UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 17 Independent India

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 17 Independent India (स्वतन्त्र भारत) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 17 Independent India (स्वतन्त्र भारत).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 17
Chapter Name Independent India
(स्वतन्त्र भारत)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 17 Independent India (स्वतन्त्र भारत)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 15 अगस्त, 1947 ई०
2. 13 अगस्त, 1948 ई०
3. 18 सितम्बर, 1948 ई०
4. 1950 ई०
5. 26 जनवरी, 1950 ई०
6. 1954ई०
7. अगस्त, 1961 ई०
उतर.
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 251 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए-
उतर.
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 252 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर.
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 252 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 252 व 253 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार प्रमुख उद्देश्य लिखिए।
उतर.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार प्रमुख उद्देश्य निम्नवत् हैं

  1. 2012 ई० तक सभी भूमिहीनों को घर और जमीन उपलब्ध कराना।
  2. 3 वर्ष तक के बच्चों में कुपोषण को घटाकर आधा करना।
  3. वर्ष 2009 ई० तक सभी को पीने का पानी उपलब्ध कराना।
  4. 5.8 करोड़ नए रोजगार के अवसर पैदा करना।

प्रश्न 2.
डॉ० भीमराव अम्बेडकर की भारत के संविधान निर्माण में क्या भूमिका थी?
उतर.
डॉ० भीमराव अम्बेडकर संविधान निर्माण प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। इन्हें संविधान निर्माता कहा जाता है।

प्रश्न 3.
देशी रियासतों के विषय में सरदार पटेल के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
उतर.
स्वतन्त्र भारत के प्रथम उपप्रधानमन्त्री सरदार पटेल के सुझाव पर एक रियासती मन्त्रालय’ का गठन किया गया। सरदार पटेल  को इस मन्त्रालय का मन्त्री बनाया गया। सरदार पटेल ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ देशी रियासतों के विलय का संचालन किया। उपप्रधानमन्त्री एवं रियासती मन्त्रालय के मन्त्री की हैसियत से सरदार पटेल ने रियासतों से भारत संघ में अपना विलय करने की अपील की और उनकी मार्मिक अपील का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। देशी राजाओं ने भी राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव किया। 15 अगस्त, 1947 ई० को 562 देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय हो गया। यह पटेल की एकनिष्ठ दृढ़ता का परिचय था कि उन्होंने जूनागढ़, हैदराबाद, और कश्मीर जैसी रियासतों का बुद्धिमता एवं ताकत के बल पर भारत में विलय किया।

प्रश्न 4.
राज्य नीति के पाँच निर्देशक तत्व लिखिए।
उतर.
राज्य नीति के पाँच निर्देशक तत्व निम्नवत हैं

  1.  कल्याणकारी समाज की रचना
  2. जन स्वास्थ्य का उन्नयन
  3. एक ही आचार-संहिता
  4.  बेकारी के अन्त का प्रयास
  5. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा का प्रयत्न

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की चार विशेषताएँ लिखिए।
उतर.
भारतीय संविधान की चार विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. संविधान की प्रस्तावना
  2. लिखित, निर्मित और विस्तृत संविधान
  3. राज्य के नीति-निर्देशक तत्व
  4. नागरिकों के मूल अधिकार

प्रश्न 6.
भारतीय शिक्षा की चार नवीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
भारतीय शिक्षा की चार नवीन प्रवृत्तियाँ निम्नवत् हैं

  1. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली 
  2. विज्ञान की शिक्षा पर बल
  3. सैनिक शिक्षा पर बल
  4. भावनात्मक एवं राष्ट्रीय एकीकरण के लिए पाठ्यक्रम का नवीनीकरण

प्रश्न 7.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय की भारत की आर्थिक स्थिति का वर्णन कीजिए।
उतर.
अंग्रेजों के लगभग दो सौ साल के शोषण के बाद 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत स्वतन्त्र हुआ। इस दौरान भारतीय 
अर्थव्यवस्था निरन्तर उपेक्षा का शिकार रही थी। शताब्दियों से चले आ रहे आर्थिक शोषण व लूट के कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारत की आर्थिक स्थिति पहले से ही जर्जर अवस्था में थी, पाकिस्तान के निर्माण के कारण भारत अनेक प्राकृतिक संसाधनों से वंचित हो गया। भारत एक निर्धन देश बन गया और इसकी प्रति व्यक्ति आय विश्व के निम्नतम के समतुल्य हो गई।

प्रश्न 8.
स्वतन्त्र भारत की समस्याओं पर सारगर्भित लेख लिखिए।
उतर.
भारत की स्वतन्त्रता के साथ ही कठिनाइयों एवं कष्टों का काल भी आरम्भ हो गया था। देश के विभाजन के बाद दंगों, हत्याओं व लूटमार का भयंकर दौर आरम्भ हुआ। विभाजन की त्रासदी के कारण लाखों की संख्या में शरणार्थी, रियासतों के रूप में बिखरा हुआ अज्ञात भारत का ढाँचा, जर्जर अर्थव्यवस्था, अस्थिर राजनीति यह सब स्वतन्त्र भारत को विरासत में मिला। तत्कालीन भारत के महापुरुषों व राजनीति-वेत्ताओं के अथक परिश्रम ने इन सभी समस्याओं से लोहा लिया और उन्हें एक-एक करके सुलझाना आरम्भ किया।

प्रश्न 9.
दसवी पंचवर्षीय योजना के बारे में टिप्पणी कीजिए।
उतर.
दसवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल 1 अप्रैल, 2002 ई० से 31 मार्च, 2007 ई० था। इसमें आर्थिक विकास का लक्ष्य 80% वार्षिक रखा गया, जबकि वर्तमान में विकास दर 5.5% वार्षिक थी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दस सूत्रीय एजेण्डा तैयार किया गया। इस एजेण्डे में अन्य बातों के अतिरिक्त विनिवेशीकरण कर एवं श्रम-सुधार और वित्तीय समझदारी वाली बातों पर विशेष बल दिया। दसवीं पंचवर्षीय योजना में सर्वाधिक बल कृषि सुधार व वृद्धि दर पर दिया गया। औद्योगिक क्षेत्र के लिए प्रस्तावित औसत दर 8.5% निर्धारित की गई। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए निर्धारित कुल परिव्यय (15,92,300 करोड़ रुपए) में से उद्योग एवं खनिज के लिए 58,939 करोड़ रुपए व्यय करने का प्रावधान था। उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा पूर्वोत्तर राज्यों के लिए औद्योगिक नीति कारगर साबित हुई। प्रसंस्करण उद्योग काफी आगे बढ़ गया।

प्रश्न 10.
डॉ० भीमराव अम्बेडकर के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
डॉ० भीमराव अम्बेडकर ‘दलीतों के मसीहा’ के रूप में प्रसिद्ध हैं। आजादी से पूर्व 1942-46 ई० तक डॉ० भीमराव अम्बेडकर वायसराय के एक्जीक्यू काउंसिल के सदस्य रहे। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद उनको भारत सरकार का कानून मंत्री बनाया गया। भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने अविस्मरणीय कार्य किया। वे संविधान सभा के सदस्य और संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष रहे। उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र पर अनेक पुस्तकों की रचना की। ‘द प्राब्लम ऑफ रुपीज’ तथा ‘रिडल्स ऑन हिन्दुइज्म’ इनके द्वारा रचित महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।

प्रश्न 11.
द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दो प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
द्वितीय पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल अप्रैल, 1956 ई० से मार्च 1961 ई० तक था। इस योजना में विकास के ऐसे ढाँचे को बढ़ावा दिया गया जिससे देश में समाजवादी स्वरूप के समाज का निर्माण हो सके। इस योजना के दो प्रमुख प्रावधान रोजगार में वृद्धि एवं उद्योगीकरण थे।

प्रश्न 12.
स्वतन्त्र भारत की कोई तीन तात्कालिक समस्याएँ लिखिए?
उतर.
स्वतन्त्र भारत की तीन तात्कालिक समस्याएँ निम्न प्रकार हैं

  1. हिन्दू-मुस्लिम दंगे और विस्थापितों की समस्या
  2. राजनीतिक एकीकरण की समस्या
  3. जर्जर आर्थिक स्थिति

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान की दो प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उतर.

  1. लिखित, निर्मित और विस्तृत संविधान ।
  2. सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य |

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान कितने समय में निर्मित किया गया?
उतर.
भारतीय संविधान के निर्माण में 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन का समय लगा।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
“सुनियोजित अर्थतन्त्र( अर्थव्यवस्था) आधुनिक भारत का आधार है।” टिप्पणी कीजिए।
उतर.
दो सौ वर्षों तक अंग्रेजी शासन के अधीन रहने के बाद 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत स्वतन्त्र हुआ। उस समय भारत का
अर्थतन्त्र बहुत ही दयनीय स्थिति में था। जहाँ एक ओर कृषि उत्पादन, भारी और आधारभूत उद्योगों तथा शहरीकरण का निम्न स्तर था, वहीं जनसंख्या भी अत्यधिक थी। स्वतन्त्रता के समय हमारी शिक्षा और अर्थव्यवस्था इतनी पिछड़ी स्थिति में थी कि इनका विकास करना अत्यन्त दुष्कर था। परन्तु स्वतन्त्रता अपने साथ आशा की किरण भी लाई।

स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू की आवश्यक प्राथमिकताओं में से पहली प्राथमिकता आर्थिक तंत्र को सुनियोजित ढंग से मजबूत बनाना था। इसके लिए उन्होंने 1950 ई० में राष्ट्रीय योजना आयोग की स्थापना कर देश के आर्थिक विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं को आरम्भ किया। उत्पादन की अधिकतम सीमा बढ़ाना, पूर्ण रोजगार प्राप्त करना, आय व सम्पत्ति की असमानताओं को कम करना, तथा सामाजिक न्याय उपलब्ध कराना आदि नीति-निर्माताओं द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं को निर्धारित कर आधुनिक भारत का मार्ग प्रशस्त किया। आधुनिक भारत को आधार प्रदान करने के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति से अब
तक ग्यारह पंचवर्षीय योजनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं। कुछ प्रमुख पंचवर्षीय योजनाओं के उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  • प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रही।
  • द्वितीय पंचवर्षीय योजना में औद्योगीकरण पर विशेष बल दिया गया। औद्योगिक उत्पादन में 4.5% वृद्धि हुई तथा लगभग 66 लाख व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त हुआ।
  • चौथी पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य कृषि एवं औद्योगिक उत्पादन बढ़ाना तथा जनसंख्या वृद्धि को रोकना निर्धारित किया।
  • पाँचवी एवं छठी पंचवर्षीय योजना में गरीबी उन्मूलन एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने पर बल दिया गया।
    सातवीं एवं आठवीं पंचवर्षीय योजनाओं में क्रमश: ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि एवं आर्थिक ढाँचे को मजबूत बनाए रखने के लिए क्रियान्वित की गई।
  • नवीं व दसवीं पंचवर्षीय योजनाओं में सर्वाधिक जोर क्रमशः सामाजिक व बुनियादी ढाँचे और सूचना तकनीक के विकास तथा खेती में सुधार व वृद्धि दर पर दिया गया।
  • ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि, सिंचाई, जल संसाधनों का विकास एवं दोहन मुख्य लक्ष्य निर्धारित किया। 
  • बारहवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि, उद्योग एवं सेवा में वृद्धि दर पर विशेष बल दिया गया है। इस प्रकार उपरोक्त पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा सुनियोजित अर्थतन्त्र आधुनिक भारत की आधार शिला है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का संक्षेप में विश्लेषण कीजिए।
उतर.
भारतीय संविधान के तृतीय भाग में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। मूल अधिकार 
वे अधिकार होते हैं जिन्हें देश के सर्वोच्च कानून में स्थान प्राप्त होता है तथा जिनका उल्लंघन कार्यपालिका तथा विधायिका भी नहीं कर सकती है। मूलतः संविधान द्वारा नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किए गये, परन्तु 44 वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार ‘सम्पत्ति के अधिकार’ को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से निकाल दिया गया है, अब यह अधिकार एक कानूनी अधिकार रह गया है। भारतीय संविधान में निम्नलिखित छ: मौलिक अधिकारों का समावेश है]

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  5. संस्कृति और शिक्षा-सम्बन्धी अधिकार ।
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार भारतीय संविधान में उपरोक्त मौलिक अधिकारों का समावेश कर एक प्रगतिशील कदम उठाया गया है। इससे सरकार की

निरकुंशता पर नियन्त्रण किया गया है। जहाँ तक मौलिक अधिकारों पर लगे प्रतिबन्धों या आपातकाल में उनके स्थगन का प्रश्न है, हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि वे प्रतिबन्ध राष्ट्र-हित, सार्वजनिक कल्याण तथा भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप को विकृतियों से बचाने के लिए लगाये गये हैं। परन्तु न्याय पालिका के स्वतन्त्र होने के कारण नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए इस पर विश्वास कर सकते हैं।” मौलिक अधिकारों का संविधान में उल्लेख कर देने से उनके महत्व और सम्मान में वृद्धि होती है। इससे उन्हें साधारण कानून से अधिक उच्च स्थान और पवित्रता प्राप्त हो जाती है। इससे वे अनुल्लंघनीय होते हैं। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के लिए उनका पालन आवश्यक हो जाता है।

प्रश्न 3.
“सरदार पटेल भारतीय एकीकरण के स्थापत्यकार थे।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उतर.
स्वतन्त्रता के पूर्व भारत में लगभग 600 से अधिक देशी रियासतें थीं। स्वतन्त्र होने के उपरान्त भारत की सरकार के सामने देशी रियासतों को भारत संघ में विलय कराने की गम्भीर चुनौती थी। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए इन सबको भारत संघ में विलय होना आवश्यक था। ये रियासतें सम्पूर्ण भारत के क्षेत्रफल का 48 प्रतिशत और जनसंख्या का 20 प्रतिशत थीं। यद्यपि ये रियासतें अपने आन्तरिक मामलों में स्वतन्त्र थीं, किन्तु वास्तविक रूप में इन सभी रियासतों पर अंग्रेजी शासन का नियन्त्रण स्थापित था। भारतीय देशी रियासतों में राजकीय जागरण 1921 ई० में प्रारम्भ हुआ। सरदार पटेल के सुझाव पर एक रियासती मन्त्रालय बनाया गया। सरदार पटेल को ही इस विभाग का मन्त्री बनाया गया।

सरदार पटेल ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ देशी रियासतों के विलय के कार्य का संचालन किया। 1926 ई० में अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा परिषद का जन्म हुआ, जिसका पहला अधिवेशन एलौट के प्रसिद्ध नेता दीवान बहादुर एम० रामचन्द्र राय की अध्यक्षता में 1927 ई० में हुआ। 1934 ई० में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने रियासतों में उत्तरदायी शासन की बात कही। 1935 ई० के अधिनियम में देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ बनाने की बात कही गई। 1936 ई० के बाद देशी रियासतों में जन आन्दोलन तेजी से बढ़ा। कैबिनेट मिशन, एटली की घोषणा और लॉर्ड माउण्टबेटन की योजना में देशी राजाओं के बारे में विचार रखे गए और प्रायः कहा गया कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद वे स्वतन्त्र होंगे। अपनी इच्छानुसार वे भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित हों अथवा स्वतन्त्र रहें। उपप्रधानमन्त्री एवं रियासती मन्त्रालय के मन्त्री की हैसियत से सरदार पटेल ने रियासतों से भारत संघ में अपना विलय करने की अपील की और इस मार्मिक अपील का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। देशी राजाओं ने भी राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव किया। अतः 15 अगस्त, 1947 ई० को जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ सहित 562 रियासतों ने भारतीय संघ में विलय की घोषणा कर दी।

सरदार वल्लभ भाई पटेल की कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि उन्होंने इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया। हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर का भारत में विलय प्रमुख कठिनाइयों के रूप में उभरकर सामने आया। जूनागढ़ एक छोटी सी रियासत थी और यहाँ नवाब का शासन था। यहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू थी और वह जूनागढ़ का भारत में विलय करने के पक्ष में थी, जबकि नवाब जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। जब नवाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा की तो वहाँ की जनता ने इसका विरोध किया। इसी समय सरदार पटेल ने जूनागढ़ की जनता की सहायता के लिए सेना भेज दी। भारतीय सेना से भयभीत होकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। फरवरी 1948 ई० में जनमत संग्रह के आधार पर जूनागढ़ का भारत में विलय कर लिया गया। हैदराबाद की जनता भी जूनागढ़ के समान ही हैदराबाद को भारत में सम्मिलित करना चाहती थी, जबकि निजाम सीधे ब्रिटिश साम्राज्य से साँठगाँठ कर एक स्वतन्त्र राज्य का स्वप्न देख रहा था। उसकी पाकिस्तान से भी गुप्त वार्ताएँ चल रही थीं।

अक्टूबर, 1947 में उसके साथ एक विशेष समझौता किया गया, जिसमें उसे एक वर्ष तक यथावत् स्थिति की बात कही गई, लेकिन उस पर किसी भी प्रकार की सैन्य वृद्धि या बाहरी मदद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। निजाम की कुटिल चालें चलती रहीं। उसने पाकिस्तान से हथियार मँगवाए तथा रजाकारों की मदद से मनमानी करनी चाही। परिणामत: हैदराबाद की जनता ने निजाम के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। निजाम ने जनता पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। इसी समय सरदार पटेल ने हैदराबाद की जनता का रुख भारत की ओर देखकर सितम्बर 1948 में निजाम को चेतावनी दी। निजाम के न मानने पर 13 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद में कार्यवाही की गई और पाँच दिन में न केवल रजाकारों को खदेड़ दिया गया, बल्कि निजाम ने भी विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। 18 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। इस प्रकार उपरोक्त विवरण के अनुसार सरदार पटेल ने भारतीय एकीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मृत्यु उपरान्त उन्हें ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया।

प्रश्न 4.
“भारत का विकास वस्तुतः पंचवर्षीय योजनाओं से प्रारम्भ हुआ था।” टिप्पणी कीजिए।
उतर.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारत की आर्थिक व्यवस्था अत्यन्त जर्जर थी। भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अर्थव्यवस्था की पुननिर्माण प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। इस उद्देश्य से विभिन्न नीतियाँ और योजनाएँ बनाई गईं। और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से क्रियान्वित की गई। स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की प्राथमिकताओं में से पहली प्राथमिकता भारत के आर्थिक ढाँचे को मजबूत करना था। इसके लिए उन्होंने 1950 ई० में राष्ट्रीय योजना आयोग की स्थापना की। इस आयोग के अन्तर्गत 16 माह के गहन विचार-विमर्श के पश्चात् देश के आर्थिक विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाकाल का जन्म हुआ। प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारम्भ 1 अप्रैल, 1951 ई० को हुआ। अब तक ग्यारह पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। वर्तमान में बारहवीं पंचवर्षीय योजना जारी है जिसका कार्यकाल 2012-2017 है। भारत में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में रखे गए उद्देश्यों को मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • विकास
  • आधुनिकरण
  • आत्मनिर्भरता, तथा
  • सामाजिक न्याय।

पंचवर्षीय योजनाओं की विकास सम्बन्धी उपलब्धियाँ- पंचवर्षीय योजनाओं की विकास उपलब्धि को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
1. विकास दर- आर्थिक प्रगति का महत्त्वपूर्ण मापदण्ड विकास की दर के लक्ष्य की प्राप्ति है। प्रथम योजना में आर्थिक 
विकास की दर 3.6% थी, जो बढ़कर आठवीं योजना में 6.5% हो गई। नवीं पंचवर्षीय योजना में यह 5.5% रही। दसवीं पंचवर्षीय योजना में विकास दर 9% रही। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में 12% का लक्ष्य रखा गया तथा 12 वीं योजना (2012-2017) में 9 प्रतिशत का लक्ष्य है।

2. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय- योजनाकाल में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। भारत में 1950 51 ई० में चालू मूल्यों के आधार पर शुद्ध राष्ट्रीय आय 8,525 करोड़ रुपए थी, जो कि 2001-02 में बढ़कर 19,51,935 करोड़ रु०,2002-03 में 19,95,229 करोड़ रु०, 2009-10 में 51,88,361 करोड़ रु० हो गई, जबकि प्रति व्यक्ति आय 237.5 रु० से बढ़कर 2009-10 में 44,345 रु० हो गई।

3. कृषि उत्पाद- योजनाकाल में कृषि उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। सन् 1950-51 में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन मात्र 50.8 मिलियन टन था, जो 2010-11 में बढ़कर 241.56 मिलियन टन हो गई।

4. औद्योगिक उत्पादन- योजनकाल में औद्योगिक उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई। 1950-51 ई० में, 1993-94 ई० की कीमतों पर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक 7.9 था जो बढ़कर 167 हो गया। दसवीं पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर उद्योग उत्पादन क्षेत्र में 8.75% की वृद्धि हो गई।

5. बचत एवं विनियोग- योजनाकाल में भारत में बचत एवं विनियोग की दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। चालू मूल्य पर | सकल राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में 1950-51 ई० में सकल विनियोग और बचत की दरें क्रमशः 10.4% और 9.3% थीं, दसवीं पंचवर्षीय योजना के अन्त में ये क्रमश: 7.8% और 26.62% थीं। निवेश 28.10% रहा।

6. यातायात एवं संचार- यातायात एवं संचार के क्षेत्र में योजनाकाल में उल्लेखनीय प्रगति हुई। रेलवे लाइनों की लम्बाई 53,596 किलोमीटर से बढ़कर 31 मार्च, 2010 को 63,974 किलोमीटर हो गई। सड़कों की लम्बाई 1,57,000 किलोमीटर से बढ़कर 32 लाख किलोमीटर हो गई। हवाई परिवहन, बन्दरगाहों की स्थिति एवं आन्तरिक जलमार्ग का भी विकास किया गया। संचार-व्यवस्था के अन्तर्गत विकास के क्षेत्रों में डाकखानों, टेलीग्राफ, रेडियो-स्टेशन एवं प्रसारण केन्द्रों की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई।

7. शिक्षा- योजनाकाल में शिक्षा का भी व्यापक प्रसार हुआ है। इस अवधि में स्कूलों की संख्या 2,30,683 से बढ़कर  8,21,988 तथा विश्वविद्यालयों और समान संस्थाओं की संख्या 27 से बढ़कर 315 हो गई।

8. विद्युत उत्पादन क्षमता- योजनाकाल में विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। अगस्त 2004 ई० के आँकड़ोंके अनुसार उत्तर प्रदेश में विद्युत की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत केवल 188 यूनिट है, जो राष्ट्रीय औसत का 50 प्रतिशत है। सन् 2012 ई० की समाप्ति तक नाभकीय विद्युत उत्पादन 10 हजार मेगावाट होने की सम्भावना है।

9. बैंकिग संरचना- प्रथम योजना के आरम्भ  में देश में बैंकिग क्षेत्र अपर्याप्त और असन्तुलित था, परन्तु योजनाकाल में और विशेष रूप से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् देश की बैंकिग संरचना में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। 30 जून, 1969 ई० को व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 8,262 थी, जो कि 31 मार्च, 2009 ई० में बढ़कर 80,547 हो गई।

10. स्वास्थ्य सुविधाएँ- योजनाकाल में देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई। टी० बी०, कुछ महामारियों आदि के उन्मूलन तथा परिवार कल्याण कार्यक्रमों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई।

11. आयात एवं निर्यात- केन्द्र सरकार ने 31 अगस्त, 2004 ई० को विदेशी नीति 2004-09 ई० की घोषणा कर दी है। वर्ष 2010-11 ई० में भारत का निर्यात 11,42,649 करोड़ रुपए तथा आयात 16,83,467 करोड़ रुपए रहा।

पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा भारत का आधुनिकीकरण- आधुनिककरण के क्षेत्र में प्रमुख उपलब्धियों को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

1. कृषि का आधुनिकीकरण- भारत एक कृषि प्रधान देश है; अत: कृषि-संरचना में व्यापक सुधार एवं आधुनिकीकरण पर विशेष ध्यान दिया गया। योजनाकाल में भूमिसुधार कार्यक्रमों का विस्तार किया गया है। रासायनिक खाद व उन्नत बीजों का प्रयोग भी बढ़ा है। कृषि क्षेत्र में आधुनिक कृषि-यन्त्रों एवं उपकरणों को प्रोत्साहन मिला है। इसके अतिरिक्त, सिंचाई सुविधाओं में भी पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हुई है। कृषि उपजों की विपणन व्यवस्था तथा कृषि वित्त-व्यवस्था में भी उल्लेखनीय सुधार हुए हैं।

2. राष्ट्रीय आय की संरचना में परिवर्तन- राष्ट्रीय आय की संरचना में योजनाकाल में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। राष्ट्रीय आय में प्राथमिक क्षेत्र का अनुपात निरन्तर घट रहा है, जबकि द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र का अनुपात निरन्तर बढ़ रहा है।

3. औद्योगिक संरचना में परिवर्तन- योजनाकाल में औद्योगिक संरचना में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हुए है। आधारभूत एवं पूँजीगत उद्योगों की स्थापना की गई है, सार्वजनिक उपक्रमों की संख्या में वृद्धि हुई है, उद्योगों का विविधीकरण हुआ है। तथा उत्पादन तकनीक में व्यापक सुधार हुआ है।

4. बैंकिग संरचना में परिवर्तन- योजनाकाल में बैंकिग व्यवस्था को सुव्यवस्थित, सुगठित एवं विस्तृत किया गया है। ग्रामीण और बैंकरहित क्षेत्रों में बैंकिग सुविधाओं का विस्तार किया गया है, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई है, बैंक साख के वितरण में व्यापक सुधार तथा बैंकिग सुविधाओं में गुणात्मक परिवर्तन किए गए हैं।

  • आत्मनिर्भरता- हमारा देश आर्थिक नियोजन के काल में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ है। पहले जिन वस्तुओं का आयात किया जाता था, आज वे वस्तुएँ हमारे ही देश में निर्मित होने लगी हैं तथा उनका निर्यात भी किया जा रहा है। देश में भारी मशीनें व विद्युत उपकरण आदि भी पर्याप्त मात्रा में तैयार होने लगे हैं। खाद्यान्नों के सम्बन्ध में देश आत्मनिर्भरता प्राप्त कर चुका है। विदेशी सहायता भी पहले की अपेक्षा कम ही ली जा रही है।
  • सामाजिक न्याय- योजनाकाल में सामाजिक न्याय की दृष्टि से मुख्य रूप से दो पहलुओं पर ध्यान दिया गया है- प्रथम, समाज के निर्धन वर्ग के जीवन-स्तर में सुधार किया जाए तथा द्वितीय, धन एवं सम्पत्ति के वितरण में समानता लाई जाए। इस दृष्टि से विभिन्न प्रेरणात्मक एवं संवैधानिक उपाय किए गए हैं, यद्यपि उनसे आशातीत परिणामो की प्राप्ति तो नहीं हो पाई है, परन्तु कुछ सुधार अवश्य हुए हैं।उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत का विकास वास्तविक रूप से पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा आरम्भ हुआ।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उतर.
संविधान एक महत्वपूर्ण प्रलेख है, जिसमें ऐसे नियमों का संग्रह होता है जिसके आधार पर किसी देश का शासन संचालित होता
है। संविधान किसी देश में दीपशिखा का काम करता है, जिसके प्रकाश में देश का शासन संचालित होता है। भारत के संविधान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. संविधान की प्रस्तावना-
प्रत्येक देश के संविधान के प्रारम्भ में सामान्यतया एक प्रस्तावना होती है, जिसमें संविधान के 
मूल उद्देश्यों व लक्ष्यों को स्पष्ट किया जाता है। वास्तव में, प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होता है। बल्कि इसके द्वारा संविधान के स्वरूप का आभास हो जाता है। वस्तुतः इस प्रस्तावना में भारतीय संविधान का मूल दर्शन निहित है। संविधान के 42 वें संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष तथा अखण्डता शब्द जोड़कर इसकी गरिमा को और भी अधिक बढ़ा दिया गया है।

2. लिखित, निर्मित और विस्तृत संविधान- भारतीय संविधान अनेक प्रगतिशील देशों कनाडा, फ्रांस, अमेरिका आदि की भाँति एक लिखित संविधान है। इसका निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था। यह विश्व का सबसे बड़ा संविधान है। डॉ० जेनिंग्स के अनुसार, “भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा, विशाल और व्यापक संविधान है।

3. सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य- संविधान की प्रस्तावना में भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया है। सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न का अर्थ है कि भारत अब बाह्य एवं आन्तरिक क्षेत्र में सभी प्रकार से पूर्ण स्वतन्त्र है। भारतवर्ष में लोकतन्त्रात्मक शासन भी है।

4. संघात्मक संविधान- संविधान द्वारा भारत में संघात्मक शासन की स्थापना की गई है। संविधान के अनुसार, भारत राज्यों का एक संघ है।” अत: इसमें संघात्मक संविधान के सभी तत्व विद्यमान हैं। यद्यपि संविधान का ढाँचा संघात्मक बनाया गया है, परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है, क्योंकि संविधान में अनेक ऐसे एकात्मक तत्व विद्यमान हैं जो एकात्मक शासन-व्यवस्था में ही पाए जाते हैं।

5. धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना- संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया है। धर्मनिरपेक्ष का तात्पर्य है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा। जनता के लोग अपना धर्म चुनने या धर्म परिवर्तन करने के लिए स्वतन्त्र होंगे, और किसी भी पूजा-पद्धति को अपना सकेंगे।

6. संसदात्मक शासन-प्रणाली- भारत ने संसदात्मक प्रणाली को अपनाया है। इसमें शासन करने की वास्तविक शक्ति राष्ट्रपति में नहीं अपितु उसके द्वारा नियुक्त मन्त्रिपरिषद् में हित होती है।

7. राज्य के नीति-निदेशक तत्व- ये तत्व सरकार को दिशा-निर्देश देने और उसका मार्गदर्शन करने वाले बिन्दु हैं, जिनका अनुसरण करना प्रजातान्त्रिक सरकारों का दायित्व होता है। ये नीति-निदेशक तत्व आयरलैण्ड के संविधान से ग्रहण किए गए हैं।

8. नागरिकों के मूल अधिकार- भारत के संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों की समुचित रूप से व्यवस्था की गई है। न्यायपालिका (उच्चतम न्यायालय) को इनका संरक्षक बनाया गया है, परन्तु ये अधिकार पूर्णतया असीमित तथा अनियन्त्रित नहीं हैं। संविधान द्वारा नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे, परन्तु 44 वें संविधान संशोधन  द्वारा ‘सम्पत्ति के अधिकार’ को मौलिक अधिकार की श्रेणी से अलग कर दिया गया है और अब सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार रह गया है। इस प्रकार नागरिकों को अब छह मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

9. मूल कर्तव्यों का वर्णन- मूल कर्तव्यों की धारणा भारत के संविधान में पूर्व सोवियत संघ के संविधान से ली गई है। इनमें नागरिकों से अपील की गई है कि वे संविधान का पालन करें, देश की रक्षा करें, राष्ट्र-सेवा करें, हिंसा से दूर रहें तथा सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखें आदि।

10. अस्पृश्यता का अन्त- संविधान के भाग III अनुच्छेद 17 के आधार पर अस्पृश्यता का अन्त कर दिया गया है। अत: अब छुआछूत की दूषित मनोवृत्ति पर आधारित आचरण करने वाला व्यक्ति अपराधी समझा जाएगा और दण्ड का भागीदार होगा। इस प्रकार संविधान ने देश में सामाजिक समानता स्थापित करने का प्रयत्न किया है।

11. महिलाओं को समान अधिकार- भारतीय संविधान ने नारियों को पुरुषों के समान आदर व सम्मान प्रदान किया है। उन्हें वे समस्त अधिकार प्रदान किए गए हैं, जो पुरुषों को प्राप्त हैं। ऊँचे पदों पर काम करने, मतदान करने, स्वयं चुनाव लड़ने आदि कई अधिकार संविधान ने उन्हें प्रदान किए हैं। सार्वभौमिक अथवा वयस्क मताधिकार- भारतीय संविधान के 61 वें संविधान संशोधन के अनुसार 18 वर्ष की आयु प्राप्त नागरिकों को बिना जाति, धर्म, लिंग, वर्ण के भेदभाव के मतदान का अधिकार प्रदान किया गया है। स्वतन्त्र, निष्पक्ष एवं शक्तिसम्पन्न न्यायपालिका- संविधान में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है, जो संविधान के रक्षक के रूप में कार्य करता है। स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्याय के लिए न्यायपालिका को कार्यपालिका के नियन्त्रण से मुक्त रखा गया है।

12.संकटकालीन उपबन्ध- भारतीय संविधान में कुछ आपातकालीन नियम भी उल्लिखित हैं, जिनके आधार पर संकटकाल में समस्त शक्तियाँ केन्द्र के पास आ जाती हैं अर्थात् संघीय शासन एकात्मक शासन में परिवर्तित हो जाता है। इससे देश की असामान्य स्थिति पर शीघ्र नियन्त्रण कर लिया जाता है। कठोर एवं लचीले संविधान का सम्मिश्रण- भारतीय संविधान कठोर तथा लचीलेपन का सुन्दर समन्वय है। भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं, जिनमें अकेले संसद साधारण कानून की भाँति ही संशोधन कर सकती है तथा कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं, जिनमें संशोधन करने के लिए संसद के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ राज्यों के कम-से-कम आधे विधानमण्डलों की सहमति भी आवश्यक है।

13. विश्व- शान्ति व सार्वभौमिक मैत्री का पोषक- संविधान के 51 वें उपबन्ध के अन्तर्गत यह भी उल्लेख किया गया है कि भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों के साथ सह-अस्तित्व की भावना रखते हुए विश्व-शान्ति और सुरक्षा में सकारात्मक सहयोग देगा।

14.अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की पूरी सुरक्षा- संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों तथा जनजातियों और आदिवासियों की उन्नति हेतु भी विशेष संवैधानिक व्यवस्थाएँ की गई हैं। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों तथा जनजाति के नागरिकों को सेवाओं, विधानसभाओं तथा अन्य क्षेत्रों में विशेष संरक्षण प्रदान किया गया है।

15. कानून का शासन- भारत के संविधान में कानून के शासन की व्यवस्था की गई है। विधि के शासन की अवधारणा ग्रेट ब्रिटेन के संविधान से ली गई है। भारत में कानून के समक्ष सभी नागरिक एकसमान हैं। कानून व दण्ड विधान की पद्धति सभी के लिए एक जैसी है।

16. बहुदलीय संसदीय व्यवस्था- भारत ने द्वि-दलीय पद्धति अथवा एकल-पद्धति को न अपनाकर बहुदलीय पद्धति पर आधारित संसदीय व्यवस्था को अपनाया गया है। बहुदलीय व्यवस्था होने के कारण संसद में समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं तथा जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए अनेक विकल्प भी मिलते हैं।

प्रश्न 6.
देशी रियासतों ( रजवाड़ों ) के एकीकरण में सरदार पटेल की उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
उतर.
देशी रियासतों का एकीकरण- स्वतन्त्र होने के उपरान्त भारत की सरकार के सामने देशी रियासतों को भारत संघ में विलय करने की गम्भीर चुनौती थी। भारत में 600 से अधिक रियासतें विद्यमान थीं। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए इन सबका भारत संघ में विलय होना आवश्यक था। देशी रियासतों के एकीकरण में सरदार पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
1. रियासतों के विलय के लिए मन्त्रालय की स्थापना- सरदार पटेल के सुझाव पर एक रियासती मन्त्रालय बनाया गया। 
सरदार पटेल को ही इस विभाग का मन्त्री बनाया गया। सरदार पटेल बड़ी सूझ-बूझ के साथ देशी रियासतों के विलय के कार्य का संचालन किया।

2. रियासतों को भारत में विलय- उपप्रधानमंत्री एवं रियासती मन्त्रालय के मन्त्री की हैसियत से सरदार पटेल ने रियासतों से भारत संघ में अपना विलय करने की अपील की और इस मार्मिक अपील का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। देशी राजाओं ने भी राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव किया। अतः 15 अगस्त, 1947 ई० को जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ सहित 562 रियासतों ने भारतीय संघ में विलय की घोषणा कर दी। ये रियासतें भारतीय संघ में विलीन हो गईं। जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर का भारत में विलय प्रमुख कठिनाइयों के रूप में उभरकर सामने आया। जूनागढ़ एक छोटी रियासत थी और यहाँ नवाब का शासन था। यहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू थी और वह जूनागढ़ का भारत में विलय  करने के पक्ष में थी, जबकि नवाब जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था।

जब नवाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा की तो वहाँ की जनता ने इसका विरोध किया। इसी समय सरदार पटेल ने जूनागढ़ की जनता की सहायता के लिए सेना भेज दी। भारतीय सेना से भयभीत होकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। फरवरी 1948 ई० में जनमत संग्रह के आधार पर जूनागढ़ का भारत में विलय कर लिया गया। जूनागढ़ के समान हैदराबाद की जनता भी हैदराबाद रियासत का भारत में विलय कराना चाहती थी। इसके विपरित, हैदराबाद का निजाम हैदराबाद को एक स्वतन्त्र राज्य बनाए रखना चाहता था।

परिणामत: हैदराबाद की जनता ने निजाम के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। निजाम ने जनता पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। इसी समय सरदार पटेल ने हैदराबाद की जनता का रुख भारत की ओर देखकर 13 सितम्बर, 1948 ई० को वहाँ पुलिस कार्यवाही के द्वारा हैदराबाद का भारत में विलय करा लिया। कश्मीर के राजा हरिसिंह पहले सम्मिलित होने में हिचकिचाते रहे, लेकिन बाद में पाकिस्तानी आक्रमण से विचलित होकर उन्होंने भी भारतीय संघ में मिलने की घोषणा कर दी। भारतीय सेना ने उन्हें तुरन्त संरक्षण देना स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 7.
स्वतन्त्र भारत की तात्कालिक समस्याओं पर एक विस्तृत लेख लिखिए।
उतर.
भारत की स्वतन्त्रता के साथ ही कठिनाइयों व कष्टों का काल भी प्रारम्भ हो गया था। देश के विभाजन के बाद दंगों, हत्याओं व लूटमार का भयंकर दौर प्रारम्भ हुआ। तत्कालीन भारत में देशी रियासतों की संख्या 600 से अधिक थी। विभाजन की त्रासदी के कारण लाखों की संख्या में शरणार्थी, रियासतों के रूप में बिखरा हुआ अज्ञात भारत का ढाँचा, जर्जर अर्थव्यवस्था, अस्थिर राजनीति यह सब भारत को विरासत के रूप में मिला। परन्तु तत्कालीन भारत के महापुरूषों व राजनीति-वेत्ताओं के अथक परिश्रम ने इन सभी समस्याओं से लोहा लिया और उन्हें एक-एक करके सुलझाना आरम्भ कर दिया। स्वतन्त्र भारत की प्रमुख तात्कालिक समस्याएँ निम्नवत थीं
(1) राजनीतिक एकीकरण- स्वतन्त्रता के पूर्व भारत में लगभग 600 से अधिक देशी रियासतें थीं। स्वतन्त्र होने के उपरान्त 
भारत की सरकार के सामने देशी रियासतों को भारत संघ में विलय कराने की गम्भीर चुनौती थी। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए इन सबको भारत संघ में विलय होना आवश्यक था।। ये रियासतें सम्पूर्ण भारत के क्षेत्रफल का 48 प्रतिशत और जनसंख्या का 20 प्रतिशत थीं। यद्यपि ये रियासतें अपने आन्तरिक मामलों में स्वतन्त्र थीं, किन्तु वास्तविक रूप में इन सभी रियासतों पर अंग्रेजी शासन का नियन्त्रण स्थापित था। भारतीय देशी रियासतों में राजकीय जागरण 1921 ई० में प्रारम्भ हुआ। सरदार पटेल के सुझाव पर एक ‘रियासती मन्त्रालय बनाया गया। सरदार पटेल को ही इस विभाग का मन्त्री बनाया गया।

सरदार पटेल ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ देशी रियासतों के विलय के कार्य का संचालन किया। 1926 ई० में अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा परिषद् का जन्म हुआ, जिसका पहला अधिवेशन एलौट के प्रसिद्ध नेता दीवान बहादुर एम० रामचन्द्र राय की अध्यक्षता में 1927 ई० में हुआ। 1934 ई० में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने रियासतों में उत्तरदायी शासन की बात कही। 1935 ई० के अधिनियम में देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ बनाने की बात कही गई। 1936 ई० के बाद देशी रियासतों में जन आन्दोलन तेजी से बढ़ा। कैबिनेट मिशन, एटली की घोषणा और लॉर्ड माउण्टबेटन की योजना में देशी राजाओं के बारे में विचार रखे गए और प्राय: कहा गया कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद वे स्वतन्त्र होंगे। अपनी इच्छानुसार वे भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित हों अथवा स्वतन्त्र रहें।

उपप्रधानमन्त्री एवं रियासती मन्त्रालय के मन्त्री की हैसियत से सरदार पटेल ने रियासतों से भारत संघ में अपना विलय करने की अपील की और इस मार्मिक अपील का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। देशी राजाओं ने भी राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव किया। अतः 15 अगस्त, 1947 ई० को जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ सहित 562 रियासतों ने भारतीय संघ में विलय की घोषणा कर दी। सरदार वल्लभ भाई पटेल की कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि उन्होंने इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया।

हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर का भारत में विलय प्रमुख कठिनाइयों के रूप में उभरकर सामने आया। जूनागढ़ एक छोटी सी रियासत थी और यहाँ नवाब का शासन था। यहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू थी और वह जूनागढ़ का भारत में विलय करने के पक्ष में थी, जबकि नवाब जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। जब नवाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा की तो वहाँ की जनता ने इसका विरोध किया। इसी समय सरदार पटेल ने जूनागढ़ की जनता की सहायता के लिए सेना भेज दी। भारतीय सेना से भयभीत होकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। फरवरी 1948 ई० में जनमत संग्रह के आधार पर जूनागढ़ का भारत में विलय कर लिया गया।

हैदराबाद की जनता भी जूनागढ़ के समान ही हैदराबाद को भारत में सम्मिलित करना चाहती थी, जबकि निजाम सीधे ब्रिटिश साम्राज्य से साँठगाँठ कर एक स्वतन्त्र राज्य का स्वप्न देख रहा था। उसकी पाकिस्तान से भी गुप्त वार्ताएँ चल रही थीं। अक्टूबर, 1947 में उसके साथ एक विशेष समझौता किया गया, जिसमें उसे एक वर्ष तक यथावत् स्थिति की बात कही गई, लेकिन उस पर किसी भी प्रकार की सैन्य वृद्धि या बाहरी मदद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। निजाम की कुटिल चालें चलती रहीं। उसने पाकिस्तान से हथियार मँगवाए तथा रजाकारों की मदद से मनमानी करनी चाही। परिणामतः हैदराबाद की जनता ने निजाम के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। निजाम ने जनता पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। इसी समय

सरदार पटेल ने हैदराबाद की जनता का रुख भारत की ओर देखकर सितम्बर 1948 में निजाम को चेतावनी दी। निजाम के न मानने पर 13 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद में कार्यवाही की गई और पाँच दिन में न केवल रजाकारों को खदेड़ दिया गया, बल्कि निजाम ने भी विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। 18 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। कश्मीर के भारत में विलय पर भी पाकिस्तान से संघर्ष की स्थिति बनी। प्रारम्भ में कश्मीर के राजा हरिसिंह कश्मीर के भारत में सम्मिलित होने में असमंजस की स्थिति में थे। जून, 1947 में माउण्टबेटन कश्मीर गए और उन्होंने वहाँ के महाराजा हरिसिंह से विलय के बारे में शीघ्र आत्मनिर्णय पर जोर दिया और जनमत संग्रह की बात भी कही। महात्मा गाँधी भी महाराजा से मिले, परन्तु अगस्त, 1947 में पाकिस्तानियों ने कबाइलियों के वेश में जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ करनी प्रारम्भ की। पाकिस्तान द्वारा आक्रमण किए जाने से विचलित होकर उन्होंने भी भारतीय संघ में मिलने की घोषणा कर दी।

भारतीय सेना ने उन्हें तुरन्त संरक्षण देना स्वीकार कर लिया। महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर को अपने प्रधानमन्त्री मेहरचन्द महाजन को विलय के पत्रों पर हस्ताक्षर करने दिल्ली भेजा। ये पत्र स्वीकृत कर लिए गए, लेकिन इसी बीच 21-22 अक्टूबर, 1947 को पाकिस्तान ने पठान कबाइलियों सहित कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। 26 अक्टूबर को कश्मीर के महाराजा के कहने पर भारतीय सेनाओं ने 27 अक्टूबर को पाकिस्तान के आक्रमणकारियों को रोका और उन्हें पीछे खदेड़ते हुए जवाबी कार्यवाही की। भारत के प्रधानमन्त्री पं० नेहरू ने पाकिस्तान की इस घुसपैठ के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में अपील की। सुरक्षा परिषद् ने सोच-विचार में लम्बा समय लिया।

13 अगस्त, 1948 को दोनों सेनाओं को युद्धविराम करने, अपनी-अपनी सेनाएँ हटाने और जनमत संग्रह करने को कहा। अभी तक भी कश्मीर की एक तिहाई भूमि पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है। अर्द्धशताब्दी से अधिक गुजर जाने के पश्चात् भी कश्मीर को लेकर आज भी दोनों में विवाद बना हुआ है। 1954 ई० तक विदेशी फ्रांसीसी उपनिवेशों पाण्डिचेरी, कराईकल, यमन, माही तथा चन्द्रनगर को भारत संघ में शामिल कर लिया गया। गोवा, दमन व दीव जिन पर पुर्तगालियों का प्रभुत्व था, सैनिक कार्यवाही द्वारा 1961 ई० में भारत संघ में सम्मिलित किए जा सके। दादर व नगर हवेली के दोनों स्थलों को जनता ने 1954 में पुर्तगालियों से स्वतन्त्र कराया, लेकिन ये भारत संघ का अंग न बन सके। 1961 तक यहाँ ‘स्वतन्त्र दादर व नगर हवेली प्रशासन ने कार्यभार सँभाला। 11 अगस्त, 1961 को ये दोनों स्थल भारत के केन्द्रशासित प्रदेश बने।

(2) हिन्दू-मुस्लिम दंगे और विस्थापितों की समस्या- भारत के विभाजन से जनसंख्या में हुई अदला-बदली विश्व इतिहास में एक अनूठी और वीभत्स घटना थी। दुनिया के इतिहास में कभी भी जनसंख्या की इतनी बड़ी अदली-बदली पहले कभी नहीं हुई थी। इससे पूर्व 1923 ई० में लोसान की सन्धि में ग्रीक व टर्की में जनसंख्या में अदला-बदली हुई थी, जो लगभग एक लाख पच्चीस हजार की थी और जिसे बदलने में 18 महीने लगे थे, जबकि भारत-पाकिस्तान में लगभग एक करोड़ बीस लाख जनसंख्या का आवागमन हुआ और यह केवल तीन महीने में किया गया। एक अन्य आँकड़े के अनुसार 49 लाख भारतीय पश्चिमी पाकिस्तान से और 25 लाख पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से उजड़कर भारत आए। स्वभावत: इस जनसंख्या की अदली-बदली में भयंकर रक्तपात, खून-खराबा और साम्प्रदायिक दंगे हुए। सामूहिक हत्याएँ, लूट, अपहरण, बलात्कार की हजारों घटनाएँ हुईं। बंगाल में नोआखाली, यूनाइटेड प्रोविंसेस में गढ़मुक्तेश्वर और पंजाब में लाहौर, रावलपिण्डी, मुल्तान, अमृतसर तथा गुजरात में भयंकर लूटमार हुई, अनेक लोग मारे गए। इसके अतिरिक्त 150 करोड़ से अधिक की सम्पत्ति की हानि हुई।

3. जर्जर आर्थिक व्यवस्था- अंग्रेजों ने लगभग दो सौ साल बाद अगस्त, 1947 में भारत छोड़ा। इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था निरन्तर उपेक्षा की शिकार रही थी। शताब्दियों से चले आ रहे आर्थिक शोषण व लूट के कारण भारत की आर्थिक व्यवस्था पहले से ही जर्जर अव्यवस्था में थी, पाकिस्तान के निर्माण के कारण भारत अनेक प्राकृतिक संसाधनों से वंचित हो गया। भारत एक निर्धन देश बन गया और इसकी प्रति व्यक्ति आय विश्व के निम्नतम के समतुल्य हो गई। इसे 1948 ई० में 246 रुपए प्रति व्यक्ति माना गया है, जो ब्रिटेन की आय का कुल 10 प्रतिशत और अमेरिका का केवल 5 प्रतिशत थी।। पाकिस्तान के निर्माण से भारत में आर्थिक असन्तुलन उत्पन्न हो गया। भारतीय उद्योग, कृषि व व्यापार इस विभाजन के कारण अत्यधिक प्रभावित हुए। आर्थिक क्षेत्र के असन्तुलित विभाजन के कारण भारत में कच्चे माल की कमी हो गई, जिससे वस्त्र उद्योग ठप्प और अन्न की कमी हो गई।

1947-48 ई० के भारत-पाक संघर्ष ने भारतीय व्यापार को भी बुरी तरह प्रभावित किया। विस्थापितों के आर्थिक झगड़ों ने इसमें और कटुता ला दी। इस काल में उद्योगों के उत्पादन में लगभग 30 प्रतिशत की कमी हो गई। उत्पादन कम होने से बेकारी और बेरोजगारी तेजी से बढ़ी। भारत की आर्थिक नीति की घोषणा 1948 ई० में की गई थी, इस नीति में कई योजनाएँ रखी गई। श्री जय प्रकाश नारायण द्वारा जनवरी, 1950 ई० में ‘सर्वोदय योजना की घोषणा की गई, जिसका उद्देश्य अहिंसा द्वारा शोषणरहित समाज का निर्माण करना बताया गया। इस योजना आयोग के अध्यक्ष पं० जवाहरलाल नेहरू थे। 1 अप्रैल, 1951 ई० से 31 मार्च 1956 ई० तक के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना बनी। वर्तमान में बारहवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है, ऐसी 11 योजनाएँ अब तक पूर्ण हो चुकी हैं।

प्रश्न 8.
“सरदार वल्लभभाई पटेल भारतीय गणतन्त्र के सफल निर्माता थे।” इस कथन के आलोक में उनके द्वारा देशी राज्यों के भारतीय राष्ट्र में विलय के प्रयासों का वर्णन कीजिए।
उतर.
स्वतन्त्र भारत के पहले तीन वर्ष सरदार पटेल उप-प्रधानमन्त्री, गृह मन्त्री, सूचना मन्त्री और राज्य मन्त्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर  
उनकी ख्याति भारत के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीके से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है। 5 जुलाई, 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि- “धीरे-धीरे बहुत-सी देशी रियासतों के शासक भोपाल के नवाब से अलग हो गये और इस तरह नवस्थापित रियासती विभाग की योजना को सफलता मिली। भारत के तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया, जो स्वयं में सम्प्रभुता प्राप्त थीं। उनका अलग झंडा और अलग शासक था।

सरदार पटेल ने आज़ादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही पी.वी.मेनन के साथ मिलकर कई देशी राज्यों को भारत में मिलाने के लिए कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देशी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन रियासतें- हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष सभी राजवाड़ों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें ‘भारत संघ’ में सम्मिलित हो चुकी थीं, जो भारतीय इतिहास की एक बड़ी उपलब्धि थी। जूनागढ़ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और इस प्रकार जूनागढ़ भी भारत में मिला लिया गया।

जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को वैचारिक एवं क्रियात्मक रूप में एक नई दिशा देने के कारण सरदार पटेल ने राजनीतिक इतिहास में एक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। वास्तव में वे आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उनके कठोर व्यक्तित्व में विस्मार्क जैसी संगठन कुशलता, कौटिल्य जैसी राजनीति सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन जैसी अटूट निष्ठा थी। जिस अदम्य उत्साह असीम शक्ति से उन्होंने नवजात गणराज्य की प्रारम्भिक कठिनाइयों का समाधान किया, उसके कारण विश्व के राजनीतिक मानचित्र में उन्होंने अमिट स्थान बना लिया। भारत के राजनीतिक इतिहास में सरदार पटेल के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। सरदार पटेल के ऐतिहासिक कार्यों और किये गये राजनीतिक योगदान निम्नवत् हैंद्वीपसमूह भारत के साथ मिलाने में भी पटेल की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

इस क्षेत्र के लोग देश की मुख्यधारा से कटे हुए थे और उन्हें भारत की आजादी की जानकारी 15 अगस्त, 1947 के कई दिनों बाद मिली। हालांकि यह क्षेत्र पाकिस्तान के नजदीक नहीं था, लेकिन पटेल को लगता था कि इस पर पाकिस्तान दावा कर सकता है। इसलिए ऐसी किसी भी स्थिति को टालने के लिए पटेल ने लक्षद्वीप में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए भारतीय नौसेना का एक जहाज भेजा। इसके कुछ घंटे बाद ही पाकिस्तान नौसेना के जहाज लक्षद्वीप के पास मंडराते देखे गए, लेकिन वहाँ भारत का झंडा लहराते देख उन्हें वापिस कराची लौटना पड़ा।

प्रश्न 9.
भारत प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है”इस तथ्य की समीक्षा कीजिए।
उतर.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना से यह बात स्पष्ट रूप से घोषित की गई है कि भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक, धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य है। इसका अर्थ यह है कि अब भारत पर्ण रूप से स्वतन्त्र है और वह किसी भी बह्य सत्ता के अधीन नहीं है। सम्पूर्ण भारतीय जनता ही शक्ति का स्रोत है। इसका विवेचन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है

1. सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न- हमारे संविधान में यह पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि भारत अपने आन्तरिक तथा बाह्य दोनों क्षेत्रों में
पूर्णतया स्वतन्त्र है। वह किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि को मानने के लिए बाध्य नहीं है। भारतीय संविधान में कहीं भी ब्रिटिश शासन का उल्लेख नहीं है। यद्यपि भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य है, किन्तु वह अपनी इच्छानुसार उससे पृथक भी हो सकता है। श्री जी० एन० जोशी के अनुसार, “भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य इसलिए बना है, क्योंकि ऐसा करना उसके हित तथा लाभ में है।

2. लोकतान्त्रिक- भारतीय संविधान के अनुसार भारतीय शासन लोकतन्त्रात्मक है। समस्तमहत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर अन्तिम निर्णय जनता का होगा। शासन की वास्तविक शक्ति जनता में निहित है। भारत की स्वर्गीया प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गाँधी ने पुनः सत्ता में आने के बाद कहा था, “लोकतन्त्र हमारे लिए केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन है। लोकतन्त्र सिर्फ बहुमत के लिए नहीं सभी के लिए है। आज लोकतन्त्र को बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय से बढ़कर सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय तक ले जाना है।”

3. धर्मनिरपेक्ष- भारत में सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गयी। राज्य किसी विशेष धर्म का संरक्षण नहीं करता, अपितु उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। संविधान संशोधन द्वारा इसे और स्पष्ट कर दिया है।

4. समाजवादी- कांग्रेस का उद्देश्य प्रारम्भ से ही भारत में समाजवाद की स्थापना करना रहा है। उसका उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता पर आधारित समाजवादी समाज की रचना के लिए प्रयत्नशील रहना पड़ा है। संविधान के निर्माताओं का अभिप्राय था कि भारतीय समाज की परम्परागत विषमताओं को दूर करके आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समता के आधार पर एक प्रगतिशील समाज की स्थापना करें। विषमताओं तथा शोषण से मुक्ति का एकमात्र उपाय समाजवादी समाज की स्थापना भी हो सकता है। संविधान में प्रयुक्त समाजवादी एवं धर्मनिरपेक्ष राज्य का यही अर्थ है। भारतीय संविधान में समाजवाद शब्द के साथ लोकतन्त्रात्मक शब्द को भी रखा गया है। इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान एक लोकतान्त्रिक समाजवाद की परिकल्पना करता है।

(5) गणराज्य- भारतीय राज्य गणराज्य इसलिए है, क्योंकि भारत का प्रावधान वंशानुगत शासन नहीं है, अपितु वह अप्रत्यक्ष | रूप से जनता द्वारा निर्वाचित राष्ट्रपति है। वह जनता के प्रतिनिधि मन्त्रिमण्डल के परामर्श से शासन करता है। जनता के प्रतिनिधियों को समस्त शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 17 Independent India (स्वतन्त्र भारत) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 17 Independent India (स्वतन्त्र भारत), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name परिचयात्मक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध

परिचयात्मक निबन्ध

एक महापुरुष की जीवनी (राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी)

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरा प्रिय राजनेता
  • मेरा आदर्श पुरुष
  • वर्तमान युग में गाँधीवाद की प्रासंगिकता
  • हमारे आदर्श महापुरुष

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. जीवनवृत्त,
  3. गाँधी जी के सिद्धान्त-(अ) अहिंसा (व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा, राजनीति में अहिंसा); (ब) शिक्षा-सम्बन्धी सिद्धान्त,
  4. राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक,
  5. कुटीर उद्योग पर बल,
  6. प्रेरणादायक गुण,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-मानव-जीवन एक रहस्य है। इसके रहस्य अनेक बार मनुष्य को उस मोड़ पर ला खड़ा करते हैं, जहाँ वह किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में होता है। उसे कुछ सूझता ही नहीं। ऐसी स्थिति में ‘महाजनो येन गताः स पन्था’ के अनुरूप व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। जीवन की ऐसी उलझनों से सुलझने के लिए जिस महापुरुष ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया; उसका नाम है—मोहनदास करमचन्द गाँधी। यही मेरे आदर्श पुरुष हैं। इनके बाह्य व आन्तरिक व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त जी लिखते हैं

तुम मांसहीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थिशेष ! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवले,
हे चिर पुराण ! हे चिर नवीन !

यद्यपि बाह्य रूप से देखने में गाँधी जी अस्थियों का ढाँचामात्र ही लगते थे, किन्तु उनमें आत्मिक बल अमित था। वस्तुत: राजनीति जैसे स्थूल और भौतिकवादी क्षेत्र में उन्होंने आत्मा की आवाज पर बल दिया, नैतिकता का प्रतिपादन किया तथा साध्य के साथ साधन की शुद्धता को भी आवश्यक ठहराया। विश्व-राजनीति को यह उनका विशिष्ट योगदान था, जिससे प्रेरणा लेकर कई पराधीन देशों में स्वातन्त्र्य-आन्दोलन चलाये गये और स्वतन्त्रता प्राप्त की गयी।

जीवनवृत्त-मोहनदास करमचन्द गाँधी को जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को पोरबन्दर (गुजरात) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री करमचन्द गाँधी तथा माँ का नाम श्रीमती पुतलीबाई था। करमचन्द गाँधी पोरबन्दर रियासत के दीवान थे। सात वर्ष की अवस्था में मोहनदास करमचन्द गाँधी एक गुजराती पाठशाला में पढ़ने गये। बाद में अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए, जहाँ से उन्होंने अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत तथा धार्मिक ग्रन्थों का भी अध्ययन किया। इण्ट्रेन्स की परीक्षा पास करने के उपरान्त ये विलायत चले गये।।

भारत लौटने पर गाँधी जी ने पहले राजकोट और फिर बम्बई में वकालत शुरू की। उन्हें सेठ अब्दुल्ला फर्म के एक हिस्सेदार के मुकदमे को लेकर दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ पग-पग पर रंगभेद-नीति के फलस्वरूप भारतीयों का अपमान देखकर तथा स्वयं आप बीते कठोर अनुभवों के आधार पर उन्होंने रंगभेद-नीति को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। प्रिटोरिया में भारतीयों की पहली सभा में गाँधी जी ने भाषण दिया और यहीं से इनके सार्वजनिक जीवन का आरम्भ हुआ। सन् 1896 ई० में गाँधी जी भारत आये और सपरिवार पुन: अफ्रीका लौट गये। लौटने पर उन्हें गोरों का विशेष विरोध सहना पड़ा, परन्तु गाँधी जी ने साहस न छोड़ा और कई आन्दोलनों का संचालन करते रहे। सेवा में उनका अडिग विश्वास था। बोअर-युद्ध (सन् 1899 ई०) तथा जूलू-विद्रोह (सन् 1906 ई०) में स्वयंसेना स्थापित करके उन्होंने पीड़ितों की पर्याप्त सेवा की।

सन् 1914 ई० में वे भारत लौट आये। यहाँ आकर उन्होंने चम्पारन में किसानों पर किये जाने वाले अत्याचारों तथा कारखानों के कर्मचारियों पर मालिकों द्वारा की गयी ज्यादतियों का खुलकर विरोध किया और भारत के सार्वजनिक जीवन में पदार्पण किया। सन् 1924 ई० में वे बेलगाँव में कांग्रेस-अध्यक्ष चुने गये। सन् 1930 ई० में कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखा और इस आन्दोलन के समस्त अधिकार गाँधी जी को सौंप दिये। 4 मार्च, सन् 1931 ई० को गाँधी-इरविन समझौता हुआ। दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेन्स में कांग्रेस-प्रतिनिधि के रूप में गाँधी जी इंग्लैण्ड गये और अंग्रेज सरकार से स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता न मिली तो कांग्रेस का आन्दोलन भी जारी रहेगा।

अगस्त, सन् 1942 ई० में गाँधी जी ने भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित किया; जिससे देश में एक महान् आन्दोलन छिड़ा। गाँधी जी तथा अन्य नेता जेल में बन्द कर दिये गये। 1946 ई० के हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष में गाँधी जी ने नोआखाली की पैदल यात्रा की और वहाँ शान्ति स्थापित करने में सफल हुए। 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को भारत को स्वतन्त्रता मिली। देश में उत्पन्न अन्य समस्याओं को सुलझाने में गाँधी जी लगे ही थे कि सहसा 30 जनवरी, सन् 1948 ई० को वे शहीदों की परम्परा में चले गये।

गाँधी जी के सिद्धान्त-(अ) अहिंसा-गाँधी जी का सबसे प्रमुख सिद्धान्त था व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में अहिंसा का प्रयोग। अहिंसा आत्मा का बल है। वे अहिंसा का मूल प्रेम में मानते थे। वे लिखते हैं, “पूर्ण अहिंसा समस्त जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का पूर्ण अभाव है, इसलिए वह मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों-यहाँ तक कि विषैले कीड़ों और हिंसक जानवरों का भी आलिंगन करती है।’ उन्होंने बार-बार कहा है कि अहिंसा वीर का धर्म है, कायर का नहीं; क्योंकि हिंसा करने की पूरी सामर्थ्य रखते हुए भी जो हिंसा नहीं करता, वही अहिंसा-धर्म का पालन करने में समर्थ होता है।

(i) व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा-अहिंसा का अर्थ है-प्रेम, दया और क्षमा। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी गाँधी जी ने इस सिद्धान्त को चरितार्थ करके दिखाया। वे जीव मात्र से प्रेम करते थे। दीनों और दलितों के लिए तो उनके प्रेम और करुणा की कोई सीमा ही न थी। वे इसे मानवता के प्रति घोर अपराध मानते थे कि किसी को नीचा या अस्पृश्य समझा जाए; क्योंकि भगवान् की दृष्टि में सारे प्राणी समान हैं। इसीलिए उन्होंने अछूतोद्धार का आन्दोलन चलाया, जिसे उन्होंने हरिजनोद्धार कहा। हिन्दू-समाज के प्रति यह उनकी बहुत बड़ी सेवा थी। उनके आन्दोलन के फलस्वरूप हरिजनों को मन्दिर में प्रवेश का अधिकार मिला।

उनकी दया-भावना ने उन्हें प्राणिमात्र की सेवा के लिए प्रेरित किया। परचुरे शास्त्री भयंकर कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। गाँधी जी ने उन्हें अपने साथ रखा। इतना ही नहीं, उनके घावों को भी वे स्वयं अपने हाथ से साफ करते थे। इससे उनकी परदुःख-कातरता एवं सेवा-भावना का पता चलता है। अपने साथियों का भी गाँधी जी बहुत ध्यान रखते थे। एक अवसर पर एक सज्जन आकर गाँधी जी को कुछ फल दे गये, जिनमें चीकू भी थे। गाँधी जी ने कुछ चीकू अपने एक साथी को देते हुए कहा, “इन्हें महादेव को दे आओ, उसे चीकू बहुत पसन्द हैं।’

अपने शत्रु को क्षमा करने की घटनाएँ तो उनके जीवन में भरी पड़ी हैं। उन्होने अपने आश्रम में साँप, बिच्छू आदि को भी मारना वर्जित कर दिया था। उन्हें पकड़कर दूर छोड़ दिया जाता था। एक बार एक साँप गाँधी जी के कन्धे पर चढ़ गया। उनके साथियों ने उनकी ओढ़ी हुई चादर समेत उसे खींचकर दूर ले जाकर छोड़ दिया। इस प्रकार गाँधी जी ने अपने जीवन में भी अहिंसा को चरितार्थ करके दिखाया।

(ii) राजनीति में अहिंसा-राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा के सिद्धान्त का व्यवहार उन्होंने तीन शस्त्रों के रूप में किया–सत्याग्रह, असहयोग और बलिदान। सत्याग्रह का अर्थ है–सत्य के प्रति आग्रह अर्थात् जो आदमी को ठीक लगे, उस पर पूरी शक्ति और निष्ठा से चलना, किसी के दबाव के आगे झुकना नहीं। असहयोग का अर्थ है-बुराई से, अन्याय से, अत्याचार से सहयोग न करना। यदि कोई सताये, अन्याय करे तो किसी भी काम में उसका साथ न देना। बलिदान का आशय है–सच्चाई के लिए, न्याय के लिए, अपने प्राण तक न्योछावर कर देना। इन तीनों हथियारों का प्रयोग गाँधी जी ने पहले दक्षिण अफ्रीका में किया, फिर भारत में।

(ब) शिक्षा-सम्बन्धी सिद्धान्त–शिक्षा से गाँधी जी का तात्पर्य बालक के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास से था। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं, “शिक्षा से तात्पर्य उन समस्त शक्तियों के दोहन से है, जो शिशु एवं मानव के शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा में निहित हैं। साथ ही उनके अनुसार, “कोई भी वह शिक्षा पूर्ण नहीं है, जो लड़के-लड़कियों को आदर्श नागरिक नहीं बनाती।’

गाँधी जी के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों का केन्द्रबिन्दु है-व्यवसाय और व्यवसाय से उनका आशय हस्तकला से है। वे लिखते हैं-मैं बालक की शिक्षा का आरम्भ किसी उपयोगी हस्तकला के शिक्षण से करूंगा, जिससे वह आरम्भ से ही अर्जन करने में समर्थ हो सके। इससे एक तो वह शिक्षा का व्यय वहन कर सकेगा और फिर वह अपने भावी जीवन में पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर भी हो सकेगा। इस प्रकार शिक्षा बेकारी दूर करने का एक प्रकार से बीमा है। वे विद्यालयों को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे, अर्थात् शिक्षकों की व्यवस्था विद्यालय के उत्पादन से ही हो सके और राज्य सरकार छात्रों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के खरीदने की व्यवस्था करे।।

राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक-गाँधी जी राष्ट्रभाषा के बिना किसी स्वतन्त्र राष्ट्र की कल्पना ही नहीं करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि किसी विदेशी भाषा के माध्यम से बालक की क्षमताओं का पूर्ण विकास सम्भव नहीं। इसी कारण राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।

कुटीर उद्योगों पर बल–गाँधी जी भारत जैसे विशाल देश की समस्याओं और आवश्यकताओं को बहुत गहराई तक समझते थे। वे जानते थे कि ऐसे देश में जहाँ विशाल जनसंख्या के कारण जनशक्ति की कमी नहीं, आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं सम्पन्नता के लिए कुटीर उद्योग ही सर्वाधिक उपयुक्त साधन हैं। गाँधी जी ने ग्रामों को आर्थिक स्वावलम्बन प्रदान करने के लिए खादी उद्योग को बढ़ावा दिया, चरखे को अपने आर्थिक सिद्धान्तों का केन्द्रबिन्दु बना लिया तथा प्रत्येक गाँधीवादी के लिए प्रतिदिन चरखा चलाना और खादी पहनना अनिवार्य कर दिया।

प्रेरणादायक गुण-गाँधी जी में ऐसे अनेक महान् गुण विद्यमान थे, जिनसे प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए। उनका पहला गुण था—समय का सदुपयोग। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाते थे, यहाँ तक कि दूसरों से बात करते समय भी वे कुछ-न-कुछ काम अवश्य करते रहते थे, चाहे वह आश्रम की सफाई का काम हो या चरखा चलाने का या रोगियों की सेवा-शुश्रूषा का। यही कारण है कि इतनी अधिक व्यस्तता के बावजूद वे अनेक ग्रन्थ और लेखादि लिख सके।

दूसरा महत्त्वपूर्ण गुण था—दूसरों को उपदेश देने से पहले किसी आदर्श को स्वयं अपने जीवन में क्रियान्वित करना। उदाहरणार्थ-वे अपना सारा काम स्वयं अपने ही हाथों करते थे, यहाँ तक कि अपना मल-मूत्र भी स्वयं साफ करते थे। इसके बाद ही वे आश्रमवासियों को भी ऐसा करने की प्रेरणा देते थे।

मितव्ययिता उनका एक अन्य प्रेरक गुण था। वे तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु को भी व्यर्थ नहीं समझते थे, अपितु उसका अधिकतम सदुपयोग करने का प्रयास करते थे। इस सम्बन्ध में आश्रमवासियों को भी उनका कठोर आदेश था।

गाँधी जी की सारग्रहिणी प्रवृत्ति भी बड़ी प्रेरणाप्रद थी। वे अपने कटुतम आलोचक और विरोधी की बात भी बड़ी शान्ति से सुनते और अपने कटु विरोधी व्यक्ति की उचित बात को साररूप में ग्रहण कर लेते थे। एक बार कोई अंग्रेज युवक एक लम्बे पत्र में गाँधी जी को सैकड़ों भद्दी-भद्दी गालियाँ लिखकर स्वयं उनके पास पहुँचा और पत्र उन्हें दिया। पत्र पर दृष्टि डालते ही उन्होंने उसका आशय समझ लिया और उसमें लगी आलपिन को अपने पास रखकर पृष्ठों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया। युवक ने उनसे इसका कारण पूछा। गाँधी जी ने कहा कि इसमें सार वस्तु केवल इतनी ही थी, जो मैंने ले ली।

उपसंहार–सारांश यह है कि गाँधी जी ने अपने नेतृत्व के गुणों से जनता की असीम श्रद्धा अर्जित की। उन्होंने भारत की जनता में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाया, उसे अपने अधिकार के लिए लड़ने का मनोबल दिया, देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा दी तथा स्वदेशी आन्दोलन द्वारा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के स्वीकरण का मन्त्र दिया। उनके खादी आन्दोलन ने ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा दिया, राष्ट्रभाषा के महत्त्व एवं गौरव के प्रबल समर्थन द्वारा उन्होंने कितने ही हिन्दीतर-भाषियों को हिन्दी सीखने की प्रेरणा दी तथा राष्ट्रभाषा आन्दोलन को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दिया। अपने अनेकानेक व्यक्तिगत गुणों के कारण अपने सम्पर्क में आने वालों को उन्होंने अन्दर तक प्रभावित किया और दीन-दु:खियों के सदृश स्वयं भी अधनंगे रहकर तथा निर्धनता और सादगी का जीवन अपनाकर लोगों से ‘महात्मा’ और ‘बापू’ का प्रेममय सम्बोधन पाया। सचमुच वे वर्तमान भारत की एक महान् विभूति थे।

मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास [2012, 13, 14, 16, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • तुलसी का समन्वयवाद
  • हमारे आदर्श कति : तुलसीदास [2012]
  • रामकाव्यधारा के प्रमुख कवि : तुलसीदास
  • लोकनायक तुलसीदास [2011]
  • कविता लसी पा तुलसी की कला [2009]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. तत्कालीन परिस्थितियाँ,
  3. तुलसीकृत रचनाएँ,
  4. ढुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में,
  5. तुलसी के रमि,
  6. तुलसी की निष्काम भक्ति-भावना,
  7. तुलसी की समन्वय-साधना–(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय, (ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय, (ग) युगधर्म-समन्वय, (घ) साहित्यिक समन्वय,
  8. तुलसी के दार्शनिक विचार,
  9. उपसंहार।

प्रस्तावना-यद्यपि मैंने बहुत अधिक अध्ययन नहीं किया है, तथापि भक्तिकालीन कवियों में कबीर, सूर, तुलसी और मीरा तथा आधुनिक कवियों में प्रसाद, पन्त और महादेवी के काव्य का रसास्वादन अवश्य किया है। इन सभी कवियों के काव्य का अध्ययन करते समय तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नतमस्तक होता रहा हूँ। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है।

तत्कालीन परिस्थितियाँ-तुलसीदास को जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ था, जब हिन्दू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फंस चुका था। हिन्दू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्राय: विनष्ट हो चुकी थी और कहीं कोई पथ-प्रदर्शक नहीं था। इस युग में जहाँ एक ओर मन्दिरों का विध्वंस किया गया, ग्रामों व नगरों का विनाश हुआ, वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरम सीमा पर पहुँच गयी। इसके अतिरिक्त तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमताओं का ताण्डव हो रहा था और विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी परिस्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। उस समय दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उसके नैतिक जीवन की नौका की पतवार सँभाल ले।

गोस्वामी तुलसीदास ने अन्धकार के गर्त में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया और उसमें अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपनी अमर कृति ‘श्रीरामचरितमानस’ द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं में समन्वय स्थापित किया। उन्होंने अपने युग को नवीन दिशा, नयी गति एवं नवीन प्रेरणा दी। उन्होंने सच्चे लोकनायक के समान समाज में व्याप्त वैमनस्य की चौड़ी खाई को पाटने का सफल प्रयत्न किया।

तुलसीकृत रचनाएँ-तुलसीदास जी द्वारा लिखित 12 ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। ये ग्रन्थ हैं‘श्रीरामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘दोहावली’, ‘रामलला नहछु’, ‘पार्वती-मंगल’, ‘जानकी-मंगल’, ‘बरवै रामायण’, ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’ तथा ‘रामाज्ञा प्रश्नावली’। तुलसी की ये रचनाएँ विश्व-साहित्य की अनुपम निधि हैं।

तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन हैलोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके; क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।’

तुलसी के राम—तुलसी उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परब्रह्म हैं, जिन्होंने भूमि का भार हरण करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था

जब-जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जने पीरा ॥

तुलसी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है, लेकिन अन्त में वे यही कहते हैं-

माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥

राम के प्रति उनकी अनन्य भक्ति अपनी चरम-सीमा छूती है और वे कह उठते हैं कि-

करू कहाँ तक राम बड़ाई। राम न सकहिं, राम गुन गाही ।।

तुलसी के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे और शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।
तुलसीदास की निष्काम भक्ति-भावना-सच्ची भक्ति वही है, जिसमें लेन-देन का भाव नहीं होता। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। तुलसी के अनुसार-

मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु विषम भव भीर ॥

तुलसी की समन्वय-साधना-तुलसी के काव्य की सर्वप्रमुख विशेषता उसमें निहित समन्वय की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कारण ही वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाये। उनके काव्य में समन्वय के निम्नलिखित रूप दृष्टिगत होते हैं

(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय-जब ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों से सम्बन्धित विवाद, दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था तो तुलसीदास ने कहा
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।
(ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय—तुलसी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करने अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, उनकी भक्ति तो सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देने वाली है। उन रिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण के सदृश दुष्कर्म नहीं–

भगतिहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदी। उभय हरहिं भव-संभव खेदा ।।

तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम-नाम का मोती पिर दिशा —

हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।

(ग) युगधर्म-समन्वय-भक्ति की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और उन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसी ने इनका भी विलक्षण समन्वय प्रस्तुत किया है-

कृतजुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग ॥

(घ) साहित्यिक समन्वय साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, रस एवं अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं, विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में भी संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

तुलसी के दार्शनिक विचार-तुलसी ने किसी विशेष वाद को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वैष्णव धर्म को इतना व्यापक रूप प्रदान किया कि उसके अन्तर्गत शैव, शाक्त और पुष्टिमार्गी भी सरलता से समाविष्ट हो गये। वस्तुत: तुलसी भक्त हैं और इसी आधार पर वह अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। उनकी भक्ति सेवक-सेव्य भाव की है। वे स्वयं को राम का सेवक मानते हैं और राम को अपना स्वामी।

उपसंहार—तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है, बाहर से नहीं। तुलसी के सम्बन्ध में हरिऔध जी के हृदय से स्वत: फूट पड़ी प्रशस्ति अपनी समीचीनता में बेजोड़ है-

बन रामरसायन की रसिका, रसना रसिकों की हुई सुफला।
अवगाहन मानस में करके, मन-मानस का मल सारा टला ॥
बनी पावन भावे की भूमि भली, हुआ भावुक भावुकता का भला ।
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला ॥

सचमुच कविता से तुलसी नहीं, तुलसी से कविता गौरवान्वित हुई। उनकी समर्थ लेखनी का सम्बल पी वाणी धन्य हो उठी।
तुलसीदास जी के इन्हीं सब गुणों का ध्यान आते ही मन श्रद्धा से परिपूरित हो उन्हें अपना प्रिय कवि मानने को विवश हो जाता है।

मेरे प्रिय साहित्यकार: जयशंकर प्रसाद [2013, 14, 15, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • अपना (मेरा) प्रिय कवि [2012, 13, 14, 17]
  • मेरा प्रिय लेखक [2009, 15]
  • मेरे प्रिय कहानीकार [2013]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. साहित्यकार का परिचय,
  3. साहित्यकार की साहित्यसम्पदा-(क) काव्य; (ख) नाटक; (ग) उपन्यास; (घ) कहानी; (ङ) निबन्ध,
  4. छायावाद के श्रेष्ठ कवि,
  5. श्रेष्ठ गद्यकार,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-संसार में सबकी अपनी-अपनी रुचि होती है। किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है तो किसी की संगीत में। किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में इतना अधिक रचा गया है कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में सम्भव ही नहीं है। फिर साहित्य में भी अनेक विधाएँ हैं–कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध आदि। अतः मैंने सर्वप्रथम हिन्दी-साहित्य का यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं-जयशंकर प्रसाद प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी-साहित्य में भाव और कला, अनुभूति और अभिव्यक्ति, वस्तु और शिल्प सभी क्षेत्रों में युगान्तरकारी परिवर्तन किये हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजना-शक्ति प्रदान की है। इन सबने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वे मेरे प्रिय साहित्यकार बन गये हैं।

साहित्यकार का परिचय-श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध हुँघनी-साहु परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य-रचना आरम्भ कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता व बड़े भाई का देहान्त हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कन्धों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को आपका देहावसान हुआ। 48 वर्ष के छोटे-से जीवन में इन्होंने जो बड़े-बड़े काम किये, उनकी कथा सचमुच अकथनीय है।

साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा–प्रसाद जी की रचनाएँ सन् 1907-08 ई० में सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। ये रचनाएँ ब्रजभाषा की पुरानी शैली में थीं, जिनका संग्रह ‘चित्राधार’ में हुआ। सन् 1913 ई० में ये खड़ी बोली में लिखने लगे। प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनाएँ कीं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार है-

(क) काव्य-कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना, आँसू, लहर और कामायनी (महाकाव्य)।
(ख) नाटक-इन्होंने कुल मिलाकरे 13 नाटक लिखे। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं-चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी।
(ग) उपन्यास-कंकाल, तितली और इरावती।
(घ) कहानी–प्रसाद की विविध कहानियों के पाँच संग्रह हैं-छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल।
(ङ) निबन्ध–प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे, जिनका संग्रह है-काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध।

छायावाद के श्रेष्ठ कवि–छायावाद हिन्दी कविता के क्षेत्र का एक आन्दोलन है जिसकी अवधि सन् 1920-1936 ई० तक मानी जाती है। ‘प्रसाद’ जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वच्छन्दतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद की ‘आँसू’ नाम की कृति के साथ हिन्दी में छायावाद का जन्म हुआ। आँसू का प्रतिपाद्य है–विप्रलम्भ श्रृंगार। प्रियतम के वियोग की पीड़ा वियोग के समय आँसू बनकर वर्षा की भाँति उमड़ पड़ती है

जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति सी नभ में छायी।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी ॥

प्रसाद के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है; यथा–सौन्दर्य-निरूपण एवं श्रृंगार भावना, प्रकृति-प्रेम, मानवतावाद, प्रेम भावना, आत्माभिव्यक्ति, प्रकृति पर चेतना का आरोप, वेदना और निराशा का स्वर, देश-प्रेम की अभिव्यक्ति, नारी के सौन्दर्य का वर्णन, तत्त्व-चिन्तन, आधुनिक बौद्धिकता, कल्पना का प्राचुर्य तथा रहस्यवाद की मार्मिक अभिव्यक्ति। अन्यत्र इंगित छायावाद की कलागत विशेषताएँ अपने उत्कृष्ट रूप में इनके काव्य में उभरी हुई दिखाई देती हैं।

‘आँसू मानवीय विरह का एक प्रबन्ध काव्य है। इसमें स्मृतिजन्य मनोदशा एवं प्रियतम के अलौकिक रूप-सौन्दर्य का मार्मिक वर्णन किया गया है। ‘लहर’ आत्मपरक प्रगीत मुक्तक है, जिसमें कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुन्दर और मधुर रूपकमय यह गीत ‘सहर’ से संगृहीत है।

बीती विभावरी जाग री ।।
अम्बर-पनघट में डुबो रही ;
तारा-घट ऊषा नागरी ।

‘प्रसाद’ की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है-कामायनी महाकाव्य, जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव- चेतना के विकास का काव्यमय निरूपण किया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, “यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसके विचारात्मक आधार के अनुसार श्रद्धा या रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शान्तिमय आनन्द का अनुभव कराती हैं। वही उसे आनन्द-धाम तक पहुँचाती है, जब कि इड़ा या बुद्धि आनन्द से दूर भगाती है।” अन्त में कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान तीनों के सामंजस्य पर बल दिया है; यथा-

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी क्यों हो मन की ?
एक दूसरे से मिल न सके, यह विडम्बना जीवन की ।

श्रेष्ठ गद्यकार-गद्यकार प्रसाद की सर्वाधिक ख्याति नाटककार के रूप में है। उन्होंने गुप्तकालीन भारत को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करके गाँधीवादी अहिंसामूलक देशभक्ति का सन्देश दिया है। साथ ही अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों का सफल चित्रण किया है। नारी की स्वतन्त्रता एवं महिमा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है। उनके प्रत्येक नाटक का संचालन सूत्र किसी नारी पात्र के ही हाथ में रहता है। उपन्यास और कहानियों में भी सामाजिक भावना का प्राधान्य है। उनमें दाम्पत्य-प्रेम के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है। उनके निबन्ध विचारात्मक एवं चिन्तनप्रधान हैं, जिनके माध्यम से प्रसाद ने काव्य और काव्य-रूपों के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

उपसंहार-–पद्य और गद्य की सभी रचनाओं में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित हिन्दी है। इनकी शैली आलंकारिक एवं साहित्यिक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी गद्य-रचनाओं में भी इनका छायावादी कवि हृदय झाँकता हुआ दिखाई देता है। मानवीय भावों और आदर्शों में उदारवृत्ति का सृजन विश्व-कल्याण के प्रति इनकी विशाल-हृदयता का सूचक है। हिन्दी-साहित्य के लिए प्रसाद जी की यह बहुत बड़ी देन है। ‘प्रसाद’ की रचनाओं में छायावाद पूर्ण प्रौढ़ता, शालीनता, गुरुता और गम्भीरता को प्राप्त दिखाई देता है। अपनी विशिष्ट कल्पना शक्ति, मौलिक अनुभूति एवं नूतन अभिव्यक्ति पद्धति के फलस्वरूप प्रसाद हिन्दी-साहित्य में मूर्धन्य स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। समग्रतः यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत महान् है जिस कारण वे मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार रहे हैं।

मेरा प्रिय वैज्ञानिक : चन्द्रशेखर वेंकटरमन [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रारम्भिक परिचय,
  3. शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र,
  4. वैज्ञानिक उपलब्धियाँ व नोबेल पुरस्कार,
  5. अन्य पुरस्कार व सम्मान,
  6. निधन एवं उपसंहार।

प्रस्तावना–भारत सदियों से ऐसे मेहपुरुषों की भूमि रही है, जिनके कार्यों से पूरी मानवता का कल्याण हुआ है। ऐसे महापुरुषों की सूची में केवल समाज-सुधारकों, साहित्यकारों एवं आध्यात्मिक गुरुओं के ही नहीं, बल्कि कई वैज्ञानिकों के भी नाम आते हैं। चन्द्रशेखर वेंकटरमन ऐसे ही एक महान् भारतीय वैज्ञानिक थे, जिनकी खोजों के फलस्वरूप विश्व को कई प्राकृतिक रहस्यों का पता लगा। ये ही मेरे आदर्श वैज्ञानिक हैं।।

प्रारम्भिक परिचय-चन्द्रशेखर वेंकटरमन का जन्म 7 नवम्बर, 1888 को तमिलनाडु राज्य में तिरुचिरापल्ली नगर के निकट तिरुवनईकवल नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम चन्द्रशेखर अय्यर एवं माता का नाम पार्वती अम्माल था। चूंकि वेंकटरमन के पिता भौतिक विज्ञान एवं गणित के विद्वान् थे तथा विशाखापत्तनम में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रमन को विज्ञान के प्रति गहरी रुचि एवं अध्ययनशीलता विरासत में मिली। एक वैज्ञानिक होने के बावजूद धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्तित्व उन पर अपनी माँ के स्पष्ट प्रभाव को दर्शाता है, जो संस्कृत की अच्छी जानकार एवं धार्मिक प्रवृत्ति की थीं।

शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र–रमन की प्रारम्भिक शिक्षा विशाखापत्तनम में हुई। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए ये चेन्नई चले गए। वहीं उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1994 ई० में बी०ए० एवं 1907 ई० में एम०ए० की डिग्रियाँ प्राप्त की। बी०ए० में उन्होंने कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए गोल्ड मेडल प्राप्त किया था तथा एम०ए० प्रथम श्रेणी में अत्युच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण हुए थे। 1907 ई० में ही ये भारतीय वित्त विभाग द्वारा आयोजित परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर कलकत्ता (कोलकाता) में सहायक महालेखपाल के पद पर नियुक्त हुए। उस समय उनकी आयु मात्र 19वर्ष थी। इतनी कम आयु में इतने उच्च पद पर नियुक्त होने वाले वे पहले भारतीय थे। सरकारी नौकरी के दौरान भी उन्होंने विज्ञान का दामन नहीं छोड़ा और कलकत्ता की भारतीय विज्ञान प्रचारिणी संस्था के संस्थापक डॉ० महेन्द्रलाल सरकार के सुपुत्र वैज्ञानिक डॉ० अमृतलाल सरकार के साथ अपना वैज्ञानिक शोधकार्य करते रहे। 1911 ई० में वे डाक-तार विभाग के अकाउण्टेन्ट जनरल बने। इसी बीच उन्हें भारतीय विज्ञान परिषद् का सदस्य भी बनाया गया। 1917 ई० में विज्ञान को अपना सम्पूर्ण समय देने के लिए उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए। उस समय प्राचार्य का वह पद पालित पद में रूप में था।

वैज्ञानिक उपलब्धियाँ व नोबेल पुरस्कार-सरकारी नौकरी को छोड़कर भौतिक विज्ञान के प्राचार्य पद पर नियुक्त होने के पीछे उनका उद्देश्य अपने वैज्ञानिक अनुसन्धानों को अधिक समय देना था। इस दौरान उनके शोध-पत्र देश-विदेश की कई वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। अपने शोध और अनुसन्धान को गति प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने कई विदेश यात्राएँ भी की। 1921 ई० में ऐसी ही एक समुद्र यात्रा के दौरान समुद्र के गहरे नीले पानी ने उनका ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींचा। फलस्वरूप उन्होंने पानी, हवा, बर्फ आदि पारदर्शक माध्यमों के अणुओं द्वारा परिक्षिप्त होने वाले प्रकाश का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने अपने अनुसन्धानों से यह सिद्ध कर दिया कि पदार्थ के भीतर एक विद्युत तरल पदार्थ होता है, जो सदैव गतिमान रहता है। इसी तरल पदार्थ के कारण केवल पारदर्शक द्रवों में ही नहीं, बल्कि बर्फ तथा स्फटिक जैसे पारदर्शक पदार्थों और अपारदर्शी वस्तुओं में भी अणुओं की गति के कारण प्रकाश किरणों का परिक्षेपण हुआ करता है। किरणों के इसी प्रभाव को ‘रमन प्रभाव’ के नाम से जाना जाता है।

इस खोज के फलस्वरूप यह रहस्य खुला कि आकाश नीला क्यों दिखाई पड़ता है, वस्तुएँ विभिन्न रंगों की क्यों दिखती हैं और पानी पर हिमशैल हरे-नीले क्यों दिखते हैं। इसके अतिरिक्त इस खोज के फलस्वरूप विज्ञान जगत् को असंख्य जटिल यौगिकों के अणु विन्यास को सुलझाने से सम्बन्धित अनेक लाभ हुए। इस खोज के महत्त्व को देखते हुए 1930 ई० में रमन को भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। रमन की रुचि संगीत में थी इसलिए कलकत्ता विश्वविद्यालय की नौकरी के दौरान उन्होंने ध्वनि कम्पन एवं शब्द-विज्ञान के क्षेत्र में भी रोचक बातों का पता लगाया था। 1934 ई० में उन्होंने बंगलौर (बंगलुरु) में भारतीय विज्ञान अकादमी की स्थापना की तथा 1948 से नवस्थापित रमन अनुसन्धान संस्थान, बंगलौर (बंगलुरु) में निदेशक पद पर आजीवन कार्य करते रहे। इस संस्थान में वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक हीरों तथा अन्य रनों की बनावट के बारे में अनुसन्धान करते रहे।

अन्य पुरस्कार व सम्मान–1930 ई० में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार के अतिरिक्त, चन्द्रशेखर वेंकटरमन की उपलब्धियों के लिए देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों एवं सरकारों ने उन्हें कई उपाधियाँ एवं पुरस्कार देकर सम्मनित किया। 1924 ई० में उन्हें रॉयल सोसाइटी का ‘फैलो’ चुना गया, तो 1929 ई० में ‘नाइट’ की पदवी से विभूषित किया गया। सोवियत रूस का श्रेष्ठतम ‘लेनिन शान्ति पुरस्कार’ उन्हें प्रदान किया गया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की। इसके अतिरिक्त इटली की विज्ञान परिषद् ने ‘मेटयूसी पदक’, अमेरिका ने ‘फ्रेंकलिन पदक’ तथा इंग्लैण्ड ने ‘ह्यूजेज पदक’ प्रदान कर रमन को सम्मानित किया। 1954 ई० में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया। यह सम्मान कला, साहित्य और विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए की गई विशिष्ट सेवा और जन-सेवा में उत्कृष्ट योगदान को सम्मानित करने के लिए प्रदान किया जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने जो महान् अनुसन्धान किए थे, उनके लिए वे इसे सम्मान के वास्तविक हकदार थे। उन्होंने ‘रमन प्रभाव’ की खोज 28 फरवरी, 1928 को की थी, इसलिए 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारतीय डाक-तार विभाग ने उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों के महत्त्व को देखते हुए एक डाकटिकट जारी करके श्री रमन को सम्मानित किया।

निधन एवं उपसंहार-चन्द्रशेखर वेंकटरमन वैज्ञानिक एवं शिक्षक ही नहीं, बल्कि एक कुशल वक्ता तथा संगीतप्रेमी भी थे। उन्होंने जीवन भर विज्ञान की सेवा की और रमन अनुसन्धान संस्थान के निदेशक पद पर रहते हुए उनकी मृत्यु 21 नवम्बर, 1970 को 81 वर्ष की अवस्था में हो गई। अपने संस्थान के प्रति उनके अनुराग को देखते हुए उनका दाह-संस्कार संस्थान के प्रांगण में ही किया गया। भारत को वैज्ञनिक अनुसन्धान के क्षेत्र में अग्रसर करने में रमन के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने जो खोजें की थीं, आज उनका विस्तार विज्ञान की अनेक शाखाओं तक हो चुका है। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व भारतीय युवा वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा का बहुमूल्य स्रोत है।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi साहित्यिक निबन्ध

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi साहित्यिक निबन्ध are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi साहित्यिक निबन्ध.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name साहित्यिक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi साहित्यिक निबन्ध

साहित्यिक निबन्ध

साहित्य समाज का दर्पण है [2011, 14, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • साहित्य और मानव-जीवन 1. साहित्य और समाज
  • साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है। [2010, 11, 12, 15, 17]
  • साहित्य और जीवन
  • सामाजिक विकास में साहित्य की उपयोगिता [2017]
  • साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध [2017]

प्रमुख विचार-विन्द–

  1. साहित्य क्या है ?
  2. साहित्य की कतिपय परिभाषाएँ,
  3. समाज क्या है ?
  4. साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध : साहित्य समाज को दर्पण,
  5. साहित्य की रचनाप्रक्रिया,
  6. साहित्य का समाज पर प्रभाव,
  7. उपसंहार

साहित्य क्या है?-‘साहित्य’ शब्द ‘सहित’ से बना है। ‘सहित’ का भाव ही साहित्य कहलाता है। (सहितस्य भावः साहित्यः)। ‘सहित’ के दो अर्थ हैं-साथ एवं हितकारी (स + हित = हितसहित) या कल्याणकारी। यहाँ ‘साथ’ से आशय है-शब्द और अर्थ का साथ अर्थात् सार्थक शब्दों का प्रयोग। सार्थक शब्दों का प्रयोग तो ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाएँ करती हैं। तब फिर साहित्य की अपनी क्या विशेषता है ? वस्तुत: साहित्य का ज्ञान-विज्ञान की समस्त शाखाओं से स्पष्ट अन्तर है–(1) ज्ञान-विज्ञान की शाखाएँ बुद्धिप्रधान या तर्कप्रधान होती हैं जबकि साहित्य हृदयप्रधान। (2) ये शाखाएँ तथ्यात्मक हैं जबकि साहित्य कल्पनात्मक। (3) ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का मुख्य लक्ष्य मानव की भौतिक सुख-समृद्धि एवं सुविधाओं का विधान करना है, पर साहित्य का लक्ष्य तो मानव के अन्त:करण को परिष्कार करते हुए, उसमें सदवृत्तियों का संचार करना है। आनन्द प्रदान कराना यदि साहित्य की सफलता है, तो मानव-मन को उन्नयन उसकी सार्थकता। (4) ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं में कथ्य (विचार-तत्त्व) ही प्रधान होता है, कथन-शैली गौण। वस्तुत: भाषा-शैली कहाँ विचाराभिव्यक्ति की साधनमात्र है। दूसरी ओर साहित्य में कथ्य से अधिक शैली का महत्व है। उदाहरणार्थ-

जल उठा स्नेह दीपक-सा
नवनीत हृदय था मेरा,
अब शेष घूमरेखा से
चित्रित कर रहा अंधेरा

कवि का कहना केवल यह है कि प्रिय के संयोगकाल में जो हृदये हर्षोल्लास से भरा रहता था, वही अब उसके वियोग में गुहरे विषाद में डूब गया है। यह एक साधारण व्यापार है, जिसका अनुभव प्रत्येक प्रेमी-हृदय करता है, किन्तु कवि ने दीपक के रूपक द्वारा इसी साधारण-सी बात को अत्यधिक चमत्कारपूर्ण ढंग से कहा है, जो पाठक के हृदय को कहीं गहरा छू लेता है।

स्पष्ट है कि साहित्य में भाव और भाषा, कथ्य और कथन-शैली (अभिव्यक्ति)-दोनों का समान महत्त्व है। यह अकेली विशेषता ही साहित्य को ज्ञान-विज्ञान की शेष शाखाओं से अलग करने के लिए पर्याप्त है।

साहित्य की कतिपय परिभाषाएँ–प्रेमचन्द जी साहित्य की परिभाषा इन शब्दों में देते हैं, “सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है-एक जिज्ञासा का, दूसरा प्रयोजन का और तीसरा आनन्द का। जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है और आनन्द को सम्बन्ध केवल साहित्य का विषय है। सत्य जहाँ आनन्द का स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। इस बात को विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर इन शब्दों में कहते हैं, “जिस अभिव्यक्ति का मुख्य लक्ष्य प्रयोजन के रूप को व्यक्त करना नहीं, अपितु विशुद्ध आनन्द रूप को व्यक्त करना है, उसी को मैं साहित्य कहता हूँ।” प्रसिद्ध अंग्रेज समालोचक दक्विन्सी (De Quincey) के अनुसार साहित्य का दृष्टिकोण उपयोगितावादी न होकर मानवतावादी है। “ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का लक्ष्य मानव को ज्ञानवर्द्धन करना है, उसे शिक्षा देना है। इसके विपरीत साहित्य मानव का अन्त:विकास करता है, उसे जीवन जीने की कला सिखाता है, चित्तप्रसादन द्वारा उसमें नूतन प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संचार करता है।”

समाज क्या है ?--एक ऐसा मानव-समुदाय, जो किसी निश्चित भू-भाग पर रहता हो, समान परम्पराओं, इतिहास, धर्म एवं संस्कृति से आपस में जुड़ा हो तथा एक भाषा बोलता हो, समाज कहलाता है।

साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध: साहित्य समाज का दर्पण–समाज और साहित्य परस्पर घनिष्ठ रूप से आबद्ध हैं। साहित्य का जन्म वस्तुत: समाज से ही होता है। साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही घटक होता है। वह अपने समाज की परम्पराओं, इतिहास, धर्म, संस्कृति आदि से ही अनुप्राणित होकर साहित्य-रचना करता है और अपनी कृति में इनका चित्रण करता है। इस प्रकार साहित्यकारे अपनी रचना की सामग्री किसी समाज विशेष से ही चुनता है तथा अपने समाज की शाओं-आकांक्षाओं, सुख-दु:खों, संघर्षों, अभावों और उपलब्धियों को वाणी देता है तथा उसका प्रामाणिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। उसकी समर्थ वाणी का सहारा पाकर समाज अपने स्वरूप को पहचानता है और अपने रोग का सही निदान पाकर उसके उपचार को तत्पर होता है। इसी कारण किसी साहित्य विशेष को पढ़कर उस काल के समाज का एक समग्र-चित्र मानसपटल पर अंकित हो सकता है। इसी अर्थ में साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है।

साहित्य की रचना-प्रक्रिया-समर्थ साहित्यकार अपनी अतलस्पर्शिनी प्रतिभा द्वारा सबसे पहले अपने समकालीन सामाजिक जीवन का बारीकी से पर्यवेक्षण करता है, उसकी सफलताओं-असफलताओं, उपलब्धियों-अभावों, क्षमताओं-दुर्बलताओं तथा संगतियों-विसंगतियों की गहराई तक थाह लेता है। इसके पश्चात् विकृतियों और समस्याओं के मूल कारणों का निदान कर अपनी रचना के लिए उपयुक्त सामग्री का चयन करता है और फिर इस समस्त बिखरी हुई, परस्पर असम्बद्ध एवं अति साधारण-सी दीख पड़ने वाली सामग्री को सुसंयोजित कर उसे अपनी ‘नवनवोन्मेषशालिनी कल्पना के साँचे में ढालकर ऐसा कलात्मक रूप एवं सौष्ठव प्रदान करता है कि सहदय अध्येता रस-विभोर हो नूतन प्रेरणा से अनुप्राणित हो उठता है। कलाकार का वैशिष्ट्य इसी में है कि उसकी रचना की अनुभूति एकाकी होते हुए भी सार्वदेशिक-सार्वकालिक बन जाए तथा अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए चिरन्तन मानव-मूल्यों से मण्डित भी हो। उसकी रचना न केवल अपने युग, अपितु आने वाले युगों के लिए भी नवस्फूर्ति का अजस्र स्रोत बन जाए और अपने देश-काल की उपेक्षा न करते हुए देश-कालातीत होकर मानवमात्र की अक्षय निधि बन जाए। यही कारण है कि महान् साहित्यकार किसी विशेष देश, जाति, धर्म एवं भाषा-शैली के समुदाय में जन्म लेकर भी सारे विश्व का अपना बन जाता है; उदाहरणार्थ-वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, होमर, शेक्सपियर आदि किसी देश विशेष के नहीं मानवमात्र के अपने हैं, जो युगों से मानव को नवचेतना प्रदान करते आ रहे हैं और करते रहेंगे।

साहित्य का समाज पर प्रभाव-साहित्यकार अपने समकालीन समाज से ही अपनी रचना के लिए आवश्यक सामग्री का चयन करता है; अत: समाज पर साहित्य का प्रभाव भी स्वाभाविक है।

जैसा कि ऊपर संकेतित किया गया है कि महान् साहित्यकार में एक ऐसी नैसर्गिक या ईश्वरदत्त प्रतिभा होती है, एक ऐसी अतलस्पर्शिनी अन्तर्दृष्टि होती है कि वह विभिन्न दृश्यों, घटनाओं, व्यापारों या समस्याओं के मूल तक तत्क्षण पहुँच जाता है, जब कि राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री या अर्थशास्त्री उसका कारण बाहर टटोलते रह जाते हैं। इतना ही नहीं, साहित्यकार रोग का जो निदान करता और उपचार सुझाता है, वही वास्तविक समाधान होता है। इसी कारण प्रेमचन्द जी ने कहा है कि “साहित्य राजनीति के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है, राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं।’ अंग्रेज कवि शेली ने कवियों को ‘विश्व के अघोषित विधायक’ (un-acknowledgedlegislators of the world) कहा है।

प्राचीन ऋषियों ने कवि को विधाता और द्रष्टा कहा है-‘कविर्मनीषी धाता स्वयम्भूः।’ साहित्यकार कितना बड़ा द्रष्टा होता है, इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। आज से लगभग 70-75 वर्ष पूर्व श्री देवकीनन्दन खत्री ने अपने तिलिस्मी उपन्यास ‘रोहतासमठ’ में यन्त्रमानव (robot) के कार्यों को विस्मयकारी चित्रण किया था। उस समय यह सर्वथा कपोल-कल्पित लगा; क्योंकि उस काल में यन्त्रमानव की बात किसी ने सोची तक न थी, किन्तु आज विज्ञान ने उस दिशा में बहुत प्रगति कर ली है, यह देख श्री खत्री की नवनवोन्मेष-शालिनी प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। इसी प्रकार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व पुष्पक विमान के विषय में पढ़ना कल्पनामात्र लगता होगा, परन्तु आज उससे कहीं अधिक प्रगति वैमानिकी ने की है।

साहित्य द्वारा सामाजिक और राजनीतिक क्रान्तियों के उल्लेखों से तो विश्व का इतिहास भरा पड़ा है। सम्पूर्ण यूरोप को गम्भीर रूप से आलोड़ित कर डालने वाली फ्रांस की राज्य क्रान्ति (1789 ई०), रूसो की ‘सोसियल कॉन्ट्रेक्ट’ (The Social Contract–सामाजिक-अनुबन्ध) नामक पुस्तक के प्रकाशन का ही परिणाम थी। आधुनिक काल में चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यासों ने इंग्लैण्ड से कितनी ही घातक सामाजिक एवं शैक्षिक रूढ़ियों का उन्मूलन कराकर नूतन स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात कराया।

आधुनिक युग में प्रेमचन्द के उपन्यासों में कृषकों पर जमींदारों के बर्बर अत्याचारों एवं महाजनों द्वारा उनके क्रूर शोषण के चित्रों ने समाज को जमींदारी-उन्मूलन एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना को प्रेरित किया। उधर बंगाल में शरत् चन्द्र ने अपने उपन्यासों में कन्याओं के बाल-विवाह की अमानवीयता एवं विधवा-विवाह-निषेध की नृशंसता को ऐसी सशक्तता से उजागर किया कि अन्तत: बाल-विवाह को कानून द्वारा निषिद्ध घोषित किया गया एवं विधवा-विवाह का प्रचलन हुआ।

उपसंहार-निष्कर्ष यह है कि समाज और साहित्य का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। साहित्य समाज से ही उद्भूत होता है; क्योंकि साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही अंग होता है। वह इसी से प्रेरणा ग्रहणकर साहित्य-रचना करता है एवं अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता हुआ समकालीन समाज का मार्गदर्शन करता है, किन्तु साहित्यकार की महत्ता इसमें है कि वह अपने युग की उपज होने पर भी उसी से बँधकर नहीं रह जाये, अपितु अपनी रचनाओं से चिरन्तन मानवीय आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना द्वारा देशकालातीत बनकर सम्पूर्ण मानवता को नयी ऊर्जा एवं प्रेरणा से स्पन्दित करे।

इसी कारण साहित्य को विश्व-मानव की सर्वोत्तम उपलब्धि माना गया है, जिसकी समकक्षता संसार की मूल्यवान्-से-मूल्यवान् वस्तु भी नहीं कर सकती; क्योंकि संसार का सारा ज्ञान-विज्ञान मानवता के शरीर का ही पोषण करता है, जब कि एकमात्र साहित्य ही उसकी आत्मा को पोषक है। एक अंग्रेज विद्वान् ने कहा है कि “यदि कभी सम्पूर्ण अंग्रेज जाति नष्ट भी हो जाए, किन्तु केवल शेक्सपियर बचा रहे तो अंग्रेज जाति नष्ट नहीं हुई मानी जाएगी।” ऐसे युगस्रष्टा और युगद्रष्टा कलाकारों के सम्मुख सम्पूर्ण मानवता कृतज्ञतापूर्वक नतमस्तक होकर उन्हें अपने हृदय-सिंहासन पर प्रतिष्ठित करती है एवं उनके यश को दिग्दिगन्तव्यापी बना देती है। अपने पार्थिव शरीर से तिरोहित हो जाने पर भी वे अपने यशरूपी शरीर से इस धराधाम पर सदा अजर-अमर बने रहते हैं|

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ॥

मेरा प्रिय ग्रन्थ: श्रीरामचरितमानस [2015]

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरी प्रिय पुस्तक
  • हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय, अमर साहित्यिक कृति

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना : पुस्तकों का महत्त्व,
  2. श्रीरामचरितमानस की महत्ता,
  3. कथा-संगठन,
  4. चरित्र-चित्रण,
  5. भक्ति-भावना,
  6. भाव-व्यंजना,
  7. भाषा-शैली,
  8. आदर्श की स्थापना,
  9. भारत पर तुलसी का ऋण,
  10. उपसंहार

प्रस्तावना : पुस्तकों का महत्त्व-किसी विद्वान् ने लिखा है कि व्यक्ति को अपने यौवन में ही किसी लेखक या पुस्तक को अपना प्रिय अवश्य बना लेना चाहिए, जिससे वह उससे आजीवन सोत्साह जीने का सम्बल प्राप्त कर सके। पुस्तकों से अच्छा साथी दूसरा नहीं। वे व्यक्ति को सहारा देती हैं, उससे सहारा नहीं माँगतीं। हर समय व्यक्ति के पास उपस्थित रहती हैं, किन्तु अपनी उपस्थिति से उसका ध्यान नहीं बँटातीं। एक सन्मित्र की भाँति सदा परामर्श को तत्पर रहती हैं, फिर भी अपनी राय उस पर नहीं थोपतीं।

पुस्तक की इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित होकर मैंने उनमें विशेष रुचि ली और ग्रन्थों का अध्ययन किया, जिसके स्वरूप मैंने अनुभव किया कि गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘श्रीरामचरितमानस’ एक सर्वांगपूर्ण रन हैं, जो हर दृष्टि से असाधारण है एवं महत्तम मानवीय मूल्यों तथा आदर्शों से स्पन्दित है।।

श्रीरामचरितमानस की महत्ता-वाल्मीकि रामायण के काल से लेकर आज तक समस्त रामकाव्यों की यदि तुलसीकृत ‘श्रीरामचरितमानस’ से तुलना की जाए, तो यह स्पष्टत: दीख पड़ेगा कि आदिकाव्य से उद्भूत रामकाव्य-परम्परा ‘मानस’ में आकर पूर्ण परिणति को प्राप्त हुई है। चाहे वस्तु संघटन कौशल की दृष्टि से देखें, चाहे पात्रों के चरित्र-चित्रण के चरमोत्कर्ष की दृष्टि से और चाहे महाकाव्य एवं नाटकीयता के अद्भुत सामंजस्य द्वारा प्राप्त शैली की विमुग्धकारिणी प्रौढ़ता की दृष्टि से; यह निष्कर्ष तर्कसंगत और साधार प्रतीत होगा, न कि मात्र भावुकताप्रेरित। फलत: क्या आश्चर्य, यदि ‘मानस’ संसार के कला-पारखियों का हृदयहार रहा है, जिसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि किसी भी रामचरित-विषयक काव्य के विश्व की विभिन्न भाषाओं में इतने अनुवाद उपलब्ध नहीं होते, जितने ‘श्रीरामचरितमानस’ के। एक ओर यदि अमेरिकी पादरी ऐटकिन्स ने अपनी आयु के श्रेष्ठ आठ वर्ष लगाकरे मानस का अंग्रेजी में पद्यानुवाद किया (जबकि इससे पूर्व उस भाषा में इसके कई अनुवाद विद्यमान थे), तो दूसरी ओर अनीश्वरवादी रूस के मूर्धन्य विद्वान् प्रोफेसर वरान्नीकोव ने अपने अमूल्य जीवन का एक बड़ा भाग लगाकर तथा द्वितीय विश्वयुद्ध की भीषण परिस्थिति में कजाकिस्तान में शरणार्थी के रूप में रहकर भी रूसी भाषा में इसका पद्यानुवाद किया। उपर्युक्त मनीषियों के अतिरिक्त गार्सा दे तासी (फ्रेंच); ग्राउज़, ग्रियर्सन, ग्रीव्ज, कारपेण्टर, हिल (आंग्लभाषी विद्वान्) आदि न जाने कितने काव्यमर्मज्ञ तुलसी की प्रतिभा पर मुग्ध हैं।

कथा-संगठन--यदि मानस पर कथावस्तु की दृष्टि से विचार करें तो हम पाएँगे कि इसमें गोस्वामी जी ने पुराने प्रसंगों को नया रूप देकर, कई को अधिक उपयुक्त स्थल पर रखकर, कुछ को संक्षिप्त और कुछ को विस्तृत कर तथा कुछ नये प्रसंगों की उद्भावना कर कथावस्तु को सर्वथा मौलिक बना दिया है। उनके बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड का अधिकांश तो मौलिक है ही, पर अयोध्याकाण्ड में तो उनकी कुशलता देखते ही बनती है। इसके पूर्वार्द्ध के संघर्षमय वातावरण की उन्होंने जिस कलानिपुणता से सृष्टि की है, उस पर उनकी मौलिकता की छाप है और उत्तरार्द्ध का भरत-चरित्र तो उनकी सर्वथा अनूठी रचना है। भरत के माध्यम से उन्होने अपनी भक्ति-भावना को साकार रूप प्रदान किया है। आरम्भ से अन्त तक ‘मानस’ की कथावस्तु में असाधारण प्रवाह है।

चरित्र-चित्रण-श्रीरामचरितमानस में प्रस्तुत चरित्र-चित्रण अपनी मौलिकता में वाल्मीकीय ‘रामायण’ और ‘अध्यात्म’ को बहुत पीछे छोड़ जाता है। सामान्यत: इसके सभी चरित्र नये साँचे में ढलकर नयी गरिमा से मण्डित हुए हैं, पर राम के चरित्र को इस ग्रन्थ में जिन मौलिक उपादानों से गढ़ा गया है, वे सर्वथा अभूतपूर्व हैं। इस ग्रन्थ में पहली बार राम में नरत्व के साथ परब्रह्म का सामंजस्य स्थापित किया गया है। राम में शक्ति, शील तथा सौन्दर्य की पराकाष्ठा दिखाकर राम के शील का जैसा दिव्य-चित्रण किया गया है, वह सर्वथा अभूतपूर्व और अतुलनीय है।

भक्ति-भावना–‘श्रीरामचरितमानस’ में तुलसी की भक्ति सेवक-सेव्य भाव की होते हुए भी परम्परागत भक्ति से भिन्न है। गोस्वामी जी की भक्ति साधन नहीं, स्वयं साध्य है और ज्ञानादि उसके चाकरमात्र हैं। इस ग्रन्थ में गोस्वामी जी ने भरत के रूप में अपनी भक्ति का आदर्श खड़ा किया है और भरत अपनी तन्मयता में राधाभाव के समीप पहुँच जाते हैं; अतः उनके विषय में यह नि:संकोच कहा जा सकता है। कि “माधुर्य भाव की उपासना में जो स्थान राधा का है, दास्य भाव की उपासना में वही स्थान भरत का है।” इस प्रकार तुलसी की भक्ति का स्वरूप सर्वथा मौलिक बन पड़ा है जिसमें छुटपन-बड़प्पन या ऊँच-नीच जैसा कोई भेदभाव नहीं। इस भक्तिरूपी रसायन द्वारा श्रीरामचरितमानस के माध्यम से गोस्वामी जी ने मृतप्रायः हिन्दू जाति को नवजीवन प्रदान किया।

भाव-व्यंजना-गोस्वामी जी रससिद्ध कवीश्वर थे, भाव और भाषा के अप्रतिम सम्राट् थे। उन्होंने ‘मानस’ में शास्त्रोक्त नवं रसों को तो साकार किया ही, अपनी अलौकिक प्रतिभा से भक्ति-रस नामक एक नूतन रस की भी सृष्टि कर डाली। गोस्वामी जी ने रस-परिपाक के अतिरिक्त संचारी भावों एवं अनुभावों की अलग से भी ऐसी कुशल योजना की है कि उनकी काव्य-प्रतिभा पर दंग रह जाना पड़ता है। ‘श्रीरामचरितमानस’ से संचारियों एवं अनुभावों का लिग्वित, योजनाबद्ध समग्र चित्र खड़ा करने का कौशल द्रष्टव्य है-

उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहँ पट कहँ निषंग धनु तीरा।।

भरत के आगमन पर प्रेमजन्य अधीरता एवं हर्षजन्य आवेग के कारण राम जो अति वेगपूर्वक उठते हैं, उससे जहाँ एक ओर उनका भरत के प्रति अनुराग साकार हो उठा है, वहीं उनकी मानव सुलभ अधीरता भी चित्रित हो जाती है।

‘श्रीरामचरितमानस में उपमाओं की सादगी एवं मार्मिकता पर सारा सहदय समाज मुग्ध है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा–सम्पूर्ण लंका में एकमात्र विभीषण ही सन्त स्वभाव के थे। शेष सारा समाज दुर्जन और परपीड़क था। ऐसों के बीच में रहकर जीने के लिए विवश विभीषण अपनी दशा का वर्णन करते हुए हनुमान जी से कहते हैं—

सुनह पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्ह महँ जीभ बिचारी॥

अर्थात् हे पवनपुत्र! लंका में मैं वैसा ही विवश जीवन जी रहा हूँ, जैसा बत्तीस दाँतों के बीच में रहकर जीने को विवश बेचारी जीभ न दाँतों का संग छोड़ सकती है, न उनसे निश्चिन्त हो सकती है।
इसी प्रकार काव्य के समस्त अंगों-उपांगों कर ‘श्रीरामचरितमानस’ में चित्रण इसे एक नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है।

भाषा-शैली—मानस में महाकवि तुलसी ने संस्कृत की महत्ता एवं एकछत्र साम्राज्य के उस युग में अनगढ़ लोकभाषा को अपनाकर उसे बड़े मनोयोग से सजाया-सँवारा। इस ग्रन्थ में इन्होंने अपनी असामान्य प्रतिभा के बल पर रस को रसात्मकता, अलंकार को अलंकरण तथा छन्द को नयी गति-भंगिमा और संगीतात्मकता प्रदान की तथा हमारे आस-पास के सुपरिचित जीवन से उपमानों का चयनकर उनमें नयी अर्थवत्ता ओर व्यंजकता भर दी। काव्य में नाटकीयता के मणिकांचन योग द्वारा नयी शैली को जन्म दिया, जिसने एक ही ग्रन्थ को श्रव्य-काव्य और दृश्य-काव्य दोनों बना दिया।

आदर्श की स्थापना-मानस की रामकथा—एक आदर्श मानव की, एक आदर्श परिवार की, एक आदर्श एवं पूर्ण जीवन की कथा है। तुलसी ने वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक–प्रत्येक क्षेत्र में जिन आदर्शों की स्थापना की, वे व्यक्ति के इहलौकिक और पारलौकिक-दोनों ही जीवनों को सँवारने वाले हैं। इसी कारण ‘मानस’ पारिवारिक जीवन का महाकाव्य कहलाता है; क्योंकि परिवार ही व्यक्ति की प्रथम पाठशाला है और पारिवारिक जीवन की सुदृढ़ता शेष समस्त क्षेत्रों को भी सुदृढ़ बनाती है। आदर्श राज्य के रूप में तुलसी के रामराज्य की कल्पना आरम्भ से ही भारतीय जन-मानस को प्रेरणा देती रही है और देती रहेगी।

भारत पर तुलसी का ऋण—इस सम्बन्ध में डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी लिखते हैं कि “अपनी भक्ति के साथ-साथ समाज की रक्षा के लिए उनका अपरिसीम आग्रह था और इसी भक्ति और समाज-रक्षा की चेष्टा के फलस्वरूप ‘श्रीरामचरितमानस’ नामक महाग्रन्थ रचित हुआ, जिसकी पूतधारा ने आज तक उत्तर भारत की हिन्दू जनता के चित्त को सरस और शक्तिमान बनाये रखा है और उसके चरित्र को सामाजिक सद्गुणों के आदर्श की ज्योति से सदा आलोकित कर रखा है।”

उपसंहार-अस्तु, मौलिकता का श्रेष्ठतम सम्बल पाकर ही तुलसी का ‘श्रीरामचरितमानस लोक-मानस बन सका है, यह तुलसी की कवि-प्रतिभा और उनकी जागरूक कलाकारिता का प्रमाण है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-“तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, समाज-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने सब ओर से समता (balance) की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि की, जो अब तक उत्तर भारत का मार्गदर्शक रहा है और उस दिन भी रहेगा, जिस दिन नवीन भारत का जन्म हो गया होगा।”

तुलसी कृत ‘श्रीरामचरितमानस’ का मूल्यांकन करते हुए डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं। कि, “श्रीरामचरितमानस विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी का सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रन्थ है।” भारतीय वाङमय के समुद्र से अनेक विचार-मेघ उठे और बरसे। उनके अमृत-तुल्य जल की जिस मात्रा में जनता को आवश्यकता थी, उसे समेटकर मानो गोसाईं जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में भर दिया है। जो अन्यत्र था, वह साररूप से यहाँ आ गया है। तुलसी का ‘श्रीरामचरितमानस’ विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी के साहित्याकाश का खुला नेत्र है, उसे ही तत्कालीन लोक की दर्शनक्षमता या आँख कह सकते हैं।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi साहित्यिक निबन्ध help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi साहित्यिक निबन्ध, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 4
Chapter Name Mughal Period:
Jahangeer to Aurangzeb
(मुगलकाल- जहाँगीर से
औरंगजेब तक)
Number of
Questions Solved
15
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1605 ई०
2. 1627 ई०
3. 1628 ई०
4. 1657 ई०
5. 1707 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-87 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 87 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 88 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 88 व 89 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“जहाँगीर में विरोधी गुणों का सम्मिश्रण था” विवेचना कीजिए।
उतर:
जहाँगीर का चरित्र एवं व्यक्तित्व अत्यन्त विवादास्पद था। कुछ इतिहासकार उसे लोकप्रिय तथा उदार शासक मानते हैं तो कुछ आलसी, निकम्मा, विलासी, धर्म-असहिष्णु तथा क्रूर व्यक्तित्व वाला। अनेक इतिहासकार उसे विरोधी गुणों का सम्मिश्रण मानते हैं। स्मिथ के अनुसार “जहाँगीर कोमलता और क्रुरता, न्याय तथा चंचलता, शिष्टता एवं बर्बरता, बुद्धिमत्ता एवं लड़कपन का अद्वितीय सम्मिश्रण था।” वस्तुत: व्यक्तित्व और शासक के रूप में जहाँगीर में अनेक गुण और दुर्बलताएँ थीं।

प्रश्न 2.
“जहाँगीर की दक्षिणी नीति का मूल्याकंन कीजिए।
उतर:
दक्षिण अभियानों में जहाँगीर पूर्णतया असफल रहा। नए दुर्गों के जीतने की बात तो दूर रही, पिता द्वारा विजित भू-भाग भी वह अपने अधीन न रख सका। जहाँगीर के समय में दक्षिण भारत की राजनीति पर मलिक अम्बर छाया हुआ था। उसकी मृत्यु के बाद ही अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो सका।

प्रश्न 3.
नूरजहाँ के विषय में आप क्या जानते हैं?
उतर:
नूरजहाँ तेहरान के निवासी मिर्जा ग्यासबेग की पुत्री थी। उसका वास्तविक नाम महरुन्निसा था। महरुन्निसा का विवाह फारस के साहसी युवक अलीकुल बेग इस्तजलू के साथ हुआ। अलीकुल की हत्या के बाद महरुन्निसा ने जहाँगीर से विवाह कर लिया और उसे नूरमहल और नूरजहाँ की उपाधि मिली। नूरजहाँ ने मुगल राजनीति को प्रभावित ही नहीं किया था, अपितु स्वयं शासिका के रूप में प्रभावित हुई थी।

प्रश्न 4.
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति का परीक्षण कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति पूर्णत: विफल रहीं। शाहजहाँ का बल्ख व बदख्शाँ को विजित करने का सपना पूरा न हो सका अपितु मुगल साम्राज्य पर इसके प्रतिकूल प्रभाव पड़े। शाहजहाँ की मध्य एशियाई विजय-योजना में अपार धन की हानि हुई। इन युद्धों में मुगल सेना का विनाश तथा असफलता के कारण मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचा साथ ही मुगलों तथा मध्य एशिया में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अन्त हो गया।

प्रश्न 5.
शाहजहाँ के काल में साहित्य और कला की क्या प्रगति हुई?
उतर:
शाहजहाँ के काल में साहित्य और कला उन्नति के उच्च शिखर पर थे। साहित्य और ललितकलाओं के दृष्टिकोण से शाहजहाँ का काल स्वर्णयुग कहलाने का अधिकारी है। ‘गंगाधर’ और ‘गंगालहरी’ के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पण्डित, शाहजहाँ के राजकवि थे। संस्कृत ग्रन्थों, भगवद्गीता, उपनिषद्, रामायण आदि का अनुवाद भी इसी काल में हुआ। शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली का लालकिला, जामा मस्जिद, आगरा की मोती मस्जिद तथा आगरा की ही सर्वोत्कृष्ट कृति ताजमहल, शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। शाहजहाँ का ‘मयूर सिंहासन’ जो बहुमूल्य पत्थरों से जड़ित था तथा जिसके बीचों-बीच विश्वप्रसिद्ध हीरा कोहिनूर जगमगाता था, उसके गौरव में चार चाँद लगाने के लिए पर्याप्त था।

प्रश्न 6.
शाहजहाँ द्वारा निर्मित चार प्रमुख इमारतों के बारे में लिखिए।
उतर:
शाहजहाँ द्वारा निर्मित चार प्रमुख इमारतें निम्नवत् हैं

  1. दिल्ली का लाल किला-शाहजहाँ ने आगरा और फतेहपुर सीकरी को छोड़कर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और यहाँ लाल पत्थरों से एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसे लाल किला के नाम से जाना जाता है। इसके अन्दर की इमारतों में दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास प्रमुख हैं।
  2. जामा मस्जिद-लाल किले के सामने शाहजहाँ ने भारत की सबसे बड़ी मस्जिद का निर्माण कराया। इसमें दस हजार व्यक्ति सामुहिक रूप से नमाज अदा कर सकते हैं।
  3. मोती मस्जिद-आगरा के दुर्ग में शाहजहाँ ने शुद्ध संगमरमर से मस्जिद का निर्माण करवाया जो मोती मस्जिद के नाम से विख्यात है। यह संसार का सर्वोत्तम पूजा स्थल मानी जाती है।
  4. ताजमहल-शाहजहाँ की अमूल्य और सुन्दरतम कृति ताजमहल है। जो आगरा से यमुना नदी के तट पर संगमरमर से निर्मित है। ताजमहल का निर्माण उसने अपनी पत्नी मुमताज महल की स्मृति में बनवाया।

प्रश्न 7.
औरंगजेब ने हिन्दुओं के विरुद्ध कौन से कार्य किए?
उतर:
औरंगजेब ने हिन्दुओं को सरकारी नौकरियों से वंचित किया। हिन्दुओं के मंदिर और शिवालियों को तुड़वाकर मस्जिदें बनवा दी गई। सम्राट ने अनेक बार हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया। सिक्ख गुरु तेगबहादुर सिंह का इस्लाम स्वीकार न करने पर सिर कटवा दिया गया। दीपावली पर बाजारों में रोशनी करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। होली खेलने, मेलों तथा धार्मिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हिन्दुओं को धर्म-यात्रा पर भी कर देना पड़ता था।

प्रश्न 8.
औरंगजेब की असफलता के चार कारणों का उल्लेख कीजिए।
उतर:
औरंगजेब की असफलता के चार कारण निम्नवत हैं

  • धर्मान्धता एवं असहिष्णुतापूर्ण नीति
  • पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प
  • शासन का केन्द्रीकरण ।
  • राजपूत विरोधी नीति

प्रश्न 9.
मुगलों के पतन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
मुगलों के पतन के प्रमुख कारण निम्नवत हैं

  1. औरंगजेब का उत्तरदायित्व
  2. औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी
  3. मुगलों में उत्तराधिकार के नियम का अभाव
  4. मुगल सामन्तों का नैतिक पतन
  5. जागीरदारी संकट
  6. मुगलों की सैन्य दुर्बलताएँ
  7. बौद्धिक पतन
  8. मुगल साम्राज्य का आर्थिक दिवालियापन
  9. नौसेना का अभाव
  10. मुगल साम्राज्य की विशालता और मराठों का उत्कर्ष
  11. दरबार में गुटबाजी
  12. नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण
  13. यूरोपवासियों का आगमन

प्रश्न 10.
औरंगजेब राष्ट्रीय एकता में कहाँ तक बाधक था?
उतर:
औरंगजेब के कट्टरपन, शंकालु प्रवृत्ति, गैर-मुस्लिम नीति ने देश में राजनीतिक, गैर-वफादारी और वैमनस्य को हवा दी, इससे राष्ट्रीय एकता को गहरा आघात पहुँचा। औरंगजेब ने हिन्दू मन्दिरों, मठों को तुड़वाकर हिन्दू जाति से शत्रुता मोल ली। यह नीति उसके साम्राज्य निर्माण में बाधक थी। गैर-मुस्लिम नीति से वह भारत जैसे देश में कभी भी सफल संचालनकर्ता नहीं बन सकता था और ऐसा हुआ भी। उसकी इन नीतियों ने राष्ट्रीय एकता को खण्डित कर दिया और सम्पूर्ण राष्ट्र में अराजकता, अव्यवस्था फैल गई।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख करते हुए उसकी प्रमुख उपलब्धियों का विवेचन कीजिए।
उतर:
जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित थीं
1. खुसरो का विद्रोह-जहाँगीर के बादशाह बनने के उपरान्त सबसे पहली महत्वपूर्ण घटना उसके पुत्र खुसरो का विद्रोह थी। उदारतापर्वक आरम्भ किए हए साम्राज्य पर यह प्रथम आघात था। खुसरो दरबार में बड़ा लोकप्रिय था शक्तिशाली, मधुर-भाषी तथा चरित्रवान राजकुमार था। अकबर का खुसरो पर विशेष प्रेम था तथा विलासी और मद्यप जहाँगीर से असन्तुष्ट उसके अनेक दरबारी भी खुसरो को ही उसका उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। खुसरो की महत्वाकांक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी और वह सिंहासन प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। जहाँगीर भी खुसरो से असन्तुष्ट था तथा उसे विश्वासपात्र नहीं समझता था। जहाँगीर ने खुसरो को आगरा के दुर्ग में रहने दिया किन्तु उस पर कड़ा पहरा लगा दिया। खुसरो इस अपमान को सहन नहीं कर सका और 6 अप्रैल, 1606 ई० को अकबर के मकबरे के दर्शन करने के बहाने वह दुर्ग से बाहर निकल पड़ा तथा मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को लूटता हुआ, पानीपत जा पहुँचा। उधर शाही सेनाएँ शेख फरीद के नेतृत्व में खुसरो को पराजित करने के लिए चल पड़ी।

पानीपत में लाहौर का दीवान अब्दुर्रहीम; खुसरो से आकर मिल गया। खुसरो ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया और लाहौर की ओर बढ़ा। मार्ग में वह अमृतसर से कुछ किलोमीटर दूर तरनतारन में सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव की सेवा में उपस्थित हुआ। गुरु अर्जुनदेव ने उसे दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी और अपना आशीर्वाद भी दिया। खुसरो लाहौर जा पहुँचा किन्तु वहाँ के सूबेदार दिलावर खाँ ने किले के फाटक बन्द कर लिए। इस पर खुसरो ने लाहौर दुर्ग का घेरा डाल दिया, किन्तु इसी समय उसे सूचना मिली कि बादशाह स्वयं लाहौर के निकट आ पहुँचा है। इस पर भयभीत होकर खुसरो उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की ओर भागा। भैरोवल नामक स्थान पर पिता-पुत्र की सेनाओं में संघर्ष हुआ, जिसमें खुसरो की बुरी तरह पराजय हुई। सेना ने उसे पकड़ लिया तथा बन्दी बनाकर जहाँगीर के सम्मुख उपस्थित किया। जहाँगीर ने उसे कारावास में डलवा दिया तथा उसके सभी पक्षपातियों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी।

सिक्खों के गुरु अर्जुनदेव को भी सम्राट ने दरबार में बुलवाया तथा उनसे खुसरो की सहायता करने का कारण पूछा। गुरु अर्जुनदेव ने उत्तर दिया- “सम्राट अकबर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए ही मैंने राजकुमार की सहायता की थी, इसलिए नहीं कि वह तेरा सामना कर रहा था। किन्तु जहाँगीर ने उनकी सारी जागीर छीनकर उन्हें जेल में डाल दिया, जहाँ अनेक यातनाएँ देने के उपरान्त उसने उन्हें मरवा डाला। गुरु के इस कार्य से जहाँगीर अत्यन्त कुपित हुआ। उसने गुरु को दो लाख रुपया जुर्माना देने तथा गुरुग्रन्थसाहिब में से कुछ गीतों को निकालने की आज्ञा दी, जिसे गुरु ने ठुकरा दिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया। सम्राट का यह कार्य विवेकशून्य था। सिक्ख विचार परम्परा के अनुसार जहाँगीर ने अपने हठधर्म के आवेश में आकर ही यह दुष्कृत्य किया। सम्भवत: यह आरोप निराधार है परन्तु यह बात सत्य है कि गुरु के वध से सिक्खों और मुगलों के बीच भेदभाव उत्पन्न हो गए, जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब के समय में विद्रोह की आग भड़क उठी।

2. प्लेग का प्रकोप-1616 ई० में जहाँगीर के काल में भयंकर प्लेग का प्रकोप हुआ और उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक फैल गया। आगरा, लाहौर तथा कश्मीर में इसका विशेष प्रकोप था। जहाँगीर ने लिखा है कि यह बीमारी चूहों के द्वारा फैली थी। रोग का इलाज न हो सकने के कारण गाँव-के-गाँव तबाह हो गए। आठ वर्ष तक यह रोग चलता रहा तथा इससे भीषण जन-क्षति हुई। जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख उपलब्धियाँ- यद्यपि जहाँगीर में अकबर जैसी सैनिक प्रतिभा नहीं थी तथापि उसने कुछ सैनिक अभियान भी किए। उसके समय की सबसे प्रमुख घटना थी- मेवाड़ पर विजय एवं दक्षिण में सैनिक अभियान। जहाँगीर के समय में मुगलों को सैनिक क्षति भी उठानी पड़ी। कंधार उनके हाथों से निकल गया। जहाँगीर के प्रमुख विजय अभियान निम्नलिखित थे
(i) मेवाड़ विजय-अकबर ने अपने समय में मेवाड़ को जीतने का निरन्तर प्रयत्न किया था, परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। महाराणा प्रताप के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी महाराणा अमर सिंह ने भी अपने पिता की नीति को ही जारी रखा। अकबर के पश्चात् सलीम जब जहाँगीर के नाम से सम्राट बना तो वह मेवाड़ को जीतने के लिए लालायित हो उठा। 1605 ई० में ही जहाँगीर ने अपने द्वितीय पुत्र परवेज और आसफ खॉ जफरबेग के नेतृत्व में 20,000 अश्वारोहियों की एक सेना मेवाड़ विजय हेतु भेजी। देबारी की घाटी में युद्ध हुआ जो अनिर्णायक रहा। इसी बची खुसरो के विद्रोह के कारण परवेज को सेना सहित वापस बुला लिया। दो वर्ष पश्चात् 1608 ई० में महावत खाँ के नेतृत्व में एक सेना फिर मेवाड़ के लिए भेजी गई। लेकिन वह भी विशेष सफलता हासिल न कर सकी। जहाँगीर ने 1609 ई० में मेवाड़ का नेतृत्व अब्दुल्ला खाँ के सुपुर्द किया।

अब्दुल्ला खाँ अभियान भी मुगलों को सफलता नहीं दिला सका। 1611 ई० में मऊ का राजा बसु भी मेवाड़ में विफल रहा। अत: 7 सितम्बर, 1613 में जहाँगीर स्वयं शत्रु पर दबाव डालने के उद्देश्य से अजमेर पहुँचा। मेवाड़ के युद्ध के संचालन का भार अजीज कोका और शाहजादा खुर्रम को सौंपा गया। इन दोनों के आपसी सम्बन्ध कटु थे। अतः अजीज कोका को वापस बुला लिया गया। अब केवल खुर्रम पर आक्रमण का पूर्ण उत्तरदायित्व था। खुर्रम ने मेवाड़ में बर्बादी मचा दी। राणा का रसद पहुँचाना भी कठिन हो गया। बाध्य होकर अमर सिंह ने संधि करने का निर्णय लिया। राणा ने अपने मामा शुभकर्ण एवं विश्वासपात्र हरदास झाला को सन्धि के लिए भेजा। जहाँगीर ने भी राजपूतों से संधि करना स्वीकार किया और 1615 ई० में निम्नलिखित शर्तों पर मुगल व मेवाड़ में संधि हो गई

  • राणा ने सम्राट जहाँगीर की अधीनता स्वीकार की।
  • बदले में जहाँगीर ने चित्तौड़ के किले सहित मेवाड़ का समस्त भू-प्रदेश राणा को लौटा दिया। शर्त यह रखी कि चित्तौड़ के किले की मरम्मत व किलेबन्दी न की जाएगी।
  • राणा को सम्राट के दरबार में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया गया। यह निश्चय हुआ कि राणा का युवराज कर्ण अपनी एक हजार सेना के साथ मुगल सम्राट की सेवा में रहेगा।
  • अन्य राजपूत नरेशों की भाँति राणा को मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए भी बाध्य नहीं किया गया।

इस प्रकार मेवाड़ और मुगलों का दीर्घकालीन संघर्ष समाप्त हुआ। कुछ लेखकों ने राणा अमरसिंह को अपने वंशानुगत शत्रु के समक्ष अपनी स्वाधीनता खो देने का दोषी ठहराया है। परन्तु यह आरोप सर्वथा निराधार है। मेवाड़ जैसी एक छोटी-सी रियासत के लिए साधन-सम्पन्न मुगल साम्राज्य से टक्कर लेना कहाँ तक सम्भव होता, उसे एक-न-एक दिन तो झुकना ही था। जैसा कि डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव ने लिखा है कि “मेवाड़ परिस्थिति में शांति अपेक्षित थी और 1615 ई० की संधि में उसे वह शांति, सम्मान और गौरव के साथ मिली….. इस प्रकार संकटग्रस्त देश के लिए इतनी अपेक्षित शांति संग्रह के इस सुवर्ण अवसर को राणा अमरसिंह यदि उपयोग में न लाते तो यह अविवेकपूर्ण कार्य होता।’

(ii) बंगाल के विद्रोह का दमन-अकबर ने यद्यपि बंगाल विजय कर लिया था किन्तु अफगान शक्ति का वह पूर्णतया दमन नहीं कर सका था। अकबर की मृत्यु के उपरान्त 1612 ई० में अपने नेता उस्मान खाँ के नेतृत्व में उन्होंने पुन: विद्रोह किया। बंगाल के सूबेदार इस्लाम खाँ ने बड़ी वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना किया, फलस्वरूप युद्ध-भूमि में लड़ते-लड़ते उस्मान खाँ मारा गया। जहाँगीर ने पराजित अफगानों के साथ उदारता का व्यवहार किया तथा उन्हें अपनी सेना के उच्च पदों पर आसीन किया।

(iii) काँगड़ा विजय-उत्तर-पूर्व पंजाब में काँगड़ा की सुन्दर घाटी है जिस पर एक सुदृढ़ किला बना हुआ था। अकबर के समय में पंजाब के सूबेदार हसन कुली खाँ ने इसे जीतने का प्रयास किया था परन्तु वह असफल हुआ था। 1620 ई० में शाहजादा खुर्रम के नेतृत्व में राजा विक्रमाजीत ने इस किले का घेरा डाला और लगभग चार माह के घेरे के पश्चात् इस पर अधिकार कर लिया।

(iv) किश्तवार विजय (1622 ई०)- कश्मीर में किश्तवार एक छोटी-सी रियासत थी। यद्यपि कश्मीर मुगल साम्राज्य का अंग था, किन्तु किश्तवार में स्वतन्त्र हिन्दू राजा राज्य कर रहा था। जहाँगीर ने कश्मीर के सूबेदार दिलावर खाँ को किश्तवार विजय करने का आदेश दिया। यद्यपि हिन्दू वीरतापूर्वक लड़े किन्तु अन्त में उन्हें पराजित होना पड़ा और 1622 ई० में किश्तवार मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

(v) कंधार विजय-भारत के इतिहास में उत्तर-पश्चिमी सीमा का विशेष महत्त्व रहा है, क्योंकि प्राचीन काल से ही विदेशियों के आक्रमण सदैव इसी ओर से होते रहे। साथ ही कंधार प्राचीनकाल से व्यवसाय तथा व्यापार के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। मुगल सम्राट कंधार के प्रति विशेष रूप से सजग थे। बाबर ने सर्वप्रथम 1522 ई० में कंधार पर विजय प्राप्त की थी। उसकी मृत्यु तक कंधार मुगल साम्राज्य में था। हुमायूं के समय में कंधार पर उसके भाई कामरान का अधिकार रहा, जिसके दुष्परिणाम हुमायूँ को जीवनभर भुगतने पड़े।

ईरान के शाह ने हुमायूं की सहायता करने का वचन इस शर्त पर दिया था कि वह कंधार ईरान के हवाले कर देगा, किन्तु कंधार विजय करके हुमायूँ ने उसे ईरान के शाह को लौटाने में टालमटोल की और उसे अपने अधीन ही रखा। उसकी मृत्यु के पश्चात् 1558 ई० में कंधार पर ईरान ने अधिकार कर लिया। अकबर से भयभीत होकर 1564 ई० में कंधार अकबर को सौंप दिया गया था। अकबर की मृत्यु के उपरान्त ईरान के सम्राट शाह अब्बास ने 1606 ई० में कुछ ईरानियों को कंधार पर आक्रमण करने के लिए भेजा किन्तु मुगल सेनापति शाहबेग खाँ ने उन्हें भगा दिया। टर्की से युद्ध में फंसे रहने के कारण इस समय शाह अब्बास पूरी शक्ति के साथ मुगलों से युद्ध करने में असमर्थ था।

1622 ई० में सुअवसर देखकर शाह ने कंधार का घेरा डाल दिया। कंधार का मुगल सेनापति 45 दिन घेरे में रहने के बाद परास्त हुआ। जहाँगीर ने शहजादा परवेज को कंधार पर आक्रमण करने का आदेश दिया, किन्तु आसफ खाँ के हस्तक्षेप से यह स्थगित कर दिया गया। नूरजहाँ खुर्रम को राजधानी से दूर रखना चाहती थी इसलिए उसने जहाँगीर द्वारा खुर्रम को कंधार जाने की आज्ञा दिलवा दी। परन्तु खुर्रम इस समय राजधानी से दूर नहीं रहना चाहता था अतः उसने सम्राट की आज्ञा का पालन करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। दरबार के पड्यन्त्रों का लाभ ईरान के शाह अब्बास ने उठाया तथा कंधार पर अधिकार कर लिया। इससे मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा पर गहरा आघात पहुँचा। जहाँगीर कंधार को पुन: प्राप्त नहीं कर सका।

(vi) अहमदनगर विजय-जहाँगीर के समय में दक्षिण भारत की राजनीति पर मलिक अम्बर छाया हुआ था। मलिक अम्बर बुहत फुर्तीला, संगठनशील और सैनिक योग्यता प्राप्त सरदार था। वह अहमदनगर के उन समस्त प्रदेशों पर पुनः अधिकार करने का प्रयास कर रहा था, जिन्हें अकबर के समय में मुगलों ने अधिगृहित कर लिया था। अत: 1608 ई० में जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम खानखाना के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी, परन्तु अब्दुर्रहीम खानखाना मलिक अम्बर के विरुद्ध कोई सफलता प्राप्त न कर सका। इसके पश्चात् खान-ए-जहाँ लोदी तथा अब्दुल्ला खाँ को मलिक अम्बर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा, लेकिन इन दोनों को भी मलिक अम्बर ने पराजित कर दिया।

अत: निराश होकर जहाँगीर ने एक बार पुनः अब्दुर्रहीम खानखाना को भेजा। इस दूसरे अभियान में बहुत सीमा तक खानखाना ने अपने सम्मान की सफलतापूर्वक रक्षा की, लेकिन उस पर विरोधी पक्ष से घूस लेने का आरोप लगाया गया, जिसके कारण नूरजहाँ के परामर्श के अनुसार 1616 ई० के प्रारम्भ में अहमदनगर अभियान हेतु खानखाना की जगह खुर्रम को नियुक्त किया गया। खुर्रम की शक्ति से भयभीत होकर मलिक अम्बर ने सन्धि कर ली। जहाँगीर ने खुर्रम की सफलता से खुश होकर उसे शाहजहाँ’ की उपाधि प्रदान की। खुर्रम (शाहजहाँ) और मलिक अम्बर की सन्धि अधिक दिन तक नहीं चली। 1620 ई० में मलिक अम्बर ने सन्धि का उल्लंघन कर खोए हुए प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया। जहाँगीर को जब यह समाचार मिला तो उसने पुनः शाहजहाँ को अहमदनगर भेजा। शाहजहाँ ने मलिक अम्बर को सन्धि के लिए बाध्य किया। अन्त में 1626 ई० में मलिक अम्बर की मृत्यु के पश्चात् अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो गया।

2. नूरजहाँ के मुगल राजनीति पर प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उतर:
नूरजहाँका मुगल राजनीति पर प्रभाव
1. राजनीति में नूरजहाँ का प्रवेश – मई 1611 ई० में जहाँगीर से नूरजहाँ ने विवाह कर लिया। विवाह के बाद जहाँगीर, जो
आरम्भ से ही विलासी प्रवृत्ति का था, और भी विलासिता में डूब गया तथा राज्य की सम्पूर्ण बागडोर उसने इस महत्वाकांक्षी महिला के हाथ में छोड़ दी। राज्य जहाँगीर के नाम पर चलता था किन्तु वास्तविक शासक नूरजहाँ थी। नूरजहाँ के शासनकाल को, डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम काल-1611 से 1622 ई० तक तथा द्वितीय काल-1622 से 1627 ई० तक।

(क) प्रथम काल (1611 से 1622 ई० तक) – नूरजहाँ के प्रभुत्व का प्रथम काल मुगल साम्राज्य के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ। इस समय नूरजहाँ के गुट में दरबार के प्रभावशाली व्यक्ति सम्मिलित थे। स्त्री स्वभाव के अनुसार नूरजहाँ पक्षपात एवं गुटबन्दी की नीति की अनुयायी थी। इस काल में उसके गुट में उसका पिता ऐतमादुद्दौला, उसका भाई आसफ खाँ तथा शहजादा खुर्रम (आसफ खाँ का दामाद) सम्मिलित थे। यह गुट दरबार में सबसे प्रभावशाली था तथा 1611 से 1622 ई० तक राज्य की सम्पूर्ण बागडोर इस गुट के हाथ में रही थी।

(ख) द्वितीय काल (1622 से 1627 ई० तक) – नूरजहाँ के प्रभुत्व के प्रथम काल के समान, उसका द्वितीय काल गौरवपूर्ण व लाभकारी सिद्ध न हो सका। इसके विपरीत, यह काल षड्यन्त्रों, विद्रोहों तथा उपद्रवों का काल बन गया। इसका प्रमुख कारण नूरजहाँ की महत्वाकांक्षा थी। खुर्रम के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर नूरजहाँ उससे ईर्ष्या करने लगी थी तथा खुर्रम के विरुद्ध जहाँगीर के कान भरने लगी, परिणामस्वरूप खुर्रम ने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। नूरजहाँ को स्वामिभक्त सेवकों के प्रति भी संदेह रहता था तथा वह उनके उत्थान को भी सहन नहीं कर सकती थी। उसकी इस प्रवृत्ति के कारण ही महावत खाँ जैसे योग्य एवं स्वामिभक्त सेनापति को भी विद्रोह करने के लिए विवश होना पड़ा। इन दोनों विद्रोहों का परिणाम मुगल साम्राज्य के लिए बड़ा भयंकर तथा हानिकारक सिद्ध हुआ। अतः मुगल साम्राज्य षड्यन्त्रों, कुचक्रों तथा विद्रोहों का अड्डा बन गया। कंधार का मुगल हाथों से निकल जाना नूरजहाँ का सबसे हानिकारक परिणाम था।

2. राजनीतिक प्रभाव – राजनीतिक तथा शासन सम्बन्धी दृष्टिकोण से नूरजहाँ का मुगल साम्राज्य पर घातक प्रभाव पड़ा। 1611 से 1622 ई० तक वह अपने गुट का नेतृत्व करती रही। उसने अपने पक्षपातियों को उच्च-से-उच्च पद प्रदान किए तथा विरोधियों का विनाश किया। उसने योग्यता से अधिक रक्त-सम्बन्ध का ध्यान रखा तथा अपने पिता के परिवार को एक संगठित दल बना दिया। जब तक उसका पिता जीवित रहा, नूरजहाँ को सदैव उचित परामर्श देता रहता था। वह उसकी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ने नहीं देता था, परन्तु 1622 ई० में अपने पिता एतमादुद्दौला की मृत्यु के उपरान्त नूरजहाँ पूर्णत: निरंकुश हो गई तथा उसने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना आरम्भ कर दिया।

नूरजहाँ अभी तक खुर्रम का पक्षपात करती आई थी, परन्तु जब नुरजहाँ ने शेर अफगन से उत्पन्न अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरयार के साथ कर दिया तब खुर्रम के अनेक बार हिसार-फिरोजा की जागीर के लिए प्रार्थना-पत्र भेजने पर भी उसने यह जागीर शहरयार को दे दी। वास्तव में, नूरजहाँ शहरयार को जहाँगीर का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी, जिसका परिणाम खुर्रम के विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित हुआ।

(क) खुर्रम का विद्रोह- जहाँगीर के चार पुत्र थे – खुसरो, परवेज, खुर्रम तथा शहरयार। खुसरो की मृत्यु के उपरान्त खुर्रम ही सबसे योग्य शहजादा था। शहरयार बिल्कुल अयोग्य तथा निकम्मा था तथा परवेज मद्यप एवं विलासी था। अतः सिंहासन के दो दावेदार थे- खुर्रम तथा शहरयार। खुर्रम ने अभी तक मुगल साम्राज्य की बड़ी सेवाएँ की थी। वह जहाँगीर का सबसे वीर तथा कुशल पुत्र था, किन्तु नूरजहाँ खुर्रम को अपने मार्ग का काँटा मानकर उसे मार्ग से हटाने के लिए उत्सुक थी। इसी समय ईरान के शाह ने कंधार पर अधिकार कर लिया। नुरजहाँ ने जहाँगीर से कहा कि कंधार विजय के अभियान का दायित्व खुर्रम को सौंप देना चाहिए परन्तु खुर्रम जानता था कि नूरजहाँ कंधार विजय के बहाने

उसे राजधानी से दूर हटा देना चाहती है, अत: उसने कंधार जाने से इनकार कर दिया। नूरजहाँ ने इसे सुअवसर मानकर जहाँगीर के कान भरने आरम्भ कर दिए कि खुर्रम विद्रोही है तथा उसने सम्राट की आज्ञा की अवहेलना की है। खुर्रम ने नूरजहाँ की इस नीति से कुपित होकर विद्रोह कर दिया। खुर्रम का यह सन्देह ठीक ही था कि उसकी अनुपस्थिति में शहरयार को उच्च पद दे दिए जाएंगे और उसे युद्ध-क्षेत्र में मरवा डाला जाएगा। डॉ० बेनी प्रसाद ने स्वीकार किया है कि शहजादा खुर्रम की अनुपस्थिति में, नूरजहाँ अवश्य अपने पशुतुल्य दामाद शहरयार को उन्नति देकर राजकुमार (शाहजहाँ) की स्थिति को नीचा कर देती। इसी डर के कारण खुर्रम को फारस वालों के विरुद्ध युद्ध न करके अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करना पड़ा। इस प्रकार कंधार मुगल सम्राज्य से हमेशा के लिए निकल गया। इस हानि के लिए नूरजहाँ ही सबसे अधिक उत्तरदायी थी।

(ख) महावत खाँ का विद्रोह – खुर्रम के विद्रोह का दमन करके नूरजहाँ ने महावत खाँ की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने का प्रयास किया। खुर्रम के विद्रोह करने के पश्चात् स्वामिभक्त महावत खाँ, परवेज का पक्षपाती बन गया था। नूरजहाँ ने महावत खाँ को काबुल का सूबेदार नियुक्त करके काबुल भिजवा दिया और उसके स्थान पर खाने जहाँ लोदी को परवेज का वकील नियुक्त कर दिया। यद्यपि परवेज इस आज्ञा का उल्लंघन करने को तेयार था लेकिन महावत खाँ तुरन्त काबुल की ओर रवाना हो गया। यह पूर्णत: सत्य है कि महावत खाँ को विद्रोही बनाने के लिए नूरजहाँ उत्तरदायी थी। इस प्रकार जिस व्यक्ति को साम्राज्य के शत्रुओं के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता था, वह स्वयं शत्रु बन गया। इस विद्रोह ने मुगल साम्राज्य की जड़े हिला दीं।

3. जहाँगीर की मृत्यु – 1620 ई० से जहाँगीर का स्वास्थ्य निरन्तर खराब होता जा रहा था। निरन्तर कश्मीर की यात्राएँ और वहाँ की जलवायु भी उसके स्वास्थ्य को ठीक नहीं कर सकी थी। मार्च, 1627 में वह स्वास्थ्य लाभ के लिए फिर कश्मीर गया, लेकिन उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। अत: वह पुनः लाहौर की तरफ गया, किन्तु रास्ते में ही उसकी तबीयत खराब हो गई और 7 नवम्बर, 1627 को 58 वर्ष की आयु में भीमवार नामक स्थान पर जहाँगीर की मृत्यु हो गई। लाहौर के निकट शाहदरे के सुन्दर बाग में उसे दफना दिया गया, जहाँ नूरजहाँ ने एक सुन्दर मकबरा बनवाया।

प्रश्न 3.
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल स्थापत्य कला पर क्या प्रभाव पड़ा?
उतर:
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल स्थापत्य कला पर प्रभाव- शाहजहाँ एक ‘शानदार’ सम्राट था तथा उसे भवन निर्माण कला से विशेष अनुराग था। यद्यपि उसके काल में सभी ललित कलाओं तथा साहित्य का पोषण हुआ किन्तु भारत में भवननिर्माण-कला का जितना विकास उसके काल में हुआ उतना और कभी नहीं हुआ। यद्यपि अकबर के समय में भी अनेक कलाकतियों का निर्माण हुआ किन्त सौन्दर्य के दष्टिकोण से शाहजहाँ के समय की कला ने उसके महान पितामह के समय की कला को भी पीछे छोड़ दिया।

अकबर द्वारा परिश्रमपूर्वक स्थापित साम्राज्य का वास्तविक उपभोग शाहजहाँ ने ही किया। यद्यपि स्वर्ण-युग का आरम्भ जहाँगीर के काल में ही हो गया था किन्तु कला-क्षेत्र में जहाँगीर नहीं वरन् शाहजहाँ का काल स्वर्ण युग माना गया है। परन्तु अनेक विद्वानों में इसमें मतभेद भी हैं। उसके काल की कलाकृतियाँ आज भी उसके समय के गौरव का गान कर रही हैं। विद्वानों के मत में शाहजहाँ यदि और कुछ निर्मित न करवाकर केवल ताजमहल ही निर्मित करवा देता तब भी उसका काल कला का स्वर्ण-युग ही माना जाता। शाहजहाँ के शासन काल में मुगल स्थापत्य कला में योगदान निम्नलिखित है

1. ताजमहल – ताजमहल शाहजहाँ की अमूल्य तथा सुन्दरतम कृति है, जिसे आगरा में यमुना के तट पर सफेद संगमरमर से निर्मित किया गया। ताजमहल का निर्माण उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में करवाया था तथा इसी सुन्दर मकबरे में मुमताजमहल को दफनाया गया था। अन्त में शाहजहाँ की कब्र भी यहीं (मुमताजमहल की कब्र के समीप) बनाई गई। तत्कालीन इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार- “ताजमहल 50 लाख रुपये से 12 वर्ष में बनकर तैयार हुआ था। 1631 ई० में मुमताज की मृत्यु हुई तथा उसके एक वर्ष पश्चात् ही उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया था। ट्रेवेनियर के अनुसार- “इस इमारत (ताजमहल) पर तीन करोड़ रुपया व्यय हुआ तथा 1653 ई० में 22 वर्ष पश्चात यह बनकर तैयार हुई। 20,000 श्रमिकों ने प्रतिदिन इस भवन के निर्माण में योगदान दिया। आज भी ताजमहल संसार की आश्चर्यजनक कलाकृतियों में अपना उच्च स्थान रखता है।

2. मुसम्मन बुर्ज – आगरा के दुर्ग में बादशाह ने कई संगमरमर के भवन बनवाए, जो उसके हरम की स्त्रियों के लिए थे। जहाँआरा तथा रोशनआरा के निवास के लिए भी उसने भवन बनवाए। इन्हीं भवनों के पास उसने मुसम्मन बुर्ज का निर्माण कराया, जो शुद्ध संगमरमर द्वारा निर्मित है तथा बहुमूल्य पत्थरों से अलंकृत है। यहीं पर ताजमहल को देखते-देखते सम्राट ने अपने प्राण त्यागे थे। इसके अतिरिक्त झरोखा-दर्शन, दौलतखाना-ए-खास उसकी अन्य इमारतें हैं, जो उसने आगरा के दुर्ग में निर्मित करवाई। जहाँआरा के कहने पर उसने एक बड़ा चौक तथा उसमें लाल पत्थरों की जामा मस्जिद निर्मित करवाई, जो 1648 ई० में, पाँच वर्ष में निर्मित हुई।

3. मोती मस्जिद – आगरा के दुर्ग में बादशाह ने एक छोटी-सी मस्जिद का निर्माण करवाया, जो शुद्ध संगमरमर की बनी है। तथा मोती मस्जिद के नाम से विख्यात है, क्योंकि मोती के समान सफेद पत्थरों द्वारा इसका निर्माण हुआ था। यह मस्जिद अपनी सादगी एवं सौन्दर्य के लिए विख्यात है तथा विद्वानों के मत में यह संसार का सर्वोत्तम पूजा-स्थल मानी जाती है।

4. जामा मस्जिद – लाल किले के सामने शाहजहाँ ने जामा मस्जिद का निर्माण करवाया, जो भारत की सबसे बड़ी मस्जिद मानी जाती है। यह लाल पत्थर की बनी है तथा 6 वर्ष में इसका निर्माण किया गया था। मस्जिद के चारों ओर सीढ़ियाँ बनी हैं तथा इसमें दस हजार व्यक्ति सामूहिक रूप से नमाज पढ़ सकते हैं।

5. शाहजहाँनाबाद – शाहजहाँ ने आगरा तथा फतेहपुर सीकरी को छोड़कर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया तथा यमुना के किनारे उसने एक नवीन दिल्ली नगर का निर्माण कराया, जिसे उसने शाहजहाँनाबाद नाम दिया। यहाँ का किला लाल पत्थर द्वारा निर्मित है। इसके अन्दर की इमारतों में दीवान-ए-आम (जो लाल पत्थर द्वारा निर्मित है) तथा दीवान-ए-खास प्रमुख हैं। दीवान-ए-खास शुद्ध संगमरमर का बना है, जिसकी छतों पर सोने का बहुमूल्य तथा सुन्दर काम किया गया है। दीवान-ए-खास को वास्तव में पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें संगमरमर की बनी एक ऊँची चौकी पर ‘मयूर सिंहासन’ रखा रहता था, जिसे ‘तख्त-ए-ताउस’ कहा जाता था। यह बादशाह की एक अनुपम कृति थी। दिल्ली के लाल किले की अन्य इमारतों में रंगमहल, मुमताजमहल तथा सावन-भादों प्रमुख हैं। सावन-भादों में सम्राट सावन व भादों के महीनों में विहार करता था।

6. जहाँगीर का मकबरा – लाहौर से चार मील दूर शाहदरा में शाहजहाँ ने अपने पिता का छोटा किन्तु भव्य मकबरा निर्मित करवाया।

7. मयूर सिंहासन – सुन्दरतम कलाकृतियों में, जिनका निर्माण शाहजहाँ के काल में हुआ, मयूर सिंहासन का उच्च स्थान है। इस सिंहासन के निर्माण में 14 लाख रुपये का सोना खर्च हुआ। इसकी लम्बाई सवा-तीन गज, चौड़ाई दो गज तथा ऊँचाई 5 गज थी। इस सिंहासन में 12 स्तम्भ तथा जवाहरातों से निर्मित दो मोर थे। सात वर्ष में यह बनकर तैयार हुआ।

1739 ई० में नादिरशाह ने जब भारत पर आक्रमण किया तो वह इस बहुमूल्य सिंहासन को अपने साथ ले गया। उपर्युक्त महत्वपूर्ण भवनों के अतिरिक्त शाहजहाँ ने कुछ अन्य कलाकृतियों का भी निर्माण करवाया। दिल्ली मे उसने निजामुद्दीन औलिया का मकबरा बनवाया, जिसमें संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। अजमेर में उसने एक मस्जिद तथा एक सुन्दर मकबरे का निर्माण कराया, जो शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के पश्चिम की ओर स्थित है। शाहजहाँ को सुन्दर उद्यानों से भी विशेष प्रेम था। उसने अपनी सभी इमारतों में सुन्दर उद्यान बनवाए। कश्मीर के शालीमार बाग तथा चश्मेशाही और लाहौर के शालीमार बाग उसी की देन हैं।

प्रश्न 4.
शाहजहाँ का शासनकाल मुगल शासन का स्वर्ण-युग था, पर उसमें पतन के चिह्नन भी थे।” इस कथन की विस्तार पूर्वक व्याख्या कीजिए।
या
शाहजहाँ के शासनकाल के पक्ष व विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ का राज्यकाल स्वर्ण-युग था अथवा नहीं, इस पर सब विद्वान एकमत नहीं हैं। बादशाह के समकालीन इतिहासकारों तथा विदेशी यात्रियों ने इस युग को स्वर्ण-युग कहकर सम्बोधित किया है। अब्दुल हमीद लाहौरी, खाफी खाँ, ट्रेवेनियर, वूल्जले हेग, हण्टर, लेनपूल तथा एलपिन्सटन आदि इतिहासकार इस युग को शान्ति, समृद्धि तथा साहित्य एवं कला का स्वर्ण-युग मानते हैं। दूसरी ओर पीटरमण्डी, बर्नियर और स्मिथ ने शाहजहाँ के युग का दूसरा पक्ष लिया है, जो अन्धकारपूर्ण है तथा उस पक्ष को ध्यान में रखकर शाहजहाँ के काल को स्वर्ण-युग नहीं कहा जा सकता। इन इतिहासकारों का कथन है कि यद्यपि शाहजहाँ का दरबार, उसकी कलाकृतियों तथा साहित्य की उन्नति की चकाचौंध में कोई भी व्यक्ति उस काल को स्वर्ण-युग मान सकता है। किन्तु यदि उस चकाचौंध से हटकर साधारण जनता की स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह युग स्वर्ण-युग के स्थान पर अन्धकार का युग कहलाने योग्य है।

इस प्रकार शाहजहाँ के काल के विषय में विद्वानों के दो विरोधी मत हैं
शाहजहाँ का युग स्वर्ण-युग था – अधिकांश विद्वानों ने शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग की संज्ञा दी है। इनका मत है कि अकबर द्वारा स्थापित सुदृढ़, शक्तिशाली तथा सुव्यवस्थित विशाल साम्राज्य में शान्तिकालीन समृद्धि तथा गौरव के फूल शाहजहाँ के काल में ही विकसित हुए। इस मत के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं
1. शान्ति और सुव्यवस्था का युग – शाहजहाँ के काल में अन्य सभी मुगल सम्राटों की अपेक्षा शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित रही। उसके आरम्भिक काल के दो-तीन विद्रोहों के अतिरिक्त उसका सम्पूर्ण राज्यकाल शान्तिपूर्ण था। राजपूत अभी तक मुगलों की अधीनता स्वीकार करते थे तथा मुगल सम्राटों के स्वामिभक्त थे। दक्षिण के शिया राज्यों ने मुगल सम्राट का संरक्षण स्वीकार कर लिया था। शाहजहाँ का साम्राज्य काफी विशाल था। सिन्ध से असम तक तथा अफगानिस्तान से गोआ तक उसका राज्य विस्तृत था। शाहजहां के काल में 30 वर्ष तक भीषण युद्धों से देश सुरक्षित रहा। शाहजहाँ अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था। चोर तथा डाकुओं से सड़कें सुरक्षित थीं। यात्रियों की सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखा जाता था। व्यापार उन्नत अवस्था में था तथा देश में चारों ओर सुख तथा शान्ति स्थापित थी। लेनपूल का मत है- “शाहजहाँ अपनी उदारता और कृपा के लिए प्रसिद्ध था और इसी कारण वह अपनी प्रजा का बड़ा प्रिय था।”

2. सड़कों की व्यवस्था- मुगल राजधानी को सड़कों द्वारा प्रान्तों से जोड़ दिया गया था। एक सड़क पूर्व दिशा की ओर बंगाल को तथा पश्चिम की ओर पेशावर तक जाती थी, एक अन्य सड़क राजपूताना होकर अहमदाबाद तक और वहाँ से दक्षिण को पहुँचती थी। एक अन्य सड़क मालवा से बुरहानपुर तक और वहाँ से दक्षिण को पहुँचती थी। इन सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्षों के अतिरिक्त सरायें बनवाई गई थी, जिससे यात्रियों को आवागमन की सुविधा प्राप्त हो गई थी। सड़कों की सुरक्षा की ओर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया गया था, जिससे व्यापारी और यात्री निडर होकर अपना-अपना कार्य करते रहें। चोर-डाकुओं से इन सड़कों की सुरक्षा-व्यवस्था के लिए ‘फौजदार’ नियुक्त होते थे।

शाहजहाँ ने मार्गों को सुरक्षित करने का यथासम्भव प्रयत्न किया। इसके लिए उसने जगह-जगह सरायें बनवा दीं और यात्रियों की सुविधा के लिए उन सरायों में उचित व्यवस्था कराई गई। मनूची लिखता है- “सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में प्रत्येक मार्ग पर यात्रियों के लिए बहुत-सी-सरायें बनी हुई हैं। प्रत्येक सराय एक दुर्ग मालूम होती है क्योंकि प्रत्येक सराय के चारों ओर ऊंची-ऊँची दीवारें और बुर्ज हैं तथा बड़े-बड़े दरवाजे हैं। प्रत्येक सराय में हाकिम नियुक्त हैं, जो यात्रियों के सामान की सुरक्षा करवाते हैं और सामान सँभालने की चेतावनी देते हैं।”

3. समान न्याय का युग – शाहजहाँ न्यायप्रिय सम्राट था तथा न्याय के क्षेत्र में उसने अपने पूर्वजों की नीति का ही अनुसरण किया। वह अन्यायियों तथा अपराधियों को कठोर दण्ड देने में तथा निष्पक्ष न्याय करने में बिल्कुल नहीं हिचकता था। मनूची ने भी सम्राट की न्यायप्रियता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है। सर्वप्रधान न्यायाधीश स्वयं सम्राट होता था। सम्राट प्रारम्भिक मुकदमों तथा अपीलों दोनों को सुनता था। प्रान्तीय अदालतों के निर्णय की अपीलें भी सम्राट सुनता था। केन्द्र में न्याय हेतु सम्राट को सलाह देने के लिए ‘काजी-उल-कुजात’ और प्रान्तों में ‘काजी’ तथा ‘मीरअदल’ होते थे। शाहजहाँ राजद्रोहियों को बन्दी बनाकर ग्वालियर, रणथम्भौर और रोहतास इत्यादि दुर्गों में भेज देता था।

4. समृद्धि का युग – समृद्धि तथा गौरव के दृष्टिकोण से शाहजहाँ का काल, मुगलकाल के चरमोत्कर्ष का काल था। देश में शान्ति एवं सुव्यवस्था के कारण समृद्धि स्थापित हो चुकी थी। सूबों से केन्द्र सरकार को अत्यधिक आय होती थी। भूमि उपजाऊ होने के कारण भूमि-कर 45 करोड़ रुपये वार्षिक राजकोष में एकत्रित होता था। भूमि-कर के अतिरिक्त अन्य कर भी थे तथा आय, व्यय से कहीं अधिक होने के कारण राजकोष धन से भरा रहता था। नकद रुपयों के अतिरिक्त, बहुमूल्य पत्थर, हीरे, जवाहरात, मोती असंख्य संख्या में कोष में एकत्रित थे। मुर्शिद कुली खाँ के भूमि-सुधारों ने शाहजहाँ की भूमि-कर की आय, अकबर की आय से डेढ़ गुनी कर दी थी।

शाहजहाँ ने किसानों और कृषि की ओर ध्यान दिया था। उसने कश्मीर में बहुत-से अनुचित करों को समाप्त कर दिया। सिंचाई की समुचित व्यवस्था के लिए उसने नहरों के निर्माण कार्य को प्रोत्साहन प्रदान किया। जागीर-प्रथा को, जो अकबर के समय में हटा दी गई थी, शाहजहाँ ने पुनः आरम्भ किया। साम्राज्य का 7/10 भाग जागीरदारों के सुपुर्द कर दिया गया था और सरकारी लगान एक-तिहाई से बढ़ाकर उपज का आधा कर दिया गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकारी आय तो बढ़ गई परन्तु किसानों को बहुत कष्ट हुआ।

खाफी खाँ लिखता है- “यद्यपि अकबर एक महान विजेता तथा नियम-निर्धारक था किन्तु राज्य की सीमाओं के सुप्रबन्ध तथा आर्थिक स्थिति और राज्य के विविध विभागों के सुशासन की दृष्टि से भारतवर्ष में शाहजहाँ के समकक्ष रखा जाने वाला अन्य कोई शासक नहीं हुआ।

5. व्यापार की उन्नति का युग – शाहजहाँ के काल में व्यापार की भारी उन्नति हुई। भारत तथा एशिया के विभिन्न भागों में व्यापारिक सम्पर्क स्थापित थे, जिससे भारत को अत्यधिक लाभ होता था। इस समय सुसंस्कृत अभिरुचि की वस्तुओं का निर्माण भारत में बहुतायत से होता था। कलमदान, शमादान, रेशमी वस्त्र, सती-ऊनी वस्त्र, कालीन, अफीम, लाख आदि अनेक वस्तुएँ बाहर जाती थीं, जिनके बदले में सोना भारत में आता था। बंगाल और बिहार में सूती कपड़े बनाने का इतना अधिक कार्य होता था कि ये प्रदेश ‘कपड़ों का देश के समान दृष्टिगोचर होते थे। कपड़े की रँगाई तथा छपाई का कार्य बहुतायत से होता था तथा भारत के बने कपड़े यूरोप में विलास की सामग्री समझे जाते थे।

6. प्रजा के साथ पितृ तुल्य व्यवहार – तत्कालीन विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों का मत है कि शाहजहाँ अपनी प्रजा का पालन इस प्रकार करता था जैसे कोई पिता अपनी सन्तान का। शाहजहाँ यद्यपि ‘शानदार’ सम्राट था परन्तु वह कठोर परिश्रमी भी था तथा राज्य के कार्यो की वह स्वयं देखभाल करता था, जिसके कारण उसकी प्रजा सुख, शान्ति तथा समृद्धि का अनुभव करती थी। दुर्भिक्ष पीड़ितों की रक्षा के लिए किए गए बादशाह के प्रयत्न उसकी प्रजावत्सलता के ज्वलन्त प्रमाण हैं।

अब्दुल हमीद लाहौरी के कथनानुसार- “उसने सत्तर लाख रुपये का लगान माफ कर दिया तथा भोजनालयों में भूखों को मुफ्त भोजन की व्यवस्था की। बादशाह ने 50,000 रुपये अहमदाबाद में दुर्भिक्ष पीड़ित जनता में बाँटने की आज्ञा प्रदान की। उसने प्रजा के हित के लिए एक नहर का निर्माण करवाया तथा सिंचाई के लिए अन्य नहरें बनवाई।” लेनपूल ने लिखा है- “शाहजहाँ अपनी उदारता और दया के लिए विख्यात था और इसीलिए वह अपनी प्रजा का इतना अधिक प्रिय बन गया था।”

7. साहित्य तथा भवन-निर्माण कला – कला तथा अन्य ललितकलाओं की उन्नति का युग- शाहजहाँ का काल साहित्य तथा ललितकलाओं के दृष्टिकोण से पूर्णतया स्वर्ण-युग कहलाने का अधिकारी है। उसके विपक्षी भी उसके काल की कलाकृतियों को देखकर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली (शाहजहानाबाद) का लाल किला तथा उसमें दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास, दिल्ली की जामा मस्जिद, आगरा की मोती मस्जिद तथा आगरा की ही सर्वोत्कृष्ट कृति ताजमहल, शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। दिल्ली, लाहौर और कश्मीर के बगीचे, उसके पौधों, फूलों और नहरों के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करते हैं। इसके साथ ही अलीमर्दन खाँ 98 मील लम्बी रावी नहर काटकर लाहौर लाया और नहर-ए-शाहाब या पुरानी फिरोज नहर, जो मिट्टी से भर गई थी, को न केवल साफ किया गया, बल्कि नहर-ए-बहिश्त के नाम से इसे 60 मील से भी अधिक लम्बा कर दिया गया।

शाहजहाँ की सर्वश्रेष्ठ कृति आगरा में यमुना के तट पर बनी हुई ताजमहल नाम की इमारत है, जिसे उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में बनवाया था, जिसकी मृत्यु 7 जून, 1631 ई० को बुरहानपुर में हुई थी। यह उसके दाम्पत्य-प्रेम कथा का अमर प्रतीक है। ताजमहल के अतिरिक्त उसके द्वारा निर्मित आगरा की अनेक इमारतें उसके अलंकृत स्वभाव एवं श्रेष्ठ अभिरुचि का परिचय देती हैं, जिनमें मोती मस्जिद, मुसम्मन बुर्ज आदि इमारतें अपना अद्वितीय स्थान रखती हैं। शाहजहाँ ने अपने कला-प्रेम के लिए अत्यधिक धन व्यय किया, जो उसकी समृद्धि, गौरव तथा शासन का सजीव प्रमाण है। जनता पर कर वृद्धि किए बिना ही सम्राट ने इतनी गौरवपूर्ण इमारतों का निर्माण करवाया।

(क) लेखन-कला – इस काल में चित्रकला की प्रगति के साथ-साथ लेखन-कला का भी काफी विकास हुआ। तत्कालीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के अवलोकन से यह प्रमाणित होता है कि शाहजहाँ के शासनकाल में लोग लेखन कला में कितने सिद्धहस्त थे। मुहम्मद मुराद शिरीन इस समय का कुशल हस्त-लेखक था।

(ख) चित्रकला – शाहजहाँ को स्थापत्य-कला के साथ-साथ चित्रकला का भी शौक था। सम्राट के अतिरिक्त आसफ खाँ व शहजादे दाराशिकोह को भी चित्रकला से बहुत प्रेम था। इस काल के प्रमुख चित्रकारों में मीर हाशिम, अनूपमित्र तथा चित्रमणि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल के चित्रों में हस्तकौशल अधिक तथा शैली एवं भावों की विविधता कम पाई जाती है। इसके साथ ही इन चित्रों में स्वाभाविकता तथा मौलिकता का अभाव पाया जाता है।

(ग) कला की उन्नति – शाहजहाँ का ‘मयूर सिंहासन’ अथवा ‘तख्त-ए-ताऊस’ जो बहूमूल्य पत्थरों से जड़ित था तथा जिसके बीचों-बीच विश्वप्रसिद्ध हीरा कोहिनूर जगमगाता था उसके गौरव को चार चाँद लगा देने के लिए पर्याप्त था। मयूर सिंहासन इस काल की सुन्दर कृति थी।

(घ) संगीत कला – शाहजहाँ की संगीत में अत्यधिक अभिरुचि थी। वह स्वयं एक अच्छा संगीतज्ञ था और उसने अपने
दरबार में अनेक संगीतज्ञों को संरक्षण प्रदान किया था। उसके समय में वाद्य-कला के क्षेत्र में उन्नति हुई थी। सुखसेन, एयाज और सूरसेन बीन बजाने में पारंगत थे। शाहजहाँ का ध्रुपद राग के प्रति विशेष अनुराग था। लाल खाँ नामक संगीतकार ध्रुपद राग का विशेष गायक था। हिन्दू गायकों में जगन्नाथ को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। वह एक उच्चकोटि का गायक था, जिसे सम्राट का कृपापात्र होने का सौभाग्य प्राप्त था।

(ङ) साहित्य – शाहजहाँ के शासन में साहित्य की भी बहुत उन्नति हुई थी। फारसी इस युग में राष्ट्रभाषा का स्थान रखती थी। इस समय फारसी दो शाखाओं में बंटी हुई थी। पहली शाखा विशुद्ध फारसी की थी और दूसरी शाखा भारतीय फारसी से सम्बन्धित थी। भारतीय फारसी भाषा के जन्मदाता अबुल फजल थे। इतिहास के अलावा काव्य-रचना भी इस काल में प्रमुख रूप से हुई। दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी लिखता है कि गंगाधर तथा ‘गंगालहरी’ के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पण्डित, शाहजहाँ के राजकवि थे। कसीदों के लिखने का भी बहुत प्रचलन था। इस काल का एक महान शायर मिर्जा मुहम्मद अली था, जिसको ‘साहब’ का तखल्लुस प्राप्त था। गद्य साहित्य की भी उन्नति इस काल में बहुत हुई थी।

अनेक सुन्दर पत्र भी इस काल में लिखे गए थे। संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद शहजादा दारा के प्रोत्साहन से हुआ था। भगवद्गीता, उपनिषद् तथा रामायण आदि का अनुवाद भी इसी काल में हुआ। औषधिशास्त्र, खगोल विद्या तथा गणित की भी बहुत प्रगति हुई थी। अताउल्ला इस काल का बहुत बड़ा गणितज्ञ था और मुल्ला फरीद विख्यात खगोल विद्या विज्ञानी था। हिन्दी काव्य एवं साहित्य के विकास के प्रति शाहजहाँ उदासीन न रहा। सुन्दर श्रृंगार, सिंहासन बत्तीसी, और बारहमासा के रचयिता प्रसिद्ध कवि सुन्दरदास उपनाम के महाकवि ‘राय’ थे। हिन्दी के सामयिक सर्वश्रेष्ठ कवि चिन्तामणि भी सम्राट के विशेष कृपापात्र थे। संस्कृत और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान कवीन्द्र आचार्य सरस्वती तथा उन्हीं की कोटि के अन्य संस्कृत
विद्वानों से शाहजहाँ का दरबार अलंकृत था।

स्वर्ण युग के विपक्ष में तर्क – जब हम शाहजहाँ के काल के दूसरे पक्ष का अध्ययन करते हैं तो स्वर्ण की यह जगमगाहट फीकी पड़ जाती है तथा यह सन्देह होने लगता है कि क्या वास्तव में शाहजहाँ का काल स्वर्णकाल कहलाने का अधिकारी है। शाहजहाँ के काल के अन्धकारपूर्ण पक्ष का समर्थन अनेक इतिहासकारों ने किया है, जिनमें स्मिथ प्रमुख हैं। इन इतिहासकारों के मत में यह युग कदापि स्वर्ण युग कहलाने का अधिकारी नहीं है। अपने मत की पुष्टि में इन विद्वानों ने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं

1. भारी करों का भार – शाहजहाँ को भवन निर्माण में अत्यधिक रुचि थी। उसने बहुमूल्य भवनों का निर्माण करवाया। उसका शानदार दरबार भी बहुमूल्य वस्तुओं से सुसज्जित रहता था। उसकी इन अभिरुचियों पर अपार धन व्यय हुआ। इसके अतिरिक्त उसकी विजय योजनाएँ; विशेषकर मध्य एशियाई नीति भी भारी अपव्यय का कारण बनी। इतना धन व्यय करने के लिए उसे जनता पर कर अधिक बढ़ाने पड़े तथा उसके अपव्यय का अधिकांश भार दरिद्र जनता को वहन करना पड़ा। एलफिन्स्टन तथा लेनपूल के मत में जनता को शाहजहाँ की मूल्यवान अभिरुचि की पूर्ति के लिए अपने परिश्रम से अर्जित धन का त्याग करना पड़ा होगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि शाहजहाँ का युग दरिद्र जनता के लिए स्वर्ण युग के विपरित अन्धकार युग था उसका दमन किया जाता था, सरकारी कर्मचारी उसे लूटते थे तथा जबरन कठोर परिश्रम करने पर विवश करते थे। गाढ़े खून की कमाई उन्हें राजकर के रूप में दे देनी पड़ती थी तथा गरीब व्यक्ति अधिकांशतः भूखों मरते थे। ऐसे युग को स्वर्ण युग कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता है।

2. शाहजहाँ की धार्मिक नीति- यद्यपि शाहजहाँ ने औरंगजेब के समान धार्मिक अत्याचार तो नहीं किए तथापि उसके काल में धार्मिक पक्षपात का युग आरम्भ हो गया था। अनेक हिन्दुओं को लालच देकर बलात् मुसलमान बनाया गया था। हिन्दुओं के अतिरिक्त ईसाई भी उसकी असहिष्णुता के शिकार बन गए थे। कट्टर सुन्नी होने के कारण शियाओं के साथ उसका व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण न था। विधर्मियों के प्रति उसकी असहिष्णुता इस बात से प्रकट होती है कि शियाओं को उसके दरबार में उच्च स्थान प्राप्त न था।

3. शिया राज्यों का विरोध- बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्यों को वह इसलिए नष्ट कर देना चाहता था कि वे शिया राज्य थे। यदि शाहजहाँ तथा औरंगजेब ने इन राज्यों को जीतने का प्रयास न किया होता तो ये राज्य मराठों के विरुद्ध मुगल सम्राटों के सहायक होते तथा मराठों का उत्कर्ष असम्भव हो गया होता। इस प्रकार शिया राज्यों के पतन तथा मराठों के उत्कर्ष में भी शाहजहाँ का योगदान रहा और कालान्तर में यह कारक मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना।

4. शासन-व्यवस्था में शिथिलता- यद्यपि शाहजहाँ के काल में अधिकांशतः शान्ति विद्यमान थी किन्तु कुछ सूबों में सूबेदारों के अत्याचारों के कारण जनता की स्थिति शोचनीय थी। कर्मचारी रिश्वत लेते थे तथा प्रजा पर अत्याचार करके अधिक धन वसूल करते थे क्योंकि उन्हें अपने अधिकारियों को उपहार और भेंट देने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती थी और वह धन जनता से ही प्राप्त किया जा सकता था। सम्राट शाहजहाँ स्वयं प्रजावत्सल तथा न्यायी सम्राट था।

परन्तु उसके काल में केन्द्र का अनुशासन ढीला पड़ने लगा था और प्रजा पर उसके कर्मचारियों द्वारा अत्याचार होते थे। शाहजहाँ के समय में बड़े-बड़े अमीरों का नैतिक एवं चारित्रिक पतन आरम्भ हो गया था जिससे उसकी सैन्य व्यवस्था का पतन हो गया था। उसके पास एक विशाल किन्तु अनुशासनहीन सेना थी जिसके कारण सेना पर अत्यधिक धन व्यय करके भी बादशाह अपनी विजय नीति में सर्वथा असफल रहा। उसके विलासी सैनिक तथा सेनापति मध्य एशिया एवं कंधार के दुर्गम प्रदेशों में रहने को प्रस्तुत नहीं थे। इसलिए सम्राट की मध्य एशियायी नीति असफल रही।

5. सामाजिक भेद-भाव – शाहजहाँ के काल में समाज के दो वर्गों- धनी वर्ग तथा निर्धन वर्ग- के मध्य एक भयंकर खाई उत्पन्न हो चुकी थी। कुछ लोग इतने धनी थे कि अपनी विलासिता पर वे मनमना धन व्यय कर सकते थे। दूसरी ओर, अधिकांश जनता भूख से व्याकुल थी। उनके पास न शरीर ढ़कने के लिए वस्त्र थे और न खाने के लिए अनाज। मिट्टी अथवा घास-फूस के झोंपड़े में निवास करने वाले ये दु:खी जन अथक परिश्रम करके भी अपने परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ रहते थे। अमीरों की विलासिता को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी आय का अधिकांश भाग कर के रूप में देना पड़ता था। सम्राट तथा उसके कर्मचारियों के अत्याचारों के कारण उनमें असन्तोष जाग्रत होने लगा था जिसका परिणाम औरंगजेब के काल में अनेक विद्रोहों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शाहजहाँ के काल में समाज का पतन आरम्भ हो चुका था तथा सामाजिक दशा को ध्यान में रखते हुए इस युग को स्वर्ण युग कदापि नहीं कहा जा सकता।

6. आर्थिक पतन – शाहजहाँ के युग में बाह्य जगमगाहट तथा वैभव ही देखने को मिलता है। इस काल मे यद्यपि बाह्य देशों से (विशेषकर मध्य एशिया, पश्चिम तथा यूरोप) व्यापारिक सम्पर्क स्थापित थे जिनसे भारत को आर्थिक लाभ होता था तथा राजकोष धन से भरा हुआ था तथापित मुगलकाल की आर्थिक दशा का पतन शाहजहाँ के काल में आरम्भ हो जाता है।

7. शाहजहाँ का दुर्बल चरित्र – शाहजहाँ के चरित्र पर अनेक शंकाएँ प्रकट की गई हैं। बर्नियर तथा मनूची इत्यादि विद्वानों ने उसे अत्यन्त कामातुर, विलासी और पाशविक वृत्ति का मनुष्य सिद्ध किया है। शाहजहाँ के चरित्र में निम्नलिखित दोष थे

(क) अपव्ययी – शाहजहाँ ने अपने दाम्पत्य प्रेम की स्मृति में ताजमहल बनवाया था। विद्वानों का मत है कि इतना धन दूसरों की भलाई के कार्यों में भी खर्च किया जा सकता था। इसी प्रकार मयूर सिंहासन के निर्माण में भी बहुत-सा धन व्यय हुआ था। लेनपूल का विचार है कि उसके शौक पूरे करने के लिए बहुत अधिक धन असहाय जनता से वसूल किया गया था।

(ख) अत्याचारी-  शाहजहाँ के चरित्र पर अत्याचारी होने का आरोप भी लगाया जाता है। उसने अपने सिंहासनारोहण हेतु अपने भाइयों का निर्ममतापूर्ण वध भी कराया था। शाहजहाँ ने ईसाइयों तथा सिक्खों पर भी अत्याचार किए थे।

(ग) व्यभिचारी – शाहजहाँ के चरित्र का यह भी एक गम्भीर दोष था, जिसके कारण उस युग को स्वर्णयुग मानने में संशय होता है। उस पर परनारी गमन का दोष लगाया गया है। यद्यपि यह दोष तत्कालीन समाज के राजवंशों के अधिकांश पुरुषों में दृष्टिगोचर होता है।

शाहजहाँ के अपव्ययी स्वभाव, उसकी महत्त्वाकांक्षी विजय-योजनाएँ, ऐश्वर्याशाली भवन तथा गौरवपूर्ण दरबार ने उसके पूर्वजों द्वारा संचित धन का सफाया कर दिया तथा निम्न एवं मध्यम वर्ग को करों के भार से लाद दिया। बर्नियर लिखता है- “गरीबों को इतने अधिक कर देने पड़ते थे कि उनके पास बहुधा जीवन की अनिवार्य आवश्यताएँ पूरी करने योग्य भी धन नहीं बच पाता था।” इस आर्थिक पतन का आरम्भ शाहजहाँ के काल में हुआ तथा औरंगजेब के काल में पूर्ण आर्थिक पतन के कारण मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।

उपर्युक्त दो विरोधी विचारधाराएँ शाहजहाँ के युग के दो विरोधी पक्षों का प्रदर्शन करती हैं। कुछ विद्वानों के मत में शाहजहाँ का युग स्वर्णयुग था तथा कुछ विद्वान उसकी शासन-व्यवस्था के दोषों की ओर संकेत करते हैं। वास्तव में शाहजहाँ का काल मुगलकाल का स्वर्ण युग था। परन्तु चरमोत्कर्ष के उपरान्त पतन प्रकृति का शाश्वत नियम है; अतः उत्थान की अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचकर शाहजहाँ के काल में ही मुगलकाल के पतन का बीजारोपण हो गया।

प्रश्न 5.
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति के परिणामों की विवेचना कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति की सभी विद्वानों ने कटु आलोचना की है। कुछ के विचार में यह शाहजहाँ की महान भूल थी तथा कुछ इसे उसकी महत्त्वाकांक्षा का स्वप्नमात्र समझते हैं। यह नीति निरर्थक तथा असफल रही तथा मुगल साम्राज्य पर इसके घातक प्रभाव पड़े। शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति के परिणाम निम्नलिखित हैं

1. अपार धन और जन की क्षति – शाहजहाँ की मध्य एशियाई विजय-योजना में अपार धन की क्षति हुई। केवल 2 वर्ष में 12 करोड़ रुपया व्यय हुआ, जिसका कारण राजकोष पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त 500 सैनिक युद्धभूमि में खेत रहे तथा इसके दस गुने सैनिक बर्फ से ढके हुए कठिन मार्गों में खप गए। बल्ख के दुर्ग में एकत्रित पाँच लाख रुपये का अनाज तथा रसद का अन्य सामान शत्रुओं के हाथ चला गया। 50,000 रुपये नकद नजर मुहम्मद को तथा साढ़े बाईस हजार रुपये उसके राजदूत को भेंट में प्रदान किए गए। इसके बदले में एक इंच भूमि भी मुगलों को प्राप्त न हो सकी और न बल्ख की गद्दी पर शत्रु के स्थान पर कोई मित्र ही बिठाया जा सका।

2. मुगल प्रतिष्ठा को आघात- मध्य – एशियाई नीति की असफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचा। मुगलों का विजेता के रूप में डींग मारना बन्द हो गया और ईरानी वीरता, साहस तथा सैनिक शक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ गई। परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी भागों में वर्षों तक ईरानियों का भय बना रहा तथा 18वीं शताब्दी में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के पतन को और भी अधिक निकट ला दिया।

3. मुगल सेना का विनाश तथा पतन – इन युद्धों में मुगलों की सर्वोत्तम सेनाओं का विनाश हो गया। सैनिक दृष्टिकोण से इस नीति द्वारा मुगलों को अपार क्षति पहुँची। उनकी सैनिक दुर्बलता का लाभ उठाकर भारत में नई-नई शक्तियों का उत्थान तथा उपद्रव आरम्भ हुए, जिनके दमन में औरंगजेब को आजीवन संलग्न रहना पड़ा। शाहजहाँ को उत्तर-पश्चिम में व्यस्त देखकर दक्षिण में मराठों ने अपनी शक्ति का विकास आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे उनकी शक्ति बढ़ गई कि वह मुगल साम्राज्य का पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण बनी।

4. मुगलों तथा मध्य – एशिया के सम्राटों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अन्त- शाहजहाँ की मध्य एशिया सम्बन्धी नीति से उजबेग मुगलों से नाराज हो गए तथा सदैव के लिए उनके शत्रु बन गए। मुगलों ने आक्सस नदी के तटीय प्रदेशों को अपने अधीन बनाना चाहा किन्तु उजबेगों में उत्पन्न राष्ट्रीय भावना के कारण मुगल अपने प्रयत्नों में सर्वथा असफल रहे। फलस्वरूप शाहजहाँ के जीवनकाल के बचे हुए दिनों में भारत और फारस के सम्बन्ध सदैव कटु बने रहे और मुगलों के आत्मबल को अपार क्षति पहुंची।

प्रश्न 6.
शाहजहाँ के काल में हुए उत्तराधिकार के युद्ध पर प्रकाश डालिए। इस युद्ध में औरंगजेब की सफलता के कारणों की भी विवेचना कीजिए।
उतर:
उत्तराधिकार के लिए युद्ध- शाहजहाँ के जीवनकाल में ही उत्तराधिकार के लिए उसके पुत्रों में युद्ध आरम्भ हो गए थे। शाहजहाँ भयंकर बीमारी से ग्रस्त हो गया। अत: दारा ने शाहजहाँ के बीमार पड़ने के उपरान्त राज्य कार्य का भार संभाला तथा वह चाहता था कि बादशाह की बीमारी का समाचार भाइयों को ज्ञात न हो। परन्तु बादशाह की बीमारी का समाचार छुप न सका तथा सर्वप्रथम बंगाल में स्थित शाहशजा ने अपने को सम्राट घोषित किया, क्योंकि सभी को बादशाह की मृत्यु का विश्वास हो चुका था। इसी प्रकार गुजरात में मुराद ने अपने नाम से खुतबा पढ़वाया तथा अपने नाम के सिक्के ढलवाए। दारा को इन दोनों भाइयों का इतना भय नहीं था जितना कि औरंगजेब का।

औरंगजेब को दरबार में घटित होने वाली घटनाओं की सम्पूर्ण सूचना रोशनआरा से मिलती रहती थी। उसने आगरा जाने वाले मार्ग को बन्द कर दिया, जिससे उसकी तैयारियों की सूचना किसी को प्राप्त न हो सके तथा मीर जुमला के साथ मिलकर उसने सैनिक शक्ति बढ़ानी आरम्भ कर दी। उसने सम्पूर्ण तैयारियों के उपरान्त बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों से मैत्री स्थापित कर ली। शुजा अथवा मुराद के समान उसने स्वयं को बादशाह घोषित नहीं किया वरन् उसने घोषणा की कि वह तो पाक मुसलमान है तथा मक्का में एक दरवेश का जीवन व्यतीत करना चाहता है और मक्का जाने से पूर्व अपने पिता के दर्शन करने दिल्ली जा रहा है।

1. मुराद के साथ गठबन्धन – औरंगजेब अपने भाइयों में सबसे बुद्धिमान था। वह जानता था कि मुराद व्यसनी तथा मूर्ख है। और उसकी सहायता सरलता से प्राप्त की जा सकती है। सर्वप्रथम उसने मुराद के इस कार्य की निन्दा की कि उसने स्वयं को बादशाह घोषित करके सूरत पर अधिकार कर लिया है। औरंगजेब ने मुराद को पत्र लिखा कि जब तक शाहजहाँ की मृत्यु की सूचना नहीं मिलती, उसका यह कार्य सर्वथा निन्दनीय है। तदुपरान्त गुप्त रूप से दोनों भाइयों ने समझौता किया कि दारा को मार्ग से हटाने के उपरान्त ये दोनों परस्पर राज्य का विभाजन कर लेंगे, जिसके अनुसार कश्मीर, अफगानिस्तान, सिन्ध तथा पंजाब मुराद को मिलेगा तथा शेष साम्राज्य पर औरंगजेब का अधिकार होगा।

औरंगजेब ने तो यहाँ तक कहा कि उसे राज्य की कोई इच्छा नहीं, वह तो फकीर बनना चाहता है, किन्तु दारा के समान काफिर के हाथ में राज्य की बागड़ोर छोड़ने से इस्लाम के प्रति गद्दारी होगी इसलिए वह दारा से युद्ध करना अपना कर्तव्य समझता है। इन चापलूसी-भरी बातों में मुराद फँस गया तथा उज्जैन के निकट दीपालपुर में दोनों भाइयों ने मिलकर शपथ ली कि साम्राज्य को विभाजित कर लिया जाएगा और धरमत नामक स्थान पर दारा की सेनाओं का सामना करने का निश्चय करके उन्होंने सैन्यबल के साथ धरमत के लिए प्रस्थान किया।

2. बहादुरपुर का युद्ध (24फरवरी, 1658 ई०) – जिस समय मुराद तथा औरंगजेब दारा के विरुद्ध युद्ध की योजनाएँ बना रहे थे, शाहशुजा ने स्वयं को बादशाह घोषित किया तथा एक विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा। मार्ग में बिहार के अनेक प्रदेशों को रौंदता हुआ 24 जनवरी, 1658 ई० को वह बनारस पहुँच गया। दारा चाहता था कि औरंगजेब का सामना करने से पूर्व ही वह शाहशुजा का अन्त कर दे; अतः उसने सर्वप्रथम अपने पुत्र सुलेमान शिकोह तथा राजा जयसिंह के नेतृत्व में एक सेना भेजी। दोनों सेनाओं में 24 फरवरी को बनारस से लगभग पाँच मील दूर बहादुरपुर नामक स्थान पर भीषण संग्राम हुआ, जिसमें शुजा बुरी तरह पराजित हुआ तथा अपनी जान बचाने के लिए बंगाल की ओर भाग गया।

3. धरमत का युद्ध (15 अप्रैल, 1658 ई०) – शाहशुजा की ओर सेनाएँ भेजकर ही दारा चुप नहीं बैठा, उसने कासिम खाँ तथा राजा जसवन्त सिंह के नेतृत्व में दूसरी विशाल सेना मुराद तथा औरंगजेब से युद्ध करने के लिए भेज दी। दारा ने राजा जसवंत सिंह को आज्ञा देकर भेजा था कि वह प्रयत्न करके युद्ध के बिना ही दोनों शहजादों को उनके प्रान्तों में वापस भेज दे, किन्तु यह प्रयास विफल रहा। अन्त में धरमत नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भयंकर संग्राम हुआ, किन्तु अन्त में राजा जसवन्त सिंह पराजित हो रणक्षेत्र छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

दारा ने सुलेमान शिकोह को बिहार से बुला भेजा, किन्तु वह देर से पहुँचा। तब तक मुगलों की सेनाएँ पराजित हो चुकी थीं। औरंगजेब को इस विजय से बहुत प्रोत्साहन मिला तथा उसे बड़ी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र एवं अपार धन प्राप्त हुआ। इस विजय से औरंगजेब के सम्मान और शक्ति में काफी वृद्धि हो गई। यहाँ पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने एक छोटे-से-नगर फहेताबाद का निर्माण करवाया तथा चम्बल पार करके ग्वालियर की ओर बढ़ा। ग्वालियर के निकट सामूगढ़ के मैदान में उसने पुनः शाही फौजों से टक्कर लेने का निश्चय करके पड़ाव डाल दिया।

4. सामूगढ़ का युद्ध (29 मई, 1658 ई०) – इसी समय शाहजहाँ, जिसने आगरा से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया था, यह समाचार सुनकर वापस लौट आया। दारा औरंगजेब का पूर्ण विनाश करने की तैयारियों में संलग्न था। शाहजहाँ यह युद्ध नहीं चाहता था परन्तु वह दारा को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहा। दारा 50,000 सैनिकों के साथ सामूगढ़ पहुँचा। दारा ने एक बड़ी भूल यह की कि अपने पुत्र सुलेमान शिकोह की प्रतीक्षा किए बिना ही वह आगरा से चल पड़ा। सुलेमान योग्य सेनापति था तथा शुजा को पराजित करके आगरा लौट रहा था।

दोनों भाइयों की सेनाओं में भीषण संघर्ष हुआ तथा औरंगजेब और मुराद बड़ी वीरतापूर्वक लड़े और शाही सेना का विनाश करने लगे। निराश होकर दारा अपना हाथी छोड़कर घोड़े पर सवार होकर लड़ने लगा। परन्तु उसके हाथी का हौदा खाली देखकर सैनिकों ने समझा कि दारा की मृत्यु हो गई और उसकी सेना में भगदड़ मच गई। औरंगजेब की पूर्ण विजय हुई तथा दारा की सेनाएँ भाग गई। अपनी इस पराजय से निराश होकर दारा तथा उसका पुत्र सुलेमान शिकोह आगरा की ओर बढ़े और रात्रि तक आगरा जा पहुँचे। औरंगजेब ने दारा के शिविर को लूटा तथा वहाँ से उसे काफी सम्पत्ति और बारूद प्राप्त हुई। मुराद इस युद्ध में घायल हो गया था। उसकी परिचर्या के लिए औरंगजेब ने कुशल जर्राह नियुक्त किए तथा उसे गद्दी प्राप्त करने की बधाई दी।

सामूगढ़ के युद्ध का अत्यधिक महत्त्व है। स्मिथ के अनुसार- “सामूगढ़ के युद्ध ने उत्तराधिकार के युद्ध का निर्णय कर दिया। इस युद्ध से लेकर शुजा की मृत्यु तक की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि औरंगजेब शाहजहाँ का सबसे योग्य पुत्र तथा सिंहासन का वास्तविक अधिकारी है।”

5. औरंगजेब तथा मुराद का आगरा आगमन- सामूगढ़ के युद्ध में विजय प्राप्त करके साहस तथा उत्साह से भरे हुए। औरंगजेब और मुराद आगरा की ओर चल पड़े तथा नूर-ए-बाग नामक उद्यान में, जो आगरा के निकट ही था, उन्होंने पड़ाव डाल दिया। इस समय तक पराजित दारा के अधिकांश पक्षपातियों ने उसका साथ छोड़कर विजेता औरंगजेब का साथ देना आरम्भ कर दिया था तथा उससे क्षमा माँग ली थी। औरंगजेब ने उन्हें अपनी ओर मिलाकर शाहजहाँ से इस भीषण युद्ध के लिए क्षमा माँगी तथा साथ-ही-साथ दारा पर इस युद्ध का उत्तरदायित्व डाल दिया। शाहजहाँ ने आलमगीर नामक एक तलवार औरंगजेब के पास भेजी तथा उससे मिलने की इच्छा प्रकट की परन्तु औरंगजेब के मित्रों ने उसे परामर्श दिया कि वह शाहजहाँ को बन्दी बना ले। औरंगजेब को यह सलाह पसन्द आई।

6. शाहजहाँ का बन्दी बनाया जाना – औरंगजेब ने मुराद को आगरा के दुर्ग पर अधिकार करने के लिए भेजा। मुराद ने यमुना का पानी दुर्ग में जाने का मार्ग बन्द कर दिया। दुर्ग में स्थित सैनिकों ने थोड़ा-बहुत युद्ध किया परन्तु पानी के अभाव के कारण उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली। औरंगजेब के हाथों शाहजहाँ द्वारा दारा को लिखा एक पत्र पड़ गया, जिसमें लिखा था कि वह दिल्ली के दुर्ग की सुरक्षा का पूर्ण प्रबन्ध रखे।

यह पत्र पढ़कर औरंगजेब का सन्देह पक्का हो गया कि बादशाह उसे धोखा देना चाहता है; अतः उसने बादशाह को बन्दी बनाकर आगरा के दुर्ग में स्थित मोती मस्जिद की एक छोटी-सी कोठरी में भेज दिया, जहाँ हिन्दुस्तान के शानदार बादशाह ने अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्ष बड़े दु:ख एवं कष्ट में व्यतीत किए। अन्त में 22 जनवरी, 1666 ई० को उसकी मृत्यु के साथ ही उसके कष्टों का अन्त हो गया। मृत्यु के उपरान्त ताजमहल में मुमताजमहल की कब्र के निकट ही शाहजहाँ को भी दफना दिया गया।

7. मुराद का अन्त – शाहजहाँ को बन्दी बनाने के उपरान्त औरंगजेब राज्य का वास्तविक शासक बन बैठा था। वह दरबार में सिंहासन पर बैठता था तथा समस्त अमीर उसे अपना बादशाह मानते थे। जब मुराद को औरंगजेब की वास्तविक इच्छा का पता लगा तो उसने गड़बड़ करने का प्रयास किया, परन्तु औरंगजेब के सम्मुख मुराद जैसे मूर्ख को सफलता मिलनी असम्भव थी। औरंगजेब ने उसे मथुरा में भोजन के लिए आमन्त्रित किया तथा बढ़िया खाने और शराब के अत्यधिक सेवन से मुराद संज्ञाहीन होकर अपने भाई के हाथों बन्दी बना लिया गया। मुराद ने विरोध किया तथा औरंगजेब को उसकी शपथ याद दिलवाई, परन्तु औरंगजेब पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। यहाँ से मुराद को ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया गया तथा अपने दीवान अली नकी की हत्या के आरोप में उसे प्राणदण्ड दे दिया गया। 4 दिसम्बर, 1661 ई० को इस अभागे शहजादे ने बन्दीगृह में दम तोड़ दिया। वहीं दुर्ग में उसके शव को दफना दिया गया। इस प्रकार अपने विरोधियों का औरंगजेब ने एक-एक करके सफाया करना आरम्भ कर दिया।

8. दारा का अन्तिम प्रयास – देवराई का युद्ध तथा दारा का अन्त- सामूगढ़ के युद्ध के पश्चात दारा आगरा से दिल्ली की ओर चला गया था, जहाँ का राजकोष तथा दुर्ग उसके हाथ में था। परन्तु आगरा विजय से औरंगजेब की शक्ति अत्यधिक बढ़ गई तथा उसके पास धन और सेना का भी अभाव नही था; अत: उससे भयभीत दारा दिल्ली छोड़कर अपनी प्राणरक्षा के लिए पंजाब की ओर भाग गया। परन्तु औरंगजेब की सेना निरन्तर दारा का पीछा करती रही। इस समय दारा के मित्र भी उसके शत्रु हो गए थे तथा उन्होंने औरंगजेब का साथ देना आरम्भ कर दिया था। औरंगजेब ने राजा जसवन्त सिंह को भी प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया तथा अपनी प्रतिज्ञा भूलकर जसवन्त सिंह ने दारा को अकेला छोड़ दिया। अहमदाबाद के सूबेदार ने 20,000 सैनिकों से दारा की सहायता की तथा एक बार पुन: अपना भाग्य आजमाने के लिए दारा ने प्रयास किया। देवराई के दरें के ऊपर दारा तथा औरंगजेब की सेनाओं में अन्तिम मुठभेड़ हुई जिसमें दारा पुनः पराजित हुआ।

औरंगजेब दारा को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था; अतः उसने दारा का पीछा किया। वहाँ से भागकर दारा मुल्तान होता हुआ मक्कर की ओर भाग गया और अन्त में वह दादर पहुँचा तथा वहाँ के बलूची सरदार मलिक जीवन खाँ से शरण माँगी, जिसे एक बार उसने प्राणदण्ड से बचाया था। परन्तु दारा के दुर्भाग्य ने उसका पीछा न छोड़ा। यहीं पर उसकी प्रिय पत्नी नादिरा बेगम की मृत्यु हो गई। उसकी अन्तिम इच्छा के अनुसार लाहौर में उसका शव दफना दिया गया। बलूची सरदार ने दारा की सहायता करने के बजाए उससे विश्वासघात किया तथा उसे औरंगजेब के सेनापति के हाथों सौंप दिया।

इस प्रकार 23 अगस्त, 1659 ई० को दारा और उसका पुत्र बन्दी के रूप में औरंगजेब के सम्मुख उपस्थित किए गए। दारा की यह दशा देखकर निर्दयी-से-निर्दयी व्यक्ति की आँखों में भी पानी भर आया। शाहजहाँ का सबसे प्रिय तथा विद्वान पुत्र धूल-धूसरित दशा में दरबार में उपस्थित था। दारा पर औरंगजेब ने काफिर होने का आरोप लगाया तथा उसके इशारे पर यह आरोप दरबार में सिद्ध कर दिया गया। औरंगजेब ने उसे तथा उसके पुत्र को एक हाथी पर बैठाकर सारे नगर में घुमाया और फिर उनकी हत्या करवा दी।

9. सुलेमान शिकोह का अन्त – दारा का पुत्र सुलेमान शिकोह शुजा से युद्ध करने गया हुआ था। इसी बीच दारा को औरंगजेब के साथ युद्ध करने के लिए जाना पड़ा। धरमत के युद्ध का समाचार सुनकर ही वह दिल्ली के लिए रवाना हो गया था, परन्तु मार्ग में कड़ा में उसे सामूगढ़ की पराजय का समाचार मिला। सुलेमान शिकोह ने अपने सेनापतियों को अपने पिता की सहायता करने के लिए कहा, किन्तु राजा जयसिंह ने स्पष्ट इन्कार कर दिया कि वह पराजित शहजादे की सहायता नहीं कर सकता; अत: सुलेमान इलाहाबाद से लखनऊ होता हुआ हरिद्वार तथा फिर पंजाब में अपने पिता की सहायता के लिए गया, किन्तु शाइस्ता खाँ उसका पीछा कर रहा था,

जिसने सुलेमान को गढ़वाल की ओर जाने के लिए बाध्य किया, जहाँ उसने एक हिन्दू सरदार के यहाँ शरण प्राप्त की। औरंगजेब ने, जो इस समय तक अन्य शत्रुओं का सफाया कर चुका था, सुलेमान शिकोह को समाप्त करने का प्रयास किया। सुलेमान ने लद्दाख की ओर भागने का प्रयास किया परन्तु शाही सेनाओं ने उसे पकड़कर बन्दी बना लिया और दिल्ली के सम्राट के सम्मुख उपस्थित किया। उसे ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया गया तथा उसको भोजन में पोस्ता मिलाकर दिया जाने लगा, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

10. शुजा का अन्त – अब औरंगजेब का एकमात्र शत्रु शुजा ही रह गया था। औरंगजेब ने अपने अभिषेक के उपरान्त शुजा को एक पत्र लिखा कि वह दारा से निपट ले, उसके बाद शुजा जो माँगेगा उसे वही मिलेगा। परन्तु शुजा अपने भाई को अच्छी तरह जानता था; अतः उसने युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी और जनवरी 1659 ई० में खजवा नामक स्थान पर दोनों पक्षों की सेनाओं में भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें शुजा बुरी तरह पराजित हुआ तथा उसकी सेना का विनाश हो गया। शुजा निराश होकर पहले बंगाल और फिर अराकान की पहाड़ियों की ओर भागा। वहाँ पर उसने यहाँ के शासक को गद्दी से उतारने का पड्यन्त्र रचा, जिससे क्रुद्ध होकर अराकानवासियों ने उसकी हत्या कर डाली। इस प्रकार औरंगजेब के इस अन्तिम शत्रु का भी अन्त हो गया तथा उसने निष्कण्टक राज्य आरम्भ किया। जीवन के अन्तिम समय 1707 ई० तक औरंगजेब भारत का सम्राट बना रहा।

औरंगजेब की सफलता के कारण – लगभग दो वर्षों तक चले इस उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब को विजयश्री मिली। सामूगढ़ के युद्ध ने ही यह सिद्ध कर दिया था कि औरंगजेब ही मुगल साम्राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी है। कुछ विशेष कारण जो औरंगजेब की सफलता के आधार बने, निम्नलिखित हैं

1. शाहजहाँ का कमजोर प्रवृत्ति का होना – हालाँकि शाहजहाँ एक वीर व साहसी बादशाह था परन्तु उत्तराधिकारी चुनने के मामले में वह दुर्बल शासक सिद्ध हुआ। उसकी यह कमजोर प्रवृत्ति उसके वीर, विद्वान व साहसी पुत्रों की मृत्यु का कारण बनी। औरंगजेब ने अपनी राह के काँटे अपने सभी भाइयों का एक-एक करके सफाया कर दिया। रोगग्रस्त बादशाह ने दारा को समस्त राज्य-कार्यों का कार्यभार सौंपकर एक बड़ी भूल की थी। इससे उसके अन्य पुत्र नाराज हो गए। बादशाह ने अपनी समस्त शक्ति का उपयोग नहीं किया और उसके पुत्र आपस में लड़ते रहे।

2. औरंगजेब की सैन्य क्षमता – औरंगजेब महत्वाकांक्षी युवक था। वह सैन्य कुशलता में अपने सभी भाइयों की अपेक्षा श्रेष्ठ था। उसने अपने पिता के शासनकाल में अनेक बार अपनी सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया था। उसने कूटनीति से अपने वीर परन्तु मूर्ख भाई मुराद को अपनी ओर मिला लिया और अपने अन्य भाईयों के विरुद्ध उसकी वीरता का फायदा उठाया। औरंगजेब योग्य सेनापति व कुशल राजनीतिज्ञ था। उसने दारा के विरुद्ध अपनी मुस्लिम सेना को भड़का दिया कि दारा एक काफिर है, वह इस्लाम को नहीं मानता। उसकी इस नीति से मुगल सेना के साथ-साथ अन्य मुस्लिम दरबारी भी दारा के विरुद्ध हो गए। औरंगजेब का सैन्य संचालन भी दारा के विपरीत अत्यन्त कुशल था। उसके तोपखाने की गोलीबारी ने दारा को भयभीत कर दिया। अन्तत: दारा पराजित हो गया।

3. दारा की भयंकर भूलें – दारा ने कुछ भयंकर भूलें भी कीं, जिसका परिणाम उसकी पराजय के रूप में परिणत हुआ। धरमत के युद्ध के पश्चात उसने अपने पुत्र सुलेमान शिकोह, जो एक कुशल सेना नायक था, की प्रतीक्षा नहीं की और अकेला युद्ध के लिए निकल पड़ा। उसकी दूसरी भूल सामूगढ़ के युद्ध में औरंगजेब की सेना को विश्राम करने का अवसर देना थी। यद्धभूमि में घायल हाथी के हौदे को छोड़कर घोड़े पर सवार होना भी उसकी एक अन्य भल थी, जिससे उसकी सेना उसे मृत मानकर भाग खड़ी हुई। ये सभी भूलें दारा की सैनिक क्षमता की कमजोरियों को सिद्ध करती हैं, जिसका भरपूर लाभ औरंगजेब ने उठाया।

4. औरंगजेब का कट्टरपन व दारा की उदारता – औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उस समय अधिकांश देशों में धर्मान्धता की अधिकता थी। भारत के अधिकतर मुसलमान भी धर्मान्ध थे। अत: औरंगजेब ने इस धर्मान्धता का लाभ उठाया और धर्म-सहिष्णु दारा के विरुद्ध सभी मुसलमानों को भड़का दिया। अत: औरंगजेब समस्त मुस्लिम वर्ग का पक्षपाती बन गया। वे उसे ही अपना बादशाह मानने लगे और दारा, जो कि सभी धर्मों का आदर करता था, को काफिर मानने लगे तथा उससे घृणा करने लगे, जिसका औरंगजेब ने भरपूर फायदा उठाया।

प्रश्न 7.
औरंगजेब के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। मुगल साम्राज्य के पतन के लिए वह किस प्रकार उत्तरदायी था?
उतर:
औरंगजेब के चरित्र का मूल्यांकन
लेनपूल के अनुसार – “औरंगजेब को अपने जीवन में भयंकर असफलता देखनी पड़ी, परन्तु उसकी असफलता बड़ी शानदार थी। उसने अपनी आत्मा को समस्त संसार के विरुद्ध खड़ा कर दिया और अन्त में संसार को विजय प्राप्त हुई। उसने अपने लिए कर्तव्य का एक मार्ग निश्चित किया और यह मार्ग व्यावहारिक था अथवा नहीं इसकी चिन्ता किए बिना वह उस पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर होता गया।”

खाफी खाँ ने औरंगजेब का मूल्यांकन करते हुए लिखा है – “तैमूर के वंशजों में ही नहीं वरन् सिकन्दर लोदी के पश्चात् दिल्ली के सभी शासकों में ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसमें इतनी भक्ति, तपस्या तथा न्याय की भावना हो। साहस, सहनशीलता तथा ठोस निर्णयात्मक बुद्धि में कोई औरंगजेब की समता नहीं कर सकता था। किन्तु उसे शरा (नियम, कानून) में अत्यधिक श्रद्धा थी इसलिए वह दण्ड का प्रयोग नहीं करता था और बिना दण्ड के किसी देश की प्रशासन-व्यवस्था कायम नहीं रखी जा सकती। प्रत्येक योजना जो वह बनाता, निरर्थक सिद्ध होती और जो भी साहसिक कार्य वह अपने हाथों में लेता, उसके कार्यान्वित होने में बड़ी देर लगती और अन्त में उसका उद्देश्य पूरा न होता।”

प्रो० जे०एन० सरकार तथा के०के० दत्त के अनुसार – “औरंगजेब में बहुत-से उत्तम गुण थे, परन्तु वह एक सफल शासक न था। वह एक चतुर कूटनीतिज्ञ था, परन्तु कुशल राजनीतिज्ञ न था। सारांश यह है कि उसमें वह राजनीतिक प्रतिभा न थी, जो मुगल सम्राटों में केवल अकबर में पाई जाती है, जिसमें नई नीति को चलाने तथा ऐसे कानून बनाने की क्षमता थी, जो उस काम के तथा भावी पीढ़ी के जीवन तथा विचारों को बदल सकते थे।

राय चौधरी और आर०सी० मजूमदार के अनुसार – “अपनी शक्ति तथा चरित्र-बल के बावजूद औरंगजेब भारत के शासक के रूप में असफल सिद्ध हुआ। उसने यह नहीं समझा कि किसी साम्राज्य की महत्ता उसके अधिकाधिक जनसाधारण की प्रगति पर निर्भर है। अपनी धार्मिक उमंग की प्रबलता के कारण उसने जनता के महत्वपूर्ण वर्गों की उपेक्षा की और इस प्रकार अपने साम्राज्य की विरोधी शक्तियों को उभारा।।

बर्नियर के अनुसार – “औरंगजेब एक राजनीतिज्ञ, एक महान् सम्राट तथा अद्भुत प्रतिभा का धनी व्यक्ति था।” औरंगजेब को निश्चय ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। यद्यपि पूर्ण रूप से नहीं तथापि मुगल वंश का पतन अधिकतर उसकी नीतियों का ही परिणाम था, क्योंकि वह किसी का भी हृदय जीतने में असफल रहा। औरंगजेब की निम्नलिखित नीतियाँ मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी हैं

1. राजपूत विरोधी नीति- केवल राजपूतों को ही नहीं वरन् अन्य सहायकों को भी अपनी अनुदार तथा संकीर्ण नीति के कारण औरंगजेब ने अपना विरोधी बना लिया। सिक्ख, जाट, बुन्देले, मराठे सभी उसकी नीति से असन्तुष्ट होकर मुगल साम्राज्य के विनाश के लिए प्रयासरत रहने लगे। मराठों ने दक्षिण में लूटमार मचा दी, जाटों ने मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को उजाड़ा तथा गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख उसे जीवनभर परेशान करते रहे। इन विद्रोहों ने मुगल वंश का पतन निकट ला दिया।

2. दक्षिण – नीति की विफलता- औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने राजकोष पर बुरा प्रभाव डाला। विशाल सेना होने के कारण आय का अधिकांश भाग केवल सेना पर व्यय होने लगा, जिससे अन्य दिशाओं में प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसी कारण सम्राट शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखने में असफल रहा। दक्षिण में शिया राज्यों को जीत लेने के साथ ही विकासोन्मुख मराठा शक्ति का सामना करने के लिए मुगलों को संघर्षरत होना पड़ा। मराठों की छापामार रण-पद्धति के सम्मुख मुगलों की विशाल सेना कुछ भी नहीं कर सकती थी। मराठों की सेना मुगल सेना एवं उनके प्रदेशों को अवसर पाते ही लूट लेती थी। इस प्रकार मराठों ने मुगलों का पतन और भी सन्निकट ला दिया।

3. पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प – यद्यपि औरंगजेब धर्मान्ध तथा अनुदार था तथापि उसमें योग्यता का अभाव नहीं था। उसके पिता ने उसे उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान की थी तथा सम्राट बनने से पूर्व उसने शासन-प्रबन्ध का पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर लिया था। इसलिए विद्रोहों तथा संकटों के उपरान्त भी उसने राज्य को अपने हाथ से नहीं जाने दिया। वह शंकालु प्रकृति का था तथा उसे भय था कि उसके पुत्र योग्य बनकर कहीं उसके विरुद्ध विद्रोह न कर दें, जैसा कि उसने स्वयं अपने पिता के विरुद्ध किया था। उसने केवल शहजादे अकबर को व्यवहारिक शिक्षा देने का प्रयास किया था। शहजादे अकबर के विद्रोह के पश्चात् अपने अन्य शहजादों के प्रति सम्राट और भी सतर्क हो गया तथा उसने उन्हें कभी भी कोई महत्वपूर्ण प्रशासनिक भार सँभालने का अवसर नहीं दिया। उसने अपने पुत्रों पर भी कभी विश्वास नहीं किया तथा 90 वर्ष की वृद्धावस्था में भी लकड़ी के सहारे चलकर वह स्वयं सैन्य संचालन करता था। उसकी इसी नीति के कारण अनुभव से वंचित उसके उत्तराधिकारी विशाल साम्राज्य को सँभाल पाने में असमर्थ रहे।

4. शासन का केन्द्रीकरण – शंकालु प्रकृति के कारण औरंगजेब ने शासन की बागडोर पूर्णतया अपने हाथ में रखी। दक्षिण की विजयों के कारण मुगल साम्राज्य काफी विशाल हो गया था तथा एक व्यक्ति और एक केन्द्र से उसका समुचित संचालन असम्भव हो गया था। सम्राट के स्वभाव के कारण सूबेदार अनुत्तरदायी हो गए तथा प्रजा पर अत्याचार करने लगे। उनके अधिकारों को छीनकर सम्राट ने शासन-व्यवस्था को दोषपूर्ण बना दिया। जब तक सम्राट शक्तिशाली रहा तब तक तो शासन सुचारु रूप से चलता रहा, परन्तु जैसे-जैसे वह वृद्ध होता गया उसकी कार्य करने की शक्ति क्षीण होने लगी तथा प्रान्तों पर से उसका अंकुश ढीला पड़ने लगा। दूरस्थ प्रान्तों के सूबेदार उसके नियन्त्रण से बाहर होने लगे तथा विद्रोह करने को तत्पर हो गए।

5. शासन-व्यवस्था की शिथिलता – यद्यपि औरंगजेब साम्राज्य के छोटे-छोटे कार्यों का निरीक्षण भी स्वयं करता था परन्तु वह देश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में असफल रहा। यद्यपि वह कुशल शासक था परन्तु उसकी यह धारणा बन गई थी कि वह स्वयं सबसे अधिक योग्य है। वह अपने बड़े-से-बड़े पदाधिकारी पर भी सन्देह करता था। ईर्ष्या और सन्देह की मात्रा उसमें इतनी प्रबल थी कि उसने सभी पर सन्देहपूर्ण दृष्टि रखनी आरम्भ कर दी थी। शासन-व्यवस्था में योग्य-से-योग्य व्यक्तियों के परामर्श की भी वह अवहेलना करने लगा था। इस सन्देहपूर्ण नीति का दुष्प्रभाव जनता पर पड़ा, जिससे शान्ति एवं समृद्धि का युग समाप्त हो गया।

6. धर्मान्धता एवं असहिष्णुता की नीति – सम्राट के रूप में औरंगजेब का आदर्श संकीर्ण एवं अनुदार था। वह मुसलमानों की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझता था जबकि हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति अत्याचारपूर्ण थी। वह बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार करना अपना कर्तव्य समझता था। इस्लाम स्वीकार न करने पर वह हिन्दुओं को प्राणदण्ड तक दे देता था। भारत जैसे देश के लिए, जहाँ 80 प्रतिशत जनता हिन्दू थी, इस प्रकार की नीति अहितकर तथा घातक सिद्ध हुई। हिन्दुओं ने सम्राट के कठोर अत्याचार सहन किए,

परन्तु धर्म परिवर्तन के लिए वे तैयार नहीं हुए। सम्राट ने जितने अधिक अत्याचार किए, उतनी ही अधिक विद्रोह की प्रवृत्ति हिन्दुओं में उत्पन्न हुई। इस प्रकार औरंगजेब की नीति मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। औरंगजेब ने हिन्दुओं के प्रति ही नहीं, शियाओं के प्रति भी अनुदारतापूर्ण नीति अपनाई तथा योग्य एवं प्रतिभाशाली शियाओं की सेवाओं से साम्राज्य को वंचित कर दिया। उसकी इस धार्मिक नीति का परिणाम यह हुआ कि उसकी मृत्यु के 10-15 वर्ष पश्चात् ही मुगल साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। औरंगजेब की इस धर्मान्धता का मुगल साम्राज्य पर अत्यन्त घातक प्रभाव पड़ा।

7. आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास का अन्त – औरंगजेब धर्म का अन्धा अनुयायी था तथा कुरान के अनुसार चलने के कारण ललित कलाओं का पोषण नहीं कर सकता था। उसे न संगीत में अभिरुचि थी, न चित्रकला में और न भवननिर्माण-कला में। फलतः इन सभी ललित कलाओं का पतन उसके काल में हो गया। विद्वान होने पर भी साहित्यकारों को आश्रय देने में उसकी रुचि नहीं थी। फलतः सांस्कृतिक विकास के क्षेत्र में अरुचि के कारण औरंगजेब का युग संस्कृति के पूर्ण पतन का युग था।

प्रश्न 8.
औरंगजेब की धार्मिक नीति की समीक्षा कीजिए।
उतर:
औरंगजेब की धार्मिक नीति के विषय में इतिहासकारों में गहरा मतभेद है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति को उलटकर साम्राज्य को हिन्दुओं की वफादारी से वंचित कर दिया। उनके अनुसार इसके फलस्वरूप जन-विद्रोह भड़क उठे, जिससे साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो गई। लेकिन कुछ दूसरे इतिहासकारों का विचार है कि औरंगजेब पर नाहक दोषारोपण किया गया है। उनके अनुसार हिन्दू औरंगजेब के पूर्ववर्ती शहंशाहों की शिथिलता के कारण गैर-वफादार हो गए थे,

जिससे मजबूर होकर आखिरकार उसे कड़े कदम उठाने पड़े और मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करने की खास कोशिश करनी पड़ी, क्योंकि साम्राज्य अंततः टिका हुआ तो उन्हीं के समर्थन पर था। परन्तु औरंगजेब के सम्बन्ध में लिखी गई हाल की कृतियों में एक नई दृष्टि उभरी है जिसमें कोशिश यह की गई है कि औरंगजेब की राजनीतिक एवं धार्मिक नीतियों का मूल्यांकन उस काल की सामाजिक, आर्थिक एवं संस्थागत घटनाक्रम के सन्दर्भ में किया जाए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि औरंगजेब के धार्मिक विचार रूढ़िवादी थे।

औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसका राजत्व सिद्धान्त इस्लाम का राजत्व सिद्धान्त था। औरंगजेब का प्रमुख लक्ष्य भारत को काफिरों के देश से इस्लाम देश बनाना था। औरंगजेब जीवनपर्यन्त इस उद्देश्य को न भूल सका और न कभी शासन नीति को इससे पृथक् रख सका। औरंगजेब का विश्वास था कि उससे पहले के सभी मुगलों ने सबसे गम्भीर भूल यह की थी कि उन्होंने भारत में इस्लाम की श्रेष्ठता को स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया था। उसके अनुसार यह इस्लाम को मानने वाले बादशाह का एक प्रमुख कर्तव्य था। इस व्यक्तिगत धारणा के अतिरिक्त परिस्थितियों ने भी औरंगजेब को धार्मिक कट्टरता की नीति अपनाने के लिए बाध्य किया था। परन्तु तब भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की नीति का मुख्य आधार उसकी धार्मिक कट्टरता की स्वयं की धारणा थी।

औरंगजेब की धार्मिक नीति का विश्लेषण करते हुए हम सबसे पहले नैतिक और धार्मिक नियमों का जायजा ले सकते हैं-

  1. गायन पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने दरबार में गायन बन्द करवा दिया और गायकों को पेंशन दे दी। लेकिन वाद्य-संगीत तथा नौबत (शाही बैण्ड) को जारी रखा गया। हरम में महिलाओं ने गायन जारी रखा और सरदार लोग भी गायन को प्रश्रय देते थे।
  2. सिक्कों पर कलमाखुदाई का निषेध- अपने शासनकाल के आरम्भ में औरंगजेब ने सिक्कों पर कलमा की खुदाई करने का निषेध कर दिया। उसका कहना था कि सिक्कों पर कोई पैर रख दे या एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुँचने के क्रम में वह नापाक हो जाए, तो वह कलमा का अपमान है।
  3. झरोखा दर्शन पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने झरोखा दर्शन की प्रथा भी बन्द कर दी क्योंकि इसे वह एक अन्धविश्वासपूर्ण रिवाज और इस्लाम के विरुद्ध मानता था।
  4. नौरोज पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने नौरोज के त्योहार की मनाही कर दी क्योंकि वह जरथुस्त्री रिवाज था, जिसका पालन ईरान के सफावी शासक करते थे।
  5. मादक वस्तुओं पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने भाँग का उत्पादन बन्द कर दिया। शराब पीने और जुआ खेलने को भी प्रतिबन्धित कर दिया।
  6. मुहतसिबों की नियुक्ति- औरंगजेब ने बड़े-बड़े नगरो में मुहतसिबों (धर्म निरीक्षकों) की नियुक्ति की। मुहतसिबों का कर्तव्य था कि वह देखें कि मुसलमान ठीक प्रकार से अपने धर्म का पालन करते हैं या नहीं। मुहतसिबों की नियुक्ति के पीछे औरंगजेब का यह आग्रह काम कर रहा था कि राज्य नागरिकों के नैतिक कल्याण के लिए भी जिम्मेदार है।
  7. तुलादान की समाप्ति- उसने शहंशाह के जन्मदिन पर उसे सोने या चॉदी अथवा अन्य कीमती वस्तुओं से तोलने का रिवाज भी बन्द करवा दिया। यह प्रथा छोटे सरदारों के लिए सिर का बोझ बन गई थी।

इसी प्रकार औरंगजेब ने सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया, वेश्याओं को शादी करने अथवा देश छोड़ देने के आदेश दिए। सादगी और मितव्ययिता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सिंहासन कक्ष को सस्ते और सादे ढंग से सजाने का हुक्म दिया। रेशमी कपड़ों को अस्वीकृत की दृष्टि से देखा जाता था। इसी प्रकार उसने पेशकारों और करोरियों के पद मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की कोशिश की, लेकिन सरदारों के विरोध और योग्य मुसलमानों की कमी के कारण शीघ्र ही उसने इस नियम में संशोधन कर दिया। अब हम औरंगजेब की उन नीतियों का अवलोकन करेंगे, जिनसे दूसरे धर्मों के अनुयायियों के प्रति औरंगजेब के धर्माध व्यवहार का पता चलता है

1. सरकारी नौकरियों से हिन्दुओं को वंचित करना- औरंगजेब ने सरकारी नौकरियों में भी भेदभावपूर्ण नीति अपनाई। उसने एक आदेश जारी कर कहा कि खालसा में लगान वसूल करने वाले सभी मुसलमान हों तथा वायसराय और तालुकेदार अपने हिन्दू पेशकार और दीवानों को निकाल दें। प्रो० जदुनाथ सरकार का मत है कि औरंगजेब के शासनकाल में कानूनगो बनने के लिए मुसलमान बनना एक लोक-प्रसिद्ध कहावत हो गई थी।

2. मन्दिरों का विध्वंस- प्रो० जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि औरंगजेब ने हिन्दू धर्म पर बड़े विषैले ढंग से आक्रमण किया। पहले तो उसने एक फरमान (1659 ई०) में यह जारी किया कि “पुराने मन्दिरों को नहीं तोड़ना चाहिए लेकिन कोई नया मन्दिर नहीं बनने देना चाहिए। किन्तु अप्रैल, 1669 में औरंगजेब का अन्तिम आदेश हुआ, जिसमें हुक्म दिया गया कि काफिरों के सब शिवालय और मन्दिर गिरा दिए जाएँ और उनकी धार्मिक प्रथाओं को दबाया जाए। इस कट्टरता के तूफान में काठियावाड़ का सोमनाथ मन्दिर, बनारस का विश्वनाथ मन्दिर, मथुरा का केशवराय मन्दिर तोड़ दिए गए और उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी गईं। आमेर राज्य जो उसका व उसके पूर्वजों का मित्र रहा था, वहाँ के भी सब मन्दिर तोड़ दिए गए, उनकी मूर्तियों को मस्जिद की सीढ़ियों पर डलवा दिया ताकि पैरों तले रौंदी जा सकें।

3. जजिया कर का पुनः प्रचलन- बादशाह औरंगजेब ने 2 अप्रैल, 1679 को आदेश दिया कि कुरान के नियमों के अनुसार जिम्मी (गैर-मुसलमान) लोगों पर जजिया कर लगाया जाए। हिन्दुओं ने दिल्ली में इस कर का विरोध किया, परन्तु सुल्तान ने कोई ध्यान नहीं दिया। गौरतलब है कि 1564 ई० में अकबर ने इस घृणित कर को हटा दिया था और तब से एक शताब्दी से अधिक समय तक इसे किसी ने लागू नहीं किया था।

4. चुंगीसम्बन्धीभेदभावपूर्ण नीति – जजिया कर के अतिरिक्त हिन्दुओं से अन्य करों में भी भेदभाव किया जाता था। व्यापारिक माल पर मुस्लिमों के लिए 2.5% और हिन्दुओं के लिए 5% कर था। हिन्दुओं को धर्म-यात्रा पर भी कर देना पड़ता था।

5. बलात् धर्म परिवर्तन- सम्राट ने अनेक बार हिन्दुओं को बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन करने के लिए भी बाध्य किया, अन्यथा उनको प्राणदण्ड देने की धमकी दी। जाट नेता गोकुल के परिवार को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया। सिक्ख गुरु तेगबहादुर सिंह को इस्लाम स्वीकार करने के लिए अनेक यातनाएँ दी गई और अन्त में बादशाह के हुक्म से उनका सिर काट दिया गया।

6. हिन्दुओं के विरुद्ध नियम- औरंगजेब ने दीपावली पर बाजारों में रोशनी करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। होली खेलने, हिन्दू मेलों तथा धार्मिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। राजपूतों के अतिरिक्त अन्य जाति के हिन्दुओं के लिए हथियार लेकर अच्छी नस्ल के घोड़ों एवं पालकी पर चलने की प्रथा को बन्द कर दिया।

7. इस्लाम ग्रहण करने के लिए प्रलोभन- औरंगजेब ने मुसलमान बन जाने की शर्त पर हिन्दुओं को ऊँचे पद दिए जाने और कैद से छुटकारा पाने का प्रलोभन दिया। डॉ० एस० आर० शर्मा ने लिखा है कि “चाहे जो भी अपराध होता था, इस्लाम स्वीकार कर उसका प्रायश्चित हो सकता था।”

प्रश्न 9.
औरंगजेब मुगल साम्राज्य का अन्तिम शासक था, जिसकी मृत्यु से पहले ही विशाल साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया था।”मुगल साम्राज्य के विघटन के लिए प्राप्त औरंगजेब को कहाँ तक उत्तरदायी मानते हैं।
उतर:
मुगल साम्राज्य के पतन मे औरंगजेब का उत्तरदायित्व- औरंगजेब को निश्चय ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। यद्यपि पूर्ण रूप से नहीं तथापि मुगल वंश का पतन अधिकतर उसकी नीतियों का ही परिणाम था, क्योंकि वह किसी का भी हृदय जीतने में असफल रहा।

औरंगजेब की निम्नलिखित नीतियाँ मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी हैं–

1. राजपूत विरोधी नीति- केवल राजपूतों को ही नहीं वरन् अन्य सहायकों को भी अपनी अनुदार तथा संकीर्ण नीति के कारण औरंगजेब ने अपना विरोधी बना लिया। सिक्ख, जाट, बुन्देले, मराठे सभी उसकी नीति से असन्तुष्ट होकर मुगल साम्राज्य के विनाश के लिए प्रयासरत रहने लगे। मराठों ने दक्षिण में लूटमार मचा दी, जाटों ने मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को उजाड़ा तथा गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख उसे जीवनभर परेशान करते रहे। इन विद्रोहों ने मुगल वंश का पतन निकट ला दिया।

2. दक्षिण-नीति की विफलता- औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने राजकोष पर बुरा प्रभाव डाला। विशाल सेना होने के कारण आय का अधिकांश भाग केवल सेना पर व्यय होने लगा, जिससे अन्य दिशाओं में प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसी कारण सम्राट शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखने में असफल रहा। दक्षिण में शिया राज्यों को जीत लेने के साथ ही विकासोन्मुख मराठा शक्ति का सामना करने के लिए मुगलों को संघर्षरत होना पड़ा। मराठों की छापामार रण-पद्धति के सम्मुख मुगलों की विशाल सेना कुछ भी नहीं कर सकती थी। मराठों की सेना मुगल सेना एवं उनके प्रदेशों को अवसर पाते ही लूट लेती थी। इस प्रकार मराठों ने मुगलों का पतन और भी सन्निकट ला दिया।

3. पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प- यद्यपि औरंगजेब धर्मान्ध तथा अनुदार था तथापि उसमें योग्यता का अभाव नहीं था। उसके पिता ने उसे उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान की थी तथा सम्राट बनने से पूर्व उसने शासन-प्रबन्ध का पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर लिया था। इसलिए विद्रोहों तथा संकटों के उपरान्त भी उसने राज्य को अपने हाथ से नहीं जाने दिया। वह शंकालु प्रकृति का था तथा उसे भय था कि उसके पुत्र योग्य बनकर कहीं उसके विरुद्ध विद्रोह न कर दें, जैसा कि उसने स्वयं अपने पिता के विरुद्ध किया था। उसने केवल शहजादे अकबर को व्यवहारिक शिक्षा देने का प्रयास किया था। शहजादे अकबर के विद्रोह के पश्चात् अपने अन्य शहजादों के प्रति सम्राट और भी सतर्क हो गया तथा उसने उन्हें कभी भी कोई महत्वपूर्ण प्रशासनिक भार सँभालने का अवसर नहीं दिया। उसने अपने पुत्रों पर भी कभी विश्वास नहीं किया तथा 90 वर्ष की वृद्धावस्था में भी लकड़ी के सहारे चलकर वह स्वयं सैन्य संचालन करता था। उसकी इसी नीति के कारण अनुभव से वंचित उसके उत्तराधिकारी विशाल साम्राज्य को सँभाल पाने में असमर्थ रहे।

4. शासन का केन्द्रीकरण- शंकालु प्रकृति के कारण औरंगजेब ने शासन की बागडोर पूर्णतया अपने हाथ में रखी। दक्षिण की विजयों के कारण मुगल साम्राज्य काफी विशाल हो गया था तथा एक व्यक्ति और एक केन्द्र से उसका समुचित संचालन असम्भव हो गया था। सम्राट के स्वभाव के कारण सूबेदार अनुत्तरदायी हो गए तथा प्रजा पर अत्याचार करने लगे। उनके अधिकारों को छीनकर सम्राट ने शासन-व्यवस्था को दोषपूर्ण बना दिया। जब तक सम्राट शक्तिशाली रहा तब तक तो शासन सुचारु रूप से चलता रहा, परन्तु जैसे-जैसे वह वृद्ध होता गया उसकी कार्य करने की शक्ति क्षीण होने लगी तथा प्रान्तों पर से उसका अंकुश ढीला पड़ने लगा। दूरस्थ प्रान्तों के सूबेदार उसके नियन्त्रण से बाहर होने लगे तथा विद्रोह करने को तत्पर हो गए।

5. शासन-व्यवस्था की शिथिलता- यद्यपि औरंगजेब साम्राज्य के छोटे-छोटे कार्यों का निरीक्षण भी स्वयं करता था परन्तु वह देश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में असफल रहा। यद्यपि वह कुशल शासक था परन्तु उसकी यह धारणा बन गई थी कि वह स्वयं सबसे अधिक योग्य है। वह अपने बड़े-से-बड़े पदाधिकारी पर भी सन्देह करता था। ईष्र्या और सन्देह की मात्रा उसमें इतनी प्रबल थी कि उसने सभी पर सन्देहपूर्ण दृष्टि रखनी आरम्भ कर दी थी। शासन-व्यवस्था में योग्य-से-योग्य व्यक्तियों के परामर्श की भी वह अवहेलना करने लगा था। इस सन्देहपूर्ण नीति का दुष्प्रभाव जनता पर पड़ा, जिससे शान्ति एवं समृद्धि का युग समाप्त हो गया।

6. धर्मान्धता एवं असहिष्णुता की नीति- सम्राट के रूप में औरंगजेब का आदर्श संकीर्ण एवं अनुदार था। वह मुसलमानों की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था जबकि हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति अत्याचारपूर्ण थी। वह बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार करना अपना कर्त्तव्य समझता था। इस्लाम स्वीकार न करने पर वह हिन्दुओं को प्राणदण्ड तक दे देता था। भारत जैसे देश के लिए, जहाँ 80 प्रतिशत जनता हिन्दू थी, इस प्रकार की नीति अहितकर तथा घातक सिद्ध हुई। हिन्दुओं ने सम्राट के कठोर अत्याचार सहन किए, परन्तु धर्म परिवर्तन के लिए वे तैयार नहीं हुए। सम्राट ने जितने अधिक अत्याचार किए, उतनी ही अधिक विद्रोह की प्रवृत्ति हिन्दुओं में उत्पन्न हुई। इस प्रकार औरंगजेब की नीति मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। औरंगजेब ने हिन्दुओं के प्रति ही नहीं, शियाओं के प्रति भी अनुदारतापूर्ण नीति अपनाई तथा योग्य एवं प्रतिभाशाली शियाओं की सेवाओं से साम्राज्य को वंचित कर दिया। उसकी इस धार्मिक नीति का परिणाम यह हुआ कि उसकी मृत्यु के 10-15 वर्ष पश्चात् ही मुगल साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। औरंगजेब की इस धर्मान्धता का मुगल साम्राज्य पर अत्यन्त घातक प्रभाव पड़ा।

7. आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास का अन्त- औरंगजेब धर्म का अन्धा अनुयायी था तथा कुरान के अनुसार चलने के कारण ललित कलाओं का पोषण नहीं कर सकता था। उसे न संगीत में अभिरुचि थी, न चित्रकला में और न भवननिर्माण-कला में। फलतः इन सभी ललित कलाओं का पतन उसके काल में हो गया। विद्वान होने पर भी साहित्यकारों को आश्रय देने में उसकी रुचि नहीं थी। फलतः सांस्कृतिक विकास के क्षेत्र में अरुचि के कारण औरंगजेब का युग संस्कृति के पूर्ण पतन का युग था।

प्रश्न 10.
मुगल साम्राज्य के पतन के कारणों की समीक्षा कीजिए।
उतर:
मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे

1. औरंगजेब का उत्तरदायित्व- औरंगजेब को एक राजा और राजनीतिज्ञ के रूप में असफल व्यक्ति कहा जा सकता है। चाहे-अनचाहे उसकी नीतियों ने मुगल साम्राज्य के विघटन और पतन की प्रक्रिया आरम्भ कर दी। उसकी धार्मिक नीति ने, जिसे उसने राजनीतिक और आर्थिक कारणों से प्रभावित होकर लागू किया था, बहुसंख्यक हिन्दुओं के मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न कर दी। उसने अपनी धर्मान्धता का परिचय देते हुए हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया, जिससे वे उसे केवल मुसलमानों का ही सम्राट मानने लगे और उसका विरोध करने की प्रवृत्ति उनमें तीव्र हो गई।

धर्म को ही आधार बनाकर जाटों, सतनामियों, सिक्खों, राजपूतों, मराठों, यहाँ तक कि दक्कन की शिया रियासतों ने भी क्षेत्रीय स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न आरम्भ कर दिए और मुगलों को परेशान करने लगे। इन शक्तियों को दबाने में औरंगजेब की शक्ति एवं प्रतिष्ठा नष्ट हो गई, फिर भी इन पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित नहीं किया जा सका। इस प्रकार हिन्दुओं का समर्थन और सहयोग खोना औरंगजेब की एक बहुत बड़ी राजनीतिक भूल थी। औरंगजेब की दूसरी बड़ी भूल राजपूतों का सहयोग खोना था। भारत में मुगल सत्ता के स्थाई स्तम्भ राजपूत ही थे।

किन्तु इस स्तम्भ को औरंगजेब ने अपनी राजनीतिक अदूरदर्शिता एवं धार्मिक कट्टरपन से खो दिया। इसी प्रकार औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का वध करवाकर सिक्खों को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा कर दिया। औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने भी मुगल साम्राज्य के पतन में योगदान दिया। उसने बीजापुर और गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में मिलाने की बड़ी राजनीतिक भूल की। इन दोनों राज्यों की समाप्ति के बाद दक्षिण में मराठों पर से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थानीय नियन्त्रण समाप्त हो गया। इस प्रकार मराठों को संगठित एवं शक्तिशाली होने का एक और अवसर मिल गया। औरंगजेब की दक्षिण की यह मूर्खतापूर्ण नीति करीब 25 वर्ष तक चलती रही। इस लम्बी अवधि के दौरान अपार धन, जन एवं सेना का ह्रास हुआ, साथ ही उत्तर भारत की शासन-व्यवस्था भी कमजोर पड़ गई। इस अवसर का लाभ उठाकर अनेक प्रान्तीय सुल्तानों ने अपने आप को स्वतन्त्र घोषित कर दिया।

2. औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी- मध्ययुगीन साम्राज्य मात्र सम्राटों की योग्यता पर टिका रहता था, किन्तु दुर्भाग्य से औरंगजेब के बाद के मुगल सम्राट न तो योग्य थे और न चरित्रवान। वे अब तलवार से अधिक स्त्री और शराब को प्यार करने लगे थे। औरंगजेब का उत्तराधिकारी बहादुरशाह शाह-ए-बेखबर’ कहलाता था। डॉ० श्रीराम शर्मा के मतानुसार, “कामबख्श ने बन्दीगृह में मृत्यु-शैय्या पर इस बात का तो पश्चाताप किया कि तैमूर का वंशज जीवित ही पकड़ा गया। किन्तु जहाँदारशाह और अहमदशाह को अपनी रखैलों के बाहु-बन्धनों में फंसे हुए कर्तव्य-विमुख अवस्था में बन्दी बनाए जाने पर तनिक भी लज्जा नहीं आई।” इस प्रकार बहादुरशाह प्रथम से लेकर बहादुरशाह जफर तक के सभी शासकों में चारित्रिक, राजनीतिक, सैनिक अथवा प्रशासनिक क्षमता नहीं थी। ऐसी स्थिति में मुगल साम्राज्य का पतन होना स्वाभाविक था।।

3. मुगलों में उत्तराधिकार के नियम का अभाव- मुगलों में राजगद्दी के लिए उत्तराधिकार का कोई नियम न था। प्रसिद्ध लेखक अस्कीन के अनुसार, “तलवार ही उत्तराधिकार की एक मात्र निर्णायक थी। प्रत्येक राजकुमार अपने भाइयों के विरुद्ध अपना भाग्य आजमाने को उद्यत रहता था। औरंगजेब द्वारा किया गया उत्तराधिकार का युद्ध इसका उदाहरण है। वस्तुतः मुगलों में बादशाह के जीवनकाल में ही अथवा उसकी मृत्यु के पश्चात् गद्दी के महत्वाकांक्षी दावेदारों में संघर्ष हो जाता था। इस संघर्ष में मुगल अमीर, दरबारी, सूबेदार, जागीरदार, मनसूबदार यहाँ तक की महल की स्त्रियाँ तक भाग लेती थीं। इन संघर्षों से धीरे-धीरे मुगलों की प्रतिष्ठा, शक्ति, धन एवं जन की अपार क्षति हुई। इन संघर्षों ने मुगल साम्राज्य के पतन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

4. मुगल सामन्तों का नैतिक पतन- मुगल सम्राट ही नहीं अपितु उनके सामन्तों का भी नैतिक पतन हो गया था। मुगल सामन्तों के जीवन में शराब, स्त्री, षड्यन्त्र, स्वार्थ, पद-लोलुपता का ही स्थान रह गया था। जदुनाथ सरकार के मतानुसार, कोई भी मुगल सामन्त एक या दो पीढ़ियों से अधिक समय तक अपना महत्व बनाए नहीं रख सका। यदि किसी सामन्त की वीरता के विषय में इतिहासकार ने तीन पृष्ठ लिखे तो उसके पुत्र के कार्यों का वर्णन केवल एक ही पृष्ठ में हुआ और उसके पौत्र का वर्णन केवल इस प्रकार के शब्दों में कि ‘उसने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया’ समाप्त हो जाता।” अत: सामन्तों के उत्तरोत्तर नैतिक पतन ने मुगल साम्राज्य को काफी क्षति पहुँचाई।

5. जागीरदारी संकट- डॉ० सतीशचन्द ने मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मनसबदारी और जागीरदारी प्रथाओं की असफलता को जिम्मेदार बताया है। उनके अनुसार औरंगजेब के समय से ही युद्धों, प्रशासन-व्ययों और बादशाह तथा अमीर वर्ग की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति किया जाना कठिन हो गया था। आय का प्रमुख साधन भूमि थी, जो व्यय में वृद्धि के अनुपात में कम थी। अतः राज्य और प्रशासक वर्ग की आय और उनके व्यय के बीच अन्तर बढ़ता गया और जागीरदारी या मनसबदारी व्यवस्था के दोष सामने आने लगे। औरंगजेब की दक्षिण विजय ने इस संकट में और वृद्धि की। अब स्थिति यह हो गई कि जागीरे कम हो गईं और उनके माँगने वाले अधिक, जिससे जागीरदारी पाने वाले वर्ग में अच्छी जागीर प्राप्त करने की प्रतिद्वन्द्विता बढ़ गई। इस प्रतिद्वन्द्विता और संकट को एक अन्य प्रकार से भी बढ़ावा मिला।

कागजों में जागीरों से प्राप्त होने वाली आय को बहुत पहले से वास्तविक आय से अधिक दिखाया जाता रहा था। ऐसी स्थिति में जागीर प्राप्त वर्ग ने अच्छी आय वाली जागीरों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इससे दरबार में दलबन्दी बढ़ने लगी। जागीरदारों ने भूमि को ठेकेदारों को देना शुरू कर दिया। ठेकेदार किसानों से अधिकतम लगान वसूलते थे। इससे किसानों ने लगान देना बन्द कर दिया और स्थानीय जमींदारों के माध्यम से विद्रोह कर दिया। अब मुगलों की आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक-शक्ति टूटती चली गई क्योंकि यह सब भूमि से प्राप्त आय पर ही निर्भर था। प्रो० इरफान हबीब ने भी आर्थिक संकट को ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरादायी माना है।

6. मुगलों की सैन्य दुर्बलताएँ- सैन्य दुर्बलताओं ने भी मुगलों के पतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मुगल सेना मनसबदारी व्यवस्था पर आधारित थी, परन्तु कालान्तर में यही व्यवस्था मुगल सेना की दुर्बलता का आधार बनी। उनकी सेना की स्वामिभक्ति सम्राट के प्रति नहीं रही। मुगल सेना में राष्ट्रीयता का भी सर्वथा अभाव था। मुगल सेना में अनुशासनहीनता एवं विलासिता भी प्रवेश कर गई थी। इसके अतिरिक्त गलत रणनीतियाँ, नौ सेना का अभाव, केवल मैदानी युद्धों में पारंगत होना, छापामार युद्ध से अनभिज्ञ होना इत्यादि कारणों ने मुगल सेना की क्षमता को नष्ट कर दिया। सर वूल्जले हेग ने लिखा है, “सेना की चरित्रहीनता ही साम्राज्य के पतन के मुख्य कारणों में से एक थी।’

7. बौद्धिक पतन- बौद्धिक पतन को भी मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना गया है। निश्चय ही मुगलों के अधिकांश शासनकाल में शिक्षा की व्यवस्था समुचित नहीं थी और जो थी भी वह समय के अनुकूल न रही। उसमें तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा का पूर्णतः अभाव था और उदार मानवीय भावना के विकास में सहयोग देने में बहुत कमी थी। इस कारण प्रशासन में योग्य व्यक्तियों का अकाल सा पड़ गया। परिणामस्वरूप मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो गया।

8. मुगल साम्राज्य का आर्थिक दिवालियापन- कोई भी साम्राज्य सम्राट की योग्यता, सेना की सुदृढ़ता और राजकोष में पर्याप्त धन पर निर्भर करता है। मुगल साम्राज्य के पास इन तीनों का ही अभाव हो गया था। शाहजहाँ ने भवन निर्माण आदि कार्यों में प्रचुर मात्रा में धन व्यय किया। औरंगजेब ने दक्षिण के दीर्घकालीन युद्धों में न केवल राजकोष को ही खाली किया बल्कि देश के व्यापार एवं उद्योगों को भी नष्ट किया। सर जदुनाथ सरकार के अनुसार, “एक बार तो मुगल जनानखाने में तीन दिन तक चूल्हे में आग नहीं जली। शहजादियाँ अधिक समय तक भूख सहन नहीं कर सकीं और पर्दे की परवाह न करते हुए महल से निकलकर शहर की ओर दौड़ पड़ीं।” जिस शासन की हालत इतनी गिर जाए, फिर वह अधिक समय तक किस प्रकार चल सकता था।

9. नौसेना का अभाव- नौसेना का अभाव अप्रत्यक्ष रूप से मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी कारण माना जाता है। नौसेना के अभाव से उत्पन्न दुर्बलता उस समय प्रकट हुई जब 16 वीं सदी में यूरोप के निवासी भारत आए और समुद्र पर अधिकार स्थापित करके उन्होंने भारत के विदेशी व्यापार पर नियन्त्रण स्थापित किया। व्यापारिक दृष्टि से यूरोपियनों पर निर्भरता ने भारतीय शासकों को उन्हें व्यापारिक सुविधाएँ देने के लिए बाध्य किया, जिससे अन्त में उनमें से एक को। (अंग्रेजों को ) भारत में राज्य स्थापित करने का अवसर मिला।

10. मुगल साम्राज्य की विशालता और मराठों का उत्कर्ष- औरंगजेब के काल में मुगल साम्राज्य का विस्तार बहुत विस्तृत हो गया था। एक व्यक्ति के लिए एक केन्द्र से इस विशाल साम्राज्य को सम्भालना मुश्किल था। औरंगजेब दक्षिण में मराठों से उलझकर असफल हो गया। मराठों के उत्कर्ष ने मुगल साम्राज्य को बौना और असहाय कर दिया और इसकी प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। इस विशाल साम्राज्य में कुछ समय पश्चात् ही विभिन्न शक्तियाँ मुगल साम्राज्य से अलग हो गई और मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया।

11. दरबार में गुटबाजी- औरंगजेब के पश्चात् मुगल दरबार आपसी गुटबन्दी का अड्डा बन गया। आसफजहाँ निजामुलमुल्क, कमरूद्दीन, जकरिया खाँ, अमीर खाँ और सआदत खाँ प्रमुख गुटों के नेता थे। इन गुटों में अक्सर युद्ध होते रहते थे। इस प्रकार जहाँ औरंगजेब के पूर्व दरबारियों और सरदारों जैसे महावत खाँ, अब्दुर्रहीम खानखाना, बीरबल, सादुल्ला खाँ, मीर जुमला आदि ने साम्राज्य के हितों की सुरक्षा की थी, वहीं बाद के सरदारों ने अपने स्वार्थ में अन्धा होकर बादशाह और साम्राज्य दोनों को क्षति पहुँचाई।

12. नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण- मुगल साम्राज्य की रही-सही प्रतिष्ठा को इन दोनों विदेशी आक्रमणकारियों ने समाप्त कर दिया। नादिरशाह ने 1739 ई० में मुगल सम्राट को दिल्ली में कैद कर लिया और दिल्ली को जमकर लूटा तथा राजकोष में जितना भी धन, हीरे-जवाहरात व वस्तुएँ थीं सब अपने साथ ले गया। बची-खुची इज्जत को अहमदशाह अब्दाली ने 1761 ई० में समाप्त कर दिया और पानीपत के तीसरे युद्ध में उसने मुगल साम्राज्य के साथ मराठों की प्रतिष्ठा को भी धूल में मिला दिया।

13. यूरोपवासियोंका आगमन- 1600 ई० में स्थापित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में व्यापार के नाम पर धीरे-धीरे अपने राजनीतिक पैर पसारने शुरू कर दिए। 18 वीं शताब्दी के मध्य तक कम्पनी ने यूरोप से आने वाली दूसरी शक्तियों को भारत से निकाल दिया। 1757 और 1761 ई० के क्रमश: प्लासी और बक्सर के युद्धों के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा (ओडिशा) की स्वामी बन गई। इस प्रकार अंग्रेजों के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव ने मुगल शक्ति और प्रतिष्ठा को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया और अन्तत: 1857 ई० में अंग्रेजों ने ही मुगलों के शासन का हमेशा के लिए अन्त कर दिया।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 3 Medieval Indian Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 3 Medieval Indian Education (मध्यकालीन भारतीय शिक्षा) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 3 Medieval Indian Education (मध्यकालीन भारतीय शिक्षा).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 3
Chapter Name Medieval Indian Education (मध्यकालीन भारतीय शिक्षा)
Number of Questions Solved 43
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 3 Medieval Indian Education (मध्यकालीन भारतीय शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मध्यकालीन शिक्षा से आप क्या समझते हैं? इस काल की शिक्षा की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
मध्यकालीन शिक्षा का अर्थ भारतीय इतिहास में शैक्षिक दृष्टिकोण से मध्यकाल नितान्त भिन्न काल था। इस काल में भारत में मुख्य रूप से विदेशी मुस्लिम शासकों का शासन था। इस शासन के ही कारण भारत में एक भिन्न शिक्षा प्रणाली को लागू किया गया जो पारम्परिक भारतीय शिक्षा-प्रणाली से नितान्त भिन्न प्रकार की थी। इस शिक्षा-प्रणाली को मुस्लिम शिक्षा-प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है। वास्तव में इस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रसार एवं प्रचार करना भी था। मध्यकालीन अथवा मुस्लिम शिक्षा का सामान्य परिचय डॉ० केई ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर, अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।”

मध्यकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं–
1. शिक्षा का संरक्षण-मध्यकाल में शिक्षा-व्यवस्था राज्य के संरक्षण या नियन्त्रण में थी। मुस्लिम शासकों ने भी शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रुचि ली थी। उनके राज्य के विभिन्न भागों में मकतबों, मदरसों एवं पुस्तकालयों की स्थापना की गई। राज्य की ओर से छात्रों को छात्रवृत्तियाँ और शिष्यवृत्तियाँ भी दी गयी। इन सब सुविधाओं के कारण इस युग में शिक्षा का पर्याप्त प्रसार हुआ।

2. शिक्षा में व्यापकता का अभाव-
यद्यपि मध्यकाल में शिक्षा का प्रसार बहुत तेजी से हुआ, लेकिन उसमें व्यापकता का सर्वथा अभाव था। शिक्षा पर धार्मिक कट्टरता की छाप लगी हुई थी और शिक्षा की जो भी व्यवस्था थी, वह केवले नगरों में उच्च तथा मध्यम वर्गों के बालकों के लिए ही थी। फलतः जनसाधारण के बालकों के ज्ञानार्जन का कोई सुलभ साधन नहीं था।

3. शिक्षा के लौकिक पक्ष पर बल-
मुस्लिम शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य लौकिक यश, सुख तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति माना गया था। मुसलमानों को ध्यान लौकिक जीवन की ओर अधिक आकृष्ट था। अतः मुस्लिम शिक्षा में लौकिक पक्ष पर बहुत अधिक बल दिया गया और इसमें भारतीय आध्यात्मिकता का अभाव रखा गया।

4. प्रान्तीय भाषाओं की उपेक्षा–
मध्यकाल में अरबी और फारसी भाषा के माध्यम से शिक्षा दी। जाती थी। इस कारण प्रान्तीय भाषाओं की पूर्णत: उपेक्षा हो गई। उच्च पद के इच्छुक व्यक्तियों ने भी मातृभाषा की उपेक्षा करके अरबी और फारसी भाषा का अध्ययन किया।

5. निःशुल्क शिक्षा—इस काल में बालकों की शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क थी। विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था। उनकी पढ़ाई का पूरा व्यय धनी व्यक्तियों और शासकों को वहन करना पड़ता था।

6. परीक्षाएँ-
मुस्लिम काल में आजकल के समान सार्वजनिक परीक्षाओं का प्रचार नहीं था। शिक्षक वाद-विवाद और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्यार्थियों को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में भेजता था।

7. उपाधियाँ-मुस्लिम काल में छात्रों की शिक्षा समाप्ति के बाद उपाधियाँ प्रदान करने की व्यवस्था थी। धर्म की शिक्षा प्राप्त करने पर आलिम’ की उपाधि, तर्कशास्त्र और दर्शनशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने पर फाजिल की उपाधि और साहित्य का अध्ययन करने वाले छात्र को ‘कामिल’ की उपाधि दी जाती थी।

8. गुरु-शिष्य सम्बन्ध–
इस काल में भी गुरु को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त होता था। शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर करते थे, और गुरु अपने शिष्य को पुत्रवत् मानते थे। छात्रावासों में गुरु और शिष्य एक साथ रहते थे, जिसके फलस्वरूप दोनों में निकट सम्पर्क स्थापित रहता था।

9. अनुशासन और दण्ड–
इस काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध । शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ मधुर होने के कारण शिक्षकों के सामने अनुशासनहीनता की समस्या न थी, लेकिन अनुशासनहीन छात्रों को बेंत, कोड़े और चूंसे मारकर शारीरिक दण्ड दिया जाता था। इनका प्रयोग करने के लिए शिक्षकों को स्वतन्त्र छोड़ दिया गया था। कठोर दण्ड का प्रावधान होने के शिक्षा के लौकिक पक्ष पर बल कारण सामान्य रूप से अनुशासनहीनता की समस्या प्रबल नहीं थी।

10. छात्रावास-
मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए। छात्रावासों की व्यवस्था थी, जिनका व्यय भार धनी व्यक्ति उठाते इन छात्रावासों में शिक्षकों और विद्यार्थियों के सुख तथा आनन्द उपाधियाँ की अनेक सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं।

11. स्त्री-शिक्षा-
परदा-प्रथा के कारण इस काल में स्त्री-शिक्षा की प्रगति प्राचीनकाल की अपेक्षा कम थी। निम्न वर्ग की बालिकाओं को शिक्षा का अवसर प्राप्त नहीं होता था, जब कि धनी तथा उच्च घराने में उत्पन्न हुई बालिकाओं की शिक्षा के लिए अनेक साधन थे। छोटी आंयु में मोहल्ले की बालिकाएँ एकत्र होकर मकतब जाती थीं और लिखना-पढ़ना सीख लेती थीं। सम्पन्न परिवार की बालिकाओं को घर पर व्यक्तिगत शिक्षकों द्वारा शिक्षा दी जाती थी। कुछ स्त्रियाँ साहित्य, धर्मशास्त्र, गृहशास्त्र, संगीत इत्यादि में निपुण थीं, जिनमें नूरजहाँ, रजिया बेगम, जहाँआरा, गुलबदन बेगम आदि प्रमुख हैं।

12. व्यावसायिक शिक्षा–
मध्यकाल में व्यावसायिक शिक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया था। जीविका उपार्जन सम्बन्धी शिक्षा के लिए मुहम्मद तुगलक ने अनेक कारखानों की स्थापना की थी, जो अकबर के समय दीवाने वयूतात के अधीन थे। इन कारखानों में चित्रकला, सुनारगिरी, वस्त्र बनाना, दरी और परदे बनाना, अस्त्र-शस्त्र बनाना, दर्जी का काम, जूते बनाना, मलमल तैयार करना आदि काम सिखाए जाते थे।

13. सैन्य शिक्षा-
राज्य के सैनिकों द्वारा बालकों को सैन्य शिक्षा दी जाती थी। इसके द्वारा वे देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। इस युग में सैनिक विद्यालयों की स्थापना नहीं हो पाई थी। बालकों को गोली चलाने और हाथियों पर बैठकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी। |

14. ओषधिशास्त्र की शिक्षा–
मध्यकाल में ओषधिशास्त्र की शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन दिया गया था। ओषधिशास्त्र की संस्कृत की पुस्तकों का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। अनेक मुस्लिम संस्थाओं में इस प्रकार की शिक्षा दी जाती थी।

15. ललित कलाओं की शिक्षा-
मध्यकाल में भवन-निर्माण कला, चित्रकला, नृत्यकला और संगीत के प्रशिक्षण के लिए अनेक सुविधाएँ प्राप्त थीं। इन सभी कलाओं को राजाओं एवं अमीरों का संरक्षण प्राप्त था। शाहजहाँ भवन-निर्माण कला में विख्यात था। जहाँगीर चित्रों का पारखी था और अकबर कुशल संगीतज्ञ था।

प्रश्न 2
मध्यकालीन शिक्षा के मुख्य गुणों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
मध्यकालीन शिक्षा के गुण
मध्यकालीन शिक्षा में निम्नांकित गुण थे
1. अनिवार्य शिक्षा-इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा ईश्वर की प्राप्ति में सहायता करती थी, इसलिए शिक्षा को अनिवार्य स्वीकार किया गया था। बालिकाओं के लिए शिक्षा अनिवार्य नहीं थी।

2. धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा को समेस्वय-इस युग की शिक्षा की प्रमुख विशेषता धार्मिक और लौकिक शिक्षा में समन्वय की स्थापना थी। शिक्षा के द्वारा बालकों को धार्मिक आचरण के लिए प्रेरित किया जाता था। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना था। मुसलमान धर्म को केवल स्वर्ग-प्राप्ति का साधन नहीं मानते थे, लेकिन हिन्दू इसे सांसारिक सुख तथा समृद्धि-प्राप्ति का साधन मानते थे। इसीलिए धार्मिक भावना के साथ-साथ विद्यार्थियों के रहन-सहन और जीवन में भौतिक सुख-सुविधाओं को भी ध्यान में रखा जाता था। इस प्रकार ईश्वर की प्राप्ति का लक्ष्य रखते हुए भी विद्यार्थियों में सांसारिक भावना प्रधान रहती थी।

3. निःशुल्क शिक्षा-मध्यकाल में छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था, वरन् पूर्णतया नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी।
4. शिक्षा संस्थाओं का उपयुक्त वातावरण- शिक्षा | मध्यकालीन शिक्षा के गुण संस्थाओं में छात्रों को अध्ययन के लिए उपयुक्त वातावरण मिलता अनिवार्य शिक्षा था। उन्हें शान्त, कोलाहलहीन व मनोरम स्थानों में बनवाया जाता था। धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का

5. व्यापक पापक्रम-मध्यकाल में बहुत विस्तृत व व्यापक समन्वय पाठ्यक्रम लागू किया गया था। छात्रों को साहित्य, भाषा, व्याकरण, निःशुल्क शिक्षा गणित, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कानून, दर्शन, तर्कशास्त्र, कृषि, शिक्षा संस्थाओं का उपयुक्त चिकित्सा, अर्थशास्त्र इत्यादि विषय पढ़ाए जाते थे। वातावरण

6. व्यावहारिक शिक्षा-मध्यकाल में व्यावहारिक शिक्षा पर में व्यापक पाठ्यक्रम बहुत अधिक बल दिया गया था। बालकों को ऐसे विषयों का ज्ञान व्यावहारिक शिक्षा दिया जाता था, जो जीवन में उपयोगी होते थे।
पुरस्कार और छात्रवृत्तियों ।

7. पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ-इस युग में छात्रों के लिए हुचरित्र-निर्माण पुरस्कार और छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाती थी, जिससे छात्र अविगत सके। पढ़ने के लिए अधिक-से-अधिक प्रोत्साहित हो सकें। सरस साहित्य को विकास

8. चरित्र-निर्माण-बालकों को ऐसी शिक्षा दी जाती थी, के इतिहास रचना : जिससे बालकों में नैतिकता का विकास होता था और उनका चरित्र आदर्श बनता था।
9. व्यक्तिगत सम्पर्क- मध्यकाल में शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच बहुत मधुर सम्बन्ध रहते थे, क्योंकि एक ही छात्रावास में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों रहा करते थे।
10.सरस साहित्य का विकास-मध्यकाल में श्रृंगार रस को प्रधानता दी जाती थी। इस काल में इसी कारण सरस साहित्य और कलाओं को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला।
11. इतिहास रचना-मुस्लिम शासकों में अपने समय का इतिहास स्वयं लिखने की प्रवृत्ति थी। अतः तत्कालीन बातों की जानकारी उनके विवरण से प्राप्त होती है।
12. विशिष्ट शिक्षाओं को प्रोत्साहन-मध्यकाल में सैनिक शिक्षा, संगीत, वास्तुकला, शिल्पकला जैसी विशिष्ट शिक्षाओं को विशेष प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।

प्रश्न 3
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा के मुख्य दोष बताइए।
उत्तर
मध्यकालीन शिक्षा के दोष
मध्यकालीन शिक्षा में निम्नलिखित दोष थे-
1. सांसारिकता की प्रधानत-मध्यकाल में विलासिता, मध्यकालीन शिक्षा के दोष ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं पर अधिक बल दिया गया था, सांसारिकता की प्रधानता। इसलिए विद्यार्थियों का ध्यान भी आध्यात्मिकता से हटकर सांसारिक भोग-विलास में लग जाता था।

2. धार्मिक कट्टरता-मध्यकाल में शिक्षा के द्वारा इस्लाम धर्म जनसाधारण की शिक्षा का अभाव के प्रचार पर ही बल दिया जाता था, इसलिए व्यक्तियों में धार्मिक अमनोवैज्ञानिकता कट्टरता फैलने लगी। इससे समाज में साम्प्रदायिक सौहार्द पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

3. शिक्षा-केन्द्रों का अस्थायित्व-विद्यालयों की स्थापना लेखन व पाठन में समन्वय का और संचालन का उत्तरदायित्व धनी व्यक्तियों के ऊपर निर्भर था। अभाव इस कारण धनी व्यक्तियों की मृत्यु के साथ ही प्राय: विद्यालय भी बन्द हो जाता था। इस कारण बालकों की शिक्षा व्यवस्थित रूप से नहीं चल पाती थी।

4. जनसाधारण की शिक्षा का अभाव-मध्य युग में धनी व्यक्ति ही विद्यालयों की स्थापना करते थे। इसलिए पर्याप्त संख्या में विद्यालयों का अभाव था। इस कारण जनसाधारण के बालकों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं मिलती थी।

5. अमनोवैज्ञानिकता-इस युग में बालकों को मनोवैज्ञानिक ढंग से शिक्षा नहीं दी जाती थी, क्योंकि शिक्षा देते समय बालकों की व्यक्तिगत विशेषताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता था।

6. नारी शिक्षा की उपेक्षा-मध्य युग में स्त्री की शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था, जिससे समाज का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग एवं भाग अविकसित रह जाता था। |
7. शारीरिक दण्ड की प्रधानता-इस युग में शिक्षक छात्रों को बड़ी निर्दयता के साथ शारीरिक दण्ड देते थे, जिससे उनकी रुचि अध्ययन की ओर नहीं हो पाती थी।

8. लेखन व पाठन में समन्वय का अभाव-इस युग में पहले बालकों को पढ़ना सिखाया जाता था और उसके पश्चात् उन्हें लिखने की शिक्षा दी जाती थी। इस प्रकार लेखन और पाठन में समन्वय का अभाव था।
9. अरबी-फारसी की प्रधानता-मध्यकाल में अरबी और फारसी भाषा को अधिक महत्त्व दिया जाता था और हिन्दी एवं अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा की गई थी।

10. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम-पाठ्यक्रम में धार्मिकता की प्रधानता और वैधानिकता का अभाव था। इस कारण असन्तुलित पाठ्यक्रम द्वारा बालकों को शिक्षा दी जाती थी। निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मध्यकालीन शिक्षा सामाजिक जीवन की वास्तविकताओं के अनुकूल नहीं थी। धर्म प्रधान शिक्षा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का समुचित विकास करने में सक्षम नहीं थी। डॉ० युसूफ हुसैन ने ठीक ही लिखा है-“मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली का मुख्य दोष यह था कि उसमें छात्रों के परिशुद्ध निरीक्षण तथा व्यावहारिक निर्णय प्रदान करने की क्षमता नहीं थी। यह बड़ी असभ्य, निर्जीव और पुस्तकीय थी।”

प्रश्न 4
प्राचीन व मध्यकालीन शैक्षिक विशेषताओं की तुलना निम्न बिन्दुओं के आधार पर कीजिए-
(i) शिक्षा का उद्देश्य,
(i) पाठ्यक्रम,
(ii) शिक्षा के केन्द्र।
उत्तर
(i) शिक्षा का उद्देश्य
1. प्राचीन काल में भारतीय समाज आदर्शवादी था जिसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान तथा अनुभव को अर्जित करना था, जबकि इसके विपरीत मध्यकाल में भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों की निर्धारण इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार होने के कारण ज्ञान का अधिक-से-अधिक प्रसार करना था।
2. प्राचीन काल में भारतीय समाज धर्मप्रधान था जिस कारण भारतीय शिक्षा भी धार्मिकता की और उन्मुख थी। शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वर-भक्ति को विकसित करना था। इसके विपरीत मध्य काल में भारतीय शासृक मुसलमान थे और अधिकांश भारतीय जनता हिन्दू थी। अत: मुस्लिम शासकों ने भारत में इस्लाम धर्म के प्रचार व प्रसार हेतु शिक्षा को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया तथा इस्लाम धर्म के नियमों के अनुसार ही छात्रों में इस्लाम धर्म की प्रवृत्ति को गति देने हेतु शैक्षणिक गतिविधियों को प्रचलित किया।

(ii)पाठ्यक्रम
प्राचीन तथा मध्यकाल में पाठ्यक्रम को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था—
1. प्राथमिक स्तर का पाठ्यक्रम
प्राचीन काल में प्राथमिक शिक्षा की समयावधि 6 वर्ष की होती थी तथा 6 से 11 वर्ष के आयु वर्ग के बालकों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा हेतु सुयोग्य माना जाता था। प्राथमिक शिक्षा मौखिक होती थी जिसमें बालकों को वैदिक मन्त्रों के उच्चारण का अभ्यास कराया जाता था। इसके उपरान्त छात्र पढ़ना-लिखना व व्याकरण सीखते थे। प्राथमिक स्तर की शिक्षा में सामान्य या प्रारम्भिक भाषा विज्ञान, प्रारम्भिक व्याकरण, प्रारम्भिक छन्द शास्त्र तथा प्रारम्भिक गणित आदि विषय सम्मिलित थे।

मध्ये काल में प्राश्चमिक शिक्षा की आयु 4 वर्ष,4 माह तथा 4 दिन निर्धारित की गई थी। बालकों को इस आयु सीमा को प्राप्त करने के अवसर पर एक संस्कार या धार्मिक रस्म पूर्ण करनी होती थी; जिसे ‘बिस्मिल्लाह-खानी’ केहा जाता था। इस काल में प्राथमिक स्तर की शिक्षा मौखिक विधि द्वारा ही प्रदान की जाती थी। मौलवियों द्वारा सम्बन्धित विषय को निरन्तर अभ्यास द्वारा कंठस्थ करवा दिया जाता था। इसके साथ ही लकड़ी की तख्तीपर लेखन का अभ्यास भी करवाया जाता था। साधारण वर्ग के परिवारों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मुख्य रूप से पढ़ने-लिखने तथा प्रारम्भिक अंकगणित की ही शिक्षा दी जाती थी। मौखिक रूप से कुरान शरीफ की आयतों को सही उच्चारण में कंठस्थ करवाया जाता था। इसके उपरान्त लेखन, व्याकरण तथा फारसी भाषा का ज्ञान प्रदान किया जाता था।

बच्चों के चरित्र-निर्माण तथा साहित्यिक बोध के विकास का भी समुचित ध्यान रखा जाता था। प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए महापुरुषों की कथाएँ तथा शेख सादी की ‘बोस्ताँ एवं गुलिस्ताँ’ जैसी पुस्तकों को पढ़ाया जाता था। इनके साथ-ही-साथ कुछ प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय प्रेमकाव्यों को भी रुचिपूर्वक पढ़ाया जाता था। इसे वर्ग के मुख्य काव्य-संग्रह थे-लैला-मजनू, युसूफ-जुलेखा तथा सिकन्दरनामा आदि। जहाँ तक शाही-परिवारों तथा कुछ सम्पन्न परिवारों के बच्चों की शिक्षा का प्रश्न है, उसकी अलग से व्यवस्था होती थी तथा उन्हें व्यक्तिगत रूप से महत्त्वपूर्ण विषयों का ज्ञान प्रदान किया जाता था।

2. उच्च स्तर का पाठ्यक्रम 
प्राचीनकालीन उच्चस्तरीय शिक्षा-प्राचीनकालीन भारतीय शैक्षिक-व्यवस्था में उच्चस्तरीय शिक्षा की अलग से व्यवस्था थी। इस शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता था। वर्ण-व्यवस्था की मान्यताओं के अनुसार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग के बालकों को ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में विविधता तथा विकल्प उपलब्ध थे। आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए छात्रों द्वारा वेद, वेदांग, पुराण, दर्शन, उपनिषद् आदि का अध्ययन किया जाता था। लेकिन ज्ञान अर्जित करने के लिए छात्रों द्वारा मुख्य रूप से भौतिकशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास आदि विषयों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता था। उच्चस्तरीय शिक्षा का स्वरूप भी मौखिक ही था। गुरु द्वारा दिए गए व्याख्यान के साथ ही चिन्तन, मनन, स्वाध्याय तथा पुनरावृत्ति के माध्यम से अर्जित ज्ञान को आत्मसात् किया जाता था। मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च-स्तरीय शिक्षा की अवधि सामान्य रूप से 10-12 वर्ष हुआ करती थी। इस काल में भी उच्च-स्तरीय शिक्षा के दो प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था थी। एक वर्ग के पाठ्यक्रम में धार्मिक विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती थी तथा दूसरे वर्ग के पाठ्यक्रम में लौकिक विषयों की शिक्षा का प्रावधान था।

इसके साथ-ही-साथ इस्लाम धर्म के इतिहास, इस्लामी-कानून तथा इस्लामी सामाजिक मूल्यों एवं परम्पराओं का भी व्यवस्थित अध्ययन किया । जाता था। धार्मिक पाठ्यक्रम के अतिरिक्त लौकिक पाठ्यक्रम में सर्वप्रथम अरबी-फारसी भाषा साहित्य तथा व्याकरण का व्यापक अध्ययन किया जाता था। मध्यकाल के उच्च स्तर के मुख्य विषय थे-भूगोल, गणित, कृषि, अर्थशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन घेवं नीतिशास्त्र, कानून तथा यूनानी-चिकित्सा पद्धति कहा जा सकता है। कि मध्यकालीन उच्च शिक्षा भी मौख़िक ही थी। सभी शिक्षक अपने विषय को व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत करते थे तथा छात्र उसे सुनकर संमझ लेते थे। इसके अतिरिक्त संगीत, चित्रकला तथा चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों की शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रयोगात्मक विधि को भी अपनाया जाता था।

3. व्यावसायिक स्तर का पाठ्यक्रम
शिक्षा का एक पक्ष व्यावसायिक शिक्षा भी होता था। व्यावसायिक शिक्षा के आधार पर ही प्राचीन भारत अपने आर्थिक जीवन और वैभव का निर्माण करने में सफल हुआ था। अतः प्राचीनकालीन व्यावसायिक शिक्षा को मुख्य रूप से चार भागों में बाँटा था-सैन्य शिक्षा, वाणिज्य सम्बन्धी शिक्षा, चिकित्साशास्त्र सम्बन्धी शिक्षा, कला-कौशल सम्बन्धी शिक्षा तथा पुरोहित शिक्षा।

मध्यकालीन भारतीय शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य लौकिक उन्नति एवं प्रगति को निर्धारित करना था। अतः इस काल की शिक्षा-व्यवस्था में व्यावसायिक शिक्षा को भी समुचित महत्त्व दिया गया था। मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में व्यावसायिक शिक्षा के रूप में मुख्य रूप से हस्तकलाओं की शिक्षा, चिकित्सा सम्बन्धी शिक्षा, सैन्य शिक्षा तथा ललित-कलाओं की शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी।

(iii) शिक्षा केन्द्र
प्राचीन काल में शिक्षा के केन्द्र–टोल, चारण, घटिका, परिषद्, गुरुकुल, विद्यापीठ, विशिष्ट विद्यालय, मन्दिर, महाविद्यालय, ब्राह्मणीय महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय आदि थे। इसके विपरीत मध्य काल में शिक्षा के केन्द्र-मकतब, मदरसा, दरगाहें, खानकाहें, कुरान स्कूल, फारसी स्कूल, फारसी व कुरान स्कूल तथा अरबी भाषा के स्कूल आदि थे।

लघु उत्तेरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मध्यकालीन शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारतीय शिक्षा के मध्यकाल को मुस्लिम अथवा इस्लामी शिक्षा का काल कहते हैं। 712 ई० से भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए और प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने का प्रयत्न आरम्भ हो गया। 1206 ई० में भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो गई। इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक व औरंगजेब जैसे शासकों ने भारतीय शिक्षा-प्रणाली को समूल नष्ट करने का भरसक प्रयास किया। परिणामस्वरूप शिक्षा-प्रणाली का स्वरूप बिल्कुल बदल गया और भारत में एक नई शिक्षा-प्रणाली का विकास हुआ। इसे मध्यकालीन शिक्षा के नाम से जाना जाता है। मध्यकालीन शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे

  1. इस्लाम धर्म का प्रचार करना।
  2. ज्ञानार्जन करना।
  3. नैतिकता का विकास करना, यद्यपि इस काल की नैतिकता प्राचीनकाल से भिन्न थी।
  4. शिक्षा के द्वारा ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करना, जिससे इस्लामी शासन भारत में स्थायी रूप ले सके और उसके विरोधियों का शासन न हो सके।
  5. व्यक्ति का चरित्र-निर्माण करना।
  6. भौतिक उन्नति करना और सांसारिक वैभव प्राप्त करना।
  7. मुस्लिम सिद्धान्तों, कानूनों एवं सामाजिक प्रथाओं का विकास

प्रश्न 2
मध्यकालीन शिक्षा के सन्दर्भ में प्राथमिक शिक्षा तथा मकतब का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
मध्य युग की प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं
1. मकतब का अर्थ-इस युग में प्राथमिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी, जो अधिकतर मस्जिदों के साथ जुड़े होते थे। मकतब शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा के कुतुब’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है, ‘उसने लिखा। अतः मकतब लिखना-पढ़ना सीखने वाले स्थान को कहा जाता है। धनी लोग अपने बालकों की प्राथमिक शिक्षा का प्रबन्ध मौलवियों द्वारा घर पर ही करते थे।

2. प्रवेश-मकतब में बालकों को इस्लामी ढंग से एक प्रकार की रस्म पूरी कराकर प्रविष्ट किया जाता था। इस रस्म को ‘बिस्मिल्लाह’ कहते थे। बालक की चार वर्ष, चार माह और चार दिन की आयु पूरी करने पर बिस्मिल्लाह की रस्म पूरी की जाती थी। इस अवसर पर उसे कुरान की भूमिका, 55वां तथा 87वाँ अध्याय पढ़ाया जाता था। यदि बालक कुरान की आयतों को दोहराने में सफल नहीं होता था तो उसका बिस्मिल्लाह कहना ही पर्याप्त समझा जाता था।

3. पाठ्यक्रम-मकतबों के पाठ्यक्रम में विभिन्नता पाई जाती है। उन्हें लिपि का ज्ञान कराया जाता था और वर्णमाला कण्ठस्थ कराई जाती थी। बालकों को कुरान का तीसवाँ अध्याय पढ़ाया जाता था। सुन्दर लेख और उच्चारण की शुद्धता को विशेष महत्त्व दिया जाता था। पाठ्यक्रम में साधारण गणित, फारसी एवं व्याकरण की शिक्षा सम्मिलित थी। इसके अतिरिक्त बालकों को पैगम्बरों की कहानियाँ, मुस्लिम फकीरों की कथाएँ एवं फारसी कवियों की कुछ कविताओं का ज्ञान कराया जाता था। उन्हें लेखन, बातचीत का ढंग आदि व्यावहारिक बातों की भी शिक्षा दी जाती थी।

4. शिक्षण विधि-मकतबों में मौखिक शिक्षण विधि के प्रयोग से बालकों को शिक्षा दी जाती थी। बालकों को कलमा एवं कुरान की आयतें रटनी पड़ती थीं। कक्षा के सभी छात्र एक साथ पहाड़े बोलकर कण्ठस्थ करते थे। प्रेरम्भ में सरकण्डे की कलम से तख्ती पर लिखना सिखाया जाता था और बाद में कलम से कागज पर लिखना सिखाया जाता था।

प्रश्न 3
मध्यकालीन शिक्षा के सन्दर्भ में मदरसा तथा उच्च शिक्षा का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
मदरसा तथा उच्च शिक्षा का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है|
1. मदरसा का अर्थ-मध्य युग में बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों में दी जाती थी। मदरसा शब्द का निर्माण अरबी भाषा में ‘दरस शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है ‘भाषण देना। अत: मदरसा वह स्थान था, जहाँ भाषण दिए जाते हैं। मदरसे भी दो प्रकार के होते थे—प्रथम, वे जहाँ धार्मिक, साहित्यिक तथा सामाजिक शिक्षा दी जाती थी और द्वितीय, वे जहाँ चिकित्साशास्त्र और अन्यान्य प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। मदरसों में छात्रों के रहने की भी व्यवस्था होती थी तथा वहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध होती थीं। मदरसों का शैक्षिक वातावरण सराहनीय होता था क्योंकि शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध घनिष्ठ तथा मधुर होते थे।

2. पाठ्यक्रम-मदरसों के पाठ्यक्रम को दो भागों में बाँटा जा सकता है

  • लौकिक शिक्षा-इसके अन्तर्गत अरबी साहित्य, व्याकरण एवं गद्य, इतिहास, गणित, दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, यूनानी शिक्षा, ज्योतिष, कानून आदि विषय सम्मिलित थे। |
  • धार्मिक शिक्षा-इसके अन्तर्गत कुरान, मुहम्मद साहब की परम्परा, इस्लामी कानून (शरीयत) तथा इस्लामी इतिहास की शिक्षा दी जाती थी।

3. शिक्षण विधि-मदरसों में भाषण की प्रधानता थी। छात्रों को स्वाध्याय की ओर प्रेरित करके ग्रन्थावलोकन का अभ्यास कराया जाता था। विद्यार्थियों को प्रयोगात्मक और सैद्धान्तिक दोनों प्रकार की शिक्षा दी जाती थी।

प्रश्न 4
भारतीय शैक्षिक विकास के सन्दर्भ में प्राचीन तथा मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था में अन्तर स्पष्ट कीजिए। प्राचीनकाल और मध्यकाल की शैक्षिक विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
भारतीय शैक्षिक विकास के इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए प्राचीन तथा मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के निम्नलिखित अन्तरों का उल्लेख किया जा सकता है

  1. प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का आधार हिन्दू वैदिक) धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्त ही थे। इससे भिन्न मध्यकालीन शिक्षा का विकास शुद्ध रूप से इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों के आधार पर हुआ था।
  2. प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति तथा आध्यात्मिक विकासे स्वीकार किया गया था। इससे भिन्न मध्यकालीन शिक्षा के अन्तर्गत भले ही ज्ञान प्राप्ति को समुचित महत्त्व प्रदान किया गया था परन्तु इस काल में शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य लौकिक जीवन को अधिक-से-अधिक सम्पन्न, समृद्ध एवं सुखी बनाना भी था।
  3. प्राचीन वैदिक परम्परा के अनुसार बालक की शिक्षा को आरम्भ करते समय उपनयन नामक संस्कार सम्पन्न किया जाता था। इससे भिन्न मध्यकाल में शिक्षा-आरम्भ के अवसर पर ‘बिस्मिल्लाह’ या ‘बिस्मिल्लाहखानी रस्म को सम्पन्न किया जाता था।
  4. प्राचीनकाल अथवा वैदिककाल में गुरुकुल ही मुख्य शिक्षण संस्थाएँ थी। इससे भिन्न मध्यकाल की मुख्य शिक्षण-संस्थाएँ मकतब तथा मदरसे थीं।
  5. प्राचीन भारतीय शैक्षिक मान्यताओं के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने के काल में छात्रों के लिए सादा एवं सरल जीवन व्यतीत करना अनिवार्य था। उन्हें सामान्य रूप से जीवन की समस्त सुख-सुविधाओं से दूर रहना पड़ता था। इससे भिन्न मध्यकालीन प्रचलन के अनुसार मदरसों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को जीवन की समस्त सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हुआ करती थीं जिससे वे ऐश एवं आराम का जीवन व्यतीत करते थे।
  6. प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा शुद्ध रूप से हिन्दू धर्म-संस्कृति की समर्थक एवं पोषक थी। इनसे भिन्न मध्यकालीन शिक्षा की घनिष्ठ सम्बन्ध इस्लामिक धर्म-संस्कृति से था।
  7. प्राचीन भारतीय शिक्षा (वैदिक शिक्षा) का माध्यम संस्कृत भाषा थी, बौद्ध काल में यह स्थान पालि भाषा ने ले लिया था परन्तु मध्यकाल में फारसी भाषा को ही शिक्षा का मुख्य माध्यम बना लिया गया
    था।
  8. प्राचीनकालीन शैक्षिक व्यवस्था में कठोर एवं दण्ड पर आधारित अनुशासन का कोई प्रावधान नहीं था परन्तु मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुशासन बनाए रखने के लिए शारीरिक दण्ड का भी प्रावधान था।

प्रश्न 5
बौद्धकालीन शिक्षा (बौद्ध शिक्षा) तथा मुस्लिम शिक्षा (मध्यकालीन शिक्षा) में अन्तर बताइए।
उत्तर
बौद्ध-शिक्षा तथा मुस्लिम अर्थात् मध्यकालीन भारतीय शिक्षा में मुख्य अन्तर इस प्रकार थे|

  1. बौद्ध-शिक्षा बौद्ध धर्म एवं दर्शन पर आधारित थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा इस्लाम धर्म की पोषक थी।
  2. बौद्ध-शिक्षा का माध्यम पालि भाषा थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा का माध्यम अरबी-फारसी भाषा थी।
  3. बौद्ध-शिक्षा में अनुशासन की कठोर व्यवस्था नहीं थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा में कठोर अनुशासन-व्यवस्था को लागू किया गया था। इसके लिए दण्ड का भी प्रावधान था।
  4. बौद्धकालीन शिक्षा बौद्ध मठों तथा कुछ अन्य संस्थानों के माध्यम से प्रदान की जाती थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा मकतबों, मदरसों तथा खागाहों के माध्यम से दी जाती थी।
  5. बौद्धकालीन शिक्षा प्रारम्भ करते समय प्रव्रज्या संस्कार सम्पन्न किया जाता था, जबकि मध्यकालीन शिक्षा ‘बिस्मिल्लाह-खानी’ नामक रस्में से प्रारम्भ होती थी।
  6. बौद्ध-शिक्षा का परम उद्देश्य निर्माण प्राप्ति था, जबकि मध्यकालीन शिक्षा में लौकिक उन्नति का अधिक महत्त्व दिया जाता था।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मध्यकालीन भारतीय समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक का क्या स्थान था ?
उत्तर
मध्यकालीन भारतीय समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की स्थिति को स्पष्ट करते हुए जाफर ने लिखा है, “शिक्षकों को समाज में उच्च स्थान था, यद्यपि उनका वेतन अल्प था, तथापि उनको सार्वजनिक सम्मान और विश्वास प्राप्त था।” भारतीय समाज में सदैव ही शिक्षक को समुचित सम्मान दिया जाता रहा है। मध्यकाल भी इसका अपवाद नहीं था। वास्तव में शिक्षा प्रदान करना एक महान् कार्य माना जाता था तथा यह सार्वजनिक धारणा थी कि शिक्षक चरित्रवान व्यक्ति होते हैं। डॉ० केई ने भी मध्यकालीन समाज में शिक्षक की स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा है, “शिक्षकों की सामाजिक स्थिति उच्च थी और वे साधारण तथा चरित्रवान मनुष्य थे, जिनको व्यक्तियों का विश्वास और सम्मान प्राप्त था।”

प्रश्न 2
मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था में अनुशासन एवं दण्ड की क्या स्थिति थी ?
उत्तर
शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुशासन का विशेष महत्त्व है। अनुशासन बनाए रखने का एक प्रचलित उपायु दण्ड का प्रावधान भी है। मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुशासन बनाए रखने के लिए कठोर शारीरिक दण्ड का प्रावधान था। इस काल की दण्ड-व्यवस्था को स्पष्ट करते हुए एडम ने लिखा है,“छात्र को मुर्गा बनाना, उसकी पीठ या गर्दन पर निश्चित समय के लिए ईंट या लकड़ी को भारी टुकड़ा रखना, उसे पैरों के बल वृक्ष की शाखा से लटकाना, उसे बन्द करना, उसे भूमि पर पेट के बल लिटाकर शरीर को निश्चित दूरी तक घसीटना शारीरिक दण्ड के कुछ उदाहरण थे। इस प्रकार के कठोर दण्डों के प्रावधान के कारण मध्यकाल में शैक्षिक अनुशासनहीनता की समस्या प्रायः गम्भीर नहीं थी।

प्रश्न 3
मध्यकालीन शिक्षा के केन्द्रों के बारे में लिखिए।
मध्यकालीन शिक्षण संस्थाओं के रूप में मकतब तथा ‘मदरसों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर
मकतबों में मौखिक शिक्षण विधि के प्रयोग से बालकों को शिक्षा दी जाती थी। बालकों को कलमा एवं कुरान की आयतें रटनी पड़ती थीं। कक्षा के सभी छात्र एक साथ पहाड़े बोलकर कण्ठस्थ’ करते थे। प्रारम्भ में सरकण्डे की कलम से तख्ती पर लिखना सिखाया जाता था और बाद में कलम से कागज पर लिखना सिखाया जाता था। मध्य युग में बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों में दी जाती थी। मदरसे भी दो प्रकार के होते थे—प्रथम, वे जहाँ धार्मिक, साहित्यिक तथा सामाजिक शिक्षा दी जाती थी और द्वितीय, वे जहाँ चिकित्साशास्त्र और अन्यान्य प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। मदरसों में छात्रों के रहने की भी व्यवस्था होती थी और अन्य आवश्यक सुविधाएँ भी।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मध्यकाल में भारत में किनका शासन था ?
उत्तर
मध्यकाल में भारत में मुख्य रूप से मुस्लिम शासकों का शासन था।

प्रश्न 2
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को ‘मुस्लिम शिक्षा के नाम से भी जाना जाता है।

प्रश्न 3
मुस्लिम काल में शिक्षा का प्रारम्भ किस संस्कार से होता था?
उत्तर
मुस्लिम काल में शिक्षा का प्रारम्भ बिस्मिल्लाह संस्कार से होता था।

प्रश्न 4
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली किस धर्म पर आधारित थी?
उत्तर
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली इस्लाम धर्म पर आधारित थी।

प्रश्न 5
मुस्लिम शिक्षा कितने स्तरों में विभाजित थी ?
उत्तर
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा के मुख्य रूप से दो स्तर थे—

  1. प्राथमिक शिक्षा तथा
  2. उच्च शिक्षा।

प्रश्न 6
मध्यकाल में किन संस्थाओं में प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती थी ?
उत्तर
मध्यकाल में प्राथमिक शिक्षा मकतबों में प्रदान की जाती थी।

प्रश्न 7
मकतब क्या है?
उत्तर
मकतब प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्थाएँ हैं।

प्रश्न 8
मध्यकाल में उच्च शिक्षा की व्यवस्था किन शिक्षण संस्थाओं में होती थी ?
उत्तर
मध्यकाल में उच्च शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में होती थी।

प्रश्न 9
मध्यकालीन शिक्षा-प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा के लिए मुख्य रूप से किस विधि को अपनाया जाता था ?
उत्तर
मध्यक़ालीन शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा के लिए मौखिक विधि को अपनाया जाता था।

प्रश्न 10
मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी ?
उत्तर
मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की स्थिति दयनीय थी।

प्रश्न11
मध्यकालीन शैक्षिक-व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध किस प्रकार के होते – थे?
उत्तर
मध्यकालीन शैक्षिक-व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध मधुर तथा घनिष्ठ होते थे।
पारस्परिक स्नेह, सम्मान तथा कर्तव्यों का ध्यान रखा जाता था।

प्रश्न 12
भारत में मध्यकाल में शिक्षा के मुख्य केन्द्र कौन-कौन-से थे ?
या मुगलकालीन शिक्षा के प्रमुख चार केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर
भारत में मध्यकाल में शिक्षा के मुख्य केन्द्र-आगरा, दिल्ली, लाहौर, अजमेर, मुल्तान, मालवा, गुजरात तथा जौनपुर में थे।

प्रश्न 13
मध्यकालीन शिक्षा-व्यवस्था में उच्च शिक्षा के छात्रों को कौन-कौन-सी मुख्य उपाधियाँ दी जाती थीं?
उत्तर
मध्यकाल में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को कामिल फाजिल तथा आलिम नामक उपाधियाँ दी जाती थीं।

प्रश्न 14
मध्यकाल में व्यावसायिक शिक्षा के कौन-कौन-से रूप प्रचलित थे ?
उत्तर
मध्यकाल में व्यावसायिक शिक्षा के प्रचलित मुख्य रूप थे—

  1. हस्तकलाओं की शिक्षा,
  2. चिकित्साशास्त्र की शिक्षा,
  3. सैन्य शिक्षा तथा
  4. विभिन्न ललित कलाओं की शिक्षा।

प्रश्न 15
मुस्लिम काल में प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ करने की क्या आयु थी?
उत्तर
मुस्लिम काल (मध्य काल) में बालक की प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु 4 वर्ष, 4 माह, 4 दिन थी।

प्रश्न 16
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य-

  1. मध्यकाल में शिक्षा का नितान्तै अभाव था।
  2. मध्यकाल में शिक्षा का आधार इस्लाम धर्म था।
  3. मध्यकाल में स्त्री-शिक्षा के लिए अलग से व्यापक व्यवस्था थी।
  4. मध्यकालीन शिक्षा का ऍकृ मुख्य उद्देश्य, लौकिक प्रगति एवं सुख-समृद्धि प्राप्त करना भी था।
  5. मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य माध्यम फारसी भाषा ही थी।

उत्तर

  1. असत्य,
  2. सत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1
मध्यकालीन शिक्षा किस धर्म से प्रभावित थी ?
(क) इस्लाम धर्म
(ख) पारसी धर्म
(ग) यहूदी धर्म
(घ) अरबी धर्म
उत्तर
(क) इस्लाम धर्म

प्रश्न 2
मध्यकालीन शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी ?
(क) तुर्की
(ख) अरबी
(ग) फ़ारसी
(घ) उर्दू
उत्तर
(ग) फारसी

प्रश्न 3
मध्यकालीन शिक्षा का आरम्भ किस संस्कार से होता है ?
(क) प्रव्रज्या
(ख) उपसम्पदा
(ग) उपर्नयन
(घ) बिस्मिल्लाह
उत्तर
(घ) बिस्मिल्लाह

प्रश्न 4
मुस्लिम काल में बिस्मिल्लाह रस्म अदा की जाती थी जब बालक हो जाता था
(क) 3 वर्ष, 3 माह, 3 दिने का
(ख) 4 वर्ष, 4 माहे, 4 दिन का
(ग) 5 वर्ष, 5 माह, 5 दिन का
(घ) 6 वर्ष, 6 माह, 6 दिन का
उत्तर
(ख) 4 वर्ष, 4 माह, 4 दिन का

प्रश्न 5
4 वर्ष, 4 माह, 4 दिन की आयु पर कौन-सा शिक्षा संस्कार होता है?
(क) उपनयन
(ख) प्रव्रज्या
(ग) बिस्मिल्लाह
(घ) उपसम्पदा
उत्तर
(ग) बिस्मिल्लाह

प्रश्न 6
मध्यकाल में प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र थे ?
(क) मदरसा
(ख) मकतब
(ग) खानकाह
(घ) दरगाह
उतर
(ख) मकतब

प्रश्न 7
मध्यकालीन भारत में उच्च मुस्लिम शिक्षा के केन्द्रों को कहा जाता था?
(क) मकतब
(ख) मदरसा
(ग) खानकाह
(घ) दरगाह
उत्तर
(ख) मदरसा

प्रश्न 8
मध्यकाल में शिक्षा का प्रबन्ध व संरक्षण का दायित्व किस पर था?
(क) राज्य पर ,
(ख) मन्त्रिपरिषद् पुर
(ग) सुल्तान पर,
(घ) स्थानीय लोगों पर
उत्तर
(क) राज्य पर

प्रश्न 9
मध्यकाल में शिक्षा की प्रगति किस बादशाह के काल में सर्वाधिक हुई?
(क) फिरोज तुगलक
(ख) हुमायूं
(ग) शेरशाह
(घ) अकबर
उत्तर
(घ) अकबर

प्रश्न 10
मध्य युग में साहित्य में निष्णात छात्र को कहा जाता था
(क) आलिम
(ख) फाजिल
(ग) कामिल
(घ) स्नातक
उत्तर
(ग) कामिल

प्रश्न 11
तर्क और दर्शनशास्त्र में प्रबुद्ध छात्रों को क्या उपाधि दी जाती थी ?
(क) फाजिले
(ख) आलिम
(ग) मनसबदार
(घ) कामिल
उत्तर
(क) फाजिल

प्रश्न 12
“मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर, अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।” यह कथन किसका है?
(क) डॉ० केई का
(ख) डॉ० जाकिर हुसैन का
(ग) डॉ० यूसुफ हुसैन का
(घ) इनमें से किसी को नहीं
उत्तर
(क) डॉ० केई का

प्रश्न 13
‘बिस्मिल्लाह संस्कार का सम्बन्ध है-
(क) वैदिक काल से
(ख) बौद्ध काल से
(ग) मुस्लिम काल से
(घ) ब्रिटिश काल से
उत्तर
(ग) मुस्लिम काल से

प्रश्न 14
मध्यकालीन (मुगलकालीन) शिक्षा के समय में महिला इतिहासकार कौन थीं?
(क) नूरजहाँ
(ख) रजिया बेगम
(ग) अब्बासी
(घ) गुलबदन बेगम
उत्तर
(घ) गुलबदन बेगम

प्रश्न 15
निम्नलिखित में से मध्यकालीन समय में कौन-सा शिक्षा का केन्द्र नहीं था ?
(क) आगरा
(ख) जौनपुर
(ग) मालवा
(घ) तक्षशिला
उत्तर
(घ) तक्षशिला

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 3 Medieval Indian Education (मध्यकालीन भारतीय शिक्षा) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 3 Medieval Indian Education (मध्यकालीन भारतीय शिक्षा), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.