UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics (सांख्यिकी) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics (सांख्यिकी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 24
Chapter Name Statistics (सांख्यिकी)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics (सांख्यिकी)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2007, 08, 10, 11]
या
“सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है तथा जीवन के अनेक बिन्दुओं को स्पर्श करती है।” समीक्षा कीजिए। [2011]
या
हमारे जीवन में सांख्यिकी की उपयोगिता और महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर:
सांख्यिकी का महत्त्व
मानव-सभ्यता के विकास के साथ-साथ सांख्यिकी की उपयोगिता बढ़ती जा रही है। आज विज्ञान, गणित, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, नक्षत्र विज्ञान आदि विषयों में इसका प्रयोग होने लगा है। हमारे दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया सांख्यिकी से प्रभावित है। सांख्यिकी के महत्त्व को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता हैं

1. अर्थशास्त्र में सांख्यिकी – सांख्यिकी अर्थशास्त्र का आधार है। अर्थशास्त्र के सभी विभागों उपभोग, उत्पादन, विनिमय, वितरण एवं राजस्व में इसकी आवश्यकता पड़ती है। प्रो० बाउले के अनुसार, “अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी पूर्णतया सत्यता का दावा नहीं कर सकता, जब तक कि वह सांख्यिकी की रीतियों में निपुण न हो।’ प्रत्येक आर्थिक नीति के निर्माण में सांख्यिकी का प्रयोग आवश्यक होता है। आवश्यकताएँ, रहन-सहन का स्तर, पारिवारिक बजट, माँग की लोच, मुद्रा की मात्रा, बैंक-दर, आयात-निर्यात नीति का अध्ययन तथा निर्माण, राष्ट्रीय लाभांश, करों का निर्धारण आदि सांख्यिकीय आँकड़ों पर ही आधारित होते हैं।

2. आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में  – वर्तमान युग नियोजन का युग है। देश का आर्थिक विकास नियोजन के द्वारा ही सम्भव है। सांख्यिकी नियोजन का आधार है। किसी भी आर्थिक योजना के निर्माण तथा उसको सफलतापूर्वक चलाने के लिये सांख्यिकीय विधियों का उपयोग अत्यन्त आवश्यक होता है। जितने सही व सबल आँकड़े प्राप्त होंगे, योजना उतनी ही ठीक बन सकेगी। योजना निर्माण में इस तथ्य का अनुमान आवश्यक होता है कि उसमें कितना धन व्यय होगा, कितने व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध हो सकेगा तथा राष्ट्रीय आय में कितनी वृद्धि होगी; अत: इसमें भी सांख्यिकी की आवश्यकता पड़ती है।

3. राज्य प्रशासन के क्षेत्र में  – सांख्यिकी की उत्पत्ति ही राज्य प्रशासन के रूप में हुई थी। आज के युग में राज्य के कार्य-क्षेत्र बढ़ते ही जा रहे हैं। इस कारण सांख्यिकी का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है। कुशल प्रशासन हेतु अनेक प्रकार की सूचनाएँ एकत्रित करनी होती हैं; जैसे–सैनिक शक्ति, राष्ट्र की आय, व्यय, ऋण, आयात-निर्यात, औद्योगिक स्थिति, बेरोजगारी आदि। इन सूचनाओं के आधार पर ही सरकार अपनी नीति का निर्धारण करती है तथा बजट का निर्माण किया जाता है; अतः राज्य प्रशासन के क्षेत्र में सांख्यिकी का अत्यधिक महत्त्व है।

4. व्यापार व उद्योग के क्षेत्र में –  आज के इस प्रतियोगिता के युग में एक सफल व्यापारी व उद्यमी को इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि उसकी वस्तु की माँग कहाँ और कितनी है? भविष्य में मूल्य-परिवर्तन की क्या सम्भावनाएँ हैं? सरकार की नीति उद्योग के विषय में क्या है? आदि। इन सभी प्रश्नों के ठीक उत्तर के लिये सांख्यिकी का ज्ञान आवश्यक है। बॉडिंगटन के शब्दों में, “एक सफल व्यापारी वही है जिसके अनुमान यथार्थता के अति निकट हो।’ इसके लिये उसे सांख्यिकीय विधियों का आश्रय लेना पड़ेगा।

5. सार्वभौमिक महत्त्व – आधुनिक समय में सांख्यिकी का महत्त्व सर्वत्र है। शिक्षा एवं मनोविज्ञान के क्षेत्र में छात्रों की रुचि, बुद्धि, योग्यता और उनकी प्रगति का मूल्यांकन, परीक्षा-प्रणाली में सुधार आदि में सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग किया जाता है। चिकित्सा के क्षेत्र में, परिवार नियोजन कार्यक्रम की सफलता, रोग-निवारण में सफलता आदि के ज्ञान के लिए भी सांख्यिकीय विधियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं। सांख्यिकी के सार्वभौमिक महत्त्व की ओर संकेत करते हुए टिपेट (Tippett) ने कहा है, सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है और जीवन को अनेक बिन्दुओं पर स्पर्श करती है।”

6. अनुसन्धान के क्षेत्र में  – हम जानते हैं कि तीव्र आर्थिक विकास के लिए अनुसन्धान आवश्यक हैं। भौतिक एवं सामाजिक विज्ञानों के सभी क्षेत्रों में अनुसन्धान हेतु सांख्यिकी का प्रयोग अनिवार्य है। सांख्यिकी के बिना अनुसन्धानकर्ता कभी भी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता।

प्रश्न 2
प्राथमिक एवं द्वितीयक आँकड़ों में अन्तर बताइए तथा प्राथमिक आँकड़ों के संग्रहण की विविध विधियों को समझाइए। [2008, 14, 15]
या
समंकों के संकलन से क्या आशय है ? समंक कितने प्रकार के होते हैं ? प्राथमिक समंकों के संकलन की विधियाँ बताइए तथा उनके गुण व दोषों पर भी प्रकाश डालिए।
या
प्राथमिक समंकों से आप क्या समझते हैं? प्राथमिक समंकों को एकत्र करने की विभिन्न विधियों को समझाइए। [2014, 15]
उत्तर:
समंकों (आँकड़ों) के संकलन से आशय आँकड़ों को एकत्रित करने से हैं। जब आर्थिक विकास के किसी भी क्षेत्र के लिए सांख्यिकीय अनुसन्धान की योजना बनायी जाती है तो प्रथम चरण के रूप में समंकों (आँकड़ों) के संकलन का कार्य आरम्भ किया जाता है। आँकड़े सांख्यिकीय अनुसन्धान के लिए नींव का कार्य करते हैं। संकलन के आधार पर समंक दो प्रकार के होते हैं
(क) प्राथमिक समंक तथा
(ख) द्वितीयक समंक।

(क) प्राथमिक समंक – प्राथमिक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता अपने उपयोग के लिए स्वयं एकत्रित करता है। ये समंक पूर्णतः मौलिक होते हैं। अनुसन्धानकर्ता अपनी
आवश्यकतानुसार इन समंकों का संग्रहण करता है।

(ख) द्वितीयक समंक – द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं एकत्रित नहीं करता है अपितु उन समंकों का संग्रहण किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया हुआ होता है तथा निष्कर्ष भी निकाले हुए होते हैं। ये समंक पूर्व-प्रकाशित यो अप्रकाशित हो सकते हैं। अनुसन्धानकर्ता इन द्वितीयक समंकों के द्वारा ही अपनी आवश्यकतानुसार परिणाम ज्ञात कर लेता है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि नवीन आँकड़े (समंक) प्रथम अनुसन्धानकर्ता के द्वारा प्रयुक्त किये जाने पर प्राथमिक होते हैं, किन्तु जब उन्हीं समंकों का प्रयोग किसी अन्य अनुसन्धानकर्ता द्वारा किया जाए तो वे ही समंक द्वितीयक हो जाएँगे।

प्राथमिक समंकों (आँकड़ों) के संकलन की विधियाँ (रीतियाँ)
प्राथमिक समंकों का संकलन करने के लिए अनुसन्धानकर्ता निम्नलिखित विधियों (रीतियों) में से कोई भी विधि (रीति) जो उसके लिए अधिक उपयुक्त व श्रेष्ठ हो, को अपना सकता है

  1.  प्रत्यक्ष व्यक्तिगत समंक संकलन रीतिः
  2. अप्रत्यक्ष मौखिक समंक संकलन रीति।
  3. संवाददाताओं की सूचनाओं के आधार पर समंक संकलन।
  4. प्रश्नावली विधि
    • कम सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर तथा
    • प्रगणकों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करके।

1. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत समंक संकलन रीति – इस विधि में अनुसन्धानकर्ता स्वयं अनुसन्धान क्षेत्र में जाकर व्यक्तिगत रूप से सूचनादाताओं से सम्पर्क स्थापित करता है तथा अनुसन्धान से सम्बन्धित समंक एकत्रित करता है। यह रीति बहुत ही सरल है। इस रीति द्वारा विश्वसनीय और आवश्यक समंक एकत्रित किये जाते हैं, किन्तु इस प्रणाली का क्षेत्र सीमित होता है।
गुण – इस रीति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. शुद्धता – इस प्रणाली द्वारा समंकों का अनुसन्धानकर्ता स्वयं संग्रह करता है; अतः ये समंक शुद्ध होते हैं तथा इनके परिणाम भी शुद्ध ही निकलते हैं।
  2. विस्तृत सूचनाओं की प्राप्ति – इस विधि में अनुसन्धानकर्ता को समंक एकत्रित करते समय मुख्य सूचनाओं के साथ-साथ अन्य सूचनाएँ भी प्राप्त हो जाती हैं। यदि अनुसन्धानकर्ता परिवार की आर्थिक स्थिति से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त कर रहा हो, तब रहन-सहन के स्तर, शिक्षा आदि के विषय में भी जानकारी प्राप्त हो जाती है।
  3.  मौलिकता – प्राथमिक समंक पूर्णत: मौलिक होते हैं, क्योंकि ये अनुसन्धानकर्ता द्वारा स्वयं एक निश्चित उद्देश्य के लिए किये जाते हैं।
  4. लोचकता – इस प्रणाली से प्राप्त समंकों में लोचकता होती है। अनुसन्धानकर्ता समंकों को घटा-बढ़ा सकता है तथा अपनी कार्य-प्रणाली में परिवर्तन कर सकता है।
  5. मितव्ययिता – इस प्रणाली में अनुसन्धानकर्ता समंक स्वयं संगृहीत करता है; अत: वह समंक एकत्रित करते समय होने वाले व्यय पर ध्यान रखता है तथा फिजूलखर्ची पर नियन्त्रण रखता है।

अवगुण – इस विधि में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. सीमित क्षेत्र – प्राथमिक समंकों का संग्रहण स्वयं अनुसन्धानकर्ता द्वारा ही किया जाता है। इस कारण समंकों का क्षेत्र सीमित ही रहता है।
  2. पक्षपातपूर्ण – अनुसन्धानकर्ता क्योंकि स्वयं समंकों का संग्रहण करता है; अतः समंक एकत्रित करते समय पक्षपात की सम्भावना हो सकती है।
  3. परिणामों की अशुद्धता की सम्भावना – अनुसन्धानकर्ता द्वारा समंक एक सीमित क्षेत्र से ही एकत्रित किये जाते हैं; अतः समंकों द्वारा जो परिणाम निकलते हैं उनके विषय में शुद्धता की कोई गारण्टी नहीं होती।
  4. अपव्यय – अनुसन्धानकर्ता स्वयं समंक एकत्रित करता है; अत: समय, शक्ति व धन को अधिक लगाना पड़ता है।

2. अप्रत्यक्ष मौखिक समंक संकलन रीति – अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत होने की दशा में अनुसन्धानकर्ता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सभी व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में इस विधि को अपनाया जाता है। इस विधि में अनुसन्धानकर्ता सम्बन्धित व्यक्तियों से प्रश्न न पूछकर, उन व्यक्तियों से उनके विषय में जानकारियाँ प्राप्त करता है, जिनका उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध होता है; क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सम्बन्धित व्यक्ति अपरिचित लोगों को प्रश्नों का उत्तर नहीं देना चाहता है। इस विधि का प्रयोग अधिकांश रूप में सरकारी आयोगों एवं समितियों द्वारा किया जाता है। जिन व्यक्तियों से अप्रत्यक्ष रूप से सूचना प्राप्त की जाती है उन्हें साक्षी कहते हैं।

गुण – इस पद्धति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं।

  1. इस पद्धति में अनुसन्धानकर्ता को समय, शक्ति व धन की बचत हो जाती है।
  2. इस पद्धति से अनुसन्धान कार्य शीघ्र और सरलता से हो जाता है।
  3. अनुसन्धानकर्ता को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता। समंक सरलता से प्राप्त हो जाते हैं। तथा कभी-कभी विशेषज्ञों का परामर्श भी प्राप्त हो जाता है।
  4. विस्तृत क्षेत्र एवं कठिन परिस्थितियों में यह विधि अधिक उपयोगी होती है।
  5. अनुसन्धानकर्ता द्वारा इसमें किसी प्रकार के पक्षपात की सम्भावना समाप्त हो जाती है।

अवगुण – इस पद्धति में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. अनुसन्धानकर्ता प्रत्यक्ष रूप से उन व्यक्तियों से सम्पर्क नहीं कर पाता, जिनसे सम्बन्धित समस्या का वह अनुसन्धान कर रहा होता है; अत: परिणामों के विषय में निश्चितता का अभाव रहता है।
  2. अनुसन्धानकर्ता को दूसरे के ऊपर आधारित रहना पड़ता है; अतः दूसरे व्यक्ति अनुसन्धानकर्ता को वास्तविकता से दूर रखकर पक्षपातपूर्ण जानकादिर में हैं जिसके कारण अनुसन्धानकर्ता ठीक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है।
  3. प्राप्त समंकों में एकरूपता और गोपनीयता का अभाव रहता है।

3. संवाददाताओं की सूचनाओं के आधार पर समंक संकलन रीति – इस पद्धति में अनुसन्धानकर्ता स्वयं समंकों का संकलन नहीं करता है अपितु स्थानीय स्तर पर व्यक्ति या संवाददाताओं को नियुक्त कर उनके माध्यम से सूचनाएँ प्राप्त करता है। स्थानीय व्यक्ति या संवाददाता भी समंकों का संकलन स्वयं नहीं करते, वरन् अपने अनुभवों एवं अनुमानों के आधार पर ही अनुसन्धानकर्ता को सूचनाएँ उपलब्ध करा देते हैं। प्रायः पत्र-पत्रिकाओं व दूरदर्शन द्वारा इसी विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विधि की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि संवाददाता योग्य, निष्पक्ष . एवं प्रतिभावान् हों तथा उनकी संख्या भी पर्याप्त होनी चाहिए।
गुण – इस पद्धति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. अनुसन्धानकर्ता को कम परिश्रम करना पड़ता है।
  2. समय, शक्ति व धन की बचत होती है।
  3. विस्तृत क्षेत्र से सूचनाएँ शीघ्र एकत्रित की जा सकती हैं।

अवगुण – इस पद्धति में निम्नलिखित अवगुण पाये जाते हैं

  1. समंकों में विश्वसनीयता का अभाव होता है।
  2. समंक मौलिक नहीं होते हैं।
  3. समंकों में पक्षपात का भय बना रहता है।
  4. निष्कर्षों में अशुद्धियों की सम्भावना रहती है।
  5. समंक संकलनों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है।

4. प्रश्नावली विधि द्वारा समंक संकलन

(क) कम सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर – प्रश्नावली विधि में अनुसन्धानकर्ता, अनुसन्धान से सम्बन्धित एक प्रश्नावली अथवा अनुसूची तैयार करता है। सामान्यतया प्रश्नावली छपवायी जाती है। इसमें अनुसन्धान से सम्बन्धित वस्तुनिष्ठ प्रश्न, वैकल्पिक उत्तरों वाले प्रश्न, सत्य/असत्य पर आधारित प्रश्न, रिक्त स्थानों की पूर्ति आदि से सम्बन्धित प्रश्न होते हैं। यह प्रश्नावली सूचकों को उत्तरदाताओं के पास सूचनाएँ व उत्तर प्राप्त करने के लिए डाक द्वारा भेज दी जाती हैं तथा प्रश्नावली की वापसी के लिए टिकटयुक्त लिफाफा भी भेजा जाता है। उत्तरदाता को यह आश्वासन दिया जाता है कि उनके द्वारा प्रेषित सूचनाएँ या उत्तर पूर्ण रूप से गुप्त रखे जाएंगे। इस प्रकार सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाकर समंक संगृहीत किये जाते हैं।

गुण – इस प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. यह प्रणाली विस्तृत क्षेत्र के लिए उत्तम मानी जाती है। अनुसन्धानकर्ता इस विधि में अनुसूची या प्रश्नावली डाक द्वारा सूचकों या उत्तरदाताओं के पास भेज देता है।
  2. इस विधि द्वारा संगृहीत समंक मौलिक व शुद्ध होते हैं।
  3. इस विधि में समय वे शक्ति की बचत होती है।
  4. कार्य शीघ्र सम्पन्न हो जाता है, क्योंकि अनुसन्धानकर्ता को उत्तरदाताओं के पास स्वयं नहीं जाना पड़ता।
  5. यह विधि पक्षपातरहित होती है।

अवगुण – इस प्रणाली के मुख्य अवगुण निम्नलिखित हैं

  1. समंक संकलन की इस विधि में अनुसूचियों को तैयार करना, उन्हें मुद्रित कराना, फिर सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए डाक द्वारा भेजना तथा उनके उत्तर प्राप्त करने में पर्याप्त धन व्यय हो जाता है।
  2. लोचकता का अभाव पाया जाता है, क्योंकि उत्तरदाता अनुसूची या प्रश्नावली से पूर्णतया बँधा होता है।
  3. इस विधि का सबसे बड़ा अवगुण यह है कि उत्तरदाता, उत्तर देने में एवं अनुसूचियों को भेजने में किसी प्रकार की रुचि नहीं लेता है।
  4. अशिक्षित व्यक्तियों के लिए यह विधि अनुपयुक्त होती है।
  5. सूचना देने वाले यदि सूचना देने में पक्षपात कर जाते हैं, तब सम्पूर्ण अनुसन्धान दोषपूर्ण हो जाता है।

(ख) प्रगणकों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करके – यह विधि सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर समंक या सूचनाएँ प्राप्त करने की अपेक्षा उत्तम है। इस विधि में भी प्रश्नावली व अनुसूची तैयार की जाती है, परन्तु डाक द्वारा सूचनादाता के पास नहीं भेजी जाती। इस विधि में कुछ प्रगणकों की नियुक्ति कर दी जाती है, जो अनुसूची या प्रश्नावली को स्वयं लेकर सूचनादाता के पास जाते हैं और प्रश्नोत्तरदाता से प्रश्नों के उत्तर पूछकर स्वयं भरते हैं। सरकार द्वारा व्यापक पैमाने पर कराये जाने वाले सर्वेक्षण इसी विधि द्वारा कराये जाते हैं। जनगणना के समंक इसी विधि द्वारा एकत्रित किये जाते हैं।
गुण – इस विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. प्रगणकों द्वारा एकत्रित किये गये समंक पूर्णत: शुद्ध होते हैं; क्योंकि प्रगणक घर-घर जाकर व्यक्तिगत रूप से सूचनाएँ एकत्रित करते हैं।
  2. इस प्रणाली के द्वारा विस्तृत क्षेत्रों से सूचनाएँ एकत्रित की जा सकती हैं।
  3. इस रीति में पक्षपात नहीं हो पाता है; क्योंकि प्रगणक निष्पक्ष भाव से सूचनाएँ एकत्रित करता है।
  4. यह प्रणाली पूर्णत: लोचपूर्ण है। आवश्यकता पड़ने पर प्रगणक अन्य सूचनाएँ भी एकत्रित कर सकता है।

अवगुण
इस प्रणाली में निम्नलिखित अवगुण पाए जाते हैं

  1. इस प्रणाली में सूचनाएँ या समंक एकत्रित करने में धन, समय व श्रम का अत्यधिक व्यय होता है।
  2. इस प्रणाली में प्रगणक योग्य, शिक्षित, प्रशिक्षित एवं लगनशील होने चाहिए। योग्य, प्रशिक्षित एवं लगनशील प्रगणक के अभाव में विश्वसनीय सूचनाएँ प्राप्त नहीं हो सकती हैं।
  3. इस प्रणाली में प्रगणक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है; जैसे-जाने पर भी सूचनादाता से सम्पर्क न हो पाना, प्रश्नों का यथोचित उत्तर न दे पाना आदि।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समंक संकलन की सफलता उपर्युक्त रीति के चयन के साथ-साथ अनुसन्धानकर्ता की योग्यता, अनुभव, परिश्रम तथा दक्षता पर निर्भर करती है।

प्रश्न 3
द्वितीयक समंक से क्या अभिप्राय है? द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने में क्या-क्या सावधानियाँ बरती जानी चाहिए?
उत्तर:
द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं संकलित नहीं करता है। ये समंक किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता द्वारा संगृहीत एवं प्रयुक्त किये हुए होते हैं। इसलिए इन समंकों को पूर्व-प्रकाशित समंक भी कहते हैं।
ब्लेयर के अनुसार, “द्वितीयक समंक वे हैं जो पहले से उपलब्ध हैं, जिन्हें वर्तमान समस्या के समाधान की अपेक्षा किसी अन्य उद्देश्य के लिए संकलित किया गया था।
डॉ० बाउले के अनुसार, “प्रकाशित समंकों को ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लेना कभी भी सुरक्षित नहीं है जब तक कि उनको अर्थ एवं सीमाएँ ज्ञात न हो जाएँ। जो तर्क उन पर आधारित हैं, उनकी आलोचना करना सदैव आवश्यक है।”
उपर्युक्त कथन का अर्थ है कि द्वितीयक समंकों को बिना सोचे-समझे और उनकी सीमाओं को जाने बिना उपयोग में नहीं लाना चाहिए। द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व हमें कुछ सावधानियाँ बरतनी चाहिए, जो निम्नलिखित हैं

(1) द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व वर्तमान अनुसन्धानकर्ता को यह जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए कि इन समंकों को संकलित करने वाले की योग्यती क्या थी ? किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ये समंक एकत्रित किये गये थे और उस समय के निष्कर्षों की शुद्धता कितनी थी ? संकलनकर्ता यदि योग्य, ईमानदार और परिश्रमी था तब ही इस प्रकार के समंकों पर विश्वास किया जा सकता है अन्यथा नहीं।

(2) अनुसन्धानकर्ता को समंक उपयोग में लाने से पूर्व यह देख लेना चाहिए कि वर्तमान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ये समंक विश्वसनीय एवं पर्याप्त हैं अथवा नहीं।

(3) द्वितीय समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व अनुसन्धानकर्ता को यह भी देखना चाहिए कि ये समंक किस समय तथा किन परिस्थितियों में संकलित किये गये थे। सामान्य परिस्थितियों में एकत्रित समंक असामान्य परिस्थितियों के लिए और असामान्य परिस्थितियों में एकत्रित समंक सामान्य परिस्थितियों के अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं होते। यदि समंकों के संकलन का अन्तराल कम है तो इनकी मदद से दीर्घकालीन पद्धति पर प्रकाश नहीं डाला जा सकता।

(4) द्वितीयक समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व अनुसन्धानकर्ता को न्यादर्श विधि से कुछ समंकों को छाँटकर उनकी विश्वसनीयता की परख कर लेनी चाहिए।

(5) अनुसन्धानकर्ता को समंकों के संकलन की विधि के विषय में भी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। समंकों का संकलन करते समय किस विधि को उपयोग में लाया गया था; वह विधि समय का सही प्रतिनिधित्व करती थी या नहीं अथवा वह विधि विश्वास योग्य थी या नहीं ?

(6) समंक एकत्रित करने वाले व्यक्ति अथवा संस्था के उद्देश्य और क्षेत्र की जानकारी कर लेनी चाहिए। यदि वर्तमान अनुसन्धानकर्ता का उद्देश्य और क्षेत्र वही है जो पूर्व अनुसन्धानकर्ता का था, तभी पूर्व एकत्रित समंक उपयोगी हो सकते हैं।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि यदि अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक समंकों का उपयोग सावधानीपूर्वक करता है तब ही अनुसन्धान का निष्कर्ष व परिणाम शुद्ध व वैज्ञानिक होगा। सावधानी के अभाव में अनुसन्धानकर्ता अपने उद्देश्य से भटक जाएगा तथा उसका श्रम, शक्ति व धन व्यर्थ हो जाएगा।

प्रश्न 4
द्वितीयक समंक संकलन के मुख्य स्रोतों को बताइए। [2008, 12]
या
द्वितीयक समंकों के कोई दो स्रोतों का उल्लेख कीजिए। [2015]
या
द्वितीयक आँकड़ों के विभिन्न स्रोतों का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर:
द्वितीयक समंक संकलन के प्रमुख दो स्रोत हैं
(क) प्रकाशित तथा
(ख) अप्रकाशित।

(क) प्रकाशित स्रोत
1. सरकारी प्रकाशन –
प्रत्येक सरकार को अपने देश के आर्थिक विकास की जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रति वर्ष आर्थिक समीक्षा करनी होती है। इसके लिए सरकार प्रति वर्ष राष्ट्रीय आय, प्रति व्यक्ति आय, निर्धनता का स्तर, बेरोजगारी, सकल घरेलू उत्पाद, कृषि उत्पाद, खनन व औद्योगिक उत्पाद, देश की जनसंख्या आदि से सम्बन्धित समंकों का संकलन और उनका प्रकाशन कराती है। यह केन्द्र व राज्य सरकारों का दायित्व है।
अनुसन्धानकर्ता इन समंकों का उपयोग अपने अनुसन्धान-कार्य में द्वितीयक समंकों के रूप में कर लेता है। इस प्रकार द्वितीयक समंकों के मूल स्रोत सरकारी प्रकाशन ही हैं।

2. आयोग एवं समितियों के प्रकाशन – सरकार समय-समय पर विभिन्न प्रकार के आयोगों एवं समितियों का गठन करती रहती है; जैसे—योजना आयोग, वेतन आयोग आदि। ये आयोग व समितियाँ देश के आर्थिक विकास व उससे सम्बद्ध अनेकों समस्याओं से सम्बन्धित समंकों को संगृहीत कराते हैं तथा उनका प्रकाशन भी कराते हैं। इस प्रकाशित सामग्री का उपयोग भी अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक सामग्री के रूप में करते हैं।

3. अर्द्ध-सरकारी प्रकाशन – नगर निगम, नगर पंचायत, जिला पंचायत आदि अपने कार्य-क्षेत्र से सम्बन्धित जन्म, मृत्यु, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से सम्बन्धित समंकों का संकलन कराती हैं। और उन्हें प्रकाशित कराती हैं। अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक समंकों के रूप में इस सामग्री को अपने उपयोग में लाता है।

4. शोधकर्ताओं व अनुसन्धान संस्थाओं के प्रकाशन – विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर शोध-कार्य होते रहते हैं। शोधकर्ता अपने शोध-कार्य को प्रकाशित कराते हैं। इसके साथ-साथ अनेक शोध संस्थाएँ; जैसे-भारतीय सांख्यिकीय संगठन, नेशनल काउन्सिल ऑफ ऐप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च आदि संस्थाएँ भी शोध-कार्यों के परिणामों को प्रकाशित कराती हैं। इस प्रकाशित सामग्री को अन्य अनुसन्धानकर्ता द्वितीयक सामग्री के रूप में उपयोग में लाते हैं।

5. समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन – देश की उत्तम श्रेणी के समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भी समंकों का संकलन करके उन्हें प्रकाशित करती हैं। यह सामग्री भी द्वितीयक सामग्री के रूप में उपयोग में लायी जाती है।

6. अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन – अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा विश्व के कई देशों के तुलनात्मक आँकड़े समय-समय पर प्रकाशित किए जाते हैं; जैसे – संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित प्रति व्यक्ति आय सम्बन्धी आँकड़े, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की वार्षिक रिपोर्ट, डेमोग्राफिक इयर बुक, अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा प्रकाशित श्रम सम्बन्धी आँकड़े आदि।।

7. गैर-सरकारी अथवा व्यापारिक संस्थाओं के प्रकाशन – कुछ गैर-सरकारी प्रकाशन अथवा बड़ी-बड़ी व्यापारिक संस्थाएँ अनेक प्रकार के समंकों का संकलन कर उन्हें प्रकाशित करते हैं; जैसे – मनोरमा इयर बुक, जागरण वार्षिकी, प्रतियोगिता दर्पण आदि।

(ख) अप्रकाशित स्रोत
सरकार, संस्थाएँ, संगठन अथवा व्यक्तियों द्वारा कुछ सामग्री संगृहीत की जाती है, परन्तु ये इनका प्रकाशन नहीं करा पाते हैं। किसी अनुसन्धानकर्ता को यदि इस प्रकार की सामग्री या समंक उपलब्ध हो जाते हैं; तो वह इस सामग्री का उपयोग द्वितीयक सामग्री के रूप में कर लेता है।

प्रश्न 5
सांख्यिकीय अनुसन्धान की संगणना विधि तथा प्रतिदर्श या न्यादर्श विधि को समझाइए। इनके गुण व दोषों को भी स्पष्ट कीजिए।
या
संगणना विधि और ‘निदर्शन विधि को समझाइए। [2014]
उत्तर:
अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व यह निश्चय करना पड़ता है कि समंकों का संकलन समग्र में से किया जाएगा या न्यादर्श के द्वारा। दूसरे शब्दों में अनुसन्धान से सम्बन्धित प्रत्येक इकाई का अध्ययन किया जाएगा अथवा सम्पूर्ण इकाइयों में से कुछ को चुनकर ही उनका अध्ययन किया जाएगा।
अध्ययन की इन दो विधियों को ही पूर्ण गणना या संगणना विधि (Census Method) और प्रतिदर्श या न्यादर्श विधि (Sampling Method) कहा जाता है।

संगणना या पूर्ण गणना विधि
संगणना विधि  में अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान से सम्बन्धित समग्र की प्रत्येक इकाई से सूचना एकत्रित करनी होती है। इसमें सम्पूर्ण समूह की समस्या से सम्बन्धित किसी इकाई को नहीं छोड़ा जाता। भारत में जनसंख्या की गणना, उत्पादन गणना, आयात-निर्यात गणना इत्यादि गणनाएँ इसी विधि के द्वारा होती हैं।

गुण या लाभ – संगणना या पूर्ण गणना विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. संगणना विधि द्वारा प्राप्त समंक अत्यधिक शुद्ध और विश्वसनीय होते हैं; क्योंकि इस विधि । में अनुसन्धान की प्रत्येक इकाई का व्यक्तिगत सर्वेक्षण किया जाता है।
  2. इसी विधि के द्वारा समस्या से सम्बन्धित प्रत्येक इकाई का गहन अध्ययन सम्भव होता है; अत: समंकों के संग्रहण के दौरान विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं। प्रत्येक इकाई के सम्पर्क में आने के कारण अनेकों बातों की जानकारी मिलती है।
  3. यह विधि ऐसे अध्ययनों के लिए अधिक उपयुक्त है, जहाँ पर इकाइयाँ एक-दूसरे से भिन्न होती हैं।
  4. यदि अध्ययन अथवा अनुसन्धान की प्रकृति ऐसी है कि जाँच में सभी इकाइयों का समावेश आवश्यक है तो इस विधि द्वारा अनुसन्धान आवश्यक होता है; जैसे-जनगणना।

अवगुण या दोष – इस प्रणाली में निम्नलिखित अवगुण होते हैं

  1. संगणना प्रणाली बहुत अधिक असुविधाजनक है; क्योंकि इसमें समय, श्रम व धन अधिक व्यय होती है। इस विधि से समंक संग्रहण के लिए एक पूरा विभाग बनाना पड़ता है, जिससे प्रबन्धन सम्बन्धी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं।
  2. संगणना प्रणाली सभी प्रकार की परिस्थितियों में उपयुक्त सिद्ध नहीं होती। यदि अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत है, समयावधि कम है, धन का अभाव है तब यह प्रणाली उचित नहीं रहती है।
  3. इस विधि का प्रयोग सीमित क्षेत्र में ही सम्भव है। अन्य परिस्थितियों में, अर्थात् जहाँ क्षेत्र विशाल व जटिल हों अथवा सभी इकाइयों की जाँच से उनके समाप्त हो जाने की सम्भावना हो, वहाँ | पर इस विधि को अपनाना असम्भव होता है।
  4. इस विधि का एक दोष यह भी है कि इसके द्वारा सांख्यिकीय विभ्रम का पता नहीं लगाया जा सकता।

निदर्शन विधि
निदर्शन अनुसन्धान विधि में समग्र से सूचनाएँ प्राप्त नहीं की जाती हैं, वरन् समग्र में से कुछ इकाइयों को छाँट लेते हैं। छाँटी हुई इकाइयों की ही जाँच की जाती है तथा उनके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। छाँटी हुई इकाई को प्रतिनिधि इकाई, प्रतिदर्श, न्यादर्श, नमूना या बानगी कहते हैं। यह इकाई सम्पूर्ण का प्रतिनिधित्व करती है। सांख्यिकीय अनुसन्धानों में अधिकांश रूप से इसी विधि को उपयोग में लाया जाता है।

रक्त की एक बूंद की जाँच करके शरीर के पूर्ण रक्त की रिपोर्ट इसी विधि का एक उदाहरण है।
निदर्शन की विधियाँ – न्यादर्श चुनने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं

(क) सविचार निदर्शन – सविचार निदर्शन (Purposive Sampling) में अनुसन्धानकर्ता स्वेच्छा से समग्र में से ऐसी इकाइयाँ छाँट लेता है जो उसके विचार से समग्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन इकाइयों द्वारा निकाले गये निष्कर्ष समग्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रणाली का प्रमुख दोष यह है। कि अनुसन्धानकर्ता पक्षपात कर सकता है, क्योंकि न्यादर्श छाँटने में वह स्वतन्त्र होता है।
अत: इस विधि की सफलता न्यादर्श छाँटने वाले की योग्यता, ज्ञान एवं अनुभव पर निर्भर करती है।

(ख) दैव-निदर्शन – दैव-निदर्शन (Random Sampling) विधि में समग्र में से इकाइयाँ इस प्रकार छाँटी जाती हैं कि प्रत्येक इकाई के न्यादर्श में सम्मिलित होने की सम्भावना बनी रहती है। अनुसन्धानकर्ता स्वेच्छा से किसी भी इकाई को नहीं छाँटता है। दैवयोग पर यह निर्भर रहता है कि कौन-सी इकाई का चयन किया जाएगा। न्यादर्श की यह विधि उत्तम है, क्योंकि इसमें किसी प्रकार के पक्षपात की सम्भावना नहीं होती। प्रत्येक इकाई की अनुसन्धान में छंटने की सम्भावना रहती है।

गुण या लाभ – इस विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  1. इस विधि का प्रयोग करने पर धन, समय व परिश्रम की अत्यधिक बचत होती है।
  2. समय कम लगने के कारण यह प्रणाली शीघ्रता से बदलती हुई परिस्थितियों से सम्बन्धित अनुसन्धानों के लिए उपयुक्त है।
  3. यदि न्यादर्श समुचित आधार पर और यथेष्ट मात्रा में छाँटे जाएँ तो इस विधि के द्वारा भी प्राप्त निष्कर्ष वही होंगे, जो संगणना विधि के माध्यम से प्राप्त होते हैं।
  4. चुनी हुई सामग्री बहुत थोड़ी होती है इसलिए उसकी विस्तृत रूप से जाँच की जा सकती है।
  5. अनुसन्धान करने वाला केवल न्यादर्श के आकार से ही अपने अनुसन्धान में सांख्यिकीय विभ्रम ज्ञात कर सकता है तथा उसकी सार्थकता एवं निरर्थकता की जाँच भी कर सकता है।
  6. संगणना विधि की तुलना में यह विधि अधिक वैज्ञानिक है, क्योंकि उपलब्ध समंकों की जाँच दूसरे न्यादर्शों द्वारा की जा सकती है।

दोष या हानि–इस विधि में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं

  1. यह रीति वहाँ के लिए उपयुक्त नहीं होती, जहाँ पर सम्मिलित इकाइयों में विविधता हो अर्थात् सजातीयता का अभाव हो। इकाइयों के स्वरूप व गुण में परिवर्तन होते रहने के कारण न्यादर्श सम्पूर्ण समूह का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते।
  2. यह विधि उन अनुसन्धानों के लिए उपयुक्त नहीं है, जहाँ बहुत उच्च स्तर की शुद्धता ” अपेक्षित हो; क्योंकि न्यादर्श में समूह के शत-प्रतिशत गुणों का समावेश नहीं हो सकता।।
  3. यदि न्यादर्श का चुनाव अवैज्ञानिक या पक्षपातपूर्ण तरीकों से किया गया हो तो इस विधि से प्राप्त निष्कर्ष भ्रमात्मक एवं असन्तोषप्रद होगे।।
  4. कुशल एवं प्रशिक्षित प्रगणकों के अभाव में इस विधि की सफलता सन्दिग्ध होती है; क्योंकि इस विधि द्वारा न्यादर्श का चयन करने में, उसका आकार निश्चित करने में तथा प्राप्त परिणामों की शुद्धता निर्धारित करने में विशिष्ट ज्ञान एवं अनुभव की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 6
सांख्यिकी के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है, अविश्वास के कारण तथा इसके निवारण के उपाय बताइए।
उत्तर:
सांख्यिकी एक ऐसा यन्त्र है जो आज प्रत्येक क्षेत्र में होने वाली समस्याओं के समाधान में उपयोगी है; परन्तु आजकल सांख्यिकीय आँकड़ों के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ती जा रही है। इसका प्रमुख कारण समंकों के प्रति अविश्वास का होना है। समंकों के अभाव में आज के युग में हम किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पादित नहीं कर सकते। सामान्य रूप में यह धारणा है कि ‘आँकड़े झूठ नहीं हो सकते’, यदि आँकड़े हमें इस प्रकार का निष्कर्ष दे रहे हैं तब यह निष्कर्ष असत्य नहीं हो सकता, परन्तु अधिकतर लोग आँकड़ों को शक की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें अविश्वसनीय भी मानते हैं।

अविश्वास के कारण
सांख्यिकीय आँकड़ों के प्रति अविश्वास के निम्नलिखित कारण हैं

  1. सांख्यिकी के विषय से अनभिज्ञता – अधिकांश व्यक्तियों को सांख्यिकीय नियमों, सिद्धान्तों, समंकों के संकलन की विधियों, वर्गीकरण और निकाले गये निष्कर्षों के विषय में कोई जानकारी नहीं होती। वे निष्कर्षों को बिना सोचे-समझे सत्य मान लेते हैं और जब उन्हें वास्तविक स्थिति की जानकारी होती है तब वे समंकों पर विश्वास करना छोड़ देते हैं।
  2. सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा  – प्रत्येक शास्त्र की अपनी सीमाएँ होती हैं, इसी प्रकार सांख्यिकी की भी अपनी सीमाएँ हैं। सांख्यिकी व्यक्तिगत समस्याओं की अपेक्षा सामूहिक समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर रहता है। अनुसन्धानकर्ता यदि सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा करके समंकों को उपयोग में लाता है तब समंकों के निष्कर्ष शुद्ध हो ही नहीं सकते।
  3. परस्पर विपरीत समंकों द्वारा निष्कर्ष निकालना – एक ही समस्या परे सरकारी समंक जो निष्कर्ष जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, विरोधी पक्ष इन समंकों के विपरीत अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। ऐसी स्थिति में जनता किस प्रकार समंकों पर विश्वास कर सकती है।
  4. स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा समंकों का दुरुपयोग – कुछ स्वार्थी लोग पूर्व भावनाओं से ग्रस्त होने के कारण समंकों का दुरुपयोग करते हैं, जिसके कारण समंकों के प्रति जनता में अविश्वास उत्पन्न हो जाता है।
  5. समंकों की शुद्धता का अभाव – समंकों की शुद्धता की जाँच करना एक कठिन कार्य है। कोई भी व्यक्ति चुनौतीपूर्वक यह नहीं कह सकता कि उसके द्वारा संकलित समंक सत्य, मौलिक एवं शुद्ध हैं। इस कारण समंकों के प्रति जनता में अविश्वास बढ़ता जा रहा है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समंक झूठ नहीं बोलते, बल्कि समंकों को उपयोग में लाने वाले व्यक्तियों में अज्ञानता व अनुभव न होने के कारण समंकों के प्रति अविश्वसनीयता रहती है। समंक तो गीली मिट्टी के समान हैं, जिसे हम देवता या दानव जो भी बनाना चाहें बना सकते हैं। किसी दवा का सदुपयोग करके योग्य चिकित्सक कोई रोग दूर कर सकता है, किन्तु अयोग्य चिकित्सक के द्वारा वही दवा किसी रोगी के लिए जहर का काम भी कर सकती है। इसी प्रकार यदि समंकों के प्रयोग में जरा-सी भूल या लापरवाही हो जाती है तो ये समंक भयंकर परिणाम भी दे सकते हैं; अतः समंकों से उत्पन्न अविश्वास के लिए, जो अधिकतर उसके दुरुपयोग से ही उत्पन्न होते हैं, उसके प्रयोगकर्ता ही उत्तरदायी हैं। इसमें समंकों का कोई दोष नहीं है। सांख्यिकी ऐसे विज्ञानों में से एक है जिसका प्रयोग करने वालों में एक कलाकार के समान आत्म-संयम होना चाहिए।

अविश्वसनीयता के निवारण के उपाय
निम्नलिखित उपायों द्वारा समंकों की अविश्वसनीयता को दूर किया जा सकता है

  1. सांख्यिकी विषय की जानकारी रखने वाले व्यक्ति ही समंकों का उपयोग करें।
  2. समंकों का निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र उपयोग किया जाए।
  3. समंकों का प्रयोग करते समय सांख्यिकी की सीमाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
  4. समंकों को उपयोग में लाने से पूर्व उनकी शुद्धता की जाँच कर लेनी चाहिए।
  5. समंक स्वार्थी व्यक्तियों के हाथों में नहीं पहुँचने चाहिए जो इसका उपयोग मनमाने ढंग से कर सकें।

प्रश्न 7
प्रतिदर्श आँकड़ों की विश्वसनीयता से सम्बन्धित नियमों पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।
या
टिप्पणी लिखिए
(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम तथा
(ख) महांक जड़ता नियम।
उत्तर:
निदर्शन पद्धति सांख्यिकी के दो आधारभूत नियमों पर आधारित है। ये नियम ही प्रतिदर्श आँकड़ों की विश्वसनीयता एवं उपयोगिता के आधार हैं। ये आधारभूत नियम निम्नलिखित हैं
(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम तथा
(ख) महांक जड़ता नियम।

(क) सांख्यिकीय नियमितता नियम
यह नियम सम्भावना सिद्धान्त का उपप्रमेय है। यह प्रतिपादित करता है कि यदि समग्र में से दैव-निदर्शन द्वारा न्यादर्श लिया जाए तो वह समग्र का ठीक प्रकार से प्रतिनिधित्व कर सकेगा अर्थात् इस न्यादर्श में उन्हीं गुणों की सम्भावना होगी जो समग्र में है। किंग के अनुसार, “गणित के सम्भावना सिद्धान्त के आधार पर बना सांख्यिकीय नियमितता नियम यह बताता है कि यदि किसी बहुत बड़े समूह में से दैव-निदर्शन द्वारा बड़ी संख्या में पदों को चुन लिया जाए तो यह लगभग निश्चित है कि इन पदों में औसत रूप में बड़े समूह के गुण होंगे।” यही प्रवृत्ति सांख्यिकीय नियमितता नियम कहलाती है।
इस नियम का आधार यह है कि प्रकृति ऊपर से भिन्नता दिखाते हुए भी उसमें अन्तर्निहित एकरूपता या नियमितता होती है। इसी कारण प्रकृति के सभी कार्य व्यवस्थित ढंग से चलते रहते हैं।
नियम की सीमाएँ-इस

नियम की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. यह नियम तभी लागू होगा जब न्यादर्श दैव-निदर्शन रीति से लिया जाए।
  2. जब न्यादर्श का आकार पर्याप्त होगा तभी यह नियम लागू होगा अन्यथा नहीं।
  3. यदि न्यादर्श की इकाइयों में विशेष प्रकार की भिन्नता व विषमता होगी तो यह नियम लागू नहीं होगा।
  4. यह नियम औसत रूप से सत्य होता है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी स्थानों पर तथा सभी अवस्थाओं में यह सत्य हो।

नियम की उपयोगिताएँ-इस नियम की प्रमुख उपयोगिताएँ निम्नलिखित हैं

  1. इस नियम के आधार पर ही निदर्शन प्रणाली का प्रतिपादन हुआ है। निदर्शन प्रणाली के प्रयोग ने बहुत-से समय, धन एवं श्रम को बचा दिया है।
  2. इस नियम के प्रयोग के आधार पर ही श्रेणी के आन्तरिक एवं बाह्य अज्ञात मूल्यों को ज्ञात किया जा सकता है।
  3. इस नियम के आधार पर ही बीमा कम्पनियाँ भावी जोखिमों का पूर्वानुमान कर बीमा की किस्त निर्धारित करती हैं।
  4. इस नियम का प्रयोग ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में किया जाता है। रेलवे दुर्घटनाओं, जुए के खेल, अपराधों, आत्महत्याओं, तूफानों व बाढ़ों आदि पर यह नियम क्रियाशील होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि इस नियम की व्यापारिक उपयोगिता बहुत ही अधिक है।

(ख) महांक जड़ता नियम
यह नियम सांख्यिकीय नियमितता नियम का उप-प्रमेय है। इसका आशय इसके नाम से ही स्पष्ट है। महा अंक से अर्थ है बड़े अंक तक, जड़ता से अर्थ है स्थिरता, अर्थात् बड़ी संख्याओं में स्थिरता होती है। दूसरे शब्दों में, बड़ी संख्याएँ छोटी संख्याओं की तुलना में कम परिवर्तित होती हैं। बड़ी संख्याओं के अधिक स्थिर तथा अपरिवर्तनशील रहने का कारण यह है कि बड़े समग्र में कुछ इकाइयों में परिवर्तन यदि एक दिशा में होता है तो कुछ इकाइयों में परिवर्तन दूसरी दिशा में और कदाचित कुछ इकाइयों में परिवर्तन होता ही नहीं है। प्रो० किंग ने इस नियम के आधार को स्पष्ट करते हुए कहा है एक बड़े समूह के एक भाग में एक दिशा में परिवर्तन होता है, तो सम्भावना होती है कि उसी समूह के बराबर के अन्य भाग में उसके विपरीत दिशा में परिवर्तन होगा, इस प्रकार कुल परिवर्तन बहुत कम होगा।” सारांश यह है कि बड़ी संख्याएँ छोटी संख्यौओं की अपेक्षा अधिक स्थिर तथा अपरिवर्तनशील होती हैं।

नियम का आधार – यह नियम इस बात पर आधारित है कि बड़े समग्र की पक्ष तथा विपक्ष की इकाइयाँ एक-दूसरे को प्रभावहीन कर देती है।
नियम की सीमाएँ – नियम की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. समग्र जितना बड़ा होगा यह नियम उतनी ही अधिक सत्यता के साथ लागू होगा।
  2. दीर्घकालीन तथ्यों में अल्पकालीन तथ्यों की अपेक्षा अधिक शुद्धता व स्थिरता होती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि दीर्घकाल में परिवर्तन होता ही नहीं है। परिवर्तन तो होते हैं, परन्तु अचानक नहीं।

नियम की उपयोगिता – व्यावहारिक जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में इस नियम का महत्त्व है। दैव-निदर्शन में यह नियम अत्यधिक उपयोगी है। इस नियम के कारण ही बड़ी मात्रा के दैव न्यादर्शों में शुद्धता एवं विश्वसनीयता की मात्रा अधिक होती है। समंकों की स्थिर प्रवृत्ति के कारण ही पूर्वानुमान सम्भव हो पाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी की विभिन्न परिभाषाएँ दीजिए। [2007, 10]
या
सांख्यिकी का क्या अर्थ है?
उत्तर:
सांख्यिकी का शाब्दिक अर्थ ‘संख्या से सम्बन्धित शास्त्र’ है। अतः सांख्यिकी ज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध संख्याओं या संख्यात्मक आँकड़ों से है। अंग्रेजी का ‘Statistics’ शब्द लैटिन भाषा के ‘status’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ ‘राज्य’ है। इससे पता लगता है कि इस विषय की उत्पत्ति राज्य विज्ञान के रूप में हुई। शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए राजा, सेना की संख्या, रसद की मात्रा, कर्मचारियों का वेतन, भूमि-कर आदि से सम्बन्धित आँकड़े एकत्र कराते थे। इन संख्यात्मक आँकड़ों की सहायता से ही राज्य के बजट का निर्माण किया जाता था।

कुछ विद्वानों द्वारा दी गयी सांख्यिकी की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
डॉ० बाउले (Dr. Bowley) के अनुसार,

  1. “सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।”
  2. “सांख्यिकी को उचित रूप से औसतों का विज्ञान कहा जा सकता है।”
  3. “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो सामाजिक व्यवस्था को सम्पूर्ण मानकर सभी रूप में उसका मापन करती है।”

बॉडिंगटन (Boddington) के अनुसार, “सांख्यिकी अनुमानों और सम्भाविताओं का विज्ञान है।”
प्रो० किंग (King) के अनुसार, “गणना अथवा अनुमानों के संग्रह को विश्लेषण के आधार पर प्राप्त परिणामों से सामूहिक, प्राकृतिक अथवा सामाजिक घटनाओं पर निर्णय करने की रीति को सांख्यिकी विज्ञान कहते हैं।’
सेलिगमैन (Seligman) के अनुसार, “सांख्यिकी वह विज्ञान है जो किसी विषय पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से संग्रह किये गये आँकड़ों के संग्रह, वर्गीकरण, प्रदर्शन, तुलना और व्याख्या करने की रीतियों की विवेचना करता है।”
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि सांख्यिकी वह विज्ञान है; जो आँकड़ों के संग्रहण, प्रस्तुतीकरण, वर्गीकरण, विश्लेषण, सारणीयन एवं आलेखी निरूपण की विधियों का वर्णन करता है।”

प्रश्न 2
सांख्यिकी की सीमाएँ बताइए। [2006, 07, 09, 10]
उत्तर:
सांख्यिकी की सीमाएँ
टिपेट के शब्दों में, “किसी भी क्षेत्र में सांख्यिकीय नियमों का उपयोग कुछ मान्यताओं पर आधारित तथा कुछ सीमाओं से प्रभावित होता है। इसलिए प्रायः अनिश्चित निष्कर्ष निकलते हैं।” प्रो० न्यूजहोम के शब्दों में, ‘‘सांख्यिकी को अनुसन्धान का एक अत्यन्त मूल्यवान् साधन समझा जाना चाहिए। अतः सांख्यिकी की सीमाओं को ध्यान में रखकर ही सांख्यिकी का प्रयोग किया जाना चाहिए। सांख्यिकी की कुछ प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. सांख्यिकी समूहों का अध्ययन करती है, व्यक्तिगत इकाइयों का नहीं। उदाहरण के लिए, सांख्यिकी के अन्तर्गत किसी संस्थान में कार्य करने वाले कर्मियों के वेतन-स्तर का अध्ययन किया जाएगा न कि किसी एक कर्मचारी के वेतन को।
  2. सांख्यिकी सदैव संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन करती है, गुणात्मक तथ्यों का नहीं। दूसरे शब्दों में, सांख्यिकी के अन्तर्गत केवल उन्हीं समस्याओं का अध्ययन किया जाता है, जिनका संख्यात्मक वर्णन सम्भव हो; जैसे-आय, आयु, ऊँचाई, लम्बाई, उत्पादन आदि। इसमें ऐसी समस्याओं का अध्ययन नहीं होता जिनका स्वरूप गुणात्मक हो; जैसे – सुन्दरता, चरित्र, बौद्धिक स्तर आदि।
  3. सांख्यिकीय निष्कर्ष असत्य व भ्रमात्मक सिद्ध हो सकते हैं, यदि उनका अध्ययन बिना सन्दर्भ के किया जाए। सही निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए समस्या के प्रत्येक पहलू का अध्ययन आवश्यक होता है। बिना सन्दर्भ व परिस्थितियों को समझते हुए जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं, वे यद्यपि सत्य जान पड़ते हैं, परन्तु वास्तव में वे निष्कर्ष सत्य नहीं होते।
  4. सांख्यिकीय समंकों का सजातीय होना आवश्यक है। सांख्यिकीय निष्कर्षों के लिए यह आवश्यक है कि जिन समंकों से निष्कर्ष निकाले जाएँ वे एकरूप एवं सजातीय हों। विजातीय समंकों से निकाले गये निष्कर्ष सदैव भ्रमात्मक होंगे; उदाहरणार्थ-हाथी की ऊँचाई से मनुष्यों की ऊँचाई की तुलना नहीं की जा सकती।
  5. सांख्यिकीय निष्कर्ष दीर्घकाल में तथा औसत रूप में ही सत्य होते हैं। सांख्यिकीय निष्कर्ष अन्य विज्ञान के नियमों की भाँति दृढ़, सार्वभौमिक तथा सर्वमान्य नहीं होते।
  6. सांख्यिकीय रीति किसी समस्या के अध्ययन की विभिन्न रीतियों में से एक है, एकमात्र रीति नहीं।।
  7. सांख्यिकी का प्रयोग वही व्यक्ति कर सकता है जिसे सांख्यिकीय रीतियों को पूर्ण ज्ञान हो। बिना पूर्ण जानकारी के समंकों का प्रयोग करना एवं उनसे निष्कर्ष निकालना निरर्थक सिद्ध होता है। यूल एवं केण्डल के शब्दों में, “अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में सांख्यिकीय रीतियाँ अत्यन्त खतरनाक यन्त्र हैं।”
  8. सांख्यिकी किसी समस्या के अध्ययन का केवल साधन प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं।

प्रश्न 3
सांख्यिकी के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सांख्यिकी के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं।

1. आँकड़ों को व्यवस्थित और सरल बनाना – सांख्यिकी का प्रथम कार्य संगृहीत आँकड़ों को वर्गीकरण व सारणीयन द्वारा सरल बनाना है। आँकड़ों के व्यवस्थित हो जाने से बहुत-से निष्कर्ष आँकड़ों को देखकर ही ज्ञात हो पाते हैं। अव्यवस्थित आँकड़ों से हमारा कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

2. सांख्यिकी तथ्यों को निश्चयात्मक बनाती है –
प्राय: संगृहीत आँकड़ों की संख्या अत्यधिक होती है; अतः उनको समझना और उनसे निष्कर्ष निकालना कठिन होता है। सांख्यिकी उनको इस प्रकार प्रस्तुत करती है कि वे सरलतापूर्वक समझ में आ जाते हैं।

3. तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन –
आँकड़ों का तब तक कोई महत्त्व नहीं होता जब तक कि दूसरे आँकड़ों से उनकी तुलना न की जाए और उनमें सम्बन्ध स्थापित न किया जाए। सांख्यिकी माध्य, सह-सम्बन्ध आदि के द्वारा तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन कराती है।

4. निर्वचन या व्याख्या करना –
सांख्यिकीय तथ्यों का वर्गीकरण, सारणीयन, चित्रण, विश्लेषण करने के उपरान्त समस्या के हल की व्याख्या करती है, जिसके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

5. विभिन्न आर्थिक नियमों व सिद्धान्तों की जाँच –
सम्बंख्यिकीय गणना के आधार पर सिद्धान्तों व नियमों का सत्यापन किया जाता है, क्योकि सांख्यिकी की सहायता से निर्मित नियम स्थिर और सार्वभौमिक रहते हैं। उदाहरण के लिए माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त आदि नियमों का सत्यापन सांख्यिकी के द्वारा ही सम्भव है।

6. नीति निर्धारण में सहायता करना –
सांख्यिकी का कार्य है कि वह तथ्यों के आधार पर शुद्ध निष्कर्ष निकाले, जिससे आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक नीति निर्धारित हो सके। विभिन्न सरकारें जनमत के आधार पर ही महत्त्वपूर्ण निर्णय लेती हैं।

7. पूर्वकथन या अनुभव –
सांख्यिकी का महत्त्वपूर्ण कार्य निष्कर्षों के आधार पर भविष्य में, आने वाली परिस्थितियों के सम्बन्ध में अनुमान लगाकर भविष्यवाणी करना होता है। इस सम्बन्ध में डॉ० बाउले का कथन है-“एक सांख्यिकीयं अंनुमानं अच्छा हो या बुरा, ठीक हो या गलत, परन्तु प्रायः प्रत्येक देशों में वह एक आकस्मिक प्रेक्षक के अनुमान से अधिक ठीक होगा।”

प्रश्न 4
प्राथमिक और द्वितीयक समंकों में अन्तर बताइए।
उत्तर:
प्राथमिक और द्वितीयक समंकों में अन्तर को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics 1

प्रश्न 5
सांख्यिकीय अनुसन्धान में प्रयुक्त उत्तम प्रश्नावली के गुण (विशेषताएँ) बताइए।
उत्तर:
एक उत्तम प्रश्नावली के निम्नलिखित गुण (विशेषताएँ) होने चाहिए
1. सरल व स्पष्ट – प्रश्नावली तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि प्रश्न सरल, स्पष्ट एवं सीधी भाषा में हों, जिससे उत्तरदाता प्रश्न को समझकर उनका ठीक और शीघ्र उत्तर दे सके।

2. प्रश्नों की कम संख्या – एक उत्तम प्रश्नावली में यह गुण होता है कि प्रश्नों की संख्या न तो बहुत अधिक हो और न ही बहुत कम। प्रश्नों की संख्या इतनी अवश्य होनी चाहिए जिससे कि अनुसन्धानकर्ता के उद्देश्यों की पूर्ति हो जाए और उत्तरदाता को उत्तर देते समय अपने ऊपर किसी प्रकार के भार का अनुभव न हो।

3. वस्तुनिष्ठ, संक्षिप्त एवं उद्देश्यमूलक प्रश्न – प्रश्नावली के प्रश्न वस्तुनिष्ठ, संक्षिप्त व उद्देश्यमूलक होने चाहिए। बहुविकल्पीय, सत्य/असत्य, रिक्त स्थानों की पूर्ति, हाँ अथवा नहीं आदि में प्रश्नोत्तरी होनी चाहिए। इससे उत्तरदाता सरलता से उत्तर दे देता है तथा समय व श्रम की भी बचत होती है।

4. व्यक्तिगत प्रश्न न हों – प्रश्नावली के प्रश्न उत्तरदाता के व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित नहीं होने चाहिए अर्थात् प्रश्न इस प्रकार के हों जिससे उत्तरदाता प्रश्नों के उत्तर देते समय मन में किसी प्रकार की शंका या उत्तेजना का अनुभव न करे। जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि से सम्बन्धित प्रश्न अथवा इस प्रकार के प्रश्न नहीं होने चाहिए; जिससे राष्ट्रीय भावना को ठेस पहुँचती हो।

5. प्रश्नों के उत्तरों में अनेकता हो – एक प्रश्न में अनेक उत्तरों का समावेश होना चाहिए; जैसे भारत में शिक्षा का उद्देश्य है

  • नागरिकों को साक्षर करना,
  • बेरोजगारी दूर करना,
  • निरक्षरता को कम करना,
  • नागरिकों में उत्तम नागरिक गुणों का विकास करना,
  • उपर्युक्त सभी।।इस प्रकार के प्रश्नों से अनुसन्धानकर्ता को अनेक सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं।

6. आवश्यक निर्देश – अनुसन्धानकर्ता को प्रश्नावली के साथ-साथ उत्तरदाता के पास आवश्यक निर्देश भी भेजने चाहिए। ये निर्देश संक्षेप में देने चाहिए, जिससे उत्तरदाता स्पष्ट और शीघ्र उत्तर दे सके।

7. प्रश्नों का क्रम – प्रश्नावली में एक प्रकार के प्रश्न एक ही क्रम में होने चाहिए तथा दूसरे प्रकार के प्रश्न भी क्रम में एक साथ ही होने चाहिए; जैसे—यदि प्रश्नावली में बहुविकल्पीय, सत्य/असत्य, हाँ/नहीं आदि प्रश्न दिये गये हैं तो वे क्रमानुसार होने चाहिए, जिससे उत्तरदाता को उत्तर देते समय किसी प्रकार की कोई कठिनाई न हो।

प्रश्न 6
दैव-निदर्शन में न्यादर्श चुनने की विधियाँ बताइए।
उत्तर:
दैव-निदर्शन द्वारा न्यादर्श चुनने के लिए निम्नलिखित विधियाँ प्रयुक्त होती हैं

1. लॉटरी रीति – लॉटरी विधि में सभी इकाइयों की पर्चियाँ या गोलियाँ बनाकर रख ली जाती हैं और किसी निष्पक्ष व्यक्ति या अनभिज्ञ बालक के द्वारा उतनी पर्चियाँ उठवा ली जाती हैं जितनी न्यादर्श में सम्मिलित करनी होती हैं। पर्चियाँ बनाते समय यह सावधानी रखनी चाहिए कि पर्चियाँ समान आकार-प्रकार की हों। पर्चियों को हिलाकर परस्पर मिला लेना चाहिए।

2. ढोल घुमाकर – इस रीति में समान आकार-प्रकार के नम्बर लिखे हुए लकड़ी या अन्य प्रकार के टुकड़े ढोल में डाल दिये जाते हैं। ढोल को हाथ या बिजली से घुमाकर उन अंकों को अच्छी तरह मिला लिया जाता है। इसके बाद निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा क्रमशः नम्बर निकलवा लिये जाते हैं और उन अंकों को अलग लिख लिया जाता है।

3. निश्चित क्रम द्वारा –
इस विधि में समग्र इकाइयों को संख्यात्मक या वर्णात्मक क्रम में लिख लिया जाता है। इसके बाद उनमें से सुविधानुसार क्रम से आवश्यक संख्या को न्यादर्श में सम्मिलित कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए–यदि 50 छात्रों में से 10 छात्र छाँटने हैं तब क्रमानुसार संख्या लिखकर उनमें से 5, 10, 15, 20, 25, 30, 35, 40, 45, 50वें छात्र को न्यादर्श में सम्मिलित कर लिया जाता है।

दैव-निदर्शन विधि से न्यादर्श चुनने के निम्नलिखित लाभ होते है।

  1. दैव-निदर्शन विधि में किसी प्रकार का कोई पक्षपात सम्भव नहीं होता।
  2. इस रीति में समय, श्रम व धन की बचत होती है।
  3. इस विधि द्वारा छाँटी गयी प्रतिदर्श इकाइयाँ समग्र का प्रतिनिधित्व करती हैं।

प्रश्न 7
पूर्ण गणना विधि तथा प्रतिदर्श विधि में अन्तर बताइए।
उत्तर:
पूर्ण गणना या प्रतिदर्श दोनों विधियाँ सांख्यिकीय अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं। दोनों में निम्नलिखित अन्तर होते हैं।

  1. पूर्ण गणना विधि में समूह की प्रत्येक इकाई के विषय में जाँच की जाती है, जबकि प्रतिदर्श विधि में कुछ ही इकाइयों की जाँच की जाती है।
  2. पूर्ण गणना पद्धति में व्यापक संगठन की आवश्यकता होती है, परन्तु प्रतिदर्श पद्धति में छोटे-से संगठन से भी काम चलाया जा सकता है।
  3. पूर्ण गणना विधि में विभ्रम का अनुमान नहीं लगाया जाता, परन्तु प्रतिदर्श विधि में विभ्रम का अनुमान पर्याप्त सीमा तक लगाया जा सकता है।
  4. जहाँ अनुसन्धान का क्षेत्र सीमित हो वहाँ पूर्ण गणना विधि तथा जहाँ अनुसन्धान का क्षेत्र अनन्त हो वहाँ प्रतिदर्श विधि अधिक उपयुक्त रहती है।
  5. जहाँ इकाइयों की संख्या बहुत ही कम हो वहाँ पूर्ण गणना विधि और जहाँ इकाइयाँ नाशवान् हों या अनन्त हों वहाँ अनुसन्धान की प्रतिदर्श विधि ही अपनायी जा सकती है।
  6. पूर्ण गणना विधि में ऊँचे स्तर की शुद्धता होती है, जबकि प्रतिदर्श विधि में सामान्य स्तर की है।
  7. यदि अनुसन्धान की प्रकृति ऐसी हो जहाँ सभी इकाइयों का अध्ययन आवश्यक हो तो पूर्ण गणना विधि उपयुक्त रहती है, परन्तु जहाँ सभी इकाइयों का अध्ययन महत्त्वपूर्ण न हो वहाँ निदर्शन या प्रतिदर्श विधि उपयुक्त रहती है।
  8. पूर्ण गणना विधि में अधिक धन, समय एवं श्रम की आवश्यकता होती है, परन्तु निदर्शन विधि में कम श्रम, समय एवं धन की आवश्यकता होती है।
  9. पूर्ण गणना विधि में विविध गुणों वाली विजातीय इकाइयों का अध्ययन किया जा सकता है, परन्तु निदर्शन या प्रतिदर्श विधि में सजातीय एवं एक-सी इकाइयों का अध्ययन उपयुक्त रहता है।

वास्तव में, पूर्ण गणना एवं प्रतिदर्श, दोनों ही महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं जो अलग-अलग परिस्थितियों में अपना स्थान रखती है। कई बार दोनों ही विधियों को एक साथ भी काम में लाया जाता है; अत: दोनों ही विधियों का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और पृथक्-पृथक् परिस्थितियों में दोनों ही उपयोगी हैं।

प्रश्न 8
समग्र एवं न्यादर्श पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
समग्र-किसी भी अनुसन्धान क्षेत्र की सम्पूर्ण इकाइयाँ सामूहिक रूप में समग्र कहलाती हैं। दूसरे शब्दों में, अवलोकनों का सम्पूर्ण समूह जिनका अनुसन्धान किया जा रहा है, समग्र कहलाता है। अनुसन्धान इकाई की परिभाषा के अन्तर्गत आने वाले समस्त पदों का समूह समग्र कहा जाता है। तथा समग्र की इकाइयाँ व्यक्तिगत रूप में ‘इकाई’ कही जाती हैं। समग्र में निहित इकाइयों के आधार पर यह दो प्रकार का होता है

1. निश्चित या अनन्त समग्र – निश्चित समग्र में इकाइयों की संख्या निश्चित होती है; जैसे-किसी कॉलेज में छात्र या कारखाने में श्रमिक। इसे परिमित समग्र भी कहते हैं। अनन्त या अपरिमित समग्र में इकाइयों की संख्या निश्चित न होकर अनन्त होती है। आकाश के तारागण, वृक्ष की पत्तियाँ आदि अनन्त समग्र के ही उदाहरण हैं।

2. वास्तविक या काल्पनिक समग्र – अस्तित्व की दृष्टि से ठोस विषय वाले समग्र को वास्तविक अथवा विद्यमान समग्र कहते हैं; जैसे—विद्यालय के छात्र, कारखाने के श्रमिक आदि। वह सामग्री जो ठोस नहीं होती, काल्पनिक समग्र के अन्तर्गत आती है। सिक्कों के उछालों की संख्या काल्पनिक समग्र का ही उदाहरण है।

न्यादर्श – जब सम्पूर्ण समग्र में से किसी विशिष्ट आधार या थोड़ा-सा भाग जाँच के लिए लिया जाता है तो उसे नमूना, बानगी, प्रतिनिधि अंश अथवा न्यादर्श कहते हैं। न्यादर्श का अध्ययन करके समग्र के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी की दो सीमाएँ बताइए। [2009]
उत्तर:
सांख्यिकी की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

  1. सांख्यिकी में समूहों का अध्ययन किया जाता है न कि इकाइयों को।
  2. सांख्यिकी में केवल संख्यात्मक तथ्यों का अध्ययन होता है।

प्रश्न 2
आधुनिक युग में सांख्यिकी का महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में सांख्यिकी का महत्त्व उत्पादन, उपभोग विनिमय, वितरण, लोकवित्त के क्षेत्र में बढ़ता जा रहा है। देश का आर्थिक विकास, नियोजन के माध्यम से किया जा रहा है; अतः सांख्यिकी का महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है।

प्रश्न 3
प्राथमिक समंक और द्वितीयक समंक में क्या सूक्ष्म अन्तर है?
उत्तर:
प्राथमिक समंक अनुसंधानकर्ता अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं संगृहीत करता है, जबकि द्वितीयक समंक अनुसंधानकर्ता द्वारा स्वयं एकत्रित नहीं किये जाते हैं। समंकों का संग्रहण किसी पूर्वअनुसंधानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया होता है।

प्रश्न 4
विस्तृत प्रतिदर्श क्या है? इसके गुण बताइए।
उत्तर:
विस्तृत प्रतिदर्श बड़ा प्रतिदर्श लिया जाता है तथा लगभग 80 या 90% इकाइयाँ प्रतिदर्श में सम्मिलित की जाती हैं।

विस्तृत प्रतिदर्श के गुण

  1. परिणाम अधिक शुद्ध होते हैं।
  2. परिणाम पक्षपातरहित होते हैं।
  3. जाँच विस्तृत होती है

किश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सांख्यिकी किसे कहते हैं? [2008, 16]
या
“सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।” यह परिभाषा किसकी है? [2013]
उत्तर:
डॉ० बाउले के अनुसार, “सांख्यिकी गणना का विज्ञान है।”

प्रश्न 2
प्रशासन तथा व्यवसाय में सांख्यिकी का महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
(1) कुशल प्रशासन हेतु अनेक प्रकार की सूचनाएँ एकत्र करनी होती हैं जिसके लिए। सांख्यिकी की आवश्यकता पड़ती है।
(2) एक व्यापारी को वस्तु की माँग एवं पूर्ति तथा मूल्य सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के लिए सांख्यिकी के सहयोग की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 3
सांख्यिकी के कोई दो उपयोग लिखिए। [2012]
उत्तर:
(1) इसका उपयोग तथ्यों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने में होता है।
(2) इसका उपयोग वैज्ञानिक नियमों की सत्यता जाँचने में होता है।

प्रश्न 4
सांख्यिकी के दो कार्य बताइए।
उत्तर:
सांख्यिकी के दो कार्य हैं

  1. समंकों को संगृहीत करना तथा
  2. समंकों के द्वारा निष्कर्ष निकालना।

प्रश्न 5
समंकों के संकलन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
समंकों के संकलन से आशय आँकड़ों को एकत्रित करने से है।

प्रश्न 6
संकलन के आधार पर समंक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
संकलन के आधार पर समंक निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं

  1. प्राथमिक समंक तथा
  2. द्वितीयक समंक।

प्रश्न 7
प्राथमिक समंक (आँकड़े) क्या होते हैं? [2007, 08, 13, 14, 16]
उत्तर:
प्राथमिक समंक वे समंक होते हैं, जिन्हें अनुसन्धानकर्ता अपने उपयोग के लिए स्वयं एकत्रित करता है।

प्रश्न 8
प्राथमिक समंक की दो विशेषताएँ लिखिए। [2007, 08, 13, 14, 15]
उत्तर:
(1) अनुसन्धानकर्ता अपनी आवश्यकतानुसार इन समंकों का संग्रहण करता है।
(2) प्राथमिक समंक पूर्णतः मौलिक होते हैं।

प्रश्न 9
द्वितीयक समंक क्या होते हैं?
उत्तर:
द्वितीयक समंक वे समंक होते हैं जिन्हें अनुसन्धानकर्ता स्वयं एकत्रित नहीं करता अपितु उन समंकों का संग्रहण किसी पूर्व अनुसन्धानकर्ता के द्वारा पहले से ही किया होता है तथा निष्कर्ष भी निकाले हुए होते हैं।

प्रश्न 10
प्रतिदर्श अनुसन्धान विधि क्या है?
उत्तर:
प्रतिदर्श अनुसंधान विधि में समग्र सूचनाएँ प्राप्त नहीं की जाती हैं, वरन् समग्र में से कुछ इकाइयों को छाँट लेते हैं। छाँटी हुई इकाइयों की भी जाँच की जाती है तथा उनके आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

प्रश्न 11
“सांख्यिकी प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है और जीवन को अनेक बिन्दुओं पर स्पर्श करती है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
टिपेट (Tippett) का।

प्रश्न 12
सांख्यिकी के प्रति अविश्वास के दो कारण बताइए।
उत्तर:
(1) सांख्यिकी के विषय में ज्ञान न होना तथा
(2) सांख्यिकी की सीमाओं की उपेक्षा।

प्रश्न 13
सांख्यिकी के प्रति विश्वास उत्पन्न करने हेतु दो उपाय बताइए।
उत्तर:
(1) समंकों का निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र उपयोग किया जाए।
(2) समंकों का उपयोग करते समय सांख्यिकी सीमाओं को ध्यान में रखा जाए।

प्रश्न 14
द्वितीयक समंक संकलन के दो मुख्य प्रकाशित स्रोत लिखिए। या द्वितीयक आँकड़ों के क्या स्रोत हैं? [2003]
उत्तर:
(1) समाचार-पत्र-पत्रिकाएँ तथा
(2) सरकारी प्रकाशन।

प्रश्न 15
केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर:
केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन का मुख्य कार्य राष्ट्रीय आय के आँकड़ों का संकलन करना व प्रकाशन कराना है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“सांख्यिकी अनुमानों और सम्भावनाओं का विज्ञान है। यह परिभाषा है
(क) डॉ० बाउले की
(ख) बॉडिंगटन की
(ग) प्रो० किंग की।
(घ) सेलिगमैन की
उत्तर:
(ख) बॉडिंगटन की।

प्रश्न 2
सांख्यिकी के जन्मदाता हैं
(क) प्रो० किंग
(ख) क्रॉक्सटन व काउडन
(ग) गॉटफ्रिड ऐकेनवाल
(घ) सेलिगमैन
उत्तर:
(ग) गॉटफ्रिड ऐकेनवाल।

प्रश्न 3
आँकडे कितने प्रकार के होते हैं?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(ख) दो।

प्रश्न 4
निम्न में से कौन-सा कथन सही है? [2011]
(क) सांख्यिकी केवल औसत का विज्ञान है।
(ख) सांख्यिकी को गलत उपयोग नहीं हो सकता है।
(ग) सांख्यिकी केवल गणना का विज्ञान है।
(घ) निरंकुश व्यक्ति के हाथ में सांख्यिकी विधियाँ बहुत खतरनाक औजार है।
उत्तर:
(घ) निरंकुश व्यक्ति के हाथ में सांख्यिकी विधियाँ बहुत खतरनाक औजार है।

प्रश्न 5
सांख्यिकी को सर्वाधिक माना जा सकता है [2010]
(क) कला
(ख) विज्ञान
(ग) कला एवं विज्ञान दोनों
(घ) इनमें कोई नहीं।
उत्तर:
(ग) कला एवं विज्ञान दोनों।

प्रश्न 6
सांख्यिकी के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही नहीं है? [2012]
(क) यह संख्या का विज्ञान है।
(ख) यह गुणात्मक तथ्यों का अध्ययन करता है।
(ग) यह ज्ञान का व्यवस्थित समूह है।
(घ) यह कारण और परिणाम सम्बन्ध का अध्ययन करता है।
उत्तर:
(ख) यह गुणात्मक तथ्यों का अध्ययन करता है।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics (सांख्यिकी) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 Statistics (सांख्यिकी), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers (राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers (राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 14
Chapter Name Executive of State: Governor and the Council of Ministers
(राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्)
Number of Questions Solved 55
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers (राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
राज्यपाल की शक्तियों की विवेचना कीजिए। [2016]
या
राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है? उसके कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2008, 09, 11, 12, 13]
या
भारत में राज्यपालों की शक्तियों एवं स्थिति का परीक्षण कीजिए। [2012, 13, 15]
या
“राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रधान है।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। [2012]
या
भारत में राज्यैपाल की कार्यपालिका तथा विधायिनी शक्तियों का परीक्षण कीजिए। [2012]
उत्तर :
राज्यपाल – भारत में संघीय शासन-व्यवस्था अपनायी गयी है। इस हेतु संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गयी है कि केन्द्र तथा इकाई राज्यों की पृथक्-पृथक् सरकारें होंगी। राज्य सरकारों का गठन बहुत कुछ संघ सरकार से मिलता-जुलता है। राज्य का संवैधानिक अध्यक्ष राज्यपाल होता है। के० एम० मुन्शी के अनुसार, “राज्यपाल संवैधानिक व्यवस्था का प्रहरी है। वह ऐसी कड़ी है, जो कि राज्य को संघ से जोड़कर भारत की संवैधानिक व्यवस्था को बनाये रखने में योग देता है।’ संविधान की धारा 154 में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि राज्य की समस्त कार्यकारिणी शक्तियाँ उस राज्य के राज्यपाल में निहित होंगी, किन्तु इन शक्तियों का प्रयोग वह संविधान के अनुसार या तो स्वयं अथवा अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों द्वारा करेगा। राज्यपाल की स्थिति बहुत कुछ ऐसी है जैसी कि केन्द्र में राष्ट्रपति की। संविधान के अनुच्छेद 153 से 160 तक राज्यपाल के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से बताया गया है।

राज्यपाल की नियुक्ति – संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति किसी भी योग्य व्यक्ति को, जो निर्धारित शर्ते पूरी करे, राज्यपाल के पद पर नियुक्त कर सकता है।

राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में कुछ प्रथाएँ विकसित हो गयी हैं। इनमें से मुख्य इस प्रकार हैं –

  1. राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से ही राज्यपाल की नियुक्ति करता है।
  2. राज्यपाल जिस राज्य के लिए नियुक्त किया जाता है, साधारणतः वह उस राज्य का निवासी नहीं होता।
  3. राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व राष्ट्रपति उस राज्य के मुख्यमन्त्री से भी परामर्श लेता है।

राज्यपाल को निर्वाचन किये जाने की अपेक्षा उसकी राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति को ही अधिक उपयुक्त समझा गया, क्योंकि निर्वाचन की स्थिति में राज्य का ही नागरिक इस पद के लिए खड़ा हो सकता था जिससे वह राजनीतिक दलबन्दी में पड़ जाता। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाने पर देश की एकता में दृढ़ता आ जाएगी, क्योंकि वह व्यक्ति किसी अन्य राज्य का निवासी होता है। अतः वह राज्य की दलबन्दी से दूर रहता है।

संविधान के अनुसार राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ अनिवार्य हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।
  3. वह संसद अथवा किसी राज्य के विधानमण्डल का सदस्य न हो। यदि ऐसा कोई व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त हो जाता है तो पद-ग्रहण करने के पहले उसे संसद या विधानमण्डल, जिसका वह सदस्य है, की सदस्यता से त्याग-पत्र देना होगा।
  4. वह किसी भी सरकारी वैतनिक पद पर कार्य न कर रहा हो।
  5. वह किसी न्यायालय द्वारा दण्डित न किया गया हो।

कार्यकाल – संविधान के अनुच्छेद 156 (1) के अनुसार, ‘राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त राज्यपाल पद धारण करेगा।” दूसरे शब्दों में, राज्यपाल उसी समय तक अपने पद पर बना रह सकता है, जब तक राष्ट्रपति का उसमें विश्वास है। साधारणत: राज्यपाल की नियुक्ति पाँच वर्ष के लिए होती है, किन्तु वह स्वेच्छा से त्याग-पत्र देकर अवधि से पहले भी अपना पद त्याग कर सकता है। उसे अवधि से पहले भी पदच्युत किया जा सकता है। उसे अवधि से पहले पदच्युत करने को अधिकार केवल राष्ट्रपति को है जिसके लिए संसद से कोई प्रस्ताव पारित कराने की आवश्यकता नहीं होती है। राज्यपाल को पदच्युत करने का अधिकार राज्य के विधानमण्डल को भी नहीं है।

शपथ – राज्यपाल पद ग्रहण करने से पहले राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष संविधान की रक्षा करने, राज्य के कार्यों का न्यायपूर्वक संचालन करने तथा जन-कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहने की शपथ ग्रहण करता है।

वेतन, भत्ते आदि – राज्यपाल को ₹ 1,10,000 मासिक वेतन तथा अन्य भत्ते मिलते हैं। इसके अतिरिक्त रहने के लिए उसे राज्य की राजधानी में नि:शुल्क सरकारी भवन तथा अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं। राज्यपाल के कार्यकाल में उसके वेतन या भत्तों आदि में किसी प्रकार की कमी नहीं की जा सकती। भत्तों की राशि विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है।

राज्यपाल के अधिकार और कार्य

राज्यपाल राज्य की कार्यपालिका का प्रधान होता है। अतः अपने राज्य का उचित प्रकार से संचालन करने के लिए उसे अनेक अधिकार दिये गये हैं। राज्यपाल की राज्य में वही स्थिति होती है जो केन्द्र में राष्ट्रपति की है। उसकी शक्तियाँ भी लगभग वही हैं। श्री दुर्गादास बसु के शब्दों में, ‘राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान हैं, सिर्फ कूटनीतिक, सैनिक तथा संकटकालीन अधिकारों को छोड़कर।” राज्यपाल को प्राप्त अधिकारों का वर्गीकरण संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार से है –

(1) कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकार
राज्यपाल को कार्यपालिका का प्रधान होने के कारण कार्यपालिका सम्बन्धी अनेक अधिकार दिये गये हैं, जो कि अग्रलिखित हैं –

(क) शासन संचालन सम्बन्धी अधिकार – राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होती है। राज्य का शासन भली प्रकार चलाने का उत्तरदायित्व उसी पर है। राज्य में कार्यपालिका सम्बन्धी सभी कार्य उसके नाम से होते हैं। वह शासन के कुशल संचालन के लिए। नियम बनाता है और मन्त्रियों में शासन सम्बन्धी कार्य का वितरण करता है। वह मुख्यमन्त्री से शासन सम्बन्धी किसी विषय पर सूचना प्राप्त कर सकता है।

(ख) विशेषाधिकार – राज्यपाल को कुछ ऐसे अधिकार प्रदान किये जाते हैं जिनको स्वेच्छाधिकार की संज्ञा दी जा सकती है। इनका प्रयोग राज्यपाल अपने विवेक से करता है। इनमें उसे मन्त्रिपरिषद् से परामर्श लेने की आवश्यकता नहीं होती। विद्वानों ने राज्यपाल के इस अधिकार की कटु आलोचना की है, क्योंकि यह लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

(ग) अधिकारियों की नियुक्ति – सैद्धान्तिक दृष्टि से कहा जाता है कि राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा उसके परामर्श से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इसके अतिरिक्त वह राज्य के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों एवं राज्य के महाधिवक्ता की नियुक्ति करता है। साथ ही विधान-परिषद् के कुल संख्या के 1/6 सदस्यों को वह मनोनीत करती है।

(घ) आपातकालीन अधिकार – यदि राज्यपाल यह अनुभव करता है कि राज्य में संविधान के अनुसार शासन का संचालन असम्भव हो गया है तो वह राष्ट्रपति को इसकी सूचना देता है। उसकी सूचना के आधार पर राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में आपातकाल की घोषणा कर देता है तथा राष्ट्रपति के आदेशानुसार वह राज्य के शासन का समस्त कार्यभार अपने हाथ में ले लेता है।

(2) विधायिनी अधिकार
राज्यपाल राज्य के विधानमण्डल का आवश्यक अंग होता है, यद्यपि वह उसका सदस्य नहीं होता। उसकी विधायिनी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

(क) कार्यवाही सम्बन्धी अधिकार – विधानमण्डल की कार्यवाही से सम्बन्धित अधिकार राज्यपाल को प्राप्त हैं। अपनी इच्छानुसार विधानमण्डल के दोनों सदनों का अधिवेशन बुलाने, विसर्जित करने तथा विधानसभा को अवधि से पहले भंग करने का अधिकार उसे प्राप्त है। राज्यपाल को यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि किसी सदन के दो अधिवेशनों के बीच 6 माह से अधिक समय व्यतीत न हुआ हो। विधानमण्डल के किसी सदन में राज्यपाल अपना भाषण दे सकता है। प्रतिवर्ष विधानमण्डल का प्रथम अधिवेशन राज्यपाल के भाषण से ही प्रारम्भ होता है। वह किसी भी सदन में अपना लिखित सन्देश भेज सकता है। यदि वह चाहे तो दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन भी बुला सकता है।

(ख) विधेयकों की स्वीकृति – विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति पाकर ही कानून का रूप धारण करते हैं। उसके इस अधिकार के निम्नलिखित दो भाग हैं –

  1. वित्त विधेयक-राज्य के वित्त विधेयकों को राज्यपाल न तो अस्वीकृत कर सकता है और न ही उन्हें पुनर्विचार के लिए विधानमण्डल के पास लौटा सकता है। इस सन्दर्भ में उसकी मात्र औपचारिक स्वीकृति ली जाती है।
  2. अन्य विधेयक-वित्त विधेयकों को छोड़कर शेष विधेयकों को राज्यपाल विधानमण्डल के पास पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है। राज्यपाल किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकता है। यदि राष्ट्रपति उसे विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे देता है तो वह कानून बन जाएगा।

(ग) विधानमण्डल के कुछ सदस्यों की नियुक्ति – राज्यपाल राज्य विधान-परिषद् की कुल संख्या के 1/6 भाग सदस्यों को ऐसे लोगों में से मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, कला, विज्ञान, समाजसेवा तथा सहकारिता आन्दोलन के क्षेत्र में निपुणता प्राप्त हो। विधानसभा के लिए उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को एक सदस्य एंग्लो-इण्डियन समुदाय का मनोनीत करने का भी अधिकार है। विधानसभा के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष की खाली जगह पर नियुक्ति करने का अधिकार राज्यपाल को है।

(घ) अध्यादेश जारी करने का अधिकार – विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का प्रयोग उसी समय किया जा सकता है जब विधानमण्डल का अधिवेशन न हो रहा हो। अध्यादेशों का प्रभाव विधानमण्डल के कानूनों के समान होता है। यह अधिवेशन विधानमण्डल की बैठक आरम्भ होने के 6 सप्ताह के बाद तक ही लागू रह सकता है, यदि 6 सप्ताह से पूर्व विधानमण्डल इस अध्यादेश को अस्वीकृत न कर दे।

(3) वित्त सम्बन्धी अधिकार
राज्यपाल को वित्त सम्बन्धी निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं –

(क) वार्षिक बजट – विधानमण्डलों में वार्षिक बजट पेश करवाने का अधिकार राज्यपाल को है। इसमें राज्य की आगामी वर्ष की आय एवं व्यय का विवरण रहता है। बजट राज्यपाल की ओर से वित्त मन्त्री द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत किया जाता है।

(ख) वित्तीय विधेयक – वित्तीय विधेयक पर राज्यपाल की पूर्व स्वीकृति अनिवार्य है, अर्थात् बिना उसकी पूर्व स्वीकृति के विधानसभा में वित्तीय विधेयक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

(ग) अनुदान – किसी भी अनुदान की माँग राज्यपाल की स्वीकृति से की जा सकती है। राज्यपाल ही आय-व्यय से सम्बन्धित किसी प्रकार के सहायक अनुदान की माँग विधानसंभा के समक्ष उपस्थित करता है।

(4) न्याय सम्बन्धी अधिकार

(क) क्षमादान – राज्यपाल अपने राज्य के दण्ड प्राप्त किसी भी अपराधी को क्षमा कर सकता है, दण्ड को कम कर सकता है, अथवा कुछ समय के लिए उसे स्थगित कर सकता है, अथवा उसमें परिवर्तन कर सकता है, परन्तु उन्हीं अपराधियों के सम्बन्ध में वह ऐसा कर सकता है जिन्हें राज्य का कानून तोड़ने के लिए दण्ड मिला हो। मृत्यु-दण्ड को क्षमा करने का अधिकार राज्यपाल को नहीं है।

(ख) नियुक्ति – राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति राज्यपाल से भी परामर्श लेता है।

(5) विविध शक्तियाँ

  1. वह राज्य लोक सेवा आयोग का वार्षिक प्रतिवेदन प्राप्त करता है।
  2. संकटकालीन स्थिति में वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है।
  3. वह महालेखा परीक्षक का प्रतिवेदन प्राप्त करता है।
  4. वह अपने राज्य के सभी विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति (Chancellor) होता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है? किसी राज्य में राज्यपाल के पद का क्या महत्त्व है? क्या राज्यपाल किसी परिस्थिति में अपने विवेक के अनुसार कार्य कर सकता है? [2013, 15]
या
भारतीय संविधान के अन्तर्गत राज्यपाल की भूमिका का परीक्षण कीजिए। [2012]
या
प्रदेश के शासन में राज्यपाल का क्या महत्त्व है?
[संकेतः राज्यपाल की नियुक्ति के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 देखें।
उत्तर :
राज्यपाल की स्थिति एवं महत्त्व
राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि उसे संविधान द्वारा व्यापक अधिकार दिये गये हैं। एक प्रकार से उसे राज्य का राष्ट्रपति कहा जा सकता है। दुर्गादास बसु ने राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान बतायीं, केवल कूटनीतिक, सैनिक तथा संकटकालीन शक्तियों को छोड़कर। राज्यपाल को अपने राज्य के शासन-तन्त्र को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए काफी विस्तृत अधिकार दिये गये हैं। जिन विषयों में वह अपने विवेक से काम लेता है उनमें वह मन्त्रिपरिषद् का परामर्श नहीं लेता है। इस प्रकार राज्यपाल को स्व-विवेक के आधार पर प्रयुक्त शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। विधानसभा में किसी दल का स्पष्ट बहुमत न होने पर। तथा संविधान की विफलता की स्थिति में भी उसे स्वविवेकी अधिकार प्राप्त हैं; अतः इस स्थिति में वह अपनी वास्तविक शक्ति का उपयोग करता है। संकटकाल की स्थिति में वह केन्द्रीय सरकार के अभिकर्ता (Agent) के रूप में कार्य करता है। इस स्थिति में वह अपनी वास्तविक स्थिति का प्रयोग कर सकता है।

इस पर भी वह केवल वैधानिक अध्यक्ष ही होता है। वास्तविक कार्यपालिका शक्तियाँ तो राज्य मन्त्रिपरिषद् में निहित होती हैं। राज्यपाल बाध्य है कि वह मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से ही कार्य करे। संविधान के अनुच्छेद 163 (1) के अनुसार जिन बातों में संविधान द्वारा या संविधान के अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कार्यों को स्वविवेक से करे। उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कार्यों का निर्वहन करने में सहायता और मन्त्रणा देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी। संविधान राज्यपाल की स्वविवेकी शक्तियों का विशेष रूप से उल्लेख नहीं करता है। केरल, असम, अरुणाचल, मिजोरम, सिक्किम, मेघालय, त्रिपुरा और नागालैण्ड के राज्यपाल को ही इस प्रकार की कुछ स्वविवेकी शक्तियाँ प्राप्त हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि साधारणतया राज्यपाल शासन का वैधानिक अध्यक्ष ही है और उसकी शक्तियाँ वास्तविक नहीं हैं। डॉ० एम० वी० पायली का कथन है कि “जब तक राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के परामर्श पर कार्य करता है और विधानमण्डल के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल को उसके शासनकार्य में सहायता तथा परामर्श देता है, तब तक राज्यपाल के लिए उनके परामर्श की अवहेलना करने की बहुत ही कम सम्भावना है।” महाराष्ट्र के भूतपूर्व राज्यपाल स्वर्गीय श्री प्रकाश ने कहा था कि “मुझे पूरा विश्वास है कि संवैधानिक राज्यपाल के अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं करना होगा।’ इस प्रकार राज्यपाल का पद शक्ति व अधिकार का नहीं वरन् सम्मान व प्रतिष्ठा का है। राज्यपाल की वास्तविक स्थिति का वर्णन करते हुए डॉ० अम्बेडकर ने कहा था कि “राज्यपाल दल का प्रतिनिधि नहीं है, वरन् वह राज्य की सम्पूर्ण जनता का प्रतिनिधि है; अतः उसे सक्रिय राजनीति से पृथक् रहना चाहिए। वह एक निष्पक्ष निर्णायक की भाँति है। उसे देखते रहना चाहिए कि राजनीति का खेल नियमानुसार खेला जाए, उसे स्वयं एक खिलाड़ी नहीं बनना चाहिए।’

राज्य प्रशासन में राज्यपाल की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस विषय में पं० जवाहरलाल नेहरू का यह कथन उपयुक्त जान पड़ता है, “भूतकाल में राज्यपालों का महत्त्व काफी अधिक था और आगे भी बना रहेगा। ये राज्य के विभिन्न हितों और दलों के विवादों को मध्यस्थ बनकर दूर करते हैं। वह मन्त्रियों को बहुमूल्य सुझाव दे सकता है। यदि राज्य के शासन द्वारा संविधान का उल्लंघन किया जाए तो राज्यपाल उसकी सूचना तुरन्त राष्ट्रपति को दे सकता है। राज्यपाल के पद का महत्त्व संवैधानिक भी है और परम्परागत भी। इस पद का महत्त्व राज्यपाल के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है।”

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers

प्रश्न 3.
राज्य मन्त्रिपरिषद् का गठन कैसे होता है? राज्यपाल और मन्त्रिपरिषद् के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए। [2012]
या
राज्य (उत्तर प्रदेश) के मन्त्रिपरिषद् और राज्यपाल के सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2010]
या
राज्य मन्त्रिपरिषद् का गठन किस प्रकार होता है? उसकी शक्तियों और कार्यों का वर्णन कीजिए।
मन्त्रिपरिषद् के कार्य बताते हुए मन्त्रिपरिषद् और राज्यपाल का सम्बन्ध बताइए। राज्य में मन्त्रिपरिषद् की शक्तियों का वर्णन करते हुए राज्य सरकार में मुख्यमन्त्री की स्थिति स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
राज्य मन्त्रिपरिषद् का गठन
संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार, “उन बातों को छोड़कर जिनमें राज्यपाल स्वविवेक से कार्य करता है, अन्य कार्यों के निर्वाह में उसे सहायता प्रदान करने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान मुख्यमन्त्री होगा। राज्यपाल को मन्त्रिपरिषद् द्वारा दिया गया परामर्श न्यायालय में वाद योग्य नहीं होगा।

1. मुख्यमन्त्री की नियुक्ति – राज्य के मन्त्रिपरिषद् के गठन के लिए सबसे पहले मुख्यमन्त्री की नियुक्ति की जाती है। मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष कहलाता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है, परन्तु व्यवहारतः वह विधानसभा में बहुमत दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री के पद पर नियुक्त करता है। लेकिन विधानसभा के किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर अथवा बहुमत प्राप्त दल या विभिन्न दलों के किसी संयुक्त मोर्चे का कोई निश्चित नेता न होने की स्थिति में राज्यपाल अपने विवेक से मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कर सकता है।

2. मन्त्रियों का चयन तथा योग्यताएँ – राज्यपाल अन्य मन्त्रियों का चयन मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है। मन्त्रियों के चुनाव में अन्तिम मत मुख्यमन्त्री का ही रहता है। मन्त्री पद के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति विधानमण्डल के किसी सदन का सदस्य हो। यदि नियुक्ति के समय कोई मन्त्री सदन का सदस्य नहीं होता तो उसे 6 माह के अन्दर किसी सदन की सदस्यता प्राप्त करना अनिवार्य होगा।

3. मन्त्रियों की संख्या एवं कार्य-विभाजन – शासन ठीक प्रकार से चलाने के लिए मन्त्रियों में शासन के अनुसार विभिन्न विभागों को बाँट दिया जाता है। संविधान द्वारा मन्त्रियों की संख्या निश्चित नहीं की गयी है। मुख्यमन्त्री राज्य की आवश्यकता एवं कार्य को ध्यान में रखकर ही मन्त्रियों की संख्या निश्चित करता है। यही कारण है कि मन्त्रिमण्डल के मन्त्रियों की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। मन्त्रियों की तीन श्रेणियाँ होती हैं –

  1. कैबिनेट स्तर के मन्त्री
  2. राज्यमन्त्री तथा
  3. उपमन्त्री।

कैबिनेट स्तर के प्रत्येक मन्त्री को शासन के एक या अधिक विभाग सौंप दिये जाते हैं। किसी-किसी राज्यमन्त्री को भी विभागाध्यक्ष बना दिया जाता है। उपमन्त्री सहायक के रूप में काम करते हैं। इनके अतिरिक्त संसदीय सचिव भी होते हैं। मन्त्रियों को विभागों का वितरण मुख्यमन्त्री करता है।

4. सामूहिक उत्तरदायित्व – केन्द्र की तरह राज्यों में भी संसदात्मक पद्धति को ही अपनाया गया है, फलतः राज्य मन्त्रिपरिषद् अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से राज्य की विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। इसके अनुसार एक मन्त्री की नीति सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् की नीति मानी जाती है। मन्त्रिपरिषद् एक इकाई के रूप में काम करती है। सामूहिक उत्तरदायित्व का यह अर्थ है कि मन्त्रिपरिषद् तभी तक अपने पद पर रह सकती है जब तक उसे विधानसभा का विश्वास प्राप्त रहता है।

5. कार्यकाल – मन्त्रियों का कार्यकाल निश्चित नहीं होता है। संविधान में कहा गया है कि मन्त्रि परिषद् उस समय तक अपने पद पर बनी रहेगी जब तक विधानसभा को उसमें विश्वास है। अत: मन्त्रिपरिषद् उस समय तक सत्ता में बनी रह सकती है जब तक उसे विधानसभा में बहुमत प्राप्त है। मन्त्रिपरिषद् किसी भी समय त्याग-पत्र देकर पद से हट सकती है। इसके अतिरिक्त यदि विधानसभा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे तो उसे अपने पद से हटना पड़ेगा।

6. शपथग्रहण – पद ग्रहण करने से पहले राज्य मन्त्रिपरिषद् के मन्त्री राज्यपाल के समक्ष अपने पद के कर्तव्यपालन एवं मन्त्रिपरिषद् की नीतियों की गोपनीयता की शपथ लेते हैं। वे अपने कार्य एवं मन्त्रणाओं को गुप्त रखते हैं।

7. वेतन तथा भत्ते – मन्त्रियों के वेतन तथा भत्तों के सम्बन्ध में विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न स्थिति है। ये वेतन तथा भत्ते राज्य विधानमण्डल द्वारा निश्चित किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित अन्य सुविधाएँ भी मन्त्रियों को प्राप्त होती हैं।

मन्त्रिपरिषद् के कार्य और शक्तियाँ
राज्य के प्रशासन का संचालन राज्यपाल के नाम से मन्त्रिपरिषद् ही करती है। वास्तव में यह राज्यपाल के समस्त अधिकारों का प्रयोग करती है। मन्त्रिपरिषद् के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य हैं

1. प्रशासन सम्बन्धी अधिकार – मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को शासन के विभिन्न विभाग सौंपे जाते हैं। उन विभागों का सामूहिक उत्तरदायित्व मन्त्रिपरिषद् का होता है। राज्य का सम्पूर्ण शासन मन्त्रियों द्वारा ही चलाया जाता है। अपने-अपने विभाग के दिन-प्रतिदिन के कार्यों का निरीक्षण करना भी मन्त्रियों का कार्य है। मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। विधानमण्डल का कोई भी सदस्य किसी भी मन्त्री के विषय में प्रश्न पूछ सकता है।

2. वित्तीय कार्य – राज्य की वित्त नीति का निर्धारण राज्य की मन्त्रिपरिषद् करती है। करों की दर निश्चित करना, उन्हें वसूल करने का कार्य करना एवं सरकारी धन को खर्च करना इसी का काम है। यही राज्य की आर्थिक उन्नति की योजना बनाती है। राज्य सरकार का वार्षिक बजट तैयार करना तथा आय-व्यय की विभिन्न मदों को निश्चित करना मन्त्रि परिषद् का कार्य है।

3. जनता में राज्य सरकार की नीति का प्रचार – मन्त्रिपरिषद् के सदस्य जनता में घूमघूमकर राज्य सरकार की नीतियों का प्रचार करते हैं तथा नीतियों एवं योजनाओं के औचित्य का प्रतिपादन करते हैं।

4. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – राज्यपाल को जिन अधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार है, वे नियुक्तियाँ मुख्य रूप से मन्त्रिपरिषद् ही करती है। इस प्रकार राज्य के महाधिवक्ता, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, जिला न्यायाधीश आदि की नियुक्ति राज्य की मन्त्रिपरिषद् ही करती है।

5. नीति-निर्धारण का कार्य – मन्त्रिपरिषद् नीति-निर्धारण का कार्य करती है। वह सरकार की नीति विधानमण्डल से स्वीकृत कराती है। प्रशासन सम्बन्धी सभी नीतियाँ, कार्यक्रम एवं राज्य के कल्याण की योजनाएँ यही बनाती है तथा उनको कार्यरूप में परिणत करती है।

6. कानून-निर्माण का कार्य – मन्त्रिपरिषद् राज्य के लिए कानून बनाने का कार्य करती है। विधेयकों के प्रारूप तैयार करना, उन्हें विधानमण्डल में प्रस्तुत करना, उनके समर्थन में तर्क करना, उन पर विरोधी दलों द्वारा की गयी आलोचनाओं का उत्तर देना तथा उसे विधानमण्डल द्वारा स्वीकृत कराना आदि कार्य मन्त्रिपरिषद् के हैं।

7. राज्यपाल को परामर्श देने सम्बन्धी कार्य – मन्त्रिपरिषद् आवश्यकता पड़ने पर प्रशासन के कार्यों में राज्यपाल को परामर्श देती है। यह परामर्श न्यायालय में वाद योग्य नहीं होता। वैसे साधारणत: राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार ही कार्य करता है।

8. राज्यपाल को अपने निर्णयों की सूचना – मन्त्रिपरिषद् अपने द्वारा लिये गये समस्त निर्णयों से राज्यपाल को अवगत कराती रहती है। राज्यपाल के लिए यह सूचना शासनसंचालन में सहायक सिद्ध होती है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मन्त्रिपरिषद् ही राज्य की वास्तविक कार्यपालिका है। शासन सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यवाही इन्हीं मन्त्रियों के द्वारा सम्पन्न की जाती है। केवल विधानसभा ही इस परिषद् पर अपना अंकुश रख सकती है, परन्तु विधानसभा में मन्त्रिपरिषद् के दल का बहुमत रहता है, इसलिए राज्य की वास्तविक शक्ति इसी के हाथ में रहती है। यह एक ओर तो राज्यपाल के अधिकारों का प्रयोग करती है और दूसरी ओर विधानमण्डल के अधिकारों का। इस कारण राज्य शासन मन्त्रिपरिषद् की इच्छानुसार चलता है। अतः राज्य की प्रगति अथवा अवनति का पूरा उत्तरदायित्व मन्त्रिपरिषद् का ही है। एक स्वस्थ और योग्य मन्त्रिपरिषद् तो राज्य की काया ही पलट सकती है।

मन्त्रिपरिषद् और राज्यपाल का सम्बन्ध
राज्यपाल राज्य का वैधानिक प्रमुख है और मन्त्रिपरिषद् राज्य की वास्तविक प्रमुख। राज्य का प्रशासन तो राज्यपाल के नाम में किया जाता है, किन्तु अधिकतर विषयों पर वास्तविक निर्णय मन्त्रिपरिषद् ही लेती है। सामान्य स्थिति में राज्यपाल से मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करने की आशा की जाती है। यद्यपि राज्यपाल ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं होता फिर भी संसदात्मक व्यवस्था में उसे मन्त्रियों का परामर्श मानना होता है।

संविधान में यह उल्लेख है कि मन्त्रिपरिषद् राज्यपाल के प्रसाद-पर्यन्त बनी रहेगी। सैद्धान्तिक रूप में ऐसी शक्ति प्राप्त होने पर भी कोई राज्यपाल इस प्रकार का कार्य नहीं कर पाता।

राज्य के मुख्यमन्त्री का यह कर्तव्य माना गया है कि वहे राज्य प्रशासन से सम्बन्धित मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णयों और विचाराधीन विधेयक की सूचना राज्यपाल को दे। राज्यपाल उस विषय में अन्य आवश्यक जानकारी भी माँग सकता है। इन सूचनाओं के आधार पर राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् को परामर्श, प्रोत्साहन और चेतावनी देने का कार्य कर सकता है। राज्य में संवैधानिक तन्त्र की विफलता के विषय में वह अपने विवेक से ही राष्ट्रपति को रिपोर्ट तैयार करके भेजता है तथा राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने पर वह केन्द्र सरकार के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए राज्य के शासन को चलाता है।

[संकेत – राज्य में मुख्यमन्त्री की स्थिति हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 4 का अध्ययन करें।

प्रश्न 4.
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है? उसकी प्रमुख शक्तियों तथा कार्यों का वर्णन कीजिए। [2013, 14]
या
मुख्यमन्त्री के कार्य एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए। [2014]
या
राज्य के मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है? राज्यपाल तथा मन्त्रि-परिषद से उसके क्या सम्बन्ध होते हैं?
या
मुख्यमन्त्री के अधिकारों और कार्यों की विवेचना कीजिए तथा उसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
मुख्यमन्त्री के महत्त्वपूर्ण कार्यों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए। [2010, 11]
या
मुख्यमन्त्री की स्थिति एवं शक्तियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2013, 16]
या
राज्य के प्रशासन में मुख्यमन्त्री की भूमिका का वर्णन कीजिए तथा राज्यपाल के साथ उसके सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2009, 10]
उत्तर :
राज्य की मन्त्रिपरिषद् के प्रधान को मुख्यमन्त्री कहा जाता है। मुख्यमन्त्री राज्य की कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान है। अत: राज्य के प्रशासनिक ढाँचे में उसे लगभग वही स्थिति प्राप्त है जो केन्द्र में प्रधानमन्त्री की है।

मुख्यमन्त्री की नियुक्ति – संविधान के अनुच्छेद 164 में केवल यह कहा गया है कि मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा। व्यवहार के अन्तर्गत राज्यपाल के द्वारा विधानसभा के बहुमत दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता है। मुख्यमन्त्री की नियुक्ति के सम्बन्ध में राज्यपाल दो परिस्थितियों में अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है। प्रथम, विधानसभा में किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो और एक से अधिक पक्ष मुख्यमन्त्री पद के लिए दावे कर रहे हों। द्वितीय, स्थिति उस समय हो सकती है जब कि विधानसभा के बहुमत दल की कोई सर्वमान्य नेता ने हो। 1966 ई० से लेकर 1970 ई० और उसके बाद 1977-2000 ई० के काल में भारतीय संघ के कुछ राज्यों में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो चुकी हैं और भविष्य में भी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश में एक दशक में सम्पन्न विधानसभा चुनावों (1989, 1991, 1993 और 1996 ई० में सम्पन्न विधानसभा चुनाव) ने निरन्तर ऐसी ही स्थिति को जन्म दिया है।

मुख्यमन्त्री के अधिकार तथा कार्य

मुख्यमन्त्री राज्य की मन्त्रिपरिषद् का प्रधान होता है; अतः वह शासन के सभी विभागों की देखभाल निम्नलिखित अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत करता है –

1. मन्त्रिपरिषद् का निर्याता – मुख्यमन्त्री अपनी मन्त्रिपरिषद् का स्वयं निर्माण करता है। इस सन्दर्भ में राज्यपाल भी स्वतन्त्र नहीं है। अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति मुख्यमन्त्री की इच्छा से ही होती है तथा मन्त्रिपरिषद् में मन्त्रियों की संख्या मुख्यमन्त्री ही निर्धारित करता है।

2. शासन का मुखिया – मुख्यमन्त्री को शासन का मुखिया कहना अतिशयोक्ति नहीं है। वह शासन के सभी विभागों की देखभाल करता है। किन्हीं विभागों में मतभेद हो जाने पर उनका समाधान भी करता है। शासन के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य उसी की अध्यक्षता में होते हैं तथा सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उसकी सहमति आवश्यक होती है। उसी के द्वारा सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को मूर्त रूप मिलती है।

3. मन्त्रियों में विभागों का वितरण – मन्त्रियों में विभागों का वितरण भी मुख्यमन्त्री ही करती है। वह ही यह निश्चित करता है कि शासन को कितने विभागों में बाँटा जाए और कौन-सा विभाग किस मन्त्री को दिया जाए।

4. कैबिनेट का अध्यक्ष – मुख्यमन्त्री अपनी कैबिनेट का अध्यक्ष होता है। वह कैबिनेट की। बैठकों में सभापति का आसन ग्रहण करता है। कैबिनेट की बैठकों में जो निर्णय लिये जाते हैं। उनमें मुख्यमन्त्री की व्यापक सहमति होती है। यदि कोई मन्त्री मुख्यमन्त्री से किसी नीति पर सहमत नहीं है तो उसे या तो अपने विचार बदलने पड़ते हैं या फिर मन्त्रिपरिषद् से त्याग-पत्र देना पड़ता है।

5. विधानसभा का नेता – मुख्यमन्त्री विधानसभा का नेता तथा शासन की नीति का प्रमुख वक्ता होता है। वही महत्त्वपूर्ण बहसों का सूत्रपात करता है तथा नीति सम्बन्धी घोषणा भी करता है। विधानसभा के विधायी कार्यक्रमों में उसकी निर्णायक भूमिका होती है।

6. नियुक्ति सम्बन्धी अधिकार – राज्यपाल को राज्य के अनेक उच्च अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार है, लेकिन उसके इस अधिकार का वास्तविक प्रयोग मुख्यमन्त्री ही करता है।

7. नीति निर्धारित करना – यद्यपि राज्य की नीति मन्त्रिपरिषद् निर्धारित करती है, किन्तु इसका रूप मुख्यमन्त्री की इच्छा पर निर्भर होता है। मन्त्रिपरिषद् की नीतियों पर मुख्यमन्त्री का स्पष्ट प्रभाव होता है।

8. विधानसभा को भंग करने की सहमति – मुख्यमन्त्री राज्यपाल को परामर्श देकर विधानसभा को उसकी अवधि से पहले ही भंग करा सकता है।

9. राज्यपाल एवं मन्त्रिपरिषद् के बीच की कड़ी – मुख्यमन्त्री राज्यपाल को प्रमुख परामर्शदाता होता है। वही मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों की सूचना राज्यपाल को देता है। राज्यपाल अपनी बात मुख्यमन्त्री के माध्यम से ही अन्य मन्त्रियों तक पहुँचाता है एवं उसी के माध्यम से शासन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करता है।

10. कार्यपालिका का प्रधान – राज्यपाल कार्यपालिका का मात्र वैधानिक प्रधान होता है। कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति मन्त्रिपरिषद् के हाथ में होती है। इसलिए कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान मुख्यमन्त्री होता है।

राज्यपाल द्वारा विधानसभा में बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल के नेता को मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता है। चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में राज्यपाल स्वविवेक से मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है।

मुख्यमन्त्री का महत्त्व

मुख्यमन्त्री के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है –

1. सरकार का प्रधान प्रवक्ता – मुख्यमन्त्री राज्य सरकार का प्रधान प्रवक्ता होता है और राज्य सरकार की ओर से अधिकृत घोषणा मुख्यमन्त्री द्वारा ही की जाती है। यदि कभी किन्हीं दो मन्त्रियों के परस्पर विरोधी वक्तव्यों से भ्रम उत्पन्न हो जाए, तो इसे मुख्यमन्त्री के वक्तव्य से ही दूर किया जा सकता है।

2. राज्य में बहुमत दल का नेता – उपर्युक्त के अतिरिक्त मुख्यमन्त्री राज्य में बहुमत दल का नेता भी होता है। उसे दलीय ढाँचे पर नियन्त्रण प्राप्त होता है और यह स्थिति उसके प्रभाव तथा शक्ति में और अधिक वृद्धि कर देती है।

3. राज्य की समस्त शासन-व्यवस्था पर नियन्त्रण – मुख्यमन्त्री राज्य की शासन-व्यवस्था पर सर्वोच्च और अन्तिम नियन्त्रण रखता है। चाहे शान्ति और व्यवस्था का प्रश्न हो, कृषि, सिंचाई, स्वास्थ्य और शिक्षा के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना हो और चाहे कोई विकास सम्बन्धी प्रश्न हो, अन्तिम निर्णय मुख्यमन्त्री पर ही निर्भर करता है। मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को उनके विभागों के सम्बन्ध में आदेश-निर्देश दे सकता है। मन्त्रिपरिषद् के सदस्य विभिन्न विभागों के प्रधान होते हैं किन्तु अन्तिम रूप में यदि किसी एक व्यक्ति को राज्य के प्रशासन की अच्छाई या बुराई के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है तो वह निश्चित रूप से मुख्यमन्त्री ही है।

मुख्यमन्त्री राज्य के शासन का प्रधान है किन्तु किसी भी रूप में उसे राज्य के शासन का तानाशाह नहीं कहा जा सकता है। वह राज्य का सर्वाधिक लोकप्रिय जननेता है।

मुख्यमन्त्री तथा राज्यपाल का सम्बन्ध

मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है। विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को राज्यपाल मुख्यमन्त्री नियुक्त करता है। मुख्यमन्त्री का राज्यपाल से गहरा सम्बन्ध है, राज्य के शासन में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मुख्यमन्त्री के कार्यों के विवरण से राज्य के प्रशासन में मुख्यमन्त्री की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। मुख्यमन्त्री, राज्यपाल एवं मन्त्रिपरिषद् के बीच एक कड़ी का कार्य करता है। वह राज्यपाल को मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों के सम्बन्ध में सूचना देता है। वास्तव में मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष होने के नाते संविधान ने उसका यह कर्तव्य निश्चित किया है कि वह राज्यपाल को न केवल मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों से सम्बद्ध सूचना ही दे, अपितु शासन और विधान सम्बन्धी सुझावों के सम्बन्ध में भी सूचित करे। उसे राज्यपाल के कहने पर किसी भी ऐसे मामले को, जिस पर मन्त्रिपरिषद् ने विचार न किया हो, मन्त्रिपरिषद् के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। वस्तुत: मुख्यमन्त्री राज्य प्रशासन की धुरी तथा वास्तविक प्रधान होता है। राज्यपाल को जो शक्तियाँ प्राप्त हैं, वास्तविक रूप में उनका प्रयोग मुख्यमन्त्री ही करता है। शान्तिकाल में राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श के अनुसार कार्य करता है, किन्तु संकटकाल में राज्यपाल के अधिकार वास्तविक हो जाते हैं। इस समय वह मन्त्रिमण्डल का परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं होता।

मूल्यांकन – राज्य शासन में मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् को आदि तथा अन्त होता है। राज्य के सम्पूर्ण शासन का उत्तरदायित्व मुख्यमन्त्री पर रहता है। यही कारण है कि राज्य के शासन के लिए हम उसी की प्रशंसा या आलोचना करते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि राज्य के शासन में मुख्यमन्त्री की प्रधान भूमिका होती है।

लघु उत्तीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राज्यपालों की नियुक्ति, स्थानान्तरण व हटाने का अधिकार किसको है? क्या एक ही व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक राज्यों का राज्यपाल रह सकता है? [2011]
उत्तर :
राज्यपालों की नियुक्ति, स्थानान्तरण वे हटाने का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त है। हाँ, एक ही व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक राज्यों का राज्यपाल रह सकता है। राज्यपाल दूसरे राज्य का कार्यभार अतिरिक्त प्रभारी के रूप में सम्भालता है।

राज्यपाल की नियुक्ति

संविधान के प्रारूप (Draft) में राज्यपाल का जनता द्वारा निर्वाचित होने का प्रावधान था। इस प्रश्न पर संविधान सभा में बहुत वाद-विवाद हुआ और अन्त में यह निश्चय हुआ कि राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाएगा।

नियुक्ति हेतु योग्यताएँ

संविधान के अनुच्छेद 157 में राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गई हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह भारतीय संघ व उसके अन्तर्गत किसी राज्य के विधानमण्डल या सदन का सदस्य न हो। यदि वह नियुक्ति के समय किसी विधानमण्डल या सदन का सदस्य हो, तो उसके पद-ग्रहण करने की तिथि से यह स्थान रिक्त समझा जाएगा।
  4. राज्यपाल कोई अन्य लाभ का पद धारण नहीं करेगा।

कार्यकाल

संविधान के अनुच्छेद 156 में राज्यपाल की पदावधि का उपबन्ध दिया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार राज्यपाल का कार्यकाल राष्ट्रपति की इच्छापर्यन्त होता है। संविधान द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्षों के लिए की जाती है और पुनर्नियुक्ति भी हो सकती है, किन्तु इसके पूर्व राज्यपाल स्वयं भी राष्ट्रपति को सम्बोधित कर अपना त्याग-पत्र दे सकता है। अपना कार्यकाल समाप्त होने पर भी वह तब तक अपने पद पर बना रहेगा, जब तक कि उसके उत्तराधिकारी की नियुक्ति नहीं हो जाती है। कभी-कभी राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर राज्यपाल को बर्खास्त भी कर सकता है।

[राज्यपाल की स्थिति – इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 का उत्तर देखें।]

प्रश्न 2.
राज्यपाल की किन्हीं दो प्रकार की शक्तियों को बताइए। [2016]
उत्तर :
राज्यपाल की दो प्रकार की शक्तियाँ निम्नवत् हैं

1. कार्यकारिणी शक्तियाँ

राज्य की कार्यकारिणी शक्ति राज्यपाल में निहित होती है तथा उस शक्ति का प्रयोग राज्यपाल स्वयं या अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के माध्यम से करता है। ये शक्तियाँ उन विषयों तक सीमित हैं। जिनका उल्लेख राज्य सूची और समवर्ती सूची में किया गया है। संघ सूची के विषयों के सम्बन्ध में उसको कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। राज्यपाल उसकी कार्यकारिणी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. राज्य सूची पर अधिकार
  2. कार्यपालिका का संचालन
  3. नियुक्तियाँ सम्बन्धी अधिकार
  4. मन्त्रियों के कार्यों का विभाजन
  5. राज्यपाल का स्वेच्छाधिकार

2. वित्तीय शक्तियाँ

राज्यपाल को वित्तीय वर्ष के आरम्भ में, राज्य की उस वर्ष की अनुमानित आय-व्यय का विवरण (बजट) विधानमण्डल के सम्मुख प्रस्तुत करने का अधिकार है। उसकी संस्तुति के बिना किसी अनुदान की माँग स्वीकृत नहीं की जा सकती है और न ही कोई धन विधेयक उसकी संस्तुति के बिना विधानसभा में प्रस्तुत किया जा सकता है। किन्तु किसी कर के घटाने के लिए प्रावधान करने वाले किसी संशोधन को उसकी संस्तुति की आवश्यकता नहीं होती है। राज्य की आकस्मिक निधि (Contingency Fund) उसके अधीन होती है, जिसमें से वह आकस्मिक व्यय के लिए विधानमण्डल की अनुमति के पूर्व भी धन दे सकता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers

प्रश्न 3.
राज्यपाल के किन्हीं दो विधायी अधिकारों का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
राज्यपाल के दो विधायी कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर :
राज्यपाल के दो विधायी (कार्य) निम्नवत् हैं

1. धन विधेयकों से सम्बन्धित अधिकार – धन विधेयक केवल राज्यपाल की सिफारिश पर ही विधानसभा में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। उस पर कोई भी संशोधन राज्यपाल की सिफारिश के बिना प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। किन्तु राज्यपाल धन विधेयकों को पुनर्विचार के लिए वापस नहीं भेज सकता, बल्कि सामान्यतया वह उनको स्वीकृति दे देता है।

2. अध्यादेश जारी करने का अधिकार – यदि राज्य में विधानमण्डल का अधिवेशन नहीं चल रहा हो तो राज्यपाल आवश्यकता पड़ने पर उन सभी विषयों पर अध्यादेश जारी कर सकता है जिन पर राज्य के विधानमण्डल को कानून बनाने का अधिकार है। ऐसे किसी अध्यादेश का प्रभाव वही होगा जो राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए हुए किसी कानून का होता है। किन्तु इस प्रकार के अध्यादेश को विधानमण्डल के सम्मुख रखना पड़ता है। और विधानमण्डल के अधिवेशन के आरम्भ होने की तिथि से 6 सप्ताह बाद तक ही यह लागू रह सकता है। इससे पूर्व भी विधानसभा यदि चाहे तो इसे रद्द कर सकती है। उन विषयों के बारे में जिनके सम्बन्ध में राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना राज्य के विधानमण्डल में कोई विधेयक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, राज्यपाल राष्ट्रपति की अनुमति के बिना अध्यादेश जारी नहीं कर सकता है।

प्रश्न 4.
यदि विधानसभा में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं है, तो सरकार की रचना में राज्यपाल किन-किन विकल्पों का प्रयोग कर सकता है? [2007]
उत्तर :
राज्यपाल का एक मुख्य कार्य मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करना है। राज्य की विधानसभा में यदि किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त है तथा बहुमत वाले राजनीतिक दल ने अपना नेता चुन लिया है, तो राज्यपाल के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह उसी नेता को मुख्यमन्त्री नियुक्त करे।

यदि राज्य की विधानसभा में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं है, उस स्थिति में राज्यपाल स्वविवेक का प्रयोग करते हुए निम्नलिखित विकल्पों का प्रयोग कर सकता है

  1. स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने की स्थिति में मुख्यमन्त्री पद के लिए एक से अधिक दावेदार हों, तब मुख्यमन्त्री के चयन और मनोनयन में राज्यपाल पदधारी को अपने विवेक का प्रयोग करते हुए सामान्यतया सबसे बड़े दल के नेता को प्राथमिकता देनी चाहिए। नवनियुक्त मुख्यमन्त्री को शीघ्रातिशीघ्र विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर अपने बहुमत को प्रमाणित करना होता है। बहुमत को सिद्ध करने के लिए सामान्यतया 3 दिन से अधिक का समय देना, उसे मोलभाव का अवसर देना है। ऐसी स्थिति राजनीतिक तनाव, विवाद तथा उत्पातों को जन्म देती है।
  2. यदि ऐसी स्थिति हो कि मुख्यमन्त्री पद का दावेदार अपना बहुमत सिद्ध करने में सफल न हो, तब राज्यपाल अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए अपनी आख्यो राष्ट्रपति को भेज सकता है।

प्रश्न 5.
राज्य प्रशासन में मुख्यमन्त्री का क्या स्थान है?
उत्तर :
राज्य प्रशासन में मुख्यमन्त्री का स्थान

स्वतन्त्र भारत की राजनीति में मुख्यमन्त्रियों की स्थिति परिवर्तनशीलता रही है। अनेक राज्यों के कुछ मुख्यमन्त्री तो बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली रहे हैं और उन्हें ‘किंग मेकर्स’ की संज्ञा दी गई है। कुछ मुख्यमन्त्री ऐसे भी हुए हैं, जिनका व्यक्तित्व तथा कार्यप्रणाली विवादास्पद रही है और उनके विरुद्ध जाँच आयोग भी बिठाए गए हैं। कुछ मुख्यमन्त्रियों ने अपने घटक दलों के बलबूते पर अपना पद कायम रखा है। कुछ मुख्यमन्त्रियों को केन्द्र सरकार का पिछलग्गू भी माना गया है। कुछ मुख्यमन्त्रियों की गणना कठपुतली मुख्यमन्त्री के रूप में की जाती है। सी०पी० भाम्भरी ने इन्हें ‘पोस्टमैन’ की संज्ञा दी है।

वास्तव में, सत्ता की राजनीति में मुख्यमन्त्री की स्थिति परिवर्तनशील होती है। साठ और सत्तर के दशक में मुख्यमन्त्री राज्य की शक्ति के स्तम्भ समझे जाते थे, किन्तु इसके बाद मुख्यमन्त्री पद की गरिमा निरन्तर घटती गई और आज मिली-जुली सरकारों के युग में तो मुख्यमन्त्री को स्वयं अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए दाँव-पेंच से काम लेना पड़ता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
राज्यपाल की आपातकालीन शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
यदि राज्यपाल यह अनुभव करता है कि राज्य में संविधान के अनुसार शासन का संचालन असम्भव हो गया है तो वह राष्ट्रपति को इसकी सूचना देता है। उसकी सूचना के आधार पर राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में आपातकाल की घोषणा कर देता है। तथा राष्ट्रपति के आदेशानुसार वह राज्य के शासन का समस्त कार्य अपने हाथ में ले लेता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल की किन्हीं दो विवेकाधीन शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2012, 13,14]
या
राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग किन परिस्थितियों में कर सकता है? किन्हीं दो का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
कुछ कार्य ऐसे भी हैं जिन्हें राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् से सलाह लेने के बाद भी अपने विवेक से करता है। इस प्रकार के कार्यों को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। राज्यपाल, क्रिस विषय पर अपने विवेक से कार्य करेगा, इसका निर्णय भी वह स्वयं ही करता है। राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजना, कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए अपने पास रोक लेना आदि मामलों में राज्यपाल, मुख्यमन्त्री और मन्त्रिपरिषद् से सलाह नहीं लेता है।

प्रश्न 3.
राज्यों की मन्त्रिपरिषद का गठन कैसे होता है?
उत्तर :
राज्यपाल विधानसभा के बहुमत प्राप्त दल के नेता को मुख्यमन्त्री नियुक्त करता है। यदि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो राज्यपाल स्वविवेक के आधार पर ऐसे व्यक्ति को मुख्यमन्त्री नियुक्त करता है जो बहुमत प्राप्त करने में सक्षम हो सके। तत्पश्चात् उसके परामर्श से वह मन्त्रिपरिषद् के अन्य मन्त्रियों की भी नियुक्ति करता है।

प्रश्न 4.
मुख्यमन्त्री की चार शक्तियाँ और कार्य बताइए। [2008, 11, 14, 16]
उत्तर :
मुख्यमन्त्री की चार शक्तियाँ और कार्य निम्नवत् हैं –

1. अपने मन्त्रिपरिषद् का गठन करना मुख्यमन्त्री का विशेषाधिकार है।
2. मुख्यमन्त्री शासन के क्षेत्र में राज्य का नेतृत्व करता है।
3. मुख्यमन्त्री अपने मन्त्रियों का कार्यविभाजन तथा विभागों का आवंटन करता है।
4. मुख्यमन्त्री राज्य में राज्यपाल तथा सरकार के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है तथा प्रशासनिक कार्यों की जानकारी राज्यपाल को औपचारिक रूप से देता है।

प्रश्न 5.
मुख्यमन्त्री अपने सहयोगियों के चयन में किन-किन बातों का ध्यान रखता है? [2012]
उत्तर :
मुख्यमन्त्री अपने सहयोगियों के चयन में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखता है.

  1. सहयोगी प्रभावशाली, अनुभवी एवं विश्वासपात्र व्यक्ति हो।
  2. सहयोगी में उच्च नेतृत्व क्षमता हो।
  3. उत्तम चरित्र एवं अपराधी न हो।
  4. प्रमुख क्षेत्रों एवं वर्गों का प्रतिनिधित्व करता हो।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है? [2008, 09, 10, 11, 13]
उत्तर :
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल की नियुक्ति कितने समय के लिए की जाती है?
उत्तर :
राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्ष के लिए की जाती है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers

प्रश्न 3.
क्या राज्यपाल पर महाभियोग लगाया जा सकता है?
उत्तर :
नहीं, राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को पदच्युत कर सकता है।

प्रश्न 4.
किन्हीं दो महिला राज्यपालों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  1. सरोजिनी नायडू तथा
  2. एम० फातिमा बीबी।

प्रश्न 5.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री कौन थीं? [2010, 11, 13, 15]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री श्रीमती सुचेता कृपलानी थीं।

प्रश्न 6
राज्य मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर :
राज्य मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता मुख्यमन्त्री करता है।

प्रश्न 7.
राज्य के मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कौन करता है? [2014]
उत्तर :
राज्य के मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है।

प्रश्न 8.
राज्य की मन्त्रिपरिषद् अपने कार्यों के लिए किसके प्रति उत्तरदायी होती है?
उत्तर :
राज्य की मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 9.
उत्तर प्रदेश की मन्त्रिपरिषद् के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर :

  1. राज्य प्रशासन की नीति का निर्धारण और संचालन तथा
  2. राज्य में शान्ति व सुव्यवस्था की स्थापना।

प्रश्न 10.
उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री का नाम बताइए। [2008, 12]
उत्तर :
स्वतन्त्र भारत में उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री श्री गोविन्द वल्लभ पन्त थे।

प्रश्न 11.
किसी राज्यपाल का अकस्मात निधन हो जाने पर या त्याग-पत्र देने पर, नये राज्यपाल की नियुक्ति होने तक उसका कार्यभार कौन सँभालता है?
उतर :
उस राज्य का मुख्य न्यायाधीश।

प्रश्न 12.
राज्य के प्रमुख महाधिवक्ता का प्रमुख कार्य क्या है?
उत्तर :
वह राज्य का सर्वप्रथम विधि अधिकारी है तथा उसका प्रमुख कार्य राज्य को विधि सम्बन्धी ऐसे विषयों पर सलाह देना और विधिक स्वरूप के ऐसे अन्य कार्य करना है जो राज्यपाल उसे समय-समय पर निर्देशित करे।

प्रश्न 13.
राज्य का संवैधानिक प्रधान कौन होता है?
उत्तर :
राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रधान होता है।

प्रश्न 14.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला राज्यपाल का नाम बताइए। [2012, 14, 16]
उत्तर :
श्रीमती सरोजिनी नायडू।।

प्रश्न 15.
राज्य के राज्यपाल की दो व्यवस्थापिका सम्बन्धी शक्तियाँ बताइए।
उत्तर :

  1. विधानमण्डल के दोनों सदनों को अधिवेशन बुलाने का अधिकार तथा
  2. विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक को स्वीकृति देने का अधिकार।

प्रश्न 16.
महिला मुख्यमन्त्रियों के नाम लिखिए। [2011]
उत्तर :
सुश्री जयललिता-तमिलनाडु; सुश्री मायावती, श्रीमती सुचेता कृपलानी-उत्तर प्रदेश।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers

प्रश्न 17.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री कौन थी? [2010, 11, 13, 15]
उत्तर :
श्रीमती सुचेता कृपलानी।

प्रश्न 18.
राज्यपाल को उसके पद से कौन हटा सकता है? [2007, 09, 11]
या
राज्यपाल को पदच्युत करने का अधिकार किसको है? [2014]
उत्तर :
राज्यपाल को उसके पद से राष्ट्रपति हटा सकता है।

प्रश्न 19.
राज्यों में महाधिवक्ता की नियुक्ति कौन करता है? [2007]
उत्तर :
राज्यपाल।

प्रश्न 20.
राज्य विधान परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता कौन करता है? [2012]
उत्तर :
राज्यपाल।

प्रश्न 21.
राज्यपाल को वापस बुलाने का अधिकार किसे है? [2012]
उत्तर :
राष्ट्रपति को।

प्रश्न 22.
क्या कोई व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक राज्यों का राज्यपाल हो सकता है? [2012]
उत्तर :
हाँ।

प्रश्न 23.
राज्यपाल के पद पर नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु क्या है? [2013]
उत्तर :
वह 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।

प्रश्न 24.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार राज्यपाल विधानमण्डल के विश्रान्ति काल में अध्यादेश प्रख्याजित (जारी) कर सकता है? [2014]
उत्तर :
अनुच्छेद 213 के अनुसार।

प्रश्न 25.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में लिखा है कि “प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा? [2014, 16]
उत्तर :
अनुच्छेद 153 में।

प्रश्न 26.
उत्तर प्रदेश का मुख्यमन्त्री किस दल से सम्बद्ध है? [2015]
उत्तर :
भारतीय जनता पार्टी से।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य का मुख्यमन्त्री किसके प्रति उत्तरदायी होता है? [2009]
(क) राज्यपाल के प्रति
(ख) विधानसभा के प्रति
(ग) प्रधानमन्त्री के प्रति
(घ) राज्यसभा के प्रति

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से राज्यपाल कौन-सा कदम उठाएगा यदि मुख्यमन्त्री त्याग-पत्र दे देता है?
(क) विधानसभा अध्यक्ष को मुख्यमन्त्री पद के लिए आमन्त्रित करेगा
(ख) विधानमण्डल को नया नेता चुनने को कहेगा।
(ग) विधानसभा को भंग कर देगा और नये चुनाव करने का आदेश देगा
(घ) सत्ता पक्ष को नया नेता चुनने को कहेगा

प्रश्न 3.
क्या कोई व्यक्ति एक ही समय में अधिक राज्यों का राज्यपाल ले सकता है? [2007, 11, 13]
(क) नहीं।
(ख) हाँ
(ग) हाँ, पर अधिकतम छः महीने के लिए
(घ) हाँ, पर अधिकतम दो साल के लिए

प्रश्न 4.
विधानसभा का सत्र बुलाने का अधिकार किसे है?
(क) विधानसभा के अध्यक्ष को
(ख) मुख्यमन्त्री को
(ग) राज्यपाल को
(घ) विधानसभा के सचिव को

प्रश्न 5.
राज्यपाल को उसके पद से कौन हटा सकता है? [2009, 11]
(क) प्रधानमन्त्री
(ख) राष्ट्रपति
(ग) संसद
(घ) उच्च न्यायालय

प्रश्न 6.
राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है? [2008]
(क) राष्ट्रपति
(ख) राज्यपाल
(ग) मुख्यमन्त्री
(घ) प्रधानमन्त्री

प्रश्न 7.
राज्य की कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख कौन होता है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) राज्यपाल
(ग) मुख्यमन्त्री
(घ) प्रधानमन्त्री

प्रश्न 8.
राज्यपाल के पद पर नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु है [2013]
(क) 30 वर्ष
(ख) 35 वर्ष
(ग) 21 वर्ष
(घ) 25 वर्ष

प्रश्न 9.
संविधान के किस भाग में उल्लिखित है कि “राज्यपाल को सहायता व सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान मुख्यमन्त्री होगा”? [2014]
(क) संविधान के भाग 4 में
(ख) संविधान के भाग 5 में
(ग) संविधान के भाग 6 में
(घ) संविधान के भाग 7 में

प्रश्न 10.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला राज्यपाल कौन थीं?
(क) श्रीमती सुचेता कृपलानी
(ख) कु० मायावती
(ग) श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित
(घ) श्रीमती सरोजिनी नायडू

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से कौन राज्य-मन्त्रिपरिषद् को अविश्वास प्रस्ताव द्वारा हटा सकता है?
(क) विधानपरिषद्
(ख) विधानसभा
(ग) संसद
(घ) विधानमण्डल

प्रश्न 12.
उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री कौन थीं? [2014, 15]
(क) श्रीमती सरोजिनी नायडू
(ख) सुश्री मायावती
(ग) श्रीमती सुचेता कृपलानी
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 13.
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल हैं –
(क) श्री टी०वी० राजेश्वर
(ख) श्री विष्णुकान्त शास्त्री
(ग) श्री राम नाईक
(घ) श्री बी०एल० जोशी

प्रश्न 14.
राज्यपाल, निम्नलिखित विषयों में से किन विषयों पर राष्ट्रपति को सिफारिश कर सकता [2015]
(क) राज्य मन्त्रिपरिषद् की बर्खास्तगी।
(ख) उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाया जाना
(ग) राज्य विधानसभा का विघटन
(घ) राज्य के संवैधानिक मशीनरी के रूप में ठप होने की सूचना

प्रश्न 15.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री को हटाने की क्या प्रक्रिया है? [2016]
(क) राष्ट्रपति के आदेश द्वारा
(ख) राज्यपाल के निर्देश द्वारा
(ग) विधानसभा द्वारा अविश्वास प्रस्ताव
(घ) उच्च न्यायालय के निर्देश द्वारा

उत्तर :

  1. (ख) विधानसभा के प्रति
  2. (घ) सत्ता पक्ष को नया नेता चुनने को कहेगा
  3. (ख) हाँ
  4. (ग) राज्यपाल को
  5. (ख) राष्ट्रपति
  6. (क) राष्ट्रपति
  7. (ख) राज्यपाल
  8. (ख) 35 वर्ष
  9. (ग) संविधान के भाग 6 में
  10. (घ) श्रीमती सरोजिनी नायडू
  11. (ख) विधानसभा
  12. (ग) श्रीमती सुचेता कृपलानी
  13. (ग) श्री राम नाईक
  14. (घ) राज्य के संवैधानिक मशीनरी के रूप में ठप होने की सूचना
  15. (ग) विधानसभा द्वारा अविश्वास प्रस्ताव।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers (राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 14 Executive of State: Governor and the Council of Ministers (राज्य की कार्यपालिका-राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद्), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Class 12 English Model Papers Paper 4

UP Board Class 12 English Model Papers Paper 4 are part of UP Board Class 12 English Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 English Model Papers Paper 4.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject English
Model Paper Paper 4
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 English Model Papers Paper 4

Time : 3 hrs 15 min
Maximum Marks: 100

Instruction:
First 15 Minutes are allotted to the candidates for reading the question paper.
Note:

  • This paper is divided in Section-A and Section-B. Both the sections are compulsory.
  • Question No. 11 has three parts: I, II, and III. Attempt only one part of Question No. 11.
  • All other questions are compulsory

Section A

Question 1.
Explain with reference to the context any one of the following passages. (8)
(a) The people I saw in India-those in the villages as well as those in high office—have both pride and lively sense of decency and citizenship. They also have a passion for independence. This beautiful child born in squalor and poverty, uneducated in both grammar and manners—had given me a glimpse of a warm soul of India.

(b) The point is this: if John relaxes, I relax. An
occasional nap would help. And he might try some light reading instead of that stuff he brings home from the office. Exercise is another thing. John is one of those weekend athletes—who take it in big doses. He still likes that rushing up-to-the-net bit in tennis : but when he does this, my normal work load is increased by five.

(c) Believing that the future will yield into you the need of every thought and effort; knowing that the laws of the universe can never fail, and that your own will come back to you with mathematical exactitude, this is faith and the believing of faith. By the power of such faith the dark waters of uncertainty are divided, every mountain of difficulty crumbles away, and the believing soul passes on unharmed.

Question 2.
Explain with reference to the context any two of the following extracts. (8)
(a) How happy is he born or thought that serveth not another’s will whose armour is his honest thought? And simple truth his utmost skill!

(b)Let not Ambition mock their useful toil,
Their homely joys, and destiny obscure;
Nor Grandeur hear with a disdainful smile
The short and simple annals of the poor.

(c) He gives his harness bells a shake
To ask if there is some mistake.
The only other sound is the sweep
Of easy wind and downy flake.

Question 3.
Answer one of the following questions in not more than 30 words each. (4)
(a) Why did the author decide to be magnanimous and merciful to his fellow traveller?
(b) What things were women entitled to in ancient India?
(c) What grounds does the writer give to prove that Gandhi was much influenced by Western ideas?

Question 4.
Fill in the blanks in the following sentences, selecting the most suitable words from those given within the brackets
(a) One day the Creator heard the ………… neighing (distressed, apparent, sad, weak)

(b) ………… constricts arteries. (Smoking, High Blood Pressure, Nicotine, Cigarettes)

(c) We have heard that the chief purpose of education is not merely the acquiring of skill or information but the ………… into a higher life. (initiation, transformation, upliftment, animation)

(d) Widows have long …………. to be burnt on their husband’s pyres. (ceased, revolted, fainted, withdrawn)

Question 5.
Give the central idea of any one of the following poems. (6)
(a) The True Beauty
(b) Character of a Happy Life
(c) The Song of the Free

Question 6.
Answer any one of the following questions in not more than 75 words. (8)
(a) Write a brief note on the resourcefulness of Portia.
(b) Give a brief summary of casket-scene in ‘The Marchant of Venice’.

Question 7.
Answer any two of the following questions in not more than 30 words. (4 + 4=8)
(a) What perturbed Gyan Babu one evening?
(b) Why did the astrologer suddenly become nervous after seeing the customer?
(c) What idea of time do you gather from the story ‘The Special Experience’?

Question 8.
(a) Point out the figures of speech in any two of the followings: (1 + 1 = 2)
(i) She floats like a laugh from the lips of a dream.
(ii) Lord of himself, though not of lands;
And having nothing, he hath all.
(iii) The curfew tolls the knell of parting day.

(b) Define Hyperbole and give an example of it. (1 + 1 = 2)

Section B

Question 9.
(a) Change any one of the following sentences into indirect form of speech. (2)
(i) Garima said to me, “Do you know how to paint this picture?”
(ii) Yishal said to his teacher, “Grant me a leave of four days.”

(b) Combine the following sentences as directed within the brackets, (any one) (2)
(i) Geeta is beautiful. She wanted to take part in beauty contest. (Into Compound Sentence)
(ii) Mohit met with an accident. He missed the examination. (Into Complex Sentence)

(c) Transform the following sentences as directed within the brackets, (any two) (2)
(i) She was crying a lot. (Into Interrogative)
(ii) Mohan was painting the walls. (Into Passive Voice)

(d) Correct any two of the following sentences. (1 + 1=2)
(i) The Ram is a good orator.
(ii) They do not know the way about the success.
(iii) It is me who can guide you.
(iv) It was raining for three hours.

Question 10.
(a) Give the synonyms of the following words. (1 + 1 + 1 = 3)
(i) Champion
(ii) Modest
(iii) Liberty

(b) Give the antonyms of the following words. (1 + 1 + 1 = 3)
(i) Peculiar
(ii) Idle
(iii) Pride

(c) Use the following words in sentences of your own so as to bring out the difference in their meanings clearly. (1 + 1=2)
(i) Pale
(ii) Pail

(d) Substitute one word for the following expressions. (1+1 + 1= 3)
(i) One who hates women.
(ii) A post with no salary.
(iii) That which can be believed.

(e) Use any three of the following idioms/phrases in your own sentence so as to make their meanings clear. (1+1 + 1= 3)
(i) A black sheep
(ii) A tall tale
(iii) A bone of contention
(iv) Tied the knot
(v)In a fix
(vi) In lieu of

Question 11.
(a) Translate the following into English. (10)
साहस की ज़िन्दगी सबसे बड़ी होती है। ऐसी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ होती है। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला व्यक्ति दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रान्ति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न ही अपनी चाल को पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं। साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता। वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। झुण्ड में चलना और झुण्ड में चरना, यह भैंस और भेड़ का काम है। सिंह तो बिल्कुल अकेला होने पर भी मग्न रहता है। जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, ज़िन्दगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता। बड़े मौके पर साहस नहीं दिखाने वाला आदमी बराबर अपनी आत्मा के भीतर एक आवाज़ सुनता रहता है। ऐसी आवाज़ जिसे वही सुन सकता है और जिसे वह रोक भी नहीं सकता। यह आवाज़ उसे बराबर कहती रहती है, “तुम साहस नहीं दिखा सके, तुम कायर की तरह भाग खड़े हुए।

Question 12.
Write an essay on one of the following topics in about 250 words. (12)
(a) Stress of Exams
(b) Sustainable Development
(c) The Teacher you Like Most
(d) Problems of Traffic
(e)Reservation Policy

Question 13.
Read the following passage carefully and answer the questions that follow.
The heat-wave deepened during the following few days while Jack and I lazed about in the house and yards, wearing ragged shirts and discarded garments, because the more presentable ones were being packed by mother. She was obviously not strong enough to cycle down to Hampshire, where father and Jack had been one weekend, to see and rent a cottage in Ropley, near Alresford. From this prospective journey, Jack had returned with half a dozen photographs taken with a plate camera, which he had made for himself, the aperture being a pinhole.

This was only one of his many ingenious artefacts. I had studied the pictures, which included a church that leaned backwards, in the hope of finding that perpetually teasing certainty, which we look for when about to take some adventurous step into the unknown. But, Ropley remained unreal.-
(a) Why Jack and his father went to Ropley one weekend? (1)
(b) Why the author and Jack were wearing ragged shirts and discarded garments? (1)
(c) Give a summary of the above passage in your own words. (2)
(d) Suggest a suitable title to the above passage. (1)
(e) Who had made the plate camera and why? (1)

We hope the UP Board Class 12 English Model Papers Paper 4,  will help you. If you have any query regarding UP Board Class 12 English Model Papers Paper 4, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Class 12 English Model Papers Paper 3

UP Board Class 12 English Model Papers Paper 3 are part of UP Board Class 12 English Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 English Model Papers Paper 3.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject English
Model Paper Paper 3
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 English Model Papers Paper 3

Time : 3 hrs 15 min
Maximum Marks: 100

Instruction:
First 15 Minutes are allotted to the candidates for reading the question paper.
Note:

  • This paper is divided in Section-A and Section-B. Both the sections are compulsory.
  • Question No. 11 has three parts: I, II, and III. Attempt only one part of Question No. 11.
  • All other questions are compulsory

Section A

Question 1.
Explain with reference to the context any one of the following passages. (8)
(a) Your success, your failure, your influence, your whole life you carry about with you, for your dominant trends of thought are the determining factors in your destiny. Send forth living stainless and happy thoughts, and blessings will fall into your hands, and your table will be spread with the cloth of peace. Send forth hateful, impure and unhappy thoughts, and curses will rain down upon you and fear and unrest will wait upon your pillow. You are the conditional maker of your fate, be that fate what it may.

(b) I struck a swift, lethal blow with my right hand. He dodged the attack with an insolent ease that humiliated me. My personal vanity was aroused. I lunged at him with my hand, with my paper; I jumped on the seat and pursued him round the lamp; I adopted tactics of feline’s cunningness, waiting till he had alighted, approaching a horrible stealthiness, striking with a sudden and terrible swiftness.

(c) This time the Creator took care to employ only a little of the harder materials. To the new animal He made, He gave neither horns nor claws. He gave it teeth that could chew but not bite.

Question 2.
Explain with reference to the context, any one of the following extracts. (8)
(a)I made a garland for her head,
And bracelets too, and fragrant zone;
She look’d at me as she did love,
And made sweet moan.

(b) Where tireless striving stretches its arms towards perfection;
Where the clear stream of reason has not lost its way into dreary desert sand of dead habit,
Where the mind is led forward by Thee into ever widening thought and action
Into the heaven of freedom, my Father, let my country awake.

(c) Let eyes grow dim and heart grow faint
And friendship fail and love betray
Let fate its hundred horrors send
And dotted darkness block the way

Question 3.
Answer any one of the following questions in not more than 30 words each. (4)
(a) What constitutes the essence of a good life?
(b) What does the heritage of India consist of ?
(c) Why did the Creator think that the creation of horse was a blunder?

Question 4.
Fill in the blanks in the following sentences selecting the most suitable words from those given within the brackets. (4)
(a) How do I get my ……… ? From the blood of course. (nourished, nourishment, nourishment, replenishment)
(b) The natural quality ……… of is compassion. (woman, man, women, boys)
(c) The old ………. system is adapting itself to present day conditions. (family, royalty, families, quality)
(d) Bishamber’s sister had ……… her husband while he was in Mumbai. (lost, found, met, married)

Question 5.
Give the central idea of any one of the following poems. (6)
(a) A Lament
(b) My Heaven
(c) On His Blindness

Question 6.
Answer one of the following questions in not more than 75 words. (8)
(a) Is Shylock out and out a villain or a tragic character? Give reasons for your answer.
(b) What do you think of Portia’s decision to conduct Antonio’s defence in disguise of a lawyer?

Question 7.
Answer any two of the following questions in not more than 30 words. (4 + 4=8)
(a) Give a character sketch of Sanku.
(b) Why did the lady want to rush forward and touch the feet of her husband?
(c) How did the child react to every kind of offer of the man?

Question 8.
(a) Point out the figures of speech in any two of the following: (1 + 1 = 2)
(i) Rise up for you the flag is flung.
(ii) But gallantly the giant wears the scarf.
(iii) To crush you out still know my soul.

(b) Define Oxymoron and give an example of it. (1 + 1 = 2)

Section B

Question 9.
(a) Change any one of the following sentences into indirect form of speech. (2)
(i) The doctor said to patient, “Take your medicines properly.”
(ii) The beggar said to the man, “Please give me ten rupees to buy food.”

(b) Combine the following sentences as directed within the brackets, (any one) (2)
(i) Sujeet went to Agra. He wants to see the Taj Mahal. (Into Simple Sentence)
(ii) The baby was crying. The baby wanted food. (Into Compound Sentence)

(c) Transform the following sentences as directed within the brackets, (any two) (2)
(i) Soldiers guard the country. (Into Passive Voice)
(ii) She offered me biscuits. (Into Negative Sentence)

(d) Correct two of the following sentences. (1 + 1=2)
(i) Kashmir is more better than Agra.
(ii) Mr Sharma is junior from me.
(iii) She is a chain smoking.
(iv) He beat the dog by a stick.

Question 10.
(a) Give the synonyms of the following words. (1 + 1 + 1 = 3)
(i) Concerned
(ii) Deprived
(iii) Solace

(b) Give the antonyms of the following words. (1 + 1 + 1 = 3)
(i) Cruel
(ii) Offensive
(iii) Precede

(c) Use the following words in sentences of your own so as to bring out the difference in their meanings clearly. (1 + 1=2)
(i) Career
(ii) Carrier

(d) Substitute one word for the following expressions. (1 + 1 + 1 = 3)
(i) One who feels at home everywhere.
(ii) One who doesn’t know anything.
(iii) A person who looks the dark side of the things.

(e) Use any three of the following idioms/phrases in your own sentences so as to make their meanings clear. (1+ 1 + 1 = 3)
(i) To put on
(ii) Get rid of
(iii) At a stone’s throw
(iv) To let the cat out of the bag
(v) Above board
(vi) Cry for the moon

Question 11.
(a) Translate the following into English. (10)
किसी जापानी दार्शनिक ने कहा था—हाथों की उंगलियों के सहारे एक दिन हम सारे संसार पर विजय प्राप्त कर लेंगे। जापानवासियों ने आज इस कथन को सत्य करके दिखा दिया है। अमेरिका जैसा देश भी जापान से पिछड़ने लगा है। इसका कारण है-जापानियों की निरन्तर कार्य करती हुई उंगलियाँ। उनकी उंगलियों में छिपा है । सफलता पाने का मूल मन्त्र—लगातार परिश्रम। परिश्रम के बल पर ही व्यक्ति हर इच्छित वस्तु पा सकता है। परिश्रम के बल पर ही व्यक्ति विकास की ऊँचाई पर पहुँच सकता है। परिश्रम का कोई विकल्प नहीं। इसके सामने कोई जोड़-तोड़ नहीं चल सकता। यदि । हम अपने आस-पास देखें तो पाएंगे कि बहुत सामान्य से दिखाई देने वाले व्यक्तियों ने परिश्रम करते हुए कुछ ही वर्षों में सब कुछ पा लिया। जो लोग परिश्रम करते हैं, वे कभी भी साधनों की कमी का रोना नहीं रोया करते। वे लगातार परिश्रम करके सभी प्रकार के साधन । स्वयं प्राप्त कर लिया करते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति परिश्रम नहीं। करना चाहते, वे हरदम किसी-न-किसी समस्या का रोना रोते हुए अपनी विफलताओं के लिए भाग्य को उत्तरदायी ठहराते हैं।

Question 12.
Write an essay on any one of the following topics in about 250 words. (12)
(i) Science: Innovation and Ideas
(ii) Marine Life
(iii) Poverty and its Menace
(iv) Character Crisis
(v) Harms of Junk Food

Question 13.
Read the following passage carefully and answer the questions that follow.
The first Olympics was held at Olympia in Greece in 776 BC. The prestige and glory of the Olympics spread far and wide. With the advent of Christianity, the games lost their importance, as it was believed that they encouraged pagan worship in temples built to honour the Greek Gods. It was Theodosius-I who ordered the total destruction of the Olympia Sanctuary’s temples and other structures in the year 394 AD, which ended the era of the ancient Olympic Games. It was due to the effort of Baron de Coubertin that the Olympics of the modern era began in 1896 and were held every four years except during the two World Wars.

The International Olympic Committee (IOC) was constituted in 1894. It had 15 representatives including Coubertin. The first Olympic medal was won by America’s James Connolly in the triple jump. The Marathon was the most important event and was won by a Greek named Spiridon Louis. Olympia is a small village situated near the west coast of the Peloponnese peninsula of Greece.

It is noted for its archaeological ruins, which are related to the temples for worship of Greek Gods and for the ancient Olympic stadium. The visitor is impressed by the grandiose ruins, which show temple foundations, ruins of the temple of Zeus, the tall columns, the altars and art objects that dot the site. Some of these objects are placed in the archaeological museum. Another museum displays objects like stamps, photographs, documents, flags, maps and trophies belonging to the modern Olympics.
(a) Give a summary of the above passage in your own words. (2)
(b) Suggest a suitable title to the above passage. (1)
(c) Why did the Olympic Games start losing its importance? (1)
(d) Who revived the Olympic Games in 1896 and mention some important events of this game? (1)
(e) How is the small village Olympia related to Olympic Games?

We hope the UP Board Class 12 English Model Papers Paper 3, will help you. If you have any query regarding UP Board Class 12 English Model Papers Paper 3, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests (उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests (उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 24
Chapter Name Achievement and Achievement Tests
(उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण)
Number of Questions Solved 30
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests (उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उपलब्धि परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? निबन्धात्मक परीक्षण के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए। [2014, 15]
या
निबन्धात्मक परीक्षण के गुण और दोषों की विवेचना कीजिए। [2013]
या
निबन्धात्मक परीक्षणों की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं? इनके गुण-दोषों पर प्रकाश डालिए। [2014]
या
निबन्धात्मक परीक्षण के दोषों को बताइए। [2008, 12]
उत्तर :
उपलब्धि परीक्षण
प्रत्येक विद्यालय में विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने के लिए जाते हैं। एक निश्चित समय में विद्यार्थियों ने कितना ज्ञान अर्जित किया तथा जीवन की परिस्थितियों में उसे कहाँ तक हस्तान्तरित किया आदि की जाँच उपलब्धि परीक्षण द्वारा की जाती है। अध्यापक उपलब्धि परीक्षाओं द्वारा समय-समय पर यह जानने का प्रयास करता है कि कक्षा में प्रदान किया जाने वाला ज्ञान विद्यार्थियों ने किस सीमा तक ग्रहण कर लिया है।

विभिन्न विद्वानों ने उपलब्धि परीक्षणों की परिभाषाएँ निम्नलिखित शब्दों में दी हैं

  1. हेनरी चौनसी (Henry Chauncy) के अनुसार, “प्रत्येक उपलब्धि परीक्षा में छात्रों को किसी-न-किसी रूप में अपने प्राप्त ज्ञान का इस प्रकार प्रदर्शन करना पड़ता है, जिससे उसका अवलोकन और मूल्यांकन किया जा सके।”
  2.  गैरीसन (Garrison) के अनुसार, “उपलब्धि परीक्षा बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञानार्जन की सीमा का मापन करती है।”
  3. फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, “एक उपलब्धि परीक्षा वह है जिसका निर्माण ज्ञान समूह में कौशल के मापन के लिए किया जाता है।”

निबन्धात्मक परीक्षण
आजकल हमारे देश में निबन्धात्मक परीक्षाओं का अधिक प्रचलन है। ये परीक्षाएँ एक प्रकार से राष्ट्रीय शिक्षा का अंग हो गयी हैं। इनमें छात्रों को कुछ प्रश्न दिये जाते हैं और छात्र उनके उत्तर लिखित रूप में देते हैं। उत्तर देने का समय निर्धारित होता है। यह परीक्षा की परम्परागत प्रणाली है।

गुण :
निबन्धात्मक परीक्षाओं के निम्नलिखित गुण हैं।

  1. इन परीक्षाओं का आयोजन सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
  2. इन परीक्षाओं के प्रश्नों को सुगमता से तैयार किया जा सकता है।
  3. यह विधि समस्त विषयों के लिए उपयोगी है।
  4. इसमें बालक को पूर्ण अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रहती है।
  5. यह प्रणाली बालकों के लिए भी सुगम होती है, क्योंकि प्रश्न-पत्र समझने में उन्हें विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  6. छात्रों की तर्क, विचार संगठन तथा चिजन शक्ति का ज्ञान कराने में ये परीक्षाएँ विशेष सहायक होती हैं।
  7. यह प्रणाली छात्रों को परिश्रम करने के लिए प्रेरित करती है।
  8. यह प्रणाली बालकों के अर्जित ज्ञान का वास्तविक मूल्यांकन करती है।

दोष :
निबन्धात्मक परीक्षाओं में निम्नांकित दोष भी हैं

  1. निबन्धात्मक परीक्षाएँ केवल पुस्तकीय ज्ञान का मूल्यांकन करती हैं। इनके द्वारा छात्र की विभिन्न क्षमताओं का मूल्यांकन नहीं हो पाता।।
  2. इस परीक्षा में सम्पूर्ण पाठ्यक्रम के समस्त भागों में प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं। जो भाग शेष रहता है, उसका मूल्यांकन नहीं हो पाता।
  3. इस परीक्षा का प्रमुख दोष यह है कि छात्र अनुमान के आधार पर ही परीक्षा की तैयारी करते हैं। इस प्रकार कम परिश्रम करके उन्हें सफलता मिल जाती है।
  4. निबन्धात्मक परीक्षा में मूल्यांकन कठिनता से होता है। मूल्यांकन के लिए प्रत्येक प्रश्न के उत्तर को। पढ़ना आवश्यक है, परन्तु यह एक कठिन कार्य है।
  5. इनमें आत्मनिष्ठता का प्रभाव रहता है। छात्रों द्वारा दिये गये प्रश्नों के उत्तरों का मूल्यांकन करते समय परीक्षक के विचारों, अभिवृत्ति तथा मानसिक स्तर का भी प्रभाव पड़ता है। एक उत्तर-पुस्तिका की। यदि विभिन्न परीक्षकों से जाँच कराई जाए, तो विभिन्न परिणाम देखने में आएँगे। एक उत्तर में यदि एक । अध्यापक आठ अंक देता है, तो उसी उत्तर में दूसरा अध्यापक तीन अंक भी प्रदान कर सकता है।
  6. निबन्धात्मक परीक्षाएँ विश्वसनीय नहीं होतीं। यदि एक ही उत्तर-पुस्तिका को एक ही अध्यापक जाँचने के कुछ काला पश्चात् पुनः जाँचे तो दोनों बार के अंकों में पर्याप्त अन्तर मिलती है।
  7. इस परीक्षा के परिणामों के आधार पर छात्र के विषय में निश्चित रूप से कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इस परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाला छात्र आवश्यक नहीं कि व्यावहारिक जीवन में भी सफलता प्राप्त करे, क्योंकि इस परीक्षा में अंक प्राप्ति रटने की शक्ति, लेखी शक्ति तथा संयोग पर बहुत कुछ निर्भर करती है।
  8. यह परीक्षा प्रणाली छात्रों के स्वास्थ्य पर बुरे प्रभाव डालती है। छात्र वर्ष-भर तो कुछ पढ़ते-लिखते नहीं हैं, परन्तु परीक्षा के निकट आने पर दिन-रात पढ़कर परीक्षा पास करने का प्रयास करते हैं। फलतः उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 2
वस्तुनिष्ठ परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकारों एवं गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए। [2007, 12]
या
वस्तुनिष्ठ परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? इस परीक्षण के गुणों का उल्लेख कीजिए। [2007, 13]
या
वस्तुनिष्ठ परीक्षा-प्रणाली के दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण
निबन्धात्मक परीक्षण के दोषों को दूर करने के लिए शिक्षाशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का प्रतिपादन किया। सर्वप्रथम 1854 ई० में होरेसमेन (Horaceman) ने वस्तुनिष्ठ परीक्षण का निर्माण किया। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों का स्वरूप ऐसा होता है कि उनका उत्तर पूर्ण रूप से निश्चित होता है। इन प्रश्नों के उत्तर में सम्बन्धित व्यक्ति की रुचि, पसन्द या दृष्टिकोण का कोई महत्त्व नहीं होता। वस्तुनिष्ठ प्रश्न का उत्तर प्रत्येक उत्तरदाता के लिए एक ही होता है।

गुड (Good) ने वस्तुनिष्ठ परीक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा :
“वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रायः सत्य-असत्य उत्तर, बहुसंख्यक चुनाव, मिलान या पूरक प्रश्नों पर आधारित होती है, जिनको शुद्ध उत्तरों की सहायता से अंकन किया जाता है। यदि कोई उत्तर तालिका के विपरीत होता है, तो उसे अशुद्ध माना जाता है।” वर्तमान परीक्षा में वस्तुनिष्ठ परीक्षणों को अत्यधिक महत्त्व दिया जा रहा है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकार
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं

1. सत्य-असत्य परीक्षण :
इन परीक्षणों में ‘सत्य’ या ‘असत्य में छात्र उत्तर देते हैं।
निर्देश :
निम्नलिखित कथन यदि शुद्ध हों तो सत्य’ और अशुद्ध हों तो ‘असत्य’ को रेखांकित कीजिए-

  1. बाबर का जन्म 1525 में हुआ था। सत्य/असत्य
  2. कार्बन डाइऑक्साइड जलने में सहायक नहीं है। सत्य/असत्य
  3. ऑक्सीजन जीवधारियों के लिए अनिवार्य है। सत्य/असत्य
  4. रामचरितमानस की रचना तुलसीदास ने की थी। सत्य/असत्य

2. सरल पुनः स्मरण परीक्षण :
इन प्रश्नों का उत्तर छात्र स्वयं स्मरण करके लिखता है।
निर्देश :
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर उनके समक्ष कोष्ठकों में लिखो

  1. प्लासी का युद्ध कब हुआ था ? ( )
  2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन किसने चलाया था? ( )
  3. महाभारत ग्रन्थ की रचना किसने की थी ? ( )
  4. उत्तर प्रदेश का वर्तमान राज्यपाल कौन है ? ( )

3. पूरक परीक्षण :
इस परीक्षण में छात्र वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति करते हैं।
निर्देश :
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

  1. भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति ………….. करता है।
  2. मुख्यमन्त्री विधानसभा के ………….. का नेता होता है।
  3. मूल अधिकारों की रक्षा …………..करता है।
  4. राज्य व्यवस्थापिका के उच्च सदन को …………..कहते हैं।
  5. ‘कामायनी’ की रचना ………….. ने की थी।

4. बहुसंख्यक चुनाव या बहुविकल्पीय परीक्षण :
इस परीक्षण में छात्रों को दिये हुए अनेक उत्तरों में से ठीक उत्तर का चुनाव करना पड़ता है।
निर्देश :
सही कथन के सामने कोष्ठक में सही का चिह्न लगाओराज्य के प्रशासन का वास्तविक प्रधान

  1. राष्ट्रपति होता है।
  2. प्रधानमन्त्री होता है।
  3. राज्यपाल होता है।
  4. मुख्यमन्त्री होता है।

5. मिलान परीक्षण :
इस परीक्षण में छात्रों को दो पदों में मिलान करके कोष्ठक में सही पद लिखना पड़ता है।
निर्देश :
नीचे कुछ घटनाओं का उल्लेख किया जा रहा है। उनके सामने अव्यवस्थित रूप में उनसे सम्बन्धित तिथियाँ दी हुई हैं। प्रत्येक कोष्ठक में सम्बन्धित सही तिथि लिखो
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 1

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के गुण
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं|

1. विश्वसनीयता :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण का सबसे बड़ा गुण उसकी विश्वसनीयता (Reliability) है। इसमें ही परीक्षण में विभिन्न समय में प्राप्त अंकों की समानता रहती है, अर्थात् एक उत्तर को कितनी ही बार जाँचा जाए, उसमें  अन्तर की सम्भावना नहीं रहती।

2. वस्तुनिष्ठता :
यह परीक्षण वस्तुनिष्ठ होता है। इसमें परीक्षण के मूल्यांकन पर परीक्षक की मानसिक स्थिति, रुचि, अभिवृत्ति तथा छात्रों के सुलेख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसका मूल कारण। प्रश्नों के उत्तरों का निश्चित तथा छोटा होना है।

3. वैधता :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण का अन्य गुण है-उसकी वैधता (Validity)। ये परीक्षण उसी निर्धारित योग्यता का मापन करते हैं, जिसके लिए इनका निर्माण किया जाता है।

4. उपयोगिता :
इन परीक्षणों के परिणामों के आधार पर छात्रों को शैक्षणिक तथा व्यावसायिक निर्देशन दिया जा सकता है।

5. विभेदीकरण :
ये परीक्षण प्रतिभाशाली और मन्दबुद्धि बालकों के मध्य भेद को स्पष्ट कर देते हैं।

6. व्यापकता :
इन परीक्षणों में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पढ़ाये जाने वाले समस्त प्रकरणों को शामिल किया जा सकता है। इस प्रकार बालकों द्वारा किये गए सम्पूर्ण अर्जित ज्ञान का मापन सम्भव हो जाता है।

7. मूल्यांकन में सुविधा :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण का मूल्यांकन बहुत सुविधाजनक ढंग से हो जाता है, क्योंकि उत्तर निश्चित और छोटे होते हैं। दूसरे, इस प्रणाली में अंकन, उत्तर की तालिका की सहायता से किया जा सकता है।

8. ज्ञान की यथार्थता का परीक्षण :
निबन्धात्मक परीक्षण में छात्र प्रभावशाली भाषा का प्रयोग करके अपने ज्ञान की कमी को भी छिपा जाता है, परन्तु वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि छात्रों को अति संक्षिप्त उत्तर देने पड़ते हैं। अतः वे अपनी अज्ञानता को भाषा के आडम्बर में नहीं छिपा सकते। इस प्रकार इन परीक्षणों में छात्रों के ज्ञान की यथार्थ जाँच की जाती है।

9. धन की बचत :
इन परीक्षणों में छात्रों को कम लिखना पड़ता है। प्रायः दो या तीन पृष्ठों की पुस्तिकाएँ पर्याप्त होती हैं। इस प्रकार धन की काफी बचत हो जाती है।

10. समय की बचत :
इस प्रणाली में छात्रों व अध्यापक दोनों के समय की बचत होती है, क्योंकि छात्रों को कम लिखना पड़ता है और अध्यापक को कम जाँचना पड़ता है।

11. रटने की प्रवृत्ति का अन्त :
इस प्रणाली का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह रटने की प्रवृत्ति का अन्त कर देती है। इसमें प्रश्नों के उत्तरों को रटने से काम नहीं चलता। विषय-वस्तु को ध्यान से पढ़ना आवश्यक हो जाता है।

12. छात्रों का सन्तोष :
निबन्धात्मक परीक्षण से छात्रों को सन्तोष नहीं मिलती, क्योंकि छात्रों का मूल्यांकन ठीक प्रकार से नहीं हो पाता और उन्हें ठीक प्रकार से अंक नहीं मिलते। परन्तु वस्तुनिष्ठ परीक्षण में छात्रों को ठीक अंक मिलते हैं, जिनसे उनको पूर्ण सन्तोष मिलता है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के दोष
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में कुछ दोष भी पाये जाते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है

1.निर्माण में कठिनाई :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण का निर्माण निबन्धात्मक परीक्षण की तुलना में अधिक कठिनाई से होता है। छोटे-छोटे प्रश्नों के निर्माण में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं।

2. अपूर्ण सूचना :
इन परीक्षणों से छात्रों के ज्ञान की अपूर्ण सूचना प्राप्त होती है, क्योंकि छोटे-छोटे उत्तरों द्वारा पूर्ण ज्ञान की जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती।

3. आलोचनात्मक तथ्यों व समस्याओं की उपेक्षा :
इन परीक्षणों का सबसे बड़ा दोष यह है। कि इनमें आलोचनात्मक तथ्यों तथा विभिन्न समस्याओं की पूर्ण उपेक्षा की जाती है। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रश्नों के उत्तर पूर्णतया निश्चित होते हैं। अत: उनमें आलोचना तथा समस्या समाधान का कोई स्थान नहीं होता, परन्तु राजनीति, इतिहास, साहित्य आदि का अध्ययन बिना आलोचना तथा समस्या विवेचन के पूर्ण नहीं हो सकता।

4. उच्च मानसिक योग्यताओं को मापन असम्भव :
इन परीक्षणों के द्वारा छात्रों की चिन्तन, मनन तथा तर्क शक्ति की जाँच सम्भव नहीं है। इस प्रकार उनकी उच्च मानसिक योग्यताओं का मापन सम्भव नहीं हो पाता।

5. केवल तथ्यात्मक ज्ञान की जाँच :
इन परीक्षणों द्वारा केवल तथ्यात्मक ज्ञान का पता चलता है। शेष क्षमताओं का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

6. भाव प्रकाशन की अवरुद्धता :
इन परीक्षणों में छात्रों की भाव प्रकाशन की शक्ति को विकसित होने का अवसर नहीं मिलता, क्योंकि वे अति संक्षिप्त उत्तर देते हैं।

7. अनुमान को प्रोत्साहन :
इस प्रकार के परीक्षणों से छात्रों में अनुमान लगाने की प्रवृत्ति का विकास होता है। वे विचार तथा बुद्धि का प्रयोग न करके केवल अनुमान से ही ‘सत्य’ या ‘अंसत्य’ पर चिह्न लगा देते हैं।

8. भाषा व शैली की उपेक्षा :
इन परीक्षणों में भाषा व शैली की पूर्ण उपेक्षा की जाती है। अत: छात्रों की भाषा व शैली का उचित दिशा में विकास नहीं हो पाता।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उपलब्धि परीक्षणों के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। [2012, 13]
उत्तर :
उपलब्धि परीक्षण के निम्नांकित उद्देश्य हैं।

  1. छात्रों की क्षमताओं तथा योग्यताओं का ज्ञान कराना।
  2. यह पता लगाना कि बालकों ने अर्जित ज्ञान को किस सीमा तक आत्मसात् किया है।
  3. बालकों को अर्जित ज्ञान को उचित ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित करना।।
  4. बालकों की उपलब्धि के सामान्य स्तर का निर्धारण करना।
  5. ज्ञानार्जन के क्षेत्र में बालकों की वास्तविक स्थिति का पता लगाना।
  6. बालकों के ज्ञान की सीमा का मापन करना।
  7. यह ज्ञात करना कि बालक पाठ्यक्रम के लक्ष्यों या उद्देश्यों की ओर अग्रसर हो रहे हैं या नहीं।
  8. यह पता लगाना कि अध्यापक का शिक्षण किस सीमा तक सफल रहा है।
  9. प्रशिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करना।

प्रश्न 2
बुद्धि परीक्षण तथा उपलब्धि परीक्षण में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2007, 10, 13, 15]
उत्तर :
बुद्धि परीक्षण तथा उपलब्धि परीक्षण में निम्नलिखित अन्तर हैं
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 2
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 3

प्रश्न 3
वस्तुनिष्ठ परीक्षण और निबन्धात्मक परीक्षण में अन्तर बताइए। [2014, 15]
उत्तर :
वस्तुनिष्ठ परीक्षण में तथ्यों पर आधारित उत्तर दिये जाते हैं। इसमें उत्तरदाता की रुचि, पसन्द या दृष्टिकोण का कोई स्थान नहीं होता। इससे भिन्न निबन्धात्मक के परीक्षण में उत्तरदाता के दृष्टिकोण, पसन्द, रुचि एवं शैली आदि को समुचित महत्त्व दिया जाता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षण में अति संक्षिप्त तथा निश्चित उत्तर देना होता है, जबकि निबन्धात्मक परीक्षण में विस्तृत उत्तर देने को प्रावधान होता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षण में मूल्यांकन सरल तथा निष्पक्ष होता है, जबकि निबन्धात्मक परीक्षण में मूल्यांकन कठिन होता है तथा इसमें पक्षपात की पर्याप्त सम्भावना होती है। इसमें परीक्षणकर्ता के व्यक्तिगत दृष्टिकोण का भी महत्त्व होता है।

प्रश्न 4
निबन्धात्मक परीक्षण से क्या आशय है?
उत्तर :
वर्तमान औपचारिक शिक्षा :
प्रणाली के अन्तर्गत ज्ञानार्जन के लिए मुख्य रूप से निबन्धात्मक परीक्षणों को अपनाया जाता है। निबन्धात्मक परीक्षण निश्चित रूप से लिखित परीक्षा के रूप में आयोजित किये जाते हैं। इस प्रणाली के अन्तर्गत किसी भी विषय के निर्धारित पाठ्यक्रम से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों को एक प्रश्न-पत्र के रूप में एकत्र कर लिया जाता है तथा उनमें से कुछ प्रश्नों का विस्तृत उत्तर लिखित रूप में एक निर्धारित समयावधि में देना होता है।

परीक्षणकर्ता उत्तर :
पुस्तिका को पढ़कर छात्र/छात्रा के ज्ञानार्जन स्तर का मूल्यांकन कर लेता है तथा अंक प्रदान कर देता है। इस परीक्षण के भी कुछ गुण-दोष हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह परीक्षण-प्रणाली एक व्यक्तिनिष्ठ परीक्षण प्रणाली है तथा इसके माध्यम से छात्र/छात्रा के सम्पूर्ण ज्ञानार्जन का सही तथा तटस्थ मूल्यांकन नहीं हो पाता।

प्रश्न 5
निबन्धात्मक परीक्षण प्रणाली में सुधार के लिए कुछ सुझाव दीजिए।
उत्तर :
निबन्धात्मक परीक्षा के दोषों को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझावों को अपनाया जा सकता है

  1. प्रश्नों का निर्माण सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर किया जाए।
  2. परीक्षा प्रश्न-पत्र में पहले सरल और बाद में कठिन प्रश्न रखे जाएँ।
  3. समस्त प्रश्न अनिवार्य हों।
  4. परीक्षण को शिक्षण प्रक्रिया का साधन माना जाए, साध्य नहीं।
  5. निबन्धात्मक प्रश्नों के साथ वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को भी रखा जाए।
  6. मौखिक परीक्षा को भी स्थान दिया जाए।
  7. परीक्षाओं द्वारा यह जानने का प्रयास न किया जाए कि छात्र कितना नहीं जानता, वरन् यह जानने का प्रयास किया जाए कि छात्र कितना जानता है।
  8. परीक्षकों का यह स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिए कि वे किस बात की परीक्षा लेना चाहते हैं।
  9. अंक प्रदान करने के स्थान पर श्रेणियों का प्रयोग किया जाए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उपलब्धि-लब्धि से क्या आशय है?
उत्तर :
बौद्धिक परीक्षणों के आधार पर बौद्धिक योग्यता की गणना करने के लिए बुद्धि-लब्धि की अवधारणा विकसित की गयी थी तथा इसी अवधारणा के समानान्तर एक अन्य अवधारणा निर्धारित की गई, जिसे ज्ञान-लब्धि या उपलब्धि-लब्धि के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 2
विद्यालयों में उपलब्धि परीक्षण का क्या उपयोग है?
उत्तर :
विद्यालय शिक्षा के औपचारिक अभिकरण हैं। विद्यालयों में योजनाबद्ध ढंग से नियमित रूप से शिक्षण-कार्य होता है। छात्रों द्वारा ग्रहण की गयी शिक्षा के मूल्यांकन के लिए निर्धारित परीक्षणों को ही उपलब्धि परीक्षण कहते हैं। उपलब्धि परीक्षण से छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान एवं योग्यता का तटस्थ मूल्यांकन किया जाता है। छात्रों को अगली कक्षा में भेजने के लिए तथा शैक्षिक योग्यता का प्रमाण-पत्र प्रदान करने के लिए उपलब्धि परीक्षण ही सर्वाधिक आवश्यक एवं उपयोगी होता है।

प्रश्न 3
उपलब्धि परीक्षणों के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2014, 15]
उत्तर :
डगलस (Douglas) तथा हालैंड (Holland) ने उपलब्धि परीक्षाओं का विभाजन निम्नवत् किया है

    1. प्रामाणिक परीक्षण (Standardized Tests)।
    2. शिक्षक निर्मित परीक्षण (Teacher Made Tests)।
      • आत्मनिष्ठ परीक्षण (Subjective Tests)।
      • वस्तुनिष्ठ परीक्षण (Objective Tests)।
        • सौखिक परीक्षण (Objective Tests)।
        • र्निबन्धात्मक परीक्षण (Essay Type Tests)।

प्रश्न 4
मौखिक परीक्षण से क्या आशय है?
उत्तर :
उपलब्धि या ज्ञानार्जन परीक्षण का प्राचीनतम तथा सर्वाधिक लोकप्रिय स्वरूप मौखिक परीक्षण रही है। इस प्रकार के परीक्षण के अन्तर्गत परीक्षणकर्ता अर्थात् शिक्षक या अध्यापक द्वारा छात्र/छात्रा से विषय से सम्बन्धित कुछ प्रश्न आमने-सामने बैठकर पूछे जाते हैं। छात्र/छात्रा द्वारा दिए । गए उत्तरों की शुद्धता/अशुद्धता या ठीक/गलत के आधार पर उसके ज्ञान का समुचित मूल्यांकन कर लिया जाता है।

यह सत्य है कि यह एक प्रत्यक्ष परीक्षण है तथा इस परीक्षण के अन्तर्गत परीक्षणकर्ता से पूछे गए प्रश्नों के उत्तर के साथ-ही-साथ कुछ अन्य उपायों द्वारा भी परीक्षादाता के ज्ञान का अनुमान लगा सकता है। परन्तु इस परीक्षण के कुछ दोष भी हैं; यथा-छात्र/छात्रा का घबरा जाना या भयभीत हो जाना, वाणी-दोष या आत्म-विश्वास की कमी के कारण सही उत्तर न दे पानी।

प्रश्न 5
क्रियात्मक परीक्षण से क्या आशय है? [2014, 15]
उत्तर :
छात्र-छात्राओं के उपलब्धि परीक्षण के लिए क्रियात्मक परीक्षणों को भी अपनाया जाता है। इन परीक्षणों के अन्तर्गत विषय से सम्बन्धित कुछ कार्यों को यथार्थ रूप से करवाया जाता है तथा परीक्षमादाता द्वारा किए गए कार्यों को देखकर उनके ज्ञानार्जन का समुचित मूल्यांकन कर लिया जाता है। सामान्य रूप से क्रियात्मक परीक्षणों के अन्तर्गत विषय से सम्बन्धित कुछ प्रश्न मौखिक रूप से भी पूछे जाते हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सभी विषयों में क्रियात्मक परीक्षणों को सफलतापूर्वक आयोजन नहीं किया जा सकता। केवल प्रयोगात्मक विषयों का परीक्षण ही क्रियात्मक परीक्षण के माध्यम से किया जा सकता है। शुद्ध सैद्धान्तिक विषयों का परीक्षण इस आधार पर नहीं किया जा सकता।

प्रग 6
वस्तुनिष्ठ परीक्षण से क्या आशय है?
उत्तर :
निबन्धात्मक परीक्षण-प्रणाली के दोषों के निवारण के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षण को प्रारम्भ किया गया है। इस परीक्षण के अन्तर्गत ज्ञानार्जन के मूल्यांकन के लिए विषय से सम्बन्धित अनेक ऐसे प्रश्नों को संकलित किया जाता है जिनका एक ही शुद्ध उत्तर होता है। इन प्रश्नों में उत्तरदाता की रुचि, पसन्द, इच्छा या दृष्टिकोण का कोई महत्त्व नहीं होता। वस्तुनिष्ठ परीक्षण एक तटस्थ परीक्षण-प्रणाली है। इसमें पक्षपात या पूर्वाग्रह के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। लेकिन इस परीक्षण के भी कुछ दोष एवं सीमाएँ हैं जैसे कि भाषा-शैली तथा लेखन-क्षमता का मूल्यांकन करना सम्भव नहीं है।

प्रश्न 7
निबन्धात्मक परीक्षण (परीक्षाओं) के कोई पाँच गुण लिखिए। या निबन्धात्मक परीक्षण के क्या लाभ हैं। [2011]
उत्तर :
निबन्धात्मक परीक्षाओं के पाँच गुण निम्नलिखित हैं

  1. इन परीक्षाओं का आयोजन सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
  2. इन परीक्षाओं के प्रश्नों को सुगमता से तैयार किया जा सकता है।
  3. यह विधि समस्त विषयों के लिए उपयोगी है।
  4. इसमें बालक को पूर्ण अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रहती है।
  5. यह प्रणाली बालकों के लिए भी सुगम होती है, क्योंकि प्रश्न-पत्र समझने में उन्हें विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उपलब्धि परीक्षण से क्या आशय है? (2015)
उत्तर :
छात्रों द्वारा किए गए ज्ञानार्जन के मूल्यांकन के लिए निर्धारित किए गए परीक्षणों को उपलब्धि परीक्षण कही जाती है।

प्रश्न 2
विद्यालय में उपलब्धि परीक्षण का प्रमुख उद्देश्य क्या होता है?
उत्तर :
विद्यालय में उपलब्धि परीक्षण का प्रमुख उद्देश्य छात्र को अगली कक्षा में भेजने का निर्णय लेना होता है।

प्रश्न 3
उपलब्धि परीक्षण के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
उपलब्धि परीक्षण के मुख्य प्रकार हैं-मौखिक परीक्षण, क्रियात्मक परीक्षण, निबन्धात्मक परीक्षण तथा वस्तुनिष्ठ परीक्षण।

इन 4
कौन-सा परीक्षण उपलब्धि-परीक्षण का प्राचीनतम प्रकार है?
उत्तर :
मौखिक परीक्षण उपलब्धि-परीक्षण का प्राचीनतम प्रकार है।

प्रश्न 5
किस परीक्षा-प्रणाली में विद्यार्थी प्रश्नों का उत्तर निबन्ध के रूप में देते हैं?
उत्तर :
निबन्धात्मक परीक्षण के अन्तर्गत विद्यार्थी प्रश्नों के उत्तर निबन्ध के रूप में देते हैं।

प्रथम 6
निम्न सूत्र से क्या निकालते हैं। [2009]
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 4
उत्तर :
इस सूत्र से शिक्षा-लब्धि ज्ञात करते हैं।

प्रश्न 7
विश्वसनीयता और वैधता किस प्रकार के परीक्षण की मुख्य विशेषताएँ हैं ?
उत्तर :
विश्वसनीयता और वैधता वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की मुख्य विशेषताएँ हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
कक्षा-शिक्षण के परिणामस्वरूप किए गए ज्ञानार्जन का मूल्यांकन किया जाता है
(क) बुद्धि परीक्षण द्वारा
(ख) अभिरुचि परीक्षण द्वारा
(ग) उपलब्धि परीक्षण द्वारा
(घ) बिना किसी परीक्षण द्वारा
उत्तर :
(ग) उपलब्धि परीक्षण द्वारा

प्रश्न 2
ज्ञान आयु (A.A.)
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 5
उत्तर :
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests image 6

प्रश्न 3
निबन्धात्मक परीक्षण का गुण है।
(क) विचारों को प्रस्तुत करने की छूट
(ख) प्रश्न-पत्र का सरलता से निर्माण सम्भव
(ग) समग्र विधि को अपनाया जाता है।
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 4
निबन्धात्मक परीक्षण का दोष है।
(क) यान्त्रिक प्रणाली
(ख) संयोग पर निर्भरता
(ग) दोषपूर्ण मूल्यांकन पद्धति
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 5
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का गुण है।
(क) छात्र सन्तुष्ट रहते हैं
(ख) विश्वसनीयता
(ग) समय की बचत
(घ) रटने को प्राथमिकता
उत्तर :
(ख) विश्वसनीयता

प्रश्न 6
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का गुण नहीं है।
(क) कम लिखना-पढ़ना
(ख) विषय को सम्पूर्ण ज्ञान आवश्यकता है।
(ग) अपनी रुचि एवं दृष्टिकोण से उत्तर देना।
(घ) सुलेख का कोई महत्त्व नहीं
उत्तर :
(ग) अपनी रुचि एवं दृष्टिकोण से उत्तर देना

प्रश्न 7
वस्तुनिष्ठ परीक्षण से हम माप कर सकते हैं। [2015]
(क) उपलब्धि की
(ख) विचार करने की प्रक्रिया की
(ग) तर्कशक्ति की
(घ) लेखन कौशल की
उत्तर :
(ग) तर्कशक्ति की

प्रश्न 8
“उपलब्धि-परीक्षा, बालक की वर्तमान योग्यता अथवा किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञान की सीमा को मापन करती है। यह परिभाषा है
(क) थॉर्नडाइक की
(ख) टरमन की
(ग) गैरीसन की
(घ) बिने की
उत्तर :
(ग) गैरीसन की।

प्रश्न 9
जिस परीक्षा में छात्रों को उत्तर विस्तृत रूप से लिखकर देने पड़ते हैं, उस परीक्षा को कहते हैं
(क) वस्तुनिष्ठ परीक्षा
(ख) मौखिक परीक्षा
(ग) निबन्धात्मक परीक्षा
(घ) प्रयोगात्मक परीक्षा
उत्तर :
(ग) निबन्धात्मक परीक्षा

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests (उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 24 Achievement and Achievement Tests (उपलब्धि तथा उपलब्धि परीक्षण), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.s