UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development (नियोजित विकास की राजनीति)

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
‘बॉम्बे प्लान’ के बारे में निम्नलिखित में कौन-सा बयान सही नहीं है-
(क) यह भारत के आर्थिक भविष्य का एक ब्लू-प्रिण्ट था।
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।
(ग) इसकी रचना कुछ अग्रणी उद्योगपतियों ने की थी।
(घ) इसमें नियोजन के विचार का पुरजोर समर्थन किया गया था।
उत्तर:
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।

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प्रश्न 2.
भारत ने शुरुआती दौर में विकास की जो नीति अपनाई उसमें निम्नलिखित में से कौन-सा विचार शामिल नहीं था
(क) नियोजन
(ख) उदारीकरण
(ग) सहकारी खेती
(घ) आत्मनिर्भरता।
उत्तर:
(ख) उदारीकरण।

प्रश्न 3.
भारत में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का विचार ग्रहण किया गया था-
(i) बॉम्बे प्लान से
(ii) सोवियत खेमे के देशों के अनुभवों से
(iii) समाज के बारे में गांधीवादी विचार से
(iv) किसान संगठनों की माँगों से।
(क) सिर्फ (ii) और (iv)
(ख) सिर्फ (i) और (ii)
(ख) सिर्फ (iv) और (iii)
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित का मेल करें-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development 1
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development 2

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प्रश्न 5.
आजादी के समय विकास के सवाल पर प्रमुख मतभेद क्या थे? क्या इन मतभेदों को सुलझा लिया गया?
उत्तर:
आजादी के समय विकास के सवाल पर प्रमुख मतभेद निम्नांकित थे-

(1) विकास का अर्थ समाज के प्रत्येक वर्ग हेतु अलग-अलग होता है। कुछ अर्थशास्त्री तथा रक्षा व पर्यावरण विशेषज्ञों का मत था कि पश्चिमी देशों की तरह पूँजीवाद व उदारवाद को महत्त्व दिया जाए जबकि अन्य लोग विकास के सोवियत मॉडल का समर्थन कर रहे थे। पूँजीवादी मॉडल औद्योगीकरण का समर्थक था जबकि साम्यवादी मॉडल कृषिगत विकास एवं ग्रामीण क्षेत्र को गरीबी को दूर करने पर बल देता था।

(2) विकास के क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि हो तथा सामाजिक न्याय भी मिले इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन-सी भूमिका निभाए? इस सवाल पर मतभेद थे।

(3) कुछ लोग औद्योगीकरण को विकास का सही रास्ता मानते थे जबकि कुछ अन्य लोग यह मानते थे कि कृषि का विकास करके ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी दूर करना ही विकास का प्रमुख मानदण्ड होना चाहिए।

(4) कुछ अर्थशास्त्री केन्द्रीय नियोजन के पक्ष में थे जबकि कुछ अन्य विकेन्द्रित नियोजन को विकास के लिए आवश्यक मानते थे।

(5) कुछ राज्य सरकारों ने केन्द्रीकृत नियोजन के विपरीत अपना अलग ही विकास मॉडल अपनाया; जैसे-केरल राज्य में ‘केरल मॉडल’ के अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि सुधार, कारगर खाद्य वितरण तथा गरीबी उन्मूलन पर बल दिया गया।

इस तरह भारत ने साम्यवादी मॉडल व पूँजीवादी मॉडल को न अपनाकर इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण बातों को लेकर अपने देश में इन्हें मिले-जुले रूप में लागू किया। भारत ने इस समस्या का हल आपसी बातचीत एवं सहमति से बीच का रास्ता अपनाते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाकर किया। इस प्रकार भारत ने विकास से सम्बन्धित अधिकांश मतभेदों को सुलझा दिया लेकिन कुछ मतभेद आज भी प्रासंगिक हैं; जैसे— भारत जैसी अर्थव्यवस्था में कृषि और उद्योग के बीच किस क्षेत्र में ज्यादा संसाधन लगाए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र व सार्वजनिक क्षेत्र को कितनी मात्रा में हिस्सेदारी दी जाए, इस पर भी मतभेद हैं।

प्रश्न 6.
पहली पंचवर्षीय योजना का किस चीज पर सबसे ज्यादा जोर था? दूसरी पंचवर्षीय योजना पहली से किन अर्थों में अलग थी?
उत्तर:
पहली पंचवर्षीय योजना में देश में लोगों को गरीबी के जाल से निकालने का प्रयास किया गया और इस योजना में ज्यादा जोर कृषि क्षेत्र पर दिया गया। इसी योजना में बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। विभाजन के कारण कृषि क्षेत्र को गहरी मार लगी थी और इस क्षेत्र पर तुरन्त ध्यान देना आवश्यक था। भाखड़ा-नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आवंटित की गई। इस योजना में माना गया था कि देश में भूमि के वितरण का जो ढर्रा मौजूद है उससे कृषि के विकास को सबसे बड़ी बाधा पहुँचती है। इस योजना में भूमि सुधार पर जोर दिया गया और इसे देश के विकास की बुनियादी चीज माना गया।

दोनों योजनाओं में अन्तर-

  1. पहली पंचवर्षीय योजना एवं दूसरी पंचवर्षीय योजना में प्रमुख अन्तर यह था कि जहाँ पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र पर अधिक बल दिया गया, वहीं दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर अधिक जोर दिया गया।
  2. पहली पंचवर्षीय योजना का मूलमन्त्र था—धीरज, जबकि दूसरी पंचवर्षीय योजना तेज संरचनात्मक परिवर्तन पर बल देती थी।

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प्रश्न 7.
हरित क्रान्ति क्या थी? हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक और दो नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करें।
उत्तर:
हरित क्रान्ति का अर्थ— “हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषिगत उत्पादन की तकनीक को सुधारने तथा कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि करने से है।”
हरित क्रान्ति के तत्त्व हरित क्रान्ति के तीन तत्त्व थे-

  1. कृषि का निरन्तर विस्तार,
  2. दोहरी फसल का उद्देश्य,
  3. अच्छे बीजों का प्रयोग।

इस तरह हरित क्रान्ति का अर्थ है-सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर उत्पादन बढ़ाना।

हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक परिणाम

  1. हरित क्रान्ति में धनी किसानों और बड़े भू-स्वामियों को सबसे ज्यादा लाभ हुआ। हरित क्रान्ति से खेतिहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ (ज्यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में वृद्धि हुई।
  2. हरित क्रान्ति के कारण कृषि में मँझोले दर्जे के किसानों यानी मध्यम श्रेणी के भू-स्वामित्व वाले किसानों को लाभ हुआ। इन्हें बदलावों से फायदा हुआ था और देश के अनेक हिस्सों में यह प्रभावशाली बनकर उभरे।

हरित क्रान्ति के नकारात्मक परिणाम

  1. इस क्रान्ति से गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अन्तर मुखर हो उठा। इससे देश के विभिन्न हिस्सों में वामपन्थी संगठनों के लिए गरीब किसानों को लामबन्द करने के लिहाज से अनुकूल परिस्थितियाँ बन गईं।
  2. इससे समाज के विभिन्न वर्गों और देश के अलग-अलग इलाकों के बीच ध्रुवीकरण तेज हुआ जबकि बाकी इलाके खेती के मामले में पिछड़े रहे।

प्रश्न 8.
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास बनाम कृषि विकास का विवाद चला था। इस विवाद में क्या-क्या तर्क दिए गए थे?
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान यह विवाद उत्पन्न हुआ कि किस क्षेत्र के विकास पर अधिक जोर दिया जाए, कृषि क्षेत्र के विकास पर या औद्योगिक विकास पर। इस विवाद के सम्बन्ध में विभिन्न तर्क दिए गए-

(1) कृषि क्षेत्र का विकास करने वाले विद्वानों का यह तर्क था कि इससे देश आत्मनिर्भर बनेगा तथा किसानों की दशा में सुधार होगा, जबकि औद्योगिक विकास का समर्थन करने वालों का यह तर्क था कि औद्योगिक विकास से देश में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे तथा देश में बुनियादी सुविधाएँ बढ़ेगी।

(2) अनेक लोगों का मानना था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुंचेगी।

(3) कई अन्य लोगों का सोचना था कि औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर को तेज किए बगैर गरीबी के मकड़जाल से मुक्ति नहीं मिल सकती। इन लोगों का तर्क था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में खाद्यान्न के उत्पादन को बढ़ाने तथा भूमि-सुधार और ग्रामीण निर्धनों के बीच संसाधनों के बँटवारे के लिए अनेक कानून बनाए गए, लेकिन औद्योगिक विकास की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं किए गए।

(4) जे० सी० कुमारप्पा जैसे गांधीवादी अर्थशास्त्रियों ने एक वैकल्पिक योजना का खाका प्रस्तुत किया जिससे ग्रामीण औद्योगीकरण पर ज्यादा जोर दिया गया। इसी प्रकार चौधरी चरणसिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में कृषि को केन्द्र में रखने की बात बड़े सुविचारित और दमदार ढंग से उठायी।

प्रश्न 9.
“अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर देकर भारतीय नीति-निर्माताओं ने गलती की। अगर शुरुआत से ही निजी क्षेत्र को खुली छूट दी जाती तो भारत का विकास कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से होता।” इस विचार के पक्ष या विपक्ष में अपने तर्क दीजिए।
उत्तर:
अर्थव्यवस्था के मिश्रित या मिले-जुले मॉडल की आलोचना दक्षिणपन्थी तथा वामपन्थी दोनों खेमों में हुई। आलोचकों का मत था कि योजनाकारों ने निजी क्षेत्र को पर्याप्त जगह नहीं दी है। विशाल सार्वजनिक क्षेत्र ने ताकतवर निजी स्वार्थों को खड़ा किया है तथा इन स्वार्थपूर्ण हितों ने निवेश के लिए लाइसेंस व परमिट की प्रणाली खड़ी करके निजी पूँजी का मार्ग अवरुद्ध किया है। निजी क्षेत्र के पक्ष में तर्क इस प्रकार हैं-
पक्ष में तर्क-

(1) अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर भारत की आर्थिक नीति बनाने वाले विशेषज्ञों ने भारी गलती कर दी थी। सन् 1990 से ही भारत ने नई आर्थिक नीति को अपना लिया है तथा वह बहुत तेजी से उदारीकरण व वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। देश के कई बड़े नेता जो दुनिया में जाने-माने अर्थशास्त्री भी हैं, ये भी निजी क्षेत्र, उदारीकरण तथा सरकारी हिस्सेदारी को यथाशीघ्र सभी व्यवसायों, उद्योगों आदि में समाप्त करना चाहते हैं।
(2) विश्व की दो बड़ी संस्थाओं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक से भारत को ऋण और अधिकसे-अधिक निवेश तभी मिल सकते हैं जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा विदेशी निवेशकों का स्वागत सत्कार हो और उद्योगों के विकास हेतु आन्तरिक सुविधाओं का बड़े पैमाने पर सुधार हो। इसके लिए सरकार पूँजी नहीं जुटा सकती है। यह कार्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और बड़े-बड़े पूंजीपति कर सकते हैं जो बड़े-बड़े जोखिम उठाने हेतु तैयार हैं।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता में भारत तभी ठहर सकता है जब निजी क्षेत्र में छूट दे दी जाए।
(4) निजी क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है। अत: इसके सभी निर्णय लाभ की मात्रा पर आधारित
होते हैं।
(5) अर्जित सम्पत्ति पर व्यक्ति का स्वयं का अधिकार होता है। वह इसका प्रयोग करने हेतु स्वतन्त्र होता है।
(6) राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है। सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वह आर्थिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करता है।
(7) प्रत्येक आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति को स्वतन्त्रता होती है।
(8) कीमत यन्त्र, स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करता है। व्यवसाय के क्षेत्र जैसे उत्पादन, उपभोग, वितरण में कीमत यन्त्र ही मार्ग निर्देशित करता है।
(9) इस क्षेत्र हेतु उत्पादन तथा मूल्य निर्धारण में प्रतिस्पर्धा पायी जाती है। माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियाँ ही उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य निर्धारित करती हैं।

विपक्ष में तर्क-

(1) सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी का समर्थन करने वाले वामपन्थी विचारधारा के समर्थकों का मत है कि भारत को सुदृढ़ कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्र में आधार सरकारी वर्चस्व और मिश्रित नीतियों से मिला है। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत पिछड़ा ही रह जाता।

(2) भारत में विकसित देशों की तुलना में जनसंख्या अधिक है। यहाँ गरीबी है, बेरोजगारी है। यदि पश्चिमी देशों की होड़ में भारत में सरकारी हिस्से को अर्थव्यवस्था हेतु कम कर दिया जाएगा तो गरीबी फैलेगी तथा बेरोजगारी बढ़ेगी, धन और पूँजी कुछ ही कम्पनियों के हाथों में केन्द्रित हो जाएँगे जिससे आर्थिक विषमता और अधिक बढ़ जाएगी।

(3) हम जानते हैं कि भारत एक कृषिप्रधान देश है। वह संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों का कृषि उत्पादन में मुकाबला नहीं कर सकता। कुछ देश स्वार्थ के लिए पेटेण्ट प्रणाली को कृषि में लागू करना चाहते हैं तथा जो सहायता राशि भारत सरकार अपने किसानों को देती है वह उसे अपने दबाव द्वारा पूरी तरह खत्म करना चाहते हैं। जबकि भारत सरकार देश के किसानों को हर प्रकार से आर्थिक सहायता देकर अन्य विकासशील देशों को कृषि सहित अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में मात देना चाहती है।
(नोट-विद्यार्थी अपने उत्तर के पक्ष या विपक्ष में से एक पर अपने विचार लिख सकते हैं।)

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें
आजादी के बाद के आरम्भिक वर्षों में कांग्रेस पार्टी के भीतर दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ पनपी। एक तरफ राष्ट्रीय पार्टी कार्यकारिणी ने राज्य के स्वामित्व का समाजवादी सिद्धान्त अपनाया, उत्पादकता को बढ़ाने के साथ-साथ आर्थिक संसाधनों के संकेन्द्रण को रोकने के लिए अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का नियन्त्रण और नियमन किया। दूसरी तरफ कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार ने निजी निवेश के लिए उदार आर्थिक नीतियाँ अपनाईं और उसके बढ़ावे के लिए विशेष कदम उठाए। इसे उत्पादन में अधिकतम वृद्धि की अकेली कसौटी पर जायज ठहराया गया। – फ्रैंकिन फ्रैंकल
(क) यहाँ लेखक किस अन्तर्विरोध की चर्चा कर रहा है? ऐसे अन्तर्विरोध के राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?
(ख) अगर लेखक की बात सही है तो फिर बताएँ कि कांग्रेस इस नीति पर क्यों चल रही थी? क्या इसका सम्बन्ध विपक्षी दलों की प्रकृति से था?
(ग) क्या कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व और प्रान्तीय नेताओं के बीच कोई अन्तर्विरोध था?
उत्तर:
(क) उपर्युक्त अवतरण में लेखक कांग्रेस पार्टी के अन्तर्विरोध की चर्चा कर रहा है जो क्रमश: वामपन्थी विचारधारा से और दूसरा खेमा दक्षिणपन्थी विचारधारा से प्रभावित था। अर्थात् जहाँ कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समाजवादी सिद्धान्तों में विश्वास रखती थी, वहीं राष्ट्रीय कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार निजी निवेश को बढ़ावा दे रही थी। इस प्रकार के अन्तर्विरोध से देश में राजनीतिक अस्थिरता फैलने की आशंका रहती है।

(ख) कांग्रेस इस नीति पर इसलिए चल रही थी क्योंकि कांग्रेस में सभी विचारधाराओं के लोग शामिल थे तथा सभी लोगों के विचारों को ध्यान में रखकर ही कांग्रेस पार्टी इस प्रकार का कार्य करती रही थी। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी ने इस प्रकार की नीति इसलिए भी अपनाई ताकि विपक्षी दलों के पास आलोचना का कोई मुद्दा न रहे।

(ग) कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व एवं प्रान्तीय नेताओं में कुछ हद तक अन्तर्विरोध पाया गया था। जहाँ केन्द्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को महत्त्व देता था, वहीं प्रान्तीय नेता प्रान्तीय एवं स्थानीय मुद्दों को महत्त्व देते थे। परिणामस्वरूप कांग्रेस के प्रभावशाली क्षेत्रीय नेताओं ने आगे चलकर अपने अलग-अलग राजनीतिक दल बनाए; जैसे–चौधरी चरणसिंह ने ‘क्रान्ति दल’ या ‘भारतीय लोकदल’ बनाया तो उड़ीसा में बीजू पटनायक ने ‘उत्कल कांग्रेस’ का गठन किया।

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UP Board Class 12 Civics Chapter 3 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
“मैं सोचता था कि यह तो बड़ा सीधा-सादा फॉर्मूला है। सारे फैसलों के साथ मोटी रकम जुड़ी होती है और इसी कारण राजनेता ये फैसले करते हैं।”
उत्तर:
प्रायः देखा गया है कि राजनीतिक फैसलों या निर्णयों के पीछे राजनेताओं के राजनीतिक एवं आर्थिक हित जुड़े हुए होते हैं और इन्हीं को ध्यान में रखते हुए ये लोग निर्णय लेते हैं लेकिन यह सच नहीं है। सारे फैसलों के साथ मोटी रकम नहीं जुड़ी होती। अनेक फैसले जो जनहित में लिए जाते हैं इनसे मोटी रकम का कोई सरोकार नहीं होता। राजनेता जनहित में भी फैसला करते हैं।

प्रश्न 2:
क्या आप यह कह रहे हैं कि आधुनिक’ बनने के लिए ‘पश्चिमी’ होना जरूरी नहीं है? क्या यह सम्भव है?
उत्तर:
आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है। प्रायः आधुनिकीकरण का सम्बन्ध पाश्चात्यीकरण से माना जाता है लेकिन यह सही नहीं है, क्योंकि आधुनिक होने का अर्थ मूल्यों एवं विचारों में समस्त परिवर्तन से लगाया जाता है और यह परिवर्तन समाज को आगे की ओर ले जाने वाले होने चाहिए। आधुनिकीकरण में परिवर्तन केवल विवेक पर ही नहीं बल्कि सामाजिक मूल्यों पर भी आधारित होते हैं। इसमें वस्तुत: समाज के मूल्य साध्य और लक्ष्य भी निर्धारित करते हैं कि कौन-सा परिवर्तन अच्छा है और कौन-सा बुरा है; कौन-सा परिवर्तन आगे की ओर ले जाने वाला है और कौन-सा अधोगति में पहुँचाने वाला है।

पाश्चात्यीकरण भौतिकवाद है। अनेक बार इसके भौतिकवाद में उपयोगितावाद का अभाव होने से यह मात्र आडम्बरी, दिखावटी और शुष्क बनकर रह जाता है। इसमें परिवर्तन होते हैं परन्तु उनमें मूल्यों या साध्यों का सर्वथा अभाव रहता है। पाश्चात्यीकरण मूल्य मुक्तता पर बल देता है, इसका न कोई क्रम होता है और न कोई दिशा। इस प्रकार आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है।

प्रश्न 3.
अरे! मैं तो भूमि सुधारों को मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक समझता था।
उत्तर:
भूमि सुधार का तात्पर्य मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अन्तर्गत अनेक तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है-

  1. जमींदारी एवं जागीरदारी व्यवस्था को समाप्त करना।
  2. जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक-साथ करके कृषिगत कार्य को अधिक सुविधाजनक बनाना।
  3. बेकार एवं बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने हेतु व्यवस्था करना।
  4. भू-जल के निकास की उचित व्यवस्था करना।
  5. कृषिगत भू-जोतों की उचित व्यवस्था करना।
  6. सिंचाई के साधनों का विकास व सस्ती दरों पर किसानों को सिंचाई के साधन उपलब्ध कराना।
  7. अच्छे खाद व उन्नत बीजों की व्यवस्था करना।
  8. किसानों की समस्याओं के समाधान हेतु स्थायी सहायता केन्द्रों की व्यवस्था करना।
  9. किसानों द्वारा उत्पन्न खाद्यान्नों की उचित कीमत दिलाने का प्रयास करना।
  10. राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार द्वारा किसानों को समय-समय पर विभिन्न प्रकार के ऋण व विशेष अनुदानों की व्यवस्था करना आदि।

इस प्रकार भूमि सुधार का क्षेत्र केवल मिट्टी की गुणवत्ता की जाँच करने तक ही सीमित नहीं बल्कि इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है।

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UP Board Class 12 Civics Chapter 3 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हरित क्रान्ति क्या है? हरित क्रान्ति के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू बताइए। अथवा हरित क्रान्ति किसे कहते हैं? इसकी सफलता के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
हरित क्रान्ति का अर्थ हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषि उत्पादन में होने वाली उस भारी वृद्धि से है जो कृषि की नई नीति अपनाने के कारण हुई है।
जे० जी० हाटर के शब्दों में, “हरित क्रान्ति शब्द 1968 में होने वाले उन आश्चर्यजनक परिवर्तनों के लिए प्रयोग में लाया जाता है जो भारत के खाद्यान्न उत्पादन में हुए थे तथा अब भी जारी हैं।”

भारत में सन् 1967-68 में नई कृषि नीति अपनाने से कृषि उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई थी जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा। हरित क्रान्ति की पद्धति के मुख्य रूप से तीन तत्त्व थे

  • कृषि का निरन्तर विस्तार करना।
  • दोहरी फसलों का उत्पादन करना।
  • अधिक उत्पादन हेतु अच्छे बीजों का प्रयोग किया जाए।

हरित क्रान्ति के सकारात्मक प्रभाव
अथवा
हरित क्रान्ति की सफलता के विभिन्न पक्ष भारत में हरित क्रान्ति के सकारात्मक परिणाम सामने आए, जो इस प्रकार हैं-

1. उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई—हरित क्रान्ति का सबसे अधिक प्रभाव कृषिगत उत्पादन की मात्रा पर पड़ा। इससे भारत में रिकॉर्ड पैदावार हुई। सन् 1978-79 में भारत में लगभग 131 मिलियन टन गेहूँ का उत्पादन हुआ तथा जो देश गेहूँ का आयात करता था, वह अब गेहूँ को निर्यात करने की स्थिति में आ गया।

2. औद्योगिक विकास को बढ़ावा-हरित क्रान्ति के कारण भारत में न केवल कृषि क्षेत्र को फायदा हुआ बल्कि इसने औद्योगिक विकास को भी बढ़ावा दिया। हरित क्रान्ति में अच्छे बीजों, अधिक पानी, खाद तथा कृत्रिम यन्त्रों की आवश्यकता थी, जिसके लिए उद्योग लगाए गए। इससे लोगों को रोजगार भी प्राप्त हुआ।

3. बुनियादी ढाँचे का विकास–हरित क्रान्ति की एक सफलता यह रही कि इसके परिणामस्वरूप भारत में बुनियादी ढाँचे में उत्साहजनक विकास देखने को मिला।

4. राजनीतिक स्तर में बढ़ोतरी-भारत में हरित क्रान्ति का एक सकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि भारत की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक मजबूत छवि बन गई। हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया, जिससे भारत को अमेरिका पर खाद्यान्न के लिए निर्भर नहीं रहना पड़ा और इसका प्रभाव सन् 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में देखा गया।

5. विदेशों में भारतीय किसानों की माँग बढ़ी-भारत की हरित क्रान्ति से कई देश इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने भारतीय किसानों को अपने देश में बसाने के लिए प्रोत्साहित किया। कनाडा जैसे देश ने भारत सरकार से किसानों की माँग की जिसके कारण पंजाब व हरियाणा से कई किसान कनाडा में जाकर बस गए।

6. जल विद्युत शक्ति को बढ़ावा-बाँधों द्वारा संचित किए गए पानी का जलविद्युत शक्ति के उत्पादन में प्रयोग किया।

7. किसानों में संगठनात्मक एकता जाग्रत हुई—अधिकांश भारतीय किसान निरक्षर हैं, उनमें संगठनात्मक एकता का अभाव था। लेकिन हरित क्रान्ति (1967-68) के बाद जब उनकी दशा सुधरने लगी तो उनमें संगठनात्मक एकता की भावना का विकास होने लगा। भारतीय किसान यूनियन किसानों की इसी संगठनात्मक भावना का प्रतीक है। आज किसान पहले से अधिक संगठित हैं। किसानों की इस संगठनात्मक एकता के पीछे हरित क्रान्ति का ही हाथ है।

8. आन्दोलनों व प्रदर्शनों को बढ़ावा मिला हरित क्रान्ति से किसानों में चेतना आई है जिससे वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आन्दोलनों व प्रदर्शनों का सहारा लेने लगे हैं। भारतीय किसान यूनियन (BKU) किसानों के हितों की रक्षा करने वाला एक संगठन है। इसके माध्यम से वे अपनी माँगें प्रशासन के समक्ष रखते हैं।

इस प्रकार हरित क्रान्ति ने एक लम्बे समय से सुस्त और निष्क्रिय पड़ी ग्रामीण जनता में नव-चेतना भर दी और इस क्रान्ति ने न केवल कृषिगत क्षेत्र बल्कि अन्य क्षेत्रों जैसे उद्योग, व्यापार, विद्युत आदि को भी प्रभावित किया।

प्रश्न 2.
नियोजन का अर्थ बताइए तथा उसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। अथवा नियोजन से आप क्या समझते हैं? नियोजन की आवश्यकता एवं उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। अथवा नियोजन का अर्थ, आवश्यकता एवं महत्त्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
नियोजन का अर्थ-नियोजन का अर्थ है-उचित रीति से सोच-विचार कर कदम उठाना। अर्थात् इसका अर्थ ‘पूर्व दृष्टि’ या आगे की ओर देखने से है ताकि यह स्पष्ट पता चल जाए कि क्या काम किया जाना है।

भारतीय योजना आयोग के अनुसार, “नियोजन साधनों के संगठन की एक विधि है जिसके माध्यम से साधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है।”

भारत में नियोजन की आवश्यकता-वर्तमान युग नियोजन का युग है और विश्व के लगभग सभी देश अपने विकास और उन्नति के लिए आर्थिक नियोजन से जुड़े हुए हैं। भारत ने कई कारणों से नियोजन की आवश्यकता महसूस की—

  1. देश की निर्धनता,
  2. बेरोजगारी की समस्या,
  3. औद्योगीकरण की आवश्यकता,
  4. विभाजन से उत्पन्न आर्थिक असन्तुलन तथा अन्य समस्याएँ,
  5. सामाजिक तथा आर्थिक विषमताएँ,
  6. देश का पिछड़ापन, धीमी गति से विकास, विस्फोटक जनसंख्या आदि। ये सब समस्याएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं अतः इनके निवारण व देश के समुचित विकास के लिए नियोजन ही एकमात्र विकल्प है।

नियोजन के उद्देश्य

भारत में नियोजन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. पूर्ण रोजगार-भारत में बेरोजगारी एक अत्यन्त गम्भीर समस्या है। अतः इस समस्या को दूर कर लोगों को पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना नियोजन का प्रमुख उद्देश्य है।

2. गरीबी का उन्मूलन-निर्धनता की समस्या का निवारण दीर्घकालीन योजनाओं के माध्यम से ही किया जा सकता है। व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति व जीवकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराना नियोजन का दूसरा प्रमुख उद्देश्य है।

3. सामाजिक समानता की स्थापना करना—नियोजन आर्थिक संसाधनों के समान वितरण हेतु आवश्यक है। नियोजन के माध्यम से राज्य ऐसे कदम उठाता है जिससे धन का समान वितरण हो।

4. उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रयोग-नियोजन के माध्यम से उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है।

5. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास-सम्पूर्ण राष्ट्र के जीवन स्तर में समानता स्थापित करने के लिए राष्ट्र के अविकसित तथा अर्द्धविकसित क्षेत्रों को राष्ट्र के अन्य उन्नत क्षेत्रों के समान करना भी नियोजन का एक प्रमुख ध्येय होता है, अर्थात् नियोजन के माध्यम से ही क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर किया जा सकता है।

6. राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना-नियोजन का अन्य उद्देश्य कृषि उद्योग क्षेत्र मे वृद्धि व आयात-निर्यात में सन्तुलन स्थापित करके राष्ट्रीय आय में अधिकाधिक वृद्धि करना है। इसके अलावा लोगों के लिए आय व रोजगार के साधनों में वृद्धि करके प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना है।

7. सामाजिक उद्देश्य-नियोजन के सामाजिक उद्देश्यों में वर्ग रहित समाज की स्थापना का लक्ष्य शामिल है। श्रमिक व उद्योगपति दोनों को उत्पत्ति का उचित अंश मिलना चाहिए, पिछड़ी जातियों को शिक्षा में सुविधाएँ देना, सरकारी सेवाओं में प्राथमिकता प्रदान करना तथा अन्य पिछड़ी जातियों को समान स्तर पर लाना नियोजन का ध्येय है।

इस प्रकार नियोजन आधुनिक युग की नूतन प्रवृत्ति है। इसके अभाव में राष्ट्र सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता।

प्रश्न 3.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व—भारत एक विकासशील देश है जिसमें मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया है। इस दृष्टि से यहाँ सार्वजनिक उद्यमों का विशेष महत्त्व है। इनकी बढ़ती हुई भूमिका को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

1. समाजवादी समाज की स्थापना-आर्थिक असमानता को कम करके समाजवादी समाज की स्थापना के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम महत्त्वपूर्ण हैं।

2. सन्तुलित आर्थिक विकास में सहायक-भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन पाया जाता है। यहाँ एक ओर ऐसे राज्य हैं जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं; जैसे-पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात आदि; वहीं दूसरी ओर कुछ राज्य पिछड़े हुए हैं; जैसे—बिहार, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश आदि। इन पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास तथा इनको अन्य विकसित राज्यों के समकक्ष लाने के लिए सरकारी उद्यमों की स्थापना की जाती है। ये सार्वजनिक उद्यम पिछड़े क्षेत्रों में तीव्र विकास और पिछड़े तथा सम्पन्न राज्यों के बीच खाई को पाटने में सहायक हैं।

3. सामरिक (सुरक्षा) उद्योगों के लिए महत्त्वपूर्ण-नागरिकों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि सैनिकों व शस्त्रागारों में श्रेष्ठ किस्म के शस्त्र हों, अत: विश्वसनीय हथियारों के निर्माण को निजी क्षेत्र को नहीं सौंपा जा सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि प्रतिरक्षा उद्योगों पर सार्वजनिक नियन्त्रण होना चाहिए।

4. लोक-कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण-कुछ मूलभूत जन उपयोगी सेवाएँ जैसे पानी, बिजली, परिवहन, स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा आदि को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रखा जाना चाहिए क्योंकि निजी क्षेत्र इन सेवाओं में भी लक्ष्य की तलाश करता है। सार्वजनिक क्षेत्र इन सेवाओं को न्यूनतम कीमत पर जनता को उपलब्ध करवाता है।

5. अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण-अर्थव्यवस्था को उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए तथा इसको नियमित रखने के लिए सरकारी नियन्त्रण आवश्यक है।

6. विदेशी सहायता-अल्पविकसित देशों में आन्तरिक साधन कम पड़ जाते हैं। अत: आर्थिक विकास के लिए बाहरी देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में विदेशी सहायता सार्वजनिक क्षेत्रों को ही मिलती है। इसलिए विदेशी सहायता की प्राप्ति के लिए भी सार्वजनिक क्षेत्र महत्त्वपूर्ण हैं।

7. प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा-सार्वजनिक क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का जनहित में विवेकपूर्ण ढंग से विदोहन सम्भव होता है।

8. रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना-बेरोजगारी को दूर करने में सहायता प्रदान करता है। बड़े-बड़े उद्यमों में रोजगार के अवसर पैदा करना सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को प्रकट करता है।

9. निर्यात को प्रोत्साहन-सार्वजनिक क्षेत्र देश के निर्यात को बढ़ाने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है।

10. सहायक उद्योगों का विकास सार्वजनिक क्षेत्र ने सहायक उद्योगों के विकास में सहायता प्रदान की है जिससे इन उद्योगों में लगे लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है।

11. निजी क्षेत्र के दोषों को दूर करने में सहायक-निजी क्षेत्र व्यक्तिगत लाभ पर आधारित होते हैं। लाभ कमाने के लिए निजी क्षेत्र प्रतिस्पर्धा को उत्पन्न करते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में अन्ततः उपभोक्ता अर्थात् सामान्यजन को नुकसान होता है। सार्वजनिक क्षेत्र जनकल्याण की दृष्टि से काम करता है। यह निजी क्षेत्र की लूट प्रवृत्ति को कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।

इस प्रकार भारत में मिश्रित स्वरूप वाली अर्थव्यवस्था ने सार्वजनिक उद्यमों में अर्थव्यवस्था के लिए मजबूत आधार-स्तम्भ के रूप में कार्य किया है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ-

  1. कार्यकुशलता का अभाव-सार्वजनिक क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर लाल फीताशाही और अफसरशाही पायी जाती है। यही कारण है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यकुशलता निजी क्षेत्र से कम रह जाती है।
  2. अनुशासनहीनता-सार्वजनिक क्षेत्र में प्रबन्ध की कमी के कारण प्रशासन में अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
  3. प्रतिस्पर्धा का अभाव-स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वस्तुओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए आवश्यक है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में एकाधिकार के कारण वस्तुओं की कीमतें तो बढ़ा दी जाती हैं लेकिन गुणवत्ता नहीं।
  4. लाभ का अंश बहुत कम-सार्वजनिक उद्यमों के पिछले सभी आँकड़े देखने में यह तथ्य उजागर हुआ है कि रेलवे, डाक-तार व अन्य कई सार्वजनिक प्रतिष्ठान भारी घाटे में चल रहे हैं। इनकी लाभ प्रत्याशा बहुत ही निम्न रही है।

प्रश्न 2.
मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोष-भारत में अपनाए गए विकास के मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोषों का दक्षिणपन्थी और वामपन्थी दोनों खेमों ने उल्लेख किया है-

  1. योजनाकारों ने निजी क्षेत्र को पर्याप्त जगह नहीं दी है और न ही निजी क्षेत्र की वृद्धि के लिए कोई उपाय किया गया है।
  2. विशाल सार्वजनिक क्षेत्र ने ताकतवर निहित स्वार्थों को खड़ा किया है और इन हितों ने निवेश के लिए लाइसेन्स तथा परमिट की प्रणाली खड़ी करके निजी पूँजी की राह में रोड़े अटकाए हैं।
  3. सरकार ने अपने नियन्त्रण में जरूरत से ज्यादा चीजें रखीं। इससे भ्रष्टाचार और अकुशलता बढ़ी है।
  4. सरकार ने केवल उन्हीं क्षेत्रों में हस्तक्षेप किया जहाँ निजी क्षेत्र जाने को तैयार नहीं थे। इस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को मुनाफा कमाने में मदद की।

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प्रश्न 3.
योजना आयोग का गठन किन कारणों से किया गया था? क्या वह अपने गठन के उद्देश्य में सफल रहा?
उत्तर:
योजना आयोग का गठन-भारत में योजना आयोग का गठन 15 मार्च, 1950 को किया गया। इसका गठन निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया गया था-

  1. पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना,
  2. गरीबी का उन्मूलन करना,
  3. सामाजिक समानता की स्थापना करना,
  4. उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रयोग करना,
  5. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास करना, तथा
  6. राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाना। लेकिन योजना आयोग अपने गठन के उद्देश्यों में पूर्णतः सफल नहीं हुआ है। वह अपने उद्देश्यों में आंशिक रूप से ही सफल हुआ है। बेरोजगारी की समस्या अभी भी बनी हुई है। देश में गरीबी विद्यमान है; गरीब और गरीब हुआ है तथा अमीर और अमीर बना है। अत: सामाजिक असमानता कम होने के स्थान पर बढ़ी है। देश में क्षेत्रीय विकास सन्तुलित न होकर असन्तुलित हुआ है।

प्रश्न 4.
हरित क्रान्ति के विषय में कौन-कौन सी आशंकाएँ थीं? क्या यह आशंकाएँ सच निकलीं?
उत्तर:
सामान्यत: हरित क्रान्ति के विषय में दो भ्रान्तियाँ थीं-

(1) हरित क्रान्ति से अमीरों तथा गरीबों में विषमता बढ़ जाएगी क्योंकि बड़े जमींदार ही इच्छित अनुदानों का क्रय कर सकेंगे और उन्हें ही हरित क्रान्ति का लाभ मिलेगा तथा वे और अधिक धनी हो जाएँगे। निर्धनों को हरित क्रान्ति से कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा।

(2) उन्नत बीज वाली फसलों पर जीव-जन्तु आक्रमण करेंगे। दोनों भ्रान्तियाँ सच नहीं हुई हैं क्योंकि सरकार ने छोटे किसानों को निम्न ब्याज दर पर ऋणों की व्यवस्था की और रासायनिक खादों पर आर्थिक सहायता दी ताकि वे उन्नत बीज तथा रासायनिक खाद सरलता से खरीद सकें और उनका उपयोग कर सकें। जीव-जन्तुओं के आक्रमणों को भारत सरकार द्वारा स्थापित अनुसन्धान संस्थाओं की सेवाओं से कम कर दिया गया।

प्रश्न 5.
मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ-भारत के विकास के लिए पूँजीवादी मॉडल और समाजवादी मॉडल दोनों ही मॉडल की कुछ एक बातों को ले लिया और उन्हें अपने देश में मिले-जुले रूप में लागू किया। इसी कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था कहा जाता है।
मिश्रित अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ-

  1. इसमें खेती, किसानी, व्यापार और उद्योगों का एक बड़ा भाग निजी क्षेत्र के हाथों में रहा।
  2. राज्य ने अपने हाथ में भारी उद्योग रखे और उसने आधारभूत ढाँचा प्रदान किया।
  3. राज्य में व्यापार का नियमन किया तथा कृषि क्षेत्र में कुछ बड़े हस्तक्षेप किए।

प्रश्न 6.
भारत में नियोजन की आवश्यकता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामान्यतः प्रशासकीय कार्यों के उद्देश्यों को निर्धारित करना तथा उनकी प्राप्ति के साधनों पर सुनियोजित ढंग से विचार करना नियोजन है। भारत में नियोजन की आवश्यकता मुख्यतः निम्नलिखित कारणों से अनुभव की जाती है-

  1. नियोजन के द्वारा आर्थिक तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न अंगों में समन्वय स्थापित करके समाज की उन्नति की जा सकती है।
  2. नियोजन द्वारा सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।
  3. देश में व्याप्त आर्थिक असन्तुलन को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने व लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने की दृष्टि से नियोजन का अत्यधिक महत्त्व समझा गया।
  4. आर्थिक नियोजन का महत्त्व इस दृष्टि से भी था कि समाजवादी लक्ष्यों को प्राप्त किया जाए।
  5. साधनों के उचित प्रयोग, वैज्ञानिक साधनों के प्रयोग तथा राष्ट्रीय पूँजी का सही मात्रा में सदुपयोग की दृष्टि से भी नियोजन की अत्यधिक आवश्यकता थी।

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प्रश्न 7.
भारत में नियोजन के महत्त्व एवं उपयोगिता का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में नियोजन का महत्त्व एवं उपयोगिता भारत में नियोजन के महत्त्व के सम्बन्ध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

  1. नियोजन में आर्थिक विकास का दायित्व राज्य ग्रहण कर लेता है तथा एक सामूहिक गतिविधि के रूप में योजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास का प्रारम्भ तथा उसका निर्देशन करता है।
  2. आधुनिक लोक-कल्याणकारी राज्य में आर्थिक संसाधनों के समानतापूर्ण वितरण में नियोजन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
  3. नियोजन खुले बाजार वाली अर्थव्यवस्थाओं में अस्थिरता की सम्भावनाओं को दूर करने में सहायक है।
  4. विदेशी व्यापार की दृष्टि से भी नियोजन उपयोगी है। नियोजन से विदेशी व्यापार को अपने देश के हितों की शर्तों पर किया जा सकता है।
  5. प्रभावी नियोजन द्वारा अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है।

प्रश्न 8.
भारत में योजना आयोग की स्थापना किस प्रकार हुई? इसके कार्यों के दायरे का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
योजना आयोग की स्थापना
योजना आयोग की स्थापना सन् 1950 में भारत सरकार ने एक सीधे-सादे प्रस्ताव के द्वारा की। योजना आयोग एक सलाहकारी भूमिका निभाता है। इसकी सिफारिशें तभी प्रभावी होती हैं, जब मन्त्रिमण्डल उन्हें मंजूरी प्रदान करे।

योजना आयोग के कार्य-योजना आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. देश के भौतिक संसाधनों और जनशक्ति का अनुमान लगाना तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुसार उन संसाधनों की वृद्धि की सम्भावनाओं का पता लगाना।
  2. देश के संसाधनों के सन्तुलित उपयोग के लिए अत्यन्त प्रभावकारी योजना बनाना।
  3. योजना की क्रियान्विति के चरणों का निर्धारण करना तथा उनके लिए संसाधनों का नियमन करना।

नोट-वर्तमान में योजना आयोग के स्थान पर ‘नीति आयोग’ कार्यरत है। योजना आयोग को समाप्त कर दिया गया है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
नियोजन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है। यह कार्यों को क्रमबद्ध रूप से सम्पादित करने की एक मानसिक पूर्व प्रवृत्ति है। यह कार्य करने से पहले सोचना है तथा अनुमानों के स्थान पर तथ्यों को ध्यान में रखकर काम करना है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था किस प्रकार की थी?
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत पिछड़ी हुई थी। इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था थी। अंग्रेजों ने भारतीय संसाधनों का इतना बुरी तरह शोषण किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह खराब हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था गतिहीन, अर्द्धसामन्ती तथा असन्तुलित अर्थव्यवस्था थी।

प्रश्न 3.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो समस्याएँ बताइए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की दो प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  1. सार्वजनिक क्षेत्र में लाल फीताशाही और नौकरशाही का बोलबाला है जिस कारण से सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यकुशलता निजी क्षेत्र की अपेक्षा बहुत कम है।
  2. भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्या प्रबन्ध व्यवस्था का कुशल न होना है।

प्रश्न 4.
सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. सार्वजनिक क्षेत्र एक व्यापक धारणा है जिसमें सरकार की समस्त आर्थिक तथा व्यावसायिक गतिविधियाँ शामिल की जाती हैं।
  2. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर पूर्ण रूप से राष्ट्रीय नियन्त्रण होता है और सार्वजनिक क्षेत्र में एकाधिकार की प्रवृत्ति पायी जाती है।

प्रश्न 5.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की उत्पत्ति के कोई चार कारण बताइए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की उत्पत्ति के चार प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. राज्य में जनता के कल्याण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना।
  2. बहु-उद्देशीय परियोजनाएँ सार्वजनिक क्षेत्र में ही स्थापित की जा सकती हैं।
  3. समाजवादी समाज की स्थापना करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को अपनाना अति आवश्यक है।
  4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता सार्वजनिक क्षेत्र के उदय का महत्त्वपूर्ण कारण है।

प्रश्न 6.
पी० सी० महालनोबिस कौन थे?
उत्तर:
पी० सी० महालनोबिस अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विख्यात वैज्ञानिक एवं सांख्यिकीविद् थे। इन्होंने सन् 1931 में भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना की थी। वे दूसरी पंचवर्षीय योजना के योजनाकार थे तथा तीव्र औद्योगीकरण और सार्वजनिक क्षेत्र की सक्रिय भूमिका के समर्थक थे।

प्रश्न 7.
जे० पी० कुमारप्पा कौन थे?
उत्तर:
जे० पी० कुमारप्पा का जन्म सन् 1892 में हुआ था। इनका वास्तविक नाम जे० सी० कार्नेलियस था। ये महात्मा गांधी के अनुयायी थे। इनकी कृति ‘इकोनॉमी ऑफ परमानैंस’ को बड़ी ख्याति मिली। योजना आयोग के सदस्य के रूप में भी इनको ख्याति प्राप्त हुई।

प्रश्न 8.
उड़ीसा में पोस्को लौह-इस्पात संयन्त्र की स्थापना का वहाँ के आदिवासियों ने क्यों विरोध किया था?
उत्तर:
आदिवासियों को इस बात का डर था कि यदि यहाँ उद्योगों की स्थापना हो गयी तो उन्हें अपने घर-बार से विस्थापित होना पड़ेगा तथा आजीविका छिन जाएगी।

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प्रश्न 9.
विकास की प्रक्रिया में किन बातों को शामिल किया जाता था?
उत्तर:
विकास की बात आते ही लोग ‘पश्चिम’ का हवाला देते थे कि ‘विकास’ का पैमाना ‘पश्चिमी’ देश हैं। विकास का अर्थ था अधिक-से-अधिक आधुनिक होना और आधुनिक होने का अर्थ था, पश्चिमी औद्योगिक देशों की तरह होना। विकास के लिए प्रत्येक देश को पश्चिमी देशों की तरह आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से गुजरना होगा। आधुनिकीकरण को संवृद्धि, भौतिक प्रगति और वैज्ञानिक तर्कबुद्धि का पर्यायवाची माना जाता था।

प्रश्न 10.
योजना आयोग के प्रस्ताव में किन नीतियों को अमल में लाने की बात कही गयी?
उत्तर:
योजना आयोग के प्रस्ताव में निम्नलिखित नीतियों को अमल में लाने की बात कही गयी-

  1. स्त्री और पुरुष सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधनों का बराबर-बराबर अधिकार हो।
  2. समुदाय के भौतिक संसाधनों की मिल्कियत और नियन्त्रण को इस तरह बाँटा जाएगा कि उससे सर्वसामान्य की भलाई हो।

प्रश्न 11.
‘बॉम्बे प्लान’ किसे कहा जाता था?
उत्तर:
भारत में सन् 1944 में उद्योगपतियों का एक वर्ग एकजुट हुआ। इस समूह ने देश में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का एक संयुक्त प्रस्ताव तैयार किया। इसे ‘बॉम्बे प्लान’ कहा जाता है। ‘बॉम्बे प्लान’ की मंशा थी कि सरकार औद्योगिक और अन्य आर्थिक निवेश के क्षेत्र में बड़े कदम उठाए।

प्रश्न 12.
दूसरी पंचवर्षीय योजना के प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. जनसाधारण के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने हेतु राष्ट्रीय आय में 25% की वृद्धि करना।
  2. भारत में समाजवादी व्यवस्था के अनुरूप समाज बनाने के लिए उचित व्यवस्था को प्रोन्नत करना।
  3. आधारभूत उद्योगों को प्राथमिकता देकर तीव्र औद्योगीकरण करना।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत में योजना आयोग का गठन किया गया
(a) 1950 ई० में
(b) 1951 ई० में
(c) 1952 ई० में
(d) 1953 ई० में।
उत्तर:
(a) 1950 ई० में।

प्रश्न 2.
पहली पंचवर्षीय योजना की अवधि है-
(a) 1951-56
(b) 1952-57
(c) 1947-52
(d) 1955-60.
उत्तर:
(a) 1951-56

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के बाद भारत में किस आर्थिक प्रणाली को अपनाया गया-
(a) पूँजीवादी अर्थव्यवस्था
(b) समाजवादी अर्थव्यवस्था
(c) मिश्रित अर्थव्यवस्था
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) मिश्रित अर्थव्यवस्था।

प्रश्न 4.
मिश्रित अर्थव्यवस्था प्रमुख रूप से है-
(a) पूँजीवादी अर्थव्यवस्था
(b) साम्यवादी अर्थव्यवस्था
(c) निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों का उत्पादन में सहयोग
(d) कृषि एवं उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था।
उत्तर:
(c) निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों का उत्पादन में सहयोग।

प्रश्न 5.
पहली पंचवर्षीय योजना में सार्वजनिक बल किस पर दिया गया-
(a) कृषि
(b) उद्योग
(c) पर्यटन
(d) यातायात एवं संचार।
उत्तर:
(a) कृषि।

प्रश्न 6.
भारत की किस पंचवर्षीय योजना में प्रति व्यक्ति आय में सर्वाधिक वृद्धि रही-
(a) पहली में
(b) दूसरी में
(c) तीसरी में
उत्तर:
(a) पहली में

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance (एक दल के प्रभुत्व का दौर)

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
सही विकल्प को चुनकर खाली जगह भरें-
(क) 1952 के पहले आम चुनाव में लोकसभा के साथ-साथ …….. के लिए भी चुनाव कराए गए थे। (भारत के राष्ट्रपति पद/राज्य विधानसभा/राज्यसभा/प्रधानमन्त्री)
(ख) ……….. लोकसभा के पहले आम चुनाव में 16 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/भारतीय जनसंघ/भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी/भारतीय जनता पार्टी)
(ग) ……… स्वतन्त्र पार्टी का एक निर्देशक सिद्धान्त था। (कामगार तबके का हित/रियासतों का बचाव/राज्य के नियन्त्रण से
मुक्त अर्थव्यवस्था/संघ के भीतर राज्यों की स्वायत्तता)।
उत्तर:
(क) राज्य विधानसभा,
(ख) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी,
(ग) राज्य के नियन्त्रण में मुक्त अर्थव्यवस्था।

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प्रश्न 2.
यहाँ दो सूचियाँ दी गई हैं। पहले में नेताओं के नाम दर्ज हैं और दूसरे में दलों के। दोनों सूचियों में मेल बैठाएँ
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance 1
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance 2

प्रश्न 3.
एकल पार्टी के प्रभुत्व के बारे में यहाँ चार कथन, लिखे गए हैं। प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगाएँ
(क) विकल्प के रूप में किसी मजबूत राजनीतिक दल का अभाव एकल पार्टी-प्रभुत्व का कारण था।
(ख) जनमत की कमजोरी के कारण एक पार्टी का प्रभुत्व कायम हुआ।
(ग) एकल पार्टी प्रभुत्व का सम्बन्ध राष्ट्र के औपनिवेशिक अतीत से है।
(घ) एकल पार्टी-प्रभुत्व से देश में लोकतान्त्रिक आदर्शों के अभाव की झलक मिलती है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) सही,
(घ) गलत।

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प्रश्न 4.
अगर पहले आम चुनाव के बाद भारतीय जनसंघ अथवा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी होती तो किन मामलों में इस सरकार ने अलग नीति अपनाई होती? इन दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों के बीच तीन अन्तरों का उल्लेख करें।
उत्तर:
यदि पहले आम चुनावों के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी या जनसंघ की सरकार बनती तो विदेश नीति के मामलों में इस प्रकार से अलग नीति अपनायी गयी होती। दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों में तीन प्रमुख अन्तर अग्रलिखित होते
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 2 Era of One Party Dominance 3

प्रश्न 5.
कांग्रेस किन अर्थों में एक विचारधारात्मक गठबन्धन थी? कांग्रेस में मौजूद विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थितियों का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारत जब स्वतन्त्र हुआ तब तक कांग्रेस एक गठबन्धन का आकार ले चुकी थी तथा इसमें सभी प्रकार की विचारधाराओं का समर्थन करने वाले विचारकों व समूहों ने अपने को कांग्रेस के साथ मिला दिया। कांग्रेस को निम्नांकित अर्थों में एक विचारधारात्मक गठबन्धन की संज्ञा दी जा सकती है-

(1) प्रारम्भ में ही अनेक समूहों ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ समाहित कर लिया। अनेक बार किसी समूह ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ एकसार नहीं किया तथा अपने-अपने विश्वासों पर विचार करते हुए एक व्यक्ति या समूह के रूप में कांग्रेस के भीतर बने रहे। इस अर्थ में कांग्रेस एक विचारधारात्मक गठबन्धन था।

(2) सन् 1924 में भारतीय साम्यवादी दल की स्थापना हुई। सरकार ने इसे प्रतिबन्धित कर दिया। यह दल सन् 1942 तक कांग्रेस को एक गुट के रूप में रहकर ही काम करता रहा। सन् 1942 में इस गुट को कांग्रेस से अलग करने के लिए सरकार ने इस पर से प्रतिबन्ध हटाया। कांग्रेस ने शान्तिवादी और क्रान्तिकारी, रूढ़िवादी और परिवर्तनकारी, गरमपन्थी और नरमपन्थी, दक्षिणपन्थी और वामपन्थी तथा प्रत्येक धारा के मध्यमार्गियों को समाहित कर लिया गया।

(3) कांग्रेस ने समाजवादी समाज की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। इसी कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् कई समाजवादी पार्टियाँ बनीं लेकिन विचारधारा के आधार पर वे अपनी स्वतन्त्र पहचान नहीं स्थापित कर सकी तथा कांग्रेस के प्रभुत्व व वर्चस्व को नहीं हिला सकीं। इस प्रकार कांग्रेस एक ऐसा मंच था जिस पर अनेक हित समूह और राजनीतिक दल एकत्रित होकर राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते थे। आजादी से पहले अनेक संगठन और पार्टियों को कांग्रेस में रहने की अनुमति प्राप्त थी।

(4) कांग्रेस में अनेक ऐसे समूह थे जिनके अपने स्वतन्त्र संविधान थे और संगठनात्मक ढाँचा भी अलग था जैसे कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी। फिर भी उन्हें कांग्रेस के एक गुट में बनाए रखा गया। वर्तमान में विभिन्न दलों के गठबन्धन बनते हैं और सत्ता की प्राप्ति के प्रयत्न करते हैं परन्तु स्वतन्त्रता के समय कांग्रेस ही एक प्रकार से एक विचारधारात्मक गठबन्धन था।
जहाँ तक कांग्रेस में मौजूद विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थिति के उल्लेख का सम्बन्ध है इसके लिए निम्नलिखित तथ्य प्रकाश में लाए जा सकते हैं-

(i) कांग्रेस का उदय सन् 1885 में हुआ था। उस समय यह नवशिक्षित, कार्यशील और व्यापारिक वर्गों का मात्र हित-समूह थी परन्तु बीसवीं सदी में इसने जन आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इसी कारण से कांग्रेस ने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया और राजनीतिक व्यवस्था में इसका वर्चस्व स्थापित हुआ।

(ii) प्रारम्भ में कांग्रेस में अंग्रेजी संस्कृति में विश्वास रखने वाले उच्च वर्ग के शहरी लोगों का वर्चस्व था। परन्तु कांग्रेस ने जब भी सविनय अवज्ञा जैसे आन्दोलन चलाए उसमें सामाजिक आधार बढ़ा। कांग्रेस ने परस्पर हितों के अनेक समूहों को एक साथ जोड़ा। कांग्रेस में किसान व उद्योगपति, शहर के नागरिक तथा गाँव के निवासी मजदूर और मालिक तथा मध्य, निम्न व उच्च वर्ग आदि सभी को स्थान मिला।

(iii) धीरे-धीरे कांग्रेस का नेतृत्व विस्तृत हुआ तथा यह अब केवल उच्च वर्ग या जाति के पेशेवर लोगों तक ही सीमित नहीं रहा। इसमें कृषि व कृषकों की बात करने वाले तथा गाँव की ओर रुझान रखने वाले नेता भी उभरे। स्वतन्त्रता के समय तक कांग्रेस एक सामाजिक गठबन्धन का रूप धारण कर चुकी थी तथा वर्ग, जाति, धर्म, भाषा व अन्य हितों के आधार पर इस सामाजिक गठबन्धन से भारत की विविधता की झलक प्राप्त होती थी।

प्रश्न 6.
क्या एकल पार्टी-प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतान्त्रिक चरित्र पर खराब असर हुआ?
उत्तर:
एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति की लोकतान्त्रिक प्रवृत्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा प्रभुत्व प्राप्त दल विपक्षी पार्टियों की आलोचना की परवाह न करके मनमाने ढंग से शासन चलाने लगता है व लोकतन्त्र को तानाशाही शासन में बदलने की सम्भावना विकसित होती है, परन्तु हमारे देश में ऐसा नहीं हुआ। पहले तीन आम-चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व के भारतीय राजनीति पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़े तथा इसने भारतीय लोकतन्त्र लोकतान्त्रिक राजनीति व लोकतान्त्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इस प्रकार एकल पार्टी-प्रभुत्व प्रणाली के अच्छे परिणामों की पुष्टि निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर होती है-

  1. कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान किए गए वायदों को पूर्ण करने में सफल रही। जनमानस में कांग्रेस एक विश्वसनीय दल था, जनमानस की आशाएँ उसी से जुड़ी थीं, अतः मतदाताओं ने उसे ही चुना।
  2. तत्कालीन भारत में लोकतन्त्र और संसदीय शासन-प्रणाली अपनी शैशवावस्था में थी। यदि उस समय कांग्रेस का प्रभुत्व न होता और सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा होती तो जनसाधारण का विश्वास लोकतन्त्र और संसदीय शासन-प्रणाली में उठ जाता।
  3. तत्कालीन मतदाता राजनीतिक विचारधाराओं के सम्बन्ध में पूर्ण शिक्षित नहीं था, उसका मात्र 15% भाग ही शिक्षित था। मतदाताओं को कांग्रेस में ही आस्था थी। अतः जनता का मानना था कि कांग्रेस से ही जनकल्याण की आशा की जा सकती है।
  4. प्रभुत्व की स्थिति प्राप्त होने के कारण विपक्षी दलों द्वारा सरकार की आलोचना होने पर भी सरकार अपना कार्य करती रही। इसने भारतीय लोकतन्त्र, संसदीय शासन-प्रणाली व भारतीय राजनीति की लोकतान्त्रिक प्रकृति को सुदृढ़ करने में योगदान दिया।

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प्रश्न 7.
समाजवादी दलों और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच के तीन अन्तर बताएँ। इसी तरह भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी के बीच के तीन अन्तरों का उल्लेख करें।
उत्तर:
समाजवादी दल और कम्युनिस्ट पार्टी में अन्तर
समाजवादी दल की जड़ों को स्वतन्त्रता से पहले के उस समय में ढूँढा जा सकता है जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जन-आन्दोलन चला रही थी। वहीं दूसरी ओर 1920 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में भारत के विभिन्न भागों में कम्युनिस्ट ग्रुप (साम्यवादी समूह) उभरे। इन दोनों पार्टियों के बीच निम्नलिखित अन्तर हैं-
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भारतीय जनसंघ और स्वतन्त्र पार्टी में अन्तर

भारतीय जनसंघ का गठन सन् 1951 में हुआ था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक अध्यक्ष थे। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में जमीन की हदबन्दी, खाद्यान्न के व्यापार, सरकारी अधिग्रहण और सहकारी खेती का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद अगस्त 1959 में स्वतन्त्र पार्टी अस्तित्व में आई। इन दोनों : पार्टियों में प्रमुख अन्तर अग्रलिखित हैं-
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प्रश्न 8.
भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में एक खास समय तक एक पार्टी का प्रभुत्व रहा।बताएँ कि मैक्सिको में स्थापित एक पार्टी का प्रभत्व कैसे भारत की एक पार्टी के प्रभत्व से अलग था।
उत्तर:
इंस्टीट्यूशनल रिवोल्यूशनरी पार्टी जिसे स्पेनिश में पी० आर० आई० कहा जाता है का मैक्सिको में लगभग 60 वर्षों तक शासन रहा। इस पार्टी की स्थापना सन् 1929 में हुई थी तब इसे ‘रिवोल्यूशनरी पार्टी’ कहा जाता था। मूलत: पी० आर० आई० राजनेता व सैनिक नेता, मजदूर तथा किसान संगठन व अनेक राजनीतिक दलों सहित विभिन्न किस्म के हितों का संगठन था। समय बीतने के साथ-साथ पी० आर० आई० के संस्थापक प्लूटार्क इलियास कैलस ने इसके संगठन पर कब्जा कर लिया व इसके पश्चात् नियमित रूप से होने वाले चुनावों में प्रत्येक बार पी० आर० आई० ही विजय प्राप्त करती रही। शेष पार्टियाँ नाममात्र की थी जिससे कि शासक दल को वैधता प्राप्त होती रहे। चुनाव के नियम भी इस प्रकार तय किए गए कि पी० आर० आई० की जीत हर बार निश्चित हो सके। शासक दल ने अक्सर चुनावों में हेर-फेर और धाँधली की। पी० आर० आई० के शासन को ‘परिपूर्ण तानाशाही’ कहा जाता है। अन्ततः सन् 2000 में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में इस पार्टी को पराजय का मुँह देखना पड़ा। मैक्सिको अब एक पार्टी के प्रभुत्व वाला देश नहीं रहा फिर भी अपने प्रभुत्व के काल में पी० आर० आई० ने जो तरीके अपनाए थे उनका लोकतन्त्र की सेहत पर बहुत प्रभाव पड़ा। मुक्त और निष्पक्ष चुनाव की बात पर अब भी वहाँ के नागरिकों का पूर्ण विश्वास नहीं जम पाया है।

भारत में स्वतन्त्रता संघर्ष से लेकर लगभग सन् 1967 तक देश की राजनीति पर एक ही पार्टी (कांग्रेस) का प्रभुत्व रहा। यहाँ हम मैक्सिको की तुलना भारत में कांग्रेस के प्रभुत्व से करते हैं तो दोनों में अनेक प्रकार के अन्तर मिलते हैं जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं-

(1) भारत और मैक्सिको में एकल पार्टी का प्रभुत्व सम्बन्धी अन्तर यह है कि भारत में कांग्रेस का प्रभुत्व एक साथ नहीं रहा, जबकि मैक्सिको में पी० आर० आई० का शासन निरन्तर 60 वर्षों तक चला।

(2) भारत और मैक्सिको में एक पार्टी के प्रभुत्व के मध्य एक बड़ा अन्तर यह है कि मैक्सिको में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतन्त्र की कीमत पर कायम हुआ, जबकि भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ। भारत में कांग्रेस पार्टी के साथ-साथ प्रारम्भ से ही अनेक पार्टियाँ चुनाव में राष्ट्रीय स्तर व क्षेत्रीय स्तर के रूप में भाग लेती रहीं जबकि मैक्सिको में ऐसा नहीं हुआ।

(3) भारत में प्रजातान्त्रिक संस्कृति व प्रजातान्त्रिक प्रणाली के अन्तर्गत कांग्रेस का प्रभुत्व रहा जबकि मैक्सिको में शासक दल की तानाशाही के कारण इसका प्रभुत्व रहा।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के द्वारा स्पष्ट होता है कि भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में लम्बे समय तक एक ही पार्टी का प्रभुत्व रहा। परन्तु कुछ दृष्टियों में दोनों के प्रभुत्व में अन्तर था।

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प्रश्न 9.
भारत का एक राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों) और उसमें निम्नलिखित को चिह्नित कीजिए
(क) ऐसे दो राज्य जहाँ सन् 1952-67 के दौरान कांग्रेस सत्ता में नहीं थी।
(ख)दो ऐसे राज्य जहाँ इस पूरी अवधि में कांग्रेस सत्ता में रही।
उत्तर:
(क) (i) जम्मू और कश्मीर,
(ii) केरल।

(ख) (i) महाराष्ट्र,
(ii) मध्य प्रदेश।
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प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़कर इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
कांग्रेस के संगठनकर्ता पटेल कांग्रेस को दूसरे राजनीतिक समूह में निसंग रखकर उसे एक सर्वांगसम तथा अनुशासित पार्टी बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि कांग्रेस सबको समेटकर चलने वाला स्वभाव छोड़े और अनुशासित कॉडर से युक्त एक सगुंफित पार्टी के रूप में उभरे। ‘यथार्थवादी’ होने के कारण पटेल व्यापकता की जगह अनुशासन को ज्यादा तरजीह देते थे। अगर “आन्दोलन को चलाते चले जाने” के बारे में गांधी के ख्याल हद से ज्यादा रोमानी थे तो कांग्रेस को किसी एक विचारधारा पर चलने वाली अनुशासित तथा धुरन्धर राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलने की पटेल की धारणा भी उसी तरह कांग्रेस की उस समन्वयवादी भूमिका को पकड़ पाने में चूक गई जिसे कांग्रेस को आने वाले दशकों में निभाना था। – रजनी कोठारी
(क) लेखकक्यों सोच रहा है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसमतथाअनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए?
(ख) शुरुआती सालों में कांग्रेस द्वारा निभाई गई समन्वयवादी भूमिका के कुछ उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
(क) लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस को एक सर्वांगसम तथा अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए क्योंकि एक अनुशासित पार्टी में किसी विवादित विषय पर स्वस्थ विचार-विमर्श सम्भव नहीं हो पाता, जो कि देश एवं लोकतन्त्र के लिए अच्छा होता है। लेखक का यह विचार है कि कांग्रेस पार्टी में सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं एवं विचारधाराओं के नेता शामिल हैं, उन्हें अपनी बात कहने का पूरा हक है तभी देश का वास्तविक लोकतन्त्र उभरकर सामने आएगा इसलिए लेखक कहता है कि कांग्रेस पार्टी को सर्वांगसम एवं अनुशासित पार्टी नहीं होना चाहिए।

(ख) कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में कई विषयों में समन्वयकारी भूमिका निभाई। इसने देश के नागरिकों एवं ब्रिटिश सरकार के मध्य एक कड़ी का कार्य किया। कांग्रेस ने अपने अन्दर क्रान्तिकारी और शान्तिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपन्थी और नरमपन्थी, दक्षिणपन्थी, वामपन्थी और हर धारा के मध्यवर्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते थे। इसी प्रकार कांग्रेस समाज के प्रत्येक वर्ग-कृषक, मजदूर, व्यापारी, वकील, उद्योगपति, सभी को साथ लेकर चली। इसे सिक्ख, मुस्लिम जैसे अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों, ब्राह्मण, राजपूत व पिछड़ा वर्ग सभी का समर्थन प्राप्त हुआ।

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UP Board Class 12 Civics Chapter 2 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हमारे लोकतन्त्र में ही ऐसी कौन-सी खूबी है? आखिर देर-सबेर हर देश ने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपना ही लिया है। है न?
उत्तर:
भारत में राष्ट्रवाद की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए दुनिया के अन्य राष्ट्रों (को उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद हुए) ने भी देर-सबेर लोकतान्त्रिक ढाँचे को अपनाया। लेकिन भारत की चुनौतियों से सबक सीखते हुए उन्होंने राष्ट्रीय एकता की स्थापना को प्रथम प्राथमिकता दी और इसके बाद धीरे-धीरे लोकतन्त्र की स्थापना करने का निर्णय लिया। हमारे लोकतन्त्र की खूबी यह थी कि हमारे स्वतन्त्रता संग्राम की गहरी प्रतिद्वन्द्विता लोकतन्त्र के साथ थी। हमारे नेता लोकतन्त्र में राजनीति की निर्णायक भूमिका को लेकर सचेत थे। वे राजनीति को समस्या के रूप में नहीं देखते थे, वे राजनीति को समस्या के समाधान का उपाय मानते थे। भारतीय नेताओं ने विभिन्न समूहों के हितों के मध्य टकराहट को दूर करने का एकमात्र उपाय लोकतान्त्रिक राजनीति को माना। इसीलिए हमारे नेताओं ने इसी रास्ते को चुना।

प्रश्न 2.
क्या आप उन जगहों को पहचान सकते हैं जहाँ कांग्रेस बहुत मजबूत थी? किन प्रान्तों में दूसरी पार्टियों को ज्यादातर सीटें मिलीं? उत्तर:
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नोट-यह नक्शा किसी पैमाने के हिसाब से बनाया गया भारत का मानचित्र नहीं है। इसमें दिखाई गई भारत की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को प्रामाणिक सीमा रेखा न माना जाए।

  1. 1952 से 1967 के दौरान कांग्रेस शासित राज्य थे-पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, मणिपुर, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, मैसूर, पाण्डिचेरी, मद्रास आदि।
  2. जिन राज्यों में अन्य दलों को सीटें प्राप्त हुईं वे थे-केरल में केरल-डेमोक्रेटिक सेफ्ट फ्रंट (1957-1959) तथा जम्मू और कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी।

प्रश्न 3.
पहले हमने एक ही पार्टी के भीतर गठबन्धन देखा और अब पार्टियों के बीच गठबन्धन होता देख रहे हैं। क्या इसका मतलब यह हुआ कि गठबन्धन सरकार 1952 से ही चल रही है?
उत्तर:
भारत में ‘पार्टी में गठबन्धन’ और ‘पार्टियों का गठबन्धन’ का सिलसिला 1952 से ही चला आ रहा है लेकिन इस गठबन्धन के स्वरूप एवं प्रकृति में व्यापक अन्तर है।

आजादी के समय एक पार्टी अर्थात् कांग्रेस के अन्दर गठबन्धन था। इस पार्टी में प्रारम्भ में नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारियों का बोलबाला रहा। इसके पश्चात् उद्योगपति, किसान, मजदूरों, निम्न और उच्च वर्ग के लोगों को जगह मिली। कांग्रेस ने अपने अन्दर क्रान्तिकारी और शान्तिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपन्थी और नरमपन्थी, दक्षिणपन्थी, वामपन्थी और हर प्रकार की विचारधाराओं के लोगों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह हित और राजनीतिक दल आ जुटते थे और राजनीतिक कार्यों में भाग लेते थे। कांग्रेस पार्टी ने इन विभिन्न वर्गों, समुदायों एवं विचारधारा के लोगों में आम सहमति बनाए रखी।

लेकिन सन् 1967 के बाद अनेक राजनीतिक दलों का विकास हुआ और गठबन्धन की राजनीति शुरू हुई जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों के समर्थन के आधार पर सरकारों का गठन किया जाने लगा। लेकिन यह गठबन्धन निजी स्वार्थों व शर्तों पर आधारित होते हैं जिनमें परस्पर आम सहमति कायम रखना बहुत ही कठिन कार्य है। यही कारण है कि वर्तमान बहुदलीय व्यवस्था में राजनीतिक स्थायित्व का अभाव पाया जाता है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 2 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रथम तीन आम चुनावों के सन्दर्भ में एक दल की प्रधानता का वर्णन कीजिए तथा इस प्रधानता के कारकों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत में सर्वप्रथम सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। अपने प्रारम्भिक रूप में यह नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का हित समूह भर थी, लेकिन 20वीं सदी में इसने जन-आन्दोलन का रूप धारण कर लिया और इसने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया। स्वतन्त्रता के बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस का वर्चस्व लगातार तीन दशकों तक कायम रहा।

भारत में एक दल की प्रधानता के कारण

भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् चुनावों में एक दल के प्रभुत्व के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. कांग्रेस पार्टी को सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व प्राप्त था-कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि इसमें देश के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था। कांग्रेस पार्टी उदारवादी, गरमपन्थी, दक्षिणपन्थी, साम्यवादी तथा मध्यमार्गी नेताओं का एक महान मंच था जिसके कारण लोग इसी पार्टी को मत दिया करते थे।

2. अधिकांश राजनीतिक दलों का निर्माण कांग्रेस पार्टी से ही हुआ-स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रारम्भिक वर्षों में जितने भी विरोधी राजनीतिक दल थे उनमें से अधिकांश राजनीतिक दल कांग्रेस से ही निकले; जैसे-सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी, जनसंघ, राम राज्य परिषद् तथा हिन्दू महासभा आदि।

3. कांग्रेस का चामत्कारिक नेतृत्व-कांग्रेस में पं० जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्माई और लोकप्रिय नेता थे। नेहरू ने कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान की अगुवाई की तथा पूरे देश का दौरा किया। वह किसी भी प्रतिद्वन्द्वी से चुनावी दौड़ में बहुत आगे रहे। फलत: कांग्रेस को तीनों प्रथम आम चुनावों में अभूतपूर्व सफलता मिली।

4. राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत-राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के चामत्कारिक नेतृत्व में भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन का केन्द्र भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रही। इसलिए कांग्रेस पार्टी को स्वतन्त्रता संग्राम की विरासत प्राप्त थी। तब के दिनों में यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन सम्पूर्ण भारत में था। इसका लाभ चुनावों में कांग्रेस पार्टी को मिला।

5. गुटों में तालमेल और सहनशीलता–कांग्रेस के गठबन्धनी स्वभाव ने असें तक इसे असाधारण ताकत दी। गठबन्धन के कारण कांग्रेस सर्व-समावेशी स्वभाव और सुलह समझौते के द्वारा गुटों के सन्तुलन कायम करती रही। अपने गठबन्धनी स्वभाव के कारण कांग्रेस विभिन्न गुटों के प्रति सहनशील थी और इस स्वभाव से विभिन्न गुटों को बढ़ावा भी मिला। इसलिए विभिन्न हित और विचारधाराओं की नुमाइंदगी कर रहे नेता कांग्रेस के भीतर ही बने रहे। इस तरह कांग्रेस एक भारी-भरकम मध्यमार्गी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आती थी। दूसरी पार्टियाँ कांग्रेस के इस या उस गुट को प्रभावित करने की कोशिश करती थीं। इस तरह वे हाशिये पर ही रहकर नीतियों और फैसलों को अप्रत्यक्ष रीति से प्रभावित कर पाती थीं। अत: वे कांग्रेस का कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं कर पाती थीं। फलतः कांग्रेस को प्रथम तीन चुनावों तक अभूतपूर्व सफलता मिलती रही।

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प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाने के प्रतिकूल कौन-कौन सी चुनौतियाँ थीं? विस्तारपूर्वक उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्र भारत का जन्म अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में हुआ। देश के सामने प्रारम्भ से ही राष्ट्र-निर्माण की चुनौती थी। ऐसी अनेक चुनौतियों की चपेट में आकर कई अन्य देशों के नेताओं ने फैसला किया कि उनके देश में अभी लोकतन्त्र को ही नहीं अपनाया जा सकता है। इन नेताओं ने कहा कि राष्ट्रीय एकता हमारी पहली प्राथमिकता है और लोकतन्त्र को अपनाने से मतभेद और संघर्ष को बढ़ावा मिलेगा। उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद हुए कई देशों में इसी कारण अलोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था कायम हुई। इस अलोकतान्त्रिक शासनव्यवस्था के कई रूप थे। अलोकतान्त्रिक शासन व्यवस्थाओं की शुरुआत इस वायदे से हुई कि शीघ्र ही लोकतन्त्र कायम कर दिया जाएगा।

भारत में भी परिस्थितियाँ बहुत अलग नहीं थीं, परन्तु स्वतन्त्र भारत के नेताओं ने अपने लिए कहीं अधिक कठिन रास्ता चुनने का फैसला लिया। नेताओं ने कोई और रास्ता चुना होता तो वह अचम्भित करने वाली बात होती क्योंकि हमारे स्वतन्त्रता-संग्राम की गहरी प्रतिबद्धता लोकतन्त्र से थी। हमारे नेताओं ने राजनीति को समस्या के रूप में नहीं देखा तथा वे लोकतन्त्र में राजनीति की निर्णायक भूमिका को लेकर सचेत थे। वे राजनीति को समस्या के समाधान का उपाय मानते थे। किसी भी समाज में कई समूह होते हैं, इनकी आकांक्षाएँ अक्सर अलग-अलग एक-दूसरे के विपरीत होती हैं। हर समाज के लिए यह फैसला करना आवश्यक होता है कि उसका शासन कैसे चलेगा और वह किन कायदे-कानूनों पर अमल करेगा। सत्ता और प्रतिस्पर्धा राजनीति की दो सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण चीजें हैं। परन्तु राजनीतिक गतिविधि का उद्देश्य जनहित का फैसला करना और उस पर अमल करना होता है। अतः हमारे नेताओं ने लोकतान्त्रिक राजनीति के रास्ते को चुनने का फैसला किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय निम्नलिखित परिस्थितियाँ थीं जो लोकतन्त्र की सफलता में बाधक या चुनौती थीं-

1. निरक्षरता-लोकतन्त्र की सफलता शिक्षित समाज पर ही निर्भर करती है। स्वतन्त्रता के समय, सन् 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में साक्षरता की दर 18 प्रतिशत थी तथा इसमें भी महिला साक्षरता का 8-9 प्रतिशत था। इतनी संख्या में अशिक्षित जनता को मत देने का अधिकार बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति अपने मत का दुरुपयोग भी कर सकते हैं, उनका वोट खरीदा भी जा सकता है। अशिक्षित व्यक्ति राजनीतिक विचारधाराओं व शासन की वास्तविकताओं को भली-भाँति समझ नहीं पाता तथा राजनीतिक दलों के झांसे में आ जाता है। इस तरह निरक्षरता एक बड़ी चुनौती थी।

2. निर्धनता—ब्रिटिश शासन काल के दौरान अंग्रेजों द्वारा देश का अत्यधिक शोषण किया गया था। स्वतन्त्रता के समय देश की अर्थव्यवस्था अत्यन्त दयनीय थी। इस प्रकार की स्थिति में गरीब मतदाताओं के प्रभावित होने की गुंजाइश थी। इनके वोट को खरीदा भी जा सकता था।

3. जातिवाद-भारत के सम्पूर्ण राज्यों की राजनीति जातिवाद के कुप्रभाव से प्रभावित थी। जातिवाद लोगों की आँखों पर पट्टी बाँध देता है तथा उन्हें योग्य व चरित्रवान व्यक्ति दिखाई नहीं देता। केवल अपनी जाति का ही उम्मीदवार दिखाई देता है चाहे वह कैसा भी क्यों न हो। जातिवाद के आधार पर ही राजनीतिक दल टिकट देते हैं तथा मतदाता भी इसी आधार पर मतदान करते हैं। जातिवाद के कारण कभी-कभी हिंसक घटनाएँ भी हो जाती हैं।

4. क्षेत्रवाद-क्षेत्रवाद की भावना संकीर्ण विचारों व मानसिकता पर आधारित होती है। क्षेत्रीय आधार पर नई-नई क्षेत्रीय पार्टियों का निर्माण किया जाता है। ये पार्टियाँ क्षेत्रवाद को बढ़ावा देती हैं। वर्तमान में गठबन्धन की राजनीति ने इन क्षेत्रीय दलों के महत्त्व में अप्रतिम वृद्धि की है।

5. साम्प्रदायिकता-साम्प्रदायिकता धार्मिक आधार पर एक संकीर्ण विचारधारा है तथा लोकतन्त्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है। हमारे देश में अनेक दलों जैसे हिन्दू सभा, मुस्लिम लीग, अकाली दल, शिव सेना, विश्व हिन्दू परिषद् आदि का निर्माण साम्प्रदायिक आधार पर किया गया। तमिलनाडु के डी० एम० के० तथा ए० आई० ए० डी० एम० के० गैर-ब्राह्मण लोगों की पार्टियाँ हैं। राजनीतिक दल साम्प्रदायिक आधार पर मतदाताओं को प्रभावित करते हैं जो कि लोकतन्त्र की सफलता में बाधक है।

6. स्त्री-पुरुष असमानता-लोकतन्त्र सभी नागरिकों के लिए समानता के सिद्धान्त पर आधारित है परन्तु भारतीय समाज में स्त्रियों को पुरुषों के समान नहीं समझा जाता था तथा उन्हें अपनी इच्छाएँ बताने की भी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं थी। अतः वे राजनीति में कम भाग लेती थीं तथा परिवार के पुरुषों की इच्छाओं के अनुरूप ही मतदान करती थीं।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता पूर्व से सन् 1967 तक मिली-जुली सरकारों के उदाहरण प्रस्तुत कीजिए तथा बताइए कि भारतीय राज्यों में मिली-जुली सरकारों की राजनीति सन् 1967 के पश्चात् क्यों प्रारम्भ हुई।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व मिली-जुली सरकार भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में मिली-जुली सरकार के गठन का इतिहास स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व से प्रारम्भ होता है। स्वतन्त्र भारत में नियमों व विधानों के निर्माण हेतु तथा नवीन संविधान की रचना हेतु कैबिनेट मिशन के द्वारा एक अन्तरिम सरकार का गठन किया गया था।

इस सरकार में भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों, कांग्रेस, मुस्लिम लीग, अकाली दल आदि को शामिल किया गया था। इस अन्तरिम सरकार के सभी दलों को मिलाकर कुल 14 प्रतिनिधि शामिल किए गए जिसमें कांग्रेस के 6, मुस्लिम लीग के 5, अकाली दल का 1, एंग्लो इण्डियन समुदाय का 1 तथा पारसी समुदाय का 1 प्रतिनिधि था। अन्तरिम सरकार का अध्यक्ष गवर्नर जनरल को बनाया गया। भारतीय प्रशासन के सभी विभाग अन्तरिम सरकार को सौंपे गए। इस अन्तरिम सरकार के प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू थे। इस अन्तरिम सरकार ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तब तक यह कार्य किया जब तक कि संविधान लागू नहीं हुआ।

1952 से 1967 तक मिली-जुली सरकार भारत के प्रथम आम-चुनाव 1952 में हुए। इन चुनावों में चुनाव आयोग ने 14 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्रदान की। इन चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ, क्योंकि उस समय राजनीतिक दल कांग्रेस के समान व्यापक स्तर के नहीं थे फिर भी पं० जवाहरलाल नेहरू ने डॉ० बी० आर० अम्बेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोपाला स्वामी आयंगर जैसे गैर-कांग्रेसी सदस्यों को भी अपने मन्त्रिमण्डल में शामिल किया। भारतीय राज्यों में मिली-जुली सरकारों की राजनीति सन् 1967 के बाद प्रारम्भ हुई। इसके उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

1. एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होना-चौथे आम-चुनावों के समय उत्तर प्रदेश, उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा), मध्य प्रदेश, प० बंगाल, केरल व गुजरात में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो सका। इसलिए अनेक दलों ने परस्पर सहयोग कर सरकारों का गठन किया।

2. कांग्रेस के एकाधिकार को समाप्त करना-विभिन्न दलों का उद्देश्य कांग्रेस की आलोचना करके कांग्रेस के एकाधिकार को समाप्त करना था। इनका उद्देश्य सत्ता प्राप्ति भी था। इसमें क्षेत्रीय दलों को भी सफलता प्राप्त हुई और राज्यों में मिली-जुली सरकारों का उदय भी हुआ।

3. दल-बदल की राजनीति-राज्य में मिली-जुली सरकारों के उदय का प्रमुख कारण दल-बदल की राजनीति भी रहा है। सन् 1952 से 1956 के मध्य भी 542 बार दल-बदल हुआ। यह दल-बदल कांग्रेस के पक्ष में रहा। परन्तु 1967 के आम चुनावों में एक वर्ष के अन्दर ही 438 बार सदस्यों ने दल-बदल किया। दल-बदल ने केन्द्र एवं राज्यों की राजनीति एवं शासन में अस्थिरता ला दी व इसके कारण भारतीय राजनीति के शब्दकोश में ‘आयाराम-गयाराम’ जैसा शब्द जुड़ गया।

4. केन्द्र व राज्य के मध्य मतभेद की भावना-राज्यों में मिली-जुली सरकारों के उदय का एक कारण केन्द्र व राज्य के सम्बन्धों में कटुता की भावना का उदय होना भी रहा। यदि कोई भी राज्य सरकार केन्द्र सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन नहीं करती थी, तो वहाँ जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता था। केन्द्र व राज्य के मध्य मतभेद उत्पन्न होने के कुछ अन्य कारण भी थे; जैसे-राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति, आर्थिक सहायता आदि।

5. सत्ता-प्राप्ति का लालच-सत्ता प्राप्ति के लोभ ने मिली-जुली सरकारों के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। प्रायः उन नेताओं ने मिली-जुली सरकारों के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिन्हें कांग्रेस के शासन-काल में सत्ता सुख प्राप्त नहीं हुआ था। इसी कारण अनेक दलों ने मिलकर मिली-जुली सरकारों का गठन किया ताकि सत्ता सुख प्राप्त हो सके।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सन् 1967 के बाद राज्यों में मिली-जुली सरकारों की स्थापना हुई।

प्रश्न 4.
भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा एवं कार्यक्रमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय जनता पार्टी-5 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व जनसंघ के सदस्यों का नई दिल्ली में दो दिन का सम्मेलन हुआ और एक नई पार्टी बनाने का निश्चय किया जिसमें 6 अप्रैल, 1980 को तत्कालीन विदेशमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भारतीय जनता पार्टी के नाम से एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का गठन किया गया। भारतीय जनता पार्टी के घोषणा-पत्र में अनेक कार्यक्रमों को स्वीकृति प्रदान की गई।

भारतीय जनता पार्टी की नीतियाँ एवं कार्यक्रम

भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र में विभिन्न मुद्दों को दृष्टिगत रखते हुए निम्नलिखित नीतियाँ एवं कार्यक्रम निर्धारित किए गए-

(क) राजनीतिक कार्यक्रम-भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख राजनीतिक कार्यक्रम निम्नलिखित हैं-

  1. सत्ता की पुनः स्थापना करना-घोषणा-पत्र में कहा गया है कि पार्टी का सबसे पहला काम राज्य की सत्ता को पुनः स्थापित करना।
  2. राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता-चुनाव घोषणा-पत्र में कहा गया है कि भारतीय जनता पार्टी देश की एकता और अखण्डता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।
  3. संवैधानिक सुधार–पार्टी पिछले कुछ वर्षों के अनुभवों के आधार पर कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर संविधान की समीक्षा करने के पक्ष में है।
  4. सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता—भारतीय जनता पार्टी सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखती है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्महीन राज्य नहीं है। पार्टी सभी धर्मों को समान मानने में विश्वास रखती है।
  5. पंचायती राज को सुदृढ़ करना-भाजपा पंचायती राज को सुदृढ़ करने के लिए 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन में परिवर्तन करेगी। पंचायती राज को आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ करने का प्रयास करेगी।
  6. प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार–पार्टी जनता का हित चिन्तक, निष्पक्ष और जवाबदेह बनने के लिए तथा नागरिकों को उत्तम सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए प्रशासनिक सुधार करेगी।

(ख) आर्थिक कार्यक्रम एवं नीतियाँ-भाजपा के आर्थिक कार्यक्रम एवं नीतियाँ इस प्रकार हैं-

  1. देश में भुखमरी की समस्या का समाधान करने पर बल।
  2. सार्वजनिक क्षेत्र का व्यावसायिक आधार पर प्रबन्धन करने पर बल।
  3. विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के बारे में राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए नीतियों का निर्धारण करना।
  4. भाजपा देश में कृषिगत क्षेत्र के विस्तार तथा किसानों की स्थिति में सुधार एवं उनके कृषिगत उत्पादों के उचित मूल्य दिलवाने हेतु कटिबद्ध है।
  5. भाजपा चुनावी घोषणा-पत्र में उद्योगों के चहुंमुखी विकास के बारे में विशेष कार्यक्रमों की व्यवस्था
    की गई है।
  6. पार्टी ने नागरिकों को काम के मौलिक अधिकार को स्वीकार करते हुए कहा है कि उसकी सभी नीतियाँ रोजगारोन्मुखी होंगी।
  7. पार्टी ग्रामीण व नगरीय विकास हेतु कटिबद्ध है।

(ग) सामाजिक कार्यक्रम-सामाजिक कार्यक्रम के अन्तर्गत पार्टी-

  1. अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के कल्याण हेतु वचनबद्ध है,
  2. यह महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु कार्यक्रमों व योजनाओं के निर्माण पर बल देती है, यह 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा, महिला शिक्षा व ग्रामीण क्षेत्रों में । शिक्षा की उचित व्यवस्था करने के पक्ष में है।
  3. राष्ट्रीय सुरक्षा-पार्टी राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाने में बड़ी जिम्मेदारी से काम करेगी। पार्टी सामाजिक दृष्टि से संवेदनशील सीमावर्ती राज्यों; जैसे-जम्मू-कश्मीर, पंजाब, पूर्वोत्तर प्रदेश तथा असोम की सामाजिक एवं राजनीतिक गड़बड़ियों को दूर करने की कोशिश करेगी।

(ङ) विदेश नीति–पार्टी स्वतन्त्र विदेशी नीति की पक्षधर है तथा विश्व शान्ति, नि:शस्त्रीकरण, गुटनिरपेक्षता को मजबूत करने और पड़ोसी देशों के साथ शान्ति एवं मित्रता की नीति अपनाने, SAARC व आसियान जैसे क्षेत्रीय समूहीकरण को बढ़ावा देने के लिए वचनबद्ध है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रथम आम चुनाव में कांग्रेसको भारी सफलता प्राप्त होने के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस को भारी सफलता प्राप्त होने के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं-

  1. कांग्रेस दल ने प्रथम आम चुनाव में लोकसभा की कुल 489 सीटों में से 364 सीटें जीतीं और इस प्रकार वह किसी भी प्रतिद्वन्द्वी से चुनावी दौड़ में आगे निकल गई।
  2. लोकसभा के चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के चुनाव भी कराए गए थे। विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को बड़ी जीत प्राप्त हुई।
  3. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रचलित नाम कांग्रेस पार्टी था और इस पार्टी को स्वाधीनता संग्राम की विरासत प्राप्त थी। उस समय एकमात्र यही पार्टी थी, जिसका संगठन सम्पूर्ण देश में था।
  4. कांग्रेस पार्टी के लिए स्वयं जवाहरलाल नेहरू, जो भारतीय राजनीति के सबसे लोकप्रिय नेता थे, ने चुनाव अभियान की अगुवाई की और पूरे देश का दौरा किया। जब चुनावी परिणामों की घोषणा हुई तो कांग्रेस पार्टी की भारी-भरकम जीत से बहुतों को आश्चर्य हुआ।

प्रश्न 2.
एक प्रभुत्व वाली दल प्रणाली के लाभ व दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
एक प्रभुत्व वाली दल प्रणाली के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

  • सत्ताधारी दल की स्थिति सुदृढ़ होती है तथा वह स्वतन्त्र रूप से शासन का संचालन कर सकता है।
  • शासन प्रणाली में स्थायित्व रहता है, राष्ट्रीय नीतियों में अधिक परिवर्तन नहीं होता तथा उनमें निरन्तरता बनी रहती है।
  • यह प्रणाली आपातकाल का मुकाबला आसानी से कर सकती है।

एक प्रभुत्व वाली दल प्रणाली के कुछ मुख्य दोष (हानियाँ) निम्नलिखित हैं-

  • एक दलीय व्यवस्था लोकतन्त्र की सफलता और विकास हेतु उचित नहीं है।
  • प्रभुत्वशाली शासन का संचालन तानाशाहीपूर्ण रीति से करने लगते हैं जिससे शक्ति का दुरुपयोग होता है।
  • इस व्यवस्था में विरोधी दल कमजोर होते हैं, अत: सरकार की आलोचना प्रभावशाली ढंग से नहीं हो पाती।

प्रश्न 3.
सन् 1967 के बाद भारतीय राजनीति में कांग्रेस के प्रभुत्व में गिरावट के कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सन् 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस को केवल इतनी ही सीटें प्राप्त हुईं कि वह साधारण बहुमत द्वारा सरकार गठित कर सके। कांग्रेस के प्रभुत्व में इस गिरावट के निम्नलिखित कारण थे –

  1. सन् 1964 में पण्डित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद कांग्रेस में कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता था।
  2. देश के विभिन्न भागों में क्षेत्रवादी भावनाएँ पनपने लगी थीं, इससे अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों का संगठन होने लगा।
  3. सन् 1964 में देश के अन्य राजनीतिक दलों; जैसे-साम्यवादी दल, भारतीय जनसंघ, मुस्लिम लीग तथा समाजवादी दल के प्रभाव में वृद्धि हुई।
  4. केन्द्र में विरोधी दलों के विरुद्ध कांग्रेस की सरकार ने संविधान के कुछ प्रावधानों का दुरुप्रयोग किया जिससे लोगों में नकारात्मकता उत्पन्न हुई।
  5. विभिन्न राज्यों में मिली-जुली सरकारों के गठन की राजनीति प्रारम्भ हो गई थी।
  6. 1975 से 1977 तक आपातकालीन परिस्थितियों ने भी जनता पर कांग्रेस के विरुद्ध प्रतिकूल प्रभाव डाला।

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प्रश्न 4.
प्रारम्भ से ही कांग्रेस पार्टी का भारतीय राजनीति में केन्द्रीय स्थान रहा है। क्यों?
उत्तर:
कांग्रेस एशिया का सबसे पुराना राजनीतिक दल रहा है। भारतीय राजनीति के केन्द्र में यह दो दृष्टिकोणों से प्रमुख है-
प्रथम-अनेक दल तथा गुट कांग्रेस के केन्द्र से विकसित हुए हैं और इसके इर्द-गिर्द अपनी नीतियों तथा अपनी गुटीय रणनीतियों को विकसित किया, तथा – द्वितीय-भारतीय राजनीति के वैचारिक वर्णक्रम के केन्द्र का अभियोग करते हुए यह एक ऐसे केन्द्रीय दल के रूप में स्थित है, जिसके दोनों तरफ अन्य दल तथा गुट नजर आते हैं। भारत में केवल एक केन्द्रीय दल उपस्थित है और वह है-कांग्रेस पार्टी।

लेकिन वर्तमान समय में दलीय व्यवस्था के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आया है जिसमें बहुदलीय व्यवस्था और क्षेत्रीय दलों के विकास ने एकदलीय प्रभुत्व की स्थिति को कमजोर बना दिया है लेकिन फिर भी अन्य दलों के मुकाबले कांग्रेस का भारतीय राजनीति में केन्द्रीय स्थान है।

प्रश्न 5.
प्रथम तीन आम चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मजबूत स्थिति के पीछे उत्तरदायी कारणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कांग्रेस की प्रधानता के लिए उत्तरदायी कारण-कांग्रेस पार्टी सन् 1920 से लेकर 1967 तक भारतीय राजनीति पर अपनी छत्रच्छाया कायम रखने में सफल रही। इसके पीछे अनेक कारण जिम्मेदार रहे, इनमें प्रमुख हैं-

  1. प्रथम कारण यह है कि कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय आन्दोलन के वारिस के रूप में देखा गया। आज़ादी के आन्दोलन के अग्रणी नेता अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे।
  2. दूसरा कारण यह था कि कांग्रेस ही ऐसा दल था जिसके पास राष्ट्र के कोने-कोने व ग्रामीण स्तर पर फैला हुआ संगठन था।
  3. तीसरा कारण यह था कि कांग्रेस एक ऐसा संगठन था जो अपने आपको स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सके।
  4. कांग्रेस पहले से ही एक सुसंगठित पार्टी थी। बाकी दल अभी अपनी रणनीति बना ही रहे होते थे कि कांग्रेस अपना अभियान शुरू कर देती।

इस प्रकार कांग्रेस को ‘अव्वल और इकलौता’ होने का फायदा मिला।

प्रश्न 6.
भारत में राजनीतिक दलों द्वारा अपने कार्यों का निर्वहन करने में आने वाली कठिनाइयों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक दलों की समस्याएँ-भारत में राजनीतिक दलों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  1. दलीय व्यवस्था में अस्थिरता-भारतीय दलीय व्यवस्था निरन्तर बिखराव और विभाजन का शिकार रही है। सत्ता प्राप्ति की लालसा ने राजनीतिक दलों को अवसरवादी बना दिया है जिससे यह संकट उत्पन्न हुआ है।
  2. राजनीतिक दलों में गुटीय राजनीति-भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों में तीव्र आन्तरिक गुटबन्दी विद्यमान है। इन दलों में छोटे-छोटे गुट पाए जाते हैं।
  3. दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र का अभाव-भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र का अभाव है और वे घोर अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं। भारत में अधिकांश राजनीतिक दल नेतृत्व की मनमानी प्रवृत्ति और सदस्यों की अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं।

प्रश्न 7.
भारत में 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा दल-बदल को रोकने के लिए क्या-क्या उपाय किए गए हैं?
उत्तर:
भारत में दल-बदल को रोकने के लिए 52वें संवैधानिक संशोधन द्वारा बनाया गया कानून पूरी तरह असफल रहा। इसी कारण से दल-बदल को और अधिक कठोर बनाने के लिए दिसम्बर 2003 में संविधान में 91वाँ संशोधन किया गया। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि दल-बदल करने वाला कोई सांसद या विधायक सदन की सदस्यता खोने के साथ-साथ अगली बार चुनाव जीतने तक अथवा सदन के शेष कार्यकाल तक (जो पहले हो) मन्त्री पद या लाभ का कोई अन्य पद प्राप्त नहीं कर सकेगा। इस कानून में सांसदों या विधायकों के दल-बदल करने के लिए एक-तिहाई संख्या की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया।

प्रश्न 8.
1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 2004 के आम चुनाव तक मतदान के तरीके में क्या बदलाव आए हैं?
उत्तर:1
952 से लेकर 2004 के आम चुनाव तक मतदान के तरीकों में निम्नलिखित बदलाव आए हैं-

  1. 1952 के पहले आम चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार के नाम व चुनाव चिह्न की एक मतपेटी रखी गईं थी। हर मतदाता को एक खाली मत-पत्र दिया गया जिसे उसने अपने पसन्द के उम्मीदवार की मतपेटी में डाला। शुरुआती दो चुनावों के बाद यह तरीका बदल दिया गया।
  2. बाद के चुनावों में मत-पत्र पर हर उम्मीदवार का नाम व चुनाव चिह्न अंकित किया गया। मतदाता को मत-पत्र में अपने पसन्द के उम्मीदवार के आगे मुहर लगानी होती थी। मतदान पूर्णत: गुप्त रखा जाता था।
  3. 1990 के दशक के अन्त में चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का प्रयोग शुरू कर दिया और 2004 के आम चुनावों में मशीनों से वोट डाले गए।

प्रश्न 9.
भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियों का उल्लेख कीजिए। अथवा सरकारों की अस्थिरता के लिए उत्तरदायी भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियाँ-भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियाँ निम्नलिखित हैं जो कि सरकार की अस्थिरता के लिए उत्तरदायी हैं-

1. राजनीतिक दल-बदल-भारतीय राजनीतिक दलों में वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव तीव्र आन्तरिक गुटबन्दी और गहरी सत्ता लिप्सा ने दलीय व्यवस्था में राजनीतिक दल-बदल को जन्म दिया है। इस दल-बदल की स्थिति ने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया। ।

2. नेतृत्व संकट-भारत के राजनीतिक दलों के समक्ष नेतृत्व का संकट भी है। अधिकांश राजनीतिक दलों के पास ऐसा नेतृत्व नहीं है जिसका अपना कोई ऊँचा राजनीतिक कद हो। नेतृत्व का बौना कद दल को एकजुट रखने में असमर्थ रहता है।

3. वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव-भारतीय राजनीतिक दलों में कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। व्यवहार में विचारधारा पर आधारित दलों; जैसे-मार्क्सवादी दल, भारतीय साम्यवादी दल, भाजपा आदि ने भी घोर अवसरवादी राजनीति का परिचय दिया है। इन सभी राजनीतिक दलों का उद्देश्य येन-केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करना है और ये सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने तथाकथित सिद्धान्तों को तिलांजलि देने को तत्पर हैं।

प्रश्न 10.
भारतीय जनसंघ के गठन व विचारधारा पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारतीय जनसंघ का गठन-भारतीय जनसंघ का गठन सन् 1951 में हुआ था। इसके संस्थापक अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे। प्रारम्भिक वर्षों में इस पार्टी को हिन्दी भाषी राज्यों; जैसे-राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में समर्थन मिला। जनसंघ के नेताओं ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और बलराज मधोक के नाम शामिल हैं।

जनसंघ की विचारधारा

  1. जनसंघ ने ‘एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र’ के विचार पर बल दिया। इसका मानना था कि देश भारतीय संस्कृति और परम्परा के आधार पर आधुनिक, प्रगतिशील और ताकतवर बन सकता है।
  2. जनसंघ ने भारत और पाकिस्तान को एक करके ‘अखण्ड भारत’ बनाने की बात कही।
  3. जनसंघ अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी को राजभाषा बनाने का पक्षधर था।
  4. इसने धार्मिक व सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को रियायत देने की बात का विरोध किया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय दलीय व्यवस्था की कोई दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारतीय दलीय व्यवस्था की. प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. भारत में बहुदलीय व्यवस्था है और राजनीतिक दल विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  2. भारतीय दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों का भी अस्तित्व है।

प्रश्न 2.
उपनिवेशवाद से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
उपनिवेशवाद-वह विचारधारा जिससे प्रेरित होकर प्राय: एक शक्तिशाली राष्ट्र अन्य राष्ट्र या किसी राष्ट्र विशेष के किसी भाग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर, उसके आर्थिक एवं प्राकृतिक संसाधनों का शोषण अपने हित में करता है उसे ‘उपनिवेशवाद’ कहते हैं।

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प्रश्न 3.
भारत के पहले तीन चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व के दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. राष्ट्रीय संघर्ष में कांग्रेसी नेताओं का जनता में अधिक लोकप्रिय होना उसकी प्रधानता का प्रमुख कारण था।
  2. कांग्रेस ही ऐसा दल था जिसके पास राष्ट्र के कोने-कोने व ग्रामीण स्तर तक फैला हुआ संगठन था।

प्रश्न 4.
भारत में एकदलीय प्रधानता का युग कंब समाप्त हुआ? इसके क्या कारण थे?
उत्तर:
भारत में सन् 1977 में एकदलीय प्रधानता का युग समाप्त हुआ। इसके मुख्य कारण थेआपातकाल के दौरान तत्कालीन कांग्रेस सरकार की लोगों पर ज्यादतियाँ/अन्याय। दूसरा कारण था-तत्कालीन सरकार के तानाशाही दृष्टिकोण से लोग नाराज हो गए और विपक्षी पार्टियाँ एक गठबन्धन के रूप में सामने आईं।

प्रश्न 5.
1977 के चुनावों में कांग्रेस की हार के प्रमुख कारण क्या थे?
उत्तर:
सन् 1977 के चुनावों में कांग्रेस की हार के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  1. सरकार की तानाशाही पद्धति, मौलिक अधिकारों को भंग करना।
  2. आवश्यक वस्तुओं का बाजार से गायब होना, जमाखोरी तथा आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में उछाल।
  3. सन् 1975 के आपातकाल की ज्यादतियाँ/परिवार नियोजन जबरदस्ती से करना।

प्रश्न 6.
क्या क्षेत्रीय दल आवश्यक हैं? अपने उत्तर के पक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
भारत में क्षेत्रीय दलों का होना अति आवश्यक है। क्षेत्रीय दलों के होने के दो महत्त्वपूर्ण कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भारत में विभिन्न भाषाओं, धर्मों तथा जातियों के लोग रहते हैं। अनेक क्षेत्रीय दलों का निर्माण जाति, धर्म एवं भाषा के आधार पर हुआ है।
  2. भारत की भौगोलिक बनावट में विभिन्नता पायी जाती है। विभिन्न क्षेत्रों की अपनी समस्याएँ तथा आवश्यकताएँ हैं। इनकी पूर्ति के लिए क्षेत्रीय दलों का होना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
आलोचक ऐसा क्यों सोचते थे कि भारत में चुनाव सफलतापूर्वक नहीं कराए जा सकेंगे? किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में चुनाव सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं कराए जा सकने के सम्बन्ध में आलोचकों के निम्नलिखित तर्क थे-

  1. भारत क्षेत्रफल तथा जनसंख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा देश है तथा शुरू से ही नागरिकों को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार प्रदान कर दिया गया है। इतने बड़े निर्वाचक मण्डल के लिए व्यवस्था करना बहुत कठिन होगा।
  2. भारत के अधिकांश मतदाता अशिक्षित थे। वे स्वतन्त्रतापूर्वक व समझदारी से मताधिकार का प्रयोग कर सकेंगे, इस पर उन्हें सन्देह था।

प्रश्न 8.
निर्दलियों की बढ़ती संख्या एक चुनौती है, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चुनाव में राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने की स्थिति में निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हो रही है। ये निर्दलीय उम्मीदवार भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। यह भारतीय दलीय व्यवस्था के हित में नहीं है।

प्रश्न 9.
सी० राजगोपालाचारी के व्यक्तित्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सी० राजगोपालाचारी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं प्रसिद्ध साहित्यकार थे। ये संविधान सभा के सदस्य थे तथा भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने। ये केन्द्र सरकार के मन्त्री तथा मद्रास के मुख्यमन्त्री भी रहे। सन् 1959 में इन्होंने स्वतन्त्र पार्टी की स्थापना की। इनकी सेवाओं के लिए इन्हें ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया।

प्रश्न 10.
श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
श्यामाप्रसाद मुखर्जी संविधान सभा के सदस्य थे। ये हिन्दू महासभा के महत्त्वपूर्ण नेता तथा भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। ये कश्मीर को स्वायत्तता देने के विरुद्ध थे। कश्मीर नीति पर जनसंघ के प्रदर्शन के दौरान इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सन् 1953 में हिरासत में ही इनकी मृत्यु हो गई।

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प्रश्न 11.
मौलाना अबुल कलाम आजाद पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मौलाना अबुल कलाम आजाद (1888-1958) का पूरा नाम अबुल कलाम मोहियुद्दीन अहमद था। ये इस्लाम के विद्वान थे। साथ ही ये एक स्वतन्त्रता सेनानी व कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। ये हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे तथा भारत विभाजन के विरोधी थे। ये संविधान सभा के सदस्य रहे तथा स्वतन्त्र भारत के पहले शिक्षा मन्त्री के पद पर आसीन हुए।

प्रश्न 12.
सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के मध्य दो अन्तर बताइए।
उत्तर:

  1. सोशलिस्ट पार्टी लोकतान्त्रिक विचारधारा में विश्वास करती है जबकि कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवादी लोकतन्त्र में विश्वास करती है।
  2. सोशलिस्ट पार्टी पूँजीपतियों और पूँजी को अनावश्यक और समाज विरोधी नहीं मानती जबकि कम्युनिस्ट पार्टी निजी पूँजी और पूँजीपतियों को पूर्णतया अनावश्यक और समाज विरोधी मानती है।

बहविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
1952 के चुनावों में कुल मतदाताओं में केवल साक्षर मतदाताओं का प्रतिशत था-
(a) 35 प्रतिशत
(b) 25 प्रतिशत
(c) 15 प्रतिशत
(d) 75 प्रतिशत।
उत्तर:
(c) 15 प्रतिशत।

प्रश्न 2.
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक थे-
(a) श्यामाप्रसाद मुखर्जी
(b) आचार्य नरेन्द्र देव
(c) ए० वी० वर्धन
(d) कु० मायावती।
उत्तर:
(b) आचार्य नरेन्द्र देव।

प्रश्न 3.
1948 में भारत में गवर्नर जनरल पद की शपथ किसने ली-
(a) लॉर्ड लिटन
(b) लॉर्ड माउण्टबेटन
(c) लॉर्ड रिपन
(d) चक्रवर्ती राजगोपालाचारी।
उत्तर:
(d) चक्रवर्ती राजगोपालाचारी।

प्रश्न 4.
भारत का संविधान तैयार हुआ-
(a) 26 जनवरी, 1950
(b) 26 नवम्बर, 1949
(c) 15 अगस्त, 1947
(d) 30 जनवरी, 1948
उत्तर:
(b) 26 नवम्बर, 1949.

प्रश्न 5.
भारत में दलितों का मसीहा किसे कहा जाता है-
(a) राजा राममोहन राय
(b) दयानन्द सरस्वती
(c) डॉ० बी० आर० अम्बेडकर
(d) गोपालकृष्ण गोखले।
उत्तर:
(c) डॉ० बी० आर० अम्बेडकर।

प्रश्न 6.
स्वतन्त्र भारत के पहले शिक्षामन्त्री थे-
(a) मौलाना अबुल कलाम
(b) डॉ० बी० आर० अम्बेडकर
(c) सरदार पटेल
(d) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद।
उत्तर:
(a) मौलाना अबुल कलाम।

प्रश्न 7.
स्वतन्त्र पार्टी का गठन किया-
(a) सी० राजगोपालाचारी
(b) श्यामाप्रसाद मुखर्जी
(c) पं० दीनदयाल उपाध्याय
(d) रफी अहमद किदवई।
उत्तर:
(a) सी० राजगोपालाचारी।

प्रश्न 8.
भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे-
(a) मोरारजी देसाई
(b) मीनू मसानी
(c) अटल बिहारी वाजपेयी
(d) श्यामाप्रसाद मुखर्जी।
उत्तर:
(d) श्यामाप्रसाद मुखर्जी।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Challenges of Nation Building

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Challenges of Nation Building (राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ)

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत-विभाजन के बारे में निम्नलिखित कौन-सा कथन गलत है?
(क) भारत-विभाजन ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त’ का परिणाम था।
(ख) धर्म के आधार पर दो प्रान्तों-पंजाब और बंगाल-का बँटवारा हुआ।
(ग) पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में संगति नहीं थी।
(घ) विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।
उत्तर:
(घ) विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित सिद्धान्तों के साथ उचित उदाहरणों का मेल करें-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Challenges of Nation Building 1
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Challenges of Nation Building 2

प्रश्न 3.
भारत का कोई समकालीन राजनीतिक नक्शा लीजिए (जिसमें राज्यों की सीमाएँ दिखाई गई हों) और नीचे लिखी रियासतों के स्थान चिह्नित कीजिए
(क) जूनागढ़,
(ख) मणिपुर,
(ग) मैसूर,
(घ) ग्वालियर।
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Challenges of Nation Building 3

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प्रश्न 4.
नीचे दो तरह की राय लिखी गई है-
विस्मय-रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से इन रियासतों की प्रजा तक लोकतन्त्र का विस्तार हुआ।
इन्द्रप्रीत—यह बात मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। इसमें बल प्रयोग भी हुआ था जबकि लोकतन्त्र में आम सहमति से काम लिया जाता है।
देसी रियासतों के विलय और ऊपर के मशविरे के आलोक में इस घटनाक्रम पर आपकी क्या राय है?
उत्तर:
1. विस्मय की राय के सम्बन्ध में विचार-देसी रियासतों का विलय प्रायः लोकतान्त्रिक तरीके से ही हुआ क्योंकि 565 में से केवल चार-पाँच रजवाड़ों ने ही भारतीय संघ में शामिल होने से कुछ आना-कानी दिखाई थी। इनमें से भी कुछ शासक जनमत एवं जनता की भावनाओं की अनदेखी कर रहे थे। विलय से पूर्व अधिकांश रियासतों में शासन अलोकतान्त्रिक रीति से चलाया गया था और रजवाड़ों के शासक अपनी प्रजा को लोकतान्त्रिक अधिकार देने के लिए तैयार नहीं थे। इन रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से यहाँ समान रूप से चुनावी प्रक्रिया क्रियान्वित हुई। अत: विस्मय का यह विचार सही है कि भारतीय संघ में मिलाने से यहाँ जनता तक लोकतन्त्र का विस्तार हुआ।

2. इन्द्रप्रीत की राय के सम्बन्ध में विचार—यह बात ठीक है कि कुछ रियासतों (हैदराबाद और जूनागढ़) को भारत में मिलाने के लिए बल प्रयोग किया गया, परन्तु तत्कालीन परिस्थितियों में इन रियासतों पर बल प्रयोग करना आवश्यक था, क्योंकि इन रियासतों ने भारत में शामिल होने से मना कर दिया था तथा इनकी भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की थी कि इससे भारत की एकता एवं अखण्डता को हमेशा खतरा बना रहता था। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि जो बल प्रयोग किया गया, वह इन रियासतों की जनता के विरुद्ध नहीं, बल्कि शासन (शासन वर्ग) के विरुद्ध किया गया क्योंकि इन दोनों राज्यों की 80 से 90 प्रतिशत जनसंख्या भारत में विलय चाह रही थी। उन्होंने आन्दोलन शुरू कर रखा था और जब से ये रियासतें भारत में शामिल हो गईं, तब से इन रियासतों के लोगों को भी सभी लोकतान्त्रिक अधिकार दे दिए गए।

प्रश्न 5.
नीचे 1947 के अगस्त के कुछ बयान दिए गए हैं जो अपनी प्रकृति में अत्यन्त भिन्न हैं
आज आपने अपने सर काँटों का ताज पहना है। सत्ता का आसन एक बुरी चीज है। इस आसन पर आपको बड़ा सचेत रहना होगा…… आपको और ज्यादा विनम्र और धैर्यवान बनना होगा…… अब लगातार आपकी परीक्षा ली जाएगी। -मोहनदास करमचन्द गांधी
….. भारत आजादी की जिन्दगी के लिए जागेगा…… हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाएँगे….. आज दुर्भाग्य के एक दौर का खात्मा होगा और हिन्दुस्तान अपने को फिर से पा लेगा…… आज हम जो जश्न मना रहे हैं वह एक कदम भर है, सम्भावनाओं के द्वार खुल रहे हैं…… -जवाहरलाल नेहरू इन दो बयानों से राष्ट्र-निर्माण का जो एजेण्डा ध्वनित होता है उसे लिखिए। आपको कौन-सा एजेण्डा अँच रहा है और क्यों?
उत्तर:
मोहनदास करमचन्द गांधी और जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिए गए उपर्युक्त बयान राष्ट्र निर्माण की भावना से सम्बन्धित हैं।

गांधी जी ने देश की जनता को चुनौती देते हुए कहा है कि देश में स्वतन्त्रता के बाद लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था कायम होगी, राजनीतिक दलों में सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष होगा। ऐसी स्थिति में नागरिकों को अधिक विनम्र और धैर्यवान बनना होगा, उन्हें धैर्य से काम लेना होगा तथा चुनावों में निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर देशहित को प्राथमिकता देनी होगी।

जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिया गया बयान हमें विकास के उस एजेण्डे की तरफ संकेत कर रहा है कि भारत आजादी की जिन्दगी जिएगा। यहाँ राजनीतिक स्वतन्त्रता, समानता और किसी हद तक न्याय की स्थापना हुई है लेकिन हमारे कदम पुराने ढर्रे से प्रगति की ओर बहुत धीमी गति से बढ़ रहे हैं। नि:सन्देह 14-15 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि को उपनिवेशवाद का खात्मा हो गया। हिन्दुस्तान जी उठा, यह एक स्वतन्त्र हिन्दुस्तान था लेकिन आजादी मनाने का यह उत्सव क्षणिक था क्योंकि आगें बहुत समस्याएँ थीं जिनमें उनको समाप्त कर नई सम्भावनाओं के द्वार खोलना है, जिससे गरीब-से-गरीब भारतीय यह महसूस कर सके कि आजाद हिन्दुस्तान भी उसका मुल्क है। इस प्रकार नेहरू के बयान में भविष्य के राष्ट्र की कल्पना की गई है जिसमें उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र को कल्पना की है जो आत्मनिर्भर एवं स्वाभिमानी बनेगा।

उपर्युक्त दोनों कथनों में महात्मा गांधी का कथन इस दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह भविष्य में लोकतान्त्रिक शासन के समक्ष आने वाली समस्याओं के प्रति नागरिकों को आगाह करता है कि सत्ता प्राप्ति के मोह, विभिन्न प्रकार के लोभ-लालच, भ्रष्टाचार, धर्म, जाति, वंश, लिंग के आधार पर जनता में फूट डाल सकते हैं तथा हिंसा हो सकती है। ऐसी परिस्थितियों में जनता को विनम्र और धैर्यवान रहते हुए देशहित में अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करना चाहिए।

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प्रश्न 6.
भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए नेहरू ने किन तर्कों का इस्तेमाल किया? क्या आपको लगता है कि ये केवल भावात्मक और नैतिक तर्क हैं अथवा इनमें कोई तर्क युक्तिपरक भी है?
उत्तर:
नेहरू जी धर्मनिरपेक्षता में पूर्ण विश्वास रखते थे, वे धर्म विरोधी या नास्तिक नहीं थे। उनकी धर्म सम्बन्धी धारणा संकुचित न होकर अधिक व्यापक थी। भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपने तर्क प्रस्तुत किए। ये तर्क इस प्रकार हैं “अनेक कारणों की वजह से हम इस भव्य तथा विभिन्नता से भरपूर देश को एकता के सूत्र में बाँधे रखने में सफल हुए हैं। इसमें मुख्य रूप से हमारे संविधान निर्माण तथा उनका अनुकरण करने वाले महान नेताओं की बुद्धिमत्ता तथा दूरदर्शिता है।

यह बात कम महत्त्व की नहीं है कि भारतीय स्वभाव से धर्मनिरपेक्ष हैं और हम प्रत्येक धर्म का अपने दिल से आदर करते हैं। भारतवासियों की भाषाई तथा धार्मिक पहचान चाहे कुछ भी हो, वे कभी भी भाषायी तथा सांस्कृतिक एकरूपता रूपी एक नीरस तथा कठोर व्यवस्था को उन पर थोपने के लिए प्रयत्न नहीं करते। हमारे लोग इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि जब तक हमारी विविधता सुरक्षित है, हमारी एकता भी सुरक्षित है। हजारों वर्ष पूर्व हमारे प्राचीन ऋषियों ने यह उद्घोषित किया था कि समस्त विश्व एक कुटुम्ब है।”

नेहरू जी की उपर्युक्त पंक्तियों में निम्नांकित तर्क हमारे समक्ष प्रस्तुत किए गए हैं-

(1) नेहरू जी ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है तथा प्राचीन काल से ही यहाँ समय-समय पर विभिन्न सांस्कृतिक विशेषताओं वाले समूह व जनसमूह विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आते रहे हैं। नेहरू जी के शब्दों में, “भारत मात्र एक भौगोलिक अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि भारत के मस्तिष्क की विश्व में बहुत मान्यता है जिसके कारण भारत विदेशी प्रभावों को आमन्त्रित करता है और इन प्रभावों की अच्छाइयों को एक सुसंगत तथा मिश्रित बपौती में संश्लेषित कर लेता है। भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश में, विभिन्नता में एकता जैसे सिद्धान्त को नहीं उत्पन्न किया गया है क्योंकि यहाँ यह हजारों वर्षों से एक सभ्य सिद्धान्त बन गया है तथा यही भारतीय राष्ट्रवाद का आधार है। इस विभिन्नता के प्रति न डगमगाने वाले समर्पण को निकाल देने से भारत की आत्मा ही लुप्त हो जाएगी। स्वतन्त्रता संग्राम ने इसी सभ्यता के सिद्धान्त को एक राष्ट्र की व्यावहारिक राजनीति में निर्मित करने के लिए उपयोग किया।” पं० नेहरू द्वारा प्रस्तुत यह तर्क भावनात्मक और नैतिक तो ही है साथ ही इनका आधार भी युक्तिसंगत व देश की गरिमा व अस्मिता के अनुकूल है जो राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की दृष्टि से समीचीन प्रतीत होते हैं।

(2) नेहरू जी ने देश की स्वतन्त्रता से पहले तथा संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान भी इस बात पर विशेष बल दिया था कि भारत की एकता व अखण्डता तभी अक्षुण्ण रह सकती है जबकि अल्पसंख्यकों को समान अधिकार, धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्वतन्त्रता एवं धर्मनिरपेक्ष राज्य का वातावरण तथा विश्वास प्राप्त होता रहे। उनका तर्क था कि हम भारत में अनेक कारणों से राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने में सफल हुए हैं, इसी कारण भारत धर्मनिरपेक्ष व अल्पसंख्यक, भाषाई और धार्मिक समुदायों की पहचान को बचाने में सफल रहा। भारत विश्व को एक परिवार समझकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना में विश्वास करने वाला राष्ट्र रहा है।

चूँकि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाना था अत: पं० नेहरू का यह कथन पूर्ण युक्तिपरक है कि अपने देश में रहने वाले अल्पसंख्यक मुस्लिमों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा। पाकिस्तान चाहे जितना भी उकसाए अथवा वहाँ के गैर-मुस्लिमों को अपमान व भय का सामना करना पड़े परन्तु हमें अपने अल्पसंख्यक भाइयों के साथ सभ्यता व शालीनता का व्यवहार करना है तथा उन्हें समस्त नागरिक अधिकार दिए जाने हैं तभी भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहलाएगा।

भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाए रखने के लिए 15 अक्टूबर, 1947 को नेहरू जी ने देश के विभिन्न प्रान्तों के मुख्यमन्त्रियों को जो पत्र लिखा था उसमें उन्होंने यह तर्क दिया था कि मुस्लिमों की संख्या इतनी अधिक है कि चाहें तो भी वे दूसरे देशों में नहीं जा सकते। इस प्रकार नेहरू जी द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्क भावनात्मक और नैतिक होते हुए भी युक्तिपरक हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए प्रस्तुत किए गए नेहरू जी के तर्क केवल भावनात्मक व नैतिक़ ही नहीं बल्कि युक्तिपरक भी हैं।

प्रश्न 7:
आजादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र-निर्माण की चुनौती के लिहाज से दो मुख्य अन्तर क्या थे?
उत्तर:
आजादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र निर्माण की चुनौती के लिहाज से निम्नांकित दो प्रमुख अन्तर थे-

  1. आजादी के साथ देश के पूर्वी क्षेत्रों में सांस्कृतिक एवं आर्थिक सन्तुलन की समस्या थी जबकि पश्चिमी क्षेत्रों में विकास सम्बन्धी चुनौती थी।
  2. देश के पूर्वी क्षेत्रों में भाषाई समस्या अधिक थी जबकि पश्चिमी क्षेत्रों में धार्मिक एवं जातिवाद की समस्या अधिक थी।

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प्रश्न 8.
राज्य पुनर्गठन आयोग का काम क्या था? इसकी प्रमुख सिफारिशें क्या थीं?
उत्तर:
केन्द्र सरकार ने सन् 1953 में भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक आयोग बनाया। फजल अली की अध्यक्षता में गठित इस आयोग का कार्य राज्यों के सीमांकन के मामले पर कार्रवाई करना था। इसने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया कि राज्यों को सीमाओं का निर्धारण वहाँ बोली जाने वाली भाषा के आधार पर होना चाहिए।

राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशें-

  1. भारत की एकता व सुरक्षा की व्यवस्था बनी रहनी चाहिए।
  2. राज्यों का गठन भाषा के आधार पर किया जाए।
  3. भाषाई और सांस्कृतिक सजातीयता का ध्यान रखा जाए।
  4. वित्तीय तथा प्रशासनिक विषयों की ओर उचित ध्यान दिया जाए।

इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सन् 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित हुआ। इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केन्द्रशासित प्रदेश बनाए गए।

भारतीय संविधान में वर्णित मूल वर्गीकरण की चार श्रेणियों को समाप्त कर दो प्रकार की इकाइयाँ (स्वायत्त राज्य व केन्द्रशासित प्रदेश) रखी गई।

प्रश्न 9.
कहा जाता है कि राष्ट्र एक व्यापक अर्थ में ‘कल्पित समुदाय’ होता है और सर्व सामान्य विश्वास, इतिहास, राजनीतिक आकांक्षा और कल्पनाओं से एक सूत्र में बँधा होता है। उन विशेषताओं की पहचान करें जिनके आधार पर भारत एक राष्ट्र है।
उत्तर:
भारत की एक राष्ट्र के रूप में विशेषताएँ भारत की एक राष्ट्र के रूप में प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. मातृभूमि के प्रति श्रद्धा एवं प्रेम-मातृभूमि से प्रेम प्रत्येक राष्ट्र का स्वाभाविक लक्षण एवं विशेषता माना जाता है। एक ही स्थान या प्रदेश में जन्म लेने वाले व्यक्ति मातृभूमि से प्यार करते हैं और इस प्यार के कारण वे आपस में एक भावना के अन्दर बँध जाते हैं। भारत से लाखों की संख्या में लोग विदेश में जाकर बस गए हैं लेकिन मातृभूमि से प्रेम के कारण वे सदा अपने आपको भारतीय राष्ट्रीयता का अंग मानते हैं।

2. भौगोलिक एकता-भौगोलिक एकता भी राष्ट्रवाद की भावना को विकसित करती है। जब मनुष्य कुछ समय के लिए एक निश्चित प्रदेश में रह जाता है तो उसे उस प्रदेश से प्रेम हो जाता है और यदि उसका जन्म भी उसी प्रदेश में हुआ हो तो प्यार की भावना और तीव्र हो जाती है।

3. सांस्कृतिक एकरूपता-भारतीय संस्कृति इस देश को एक राष्ट्र बनाती है। यह विभिन्नता में एकता लिए हुए है। इस संस्कृति की अपनी पहचान है। लोगों के अपने संस्कार हैं, छोटे-बड़ों का आदर करते हैं। वैवाहिक बन्धन, जाति प्रथाएँ, साम्प्रदायिक सद्भाव, सहनशीलता, त्याग, पारस्परिक प्रेम, ग्रामीण जीवन का आकर्षक वातावरण इस राष्ट्र की एकता को बनाने में अधिक सहायक रहा है।

4. सामान्य इतिहास-भारत का एक अपना राजनीतिक-आर्थिक इतिहास है। इस इतिहास का अध्ययन सभी करते हैं और इसकी गलतियों से छुटकारा पाने का प्रयास समय-समय पर सत्ताधारियों, सुधारकों, धर्म प्रवर्तकों, भक्त और सूफी सन्तों ने किया है।

5. सामान्य हित-भारत राष्ट्र के लिए सामान्य हित महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यदि लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक हित समान हों तो उनमें एकता की उत्पत्ति होना स्वाभाविक है। 18वीं शताब्दी में अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए अमेरिका के विभिन्न राज्य आपस में संगठित हो गए और उन्होंने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।

6. संचार के साधनों की विभिन्न भूमिका-भारत एक राष्ट्र है। इसकी भावना को सुदृढ़ करने के लिए जनसंचार माध्यम, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिण्ट मीडिया आदि भी भारत को एक राष्ट्र बनाने में योगदान दे रहे हैं।

7. जन इच्छा-भारत का एक राष्ट्र के रूप में एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व लोगों में राष्ट्रवादी बनने की इच्छा भी है। मैजिनी ने लोक इच्छा को राष्ट्र का आधार बताया है।

प्रश्न 10.
नीचे लिखे अवतरण को पढ़िए और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

राष्ट्र-निर्माण के इतिहास के लिहाज से सिर्फ सोवियत संघ में हुए प्रयोगों की तुलना भारत से की जा सकती है। सोवियत संघ में भी विभिन्न और परस्पर अलग-अलग जातीय समूह, धर्म, भाषाई-समुदाय और सामाजिक वर्गों के बीच एकता का भाव कायम करना पड़ा। जिस पैमाने पर यह काम हुआ, चाहे भौगोलिक पैमाने के लिहाज से देखें या जनसंख्यागत वैविध्य के लिहाज से, वह अपने आपमें बहुत व्यापक कहा जाएगा। दोनों ही जगह राज्य की जिस कच्ची सामग्री से राष्ट्र-निर्माण की शुरुआत करनी थी वह समान रूप से दुष्कर थी। लोग धर्म के आधार पर बँटे हुए और कर्ज तथा बीमारी से दबे हुए थे। – रामचन्द्र गुहा

(क) यहाँ लेखक ने भारत और सोवियत संघ के बीच जिन समानताओं का उल्लेख किया है, उनकी एक सूची बनाइए। इनमें से प्रत्येक के लिए भारत से एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
इस अवतरण में लेखक ने भारत और सोवियत संघ के बीच निम्नलिखित समानताओं का उल्लेख किया है-

  1. भारत और सोवियत संघ दोनों में ही विभिन्न और परस्पर अलग-अलग जातीय समूह, धर्म, भाषाई समुदाय और सामाजिक वर्ग हैं। भारत में अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग धर्म और समुदाय के लोग रहते हैं और उनकी भाषा और वेश-भूषा भी अलग-अलग है।
  2. भारत और सोवियत संघ दोनों राष्ट्रों को ही इन सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बीच एकता का भाव कायम करने हेतु प्रयास करने पड़े। भारत के प्रत्येक प्रान्त की संस्कृति भिन्न है। परन्तु सभी प्रान्तों के लोग एक-दूसरे की संस्कृति का सम्मान करते हैं।
  3. दोनों ही राष्ट्रों के निर्माण के प्रारम्भिक वर्षों में अत्यन्त संघर्ष का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश शासन से स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद भारत को नए राष्ट्र के निर्माण में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि आजादी साथ-साथ देश का भी विभाजन हुआ।
  4. दोनों ही राष्ट्रों की पृष्ठभूमि धार्मिक आधार पर बँटी हुई तथा कर्ज और बीमारी से त्रस्त थी। चूंकि भारत बहुत लम्बे समय तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था और यहाँ विभिन्न धर्मों के लोग रहते थे तथा ब्रिटिश सरकार ने यहाँ की जनता को कर्जदार बना दिया था। धन के अभाव में वे बीमारी से छुटकारा पाने में अशक्त थे।

(ख) लेखक ने यहाँ भारत और सोवियत संघ में चली राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रियाओं के बीच की असमानता का उल्लेख नहीं किया है। क्या आप दो असमानताएँ बता सकते हैं?
उत्तर:
भारत और सोवियत संघ में चली राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रियाओं के बीच दो असमानताएँ इस प्रकार-

  1. भारत में लोकतान्त्रिक समाजवादी आधार पर राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया पूर्ण हुई जबकि सोवियत संघ में साम्यवादी आधार पर राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया पूर्ण हुई।
  2. भारत ने राष्ट्र-निर्माण के लिए कई प्रकार की बाहरी सहायता अर्थात् विदेशी सहायता प्राप्त की जबकि सोवियत संघ ने राष्ट्र-निर्माण के लिए आत्म-निर्भरता का सहारा लिया।

(ग) अगर पीछे मुड़कर देखें तो आप क्या पाते हैं? राष्ट्र-निर्माण के इन दो प्रयोगों में किसने बेहतर काम किया और क्यों?
उत्तर:
राष्ट्र-निर्माण के इन दोनों प्रयोगों में सोवियत संघ ने बेहतर काम किया अत: वह एक महाशक्ति के रूप में उभरकर सामने आया। प्रथम विश्वयुद्ध के पहले रूस, यूरोप में एक बहुत ही पिछड़ा देश था। रूस में पूँजीवाद को समाप्त करने तथा उसे एक आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र बनाने के लिए स्टालिन ने नियोजित आर्थिक विकास के आधार पर कार्य आरम्भ किया। रूसी क्रान्ति से समाजवादी विचारधारा की जो लहर सम्पूर्ण विश्व में बही उसने जाति, रंग और लिंग के आधार पर भेदभाव समाप्त करने में बड़ी सहायता दी। जबकि भारत में आज भी साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भ्रष्टाचार, निरक्षरता, भुखमरी जैसी समस्याएँ विद्यमान हैं और भारत आज भी एक विकासशील राष्ट्र है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अच्छा! तो मुझे अब पता चला कि पहले जिसे पूर्वी बंगाल कहा जाता था वही आज का बंगलादेश है तो क्या यही कारण है कि हमारे वाले बंगाल को पश्चिमी बंगाल कहा जाता है?
उत्तर:
देश के विभाजन से पूर्व बंगाल प्रान्त को दो भागों में विभाजित किया गया जिसका एक भाग पूर्वी बंगाल जो सन् 1971 तक पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। लेकिन सन् 1971 में यहाँ जिया उर रहमान के नेतृत्व में स्वतन्त्र बंगलादेश का निर्माण हुआ। इस प्रकार सन् 1971 के पश्चात् पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से को बंगलादेश के नाम से जाना जाता है तथा बंगाल का दूसरा भाग जो भारत में आ गया उसे पश्चिमी बंगाल कहा गया। आज तक इसका यही नाम चला आ रहा है।

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प्रश्न 2.
क्या जर्मनी की तरह हम लोग भारत और पाकिस्तान के बँटवारे को खत्म नहीं कर सकते? मैं तो अमृतसर में नाश्ता और लाहौर में लंच करना चाहता हूँ।
उत्तर:
जर्मनी की तरह भारत एवं पाकिस्तान के बँटवारे को समाप्त करना सम्भव नहीं है क्योंकि जर्मनी के विभाजन व भारत के विभाजन की परिस्थितियों में व्यापक अन्तर है। जर्मनी का विभाजन विचारधारा और आर्थिक कारणों के आधार पर हुआ जबकि भारत के विभाजन का आधार धर्म था अर्थात् भारत व पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ जिसमें पाकिस्तान की धार्मिक कट्टरपन्थिता की भावना विशेष महत्त्व रखती है। इस दृष्टि से इस विभाजन को समाप्त करना या दोनों देशों का एकीकरण करना प्रायः असम्भव कार्य है।

प्रश्न 3.
क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम एक-दूसरे को स्वतन्त्र राष्ट्र मानकर रहना और सम्मान करना सीख जाएँ?
उत्तर:
राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों में सुधार की प्रथम शर्त यही मानी जाती है कि हम एक-दूसरे को स्वतन्त्र राष्ट्र मानकर उनका सम्मान करें तथा अन्तर्राष्ट्रीय सीमा-रेखा का सम्मान करें। प्रायः यह देखा गया है कि भारत और पाकिस्तान के मध्य तनाव का मुख्य कारण दोनों देशों का एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना का न होना तथा पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ करना व आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देना माना जाता है। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर को लेकर विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार करना तथा भारत विरोधी नीति अपनाना दोनों देशों के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न करता है। इस प्रकार आपसी सम्बन्धों को बेहतर बनाने हेतु एक-दूसरे का सम्मान करना अति आवश्यक है।

प्रश्न 4.
मैं सोचता हूँ कि आखिर उन सैकड़ों राजा-रानी, राजकुमार और राजकुमारियों का क्या हुआ होगा? आखिर आम नागरिक बनने के बाद उनका जीवन कैसा रहा होगा?
उत्तर:
देसी रियासतों के एकीकरण के दौरान विभिन्न छोटी-छोटी रियासतों को भारत संघ में शामिल किया गया। इन रियासतों में कुछ रियासतें तो अपनी इच्छानुसार भारत संघ में सम्मिलित हो गईं तथा कुछ को समझा-बुझाकर तथा कुछ को सैन्य व आर्थिक सहायता देकर भारत संघ में सम्मिलित करने का प्रयास किया गया। लेकिन रियासतों के एकीकरण के पश्चात् इन रियासतों के राजा, महाराजाओं के जीवन बसर के लिए भारत सरकार द्वारा विशेष सहायता देने का प्रावधान दिया गया जिसमें इनको प्रतिवर्ष विशेष सहायता राशि ‘प्रिवीपर्स’ के रूप में देने की व्यवस्था की गई। यह व्यवस्था सन् 1970 तक रही। इसके पश्चात् ये व्यक्ति आम नागरिक की भाँति जीवन बसर कर रहे हैं। इनको भी संविधान द्वारा वहीं अधिकार प्रदान किए गए हैं जो एक आम नागरिक को प्राप्त है।

प्रश्न 5.
दिए मानचित्र को ध्यान से देखते हुए निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें-
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नोट-यह नक्शा किसी पैमाने के हिसाब से बनाया गया भारत का मानचित्र नहीं है। इसमें दिखाई गई भारत की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को प्रामाणिक सीमा रेखा न माना जाए।
(1) स्वतन्त्र राज्य बनने से पहले निम्नलिखित राज्य किन मूल राज्यों के अंग थे?
(क) गुजरात,
(ख) हरियाणा,
(ग) मेघालय,
(घ) छत्तीसगढ़।
(2) देश के विभाजन से प्रभावित दो राज्यों के नाम बताएँ।
(3) दो ऐसे राज्यों के नाम बताएँ जो पहले संघ-शासित राज्य थे।
उत्तर:
(1)
(क) गुजरात मूलत: मुम्बई राज्य (महाराष्ट्र) का अंग था।
(ख) हरियाणा मूलत: पंजाब का अंग था।
(ग) मेघालय मूलतः असोम का अंग था।
(घ) छत्तीसगढ़ मूलत: मध्य प्रदेश का अंग था।

(2)

  1. पंजाब,
  2. बंगाल, देश के विभाजन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले दो राज्य थे।

(3) राज्य बनने से पूर्व गोवा तथा अरुणाचल प्रदेश संघ शासित प्रदेश थे।

प्रश्न 6.
संयुक्त राज्य अमेरिका की जनसंख्या अपने देश के मुकाबले एक-चौथाई है लेकिन वहाँ 50 राज्य हैं। भारत में 100 से भी ज्यादा राज्य क्यों नहीं हो सकते?
उत्तर:
राज्यों की संख्या में वृद्धि का आधार केवल जनसंख्या नहीं हो सकता। राज्यों की संख्या के निर्धारण में अनेक तत्त्वों का ध्यान रखना पड़ता है जिनमें जनसंख्या के साथ-साथ देश का क्षेत्रफल, आर्थिक संसाधन, उस क्षेत्र के लोगों की भाषा, देश की सभ्यता एवं संस्कृति, लोगों का जीवन व शैक्षणिक स्तर आदि तत्त्व प्रमुख हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका का क्षेत्रफल भारत की तुलना में बहुत अधिक है तथा वह एक विकसित देश है और संसाधनों की तुलना में भी यह भारत से समृद्ध है। इस आधार पर संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्यों की संख्या 50 है। भारत का क्षेत्रफल कम होने, उसका विकासशील देश होना तथा संसाधनों की दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका से कम समृद्ध होना आदि ऐसे तत्त्व हैं जिनके कारण भारत में और अधिक राज्य नहीं बनाए जा सकते।

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 1 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत विभाजन में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत विभाजन में आने वाली कठिनाइयाँ
भारत के विभाजन के लिए यह आधार तय किया गया था कि जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे वे इलाके पाकिस्तान के भू-भाग होंगे और शेष हिस्से भारत कहलाएँगे। लेकिन व्यवहार में इस विभाजन में निम्नलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ा-

1. मुस्लिम बहुल इलाकों का निर्धारण करना-भारत में दो इलाके ऐसे थे जहाँ मुसलमानों की आबादी अधिक थी। एक इलाका पश्चिम में था तो दूसरा इलाका पूर्व में था। ऐसा कोई तरीका न था कि इन दोनों इलाकों को जोड़कर एक जगह कर दिया जाए। अत: फैसला यह हुआ कि पाकिस्तान के दो इलाके शामिल होंगे-

  • पूर्वी पाकिस्तान और
  • पश्चिमी पाकिस्तान। इनके मध्य में भारतीय भू-भाग का बड़ा विस्तार होगा।

2. प्रत्येक मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पाकिस्तान में जाने को राजी करना—मुस्लिम बहुल हर इलाका पाकिस्तान में जाने को राजी हो, ऐसा भी नहीं था। विशेषकर पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त जिसके नेता खान अब्दुल गफ्फार खाँ थे, जो द्विराष्ट्र सिद्धान्त के खिलाफ थे। अन्ततः उनकी आवाज की अनदेखी कर पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त को पाकिस्तान में मिलाया गया।

3. पंजाब और बंगाल के बँटवारे की समस्या-तीसरी कठिनाई यह थी कि ‘ब्रिटिश इण्डिया’ के मुस्लिम बहुल प्रान्त पंजाब और बंगाल में अनेक हिस्से बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। ऐसे में फैसला हुआ कि इन दोनों प्रान्तों में भी बँटवारा धार्मिक बहुसंख्यकों के आधार पर होगा और इसमें जिले अथवा तहसील को आधार माना जाएगा। 14-15 अगस्त मध्यरात्रि तक यह फैसला नहीं हो पाया था। इन दोनों प्रान्तों का धार्मिक आधार पर बँटवारा विभाजन की सबसे बड़ी त्रासदी थी।

4. अल्पसंख्यकों की समस्या-सीमा के दोनों तरफ अल्पसंख्यक थे। ये लोग इस तरह से सांसत में थे जैसे ही यह बात साफ हुई कि देश का बँटवारा होने वाला है, वैसे ही दोनों तरफ से अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे। दोनों ही तरफ के अल्पसंख्यकों के पास एकमात्र रास्ता यही बचा था कि वे अपने-अपने घरों को छोड़ दे। आबादी का यह स्थानान्तरण आकस्मिक, अनियोजित और त्रासदी भरा था। दोनों ही तरफ के अल्पसंख्यक अपने घरों से भाग खड़े हुए और अकसर अस्थायी तौर पर उन्हें शरणार्थी शिविरों में पनाह लेनी पड़ी। हर हाल में अल्पसंख्यकों को सीमा के दूसरी तरफ जाना पड़ा। इस प्रक्रिया में उन्हें हर तकलीफ-कत्ल, स्त्रियों से जबरन शादी, उन्हें अगवा करना, बच्चों का माँ-बाप से बिछड़ जाना, अपनी सम्पत्ति को छोड़ना आदि झेलनी पड़ी। इस तरह विभाजन में सिर्फ सम्पदा, देनदारी और परिसम्पत्तियों का ही बँटवारा नहीं हुआ, बल्कि इसमें दोनों समुदाय हिंसक अलगाव के शिकार भी हुए।

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प्रश्न 2.
भारत का विभाजन किन परिस्थितियों में हुआ? वर्णन कीजिए।
अथवा भारत विभाजन के प्रमुख कारणों का विस्तारपूर्वक उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय परिस्थितियों से विवश होकर ही कांग्रेस के नेताओं ने भारत-विभाजन के साथ स्वतन्त्रता प्राप्त करना स्वीकार किया। महात्मा गांधी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि “पाकिस्तान का निर्माण उनकी लाश पर होगा।” फिर भी भारत का विभाजन होकर ही रहा। भारत-विभाजन के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ व कारण निम्नांकित रूप से वर्णित हैं-

1. अंग्रेजी सरकार की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति–ब्रिटिश शासकों ने हिन्दू-मुसलमानों में निरन्तर फूट डालने हेतु ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को अपनाया। वे निरन्तर हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों में कटुता लाने तथा उन्हें परस्पर विरोधी बनाने का प्रयास करते रहे। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार, “पाकिस्तान के निर्माता कवि इकबाल तथा मि० जिन्ना नहीं? बल्कि लॉर्ड मिण्टो थे।” कांग्रेस के नेतृत्व में हुए स्वाधीनता आन्दोलन में अधिकांश हिन्दुओं ने भाग लिया था इसलिए ब्रिटिश शासन ने हिन्दुओं और कांग्रेस से अपना बदला लेने के लिए मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन दिया।

2. लीग के प्रति कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति–कांग्रेस ने लीग के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई। सन् 1916 में लखनऊ पैक्ट में साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार किया गया। सिन्ध को बम्बई से पृथक् किया गया, सी० आर० फार्मले में पाकिस्तान की माँग को कछ सीमा तक स्वीकार किया गया।

3. हिन्दू-मुसलमानों में परस्पर अविश्वास की भावना-हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही जातियों के लोग परस्पर अविश्वास की भावना रखते थे। सल्तनत काल व मुगलकाल में अनेक मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं पर अत्यधिक अत्याचार किए। इसलिए इन दोनों जातियों में परस्पर द्वेष की भावना थी। इसके अलावा हिन्दुओं का मुस्लिमों के प्रति सामाजिक बहिष्कार सम्बन्धी व्यवहार भी अच्छा नहीं था। इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमानों को ईसाइयों का व्यवहार हिन्दुओं की तुलना में अधिक अच्छा लगा और वे ईसाइयों के निकट होते चले गए।

4. जिन्ना की हठधर्मिता—जिन्ना द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के समर्थक थे। सन् 1940 के बाद संवैधानिक गतिरोध को दूर करने हेतु अनेक योजनाएँ प्रस्तुत की गईं परन्तु जिन्ना की पाकिस्तान निर्माण सम्बन्धी हठधर्मिता . के कारण कोई भी योजना स्वीकार नहीं की जा सकी और अन्ततः भारत और पाकिस्तान का विभाजन होकर रहा।

5. साम्प्रदायिक दंगे-जब मुस्लिम लीग को संवैधानिक साधनों से सफलता प्राप्त नहीं हुई तो उसने मुस्लिमों को साम्प्रदायिक उपद्रव करने हेतु बढ़ावा दिया तथा लीग की सीधी कार्रवाई की योजना में नोआखली और त्रिपुरा में मुसलमानों द्वारा अनेक दंगे करवाए गए। मौलाना अबुल कलाम आजाद के अनुसार, “16 अगस्त का दिन भारत के इतिहास में काला दिन है क्योंकि इस दिन सामूहिक हिंसा ने कलकत्ता जैसी महानगरी को हत्या, रक्तपात और बलात्कारों की बाढ़ में डुबो दिया।”

6. सत्ता के प्रति आकर्षण-भारत-विभाजन का एक कारण कांग्रेस और लीग के अनेक नेताओं का सत्ता के प्रति आकर्षण भी था। स्वतन्त्रता संघर्ष के लिए नेताओं ने अत्यन्त कष्ट सहे थे तथा उनमें और अधिक संघर्ष करने की शक्ति नहीं रह गयी थी। यदि वे माउण्टबेटन योजना को स्वीकार नहीं करते तो न जाने कितने वर्षों के संघर्ष के बाद उन्हें सत्ता का सुख भोगने का अवसर प्राप्त होता। माइकेल ब्रेचर के शब्दों में, “कांग्रेसी नेताओं . के सम्मुख सत्ता के प्रति आकर्षण भी था….. और विजय की घड़ी में वे इससे अलग होने के इच्छुक नहीं थे।”

7. सत्ता हस्तान्तरण के सम्बन्ध में ब्रिटिश दृष्टिकोण-भारत-विभाजन के सम्बन्ध में ब्रिटिश दृष्टिकोण यह था कि इससे भारत एक निर्बल देश हो जाएगा तथा भारत व पाकिस्तान हमेशा एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ते रहेंगे। इस प्रकार ब्रिटेन की यह इच्छा आज भी काफी सीमा तक पूर्ण होती दिखाई दे रही है।

इस तरह उपर्युक्त परिस्थितियों के कारण भारत का विभाजन हो गया। महात्मा गांधी के अनुसार, “32 वर्षों के सत्याग्रह का यह एक लज्जाजनक परिणाम था।”

प्रश्न 3.
1947 में भारत के विभाजन के क्या परिणाम हुए? अथवा “भारत और पाकिस्तान का विभाजन अत्यन्त दर्दनाक था।” विभाजन के परिणामों का उल्लेख उपर्युक्त तथ्य के प्रकाश में सविस्तार कीजिए।
उत्तर:
भारत का विभाजन-14-15 अगस्त, 1947 को एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र भारत और पाकिस्तान अस्तित्व में आए। भारत और पाकिस्तान का विभाजन दर्दनाक था तथा इस पर फैसला करना और अमल में लाना और भी कठिन था।

विभाजन के कारण–

  • मुस्लिम लीग ने ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त’ की बात की थी। इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश यानि पाकिस्तान की माँग की।
  • भारत के विभाजन के पूर्व ही देश में दंगे फैल गए ऐसी स्थिति में कांग्रेस के नेताओं ने भारत-विभाजन की बात स्वीकार कर ली।

भारत-विभाजन के परिणाम भारत और पाकिस्तान विभाजन के निम्नलिखित परिणाम सामने आए-

1. आबादी का स्थानान्तरण-भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद आबादी का स्थानान्तरण आकस्मिक, अनियोजित और त्रासदीपूर्ण था। मानव-इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानान्तरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को अत्यन्त बेरहमी से मारा। जिन इलाकों में अधिकतर हिन्दू अथवा सिक्ख आबादी थी, उन इलाकों में मुसलमानों ने जाना छोड़ दिया। ठीक इसी प्रकार मुस्लिम-बहुल आबादी वाले इलाकों से हिन्दू और सिक्ख भी नहीं गुजरते थे।

2. घर-परिवार छोड़ने के लिए विवश होना-विभाजन के फलस्वरूप लोग अपना घर-बार छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। दोनों ही तरफ के अल्पसंख्यक अपने घरों से भाग खड़े हुए तथा अक्सर अस्थायी तौर पर उन्हें शरणार्थी शिविरों में रहना पड़ा। वहाँ की स्थानीय सरकार व पुलिस इन लोगों से बेरुखी का बर्ताव कर रही थी। लोगों को सीमा के दूसरी तरफ जाना पड़ा और ऐसा उन्हें हर हाल में करना था, यहाँ तक कि लोगों ने पैदल चलकर यह दूरी तय की।

3. महिलाओं व बच्चों पर अत्याचार-विभाजन के फलस्वरूप सीमा के दोनों तरफ हजारों की संख्या में औरतों को अगवा कर लिया गया। उन्हें जबरदस्ती शादी करनी पड़ी तथा अगवा करने वाले का धर्म भी अपनाना पड़ा। कई परिवारों में तो खुद परिवार के लोगों ने अपने ‘कुल की इज्जत’ बचाने के नाम पर घर की बहू-बेटियों को मार डाला। बहुत-से बच्चे अपने माता-पिता से बिछुड़ गए।

4. हिंसक अलगाववाद-विभाजन में सिर्फ सम्पत्ति, देनदारी और परिसम्पत्तियों का ही बँटवारा नहीं हुआ बल्कि इस विभाजन में दो समुदाय जो अब तक पड़ोसियों की तरह रहते थे उनमें हिंसक अलगाववाद व्याप्त हो गया। सभी के लिए मारकाट अत्यन्त नृशंस थी तथा बँटवारे का मतलब था ‘दिल के दो टुकड़े हो जाना।

5. भौतिक सम्पत्ति का बँटवारा-विभाजन के कारण 80 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़कर सीमा पार जाना पड़ा तथा वित्तीय सम्पदा के साथ-साथ टेबिल, कुर्सी, टाइपराइटर और पुलिस के वाद्ययन्त्रों तक का बँटवारा हुआ था। सरकारी और रेलवे कर्मचारियों का भी बँटवारा हुआ। इस प्रकार साथ-साथ रहते आए दो समुदायों के बीच यह एक हिंसक और भयावह विभाजन था।

6. अल्पसंख्यकों की समस्या विभाजन के समय सीमा के दोनों तरफ ‘अल्पसंख्यक’ थे। जिस जमीन पर वे और उनके पुरखे सदियों तक रहते आए थे उसी जमीन पर वे ‘विदेशी’ बन गए थे। जैसे ही देश का बँटवारा होने वाला था वैसे ही दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे। इस कठिनाई से उबरने के लिए किसी के पास कोई योजना भी नहीं थी। हिंसा नियन्त्रण से बाहर हो गयी। दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों ने अपने-अपने घरों को छोड़ दिया। कई बार तो उन्हें ऐसा चन्द घण्टों के अन्दर करना पड़ा।

इस तरह भारत और पाकिस्तान का विभाजन अत्यन्त दर्दनाक व त्रासदी से भरा था। सआदत हसन मंटो के अनुसार, “दंगाइयों ने चलती ट्रेन को रोक लिया। गैर मजहब के लोगों को खींच-खींचकर निकाला और तलवार तथा गोली से मौत के घाट उतार दिया। बाकी यात्रियों को हलवा, फल और दूध दिया गया।”

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प्रश्न 4.
भारत में देशी राज्यों ( रजवाड़ों) के विलय पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर:
राज्यों के पुनर्गठन की समस्या-राज्यों का गठन तथा पुनः संगठन स्वतन्त्र भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी। उस समय भारतवर्ष छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले भारत दो भागों में बँटा हुआ था-

(i) ब्रिटिश भारत,
(ii) देसी राज्य (रजवाड़े)।

ब्रिटिश भारत का शासन तत्कालीन भारत सरकार के अधीन था, जबकि देसी राज्यों का शासन देसी राजाओं के हाथों में था। राजाओं ने ब्रिटिश राज की सर्वोच्च सत्ता स्वीकार कर रखी थी और इसमें वे अपने राज्य के घरेलू मामलों का शासन चलाते थे। अंग्रेजी प्रभुत्व में आने वाले भारतीय साम्राज्य के एक-तिहाई हिस्से में रजवाड़े कायम थे। प्रत्येक चार भारतीयों में से एक किसी-न-किसी रजवाड़े की प्रजा थी।

देसी राज्यों या रजवाड़ों के विलय की समस्या-स्वतन्त्रता के तुरन्त पहले ब्रिटिश-शासन ने घोषणा की कि भारत पर ब्रिटिश प्रभुत्व के साथ ही रजवाड़े भी ब्रिटिश-अधीनता से स्वतन्त्र हो जाएँगे। रजवाड़ों की कुल संख्या लगभग 565 थी। ब्रिटिश शासन का यह दृष्टिकोण था कि रजवाड़े अपनी मर्जी से चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाएँ या फिर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखें। यह फैसला रजवाड़ों की प्रजा को नहीं करना था बल्कि यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया था। यह एक गम्भीर समस्या थी और इससे अखण्ड भारत के अस्तित्व पर ही खतरा मँडरा रहा था।

अनेक राजाओं ने अपने राज्य को आजाद रखने की घोषणा भी कर दी थी। रजवाड़ों के शासकों के रवैये से यह बात साफ हो गई कि स्वतन्त्रता के बाद भारत कई छोटे-छोटे देशों की शक्ल में बँट जाने वाला है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का लक्ष्य एकता और आत्मनिर्णय के साथ-साथ लोकतन्त्र का रास्ता अपनाना था जबकि रजवाड़ों में शासन अलोकतान्त्रिक रीति से चलाया जाता था और शासक अपनी प्रजा को लोकतान्त्रिक अधिकार देने के लिए तैयार नहीं थे।

राज्यों के पुनर्गठन की समस्या का समाधान-यद्यपि देसी रियासतों की भारत में विलय की समस्या एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी, परन्तु पं० नेहरू, तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार पटेल ने इस समस्या को बड़े ही सुनियोजित ढंग से सुलझाया। देसी रियासतों की समस्या के हल के लिए पं० नेहरू ने 27 जून, 1947 को एक विभाग की स्थापना की, जिसे राज्य विभाग कहा जाता है। पं० नेहरू ने सरदार पटेल को इस विभाग का मन्त्री एवं वी० पी० मेनन को इसका सचिव नियुक्त किया। देसी रियासतों का विलय तीन चरणों में किया गया-

(i) प्रथम चरण-एकीकरण,
(ii) द्वितीय चरण-अधिमिलन एवं
(iii) तृतीय चरण-प्रजातन्त्रीकरण।

(i) प्रथम चरण : एकीकरण-एकीकरण में वे देसी रियासतें आती हैं, जिन्होंने सरदार पटेल के परामर्श पर स्वयं ही भारत में विलय होना स्वीकार कर लिया था। अधिकांश देसी रियासतों के शासकों ने भारतीय संघ में अपने विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसे ‘इन्स्ट्रमेण्ट ऑफ एक्सेशन’ कहा जाता है। इस पर हस्ताक्षर का अर्थ था कि रजवाड़े भारतीय संघ का अंग बनने के लिए सहमत हैं।

(ii) द्वितीय चरण : अधिमिलन-अधिमिलन में मणिपुर, जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर जैसी रियासतों को शामिल किया गया, जबकि इन्होंने स्वेच्छा से भारत में शामिल होना स्वीकार नहीं किया था, परन्तु सरदार पटेल ने अपने रणनीतिक कौशल एवं सूझ-बूझ से इन रियासतों को भारत में विलय होने के लिए मजबूर कर दिया।

(iii) तृतीय चरण : प्रजातन्त्रीकरण-तृतीय चरण प्रजातन्त्रीकरण से सम्बन्धित था। देसी रियासतों को प्रजातान्त्रिक ढाँचे में ढालना भारत सरकार के लिए प्रमुख समस्या थी। इस समस्या के लिए प्रान्तों में प्रजातान्त्रिक एवं प्रतिनिधिक संस्थाओं की स्थापना की गई। इन प्रान्तों में भी संसदीय शासन प्रणाली लागू की गई तथा निर्वाचित विधानसभाओं की व्यवस्था की गई।

इस तरह पं० नेहरू एवं सरदार पटेल की सूझ-बूझ से देशी रियासतों की समस्या का समाधान किया गया।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य कैसे बना?
उत्तर:
यद्यपि भारत और पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, परन्तु विभाजन के बाद सन् 1951 में भारत की कुल आबादी में 12 प्रतिशत मुसलमान थे। इसके अलावा अन्य अल्पसंख्यक धर्मावलम्बी भी थे।

भारत सरकार के अधिकतर नेता सभी नागरिकों को समान दर्जा देने के लिए सहमत थे, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। वे मानते थे कि नागरिक चाहे जिस धर्म को माने, उसका दर्जा बाकी नागरिकों के बराबर ही होना चाहिए। धर्म को नागरिकता की कसौटी नहीं बनाया जाना चाहिए। उनके इस धर्मनिरपेक्ष आदर्श की अभिव्यक्ति भारतीय संविधान में हुई। इस तरह भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बना।

प्रश्न 2.
विभाजन के समय पाकिस्तान को दो भागों-पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान में क्यों बाँटा गया?
उत्तर:
भारत के विभाजन का यह आधार तय किया गया कि जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे, वे इलाके पाकिस्तान के भू-भाग होंगे। अविभाजित भारत के ऐसे दो इलाके थे-एक इलाका पश्चिम में था जबकि दूसरा इलाका पूर्व में। इसे देखते हुए यह निर्णय लिया गया कि पाकिस्तान में ये दो इलाके शामिल होंगे। ये पूर्वी पाकिस्तान तथा पश्चिमी पाकिस्तान कहलाए। ऐसा कोई तरीका नहीं था कि इन दो इलाकों को जोड़कर एक जगह कर दिया जाए। इसलिए पाकिस्तान को दो भागों में बाँटा गया।

प्रश्न 3.
भारतीय संघ में जूनागढ़ को शामिल करने की घटना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
जूनागढ़ रियासत का भारत में विलय-जूनागढ़, गुजरात के दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक राज्य था। जूनागढ़ की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू थी। जूनागढ़ के नवाब महावत खान ने पाकिस्तान के साथ शामिल होने का निर्णय किया। लेकिन भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर जूनागढ़ भारत में ही शामिल हो सकता था। जूनागढ़ के शासक के न मानने पर सरदार पटेल ने जूनागढ़ के शासक के विरुद्ध बल प्रयोग का आदेश दिया। जूनागढ़ में भारतीय सैनिकों का सामना करने की क्षमता नहीं थी अन्तत: दिसम्बर 1947 में करवाए गए जनमत संग्रह में जूनागढ़ के लगभग 80 प्रतिशत लोगों ने भारत में शामिल होने की बात कही।

प्रश्न 4.
हैदराबाद को भारत में किस प्रकार शामिल किया?
उत्तर:
हैदराबाद रियासत का भारत में विलय-स्वतन्त्रता प्राप्ति एवं भारत के विभाजन के बाद हैदराबाद के निजाम उसमान अली खान ने हैदराबाद को स्वतन्त्र रखने का निर्णय लिया लेकिन हैदराबाद का निजाम परोक्ष रूप से पाकिस्तान का समर्थक था। हैदराबाद भारत के केन्द्र में स्थित था। यहाँ हिन्दू बहुसंख्यक रूप में निवासरत थे। इस कारण हैदराबाद का भारत में विलय अनिवार्य था। तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार पटेल की आशंका थी कि आने वाले समय में हैदराबाद पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के लिए खतरा उत्पन्न कर सकता है। सरदार पटेल तथा लॉर्ड माउण्टबेटन द्वारा हैदराबाद के निजाम को समझाने के प्रयासों की विफलता के बाद सरदार पटेल ने सैन्य कार्रवाई करके हैदराबाद को भारत में मिला लिया।

प्रश्न 5.
पाण्डिचेरी तथा गोवा के भारत में विलय की घटनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पाण्डिचेरी तथा गोवा का भारत में विलय-स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद पाण्डिचेरी फ्रांस तथा गोवा पुर्तगाल के अधीन थे। फ्रांस, पाण्डिचेरी को भारत में शामिल करने के पक्ष में नहीं था। परिणामस्वरूप भारतीय सैनिकों ने कार्रवाई करके पाण्डिचेरी को भारत संघ में शामिल कर लिया। इसी तरहं पुर्तगाल भी गोवा से अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहता था। अतः पुर्तगाल ने भारत द्वारा पेश किए गए सभी प्रस्तावों का विरोध किया। परिणामस्वरूप 18 दिसम्बर, 1961 को भारतीय सेना ने गोवा, दमन व दीव को पुर्तगाल से मुक्त कराके भारत में शामिल कर लिया। भारतीय प्रधानमन्त्री ने इसे मात्र पुलिस कार्रवाई की संज्ञा दी। सन् 1987 में गोवा भारत का 25वाँ राज्य बन गया।

प्रश्न 6.
भारत का विभाजन क्यों हआ?
उत्तर:
राष्ट्रीय आन्दोलन की चरम स्थिति में मुस्लिम लीग ने ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त’ की बात की। इस सिद्धान्त के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि हिन्दू और मुसलमान नामक दो कौमों का देश था और इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश यानि पाकिस्तान की माँग की। यद्यपि कांग्रेस ने द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त और पाकिस्तान की माँग का विरोध किया तथापि ब्रिटिश शासन की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के चलते कांग्रेस ने भी अन्ततः पाकिस्तान की माँग मान ली और भारत का विभाजन निश्चित हो गया।

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प्रश्न 7.
सीमान्त गांधी कौन थे? उनके द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के दृष्टिकोण का उल्लेख करते हुए उनकी भूमिका का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
खान अब्दुल गफ्फार खाँ को ‘सीमान्त गांधी’ कहा जाता है। वे पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त (पेशावर के मूल निवासी) के निर्विवाद नेता थे। वे कांग्रेस के नेता तथा लाल कुर्ती नामक संगठन के समर्थक थे। सच्चे गांधीवादी, अहिंसा व शान्ति के समर्थक होने के कारण उनको ‘सीमान्त गांधी’ कहा जाता था। वे द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के विरोधी थे। संयोग से उनकी आवाज की अनदेखी की गई और ‘पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त’ को पाकिस्तान में शामिल मान लिया गया।

प्रश्न 8.
रजवाड़ों के सन्दर्भ में सहमति-पत्र का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रजवाड़ों का सहमति-पत्र-आजादी के तुरन्त पहले अंग्रेजी शासन ने घोषणा की कि भारत पर ब्रिटिश प्रभुत्व के समाप्त होने के साथ ही रजवाड़े भी ब्रिटिश-अधीनता से आजाद हो जाएंगे और वह अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकते हैं या अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रख सकते हैं। शान्तिपूर्ण बातचीत के जरिए लगभग सभी रजवाड़े जिनकी सीमाएँ आजाद हिन्दुस्तान की नयी सीमाओं से मिलती थीं, के शासकों ने भारतीय संघ में अपने विलय के सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इस सहमति-पत्र को ‘इंस्ट्रमेण्ट ऑफ एक्सेशन’ कहा जाता है। इस पर हस्ताक्षर का अर्थ था कि रजवाड़े भारतीय संघ का अंग बनने के लिए सहमत हैं।

प्रश्न 9.
संक्षेप में राज्य पुनर्गठन आयोग के निर्माण की पृष्ठभूमि, कार्य तथा इससे जुड़े एक्ट का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राज्य पुनर्गठन आयोग-आन्ध्र प्रदेश के गठन के साथ ही देश के दूसरे हिस्सों में भी भाषाई आधार पर राज्यों को गठित करने का संघर्ष चल पड़ा। इन संघर्षों से बाध्य होकर केन्द्र सरकार ने सन् 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया। इस आयोग का काम राज्यों के सीमांकन के मामलों पर गौर करना था। इसने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया कि राज्यों की सीमाओं का निर्धारण वहाँ बोली जाने वाली भाषा के आधार पर होना चाहिए। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सन् 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ। इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केन्द्रशासित प्रदेश बनाए गए।

प्रश्न 10.
संविधान सभा द्वारा राष्ट्रीय भाषा के प्रश्न का हल किस प्रकार किया गया?
उत्तर:
संविधान सभा द्वारा राष्ट्रीय भाषा की समस्या का समाधान-बहुभाषी संस्कृति होने के कारण देश में भाषा की समस्या सबसे महत्त्वपूर्ण थी जिसका संविधान सभा को हल निकालना था। भाषा की समस्या का ऐसा हल ढूँढने का प्रयास किया गया जिसे सभी सामान्य रूप से स्वीकार कर लें और यह प्रयास तीन वर्षों तक जारी रहा। संविधान सभा की अन्तिम बैठक के प्रारम्भ में सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि भाषायी प्रावधानों को मतदान के लिए नहीं रखेंगे क्योंकि यदि कोई निर्णय देश को स्वीकार न हुआ तो उसको लागू करना कठिन होगा। लम्बे वाद-विवाद के बाद भाषा की समस्या पर निर्णय लिए गए और इस प्रकार संविधान सभा में भाषा की समस्या का समाधान किया गया। जहाँ तक राष्ट्रीय भाषा का प्रश्न है तो उस पर यह सहमति बनी कि देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार किया जाएगा। अतिलघ

उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के समक्ष मुख्यतः कौन-कौन सी चुनौतियाँ थीं?
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के सामने तीन प्रमुख चुनौतियाँ थीं-

  1. भारत की क्षेत्रीय अखण्डता को कायम करना।
  2. लोकतान्त्रिक व्यवस्था को लागू करना।
  3. आर्थिक विकास तथा गरीबी को समाप्त करने हेतु नीति निर्धारित करना।

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प्रश्न 2.
भारत और पाकिस्तान के मध्य विभाजन का क्या आधार तय किया गया?
उत्तर:
भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन का आधार तय किया गया कि धार्मिक बहुसंख्या के आधार पर विभाजन होगा। अर्थात् जिन क्षेत्रों में मुसलमान बहुसंख्यक थे, वे क्षेत्र ‘पाकिस्तान’ के भू-भाग होंगे तथा शेष भाग ‘भारत’ कहलाएँगे।

प्रश्न 3.
‘इंस्ट्रमेण्ट ऑफ एक्सेशन’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
विभिन्न रजवाड़ों या रियासतों के शासकों ने भारतीय संघ में अपने विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इस सहमति-पत्र को ‘इंस्ट्रमेण्ट ऑफ एक्सेशन’ कहा जाता है। इस पर हस्ताक्षर का अर्थ यह था कि रजवाड़े भारतीय संघ का अंग बनने के लिए सहमत हैं।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् रजवाड़ों के विलय की क्या समस्या थी?
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् रजवाड़ों को भी कानूनी तौर पर स्वतन्त्र होना था। ब्रिटिश शासन का नजरिया यह था कि रजवाड़े अपनी मर्जी से भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाएँ अथवा स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखें। यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया था। यह एक गम्भीर समस्या व चुनौती थी।

प्रश्न 5.
भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य कैसे बना? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
भारत और पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, परन्तु सन् 1951 के वक्त भारत में 12% मुसलमान थे फिर भी लोकतान्त्रिक भारत में मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी और यहूदियों के साथ समानता का व्यवहार किया गया। अत: भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना।

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प्रश्न 6.
‘पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त’ को पाकिस्तान में शामिल क्यों मान लिया गया?
उत्तर:
मुस्लिम बहुल हर क्षेत्र पाकिस्तान में जाने को तैयार नहीं था। खान अब्दुल गफ्फार खाँ (सीमान्त गांधी) पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के निर्विवाद नेता थे तथा वे ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त’ के खिलाफ थे। उनके विचारों पर अमल नहीं किया गया तथा ‘पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त’ को पाकिस्तान में शामिल मान लिया गया।

प्रश्न 7.
पंजाब और बंगाल का बँटवारा करने का क्या आधार सुनिश्चित किया गया?
उत्तर:
‘ब्रिटिश इण्डिया’ के मुस्लिम बहुल प्रान्त पंजाब और बंगाल के अनेक भागों में बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। अत: निर्णय हुआ कि इन दोनों प्रान्तों में भी बँटवारा धार्मिक बहुसंख्यकों के आधार पर होगा और इसमें जिले या उससे निचले स्तर के प्रशासनिक हल्के को आधार बनाया जाएगा।

प्रश्न 8.
मुस्लिम लीग ने ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त’ की बात क्यों की? इसका परिणाम क्या हुआ?
उत्तर:
मुस्लिम लीग के द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ नाम की दो कौमों का देश था और इसी कारण मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग की और यह माँग मान ली गयी।

प्रश्न 9.
विभाजन की त्रासदी बताने हेतु कोई दो घटनाएँ बताइए।
उत्तर:

  1. अनेक परिवारों के लोगों ने अपने ‘कुल की इज्जत’ बचाने के नाम पर घर की बहू-बेटियों तक को मार डाला। बहुत-से बच्चे अपने माँ-बाप से बिछुड़ गए।
  2. वित्तीय सम्पदा के साथ-साथ टेबल-कुर्सी, टाइपराइटर और पुलिस के वाद्य यन्त्रों तक का बँटवारा हुआ।

प्रश्न 10.
राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता एक पन्थनिरपेक्ष राज्य के पक्षधर क्यों थे?
उत्तर:
राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता एक पन्थनिरपेक्ष राज्य के पक्षधर थे क्योंकि वे जानते थे कि बहुधर्मावलम्बी देश भारत में किसी धर्म विशेष को संरक्षण देना भारत की एकता के लिए बाधक बनेगा तथा इससे विविध धर्मावलम्बियों के मूल अधिकारों का हनन होगा।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
विभाजन के समय भारत में कुल रजवाड़ों की संख्या कितनी थी-
(a) 565
(b) 570
(c) 580
(d) 562
उत्तर:
(a) 565

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प्रश्न 2.
द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त की बात जिस राजनीतिक दल ने सर्वप्रथम की थी, वह था-
(a) भारतीय जनता पार्टी
(b) मुस्लिम लीग
(c) कांग्रेस
(d) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी।
उत्तर:
(b) मुस्लिम लीग।

प्रश्न 3.
राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना कब हुई-
(a) सन् 1953 में
(b) सन् 1954 में
(c) सन् 1955 में
(d) सन् 1956 में।
उत्तर:
(a) सन् 1953 में।

प्रश्न 4.
देसी रियासतों के एकीकरण में किस नेता की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही-
(a) पं० जवाहरलाल नेहरू
(b) महात्मा गांधी
(c) सरदार पटेल
(d) गोपालकृष्ण गोखले।
उत्तर:
(c) सरदार पटेल।

प्रश्न 5.
भारत का संविधान कब लागू किया गया-
(a) 15 अगस्त, 1947
(b) 26 जनवरी, 1950
(c) 14 अगस्त, 1948
(d) 19 जून, 1951
उत्तर:
(b) 26 जनवरी, 1950

प्रश्न 6.
खान अब्दुल गफ्फार खाँ को किस नाम से जाना जाता है-
(a) महात्मा गांधी
(b) मुहम्मद अली जिन्ना
(c) सीमान्त गांधी
(d) मौलाना आजाद।
उत्तर:
(c) सीमान्त गांधी।

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प्रश्न 7.
राज्य पुनर्गठन अधिनियम के आधार पर कितने राज्यों की स्थापना की गई-
(a) 14
(b) 15
(c) 16
(d) 17
उत्तर:
(a) 14

प्रश्न 8.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सबसे बड़ी चुनौती थी-
(a) औद्योगिक विकास
(b) निर्धनता
(c) बेरोजगारी
(d) भारत की क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखना।
उत्तर:
(d) भारत की क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखना।

प्रश्न 9.
बंगलादेश का निर्माण कब हुआ-
(a) सन् 1971 में
(b) सन् 1974 में
(c) सन् 1976 में
(d) सन् 1978 में।
उत्तर:
(a) सन् 1971 में।

प्रश्न 10.
सन् 1960 में बम्बई का विभाजन कर कौन-कौन से दो राज्यों का निर्माण किया गया-
(a) पंजाब और हरियाणा
(b) महाराष्ट्र और गुजरात
(c) असम और मेघालय
(d) मध्य प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश।
उत्तर:
(b) महाराष्ट्र और गुजरात।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Globalisation

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Globalisation (वैश्वीकरण)

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण सिर्फ आर्थिक परिघटना है।
(ख) वैश्वीकरण की शुरुआत 1991 में हुई।
(ग) वैश्वीकरण और पश्चिमीकरण समान हैं।
(घ) वैश्वीकरण एक बहुआयामी परिघटना है।
उत्तर:
(घ) वैश्वीकरण एक बहुआयामी परिघटना है।

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प्रश्न 2.
वैश्वीकरण के प्रभाव के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) विभिन्न देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव विषम रहा है।
(ख) सभी देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव समान रहा है।
(ग) वैश्वीकरण का असर सिर्फ राजनीतिक दायरे तक सीमित है।
(घ) वैश्वीकरण से अनिवार्यता सांस्कृतिक समरूपता आती है।
उत्तर:
(क) विभिन्न देशों और समाजों पर वैश्वीकरण का प्रभाव विषम रहा है।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के कारणों के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण का एक महत्त्वपूर्ण कारण प्रौद्योगिकी है।
(ख) जनता का एक खास समुदाय वैश्वीकरण का कारण है।
(ग) वैश्वीकरण का जन्म संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ।
(घ) वैश्वीकरण का एकमात्र कारण आर्थिक धरातल पर पारस्परिक निर्भरता है।
उत्तर:
(क) वैश्वीकरण का एक महत्त्वपूर्ण कारण प्रौद्योगिकी है।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन सही है?
(क) वैश्वीकरण का सम्बन्ध सिर्फ वस्तुओं की आवाजाही से है।
(ख) वैश्वीकरण में मूल्यों का संघर्ष नहीं होता।
(ग) वैश्वीकरण के अंग के रूप में सेवाओं का महत्त्व गौण है।
(घ) वैश्वीकरण का सम्बन्ध विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव से है।
उत्तर:
(घ) वैश्वीकरण का सम्बन्ध विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव से है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण के बारे में कौन-सा कथन गलत है?
(क) वैश्वीकरण के समर्थकों का तर्क है कि इससे आर्थिक समृद्धि बढ़ेगी।
(ख) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे आर्थिक असमानता और ज्यादा बढ़ेगी।
(ग) वैश्वीकरण के पैरोकारों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।
(घ) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।
उत्तर:
(घ) वैश्वीकरण के आलोचकों का तर्क है कि इससे सांस्कृतिक समरूपता आएगी।

प्रश्न 6.
विश्वव्यापी ‘पारस्परिक जुड़ाव’ क्या है? इसके कौन-कौन से घटक हैं?
उत्तर:
विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव का अर्थ है-विचार, वस्तुओं तथा घटनाओं का दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचना। इससे विश्व के विभिन्न भाग परस्पर एक-दूसरे के समीप आ गए हैं।

विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव के घटक विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं-

  1. विश्व के एक हिस्से के विचारों एवं धारणाओं का दूसरे हिस्से में पहुँचना।
  2. निवेश के रूप में पूँजी का विश्व के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना।
  3. वस्तुओं का कई-कई देशों में पहुँचना और उनका व्यापार।
  4. बेहतर आजीविका की तलाश में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों की आवाजाही। विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव ऐसे प्रवाहों की निरन्तरता से पैदा हुआ है और कायम है।

प्रश्न 7.
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी का क्या योगदान है?
उत्तर:
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी का प्रमुख योगदान इस प्रकार रहा है-

(1) टेलीग्राफ, टेलीफोन और माइक्रोचिप के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच संचार की क्रान्ति ला दी है। इस प्रौद्योगिकी का प्रभाव हमारे सोचने के तरीके और सामूहिक जीवन की गतिविधियों पर उसी तरह पड़ रहा है जिस तरह मुद्रण की तकनीक का प्रभाव राष्ट्रवाद की भावनाओं पर पड़ा था।

(2) विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की विश्व के विभिन्न भागों में आवाजाही की आसानी प्रौद्योगिकी में तरक्की के कारण सम्भव हुई। उदाहरण के लिए, आज इण्टरनेट की सुविधा के चलते ई-कॉमर्स, ई-बैंकिंग, ई-लर्निंग जैसी तकनीक अस्तित्व में आ गई हैं जिनके द्वारा विश्व के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में व्यापार किया जा सकता है, बाजार खोजे जा सकते हैं तथा ज्ञान के नए स्रोत खोजे जा सकते हैं।

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प्रश्न 8.
वैश्वीकरण के सन्दर्भ में विकासशील देशों में राज्य की बदलती भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
उत्तर:
वैश्वीकरण के सन्दर्भ में विकासशील देशों में राज्य की बदलती भूमिका का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

  1. वैश्वीकरण के युग में प्रत्येक विकासशील देश को इस प्रकार की विदेश एवं आर्थिक नीति का निर्माण करना पड़ता है जिससे कि दूसरे देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाए जा सकें। पूँजी निवेश के कारण विकासशील देशों ने भी अपने बाजार विश्व के लिए खोल दिए हैं।
  2. विकासशील देशों में विश्व संगठनों के प्रभाव में राज्यों द्वारा बनाई जाने वाली निजीकरण की नीतियाँ, कर्मचारियों की छंटनी, सरकारी अनुदानों में कमी तथा कृषि से सम्बन्धित नीतियों पर वैश्वीकरण का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
  3. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप राज्य ने अपने को पहले के कई ऐसे लोक कल्याणकारी कार्यों से खींच लिया है।
  4. विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय नियमों के कारण सरकारों को अपने दम पर फैसला करने की क्षमता में कमी आई है।
  5. वैश्वीकरण के फलस्वरूप कुछ मायनों में राज्य की ताकत में इजाफा भी हुआ है। आज राज्यों के पास अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी मौजूद है जिसके बल पर राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं।

आलोचना-विकासशील देशों में आज भी निर्धनता, निम्न जीवन स्तर, अशिक्षा, बेरोजगारी तथा कुपोषण विद्यमान है। इसलिए राज्य द्वारा सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी कार्य करने की महत्ती आवश्यकता है। लेकिन वैश्वीकरण के चलते राज्य ने इन कार्यों से अपना हाथ खींच लिया है। इसीलिए अनेक संगठनों व विचारकों द्वारा वैश्वीकरण की आलोचना की जा रही है।

प्रश्न 9.
वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियाँ क्या हुई हैं? इस सन्दर्भ में वैश्वीकरण ने भारत पर कैसे प्रभाव डाला है?
उत्तर:
वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियाँ वैश्वीकरण की आर्थिक परिणतियों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

  1. व्यापार में वृद्धि तथा खुलापन-वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में आयात प्रतिबन्धों के कम होने से वस्तुओं के व्यापार में इजाफा हुआ है।
  2. सेवाओं का विस्तार एवं प्रवाह-वैश्वीकरण के चलते अब सेवाओं का प्रवाह अबाध हो उठा है। इण्टरनेट और कम्प्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है।
  3. विश्व जनमत का विभाजन-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण पूरे विश्व में जनमत बड़ी गहराई से बँट । गया है।
  4. राज्यों द्वारा आर्थिक जिम्मेदारियों से हाथ खींचना-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें अपनी सामाजिक सुरक्षा तथा जन-कल्याण की जिम्मेदारियों से अपने हाथ खींच रही हैं। इससे सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले लोग चिन्तित हैं। इससे वंचित, पिछड़े, अशिक्षित तथा गरीब लोग और बदहाल हो जाएंगे।
  5. विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण’- कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण कहा है।
  6. आर्थिक वैश्वीकरण केलाभकारी परिणाम-आर्थिक वैश्वीकरण से व्यापार में वृद्धि हुई है, देश को प्रगति का अवसर मिला है, खुशहाली बढ़ी है तथा लोगों में जुड़ाव बढ़ रहा है।

वैश्वीकरण का भारत पर प्रभाव-वैश्वीकरण की प्रक्रिया के तहत भारत पर निम्नलिखित प्रमुख प्रभाव पड़े हैं-

  1. इसके तहत सकल घरेलू उत्पाद दर तथा विकास दर में तीव्र वृद्धि हुई है।
  2. विश्व के देश भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देखने लगे हैं। अत: यहाँ विदेशी निवेश बढ़ा है।
  3. रोजगार हेतु श्रम का प्रवाह बढ़ा है तथा पाश्चात्य संस्कृति का तीव्र प्रसार हुआ है।

प्रश्न 10.
क्या आप इस तर्क से सहमत हैं कि वैश्वीकरण से सांस्कृतिक विभिन्नता बढ़ रही है?
उत्तर:
वैश्वीकरण में सांस्कृतिक विभिन्नता और सांस्कृतिक समरूपता दोनों ही प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं। यथा सांस्कृतिक समरूपता में वृद्धि-वैश्वीकरण के कारण पश्चिमी यूरोप के देश तथा अमेरिका अपनी तकनीकी और आर्थिक शक्ति के बल पर सम्पूर्ण विश्व पर अपनी संस्कृति लादने का प्रयास कर रहे हैं। इससे पश्चिमी संस्कृति के तत्त्व अब विश्वव्यापी होते जा रहे हैं। इससे कई परम्परागत संस्कृतियों को खतरा उत्पन्न हो गया है। इस प्रकार यहाँ सांस्कृतिक समरूपता से अभिप्राय केवल पश्चिमी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से है, न कि किसी नयी विश्व संस्कृति के उदय से।

सांस्कृतिक विभिन्नता में वृद्धि–वैश्वीकरण के द्वारा सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भी बढ़ रही हैं तथा नयी मिश्रित संस्कृतियों का उदय हो रहा है। उदाहरण के लिए, अमेरिका की नीली जीन्स, हथकरघे के देशी कुर्ते के साथ पहनी जा रही है। यह कुर्ता विदेशों में भी निर्यात किया जा रहा है। इस प्रकार वैश्वीकरण के कारण हर संस्कृति कहीं ज्यादा अलग व विशिष्ट होती जा रही है।

प्रश्न 11.
वैश्वीकरण ने भारत को कैसे प्रभावित किया और भारत कैसे वैश्वीकरण को प्रभावित कर रहा है?
उत्तर:
वैश्वीकरण का भारत पर प्रभाव-वैश्वीकरण ने भारत को अत्यधिक प्रभावित किया है। यथा-

  1. वैश्वीकरण के कारण भारत की सकल घरेलू उत्पाद दर में तेजी से वृद्धि हुई है।
  2. वैश्वीकरण के कारण भारत की विकास दर 4.3% से बढ़कर 7 और 8% के आसपास बनी हुई है।
  3. विश्व के अधिकांश विकसित देश वैश्वीकरण की प्रक्रिया के प्रभावस्वरूप भारत को एक बड़ी मण्डी के रूप में देखने लगे हैं। इससे विदेशी निवेश बढ़ा है।
  4. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप भारतीय लोगों ने आजीविका के लिए विदेशों में बसना शुरू कर दिया है।
  5. वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप यूरोप और अमेरिका की पश्चिमी संस्कृति बड़ी तेजी से भारत में फैल रही है।
  6. वैश्वीकरण के कारण विश्व बाजार में विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के मध्य अन्तर्निर्भरता और प्रतियोगिता बढ़ गई है। घरेलू आर्थिक प्रगति के निर्धारण में अब अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों व आर्थिक दशाओं का भी प्रभाव पड़ता है। इससे राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लेने सम्बन्धी स्वायत्तता कुछ हद तक प्रभावित हुई है।

वैश्वीकरण पर भारत का प्रभाव-भारत ने भी वैश्वीकरण को कुछ हद तक प्रभावित किया है। यथा-

  1. भारत से अब अधिक लोग विदेशों में जाकर अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों का प्रसार कर रहे हैं।
  2. भारत में उपलब्ध सस्ते श्रम ने विश्व के देशों को इस ओर आकर्षित किया है।
  3. भारत ने कम्प्यूटर तथा तकनीक के क्षेत्र में बड़ी तेजी से उन्नति कर विश्व में अपना प्रभुत्व जमाया है।

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UP Board Class 12 Civics Chapter 9 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
बहुत-से नेपाली मजदूर काम करने के लिए भारत आते हैं। क्या यह वैश्वीकरण है?
उत्तर:
हाँ, श्रम का प्रवाह भी वैश्वीकरण का एक भाग है। एक देश के लोग दूसरे देश में जाकर मजदूरी करें। यह स्थिति भी विश्व के समस्त देशों को एक विश्व गाँव में बदलती है।

प्रश्न 2.
भारत में बिकने वाली चीन की बनी बहुत-सी चीजें तस्करी की होती हैं। क्या वैश्वीकरण के चलते तस्करी होती है?
उत्तर:
वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि हुई है। अब वैश्वीकरण के कारण आयात प्रतिबन्ध कम हो गए हैं इससे तस्करी में कमी हुई है। वैश्वीकरण के चलते तस्करी का प्रमुख कारण आयात पर प्रतिबन्ध तो समाप्त हो गया है, लेकिन तस्करी के अन्य कारण; जैसे—विक्रय पर लगने वाला कर, आयकर आदि अन्य करों की चोरी आदि कारण तो विद्यमान रहेंगे ही।

प्रश्न 3.
क्या साम्राज्यवाद का ही नया नाम वैश्वीकरण नहीं है? हमें नये नाम की जरूरत क्यों है?
उत्तर:
वैश्वीकरण, साम्राज्यवाद नहीं है। साम्राज्यवाद में राजनीतिक प्रभाव मुख्य रहता है। इसमें एक शक्तिशाली देश दूसरे देशों पर अधिकार करके उनके संसाधनों का अपने हित में शोषण करता है। यह एक जबरन चलने वाली प्रक्रिया है। लेकिन वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है।

इसके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आयाम हैं। इसमें विचारों, पूँजी, वस्तुओं और व्यापार तथा बेहतर आजीविका का प्रवाह पूरी दुनिया में तीव्र हो जाता है। इन प्रवाहों की निरन्तरता से विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव बढ़ रहा है तथा किसी राज्य की सम्प्रभुता को कोई चुनौती नहीं मिली है। अतः स्पष्ट है कि वैश्वीकरण साम्राज्यवाद से भिन्न तथा बहुआयामी प्रक्रिया है, इसलिए हमें इसके लिए नए नाम की आवश्यकता पड़ी है।

प्रश्न 4.
आप या आपका परिवार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जिन उत्पादों को इस्तेमाल करता है, उसकी एक सूची तैयार करें।
उत्तर:
मैं या मेरा परिवार
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अनेक उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे-कॉलगेट टूथपेस्ट, घड़ियाँ, पेय पदार्थ, लिवाइस आदि के बने परिधान, कार, माइक्रोवेव, फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन, फर्नीचर, मैकडोनाल्ड के भोजन, साबुन, बॉल पैन, रोशनी के बल्ब, शैम्पू, दवाइयाँ आदि।
(नोट-विद्यार्थी इस सूची को और विस्तार दे सकते हैं।)

प्रश्न 5.
जब हम सामाजिक सुरक्षा कवच की बात करते हैं तो इसका सीधा-सादा मतलब होता है कि कुछ लोग तो वैश्वीकरण के चलते बदहाल होंगे ही। तभी तो सामाजिक सुरक्षा कवच की बात की जाती है। है न?
उत्तर:
सामाजिक न्याय के पक्षधर इस बात पर जोर देते हैं कि सामाजिक सुरक्षा कवच तैयार किया जाना चाहिए ताकि जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं उन पर वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों को कम किया जा सके। इसका आशय यह है कि आर्थिक वैश्वीकरण से जनसंख्या के छोटे तबके को बड़े स्तर पर लाभ होगा जबकि नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ-सफाई की सुविधा आदि के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएँगे क्योंकि वैश्वीकरण के चलते सरकारें सामाजिक न्याय सम्बन्धी अपनी जिम्मेदारियों से हाथ खींचती हैं। इससे अल्पविकसित और विकासशील देशों के गरीब लोग एकदम बदहाल हो जाएंगे।

इससे स्पष्ट होता है कि वैश्वीकरण के चलते गरीब देशों के लोग बदहाल हो जाएँगे। इसीलिए उनके लिए सामाजिक सुरक्षा कवच की बात की जाती है।

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प्रश्न 6.
हम पश्चिमी संस्कृति से क्यों डरते हैं? क्या हमें अपनी संस्कृति पर विश्वास नहीं है?
उत्तर:
हम पश्चिमी संस्कृति से क्यों डरते हैं, इसका प्रमुख कारण यह है कि वैश्वीकरण का एक पक्ष सांस्कृतिक समरूपता है जिसमें विश्व-संस्कृति के नाम पर शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है। इससे पूरे विश्व की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती है जो समूची मानवता के लिए खतरनाक है।

हमें अपनी संस्कृति पर पूर्ण विश्वास है लेकिन हमारे ऊपर पाश्चात्य संस्कृति को जबरन लादा न जाए।

प्रश्न 7.
वैश्वीकरण के प्रभाव से आए कुछ उत्पादों की सूची बनाएँ, मसलन-खाद्य उत्पाद, बिजली से चलने वाले घरेलू इस्तेमाल के उपकरण और सुख-सुविधा के ऐसे सामान जिनसे आप परिचित हैं।
उत्तर:

  1. खाद्य उत्पाद हैं-चाइनीज’ भोजन, बर्गर, पीजा, मैगी, चाउमीन।
  2. बिजली से चलने वाले घरेलू इस्तेमाल के उपकरण हैं-टी०वी०, फ्रिज, गीजर, कम्प्यूटर, पंखा, एयरकण्डीशनर, इनवर्टर, मिक्सी, माइक्रोवेव।
  3. सुख-सुविधा के सामान हैं-स्कूटर, कार, ए०सी०, टेलीफोन, मोबाइल, कम्प्यूटर, फर्नीचर, इलेक्ट्रॉनिक सामान।

प्रश्न 8.
अपने पसन्दीदा टी०वी० कार्यक्रमों के नाम लिखें।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 9 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण से क्या अभिप्राय है? इसके पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण का अर्थ-जब कोई देश विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के साथ वस्तु, सेवा, पूँजी तथा बौद्धिक सम्पदा इत्यादि का किसी प्रतिबन्ध के बिना परस्पर आदान-प्रदान करता है, तो इसे वैश्वीकरण अथवा भूमण्डलीकरण के नाम से जाना जाता है। वैश्वीकरण तभी सम्भव है जब परस्पर ऐसे आदान-प्रदान के दौरान किसी भी देश द्वारा कोई रुकावट अर्थात् बाधा उत्पन्न न की जाए और इस प्रक्रिया को कोई ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था संचालित करे जिस पर सभी देशों का अटूट विश्वास हो तथा जो सभी की अनुमति से नीति-निर्धारक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करे।

जब सभी देश एक-समान नियमों के अन्तर्गत अपने व्यापार तथा निवेश का संचालन करते हैं तो स्वाभाविक रूप से एक ही धारा प्रभावित होती है और यही वैश्वीकरण है।

वैश्वीकरण के पक्ष में तर्क-वैश्वीकरण के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं-

  1. वैश्वीकरण से लोगों में विश्वव्यापी पारस्परिक जुड़ाव बढ़ा है।
  2. वैश्वीकरण के कारण पूँजी की गतिशीलता बढ़ी है। इससे प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश बढ़ा है तथा विकासशील देशों की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं पर निर्भरता कम हुई है।
  3. वैश्वीकरणं की प्रक्रिया द्वारा विकासशील देशों को उन्नत तकनीक का लाभ मिला सकता है।
  4. वैश्वीकरण ने विश्वव्यापी सूचना क्रान्ति को जन्म दिया है। इससे सामाजिक गतिशीलता बढ़ी है।
  5. वैश्वीकरण के कारणं रोजगार की गतिशीलता में भारी वृद्धि हुई है।

वैश्वीकरण के विपक्ष में तर्क-वैश्वीकरण के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-

  1. वैश्वीकरण की व्यवस्था धनिकों को ज्यादा धनी और गरीब को और ज्यादा गरीब बनाती है।
  2. वैश्वीकरण से राज्य के गरीबों के हितों की रक्षा करने की उसकी क्षमता में कमी आती है।
  3. वैश्वीकरण से परम्परागत संस्कृति की हानि होगी और लोग अपने सदियों पुराने जीवन मूल्य तथा तौर-तरीकों से हाथ धो बैठेंगे।
  4. वैश्वीकरण के चलते विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की एकाधिकारीवादी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
  5. वैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रभुतासम्पन्न राष्ट्रों द्वारा विकासशील देशों के बाजारों को हस्तगत करने के लिए कमजोर राष्ट्रों पर जबरन थोपी जा रही है।
  6. वैश्वीकरण से आर्थिक असमानता को बढ़ावा मिला है तथा तीसरी दुनिया के देशों में गरीबी बढ़ती जा रही है।
  7. इस प्रक्रिया का लाभ समाज का उच्च सुविधा सम्पन्न वर्ग उठा रहा है।

प्रश्न 2.
“वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है।” इस कथन की विस्तार से व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है। इसके राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पक्ष हैं जिनका विवरण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

1. वैश्वीकरण का राजनीतिक पक्ष (प्रभाव)—वैश्वीकरण के राजनीतिक पक्ष (प्रभाव) का वर्णन तीन आधारों पर किया जा सकता है-

(i) वैश्वीकरण के कारण बहुराष्ट्रीय निगमों के हस्तक्षेप से राज्य की स्थिति कमजोर हुई है। राज्यों के कार्य करने की क्षमता अर्थात् सरकारों को जो करना है उसे करने की ताकत में कमी आती है। सम्पूर्ण विश्व में आज लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा अब पुरानी पड़ गयी है और इसका स्थान न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य ने ले लिया है। अब राज्य कुछ मुख्य कार्यों तक ही अपने को सीमित रखता है; जैसे—कानून और व्यवस्था को बनाए रखना तथा अपने नागरिकों की सुरक्षा करना।

इस प्रकार के राज्य ने स्वयं को कई ऐसे लोक कल्याणकारी कार्यों से अलग कर लिया है जिनका लक्ष्य आर्थिक और सामाजिक कल्याण होता था। लोक कल्याणकारी राज्य के स्थान पर अब बाजार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का मुख्य निर्धारक है।

(ii) कुछ विद्वानों के अनुसार वैश्वीकरण के चलते राज्य की शक्तियाँ कम नहीं हुई हैं। राजनीतिक समुदाय के आधार के रूप में राज्य की प्रधानता को कोई चुनौती नहीं मिली है। राज्य कानून और व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अपने अनिवार्य कार्यों को पूरा कर रहे हैं। अपनी इच्छा से कई कार्यों से राज्य अपने आपको अलग कर रहे हैं।

(iii) वैश्वीकरण के कारण राज्यों को आधुनिक प्रौद्योगिकी प्राप्त हुई है जिसके बल पर राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं। इन सूचनाओं के आधार पर राज्य अधिक कारगर ढंग से कार्य कर सकते हैं। उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि हुई है।

2. वैश्वीकरण का आर्थिक पक्ष (प्रभाव)-वैश्वीकरण का आर्थिक पक्ष सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि आर्थिक आधार पर ही वैश्वीकरण की धारणा ने अधिक जोर पकड़ा है। आर्थिक वैश्वीकरण की प्रक्रिया में विश्व के विभिन्न देशों के मध्य आर्थिक प्रवाह तीव्र हो जाता है। कुछ आर्थिक प्रवाह स्वेच्छा से होते हैं तो कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं शक्तिशाली देशों द्वारा थोपे जाते हैं। वैश्वीकरण में वस्तुओं, सेवाओं, पूँजी, विचारों तथा जनता का एक देश से दूसरे देश में आवागमन आसान हुआ है। विश्व के अधिकांश देशों ने आयात से प्रतिबन्ध हटाकर अपने बाजारों को विश्व समुदाय के लिए खोल दिया है। अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विकासशील देशों में निवेश कर रही हैं।

यद्यपि वैश्वीकरण के समर्थकों के अनुसार इससे अधिकांश लोगों को लाभ प्राप्त होगा परन्तु वैश्वीकरण के आलोचक इस कथन से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार विकसित देशों ने अपने वीजा नियमों को कठोर बनाना शुरू कर दिया है जिससे लोगों के वैश्विक आवागमन में कमी आयी है। इसके अलावा आर्थिक वैश्वीकरण का लाभ धनिक वर्ग को अधिक प्राप्त हुआ है। निर्धन वर्ग आज भी इसके लाभों से वंचित है।

3. वैश्वीकरण का सांस्कृतिक पक्ष (प्रभाव)—वैश्वीकरण के सांस्कृतिक पक्ष ने भी लोगों को प्रभावित किया है। वैश्वीकरण का हमारे खाने-पीने, पहनने तथा सोचने पर प्रभाव पड़ रहा है। वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभावों को देखते हुए इस बात को बल मिला है कि यह प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचाएगी। विश्व संस्कृति के नाम पर शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति थोपी जा रही है, जिससे एक देश विशेष की संस्कृति के पतन का डर उत्पन्न हो गया है। परन्तु वैश्वीकरण के समर्थकों का मत है कि वैश्वीकरण से संस्कृति के पतन की आशंका निराधार है बल्कि इससे मिश्रित संस्कृति का उदय होता है।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभावों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभावों को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है-

I. वैश्वीकरण के सकारात्मक आर्थिक प्रभाव-

1. वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि–वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि हुई है। अलग-अलग देशों ने अपने यहाँ होने वाले आयात पर लगने वाले प्रतिबन्धों को कम किया है।

2. पूँजी के प्रवाह में वृद्धि-वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में पूँजी की आवाजाही में वृद्धि हुई है। पूँजी के आवाजाही पर अब अपेक्षाकृत कम प्रतिबन्ध है। अब धनी देश के निवेशकर्ता अपने धन का अपने देश के स्थान पर कहीं और निवेश कर सकते हैं विशेषकर विकासशील देशों में जहाँ उन्हें अधिक लाभ प्राप्त होगा।

3. विचारों के समक्ष राष्ट्र की सीमाओं की बाधा नहीं-वैश्वीकरण के कारण अब विचारों के समक्ष राष्ट्र की सीमाओं की बाधा नहीं रहीं, उनका प्रवाह अबाध हो गया है। इण्टरनेट एवं कम्प्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है।

4. व्यक्तियों के आवागमन में वृद्धि-वैश्वीकरण के कारण एक देश से दूसरे देश में लोगों के आवागमन में वृद्धि हुई है। एक देश के लोग दूसरे देश में काम-धन्धा कर रहे हैं। यद्यपि लोगों का आवागमन वस्तुओं और पूँजी के प्रवाह की गति से नहीं बढ़ा है।

5. आर्थिक समृद्धि का बढ़ना-वैश्वीकरण के कारण लोगों की आर्थिक समृद्धि बढ़ी है और खुलेपन के कारण अधिकाधिक जनसंख्या की खुशहाली बढ़ती है।

6. पारस्परिक जुड़ाव का बढ़ना-आर्थिक वैश्वीकरण से लोगों में पारस्परिक जुड़ाव बढ़ रहा है। पारस्परिक निर्भरता की गति अब तीव्र हो गयी है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में सहकार, व्यवसाय एवं लोगों के मध्य जुड़ाव बढ़ रहा है।

II. वैश्वीकरण के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव

  1. जनता का विभाजन-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में जनमत बड़ी गहराई में विभाजित हो गया है।
  2. सरकारों द्वारा सामाजिक न्याय की अपेक्षा-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें अपनी कुछ जिम्मेदारियों से अपना हाथ खींच रही हैं। इस कारण सामाजिक न्याय के पक्षधर लोग चिन्तित हैं। इनका मत है कि आर्थिक वैश्वीकरण से एक बड़े-छोटे वर्ग को लाभ प्राप्त हुआ है, जबकि नौकरी और जन-कल्याण के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो रहे हैं।
  3. गरीब देशों के लिए अहितकर विश्व में हो रहे अनेक आन्दोलनों ने बलपूर्वक किए जा रहे वैश्वीकरण को रोकने की आवाज उठायी है क्योंकि इससे गरीब देश आर्थिक रूप से बर्बादी की कगार पर पहुँच रहे हैं।
  4. विश्व के पुनः उपनिवेशीकरण का भय–विश्व के कुछ प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने चिन्ता जाहिर की है कि वर्तमान विश्व में हो रहा आर्थिक वैश्वीकरण धीरे-धीरे पुन: उपनिवेशीकरण की ओर ले जा रहा है।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के राजनीतिक प्रभाव वैश्वीकरण के राजनीतिक प्रभावों का विवेचन निम्नलिखित तीन बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

  1. वैश्वीकरण ने कुछ राज्यों में राज्य की शक्ति को कमजोर किया है, यथा-
    • वैश्वीकरण के कारण पूरी दुनिया में अब राज्य कुछेक मुख्य कामों; जैसे-कानून व्यवस्था को बनाए रखना तथा अपने नागरिकों की सुरक्षा करना आदि तक ही अपने को सीमित रखते हैं।
    • वैश्वीकरण की प्रक्रिया के कारण राज्य की जगह अब बाजार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है।
    • वैश्वीकरण के चलते पूरे विश्व में बहुराष्ट्रीय निगमों की भूमिका बढ़ी है। इससे सरकारों के अपने दम पर फैसला करने की क्षमता में कमी आई है।
  2. कुछ क्षेत्रों में राज्य की शक्ति पर वैश्वीकरण का कोई प्रभाव नहीं-राजनीतिक समुदाय के आधार के रूप में राज्य की प्रधानता को वैश्वीकरण से कोई चुनौती नहीं मिली है।
  3. वैश्वीकरण ने राज्य की शक्ति में वृद्धि भी की है-वैश्वीकरण के फलस्वरूप अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के बूते राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकता है। इस सूचना के दम पर राज्य ज्यादा कारगर ढंग से काम कर सकते हैं।

वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभाव निम्नलिखित हैं-

1. वैश्वीकरण के नकारात्मक सांस्कृतिक प्रभाव-वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभावों को देखते हुए इस भय को बल मिला है कि यह प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचाएगी क्योंकि वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता लाता है जिसमें विश्व संस्कृति के नाम पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है। इस कारण विभिन्न संस्कृतियाँ अब अपने को प्रभुत्वशाली अमेरिकी ढर्रे पर ढालने लगी हैं। इससे पूरे विश्व में विभिन्न संस्कृतियों की समृद्ध धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। यह स्थिति समूची मानवता के लिए खतरनाक है।

2. वैश्वीकरण के सकारात्मक सांस्कृतिक प्रभाव-वैश्वीकरण के कुछ सकारात्मक सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़े हैं। जैसे

  • बाहरी संस्कृति के प्रभावों से हमारी पसन्द-नापसन्द का दायरा बढ़ता है; जैसे-बर्गर के साथ-साथ मसाला डोसा भी अब हमारे खाने में शामिल हो गया है।
  • इसके प्रभावस्वरूप कभी-कभी संस्कृति का परिष्कार भी होता है; जैसे-नीली जीन्स के साथ खादी का कुर्ता पहनना।
  • वैश्वीकरण से हर संस्कृति कहीं ज्यादा अलग और विशिष्ट होती जा रही है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण के अच्छे प्रभाव को समझाइए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के अच्छे प्रभाव-

  1. वैश्वीकरण की अवधारणा आर्थिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाकर वस्तुओं के मूल्य कम कराने में मददगार सिद्ध होता है। इससे ज्यादा-से-ज्यादा आम उपभोक्ताओं को अधिकाधिक लाभ पहुँचता है।
  2. वैश्वीकरण के कारण एक ही वस्तु के विभिन्न उत्पादक उत्पन्न हो जाते हैं जिससे उपभोक्ता को उपलब्ध अनेक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ उत्पाद चयनित करने की स्वतन्त्रता मिल जाती है।
  3. प्रतिस्पर्धा के कारण देश में उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का उचित प्रकार से उपयोग हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक प्रगति में तीव्रता आ जाती है।
  4. वैश्वीकरण से राष्ट्रीय उद्योगों की वैदेशिक सम्बद्धता में भी अभिवृद्धि होती है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बढ़ने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 2.
वैश्वीकरण के चलते सम्पूर्ण संसार में वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि कैसे हुई है?
उत्तर:
जिस प्रक्रिया को आर्थिक वैश्वीकरण की उपमा दी जाती है उसमें दुनिया के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक प्रवाह तीव्रतम हो जाता है। जहाँ कुछ प्रवाह स्वेच्छा से होते हैं वहीं कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं तथा शक्तिशाली देशों द्वारा बलपूर्वक थोपे जाते हैं। ये प्रवाह अनेक प्रकार के हो सकते हैं। उदाहरणार्थ; वस्तुओं, पूँजी जनता अथवा विचारों का प्रवाह।

वैश्वीकरण के फलस्वरूप सम्पूर्ण दुनिया में वस्तुओं के व्यापार में अभिवृद्धि हुई है। विभिन्न देश अपने यहाँ होने वाले आयात पर प्रतिबन्ध लगाते हैं, लेकिन वर्तमान में ये प्रतिबन्ध ढीले पड़ गए हैं। ठीक इसी प्रकार विश्व में पूँजी के आवागमन पर अब कहीं कम प्रतिबन्ध है। व्यावहारिक धरातल पर इसका अभिप्राय यह हुआ कि पूँजीपति देशों के निवेशकर्ता अपनी पूँजी अपने देश के स्थान पर कहीं और निवेश कर सकते हैं। विशेष रूप से विकासशील देशों में पूँजी निवेश से उन्हें अधिक लाभ होता है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप अब विचारों के समक्ष राष्ट्र की सीमाओं की बाधा अर्थात् रुकावट नहीं रही, उनका प्रवाह अबाध हो गया है। कम्प्यूटर एवं इण्टरनेट से सम्बद्ध सेवाओं का विस्तार इसका जीवन्त उदाहरण है।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी ने किस प्रकार योगदान दिया?
उत्तर:
वैश्वीकरण में प्रौद्योगिकी के योगदान को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. नि:सन्देह टेलीग्राफ, टेलीफोन, इण्टरनेट तथा सूचना प्रौद्योगिकी के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के मध्य संचार क्रान्ति का बिगुल बजाया है।
  2. प्रारम्भ में जब मुद्रण अर्थात् छपाई की तकनीक विकसित हुई तब उसने राष्ट्रवाद की आधारशिला रखी थी। इसी तरह वर्तमान में हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि प्रौद्योगिकी का प्रभाव हमारी सोच को भी प्रभावित करेगा। हम स्वयं अपने सम्बन्ध में जिस प्रकार से सोचते हैं और हम सामूहिक जीवन के बारे में जिस ढंग से चिन्तन करते हैं उस पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव भी किसी-न-किसी रूप में पड़ता है।
  3. विचार, पूँजी, वस्तु तथा लोगों का विश्व के विभिन्न हिस्सों में सुगमतापूर्वक आवागमन सिर्फ प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति के फलस्वरूप ही सम्भव हो पाया है। इन प्रवाहों की गति में अन्तर हो सकता है।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण के गुणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. वैश्वीकरण की अवधारणा आर्थिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाकर वस्तुओं के मूल्य कम कराने में मददगार सिद्ध होती है। इससे ज्यादा-से-ज्यादा उपभोक्ताओं को अधिकाधिक लाभ पहुँचता है।
  2. वैश्वीकरण का एक गुण यह भी है कि इसकी वजह से एक ही वस्तु के विभिन्न उत्पादक मैदान में कूद पड़ते हैं, जिससे उपभोक्ताओं को उपलब्ध अनेक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ उत्पाद चयनित करने की स्वतन्त्रता मिल जाती है।
  3. प्रतिस्पर्धा के कारण देश में उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का उचित प्रकार से उपयोग हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक प्रगति में तीव्रता आ जाती है।
  4. वैश्वीकरण का एक अन्य गुण यह भी है कि इससे राष्ट्रीय उद्योगों की वैदेशिक सम्बद्धता में भी अभिवृद्धि होती है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बढ़ाने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण के दोषों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

  1. वैश्वीकरण को अपनाने से पूँजीवाद को प्रोत्साहन मिलता है।
  2. वैश्वीकरण में मूलभूत उद्योगों के स्थान पर उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बद्ध उद्योगों को अधिक महत्त्व दिया जाता है।
  3. विदेशी प्रतिस्पर्धा में हिस्सेदारी करने की वजह से राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को काफी क्षति पहुँचती है।
  4. चूँकि आर्थिक असमानता की वृद्धि में वैश्वीकरण का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। अतः इससे धनी तथा निर्धन के मध्य और अधिक दूरी बनती चली जाती है।
  5. वैश्वीकरण से राज्य की ताकत में कमी आयी है। इसके कारण राज्य ने लोक-कल्याणकारी कार्यों से अपना हाथ खींच लिया है जिसका लक्ष्य आर्थिक व सामाजिक कल्याण होता था। लोक-कल्याणकारी राज्य के स्थान पर अब बाजार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का निर्धारक बन गया है।

प्रश्न 6.
आर्थिक वैश्वीकरण क्या है?
उत्तर:
आर्थिक वैश्वीकरण-वैश्वीकरण के आर्थिक प्रभाव को आर्थिक वैश्वीकरण भी कहा जाता है। वैश्वीकरण का आर्थिक पक्ष बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि आर्थिक आधार पर ही वैश्वीकरण की धारणा ने जोर पकड़ा। आर्थिक वैश्वीकरण के कारण विश्व के विभिन्न देशों के मध्य आर्थिक प्रवाह तीव्र हो गया है। इसमें वस्तुओं, पूँजी एवं जनता का एक देश से दूसरे देश में जाना सरल हो गया है।

वैश्वीकरण के कारण अब विचारों का प्रवाह भी अबाध हो गया है। इण्टरनेट एवं कम्प्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार हुआ है। वैश्वीकरण के कारण विश्व के विभिन्न देशों की सरकारों ने एक-सी आर्थिक नीतियों को अपनाया है। यद्यपि वैश्वीकरण के समर्थकों का मत है कि वैश्वीकरण के कारण विश्व के अधिकांश लोगों का लाभ हुआ है। उनके जीवन स्तर में सुधार हुआ है तथा खुशहाली बढ़ी है। परन्तु इसके आलोचकों के अनुसार वैश्वीकरण का लाभ सम्पूर्ण आबादी को न मिलकर एक छोटे-से वर्ग को ही प्राप्त हुआ है।

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प्रश्न 7.
आर्थिक वैश्वीकरण के विरोध में कौन-कौन से तर्क दिए जा सकते हैं?
उत्तर:
आर्थिक वैश्वीकरण के विरोध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-

  1. विश्व जनमत का विभाजन-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में जनमत बड़ी गहराई से विभाजित हो गया है।
  2. सरकारों द्वारा सामाजिक न्याय की उपेक्षा–आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारें अपनी कुछ जिम्मेदारियों से अपना हाथ खींच रही है। इस कारण सामाजिक न्याय के पक्षधर लोग चिन्तित हैं। इनका कहना है कि आर्थिक वैश्वीकरण से जनसंख्या के छोटे वर्ग के लोगों को बड़े स्तर पर लाभ प्राप्त होगा, जबकि नौकरी और जनकल्याण के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएंगे।
  3. गरीब देशों के लिए अहितकर-विश्वभर में हो रहे अनेक आन्दोलनों ने बलपूर्वक किए जा रहे वैश्वीकरण को रोकने की आवाज बुलन्द की है क्योंकि इससे गरीब देश आर्थिक रूप से बर्बादी के कगार पर पहुँच जाएँगे विशेषकर इन देशों के नागरिकं बदहाल हो जाएँगे।
  4. विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण-विश्व के कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि वर्तमान विश्व में हो रहा आर्थिक वैश्वीकरण धीरे-धीरे पुनः उपनिवेशीकरण का रूप ले लेगा।

प्रश्न 8.
आर्थिक वैश्वीकरण के पक्ष में अपने तर्क दीजिए।
उत्तर:
आर्थिक वैश्वीकरण के पक्ष में प्रमुख तर्क निम्नलिखित हैं-

  1. समृद्धि में वृद्धि-आर्थिक वैश्वीकरण के कारण समृद्धि बढ़ती है एवं खुलेपन के कारण अधिकाधिक जनसंख्या की खुशहाली बढ़ती है।
  2. व्यापार में वृद्धि–आर्थिक वैश्वीकरण से व्यापार में वृद्धि होती है। वैश्विक स्तर पर व्यापार में वृद्धि से . प्रत्येक देश को अपना उत्कृष्ट प्रदर्शन करने का अवसर मिलता है। इससे सम्पूर्ण विश्व को लाभ प्राप्त होगा।
  3. आर्थिक वैश्वीकरण अपरिहार्य आर्थिक वैश्वीकरण के समर्थकों का तर्क है कि आर्थिक वैश्वीकरण अपरिहार्य है तथा इतिहास की धारा को अवरुद्ध करना कोई बुद्धिमत्ता का कार्य नहीं है।
  4. पारस्परिक जुड़ाव का बढ़ना-आर्थिक वैश्वीकरण से लोगों में पारस्परिक जुड़ाव बढ़ रहा है। पारस्परिक निर्धनता की गति अब तीव्र हो गयी है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में सरकार, व्यवसाय एवं लोगों के मध्य जुड़ाव बढ़ रहा है।

प्रश्न 9.
वैश्वीकरण की प्रक्रिया किस प्रकार विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचा सकती है?
उत्तर:
वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता लेकर आता है। सांस्कृतिक समरूपता की आड़ में विश्व संस्कृति के नाम पर शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति को थोपा जा रहा है। विश्व में राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली संस्कृति कम शक्तिशाली समाजों पर अपनी छाप छोड़ती है और विश्व वैसा ही दिखलाई देता है जैसा शक्तिशाली संस्कृति उसे बनाना चाहती है। यही कारण है कि नीली जीन्स या बर्गर-मसाला डोसा की लोकप्रियता का नजदीकी रिश्ता अमेरिकी जीवन-शैली के गहरे प्रभाव से है जो विश्व के मैक्डोनॉल्डीकरण की ओर संकेत देते हैं। उनका मानना है कि विभिन्न संस्कृतियाँ अब अपने को प्रभुत्वशाली अमेरिकी ढर्रे पर ढालने लगी हैं। इससे सम्पूर्ण विश्व की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। इसलिए यह केवल निर्धन देशों के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरनाक हो सकती है।

प्रश्न 10.
वैश्वीकरण के प्रतिरोध के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के प्रतिरोध के कारण-

  1. वैश्वीकरण, विश्वव्यापी पूँजीवाद की एक विशेष अवस्था है, जो धनिकों को अधिक धनी एवं गरीबों को और अधिक गरीब बनाती है।
  2. वैश्वीकरण से राज्य की शक्ति में कमी आती है और राज्य के कमजोर होने से गरीबों के हितों की रक्षा करने की उसकी क्षमता में कमी आती है।
  3. वैश्वीकरण से राजनीतिक दृष्टि से राज्य कमजोर होता है।
  4. वैश्वीकरण से परम्परागत संस्कृति की हानि होगी और लोग अपने सदियों पुराने जीवन-मूल्य एवं तौर-तरीके से हाथ धो बैठेंगे।
  5. वैश्वीकरण के चलते विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण के सम्बन्ध में प्रवाहों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
संवाद, पूँजी, विचार, वस्तु तथा लोगों का विश्व के विभिन्न भागों में आवागमन की सरलता प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति की वजह से ही सम्भव हुई है। इन प्रवाहों की गति में अन्तर हो सकता है। उदाहरणार्थ, विश्व के विभिन्न भागों के मध्य पूँजी एवं वस्तु की गतिशीलता लोगों के आवागमन की तुलना में अधिक तीव्र तथा व्यापक होगी।

प्रश्न 2.
वैश्वीकरण किस प्रकार एक बहुआयामी अवधारणा है?
उत्तर:
निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि वैश्वीकरण एक बहुआयामी अवधारणा है-

  1. इस अवधारणा का सम्बन्ध आर्थिक वैश्वीकरण, खुला बाजार, पूर्ण प्रतियोगिता तथा उदारीकरण से है।
  2. वैश्वीकरण की अवधारणा मानव गतिशीलता, पूँजी की गतिशीलता, प्रौद्योगिकी अन्तरण तथा नियन्त्रण मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करती है।
  3. वैश्वीकरण की अवधारणा सांस्कृतिक गतिशीलता का भी समर्थन करती है।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के चलते किस कारण से अब विचारों के प्रवाह से राष्ट्रीय सीमाओं की बाधा (रुकावट) नहीं रही है?
उत्तर:
प्रौद्योगिकी क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व वृद्धि की वजह से वैश्वीकरण के चलते अब विचारों के प्रवाह में राष्ट्रीय सीमाएँ किसी भी प्रकार से बाधक नहीं रह गई हैं। निःसन्देह टेलीग्राफ, टेलीफोन, माइक्रोचिप, इण्टरनेट आदि नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच क्रान्तिकारी बदलाव किए हैं। वैश्वीकरण प्रक्रिया के बाद वर्तमान में विभिन्न महाद्वीपों के लोग परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हैं। वे प्रत्यक्ष विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, प्रौद्योगिकी की वजह से सभी बाधाओं का अन्त कर दिया गया है।

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प्रश्न 4.
यह कथन कहाँ तक उचित है कि वैश्वीकरण राज्य की सम्प्रभुता का हनन करता है?
उत्तर:
उदारीकरण एवं निजीकरण की भाँति वैश्वीकरण के दो पहलुओं की वजह से राज्य का कल्याणकारी स्वरूप परिवर्तित हो रहा है और बाजार शक्तियाँ (माँग एवं पूर्ति) अत्यधिक प्रतिस्पर्धा को उत्पन्न कर रही हैं। अतः यह कहना उचित है कि वैश्वीकरण राज्य की सम्प्रभुता का हनन करता है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
वैश्वीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. वैश्वीकरण से अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय क्रियाकलापों में तेजी आ जाती है।
  2. वैश्वीकरण से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार का प्रादुर्भाव होता है।
  3. व्यापार का तीव्रता से विकास होने के कारण इसमें बहुराष्ट्रीय निगमों का अधिक महत्त्व होता है।
  4. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत होने की वजह से भौगोलिक तथा राजनीतिक गतिरोध समाप्त हो जाते हैं।

प्रश्न 6.
वैश्वीकरण के उदय के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. वैश्वीकरण के उदय का प्रमुख कारण युद्ध की सम्भावनाओं को कम करना था।
  2. इसके उदय का एक कारण राष्ट्रों के अलगाववाद को समाप्त करके उन्हें विश्व व्यवस्था में सक्रिय करना था।
  3. पर्यावरण सन्तुलन को लगातार बनाए रखना भी वैश्वीकरण के उदय का कारण रहा है।

प्रश्न 7.
वैश्वीकरण के समक्ष विद्यमान चुनौतियों में से प्रमुख चुनौतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण के समक्ष विद्यमान चुनौतियों में से प्रमुख रूप से निम्नलिखित चुनौतियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

  1. वैश्वीकरण के दौरान प्रत्येक देश हेतु यह आवश्यक है कि वह प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा को बनाए रखे।
  2. अनेक विकासशील देशों में स्वदेशी के नाम पर राजनीति की जाती है जो वैश्वीकरण के सामने कड़ी चुनौती प्रस्तुत करती है।
  3. अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का विकास करना भी वैश्वीकरण के समक्ष एक गम्भीर चुनौती है।

प्रश्न 8.
वैश्वीकरण की प्रक्रिया में लोगों की आवाजाही वस्तुओं और पूँजी के प्रवाह के समान क्यों बढ़ी है?
उत्तर:
वैश्वीकरण की प्रक्रिया में लोगों की आवाजाही बढ़ी है, लेकिन यह आवाजाही वस्तुओं और पूँजी के समान नहीं बढ़ पायी है। इसका कारण यह है कि विकसित देश अपनी वीजा नीति के माध्यम से अपनी राष्ट्रीय सीमाओं को बड़ी सावधानी से अभेद्य बनाए रखते हैं ताकि दूसरे देशों के नागरिक उनके देशों में आकर कहीं उनके नागरिकों के नौकरी-धन्धे पर कब्जा न कर लें।

प्रश्न 9.
‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ क्या है?
उत्तर:
वर्ल्ड सोशल फोरम (WSF) – नव उदारवादी वैश्वीकरण के विरोध का एक विश्वव्यापी मंच ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ है। इस मंच के तहत मानवाधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणवादी, मजदूर, युवा और महिला कार्यकर्ता एकजुट होकर नव-उदारवादी वैश्वीकरण का विरोध करते हैं।

प्रश्न 10.
वैश्वीकरण के विरोध में वामपन्थी क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
वैश्वीकरण के विरोध में वामपन्थी आलोचकों का तर्क है कि मौजूदा वैश्वीकरण विश्वव्यापी पूँजीवादी की एक विशेष अवस्था है जो धनिकों को और ज्यादा धनी और गरीब को और ज्यादा गरीब बनाती है।

प्रश्न 11.
दक्षिणपन्थी आलोचक वैश्वीकरण के विरोध में क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
वैश्वीकरण के दक्षिणपन्थी आलोचकों को-

  1. राजनीतिक अर्थों में राज्य के कमजोर होने की चिन्ता है।
  2. आर्थिक क्षेत्र में वे चाहते हैं कि कम-से-कम कुछ क्षेत्रों में आर्थिक आत्मनिर्भरता और संरक्षणवाद का दौर फिर कायम हो।
  3. सांस्कृतिक सन्दर्भ में इनकी चिन्ता है कि इससे परम्परागत संस्कृति की हानि होगी।

प्रश्न 12.
सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण से हर संस्कृति कहीं ज्यादा अलग और विशिष्ट होती जा रही है। इस प्रक्रिया को सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण कहते हैं। इसका आशय है कि सांस्कृतिक मेल-जोल का प्रभाव एकतरफा नहीं होता है, बल्कि दुतरफा होता है।

प्रश्न 13.
विश्व सामाजिक मंच एक मुक्त आकाश का द्योतक है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैश्वीकरण में विश्व सामाजिक मंच एक मुक्त आकाश के समान होगा। जिस प्रकार मुक्त आकाश सम्पूर्ण पक्षियों के लिए खुला होता है, ठीक उसी प्रकार विश्व को एक सामाजिक मंच मान लिया जाए तो सभी जगह उदारीकरण की अर्थव्यवस्था आ जाएगी जो सभी के लिए खुली होगी।

प्रश्न 14.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि वैश्वीकरण के परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़े बिना संस्कृति का परिष्कार होता है।
उत्तर:
बाहरी संस्कृति के प्रभावों से कभी-कभी परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़े बिना संस्कृति का परिष्कार होता है। उदाहरण के लिए, नीली जीन्स भी हथकरघा पर बुने खादी के कुर्ते के साथ खूब चलती है। जीन्स के ऊपर कुर्ता पहने अमेरिकियों को देखना अब सम्भव है।

प्रश्न 15.
स्पष्ट कीजिए कि कभी-कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसन्द-नापसन्द का दायरा बढ़ता है।
उत्तर:
कभी-कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसन्द-नापसन्द का दायरा बढ़ता है। उदाहरण के लिए बर्गर, मसाला डोसा का विकल्प नहीं है, इसलिए बर्गर से मसाला-डोसा को कोई खतरा नहीं है। इससे इतना मात्र हुआ है कि हमारे भोजन की पसन्द में एक और चीज शामिल हो गई है।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्वीकरण है-
(a) पूँजी का प्रवाह
(b) वस्तुओं का प्रवाह
(c) विचारों का प्रवाह
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 2.
वैश्वीकरण का राजनीतिक प्रभाव है-
(a) वस्तुओं के व्यापार में वृद्धि
(b) आर्थिक प्रवाह की तीव्रता
(c) सांस्कृतिक समरूपता
(d) राज्य के कार्यों में कमी।
उत्तर:
(d) राज्य के कार्यों में कमी।

प्रश्न 3.
वैश्वीकरण के कारण सम्पूर्ण विश्व में वस्तुओं के व्यापार में …… हुई है।
(a) कमी
(b) वृद्धि
(c) कोई परिवर्तन नहीं
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(b) वृद्धि।

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प्रश्न 4.
मैकडोनल्डीकरण वैश्वीकरण के किस प्रभाव का संकेत देता है-
(a) वित्तीय प्रभाव
(b) राजनीतिक प्रभाव
(c) आर्थिक प्रभाव
(d) सांस्कृतिक प्रभाव।
उत्तर:
(d) सांस्कृतिक प्रभाव।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण का विरोध नहीं करता-
(a) वर्ल्ड सोशल फोरम
(b) बहुराष्ट्रीय निगम
(c) इण्डियन सोशल फोरम
(d) वामपन्थी कार्यकर्ता।
उत्तर:
(b) बहुराष्ट्रीय निगम।

प्रश्न 6.
भारत में आर्थिक सुधारों की योजना प्रारम्भ हुई थी-
(a) सन् 1991 में
(b) सन् 2002 में
(c) सन् 2005 में
(d) सन् 2011 में
उत्तर:
(a) सन् 1991 में।

प्रश्न 7.
आर्थिक वैश्वीकरण का दुष्परिणाम है-
(a) व्यापार में वृद्धि
(b) पूँजी के प्रवाह में वृद्धि
(c) जनमत के विभाजन में वृद्धि
(d) विचारों के प्रवाह में वृद्धि।
उत्तर:
(c) जनमत के विभाजन में वृद्धि।
प्रश्न 8.
वैश्वीकरण के कारण जिस सीमा तक वस्तुओं का प्रवाह बढ़ा है उस सीमा तक प्रवाह नहीं बढ़ा है-
(a) पूँजी का
(b) व्यापार का
(c) लोगों की आवाजाही का
(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) लोगों की आवाजाही का।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Environment and Natural Resources

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UP Board Class 12 Civics Chapter 8 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
पर्यावरण के प्रति बढ़ते सरोकारों का क्या कारण है? निम्नलिखित में सबसे बेहतर विकल्प चुनें-
(क) विकसित देश प्रकृति की रक्षा को लेकर चिन्तित हैं।
(ख) पर्यावरण की सुरक्षा मूलवासी लोगों और प्राकृतिक पर्यावासों के लिए जरूरी है।
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित कथनों में प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगाएँ। ये कथन पृथ्वीसम्मेलन के बारे में हैं
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भाग लिया।
(ख) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में हुआ।
(ग) वैश्विक पर्यावरण मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया।
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी।
उत्तर:
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भाग लिया।
(ख) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में हुआ।
(ग) वैश्विक पर्यावरण मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया।
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी।

प्रश्न 3.
‘विश्व की साझी विरासत’ के बारे में निम्नलिखित में कौन-से कथन सही हैं-
(क) धरती का वायुमण्डल, अण्टार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अन्तरिक्ष को ‘विश्व की साझी विरासत’ माना जाता है।
(ख) ‘विश्व की साझी विरासत’ किसी राज्य के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आते।
(ग) ‘विश्व की साझी विरासत’ के प्रबन्धन के सवाल पर उत्तरी व दक्षिणी देशों के बीच मतभेद है।
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश ‘विश्व की साझी विरासत’ को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीं ज्यादा चिन्तित हैं।
उत्तर:
(क) धरती का वायुमण्डल, अण्टार्कटिका, समुद्री सतह व बाहरी अन्तरिक्ष को विश्व की साझी विरासत माना जाता है। (सही)
(ख) ‘विश्व की साझी विरासत’ किसी राज्य के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आती। (सही)
(ग) ‘विश्व की साझी विरासत’ के प्रबन्धन के सवाल पर उत्तरी व दक्षिणी देशों के बीच मतभेद है। (सही)
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश विश्व की साझी विरासत’ को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीं ज्यादा चिन्तित हैं। (गलत)

प्रश्न 4.
रियो सम्मेलन के क्या परिणाम हुए?
उत्तर:
रियो सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन) संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में सन् 1992 में ब्राजील के शहर रियो-डी-जेनेरियो में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में 170 देशों, हजारों स्वयंसेवी संगठनों तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया। यह सम्मेलन पर्यावरण व विकास के मुद्दे पर केन्द्रित था। इस सम्मेलन के अग्रलिखित परिणाम हुए-

(1) इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप विश्व राजनीति के दायरे में पर्यावरण को लेकर बढ़ते सरोकारों को एक ठोस रूप मिला।

(2) रियो सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के सम्बन्ध में कुछ नियमाचार निर्धारित किए गए।

(3) भविष्य के विकास के लिए ‘एजेण्डा-21’ प्रस्तावित किया गया जिसमें विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाए गए। इसमें टिकाऊ विकास की धारणा को विकास रणनीति के रूप में समर्थन प्राप्त हुआ।

(4) इस सम्मेलन में पर्यावरण रक्षा के बारे में धनी व गरीब देशों अथवा उत्तरी गोलार्द्ध व दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के दृष्टिकोण में मतभेद उभरकर सामने आए। भारत व चीन तथा ब्राजील जैसे विकासशील देशों का तर्क था कि चूंकि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन विकसित देशों ने अधिक किया है, अत: वे पर्यावरण प्रदूषण के लिए अधिक उत्तरदायी हैं। अत: उन्हें पर्यावरण रक्षा हेतु अधिक संसाधन व प्रौद्योगिकी आदि उपलब्ध कराना चाहिए। कई धनी देश इस तर्क से सहमत नहीं थे।

(5) अन्तत: रियो सम्मेलन ने यह स्वीकार किया कि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग और व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट जरूरतों का लेकिन अलग-अलग भूमिका का सिद्धान्त स्वीकृत किया गया। इस सिद्धान्त का तात्पर्य है कि पर्यावरण के विश्वव्यापी क्षय में विभिन्न राज्यों का योगदान अलग-अलग है जिसे देखते हुए विभिन्न राष्ट्रों की पर्यावरण रक्षा के प्रति साझी, किन्तु अलग-अलग जिम्मेदारी होगी।

संक्षेप में, रियो सम्मेलन के बाद पर्यावरण का प्रश्न विश्व राजनीति में महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में उभरा।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Environment and Natural Resources

प्रश्न 5.
‘विश्व की साझी विरासत’ का क्या अर्थ है? इसका दोहन व प्रदूषण कैसे होता है?
उत्तर:
साझी विरासत का अर्थ साझी विरासत का अर्थ उन संसाधनों से है जिन पर किसी एक का नहीं बल्कि पूरे समुदाय का अधिकार होता है। समुदाय स्तर पर नदी, कुआँ, चरागाह आदि साझी सम्पदा के उदाहरण हैं।

विश्व स्तर पर कुछ संसाधन तथा क्षेत्र ऐसे हैं जो किसी एक देश के सम्प्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं, इसलिए उनका प्रबन्धन साझे तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इसे विश्व सम्पदा या मानवता की साझी विरासत कहा जाता है। इस साझी विरासत में पृथ्वी का वायुमण्डल, अण्टार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अन्तरिक्ष शामिल हैं।

विश्व की साझी विरासत का दोहन व प्रदूषण साझी विरासत के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन व इनके प्रदूषण का क्रम जारी है। उदाहरण के लिए, यद्यपि सन् 1959 के बाद अण्टार्कटिका महाप्रदेश में मानवीय गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसन्धान, मत्स्य आखेट और पर्यटन तक सीमित रही हैं परन्तु इसके बावजूद इस महादेश के कुछ हिस्से अवशिष्ट पदार्थ, जैसे तेल का रिसाव, के कारण अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं। भारत ने अनुसन्धान हेतु अण्टार्कटिका प्रदेश में कई वैज्ञानिक दल भेजे हैं तथा वहाँ भारत का गंगोत्री नामक स्थायी अनुसन्धान केन्द्र भी स्थित है।

इसी तरह क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैसों के असीमित उत्सर्जन के कारण वायुमण्डल की ओजोन परत का . क्षरण हो रहा है। 1980 के दशक के मध्य में अण्टार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद की खोज एक आँख खोल देने वाली घटना है। ओजोन परत के क्षय होने पर सूरज की पराबैंगनी किरणें मनुष्यों तथा फसलों व पशुओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं।

तटीय क्षेत्रों में औद्योगिकी व व्यावसायिक गतिविधियों के कारण समुद्री सतह प्रदूषित हो रही है। कई बार तेल समुद्री सतह पर परत के रूप में फैल जाता है, जिससे समुद्री जीवों व वनस्पतियों को नुकसान होता है। इसी प्रकार पर्यावरण प्रदूषण से ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा बढ़ जाती है तथा वायुमण्डल व जलीय स्रोत भी प्रभावित होते हैं। इस प्रदूषण से पारिस्थितिकी व जलवायु परिवर्तन पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं।

साझी विरासत की सुरक्षा हेतु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई महत्त्वपूर्ण समझौते; जैसे-अण्टार्कटिका सन्धि (1959) माण्ट्रियल प्रोटोकॉल (1991) हो चुके हैं। परन्तु पारिस्थितिक सन्तुलन के सम्बन्ध में अपुष्ट वैज्ञानिक साक्ष्यों और समय सीमा को लेकर मतभेद पैदा होते रहते हैं, जिससे विश्व समुदाय में सहयोग हेतु आम सहमति बनाना कठिन है।

प्रश्न 6.
‘साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियों’ से क्या अभिप्राय है? हम इस विचार को कैसे लागू कर सकते हैं?
उत्तर:
विश्व पर्यावरण की रक्षा के सम्बन्ध में ‘साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियाँ’ सिद्धान्त के प्रतिपादन का तात्पर्य है कि चूंकि विश्व पर्यावरण की रक्षा में विकसित देशों की जिम्मेदारी अधिक है। यह जिम्मेदारी विकसित व विकासशील देशों के लिए बराबर नहीं हो सकती। इसके अलावा अभी गरीब देश विकास के पथ पर गुजर रहे हैं, अत: उनके ऊपर पर्यावरण रक्षा की जिम्मेदारी विकसित देशों के बराबर नहीं हो सकती। इस प्रकार रियो सम्मेलन ने माना कि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग और व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट जरूरतों का ध्यान रखना चाहिए।

इसी सन्दर्भ में रियो घोषणा-पत्र का कहना है कि “धरती के पारिस्थितिकी तन्त्र की अखण्डता व गुणवत्ता की बहाली सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए सभी राष्ट्र विश्व बन्धुत्व की भावना से आपस में सहयोग करेंगे। पर्यावरण के विश्वव्यापी अपक्षय में विभिन्न राष्ट्रों का योगदान अलग-अलग है। इसे देखते हुए विभिन्न राष्ट्रों की साझी, किन्तु अलग-अलग जिम्मेदारी होगी।”

साझी जिम्मेदारी तथा अलग-अलग भूमिका के सिद्धान्त को लागू करने के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न देशों द्वारा पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी गैसों के उत्सर्जन व तत्त्वों के प्रयोग का आकलन किया जाए तथा प्रदूषण रोकने के प्रयासों में उसी अनुपात में उस देश की जिम्मेदारी तय की जाए। पुन: चूँकि पर्यावरण प्रदूषण का मुद्दा एक साझा वैश्विक मुद्दा है अत: विकसित देशों को आधुनिक प्रौद्योगिकी का विकास कर गरीब देशों को उपलब्ध कराना आवश्यक है।

जो देश अभी तक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नहीं कर पाए हैं तथा अभी विकास की प्रक्रिया में पीछे हैं, उन्हें आधुनिक प्रौद्योगिकी व तकनीक प्रदान कर पर्यावरण रक्षा हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अन्यथा ऐसे देश ‘टिकाऊ विकास’ (Sustainable Development) की रणनीति को अपनाने हेतु आकर्षित नहीं होंगे। इसी सिद्धान्त के आधार पर जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में क्योटो प्रोटोकॉल, सन् 1997 में चीन तथा भारत जैसे विकासशील देशों को फ्लोरोफ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन की सीमा में छूट दी गई है।

प्रश्न 7.
वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक से विभिन्न देशों के प्राथमिक सरोकार क्यों बन गए हैं?
उत्तर:
वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक में निम्नलिखित कारणों से विभिन्न देशों में प्राथमिक सरोकार बन गए हैं-

(1) दुनिया में जहाँ जनसंख्या बढ़ रही है वहीं कृषि योग्य भूमि में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है। जलाशयों की जलराशि में कमी तथा उनका प्रदूषण, चरागाहों की समाप्ति तथा भूमि के अधिक सघन उपयोग से उसकी उर्वरता कम हो रही है तथा खाद्यान्न उत्पादन जनसंख्या के अनुपात से कम हो रहा है।

(2) संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व विकास रिपोर्ट, 2006 के अनुसार जल स्रोतों के प्रदूषण के कारण दुनिया की एक अरब बीस करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता। 30 लाख से ज्यादा बच्चे प्रदूषण के कारण मौत के शिकार हो जाते हैं।

(3) वनों के कटाव से जैव-विविधता का क्षरण तथा विपरीत जलवायु परिवर्तन का खतरा उत्पन्न हो गया है।

(4) फ्लोरोफ्लोरो कार्बन, गैसों के उत्सर्जन से जहाँ वायुमण्डल की ओजोन परत का क्षय हो रहा है, वहीं ग्रीन हाऊस गैसों के कारण ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग से कई देशों के जलमग्न होने का खतरा बढ़ गया है।

(5) समुद्र तटीय क्षेत्रों के प्रदूषण के कारण समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। चूंकि विश्व समुदाय को यह आभास हो गया है कि उक्त समस्याएँ वैश्विक हैं तथा इनका समाधान बिना वैश्विक सहयोग के सम्भव नहीं है, अतः पर्यावरण का मुद्दा विश्व राजनीति का भी अंग बन गया है। प्रत्येक राष्ट्र समूह (विकसित व विकासशील) अपने हितों को ध्यान में रखकर पर्यावरण रक्षा का एजेण्डा प्रस्तुत कर रहा है। परिणामस्वरूप, सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में विश्व पर्यावरण सम्मेलन का आयोजन किया गया। विशेष रूप से इस सम्मेलन के बाद पर्यावरण व विकास से जुड़े विभिन्न पहलुओं, यथा-टिकाऊ विकास, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, जैविक विविधता, मूल देशी जनता के अधिकार व अलग-अलग भूमिका की धारणा पर विस्तार से चर्चा की गई।

उक्त पृष्ठभूमि में पर्यावरण का मुद्दा विभिन्न राष्ट्रों के लिए प्रथम सरोकार के रूप में उभरकर सामने आया।
हए।

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प्रश्न 8.
पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी है कि विभिन्न देश सुलह व सहकार की नीति अपनाएँ। पर्यावरण के सवाल पर उत्तरी व दक्षिणी देशों के बीच जारी वार्ताओं की रोशनी में इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर:
पृथ्वी व उसके पर्यावरण को बढ़ती जनसंख्या, तीव्र औद्योगिक विकास व प्राकृतिक संसाधनों के अतिशय दोहन के कारण गम्भीर खतरा बना हुआ है। पर्यावरण प्रदूषण की प्रकृति ऐसी है कि इसे किसी देश की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। इसका प्रभाव वैश्विक है। अत: इसके सुधार के प्रयास भी वैश्विक स्तर पर होने चाहिए।

विश्व पर्यावरण सुरक्षा के सम्बन्ध में विभिन्न राष्ट्रों के मध्य सहयोग की जो बातचीत चल रही है, उसमें उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित देशों तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के विकासशील देशों के नजरिए में मतभेद देखने में आया है। विकसित देश पर्यावरण क्षरण के वर्तमान स्तर पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए इसके संरक्षण में सभी राष्ट्रों की समान जिम्मेदारी व भूमिका के हिमायती हैं। इसके विपरीत गरीब देशों का तर्क है कि ऐतिहासिक दृष्टि से विकसित देशों ने पर्यावरण क्षरण किया है तथा प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन किया है, अतः विश्व पर्यावरण की रक्षा में विकसित देशों की भूमिका गरीब देशों की तुलना में अधिक होनी चाहिए। दूसरा, विकासशील देशों में अभी पर्याप्त औद्योगिक विकास नहीं हो पाया है अत: पर्यावरण सुरक्षा की जिम्मेदारी इन देशों की कम होनी चाहिए।

सन् 1992 के अन्तर्राष्ट्रीय रियो सम्मेलन में ये मतभेद खुलकर सामने आए। इसीलिए सम्मेलन के प्रस्ताव के बीच का रास्ता अपनाया गया जिसमें कहा गया कि विश्व पर्यावरण की सुरक्षा व गुणवत्ता में सभी विश्व समुदाय की साझी जिम्मेदारी होगी, परन्तु इस संरक्षण में विकसित व विकासशील देशों की भूमिकाएँ अलग-अलग होंगी। अर्थात् विकसित देश संसाधनों व प्रौद्योगिकी के माध्यम से विश्व पर्यावरण की सुरक्षा में अधिक योगदान देंगे।

उपर्युक्त मतभेद के बावजूद यह स्पष्ट है कि विश्व पर्यावरण की वैश्विक समस्या के कारण इसकी सुरक्षा हेतु विश्व सहयोग व सहकार की आवश्यकता है तथा विश्व समूहों को इस दिशा में अधिकाधिक सहयोग हेतु तत्पर होना आवश्यक है।

प्रश्न 9.
विभिन्न देशों के सामने सबसे गम्भीर चुनौती वैश्विक पर्यावरण को आगे कोई नुकसान पहुँचाए बगैर आर्थिक विकास करने की है। यह कैसे हो सकता है? कुछ उदाहरणों के साथ समझाएँ।
उत्तर:
गत 50 वर्षों में विश्व में हुए आर्थिक व औद्योगिक विकास से स्पष्ट हो जाता है कि विकास की यात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ है। इसके कारण पारिस्थितिकी सन्तुलन इतना अधिक बिगड़ गया है कि वह मानव समुदाय के लिए एक संकट का रूप धारण कर रहा है। वायुमण्डल में हुए प्रदूषण में ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत का क्षरण तथा जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ खड़ी हुई हैं। भूमि तथा जलीय संसाधनों का भी प्रदूषण बढ़ा है। वनों की कटाई से जैविक विविधता तथा जलवायु पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

अत: विश्व समुदाय ने इस बात पर आवश्यकता अनुभव की कि विकास की रणनीति ऐसी हो जिससे पर्यावरण की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न न हो। एक वैकल्पिक अवधारणा के रूप में सन् 1978 में छपी बर्टलैण्ड रिपोर्ट (अवर कॉमन फ्यूचर) में टिकाऊ विकास (Sustainable Development) का प्रतिपादन किया गया था। रिपोर्ट में चेताया गया था कि औद्योगिक विकास के चालू तौर-तरीके आगे चलकर प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से टिकाऊ साबित नहीं होंगे।

सन् 1992 में रियो सम्मेलन में पर्यावरण की रक्षा की दृष्टि से टिकाऊ विकास की धारणा पर बल दिया गया था। टिकाऊ विकास रणनीति में विकास के ऐसे साधन अपनाए जाते हैं जिनसे प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त व जीवन्त बने रहें। इसमें विकास को पर्यावरण रक्षा के साथ जोड़ दिया जाता है तथा प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा विकास का लक्ष्य बन जाता है।

उदाहरण के लिए, वर्तमान में हम ऊर्जा की माँग को देखते हुए गैर-रम्परागत स्रोतों; जैसे—पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, भू-तापीय, बायो-गैस आदि का दोहन कर सकते हैं, जिससे विकास में ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन 135 के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधन भी संरक्षित रहेंगे। इसी तरह नवीन तकनीक व मशीनों के प्रयोग कर ग्रीन हाऊस गैसों व क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकते हैं। विकास के साथ वनों का संरक्षण, भू-जल संरक्षण, सामाजिक-वानिकी आदि को अपनाकर हम संसाधनों की सुरक्षा के साथ-साथ विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

निष्कर्षतः टिकाऊ विकास की धारणा के द्वारा हम पर्यावरण रक्षा व विकास दोनों लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जंगल के सवाल पर राजनीति, पानी के सवाल पर राजनीति और वायुमण्डल के मसले पर राजनीति! फिर किस बात में राजनीति नहीं है!
उत्तर:
वर्तमान में विश्व की स्थिति कुछ ऐसी बन गई है, जहाँ प्रत्येक बात में राजनीति होने लगी है। इससे ऐसा लगता है कि अब कोई विषय ऐसा नहीं बचा है जिस पर राजनीति नहीं हो।

प्रश्न 2.
क्या पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नजरिए में अन्तर है?
उत्तर:
पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नजरिए में अन्तर है। धनी देशों की मुख्य चिन्ता ओजोन परत के छेद और वैश्विक ताप वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) को लेकर है जबकि गरीब देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबन्धन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज्यादा चिन्तित हैं।

धनी देश पर्यावरण के मुद्दे पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस रूप में पर्यावरण आज मौजूद है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो, जबकि निर्धन देशों का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को हानि अधिकांशतः विकसित देशों के औद्योगिक विकास से पहुँची है। यदि धनी देशों ने पर्यावरण को अधिक हानि पहुँचायी है तो उन्हें इस हानि की भरपाई करने की जिम्मेदारी भी अधिक उठानी चाहिए। साथ ही निर्धन देशों पर वे प्रतिबन्ध न लगें जो विकसित देशों पर लगाए जाने हैं।

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प्रश्न 3.
क्योटो प्रोटोकॉल के बारे में और अधिक जानकारी एकत्र करें। किन बड़े देशों ने इस पर दस्तखत नहीं किए और क्यों?
उत्तर:
क्योटो प्रोटोकॉल-जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में विभिन्न देशों के सम्मेलन का आयोजन जापान के क्योटो शहर में 1 दिसम्बर से 11 दिसम्बर, 1997 तक हुआ। इस सम्मेलन में 150 देशों ने हिस्सा लिया और जलवायु परिवर्तन को कम करने की वचनबद्धता को रेखांकित किया। इस प्रोटोकॉल में ग्रीन हाऊस गैसों के उत्जर्सन को कम करने के लिए सुनिश्चित, ठोस और समयबद्ध उपाय करने पर बल दिया गया।

यद्यपि इस बैठक में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और अधिक बढ़ गए थे तथापि 11 दिसम्बर, 1997 को क्योटो प्रोटोकॉल (न्यायाचार) को दोनों प्रकार के देशों द्वारा स्वीकार कर लिया गया।

इस प्रोटोकॉल (न्यायाचार) के प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं-

  1. इसमें विकसित देशों को अपने सभी छह ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन स्तर को सन् 2008 से 2012 तक सन् 1990 के स्तर से औसतन 5.2% कम करने को कहा गया।
  2. यूरोपीय संघ को सन् 2012 तक ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन स्तर में 8%, अमेरिका को 7%, जापान तथा कनाडा को 6% की कमी करनी होगी, जबकि रूस को अपना वर्तमान उत्सर्जन स्तर सन् 1990 के स्तर पर बनाए रखना होगा।
  3.  इस अवधि में ऑस्ट्रेलिया को अपने उत्सर्जन स्तर को 8 प्रतिशत तक बढ़ाने की छूट दी गई।
  4. विकासशील देशों को निर्धारित लक्ष्य के उत्सर्जन स्तर में कमी करने की अनुमति दी गई।
  5. इस प्रोटोकॉल में उत्सर्जन के दायित्वों की पूर्ति के लिए विकासशील देश विकास में स्वैच्छिक भागीदारी में शामिल होंगे। इस हेतु विकासशील देशों में पूँजी निवेश करने के लिए विकसित देशों को ऋण की सुविधा उपलब्ध होगी।

प्रश्न 4.
लोग कहते हैं कि लातिनी अमेरिका में एक नदी बेच दी गई। साझी सम्पदा कैसे बेची जा सकती है?
उत्तर:
साझी सम्पदा का अर्थ होता है-ऐसी सम्पदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का स्वामित्व हो। ऐसे संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के सन्दर्भ में समूह के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होते हैं और समान उत्तरदायित्व निभाने होते हैं। लेकिन वर्तमान में निजीकरण, जनसंख्या वृद्धि और पारिस्थितिकी तन्त्र की गिरावट समेत कई कारणों से पूरी दुनिया में साझी सम्पदा का आकार घट रहा है। गरीबों को साझी सम्पदा की उपलब्धता कम हो रही है। सम्भवत: लातिनी अमेरिका में इन्हीं कारणों से नदी पर किसी मनुष्य समुदाय या राज्य ने अधिकार कर लिया हो और वह साझी सम्पदा न रही हो। ऐसी स्थिति में उसे उसके स्वामित्व वाले समूह ने किसी अन्य को बेच दिया हो। इस प्रकार साझी सम्पदा को निजी सम्पदा में परिवर्तित कर उसे बेचा जा रहा है।

प्रश्न 5.
मैं समझ गया! पहले उन लोगों ने धरती को बर्बाद किया और अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है। क्या यही है हमारा पक्ष?
उत्तर:
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित बुनियादी नियमाचार में चर्चा चली कि तेजी से औद्योगिक होते देश (जैसे-ब्राजील, चीन और भारत) नियमाचार की बाध्यताओं का पालन करते हुए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करें। भारत इस बात के खिलाफ है। उसका कहना है कि भारत पर इस तरह की बाध्यता अनुचित है क्योंकि सन् 2030 तक उसकी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर मात्र 1.6 ही होगी, जो आधे से भी कम होगी। बावजूद विश्व के (सन् 2000) औसत (3.8 टन/प्रति व्यक्ति) के आधे से भी कम होगा।

भारत या विकासशील देशों के उक्त तर्कों को देखते हुए यह आलोचनात्मक टिप्पणी की गई है कि पहले उन लोगों ने अर्थात् विकसित देशों ने धरती को बर्बाद किया, इसलिए उन पर उत्सर्जन कम करने की बाध्यता को लागू करना न्यायसंगत है और विकासशील देशों में कार्बन की दर कम है इसलिए इन देशों पर बाध्यता नहीं लागू की जाए। इसका यह अर्थ निकाला गया है कि अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है।

लेकिन भारत या विकासशील देशों का अपना पक्ष रखने का यह आशय नहीं है बल्कि आशय यह है कि विकासशील देशों में अभी कार्बन उत्सर्जन दर बहुत कम है तथा सन् 2030 तक यह मात्र 1.6 टन/प्रति व्यक्ति ही होगी, इसलिए इन देशों को अभी इस नियमाचार की बाध्यता से छूट दी जाए ताकि वे अपना आर्थिक और सामाजिक विकास कर सकें। साथ ही ये देश स्वेच्छा से कार्बन की उत्सर्जन दर को कम करने का प्रयास करते रहेंगे।

प्रश्न 6.
क्या आप पर्यावरणविदों के प्रयास से सहमत हैं? पर्यावरणविदों को यहाँ जिस रूप में चित्रित किया गया है क्या आपको वह सही लगता है?
उत्तर:
चित्र में दर से पर्यावरणविदों को अपने किसी उपकरण से वृक्ष को जाँचते हुए या पानी देते हुए दिखाया गया है। एक व्यक्ति के पीछे पाँच प्राणी खड़े हैं। वे वृक्ष की तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। पेड़ पर एक खम्भा है जिस पर विद्युत की तार दिखाई देती हैं। शायद वे पेड़ को सूखा समझकर इसे काटे जाने की सिफारिश करना चाहते हैं। वे विशेषज्ञ होते हुए पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभावों को नहीं देख रहे हैं। वे पर्यावरण के संरक्षण में स्थानीय लोगों के ज्ञान, अनुभव एवं सहयोग की भी बात करते हुए नहीं दिखाई दे रहे हैं।

अत: यह चित्र पर्यावरणविदों को जिस रूप में चित्रित कर रहा है, वह सही नहीं लगता।

प्रश्न 7.
पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम है। फिर भी, कार्टूनिस्ट ने जमीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से में दिखाने का फैसला किया है। यह कार्टून किस तरह पानी की कमी को चित्रित करता है?
उत्तर:
पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम है। फिर भी, कार्टूनिस्ट ने जमीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से में दिखाने का फैसला किया है। यह कार्टून विश्व में पीने योग्य जल की कमी को चित्रित करता है।

विश्व के कुछ भागों में पीने योग्य साफ पानी की कमी हो रही है तथा विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में उपलब्ध नहीं है। इस जीवनदायी संसाधन की कमी के कारण हिंसक संघर्ष हो सकते हैं। कार्टूनिस्ट ने इसी को इंगित करते हुए विश्व में जमीन की तुलना में पानी की मात्रा को कम दिखाया है क्योंकि समुद्रों का पानी पीने योग्य नहीं है, इसलिए इसे इस जल मात्रा में शामिल नहीं किया गया है।

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प्रश्न 8.
आदिवासी जनता और उनके आन्दोलनों के बारे में कुछ ज्यादा बातें क्यों नहीं सुनायी पड़तीं? क्या मीडिया का उनसे कोई मनमुटाव है?
उत्तर:
आदिवासी जनता और उनके आन्दोलनों से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लम्बे समय तक उपेक्षित रहे हैं। इसका प्रमुख कारण मीडिया के लोगों तक इनके सम्पर्क का अभाव रहा है। सन् 1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के आदिवासियों के नेताओं के बीच सम्पर्क बढ़ा है। इससे उनके साझे अनुभवों और सरकारों को शक्ल मिली है तथा सन् 1975 में इन लोगों की एक वैश्विक संस्था ‘वर्ल्ड काउंसिल

ऑफ इण्डिजिनस पीपल’ का गठन हुआ तथा इनसे सम्बद्ध अन्य स्वयंसेवी संगठनों का गठन हुआ। अब इनके मुद्दों तथा आन्दोलनों की बातें भी मीडिया में उठने लगी हैं। अतः स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी लोगों की संस्थाओं के न होने के कारण मीडिया में इनकी बातें अधिक नहीं सुनाई पड़ती हैं। जैसे-जैसे आदिवासी समुदाय अपने संगठनों को अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर संगठित करता जाएगा, इन संगठनों के माध्यम से इनके मुद्दे और आन्दोलन भी मीडिया में मुखरित होंगे।

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 8 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मूलवासी कौन हैं? मूलवासियों का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष का विस्तार से वर्णन कीजिए।
अथवा मूलवासियों का अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन एवं इनकी प्राप्ति हेतु वैश्विक प्रयासों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मूलवासी से आशय संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार मूलवासी ऐसे लोगों के वंशज हैं जो किसी मौजूदा देश में बहत दिनों से रहते चले आ रहे हैं। फिर किसी अन्य संस्कृति या जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश में आए और इन लोगों को अपने अधीन बना लिया।

ये मूलवासी आज भी सम्बन्धित देश की संस्थाओं के अनुरूप आचरण करने से अधिक अपनी परम्परा, सांस्कृतिक रीति-रिवाज एवं अपने विशेष सामाजिक-आर्थिक तौर-तरीकों पर जीवन-यापन करना पसन्द करते हैं।

मूलवासियों का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष एवं आन्दोलन

भारत सहित वर्तमान विश्व में मूलवासियों की जनसंख्या लगभग 30 करोड़ है। दूसरे सामाजिक आन्दोलनों की तरह मूलवासी भी अपने संघर्ष, एजेण्डा और अधिकारों की आवाज उठाते रहे जिनका विवरण निम्नानुसार हैं-

1. विश्व समुदाय में बराबरी का दर्जा पाने के लिए आन्दोलन-मूलवासियों को एक लम्बे समय से सभ्य समाज में दोयम दर्जे का माना जाता था। उन्हें बराबरी का दर्जा प्राप्त नहीं था। वर्तमान विश्व में शेष जनसमुदाय के अपने प्रति निम्न स्तर के व्यवहार को देखकर इन्होंने विश्व समुदाय में बराबरी का दर्जा पाने के लिए अपनी आवाज बुलन्द की है।

2. स्वतन्त्र पहचान की माँग-मूलवासियों के निवास स्थान मध्य एवं दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया एवं भारत में हैं, जहाँ इन्हें आदिवासी या जनजाति कहा जाता है। ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड सहित ओसियाना क्षेत्र के बहुत-से द्वीपीय देशों में हजारों वर्षों से पॉलिनेशिया, मैलनेशिया एवं माइक्रोनेशिया वंश के मूलवासी निवासरत् हैं। इन मूलवासियों की अपने देश की सरकारों से माँग है कि इन्हें मूलवासी के रूप में अपनी स्वतन्त्र पहचान रखने वाला समुदाय माना जाए।

3. मूलवास स्थान पर अपने अधिकार की माँग-मूलवासी अपने मूलवास स्थान पर अपना अधिकार चाहते हैं। अपने मूलवास स्थान पर अपने अधिकार की माँग हेतु सम्पूर्ण विश्व के मूलवासी यह कहते हैं कि हम यहाँ अनन्त काल से निवास करते चले आ रहे हैं।

4. राजनीतिक स्वतन्त्रता की माँग–भौगोलिक रूप से चाहे मूलवासी अलग-अलग स्थानों पर निवास कर रहे हैं, लेकिन भूमि और उस पर आधारित जीवन प्रणालियों के बारे में इनकी विश्व दृष्टि एक-समान है। भूमि की हानि का इनके लिए अर्थ है-आर्थिक संसाधनों के एक आधार की हानि और यह मूलवासियों के जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा है। उस राजनीतिक स्वतन्त्रता का क्या अर्थ जो जीवन-यापन के साधन ही उपलब्ध न कराए। अत: मूलवासी अपने निवास स्थान पर उपलब्ध संसाधनों पर अपना अधिकार मानते हुए जीवन-यापन के साधन उपलब्ध कराने की मांग कर रहे हैं।

मूलवासियों के अधिकारों के वैश्विक प्रयास-

मूलवासियों के अधिकारों के लिए वैश्विक स्तर पर निम्नलिखित प्रयास हए हैं-

  1. 1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों में मूलवासियों के प्रतिनिधियों के मध्य सम्पर्क बढ़ा है। इससे इनके साझे अनुभवों एवं सरोकारों को एक आधार मिला है।
  2. सन् 1995 में मूलवासियों से सम्बन्धित ‘वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इण्डिजिनस पीपल’ का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ ने सर्वप्रथम इस परिषद् को परामर्शदायी परिषद् का दर्जा प्रदान किया। इसके अलावा आदिवासियों के सरोकारों से सम्बद्ध 10 अन्य स्वयंसेवी संगठनों को भी यह दर्जा प्रदान किया गया है।

प्रश्न 2.
एजेण्डा-21 से आप क्या समझते हैं? “उत्तरदायित्व संयुक्त, भूमिकाएँ अलग-अलग” का क्या अर्थ है?
उत्तर:
एजेण्डा-21 का अभिप्राय सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ का पर्यावरण एवं विकास के मुद्दे पर केन्द्रित एक सम्मेलन ब्राजील के रियो-डी-जनेरियो में हुआ था। इस सम्मेलन को पृथ्वी सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। इस पृथ्वी सम्मेलन में 170 देशों के प्रतिनिधियों, हजारों स्वयंसेवी संगठनों तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने हिस्सा लिया। इस . सम्मेलन के दौरान विश्व राजनीति में पर्यावरण को एक ठोस स्वरूप मिला।

इस अवसर पर 21वीं सदी के लिए एक विशाल कार्यक्रम अर्थात् एजेण्डा-21 पारित किया गया। सभी राज्यों से निवेदन किया गया कि वे प्राकृतिक सन्तुलन को बनाए रखें, पर्यावरण प्रदूषण को रोकें तथा पोषणीय विकास का रास्ता अपनाएँ।
एजेण्डा-21 के प्रमुख बिन्दु निम्नवत् थे-

  1. पर्यावरण एवं विकास के मध्य सम्बन्ध के मुद्दों को समझा जाए।
  2. ऊर्जा का अधिक कुशल तरीके से प्रयोग किया जाए।
  3. किसानों को पर्यावरण सम्बन्धी जानकारी दी जाए।
  4. प्रदूषण फैलाने वालों पर भी भारी अर्थदण्ड लगाया जाए।
  5. इस दृष्टिकोण से राष्ट्रीय योजनाएँ बनाई एवं लागू की जाएँ।

उत्तरदायित्व संयुक्त, भूमिकाएँ अलग-अलग का अर्थ

पर्यावरण एवं संरक्षण को लेकर उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के दृष्टिकोणों में पर्याप्त अन्तर है। उत्तर के विकसित देश पर्यावरण के मामले पर उसी रूप में विचार-विमर्श करना चाहते हैं जिस परिस्थिति में पर्यावरण वर्तमान में विद्यमान है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में प्रत्येक देश का बराबर का उत्तरदायित्व हो।

दक्षिण के विकासशील देशों का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को अधिकांश क्षति (नुकसान) विकसित देशों के औद्योगिक विकास से पहुंची है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुँचाया है तो इन्हें इसकी क्षतिपूर्ति की जिम्मेदारी भी उठानी चाहिए। इसके अलावा विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और यह आवश्यक है कि इन पर वे प्रतिबन्ध न लगें जो विकसित देशों पर लगाए जाते हैं।

पृथ्वी सम्मेलन से जुड़े निर्णय अथवा सुझाव

सन् 1992 में सम्पन्न पृथ्वी सम्मेलन में इस तर्क को मान लिया गया और इसे ‘संयुक्त उत्तरदायित्व लेकिन अलग-अलग भूमिका का सिद्धान्त’ कहा गया। इस सन्दर्भ में रियो घोषणा-पत्र में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि “पृथ्वी के पारिस्थितिकी तन्त्र की अखण्डता तथा गुणवत्ता की बहाली, सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए विभिन्न देश विश्व बन्धुत्व की भावना से परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करेंगे। पर्यावरण के विश्वव्यापी अपक्षय में विभिन्न राज्यों का योगदान अलग-अलग है। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए विभिन्न राज्यों के अलग-अलग उत्तरदायित्व होंगे। विकसित देशों के समाजों का वैश्विक पर्यावरण पर दबाव अधिक है तथा इन देशों के पास विपुल प्रौद्योगिकी एवं वित्तीय संसाधन मौजूद हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए टिकाऊ विकास के अन्तर्राष्ट्रीय आयाम में विकसित देश अपना विशेष उत्तरदायित्व स्वीकारते हैं।”

प्रश्न 3.
देवस्थान क्या हैं? भारत में पर्यावरण संरक्षण में इसके महत्त्व का विस्तार से वर्णन कीजिए। अथवा पावन वन-प्रान्तर क्या है? पर्यावरणीय दृष्टि से इसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पावन वन-प्रान्तर (देवस्थान) का अर्थ

अनेक पुराने समाजों में धार्मिक कारणों से प्रकृति की रक्षा करने का प्रचलन है। भारत में विद्यमान पावन वन-प्रान्तर इस चलन के सुन्दर उदाहरण हैं। पावन वन-प्रान्तर प्रथा में वनों के कुछ हिस्सों को काटा नहीं जाता। इन स्थानों पर देवता अथवा किसी पुण्यात्मा का वास माना जाता है। इसे ही पावन वन-प्रान्तर या देवस्थान कहा जाता है।

पावन वन-प्रान्तर (देवस्थान) का देशव्यापी विस्तार भारत में पावन वन-प्रान्तर का देशव्यापी विस्तार पाया जाता है। इनके देशव्यापी विस्तार का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि सम्पूर्ण देश की भाषाओं में इनके लिए अलग-अलग शब्दों का प्रयोग होता है। इन देवस्थानों को राजस्थान में वानी, केंकड़ी व ओसन; मेघालय में लिंगदोह; केरल में काव; झारखण्ड में जहेरा थान व सरना; उत्तराखण्ड में थान या देवभूमि तथा महाराष्ट्र में देवरहतिस आदि नामों से जाना जाता है।

पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पावन वन-प्रान्तर का महत्त्व

पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पावन वन-प्रान्तर के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

1. समुदाय आधारित संसाधन प्रबन्धन में महत्त्व–पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित भारतीय साहित्य में पावन वन-प्रान्तर के महत्त्व को अब स्वीकार किया जा रहा है तथा इसे समुदाय आधारित संसाधन प्रबन्धन के रूप में देखा जा रहा है।

2. पारिस्थितिकी तन्त्र के सन्तुलन में महत्त्व-पावन वन-प्रान्तर को हम एक ऐसी व्यवस्था के रूप में देख सकते हैं जिसमें प्राचीन समाज प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग इस तरह करते हैं कि पारिस्थितिकी तन्त्र का सन्तुलन बना रहे। कुछ शोधकर्ताओं का विश्वास है कि पावन वन-प्रान्तर (देवस्थान) की मान्यता से जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी संरक्षण में ही नहीं सांस्कृतिक वैविध्य को बनाए रखने में भी सहायता मिल सकती है।

3. साझी सम्पदा के संरक्षण की व्यवस्था के समान–पावन वन-प्रान्तर की व्यवस्था वन संरक्षण के विभिन्न तौर-तरीकों से सम्पन्न हैं और इस व्यवस्था की विशेषताएँ साझी सम्पदा के संरक्षण की व्यवस्था से मिलती-जुलती हैं।

4. क्षेत्र की आध्यात्मिक या सांस्कृतिक विशेषताएँ-देवस्थान के महत्त्व का परम्परागत आधार ऐसे क्षेत्र की आध्यात्मिक अथवा सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। हिन्दू समवेत रूप से प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा करते हैं जिसमें पेड़ व वन-प्रान्सर भी शामिल हैं। अनेक मन्दिरों का निर्माण, देवस्थान में हुआ है। संसाधनों की विरलता नहीं बल्कि प्रकृति के प्रति अगाध श्रद्धा ही वह आधार थी जिसने इतने युगों से वनों को बचाए रखने की प्रतिबद्धता बनाए रखी। पावन वन-प्रान्तर की वर्तमान स्थिति-पिछले कुछ वर्षों से मनुष्यों की बसावट के विस्तार ने धीरे-धीरे पावन वन-प्रान्तर (देवस्थानों) पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया है। नवीन राष्ट्रीय वन नीतियों के लागू होने के साथ कई स्थानों पर इन परम्परागत वनों की पहचान मन्द पड़ने लगी है। देवस्थान के प्रबन्धन में एक कठिन समस्या यह आ रही है कि देवस्थान का कानूनी स्वामित्व तो राज्यों के पास है तथा इसका व्यावहारिक नियन्त्रण समुदायों के पास है। राज्यों व समुदायों के नीतिगत मानक अलग-अलग हैं एवं देवस्थानों के उपयोग के उद्देश्य में भी इनके बीच कोई तालमेल नहीं है।

इस तरह कहा जा सकता है कि पावन वन-प्रान्तर (देवस्थान) का हमारे देश में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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प्रश्न 4.
अण्टार्कटिका महादेशीय क्षेत्र के प्रमुख लक्षण, महत्त्व एवं अण्टार्कटिका पर स्वामित्व सम्बन्धी विवाद को विस्तार से बताइए।
उत्तर:
अण्टार्कटिका विश्व के सात प्रमुख महाद्वीपों में से एक है।

अण्टार्कटिका महाद्वीप के प्रमुख लक्षण (विशेषताएँ)

अण्टार्कटिका महाद्वीप की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. अण्टार्कटिका महादेशीय क्षेत्र का विस्तार लगभग 1.40 वर्ग करोड़ किमी में फैला हुआ है।
  2. विश्व के निर्धन क्षेत्र का 26 प्रतिशत भाग इस महाद्वीप में आता है।
  3. स्थलीय हिम का 90 प्रतिशत भाग एवं धरती के स्वच्छ जल का 70 प्रतिशत भाग इस महाद्वीप में उपलब्ध है।
  4. इस महादेश का 3.60 करोड़ वर्ग किमी तक अतिरिक्त विस्तार समुद्र में है।
  5. यह विश्व का सबसे सुदूर ठण्डा एवं झंझावाती प्रदेश है।
  6. सीमित स्थलीय जीवनं वाले इस महादेश का समुद्री पारिस्थितिकी तन्त्र अत्यन्त उर्वर है, जिसमें कुछ पादप; जैसे-सूक्ष्म शैवाल, कवक और लाइकेन तथा समुद्री स्तनधारी जीव, मत्स्य एवं कठिन वातावरण में जीवन-यापन के लिए अनुकूलित विभिन्न पक्षी शामिल हैं।
  7. इस महाद्वीप में समुद्री आहार श्रृंखला की धुरी–क्रिल मछली भी मिलती है। इस मछली पर अन्य जीवों का आहार निर्भर है।

अण्टार्कटिका महाद्वीप का महत्त्व-अण्टार्कटिका महाद्वीप का महत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. अण्टार्कटिका महाद्वीप विश्व की जलवायु को सन्तुलित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
  2. इस महाद्वीपीय प्रदेश की आन्तरिक हिमानी परत ग्रीन हाऊस गैस के जमाव का महत्त्वपूर्ण सूचना स्रोत है।
  3. इस महाद्वीपीय प्रदेश में जमी बर्फ से लाखों वर्ष पूर्व के वायुमण्डलीय तापमान का पता लगाया जा सकता है।
  4. इस महाद्वीपीय क्षेत्र में समुद्री पारिस्थितिकी तन्त्र अत्यन्त उर्वर पाया जाता है।
  5. यह क्षेत्र वैज्ञानिक अनुसन्धान, मत्स्य, आखेट एवं पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

अण्टार्कटिका क्षेत्र में पर्यावरण सुरक्षा – अण्टार्कटिका क्षेत्र में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तन्त्र की सुरक्षा के नियम बनाए गए हैं जिनको अपनाया गया है। ये नियम कल्पनाशील एवं दूरगामी प्रभाव वाले हैं। अण्टार्कटिका एवं पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्र पर्यावरण सुरक्षा के विशेष क्षेत्रीय नियमों में आते हैं। सन् 1959 के पश्चात् इस क्षेत्र में गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसन्धान, मत्स्य, आखेट एवं पर्यटन तक ही सीमित रही हैं, लेकिन न्यून गतिविधियों के बावजूद इस क्षेत्र के कुछ भागों में अवशिष्ट पदार्थों जैसे तेल के रिसाव के दबाव में अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं।

अण्टार्कटिका पर स्वामित्व-विश्व के सबसे सुदूर ठण्डे एवं झंझावाती महादेश अण्टार्कटिका पर किसका स्वामित्व है? इसके सम्बन्ध में दो दावे किए जाते हैं। कुछ देश, जैसे—ब्रिटेन, अर्जेण्टीना, चिली, नार्वे, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैण्ड ने अण्टार्कटिका क्षेत्र पर अपने सम्प्रभु अधिकार का दावा किया है, जबकि अन्य अधिकांश देशों का मत है कि अण्टार्कटिका प्रदेश विश्व की साझी सम्पदा है और यह किसी भी राष्ट्र के क्षेत्राधिकार में नहीं आता है।

प्रश्न 5.
पर्यावरण सम्बन्धी मामलों पर भारतीय पक्ष की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण सम्बन्धी मामलों पर भारतीय पक्ष पर्यावरण सम्बन्धी मामलों पर भारतीय पक्ष की व्याख्या निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा की जा सकती है-

1. भारतीय पर्यावरण संरक्षण का उत्तरदायित्व संयुक्त है, लेकिन भूमिकाएँ अलग-अलग होनी चाहिए-पर्यावरण संरक्षण को लेकर उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर है। उत्तर के विकसित देश पर्यावरणीय मुद्दे पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस दशा में पर्यावरण वर्तमान में विद्यमान है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरणीय संरक्षण में प्रत्येक देश का उत्तरदायित्व एक समान हो। दक्षिण के देशों का अभिमत है कि विश्व में पारिस्थितिकी को क्षति अधिकांशतया विकसित देशों के औद्योगिक विकास से हुई है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को अधिक क्षति पहुँचायी है तो उन्हें इसकी भरपाई भी अधिक चाहिए।

2. उत्तरदायित्व को लागू करने हेतु भारतीय सुझाव-इस सन्दर्भ में निम्नलिखित दो सुझाव दिए गए-

  • अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग तथा व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखा जाना चाहिए।
  • प्रत्येक राष्ट्र की कुल राष्ट्रीय आय का कुछ प्रतिशत भाग अन्तर्राष्ट्रीय न्यायाधीशों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए तथा वह धनराशि सिर्फ पर्यावरण संरक्षण पर विश्व बैंक अथवा संयुक्त राष्ट्र संघ की किसी संस्था के माध्यम से मानवीय सुरक्षा एवं संयुक्त सम्पदा संरक्षण को दृष्टिगत रखते हुए खर्च की जानी चाहिए।

3. वन संरक्षण के प्रति भारतीय दृष्टिकोण-दक्षिणी गोलार्द्ध देशों के वन आन्दोलन उत्तरी देशों के वन आन्दोलन से विशेष अर्थों में अलग हैं। दक्षिणी देशों में वन निर्जन नहीं हैं, जबकि उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में वन जनविहीन हैं। इसी कारण उत्तरी देशों में वन भूमि को निर्जन भूमि की श्रेणी में रखा गया है। यह दृष्टिकोण व्यक्ति को प्रकृति का हिस्सा नहीं मानता। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि यह दृष्टिकोण पर्यावरण को व्यक्ति से दूर की वस्तु मानता है।

4. पृथ्वी को बचाने हेतु भारतीय सुझाव-इस सन्दर्भ में निम्नलिखित बिन्दु उल्लेखनीय हैं-

  • पृथ्वी को बचाने हेतु विभिन्न देश सुलह एवं सहकार की नीति अपनाएँ, क्योंकि पृथ्वी का सम्बन्ध किसी एक देश विशेष से न होकर, सम्पूर्ण विश्व एवं मानव जाति से है।
  • अभी कुछ समयावधि पूर्व संयुक्त राष्ट्र संघ में यह परिचर्चा हुई कि तीव्रता से औद्योगिक विकास करते हुए ब्राजील, चीन तथा भारत इत्यादि देश नियमाचार की बाध्यताओं का परिपालन करते हुए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को न्यूनतम करें। भारत इस बात के विरुद्ध है और उसकी मान्यता है कि यह तथ्य इस नियमाचार की मूल भावना के विपरीत है।
  • हमारे देश भारत पर इस प्रकार का प्रतिबन्ध थोपना भी अनुचित ही है। सन् 2030 तक भारत में कार्बन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बढ़ने के बावजूद विश्व के वर्तमान औसत अर्थात् 3.8 टन प्रति व्यक्ति के आधे से भी कम होगा। जहाँ सन् 2000 तक भारत का प्रति व्यक्ति उत्जर्सन 0.9 टन था वहीं एक अनुमान के अनुसार सन् 2030 तक यह आँकड़ा बढ़कर 1.6 टन प्रति व्यक्ति हो जाएगा।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वैश्विक राजनीति में पर्यावरण महत्त्व के प्रमुख मुद्दों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वैश्विक राजनीति में पर्यावरणीय महत्त्व के प्रमुख मुद्दे निम्नवत् हैं-

(1) विश्व में अब भूमि का विस्तार करना असम्भव है। वर्तमान में उपलब्ध भूमि के एक बड़े भाग की उर्वरता लगातार कम होती चली जा रही है। जहाँ चरागाहों के चारे समाप्त होने के कगार पर हैं वहीं मछली भण्डार भी निरन्तर कम होता जा रहा है। इसी तरह जलाशयों का जल-स्तर भी तेजी से घटा है और जल प्रदूषण बढ़ गया है। खाद्य उत्पादों में भी लगातार कमी होती चली जा रही है।

(2) सन् 2006 में जारी संयुक्त राष्ट्र की विश्व विकास रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों की एक अरब बीस करोड़ जनता को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं होता तथा यहाँ की दो अरब साठ करोड़ की आबादी साफ-सफाई की सुविधा से वंचित है। उक्त कारण से लगभग तीस लाख से अधिक बच्चे प्रतिवर्ष असमय काल के ग्रास में समा जाते हैं।

(3) वनों की कटाई से लोग विस्थापित हो रहे हैं। वनों की कटाई का प्रभाव जैव प्रजातियों पर भी पड़ा है और अनेक जीव-जन्तु एवं पेड़-पौधों की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं।

(4) पृथ्वी के ऊपरी वायुमण्डल में ओजोन की मात्रा लगातार घट रही है जिसके फलस्वरूप पारिस्थितिकी तन्त्र तथा मानवीय स्वास्थ्य पर गम्भीर संकट आ गया है।

प्रश्न 2.
पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. पश्चिमी विचारधारा–पर्यावरण प्रदूषण के लिए पश्चिमी चिन्तन तथा उनकी भौतिक जीवन दृष्टि काफी सीमा तक उत्तरदायी है।
  2. जनसंख्या में वृद्धि-जनसंख्या वृद्धि के कारण मानव की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का शोषण बढ़ता है तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है।
  3. वनों की कटाई एवं भूक्षरण–वनों की निरन्तर कटाई के फलस्वरूप कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है और पर्यावरण प्रदूषण भी बढ़ रहा है।
  4. जल प्रदूषण-कारखानों से निकलने वाले विषैले रसायनों तथा नगरों के गन्दे पानी से नदियों का जल प्रदूषित हो रहा है।

प्रश्न 3.
पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख उपाय लिखिए।
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. समग्र चिन्तन की आवश्यकता-पश्चिमी जगत् के भौतिक चिन्तन में इस बात पर जोर दिया जाता है कि पृथ्वी पर व प्रकृति पर जो कुछ भी है, वह मानव के उपभोग के लिए है। अत: आवश्यकता मानव की सोंच बदलने की है। इसके लिए भारत का समग्र चिन्तन आवश्यक है।
  2. वन संरक्षण-पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोकना अति आवश्यक है।
  3. जनसंख्या नियन्त्रण-पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए जनसंख्या को नियन्त्रित करना आवश्यक है।
  4. वन्य जीव का संरक्षण-पर्यावरण संरक्षण के लिए यह आवश्यक है कि वन संरक्षण के साथ-साथ वन्य जीवों का संरक्षण भी किया जाए।

प्रश्न 4.
पर्यावरण के सन्दर्भ में हम मूलवासियों के अधिकारों की रक्षा किस प्रकार कर सकते हैं?
उत्तर:
पर्यावरण के सन्दर्भ में हम मूलवासियों के अधिकारों की रक्षा निम्न प्रकार कर सकते हैं-

  1. मूलवासियों के प्राकृतिक आवास अर्थात् वन क्षेत्र को कुल भूमि क्षेत्र का 33.3 प्रतिशत तक बढ़ा दिया जाना चाहिए।
  2. आदिवासियों को उनकी परम्परा में परिवर्तन किए बिना मूल रूप से राजनीतिक संरक्षण दिया जाए।
  3. आदिवासियों (मूलवासियों) को संगठित करके विश्व स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रतिनिधित्व दिलाया जाए।
  4. आदिवासियों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी मार्गदर्शन देकर मुख्यधारा के साथ जुड़ने की उनमें स्वतः इच्छा जाग्रत की जाए।

प्रश्न 5.
यू०एन०ई०पी० क्या है? इसके किन्हीं दो प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
यू०एन०ई०पी० संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यावरण कार्यक्रम से सम्बद्ध (जुड़ी) एक अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसी या संस्था है। इसका पूरा नाम यूनाइटेड नेशन्स एनवायरमेण्ट प्रोग्राम (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम) है। इसके दो प्रमुख कार्य निम्नवत् हैं-

  1. संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम अर्थात् यूनाइटेड नेशन्स एनवायरमेण्ट प्रोग्राम सहित अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं पर सम्मेलन कराया और इस विषय के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया।
  2. इस संस्था का उद्देश्य पर्यावरण की समस्याओं को दूर करने की दृष्टि से प्रयासों की अधिक कारगर विश्व स्तर पर शुरुआत करना था। इसके प्रयत्नों के फलस्वरूप ही पर्यावरण वैश्विक राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन सका।

प्रश्न 6.
पर्यावरण से सम्बन्धित उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के विचारों में क्या अन्तर है?
उत्तर:
इस तथ्य को हम निम्नलिखित दो बिन्दुओं द्वारा सरलता से स्पष्ट कर सकते हैं-

(1) जहाँ उत्तरी गोलार्द्ध के देश वन क्षेत्र को बीहड़ या जनहीन प्रान्त मानते हैं वहीं दक्षिणी गोलार्द्ध के देश इनको देवस्थान या वन-प्रान्तर स्थान जैसे श्रद्धा उत्पन्न करने वाले नामों से पुकारते हैं। जब वनों के प्रति विकसित देशों अर्थात् उत्तरी गोलार्द्ध की धारणा ही तुच्छ कोटि की है, जबकि पर्यावरणीय एजेण्डा-21 में कहा गया है कि विश्व पर्यावरण अथवा मानवता की संयुक्त विरासत को विनाश से बचाने की उनकी अधिक जिम्मेदारी रहेगी। उन्हें अपनी धारणा के साथ-साथ कार्यप्रणाली में भी आमूल-चूल बदलाव लाना है।

(2) दक्षिणी गोलार्द्ध का पर्यावरणीय एजेण्डा ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा कम दर्शाता है जबकि उत्तरी गोलार्द्ध का एजेण्डा इन्हें अधिक दर्शाता है।

प्रश्न 7.
क्योटो प्रोटोकॉल का क्या महत्त्व है? क्या भारत ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं?
उत्तर:
क्योटो प्रोटोकॉल को पर्यावरण संरक्षण हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों के फलस्वरूप मान्यता मिली। औद्योगिक विकास से सम्पन्न देश पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए अपने उद्योगों से निकलने वाली जहरीली गैसों के अनुपात को निर्धारित सीमा तक घटाने पर सहमत हुए। ऐसे विकसित उत्तरी गोलार्द्ध के देश अपने कल-कारखानों से निकलने वाली हरित प्रभाव गैसों का अनुपात घटाने के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करेंगे।

इस अन्तर्राष्ट्रीय सहमति पर जापानी शहर क्योटो में सन् 1997 में हस्ताक्षर किए गए थे। इस समझौते के दौरान यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) द्वारा निर्धारित मापदण्डों को स्वीकार कर लिया गया था। अगस्त 2002 में भारत ने इस न्यायाचार को हस्ताक्षरित किया। इसके अनुसार चीन सहित भारत को विकासशील देश मानते हुए हरित गैसों की मात्रा घटाने के दायित्व से मुक्त रखा गया। उल्लेखनीय है कि इन देशों के औद्योगिक विकास से अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण को उतनी हानि नहीं हुई है, जितनी कि पश्चिमी तथा अन्य औद्योगिक विकसित राष्ट्रों में हुई।

प्रश्न 8.
ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रित करने हेतु भारत द्वारा किए गए किन्हीं पाँच प्रयासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रित करने हेतु भारत द्वारा किए गए अग्रलिखित पाँच प्रयास विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

  1. भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल को सन् 2002 में हस्ताक्षरित करके उसका अनुमोदन किया है।
  2. भारत ने अपनी राष्ट्रीय मोटर-कार ईंधन नीति में वाहनों के लिए स्वच्छत्तर ईंधन अनिवार्य कर दिया है।
  3. सन् 2001 में पारित ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में ऊर्जा के अधिक कारगर उपयोग पर विशेष जोर दिया गया है।
  4. विद्युत अधिनियम, 2003 में प्राकृतिक गैस के आयात, अपूरणीय ऊर्जा के उपयोग तथा स्वच्छ कोयले के उपयोग पर आधारित प्रौद्योगिकी को अपनाने की दिशा में कार्य करना प्रारम्भ किया है।
  5. भारत बायोडीजल से सम्बन्धित एक राष्ट्रीय मिशन चलाने के लिए भी प्रयासरत है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
आप पर्यावरण आन्दोलन के स्वयंसेवक के रूप में किन कथनों को उठाएँगे?
उत्तर:

  1. पर्यावरण आन्दोलन के स्वयंसेवक के रूप में हम वनों की अन्धाधुन्ध कटाई के विरुद्ध आन्दोलन चलाएँगे तथा वृक्षारोपण के प्रति लोगों को जागरूक करेंगे।
  2. खनिजों के अन्धाधुन्ध दोहन के विरोध में आन्दोलन करेंगे।

प्रश्न 2.
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित स्टॉकहोम सम्मेलन के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित सबसे पहला और महत्त्वपूर्ण सम्मेलन जून 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में हुआ। इसका आयोजन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वावधान में किया गया था। इस सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण हेतु सात महत्त्वपूर्ण प्रस्तावों को पारित किया गया।

प्रश्न 3.
क्योटो प्रोटोकॉल के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में विभिन्न देशों के सम्मेलन का आयोजन जापान के क्योटो शहर में 1 दिसम्बर से 11 दिसम्बर, 1997 तक हुआ। इस सम्मेलन में कहा गया कि सूचीबद्ध औद्योगिक देश सन् 2008 से 2012 तक सन् 1990 के स्तर से नीचे 5.2% तक अपने सामूहिक उत्सर्जन में कमी करेंगे।

प्रश्न 4.
माण्ट्रियल प्रोटोकॉल क्या है? इसके प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
सन् 1987 में 175 औद्योगिक देशों ने माण्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए। ओजोन परत को बचाने के लिए यह एक अन्तर्राष्ट्रीय सहमति थी जिसे माण्ट्रियल प्रोटोकॉल कहा गया। इसके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. ओजोन ह्रास करने वाले पदार्थों के उत्पादन में कमी लाना।
  2. ओजोन ह्रास वाले पदार्थों के विकल्प ढूँढना।
  3. ओजोन उत्पादन पर नियन्त्रण करना।

प्रश्न 5.
विश्व जलवायु परिवर्तन बैठक के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
सन् 1997 में नई दिल्ली में विश्व जलवायु परिवर्तन बैठक हुई। इस बैठक में निर्धनता, पर्यावरण तथा संसाधन प्रबन्ध के समाधान के सम्बन्ध में विकसित तथा विकासशील देशों में व्यापार की सम्भावनाओं पर विचार किया गया।

प्रश्न 6.
विश्व की साझी विरासत का क्या अर्थ है?
उत्तर:
कुछ क्षेत्र एक देश के क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं; जैसे—पृथ्वी का वायुमण्डल, अण्टार्कटिका, समुद्री सतह तथा बाहरी अन्तरिक्ष आदि। इसका प्रबन्धन अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा साझे तौर पर किया जाता है। इन्हीं को ‘विश्व की साझी विरासत’ या ‘साझी सम्पदा’ कहा जाता है।

प्रश्न 7.
विश्व की साझी विरासत की सुरक्षा के कोई दो उपाय बताइए।
उत्तर:
विश्व की साझी विरासत की सुरक्षा के उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. सीमित प्रयोग-विश्व की साझी विरासतों का सीमित प्रयोग करना चाहिए।
  2. जागरूकता पैदा करना—विश्व की साझी विरासतों के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करनी चाहिए।

प्रश्न 8.
ब्यूनस आइरस सम्मेलन कब और क्यों हुआ?
उत्तर:
अर्जेण्टीना के ब्यूनस आइरस में जलवायु परिवर्तन के संयुक्त राष्ट्र फेमवर्क कन्वेंशन से सम्बद्ध पक्षों का चौथा अधिवेशन 2 नवम्बर से 14 नवम्बर, 1998 को हुआ। इस सम्मेलन का आयोजन क्योटो, प्रोटोकॉल 1997 के कार्यान्वयन पर विचार करने के लिए किया गया था।

प्रश्न 9.
पर्यावरण सम्बन्धी नियमों को समकालीन विश्व राजनीति के हिस्से के रूप में क्यों देखना चाहिए?
उत्तर:
पर्यावरण के वर्तमान में हो रहे विनाश को कोई एक सरकार नहीं बल्कि समूचे विश्व की सरकारें ही विचार-विमर्श करके रोक सकती हैं। इस दृष्टि से पर्यावरण सम्बन्धी नियमों को समकालीन विश्व राजनीति के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।

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प्रश्न 10.
मूलवासियों को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
मूलवासी ऐसे लोगों के वंशज हैं जो किसी मौजूद देश में लम्बी समयावधि से रहते चले आ रहे हैं। यद्यपि किसी दूसरी जातीय मूल के लोगों ने अन्य हिस्सों से आकर इनको अपने अधीन कर लिया तथापि ये अभी भी अपनी परम्परा, संस्कृति, रीति-रिवाज का पालन करना पसन्द करते हैं।

प्रश्न 11.
मूलवासियों के अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मूलवासियों के अधिकार निम्नलिखित हैं-

  1. विश्व में मूलवासियों को बराबरी का दर्जा प्राप्त हो।
  2. मूलवासियों को अपनी स्वतन्त्र पहचान रखने वाले समुदाय के रूप में जाना जाए।
  3. मूलवासियों के आर्थिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन न किया जाए।
  4. देश के विकास से होने वाला लाभ मूलवासियों को भी मिलना चाहिए।

प्रश्न 12.
विश्व नेताओं ने भूमि पर्यावरण की चिन्ता क्यों की? कारण बताइए।
उत्तर:
विश्व नेताओं द्वारा भूमि पर्यावरण की चिन्ता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. विश्व में कृषि योग्य भूमि में अब कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही जबकि मौजूदा उपजाऊ भूमि के एक बड़े भाग की उर्वरता कम हो रही है।
  2. जलाशयों में प्रदूषण बढ़ा है। इससे खाद्य उत्पादन में कमी आ रही है।

प्रश्न 13.
समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण किस कारण से बढ़ रहा है?
उत्तर:
समुद्रतटीय क्षेत्रों का जल जमीनी क्रियाकलापों से प्रदूषित हो रहा है। पूरी दुनिया में समुद्रतटीय इलाकों में मनुष्यों की सघन बसावट जारी है यदि इस प्रवृत्ति पर अंकुश न लगा तो समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में भारी गिरावट आएगी।

प्रश्न 14.
वैश्विक राजनीति में पर्यावरण के बारे में बढ़ती चिन्ता के कोई दो कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैश्विक राजनीति में पर्यावरण के बारे में बढ़ती चिन्ता के कारण निम्नलिखित हैं-

  1. वनों की अन्धाधुन्ध कटाई-दक्षिण देशों में वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से जलवायु, जल चक्र असन्तुलित हो रहा है तथा जैव विविधता खत्म हो रही है।
  2. ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन-ग्रीन हाऊस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से ओजोन गैस की परत के क्षीण होने से मनुष्य के स्वास्थ्य पर बहुत बड़ा खतरा मँडरा रहा है।

प्रश्न 15.
पर्यावरण से सम्बन्धित भारत सरकार के किन्हीं दो प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत सरकार ने पर्यावरण से सम्बन्धित निम्नलिखित प्रयास किए-

  1. भारत ने अपनी ‘नेशनल ऑटो फ्यूल पॉलिसी’ में वाहनों के लिए स्वच्छतर ईंधन अनिवार्य कर दिया।
  2. सन् 2001 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम पारित हुआ। इसमें ऊर्जा के ज्यादा कारगर इस्तेमाल के लिए ‘प्रतिबद्धता प्रकट की गई है।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
विश्व की साझी विरासत में क्या शामिल नहीं है-
(a) वायुमण्डल
(b) सड़क मार्ग
(c) समुद्री सतह
(d) बाहरी अन्तरिक्षा
उत्तर:
(b) सड़क मार्ग।

प्रश्न 2.
क्योटो प्रोटोकॉल सम्मेलन जिस देश में हुआ वह है-
(a) जापान
(b) सिंगापुर
(c) नेपाल
(d) बाली।
उत्तर:
(a) जापाना

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प्रश्न 3.
रियो सम्मेलन में कितने देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया-
(a) 172
(b) 170
(c) 180
(d) 185
उत्तर:
(b) 170

प्रश्न 4.
पर्यावरण के प्रति बढ़ते सरोकारों का कारण है-
(a) पर्यावरण की सुरक्षा मूलवासी लोगों और प्राकृतिक पर्यावासों के लिए जारी है।
(b) विकसित देश प्रकृति की रक्षा को लेकर चिन्तित हैं।
(c) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक
पहुँच गया है।
(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।

प्रश्न 5.
पृथ्वी सम्मेलन कब हुआ—
(a) 1992 में
(b) 1995 में
(c) 1997 में
(d) 2000 में।
उत्तर:
(a) 1992 में।

प्रश्न 6.
माण्ट्रियल प्रोटोकॉल पर कितने देशों ने हस्ताक्षर किए-
(a) 170
(b) 172
(c) 175
(d) 180
उत्तर:
(c) 175

प्रश्न 7.
धरती के वायुमण्डल में निम्नलिखित में से जिस गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही है, वह है-
(a) ओजोन गैस
(b) कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैस
(c) मीथेन गैस
(d) नाइट्रस ऑक्साइड गैस।
उत्तर:
(a) ओजोन गैस।

प्रश्न 8.
भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल (1997) पर हस्ताक्षर किए और इसका अनुमोदन किया-
(a) सन् 1997 में
(b) सन् 1998 में
(c) सन् 2002 में
(d) सन् 2001 में।
उत्तर:
(c) सन् 2002 में।

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