच्छा अनुकरण कर पाता है और इस भाँति कार्य को जल्दी सीख लेता है। यदि किसी व्यक्ति में यान्त्रिक इंजीनियर बनने में अभिरुचि तथा अभिक्षमता है तो वह कार्य-प्रदर्शन के दौरान मशीन के पुर्जा तथा सम्बन्धित कार्यों को आसानी से सीख लेगा।।

(5) अधिगमधारक की बुद्धि– व्यक्ति की बुद्धि का प्रभाव अनुकरण द्वारा सीखने की प्रक्रिया पर सीधा पड़ता है। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के परिणाम बताते हैं कि अधिक बुद्धि-लब्धि वाले बच्चों का समूह, कम बुद्धि-लब्धि वाले बच्चों के समूह की अपेक्षा कार्य का सही अनुकरण करता है और सीखने में कम त्रुटि करता है। इस प्रकार सीखने वाले की बुद्धि का स्तर अनुकरण द्वारा सीखने की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।

(6) आयु– आयु भी एक ऐसा कारक है जो अनुकरण द्वारा अधिगम को प्रभावित करता है। प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि बच्चे वयस्कों की अपेक्षा अनुकरण द्वारा सबसे ज्यादा सीखते हैं। अनुकरण के दौरान किसी प्रकार के सोच-विचार की आवश्यकता नहीं होती और बच्चे नयी क्रिया को देखते या सुनते ही उसका अनुकरण करने लगते हैं। इसके विपरीत, वयस्क लोग अन्य विधियों के प्रयोग पर विचार कर सकते हैं।

(7) वातावरण- वातावरण से सम्बन्धित अनेक कारक अधिगम की मात्रा तथा गुण को प्रभावित करते हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि शान्त और सुखद वातावरण में अनुकरण की क्रिया प्रोत्साहित होती है, जबकि अशान्त और दु:खद वातावरण अनुकरण पर विपरीत प्रभाव डालते हैं।

(8) परिपक्वता– सीखने की प्रक्रिया में अनुकरण के लिए व्यक्ति में परिपक्वता का एक निश्चित स्तर अपरिहार्य है। माना कोई बच्चा ‘अ’ लिखने का अनुकरण कर रहा है तो इसके लिए आवश्यक है कि उसके हाथ की अंगुलियाँ इतनी परिपक्व हों कि वह ठीक ढंग से कलम पकड़ सके। इसके साथ ही, उसमें मानसिक परिपक्वता भी इतनी हो कि वह अनुकरणीय वस्तु या व्यवहार की गुणवत्ता की परख कर सके।

(9) पुरस्कार- दण्ड एवं परिणामों का ज्ञान-किसी भी प्रकार की अधिगम प्रक्रिया में प्रयोज्य को यदि पुरस्कार मिलता है तो वह उस क्रिया को जल्दी सीख लेता है, जबकि दण्ड देने से सीखने सम्बन्धी कार्य में त्रुटियाँ कम होती हैं। वस्तुत: पुरस्कार-दण्ड तथा परिणामों का ज्ञाने एक प्रकार के पुनर्बलक हैं। प्रशंसा की भाँति सकारात्मक परिणामों का ज्ञान अनुकरण द्वारा सीखने को अभिप्रेरित करता है।उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि अनुकरण के माध्यम से सीखने की प्रक्रिया को विभिन्न कारक प्रभावित करते हैं।

प्रश्न 4
प्रयत्न और भूल द्वारा सीखने का संक्षिप्त विवेचन कीजिए। इसकी पुष्टि थॉर्नडाइक एवं मैक्डूगल के प्रसिद्ध प्रयोगों के माध्यम से कीजिए।
उत्तर
प्रयत्न एवं भूल विधि सीखने की प्रक्रिया अत्यन्त धीमी गति से चलती है। व्यक्ति किसी भी बात या तथ्य को एकाएक ही नहीं सीख जाता। इसके लिए उसे विविध प्रयास करने पड़ते हैं। इन प्रयासों में हुई भूल को वह सुधारता है तथा फिर से प्रयास करती है। इसी विचार पर आधारित प्रयत्न और भूल’ द्वारा सीखने का सिद्धान्त है जिसे प्रयास एवं त्रुटि (Trial and Error) के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धान्त या विधि को सबसे पहले थॉर्नडाइक (Thorndike) नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रतिपादित किया था। प्रयत्न और भूल का सिद्धान्त कहता है कि किसी कार्य को प्रारम्भ करने वाला व्यक्ति शुरू में बहुत-सी भूलें या त्रुटियाँ करता है, किन्तु शनैः-शनैः प्रयत्न करते रहने पर वह अपनी भूलों को सुधार लेता है।

इसका परिणाम यह निकलता है कि गलत कार्य रुक जाता है और अन्तत: सही प्रतिक्रिया अपना ली जाती है। सीखने की प्रक्रिया के दौरान धीरे-धीरे भूलों तथा त्रुटियों की संख्या घटती जाती है और एक स्थिति ऐसी आती है जब कि वह पहले ही प्रयास में सही प्रतिक्रिया अर्थात् सही ढंग से कार्य कर लेता है। गणित की किसी नयी समस्या को हल करने वाला विद्यार्थी अनेक प्रयास और भूल करता है और इस प्रक्रिया द्वारा धीरे-धीरे एक ही बार में शुद्ध हल निकालना सीख जाता है। जब बच्चा पहली बार पैरों पर खड़ा होकर चलना सीखता है तो अनेक बार चलने के प्रयासों में वह गिरता है, पुनः सँभलकर खड़ा होता है और चलने का प्रयास करता है। अन्त में, वह बिना गिरे या लड़खड़ाये चलने लगता है।

प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त से सम्बन्धित मनोवैज्ञानिक प्रयोग

अनेकानेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त से सम्बन्धित बहुत-से प्रयोग किये गये। ऐसे प्रमुख प्रयोग निम्नवत् हैं

(1) थॉर्नडाइक का बिल्ली पर प्रयोग- प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त के प्रतिपादक थॉर्नडाइक ने भ्रान्ति-सन्दूक या पिंजरे में एक भूखी बिल्ली को बन्द कर दिया। पिंजरे के बाहर बिल्ली को लुभाने के लिए एक मछली रख दी गयी। पिंजरे की बनावट इस प्रकार की थी कि भीतर स्थित एक बटन के दबाने पर पिंजरे का दरवाजा खुल जाता था। मछली को प्राप्त करने के लिए भूखी बिल्ली बाहर निकलने के लिए व्याकुल हो उठी। बिल्ली ने पिंजरे में उछलकूद मचाई, कई स्थानों पर धक्के मारे, किन्तु बाहर निकलने में सफल न हो 

सकी। इसी प्रकार बार-बार प्रयत्न एवं भूल करने की क्रियाओं के कारण थोड़ी देर बाद किसी एक प्रयत्न से अनायास ही बटन दब गया और दरवाजा खुलने पर बिल्ली ने बाहर आकर मछली को ग्रहण कर लिया। अगले दिन फिर यही क्रिया दोहराई गयी जिसके विभिन्न प्रयत्नों में भूलों की कम संख्या से ही दरवाजा खुल गया। कई दिनों तक इस प्रक्रिया को दोहराया जाता रहा। देखने में आया कि हर दिन भूलों की संख्या कम और कम होती जा रही है। आखिर में एक दिन ऐसा भी आया जब बिल्ली ने एक-ही प्रयत्न में बटन दबाकर मछली ग्रहण कर ली और उसने कोई भूल नहीं की। थॉर्नडाइक ने इस प्रयोग के निष्कर्षों के आधार पर सीखने के नियम बनाकर प्रस्तुत किये।

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning 1
(2) मैक्डूगल का चूहों पर प्रयोग– विख्यात मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल ने चूहों पर प्रयोग करके प्रयत्न एवं भूल विधि का सत्यापन किया। उसने एक ऐसी नाँद में चूहे बन्द किये जिसमें बाहर जाने के दो रास्ते थे। एक रास्ता अन्धकारमय और दूसरा प्रकाशमान था। प्रकाशमान रास्ते से गुजरते समय चूहों को बिजली का झटका लगता था, किन्तु अन्धकारमय रास्ते से नहीं लगता था। चूहे प्रारम्भ में प्रकाशयुक्त मार्ग को ही चुनते थे, लेकिन बिजली का झटका लगते ही वापस मुड़ जाते थे। प्रयोग के दौरान चूहों ने शुरू में अनेक बार भूलें कीं, किन्तु आखिर में अन्धकारयुक्त मार्ग से निकलना सीख लिया। इस प्रयोग को बहुत बार दोहराया गया। नाँद से बाहर आने के प्रयास में चूहों द्वारा की गयी भूलों की संख्या कम और कम होती गयी। अन्तत: वे पहले ही प्रयास में अन्धकारमय मार्ग का चयन करना सीख गये और बिना किसी कष्ट के बाहर निकल आये।।

उपर्युक्त विवरण द्वारा अधिगम की प्रयत्न एवं भूल विधि का सामान्य परिचय प्राप्त हो जाता है। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति एवं प्राणी अनेक विषयों को सीखने के लिए इस विधि को अपनाता है, परन्तु बच्चों तथा पशुओं द्वारा इस विधि को अधिक अपनाया जाता है।

प्रश्न 5
सूझ या अन्तर्दृष्टि विधि द्वारा सीखने के सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए। अधिगम के इस सिद्धान्त की मुख्य विशेषताओं का भी उल्लेख कीजिए।
या
कोहलर द्वारा किये गये प्रयोग का विवरण प्रस्तुत करते हुए अधिगम के अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त का उल्लेख कीजिए।
या
अधिगम की अवधारणा को गैस्टाल्टवाद के अनुसार स्पष्ट कीजिए।
या
अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखने के सम्बन्ध में कोहलर के प्रयोग का वर्णन कीजिए। (2016)
या
अन्तर्दृष्टि द्वारा अधिगम सम्बन्धी प्रयोग एवं प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए। (2010)
उत्तर
सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त । गैस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, प्राणी अपनी सूझ या अन्तर्दृष्टि (Insight) के द्वारा ही सीख पाता है और सूझ के अभाव में वह सीखने में असफल रहता है। उविकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत सूझ निम्नस्तर के प्राणियों से उच्च स्तर के प्राणियों की ओर वृद्धि करती है। चूहे, बिल्ली, कुत्ते  की अपेक्षा वनमानुष में तथा इन सबसे ज्यादा मनुष्य में सूझ पायी जाती है। सूझ के कारण ही उच्च स्तर के प्राणी जटिल कार्य करने में समर्थ होते हैं। गैस्टाल्टवादियों का कहना है कि सीखने की प्रक्रिया प्रयत्न एवं भूल अथवा सम्बद्ध प्रत्यावर्तन के अनुसार न होकर सूझ द्वारा होती है। इस विचारधारा के प्रवर्तक कोहलरे (Kohler) तथा कोफ्का (Koffka) थे।

सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखना

सूझ या अन्तर्दृष्टि मनुष्य जैसे विकसित प्राणी का प्रमुख लक्षण है। मानव के निकटवर्ती विकसित प्राणियों तथा वनमानुष और चिम्पैंजी में भी सूझ की क्षमता निहित होती है। कोहलर तथा कोफ्का के अनुसार, हमारा सीखना सूझ के द्वारा होता है और सीखने की लगभग सभी प्रतिक्रियाओं में सूझ की आवश्यकता पड़ती है। इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषता यह है कि सीखने की प्रत्येक क्रिया का कुछ-न-कुछ उद्देश्य अवश्य होता है तथा सीखने के समस्त प्रयास लक्ष्य द्वारा निर्देशित होते हैं। लक्ष्य में विविध बाधाएँ उत्पन्न होने पर सूझ की आवश्यकता होती है।

प्रत्येक बाधा व्यक्ति को नवीन परिस्थिति से अवगत कराती है और वह उस परिस्थिति के विभिन्न अंगों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता है उन्हें समझने की कोशिश करता है। तत्पश्चात् व्यक्ति समूची परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उसके अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। किसी परिस्थिति-विशेष को समझकर उसके अनुसार प्रतिक्रिया करना ही व्यक्ति की सूझ का द्योतक है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्ति जो व्यवहार सीखता है—उसे सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखना कहते हैं
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कोहलर का प्रयोग– कोहलर ने एक पिंजरे की छत में कुछ केलों को इस प्रकार टाँग दिया कि वे उस पिंजरे में बन्द भूखे चिम्पैंजी की पहुँच से बिल्कुल बाहर थे। पिंजरे में दो-तीन खाली सन्दूक रख दिये गये थे जिन्हें एक के ऊपर एक रखकर चिम्पैंजी केलों तक पहुँच सकता था। प्रेक्षण के दौरान पाया गया कि चिम्पैंजी ने केलों को पाने की कोशिश में खूब उछल-कूद मचायी लेकिन वह केलों को प्राप्त नहीं कर सका। थोड़ी देर तक वह पिंजरे में चारों ओर दृष्टि डालता रहा और हर चीज को ध्यानपूर्वक देखता रहा। उसने सन्दूकों को बहुत ध्यान से निरीक्षण किया। कुछ देर बाद, उसने पहले एक सन्दूक को केलों के नीचे रखकर उन तक पहुँचने का प्रयास किया। असफल रहने पर उसने दूसरा, फिर तीसरा सन्दूक भी एक के ऊपर एक रख दिया और इस भाँति केलों को प्राप्त कर लिया। प्रयोग से निष्कर्ष निकलता है कि चिम्पैंजी ने सम्पूर्ण परिस्थिति को पूरी तरह समझने के बाद सूझ के माध्यम से यह प्रतिक्रिया सीखी।।

सूझ विधि की विशेषताएँ

सूझ विधि की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं

  1. इस विधि में समझ का प्रयोग होता है और यह उच्च स्तरीय बौद्धिक जीवों में ही मिलती है।
  2. इसके अन्तर्गत समझ की सर्वाधिक भूमिका रहती है, न कि हस्त-कौशल की।
  3. यह प्रक्रिया आयु वृद्धि से प्रभावित होती है तथा कम आयु के लोगों की अपेक्षा अधिक.आयु के लोगों में सफल रहती है।
  4. यह एक आकस्मिक (अचानक होने वाली) घटना है।
  5. सूझ या अन्तर्दृष्टि में पूर्व के अनुभव सहायता करते हैं। |
  6. सूझ द्वारा सीखना प्रत्यक्षीकरण का परिणाम है और प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से किसी परिस्थिति विशेष के तत्त्वों को नवीन संगठन प्रदान किया जाता है।
  7. सूझ द्वारा सीखने के किसी भी उदाहरण में प्रयत्न एवं भूल का अंश निहित है।

प्रश्न 6
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन द्वारा सीखने के सिद्धान्त का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। या प्राचीन अनुबन्धन सम्बन्धी पैवलोव के प्रयोग
या
एवं अधिगम प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए। (2010)
या
अधिगम के प्राचीन अनुबन्धन सम्बन्धी पैवलोव का प्रयोग लिखिए। (2014)
उत्तर
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त (Conditioned Reflexed Theory) को कई नामों से जाना जाता है; यथा-अनुबन्धित प्रतिक्रिया सिद्धान्त, प्रतिबद्ध अनुक्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त, सम्बद्ध सहज क्रिया सीखना अथवा साहचर्यात्मक सीखना। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, यह सिद्धान्त मानवीय सीखने की क्रिया को अभिव्यक्त करता है। सिद्धान्त का केन्द्रीय विचार है कि उत्तेजना एवं प्रतिक्रिया का सम्बन्ध होना ही सीखना है।।

सम्बद्ध प्रत्यावर्तन द्वारा सीखने का सिद्धान्त

व्यक्ति के चारों तरफ के वातावरण में अनेक उत्तेजक हैं। उचित उत्तेजक के सम्मुख आने पर साधारणत: व्यक्ति में कोई विशिष्ट उत्तेजना होती है जिसके परिणामस्वरूप एक विशेष प्रकार की अनुक्रिया होती है। यह अनुक्रिया प्राकृतिक (Natural) अनुक्रिया है और इसे सीखने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि ये प्राकृतिक अनुक्रियाएँ वातावरण के कृत्रिम (अप्राकृतिक) उत्तेजकों (Artificial Stimulus) से सम्बद्ध हो जाती हैं। ऐसी दशा में यदि कोई कृत्रिम उत्तेजक उत्पन्न कर दिया जाता है और प्राकृतिक उत्तेजक के बाद तत्काल ही इस उत्तेजक को यदि अनेक बार दोहराया जाता है तो सिर्फ कृत्रिम उत्तेजक की उपस्थिति ही प्राकृतिक अनुक्रिया को उत्पन्न कर देती है।

इस भाँति प्राकृतिक उत्तेजक को हम कृत्रिम उत्तेजक से प्रतिस्थापित कर देते हैं। जब अभ्यास के बाद मनुष्य की प्राकृतिक अनुक्रिया वातावरण के अन्य कृत्रिम उत्तेजकों से प्राकृतिक रूप से सम्बद्ध हो जाती है तो इस प्रकार के सीखने को हम सम्बद्ध प्रत्यावर्तन द्वारा सीखना कहते हैं। उदाहरण के लिए-मान लीजिए, विज्ञान का अध्यापक विद्यार्थियों को कठोर दण्ड देता है जिसके फलस्वरूप विद्यार्थी उससे अत्यधिक भय खाने लगते हैं। कुछ समय के उपरान्त दण्डित होने वाले बच्चे विज्ञान विषय से भी भय खाने लगते हैं और रुचि लेना बन्द कर देते हैं। धीरे-धीरे विज्ञान के घण्टे का नाम सुनकर ही विद्यार्थियों में भय व्याप्त हो जाता है। स्पष्टत: विज्ञान विषय या उसके घण्टे से बच्चों में जो भय की अप्राकृतिक अनुक्रिया पैदा होती है, वह विज्ञान के उस अध्यापक से सम्बन्धित होने के कारण है।

पैवलोव का प्रयोग– सम्बद्ध प्रत्यावर्तन के सिद्धान्त को समझने के लिए हम पैवलोव (Pavlov) का कुत्ते के साथ किये गये प्रयोग का अध्ययन करेंगे। अपने प्रयोग में पैवलोव ने भोजन के सामने आने पर लार बहने की प्राकृतिक अनुक्रिया को घण्टी बजने के कृत्रिम उत्तेजक से सम्बन्धित कर दिया। भूखे कुत्ते के सामने भोजन लाने पर उसके मुंह में लार आना एक प्राकृतिक अनुक्रिया है जो प्राकृतिक उत्तेजक के द्वारा उत्पन्न हुई है। अब पैवलोव ने भूखे कुत्ते के सामने भोजन लाने से एकदम पहले एक घण्टी बजानी शुरू की।
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घण्टी द्वारा भोजन आने की सूचना कुत्ते को मिल जाती है। पैवलोव ने देखा कि कुत्ते के सामने चाहे भोजन लाया जाए या नहीं, सिर्फ घण्टी बजने पर उसके मुँह में लार आ जाती है। प्रयोगकर्ता द्वारा कुत्ते के मुँह से निकली लार को एक नली द्वारा बाहर एक बर्तन में एकत्र करने का प्रबन्ध किया गया था। प्रयोग में लार का प्रकट होना और उसकी एकत्र मात्रा की माप करना पूरी तरह सम्भव था, जिससे आवश्यक निष्कर्ष निकाले जा सके। इस प्रयोग में घण्टी बजने पर कुत्ते के मुँह में लार आना एक ऐसी अनुक्रिया है जो एक अप्राकृतिक उत्तेजक द्वारा उत्पन्न होती है और यही सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त कहलाता है।
1. भोजन (US);
– लार (UR)
2. घण्टी (CS) 
– लार (UR) (कई बार दोहराने या प्रशिक्षण के बाद)
3. घण्टी (cs)
– लारे (CR)
यहाँ, स्वाभाविक उत्तेजना-भोजन (US = Natural or Unconditioned Stimulus); अस्वाभाविक उत्तेजना–घण्टी
(CS =Conditioned Stimulus) स्वाभाविक प्रत्युत्तर-लार UR = Natural or Unconditioned Response, अस्वाभाविक प्रत्युत्तर–घण्टी फलस्वरूप लार CR = Conditioned Response.

प्रतिबद्धता को प्रभावित करने वाले कारक

प्रतिबद्धता (Conditioning) को प्रभावित करने वाली प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं

  1. प्राकृतिक और अप्राकृतिक उद्दीपकों के बीच सम्बन्ध स्थापित करने की दृष्टि से उनमें बीस सेकण्ड से अधिक को अन्तर नहीं होना चाहिए, अन्यथा दोनों में सम्बन्ध स्थापित न हो सकेगा।
  2. दोनों उद्दीपकों के बीच में कोई अवरोधक (विघ्न पैदा करने वाला तत्त्व) भी नहीं होना चाहिए।
  3. नवीन उद्दीपक को पुराने उद्दीपक से पहले उपस्थित किया जाए।
  4. नवीन या अप्राकृतिक उत्तेजना अन्य उत्तेजनाओं से अधिक प्रबल हो।
  5. इस विधि से सीखने वाला पात्र सामान्य मस्तिष्क का व स्वस्थ व्यक्ति हो।
    सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त जीवन के प्रारम्भ से ही सीखने की प्रक्रिया में मनुष्य की पर्याप्त रूप से सहायता करता है। इसके अलावा विभिन्न आदतों, रुचियों, अरुचियों तथा तर्कहीन भय (फोबिया) का निर्माण इस विधि द्वारा होता है।

प्रश्न 7
नैमित्तिक अनुबन्धन से आप क्या समझते हैं? इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए। या नैमित्तिक अनुबन्धन के अधिगम से सम्बन्धित स्किनर के प्रयोग का वर्णन कीजिए।
उत्तर
मनोविज्ञान में अनुबन्धन (Conditioning) प्रयोगों के माध्यम से यह तथ्य प्रकाशित हुआ है कि अधिगम (Learning); सरलतम रूप में उत्तेजना तथा अनुक्रिया के मध्य साहचर्य स्थापित होने का नाम है। सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि अनुबन्धन क्या है? अनुबन्धन वह प्रक्रिया है। जिसमें एक प्रभावहीन उत्तेजना (अर्थात् वस्तु या परिस्थिति) इतनी प्रभावशाली हो जाती है कि वांछित । या गुप्त प्रत्युत्तर को प्रकट कर देती है। इसे उत्तेजना के अभाव में वांछित प्रत्युत्तर एक प्राकृतिक या सामान्य प्रत्युत्तर होता है। अनुबन्धन के प्रमुख रूप से दो प्रकार हैं-

  1. प्राचीन अनुबन्धन (Classical Conditioning) तथा
  2. नैमित्तिक अनुबन्धन (Instrumental Conditioning)

प्राचीन अनुबन्धन के जनक एवं मुख्य योगदानकर्ता सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक पैवलोव (Pavlov) हैं, जिन्होंने प्राचीन अनुबन्धन के सम्बन्ध में उल्लेखनीय प्रयोग और शोधकार्य किये, किन्तु कुछ परिसीमाओं के कारण इस सिद्धान्त की आलोचना हुई। यहाँ हम नैमित्तिक अनुबन्धन (Instrumental Conditioning) का उल्लेख करेंगे।

नैमित्तिक अनुबन्धन का अर्थ व परिभाषा

नैमित्तिक अनुबन्धन; उत्तेजना एवं उसकी अनुक्रिया के मध्य साहचर्य स्थापित करने की एक विधि है। इस विधि के अनुसार-प्रयोज्य के लिए पुनर्बलन (Reinforcement) या पुरस्कार (Reward)’ की उपलब्धि प्रयोज्य की अनुक्रियाओं पर निर्भर करती है। दूसरे शब्दों में, प्रयोज्य की अनुक्रियाएँ पुनर्बलन का निमित्त (Instrument) बन जाती हैं।

डी’ अमेटो (D’ Amato) के अनुसार, “नैमित्तिक अनुबन्धन वह कोई भी अधिगम (सीखना) है जिसमें अनुक्रिया अवलम्बित पुनर्बलन पर आधारित हो तथा जिसमें प्रयोगात्मक रूप से परिभाषित विकल्पों का चयन सम्मिलित न किया हो। नैमित्तिक अनुबन्धन के प्रकार

(A) नैमित्तिक अनुबन्धन के अन्तर्गत पुनर्बलन या पुरस्कार धनात्मक या निषेधात्मक किसी भी प्रकृति का हो सकता है। इस आधार पर अनुबन्धन के दो प्रकार हैं

  1. प्रवृत्यात्मक अनुबन्धन (Appetitive Conditioning)- यह ऐसा अनुबन्धन है जिसमें धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement) का उपयोग होता है। धनात्मक पुनर्बलन वह उत्तेजना है, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रयोज्य प्रयास एवं कार्य करता है।
  2. विमुखी अनुबन्धन (Aversive Conditioning)- इस अनुबन्धन में निषेधात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement) का उपयोग होता है। निषेधात्मक पुनर्बलन वह उत्तेजना है। जिससे बचने के लिए प्रयोज्य कार्य करता है।

(B) कोनोस्क नामक विद्वान् ने नैमित्तिक अनुबन्धन को निम्नलिखित चार प्रकारों में विभाजित किया है

  1. पुरस्कार नैमित्तिक अनुबन्धन (Reward Instrumental Conditioning)- पुरस्कार नैमित्तिक अनुबन्धन को अभिभेदक अनुबन्धन (Non-discriminative Conditioning) भी कहा जाता है। इसमें पुरस्कार (पुनर्बलन) प्रयोज्य को कुछ प्रयास या क्रियाएँ करने हेतु प्रेरित करता है और ये बारम्बार प्रयास पुरस्कार के कारण होते हैं।
  2. परिहार नैमित्तिक अनुबन्धन (Avoidance Instrumental Conditioning)- परिहार नैमित्तिक अनुबन्धन के अन्तर्गत प्रयोज्य संकेत (Cue or Sign) के प्रति प्रतिक्रिया करके पीड़ादायक या दुःखद उत्तेजना का परिहार अर्थात् परित्याग (Avoid),कर देता है। इस अनुबन्धन का ही एक प्रकार पलायन अनुबन्धन (Escape Conditioning) भी है जिसमें प्रयोज्य पीड़ादायी उत्तेजना से पलायन (बचना या भागना) सीख जाता है।
  3. अकर्म नैमित्तिक अनुबन्धन (Omission Instrumental Conditioning)- अकर्म अनुबन्धन का एक नाम निष्क्रिय अनुबन्धन (Inactive Conditioning) भी है जिसमें प्रयोज्य किसी अनुक्रिया का अकर्म (Omission) करना सीख जाता है।
  4. दण्ड नैमित्तिक अनुबन्धन (Punishment Instrumental Conditioning)- इसे निषेधात्मक (Prohibitory) अनुबन्धन भी कहा जाता है जिसमें प्रयोज्य की अनुक्रिया पर दण्ड या पीड़ादायक उत्तेजना दी जाती है। यह दण्ड अनुक्रिया को विलुप्त करने या छुड़ाये जाने के लिए दिया जाता है।

नैमित्तिक अनुबन्धन सम्बन्धी स्किनर का प्रयोग

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक बी ० एफ ० स्किनर ने 1938 ई० में नैमित्तिक अनुबन्धन के सम्बन्ध में एक प्रयोग किया। स्किनर ने चित्र के अनुसार एक पेटी (Box) तैयार की जिसमें छड़रूपी लीवर लगा हुआ था। इस उपकरण में लीवर को दबाने से घण्टी की आवाज होती थी और रखा हुआ भोजन एक प्लेट में गिरता था। उपकरण में प्रयोज्य लीवर को दबाने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र है। जितनी बार भी लीवर दबेगा उतनी ही बार घण्टी की आवाज के साथ प्लेट में भोजन आ गिरेगा। स्किनर ने एक भूखे चूहे को उपकरण में बन्द कर दिया और उसकी गतिविधियों की जाँच की। शुरू में चूहा पेटी में इधर-उधर चक्कर लगाता रहा और जब-तब पेटी में लगी छड़ियों पर भी खड़ा हुआ। ऐसे अनेक प्रयासों में एक प्रयास में छड़ वाला लीवर दब गया और उसकी गतिविधियाँ यथावत् चलती रहीं, किन्तु थोड़ी देर बाद उसे भोजन दिखाई पड़ गया और भूखे चूहे ने भोजन को देखते ही उसे खा लिया। चूहे ने इस तरह के बहुत-से प्रयास किये। |

इन प्रयासों में यह पाया गया कि चूहे ने छड़रूपी लीवर के पास ज्यादा समय बिताया और अनेक बार अपनी पिछली टाँगों की सहायता से खड़ा हो गया। अगले कुछ प्रयासों में चूहे ने लीवर दबाकर भोजन प्राप्त करना सीख लिया। स्किनर के इस प्रयोग में अधिगम का मापन समयान्तर के माध्यन से किया जाता है और जाँच की जाती है कि एक निश्चित अवधि में चूहा कितनी बार लीवर को दबाकर भोजन के टुकड़े गिरासा है। प्रयोग में जैसे-ही-जैसे प्रयास बढ़ते हैं, वैसे-ही-वैसे चूहे की लीवर दबाने की आवृत्ति भी बढ़ती जाती है। इस भाँति, प्रयोग के परिणामों से निष्कर्ष निकलता है कि पूनर्बलन या पुरस्कार ने चूहे को कुछ क्रियाएँ करने हेतु प्रेरित किया और चूहे के एक के बाद एक प्रयास पुनर्बलन या पुरस्कार की वजह से हुए।
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यह प्रयोग अधिगम को एक क्रमिक प्रक्रिया सिद्ध करता है। इस प्रक्रिया में प्रयासों के साथ-साथ वृद्धि होती है और साथ ही यह अधिक मजबूत भी होती है। स्किनर के इस प्रयोग में चूहा पुरस्कार 

(भोजन) पाने के लिए छड़रूपी लीवर को दबाता है। अत: इस प्रकार के अधिगम को ।। नैमित्तिक अधिगम कहा जाता है।

प्रश्न 8
सीखने के विभिन्न नियमों का वर्णन कीजिए। इसके द्वारा शिक्षण को किस प्रकार प्रभावी बनाया जा सकता है?
या
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के नियमों को स्पष्ट कीजिए।
या
थॉर्नडाइक की तैयारी के नियम (तत्परता का नियम) से आप क्या समझते हैं? (2018)
उत्तर
थॉर्नडाइक के सीखने के नियम सीखना एक उद्देश्यपूर्ण सार्वभौमिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से प्राणी के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाये जाते हैं। सीखने की यह प्रक्रिया किन्हीं नियमों द्वारा संचालित होती है। थॉर्नडाइक (Thorndike) नामक मनोवैज्ञानिक ने सीखने के नियमों को सुव्यवस्थित किया और इन्हें निर्धारित करने के लिए पशुओं पर प्रयोग किये।
उसके द्वारा प्रतिपादित नियमों की आलोचना हुई, जिसके परिणामतः उसने मनुष्यों पर परीक्षण करके नियमों को सत्यापित करने का पुनः प्रयास किया। थॉर्नडाइक के अनुसार, सिद्धान्त तथा व्यवहार दोनों को स्पष्टतया एवं बार-बार यह बताने की आवश्यकता है कि मनुष्य का शिक्षण प्रायः तैयारी, अभ्यास तथा परिणाम के नियमों का कार्य है।
थॉर्नडाइक ने सीखने के तीन प्रधान नियम प्रतिपादित किये। इन नियमों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

(1) तत्परता का नियम (Law of Readiness)– तत्परता का नियम बताता है कि जब कोई भी व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तत्पर होता है (अर्थात् तैयार रहता है) तो सीखने की क्रिया सरलता और शीघ्रता से सम्पन्न होती है। व्यक्ति जिस समय किसी कार्य को सीखने की धुन में रहता है तो वह सीखने में आनन्द का अनुभव करता है। बालक में किसी नवीन ज्ञान या क्रिया को सीखने की तत्परता तभी आती है जब उसमें रुचि होती है और उसके अन्दर सीखने के लिए प्रेरणा उत्पन्न कर दी जाए; अत: शिक्षक को पाठ शुरू करने से पूर्व बालक की रुचि और जिज्ञासा पर ध्यान देना चाहिए तथा उन्हें सीखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। कुछ विद्यार्थियों की किसी विशेष विषय में रुचि नहीं होती जिसकी वजह से तत्परता के नियम की अवहेलना हो सकती है। तत्परता का नियम कुछ निष्कर्षों को महत्त्व देता है—प्रथम, इस नियम के अनुसार सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहने

की दशा में विद्यार्थी को अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता और सीखने की प्रक्रिया सन्तोषजनक रहती है। द्वितीय, यदि व्यक्ति सीखने के लिए विवश नहीं है और पूर्ण रूप से भी तत्पर है तो सीखने में अत्यधिक सन्तुष्टि प्राप्त होगी। तृतीय, सीखने के लिए बलपूर्वक विवश किये जाने पर अरुचि के कारण कार्य असन्तोषजनक होगा। इस भाँति कहा जा सकता है-“जब कोई बन्धन किसी कार्य को करने के लिए होता है तो वह प्रक्रिया आनन्द देती है और जब सीखने की इच्छा नहीं होती और व्यक्ति सीखने को तैयार नहीं होता तथा उसे बाध्य किया जाता है, तब क्रोध उत्पन्न होता है।”

(2) अभ्यास का नियम (Law of Exercise)— इसे उपयोग–अनुपयोग का नियम (Law of Use-Disuse) भी कहते हैं। थॉर्नडाइक का विचार है कि अन्य बातें समान रहने पर सीखने की प्रक्रिया में अभ्यास के द्वारा शक्ति में वृद्धि होती है, जबकि अभ्यास की कमी स्थिति और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध को कमजोर बना देती है। हमारी बहुत-सी प्रतिक्रियाओं में उपयोग तथा अनुपयोग के नियम साथ-साथ कार्य करते हैं। हम स्वतन्त्र भाव से उन्हीं उपयोगी क्रियाओं को दोहराते हैं जिनसे हमें आनन्द मिलता है तथा उन अनुपयोगी क्रियाओं को नहीं दोहराते जिनसे हमें दुःख होता है।

अभ्यास के नियम से स्पष्ट है कि जिस काम को जितना अधिक दोहराया जाएगा, जितनी ही उसकी पुनरावृत्ति की जाएगी, उतनी ही दृढ़ता से वह हमारे मन में बैठ जाता है और उसके करने में उतनी ही कुशलता आ जाती है। गायन, खेल, कविता, पहाड़े तथा गणित आदि से सम्बन्धित नियम सिखाने के उपरान्त बालकों को उनका अभ्यास अवश्य करा देना चाहिए।

(3) प्रभाव का नियम (Law of Effect)- प्रभाव के नियम को सन्तोष और असन्तोष का नियम भी कहते हैं। थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित इस नियम में प्रभाव से तात्पर्य ‘परिणाम’ से है। जिन कार्यों का परिणाम व्यक्ति को सन्तोष प्रदान करता है तथा उसे सुखद अनुभव देता है, उन कार्यों को मनुष्य सरलता से एवं शीघ्र ही सीख जाता है। इसके विपरीत जिन कार्यों का परिणाम असन्तोषजनक तथा दु:खद अनुभव वाला होता है, उन्हें व्यक्ति भुला देना चाहता है और बार-बार दोहराना नहीं चाहता।

इसी सन्दर्भ में जिस कार्य को करने से व्यक्ति को प्रशंसा एवं पुरस्कार मिले अर्थात् जिस कार्य का अच्छा प्रभाव (परिणाम) निकले, उसे बालक शीघ्रतापूर्वक सीख जाता है। इसी कारण से शिक्षा में दण्ड एवं पुरस्कार का बहुत अधिक महत्त्व है। बुरा कार्य करने पर बालक दण्ड पाता है, किन्तु अच्छे कार्य के लिए उसे पुरस्कृत किया जाता है। प्रभाव का नियम विद्यालय तथा परिवार में पर्याप्त रूप से प्रयोग किया जाता है।

सीखने के अन्य नियम 

सीखने के उपर्युक्त मुख्य नियमों के अतिरिक्त कुछ अन्य नियम भी हैं। इन्हें सीखने के गौण । नियम भी कहा जाता है। इन नियमों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

  1. पुनरावृत्ति का नियम (Law of Frequency)- इस नियम के अनुसार, जिस कार्य की व्यक्ति अनेक बार पुनरावृत्ति करता है, उसे वह जल्दी ही सीख जाता है।
  2. नवीनता का नियम (Law of Recency)- अभ्यास जितना नवीन या ताजा होता है, उतना ही जल्दी व्यक्ति उसे सीख लेता है।
  3. प्राथमिकता का नियम (Law of Primacy)- सर्वप्रथम होने वाला अनुभव या क्रियाएँ मस्तिष्क पर एक गहरी छाप छोड़ देती हैं। ये शीघ्र ही सीख लिये जाते हैं।
    विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित तथा उपर्युक्त वर्णित ये समस्त नियम-तत्परता, अभ्यास, प्रभाव, पुनरावृत्ति, नवीनता तथा प्राथमिकता का नियम–सीखने की प्रक्रिया को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं।

प्रश्न 9
सीखने के वक्र से आप क्या समझते हैं? सीखने में पठार को वक्र रेखा की सहायता से स्पष्ट कीजिए। 
(2012, 15)
या
सीखने की वक्र रेखा की क्या विशेषताएँ हैं? 
(2018)  
या
सीखने का पठार क्या है? सीखने के पठार के उत्तरदायी कारक कौन-कौन से हैं? 
(2009)
या
चित्र की सहायता से सीखने का वक्र स्पष्ट कीजिए। (2014)
या
सीखने के पठार को कैसे दूर किया जा सकता है? (2007)
या
सीखने के पठार को रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट कीजिए। (2017)
उत्तर

सीखने का वक्र 

सीखने की प्रक्रिया में किसी नवीन क्रिया का ज्ञान या अनुभव को ग्रहण किया जाता है। सीखने के कार्य और उसकी प्रगति को समझने के लिए सीखने के अंकों के आधार पर सीखने की वक्र रेखा (Learning Curve) का निर्माण किया जाता है। ये वक्र रेखाएँ तीन प्रकार की होती हैं—सकारात्मक वक्र रेखा, नकारात्मक वक्र रेखा और एस (S) आकार की वक्र रेखा। सीखने की सकारात्मक वक्र रेखा उस समय बनती है जब सीखने के साथ-साथ उन्नति की गति धीमी होने लगती है।

इस रेखा की उन्नति तेज गति से शुरू होती है। कार्य के सरल होने या व्यक्ति के अधिक प्रेरित होने के कारण ऐसा सम्भव होता है। नकारात्मक वक्र रेखा प्रेरणा की कमी तथा कठिन कार्यों के सीखने से बनती है। इसी प्रकार एस (S) के आकार की वक्र रेखा उस समय बनती है जब सीखने की क्रियाओं में एक समान उन्नति न हो रही हो अथवा सीखने की क्रियाएँ पुरानी होने लगती हों। अध्ययनों से ज्ञात होता है कि प्रत्येक सीखने की वक्र रेखा धीरे-धीरे क्रमशः समतल होती जाती है।
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सीखने का पठार

किसी व्यक्ति के सीखने की प्रगति को ग्राफ पर प्रदर्शित किया जा सकता है। नि:सन्देह अभ्यास के फलस्वरूप सीखने की क्रिया में तीव्रता आती है और सीखने वाला व्यक्ति शुरू में तीव्र गति से सीखता है, किन्तु यह तीव्रता अनवरत रूप से वृद्धि नहीं करती। कुछ समय उपरान्त एक दशा ऐसी आ जाती है जब प्रगति कम हो जाती है। इस दशा को ग्राफ में आधार रेखा के लगभग समानान्तर रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। शुरू में ऊपर जाती हुई रेखा प्रारम्भिक तीव्रता दिखाती है तथा आधार के समानान्तर रेखा ‘सीखने का पठार’ प्रदर्शित करती है। उन्नति की स्थिति कुछ समय तक रुकी रहती है। तथा पठार की स्थिति कहलाती है। इस भाँति, सीखने के उस समय को, जिसमें सीखने की गति एक समान बनी रहती है, अर्थात् उसमें वृद्धि नहीं होती या सीखने की प्रगति अल्प होती है, ‘सीखने को पठार’ (Plateau of Learning) कहते हैं।
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सीखने के पठार संगीत, चित्रकला, टाइप, मोबाइल पर लम्बे मैसेज देना आदि सीखने की क्रियाओं में प्रकट होते हैं। पठार के दौरान उन्नति रुक जाने से विद्यार्थी का निराश होना स्वाभाविक, किन्तु अमनोवैज्ञानिक है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में भाग लेने वाले लोगों को सीखने के इन पठारों से हतोत्साहित नहीं होना चाहिए, क्योंकि उन्नति में पठार का आना प्राकृतिक और अनिवार्य है। जिस प्रकार से भोजन ग्रहण करने के उपरान्त उसे पचाये बिना पुनः दूसरा भोजन ग्रहण नहीं किया जा सकता, ठीक उसी प्रकार से हमारा मस्तिष्क बिना एक बात को ठीक से सीखे आगे बढ़ना नहीं चाहता।। सत्यता तो यह है कि पठार का काल एक प्रकार का ‘पाचन-काल’ (Consolidation Period) है।

पठार के कारण

वैसे तो सीखने के पठार के अनेकानेक कारण हो सकते हैं, परन्तु सामान्यतया सीखने के पठार के निम्नलिखित तीन प्रमुख कारण हैं

(1) ज्ञानावरोध– ज्ञानावरोध से अभिप्राय है-एक विधि द्वारा अधिक ज्ञान के विकास न होने की सीमा आ पहुँचना या ज्ञान के विकास में अवरोध आना। प्राय: देखने में आता है कि सीखने के अन्तर्गत किसी एक विधि का अनुसरण करने के उपरान्त एक ऐसी सीमा आ जाती है कि उस विधि से ज्ञान के विकास की अधिक सम्भावना नहीं रह जाती और व्यक्ति सीखने में अधिक उन्नति नहीं कर पाता।

(2) उत्साहावरोध— यह स्वाभाविक ही है कि सीखने की सफलता के साथ-साथ प्रारम्भिक उत्साह, जोश, लगन तथा रुचि आदि ठण्डे पड़ने लगते हैं। इस प्रकार उत्साहावरोध के कारण सीखने में पठार आ जाता है। इसे रोकने के लिए सीखने वाले को लगातार उत्साहित करते रहना चाहिए।

(3) शारीरिक क्षमतावरोध/शारीरिक सीमा- हर व्यक्ति के सीखने की योग्यता उसके शरीर एवं मस्तिष्क की कार्यक्षमता पर निर्भर करती है। प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक क्षमता सीमित होती है। यद्यपि किसी व्यक्ति की शारीरिक सीमा (Physiological Limit) को दृढ़ता से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता तथापि यह वह सीमा है जब कि सीखने की क्रिया की गति आगे बढ़ने से रुक जाती है। वस्तुत: व्यक्ति अपनी शारीरिक-मानसिक कार्यक्षमता की सीमा तक तो शीघ्र उन्नति कर लेता है। लेकिन तत्पश्चात् उसकी प्रगति तब तक अवरुद्ध रहती है जब तक कि सीखने का उतना कार्य करने की उसे आदत न हो जाए। अपनी प्रकृति के अनुसार व्यक्ति को कष्टों से भय लगता है। प्रायः वह अपनी शारीरिक क्षमता की सीमा तक पहुँचे बिना ही अभ्यास छोड़ बैठता है। अतः पठार के कारण को ठीक-ठीक समझना परमावश्यक है।

(4) पठार के अन्य कारण– पठार निर्मित होने के अन्य कारण इस प्रकार हैं-

  1. अवधान का अभाव
  2. ध्यान परिवर्तन
  3. विषय-वस्तु को सीखने की अधिक मात्रा
  4. सीखने की दोषपूर्ण एवं अनुपयुक्त विधियाँ
  5. स्नायुमण्डल सम्बन्धी दोष
  6. मानसिक एवं संवेगात्मक तनाव
  7. जिज्ञासा, रुचि और उत्साह में कमी आना
  8. निराशाजनक मन:स्थिति
  9. दूषित वातावरण
  10. प्रेरणा एवं उत्साह का अभाव तथा
  11. शारीरिक-मानसिक थकान।।

‘सीखने के पठार’ को दूर करने के उपाय

कुछ मनोवैज्ञानिके सीखने में पठारों के बनने की क्रिया को पूर्णतया स्वाभाविक मानते हैं। उनके मतानुसार इन पठारों को समाप्त करना हानिकारक हो सकता है; क्योंकि कुछ समय बाद निरन्तर अभ्यास एवं अपनी अस्थायी प्रकृति के कारण ये स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। फिर भी, किसी व्यक्ति की सीखने की उन्नति के लिए प्रगति में आने वाले पठार की अवस्था को दूर किया जाना आवश्यक है। सीखने के पठार की अवस्था का निराकरण निम्नलिखित उपायों द्वारा सम्भव है

(1) पठार का ज्ञान एवं क़ारण की खोज- यदि कोई व्यक्ति नवीन कला या कौशल सीख रहा है। तो उसके शिक्षक या प्रशिक्षक को ध्यान रखना होगा कि उसके सीखने की प्रगति में कहीं पठार की अवस्था तो नहीं आ गयी है। यदि ऐसा है तो पठार के कारण की खोज करके उसका पता लगाना चाहिए।

(2) प्रेरणा द्वारा रुचि में वृद्धि– शिक्षक को चाहिए कि वह विद्यार्थी को समय-समय पर प्रेरित करता रहे। इससे रुचि में आने वाली कमी पूरी होगी और विद्यार्थी उसी गति से सीखता रहेगा।

(3) शिक्षण विधि— कभी-कभी पुरानी शिक्षण विधि के कारण भी पठार की अवस्था आ जाती है। उस दशा में शिक्षक को पुरानी व अनुपयुक्त विधि को आवश्यकतानुसार परिवर्तित या संशोधित कर लेना चाहिए।

(4) सहायक सामग्री- सहायक सामग्री के प्रयोग से शिक्षण कार्य में प्रभावकारिता आती है। अतः आवश्यकतानुसार दृश्य-श्रव्य सामग्री और शिक्षण-अधिगम सम्बन्धी समुचित उपकरण प्रयोग किये जाने चाहिए।

(5) शारीरिक क्षमता वृद्धि– सीखने वाले की सीखने की शारीरिक सीमा आने पर पौष्टिक आहार तथा व्यायाम द्वारा उसकी शारीरिक क्षमता में वृद्धि लायी जाए। उसे शारीरिक श्रम के लिए भी प्रेरित किया जाए।

(6) उत्साहवर्द्धन- सीखने वाले व्यक्ति के उत्साह में कमी आने पर विभिन्न उपायों एवं विधियों से उसका उत्साह बढ़ाया जाए।

निष्कर्षतः सीखने के पठारों को वक्र रेखा में से हटाने या दूर करने के लिए पठार के उ कारणों का विश्लेषण आवश्यक समझा जाता है जिनके कारण से इन पठारों की उत्पत्ति हुई थी। कारण जानने के पश्चात् उसका समुचित निराकरण किया जाना चाहिए।

प्रश्न 10
अधिगम के स्थानान्तरण से आप क्या समझते हैं? अधिगम के स्थानान्तरणमें सहायक कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
सीखने के स्थानान्तरण को स्पष्ट कीजिए। (2013)
उत्तर

अधिगम का स्थानान्तरण

अधिगम- स्थानान्तरण या ‘शिक्षण का स्थानान्तरण (Transfer of Learning) अधिगम (सीखने) की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। अधिगम-स्थानान्तरण के क्षेत्र में अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में और एक अंग से दूसरे अंग में ‘अधिगम का स्थानान्तरण हो सकता है। विभिन्न स्तरों पर शैक्षिक पाठ्यक्रम निर्मित करते समय स्थानान्तरण के नियम एवं सिद्धान्त उपयोगी सिद्ध होते हैं; अतः शिक्षा के क्षेत्र में अधिगम-स्थानान्तरण का विशेष महत्त्व तथा योगदान है।

अधिगम-स्थानान्तरण का अर्थ एवं परिभाषा

अर्थ- अधिगम की प्रक्रिया में जब किसी पाठ्य-सामग्री को सीखा जाता है तो उस पर उससे पहले सीखी गयी सामग्री या पाठ का प्रभाव पड़ता है। हो सकता है कि पहले सीखा गया पाठ, तत्काल सीखे जा रहे पाठ में सहायता करे और यह भी सम्भव है कि वह इसमें कठिनाई पैदा करे। इस भाँति, वर्तमान में सीखने पर पहले सीखी गयी सामग्री के प्रभाव को अधिगम-स्थानान्तरण या शिक्षण-अन्तरण का नाम दिया जाता है।

मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम- स्थानान्तरण से सम्बन्धित अध्ययनों के दौरान अनुभव किया कि एक कार्य का प्रभाव दूसरे कार्य पर अवश्य पड़ता है और अधिगम की प्रक्रिया में पूर्व ज्ञान (Previous Knowledge), वर्तमान समय में ग्रहण किये जा रहे ज्ञान को प्रभावित करता है। यदि किसी व्यक्ति को सीखने के लिए कुछ स्मरण करता है। उदाहरण के लिए-यदि दो व्यक्तियों जिनमें से पहले व्यक्ति को कई भाषाओं का ज्ञान है और दूसरे व्यक्ति को केवल एक ही भाषा का ज्ञान है, को कोई नयी भाषा सीखने के लिए दी जाए तो अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि पहला व्यक्ति नयी भाषा को दूसरे व्यक्ति से जल्दी सीख जाता है।

कई भाषाओं का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को एक भाषा के ज्ञाता की अपेक्षा नयी भाषा के अधिगम में कम कठिनाई अनुभव होती है। वस्तुत: पहले से सीखा गया ज्ञान, वर्तमान की अधिगम प्रक्रिया में सहायता करता है। दूसरे शब्दों में, अधिगम एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरित हो गया। यही अधिगम का स्थानान्तरण है।

परिभाषा- अधिगम-स्थानान्तरण को विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया गया है|

  1. हिलगार्ड एवं एटकिन्सन के मतानुसार, “अधिगम-स्थानान्तरण में एक क्रिया का प्रभाव दूसरी क्रिया पर पड़ता है।
  2. अण्डरवुड के अनुसार, “अधिगम-स्थानान्तरण का अर्थ वर्तमान क्रिया पर पूर्व-अनुभवों का प्रभाव होता है।
  3. कैण्डलैण्ड की राय में, “स्थानान्तरण का अर्थ वर्तमान में सीखे गये व्यवहार पर पूर्व में सीखे गये व्यवहार के प्रभाव से है।”
  4. क्रो तथा क्रो के अनुसार, “जब शिक्षण के एक क्षेत्र में प्राप्त विचार, अनुभव या कार्य की आदत, ज्ञान या निपुणता की दूसरी परिस्थिति में प्रयोग किया जाता है तो वह शिक्षण का स्थानान्तरण कहलाता है।”

उपर्युक्त विवरण द्वारा अधिगम के स्थानान्तरण की अवधारणा स्पष्ट हो जाती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक परिस्थिति में सीखे गये कार्य को किसी अन्य परिस्थिति में उपयोग में लाना ही अधिगम का स्थानान्तरण है। उदाहरण के लिए-गणित का ज्ञान अर्जित करने | के उपरान्त जब कोई बालक बाजार में सामान खरीदकर रुपये-पैसे का लेन-देन सफलतापूर्वक कर लेता है तो यह अधिगम का स्थानान्तरण ही होता है।

अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारक

अधिगम का स्थानान्तरण व्यक्ति के जीवन का एक स्वाभाविक पक्ष है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अधिगम का स्थानान्तरण कम या अधिक मात्रा में अवश्य होता है। यह सत्य है कि अधिगम का स्थानान्तरण जितना अधिक तथा प्रबल होगा, व्यक्ति को उतना ही अधिक लाभ होगा। वास्तव में, कुछ कारक ऐसे भी हैं जो अधिगम के स्थानान्तरण को प्रबल बनाते हैं। इन कारकों को अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारक माना जाता है। अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारकों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है

(1) सीखने के लिए अपनायी गयी उत्तम विधि- यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को सीखने के लिए किसी उत्तम विधि को अपनाता है तो उस स्थिति में व्यक्ति के मस्तिष्क में सम्बन्धित कार्य को स्पष्ट एवं स्थायी संस्कार अंकित हो जाते हैं। इस प्रकार के स्पष्ट एवं स्थायी संस्कार बन जाने के उपरान्त अन्य सम्बन्धित कार्य को सरलता से सीखा जा सकता है अर्थात् अधिगम का स्थानान्तरण सुगम हो जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सीखने की उत्तम विधि अधिगम के स्थानान्तरण में एक सहायक कारक है।

(2) पहले सीखे गये विषय की शिक्षण-मात्रा- यह एक सत्यापित तथ्य है कि यदि किसी विषय को पर्याप्त मात्रा में तथा भली-भाँति सीख लिया जाता है तो उस विषय के स्पष्ट एवं गहरे संस्कार व्यक्ति के मस्तिष्क पर अंकित हो जाते हैं। इस दशा में अधिगम का स्थानान्तरण सुगम भी होता है तथा प्रबलं भी।

(3) सम्बन्धित विषय के प्रति अनुकूल मनोवृत्ति- यदि कोई व्यक्ति किसी विषय को सीखने के लिए पूरी तरह से तत्पर हो तो उस स्थिति में उसके गत अनुभव भी सहायक कारक के रूप में कार्य करते हैं अर्थात् व्यक्ति की मनोवृत्ति का भी अधिगम के स्थानान्तरण पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सीखे जाने वाले कार्य या विषय के प्रति व्यक्ति की अनुकूल मनोवृत्ति भी अधिगम के स्थानान्तरण में एक सहायक कारक है।

(4) सामान्यीकरण की क्रिया- अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक एक अन्य कारक है-‘सामान्यीकरण की क्रिया’। सामान्यीकरण की क्रिया से आशय है-अधिगम की प्रक्रिया के आधार पर क्रिया सम्बन्धी कुछ सामान्य सिद्धान्तों को निगमित कर लेना। यदि व्यक्ति द्वारा किसी कार्य या विषय के अधिगम के समय सामान्यीकरण कर लिया जाए तो सम्बन्धित विषय या कार्य का अधिगम-स्थानान्तरण उत्तम एवं प्रबल होता है।

(5) व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि एवं समझ- अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारकों में व्यक्ति की कुछ अपनी विशेषताएँ एवं क्षमताएँ भी सहायक सिद्ध होती हैं। यदि किसी व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि एवं समझे पर्याप्त विकसित हो तो वह व्यक्ति अधिगम के स्थानान्तरण में अधिक सफल होता है। गहन अन्तर्दृष्टि वाला व्यक्ति अपने गत अनुभवों को नये विषयों को सीखने में सरलता से उपयोग में ला सकता है।

(6) अधिगम के स्थानान्तरण के लिए किये जाने वाले प्रयास- यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को सीखने के उपरान्त अर्जित ज्ञान को अन्य परिस्थितियों में उपयोग में लाने का भरपूर प्रयास करता है। तो निश्चित रूप से अधिगम का स्थानान्तरण सुगम एवं प्रबल होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के अभीष्ट प्रयास भी अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारक होते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
‘सीखने’ या ‘अधिगम की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सीखने या अधिगम की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं

  1. किसी भी नवीन परिस्थिति के उत्पन्न होने पर आवश्यकता पूर्ति के लिए क्रियाशील होना अधिगम की एक अनिवार्य विशेषता है।
  2. यह एक समायोजन करने की प्रक्रिया है। अधिगम के अन्तर्गत किसी भी परिस्थिति में मायोजन किया जाता है।
  3. समायोजन की प्रक्रिया में पुराने अनुभव एवं क्रिया असफल हो जाते हैं।
  4. अधिगम में समायोजन के लिए नये मार्ग को खोजा जाता है।
  5. सफल खोज के फलस्वरूप समायोजन होता है।
  6. समायोजन से पूर्व व्यवहार में परिवर्तन होता है।
  7. सफल अनुभव को समान परिस्थिति में दोहराया जाता है।
  8. सफल अनुभव के परिणामस्वरूप नवीन व्यवहार में स्थायित्व आना ही सीखना है।
    उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिगम एक विशिष्ट मानसिक प्रक्रिया । निससे व्यक्ति के स्वाभाविक व्यवहार में उन्नतिशील परिवर्तन अथवा परिमार्जन होता है।

प्रश्न 2
परिपक्वता से क्या आशय है?
उत्तर
सीख़ने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में परिपक्वता (Maturation) का उल्लेख करना अनिवार्य है। परिपक्वता सीखने की प्रक्रिया का एक अनिवार्य कारक है।

परिपक्वतो, से अभिप्राय है ‘समुचित शारीरिक विकास’, जिसके कारण मानव-शरीर के अंग-प्रत्यंग का समानुपातिक विकास होता है तथा उसकी देहदृष्टि सुसंगठित होकर बढ़ती है। एक नवजात शिशु शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था को पार कर युवावस्था में कदम रखता है। विकास को यह प्रक्रिया व्यक्ति के शरीरांगों को पुष्ट तथा सबल बनाती है और उसकी कार्यक्षमता में

अभिवृद्धि होती है। मनुष्य के शरीरांगों के आधार पर उसकी शारीरिक क्रियाएँ तथा मस्तिष्क के आधार र मानसिक क्रियाएँ संचालित होती हैं। इस प्रकार परिपक्वता व्यक्ति की स्वाभाविक अभिवृद्धि है जो बिना किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों; जैसे–शिक्षा एवं अभ्यास आदि के अनवरत रूप से चलती रहती है। उदाहरण के लिए सभी बच्चे अपनी एक निश्चित अवस्था में बैठना, पैरों पर खड़े होना, चलना, बोलना तथा अनेकानेक दूसरे कार्य करना सीखते हैं। एक नन्हें से बच्चे को चाहे कितनी ही शिक्षा या अभ्यास क्यों न प्रदान किया जाए’ वह कम्प्यूटर चलाना नहीं सीख सकता। एक निश्चित उम्र पर पहुंचकर वह इसके लिए परिपक्व हो जाता है तथा इसे सुगमता से सीख लेता है। बोरिंग ने परिपक्वता को इस प्रकार परिभाषित किया है, “हम परिपक्वता शब्द का प्रयोग उस बुद्धि और विकास के लिए करेंगे जो किसी बिना सीखे हुए व्यवहार से या किसी विशिष्ट व्यवहार के सोखने से पहले आवश्यक होता है।”

प्रश्न 3
परिपक्वता तथा सीखने में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर
हमें ज्ञात है कि सीखना, व्यवहार परिवर्तन या व्यवहार अर्जन की एक प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति का व्यवहार परिवर्तन या तो परिपक्वता के कारण होता है या किसी नयी बात को ग्रहण करने के कारण। परिवर्तन की प्रक्रिया में नयी-नयी क्रियाएँ और व्यवहार प्रदर्शित तथा विकसित होते रहते हैं। परिपक्वता शारीरिक विकास की प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत बढ़ती हुई आयु के साथ, शरीर व स्नायुमण्डल का विकास सीखने की सामर्थ्य को जन्म देता है। स्पष्टतः सीखने के परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है। परिपक्वता की प्रक्रिया सीखने से पूर्व की स्थिति है तथा यह सीखने का आधार है। परिपक्वता के अभाव में किसी क्रिया का सीखना न केवल दुष्कर पेतु असम्भव है। वस्तुत: परिपक्वता किसी व्यवहार को अर्जित करने (सीखने) की एक पूर्व आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि मानव के विकास की प्रक्रिया में परिपक्वता और सीखना दोनों की सशक्त भूमिका है। यदि परिपक्वता के अभाव में सीखना सम्भव नहीं है तो सीखने के अभाव में व्यक्ति की परिपक्वता भी निरर्थक है। समुचित परिपक्वता ग्रहण कर यदि कोई मनुष्य व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी व्यवहार या क्रियाएँ सीखता है तो इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझा जाएगा। इस भाँति परिपक्वता और सीखने में गहरी सम्बन्ध है।

प्रश्न 4
परिपक्वता तथा सीखने में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2017)
उत्तर
परिपक्वता और सीखने में निम्नलिखित अन्तर हैं
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning 7

प्रश्न 5
टिप्पणी लिखिए–“अर्जित निस्सहायता” या “अधिगमित विवशता’। (2017)
उतर
अधिगम की प्रक्रिया के अध्ययन के सन्दर्भ में अर्जित निस्सहायता का भी अध्ययन किया जाता है। इसे ‘अधिगमित विवशता’ भी कहा जाता है। इस विषय में सर्वप्रथम सन् 1967 ई० में सैलिगमैन एवं मायर ने व्यवस्थित अध्ययन किया। इस अध्ययन के निष्कर्ष में स्पष्ट किया गया कि जब कोई प्राणी अनियन्त्रित विकर्णात्मक घटनाओं का सामना करता है तो उसमें प्रारम्भिक अनुभव अनेक बार यह भावना उत्पन्न कर देते हैं कि उसके कार्यों या व्यवहार का सम्बन्धित परिस्थितियों या वातावरण पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं है।

इस स्थिति में प्राणी या व्यक्ति में एक प्रकार की विवशता या बेबसी की भावना विकसित हो जाती है। इस स्थिति को ही मनोवैज्ञानिक भाषा में ‘अर्जित निस्सहायता’ या अधिगमित विवशता कहा जाता है। जिन परिस्थितियों या वातावरण के कारण प्राणी में इस प्रकार की विवशता की भावना विकसित होती है तथा सम्बन्धित परिस्थितियों में प्राणी को यदि कोई विषय सिखाया जाता है तो प्रायः व्यक्ति के अधिगम पर ऋणात्मक प्रभाव ही पड़ता है। सामान्य रूप से

अर्जित निस्सहायता के शिकार प्राणी या व्यक्तियों में समुचित प्रेरणा का अभाव होता है। यह भी पाया गया कि अधिगमित विवशता के लिए संवेगात्मक कारक जिम्मेदार होते हैं। वास्तव में, अधिगमित विवशता की स्थिति कुछ हद तक अवसाद की स्थिति के समान होती है। अधिगमित विवशता की निम्नलिखित तीन मुख्य विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है

  1. अर्जित निस्सहायता या अधिगमित विवशता की भावना सम्बन्धित परिस्थिति के प्रति विशिष्ट होती है।
  2. अनेक बार व्यक्ति अपनी अधिगमित विवशता को स्थायी समझ लेता है।
  3. प्रायः व्यक्ति अपनी अर्जित निस्सहायता के सम्बन्ध को आन्तरिक तथा कुछ बाहरी कारकों से जोड़ लेता है।

प्रश्न 6
सीखने की अविराम तथा विराम विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
अविराम तथा विराम विधि में निम्नलिखित अन्तर हैं
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning 8

प्रश्न 7
सीखने की अविराम तथा विराम विधि में कौन-सी श्रेष्ठ है?
उत्तर
कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर सीखने की विराम विधि, अविराम विधि से अच्छी होती है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर श्रेष्ठता के मानदण्ड निम्न प्रकार बताये जा सकते हैं

  1. जब कार्य कठिन हो, उसमें सूझ-बूझे व बुद्धिमत्ता की आवश्यकता हो और साथ ही वह लम्बा भी हो तो ऐसी परिस्थिति में विराम विधि, अविराम विधि से उत्तम है।
  2. जब कार्य सामान्य, छोटा एवं यान्त्रिक प्रकार का हो और उसे रटकर सीखा जा सके तो अविराम विधि, विराम विधि से अच्छी है।
  3. विराम विधि में विश्राम का मूल उद्देश्य किसी कार्य को सीखने से उत्पन्न थकान को दूर करना है; अतः विश्राम के लिए इतना समय अवश्य दिया जाना चाहिए कि इससे व्यक्ति में उत्पन्न थकान दूर हो जाए। विश्राम की अवधि अलग-अलग व्यक्तियों तथा अलग-अलग तरह के कार्यों के लिए अलग-अलग हो सकती है; जैसे–भारी पेशीय कार्य करने में सामान्यतः विश्राम की अवधि लम्बी होनी चाहिए।
  4. कार्य के दौरान, दूसरी कितनी बार अभ्यास के उपरान्त विश्राम देना चाहिए अर्थात् कितने प्रयासों के उपरान्त विश्राम उपयुक्त है, इसके विषय में विद्वानों का मत है कि जब सीखने के वक्र में  गिरने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर हो तो वहाँ अास को रोक देना चाहिए और व्यक्ति को विश्राम देना चाहिए। सीखने की प्रक्रिया में कमी आना या वक्र में गिरने की प्रवृत्ति कार्य की प्रकृति तथा सीखने वाले व्यक्ति की अभिरुचि व अभिप्रेरणा पर निर्भर होती है।
  5. हिलगार्ड नामक विद्वान् ने बताया है कि विराम विधि का एक खास दोष यह है कि अधिक विश्राम की स्थिति में व्यक्ति के मन में अनेक पुरानी बातें या घटनाएँ स्वयं ताजा हो जाती हैं। यक्ति उनमें खो जाता है जिससे पुनः कार्य शुरू करने या पाठ सीखने में बाधा उत्पन्न होती है। उपर्युक्त विवरण द्वारा यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सीखने की विराम विधि सर्वश्रेष्ठ है तथा अविराम विधि व्यर्थ। वास्तविकता यह है कि जब कोई कार्य या पाठ छोटा, सामान्य, रटने लायक होता है। जिसमें समझ की अधिक आवश्यकता नहीं होती तो अविराम विधि विराम विधि से अच्छी होती है, किन्तु जब कार्य या पाठ कठिन व लम्बा हो और उसमें समझदारी की आवश्यकता हो तो ऐसी दशा में विराम विधि की सहायता लेनी चाहिए।

प्रश्न 8
अधिगम की पूर्ण तथा अंश विधि में से कौन-सी विधि अधिक उपयोगी है?
उत्तर
पूर्ण तथा अंश विधि की उपयोगिता के सम्बन्ध में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोग किये तथा तुलनात्मक अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला कि दोनों ही विधियाँ स्वयं में गुणकारी व लाभदायक हैं, किन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में कोई एक विधि अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है। होवलैण्ड नामक विद्वान् ने पूर्ण तथा अंश विधि की उपयोगिता के मूल्यांकन हेतु कुछ कारक बताये, जो निम्नलिखित हैं-

(1) कार्य की प्रकृति- यदि कार्य का स्वरूप ऐसा है कि कार्य सरल है, उसमें तार्किक क्रम है। और वह ज्यादा लम्बा नहीं है तो पूर्ण विधि बेहतर सिद्ध होती है, किन्तु यदि कार्य अधिक जटिल व लम्बा है तथा उसमें तार्किक क्रम बना रहना जरूरी नहीं है तो ऐसी दशा में अंश विधि द्वारा अधिक अच्छे ढंग से सीखा जा सकता है।

(2) आयु- अधिक आयु के व्यक्ति पूर्ण विधि से तथा कम-से-कम आयु के व्यक्ति अंश विधि से अच्छा सीख सकते हैं। अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष निकलता है कि वयस्क व्यक्ति पूर्ण विधि से तथा कम आयु के व्यक्ति अंश विधि से ज्यादा सीख पाते हैं।

(3) बुद्धि- जिन व्यक्तियों की बुद्धि-लब्धि अधिक होती है वे पूर्ण विधि से सीखते हैं, जबकि सामान्य या कम बुद्धि-लब्धि के व्यक्ति अंश विधि से अधिक सीखते हैं।

(4) अधिगम- अवस्था साधारणतयाः सीखने की प्रारम्भिक अवस्था में व्यक्ति अंश विधि से सीखने में सफल रहता है, किन्तु पर्याप्त रूप से सीखने के बाद वह सीखने की अन्तिम अवस्था में होता है तो वैसी परिस्थिति में सीखने की पूर्ण विधि से अधिक सफलता प्राप्त होती है।

(5) अभिप्रेरणा– यदि कार्य को सीखने की प्रेरणा व्यक्ति में अधिक है तो पूर्ण विधि, अंश विधि से अधिक अच्छी समझी जाती है। इस भाँति स्पष्ट है कि पूर्ण विधि तथा अंश विधि अलग-अलग एवं विशिष्ट परिस्थितियों में उपयोगी सिद्ध होती हैं। जब कार्य अधिक लम्बा नहीं है, छोटा है और उसमें तार्किक क्रम आवश्यक है। तो ऐसी परिस्थिति में पूर्ण विधि, अंश विधि से अधिक लाभप्रद है, किन्तु जब कार्य बहुत लम्बा होता है। तथा उसमें कोई तार्किक क्रम भी नहीं होता है तो ऐसी परिस्थिति में अंश विधि, पूर्ण विधि से अधिक गुणकारी सिद्ध होती है।

अंश विधि एक अन्य प्रकार से भी लाभकारी है। अंश विधि द्वारा कार्य सीखने में व्यक्ति में अभिरुचि तथा उत्साह बना रहता है। वस्तुत: एक अंश या एक भाग को सीख लेने पर व्यक्ति को प्रसन्नता का अनुभव होता है और यह अनुभूति व्यक्ति में अगले भाग को सीखने में अभिरुचि तथा उत्साह बनाये रखती है। निष्कर्ष यह निकलता है कि परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति को पूर्ण विधि तथा अंश विधि दोनों का समुचित उपयोग सीखने के लिए करना चाहिए।

प्रश्न 9
‘प्रयत्न एवं भूल विधि तथा सूझ विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2018)
उत्तर
प्रयत्न एवं भूल विधि’ तथा ‘सूझ विधि’ में अग्रलिखित अन्तर हैं
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning 9

प्रश्न 10
अधिगम-स्थानान्तरण के मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
अधिगम-स्थानान्तरण की प्रक्रिया कुछ सिद्धान्तों पर आधारित है। इस विषय में निम्नलिखित दो प्रमुख सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं
(1) औपचारिक अनुशासन का सिद्धान्त (Theory of Formal Discipline)- उन्नीसवीं शताब्दी तक,प्रचलित ‘औपचारिक अनुशासन का सिद्धान्त’, ‘सामान्य अन्तरण का सिद्धान्त या विजय का सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, कठिन सामग्री के अधिगम से व्यक्ति के मस्तिष्क का उचित प्रशिक्षण होता है और इससे उसे अपने दिन-प्रतिदिन की दूसरी क्रियाओं को सीखने में भी सहायता मिलती है। यह सिद्धान्त स्वीकार करता है कि व्यक्ति की विभिन्न मानसिक शक्तियों; जैसे-तर्क, निर्णय, कल्पना एवं स्मृति को शिक्षण के माध्यम से विकसित तथा शक्तिशाली बनाया जा सकता है। इस भाँति विकसित तथा प्रबल हुई मानसिक शक्तियाँ व्यक्ति के अन्य कार्यों को भी प्रभावित करती हैं। |

(2) प्रविधियों की समानता का सिद्धान्त (Theory of Indentical Techniques)— इसे अंशों का सिद्धान्त या थॉर्नडाइक का सिद्धान्त भी कहते हैं जिसके अनुसार अधिगम-स्थानान्तरण का कारण प्रविधियों की समानता है तथा दोनों परिस्थितियों में उद्दीपन तथा अनुक्रियाएँ भी एक समान होती हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, एक कार्य का दूसरे कार्य पर स्थानान्तरण कितना होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि दोनों कार्यों में साहचर्यपरक तत्त्वों में कितनी समानता है। कम समानता में कम स्थानान्तरण तथा अधिक समानता में अधिक स्थानान्तरण होगा।

प्रश्न 11
अधिगम-स्थानान्तरण के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए। (2013)
उत्तर
मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम-स्थानान्तरण के तीन प्रमुख प्रकार बताये हैं

(1) धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण (Positive Transfer of Learning)- यदि पहले से सीखा हुआ व्यवहार, वर्तमान में सीखे जा रहे व्यवहार में सहायता देता है तो इस तरह का स्थानान्तरण, धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण कहलाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति कार चलाना जानता है और अब बस चलाना सीख रहा है तो उसे पहले सीखे गये व्यवहार से (अर्थात् कार चलाना से) दूसरी परिस्थिति (अर्थात् बस चलाने) में सहायता मिलती है। इसका अर्थ है कि धनात्मक

अधिगम-स्थानान्तरण में उद्दीपक तो बदल जाते हैं किन्तु अनुक्रिया समान होती है। उद्दीपक कार (N1) से बदलकर बस (N2) हो जाती है, किन्तु अनुक्रिया दोनों ही परिस्थितियों में एक जैसी रहती है। धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण को निम्नलिखित रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है–

प्रथम परिस्थिति S1-R1 दूसरी परिस्थिति S2 – R1

धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण का एक प्रकार द्विपाश्विक अधिगम-स्थानान्तरण । (Bi-lateral Transfer of Learning) भी है जिसमें धनात्मक स्थानान्तरण व्यक्ति के शरीर के एक अंग से दूसरे अंग में पाया जाता है। उदाहरण के लिए–कभी-कभी देखने में आता है कि व्यक्ति किसी कार्य को किसी एक हाथ से करना सीखता है और उसके बाद उसी कार्य को दूसरे हाथ से करना सीखता है तो पहली परिस्थिति में अधिगम की वजह से उसे दूसरी परिस्थिति में तीखने में सहायता मिलती है।

(2) ऋणात्मक अधिगम-स्थानान्तरण (Negative Transfer of Learning)– यदि पहले से सीखा हुआ व्यवहार वर्तमान में सीखे जा रहे व्यवहार में बाधा उत्पन्न करता है तो इस प्रकार के स्थानान्तरण को ऋणात्मक अधिगम-स्थानान्तरण कहते हैं। उदाहरण के लिए हमेशा बायें हाथ की। कलाई में घड़ी पहनने वाला व्यक्ति यदि संयोगवश किसी दिन दायें हाथ की कलाई में घड़ी पहन ले तो समय देखने के लिए उसका ध्यान प्रायः बायें हाथ की तरफ हो जाएगा, यद्यपि घड़ी इस समय व्यक्ति । की दायें हाथ की कलाई में बँधी है। स्पष्ट होता है कि इस तरह के अधिगम-स्थानान्तरण में उद्दीपक (S) हो तो दोनों परिस्थितियों में एक जैसा रहता है, किन्तु अनुक्रिया (R) भिन्न हो जाती है। ऋणात्मक अधिगम-स्थानान्तरण के लिए निम्नलिखित सूत्र है

प्रथम परिस्थिति S1-R1 दूसरी परिस्थिति S2 – R1

(3) शून्य अधिगम-स्थानान्तरण (Zero Transfer of Learning)- जिन अधिगम परिस्थितियों में पहले से सीखे हुए व्यवहार का वर्तमान में सीखे जा रहे व्यवहार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसे शून्य अधिगम-स्थानान्तरण केहो जाता है। यह स्थानान्तरण तब होता है जब स्थानान्तरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ स्थानान्तरण के अनुकूल नहीं होतीं। यह उस समय भी होता है जब धनात्मक व ऋणात्मक दोनों ही प्रकार की परिस्थितियाँ एक ही साथ उपस्थित हो जाएँ। इसका सूत्र निम्नलिखित है।

प्रथम परिस्थिति S1-R1 दूसरी परिस्थिति S2 – R1

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सीखने की सक्रिय तथा निष्क्रिय विधि की तुलना कीजिए।
उत्तर
सीखने के लिए अपनायी जाने वाली दो विधियाँ हैं क्रमशः सीखने की सक्रिय विधि तथा सीखने की निष्क्रिय विधि। इन दोनों विधियों का सापेक्ष महत्त्व है। सक्रिय तथा निष्क्रिय विधि द्वारा सीखने के तुलनात्मक अध्ययन के दौरान गेट्स (Gates) नामक मनोवैज्ञानिक ने निष्कर्ष निकाला कि सक्रिय विधि, निष्क्रिय विधि से तीन बातों में अधिक अच्छी है-

  1. सक्रिय विधि द्वारा सीखने में व्यक्ति की अभिप्रेरणा तथा अभिरुचि अधिक होती है।
  2. व्यक्ति को सीखे गये कार्य के परिणाम का ज्ञान होता रहता है जिससे उसे यह बोध होता है। कि अगले प्रयास में पाठ के किस अंश पर ज्यादा बल दिया जाना चाहिए।
  3. सक्रिय सीखने की शुरुआत कार्य को सीखने के प्रारम्भ से ही होनी चाहिए, क्योंकि इससे अधिगम अधिक प्रबल तथा दक्ष होता है। 

अध्ययन से पता चलता है कि सक्रिय विधि उस समय अधिक उपयोगी है जबकि बाह्य वातावरण में ध्यान को विचलित करने वाले कारक उपस्थित होते हैं। निष्क्रिय विधि तब अधिक उपयोगी है जबकि अधिगम सामग्री कठिन हो और उसके लिए अधिक ध्यान की आवश्यकता हो।

प्रश्न 2
शाब्दिक सीखना का अर्थ स्पष्ट कीजिए। (2018)
उत्तर
सुन कर तथा बोलकर भाषा के माध्यम से सीखने की सम्पन्न होने वाली प्रक्रिया को ‘शाब्दिक सीखना’ कहते हैं। मनुष्यों में अधिकांश सीखना ‘शाब्दिक सीखना ही होता है।

प्रश्न 3
प्राचीन अनुबन्धन के चार अवयवों के नाम लिखिए।
उत्तर
प्राचीन अनुबन्धन के चार अवयव इस प्रकार हैं-

  1. प्रबल ‘प्रेरक का विद्यमान होना
  2. विभिन्न उद्दीपनों में समय का सम्बन्ध
  3. उद्दीपन अनुक्रिया का बार-बार दोहराना तथा
  4. ध्यान बँटाने वाले उद्दीपनों का अभाव।

प्रश्न 4
अनुकरण के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सीखने की एक मुख्य विधि अनुकरण है। अनुकरण के विभिन्न प्रकार हैं जिनका सामान्य परिचय निम्नलिखित है|
(1) सप्रयास अनुकरण- जब हम किसी व्यक्ति-विशेष के क्रियाकलापों की यत्नपूर्वक तथा जानबूझकर नकल करते हैं तो इसे सप्रयास अनुकरण कहते हैं।

(2) सहज अनुकरण- इस प्रकार के अनुकरण में कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता; बल्कि यह स्वतः ही हो जाता है। विद्वानों का मत है कि अधिक संवेदनशील व्यक्ति ही सहज अनुकरण करने में समर्थ होते हैं। आमतौर पर, हँसी के माहौल में एक व्यक्ति दूसरों के साथ सम्मिलित होकर स्वत: ही हँसने लगता है और शोकाकुल लोगों के मध्य व्यक्ति स्वतः ही शोकमग्न भी हो जाता है।

(3) विचारात्मक अनुकरण- विचारात्मक अनुकरण का सम्बन्ध व्यक्ति-विशेष के विचारों की नकल से है। |

(4) विचाररहित अनुकरण- जिसे अनुकरण की प्रक्रिया में किसी विचार का अनुगमन न किया जाता हो और यह विचारविहीन अवस्था से उत्पन्न होता हो, उसे विचाररहित अनुकरण का नाम दिया जाएगा।

(5) निरर्थक अनुकरण- निरर्थक क्रियाओं, जिनका कुछ भी अभिप्राय न हो, की नकल निरर्थक अनुकरण है। इसे प्रायः बच्चों द्वारा अपनाया जाता है।

प्रश्न 5
अनुकरण के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। उत्तर यद्यपि सीखने की अनेकानेक विधियाँ हैं, किन्तु मनुष्य अपने जीवन में अनुकरण के माध्यम से बहुत अधिक सीखता है। मानव जाति में अनुकरण द्वारा सीखने का महत्त्व बालकों के लिए सर्वाधिक है। बालक खेल-खेल में अनुकरण द्वारा नवीन क्रियाओं को अल्पकाल में ही सीख जाते हैं। उदाहरणार्थ– व्यवहार के तरीके, अच्छी-बुरी आदतें, शब्दों का उच्चारण, वाचन तथा लेखन की कला एवं बहुत-सी सृजनात्मक क्रियाएँ अनुकरण के माध्यम से जल्दी सीखी जाती हैं। बोल्टन नामक मनोवैज्ञानिक का विचार है कि जिस बालक में अनुकरण करने की सर्वाधिक शक्ति होती है, उसमें सीखने की सर्वाधिक शक्ति होती है। बच्चे जाने-अनजाने अपने बुजुर्गों से अनेकानेक बातें सीख लेते हैं। बच्चों को सिखाने की प्रक्रिया में वातावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अच्छे वातावरण से बच्चों का अच्छा आचरण होता है और वे बुरे वातावरण से भी जल्दी ही प्रभावित हो जाते हैं। वस्तुत: अनुकरण द्वारा सीखने से मनुष्य में चतुराई आती है।

प्रश्न 6
प्रयत्न एवं भूल विधि से सीखने की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
सीखने की ‘प्रयत्न एवं भूल’ विधि की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1.  इस विधि के अन्तर्गत किसी नयी परिस्थिति (समय) का जन्म होता है।
  2. इसे नयी परिस्थिति के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया विकसित होती है।
  3. प्रयासों के परिणामस्वरूप अनायास ही सफलता मिलती है।
  4. शनैः शनैः होने वाली भूलों की संख्या घटती जाती है।
  5. सफल प्रतिक्रिया को बार-बार दोहराने से उसका स्थायीकरण हो जाता है और इस प्रकार प्राणी नये विषय सीखता है।

प्रश्न 7
सीखने की सूझ विधि के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विश्व के समस्त उच्च स्तर के बुद्धिप्रधान जीवों में सीखने की क्रिया सूझ या अन्तर्दृष्टि की सहायता से सम्पन्न होती है। व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में नयी-नयी परिस्थितियों तथा बाधाओं को पातां है और उनका अभीष्ट समाधान खोजने में सूझ की सहायता लेता है। शिक्षार्थी भी सूझ की विधि का सहारा लेकर गणित, ज्यामिति, सांख्यिकीय तथा वैज्ञानिक समस्याओं को हल करते हैं। ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में होने वाले आविष्कार एवं खोजों में अन्तर्दृष्टि की प्रमुख भूमिका रही है। घर-परिवार, स्कूल, कार्यालय, कारखाने, व्यापार आदि जीवन के विविध क्षेत्रों से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान, सूझ के द्वारा ही सम्भव होता है। निष्कर्षत: मनुष्य के जीवन में सूझ यो अन्तर्दृष्टि का अत्यधिक महत्त्व है।

प्रश्न 8
अधिगम-स्थानान्तरण के मापन की विधि का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
अधिगम-स्थानान्तरण के मापन के लिए दो बातों का ज्ञान आवश्यक है-एक, प्रयोगात्मक समूह की सही अनुक्रियाओं का मध्यमान (E = Experimental Groups Mean) तथा दो, नियन्त्रित समूह की सही अनुक्रियाओं का अध्ययन (C = Control Groups Mean)। प्रयोगात्मक समूह की अनुक्रियाओं के मध्यमान तथा नियन्त्रित समूह की अनुक्रियाओं के मध्यमान के अन्तर को नियन्त्रित समूह की अनुक्रियाओं के मध्यमान से विभाजित कर प्राप्त अंक को 100 से गुणा करने पर स्थानान्तरण प्रतिशत ज्ञात हो जाता है। इसके लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करते हैं
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 3 Learning 10

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न I : निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

  1. अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में जो परिवर्तन होता है, उसे…………..कहते हैं।
  2. अनुभव और प्रशिक्षण के फलस्वरूप व्यवहार को अपेक्षाकृत स्थायी और प्रगतिपूर्ण परिवर्तन ही……..”है।
  3. वुडवर्थ के अनुसार अपने पूर्व व्यवहार में ……………. करना ही ‘सीखना’ कहलाती है।
  4. अधिगम की प्रक्रिया ………..चलती है।
  5. अधिगम की प्रक्रिया पर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का ………….
  6.  प्रतिकूल वातावरण सीखने की प्रक्रिया में ………….. होता है।
  7. दण्ड एवं निन्दा का सीखने की प्रक्रिया पर ………… प्रभाव पड़ता है।
  8. पुरस्कार और प्रशंसा का सीखने की प्रक्रिया पर………… प्रभाव पड़ता है।
  9. परिपक्वता के लिए …………आवश्यक नहीं है। (2008)
  10. परिपक्वता के अभाव में सीखने की प्रक्रिया…….।
  11. परिपक्वता के अभाव में सीखना सम्भव नहीं तथा सीखने के अभाव में परिपक्वता ….. है।
  12. किसी व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं और शारीरिक व्यवहार को देखकर सीखने की विधि को………..कहते हैं।
  13. अनुकरण विधि द्वारा सीखने में ……….की अधिक आवश्यकता नहीं होती।
  14.  सीखने की प्रयास एवं भूल विधि का सर्वप्रथम प्रतिपादन ने किया था।
  15. प्रयास एवं भूल विधि को सत्यापित करने के लिए थॉर्नडाइक ने अपना प्रयोग …… पर किया था।
  16. मैक्डूगल ने प्रयास एवं भूल विधि को दर्शाने के लिए अपना प्रयोग………पर किया था।
  17. गैस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सीखने की प्रक्रिया ………. द्वारा सम्पन्न होती है।
  18. कोहलर तथा कोफ्का ………….. मनोवैज्ञानिक थे।
  19. कोहलर ने चिम्पैंजी पर प्रयोग करके सीखने के……….. सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
  20. कोहलर ने ‘अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखने’ विषयक प्रयोग………..पर किया था। (2011, 17)
  21. व्यवहारवादियों द्वारा प्रतिपादित सीखने के सिद्धान्त को ………………कहते हैं।
  22. प्राचीन अनुबन्धन के सिद्धान्त का प्रतिपादन……….. ने किया। (2016)
  23. प्राचीन अनुबन्धन पर प्रयोग किया था (2013)
  24. प्राचीन अनुबन्धन के स्थापित होने में ………..तथा  का महत्त्व है। (2013)
  25. पैवलोव ने अपने सीखने के सिद्धान्त को प्रतिपादित करने के लिए…………पर प्रयोग किया था।
  26. किसी उद्दीपक से होने वाली प्राकृतिक या स्वाभाविक अनुक्रिया जब उससे भिन्न किसी अन्य उद्दीपक वस्तु या परिस्थिति से उत्पन्न होने लगे तो उस प्रक्रिया को …………….कहते हैं।(2018)
  27. सीखने के नैमित्तिक अनुबन्धन सिद्धान्त का प्रतिपादन…………… ने किया है।
  28.  सीखने के नियमों के प्रमुख प्रतिपादक………… माने जाते हैं।
  29. थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के प्राथमिक नियमों की संख्या ………….हैं। (2012)
  30. सीखने की प्रक्रिया में वह अवस्था जब सीखने में प्रगति नहीं होती है कहलाती है। (2008)
  31. यदि सीखने के वक्र में सीखने की प्रगति कुछ दूर तक रुकी हुई दिखाई देती है तो इससे ………का पता चलता है(2011)
  32. किसी व्यक्ति द्वारा किसी एक परिस्थिति में सीखे गये कार्य को किसी अन्य परिस्थिति में
    उपयोग में लाना ………… कहलाता है। ।
  33. यदि पूर्व में किया गया अधिगम बाद में किये जा रहे अधिगम अन्तरण में बाधक हो रहा हो, तो इस प्रकार के अधिगम अन्तरण को कहा जाता है।
  34. ……………ऋणात्मक और शून्य स्थानान्तरण अधिगम स्थानान्तरण के प्रकार हैं। (2017)
  35. पशुओं का अधिकांश सीखना…………प्रकार का होता है, जबकि मानव का अधिकांश सीखना वाचिक प्रकार का होता है। (2017)

उत्तर
1. सीखना या अधिगम, 2. अधिगम, 3. परिवर्तन, 4. जीवन-पर्यन्त, 5. प्रभाव पड़ता है, 6. बाधक, 7. प्रतिकूल, 8. अनुकूल, 9. अधिगम, 10. सुचारु रूप से नहीं चल सकती, 11. व्यर्थ, 12. अनुकरण,  13. सूझ-बूझ, 14. थॉर्नडाइक, 15. बिल्ली, 16. चूहों, 17. सूझ या अन्तर्दृष्टि, 18. गैस्टाल्टवादी, 19. सूझ या अन्तर्दृष्टि, 20. चिम्पैंजी, 21. सम्बद्ध प्रत्यावर्तन, 22. पैवलोव, 23. पैवलोव ने, 24. उद्दीपन, अनुक्रिया, 25. कुत्ते, 26. सम्बद्धता, 27. स्किनर, 28. थॉर्नडाइक, 29. तीन, 30. पठार, 31. सीखने के पठार, 32. अधिगम का स्थानान्तरण, 33. ऋणात्मक अधिगम-स्थानान्तरण, 34. धनात्मक, 35. क्रियात्मक।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए

प्रश्न 1.
वुडवर्थ द्वारा प्रतिपादित सीखने की परिभाषा लिखिए।
उत्तर
वुडवर्थ के अनुसार, “सीखना वह कोई भी क्रिया है जो बाद की क्रिया पर अपेक्षाकृत स्थायी प्रभाव डालती है।”

प्रश्न 2.
व्यवहारवाद के अनुसार सीखना क्या है?
उत्तर
व्यवहारवाद के अनुसार, सीखना मानव-व्यवहार में परिवर्तन की एक प्रक्रिया है।

प्रश्न 3.
प्रयोजनवाद के अनुसार सीखना क्या है?
उत्तर
प्रयोजनवाद के अनुसार, सीखना मानव-जीवन के लक्ष्य अथवा प्रयोजन से। सम्बन्धित है तथा यह लक्ष्योन्मुख उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।

प्रश्न 4.
परिपक्वता की एक सरल परिभाषा लिखिए।
उत्तर
बोरिंग के अनुसार, हम परिपक्वता शब्द का प्रयोग उस वृद्धि और विकास के लिए करते हैं जो किसी बिना सीखे हुए व्यवहार से या किसी विशिष्ट व्यवहार के सीखने से पहले आवश्यक होता है।”

प्रश्न 5.
परिपक्वता तथा सीखने में क्या सम्बन्ध है? एक वाक्य में लिखिए।
उत्तर
परिपक्वता की प्रक्रिया सीखने से पूर्व की स्थिति है तथा यह सीखने का आधार है, परिपक्वता के अभाव में सम्बन्धित कार्य को सीखना सम्भव नहीं है।

प्रश्न 6.
परिपक्वता तथा सीखने में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर
परिपक्वता एक जन्मजात और स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह स्वतः संचालित होती है। इससे भिन्न सीखना एक अर्जित प्रक्रिया है। यह व्यक्ति के अर्जित व्यवहार से सम्बन्ध रखती है।

प्रश्न 7.
अनुकरण की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर
मेक्डूगल के अनुसार, “अनुकरण एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं और शारीरिक व्यवहार की नकल करने को कहते हैं।”

प्रश्न 8.
अनुकरण के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर

  1. सप्रयास अनुकरण,
  2. सहज अनुकरण,
  3. विचारात्मक अनुकरण
  4. विचाररहित अनुकरण तथा
  5. निरर्थक अनुकरण।

प्रश्न 9.
कोहलर तथा कोफ्का नामक मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के किस सिद्धान्त का प्रतिपादन | किया है?
उत्तर
कोहलर तथा कोफ्को नामक मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के सूझ या अन्तर्दृष्टि के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।

प्रश्न 10.
सीखने के सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त के प्रतिपादक का नाम लिखिए।
उत्तर
पैवलोव (I.P Pavlov)।

प्रश्न 11.
नैमित्तिक अनुबन्धन के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
कोनोस् नामक विद्वान् ने नैमित्तिक अनुबन्धन के चार प्रकारों का उल्लेख किया है–

  1. पुरस्कार नैमित्तिक अनुबन्धन
  2. परिहार नैमित्तिक अनुबन्धन
  3. अकर्म नैमित्तिक अनुबन्धन तथा
  4. दण्ड नैमित्तिक अनुबन्धन।।

प्रश्न 12.
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के मुख्य नियम कौन-कौन से हैं?
उत्तर
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के मुख्य नियम हैं—

  1. तत्परता का नियम
  2. अभ्यास का नियम तथा
  3. प्रभाव का नियम।

प्रश्न 13.
सीखने के पठार से क्या आशय है?
उत्तर
जब व्यक्ति के सीखने की गति की वृद्धि रुक जाती है, तो उस स्थिति को सीखने का पठार कहा जाता है।

प्रश्न 14.
सीखने के पठार को समाप्त करने का एक मुख्य उपाय बताइए।
उत्तर
सीखने के पठार को समाप्त करने का एक मुख्य उपाय है-प्रबल प्रेरक उपलब्ध कराना।।

प्रश्न 15.
अधिगम के स्थानान्तरण की एक सरल परिभाषा लिखिए।
उत्तर
क्रो तथा क्रो के अनुसार, “जब शिक्षण के एक क्षेत्र में प्राप्त विचार, अनुभव या कार्य की आदत, ज्ञान या निपुणता का दूसरी परिस्थिति में प्रयोग किया जाता है तो वह अधिगम का स्थानान्तरण कहलाता है।

प्रश्न 16.
अधिगम के स्थानान्तरण के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर

  1. धनात्मक अधिगम-स्थानान्तरण,
  2. ऋणात्मक, अधिगम-स्थानान्तरण तथा ।
  3. शून्य अधिगम-स्थानान्तरण।।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
अनुभव और प्रशिक्षण द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन कहलाता है  (2017)
(क) सीखना
(ख) व्यक्तित्व
(ग) प्रत्यक्षीकरण
(घ) स्मृति
उत्तर
(क) सीखना

प्रश्न 2.
सीखने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप किसमें परिवर्तन होता है?
(क) व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में
(ख) व्यक्ति के व्यवहार में
(ग) व्यक्ति के सौन्दर्य एवं हाव-भाव में
(घ) व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियों में
उत्तर
(ख) व्यक्ति के व्यवहार में

प्रश्न 3.
सीखने की प्रक्रिया में सहायक कारक है
(क) व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य
(ख) आयु एवं परिपक्वता
(ग) प्रशंसा एवं पुरस्कार
(घ) ये सभी
उत्तर
(घ) ये सभी

प्रश्न 4.
परिपक्वता तथा सीखने में सम्बन्ध है
(क) सीखने के लिए परिपक्वता का कोई महत्त्व नहीं है।
(ख) सीखने के लिए समुचित परिपक्वता अनिवार्य है।
(ग) सीखने से परिपक्वता की जाती है।
(घ) उपर्युक्त सभी कथन असत्य हैं।
उत्तर
(ख) सीखने के लिए समुचित परिपक्वता अनिवार्य है।

प्रश्न 5.
परिपक्वता तथा अधिगम में अन्तर है
(क) परिपक्वता एक जन्मजात प्रक्रिया है जब कि अधिगम एक अर्जित प्रक्रिया
(ख) परिपक्वता पर अभ्यास का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जबकि अधिगम पर अभ्यास का 
प्रभाव पड़ता है।
(ग) परिपक्वता एक आन्तरिक एवं अचेतन प्रक्रिया है, जबकि अधिगम एक सचेतन प्रक्रिया है, 
जिसे मनुष्य जानबूझकर चलाता है।
(घ) उपर्युक्त सभी अन्तर
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी अन्तर

प्रश्न 6.
बच्चों द्वारा सीखने के लिए सर्वाधिक किस विधि को अपनाया जाता है?
(क) सूझ अथवा अन्तर्दृष्टि विधि को
(ख) प्रयास एवं भूल विधि को
(ग) अनुकरण विधि को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) अनुकरण विधि को

प्रश्न 7.
अनुकरण द्वारा सीखने का उदाहरण है
(क) परीक्षा में नकल करना ।
(ख) किसी नेता के चलने व बोलने के ढंग को अपनाना
(ग) भीड़ में जाकर क्रुद्ध होना
(घ) परिवार के सदस्यों को अच्छी-अच्छी बातें सिखाना
उत्तर
(ख) किसी नेता के चलने व बोलने के ढंग को अपनाना

प्रश्न
8.
प्रयास तथा त्रुटि द्वारा अधिगम प्रस्तावित किया (2013, 17)
(क) एबिंगहॉस ने
(ख) थॉर्नडाइक ने
(ग) कोहलर ने
(घ) पैवलोव ने
उत्तर
(ख) थॉर्नडाइक ने

प्रश्न 9.
थॉर्नडाइक के अधिगम सिद्धान्त का नाम नहीं है
(क) नैमित्तिक अनुबंधन सिद्धान्त
(ख) प्रयत्न एवं भूल सिद्धान्त
(ग) उद्दीपक-अनुक्रिया सिद्धान्त |
(घ) उद्दीपक-अनुक्रिया सम्बन्ध सिद्धान्त
उत्तर
(क) नैमित्तिक अनुबंधन सिद्धान्त

प्रश्न 10.
कोहलर तथा कोफ्का के अनुसर अधिगम
(क) प्रयत्न एवं भूल द्वारा होता है।
(ख) सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा होता है।
(ग) अनुकरण द्वारा होता है।
(घ) अभ्यास द्वारा होता है।
उत्तर
(ख) सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा होता है।

प्रश्न 11.
सीखने के अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था ।
(क) थॉर्नडाइक ने
(ख) पैवलॉव ने
(ग) कोहलर ने
(घ) स्किनर ने
उत्तर
(ग) कोहलर ने

प्रश्न 12.
अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखने के सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रयोग किसने किया है? (2010, 12)
(क) गुंग ने
(ख) वुण्ट ने
(ग) कोहलर ने
(घ) वाटसन ने
उत्तर
(ग) कोहलर ने

प्रश्न 13.
प्राचीन अनुबन्धन सिद्धान्त’ से सम्बन्धित है (2008, 12, 15)
(क) स्किनर
(ख) आलपोर्ट
(ग) थॉर्नडाइक
(घ) पैवलोव
उत्तर
(ग) थॉर्नडाइक

प्रश्न 14.
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त के मुख्य प्रतिपादक हैं
(क) पैवलोव
(ख) कोहलर
(ग) थॉर्नडाइक
(घ) मैक्डूगल
उत्तर
(क) पैवलोव

प्रश्न 15.
नैमित्तिक अनुबन्धन सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं (2009, 16, 18)
(क) बी०एफ०स्किनर
(ख) थॉर्नडाइक
(ग) पैवलोव
(घ) कोहलर
उत्तर
(क) बी०एफ०स्किनर

प्रश्न 16.
सीखने के नियम दिये गये हैं (2015)
(क) थॉर्नडाइक द्वारा
(ख) मैक्डूगल द्वारा
(ग) फ्रॉयड द्वारा
(घ) वुण्ट द्वारा
उत्तर
(क) थॉर्नडाइक द्वारा

प्रश्न 17.
निम्नलिखित में कौन सीखने का प्राथमिक नियम नहीं है?
(क) प्रभाव का नियम
(ख) तत्परता का नियम
(ग) आंशिक क्रिया का नियम
(घ) अभ्यास का नियम
उत्तर
(ग) आंशिक क्रिया का नियम

प्रश्न 18.
थॉर्नडाइक के अनुसार सीखने के लिए आवश्यक नहीं है|
(क) अभ्यास ।
(ख) प्रभाव या परिणाम
(ग) तैयारी ।
(घ) सूझ
उत्तर
(घ) सूझ

प्रश्न 19.
सीखने की गति में होने वाली वृद्धि की दर रुक जाने की स्थिति कहलाती है
(क) सीखने का पठार
(ख) कुशलता की क्षति
(ग) विस्मरण
(घ) अयोग्यता
उत्तर
(क) सीखने का पठार

प्रश्न 20.
सीखने के पठार में सीखने का स्तर (2014)
(क) कुछ कम हो जाता है।
(ख) उसी स्तर पर रुक जाता है।
(ग) लगातार कम होता जाता है।
(घ) तेजी से बढ़ता है।
उत्तर
(ख) उसी स्तर पर रुक जाता है।

प्रश्न 21.
अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक कारक है
(क) सीखने के लिए अपनायी गयी उत्तम विधि
(ख) पहले सीखे गये विषय की शिक्षण-मात्री
(ग) अधिगम के स्थानान्तरण के लिए किये जाने वाले प्रयास
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 1 Ancient Indian Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 1 Ancient Indian Education (प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 1 Ancient Indian Education (प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 1
Chapter Name Ancient Indian Education (प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा)
Number of Questions Solved 46
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 1 Ancient Indian Education (प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का सामान्य परिचय दीजिए। इस शिक्षा प्रणाली के
उद्देश्यों तथा आदर्शों का भी उल्लेख कीजिए।
प्राचीन काल में शिक्षा के क्या उद्देश्य थे? वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता की समीक्षा कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा–सामान्य-परिचय

प्राचीन काल में हमारे देश में शिक्षा का सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध था। वैदिककाल में भी भारतवासी शिक्षा के महत्त्व से भली-भाँति परिचित थे तथा शिक्षा-प्रणाली का समुचित विकास हो चुका था। उस काल में भी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास, समाज की उन्नति एवं प्रगति तथा सभ्यता के बहुपक्षीय विकास के लिए शिक्षा को आवश्यक माना जाता था। शिक्षा के प्रति प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण को डॉ० अल्तेकर ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शिक्षा को प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता था जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरन्तर एवं सामंजस्यपूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करता है और उसे उत्कृष्ट बनाता है।

प्राचीनकालीन भारतीय समाज ने अपने मौलिक चिन्तन के आधार पर ही एक उन्नत तथा व्यवस्थित शिक्षा-प्रणाली को जन्म दिया था। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए एफडब्ल्यू० थॉमस ने लिखा है, “भारत में शिक्षा, विदेशी पौधा नहीं है। संसार का कोई भी ऐसा देश नहीं है जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम का इतने प्राचीन समय में आविर्भाव हुआ हो, या जिसने इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली प्रभाव डाला हो।’ प्राचीन भारतीय समाज ने शिक्षा की अवधारणा के प्रति एक मौलिक तथा सन्तुलित दृष्टिकोण विकसित कर लिया था। उस काल में शिक्षा को क्रमशः ‘विद्या’, ‘ज्ञान’, ‘बोध’ तथा ‘विनय’ के रूप में स्वीकार किया गया था। शिक्षा की प्रक्रिया को व्यापक तथा सीमित दोनों ही रूपों में प्रस्तुत किया गया था। इस तथ्य को डॉ० अल्तेकर ने इस शब्दों में प्रस्तुत किया है, “व्यापक अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य है-व्यक्ति को सभ्य और उन्नत बनाना।

इस दृष्टि से शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। सीमित अर्थ में, शिक्षा का अभिप्राय उस औपचारिक शिक्षा से है जो व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व छात्र के रूप से प्राप्त होती है। प्राचीन काल में शिक्षा को उत्तम जीवन व्यतीत करने का साधन तथा मोक्ष-प्राप्ति में सहायक माना जाता था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा या वैदिक शिक्षा के अर्थ को अल्तेकर ने अपने दृष्टिकोण से इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “वैदिक युग से आज तक शिक्षा के सम्बन्ध में भारतीयों की मुख्य धारणा यह रही है कि शिक्षा प्रकाश का वह स्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शन करता है।”

प्राचीनकाल में शिक्षा को अन्तर्दृष्टि तथा अन्तर्योति प्रदान करने वाली, ज्ञान-चक्षु तथा तीसरे नेत्र के तुल्य माना जाता था। शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करने के लिए कहा गया है कि शिक्षा व्यक्ति के लिए बुद्धि, विवेक तथा कुशलता प्राप्त करने का साधन है। इसके माध्यम से व्यक्ति सुख, आनन्द, यश तथा समृद्धि प्राप्त कर सकता है।

प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श

प्राचीनकालीन भारतीय समाज में आध्यात्मिकता पर अधिक बल दिया जाता था। व्यक्ति तथा समा की प्राय: समस्त गतिविधियों का निर्धारण आध्यात्मिकता दृष्टिकोण से ही होता था। प्राचीनकाल में उच्च आदर्शों की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों का सामान्य परिचय डॉ० अल्तेकर ने इन शुब्दों में स्पष्ट किया है, “ईश्वर-भक्ति एवं धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कुशलता की उन्नति और राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार।” इस कथने को ध्यान में रखते हुए प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्शों का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है
1. ज्ञान तथा अनुभव अर्जित करना–प्राचीनकालीन भारतीय आदर्शवादी समाज में शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य ज्ञान तथा अनुभव को अर्जित करना था। इस तथ्य को डॉ० मुखर्जी ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शिक्षा का उद्देश्य पढ़ना नहीं था अपितु ज्ञान और अनुभव को आत्मसात् करना था।” सामान्य रूप से अध्ययन, मनन, स्मरण तथा स्वाध्याय द्वारा ज्ञान अर्जित किया जाता था तथा उसे जीवन में आत्मसात् किया जाता था। छात्रों द्वारा अर्जित किये गये ज्ञान का मूल्यांकन शास्त्रार्थ के माध्यम से किया जाता था।

2. धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति विकसित करना–प्राचीन भारतीय समाज धर्मप्रधान समाज था अतः शिक्षा भी धार्मिकता के प्रति उन्मुख थी। शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति को विकसित करना भी था। डॉ० अल्तेकर ने स्पष्ट कहा है, “सब प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य-छात्र को समाज को धार्मिक सदस्य बनाना था। छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति को विकसित करने के लिए शिक्षा के व्रत, यज्ञ, उपासना तथा धार्मिक गतिविधियों में सम्मिलित होने को आवश्यक माना जाता था।

3. मन की चित्तवृत्तियों का समुचित निरोध–प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए डॉ० मुखर्जी ने लिखा है, “शिक्षा का उद्देश्य-चित्तवृत्ति-निरोध’ अर्थात् मन से उन कार्यों का निषेध था, जिनके कारण वह भौतिक संसार में उलझ जाता है। वास्तव में आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होने के लिए चित्तवृत्तियों का समुचित निरोध आवश्यक होता है। शिक्षा की प्रक्रिया के अन्तर्गत छात्रों की चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता था।
प्राचीनकालीन शैक्षिक मान्यता के अनुसार, चित्तवृत्तियों का निरोध व्यक्ति के जीवन के परम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता है।

4. चरित्र-निर्माण सम्बन्धी उद्देश्य–प्राचीनकालीन आदर्शवादी भारतीय समाज में शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों का चरित्र-निर्माण करना भी था। डॉ० वेदमित्र ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “छात्रों के चरित्र का निर्माण करना, शिक्षा का एक अनिवार्य उद्देश्य माना जाता था। छात्रों के चरित्र-निर्माण सम्बन्धी शिक्षा के उद्देश्य की सुचारु पूर्ति के लिए विभिन्न उपाय किये जाते थे। सामान्य रूप से गुरुकुलों तथा गुरु-आश्रमों का सम्पूर्ण वातावरण उत्तम तथा अनुकरणीय होता था। इसके अतिरिक्त सभी गुरु भी इस दिशा में विभिन्न प्रयास किया करते थे। वे अपने शिष्यों के सदाचरण के लिए आवश्यक शिक्षा देते थे तथा उन्हें व्यावहारिक जीवन में अपनाने के लिए प्रेरित किया करते थे।

5. व्यक्तित्व के समुचित विकास सम्बन्धी उद्देश्य–प्राचीनकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना भी निर्धारित किया गया था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरुजनों द्वारा विशेष प्रयास किये जाते थे। वे अपने छात्रों को विभिन्न सद्गुणों एवं शिष्टाचार के लिए विशिष्ट शिक्षा देते थे। छात्रों को अपने जीवन में आत्मसंयम, आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए समुचित उपाय बनाया करते थे तथा साथ ही विवेक, न्याय तथा निष्पक्षता के दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए प्रेरित किया जाता था। छात्रों के व्यक्तित्व के समुचित विकास क्रे लिए गुरुकुलों में प्राय: उपयोगी सभाएँ, गोष्ठियाँ तथा वाद-विवाद आदि को आयोजित किया जाता था।

6. छात्रों को सामाजिक एवं नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना–प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों को सामाजिक एवं नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना भी स्वीकार किया गया था। इसके लिए गुरुजन अपने शिष्यों को उपयोगी उपदेश दिया करते थे। सामान्य रूप से अतिथि-सत्कार, दीन-दु:खियों की सहायता तथा समाज के अन्य व्यक्तियों को सहयोग प्रदान करने का, उपदेश दिया जाता था तथा इन सद्गुणों को जीवन में आत्मसात् करने के लिए प्रेरित किया जाता था। इसके अतिरिक्त घर-परिवार तथा समाज में रहते हुए विभिन्न कर्त्तव्यों के पालन की शिक्षा दी जाती थी। ।

7. सामाजिक कुशलता के विकास सम्बन्धी उद्देश्य–प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों में सामाजिक-कुशलता के विकासको समुचित महत्त्व दिया गया था। शिक्षा को कोरा सैद्धान्तिक नहीं बनाया गया था बल्कि उसे जीविकोपार्जनके साधन के रूप में भी स्वीकार किया गया था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यावसायिक शिक्षा का प्रावधान था। सामान्य रूप से कृषि, वाणिज्य शिक्षा, सैन्य शिक्षा, कला-कौशल की शिक्षा तथा चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा की व्यवस्था इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए की गयी थी।

8. भारतीय संस्कृति को संरक्षण एवं प्रसार करना–शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध संस्कृति से भी होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य भारतीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार करना भी निर्धारित किया गया था। इसके लिए सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा दी जाती थी तथा उनके प्रति सम्मान को विकसित किया जाता था। इन उपायों द्वारा संस्कृति को निरन्तरता प्रदान की जाती थी।

वर्तमान में शिक्षा की प्रासंगिकता

वर्तमान में प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है

  1. प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था का एक प्रमुख गुण ‘अनुशासन’ किसी भी काल अथवा युग में प्रासंगिक ही रहेगा। वर्तमान सन्दर्भो में एक अनुशासित विद्यार्थी ही एक श्रेष्ठ नागरिक बनकर देश व समाज की सेवा करने में सक्षम होगा।
  2. प्राचीन काल में शिष्य का अपने गुरुओं के प्रति श्रद्धाभाव व सेवाभाव’ विद्यार्थियों में मानवोचित गुणों का समावेश करता है, जिससे वे समाज के प्रति संवेदनशील बनते हैं और अपने कर्तव्यों को पहचानने में सक्षम बन पाते हैं।
  3. आज के तकनीकी युग में व्यक्ति अधिकाधिक मशीनों पर निर्भर होता जा रहा है, जिससे उनका मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है, ऐसे में प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था में निहित पद्धतियों; जैसे–स्मरण-शक्ति को बढ़ाने वाली कंठस्थ विधि एवं योग इत्यादि की प्रासंगिकता निश्चित रूप से बढ़ी है।
  4. प्राचीन काल में विद्यार्थी अपने समस्त कार्य स्वयं ही करता था, जिससे उसमें स्वतः ही आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती थी। वर्तमान सन्दर्भो में भी यह प्रासंगिक है।
  5. किसी भी देश व समाज की उन्नति के तत्त्व उसकी सांस्कृतिक विरासत से अनन्य रूप से जुड़े | होते हैं, अतएव उन विशिष्ट मूल्यों की रक्षा हेतु अपनी प्राचीन पद्धतियों के सकारात्मक तत्त्वों को ग्रहण करना सदैव ही प्रासंगिक रहता है।

प्रश्न 2
प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के विविध स्वरूपों का वर्णन कीजिए। या
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षण संस्थाओं का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के विविध स्वरूप थे, जिनका विवरण निम्नलिखित है
प्राचीन काल में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था
प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा प्रणाली ब्राह्मणों के अधिकार में थी, परन्तु प्राथमिक शिक्षा इनके आधिपत्य से मुक्त थी। प्राथमिक शिक्षा की अवधि 6 वर्ष की थी तथा 5-11 वर्ष के आयु-वर्ग वाले बालक प्राथमिक स्तर की शिक्षा ग्रहण करते थे। प्राथमिक शिक्षा स्तर पर बालकों को वैदिक मन्त्रोच्चारण सिखाया एवं कंठस्थ कराया जाता था। गुरुकुलों में पढ़ने वाले छात्रों को अन्तेवासी कहा जाता था। गुरु तथा शिष्य के बीच सम्बन्ध मधुर एवं पिता-पुत्र खुल्य थे। प्राथमिक शिक्षा मौखिक ही थी।

प्राचीन काल में उच्च शिक्षा व्यवस्था

प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता था। उच्च शिक्षा व्यवस्था में वेदों का विस्तृत अध्ययन किया जाता था। पाठ्यक्रम में परा तथा अपरा नामक दो विधाएँ थीं। परा विधा में वेद, वेदांत, पुराण, उपनिषद् तथा आध्यात्म विषयों की शिक्षा दी जाती थी। अपरा विधा में भूगर्भशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास एवं भौतिकशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा का प्रमुख केन्द्र तक्षशिला एवं पाटलिपुत्र थे। उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए व्याख्यान, प्रवचन शास्त्रार्थ, प्रश्नोत्तर तथा वाद-विवाद जैसी शिक्षण पद्धति को भी अपनाया जाता है।

प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा

वैदिक काल में स्त्री शिक्षा प्रतिबन्धित नहीं थी, परन्तु बालिकाओं के लिए अलग से शिक्षण संस्थान नहीं थे। बालिकाएँ अपने पिता-भाई या कुल पुरोहित से शिक्षा प्राप्त करती थी।
प्राचीन काल में उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों को ब्रह्मवादिनी कहा जाता था।
इस काल में गार्गी, शकुन्तला, अनुसूया, अपाला,घोषा, मैत्रेयी आदि भारतीय विदुषी स्त्रियाँ थीं।

प्राचीन काल में व्यावसायिक शिक्षा व्यवस्था

प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिक थी, परन्तु इसके साथ ही छात्रों को विशेषकर वैश्य वर्ग के छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाती रही। व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों की शिक्षा दी जाती थी

  1. वाणिज्य शिक्षा वैश्य वर्ण के छात्रों को प्रदान की जाती थी। वाणिज्य शिक्षा में व्यापार, कृषि तथा पशुपालन प्रमुख थे।
  2. सैन्य शिक्षा विशेषकर क्षत्रिय वर्ग के छात्रों को प्रदान की जाती थी। इसमें अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान
    व परिचालन, व्यूह-रचना का प्रयोगात्मक रूप प्रदान किया जाता था।
  3. कला कौशल की शिक्षा के अन्तर्गत संगीत कला, चित्रकला, शिल्पकला आदि की शिक्षा प्रदान
    की जाती थी, परन्तु यह शिक्षा संस्थागत न होकर मार्गदर्शन के रूप में होती थी।
  4. चिकित्साशास्त्र की शिक्षा ऐसे योग्य छात्रों को दी जाती थी, जिनमें सेवाभाव एवं मानवीय गुण थे। इस विषय में रोग-निदान, औषधिशास्त्र तथा शल्य क्रिया की शिक्षा प्रदान की जाती थी।

प्राचीन भारतीय शिक्षा संस्थाएँ।

प्राचीन काल में निम्नलिखित शिक्षण संस्थाएँ थीं- .

  1. टोल–प्राचीन काल में स्थापित, इस तरह की संस्थाओं में केवल एक शिक्षक हुआ करता था। यहाँ मुख्य रूप से संस्कृत विषय पढ़ाया जाता था। |
  2. चारण-वेदों के अनुसार, किसी एक अंग की शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था चारण कहलाती थी। |
  3. घटिका-दर्शन तथा धर्म की उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था घटिका कहलाती थी।
  4. परिषद्-इस तरह की संस्था में 10 शिक्षक होते थे, जो विभिन्न विषयों से सम्बन्धित शिक्षा प्रदान करते थे।
  5.  गुरुकुल–गुरुकुलों में वेदों, साहित्यों तथा धर्म की शिक्षा मौखिक रूप से प्रदान की जाती थी। प्राचीन काल में छात्रों को गुरुकुल में मौखिक रूप से शिक्षा दी जाती थी। इस पद्धति में छात्रों को गुरुजन मन्त्र, वेद तथा उनके अर्थों को मौखिक रूप से रटा देते थे और इनके गूढ़ अर्थों के द्वारा ही छात्रों की समस्याओं का हल भी हो जाता था। इसके लिए गुरुकुल में शास्त्रार्थ तथा वाद-विवाद का भी प्रयोग किया जाता थी।
  6. विद्यापीठ-व्याकरण एवं तर्कशास्त्र की व्यवस्थित शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्था थी।
  7. विशिष्ट विद्यालय-इस तरह की संस्था में भी एक ही विषय की विशिष्ट शिक्षा प्रदान की जाती थी।
  8. मन्दिर महाविद्यालय- प्राचीन काल में कुछ मन्दिर शिक्षण संस्थाओं के रूप में कार्य करते थे, जिनमें धर्म, दर्शन, वेद तथा व्याकरण आदि की शिक्षा दी जाती थी।
  9. ब्राह्मणीय महाविद्यालय-इसे प्रकार की संस्था को चतुष्पथी भी कहा जाता था। इन विद्यालयों में दर्शन, पुराण, कानून, व्याकरण आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
  10. विश्वविद्यालय-इस प्रकार की शिक्षण संस्थाएँ, जो विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करती हैं। विश्वविद्यालय कहलाती हैं। प्राचीनकाल में शिक्षा प्रक्रिया के विकास के लिए इस प्रकार की संस्था की स्थापना की गई।

प्रश्न 3
वैदिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए और हमारे देश की वर्तमान
दशाओं के लिए उनकी उपयोगिता पर समालोचना कीजिए। [2013, 14] वैदिककालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। वर्तमान समय में इन्हें कहाँ तक अपनाया जा सकता है?
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा से आशय वैदिककालीन शिक्षा से है। इस काल में वैदिक संस्कृति का बोलबाला था तथा जीवन के प्रत्येक पक्ष पर उसका प्रभाव था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा भी वेदों से प्रभावित थी।
प्राचीन भारत की शिक्षा की अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं। इस शिक्षा व्यवस्था ने भारत को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित किया। डॉ० ए०एस० अल्तेकर के अनुसार, “उस समय के विश्व में भारत का जो सर्वोच्च स्थान था, उसका कारण शिक्षा प्रणाली की सफलता थी।”

प्राचीन ( वैदिककालीन) भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ

प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं।
1. चयनात्मकता–प्राचीन काल की शिक्षा की पहली विशेषता उसकी चयनात्मकता थी। कुछ योग्यताओं और नैतिकताओं के आधार पर ही छात्र गुरु के आश्रम में प्रवेश पा सकते थे। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा का द्वार नहीं खुला था। चरित्रहीन और भ्रष्ट बालकों को आश्रम में प्रवेश नहीं दिया जाता था। इस प्रकारे शिक्षा केवल सुयोग्य छात्रों के लिए होती थी।

2. विद्यारम्भ संस्कार-अल्तेकर के अनुसार, “विद्यारम्भ । प्राचीन वैदिककालीन)। संस्कार पाँच वर्ष की आयु में होता था और साधारणतया सब | भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ जातियों के बालकों के लिए था।” अधिकांश विद्वानों के अनुसार
। चयनात्मकता यह संस्कार उस समय होता था, जब बालक प्राथमिक शिक्षा
विद्यारम्भ संस्कार आरम्भ करता था। इस संस्कार के समय बालक को अक्षर ज्ञान
उपनयन संस्कार कराया जाता था। |

3. उपनयन संस्कार-उपनयन’ का शाब्दिक अर्थ
गुरुकुल प्रणाली हैपास ले जाना’; दूसरे शब्दों में, ज्ञान-प्राप्ति के लिए छात्र का
नियमित दिनचर्या का सिद्धान्त गुरु के पास पहुँचना। उपनयन के बाद बालक का नवीन जीवन
पाठ्य-विषयों की व्यापकता प्रारम्भ होता था। छात्र गुरु के पास जाकर कहता था-“मैं ज्ञानार्जन दण्ड का सिद्धान्त करने और ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत करने के लिए आपके निकट  चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त आया हूँ। मुझे ज्ञान प्रदान करें।” गुरु उपनीत बालक से प्रश्न करता * गुरु-शिष्य सम्बन्ध था-“तुम किसके ब्रह्मचारी हो?” बालक उत्तर देता छात्र जीवन सम्बन्धी नियम था—“आपका’, तत्पश्चात् गुरु गायत्री मन्त्र का उपदेश देता था और शिक्षा का प्रारम्भ करता था।
9 धर्म और लौकिकता का समावेश

4. गुरुकुल प्रणाली–प्राचीन भारी शिक्षा प्रणाली की प्रमुख विशेषता गुरुकुल प्रणाली थी। इसलिए प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली का ‘गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली’ के नाम से भी जाना जाता है। जब बालक सात या आठ वर्ष का हो जाता था तो वह माता-पिता को छोड़कर गुरु के आश्रम में प्रवेश करता था। गुरु के आश्रम को ही गुरुकुल कहा जाता था। अपने सम्पूर्ण अध्ययन काल तक छात्र को गुरुकुल में रहकरे अध्ययन करना पड़ता था। गुरु छात्रों को न केवल शिक्षा प्रदान करता था; वेरन् संरक्षक के रूप में उनके भरण-पोषण, वेशभूषा आदि की व्यवस्था भी करता था।

5. नियमित दिनचर्या का सिद्धांत-प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक छात्र के लिए आवश्यक था कि वह नियमित दिनचर्या को उचित ढंग से पालन करे। प्रत्येक छात्र के लिए सूर्योदय से पूर्व उठना, स्नान करना, यज्ञ, पूजा, वेद पाठ, भिक्षा माँगना तथा गुरु की सेवा करना दिनचर्या के आवश्यक अंग थे।

6. पाठ्य-विषयों की व्यापकता–वैदिककाल में पाठ्य-विषय सीमित थे, लेकिन ब्राह्मण काल में शिक्षा के पाठ्यक्रम में अनेक विषयों का समावेश किया गया था। चारों वेदों के अतिरिक्त उपनिषद्, इतिहास, पुराण, व्याकरण, विधिशास्त्र, देवशास्त्र, भूत विद्या, एकायन, ब्रह्मविद्या आदि विषयों को अध्ययन किया जाता था।

7. दण्ड का सिद्धान्त-प्राचीन शिक्षा में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के अनुकूल शिक्षा प्रदान करने की प्रवृत्ति मिलती है। छात्र को शारीरिक दण्ड प्रदान करना अनुचित अपराध माना जाता था। याज्ञवल्क्य और मनु साधारण दण्ड के पक्ष में थे, परन्तु गौतम नहीं। आचार्य छात्रों की बौद्धिक क्षमता, रुचि तथा प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही शिक्षा प्रदान करते थे।

8. चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त-चरित्र-निर्माण के लिए छात्रों के स्वभाव और संस्कारों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए छात्रों के उचित पालन-पोषण, शिक्षा व अनुकूलन आदि परिस्थितियों की व्यवस्था की जाती थी।

9. गुरु-शिष्यसम्बन्ध–प्राचीन शिक्षा में गुरु-शिष्य के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध रहता था। शिष्य गुरु के सीधे सम्पर्क में देहता था। अतः गुरु शिष्य की शारीरिक और मानसिक शक्तियों का भली प्रकार अध्ययन कर लेता था। गुरु अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् स्नेह करते थे तथा उनके रहन-सहन, भोजन, वस्त्र आदि का उत्तरदायित्व उठाते थे। |

10. छात्र जीवन संम्बन्धी नियम-छात्र नियमित जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ खान-पान, वेशभूषा व आचार-व्यवहार के नियमों का पालन भी अनिवार्य रूप से करते थे। |
11. निःशुल्क शिक्षा-प्राचीन काल में शिक्षा नि:शुल्क थी। छात्रों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। शिक्षा की समाप्ति पर वे स्वेच्छा से अपने गुरु को दक्षिणी प्रदान करते थे।
12. धर्म और लौकिकता का समावेश-प्राचीन काल में शिक्षा धर्मप्रधान थी। छात्र निष्ठा के साथ धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते थे। धार्मिक शिक्षा के साथ लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था थी। अनेक लौकिक विषयों को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था। [संकेत-‘प्राचीनकालीन शिक्षा की विशेषताओं का वर्तमान में स्थान हेतु लघु उत्तरीय प्रश्न 5 का उत्तर देखें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के स्वरूप का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकाल में शिक्षा का तात्पर्य उस अन्तज्यति एवं शक्ति से लगाया जा जाता था, जिसके द्वारा मानव का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास हो सके। इस काल में न केवल शिक्षा, ‘अपितु जीवन का प्रत्येक क्षेत्र; जैसे–राजनीतिक, सामाजिक तथा अर्थव्यवस्था आदि धर्म से प्रभावित था, इसलिए प्राचीन भारतीय शिक्षा भी धार्मिक भावना से ओत-प्रोत थी। प्राचीन भारतीय शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं

  1. प्राचीन काल में शिक्षा धर्मप्रधान थी, इसलिए शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक था।
  2. शिक्षा व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर आधारित थी।
  3. शिक्षा की प्राप्ति के लिए इन्द्रियों का संयम करना होता था और ब्रह्मचर्य का पालन भी अनिवार्य
    था।
  4. शिक्षा में मनन और स्मरण की बहुत अधिक महत्त्व था।
  5. प्रत्येक वर्ग और वर्ण के बालकं की विद्या का प्रारम्भ 5 से लेकर 8वर्ष की आयु के बीच में हो जाता
    था।
  6. शिक्षा प्राप्त करने के लिए शिष्य को गुरु के आश्रम में जाना होता था और वहाँ परिवार के सदस्य के रूप में उसे रहना पड़ता था।
  7. विद्याध्ययन करने के लिए गुरुजन अपने आश्रम नगर के कोलाहल से दूर बनाते थे।
  8. शिक्षा की प्राप्ति में दैनिक अभ्यास और दिनचर्या का निर्वाह बहुत महत्त्वपूर्ण समझा जाता था।
  9. विद्यार्थियों में अच्छी आदतों का निर्माण करने के लिए अच्छे वातावरण का निर्माण किया जाता
    था।
  10. शिक्षा में लोकतन्त्रीय आदर्श का पालन करने के लिए छात्रों में भेद-भाव नहीं रखा जाता था। राजा और रंक दोनों के बालक साथ-साथ पढ़ते थे।

प्रश्न 2
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा को दो वर्गों में बाँटा गया था–प्राथमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा। इन दोनों ही स्तरों की शिक्षा के निर्धारित पाठ्यक्रम का सामान्य विवरण निम्नलिखित है
1. प्राथमिक शिक्षा-आज की प्राथमिक शिक्षा और प्राचीन युग की प्राथमिक शिक्षा में अन्तर था। आज की भाँति उस समय क ख ग अथवा गणित के आरम्भिक सिद्धान्त नहीं पढ़ाए जाते थे। उस समय सर्वप्रथम बालक और बालिकाओं को मूल मन्त्रों का उच्चारण करना सिखाया जाता था। इसके बाद छात्र पढ़ना-लिखना सीखते थे और उसके उपरान्त उन्हें व्याकरण की शिक्षा दी जाती थी। प्राचीनकाल के प्राथमिक शिक्षा के पाठ्क्रम में निम्नलिखित विषय सम्मिलित थे|

  1. सामान्य या प्रारम्भिक भाषा विज्ञान,
  2. प्रारम्भिक व्याकरण,
  3. प्रारम्भिक छन्द शास्त्र तथा
  4. प्रारम्भिक गणित। ।

2. उच्च शिक्षा-प्राचीन काल में आर्य लोग उच्च शिक्षा को बहुत अधिक महत्त्व देते थे। उनका विचार था कि उच्च शिक्षा के अभाव में आत्मोन्नति और आत्मकल्याण सम्भव नहीं है। यह शिक्षा वास्तव में विशेष योग्यता की प्राप्ति के लिए की जाती थी। वैदिक काल में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषय सम्मिलित थे– |

  1. चारों वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद।
  2. इतिहास, पुराण, व्याकरण, तर्कशास्त्र, ब्रह्म विद्या, देव विद्या, नीतिशास्त्र, ज्योतिष, शिल्प, संगीत आदि।

प्रश्न 3
प्राचीन भारतीय शिक्षा में व्यावसायिक शिक्षा की क्या व्यवस्था थी ?
उत्तर
भारत में प्राचीनकालीन शिक्षा मुख्य रूप से धर्म प्रधान शिक्षा थी तथा शिक्षण का उद्देश्य मुख्य रूप से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास ही था परन्तु इस काल में भारत में व्यावसायिक शिक्षा का भी प्रचलन था। प्राचीनकालीन व्यावसायिक शिक्षा का सामान्य विवरण निम्नलिखित है–
1. पुरोहित शिक्षा-प्राचीन काल में केवल ब्राह्मण पुत्रों को ही पुरोहितीय शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। उन्हें, यज्ञ, हवन, बलि आदि विभिन्न प्रकार के संस्कार सम्पन्न कराने की शिक्षा दी जाती थी। विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती थी। प्रत्येक कार्य की शिक्षा के लिए पृथक् प्रशिक्षण केन्द्र की व्यवस्था होती थी। |
2. सैन्य शिक्षा- क्षत्रियों को सैन्य शिक्षा दी जाती थी। इसके अन्तर्गत अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग, रथों, घोड़ों, हाथियों आदि का प्रयोग करने की शिक्षा सम्मिलित थी। उस समय ऐसी शिक्षा संस्थाओं का अभाव था जो कि पूर्णतया सैन्य शिक्षा बालकों को दें। राज्य सेनाओं से अवकाश प्राप्त सैनिकों द्वारा सैन्य शिक्षा दी जाती थी।
3. कृषि और वाणिज्य की शिक्षा-वैश्यों के लिए कृषि एवं वाणिज्य की शिक्षा की व्यवस्था थी। इसके अन्तर्गत कृषि, वाणिज्य, भूगोल, भाषा, गणित, व्यापार आदिका ज्ञान प्रदान किया जाता था। प्रारम्भ में पिता अपने पुत्रों को इस प्रकार की शिक्षा देते थे, लेकिन धीरे-धीरे यह कार्य शिक्षकों द्वारा किया जाने लगा।
4. चिकित्साशास्त्र की शिक्षा- प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के अन्तर्गत चिकित्साशास्त्र की शिक्षा की भी समुचित व्यवस्था थी। इस काल में कुछ विशेषज्ञों द्वारा चिकित्साशास्त्र तथा ओषधिशास्त्र का व्यवस्थित ज्ञान इच्छुक छात्रों को दिया जाता था। इस वर्ग की शिक्षा के अन्तर्गत मुख्य रूप से रोग-निदान, ओषधि-निदान, शल्य-क्रिया, सर्प-दंश, अस्थि ज्ञान तथा रक्त-परीक्षण आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी।

प्रश्न 4
वैदिककालीन शिक्षा-व्यवस्था में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध पर प्रकाश डालिए। [2014]
उत्तर
वैदिककालीन शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत गुरु-शिष्य सम्बन्ध कर्तव्यपरायणता पर आधारित थे तथा गुरु एवं शिष्य दोनों ही अपने कर्तव्यों के प्रति जगरूक होते थे तथा सदैव अपनी इच्छा से उनका पालन करते थे। गुरु-शिष्य के सम्बन्ध पारस्परिक स्नेह, सम्मान, विश्वास तथा कर्त्तव्य की भावना पर आधारित होते थे। गुरु या शिक्षक अपने शिष्य के प्रति सदैव पुत्रवत् व्यवहार करता था। गुरु अपने शिष्य के प्रति बौद्धिक एवं आध्यात्मिक-पिता की भूमिका निभाता था। वह शिष्य के सर्वांगीण विकास के लिए सभी आवश्यक उपाय करता था। वह शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के साथ-ही-साथ उसके चरित्र के विकास में भी भरपूर योगदान देता था। गुरु ही अपने शिष्यों के लिए आहार तथा आवश्यकता पड़ने पर औषधि एवं उपचार की भी व्यवस्था करता था। इस प्रकार निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि घर-परिवार में जो कर्तव्य तथा दायित्स्व पिता द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं, गुरुकुल में वे सभी गुरु या शिक्षक द्वारा पूरे किये जाते थे। इस स्थिति में गुरुकुल के सभी छात्रों के लिए गुरु भी पिता-तुल्य ही होते थे। सभी छात्र बहुत ही सम्मानपूर्वक अपने गुरु के प्रत्येक आदेश का पालन करते थे तथा गुरु की सेवा करते थे। छात्र ही गुरुकुल के समस्त कार्यों में गुरुको सहयोग प्रदान करते थे तथा एक परिवार के सदस्य के रूप में रहते थे।

प्रश्न 5
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली का वर्तमान परिस्थितियों में क्या महत्त्व है? या प्राचीन काल की शैक्षिक विशेषताओं को वर्तमान समय में कहाँ तक अपनाया जा सकता है ?
उत्तर
प्राचीन भारतीय शिक्षा की अनेकानेक विशेषताओं का वर्तमान शिक्षा के लिए विशेष महत्त्व है। उस समय की शिक्षा की निम्नांकित बातों को वर्तमान शिक्षा में स्थान देकर अधिक उपयोगी और ज्ञानवर्द्धक बनाया जा सकता है|

  1. आज के भौतिकवादी युग में प्राचीन शिक्षा के धर्म और अध्यात्म के शैक्षिक उद्देश्य को वर्तमान शिक्षा का आवश्यक उद्देश्य बनाना चाहिए।
  2. शिक्षा के माध्यम से पारस्परिक एकता के सिद्धान्त को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  3. जीवन की सम्पूर्णता के लिए शिक्षा को माध्यम बनाया जाना चाहिए, यही प्राचीन शिक्षा का प्रमुख आदर्श था।
  4. प्राचीन भारतीय शिक्षा से प्रेरणा लेकर वर्तमान पाठ्यक्रम को बहुमुखी और व्यापक बनाया जाना चाहिए।
  5. प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास करे—प्राचीन शिक्षा का यह आदर्श भी ग्रहणीय है।
  6. प्राचीन काल में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों व विधियों से स्वतन्त्रता, अभ्यास रुचि एवं योग्यता के अनुकूल प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा मिलती थी, जिसे वर्तमान में भी अपनाया जा सकता है।
  7. शिक्षा व्यवस्था में वैयक्तिक स्वतन्त्रता, गुरु-शिष्य सहयोग, परीक्षा प्रणाली का अभाव आदि कुछ विशिष्ट पहलू हैं,जिनको आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रयोग किया जा सकता है।’
    निष्कर्षत: प्राचीन शिक्षा-प्रणाली आज भी उपयोगी है। इसका हम परित्याग नहीं कर सकते, केवल समय व परिस्थितियों के अनुकूल इसमें कुछ संशोधन करके इसे स्वीकार करना लाभकारी है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य बताइए।
या प्राचीन काल में शिक्षा के क्यो उद्देश्य थे ?
उत्तर
प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का वर्णन करते हुए अल्तेकर ने लिखा है, “ईश्वर-भक्ति तथा धार्मिकता की भावना, चरित्र-निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिकता तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार-प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श थे।” संक्षेप में प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श निम्नलिखित थे

  1. धार्मिक भावना का विकास।
  2. चरित्र का निर्माण और विकास।
  3. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास।
  4. नागरिकता एवं सामाजिकता का विकास।
  5. युवकों को जीविकोपार्जन के लिए समर्थ बनाना।
  6. संस्कृति एवं ज्ञान का संरक्षण, प्रसार तथा विकास।।

प्रश्न 2
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के संगठन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्राचीन भारत में विद्यार्थी गुरु के आश्रम में जाकर रहता था। शिष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करना गुरु का कर्तव्य था और ब्रह्मचारीगण समाज के बीच गृहस्थों के द्वार पर जाकर भिक्षाटन करते थे और गृहस्थ जन उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अपना गौरव समझते थे।

प्रश्न 3
प्राचीनकालीन शिक्षण विधि का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
प्राचीन काल में शिक्षा मुख्यत: मौखिक थी। शब्दों के शुद्ध उच्चारण पर विशेष बल दिया। जाता था। अशुद्ध उच्चारुण अहितकर तथा विनाशकारी समझा जाता था। ज्ञान को कण्ठस्थ करना विद्यार्थी की एक विशेषता थी। गुरुं वेद-मन्त्रों का उच्चारण करते थे और शिष्य उनको सुनकर याद कर लेते थे। सम्भवत: इसीलिए श्रुति और स्मृति के नाम से ज्ञान की शाखाओं को सम्बोधित किया जाता था। मन्त्रों को कण्ठस्थ करना, मनन करना तथा अर्थ समझना ही शिक्षण-प्रणाली थी। शिक्षण कार्य की समाप्ति के बाद छात्र गुरु के चरणों को स्पर्श करके विदा लेते थे।

प्रश्न 4
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में परीक्षा-प्रणाली का क्या प्रावधान था ?
उत्तर
प्राचीन काल में आज की भाँति परीक्षा-प्रणाली, उपाधियों और प्रमाण-पत्र व्यवस्था का प्रचलन नहीं था। उस समय प्रश्नोत्तर के माध्यम से जब गुरु को यह विश्वास हो जाता था कि उसके शिष्य ने विद्या में दक्षता प्राप्त कर ली है, तो वह उसे दीक्षा देकर विदा कर देता था। आश्रमों में दीक्षान्त समारोह सम्पन्न होते थे। इन्हें समावर्तन संस्कार भी कहा जाता था। इन समारोहों में विद्वान् लोग विद्यार्थी से प्रश्न पूछते थे और वह उनके सन्तोषजनक उत्तर देने पर उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता था। उच्च शिक्षा एवं वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्रों को उपाधियाँ दी जाती थीं। प्रश्न

प्रश्न 5
प्राचीन काल में भारत में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी ?
उत्तर
प्राचीन काल में भारत में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन था। इसका मुख्य प्रमाण हैप्राचीनकालीन विदुषी स्त्रियाँ; जैसे कि–घोषा, गार्गी, मैत्रेई, अपाला, शकुन्तला, अनुसूइया आदि। वैसे इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि उस काल में स्त्रियों के लिए अलग से शिक्षण-संस्थाएँ थीं। ऐसा माना जाता है कि उस काल में बालिकाएँ घर पर ही रह कर विद्या प्राप्त करती थीं। सामान्य रूप से माता-पिता, भाई अथवा कुल पुरोहित द्वारा बालिकाओं को शिक्षा प्रदान की जाती थी। कुछ सम्पन्न परिवारों में बालिकाओं की शिक्षा के लिए घर पर ही शिक्षक भी नियुक्त किए जाते थे।

प्रश्न 6
प्राचीनकालीन शिक्षा-व्यवस्था में उपनयन संस्कार का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
या उपनयन संस्कार से आप कुया समझते हैं?
उत्तर
विचारकों का मत है कि ब्राह्मणों को 5वें वर्ष, क्षत्रिय को छठे वर्ष और वैश्य को 8वें वर्ष में विद्याध्ययन प्रारम्भ कर देना चाहिए। शूद्रों को विद्याध्ययन करने का अधिकार नहीं था। शिक्षा प्रारम्भ करने से पूर्व प्रत्येक बालक का उपनयन संस्कार किया जाता था। प्राचीन काल में बिना उपनयन संस्कार के बालक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता थे। इसके द्वारा बालक को गुरु मन्त्र का उपदेश दिया जाता था।

प्रश्न 7
प्राचीन भारतीय शिक्षा की दो असफलताओं पर प्रकाश डालिए।
या वैदिककालीन शिक्षा के दो दोषों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
प्राचीन भारतीय शिक्षा की दो असफलताएँ (दोष) निम्नलिखित हैं|
1. व्यावसायिक शिक्षा का अभाव-उस काल में विद्यार्थियों को अन्य सभी कर्म सिखाये जाते थे, जो उन्हें अनुशासित, धार्मिक, चरित्रवान व अच्छा नागरिक बनाते थे, किन्तु रोजगारोन्मुखी शिक्षा का अभाव ही था। अत: बहुत कम लोग शिक्षा ग्रहण करने में रुचि लेते थे।
2. धार्मिकता व आध्यात्मिकता का अत्यधिक समावेश—उस काल की पूरी शिक्षा गुरु पर आधारित थी और अधिकांशतः गुरु अपने उपदेशों में धार्मिक एवं आध्यात्मिक बातों का ही समावेश रखते थे। भौतिक जीवन में काम आने वाली बातों पर चर्चा करना निकृष्ट माना जाता था।

प्रश्न 8
समावर्तन संस्कार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर
गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में शिष्य की सामान्य शिक्षा पूर्ण होने पर सम्पन्न होने वाले संस्कार को समावर्तन संस्कार कहते हैं। इस संस्कार के अवसर पर गुरु द्वारा शिष्य को मधुपर्क दिया जाता था तथा सार्वजनिक रूप से गुरु द्वारा ‘समावर्तन उपदेश दिया जाता था। सामान्य रूप से शिष्य की 25 वर्ष की आयु पर ही समावर्तन संस्कार का आयोजन होता था।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली किस नाम से विश्वविख्यात है ?
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली ‘गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली’ के नाम से विश्वविख्यात है।

प्रश्न 2
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर
प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को वैदिक शिक्षा-प्रणाली’ के नाम से भी जाना जाता है।

प्रश्न 3
वैदिक काल में शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी ?
उत्तर
वैदिक काल में शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी।

प्रश्न 4
गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध किस प्रकार के थे ?
उत्तर.
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में गुरु-शिष्य के आपसी सम्बन्ध बहुत ही मधुर तथा पिता-पुत्र तुल्य होते थे। ।

प्रश्न 5.
वैदिककालीन अथवा प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत गुरुकुल में बालक के प्रवेश के समय सम्पन्न होने वाले संस्कार को क्या कहा जाता था ?
उत्तर
उपनयन संस्कार।।

प्रश्न 6
गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के अन्तर्गत शिष्य की सामान्य शिक्षा पूर्ण होने पर सम्पन्न होने वाले संस्कार को क्या कहा जाता था ?
उत्तर
समावर्तन संस्कार।

प्रश्न 7
समावर्तन संस्कार के समय होने वाले मुख्य समारोह को क्या कहा जाता था?
उत्तर
समावर्तन संस्कार के समय होने वाले मुख्य समारोह को दीक्षान्त समारोह कहा जाता था।

प्रश्न 8
गुरुकुल के शिक्षा-काल को आश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत कौन-सा आश्रम माना जाता था?
उत्तर
आश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत गुरुकुल के शिक्षा-काल को ब्रह्मचर्य आश्रम माना जाता था।

प्रश्न 9
गुरुकुल की शिक्षा को समाप्त करने के उपरान्त युवक किस आश्रम में प्रवेश करता था?
उत्तर
गुरुकुल की शिक्षा को समाप्त करने के उपरान्त युवक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।

प्रश्न 10
प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत समाज के किस वर्ण के बालकों को उपनयन संस्कार का अधिकार प्राप्त नहीं था ?
उत्तर
प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणालीकै अन्तर्गत शूद्र वर्ण के बालकों को उपनयन संस्कार का अधिकार प्राप्त नहीं था।

प्रश्न 11
वैदिक शिक्षा आधार ग्रन्थों अर्थात् वेदों के नाम लिखिए।
उत्तर
वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद।

प्रश्न 12
प्राचीनकालीन शिक्षण-संस्थाओं का सामान्य उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्राचीन काल में मुख्य शिक्षण संस्थाएँ थीं—गुरुकुल, वैदिक विद्यालय, चारण विद्यालय, परिषदें, टोल, घटिकाएँ, मठ, विद्यापीठ, वन विद्यालय, मन्दिर विद्यालय, विश्वविद्यालय।

प्रश्न 13
प्राचीन काल में गुरुकुलों में किस पद्धति से शिक्षा दी जाती थी ?
उत्तर
प्राचीन काल में गुरुकुलों में वैयक्तिक शिक्षण-पद्धति को अपनाया जाता था। गुरुजन मुख्य रूप से प्रवचन तथा व्याख्यान के माध्यम से विषयों के समुचित विकास के लिए प्रयास करते थे।

प्रश्न 14
उपनयन संस्कार का सम्बन्ध है—
(i) बौद्धकाल से,
(ii) वैदिक काल से।
उत्तर
उपनयन संस्कार का सम्बन्ध है
(ii) वैदिक काल से।

प्रश्न 15
प्राचीनकाल में उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों को क्या कहते थे?
उत्तर
प्राचीन काल में उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों को विदुषी कहते थे।

प्रश्न 16
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को ‘वैदिक शिक्षा-प्रणाली तथा ‘गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली’ भी कहा जाता है।
  2. प्राचीन काल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा पर कठोर प्रतिबन्ध था।
  3. वैदिक काल में गुरुकुलों में कठोर दण्ड-व्यवस्था का प्रावधान था।
  4. वैदिक शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य छात्रों का चरित्र-निर्माण करना था।
  5. वैदिक शिक्षा का आरम्भ नामकरण संस्कार के साथ ही हो जाता था।
  6. वैदिक काल में गुरुकुल शिक्षा नि:शुल्क थी। न्ट

उत्तर

  1. सत्य,
  2. असत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. असत्य,
  6. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में सेसही विकल्पका चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
वैदिककालीन शिक्षा का स्वरूप था
(क) व्यावसायिक
(ख) आध्यात्मिक
(ग) नैतिक
(घ) धार्मिक
उत्तर
(ख) आध्यात्मिक

प्रश्न 2
वैदिक काल में शिक्षा का आरम्भ किस संस्कार से होता था ?.
(क) उपनयन
ख) प्रवज्जा ।
(ग) बिसमिल्लाह
(घ) यज्ञोपवीत
उत्तर
(क) उपनयन

प्रश्न 3
‘उपनयन शिक्षा संस्कार किस काल में होता था ?
(क) वैदिक काल
(ख) बौद्ध काल ।
(ग) मुस्लिम काल
उत्तर
(क) वैदिक काल

प्रश्न 4
वैदिककालीन शिक्षा कॉमुख्य उद्देश्य था
(क) जीविकोपार्जन
(ख) ज्ञानार्जन
(ग) शारीरिक विकास।
(घ) नैतिकता एवं चरित्र का विकास
उत्तर
(ख) ज्ञानार्जन

प्रश्न 5
प्राचीन काल में शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी ?
(क) पालि
(ख) मागधी
(ग) प्राकृत
(घ) संस्कृत
उत्तर
(घ) संस्कृत

प्रश्न 6
प्राचीनकाल में गुरुकुल होते थे
(क) गाँवों से दूर
(ख) ग्रामों में
(ग) राजधानी में
(घ) नगरों में
उत्तर
(क) गाँवों से दूर

प्रश्न 7
वैदिक काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध धे-
(क) स्वामी और सेवक के समान
(ख) पिता और पुत्र के समान ।
(ग) अधिकारी और लिपिक के समान
(घ) नेता और अनुयायी के समान
उत्तर
(ख) पिता और पुत्र के समान

प्रश्न 8
वैदिक शिक्षा के प्रमुख आधार थे
(क) वैदे
(ख) उपनिषद्
(ग) पुराण
(घ) स्मृतियाँ
उत्तर
(क) वेद

प्रश्न 9
वैदिक काल में शिक्षालयों को कहा जाता था
(क) विद्यापीठ
(ख) गुरुकुल।
(ग) विद्या मन्दिर
(घ) शिशु मन्दिर
उत्तर
(ख) गुरुकुल

प्रश्न 10
वैदिक काल में शिक्षा का स्वरूप था
(क) लिखित ।
(ख) मौखिक
(ग) क्रियात्मक
(घ) अस्त-व्यस्त
उत्तर
(ख) मौखिक

प्रश्न 11
वैदिक काल में शिक्षा का प्रमुख केन्द्र कौन-सा था?
(क) तक्षशिला
(ख) प्रयाग
(ग) मिथिला
(घ) काशी।
उत्तर
(घ) काशी

प्रश्न 12
वैदिक काल में ‘उपनयन संस्कार कब होता था?
(क) शिक्षा प्रारम्भ के समय
(ख) उच्च शिक्षा में प्रवेश लेते समय
(ग) शिक्षा समाप्त पर।
(घ) कभी नहीं|
उत्तर
(क) शिक्षा प्रारम्भ के समय

प्रश्न 13
वैदिक काल में गुरुकुल में पढ़ने वाले को क्या कहा जाता था?
(क) छात्र
(ख) अन्तेवासी
(ग) भिक्षु
(घ) श्रमण
उत्तर
(ख) अन्तेवासी

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 22 Poverty: Causes and Remedies

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 22
Chapter Name Poverty: Causes and Remedies (निर्धनता : कारण तथा उपचार)
Number of Questions Solved 30
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 22 Poverty: Causes and Remedies (निर्धनता : कारण तथा उपचार)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
निर्धनता की परिभाषा दीजिए। भारत में निर्धनता के कारणों का वर्णन कीजिए। [2008, 09, 11]
या
ग्रामीण गरीबी से क्या आशय है? भारतीय संदर्भ में गरीबी के परिणामों की व्याख्या कीजिए। [2010]
या
निर्धनता की परिभाषा दीजिए। भारत में निर्धनता के दुष्परिणामों का वर्णन कीजिए। या निर्धनता क्या है ? भारत में इसकी वृद्धि के कारणों पर प्रकाश डालिए। [2012, 13, 15]
या
निर्धनता के दो सामाजिक कारण बताइए। [2007, 08]
या
भारत में निर्धनता के कारणों का वर्णन कीजिए। [2014]
या
बेरोजगारी निर्धनता का आधारभूत कारण है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2007, 11]
उत्तर:
निर्धनता अथवा गरीबी एक सामाजिक समस्या है, जो आज भारत तथा अन्य विकासशील देशों में ही चिन्ता का विषय नहीं है, अपितु विकसित देशों में भी यह एक समस्या के रूप में विद्यमाने है। निर्धनता का सम्बन्ध निम्न जीवन-स्तर से है तथा जिसके पास अपनी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी धन नहीं है, उसे निर्धन कहा जा सकता है।

निर्धनता का अर्थ एवं परिभाषाएँ
निर्धनता वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति अपनी तथा अपने पर आश्रित सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति धनाभाव के कारण नहीं कर पाता है। इसके कारण व्यक्तियों के जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ भी उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। इसे प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है
गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “निर्धनता वह दशा है जिसमें एक व्यक्ति अपर्याप्त आय या विचारहीन व्यय के कारण अपने जीवन-स्तर को इतना ऊँचा नहीं रख पाता, जिससे उसकी शारीरिक व मानसिक कुशलता बनी रहे और वह तथा उसके आश्रित समाज के स्तर के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकें। | गोडार्ड के अनुसार, “निर्धनता उन वस्तुओं का अभाव या अपर्याप्त पूर्ति है जो एक व्यक्ति तथा उसके आश्रितों के स्वास्थ्य और कुशलता को बनाये रखने के लिए आवश्यक है।”

अतः निर्धनता वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी तथा अपने आश्रितों की आवश्यकताओं की पूर्ति, स्वास्थ्य तथा शारीरिक व मानसिक क्षमता को बनाये रखने में धनाभाव के कारण असमर्थ है। निर्धनता के दो प्रकार हैं – प्राथमिक निर्धनता तथा द्वितीयक निर्धनता। प्राथमिक निर्धनता में धनाभाव के कारण व्यक्ति अपना तथा अपने आश्रितों का जीवन-स्तर बनाये नहीं रख पाता, जब कि द्वितीयक निर्धनता में व्यक्ति अपव्यय के कारण अपना जीवन-स्तर बनाये नहीं रख पाता है।

भारत में निर्धनता की वृद्धि के कारण

भारत में निर्धनता के अनेक कारण हैं। इन कारणों की विवेचना अग्रलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है

(अ) सामाजिक कारण (वैयक्तिक कारण)
ऐसा कहा जाता है कि निर्धनता का कारण स्वयं भारतीय समाज में विद्यमान है। निर्धनता को निम्नलिखित सामाजिक कारण प्रोत्साहन देते हैं

  1. जाति-प्रथा – जाति – प्रथा भारतीय समाज में निर्धनता का प्रमुख कारण रही है। निम्न जातियों में व्यक्तियों को योग्यतानुसार अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार नहीं था। उच्च जाति वाले उनका सामाजिक व आर्थिक रूप से शोषण भी करते थे। अत: जाति-प्रथा प्रगति में सदैव एक बाधा रही है।
  2.  संयुक्त परिवार प्रणाली – संयुक्त परिवार प्रणाली के दोष भी पर्याप्त सीमा तक निर्धनता के लिए उत्तरदायी रहे हैं। बाल-विवाह, बच्चे पैदा करने की होड़, व्यावसायिक गतिशीलता का अभाव तथा आलसी सदस्यों की संख्या में वृद्धि जैसे दोष निर्धनता के कारण माने जा सकते हैं।
  3.  दोषपूर्ण शिक्षा – पहले तो अशिक्षा और अज्ञानता ही निर्धनता का कारण है। दूसरे, जो शिक्षा-पद्धति हमारे देश में प्रचलित है वह दोषपूर्ण है तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण व स्व रोजगार हेतु सहायक नहीं है।
  4. सामाजिक बुराइयाँ – सामाजिक बुराइयाँ भी निर्धनता की जड़ हैं। दहेज-प्रथा, जाति-प्रथा, बाल-विवाह, महिलाओं का अशिक्षित होना तथा घर से बाहर नौकरी न करना आदि निर्धनता को बनाये रखने वाली बुराइयाँ हैं।
  5. अज्ञानता व अन्धविश्वास – निर्धनता का एक अन्य कारण अज्ञानता वे अन्धविश्वास है। व्यक्ति गरीबी को भगवान का दिया हुआ अभिशाप समझ लेता है और इसे दूर करने का प्रयास ही नहीं करता। धार्मिक कर्मकाण्डों में होने वाला अपव्यय भी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को निम्न बनाये रखता है।
  6. अत्यधिक जनसंख्या – भारत में निर्धनता का एक अन्य कारण जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होना है। उत्पादन के अनुपात में जनसंख्या की वृद्धिदर कहीं अधिक है, जब कि रोजगार
    के उतने अधिक अवसर नहीं बढ़ पा रहे हैं, जिससे निर्धनता बनी हुई है।

(ब) आर्थिक कारण

निर्धनता के अनेक आर्थिक कारण भी हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

1. कृषि पर अत्यधिक निर्भरता – भारतीय समाज कृषि-प्रधान समाज है। ग्रामीण जनता कृषि तथा इससे सम्बन्धित व्यवसायों पर ही आश्रित रही है। कृषि प्राकृतिक साधनों पर आधारित है। संयुक्त परिवार प्रणाली के कारण सभी सदस्य कृषि पर निर्भर रहते हैं तथा यदि सूखा पड़ जाता है, बाढ़ आ जाती है या कोई प्राकृतिक प्रकोप हो जाता है तो उत्पादन वैसे भी कम होता है। ऊपर से देखने पर तो वे कृषक हैं, परन्तु उत्पादन उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

2. अपर्याप्त उत्पादन –
कृषि के पिछड़ेपन के कारण तथा प्रकृति पर निर्भरता के कारण उत्पादन कम होता है। भारत में दो-तिहाई जनसंख्या कृषि करती है, फिर भी अनाज की कमी
रहती है। इससे निर्धनता बनी रहती है।

3. उद्योगों को असन्तुलित विकास –
निर्धनता का एक अन्य कारण उद्योगों का असन्तुलित विकास है। एक तो उद्योगों पर केवल 10-15 प्रतिशत जनसंख्या ही निर्भर है और दूसरे उद्योगों का संकेन्द्रण कुछ बड़े-बड़े नगरों में ही होता जा रहा है। यह असन्तुलित विकास ग्रामीणों को रोजगार देने में सहायक नहीं है।

4. धन का कुछ ही हाथों में संचय – 
निर्धनता का एक कारण धन का दोषपूर्ण संचय भी है। भारत में अमीर तो और अमीर होते जा रहे हैं, जब कि गरीब और अधिक गरीब। पिछले कुछ वर्षों में औद्योगिक घरानों की पूंजी में अत्यधिक वृद्धि हुई है। कुछ लोग धन होते हुए भी जेवरों इत्यादि की खरीद में इसे व्यय कर देते हैं, जिससे व्यापार या उद्योग में उस पैसे का उपयोग नहीं हो पाता।

5. प्राकृतिक प्रकोप –
भारत में प्राकृतिक प्रकोप भी निर्धनता का कारण है। एक वर्ष सूखा पड़ता है तो दूसरे वर्ष बाढ़ जा जाती है। इससे निर्धनों का संचित धन इन प्रकोपों का सामना करने में ही व्यय हो जाता है।

6. प्राकृतिक साधनों का अपूर्ण दोहन –
भारत में विशाल प्राकृतिक सम्पदा है, परन्तु उसका पूरी तरह से दोहन न हो पाने के कारण लाखों-करोड़ों लोग रोजगार से वंचित रह जाते हैं। इससे भी निर्धनता बढ़ती है।

7. कालाबाजारी –
भारत में निर्धनता का कारण कालाबाजारी भी है। इस कालाबाजारी के कारण निर्धनता को दूर करने के सरकारी उपाय सफल नहीं हो पाते हैं। निम्न वर्ग के लोगों पर
कालाबाजारी का असर अधिक पड़ता है।

(स) व्यक्तिगत कारण

निर्धनता के कुछ व्यक्तिगत कारण भी हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

  1. आलस्य – जो व्यक्ति आलसी होते हैं तथा आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के आदी हैं, वे प्रायः निर्धन ही होते हैं; क्योंकि ऐसे व्यक्ति कार्य करना ही नहीं चाहते।
  2. मद्यपान  – कुछ लोग मद्यपान में अपनी सारी आय खर्च कर देते हैं। उनकी तथा उनके आश्रितों की कोई मूल आवश्यकता पूरी हो या न हो, वे मद्यपान पर पैसा जरूर खर्च करते हैं। इससे व्यक्तिगत और पारिवारिक विघटन होने लगता है। अन्ततः मद्यपान भी निर्धनता का कारण बन जाता है।
  3. बेरोजगारी – बेरोजगारी भी निर्धनती का व्यक्तिगत कारण है। व्यक्ति किसी काम को करने । के योग्य है, परन्तु उसे काम मिल ही नहीं पाता, जिससे वह निर्धन ही रहता है।
  4. शारीरिक दोष व बीमारियाँ – शारीरिक व मानसिक दोष तथा बीमारी भी निर्धनता का कारण है। इन दोषों के कारण जीविकोपार्जन में बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है। अगर एक व्यक्ति परिवार में कमाने वाला हो और वह लम्बी अवधि के लिए बीमार हो जाता है तो भी निर्धनता का सामना करना पड़ता है।

(द) प्राकृतिक व भौगोलिक कारण

निर्धनता के लिए कुछ प्राकृतिक व भौगोलिक कारण भी उत्तरदायी हैं। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

  1.  प्रतिकूल जलवायु – प्रतिकूल जलवायु भी निर्धनता का एक कारण है। जिन प्रदेशों में सदैव बर्फ पड़ी रहती है तथा रेगिस्तान या पहाड़ होते हैं, वहाँ पर निर्धनता अधिक पायी जाती है, क्योंकि वहाँ उत्पादन और रोजगार के अवसर कम होते हैं।
  2.  प्राकृतिक विपत्तियाँ – प्राकृतिक विपत्तियाँ; जैसे – भूकम्प, तूफान, बाढ़, सूखा, विस्फोट या महामारी इत्यादि; भी निर्धनता के कारण हो सकती हैं, क्योंकि ऐसे समय में बचाया हुआ पैसा तो खर्च हो जाता है और आगे कुछ धन इत्यादि मिलता ही नहीं है।
  3. प्राकृतिक साधनों की कमी – प्रतिकूल जलवायु की तरह प्राकृतिक साधनों की कमी निर्धनता का एक कारण हो सकती है। जिन स्थानों पर प्राकृतिक साधनों की कमी होती है, वहाँ निर्धनता बहुत अधिक होती है, क्योंकि उत्पादन कम होता है।
    निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि निर्धनता किसी एक कारण का परिणाम नहीं है, अपितु इसे लाने तथा इसे बनाये रखने में अनेक कारक सहायता प्रदान करते हैं।

निर्धनता के दुष्परिणाम

  1. निर्धनता अपराध को प्रोत्साहन देती है। निर्धन व्यक्ति अपनी तथा अपने आश्रितों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गैर-कानूनी काम करने लगता है और इस प्रकार वह अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाता है।
  2.  निर्धनता बाल-अपराध का भी कारण है। जिन परिवारों के बालक निर्धनता के कारण अपनी आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर पाते, वह बाल-अपराध की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं और बाल अपराधी बन जाते हैं। बचपन से अवैध ढंग से धन कमाने में लग जाने के कारण बाल अपराधों को बढ़ावा मिलता है।
  3. निर्धनता अनेक दुर्व्यसनों की जननी है। मद्यपान, जुआ, सट्टा, वेश्यावृत्ति जैसे दुर्व्यसन भी निर्धनता के परिणाम हैं।
  4. निर्धनता व्यक्ति को अथवा उसके आश्रितों को अनैतिक कार्य करने पर विवश कर देती है, जिससे व्यक्ति के चरित्र का पतन होता है।
  5. निर्धनता भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन देती है, क्योंकि जब व्यक्ति अत्यन्त मजबूर हो जाता है तो वह भिक्षावृत्ति द्वारा अपना तथा अपने आश्रितों का पेट पालने लगता है।
  6. निर्धनता से वैयक्तिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है तथा निराशा के कारण व्यक्ति मानसिक रोगी हो जाता है अथवा कई बार आत्महत्या तक कर लेता है।
  7. निर्धनता के कारण पारिवारिक विघटन होते हैं, क्योंकि सदस्यों में अनैतिकता तथा अविश्वास की वृद्धि होती है तथा वातावरण कलहपूर्ण एवं दूषित बन जाता है।
  8. वैयक्तिक तथा पारिवारिक विघटन का प्रभाव पूरे समुदाय पर पड़ता है और निर्धनता अन्ततः सामुदायिक विघटन को प्रोत्साहन देती है। समुदाय को बनाये रखने वाले आदर्श प्रभावहीन हो जाते हैं।
  9. निर्धनता के कारण व्यक्ति में ग्लानि का बोध होता है। वह स्वयं को समाज पर भार मानकर आत्महत्या तक कर डालता है।
  10.  निर्धनता बेरोजगारी को जन्म देती है। साधनविहीन व्यक्ति आजीविका कमाने में असमर्थ रहकर बेरोजगार बना रहता है।
  11. निर्धनता के कारण समाज में अनैतिकता और व्यभिचार का बोलबाला हो जाता है। अनेक महिलाएँ निर्धनता से तंग आकर अपने भरण-पोषण के लिए वेश्यावृत्ति तक करने पर विवश हो जाती हैं।
  12.  निर्धनता के कारण व्यक्ति को भरपेट भोजन ही नहीं मिल पाता। सन्तुलित भोजन के अभाव में उसे कुपोषण का शिकार होना पड़ता है तथा उसका शरीर अनेक रोगों का शिकार बन जाता है।

प्रश्न 2
“निर्धनता सभी बुराइयों की जड़ है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए। [2007, 08, 09, 11, 15]
या
निर्धनता के सामाजिक दुष्परिणामों की विवेचना कीजिए। [2011, 13, 16]
उत्तर:
निर्धनता एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है और निर्धनता के दुष्परिणामों के फलस्वरूप समाज में विभिन्न बुराइयाँ जन्म लेती हैं। इन बुराइयों का विवरण निम्नवत् है

1. अपराधों में वृद्धि – निर्धनता से समाज में तरह-तरह के अपराधों में वृद्धि हुई है। साधारणतया कोई व्यक्ति जब ईमानदारी से पर्याप्त साधन प्राप्त नहीं कर पाता तो वह चोरी, डकैती तथा हत्या आदि के द्वारा अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयत्न करता है। अपने बच्चों व आश्रितों को भूखे देखकर अच्छे-से-अच्छा व्यक्ति इन समाज-विरोधी कार्यों की ओर प्रवृत्त हो सकता है। निर्धनता मानसिक तनावों को बढ़ाकर भी व्यक्ति में अपराध की भावना पैदा करती है।

2. बाल-अपराधों में वृद्धि – निर्धन परिवारों में माता-पिता अपने बच्चों की प्रमुख आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते। साधारणतया ऐसे बच्चे शिक्षा और स्वस्थ मनोरंजन से वंचित रह जाते हैं। अक्सर निर्धन परिवारों में बच्चों से कम आयु में ही नौकरी करवायी जाने लगती हैं। इसके फलस्वरूप बच्चे आरम्भ से ही अनुशासनहीन हो जाते हैं, उनकी संगति बिगड़ जाती है और इस प्रकार उन्हें अपराधी कार्य करने का प्रोत्साहन मिलता है। एक बार अपराधियों के गिरोह में फँस जाने के बाद ऐसे बच्चे कठिनता से उस वातावरण से बाहर निकल पाते हैं।

3. दुर्व्यसनों में वृद्धि निर्धनता की समस्या ने व्यक्ति में अनेक प्रकार के दुर्व्यसन उत्पन्न किये हैं। निर्धनता के कारण व्यक्ति जब अनेक प्रकार के तनावों और चिन्ताओं में फंस जाता है तो वह अक्सर मद्यपान करने लगता है। बहुत-से व्यक्ति जुआ खेलना प्रारम्भ कर देते हैं अथवा सट्टा लगाने लगते हैं, जिससे वे जल्दी ही अधिक धन प्राप्त कर सकें, यद्यपि ऐसे लोभ से उनकी स्थिति पहले से भी अधिक दयनीय हो जाती है। निर्धनता से उत्पन्न तनाव वेश्यावृत्ति को भी प्रोत्साहन देते हैं, क्योंकि इन तनावों के कारण व्यक्ति उचित और अनुचित को ध्यान ही नहीं रख पाता।।

4. परिवार का विघटन – निर्धनता का एक बड़ा दुष्परिणाम परिवारों का विघटन होना है। निर्धनता की स्थिति में परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे पर अविश्वास करने लगते हैं। घर में कलह का वातावरण बना रहता है और कभी-कभी परिवार अनैतिकता का भी केन्द्र बन जाता है। ऐसी स्थिति में सदस्यों में पारस्परिक प्रेम समाप्त हो जाता है और सभी लोग अपने-अपने स्वार्थों को पूरा करने में लग जाते हैं। परिवार में निर्धनता के कारण पति-पत्नी के बीच विवाह-विच्छेद हो जाने की सम्भावना भी बढ़ जाती है।

5. चरित्र का पतन – निर्धनता चरित्र को गिराने वाला सबसे प्रमुख कारण है। निर्धनता के कारण जब परिवार की आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पातीं, तो साधारणतया स्त्रियों को भी जीविका की खोज में घर से बाहर निकलना पड़ता है। बहुत-से व्यक्ति उनकी असमर्थता का लाभ उठाकर अथवा उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देकर अनैतिक कार्यों में लगा देते हैं। इस प्रकार समाज में अप्रत्यक्ष रूप से वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। वेश्यावृत्ति में लगी अधिकांश स्त्रियाँ भी आर्थिक कठिनाइयों के कारण ही यह व्यवसाय आरम्भ करती हैं।

6. भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन – भिक्षावृत्ति निर्धनता का एक गम्भीर दुष्परिणाम है। कोई व्यक्ति जब किसी भी साधन से जीविका उपार्जित करने में असफल हो जाता है तो उसके सामने भीख माँगने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं रह जाता। अक्सर ऐसे परिवारों में बच्चों को भीख माँगने के लिए बाध्य किया जाता है। एक बार जो व्यक्ति भीख माँगने लगता है, वह भविष्य में भी कोई दूसरा कार्य करने योग्य नहीं रह जाता। इस प्रकार उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही विघटित हो जाता है।

7. निर्धनता की संस्कृति का विकास – आधुनिक समाजशास्त्रियों का मानना है कि निर्धनता का सबसे बड़ा दुष्परिणाम समाज में निर्धनता की संस्कृति (Culture of poverty) का विकसित हो जाना है। यह एक विशेष संस्कृति है, जिसमें व्यक्ति अपने आपको अभाव की दशा में रहने के अनुकूल बना लेता है। ऑस्कर लेविस (Oscar Lewis) ने मैक्सिको के अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष दिया कि निर्धनता की संस्कृति में व्यक्ति केवल वर्तमान के बारे में ही सोचने लगता है, वह भाग्यवादी हो जाता है, उसमें हीनता की भावना प्रबल बन जाती है तथा बच्चों को भी इन दशाओं में रहने का प्रशिक्षण दिया जाने लगता है। सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में इस संस्कृति के लोगों का कोई सहभाग नहीं होता। फलस्वरूप निर्धनता की समस्या एक स्थायी रूप ले लेती है।

8. आन्दोलन और वर्ग-संघर्ष – निर्धनता का एक बड़ा दुष्परिणाम समाज में बढ़ते हुए आन्दोलन और वर्ग-संघर्ष हैं। निर्धनता के कारण अधिकांश आन्दोलन किसानों, मजदूरों और जनजातियों द्वारा ही चलाये जाते हैं। भारत में नक्सलवादी आन्दोलन वर्ग-संघर्ष का परिणाम है, जिसने आज हिंसक रूप ले लिया है।

प्रश्न 3:
भारत में निर्धनता उन्मूलन के उपाय सुझाइए। [2007, 11]
या
भारत में निर्धनता उन्मूलन के लिए किये गये उपायों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। [2012, 13]
उत्तर:
निर्धनता एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है। यह व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के लिए घातक है। अतः इस समस्या का निश्चित समाधान खोजना आवश्यक है। निर्धनता के उन्मूलन के लिए अग्रलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं

  1.  निर्धनता का मूल कारण बेरोजगारी है; अतः सरकार को बेरोजगारी दूर करने के लिए प्रयास करना चाहिए तथा बेरोजगारी भत्ता दिया जाना चाहिए जिससे ऐसे संकट के दिनों में भी व्यक्तियों की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी हो सकें।
  2.  जनसंख्या पर नियन्त्रण के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रमों को और अधिक प्रभावशाली बनाना होगा। बिना जनसंख्या पर नियन्त्रण के निर्धनता दूर नहीं हो सकती। गाँवों में इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। जनसंख्या निर्धनता का प्रमुख कारण है।
  3. भारत गाँवों को देश है तथा निर्धनता अधिकतर गाँवों में ही पायी जाती है। ग्रामीणों का मुख्य पेशा कृषि है। अत: कृषि में सुधार किया जाना चाहिए। उच्च उत्पादन वाले बीज, खाद, उपकरण तथा अन्य साधन इस प्रकार से उपलब्ध कराये जाने चाहिए कि छोटे कृषकों को भी इसका लाभ मिले। हरित क्रान्ति कार्यक्रम को सफल बनाकर यह लक्ष्य सरलता से प्राप्त किया जा सकता है।
  4. रोजगार के अवसरों में वृद्धि करने के लिए प्राकृतिक साधनों का पूर्ण दोहन अनिवार्य है। इससे अनेक स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा और उनकी आय में वृद्धि होगी। आय में वृद्धि होने
    से निर्धनता स्वत: समाप्त हो जाएगी।
  5. सरकार को उद्योगों के विकास की व्यावहारिक व सन्तुलित नीति बनानी होगी। इनका केन्द्रीकरण रोकना होगी और गाँवों में उद्योगों की स्थापना के लिए विशेष प्रोत्साहन देना होगा, जिससे स्थानीय जनता को निकट ही रोजगार मिल जाएँ और वे नगरों की ओर जाने तथा समस्याओं का सामना करने से बच जाएँ।
  6. निर्धनता के व्यक्तिगत कारणों को सामाजिक दुर्व्यसनों पर नियन्त्रण द्वारा दूर किया जा सकता है। वेश्यावृत्ति, जुआखोरी के मद्यपान पर नियन्त्रण किये जाने की आवश्यकता है।
  7. निर्धनता को दूर करने के लिए इसमें बाधक सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन करना होगा। आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में अनेक उच्च जातियों के लोग कृषि करना अपमान समझते हैं। ऐसी मान्यताएँ बदलनी होंगी। दहेज-प्रथा, पर्दा-प्रथा तथा बाल-विवाह जैसी कुरीतियों को सदैव के लिए दूर करना होगा।
  8.  निर्धनता निवारण के लिए भ्रष्टाचार तथा चोरबाजारी बन्द करनी होगी जिससे धन कुछ लोगों के हाथों में ही केन्द्रित न हो जाए। इस दिशा में प्रभावकारी कदम उठाये जाने चाहिए। समाज में धन का समान वितरण होने से निर्धनता स्वतः समाप्त हो जाएगी।
  9.  गन्दी बस्तियों के विकास पर रोक लगानी चाहिए जिससे अनैतिकता के वातावरण पर नियन्त्रण लगाया जा सके तथा अपराध व बाल-अपराध पर नियन्त्रण रखा जा सके।
  10. ग्रामीण विकास से सम्बन्धित सभी कार्यक्रमों को अधिक प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाए। वास्तव में, सरकारी नीतियों में कोई दोष नहीं है, इन्हें लागू करने की प्रणाली दोषपूर्ण है, जिससे उसका लाभ निर्धन व्यक्तियों को नहीं मिल पाता। अत: इन कार्यक्रमों को और अधिक व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है।
  11.  निर्धनता दूर करने का एक प्रभावी उपाय है-बचत को बढ़ावा देना। लोगों के पास जैसे-जैसे बचत बढ़ेगी वे निर्धनता की रेखा से ऊपर उठ जाएँगे। बचत का परिणाम होता है निवेश और निवेश से पूँजी का निर्माण होता है।
  12. कुटीर उद्योग-धन्धों का समुचित विकास करके भी निर्धनता का उन्मूलन किया जा सकता है।
  13. शिक्षा का प्रसार, रोजगारपरक शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा भी निर्धनता उन्मूलन में प्रमुख भूमिका निभा सकती है।
  14. तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या निर्धनता का मुख्य कारण है। देश में तेजी से बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ पाते; इससे बेरोजगारी बढ़ती है। बेरोजगारी निर्धनता की जननी है। अतः तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या पर नियन्त्रण आवश्यक है।
  15.  देश में साख-सुविधाओं में वृद्धि करके भी निर्धनता का उन्मूलन किया जा सकता है। बैंक तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा लोगों को कम ब्याज पर ऋण बँटवाकर देश में उद्योग-धन्धों का विकास किया जा सकता है। उद्योग-धन्धे के विकसित होते ही निर्धनता स्वत: दुम दबाकर भाग जाएगी।
    भारत में निर्धनता की समस्या विकट है। राष्ट्र के आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण के लिए इस समस्या का निश्चित समाधान खोजा जाना आवश्यक है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत में निर्धनता के चार कारण बताइए।
उत्तर:
भारत में निर्धनता के चार कारण निम्नलिखित हैं

1. कृषि पर अत्यधिक निर्भरता – भारतीय समाज कृषि-प्रधान समाज है। ग्रामीण जनता कृषि तथा इससे सम्बन्धित व्यवसायों पर ही आश्रित रही है। कृषि प्राकृतिक साधनों पर आधारित है। संयुक्त परिवार प्रणाली के कारण सभी सदस्य कृषि पर निर्भर रहते हैं तथा यदि सूखा पड़ जाता है, बाढ़ आ जाती है या कोई प्राकृतिक प्रकोप हो जाता है तो उत्पादन वैसे भी कम होता है ऊपर से देखने पर वे कृषक हैं, परन्तु उत्पादन उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

2. संयुक्त परिवार प्रणाली – संयुक्त परिवार प्रणाली के दोष भी पर्याप्त सीमा तक निर्धनता के लिए उत्तरदायी रहे हैं। बाल-विवाह, बच्चे पैदा करने की होड़, व्यावसायिक गतिशीलता का अभाव तथा आलसी सदस्यों की संख्या में वृद्धि जैसे दोष निर्धनता के कारण माने जा सकते हैं।

3. उद्योगों का असन्तुलित विकास – निर्धनता का एक अन्य कारण उद्योगों का असन्तुलित विकास है। एक तो उद्योगों पर केवल 10-15 प्रतिशत जनसंख्या ही निर्भर है और दूसरे उद्योगों का संकेन्द्रण कुछ बड़े-बड़े नगरों में ही होता जा रहा है। यह असन्तुलित विकास ग्रामीणों को रोजगार देने में सहायक नहीं है।

4. प्राकृतिक साधनों की कमी – भारत में प्राकृतिक साधनों की कमी निर्धनता का एक बड़ा कारण है। जिन स्थानों पर प्राकृतिक साधनों की कमी होती है, वहाँ उत्पादन कम होने के कारण निर्धनता अधिक होती है।

प्रश्न 2
सरकार द्वारा निर्धनता को कम करने के लिए किये गये दो प्रयत्नों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत सरकार ने निर्धनता को समाप्त करने के लिए विशेष प्रयत्न किये हैं, जिनमें से दो प्रमुख निम्नलिखित हैं

  1.  पंचवर्षीय योजना – देश में अब तक दस पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। इन योजनाओं में मुद्रास्फीति को रोकने, खाद्य-सामग्री के अभाव को दूर करने, जीवन-स्तर को उन्नत करने, कृषि में सुधार करने, औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने, कुटीर एवं लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देने एवं रोजगार के अवसर बढ़ाने से सम्बन्धित अनेक प्रयास किये गये हैं।
  2. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम – गरीबी समाप्त करने के लिए सरकार ने काम के बदले अनाजे योजना हाथ में ली, लेकिन अक्टूबर, 1980 ई० से काम के बदले अनाज योजना का स्थान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम ने ले लिया है। बाद में इस योजना को जवाहर रोजगार योजना में सम्मिलित कर दिया गया। अब जवाहर रोजगार योजना के स्थान पर 1 अप्रैल, 1999 से ‘जवाहर ग्राम समृद्धि योजना चल रही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
भारत में निर्धनता के जनसंख्यात्मक कारण के विषय में बताइए।
उत्तर:
भारत में बढ़ती जनसंख्या ने गरीबी को जन्म दिया। सन् 1901 में देश की जनसंख्या 23.83 करोड़ थी, जो 2011 ई० में बढ़कर 1 अरब 21 करोड़ 2 लाख हो गयी है। तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या ने भी निर्धनता को बढ़ाने में योगदान दिया है। इसका कारण यह है कि देश में प्राप्त आय का पर्याप्त भाग उत्पादन कार्यों में लगने के स्थान पर लोगों के भरण-पोषण पर खर्च करना पड़ता है। जनसंख्या बढ़ने से प्रति वर्ष 20 लाख श्रमिकों की संख्या बढ़ जाती है, प्रति व्यक्ति आय घट जाती है, भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ जाता है और देश की आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। वास्तव में, अति जनसंख्या ही भारत में निर्धनता का प्रमुख कारण है।

प्रश्न 2
निर्धनता के शारीरिक एवं मानसिक प्रभावों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
गरीबी में जी रहे लोगों को सन्तुलित आहार तो दूर रहा पेट भर भोजन भी नहीं मिल पाता है। विटामिनयुक्त भोजन के अभाव में अनेक बीमारियाँ आ घेरती हैं, शरीर कमजोर हो जाता है और व्यक्ति की कार्यक्षमता घट जाती है। क्षयरोग (टीबी) को गरीबों की बीमारी माना गया है। धन के अभाव में व्यक्ति पूरा इलाज भी नहीं करा पाता। इससे मृत्यु-दर में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार गरीबी कुपोषण के लिए भी उत्तरदायी है। गरीबी के कारण उचित शिक्षा–दीक्षा न होने पर बौद्धिक विकास भी प्रभावित होता है, जिससे हीनता की भावना पैदा होती है।

प्रश्न 3
निर्धनता के प्रभाव के रूप में अपराध की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
गरीबी के कारण लोग अपराध भी करते हैं। अपराध और बाल-अपराध के अनेक अध्ययनों ने उक्त तथ्य को स्पष्ट किया है। जब लोगों के पास खाने को भोजन, पहनने को वस्त्र, रहने को मकान और चिकित्सा के लिए पैसा नहीं होता है तो वे चोरी, डकैती, सेंधमारी, रिश्वत, गबन, मिलावट, वेश्यावृत्ति, आत्महत्या आदि अपराध करते हैं।

प्रश्न 4
निर्धनता किस प्रकार पारिवारिक विघटन की समस्या उत्पन्न करती है ?
उत्तर:
गरीबी की अवस्था में परिवार के सभी लोगों को काम करना पड़ता है। माता-पिता एवं बच्चे पृथक्-पृथक् काम पर जाते हैं। ऐसे में बच्चों पर परिवार का नियन्त्रण शिथिल हो जाता है। गरीबी से मुक्ति पाने के लिए कभी-कभी स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति भी अपना लेती हैं। गरीब परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा भी गिर जाती है, बच्चे आवारा एवं भगोड़े हो जाते हैं। गरीबी के कारण हीनता एवं निराशा पैदा होती है, जिससे कई परिवार टूट जाते हैं।

प्रश्न 5
निर्धनता दूर करने के उपाय के रूप में कुटीर उद्योगों के विकास की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
निर्धनता को समाप्त करने के लिए जहाँ सरकार ने एक और बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना की है, वहीं दूसरी ओर कुटीर एवं ग्राम उद्योगों को भी प्रोत्साहन दिया है। इन उद्योगों से लाखों लोगों को रोजगार प्राप्त होता है।

प्रश्न 6
साधनों का उचित वितरण निर्धनता को कैसे समाप्त कर सकता है ? बताइए।
उत्तर:
केवल उत्पादन बढ़ाने से ही निर्धनता की समस्या का समाधान नहीं होगा, जब तक कि उत्पादन के साधनों और लाभों का समाज के सभी लोगों में उचित वितरण न किया जाए। वर्तमान व्यवस्था में मुनाफा और उत्पादन के साधन कुछ ही लोगों के हाथ में केन्द्रित हैं। ऐसी व्यवस्था उत्पन्न की जाए जिससे पूँजी एवं सम्पत्ति का समान रूप से वितरण हो तथा किसानों को सस्ते दामों पर वस्तुएँ उपलब्ध करायी जाएँ। सरकार व्यक्ति की कम-से-कम आय निर्धारित करे और जिनकी आय इस स्तर से कम हो, उन्हें सहायता प्रदान करे।

प्रश्न 7
गरीबी (निर्धनता) दूर करने के दो उपाय लिखिए। [2011]
उत्तर:
1. शिक्षा – प्रणाली को अधिक उपयुक्त बनाया जाए – सर्वप्रथम देश से अशिक्षा को दूर करने का प्रयत्न करना होगा। साथ ही प्रचलित शिक्षा-प्रणाली में इस प्रकार का सुधार करना होगा, जिससे कि विद्यार्थी व्यावहारिक जगत में उपयोगी हो सके।
2. कृषि में सुधार किये जाएँ – भारत एक कृषिप्रधान देश है। इस कारण इस देश से गरीबी को दूर करने के लिए कृषि-व्यवस्था में सुधार किये जाने चाहिए। इसके लिए भूमि की दशा में सुधार करना, सिंचाई की सुविधाएँ उपलब्ध कराना, कृषि औजारों को जुटाना, उत्तम बीज व खाद का प्रबन्ध करना, चकबन्दी, सहकारिता आदि को प्रोत्साहन देना आदि आवश्यक उपाय हैं।

प्रश्न 8
अन्त्योदय योजना पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अन्त्योदय योजना के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में से पाँच निर्धनतम परिवारों का चयन कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने एवं व्यवसाय करने के लिए ऋण आदि की सहायता दी जाती है। इस योजना का प्रारम्भ 2 अक्टूबर, 1978 में राजस्थान सरकार द्वारा किया गया। इसे उत्तर प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश एवं अन्य राज्यों ने भी अपनाया। इस योजना का उद्देश्य समाज के आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों; जैसे – हरिजनों, भूमिहीनों एवं अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लोगों का आर्थिक स्तर उन्नत करना एवं उन्हें गरीबी से मुक्ति दिलाना है।

प्रश्न 9
गरीबी के चार मुख्य कारण लिखिए। [2016]
या
निर्धनता के दो सामाजिक कारण बताइए।
उत्तर:
आर्थिक कारण

निर्धनता के आर्थिक कारण निम्नलिखित हैं

  1. उद्योग-धन्धों की कमी एवं अपर्याप्त उत्पादन के कारण निर्धनता व्याप्त है।
  2. भारत में निर्धनता के लिए रोजगार के कम अवसरों को उत्तरदायी माना जाता है।

सामाजिक कारण
निर्धनता के सामाजिक कारण निम्नलिखित हैं।

  1.  अशिक्षा के कारण व्यक्ति कार्यकुशलता का विकास नहीं कर पाता है।
  2.  धर्म, सामाजिक कुप्रथाओं एवं जाति व्यवस्था का प्रभाव निर्धनता का कारण बनता है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निर्धनता के निर्धारण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य क्या है ?
उत्तर:
निर्धनता के निर्धारण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य आय है।

प्रश्न 2
जीवन-स्तर को तय करने वाला मुख्य कारक क्या है ?
उत्तर:
जीवन-स्तर को तय करने वाला मुख्य कारक आय है।।

प्रश्न 3
कम आय निर्धनता को कब जन्म देती है ?
उत्तर:
जब कमाने वाले कम और उन पर निर्भर व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है, तो कम आय निर्धनता को जन्म देती है।

प्रश्न 4
भारत में सबसे अधिक निर्धन प्रदेश कौन-सा है ?
उत्तर:
भारत में सबसे अधिक निर्धन प्रदेश उड़ीसा (वर्तमान में ओडिशा) है।

प्रश्न 5
विश्व विकास रिपोर्ट 2002 के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति आय क्या है ? जापान में प्रति व्यक्ति आय क्या है ?
उत्तर:
विश्व विकास रिपोर्ट 2002 के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति आय 460 अमेरिकी डॉलर है। जापान में प्रति व्यक्ति आय 2,350 अमेरिकी डॉलर है।।

प्रश्न 6
निर्धनता का उन्मूलन करने के लिए 20-सूत्री कार्यक्रम की घोषणा किसके द्वारा की गयी थी ?
उत्तर:
निर्धनता का उन्मूलन करने के लिए 20-सूत्री कार्यक्रम की घोषणा श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा की गयी थी।

प्रश्न 7
अन्त्योदय योजना का प्रारम्भ कब और कौन-सी राज्य सरकार द्वारा किया गया ?
उत्तर:
अन्त्योदय योजना का प्रारम्भ 2 अक्टूबर, 1978 में राजस्थान सरकार द्वारा किया गया।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
किसी समाज में निर्धनता के मूल्यांकन के लिए कौन-सी कसौटी सही है ?
(क) प्रति व्यक्ति आय
(ख) वस्तुओं का बाजार-भाव।
(ग) उद्योगों की संख्या
(घ) समाज के रहन-सहन का स्तर

प्रश्न 2
भारत एक धनी देश है, जब कि इसके निवासी निर्धन हैं, यह कथन किसका है ?
(क) श्रीमती वीरा एन्स्टे का
(ख) वीवर का
(ग) गोडार्ड का
(घ) स्टुअर्ट राइस का

प्रश्न 3
निम्नलिखित में से कौन-सी एक दशा भारत में निर्धनता का प्रमुख कारण है ?
(क) औद्योगिक विवाद
(ख) भाषायी विवाद
(ग) मन्त्रियों और सांसदों पर अत्यधिक व्यय
(घ) जनसंख्या विस्फोट

प्रश्न 4
भारत में निर्धनता का कारण बताइए
(क) भाषा सम्बन्धी संघर्ष
(ख) क्षेत्रीय विवाद
(ग) मुकदमों की देर से सुनवाई
(घ) खेती का पिछड़ापन

प्रश्न 5
निम्नलिखित में से निर्धनता के परिणाम का चयन कीजिए
(क) सती – प्रथा
(ख) दहेज-प्रथा
(ग) बाल-विवाह
(घ) अपराध

प्रश्न 6
भारत में गरीबी दूर करने का उपाय छाँटिए
(क) शिक्षा
(ख) नौकरी
(ग) आर्थिक सहायता
(घ) सरकारी भरण-पोषण

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन-सी दशा निर्धनता-निवारण में बाधक है?
(क) शक्ति के साधनों का अधिकतम उपयोग
(ख) सामाजिक दुर्व्यसनों पर प्रतिबन्ध
(ग) साख-सुविधाओं में वृद्धि
(घ) परिवार नियोजन के प्रति उदासीनता

प्रश्न 8
भारत में निर्धनता की समस्या को कम करने के लिए सरकार द्वारा समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम का आरम्भ किया गया।
(क) 1972 ई० से
(ख) 1978 ई० से
(ग) 1981 ई० से
(घ) 1986 ई० से

प्रश्न 9
‘गरीबी हटाओ’ नारा किस पंचवर्षीय योजना की विशेषता थी ?
या
“गरीबी हटाओ’ नारा सर्वप्रथम कौन-सी पंचवर्षीय योजना में दिया गया था? [2012]
(क) दूसरी
(ख) पाँचवीं
(ग) सातवीं
(घ) नवीं

उत्तर:
1. (क) प्रति व्यक्ति आय,
2. (क) श्रीमती वीरा एन्स्टे का,
3. (घ) जनसंख्या विस्फोट,
4. (घ) खेती का पिछड़ापन,
5. (घ) अपराध,
6. (ख) नौकरी,
7. (घ) परिवार नियोजन के प्रति उदासीनता,
8. (ख) 1978 ई० से,
9. (ख) पाँचवीं।

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