UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi कृषि सम्बन्धी निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name कृषि सम्बन्धी निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi कृषि सम्बन्धी निबन्ध

कृषि सम्बन्धी निबन्ध प्रवास

ग्राम्य विकास की समस्याएँ और उनका समाधान

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय कृषि की समस्याएँ
  • भारतीय किसानों की समस्याएँ और उनके समाधान [2009, 12, 15]
  • ग्रामीण कृषकों की समस्या [2012]
  • आज का किसान : समस्याएँ और समाधान [2014]
  • भारतीय किसान का जीवन [2014]
  • कृषक जीवन की त्रासदी [2015]
  • वर्तमान भारत में कृषकों की समस्या एवं समाधान (2016)

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. भारतीय कृषि का स्वरूप,
  3. भारतीय कृषि की समस्याएँ,
  4. समस्या का समाधान,
  5. ग्रामोत्थान हेतु सरकारी योजनाएँ,
  6. आदर्श ग्राम की कल्पना,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-प्राचीन काल से ही भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है। भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनता गाँवों में निवास करती है। इस जनसंख्या का अधिकांश भाग कृषि पर ही निर्भर है। कृषि ने ही भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विशेष ख्याति प्रदान की है। भारत की सकल राष्ट्रीय आय का लगभग 30 प्रतिशत कृषि से ही आता है। भारतीय समाज को संगठन और संयुक्त परिवार-प्रणाली आज के युग में कृषि व्यवसाय के कारण ही अपना महत्त्व बनाये हुए है। आश्चर्य की बात यह है कि हमारे देश में कृषि बहुसंख्यक जनता का मुख्य और महत्त्वपूर्ण व्यवसाय होते हुए भी बहुत ही पिछड़ा हुआ और अवैज्ञानिक है। जब तक भारतीय कृषि में सुधार नहीं होता, तब तक भारतीय किसानों की स्थिति में सुधार की कोई सम्भावना नहीं और भारतीय किसानों की स्थिति में सुधार के पूर्व भारतीय गाँवों के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भारतीय कृषि, कृषक और गाँव तीनों ही एक-दूसरे पर अवलम्बित हैं। इनके उत्थान और पतन, समस्याएँ और समाधान भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

भारतीय कृषि का स्वरूप-भारतीय कृषि और अन्य देशों की कृषि में बहुत अन्तर है। कारण अन्य देशों की कृषि वैज्ञानिक ढंग से आधुनिक साधनों द्वारा की जाती है, जब कि भारतीय कृषि अवैज्ञानिक और अविकसित है। भारतीय कृषक आधुनिक तरीकों से खेती करना नहीं चाहते और परम्परागत कृषि पर ही आधारित हैं। इसके साथ-ही भारतीय कृषि का स्वरूप इसलिए भी अव्यवस्थित है कि यहाँ पर कृषि प्रकृति । की उदारता पर निर्भर है। यदि वर्षा ठीक समय पर उचित मात्रा में हो गयी तो फसल अच्छी हो जाएगी अन्यथा बाढ़ और सूखे की स्थिति में सारी की सारी उपज नष्ट हो जाती है। इस प्रकार प्रकृति की अनिश्चितता पर निर्भर होने के कारण भारतीय कृषि सामान्य कृषकों के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं है।

भारतीय कृषि की समस्याएँ-आज के विज्ञान के युग में भी कृषि के क्षेत्र में भारत में अनेक समस्याएँ विद्यमान हैं, जो कि भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं। भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याओं में सामाजिक, आर्थिक और प्राकृतिक कारण हैं। सामाजिक दृष्टि से भारतीय कृषक की दशा अच्छी नहीं है। अपने शरीर की चिन्ता न करते हुए सर्दी, गर्मी सभी ऋतुओं में वह अत्यन्त कठिन परिश्रम करता है तब भी उसे पर्याप्त लाभ नहीं हो पाता। भारतीय किसान अशिक्षित होता है। इसका कारण आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार का न होना है। शिक्षा के अभाव के कारण वह कृषि में नये वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग नहीं कर पाता तथा अच्छे खाद और बीज के बारे में भी नहीं जानता। कृषि करने के आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों के विषय में भी उसका ज्ञान शून्य होता है तथा आज भी वह प्रायः पुराने ढंग के ही खाद और बीजों का प्रयोग करता है। भारतीय किसानों की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त शोचनीय है। वह आज भी महाजनों की मुट्ठी में जकड़ा हुआ है। प्रेमचन्द ने कहा था, “भारतीय किसान ऋण में ही जन्म लेता है, जीवन भर ऋण ही चुकाता रहता है और अन्तत: ऋणग्रस्त अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।’ धन के अभाव में ही वह उन्नत बीज, खाद और कृषि-यन्त्रों का प्रयोग नहीं कर पाता। सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण वह प्रकृति पर अर्थात् वर्षा पर निर्भर करता है।

प्राकृतिक प्रकोपों—बाढ़, सूखा, ओला आदि से भारतीय किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। अशिक्षित होने के कारण वह वैज्ञानिक विधियों का खेती में प्रयोग करना नहीं जानता और न ही उन पर विश्वास करना चाहता है। अन्धविश्वास, धर्मान्धता, रूढ़िवादिता आदि उसे बचपन से ही घेर लेते हैं। इस सबके अतिरिक्त एक अन्य समस्या है—भ्रष्टाचार की, जिसके चलते न तो भारतीय कृषि का स्तर सुधर पाता है और न ही भारतीय कृषक का। हमारे पास दुनिया की सबसे अधिक उपजाऊ भूमि है। गंगा-यमुना के मैदान में इतना अनाज पैदा किया जा सकता है कि पूरे देश का पेट भरा जा सकता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण दूसरे देश आज भी हमारी ओर ललचाई नजरों से देखते हैं। लेकिन हमारी गिनती दुनिया के भ्रष्ट देशों में होती है। हमारी तमाम योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। केन्द्र सरकार अथवा विश्व बैंक की कोई भी योजना हो, उसके इरादे कितने ही महान् क्यों न हों पर हमारे देश के नेता और नौकरशाह योजना के उद्देश्यों को धूल चटा देने की कला में माहिर हो चुके हैं। ऊसर भूमि सुधार, बाल पुष्टाहार, आँगनबाड़ी, निर्बल वर्ग आवास योजना से लेकर कृषि के विकास और विविधीकरण की तमाम शानदार योजनाएँ कागजों और पैम्फ्लेटों पर ही चल रही हैं। आज स्थिति यह है कि गाँवों के कई घरों में दो वक्त चूल्हा भी नहीं जलता है तथा ग्रामीण नागरिकों को पानी, बिजली, स्वास्थ्य, यातायात और शिक्षा की बुनियादी सुविधाएँ भी ठीक से उपलब्ध नहीं हैं। इन सभी समस्याओं के परिणामस्वरूप भारतीय कृषि का प्रति एकड़ उत्पादन अन्य देशों की अपेक्षा गिरे हुए स्तर का रहा है।

समस्या का समाधान--भारतीय कृषि की दशा को सुधारने से पूर्व हमें कृषक और उसके वातावरण की ओर दृष्टिपात करना चाहिए। भारतीय कृषक जिन ग्रामों में रहता है, उनकी दशा अत्यन्त शोचनीय है। अंग्रेजों के शासनकाल में किसानों पर ऋण का बोझ बहुत अधिक था। शनैः-शनै: किसानों की आर्थिक दशा और गिरती चली गयी एवं गाँवों का सामाजिक-आर्थिक वातावरण अत्यन्त दयनीय हो गया। अत: किसानों की स्थिति में सुधार तभी लाया जा सकता है, जब विभिन्न योजनाओं के माध्यम से इन्हें लाभान्वित किया जा सके। इनको अधिकाधिक संख्या में साक्षर बनाने हेतु एक मुहिम छेड़ी जाए। ऐसे ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम तैयार किये जाएँ, जिनसे हमारी किसान कृषि के आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों से अवगत हो सके।

ग्रामोत्थान हेतु सरकारी योजनाएँ—ग्रामों की दुर्दशा से भारत की सरकार भी अपरिचित नहीं है। भारत ग्रामों का ही देश है; अत: उनके सुधारार्थ पर्याप्त ध्यान दिया जाता है। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा गाँवों में सुधार किये जा रहे हैं। शिक्षालय, वाचनालय, सहकारी बैंक, पंचायत, विकास विभाग, जलकल, विद्युत आदि की व्यवस्था के प्रति पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। इस प्रकार सर्वांगीण उन्नति के लिए भी प्रयत्न हो रहे हैं, किन्तु इनकी सफलता ग्रामों में बसने वाले निवासियों पर भी निर्भर है। यदि वे अपना कर्तव्य समझकर विकास में सक्रिय सहयोग दें, तो ये सभी सुधार उत्कृष्ट साबित हो सकते हैं। इन प्रयासों के बावजूद ग्रामीण जीवन में अभी भी अनेक सुधार अपेक्षित हैं।

आदर्श ग्राम की कल्पना-गाँधी जी की इच्छा थी कि भारत के ग्रामों का स्वरूप आदर्श हो तथा उनमें सभी प्रकार की सुविधाओं, खुशहाली और समृद्धि का साम्राज्य हो। गाँधी जी का आदर्श गाँव से अभिप्राय एक ऐसे गाँव से था, जहाँ पर शिक्षा का सुव्यवस्थित प्रचार हो; सफाई, स्वास्थ्य तथा मनोरंजन की सुविधाएँ हो; सभी व्यक्ति प्रेम, सहयोग और सद्भावना के साथ रहते हों; रेडियो, पुस्तकालय, पोस्ट ऑफिस आदि की सुविधाएँ हों; भेदभाव, छुआछूत आदि की भावना न हो; तथा लोग सुखी और सम्पन्न हों। परन्तु आज भी हम देखते हैं कि उनका स्वप्न मात्र स्वप्न ही रह गया है। आज भी भारतीय गाँवों की दशा अच्छी नहीं है। चारों ओर बेरोजगारी और निर्धनता का साम्राज्य है। गाँधी जी को आदर्श ग्राम तभी सम्भव है। जब कृषि जो कि ग्रामवासियों का मुख्य व्यवसाय है, की स्थिति में सुधार के प्रयत्न किये जाएँ और कृषि से सम्बन्धित सभी समस्याओं का यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र निराकरण किया जाए।

उपसंहार-ग्रामों की उन्नति भारत के आर्थिक विकास में अपना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। भारत सरकार ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् गाँधी जी के आदर्श ग्राम की कल्पना को साकार करने का यथासम्भव प्रयास किया है। गाँवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई आदि की व्यवस्था के प्रयत्न किये हैं। कृषि के लिए अनेक सुविधाएँ; जैसे-अच्छे बीज, अच्छे खाद, अच्छे उपकरण और साख एवं सुविधाजनक ऋण-व्यवस्था आदि देने का प्रबन्ध किया गया है। इस दशा में अभी और सुधार किये जाने की आवश्यकता है। वह दिन दूर नहीं है जब हम अपनी संस्कृति के मूल्य को पहचानेंगे और एक बार फिर उसके सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करेंगे। उस समय हमारे स्वर्ग से सुन्दर देश के वैसे ही गाँव अँगूठी में जड़े नग की तरह सुशोभित होंगे और हम कह सकेंगे–

हमारे सपनों का संसार, जहाँ पर हँसता हो साकार,
जहाँ शोभा-सुख-श्री के साज, किया करते हैं नित श्रृंगार।
यहाँ यौवन मदमस्त ललाम, ये हैं वही हमारे ग्राम ॥

भारत में वैज्ञानिक कृषि

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय विज्ञान एवं कृषि
  • वैज्ञानिक विधि अपनाएँ : अधिक अन्न उपजाएँ।
  • भारत का किसान और विज्ञान [2011]
  • भारतीय कृषि एवं विज्ञान [2014]
  • व्यावसायिक कृषि का प्रसार : किसान का आधार [2014]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रजनन : कृषि की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि,
  3. विज्ञान की नयी तकनीकों के प्रयोग का सुखद परिणाम,
  4. उत्पादन के भण्डारण और भू-संरक्षण के लिए विज्ञान की उपादेयता,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना किसान और खेती इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। इसलिए सच ही कहा गया है। कि हमारे देश की समृद्धि का रास्ता खेतों और खलिहानों से होकर गुजरता है; क्योंकि यहाँ की दो-तिहाई जनता कृषि-कार्य में संलग्न है। इस प्रकार हमारी कृषि-व्यवस्था पर ही देश की समृद्धि निर्भर करती है और कृषि-व्यवस्था को विज्ञान ने एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है, जिसके कारण पिछले दशकों में आत्मनिर्भरता की स्थिति तक उत्पादन बढ़ा है। इस वृद्धि में उन्नत किस्म के बीजों, उर्वरकों, सिंचाई के साधनों, जल-संरक्षण एवं पौध-संरक्षण का उल्लेखनीय योगदान रहा है और यह सब कुछ विज्ञान की सहायता से ही सम्भव हो सका है। इस प्रकार विज्ञान और कृषि आज एक-दूसरे के पूरक हो गये हैं।

मनुष्यों को जीवित रहने के लिए खाद्यान्न, फल और सब्जियाँ चाहिए। ये सभी चीजें कृषि से ही प्राप्त होंगी। दूसरी ओर किसानों को अपनी कृषि की उपज बढ़ाने के लिए नयी तकनीक चाहिए, उन्नत किस्म के बीज चाहिए, उर्वरक और सिंचाई के साधनों के अलावा बिजली भी चाहिए। विज्ञान का ज्ञान ही उन्हें यह सब उपलब्ध करा सकता है।

प्रजनन : कृषि की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि–चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने वित्तीय वर्ष 1999-2000 में गेहूँ की चार नयी प्रजातियाँ विकसित कीं। कृषि वैज्ञानिक प्रोफेसर जियाउद्दीन अहमद के अनुसार, ‘अटल’, ‘नैना’, ‘गंगोत्री’ एवं ‘प्रसाद’ नाम की ये प्रजातियाँ रोटी को और अधिक स्वादिष्ट बनाने में सक्षम होंगी। पहली प्रजाति-के-9644 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम से जोड़कर ‘अटल’ नाम दिया गया है, जिन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ के साथ ‘जय विज्ञान’ जोड़कर एक नया नारा दिया है।

यह गेहूँ ऐच्छिक पौधों के प्रकार के साथ, वर्षा की विविध स्थितियों में भी श्रेयस्कर उत्पादक स्थितियाँ सँजोये रखेगा। हरी पत्ती और जल्दी पुष्पित होने वाली इस प्रजाति का गेहूँ कड़े दाने वाला। होगा। इसमें अधिक उत्पादकता के साथ अधिक प्रोटीन भी होगा। प्रजनन की विशिष्ट विधि का प्रयोग करके वैज्ञानिकों ने के-7903 नैना प्रजाति का विकास किया है, जो 75 से 100 दिन में पक जाता है। इसमें 12 प्रतिशत प्रोटीन होता है और इसकी उत्पादन-क्षमता 40 से 50 क्विटल प्रति हेक्टेयर है। इसी प्रकार विकसित के-9102 प्रजाति को गंगोत्री नाम दिया है। इसकी परिपक्वता अवधि 90 से 105 दिन के बीच घोषित की। गयी है। इसमें 13 प्रतिशत प्रोटीन होता है और 40 से 50 क्विटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन-क्षमता होती है। प्रजनन की विशिष्ट वैज्ञानिक विधि से ही ऐसा सम्भव हो पाया है।

विज्ञान की नयी तकनीकों के प्रयोग का सुखद परिणाम-आधारभूत वैज्ञानिक तकनीकें जो कृषि के क्षेत्र में प्रयुक्त हुई और हो रही हैं, उन्हें अब व्यापक स्वीकृति भी मिल रही है। ये वे आधार बनी हैं, जिससे कृषि की उपलब्धियाँ ‘भीख के कटोरे’ से आज निर्यात के स्तर तक पहुँच गयी हैं। कृषि में वृद्धि, विशेषकर पैदावार और उत्पादन में अनेक गुना वृद्धि, मुख्य अनाज की फसलों के उत्पादन में वृद्धि से सम्भव हुई है। पहले गेहूं की हरित क्रान्ति हुई और इसके बाद धान के उत्पादन में क्रान्ति आयी। विज्ञान की नयी-नयी तकनीकों के प्रयोग से ही यह सम्भव हो सका है।

उत्पादन के भण्डारण और भू-संरक्षण के लिए विज्ञान की उपादेयता-पर्याप्त मात्रा में उत्पादन के बाद उसके भण्डारण की भी आवश्यकता होती है। आलू, फल आदि के भण्डारण के लिए शीतगृहों एवं प्रशीतित वाहनों के लिए वैज्ञानिक विधियों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। फसलों के निर्यात के लिए साफ-सुथरी सड़कों, ट्रैक्टरों और ट्रकों का निर्माण विज्ञान के ज्ञान से ही सम्भव हो सका है, जिनकी आवश्यकता कृषकों के लिए होती है। इसके अलावा चीनी मिल, आटा मिल, चावल मिल, दाल मिल और तेल मिल की आवश्यकता पड़ती है। इन मिलों की स्थापना वैज्ञानिक विधि से ही हो सकती है। ट्यूबवेल एवं कृषि पर आधारित उद्योगों के लिए बिजली की आवश्यकता को वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर पूरा किया जा सकता है। इसी प्रकार खेत की मिट्टी की जाँच कराकर, विश्लेषण के परिणामों के आधार पर सन्तुलित उर्वरकों एवं जैविक खादों के प्रयोग के लिए भी विज्ञान के ज्ञान की ही आवश्यकता होती है।

उपसंहार—इस प्रकार विज्ञान और कृषि का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। भूमण्डलीकरण के युग में आज विज्ञान की सहायता के बिना कृषि और कृषक को उन्नत नहीं बनाया जा सकता। यह भी सत्य है कि जब तक गाँव की खेती तथा किसान की दशा नहीं सुधरती, तब तक देश के विकास की बात बेमानी ही कही जाएगी। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन 23 दिसम्बर को ‘किसान-दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा से कृषि और कृषक के उज्ज्वल भविष्य की अच्छी सम्भावनाएँ दिखाई देती हैं।

भारत में कृषि क्रान्ति एवं कृषक आन्दोलन

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. किसानों की समस्याएँ,
  3. कृषक संगठन व उनकी माँग,
  4. कृषक आन्दोलनों के कारण,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना–हमारा देश कृषि प्रधान है और सच तो यह है कि कृषि क्रिया-कलाप ही देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। ग्रामीण क्षेत्रों की तीन-चौथाई से अधिक आबादी अब भी कृषि एवं कृषि से संलग्न क्रिया-कलापों पर निर्भर है। भारत में कृषि मानसून पर आश्रित है और इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि प्रत्येक वर्ष देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा सूखे एवं बाढ़ की चपेट में आता है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था, भारतीय जन-जीवन का प्राणतत्त्व है। अंग्रेजी शासन-काल में भारतीय कृषि का पर्याप्त ह्रास हुआ।
किसानों की समस्याएँ-भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। भारत की अधिकांश जनता गाँवों में बसती है। यद्यपि किसान समाज का कर्णधार है किन्तु इनकी स्थिति अब भी बदतर है। उसकी मेहनत के अनुसार उसे पारितोषिक नहीं मिलता है। यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि-क्षेत्र का योगदान 30 प्रतिशत है, फिर भी भारतीय कृषक की दशा शोचनीय है।

देश की आजादी की लड़ाई में कृषकों की एक वृहत् भूमिका रही। चम्पारण आन्दोलन अंग्रेजों के खिलाफ एक खुला संघर्ष था। स्वातन्त्र्योत्तर जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ। किसानों को भू-स्वामित्व का अधिकार मिला। हरित कार्यक्रम भी चलाया गया और परिणामत: खाद्यान्न उत्पादकता में वृद्धि हुई; किन्तु इस हरित क्रान्ति का विशेष लाभ सम्पन्न किसानों तक ही सीमित रहा। लघु एवं सीमान्त कृषकों की स्थिति में कोई आशानुरूप सुधार नहीं हुआ।

आजादी के बाद भी कई राज्यों में किसानों को भू-स्वामित्व नहीं मिला जिसके विरुद्ध बंगाल, बिहार एवं आन्ध्र प्रदेश में नक्सलवादी आन्दोलन प्रारम्भ हुए।

कृषक संगठन व उनकी माँग-किसानों को संगठित करने का सबसे बड़ा कार्य महाराष्ट्र में शरद जोशी ने किया। किसानों को उनकी पैदावार का समुचित मूल्य दिलाकर उनमें एक विश्वास पैदा किया कि वे संगठित होकर अपनी स्थिति में सुधार ला सकते हैं। उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की दशा में बेहतर सुधार लाने के लिए एक आन्दोलन चलाया है और सरकार को इस बात का अनुभव करा दिया कि किसानों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। टिकैत के आन्दोलन ने किसानों के मन में कमोवेश यह भावना भर दी कि वे भी संगठित होकर अपनी आर्थिक उन्नति कर सकते हैं।

किसान संगठनों को सबसे पहले इस बारे में विचार करना होगा कि “आर्थिक दृष्टि से अन्य वर्गों के साथ उनका क्या सम्बन्ध है। उत्तर प्रदेश की सिंचित भूमि की हदबन्दी सीमा 18 एकड़ है। जब किसान के लिए सिंचित भूमि 18 एकड़ है, तो उत्तर प्रदेश की किसान यूनियन इस मुद्दे को उजागर करना चाहती है कि 18 एकड़ भूमि को सम्पत्ति-सीमा को आधार मानकर अन्य वर्गों की सम्पत्ति अथवा आय-सीमा निर्धारित होनी चाहिए। कृषि पर अधिकतम आय की सीमा साढ़े बारह एकड़ निश्चित हो गयी, किन्तु किसी व्यवसाय पर कोई भी प्रतिबन्ध निर्धारित नहीं हुआ। अब प्रौद्योगिक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी शनैः-शनैः हिन्दुस्तान में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती जा रही हैं। किसान आन्दोलन इस विषमता एवं विसंगति को दूर करने के लिए भी संघर्षरत है। वह चाहता है कि भारत में समाजवाद की स्थापना हो, जिसके लिए सभी प्रकार के पूँजीवाद तथा इजारेदारी का अन्त होना परमावश्यक है। यूनियन की यह भी माँग है कि वस्तु विनिमय के , अनुपात से कीमतें निर्धारित की जाएँ, न कि विनिमय का माध्यम रुपया माना जाए। यह तभी सम्भव होगा जब । उत्पादक और उपभोक्ता दोनों रूपों में किसान के शोषण को समाप्त किया जा सके। सारांश यह है कि कृषि उत्पाद की कीमतों को आधार बनाकर ही अन्य औद्योगिक उत्पादों की कीमतों को निर्धारित किया जाना चाहिए।”

किसान यूनियन किसानों के लिए वृद्धावस्था पेंशन की पक्षधर है। कुछ लोगों का मानना है कि किसान यूनियन किसानों का हित कम चाहती है, वह राजनीति से प्रेरित ज्यादा है। इस सन्दर्भ में किसान यूनियन का कहना है “हम आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक शोषण के विरुद्ध किसानों को संगठित करके एक नये समाज की संरचना करना चाहते हैं। आर्थिक मुद्दों के अतिरिक्त किसानों के राजनीतिक शोषण से हमारा तात्पर्य जातिवादी राजनीति को मिटाकर वर्गवादी राजनीति को विकसित करना है। आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से शोषण करने वालों के समूह विभिन्न राजनीतिक दलों में विराजमान हैं और वे अनेक प्रकार के हथकण्डे अपनाकर किसानों का मुंह बन्द करना चाहते हैं। कभी जातिवादी नारे देकर, कभी किसान विरोधी आर्थिक तर्क देकर, कभी देश-हित का उपदेश देकर आदि, परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि किसानों की उन्नति से ही भारत नाम का यह देश, जिसकी जनसंख्या का कम-से-कम 70% भाग किसानों का है, उन्नति कर सकता है। कोई चाहे कि केवल एक-आध प्रतिशत राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों, स्वयंभू समाजसेवियों तथा तथाकथित विचारकों की उन्नति हो जाने से देश की उन्नति हो जाएगी तो ऐसा सोचने वालों की सरासर भूल होगी।

यहाँ एक बात का उल्लेख करना और भी समीचीन होगा कि आर्थर डंकल के प्रस्तावों ने कृषक आन्दोलन में घी का काम किया है। इससे आर्थिक स्थिति कमजोर होगी और करोड़ों कृषक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गुलाम बन जाएँगे।

कृषक आन्दोलनों के कारण भारत में कृषक आन्दोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. भूमि सुधारों का क्रियान्वयन दोषपूर्ण है। भूमि का असमान वितरण इस आन्दोलन की मुख्य जड़ है।
  2. भारतीय कृषि को उद्योग को दर्जा न दिये जाने के कारण किसानों के हितों की उपेक्षा निरन्तर हो रही है।
  3. किसानों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का मूल्य-निर्धारण सरकार करती है जिसका समर्थन मूल्य बाजार मूल्य से नीचे रहता है। मूल्य-निर्धारण में कृषकों की भूमिका नगण्य है।
  4. दोषपूर्ण कृषि विपणन प्रणाली भी कृषक आन्दोलन के लिए कम उत्तरदायी नहीं है। भण्डारण की अपर्याप्त व्यवस्था, कृषि मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ावों की जानकारी न होने से भी किसानों को पर्याप्त आर्थिक घाटा सहना पड़ता है।
  5. बीजों, खादों, दवाइयों के बढ़ते दाम और उस अनुपात में कृषकों को उनकी उपज को पूरा मूल्य भी न मिल पाना अर्थात् बढ़ती हुई लागत भी कृषक आन्दोलन को बढ़ावा देने के लिए उत्तरदायी है।
  6. नयी कृषि तकनीक का लाभ आम कृषक को नहीं मिल पाता है।
  7. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पुलन्दा लेकर जो डंकल प्रस्ताव भारत में आया है, उससे भी किसान बेचैन हैं और उनके भीतर एक डर समाया हुआ है।
  8. कृषकों में जागृति आयी है और उनका तर्क है कि चूंकि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में उनकी महती भूमिका है; अत: धन के वितरण में उन्हें भी आनुपातिक हिस्सा मिलना चाहिए।

उपसंहार–विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं का अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि कृषि की हमेशा उपेक्षा हुई है; अतः आवश्यक है कि कृषि के विकास पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाए।

स्पष्ट है कि कृषक हितों की अब उपेक्षा नहीं की जा सकती। सरकार को चाहिए कि कृषि को उद्योग का दर्जा प्रदान करे। कृषि उत्पादों के मूल्य-निर्धारण में कृषकों की भी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। भूमि-सुधार कार्यक्रम के दोषों का निवारण होना जरूरी है तथा सरकार को किसी भी कीमत परे डंकल प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देना चाहिए और सरकार द्वारा किसानों की माँगों और उनके आन्दोलनों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism (राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism (राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 9
Chapter Name Nationalism and Internationalism
(राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism (राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
राष्ट्रीयता की परिभाषा दीजिए तथा इसके विभिन्न पोषक तत्वों की विवेचना कीजिए।
या
‘राष्ट्रीयता क्या है? इसके निर्माणक तत्त्व बताइए। [2011]
या
राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं? [2013, 15]
उत्तर
‘राष्ट्रीयता’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Nationality’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है, जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Natio’ शब्द से हुई है। इस शब्द से जन्म और जाति का बोध होता है। राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भावना है। यह लोगों को एक सूत्र में बाँधने का कार्य करती है। विभिन्न विद्वानों ने राष्ट्रीयता की परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं-

  1. एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार, ‘‘राष्ट्रीयता एक ऐसी मनोदशा को कहते हैं जिसमें व्यक्ति अपने राष्ट्र के प्रति उच्चतम भक्ति को अनुभव करता है।”
  2. मैकियावली के अनुसार, राष्ट्रीयता उस सक्रिय भावना को कहते हैं जो लोगों में एक साथ रहने से उत्पन्न होती है।”
  3. डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार, “राष्ट्रीयता की निश्चित परिभाषा देना कठिन है, परन्तु यह स्पष्ट है कि ऐतिहासिक गतिविधि में यह पृथक् अस्तित्व की उस चेतना का प्रतीक है जो सामान्य आदतों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, स्मृतियों, आकांक्षाओं, अवर्णनीय सांस्कृतिक सम्प्रदायों तथा हितों पर आधारित है।”
  4. हॉलैण्ड के अनुसार, “राष्ट्रीयता एक ऐसी आध्यात्मिक भावना है जो लोगों को राजनीतिक रूप में एकता के बन्धन में रहने के लिए प्रेरित करती है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर राष्ट्रीयता का अर्थ साधारण शब्दों में इस प्रकार बताया जा सकता है कि “राष्ट्रीयता उन लोगों का समूह है जो समान भाषा, समान जाति या वंश, समान साहित्य, समान इतिहास, समान रीति-रिवाजों, समान विचारधारा और समान राजनीतिक आकांक्षा आदि के आधार पर अपने को एक समझते हों और इसी प्रकार अपने को एक समझने वाले दूसरे लोगों को अलग मानते हों।”

राष्ट्रीयता के मुख्य निर्माणक तत्त्व
लोगों में राष्ट्रीयता के लिए आवश्यक एकता की भावना उत्पन्न करने में कई तत्त्व सहायक सिद्ध होते हैं। राष्ट्रीयता के मुख्य सहायक तत्त्व निम्नवत् हैं-

  1. मातृभूमि – प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृभूमि से लगाव होना स्वाभाविक है। इस लगाव के कारण ही वे आपस में एक भावना से बँधे रहते हैं।
  2. जातीय एकता – जिमर्न तथा ब्राइस जातीय एकता को राष्ट्रवाद के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान मानते हैं। एक ही जाति के लोगों में रीति-रिवाजों, धर्म तथा रहन-सहन की एकरूपता होती है, जिससे राष्ट्रीय भावना विकसित होती है।
  3. समान संस्कृति – एक देश में निवास करने वाले व्यक्तियों के मध्य समान परम्पराएँ, रीति-रिवाज, साहित्य एवं रहन-सहन की विधि एक-दूसरे को जोड़ने के लिए सीमेण्ट की तरह है।
  4. भाषायी एकता – भाषा की एकता भी राष्ट्रीयता के प्रारम्भिक विकास में सहयोगी होती है। भाषा से लोगों में पारस्परिक निकटता उत्पन्न होती है। समान आदर्श तथा समान संस्कृति को बढ़ावा मिलता है तथा राष्ट्रीय एकता में वृद्धि होती है, क्योंकि ये दोनों ही राष्ट्रीयता के आधार हैं।
  5. धार्मिक एकता – एक ही धर्म के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना शीघ्रता से उत्पन्न हो जाती है; अतः धर्म लोगों को एकता के सूत्र में पिरोकर राष्ट्रीयता के विकास में सहायक बनाता है।
  6. भौगोलिक एकता – भौगोलिक एकता से भी राष्ट्रीयता का विकास होता है। रुथनास्वामी ने ठीक ही कहा है कि “राजनीति हमें बाँटती है, धर्म हमारे बीच दीवारें खड़ी कर देते हैं, संस्कृति हमें एक-दूसरे से पृथक् करती है, किन्तु देश और धरती का प्रेम हमें एक सूत्र में बाँधता है। भौगोलिक एकता के विकास के अभाव में राष्ट्रीयता का विकास असम्भव है।”
  7. एक शासन – लम्बे समय तक एक ही शासन के अधीन रहने से भी राष्ट्रीयता की भावना का जन्म तथा विकास होता है।
  8. समान इतिहास – समान इतिहास भी राष्ट्रीयता के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। जिन लोगों का समान इतिहास होता है, उनमें एकता की भावना का होना स्वाभाविक है।
  9. समान हित – राष्ट्रीयता के विकास के लिए समान हित भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यदि लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक हित समान हों तो उनमें एकता की उत्पत्ति होना स्वाभाविक ही है।
  10. संघर्ष के समय राष्ट्रीय एकता – एक राष्ट्र में व्यक्ति परस्पर अधिक संगठित रहते हैं। वे साधारण मनमुटाव को भुलाकर आने वाली विपत्तियों का सामना करते हैं। भारत-पाक युद्ध के समय भारतीय राष्ट्रीय एकता इसका प्रमाण है।
  11. राज़नीतिक आकांक्षाएँ – राष्ट्रीयता के विकास में राजनीतिक आकांक्षाएँ महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। जब लोगों के समूह में विदेशी राज्य को समाप्त करने की भावना आती है तो राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न होती है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीयता की परिभाषा दीजिए। ‘राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्वों पर प्रकाश डालिए।
या
‘राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्वों तथा उनको दूर करने के उपायों का वर्णन कीजिए।
या
राष्ट्रीयता के विकास में बाधक किन्हीं दो तत्त्वों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
(संकेत–राष्ट्रीयता की परिभाषा हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तर देखें।
राष्ट्रीय भावना (राष्ट्रीयता) के विकास में बाधक तत्त्व राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्व निम्नवत् हैं-

1. अज्ञान और अशिक्षा – शिक्षा राज्य में रहने वाले मनुष्यों को मानसिक रूप से एक-दूसरे के समीप लाकर उनमें एक सामान्य दृष्टिकोण को जन्म देती है जिसका परिणाम राष्ट्रीयता होता है। इसके नितान्त विपरीत अज्ञान और अशिक्षा मानव मस्तिष्कों के मेल में बाधक सिद्ध होते हैं और इनके द्वारा राष्ट्रीयता के विकास में बाधा ही डाली जाती है।

2. आवागमन के अच्छे साधनों का अभाव – यदि आवागमन के अच्छे साधन न हों तो एक ही राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति एक-दूसरे से सम्पर्क स्थापित नहीं कर पाते। इसके परिणामस्वरूप उनमें वह एकता की भावना उत्पन्न नहीं हो पाती, जो राष्ट्रीयता का प्राण है।

3. साम्प्रदायिकता की भावना – जब व्यक्तियों के द्वारा अपने सम्प्रदाय विशेष को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है तो उसे साम्प्रदायिकता की भावना कहते हैं। साम्प्रदायिकता की यह भावना स्वाभाविक रूप से राष्ट्रीयता के विकास में बहुत अधिक बाधक होती है, क्योंकि साम्प्रदायिकता के बहाव में व्यक्ति राष्ट्रीय हितों को भूलकर सम्प्रदाय विशेष के हितों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं।

4. जातिवाद एवं भाषावाद – जातिवाद तथा भाषावाद भी राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक तत्त्व हैं। जातिवाद की भावना के कारण व्यक्ति केवल अपनी जाति के लोगों से ही स्नेह रखते हैं तथा अन्य जाति के लोगों से घृणा करते हैं। इससे राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं हो पाता। इसी प्रकार जब व्यक्ति अपनी भाषा को ही सब कुछ समझकर अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष का रुख अपना लेते हैं, तो इससे भाषायी उपद्रवों को बढ़ावा मिलता है और राष्ट्रीयता को आघात पहुँचता है।

5. प्रान्तीयता की भावना – प्रान्तीयता की भावना भी राष्ट्रीयता के विकास में बहुत बाधक होती है। इस भावना के कारण विभिन्न प्रान्तों में रहने वाले लोग अपने आपको राष्ट्र का नागरिक न समझकर एक प्रान्त का ही निवासी समझते हैं। इस भावना के कारण देश में क्षेत्रीय उपद्रव उठ खड़े होते हैं और देश अनेक टुकड़ों में बँट जाता है।

6. देशभक्ति का अभाव – जब एक देश के व्यक्ति अपने देश के प्रति भक्ति नहीं रखते, उन्हें अपने देश की सभ्यता और संस्कृति से लगाव नहीं होता तो राष्ट्रीय चेतना का उदय नहीं हो पाता और राष्ट्रीय भावना का विकास रुक जाता है।
राष्ट्रीयता के विकास के लिए आवश्यक है कि जातिवाद, भाषावाद, प्रान्तीयता और साम्प्रदायिकता की भावनाओं का त्याग कर स्वस्थ, उदार और विवेकपूर्ण देशभक्ति का मार्ग अपनाया जाये।

राष्ट्रवाद के मार्ग की बाधाओं को दूर करने के उपाय
राष्ट्रवाद के मार्ग की बाधाओं को दूर करने के लिए प्रमुख रूप से निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

1. संकुचित भावनाओं का त्याग और देश-प्रेम की प्रबल भावना – जाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्र विशेष के प्रति प्रेम में कोई बुराई नहीं है, यदि व्यक्ति इनकी तुलना में देश के प्रति प्रेम अर्थात् राष्ट्रवाद की भावना को अधिक प्रबल रूप में अपनाएँ। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में राष्ट्रवाद की भावना इतनी प्रबल होनी चाहिए कि वह जाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय और प्रदेश के प्रति प्रेम को राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधक न बनने दें।

2. देश के विभिन्न भागों में साहित्यिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक सम्पर्क – देश की एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, जिसके माध्यम से राष्ट्रवाद की भावनाओं का विकास हो। व्यक्तियों द्वारा न केवल राष्ट्रभाषा वरन् अपने से भिन्न प्रदेश की भाषा, साहित्य और संस्कृति का ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए। व्यक्तियों में अपने से भिन्न भाषा और संस्कृति रखने वाले व्यक्तियों के मनोभावों को समझने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, जिससे राष्ट्रवाद के मार्ग की मनोवैज्ञानिक बाधा दूर हो सके और राष्ट्रवाद की भावना पल्लवित हो सके।

3. शिक्षा का प्रचार-प्रसार और सही शिक्षा व्यवस्था – शिक्षित व्यक्तियों से उदार दृष्टि अपनाने की आशा की जा सकती है। अत: शिक्षा का बहुत तेजी से प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। शिक्षा व्यवस्था में मानवीय दृष्टिकोण को उदार बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए और व्यक्तियों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा के द्वारा नागरिकों में व्यक्तिगत और संकुचित स्वार्थों को नियन्त्रित करने और देशहित को सर्वोपरि समझने की प्रवृत्ति विकसित की जानी चाहिए।

4. आवागमन के अच्छे साधन – आवागमन के बहुत अच्छे और सुविधाजनक साधन विकसित किये जाने चाहिए, जिससे एक ही देश में विभिन्न क्षेत्रों के निवासी एक-दूसरे के अधिकाधिक सम्पर्क में आएँ और राष्ट्रवाद को अपना सकें।

5. सभी क्षेत्रों का सन्तुलित आर्थिक विकास – राष्ट्रीय सरकार द्वारा अपने देश के सभी क्षेत्रों का सन्तुलित और अधिकाधिक सम्भव सीमा तक आर्थिक विकास करने की नीति अपनायी जानी चाहिए, जिससे आर्थिक कारणों से किन्हीं क्षेत्रों में तीव्र असन्तोष न उत्पन्न हो सके।

6. दलीय राजनीति पर अंकुश – आज के लोकतान्त्रिक राज्यों में यह निर्बलता देखी गयी है। कि राजनीतिक दल शासन पर अधिकार करना या बनाये रखना अपना एकमात्र उद्देश्य बना लेते हैं और वे ‘दलीय राजनीति का खेल खेलते हुए राष्ट्रीय हितों को हानि पहुँचाते हैं। अतः शासक दल और विपक्षी दल सभी के द्वारा दलीय राजनीति पर अंकुश रखा जाना चाहिए और सत्ता प्राप्ति की तुलना में राष्ट्रवाद को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाना चाहिए।

7. न्यायपूर्ण और सुदृढ़ शासन – शासन ऐसा होना चाहिए जो उपद्रवी तत्त्वों और संकुचित प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने में समर्थ हो, लेकिन जिसके द्वारा अपनी शक्तियों को न्यायपूर्ण और संयमित रूप में ही प्रयोग किया जाये।

राष्ट्रवाद के विकास में शिक्षक, समाचार-पत्रों के सम्पादक, धार्मिक और सामाजिक जीवन का नेतृत्व करने वाले वर्ग, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं और नेता तथा देश के सर्वोच्च नेतृत्व-सभी की महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं। ये वर्ग अपनी भूमिकाएँ भली प्रकार सम्पादित करें, तभी राष्ट्रवाद की भावना का विकास और राष्ट्रवाद के भाव को उदार, लेकिन पूर्ण अंशों में बनाये रखने का कार्य सम्भव हो सकेगी।

प्रश्न 3.
राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2008, 10, 11, 14]
या
राष्ट्रवाद (राष्ट्रीयता) के गुण-दोषों की विवेचना कीजिए। [2014]
या
क्या राष्ट्रीयता विकास में बाधक है? [2014]
या
क्या उग्र राष्ट्रवाद विश्व-शान्ति के मार्ग की बाधा है? व्याख्या कीजिए। [2010]
या
‘राष्ट्रीयता एक अभिशाप है।’ स्पष्ट कीजिए। [2010]
उत्तर
(संकेत-राष्ट्रवाद हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तरे देखें]
राष्ट्रीयता के गुण
किसी भी राष्ट्र के विकास में राष्ट्रीयता एक वरदान का कार्य करती है। इस भावना के फलस्वरूप अनेक नये राष्ट्रों का निर्माण हुआ है। राष्ट्रीयता को यदि इसके सही अर्थों में अपनाया जाये तो यह अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और विश्व शान्ति की स्थापना में सहायक सिद्ध हो सकती है। राष्ट्रीयता के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. राजनीतिक एकता की शिक्षक – राष्ट्रीयता की भावना के कारण भी लोग मिलकर रहना सीखते हैं।
  2. देश-प्रेम का आधार – राष्ट्रीयता और देशभक्ति पर्यायवाची शब्द हैं। राष्ट्रीयता व्यक्तियों को अपने देश के प्रति प्रेम करना सिखाती है। जब व्यक्ति अपने देश से प्रेम करने लगते हैं तो वे देश की उन्नति करने का प्रयत्न भी करते हैं।
  3. राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए प्रेरक – राष्ट्रीयता की भावना से लोग आपसी भेदभाव को भूलकर देश को आजाद कराने के लिए संघर्ष और आन्दोलन करते हैं।
  4. संस्कृति के विकास में सहायक – राष्ट्रीयता की भावना भाषा, साहित्य, विज्ञान, कला तथा संस्कृति के विकास में बहुत सहायता प्रदान करती है।
  5. आर्थिक विकास में योगदान – राष्ट्रीयता ने राष्ट्र के विकास में बहुत योगदान दिया है। देश के विकास के लिए नागरिक, व्यापारी अच्छी वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जिससे उद्योग धन्धे और व्यापारों की उन्नति होती है और देश का आर्थिक विकास होता है।
  6. चरित्र-निर्माण में सहायक – राष्ट्रीयता व्यक्तियों के चरित्र-निर्माण में सहायक होती है। राष्ट्रीयता मनुष्य को अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्र के लिए त्याग करना सिखाती है। राष्ट्रीयता व्यक्तियों में अनुशासन, कर्तव्यपरायणता, सहयोग, सहानुभूति, सहायता इत्यादि नागरिक गुणों की शिक्षा देती है।
  7. उदारवाद का परिचायक – राष्ट्रवाद का आत्म-निर्णय के अधिकार से सम्बद्ध होना ही स्वतन्त्रता के विचार का परिचायक है। व्यक्ति व राज्य में प्रजातन्त्रीय विचार संचारित होते हैं। जो साम्राज्यवादी विचारों का विरोध करते हैं।
  8. विभिन्नताओं की रक्षा – राष्ट्रवाद संकीर्णताओं को लाँघकर मानव को एक बनाता है। विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग व वर्ण के लोगों को एकता के सूत्र में बाँधता है।
  9. विश्व-शान्ति की संस्थापक – राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और विश्व-शान्ति की स्थापना में सहायक होती है। यह विश्व-बन्धुत्व की भावना में वृद्धि करती है।

राष्ट्रीयता के दोष-राष्ट्रीयता एक अभिशाप
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राष्ट्रीयता मानव समुदाय के लिए एक वरदान है, किन्तु जब यह भावना बहुत संकुचित अथवा उग्र रूप धारण कर लेती है तो यह विध्वंसक हो जाती है तथा एक अभिशाप बन जाती है। पं० जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि राष्ट्रीयता एक ऐसा विचित्र तत्त्व है जो एक देश के इतिहास में जीवन, विकास, शक्ति और एकता का संचार करता है, वह संकुचित भी बनाता है; क्योंकि इसके कारण एक व्यक्ति अपने देश के बारे में विश्व के अन्य देशों से पृथक् रूप से सोचता है।” राष्ट्रीयता के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं-

1. विश्व-शान्ति के लिए घातक – उग्र-राष्ट्रीयता मानवता और विश्व-शान्ति के लिए घातक है। उग्र-राष्ट्रीयता की भावना के कारण ही एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से घृणा करता है।

2. अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में बाधक – उग्र-राष्ट्रीयता के कारण विभिन्न राष्ट्रों के बीच अच्छे तथा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाते हैं। राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों में कटुता पैदा हो जाती है। अत: उग्र-राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक है।

3. साम्राज्यवाद की जनक – उग्र-राष्ट्रीयता साम्राज्यवाद की जड़ है। उग्र-राष्ट्रीयता की भावना से ही विश्व में साम्राज्यवाद का उदय हुआ।

4. विकास कार्यों में बाधक – उग्र-राष्ट्रीयता के कारण राष्ट्र का विकास भी रुक जाता है। उग्र राष्ट्रीयता के कारण राष्ट्रों के पारस्परिक सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं जिसके कारण उन्हें अपनी रक्षा के लिए बड़ी-बड़ी सेनाओं को रखना पड़ता है तथा रक्षा और सेना पर बहुत व्यय करना पड़ता है। फलस्वरूप राष्ट्र के विकास की योजनाओं पर अपेक्षित व्यय नहीं हो पाता।

5. युद्धों को बढ़ावा – उग्र-राष्ट्रीयता ही युद्ध को जन्म देती है। संकीर्ण राष्ट्रीयता सैन्यवाद की ओर प्रवृत्त करती है जिसका अन्तिम परिणाम युद्ध होता है। युद्धों में अपार धन और जन की हानि होती है। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों का एक प्रमुख कारण उग्र-राष्ट्रीयता की भावना ही थी। हेज ने लिखा है, “वर्तमान शताब्दी के अधिकांश युद्धों को कारण राष्ट्रवाद है। इसने विगत सौ वर्षों में जितना रक्तपात कराया है, उतना मध्ययुग के कई सौ वर्षों में धर्म या किसी अन्य तत्त्व ने नहीं कराया।”

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism

प्रश्न 4.
अन्तर्राष्ट्रीयता से आप क्या समझते हैं? इसके विकास और सफलताओं पर प्रकाश डालिए। [2010]
या
‘अन्तर्राष्ट्रीयता का क्या तात्पर्य है? अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना विकसित करना क्यों आवश्यक है? दो कारण लिखिए तथा उदाहरण देकर समझाइए।
या
अन्तर्राष्ट्रीयता से आप क्या समझते हैं? इसके विकास के मार्ग की प्रमुख बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2010, 12, 14, 16]
या
अन्तर्राष्ट्रीयता से आप क्या समझते हैं? इसके मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2010]
या
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं की चर्चा कीजिए। [2016]
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीयता
अन्तर्राष्ट्रीयता विश्व-बन्धुत्व या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना का राजनीतिक रूप है। इस भावना का आधार मनुष्य-मात्र की समानता या भ्रातृभाव है। इस सम्बन्ध में प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. गोल्डस्मिथ के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीयता एक भावना है जिसके अनुसार व्यक्ति केवल अपने राज्य का ही सदस्य नहीं, वरन् समस्त विश्व का नागरिक है।”
  2. जॉन वाटसन के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रवाद विचारों व कार्यों की वह पद्धति है, जिसका उद्देश्य विश्व के राज्यों में शान्तिपूर्ण सहयोग का विकास करना है।”
  3. लॉयड गैरीसन के शब्दों में, “हमारा देश समस्त विश्व है, हमारे देशवासी सम्पूर्ण मानव-जाति के हैं। हम अपनी जन्मभूमि को उसी तरह प्रेम करते हैं, जिस प्रकार हम अन्य देशों को प्रेम करते हैं।”

संक्षिप्त रूप में कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीयता ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्तों पर आधारित वह मनोभावना है जिसके वशीभूत होकर कोई व्यक्ति स्वयं को देश का नागरिक होने के साथ-साथ समस्त विश्व का नागरिक समझने लगती है और एक राष्ट्र अन्य राष्ट्रों के साथ परस्पर सहयोग एवं मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करके विश्व-शान्ति की स्थापना करने का प्रयत्न करता है।

अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक तत्त्व
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में अनेक तत्त्वों ने अपना योगदान दिया है, जिनमें से कुछ प्रमुख तत्त्वों का वर्णन निम्नलिखित है-

  1. विश्व-बन्धुत्व – विश्व-बन्धुत्व की धारणा अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में एक प्रमुख सहायक तत्त्व है। सभी मनुष्य भाई-भाई हैं। सबको एक ही ईश्वर ने जन्म दिया है। इन आध्यात्मिक सिद्धान्तों ने अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में बहुत योग दिया है।
  2. औद्योगिक क्रान्ति तथा आर्थिक अन्योन्याश्रितता – 19वीं शताब्दी में हुई औद्योगिक क्रान्ति ने विश्व की अर्थव्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन कर दिये। वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि हुई, अतिरिक्त उत्पादन की खपत के लिए बाजारों की खोज की गयी तथा राज्यों में आत्मनिर्भरता बढ़ी। इस आर्थिक आदान-प्रदान ने राष्ट्रों को परस्पर निकट लाने में सहायता प्रदान की तथा अन्तर्राष्ट्रीयता को प्रोत्साहन मिला।
  3. वैज्ञानिक आविष्कार – आज के वैज्ञानिक युग में विभिन्न आविष्कारों ने राष्ट्रों के बीच सम्पर्क स्थापित करने में सहायता दी है। टेलीफोन, टेलीग्राम, रेल, वायुयान, मोटर, रेडियो, टेलीविजन आदि के द्वारा विविध राष्ट्रों के बीच आवागमन तथा सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में आदान-प्रदान होने लगे हैं। सम्पूर्ण विश्व आज एक इकाई के रूप में प्रतीत होता है। इससे अन्तर्राष्ट्रीयता को विशेष प्रोत्साहन मिला है।
  4. समाचार-पत्र तथा साहित्य – समाचार-पत्रों तथा साहित्य ने भी अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के विकास में पर्याप्त योगदान दिया है। समाचार-पत्र एवं साहित्य का अध्ययन करने से उन्हें एक-दूसरे के जीवन, संस्कृति आदि के विषय में व्यापक जानकारी प्राप्त होती है तथा उनमें अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित होता है।
  5. विशुद्ध राष्ट्रीयता – विशुद्ध (उदार) राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक होती है। उग्र-राष्ट्रीयता एक संकुचित धारणा है, जब कि विशुद्ध राष्ट्रीयता मानवतावादी दृष्टिकोण की पोषक है।
  6. अन्तर्राष्ट्रीय कानून – विभिन्न राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों व व्यवहार के नियमन हेतु अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का निर्माण किया गया है। सभी देश इन कानूनों का आदर करते हैं और विवाद की स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की शरण ली जाती है। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय कानून भी अन्तर्राष्ट्रीयता में सहायक हुए हैं।
  7. अन्तर्राष्ट्रीय खेल – अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में खेलों ने भी पर्याप्त योगदान दिया है। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ओलम्पिक खेल, एशियाई खेल तथा अन्य प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। ये प्रतियोगिताएँ भी अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक सिद्ध होती हैं।
  8. अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन और संगठन – आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से विविध देशों के बीच मैत्री एवं सहयोगपूर्ण सम्बन्ध स्थापित होने लगे हैं। इन अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों व संगठनों से ऐसा वातावरण उत्पन्न होता है, जो अन्तर्राष्ट्रीयता के लिए। अत्यन्त उपयोगी होता है।

अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्व
अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में मुख्यतया निम्नलिखित तत्त्व बाधक सिद्ध होते हैं-

  1. उग्र-राष्ट्रीयता – अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा संकुचित या उग्र-राष्ट्रीयता की है।
  2. राज्यों की सम्प्रभुता – अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में दूसरी बड़ी बाधा राष्ट्रीय राज्यों की सम्प्रभुता है। सम्प्रभुता के आधार पर प्रत्येक राष्ट्र अपने क्षेत्र में अपने को सर्वोच्च समझता है। ऐसी परिस्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीयता की स्थापना करना सर्वथा असम्भव है।
  3. सैन्यवाद – आज विश्व में विभिन्न शक्तिगुट (Power Blocks) बने हुए हैं; जैसे- NATO, SEATO आदि। इनके कारण विश्व में शीत युद्ध की स्थिति बनी हुई है। यह सैन्यवाद भी अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक सिद्ध होता है।
  4. पूँजीवाद व साम्राज्यवाद – अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में एक बाधा पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद है। पूँजीवादी देश निर्बल, अविकसित, अर्द्ध-विकसित देशों पर आधिपत्य स्थापित करता है। इस प्रकार पूँजीवाद साम्राज्यवाद का रूप धारण कर लेता है। साम्राज्यवादी नीतियाँ अन्तर्राष्ट्रीयता का तीव्र विरोध करती हैं।
  5. राजनीतिक मतभेद – आज विभिन्न देशों की राजनीतिक गतिविधियाँ इस प्रकार की हो गयी हैं कि उनमें परस्पर संघर्ष व टकराव की स्थिति बनी रहती है। यह संघर्ष व टकराव अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक सिद्ध होता है।
  6. राष्ट्रों की महत्त्वाकांक्षा – राष्ट्रों की बढ़ती महत्त्वाकांक्षाएँ व स्वार्थी प्रवृत्तियाँ भी अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक सिद्ध होती हैं।

प्रश्नं 5.
“स्वस्थ राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता की आधारशिला है।” इस कथन के आधार पर राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता के सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए। [2009, 11, 13, 14]
या
क्या राष्ट्रवाद विश्व-शान्ति के लिए हानिकारक है?
या
क्या राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद परस्पर विरोधी हैं?
या
राष्ट्रवाद तथा अन्तर्राष्ट्रीयवाद में सम्बन्ध बताइए। [2014]
उत्तर
राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद का पारस्परिक सम्बन्ध वर्तमान समय की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर दो परस्पर विरोधी धारणाएँ प्रचलित हैं। प्रथम, और मात्र सतही अध्ययन पर आधारित धारणा के अन्तर्गत राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद को परस्पर विरोधी कहा जाता है। इस श्रेणी के विचारकों का कथन है कि राष्ट्रवाद का तात्पर्य व्यक्ति का अपने प्रदेश के प्रति अनन्यतापूर्ण प्रेम है, जबकि अन्तर्राष्ट्रवाद का आशय यह है कि व्यक्ति अपने आपको सम्पूर्ण मानवीय जगत् का एक सदस्य समझकर सम्पूर्ण मानवीय जगत् के प्रति आस्था रखे।

लेकिन उपर्युक्त विचारधारा मिथ्या धारणाओं पर आधारित है। वास्तव में राष्ट्रवाद तथा अन्तर्राष्ट्रवाद परस्पर विरोधी नहीं हैं। राष्ट्रवाद का अन्तर्राष्ट्रवाद से विरोध केवल उसी स्थिति में होता है, जब राष्ट्रवाद को बहुत अधिक संकुचित और उग्र रूप में ग्रहण किया जाता है। विशुद्ध उदार राष्ट्रवाद जो कि राष्ट्रवाद का वास्तविक और उचित रूप है अपने उपासकों को देशभक्ति का सन्देश तो देता है, लेकिन यह देशभक्ति दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा, द्वेष या बैर की भावना से प्रेरित न होकर ‘जीओ और जीने दो’ (Live and let live) की विचारधारा पर आधारित होती है। ‘जीओ और जीने दो’ की भावना पर आधारित विशुद्ध राष्ट्रवाद के इस भाव को व्यक्त करते हुए विलियम लॉयड गैरीसन लिखते हैं, “हमारा देश संसार है, हमारे देशवासी सारी मानवता हैं। हम अपने राष्ट्र (देश) को उसी प्रकार प्यार करते हैं जैसे हम अन्य देशों को प्यार करते हैं।’

इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रवाद का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठा न रखें। अन्तर्राष्ट्रवाद राज्यों के विलय या अन्त की माँग नहीं करता, वरन् वह तो केवल यह चाहता है कि राष्ट्रीय हितों को मानवता के व्यापक हितों के साथ इस प्रकार से समन्वित किया जाये कि सभी राष्ट्र समानता और परस्परिक सहयोग के आधार पर शान्तिपूर्ण, सुखी और समृद्धि का जीवन व्यतीत राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता 143 कर सकें। हेज के शब्दों में, “आदर्श अन्तर्राष्ट्रीय विश्व का तात्पर्य सर्वोत्कृष्ट स्थिति वाले राष्ट्रों के एक विश्व से ही है।” अत: स्वस्थ राष्ट्रीयता के आधार पर ही अन्तर्राष्ट्रीयता का सफल संगठन हो सकता है। एक सफल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन राष्ट्रीयता की स्वस्थ धारणा पर ही निर्भर करता है।

इस प्रकार राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद परस्पर विरोधी नहीं, वरन् राष्ट्रवाद अन्तर्राष्ट्रवाद की भूमिका या उसका प्रथम चरण है। जोसेफ (Joseph) के शब्दों में कहा जा सकता है कि राष्ट्रीयता व्यक्ति को मानवता से मिलाने वाली आवश्यक कड़ी है।” महात्मा गाँधी भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि “मेरे विचार से बिना राष्ट्रवादी हुए अन्तर्राष्ट्रवादी होना असम्भव है। अन्तर्राष्ट्रवाद तभी सम्भव हो सकता है, जब कि राष्ट्रवाद एक यथार्थ बन जाये।”
लेकिन इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि राष्ट्रवाद/अन्तर्राष्ट्रवाद के प्रथम चरण के रूप में उसी समय कार्य कर सकता है, जब कि राष्ट्रवाद को उग्र और संकुचित रूप में न अपनाकर उदार और विशुद्ध रूप में, देशभक्ति और सम्पूर्ण मानवता के हितों के एकाकार के रूप में अपनाया जाये। उग्र राष्ट्रवाद, जिसे बीसवीं सदी में हिटलर और मुसोलिनी द्वारा अपनाया गया, कुद्ध का कारण और अन्तर्राष्ट्रीयता का नितान्त विरोधी होता है। अतः एक पंक्ति में कहा जा सकता है कि ‘उदार या विशुद्ध राष्ट्रवाद अन्तर्राष्ट्रवाद का प्रथम चरण, लेकिन उग्र-राष्ट्रवाद अन्तर्राष्ट्रीयता का नितान्त विरोधी है।”

आज आवश्यकता इस बात की है कि सत्य और न्याय पर आधारित राष्ट्रवाद और देशभक्ति के विशुद्ध भाव को ग्रहण किया जाये। बीसवीं सदी के प्रबुद्ध मनीषी लॉस्की लिखते हैं, “यूरोप का मानसिक जीवन सीजर और नेपोलियन का नहीं, ईसा का है, पूर्व की सभ्यता पर चंगेजखाँ और अकबर की अपेक्षा बुद्ध का प्रभाव कहीं गहरा और व्यापक है। अगर हमें जीना है तो इस सत्य को सीखना-समझना पड़ेगा। घृणा को प्रेम से जीता जाता है, असद् को सद् से, अधर्मता का परिणाम भी उसी जैसा होता है।”

आज के विश्व का प्रश्न राष्ट्रवाद या अन्तर्राष्ट्रवाद नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि देशप्रेम और स्वस्थ राष्ट्रवाद की भावना को उच्चतम स्तर तक विकसित किया जाये और उसके आधार पर अन्तर्राष्ट्रीयता, विश्व-शान्ति और विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास हो।

प्रश्न 6.
संयुक्त राष्ट्र के गठन के उद्देश्य क्या थे? इसके अंगों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (2012)
उत्तर
संयुक्त राष्ट्र संघ
युद्ध को रोकने और समस्त विश्व में शान्ति बनाये रखने के उद्देश्य से 1919 में एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन ‘राष्ट्र संघ’ (League of Nations) की स्थापना की गयी थी। 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो जाने पर राष्ट्र की असफलता स्पष्ट हो गयी। ऐसी स्थिति में विविध अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में नवीन अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना पर विचार किया गया और ‘सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन’ के आधार पर 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। उसी समय से संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सहयोग की दिशा में कार्य कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य
संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र के अनुसार इस संगठन के मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा बनाये रखना और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शान्ति विरोधी तत्त्वों का निराकरण व आक्रामक कृत्यों को दूर करना।
  2. राष्ट्रों में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना व विश्वशान्ति को सुदृढ़ बनाने के अन्य उपाय करना।
  3. आर्थिक, सामाजिक और अन्य सभी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना।
  4. उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए विभिन्न राष्ट्रों के प्रयत्नों तथा कार्यों में मेल स्थापित करना और इस दृष्टि से एक केन्द्र के रूप में कार्य करना।

सदस्यता (Membership) प्रारम्भ में ही संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले 51 राज्य इसके प्रारम्भिक सदस्य हैं। घोषणा-पत्र के अनुसार उन राज्यों को भी सदस्यता प्रदान की जा सकती है, जिन्हें सुरक्षा परिषद् के 5 स्थायी सदस्यों सहित सुरक्षा परिषद् के बहुमत और साधारण सभा के 2/3 बहुमत का समर्थन प्राप्त हो। किसी देश की शान्तिप्रियता, विधान के नियमों को स्वीकार करने तथा संघ के उत्तरदायित्व को पूरा करने की समर्थता भी संघ की सदस्यता के लिए अनिवार्य है। घोषणा-पत्र के सिद्धान्त का उल्लंघन किये जाने पर सम्बन्धित राज्य को संघ से निकाला जा सकता है।

संघ की सदस्य संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही है और वर्तमान समय में इस संगठन की सदस्य संख्या 193 हो गई है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्विट्जरलैण्डे तटस्थता की विदेशी नीति का पालन करता है तथा विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के आपसी विवादों से स्वयं को पूर्णतया अलग रखने की इच्छा के कारण उसने 2001 ई० तक संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त नहीं की। यदि कोई सदस्य देश संयुक्त राष्ट्र के नियमों-आदेशों की लगातार अवहेलना करता है, तो सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा उसकी सदस्यता समाप्त कर सकती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंग और उनके कार्य
संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य 6 अंग हैं-

  1. साधारण सभा (महासभा) (General Assembly),
  2. सुरक्षा परिषद् (Security Council),
  3. आर्थिक व सामाजिक परिषद् (Economic and Social Council),
  4. प्रन्यास परिषद् (Trusteeship Council),
  5. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice),
  6. सचिवालय (Secretariat)

इनमें से प्रत्येक के संगठन और कार्यों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है-

1. महासभा – संयुक्त राष्ट्र की एक महासभा होती है। सभी सदस्य-राष्ट्रों को महासभा की सदस्यता दी जाती है। प्रत्येक सदस्य राष्ट्र को इसमें अपने पाँच प्रतिनिधि भेजने का अधिकार है, किन्तु किसी भी निर्णायक मतदान के अवसर पर उन पाँचों का केवल एक ही मत माना जाता है। इस सभा का अधिवेशन वर्ष में एक बार सितम्बर माह में होता है। आवश्यकता पड़ने पर एक से अधिक बार भी अधिवेशन हो सकता है। महासभा प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय विषय पर विचार कर सकती है। साधारण विषयों में बहुमत से निर्णय लिया जाता है, किन्तु विशेष विषयों के निर्णय के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता पड़ती है। सभा के कार्यों की देख-रेख के लिए एक अध्यक्ष होता है। इसकी नियुक्ति स्वयं महासभा ही करती है। यह सभा सुरक्षा परिषद् के 10 अस्थायी तथा आर्थिक व सामाजिक परिषद् के 54 सदस्यों का निर्वाचन करती है। संयुक्त राष्ट्र के बजट को स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार महासभा को ही दिया गया है।

2. सुरक्षा परिषद् – सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। सुरक्षा परिषद् में कुल 15 सदस्य होते हैं, जिनमें 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस तथा साम्यवादी चीन इसके 5 स्थायी सदस्य हैं। 10 अस्थायी सदस्यों का चुनावों महासभा द्वारा दो वर्षों के लिए होता है। इस परिषद् का मुख्य कार्य विश्वशान्ति को प्रत्येक प्रकार से सुरक्षित रखना है। किसी भी वाद-विवाद का अन्तिम निर्णय पाँच स्थायी सदस्यों की सहमति एवं चार अस्थायी सदस्यों की सहमति के आधार पर लिया जाता है। यदि स्थायी सदस्यों में से किसी एक सदस्य की किसी विषय पर अस्वीकृति हो जाती है, तो वह निर्णय रद्द हो जाता है। स्थायी सदस्यों के इस अधिकार को ‘निषेधाधिकार’ (Veto Power) कहते हैं।

इस परिषद् को विश्व में शान्ति स्थापना करने के लिए असीम अधिकार प्राप्त हैं। इस परिषद् ने अपने इन अधिकारों का अनेक अवसरों पर सदुपयोग भी किया है। इसे आवश्यकतानुसार अपनी सैन्य शक्ति के प्रयोग करने का भी अधिकार प्राप्त है।
सुरक्षा परिषद् के प्रमुख कार्य – सुरक्षा परिषद् के प्रमुख कार्य निम्नवत् हैं-

  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा स्थापित करना।
  • अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष और विवाद के कारणों की जाँच करना और उसके निराकरण के शान्तिपूर्ण समाधान के उपाय खोजना।
  • युद्धविराम लागू करने के लिए आर्थिक सहायता को रोकना और सैन्य शक्ति का प्रयोग करना।
  • महासभा को नए सदस्यों के सम्बन्ध में सुझाव देना।
  • अपनी वार्षिक तथा अन्य रिपोर्ट महासभा को भेजना।

3. आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् – परिषद् के इस अंग की स्थापना का उद्देश्य आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े हुए राष्ट्रों को आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति के लिए सहायता देना है। इसके 54 सदस्यों का कार्य अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ, समाज, स्वास्थ्य तथा शिक्षा एवं संस्कृति आदि से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन कर इनके समाधान हेतु योजना बनाना होता है।

4. प्रन्यास परिषद् – इस परिषद् का मुख्य लक्ष्य विश्व में पराधीन एवं पिछड़े हुए देशों की सुरक्षा व देखभाल करना है। इस परिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • सुरक्षित प्रदेश के सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करना।
  • संरक्षित क्षेत्रों की जनता के आवेदन-पत्रों पर विचार करना।
  • संरक्षित क्षेत्रों के स्थलों का घटनास्थल पर जाकर स्वयं निरीक्षण करना।

माइक्रोनेशिया तथा पलाऊ राज्यों के सार्वभौमिक राष्ट्र बन जाने के बाद ट्रस्टीशिप काउंसिल के अन्तर्गत अब कोई राज्य नहीं है। यद्यपि अब भी माइक्रोनेशिया की सुरक्षा का भार संयुक्त राज्य अमेरिका पर ही है। 5. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय – यह संयुक्त राष्ट्र को न्यायालय है। इसमें 15 न्यायाधीश हैं, जिनका चुनाव सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा द्वारा होता है। इस न्यायालय का कार्य अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार सदस्य राष्ट्रों के कानूनी विवादों को निपटाना है। यह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग (नीदरलैण्ड) में स्थित है।

6. सचिवालय – यह संयुक्त राष्ट्र का प्रधान कार्यालय है। इसका प्रमुख सेक्रेटरी जनरल होता है। इसे महासचिव भी कहते हैं। इसके अधीन लगभग 10 हजार छोटे-बड़े अधिकारियों का एक वर्ग है। इसकी नियुक्ति सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा करती है। महासचिव का कार्य संयुक्त राष्ट्र के कार्यों की रिपोर्ट तैयार कर प्रतिवर्ष महासभा के सम्मुख प्रस्तुत करना होता है। इसके अतिरिक्त शान्ति एवं सुरक्षा के भंग होने की आशंका से सम्बन्धित आशय की सूचना महासचिव सुरक्षा परिषद् को देता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राष्ट्रीयता के विकास में दो उत्तरदायी तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
या
राष्ट्रवाद के दो कारण लिखिए। [2009]
या
राष्ट्रीयता के किन्हीं दो तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2009, 11, 12]
उत्तर
राष्ट्रीयता के विकास में दो उत्तरदायी तत्त्व निम्नवत् हैं-

1. भाषायी एकता – भाषा की एकता भी राष्ट्रीयता का एक निर्माणक तत्त्व है और राष्ट्रीयता के निर्माण में जातीय एकता की अपेक्षा भाषा की एकता का महत्त्व अधिक है। इस सम्बन्ध में बर्नार्ड जोजफ ने तो यहाँ तक कहा है, “भाषा राष्ट्रीयता का सबसे शक्तिशाली तत्त्व है।” सामान्य भाषा ऐतिहासिक परम्पराओं को जीवित रखने में सहायक होती है और एक ऐसे राष्ट्रीय मनोविज्ञान को जन्म देती है जिसमें सामान्य नैतिकता का विकास सम्भव होता है, लेकिन सामान्य भाषा के बिना भी राष्ट्रीयता का विकास हो सकता है और एक भाषायी क्षेत्र भी पृथक्-पृथक् राष्ट्र हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, स्विट्जरलैण्ड और भारत में एक से अधिक भाषाएँ बोली जाने पर भी ये एक राष्ट्र हैं और अमेरिका तथा कनाडा में एक ही भाषा बोले जाने पर भी ये पृथक्-पृथक् राष्ट्र हैं।

2. जातीय एकता – लम्बे समय तक जातीय एकता राष्ट्रीयता का सबसे मुख्य आधार रहा है। ऐसा माना जाता है कि राष्ट्रीयता एक विशेष प्रकार की आत्मिक चेतना के भाव का नाम है। जिसमें समान जातीयता का तत्त्व शायद सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, किन्तु अब राष्ट्रीयता के निर्माणक तत्त्व के रूप में जातीयता का महत्त्व कम होता जा रहा है और प्रो० हेज के शब्दों |में कहा जा सकता है, “यदि कहीं रक्त की पवित्रता मिल सकती है तो वह केवल असभ्य जातियों में ही सम्भव है।’ स्विट्जरलैण्ड, भारत, कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका इस बात के उदाहरण हैं कि जातीय एकता राष्ट्रीयता के निर्माण हेतु आवश्यक नहीं है।

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प्रश्न 2.
राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधक तत्त्वों का संक्षिप्त परिचय दीजिए। [2007, 08, 14]
उत्तर
राष्ट्रीयता के विकास में बाधक बनने वाली अनेक बातें हैं। राष्ट्रीयता के विकास के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं-

1. अज्ञान एवं अशिक्षा – अज्ञान तथा अशिक्षा व्यक्तियों को मानसिक रूप से पृथक् करते हैं, उनमें कलुषित भावनाएँ भरते हैं और इस प्रकार राष्ट्रीयता के विकास में बाधक सिद्ध होते है।

2. साम्प्रदायिकता की भावना – साम्प्रदायिकता राष्ट्रीयता के मार्ग की प्रमुख बाधा है। इससे राष्ट्रीयता खण्डित होती है। साम्प्रदायिकता का अर्थ है-“सम्प्रदाय का हौआ खड़ा करके व्यक्तियों की भावनाओं को भड़काना और राष्ट्रीयता’ की जगह ‘साम्प्रदायिक उन्माद फैलाना।” कट्टरपन्थी शक्तियाँ राष्ट्र को एकता और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने से रोकती

3. यातायात के श्रेष्ठ साधनों का अभाव – आवागमन के अच्छे साधनों के अभाव में विभिन्न राज्यों के अन्तर्गत दूरस्थ स्थानों के निवासियों में संवादहीनता की स्थिति के कारण एकता की वह भावना जन्म नहीं ले पाती जो राष्ट्रीयता की आत्मा होती है।

4. प्रान्तीयता की भावना – इस भावना के कारण विभिन्न प्रान्तों में रेहने वाले व्यक्ति स्वयं को राष्ट्र का नागरिक न समझकर प्रान्त विशेष का ही निवासी मानते हैं। इसी भावना के कारण क्षेत्रीय स्तर पर संघर्ष होता रहता है, जिससे राष्ट्रीयता की भावना को क्षति पहुँचती है।

5. भाषावाद – जिन देशों में अनेक भाषा में बोलने वाले व्यक्ति निवास करते हैं वहाँ पर प्रायः व्यक्ति अपनी भाषा को ही सब-कुछ समझकर अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष-भाव अपना लेते हैं। इससे भाषायी उपद्रवों को प्रोत्साहन मिलता है, जिसका राष्ट्रीयता पर घातक प्रभाव पड़ता है।

6. जातिवाद – जातिवाद भी राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक है। जातिवाद की भावना दूसरी जाति के प्रति घृणा का भाव जाग्रत करती है। जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज छोटे-छोटे भागों में बँटा होता है। प्रत्येक जाति राष्ट्रीय हितों के स्थान पर जातीय हितों को प्राथमिकता देती है। इसी कारण राष्ट्रीयता की भावना का विकास नहीं हो पाता है।

प्रश्न 3.
अन्तर्राष्ट्रीयता की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2007, 08]
या
अन्तर्राष्ट्रीयता के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2011, 14, 15]
या
लघु उत्तर दीजिए- अन्तर्राष्ट्रीयता के गुण।
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीयता की विशेषताएँ या गुण निम्नलिखित हैं-

  1. जिस प्रकार राष्ट्रीयता देश-प्रेम की भावना है, उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीयता विश्व-प्रेम की भावना है। अन्तर्राष्ट्रीयता विश्वबन्धुत्व की आध्यात्मिक भावना का रूपान्तर है।
  2. अन्तर्राष्ट्रीयता एक भावना है जिसके अनुसार व्यक्ति केवल अपने राज्य का ही सदस्य नहीं, वरन् विश्व का नागरिक है।
  3. अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना से मनुष्यों के अन्दर मित्रता और सहानुभूति की भावना जाग्रत होती है।
  4. इससे विश्व के सभी व्यक्तियों की उन्नति होती है तथा सम्पूर्ण विश्व एक राष्ट्र के रूप में संगठित हो जाता है।
  5. इस भावना के विकास के कारण जो धन हथियारों और सेना पर देश अपने रक्षार्थ व्यय करते हैं, वह बच जाएगा और संसार की भलाई में लगाया जा सकता है।
  6. राष्ट्रीयता से उत्पन्न हुए जो गन्दे छल और तुच्छ द्वेष के भाव बने थे, वे अन्तर्राष्ट्रीयता के कारण नष्ट हो जाएँगे।
  7. समस्त देशों के अन्दर उच्च और निम्न का जो भाव एक-दूसरे के प्रति बनता है, वह नष्ट हो जाएगा।
  8. अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का पूरा विस्तार हो जाने के पश्चात् संसार में पूर्ण शान्ति स्थापित हो जाएगी तथा युद्ध का भय सदा के लिए जाता रहेगा।

प्रश्न 4.
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक किन्हीं चार तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक चार तत्त्व निम्नवत् हैं-

1. वैज्ञानिक आविष्कार – आधुनिक युग विज्ञान का युग है और इस युग में वैज्ञानिक खोजों और आविष्कारों के कारण विश्व के सभी देश एक-दूसरे के बहुत निकट आ गये हैं। रेल, मोटर, जहाज, वायुयान, तार, टेलीफोन, रेडियो आदि ने विभिन्न राज्यों के बीच की दूरी को समाप्त कर सम्पूर्ण विश्व को एक इकाई बना दिया है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण विश्व के जिस नवीन रूप का उदय हुआ है, उससे अन्तर्राष्ट्रीयता को विशेष प्रोत्साहन मिला है।

2. समाचार-पत्र, रेडियो व साहित्य – अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में समाचार-पत्र, रेडियो व | अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। एक देश के समाचार-पत्र दूसरे देश में भी जाते हैं और मडरियागा (Madariaga) के शब्दों में, “विचारों और समाचारों की दृष्टि से आज के विश्व ने एक संयुक्त इकाई का रूप धारण कर लिया है। अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संघ व संगठन जैसे यूनेस्को’ ऐसे साहित्य का प्रचुर मात्रा में प्रकाशन कर रहे हैं, जिससे विभिन्न देशों के निवासी एक-दूसरे के जीवन, संस्कृति और समस्याओं से भलीभाँति परिचित हो सकें। इस प्रकार समाचार-पत्र व साहित्य अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करने में बड़े सहायक सिद्ध हुए हैं।

3. राष्ट्रीयता – यद्यपि यह कथन विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होता है कि राष्ट्रीयता ने अन्तर्राष्ट्रीयता को जन्म दिया, किन्तु बहुत कुछ सीमा तक यह एक सत्य है। इतिहास की यह शिक्षा है कि विकासक्रम के अन्तर्गत विचारधाराएँ प्रतिक्रियाओं के रूप में जन्म लेती हैं। जब 19वीं सदी के राष्ट्रीय राज्य अपनी चरम सीमा पर पहुँच गये तो उनके कुछ दुर्गुण स्पष्ट हुए और उन्होंने विश्वयुद्ध जैसी जटिल समस्याएँ भी उत्पन्न कर दीं। अतः मानवता के सुख और शान्ति के लिए इस संकीर्ण राष्ट्रीयता का अन्त कर अन्तर्राष्ट्रीयता की स्थापना की दिशा में विचार किया गया। इस प्रकार राष्ट्रीयता की प्रतिक्रिया के रूप में अन्तर्राष्ट्रीयता के सिद्धान्त तथा व्यवहार का जन्म हुआ।

4. अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन और संगठन – राष्ट्रों में पारस्परिक स्नेह और सद्भावना का विकास करने में राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ और इसी प्रकार के अन्य संगठनों का योग भी कम नहीं है। अब तो जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण हो रहा है। और इसकी संख्या बढ़ती जा रही है। राजनीतिक क्षेत्र के अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी अब ऐसे संगठनों की कमी नहीं है, जिनका रूप अन्तर्राष्ट्रीय है और जो अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के विकास में यथेष्ट योग दे रहे हैं। ये सम्मेलन और संगठन ऐसे वातावरण की सृष्टि करते हैं, जिसका होना अन्तर्राष्ट्रीयता के लिए नितान्त आवश्यक है।

प्रश्न 5.
संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा (महासभा) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
यह संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे प्रमुख अंग है। संघ के सभी सदस्य साधारण महासभा के सदस्य होते हैं। यह सभा प्रतिवर्ष अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव करती है। प्रत्येक राज्य साधारण महासभा में अपने 5 प्रतिनिधि भेज सकता है, परन्तु उनका केवल एक मत होता है। साधारण महासभा का वर्ष में केवल एक अधिवेशन सितम्बर माह के तीसरे गुरुवार को प्रारम्भ होता है। आवश्यकता अनुभव होने पर महामन्त्री विशेष अधिवेशन भी बुला सकता है। सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का निर्णय 2/3 बहुमत से और अन्य प्रश्नों का निर्णय साधारण बहुमत से किया जाता है। साधारण महासभा यद्यपि मुख्य रूप से चार प्रकार के कार्य करती है-विचार-विमर्श सम्बन्धी, निर्वाचन सम्बन्धी, आर्थिक और संवैधानिक। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य विचार-विमर्श सम्बन्धी है। यह अपनी महत्त्वपूर्ण सिफारिशें सुरक्षा परिषद् को भेजती है। साधारण महासभा सुरक्षा परिषद् के 10 अस्थायी सदस्यों, आर्थिक व सामाजिक परिषद् के 54 सदस्यों व अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों को चुनती है। यह महासचिव के चुनाव में भाग लेती है, संघ के बजट पर विचार करती है व स्वीकार करती है। अपने 2/3 बहुमत से घोषणा-पत्र में संशोधन कर सकती है। शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव से साधारण महासभा के महत्त्व और शक्तियों में आशातीत वृद्धि हुई है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
भाषा की एकता कैसे राष्ट्रीयता का निर्माण करने में सहायक है ?
उत्तर
राष्ट्रीयता के निर्माण में भाषा की एकता का केन्द्रीय महत्त्व है। किसी जन-समूह में पायी जाने वाली सामान्य भाषा एक सामान्य साहित्य, संस्कृति तथा गौरव को जन्म देती है। रैम्जे म्योर के अनुसार, “राष्ट्र के निर्माण में भाषा जाति की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।” मैक्स हिल्डबर्ट बोहम का कथन है कि “आधुनिक राष्ट्रीयता का सम्भवतः सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व भाषा है। सामान्य भाषा ऐतिहासिक परम्पराओं को जीवित रखने में सहायक सिद्ध होती है। किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि बिना सामान्य भाषा के राष्ट्रीयता हो ही नहीं सकती। स्विट्जरलैण्ड में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं फिर भी वह एक राष्ट्र है। अमेरिका और कनाडा के निवासी एक ही भाषा बोलते हैं, परन्तु अलग-अलग राष्ट्र हैं। भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं फिर भी भारत एक राष्ट्र के रूप में है। अनुभवी विद्वानों का विचार है कि शिक्षा के प्रसार से धीरे-धीरे सामान्य भाषा की उपयोगिता शिथिल होती जाएगी।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीयता के मार्ग की बाधाओं को दूर करने के उपायों की विवेचना कीजिए। [2007, 12]
उत्तर
राष्ट्रीयता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को निम्नांकित उपायों से दूर किया जा सकता है।

  1. संकुचित भावनाओं का त्याग और देश-प्रेम या देशभक्ति की प्रबल भावना का विकास किया जाना चाहिए।
  2. देश के विभिन्न भागों में भावनात्मक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक सम्पर्क बढ़ाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।
  3. शिक्षा का व्यापक स्तर पर प्रचार तथा प्रसार किया जाना चाहिए तथा शिक्षा व्यवस्था का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए।
  4. देशभर में परिवहन तथा संचार के साधनों का पर्याप्त विकास किया जाना चाहिए।
  5. देश के सभी क्षेत्रों का सन्तुलित आर्थिक विकास किया जाना चाहिए।
  6. संकीर्ण हितों तथा स्वार्थपूर्ण मनोवृत्तियों पर आधारित राजनीति को नियन्त्रित किया जाना चाहिए
  7. देश में सुदृढ़ तथा न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था की जानी चाहिए।

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प्रश्न 3.
राष्ट्रवाद के दो लाभ बताइए। [2012]
उत्तर
राष्ट्रवाद के दो लाभ निम्नवत् हैं-

  1. देश-प्रेम का आधार – राष्ट्रीयता और देशभक्ति पर्यायवाची शब्द हैं। राष्ट्रीयता व्यक्तियों को अपने देश के प्रति प्रेम करना सिखाती है। जब व्यक्ति अपने देश से प्रेम करने लगते हैं तो वे देश की उन्नति करने का प्रयत्न भी करते हैं।
  2. चरित्र-निर्माण में सहायक – राष्ट्रीयता व्यक्तियों के चरित्र-निर्माण में सहायक होती है। राष्ट्रीयता मनुष्य को अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्र के लिए त्याग करना सिखाती है। राष्ट्रीयता व्यक्तियों में अनुशासन, कर्तव्यपरायणता, सहयोग, सहानुभूति, सहायता इत्यादि नागरिक गुणों की शिक्षा देती है।

प्रश्न 4.
राष्ट्र तथा राष्ट्रीयता में कोई दो अन्तर बताइए। [2007]
उत्तर
राष्ट्र तथा राष्ट्रीयता में दो मूलभूत अन्तर निम्नवत् हैं-

  1. राष्ट्रीयता एक पवित्र भावना है, जो क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, सम्प्रदाय, संस्कृति और सभ्यता की भिन्नता होते हुए भी लोगों को एकता के सूत्र में बाँधकर राष्ट्र को सुदृढ़ तथा संगठित करती है। यह एक नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। इसके विपरीत, जब राष्ट्रीयता राजनीतिक एकता तथा स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेती है तो वह राष्ट्र कहलाने लगती है। उदाहरणस्वरूप सन् 1947 से पूर्व भारतीय मुस्लिम एक राष्ट्रीयता के प्रतीक थे। परन्तु जब पाकिस्तान नामक एक अलग राज्य की स्थापना हुई तो वे पाकिस्तान में एक राष्ट्र कहलाने लगे।
  2. राष्ट्रीयता एक अमूर्त भावना है, जबकि राष्ट्र का रूप मूर्त होता है।

प्रश्न 5.
‘राष्ट्रवाद; सैन्यवाद एवं युद्ध को जन्म देता है।’ इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर
जब किसी देश की राष्ट्रीयता की भावना अपने उग्र रूप में चरम शिखर पर पहुँच जाती है तो यह दूसरे देशों के लिए एक बड़ा खतरा बन जाती है। राष्ट्रीयता के कारण अपने राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति पनपती है। इससे दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा और अपनी राष्ट्रीय पद्धति उन पर थोपने की भावना पैदा होती है; अतः युद्धों का जन्म होता है और युद्ध के लिए सेना की आवश्यकता पड़ती है, जिससे सैन्यवाद को प्रोत्साहन मिलता है। फ्रांस और जर्मनी के नागरिक सैकड़ों वर्षों तक इसी भावना के कारण एक-दूसरे को शत्रु समझते रहे। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध का मूल कारण राष्ट्रवाद ही था। हेज ने लिखा है, “वर्तमान शताब्दी के अधिकांश युद्धों का कारण राष्ट्रवाद है। इसने विगत सौ वर्षों में जितना रक्तपात कराया है, उतना मध्ययुग के कई सौ वर्षों में धर्म या किसी अन्य तत्त्व ने नहीं कराया।”

प्रश्न 6.
अन्तर्राष्ट्रीयता की दो बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2007]
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीयता की दो बाधाएँ निम्नवत् हैं-

1. आतंकवाद – अभी हाल ही के वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में एक नई और बड़ी बाधा ने जन्म लिया है, यह बाधा है—आतंकवाद और राज्य प्रायोजित आतंकवाद। जब एक राज्य या धार्मिक कट्टरता पर आधारित कोई संगठन किसी अन्य राज्य या राज्यों के प्रसंग में आतंकवादी गतिविधियों को अपनाता और प्रोत्साहित करता है तो राज्यों के आपसी सम्बन्धों में गहरे विरोध की स्थिति जन्म ले लेती है तथा वातावरण अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में एक बड़ा बाधक तत्त्व बन जाता है।

2. साम्राज्यवाद – अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में दूसरी बड़ी बाधा शक्तिशाली राज्यों की साम्राज्यवादी भावना है जिसका एक रूप उपनिवेशवाद कहा जा सकता है। साम्राज्यवाद राजनीतिक और आर्थिक शोषण का एक ऐसा यन्त्र है जो पिछड़े हुए देश को विकसित नहीं होने देता। डॉ० डी०एन० प्रिट (Dr. D.N. Pritt) का विचार है, “विश्वे संघ सम्बन्धी कोई भी प्रस्ताव उस समय तक सफलता के द्वार तक नहीं पहुंच सकता है, जब तक कि संसार में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद उपस्थित है।”

प्रश्न 7.
संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख उद्देश्य क्या हैं? [2007, 08, 10, 11, 14, 16]
या
संयुक्त राष्ट्र संघ के दो प्रमुख उद्देश्यों को लिखिए। [2011, 13]
उत्तर
संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र के अनुसार इसके निम्नलिखित चार प्रमुख उद्देश्य हैं।

  1. सामूहिक व्यवस्था द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखना और आक्रामक प्रवृत्तियों को नियन्त्रण में रखना।
  2. राष्ट्रों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना एवं विश्व-शान्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए अन्य उपाय करना।
  3. आर्थिक, सामाजिक और अन्य सभी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना।
  4. उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न राष्ट्रों के प्रयत्नों एवं कार्यों में सामंजस्य स्थापित करना और इस दृष्टि से एक केन्द्र के रूप में कार्य करना।

प्रश्न 8.
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के संगठन का वर्णन कीजिए।
उत्तर
यह संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यकारिणी है। संघ में इसका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। सुरक्षा परिषद् में 5 स्थायी सदस्य तथा 10 अस्थायी सदस्य हैं। स्थायी सदस्य हैं—संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस तथा साम्यवादी चीन। शेष 10 अस्थायी सदस्यों का चुनाव साधारण महासभा द्वारा 2 वर्ष के लिए किया जाता है। सुरक्षा परिषद् का प्रमुख कार्य विश्व-शान्ति बनाये रखना है। परिषद् में कार्य-विधि सम्बन्धी विषयों पर 15 सदस्यों में से 9 सदस्यों के मत से निर्णय हो जाते हैं, परन्तु अन्य सभी विषयों पर इन 9 मतों में 5 स्थायी सदस्यों के मत आवश्यक होते हैं। प्रत्येक स्थायी सदस्य को निषेधाधिकार (Veto) प्राप्त होता है। अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने में सुरक्षा परिषद् ने बहुत सराहनीय कार्य किये हैं। यदि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई विवाद परस्पर बातचीत, मध्यस्थों द्वारा, अन्य प्रतिबन्ध लगाकर हल न किया जा सके तो यह आक्रामक राष्ट्र के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही कर सकती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की तिथि एवं वर्ष लिखिए। [2014, 16]
उत्तर
24 अक्टूबर, 1945

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ के दो अंगों के नाम लिखिए। [2008]
या
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार अंगों के नाम लिखिए। [2011, 14, 15]
उत्तर

  1. महासभा,
  2. सुरक्षा परिषद्,
  3. न्यास परिषद् तथा
  4. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय।

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प्रश्न 3.
सुरक्षा परिषद् में कुल कितने सदस्य हैं? [2007, 09, 11, 12, 13]
उत्तर
सुरक्षा परिषद् में कुल पन्द्रह सदस्य होते हैं।

प्रश्न 4.
सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के नाम बताइए।
या
सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों के नाम बताइए। [2007, 08, 09, 10, 12]
उत्तर
सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य हैं- संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस तथा साम्यवादी चीन (एशिया से)।

प्रश्न 5.
राष्ट्रवाद के दो कारकों को लिखिए। [2009]
या
राष्ट्रवाद के दो गुण बताइए। [2012]
उत्तर

  1. राष्ट्रीयता साहित्य और संस्कृति का विकास करती है।
  2. राष्ट्रवाद विभिन्नताओं की रक्षा करता है।

प्रश्न 6.
अन्तर्राष्ट्रीयता के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2007, 11, 14]
उत्तर

  1. विश्व सरकार की कल्पना का साकार होना – अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के द्वारा ही विश्व सरकार की कल्पना को मूर्त रूप दिया जा सकता है।
  2. मानव-मात्र का विकास सम्भव होना – अन्तर्राष्ट्रीयता के भावों के सहारे हम संकीर्ण राष्ट्रीय दायरे से बाहर निकलकर समस्त विश्व को अपना बना सकेंगे और तब सारा विश्व ही हमारा कुटुम्ब या परिवार-सा हो जाएगा।

प्रश्न 7.
राष्ट्रीयता (राष्ट्रवाद) के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. जातीय भेदभाव की भावना तथा
  2. साम्राज्यवाद।

प्रश्न 8.
राष्ट्रीयता किसे कहते हैं ?
उत्तर
प्रो० गिलक्रिस्ट के शब्दों में, “राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक भावना है।”

प्रश्न 9.
राष्ट्रीयता के किन्हीं दो तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 11]
या
राष्ट्रीयता का कोई एक मूल तत्त्व बतलाइए। [2014]
उत्तर

  1. भाषा की एकता तथा
  2. सामान्य संस्कृति तथा परम्पराएँ।

प्रश्न 10.
अन्तर्राष्ट्रीयता के दो गुण बताइए।
उत्तर

  1. विभिन्न राष्ट्रों में सहयोग की भावना उत्पन्न होती है तथा
  2. युद्ध की सम्भावना कम हो जाती है।

प्रश्न 11.
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक दो तत्त्व बताइए।
उत्तर

  1. यातायात के साधनों का विकास तथा
  2. अन्तर्राष्ट्रीय खेल।

प्रश्न 12.
अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में आने वाली दो बाधाएँ क्या हैं? [2007, 12]
उत्तर

  1. साम्राज्यवाद तथा
  2. सैन्यवाद।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism

प्रश्न 13.
संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्य कार्यालय कहाँ है? [2007, 09, 13, 15]
उत्तर
न्यूयॉर्क (अमेरिका) में।

प्रश्न 14.
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव का निर्वाचन कैसे होता है?
उत्तर
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव की नियुक्ति सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर साधारण सभा द्वारा 5 वर्षों के लिए की जाती है।

प्रश्न 15.
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का मुख्यालय कहाँ है? [2015]
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का मुख्यालय हेग में है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. निम्नलिखित में कौन-सा राष्ट्रीयता का तत्त्व है?
(क) शिक्षा
(ख) साम्प्रदायिकता
(ग) यातायात के साधन
(घ) भाषा की एकता

2. राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधक तत्त्व हैं-
(क) ऐतिहासिक स्मृतियाँ
(ख) भाषा
(ग) अज्ञान एवं अशिक्षा
(घ) जातीय एकता

3. निम्नलिखित में से कौन-सा राष्ट्रीयता का निर्माणक तत्त्व नहीं है? [2007]
(क) भौगोलिक एकता
(ख) धार्मिक एकता
(ग) सामान्य आर्थिक हित
(घ) क्षेत्रीयता

4. राष्ट्रीयता का गुण है-
(क) साम्प्रदायिकता
(ख) एकता की स्थापना में योगदान
(ग) साम्राज्यवाद
(घ) सैन्यवाद

5. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का प्रधान कार्यालय है
(क) न्यूयॉर्क में
(ख) वाशिंगटन में
(ग) जेनेवा में
(घ) हेग में

6. वह भारतीय महिला जो संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा की अध्यक्षा बनी थीं
(क) श्रीमती इन्दिरा गाँधी
(ख) अरुणा आसफ अली
(ग) सरोजिनी नायडू
(घ) श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित

7. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई- [2008, 11, 14]
(क) 24 अक्टूबर, 1944 में
(ख) 15 नवम्बर, 1945 में
(ग) 24 अक्टूबर, 1946 में
(घ) 24 अक्टूबर, 1945 में

8. सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या है-
(क) चार
(ख) पाँच
(ग) सात
(घ) आठ

9. सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य है
(क) भारत
(ख) स्पेन
(ग) जर्मनी
(घ) चीन

10. निम्नलिखित में से सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य कौन-सा देश नहीं है ? [2012]
(क) अमेरिका
(ख) ब्रिटेन
(ग) फ्रांस,
(घ) जर्मनी

11. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में कितने न्यायाधीश होते हैं?
(क) 10
(ख) 12
(ग) 15
(घ) इनमें से कोई नहीं

12. निम्नलिखित में से कौन संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य नहीं है- [2012, 14]
(क) यू० एस० ए०
(ख) चीन
(ग) जापान
(घ) फ्रांस

13. संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय कहाँ स्थित है? [2009, 15, 16]
(क) मास्को
(ख) जेनेवा
(ग) पेरिस
(घ) न्यूयॉर्क

उत्तर

  1. (घ) भाषा की एकता,
  2. (ग) अज्ञान एवं अशिक्षा,
  3. (घ) क्षेत्रीयता,
  4. (ख) एकता की स्थापना में योगदान,
  5. (घ) हेग में,
  6. (घ) श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित,
  7. (घ) 24 अक्टूबर, 1945 में,
  8. (ख) पाँच,
  9. (घ) चीन,
  10. (घ) जर्मनी,
  11. (ग) 15,
  12. (ग) जापान,
  13. (घ) न्यूयॉर्क

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सूक्तिपरक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name सूक्तिपरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सूक्तिपरक निबन्ध

सूक्तिपरक निबन्य

जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना (सुमति से आशय),
  2. कुमति से तात्पर्य,
  3. विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ,
  4. सम्पत्ति का साधन : सुमति,
  5. सुमति एवं नैतिकता,
  6. सुमति और एकता,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना ( सुमति से आशय)-बुद्धि के कारण मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। बुद्धि के साथ विवेक केवल मनुष्य में पाया जाता है। विवेक और बुद्धि के समुचित समन्वय को ही सुमति के नाम से जाना जाता है। विवेक के बिना बुद्धि का कोई महत्त्व नहीं है; क्योंकि विवेक ही मनुष्य को उचित-अनुचित को ज्ञान कराता है। मनुष्य को किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यही विवेक कहलाता है। विवेकपूर्वक किया गया कार्य न केवल व्यक्ति विशेष अपितु प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी होता है। बुद्धि विवेकपूर्वक किए जाने वाले कार्य की दशा और दिशा का निर्धारण करके उसे और अधिक कल्याणकारी बनाने में उत्प्रेरक का कार्य करता है। आशय यही है कि सुमति संसार में सुख-समृद्धि लाने का एक अकेला उपाय है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में कहा है-

जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना॥

कुमति से तात्पर्य–विवेक के अभाव में अर्थात् अविवेक से समन्वित बुद्धि बिगडैल हाथी के समान होती है जो केवल तोड़-फोड़, विध्वंस एवं संहार कर सकती है। इसी संहारक बुद्धि को कुमति कहा जाता है। जब मनुष्य अपनी बुद्धि को श्रेष्ठ कार्यों में लगाता है तो उसे बुद्धिमान कहते हैं और कहते हैं कि वह बड़ा सुबुद्धिवाला है। सुबुद्धि या सुमति की बड़ी महिमा है। जब तक मनुष्य में सुमति रहती है, वह अच्छे कार्यों में लगा होता है। कुमति का प्रभाव व्यक्ति पर शीघ्र पड़ता है और उससे उसकी सुमति कुमति में परिवर्तित हो जाती है; अतः मनुष्य निकृष्ट कार्यों को करता है और ये निकृष्ट कार्य ही उसके लिए दु:ख का कारण बन जाते हैं। इसीलिए कहा गया है-

कुमति कुंज तिन जेहि घर व्यापै सुमति सुहागिन जाय विलापै।

विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ-किसी कार्य को बिना सोचे-समझे नहीं करना चाहिए, क्योंकि अविवेक के कारण मनुष्य बड़ी विपत्ति (मुसीबत) में फँस जाता है। इसके विपरीत सोच-समझकर अर्थात् विवेक या सुमति से कार्य करने पर व्यक्ति के सभी कार्य सिद्ध होते हैं जिससे उसके जीवन में सुख-समृद्धि आती है। इन्हीं सुख-समृद्धियों को सम्पत्ति कहा जाता है। सम्पत्ति से आशय केवल धन-दौलत से नहीं होता आपति मन का चैन, शान्ति और सन्तोष भी सम्पत्ति के अभिन्न अंग हैं। कबीरदास जी ने तो सन्तोष को सबसे बड़ा धन (सम्पत्ति) कहा है–

गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन-धन खान।
जौ आवै सन्तोष-धन, सब धन धूरि समान॥

सम्पत्ति का साधन: सुमति–संसार में जो व्यक्ति सोच-समझकर अर्थात् विवेक अथवा सुमति से कार्य करता है, उसके पास विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने आप आती हैं। स्पष्ट है कि जहाँ सुमति का साम्राज्य होता है, वहाँ सम्पत्ति स्वयं घर बनाकर रहती है। सुमति के अभाव में मनुष्य सोच-विचारकर कार्य नहीं करता; परिणामस्वरूप उसे अनेक कष्टों को भोगना पड़ता है–

बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में कहा है-

जाको विधि दारुन दुख देई, ताकी मति पहलेहि हर लेई।

अर्थात् जिसे ईश्वर घोर कष्ट देना चाहता है, उसकी बुद्धि को वह पहले ही छीन लेता है। जब किसी व्यक्ति की बुद्धि उससे छिन जाती है तो वह कुबुद्धि के प्रभावस्वरूप अनैतिक आचरण करता है, जो उसके लिए महान् दु:ख का कारण बन जाता है। इसलिए इस बात में कोई संशय नहीं रह जाता है कि सुखों की प्राप्ति सुमति से ही सम्भव है।

सुमति हमें मानव-मूल्यों के पालन और संरक्षण की प्रेरणा देती है। प्रेम, मेल-मिलाप, भाईचारा, एकता, परोपकार, दया, करुणा आदि ऐसे ही जीवन-मूल्य हैं, जिन्हें सुमति पोषित करती है। जिस देश में लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं, उस देश में सर्वत्र सुख-समृद्धि फैली होती है। इसलिए हम सुमतिरूपी तलवार से दरिद्रता के बन्धनों को काट सकते हैं। सुमति हमारे कुविचारों पर नियन्त्रण रखती है, जिससे हम कोई अनुचित कार्य नहीं कर पाते। निकृष्ट कार्यों की जड़ कुमति होती है, इसलिए हमें सदैव सुमति से काम करना चाहिए।

सुमति से ही हमें विद्यारूपी धन की प्राप्ति होती है। सुमति हमें ज्ञानार्जन की ओर प्रेरित करती है, इसी की कृपा से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। सुमति से रहित मनुष्य अँधेरे कुएँ में पड़े हुए मेंढक के समान होता है, जिसको कुएँ के बाहर के संसार का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं होता है। उसका संसार कुएँ की परिधि तक ही सीमित रहता है।
संसार के सभी सुख सुमति से ही प्राप्त होते हैं। परिवार हो या समाज, सुमति के बिना उनमें सुख का संचार हो ही नहीं सकता।
जिस देश और समाज में लोग सुमति से काम करते हैं, वह धन-धान्य एवं अनेक सुख से परिपूर्ण हो जाता है। जिस परिवार में पति और पत्नी सुमति से काम करते हैं, वह परिवार स्वर्ग के तुल्य हो जाता है, किन्तु जिन परिवारों में सुमति का अभाव होता है, उन परिवारों को वातावरण अत्यधिक तनाव एवं क्लेश के कारण नरकतुल्य हो जाता है।

सुमति एवं नैतिकता-यदि हम यह कहें कि सुमति ही शक्ति है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिस देश या जाति में सुमति होती है, वही उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं और उनका यश चारों दिशाओं में फैलता है। सुमति सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है। जो व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी सुमति का आश्रय नहीं छोड़ते हैं, वे ही जीवन में उन्नति के शिखर पर पहुँचते हैं। सत्य बोलना, मीठा बोलना, बड़ों का आदर करना आदि मानवोचित गुण हमें सुमति द्वारा ही प्राप्त होते हैं। जिस व्यक्ति में सुमति का अ गव होता है, उसमें अभिमान, ईष्र्या, द्वेष आदि दोष प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। मनुष्य में सुमति का न होना उस, लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। जहाँ सुमति नहीं होती, वहाँ काम, क्रोध, मद, लोभ आदि का साम्राज्य होता है. सुमति के अभाव में मनुष्य ऐसे-ऐसे कार्य कर डालता है जो उसके एवं समाज दोनों के लिए हानिकार होते हैं। कुमति के कारण लोग परस्पर संघर्ष करते हैं एवं अपने आचरण से दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं। ‘सरों को कष्ट पहुँचाकर कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता; अतः कुमति के कारण दूसरों को पीड़ पहुंकर व्यक्ति स्वयं भी अपार पीड़ा को भोगता है।

सुमति और एकता-सुमति समाज को एकता के सूत्र में बाँधती है। एकता सुख एवं समृद्धि की जननी है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एकता से समाज में शक्ति का संचार होता है और आपसी फूट तथा भेदभाव उसे छिन्न-भिन्नकर डालते हैं। इसीलिए हमारे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है ।

घटे न हेल-मेल हा! बढ़े न भिन्नता कभी,
अतयं एक पन्थ के सतर्क पान्थ हों सभी।

उपसंहार-आज कुमति एवं अविवेक के कारण ही सम्पूर्ण संसार विनाश के ज्वालामुखी पर बैठा है। परमाणु अस्त्रों की होड़ ने उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। उसकी कुमति अथवा अविवेक ने ही संसार में आतंकवाद को फैलाकर उसके मन का सुख-चैन एवं शान्ति भंग कर दी है। भ्रष्टाचार जैसे अनैतिक कार्य भी उसकी कुमति का ही परिणाम हैं। सुमति द्वारा ही मनुष्य का कल्याण सम्भव है। हम आज के समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, द्वेष एवं घृणा पर विजय केवल सुमति द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। सुमति ही हमें अनीति, अन्याय एवं अत्याचार से निपटने का उपाय सुझाती है। इसी के द्वारा हम समाज में न्याय एवं नैतिकता की पुनस्र्थापना कर सकते हैं। यदि मनुष्य सुमति का आश्रय ले तो समाज में सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् के साम्राज्य की स्थापना होगी, इसमें किसी भी प्रकार को कोई संशय नहीं है।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत [2014]

सम्बद्ध शीर्षक

  • इच्छा-शक्ति के चमत्कार
  • साहस जहाँ सिद्धि वहाँ [2016]
  • मन ही सफलता की कुंजी है।
  • मन की शक्ति का महत्त्व
  • नर हो न निराश करो मन को [2013]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. मन महाशक्तिवान् है,
  3. मन-विजयी अपने मार्ग पर अडिग रहता है,
  4. सफलता की कुंजी : मन की स्थिरता, धैर्य और सतत कर्म,
  5. मानसिक दुर्बलता का उपचार,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना--मनु महाराज ने कहा है-‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मनुष्य का मन ही उसके बन्धन और मोक्ष का कारण है। आशय यह है कि यदि मानव अपने मन को सांसारिक विषय-भोगों में आसक्त रखे तो वह बन्धन में पड़ा रहेगा और आवागमन के चक्र में घूमता रहेगा, किन्तु यदि वह संसार से मुंह फेरकर ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाए तो दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसके मन में निहित है, शरीर या बाह्य साधनों में नहीं। बाह्य साधन रखते हुए भी यदि आदमी का मन दुर्बल हो जाए तो वह हार जाता है और यदि मन सबल हो तो अल्प साधनों के बल पर भी वह दिग्विजय प्राप्त कर सकता है। वैदिक मन्त्रों में मन की प्रकृति को स्पष्ट किया गया है

यज्जागृतो दूरमुपैति दैवं यत्सुप्तस्य तथैवेति ।
दूरङ्गमं ज्योतिष ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिव संङ्कल्पमस्तु ।।

अर्थात् जो मन हमारे जागने पर दूर चला जाता है, सोने पर भी कहीं अन्य चला जाता है, जो बहुत दूर जाने की शक्ति रखता है, जो प्रकाशों का भी प्रकाश है, वह मन मेरे लिए कल्याणकारी चिन्तन करें।

शास्त्रकारों ने इन्द्रियों का स्वामी मन को माना है। गीता में मन को चंचल माना गया है। वेद भी कहते हैं कि मन सबसे अधिक शक्तिशाली है, इसकी शक्ति अपरिमित है। मनुष्य शारीरिक दृष्टि से चाहे कितना भी बलशाली क्यों न हो, यदि वह मानसिक रूप से क्षीण है तो वह अपने जीवन में प्रगति नहीं कर सकता। कबीर ने कहा है

सुख-दुःख सब कहँ परत हैं, पौरुष तजहुँ न मीत।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ॥

तात्पर्य यह है कि सुख और दुःख सभी पर आते हैं। मनुष्य को कभी भी दुःख से घबराकर पौरुष का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि मन के द्वारा हार स्वीकार किये जाने पर व्यक्ति की हार सुनिश्चित है। इसके विपरीत यदि मनुष्य का मन हार स्वीकार नहीं करता, तो विपरीत परिस्थितियों में भी विजयश्री उसके चरण चूमती है।

मन महाशक्तिवान् है—इतिहास के अनुसार मुहम्मद गोरी के एक सेनापति मुहम्मद-बिनबख्तियार ने सन् 1197 ई० में केवल 2000 सिपाहियों को लेकर बिहार को जीत लिया था और इससे भी कम सिपाहियों को लेकर बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन की राजधानी नदिया (नवद्वीप) पर आक्रमण किया था। बिना लड़े ही लक्ष्मणसेन भाग गया और बंगाल पराजित हो गया। स्पष्ट है कि बिहार और बंगाल के शासक लड़ाई के मैदान में हारने से पहले ही मन से हार चुके थे, इसलिए वे थोड़े-से आक्रमणकारियों का भी सामना न कर सके। इसी प्रकार जब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कुरुक्षेत्र में कहते हैं

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् !

अर्थात् हे अर्जुन! मैं इन कौरव-वीरों को पहले ही मार चुका हूँ, तू तो इन्हें मारने का बस निमित्तमात्र हो जा, तो उनका आशय यही है कि कुरुक्षेत्र के युद्ध में उतरने से पहले ही कौरव मन से हार चुके थे, मर चुके थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि वे इस धर्मयुद्ध में पाण्डवों से नहीं जीत सकेंगे। बस, वे तो केवल दुर्योधन के हेठ के कारण लड़ रहे थे। इस प्रकार वास्तविक जय-पराजय, सफलता-असफलता तो मन की दृढ़ता या दुर्बलताओं पर निर्भर है, साधनों पर नहीं। यही बात लंका पर श्रीराम की विजय के दृष्टान्त से भी पुष्ट होती है। श्रीराम के पास वैसी सशस्त्र सेना भी न थी, फिर भी लंका जैसे दुर्जेय साम्राज्य को जीतना, रावण जैसे त्रैलोक्यविजयी अपराजेय शत्रु से मोर्चा लेना, दुर्लंघ्य सागर को केवल पैदल चलकर ही पार करना मन में अडिग विश्वास का ही परिणाम था और इसी से सम्पूर्ण राक्षस कुल का विनाश सम्भव हुआ। इससे स्पष्ट है कि महापुरुषों को सफलता साधनों के बल पर नहीं, अपने आत्मबल, अपनी दृढ़चित्तता, अपने अडिग निश्चय के बल पर मिलती है।

मन-विजयी अपने मार्ग पर अडिग रहता है--सर्वोच्च तथा गूढ़ तत्त्व के रूप में मन मनुष्य की उच्चतम श्रेष्ठ शक्तियों पर नियन्त्रण करने वाला होता है और उन शक्तियों को सबसे प्रखर रूप में वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसका मन पूर्णतया नियन्त्रित है। औरंगजेब ने महाराजा जयसिंह को काबुल-विजय के लिए भेजा। बीच में अटक का विकराल महानद रास्ता रोके अड़ा था। सेनापति बोला–“महाराज, अटक अटक रहा है।” जयसिंह ने कहा–

सबै भूमि गोपाल की, या में अटक कहाँ ।
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ॥

और अपनी घोड़ा उफनते महानद में डाल दिया। उनके साथ ही सारी सेना भी अटक पार कर गयी। दृढ़चित्त महापुरुषों का व्यवहार ऐसा ही असाधारण होती है। उनके सामने कोई भय, कोई विपत्ति, कोई बाधा टिकती ही नहीं। अपने अपराजेय मन के बूते पर वे सब कुछ जीतते चले जाते हैं।

छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास ने उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा-“शिवा, मैं उदरशूल (पेट के दर्द) से व्याकुल हूँ। यदि शेरनी का दूध मिले तो इसका उपचार हो।” गुरुभक्त शिवा ने एक क्षण की भी हिचकिचाहट दिखाये बिना तत्काल वन को प्रस्थान कर दिया और सिंहनी उनके सामने गाय बनकर चुपचाप खड़ी दूध दुहवाती रही। ऐसी दृढ़चित्तता के सामने पर्वत झुक जाते हैं, नदियाँ पट जाती हैं और समुद्र मार्ग दे देता है। संसार की कोई भी बाधा इसके सामने टिक नहीं पाती, परन्तु ऐसा तभी होता है, जब हम अपनी इन्द्रियोंसहित मन पर भी नियन्त्रण रखें; क्योंकि नियन्त्रण सरल नहीं है। मन के बारे में लिखा है-‘मनः शीघ्रतरं वातात्’ अर्थात् मन की गति हवा से भी अधिक तेज है। यहीं बैठे एक क्षण में ही मन पूरा विश्व घूमने की बात सोच सकता है।

मन की अस्थिरता हार का कारण बनती है और एकाग्रता जीत का। अर्जुन मछली की आँख पर निशाना इसीलिए साध सका; क्योंकि उसका मन एकाग्र था। सावित्री अपने दृढ़ मनोबल के कारण ही अपने मृत पति सत्यवान के प्राण यमराज से छुड़वा सकी।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एक ऐसे गरीब घर में पैदा हुए थे कि रात में पढ़ने के लिए दीपक में तेल तक नहीं रहता था। फलतः सड़क के किनारे लगी लालटेन की टिमटिमाती धीमी रोशनी के नीचे खड़े होकर रातभर पढ़ते रहते थे। जब नींद जोर मारती तो आँख में सरसों का तेल लगा लेते। बंगाल में एक-से-एक बढ़कर विद्वान् हुए हैं, लेकिन विद्यासागर केवल ईश्वरचन्द्र ही कहलाए।

सफलता की कुंजी: मन की स्थिरता, धैर्य एवं सतत कर्म-वास्तव में मन की स्थिरता ही सफलता की कुंजी है। मन को नियन्त्रित करके ही व्यक्ति प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करता है। जब तक मन एकाग्र न हो, मनुष्य कोई भी विद्या ग्रहण नहीं कर सकता। मूर्ख कालिदास मन की एकाग्रता के कारण ही संस्कृत जगत् में महाकवि कालिदास के नाम से प्रसिद्ध हुए। ‘किंग ब्रूस और स्पाइडर’ की छोटी-सी कथा में भी यही सार निहित है कि मन से न हारने वाले, स्थिर, धैर्य और सतत कर्म में निरत व्यक्ति को एक-न-एक दिन सफलता अवश्य ही मिलती है। जीवन में सफलता और असफलताएँ अनेक बार आती हैं। मनुष्य सफलता पर प्रसन्न और असफलता परे दु:खी होता है। असफल होने पर भी हमें अपने मन को नियन्त्रित रखना चाहिए, उसके वशीभूत नहीं होना चाहिए। साहस और उत्साह से मन को पुनः कार्य में लगाकर असफलता को सफलता में बदल देना महानता का लक्षण है।

दृढ़चित्तता की एक प्रमुख विशेषता है—प्रत्येक परिस्थिति में अविचलित रहना। सुख-दु:ख, आशानिराशा, स्तुति-निन्दा, निर्धनता-सम्पन्नता, तत्काल प्राणनाश की आशंका या दीर्घायु कोई भी अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति ऐसे धीर को उसके द्वारा स्वीकृत न्याय-मार्ग से डिगा नहीं सकती-

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वो यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥ ( भर्तृहरि, नीतिशतक)

ऐसे दृढ़चित्त धीर पुरुष जब एक बार किसी काम को शुरू कर देते हैं, फिर चाहे लाखों विघ्न-बाधाएँ आकर बार-बार टकराएँ, वे काम पूरा करके ही दम लेते हैं। गीता में ऐसे धीर पुरुषों को स्थितप्रज्ञ कहा गया है, जो सुख-दुःख और जय-पराजय को समभाव से ग्रहण करते हैं—सुखदुखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।

मानसिक दुर्बलता का उपचार-मानसिक दुर्बलता को दूर करने के लिए अथवा मन को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए अपने मन में कभी भी निराशावादी विचारों को नहीं आने देना चाहिए। आशावादी व्यक्ति कर्म करते हुए अलभ्य वस्तु को भी पा लेता है और जगत् में प्रसिद्धि भी प्राप्त करता है। मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो
X               X                    X
समझो न अलभ्य किसी धन को

यदि हम अपने को विश्व में दूसरे से श्रेष्ठ और ऊँचा दिखाना चाहते हैं तो हमें अपने मनोबल को ऊँचा उठाकर अपनी आशा को बलवती बनाये रखना होगा। विद्वानों के अनुसार हर प्रकार की मानसिक दुर्बलता को दूर करने का व्यावहारिक उपचार यह है कि मनुष्य विपरीत दिशा में सोचना शुरू कर दे; उदाहरणार्थ“मेरा व्यक्तित्व अपूर्ण नहीं है। उसमें कोई त्रुटि या कमजोरी है तो मैं उसे दूर करके रहूँगा। मुझे ईश्वर ने अपना ही रूप बनाया है। उसने मुझे पूर्ण मनुष्य बनने की आज्ञा दी है। पूर्ण पुरुष परमात्मा की मैं रचना हूँ, फिर मैं अपूर्ण कैसे हो सकता हूँ? मेरे जीवन की पूर्णता ही सत्य है। बनाने वाले ने मुझे दीन-हीन-दुर्बल बनने के लिए पैदा नहीं किया। इस प्रकार के विचार निरन्तर अपने मन में दुहराते रहने से मनुष्य कर्म से अपने मन को सबल बनाता जाता है।

उपसंहार-सारांश यह है कि मानव-मन अजस्र शक्ति का स्रोत है। मन की इसी शक्ति को पहचानकर ऋग्वेद में कहा गया है–“अहमिन्द्रो न पराजिग्ये’, अर्थात् मैं शक्ति का केन्द्र हूँ और आजीवन पराजित नहीं हो सकता। आवश्यकता है इस शक्ति को पहचानने की। जो पुरुष स्वभाव से ही दृढ़चित्त होते हैं, वे संसार में महान् कार्य करके, इतिहास को नया मोड़ देकर, सदा के लिए अपना नाम अमर कर जाते हैं। ऐसों को ही महापुरुष, महामानव या महात्मा कहा जाता है।

दैव-दैव आलसी पुकारा

सम्बद्ध शीर्षक

  • परिश्रम का महत्त्व
  • करम प्रधान बिस्व करि राखा

प्रमुख विचार-विन्द

  1. प्रस्तावना,
  2. भाग्यवाद : अकर्मण्यता का सूचक,
  3. प्रकृति भी परिश्रम का पाठ पढ़ाती है,
  4. शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम,
  5. भाग्य और पुरुषार्थ,
  6. सफलता का रहस्य : श्रम,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-जीवन के उत्थान में परिश्रम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊँचा उठने के लिए और सुयश प्राप्त करने के लिए श्रम ही आधार है। श्रम से कठिन-से-कठिन कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। जो श्रम करता है, भाग्य भी उसका ही साथ देता है। जो निष्क्रिय रहता है, उसका भाग्य भी विपरीत हो जाता है। श्रम के बल पर लोगों ने उफनती जलधाराओं को रोककर बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण कर दिया। इन्होंने श्रम के बल पर उत्तुंग, अगम्य पर्वत-चोटियों पर अपनी विजय का ध्वज फहरा दिया। श्रम के बल पर मनुष्य चन्द्रमा पर पहुँच गया। श्रम के द्वारा ही मानव समुद्र को लाँघ गया, खाइयों को पाट दिया तथा कोयले की खदानों से बहुमूल्य हीरे खोज निकाले। मानव सभ्यता और उन्नति का एकमात्र आधार श्रम ही है। श्रम के सोपानों का अवलम्ब लेकर मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है। अतः परिश्रम ही मानव-जीवन का सच्चा सौन्दर्य है; क्योंकि परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपने को पूर्ण बना सकता है। परिश्रम ही उसके जीवन में सभाग्य, उत्कर्ष और महानता लाने वाला है। जयशंकर प्रसाद जी ने भी कहा है

जितने कष्ट कण्टकों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला,
गौरव-गन्ध उन्हें उतना ही, यत्र तत्र सर्वत्र मिला।

भाग्यवाद : अकर्मण्यता का सूचक-जिन लोगों ने परिश्रम का महत्त्व नहीं समझा; वे अभाव, गरीबी और दरिद्रता का दुःख भोगते रहे। जो लोग मात्र भाग्य को ही विकास का सहारा मानते हैं, वे भ्रम में हैं। आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति सन्त मलूकदास का यह दोहा उधृत करते हैं-

अजगर करे न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ॥

मेहनत से जी चुराने वाले दास मलूका के स्वर में स्वर मिलाकर भाग्य की दुहाई के गीत गा सकते हैं; लेकिन वे नहीं सोचते कि जो चलता है, वही आगे बढ़ता है और मंजिल को प्राप्त करता है। कहा भी गया है|

उद्यमेन ही सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥

अर्थात् परिश्रम से सभी कार्य सफल होते हैं, केवल कल्पना के महल बनाने से व्यक्ति अपने मनोरथ को पूर्ण नहीं कर सकता। शक्ति और स्फूर्ति से सम्पन्न गुफा में सोया हुआ वनराज शिकार-प्राप्ति के ख्याली पुलाव पकाती रहे तो उसके उदर की अग्नि कभी भी शान्त नहीं हो सकती। सोया पुरुषार्थ फलता नहीं है। ऐसे ही अकर्मण्य व आलसी व्यक्ति के लिए कहा गया है

सकल पदारथ एहि जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं॥

अर्थात् संसार में सुख के सकल पदार्थ होते हुए भी कर्महीन लोग उसका उपभोग नहीं कर पाते। जो कर्म करता है, फल उसे ही प्राप्त होता है और जीवन भी उसी का जगमगाता है। उसके जीवन उद्यान में ही रंग-बिरंगे सफलता के सुमन खिलते हैं।

परिश्रम से जी चुराना, आलस्य और प्रमोद में जीवन बिताने के समान बड़ा कोई पाप नहीं है। गाँधी जी का कहना है कि जो लोग अपने हिस्से का काम किये बिना ही भोजन पाते हैं, वे चोर हैं। वास्तव में काहिली कायरों और दुर्बल जनों की शरण है। ऐसे आलसी मनुष्य में न तो आत्म-विश्वास ही होता है और न ही अपनी शक्ति पर भरोसा। किसी कार्य को करने में न तो उसे कोई उमंग होती है और न स्फूर्ति। परिणामस्वरूप पग-पग पर असफलता और निराशा के कॉटे उसके पैरों में चुभते हैं।

प्रकृति भी परिश्रम का पाठ पढ़ाती है-प्रकृति के प्रांगण में झाँककर देखें तो चींटियाँ रात-दिन अथक परिश्रम करती हुई नजर आती हैं। पक्षी दाने की खोज में अनन्त आकाश में उड़ते हुए दिखाई देते हैं। हिरन आहार की खोज में वन-उपवन में कुलाँचे भरते रहते हैं। समस्त सृष्टि में श्रम का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। जो लोग श्रम को त्यागकर आलस्य का आश्रय लेते हैं वे जीवन में कभी सफल नहीं होते, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता नहीं करता–“God helps those who help themselves.” परिश्रमी व्यक्ति के लिए सफलता व स्वागत के द्वार स्वयमेव खुल जाते हैं-

कर्मवीर के आगे पथ का, हर पत्थर साधक बनता है।
दीवारें भी दिशा बतातीं, जब वह आगे को बढ़ता है।

वस्तुत: परिश्रम द्वारा प्राप्त हुई उपलब्धि से जो मानसिक सन्तोष व आत्मिक तृप्ति प्राप्त होती है वह निष्क्रिय व्यक्ति को कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। प्रकृति ने ही यह विधान बनाया है कि बिना परिश्रम के खाये हुए अन्न का पाचन भी सम्भव नहीं। व्यक्ति को विश्राम का आनन्द भी तभी प्राप्त होता है जब उसने भरपूर श्रम किया हो। वस्तुत: श्रम उन्नति, उत्साह, स्वास्थ्य, सफलता, शान्ति व आनन्द का मूलाधार है।

शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम-परिश्रम चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक दोनों ही श्रेष्ठ । सत्य तो यह है कि मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम कहीं अधिक श्रेयस्कर है। गाँधी जी की मान्यता है। कि स्वस्थ, सुखी और समुन्नत जीवन के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य है। शारीरिक श्रम प्रकृति का नियम है। और इसकी अवहेलना निश्चय ही हमारे जीवन के लिए बहुत ही दुःखदायी सिद्ध होगी। परन्तु यह बड़ी लज्जा और क्षोभ की बात है कि आज मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम को नीची निगाहों से देखा जाता है। लोग अपना काम अपने हाथों से करने में लज्जा का अनुभव करते हैं।

भाग्य और पुरुषार्थ-भाग्य और पुरुषार्थ जीवन के दो पहिये हैं। भाग्यवादी बनकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना मौत की निशानी है। परिश्रम के बल पर ही मनुष्य अपने बिगड़े भाग्य को बदल सकता है। परिश्रम ने महा मरुस्थलों को हरे-भरे उद्यानों में बदल दिया तथा मुरझाये जीवन में यौवन का वसन्त खिला दिया। कवि ने इन भावों को कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी है

प्रकृति नहीं डरकर झुकती कभी भाग्य के बल से।
सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से श्रम जल से ।

परिश्रम सुमन का सौरभ है, मनुष्य का भाग्य है, जीवन का नवनीत है व देवताओं के वरदान से बढ़कर है। परिश्रम जीवन को नन्दन वन बना देता है। कवि श्रम का यशोगान करता हुआ कहता है

जीवन एक सुमन मानो तो सौरभ उसका श्रम है।
देवों की वरदान शक्ति भी इसके आगे कम है॥

सफलता का रहस्य : श्रम-महापुरुष बनने का प्रथम सोपान परिश्रमशीलता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं सभी कष्ट-सहिष्णुता और श्रम के कारण श्रद्धा, गौरव और यश के पात्र बने। वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास आदि जन्म से महाकवि नहीं थे। उन्हें ठोकरें लगीं, ज्ञान-नेत्र खुले और अनवरत परिश्रम से महाकवि बने। गाँधी जी का सम्मान उनके परिश्रम एवं कष्ट-सहिष्णुता के कारण ही है। इन सबने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण श्रमरत रहकर बिताया। उसी का परिणाम था कि वे सफलता के उच्च शिखर तक पहुँच सके। महान् राजनेताओं, वैज्ञानिकों, कवियों, साहित्यकारों और ऋषि-मुनियों की सफलता का रहस्य एकमात्र परिश्रम ही है।

इतिहास साक्षी है कि भाग्य का आश्रय छोड़कर कर्म में तत्पर होने वाले लोगों ने ही इतिहास का निर्माण किया है, समय पर शासन किया है। कृष्ण यदि भाग्य के सहारे बैठे रहते तो एक ग्वाले का जीवन बिताकर ही काल-कवलित हो गये होते, नादिरशाह ईरान में जीवनपर्यन्त भेड़ों को ही चराता हुआ मर जाता, स्टालिन अपने वंश-परम्परागत व्यवसाय (जूते बनाने) को करता हुआ एक कुशल मोची बनता, खुश्चेव कोयले की खदान का मजदूर ही रह जाता, गोर्की कूड़े-कचरे के ढेर से चीथड़े ही बीनता रहता, बाबर समरकन्द से भागकर हिन्दूकुश की पर्वत-श्रेणियों में ही खो जाता, शेरशाह सूरी बिहार के गाँव में किसी किसान का हलवाहा होता, हैदरअली सेना का एक सामान्य सिपाही ही बना रहता, प्रेमचन्द एक प्राथमिक पाठशाला के अध्यापक के रूप में अज्ञात रह जाते और लाल बहादुर शास्त्री के लिए प्रधानमन्त्री का पद एक सुहावना सपना ही बना रहता। निश्चय ही इन्होंने जो कुछ पाया वह सब कुछ दृढ़ संकल्प शक्ति, साहस, धैर्य, अपने ध्येय में अटल विश्वास और कर्म शौर्य के कारण ही पाया। इनकी सफलता के पीछे किसी भाग्य अथवा संयोग का हाथ न था। दुष्यन्त कुमार ने कहा भी है–

कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख नहीं होता।
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो ॥

ऊपर उल्लिखित पुरुषों ने सम्भवत: ऐसा ही कोई कथन अपने जीवन के प्रेरक के रूप में अपनाया होगा। संस्कृत में भी कहा गया है-

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः।
दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति ।।
दैवं विहाय पौरुषमात्मकृत्या
यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः ।।

तात्पर्य यह है कि उद्योगी पुरुष वास्तव में पुरुष-सिंह होता है, लक्ष्मी उसी का वरण करती है। ‘भाग्य देगा’ यह कायरों का कथन है। भाग्य को अलग रख कर परिश्रम करना चाहिए। यत्न करने पर भी यदि कुछ प्राप्त नहीं होता, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है ?

उपसंहार–परिश्रमी व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य पूँजी है। श्रम वह महान् गुण है, जिससे व्यक्ति को विकास और राष्ट्र की उन्नति होती है। संसार में महान् बनने और अमर होने के लिए परिश्रमशीलता अनिवार्य है। श्रम से अपार आनन्द मिलता है। महात्मा गाँधी ने हमें श्रम की पूजा का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कहा-“श्रम से स्वावलम्बी बनने का सौभाग्य मिलता है। हम अपने देश को श्रम और स्वावलम्बन से ही ऊँचा उठा सकते हैं।” श्रम की अद्भुत शक्ति को देखकर ही नेपोलियन ने कहा था कि, “संसार में असम्भव कोई काम नहीं। असम्भव शब्द को तो केवल मूर्खा के शब्दकोष में ही हूँढ़ा जा सकता है।”

आधुनिक युग विज्ञान का युग है। प्रत्येक बात को तर्क की कसौटी पर कसा जा सकता है। भाग्य जैसी काल्पनिक वस्तुओं से अब जनता का विश्वास उठता जा रहा है। वास्तव में भाग्य श्रम से अधिक कुछ भी नहीं। श्रम का ही दूसरा नाम भाग्य है। जीवन में श्रम की महती आवश्यकता है। बिना श्रम के मानव-जाति का कल्याण नहीं, दुःखों से त्राण नहीं और समाज में उसका कहीं भी सम्मान नहीं। हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपने भाग्य के विधाता हम स्वयं हैं। जब हम कर्म करेंगे तो समय आने पर हमें उसका फल अवश्य ही मिलेगा। उसमें प्रकृति के नियमानुसार कुछ समय लगना स्वाभाविक ही है। कबीरदास ने ठीक ही कहा है-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींच सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥

को न कृसंगति पाई नसाई [2016, 18]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. कुसंगति का मानव-जीवन पर प्रभाव,
  3. कुसंगति की छूत,
  4. कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति,
  5. कुसंगति से हानि,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-“को न कुसंगति पाई नसाई’ का अर्थ है-कुसंगति में पड़कर कौन नष्ट नहीं हो जाता। इसका तात्पर्य बुरे लोगों की संगति में आकर बुरे व्यवहार व आचरण को अनुसरण करने से है। इस प्रकार व्यक्ति जो कुसंगति में आकर बुरा व्यवहार करने लगता है, उसका मानसिक विकास रुक जाता है। तथा कुसंगति के कारण ऐसे मनुष्य का यश, धन, वैभव आदि सभी कुछ नष्ट हो जाता है। समाज में ऐसे कई जीवंत उदाहरण देखे जा सकते हैं। कई कुसंगी मनुष्यों को समय रहते काफी कुछ खोना पड़ता है। कुसंगी व्यक्ति अपने बुरे चरित्र के कारण ही दूसरों को हानि पहुँचाने वाले होते हैं तथा ऐसे व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह भी शीघ्र ही बुराइयों से प्रभावित हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है-“मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। उनके अनुसार मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके कुसंगी व्यक्तियों का साथ छोड़ दे। कुसंगी व्यक्तियों के सन्दर्भ में निम्न सूक्ति दी गई है—

हानि कुसंग सुसंगति लाहू, लोकहुँ वेद विदित सब काहू।।
बिनसहू उपजइ ज्ञान जिमि, पाई कुसंग सुसंग॥

कुसंगति का मानव-जीवन पर प्रभाव-कुसंगति का मुख्य रूप एक ही है-दूषित विचारों का संग। मनुष्य के शरीर का संचालन मन-मस्तिष्क के ही सांकेतिक निर्देशों से होता है। जैसा विचार और जैसी भावनाएँ होंगी वैसी ही कर्म प्रेरणा होगी और तीनों के सम्मिलित प्रभाव से व्यक्तित्व विनिर्मित होगा। विचारों का संग दो प्रकार से होता है—पहला साहित्य के अध्ययन से तथा दूसरा व्यक्तियों के सम्पर्क से। संगति दोनों की ही प्रभावकारी होती है। सस्ता साहित्य, सनसनीखेज खबरें और बातें, अश्लील साहित्य तथा गपोड़बाजी, नशेबाजी, जुआरी, सटोरिया, कलही, दुव्यसनी व्यक्ति अपना दुष्प्रभाव अन्य व्यक्तियों पर भी डालते हैं। भली-बुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियाँ प्रोत्साहन से पनपती हैं। प्रोत्साहन और अवसर न मिलने पर मुरझाकरे धीरे-धीरे मृतप्राय अवस्था में जा पहुँचती हैं। कुसंगति दुष्प्रवृत्तियों को बढ़ाती है और सत्प्रवृत्तियाँ उसकी प्रचण्ड आँच से झुलसती जाती हैं। इन प्रवृत्तियों से मानव प्रभावित होता है, क्योंकि दुष्प्रवृत्तियों का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़े बिना नहीं रहता। समाज में सदाचारी और दुराचारी दोनों प्रकार के लोग रहते हैं। दोनों ही समाज को प्रभावित करते हैं। समाज में रहने वाले अन्य व्यक्ति किसी सदाचारी व्यक्ति से इतनी जल्दी प्रभावित नहीं होते जितना कि दुराचारी व्यक्ति से प्रभावित होते हैं। भविष्य में जिसका विपरीत प्रभाव उनके क्रियाकलापों को देखने से स्पष्ट होता है।

कुसंगति की छुत-कुसंगति (बुरी संगति) को कीचड़ के समान बताया गया है कि इस कीचड़ से बचकर रहना चाहिए, अन्यथा यह हमारे आचरण को दूषित कर देगा। यदि कोई मनुष्य एक बार बुरी संगत में फँस गया है और कलंकित हो गया तो वह फिर बार-बार कलंकित होने से नहीं डरता और धीरे-धीरे बुरी आदतों का अभ्यस्त हो जाता है। जब बुराई आदत बन जाती है तब वह उससे घृणा भी नहीं करता और न बुरा कहने से चिढ़ता ही है।

कुसंगति में पड़े हुए व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और उसे भले-बुरे की पहचान भी नहीं रह जाती। उसे बुराई ही भलाई दीखने लगती है और वह इतना गिर जाता है कि बुराई की पूजा भक्त की तरह करने लगता है। इसलिए यदि अपने हृदय और आचरण को निष्कलंक और उज्ज्वल बनाये रखना है तो कुसंगति की छूत से बचना चाहिए।

कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति–कुसंगी व्यक्ति की समाज में स्थिति घृणापूर्ण होती है। क्योंकि उसके कुमार्ग पर पैर रखते ही उसके शरीर में तेज, बल, बुद्धि लेशमात्र भी नहीं रह जाती है। आत्मबल में कमी आ जाती है; जैसे-सीता जी का अपहरण करने से पहले रावण इधर-उधर देखता रहा और भयग्रस्त होकर कुत्ते की तरह उसने आश्रम में प्रवेश किया। कुसंगी व्यक्ति की बुराइयाँ भयानक बीमारी की तरह होती हैं, जो बहुत कम समय में ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को अपनी चपेट में ले लेती हैं, जिससे कुसंगी व्यक्ति की संगत में आने वाला हर व्यक्ति उसके ही सामान रोगी हो जाता है जो समाज को बहुत बुरी तरह से आहत करते हैं। इससे समाज का भविष्य भी बुराइयों के अँधेरे में डूब जाता है। इसी कारण कुसंगी व्यक्तियों को समाज से बाहर ही रखा जाता है या समाज के लोगों को सूचित कर दिया जाता है कि ऐसे लोगों से दूर रहकर अपना व अपने बच्चों का भविष्य खराब होने से बचाएँ, जिससे आपकी आने वाली पीढ़ियों को भी उसके दुष्परिणामों से सुरक्षित रखा जा सके। इन सब कारणों के कारण कुसंगी व्यक्ति को समाज से मिलने वाली बहुत सी प्रताड़नाओं को झेलना पड़ता है।

कुसंगति से हानि–कुसंगति बहुत ही हानिकारक होती है। यदि किसी व्यक्ति पर कुसंगति का कोई प्रभाव न पड़ रहा हो, फिर भी कुसंगी व्यक्तियों के साथ रहने के कारण उसे बुरा ही समझा जाता है। कोई चोरी न भी करे लेकिन यदि वह चोरों के साथ मिलता-जुलता भी है, तो लोग उसे भी चोर ही कहेंगे। विद्यार्थियों के लिए तो कुसंगति विनाश को जन्म देती है। इसमें पड़कर विद्यार्थी बहुत-सी बुराइयों को ग्रहण कर लेते हैं।

कुसंगति में रहने से कोई भी सुख प्राप्त नहीं होता, बल्कि थोड़ा-बहुत सुख-चैन होता भी है, वह भी नष्ट हो जाता है। अत: कुसंगति समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को नष्ट करती है, जो भविष्य में उसके लिए हानिप्रद होती है।

उपसंहार-कुसंगति मानव-जीवन के लिए एक अभिशाप है क्योंकि कुसंगति का मानव-जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और इससे सदैव हानि ही होती है। मनुष्य कितना ही सतर्क और सावधान रहे कुसंगति काजल की कोठरी के समान होती है जिसकी चपेट में व्यक्ति कभी-न-कभी आ ही जाता है, जिससे उसके जीवन का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को उसके खुद के परिवार के साथ-साथ समाज के अन्य व्यक्ति भी स्वीकार नहीं करते हैं और हर तरफ से सिर्फ प्रताड़नाएँ मिलती हैं। इससे कुसंगी व्यक्ति के मन में सभी के प्रति गलत भावनाएँ घर कर लेती हैं जो दूसरों की हानि देखकर उसे प्रसन्नता प्रदान करती हैं। ऐसे व्यक्ति अपना शरीर त्याग करके भी दूसरों का अहित करने का पाठ पढ़ाते हैं; अतः कुसंगति से दूर ही रहना चाहिए। छात्रों के लिए तो कुसंगति विनाश लेकर आती है। इसमें पड़कर छात्र अनेक व्यसन सीख जाते हैं। कुसंगति के कारण महान-से-महान व्यक्ति भी पतन के गर्त में गिरता चला जाता है। कुसंगति व्यक्ति की बुद्धि को जड़ करती है, उसे पग-पग पर मान-हानि उठानी पड़ती है तथा व्यक्ति स्वार्थी हो जाता है; इसलिए सदैव कुसंगति से बचकर रहना चाहिए।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance (राजस्व) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance (राजस्व).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 13
Chapter Name Public Finance (राजस्व)
Number of Questions Solved 20
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance (राजस्व)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
राजस्व या लोकवित्त का अर्थ एवं परिभाषाएँ बताइए तथा लोकवित्त का अध्ययन-क्षेत्र स्पष्ट कीजिए। [2006, 08]
उत्तर:
राजस्व या लोकवित्त अर्थशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण विभाग है, जिसका अभिप्राय “सरकारी प्रक्रिया में आयगत व्यय के चारों और जटिल समस्याओं के केन्द्रीकरण से है।” यह अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की मध्य सीमा पर स्थित अर्थविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जो राज्यों के वित्तीय पक्ष का विधिवत् अध्ययन करता है।
राजस्व की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

प्रो० डाल्टन के अनुसार, “राजस्व के अन्तर्गत सार्वजनिक सत्ताओं से आय व व्यय एवं उनका एक-दूसरे से समायोजन एवं समन्वय का अध्ययन किया जाता है।”
एडम स्मिथ के अनुसार, “राज्य व्यय तथा आय के सिद्धान्त एवं स्वभाव के अनुसन्धान को राजस्व कहते हैं।”
फिण्डले शिराज के अनुसार, “राजस्व ऐसे सिद्धान्त का अध्ययन है जो कि सार्वजनिक सत्ताओं के व्यय एवं कोषों की प्राप्ति से सम्बन्धित है।”
लुट्ज के अनुसार, “राजस्व उन साधनों की प्राप्ति, संरक्षण और वितरण कर अध्ययन करता है। जो राजकीय या प्रशासन सम्बन्धी कार्यों को चलाने के लिए आवश्यक है।”

राजस्व या लोकवित्त का अध्ययन-क्षेत्र
राज्य द्वारा वित्तीय व्यवस्था से सम्बन्धित जो भी नीतियाँ एवं सिद्धान्त निर्मित किये जाते हैं वे सभी राजस्व की विषय-सामग्री के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाते हैं। राजस्व के अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दुओं का अध्ययन किया जाता है

1. सार्वजनिक आय – राजस्व के अन्तर्गत सरकार की आय के विभिन्न स्रोतों, आय के स्रोतों के सिद्धान्तों, आय के साधनों का क्रियान्वयन एवं उनके पड़ने वाले प्रभावों आदि का अध्ययन किया जाता है। संक्षेप में, राजस्व के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि सरकार की आय के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं? इसमें कर, कर के सिद्धान्त एवं करों के प्रभावों आदि का अध्ययन किया जाता है।

2. सार्वजनिक व्यय – सार्वजनिक व्यय के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि सरकार द्वारा प्राप्त आय को जनता के कल्याण हेतु किस प्रकार व्यय किया जाए ? व्यय के सिद्धान्त क्या होने चाहिए, सार्वजनिक व्यय का समाज के उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा आय व रोजगार पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?

3. सार्वजनिक ऋण – जब सरकार की आय, व्यय की अपेक्षा कम होती है तब सार्वजनिक व्ययों की पूर्ति हेतु सरकार को ऋण लेने पड़ते हैं। ये ऋण आन्तरिक एवं बाह्य दोनों साधनों से प्राप्त किये जा सकते हैं। सार्वजनिक ऋण कहाँ से प्राप्त किये जाएँ, ऋण लेने के उद्देश्य, ऋणों को किस प्रकार लौटाना है व ऋणों पर ब्याज की दरें क्या होनी चाहिए आदि बातों का अध्ययन सार्वजनिक ऋण के अन्तर्गत किया जाता है।

4. संघीय वित्त – भारत में संघात्मक वित्तीय प्रणाली को अपनाया गया है अर्थात् केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों के बीच आय का बंटवारा किन सिद्धान्तों के आधार पर किया जाए तथा केन्द्र सरकार राज्यों को किस अनुपात में अनुदान आदि का वितरण करे आदि का अध्ययन संघात्मक वित्त-व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।

5. वित्तीय प्रशासन – वित्तीय प्रशासन के अन्तर्गत सम्पूर्ण वित्तीय व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है। बजट किस प्रकार बनाया जाए, बजट को पारित करना, करों का निर्धारण एवं करों का संग्रह करना, सार्वजनिक व्ययों का संचालन व नियन्त्रण तथा सार्वजनिक व्यय की अंकेक्षण (Audit) वित्तीय प्रशासन में सम्मिलित हैं।

6. राजकोषीय नीति एवं आर्थिक सन्तुलन – राजकोषीय नीति के द्वारा अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थायित्व (Economic Stability) एवं आर्थिक विकास (Economic Development) से सम्बन्धित कार्यक्रम तैयार किया जाता है अर्थात् अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान करने के लिए देश के तीव्र आर्थिक विकास हेतु कर, आय, व्यय, ऋण एवं घाटे की अर्थव्यवस्था को किस प्रकार क्रियान्वित किया जाये जिससे कि देश में आर्थिक स्थिरता बनी रहे तथा देश का तीव्र गति से आर्थिक विकास हो सके। सुदृढ़ एवं संगठित वित्तीय नीति आर्थिक विकास व आर्थिक स्थिरता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है।

प्रश्न 2
राजस्व के महत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। [2010]
उत्तर:
वर्तमान समय में प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था में राजस्व की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गयी है और इस महत्त्व में निरन्तर वृद्धि हो रही है। वास्तविकता यह है कि ज्यों-ज्यों सरकार का कार्य-क्षेत्र बढ़ रहा है, राजस्व का महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है।
राजस्व के महत्त्व का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. सरकार के बढ़ते हुए कार्यों की पूर्ति में सहायक – वर्तमान समय में लोकतान्त्रिक सरकार होने के कारण राज्य के कार्यों में तेजी से वृद्धि हुई है। सरकार को विकास सम्बन्धी बहुआयामी और अनेक कार्य सम्पादित करने पड़ते हैं। परिवहन ऊर्जा, स्वास्थ्य, बीमा, बैंकिंग आदि अनेक क्षेत्रों में सरकार के दायित्व दिन-प्रतिदिन बढ़े हैं जिसके कारण सरकार के खर्चे में भी वृद्धि हुई है। इसके लिए सरकार के आय-स्रोतों में वृद्धि करना आवश्यक हो गया है। सार्वजनिक व्यय और आय के बढ़ते क्षेत्र ने राजस्व के महत्त्व को बढ़ा दिया है।

2. आर्थिक नियोजन में महत्त्व – प्रत्येक देश अपने सन्तुलित एवं तीव्र आर्थिक विकास के नियोजन को अपना रहा है। आर्थिक नियोजन की सफलता बहुत कुछ राजस्व की उचित व्यवस्था पर निर्भर है।

3. आय एवं सम्पत्ति के वितरण में विषमताओं को कम करने में सहायक – वर्तमान समय में सामाजिक और आर्थिक समस्याओं में एक महत्त्वपूर्ण समस्या आय और सम्पत्ति के वितरण में विषमता है। इस समस्या के समाधान में राजस्व की विशिष्ट भूमिका है।

4. पुँजी-निर्माण में सहायक –  विकासशील देशों में आर्थिक विकास के क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण समस्या पूँजी-निर्माण की धीमी गति ही रही है। इन देशों में आय और फलस्वरूप बचत का स्तर नीचा रहने के कारण पूँजी-निर्माण धीमी गति से हो पाता है। इस समस्या के समाधान के विभिन्न उपायों में राजस्व उपायों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

5. राष्ट्रीय आय में वृद्धि – विकासशील देशों में राष्ट्रीय आय बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया जाता है। इस दृष्टि से भी राजस्व का विशिष्ट महत्त्व है।

6. मूल्य-स्तर में स्थिरता या आर्थिक स्थिरता – अर्थव्यवस्था स्थायित्व के राजकीय हस्तक्षेप अर्थात् राजस्व-नीति की विशिष्ट भूमिका होती है। करारोपण, लोक-व्यय और लोक-ऋण की नीतियों के मध्य उचित समायोजन करके मूल्य स्तर में स्थिरता या आर्थिक स्थायित्व के उद्देश्य की प्राप्ति की जा सकती है।

7. रोजगार में वृद्धि – प्रत्येक देश में अधिकतम रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य पर जोर दिया जाता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में भी राजस्व क्रियाएँ सहायक होती हैं। इनके द्वारा जब देश में उत्पादन एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है तब रोजगार के अवसरों का सृजन होता है।

8. देश के संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग – आर्थिक संसाधनों का विभिन्न उत्पादन क्षेत्रों में उपयोग और इनका सर्वोत्तम प्रयोग सरकार की उचित और प्रभावशाली मौद्रिक एवं राजस्व नीतियों से ही सम्भव है। सरकार अपनी बजट नीति के द्वारा उपभोग, उत्पादन तथा वितरण को वांछित दिशा में प्रवाहित कर सकती है।

9. सरकारी उद्योगों के संचालन में सुविधा – आज प्रत्येक देश में किसी-न-किसी मात्रा में लोक उद्यमों का संचालन किया जा रहा है। इन उद्योगों में विशाल मात्रा में पूँजी का विनियोजन करना पड़ता है। इस पूँजी की व्यवस्था करने तथा सामाजिक हित में हानि पर चलने वाले सरकारी उद्योगों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से राजस्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।

10. राजनैतिक क्षेत्र में महत्त्व – राजनैतिक क्षेत्र में भी राजस्व का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। सरकार अपनी राजनीतिक नीतियों को उचित प्रकार से क्रियान्वित तभी कर सकती है, जबकि उसके पास पर्याप्त वित्तीय साधन हों और उन साधनों का प्रयोग करने के लिए उसके पास उचित राजस्व नीति हो।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सार्वजनिक आय के साधनों को समझाइए।
उत्तर:
सार्वजनिक आय के साधन
सार्वजनिक आय के अनेक साधन हैं, जिन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 13 Public Finance 1

कर से प्राप्त आय – सरकार को सर्वाधिक आय करों से प्राप्त होती है। सरकार दो प्रकार के कर लगाती है-प्रत्यक्ष कर एवं परोक्ष कर। प्रत्यक्ष करों के अन्तर्गत आयकर, उपहार कर, मनोरंजन कर, मालगुजारी, मृत्यु कर, सम्पत्ति कर तथा परोक्ष कर के अन्तर्गत उत्पादन कर, बिक्री कर, तट कर आदि आते हैं। प्रत्येक देश की सरकार अपनी अधिकांश आय करों से ही प्राप्त करती है।

गैर-कर आय – सरकार को करों के अतिरिक्त अन्य साधनों से भी आय प्राप्त होती है, जिन्हें गैर-कर आय कहते हैं। इस प्रकार की आय निम्नलिखित है

  1. शुल्क – सरकार व्यक्तियों से विभिन्न प्रकार के शुल्क प्राप्त करती है; जैसे-न्यायालय शुल्क, लाइसेन्स शुल्क, अनुज्ञापन बनवाने की फीस आदि।
  2. दरें – स्थानीय सरकारें; जैसे-नगर-निगम, नगर पंचायतें, जिला पंचायत, ग्राम पंचायत आदि अपनी-अपनी सीमाओं के अन्तर्गत बनी अचल सम्पत्ति पर जो कर लगाती हैं, उन्हें दरें कहते हैं। इससे भी सरकार को आय प्राप्त होती है।
  3. दण्ड – सरकारी नियमों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों पर सरकार दण्डं लगाती है, जिससे सरकार को आय प्राप्त होती है।
  4. उपहार – समय-समय पर आवश्यकता पड़ने पर देश की जनता द्वारा सरकार को उपहार प्रदान किये जाते हैं; जैसे – युद्ध के समय युद्ध कोष में दान, राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दान, अकाल पीड़ितों के लिए सहायता, भूकम्प के समय सहायता आदि। इससे भी सरकार को आय प्राप्त होती है।
  5. पत्र-मुद्रा – आजकल प्रायः सभी सरकारों ने पत्र-मुद्रा को अपनाया हुआ है। पत्र-मुद्रा से भी सरकार को आय प्राप्त होती है।
  6. सार्वजनिक सम्पत्ति से आय – देश की विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों; जैसे-वन, खान इत्यादि पर सरकार को स्वामित्व होता है। इस प्रकार की सम्पत्ति को पट्टे पर या किराये पर देकर सरकार आय प्राप्त करती है।
  7.  मूल्य – सरकार कुछ व्यवसायों को संचालित करती है। सरकार अपने उद्योगों में निर्मित वस्तुओं और सेवाओं का विक्रय करके मूल्य प्राप्त करती है; जैसे- रेल, डाक-तार, सरकारी कारखानों में उत्पन्न वस्तुओं से आय प्राप्त होती है।

प्रश्न 2
आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में राजस्व के महत्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में राजस्व का महत्त्व

आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में राजस्व के महत्त्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

1. पूँजी निर्माण –  किसी देश के आर्थिक विकास में पूँजी निर्माण का अत्यधिक महत्त्व होता है। अत: राजस्व की कार्यवाहियों का उद्देश्य यह होना चाहिए कि उपभोग व अन्य गैर-विकास कार्यों की ओर से पूँजी निर्माण अर्थात् बचत व विनियोग की ओर साधनों का अन्तरण हो। सरकार पूँजी निर्माण में वृद्धि हेतु निम्नलिखित उपाय अपना सकती है

(अ) प्रत्यक्ष भौतिक नियन्त्रण – प्रत्यक्ष भौतिक नियन्त्रण द्वारा विशिष्ट उपभोग व अनुत्पादक विनियोगों को कम किया जा सकता है।
(ब) वर्तमान करों की दरों में वृद्धि – इस दृष्टि से कर की संरचना इस प्रकार हो सकती है

  •  धनी वर्ग के उन साधनों को जो निष्क्रिय पड़े हों अथवा जिनका राष्ट्र की दृष्टि से लाभप्रद उपयोग न होता हो, आय-कर व सम्पत्ति-कर आदि लगाकर प्राप्त करना।
  •  ऐसी सरकारी वस्तुओं पर कर लगाना जिनकी माँग बेलोच है।
  • कृषक वर्ग की बढ़ती हुई आय पर कर लगाना।

(स) सार्वजनिक उद्योगों से बचत प्राप्त करना – सार्वजनिक उद्योगों को दक्षता व कुशलता से चलाया जाना चाहिए ताकि उनसे अतिरेक प्राप्त किया जा सके और उसका अधिक उत्पादन कार्यों में उपयोग किया जा सके।

(द) सार्वजनिक ऋण – सरकार ऐच्छिक बचतों को ऋण के रूप में प्राप्त कर सकती है। विशेष रूप से विकासशील देशों में लघु बचतों का विशेष महत्त्व होता है। वर्तमान समय में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ; जैसे – विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ आदि; विकासशील देशों को पर्याप्त ऋण प्रदान करती है।

(य) घाटे का बजट – जब सरकार के व्यय उसकी आय से अधिक हो जाते हैं, तो सरकार घाटे की व्यवस्था अपनाती है। सरकार को इस राशि का उपयोग अत्यधिक सतर्कता के साथ करना चाहिए, ताकि राजनीतिक स्थितियाँ उत्पन्न न हों।

2. उत्पादन के स्वरूप में परिवर्तन करके – सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करके सरकार ऐसे उद्योगों का विस्तार कर सकती है, जिन्हें वह राष्ट्रीय हित की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समझती है। इसके अतिरिक्त, लोक वित्त कार्यवाहियों का उद्देश्य निजी निवेश को वांछित दिशाओं की ओर गतिशील करने के लिए भी किया जा सकता है।

3. बेरोजगारी दूर करना – विकासशील देशों में व्यापक बेरोजगारी, अदृश्य बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी पाई जाती है। इसका समाधान दीर्घकालिक विकास नीति द्वारा ही किया जा सकता है। देश में करारोपण, सार्वजनिक व्यय व ऋण सम्बन्धी नीतियों के द्वारा निवेश में वृद्धि करके रोजगार के अवसरों का विस्तार किया जा सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सार्वजनिक आय-व्यय एवं ऋण से आप क्या समझते हैं ? लिखिए।
उत्तर:

  • सार्वजनिक आय – सरकार को विभिन्न प्रकार के स्रोतों से जो आय प्राप्त होती है वह सार्वजनिक आय कहलाती है। सार्वजनिक आय के अन्तर्गत कर, शुल्क, कीमत, अर्थदण्ड, सार्वजनिक उपक्रमों से प्राप्त आय, सरकारी एवं गैर-सरकारी बचते आदि आते हैं।
  • सार्वजनिक व्यय – सरकार विभिन्न प्रकार के स्रोतों से जो आय प्राप्त करती है, वह जनता के हित में योजनानुसार व्यय करती है, इस व्यय को सार्वजनिक व्यय कहते हैं। सरकार अपनी आय को बजट बनाकर व्यय करती है।
  • सार्वजनिक ऋण – सरकार को अनेक मदों पर व्यय करना पड़ता है। जब सरकार की आय, व्यय से कम होती है तो अतिरिक्त सार्वजनिक व्ययों की पूर्ति हेतु सरकार द्वारा जो ऋण लिये जाते हैं, उन्हें सार्वजनिक ऋण कहते हैं।

प्रश्न 2
लोक-वित्त के विषय-क्षेत्र (विषय-वस्तु) का वर्णन कीजिए। [2007]
या
लोक-वित्त की विषय-वस्तु के चार प्रमुख भागों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर:
राज्य द्वारा वित्तीय व्यवस्था से सम्बन्धित जो भी नीतियाँ एवं सिद्धान्त निर्मित किये जाते हैं। वे सभी राजस्व की विषय-सामग्री के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाते हैं। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित का अध्ययन किया जाता है

  1.  सार्वजनिक आय,
  2. सार्वजनिक व्यय,
  3.  सार्वजनिक ऋण,
  4. संघीय वित्त,
  5.  वित्तीय प्रशासन,
  6. राजकोषीय नीति एवं आर्थिक सन्तुलन।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राजस्व की परिभाषा लिखिए। [2009]
उत्तर:
प्रो० डाल्टन के अनुसार, “राजस्व के अन्तर्गत सार्वजनिक सत्ताओं से आय व व्यय एवं उनका एक-दूसरे से समायोजन एवं समन्वय का अध्ययन किया जाता है।”

प्रश्न 2
“राजस्व का सम्बन्ध सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा आय प्राप्त करने व व्यय करने के तरीके से है।” यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है?
उत्तर:
प्रो० फिण्डले शिराज की।

प्रश्न 3
राज्य व्यय तथा आय के सिद्धान्त एवं स्वभाव के अनुसन्धान को राजस्व कहते हैं। यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है?
उत्तर:
एडम स्मिथ की।

प्रश्न 4
सार्वजनिक आय के दो साधन बताइए।
उत्तर:
सार्वजनिक आय के दो साधन हैं

  1. कर तथा
  2.  सार्वजनिक सम्पत्ति से आय।

प्रश्न 5
संघीय वित्त क्या है?
उत्तर:
भारत में संघात्मक वित्तीय प्रणाली को अपनाया गया है। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों के बीच वित्तीय साधनों के विभाजन के सिद्धान्त एवं आधारों से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 6
सार्वजनिक व्यय से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आय को सरकार जनता के हित में विभिन्न योजनान्तर्गत व्यय करती है। यह व्यय सार्वजनिक व्यय कहलाता है।

प्रश्न 7
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने राजस्व को कैसा विज्ञान माना है?
उत्तर:
व्यय तथा आय के सिद्धान्त एवं स्वभाव का विज्ञान।

प्रश्न 8
राजस्व की विषय-सामग्री के तत्त्वों को बताइए।
उत्त:
राजस्व की विषय-सामग्री के तत्त्व हैं

  1.  सार्वजनिक आय तथा
  2. सार्वजनिक व्यय।

प्रश्न 9
सरकार की आय के दो प्रमुख स्रोत लिखिए।
उत्तर:
सरकार की आय के दो स्रोत हैं

  1.  कर तथा
  2. सरकारी उपक्रमों से प्राप्त आय।

प्रश्न 10
सार्वजनिक ऋण कहाँ से प्राप्त किये जा सकते हैं ?
उत्तर:
सार्वजनिक ऋण आन्तरिक एवं बाह्य दोनों साधनों से प्राप्त किये जा सकते हैं।

प्रश्न 11
वित्तीय प्रशासन में क्या अध्ययन किया जाता है?
उत्तर:
वित्तीय प्रशासन में बजटों के निर्माण व प्रशासन तथा लेखा परीक्षण के कार्यों का अध्ययन किया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
राजस्व उन साधनों की प्राप्ति, संरक्षण और वितरण का अध्ययन करता है, जो राजकीय या प्रशासन सम्बन्धी कार्यों को चलाने के लिए आवश्यक होते हैं।” यह परिभाषा है
(क) लुट्ज की।
(ख) प्रो० फिण्डले शिराज की
(ग) प्रो० बेस्टेबल की
(घ) श्रीमती हिक्स की
उत्तर:
(क) लुट्ज की।

प्रश्न 2
राजस्व की विषय-सामग्री में सम्मिलित है
(क) सार्वजनिक आय
(ख) सार्वजनिक व्यय
(ग) सार्वजनिक ऋण
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी

प्रश्न 3
सार्वजनिक आय के साधन हैं
(क) कर
(ख) शुल्क
(ग) उपहार
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी।

प्रश्न 4
लोक वित्त की विषय-वस्तु सम्बन्धित है
(क) सरकार के व्यय से
(ख) सरकार की आय से
(ग) सरकार ने ऋण से
(घ) सरकार के व्यय, आय, ऋण तथा राजकोषीय नीति से
उत्तर:
(घ) सरकार के व्यय, आय, ऋण तथा राजकोषीय नीति से।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 12 Profit

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 12
Chapter Name Profit (लाभ)
Number of Questions Solved 32
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 12 Profit (लाभ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
लाभ क्या है ? सकल लाभ एवं निवल लाभ की व्याख्या कीजिए।
या
लाभ को परिभाषित कीजिए तथा लाभ प्राप्त करने की विशेषताएँ लिखिए। कुल लाभ के विभिन्न अंग (अवयव) क्या हैं ? बताइए।
उत्तर:
लाभ का अर्थ एवं परिभाषाएँ
उत्पादन के पाँच उपादान हैं – भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन और उद्यम। इनमें उद्यम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उद्यमी (साहसी) ही उत्पादन के उपादानों को जुटाता है, उपादानों के स्वामियों को उनके प्रतिफल का भुगतान करता है और उत्पादन सम्बन्धी सभी प्रकार की जोखिम उठाता है। उत्पादन के सभी उपादानों का भुगतान करने के बाद जो कुछ भी शेष बचती है, वही उसको प्रतिफल या लाभ (Profit) होता है। अत: राष्ट्रीय आय का वह अंश, जो उद्यमी को प्राप्त होता है, ‘लाभ’ कहलाता है।

एस० ई० थॉमस के अनुसार, “लाभ उद्यमी का पुरस्कार है।”
प्रो० हेनरी ग्रेसन के अनुसार, “लाभ को नवप्रवर्तन करने का पुरस्कार, जोखिम उठाने का पुरस्कार तथा बाजार से अपूर्ण प्रतियोगिता के कारण उत्पन्न अनिश्चितताओं का परिणाम कहा जा सकता है। इसमें से कोई भी दशा अथवा दशाएँ आर्थिक लाभ को उत्पन्न कर सकती हैं।”
प्रो० वाकर के अनुसार, “लाभ योग्यता को लगान है।” क्लार्क के अनुसार, “लाभ आर्थिक उन्नति का प्रत्यक्ष फल है।’
प्रो० मार्शल के अनुसार, “राष्ट्रीय लाभांश का वह भाग जो उद्यमी को व्यवसाय का जोखिम उठाने के उपलक्ष्य में प्राप्त होता है, लाभ कहलाता है।”

लाभ की विशेषताएँ

  1. लाभ एक अनिश्चित अवशिष्ट है। इसे किसी अनुबन्ध के रूप में निश्चित नहीं किया जा सकता।
  2.  लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है। ऋणात्मक लाभ का अर्थ है-उद्यमी को हानि होना।
  3. उत्पत्ति के अन्य साधनों की अपेक्षा लाभ की दर में उतार-चढ़ाव अधिक होता है।

लाभ के प्रकार
लाभ दो प्रकार का होता है
(अ) सकल लाभ या कुल लाभ तथा
(ब) निवल लाभ या शुद्ध लाभ।

(अ) कुल लाभ (Gross Profit) – साधारण बोलचाल की भाषा में जिसे हम लाभ कहते हैं, अर्थशास्त्र में उसे कुल लाभ कहा जाता है। एक उद्यमी को अपने व्यवसाय अथवा फर्म में प्राप्त होने वाली कुल आय (Total Revenue) में से उसके कुल व्यय को घटाकर जो शेष बचता है वह कुल लाभ होता है। अत: कुल लाभ किसी उद्यमी को अपनी कुल आय में से कुल व्यय को घटाने के पश्चात् प्राप्त अतिरेक होता है। कुल लाभ उद्यमी के केवल जोखिम उठाने का प्रतिफल ही नहीं, बल्कि उसमें उसकी अन्य सेवाओं का प्रतिफल भी सम्मिलित रहता है।

कुल आय में से उत्पत्ति के साधनों को दिये जाने वाले प्रतिफल (लगाने, मजदूरी, वेतन तथा ब्याज) तथा घिसावट व्यय को निकालने के पश्चात् जो शेष बचता है, उसे ही कुल लाभ कहते हैं।
कुल लाभ ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है
कुल लाभ = कुल आय – स्पष्ट लागते
(Gross Profit) = (Total Revenue) – (Explicit Costs)
सरल शब्दों में, किसी वस्तु की कुल उत्पत्ति और कुल उत्पादन व्यय में जो अन्तर होता है, वही उद्यमी का ‘कुल लाभ’ कहा जाता है।

कुल लाभ के अंग (अवयव)
कुल लाभ के निम्नलिखित अंग है।

1. उत्पादक के निजी साधनों का पुरस्कार – उद्यमी उत्पादन-कार्य में अपने निजी साधन भी लगाता है जिन्हें अस्पष्ट लागत’ कहते हैं। कुल लाभ में निजी साधनों का पुरस्कार भी सम्मिलित रहता है। अत: शुद्ध लाभ ज्ञात करते समय उत्पादक के कुल लाभ में से निम्नलिखित निजी साधनों के व्यय घटा देने चाहिए

  1. उद्यमी की निजी भूमि का लगान।
  2. साहसी की अपनी पूंजी का ब्याज।
  3. उद्यमी के व्यवस्थापक अथवा निरीक्षक के रूप में पुरस्कार।

2. संरक्षण व्यय – इसके अन्तर्गत दो प्रकार के व्यय शामिल होते हैं।

  • मूल्य ह्रास व्यय – आजकल उत्पादन-कार्य हेतु विशाल मशीनों तथा यन्त्रों का सहारा लिया जाता है। इन मशीनों का धीरे-धीरे ह्रास (टूट-फूट) होता रहता है और निश्चित समय के पश्चात् इन्हें पूर्णतः बदलना पड़ता है। इन कार्यों के लिए उद्यमी को कुछ धनराशि अलग से संचित करनी पड़ती है। इसे ‘ह्रास निधि’ अथवा ‘अनुरक्षण निधि’ कहते हैं। अत: असल लाभ ज्ञात करने के लिए कुल लाभ में से अनुरक्षण निधि में डाले जाने वाले मूल्य के ह्रास प्रभार को घटा दिया जाना चाहिए।
  • बीमा व्यय – उद्यमी चल और अचल सम्पत्ति का आग, वर्षा, भूकम्प, चोरी, दंगे-फसाद आदि के विरुद्ध बीमा कराता है, ताकि उसे इन आपदाओं से हानि न उठानी पड़े। इस कार्य हेतु उद्यमी को प्रतिवर्ष प्रीमियम देना होता है। यह बीमा व्यय भी कुल लाभ में सम्मिलित रहता है। अतः शुद्ध लाभ को ज्ञात करते समय कुल लाभ में से बीमा व्यय को घटा दिया जाना चाहिए।

3. अव्यक्तिगत लाभ – उद्यमी को ऐसे लाभ भी प्राप्त होते हैं जिनका सीधा सम्बन्ध उद्यमी की स्वयं की योग्यता से नहीं होता। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के लाभ शामिल होते हैं

  •  एकाधिकारी लाभ – जब उत्पादन के क्षेत्र में एकमात्र उत्पादक होता है तो उसको वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। ऐसी दशा में वह अतिरिक्त आय अर्जित करने में सफल हो जाता है। यह अतिरिक्त आय कुल लाभ में शामिल रहती है। इसे निकालकर शुद्ध लाभ ज्ञात किया जा सकता है।
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  •  आकस्मिक लाभ – प्राकृतिक संकट, युद्ध तथा फैशन एवं माँग की दशाओं में अचानक परिवर्तन हो जाने से कभी-कभी उत्पादकों को अप्रत्याशित लाभ होने लगता है। यह लाभ कुल लाभ में शामिल होता है।

4. शुद्ध लाभ – यह उद्यमी की योग्यता, चतुराई, जोखिम उठाने की शक्ति व सौदा करने की क्षमता का पारिश्रमिक है। अतः उद्यमी के पूर्वानुमान, जोखिम वहन करने की शक्ति तथा सौदा करने की शक्ति के फलस्वरूप जो धनराशि उसे प्राप्त होती है, उसे शुद्ध लाभ कहते हैं। यह कुल लाभ’ का ही अंग है। संक्षेप में कुल लाभ पिछले पृष्ठ पर दिखाया गया है।

कुल आगम में से स्पष्ट तथा अस्पष्ट लागतों को घटा देने के पश्चात् जो शेष बचता है, वही ‘शुद्ध लाभ है।

सूत्र रूप में,
शुद्ध लाभ = कुल लाभ-(स्पष्ट लागतें + अस्पष्ट लागते)

परिभाषाएँ – शुद्ध लाभ को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने निम्नवत् परिभाषित किया है

  1.  जे० के० मेहता के अनुसार, “अनिश्चिता के कारण इस प्रकार प्रावैगिक संसार में उत्पादन कार्यों में चौथी श्रेणी का त्याग उत्पन्न हो जाता है। यह श्रेणी है-जोखिम उठाना अथवा अनिश्चितता वहन करना। लाभ इसी का पुरस्कार होता है।”
  2. थॉमस के अनुसार, “लाभ उद्यमी का पुरस्कार उस जोखिम के लिए है, जिसे वह दूसरों पर नहीं टाल सकता है।”
  3. फिशर के अनुसार, “शुद्ध लाभ सभी जोखिम उठाने का पुरस्कार नहीं, बल्कि अनिश्चितता की जोखिम को उठाने का पुरस्कार है।”

शुद्ध लाभ में निम्नलिखित तत्त्व शामिल होते हैं

  1. जोखिम तथा अनिश्चितता उठाने का पुरस्कार। उत्पादक, उत्पादन की मात्रा का निर्धारण अर्थव्यवस्था की भावी माँग का अनुमान लगाकर करता है। यदि उसका अनुमान सही सिद्ध होता है, तो उसे लाभ होता है अन्यथा हानि। उद्यमी के अतिरिक्त उत्पादन के अन्य साधनों का प्रतिफल तो निश्चित होता है और उन्हें उनके प्रतिफल का भुगतान प्राय: उत्पादन के विक्रय से पूर्व ही कर दिया जाता है। केवल उद्यमी को प्रतिफल ही अनिश्चित रहता है।
  2. सौदा करने की मान्यता का पुरस्कार।
  3. नवप्रवर्तनों (innovations) का पुरस्कार।
  4. बाजार की अपूर्णताओं के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाला पुरस्कार।

प्रश्न 2
लाभ का निर्धारण किस प्रकार होता है ? सचित्र व्याख्या कीजिए।
या
लाभ के माँग व पूर्ति के सिद्धान्त को समझाइए।
उत्तर:
लाभ का निर्धारण या लाभ का माँग व पूर्ति का सिद्धान्त
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार लाभ का निर्धारण भी उद्यमियों की माँग एवं पूर्ति के द्वारा किया जा सकता है अर्थात् लाभ का निर्धारण उद्यमियों की माँग एवं पूर्ति की शक्तियों के द्वारा उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर साहसी की माँग और पूर्ति एक-दूसरे के ठीक बराबर होती हैं, यही सन्तुलन बिन्दु होता है। इस सन्तुलन द्वारा जो लाभ की दर निश्चित होती है, इसे लाभ की सन्तुलन दर कहा जा सकता है।

उद्यम की पूर्ति – उद्यम की पूर्ति निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है|

1. देश में औद्योगिक विकास की स्थिति – देश में जितना औद्योगिक विकास होगा, उतनी ही अधिक उद्यमियों की पूर्ति होगी।
2. जनसंख्या का आकार, उसका चरित्र एवं मनोवृत्ति – यदि देश में जनसंख्या अधिक होगी तो उद्यमियों की पूर्ति अधिक होगी। यदि देश के लोगों की मनोवृत्ति जोखिम उठाने की है तब भी उद्यमियों की पूर्ति अधिक होगी।
3. आय का असमान वितरण – यदि राष्ट्रीय लाभांश का वितरण असमान है तब भी देश में उद्यमियों की पूर्ति अधिक होगी।
4. लाभ की आशा – लाभ की आशा उद्यमियों को जोखिम उठाने के लिए प्रेरित करती है। लाभ की दर जितनी अधिक ऊँची होगी साहसी की पूर्ति उतनी ही अधिक होगी।
5. समाज द्वारा सम्मान – यदि समाज में साहसी के कार्य का सम्मान किया जाता है और उन्हें राष्ट्रीय लाभांश में से अधिक भाग दिया जाता है, तब उद्यमियों की पूर्ति अधिक होगी।
6. उपयुक्त शिक्षा एवं ट्रेनिंग की व्यवस्था – विशेष वर्ग के साहसियों के विकास के लिए उपयुक्त शिक्षा एवं ट्रेनिंग की व्यवस्था भी उद्यमियों की पूर्ति में वृद्धि करती है।

उद्यम की माँग व पूर्ति का सन्तुलन या लाभ का निर्धारण
लाभ का निर्धारण उद्यमियों की माँग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर उद्यमी की माँग एवं पूर्ति एक-दूसरे के ठीक बराबर होती हैं अर्थात् लाभ की दर उस बिन्दु पर निर्धारित होगी जहाँ पर उद्यमी का सीमान्त आय उत्पादकता वक्र उद्यमी के पूर्ति वक्र को काटता है। यदि किसी समय-विशेष पर उद्यमी की माँग, पूर्ति की अपेक्षा अधिक हो जाती है तो उद्यमियों को अधिक लाभ मिलने लगता है। इसके विपरीत, यदि उद्यमी की पूर्ति उसकी माँग की अपेक्षा अधिक हो जाती है तब लाभ की दर कम हो जाती है। दीर्घकाल में लाभ की दर की प्रवृत्ति सन्तुलन बिन्दु पर रहने की होती है।

दिये गये चित्र में OX-अक्ष पर उद्यमी की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर लाभ की दर दिखायी गयी है। चित्र में DD उद्यमी का माँग वक्र तथा SS उद्यमी का पूर्ति वक्र है। मॉग एवं पूर्ति वक्र परस्पर EE बिन्दु पर काटते हैं। E सन्तुलन बिन्दु है तथा N रेखा सामान्य लाभ 6 ME (Normal Proft) को दर्शाती है। OM लाभ की सन्तुलन दर है।
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आलोचनाएँ

  1. उद्यमी की माँग और पूर्ति ब्याज की दर को प्रभावित कर सकती है, किन्तु उन्हें लाभ का निर्धारक नहीं कहा -X जा सकता। लाभ का वास्तविक निर्धारक उद्यमियों के द्वारा उद्यमी की माँग एवं पूर्ति । आकस्मिक जोखिम का सहन किया जाना है।
  2.  इस सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप में प्रयोग करना कठिन है, क्योंकि अन्य साधनों की माँग उद्यमी करता है, किन्तु उद्यमी की माँग कौन करता है ? प्रो० जे० के० मेहता ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि उत्पत्ति के अन्य साधन उद्यमी की माँग करते हैं।

यद्यपि यह सिद्धान्त दोषपूर्ण है, फिर भी सामान्य लाभ के निर्धारण का सबसे अच्छा सिद्धान्त माँग और पूर्ति का सिद्धान्त है। वर्तमान युग में अधिकांश अर्थशास्त्री इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सकल लाभ तथा शुद्ध लाभ में अन्तर बताइए। [2013]
उत्तर:
सकल लाभ एवं शुद्ध लाभ में अन्त
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प्रश्न 2
लाभ का लगान सिद्धान्त समझाइए।
उत्तर:
लाभ का लगान सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रमुख अमेरिकन अर्थशास्त्री प्रो० वाकर (Walker) ने किया था। इनके अनुसार, लाभ एक प्रकार का लगान है। प्रो० वाकर ने लाभ को योग्यता का लगाने (Rent of Ability) माना है जो साहसियों की योग्यता में भिन्नता होने के कारण उन्हें प्राप्त होता है। योग्यता का लगान (लाभ) अधिसीमान्त और सीमान्त साहसियों की योग्यता के अन्तर के कारण उत्पन्न होता है। जिस प्रकार सीमान्त भूमि पर कोई लगान नहीं होता अर्थात् भूमि लगानरहित होती है, उसी प्रकार सीमान्त साहसी (Marginal Entrepreneur) भी होता है। इस सीमान्त साहसी से अधिक योग्य एवं श्रेष्ठ साहसी अधिसीमान्त साहसी होते हैं। इनकी योग्यता को प्रतिफल सीमान्त साहसी के द्वारा नापा जाता है। सीमान्त साहसी लाभ के रूप में किसी प्रकार का अतिरेक प्राप्त नहीं करता। प्रो० वाकर के शब्दों में, “लाभ योग्यता का लगीन है। जिस प्रकार बिना लगान की भूमि होती है जिसकी उपज केवल मूल्य को पूरा करती है, उसी प्रकार बिना लाभ की फर्म अथवा साहसी होता है जिसकी आय केवल उत्पादन को पूरा करती है। जिस प्रकार एक भूमि के टुकड़े का लगान बिना लगान की भूमि के ऊपर अतिरेक होता है और मूल्य में सम्मिलित नहीं होता, उसी प्रकार किसी फर्म का लाभ बिना मुनाफे की फर्म के ऊपर अतिरेक होता है। अधिक योग्यता वाले व्यवसायी सीमान्त व्यावसायियों के ऊपर लाभ प्राप्त करते हैं।

आलोचनाएँ

  1. यह सिद्धान्त लाभ की प्रकृति को ठीक नहीं बताता। व्यवसाय में अधिक लाभ सदैव साहसी की उत्तम योग्यता के कारण नहीं, बल्कि उद्यमी को आकस्मिक लाभ तथा एकाधिकारी लाभ भी प्राप्त हो सकते हैं।
  2.  प्रो० मार्शल के अनुसार, लाभ को लगाने की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। लगान सदैव धनात्मक होता है, जिन लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है।
  3.  भूमि बिना लगान की हो सकती है, किन्तु साहसी बिना लाभ के नहीं हो सकता; क्योंकि साहसी की पूर्ति तभी होती है जब उसे लाभ मिलता है।
  4. मिश्रित पूँजी वाली कम्पनियों के हिस्सेदारों को बिना किसी विशेष योग्यता के ही लाभ प्राप्त । होता है।

प्रश्न 3
“लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
लाभ के जोखिम सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2014, 16]
उत्तर:
‘लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार है’ इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० हॉले ने किया था। उनके अनुसार लाभ व्यवसाय में जोखिम के कारण उत्पन्न होता है। प्रत्येक व्यवसाय में जोखिम होता है। जोखिम को उठाने के लिए उत्पत्ति का कोई भी अन्य साधन तैयार नहीं होता है। इसलिए प्रत्येकव्यवसाय में जोखिम उठाने वाला होना चाहिए और जोखिम वहन करने के लिए उचित प्रतिफल मिलना चाहिए। बिना इस प्रतिफल के कोई भी साधन व्यवसाय की जोखिम नहीं उठाएगा। जो साधन जोखिम उठाता है उसे साहसी (Entrepreneur) कहते हैं। साहसी व्यवसाय में जोखिम उठाकर महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।

जोखिम उठाने का कार्य लोग पसन्द नहीं करते; क्योंकि भूमि, श्रम, पूँजी एवं प्रबन्ध का पुरस्कार निश्चित होता है, किन्तु साहसी का पुरस्कार अनिश्चित होता है। इस कारण साहसी को उसकी सेवाओं के बदले में प्रतिफल मिलना आवश्यक है। लाभ ही वह प्रतिफल हो सकता है जो साहसी को जोखिम उठाने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि लाभ जोखिम उठाने का प्रतिफल है। जिस व्यवसाय में जोखिम जितनी अधिक होती है, उतना ही अधिक लाभ उद्यमी को मिलना चाहिए।

आलोचना – यद्यपि सभी अर्थशास्त्री इस बात को स्वीकार करते हैं कि लाभ जोखिम उठाने का प्रतिफल है, फिर भी लाभ के जोखिम सिद्धान्त की आलोचनाएँ की गयी हैं, जो निम्नलिखित हैं

  1. प्रो० नाईट के अनुसार, “सभी प्रकार के जोखिम से लाभ प्राप्त नहीं होता है। कुछ जोखिम का पूर्वानुमान के आधार पर बीमा आदि कराकर जोखिम से बचा जा सकता है। इस कारण इस प्रकार के जोखिम के लिए लाभ प्राप्त नहीं होता है। लाभ केवल अज्ञात जोखिम को सहन करने के कारण ही उत्पन्न होता है।”
  2. प्रो० कारवर का मत है कि, “लाभ इसलिए प्राप्त नहीं होता कि जोखिम उठायी जाती है, बल्कि इसलिए मिलती है कि जोखिम नहीं उठायी जाती। श्रेष्ठ साहसी जोखिम को कम कर देते हैं, इसलिए उन्हें लाभ मिलता है।”

प्रश्न 4
लाभ नवप्रवर्तन के कारण उत्पन्न होता है। संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
या
लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त क्या है ? समझाइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुम्पीटर का मत है कि लाभ नवप्रवर्तन के कारण उत्पन्न होता है। शुम्पीटर ने ‘लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

प्रो० शुम्पीटर के अनुसार, “लाभ साहसी के कार्य का प्रतिफल है अथवा वह जोखिम, अनिश्चितता तथा नवप्रवर्तन के लिए भुगतान है।”
प्रो० हेनरी ग्रेसन के अनुसार, “लाभ को नवप्रवर्तन करने का पुरस्कार कह सकते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि एक उद्यमी को लाभ नवप्रवर्तन के कारण प्राप्त होता है। एक उद्यमी का उद्देश्य अधिकतम लाभ अर्जित करना होता है, अत: वह उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तन करता रहता है। उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तन से अभिप्राय उत्पादन कार्य में नयी मशीनों का प्रयोग, उत्पादित वस्तुओं के प्रकार में परिवर्तन, कच्चे माल में परिवर्तन, वस्तु को विक्रय विधि एवं बाजार में परिवर्तन व नये-नये आविष्कार हो सकते हैं; अत: नवप्रवर्तन एकं विस्तृत अवधारणा है।

एक उद्यमी अधिक लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से नये-नये आविष्कार एवं नयी-नयी उत्पादन रीतियों का उपयोग करता रहता है, जिसका परिणाम उत्पादन लागत को कम करना तथा लागत और कीमत के अन्तर को बढ़ाना होता है, जिससे लाभ का जन्म होता है। लाभ की भावना से प्रेरित होकर उद्यमी नवप्रवर्तन का उपयोग करता है। इस प्रकार लाभ नवप्रवर्तन को प्रोत्साहित करता है तथा नवप्रवर्तन के कारण ही लाभ अर्जित होता है। अतः लाभ व नवप्रवर्तन में घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार लाभ नवप्रवर्तन का कारण एवं परिणाम दोनों है।

यदि एक उद्यमी लाभ अर्जित करने के लिए नवप्रवर्तन का उपयोग करता है और वह इस उद्देश्य में सफल हो जाता है, तब अन्य उद्यमी भी लाभ से आकर्षित होकर अपने उत्पादन कार्य में नवप्रवर्तन को उपयोग में लाते हैं। इस प्रकार नवप्रवर्तन के कारण लाभ प्राप्त होता रहता है।

शुम्पीटर का यह मत कि लाभ नवप्रवर्तन के कारण उत्पन्न होता है, सत्य प्रतीत होता है।
आलोचनाएँ – लाभ के नवप्रवर्तन सिद्धान्त की यह कहकर आलोचना की जाती है कि शुम्पीटर के अनुसार लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार नहीं है, लाभ तो नवप्रवर्तन का परिणाम है, उचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि यदि हम ध्यानपूर्वक मनन करें तो पता लगता है कि नवप्रवर्तन भी जोखिम का अभिन्न अंग है। नवप्रवर्तन करने में भी उद्यमी को जोखिम रहती है। अतः लाभ निर्धारण में से जोखिम व अनिश्चितता को निकाल देने के पश्चात् लाभ का सिद्धान्त अधूरा रह जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
लाभ का मजदूरी सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
प्रो० टॉजिग और डेवनपोर्ट के अनुसार, “साहसी की सेवाएँ भी एक प्रकार का श्रम हैं; अतः साहसी को मजदूरी के रूप में लाभ प्राप्त होता है। अतः लाभ को एक प्रकार की मजदूरी समझना ही अधिक उपयुक्त होगा। प्रो० टॉजिग के अनुसार, “लाभ केवल अवसर के कारण उत्पन्न नहीं होता, बल्कि विशेष योग्यता के प्रयोग का परिणाम होता है जो एक प्रकार का मानसिक श्रम है और वकीलों तथा जजों के श्रम से अधिक भिन्न नहीं है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि लाभ । व्यवसायी के मानसिक श्रम की मजदूरी होती है।

आलोचनाएँ

  1.  यह सिद्धान्त लाभ और मजदूरी के मौलिक अन्तर को नहीं समझ पाया है। साहसी व्यवसाय में जोखिम उठाता है, किन्तु मजदूर को जोखिम नहीं उठानी पड़ती है।
  2. मजदूरी सर्वदा परिश्रम का प्रतिफल है, किन्तु लाभ बिना परिश्रम के भी मिल जाता है।
  3.  प्रो० कार्वर के अनुसार, “लाभ तथा मजदूरी का पृथक् रूप से अध्ययन करना एक वैज्ञानिक आवश्यकता है।”

प्रश्न 2
लाभ के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
लाभ का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त-जिस प्रकार उत्पादन के अन्य साधनों का प्रतिफल उनकी सीमान्त उत्पत्ति के द्वारा निश्चित होता है उसी प्रकार साहस का पुरस्कार (लाभ) भी साहसी की सीमान्त उत्पादन शक्ति के द्वारा निश्चित होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, साहसी का सीमान्त उत्पादन जितना अधिक होता है उसे उतना ही अधिक लाभ प्राप्त होता है।

आलोचनाएँ

  1. व्यवसायी की सीमान्त उपज का पता लगाना कठिन होता है। एक फर्म में एक ही साहसी होता है; अतः सीमान्त साहसी की सीमान्त उत्पादिता ज्ञात करना असम्भव है।
  2. यह सिद्धान्त साहसी के माँग पक्ष पर ध्यान देता है, पूर्ति पक्ष पर नहीं; अत: यह एकपक्षीय है।
  3. यह सिद्धान्त आकस्मिक लाभ का विश्लेषण नहीं करता जो पूर्णतया संयोग पर निर्भर होता है। साहसी का सीमान्त उत्पादकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

प्रश्न 3
लाभ का समाजवादी सिद्धान्त क्या है ? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
लाभ का समाजवादी सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के जन्मदाता कार्ल माक्र्स हैं। उनके अनुसार लाभ इसलिए उत्पन्न होता है कि श्रमिकों को उचित मजदूरी नहीं दी जाती। इस प्रकार लाभ श्रमिकों का शोषण करके अर्जित किया जाता है। लाभ एक प्रकार के साहसी द्वारा श्रमिकों की छीनी हुई मजदूरी है। इस कारण कार्ल मार्क्स ने लाभ को कानूनी डाका (Legalised Robbery) कहा है।

आलोचनाएँ

  1.  आलोचकों का मत है कि लाभ उद्यमी की योग्यता तथा जोखिम सहन करने का प्रतिफल है, न कि श्रमिकों का शोषण। ।
  2. उत्पादन कार्य में श्रम के अतिरिक्त अन्य उपादान; जैसे-भूमि, पूँजी, प्रबन्ध वे साहस भी योगदान करते हैं; अत: लाभ को कानूनी डाका कहना उपयुक्त नहीं है।
  3.  समाजवादी अर्थव्यवस्था में भी लाभ का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। समाजवादी देशों में लाभ पूर्णतया समाप्त नहीं हो पाया है।

प्रश्न 4
लाभ के प्रावैगिक सिद्धान्त को समझाइए।
उत्तर:
लाभ का प्रावैगिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन जे० बी० क्लार्क ने किया है। उनके अनुसार, लाभ का एकमात्र कारण समाज का गतिशील परिवर्तन है। यदि समाज गतिशील है। अर्थात् जनसंख्या, पूँजी की मात्रा, रुचि, उत्पत्ति के तरीकों आदि में परिवर्तन होता रहता है तब समाज गतिशील माना जाता है और लाभ केवल गतिशील समाज में ही उत्पन्न होता है। इसलिए कहा जा सकता है कि लाभ इसलिए प्राप्त होता है, क्योंकि समाज प्रावैगिक अवस्था में है।

आलोचनाएँ

  1.  प्रो० नाइट ने इस सिद्धान्त की आलोचना इन शब्दों में की है-“प्रावैगिक परिवर्तन स्वयं लाभ को उत्पन्न नहीं करते, बल्कि लाभ वास्तविक दशाओं की उन दशाओं से, जिनके अनुसार व्यावसायिक प्रबन्ध किया जा चुका है, भिन्न हो जाने के कारण उत्पन्न होता है।”
  2.  टॉजिग के अनुसार, “पुराने तथा स्थायी व्यवसायों में प्रबन्ध सम्बन्धी दैनिक समस्याओं को सुलझाने के लिए निर्णय-शक्ति और कुशलता की आवश्यकता होती है। आधुनिक प्रगतिशील तथा शीघ्र परिवर्तनीय काल में इन गुणों के लाभपूर्ण उपयोग की अधिक आवश्यकता होती है।
    उपर्युक्त कारणों से यह कहना त्रुटिपूर्ण है कि लाभ का कारण प्रावैगिक अवस्था है।

प्रश्न 5:
‘लाभ अनिश्चितता उठाने का प्रतिफल है।’ समझाइए।
या
लाभ का अनिश्चितता सिद्धान्त क्या है ?
या
लाभ के अनिश्चितता वहन सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [2014]
या
लाभ के अनिश्चितता वहन सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
लाभ का अनिश्चितता उठाने का सिद्धान्त–इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० नाइट ने किया है। उनके अनुसार, लाभ जोखिम उठाने का प्रतिफल नहीं, वरन् अनिश्चितता को सहन करने के प्रतिफल के रूप में प्राप्त होता है। प्रो० नाइट के अनुसार, व्यवसाय में कुछ जोखिम ऐसी होती है। जिनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है तथा बीमा आदि कराकर उन जोखिमों से बचा जा सकता है। इन्हें निश्चित एवं ज्ञात जोखिम कहा जाता है। इन ज्ञात व निश्चित खतरों को उठाने के लिए लाभ प्राप्त नहीं होता है। इसलिए लाभ को जोखिम का प्रतिफल नहीं कहा जा सकता । अन्य दूसरे प्रकार की जोखिम जिसका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता और जिससे बचने के लिए भी कोई प्रबन्ध नहीं किया जा सकता, प्रो० नाइट ने इन्हें अनिश्चितता माना है। इस अनिश्चितता को उठाने के लिए साहसी को लाभ मिलता है। इस प्रकार लाभ अनिश्चितता सहन करने के लिए मिलने वाला पुरस्कार है।

आलोचनाएँ

  1. साहसी का कार्य केवले अनिश्चितता सहन करना ही नहीं, अपितु वह उत्पादन से सम्बन्धित अन्य कार्य; जैसे—प्रबन्ध, मोलभाव आदि भी करता है। अतः लाभ साहसी को इन सेवाओं के बदले में मिलता है।
  2. अनिश्चितता को उत्पत्ति का एक पृथक् साधन नहीं माना जा सकता।

प्रश्न 6
कुल लाभ में किन भुगतानों को सम्मिलित किया जाता है ?
उत्तर:
कुल लाभ के अन्तर्गत निम्नलिखित भुगतानों को सम्मिलित किया जाता है

  1. साहसी की अपनी भूमि को लगान।
  2. साहसी की पूँजी का ब्याज।
  3.  साहसी की प्रबन्ध तथा निरीक्षण सम्बन्धी सेवाओं की मजदूरी।
  4. साहसी की योग्यता का लगान।

प्रश्न 7
लाभ-निर्धारण के लाभ को लगान सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ एक प्रकार का लगान है। वाकर ने लाभ को व्यवसायियों की योग्यता का लगान माना है। जिस प्रकार सीमान्त भूमि अथवा बिना लगान भूमि होती है उसी प्रकार सीमान्त साहसी भी होता है। जिस प्रकार भूमि की उपजाऊ शक्ति में अन्तर होता है उसी प्रकार साहसियों की योग्यता में भी अन्तर पाया जाता है। जिस प्रकार भूमि के लगान का निर्धारण सीमान्त भूमि और अधिसीमान्त भूमि की उपज के अन्तर के द्वारा होता है, उसी प्रकार लाभ का निर्धारण सीमान्त साहसी और अधिसीमान्त साहसी के द्वारा होता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
शुद्ध लाभ किसे कहते हैं?
उत्तर:
शुद्ध लाभ वह लाभ होता है जो साहसी को जोखिम उठाने के लिए मिलता है । इसमें कोई अन्य प्रकार का भुगतान सम्मिलित नहीं होता।

प्रश्न 2
लाभ की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
लाभ की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. लाभ ऋणात्मक (Negative) भी हो सकता है।
  2.  लाभ की दर में पर्याप्त उतार-चढ़ाव पाये जाते हैं।
  3.  लाभ पहले से निश्चित नहीं होता। उसके सम्बन्ध में काफी अनिश्चितता पायी जाती है।

प्रश्न 3
‘कुल लाभ’ व ‘शुद्ध लाभ में अन्तर कीजिए।
उत्तर:
कुल लाभ में उद्यमी के केवल जोखिम उठाने का प्रतिफल ही नहीं, अपितु उसमें उसकी अन्य सेवाओं का प्रतिफल भी सम्मिलित रहता है। जबकि निवल लाभ कुल लाभ का एक छोटा अंश होता है। यह उद्यमी को जोखिम उठाने के लिए मिलता है। इसमें किसी अन्य प्रकार का भुगतान सम्मिलित नहीं होता है।

प्रश्न 4
लाभ के दो प्रकार लिखिए।
उत्तर:
(1) सकल लाभ या कुल लाभ तथा
(2) निवल लाभ या शुद्ध लाभ

प्रश्न 5
सामान्य लाभ क्या है? [2007, 15]
उत्तर:
वितरण की प्रक्रिया में राष्ट्रीय आय का वह भाग जो साहसी को प्राप्त होता है, सामान्य लाभ कहलाता है।

प्रश्न 6
लाभ का जोखिम सिद्धान्त किसका है ? [2006]
उत्तर:
लाभ का जोखिम सिद्धान्त प्रो० हॉले का है।

प्रश्न 7:
लाभ का लगान सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री ने प्रतिपादित किया था?
उत्तर:
लाभ का लगान सिद्धान्त प्रो० वाकर ने प्रतिपादित किया था।

प्रश्न 8:
लाभ का मजदूरी सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन हैं ?
उत्तर:
प्रो० टॉजिग।

प्रश्न 9
लाभ का अनिश्चितता का सिद्धान्त किसका है ? [2008]
या
लाभ का अनिश्चितता वहन करने सम्बन्धी सिद्धान्त किसने दिया था? [2013, 15, 16]
उत्तर:
प्रो० नाइट ने।

प्रश्न 10
लाभ का गतिशील (प्रावैगिक) सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री का है ?
उत्तर:
जे० बी० क्लार्क का।

प्रश्न 11
लाभ किसे प्राप्त होता है? [2014]
उत्तर:
उद्यमी या साहसी को।

प्रश्न 12
लाभ को परिभाषित कीजिए। या लाभ क्या है? [2014]
उत्तर:
प्रो० वाकर के अनुसार, “लाभ योग्यता का लगान है।”

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
लाभ का लगान सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं
(क) प्रो० वाकर
(ख) प्रो० कीन्स
(ग) प्रो० हॉले
(घ) प्रो० टॉजिग
उत्तर:
(क) प्रो० वाकर।

प्रश्न 2
लाभ का मजदूरी सिद्धान्त के समर्थक हैं
(क) प्रो० वाकर
(ख) प्रो० टॉजिग और डेवनपोर्ट
(ग) प्रो० हॉले।
(घ) प्रो० नाइट
उत्तर:
(ख) प्रो० टॉजिग और डेवनपोर्ट।

प्रश्न 3
‘लाभ का जोखिम सिद्धान्त निम्न में से किसके द्वारा प्रतिपादित किया गया ? [2007, 28, 11]
(क) प्रो० हॉले।
(ख) प्रो० वाकर
(ग) प्रो० टॉजिग
(घ) प्रो० नाईट
उत्तर:
(क) प्रो० हॉले।

प्रश्न 4
निम्नलिखित में कौन-सा लाभ सिद्धान्त शुम्पीटर का है ? [2006, 09]
(क) लाभ का लगान सिद्धान्त
(ख) लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त
(ग) लाभ का अनिश्चितता सिद्धान्त
(घ) लाभ का जोखिम सिद्धान्त
उत्तर:
(ख) लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त।

प्रश्न 5
लाभ का समाजवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है
(क) कार्ल मार्क्स ने
(ख) प्रो० टॉजिग ने
(ग) प्रो० नाइट ने
(घ) प्रो० शुम्पीटर ने
उत्तर:
(क) कार्ल मार्क्स ने।

प्रश्न 6
निम्नलिखित में से किस लाभ के सिद्धान्त को प्रो० नाइट ने प्रतिपादित किया है ? [2015]
या
नाइट का लाभ का सिद्धान्त कहलाता है [2016]
(क) अनिश्चितता का सिद्धान्त
(ख) समाजवादी सिद्धान्त
(ग) जोखिम का सिद्धान्त
(घ) मजदूरी सिद्धान्त
उत्तर:
(क) अनिश्चितता का सिद्धान्त।

प्रश्न 7
वितरण में उद्यमी को हिस्सा प्राप्त होता है
(क) सबसे बाद में
(ख) सबसे पहले
(ग) बीच में
(घ) कभी नहीं
उत्तर:
(क) सबसे बाद में।

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