UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 5 निन्दा रस

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 5
Chapter Name निन्दा रस (हरिशंकर परसाई)
Number of Questions 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 5 निन्दा रस (हरिशंकर परसाई)

लेखक का साहित्यिक परिचय और कृतियाँ

प्रश्न 1.
हरिशंकर परसाई के जीवन-परिचय का उल्लेख करते हुए उनकी कृतियों (रचनाओं) पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 16]
या
हरिशंकर परसाई का साहित्यिक परिचय दीजिए एवं उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। [2012, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
जीवन-परिचय-श्री हरिशंकर जी का जन्म मध्य प्रदेश में इटारसी के निकट जमानी नामक स्थान पर 22 अगस्त, 1924 ई० को हुआ था। आरम्भ से लेकर स्नातक स्तर तक इनकी शिक्षा मध्य प्रदेश में हुई। नागपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने हिन्दी में एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। परसाई जी ने कुछ वर्षों तक अध्यापन-कार्य किया तथा साथ-साथ साहित्य-सृजन आरम्भ किया। नौकरी को साहित्य-सृजन में बाधक जानकर इन्होंने उसे तिलांजलि दे दी और स्वतन्त्रतापूर्वक साहित्य-सृजन में जुट गये। इन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन आरम्भ किया, परन्तु आर्थिक घाटे के कारण उसे बन्द कर देना पड़ा। इनकी रचनाएँ साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग आदि पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहीं। परसाई जी ने मुख्यत: व्यंग्यप्रधान ललित निबन्धों की रचना की है। 10 अगस्त, 1995 ई० को जबलपुर में इनका देहावसान हो गया।

साहित्यिक योगदान–परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार-स्तम्भ थे। इन्होंने हिन्दी व्यंग्य को नयी दिशा प्रदान की है और अपनी रचनाओं में व्यक्ति और समाज की विसंगतियों पर से परदा हटाया है। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ ग्रन्थ पर इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान’ तथा मध्य प्रदेश कला परिषद् द्वारा भी इन्हें सम्मानित किया गया। इन्होंने कथाकार, उपन्यासकार, निबन्धकार तथा सम्पादक के रूप में हिन्दी-साहित्य की महान् सेवा की।

रचनाएँ-परसाई जी अपनी कहानियों, उपन्यासों तथा निबन्धों में व्यक्ति और समाज की कमजोरियों, विसंगतियों और आडम्बरपूर्ण जीवन पर गहरी चोट करते हैं। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. कहानी-संग्रह-हँसते हैं, रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे’।।
  2. उपन्यास–‘रानी नागफनी की कहानी’, ‘तट की खोज’।।
  3. निबन्ध-संग्रह-तब की बात और थी’, ‘भूत के पाँव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’, ‘पगडण्डियों का जमाना’, ‘सदाचार का तावीज’, ‘शिकायत मुझे भी है, और अन्त में।

इनकी समस्त रचनाओं का संग्रह ‘परसाई ग्रन्थावली’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है। साहित्य में स्थान-परसाई जी हिन्दी साहित्य के एक समर्थ व्यंग्यकार थे। इन्होंने हिन्दी निबन्ध साहित्य में हास्य-व्यंग्य प्रधान निबन्धों की रचना करके एक विशेष अभाव की पूर्ति की है। इनकी शैली का प्राण व्यंग्य और विनोद है। अपनी विशिष्ट शैली से परसाई जी ने हिन्दी साहित्य में अपना प्रमुख स्थान बना लिया है।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोचर

प्रश्न–दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

प्रश्न 1.
अद्भुत है मेरा यह मित्र। उसके पास दोषों का ‘केटलाग’ है। मैंने सोचा कि जब वह हर परिचित की निन्दा कर रहा है, तो क्यों न मैं लगे हाथ विरोधियों की गत, इसके हाथों करा लें। मैं अपने विरोधियों का नाम लेता गया और वह उन्हें निन्दा की तलवार से काटता चला। जैसे लकड़ी चीरने की आरा मशीन के नीचे मजदूर लकड़ी का लट्ठा खिसकाता जाता है और वह चीरता जाता है, वैसे ही मैंने विरोधियों के नाम एक-एक कर खिसकाये और वह उन्हें काटता गया। कैसा आनन्द था। दुश्मनों को रण-क्षेत्र में एक के बाद एक कटकर गिरते हुए देखकर योद्धा को ऐसा ही सुख होता होगा।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) लेखक ने किसका उदाहरण आरा मशीन से दिया है?
(iv) लेखक ने अपने विरोधियों की गत किसके हाथों कराने का विचार किया?
(v) योद्धा को क्या देखकर निन्दक के जैसा ही सुख प्राप्त होता होगा?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा हिन्दी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित ‘निन्दा रस’ शीर्षक व्यंग्यात्मक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- निन्दा रस।
लेखक का नाम-हरिशंकर परसाई।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या–लेखक श्री हरिशंकर परसाई जी का कहना है कि उनका निन्दक मित्र बहुत ही अद्भुत और विचित्र है जिसके पास दोषों और बुराइयों को अच्छा-खासा सूची-पत्र है। उनके सम्मुख जिस किसी की भी चर्चा छिड़ जाती वह उसी की निन्दा में चार-छ: वाक्य बोल दिया करता था। लेखक के मन में विचार आया कि क्यों न वह भी अपने कुछ-एक परिचितों की जो उसके विरोधी हैं, की निन्दा उसके माध्यम से करवा ले।
(iii) लेखक ने निन्दक का उदाहरण आरा मशीन से दिया है।
(iv) लेखक ने अपने विरोधियों की गत निन्दक मित्र के हाथों कराने का विचार किया।
(v) दुश्मनों को रण-क्षेत्र में एक के बाद एक कटकर गिरते हुए देखकर योद्धा को निन्दक जैसा ही सुख प्राप्त होता होगा।

प्रश्न 2.
ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दा भी होती है। लेकिन इसमें वह मजा नहीं जो मिशनरी भाव से निन्दा करने में आता है। इस प्रकार का निन्दक बड़ा दुखी होता है। ईष्र्या-द्वेष से चौबीसों घंटे जलता है और निन्दा का जल छिड़ककर कुछ शांति अनुभव करता है। ऐसा निन्दक बड़ा दयनीय होता है। अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की सक्षमता के चाँद को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है। ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दा करने वाले को कोई दण्ड देने की जरूरत नहीं है। वह निन्दक बेचारा स्वयं दण्डित होता है। आप चैन से सोइए और वह जलन के कारण सो नहीं पाता। उसे और क्या दण्ड चाहिए?
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) मिशनरी निन्दक शान्ति का अनुभव कब करता है?
(iv) किस प्रकार के निन्दक को दण्ड देने की कोई जरूरत नहीं होती? कारण सहित उत्तर दीजिए।
(v) अपनी अक्षमता से पीड़ित निन्दक दूसरे की सक्षमता के चाँद को देखकर कैसा व्यवहार करता है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा हिन्दी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित ‘निन्दा रस’ शीर्षक व्यंग्यात्मक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम– निन्दा रस।
लेखक का नाम-हरिशंकर परसाई।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक ने कहा है कि निन्दा ईष्र्या भाव से प्रेरित होती है और मिशनरी भाव से भी। मिशनरी भाव से की गयी निन्दा बिना किसी द्वेष-भाव के धर्म-प्रचार जैसे पुण्य कार्य की भावना से की जाती है। ईर्ष्या भाव से प्रेरित होकर निन्दा करने में वह आनन्द नहीं आता, जो मिशनरी भाव से प्रेरित होकर निन्दा करने में आता है।
(iii) मिशनरी निन्दक ईष्र्या-द्वेष से चौबीसों घण्टे जलता है और निन्दा का जल छिड़ककर कुछ शान्ति अनुभव करता है।
(iv) मिशनरी निन्दक को दण्ड देने की कोई जरूरत नहीं होती। कारण यह कि ऐसा निन्दक बेचारा स्वयं दण्डित होता है।
(v) अपनी अक्षमता से पीड़ित निन्दक दूसरे की सक्षमता को चाँद को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है।

प्रश्न 3.
निन्दा का उद्गम ही हीनता और कमजोरी से होता है। मनुष्य अपनी हीनता से दबता है। वह दूसरों की निन्दा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है। उसके अहं की इससे तुष्टि होती है। बड़ी लकीर को कुछ मिटाकर छोटी लकीर बड़ी बनती है। ज्यों-ज्यों कर्म क्षीण होता जाता है, त्यों-त्यों निन्दा की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। कठिन कर्म ही ईष्र्या-द्वेष और इनसे उत्पन्न निन्दा को मारता है। इन्द्र बड़ा ईर्ष्यालु माना जाता है क्योंकि वह निठल्ला है। स्वर्ग में देवताओं को बिना उगाया अन्न, बे बनायो महल और बिन बोये फल मिलते हैं। अकर्मण्यता में उन्हें अप्रतिष्ठित होने का भय बना रहता है, इसलिए कर्मी मनुष्यों से उन्हें ईष्र्या होती है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) निन्दा का उद्गम कहाँ से होता है?
(iv) निन्दक व्यक्ति दूसरों की निन्दा करके कैसा अनुभव करता है?
(v) इन्द्र को ईष्र्यालु क्यों माना जाता है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा हिन्दी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित ‘निन्दा रस’ शीर्षक व्यंग्यात्मक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- निन्दा रस।।
लेखक का नाम-हरिशंकर परसाई।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि इन्द्र को बड़ा ईष्र्यालु माना जाता है; क्योंकि वह निठल्ला रहता है, उसे कुछ नहीं करना पड़ता। उसे खाने के लिए अन्न नहीं उगाना पड़ता, फल पाने के लिए पेड़ नहीं बोने पड़ते तथा रहने के लिए बना-बनाया महल मिल जाता है। स्वर्ग में ये सभी चीजें स्वत: प्राप्त हो जाती हैं, इन्हें प्राप्त करने के लिए कुछ भी श्रम नहीं करना पड़ता। खाली रहने के कारण उसे अपनी अप्रतिष्ठा का डर बना रहता है। इसलिए वह किसी तपस्वी को तपस्या करते देखकर, किसी कर्मठ व्यक्ति को श्रेष्ठ कर्म करते देखकर ही भयभीत हो जाता है कि कहीं यह अपनी कर्मठता से मेरे पद को न छीन ले; अत: वह उससे ईर्ष्या करने लगता है।
(iii) निन्दा का उद्गम हीनता और कमजोरी से होता है।
(iv) निन्दक व्यक्ति दूसरों की निन्दा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है।
(v) निठल्ला होने के कारण इन्द्र को ईर्ष्यालु माना जाता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 4 भाषा और आधुनिकता

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 4 भाषा और आधुनिकता (जी० सुन्दर रेड्डी) are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 4 भाषा और आधुनिकता (जी० सुन्दर रेड्डी).

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Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 4
Chapter Name भाषा और आधुनिकता (जी० सुन्दर रेड्डी)
Number of Questions 4
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 4 भाषा और आधुनिकता (जी० सुन्दर रेड्डी)

लेखक का साहित्यिक परिवय और कृतिया

प्रश्न 1.
जी० सुन्दर रेड्डी का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। [2010]
या
प्रो० जी० सुन्दर रेड्डी का साहित्यिक परिचय देते हुए उनकी रचनाओं (कृतियों) का उल्लेख कीजिए। [2016, 17]
उत्तर
जीवन-परिचय–प्रोफेसर रेड्डी का जन्म आन्ध्र प्रदेश में सन् 1919 ई० में हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा यद्यपि संस्कृत और तेलुगू में हुई, लेकिन ये हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान् हैं। 30 वर्षों से भी अधिक समय तक ये आन्ध्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। ये वहाँ के स्नातकोत्तर अध्ययन एवं अनुसन्धान विभाग के अध्यक्ष एवं प्रोफेसर भी रहे। इनके निर्देशन में हिन्दी और तेलुगू साहित्यों के विविध पक्षों के तुलनात्मक अध्ययन पर पर्याप्त शोधकार्य हुए हैं। साहित्यिक योगदान–जी० सुन्दर रेड्डी ने दक्षिण भारत की चारों भाषाओं तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम तथा उनके साहित्य का इतिहास प्रस्तुत करते हुए उनकी आधुनिक गतिविधियों को सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया है। इनके साहित्य में इनका मानवतावादी दृष्टिकोण स्पष्ट झलकता है। तेलुगूभाषी होते हुए भी हिन्दी-भाषा में रचना करके इन्होंने एक श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसा करके आपने दक्षिण भारतीयों को हिन्दी और उत्तर भारतीयों को दक्षिण भारतीय भाषाओं के अध्ययन की प्रेरणा दी है। आपके निबन्ध हिन्दी, तेलुगू और अंग्रेजी भाषा की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। भाषा की समस्याओं पर अनेक विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है, किन्तु भाषा और आधुनिकता पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने वालों में प्रोफेसर रेड्डी सर्वप्रमुख हैं।

रचनाएँ-अब तक प्रोफेसर रेड्डी के कुल 8 ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं(1) साहित्य और समाज, (2) मेरे विचार, (3) हिन्दी और तेलुगू : एक तुलनात्मक अध्ययन, (4) दक्षिण की भाषाएँ और उनका साहित्य, (5) वैचारिकी, (6) शोध और बोध, (7) तेलुगू वारुल (तेलुगू ग्रन्थ), (8) लैंग्वेज प्रॉब्लम इन इण्डिया (सम्पादित अंग्रेजी ग्रन्थ)।

साहित्य में स्थान-प्रोफेसर रेड्डी एक श्रेष्ठ विचारक, समालोचक और निबन्धकार हैं। अहिन्दी भाषी प्रदेश के निवासी होते हुए भी हिन्दी भाषा के ये प्रकाण्ड विद्वान् हैं। शोधकार्य एवं तुलनात्मक अध्ययन इनके प्रमुख विषय हैं। अहिन्दी क्षेत्र में आपका हिन्दी-रचना कार्य, हिन्दी-साहित्य के लिए वरदानस्वरूप है। गैर हिन्दी भाषी होते हुए भी प्रो० रेड्डी हिन्दी-साहित्य में एक आदर्श उदाहरण बने हुए हैं।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोचर

प्रश्न–दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए

प्रश्न 1.
भाषा स्वयं संस्कृति का एक अटूट अंग है। संस्कृति परम्परा से नि:सृत होने पर भी, परिवर्तनशील और गतिशील है। उसकी गति विज्ञान की प्रगति के साथ जोड़ी जाती है। वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव के कारण उद्भूत नयी सांस्कृतिक हलचलों को शाब्दिक रूप देने के लिए भाषा के परम्परागत प्रयोग पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए नये प्रयोगों की, नयी भाव-योजनाओं को व्यक्त करने के लिए नये शब्दों की खोज की महती आवश्यकता है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) प्रस्तुत अवतरण के माध्यम से लेखक ने किस बात पर बल दिया है?
(iv) संस्कृति का एक अटूट अंग क्या है?
(v) किसकी गति विज्ञान की प्रगति के साथ जोड़ी जाती है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा श्रेष्ठ विचारक वे निबन्धकार जी० सुन्दर रेड्डी द्वारा लिखित ‘भाषा और आधुनिकता’ शीर्षक शोधपरक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- भाषा और आधुनिकता।
लेखक का नाम-प्रो०जी० सुन्दर रेड्डी।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-भाषा में जो प्रयोग प्राचीनकाल से चले आ रहे हैं, वे नये सांस्कृतिक परिवर्तनों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं हैं। नित्यप्रति संस्कृति में हुए परिवर्तनों को भाषा द्वारा व्यक्त करने के लिए भाषा में नये-नये प्रयोगों, नये-नये शब्दों की खोज का कार्य होना बहुत आवश्यक है, जिससे बदलते हुए नये भावों को उचित रूप से व्यक्त किया जा सके।
(iii) प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने विज्ञान की प्रगति के कारण जो सांस्कृतिक परिवर्तन होता है, उसे शब्दों द्वारा व्यक्त करने के लिए भाषा में नये प्रयोगों की आवश्यकता पर बल दिया है।
(iv) संस्कृति का एक अटूट अंग भाषा है।।
(v) संस्कृति की गति विज्ञान की प्रगति के साथ जोड़ी जाती है।

प्रश्न 2.
विज्ञान की प्रगति के कारण नयी चीजों का निरंतर आविष्कार होता रहता है। जब कभी नया आविष्कार होता है, उसे एक नयी संज्ञा दी जाती है। जिस देश में उसकी सृष्टि की जाती है वह देश उस आविष्कार के नामकरण के लिए नया शब्द बनाता है; वही शब्द प्रायः अन्य देशों में बिना परिवर्तन के वैसे ही प्रयुक्त किया जाता है। यदि हर देश उस चीज के लिए अपना-अपना अलग नाम देता रहेगा, तो उस चीज को समझने में ही दिक्कत होगी। जैसे रेडियो, टेलीविजन, स्पुतनिक।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) कौन-सा देश किसी आविष्कृत चीज के नामकरण के लिए नया शब्द देता है?
(iv) यदि हर देश आविष्कृत चीजों को अपना-अपना अलग नाम देता रहे तो क्या होगा?
(v) नई चीजों के आविष्कार होने का क्या कारण है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा श्रेष्ठ विचारक वे निबन्धकार जी० सुन्दर रेड्डी द्वारा लिखित ‘भाषा और आधुनिकता’ शीर्षक शोधपरक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- भाषा और आधुनिकता।।
लेखक का नाम-प्रो०जी० सुन्दर रेड्डी।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि यदि कोई विदेशी शब्द अपने भाव का सम्प्रेषण करने में सक्षम है तो उसमें परिवर्तन नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए-आज प्रत्येक देश में विज्ञान के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न आविष्कार हो रहे हैं और उन्हें नये-नये नाम दिये जा रहे हैं। प्रत्येक देश अपने द्वारा आविष्कृत वस्तु का अपनी भाषा के अनुसार नामकरण कर रहा है और दूसरे देशों में भी वही नाम प्रचलित होता जा रहा है।
(iii) जिस देश में किसी चीज की सृष्टि की जाती है वही देश उस आविष्कृत चीज के नामकरण के लिए नया शब्द देता है।
(iv) यदि हर देश आविष्कृत चीजों को अपना-अपना अलग नाम देता रहे तो उस चीज को समझने में दिक्कत होगी।
(v) नई चीजों के आविष्कार होने का कारण विज्ञान की प्रगति है।

प्रश्न 3.
नये शब्द, नये मुहावरे एवं नयी रीतियों के प्रयोगों से युक्त भाषा को व्यावहारिकता प्रदान करना ही भाषा में आधुनिकता लाना है। दूसरे शब्दों में केवल आधुनिक-युगीन विचारधाराओं के अनुरूप नये शब्दों के गढ़ने मात्र से ही भाषा का विकास नहीं होता; वरन् नये पारिभाषिक शब्दों को एवं नूतन शैली-प्रणालियों
को व्यवहार में लाना ही भाषा को आधुनिकता प्रदान करना है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) किसके गढ़ने मात्र से भाषा का विकास नहीं होता?
(iv) किन चीजों को व्यवहार में लाना ही भाषा को आधुनिकता प्रदान करना है?
(v) उपर्युक्त गद्यांश के माध्यम से लेखक ने कौन-सी बात बताई है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा श्रेष्ठ विचारक व निबन्धकार जी० सुन्दर रेड्डी द्वारा लिखित ‘भाषा और आधुनिकता’ शीर्षक शोधपरक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम – भाषा और आधुनिकता।
लेखक का नाम – प्रो०जी० सुन्दर रेड्डी।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-किसी भाषा में आधुनिकता का समावेश तभी हो सकता है, जब उसमें नये-नये जनप्रचलित शब्दों, मुहावरों तथा लोकोक्तियों को समाहित कर लिया जाए। इन बातों के समावेश से भाषा व्यावहारिक हो जाती है।
(iii) आधुनिक युगीन विचारधाराओं के अनुरूप नये शब्दों के गढ़ने मात्र से भाषा का विकास नहीं होता।
(iv) नये पारिभाषिक शब्दों को एवं नूतन शैली प्रणालियों को व्यवहार में लाना ही भाषा को आधुनिकता प्रदान करना है।
(v) उपर्युक्त गद्यांश में लेखक ने भाषा को आधुनिक बनाने के उपाय बताए हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 अशोक के फूल

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 अशोक के फूल (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी) are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 अशोक के फूल (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी).

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Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name अशोक के फूल (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी)
Number of Questions 5
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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 अशोक के फूल (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी)

लेखक का साहित्यिक परिचय और कृतियाँ

प्रश्न 1.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 11]
या
हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए। [2012, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
जीवन-परिचय–हिन्दी के श्रेष्ठ निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1907 ई० में बलिया जिले के दूबे का छपरा नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता श्री अनमोल द्विवेदी ज्योतिष और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे; अत: इन्हें ज्योतिष और संस्कृत की शिक्षा उत्तराधिकार में प्राप्त हुई। काशी जाकर इन्होंने संस्कृत-साहित्य और ज्योतिष का उच्च स्तरीय ज्ञान प्राप्त किया। इनकी प्रतिभा का विशेष विकास विश्वविख्यात संस्था शान्ति निकेतन में हुआ। वहाँ ये 11 वर्ष तक हिन्दी भवन के निदेशक के रूप में कार्य करते रहे। वहीं इनके विस्तृत अध्ययन और लेखन का कार्य प्रारम्भ हुआ। सन् 1949 ई० में लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट्० की उपाधि से तथा सन् 1957 ई० में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से विभूषित किया। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य किया तथा उत्तर प्रदेश सरकार की हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष रहे। तत्पश्चात् ये हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयाग के सभापति भी रहे। 19 मई, 1979 ई० को यह वयोवृद्ध साहित्यकार रुग्णता के कारण स्वर्ग सिधार गया।

साहित्यिक योगदान-हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्य के प्रख्यात निबन्धकार, इतिहास-लेखक, अन्वेषक, आलोचक, सम्पादक तथा उपन्यासकार के अतिरिक्त कुशल वक्ता और सफल अध्यापक भी थे। वे मौलिक चिन्तक, भारतीय संस्कृति और इतिहास के मर्मज्ञ, बँगला तथा संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनकी रचनाओं में नवीनता और प्राचीनता का अपूर्व समन्वय था। इनके साहित्य पर संस्कृत भाषा, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और रवीन्द्रनाथ ठाकुर का स्पष्ट प्रभाव है। इन्होंने ‘विश्वभारती’ और ‘अभिनव भारतीय ग्रन्थमाला का सम्पादन किया। इन्होंने अपभ्रंश और लुप्तप्राय जैन-साहित्य को प्रकाश में लाकर अपनी गहन शोध-दृष्टि का परिचय दिया। निबन्धकार के रूप में विचारात्मक निबन्ध लिखकर भारतीय संस्कृति और साहित्य की रक्षा की। इन्होंने नित्यप्रति के जीवन की गतिविधियों और अनुभूतियों का मार्मिकता के साथ चित्रण किया है। ये हिन्दी ललित निबन्ध लेखकों में अग्रगण्य हैं। द्विवेदी जी की साहित्य-सेवा को डी० लिट्, पद्मभूषण और मंगलाप्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया है।

आलोचक के रूप में द्विवेदी जी ने हिन्दी-साहित्य के इतिहास पर नवीन दृष्टि से विचार किया। इन्होंने हिन्दी-साहित्य का आदिकाल में नवीन सामग्री के आधार पर शोधपरक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। सूर-साहित्य पर इन्होंने भावपूर्ण आलोचना प्रस्तुत की है। इनके समीक्षात्मक निबन्ध विभिन्न संग्रहों में संग्रहीत हैं।

उपन्यासकार के रूप में द्विवेदी जी ने चार उपन्यासों की रचना की। इनके उपन्यास सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। इनमें इतिहास और कल्पना के समन्वय द्वारा नयी शैली और उनकी मौलिक प्रतिभा का परिचय मिलता है।

रचनाएँ-आचार्य द्विवेदी का साहित्य बहुत विस्तृत है। इन्होंने अनेक विधाओं में उत्तम साहित्य की रचना की। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
(क) निबन्ध-संग्रह-‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘विचार और वितर्क’, ‘आलोक पर्व’, ‘कल्पलता’। इन संग्रहों में द्विवेदी जी के विचारात्मक, भावात्मक और ललित निबन्ध हैं।
(ख) आलोचना-साहित्य–‘सूरदास’, ‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘कबीर’, ‘साहित्य- सहचर’, साहित्य का मर्म’। इनमें द्विवेदी जी की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचनाएँ हैं।।
(ग) इतिहास-‘हिन्दी-साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी-साहित्य का आदिकाल’, ‘हिन्दी-साहित्य’। इनमें इतिहास का शोधपूर्ण विवेचन है।
(घ) उपन्यास-‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचन्द्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’।
(ङ) सम्पादन-‘नाथ सिद्धों की बानियाँ’, ‘संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो’, ‘सन्देश रासक’। इन ग्रन्थों में लेखक की शोध-कला और सम्पादन-कला के दर्शन होते हैं।
(च) अनूदित रचनाएँ–‘प्रबन्ध चिन्तामणि’, ‘पुरातन प्रबन्ध-संग्रह’, ‘प्रबन्धकोश’, ‘विश्वपरिचय’, ‘लाल कनेर’, ‘मेरा बचपन’ आदि।

साहित्य में स्थान–आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी गद्य के प्रतिभाशाली रचनाकार थे। इन्होंने साहित्य के इतिहास-लेखन को नवीन दिशा प्रदान की। वे प्रकाण्ड विद्वान्, उच्चकोटि के विचारक और समर्थ आलोचक थे। गम्भीर आलोचना, विचारप्रधान निबन्धों और उत्कृष्ट उपन्यासों की रचना कर द्विवेदी जी ने निश्चय ही हिन्दी-साहित्य में गौरवपूर्ण स्थान पा लिया है।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोचर

प्रश्न–दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए

प्रश्न 1.
भारतीय साहित्य में, और इसलिए जीवन में भी, इस पुष्प का प्रवेश और निर्गम दोनों ही विचित्र नाटकीय व्यापार हैं। ऐसा तो कोई नहीं कह सकता कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्प का कोई नाम ही नहीं जानता था; परन्तु कालिदास के काव्यों में यह जिस शोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है, वह पहले कहाँ था। उस प्रवेश में नववधू के गृह-प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्रता है और सुकुमारता है। फिर एकाएक मुसलमानी सल्तनत की प्रतिष्ठा के साथ-ही-साथ यह मनोहर पुष्प साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। नाम तो लोग बाद में भी लेते थे, पर उसी प्रकार जिस प्रकार बुद्ध, विक्रमादित्य का। अशोक को जो सम्मान कालिदास से मिला, वह अपूर्व था।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) अशोक का पुष्प कालिदास के महाकाव्य में किस भाँति शोभा पाता है?
(iv) अशोक के पुष्प को कब साहित्य के सिंहासन से उतार फेंका गया?
(v) लेखक ने किसे विचित्र नाटकीय व्यापार बताया है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्यपुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा हिन्दी के सुविख्यात निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘अशोक के फूल’ नामक ललित निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम– अशोक के फूल।
लेखक का नाम–-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी।।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या–आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी अशोक के फूल के बारे में बताते हुए कह रहे हैं कि भारतीय साहित्यिक वाङमय और भारतीय जीवन में अशोक के फूल का प्रवेश और फिर विलुप्त हो जाना विचित्र नाटकीय स्थिति के सदृश है। कालिदास ने अपने काव्य में इस पुष्प को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है। कालिदास के काव्य में यह पुष्प जिस सुन्दरता और सुकुमारता के साथ वर्णित होता है, वैसा उनके पूर्ववर्ती किसी कवि के काव्य में नहीं होता।
(iii) अशोक का पुष्प कालिदास के महाकाव्य में नववधू के गृह-प्रवेश की भाँति शोभा पाता है।
(iv) अशोक का पुष्प मुसलमानी सल्तनत की प्रतिष्ठा के साथ-साथ ही साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार फेंका गया।
(v) लेखक ने भारतीय साहित्य और भारतीय जीवन में अशोक के पुष्प के प्रवेश और निर्गम को विचित्र नाटकीय व्यापार बताया है।

प्रश्न 2.
कहते हैं, दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है! केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंककर आगे बढ़ जाती है। शायद अशोक से उसका स्वार्थ नहीं सधा। क्यों उसे वह याद रखती? सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) अशोक को विस्मृत करने का आधार किसे माना गया है?
(iv) लेखक ने दुनिया का किस तरह का व्यवहार बताया है?
(v) स्वार्थ का अखाड़ा किसे कहा गया है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा हिन्दी के सुविख्यात निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘अशोक के फूल’ नामक ललित निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- अशोक के फूल।।
लेखक का नाम-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-द्विवेदी जी कहते हैं कि यह संसार बड़ा स्वार्थी है। यह उन्हीं बातों को याद रखता है, जिनसे उसका कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, अन्यथा व्यर्थ की स्मृतियों से यह अपने आपको बोझिल नहीं बनाना चाहता। यह उन्हीं वस्तुओं को याद रखता है, जो उसके दैनिक जीवन की स्वार्थ-पूर्ति में सहायता पहुँचाती हैं। बदलते समय की दृष्टि में अनुपयोगी होने से यदि कोई वस्तु उपेक्षित हो जाती है तो यह उसे भूलकर आगे बढ़ जाता है।
(iii) अशोक को विस्मृत करने का आधार स्वार्थवृत्ति को माना गया है।
(iv) लेखक ने दुनिया के व्यवहार को इस तरह का बताया है कि यह केवल उतना ही याद रखती है जितने से इसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंककर आगे बढ़ जाती है।
(v) सारे संसार को स्वार्थ का अखाड़ा कहा गया है।

प्रश्न 3.
मुझे मानव-जाति की दुर्दम-निर्मम धारा के हजारों वर्ष का रूप साफ दिखाई दे रहा है। मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नयी शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) मनुष्य की जीवन-शक्ति को निर्मम क्यों बताया गया है?
(iv) लेखक ने किसे बाद की बात बताया है?
(v) ग्रहण और त्याग का रूप क्या है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा हिन्दी के सुविख्यात निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘अशोक के फूल’ नामक ललित निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- अशोक के फूल।।
लेखक का नाम-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी कह रहे हैं कि मानव-जाति के विकास के हजारों वर्षों के इतिहास के मनन और चिन्तन के परिणामस्वरूप उन्होंने जो अनुभव किया है वह यह है कि मनुष्य में जो जिजीविषा है वह अत्यधिक निर्मम और मोह-माया के बन्धनों से रहित है। सभ्यता और संस्कृति के जो कतिपय व्यर्थ बन्धन या मोह थे, उन सबको रौंदती हुई वह सदैव आगे बढ़ती चली गयी।
(iii) मनुष्य की जीवन-शक्ति को निर्मम इसलिए बताया गया है क्योंकि वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। देश और जाति की अवशुद्ध संस्कृति को बाद की बात बताया है। वर्तमान समाज का रूप न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है।

प्रश्न 4.
अशोक का फूल तो उसी मस्ती में हँस रहा है। पुराने चित्त से इसको देखने वाला उदास होता है। वह अपने को पंडित समझता है। पंडिताई भी एक बोझ है—जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेजी से डुबाती है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) अशोक को देखकर कौन उदास होता है?
(iv) उपर्युक्त गद्यांश के माध्यम से लेखक विद्वत्ता के बारे में जनसामान्य को क्या सन्देश देना चाहता है?
(v) प्रस्तुत गद्यांश का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा हिन्दी के सुविख्यात निबन्धकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘अशोक के फूल’ नामक ललित निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- अशोक के फूल।
लेखक का नाम-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-पाण्डित्य अर्थात् विद्वत्ता भी एक भार है। यह जितनी भारी होती है, उतनी ही तेजी से मनुष्य को डुबाती है। विद्वत्ता अहंकार को उत्पन्न करती है और अहंकार मनुष्य के विनाश का कारण होता है। जो जितना बड़ा विद्वान् होता है, वह उतना ही बड़ा अहंकारी भी होता है। रावण का उदाहरण हमारे समक्ष है। उस जैसा विद्वान् धरती पर शायद ही पैदा हुआ हो। लेकिन उसके अहंकार ने उसका सर्वनाश कर दिया।
(iii) अशोक को पुराने चित्त से देखने वाला उदास होता है।
(iv) उपर्युक्त गद्यांश के माध्यम से लेखक सन्देश देना चाहता है कि विद्वत्ता को सहज और जीवन का अंग होना चाहिए जिससे वह व्यक्ति को उत्थान की ओर प्रेरित करेगी।
(v) प्रस्तुत गद्यांश का आशय यह है कि व्यक्ति को अपने उत्थान से उत्साहित और पतन से निरुत्साहित नहीं होना चाहिए। प्रत्येक स्थिति में समभाव से रहना चाहिए।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 2 राबर्ट नर्सिंग होम में

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name राबर्ट नर्सिंग होम में (कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’)
Number of Questions 3
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 2 राबर्ट नर्सिंग होम में (कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’)

लेखक का साहित्यिक परिचय और कृतिया

प्रश्न 1.
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए। [2009, 11, 18]
उत्तर
जीवन-परिचय-प्रभाकर जी का जन्म सन् 1906 ई० में सहारनपुर जिले के देवबन्द कस्बे में, एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता पं० रमादत्त मिश्र पौरोहित्य करते थे, परन्तु उनके विचारों में महानता और व्यक्तित्व में दृढ़ता थी। इनका जीवन अत्यन्त सरल और सात्त्विक था। इनकी माताजी का स्वभाव बड़ा उग्र था। इनकी शिक्षा नगण्य ही हुई। अपनी शिक्षा के विषय में इन्होंने लिखा है कि हिन्दी शिक्षा (सच माने) पहली पुस्तक के दूसरे पाठ ख-ट-म-ल खटमल, ट-म-ट-म टमटम। फिर साधारण संस्कृत। बस हरि ओम्। यानि बाप पढ़े न हम।” जब ये खुर्जा के एक संस्कृत विद्यालय में पढ़ते थे, तब प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता आसफ अली के ओजस्वी भाषण को सुनकर परीक्षा छोड़ दी और स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेने लगे। इसके बाद इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र-सेवा में लगा दिया। मिश्र जी सन् 1930 ई० से 1932 ई० तक और सन् 1942 ई० में जेल में रहे और राष्ट्र के उच्च नेताओं के सम्पर्क में आये। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् इन्होंने अपना जीवन पत्रकारिता में लगा दिया। ये एक सजग पत्रकार थे तथा सहारनपुर से ‘नया जीवन’ और ‘विकास’ नामक मासिक पत्र निकालने के साथ-साथ साहित्य-सृजन में भी संलग्न रहते थे। इनके लेख राष्ट्रीय जीवन के मार्मिक संस्मरणों की सजीव झाँकियाँ हैं, जिसमें भारतीय स्वाधीनता के इतिहास के महत्त्वपूर्ण पृष्ठ भी हैं। 9 मई, 1995 ई० को इस महान् साहित्यकार की मृत्यु हो गयी।

साहित्यिक योगदान-प्रभाकर जी हिन्दी के लघुकथा, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज एवं ललित निबन्ध लेखकों में अग्रगण्य हैं। ये भारत की स्वतन्त्रता की लालसा लेकर साहित्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए। इन्होंने अनेक नयी विधाओं पर फुटकर रचनाएँ कीं और पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व सफलता प्राप्त की। इन्होंने पत्रकारिता को स्वार्थ-सिद्धि का साधन न बनाकर महान् मानवीय मूल्यों की स्थापना की। इनकी पत्रकारिता में इनका मानवतावादी दृष्टिकोण देखने को मिलता है। ये एक आदर्श पत्रकार के रूप में हिन्दी जगत् में प्रतिष्ठित हुए। इनके पत्रों में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक समस्याओं पर इनके निर्भीक और आशावादी विचारों का परिचय मिलता है।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय इन्होंने जीवन के मार्मिक संस्मरण लिखे। इनके संस्मरणों में इनके व्यक्तित्व के साथ-साथ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास की झाँकी भी मिलती है। इस प्रकार आदर्श पत्रकार, संस्मरण लेखक और रिपोर्ताज लेखक के रूप में प्रभाकर जी की साहित्य-साधना चिरस्मरणीय है।

रचनाएँ-प्रभाकर जी ने हिन्दी की विविध विधाओं में साहित्य-रचना की। इनके अभी तक नौ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं-
रेखाचित्र-‘महके आँगन चहके द्वार’, ‘जिन्दगी मुसकाई’, ‘माटी हो गयी सोना’, ‘भूले-बिसरे चेहरे’।
लघुकथा—‘आकाश के तारे’, ‘धरती के फूल’।
संस्मरण-‘दीप जले शंख बजे।
ललित निबन्ध-‘क्षण बोले कण मुस्काये’, ‘बाजे पायलिया के चुंघरू।
सम्पादन–आपने ‘नया जीवन’ तथा ‘विकास’, दो पत्रों का सम्पादन भी किया। इन पत्रों में प्रभाकर जी के सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक समस्याओं पर आशावादी और निर्भीक विचारों का परिचय मिलता है।
साहित्य में स्थान-श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ शिल्प और वस्तु दोनों ही दृष्टियों से समर्थ गद्यकार हैं। इनकी लघुकथाएँ भावपूर्ण हैं और संस्मरणों में राष्ट्रीय जीवन की मार्मिक झाँकी है। ये मानव-मूल्यों के सजग प्रहरी के रूप में एक आदर्शवादी पत्रकार थे। देश तथा हिन्दी भाषा की असाधारण सेवा के कारण हिन्दी गद्य-साहित्य में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोर

प्रश्न–दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए।

प्रश्न 1.
मैंने बहुतों को रूप से पाते देखा था, बहुतों को धने से और गुणों से भी बहुतों को पाते देखा था पर मानवता के आँगन में समर्पण और प्राप्ति का यह अद्भुत सौम्य स्वरूप आज अपनी ही आँखों देखा कि कोई अपनी पीड़ा से किसी को पाये और किसी का उत्सर्ग सदा किसी को पीड़ा के लिए ही सुरक्षित रहे।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) लेखक ने समर्पण और प्राप्ति का कौन-सा अदभुतं सौम्य स्वरूप देखा?
(iv) प्रायः गुणी व्यक्ति का लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
(v) प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक ने किसकी झाँकी प्रस्तुत की है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित एवं प्रसिद्ध रिपोर्ताज और संस्मरण लेखक श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ द्वारा लिखित राबर्ट नर्सिंग होम में पाठ निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- राबर्ट नर्सिंग होम में।
लेखक का नाम-श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि मैंने संसार में ऐसे बहुत-से व्यक्तियों को देखा है, जो अपनी विशिष्ट विशेषताओं से लोगों को अपना बना लेते हैं एवं अपार यश अर्जित करते हैं। कुछ लोग अपने रूप-सौन्दर्य द्वारा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं तो कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जिनके पास अपार धन होता है और वे उसके बल पर लोगों पर अपना प्रभाव जमाते हैं या दूसरों को आत्मीय बना लेते हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनमें कोई विशिष्ट गुण होता है और वे अपने गुणों द्वारा बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं; परन्तु आज लेखक ने एक ऐसी अद्भुत नारी को देखा, जिसने मानवता के लिए सर्वस्व समर्पित करके दूसरों की श्रद्धा और आदर को प्राप्त किया है।
(iii) लेखक ने समर्पण और प्राप्ति का यह अद्भुत सौम्य स्वरूप देखा कि कोई अपनी पीड़ा से किसी को पाए और किसी का उत्सर्ग सदा किसी को पीड़ा के लिए ही सुरक्षित रहे।
(iv) प्राय: गुणी व्यक्ति का लोगों पर यह प्रभाव पड़ता है कि वे अपने गुणों के द्वारा दूसरों को अपना बना लेते
(v) प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक ने विश्वप्रसिद्ध मानव-सेविका मदर टेरेसा की सेवा-भावना एवं आत्म-त्याग की मनोरम झाँकी प्रस्तुत की है।

प्रश्न 2.
यह अनुभव कितना चमत्कारी है कि यहाँ जो जितनी अधिक बूढ़ी है वह उतनी ही अधिक उत्फुल्ल, मुसकानमयी है। यह किस दीपक की जोत है? जागरूक जीवन की! लक्ष्यदर्शी जीवन की! सेवा-निरत जीवन की! अपने विश्वासों के साथ एकाग्र जीवन की। भाषा के भेद रहे हैं, रहेंगे भी, पर यह जोत विश्व की सर्वोत्तम जोत है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) भिन्न-भिन्न प्रान्तों में भाषा में क्या अन्तर देखने को मिलता है?
(iv) कौन-सी ज्योति विश्व की सर्वोत्तम ज्योति है?
(v) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किसके मुसकानमय जीवन का चित्रांकन किया है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित एवं प्रसिद्ध रिपोर्ताज और संस्मरण लेखक श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ द्वारा लिखित राबर्ट नर्सिंग होम में पाठ से अद्भुत है।
अथवा
पाठ का नाम- राबर्ट नर्सिंग होम में।
लेखक का नाम-श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या–मदर मार्गरेट इन्दौर के नर्सिंग होम की सर्वाधिक वृद्धा नर्स हैं। लेखक ने वहाँ रहकर देखा कि उस नर्सिंग होम में जो जितनी वृद्धा नर्स है, वह उतनी ही अधिक सेवा-परायण, कर्तव्यपरायण, क्रियाशील, प्रसन्न और मुसकानमयी है।
(iii) भिन्न-भिन्न प्रान्तों में भाषा में भिन्न-भिन्न अन्तर देखने को मिलते हैं।
(iv) सबके हृदय में एक अद्भुत ज्योति प्रज्वलित है, वह है सेवा और प्यार की ज्योति। यही ज्योति विश्व की सर्वोत्तम ज्योति है।
(v) लेखक ने प्रस्तुत गद्यांश में रोबर्ट नर्सिंग होम में समर्पित भाव से सेवारत और सर्वाधिक वृद्धा नर्स मार्गरेट के मुसकानमय जीवन का चित्रांकन किया है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 1 राष्ट्र को स्वरूप

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 1 राष्ट्र को स्वरूप (डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल) are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 1 राष्ट्र को स्वरूप (डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name राष्ट्र को स्वरूप (डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल)
Number of Questions 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 1 राष्ट्र को स्वरूप (डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल)

लेखक का साहित्यिक परिचय और कृतियाँ

प्रश्न 1.
वासुदेवशरण अग्रवाल का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 11]
या
वासुदेवशरण अग्रवाल का साहित्यिक परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। [2012, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
जीवन-परिचय-डॉ० अग्रवाल का जन्म सन् 1904 ई० में मेरठ जनपद के खेड़ा ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता लखनऊ में रहते थे; अत: इनका बचपन लखनऊ में व्यतीत हुआ और यहीं इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम०ए० तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से ‘पाणिनिकालीन भारत’ नामक शोध-प्रबन्ध पर डी०लिट्० की उपाधि प्राप्त की।

डॉ० अग्रवाल ने पालि, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषाओं; भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व का गहन अध्ययन करके उच्चकोटि के विद्वान् के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘पुरातत्त्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष और बाद में आचार्य पद को सुशोभित किया। डॉ० अग्रवाल ने लखनऊ तथा मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालयों में निरीक्षक पद पर, केन्द्रीय सरकार के पुरातत्त्व विभाग में संचालक पद पर तथा दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में अध्यक्ष तथा आचार्य पद पर भी कार्य किया। भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व का यह महान् पण्डित एवं साहित्यकार सन् 1967 ई० में परलोक सिधार गया।

साहित्यिक योगदान–डॉ० अग्रवाल भारतीय संस्कृति, पुरातत्त्व और प्राचीन इतिहास के प्रकाण्ड पण्डित एवं अन्वेषक थे। इनके मन में भारतीय संस्कृति को वैज्ञानिक अनुसन्धान की दृष्टि से प्रकाश में लाने की उत्कट इच्छा थी; अतः इन्होंने उत्कृष्ट कोटि के अनुसन्धानात्मक निबन्धों की रचना की। इनके अधिकांश निबन्ध प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति से सम्बद्ध हैं। इन्होंने अपने निबन्धों में प्रागैतिहासिक, वैदिक एवं पौराणिक धर्म का उद्घाटन किया। निबन्ध के अतिरिक्त इन्होंने पालि, प्राकृत और संस्कृत के अनेक ग्रन्थों का सम्पादन और पाठ-शोधन का कार्य किया। जायसी के ‘पद्मावत’ पर इनकी टीका सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इन्होंने बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया और प्राचीन महापुरुषों-श्रीकृष्ण, वाल्मीकि, मनु आदि का आधुनिक दृष्टि से बुद्धिसम्मत चरित्र प्रस्तुत किया। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में अपनी मौलिकता, विचारशीलता और विद्वत्ता के लिए ये चिरस्मरणीय रहेंगे।

कृतियाँ-डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने निबन्ध, शोध एवं सम्पादन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इनकी प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है—
निबन्ध-संग्रह-‘पृथिवी-पुत्र’, ‘कल्पलता’, ‘कला और संस्कृति’, ‘कल्पवृक्ष’, ‘भारत की एकता’, ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’, ‘वाग्धारा’ आदि इनके प्रसिद्ध निबन्ध-संग्रह हैं।
शोध प्रबन्ध-‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’।।
आलोचना-ग्रन्थ-‘पद्मावत की संजीवनी व्याख्या’ तथा ‘हर्षचरित का सांस्कृतिक अध्ययन’।
सम्पादन–पालि, प्राकृत और संस्कृत के एकाधिक ग्रन्थों का।।
साहित्य में स्थान-भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व के विद्वान् डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल का निबन्धसाहित्य अत्यधिक समृद्ध है। पुरातत्त्व और अनुसन्धान के क्षेत्र में उनकी समता कोई नहीं कर सकता। विचार- प्रधान निबन्धों के क्षेत्र में तो इनका योगदान सर्वथा अविस्मरणीय है। निश्चय ही हिन्दी-साहित्य में इनको मूर्धन्य स्थान है।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोचर

प्रश्न–दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए

प्रश्न 1.
धरती माता की कोख में जो अमूल्य निधियाँ भरी हैं जिनके कारण वह वसुंधरा कहलाती है उससे कौन परिचित न होना चाहेगा? लाखों-करोड़ों वर्षों से अनेक प्रकार की धातुओं को पृथिवी के गर्भ में पोषण मिला है। दिन-रात बहने वाली नदियों ने पहाड़ों को पीस-पीसकर अगणित प्रकार की मिट्टियों से पृथिवी की देह को सजाया है। हमारे भावी आर्थिक अभ्युदय के लिए इन सबकी जाँच-पड़ताल अत्यन्त आवश्यक है। पृथिवी की गोद में जन्म लेने वाले जड़-पत्थर कुशल शिल्पियों से सँवारे जाने पर अत्यन्त सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं। नाना भाँति के अनगढ़ नग विन्ध्य की नदियों के प्रवाह में सूर्य की धूप से चिलकते रहते हैं, उनको जब चतुर कारीगर पहलदार कटाव पर लाते हैं तब उनके प्रत्येक घाट से नयी शोभा और सुन्दरता फूट पड़ती है। वे अनमोल हो जाते हैं। देश के नर-नारियों के रूप-मंडन और सौन्दर्य प्रसाधने में इन छोटे पत्थरों का भी सदा से कितना भाग रहा है; अतएव हमें उनका ज्ञान होना भी
आवश्यक है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) दिन-रात बहने वाली नदियों ने किस प्रकार से पृथिवी की देह को सजाया है?
(iv) पृथिवी की गोद में जन्म लेने वाले जड़-पत्थर कैसे सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं?
(v) लेखक ने हमें किनके योगदान के बारे में बताते हुए उनसे परिचित होने की प्रेरणा दी है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ शीर्षक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- राष्ट्र का स्वरूप।
लेखक का नाम-वासुदेवशरण अग्रवाल।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या–विद्वान् लेखक ने कहा है कि धरती माता की कोख में अमूल्य रत्न भरे पड़े हैं। इन्हीं रत्नों के कारण पृथ्वी का एक नाम वसुन्धरा (वसुओं = रत्नों को धारण करने वाली) भी है। बहुमूल्य रत्न, धातुएँ व खनिज पदार्थ, अन्न, फल, जल और इसी प्रकार की असंख्य अनमोल वस्तुओं, जिन्हें भूमि अपने आँचल में छिपाये रहती है, से हमारा प्रगाढ़ परिचय होना ही चाहिए।
(iii) दिन-रात बहने वाली नदियों ने पहाड़ों को पीस-पीसकर अगणित प्रकार की मिट्टियों से पृथिवी की देह को सजाया है।
(iv) पृथिवी की गोद में जन्म लेने वाले जड़-पत्थर कुशल शिल्पियों के सँवारे जाने पर अत्यन्त सौन्दर्य के प्रतीक बन जाते हैं। लेखक ने हमें छोटे-छोटे पत्थरों के योगदान के बारे में बताते हुए उन अमूल्य निधियों से परिचित होने के बात कही है।

प्रश्न 2.
राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युगों-युगों में जिस सभ्यता का निर्माण किया है वही उसके जीवन की श्वास-प्रश्वास है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबंधमात्र है; संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जायँ तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप को पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। ज्ञान
और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ किसका महत्त्वपूर्ण स्थान है?
(iv) कब राष्ट्र का लोप समझना चाहिए?
(v) संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में क्या अन्तर्निहित है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ शीर्षक निबन्ध से अवतरित है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या वास्तव में संस्कृति मनुष्य का मस्तिष्क है और मनुष्य के जीवन में मस्तिष्क सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है, क्योंकि मानव-शरीर का संचालन और नियन्त्रण उसी से होता है। जिस प्रकार से मस्तिष्क से रहित धड़ को व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है अर्थात् मस्तिष्क के बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार संस्कृति के बिना भी मानव-जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसलिए संस्कृति के विकास और उसकी उन्नति में ही किसी राष्ट्र का विकास, उन्नति और समृद्धि निहित है।
(iii) राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जैन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
(iv) यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जाएँ तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए।
(v) संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है।

प्रश्न 3.
साहित्य, कला, नृत्य, गीत, आमोद-प्रमोद, अनेक रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं। आत्मा का जो विश्वव्यापी आनंद-भाव है, वह इन विविध रूपों में साकार होता है। यद्यपि बाह्य रूप की दृष्टि से संस्कृति के ये बाहरी लक्षण अनेक दिखायी पड़ते हैं, किन्तु आन्तरिक आनंद की दृष्टि से उनमें एकसूत्रता है। जो व्यक्ति सहदय है, वह प्रत्येक संस्कृति के आनंद-पक्ष को स्वीकार करता है और उससे आनंदित होता है। इस प्रकार की उदार भावना ही विविध जनों से बने हुए राष्ट्र के लिए स्वास्थ्यकर है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) किन रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं?
(iv) सहृदय व्यक्ति किसको स्वीकार करते हुए आनंदित होता है?
(v) प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने राष्ट्र के किस स्वरूप पर प्रकाश डाला है?
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ शीर्षक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम– राष्ट्र का स्वरूप।
लेखक का नाम-वासुदेवशरण अग्रवाल।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहते हैं कि एक ही राष्ट्र के भीतर अनेकानेक उपसंस्कृतियाँ फलती-फूलती हैं। इन संस्कृतियों के अनुयायी नाना प्रकार के आमोद-प्रमोदों में अपने हृदय के उल्लास को प्रकट किया करते हैं। साहित्य, कला, नृत्य, गीत इत्यादि संस्कृति के विविध अंग हैं। इनका प्रस्तुतीकरण उस आनन्द की भावना को व्यक्त करने के लिए किया जाता है, जो सम्पूर्ण विश्व की आत्माओं में विद्यमान है।
(iii) साहित्य, कला, नृत्य, आमोद-प्रमोद, अनेक रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मासिक भावों को प्रकट करते हैं।
(iv) सहृदय व्यक्ति प्रत्येक संस्कृति के आनन्द-पक्ष को स्वीकार करते हुए उससे आनन्दित होता है।
(v) प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने विविध संस्कृति वाले राष्ट्र की एकसूत्रता और उसके एकीकृत स्वरूप पर प्रकाश डाला है।

प्रश्न 4.
पूर्वजों ने चरित्र और धर्म-विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो कुछ भी पराक्रम किया है। उस सारे विस्तार को हम गौरव के साथ धारण करते हैं और उसके तेज को अपने भावी जीवन में साक्षात् देखना चाहते हैं। यही राष्ट्र-संवर्धन का स्वाभाविक प्रकार है। जहाँ अतीत वर्तमान के लिए भाररूप नहीं है, जहाँ भूत वर्तमान को जकड़ नहीं रखना चाहता वरन् अपने वरदान से पुष्ट करके उसे आगे बढ़ाना चाहता है, उस राष्ट्र का हम स्वागत करते हैं।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) पूर्वजों की किन उपलब्धियों को हम गौरव के साथ धारण करते हैं?
(iv) किस राष्ट्र का हम स्वागत करते हैं?
(v) प्रस्तुत गद्यांश का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा लिखित ‘राष्ट्र का स्वरूप’ शीर्षक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम- राष्ट्र का स्वरूप।
लेखक का नाम-वासुदेवशरण अग्रवाल।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या–विद्वान लेखक कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने धर्म, विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में महान् सफलताएँ प्राप्त की थीं। हम उनकी उपलब्धियों पर गौरव का अनुभव करते हैं। उन्होंने जो महान् कार्य किये, हमें उन्हें अपने जीवन में अपनाना चाहिए। हमें इसमें गौरव की अनुभूति होनी चाहिए कि हम उनके महान् कार्यों का अनुसरण कर रहे हैं। अपने पुरखों के महान् आदर्शों को अपने जीवन में उतारने से हमारा जीवन सफल और महान् बनेगा। राष्ट्र की प्रगति और
समृद्धि का स्वाभाविक तरीका यही है। ऐसा करने से ही राष्ट्र की उन्नति सम्भव है।
(iii) पूर्वजों ने चरित्र और धर्म विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो कुछ भी उपलब्धियाँ की हैं। उनको हम गौरव के साथ साधारण करते हैं।
(iv) जहाँ अतीत वर्तमान के लिए भाररूप नहीं है, जहाँ भूत वर्तमान को जकड़ नहीं रखना चाहता वरन् अपने वरदान से पुष्ट करके उसे आगे बढ़ाना चाहता है, उस राष्ट्र का हम स्वागत करते हैं।
(v) प्रस्तुत गद्यांश का आशय यह है कि राष्ट्र की उन्नति उसकी प्राचीन परम्पराओं से संदेश लेकर भविष्य के लिए समयानुकूल नवीन प्रयास करने पर निर्भर करती हैं।

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