UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Regional Aspirations

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Regional Aspirations (क्षेत्रीय आकांक्षाएँ)

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में मेल करें
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Regional Aspirations 1
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Regional Aspirations 2

प्रश्न 2.
पूर्वोत्तर के लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कई रूपों में होती है। बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन, ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आन्दोलन और अलग देश बनाने की माँग करना-ऐसी ही कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। पूर्वोत्तर के मानचित्र पर इन तीनों के लिए अलग-अलग रंग भरिए और दिखाइए किस राज्य में कौन-सी प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल है।
उत्तर:

  1. बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन-असम
  2. ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आन्दोलन-मेघालय
  3. अलग देश बनाने की माँग-मिजोरम

[अलग देश बनाने की माँग नागालैण्ड व मिजोरम ने की थी। कुछ समय पश्चात् मिजोरम स्वायत्त राज्य बनने के लिए तैयार हो गया। मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मणिपुर को राज्य का दर्जा दे दिया गया है।] अत: मिजोरम की माँग का समाधान हो गया है, लेकिन नागालैण्ड में अलगाववाद की समस्या का पूर्ण समाधान अभी तक नहीं हो पाया है।

प्रश्न 3.
पंजाब समझौते के प्रमुख प्रावधान क्या थे? क्या ये प्रावधान पंजाब और उसके पड़ोसी . राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने के कारण बन सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
पंजाब समझौता-1970 के दशक में अकालियों के एक समूह ने पंजाब के लिए स्वायत्तता की माँग उठायी। आनन्दपुर साहिब में सन् 1973 में हुए एक सम्मेलन में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें क्षेत्रीय स्वायत्तता का मुद्दा उठाया, केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को पुनः परिभाषित करने तथा संघवाद को मजबूत करने पर बल दिया। परन्तु इसे एक अलग सिक्ख राष्ट्र की माँग के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।

80 के दशक में कुछ चरमपन्थी सिक्खों ने पंजाब को एक अलग राष्ट्र-खालिस्तान बनाए जाने के सम्बन्ध में आन्दोलन शुरू किया। यह आन्दोलन उग्र रूप धारण कर रहा था। फलत: तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के तहत स्वर्ण मन्दिर में सेना को घुसने की अनुमति दे दी। इससे पंजाब में उग्रवाद और भड़क गया। इन्दिरा गांधी हत्या इसी की एक कड़ी थी।

पंजाब समझौता-जुलाई 1985 में अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचन्द सिंह लोंगोवाल और प्रधानमन्त्री राजीव गांधी के बीच एक समझौता हुआ जिसे ‘पंजाब-समझौता’ कहा जाता है। इस समझौते के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-

  1. मारे गए निरपराध व्यक्तियों के लिए मुआवजा-1 सितम्बर, 1982 के बाद हुई किसी कार्रवाई या आन्दोलन में मारे गए लोगों को अनुग्रह राशि के भुगतान के साथ सम्पत्ति की क्षति के लिए मुआवजा दिया जाएगा।
  2. सेना में भर्ती-देश के सभी नागरिकों को सेना में भर्ती का अधिकार होगा और चयन के लिए केवल योग्यता ही आधार रहेगा।
  3. नवम्बर दंगों की जाँच-दिल्ली में नवम्बर में हुए दंगों की जाँच कर रहे रंगनाथ मिश्र आयोग का कार्यक्षेत्र बढ़ाकर उसमें बोकारो और कानपुर में हुए उपद्रवों की जाँच को भी शामिल किया जाएगा।
  4. सेना से निकाले हुए व्यक्तियों का पुनर्वास-सेना के निकाले हुए व्यक्तियों और उन्हें लाभकारी रोजगार दिलाने के प्रयास किए जाएंगे।
  5. अखिल भारतीय गुरुद्वारा कानून-भारत सरकार अखिल भारतीय गुरुद्वारा कानून बनाने पर सहमत हो गई। इसके लिए शिरोमणि अकाली दल और अन्य सहयोगियों के साथ सलाह-मशविरा और संवैधानिक जरूरतें पूर्ण करने के बाद विधेयक लागू किया जाएगा।
  6. लम्बित मुकदमों का फैसला-सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को पंजाब में लागू करने वाली अधिसूचना वापस ली जाएगी। वर्तमान विशेष न्यायालय केवल विमान अपहरण तथा शासन के खिलाफ युद्ध के मामले सुनेगी। शेष मामले सामान्य न्यायालयों को सौंप दिए जाएंगे और यदि आवश्यक हुआ तो इसके बारे में कानून बनाया जाएगा।
  7. सीमा विवाद-चण्डीगढ़ का राजधानी परियोजना क्षेत्र और सुखना ताल पंजाब में दिए जाएंगे। केन्द्रशासित प्रदेश के अन्य पंजाबी क्षेत्र पंजाब को तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र हरियाणा को दिए जाएंगे।

समझौते के तुरन्त बाद शान्ति आसानी से स्थापित नहीं हुई। हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। केन्द्र सरकार को पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। – 1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शान्ति की स्थापना हुई। सन् 1997 में अकाली दल (बादल) और भाजपा गठबन्धन को चुनावों में जीत हासिल हुई और इसके बाद राजनीति धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर चल पड़ी।

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प्रश्न 4.
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने के क्या कारण थे?
उत्तर:
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने का मुख्य कारण यह था कि इस प्रस्ताव में पंजाब सूबे के लिए अधिक स्वायत्तता की माँग की गई, जो कि परोक्ष रूप से एक अलग सिक्ख राष्ट्र की माँग को बढ़ावा देती है।

प्रश्न 5.
जम्मू-कश्मीर की अन्दरूनी विभिन्नताओं की व्याख्या कीजिए और बताइए कि इन विभिन्नताओं के कारण इस राज्य में किस तरह अनेक क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने सिर उठाया है।
उत्तर:
अन्दरूनी विभिन्नताएँ-जम्मू-कश्मीर में अधिकांश रूप में अन्दरूनी विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। जम्मू-कश्मीर राज्य में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र-जम्मू, कश्मीर और लद्दाख शामिल हैं। जम्मू पहाड़ी क्षेत्र है, इसमें हिन्दू-मुस्लिम और सिक्ख अर्थात् सभी धर्मों व भाषाओं के लोग रहते हैं। कश्मीर में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या अधिक है और यहाँ पर हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। जबकि लद्दाख पर्वतीय क्षेत्र है, इसमें बौद्ध मुस्लिम की आबादी है। इतनी विभिन्नताओं के कारण यहाँ पर कई क्षेत्रीय आकांक्षाएँ पैदा होती रहती हैं, यथा-

  1. इसमें पहली आकांक्षा कश्मीरी पहचान की है जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है। कश्मीर के निवासी सबसे पहले अपने को कश्मीरी तथा बाद में कुछ और मानते थे।
  2. राज्य में उग्रवाद और आतंकवाद को दूर करना भी यहाँ के लोगों की एक मुख्य आकांक्षा है।
  3. स्वायत्तता की बात जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोगों को अलग-अलग ढंग से लुभाती है। यहाँ पूरे राज्य में स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है, उतनी ही प्रबल माँग राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है।
    जम्मू-कश्मीर में कई राजनीतिक दल हैं,जो जम्मू-कश्मीर के लिए स्वायत्तता की माँग करते रहते हैं। इनमें नेशनल कॉन्फ्रेंस सबसे महत्त्वपूर्ण दल है।
  4. इसके अतिरिक्त कुछ उग्रवादी संगठन भी हैं, जो धर्म के नाम पर जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं।

प्रश्न 6.
कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्ष क्या हैं? इनमें से कौन-सा पक्ष आपको समुचित जान पड़ता है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
कश्मीर की स्वायत्तता का मसला-कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर मुख्य रूप से दो पक्ष सामने आते हैं-

पहला पक्ष वह है जो धारा-370 को समाप्त करना चाहता है, जबकि दूसरा पक्ष वह है जो इस राज्य को और अधिक स्वायत्तता देना चाहता है।
यदि इन दोनों पक्षों का उचित ढंग से अध्ययन किया जाए तो पहला पक्ष अधिक उचित दिखाई देता है जो धारा-370 को समाप्त करने के पक्ष में है। उनका तर्क है कि इस धारा के कारण यह राज्य भारत के साथ पूरी तरह नहीं मिल पाया है। इसके साथ-साथ जम्मू-कश्मीर को अधिक स्वायत्तता देने से कई प्रकार की राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याएँ भी पैदा होती हैं।

प्रश्न 7.
असम आन्दोलन सांस्कृतिक अभिमान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था। व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
असम आन्दोलन-असम पूर्वोत्तर भारत का एक महत्त्वपूर्ण राज्य है। सन् 1979 से सन् 1985 तक असम में बाहरी लोगों के खिलाफ जो आन्दोलन चला, उसे ‘असम आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। यह आन्दोलन असम के सांस्कृतिक अभियान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था क्योंकि-

(1) असमी लोगों को सन्देह था कि बंगलादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई है। लोगों के मन में यह भावना घर कर गई थी कि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जाएगी। या उन्हें ‘असमी संस्कति’ पर खतरा दिखाई दे रहा था। अतः सन् 1979 में ऑल असम स्टूडेण्ट यूनियन ने जब विदेशियों के विरोध में आन्दोलन चलाया, जिससे यह माँग की गई कि सन् 1951 के बाद जितने भी लोग असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए, तो असमी जनता के हर तबके ने इसका समर्थन किया तथा इस आन्दोलन को पूरे असम में समर्थन मिला।

(2) असम आन्दोलन के पीछे आर्थिक मसले भी जुड़े थे। असम में तेल, चाय और कोयले जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहाँ की जनता ने माना कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। अत: इस आन्दोलन के पीछे सांस्कृतिक स्वाभिमान के साथ-साथ असम के आर्थिक पिछड़ेपन की पीड़ा की भी अभिव्यक्ति थी।

प्रश्न 8.
हर क्षेत्रीय आन्दोलन अलगाववादी माँग की तरफ अग्रसर नहीं होता। इस अध्याय से उदाहरण देकर इस तथ्य की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के कई क्षेत्रों में काफी समय से कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन चल रहे हैं, परन्तु सभी क्षेत्रीय आन्दोलन अलगाववादी आन्दोलन नहीं होते, अर्थात् कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन भारत से अलग नहीं होना चाहते बल्कि अपने लिए अलग राज्य की माँग करते हैं; जैसे-झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का आन्दोलन, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों द्वारा चलाया गया आन्दोलन तथा तेलंगाना प्रजा समिति द्वारा चलाया गया आन्दोलन इत्यादि।

प्रश्न 9.
भारत के विभिन्न भागों में उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से ‘विविधता में एकता’ के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? तर्क दीजिए।
उत्तर:
हाँ, मैं इस कथन से सहमत हूँ कि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों में विविधता . में एकता के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि देश के विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न प्रकार की माँगें उठीं।
तमिलनाडु में जहाँ हिन्दी भाषा के विरोध और अंग्रेजी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में बनाए रखने की माँग उठी, तो असम में विदेशियों को असम से बाहर निकालने की माँग उठी, नागालैण्ड और मिजोरम में अलगाववाद की मांग उठी तो आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश व अन्य राज्यों में, भाषा के आधार पर अलग राज्य बनाने की माँग उठी।

इसी तरह उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड क्षेत्रों में प्रशासनिक सुविधा तथा आदिवासियों के हितों की रक्षा हेतु अलग राज्य बनाने के आन्दोलन हुए। अभी भी विभिन्न क्षेत्रों से भिन्न-भिन्न प्रकार की मांग उठ रही हैं जिनका मुख्य आधार क्षेत्रीय पिछड़ापन है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से विविधता के दर्शन होते हैं। भारत सरकार ने इन मांगों के निपटारे के लिए लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण अपनाते हुए एकता का परिचय दिया है। लोकतन्त्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्यक्ति की अनुमति होती है और लोकतन्त्र क्षेत्रीयता को राष्ट्र विरोधी नहीं मानता। लोकतान्त्रिक राजनीति में क्षेत्रीय मुद्दों और समस्याओं पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया में समुचित ध्यान दिया जाता है। अतः स्पष्ट है कि देश में सामने आने वाली क्षेत्रीय मांगों से विविधता में एकता की अभिव्यक्ति होती है।

प्रश्न 10.
नीचे लिखे अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें
हजारिका का एक गीत एकता की विजय पर है; पूर्वोत्तर के सात राज्यों को इस गीत में एक ही माँ की सात बेटियाँ कहा गया है……..मेघालय अपने रास्ते गई……अरुणाचल भी अलग हुई और मिजोरम असम के द्वार पर दूल्हे की तरह दूसरी बेटी से ब्याह रचाने के लिए खड़ा है……..इस गीत का अन्त असम लोगों की एकता को बनाए रखने के संकल्प के साथ होता है और इसमें समकालीन असम में मौजूद छोटी-छोटी कौमों को भी अपने साथ एकजुट रखने की बात कही गई है………करबी बौर मिजिंग भाई-बहन हमारे ही प्रियजन हैं। -संजीव बरूआ
(क) लेखक यहाँ किस एकता की बात कर रहा है?
(ख) पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के कुछ राज्य क्यों बनाए गए?
(ग) क्या आपको लगता है कि भारत के सभी क्षेत्रों के ऊपर एकता की यही बात लागू हो सकती है?
क्यों?
उत्तर:
(क) लेखक यहाँ पर पूर्वोत्तर राज्यों की एकता की बात कर रहा है।
(ख) सभी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए तथा आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य बनाए गए।
(ग) भारत के सभी क्षेत्रों पर एकता की यह बात लागू हो सकती है, क्योंकि भारत के सभी राज्यों में अलग-अलग धर्मों एवं जातियों के लोग रहते हैं तथा देश की एकता एवं अखण्डता के लिए उनमें एकता कायम करना आवश्यक है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या इसका मतलब यह हुआ कि क्षेत्रवाद साम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है? क्या हम यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्रवाद अपने आप में खतरनाक नहीं?
उत्तर:
सामान्यतः लोकतान्त्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्र विरोधी नहीं माना जाता। इसके साथ ही लोकतान्त्रिक राजनीति में इस बात के पूरे अवसर होते हैं कि विभिन्न दल और समह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी विशेष क्षेत्रीय समस्या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं की नुमाइन्दगी करें। इस तरह लोकतान्त्रिक राजनीति की प्रक्रिया में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ और बलवती होती हैं। साथ ही लोकतान्त्रिक राजनीति का अर्थ यह भी है कि क्षेत्रीय मुद्दों और समस्याओं पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया में समुचित ध्यान दिया जाएगा और उन्हें भागीदारी भी दी जाएगी।

जहाँ तक साम्प्रदायिकता का सवाल है यह धार्मिक या भाषायी समुदाय पर आधारित एक संकीर्ण मनोवृत्ति है जो धार्मिक या भाषायी अधिकारों तथा हितों को राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखती है इसलिए यह समाज विरोधी तथा राष्ट्र विरोधी मनोवृत्ति है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि क्षेत्रवाद साम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है।

लेकिन क्षेत्रीय आकांक्षाएँ यदि अत्यधिक बढ़ जाएँ और यह अलगाववाद का रूप धारण कर लें तो ऐसी स्थिति में क्षेत्रवाद एक राष्ट्र के लिए गम्भीर समस्या बन जाती है। इससे पृथकतावाद व राष्ट्र से अलग होकर नये राष्ट्र के निर्माण की माँग गम्भीर मुद्दे उभरकर सामने आते हैं।

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प्रश्न 2.
खतरे की बात हमेशा सीमान्त के राज्यों के सन्दर्भ में ही क्यों उठाई जाती है? क्या इस सबके पीछे विदेशी हाथ ही होता है?
उत्तर:
प्राय: यह देखा गया है कि सीमान्त प्रदेश में ही क्षेत्रवाद एवं अलगाववाद की समस्या अधिक पायी जाती है। इसका मुख्य कारण विदेशी ताकतों का हाथ होना माना जा सकता है। जम्मू-कश्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में घटित होने वाली विभिन्न घटनाएँ इसका उदाहरण माना जा सकता है। कश्मीरियों द्वारा अलग से स्वतन्त्र राष्ट्र की ओर पंजाब द्वारा खालिस्तान की माँग के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ रहा है।

प्रश्न 3.
पर यह सारी बात तो सरकार, अधिकारियों, नेताओं और आतंकवादियों के बारे में है। कश्मीरी जनता के बारे में कोई कुछ क्यों नहीं कहता? लोकतन्त्र में तो जनता की इच्छा को महत्त्व दिया जाना चाहिए। क्यों मैं ठीक कह रही हूँ न?
उत्तर:
जम्मू में सन् 1989 में अलगाववादियों का विशेष प्रभाव रहा। अलगाववादियों का एक तबका कश्मीर को एक अलग राष्ट्र बनाना चाहता है। यानी एक ऐसा कश्मीर जो न पाकिस्तान का हिस्सा हो और न भारत का कुछ अलगाववादी समूह चाहते हैं कि कश्मीर का विलय पाकिस्तान में हो जाए। अलगाववादी राजनीति की एक तीसरी धारा भी है। इस धारा के समर्थक चाहते हैं कि कश्मीर भारत संघ का ही हिस्सा रहे लेकिन उसे और स्वायत्तता दी जाए। स्वायत्तता की बात जम्मू और लद्दाख के लोगों को अलग-अलग ढंग से लुभाती है। इस क्षेत्र के लोगों की एक आम शिकायत उपेक्षा भरे बरताव और पिछड़ेपन को लेकर है।

इस वजह से पूरे राज्य की स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है उतनी ही प्रबल माँग इस राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर पर अलगाववादियों, आतंकवादियों एवं विभिन्न राजनीतिज्ञों की प्रशासनिक नीतियों का प्रभाव रहा है लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मुख्य लक्षण जनमत की इच्छा का सम्मान करते हुए जम्मू-कश्मीर के लोगों की इच्छानुसार प्रशासनिक निर्णय लिया जाना चाहिए। अर्थात् जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में जनमत संग्रह की नीति का पालन किया जाना चाहिए जिससे इस क्षेत्र की समस्त समस्याओं का स्थायी समाधान हो सके।

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्षेत्रवाद का अर्थ, कारण तथा दुष्परिणामों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद का अर्थ क्षेत्रवाद का अर्थ किसी देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जाग्रत है।
प्रो० एस० गुप्ता के अनुसार, “क्षेत्रवाद का अर्थ देश की अपेक्षा किसी विशेष क्षेत्र से प्यार है।”

फॉल्टर के अनुसार, “क्षेत्रवाद का अर्थ एक देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक आदि से अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक है।”

क्षेत्रवाद का कारण

क्षेत्रवाद के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. ऐतिहासिक कारण-क्षेत्रवाद की उत्पत्ति में इतिहास का दोहरा सहयोग रहता है-सकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक योगदान में शिव सेना का उदाहरण दिया जा सकता है और नकारात्मक योगदान में डी०एम०के० का उदाहरण दिया जा सकता है।

2. ऐतिहासिक विरासत-भारत प्राचीन काल से विशाल प्रादेशिक राज्यों वाला देश रहा है। कुछ शक्तिशाली राजाओं ने सम्पूर्ण भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित किया है लेकिन विशाल आकार और यातायात के साधनों के अभाव के कारण अखण्ड केन्द्रीय राज्य भारत में अधिक समय तक नहीं चल सका। केन्द्र सरकार के शक्तिहीन होने पर अधीनस्थ प्रदेशों और सामन्तों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी और स्थानीय स्वशासन स्थापित हो गया। इसी आधार पर भारत में नागालैण्ड, तमिलनाडु, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के विभाजन की माँग उठी।

3. भौगोलिक एवं सांस्कृतिक कारण–स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जब राज्यों का पुनर्गठन किया गया तब राज्यों की पुरानी सीमाओं को भुलाकर नहीं किया गया बल्कि उनको पुनर्गठन का आधार बनाया गया है। इसी कारण एक राज्य के रहने वाले लोगों में एकता की भावना नहीं आ पायी। प्राय: भाषा और संस्कृति क्षेत्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुत सहयोग देते हैं।

4. भाषागत विभिन्नताएँ-भारत के विभिन्न प्रान्तों और क्षेत्रों की अपनी-अपनी भाषा है। प्रादेशिक भाषा बोलने वालों को अपनी भाषा से भावनात्मक लगाव होता है। अपनी भाषा को वे अधिक श्रेष्ठ मानकर अन्य भाषाओं को हीन मान लेते हैं। इससे क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिलता है।

5. आर्थिक असन्तुलन-स्वाधीन भारत में देश का आर्थिक विकास कार्यक्रम कुछ इस प्रकार चला कि कुछ क्षेत्र बहुत अधिक विकसित हो गए जबकि कुछ क्षेत्र पिछड़ गए। पिछड़े क्षेत्रों में असन्तोष का उदय होना स्वाभाविक था। मिजो और नगा विद्रोहियों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

6. प्रशासनिक कारण-प्रशासनिक कारणों से भी विभिन्न राज्यों की प्रगति में अन्तर रहा है। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा राज्यों का समान विकास नहीं हुआ है। कुछ राज्यों में प्रभावशाली औद्योगिक नीति के कारण विकास हुआ है जो कुछ राज्यों में बहुत धीमी गति से हो रहा है जो क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है।

क्षेत्रवाद के दुष्परिणाम भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद के प्रमुख दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं-

  1. विभिन्न क्षेत्रों के मध्य संघर्ष और तनाव-क्षेत्रवाद का पहला दुष्परिणाम भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक, राजनीतिक, मनौवैज्ञानिक संघर्ष और तनाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
  2. राज्य तथा केन्द्र सरकार के मध्य सम्बन्धों का विकृत होना-भारत में क्षेत्रीय कारण कभी-कभी केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के मध्य सम्बन्धों को भी विकृत कर देते हैं। राज्यों में विरोधी दल की सरकार होने की स्थिति में तनाव और बढ़ जाता है।
  3. स्वार्थी नेतृत्व एवं संगठनों का विकास क्षेत्रवाद के कारण कुछ स्वार्थी नेता और संगठन विकसित होने लगते हैं जो जनता की भावनाओं को उभारकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं।
  4. राष्ट्र की एकता को चुनौती-संकीर्ण क्षेत्रीयता राष्ट्र की एकता के लिए चुनौती बन जाती है।
  5. पृथक्तावाद को प्रोत्साहन-क्षेत्रवाद के कारण उपक्षेत्रवाद का उदय होता है। स्वार्थी तत्त्वों द्वारा क्षेत्रीय असन्तुलन को बढ़ावा दिया जाता है तथा इस असन्तोष को पृथक्तावाद का रूप प्रदान कर दिया जाता है।
  6. नए राज्यों की माँग-क्षेत्रवाद की भावना से प्रेरित होकर नए राज्यों की माँगें की जाती हैं। कभी-कभी यह माँगें हिंसक रूप धारण कर लेती हैं। झारखण्ड, उत्तरांचल (उत्तराखण्ड), छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि राज्यों. के निर्माण से पूर्व हुए आन्दोलन इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 2.
भारत में नए राज्यों के गठन के पक्ष और विपक्ष में क्या तर्क दिए जाते रहे हैं?
उत्तर:
नए राज्यों के गठन के पक्ष में तर्क-भारत में नए राज्यों के समर्थक अपने पक्ष में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

  1. नए राज्यों का गठन करने से पिछड़े क्षेत्रों को विकास करने का विशेष अवसर प्राप्त हो जाता है।
  2. उस क्षेत्र के लोगों में सांस्कृतिक भाषायी समानता के कारण अधिक निकटता बनी रहती है।
  3. पिछड़े क्षेत्र के लोगों को नए राज्य का दर्जा देने से यहाँ के लोगों में राजनीतिक चेतना जाग्रत होती है।
  4. बड़े राज्यों का विशाल आकार उनमें प्रशासनिक क्षमता और शान्ति व्यवस्था पर दबाव डालता है। छोटे राज्यों के निर्माण में इस समस्या से मुक्ति पायी जा सकती है।
  5. नए राज्यों का गठन राष्ट्र विरोधी गतिविधि नहीं है।

नए राज्यों के विपक्ष में तर्क-भारत में नए राज्यों के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

  1. नए राज्यों की माँग विभिन्न क्षेत्रों में संघर्ष तथा तनाव पैदा करती है।
  2. पिछड़े क्षेत्र का विकास नए राज्यों के गठन मात्र से सम्भव नहीं है।
  3. नए राज्यों के गठन से अनावश्यक प्रशासनिक तन्त्र में वृद्धि होती है।
  4. नए राज्यों के गठन से क्षेत्रीयतावाद की संकीर्ण भावना पैदा होती है जो राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए खतरा बन सकती है।
  5. नए राज्यों की माँग की प्रवृत्ति प्रगति में बाधक है। यह.समग्र विकास के स्थान पर क्षेत्र विकास को प्राथमिकता देकर सम्पूर्ण राष्ट्र की तुलना में अपने क्षेत्र विशेष के प्रति भक्ति पैदा करने का प्रयास करता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रशासनिक दृष्टिकोण से यदि नए राज्यों का गठन किया जाए तो बुरा नहीं है, किन्तु क्षेत्रीयतावाद की संकीर्ण भावना को भड़काकर नए राज्य की माँग करना राष्ट्रीय हित में नहीं है क्योंकि यह प्रवृत्ति पृथक्तावाद को जन्म देती है।

प्रश्न 3.
क्षेत्रवाद की समस्या के निवारण हेतु सुझाव दीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद की समस्या के निवारण हेतु सुझाव क्षेत्रवाद को रोकने के सम्बन्ध मे निम्नलिखित उपाय सुझाए जा सकते हैं-

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्धारण किया जाए–केन्द्र सरकार की नीति कुछ इस प्रकार की होनी चाहिए कि सभी उप-सांस्कृतिक क्षेत्रों का सन्तुलित आर्थिक विकास सम्भव हो जिससे कि विभिन्न क्षेत्रों के बीच आर्थिक तनाव कम-से-कम हो।
  2. आधारभूत ढाँचे का विकास किया जाए–सरकार द्वारा बिजली, परिवहन, जल आपूर्ति आदि का समुचित विकास किया जाए जाना चाहिए। यह क्षेत्रवाद को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। आधारभूत ढाँचे का विकास औद्योगिक प्रगति में सहायक होगा।
  3. सांस्कृतिक एकीकरण के लिए प्रयास किए जाएँ-प्रचार के विभिन्न साधनों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के सांस्कृतिक लक्षणों के विषय में लोगों के सामान्य ज्ञान को बढ़ाया जाए जिससे कि एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्र के प्रति आर्थिक सहनशीलता की भावना को पनपा सकें।
  4. देश का सन्तुलित विकास किया जाए-सरकार द्वारा विकास की ऐसी योजनाएँ बनानी चाहिए जिससे देश के सभी क्षेत्रों को समान रूप से लाभ प्राप्त हो, सभी क्षेत्रों की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए। विकास योजनाओं में सभी क्षेत्रों के विकास का प्रावधान रखना चाहिए जिससे इन क्षेत्रों में परस्पर तनाव उत्पन्न न हो।
  5. क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान-राष्ट्र भाषा के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास तथा सम्मान होना चाहिए। हिन्दी भाषा को किसी क्षेत्रीय समूह पर जबरदस्ती लादा न जाए बल्कि इस भाषा का प्रचार व विस्तार इस ढंग से किया जाए कि विभिन्न क्षेत्रीय समूह स्वतः ही इसे सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार कर लें।
  6. क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध-केन्द्र सरकार द्वारा ऐसे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए जो क्षेत्रवाद की भावना में वृद्धि करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को मन्त्री तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पद नहीं होने चाहिए जो क्षेत्रवाद में विश्वास करते हैं तथा उसे बढ़ावा देते हैं।
  7. छोटे राज्यों का गठन करना चाहिए-बड़े व विशालकाय राज्यों का विभाजन कर छोटे राज्यों की स्थापना करनी चाहिए। यह प्रशासनिक कुशलता के लिए आवश्यक है।
  8. क्षेत्रीय स्वायत्त परिषदों की स्थापना की जाए–सभी क्षेत्र के लोगों को समान आर्थिक सुविधाएँ प्रदान करने हेतु क्षेत्रीय स्वायत्त परिषदों की स्थापना की जानी चाहिए, उन्हें राजनीतिक स्वायत्तता के साथ ही प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता भी प्रदान करनी चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्षेत्रवाद क्या है? यह भारत की राज्य व्यवस्था को किस प्रकार से प्रभावित करता है?
उत्तर:
क्षेत्रवाद क्षेत्रवाद का अर्थ किसी छोटे-से क्षेत्र से है जो भाषायी, धार्मिक, भौगोलिक, सामाजिक अथवा ऐसे ही अन्य कारक के आधार पर अपने पृथक् अस्तित्व के लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार क्षेत्रवाद से अभिप्राय है-राज्य की तुलना में किसी क्षेत्र विशेष से लगाव।

क्षेत्रवाद के प्रभाव-भारत की राज्य व्यवस्था को क्षेत्रवाद निम्न प्रकार से प्रभावित करता है-

  1. क्षेत्रवाद के आधार पर राज्य केन्द्र सरकार से सौदेबाजी करते हैं।
  2. क्षेत्रवाद ने कुछ हद तक भारतीय राजनीति में हिंसक गतिविधियों को उभारा है।
  3. चुनावों के समय क्षेत्रवाद के आधार पर राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव करते हैं और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काकर वोट प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं।
  4. मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय मन्त्रिमण्डल में प्राय: सभी मुख्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को लिया जाता है।

प्रश्न 2.
संविधान की धारा-370 क्या है? इस प्रावधान का विरोध क्यों हो रहा है?
उत्तर:
संविधान की धारा-370-कश्मीर को संविधान की धारा-370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया है। धारा-370 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक स्वायत्तता दी गई है। राज्य का अपना संविधान है।

संविधान की धारा-370 का विरोध-धारा-370 का विरोध लोगों का एक समूह इस आधार पर कर रहा है कि जम्मू-कश्मीर राज्य को धारा-370 के अन्तर्गत विशेष दर्जा देने से यह भारत के साथ नहीं जुड़ पाया है। अतः धारा-370 को समाप्त कर जम्मू-कश्मीर राज्य को भी अन्य राज्यों के समान होना चाहिए।

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प्रश्न 3.
क्षेत्रीय असन्तुलन क्या है? भारतीय राजनीति व्यवस्था पर इसके प्रभावों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन-क्षेत्रीय असन्तुलन का अर्थ यह है कि भारत के विभिन्न राज्यों तथा क्षेत्रों का विकास एक जैसा नहीं है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के विकास स्तर और लोगों के जीवन स्तर में पाए जाने वाले अन्तर को क्षेत्रीय असन्तुलन का नाम दिया जाता है।

क्षेत्रीय असन्तुलन के प्रभाव क्षेत्रीय असन्तुलन भारतीय लोकतन्त्र पर मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रभाव डाल रहा है-

  1. पिछड़े क्षेत्रों में असन्तुष्टता की भावना बड़ी तेजी से बढ़ रही है।
  2. क्षेत्रीय असन्तुलन से क्षेत्रवाद की भावना को बल मिला है।
  3. क्षेत्रीय असन्तुलन ने अनेक क्षेत्रीय दलों को जन्म दिया है।
  4. क्षेत्रीय असन्तुलन से पृथक्तावाद तथा आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा मिला है।

प्रश्न 4.
क्षेत्रीय असन्तुलन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण-भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भौगोलिक विषमताओं ने क्षेत्रीय असन्तुलन पैदा किया है। परिस्थितियों के कारण भारत में एक तरफ राजस्थान जैसा मरुस्थल है जो कम उपजाऊ है तो दूसरी तरफ पंजाब जैसा उपजाऊ क्षेत्र हैं।
  2. भाषा की विभिन्नता ने क्षेत्रीय असन्तुलन को बढ़ावा दिया है।
  3. ब्रिटिश सरकार ने कुछ क्षेत्रों का विकास किया और कुछ का नहीं किया, जिससे क्षेत्रीय असन्तुलन पैदा हुआ।
  4. क्षेत्रीय असन्तुलन का एक महत्त्वपूर्ण कारण नेताओं की अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास पर अधिक बल देने की प्रवृत्ति भी है।

प्रश्न 5.
क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के सुझाव दीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के सुझाव-क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं-

  1. पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष प्रयास किए जाएँ। पिछड़े क्षेत्रों में विशेषकर बिजली, यातायात व संचार के साधनों का विकास किया जाए।
  2. पिछड़े लोगों व जनजातियों के विकास के लिए विशेष कदम उठाया जाएँ।
  3. जो प्रशासनिक अधिकारी आदिवासी क्षेत्रों मे नियुक्त किए जाएँ उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाए और उन्हीं को नियुक्त किए जाए जो इन क्षेत्रों के बारे में थोड़ा बहुत ज्ञान भी रखते हों।
  4. केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में सभी क्षेत्रों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए।

प्रश्न 6.
क्षेत्रीय असन्तुलन क्षेत्रवाद का जनक है। व्याख्या कीजिए। अथवा क्षेत्रीय असन्तुलन भारत में क्षेत्रवाद का एक प्रमुख कारण है। समझाइए।
उत्तर:
क्षेत्रीय असन्तुलन क्षेत्रवाद के जनक के रूप में क्षेत्रीय असन्तुलन से अभिप्राय विभिन्न क्षेत्रों के बीच प्रति व्यक्ति आय, साक्षरता दरों, स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं की उपलब्धता, औद्योगीकरण का स्तर आदि के आधार पर अन्तर पाया जाता है। भारत के विभिन्न राज्यों के बीच बड़े पैमाने पर असन्तुलन पाया जाता है। क्षेत्रीय असन्तुलन ने भारत में निम्नलिखित रूप से क्षेत्रवाद को पैदा किया है-

  1. क्षेत्रीय विभिन्नताओं एवं असन्तुलन के कारण क्षेत्रीय भेदभाव को बढ़ावा मिलता है।
  2. भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण क्षेत्रवादी भावनाओं को बल मिला है। इसके कारण कई क्षेत्रों ने पृथक् राज्यों की माँग की है।
  3. क्षेत्रीय असन्तुलन ने क्षेत्रवादी हिंसा, आन्दोलनों व तोड़-फोड़ को बढ़ावा दिया है।
  4. अनेक क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण ही बने हैं जो अब क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।

प्रश्न 7.
असम समझौता क्या था? इसके क्या परिणाम हुए?
उत्तर:
असम समझौता-सन् 1985 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी और आसू के बीच एक समझौता हुआ जिसमें यह तय किया गया कि जो लोग बंगलादेश युद्ध के दौरान या उसके बाद के वर्षों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा।

समझौते के कारण-समझौते के निम्नलिखित प्रमुख परिणाम निकले-

  1. समझौते के बाद ‘आसू’ और असम-गण-संग्राम परिषद् ने साथ मिलकर ‘असम-गण-परिषद्’ नामक एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल बनाया।
  2. असम-गण-परिषद् सन् 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आया कि विदेशी लोगों की समस्या का समाधान कर लिया जाएगा।
  3. असम समझौते से प्रदेश में शान्ति कायम हुई तथा प्रदेश की राजनीति का चेहरा बदल गया।
  4. असम समझौते के बावजूद ‘आप्रवास’ की समस्या अभी भी एक जीवन्त मुद्दा बनी हुई है।

प्रश्न 8.
जम्मू-कश्मीर में तनाव के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जम्मू-कश्मीर में तनाव के प्रमुख कारण-जम्मू-कश्मीर में तनाव के प्रमुख कारण निम्नलिखित-

  1. पाकिस्तानी नेताओं का विचार है कि कश्मीर का पाकिस्तान से सम्बन्ध है क्योकि राज्य की अधिकांश जनसंख्या मुस्लिम है। पाकिस्तानी नेताओं का हमेशा यह दावा रहा है कि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए।
  2. पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर राज्य पर सन् 1947 में कबायली हमला करवाकर इसका एक हिस्सा अपने नियन्त्रण में ले लिया है। भारत का दावा है कि इस क्षेत्र का पाकिस्तान द्वारा किया गया अधिग्रहण अवैध है।
  3. भारतीय संघ में कश्मीर की हैसियत को लेकर काफी विवाद है। धारा-370 में जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है जिसका देश में विरोध है। अनेक लोगों का मत है कि राज्य को धारा-370 के तहत विशेष दर्जा देने से यह भारत के साथ पूरी तरह से जुड़ नहीं पाया है।
  4. अधिकांश कश्मीरी लोगों का मत है कि उन्हें पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान नहीं की गयी है।

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प्रश्न 9.
राजीव-लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता की प्रमुख शर्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राजीव-लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता

सन् 1984 के चुनावों के बाद सत्ता में आने वाले तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने नरमपन्थी अकाली नेताओं से वार्ता आरम्भ की। अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचरन सिंह लोंगोवाल के साथ जुलाई 1985 में एक समझौता हुआ। इस समझौते को ‘राजीव गांधी-लोंगोवाल समझौता’ अथवा ‘पंजाब समझौता’ कहते हैं।

समझौते की प्रमुख शर्ते

(1) यह समझौता पंजाब में शान्ति कायम करने की दिशा में एक शीर्षस्थ कदम था। इस बात पर सहमति हुई कि चण्डीगढ़, पंजाब को दे दिया जाएगा तथा पंजाब एवं हरियाणा के मध्य सीमा विवाद को सुलझाने के लिए एक अलग आयोग की नियुक्ति होगी। समझौते में यह भी निश्चित किया गया कि पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के मध्य रावी-व्यास के पानी के बँटवारे के बारे में फैसला करने हेतु एक ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) बैठाया जाएगा।

(2) समझौते में सरकार पंजाब में उग्रवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने व उनके साथ अच्छा व्यवहार करने पर राजी हुई। साथ ही पंजाब से विशेष सुरक्षा वाले अधिनियम को वापस लेने की बात पर भी सहमति हुई।

प्रश्न 10.
राजीव गांधी के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
राजीव गांधी, फिरोज गांधी और इन्दिरा गांधी के पुत्र थे। उनका जन्म सन् 1944 में हुआ। सन् 1980 के बाद वे देश की सक्रिय राजनीति में शामिल हुए। अपनी माँ श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद वे राष्ट्रव्यापी सहानुभूति के माहौल में भारी बहुमत से जीते तथा सन् 1984 में देश के प्रधानमन्त्री बने और सन् 1989 तक वह प्रधानमन्त्री पद पर रहे। इन्होंने पंजाब में व्याप्त आतंकवाद के विरुद्ध उदारपन्थी नीतियों के समर्थक लोंगोवाल के साथ समझौता किया। इन्हें मिजो विद्रोहियों व असम में छात्र संघों से समझौता करने में सफलता प्राप्त हुई। राजीव गांधी देश में उदारवाद या खुली अर्थव्यवस्था एवं कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के प्रणेता रहे। श्रीलंका में नक्सलियों की समस्या को सुलझाने के लिए इन्होंने भारतीय शान्ति सेना को श्रीलंका भेजा। ऐसा माना जाता है कि श्रीलंका के विद्रोही तमिल संगठन लिट्टे के एक आत्मघाती द्वारा सन् 1991 में राजीव गांधी की निर्मम हत्या कर दी गयी।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पूर्वोत्तर के किन राज्यों को सात बहनों के नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
(1) असम,
(2) नागालैण्ड,
(3) मेघालय,
(4) मिजोरम,
(5) अरुणाचल प्रदेश,
(6) त्रिपुरा और
(7) मणिपुर।

प्रश्न 2.
‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ कब और किसके द्वारा चलाया गया?
उत्तर:
ऑपरेशन ब्लू स्टार सन् 1984 में भारत सरकार द्वारा चलाया गया।

प्रश्न 3.
क्षेत्रीय आकांक्षाओं का एक आधारभूत सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतान्त्रिक राजनीति का अभिन्न अंग हैं।

प्रश्न 4.
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव कब पास किया गया और इसका सम्बन्ध किसके साथ है?
उत्तर:
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव सन् 1973 में पास किया गया और इसका सम्बन्ध राज्यों की स्वायत्तता से है।

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प्रश्न 5.
‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ क्या था?
उत्तर:
सन् 1984 के जून माह में स्वर्ण मन्दिर में की गई सैन्य कार्रवाई का कूट नाम ‘ऑपरेशन ब्लू – स्टार’ था।

प्रश्न 6.
क्षेत्रवाद से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
क्षेत्रवाद से अभिप्राय किसी भी देश के उस छोटे से क्षेत्र-से है जो औद्योगिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जाग्रत है। क्षेत्रवाद केन्द्रीयकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय इकाइयों को अधिक शक्ति व स्वायत्तता प्रदान करने के पक्ष में है।

प्रश्न 7.
क्षेत्रवादी आन्दोलन से हमें क्या सबक मिलता है?
उत्तर:

  1. प्रथम सबक यह मिलता है कि क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोक राजनीति का अभिन्न अंग हैं।
  2. लोकतान्त्रिक वार्ता करके क्षेत्रीय आकांक्षाओं का हल निकालना चाहिए।

प्रश्न 8.
क्षेत्र पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
क्षेत्र उस भू-भाग को कहते हैं जिसके निवासी सामान्य भाषा, धर्म, परम्पराएँ, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास आदि की दृष्टि से भावनात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हों। इनमें से किसी एक या अधिक तत्त्व के साथ लोग भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं।

प्रश्न 9.
अलगाववाद का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अलगाववाद से अभिप्राय एक राज्य से कुछ क्षेत्र को अलग करके स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की माँग है। अलगाववाद का उदय उस समय होता है जब क्षेत्रवाद की भावना उग्र रूप धारण कर लेती है।

प्रश्न 10.
क्षेत्रीय दलों से क्या आशय है?
उत्तर:
जो पार्टी सारे देश में नहीं होती बल्कि जिसका कार्यक्षेत्र किसी प्रान्त या राज्य या उसके छोटे-से क्षेत्र तक सीमित होता है, उसे ‘क्षेत्रीय दल’ कहा जाता है।

प्रश्न 11.
क्षेत्रवाद रोकने के कोई दो उपाय बताइए।
उत्तर:
क्षेत्रवाद रोकने के उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्धारण किया जाए।
  2. सांस्कृतिक एकीकरण के लिए प्रयास किए जाए।

प्रश्न 12.
भारत में क्षेत्रीय दलों के विकास के कोई दो प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर:

  1. जातिवाद-भारत में अनेक क्षेत्रीय दलों का निर्माण जातिवाद के आधार पर हुआ है।
  2. धर्म-धर्म भी क्षेत्रीय दलों के निर्माण का प्रमुख कारण माना जाता है।

प्रश्न 13.
नए राज्यों के निर्माण के विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर:

  1. नए राज्यों की माँग विभिन्न क्षेत्रों में संघर्ष तथा तनाव पैदा करती है।
  2. पिछड़े क्षेत्रों का विकास नए राज्यों के गठन मात्र से सम्भव नहीं है।

प्रश्न 14.
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव का सिक्खों तथा देश पर क्या प्रभाव पड़ा? (कोई दो)
उत्तर:

  1. इसके प्रभावस्वरूप स्वायत्त सिक्ख पहचान की बात उठी।
  2. इसके प्रभावस्वरूप ही चरमपन्थी सिक्खों ने भारत से अलग होकर खालिस्तान की माँग की।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
असम समझौता कब हुआ था-
(a) 15 अगस्त, 1985
(b) 15 अगस्त, 1986
(c) 30 अगस्त, 1988
(d) 15 जनवरी, 1990
उत्तर:
(a) 15 अगस्त, 1985

प्रश्न 2.
किस राज्य में असम-गण-परिषद् सक्रिय है-
(a) गुजरात
(b) तमिलनाडु
(c) पंजाब
(d) असम
उत्तर:
(d) असम

प्रश्न 3.
द्रविड़ आन्दोलन के प्रणेता कौन थे-
(a) हामिद अंसारी
(b) लालडेंगा
(c) ई० वी० रामास्वामी नायकर
(d) शेख मुहम्मद अब्दुल्ला।
उत्तर:
(c) ई० वी० रामास्वामी नायकर।

प्रश्न 4.
किस वर्ष आन्ध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी की स्थापना हुई-
(a) सन् 1985
(b) सन् 1982
(c) सन् 1984
(d) सन् 1971
उत्तर:
(b) सन् 1982

प्रश्न 5.
भारत में साम्यवादी दल की स्थापना हुई-
(a) सन् 1940
(b) सन् 1924
(c) सन् 1950
(d) सन् 1960
उत्तर:
(b) सन् 1924

प्रश्न 6.
नेशनल कॉन्फ्रेंस किस राज्य में सक्रिय है-
(a) जम्मू-कश्मीर
(b) राजस्थान
(c) पंजाब
(d) हिमाचल प्रदेश।
उत्तर:
(a) जम्मू-कश्मीर।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Rise of Popular Movements

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 7 Rise of Popular Movements (जन आन्दोलनों का उदय)

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन के बारे में निम्नलिखित में कौन-कौन से कथन गलत हैं-
(क) यह पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए चला एक पर्यावरण आन्दोलन था।
(ख) इस आन्दोलन ने पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के मामले उठाए।
(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरू किया गया शराब-विरोधी आन्दोलन था।
(घ) इस आन्दोलन की माँग थी कि स्थानीय निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियन्त्रण होना चाहिए।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही।

प्रश्न 2.
नीचे लिखे कुछ कथन गलत हैं। इनकी पहचान करें और जरूरी सुधार के साथ उन्हें दुरुस्त करके दोबारा लिखें
(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतन्त्र को हानि पहुंचा रहे हैं।
(ख) सामाजिक आन्दोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।
(ग) भारत के राजनीतिक दलों ने कई मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आन्दोलनों का उदय हुआ।
उत्तर:
(क) सामाजिक आन्दोलन भारत के लोकतन्त्र को बढ़ावा दे रहे हैं।
(ख) यह कथन पूर्ण रूप से सही है।
(ग) यह कथन पूर्ण रूप से सही है।

प्रश्न 3.
उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में ( अब उत्तराखण्ड) 1970 के दशक में किन कारणों से चिपको आन्दोलन का जन्म हुआ? इस आन्दोलन का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
1970 के दशक में उत्तर प्रदेश के उत्तरांचल (उत्तराखण्ड) क्षेत्र में चिपको आन्दोलन की शुरुआत हुई। चिपको आन्दोलन का अर्थ है-पेड़ से चिपक (लिपट) जाना अर्थात् पेड़ को आलिंगनबद्ध कर लेना।

चिपको आन्दोलन के कारण-चिपको आन्दोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे—

(1) चिपको आन्दोलन की शुरुआत उस समय हुई जब वन विभाग ने खेती-बाड़ी के औजार बनाने के लिए ‘Ashtree’ काटने की अनुमति नहीं दी तथा खेल सामग्री बनाने वाली एक व्यावसायिक कम्पनी को यह पेड़ काटने की अनुमति प्रदान की गई। इससे गाँव वालों में रोष उत्पन्न हुआ और गाँव वाले वनों की इस कटाई का विरोध करते हुए जंगल में एकत्रित हो गए तथा पेड़ों से चिपक गए, जिससे ठेकेदारों के कर्मचारी पेड़ों को काट न सकें। इस घटना का पूरे देश में प्रसार हुआ।

(2) गाँव वालों ने माँग रखी कि वन कटाई का ठेका किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए तथा स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक साधनों पर उपयुक्त नियन्त्रण होना चाहिए।

(3) चिपको आन्दोलन का एक अन्य कारण पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाए रखना था। गाँववासी चाहते थे कि इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी सन्तुलन को हानि पहुँचाए बिना विकास किया जाए।

(4) ठेकेदारों द्वारा शराब की आपूर्ति करने का विरोध के रूप में यह आन्दोलन उठा। इस क्षेत्र में वनों की कटाई के दौरान ठेकेदार यहाँ के पुरुषों को शराब आपूर्ति का व्यवसाय भी करते थे। अतः स्त्रियों ने शराबखोरी की लत के विरोध में भी आवाज बुलन्द की।

प्रभाव-चिपको आन्दोलन को देश में व्यापक सफलता प्राप्त हुई और सरकार ने पन्द्रह वर्षों के लिए हिमालयी क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी ताकि इस अवधि में क्षेत्र का वनाच्छादन फिर से ठीक अवस्था में आ जाए। इस आन्दोलन की सफलता ने भारत में चलाए गए अन्य आन्दोलनों को भी प्रभावित किया। इस आन्दोलन से ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक जागरूकता के आन्दोलन चलाए गए।

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प्रश्न 4.
भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?
उत्तर:
1990 के दशक में भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) ने भारतीय किसानों की दुर्दशा सुधारने हेतु अनेक मुद्दों पर बल दिया, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. बिजली की दरों में बढ़ोतरी का विरोध किया।
  2. 1980 के दशक में उत्तरार्द्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था पर उदारीकरण के प्रभाव को देखते हुए नगदी फसलों के सरकारी खरीद मूल्यों में बढ़ोतरी की माँग की।
  3. कृषि उत्पादों के अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबन्दियों को हटाने पर बल दिया।
  4. किसानों के लिए पेन्शन का प्रावधान करने की माँग की।

सफलताएँ – भारतीय किसान यूनियन को निम्नलिखित सफलताएँ प्राप्त हुईं-

(1) बीकेयू (BKU) जैसी माँगें देश के अन्य किसान संगठनों ने भी उठायीं। महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन ने किसानों के आन्दोलन को इण्डिया की ताकतों (यानी शहरी औद्योगिक क्षेत्र) के खिलाफ ‘भारत’ (यानी ग्रामीण कृषि क्षेत्र) का संग्राम करार दिया।

(2) 1990 के दशक में बीकेयू ने अपनी संख्या बल के आधार पर एक दबाव समूह की तरह कार्य किया तथा अन्य किसान संगठनों के साथ मिलकर अपनी मांगें मनवाने में सफलता पायी।

(3) यह आन्दोलन मुख्य रूप से देश के समृद्ध राज्यों में सक्रिय था। खेती को अपनी जीविका का आधार बनाने वाले अधिकांश भारतीय किसानों के विपरीत बीकेयू जैसे संगठनों के सदस्य बाजार के लिए नगदी फसल उगाते थे। बीकेयू की तरह राज्यों के अन्य किसान संगठनों ने अपने सदस्य बनाए, जिनका क्षेत्र की चुनावी राजनीति से सम्बन्ध था। महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन और कर्नाटक का रैयत संघ ऐसे किसान संगठनों के जीवन्त उदाहरण हैं।

प्रश्न 5.
आन्ध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आन्दोलन ने देश का ध्यान कुछ गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?
उत्तर:
आन्ध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आन्दोलन ने देश का ध्यान निम्नलिखित गम्भीर मुद्दों की तरफ खींचा-

  1. शराब पीने से पुरुषों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य कमजोर होता है।
  2. शराब पीने से व्यक्ति की कार्यक्षमता प्रभावित होती है जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
  3. शराबखोरी से ग्रामीणों पर कर्ज का बोझ बढ़ता है।
  4. शराबखोरी से कामचोरी की आदत बढ़ती है।
  5. शराब माफिया के सक्रिय होने से गाँवों में अपराधों को बढ़ावा मिलता है तथा अपराध और राजनीति के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध बनता है।
  6. शराबखोरी से परिवार की महिलाओं से मारपीट एवं तनाव को बढ़ावा मिलता है।
  7. शराब विरोधी आन्दोलन ने महिलाओं के मुद्दों-दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल व सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न, लैंगिक असमानता आदि के प्रति समाज में जागरूकता उत्पन्न की।

प्रश्न 6.
क्या आप शराब-विरोधी आन्दोलनको महिला-आन्दोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ।
उत्तर:
शराब-विरोधी आन्दोलन को महिला-आन्दोलन का दर्जा दिया जा सकता है क्योंकि अब तक जितने भी शराब-विरोधी आन्दोलन हुए उनमें महिलाओं की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण रही है। शराबखोरी से सर्वाधिक परेशानी महिलाओं को होती है। इससे परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है, परिवार में तनाव व मारपीट का वातावरण बनता है। तनाव के चलते पुरुष शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो जाते हैं। इन्हीं कारणों से शराब-विरोधी आन्दोलनों का प्रारम्भ प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता रहा है। अत: शराब-विरोधी आन्दोलन को महिला-आन्दोलन भी कहा जा सकता है।

प्रश्न 7.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजना का विरोध क्यों किया?
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजना का विरोध अग्रलिखित कारणों से किया-

  1. बाँध निर्माण से प्राकृतिक नदियों व पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है।
  2. जिस क्षेत्र में बाँध बनाए जाते हैं वहाँ रह रहे गरीबों के घर-बार, उनकी खेती योग्य भूमि, वर्षों से चले आ रहे कुटीर-धन्धों पर भी बुरा असर पड़ता है।
  3. प्रभावित गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मामला उठाया जा रहा था।
  4. परियोजना पर किए जाने वाले व्यय में हेरा-फेरी के दोषों को उजागर करना भी परियोजना विरोधी स्वयं सेवकों का उद्देश्य था।
  5. आन्दोलनकर्ता प्रभावित लोगों को आजीविका और उनकी संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण को बचाना चाहते थे। वे जल, जंगल और जमीन पर प्रभावित लोगों का नियन्त्रण या इन्हें उचित मुआवजा और उनका पुनर्वास चाहते थे।

प्रश्न 8.
क्या आन्दोलन और विरोध की कार्रवाइयों से देश का लोकतन्त्र मजबूत होता है? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
अहिंसक और शान्तिपूर्ण आन्दोलनों एवं विरोध की कार्रवाइयों ने लोकतन्त्र को नुकसान नहीं बल्कि मजबूत किया है। इसके समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

1.चिपको आन्दोलन-अहिंसक और शान्तिपूर्ण तरीके से चलाया गया यह एक व्यापक जन आन्दोलन था। इससे पेड़ों की कटाई, वनों का उजड़ना रुका। पशु-पक्षियों और जनता को जल, जंगल, जमीन और स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण मिला। सरकार लोकतान्त्रिक माँगों के समक्ष झुकी।

2. वामपन्थियों द्वारा चलाए गए किसान और मजदूर आन्दोलनों द्वारा जन-साधारण में जागृति, राष्ट्रीय कार्यों में भागीदारी और सरकार को सर्वहारा वर्ग की उचित माँगों के लिए जगाने में सफलता मिली।

3. दलित पैंथर्स नेताओं द्वारा चलाए गए आन्दोलनों, लिखे गए सरकार विरोधी साहित्यकारों की कविताओं और रचनाओं ने आदिवासी, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों में चेतना पैदा की। दलित पैंथर्स राजनीतिक दल और संगठन बने। जाति भेद-भाव और छुआछूत जैसी बुराइयों को दूर किया गया। समाज में समानता, स्वतन्त्रता, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनीतिक न्याय को सुदृढ़ता मिली।

4. ताड़ी-विरोधी आन्दोलन ने नशाबन्दी और मद्य-निषेध के विरोध का वातावरण तैयार किया। महिलाओं से जुड़ी अनेक समस्याएँ; जैसे-यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा और महिलाओं को विधायिका में दिए जाने वाले आरक्षण के मामले उठे। संविधान में कुछ संशोधन हुए और कानून बनाए गए।

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प्रश्न 9.
दलित पैंथर्स ने कौन-कौन से मुद्दे उठाए?
उत्तर:
दलित पैंथर्स बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के शुरुआती सालों में दलित शिक्षित युवा वर्ग का आन्दोलन था। इसमें ज्यादातर शहर की झुग्गी-बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित पैंथर्स ने दलित समुदाय से सम्बन्धित सामाजिक असमानता, जातिगत आधार पर भेदभाव, दलित महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, दलितों का सामाजिक एवं आर्थिक उत्पीड़न तथा दलितों के लिए आरक्षण जैसे मुद्दे उठाए।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दें
… लगभग सभी नए सामाजिक आन्दोलन नयी समस्याओं; जैसे-पर्यावरण का विनाश, महिलाओं की बदहाली, आदिवासी संस्कृति का नाश और मानवाधिकारों का उल्लंघन….. के समाधान को रेखांकित करते हुए उभरे। इनमें से कोई भी अपने आप में समाज व्यवस्था के मूलगामी बदलाव के सवाल से नहीं जुड़ा था। इस अर्थ में ये आन्दोलन अतीत की क्रान्तिकारी विचारधाराओं से एकदम अलग हैं। लेकिन, ये आन्दोलन बड़ी बुरी तरह बिखरे हुए हैं और यही इनकी कमजोरी है….. सामाजिक आन्दोलनों का एक बड़ा दायरा ऐसी चीजों की चपेट में है कि वह एक ठोस तथा एकजुट जन आन्दोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही वंचितों और गरीबों के लिए प्रासंगिक हो जाता है। ये आन्दोलन बिखरे-बिखरे हैं, प्रतिक्रिया के तत्त्वों से भरे हैं, अनियत हैं और बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिए इनके पास कोई फ्रेमवर्क नहीं है। ‘इस’ या ‘उस’ के विरोध (पश्चिम-विरोधी, पूँजीवाद-विरोधी, ‘विकास’-विरोधी, आदि) में चलने के कारण इनमें कोई संगति आती हो अथवा दबे-कुचले लोगों और हाशिए के समुदायों के लिए ये प्रासंगिक हो पाते हों-ऐसी बात नहीं। – रजनी कोठारी
(क) नए सामाजिक आन्दोलन और क्रान्तिकारी विचारधाराओं में क्या अन्तर है?
(ख) लेखक के अनुसार सामाजिक आन्दोलनों की सीमाएँ क्या-क्या हैं?
(ग) यदि सामाजिक आन्दोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो आप उन्हें ‘बिखरा’ हुआ कहेंगे या मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं ज्यादा केन्द्रित हैं। अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।
उत्तर:
(क) सामाजिक आन्दोलन समाज से जुड़े हुए मामलों अथवा समस्याओं को उठाते हैं; जैसे-जाति भेदभाव, रंग भेदभाव, लिंग भेदभाव के विरोध में चलाए जाने वाले सामाजिक आन्दोलन। इसी प्रकार ताड़ी विरोधी आन्दोलन, सभी को शिक्षा, सामाजिक न्याय और समानता के लिए चलाए जाने वाले आन्दोलन आदि।

जबकि क्रान्तिकारी विचारधारा के लोग तुरन्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बदलाव लाना चाहते हैं। वे लक्ष्यों को ज्यादा महत्त्व देते हैं, तरीकों को नहीं। मार्क्सवादी-लेनिनवादी या नक्सलवादी आन्दोलन को क्रान्तिकारी विचारधारा के आन्दोलन मानते हैं।

(ख) सामाजिक आन्दोलन बिखरे हुए हैं तथा इसमें एकजुटता का अभाव पाया जाता है। सामाजिक आन्दोलनों के पास सामाजिक बदलाव में लिए कोई ढाँचागत योजना नहीं है।

(ग) सामाजिक आन्दोलनों द्वारा उठाए गए विशिष्ट मुद्दों के कारण यह कहा जा सकता है कि ये आन्दोलन अपने मुद्दों पर अधिक केन्द्रित हैं।

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
है तो यह बड़ी शानदार बात! लेकिन कोई मुझे बताए कि हम जो यहाँ राजनीति का इतिहास पढ़ रहे हैं, उससे यह बात कैसे जुड़ती है?
उत्तर:
सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों में जन आन्दोलनों की शानदार उपलब्धि रही है। चिपको आन्दोलन में उत्तराखण्ड के एक गाँव के स्त्री एवं पुरुषों ने पर्यावरण की सुरक्षा और जंगलों की कटाई का विरोध करने के लिए एक अनूठा प्रयास किया, जिसमें इन लोगों ने पेड़ों को अपनी बाँह में भर लिया ताकि उनको काटने से बचाया जा सके। इस आन्दोलन को व्यापक सफलता प्राप्त हुई।

जन आन्दोलनों का राजनीति से सम्बन्ध का पुराना इतिहास रहा है। जन आन्दोलन कभी राजनीतिक तो कभी सामाजिक आन्दोलन का रूप ले सकते हैं और अकसर यह दोनों ही रूपों में नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन को ही लें तो यह मुख्य रूप से राजनीतिक आन्दोलन था लेकिन औपनिवेशक काल में सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भी विचार मन्थन चला जिससे अनेक स्वतन्त्र सामाजिक आन्दोलनों का जन्म हुआ; जैसे-जाति प्रथा विरोधी आन्दोलन, किसान सभा आन्दोलन और मजदूर संगठनों के आन्दोलन। इन आन्दोलनों ने सामाजिक संघर्षों के कुछ अन्दरूनी मुद्दे उठाए।

ऐसे ही कुछ आन्दोलन आजादी के बाद के दौर में भी चलते रहे। मुम्बई, कोलकाता और कानपुर जैसे बड़े शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच मजदूर संगठनों के आन्दोलनों का बड़ा जोर था। सभी बड़ी पार्टियों ने इस तबके के मजदूरों को लामबन्द करने के लिए अपने-अपने मजदूर संगठन बनाए।

प्रश्न 2.
गैर-राजनीतिक संगठन? मैं यह बात कुछ समझा नहीं। आखिर, पार्टी के बिना राजनीति कैसे की जा सकती है?
उत्तर:
सामान्यत: गैर-राजनीतिक संगठन ऐसे संगठन हैं जो दलगत राजनीति से दूर स्थानीय एवं क्षेत्रीय मुद्दों से जुड़े हुए होते हैं तथा सक्रिय राजनीति में भाग लेने की अपेक्षा एक दबाव समूह की तरह कार्य करते हैं।

औपनिवेशिक दौर में सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भी विचार मन्थन चला जिससे अनेक स्वतन्त्र सामाजिक आन्दोलनों का जन्म हुआ; जैसे-जाति प्रथा विरोधी आन्दोलन, किसान सभा आन्दोलन और मजदूर संगठनों के आन्दोलन। ये आन्दोलन 20वीं सदी के प्रारम्भ में अस्तित्व में आए। मुम्बई, कोलकाता और कानपुर जैसे औद्योगिक शहरों में मजदूर संगठनों के आन्दोलनों का जोर था। इनका मुख्य जोर आर्थिक अन्याय और असमानता के मसले पर रहा। ये सभी गैर-राजनीतिक संगठन थे और इन्होंने अपनी माँगें मनवाने के लिए आन्दोलनों का सहारा लिया।

यद्यपि ऐसे गैर-राजनीतिक संगठनों ने औपचारिक रूप से चुनावों में भाग तो नहीं लिया लेकिन राजनीतिक दलों से इनका सम्बन्ध नजदीकी रहा। इन आन्दोलनों में सम्मिलित हुए कई व्यक्ति और संगठन राजनीतिक दलों में भी सक्रिय हुए।

प्रश्न 3.
क्या दलितों की स्थिति इसके बाद से ज्यादा बदल गई है? दलितों पर अत्याचार की घटनाओं के बारे में मैं रोजाना सुनती हूँ। क्या यह आन्दोलन असफल रहा? या, यह पूरे समाज की असफलता है?
उत्तर:
दलितों की स्थिति में सुधार हेतु सन् 1972 में शिक्षित दलित युवा वर्ग ने महाराष्ट्र में एक आन्दोलन चलाया, जिसे दलित पैंथर्स आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन के माध्यम से दलितों की स्थिति सुधारने हेतु अनेक प्रयास किए गए। इस आन्दोलन का उद्देश्य जाति प्रथा को समाप्त करना तथा गरीब किसान, शहरी औद्योगिक मजदूर और दलित सहित सारे वंचित वर्गों का एक संगठन तैयार करना था।

यद्यपि इस आन्दोलन द्वारा शिक्षित युवा वर्ग ने काफी प्रयास किया, लेकिन अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो पायी। भारतीय संविधान में छुआछूत की प्रथा को समाप्त कर दिया गया। इसके बावजूद भी पुराने जमाने में जिन जातियों को अछूत माना गया था, उनके साथ नए दौर में भी सामाजिक भेदभाव तथा हिंसा का बर्ताव कई रूपों में जारी रहा। दलितों की बस्तियाँ मुख्य गाँव से अब भी दूर थीं, दलित महिलाओं के साथ यौन-अत्याचार होते थे। जातिगत प्रतिष्ठा की छोटी-मोटी बात को लेकर दलितों पर सामूहिक जुल्म ढाए जाते थे।

प्रश्न 4.
मुझे कोई ऐसा नहीं मिला जो कहे कि मैं किसान बनना चाहता हूँ। क्या हमें अपने देश में किसानों की जरूरत नहीं है?
उत्तर:
यद्यपि भारत एक कृषि-प्रधान देश है और भारतीय अर्थव्यवस्था का अधिकांश हिस्सा कृषि पर आधारित है, लेकिन संसाधनों के अभाव व वर्षा आधारित कृषि होने के कारण किसानों को इस कार्य में पर्याप्त लाभ नहीं मिल पा रहा है। इसके अलावा जनाधिक्य व कृषिगत क्षेत्र की सीमितता के कारण इस क्षेत्र में छिपी हुई बेरोजगारी जैसी समस्या आम बात हो गई है। आम नागरिक को इस क्षेत्र में उज्ज्वल भविष्य नजर नहीं आ रहा है। इसलिए लोग कृषिगत कार्यों की अपेक्षा अन्य कार्यों में अधिक रुचि लेने लगे हैं।

प्रश्न 5.
क्या आन्दोलनों को राजनीति की प्रयोगशाला कहा जा सकता है? आन्दोलनों के दौरान नए प्रयोग किए जाते हैं और सफल प्रयोगों को राजनीतिक दल अपना लेते हैं।
उत्तर:
जन-आन्दोलनों को राजनीति की प्रयोगशाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जन-आन्दोलन कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आन्दोलन का रूप ले सकते हैं। भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति पूर्व और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अनेक जन-आन्दोलन हुए, जिन्होंने बाद में राजनीतिक रूप ग्रहण कर लिया। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन को इसका उदाहरण माना जा सकता है।

इसी प्रकार भारत की स्वतन्त्रता के उपरान्त प्रारम्भिक वर्षों में दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेश के अन्तर्गत आने वाले तेलंगाना क्षेत्र के किसान कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लामबन्द हुए। इन्होंने काश्तकारों के बीच जमीन के पुनर्वितरण की माँग की। आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ भागों में किसान तथा कृषि मजदूरों ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में अपना विरोध जारी रखा। ऐसे आन्दोलनों ने औपचारिक रूप से चुनावों में भाग तो नहीं लिया लेकिन राजनीतिक दलों से इनका नजदीकी रिश्ता कायम हुआ। इन आन्दोलनों में शामिल कई व्यक्ति और संगठन राजनीतिक दलों में सक्रिय रूप से जुड़े। ऐसे जुड़ाव से दलगत राजनीति में विभिन्न सामाजिक तबकों की बेहतर नुमाइन्दगी सुनिश्चित हुई।

इस प्रकार जन-आन्दोलनों और राजनीति का गहरा नाता रहा है। आन्दोलनों के दौरान किए जाने वाले सफल प्रयोगों को राजनीतिक दल अपना लेते हैं।

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 7 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् होने वाले प्रमुख किसान आन्दोलनों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् किसान आन्दोलन
भारत एक कृषि-प्रधान देश है। भारतीय अर्थव्यवस्था का अधिकांश हिस्सा कृषि पर निर्भर है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने कृषकों की दशा सुधारने हेतु अनेक प्रयास किए, फिर भी कृषकों की माँगें पूरी नहीं हो पायीं और उन्होंने आन्दोलन का सहारा लिया। इनमें से कुछ आन्दोलन निम्नलिखित हैं-

1. तिभागा आन्दोलन-तिभागा आन्दोलन सन् 1946-47 में बंगाल में प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यत: जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसानों एवं बटाईदारों का संयुक्त आन्दोलन था। इस आन्दोलन का मुख्य कारण सन् 1943 में बंगाल में पड़ा भीषण अकाल था। इस आन्दोलन के कारण कई गाँवों में किसान सभा का शासन स्थापित हो गया परन्तु औद्योगिक मजदूर वर्ग और मझोले किसानों के समर्थन के बिना यह शीघ्र ही समाप्त हो गया।

2. तेलंगाना आन्दोलन-तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद राज्य में सन् 1946 में जागीरदारों द्वारा की जा रही जबरन एवं अत्यधिक वसूली के विरोध में चलाया गया क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन था। इस आन्दोलन में किसानों ने माँग की कि उनके सभी ऋण माफ कर दिए जाएँ परन्तु जमींदारों ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। क्रान्तिकारी किसानों ने पाँच हजार गुरिल्ला किसान तैयार किए और जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया। गुरिल्ला सैनिकों ने जमींदारों के हथियार छीन लिए और उन्हें भगा दिया लेकिन भारत सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने पर यह आन्दोलन समाप्त हो गया।

3. आधुनिक किसान आन्दोलन-अपने हितों की रक्षा के लिए किसान समय-समय पर आन्दोलन करते रहते हैं। पिछले कई वर्षों से कपास के दामों में कमी होने के कारण कपास उत्पादक राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब आदि के किसानों में असन्तोष फैल गया। मार्च 1987 में गुजरात के किसानों ने अपनी मांगें मनवाने के लिए विधानसभा का घेराव करने की योजना बनाई। सरकार ने गुजरात विधानसभा (गांधीनगर) की किलेबन्दी कर दी। पुलिस ने किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार किए और किसानों ने पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध ग्राम बन्द करने की अपील की, जिसके कारण गुजरात के अनेक शहरों में दूध और सब्जी की समस्या कई दिनों तक रही।

किसान आन्दोलनों का मूल्यांकन स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी किसानों की समस्या वैसी ही बनी हुई है जैसी कि ब्रिटिशकाल में थी। इससे स्पष्ट होता है कि स्वतन्त्रता से पूर्व और स्वतन्त्रता के बाद किए गए सभी किसान आन्दोलन असफल रहे। इन किसान आन्दोलनों की असफलता के महत्त्वपूर्ण कारक हैं-किसान आन्दोलनों में संगठन की कमी, किसानों में अज्ञानता, अन्धविश्वास, क्रान्तिकारी तथा उद्देश्यपूर्ण विचारधारा की कमी और योग्य नेतृत्व का अभाव।

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प्रश्न 2.
जन-आन्दोलन के मुख्य कारणों का उल्लेख करते हुए भारतीय राजनीति पर प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जन-आन्दोलन के प्रमुख कारण जन-आन्दोलन के अनेक कारण उत्तरदायी थे, जिनमें से प्रमुख अग्रलिखित हैं-

1. राजनीतिक दलों के आचार-व्यवहार से मोह भंग होना-सत्तर और अस्सी के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों के आचार-व्यवहार से मोह भंग हो गया। गैर-कांग्रेसवाद या जनता पार्टी की असफलता से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल पैदा हो गया। इससे दल-रहित जन-आन्दोलनों का उदय हुआ।

2. सरकार की आर्थिक नीतियों से मोह भंग होना-सरकार की आर्थिक नीतियों से भी लोगों का मोह भंग हुआ क्योंकि गरीबी और असमानता बड़े पैमाने पर बनी रही। आर्थिक संवृद्धि का लाभ समाज के हर तबके को समान रूप से नहीं मिला। जाति और लिंग आधारित साम्प्रदायिक असमानताओं ने गरीबी के मुद्दे को और ज्यादा जटिल और धारदार बना दिया। समाज के विभिन्न समूहों के बीच अपने साथ हो रहे अन्याय और वंचना का भाव प्रबल हुआ।

3. लोकतान्त्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से विश्वास उठना-राजनीतिक धरातल पर सक्रिय कई समूहों का विश्वास लोकतान्त्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से उठ गया। ये समूह दलगत राजनीति से अलग हुए और अपने विरोध को स्वर देने के लिए इन्होंने आवाम को लामबन्द करना शुरू कर दिया। दलित पैंथर्स आन्दोलन, किसान आन्दोलन, ताड़ी विरोध आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन आदि इसी तरह के जनआन्दोलन थे।

भारतीय राजनीति पर जन-आन्दोलनों का प्रभाव भारतीय राजनीति पर जन-आन्दोलनों के निम्नलिखित प्रभाव पड़े-

  1. इन सामाजिक आन्दोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के जरिये हल नहीं कर पा रहे थे।
  2. विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए ये आन्दोलन अपनी बात रखने को बेहतर माध्यम बनकर उभरे।
  3. समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को एक सार्थक दिशा देकर इन आन्दोलनों ने एक तरह से लोकतन्त्र की रक्षा की है तथा सक्रिय भागीदारी के नए रूपों के प्रयोग ने भारतीय लोकतन्त्र के जनाधार को बढ़ाया है।
  4. ये आन्दोलन जनता की उचित माँगों के प्रतिनिधि बनकर उभरे हैं और इन्होंने नागरिकों के एक बड़े समूह को अपने साथ जोड़ने में सफलता हासिल की है।

प्रश्न 3.
भारत में स्त्रियों के उत्थान के लिए उठाए गए कदमों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में स्त्रियों के उत्थान के लिए उठाए गए कदम

भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के लिए अनेक कदम उठाए गए, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

1. महिला अपराध प्रकोष्ठ तथा परिवार न्यायपालिका-इस विभाग का मुख्य कार्य महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए सुनवाई करना तथा विवाह, तलाक, दहेज व पारिवारिक विवादों को सुलझाना है।

2. सरकारी कार्यालयों में महिलाओं की भर्ती-वर्तमान में लगभग सभी सरकारी कार्यालयों में महिला कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है। वायु सेना, नौ सेना तथा थल सेना और सशस्त्र सेनाओं के तीनों अंगों में अधिकारी पदों पर स्त्रियों की भर्ती पर लगी रोक को हटा लिया गया है। सभी क्षेत्रों में महिलाएँ कार्य कर रही हैं।

3. स्त्री शिक्षा-स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में स्त्री शिक्षा का काफी विस्तार हुआ है।

4. राष्ट्रीय महिला आयोग-सन् 1990 के एक्ट के अन्तर्गत एक राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई है। महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, दिल्ली, पंजाब, कर्नाटक, असम एवं गुजरात राज्यों में भी महिला आयोगों की स्थापना की जा चुकी है। ये आयोग महिलाओं पर हुए अत्याचार, उत्पीड़न, शोषण तथा अपहरण आदि के मामलों की जाँच-पड़ताल करते हैं। सभी राज्यों में महिला आयोग स्थापित किए जाने की माँग जोर पकड़ रही है और इन आयोगों को प्रभावी बनाने की माँग भी जोरों पर है।

5. महिला आरक्षण-महिलाएँ कुल आबादी की लगभग 50 प्रतिशत हैं। लेकिन सरकारी कार्यालयों, संसद, राज्य विधानमण्डलों आदि में इनकी संख्या बहुत कम है। सन् 1993 के 73वें व 74वें संविधान संशोधन । द्वारा पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरपालिकाओं में एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। संसद और राज्य विधानमण्डलों में भी इसी प्रकार आरक्षण किए जाने की माँग जोर पकड़ रही है। यद्यपि इस ओर प्रयास किया जा रहा है; परन्तु सर्वसम्मति के अभाव में यह विधेयक संसद में पारित नहीं हो पाया है।

उपर्युक्त प्रयासों के अलावा अखिल भारतीय महिला परिषद् तथा कई अन्य महिला संगठन स्त्रियों को अत्याचार उत्पीड़न और अन्याय से बचाने, उन पर अत्याचार तथा बलात्कार करने वाले अपराधियों को दण्ड दिलवाने तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयत्नशील हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं की स्थिति में क्या परिवर्तन आया? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं की स्थिति को असमानता से समानता तक लाने के जागरूक प्रयास होते रहे हैं। वर्तमान काल में महिलाओं को पुरुषों के समान समानता का दर्जा प्राप्त है। महिलाएँ किसी भी प्रकार की शिक्षा या प्रशिक्षण को चुनने के लिए स्वतन्त्र हैं; परन्तु ग्रामीण समाज में अभी भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है जिसे दूर किए जाने की आवश्यकता है। यद्यपि कानूनी तौर पर महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किए गए हैं परन्तु आदिकाल से चली आ रही पुरुष प्रधान व्यवस्था में व्यावहारिक रूप में महिलाओं के साथ अभी भी भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय महिला आयोग को समझाइए।
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला आयोग भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए सन् 1990 में संसद ने एक कानून बनाया जो कि 31 जनवरी, 1992 को अस्तित्व में आया। इस कानून के तहत राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई। राष्ट्रीय महिला आयोग को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। यह आयोग महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए संसद को कानून बनाने के लिए उस पर दबाव डालता है। संसद द्वारा पास किए गए कानूनों की आयोग समीक्षा करता है, जो महिलाओं के अधिकारों से सम्बन्धित हैं। यह आयोग महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की जाँच करता है तथा दोषी को दण्ड दिलवाने की सिफारिश करता है। इसके साथ-साथ यह आयोग महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहता है।

प्रश्न 3.
जन-आन्दोलन का क्या अर्थ है? दल समर्थित (दलीय) और स्वतन्त्र (निर्दलीय) आन्दोलन का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जन-आन्दोलन का अर्थ-प्रजातान्त्रिक मर्यादाओं तथा संवैधानिक नियमों के आधार पर तथा सामाजिक शिष्टाचार से सम्बन्धित नियमों के पालन सहित सरकारी नीतियों, कानून व प्रशासन सहित किसी मुद्दे पर व्यक्तियों के समूह या समूहों के द्वारा असहमति प्रकट किया जाना ‘जन-आन्दोलन’ कहलाता है। – जन-आन्दोलनों में प्रदर्शन, नारेबाजी, जुलूस जैसे क्रियाकलाप शामिल हैं।

जन-आन्दोलनों का स्वरूप –

  1. दल आधारित आन्दोलन-जब कभी राजनीतिक दल या राजनीतिक दलों के समर्थन प्राप्त समूहों द्वारा आन्दोलन किए जाते हैं तो इन्हें ‘दलीय आन्दोलन’ कहा जाता है; जैसे—किसान सभा आन्दोलन एक दलीय आन्दोलन था।
  2. स्वतन्त्र जन-आन्दोलन-जब आन्दोलन असंगठित लोगों के समूह द्वारा संचालित किए जाते हैं, तो वे निर्दलीय जन-आन्दोलन कहलाते हैं; जैसे-चिपको आन्दोलन, दलित पैंथर्स आन्दोलन।

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प्रश्न 4.
क्या आपपंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों पर आरक्षण के पक्ष में हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
भारत में 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की गई है। इस संविधान संशोधन द्वारा स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं। पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए आरक्षण की यह व्यवस्था सही है, क्योंकि-

  1. यह संस्था तभी सफलतापूर्वक कार्य कर सकती है जब इसके संगठन में पुरुष और स्त्रियों दोनों को स्थान मिले।
  2. यदि स्त्रियों को पंचायतों में आरक्षण दिया जाता है तो पंचायत और अधिक लोकतान्त्रिक संस्था बनेगी तथा लोगों का उन पर विश्वास बना रहेगा। एक धारणा यह भी है कि स्त्रियाँ शारीरिक रूप से निर्बल होती हैं, इस कारण भी उनको अपनी सुरक्षा के लिए पंचायतों में आरक्षण दिया जाना चाहिए।
  3. ग्रामीण स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बहुत कम है, यदि पंचायतों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की जाती हैं तो इससे राजनीति में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ेगी तथा उन्हें राजनीतिक शिक्षा भी मिलेगी।

प्रश्न 5.
मण्डल आयोग के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं? मण्डल आयोग की प्रमुख सिफारिशों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मण्डल आयोग-मण्डल आयोग का गठन 1 जनवरी, 1979 में किया गया। इस आयोग का मुख्य कार्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों की पहचान करना तथा इनके विकास के लिए सुझाव देना था। मण्डल आयोग ने 13 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट सौंपी।

मण्डल आयोग की प्रमुख सिफारिशें –

  1. सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए।
  2. अन्य पिछड़ा वर्गों (OBC’s) के कल्याण के लिए बनाए गए कार्यक्रम के लिए धन केन्द्र सरकार को देना चाहिए।
  3. भूमि सुधार शीघ्र किए जाएँ ताकि छोटे किसानों को अमीर किसानों पर निर्भर न रहना पड़े।
  4. अन्य पिछड़ा वर्गों को लघु उद्योग लगाने के लिए सहायता दी जाए तथा उन्हें प्रोत्साहित किया जाए।
  5. अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए विशेष शिक्षा योजनाएँ लागू की जाएँ।

प्रश्न 6.
भारत में लोकप्रिय जन-आन्दोलन से सीखे सबकों (पाठों) का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
जन-आन्दोलन के सबक जन-आन्दोलनों के द्वारा पढ़ाए जाने वाले प्रमुख सबक निम्नलिखित हैं-

  1. जन-आन्दोलन के द्वारा लोगों को लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने में सहायता मिली है।
  2. इन आन्दोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति की खामियों को दूर करना था। इस रूप में इन्हें देश की लोकतान्त्रिक राजनीति के अहम हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।
  3. सामाजिक आन्दोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी है जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के माध्यम से हल नहीं कर पा रहे थे।
  4. समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को इन आन्दोलनों ने एक सार्थक दिशा दी है।
  5. इन आन्दोलनों के सक्रिय भागीदारी के नए रूपों के प्रयोग ने भारतीय लोकतन्त्र के जनाधार को बढ़ाया है।

प्रश्न 7.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की प्रमुख गतिविधियों को समझाइए।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की प्रमुख गतिविधियाँ-

  1. आन्दोलन के नेतृत्व ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि इन परियोजनाओं का लोगों के पर्यावास, आजीविका, संस्कृति तथा पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ा है।
  2. प्रारम्भ में आन्दोलन ने परियोजना से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित सभी लोगों के समुचित पुनर्वास किए जाने की माँग रखी।
  3. बाद में इस आन्दोलन ने इस बात पर बल दिया कि ऐसी परियोजनाओं की निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदाय की भागीदारी होनी चाहिए और जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर उनका प्रभावी नियन्त्रण होना चाहिए।
  4. अब आन्दोलन बड़े बाँधों की खुली मुखालफत करता है।
  5. आन्दोलन ने अपनी माँगे मुखर करने के लिए हरसम्भव लोकतान्त्रिक रणनीति का इस्तेमाल किया। यथा
    • इसने अपनी बात न्यायपालिका से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों तक उठायी।
    • इसके नेतृत्व ने सार्वजनिक रैलियों तथा सत्याग्रह जैसे तरीकों का भी प्रयोग किया।
    • नवें दशक के अन्त तक आते-आते इससे कई अन्य आन्दोलन भी जुड़े और यह देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे सम धर्म आन्दोलनों के गठबन्धन का अंग बन गया।

प्रश्न 8.
महिला सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति, 2001 के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण (2001) के उद्देश्य राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण नीति, 2001 के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. सकारात्मक आर्थिक और सामाजिक नीतियों द्वारा ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें महिलाओं को अपनी पूर्ण क्षमता को पहचानने का मौका मिले और उनका पूर्ण विकास हो।
  2. महिलाओं द्वारा पुरुषों की भाँति राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक सभी क्षेत्रों में समान स्तर पर मानवीय अधिकारों और मौलिक स्वतन्त्रताओं का कानूनी और वास्तविक उपभोग।
  3. स्वास्थ्य देखभाल, प्रत्येक स्तर पर उन्नत शिक्षा, जीविका एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन, रोजगार, समान पारिश्रमिक, सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक पदों आदि में महिलाओं को समान सुविधाएँ।
  4. न्याय व्यवस्था को मजबूत बनाकर महिलाओं के विरुद्ध होने वाले किसी भी प्रकार के अत्याचारों का उन्मूलन करना।

प्रश्न 9.
महिला सशक्तीकरण के साधन के रूप में संसद और राज्य विधानसभाओं में सीटों के आरक्षण की व्यवस्था का परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
महिला सशक्तीकरण के लिए यह आवश्यक है कि महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाया जाए। प्राय: सभी राजनीतिक दल, महिला संघ व सामाजिक संगठन निरन्तर इस बात पर बल देते रहे हैं कि जब तक स्थानीय संस्थाओं, विधानमण्डलों और संसद में महिलाओं के लिए स्थान सुरक्षित नहीं किए जाते तब तक महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता।

73वें-74वें संविधान संशोधन द्वारा ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए कुल निर्वाचित पदों का एक-तिहाई भाग आरक्षित किया गया है। इसमें महिला सशक्तीकरण आन्दोलन को बल मिला। संसद और राज्य विधानमण्डलों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान सुरक्षित रखने के कई बार प्रयास किए जा चुके हैं लेकिन इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई है।

प्रश्न 10.
भारत में पर्यावरण सुरक्षा हेतु क्या-क्या कदम उठाए जा रहे हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरणीय सुरक्षा आन्दोलन
भारत में पर्यावरण की सुरक्षा हेतु अनेक कदम उठाए जा रहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं-

  1. स्वतन्त्र भारत में वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए अनेक स्थानों पर अभयारण्यों की स्थापना की गई और इन अभयारण्यों में सभी प्रकार के जीवों की सुरक्षा की व्यवस्था की गई, जिससे जंगलों की संख्या बढ़े और वातावरण स्वच्छ हो।
  2. पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी गई तथा सर्वत्र वृक्षारोपण कार्य प्रारम्भ किया गया। वृक्षों की कटाई रोकने के लिए उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में चिपको आन्दोलन चलाया गया।
  3. सिंचाई के लिए विभिन्न बाँधों की व्यवस्था की गई, इन बाँधों में सिंचाई एवं विद्युत उत्पादन दोनों कार्य चलने लगे।
  4. भारत में विकास की क्रान्ति के सन्दर्भ में कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति का नारा दिया गया और अन्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त की गई।

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तार

प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन का मुख्य पहलू क्या था?
उत्तर:
चिपको आन्दोलन का मुख्य पहलू जंगल के वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोकना था।

प्रश्न 2.
‘दलित पैंथर्स’ क्या था?
उत्तर:
दलित हितों की दावेदारी के क्रम में महाराष्ट्र में सन् 1972 में दलित युवाओं का एक संगठन ‘दलित पैंथर्स’ बना।

प्रश्न 3.
‘ताड़ी विरोधी आन्दोलन’ क्या था?
उत्तर:
आन्ध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले में दुबरगंटा गाँव की महिलाओं द्वारा ताड़ी (शराब) की बिक्री के विरोध में किए गए आन्दोलन को ‘ताड़ी विरोधी आन्दोलन’ कहा जाता है।

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प्रश्न 4.
सरदार सरोवर परियोजना को कब और कहाँ प्रारम्भ किया गया था?
उत्तर:
1980 दशाब्दी के प्रारम्भ में सरदार सरोवर परियोजना को नर्मदा घाटी में प्रारम्भ किया गया था।

प्रश्न 5.
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित किन्हीं दो आन्दोलनों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. चिपको आन्दोलन,
  2. नर्मदा बचाओ आन्दोलन।

प्रश्न 6.
तिभागा आन्दोलन क्या था?
उत्तर:
तिभागा आन्दोलन सन् 1947-48 में बंगाल में प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यतः जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसानों और बटाईदारों का संयुक्त प्रयास था।

प्रश्न 7.
किन्हीं दो किसान आन्दोलनों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. तिभागा आन्दोलन,
  2. तेलंगाना आन्दोलन।

प्रश्न 8.
दलित पैंथर्स के उद्देश्य बताइए। (कोई दो)
उत्तर:
दलित पैंथर्स के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  1. जाति आधारित असमानता को समाप्त करना।
  2. भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना।

प्रश्न 9.
पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन से सम्बन्धित किन्हीं दो प्रमुख व्यक्तियों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. सुन्दरलाल बहुगुणा,
  2. मेधा पाटकर।

प्रश्न 10.
औपनिवेशिक दौर के प्रमुख आन्दोलन कौने-से थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक दौर के प्रमुख आन्दोलन थे—किसान आन्दोलन, मजदूर संगठनों के आन्दोलन, आदिवासी आन्दोलन तथा स्वाधीनता आन्दोलन।

प्रश्न 11.
महिला सशक्तीकरण से क्या आशय है?
उत्तर:
महिला सशक्तीकरण से आशय महिलाओं की समाज में दोयम दर्जे की भूमिका को समाप्त करना तथा समाज की मुख्यधारा के साथ जोड़ते हुए सभी क्षेत्रों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने से है।

प्रश्न 12.
एन०एफ०एफ० तथा बी०के०यू० का पूरा नाम बताइए।
उत्तर:

  1. एन०एफ०एफ० (NFF)-नेशनल फिश वर्कर्स फोरम (National Fish Workers Forum)|
  2. बीकेयू (BKU)-भारतीय किसान यूनियन।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना किस वर्ष हुई-
(a) सन् 1967 में
(b) सन् 1936 में
(c) सन् 1944 में
(d) सन् 1954 में।
उत्तर:
(b) सन् 1936 में।

प्रश्न 2.
सूचना के अधिकार का आन्दोलन किस सन में प्रारम्भ हुआ-
(a) सन् 1980 में
(b) सन् 1984 में
(c) सन् 1988 में
(d) सन् 1990 में।
उत्तर:
(d) सन् 1990 में।

प्रश्न 3.
चिपको आन्दोलन की शुरुआत किस राज्य से हुई-
(a) उत्तराखण्ड
(b) छत्तीसगढ़
(c) झारखण्ड
(d) राजस्थान।
उत्तर:
(a) उत्तराखण्ड।

प्रश्न 4.
गोवा मुक्ति संग्राम का प्रमुख कार्यकर्ता था-
(a) लाल डेंगा
(b) मोहन रानाडे
(c) सुभाष धीसिंह
(d) महेन्द्र सिंह टिकैत।
उत्तर:
(b) मोहन रानाडे।

प्रश्न 5.
किस वर्ष स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुआ था-
(a) सन् 1962 में
(b) सन् 1967 में
(c) सन् 1970 में
(d) सन् 1972 में।
उत्तर:
(d) सन् 1972 में।

प्रश्न 6.
काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया-
(a) सन् 1950 में
(b) सन् 1953 में
(c) सन् 1956 में
(d) सन् 1961 में।
उत्तर:
(b) सन् 1953 में।

प्रश्न 7.
दलित पैंथर्स का गठन किया गया-
(a) सन् 1970 में
(b) सन् 1972 में
(c) सन् 1974 में
(d) सन् 1978 में।
उत्तर:
(b) सन् 1972 में।

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प्रश्न 8.
ताड़ी विरोधी आन्दोलन से सम्बन्धित राज्य था-
(a) राजस्थान
(b) महाराष्ट्र
(c) उत्तर प्रदेश
(d) आन्ध्र प्रदेश।
उत्तर:
(d) आन्ध्र प्रदेश।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 The Crisis of Democratic Order

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 The Crisis of Democratic Order (लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट)

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
बताएँ कि आपातकाल के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत
(क) आपातकाल की घोषणा 1975 में इन्दिरा गांधी ने की।
(ख) आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निष्क्रिय हो गए।
(ग) बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति के मद्देनजर आपातकाल की घोषणा की गई थी।
(घ) आपातकाल के दौरान विपक्ष के अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
(ङ) सी०पी०आई० ने आपातकाल की घोषणा का समर्थन किया।
उत्तर:
(ग) गलत,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही,
(ङ) सही।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा आपातकाल की घोषणा के सन्दर्भ में मेल नहीं खाता है-
(क) “सम्पूर्ण क्रान्ति’ का आह्वान
(ख) 1974 की रेल-हड़ताल
(ग) नक्सलवादी आन्दोलन
(घ) इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला
(ङ) शाह आयोग की रिपोर्ट।
उत्तर:
(ग) नक्सलवादी आन्दोलन।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में मेल बैठाएँ-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 The Crisis of Democratic Order 1
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 6 The Crisis of Democratic Order 2

प्रश्न 4.
किन कारणों से 1980 के मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े?
उत्तर:
सन् 1980 के मध्यावधि चुनावों का मूल कारण जनता पार्टी की सरकार में पारस्परिक तालमेल का अभाव व राजनीतिक अस्थिरता को माना जाता है। सन् 1977 के चुनावों में जनता पार्टी को जनता ने स्पष्ट बहुमत प्रदान किया लेकिन जनता पार्टी के नेताओं में प्रधानमन्त्री के पद को लेकर मतभेद हो गया। आपातकाल का विरोध जनता पार्टी को कुछ दिनों के लिए ही एकजुट रख सका। जनता पार्टी के पास किसी दिशा, नेतृत्व अथवा साझे कार्यक्रम का अभाव था। पहले मोरारजी देसाई, बाद में कुछ समय के लिए चरणसिंह प्रधानमन्त्री बने। केवल 18 महीने में ही मोरारजी देसाई ने लोकसभा में अपना बहमत खो दिया जिसके कारण मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देना पड़ा। मोरारजी देसाई के बाद चरणसिंह कांग्रेस पार्टी के समर्थन से प्रधानमन्त्री बने लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया। इस प्रकार, चरणसिंह भी मात्र चार महीने ही प्रधानमन्त्री पद पर रह पाए। अत: सत्ता के लिए हुई उठा-पटक के कारण सन् 1980 में मध्यावधि चुनाव करवाए गए।

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प्रश्न 5.
जनता पार्टी ने 1977 में शाह आयोग को नियुक्त किया था। इस आयोग की नियुक्ति क्यों की गई थी और इसके क्या निष्कर्ष थे?
उत्तर:
शाह आयोग का गठन 25 जून, 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की गई कार्रवाई तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विभिन्न आरोपों के विविध पहलुओं की जाँच के लिए किया गया था। आयोग ने विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों की जाँच की और हजारों गवाहों के बयान दर्ज किए। गवाहों में इन्दिरा गांधी भी शामिल थीं। वे आयोग के सामने उपस्थित हुईं, लेकिन उन्होंने आयोग के सवालों के जवाब देने से इनकार कर दिया।

शाह आयोग ने अपनी जाँच के दौरान पाया कि इस अवधि में बहुत सारी ‘अति’ हुई। भारत सरकार ने आयोग द्वारा प्रस्तुत दो अन्तरिम रिपोर्टों और तीसरी तथा अन्तिम रिपोर्ट की सिफारिशी पर्यवेक्षणों और निष्कर्षों को स्वीकार किया। यह रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में भी विचार के लिए रखी गई।

प्रश्न 6.
1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके क्या कारण बताए थे?
उत्तर:
1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके निम्नलिखित कारण बताए थे-
(1) सरकार ने कहा कि विपक्षी दलों द्वारा लोकतन्त्र को रोकने की कोशिश की जा रही है तथा सरकार को उचित ढंग से कार्य नहीं करने दिया जा रहा है। इसलिए सरकार ने आपातकाल की घोषणा की। इस सन्दर्भ में श्रीमती गांधी के वाक्य थे-“लोकतन्त्र के नाम पर खुद लोकतन्त्र की राह रोकने की कोशिश की जा रही है। वैधानिक रूप से निर्वाचित सरकार को काम नहीं करने दिया जा रहा। आन्दोलनों से माहौल सरगर्म है और इसके नतीजतन हिंसक घटनाएं हो रही हैं। एक आदमी तो इस हद तक आगे बढ़ गया है कि वह हमारी सेना को विद्रोह और पुलिस को बगावत के लिए उकसा रहा है।”

(2) सरकार ने कहा कि विघटनकारी ताकतों का खुला खेल जारी है और साम्प्रदायिक उन्माद को हवा दी जा रही है, जिससे हमारी एकता पर खतरा मँडरा रहा है। अगर सचमुच कोई सरकार है तो वह कैसे हाथ बाँधकर खड़ी रहे और देश की स्थिरता को खतरे में पड़ता देखती रहे? चन्द लोगों की कारस्तानी से विशाल आबादी के अधिकारों को खतरा पहुंचा रहा है।

(3) षड्यन्त्रकारी शक्तियाँ सरकार के प्रगतिशील कामों में अड़गे ‘लगा रही हैं और उन्हें गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती हैं।

प्रश्न 7.
1977 के चुनावों के बाद पहली दफा केन्द्र में विपक्षी दल की सरकार बनी। ऐसा किन कारणों से सम्भव हुआ?
उत्तर:
1977 के चुनावों के बाद केन्द्र में पहली बार विपक्षी दल की सरकार बनने के पीछे अनेक कारण जिम्मेदार रहे, इनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

1. बड़ी विपक्षी पार्टियों का एकजुट होना—आपातकाल लागू होने से आहत विपक्षी नेताओं ने आपातकाल के बाद हुए चुनाव के पहले एकजुट होकर ‘जनता पार्टी’ नामक एक नया दल बनाया। नए दल ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व को स्वीकार किया। कांग्रेस के कुछ नेता भी जो आपातकाल के विरुद्ध थे, इस पार्टी में शामिल हुए।

2. जगजीवन राम द्वारा त्यागपत्र देना-चुनाव से पहले जगजीवन राम ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया तथा कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवन राम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी—’कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ बनायी तथा बाद में यह पार्टी जनता पार्टी में शामिल हो गई।

3. आपातकाल की ज्यादतियाँ-आपातकाल के दौरान जनता पर अनेक ज्यादतियाँ की गईं; जैसेसंजय गांधी के नेतृत्व में अनिवार्य नसबन्दी कार्यक्रम चलाया गया, प्रेस तथा समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता पर रोक लगा दी गई, हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो गई। इन सब कारणों से जनता कांग्रेस से नाराज थी और उसने कांग्रेस के विरोध में मतदान किया।

4. विपक्षी वोटों के बिखराव का रुकना-सभी विपक्षी दलों द्वारा एकजुट होने से सभी गैर-कांग्रेसी मत एक ही जगह पर पड़े। जनमत का कांग्रेस के विरुद्ध होना तथा सभी गैर-कांग्रेसी मतों का एक ही जगह पड़ना कांग्रेस के हार का सबब बना।

5. जनता पार्टी का प्रचार-जनता पार्टी ने सन् 1977 के चुनावों को आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप लिया तथा इस पार्टी ने चुनाव प्रचार में शासन के अलोकतान्त्रिक चरित्र और आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों को मुद्दा बनाया।

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प्रश्न 8.
हमारी राजव्यवस्था के निम्नलिखित पक्ष पर आपातकाल का क्या असर हुआ-
(i) नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर इसका असर।
(ii) कार्यपालिका और न्यायपालिका के सम्बन्ध।
(iii) जनसंचार माध्यमों के कामकाज।
(iv) पुलिस और नौकरशाही की कार्रवाइयाँ।
उत्तर:
(i) आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया तथा श्रीमती गांधी द्वारा ‘मीसा कानून’ लागू किया गया जिसमें किसी भी नागरिक को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में लिया जा सकता था।

(ii) आपातकाल में कार्यपालिका एवं न्यायपालिका एक-दूसरे के सहयोगी हो गए, क्योंकि सरकार ने सम्पूर्ण न्यायपालिका को सरकार के प्रति वफादार रहने के लिए कहा तथा आपातकाल के दौरान कुछ हद तक न्यायपालिका सरकार के प्रति वफादार भी रही। इस प्रकार आपातकाल के दौरान न्यायपालिका कार्यपालिका के आदेशों का पालन करने वाली संस्था बन गई थी।

(iii) आपातकाल के दौरान जनसंचार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, कोई भी समाचार-पत्र सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छाप सकता था तथा जो भी खबर अखबार द्वारा छापी जाती थी उसे पहले सरकार से स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती थी।

(iv) आपातकाल के दौरान पुलिस और नौकरशाही, सरकार के प्रति वफादार बनी रही, यदि किसी पुलिस अधिकारी या नौकरशाही ने सरकार के आदेशों को मानने से मना किया तो उसे या तो निलम्बित कर दिया गया या गिरफ्तार कर लिया गया।

प्रश्न 9.
भारत की दलीय प्रणाली पर आपातकाल का किस तरह असर हुआ? अपने उत्तर की पुष्टि उदाहरणों से करें।
उत्तर:
आपातकाल का भारतीय दलीय व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा क्योंकि अधिकांश विरोधी दलों को किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत नहीं थी। आजादी के समय से लेकर सन् 1975 तक भारत में वैसे भी कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व रहा तथा संगठित विरोधी दल उभर नहीं पाया, वहीं आपातकाल के दौरान विरोधी दलों की स्थिति और भी खराब हुई। आपातकाल के बाद सरकार ने जनवरी 1977 में चुनाव कराने का फैसला किया। सभी बड़े विपक्षी दलों ने मिलकर एक नयी पार्टी- “जनता पार्टी’ का गठन कर चुनाव लड़ा और सफलता पायी और सरकार बनाई। इस प्रकार कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि राष्ट्रीय स्तर पर भारत की राजनीतिक प्रणाली द्वि-दलीय हो जाएगी। लेकिन 18 माह में ही जनता पार्टी का यह कुनबा बिखर गया और पुन: दलीय प्रणाली उसी रूप में आ गई।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें 1977 के चुनावों के दौरान भारतीय लोकतन्त्र, दो-दलीय व्यवस्था के जितना नजदीक आ गया था उतना पहले कभी नहीं आया। बहरहाल अगले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बदल गया। हारने के तुरन्त बाद कांग्रेस दो टुकड़ों में बँट गई…..जनता पार्टी में भी बड़ी अफरा-तफरी मची…..डेविड बटलर, अशोक लाहिड़ी और प्रणव रॉय। -पार्था चटर्जी
(क)किन वजहों से 1977 में भारत की राजनीति दो-दलीय प्रणाली के समान जान पड़ रही थी?
(ख) 1977 में दो से ज्यादा पार्टियाँ अस्तित्व में थीं। इसके बावजूद लेखकगण इस दौर को दो-दलीय प्रणाली के नजदीक क्यों बता रहे हैं?
(ग) कांग्रेस और जनता पार्टी में किन कारणों से टूट पैदा हुई?
उत्तर:
(क) सन् 1977 में भारत की राजनीति दो-दलीय प्रणाली इसलिए जान पड़ती थी क्योंकि उस समय केवल दो ही दल सत्ता के मैदान में थे-सत्ताधारी दल कांग्रेस एवं मुख्य विपक्षी दल जनता पार्टी।

(ख) लेखकगण इस दौर को दो-दलीय प्रणाली के नजदीक इसलिए बता रहे हैं क्योंकि कांग्रेस कई टुकड़ों में बँट गई और जनता पार्टी में भी फूट हो गई परन्तु फिर भी इन दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता संयुक्त नेतृत्व, साझे कार्यक्रम और नीतियों की बात करने लगे। इन दोनों गुटों की नीतियाँ एक जैसी थीं। दोनों में बहुत कम अन्तर था। वामपन्थी मोर्चे में सी०पी०एम०, सी०पी०आई०, फारवर्ड ब्लॉक, रिपब्लिकन पार्टी की नीति एवं कार्यक्रमों को इनसे अलग माना जा सकता है।

(ग) सन् 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार के कारण नेताओं में निराशा पैदा हुई और इस निराशा के कारण फूट पैदा हुई, क्योंकि अधिकांश कांग्रेसी नेता श्रीमती गांधी के चामत्कारिक नेतृत्व के मोहपाश से बाहर निकल चुके थे, दूसरी ओर जनता पार्टी के नेतृत्व को लेकर फूट पैदा हो गई थी। प्रधानमन्त्री पद के लिए उम्मीदवारों में आपसी होड़ मच गई।

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
गरीब जनता पर सचमुच भारी मुसीबत आई होगी।आखिर गरीबी हटाओ के वादे का हुआ क्या?
उत्तर:
श्रीमती गांधी ने सन् 1971 के आम चुनावों में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था लेकिन इस नारे के बावजूद भी सन् 1971-72 के बाद के वर्षों में देश की सामाजिक-आर्थिक दशा में सुधार नहीं हुआ और यह नारा खोखला साबित हुआ।

इसी अवधि में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना बढ़ोतरी हुई। इससे विभिन्न चीजों की कीमतें तेजी से बढ़ी। सन् 1973 में चीजों की कीमतों में 23 प्रतिशत और सन् 1974 में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इस तीव्र मूल्य वृद्धि से लोगों को भारी कठिनाई हुई। बंगलादेश के संकट से भी भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ा था। फलत: गरीबी हटाओ कार्यक्रम के लिए दिए जाने वाले अनुदान में कटौती कर दी गई और यह नारा पूर्णत: सफल साबित नहीं हो पाया।

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प्रश्न 2.
क्या ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ और ‘प्रतिबद्ध नौकरशाही’ का मतलब यह है कि न्यायाधीश और सरकारी अधिकारी शासक दल के प्रति निष्ठावान हों?
उत्तर:
प्रतिबद्ध नौकरशाही के अन्तर्गत नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों से बँधी हुई होती है और उस दल के निर्देशन में कार्य करती है। प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना किसी प्रश्न उठाए आँखें मूंदकर लागू करना होता है।

जहाँ तक प्रतिबद्ध न्यायपालिका का सवाल है यह ऐसी न्यायपालिका होती है, जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफादार हो तथा सरकार के निर्देशों के अनुसार चले।

इस प्रकार ऐसी व्यवस्था में न्यायपालिका व व्यवस्थापिका की स्वतन्त्रता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है और प्रशासन निरंकुश हो जाता है अर्थात् कानून बनाने एवं फैसला या निर्णय देने की शक्ति केवल एक ही संख्या या दल के पास आ जाती है। इस प्रकार की नौकरशाही प्रायः साम्यवादी देशों में पायी जाती है।

प्रश्न 3.
क्या राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सिफारिश के बगैर आपातकाल की घोषणा करनी चाहिए थी? कितनी अजीब बात है!
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों का उल्लेख किया गया है। भारत में 1975 में अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की गई जिसमें मन्त्रिमण्डल से सलाह करके आपातकालीन स्थिति की घोषणा का प्रावधान है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने बिना मन्त्रिमण्डल की सलाह के राष्ट्रपति को आपातकाल की घोषणा करने की सलाह दी थी, मन्त्रिमण्डल की बैठक इसके बाद हुई। इस प्रकार तत्कालीन परिस्थितियों में चाहे कुछ भी हुआ हो लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में यदि देश में आपातकाल लागू करना है तो राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल से पूरी तरह विचार-विमर्श करके तमाम हालातों को दृष्टिगत रखते हुए इसकी घोषणा करनी चाहिए। वर्तमान में आपातकाल के प्रावधानों में सुधार कर लिया गया है। अब आन्तरिक आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में ही लगाया जा सकता है। इसके लिए भी आपातकाल की घोषणा की सलाह मन्त्रिपरिषद् को राष्ट्रपति को लिखित में देनी होगी।

प्रश्न 4.
अरे! सर्वोच्च न्यायालय ने भी साथ छोड़ दिया। उन दिनों सबको क्या हो गया था?
उत्तर:
आपातकाल के दौरान नागरिकों की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए तथा मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। नागरिकों के पास अब यह अधिकार नहीं था कि वे अदालतों का दरवाजा खटखटा सकें।

सरकार ने निवारक नजरबन्दी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। लोगों को केवल अपराध की आशंका के कारण गिरफ्तार किया गया। सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबन्दी अधिनियमों का प्रयोग करके बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ की। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया वे बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। गिरफ्तार लोग अथवा उनके पक्ष से किन्हीं और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दायर किए, लेकिन सरकार का कहना था कि लोगों की गिरफ्तारी का कारण बताना कतई आवश्यक नहीं है।

अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला किया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। सन् 1976 में अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिकों के जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में से एक माना गया। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बन्द हो गए अर्थात् सर्वोच्च न्यायालय ने भी जनता का साथ छोड़ दिया था।

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प्रश्न 5.
अगर उत्तर और दक्षिण के राज्यों में मतदाताओं ने इतने अलग ढर्रे पर मतदान किया, तो हम कैसे कहें कि 1977 के चुनावों का जनादेश क्या था?
उत्तर:
सन् 1977 के चुनावों में आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हारी। कांग्रेस को लोकसभा की मात्र 154 सीटें मिलीं। 3 से 35 प्रतिशत से भी कम वोट प्राप्त हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों को 330 सीटें प्राप्त हुईं।

लेकिन तत्कालीन चुनावी नतीजों पर प्रकाश डालें तो यह एहसास होता है कि कांग्रेस देश में हर जगह चुनाव नहीं हारी थी। महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में उसने कई सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा था और दक्षिण भारत के राज्यों में तो उसकी स्थिति काफी मजबूत थी। लेकिन इन चुनावों की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उत्तर भारत में राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता की प्रकृति में दूरगामी बदलाव आए। उत्तर भारत में मध्य वर्ग का जनादेश कांग्रेस के हाथ से दूर जाने लगा और मध्यम वर्ग के कई तबके जनता पार्टी को एक मंच के रूप में पाकर इससे आ जुड़े।

प्रश्न 6.
मैं समझ गया! आपातकाल एक तरह से तानाशाही निरोधक टीका था। इससे दर्द हुआ और बुखार भी आया, लेकिन अन्ततः हमारे लोकतन्त्र के भीतर क्षमता बढ़ी।
उत्तर:
भारत में जून 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू करवाने की सिफारिश की गई और सम्पूर्ण देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। तत्कालीन सरकार का दावा था कि वह.आपातकाल लागू करके कानून व्यवस्था को बहाल करना चाहती थी, कार्यकुशलता बढ़ाना चाहती थी और गरीबों के हित में कार्यक्रम लागू करना चाहती थी। लेकिन आलोचकों ने ध्यान दिलाया कि सरकार के ज्यादातर वायदे पूरे नहीं हुए तथा सरकार अपने वायदों की ओट लेकर ज्यादतियों से लोगों का ध्यान हटाना चाहती थी।

आपातकाल के दौरान पुलिस हिरासत में मौत और यातनाओं की घटनाएँ घटी। गरीब लोगों को मनमाने ढंग से एक जगह से उजाड़ कर दूसरी जगह बसाने की भी घटनाएँ हुईं। जनसंख्या नियन्त्रण के अति उत्साह में लोगों को अनिवार्य रूप से नसबन्दी के लिए मजबूर किया गया। आपातकाल से सबक-आपातकाल में एकबारगी भारतीय लोकतन्त्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हुईं। पर्यवेक्षकों का मानना है कि आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतन्त्र लोकतन्त्र नहीं रहा लेकिन यह भी सही है कि थोड़े ही दिनों के अन्दर कामकाज फिर से लोकतान्त्रिक ढर्रे पर लौट आया। आपातकाल के प्रमुख सबक निम्नलिखित हैं-

  1. आपातकाल का प्रथम सबक तो यही है कि भारत से लोकतन्त्र को विदा कर पाना अत्यन्त कठिन है।
  2. दूसरे, आपातकाल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्हें बाद में सुधार लिया गया। अब आन्तरिक आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित में दे।
  3. तीसरे आपातकाल से हर कोई नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा सचेत हुआ। आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई।

इस प्रकार आपातकाल ने भारतीय प्रशासन व जनता को सबक सिखाया तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था की प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया।

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 6 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वचनबद्ध न्यायपालिका की अवधारणा को समझाइए।
उत्तर:
वचनबद्ध न्यायपालिका वचनबद्ध न्यायपालिका से तात्पर्य न्यायपालिका का सरकार के प्रति प्रतिबद्ध होना या सरकार की नीतियों का आँख मूंदकर पालन करने से है।

सन् 1973 में श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों श्री जे० एम० शैलट, श्री के० एस० हेगड़े तथा श्री ए० एन० ग्रोवर की उपेक्षा करके ए० एन० रे को नियुक्त किया। इस नियुक्ति से उस समय एक राजनीतिक विवाद पैदा हो गया। श्री ए० एन० रे की नियुक्ति के विरोध में तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने त्यागपत्र दे दिया। इससे यह प्रश्न उठने लगा कि क्या न्यायपालिका सरकार के प्रति वचनबद्ध होनी चाहिए अथवा स्वतन्त्र।

वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए सरकार द्वारा प्रयोग किए गए उपाय-तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती गांधी की सरकार ने न्यायपालिका की वचनबद्धता के लिए निम्नलिखित उपाय किए थे-

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धान्त की अनदेखी-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी की तथा उन न्यायाधीशों को पदोन्नत किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे।

उदाहरणार्थ- श्री जे० एम० शैलट, के० एस० हेगड़े तथा ए० एन० ग्रोवर की वरिष्ठता की अनदेखी करके श्री ए० एन० रे को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया। अतः तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। सन् 1977 में पुनः श्री एच० आर० खन्ना की वरिष्ठता की अनदेखी करके श्री एम० एच० बेग को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया गया।

2. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के स्थानान्तरण का सहारा भी लिया। इन्होंने सन् 1981 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस्माइल को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा तथा पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी० एन० सिंह को मद्रास उच्च न्यायालय स्थानान्तरित करवाया।

3. रिक्त पदों को भरने से मना करना-सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए कई बार रिक्त पदों को भरने से मना कर दिया, अथवा असमर्थता व्यक्त की।

4. न्यायपालिका की आलोचना-न्यायाधीशों द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों की प्राय: अधिकारियों द्वारा आलोचना की जाती थी, जबकि ऐसा किया जाना संविधान के विरुद्ध था।

5. अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति-वचनबद्ध न्यायपालिका का एक अन्य उपाय अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति करना था। सरकार अस्थायी तौर पर नियुक्त करके न्यायाधीशों की कार्यप्रणाली एवं व्यवहार का अध्ययन करती थी कि वह सरकार के पक्ष में कार्य कर रहा है अथवा विपक्ष में।

6. अन्य पदों पर नियुक्तियाँ-सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे अथवा सरकार की नीतियों के अनुसार चलते थे।

7. कम वेतन-न्यायाधीशों को अन्य विभागों के मुकाबले कम वेतन मिलता था।

8. कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश का प्रावधान-कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के संवैधानिक प्रावधानों को भी वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए प्रयोग किया गया।
निष्कर्ष-उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत में न्यायपालिका की प्रतिबद्धता पहले की अपेक्षा कम हुई है लेकिन अभी भी वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र नहीं है। स्वच्छ प्रशासन के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना पहली शर्त है।

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प्रश्न 2.
सन् 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा लागू किए गए आपातकाल की घोषणा के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सन् 1975 के आपातकाल की घोषणा भारतीय राजनीति का सबसे विवादास्पद प्रकरण माना जाता है, जो 25 जून, 1975 को पहली बार आन्तरिक गड़बड़ी के आधार पर लागू किया गया। राष्ट्रपति ने प्रधानमन्त्री की सिफारिश के आधार पर सन् 1975 में राष्ट्रीय संकटकाल की घोषणा की।

आपातकाल के कारण आपातकाल के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. सन् 1971 के युद्ध में अत्यधिक व्यय-सन् 1975 में लागू किए गए आपातकाल की घोषणा का प्रमुख कारण सन् 1971 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को माना जाता है। इस युद्ध में भारत को बहुत अधिक धन व्यय करना पड़ा। इसके अलावा पूर्वी पाकिस्तान से आए करोड़ों शरणार्थियों का भार भी भारत पर पड़ा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। श्रीमती गांधी का ‘गरीबी हटाओ’ का नारा धन के अभाव के कारण पूरी तरह सफल नहीं हो पाया, जिससे लोगों में असन्तोष फैला।

2. कृषिगत उत्पादन में कमी-सन् 1972-73 में भारत में फसल भी अच्छी नहीं हुई। अन्य शब्दों में, सरकार को कृषि क्षेत्र में भी असफलता मिल रही थी, जिससे भारत में आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा था।

3. औद्योगिक उत्पादन की मात्रा में कमी-भारत में प्रशिक्षित एवं कुशल वैज्ञानिकों, इंजीनियरों तथा कर्मचारियों के होने के बावजूद भी भारत के औद्योगिक उत्पादन में निरन्तर कमी हो रही थी जिससे कर्मचारियों में असन्तोष बढ़ रहा था।

4. रेलवे की हड़ताल-सन् 1975 में की गई आपातकालीन घोषणा का एक कारण रेलवे कर्मचारियों द्वारा की गई हड़ताल भी थी जिससे यातायात व्यवस्था बिल्कुल खराब हो गई।

5. बिहार आन्दोलन-बिहार आन्दोलन का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया। बिहार आन्दोलन भी सन् 1975 में आपातकाल की घोषणा का एक प्रमुख कारण था, क्योंकि इस आन्दोलन के कारण जयप्रकाश नारायण ने लोगों को श्रीमती इन्दिरा गांधी के विरुद्ध एकजुट कर दिया था। बिहार आन्दोलन ने केन्द्र में कांग्रेस सरकार की चुनौती पेश की तथा श्रीमती गांधी ने इस आन्दोलन के दबाव में आपातकाल की घोषणा की।

6. तेल संकट-सन् 1973 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल संकट पैदा हो गया। सन् 1973 में ओपेक देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात मनवाने के लिए तेल का उत्पादन कम कर दिया। इससे तेल संकट उत्पन्न हुआ। इस तेल संकट के कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें बढ़ गईं। तेल की कीमतें बढ़ने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी इसका प्रभाव देखा जाने लगा। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था खराब हो गई।

7. गुजरात का नव-निर्माण आन्दोलन-अहमदाबाद के एन० डी० इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्रावास में खाने में 20 प्रतिशत की वृद्धि पर विवाद के कारण अहमदाबाद में असन्तोष फैल गया तथा आगे चलकर इस असन्तोष ने गुजरात नव-निर्माण आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इस घटना से अहमदाबाद राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि गुजरात के मुख्यमन्त्री चिमनभाई पटेल को त्यागपत्र देना पड़ा। सन् 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जो आपातकाल की घोषणा की थी, उसका एक प्रमुख कारण गुजरात का नव-निर्माण आन्दोलन भी था।

8. श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करना-सन् 1975 के आपातकाल का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को अवैध घोषित करना था।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जगजीवन राम का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
जगजीवन राम-जगजीवन राम भारत के महान् स्वतन्त्रता सेनानी और बिहार राज्य के उच्च कोटि के कांग्रेसी नेता थे। इनका जन्म सन् 1908. में हुआ। ये स्वतन्त्र भारत के पहले केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में श्रम मन्त्री बने। सन् 1952 से सन् 1977 तक इन्होंने अनेक मन्त्रालयों की जिम्मेदारी निभाई। वे देश की संविधान सभा के सदस्य थे। वे सन् 1952 से लेकर सन् 1986 तक सांसद रहे। सन् 1977 से सन् 1979 तक देश के उप-प्रधानमन्त्री पद पर रहे। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन दलितों की सेवा में बिताया और उनकी सेवा के लिए हमेशा तैयार रहते थे। सन् 1986 में इनका निधन हो गया।

प्रश्न 2.
भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा का उदय कैसे हुआ?
उत्तर:
भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका का उदय-केशवानन्द भारती मुकदमे की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय की एक 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने की। 13 में से 9 न्यायाधीशों ने यह निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन कर सकती है, परन्तु संविधान के मूलभूत ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। इस निर्णय से सरकार एवं न्यायपालिका में मतभेद बढ़ गए, क्योंकि सन् 1973 में सरकार का नेतृत्व श्रीमती इन्दिरा गांधी कर रही थीं। अत: यह विवाद श्रीमती इन्दिरा गांधी एवं न्यायालय के मध्य हुआ जिसमें जीत न्यायालय की हुई क्योंकि न्यायालय ने संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति को सीमित कर दिया। इसी कारण श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को आगे बढ़ाया। सन् 1975 में आपातकाल के समय वचनबद्ध न्यायपालिका का सिद्धान्त कार्यपालिका का सिद्धान्त बन गया।

प्रश्न 3.
भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका की धारणा को उदाहरणों से समझाइए।
उत्तर:
भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका के उदाहरण

भारत में वचनबद्ध न्यायपालिका के प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी-श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति में वरिष्ठता की अनदेखी की। श्रीमती गांधी ने श्री ए० एन० रे को तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी करके सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया।
  2. न्यायाधीशों का स्थानान्तरण–श्रीमती गांधी ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों के स्थानान्तरण का सहारा लिया। इन्होंने सन् 1981 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस्माइल को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा।
  3. रिक्त पदों को भरने से मना करना-सरकार ने वचनबद्ध न्यायपालिका के लिए कई बार रिक्त पदों को भरने से भी मना कर दिया।
  4. अन्य पदों पर नियुक्तियाँ सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में से उन्हें राज्यपाल, राजदूत, मन्त्री या किसी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जो सरकार के प्रति वफादार थे।

प्रश्न 4.
भारत के एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में आप आपातकाल की आलोचना किन आधारों पर करते हैं?
उत्तर:
भारतीय लोकतन्त्र पर आपातकाल के दुष्प्रभाव

भारतीय लोकतन्त्र पर आपातकाल के निम्नलिखित दुष्प्रभाव पड़े, जिनके कारण हम आपातकाल की आलोचना करते हैं

1. लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली का ठप्प होना-आपातकाल में लोगों को सार्वजनिक तौर पर सरकार के विरोध करने की लोकतान्त्रिक प्रणाली को ठप्प कर दिया गया। देश को बचाने के लिए बनाए गए संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग इन्दिरा गांधी ने निजी ताकत को बचाने के लिए किया।

2. निवारक नजरबन्दी कानून का दुरुपयोग-आपातकाल में निवारक नजरबन्दी कानून का दुरुपयोग करते हुए लगभग 1 लाख 11 हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया, वे बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे।

3. प्रेस पर नियन्त्रण-आपातकाल के दौरान सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना आवश्यक है। इसे प्रेस सेंसरशिप के नाम से जाना जाता है।

4. संविधान का 42वाँ संशोधन आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वाँ संशोधन पारित हुआ। इसके जरिये संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए जिन्हें बाद में 44वें संविधान संशोधन द्वारा ठीक किया गया।

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प्रश्न 5.
चौधरी चरणसिंह के जीवन पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
चौधरी चरणसिंह का जन्म सन् 1902 में हुआ। ये महान् स्वतन्त्रता सेनानी थे और प्रारम्भ में उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहे। ये ग्रामीण एवं कृषि विकास की नीति और कार्यक्रमों के कट्टर समर्थक थे। सन् 1967 में कांग्रेस पार्टी को छोड़कर इन्होंने भारतीय क्रान्ति दल का गठन किया। वे दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने। ये जयप्रकाश नारायण के क्रान्ति आन्दोलन से जुड़े और सन् 1977 में जनता पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। सन् 1977 से सन् 1979 तक ये भारत के उप-प्रधानमन्त्री और गृह-मन्त्री रहे। इन्होंने लोक दल की स्थापना की। ये कुछ महीनों के लिए जुलाई 1979 से जनवरी 1980 के बीच भारत के प्रधानमन्त्री रहे। चौधरी चरणसिंह का निधन सन् 1987 में हुआ।

प्रश्न 6.
प्रतिबद्ध नौकरशाही की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रतिबद्ध नौकरशाही की अवधारणा
पतिबदनौकाशाटी की प्रतिबद्ध नौकरशाही का अर्थ है कि नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों एवं नीतियों से बँधी हुई रहती है और उस दल के निर्देशन में ही कार्य करती है। प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती। इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना कोई प्रश्न उठाए आँखें मूंद कर लागू करना होता है। लोकतान्त्रिक देशों में नौकरशाही प्रतिबद्ध नहीं होती। परन्तु साम्यवादी देशों में जैसे कि चीन में वचनबद्ध नौकरशाही पायी जाती है। भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही से आशय किसी दल के सिद्धान्तों के प्रति वचनबद्ध न होकर संविधान के प्रति वचनबद्धता है।

प्रश्न 7.
आपातकाल में संवैधानिक एवं उत्तर-संवैधानिक पक्षों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आपातकाल के संवैधानिक एवं उत्तर-संवैधानिक पक्ष
आपातकाल के समय कुछ संवैधानिक एवं उत्तर-संवैधानिक पक्ष भी सामने आए। श्रीमती गांधी ने संविधान में 39वाँ संवैधानिक संशोधन किया। इस संशोधन द्वारा राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री एवं स्पीकर के चुनाव से सम्बन्धित मुकदमों की सुनवाई की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति समाप्त कर दी गई। 39वें संविधान संशोधन की उपधारा-4 के अन्तर्गत उपर्युक्त पदों से सम्बन्धित चुनावों को न्यायालयों में चुनौती देने की शक्ति को समाप्त कर दिया गया। इस संशोधन को पास करने का मुख्य उद्देश्य श्रीमती गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय से राहत दिलाना था।

विरोधी पक्ष ने 39वें संशोधन को संविधान के मूल ढाँचे के विरुद्ध बताया परन्तु उच्च न्यायालय की पीठ के पाँच में से चार न्यायाधीशों ने 39वें संशोधन को वैध ठहराया तथा इस संशोधन के आधार पर श्रीमती गांधी के निर्वाचन को पूर्ण रूप से वैध ठहराया। इस प्रकार श्रीमती गांधी के निर्वाचन को वैध ठहराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक बड़ी कवायद की गई।

प्रश्न 8.
विरोधी दलों के विरोध तथा कांग्रेस की टूट ने आपातकाल की पृष्ठभूमि कैसे तैयार की?
उत्तर:
आपातकाल की पृष्ठभूमि के कारण

आपातकाल की पृष्ठभूमि के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  1. सन् 1967 के चुनावों के बाद कुछ प्रान्तों में विरोधी दलों या संयुक्त विरोधी दलों की सरकार बनी। वे केन्द्र में सत्ता में आना चाहते थे।
  2. कांग्रेस के विपक्ष में जो दल थे उन्हें लग रहा था कि सरकारी प्राधिकार को निजी प्राधिकार मानकर प्रयोग किया जा रहा है और राजनीति हद से ज्यादा व्यक्तिगत होती जा रही है।
  3. कांग्रेस टूट से इन्दिरा गांधी और उनके विरोधियों के बीच मतभेद गहरे हो गए थे।
  4. इस अवधि में न्यायपालिका और सरकार के आपसी रिश्तों में भी तनाव आए। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के अनेक निर्णयों को संविधान के विरुद्ध माना। सरकार ने न्यायपालिका को प्रगति विरोधी बताया।
  5. जयप्रकाश नारायण समग्र क्रान्ति की बात कर रहे थे। ऐसी सभी घटनाओं ने आपातकाल के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जनता के संसद मार्च का नेतृत्व कब व किसने किया?
उत्तर:
सन् 1975 में जनता के संसद मार्च का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया।

प्रश्न 2.
आपातकाल लागू करने का तात्कालिक कारण क्या था?
उत्तर:

  1. प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी (तत्कालीन) के लोकसभा हेतु निर्वाचन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित करना।
  2. विपक्षी दलों द्वारा तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी से त्यागपत्र की माँग करना।

प्रश्न 3.
आन्तरिक अशान्ति की दशा में उद्घोषित आपातकाल के कोई दो प्रभाव बताइए।
उत्तर:

  1. संसद के सभी कार्य स्थगित रहते हैं।
  2. प्रेस की स्वतन्त्रता पर भी रोक लगाई जा सकती है।

प्रश्न 4.
25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा के किन्हीं दो परिणामों को बताइए।
उत्तर:

  1. मौलिक अधिकारों का हनन।
  2. संवैधानिक उपचारों का अधिकार तथा न्यायालय द्वारा सरकार विरोधी घोषणाएँ।

प्रश्न 5.
सन् 1977 के चुनावों में जनता पार्टी की विजय प्राप्ति के किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. जयप्रकाश नारायण का व्यक्तित्व-जयप्रकाश नारायण इस दौर के सबसे करिश्माई व्यक्तित्व थे। उन्हें अपार जन-समर्थन प्राप्त था। जनता पार्टी की जीत में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था।
  2. इन्दिरा गांधी की घटती लोकप्रियता-इन्दिरा गांधी का जिद्दी स्वभाव, हठधर्मी, न्यायपालिका से उनका टकराव आदि ऐसे कारण थे जिनसे इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता घटी।

प्रश्न 6.
वचनबद्ध नौकरशाही को समझाइए।
उत्तर:
वचनबद्ध नौकरशाही का अर्थ है कि सरकार की नीति व कार्यक्रमों के प्रति वचनबद्ध अधिकारीगण (अफसर) आँखें मूंद करके शासक दल की नीतियों को लागू करेंगे, चाहें उनका परिणाम कुछ भी क्यों न हो। वचनबद्ध नौकरशाही में राज्य का महत्त्व बढ़ जाता है, राज्य का क्षेत्र व्यापक हो जाता है।

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प्रश्न 7.
वचनबद्ध न्यायपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
ऐसी न्यायपालिका जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफादार हो तथा उसके निर्देशों एवं आदेशों के अनुसार ही चले, उसे वचनबद्ध न्यायपालिका कहा जाता है।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु किए गए कोई दो प्रावधान लिखिए।
उत्तर:

  1. न्यायाधीशों को केवल महाभियोग द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है।
  2. न्यायाधीशों की योग्यता का संविधान में वर्णन किया गया है।

प्रश्न 9.
अनुच्छेद 352 क्या है?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 में देश में आपातकाल की घोषणा की जा सकती है। सन् 1962, सन् 1971 एवं सन् 1975 में की गई आपातकाल की घोषणा अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत ही की गई थी।

प्रश्न 10.
शाह आयोग की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
शाह आयोग की स्थापना आपातकाल के दौरान की गई कार्रवाई तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विविध पहलुओं की जाँच करने के लिए की गई।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जनता पार्टी के शासन काल में भारत के प्रधानमन्त्री कौन थे-
(a) चौ० देवीलाल
(b) चौ० चरण सिंह
(c) मोरारजी देसाई
(d) ए० बी० वाजपेयी
उत्तर:
(c) मोरारजी देसाई।

प्रश्न 2.
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भारत में आपातकाल की घोषणा कब की थी-
(a) 18 जून, 1975
(b) 25 जून, 1975
(c) 5 जुलाई, 1975
(d) 10 जून, 1975
उत्तर:
(b) 25 जून, 1975

प्रश्न 3.
भारत में प्रतिबद्ध नौकरशाही तथा प्रतिबद्ध न्यायपालिका की घोषणा को किसने जन्म दिया-
(a) इन्दिरा गांधी
(b) लालबहादुर शास्त्री
(c) मोरारजी देसाई
(d) जवाहरलाल नेहरू।
उत्तर:
(a) इन्दिरा गांधी।

प्रश्न 4.
समग्र क्रान्ति के प्रतिपादक कौन थे-
(a) जयप्रकाश नारायण
(b) मोरारजी देसाई
(c) महात्मा गांधी
(d) गोपाल कृष्ण गोखले।
उत्तर:
(a) जयप्रकाश नारायण।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से नक्सलवादी आन्दोलन से किसका सम्बन्ध है-
(a) सुरेश कलमाड़ी
(b) चारु मजूमदार
(c) ममता बनर्जी
(d) जयललिता।
उत्तर:
(b) चारु मजूमदार।

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प्रश्न 6.
भारतीय क्रान्ति दल का गठन किसने किया-
(a) लाला लाजपत राय
(b) सुभाषचन्द्र बोस
(c) लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
(d) चौधरी चरणसिंह।
उत्तर:
(d) चौधरी चरणसिंह।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System (कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना)

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
सन् 1967 के चुनावों के बारे में निम्नलिखित में से कौन-कौन से बयान सही हैं
(क) कांग्रेस लोकसभा के चुनाव में विजयी रही, लेकिन कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव वह हार गई।
(ख) कांग्रेस लोकसभा के चुनाव भी हारी और विधानसभा के भी।
(ग) कांग्रेस को लोकसभा में बहुमत नहीं मिला, लेकिन उसने दूसरी पार्टियों के समर्थन से एक गठबन्धन सरकार बनाई।
(घ) कांग्रेस केन्द्र में सत्तासीन रही और उसका बहुमत भी बढ़ा।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) गलत,
(घ) गलत।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित का मेल करें-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System 1
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Challenges to and Restoration of Congress System 2

प्रश्न 3.
निम्नलिखित नारे से किन नेताओं का सम्बन्ध है-
(क) जय जवान जय किसान
(ख) इन्दिरा हटाओ
(ग) गरीब हटाओ।
उत्तर:
(क) लालबहादुर शास्त्री,
(ख) सिंडिकेट,
(ग) श्रीमती इन्दिरा गांधी।

प्रश्न 4.
सन् 1971 के ‘ग्रैण्ड अलायंस’ के बारे में कौन सा कथन ठीक है-
(क) इसका गठन गैर-कम्युनिस्ट और गैर-कांग्रेसी दलों ने किया था।
(ख) इसके पास एक स्पष्ट राजनीतिक तथा विचारधारात्मक कार्यक्रम था।
(ग) इसका गठन सभी गैर-कांग्रेसी दलों ने एकजुट होकर किया था।
उत्तर:
(क) इसका गठन गैर-कम्युनिस्ट और गैर-कांग्रेसी दलों ने किया था।

प्रश्न 5.
किसी राजनीतिक दल को अपने अन्दरूनी मतभेदों का समाधान किस तरह करना चाहिए? यहाँ कुछ समाधान दिए गए हैं। प्रत्येक पर विचार कीजिए और उसके सामने उसके फायदों और घाटों को लिखिए।
(क) पार्टी के अध्यक्ष द्वारा बताए गए मार्ग पर चलना।
(ख) पार्टी के भीतर बहुमत की राय पर अमल करना।
(ग) हरेक मामलों पर गुप्त मतदान करना।
(घ) पार्टी के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं से सलाह करना।
उत्तर:
(क)लाभ-पार्टी के अध्यक्ष द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने से पार्टी में एकता और अनुशासन की भावना का विकास होगा।
हानि-इससे एक व्यक्ति की तानाशाही या निरंकुशता स्थापित होने का खतरा बढ़ जाता है।

(ख)लाभ-मतभेदों को दूर करने के लिए बहुमत की राय जानने से यह लाभ होगा कि इससे अधिकांश की राय का पता चलेगा।
हानि-बहुमत की राय मानने से अल्पसंख्यकों की उचित बात की अवहेलना की सम्भावना बनी रहेगी।

(ग) लाभ-पार्टी के मतभेदों को दूर करने के लिए गुप्त मतदान की प्रक्रिया अपनाने से प्रत्येक सदस्य अपनी बात स्वतन्त्रतापूर्वक रख सकेगा।
हानि-गुप्त मतदान में क्रॉस वोटिंग का खतरा बना रहता है।

(घ)लाभ-पार्टी के मतभेदों को दूर करने के लिए वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की सलाह का विशेष लाभ होगा, क्योंकि वरिष्ठ नेताओं के पास अनुभव होता है तथा सभी सदस्य उनका आदर करते हैं।

हानि-वरिष्ठ एवं अनुभवी व्यक्ति नए विचारों एवं मूल्यों को अपनाने से कतराते हैं।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किसे/किन्हें 1967 के चुनावों में कांग्रेस की हार के कारण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए
(क) कांग्रेस पार्टी में करिश्माई नेता का अभाव।
(ख) कांग्रेस पार्टी के भीतर टूट।
(ग) क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक समूहों की लामबन्दी को बढ़ाना।
(घ) गैर-कांग्रेसी दलों के बीच एकजुटता।
(ङ) कांग्रेस पार्टी के अन्दर मतभेद।
उत्तर:
(क) इसको कांग्रेस की हार के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि कांग्रेस के पास अनेक वरिष्ठ और करिश्माई नेता थे।
(ख) यह कांग्रेस पार्टी की हार का सबसे बड़ा कारण था क्योंकि कांग्रेस दो गुटों में बँटती जा रही थी· युवा तुर्क और सिंडिकेट। युवा तुर्क (चन्द्रशेखर, चरणजीत यादव, मोहन धारिया, कृष्णकान्त एवं आर० के० सिन्हा) तथा सिंडिकेट (कामराज, एस० के० पाटिल, अतुल्य घोष एवं निजलिंगप्पा) के बीच आपसी फूट के कारण कांग्रेस पार्टी को सन् 1967 के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा।
(ग) सन् 1967 में पंजाब में अकाली दल, तमिलनाडु में डी० एम० के० जैसे दल अनेक राज्यों में क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक दलों के रूप में उभरे जिससे कांग्रेस के प्रभाव व विस्तार क्षेत्र में कमी आयी।
(घ) गैर-कांग्रेसी दलों के बीच एकजुटता पूर्णतया नहीं थी लेकिन जिन-जिन प्रान्तों में ऐसा हुआ वहाँ वामपन्थियों अथवा गैर-कांग्रेसी दलों को लाभ मिला।
(ङ) कांग्रेस पार्टी के अन्दर मतभेद के कारण बहुत जल्दी ही आन्तरिक फूट कालान्तर में सभी के सामने आ गई और लोग यह मानने लगे कि सन् 1967 के चुनाव में कांग्रेस की हार के कई कारणों में से यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण था।

प्रश्न 7.
1970 के दशक में इन्दिरा गांधी की सरकार किन कारणों से लोकप्रिय हुई थी?
उत्तर:
1970 के दशक में श्रीमती गांधी की लोकप्रियता के कारण-1970 के दशक में श्रीमती गांधी की लोकप्रियता के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-

(1) इन्दिरा गांधी कांग्रेस पार्टी की करिश्माई नेता थीं। वे भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री की पुत्री थीं और इन्होंने स्वयं को गांधी-नेहरू परिवार का वास्तविक, राजनीतिक उत्तराधिकारी बताने के साथ-साथ अधिक प्रगतिशील कार्यक्रम; जैसे-20 सूत्री कार्यक्रम, गरीबी हटाने के लिए कल्याणकारी सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम की घोषणा की। वह देश की महिला प्रधानमन्त्री होने के कारण महिला मतदाताओं में अधिक लोकप्रिय हुईं।

(2) इन्दिरा गांधी द्वारा 20-सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत करना, बैंकों का राष्ट्रीयकरण करना, प्रिवीपर्स को समाप्त करना, श्री वी० वी० गिरि जैसे मजदूर नेता को दल के घोषित प्रत्याशी के विरुद्ध चुनाव जिताकर लाना। इन सबने इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता को बढ़ाया।

(3) श्रीमती गांधी की सरकार के पास अन्य दलों के मुकाबले एक एजेण्डा और कार्यक्रम था जिसने उनकी लोकप्रियता में चार-चाँद लगा दिए।

(4) इन्दिरा गांधी ने एक कुशल व साहसिक चुनावी रणनीति अपनायी। उन्होंने एक साधारण से सत्ता संघर्ष को विचारधारात्मक संघर्ष में बदल दिया। उन्होंने सरकार की नीतियों को वामपन्थी रंग देने के लिए कई कदम उठाए। लोगों को इससे लगा कि इन्दिरा गांधी तो लोगों के हित में काम करना चाहती हैं, लेकिन सिंडिकेट उनके मार्ग में बाधाएँ डाल रहा है। चुनावों में श्रीमती गांधी को इसका लाभ मिला।

(5) इसी दौर में श्रीमती गांधी ने भूमि सुधार कानूनों के क्रियान्वयन के लिए जबरदस्त अभियान चलाया तथा अपने कार्यक्रमों के पक्ष में जनादेश हासिल करने के लिए दिसम्बर 1970 में लोकसभा भंग करने की सिफारिश की।

प्रश्न 8.
1960 के दशक की कांग्रेस पार्टी के सन्दर्भ में सिंडिकेट का क्या अर्थ है? सिंडिकेट ने कांग्रेस पार्टी में क्या भूमिका निभाई?
उत्तर:
सिंडिकेट का अर्थ-कांग्रेसी नेताओं के एक समूह को अनौपचारिक रूप से सिंडिकेट के नाम से पुकारा जाता है। इस समूह के नेताओं का पार्टी के संगठन पर अधिकार एवं नियन्त्रण था। सिंडिकेट के अगुआ मद्रास प्रान्त के भूतपूर्व मुख्यमन्त्री और फिर कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके के० कामराज थे। इसमें प्रान्तों के ताकतवर नेता; जैसे—बम्बई सिटी (अब मुम्बई) के एस० के० पाटिल, मैसूर (अब कर्नाटक) के एस० निजलिंगप्पा, आन्ध्र प्रदेश के एन० संजीव रेड्डी और पश्चिम बंगाल के अतुल्य घोष शामिल थे। लालबहादुर शास्त्री और इनके बाद इन्दिरा गांधी, दोनों ही सिंडिकेट की सहायता से प्रधानमन्त्री पद पर आरूढ़ हुए थे।

भूमिका-इन्दिरा गांधी के पहले मन्त्रिमण्डल में इस समूह की निर्णायक भूमिका रही। इसने तब नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन में भी अहम भूमिका निभायी थी। कांग्रेस का विभाजन होने के बाद सिंडिकेट के नेताओं और उनके प्रति निष्ठावान कांग्रेसी कांग्रेस (ओ) में ही रहे। चूँकि इन्दिरा गांधी की कांग्रेस (आर) ही लोकप्रियता की कसौटी पर सफल रही, इसलिए भारतीय राजनीति के ये बड़े और ताकतवर नेता सन् 1971 के बाद प्रभावहीन हो गए।

प्रश्न 9.
कांग्रेस पार्टी किन मसलों को लेकर 1969 में टूट का शिकार हुई?
उत्तर:
1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन या टूट के कारण-सन् 1969 में कांग्रेस के विभाजन एवं टूट के निम्नलिखित कारण थे-

1. दक्षिणपन्थी और वामपन्थी विचारधाराओं के समर्थकों के मध्य कलह-सन् 1967 के चौथे आम चुनावों में कांग्रेस की हार पर कार्यकर्ताओं ने विचार मंथन शुरू किया। कांग्रेस के कुछ सदस्यों का यह विचार था कि राज्यों में कांग्रेस को दक्षिणपन्थी विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए, जबकि कुछ अन्य कांग्रेसियों का यह मत था कि कांग्रेस को दक्षिणपन्थी विचारधारा की अपेक्षा वामपन्थी विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चलना चाहिए। इस प्रकार की कलह सन् 1969 में कांग्रेस के विभाजन का मुख्य कारण बनी।

2. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन को लेकर मतभेद-सन् 1969 में इन्दिरा गांधी की असहमति के बावजूद सिंडिकेट ने तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष एन० संजीव रेड्डी को कांग्रेस पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में खड़ा किया। लेकिन श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अन्तरात्मा की आवाज पर तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी० वी० गिरि का समर्थन किया। इन्होंने एक स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन भरा। लेकिन इन्दिरा गांधी के समर्थन के कारण वी० वी० गिरि विजयी हुए और कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार संजीव रेड्डी की हार हुई। यह घटना कांग्रेस पार्टी में फूट का प्रमुख कारण बनी।

3. युवा तुर्क एवं सिंडिकेट के बीच कलह-सन् 1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन का एक कारण युवा तुर्क (चन्द्रशेखर, चरणजीत यादव, मोहन धारिया, कृष्णकान्त एवं आर० के० सिन्हा) तथा सिंडिकेट (कामराज, एस० के० पाटिल, अतुल्य घोष एवं निजलिंगप्पा) के बीच होने वाली कलह थी। जहाँ युवा तुर्क बैंकों के राष्ट्रीयकरण एवं राजाओं के प्रिवीपर्स को समाप्त करने के पक्ष में था, वहीं सिंडिकेट इसका विरोध कर रहा था।

4. वित्त विभाग, मोरारजी देसाई से वापस लेना-श्रीमती गांधी ने 14 अग्रणी बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा भूतपूर्व राजा-महाराजाओं को प्राप्त ‘प्रिवीपर्स’ को समाप्त करने जैसी जनप्रिय नीतियों की घोषणा की, लेकिन उप-प्रधानमन्त्री व वित्त मन्त्री मोरारजी देसाई इन नीतियों के पक्षधर नहीं थे फलत: प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने मोरारजी देसाई से वित्त विभाग वापस ले लिया। मोरारजी देसाई ने इस पर अपना विरोध जताते हुए मन्त्रिमण्डल से त्याग-पत्र दे दिया। सिंडिकेट ने प्रधानमन्त्री की इस कार्यवाही का विरोध किया। मोरारजी देसाई से वित्त विभाग वापस लेने के बाद मन्त्रिमण्डल ने सर्वसम्मत्ति से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रस्ताव को पास कर दिया।

5. श्रीमती इन्दिरा गांधी पर साम्यवादियों का साथ देने का आरोप-जिस प्रकार जगजीवन राम तथा फखरुद्दीन अली अहमद ने सिंडिकेट पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने दक्षिणपन्थियों से गुप्त समझौता कर रखा है, वहीं सिंडिकेट ने श्रीमती इन्दिरा गांधी पर यह आरोप लगाया कि वह कांग्रेस में वामपन्थ को बढ़ावा दे रही है। इस विषय पर सिंडिकेट एवं श्रीमती गांधी के समर्थकों के बीच विवाद गहराता जा रहा था।

6. सिंडिकेट द्वारा श्रीमती गांधी को पद से हटाने का प्रयास–सन् 1969 में कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार के चुनाव हार जाने के बाद सिंडिकेट ने प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को पद से हटाने का प्रयास किया। परन्तु इसके विरोध में 60 से अधिक कांग्रेसी सदस्यों ने निजलिंगप्पा के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात की। 23 अगस्त, 1969 को हुई संसदीय बोर्ड की बैठक में अधिकांश सदस्यों ने श्रीमती गांधी के पक्ष में विश्वास व्यक्त किया।

उपर्युक्त घटनाओं के कारण कांग्रेस में आन्तरिक कलह इस कदर बढ़ गया कि नवम्बर 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अनुच्छेद को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें
इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस को अत्यन्त केन्द्रीकृत और अलोकतान्त्रिक पार्टी संगठन में तब्दील कर दिया, जबकि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस शुरुआती दशकों में एक संघीय, लोकतान्त्रिक और विचारधाराओं के समाहार का मंच थी। नयी और लोक लुभावन राजनीति ने राजनीतिक विचारधारा को महज चुनावी विमर्श में बदल दिया। कई नारे उछाले गए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि उसी के अनुकूल सरकार की नीतियाँ भी बनानी थीं-1970 के दशक के शुरुआती सालों में अपनी बड़ी चुनावी जीत के जश्न के बीच कांग्रेस एक राजनीतिक संगठन के तौर पर मर गई। -सुदीप्त कविराज
(क) लेखक के अनुसार नेहरू और इन्दिरा गांधी द्वारा अपनाई गई रणनीतियों में क्या अन्तर था?
(ख) लेखक ने क्यों कहा कि सत्तर के दशक में कांग्रेस ‘मर गई?
(ग) कांग्रेस पार्टी में आए बदलावों का असर दूसरी पार्टियों पर किस तरह पड़ा?
उत्तर:
(क) जवाहरलाल नेहरू की तुलना में उनकी पुत्री और तीसरी प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को. बहुत ज्यादा केन्द्रीकृत और अलोकतान्त्रिक पार्टी संगठन के रूप में बदल दिया। नेहरू के काल में यह पार्टी संघीय लोकतान्त्रिक और विभिन्न विचारधाराओं को मानने वाले कांग्रेसी नेता और यहाँ तक कि विरोधियों को साथ लेकर चलने वाले एक मंच के रूप में कार्य करती थी।

(ख) लेखक ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि सत्तर के दशक में कांग्रेस की सर्वोच्च नेता श्रीमती इन्दिरा गांधी एक अधिनायकवादी नेता थीं। इन्होंने कांग्रेस की सभी शक्तियाँ अपने या कुछ गिनती के अपने कट्टर समर्थकों तक केन्द्रीकृत कर दी। मनमाने ढंग से मन्त्रिमण्डल और दल का गठन किया तथा पार्टी में विचार-विमर्श प्राय: मर गया।

(ग) कांग्रेस पार्टी में आए बदलाव के कारण दूसरी पार्टियों में परस्पर एकता बढ़ी। उन्होंने गैर-कांग्रेसी और गैर-साम्यवादी संगठन बनाए। कांग्रेस से अनेक सम्प्रदायों के समूह दूर होते गए और वे जनता पार्टी के रूप में लोगों के सामने आए। सन् 1977 के चुनावों में विरोधी दलों ने कांग्रेस का सफाया कर दिया।

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
इन्दिरा गांधी के लिए स्थितियाँ सचमुच कठिन रही होंगी-पुरुषों के दबदबे वाले क्षेत्र में आखिर वे अकेली महिला थीं। ऊँचे पदों पर अपने देश में ज्यादा महिलाएं क्यों नहीं हैं?
उत्तर:
श्रीमती इन्दिरा गांधी भारत की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री बनीं, लेकिन प्रारम्भिक काल में उनको सिंडिकेट और प्रभावशाली वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा अनेक चुनौतियाँ मिलीं, लेकिन पारिवारिक राजनीतिक विरासत और पर्याप्त राजनीतिक अनुभव के कारण उनको एक सामान्य महिला की अपेक्षा कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

भारत में ज्यादातर महिलाओं के समक्ष अनेक ऐसी चुनौतियाँ एवं समस्याएँ हैं जिनके कारण वे ऊँचे पदों पर नहीं आ पातीं। इनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। अधिकांश कानून प्राचीन मध्यकाल और ब्रिटिशकाल में पुरुषों द्वारा बनाए गए और महिलाओं को समाज में गैर-बराबरी का दर्जा दिया गया।
  2. लड़की को जन्म से लेकर मृत्यु तक पिता, पति अथवा विधवा होने पर परिवार के किसी अन्य पुरुष, मुखिया के अधीन और बुढ़ापे में पुत्रों के अधीन रहना होता है। लड़कियों की शिक्षा की उपेक्षा की जाती थी। लड़कों की तुलना में उनके जन्म और पालन-पोषण में नकारात्मक भेद-भाव किया जाता था।
  3. सती प्रथा, बहुपत्नी विवाह, दहेज प्रथा, परदा प्रथा, कन्या वध या भ्रूण हत्या, विधवा विवाह की मनाही, अशिक्षा आदि में नारियों को समाज में पछाड़े रखा। पैतृक सम्पत्ति से उनकी बेदखली और आर्थिक रूप से पुरुषों पर उनका अवलम्बित होना, उन्हें ऊँचे पदों पर आने से दूर रखने में महत्त्वपूर्ण कारक साबित हुए।
  4. भारत में पुरुषों की संकीर्ण मानसिकता के कारण वे महिलाओं को सरकारी नौकरियाँ, विशेषकर ऊँचे पदों पर नहीं देखना चाहते।
  5. किसी भी देश की राजनीतिक कार्यकारिणी में आज भी महिलाओं के लिए स्थान सुरक्षित नहीं हैं जबकि कम-से-कम 40 से 50 प्रतिशत स्थान सुरक्षित होने चाहिए। स्त्री और पुरुष दोनों तरह के प्रमुख नेताओं की कथनी एवं करनी में जमीन-आसमान का अन्तर है।

वर्तमान में धीरे-धीरे महिलाएँ देश के ऊँचे पदों-प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री, राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा सभापति जैसे पदों पर आसीन रह चुकी हैं, परन्तु अभी भी देश में ऊँचे पदों पर ज्यादा महिलाएँ नहीं हैं।

प्रश्न 2.
त्रिशंकु विधानसभा और गठबन्धन सरकार की इन बातों में नया क्या है? ऐसी बातें तो हम आए दिन सुनते रहते हैं।
उत्तर:
भारत में सन् 1967 के चुनावों से गठबन्धन की राजनीति सामने आयी। इन चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, इसलिए अनेक गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने एकजुट होकर संयुक्त विधायक दल बनाया और गैर-कांग्रेसी सरकारों को समर्थन किया। इसी कारण सरकारों को संयुक्त विधायक दल की सरकार कहा गया। लेकिन वर्तमान समय में भारतीय दलीय व्यवस्था का स्वरूप बदल गया। बहुदलीय व्यवस्था होने के कारण केन्द्र और राज्यों में किसी भी दल को स्प्ष्ट बहुमत नहीं मिल पाता और त्रिशंकु विधानसभा या संसद का निर्माण हो रहा है। इसलिए आज गठबन्धन सरकार या त्रिशंकु संसद आम बात हो गई है।

प्रश्न 3.
इसका मतलब यह है कि राज्य स्तर के नेता पहले के समय में भी ‘किंगमेकर’ थे और इसमें कोई नयी बात नहीं है। मैं तो सोचती थी कि ऐसा केवल 1990 के दशक में हुआ।
उत्तर:
पार्टी के ऐसे ताकतवर नेता जिनका पार्टी संगठन पर पूर्ण नियन्त्रण होता है उन्हें ‘किंगमेकर’ कहा जाता है। प्रधानमन्त्री या मुख्यमन्त्री की नियुक्ति में इनकी विशेष भूमिका होती है।

भारत में राज्य स्तर पर किंगमेकर्स की शुरुआत केवल 1990 के दशक में नहीं बल्कि इससे पहले भी इस प्रकार की स्थिति पायी जाती थी। भारत में पहले कांग्रेसी नेताओं के एक समूह को अनौपचारिक तौर पर सिंडिकेट के नाम से इंगित किया जाता था। इस समूह के नेताओं का पार्टी के संगठन पर नियन्त्रण था। मद्रास प्रान्त के कामराज, बम्बई सिटी के एस० के० पाटिल, मैसूर के एस० निजलिंगप्पा, आन्ध्र प्रदेश के एन० संजीव रेड्डी और पश्चिम बंगाल के अतुल्य घोष इस संगठन में शामिल थे। लालबहादुर शास्त्री एवं श्रीमती इन्दिरा गांधी, दोनों ही सिंडीकेट की सहायता से प्रधानमन्त्री पद पर आरूढ़ हुए। इन्दिरा गांधी के पहले मन्त्रिपरिषद् में इस समूह की निर्णायक भूमिका रही।

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प्रश्न 4.
‘गरीबी हटाओ’ का नारा तो अब से लगभग चालीस साल पहले दिया गया था। क्या यह नारा महज एक चुनावी छलावा था?
उत्तर:
‘गरीबी हटाओ’ का नारा श्रीमती इन्दिरा गांधी ने तत्कालीन समय व परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दिया। इन्होंने विपक्षी गठबन्धन द्वारा दिए गए ‘इन्दिरा हटाओ’ नारे के विपरीत लोगों के सामने एक सकारात्मक कार्यक्रम रखा और इसे अपने प्रसिद्ध नारे ‘गरीबी हटाओ’ के जरिए एक शक्ल प्रदान की। – इन्दिरा गांधी ने सार्वजनिक क्षेत्र की संवृद्धि, ग्रामीण भू-स्वामित्व और शहरी सम्पदा के परिसीमन, आय और अवसरों की असमानता की समाप्ति तथा प्रिवीपर्स की समाप्ति पर अपने चुनाव अभियान में जोर दिया।

गरीबी हटाओ के नारे से श्रीमती गांधी ने वंचित तबकों खासकर भूमिहीन किसान, दलित और आदिवासियों, अल्पसंख्यक महिलाओं और बेरोजगार नौजवानों के बीच अपने समर्थन का आधार तैयार करने की कोशिश की। गरीबी हटाओ का नारा और इससे जुड़ा कार्यक्रम इन्दिरा गांधी की राजनीतिक रणनीति थी। इसके सहारे वे अपने लिए देशव्यापी राजनीतिक समर्थन की बुनियाद तैयार करना चाहती थीं। यह नारा लम्बे समय तक नहीं चल पाया। सन् 1971 के भारत-पाक युद्ध और विश्व स्तर पर पैदा हुए तेल संकट के कारण गरीबी हटाओ का नारा कमजोर पड़ गया। सन् 1971 में इन्दिरा गांधी द्वारा दिया गया यह नारा महज पाँच साल के अन्दर ही असफल हो गया और सन् 1977 में इन्दिरा गांधी को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा। इस प्रकार यह नारा महज एक चुनावी छलावा साबित हुआ।

प्रश्न 5.
यह तो कुछ ऐसा ही है कि कोई मकान की बुनियाद और छत बदल दे फिर भी कहे कि मकान वही है। पुरानी और नयी कांग्रेस में कौन-सी चीज समान थी?
उत्तर:
सन् 1969 में कांग्रेस के विभाजन तथा कामराज योजना के तहत कांग्रेस पार्टी की पुनर्स्थापना करने का प्रयास किया। श्रीमती इन्दिरा गांधी और उनके साथ अन्य युवा नेताओं ने कांग्रेस पार्टी को नया स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया। यह पार्टी पूर्णतः अपने सर्वोच्च नेता की लोकप्रियता पर आश्रित थी। पुरानी कांग्रेस की तुलना में इसका सांगठनिक ढाँचा कमजोर था। अब इस पार्टी के भीतर कई गुट नहीं थे। अर्थात् अब यह कांग्रेस विभिन्न मतों और हितों को एक साथ लेकर चलने वाली पार्टी नहीं थी।

इस प्रकार इन्दिरा कांग्रेस के बारे में यह कहा जा सकता है कि इसकी बुनियाद और छत बदल दी गई थी, लेकिन मकान वही था। पुरानी और नई कांग्रेस में एक बात समान थी कि दोनों को ही लोकप्रियता में समान स्थान प्राप्त था।

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 5 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पण्डित जवाहरलाल नेहरू के बाद राजनीतिक उत्तराधिकार पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर:
पण्डिल जवाहरलाल नेहरू अपने चामत्कारिक व्यक्तित्व व जनता की उनमें गहरी आस्था होने के कारण भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री बने। नेहरू सन् 1947 से सन् 1964 तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे। मई 1964 में नेहरू की मृत्यु के समय देश की राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ ठीक नहीं थीं।

नेहरू की मृत्यु के बाद यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि भारत में कांग्रेस पार्टी में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ जाएगा और कांग्रेस पार्टी बिखर जाएगी। लेकिन यह सब गलत साबित हुआ और पं० नेहरू की मृत्यु के बाद उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में पहले लालबहादुर शास्त्री तथा बाद में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सफलतापूर्वक कार्य किया।

1. श्री लालबहादुर शास्त्री-लालबहादुर शास्त्री ने 6 जून, 1964 को भारत के प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली। शास्त्री जी एक साधारण परिवार से थे। वह पक्के नेहरूवादी समाजवादी थे और इसीलिए वे भारतीय जनता के हृदय-सम्राट बन गए।

शास्त्री जी गांधी जी के शिष्य तथा नेहरू जी के प्रशंसक थे। वे बड़े दृढ़ विचारों वाले थे। जब शास्त्री जी ने नेहरू जी की मृत्यु के बाद कार्यभार संभाला उस समय देश अनेक संकटों का सामना कर रहा था। देश में अनाज की कमी थी। सन् 1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद देश का मनोबल नीचा था, सीमा क्षेत्रों में तनाव कम नहीं हुआ था, अमेरिका पाकिस्तान का खुलकर समर्थन कर रहा था। शास्त्री जी ने इन चुनौतियों का दृढ़तापूर्वक सामना किया। शास्त्री जी ने पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि पर ध्यान देने को कहा। उन्होंने स्वयं भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् के पुनर्गठन का निरीक्षण किया। शास्त्री जी ने कृषि पर बल देते हुए ‘अधिक अन्न उगाओ’ के साथ ही ‘जय जवान जय किसान’ का प्रसिद्ध नारा भी दिया।

शास्त्री जी की सरल एवं उदार छवि के कारण पाकिस्तान ने सन् 1965 में जम्मू-कश्मीर पर भयंकर आक्रमण कर दिया। परन्तु शास्त्री जी की सूझबूझ एवं कुशल नेतृत्व से भारत ने न केवल पाकिस्तान का साहसपूर्वक सामना ही किया, बल्कि युद्ध से विजयी होकर उभरे। सोवियत संघ के प्रयासों से सन् 1966 में भारत-पाकिस्तान के बीच ताशकन्द में समझौता हुआ और ताशकन्द में ही जनवरी 1966 में शास्त्री जी की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई।

2. श्रीमती इन्दिरा गांधी-शास्त्री जी की मृत्यु के बाद एक बार फिर राजनीतिक उत्तराधिकार का प्रश्न उत्पन्न हो गया। अधिकांश कांग्रेसी नेताओं की यह राय थी कि पण्डित नेहरू की बेटी श्रीमती इन्दिरा गांधी को देश का प्रधानमन्त्री बनाया जाए। फलत: श्रीमती इन्दिरा गांधी को प्रधानमन्त्री बनाया गया।

सन् 1967 में होने वाले लोकसभा के चुनावों के बाद भी श्रीमती इन्दिरा गांधी देश की प्रधानमन्त्री बनी रहीं। अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में श्रीमती गांधी ने ऐसे कई कार्य किए जिससे देश प्रगति कर सके। इन्होंने कृषि कार्यों को बढ़ावा दिया। गरीबी को हटाने के लिए कार्यक्रम घोषित किया तथा देश की सेनाओं का आधुनिकीकरण किया। सन् 1974 में पोखरण में ऐतिहासिक परमाणु परीक्षण किया। श्रीमती गांधी को सन् 1971 में असामान्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। पूर्वी पाकिस्तान के कारण भारत एवं पाकिस्तान के मध्य भयंकर युद्ध शुरू हो गया। सन् 1971 का युद्ध भारत एवं श्रीमती गांधी के लिए निर्णायक युद्ध साबित हुआ तथा इस युद्ध के जीतने पर विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ गई।

इस तरह पण्डित नेहरू के बाद राजनीतिक उत्तराधिकार की समस्या को सरलता से हल कर लिया गया तथा उत्तराधिकारी कुशल नेतृत्व प्रदान कर देश को प्रगति और विकास की दिशा में ले गए।

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प्रश्न 2.
सन् 1971 के आम चुनाव व देश की राजनीति में कांग्रेस के पुनर्स्थापन से जुड़ी राजनीतिक घटनाओं व परिणामों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
सन् 1971 के आम चुनाव व देश की राजनीति में कांग्रेस के पुनर्स्थापन से जुड़ी राजनीतिक घटनाओं व परिणामों का विवरण निम्नवत् है-

1. सन् 1971 का आम चुनाव-इन्दिरा गांधी ने दिसम्बर 1970 में लोकसभा भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति से की थी। वह अपनी सरकार के लिए जनता का पुन: आदेश प्राप्त करना चाहती थी। फरवरी 1971 में पाँचवीं लोकसभा का आम चुनाव हुआ।

2. कांग्रेस तथा ग्रैण्ड अलायंस में मुकाबला-चुनावी मुकाबला कांग्रेस (आर) के विपरीत जान पड़ रहा था। आखिर नई कांग्रेस एक जर्जर होती हुई पार्टी का एक भाग भर थी। हर किसी को भरोसा था कि कांग्रेस पार्टी की असली सांगठनिक शक्ति कांग्रेस (ओ) के नियन्त्रण में है। इसके अलावा, सभी बड़ी गैर-साम्यवादी तथा गैर-कांग्रेसी विपक्षी पार्टियों ने एक चुनावी गठबन्धन बना लिया था। इसे ‘ग्रैण्ड अलायंस’ कहा गया। इससे इन्दिरा गांधी के लिए स्थिति और कठिन हो गई। एस०एस०पी०, पी०एस०पी०, भारतीय जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी एवं भारतीय क्रान्ति दल चुनाव में एक छतरी के नीचे आ गए। शासक दल ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गठजोड़ किया।

3. दोनों राजनीतिक खेमों में अन्तर-इसके बावजूद नई कांग्रेस के साथ एक ऐसी बात थी, जिसका उनके विपक्षियों के पास अभाव था। नयी कांग्रेस के पास एक मुद्दा था, एक एजेण्डा तथा कार्यक्रम था। ‘ग्रैण्ड अलायंस’ के पास कोई सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था। इन्दिरा गांधी ने देश भर में घूम-घूम कर कहा था कि विपक्षी गठबन्धन के पास बस एक ही कार्यक्रम है-‘इन्दिरा हटाओ’।

4. चुनाव के परिणाम-सन् 1971 के लोकसभा चुनावों के परिणाम उतने ही नाटकीय थे, जितना इन चुनावों को करवाने का फैसला। अपनी भारी-भरकम जीत के साथ इन्दिरा जी की अगुवाई वाली कांग्रेस ने अपने दावे को साबित कर दिया कि वही ‘असली कांग्रेस’ है तथा उसे भारतीय राजनीति में फिर से प्रभुत्व के स्थान पर पुनर्स्थापित किया। विपक्षी ग्रैण्ड अलायंस धराशायी हो गया था। इसे 40 से भी कम सीटें मिली थीं।

5. बंगलादेश का निर्माण तथा भारत-पाक युद्ध-सन् 1971 के लोकसभा चुनावों के तुरन्त बाद पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बंगलादेश है) में एक बड़ा राजनीतिक तथा सैन्य संकट उठ खड़ा हुआ। सन् 1971 के चुनावों के बाद पूर्वी पाकिस्तान में संकट पैदा हुआ तथा भारत-पाक के मध्य युद्ध छिड़ गया।

6. राज्यों में कांग्रेस की पुनर्स्थापना-सन् 1972 के राज्य विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को व्यापक सफलता मिली। इन्दिरा जी को गरीबों तथा वंचितों के रक्षक और एक मजबूत राष्ट्रवादी नेता के रूप में देखा गया। पार्टी के अन्दर अथवा बाहर उनके विरोध की कोई गुंजाइश नहीं बची। कांग्रेस लोकसभा के चुनावों में जीती थी तथा राज्य स्तर के चुनावों में भी। इन दो लगातार जीतों के साथ कांग्रेस का दबदबा एक बार फिर कायम रहा। कांग्रेस अब लगभग सभी राज्यों में सत्ता में थी। समाज के विभिन्न वर्गों में यह लोकप्रिय भी थी। महज चार साल की अवधि में इन्दिरा गांधी ने अपने नेतृत्व तथा कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व के सामने खड़ी चुनौतियों को धूल चटा दी थी। जीत के बाद इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस प्रणाली को पुनर्स्थापित अवश्य किया, लेकिन कांग्रेस प्रणाली की प्रकृति को बदलकर।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सन् 1967 के चौथे आम चुनाव में कांग्रेस दल की मुख्य चुनौतियाँ बताइए। अथवा भारत में सन् 1967 के चुनाव परिणामों को राजनीतिक भूचाल क्यों कहा गया?
उत्तर:
भारत में चौथे आम चुनाव सन् 1967 में हुए। इस चुनाव में कांग्रेस दल की मुख्य चुनौतियाँ इस प्रकार रहीं-

  1. इन चुनावों में भारतीय मतदाताओं ने कांग्रेस को वैसा समर्थन नहीं दिया, जो पहले तीन आम चुनावों में दिया था।
  2. लोकसभा की कुल 520 सीटों में से कांग्रेस को केवल 238 सीटें ही मिल पायीं तथा मत प्रतिशत में भी भारी गिरावट आई।
  3. इन्दिरा गांधी के मन्त्रिमण्डल के आधे मन्त्री चुनाव हार गए थे।
  4. इसके साथ-साथ कांग्रेस को 8 राज्य विधानसभाओं में हार का सामना करना पड़ा। इसलिए अनेक राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने इन अप्रत्याशित चुनाव परिणामों को राजनीतिक भूचाल की संज्ञा दी।

प्रश्न 2.
सिंडिकेट पर दक्षिणपन्थियों से गुप्त समझौते करने के आरोप क्यों लगे?
उत्तर:
कांग्रेस ने जब राष्ट्रपति पद के लिए नीलम संजीव रेड्डी को आधिकारिक उम्मीदवार घोषित किया, तो कार्यवाहक राष्ट्रपति वी०वी० गिरि ने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। सिंडिकेट को यह लगा कि वी०वी० गिरि श्रीमती गांधी के समर्थन से जीत न जाएँ। अत: निजलिंगप्पा ने इस विषय में जनसंघ तथा स्वतन्त्र पार्टी जैसी दक्षिणपन्थी पार्टियों से बातचीत की तथा उनसे अनुरोध किया कि वे अपना मत नीलम संजीव रेड्डी के पक्ष में डालें। इस पर जगजीवन राम तथा फखरुद्दीन अहमद ने सिंडिकेट पर दक्षिणपन्थियों के साथ गुप्त समझौता करने का आरोप लगाया।

प्रश्न 3.
लालबहादुर शास्त्री के जीवन पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
लालबहादुर शास्त्री (1904-1966)-श्री लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को हुआ। सन् 1930 से स्वतन्त्रता आन्दोलन में भागीदारी की और उत्तर प्रदेश मन्त्रिमण्डल में मन्त्री रहे। उन्होंने कांग्रेस पार्टी के महासचिव का पदभार सँभाला। वे सन् 1951-56 तक केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में मन्त्री पद पर रहे। इसी दौरान रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इन्होंने रेल मन्त्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। सन् 1957-64 के बीच वह मन्त्री पद पर रहे। उन्होंने ‘जय जवान-जय किसान’ का मशहूर नारा दिया। जून 1964 से अक्टूबर 1966 तक वह भारत के प्रधानमन्त्री पद पर रहे।

प्रश्न 4.
श्रीमती इन्दिरा गांधी के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए लालबहादुर शास्त्री के उत्तराधिकारी के रूप में श्रीमती इन्दिरा गांधी पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
श्रीमती इन्दिरा गांधी का संक्षिप्त परिचय-इन्दिरा प्रियदर्शनी सन् 1917 में जवाहरलाल नेहरू के परिवार में उत्पन्न हुईं। वे शास्त्री जी के देहान्त के बाद भारत की पहली महिला प्रधानमन्त्री बनीं। सन् 1966 से 1977 तक और फिर सन् 1980 से सन् 1984 तक वे भारत की प्रधानमन्त्री रहीं। युवा कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में स्वतन्त्रता आन्दोलन में श्रीमती इन्दिरा गांधी की भागीदारी रही। सन् 1958 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर आसीन हुईं तथा सन् 1964 से 1966 तक शास्त्री मन्त्रिमण्डल में केन्द्रीय मन्त्री के पद पर रहीं।

सन् 1967, 1971 और 1980 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में सफलता प्राप्त की। इन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का लुभावना नारा दिया, सन् 1971 के युद्ध में विजय का श्रेय और प्रिवीपर्स की समाप्ति, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, आण्विक परीक्षण तथा पर्यावरण संरक्षण के कदम उठाए। 31 अक्टूबर, 1984 के दिन इनकी हत्या कर दी गई।

प्रश्न 5.
दल-बदल पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। अथवा ‘आया राम-गया राम’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
दल-बदल-भारत की रणनीति में ध्यानाकर्षण करने वाली कुरीति (बुराई) दल-बदल रही है। सन् 1967 के आम चुनाव की एक खास बात दल-बदल की रही। इस विशेषता के कारण कई राज्यों में सरकारों के बनने और बिगड़ने की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ दृष्टिगोचर हुईं।

जब कोई जन-प्रतिनिधि किसी विशेष राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिह्न लेकर चुनाव लड़े और वह चुनाव जीत जाए और अपने निजी स्वार्थ के लिए या किसी अन्य कारण से मूल दल छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल हो जाए, तो इसे ‘दल-बदल’ कहते हैं।

सन् 1967 के आम चुनावों के बाद कांग्रेस को छोड़ने वाले विधायकों ने तीन राज्यों-हरियाणा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में गैर-कांग्रेसी सरकारों को गठित करने में अहम भूमिका निभाई। इस दल-बदल के कारण ही देश में एक मुहावरा या लोकोक्ति–“आया राम-गया राम” बहुत प्रसिद्ध हो गया।

प्रश्न 6.
के० कामराज पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
के० कामराज-के० कामराज का जन्म सन् 1903 में हुआ था। ये देश के महान स्वतन्त्रता सेनानी थे। इन्होंने कांग्रेस के एक प्रमुख नेता के रूप में अत्यधिक ख्याति प्राप्त की।

इन्हें मद्रास (तमिलनाडू) के मुख्यमन्त्री के पद पर रहने का अवसर मिला। मद्रास प्रान्त में शिक्षा का प्रसार और स्कूली बच्चों को दोपहर का भोजन देने की योजना लागू करने के लिए इन्हें अत्यधिक ख्याति प्राप्त हुई।

इन्होंने सन् 1963 में कामराज योजना नाम से मशहूर एक प्रस्ताव रखा जिसमें इन्होंने सभी वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को त्यागपत्र दे देने का सुझाव दिया, ताकि जो कांग्रेस पार्टी के युवा कार्यकर्ता हैं वे पार्टी की कमान संभाल सकें। ये कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। सन् 1975 में इनका देहान्त हो गया।

प्रश्न 7.
सन् 1969 में कांग्रेस पार्टी के विभाजन के क्या कारण थे?
उत्तर:
कांग्रेस पार्टी के विभाजन के कारण-सन् 1969 में कांग्रेस पार्टी में विभाजन या फूट के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. दक्षिणपन्थी एवं वामपन्थी विषय पर कलह-कांग्रेस के कुछ सदस्यों का यह विचार था कि राज्यों में कांग्रेस को दक्षिणपन्थी विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहिए, जबकि कुछ अन्य कांग्रेसियों का यह मत था कि कांग्रेस को वामपन्थी विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चलना चाहिए।
  2. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के विषय में मतभेद-कांग्रेस में सन् 1967 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मतभेद था। श्रीमती इन्दिरा गांधी जहाँ जाकिर हुसैन को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाना चाहती थीं वहीं सिंडिकेट इसकी विरोधी थी।
  3. युवा तुर्क और सिंडिकेट के बीच कलह-युवा तुर्क और सिंडिकेट के मध्य मतभेद रहा। जहाँ युवा तुर्क बैंकों के राष्ट्रीयकरण एवं राजाओं के प्रिवीपर्स को समाप्त करने के पक्ष में था वहीं सिंडिकेट इसका विरोध कर रहा था।
  4. मोरारजी देसाई से वित्त विभाग वापस लेना-सन् 1969 में श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा मोरारजी देसाई से वित्त विभाग वापस लेने के कारण भी मतभेद रहा।

प्रश्न 8.
प्रिवीपर्स का क्या अर्थ है? सन् 1970 में इन्दिरा गांधी इसे क्यों समाप्त करना चाहती थीं?
उत्तर:
प्रिवीपर्स से आशय-भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय देश में 565 रजवाड़े एवं रियासतें थीं। इन रियासतों को भारतीय संघ में शामिल किया गया तथा इनके तत्कालीन शासकों को जीवन-यापन हेतु विशेष धनराशि एवं भत्ते दिए जाने की व्यवस्था की गई। इसे ‘प्रिवीपर्स’ के नाम से जाना जाता है।

प्रिवीपर्स की समाप्ति-श्रीमती इन्दिरा गांधी ने प्रिवीपर्स को समाप्त करने का समर्थन किया। इस व्यवस्था की समाप्ति के लिए सरकार ने सन् 1970 में संविधान में संशोधन का प्रयास किया, लेकिन राज्य सभा में ये मंजूरी नहीं पा सका। इसके बाद सरकार ने अध्यादेश जारी किया, लेकिन इसे सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इसे सन् 1971 के चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनाया और इस मुद्दे पर उन्हें जन-समर्थन भी खूब प्राप्त हुआ। सन् 1971 में मिली भारी जीत के बाद संविधान में संशोधन हुआ और इस प्रकार प्रिवीपर्स की समाप्ति की राह में मौजूदा कानूनी अड़चनें समाप्त हुईं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
गैर-कांग्रेसवाद से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
गैर-कांग्रेसवाद वह राजनीतिक विचारधारा है जो मुख्यत: कांग्रेस विरोधी और उसे सत्ता से अलग करने के लिए समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया द्वारा प्रस्तुत की गई।

प्रश्न 2.
कांग्रेस सिंडिकेट से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
कांग्रेस सिंडिकेट-कांग्रेस पार्टी के नेता जिनमें कामराज, एस०के० पाटिल, निजलिंगप्पा तथा मोरारजी देसाई (इनमें कुछ को हम इन्दिरा विरोधी भी कह सकते हैं) आदि के समूह को कांग्रेस सिंडिकेट के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 3.
ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्राध्यक्षों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री
  2. पाकिस्तान के जनरल अयूब खान।

प्रश्न 4.
राममनोहर लोहिया कौन थे?
उत्तर:
राममनोहर लोहिया समाजवादी नेता व विचारक थे। ये सन् 1963 से सन् 1967 तक लोकसभा के सदस्य रहे। ये गैर-कांग्रेसवाद के रणनीतिकार थे। इन्होंने नेहरू की नीतियों का विरोध किया।

प्रश्न 5.
कांग्रेस के युवा तुर्क के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
युवा तुर्क कांग्रेस के युवाओं से सम्बन्धित था। इसमें चन्द्रशेखर, चरणजीत यादव, मोहन धारिया, कृष्णकान्त एवं आर०के० सिन्हा जैसे युवा कांग्रेसी शामिल थे। युवा तुर्क ने समय-समय पर श्रीमती गांधी का साथ दिया।

प्रश्न 6.
किन्हीं चार राज्यों के नाम लिखिए जहाँ सन् 1967 के चुनावों के बाद गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं।
उत्तर:

  1. पंजाब,
  2. राजस्थान,
  3. उत्तर प्रदेश,
  4. पश्चिम बंगाल।

प्रश्न 7.
10-सूत्री कार्यक्रम कब और क्यों लागू किया गया?
उत्तर:
10-सूत्री कार्यक्रम श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा सन् 1967 में कांग्रेस की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने के लिए लागू किया गया।

प्रश्न 8.
किन्हीं चार राज्यों के नाम लिखिए जहाँ सन् 1967 के चुनाव के बाद कांग्रेसी सरकारें बनीं।
उत्तर:

  1. महाराष्ट्र,
  2. आन्ध्र प्रदेश,
  3. मध्य प्रदेश,
  4. गुजरात।

प्रश्न 9.
सन् 1966 में कांग्रेस दल के वरिष्ठ नेताओं ने प्रधानमन्त्री के पद के लिए श्रीमती गांधी का साथ क्यों दिया?
उत्तर:
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सम्भवत: यह सोचकर सन् 1966 में श्रीमती गांधी का साथ प्रधानमन्त्री पद के लिए दिया कि प्रशासनिक और राजनीतिक मामलों में खास अनुभव नहीं होने के कारण समर्थन व दिशा-निर्देशन के लिए वे उन पर निर्भर रहेंगी।

प्रश्न 10.
‘आया राम-गया राम’ किस वर्ष से सम्बन्धित घटना है तथा यह टिप्पणी किस व्यक्ति के सम्बन्ध में की गई?
उत्तर:
‘आया राम-गया राम’ सन् 1967 के वर्ष से सम्बन्धित घटना है। ‘आया राम-गया राम’ नामक टिप्पणी कांग्रेस के हरियाणा राज्य के एक विधायक गया लाल के सम्बन्ध में की गई थी।

प्रश्न 11.
‘आया राम-गया राम’ की टिप्पणी गया लाल के सम्बन्ध में क्यों की गई?
उत्तर:
सन् 1967 के चुनावों के बाद हरियाणा के विधायक गया लाल ने एक पखवाड़े में तीन बार ‘ पार्टियाँ बदली। गया लाल के इस कृत्य को ‘आया राम-गया राम’ जुमले में हमेशा के लिए दर्ज कर लिया गया।

प्रश्न 12.
1969-1971 के दौरान इन्दिरा गांधी की सरकार द्वारा सामना किए जाने वाले किन्हीं दो समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. इनके समक्ष सिंडिकेट (मोरारजी देसाई के प्रभुत्व वाले कांग्रेस का दक्षिणपन्थी गुट) के प्रभाव से मुक्त होकर अपना निजी मुकाम बनाने की चुनौती थी।
  2. कांग्रेस ने सन् 1967 के चुनावों में जो जमीन खोई थी उसे वापस हासिल करना था।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व केन्द्र में कब तक रहा-
(a) 1947 से 1990 तक
(b) 1947 से 1960 तक
(c) 1947 से 1977 तक
(d) 1947 से 1980 तक।
उत्तर:
(c) 1947 से 1977 तक।

प्रश्न 2.
गरीबी हटाओ का नारा किसने दिया-
(a) सुभाषचन्द्र बोस ने
(b) लालबहादुर शास्त्री ने
(c) जवाहरलाल नेहरू ने
(d) इन्दिरा गांधी ने।
उत्तर:
(d) इन्दिरा गांधी ने।

प्रश्न 3.
भारत ने प्रथम परमाणु परीक्षण कब किया-
(a) सन् 1974 में
(b) सन् 1975 में
(c) सन् 1976 में
(d) सन् 1977 में।
उत्तर:
(a) सन् 1974 में।

प्रश्न 4.
‘जय जवान-जय किसान’ का नारा किसने दिया-
(a) लालबहादुर शास्त्री ने
(b) इन्दिरा गांधी ने
(c) जवाहरलाल नेहरू ने
(d) मोरारजी देसाई ने।
उत्तर:
(a) लालबहादुर शास्त्री ने।

प्रश्न 5.
बंगलादेश का निर्माण हुआ-
(a) सन् 1966 में
(b) सन् 1970 में
(c) सन् 1971 में
(d) सन् 1972 में।
उत्तर:
(c) सन् 1971 में।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations (भारत के विदेश संबंद)

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
इन बयानों के आगे सही या गलत का निशान लगाएँ
(क) गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण भारत, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका, दोनों की सहायता हासिल कर सका।
(ख) अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बन्ध शुरुआत से ही तनावपूर्ण रहे।
(ग) शीतयुद्ध का असर भारत-पाक सम्बन्धों पर भी पड़ा।
(घ) 1971 की शान्ति और मैत्री की सन्धि संयुक्त राज्य अमेरिका से भारत की निकटता का परिणाम थी। उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) सही,
(घ) गलत।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित का सही जोड़ा मिलाएँ-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations 3
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 India’s External Relations 4

प्रश्न 3.
नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतन्त्रता का एक अनिवार्य संकेत क्यों मानते थे? अपने उत्तर में दो कारण बताएँ और उनके पक्ष में उदाहरण भी दें।
उत्तर:
नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतन्त्रता का एक अनिवार्य संकेत इसलिए मानते थे कि स्वतन्त्रता किसी भी देश की विदेश नीति के संचालन की प्रथम एवं अनिवार्य शर्त है। स्वतन्त्रता से तात्पर्य है राष्ट्र के पास प्रभुसत्ता का होना तथा प्रभुसत्ता के दो पक्ष हैं-

  1. आन्तरिक सम्प्रभुता, और
  2. बाह्य सम्प्रभुता।

आन्तरिक प्रभुसत्ता (सम्प्रभुता) उसे कहा जाता है जब कोई राष्ट्र बिना किसी बाह्य तथा आन्तरिक दबाव के अपनी राष्ट्रीय नीतियों, कानूनों का निर्धारण स्वतन्त्रतापूर्वक कर सके और बाह्य प्रभुसत्ता (सम्प्रभुता) उसे कहते हैं जब कोई राष्ट्र अपनी विदेश नीति को स्वतन्त्रतापूर्वक बिना किसी दबाव के निर्धारित कर सके। एक पराधीन देश अपनी विदेश नीति का संचालन स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं कर सकता क्योंकि वह दूसरे देशों के अधीन होता है।

दो कारण और उदाहरण

(1) जो देश किसी दबाव में आकर अपनी विदेश नीति का निर्धारण करता है तो उसकी स्वतन्त्रता निरर्थक होती है तथा एक प्रकार से दूसरे देश के अधीन हो जाता है व उसे अनेक बार अपने राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी करनी पड़ती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर नेहरू ने शीतयुद्ध काल में किसी भी गुट में शामिल न होने और असंलग्नता की नीति को अपनाकर दोनों गुटों के दबाव को नहीं माना।

(2) भारत स्वतन्त्र नीति को इसलिए अनिवार्य मानता था ताकि देश में लोकतन्त्र, कल्याणकारी राज्य के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उपनिवेशवाद, जातीय भेदभाव, रंग-भेदभाव का मुकाबला डटकर किया जा सके। भारत ने सन् 1949 में साम्यवादी चीन को मान्यता प्रदान की तथा सुरक्षा परिषद् में उसकी सदस्यता का समर्थन किया और सोवियत संघ ने हंगरी पर जब आक्रमण किया तो उसकी निन्दा की।

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प्रश्न 4.
“विदेश नीति का निर्धारण घरेलू जरूरत और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में दोहरे दबाव में होता है।” 1960 के दशक में भारत द्वारा अपनाई गई विदेश नीति से एक उदाहरण देते हुए अपने उत्तर की पुष्टि करें।
उत्तर:
जिस तरह किसी व्यक्ति या परिवार के व्यवहारों को अन्दरूनी और बाहरी कारक निर्देशित करते हैं उसी तरह एक देश की विदेश नीति पर भी घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण का असर पड़ता है। विकासशील देशों के पास अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भीतर अपने सरोकारों को पूरा करने के लिए जरूरी संसाधनों का अभाव होता है। इसके चलते वे बढे-चढे देशों की अपेक्षा बड़े सीधे-सादे लक्ष्यों को लेकर अपनी विदेश नीति तय करते हैं। ऐसे देशों का जोर इस बात पर होता है कि उनके पड़ोस में अमन-चैन कायम रहे और विकास होता रहे।

भारत ने 1960 के दशक में जो विदेश नीति निर्धारित की उस पर चीन एवं पाकिस्तान के युद्ध, अकाल, राजनीतिक परिस्थितियाँ तथा शीतयुद्ध का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाना भी इसका उदाहरण माना जा सकता है। उदाहरणार्थ-तत्कालीन समय में भारत की आर्थिक स्थिति अत्यधिक दयनीय थी, इसलिए उसने शीतयुद्ध के काल में किसी भी गुट का समर्थन नहीं किया और दोनों ही गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त करता रहा।

प्रश्न 5.
अगर आपको भारत की विदेश नीति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो आप इसकी किन बातों को बदलना चाहेंगे? ठीक इसी तरह यह भी बताएँ कि भारत की विदेश नीति के किन दो पहलुओं को आप बरकरार रखना चाहेंगे? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
भारतीय विदेश नीति में निम्नलिखित दो बदलाव लाना चाहूँगा-

  1. मैं वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति में बदलाव लाना चाहूँगा क्योंकि वर्तमान वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग में किसी भी गुट से अलग रहना देश-हित में नहीं है।
  2. मैं, भारत की विदेश नीति में चीन एवं पाकिस्तान के साथ जिस प्रकार की नीति अपनाई जा रही है उसमें बदलाव लाना चाहूँगा, क्योंकि इसके वांछित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं।

इसके अतिरिक्त मैं भारतीय विदेश नीति के निम्नलिखित दो पहलुओं को बरकरार रखना चाहूँगा-

  1. सी०टी०बी०टी० के बारे में वर्तमान दृष्टिकोण को और परमाणु नीति की वर्तमान नीति को जारी रखंगा।
  2. मैं संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता जारी रखते हुए विश्व बैंक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में सहयोग जारी रगा।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(क) भारत की परमाणु नीति।
(ख) विदेश नीति के मामले पर सर्व-सहमति।
उत्तर:
(क) भारत की परमाणु नीति-भारत ने मई 1974 और 1998 में परमाणु परीक्षण करते हुए अपनी परमाणु नीति को नई दिशा प्रदान की। इसके प्रमुख पक्ष निम्नलिखित हैं-

  1. आत्मरक्षा भारत की परमाणु नीति का प्रथम पक्ष है। भारत ने आत्मरक्षा के लिए परमाणु हथियारों का निर्माण किया, ताकि कोई अन्य देश भारत पर परमाणु हमला न कर सके।
  2. परमाणु हथियारों के प्रथम प्रयोग की मनाही भारतीय परमाणु नीति का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है। भारत ने परमाणु हथियारों का युद्ध में पहले प्रयोग न करने की घोषणा कर रखी है।
  3. भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर विश्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र बनना चाहता है।
  4. भारत परमाणु हथियार बनाकर विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है।
  5. परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों की भेदभावपूर्ण नीति का विरोध करना।
  6. पड़ोसी राष्ट्रों से सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत को अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु हथियार बनाने का हक है।

(ख) विदेश नीति के मामले पर सर्व-सहमति-विदेश नीति के मामलों पर सर्व-सहमति आवश्यक है क्योंकि यदि एक देश की विदेश नीति के मामलों में सर्व-सहमति नहीं होगी, तो वह देश अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर अपना पक्ष प्रभावशाली ढंग से नहीं रख पाएगा। भारत की विदेश नीति के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं जैसे गुटनिरपेक्षता, साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध, दूसरे देशों में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाना तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बढ़ावा देना इत्यादि पर सदैव सर्व-सहमति रही है।

प्रश्न 7.
भारत की विदेश नीति का निर्माण शान्ति और सहयोग के सिद्धान्तों को आधार मानकर हुआ। लेकिन 1962-1971 की अवधि यानी महज दस सालों में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा। क्या आपको लगता है कि यह भारत की विदेश नीति की असफलता है अथवा आप इसे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानेंगे? अपने मन्तव्य के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
भारत की विदेश नीति के निर्माण में पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अहम भूमिका निभाई। वे प्रधानमन्त्री के साथ-साथ विदेशमन्त्री भी थे। प्रधानमन्त्री और विदेशमन्त्री के रूप में सन् 1947 से 1964 तक उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना तथा उसके क्रियान्वयन पर गहरा प्रभाव डाला। उनके अनुसार विदेश नीति के तीन बड़े उद्देश्य थे-

  1. कठिन संघर्ष से प्राप्त सम्प्रभुता को बनाए रखना,
  2. क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखना।
  3. तेजी के साथ विकास (आर्थिक) करना। नेहरू जी उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर हासिल करना चाहते थे।

स्वतन्त्र भारत की विदेश नीति में शान्तिपूर्ण विश्व का सपना था और इसके लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता का पालन किया। भारत ने इसके लिए शीतयुद्ध में उपजे तनाव को कम करने की कोशिश की तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति-अभियानों में अपनी सेना भेजी। भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर स्वतन्त्र रवैया अपनाया।

दुर्भाग्यवश सन् 1962 से 1972 की अवधि में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा। सन् 1962 में चीन के साथ युद्ध हुआ। सन् 1965 में भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध करना पड़ा तथा तीसरा युद्ध सन् 1971 में भारत-पाक के मध्य ही हुआ। वास्तव में भारत की विदेश नीति का निर्माण शान्ति और सहयोग के सिद्धान्तों को आधार मानकर हुआ लेकिन सन् 1962 से 1973 की अवधि में जिन तीन युद्धों का सामना भारत को करना पड़ा उन्हें विदेश नीति की असफलता का परिणाम नहीं कहा जा सकता। बल्कि इसे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम माना जा सकता है। इसके पक्ष में तर्क इस प्रकार हैं

(1) भारत की विदेश नीति शान्ति और सहयोग के आधार पर टिकी हुई है। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धान्तों यानी पंचशील की घोषणा भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल, 1954 में की। परन्तु चीन ने विश्वासघात किया। चीन ने सन् 1956 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया। इससे भारत और चीन के बीच ऐतिहासिक रूप से जो एक मध्यवर्ती राज्य बना चला आ रहा था, वह खत्म हो गया। तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा ने भारत से राजनीतिक शरण माँगी और सन् 1959 में भारत ने उन्हें ‘शरण दी। चीन ने आरोप लगाया कि भारत सरकार अन्दरूनी तौर पर चीन विरोधी गतिविधियों को हवा दे रही है। चीन ने अक्टूबर 1962 में बड़ी तेजी से तथा व्यापक स्तर पर भारत पर हमला किया।

(2) कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के साथ बँटवारे के तुरन्त बाद ही संघर्ष छिड़ गया था। दोनों देशों के बीच सन् 1965 में कहीं ज्यादा गम्भीर किस्म के सैन्य-संघर्ष की शुरुआत हुई। परन्तु उस समय लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में भारत सरकार की विदेश नीति असफल नहीं हुई। भारतीय प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के जनरल अयूब खान के बीच सन् 1966 में ताशकन्द-समझौता हुआ। सोवियत संघ ने इसमें मध्यस्थ की भूमिका निभाई। इस प्रकार उस महान नेता की आन्तरिक नीति के साथ-साथ भारत की विदेश नीति की धाक भी जमी।

(3) बंगलादेश के मामले पर सन् 1971 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने एक सफल कूटनीतिज्ञ की भूमिका में बंगलादेश का समर्थन किया तथा एक शत्रु देश की कमर स्थायी रूप से तोड़कर यह सिद्ध किया कि युद्ध में सब जायज है तथा “हम पाकिस्तान के बड़े भाई हैं’ ऐसे आदर्शवादी नारों का व्यावहारिक तौर पर कोई स्थान नहीं है।

(4) विदेशी सम्बन्ध राष्ट्र हितों पर टिके होते हैं। राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। ऐसा भी नहीं है कि हमेशा आदर्शों का ही ढिंढोरा पीटा जाए। हम परमाणु शक्ति-सम्पन्न हैं, सुरक्षा परिषद् में स्थायी स्थान प्राप्त करेंगे तथा राष्ट्र की एकता व अखण्डता, भू-भाग, आत्म-सम्मान व यहाँ के लोगों के जान-माल की रक्षा भी करेंगे। वर्तमान परिस्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि हमें समानता से हर मंच व हर स्थान पर अपनी बात कहनी होगी तथा यथासम्भव अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सुरक्षा, सहयोग व प्रेम को बनाए रखने का प्रयास भी करना होगा।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सन् 1962-1972 के बीच तीन युद्ध भारत की विदेश नीति की असफलता नहीं बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों का ही परिणाम थे।

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प्रश्न 8.
क्या भारत की विदेश नीति से यह झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है? 1971 के बंगलादेश युद्ध के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें।
उत्तर:
भारत की विदेश नीति से यह बिल्कुल भी नहीं झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है। सन् 1971 का बंगलादेश युद्ध इस बात को बिल्कुल साबित नहीं करता। बंगलादेश के निर्माण के लिए स्वयं पाकिस्तान की पूर्वी पाकिस्तान के प्रति उपेक्षापूर्ण नीतियाँ थीं। भारत एक शान्तिप्रिय देश है। वह शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीतियों में विश्वास करता आया है।

भारत द्वारा सन् 1971 में बंगलादेश के मामले में हस्तक्षेप-अवामी लीग के अध्यक्ष शेख मुजीबुर्रहमान थे तथा सन् 1970 के चुनाव में उनके दल को बड़ी सफलता प्राप्त हुई। चुनाव परिणामों के आधार पर संविधान सभा की बैठक बुलाई जानी चाहिए थी, जिसमें मुजीब के दल को बहुमत प्राप्त था। शेख मुजीब को बन्दी बना लिया गया। उसके साथ ही अवामी लीग के और नेताओं को भी बन्दी बना लिया गया। पाकिस्तानी ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर जुल्म ढाए तथा बड़ी संख्या में वध किए गए। जनता ने सरकार के खिलाफ आवाज उठाई तथा पाकिस्तान से अलग होकर स्वतन्त्र राज्य बनाने की घोषणा की तथा आन्दोलन चलाया गया। सेना ने अपना दमन चक्र और तेज कर दिया। इस जुल्म से बचने के लिए लाखों व्यक्ति पूर्वी पाकिस्तान को छोड़कर भारत आ गए। भारत के लिए इन शरणार्थियों को सँभालना कठिन हो गया। भारत ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के प्रति नैतिक सहानुभूति दिखाई तथा उसकी आर्थिक सहायता भी की। पाकिस्तान ने भारत पर आरोप लगाया कि वह उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है। पाकिस्तान ने पश्चिमी सीमा पर आक्रमण कर दिया। भारत ने दोनों तरफ पश्चिमी और पूर्वी सीमा के पार पाकिस्तान पर जवाबी हमला किया तथा दस दिन के अन्दर ही पाकिस्तान के 90,000 सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया और बंगलादेश का उद्भव हुआ।

कुछ राजनीतिज्ञों का मत है कि भारत दक्षिण एशिया क्षेत्र में महाशक्ति की भूमिका का निर्वाह करना चाहता है। वैसे इस क्षेत्र में भारत स्वाभाविक रूप से ही एक महाशक्ति है। परन्तु भारत ने क्षेत्रीय महाशक्ति बनने की आकांक्षा कभी नहीं पाली। भारत ने बंगलादेश युद्ध के समय भी पाकिस्तान को धूल चटायी लेकिन उसके बन्दी बनाए गए सैनिकों को ससम्मान रिहा किया। भारत अमेरिका जैसी महाशक्ति बनना नहीं चाहता जिसने छोटे-छोटे देशो को अपने गुट में शामिल करने के प्रयास किए तथा अपने सैन्य संगठन बनाए। यदि भारत महाशक्ति की भूमिका का निर्वाह करना चाहता तो सन् 1965 में पाकिस्तान के विजित क्षेत्रों को वापस न करता तथा सन् 1971 के युद्ध में प्राप्त किए गए क्षेत्रों पर भी अपना दावा बनाए रखता। भारत बलपूर्वक किसी देश पर अपनी बात थोपने की विचारधारा नहीं रखता।

प्रश्न 9.
किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह उस राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है? भारत की विदेश नीति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।
उत्तर:
किसी भी देश की विदेश नीति के निर्धारण में उस देश के राजनीतिक नेतृत्व की विशेष भूमिका होती है। उदाहरण के लिए, भारत की विदेश नीति पर इसके महान् नेताओं के व्यक्तित्व का व्यापक प्रभाव पड़ा।
पण्डित नेहरू के विचारों से भारत की विदेश नीति पर्याप्त प्रभावित हुई। पण्डित नेहरू साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व फासिस्टवाद के घोर विरोधी थे और वे समस्याओं का समाधान करने के लिए शान्तिपूर्ण मार्ग के समर्थक थे। वह मैत्री, सहयोग व सह-अस्तित्व के प्रबल समर्थक थे। साथ ही अन्याय का विरोध करने के लिए शक्ति प्रयोग के समर्थक थे। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अपने विचारों द्वारा भारत की विदेश नीति के ढाँचे को ढाला।

इसी प्रकार श्रीमती इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व व व्यक्तित्व की भी भारत की विदेश नीति पर स्पष्ट छाप दिखाई देती है। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, गरीबी हटाओ का नारा दिया और रूस के साथ दीर्घ अनाक्रमण सन्धि की।

राजीव गांधी के काल में चीन, पाकिस्तान सहित अनेक देशों से सम्बन्ध सुधारने के प्रयास किए गए तथा श्रीलंका के देशद्रोहियों को दबाने में वहाँ की सरकार को सहायता देकर यह बताया कि भारत छोटे देशों की अखण्डता का सम्मान करता है।

इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति नेहरू जी की विदेश नीति से अलग न होकर लोगों को अधिक अच्छी लगी क्योंकि देश में परमाणु शक्ति का विकास हुआ। उन्होंने जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान का नारा दिया।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
गुटनिरपेक्षता का व्यापक अर्थ है अपने को किसी भी सैन्य गुट में शामिल नहीं करना…. इसका अर्थ होता है चीजों को यथासम्भव सैन्य दृष्टिकोण से नदेखना और इसकी कभी जरूरत आन पड़े तब भी किसी सैन्य गुट के नजरिए को अपनाने की जगह स्वतन्त्र रूप से स्थिति पर विचार करना तथा सभी देशों के साथ दोस्ताना रिश्ते कायम करना। -जवाहरलाल नेहरू
(क) नेहरू सैन्य गुटों से दूरी क्यों बनाना चाहते थे।
(ख) क्या आप मानते हैं कि भारत-सोवियत मैत्री की सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन हुआ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
(ग) अगर सैन्य-गुट न होते तो क्या गुटनिरपेक्षता की नीति बेमानी होती?
उत्तर:
(क) नेहरू सैन्य गुटों से दूरी बनाना चाहते थे क्योंकि वे किसी भी सैन्य गुट में शामिल न होकर एक स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन करना चाहते थे।
(ख) भारत-सोवियत मैत्री सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं हुआ क्योंकि इस सन्धि के पश्चात् भी भारत गुटनिरपेक्षता के मौलिक सिद्धान्तों पर कायम रहा तथा जब सोवियत संघ की सेनाएँ अफगानिस्तान में पहुँची तो भारत ने इसकी आलोचना की।
(ग) यदि विश्व में सैन्य गुट नहीं होते तो भी गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता बनी रहती क्योंकि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना शान्ति एवं विकास के लिए की गई थी तथा शान्ति एवं विकास के लिए चलाया गया कोई भी आन्दोलन कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकता।

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
चौथे अध्याय में एक बार फिर से जवाहरलाल नेहरू। क्या वे कोई सुपरमैन थे, या उनकी भूमिका महिमा-मण्डित कर दी गई है?
उत्तर:
जवाहरलाल नेहरू वास्तव में एक सुपरमैन की भूमिका में ही थे। उन्होंने न केवल भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी बल्कि स्वतन्त्रता के बाद भी उन्होंने राष्ट्रीय एजेण्डा तय करने में निर्णायक भूमिका निभायी। नेहरू जी प्रधानमन्त्री के साथ-साथ विदेशमन्त्री भी थे। उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना और उसके क्रियान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। नेहरू जी की विदेश नीति के तीन बड़े उद्देश्य थे-

  1. कठिन संघर्ष से प्राप्त सम्प्रभुता को बनाए रखना,
  2. क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखना, तथा
  3. तेज रफ्तार से आर्थिक विकास करना। नेहरू जी इन उद्देश्यों को गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर हासिल करना चाहते थे।

इसके अलावा पण्डित नेहरू द्वारा अपनायी गई राष्ट्रवाद, अन्तर्राष्ट्रीयवाद व पंचशील की अवधारणा आज . भी भारतीय विदेश नीति के आधार स्तम्भ माने जाते हैं।

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प्रश्न 2.
हम लोग आज की बनिस्बत जब ज्यादा गरीब, कमजोर और नए थे तो शायद दुनिया में हमारी पहचान कहीं ज्यादा थी। है ना विचित्र बात?
उत्तर:
शीतयुद्ध के दौरान दुनिया दो खेमों में विभाजित हो गयी थी। इन दोनों खेमों के नेता के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ का विशिष्ट स्थान था। संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूँजीवादी विचारधारा का प्रसार करते हुए तथा सोवियत संघ ने साम्यवादी विचारधारा का प्रसार करते हुए नवोदित विकासशील व अल्प विकसित राष्ट्रों को अपने खेमे में शामिल करने का प्रयास किया।

लेकिन भारत ने अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को बनाए रखने के लिए किसी भी खेमे में सम्मिलित न होने का निर्णय लिया और स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन करते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी। इसी कारण से भारत की दुनिया में एक विशेष पहचान थी और दुनिया के अल्पविकसित और विकासशील देशों ने भारत की इस नीति का अनुसरण भी किया।

लेकिन शीतयुद्ध के अन्त, बदलती विश्व व्यवस्था तथा वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की प्रासंगिकता पर एक प्रश्न चिह्न लग गया है। आज दुनिया का कोई भी राष्ट्र अकेला रहकर अपना सर्वांगीण विकास नहीं कर सकता। यही कारण है कि आज भारत स्वयं भी इस नीति से पूर्णतया सम्बद्ध नहीं है, उसका झुकाव भी महाशक्तियों की ओर किसी-न-किसी रूप में दिखाई दे रहा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज की बनिस्बत हम लोग जब ज्यादा गरीब, कमजोर और नए थे तो शायद दुनिया में हमारी पहचान ज्यादा थी।

प्रश्न 3.
“मैंने सुना है कि 1962 के युद्ध के बाद जब लता मंगेशकर ने ‘ऐ मेरे वतन के लोगों …..’ गाया तो नेहरू भरी सभा में रो पड़े थे। बड़ा अजीब लगता है यह सोचकर कि इतने बड़े लोग भी किसी भावुक लम्हे में रो पड़ते हैं।”
उत्तर:
यह बिलकुल सत्य है कि जिन लोगों में राष्ट्रवाद व देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई हो और उनके सामने राष्ट्र का गुण-ज्ञान किया जाए तो ऐसे लोगों का भावुक होना स्वाभाविक है। जहाँ तक पण्डित नेहरू का सवाल है, वे महान राष्ट्रवादी नेता थे। उन्होंने जीवन-पर्यन्त राष्ट्र की सेवा की। इस गीत को सुनकर उनके आँसू इसलिए छलक पड़े क्योंकि इस गीत में देश के उन शहीदों की कुर्बानी की बात कही गयी थी जिन्होंने हँसते-हँसते अपनी जान न्यौछावर कर दी थी। उन्हीं की कुर्बानी ने देश को स्वतन्त्रता दिलवायी थी।

प्रश्न 4.
“हम ऐसा क्यों कहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ? नेता झगड़े और सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। ज्यादातर आम नागरिकों को इनसे कुछ लेना-देना न था।”
उत्तर:
पाकिस्तान भारत का ऐसा पड़ोसी राष्ट्र है जो सबसे निकट होते हुए भी सबसे दूर है। सजातीय संस्कृति एवं ऐतिहासिक अनुभूतियों की दृष्टि से यह सबसे निकट है, लेकिन इन दोनों देशों के मध्य आपसी कटुता व संघर्ष के पीछे राजनीतिक दलों की सत्ता प्राप्ति की महत्त्वाकांक्षा सबसे अधिक जिम्मेदार है। राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति हेतु आम जनता को गुमराह करते हैं और साम्प्रदायिक दुष्प्रचार की नीति अपनाते हैं।

भारत और पाकिस्तान के सम्बन्धों में कटुता और वैमनस्य कई बार पाकिस्तान के राजनेताओं के साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से उत्पन्न हुए हैं। धार्मिक और साम्प्रदायिक वैमनस्य पाकिस्तान के शासक जान-बूझकर बनाए रखना चाहते हैं। वे साम्प्रदायिक विष को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और संगठनों में अभिव्यक्त करते रहे हैं। इसके अलावा उत्तर-भारत-सोवियत मैत्री की सन्धि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं हुआ, क्योंकि इस सन्धि के बाद भी भारत गुटनिरपेक्षता के मौलिक सिद्धान्तों पर कायम रहा। वह वारसा गुट में शामिल नहीं हुआ था। उसे अपनी प्रतिरक्षा के लिए बढ़ रहे खतरे, अमेरिका तथा पाकिस्तान में बढ़ रही घनिष्ठता व सहायता के कारण रूस से 20 वर्षीय सन्धि की थी। उसने सन्धि के बावजूद गुटनिरपेक्षता की नीति पर अमल किया। यही कारण है कि जब सोवियत संघ की सेनाएँ अफगानिस्तान में पहुँची तो भारत ने इसकी आलोचना की।

इसलिए यह कहना कि सोवियत मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति पर अमल नहीं किया, गलत है।

प्रश्न 6.
बड़ा घनचक्कर है! क्या यहाँ सारा मामला परमाणु बम बनाने का नहीं है? हम ऐसा सीधे-सीधे क्यों नहीं कहते?
उत्तर:
भारत ने सन् 1974 में परमाणु परीक्षण किया तो इसे उसने शान्तिपूर्ण परीक्षण करार दिया। भारत ने मई 1998 में परमाणु परीक्षण किए तथा यह जताया कि उसके पास सैन्य उद्देश्यों के लिए अणु शक्ति को प्रयोग में लाने की क्षमता है। इस दृष्टि से यह मामला यद्यपि परमाणु बम बनाने का ही था तथापि भारत की परमाणु नीति में सैद्धान्तिक तौर पर यह बात स्वीकार की गई है कि भारत अपनी रक्षा के लिए परमाणु हथियार रखेगा लेकिन इन हथियारों का प्रयोग ‘पहले नहीं करेगा।

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 4 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत की विदेशी नीति के प्रमुख सिद्धान्त एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एक राष्ट्र के रूप में भारत का उदय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में हुआ था। ऐसे में भारत ने अपनी विदेश नीति में अन्य सभी देशों की सम्प्रभुता का सम्मान करने तथा शान्ति कायम करके अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य सामने रखा। अत: उसने अपनी विदेश नीति को राष्ट्रीय हितों के सिद्धान्त पर आधारित किया है। भारत की विदेश नीति के मूलभूत सिद्धान्तों (विशेषताओं) का विवेचन निम्न प्रकार है-

1. गुटनिरपेक्षता की नीति–द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व दो गुटों में बँट गया था। इसमें से एक पश्चिमी देशों का गुट था तथा दूसरा साम्यवादी देशों का। दोनों महाशक्तियों ने भारत को अपने पीछे लगाने के अनेक प्रयास किए, लेकिन भारत ने दोनों ही प्रकार के सैन्य गुटों से अलग रहने का निश्चय किया और तय किया कि वह किसी भी सैन्य गठबन्धन का सदस्य नहीं बनेगा। वह स्वतन्त्र विदेश नीति अपनाएगा और प्रत्येक राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्न पर स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष रूप से विचार करेगा। पं० नेहरू के शब्दों में, “गुटनिरपेक्षता शान्ति का मार्ग तथा लड़ाई के बचाव का मार्ग है। इसका उद्देश्य सैन्य गुटबन्दियों से दूर रहना है।”

2. उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोध-साम्राज्यवादी देश दूसरे देशों की स्वतन्त्रता का अपहरण करके उनका शोषण करते रहते हैं। संघर्ष तथा युद्धों का सबसे बड़ा कारण साम्राज्यवाद है। भारत स्वयं साम्राज्यवादी शोषण का शिकार रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के अधिकांश राष्ट्र स्वतन्त्र हो गए पर साम्राज्यवाद का अभी पूर्ण विनाश नहीं हो पाया। भारत ने एशियाई तथा अफ्रीकी देशों की स्वतन्त्रता का स्थागत किया है।

3. अन्य देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध–भारत की विदेश नीति की अन्य विशेषता यह है कि भारत विश्व के अन्य देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाने हेतु हमेशा तैयार रहता है। भारत ने न केवल मित्रतापूर्ण सम्बन्ध एशिया के देशों से ही बनाए हैं बल्कि उसने विश्व के अन्य देशों से भी सम्बन्ध बनाए हैं। भारत के नेताओं ने कई बार घोषणा भी की है कि भारत सभी देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है।

4. पंचशील तथा शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व-पंचशील का अर्थ है-पाँच सिद्धान्त। ये सिद्धान्त हमारी विदेश नीति के मूल आधार हैं। इन पाँच सिद्धान्तों के लिए ‘पंचशील’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 29 अप्रैल, 1954 में किया गया था। ये ऐसे सिद्धान्त हैं कि यदि इन पर विश्व के सभी देश चलें तो विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है। ये पाँच सिद्धान्त अग्रलिखित हैं-

  1. एक-दूसरे की अखण्डता और प्रभुसत्ता को बनाए रखना।
  2. एक-दूसरे पर आक्रमण न करना।
  3. एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
  4. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त को मानना।
  5. आपस में समानता और मित्रता की भावना को बनाए रखना।

5. राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा-भारत शुरू से ही एक शान्तिप्रिय देश रहा है इसीलिए उसने अपनी विदेश नीति को राष्ट्रीय हितों के सिद्धान्त पर आधारित किया है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी भारत ने अपने उद्देश्य मैत्रीपूर्ण रखे हैं। इन उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए भारत ने संसार के समस्त देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए हैं। इसी कारण आज भारत आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में शीघ्रता से उन्नति कर रहा है। इसके साथ-साथ वर्तमान समय में भारत के सम्बन्ध विश्व की महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका तथा रूस और अन्य लगभग समस्त देशों के साथ मैत्रीपूर्ण तथा अच्छे हैं।

प्रश्न 2.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख उपलब्धियाँ बताइए।
उत्तर:
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं-

1. गुटनिरपेक्षता की नीति को मान्यता प्रारम्भ में जब गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का आरम्भ हुआ तो विश्व के विकसित व अविकसित राष्ट्रों ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया तथा इसे राजनीति के विरुद्ध एक संकल्पना का नाम दिया। अत: गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के प्रवर्तकों ने यह सोचा कि इसके विषय में राष्ट्रों को कैसे समझाया जाए एवं विश्व के राष्ट्रों से इसे कैसे मान्यता दिलवाई जाए? विश्व के दोनों राष्ट्र अमेरिका एवं सोवियत संघ कहते हैं कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक छलावे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अतः विश्व के राष्ट्रों को किसी एक गुट में अवश्य शामिल हो जाना चाहिए, परन्तु गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अपनी नीतियों पर दृढ़ रहा।

2. शीतयुद्ध के भय को दूर करना-शीतयुद्ध के कारण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में तनाव का वातावरण था लेकिन गुटनिरपेक्षता की नीति ने इस तनाव को शिथिलता की दशा में लाने के लिए अनेक प्रयास किए तथा इसमें सफलता प्राप्त की।

3. विश्व के संघर्षों को दूर करना–गुटनिरपेक्षता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने विश्व में होने वाले कुछ भयंकर संघर्षों को टाल दिया था। धीरे-धीरे उनके समाधान भी ढूँढ लिए गए। गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में आण्विक शस्त्र के खतरों को दूर करके अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में शान्ति व सुरक्षा को बनाने में योगदान दिया। विश्व के छोटे-छोटे विकासशील तथा विकसित राष्ट्रों को दो भागों में विभक्त होने से रोका।

गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने सर्वोच्च शक्तियों को हमेशा यही प्रेरणा दी कि “संघर्ष अपने लक्ष्य से सर्वनाश लेकर चलता है” इसलिए इससे बचकर चलने में ही विश्व का कल्याण है। इसके स्थान पर यदि सर्वोच्च शक्तियाँ विकासशील राष्ट्रों के कल्याण के लिए कुछ कार्य करती हैं तो इससे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को भी बल मिलेगा। उदाहरणार्थ-गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने कोरिया युद्ध, बर्लिन का संकट, इण्डो-चीन संघर्ष, चीनी तटवर्ती द्वीप समूह का विवाद (1955) एवं स्वेज नहर युद्ध (1956) जैसे संकटों के सम्बन्ध में निष्पक्ष तथा त्वरित समाधान के सुझाव देकर विश्व को भयंकर आग की लपटों में जाने से बचा लिया।

4. निःशस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियन्त्रण की दिशा में भूमिका-गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के देशों ने निःशस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियन्त्रण के लिए विश्व में अवसर तैयार किया है। यद्यपि इस क्षेत्र में गुटनिरपेक्ष देशों को तुरन्त सफलता नहीं मिली, तथापि विश्व के राष्ट्रों को यह भरोसा होने लगा कि हथियारों को बढ़ावा देने से विश्वशान्ति संकट में पड़ सकती है। यह गुटनिरपेक्षता का ही परिणाम है कि सन् 1954 में आण्विक अस्त्र के परीक्षण पर प्रतिबन्ध लग गया तथा सन् 1963 में आंशिक परीक्षण पर प्रतिबन्ध स्वीकार किए गए।

5. संयुक्त राष्ट्र संघ का सम्मान-गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ का भी हमेशा सम्मान किया, साथ ही संगठन के वास्तविक रूप को रूपान्तरित करने में सहयोग किया। पहली बात तो यह है कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की संख्या इतनी है कि शीतयुद्ध के वातावरण को तटस्थता की नीति के रूप में बदलाव करने में राष्ट्रों के संगठन की बात सुनी गयी। इससे छोटे राष्ट्रों पर संयुक्त राष्ट्र संघ का नियन्त्रण सरलतापूर्वक लागू हो सका था। गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के महत्त्व को बढ़ावा देने में भी सहायता दी।

6. आर्थिक सहयोग का वातावरण बनाना-गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने विकासशील राष्ट्रों के बीच अपनी विश्वसनीयता का ठोस प्रमाण दिया जिस कारण विकासशील राष्ट्रों को समय-समय पर आर्थिक सहायता प्राप्त हो सकी। कोलम्बो शिखर सम्मेलन में जो आर्थिक घोषणा-पत्र तैयार किया गया जिसमें गटनिरपेक्ष राष्ट्रों के बीच ज्यादा-से-ज्यादा आर्थिक सहयोग की स्थिति निर्मित हो सके। इस प्रकार से गुटनिरपेक्षता का आन्दोलन आर्थिक सहयोग का एक संयुक्त मोर्चा है।

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प्रश्न 3.
भारत द्वारा परमाणु नीति अपनाए जाने के प्रमुख कारणों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत ने शीतयुद्ध के दौरान गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के विकास पर बहुत अधिक बल दिया। इसके अलावा भारत नि:शस्त्रीकरण का समर्थन करता रहा लेकिन सन् 1962 में चीन से युद्ध में हार तथा सन् 1965 व 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के बाद भारत को अपनी विदेश नीति पर सोचना पड़ा। 1970 के दशक में भारत ने प्रथम बार अनुभव किया कि अन्य राष्ट्रों की तरह उसे भी परमाणु सम्पन्न बनना चाहिए। भारत ने सन् 1974 में एवं सन् 1998 में परमाणु परीक्षण किए। वर्तमान में भारत एक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है। भारत द्वारा परमाणु नीति अपनाए जाने के निम्नलिखित कारण हैं-

1. आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाना—विश्व में जिन देशों के पास भी परमाणु हथियार उपलब्ध हैं वे सभी आत्मनिर्भर देश माने जाते हैं। भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर एक आत्मनिर्भर राष्ट्र बनना चाहता है जिससे कि उसकी पहचान विश्व स्तर पर स्थापित हो।

2. शक्तिशाली राष्ट्र बनने की इच्छा-विश्व में जितने भी देश परमाणु शक्ति सम्पन्न हैं; वे सभी शक्तिशाली राष्ट्र माने जाते हैं। भारत भी उसी राह पर चलना चाहता है। भारत भी परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर विश्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र बनना चाहता है ताकि कोई देश उस पर बुरी नजर न डाले।

3. विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना-सम्पूर्ण विश्व में सभी परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों को आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। भारत भी परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर विश्व स्तर पर अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करना चाहता है।

4. शान्तिपूर्ण कार्यों हेतु परमाणु हथियारों का उपयोग–भारत का मत है कि उसने शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु नीति को अपनाया है। भारत ने जब अपना प्रथम परमाणु परीक्षण किया तो उसे शान्तिपूर्ण परीक्षण करार दिया। भारत का मत है कि वह अणु-शक्ति को केवल शान्तिपूर्ण उद्देश्यों में प्रयोग करने की अपनी नीति के प्रति दृढ़ संकल्प है।

5. भारत द्वारा लड़े गए युद्ध-भारत ने सन् 1962 में चीन के साथ युद्ध किया तथा सन् 1965 व 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध किया। इन युद्धों में भारत को बहुत जन-धन की हानि उठानी पड़ी। अब भारत युद्धों में होने वाली अधिक हानि से बचने के लिए परमाणु हथियार प्राप्त करना चाहता है।

6. पड़ोसी देशों के पास परमाणु हथियार होना-भारत में पड़ोसी देशों चीन व पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं। इन देशों के साथ भारत के युद्ध भी हो चुके हैं। अत: भारत को इन देशों से अपने को सुरक्षित महसूस करने के लिए परमाणु हथियार बनाना अति आवश्यक है।

7. न्यूनतम अवरोध की स्थिति प्राप्त करना—भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर दूसरे देशों के आक्रमण से स्वयं को बचाने के लिए न्यूनतम अवरोध की स्थिति प्राप्त करना चाहता है। भारत ने सदैव ही विश्व समुदाय को यह आश्वस्त किया है कि वह किसी भी परिस्थिति में परमाणु हथियारों के प्रयोग की पहल नहीं करेगा। परमाणु शक्ति सम्पन्न होने के बाद आज भारत इस स्थिति में पहुंच चुका है कि कोई भी देश भारत पर हमला करने से पहले सोचेगा।

8. परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों की भेदपूर्ण नीति-विश्व के परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों ने परमाणु अप्रसार सन्धिं एवं व्यापक परमाणु परीक्षण सन्धि को इस प्रकार लागू करना चाहा कि उनके अलावा कोई अन्य देश परमाणु हथियार का निर्माण न कर सके। भारत ने इन दोनों सन्धियों को भेदभाव मानते हुए उन पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया तथा यह घोषणा की कि वह अपनी रक्षा के लिए परमाणु हथियार रखेगा लेकिन इन हथियारों के प्रयोग की पहल नहीं करेगा। भारत की परमाणु नीति में यह बात स्पष्ट की गयी है कि भारत वैश्विक स्तर पर लागू एवं भेदभावरहित परमाणु निःशस्त्रीकरण के लिए वचनबद्ध है ताकि परमाणु हथियारों से मुक्त विश्व की रचना हो।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में दिए गए विदेश नीति सम्बन्धी राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में केवल राज्य की आन्तरिक नीति से सम्बन्धित ही निर्देश नहीं दिए गए हैं बल्कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, के बारे में भी निर्देश दिए गए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-51 में ‘अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के बढ़ावे’ के लिए राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के माध्यम से कहा गया है कि राज्य-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का,
  2. राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखने का,
  3. संगठित लोगों से एक-दूसरे से व्यवहार में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि-बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का, और
  4. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को पारस्परिक बातचीत द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा।

प्रश्न 2.
‘शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारतीय विदेश नीति का सार ‘शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’ है। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का अर्थ है-बिना किसी मनमुटाव के मैत्रीपूर्ण ढंग से एक देश का दूसरे देश के साथ रहना। यदि भिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के साथ पड़ोसियों की तरह नहीं रहेंगे तो विश्व में शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व विदेश नीति का एकमात्र सिद्धान्त ही नहीं है बल्कि यह राज्यों के बीच व्यवहार का एक तरीका भी है।

भारत एशिया की महाशक्ति बनने की इच्छा नहीं रखता है तथा पंचशील और गुटनिरपेक्षता की नीति से समर्थित शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व में आस्था रखता है। पंचशील के सिद्धान्त हमारी विदेश नीति के मूलाधार हैं। पंचशील के ये सिद्धान्त ऐसे हैं कि यदि इन पर विश्व के सभी देश अमल करें तो शान्ति स्थापित हो सकती है। पंचशील के इन सिद्धान्तों में से एक प्रमुख सिद्धान्त है-“शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त को मानना।” शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धान्तों यानि पंचशील की घोषणा भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल, 1954 में की।

प्रश्न 3.
भारत की विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्यों अथवा उद्देश्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य अथवा उद्देश्य राष्ट्रीय हितों की पूर्ति व विकास करना है। भारतीय विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य निम्नलिखित हैं-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा का समर्थन करना एवं पारस्परिक मतभेदों के शान्तिपूर्ण समाधान का प्रयास करना।
  2. शस्त्रों की होड़-विशेष तौर से आण्विक शस्त्रों की होड़ का विरोध करना व व्यापारिक निःशस्त्रीकरण का समर्थन करना।
  3. राष्ट्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देना जिससे राष्ट्र की स्वतन्त्रता व अखण्डता पर मँडराने वाले हर प्रकार के खतरे को रोका जा सके।
  4. विश्वव्यापी तनाव दूर करके पारस्परिक समझौते को बढ़ावा देना तथा संघर्ष नीति व सैन्य गुटबाजी का विरोध करना।
  5. साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नस्लवाद, पृथकतावाद एवं सैन्यवाद का विरोध करना।
  6. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा पंचशील के आदर्शों को बढ़ावा देना।
  7. विश्व के समस्त राष्ट्रों विशेष रूप से पड़ोसी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना।

प्रश्न 4.
भारत की विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता का महत्त्व बताइए। भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति क्यों अपनाई है?
उत्तर:
भारत की विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता का महत्त्व गुटनिरपेक्षता का अर्थ है कि भारत अन्तर्राष्ट्रीय विषयों के सम्बन्ध में अपनी स्वतन्त्र निर्णय लेने की नीति का पालन करता है। भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अपनी विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्त को अत्यधिक महत्त्व दिया। भारत प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का समर्थन या विरोध उसमें निहित गुण और दोषों के आधार पर करता है। भारत ने यह नीति अपने देश के राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए अपनाई है। भारत की विभिन्न सरकारों ने अपनी विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता की नीति ही अपनाई है।

भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण-

  1. किसी भी गुट के साथ मिलने तथा उसका पिछलग्गू बनने से राष्ट्र की स्वतन्त्रता कुछ अंश तक अवश्य प्रभावित होती है।
  2. भारत ने अपने को गुट संघर्ष में शामिल करने की अपेक्षा देश की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रगति की ओर ध्यान देने में अधिक लाभ समझा क्योंकि हमारे सामने अपनी प्रगति अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  3. भारत स्वयं एक महान देश है तथा इसे अपने क्षेत्र में अपनी स्थिति को महत्त्वपूर्ण बनाने हेतु किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं थी।

प्रश्न 5.
गुटनिरपेक्षता की नीति किन-किन सिद्धान्तों पर आधारित है? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया। भारत ने यह नीति अपने देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए अपनाई है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को जन्म देने तथा उसको बनाए रखने में भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। गुटनिरपेक्षता की नीति मुख्य रूप से निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित है-

  1. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र दोनों गुटों से अलग रहकर अपनी स्वतन्त्र नीति अपनाते हैं और गुण-दोषों के आधार पर दोनों गुटों का समर्थन या आलोचना करते हैं।
  2. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र सभी राष्ट्रों से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते है इन्हें तटस्थ रहने की कोई विधिवत् औपचारिक घोषणा नहीं करनी पड़ती।
  3. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र युद्धरत किसी पक्ष से सहानुभूति अवश्य रख सकते हैं ऐसी स्थिति में वे सैन्य सहायता के स्थान पर घायलों के लिए दवाइयाँ व चिकित्सा-सुविधाएँ उपलब्ध करा सकते हैं।
  4. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र निष्पक्ष रहते हैं, वे युद्धरत देशों को अपने क्षेत्र में युद्ध करने की अनुमति नहीं देते तथा न ही उन्हें किसी अन्य देश के साथ युद्ध करने हेतु सामरिक सुविधा प्रदान करते हैं।
  5. गुटनिरपेक्ष राष्ट्र किसी प्रकार की सैन्य सन्धि या गुप्त समझौता करके किसी भी गुटबन्दी में शामिल नहीं होते हैं।

प्रश्न 6.
भारत की विदेशी नीति की एक विशेषता के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान’ पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक समय में प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्रों के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए विदेश नीति निर्धारित करनी पड़ती है। सामान्य शब्दों में, विदेश नीति से अभिप्राय उस नीति से है जो एक देश द्वारा अन्य देशों के प्रति अपनाई जाती है। भारत ने भी स्वतन्त्र विदेश नीति अपनाई। इसकी अनेक विशेषताएँ हैं और उनमें से एक विशेषता है—अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान। इस कार्य के सफलतापूर्वक संचालन हेतु भारत ने विश्व को पंचशील के सिद्धान्त दिए तथा हमेशा ही संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन किया। समय-समय पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किए गए शान्ति प्रयासों में भारत ने हर प्रकार की सहायता प्रदान की, जैसे-स्वेज नहर की समस्या, हिन्द-चीन का प्रश्न, वियतनाम की समस्या, कांगो की समस्या, साइप्रस की समस्या, भारत-पाकिस्तान युद्ध, ईरान-इराक युद्ध आदि अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए भारत ने भरसक प्रयास किए तथा अपने अधिकांश प्रयत्नों में सफलता प्राप्त की।

प्रश्न 7.
गुजराल सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
गुजराल सिद्धान्त-भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल की विदेश नीति सम्बन्धी अवधारणा को गुजराल सिद्धान्त कहा जाता है। यह सिद्धान्त भारत के दक्षिण एशिया के छोटे पड़ोसी देशों पर ध्यान केन्द्रित करता है। यह उनसे अच्छे पड़ोसी बनने पर जोर देता है। इस सिद्धान्त की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं-

  1. भारत के आकार और क्षमता की असमानताओं की प्रभुत्वकारी प्रवृनियों में प्रकट नहीं होने देता।
  2. एकतरफा दोस्ताना रियायतें देना।
  3. पड़ोसी देशों की माँगों तथा चिन्ताओं के प्रति संवेदनशील होना।
  4. सन्देह तथा विवाद पैदा करने वाली पहलकदमियों से बचना।
  5. विवादास्पद मुद्दों पर शान्त, लचीली नीति का अनुसरण करना।
  6. पारस्परिक व्यापार में वृद्धि करना।

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प्रश्न 8.
सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के कारण बताइए।
उत्तर:
भारत-चीन युद्ध के कारण-सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. तिब्बत की समस्या-सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध की सबसे बड़ी समस्या तिब्बत की समस्या थी। चीन ने सदैव तिब्बत पर अपना दावा किया, जबकि भारत इस समस्या को तिब्बतवासियों की भावनाओं को ध्यान मे रखकर सुलझाना चाहता था।
  2. मानचित्र से सम्बन्धित समस्या-भारत और चीन के बीच सन् 1962 में हुए युद्ध का एक कारण दोनो देशों के बीच मानचित्र में रेखांकित भू-भाग था। चीन ने सन् 1954 में प्रकाशित अपने मानचित्र में कुछ ऐसे भाग प्रदर्शित किए जो वास्तव में भारतीय भू-भाग में थे, अत: भारत ने इस पर चीन के साथ अपना विरोध दर्ज कराया।
  3. सीमा-विवाद-भारत-चीन के बीच युद्ध का एक कारण सीमा-विवाद भी था। भारत ने सदैव मैकमोहन रेखा को स्वीकार किया, परन्तु चीन ने नहीं। सीमा-विवाद धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि इसने आगे चलकर युद्ध का रूप धारण कर लिया।

प्रश्न 9.
ताशकन्द समझौता कब हुआ? इसके प्रमुख प्रावधान लिखिए। .
उत्तर:
ताशकन्द समझौता-23 सितम्बर, 1965 को भारत-पाक में युद्ध विराम होने के बाद सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधानमन्त्री कोसीगिन ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान एवं भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री को वार्ता के लिए ताशकन्द आमन्त्रित किया और 10 जनवरी, 1966 को ताशकन्द समझौता सम्पन्न हुआ। इस समझौते के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे-

  1. भारत एवं पाकिस्तान अच्छे पड़ोसियों की भाँति सम्बन्ध स्थापित करेंगे और विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाएँगे।
  2. दोनों देश के सैनिक युद्ध से पूर्व की ही स्थिति में चले जाएँगे। दोनों युद्ध-विराम की शर्तों का पालन करेंगे।
  3. दोनों एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
  4. दोनों राजनीतिक सम्बन्धों को पुन: सामान्य रूप से स्थापित करेंगे।
  5. दोनों आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्धों को पुन: सामान्य रूप से स्थापित करेंगे।
  6. दोनों देश सन्धि की शर्तों का पालन करने के लिए सर्वोच्च स्तर पर आपस में मिलते रहेंगे।

प्रश्न 10.
शिमला समझौता कब हुआ? इसके प्रमुख प्रावधान लिखिए।
उत्तर:
शिमला समझौता-28 जून, 1972 को श्रीमती इन्दिरा गांधी एवं जुल्फिकार अली भुट्टो के द्वारा शिमला में दोनों देशों के मध्य जो समझौता हुआ उसे शिमला समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के निम्नलिखित प्रमुख प्रावधान थे-

  1. दोनों देश सभी विवादों एवं समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए सीधी वार्ता करेंगे।
  2. दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध दुष्प्रचार नहीं करेंगे।
  3. दोनों देश सम्बन्धों को सामान्य बनाने के लिए
    • संचार सम्बन्ध फिर से स्थापित करेंगे।
    • आवागमन की सुविधाओं का विस्तार करेंगे।
    • व्यापार एवं आर्थिक सहयोग स्थापित करेंगे।
    • विज्ञान एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में आदान-प्रदान करेंगे।
  4. स्थायी शान्ति स्थापित करने हेतु हर सम्भव प्रयास किए जाएंगे।
  5. भविष्य में दोनों सरकारों के अध्यक्ष मिलते रहेंगे।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शिमला समझौता क्या है?
उत्तर:
भारत-पाक युद्ध सन् 1971 के बाद जुलाई 1972 में शिमला में भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच एक समझौता हुआ जिस्से ‘शिमला समझौता’ कहा जाता है।

प्रश्न 2.
पंचशील के सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
29 अप्रैल, 1954 को भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने तिब्बत के सम्बन्ध में एक समझौता किया जिसे पंचशील के सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है। ये सिद्धान्त हैं-

  1. सभी देश एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता का सम्मान करें।
  2. अनाक्रमण
  3. एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
  4. परस्पर समानता तथा लाभ के आधार पर कार्य करना।
  5. शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व।

प्रश्न 3.
पण्डित नेहरू के अनुसार गुटनिरपेक्षता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
पण्डित नेहरू के अनुसार गुटनिरपेक्षता नकारात्मक तटस्थता, अप्रगतिशील अथवा उपदेशात्मक नीति नहीं है। इसका अर्थ सकारात्मक है अर्थात् जो उचित और न्यायसंगत है उसकी सहायता एवं समर्थन करना तथा जो अनुचित एवं अन्यायपूर्ण है उसकी आलोचना एवं निन्दा करना।

प्रश्न 4.
भारतीय विदेश नीति में साधनों की पवित्रता से क्या अर्थ है?
उत्तर:
भारत की विदेश नीति में साधनों की पवित्रता से तात्पर्य है-अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान करने में शान्तिपूर्ण तरीकों का समर्थन तथा हिंसात्मक एवं अनैतिक साधनों का विरोध करना। भारतीय विदेश नीति का यह तत्त्व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को परस्पर घृणा तथा सन्देह की भावना से दूर रखना चाहता है।

प्रश्न 5.
ग्रुप चार (G-4) का संगठन क्यों किया गया?
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए अपनी सशक्त दावेदारी प्रस्तुत करने के उद्देश्य से चार देशों—भारत, ब्राजील, जर्मनी व जापान ने ग्रुप चार (G-4) नामक संगठन बनाया। इन चारों देशों ने इस संगठन के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए एक-दूसरे का पूर्ण सहयोग करने का निर्णय लिया है।

प्रश्न 6.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना के लिए कौन-कौन उत्तरदायी थे?
उत्तर:
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना (जन्मदाता) के रूप में भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। सर्वप्रथम नेहरू जी ने इस नीति को भारत के लिए उपयुक्त समझा। इसके बाद सन् 1935 के बाण्डंग सम्मेलन के दौरान नासिर (मिस्र) एवं टीटो (यूगोस्लाविया) के साथ मिलकर इसे विश्व आन्दोलन बनाने पर सहमति प्रकट की।

प्रश्न 7.
गुटनिरपेक्ष नीति से भारत को मिलने वाले दो लाभ बताइए।
उत्तर:

  1. गुटनिरपेक्ष नीति अपनाकर ही भारत शीतयुद्ध काल में दोनों गुटों से सैन्य व आर्थिक सहायता प्राप्त करने में सफल रहा।
  2. इस नीति के कारण ही भारत को कश्मीर समस्या पर रूस का हमेशा समर्थन मिला।

प्रश्न 8.
सन् 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के क्या कारण थे?
उत्तर:
सन् 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  1. सन् 1962 में चीन से हार जाने से पाकिस्तान ने भारत को कमजोर माना।
  2. सन् 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद नए नेतृत्व को पाकिस्तान ने कमजोर माना।
  3. पाकिस्तान में सत्ता प्राप्ति की राजनीति।
  4. 1963-64 में कश्मीर में मुस्लिम विरोधी गतिविधियाँ पाकिस्तान की विजय में सहायक होंगी।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-51 में विदेश नीति के दिए गए संवैधानिक सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। अथवा भारतीय विदेश नीति के संवैधानिक सिद्धान्तों को सूचीबद्ध कीजिए।
उत्तर:

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा में अभिवृद्धि।
  2. राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण एवं सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखना।
  3. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने का प्रयास करना।
  4. संगठित लोगों के परस्पर व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धियों के प्रति आदर की भावना रखना।

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प्रश्न 10.
भारत और चीन के मध्य तनाव के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. भारत और चीन में महत्त्वपूर्ण विवाद सीमा का विवाद है। चीन ने भारत की भूमि पर कब्जा कर रखा है।
  2. चीन का तिब्बत पर कब्जा और भारत द्वारा दलाई लामा को राजनीतिक शरण देना।

प्रश्न 11.
भारत व चीन के मध्य अच्छे सम्बन्ध बनाने हेतु दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:

  1. दोनों पक्ष सीमा विवादों के निपटारे के लिए वार्ताएँ जारी रखें तथा सीमा क्षेत्र में शान्ति बनाए रखें।
  2. दोनों देशों को द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि करने का प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न 12.
भारत द्वारा परमाणु नीति अपनाने के मुख्य कारण बताइए।
उत्तर:

  1. भारत परमाणु नीति एवं परमाणु हथियार बनाकर दूसरे देशों के आक्रमण से बचने के लिए न्यूनतम अवरोध की स्थिति प्राप्त करना चाहता है।
  2. भारत के दो पड़ोसी देशों चीन एवं पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं और इन दोनों देशों से भारत युद्ध भी लड़ चुका है।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय विदेश नीति के जनक हैं-
(a) पण्डित जवाहरलाल नेहरू
(b) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(c) वल्लभभाई पटेल
(d) मौलाना अबुल कलाम आजाद।
उत्तर:
(a) पण्डित जवाहरलाल नेहरू।

प्रश्न 2.
भारतीय विदेश नीति किन कारकों से प्रभावित है-
(a) सांस्कृतिक कारक
(b) घरेलू कारक
(c) अन्तर्राष्ट्रीय कारक
(d) घरेलू तथा अन्तर्राष्ट्रीय कारक।
उत्त:
(d) घरेलू तथा अन्तर्राष्ट्रीय कारक।

प्रश्न 3.
बाण्डुंग सम्मेलन कब सम्पन्न हुआ-
(a) सन् 1954 में
(b) सन् 1955 में
(c) सन् 1956 में
(d) सन् 1957 में।
उत्तर:
(b) सन् 1955 में।

प्रश्न 4.
भारतीय विदेश नीति की प्रमुख विशेषता है-
(a) पंचशील
(b) सैन्य गुट
(c) गुटबन्दी
(d) उदासीनता।
उत्तर:
(a) पंचशील।

प्रश्न 5.
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के प्रणेता हैं-
(a) पं० नेहरू
(b) नासिर
(c) मार्शल टीटो
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 6.
पंचशील के सिद्धान्त किसके द्वारा घोषित किए गए थे-
(a) पं० जवाहरलाल नेहरू
(b) लालबहादुर शास्त्री
(c) राजीव गांधी
(d) अटल बिहारी वाजपेयी।
उत्तर:
(a) पं० जवाहरलाल नेहरू।

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प्रश्न 7.
पहला परमाणु परीक्षण भारत में कब किया गया था-
(a) सन् 1971 में
(b) सन् 1974 में
(c) सन् 1978 में
(d) सन् 1980 में।
उत्तर:
(b) सन् 1974 में।

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