UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi शैक्षिक निबन्य

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name शैक्षिक निबन्य
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi शैक्षिक निबन्य

शैक्षिक निबन्ध

नयी शिक्षा-नीति

सम्बद्ध शीर्षक

  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली : एक मूल्यांकन
  • वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण और दोष
  • बदलती शिक्षा नीति का छात्रों पर प्रभाव (2013)
  • शिक्षा का गिरता मूल्यगत स्तर [2015]
  • वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में सुधार [2015]
  • आधुनिक शिक्षा-प्रणाली : गुण-दोष [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना
  2. अंग्रेजी शासन में शिक्षा की स्थिति,
  3. स्वतन्त्रता के पश्चात् की स्थिति,
  4. शिक्षा-नीति का उद्देश्य,
  5. नयी शिक्षा नीति की विशेषताएँ,
  6. नयी शिक्षा नीति की समीक्षा,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-शिक्षा मानव जीवन के सर्वांगीण विकास का सवोत्तम साधन है। प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था मानव को उच्च-आदर्शों की उपलब्धि के लिए अग्रसर करती थी और उसके वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के सम्यक् विकास में सहायता करती थी। शिक्षा को यह व्यवस्था हर देश और काल में तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन-सन्दर्भो के अनुरूप बदलती रहनी चाहिए। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश प्रतिरूप पर आधारित है, जिसे सन 1835 ई० में लागू किया गया था। अंग्रेजी शासन की गलत शिक्षा-नीति के कारण ही हमारा देश स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी पर्याप्त विकास नहीं कर सका।

अंग्रेजी शासन में शिक्षा की स्थिति–सन् 1835 ईस्वी में जब वर्तमान शिक्षा प्रणाली की नींव रखी गयी थी तब लॉर्ड मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, “अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य भारत में प्रशासन को बिचौलियों की भूमिका निभाने तथा सरकारी कार्य के लिए भारत के लोगों को तैयार करना है। इसके फलस्वरूप एक सदी तक अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के प्रयोग में लाने के बाद भी सन् 1935 ई० में भारत साक्षरता के 10% के आँकड़े को भी पार नहीं कर सका। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भी भारत की साक्षरता मात्र 13% ही थी। इस शिक्षा प्रणाली ने उच्च वर्गों को भारत के शेए समाज से पृथक् रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसकी बुराइयों को सर्वप्रथम गाँधी जी ने सन् 1917 ई० में ‘गुजरात एजुकेशन सोसाइटी’ के सम्मेलन में उजागर किया तथा शिक्षा में मातृभाषा के स्थान और हिन्दी के पक्ष को राष्ट्रीय स्तर पर तार्किक ढंग से रखा।

स्वतन्त्रता के पश्चात् की स्थिति-स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में ब्रिटिशकालीन शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन के कुछ प्रयास किये गये। इनमें सन् 1968 ई० की राष्ट्रीय शिक्षा नीति उल्लेखनीय है। सन् 1976 ई० में भारतीय संविधान में संशोधन के द्वारा शिक्षा को समवर्ती-सूची में सम्मिलित किया गया, जिससे शिक्षा का एक राष्ट्रीय और एकात्मक स्वरूप विकसित किया जा सके। भारत सरकार ने विद्यमान शैक्षिक व्यवस्था का पुनरावलोकन किया और राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श के बाद 26 जून, सन् 1986 ई० को नयी शिक्षा नीति की घोषणा की।

शिक्षा-नीति का उद्देश्य-इस शिक्षा नीति का गठन देश को इक्कीसवीं सदी की ओर ले जाने के नारे के अंगरूप में ही किया गया है। नये वातावरण में मानव संसाधन के विकास के लिए नये प्रतिमानों तथा नये मानकों की आवश्यकता होगी। नये विचारों को रचनात्मक रूप में आत्मसात् करने में नयी पीढ़ी को सक्षम होना चाहिए। इसके लिए बेहतर शिक्षा की आवश्यकता है। साथ ही नयी शिक्षा नीति का उद्देश्य आधुनिक तकनीक की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए उच्चस्तरीय प्रशिक्षण प्राप्त श्रम-शक्ति को जुटाना है; क्योंकि इस शिक्षा-नीति के आयोजकों के विचार से इस समय देश में विद्यमान श्रम-शक्ति यह आवश्यकता पूरी नहीं कर सकती।

नयी शिक्षा-नीति की विशेषताएँ–
(i) नवोदय विद्यालय-नयी शिक्षा-नीति के अन्तर्गत देश के विभिन्न भागों में विशेषकर ग्रामीण अंचलों में नवोदय विद्यालय खोले जाएँगे, जिनका उद्देश्य प्रतिभाशाली छात्रों को बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करना होगा। इन विद्यालयों में राष्ट्रीय पाठ्यक्रम लागू होगा।

(ii) रोजगारपरक शिक्षा-नवोदय विद्यालयों में शिक्षा रोजगारपरक होगी तथा विज्ञान और तकनीक उसके आधार होंगे। इससे विद्यार्थियों को बेरोजगारी का सामना नहीं करना पड़ेगा।

(iii) 10 +2 +3 को पुनर्विभाजन-इन विद्यालयों में शिक्षा 10 + 2 + 3 पद्धति पर आधारित होगी। ‘त्रिभाषा फार्मूला’ चलेगा, जिसमें अंग्रेजी, हिन्दी एवं मातृभाषा या एक अन्य प्रादेशिक भाषा रहेगी। सत्रार्द्ध प्रणाली (सेमेस्टर सिस्टम) माध्यमिक विद्यालयों में लागू की जाएगी और अंकों के स्थान पर विद्यार्थियों को ग्रेड दिये जाएँगे।

(iv) समानान्तर प्रणाली
-नवोदय विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की एक समानान्तर शिक्षा-प्रणाली शुरू की जाएगी।

(v) अवलोकन-व्यवस्था–
केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् शिक्षा-संस्थानों पर दृष्टि रखेगी। एक अखिल भारतीय शिक्षा सेवा संस्था का गठन
होगा। माध्यमिक शिक्षा के लिए एक अलग संस्था गठित होगी।

(vi) उच्च शिक्षा में सुधार-
अगले दशक में महाविद्यालयों से सम्बद्धता समाप्त करके उन्हें स्वायत्तशासी बनाया जाएगा। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधारा जाएगा तथा शोध के उच्च स्तर पर बल दिया जाएगा।

(vii) आवश्यक सामग्री की व्यवस्था-
प्राथमिक विद्यालयों में ‘ऑपरेशन ब्लैक-बोर्ड (Operation Blackboard) लागू होगा। इसके अन्तर्गत प्रत्येक विद्यालय के लिए दो बड़े कमरों का भवन, एक छोटा-सा पुस्तकालय, खेल का सामान तथा शिक्षा से सम्बन्धित अन्य साज-सज्जा उपलब्ध रहेगी। शिक्षा-मन्त्रालय ने प्रत्येक विद्यालय के लिए आवश्यक सामग्री की एक आकर्षक और प्रभावशाली सूची भी बनायी है। प्रत्येक कक्षा के लिए एक अध्यापक की व्यवस्था की गयी है।

(viii) मूल्यांकन और परीक्षा सुधार–
हाईस्कूल स्तर तक किसी को भी अनुत्तीर्ण नहीं किया जाएगा। परीक्षा में अंकों के स्थान पर ‘ग्रेड प्रणाली’ प्रारम्भ की जाएगी। छात्रों की प्रगति का आकलन क्रमिक मूल्यांकन द्वारा होगा।

(ix) शिक्षकों को समान वेतनमान–देश भर में अध्यापकों को समान कार्य के लिए समान वेतन के आधार पर समान वेतन मिलेगा। प्रत्येक जिले में शिक्षकों के प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किये जाएँगे।

(x) मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना-नयी शिक्षा-नीति के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश के पैमाने पर एक मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया है। इस मुक्त विश्वविद्यालय का दरवाजा सबके लिए खुला रहेगा; न तो उम्र का कोई प्रतिबन्ध होगा और न ही समय का कोई बन्धन।।

(xi) नयी शिक्षा नीति के अन्तर्गत निजी क्षेत्र के व्यवसायी यदि चाहें तो आवश्यकता के अनुरूप शिक्षण-संस्थान खोल सकेंगे।

नयी शिक्षा-नीति की समीक्षा-वर्तमान शिक्षा प्रणाली में जो अनेकशः दोष हैं उनकी अच्छी -खासी चर्चा सरकारी परिपत्र ‘Challenges of Education : A Policy Perspective’ में की गयी है। इस शिक्षा प्रणाली से संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं का भविष्य अन्धकारमय होकर रह गया है। इसके अन्तर्गत केवल अंग्रेजी का ही बोलबाला होगा; क्योंकि इसके लागू होने के साथ-साथ पब्लिक स्कूलों को समाप्त नहीं किया गया है। फलतः इस नीति की घोषणा के बाद देश में अंग्रेजी माध्यम वाले मॉण्टेसरी स्कूलों की गली-कूचों में बाढ़-सी आ गयी है। शिक्षा पर अयोग्य राजनेता दिनोंदिन नवीन प्रयोग कर रहे हैं, जिससे लाभ के स्थान पर हानि हो रही है। शिक्षा के प्रश्न को लेकर बहुधा अनेकों गोष्ठियाँ, सेमिनार आदि आयोजित किये जाते हैं किन्तु परिणाम देखकर आश्चर्य होता है कि शिक्षा प्रणाली सुधरने के बजाय और अधिक निम्नकोटि की होती जा रही है। वस्तुत: भ्रष्टाचार के चलते अच्छे व समर्पित शिक्षा अधिकारी जो संख्या में इक्का-दुक्का ही हैं; उनके सुझावों का प्राय: स्वागत नहीं किया जाता। शिक्षा नीति के अन्तर्गत पाठ्यक्रम भी कुछ इस प्रकार का निर्धारित किया गया है कि एक के बाद दूसरी पीढ़ी के आ जाने तक भी न उसमें कुछ संशोधन होता है, न ही परिवर्तन। पिष्टपेषण की यह प्रवृत्ति विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति अश्रद्धा जगाती है।

निश्चित ही हमारी अधुनातन शिक्षा-नीति, पद्धति, व्यवस्था एवं ढाँचा अत्यन्त दोषपूर्ण सिद्ध हो चुका है। यदि इसे शीघ्र ही न बदला गया तो हमारा राष्ट्र हमारे मनीषियों के आदर्शों की परिकल्पना तक नहीं पहुँच सकेगा।

उपसंहार-नयी शिक्षा नीति के परिपत्र में प्रत्येक पाँच वर्ष के अन्तराल पर शिक्षा नीति के कार्यान्वयन और मानदण्डों की समीक्षा की व्यवस्था की गयी है; किन्तु सरकारों में जल्दी-जल्दी हो रहे परिवर्तनों से इस नयी शिक्षा नीति से नवीन अपेक्षाओं और सुधारों की सम्भावनाओं में विशेष प्रगति नहीं हो पायी है। साथ ही यह शिक्षा नीति एक सुनियोजित व्यवस्था, साधन सम्पन्नता और लगन की माँग करती है। यदि नयी शिक्षा-नीति को ईमानदारी और तत्परता से कार्यान्वित किया जाए तो निश्चय ही हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर बढ़ सकेंगे।

छात्र और अनुशासन

सम्बद्ध शीर्षक

  • छात्रों में अनुशासनहीनता : कारण और निदान
  • जीवन में अनुशासन का महत्त्व
  • विद्यार्थी-जीवन में अनुशासन का महत्व (2016)
  • अनुशासन और हम
  • विद्यार्थी जीवन के सुख-दुःख
  • छात्र जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2015]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2.  विद्यार्थी और विद्या,
  3. अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व,
  4. अनुशासनहीनता के कारण—(क) पारिवारिक कारण; (ख) सामाजिक कारण; (ग) राजनीतिक कारण; (घ) शैक्षिक कारण,
  5. निवारण के उपाय,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना–विद्यार्थी देश का भविष्य हैं। देश के प्रत्येक प्रकार का विकास विद्यार्थियों पर ही निर्भर है। विद्यार्थी जाति, समाज और देश का निर्माता होता है, अत: विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना बहुत आवश्यक है। उत्तम चरित्र अनुशासन से ही बनता है। अनुशासन जीवन का प्रमुख अंग और विद्यार्थी-जीवन की आधारशिला है। व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने के लिए मात्र विद्यार्थी ही नहीं प्रत्येक मनुष्य के लिए अनुशासित होना अति आवश्यक है। अनुशासनहीन विद्यार्थी व्यवस्थित नहीं रह सकता और न ही उत्तम शिक्षा ग्रहण कर सकता है। आज विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता की शिकायत सामान्य-सी बात हो गयी है। इससे शिक्षा-जगत् ही नहीं, अपितु सारा समाज प्रभावित हुआ है और निरन्तर होता ही जा रहा है। अत: इस समस्या के सभी पक्षों पर विचार करना उचित होगा।

विद्यार्थी और विद्या–-‘विद्यार्थी’ का अर्थ है–‘विद्या का अर्थी’ अर्थात् विद्या प्राप्त करने की कामना करने वाला। विद्या लौकिक या सांसारिक जीवन की सफलता का मूल आधार है, जो गुरुकृपा से प्राप्त होती है। इससे विद्यार्थी-जीवन के महत्त्व का भी पता चलता है, क्योंकि यही वह समय है, जब मनुष्य अपने समस्त भावी जीवन की सफलता की आधारशिला रखता है। यदि यह काल व्यर्थ चला जाये तो सारा जीवन नष्ट हो जाता है।

संसार में विद्या सर्वाधिक मूल्यवान् वस्तु है, जिस पर मनुष्य के भावी जीवन का सम्पूर्ण विकास तथा सम्पूर्ण उन्नति निर्भर करती है। इसी कारण महाकवि भर्तृहरि विद्या की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि “विद्या ही मनुष्य का श्रेष्ठ स्वरूप है, विद्या भली-भाँति छिपाया हुआ धन है (जिसे दूसरा चुरा नहीं सकता)। विद्या ही सांसारिक भोगों को, यश और सुख को देने वाली है, विद्या गुरुओं की भी गुरु है। विदेश जाने पर विद्या ही बन्धु के सदृश सहायता करती है। विद्या ही श्रेष्ठ देवता है। राजदरबार में विद्या ही आदर दिलाती है, धन नहीं; अत: जिसमें विद्या नहीं, वह निरा पशु है।’

फलतः इस अमूल्य विद्यारूपी रत्न को पाने के लिए इसका मूल्य भी उतना ही चुकाना पड़ता है और वह है तपस्या। इस तपस्या का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कवि कहता है-

सुखार्थिनः कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥

तात्पर्य यह है कि सुख की इच्छा वाले को विद्या कहाँ और विद्या की इच्छा वाले को सुख कहाँ ? सुख की इच्छा वाले को विद्या की कामना छोड़ देनी चाहिए या फिर विद्या की इच्छा वाले को सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए।

अनुशासन का स्वरूप और महत्त्व-‘अनुशासन’ का अर्थ है बड़ों की आज्ञा (शासन) के पीछे (अनु) चलना। जिन गुरुओं की कृपा से विद्यारूपी रत्न प्राप्त होता है, उनके आदेशानुसार कार्य किये बिना विद्यार्थी की उद्देश्य-सिद्धि भला कैसे हो सकती है ? ‘अनुशासन’ का अर्थ वह मर्यादा है जिसका पालन ही विद्या प्राप्त करने और उसका उपयोग करने के लिए अनिवार्य होता है। अनुशासन का भाव सहज रूप से विकसित किया जाना चाहिए। थोपा हुआ अथवा बलपूर्वक पालन कराये जाने पर यह लगभग अपना उद्देश्य खो देता है। विद्यार्थियों के प्रति प्रायः सभी को यह शिकायत रहती है कि वे अनुशासनहीन होते जा रहे हैं, किन्तु शिक्षक वर्ग को भी इसका कारण ढूंढ़ना चाहिए कि क्यों विद्यार्थियों की उनमें श्रद्धा विलुप्त होती जा रही है।

अनुशासन का विद्याध्ययन से अनिवार्य सम्बन्ध है। वस्तुत: जो महत्त्व शरीर में व्यवस्थित रुधिर-संचार का है, वही विद्यार्थी के जीवन में अनुशासन का है। अनुशासनहीन विद्यार्थियों को पग-पग पर ठोकर और फटकार सहनी पड़ती है।

अनुशासनहीनता के कारण-वस्तुतः विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता एक दिन में पैदा नहीं हुई है। इसके अनेक कारण हैं, जिन्हें मुख्यत: निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा जा सकता है
(क) पारिवारिक कारण-बालक की पहली पाठशाला उसका परिवार है। माता-पिता के आचरण का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज बहुत-से ऐसे परिवार हैं, जिनमें माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं या अलग-अलग व्यस्त रहते हैं और अपने बच्चों की ओर ध्यान देने हेतु उन्हें अवकाश नहीं मिलता। इससे बालक उपेक्षित होकर विद्रोही बन जाता है। दूसरी ओर अधिक लाड़-प्यार से भी बच्चा बिगड़कर निरंकुश या स्वेच्छाचारी हो जाता है। कई बार पति-पत्नी के बीच कलह या पारिवारिक अशान्ति भी बच्चे के मन पर बहुत बुरा प्रभाव डालती है और उसका मन अध्ययन-मनन से विरक्त हो जाता है। इसी प्रकार बालक को विद्यालय में प्रविष्ट कराकर अभिभावकों का निश्चिन्त हो जाना, उसकी प्रगति या विद्यालय में उसके आचरण की खोज-खबर न लेना भी बहुत घातक सिद्ध होता है।

(ख) सामाजिक कारण–विद्यार्थी जब समाज में चतुर्दिक् व्याप्त भ्रष्टाचार, घूसखोरी, सिफारिशबाजी, भाई-भतीजावाद, चीजों में मिलावट, फैशनपरस्ती, विलासिता और भोगवाद, अर्थात् प्रत्येक स्तर पर व्याप्त अनैतिकता को देखता है तो उसका भावुक मन क्षुब्ध हो उठता है, वह विद्रोह कर उठता है। और अध्ययन की उपेक्षा करने लगता है।

(ग) राजनीतिक कारण-छात्र-अनुशासनहीनता का एक बहुत बड़ा कारण राजनीति है। आज राजनीति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर छा गयी है। सम्पूर्ण वातावरण को उसने इतना विषाक्त कर दिया है कि स्वस्थ वातावरण में साँस लेना कठिन हो गया है। नेता लोग अपने दलीय स्वार्थों की पूर्ति के लिए विद्यार्थियों को नौकरी आदि के प्रलोभन देकर पथभ्रष्ट करते हैं, छात्र-यूनियनों के चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दल पैसा खर्च करते हैं तथा विद्यार्थियों को प्रदर्शन और तोड़-फोड़ के लिए उकसाते हैं। विद्यालयों में हो रहे इस राजनीतिक हस्तक्षेप ने अनुशासनहीनता की समस्या को और भी बढ़ा दिया है।

(घ) शैक्षिक कारण-छात्र-अनुशासनहीनता का कदाचित् सबसे बड़ा कारण यही है। अध्ययन के लिए आवश्यक अध्ययन-सामग्री, भवन, सुविधाजनक छात्रावास एवं अन्यान्य सुविधाओं का अभाव, सिफारिश, भाई-भतीजावाद या घूसखोरी आदि कारणों से योग्य, कर्तव्य-परायण एवं चरित्रवान् शिक्षकों के स्थान पर अयोग्य, अनैतिक और भ्रष्ट अध्यापकों की नियुक्ति, अध्यापकों द्वारा छात्रों की कठिनाइयों की उपेक्षा करके ट्यूशन आदि के चक्कर में लगे रहना या आरामतलबी के कारण मनमाने ढंग से कक्षाएँ लेना या न लेना, छात्र और अध्यापकों की संख्या में बहुत बड़ा अन्तर होना, जिससे दोनों में आत्मीयता को सम्बन्ध स्थापित न हो पाना; परीक्षा-प्रणाली का दूषित होना, जिससे विद्यार्थी की योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं हो पाना आदि छात्र-अनुशासनहीनता के प्रमुख कारण हैं। परिणामस्वरूप अयोग्य विद्यार्थी योग्य विद्यार्थी पर वरीयता प्राप्त कर लेते हैं। फलतः योग्य विद्यार्थी आक्रोशवश अनुशासनहीनता में लिप्त हो जाते हैं।

निवारण के उपाय-यदि शिक्षकों को नियुक्त करते समय सत्यता, योग्यता और ईमानदारी का आकलन अच्छी प्रकार कर लिया जाये तो प्रायः यह समस्या उत्पन्न ही न हो। प्रभावशाली, गरिमामण्डित, विद्वान् और प्रसन्नचित्त शिक्षक के सम्मुख विद्यार्थी सदैव अनुशासनबद्ध रहते हैं, क्योंकि वह उस शिक्षक के हृदय में अपना स्थान एक अच्छे विद्यार्थी के रूप में बनाना चाहते हैं।

पाठ्यक्रम को अत्यन्त सुव्यवस्थित व सुनियोजित, रोचक, ज्ञानवर्धक एवं विद्यार्थियों के मानसिक स्तर के अनुरूप होना चाहिए। पाठ्यक्रम में आज भी पर्याप्त असंगतियाँ विद्यमान हैं, जिनका संशोधन अनिवार्य है; उदाहरणार्थ-इण्टरमीडिएट हिन्दी काव्यांजलि की कविताएँ ही बी० ए० द्वितीय वर्ष के हिन्दी पाठ्यक्रम में भी हैं। क्या कवियों का इतना अभाव है कि एक ही रचना वर्षों तक पढ़ने को विवश किया जाये।

छात्र-अनुशासनहीनता के उपर्युक्त कारणों को दूर करके ही हम इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। सबसे पहले वर्तमान पुस्तकीय शिक्षा को हटाकर प्रत्येक स्तर पर उसे इतना व्यावहारिक बनाया जाना चाहिए कि शिक्षा पूरी करके विद्यार्थी अपनी आजीविका के विषय में पूर्णतः निश्चिन्त हो सके। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा हो। ऐसे योग्य, चरित्रवान् और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों की नियुक्ति हो, जो विद्यार्थी की शिक्षा पर समुचित ध्यान दें। विद्यालय या विश्वविद्यालय प्रशासन विद्यार्थियों की समस्याओं पर पूरा ध्यान दें तथा विद्यालयों में अध्ययन के लिए आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाये। विद्यालयों में प्रवेश देते समय गलत तत्त्वों को कदापि प्रवेश न दिया जाये। किसी कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या लगभग 50-55 से अधिक न हो। शिक्षा सस्ती की जाये और निर्धन, किन्तु योग्य छात्रों को नि:शुल्क उपलब्ध करायी जाये। परीक्षा-प्रणाली स्वच्छ हो, जिससे योग्यता का सही और निष्पक्ष मूल्यांकन हो सके। इसके साथ ही राजनीतिक हस्तक्षेप बन्द हो, सामाजिक भ्रष्टाचार मिटाया जाये, सिनेमा और दूरदर्शन पर देशभक्ति की भावना जगाने वाले चित्र प्रदर्शित किये जाएँ तथा माता-पिता बालकों पर समुचित ध्यान दें और उनका आचरण ठीक रखने के लिए अपने आचरण पर भी दृष्टि रखें।

उपसंहार—छात्रों के समस्त असन्तोषों का जनक अन्याय है, इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से अन्याय को मिटाकर ही देश में सच्ची सुख-शान्ति लायी जा सकती है। छात्र-अनुशासनहीनता का मूल भ्रष्ट राजनीति, समाज, परिवार और दूषित शिक्षा-प्रणाली में निहित है। इनमें सुधार लाकर ही हम विद्यार्थियों में व्याप्त अनुशासनहीनता की समस्या का स्थायी समाधान ढूँढ़ सकते हैं; क्योंकि विद्यार्थी विद्यालय में पूर्णत: विद्यार्जन के लिए ही आते हैं, मात्र हुल्लड़बाजी के लिए नहीं।

व्यावसायिक शिक्षा के विविध आयाम

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता,
  3. व्यावसायिक शिक्षा के उद्देश्य-(अ) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास; (ब) जीवन की तैयारी; (स) ज्ञान का जीवन से सहसम्बन्ध; (द) व्यावसायिक एवं आर्थिक विकास; (च) राष्ट्रीय विकास और व्यावसायिक शिक्षा; (छ) शिक्षा का व्यवसायीकरण; (ज) व्यावसायिक शिक्षा का आयोजन–(i) पूर्णकालिक नियमित व्यावसायिक शिक्षा, (ii) अंशकालिक व्यावसायिक शिक्षा, (iii) अभिनव पाठ्यक्रम द्वारा व्यावसायिक शिक्षा, (iv) पत्राचार द्वारा व्यावसायिक शिक्षा,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना-अर्थव्यवस्था किसी भी समाज के विकास की संरचना में महत्त्वपूर्ण होती है। समाजरूपी शरीर का मेरुदण्ड उसकी अर्थव्यवस्था को ही समझा जाता है। समाज की अर्थव्यवस्था उसके व्यावसायिक विकास पर निर्भर करती है। जिस समाज में व्यवसाय का विकास नहीं होता, वह सदैव आर्थिक परेशानियों में घिरा रहता है। व्यावसायिक शिक्षा इसी व्यवसाय सम्बन्धी तकनीकी, वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्षों के क्रमबद्ध अध्ययन को कहा जाता है। इसके अन्तर्गत किसी व्यवसाय के लिए अनिवार्य तकनीकियों एवं विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित ज्ञान प्रदान किया जाता है।

व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता-वैदिक काल से लेकर ब्राह्मण और बौद्ध काल तक धर्म, काम और मोक्ष को ही शिक्षा के प्रमुख अंगों के रूप में मान्यता प्रदान की गयी थी। अंग्रेजों के शासन काल में भी व्यावसायिक शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। अंग्रेजी सरकार भारत का औद्योगिक विकास न करके इंग्लैण्ड में स्थापित उद्योगों को प्रोत्साहित करना चाहती थी, जिससे वह भारत से कच्चा माल ले जाकर वहाँ से उत्पादित माल ला सके और यहाँ के बाजारों में उसे ऊँचे मूल्य पर बेच सके। इससे भारत का दोहरा शोषण हो रहा था। ब्रिटिश सरकार भारत को स्वावलम्बी बनाना भी नहीं चाहती थी। उसे भय था कि यदि भारत तकनीकी दृष्टि से सशक्त हो गया तो ब्रिटेन में उत्पादित माल भारत में नहीं बिकेगा और उसे यहाँ से कच्चा माल भी नहीं मिल पाएगा।

व्यावसायिक शिक्षा के अभाव को पर्याप्त समय तक अन्य देशों के प्राविधिक सहयोग पर ही निर्भर रहना पड़ा। उन्नते देशों से ऋण लेकर भी तकनीकी क्षेत्र में स्वावलम्बी होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया जा सका है। दूसरों पर अत्यधिक निर्भरता के कारण राष्ट्र की मुद्रा का पर्याप्त ह्रास होता है। इसीलिए व्यावसायिक शिक्षा का विकास राष्ट्र की उन्नति की प्राथमिक आवश्यकता है।

व्यक्ति का सर्वांगीण विकास भी तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के विकास द्वारा ही सम्भव हो सकता है। उसका शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक विकास पर्याप्त सीमा तक तकनीकी शिक्षा पर ही आश्रित है।

व्यावसायिक शिक्षा के उद्देश्य-व्यावसायिक शिक्षा, शिक्षा की उपयोगिता और उसके उद्देश्यों को पूरी तरह से स्पष्ट करने में सक्षम है। वास्तव में व्यावसायिक शिक्षा का विकास मानवीय पूर्णता के लिए हुआ है। व्यावसायिक शिक्षा के उद्देश्यों को हम निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं–

(अ) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास–व्यक्ति के व्यक्तित्व को तभी पूर्ण माना जाता है जब उसमें जीवन के सभी क्षेत्रों में विकास करने की क्षमता उत्पन्न हो जाए। यदि व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में पिछड़ जाता है तो उसका व्यक्तित्व पूर्ण नहीं माना जा सकता। व्यावसायिक शिक्षा व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकसित होने का अवसर प्रदान करती है। व्यावसायिक शिक्षा शारीरिक श्रम के माध्यम से निरीक्षण, कल्पना, तथ्य-संकलन, नियमन, स्मरण एवं संश्लेषण-विश्लेषण आदि सभी मानसिक शक्तियों का विकास करते हुए शिक्षार्थी को चिन्तन, मनन, तर्क एवं सत्यापन आदि के अवसर प्रदान करती है, जिससे उसका बौद्धिक विकास होता है। विद्यार्थी में किसी व्यवसाय से सम्बन्धित योग्यता एवं कौशल का विकास होने पर आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त उसमें आत्मनिर्भरता की शक्ति भी पैदा होती है।

(ब) जीवन की तैयारी-व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से युवक भावी जीवन के लिए तैयार होता है। वह अपने तथा अपने परिवार के जीवन-यापन के लिए आवश्यक व्यावसायिक योग्यताओं एवं कौशलों को विकसित करने तथा उन्हें प्रयुक्त करने की दृष्टि से सक्षम हो पाता है। आने वाले जीवन में वह संघर्षों के मध्य पिस न जाए इसके लिए भी वह व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से ही शक्ति अर्जित करता है।

(स) ज्ञान का जीवन से सहसम्बन्ध-जो ज्ञान जीवन का अंग नहीं बनता वह निरर्थक और त्याज्य है। जब ज्ञान जीवन का अंग बन जाता है तब वह व्यावहारिक रूप धारण कर लेता है। यदि हमने अपने अर्जित ज्ञान को अपने दैनिक जीवन में प्रयुक्त नहीं किया तथा उससे लाभ नहीं उठाया तो हम साक्षर तो कहला सकते हैं, लेकिन शिक्षित नहीं कहे जा सकते। व्यावसायिक शिक्षा द्वारा अर्जित ज्ञान जीवन का अंग बन जाता है। वास्तव में वही ज्ञान जीवन का अंग बनता है, जो स्वानुभवों पर आधारित होता है। व्यावसायिक शिक्षा से प्राप्त ज्ञान स्वानुभवों पर टिका होने के कारण जीवन का अंग बन जाता है।

(द) व्यावसायिक एवं आर्थिक विकास–शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त कोई व्यक्ति किसी व्यवसाय को अपना सके तथा उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिए सुख-सुविधाओं का संचय कर सके, यह सामर्थ्य शिक्षा द्वारा उत्पन्न की जानी चाहिए। स्वावलम्बी बनना और अपने स्तर को उन्नत बनाना प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का कर्तव्य है।

(च) राष्ट्रीय विकास और व्यावसायिक शिक्षा-व्यावसायिक शिक्षा राष्ट्र के उपलब्ध साधनों को विवेकपूर्ण विधि से उपयोग में लाने का दृष्टिकोण भी उत्पन्न करती है। भारत अभी भी खाद्य-पदार्थों, उपभोग की वस्तुओं, उद्योग तथा व्यवसाय को उन्नत करने से सम्बन्धित सुविधाओं एवं बेरोजगारी की समस्या का समाधान निकालने की दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं बन सका है। यदि हमारा देश दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं को स्वयं तैयार कर लेता है तो इससे राष्ट्रीय मुद्रा की बचत होती है तथा देश की आर्थिक समृद्धि भी बढ़ती है। व्यावसायिक शिक्षा इस दृष्टि से हमें सशक्त बनाती है।

(छ) शिक्षा का व्यवसायीकरण-देश की स्वतन्त्रता के 63 वर्षों के बाद भी हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था उसी प्रकार बनी हुई है, जैसी वह अंग्रेजी शासनकाल में थी। आज का शिक्षित युवक बेरोजगारी की समस्या से ग्रस्त है। उसकी शिक्षा न तो उसे और न ही समाज को कोई लाभ पहुँचा रही है। इसका कारण यह है कि अभी तक हमारी शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं किया जा सका है। यदि माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था कर दी जाए तो निश्चित ही बेरोजगारी की समस्या को हल किया जा सकता है।

(ज) व्यावसायिक शिक्षा का आयोजन-व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए हम निम्नलिखित उपाय अपना सकते है–
(i) पूर्णकालिक नियमित व्यावसायिक शिक्षा पूर्णकालिक नियमित व्यावसयिक शिक्षा का आयोजन निम्नलिखित स्तरों पर किया जा सकता है
(अ) निम्न माध्यमिक स्तर पर-कक्षा 7 तथा कक्षा 8 के पश्चात् स्कूल छोड़ने वाले बालकों के लिए निम्नलिखित पाठ्यक्रम को आधार बनाया जा सकता है

  • औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में ऐसे पाठ्यक्रम चलाना, जिनमें प्राथमिक शिक्षा प्राप्त छात्र प्रवेश ले सके।
  • औद्योगिक सेवाओं के लिए प्राथमिक शिक्षा प्राप्त छात्रों को प्रशिक्षण देना। इससे उनकी श्रम सम्बन्धी कुशलता बढ़ेगी और वे निरक्षर श्रमिकों की अपेक्षा अच्छा कार्य कर सकेंगे।
  • ऐसा प्रशिक्षण देना कि छात्र कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद घर पर ही कोई उद्योग या व्यवसाय चला सके। गाँवों के कृषि सम्बन्धी व्यवसाय इसके अच्छे उदाहरण हैं।
  • लड़कियों को गृहविज्ञान के माध्यम से कुछ व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए; जैसेसिलाई, कढ़ाई आदि का प्रशिक्षण। इनका प्रशिक्षण प्राप्त करके लड़कियाँ विवाह के बाद भी इन्हें व्यवसाय के रूप में अपना सकती हैं।
  • स्कूलों में बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम चलाये जाएँ। उन्हें आठवीं कक्षा तक इस प्रकार चलाया जाए कि छात्र/छात्राएँ किसी बेसिक शिल्प में कुशलता प्राप्त कर लें।

(ब) उच्च माध्यमिक स्तर पर-इस स्तर पर कक्षा 8 और हाईस्कूल उत्तीर्ण छात्र व्यावसायिक प्रशिक्षण ले सकते हैं। व्यावसायिक शिक्षा निम्नलिखित दो प्रकार से व्यवस्थित की जा सकती है
(1) पृथक् व्यावसायिक स्कूलों में प्रशिक्षण देकर।
(2) सामान्य शिक्षा के साथ-साथ कोई व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  • पॉलिटेक्निक स्कूलों में व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करके।
  • औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों के प्रचलित पाठ्यक्रमों में प्रशिक्षण देकर।
  • बहु-उद्देशीय पाठ्यक्रम के शिल्प या व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाकर।
  • जूनियर टेक्निकल हाईस्कूलों में प्रवेश देकर।।
  • बहु-उद्देशीय पाठ्यक्रम और जूनियर टेक्निकल स्कूलों के पाठ्यक्रम में समन्वय स्थापित करके।
  • सामान्य शिक्षा के साथ किसी शिल्प का प्रशिक्षण देकर।
  • स्वास्थ्य, वाणिज्य और प्रशासन के उपयुक्त पाठ्यक्रम चलाकर।।

(ii) अंशकालिक व्यावसायिक शिक्षा-कुछ छात्र किन्हीं कारणों से प्राथमिक शिक्षा, कक्षा 8 या हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पढ़ना छोड़ देते हैं और घरेलू व्यवसायों में लग जाते हैं। अपनी जीविका की व्यवस्था में लगे होने के कारण वे नियमित शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्तियों के लिए स्थानीय व्यावसायिक विद्यालयों में अंशकालिक व्यावसायिक शिक्षा दी जा सकती है। इस शिक्षा की मान्यता नियमित शिक्षा के समान होनी चाहिए।
अंशकालिक व्यावसायिक शिक्षा प्राथमिक, माध्यमिक स्तर पर समान रूप से प्रदान की जा सकती है। इन प्रशिक्षणार्थियों को नियमित प्रशिक्षणार्थियों के समान मान्य परीक्षा में बैठाया जा सकता है।

(iii) अभिनव पाठ्यक्रम द्वारा व्यावसायिक शिक्षा-किसी स्थान विशेष अथवा देश की आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न संस्थानों द्वारा नवीनतम व्यावसायिक पाठ्यक्रमों पर आधारित प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

(iv) पत्राचार द्वारा व्यावसायिक शिक्षा अधिकाधिक लोगों को व्यावसायिक शिक्षा सुलभ कराने की दृष्टि से पत्राचार शिक्षा का विशेष महत्त्व है। वर्तमान समय में देश के अनेक विश्वविद्यालय एवं संस्थान विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में पत्राचार शिक्षा की सुविधा प्रदान कर रहे हैं।

उपसंहार-इस प्रकार हम देखते हैं कि औद्योगिक विकास के इस युग में किसी राष्ट्र या उसके नागरिक के विकास के लिए व्यावसायिक शिक्षा की महत्त्वपूर्ण उपयोगिता है। यद्यपि भारत में व्यावसायिक शिक्षा के इस महत्त्व को समझकर इसके विकास हेतु विगत दो दशक से अधिक ध्यान दिया जा रहा है तथापि इसका जितना विकास यहाँ होना चाहिए, वह अभी तक नहीं हो सका है। आवश्यकता इस बात की है कि इस सम्बन्ध में जागरूकता उत्पन्न की जाए।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary (सरकार के अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary (सरकार के अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 5
Chapter Name Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary
(सरकार के अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका)
Number of Questions Solved 71
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary (सरकार के अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
सरकार के प्रमुख अंग कौन-कौन से हैं? लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका का क्या महत्त्व है? इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के कार्यों का वर्णन कीजिए तथा इसका कार्यपालिका से सम्बन्ध बताइए। [2012]
या
व्यवस्थापिका के मुख्य कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2010, 14]
या
व्यवस्थापिका के कार्यों की व्याख्या कीजिए। वर्तमान युग में व्यवस्थापिका के ह्रास के क्या कारण हैं? [2014, 16]
या
व्यवस्थापिका के आधारभूत कार्यों का वर्णन कीजिए और संसदात्मक प्रणाली में इसकी विशिष्ट भूमिका पर भी प्रकाश डालिए। [2007, 14]
या
व्यवस्थापिका का अर्थ तथा उसके कार्य बताइए। व्यवस्थापिका की महत्ता पर भी प्रकाश डालिए।
या
व्यवस्थापिका के संगठन पर प्रकाश डालिए तथा इसके कार्यों का वर्णन कीजिए। [2010]
या
व्यवस्थापिका के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए और वर्तमान समय में व्यवस्थापिका की शक्तियों में हास के कारण बताइए। [2016]
उत्तर
सरकार के प्रमुख अंग।
सभी व्यक्तियों द्वारा सरकार को एक से अधिक अंगों में विभाजित करने की आवश्यकता अनुभव की गयी है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को व्यवस्थापन तथा शासन विभाग इन दो अंगों में विभाजित किया गया है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को 5 या 6 अंगों में विभाजित करने का प्रयत्न किया गया है, परन्तु सामान्य धारणा यही है कि प्रमुख रूप से सरकार के निम्नलिखित तीन अंग होते हैं-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। व्यवस्थापिका कानून बनाने और राज्य की नीति को निश्चित करने का कार्य करती है, कार्यपालिका इन कानूनों को कार्यरूप में परिणतं कर शासन का संचालन करती है और न्यायपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर न्याय प्रदान करने और संविधान की व्याख्या व रक्षा करने का कार्य करती है।

व्यवस्थापिका का अर्थ
व्यवस्थापिका सरकार का वह अंग है, जो राज्य प्रबन्ध चलाने के लिए कानूनों का निर्माण करता है, पुराने कानूनों का संशोधन करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें रद्द भी कर सकता है। व्यवस्थापिका को सरकार के अन्य अंगों से श्रेष्ठ माना जाता है; क्योंकि लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका लोगों की एक प्रतिनिधि सभा होती है। लॉस्की के शब्दों में, “कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की शक्तियों की सीमा व्यवस्थापिका द्वारा बतायी गयी इच्छा होती है।”

व्यवस्थापिका का संगठन
कानून-निर्माण और सरकार की नीति-निर्धारण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है। व्यवस्थापिका का संगठन दो रूपों में किया जा सकता है। व्यवस्थापिका या तो एक सदन हो सकता है अथवा दो सदन। जिस व्यवस्थापिका में एक सदन होता है, उसे एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका और जिसमें दो सदन होते हैं, उसे द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका कहा जाता है। द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन को निम्न सदन (Lower House) और द्वितीय सदन को उच्च सदन (Upper House) कहा जाता है। प्रथम सदन की शक्ति पर अंकुश रखने तथा उसके द्वारा किये। गये कार्यों पर पुनर्विचार करने के लिए ही द्वितीय सदन की आवश्यकता अनुभव की गयी।

आधुनिक काल में अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका प्रणाली को ही अपनाया गया है। भारत, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में व्यवस्थापिका में दो सदन ही पाये जाते हैं, जबकि पुर्तगाल, ग्रीस, चीन, तुर्की आदि देशों में व्यवस्थापिका में केवल एक सदन है।

व्यवस्थापिका के कार्य
वर्तमान समय में लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका द्वारा निम्नलिखित प्रमुख कार्य सम्पादित किये जाते हैं।

  1. कानून-निर्माण सम्बन्धी कार्य – विधायिका का महत्त्वपूर्ण कार्य विधि-निर्माण करना है। व्यवस्थापिका कानून का प्रारूप तैयार करती है, उस पर वाद-विवाद कराती है, प्रारूप में संशोधन कराती है तथा कानून को अन्तिम रूप देती है।
  2. विमर्शात्मक कार्य एवं जनमत-निर्माण – व्यवस्थापिका के सदनों में जन-कल्याण से सम्बन्धित विभिन्न नीतियों और योजनाओं पर विचार-विमर्श होता है। व्यवस्थापिका राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श और वांछित सूचनाएँ प्रस्तुत कर जनमत का निर्माण करती है।
  3. वित्त सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य राष्ट्र की वित्त-व्यवस्था पर नियन्त्रण रखना भी है। प्रजातान्त्रिक देशों में व्यवस्थापिका प्रत्येक वित्तीय वर्ष के आरम्भ में . उस वर्ष के अनुमानित बजट को स्वीकृत करती है। इसकी स्वीकृति के बिना नये कर लगाने तथा आय-व्यय से सम्बन्धित कार्य नहीं किये जा सकते हैं।
  4. न्याय सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका क्रो न्याय-क्षेत्र में भी कुछ कार्य करने पड़ते हैं। भारत ; की संसद को उच्च कार्यपालिका के पदाधिकारियों पर महाभियोग लगाने और उनके निर्णय का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार उसे सदन की मानहानि की स्थिति में सदन को निर्णय देने एवं दोषी व्यक्ति को दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।
  5. कार्यपालिका पर नियन्त्रण – प्रत्यक्ष रूप से व्यवस्थापिका प्रशासन में भाग नहीं लेती, लेकिन प्रशासन पर उसका नियन्त्रण निश्चित रूप से होता है। संसदात्मक शासन-प्रणाली में विधायिका प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर, अविश्वास, निन्दा, स्थगन तथा कटौती के प्रस्ताव रखकर, मन्त्रियों द्वारा प्रस्तुत किये गये विधेयकों तथा अन्य प्रस्तावों को अस्वीकार करने आदि के माध्यम से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है। अध्यक्षात्मक शासन में व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखती है।
  6. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य – अनेक देशों में व्यवस्थापिका को कुछ निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में संसद के दोनों सदन उपराष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं। स्विट्जरलैण्ड में व्यवस्थापिका मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों, न्यायाधीशों तथा प्रधान सेनापति का निर्वाचन करती है।
  7. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका समय-समय पर किन्हीं विशेष कार्यों की जाँच करने के लिए आयोगों और समितियों की नियुक्ति का कार्य भी करती है। इसके अलावा व्यवस्थापिका द्वारा इंग्लैण्ड, अमेरिका, भारत आदि देशों में कार्यरत सरकारी निगमों के कार्यों और क्रियाकलापों पर भी पूर्ण नियन्त्रण रखा जाता है।

इस प्रकार, व्यवस्थापिका शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वह विधि-निर्माण के अतिरिक्त प्रशासन, न्याय, वित्त, संविधान, निर्वाचन आदि क्षेत्रों में अनेक कार्य करती है।

व्यवस्थापिका की महत्ता
सरकार के तीनों ही अंगों द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, लेकिन इन तीनों में व्यवस्थापन विभाग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यवस्थापन विभाग ही उन कानूनों का निर्माण करता है जिनके आधार पर कार्यपालिका शासन करती है और न्यायपालिका न्याय प्रदान करने का कार्य करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य के लिए आवश्यक आधार प्रदान करती है। व्यवस्थापन विभाग केवल कानूनों का ही निर्माण नहीं करता, वरन् प्रशासन की नीति भी निश्चित करता है और संसदात्मक शासन-व्यवस्था में तो कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण भी रखता है। संविधान में संशोधन का कार्य भी व्यवस्थापिका के द्वारा ही किया जाता है।
अत: यह कहा जा सकता है कि व्यवस्थापन विभाग सरकार के दूसरे अंगों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति रखता है।

शक्ति में हास के कारण
विधायिका के महत्त्व में कमी और इसकी शक्तियों के पतन के लिए कई कारण उत्तरदायी रहे हैं। संक्षेप में विधायिका के पतन के निम्नलिखित कारण हैं।

1. कार्यपालिका की शक्तियों में असीम वृद्धि – पूर्व की तुलना में विभिन्न कारणों से कार्यपालिका का अधिक महत्त्वपूर्ण होना स्वाभाविक है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि इसकी शक्तियों में वृद्धि का विपरीत प्रभाव विधायिका पर पड़ता है। इसीलिए विगत शताब्दी में अनेक राष्ट्रों में विधायिका की संस्था और कमजोर हुई है।

2. प्रतिनिधायन के०सी० ह्वीयर – के मतानुसार प्रतिनिधायन द्वारा कार्यपालिका ने विधायिका की कीमत पर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया है। इस सिद्धान्त के फलस्वरूप कार्यपालिका को विधि-निर्माण का अधिकार प्राप्त हो गया। व्यवहार में विभिन्न कारणों से विधायिका ने स्वतः कार्यपालिका को यह शक्ति प्रदान की। अतः विधि-निर्माण का जो मुख्य कार्यं विधायिका के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत था। वह भी प्रतिनिधायन के कारण उसके क्षेत्राधिकार से निकलता चला गया।

3. संचार साधनों की भूमिका – रेडियो और टेलीविजन विज्ञान के ऐसे चमत्कार हैं, जिन्होंने कार्यपालिका के प्रधान को जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़ा। संचार साधनों के ऐसे. विकास से कार्यपालिका के प्रधान द्वारा विधायिका को नजरअन्दाज कर सीधा जनसम्पर्क स्थापित किया। जाने लगा जिसका प्रतिकूल प्रभाव विधायिका की शक्तियों पर पड़ता गया।

4. दबाव गुटों और हितसमूहों का विकास – बीसवीं शताब्दी में विधायिका के सदस्यों का एक मुख्य कार्य जन-शिकायतों को सरकार तक पहुँचाना रहा, लेकिन दबाव गुटों और हितसमूहों के विकास के कारण उसकी इस भूमिका में भी कमी आई। पिछली शताब्दी में नागरिक संगठित हितसमूहों का सदस्य होता गया। परिणामस्वरूप विधायिका की अनदेखी कर कार्यपालिका से वह सीधा सम्पर्क जोड़ लेता था और अपनी माँगों को मनवाने के सन्दर्भ में सफलता प्राप्त करता था। अतः विधायिका पृष्ठभूमि में चली गई और निर्णय-प्रक्रिया में कार्यपालिका ही मुख्य भूमिका अदा करती रही।

5. परामर्शदात्री समितियों और विशेषज्ञ समितियों का विकास – प्रत्येक मन्त्रालय और विभाग में सलाहकार समितियाँ गठित होने लगी हैं तथा विशेषज्ञों के संगठन बनाए जाने लगे हैं। विधेयकों का प्रारूप तैयार करने में इनसे सलाह ली जाती है। सदन में जब विचार-विमर्श होता है और सदस्यों द्वारा संशोधन प्रस्तुत किए जाते हैं, तब यह कहकर उन्हें चुप कर दिया जाता है कि इस पर विशेषज्ञों की सलाह ली जा चुकी है। फलस्वरूप विधायिका के समक्ष ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृत करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता है।

6. युद्ध और संकट की स्थिति – प्रायः सभी लोकतान्त्रिक देशों में राज्याध्यक्ष ही सेना का प्रधान होता है, सैनिक मामलों में विधायिका कुछ भी नहीं कर सकती। अतः युद्ध या अन्य संकटकाल के समय विधायिका नहीं अपितु कार्यपालिका सर्वेसर्वा बन जाती है, ऐसी कठिन परिस्थितियों में तुरन्त निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए सन् 1971 के युद्ध में भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वतन्त्र रूप से युद्ध-नीति का संचालन किया था। अमेरिका में भी राष्ट्रपति निक्सन ने वियतनाम युद्ध के दौरान कई बार कांग्रेस की अवहेलना की थी। फॉकलैण्ड युद्ध में भी ब्रिटिश प्रधानमन्त्री श्रीमती मार्ग रेट थैचर ने देश का नेतृत्व स्वयं किया था। अतः युद्ध या संकट के समय कार्यपालिको ऐसी स्थिति ला देती है, जिसमें विधायिका के समक्ष उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। यह प्रक्रिया बीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई।

7. संकट व तनाव की अवस्था का युग – रॉबर्ट सी० बोन ने 20वीं शताब्दी को ”चिन्ता का युग” कहा है। उक्त शसाब्दी में विभिन्न देशों में किसी-न-किसी कारण से प्रायः ही संकट के बादल मंडराते रहे, जो न केवल सरकारों को बल्कि नागरिकों को भी तनाव की स्थिति में ला देते थे। संचार-साधनों के विकास के कारण विश्व की घटनाओं का समाचार निरन्तर रेडियो तथा टेलीविजन द्वारा मिलना सामान्य बात थी। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही उनकी आशा का केन्द्र बनी। यही कारण है कि चिन्ता के उस युग में विधायिका लोगों को आश्वस्त करने की भूमिका नहीं निभा सकी। यह कार्य कार्यपालिका का हो गया। आज कार्यपालिका सर्वशक्तिमान बनने की दिशा में बढ़ रही है।

प्रश्न 2.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण एवं दोषों (पक्ष एवं विपक्ष) का वर्णन कीजिए। [2007, 10, 12]
या
व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन की उपयोगिता पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
उत्तर
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/उपयोगिता (पक्ष में तर्क)
द्वि-सदनात्मक या द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के पक्ष में जो तर्क दिये जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं-

1. उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर पुनर्विचार – द्वितीय सदन का प्रमुख कार्य प्रथम सदन के उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर विचार करना है। प्रथम सदन में नवयुवक तथा जोशीले सदस्यों की प्रधानता रहती है। वे आवेश में आकर ऐसे कानूनों का निर्माण कर डालते हैं जो जनहित में नहीं होते। द्वितीय सदन में, जिसमें अधिकांश अनुभवी तथा गम्भीर व्यक्ति होते हैं, प्रथम सदन द्वारा पारित कानूनों का पुनरावलोकन करके उत्पन्न भूलों को दूर कर देते हैं। ब्लंटशली ने ठीक ही लिखा है कि “दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें सदा अच्छा देखती हैं, विशेषतया जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करना आवश्यक हो।’ लॉस्की के अनुसार, “नियन्त्रण संशोधन तथा रुकावट डालने में जो काम द्वितीय सदन करता है, उससे उसकी आवश्यकता स्वयं सिद्ध है।”

2. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक – एक-सदनात्मक व्यवस्था में उसके निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी हो जाने की पूरी सम्भावना रहती है, किन्तु द्वि-सदनात्मक व्यवस्था में इस प्रकार की सम्भावना का अन्त हो जाता है। ब्राइस का कहना है, “दो सदनों की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि एक सदन की स्वाभाविक प्रवृत्ति घृणापूर्ण, अत्याचारी तथा भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है, जिसे रोकने के लिए एकसमान सत्ताधारी द्वितीय सदन का अस्तित्व आवश्यक है।” इस प्रकार द्वितीय सदन की विद्यमान स्वतन्त्रता की गारण्टी व कुछ सीमा तक अत्याचार से सुरक्षा भी है।

3. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन – लॉर्ड एक्टन का कहना है कि “स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए द्वितीय सदन अत्यन्त आवश्यक है। यह नीतियों में सन्तुलन स्थापित करता है तथा अल्पसंख्यकों की रक्षा और प्रथम सदन के दोषों को दूर करता है।’

4. प्रथम सदन के कार्य – भार में कमी–द्वितीय सदन विवादास्पद कार्यों को अपने हाथ में लेकर प्रथम सदन की कार्य-भार हल्का कर देता है और उसे अधिक सुचारु रूप से कार्य करने का अवसर प्रदान करता है। आधुनिक प्रगतिशील देशों में एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रूप से निभाने में असमर्थ होती है; अत: द्वितीय सदन की आवश्यकता है।

5. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एकदूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है। कि दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती है।”

6. अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व – व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन के होने से अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है।

7. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जब कि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

8. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।

9. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाता है।

10. प्रथम सदन का सहयोगी – द्वितीय सदन प्रथम सदन का सहयोगी होता है। इस सम्बन्ध में हेनरीमैन ने लिखा है कि ‘‘बिल्कुल न होने से किसी भी सरकार का द्वितीय सदन अच्छा है, क्योंकि एक व्यवस्थित द्वितीय सदन प्रथम का शत्रु नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक अंग है।” द्वि-सदनात्मक प्रणाली में दोनों सदन एक-दूसरे के सहयोगी होते हैं।

11. जनमत जानने का अच्छा साधन – जब कोई विधेयक प्रथम सदन से पारित होकर दूसरे सदन में विचारार्थ भेजा जाता है, तब जनता को इस बीच के समय में उसे पर अपना विचार व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ पर विधेयक पर विचार करने में कुछ समय अवश्य लग जाता है। इस सम्बन्ध में लॉर्ड ब्राइस ने लिखा है कि “द्वितीय सदन का मुख्य कार्य केवल इतना विलम्ब करना होना चाहिए जिससे जनता को निम्न सदन द्वारा प्रस्तुत ऐसे विधेयकों पर अपना मत व्यक्त करने का अवसर मिल सके जिनके सम्बन्ध में शासन के पास पहले से जनता का कोई आदेश नहीं है।”

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दोष (विपक्ष में तर्क)
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

1. रूढ़िवादिता – द्वितीय सदन रूढ़िवादी होता है, क्योंकि उसके अधिकांश सदस्य धनी एवं अनुदार प्रवृत्ति के होते हैं। इसलिए वे प्रगतिशील एवं सुधारात्मक विधेयकों के पारित होने में बाधक सिद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में लॉस्की ने लिखा है कि “अत्यन्त उपयोगी सुधारों में द्वितीय सदन को विलम्ब लगाने की शक्ति देना सम्भवत: कालान्तर में विनाश को जन्म देना है और जन-क्रान्ति का मार्ग निर्मित करना है।”

2. अनावश्यक या हानिकारक – प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक ऐबेसेयीज का कहना है कि “कानून जनता की इच्छा है। जनता की एक ही समय में तथा एक ही विषय पर दो विभिन्न इच्छाएँ नहीं हो सकतीं। अतएव जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली परिषद् आवश्यक रूप से एक ही होनी चाहिए। जहाँ कहीं दो सदन होंगे, मतभेद तथा विरोध अवश्यम्भावी होंगे तथा जनता की इच्छा अकर्मण्यता का शिकार बन जाएगी।” वह पुनः कहता है कि यदि द्वितीय सदन का प्रथम सदन से मतभेद हो तो यह उसकी शैतानी है और यदि वह उससे सहमत है। तो उसका अस्तित्व अनावश्यक है। चूंकि वह या तो सहमत होगा या असहमत; अतएव उसका अस्तित्व किसी दिशा में भी लाभदायक नहीं है।

3. उत्तरदायित्व का अभाव – आलोचकों का कहना है कि द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन अपने उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हो जाता है।

4. संगठन की कठिनाई – द्वितीय सदन के संगठन के सम्बन्ध में कोई आदर्श प्रणाली नहीं है। यदि द्वितीय सदन सामान्य मताधिकार के आधार पर निर्वाचित है तो वह निम्न सदन की पुनरावृत्ति मात्र रह जाता है और यदि उसका निर्वाचन उच्च सम्पत्तिगत योग्यता के आधार पर हुआ है तो वह रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रियावादी होगा। यदि द्वितीय सदन वंशानुगत है तो वह निम्न सदन के हितों एवं उनकी आकांक्षाओं का विरोधी होगा। यदि वह अंशतः निर्वाचित तथा अंशतः मनोनीत है तो स्वयं अपने विपरीत विभाजित होने के कारण किसी भी रचनात्मक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं होगा और यदि वह कार्यपालिका अथवा निम्न सदन द्वारा नियुक्त है तो नियुक्त करने वाली सत्ता के अतिरिक्त यह और किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा।

5. धन का अपव्यय – द्वि-सदनात्मक प्रणाली में धन के अपव्यय में अधिक वृद्धि हो जाती है। तथा इससे अनावश्यक विलम्ब भी होता है, क्योंकि दूसरे सदन में विचारार्थ कोई विधेयक भेजना केवल देरी करना ही है। फिर इस अपव्यय का भार जनता को अतिरिक्त करों के रूप में वहन करना पड़ता है। यह धन द्वितीय सदन की अपेक्षा जनहित के कार्यों में उचित रूप से लगाया जा सकता है।

6. प्रजातन्त्रीय प्रणाली का विरोध – आयंगर का कहना है कि “यद्यपि द्वि-सदनात्मक शासन प्रणाली जनतन्त्र के अन्दर एक प्राचीन परम्परा है, किन्तु यह प्रणाली जनतन्त्र पर विश्वास करने में हिचकिचाती है और अल्पसंख्यकों को ही सन्तुष्ट करने का प्रयास करती है। कभी-कभी द्वितीय सदन हारे हुए नेताओं का सुरक्षित भण्डार सिद्ध हो सकता है।

7. भूल-सुधार का महत्त्वहीन दावा – यह कहना कि प्रथम सदन आवेश में आकर जनहित विरोधी कानूनों का निर्माण कर सकता है, उचित नहीं है; क्योंकि प्रथम सदन प्रत्येक विधेयक पर तीन बार विचार करता है। इस प्रकार उसमें किसी प्रकार की भूल रह जाने की बहुत कम सम्भावना रह जाती है। द्वितीय सदन में केवल विधेयक पर प्रथम सदन के तर्क-वितर्क ही दोहराये जाते हैं। इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आधुनिक युग में व्यवस्थापन एकाएक कानून की पुस्तक पर नहीं आ जाता, प्रायः प्रत्येक विधेयक विचार एवं विश्लेषण की एक लम्बी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कानून बना है। अतः जल्दबाजी के व्यवस्थापन को रोकने की दृष्टि से दूसरे सदन को महत्त्व राजनीति की वर्तमान दशा में अत्यन्त कम हो गया है।’

8. संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना – जहाँ द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका होती है वहाँ संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना बनी रहती है। इससे शासन-व्यवस्था में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है। फ्रेंकलिन के शब्दों में, “द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका एक ऐसी गाड़ी के समान है जिसके दोनों सिरों पर एक-एक घोड़ा हो और वे दोनों घोड़ा-गाड़ी को अपनी-अपनी ओर खींच रहे हों ।”

9. अल्पमतों को प्रतिनिधित्व देने हेतु अन्य सन्तोषजनक प्रबन्ध सम्भव – द्वितीय सदन के आलोचकों का मत है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की व्यवस्था आवश्यक नहीं है। अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान में दूसरे उपाय किये जा सकते हैं, जिस तरह भारतीय संविधान में आंग्ल-भारतीय समुदाय, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये गये हैं।

10. संघीय व्यवस्था के लिए अनावश्यक – दलबन्दी के उदय हो जाने के बाद संघीय शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन का होना आवश्यक नहीं रह गया है, क्योंकि द्वितीय सदन के प्रतिनिधि राज्यों के हितों और आवश्यकताओं को दृष्टि में न रखकर अपने दलों के स्वार्थों का ही ध्यान रखते हैं। इस प्रकार वे राज्यों के प्रतिनिधि न बनकर वास्तविक रूप में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि बनकर रह जाते हैं। इस सम्बन्ध में रॉबर्टसन ने लिखा है, “संघ राज्यों की विशेष परिस्थितियों को छोड़कर द्वितीय सदन के पक्ष में कोई मान्य सैद्धान्तिक तर्क नहीं है और उसके | विरुद्ध उठाये गये सैद्धान्तिक तक का अभी समुचित उत्तर नहीं दिया गया है।”

उपर्युक्त तक में सत्य का अंश है, फिर भी अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी है। शायद इसका कारण यह है कि उच्च सदन के निर्माण से बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि द्वितीय सदन पूर्ण जागरूकता के साथ प्रथम सदन द्वारा पारित किये गये विधेयकों पर पुनर्विचार करे तो लोकप्रिय सदन की जल्दबाजी और मनमानी पर उपयोगी एवं आवश्यक प्रतिबन्ध लग सकता है. इसके अतिरिक्त विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिये जाने पर कानून-निर्माण का कार्य अधिक पूर्णता के साथ किये जाने की आशा की जा सकती है। रैम्जे म्योर के अनुसार, “द्वितीय सदन का महत्त्वपूर्ण उपयोग यह है कि उसमें राष्ट्रीय नीति के सामान्य प्रश्नों पर ठण्डे वातावरण में शान्ति के साथ विचार होता है जैसा कि निम्न सदन में असम्भव है। किन्तु यह आवश्यक है कि द्वितीय सदन की रचना में कुछ सुधार हो। जे०एस० मिल के शब्दों में, “यदि एक सदन जनता की सभा हो तो दूसरा सदन राजनीतिज्ञों की सभा हो।’

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प्रश्न 3.
व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर किस प्रकार नियन्त्रण रखती है? विवेचना कीजिए।
या
संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के मध्य उचित सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2007]
या
संसदीय शासन-प्रणाली में व्यवस्थापिका किस प्रकार कार्यपालिका को नियन्त्रित करती है? [2007, 13]
उत्तर
सरकार के तीनों अंगों में व्यवस्थापिका का स्थान महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, क्योंकि व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर ही कार्यपालिका शासन करती है तथा न्यायपालिका न्याय प्रदान करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका शासन का मूलाधार है। इसके अतिरिक्त व्यवस्थापिका जनता द्वारा निर्वाचित संस्था है, यह जन-आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इस कारण भी लोकतन्त्र में इसका बहुत अधिक महत्त्व होना नितान्त स्वाभाविक है।
कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के सम्बन्ध की प्रकृति ही शासन की दो प्रमुख प्रणालियोंसंसदात्मक (Parliamentary) प्रणाली और अध्यक्षात्मक (Presidential) प्रणाली में भेद स्थापित करती है। संसदात्मक प्रणाली में कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के मध्य सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ होता है।

कार्यपालिका को व्यवस्थापिका की एक समिति कहा जा सकता है। अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका सिद्धान्त रूप में सर्वथा एक-दूसरे से अलग होते हैं, परन्तु शासने की आवश्यकताएँ इन्हें पूर्णरूपेण पृथकू नहीं रहने देती हैं। इस प्रकार व्यवहार रूप में दोनों एक-दूसरे को नियन्त्रित और मर्यादित करती हैं। प्रत्येक राज्य में कार्यपालिका को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कुछ विधायी कार्य करने पड़ते हैं और व्यवस्थापिका को कुछ कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य करने पड़ते हैं। कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के सम्बन्ध का अध्ययन दो रूपों में किया जा सकता है-

  1. कार्यपालिका की विधायी शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण।
  2. व्यवस्थापिका की प्रशासनिक शक्तियाँ और उसका कार्यपालिका पर नियन्त्रण।

1. कार्यपालिका की विधायी शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण- कार्यपालिका कई प्रकार से विधायी अर्थात् कानून- निर्माण सम्बन्धी कार्यों में भाग लेती है। संसदीय शासन-प्रणाली वाले देशों में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका का अधिवेशन बुलाने, उसको स्थगित करने तथा समाप्त करने का अधिकार होता है। वह निम्न सदन को भंग करके नये चुनाव के लिए आदेश दे सकती है, परन्तु अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली वाले देशों में कार्यपालिका व्यवस्थापिका को समय-समय पर देश की कानून सम्बन्धी आवश्यकताओं से अवगत कराती रहती है और उसका उचित नेतृत्व और पथ-प्रदर्शन करती है। कार्यपालिका समस्त विधेयकों का प्रारूप (Draft) तैयार करती है और व्यवस्थापिका में उन्हें प्रस्तुत करती है तथा विपक्ष की आलोचनाओं को सहन करती हुई पारित कराती है। अध्यक्षात्मक प्रणाली में कार्यपालिका अप्रत्यक्ष रूप से विधायी कार्य को प्रभावित करती है। दूसरे शब्दों में, इस प्रणाली में राष्ट्रपति को केवल सन्देशों के माध्यम से ही व्यवस्थापिका का ध्यान आलोचनाओं की ओर आकर्षित करने का अधिकार होता है। अमेरिका के राष्ट्रपति को व्यवस्थापिका (काँग्रेस) को सन्देश भेजने का अधिकार है।

संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक दोनों प्रकार की प्रणालियों में कार्यपालिका को अध्यादेश जारी करने तथा व्यवस्थापिका द्वारा पारित विधेयकों के सम्बन्ध में निषेधाधिकार प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त होता है। ब्रिटेन की संसद सम्राट् के निषेधाधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकती। बहुत-से राज्यों में व्यवस्थापिका बहुमत के आधार पर इसे अस्वीकार कर सकती है। हैमिल्टन के अनुसार, “निषेधाधिकार कार्यपालिका के लिए कवच का काम करता है। कुछ देशों में प्रतिनिध्यात्मक विधायी प्रणाली का प्रयोग किया जाने लगा है, जिसके कारण कार्यपालिका की विधायी शक्तियों को क्षेत्र और अधिक विकसित हो गया है।

2. व्यवस्थापिका की प्रशासनिक शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण – दूसरी ओर कार्यपालिका भी कई प्रकार से व्यवस्थापिका द्वारा नियन्त्रित होती है। संसदीय प्रणाली में यह नियन्त्रण अध्यक्षात्मक प्रणाली की अपेक्षा अधिक होता है। संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका का जीवन व्यवस्थापिका की इच्छा पर निर्भर होता है। दूसरे शब्दों में, कार्यपालिका उस समय तक अपने पद पर बनी रहती है जब तक कि उसे व्यवस्थापिका का विश्वास प्राप्त है। व्यवस्थापिका अविश्वास प्रस्ताव पारित करके, कार्यपालिका के शासन सम्बन्धी आचरण की निन्दा का प्रस्ताव स्वीकृत करके, अनुदान स्वीकार करके अथवा सरकार द्वारा प्रस्तुत किसी प्रस्ताव को अस्वीकृत करके मन्त्रिमण्डल को अपने पद से हटा सकती है। अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली में इस प्रकार के नियन्त्रण उपलब्ध नहीं होते हैं। इसमें कार्यपालिका को नियन्त्रित करने के दूसरे साधन हैं। अमेरिका में लोक सदन (House of Representatives) राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा पद से हटा सकता है। इसी प्रकार सीनेट को कार्यपालिका द्वारा की गयी उच्च नियुक्तियों को स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार है तथा राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक सन्धि के लिए उसकी अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है।

कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के सम्बन्धों के उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों ही एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखती हैं। ऐसी स्थिति में यह अत्यन्त आवश्यक होता है कि इन दोनों के सम्बन्ध परस्पर सहयोगपूर्ण होने चाहिए। यदि पारस्परिक सहयोग नहीं रहेगा तो शासन-कार्य सुचारु रूप से चलना असम्भव हो जायेगा।

प्रश्न 4.
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं? इसके विविध रूपों का वर्णन कीजिए। [2010, 14]
या
कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए। [2011]
या
कार्यपालिका क्या है? आधुनिक काल में इसके बढ़ते हुए महत्त्व के क्या करण हैं? [2007, 11, 13]
या
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2009, 11, 14]
या
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं? कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए। वर्तमान समय में कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के कारणों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर
कार्यपालिका सरकार का दूसरा प्रमुख अंग है। इतना ही नहीं, ‘सरकार’ शब्द का आशय कार्यपालिका से ही होता है। कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को क्रियान्वित करती है और उनके आधार पर प्रशासन का संचालन करती है।

गार्नर ने कार्यपालिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “व्यापक एवं सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका के अधीन वे सभी अधिकारी, राज्य-कर्मचारी तथा एजेन्सियाँ आ जाती हैं, जिनका कार्य राज्य की इच्छा को, जिसे व्यवस्थापिका ने व्यक्त कर कानून का रूप दे दिया है, कार्यरूप में परिणत करना है।”
गिलक्रिस्ट के अनुसार, “कार्यपालिका सरकार का वह अंग है, जो कानूनों में निहित जनता की इच्छा को लागू करती है।

कार्यपालिका के विविध रूप (प्रकार)
कार्यपालिका के निम्नलिखित रूप होते हैं-

  1. नाममात्र की कार्यपालिका – ऐसी कार्यपालिका; जिसके अन्तर्गत एक व्यक्ति, जो सिद्धान्त रूप से शासन का प्रधान होता है तथा जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किये जाते हैं, परन्तु वह स्वयं किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं करता; नाममात्र की होती है। ब्रिटेन की सम्राज्ञी तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका हैं।
  2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो वास्तव में कार्यकारिणी की शक्तियों का प्रयोग करती है। ब्रिटेन, फ्रांस तथा भारत में मन्त्रिपरिषद् वास्तविक कार्यपालिका के उदाहरण हैं।
  3. एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका वह होती है, जिसमें कार्यपालिका की सम्पूर्ण शक्तियाँ एक व्यक्ति के अधिकार में होती हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का उदाहरण है।
  4. बहुल कार्यपालिका – बहुल कार्यपालिका में कार्यकारिणी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर अधिकारियों के समूह में निहित होती है। इस प्रकार की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में है।
  5. पैतृक कार्यपालिका – पैतृक कार्यपालिका उस कार्यपालिका को कहते हैं, जिसके प्रधान का पद पैतृक अथवा वंश-परम्परा के आधार पर होता है। ऐसी कार्यपालिका ग्रेट ब्रिटेन में है।
  6. निर्वाचित कार्यपालिका – जहाँ कार्यपालिका के प्रधान का निर्वाचन किया जाता है, वहाँ निर्वाचित कार्यपालिका होती है। ऐसी कार्यपालिका भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में है।
  7. संसदात्मक कार्यपालिका – इसमें शासन-सम्बन्धी अधिकार मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों में निहित होते हैं। वे व्यवस्थापिका (भारत में संसद) के सदस्यों में से ही चुने जाते हैं और अपनी नीतियों के लिए व्यक्तिगत रूप से तथा सामूहिक रूप से उसी के प्रति उत्तरदायी होते हैं। व्यवस्थापिका मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके उसे पदच्युत कर सकती है। ब्रिटेन तथा भारत में ऐसी ही कार्यपालिका है।
  8. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका – इसमें मुख्य कार्यपालिका व्यवस्थापिका से पृथक् तथा स्वतन्त्र होती है और उसके प्रति उत्तरदायी नहीं होती। संयुक्त राज्य अमेरिका में इसी प्रकार की कार्यपालिका है। वहाँ पर कार्यपालिका का प्रधान राष्ट्रपति होता है, जिसका निर्वाचन चार वर्ष के लिए किया जाता है। इस अवधि के पूर्व महाभियोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रक्रिया द्वारा उसे अपदस्थ नहीं किया जा सकता। वह अपने कार्य के लिए वहाँ की कांग्रेस (व्यवस्थापिका) के प्रति उत्तरदायी नहीं है। वह अपनी सहायता के लिए मन्त्रिमण्डल का निर्माण कर सकता है, परन्तु उनके किसी भी परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

कार्यपालिका के कार्य
कार्यपालिका के कार्य वास्तव में सरकार के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। आधुनिक राज्यों में कार्यपालिका का महत्त्व बढ़ता जा रहा है तथा इसके मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-
1. कानूनों को लागू करना और शान्ति-व्यवस्था बनाये रखना – कार्यपालिका का प्रथम कार्य व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को राज्य में लागू करना तथा देश में शान्तिव्यवस्था को बनाये रखना होता है। कार्यपालिका का कार्य कानूनों को लागू करना है, चाहे वह कानून अच्छा हो या बुरा। कार्यपालिका देश में शान्ति व कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस आदि का प्रबन्ध भी करती है।

2. नीति-निर्धारण सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्धारण करना है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपनी नीति-निर्धारित करके उसे संसद के समक्ष प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका को अपनी नीतियों को विधानमण्डल के समक्ष प्रस्तुत नहीं करना पड़ता है। वस्तुतः कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक तथा विदेशनीति को निश्चित करती है और उस नीति के आधार पर ही अपना शासन चलाती है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बाँटा जाता है।

3. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका को देश का शासन चलाने के लिए अनेक कर्मचारियों की नियुक्ति करनी पड़ती है। प्रशासनिक कर्मचारियों की नियुक्ति अधिकतर प्रतियोगिता परीक्षाओं के आधार पर की जाती है। भारत में राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, राजदूतों, एडवोकेट जनरल, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है। अमेरिका में राष्ट्रपति को उच्चाधिकारियों की नियुक्ति के लिए सीनेट की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अमेरिका का राष्ट्रपति उन सभी कर्मचारियों को हटाने कां अधिकार रखता है, जिन्हें कांग्रेस महाभियोग के द्वारा नहीं हटा सकती।

4. वैदेशिक कार्य – दूसरे देशों से सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। विदेश नीति को कार्यपालिका ही निश्चित करती है तथा दूसरे देशों में अपने राजदूतों को भेजती है और दूसरे देशों के राजदूतों को अपने देश में रहने की स्वीकृति प्रदान करती है। दूसरे देशों से सन्धि या समझौते करने के लिए कार्यपालिका को संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में कार्यपालिका का अध्यक्ष या उसका प्रतिनिधि भाग लेता है।

5. विधि-सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका के पास विधि-सम्बन्धी कुछ शक्तियाँ भी होती हैं। संसदीय सरकार में कार्यपालिका की विधि-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा मन्त्रिमण्डल के सदस्य व्यवस्थापिका के ही सदस्य होते हैं। वे व्यवस्थापिका की बैठकों में , भाग लेते हैं और प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में 95 प्रतिशत प्रस्ताव मन्त्रियों द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं, क्योंकि मन्त्रिमण्डल का व्यवस्थापिका में बहुमत होता है, इसलिए प्रस्ताव आसानी से पारित हो जाते हैं। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के समर्थन के बिना कोई प्रस्ताव – पारित नहीं हो सकता। संसदीय सरकार में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका का अधिवेशन बुलाने का अधिकार भी होता है। जब व्यवस्थापिका का अधिवेशन नहीं हो रहा होता है, उस समय कार्यपालिका को अध्यादेश जारी करने का अधिकार भी प्राप्त होता है।

6. वित्तीय कार्य – राष्ट्रीय वित्त पर व्यवस्थापिका का नियन्त्रण होता है। वित्तीय व्यवस्था बनाये रखने में कार्यपालिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु कार्यपालिका ही बजट तैयार करके उसे व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करती है। कार्यपालिका को व्यवस्थापिका में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण उसे बजट पारित कराने में किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। नये कर लगाने व पुराने कर समाप्त करने के प्रस्ताव भी कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका स्वयं बजट प्रस्तुत नहीं करती, अपितु बजट कार्यपालिका की देख-रेख में ही तैयार किया जाता है। भारत में वित्तमन्त्री बजट प्रस्तुत करता है।

7. न्यायिक कार्य – न्याय करना न्यायपालिका का मुख्य कार्य है, परन्तु कार्यपालिका के पास भी कुछ न्यायिक शक्तियाँ होती हैं। बहुत-से देशों में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। कार्यपालिका के अध्यक्ष को अपराधी के दण्ड को क्षमा करने अथवा कम करने का भी अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है। ब्रिटेन में यह शक्ति सम्राट् के पास है। राजनीतिक अपराधियों को क्षमा करने का अधिकार भी कई देशों में कार्यपालिका को ही प्राप्त है।

8. सैनिक कार्य – देश की बाह्य आक्रमणों से रक्षा के लिए कार्यपालिका अध्यक्ष सेना का अध्यक्ष भी होता है। भारत तथा अमेरिका में राष्ट्रपति अपनी-अपनी सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति (कमाण्डर-इन- चीफ) हैं। सेना के संगठन तथा अनुशासन से सम्बन्धित नियम कार्यपालिका द्वारा ही बनाये जाते हैं। आन्तरिक शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए भी सेना की सहायता ली जा सकती है। सेना के अधिकारियों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा ही की जाती है तथा संकटकालीन स्थिति में कार्यपालिका सैनिक कानून लागू कर सकती है। भारत का राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा कर सकता है।

9. संकटकालीन शक्तियाँ – देश में आन्तरिक संकट अथवा किसी विदेशी आक्रमण की स्थिति में कार्यपालिका का अध्यक्ष संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकटकाल में कार्यपालिका बहुत शक्तिशाली हो जाती है और संकट का सामना करने के लिए अपनी इच्छा से शासन चलाती है।

10. उपाधियाँ तथा सम्मान प्रदान करना – प्रायः सभी देशों की कार्यपालिका के पास विशिष्ट व्यक्तियों को उनकी असाधारण तथा अमूल्य सेवाओं के लिए उपाधियाँ और सम्मान प्रदान करने का अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में यह अधिकार राष्ट्रपति के पास है, जब कि ब्रिटेन में सम्राट् के पास।
कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के कारण

व्यवस्थापिका की शक्ति के कम होने तथा कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि होने के निम्नलिखित कारण हैं-

1. लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा – वर्तमान में सभी देशों में राज्य को लोक कल्याणकारी संस्था माना जाता है। वह जनता की भलाई के अनेक कार्य करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सामाजिक व आर्थिक सुधार, वेतन-निर्धारण आदि इसी के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाता है और जनहित की योजनाएँ क्रियान्वित की जाती हैं। इससे कार्यपालिका का कार्य-क्षेत्र बढ़ जाता है तथा वह व्यापक हो जाती है।

2. दलीय पद्धति – आधुनिक प्रजातन्त्र राजनीतिक दलों के आधार पर संचालित होता है। दलों के आधार पर ही व्यवस्थापिका व कार्यपालिका का संगठन होता है। संसदीय शासन में बहुमत प्राप्त दल ही कार्यपालिका का गठन करता है। दलीय अनुशासन के कारण कार्यपालिका अधिनायकवादी शक्तियाँ ग्रहण कर लेती है और अपने दल के बहुमत के कारण उसे व्यवस्थापिका का भय नहीं रहता है। व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी रहते हुए भी कार्यपालिका शक्तिशाली होती जा रही है। ब्रिटेन में द्विदलीय पद्धति ने भी कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि की है।

3. प्रतिनिधायन – व्यवस्थापिका कार्यों की अधिकतम तथा व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कानूनों के सिद्धान्त तथा रूपरेखा की रचना कर शेष नियम बनाने हेतु कार्यपालिका को सौंप देती है। इससे व्यवहार में कानून बनाने का एक व्यापक क्षेत्र कार्यपालिका को प्राप्त हो जाता है तथा कार्यपालिका की शक्तियों में असाधारण वृद्धि हो जाती है।

4. समस्याओं की जटिलता – वर्तमान में राज्य को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए विशेष ज्ञान, अनुभव व योग्यता की आवश्यकता होती है। व्यवस्थापिका के सामान्य योग्यता के निर्वाचित सदस्य इन समस्याओं के समाधान में असमर्थ रहते हैं। कार्यपालिका ही इन समस्त समस्याओं का समाधान करती है, इसलिए उसकी शक्तियों की वृद्धि का स्वागत किया जाता है।

5. नियोजन – आज का युग नियोजन का युग है। सभी राष्ट्र अपने विकास के लिए नियोजन की प्रक्रिया को अपनाते हैं। योजनाएँ तैयार करना, उन्हें लागू करना तथा उनका मूल्यांकन करना कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होता है। इससे कार्यपालिका का व्यापक क्षेत्र में आधिपत्य हो जाता है।

6. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा विदेशी व्यापार – आधुनिक युग में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा युद्ध एवं शान्ति के प्रश्न अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। ये कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार विदेशी व्यापार, विदेशी सहायता तथा विदेशी पूँजी या विदेशों में पूँजी से सम्बन्धित कार्यों को कार्यपालिका द्वारा सम्पादित करना एक सामान्य प्रक्रिया है। इनसे कार्यपालिका का महत्त्व सरकार के अन्य अंगों से अधिक हो गया है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में साम्यवाद के प्रचार तथा प्रसार को रोकने के लिए अमेरिकी कांग्रेस द्वारा राष्ट्रपति को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इससे राष्ट्रपति की शक्तियों में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गई है।

7. कार्यपालिका को व्यवस्थापिका के विघटन का अधिकार – वर्तमान में संसदीय शासन में व्यवस्थापिका को विघटित करने का कार्यपालिका को पूर्ण अधिकार है। मन्त्रिमण्डल की इस शक्ति के कारण कार्यपालिकों का व्यवस्थापिका पर आधिपत्य हो गया है। अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका व्यवस्थापिका को पदच्युत नहीं कर सकती। इस कारण व्यवस्थापिका शक्तिशाली ही बनी रहती है।
आधुनिक युग की प्रवृत्ति कार्यपालिका शक्ति के निरन्तर विस्तार की ओर अग्रसर है। लिप्सन के शब्दों में, “मतदाता द्वारा राज्य को सौंपा गया प्रत्येक नया कर्तव्य और शासन द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक अतिरिक्त शक्ति ने कार्यपालिका की सत्ता और महत्त्व में वृद्धि की है।”

कार्यपालिका का महत्त्व
कार्यपालिका शक्ति को प्राथमिक अर्थ है विधानमण्डल द्वारा अधिनियन्त्रित कानूनों का पालन कराना। किन्तु आधुनिक राज्य में यह कार्य उतना साधारण नहीं जितना कि अरस्तू के युग में था। राज्यों के कार्यों में अनेक गुना विस्तार हो जाने के कारण व्यवहार में सभी अवशिष्ट कार्य कार्यपालिका के हाथों में पहुँच गये हैं तथा इसकी महत्ता दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। आज कार्यपालिका प्रशासन की वह शक्ति है जिससे राज्य के सभी कार्य सम्पादित किये जाते हैं।
आज कार्यपालिका का महत्त्व इस कारण भी है कि नीति-निर्धारण तथा उसकी कार्य में परिणति, व्यवस्था बनाये रखना, सामाजिक तथा आर्थिक कल्याण का प्रोन्नयन, विदेश नीति का मार्गदर्शन, राज्य का साधारण प्रशासन चलाना आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य, कार्यपालिका ही सम्पादित करती है।

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प्रश्न 5.
न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007, 11, 14]
या
आधुनिक काल में न्यायपालिका के कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो गई है।” इस कथन के आलोक में न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए। [2016]
या
आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा कीजिए। [2013, 16]
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? इसकी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? [2009, 14]
या
आधुनिक लोकतन्त्र में स्वतन्त्र न्यायपालिका का क्या महत्त्व है? न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए क्या कदम उठाये जाने चाहिए? [2016]
या
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कार्यों एवं उसकी बढ़ती हुई महत्ता की व्याख्या कीजिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने हेतु क्या व्यवस्था की जानी चाहिए? [2007, 09, 10, 12, 13]
या
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में न्यायपालिका के कार्यों तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर
न्यायपालिका के कार्य
आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यत: निम्नलिखित कार्य करने पड़ते है-

1. न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। कार्यपालिका कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकदमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं तथा उन पर अपना न्यायपूर्ण निर्णय देती है।

2. कानूनों की व्याख्या करना – न्यायपालिका विधानमण्डल में बनाये हुए कानूनों की व्याख्या के साथ-साथ उन कानूनों की व्याख्या भी करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका के द्वारा की गयी कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इन्कार नहीं कर सकता।

3. कानूनों का निर्माण – साधारणतया कानून निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कानून के कई नये अर्थों को जन्म देते हैं, जिससे कानूनों का स्वरूप ही बदल जाता है और एक नये कानून का निर्माण हो जाता है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकदमे भी आते हैं, जहाँ उपलब्ध कानूनों के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं।

4. संविधान का संरक्षण – संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका पर होता है। यदि व्यवस्थापिका कोई ऐसा कानून बनाये, जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायपालिका की इस शक्ति को न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) का नाम दिया गया है। संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त होता है। इसी प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है।

5. संघ का संरक्षण – जिन देशों ने संघात्मक शासन-प्रणाली को अपनाया है, वहाँ न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन-प्रणाली में कई बार केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभिन्न प्रकार के मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं, इनका निर्णय न्यायपालिका द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के कार्य में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के कार्यों में।

6. नागरिक अधिकारों का संरक्षण – लोकतन्त्र को जीवित रखने के लिए नागरिकों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है। यदि इनकी सुरक्षा नहीं की जाती तो कार्यपालिका निरंकुश और तानाशाह बन सकती है। नागरिकों की स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अनेक राज्यों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था का संविधान में उल्लेख कर दिया गया है जिससे उन्हें संविधान और न्यायपालिका को संरक्षण प्राप्त हो सके। इस प्रकार न्यायपालिका का विशेष उत्तरदायित्व होता है कि वह सदैव यह दृष्टि में रखे कि सरकार का कोई अंग इन अधिकारों का अतिक्रमण न कर सके।

7. परामर्श देना – कई देशों में न्यायपालिका कानून सम्बन्धी परामर्श भी देती है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है, परन्तु इस सलाह को मानना या न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर है।

8. प्रशासनिक कार्य – कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासकीय नियन्त्रण रहता है।

9. आज्ञा-पत्र जारी करना – न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे अमुक कार्य नहीं कर सकते और यह किसी कार्य को करवा भी सकती है। यदि वे कार्य न किये जाएँ तो न्यायालय बिना अभियोग चलाये दण्ड दे सकता है अथवा मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड के कार्य – न्यायपालिका कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड का भी कार्य करती है, जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकदमों के निर्णयों तथा सरकार को दिये गये परामर्शो का रिकॉर्ड भी रखना पड़ता है। इन निर्णयों तथा परामर्शों की प्रतियाँ किसी भी समय प्राप्त की जा सकती हैं।

न्यायपालिका का महत्त्व
व्यक्ति एक विचारशील प्राणी है और इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने कुछ विशेष स्वार्थ भी होते हैं। व्यक्ति के विचारों और उसके स्वार्थों में इस प्रकार के भेद होने के कारण उनमें परस्पर संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त शासन-कार्य करते हुए शासक वर्ग ‘अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में सदैव ही एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता रहती है जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवादों को हल कर सके और शासक वर्ग को अपनी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य कर सके। इन कार्यों को करने वाली सत्ता का नाम ही न्यायपालिका है।

राज्य के आदिकाल से लेकर आज तक किसी-न-किसी रूप में न्याय विभाग का अस्तित्व सदैव ही रहा है और सामान्य जनता के दृष्टिकोण से न्यायिक कार्य का सम्पादन सर्वाधिक महत्त्व रखता है। राज्य में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी ही पूर्ण और श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय करने में पक्षपात किया जाता है, अनावश्यक व्यय और विलम्ब होता है। या न्याय विभाग में अन्य किसी प्रकार का दोष है तो जनजीवन नितान्त दु:खपूर्ण हो जाएगा। न्याय विभाग के सम्बन्ध में ब्राइस ने अपनी श्रेष्ठ शब्दावली में कहा है कि न्याय विभाग की कुशलता से बढ़कर सरकार की उत्तमता की दूसरी कोई भी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और चीज से नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता है, जितना कि उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र व अपक्षपाती न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है। वर्तमान समय में तो न्यायपालिका का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है, क्योकि अभियोगों के निर्णय के साथ-साथ न्यायपालिका संविधान की व्याख्या और रक्षा का कार्य भी करती है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनाये रखने हेतु उपाय
स्वतन्त्र न्यायपालिका उत्तम शासन की कसौटी है। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका का संगठन और कार्यविधि ऐसी हो जिससे वह बिना किसी भय और दबाव के स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके। स्वतन्त्र न्यायपालिका बनाये रखने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था होनी चाहिए-

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल – अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल का निर्धारण कार्यपालिका के द्वारा किया जाता है। नियुक्ति का आधार योग्यता और प्रतिभा को बनाया जाता है।

2. न्यायाधीशों का वेतन – न्यायाधीशों को वेतन के रूप में अच्छी धनराशि मिलनी चाहिए। उचित वेतन होने पर ही वे निष्पक्षता और ईमानदारी से काम कर पाएँगे।

3. न्यायाधीशों की पदोन्नति – न्यायाधीशों की पदोन्नति के भी निश्चित नियम होने चाहिए। योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही न्यायाधीशों की पदोन्नति होनी चाहिए। पदोन्नति का अधिकार नियुक्त करने वाली संस्था या कार्यपालिका को न होकर उच्चतम न्यायालय को होना चाहिए।

4. न्यायाधीशों को हटाना – न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। न्यायाधीशों को भ्रष्ट या अयोग्य होने पर ही उनके पद से हटाया जाना चाहिए।

5. न्याय तथा शासन सम्बन्धी कार्यों का विभाजन – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी अनिवार्य है कि शासन तथा न्याय विभाग दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हों। यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका पृथक् नहीं हैं तो न्यायाधीश अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अपनी न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं।

6. न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद देने से अलग रखा जाना – सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी न्यायाधीश को अन्य किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

7. न्यायाधीशों के निर्णयों, कार्यों और चरित्र की अनुचित आलोचना पर प्रतिबन्ध – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों के कार्यकाल में कोई भी उनके वैयक्तिक चरित्र अथवा कार्यों पर टिप्पणी न करे और उनके निर्णयों की आलोचना न करे।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
द्विसदनीय व्यवस्थापिका क्यों आवश्यक है? उसकी उपयोगिता के पक्ष में दो कारण बताइए।
या
द्विसदनात्मक विधानमण्डल (व्यवस्थापिका) की दो विशेषताएँ बताइए। [2009, 10]
या
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2010]
या
व्यवस्थापिका में उच्च सदन होने के चार लाभों का उल्लेख कीजिए।
या
द्विसंसदीय व्यवस्थापिका के लाभ बताइए। [2010, 14]
या
व्यवस्थापिका में दूसरे सदन का होना आवश्यक है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2010]
उत्तर
अधिकांश सभ्य देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका को अपनाया गया है। दूसरा सदन पहले सदन के प्रतिनिधियों द्वारा कानून निर्माण करते समय आवेश, जल्दबाजी व अदूरदर्शिता से काम लेने पर अंकुश लगाता है। अतः दूसरा सदन नियन्त्रक व सुधारक का कार्य करते हुए पहले। सदन के कार्यों की समीक्षा करता है। भारत सहित तमाम देशों में यही व्यवस्था लागू है। एक सदन वाली व्यवस्था कुछ देशों तक सिमटकर रह गई है, जिसमें धर्मप्रधान देश, सर्वाधिकारीवादी सरकारे तथा तानाशाही वाले कुछ राष्ट्र शामिल हैं। दूसरे सदन की आवश्यकता से सम्बन्धित कुछ बिन्दु निम्नलिखित हैं-

  1. यह पहले सदन की जल्दबाजी पर रोक लगाता है।
  2. यह सदन ज्ञानी व अनुभवी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
  3. यह व्यवस्थापिका की कार्यकुशलता को बढ़ाता है।
  4. यह लोकमत को जागरूक करने में सहायक है, जिससे जनता कानूनों के सम्बन्ध में अपनी राये प्रकट कर सकती है।
  5. यह लोकमत को जागरूक करने में सहायक है, जिससे जनता कानूनों के सम्बन्ध में अपनी राय प्रकट कर सकती है।

उपर्युक्त कारणों के आधार पर कहा जा सकता है कि एक सभ्य व प्रजातान्त्रिक राष्ट्र में व्यवस्थापिका में दूसरे सदन का भी होना लाभकारी व आवश्यक है।

द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/लाभ/उपयोगिता
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका की उपयोगिता (गुण/लाभ/) के पक्ष में चार तर्क निम्नलिखित है-

1. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

2. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।

3. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाता है।

4. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एकदूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है कि “दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती हैं।”

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा किन्हीं दो तरीकों का वर्णन कीजिए जिनसे व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर नियन्त्रण स्थापित करती है। [2014]
या
व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण के दो साधन बताइए। [2016]
या
कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखने के लिए विधायिका कौन-से साधन अपनाती है? ऐसे किन्हीं चार साधनों का उल्लेख कीजिए। [2014, 16]
उत्तर
सरकार के तीनों अंगों द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, लेकिन इन तीनों में व्यवस्थापक विभाग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सामान्यतया व्यवस्थापिका निम्नलिखित साधनों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण करती है।

  1. आर्थिक नियन्त्रण – वर्तमान समय में व्यवस्थापिका कानून-निर्माण के साथ-साथ राष्ट्रीय वित्त पर नियन्त्रण करने का कार्य भी करती है। व्यवस्थापिका की स्वीकृति के बिना, कार्यपालिका आय-व्यय से सम्बन्धित कोई कार्य नहीं कर सकती।
  2. प्रशासन सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण – संसदात्मक शासन में व्यवस्थापिका प्रश्नों, स्थगन प्रस्तावों, निन्दा प्रस्तावों और अविश्वास प्रस्तावों के माध्यम से कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण रखती है और कार्यपालिका का अस्तित्व व्यवस्थापिका की इच्छा पर निर्भर करता है।
  3. समितियों और आयोगों की नियुक्ति द्वारा नियन्त्रण – विधानमण्डल समय-समय पर किन्हीं विशेष कार्यों की जाँच करने के लिए समितियों और आयोगों की नियुक्ति का कार्य करता है और इनके माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों की छानबीन करता है।
  4. जनभावनाओं की अभिवृद्धि द्वारा नियन्त्रण – लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका एक ऐसा स्थान है जहाँ पर जनता के प्रतिनिधि सरकार (कार्यपालिका) का ध्यान जनता के कष्टों की ओर आकर्षित करते हैं और शासन को जनहित के कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं।

व्यवस्थापिका के दो कार्य
व्यवस्थापिका के दो कार्य निम्नवत हैं-

  1. कानूनों का निर्माण – व्यवस्थापिका का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कानूनों का निर्माण करना है। यह आवश्यकता के अनुसार नए कानून बनाती है, पुराने कानूनों में संशोधन करती है और अनावश्यक कानूनों को रद्द करती है।
  2. संविधान में संशोधन – व्यवस्थापिका को संविधान करने का अधिकार भी प्राप्त होता है। संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की है। इंग्लैण्ड में व्यवस्थापिका (ब्रिटिश संसद) ही सर्वोपरि है। वह साधारण कानूनों के समान ही संविधान में संशोधन कर सकती है। परन्तु संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत में संशोधन की विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है।

प्रश्न 3.
कार्यपालिका के निर्माण (नियुक्ति) की प्रमुख विधियों को लिखिए।
उत्तर
आधुनिक समय में कार्यपालिका की नियुक्ति विभिन्न देशों में अलग-अलग पद्धतियों से की जाती है। इस विषय में निम्नलिखित पद्धतियाँ प्रमुख हैं-

1. वंशानुगत पद्धति – इस पद्धति का सम्बन्ध राजतन्त्रीय शासन से है। इसमें पद की अवधि आजीवन होती है और उत्तराधिकार ज्येष्ठाधिकार कानून द्वारा शासित होता है। प्राचीन व मध्य युग में कार्यपालिका के निर्माण की यह सर्वाधिक प्रचलित पद्धति रही है। यद्यपि वर्तमान समय में यह पद्धति लोकप्रिय नहीं है, किन्तु ब्रिटेन, स्वीडन, डेनमार्क, जापान आदि देशों में नाममात्र की कार्यपालिका की नियुक्ति वंशानुगत पद्धति के आधार पर की जाती है।

2. जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन – कुछ देशों में कार्यपालिका का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। मैक्सिको, ब्राजील, पेरू आदि लैटिन अमेरिकी देशों में राष्ट्रपति को सर्वसाधारण जनता द्वारा ही निर्वाचित किया जाता है।

3. जनता द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन – इस पद्धति में सर्वसाधारण जनता द्वारा एक निर्वाचक मण्डल का निर्वाचन किया जाता है और इस निर्वाचक मण्डल द्वारा कार्यकारिणी का चुनाव किया जाता है। अमेरिका के राष्ट्रपति के निर्वाचन की यही पद्धति है, किन्तु व्यवहार में राष्ट्रपति के चुनाव ने प्रत्यक्ष चुनाव का रूप ग्रहण कर लिया है।

4. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन – इस पद्धति में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका द्वारा चुना जाता है। स्विट्जरलैण्ड में कार्यपालिका प्रधान के चुनाव की यही पद्धति है।

5. मनोनयन – संसदात्मक शासन-व्यवस्था वाले देशों में सम्राट् या राष्ट्रपति तो नाममात्र की कार्यपालिका होती है; अत: इन शासन-व्यवस्थाओं में वास्तविक कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिपरिषद् की नियुक्ति का प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। ब्रिटेन में जिस राजनीतिक दल को ‘लोक-सदन’ (House of Commons) में बहुमत प्राप्त होता है, सम्राट् के द्वारा उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता है। इसी व्यक्ति द्वारा साधारणतया अपने ही राजनीतिक दल से सहयोगियों की टीम को चुनकर मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किया जाता है। भारत में इसी पद्धति का अनुसरण किया गया है। वास्तविक कार्यपालिका के निर्माण के सम्बन्ध में यही पद्धति सर्वाधिक सन्तोषजनक पायी गयी है।

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प्रश्न 4.
कार्यपालिका के चार कार्यों का वर्णन कीजिए। [2012]
या
आधुनिक राज्यों में कार्यपालिका के किन्हीं चार कार्यों का समुचित उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 16]
उत्तर
कार्यपालिका के कार्य कार्यपालिका के चार कार्य निम्नवत् हैं-

1. आन्तरिक शासन सम्बन्धी कार्य – प्रत्येक राज्य, राजनीतिक रूप में संगठित समाज है। और इस संगठित समाज की सर्वप्रथम आवश्यकता शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना होता है। तथा यह कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। इसके अतिरिक्त व्यापार और यातायात, शिक्षा और स्वास्थ्य से सम्बन्धित सुविधाओं की व्यवस्था और कृषि पर नियन्त्रण, आदि कार्य भी कार्यपालिका द्वारा ही किये जाते हैं।

2. सैनिक कार्य – सामान्यतया राज्य की कार्यपालिका का प्रधान सेनाओं के सभी अंगों (स्थल, जल और वायु) के प्रधान के रूप में कार्य करता है और विदेशी आक्रमण से देश की रक्षा करना कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। अपने इस कार्य के अन्तर्गत कार्यपालिका आवश्यकतानुसार युद्ध अथवा शान्ति की घोषणा कर सकती है।

3. विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका के विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य बहुत कुछ सीमा तक शासन-व्यवस्था के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। सभी प्रकार की शासन-व्यवस्थाओं में कार्यपालिका को विधानमण्डल का अधिवेशन बुलाने और स्थगित करने का अधिकार होता है। संसदात्मक शासन में तो कार्यपालिका विधि-निर्माण के क्षेत्र में व्यवस्थापिका का नेतृत्व करती है और विशेष परिस्थितियों में लोकप्रिय सदन को भंग करते हुए नव-निर्वाचन का आदेश दे सकती है। वर्तमान समय में तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका की स्वीकृति से कानूनों का निर्माण करती है।

4. वित्तीय कार्य – यद्यपि वार्षिक बजट स्वीकृत करने का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है, किन्तु इस बजट का प्रारूप तैयार करने का कार्य कार्यपालिका ही कर सकती है। कार्यपालिका का वित्त विभाग आय के विभिन्न साधनों द्वारा प्राप्त आय के उपभोग पर विचार करता है।

प्रश्न 5.
कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि के चार कारण दीजिए।
या
आधुनिक लोकतन्त्र में कार्यपालिका के बढ़ते हुए प्रभाव के चार कारण लिखिए। [2009, 14]
उत्तर
कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं|

1. साधारण योग्यता के व्यक्तियों का चुनाव – व्यवस्थापिका के सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर चुने जाते हैं और अधिक योग्यता वाले व्यक्ति चुनाव के पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। अत: बहुत कम योग्यता वाले व्यक्ति और पेशेवर राजनीतिज्ञ व्यवस्थापिका में चुनकर आ जाते हैं। ये कम योग्य व्यक्ति अपने कार्यों व आचरण से व्यवस्थापिका की गरिमा को कम करते हैं।

2. जनकल्याणकारी राज्य की धारणा – वर्तमान समय में जनकल्याणकारी राज्य की धारणा के कारण राज्य के कार्य बहुत अधिक बढ़ गये हैं और इन बढ़े हुए कार्यों को कार्यपालिका द्वारा ही किया जा सकता है। अतः व्यवस्थापिका की शक्तियों में निरन्तर कमी और कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि होती जा रही है।

3. दलीय पद्धति – दलीय पद्धति के विकास ने भी व्यवस्थापिका की शक्ति में कमी और कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि कर दी है। संसदात्मक लोकतन्त्र में बहुमत दल के समर्थन पर टिकी हुई कार्यपालिका बहुत अधिक शक्तियाँ प्राप्त कर लेती है।

4. प्रदत्त व्यवस्थापन – वर्तमान समय में कानून निर्माण का कार्य बहुत अधिक बढ़ जाने और इस कार्य के जटिल हो जाने के कारण व्यवस्थापिका के द्वारा अपनी ही इच्छा से कानून निर्माण की शक्ति कार्यपालिका के विभिन्न विभागों को सौंप दी जाती है। इसे ही प्रदत्त व्यवस्थापन कहते हैं और इसके कारण व्यवस्थापिका की शक्तियों में कमी तथा कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि हो गयी है।

प्रश्न 6.
लोकतन्त्र में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के दो उपायों का उल्लेख कीजिए। [2007, 10]
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के दो उपाय लिखिए। [2016]
उत्तर
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और उसके द्वारा विविध प्रकार के कार्य किये जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्त्तव्यपालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। सीधे-सादे शब्दों में इसका आशय यह है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल, किसी वर्ग विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करे।
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के दो उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. न्यायाधीश की योग्यता – न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को दिया जाए जिनकी व्यावसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। राज्य-व्यवस्था के संचालन में न्यायाधिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्त्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्त्व को नष्ट कर देंगे।
  2. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सत्ता अभियोक्ता और साथ-ही-साथ न्यायाधीश होने पर स्वतन्त्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 7.
न्यायपालिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के पक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
लोकतन्त्रात्मक शासन में स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए। [2010, 14]
उत्तर
किसी लोकतन्त्रात्मक शासन में एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका सर्वथा अनिवार्य है। इसे आधुनिक और प्रगतिशील संविधानों एवं शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्षण माना जाता है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है।

1. लोकतन्त्र की रक्षा हेतु – लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानता हैं। नागरिकों की स्वतन्त्रता और कानून की दृष्टि से व्यक्तियों की समानता—इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्वतन्त्र न्यायपालिका को ‘लोकतन्त्र का प्राण’ कहा जाता है।

2. संविधान की रक्षा हेतु – आधुनिक युग के राज्यों में संविधान की सर्वोच्चता का विचार प्रचलित है। संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है। न्यायपालिका द्वारा इस दायित्व का भली-भाँति निर्वाह उस समय ही सम्भव है, जब न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो। स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की धाराओं की स्पष्ट व्याख्या करती है तथा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के उन कार्यों को जो संविधान के विरुद्ध होते हैं, अवैध घोषित कर देती है। इस प्रकार स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है।

3. न्याय की रक्षा हेतु – न्यायपालिका का प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका यह कार्य तभी ठीक प्रकार से कर सकती है, जबकि वह निष्पक्ष और स्वतन्त्र हो तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व अन्य कारणों की अपेक्षा नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अधिक है। इसके लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र और निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है।

न्यायपालिका के दो कार्य न्यायपालिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं-

1. कानूनों की व्याख्या करना – कानूनों की भाषा सदैव स्पष्ट नहीं होती है और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रत्येक परिस्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका ही करती है। न्यायालयों द्वारा की गयी इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानून के समान ही होती है।

2. लेख जारी करना  – सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है तो न्यायालय उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है। इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध आदि लेख प्रमुख हैं।

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प्रश्न 8.
‘न्यायिक सक्रियतावाद’ से क्या आशय है?
या
‘न्यायिक सक्रियतावाद’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
न्यायिक सक्रियतावाद का आशय है- “संविधान, कानून और अपने दायित्वों के प्रसंग में कानूनी व्याख्या से आगे बढ़कर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों और सामाजिक-आर्थिक न्याय की आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए संविधान और कानून की रचनात्मक व्याख्या करते हुए न्यायपालिका का जनसाधारण के हितों की रक्षा के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना।”
न्यायिक सक्रियतावाद के विविध रूप और मान्यताएँ इस प्रकार हैं-

  1. जनहितकारी अभियोगों को मान्यता।
  2. कानूनी-न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल।
  3. न्यायपालिका को शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण का अधिकार है।
  4. न्यायपालिका शासन को आवश्यक निर्देश दे सकती है।

न्यायिक सक्रियतावाद के आधार पर न्यायपालिका ने सम्बद्ध देशों की समस्त राजव्यवस्था में बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति प्राप्त कर ली है।
न्यायपालिका द्वारा अपनाई गई न्यायिक सक्रियतावाद की यह स्थिति बहुत अधिक विवाद का विषय बनी हुई है। आलोचकों का कहना है कि न्यायपालिका ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ के आधार पर ‘व्यवस्थापिका के तीसरे सदन’ की भूमिका निभाने की चेष्टा कर रही है। कुछ अन्य इसे एक तरह की न्यायिक तानाशाही’ कहते हैं। ये आलोचनाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण होते हुए भी इनमें ‘सत्य के अंश हो सकते हैं, लेकिन स्थिति का दूसरा पक्ष यह है कि जब केन्द्रीय और राज्य स्तर की विधायी और कार्यपालिका संस्थाएँ अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं रहीं, तब न्यायपालिका ने परिस्थितियों से प्रेरित और बाध्य होकर ही न्यायिक सक्रियता की स्थिति को अपनाया है। इस प्रकार आज की स्थिति के लिए स्वयं न्यायपालिका उत्तरदायी नहीं है। न्यायपालिका ने अपनी इस भूमिका के आधार पर जनता में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रति विश्वास को बनाए रखा है और सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों के प्रहरी की भूमिका निभाई है।
न्यायिक सक्रियता के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भी यह मानना होगा कि न्यायिक सक्रियता मात्र एक अस्थायी स्थिति ही हो सकती हैं। एक ऐसी लक्ष्मण रेखा अंकित करने की आवश्यकता है जिससे न्यायपालिका व्यवस्थापिका या कार्यपालिका के दायित्वों को न हथिया ले।’

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
द्वि-सदनात्मकवाद (द्वि-सदन-पद्धति) का अर्थ बताइए। (2013)
उत्तर
द्वि-सदनात्मक प्रणाली ऐतिहासिक विकास तथा संयोग का परिणाम है। यह व्यवस्था ब्रिटिश संवैधानिक विकास की देन है। इंग्लैण्ड की संसद जो विश्व की सबसे प्राचीन संसद है, संयोग से द्वि-सदनात्मक हो गई है। अन्य प्रजातान्त्रिक देशों में भी ब्रिटिश परम्परा का अनुसरण किया गया। पोलस्की के शब्दों में, “यह केवल ऐतिहासिक संयोग की बात है। कि इंग्लैण्ड की व्यवस्थापिका द्वि-सदनात्मक थी और उसी का अनुसरण अन्य देशों में भी किया गया। विलोबी ने कहा है-“यदि ब्रिटिश संसद द्वि-सदनात्मक न होती तो शायद संसार के विधानमण्डल भी द्वि-सदनात्मक नहीं होते।” आज सभी बड़े प्रजातान्त्रिक राज्यों में व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं। एक सदन को उच्च सदन या द्वितीय सदन और दूसरे सदन को निम्न या प्रथम सदन कहते हैं।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका का महत्त्व लिखिए। [2007]
उत्तर
व्यवस्थापिका का महत्त्व
सरकार के सभी अंगों में व्यवस्थापिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। गार्नर के अनुसार-“राज्य की इच्छा जिन अंगों द्वारा व्यक्त होती है, उनमें व्यवस्थापिका का स्थान नि:सन्देह सर्वोच्च है।” गिलक्रिस्ट का कथन है—“व्यवस्थापिका शक्ति का अधिक भाग है।” वास्तव में व्यवस्थापिका यदि अपने कार्यों को सम्पादित न करे, तो कार्यपालिका और न्यायपालिका भी अपना दायित्व पूरा नहीं कर सकती हैं। व्यवस्थापिका केवल कानूनों का निर्माण ही नहीं करती है, वरन् प्रशासन से सम्बन्धित नीतियों का निर्धारण भी करती है तथा कार्यपालिका की शक्ति पर भी नियन्त्रण स्थापित करती है। संसदात्मक शासन प्रणाली में व्यवस्थापिका के कार्यों में अधिक वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 3.
एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के दो लाभ स्पष्ट कीजिए।
या
एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दो गुण बताइए।
या
“एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका में जहाँ धन व समय की बचत होती है वहीं कार्य में गतिरोध भी कम आता है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका वाले देशों में व्यवस्थापन-कार्य में धन और समय की पर्याप्त बचत हो जाती है, क्योंकि एक ही सदन होने से विधेयक को दूसरे सदन में भेजने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इससे दूसरे सदन में होने वाली समय और धन की बर्बादी को रोका जा सकता है। लॉर्ड ब्राइस के शब्दों में, “यदि द्वितीय सदन प्रथम सदन का विरोध करता है तो अहितकर है और यदि वह उसके साथ सहयोग करता है तो अनावश्यक है।

प्रश्न 4.
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकार कार्यपालिका के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं-

1. नाममात्र की कार्यपालिका – वह व्यक्ति जो सैद्धान्तिक रूप से शासन का प्रधान है तथा जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किए जाते हैं एवं स्वयं किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं करता, नाममात्र का कार्यपालक प्रधान होता है और इस प्रकार की कार्यपालिका नाममात्र की कार्यपालिका होती है। उदाहरणार्थ इंग्लैण्ड का सम्राट तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका हैं। नाममात्र की कार्यपालिका के अधिकारों के प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती है तथा वास्तविक कार्यकारिणी की शक्तियाँ मन्त्रिपरिषद् में निहित होती है।

2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका उसे कहते हैं, जो वास्तव में कार्यकारिणी की शक्तियों का प्रयोग करती है। इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा भारत की मन्त्रिपरिषद् वास्तविक कार्यपालिका का उदाहरण हैं।

3. एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका उसे कहते हैं, जिसमें कार्यपालिका की सम्पूर्ण शक्तियाँ एक व्यक्ति के अधिकार में होती हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का ही उदाहरण है।

4. बहुल कार्यपालिका – इस प्रकार की कार्यपालिका में कार्यकारिणी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर अनेक अधिकारियों के समूह में निहित होती है। इस प्रकार की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में है। वहाँ कार्यपालिका-सत्ता सात सदस्यों की एक परिषद् में निहित होती है।

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प्रश्न 5.
न्यायिक समीक्षा क्या है? [2016]
उत्तर
न्यायिक समीक्षा का अर्थ
न्यायिक समीक्षा का अर्थ है-एक कानून या आदेश की समीक्षा और वैधता निर्धारित करने के लिए न्यायपालिका की शक्ति को प्रदर्शित करना। विधायी कार्यों की न्यायिक समीक्षा का अर्थ वह शक्ति है जो विधायिका द्वारा पारित कानून को संविधान में निहित प्रावधानों और विशेषकर संविधान के भाग-3 के अनुसार सुनिश्चित करती है। निर्णयों की न्यायिक समीक्षा के मामले में, उदाहरण के लिए जब एक कानून को इस आधार पर चुनौती दी गयी कि इसे बिना किसी प्राधिकरण या अधिकार से विधायिका द्वारा पारित किया गया है, विधायिका द्वारा पारित किया गया कानून वैध है। या नहीं, इसके बारे में फैसला लेने का अधिकार अदालत के पास सुरक्षित होता है। इसके अलावा हमारे देश में किसी भी विधायिका के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वे अदालतों द्वारा दिए गए निर्णय की अवज्ञा या उपेक्षा कर सकें।
अदालतों के पास न्यायिक समीक्षा की व्यापक शक्तियाँ हैं। इन शक्तियों का बड़ी सावधानी और नियन्त्रण के साथ प्रयोग किया जाता है। इन शक्तियों की निम्न सीमाएँ हैं-

  1. इसके पास केवल निर्णय तक पहुँचने में प्रक्रिया का सही ढंग से पालन किया गया है या नहीं देखने की ही अनुमति होती है, लेकिन स्वयं निर्णय लेने की अनुमति नहीं होती है।
  2. इसे केवल हमारे सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय जैसी अदालतों को सौंपा जाता है।
  3. जब तक बिल्कुल जरूरी न हो तब तक नीतिगत मामलों और राजनीतिक सवालों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
  4. एक बार कानून के पारित होने पर यह स्थिति बदलने के साथ असंवैधानिक हो सकता है। यह शायद कानून प्रणाली में खालीपन पैदा कर सकती है। इसलिए यह कहा जा सकता है। कि अदालत द्वारा दिए गए निर्देश तभी बाध्यकारी होंगे जब तक कानून अधिनियमित नहीं हो जाते हैं अर्थात् यह प्राकृतिक रूप से अस्थायी है।
  5. यह कानून की व्याख्या और उसे अमान्य कर सकता है, लेकिन खुद कानून नहीं बना सकता है।

प्रश्न 6.
कार्यपालिका और न्यायपालिका में सम्बन्ध बताइए।
उत्तर
लोकतन्त्र की सफलता के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रहना आवश्यक माना जाता है, परन्तु व्यवहार में इनका पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ठ होता है। क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका में निहित होता है। इन दोनों का सम्बन्ध निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के प्रधान द्वारा ही की जाती है।
  2. कार्यपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करती है और न्यायपालिका कानूनों का उल्लंघन करने वालों को दण्डित करती है तथा शक्ति का अतिक्रमण करने से कार्यपालिका को रोकती है।
  3. न्यायपालिका के दण्डात्मक निर्णयों का कार्यान्वयन कार्यपालिका ही करती है।
  4. न्यायपालिका कार्यपालिका के भ्रष्ट कर्मचारियों को भी दण्डित करने का अधिकार रखती है। तथा कर्तव्यविमुख होने की अवस्था में किसी भी विभाग के विभागाध्यक्ष से आख्या माँग सकती है तथा तत्सम्बन्धित आदेश दे सकती है।
  5. न्यायपालिका के निर्णयों की आलोचना करने का अधिकार कार्यपालिका को नहीं है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
सरकार के शक्ति-विभाजन की उपयोगिता बताइए।
उत्तर
इसमें नागरिक निरंकुश नहीं हो पाता तथा शासन में सुगमता व कार्यकुशलता की वृद्धि होती है।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के चार कार्य बताइए। या व्यवस्थापिका के दो कार्य बताइए। [2013]
उत्तर

  1. कानूनों का निर्माण करना,
  2. संविधान में संशोधन करना,
  3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना तथा
  4. वित्तीय कार्य करना।

प्रश्न 3.
भारत में कितने सदनों वाली व्यवस्थापिका है ?
उत्तर
भारत में दो सदनों वाली व्यवस्थापिका है।

प्रश्न 4.
एक-सदनीय व्यवस्थापिका के दो गुण बताइए। [2010]
उत्तर

  1. प्रबल उत्तरदायित्व की भावना तथा
  2. समय और धन की बचत।

प्रश्न 5.
एक-सदनीय व्यवस्थापिका के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. सदन के निरंकुश होने की आशंका तथा
  2. राज्यों के उचित प्रतिनिधित्व का अभाव।

प्रश्न 6.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2014]
उत्तर

  1. द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक लगाता है।
  2. द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के कार्य में परिपक्वता उत्पन्न होती है।

प्रश्न 7.
द्वि-सदनात्मक विधानमण्डल (व्यवस्थापिका) की दो मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर

  1. इस व्यवस्था में दोनों सदन एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं।
  2. इस व्यवस्था में अल्पसंख्यकों तथा विशिष्ट हित को भी समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है।

प्रश्न 8.
द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के दो दोष लिखिए। [2012]
उत्तर

  1. दोनों सदनों के बीच प्रायः टकराव की सम्भावना बनी रहती है।
  2. राज्य के व्यय में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 9.
द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के दो लाभ बताइए।
उत्तर

  1. प्रथम सदन की निरंकुशता पर नियन्त्रण तथा
  2. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन।

प्रश्न 10.
सरकार का कौन-सा अंग वार्षिक बजट पास करने का कार्य करता है ?
उत्तर
व्यवस्थापिका।

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प्रश्न 11.
भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका का नाम क्या है?
उत्तर
भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका का नाम ‘संसद है।

प्रश्न 12.
व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका को नियन्त्रित करने का एक साधन लिखिए।
उत्तर
‘काम रोको प्रस्ताव रखकर।

प्रश्न 13.
सरकार के तीनों अंगों के नाम लिखिए। (2010)
उत्तर

  1. व्यवस्थापिका
  2. कार्यपालिका तथा
  3. न्यायपालिका।

प्रश्न 14.
कार्यपालिका के दो प्रमुख कार्य बताइए। [2008, 11, 16]
उत्तर

  1. कार्यपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों को कार्यान्वित करती है तथा
  2. विदेश नीति का संचालन करती है।

प्रश्न 15
कार्यपालिका की नियुक्ति की दो विधियाँ बताइए।
उत्तर

  1. निर्वाचन पद्धति तथा
  2. वंशानुगत पद्धति।

प्रश्न 16.
किन देशों में व्यवस्थापिका के दोनों सदनों द्वारा कार्यपालिका के अध्यक्ष या समिति का चुनाव होता है?
उत्तर
स्विट्जरलैण्ड, यूगोस्लाविया और तुर्की।

प्रश्न 17.
किन देशों में कार्यपालिका के अध्यक्ष का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं के मतों द्वारा होता है?
उत्तर
फ्रांस, ब्राजील, चिली, पेरू, मैक्सिको, घाना आदि।

प्रश्न 18.
भारत में राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है?
उत्तर
भारत में राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से किया जाता है। एक निर्वाचन मण्डल के सदस्य राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।

प्रश्न 19.
अध्यक्षात्मक शासन में राष्ट्रपति विधि-निर्माण को कैसे प्रभावित कर सकता है?
उत्तर
अध्यक्षात्मक शासन में राष्ट्रपति व्यवस्थापिका को सन्देश भेजकर और ‘विलम्ब निषेधाधिकार का प्रयोग करके सीमित रूप से विधि-निर्माण को प्रभावित कर सकता है।

प्रश्न 20.
कार्यपालिका का एक न्यायिक कार्य बताइए।
उत्तर
प्रशासनिक विभाग द्वारा अर्थदण्ड देना, कार्यपालिका का एक न्यायिक कार्य है।

प्रश्न 21.
नाममात्र की कार्यपालिका का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर
भारत का राष्ट्रपति व ब्रिटेन की सम्राज्ञी नाममात्र की कार्यपालिका के उदाहरण हैं।

प्रश्न 22.
बहुल कार्यपालिका का एक लक्षण बताइए।
उत्तर
इस व्यवस्था में कार्यकारिणी सम्बन्धी शक्तियाँ एक व्यक्ति के हाथों में निहित न होकर अनेक व्यक्तियों की एक परिषद् अथवा अनेक अधिकारियों के समूह में निहित होती हैं।

प्रश्न 23.
कार्यपालिका के किन्हीं दो रूपों का उल्लेख कीजिए। [2010]
उत्तर

  1. एकल कार्यपालिका तथा
  2. बहुल कार्यपालिका।

प्रश्न 24.
न्यायाधीशों की नियुक्ति की विधियाँ लिखिए।
उत्तर

  1. जनता द्वारा निर्वाचन,
  2. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन तथा
  3. कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति।

प्रश्न 25.
ऐसे एक देश का नाम लिखिए जहाँ न्यायपालिका निर्वाचित होती है।
उत्तर
स्विट्जरलैण्ड ऐसा देश है जहाँ न्यायपालिका निर्वाचित होती है।

प्रश्न 26.
न्यायपालिका के दो कार्य बताइए। [2011, 12, 15]
उत्तर
न्यायपालिका के दो कार्य हैं-

  1. कानूनों की व्याख्या करना तथा निर्णय देना एवं
  2. मौलिक अधिकारों की रक्षा करना।

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प्रश्न 27.
न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता बनाये रखने के दो उपाय बताइए।
उत्तर

  1. योग्य व प्रतिभावान न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ तथा
  2. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण।

प्रश्न 28.
एक आदर्श न्यायाधीश के दो प्रमुख गुण लिखिए। [2016]
उत्तर

  1. निष्पक्षता तथा
  2. कानूनों का पूर्ण ज्ञान।

प्रश्न 29.
स्वतन्त्र न्यायपालिका के दो गुणों का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर

  1. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति तथा
  2. नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की रक्षा।

प्रश्न 30.
शक्ति-पृथक्करण के सिद्धान्त का प्रतिपादक कौन था? [2015]
उत्तर
मॉण्टेस्क्यू शक्ति-पृथक्करण सिद्धान्त का प्रतिपादक व समर्थक है।

प्रश्न 31.
किस प्रकार की शासन प्रणाली में नाममात्र की और वास्तविक कार्यपालिका होती [2012]
उत्तर
संसदात्मक शासन प्रणाली में।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. किस देश में उच्च सदन का गठन वंश-परम्परा के आधार पर होता है ?
(क) इटली में
(ख) जापान में
(ग) इंग्लैण्ड में
(घ) कनाडा में

2. किस देश में उच्च सदन के सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते हैं ?
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) भारत में
(ग) अमेरिका में
(घ) कनाडा में

3. भारत में उपराष्ट्रपति का चुनाव करते हैं-
(क) सभी मतदाती ।
(ख) विभिन्न राज्यों के विधानसभा-सदस्य
(ग) निर्वाचन मण्डल
(घ) संसद के दोनों सदन

4. व्यवस्थापिका का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है- [2011, 13, 15, 16]
(क) कानून बनवाना
(ख) कार्यपालिका पर नियन्त्रण
(ग) संविधान संशोधन
(घ) बजट पास करना

5. सरकार के अंगों की संख्या कितनी है?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार

6. व्यवस्थापिका का कार्य नहीं है- [2015]
(क) कानून बनाना
(ख) बजट पास करना
(ग) कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना
(घ) बजट बनाना

7. प्रत्यायोजित व्यवस्थापन में निम्नलिखित में से किसके अधिकारों की वृद्धि होती है? [2011, 14]
(क) व्यवस्थापिका
(ख) कार्यपालिका
(ग) न्यायपालिका
(घ) राष्ट्रपति

8. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है-
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) चीन में
(ग) जापान में
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका में

9. नाममात्र की कार्यपालिका है-
(क) संयुक्त राज्य अमेरिका में
(ख) फ्रांस में
(ग) पाकिस्तान में
(घ) इंग्लैण्ड में

10. बहुलवादी कार्यपालिका का उदाहरण है-
(क) भारत
(ख) चीन
(ग) स्पेन
(घ) स्विट्जरलैण्ड

11. नाममात्र की और वास्तविक कार्यपालिका में अन्तर किस सरकार का लक्षण है?
(क) संसदात्मक
(ख) अध्यक्षात्मक
(ग) राजतन्त्र
(घ) संघात्मक

12. कार्यपालिका का कार्यकाल किस सरकार में निश्चित होता है?
(क) संघात्मक
(ख) अध्यक्षात्मक
(ग) संसदात्मक
(घ) एकात्मक

13. कार्यपालिका का कार्य है- [2007]
(क) कानून बनाना
(ख) विधानसभा के अध्यक्ष का चुनाव करना
(ग) बजट पारित करना
(घ) प्रशासन चलाना या विधि को लागू करना

14. न्यायपालिका का अर्थ है- [2008, 09, 11, 12, 13, 14]
(क) प्रशासन चलाना
(ख) कानून बनाना
(ग) सुरक्षा प्रदान करना
(घ) संविधान की रक्षा करना

15. न्यायपालिका का प्रमुख कार्य है- [2012, 15]
(क) कानूनों का निर्माण करना
(ख) कानूनों को लागू करना।
(ग) कानूनों की व्याख्या करना
(घ) अच्छे कानूनों के लिए सलाह देना

16. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता महत्त्वपूर्ण है-
(क) लोकतन्त्र की रक्षा हेतु
(ख) देश की शान्ति हेतु
(ग) देश की बाहरी सुरक्षा हेतु
(घ) देश की प्रगति हेतु

17. सर्वप्रथम किस देश में न्यायाधीशों का निर्वाचन जनसाधारण द्वारा किया गया?
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) जर्मनी में
(ग) भारत में
(घ) फ्रांस में

18. संघात्मक शासन में केन्द्र एवं राज्यों के मध्य संवैधानिक विवादों के समाधान की जिम्मेदारी किस पर है?
(क) संसद
(ख) राष्ट्रपति
(ग) न्यायपालिका
(घ) प्रधानमन्त्री

19. न्यायपालिका का निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य नहीं है? [2008, 12]
(क) संविधान की रक्षा करना
(ख) मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करना।
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन
(घ) कानूनों का कार्यान्वयन करना

20. निम्नलिखित में से कौन-सा सरकार का अंग नहीं है? [2011]
(क) कार्यपालिका
(ख) व्यवस्थापिका
(ग) लोकमत
(घ) न्यायपालिका

21. निम्नलिखित में से कौन-सा सरकार का आवश्यक अंग है? [2011, 13, 14, 15]
(क) राजनीतिक दल
(ख) न्यायपालिका
(ग) जनमत
(घ) निर्वाचन आयोग

उत्तर

  1. (ग) इंग्लैण्ड में,
  2. (घ) कनाड़ा में,
  3. (घ) संसद के दोनों सदन,
  4. (क) कानून बनवाना,
  5. (ग) तीन,
  6. (घ) बजट बनाना,
  7. (घ) राष्ट्रपति,
  8. (घ) संयुक्त राज्य अमेरिका में,
  9. (घ) इंग्लैण्ड में,
  10. (घ) स्विट्जरलैण्ड,
  11. (क) संसदात्मक,
  12. (ख) अध्यक्षात्मक,
  13. (घ) प्रशासन चलाना या विधि को लागू करना,
  14. (घ) संविधान की रक्षा करना,
  15. (ग) कानूनों की व्याख्या करना,
  16. (क) लोकतन्त्र की रक्षा हेतु,
  17. (घ) फ्रांस में,
  18. (ग) न्यायपालिका,
  19. (घ) कानूनों का कार्यान्वयन करना,
  20. (ग) लोकमत,
  21. (ख) न्यायपालिका

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue (आय)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 5
Chapter Name Revenue (आय)
Number of Questions Solved 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue (आय)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सीमान्त आय एवं औसत आय से क्या अभिप्राय है? चित्र और उदाहरण की सहायता से इनमें सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए। [2009]
या
तालिका और रेखाचित्र के माध्यम से सीमान्त आय, कुल आय और औसत आय के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
या
कुल आय, औसत आय और सीमान्त आय को परिभाषित कीजिए। इनमें परस्पर क्या सम्बन्ध पाया जाता है? [2008]
या
सीमान्त एवं औसत आगम में सम्बन्ध बताइए। [2006]
उत्तर:
आय का अर्थ
सामान्य बोलचाल की भाषा में आय (आगम) का अर्थ व्यक्ति विशेष को समस्त साधनों से होने वाली आय से लगाया जाता है। प्रत्येक फर्म या उत्पादक का उद्देश्य वस्तुओं का न्यूनतम लागत पर उत्पादन करके उनकी अधिकतम बिक्री करने का होता है जिसमें वह अधिकतम लाभ अर्जित कर सके। अर्थशास्त्र में आय या आगम शब्द का आशय प्राप्त होने वाले उस धन से होता है जो किसी उत्पादित वस्तु की बिक्री से प्राप्त होता है। अर्थशास्त्र में आय शब्द का प्रयोग तीन प्रकार से किया जाता है

  1. कुल आय (Total Revenue),
  2. औसत आय (Average Revenue) तथा
  3.  सीमान्त आय (Marginal Revenue)।

1. कुल आय – किसी उत्पादक या फर्म के द्वारा अपने उत्पादन की एक निश्चित मात्रा को बेचकर जो धनराशि प्राप्त की जाती है, उसे कुल आय कहते हैं।
कुल आय ज्ञात करने के लिए फर्म द्वारा बेची जाने वाली इकाइयाँ तथा प्रति इकाई की कीमत ज्ञात होनी चाहिए। फर्म द्वारा बेची जाने वाली वस्तु की मात्रा को कीमत से गुणा करके कुल आय ज्ञात की जा सकती है।
कुल आय = वस्तु की बेची गयी मात्रा या इकाइयों की संख्या x कीमत उदाहरण के लिए–यदि कोई फर्म र 50 प्रति इकाई की दर से 10 कुर्सियाँ बेचती है तो उसकी कुल आय = 50 x 10 = 500 होगी।

2. औसत आय – औसत आय उत्पादने की निश्चित मात्रा की बिक्री की प्रति इकाई आय है, जिसे बिक्री से प्राप्त कुल आय को वस्तु की बेची गयी कुल मात्रा (इकाइयों) से भाग देकर ज्ञात किया जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue 1
उदाहरण के लिए-10 कुर्सियों की बिक्री से ₹500 की कुल आय प्राप्त होती है, तब
औसत आय = [latex]\frac { 500 }{ 10 }[/latex] = ₹50 प्रति कुर्सी

3. सीमान्त आय – सीमान्त आय अन्तिम इकाई की बिक्री से प्राप्त होने वाली आय होती है। किसी वस्तु की एक अधिक अथवा एक कम इकाई बेचने से कुल आय में जो वृद्धि अथवा कमी होती है, वह उस वस्तु की सीमान्त आय कहलाती है। उदाहरण के लिए – 10 कुर्सियों को ₹50 प्रति कुर्सी की दर से बेचने पर कुल आय में ₹500 प्राप्त हुई। यदि उत्पादक एक कुर्सी और बेचना चाहे और वह 11 कुर्सियों को ₹545 में बेच देता है, तब सीमान्त आय ₹545 – 45 हुई। अत:
सीमान्त आय = कीमत x बेची गयी इकाइयों की संख्या – पूर्व की कुल आय।

कुल आय, औसत आय और सीमान्त आय का सम्बन्ध
कुल आय, औसत आय व सीमान्त आय का सम्बन्ध निम्नलिखित तालिका द्वारा दर्शाया गया है –

बिक्री की कुल इकाइयाँ प्रति इकाई कीमत
(₹ में)
कुल आय
(₹ में)
औसत आय
(₹ में)
सीमान्त आय
(₹ में)
1. 17 17 17 = 17
2. 16 32 16 (32-17)=15
3. 15 45 15 (45-32)=13
4. 14 56 14 (56-45)=11
5. 13 65 13 (65-56)= 9
6. 12 72 12 (72-65)= 7
7. 11 77 11 (77-72)= 5
8. 10 80 10 (80-77)= 3

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की अधिकाधिक इकाइयाँ बेची जाती हैं। वैसे-वैसे अतिरिक्त इकाइयों की कीमत कम करनी पड़ती है, क्योंकि तभी ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में वस्तुओं की कीमत घट जाने से सीमान्त आय और औसत आय घटती जाती हैं; परन्तु सीमान्त आय औसत आय की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से घटती है। कुल आय में निरन्तर 80वृद्धि होती जाती हैं, परन्तु वृद्धि की दर गति से उत्तरोत्तर कम होती जाती है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर बिक्री की इकाइयाँ तथा OY- अक्ष पर आये दर्शायी गयी है। चित्र में TR कुल आय वक्र, AR औसत आय वक्र तथा MR सीमान्त आय वक्र हैं। चित्र से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की अधिकाधिक इकाइयाँ बेची जाती हैं वैसे-वैसे औसत आय तथा सीमान्त आय घटती जाती हैं। परन्तु औसत आय की अपेक्षा सीमान्त
MR आय अधिक तेजी से घटती है। कुल आय निरन्तर बढ़ रही है, किन्तु वृद्धि की दर उत्तरोत्तर कम होती जा रही है।
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लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
पूर्ण और अपूर्ण प्रतियोगी बाजार में सीमान्त आय और औसत आय की आकृति को चित्रों की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
या
सीमान्त आय वक्र, औसत आय वक्र को इसके निम्नतम बिन्दु पर नीचे की ओर से ही क्यों काटता है ? चित्र की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी बाजार एवं अपूर्ण प्रतियोगी बाजार का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-जिस । बाजार में किसी वस्तु-विशेष के अनेक क्रेता-विक्रेता, उस । वस्तु का क्रय-विक्रय स्वतन्त्रतापूर्वक करते हैं तथा कोई एक क्रेता या विक्रेता वस्तु के मूल्य को प्रभावित नहीं कर सकता, तो ऐसे बाजार को पूर्ण प्रतियोगी बाजार कहते हैं। अपूर्ण । प्रतियोगिता पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार के बीच की है स्थिति है अर्थात् अपूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में कुछ तत्त्व । पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार के तथा कुछ तत्त्व एकाधिकार वाले बाजार के निहित होते हैं। वास्तविक जीवन में ऐसी ही मिश्रित अवस्था पायी जाती है जिसमें किसी वस्तु का मूल्य समान नहीं होता।
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किसी फर्म के औसत आय वक्र AR और सीमान्त आय वक्र MR का आकार कैसा होगा, यह इस बात पर निर्भर होता है कि उस फर्म को पूर्ण प्रतियोगिता अथवा अपूर्ण प्रतियागिता में से किस प्रकार के बाजार की दशाओं में अपना माल बेचना पड़ता है। सामान्यतः प्रतियोगिता जितनी तीव्र होगी तथा वस्तु के जितने निकट स्थानापन्न होंगे, उतना ही अधिक लोचदार उस फर्म का औसत आय वक्र होगा।

पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म ‘कीमत ग्रहण करने वाली’ (Price taker) होती है, कीमत-निर्धारण करने वाली (Price maker) नहीं। इस दशा में फर्म को प्रचलित कीमत को स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि वह इस कीमत पर इच्छानुसार माल बेच सकती है। यदि फर्म अपनी कीमत को बढ़ाती है तो वह समस्त ग्राहकों को खो देगी। यदि कीमत कम करती है तो ग्राहकों की भी भरमार हो जाएगी। अत: पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में प्रचलित कीमत ही स्वीकार करनी पड़ती है। यहाँ औसत आये सर्वदा कीमत के बराबर होगी। क्योंकि औसत आय निश्चित है, इसीलिए सीमान्त आय भी निश्चित होगी और वह औसत आय के बराबर होगी। इस प्रकार AR = MR रहती है तथा औसत आय वक्र एक सीधी पड़ी रेखा (Horizontal Straight Line) : होती है। इसका प्रमुख कारण फर्म द्वारा प्रचलित कीमत को स्वीकार करना होता है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में फर्म के औसत व सीमान्त आय वक्रे दोनों ही ऊपर से नीचे की ओर गिरते हैं। स्पष्ट है कि फर्म के उत्पादन के बढ़ने पर औसत आय (AR) और सीमान्त आय (MR) दोनों ही गिरती हैं, किन्तु सीमान्त आय, औसत आय की अपेक्षा तेजी से गिरती है। इसका मुख्य कारण यह है कि अपूर्ण प्रतियोगिता की है – स्थिति में विक्रेताओं की संख्या पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में अपेक्षाकृत कम होती है जिसके कारण विक्रेता कीमत को प्रभावित करने की स्थिति में होता है अर्थात् वे कीमत में कमी करके वस्तु की बिक्री की मात्रा को अधिकतम करके अधिक लाभ अर्जित कर सकते हैं। इस कारण सीमान्त आय वक्र औसत आय वक्र को इसके न्यूनतम बिन्दु पर नीचे की ओर से ही काटता है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue 4

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
औसत आय से क्या अभिप्राय है?
या
औसत आय (आगम) का सूत्र लिखिए। [2011, 15]
उत्तर:
औसत आय उत्पादन की निश्चित मात्रा की बिक्री की प्रति इकाई आय है, जिसे बिक्री से प्राप्त कुल आय को वस्तु की बेची गई कुल मात्रा (इकाइयों) से भाग देकर ज्ञात किया जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue 5

प्रश्न 2
सीमान्त आय किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सीमान्त आय अन्तिम इकाई की बिक्री से प्राप्त होने वाली आय होती है। किसी वस्तु की अधिक अथवा एक़ कम इकाई बेचने से कुल आय में जो वृद्धि अथवा कमी होती है, वह उस वस्तु से प्राप्त होने वाली सीमान्त आय कहलाती हैं।
सीमान्त आय = कीमत x बेची गयी इकाइयों की संख्या – पूर्व की कुल आय।

प्रश्न 3
सीमान्त एवं औसत आगम में सम्बन्ध बताइए। [2006]
या
कुल आय, सीमान्त आय और औसत आय में सम्बन्ध बताइए।
उत्तर:
जैसे-जैसे कोई फर्म अतिरिक्त इकाइयों का उत्पादन करती है, कुल आगम में वृद्धि होती जाती है। धीरे-धीरे कुल आगम में वृद्धि की दर में कमी आने लगती है और एक सीमा के बाद इसमें वृद्धि होनी समाप्त हो जाती है। इस बिन्दु पर उत्पादक उत्पादन कार्य समाप्त कर देगा। औसत आय एवं सीमान्त आय में आरम्भ से ही धीरे-धीरे कमी आने लगती है किन्तु सीमान्त आय के घटने की गति औसत आय की तुलना में तीव्र होती है।

प्रश्न 4
निम्नलिखित प्रश्न का उत्तर लिखिए सिदद कीजिए कि जब औसत आगम =

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue 6, तो औसत आगम = कीमत।
उत्तर:
कुल आगम = वस्तु की बेची जाने वाली इकाइयाँ x कीमत
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue 7
अतः औसत आगम = कीमत
उदाहरण के लिए-10 कुर्सियों की बिक्री से ₹500 की कुल आगम प्राप्त होती है, तब
औसत आगम = [latex]\frac { 500 }{ 10 }[/latex] = ₹50 प्रति
औसत आगम = कीमत
औसत आगम या वस्तु की कीमत एक ही बात है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
कुल आय किसे कहते हैं ?
उत्तर:
किसी उत्पादक या फर्म के द्वारा अपने उत्पादन की एक निश्चित मात्रा को बेचकर जो धनराशि प्राप्त की जाती है उसे कुल आय कहते हैं। कुल आय = वस्तु की बेची गयी मात्रा या इकाइयों की संख्या x कीमत।

प्रश्न 2
यदि किसी वस्तु की 10 इकाइयों से प्राप्त कुल आय ₹ 180 है और 11 इकाइयों से प्राप्त कुल आय ₹ 187 है, तो सीमान्त आय क्या होगी ?
उत्तर:
सीमान्त आय = 187 – 180 = ₹ 7

प्रश्न 3
यदि किसी वस्तु की 1 इकाई का बाजार मूल्य ₹16 है, तो उसकी 25 इकाइयों की कुल आय कितनी होगी ?
उत्तर:
कुल आय = 25 x 16 = ₹ 400.

प्रश्न 4
औसत उत्पादकता क्या है? [2007]
उत्तर:
कुल उत्पादकता को साधन की संख्या से भाग देकर औसत आय प्राप्त कर ली जाती है। Teases

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
कुल आय बराबर है
(क) वस्तु की बेची गयी इकाइयों की संख्या x कीमत
(ख) वस्तु की बेची गयी इकाइयों की संख्या + कीमत
(ग) वस्तु की बेची गयी इकाइयों की संख्या – कीमत
(घ) वस्तु की बेची गयी इकाइयों की संख्या + कीमत
उत्तर:
(क) वस्तु की बेची गयी इकाइयों की संख्या x कीमत।

प्रश्न 2
औसत आय बराबर है
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue 8
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 5 Revenue 9

प्रश्न 3
सीमान्त आय बराबर है
(क) कुल आय x पिछली इकाइयों की आय
(ख) सीमान्त आय + पिछली इकाइयों की आय
(ग) कुल आय – पिछली इकाइयों की आय
(घ) उपर्युक्त (ख) एवं (ग)
उत्तर:
(ग) कुल आय – पिछली इकाइयों की आय।

प्रश्न 4
पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में फर्म होती है
(क) कीमत ग्रहण करने वाली एवं कीमत-निर्धारित करने वाली
(ख) कीमत ग्रहण करने वाली, कीमत निर्धारित करने वाली नहीं
(ग) कीमत ग्रहण करने वाली नहीं, परन्तु कीमत निर्धारित करने वाली
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) कीमत ग्रहण करने वाली, कीमत निर्धारित करने वाली नहीं।

प्रश्न 5
आगम से तात्पर्य है।
(क) वस्तु की बिक्री से होने वाली आय
(ख) साधनों की बिक्री से होने वाली आय
(ग) सीमान्त आय
(घ) औसत आगम
उत्तर:
(क) वस्तु की बिक्री से होने वाली आय।।

प्रश्न 6
पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आय रेखा और औसत आय रेखा का स्वरूप होता है
(क) नीचे गिरती हुई
(ख) ऊपर उठती हुई
(ग) बराबर व क्षैतिज
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) बराबर व क्षैतिज।

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 6 Shivaji

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 6
Chapter Name Shivaji (शिवाजी)
Number of Questions Solved 17
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 6 Shivaji (शिवाजी)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए|
1. 1627 ई०
2.1659 ई०
3.1674ई०
4.1680 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ-संख्या- 118 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 118 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 119 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 119 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मराठों के उदय के चार कारण लिखिए।
उतर:
मराठों के उदय के चार कारण निम्नवत हैं

  • महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति
  • मराठा धर्म सुधारकों का प्रभाव
  • मराठों की सैनिक व प्रशासनिक कार्यों में दक्षता
  • औरंगजेब की दक्षिण नीति।

प्रश्न 2.
पुरन्दर की सन्धि के बारे में आप क्या जानते हैं?
उतर:
पुरन्दर की सन्धि शिवाजी और मुगलों के मध्य हुई थी। शिवाजी ने इस सन्धि में 35 में से 23 दुर्ग मुगलों को दे दिए। शिवाजी ने मुगलों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया परन्तु अपने स्थान पर अपने पुत्र शम्भाजी को 5000 घुड़सवारों के साथ मुगलों की सेवा में भेज दिया। शिवाजी ने बीजापुर के सुल्तान के विरुद्ध मुगलों को सैनिक सहायता देना स्वीकार किया। इस सन्धि से मुगलों को बहुत लाभ पहुँचा।

प्रश्न 3.
शिवाजी के राजनैतिक आदर्श क्या थे?
उतर:
हिन्दू-पद-पादशाही, धर्मशास्त्र की पुस्तकें और कोटिल्य का अर्थशास्त्र’ शिवाजी के राजनैतिक आदर्श थे।

प्रश्न 4.
शिवाजी की किन्हीं दो विजयों का वर्णन कीजिए।
उतर:

  1. जावली विजय- सन् 1656 ई० में शिवाजी ने जावली पर विजय प्राप्त की। जावली एक मराठा सरदार चन्द्रराव के अधिकार में था। वह शिवाजी के विरुद्ध बीजापुर राज्य से मिला हुआ था। शिवाजी ने चन्द्रराव की हत्या कर किले पर अधिकार कर लिया। इससे उनका राज्य–विस्तार दक्षिण-पश्चिम की ओर सम्भव हो सका।।
  2. कोंकण विजय- जावली की विजय के उपरान्त शिवाजी ने कोंकण की ओर दृष्टिपात किया और उत्तरी कोंकण तथा भिवण्डी के दुर्गों पर अधिकार करके उन्होंने कोंकण में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। उत्तरी कोंकण के पश्चात दक्षिणी कोंकण पर भी उनका अधिकार हो गया जिससे उनका राज्य समुद्री तटों तक विस्तृत हो गया।

प्रश्न 5.
शिवाजी ने अफजल खाँ की हत्या क्यों की?
उतर:
अफजल खाँ शिवाजी को छलपूर्वक परास्त करना चाहता था। शिवाजी अफजल खाँ के मन्तव्य को जान चुका था। जब शिवाजी,

अफजल खाँ के व्यक्तिगत मुलाकात के निमन्त्रण पर उससे मिलने के लिए उनके पास पहुँचा तो उसने आगे बढ़कर शिवाजी का स्वागत किया और शिवाजी को अपनी बाँहों में दबोचकर तलवार से वार किया। शिवाजी ने अफजल खाँ के कुचक्र को समझते
हुए बहुत ही चालाकी और साहसिक ढंग से अफजल खाँ का वध कर दिया।

प्रश्न 6.
शिवाजी ने शाइस्ता खाँ पर आक्रमण क्यों कर दिया?
उतर:
औरंगजेब ने दक्षिण में मराठों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर शिवाजी की शक्ति को कुचलने के लिए मुगल सूबेदार शाइस्ता खाँ को आदेश दिए। शाइस्ता खाँ ने बीजापुर के साथ मिलकर शिवाजी से पूना, चाकन और कल्याण को छीनने में सफलता प्राप्त की। इन पराजयों से शिवाजी की शक्ति कमजोर पड़ गई। मराठा सेना का उत्साह बढ़ाने के लिए शिवाजी ने एक दिन रात्रि के समय पूना में शाइस्ता खाँ के शिविर पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया।

प्रश्न 7.
शिवाजी के अष्टप्रधान के विषय में आप क्या समझते हैं?
उतर:
शिवाजी ने अपनी शासन-व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए आठ मन्त्रियों की एक परिषद् का गठन किया जो ‘अष्टप्रधान’ के नाम से सम्बोधित की जाती थी। केवल सेनापति के अलावा अन्य सभी मन्त्रिगण ब्राह्मण होते थे, जिनकी नियुक्ति सम्राट के द्वारा की जाती थी तथा वे सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे। इन मंत्रियों द्वारा कार्य कराने का भार भी सम्राट पर ही था।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मुगलकाल में मराठों को एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफलता क्यों मिली?
उतर:
मुगलकाल में मराठों को एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफलता मिलने के निम्नलिखित कारण हैं

1. महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति- महाराष्ट्र की भौगोलिक परिस्थितियों ने मराठा शक्ति के उत्कर्ष में उल्लेखनीय सहायता की। महाराष्ट्र का अधिकांश भाग पठारी है। जहाँ जीवन की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता है। इस कारण वहाँ के निवासी परिश्रमी और साहसी होते हैं। वहाँ आक्रमणकारी के लिए बहुत कठिनाइयाँ थीं तथा सेना को लेकर चलना तथा उसके लिए रसद प्राप्त करना कठिन था, जबकि सुरक्षा के लिए वहाँ अनेक सुविधाएँ थीं। स्थान-स्थान पर सरलता से पहाड़ी किले बनाए जा सकते थे, जिनकी सुरक्षा करना सरल था, परन्तु उनको जीतना कठिन था। गुरिल्ला युद्ध-पद्धति अथवा छापामार रणनीति का प्रयोग वहाँ सरलता से सम्भव था। इसके अतिरिक्त भारत के बीच में स्थित होने के कारण वहाँ के निवासियों के लिए उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाओं में अपनी प्रगति करने की सुविधा थी।

2. आर्थिक पृष्ठभूमि- आर्थिक दृष्टि से महाराष्ट्र के निवासियों में आर्थिक असमानताएँ न थी। व्यापारी वर्ग के अतिरिक्त वहाँ धनी वर्ग के व्यक्ति अधिक न थे। इसका कारण था- आर्थिक शोषण करने वाले वर्ग का अभाव। इससे महाराष्ट्र निवासियों का चरित्र दृढ़ बना, वे परिश्रमी और साहसी बने, उनमें समानता की भावना जगी, वे छोटे और बड़े की भावना से रहित हुए तथा वे उस भोग-विलास से दूर ही रहते थे, जिसके कारण उत्तर भारत के समाज का नैतिक पतन हो रहा था।

3. भाषा और साहित्य का योगदान- भाषा की दृष्टि से मराठी भाषा बहुत सरल और व्यावहारिक थी। इस जनसाधारण की भाषा के प्रयोग से महाराष्ट्र के निवासियों में एकता और समानता पनपी। सन्त तुकाराम के पद बिना भेदभाव के गाए जाते थे। इस प्रकार धार्मिक साहित्य ने लोगों के मध्य अप्रत्यक्ष रूप से एकता स्थापित कर दी थी। सर जदुनाथ सरकार के अनसार, शिवाजी द्वारा किए गए राजनीतिक संगठन से पर्व ही महाराष्ट्र में एक भाषा, एक रीति-रिवाज और एक ही प्रकार के समाज का निर्माण हो चुका था।

4. मराठा धर्मसुधारकों का प्रभाव- मराठों में स्वदेश-प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना जगाने में महाराष्ट्र के धर्मसुधारकों का महत्वपूर्ण योगदान था। महाराष्ट्र धर्म-सुधार आन्दोलन का एक प्रमुख केन्द्र था। यहाँ संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ, तुकाराम, संत रामदास और बामन पंडित जैसे विचारक और सुधारक हुए, जिन्होंने मराठों में जागृति ला दी। जनसाधारण की भाषा का सहारा लेकर इन लोगों ने घर-घर में अपनी बात पहुँचाई। शिवाजी के गुरु रामदास समर्थ ने अनेक मठों की स्थापना कर, ‘दसबोध’ नामक ग्रन्थ की रचना की और मठों में नवचेतना का संचार किया।

5. सैनिक व प्रशासनिक कार्यों में दक्षता- अहमदनगर, गोलकुण्डा व बीजापुर जैसे मुस्लिम राज्यों में लम्बे समय तक उच्च सैनिक व प्रशासनिक पदों पर कार्य करते रहने से मराठा, सैनिक व प्रशासनिक कार्यों में दक्ष हो गए थे, जिसका उन्हें कालान्तर में काफी लाभ मिला।

6. औरंगजेब की दक्षिण नीति- औरंगजेब ने उत्तर भारत को विजित करने के बाद दक्षिण भारत को विजित करने का निर्णय लिया। इसे देखकर समस्त मराठा शक्ति संगठित हो गई और उन्होंने मुगलों से संघर्ष करने का निर्णय किया। इसका मुख्य कारण उनका दक्षिण में पर्याप्त प्रभावशाली होना था। औरंगजेब का आक्रमण उनके इस प्रभाव को खत्म कर सकता था। यदि वे औरंगजेब की सत्ता को स्वीकार भी करते, तो औरंगजेब की धर्मान्ध नीति के कारण उन्हें वे उच्च पद व सुविधाएँ मिलने की सम्भावना बिलकुल ही नगण्य थी, जो कि उन्हें दक्षिण के दुर्बल व विलासी मुसलमान शासकों से मिल रही थी। यह एक व्यावहारिक कारण था, जिसने शिवाजी के नेतृत्व में मराठों को संगठित होने के लिए प्रेरित किया।

7. मराठों का उच्च चरित्र- मराठों के उच्च चरित्र ने भी उनके उत्कर्ष में सहायता की। उनके अन्दर साहस, एकता, परिश्रम, नैतिकता, राष्ट्र-प्रेम आदि गुण मौजूद थे।

8. भक्ति व धर्म-सुधार आन्दोलन- 15वीं व 16वीं शताब्दी के धर्म व भक्ति आन्दोलनों ने सामाजिक व धार्मिक धार्मिक करके मराठों में जातीय एकता की भावना भर दी, जिसने उन्हें शक्तिशाली बना दिया। इतिहासकार रानाडे के अनुसार महाराष्ट्र की राजनीति में उत्पन्न उथल-पुथल का प्रमुख कारण धार्मिक-आन्दोलन था। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम व रामदास जैसे सन्तों ने मराठों में राष्ट्रीय भावना का संचार कर दिया।

9. दक्षिणी मुसलमानों का पतन- दक्षिण के मुसलमान शासकों का कुछ तो नैतिक पतन हो चुका था। वे शासन की जिम्मेदारी मराठों को सौंपकर भोग-विलास में डूबे रहते थे, जिससे मराठों ने शासन के महत्वपूर्ण पदों को कब्जे में करके सैन्य संचालन व प्रशासन को अपने हाथों में ले लिया था। तत्पश्चात् दिल्ली के मुगल शासकों विशेष रूप से औरंगजेब की दक्षिण नीति के कारण कई दक्षिणी मुसलमान राज्य औरंगजेब के हाथों में चले गए थे। उसने अहमदनगर पर विजय पाने के बाद गोलकुण्डा व बीजापुर को जीतने का प्रयास किया। दक्षिण के मुसलमान शासकों की दुर्बल स्थिति को देखकर मराठों ने कई महत्वपूर्ण दुर्ग अपने हाथों में ले लिए और स्वतंत्र मराठा राज्य के स्वप्न को साकार करने का सफल प्रयास किया।

प्रश्न 2.
शिवाजी की उपलब्धियों का विवरण दीजिए।
उतर:
शिवाजी ने सबसे पहले 1646 ई० में बीजापुर के तोरण नामक पहाड़ी किले पर अधिकार कर लिया। इस किले में उन्हें भारी खजाना मिला, जिसकी सहायता से शिवाजी ने अपनी सेना में वृद्धि की तथा तोरण के किले से पाँच मील पूर्व में रायगढ़ नामक नया किला बनवाया। इससे शिवाजी की शक्ति में वृद्धि हुई। इसके बाद धीरे-धीरे उन्होंने चोकन, कोंडाना, पुरन्दर, सिंहगढ़ आदि किलों पर अधिकार कर लिया। शिवाजी की प्रगति को देखते हुए बीजापुर के सुलतान ने उनके पिता शाहजी भोंसले को 1648 ई० में कैद कर लिया और तभी छोड़ा जब शाहजी के पुत्र शिवाजी तथा व्यंकोजी ने बंगलौर (बंगलुरु) और कोंडाना के किले सुल्तान के आदमियों को वापस कर दिए।

इससे शिवाजी की गतिविधियाँ कुछ समय के लिए रुक गईं। 1656 ई० में शिवाजी की एक महत्वपूर्ण विजय जावली की थी। जावली एक मराठा सरदार चन्द्रराव के अधिकार में था और वह शिवाजी के विरुद्ध बीजापुर राज्य से मिला हुआ था। शिवाजी ने चन्द्रराव की हत्या कर दी और किले पर अधिकार कर लिया। इससे उनका राज्य–विस्तार दक्षिण-पश्चिम की ओर सम्भव हो सका। शिवाजी की उपलब्धियों का वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है

1. मुगलों के साथ प्रथम मुठभेड़- 1657 ई० में शिवाजी का मुकाबला पहली बार मुगलों से हुआ। दक्षिण के सूबेदार शहजादा औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण किया और बीजापुर ने शिवाजी से सहायता माँगी। यह अनुभव करके कि दक्षिण में मुगलों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकना आवश्यक है, शिवाजी ने बीजापुर की सहायता करने के उद्देश्य से मुगलों के दक्षिण-पश्चिम भाग पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। इसी समय शिवाजी ने जुन्नार को लूटा और स्थान-स्थान पर आक्रमण करके मुगलों को तंग किया। परन्तु जब बीजापुर ने मुगलों से संधि कर ली तब शिवाजी ने मुगलों पर आक्रमण करने आरम्भ कर दिए। उत्तराधिकार के युद्ध के कारण मुगलों को प्राय: दो वर्ष तक दक्षिण भारत की ओर ध्यान देने का अवकाश न मिल सका।।

2. बीजापुर से संघर्ष- औरंगजेब के उत्तर भारत चले जाने के बाद शिवाजी ने फिर से देश विजय का सिलसिला शुरू कर दिया और इस बार उनका लक्ष्य बीजापुर के प्रदेश थे। उन्होंने पश्चिमी घाट और समुद्र के बीच पड़ने वाले कोंकण क्षेत्र पर जोरदार हमला किया और उसके उत्तरी हिस्से को जीत लिया। उन्होंने कई और पहाड़ी किलों पर भी कब्जा कर लिया, जिससे बीजापुर ने उनके खिलाफ कड़ा कदम उठाने का फैसला किया। 1659 ई० में बीजापुर ने दस हजार सैनिकों के साथ अफजल खाँ नामक एक प्रमुख बीजापुरी सरदार को शिवाजी के खिलाफ भेजा और उसे निर्देश दिया कि चाहे जिस तरह भी करो पर उसे बंदी बना लो। उन दिनों ऐसे मौकों पर धोखेबाजी खूब चलती थी। अफजल खाँ और शिवाजी पहले भी कई बार धोखेबाजी का सहारा ले चुके थे।

शिवाजी के सैनिक खुली लड़ाई के अभ्यस्त नहीं थे और अफजल खाँ की विशाल सेना देखकर वह ठिठक गए। अफजल खाँ ने शिवाजी को व्यक्तिगत मुलाकात के लिए निमन्त्रण भेजा और यह वादा किया कि वह उसे बीजापुर के सुल्तान से माफी दिलवा देगा। लेकिन शिवाजी को पूरा शक था कि वह अफजल खाँ की चाल थी, इसलिए वे भी पूरी तैयारी के साथ उसके शिविर में आ गए और चालाकी से, लेकिन साथ ही बहुत साहसिक ढंग से, उसे मार डाला। अब उन्होंने अफजल खाँ की नेतृत्वविहीन सेना पर आक्रमण करके उसके पैर उखाड़ दिए और उसके सारे साज-सामान पर, जिसमें तोपखाना भी शामिल था, अधिकार कर लिया। इस विजय से प्रोत्साहित होकर शिवाजी ने दक्षिण कोंकण, पन्हाला और कोल्हापुर जिले में अपनी सेनाएँ भेजकर उन्हें विजित कर लिया।

3. शिवाजी और शाइस्ता खाँ- औरंगजेब ने दक्षिण में मराठों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर शिवाजी की शक्ति को कुचलने के लिए 1660 ई० में मुगल सूबेदार शाइस्ता खाँ को शिवाजी को समाप्त करने के आदेश दिए। उसने बीजापुर राज्य से मिलकर शिवाजी को समाप्त करने की योजना बनाई और शिवाजी से पूना, चाकन और कल्याण को छीनने में सफलता प्राप्त की। इन पराजयों से शिवाजी की शक्ति कमजोर पड़ी। मराठा सेना का उत्साह बढ़ाने के उद्देश्य से शिवाजी ने एक दु:साहसिक कदम उठाया। 1663 ई० में एक रात्रि में उन्होंने पूना में शाइस्ता खाँ के शिविर पर आक्रमण कर उसे जख्मी कर दिया एवं उसके एक पुत्र तथा सेनानायक को मार दिया। शाइस्ता खाँ को भागकर अपने प्राणों की सुरक्षा करनी पड़ी। इस पराजय से मुगल प्रतिष्ठा को जहाँ ठेस पहुँची वहीं शिवाजी की प्रतिष्ठा पुन: बढ़ गई तथा मुगलों पर पुनः आक्रमण आरम्भ हो गए।

4. सूरत की प्रथम लूट (1664 ई०)- शाइस्ता खाँ पर विजय से प्रोत्साहित होकर 1664 ई० में शिवाजी ने मुगलों के बन्दरगाह नगर सूरत पर धावा बोल दिया। मुगल बादशाह और उनके सामन्त सूरत से जाने वाले मालवाहक जहाजों में आमतौर से पूँजी निवेश करते थे। शिवाजी के इस आक्रमण से मुगल किलेदार भाग खड़ा हुआ। शिवाजी ने चार दिन तक सूरत को अच्छी तरह लूटा, जिसमें एक करोड़ रुपए से अधिक राशि का माल तथा बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त हुईं।

5. मिर्जा राजा जयसिंह और शिवाजी- शाइस्ता खाँ की विफलता के बाद औरंगजेब ने शिवाजी का दमन करने के लिए आम्बेर के राजा जयसिंह को भेजा। जयसिंह औरंगजेब के सबसे विश्वस्त सलाहकारों में से था। उसे पूरी प्रशासनिक और सैनिक स्वायत्तता प्रदान की गई, जिससे उसे दक्कन में मुगल प्रतिनिधि पर किसी प्रकार निर्भर न रहना पड़े। उसका सीधा सम्बन्ध सम्राट से था। पहले के सेनापतियों की तरह जयसिंह ने मराठों की शक्ति को कम आँकने की भूल नहीं की। जयसिंह ने शिवाजी को अकेला करने के लिए पहले उनके प्रमुख सेनापतियों को प्रलोभन दिया। उसने शिवाजी को कमजोर करने के लिए उनकी पूना की जागीर के आसपास के गाँवों को तहस-नहस कर दिया। यूरोप की व्यापारी कम्पनियों को भी मराठा नौ-सेना की किसी भी कार्यवाही को रोकने के निर्देश दे दिए गए। अन्ततः जयसिंह ने पुरन्दर के दुर्ग की घेराबन्दी (1665 ई०) कर दी और मराठों को झुकना पड़ा। उसके बाद दोनों पक्षों के बीच पुरन्दर की सन्धि हुई।

6. शिवाजी का मुगल दरबार में जाना- पुरन्दर की सन्धि शिवाजी के लिए कष्टदायक थी, तथापि परिस्थिति के अनुसार उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। जयसिंह के अनुरोध पर शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा गए। आगरा में शिवाजी का यथोचित सम्मान नहीं किया गया और उनसे पंचहजारी मनसबदारों में खड़े होने को कहा गया। शिवाजी के विरोध करने पर औरंगजेब ने उन्हें नजरबन्द कर लिया। औरंगजेब के इरादों को भाँपकर शिवाजी पहरेदारों को धोखा देकर अपने पुत्र के साथ आगरा से निकल गए और सकुशल महाराष्ट्र वापस लौट गए। मराठा इतिहासकारों ने इस घटना को बहुत महत्वपूर्ण माना है। डॉ० सरदेसाई ने तो लिखा है कि “इस घटना से ही मुगल साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो जाता है।” महाराष्ट्र लौटने के पश्चात् शिवाजी कुछ वर्षों तक शान्त रहे। इस बीच उन्होंने औरंगजेब से समझौता भी कर लिया।

 

औरंगजेब ने उन्हें बाबर की जागीर एवं ‘राजा’ की उपाधि दी तथा उनके पुत्र को पाँच हजारी मनसब का पद दिया। शिवाजी का औरंगजेब के साथ यह समझौता एक कूटनीतिक चाल थी। औरंगजेब बीजापुर और गोलकुण्डा को समाप्त करने के लिए समय चाहता था तो शिवाजी अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए। इस बीच दक्षिण में मुगलों की दुर्बल स्थिति को देखते हुए शिवाजी ने अपने खोए हुए दुर्गों को पुनः वापस प्राप्त करने के लिए प्रयास आरम्भ कर दिया। 1670 ई० से मराठा मुगल सम्बन्ध पुनः कटु हो गए। शहजादा मुअज्जम और दिलेर खाँ के आपसी मनमुटाव का लाभ उठाकर शिवाजी ने मुगलों से अनेक किले वापस छीन लिए। उन्होंने सूरत पर दुबारा आक्रमण कर उसे लूटा और 1670 ई० में वहाँ से चौथ वसूल की। 1670-74 ई० के बीच उन्होंने पुरन्दर, पन्हाला, सतारा एवं अनेक दुर्गों को वापस ले लिया और मुगलों तथा बीजापुर के सुल्तान को परेशान किया।

7. शिवाजी का राज्याभिषेक- 1674 ई० तक शिवाजी की शक्ति और उनका प्रभाव-क्षेत्र अत्यधिक विकसित हो चला था। अतः 15 जून, 1674 में उन्होंने बनारस के विद्वान पण्डित गंगाभट्ट के हाथों अपना राज्याभिषेक करवाया और छत्रपति की उपाधि धारण की तथा भगवा-ध्वज उनका झण्डा बना एवं रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। शिवाजी के राज्याभिषेक को सत्रहवीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना माना गया है, इससे न केवल मराठा नेताओं के ऊपर शिवाजी का वर्चस्व कायम हुआ बल्कि उनका शासक के रूप में पद ऊँचा हुआ और उन्होंने मुगलों के विरोध में हिन्दू राजतन्त्र की खुलकर घोषणा की। समारोह से पहले शिवाजी ने कई महीनों तक मन्दिरों में पूजा की, जिसमें चिपलुण में परसराम मन्दिर और प्रतापगढ़ में भवानी मन्दिर शामिल हैं। अब शिवाजी एक जागीरदार अथवा लुटेरा मात्र नहीं थे, बल्कि मराठा राज्य के संस्थापक बन गए।

शासक के रूप में शिवाजी का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य था- कर्नाटक में अपनी शक्ति का विस्तार करना। उन्होंने बीजापुर के विरुद्ध गोलकुण्डा से सन्धि (1677 ई०) कर ली। बीजापुरी कर्नाटक क्षेत्र को अबुल हसन कुतुबशाह और शिवाजी ने आपस में बाँट लेने का फैसला किया। अबुल हसन ने शिवाजी को एक लाख हून प्रतिवर्ष कर देने एवं एक मराठा प्रतिनिधि को अपने दरबार में रखने एवं सैनिक सहायता देने का भी आश्वासन दिया। इस सन्धि से शिवाजी की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। प्रायः एक वर्ष के समय में ही शिवाजी ने बीजापुर के जिंजी और वैल्लोर पर कब्जा कर लिया। इसके अतिरिक्त तुंगभद्रा से कावेरी नदी के बीच का इलाका भी उन्होंने जीत लिया। इतना ही नहीं उन्होंने इसमें से सन्धि के अनुसार गोलकुण्डा को कोई हिस्सा नहीं दिया तथा पुनः बीजापुर को अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास किया।

प्रश्न 3.
शिवाजी की शासन-व्यवस्था निम्नलिखित शीर्षकों के अनुसार समझाइए
(क) केन्द्रीय प्रशासन,
(ख) सैन्य प्रशासन
(ग) भूमि प्रशासन
उतर:
(क) केन्द्रीय प्रशासन
1. राजा- मध्ययुग के अन्य शासकों की भाँति शिवाजी एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न निरकुंश शासक थे। राज्य की सम्पूर्ण शक्तियाँ उनमें केन्द्रित थीं। उनके अधिकार असीमित थे। वहीं राज्य के प्रशासकीय प्रधान, मुख्य न्यायधीश, कानून निर्माता और सेनापति थे। परन्तु शिवाजी ने अपनी शक्तियों का प्रयोग निरंकुश तानाशाही के लिए नहीं किया बल्कि जनहितार्थ किया। इतिहासकार रानाडे के शब्दों में, “शिवाजी नेपोलियन की भाँति एक महान संगठनकर्ता और असैनिक प्रशासन के निर्माणकर्ता थे।’

2. अष्टप्रधान- शिवाजी की सहायता के लिए आठ मन्त्रियों की एक परिषद् होती थी जो ‘अष्टप्रधान’ के नाम से सम्बोधित की जाती थी। केवल सेनापति के अतिरिक्त अन्य सभी मन्त्रिगण ब्राह्मण होते थे, जिनकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी तथा वे सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी थे। इन मन्त्रियों से कार्य कराने का भार भी स्वयं सम्राट पर ही था।

शिवाजी ने इन मन्त्रियों को अपने विभागों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की थी वरन् सरलतापूर्वक कार्य विभाजन के लिए इन मन्त्रियों की नियुक्ति की जाती थी, जिनके निरीक्षण एवं निर्देशन का भार शिवाजी पर ही था। आठ में से छह मन्त्रियों को समय पड़ने पर युद्धभूमि में जाना पड़ता था। शिवाजी यद्यपि इन मन्त्रियों से इनके विभागीय कार्यों के लिए परामर्श लेते थे, किन्तु उनको मानने के लिए वे बाध्य नहीं थे वरन् जिस बात को वे उचित समझते थे, वही करते थे। इस प्रकार का निरंकुश शासन तभी तक सफल रह सकता था, जब तक कि राजा योग्य हो। शिवाजी की मन्त्रिपरिषद् में निम्नलिखित पद थे

  • प्रधानमन्त्री एवं पेशवा- मुगल सम्राटों के वजीर के समान शिवाजी के राज्य में पेशवा का स्थान था। वह अन्य सभी विभागों तथा मन्त्रियों पर निगरानी रखता था तथा राजा की अनपुस्थिति में राज्य के कार्यों की देखभाल करता था। राजकीय पत्रों पर राजा की मुहर के नीचे उसकी मुहर होती थी तथा प्रजा की सुख सुविधाओं का ध्यान रखना उसका कर्तव्य था।
  • मजमुआदार अथवा अमात्य- आय तथा व्यय का निरीक्षण करना तथा सम्पूर्ण राज्य की आय का ब्यौरा रखना अमात्य का कार्य होता था।
  • वाकयानवीस अथवा मन्त्री- राजदरबार में घटित होने वाली घटनाओं तथा राजा के कार्यों का ब्यौरा रखना मन्त्री का कार्य था। वह राजा के विरुद्ध रचित षड्यन्त्रों एवं कुचक्रों का पता लगाता था, उसके खाने-पीने की वस्तओं का निरीक्षण करता था तथा राजमहल का प्रबन्ध करता था।
  • सचिव- सम्राट के पत्र-व्यवहार का निरीक्षण करना सचिव का कार्य था। सचिव महल तथा परगनों के लेखों का निरीक्षण करता था तथा राज्य के पत्रों पर मुहर लगाता था।
  • सुमन्त- बाह्य नीति में राजा को परामर्श देने वाला मन्त्री सुमन्त कहलाता था। अन्य राजाओं के राजदूतों से भेंट करना तथा पड़ोसी राज्यों में घटित होने वाली घटनाओं की सूचना भी उसे रखनी पड़ती थी।
  • सेनापति- सेना का अध्यक्ष सेनापति होता था, जिसका कार्य सैनिकों की भर्ती करना, सैन्य-व्यवस्था करना, सैनिकों को प्रशिक्षण देना तथा सेना में अनुशासन बनाए रखना होता था। युद्धभूमि में भेजने के लिए वह
    सैनिकों का चयन भी करता था।
  • पण्डितराव अथवा दानाध्यक्ष- धार्मिक कार्यों के लिए दान, धार्मिक उत्सवों का प्रबन्ध, ब्राह्मणों को दान देना तथा धर्म विरोधियों को दण्ड देना पण्डितराव अथवा दानाध्यक्ष का कर्तव्य था। वह जन-आचरण निरीक्षण विभाग का प्रधान होता था। धर्म-संस्थाओं तथा साधु-सन्तों को दान देने के विषय में भी वही निर्णय लेता था।
  • न्यायाधीश- दीवानी, फौजदारी तथा सैन्य सम्बन्धी झगड़ों का निर्णय करने के लिए न्यायाधीश सबसे बड़ा अधिकारी होता था। यह न्यायाधीश प्रायः हिन्दू रीति-रिवाजों एवं प्राचीन धर्मशास्त्रों के आधार पर निर्णय करता था।

अष्टप्रधान की स्थापना का निर्णय शिवाजी ने एक समय पर अथवा अपने राज्याभिषेक के समय नहीं किया वरन् इसका विकास क्रमशः हुआ तथा शिवाजी आवश्यकता के अनुसार इन मन्त्रिगणों की संख्या में वृद्धि करते रहे। अन्त में उनकी अष्टप्रधान सभा का पूर्ण विकसित रूप उनके ‘छत्रपति बनने के पश्चात ही दृष्टिगोचर हुआ।

(ख) सैन्य प्रशासन- शिवाजी ने सेना के बल पर ही एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था तथा साम्राज्य की सुरक्षा के लिए उन्होंने एक सुव्यवस्थित एवं सुदृढ़ सेना का संगठन किया। शिवाजी के पास एक स्थायी सेना थी, जिसमें 10000 पैदल, 30000 से लेकर 45000 तक घुड़सवार, 1160 हाथी, लगभग 3000 ऊँट और 500 तोपें थीं। उनकी मृत्यु के समय उनकी अनुशासित एवं व्यवस्थित सेना की संख्या 1 लाख थी, जिसमें, 20000 मावले पैदल सैनिक, 45000 राज्य के घुड़सवार तथा 60000 सिलहदार थे। उनके पास लगभग 3000 हाथी तथा 32000 घोड़े इसके अतिरिक्त थे।

शिवाजी से पूर्व सैनिक 6 महीने कृषि करते थे तथा 6 महीने सेना में रहते थे परन्तु शिवाजी ने स्थायी सेना की व्यवस्था की तथा विश्रृंखलित मराठों को एकत्रित करके एक राष्ट्रीय सेना का रूप प्रदान किया। जागीरदारी प्रथा को हटाकर उन्होंने सैनिकों को नकद वेतन देने की व्यवस्था की, जिससे सम्राट तथा सेना में प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित हो सका तथा शिवाजी के मराठा सैनिक अपने नेता के इशारे पर प्राण न्योछावर करने को प्रस्तुत रहने लगे। घोड़े दगवाने तथा घुड़सवारों का हुलिया लिखवाने की प्रथा को प्रचलित किया गया। उनकी सेना में हिन्दू तथा मुसलमान दोनों वर्गों के व्यक्तियों को समान रूप से स्थान प्राप्त था तथा अनेक मुसलमान सैनिकों ने बड़ी स्वामीभक्ति के साथ उत्कृष्ट कार्य किए थे।

1. सेना में अनुशासन की व्यवस्था- शिवाजी ने अपनी सेना में कठोर अनुशासन की व्यवस्था की थी। सेना को उसका पालन करना अनिवार्य था अन्यथा उन्हें कठोर दण्ड के लिए तैयार रहना पड़ता था। इसका प्रभाव सेना पर यह हुआ कि सेना हमेशा अनुशासित रहती थी। वर्षा ऋतु के पश्चात् सैनिक मुगल प्रदेशों पर आक्रमण करके उनसे चौथ व सरदेशमुखी कर वसूलते थे। शिवाजी के आदेशानुसार शत्रु-पक्ष के बच्चों व स्त्रियों पर अत्याचार करने की बिल्कुल मनाही थी। उन्हें सम्मानपूर्वक वापस भेजने की व्यवस्था थी। सैनिक राज्य के कृषक व ब्राह्मणों पर बिलकुल भी अत्याचार नहीं कर सकते थे। लूटे गए माल को सम्पूर्ण रूप से पदाधिकारियों को देने का आदेश था, जिसे शिवाजी के राजकोष में संगृहीत कर दिया जाता था। नियमित वेतन के अलावा सैनिक किसी से भी रिश्वत नहीं ले सकता था अन्यथा कठोर दण्ड मिलता था। शिवाजी अपने नियमों को कठोरतापूर्वक पालन करवाते थे।

2. घुड़सवार सेना- किसी भी राजा की प्रमुख सेना घुड़सवार सेना होती है। यह सेना का प्रमुख अंग होती है। शिवाजी की भी सेना का मुख्य अंग घुड़सवार सेना थी। इसके दो भाग थे- बारगीर व सिलहदार। बारगीर वर्ग के सैनिकों को राज्य की ओर से घोड़े व अस्त्र-शस्त्रों की व्यवस्था थी परन्तु सिलहदारों को अस्त-शस्त्र व घोड़े खरीदने पड़ते थे। इसके लिए उन्हें एक निश्चित धनराशि दी जाती थी। बारगीर मासिक वेतन प्राप्त करते थे। 25 घुड़सवारों पर 1 हवलदार, 5 हवलदारों पर एक जुमलादार तथा 10 जुमलादारों पर एक हजारी होता था, जिसे 1 हजार हून वार्षिक मिलते थे। सर-ए-नौबत या सेनापति घुड़सवारों का प्रधान था।

3. पैदल सेना- सेना की दूसरी प्रमुख शाखा पैदल सेना थी। पैदल सेना का भी विभाजन घुड़सवार सेना के समान था। साधारण सैनिक नायक के अधीन होते थे। 5 नायकों पर 1 हवलदार, 5 हवलदारों पर 1 जुमलादार, 10 जुमलादारों पर 1 हजारी तथा 7 हजारियों पर सर-ए-नौबत अथवा सेनापति होता था। शिवाजी के पास 20,000 मावलों की अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित, अनुशासित एवं सुव्यवस्थित सेना थी।

4. जलसेना- शिवाजी ने एक जलसेना का भी संगठन किया, जिससे जंजीरा के अबीसीनियन सिद्दियों को भी पराजित किया जा सके। सन् 1680 ई० में उन्होंने एक युद्ध में शत्रु पक्ष को बुरी तरह पराजित भी किया था। कोलाबा उनकी जलसेना का प्रमुख अड्डा था, जिसमें शिवाजी की 200 जहाजों की सेना रहती थी। जहाजी बेड़े का संचालन अधिकांशतः मुसलमान पदाधिकारियों के हाथ में था। लेकिन शिवाजी की जलसेना अधिक शक्तिशाली अथवा कुशल नहीं थी। फिर भी शिवाजी के पश्चात भी आंग्रे के अधीन मराठों की जल-सेना 18 वीं शताब्दी तक अंग्रेजों एवं पुर्तगालियों के लिए भय का कारण बनी रही।

5. युद्ध-पद्धति- शिवाजी ने मुगलों से सर्वथा भिन्न युद्ध-पद्धति को अपनाया। मुगल सेनापति तथा अन्य पदाधिकारी अत्यन्त विलासी होते थे। वे युद्धभूमि में भी भारी सामान के साथ चलते थे तथा युद्ध में विजय प्राप्त करने की अपेक्षा उन्हें निजी स्वार्थ का अधिक ध्यान रहता था। इसके विपरीत, मराठा सैनिकों को कष्ट सहन करने की आदत डाली जाती थी। वे टट्टओं पर सवार होकर मुट्ठी भर चने के साथ सरदार की आज्ञा प्राप्त होते ही चल पड़ते थे तथा उनको एकत्रित होने में विलम्ब नहीं लगता था। छोटी-छोटी टुकड़ियाँ होने के कारण उनके सैन्य-संचालन में विशेष असुविधा नहीं होती थी। उनके अस्त्र-शस्त्र भी हल्के होते थे तथा सामान न के बराबर होता था। महाराष्ट्र की प्राकृतिक स्थिति छापामार रण-पद्धति के सर्वथा अनुकूल थी तथा इसी पद्धति के कारण शिवाजी मुगल साम्राज्य के विरुद्ध अपना एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हो सके।

6. दुर्गों की व्यवस्था- शिवाजी ने दुर्गों के महत्व पर अत्यधिक बल दिया था। दुर्ग शत्रु आक्रमणकारियों से सुरक्षित रहने के महत्वपूर्ण साधन थे। मराठा सैनिक दुर्गों की रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे तथा माता के समान उनकी पूजा करते थे। दुर्गों के निकटवर्ती प्रदेशों के निवासियों को संकटकाल में दुर्गों में ही शरण प्राप्त होती थी। शिवाजी के राज्य में 240 दुर्ग थे। उन्होंने कुछ नए दुर्गों का भी निर्माण करवाया तथा प्राचीन दुर्गों का जीर्णोद्वार करवाकर उन्हें सुदृढ़ बनवाया। प्रत्येक महत्वपूर्ण घाटी अथवा पहाड़ी पर उन्होंने सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया, जो मराठा सैनिकों की रक्षा करने के लिए उत्तम शरणस्थल थे।

शिवाजी के राज्य की जीवन-शक्ति यही दुर्ग थे। उन्होंने प्रत्येक दुर्ग की सुरक्षा के लिए तीन पदाधिकारियोंहवलदार, सबनीस तथा सर-ए-नौबत की नियुक्ति की। ये तीनों पदाधिकारी भिन्न-भिन्न जातियों के होते थे, जिससे कि विश्वासघात न कर सकें। दुर्ग की चाबियाँ हवलदार के पास रहती थीं, जो दुर्ग की सेना का प्रधान अधिकारी होता था। शासन तथा मालगुजारी का प्रबन्ध ब्राह्मण सबनीस करता था तथा किलेदार अर्थात् दुर्ग का सर-ए-नौबत खाने-पीने का सामान तथा घोड़ों के लिए दाने आदि की व्यवस्था करता था। ये तीनों पदाधिकारी समान पद के होते थे तथा एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते थे। दुर्ग में स्थित सेना में जातियों का सम्मिश्रण कर दिया गया था। शिवाजी की दुर्ग व्यवस्था सर्वथा सराहनीय थी तथा पहाड़ियों में छापामार रण-पद्धति की सफलता इसी व्यवस्था पर निर्भर थी।

(ग) भूमि प्रशासन- सेना की ही तरह शिवाजी ने भूमिकर व्यवस्था के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किए। प्रत्येक गाँव का क्षेत्रफल ब्यौरेवार रखा जाता था और प्रत्येक बीघे की उपज का अनुमान लगाया जाता था। उपज का 2/5 भाग राज्य को दिया जाता था। किसानों को बीज और पशुओं की सहायता दी जाती थी जिसका मूल्य सरकार कुछ किश्तों में वसूल कर लेती थी। भूमि कर नकद अथवा जिन्स के रूप में वसूला जाता था।

शिवाजी की लगान व्यवस्था रैयतवाड़ी थी जिसमें राज्य के किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर रखा था। शिवाजी नहीं चाहते थे कि जमींदार, देशमुख और देसाई किसानों में हस्तक्षेप करें। हरसम्भव वे लगान अधिकारियों को जागीर के बदले नकद वेतन ही दिया करते थे। वे जब कभी जागीर देते भी थे तो इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि जागीरदार अपनी जागीर में कोई राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित न कर सके।

शिवाजी की आय का मुख्य साधन चौथ था। यह पड़ोसी राज्यों की आय का चौथा भाग होता था जिसे वसूल करने के लिए शिवाजी उन पर आक्रमण करते थे। चौथ हर साल वसूल करते थे। शिवाजी की आय का दूसरा मुख्य साधन सरदेशमुखी थी। यह राज्यों की आय का 1/10 भाग होता था।

प्रश्न 4.
‘शिवाजी में एक सफल सेनानायक एवं प्रशासक के गुण मौजदू थे।” विवेचना कीजिए।
उतर:
शिवाजी एक सफल सेनानायक- शिवाजी को दादा कोणदेव के द्वारा पूर्ण सैनिक शिक्षा प्राप्त हुई थी। वे वीर सैनिक थे तथा भयंकर-से-भयंकर संकट में भी नहीं घबराते थे। आगरा में औरंगजेब के द्वारा बन्दी बनाए जाने पर उनका पलायन उनके साहस एवं धैर्य का अप्रतिम उदाहरण है। वे केवल एक वीर सैनिक ही नहीं वरन् महान सेनापति भी थे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व उनके सैनिकों तथा सम्पर्क में आने वाले अन्य सभी व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। उनके सैनिक और कर्मचारी उनकी पूजा करते थे तथा उनके लिए अपने प्राणों का बलिदान देने को सदैव उत्सुक रहते थे। उन्होंने एक कुशल सेनापति की भाँति महाराष्ट्र में छापामार युद्ध को अपनाया जिसके कारण उनके शत्रु उन पर विजय प्राप्त करने में सदैव असमर्थ रहे। शिवाजी प्रथम भारतीय सम्राट थे जिन्होंने जल सेना के महत्त्व को समझा तथा एक शक्तिशाली जल-बेड़े का निर्माण करवाया।

एक साधारण जागीरदार के पुत्र होते हुए शिवाजी ने विशाल सेना का नेतृत्व करते हुए एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। इस साम्राज्य निर्माण का मुख्य ध्येय हिन्दुओं की रक्षा करना था जो किसी राजनीतिक शक्ति के द्वारा असम्भव थी। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने स्वराज्य का निर्माण किया। शिवाजी ने तोरण वियज के द्वारा 1649 ई० में विजय कार्य आरम्भ किया तथा केवल थोड़े ही वर्षों में बीजापुर, गोलकुण्डा तथा मुगल साम्राज्य के प्रदेशों को विजय करके एक विशाल साम्राज्य निर्मित किया। उनकी मृत्यु के समय उनके पास एक स्वतन्त्र राज्य, एक शक्तिशाली जल-बेड़ा तथा 45,000 घुड़सवारों, 60,000 सिलहदारों तथा 20,000 पैदल सैनिकों की सुव्यवस्थित एवं अनुशासित विशाल सेना थी। उनके राज्य में चोरी-डाके का नामोनिशान नहीं था। भिन्न-भिन्न जातियों में विभाजित मराठा सेना का संगठन करके उन्होंने छत्रपति’ की उपाधि धारण की तथा हिन्दुओं का परित्राण किया।

शिवाजी एक सफल प्रशासक- शिवाजी में अन्य महान विजेताओं के समान कुशल शासन-प्रबन्ध के गुण विद्यमान थे जिनकी उनके आलोचकों तक ने प्रशंसा की है। यद्यपि उन्होंने निरंकुश राज्यतन्त्र-पद्धति को अपनाया किन्तु उनका राज्य प्रजाहित के लिए था। वे प्रजावत्सल सम्राट थे जो निरन्तर कठोर परिश्रम के द्वारा अपनी प्रजा की सुख एवं समृद्धि की वृद्धि के लिए तत्पर रहते थे। उन्होंने अपने राज्य में शांति सुव्यवस्था एवं समृद्धि को जन्म दिया। उनकी केन्द्रीय शासन-व्यवस्था, सैनिक संगठन, नौ-सेना व्यवस्था समय एवं परिस्थिति के सर्वथा अनुकूल थी।

ग्राण्ड डफ ने भी उनके शासन सम्बन्धी गुणों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “उनका राज्य तथा शासन गरीब प्रजा एवं उसकी उन्नति के लिए था। उन्होंने जागीरदारी प्रथा, वंशानुगत पद आदि दोषपूर्ण व्यवस्थाओं को हटाकर नकद वेतन तथा योग्यता के आधार पर पदों का वितरण की व्यवस्था की। उनकी अष्टप्रधान सभा, सैनिक संगठन, भूमि सुधार उनको एक कुशल शासक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।” एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है- “जो प्रदेश शिवाजी ने जीता अथवा जो धन एकत्रित किया वह मुगलों के लिए इतना भयावह नहीं था, जितना की शिवाजी का स्वयं का आदर्श, नई विचारधारा और प्रणाली जो उन्होंने चलाई तथा एक नई प्रेरणा उन्होंने मराठा जाति में फेंक दी थी।

प्रश्न 5.
शिवाजी के चरित्र एवं शासन-प्रबन्ध का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
शिवाजी के चरित्र एवं शासन-प्रबन्ध का मूल्यांकन निम्नलिखित है
1. योग्य सेनापति- शिवाजी एक योग्य सेनापति थे। अपने देश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल उन्होंने गुरिल्ला युद्ध-पद्धति का प्रयोग किया और सुरक्षा के लिए अनेक दुर्गों का निर्माण कराया।

2. महान् शासक-प्रबन्धक- शिवाजी ने असैनिक और सैनिक दोनों ही प्रकार की शासन-व्यवस्था में महान् शासक प्रबन्धक होने का परिचय दिया। अष्टप्रधान व्यवस्था, उनकी लगान व्यवस्था, देशपाण्डे और देशमुख जैसे पैतृक पदाधिकारियों को बिना हटाए हुए उनकी शक्ति और प्रभाव को समाप्त करके किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित करना तथा ऐसे शासन की स्थापना करना जो उनकी अनुपस्थिति में भी सुचारु रूप से चल सके, ऐसी बातें थीं, जो उनके असैनिक शासन की श्रेष्ठता सिद्ध करती हैं। शिवाजी की घुड़सवार सेना और पैदल सैनिकों में पदों का विभाजन, ठीक समय पर वेतन देना, उनको योग्यतानुसार पद देना, गुरिल्ला युद्ध-पद्धति तथा किलों की सुरक्षा का प्रबन्ध आदि उनकी सैनिक व्यवस्था की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं। शिवाजी ने एक अच्छी नौसेना के निर्माण का भी प्रयत्न किया था। शिवाजी ने मराठी भाषा को राजभाषा बनाया था और एक राज्य व्यावहारिक संस्कृत कोष का भी निर्माण कराया था। इससे मराठी साहित्य के निर्माण में सहायता मिली थी।

3. हिन्दू राज्य के संस्थापक- शिवाजी ने एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना करने में सफलता पाई। उन्होंने ऐसी परिस्थितियों में हिन्दू राज्य का निर्माण किया, जबकि मुगल सम्राट औरंगजेब अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ मराठा राज्य को तो क्या दक्षिण के शिया राज्यों गोलकुण्डा और बीजापुर को भी समाप्त करने पर तुला हुआ था। इसके अतिरिक्त बीजापुर राज्य, पुर्तगालियों और जंजीरा के सिद्दियों का प्रबल विरोध होते हुए भी शिवाजी ने मराठा स्वराज्य की न केवल स्थापना की बल्कि जनता को सुरक्षा और शांति प्रदान की।

4. कुशल और साहसी सैनिक- शिवाजी एक कुशल और साहसी सैनिक थे। अनेक युद्धों में उन्होंने अपने जीवन को संकट में डाला था। अफजल खाँ से भेंट करना, शाइस्ता खाँ पर अचानक उसके शहर और निवास स्थान में प्रवेश करके आक्रमण करना, औरंगजेब से आगरा मिलने जाना उनके जीवन की ऐसी घटनाएँ हैं, जो यह सिद्ध करती हैं कि शिवाजी अपने जीवन को खतरे में डालने से कभी नहीं झिझके।। राष्ट्र निर्माता- शिवाजी का नवीनतम कार्य हिन्दू-मराठाराष्ट्र का निर्माण करना और उनकी महानतम् देन, उसको स्वतन्त्रता की भावना प्रदान करना था। गुलाम रहकर वे बड़ी-से-बड़ी प्रतिष्ठा को स्वीकार करने के लिए तत्पर न थे। अपने कार्य को उन्होंने बिना किसी विशेष सहायता के आरम्भ किया और यह अनुभव करके कि बढ़ती हुई मुस्लिम शक्ति का विरोध मराठों की एकता के बिना सम्भव नहीं है, उन्होंने मराठों को एकसूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। उन्हें रघुनाथ बल्लाल, समरजी पन्त, तानाजी मालसुरे, सन्ताजी घोरपड़े, खाण्डेराव दाभादे जैसे योग्य मराठा सरदारों का सहयोग मिला।

5. धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति- शिवाजी की धार्मिक प्रवृत्ति एक पहाड़ी झरने की भाँति स्वच्छ जल को अविरल गति से बहाने वाली थी, जिसमें धर्मान्धता की गन्दगी न थी। उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया और उनके साथ समान व्यवहार किया। धर्म, धार्मिक ग्रन्थ और कहानियाँ उनके प्रेरणा स्त्रोत थे।

महाराष्ट्र के तत्कालीन धार्मिक आन्दोलनों और सन्तों से वह प्रभावित हुए थे। शिवाजी पहले हिन्दू थे, जिन्होंने मध्य युग की बदलती हुई युद्ध की नैतिकता को समझा। उनके विरोधी इतिहासकार चाहे उन्हें डाकू कहें, चाहे विद्रोही सामन्त और चाहे औरंगजेब ने उनको ‘पहाड़ी चूहा’ कहकर अपनी सन्तुष्टि कर ली हो, परन्तु शिवाजी ने हिन्दू युद्ध-नीति की नैतिकता में एक नवीन अध्याय जोड़ा कि युद्ध जीतने के लिए लड़ा जाता है न कि शौर्य के प्रदर्शन के लिए। उनकी धार्मिक सहनशीलता आधुनिक समय के लिए भी उदाहरण स्वरूप है।

शिवाजी नि: सन्देह महान् थे। इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है, “मैं उन्हें हिन्दू जाति द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्तिम महान् क्रियात्मक व्यक्ति और राष्ट्र निर्माता मानता हूँ।” वे पुनः लिखते हैं, “शिवाजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दुत्व का वृक्ष वास्तव में गिरा नहीं है बल्कि वह सदियों की राजनीतिक दासता, शासन से पृथकत्व और कानूनी अत्याचार के बावजूद भी पुनः उठ सकता है, उसमें नए पत्ते और शाखाएँ आ सकती हैं और एक बार फिर आकाश में सिर उठा सकता है। इस प्रकार शिवाजी ने मराठों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित कर उनमें राष्ट्र-प्रेम की भावना को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

प्रश्न 6.
शिवाजी की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उतर:

शिवाजी के चरित्र एवं शासन-प्रबन्ध का मूल्यांकन निम्नलिखित है
1. योग्य सेनापति- शिवाजी एक योग्य सेनापति थे। अपने देश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल उन्होंने गुरिल्ला युद्ध-पद्धति का प्रयोग किया और सुरक्षा के लिए अनेक दुर्गों का निर्माण कराया।

2. महान् शासक-प्रबन्धक- शिवाजी ने असैनिक और सैनिक दोनों ही प्रकार की शासन-व्यवस्था में महान् शासक प्रबन्धक होने का परिचय दिया। अष्टप्रधान व्यवस्था, उनकी लगान व्यवस्था, देशपाण्डे और देशमुख जैसे पैतृक पदाधिकारियों को बिना हटाए हुए उनकी शक्ति और प्रभाव को समाप्त करके किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित करना तथा ऐसे शासन की स्थापना करना जो उनकी अनुपस्थिति में भी सुचारु रूप से चल सके, ऐसी बातें थीं, जो उनके असैनिक शासन की श्रेष्ठता सिद्ध करती हैं। शिवाजी की घुड़सवार सेना और पैदल सैनिकों में पदों का विभाजन, ठीक समय पर वेतन देना, उनको योग्यतानुसार पद देना, गुरिल्ला युद्ध-पद्धति तथा किलों की सुरक्षा का प्रबन्ध आदि उनकी सैनिक व्यवस्था की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं। शिवाजी ने एक अच्छी नौसेना के निर्माण का भी प्रयत्न किया था। शिवाजी ने मराठी भाषा को राजभाषा बनाया था और एक राज्य व्यावहारिक संस्कृत कोष का भी निर्माण कराया था। इससे मराठी साहित्य के निर्माण में सहायता मिली थी।

3. हिन्दू राज्य के संस्थापक- शिवाजी ने एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना करने में सफलता पाई। उन्होंने ऐसी परिस्थितियों में हिन्दू राज्य का निर्माण किया, जबकि मुगल सम्राट औरंगजेब अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ मराठा राज्य को तो क्या दक्षिण के शिया राज्यों गोलकुण्डा और बीजापुर को भी समाप्त करने पर तुला हुआ था। इसके अतिरिक्त बीजापुर राज्य, पुर्तगालियों और जंजीरा के सिद्दियों का प्रबल विरोध होते हुए भी शिवाजी ने मराठा स्वराज्य की न केवल स्थापना की बल्कि जनता को सुरक्षा और शांति प्रदान की।

4. कुशल और साहसी सैनिक- शिवाजी एक कुशल और साहसी सैनिक थे। अनेक युद्धों में उन्होंने अपने जीवन को संकट में डाला था। अफजल खाँ से भेंट करना, शाइस्ता खाँ पर अचानक उसके शहर और निवास स्थान में प्रवेश करके आक्रमण करना, औरंगजेब से आगरा मिलने जाना उनके जीवन की ऐसी घटनाएँ हैं, जो यह सिद्ध करती हैं कि शिवाजी अपने जीवन को खतरे में डालने से कभी नहीं झिझके।। राष्ट्र निर्माता- शिवाजी का नवीनतम कार्य हिन्दू-मराठाराष्ट्र का निर्माण करना और उनकी महानतम् देन, उसको स्वतन्त्रता की भावना प्रदान करना था। गुलाम रहकर वे बड़ी-से-बड़ी प्रतिष्ठा को स्वीकार करने के लिए तत्पर न थे। अपने कार्य को उन्होंने बिना किसी विशेष सहायता के आरम्भ किया और यह अनुभव करके कि बढ़ती हुई मुस्लिम शक्ति का विरोध मराठों की एकता के बिना सम्भव नहीं है, उन्होंने मराठों को एकसूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। उन्हें रघुनाथ बल्लाल, समरजी पन्त, तानाजी मालसुरे, सन्ताजी घोरपड़े, खाण्डेराव दाभादे जैसे योग्य मराठा सरदारों का सहयोग मिला।

5. धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति- शिवाजी की धार्मिक प्रवृत्ति एक पहाड़ी झरने की भाँति स्वच्छ जल को अविरल गति से बहाने वाली थी, जिसमें धर्मान्धता की गन्दगी न थी। उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया और उनके साथ समान व्यवहार किया। धर्म, धार्मिक ग्रन्थ और कहानियाँ उनके प्रेरणा स्त्रोत थे।

महाराष्ट्र के तत्कालीन धार्मिक आन्दोलनों और सन्तों से वह प्रभावित हुए थे। शिवाजी पहले हिन्दू थे, जिन्होंने मध्य युग की बदलती हुई युद्ध की नैतिकता को समझा। उनके विरोधी इतिहासकार चाहे उन्हें डाकू कहें, चाहे विद्रोही सामन्त और चाहे औरंगजेब ने उनको ‘पहाड़ी चूहा’ कहकर अपनी सन्तुष्टि कर ली हो, परन्तु शिवाजी ने हिन्दू युद्ध-नीति की नैतिकता में एक नवीन अध्याय जोड़ा कि युद्ध जीतने के लिए लड़ा जाता है न कि शौर्य के प्रदर्शन के लिए। उनकी धार्मिक सहनशीलता आधुनिक समय के लिए भी उदाहरण स्वरूप है।

शिवाजी नि: सन्देह महान् थे। इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है, “मैं उन्हें हिन्दू जाति द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्तिम महान् क्रियात्मक व्यक्ति और राष्ट्र निर्माता मानता हूँ।” वे पुनः लिखते हैं, “शिवाजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दुत्व का वृक्ष वास्तव में गिरा नहीं है बल्कि वह सदियों की राजनीतिक दासता, शासन से पृथकत्व और कानूनी अत्याचार के बावजूद भी पुनः उठ सकता है, उसमें नए पत्ते और शाखाएँ आ सकती हैं और एक बार फिर आकाश में सिर उठा सकता है। इस प्रकार शिवाजी ने मराठों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित कर उनमें राष्ट्र-प्रेम की भावना को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 20 Interest, Attention and Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 20 Interest, Attention and Education (रुचि, अवधान तथा शिक्षा) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 20 Interest, Attention and Education (रुचि, अवधान तथा शिक्षा).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 20
Chapter Name Interest, Attention and Education
(रुचि, अवधान तथा शिक्षा)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 20 Interest, Attention and Education (रुचि, अवधान तथा शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
रुचि का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। बालकों में रुचि उत्पन्न करने के उपायों को भी स्पष्ट कीजिए।
या
रुचि क्या है? विषय-वस्तु में रुचि पैदा करने के लिए अध्यापक को कौन-से उपाय करने चाहिए? स्पष्ट कीजिए।
या
रुचि से आप क्या समझते हैं? सीखने में रुचि के महत्त्व की विवेचना कीजिए। [2015]
या
रुचि के स्वरूप पर प्रकाश डालिए। किसी पाठ को पढ़ाते समय अध्यापक अपने छात्रों पर किस प्रकार रुचि उत्पन्न कर सकता है? [2009, 11]
या
वे कौन-से कारक हैं जो रुचियों के निर्माण को आगे बढ़ाते हैं? [2015]
या
रुचिसे आप क्या समझते हैं?”रुचि सीखने की वह दशा है जो अध्यापक और विद्यार्थी दोनों के लिए आवश्यक है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2008, 11, 13]
या
रुचि क्या है? क्या यह जन्मजात अथवा अर्जित होती है? अधिगम में इसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। [2016]
या
रुचि का अर्थ स्पष्ट कीजिए। छात्रों में रुचि उत्पन्न करने की विधियों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :
रुचि का अर्थ एवं परिभाषा
रुचि अवधान का अन्तरंग प्रेरक है। रॉस (Ross) के अनुसार, रुचि का अर्थ है-लगाव अर्थात् जिस वस्तु के प्रति हमारा लगाव होता है, उसमें हमारी रुचि होती है। एक किशोर का लगाव पाठ्य-पुस्तकों की अपेक्षा उपन्यास में अधिक होता है। इस प्रकार यह लगाव ही रुचि है। रुचि में अन्तर करने की भावना होती है। हम किसी वस्तु में इस कारण रुचि रखते हैं, क्योंकि उसे अन्य वस्तुओं से अधिक महत्त्वपूर्ण समझते हैं।

रुचि की कुछ परिभाषाओं का विवरण निम्नलिखित है

  1. क्रो व क्रो के अनुसार, “रुचि उस प्रेरक शक्ति को कहा जाता है, जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है।”
  2. डॉ० एस० एम० माथुर के अनुसार, “रुचि को प्रेरक शक्ति कहा जाता है, जो हमारे ध्यान को एक व्यक्ति, वस्तु या क्रिया की तरफ उन्मुख करती है या इसे प्रभावपूर्ण कहा जा सकता है, जो स्वयं ही अपनी सक्रियता से उत्तेजित होती है।”
  3. भाटिया के अनुसार, “रुचि का अर्थ है-अन्तर करना। हम वस्तुओं में इस कारण रुचि रखते हैं, क्योंकि हमारे लिए उनमें और दूसरी वस्तुओं में अन्तर होता है, क्योंकि उनका हमसे सम्बन्ध होता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा रुचि का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। रुचियों के दो प्रकार या वर्ग निर्धारित किये गये हैं, जिन्हें क्रमश :

  • जन्मजात रुचियाँ तथा
  • अर्जित रुचियाँ कहते हैं।

[संकेत : रुचियों के प्रकार के विस्तृत विवरण हेतु लघु उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तर देखें।]

बालकों में रुचि उत्पन्न करने के उपाय
निम्नांकित उपायों या विधियों द्वारा बालकों में पाठ के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है

  1. छोटे बालक सबसे अधिक रुचि अपने आप में लेते हैं। अत: किसी नीरस विषय को बालकों के अपने मन से सम्बन्धित करके पढ़ाया जाए।
  2. छोटे बालकों की रुचि मूल-प्रवृत्तियों पर आधारित होती है। अतः अध्यापक को चाहिए कि पढ़ाते समय मूल-प्रवृत्यात्मक रुचियों को सुविधानुसार पाठ से सम्बन्धित करें।
  3. आयु के विकास के साथ-साथ बालकों की रुचियों में भी परिवर्तन होता है। अतः इस बात को ध्यान में रखकर ही पाठ्य विकास का आयोजन किया जाए।
  4. रुचि का आधार जिज्ञासा प्रवृत्ति है। अतः विषय के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करना आवश्यक है।
  5. रुचि के अनुसार विषय में परिवर्तन भी किया जाना चाहिए।
  6. पाठ पढ़ाते समय बालकों को उसका उद्देश्य भी बता दिया जाए, क्योंकि बालक किसी कार्य में । तभी रुचि लेते हैं, जब उन्हें उद्देश्य को पता चल जाता है।
  7. पाठ्य वस्तु का सम्बन्ध यथासम्भव जीवन की आवश्यकताओं से किया जाए।
  8. किसी पाठ का अध्ययन करते समय प्रभावशाली स्थूल दृश्य-श्रव्य साधनों या सहायक सामग्री का प्रयोग करना चाहिए।
  9. बालक रचनात्मक कार्यों में विशेष रुचि लेते हैं। अत: पाठ का यथासम्भव सम्बन्ध रचनात्मक कार्यों में किया जाए।
  10. लगातार मौखिक शिक्षण बालकों में नीरसती उत्पन्न कर देता है। अतः बीच में उन्हें प्रयोग व निरीक्षण आदि के अवसर दिये जाएँ।
  11. प्राथमिक स्तर पर खेल विधि का प्रयोग उचित है।
  12. नवीन ज्ञान का सम्बन्ध पूर्व ज्ञान से करना परम आवश्यक है, क्योंकि छात्र उसे वस्तु में ही विशेष रुचि लेते हैं, जिनका उन्हें पहले से ही ज्ञान होता है।
  13. पढ़ाते समय किसी तथ्य की आवश्यकता से अधिक पुनरावृत्ति न की जाए, क्योंकि अधिक पुनरावृत्ति से नीरसता उत्पन्न होती है।
  14. पाठ्य विषयं को रोचक व प्रभावशाली बनाने में पर्यटन का सहारा लेना अधिक उपयोगी है। अतः अध्यापक को समय-समय पर शैक्षिक भ्रमण यात्राओं का आयोजन करना चाहिए।

शिक्षा या सीखने (अधिगम) में रुचि का महत्त्व
वास्तव में अध्यापक के लिए आवश्यक है कि वे विद्यार्थी में शिक्षा के प्रति रुचि जाग्रत करें और स्वयं भी शिक्षण-कार्य में रुचि लें, क्योंकि “रुचि सीखने की वह दशा है जो अध्यापक और विद्यार्थी दोनों के लिए आवश्यक है।” शिक्षा के क्षेत्र में रुचि का अत्यधिक महत्त्व एवं आवश्यकता है। रुचि के नितान्त अभाव में शिक्षा की प्रक्रिया सुचारु रूप से चल ही नहीं सकती।

इनके विपरीत यह भी सत्य है कि यदि किसी विषय के प्रति रुचि जाग्रत हो जाए तो उस दशा में शिक्षा की प्रक्रिया सरल, उत्तम तथा शीघ्र सम्पन्न होने लगती है। रुचि से जिज्ञासा उत्पन्न होती है तथा जिज्ञासा से ज्ञान प्राप्ति के हर सम्भव प्रयास किये जाते हैं तथा परिणामस्वरूप ज्ञान प्राप्त भी कर लिया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिक्षा के लिए रुचि आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 2
अवधान का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। अवधान की विशेषताओं का भी विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
अवधान का अर्थ एवं परिभाषा
‘अवधान’ वह मानसिक क्रिया है, जिसमें हमारी चेतना किसी वस्तु या पदार्थ पर केन्द्रित होती है। उदाहरण के लिए, हम किसी पार्क में बैठे एक गुलाब के फूले को देख रहे हैं। यद्यपि पार्क में स्त्री, पुरुष, बच्चे, फव्वारे भी हमारी कुछ-न-कुछ चेतना में हैं, परन्तु हमने अपने चेतना को केन्द्रित केवल गुलाब के फूल पर ही कर रखा है। इस प्रकार सेञ्चेतना का किसी वस्तु-विशेष पर केन्द्रित करना ही अवधान क्रहलाता है।

अवधान की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

  1. डूमवाइल के अनुसार, “अन्य वस्तुओं की अपेक्षा एक ही वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण ही अवधान है।”
  2. रॉस के अनुसार, “अवधान विचार की वस्तु को मन के समक्ष स्पष्ट रूप से प्रकट करने की प्रक्रिया है।”
  3. वेलेण्टाइन के अनुसार, “अवधान मस्तिष्क की शक्ति नहीं है, वरन् सम्पूर्ण रूप से मस्तिष्क की क्रिया या अभिव्यक्ति है।’
  4. बी० एन० झा के अनुसार, “किसी विचार या संस्कार को चेतना में स्थिर करने की प्रक्रिया को अवधान कहते हैं।”
  5. मन के अनुसार, “हम चाहे जिस दृष्टिकोण से विचार करें, अन्तिम निष्कर्ष में अवधान एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया है।”
  6. मैक्डूगल के अनुसार, “ज्ञानात्मक प्रक्रिया पर पड़े प्रभाव की दृष्टि से विचार करने पर अवधान एक चेष्टा या प्रयास भर है।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि जब चेतना के समक्ष आने वाले पदार्थों में एकता स्थापित करने की चेष्टा की जाती है तो उस मानसिक प्रक्रिया को अवधान कहा जाता है।

अवधान की विशेषताएँ
अवधान की ‘निम्नांकित विशेषताएँ पायी जाती हैं

1. एकाग्रता :
अवधान किसी वस्तु पर चेतना को एकाग्र करना है। अतः अवधान के लिए चित्त की एकाग्रता परम आवश्यक है।

2. मानसिक क्रियाशीलता :
अवधान की एक प्रमुख विशेषता क्रियाशीलता है। बिना मानसिक क्रियाशीलता के हम किसी वस्तु पर अवधान नहीं लगा सकते। उदाहरण के लिए, यदि हमें गुलाब के फूल पर अवैधान केन्द्रित करना है, तो इसके लिए मन को क्रियाशील बनाना होगा।

3. चयनात्मकता :
जिस वस्तु पर हम अवधान केन्द्रित करते हैं, उसका चयन अनेक वस्तुओं में से होता है। किसी बगीचे के अनेक फूलों में से किसी एक विशेष फूल पर हमारा अवधान केन्द्रित होता है।

4. प्रयोजनशीलता :
हम उन वस्तुओं पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, जिनमें हमारा किसी-न-किसी प्रकार का प्रयोजन होता है। बालक का ध्यान रसगुल्ले पर क्यों एकदम चला जाता है, क्योंकि वह उसे खाने में अच्छा लगता है।

5. परिवर्तनशीलता :
अवधान अस्थिर तथा चंचल प्रकृति का होता है। कठिनता से ही एक वस्तु पर हम अपना ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं, परन्तु प्रयास द्वारा अवधान केन्द्रित करने की शक्ति को बढ़ाया जा सकता है।

6. संकीर्ण या संकुचित प्रसार :
अवधान का विस्तार संकीर्ण या सन्तुलित होता है। हमारा अवधान विभिन्न पहलुओं में से किसी एक वस्तु पर ही केन्द्रित होता है। कुछ देर बाद हमारा अवधान दूसरी वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है।

7. सजीवता :
अवधान चेतना के कारण प्रतिपादित होता है। अत: वह सजीव है। हम जिस वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, उसका अस्तित्व हमारी चेतना में होता है।

8. तत्परता :
वुडवर्थ (wood worth) के अनुसार, “अवधान की आवश्यक क्रिया तत्परता है।” अवधान की दशा में हमारा शरीर एक प्रकार की तत्परता की दशा में होता है।

9. गति-समायोजन :
अवधान में गतियों का समायोजन होता है, अर्थात् जब हम किसी वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, उस समय हमारी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के संचालन का समायोजन उस प्रक्रिया की प्रकृति के अनुसार हो जाता है। भाषण सुनते समय श्रोता के आँख, कान, गर्दन तथा बैठने की स्थिति नेता या भाषणकर्ता की ओर समायोजन कर लेती हैं।

प्रश्न 3
अवधान में सहायक दशाओं का वर्णन कीजिए।
या
अवधान केन्द्रित करने में सहायक बाह्य तथा आन्तरिक दशाओं का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
अवधान की दशाएँ।
अवधान का केन्द्रीकरण किस प्रकार होता है ? अथवा वे कौन-कौन-सी दशाएँ हैं, जो अवधान केन्द्रित करने में सहायक होती हैं ? इन प्रश्नों के लिए हमें उन दशाओं का अध्ययन करना होगा, जो कि अवधान केन्द्रित करने में सहायक होती हैं। ये दशाएँ दो वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं-बाह्य दशाएँ तथा आन्तरिक दशाएँ।

अवधान केन्द्रित करने की बाह्य दशाएँ
अवधान केन्द्रित करने की बाह्य दशाएँ निम्नलिखित हैं अवधान केन्द्रित करने में सहायक बाह्य दशाओं के अन्तर्गत जिन कारकों को सम्मिलित किया जाता है, उनका सम्बन्ध मुख्य रूप से बाह्य विषय-वस्तु से होता है। इस वर्ग की दशाओं यो कारकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है।

1. स्वरूप :
अधान का केन्द्रीकरण उद्दीपन की प्रकृति या स्वरूप पर निर्भर करता है। छोटे बालक चटकीले रंग की वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाते हैं। जिन पुस्तकों में रंगीन चित्र होते हैं, उनमें बालक का ध्यान अधिक लगती है।

2. आकार :
अधिक या बड़े आकार की वस्तु की ओर हमारा ध्यान शीघ्र आकर्षित होता है। अखबारों के प्रथम पृष्ठ पर किसी मुख्य समाचार को मोटे-मोटे अक्षरों में इस कारण ही छापा जाता है। बड़े-बड़े विज्ञापन के पोस्टर भी इसके उदाहरण हैं।

3. गति :
स्थिर वस्तु की अपेक्षा गतिशीलं या चलती वस्तु की ओर, अवधान केन्द्रित करने हमारा ध्यान शीघ्र आकर्षित होता है। बैठे हुए मनुष्य की ओर हमारा ध्यान की बाह्य दशाएँ। नहीं जाती, परन्तु सड़क पर दौड़ता मनुष्य हमारा ध्यान आकर्षित कर लेता है।

4. विषमता :
विषमता के कारण भी हमारा ध्यान आकर्षित होता है। एक गोरे परिवार के व्यक्तियों में यदि कोई काला व्यक्ति है तो उसकी ओर विषमता के कारण हमारा ध्यान अवश्य जाता है।

5. नवीनता :
किसी नवीन या विचित्र वस्तु की ओर हमारा ध्यान तत्काल जाता है। यदि कोई अध्यापक प्रतिदिन कोट-पैंट में विद्यालय आते हैं। और किसी दिन वे धोती-कुर्ता पहनकर आ जाते हैं तो समस्त छात्रों का ध्यान । उनकी ओर आकर्षित हो जाता है।

6. अवधि :
जिस वस्तु पर जितना देखने का अवसर मिलती है, उतना ही उस पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है। इसी कारण भूगोल के शिक्षण में । मानचित्र बार-बार दिखाये जाते हैं।

7. परिवर्तन :
कक्षा में यदि शान्त वातावरण है, परन्तु सहसा किसी कोने से शोर होने लगता है, तो तुरन्त ही हमारा ध्यान उस ओर चला जाता है। इस प्रकार उद्दीपन में जब भी परिवर्तन होता हैं, तो उस परिवर्तन की ओर हमारा ध्यान तुरन्त चला जाता है।

8. प्रकार या रूप :
हमारा ध्यान आकर्षक, सुन्दर तथा सुडौल वस्तुओं की ओर शीघ्र जाता है और उन्हें बार-बार देखने की इच्छा होती है।

9. स्थिति :
उद्दीपन या वस्तु की स्थिति के समान हमारे अवधान की अवस्था होती है। प्रतिदिन हम सड़क पर वृक्षों के नीचे से गुजरते हैं, किन्तु हमारा ध्यान उनकी ओर आकर्षित नहीं होता है। परन्तु यदि किसी दिन उनमें से किसी वृक्ष को गिरा हुआ देखते हैं, तो हमारा ध्यान उसकी ओर तुरन्त चला जाता है।

10. तीव्रता :
शक्तिशाली और तीव्र उद्दीपन हमारा ध्यान अधिक आकर्षित करते हैं। मन्द ध्वनि की अपेक्षा तीव्र ध्वनि की ओर हमारा ध्यानं शीघ्र जाता है।

11. पुनरावृत्ति :
जिस बात को बार-बार दोहराया जाता है, उस ओर हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से चला जाता है। इसी कारण किसी पाठ के तत्त्वों को बार-बार दोहराया जाता है।

12. रहस्यमयता :
रहस्यपूर्ण बातों की ओर हमारा ध्यान शीघ्र आकर्षित होता है। दो व्यक्तियों में यदि कोई सामान्य बात हो रही हो तो उस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता, परन्तु जब वे कानाफूसी करने लगते हैं तो तुरन्त ही हम उनकी ओर देखने लगते हैं।

अवधान केन्द्रित करने की आन्तरिक दशाएँ

अवधान की वे दशाएँ जो व्यक्ति में विद्यमान होती हैं, आन्तरिक दशाएँ कहलाती हैं। इन दशाओं का विवरण इस प्रकार है
1. अभिवृत्ति :
जिन वस्तुओं में हमारी अभिवृत्ति होती है, प्राय: उन वस्तुओं में हमारा ध्यान अधिक केन्द्रित होता है।

2. रुचि :
रुचि का ध्यान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हम उन्हीं वस्तुओं की ओर ध्यान देते हैं, जिनमें हमारी रुचि होती है। अरुचिकर वस्तुओं की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है।

3. मूल-प्रवृत्तियाँ :
ध्यान को केन्द्रित करने में मूल-प्रवृत्तियों का भी योग रहता है। रोमांटिक उपन्यास तथा कहानियों में किशोर-किशोरियों मूल-प्रवृत्तियों का ध्यान सामान्य पुस्तकों की अपेक्षा अधिक लगता है। साबुन, पाउडर, तेल आदि के विज्ञापनों पर स्त्रियों के चित्र इसी उद्देश्य से लगाये जाते हैं।

4. पूर्व अनुभव :
ध्यान के केन्द्रीकरण का एक अन्य कारण हमारे पूर्व अनुभव भी होते हैं। पूर्व अनुभव के आधार पर ही हम अपना ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं।

5. मस्तिष्क :
जो विचार हमारे मस्तिष्क पर जिस समय छाया रहता है, उस समय उससे सम्बन्धित बात पर ही हम ध्यान देते हैं। उदाहरण के लिए, हमारे मस्तिष्क में किसी रोजगार का विचार है तो अखबार में हमारा सर्वप्रथम ध्यान रोजगार के विज्ञापनों पर ही जाएगा।

6. जानकारी या ज्ञान :
जिस विषय की हमें विशद जानकारी होती है, उस विषय पर हमारा ध्यान सरलता से केन्द्रित हो जाता है। जब बालक गणित के प्रश्न ठीक प्रकार से समझ जाता है तो वह उन पर अपना ध्यान सरलता से केन्द्रित कर लेता है।

7. आवश्यकता :
जो वस्तु हमारी आवश्यकताओं को पूरा करती है, उसकी ओर हमारा ध्यान स्वतः हीं चला जाता है। भूख के समय हमारा ध्यान भोजन की ओर तुरन्त चला जाता है।

8. जिज्ञासा :
जिज्ञासा अवधान को केन्द्रित करने में विशेष योग देती है। जिस वस्तु में हमारी जिज्ञासा होती है, उस पर हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से केन्द्रित हो जाता है।

9. लक्ष्य :
जब व्यक्ति को अपना लक्ष्य ज्ञात हो जाता है तो उस पर उसका ध्यान केन्द्रित हो जाता है। परीक्षा के दिनों में छात्रों का अध्ययन पर इस कारण ही केन्द्रित हो जाता है।

10. आदत :
आदत के कारण भी ध्यान केन्द्रित होता है, जो व्यक्ति किसी कारखाने के पास रहता है, उसे कारखाने के शोरगुल में भी ध्यान केन्द्रित करने की आदत पड़ जाती है। जो बालक शाम के पाँच बजे खेलने के अभ्यस्त हैं, तो प्रतिदिन पाँच बजे उनका ध्यान खेल की ओर चला जाता है।

प्रश्न 4
कक्षा में बालकों के अवधान को केन्द्रित करने के मुख्य उपायों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
बालकों का अवधान केन्द्रित करने के उपाय
शिक्षण को उत्तम एवं प्रभावकारी बनाने के लिए बालकों के अवधान को पाठ्य विषय पर केन्द्रित होना आवश्यक माना जाता है। कक्षा में बालकों को अवधान केन्द्रित करने के लिए निम्नांकित उपाय काम में लाये जा सकते हैं

1. शान्त वातावरण :
ध्यान की एकाग्रता के लिए शान्त वातावरण का होना अत्यन्त आवश्यक है। शोरगुल बालकों के ध्यान को विचलित कर देता है। अतः अध्यापक का कर्तव्य है कि वह कक्षा में सदा शान्ति बनाये रखने का प्रयत्न करें।

2. विषय के प्रति रुचि जाग्रत करना :
यह बात सर्वमान्य है। कि जिस विषय में बालक की रुचि होती है, उसे वह कम समय में और कुशलता से सीख लेता है। अतः रुचि उत्पन्न करना अध्यापक का एक आवश्यक कार्य हो जाता है। वास्तव में विषय में रुचि उत्पन्न हो जाने पर छात्रों के ध्यान के भटकने को प्रश्न ही नहीं उठता।

3. बालकों की रुचियों का ध्यान :
विषय के प्रति रुचि जाग्रत करने के साथ-साथ अध्यापक को बालकों की रुचियों का भी ध्यान अतः शिक्षण के समय बालकों की रुचियों का ध्यान रखा जाए।

4. जिज्ञासा प्रवृत्ति का उपयोग :
बालकों का ध्यान पाठ पर केन्द्रित करने के लिए उनमें जिज्ञासा जाग्रत करना भी अत्यन्त आवश्यक है।

5. विषय में परिवर्तन :
ध्यान स्वभाव से चंचल होता है। अतः बालक अधिक काल तक किसी विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकते। अत: एक विषय को अधिक समय तक न पढ़ाकर किसी दूसरे विषय का शिक्षण प्रारम्भ करना चाहिए।

6. सहायक सामग्री का प्रयोग :
सहायक सामग्री बालक के ध्यान को विषय पर केन्द्रित करने में विशेष योग देती है। ऐसी दशा में यथासम्भव सहायक सामग्री का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।

7. उचित शिक्षण विधियों का प्रयोग :
व्याख्यान विधि जैसी परम्परागत शिक्षण विधियाँ छात्रों का ध्यान अधिक देर तक विषय पर केन्द्रित नहीं रख पातीं। अतः बालक को ध्यान आकर्षित करने के लिए। अध्यापक को चाहिए कि वह खेल विधि, निरीक्षण विधि तथा प्रयोगात्मक विधि आदि का उपयोग भी करें।

8. पूर्व ज्ञान का नवीन ज्ञान से सम्बन्ध :
बालकों के पूर्व ज्ञान से नवीन ज्ञान को सम्बन्धित करना आवश्यक है। जब नवीन ज्ञान पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित हो जाता है तो बालक का ध्यान सरलता से केन्द्रित हो। जाता है।

9. उचित वातावरण :
अनुचित वातावरण बालकों के ध्यान की एकाग्रता में सहायक नहीं होता है। यदि प्रकाश का अभाव है, बैठने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है तथा आसपास बदबू आती है तो छात्रों को। अपना ध्यान केन्द्रित करने में कठिनाई होगी। अत: कक्षा के वातावरण को अनुकूल बनाना चाहिए।

10. बालक का स्वास्थ्य :
कमजोर बालक, जिसके सिर में दर्द रहता है, जिनकी आँखें कमजोर हैं। तथा जो कम सुनते हैं, वे पाठ पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं। अतः बालक के स्वास्थ्य के विषय में अध्यापक को अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए।

11. सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार :
अध्यापक को बालकों के ध्यान को विषय के प्रति आकर्षित करने के लिए उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। कठोर व्यवहार से बालक ध्यान को एकाग्र नहीं कर पाते हैं।

12. पर्याप्त विश्राम :
थकान ध्यान को विचलित करने में सहायक होती है। अत: प्रधानाचार्य को कर्तव्य है कि वह विद्यालय की समय-सारणी का निर्माण इस ढंग से करे कि बालकों को पर्याप्त विश्राम मिल सके तथा उन्हें कम-से-कम थकान का अनुभव हो।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
रुचि के प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2007]
या
मानवीय रुचियों का स्पष्ट वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
रुचि मुख्यतः दो प्रकार की होती है

  1. जन्मजात एवं
  2. अर्जित।

1. जन्मजात रुचि :
जन्मजात रुचि, मूल-प्रवृत्तियों (Instincts) पर आधारित होती है और मनुष्य के स्वभाव तथा प्रकृति में निहित होती है। इनका स्रोत व्यक्ति के अन्दर जन्म से ही विद्यमान होता है। भोजन में हमारी रुचि भूख की जन्मजात प्रवृत्ति के कारण है। काम-वासना में रुचि होने के कारण हमारा ध्यान विपरीत लिंग की ओर आकृष्ट होता है। चिड़िया दाना खाने, गाय तथा भैंस हरा चारा खाने तथा हिंसक पशु मांस खाने में रुचि रखते हैं। यह जन्मजात क्रियाओं के कारण।

2. अर्जित रुचि :
अर्जित करने का अर्थ है उपार्जित करना (अर्थात् कमाना)। अर्जित रुचियों को व्यक्ति अपने वातावरण से अर्जित करता है। इनका निर्माण मनुष्य के अनुभव के आधार पर होता है। मनुष्य के मन की भावनाएँ तथा आदतें इनकी आधारशिला हैं। अतः भावनाओं तथा आदतों में परिवर्तन के साथ ही इनमें परिवर्तन आता रहता है। अपने हित या लाभ की परिस्थितियों के प्रति व्यक्ति की रुचियाँ बढ़ जाती हैं। किसी वस्तु या प्राणी के प्रति आकर्षण के कारण उसके प्रति हमारी रुचि पैदा हो जाती है। एक फोटोग्राफर को अच्छे कैमरे में रुचि होती है तथा बच्चों की रुचि नये-नये खिलौनों में।

प्रश्न 2
अवधान के मुख्य प्रकार कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर :
अवधान के मुख्य प्रकारों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है

1. ऐच्छिक अवधान :
जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु या उद्दीपन पर अपनी समस्त चेतना को केन्द्रित कर देता है तो इस अवस्था को ऐच्छिक अवधान कहते हैं। इस प्रकार के अवधान में हमें किसी वस्तु या विचार पर ध्यान लगाने के लिए अपनी संकल्प-शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। सामान्य शब्दों में हम कहते हैं कि पूर्ण प्रयास करने पर ही ऐच्छिक अवधाने को लगाया जा सकता है। इस प्रकार के अवधान को सक्रिय अवधान भी कहते हैं।

2. अनैच्छिक अवधान :
जब किसी वस्तु या विचार पर हम बिना किसी प्रयत्न के अवधान लगाते हैं तो इस प्रकार के अवधान को अनैच्छिक अवधान कहते हैं। अनैच्छिक अवधान के लिए हमें अपनी संकल्प शक्ति का प्रयोग नहीं करना पड़ता। इस प्रकार के अवधान को निष्क्रिय अवधान भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए, किसी जोर की आवाज पर, तीव्र प्रकाश पर तथा मधुर संगीत पर हमारा ध्यान अपने आप चला जाता है।

प्रश्न 3
अवधान और रुचि के सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मनोवैज्ञानिकों में अवधान और रुचि के विषय में परस्पर मतभेद है। रुचि और अवधान के परस्पर सम्बन्ध में तीन मत प्रचलित हैं

1. अवधान रुचि पर आधारित है :
इस मत के प्रतिपादकों का कहना है कि व्यक्ति उन्हीं बातों पर ध्यान देता है, जिनमें उसकी रुचि होती है। दूसरे शब्दों में, अवधान रुचि पर आधारित है। जिसे वस्तु में हमारी रुचि नहीं होगी, उस पर हमारी चेतना केन्द्रित नहीं होगी।

2.रुचि अवधान पर आधारित है-कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि रुचि का आधार ध्यान है। जब हम किसी वस्तु पर ध्यान देंगे ही नहीं तो हमारी उस वस्तु के प्रति रुचि उत्पन्न होगी ही नहीं। रुचि की। जागृति तभी होती है, जब हम किसी वस्तु पर ध्यान देते हैं।

3. समन्वयवादी मत :
यह मत उक्त दोनों मतों का समन्वय करता है। इस मत के समर्थकों के अनुसार अवधान और रुचि दोनों ही एक-दूसरे पर आधारित हैं। रॉस (Ross) के अनुसार, “अवधान तथा रुचि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि रुचि के कारण कोई व्यक्ति किसी वस्तु पर ध्यान देता है तो अवधान के कारण उस वस्तु में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाएगी।” मैक्डूगल ने भी लिखा है, “रुचि गुप्त अवधान है और अवधान सक्रिय रुचि है।”

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यक्ति की रुचियों के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
यह सत्य है कि व्यक्ति की कुछ रुचियाँ जन्मजात होती हैं, परन्तु रुचियों का समुचित विकास जीवन में धीरे-धीरे तथा क्रमिक रूप से होता है। शिशु की रुचियों का आधार उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, अर्थात् शैशवावस्था में रुचियों का विकास ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित होता है। बाल्यावस्था में बालक की सक्रियता बढ़ जाती है; अतः इस अवस्था में उसकी रुचियों का विकास क्रियात्मक खेलों के माध्यम से होता है।

बाल्यावस्था के उपरान्त किशोरावस्था में व्यक्ति की रुचियों का विकास कल्पनाओं, संवेगों तथा जिज्ञासा के माध्यम से होता है। इसके उपरान्त प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति की नयी रुचियाँ प्रायः उत्पन्न नहीं होती। इस अवस्था में व्यक्ति की रुचियाँ स्थायी रूप ग्रहण करती हैं।

प्रश्न 2
रुचि और योग्यता का घनिष्ठ सम्बन्ध है।” इस कथन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
हम जानते हैं कि रुचि एक शक्ति है जो व्यक्ति को किसी विषय, वस्तु या कार्य के प्रति ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रेरित करती है। रुचि से लगन उत्पन्न होती है तथा व्यक्ति की शक्तियाँ अभीष्ट दिशा या कार्य में केन्द्रित हो जाती हैं। रुचि की इन विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही कहा जाता है कि रुचि और योग्यता को घनिष्ठ सम्बन्ध है।

वास्तव में रुचि की दशा में व्यक्ति अधिक ध्यानपूर्वक, लगन से तथा अपनी समस्त शक्तियों को जुटा कर कार्य करता है। इस स्थिति में योग्यता को विकास होना स्वाभाविक ही हो जाती है। यही कारण है कि हम कह सकते हैं कि रुचि और योग्यता का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

प्रश्न 3
अनभिप्रेत अवधान से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
अनभिप्रेत अवधान एक विशेष प्रकार का अवधान है जिसमें व्यक्ति को विशिष्ट प्रयास की जरूरत होती है। यह अवधान ऐच्छिक होकर भी ऐच्छिक अवधान से भिन्न होता है। अनभिप्रेत अवधान के अन्तर्गत व्यक्ति किसी उत्तेजना या वस्तु पर अपनी इच्छा तथा रुचि के विरुद्ध जाकर ध्यान केन्द्रित करता है, लेकिन ऐच्छिक अवधान में व्यक्ति उस उत्तेजना या वस्तु की ओर अपनी इच्छा और रुचि के अनुकूल ध्यान केन्द्रित करने को प्रयास करता है।

उदाहरणार्थ :
माना एक कवि अपनी इच्छा एवं रुचि के अनुकूल काव्य-रचना में लगा है। उसी समय उसे किसी बीमार आदमी के लिए जरूरी तौर पर दवा लेने जाना पड़े। कविता से हटकर उसका जो ध्यान दवाइयों की दुकान पर केन्द्रित होगा; उसे अनभिप्रेत अवधान कहेंगे।

प्रश्न 4
व्यक्ति के अवधान का आदत से क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर :
व्यक्ति के अवधान में आदत का विशेष योगदान होता है। आदत को अवधान की सबसे अधिक अनुकूल या सहायक दशा माना गया है। व्यक्ति की जब जिस वस्तु की आदत होती है, उससे सम्बन्धित पदार्थ की ओर एक निर्धारित समय पर उसका अवधान अवश्य केन्द्रित हो जाता है। उदाहरण के लिए–यदि किसी व्यक्ति की दोपहर बाद तीन बजे चाय पीने की आदत हो तो निश्चित समय पर उसका ध्यान चाय की ओर केन्द्रित हो जाएगा।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
“रुचि को वह प्रेरक शक्ति कहा जाता है, जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है।”-रुचि की यह परिभाषाकिसके द्वारा प्रतिपादित है?
उत्तर :
रुचि की प्रस्तुत परिभाषा क्रो तथा क्रो द्वारा प्रतिपादित है।

प्रश्न 2
ध्यान या अवधान का क्या अर्थ है ?
उत्तर :
ध्यान या अवधान वह मानसिक क्रिया है, जिसमें हमारी चेतना किसी व्यक्ति, विषय या वस्तु पर केन्द्रित होती है।

प्रश्न 3
अवधान की प्रक्रिया की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अवधान की प्रक्रिया की मुख्य विशेषताएँ हैं

  1. एकाग्रता
  2. मानसिक क्रियाशीलता
  3. चयनात्मकता तथा
  4. प्रयोजनशीलता

प्रश्न 4
कोई ऐसा कथन लिखिए जिससे अवधान एवं रुचि के सम्बन्ध को जाना जा सके।
उत्तर :
“अवधान तथा रुचि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि रुचि के कारण कोई व्यक्ति किसी वस्तु पर ध्यान देता है तो अवधान के कारण उस वस्तु में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाएगी।” [रॉस]

प्रश्न 5
“रुचि अपने क्रियात्मक रूप में एक मानसिक प्रवृत्ति है।” यह किसका कथन है ? [2007, 10]
उत्तर :
प्रस्तुत कथन जेम्स ड्रेवर का है।

प्रश्न 6
रुचियों के मुख्य वर्ग या प्रकार कौन-कौन से हैं? [2007, 2016]
या
रुचि के कितने प्रकार हैं?
उत्तर :
रुचियों के मुख्य वर्ग या प्रकार दो हैं

  1. जन्मजात रुचियाँ तथा
  2. अर्जित रुचियाँ

प्रश्न 7
रुचि क्या है? [2013]
उत्तर :
रुचि किसी उत्तेजना, वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति की ओर आकर्षित होने की प्राकृतिक, जन्मजात या अर्जित प्रवृत्ति है।

प्रश्न 8
अवधान के मुख्य दो प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
अवधान के मुख्य दो प्रकार हैं

(1) ऐच्छिक अवधान तथा
(2) अनैच्छिक अवधान।

प्रश्न 9
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. अवधान अपने आप में एक चयनात्मक प्रक्रिया है।
  2. प्रबल उत्तेजनाओं के प्रति व्यक्ति का अवधान केन्द्रित नहीं हो पाता।
  3. अवधान तथा रुचि का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं होता।
  4. रुचि गुप्त. अवधान है और अवधान सक्रिय रुचि है।
  5. अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए शान्त तथा अनुकूल वातावरण आवश्यक होता है।
  6. रुचिकर विषय-वस्तुओं के प्रति अवधान शीघ्र केन्द्रित हो जाता है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य
  6. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
“किसी दूसरी वस्तु की अपेक्षा एक वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण अवधान है।” यह परिभाषा किसने दी है?
(क) जे० एस० रॉस ने
(ख) मैक्डूगल ने
(ग) डम्बिल ने
(घ) वुडवर्थ ने
उत्तर :
(ग) डम्बिल ने

प्रश्न 2
“किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, अन्तिम विश्लेषण में अवधान एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया है।” यह किसका कथन है ?
(क) मन का
(ख) जंग का
(ग) डम्बिल का
(घ) मैक्डूगल का
उत्तर :
(क) मन का

प्रश्न 3
“अवधान गतिशील होता है, क्योंकि वह अन्वेषणात्मक है।” यह कथन है
(क) वुडवर्थ का
(ख) मैक्डूगल का
(ग) हिलेगार्ड का
(घ) डम्बिल को
उत्तर :
(क) वुडवर्थ का

प्रश्न 4
रुचि एक
(क) अर्जित शक्ति है
(ख) प्रेरक शक्ति है
(ग) नैसर्गिक शक्ति है
(घ) बौद्धिक शक्ति है
उत्तर :
(ख) प्रेरक शक्ति है

प्रश्न 5
रुचि अपने क्रियात्मक रूप में एक मानसिक संस्कार है।” यह कथन है
(क) मैक्डूगल का
(ख) वुडवर्थ को
(ग) डेवर का
(घ) गेट्स का
उत्तर :
(ग) ड्रेवर का

प्रश्न 6
“रुचिं गुप्त अवधान है और अवधान सक्रिय रुचि है।” यह मत किसका है ?
(क) को तथा क्रो का
(ख) स्किनर का
(ग) वुडवर्थ को
(घ) मैक्डूगल का
उत्तर :
(घ) मैक्डूगल का

प्रश्न 7
विचार की किसी वस्तु को मस्तिष्क के सामने स्पष्ट रूप से लाने की प्रक्रिया है
(क) रुचि
(ख) कल्पना
(ग) अवधान
(घ) संवेदन
उत्तर :
(ग) अवधान

प्रश्न 8
पाठ को रुचिकर बनाने के लिए क्या आवश्यक है। [2012]
(क) शांतिपूर्ण वातावरण हो
(ख) पाठ के क्रियात्मक पद पर ध्यान दिया जाए
(ग) उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 9
अवधान तथा रुचि के आपसी सम्बन्ध के विषय में सत्य है
(क) रुचि ध्यान पर आधारित होती है
(ख) ध्यान रुचि पर आधारित होता है
(ग) रुचि तथा ध्यान परस्पर फूक होते हैं
(घ) ये सभी कथन सत्य हैं
उत्तर :
(ग) रुचि तथा ध्यान परस्पर पूरक होते हैं।

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