UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 16 Problem of Social (Adult) Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 16
Chapter Name Problem of Social (Adult) Education
(सामाजिक (प्रौढ़) शिक्षा की समस्या)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 16 Problem of Social (Adult) Education (सामाजिक (प्रौढ़) शिक्षा की समस्या)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सामाजिक शिक्षा (प्रौढ शिक्षा) से आप क्या समझते हैं? सामाजिक शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
या
सामाजिक शिक्षा का प्रमुख कार्यक्रम क्या है? [2013]
उत्तर :
समाज या प्रौढ़ शिक्षा का अर्थ
प्रौढ़ शिक्षा या सामाजिक शिक्षा यथार्थ में वह अंशकालिक शिक्षा है, जिसे व्यक्ति अपना काम करते समय प्राप्त करता है। संकुचित अर्थ में सामाजिक शिक्षा का आशय निरक्षर को साक्षर बनाना है। जिन वयस्कों की आयु 18 वर्ष से अधिक है और उन्होंने किसी कारण से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है, उन्हें साक्षर बनाना ही प्रौढ़ शिक्षा है।

परन्तु अब प्रौढ़ शिक्षा की अवधारणा को व्यापक रूप दे दिया गया है तथा वह साक्षरता प्रदान करने तक सीमित नहीं रह गयी है। अब प्रौढ़ शिक्षा को ‘सामाजिक शिक्षा’ के रूप में जाना जाता है तथा इस शिक्षा के अन्तर्गत प्रौढ़ व्यक्तियों को सम्पूर्ण जीवन को उन्नत बनाने के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान किया जाता है। प्रौढ़ शिक्षा या सामाजिक शिक्षा का वास्तविक अर्थ स्पष्ट करते हुए मौलाना आजाद ने लिखा है “सामाजिक शिक्षा से हमारा तात्पर्य सम्पूर्ण मनुष्य की शिक्षा से हैं। वह उसे साक्षरता प्रदान करेगी, जिससे उसे संसार का ज्ञान प्राप्त हो सके।

वह उसे यह बताएगी कि किस प्रकार वह अपने को वातावरण से सन्तुलित कर सके और प्राकृतिक परिस्थितियों का, जिनमें वह रहती है, उपयोग कर सके। इसके द्वारा। उसको कुशलताओं तथा उत्पादन-विधियों का समुचित ज्ञान देना है, जिनसे वह आर्थिक उन्नति कर सके। इसके द्वारा उसे स्वास्थ्य के प्रारम्भिक विषयों का ज्ञान व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टिकोण से देना है, जिससे उसका पारिवारिक जीवन स्वस्थ और उन्नतिशील बने। अन्त में वह उसे नागरिकता की शिक्षा दे, जिससे शान्ति और समृद्धि हो।”

हुमायूँ कबीर ने लिखा है
“समाज शिक्षा को अध्ययन के एक प्रकार के पाठ्यक्रम के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसका उद्देश्य लोगों में नागरिकता की चेतना उत्पन्न करना है और उनमें सामाजिक सुसंगठन की भावना की वृद्धि की जाती है। समाज शिक्षी बड़ी आयु के लोगों को केवल अक्षर ज्ञान कराकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाती, बल्कि इसका लक्ष्य सामान्य जनता में एक सुनिश्चित समाज का निर्माण करना रहता है।

इसके स्वाभाविक परिणाम के रूप में समाज शिक्षा का लक्ष्य यह रहता है कि लोगों में व्यक्तिगत रूप से और समाज के सदस्य होने के नाते अपने अधिकारों और कर्तव्यों की सचेष्ट भावना उत्पन्न की जाए।” इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रौढ़ शिक्षा का अर्थ देश के प्रौढ़ नागरिकों को ऐसी शिक्षा देना है जिससे उन्हें प्रगतिवादी समाज में भली प्रकार समायोजन स्थापित करने में सुविधा हो और वे राष्ट्र की उन्नति में योगदान दे सकें। सामाजिक या प्रौढ़ शिक्षा के उद्देश्य सामाजिक या प्रौढ़ शिक्षा देश के उत्थान और प्रगति के लिए अत्यन्त उपयोगी है। इसके प्रमुख उद्देश्य अग्रलिखित हैं

1. मानसिक एवं बौद्धिक विकास :
राष्ट्र की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि उसके नागरिकों का मानसिक एवं बौद्धिक स्तर उच्च हो। इसी कारण प्रौढ़ शिक्षा में मानसिक एवं बौद्धिक विकास पर विशेष बल दिया गया है।

2. व्यावसायिक शिक्षा और आर्थिक समृद्धि :
प्रौढ़ शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को व्यावसायिक शिक्षा देकर उन्हें जीविकोपार्जन के योग्य बनाना तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाना है।

3. सामाजिक भावना का विकास :
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बिना समाज के मनुष्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है। इसलिए उद्देश्य समाज शिक्षा द्वारा प्रौढ़ों में सामूहिक रूप से कार्य करने की भावना उत्पन्न की जाती है। उनमें एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सहानुभूति, दया, आदर के भाव उत्पन्न करना तथा सहयोग से रहना और कार्य करना एवं प्रशिक्षण देना सामाजिक शिक्षा का एक आवश्यक अंग है।

4. नागरिकता की शिक्षा :
सामाजिक शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को उनके अधिकारों एवं कर्तव्यों का ज्ञान कराना है, जिससे वे अपने देश में लोकतन्त्र को सुदृढ़ और स्थायी बना सकें।

5. आध्यात्मिक विकास :
देश के नागरिकों में सत्य, अहिंसा, प्रेम, सदाचार आदि की भावनाओं को जाग्रत करके उन्हें सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की अनुभूति करने में सहायता करना भी सामाजिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।

6. स्वास्थ्य सम्बन्धी बातों का ज्ञान :
सामाजिक शिक्षा का उद्देश्य प्रौढ़ नागरिकों को स्वास्थ्य सम्बन्धी उपयोगी नियमों का ज्ञान देना है, जिससे कि वे पूर्ण स्वस्थ होकर अपने-अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें।

7. राष्ट्रीय साधनों की सुरक्षा :
प्रत्येक व्यक्ति अपने राष्ट्र की एक महत्त्वपूर्ण इकाई होता है। इसलिए व्यक्तियों की प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा इस योग्य बनाया जाता है कि वे राष्ट्रीय साधनों का दुरुपयोग न करके उनकी सुरक्षा करें।

8. सांस्कृतिक ज्ञान :
प्रौढ़ शिक्षा का एक उद्देश्य नागरिकों को उनकी प्राचीन संस्कृति से परिचित कराना तथा सांस्कृतिको गौरव के प्रति उनके हृदय में प्रेम और आदर के भाव उत्पन्न करना है।

9. मनोरंजन के अवसर प्रदान करना :
सामूहिक गीत, नृत्य, कविता, कहानी, नाटक आदि के द्वारा नागरिकों को सुन्दर तरीके से मनोरंजन करने के योग्य बनाना भी प्रौढ़ शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रौढ़ शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वांगीण विकास करके उसे आदर्श एवं सफल नागरिक बनने में सहायता प्रदान करना है।

प्रश्न 2
सामाजिक शिक्षा के मुख्य साधनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सामाजिक शिक्षा के मुख्य साधन
प्रौढ़ या समाज शिक्षा के प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं।

1. प्रौढ कक्षाएँ :
प्रौढ़ों को ज्ञान प्रदान करने के लिए प्रौढ़ कक्षाएँ खोली जाती हैं। उन्हें अक्षर ज्ञान के अतिरिक्त विभिन्न उपयोगी विषयों की शिक्षा भी दी जाती है।

2. सामुदायिक केन्द्र :
ग्रामों में सामुदायिक केन्द्रों की स्थापना की जाती है। इनमें सांस्कृतिक और मनोरंजनात्मक कार्य सम्पन्न होते हैं, हस्तकला की शिक्षा दी जाती है तथा पुस्तकालयों व वाचनालयों की व्यवस्था रहती है। इसके साथ-ही-साथ ग्रामवासियों के लिए भाषण व विचार-विमर्श की व्यवस्था भी की जाती है।

3. पुस्तकालय और वाचनालय :
प्रौढ़ शिक्षा में पुस्तकालयों और वाचनालयों का महत्त्व सर्वविदित है। इनके द्वारा प्रौढ़ों को विभिन्न प्रकार के कार्य करने के तरीके ज्ञात होते हैं। इससे प्रौढ़ों को ज्ञान विस्तृत होता है। पुस्तकालयों में प्रौढ़ों को कृषि, कुटीर उद्योग, मनोरंजन, सरल साहित्य व नागरिकता सम्बन्धी पुस्तकें उपलब्ध होती हैं।

4. संग्रहालय :
भारत सरकार ने देश में स्वास्थ्य संग्रहालयों, शिक्षा संग्रहालयों एवं व्यावसायिक संग्रहालयों की व्यवस्था की है, जिससे मनुष्य प्राचीन वस्तुओं को देखकर प्राचीन विचारों से परिचित हो सके।

5. मेला एवं प्रदर्शनी :
ग्रामों में विभिन्न प्रकार की प्रदर्शनियों का आयोजन करके विश्व में होने वाली प्रेगति और उन्नति का ज्ञान ग्रामवासियों को कराया जाता है; जैसे-कृषि प्रदर्शनी, शिक्षा प्रदर्शनी, स्वास्थ्य प्रदर्शनी आदि का आयोजन समय-समय पर ग्रामों में किया जाता है। इन मेलों एवं प्रदर्शनियों का उद्देश्य प्रौढ़ों में सामाजिकता की भावना का विकास करना है।

6. रात्रि पाठशालाएँ :
प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए रात्रि पाठशालाएँ खोली जानी चाहिए, जहाँ अपना काम समाप्त करने के बाद व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने के लिए पहुँच जाए।

7. समाचार-पत्र :
समाचार-पत्रों के द्वारा भी प्रौढ़ों का ज्ञान विस्तृत किया जाता है। इसके द्वारा वे देश-विदेश के समाचारों से अवगत होते हैं।

8. भ्रमण :
प्रौढ़ों को भ्रमण और निरीक्षण के द्वारा भी शिक्षा दी जा सकती है। व्यक्ति तीर्थ यात्रा करके देश के विभिन्न स्थान देखकर बहुत-सी बातों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं।

9. श्रमदान एवं समाज-सेवा :
प्रौढ़ शिक्षा में श्रमदान एवं समाज-सेवा को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ग्रामों में सफाई, बाँध बनाना, कुएँ तथा तालाब बनाना आदि कार्य सामूहिक श्रम द्वारा बिना धन के ही सम्पन्न हो जाते हैं। इन कार्यों के द्वारा नागरिकों में सामाजिकता की भावना का विकास होता है।

10. राष्ट्रीय पर्व :
हमारे देश में राष्ट्रीय दिवस, सफाई सप्ताह, शिक्षा सप्ताह एवं अस्पृश्यता निवारण सप्ताह आदि प्रमुख राष्ट्रीय पर्व मनाये जाते हैं। इनके द्वारा भी प्रौढ़ व्यक्तियों को शिक्षा मिलती है।।

11. शिक्षक और विद्यार्थियों का योगदान :
विश्वविद्यालय के शिक्षक एवं विद्यार्थियों को अवकाश के समय अपने निवास स्थान के निकट ग्रामों में जाकर प्रौढ़ व्यक्तियों को शिक्षा देनी चाहिए तथा प्रभावशाली भाषण देने चाहिए, जिससे ग्रामवासी अपने कर्तव्यों से परिचित हो जाएँ।

12. युवक गोष्ठी :
युवकों द्वारा समाज के रूढ़िवादी विचारों में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसलिए युवक गोष्ठी का स्थान प्रौढ़ शिक्षा के अन्तर्गत बहुत महत्त्वपूर्ण है। सरकार ने भी इन गोष्ठियों को महत्त्व दिया है और युवक कृषक गोष्ठी, ग्राम रक्षा दल, पंचायत व सभा आदि की स्थापना की है।

13. रेडियो, चलचित्र व टेलीविजन :
रेडियो, चलचित्र और टेलीविजन प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। इन साधनों द्वारा ग्रामवासियों को अन्धविश्वासों के दुष्परिणाम, बीमारी फैलने के कारण, विदेशों की खबरें आदि बातों का ज्ञान कराया जाता है।

प्रश्न 3
सामाजिक (प्रौढ) शिक्षा की समस्याएँ क्या हैं? इन समस्याओं के समाधान के उपाय बताइए। [2012]
या
भारतवर्ष में प्रौदों के लिए शिक्षा-प्रसार में क्या-क्या बाधाएँ हैं? [2011]
या
प्रौढ शिक्षा के प्रसार की बाधाओं को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए। [2011]
उत्तर :
सामाजिक शिक्षा (प्रौढ़ शिक्षा) की मुख्य समस्याएँ
सामाजिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा के प्रचार के लिए यद्यपि व्यापक प्रयास किये जा रहे हैं, इस पर भी इसके प्रसार में अनेक बाधाएँ हैं। सामाजिक शिक्षा के प्रसार एवं सफलता के मार्ग में उत्पन्न होने वाली मुख्य समस्याओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. व्यापक निरक्षरता :
भारत में व्यापक निरक्षरता फैली हुई है। नगरों की अपेक्षा गाँवों में निरक्षरता का अधिक बोलबाला है। जब तक निरक्षरता की समस्या बनी रहेगी, तब तक देश की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रगति नहीं हो सकती और न ही प्रौढ़ों में नवचेतना उत्पन्न की जा सकती है।

2. आर्थिक समस्या :
भारत में सामाजिक शिक्षा के प्रसार के लिए एक लम्बी धनराशि की आवश्यकता है। भारत की वर्तमान जनसंख्या 121 करोड़ से भी अधिक्र है। इतनी विशाल ज़नसंख्या में प्रौढ़ों को साक्षर बनने के लिए इतने अधिक धन की आवश्यकता है, जिसे जुटाना सरकार के बस की बात नहीं है। इसके साथ ही प्रौढ़ों को साक्षर बनाने के लिए पर्याप्त अध्यापकों तथा समाज शिक्षा केन्द्रों की व्यवस्था करना भी एक कठिन कार्य है।

3. पाठ्यक्रम की समस्या :
सामाजिक शिक्षा की तीसरी समस्या पाठ्यक्रम का निर्धारण करने की है। सामाजिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के विषय में विद्वानों में परस्पर मतभेद हैं। प्रौढ़ों की रुचियाँ तथा आवश्यकताएँ बालकों की रुचियों तथा आवश्यकताओं से भिन्न होती हैं। ऐसी दशा में बालकों का पाठ्यक्रम प्रौढ़ों के लिए निर्धारित नहीं किया जा सकता।

कुछ प्रौढ़ लोग पूर्णतया निरक्षर होते हैं, कुछ अर्द्ध-शिक्षित तथा कुछ नव साक्षर इन सभी के लिए पृथक्-पृथक् पाठ्यक्रम की व्यवस्था करना एक कठिन कार्य है। इस प्रकार प्रौढ़ों की रुचियों के अनुकूल साहित्य का हमारे देश में पूर्णतया अभाव है और विभिन्न आयु के प्रौढ़ों के लिए पाठ्यक्रम का निर्धारण करना एक जटिल समस्या है।

4. योग्य अध्यापकों की कमी :
सामाजिक शिक्षा को । कार्यक्रम तभी सफल हो सकता है, जब कि वह प्रौढ़ मनोविज्ञान (Adult Psychology) के ज्ञाता अध्यापकों द्वारा संचालित हो, परन्तु हमारे देश में सामाजिक शिक्षा के क्षेत्र में अधिकतर प्राथमिक, माध्यमिक या अप्रशिक्षित अध्यापक ही कार्य कर रहे हैं। ये लोग सामाजिक शिक्षा की समस्याओं, उद्देश्यों तथा प्रौढ़ मनोविज्ञान से पूर्णतया अपरिचित होते हैं। ऐसी दशा में इनसे सफलतापूर्वक कार्य करने की आशा करना व्यर्थ है। सामाजिक शिक्षा को सफल बनाने के लिए लाखों प्रौढ़ मनोविज्ञान के ज्ञाता अध्यापकों की आवश्यकता होगी जिनकी पूर्ति करना एक कठिन कार्य है।

5, शिक्षा के साधनों की कमी :
सामाजिक शिक्षा के साधनों से तात्पर्य–वे समूह अथवा संस्थाएँ हैं, जो समाज शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों से सम्पर्क रखती हैं, उन्हें ज्ञान प्रदान करती हैं तथा उनकी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करती हैं। इस दृष्टि से उत्तम फिल्मों, चार्ट व चित्र तथा अन्य दृश्य सामग्री की परम आवश्यकता है, परन्तु इन साधनों को जुटाना कोई सरल कार्य नहीं है।

6. उपयुक्त साहित्य की कमी :
सामाजिक शिक्षा का उद्देश्य प्रौढ़ों को केवल साक्षर बनाना ही नहीं है, वरन् समाज को एक जागरूक तथा उत्तरदायित्वपूर्ण सदस्य बनाना है, परन्तु ऐसा करने के लिए उनके अनुकूल साहित्य की आवश्यकता नवचेतना भरने तथा उनके दृष्टिकोण को आलोचनात्मक बनाने के लिए एक श्रेष्ठ एवं प्रभावशाली साहित्य के सृजन की है, लेकिन साहित्य का निर्माण करने और उसके प्रकाशन की व्यवस्था करना भी एक जटिल समस्या है।

7. शिक्षण पद्धति की समस्या :
प्रौढ़ों की बुद्धि परिपक्व होती है और इस कारण उन्हें बालकों के समान नहीं पढ़ाया जा सकता। इसके अतिरिक्त जीवन तथा समाज के प्रति प्रौढ़ों का दृष्टिकोण समान नहीं होता है। प्रौढ़ समाज के पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं और उनके विरुद्ध कुछ सुनना नहीं चाहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रौढ़ों के लिए किसी उपयोगी शिक्षण-पद्धति का निर्माण करना एक कठिन कार्य है।

8. समाज शिक्षा केन्द्रों पर उपस्थिति की समस्या :
सामाजिक शिक्षा केन्द्रों पर प्रौढ़ प्रायः अनुपस्थित रहते हैं। इसका मूल कारण आलस्य एवं उदासीनता है। दूसरे प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों का वातावरण नीरस होता है। प्रौढ़ों की अनुपस्थिति में सामाजिक शिक्षा केन्द्रों पर आयोजित किये गये कार्यक्रमों का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता है।

9. सामाजिक शिक्षा के प्रति उत्तरदायित्व की समस्या :
सामाजिक शिक्षा की एक अन्य समस्या यह है कि सामाजिक शिक्षा के प्रसार का उत्तरदायित्व किसका है? केन्द्र सरकार ने इस उत्तरदायित्व का भार राज्य सरकारों पर डाल रखा है, लेकिन शिक्षा परिषद् और शिक्षा विभाग इसके प्रति पूर्ण उदासीन हैं। ऐसी दशा में सामाजिक उपेक्षा के प्रसार की अपेक्षा करना व्यर्थ है।

10. प्रौढों के निराशावादी तथा रूढिवादी दृष्टिकोण की समस्या :
भारतीय प्रौढ़ निराशावादिता, रूढ़िवादिता तथा सन्देहों से ग्रस्त होता है। प्रायः प्रौढ़ सोचते हैं कि इतनी आयु बीत चुकी है, अब पढ़-लिखकर क्या होगा? यदि उनसे सामाजिक शिक्षा केन्द्र पर जाने का आग्रह किया जाता है तो वे कह देते हैं कि “बाबू जी बूढ़े तोते को पढ़ाकर क्या करोगे?” इसके अतिरिक्त वे शिक्षा को केवल जीविका का साधन मानते हैं।

अतः जब वे पढ़े-लिखे नौजवानों को बेरोजगार देखते हैं, तो वे शिक्षा के प्रति उदासीन हो जाते हैं। वास्तव में प्रौढ़ों का यह निराशावादी दृष्टिकोण सामाजिक शिक्षा के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनकर आता है।

(संकेत : सामाजिक शिक्षा की समस्याओं के निवारण के उपायों का विवरण लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 3 के अन्तर्गत देखें।)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
‘प्रौढ़ शिक्षा’ को ‘सामाजिक शिक्षा’ का रूप क्यों दिया गया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले भारत में प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को साक्षरता प्रदान करने के लिए एक शिक्षा योजना को लागू किया गया था तथा उस योजना को प्रौढ़ शिक्षा कहा जाता था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के देश के जनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह महसूस किया गया कि प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को शिक्षित बनाने के लिए उन्हें साक्षरता प्रदान करना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उन्हें जीवनोपयोगी सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान करना आवश्यक है।

इस दृष्टिकोण को स्वीकार करते हुए प्रौढ़ शिक्षा हो । उत, तथा बहुपक्षीय रूप प्रदान करना अनिवार्य माना गया। इस प्रकार से विस्तृत एवं बहुपक्षीय प्रौढ़ शिक्षा को “सामाजिक शिक्षा का नाम दिया गया। स्पष्ट है” कि साक्षरता प्रदान करने के साथ-ही-साथ जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित विस्तृत जानकारी प्रदान करने वाली शिक्षा व्यवस्था को सामाजिक शिक्षा का नाम दिया गया।

प्रश्न 2
भारत में सामाजिक शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भारत में सामाजिक शिक्षा अत्यधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। सर्वप्रथम भारत में आज भी निरक्षरता की दर ऊँची है। इस स्थिति में निरक्षर प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को साक्षर बनाने के लिए सामाजिक शिक्षा अत्यधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त जन-स्वास्थ्य से सम्बन्धित आवश्यक जानकारी प्रदान करने के लिए भी सामाजिक शिक्षा महत्त्वपूर्ण है।

प्रौढ़ व्यक्तियों को दैनिक जीवन के लिए आवश्यक ज्ञान एवं जानकारी प्रदान करने के दृष्टिकोण से भी सामाजिक शिक्षा महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान वैज्ञानिक एवं तकनीकी युग में प्रौढ़ व्यक्तियों को व्यावसायिक, औद्योगिक एवं कृषि के क्षेत्र में होने वाले नित नवीन आविष्कारों की जानकारी प्रदान करने के लिए भी सामाजिक शिक्षा आवश्यक है। वास्तव में शिक्षित माता-पिता ही अपने बच्चों को शिक्षित बनाने में अधिक रुचि लेते हैं। तथा आवश्यक प्रयास भी करते हैं। इस दृष्टिकोण से भी भारत में सामाजिक शिक्षा आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 3
सामाजिक शिक्षा की समस्याओं के निराकरण के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सामाजिक शिक्षा की विभिन्न समस्याओं के निराकरण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं।

  1. केन्द्र व राज्य सरकारों को देश से निरक्षरता को मिटाने के लिए जनता के सहयोग से एक व्यापक अभियान चलाना चाहिए।
  2. समाज शिक्षा का मुख्य उद्देश्य साक्षरता की वृद्धि के साथ ही प्रौढ़ों का सर्वांगीण विकास करना भी है। अत: निरक्षर, अर्द्ध-शिक्षित तथा नव-साक्षर प्रौढ़ों और विभिन्न आयु के वयस्कों की आवश्यकताओं तथा अभिरुचियों को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिए जो वयस्कों का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास करने में सुमर्थ हो सके।
  3. प्रौढ़ शिक्षा के अन्तर्गत सबसे पहले प्रौढ़ों को पढ़ना और लिखना सिखाया जाए औंर जब उन्हें इनका पर्याप्त ज्ञान हो जाए तब मातृकला, इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणित, सामान्य विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, साहित्य, कृषि, पशुपालन आदि विषयों की शिक्षा दी जाए।
  4. देश के अधिकांश ग्रामों में प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की जाए।
  5. प्रौढ़ शिक्षा के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षित करने के लिए काफी संख्या में प्रशिक्षण विद्यालयों . की स्थापना की जाए।
  6. यदि शिक्षण संस्थाओं के अध्यापक, विद्यार्थी, कार्यालयों के कर्मचारी और अन्य नि:स्वार्थी समाज सेवी ‘प्रत्येक पढ़ाये एक को’ (Each one, Teach one) का सिद्धान्त ग्रहण कर लें तो प्रौढ़ शिक्षा के लिए अध्यापकों की समस्या को स्वतः ही समाधान हो जाएगा।
  7. प्रौढ़ों के लिए ऐसी रुचिपूर्ण और ज्ञानवर्द्धक शिक्षण-विधि अपनायी जाए, जो उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित कर सके।
  8. प्रौढ़ शिक्षा साहित्य के निर्माण के लिए साहित्यकार और सरकार संयुक्त रूप से सहयोग करें ताकि उपयुक्त साहित्य का निर्माण विपुल मात्रा में तैयार हो सके।
  9. समाज शिक्षा के प्रचार और प्रसार का उत्तरदायित्व किसी उपयुक्त संस्था को सौंपा जाना चाहिए, जो स्वतन्त्र रूप से समाज शिक्षा का विधिवत् संचालन कर सके।
  10. भारतीय प्रौढ़ों के निराशावादी और रूढ़िवादी दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए चलचित्रों व प्रदर्शनियों को प्रबन्ध किया जाए।
    उपर्युक्त उपायों को अपनाकर भारत में समाज शिक्षा का प्रसार व्यापक रूप में किया जा सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भारत सरकार के अनुसार सामाजिक शिक्षा के पंचमुखी कार्यक्रम क्या हैं?
उत्तर :
प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को शिक्षित करने के लिए जिस योजना को लागू किया गया है, उसे ‘सामाजिक शिक्षा का नाम दिया गया है। इस योजना का उद्देश्य प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को बहुपक्षीय जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करना है। इस विस्तृत उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारत सरकार ने एक कार्यक्रम लागू किया है जिसे सामाजिक शिक्षा के पंचमुखी कार्यक्रम के रूप में जाना जाता है। इस कार्यक्रम के पाँचों सूत्रों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है

  1. समस्त निरक्षर प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को साक्षर बनाना।
  2. प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को व्यक्तिगत स्वास्थ्य एवं जन-स्वास्थ्य की आवश्यक एवं उपयोगी जानकारी । प्रदान करना।
  3. प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को उद्योग-धन्धों एवं व्यवसायों की आवश्यक जानकारी प्रदान करना ताकि वे आर्थिकउन्नति कर सकें।
  4. प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को स्वस्थ मनोरंजन के साधनों की जानकारी प्रदान करना।
  5. प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों में जिम्मेदार नागरिकता की भावना को विकसित करने के लिए उन्हें उनके अधिकारों एवं कर्तव्यों की जानकारी प्रदान करना।

प्रश्न 2
सामाजिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं। इसके संसाधनों का वर्णन कीजिए। [2013]
उत्तर :
प्रौढ़ स्त्री-पुरुष को साक्षरता तथा जीवन-उपयोगी ज्ञान प्रदान करने की व्यवस्था को सामाजिक शिक्षा कहा जाता है। वास्तव में सामाजिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा का ही अधिक विकसित तथा विस्तृत रूप है। सामाजिक शिक्षा में जीवन के सामाजिक पक्ष को समुचित महत्त्व दिया जाता है।

सामाजिक शिक्षा के माध्यम से व्यक्तियों में नागरिकता की चेतना का निर्माण तथा सामाजिक सुदृढ़ता का विकास किया जाता है। सामाजिक शिक्षा के प्रमुख संसाधन हैं। सामाजिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, रात्रि पाठशालाएँ, व्याख्यान, समाचार-पत्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन, चलचित्र तथा प्रदर्शनियाँ।

प्रश्न 3
सामाजिक शिक्षा के क्षे उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए। [2007]
उत्तर :

1. मानसिक एवं बौद्धिक विकास :
राष्ट्र की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि उसके नागरिकों का मानसिक एवं बौद्धिक विकास हो। इसीलिए प्रौढ़ शिक्षा में मानसिक एवं बौद्धिक विकास पर बल दिया गया है।

2. व्यावसायिक शिक्षा और आर्थिक समृद्धि :
प्रौढ़ शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को व्यावसायिक शिक्षा देकर उन्हें जीविकोपार्जन के योग्य बनाना तथा आर्थिक समृद्धि के योग्य बनाना है।

प्रश्न 4
राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान के मुख्य लक्ष्य क्या हैं ? [2009, 11, 15]
उत्तर :
भारत में सन् 1991 में स्थापित ‘राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान का मुख्य लक्ष्य समस्त प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को साक्षर बनाना तथा पर्याप्त जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करना तथा जीवन के प्रति जागरूक बनाना है।

प्रश्न 5
‘सामाजिक शिक्षा’ की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए। या प्रौढ शिक्षा (सामाजिक शिक्षा) से आप क्या समझते हैं? [2015]
उत्तर :
“सामाजिक शिक्षा को अध्ययन के एक प्रकार के पाठ्यक्रम के रूप में परिभाषित किया जो सकता है, जिसका उद्देश्य लोगों में नागरिकता की चेतना उत्पन्न करना है और उनमें सामाजिक सुसंगठन की भावना की वृद्धि की जाती है।”

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
वर्तमान सामाजिक शिक्षा को स्वतन्त्रतापूर्व काल में किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर :
वर्तमान सामाजिक शिक्षा को स्वतन्त्रतापूर्व काल में प्रौढ़ शिक्षा के नाम से जाना जाता था।

प्रश्न 2
कोई ऐसा कथन लिखिए जो प्रौढ़ शिक्षा तथा सामाजिक शिक्षा के अन्तर को स्पष्ट करता हो?
उत्तर :
“प्रौढ़ शिक्षा की संकल्पना में आज बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया है। वह साक्षरता के अपने छोटे से दायरे से निकलकर सामाजिक शिक्षा का व्यापक रूप ग्रहण कर चुकी है।” बंसीधर श्रीवास्तव

प्रश्न 3
भारत में किस क्षेत्र (ग्रामीण अथवा नगरीय) के प्रौढ स्त्री-पुरुषों को सामाजिक शिक्षा की अधिक आवश्यकता है?
उत्तर :
भारत में ग्रामीण क्षेत्र के प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को सामाजिक शिक्षा की अधिक आवश्यकता है।

प्रश्न 4
वर्तमान सामाजिक शिक्षा की सफलता के मार्ग में मुख्य बाधक कारक क्या है?
उत्तर :
वर्तमान सामाजिक शिक्षा की सफलता के मार्ग में मुख्य बाधक कारक है-प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों का निरक्षर होना।

प्रश्न 5
‘राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा परिषद् की स्थापना कब हुई? [2007, 09]
उत्तर :
राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा परिषद् की स्थापना 5 सितम्बर, 1969 को हुई थी।

प्रश्न 6
सामाजिक शिक्षा का प्रमुख कार्यक्रम क्या है? [2013]
उत्तर :
सामाजिक शिक्षा का प्रमुख कार्यक्रम समस्त प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को आधुनिक जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करना है।

प्रश्न 7
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था को सामाजिक शिक्षा कहते हैं।
  2. केवल साक्षरता प्रदान करने से सामाजिक शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
  3. सामाजिक शिक्षा के अन्तर्गत केवल व्यावसायिक शिक्षा ही प्रदान की जाती है।
  4. नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक शिक्षा पूर्णरूप से अनावश्यक है।
  5. सामाजिक शिक्षा के अन्तर्गत हर प्रकार का जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान किया जाता है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. असत्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए।

प्रश्न 1
भारत में प्रौढ शिक्षा का आरम्भ कब हुआ?
(क) 1908 ई० में
(ख) 1910 ई० में
(ग) 1921 ई० में
(घ) 1922 ई० में
उत्तर :
(ख) 1910 ई० में

प्रश्न 2
अखिल भारतीय प्रौढ शिक्षा परिषद्’ की स्थापना कब हुई? [2010]
(क) 1937 ई० में
(ख) 1938 ई० में
(ग) 1939 ई० में
(घ) 1940 ई० में
उत्तर :
(ग) 1939 ई० में।

प्रश्न 3
देश में राष्ट्रीय प्रौढ शिक्षा कार्यक्रम कब लागू किया गया?
(क) 2 अक्टूबर, 1978 में
(ख) 26 जनवरी, 1980 में
(ग) 15 अगस्त, 1985 में
(घ) 1 जुलाई, 1990 में
उत्तर :
(क) 2 अक्टूबर, 1978 में

प्रश्न 4
प्रौढ़ शिक्षा को सामाजिक शिक्षा किस वर्ष से कहा जाने लगा है?
(क) 1947 ई० से
(ख) 1949 ई० से
(ग) 1952 ई० से
(घ) 1956 ई० से
उत्तर :
(ख) 1949 ई० से

प्रश्न 5
समाज के प्रौढ स्त्री-पुरुषों को साक्षर बनाने तथा जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करने के लिए चलाई जाने वाली शैक्षिक योजना को कहते हैं
(क) रात्रि पाठशाला योजना
(ख) प्रौढ़ शिक्षा योजना
(ग) सामाजिक शिक्षा योजना
(घ) महत्त्वपूर्ण शिक्षा योजना
उत्तर :
(ग) सामाजिक शिक्षा योजना

प्रश्न 6
सामाजिक शिक्षा के पक्ष माने गये हैं
(क) प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को साक्षर बनाना
(ख) प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों में शिक्षित मस्तिष्क का विकास करना
(ग) प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों में नागरिकता की भावना का विकास करना
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 7
सामाजिक शिक्षा का उद्देश्य है [2008, 09, 14]
(क) शिक्षा प्रमाण-पत्र देना
(ख) साक्षरता प्रदान करना
(ग) जीवनोपयोगी ज्ञान देना
(घ) मनोरंजन देना
उत्तर :
(ग) जीवनोपयोगी ज्ञान देना

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 4 Field Study

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography (Practical Work)
Chapter Chapter 4
Chapter Name Field Study (क्षेत्रीय अध्ययन)
Number of Questions Solved 1
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 4 Field Study (क्षेत्रीय अध्ययन)

विस्तृत उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1
क्षेत्रीय अध्ययन से क्या अभिप्राय है? क्षेत्र का चयन उसके लिए आवश्यक उपकरण तथा क्षेत्रीय आख्या तैयार करने की विधि समझाइए।
उत्तर

क्षेत्रीय अध्ययन का अर्थ
Meaning of Field Study

क्षेत्रीय अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य भूगोल के विद्यार्थियों को किसी क्षेत्र की वास्तविक भौगोलिक परिस्थितियों से परिचित कराना है। ऐसी बहुत-सी जानकारियाँ हैं जिन्हें पुस्तकों में तो पढ़ लिया जाता है, परन्तु उनके वास्तविक तथा प्राकृतिक स्वरूप के विषय में कोई ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। उदाहरण के लिए, यदि हम मेरठ जनपद के किसी ग्राम का क्षेत्रीय सर्वेक्षण करें तथा उसकी जनसंख्या के आँकड़े, शिक्षा, व्यवसाय तथा यातायात साधनों के आँकड़े स्वयं एकत्र कर अपने अनुभव एवं पर्यवेक्षण के आधार पर इन आंकड़ों का विश्लेषण कर एक रिपोर्ट तैयार करें तो हमें उस ग्राम के विषय में एक अच्छी भौगोलिक जानकारी प्राप्त हो सकती है। इससे अन्य लोग भी लाभान्वित हो सकते हैं। इन एकत्रित किये गये आँकड़ों को सांख्यिकीय आरेखों-रेखाचित्र, दण्डाकृति तथा चक्राकृति आदि के द्वारा प्रदर्शित कर सकते हैं। इन आरेखों के द्वारा हम उस ग्राम की एक भौगोलिक आख्या प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रकार के अध्ययनों को क्षेत्रीय अध्ययन के नाम से पुकारा जाता है।

भौतिक दृष्टिकोण से हमें धरातल पर बहुत-से परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं, अर्थात् किसी प्रदेश को धरातलीय दृष्टिकोण से पर्वतीय, पठारी एवं मैदानी भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रत्येक भौतिक प्रदेश की प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों में अन्तर पाया जाता है। इन प्रदेशों की धरातलीय बनावट, जल-प्रवाह प्रणाली, जलवायु दशाएँ, मिट्टी, प्राकृतिक वनस्पति, अधिवास, व्यावसायिक संरचना, कृषि एवं उसके ढंग, सामाजिक रीति-रिवाज आदि तथ्यों में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। क्षेत्रीय सर्वेक्षण के द्वारा हम इन प्रदेशों की विभिन्नताओं का अध्ययन कर सकते हैं तथा दो विभिन्न प्रदेशों के मध्य तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर सकते हैं।

इसके दूसरी ओर यदि किसी कस्बे अथवा नगर का अध्ययन किया जाये तो विद्यार्थियों को उनकी अनेक समस्याओं के विषय में जानकारी उपलब्ध हो सकती है। वे उसके प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक संसाधनों से परिचित हो सकेंगे। भूगोल का विद्यार्थी जिस क्षेत्र विशेष में निवास करता है, कम-से-कम उसे उस क्षेत्र के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक लक्षणों का ज्ञान भली-भाँति होना चाहिए। प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण तथा इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों के ज्ञान के लिए भौगोलिक पर्यटन अत्यन्त आवश्यक है। इन तथ्यों का अध्ययन एवं जानकारी उस क्षेत्र का भ्रमण करके ही प्राप्त की जा सकती है।

क्षेत्र का चयन
Selection of Field

भौगोलिक अध्ययन बड़े विस्तृत होते हैं। क्षेत्रीय अध्ययन के लिए निम्नलिखित में से किसी भी निकटवर्ती क्षेत्र का चयन किया जा सकता है –

  1. पर्वतीय क्षेत्र
  2. पठारी क्षेत्र
  3. ग्रामीण बस्ती
  4. नगरीय बस्ती
  5. औद्योगिक नगर
  6. धार्मिक केन्द्र
  7. बाजार केन्द्र
  8. डेल्टाई प्रदेश
  9. बहुउद्देशीय योजना
  10. मरुस्थलीय प्रदेश

इस प्रकार किसी भी एक इकाई का चयन क्षेत्रीय अध्ययन के लिए किया जा सकता है।

क्षेत्रीय अध्ययन के लिए आवश्यक उपकरण
Required Apparatus for Field Study

किसी इकाई के क्षेत्रीय अध्ययन के लिए निम्नलिखित उपकरण आवश्यक होते हैं –

  1. अभ्यास-पुस्तिका अथवा नोट बुक
  2. ड्राइंग उपकरण-पेन, पेन्सिल, रबड़, मापक, आलपिन, गोंद, ब्लेड आदि
  3. ड्राइंगशीट, ट्रेसिंग पेपर, ग्राफ पेपर आदि
  4. फीता एवं जरीब
  5. कैमरा एवं दूरबीन
  6. अधिकतम एवं न्यूनतम तापमापी
  7. चुम्बकीय दिक्सूचक-दिशा निर्धारित करने के लिए
  8. ऊँचाई ज्ञात करने का यन्त्र एल्टीमीटर तथा
  9. ठहरने एवं खाने का सामान–टेण्ट, बाल्टी, जग, गिलास आदि।

क्षेत्रीय आख्या तैयार करने की विधि
Method of Preparing the Fields Data

क्षेत्रीय सर्वेक्षण करने के पश्चात् उसकी सारगर्भित रिपोर्ट भी तैयार करनी आवश्यक होती है। यह रिपोर्ट कम-से-कम 10 पृष्ठ की अवश्य ही होनी चाहिए। एकत्रित किये गये आँकड़ों को सारणीबद्ध कर लिया जाता है। सारणीबद्ध किये गये आँकड़ों को विभिन्न विधियों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है, अर्थात् इन सूचनाओं को आरेखों, लेखाचित्रों की सहायता से ड्राइंग कागज एवं ग्राफ पर प्रदर्शित करना होता है। रिपोर्ट का विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर दिया जाना चाहिए –

  1. क्षेत्र या प्रदेश की स्थिति, विस्तार एवं सामान्य परिचय।
  2. धरातलीय बनावट एवं जल-प्रवाह प्रणाली।
  3. जलवायु दशाएँ।
  4. प्राकृतिक वनस्पति एवं मिट्टी की संरचना।
  5. पशुपालन एवं कृषि।
  6. यातायात एवं संचार के साधन।
  7. मानव अधिवास।
  8. सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशाएँ।
  9. जनसंख्या एवं उसकी विशेषताएँ, समस्याएँ तथा उनका समाधान।
  10. भावी विकास हेतु सुझाव।

उपर्युक्त शीर्षकों के आधार पर रिपोर्ट तैयार करने के साथ-साथ सारणीबद्ध किये गये आँकड़ों को ड्राइंगशीट पर मानचित्रों, चित्रों तथा आरेखों द्वारा प्रदर्शित करना चाहिए। क्षेत्र में खींची गयी फोटो को भी साथ में संलग्न करना चाहिए, जिससे रिपोर्ट को सबलता प्राप्त होगी। क्षेत्र के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास हेतु कुछ सुझाव देना भी आवश्यक है। इससे अध्ययन रिपोर्ट की उपयोगिता का ज्ञान प्राप्त होता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अच्छे पत्र के गुण

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Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name अच्छे पत्र के गुण
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अच्छे पत्र के गुण

अच्छे पत्र के गुण

(1) सरलता-पत्र की भाषा सरल व सुबोध होनी चाहिए। जिस प्रकार सरल और निष्कपट व्यक्ति के व्यवहार का बहुत असर होता है, उसी प्रकार सरल, सुबोध पत्र भी पाठक के मन पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं।
(2) स्पष्टता–पत्र में अपनी बात स्पष्ट तथा विनम्रता से कहनी चाहिए, जिससे पाने वाला उसका आशय सही-सही समझ सके।
(3) संक्षिप्तता-जहाँ तक हो पत्र संक्षेप में लिखना चाहिए, पत्रे में कोई ऐसी बात नहीं लिखनी चाहिए, जिससे पत्र पढ़ने में रुचि ही न रहे।
(4) शिष्टाचार-पत्र-लेखक और पाने वाले के बीच में कोई-न-कोई सम्बन्ध तो होता ही है। आयु और पद में बड़े व्यक्तियों को आदरपूर्वक, मित्रों को सौहार्दपूर्वक और छोटों को स्नेहपूर्वक लिखना चाहिए।
(5) केन्द्र में मुख्य विषय–औपचारिक अभिवादन के बाद सीधे मुख्य विषय पर आ जाना चाहिए।

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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology (मनोविज्ञान में परीक्षण।)
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Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 11
Chapter Name Tests in Psychology
(मनोविज्ञान में परीक्षण।)
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology (मनोविज्ञान में परीक्षण।)

प्रश्न 1
बुद्धि-परीक्षण से सम्बन्धित प्रयोग का वर्णन कीजिए जो आपने किया हो। (2010, 11, 12, 17)
या
सामूहिक शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण पर आपने जो प्रयोग किया हो, उसका वर्णन कीजिए। (2014)
या
स्वयं द्वारा किए गए किसी सामूहिक बुद्धि-परीक्षण का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2008, 09, 11, 15)
नोट-बोर्ड परीक्षा में एक प्रश्न मनोवैज्ञानिक परीक्षण से सम्बन्धित होता है। नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार केक्षा 12 के निर्धारित पाठ्यक्रम में तीन मनोवैज्ञानिक परीक्षणों को सम्मिलित किया गया है। ये परीक्षण हैं

  1. बुद्धि-परीक्षण-उपलब्धता के अनुसार,
  2. व्यक्तित्व का अन्तर्मुखी-बर्हिमुखी परीक्षण तथा
  3. रुचि-परीक्षण। 

उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology 1

प्रयोग का उद्देश्य– सामूहिक शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण द्वारा 13 वर्ष के विद्यार्थियों की बुद्धि-लब्धि ज्ञात करना तथा बुद्धि-स्तर के अनुसार उनका वर्गीकरण करना।।

प्रयोग सामग्री-
(1) मनोविज्ञानशाला उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद द्वारा निर्मित सामूहिक शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण (संशोधित बी० पी० टी० 7) की प्रतियाँ,
(2) परीक्षण का मैनुअल तथा विराम घड़ी।

परीक्षण का परिचय– सामूहिक शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण (संशोधित बी० पी० टी० 7) का निर्माण मनोविज्ञानशाला उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद द्वारा हुआ है। यह परीक्षण कक्षा 7 एवं इससे ऊँची कक्षाओं में पढ़ने वाले 13 वर्ष से 13 वर्ष 11 माह तक के विद्यार्थियों की बुद्धि मापने के लिए बनाया गया है।

सावधानियाँ-
(1) परीक्षा प्रारम्भ करने से पूर्व वातावरण को शान्त रखा गया।
(2) विद्यार्थियों के बैठने की उचित व्यवस्था की गयी।
(3) इस बात का भी ध्यान रखा गया कि विद्यार्थियों में कार्य के लिए रुचि एवं उत्साह भी है। अथवा नहीं।
(4) परीक्षार्थियों के पास पेन्सिल अथवा पेन के अतिरिक्त और कुछ नहीं था, इस बात का विशेष ध्यान रखा गया।

निर्देश एवं प्रयोग-विधि– उंसर्युक्त सावधानियाँ रखने के पश्चात् विद्यार्थियों को निम्नलिखित निर्देश दिये गये

“आज तुम्हें एक भिन्न प्रकार की परीक्षा देनी है, उसमें दिये गये प्रश्नों का सम्बन्ध तुम्हारी पढ़ी हुई पुस्तकों से नहीं है। इस परीक्षा का प्रश्न-पत्र एक कॉपी के रूप में होता है। उत्तर भी इस कॉपी में लिखने होते हैं। इस प्रश्न-पत्र को हल करने के लिए तुम्हें केवल 45 मिनट का समय दिया जाएगा, इसलिए तुम्हें प्रश्नों पर थोड़ा-सा ध्यान देकर उसका शीघ्र ही उत्तर देना है।’

“अब तुम्हें एक-एक प्रश्न-पुस्तिका मिल रही है। जब तक मैं तुमसे इसे खोलने के लिए न कहूँ तब तक इसे ने खोलना।’

उपर्युक्त निर्देश देने के पश्चात् प्रत्येक परीक्षार्थी को एक-एक प्रश्न-पुस्तिका दे दी जाती है। फिर प्रत्येक परीक्षार्थी से परीक्षा-पुस्तिका के ऊपर के पृष्ठ पर लिखी गयी सूचनाएँ; जैसे-परीक्षार्थी का नाम, पिता का नाम, पिता का व्यवसाय, आयु, तिथि आदि भरवा दी जाती है और पेन को रख देने का आदेश दिया जाता है। इसके बाद परीक्षा-पुस्तिका के प्रथम पृष्ठ पर छपे आदेशों को क्रमशः पढ़कर परीक्षार्थियों को सुनाया जाता है।

परीक्षा-पुस्तिका पर अंकित आदेश

(1) जब तुमसे परीक्षा आरम्भ करने को कहा जाए तो इससे प्रश्न जितनी शीघ्र और सावधानी से कर सकते हो, क्लरो।।
(2) प्रश्नों को हल करने के लिए जो आदेश और उदाहरण पहले दिये गये हैं, उन्हें ठीक से पढ़ो और समझो।
(3) यदि तुम्हें कोई प्रश्न न आता हो तो उस पर अपना समय नष्ट मत करो और उसे छोड़कर । अगला प्रश्न हल करो।
(4) यदि तुम्हें कुछ रफ काम करना हो तो बायीं ओर की खाली जगह पर कर सकते हो।
(5) यदि तुम्हें कोई उत्तर बदलना हो तो उसे काटकर साफ-साफ लिख दो। .

इसके बाद परीक्षार्थियों से यह कहा गया कि “परीक्षण प्रारम्भ होने जा रहा है। इसलिए तुममें से किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ लो। परीक्षण प्रारम्भ होने के बाद किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जाएगा।’

अब प्रयोगकर्ता परीक्षण प्रारम्भ करता है। सर्वप्रथम उसने विद्यार्थियों को तैयार’ कहा, इससे विद्यार्थी कार्य करने के लिए तत्पर हो बैठ गये। इसके बाद प्रयोगकर्ता ने प्रारम्भ कहा तथा साथ ही विराम घड़ी भी चालू कर दी। सभी परीक्षार्थियों ने अपना काम प्रारम्भ कर दिया। आधा घण्टा बीत जाने पर प्रयोगकर्ता ने कहा कि, ‘अब पन्द्रह मिनट बाकी हैं और समय समाप्त हो जाने के पश्चात् कहा गया कि अब समय समाप्त हो गया है। अपना-अपना पैन नीचे रख दो और परीक्षण-पुस्तिकाएँ बन्द कर दो।’

उपर्युक्त कथन के पश्चात् सब परीक्षार्थियों की कॉपी एकत्रित करके गिन ली गयीं और पूरी होने पर परीक्षार्थियों को जाने के लिए कहा गया।

परीक्षा-पुस्तिकाओं का अंकन- परीक्षण की उत्तर-सूची की सहायता से सभी परीक्षा-पुस्तिकाओं की जाँच कर ली गयी और प्राप्त प्राप्तांकों को मुख्य पृष्ठ पर निश्चित स्थान पर लिख दिया गया। इसके पश्चात् इस बुद्धि-परीक्षण (संशोधित बी० पी०टी० 7) के मैनुअल में दिये गये सामान्य तालिका में देखकर बुद्धि-लब्धि ज्ञात कर ली गयी।
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology 2
निष्कर्ष– उपर्युक्त परिणाम-तालिका देखने से ज्ञात होता है कि इस कक्षा में एक विद्यार्थी अति श्रेष्ठ बुद्धि वाला है, 5 विद्यार्थी उत्तम बुद्धि वाले हैं, 16 विद्यार्थी सामान्य, 7 विद्यार्थी निम्न बुद्धि वाले एवं 1 विद्यार्थी मन्द बुद्धिवाला है।

मनोवैज्ञानिक परीक्षण-2

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी परीक्षण की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2010, 12, 13, 14, 15, 17, 18)
या
बालक के अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी व्यक्तित्व को जानने हेतु किसी एक व्यक्तित्व परीक्षण की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन कीजिए।(2016)
उत्तर

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology 3

(1) समस्या–प्रयोज्य की अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी प्रवृत्ति का मापन करना।
(2) परिचय–

  1. परीक्षण का इतिहास।
  2. व्यक्तित्व की परिभाषाएँ।

गुथरी के अनुसार, “व्यक्तित्व की परिभाषा सामाजिक महत्त्व की उन आदतों तथा संस्थाओं के रूप में की जा सकती है जो स्थिर तथा परिवर्तन कै अवरोध वाली होती है।”

(3) सामग्री–

  1. अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी प्रवृत्ति माषक प्रश्नावली-पत्र (M.P I)
  2. गणना कुंजी तथा मापदण्ड।
  3. पेन।

(4) सावधानियाँ–

  1. प्रत्येक वेक्य के सामने लिखे हुए, ‘हाँ’, ‘नहीं” तथा ‘मालूम नहीं में से किसी एक को ही अंकित करें। |
  2. सभी प्रश्नों के प्रति अपनी पसन्दगी-नापसन्दगी प्रकट करें।

(5) निर्देश- परीक्षण शुरू करने के पहले प्रयोज्य को निम्नलिखित निर्देश दिया-“आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए। मैं आपके साथ एक परीक्षण करने जा रहा हूँ। परीक्षण की सफलता पूर्णतः आपके ऊपर निर्भर है; अतः परीक्षण सम्बन्धी आवश्यक निर्देशों को भली-भाँति सुन लीजिए और उनका सावधानीपूर्वक पालन कीजिए।” मैंने प्रयोज्य को व्यक्तित्व-सूची देने के पश्चात् यह निर्देश दिया–“इस व्यक्तित्व सूची में 56 कथन हैं। इन कथनों को पढ़कर कथनों के सामने दिये गये हाँ/नहीं में यदि आप किसी कथन से सहमत हैं तो उसके आगे ‘हाँ” के नीचे सही
(✓) का चिह्न लगा दें तथा जो कथन आपकी समझ में न आये वहाँ पर मालूम नहीं’ के नीचे सही ।
(✓) का चिह्न लगा दीजिए। इसी तरह से 56 कथनों अर्थात् सभी कथनों पर आपको अषनी सहमति तथा असहमति प्रकट करनी है।”

(6) प्रकाशन– उपर्युक्त निर्देश को भली-भाँति समझकर कार्य को प्रारम्भ करने का संकेत दिया। सम्पूर्ण कार्य समाप्त करने के पश्चात् प्रयोज्य से प्रश्नावली-पत्र लेकर उसे धन्यवाद दे विदा किया। इसके पश्चात् जिस प्रश्न पर स्टार बना हुआ है उस प्रश्न में ‘हाँ पर निशान (✓) लगे हुए को गिन लिया तथा सिना स्टार बने “नहीं” के निशान को गिनकर दोनों को जोड़ दिया। तत्पश्चात् बिना स्टार बना हुआ हूँ के निशान  (✓) को गिन लिया तथा स्टार बना हुआ “नहीं” को गिनकर एक में जोड़ लिया। फिर उत्तर-पुस्तिका में योग के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व में अन्तर्मुखी, बहिर्मुखी का स्तर ज्ञात कर लिया।

(7) प्राप्त प्रदत्त :

(i) बहिर्मुखी के प्राप्तांक- सर्वप्रथम यह ज्ञात करें कि गणना कुंजी के प्रथम भाग अर्थात् ‘हाँ’ के द्योतक शीर्षक के अन्तर्गत लिखे गये प्रश्नों में से कितने प्रश्नों का उत्तर प्रयोज्य ने ‘हाँ’ के रूप में दिया है। इनकी संख्या ज्ञात करें। इसी प्रकार नहीं के द्योतक शीर्षक के अन्तर्गत लिखे गये प्रश्न संख्या में कितने का उत्तर ‘हाँ के रूप में दिया है। इन दोनों का योग ही बहिर्मुखी को प्राप्तांक होगा।

(ii) अन्तर्मुखी के प्राप्तांक- सम्पूर्ण प्रश्नों के योग 56 में से बहिर्मुखी प्राप्तांक को घटा देने पर जो कुछ भी शेष बचे वही अन्तर्मुखी का प्राप्तांक होगा। उदाहरण के लिए-यदि बहिर्मुखी का प्राप्तांक 27 है और प्रश्नों का योग 56 है, तो अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का प्राप्तांक 56 – 27 = 29 होगा। अन्तर्मुखी का प्राप्तांक ऋणात्मक (-) और बहिर्मुखी को प्राप्तांक धनात्मक (+) होता है।

(iii) अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी के प्राप्तांक का अन्तर– बहिर्मुखी के प्राप्तांक में से अन्तर्मुखी के प्राप्तांक को घटा देते हैं। उत्तर धनात्मक होगा तो प्रयोज्य बहिर्मुखी और ऋणात्मक होने पर अन्तर्मुखी होगा।

(8) परिणाम।

(9) व्याख्या– व्यक्तित्व व्यक्ति के रूप, गुण-प्रवृत्तियों, सामथ्र्यों आदि का संगठन है। वह व्यक्ति और पर्यावरण की परस्पर अन्त:क्रिया का परिणाम है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो तत्त्व हैं
(1) जैविकीय (Biological) तथा
(2) सामाजिक (Social)

(10) निष्कर्ष– उपर्युक्त परीक्षण से यह निष्कर्ष निकला कि प्रयोज्य अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का है, क्यांकि वह अधिकांश बातों को अपूर्ण रूप से बताता है। वह एकान्तप्रिय है, आदर्शवादी है तथा उसमें संवेगों की प्रधानता है अर्थात् जुग़ द्वारा बताये गये अन्तर्मुखी प्रकृति के अनेक लक्षण प्रयोज्य के व्यवहारों में वर्तमान हैं।

मनोवैज्ञानिक परीक्षण-3

प्रश्न 1
रुचि परीक्षण के क्रियान्वयन का विस्तार से वर्णन कीजिए। | (2009, 11, 14)
या 
बालक की रुचि मापन हेतु किसी एक रुचि परीक्षण की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन कीजिए। (2016, 18)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology 4

(1) समस्या– रुचि-पत्र के माध्यम से प्रयोज्या के विभिन्न रुचि-क्षेत्रों का मापन करना।
(2) निर्देश- प्रस्तुत रुचि-पत्र मनोविज्ञानशाला उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद के द्वारा बनायी गयी है। इस रुचि-पत्री में 10 रुचि-क्षेत्र हैं-

  • बाह्य
  • यान्त्रिक
  • गणनात्मक
  • वैज्ञानिक
  • फ्रेवर्तकीय
  • कलात्मक
  • साहित्यिक
  • संगीतात्मक
  • समाजसेवा तथा
  • लिपिकीय

(3) प्रयोज्य विस्तार-
UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 11 Tests in Psychology 5
(4) सामग्री एवं यन्त्र– रुचि-परीक्षण पुस्तिका, उत्तर-पुस्तिका, नियमावली, कागज, पेन्सिल, ग्राफ पेपर आदि।

(5) व्यवस्थापन– सर्वप्रथम परीक्षणकर्ता ने प्रयोज्या को बुलाकर शान्त कमरे में आराम से बैठाया, फिर Material को मेज पर व्यवस्थित किया। मेज पर सभी सामान रखने के बाद परीक्षणकर्ता ने विषयी को Test से सम्बन्धित कुछ निर्देश दिये।।

(6) निर्देशन- परीक्षणकर्ता ने प्रयोज्या को पुस्तिका पर लिखे सभी निर्देश पढ़कर सुनाए तथा निम्नलिखित निर्देश दिये
प्रस्तुत सूची तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए नहीं है। इसका उद्देश्य यह जानना है कि तुम्हें कौन-कौन-से कार्य पसन्द हैं; अत: निर्भयता एवं ईमानदारी से इस सूची को भरो। इस सूची में कुछ कार्य दिये गये हैं जो 5 भागों में बाँटे गये हैं। प्रत्येक भाग में 50 कार्य दिये हुए हैं। प्रथम पेज पर उन कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाना है जो तुम्हें बहुत पसन्द हैं। दूसरे भाग पर उन कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाना है जो तुम्हें कुछ पसन्द हैं। तीसरे भाग में ऐसे कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाइए जो तुम्हें नापसन्द हैं लेकिन यदि उन्हें करना पड़े तो कर सकते हैं। चौथे भाग पर ऐसे कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाइए जो कार्य तुम्हें बिल्कुल पसन्द नहीं हैं और साधारणतया उसको करना पसन्द नहीं करेंगे। पाँचवें भाग में आपको उन कार्यों पर सही (✓) का निशान लगाना है जिन्हें तुम बिल्कुल पसन्द नहीं करते से।

(7) सम्पादन- निर्देश देने के पश्चात् परीक्षणकर्ता ने विषयी को पुस्तिका दी। द्वितीय खण्ड अर्थात् भाग 1 पर प्रयोज्या ने उने संभी कार्यों पर निशान लगाये जो उसे बहुत पसन्द थे। भाग 2 पर प्रयोज्या ने उन कार्यों पर निशान सृगाये जो उसे कुछ पसन्द थे। भाग 3 पर उन कार्यों पर जो उसे नापसन्द थे, भाग 4 पर उन कार्यों परे जो उसे पसन्द न होते हुए भी अगर उसको करने को दिये जाएँ तो कर सकती थी तथा 5 में उन सभी कार्यों पर जो उसे बिल्कुल पसन्द नहीं थे। पूरी Booklet Solve करने के बाद प्रयोज्या ने पुस्तिका प्रयोगकर्ता को दे दी।

(8) सावधानियाँ- वातावरण शान्त रखा, परीक्षणकर्ता ने विषयी के साथ बातचीत करके सामंजस्य स्थापित किया। Raw Score ठीक से Count करने के लिए Manual से Percentile ठीक से नोट किया।
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(9) आकलन- परीक्षणकर्ता ने पुस्तिका लेने के बाद प्रत्येक का अलग-अलग क्षेत्र का Raw Score ज्ञात किया, फिर उसको निरीक्षण तालिका में लिखा। पुस्तिका में परीक्षणकर्ता ने सभी Part 1 से 5 तक बाह्य, 6 से 10 तक यान्त्रिक, 11 से 15 तक गणनात्मक, 16 से 20 तके वैज्ञानिक, 21 से 25 तक प्रवर्तकीय, 26 से 30 तक कलात्मक, 31 से 35 तक साहित्यिक, 36 से 40 तक संगीतात्मक, 41 से 45 तक समाजसेवा तथा 46 से 50 तकं लिपिकीय थे। इस तरह प्रत्येक Area में लगाये गये निशान को परीक्षणकर्ता ने गिन लिया। उसके बाद प्रथम भाग के Raw Score को 5 से, दूसरे भाग के Raw Score को 4 से, तीसरे भाग के Raw Scote को 3 से, चौथे भाग के Raw Score को 2 से और पाँचवें भाग के Raw Score को 1 से गुणा किया। गुणा करने से जो Score प्राप्त हुए उन्हें जोड़कर Total Score प्राप्त किये। प्रत्येक Area का इसके बाद परीक्षणकर्ता ने नियमावली से प्रत्येक Total Raw Score का प्रतिशत ज्ञात किया। प्रतिशतता की सहायता से ही नियमानुसार प्रत्येक की श्रेणी एवं क्षेत्र को ज्ञात किया।
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(10) मौखिक रिपोर्ट।

बोध-प्रश्न

प्रश्न 1
आपको यह प्रयोग कैसा लगा?
उत्तर
अच्छा लगा।

प्रश्न 2
आपको किन क्षेत्रों में अधिक रुचि है और किन क्षेत्रों में नहीं?
उत्तर
मुझे कलात्मक, साहित्यिक और समाजसेवा में बहुत रुचि है तथा गणनात्मक और वैज्ञानिक आदि कार्यों में रुचि नहीं है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 9
Chapter Name Crime (अपराध)
Number of Questions Solved 40
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 Crime (अपराध)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
अपराध की परिभाषा दीजिए। भारत में अपराध के कारणों की विवेचना कीजिए। [2010, 11, 15]
या
अपराध के मुख्य व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक कारणों को स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
अपराध की परिभाषा दीजिए।
अपराध के आर्थिक और सामाजिक कारणों की व्याख्या कीजिए। अपराध के सामान्य कारणों की विवेचना कीजिए। [2007, 10, 11, 12]
या
अपराध के चार प्रमुख कारण लिखिए। [2007, 12]
या
क्या आपके विचार में अपराध का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कारण आर्थिक कारक है? [2007]
या
अपराध के विभिन्न कारकों का सविस्तार उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर:

अपराध की परिभाषा

अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को विभिन्न समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “अपराध को एक ऐसे समाज-विरोधी व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे समाज ‘अमान्य करता है और इसके लिए दण्ड की व्यवस्था करता है।’

लैण्डिस और लैण्डिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने समूह-कल्याण के लिए हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिए राज्य पर दण्ड देने की शक्ति है।”

थॉमस के अनुसार, “अपराध एक ऐसा कार्य है जो उस समूह के स्थायित्व का विरोधी है, जिसे व्यक्ति अपना समझता है।”

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “कानूनी दृष्टिकोण से देश के कानूनों के विरुद्ध व्यवहारों को अपराध कहा जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध की परिभाषा दो प्रकार से दी गयी है। इसे समाजशास्त्री दृष्टि से, कानूनी दृष्टि से तथा सामाजिक-कानूनी दृष्टि से परिभाषित किया गया है। किसी भी अपराध के लिए दो बातें होनी आवश्यक हैं
(अ) वह कार्य समाज-विरोधी समझा जाता है तथा
(ब) उस कार्य को करने वाले को राज्य कानूनी दृष्टि से दण्ड देता है।

अपराध के कारण

अपराध के लिए निम्नलिखित कारण उत्तर:दायी होते हैं
(अ) अपराध के व्यक्तिगत जैविकीय कारण
व्यक्ति की आयु, लिंग, बौद्धिक स्तर, शैक्षणिक स्थिति तथा सामाजिक-आर्थिक स्थिति जैसे अनेक व्यक्तिगत व जैविकीय कारण अपराध के लिए उत्तर:दायी बताये गये हैं। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

  1. आयु-आयु की दृष्टि से 17 वर्ष से 24 वर्ष के बीच की आयु में अपराध तीव्र गति से किये जाते हैं। गम्भीर अपराध 20 से 26 वर्ष की आयु में तथा यौन सम्बन्धी अपराध प्रौढ़ावस्था में अधिक होते हैं। अमेरिकी समाज में हुए अध्ययनों से हमें अपराध की प्रकृति और आयु में सम्बन्ध देखने को मिलता है।
  2. लिंग-अपराध की दर महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में अधिक होती हैं। पुरुष का स्वभाव अधिक आक्रामक होता है, घर से बाहर रहने के कारण उन्हें उच्छृखलता का अवसर अधिक मिलता है तथा उन पर कार्यभार होने के कारण मानसिक तनाव अधिक पाया जाता है।
  3. शारीरिक दोष-व्यक्ति का कोई शारीरिक दोष भी कई बार अपराध का एक कारण बने
    जाता है। गोरिंग ने अपने अध्ययनों द्वारा यह बताया है कि अंग्रेज अपराधी कद में छोटे व वजन में कम होते हैं। यदि शारीरिक विकास आयु के अनुसार अत्यधिक है अथवा अत्यधिक अल्पविकसित है तो भी अपराध की प्रवृत्ति अधिक देखने को मिलती है।
  4. वंशानुक्रमण-वंशानुक्रमण भी अपराध का कारण है। बच्चा जन्म से ही अपराधी प्रवृत्तियाँ लेकर आता है। लॉम्बोसो, गैरोफेलो, फैरी इत्यादि विद्वानों ने अपने अध्ययनों द्वारा अपराध में वंशानुक्रमण का महत्त्व स्पष्ट किया है।

(ब) अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण
अपराध को प्रोत्साहित करने वाली मानसिक दशाएँ निम्नलिखित हैं—

  1. मानसिक दुर्बलता मानसिक दुर्बलता या बुद्धिहीनता भी अपराध का कारण हो सकता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति अच्छे और बुरे कार्यों में अन्तर नहीं कर सकते। गोडार्ड ने मानसिक दुर्बलता को अपराध का प्रमुख कारण बताया है, जब कि एडलर ने इसका विरोध करते हुए इस बात पर बल दिया है कि अधिकांश अपराधी अपने बौद्धिक स्तर में सामान्य व्यक्ति के समान होते हैं।
  2. संवेगात्मक अस्थिरता व संघर्ष-व्यक्ति संवेगात्मक तनाव को दूर करने के लिए भी अपराध करते हैं। हीले तथा ब्रोनर ने अपने अध्ययन द्वारा यह बताया है कि 91 प्रतिशत अपराधी अपनी हीनता की भावना को दूर करने के लिए अपराध करते हैं। अपराध भी एक संवेग है। बर्ट ने भी असन्तुलन तथा अस्थिरता पर बल दिया है।
  3. मानसिक बीमारियाँ-अनेक मानसिक बीमारियाँ भी अपराधी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देती हैं। हीन मनोवृत्तियाँ, हिस्टीरिया, मेनिया इत्यादि मानसिक बीमारियाँ भी अपराध के लिए उत्तर दायी मानी गयी हैं। अमेरिका की राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य समिति के अनुसार 77 प्रतिशत कैदी किसी-न-किसी रूप में मानसिक रोग से पीड़ित थे। यह अध्ययन 34 जेलों के अपराधियों के मानसिक विश्लेषण पर आधारित था।

(स) अपराध के सामाजिक कारण
सामाजिक कारणों में हम निम्नलिखित दशाएँ सम्मिलित करते हैं–

1. परिवार-बच्चे के समाजीकरण तथा व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान होती है। यदि परिवार का वातावरण ही अच्छा नहीं है तो बच्चों का व्यक्तित्व भी ठीक प्रकारे से विकसित नहीं होता है। सामान्यत: निम्नलिखित गारिवारिक दशाएँ अपराध में सहायक मानी जाती हैं

  • विघटित परिवार-यदि परिवार विघटित है तथा सदस्यों में मतैक्य का अभाव है। तथा परिस्थितियों और भूमिकाओं में असन्तुलन आ गया है तो इसको सदस्यों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और अपराधी प्रवृत्तियाँ अधिक पनपने लगती हैं।
  • नष्ट घर–जब पारिवारिक विघटन अधिक हो जाता है तो उसे नष्ट घर कहते हैं। तलाक, परित्याग, माता या पिता दोनों में से एक या दोनों की मृत्यु से घर नष्ट हो जाता है और बच्चों का विकास ठीक प्रकार से नहीं हो पाता। अधिकांश बालअपराधी नष्ट घरों के ही होते हैं।
  • तिरस्कृत बालक-यदि बच्चों को परिवार में संरक्षण तथा प्यार नहीं मिलती तथा अनचाहा बालक समझकर उसका तिरस्कार किया जाता है, तो वह अपराध की ओर अग्रसर हो जाता है। टैफ्ट के अनुसार, “निश्चित रूप से अनचाहा बालक बालअपराधी बन सकता है।”
  • अनैतिक परिवार यदि परिवार के सदस्य अनैतिक कार्यों में लगे हुए हैं तो भी इसका बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वे अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। इलियट के अनुसार, 67 प्रतिशत अपराधी लड़कियाँ अनैतिक परिवारों से आती हैं।
  • अनुचित पारिवारिक नियन्त्रण–यदि सदस्यों पर परिवार का नियन्त्रण ठीक नहीं है और माता-पिता की व्यस्तता के कारण वे बच्चों को ठीक प्रकार से नहीं देख पा
    रहे हैं, तो बालक बुरी संगति में पड़कर आसानी से अपराधी बन जाते हैं।

2. शिक्षा- शिक्षा का भी अपराध से सम्बन्ध स्थापित किया गया है। शिक्षित व्यक्ति अधिकतर नियोजित अपराध करते हैं, जब कि अशिक्षित क्रूर अपराध अधिक करते हैं और सरलता से पकड़े जाते हैं।
3. धर्म-धर्म का नियन्त्रण आज प्रायः समाप्त होता जा रहा है तथा आज धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता का जहर पिलाकर अपराधों एवं गैर-कानूनी कार्यों को प्रोत्साहन मिल रहा है।
4. बुरी संगति-बुरा पड़ोस, अपराधी समूह आदि भी अपराध को प्रोत्साहन देते हैं। यदि व्यक्ति की संगति ठीक नहीं है और वह असामाजिक तत्वों के साथ रह रहा है, तो उसमें भी अपराध-वृत्ति पनपने लगती है। अपराध को जन्म देने में संगति का सबसे अधिक सहयोग रहता है।
5. सांस्कृतिक संघर्ष-सांस्कृतिक संघर्ष, सांस्कृतिक मूल्यों में परस्पर विरोध तथा सांस्कृतिक विलम्बन भी समाज में अव्यवस्था लाता है और अपराध-प्रवृत्तियों को विकसित होने में सहायता प्रदान करता है।
6. चलचित्र-चलचित्र को आज के युग में मनोरंजन की दृष्टि से प्रमुख स्थान प्राप्त है तथा इनका व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार पर गहन प्रभाव पड़ता है। काम-वासना के उत्तेजक दृश्यों, मार-धाड़ वाले दृश्यों, बलात्कार जैसे दृश्यों, अश्लील दृश्यों व गानों को युवा पीढ़ी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। चलचित्रों में अपराध के जो दृश्य दिखाए जाते हैं, अनेक अपराधी उनका अनुसरण करके वैसे ही अपराध करना सीख जाते हैं तथा व्यवहार में करते भी हैं। चलचित्र मानसिक संघर्ष की स्थिति भी पैदा कर देते हैं, जो कि अपराध-वृत्ति के विकास में सहायक
7. समाचार-पत्र-समाचार-पत्र व पत्रिकाएँ भी अपराध को प्रोत्साहन देते हैं। प्रायः समाचार पत्रों में अपराध सम्बन्धी घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है तथा उन्हें रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, जिसका युवा पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
8. मद्यपाने मद्यपान तथा मादक द्रव्य-व्यसन अपराध का वैयक्तिक तथा सामाजिक कारण दोनों ही हैं। अधिकतर मद्यपान की आदत बुरी संगति, अनैतिक व विघटित परिवार होने के कारण तथा मानसिक तनाव के कारण पड़ती है। मद्यपान व्यक्ति, परिवार, समुदाय तथा समाज को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इससे शारीरिक बीमारियों में वृद्धि होती है, शारीरिक पतन हो जाता है, व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठता है और कई बार हत्या, आत्महत्या या बलात्कार जैसे अपराध भी कर बैठता है।

(द) अपराध के आर्थिक कारण
निम्नलिखित आर्थिक दशाएँ अपराध के लिए उत्तर:दायी बतायी जाती हैं
1. निर्धनता-निर्धनता अपराध का एक कारण हो सकता है। निर्धनता व्यक्ति को गन्दी बस्तियों में रहने के लिए विवश करती है, जिनका वातावरण अपराधी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने वाला होता है।

2. व्यापारिक स्थिति-अपराध की दर तथा व्यापार-चक्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यापार की गिरावट के कारण रोजगार की कमी हो जाती है, माल का निकास रुक जाता है, पैसे की कमी | पड़ जाती है, भ्रष्टाचार बढ़ जाता है तथा इन सबसे अपराध की सामान्य दर प्रभावित होती है।

3. बेरोजगारी-बेरोजगारी भी अपराध का कारण है। अध्ययनों से पता चलता है कि बेकारी, आवारागर्दी और सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों को बढ़ावा देती है। वेश्यावृत्ति तथा महिलाओं में अनैतिकता को कई विद्वानों ने उनकी आर्थिक स्थिति से जोड़ा है। बेरोजगारी मानसिक तनाव की स्थिति पैदा कर देती है, जिससे व्यक्ति आपराधिक कार्यों की ओर अधिक आकर्षित हो जाता है।

4. आर्थिक असन्तोष व अत्यधिक असमानता-
आर्थिक असन्तोष भी अपराध को प्रोत्साहन देता है। व्यक्ति अपनी अपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी कई बार अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। अत्यधिक आर्थिक असमानता भी आर्थिक असन्तोष को जन्म देती है। आर्थिक असमानताओं से व्यक्ति में मानसिक तनाव पैदा हो जाता है, जो कि अपराध को बढ़ाता है।

5. औद्योगीकरण-
औद्योगीकरण के फलस्वरूप जो समस्याएँ पैदा हो रही हैं, उनसे भी अपराध को प्रोत्साहन मिलता है।

(य) अपराध के भौगोलिक कारण
भौगोलिक कारणों का भी अपराध को प्रोत्साहन देने में महत्त्वपूर्ण स्थान है। जलवायु, धरातल, ऋतु तथा मौसम के अनुसार अपराध की दरें घटने या बढ़ने सम्बन्धी अध्ययन हमारे सामने आये हैं। समतल क्षेत्र वाले भागों में बलात्कार की संख्या अधिक होती है, परन्तु संम्पत्ति के विरुद्ध अपराध कम होते हैं। अनेक गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में व्यक्ति के विरुद्ध अपराध तथा ठण्डे देशों में सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध अधिक होने के निष्कर्ष निकाले गये हैं। अपराधशास्त्रियों ने अपराधी कैलेण्डर तक बनाकर यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार विशिष्ट प्रकार के अपराध विशिष्ट महीनों से सम्बन्धित हैं।

क्वेटलेट का कथन है कि “अपराध का प्रमुख सम्बन्ध जलवायु से है। जलवायु तथा मौसम में परिवर्तन होने के साथ ही अपराध में भी परिवर्तन देखने को मिलता है।”
लैकेसन ने इस सन्दर्भ में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं|
अपराध                                                                             महीना।
1. शिशु-हत्या                                               : जनवरी, फरवरी, मार्च तथा अप्रैल में अधिक
2. मानव-हत्या व अन्य गम्भीर अपराध          : जुलाई में सबसे अधिक
3. पितृ-हत्या                                                : जनवरी व अक्टूबर में सबसे अधिक
4. बच्चों पर बलात्कार                                  : जुलाई, अगस्त तथा सबसे कम दिसम्बर में
5. युवाओं से बलात्कार                                 : सबसे अधिक दिसम्बर और जनवरी में

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध का कोई एक कारण नहीं है, अपितु हो सकता है कि एक ही अपराध के पीछे एक से अधिक कारण हों। आपराधिक कारणों में व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक कारणों का भरपूर सहयोग रहता है।

प्रश्न 2
अपराध को नियन्त्रित करने हेतु सुझाव दीजिए।
या
अपराध की परिभाषा दीजिए तथा अपराध नियन्त्रण के दो उपाय बताइए।
या
अपराध क्या है? अपराध को नियन्त्रित करने के सुझाव दीजिए। [2015, 16]
उत्तर:

अपराध की परिभाषा

अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को विभिन्न समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “अपराध को एक ऐसे समाज-विरोधी व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे समाज ‘अमान्य करता है और इसके लिए दण्ड की व्यवस्था करता है।’

लैण्डिस और लैण्डिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने समूह-कल्याण के लिए हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिए राज्य पर दण्ड देने की शक्ति है।”

थॉमस के अनुसार, “अपराध एक ऐसा कार्य है जो उस समूह के स्थायित्व का विरोधी है, जिसे व्यक्ति अपना समझता है।”

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “कानूनी दृष्टिकोण से देश के कानूनों के विरुद्ध व्यवहारों को अपराध कहा जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध की परिभाषा दो प्रकार से दी गयी है। इसे समाजशास्त्री दृष्टि से, कानूनी दृष्टि से तथा सामाजिक-कानूनी दृष्टि से परिभाषित किया गया है। किसी भी अपराध के लिए दो बातें होनी आवश्यक हैं
(अ) वह कार्य समाज-विरोधी समझा जाता है तथा
(ब) उस कार्य को करने वाले को राज्य कानूनी दृष्टि से दण्ड देता है।
अपराध निरोध के लिए, दण्ड, जेल, परिवीक्षा एवं पैरोल तथा उत्तम-संरक्षण सेवाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य सुझाव निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं

  1. पूर्व बाल-अपराधियों की खोज-हमें ऐसे बच्चों को खोजना होगा जिनके आगे चलकर अपराधी बनने की सम्भावना हो। उनको पहले ही ऐसी परिस्थितियाँ प्रदान की जाएँ कि वे आगे चलकर अपराधी नहीं बनें।
  2. मार्ग-दर्शन-अपराधियों को जेल में इस प्रकार का मार्गदर्शन प्रदान किया जाए, कि वे जेल से छूटने के बाद अपराधी नहीं बनें।
  3. समितियों का निर्माण-ऐसी सामुदायिक एवं पड़ोस समितियों का निर्माण किया जाए जो समुदाय की उन परिस्थितियों का पता लगाएँ जो अपराध के लिए उत्तर दायी हैं।
  4. परिवार का पुनर्गठन–कई अपराधी विघटित एवं टूटे परिवारों से आते हैं। अत: ऐसे उपाय अपनाये जाएँ जिससे परिवार के सदस्यों में प्रेम व सहयोग पनपे तथा मनमुटाव और तनाव समाप्त हो।
  5. स्वस्थ मनोरंजन–वर्तमान युग का अस्वस्थ एवं व्यापारिक मनोरंजन भी अपराध को जन्म देता है। भद्दे, भौंडे तथा नग्न व अर्द्ध-नग्न चित्र, अपराध से परिपूर्ण फिल्में, जासूसी उपन्यास एवं सस्ता साहित्य, नाचघर, नाइट क्लब, कैबरे आदि सभी व्यक्ति के पतन के लिए उत्तर:दायी हैं। इन सभी पर कठोर कानूनी पाबन्दी लगायी जानी चाहिए।
  6. स्वस्थ निवास–गन्दी बस्तियाँ एवं भीड़भाड़युक्त मकान भी अपराध के लिए उत्तर:दायी हैं। अतः सरकार को अधिकाधिक नियोजित बस्तियों का निर्माण करना चाहिए तथा मकान बनाने के लिए ऋण की सुविधाएँ उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
  7. स्कूलों के वातावरण में सुधार किया जाना चाहिए, क्योंकि शिक्षण संस्थाओं में ही मानवता ढलती है एवं व्यक्ति में नैतिकता की भावनाएँ पनपती हैं। वहीं व्यक्ति के चरित्र का गठन भी होता है।
  8. जेलों की दशाएँ सुधारी जाएँ, उनमें चिकित्सा सेवा, स्वस्थ वातावरण एवं निवास की उचित व्यवस्था की जाए तथा अपराधियों के साथ सहानुभूतिपूर्ण एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाए।
  9. अपराधियों को सुधारने के लिए मन:चिकित्सकों एवं समाजशास्त्रियों की सहायता ली जाए, जिससे वे भविष्य में अपराध न करें।
  10. दण्ड का निर्धारण अपराधी की परिस्थितियों को देखकर किया जाए।
  11. अलग-अलग प्रकार के अपराधियों के लिए अलग-अलग प्रकार के बन्दीगृह हों, क्योंकि प्रथम अपराधी को आदतन अपराधी के साथ रखने से उसके सुधरने के बजाय बिगड़ने के अधिक अवसर रहते हैं।
  12. जनमत में परिवर्तन कर ऐसी प्रवृत्तियों का बहिष्कार किया जाए जो समाज-विरोधी कार्यों को जन्म देती हैं।
  13. अपराधियों को ऋण व प्रशिक्षण की सुविधाएँ दी जाएँ, जिससे वे अपना कोई व्यवसाय चला सकें और अपराधी कार्यों से मुक्ति पा सकें।
  14. जेल में अपराधियों को काम दिया जाए एवं उससे प्राप्त धन में से आधा भाग उनके परिवार वालों को दिया जाए जिससे उनका भरण-पोषण होता रहे।
  15. न्याय सस्ता हो एवं साथ ही उसे शीघ्र उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  16. अपराधी जनजातियों के सुधार के लिए योजनाबद्ध कार्य किये जाएँ।
  17. समाज में व्याप्त बेकारी एवं ग़रीबी की समस्या को शीघ्र उन्मूलन किया जाए, क्योंकि निर्धनता ही प्रमुखतः सभी अपराधों की जड़ है।

प्रश्न 3
भारत में भ्रष्टाचार निवारण हेतु सुझाव दीजिए। [2007, 08, 09, 15, 16]
या
भ्रष्टाचार एक सार्वभौमिक बुराई है। भारत में भ्रष्टाचार निवारण के उपायों का सुझाव दीजिए। [2008]
उत्तर:
भारत में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के तुरन्त पश्चात् भ्रष्टाचार की समस्या के समाधान के लिए ‘भ्रष्टाचार निरोधक कानून’ (Prevention of Corruption Act) पास किया गया। यह कानून केवल सरकारी कर्मचारियों तक ही सीमित होने के कारण अधिक प्रभावपूर्ण नहीं हो सका। इसके पश्चात् सरकार ने भ्रष्टाचार निवारण हेतु सुझाव देने के लिए सन् 1962 में सन्तानम कमेटी की नियुक्ति की। इस समिति ने भ्रष्टाचार के सभी क्षेत्रों तथा तरीकों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए अपनी महत्त्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत कीं, लेकिन ये सिफारिशें इतनी आदर्शवादी तथा महत्त्वाकांक्षी थीं कि इन्हें लागू नहीं किया जा सका। सन् 1960 तथा 1970 के बीच हमारे समाज में भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया कि भ्रष्टाचार उन्मूलन की बात करने वाले मन्त्रियों और अधिकारियों के विरुद्ध भी नियोजित षड्यन्त्र चलाये जाने लगे।

सन् 1975 के पश्चात् यह माँग जोर पकड़ने लगी कि मन्त्रियों और बड़े-बड़े अधिकारियों के विरुद्ध जाँच करने वाले आयुक्तों की भी नियुक्ति की जानी चाहिए। इसके फलस्वरूप आज अनेक राज्यों में लोकपाल की नियुक्तियाँ की गयी हैं, जिन्हें बड़े-बड़े अधिकारियों तथा मन्त्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करने के अधिकार दिये गये हैं। अनेक राज्यों में भ्रष्ट अधिकारियों को 50 वर्ष की आयु में अनिवार्य रूप से सेवा-मुक्त कर देने का प्रावधान रखा गया है। इसका उद्देश्य भ्रष्टाचार के मामलों में कानूनी जटिलताओं से बचना तथा प्रभावी कार्यवाही करना है।

उपर्युक्त प्रयासों के पश्चात् भी भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं हो सकी। इसका कारण एक ओर, भ्रष्टाचार की जड़ों का बहुत गहराई तक फैला होना है और दूसरी ओर, सरकार तथा प्रशासन की अक्षमता इसके लिए उत्तर:दायी है। केवल यह कहना कि राजनीतिज्ञों, अधिकारियों और जनसाधारण को ईमानदार बनाकर, नैतिक मूल्यों का प्रचार करके तथा राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहन देकर भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहिए, एक ख्याली पुलावे पकाना है। भ्रष्टाचार निवारण केवल तभी सम्भव है जब भ्रष्टाचार के मूल कारणों को देखते हुए एक व्यावहारिक योजना के द्वारा इस बुराई को दूर करने के प्रयत्न किये जाएँ। इस योजना के विभिन्न अंगों के रूप में निम्नलिखित सुझाव अधिक उपयोगी हो सकते हैं|

1. व्यापारिक वर्ग में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कर-संरचना में परिवर्तन करना आवश्यक है। व्यापारियों द्वारा सर्वाधिक भ्रष्टाचार करों की चोरी तथा नकली हिसाब-किताब के रूप में मिलता है। यदि प्रत्येक वस्तु के उत्पादन स्थान पर ही पूर्ण सतर्कता के साथ सम्पूर्ण कर (Taxes) ले लिये जाएँ तो सरकार को प्रशासनिक व्यय भी कम करना पड़ेगा और करों की चोरी की सम्भावना भी कम हो जायेगी।

2. छोटे कर्मचारियों में भ्रष्टाचार निवारण के लिए उनके वेतन-स्तर में सुधार आवश्यक है। प्रत्येक स्तर के कर्मचारी को इतना वेतन अवश्य मिलना चाहिए जिससे वह अपने परिवार की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर सके।

3. उच्च प्रशासनिक पदों, टेक्निकल कुशलता वाली सेवाओं तथा व्यवसायियों के लिए सेवा के स्थायीकरण (Confirmation of service) की परम्परा प्रजातान्त्रिक समाजों के लिए पूर्णतया गलत है। इन पदों पर एक विशेष अवधि के लिए नियुक्तियाँ की जानी चाहिए। ऐसा करने से प्रत्येक व्यक्ति अपनी कुशलता को बढ़ाने का प्रयत्न करेगा तथा अधिक-से-अधिक ईमानदारी से कार्य करके अपने जीवन को निष्कलंक बनाने के लिए प्रयत्नशील रहेगा।

4. सरकारी कार्यालयों में कामकाजी प्रक्रिया में सरलता लाने से भी रिश्वत और दूसरे प्रकार के भ्रष्टाचारों को दूर किया जा सकता है। प्रत्येक विभाग में कार्य की प्रक्रिया को सरल बनाने तथा प्रत्येक निर्णय के लिए अधिकतम समय सीमा का निर्धारण होना चाहिए।

5. जनसाधारण में प्रत्येक कार्यालय के नियमों तथा कार्यविधि का प्रचार करने से भी रिश्वतों को कम किया जा सकता है। ऐसे प्रचार से सरकारी दफ्तरों में आने वाले लोग वहाँ के बाबुओं पर निर्भर नहीं रहेंगे और न ही उन्हें बाबुओं द्वारा गुमराह किया जा सकेगा।

6. वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि महत्त्वपूर्ण निर्णयों का जनसाधारण में प्रकाशन किया जाये। देश को आज सबसे अधिक हानि ऐसे भ्रष्टाचार से होती है जिसमें मन्त्रियों अथवा अधिकारियों द्वारा लाखों और करोड़ों रुपयों की राशि का उपयोग गुप-चुप ढंग से कर लिया जाता है। लोक सम्पत्ति के उपयोग की पूरी जानकारी जनसाधारण को मिलने से भ्रष्टाचार में कमी हो सकती है।

7. राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण लगाने के लिए यह आवश्यक है कि सभी राजनीतिक दलों की वार्षिक आय और व्यय का हिसाब जनसाधारण के लिए प्रकाशित किया जाए। ऐसी सूची प्रकाशित होने से राजनीतिक दलों को चुनाव के समय तरह-तरह के भ्रष्ट व्यवहार करने से रोका जा सकेगा।

8. इन प्रयत्नों के साथ ही देश में एक भ्रष्टाचार विरोधी गुप्त सरकारी संगठन’ का होना आवश्यक है। इस संगठन में प्रशासनिक, तकनीकी तथा व्यावसायिक कुशलता से सम्पन्न अधिकारियों की नियुक्ति होनी चाहिए। यह आरोप लगाया जा सकता है कि कालान्तर में ऐसे गुप्त संगठनों के अधिकारी भी भ्रष्ट बन सकते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि दिल्ली में नियुक्त अधिकारियों का दस्ता यदि चेन्नई के किसी गाँव में जाकर निर्माणाधीन सरकारी इमारत में लगने वाली वस्तुओं की किस्म का निरीक्षण करे तो इससे भ्रष्टाचार उन्मूलन में सहायता ही मिलेगी।

9. अन्त में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए दण्ड की प्रक्रिया को कठोर बनाना आवश्यक है। भ्रष्टाचार के अभियोग में पकड़े गये व्यक्तियों को जमानत की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। भ्रष्टाचार को कानून के द्वारा एक जघन्य अपराध घोषित किये बिना स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता।

गुन्नार मिर्डल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’ (Asian Drama) में एशिया और मुख्य रूप से भारत के लोक जीवन में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार को रोकने के लिए अनेक सुझाव दिये हैं-

  1. भ्रष्टाचार के अपराधी लोगों को दण्ड देने के लिए सरल कानून बनाये जाएँ;
  2. रिश्वत देने वाले लोगों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाए;
  3. आयकर देने वाले लोगों के विवरण को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित किया जाए;
  4. व्यापारियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले चन्दों पर रोक लगायी जाएँ;
  5. वेतनभोगी कर्मचारियों को इतना वेतन अवश्य दिया जाए जिससे उनकी सामान्य आवश्यकताएँ पूरी हो सकें;
  6. लाइसेन्स और परमिट देने वाले अधिकारियों की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखा जाए;
  7. जो लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध शिकायत करते हैं, उन्हें सुरक्षा दी जाए;
  8. भ्रष्टाचार सम्बन्धी झूठे समाचार छापने वाले समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं के विरुद्ध कार्यवाही की जाए;
  9. मन्त्रियों तथा उच्च अधिकारियों की आय-व्यय का नियमित निरीक्षण किया जाए तथा
  10. भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सतर्कता अभियान को तेज किया जाए।

उपर्युक्त सभी सुझाव इस मान्यता पर आधारित हैं कि एक प्रजातान्त्रिक समाज में भ्रष्टाचार की समस्या जब सभी वर्गों और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हो जाती है, तो केवल अनुनय, विनम्रता, प्रचार और पुराने कानूनों के द्वारा ही इसका समाधान नहीं किया जा सकता। इस दशा में भ्रष्टाचार का उन्मूलन केवल कठोर अनुशासन और समय के अनुरूप कानूनों के द्वारा ही सम्भव है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन देशों को उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का चस्का लग चुका है वे पूँजीवादी स्वार्थों को लेकर अब उन प्रजातान्त्रिक देशों को भ्रष्ट बनाने का षड्यन्त्र कर रहे हैं, जो अपनी प्रगति स्वयं ही करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में हमारी जनतान्त्रिक स्वतन्त्रता पर भले ही अंकुश लग जाए, लेकिन सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति और समृद्धि के लिए भ्रष्टाचार पर कठोरता से नियन्त्रण लगाना आज अंत्यधिक आवश्यक है।

प्रश्न 4
‘अपराध राज्य के नियमों का उल्लंघन है।’ स्पष्ट करते हुए अपराध के मुख्य प्रकार बताइए।
उत्तर:

अपराध राज्य के नियमों का उल्लंघन

राज्य में व्यवस्था कायम रखने के लिए और उसका भली-भाँति संचालन करने के लिए कुछ कानून और नियम बनाये जाते हैं। राज्य के हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह कानूनों को माने। किन्तु कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जो कानूनों का पालन नहीं करते हैं। वे कानून को भंग करते हैं। भंग करने वालों में दो तरह के लोग होते हैं-एक तो वे लोग, जो अनजाने में कानून-विरोधी कार्य कर डालते हैं और दूसरे वे, जो जान-बूझकर कानून को तोड़ते हैं। कानून को भंग करने का कार्य जब जान-बूझकर किया जाता है, तो ऐसा कार्य कानूनी दृष्टि से ‘अपराध’ कहलाता है।

इसलिए इस दृष्टि से उन बच्चों के गलत कार्यों को अपराध नहीं माना जाता, जो छः वर्ष से कम आयु के होते हैं। यदि कोई छोटा बच्चा कोई गलती करता है, तो उसकी अज्ञानता के कारण हम प्रारम्भ में उसे क्षमा कर देते हैं। नशे में चूर और पागल व्यक्ति यदि कोई गलत कार्य कर बैठता है, तो उसे भी ‘अपराध’ के अन्तर्गत नहीं रखा जाता। प्रत्येक राज्य में समुदाय की आवश्यकता के अनुसार सार्वजनिक कल्याण के आधार पर राज्य के नियम व कानून भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, इसलिए अपराध के अन्तर्गत आने वाले व्यवहारों की कोई ऐसी सूची नहीं बनायी जा सकती जो समाजों तथा समुदायों के लिए सार्वभौमिक हो। इसके उपरान्त भी कानूनी दृष्टिकोण से अपराध की धारणा चार विशेषताओं से सम्बन्धित है

  1. अपराध कोई भी वह व्यवहार है जो एक समुदाय में प्रचलित कानूनों के उल्लंघन से सम्बद्ध हो।
  2. ऐसे व्यवहार में अपराधी इरादे (criminal intentions) की समावेश हो। वास्तव में, व्यक्ति की नीयत’ में जब दोष आ जाता है तथा वह जान-बूझकर किसी निषिद्ध अपराध को करता है, तभी इसे अपराध कहा जाता है।
  3. अपराध का सम्बन्ध एक बाह्य क्रिया (over act) से है। व्यक्ति की नीयत में दोष आने पर भी यदि वह किसी बाह्य क्रिया द्वारा कानून का उल्लंघन नहीं करता तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता।
  4. राज्य की ओर से दण्ड की व्यवस्था अपराध का अन्तिम तत्त्व है। व्यक्ति यदि कोई ऐसा व्यवहार करे जिससे सार्वजनिक जीवन को हानि होती हो, लेकिन राज्य की ओर से ऐसे व्यवहार के लिए कोई दण्ड निर्धारित न हो तो ऐसे व्यवहार को अपराध नहीं कहा जा सकता। उपर्युक्त विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अनेक विद्वानों ने कानूनी दृष्टिकोण से अपराध को

परिभाषित किया है। डॉ० सेथना के अनुसार, “अपराध कोई भी वह कार्य अथवी त्रुटि है जो किसी विशेष समय पर राज्य द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार दण्डनीय है, इसका सम्बन्ध चाहे ‘पाप’ से हो अथवा नहीं।” लगभग इसी प्रकार हाल्सबरी का कथन है कि, “अपराध एक अवैधानिक त्रुटि है जो जनता के विरुद्ध है और जिसके लिए अभियुक्त को कानूनी दण्ड दिया जाता है। विलियम ब्लेकस्टोन के अनुसार, “किसी भी सार्वजनिक कानून की अवज्ञा अथवा उल्लंघन से सम्बन्धित व्यवह्मर ही अपराध है।’ टैफ्ट ने अपराध की संक्षिप्त परिभाषा देते हुए लिखा है, “वैधानिक रूप से अपराध एक ऐसा कार्य है जो कानून के अनुसार दण्डनीय होता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि कानून का एक बुरे इरादे से जान-बूझकर उल्लंघन करना तथा इस प्रकार सार्वजनिक हित को हानि पहुँचाना ही अपराध है। कानूनी दृष्टि से अपराधी व्यक्ति को राज्य द्वारा दण्ड मिलता है और असामाजिक कार्य करने पर स्वयं समाज व्यक्ति को बहिष्कृत करके, अपमानित करके या हुक्का-पानी बन्द करके दण्डित करता है।

अपराध के प्रकार

विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपराध को अपने-अपने ढंग से वर्गीकृत किया है। सामान्य रूप से अपराध निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
(क) गम्भीरता के आधार पर वर्गीकरण-गम्भीरता के आधार पर अपराध को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है–

  1. कम गम्भीर अपराध या कदाचार-इसमें उन अपराधों को सम्मिलित किया जाता है, जो कानून की दृष्टि से अधिक गम्भीर नहीं होते। जुआ, मद्यपान, बिना टिकट के यात्रा करना। इत्यादि लघु या कम गम्भीर अपराध के उदाहरण हैं।
  2. गम्भीर अपराध या महापराध-इसमें गम्भीर प्रकृति के अपराध सम्मिलित किये जाते हैं। हत्या, बलात्कार, देशद्रोह इत्यादि अपराध इसके प्रमुख उदाहरण हैं। ऐसे अपराधों के लिए दण्ड भी गम्भीर होता है; जैसे-सम्पत्ति जब्त कर लेना, आजीवन कारावास अथवा मृत्युदण्ड आदि।।

(ख) अपराध के प्रयोजन के आधार पर वर्गीकरण-बोन्जर (Bonger) ने अपराधियों के प्रयोजन के आधार पर अपराध को अग्रलिखित चार श्रेणियों में विभाजित किया है

  1. आर्थिक अपराध;
  2. लिंग सम्बन्धी अपराध;
  3. राजनीतिक अपराध तथा
  4. विविध (Miscellaneous) अपराध।

(ग) उद्देश्यों के आधार पर वर्गीकरण-हेज (Hayes) ने अपराधियों के उद्देश्यों तथा प्रेरणाओं को सामने रखकर अपराध को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया है।

  1. व्यवस्था के विरुद्ध अपराध,
  2. सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध तथा
  3. व्यक्ति के विरुद्ध अपराध।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4अंक)

प्रश्न 1
अपराध के लक्षणों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
जिरोम हाल ने उन विशेषताओं का उल्लेख किया है जिनके आधार पर किसी मानवीय व्यवहार को अपराध घोषित किया जाता है। वे इस प्रकार हैं

  1. हानि-अपराधी क्रिया का बाह्य परिणाम ऐसा होना चाहिए जिससे अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को शारीरिक, मानसिक या आर्थिक हानि हो। इस प्रकार के अपराध से समाज को नुकसान होता हो।
  2. क्रिया-जब तक कोई व्यक्ति अपराधी क्रिया न करे और अपराध करने का केवल मन में . विचार ही रखे, तब तक वह विचार अपराध नहीं माना जाएगा।
  3. कानून के द्वारा निषेध-कोई भी कार्य तब तक अपराध नहीं माना जाएगा जब तक कि उस देश का कानून उसे अवैधानिक घोषित न करे।
  4. अपराधी उद्देश्य-अपराध निर्धारण में अपराधी उद्देश्य एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। जान बूझकर इरादतन किया हुआ कानून-विरोधी कार्य अपराध है। अनजाने में बिना इरादे के या भूल से किये हुए कार्य को हम अपराध तो मानते हैं, किन्तु उतना गम्भीर नहीं जितना कि पूर्व इरादे से किये कार्य को।
  5. उद्देश्य और व्यवहार में सह-सम्बन्ध-अपराध के लिए अपराधी उद्देश्य के साथ ही क्रिया का होना भी आवश्यक है। उद्देश्यहीन क्रिया या क्रियाहीन उद्देश्य अपराध नहीं होगा। दोनों का प्रकाशन साथ-साथ होनी चाहिए।
  6. दण्ड-अपराध करने पर राज्य और समाज अपराधी को दण्ड देता है। यह दण्ड शारीरिक .. दण्ड या जुर्माना आदि के रूप में हो सकता है।
  7. समय व स्थान सापेक्ष-अपराधी क्रियाओं का सम्बन्ध समय व स्थान से भी है। एक समय में एक क्रिया अपराध मानी जाती है, वही दूसरे समय में नहीं। सती–प्रथा, दहेज-प्रथा । और बाल-विवाह कभी अपराध नहीं माने जाते थे, किन्तु आज ये अपराधी क्रियाएँ हैं। इसी प्रकार से जो कार्य भारत में अपराध माने जाते हैं, वे अफ्रीका में भी अपराध माने जाते हों, यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि सभी देशों के अपने-अपने कानून हैं।

प्रश्न 2
अपराधों के कारण सम्बन्धी ‘शास्त्रीय सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
शास्त्रीय सिद्धान्त का विकास 18वीं सदी के अन्त में हुआ। इसके प्रमुख समर्थकों में बैकरिया, बेन्थम और फ्यूअरबेक थे। इस सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले सुखदायी दर्शन (Hedonistic Philosophy) से प्रभावित थे। इस दर्शन की यह मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कार्य को करने से पूर्व उससे मिलने वाले सुख व दुःख का हिसाब लगाता है और वही कार्य करता है जिससे उसको सुख मिलता है। एक अपराधी भी अपराध इसलिए करता है कि उसे अपराध करने पर दु:ख की तुलना में सुख अधिक मिलता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति चोरी करने से पूर्व यह सोचेगा कि चोरी करने पर उसे जो दण्ड मिलेगी, वह चोरी करने पर मिलने वाले सुख की तुलना में निश्चित ही कम होगा, तभी वह चोरी करेगा अन्यथा नहीं। इन विद्वानों का मत है कि अपराध को रोकने के लिए दण्ड इतना दिया जाए कि अपराध से मिलने वाले सुख की तुलना में वह अधिक हो। उनका मत है कि पागल, मूर्ख, बालक एवं वृद्धों को दण्ड नहीं दिया जाना चाहिए।

इस सिद्धान्त को एकांगी होने के कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह सही नहीं है कि हर समय व्यक्ति सुख-दु:ख से प्रेरित होकर ही कोई कार्य करता है। कई बार वह मजबूरी एवं दुःखों से मुक्ति के लिए भी अपराध करता है। अपराध के सामाजिक कारणों की भी इस सिद्धान्त में अवहेलना की गयी है।

प्रश्न 3
अपराधों के कारण सम्बन्धी इटैलियन सम्प्रदाय अथवा प्रारूपवादी सम्प्रदाय सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
या
‘अपराधी जन्मजात होते हैं।’ इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2007, 09]
उत्तर:
इस सम्प्रदाय के जन्मदाता इटली के लॉम्ब्रोसो, उनके समर्थक गैरोफैलों और एनरिकोफेरी थे। इटली के निवासी होने के कारण इस सम्प्रदाय का यह नामकरण किया गया। इस सम्प्रदाय के लोगों ने अपराध के कारणों की व्याख्या अपराधी की शरीर-रचना के आधार पर की है।

लॉम्ब्रोसो इटली की सेना में डॉक्टर थे। अपने सेवाकाल के दौरान उन्होंने देखा कि कुछ सैनिक अनुशासन-प्रिय हैं, तो कुछ उद्दण्ड। अपराधी सैनिकों की शरीर-रचना और सामान्य सैनिकों की शरीर-रचना में उल्लेखनीय अन्तर था। उन्होंने इटली की जेलों का भी अध्ययन किया और पाया कि शरीर-रचना और मानसिक विशेषताओं में घनिष्ठ सम्बन्ध है। उन्होंने उस समय के एक प्रसिद्ध डाकू की खोपड़ी (Skull) और मस्तिष्क (Brain) का अध्ययन किया तो पाया कि उसमें अनेक विचित्रताएँ हैं, जो साधारण मनुष्यों में नहीं होतीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने 383 मृत अपराधियों की खोपड़ियों का भी अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अपराधियों की शारीरिक रचना आदिमानव और पशुओं से बहुत-कुछ मिलती-जुलती है। इसलिए ही उनमें जंगलीपन और पशुता के गुण हैं जो उन्हें अपराध के लिए प्रेरित करते हैं। ये शारीरिक विशेषताएँ वंशानुक्रमण में मिलती। हैं और अपराधियों को विशेष प्रारूप प्रदान करती हैं। इसलिए इस मत को प्रारूपवादी सम्प्रदाय भी कहते हैं। यही कारण है कि अपराधी जन्मजात होते हैं। उन्होंने लगभग 15 शारीरिक अनियमितताओं का उल्लेख किया और बतलाया कि जिसमें भी इनमें से 4 अनियमितताएँ होंगी, वह निश्चित रूप से अपराधी होगा। वे अपराधियों को दण्ड देने के साथ-साथ बाल-अपराधियों के सुधार के पक्ष में भी थे।

इटैलियन सम्प्रदाय की अनेक विद्वानों ने आलोचना की है। उनमें डॉ० गोरिंग और थान सेलिन प्रमुख हैं। गोरिंग ने 12 वर्ष तक तीन हजार अपराधियों का अध्ययन करके बताया कि अपराधी और गैर-अपराधी की शरीर-रचना में कोई अन्तर नहीं होता। यदि अपराधी आदिमानव का प्रारूप है तो क्या सभी आदिमानव अपराधी थे? आज यह भी कोई नहीं मानता कि अपराधी जन्मजात होते हैं और शारीरिक एवं मानसिक लक्षण वंशानुक्रमण में मिलते हैं।

प्रश्न 4
प्राचीर-विहीन जेल पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
डॉ० सम्पूर्णानन्द के प्रयासों के परिणामस्वरूप वर्ष 1952-53 में चन्द्रप्रभा नदी पर अपराधियों को एक शिविर लगाया गया, जिसमें उनके भोजन, वस्त्र, शिक्षा और मनोरंजन की व्यवस्था की गयी। ऐसे शिविरों में अपराधियों को बन्दी बनाकर नहीं रखा जाता है और न ही उनके लिए चौकीदारी की व्यवस्था की जाती है। केरल, राजस्थान, उत्तर: प्रदेश, तमिलनाडु तथा गुजरात में इस प्रकार की जेलों की व्यवस्था की गयी है।

यहाँ जेलों की ऊँची-ऊंची दीवारों के स्थान पर काँटेदार तार लगाये गये। वह भी इसलिए कि अपराधी उस सीमारेखा का अतिक्रमण न करें। अपराधियों के लिए बने ये शिविर दीवारों से रहित थे। अतः इन्हें प्राचीर-विहीन बन्दीगृह कहा गया। बन्दीगृहों में रहने वाले अपराधियों से कार्य कराया जाता था। उसके बदले उन्हें पारिश्रमिक दिया जाता था। बन्दी अपनी आधी आमदनी अपने घर भेज सकते थे और उसका चौथाई अंश अपने पर व्यय कर सकते थे, जब कि चौथाई अंश कोष में जमा कराया जाता था। उनकी सजा की अवधि समाप्त होने पर उनकी बचत उन्हें सौंप दी जाती थी। सम्पूर्णानन्द शिविर बन्दियों में आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान जगाने के माध्यम थे। अपराधी स्वयं सुधरकर, आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होकर समाज में पहुँचता था। छूटने पर उसे व्यवसाय करने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती थी। सरकार भी कैदियों की सुरक्षा, रखवाली तथा भारी रख-रखाव के व्यय से बच जाती थी।

प्रश्न 5
परिवीक्षा (Probation) पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
परिवीक्षा में अपराधी को सजा के बदले सशर्त मुक्त कर दिया जाता है और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह परिवीक्षा की अवधि में अपना आचरण उत्तम रखेगा। इस प्रकार अपराधी को दण्ड के बजाय, दण्ड सुनाने के बाद ही, उसे परिवीक्षा पर छोड़ा जाता है। छूटने से पूर्व परिवीक्षा काल में उत्तम आचरण रखने का प्रमाण-पत्र देना होता है। अपराधी को सरकार की ओर से निर्देशन एवं सहायता प्रदान की जाती है, जिससे वह समाज के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके। परिवीक्षा अधिकारी सरकार की ओर से परिवीक्षा पर छोड़े गये अपराधियों की देख-रेख करता है। वही अपराधी की छानबीन कर प्रतिवेदन प्रस्तुत करता है। उत्तर: प्रदेश में प्रत्येक ऐसे अपराधी को प्रोबेशन पर छोड़ने का प्रावधान है जिसकी आयु 21 वर्ष से कम हो तथा जिसे न्यायालय ने 6 माह की सजा सुनाई हो। परिवीक्षा पर छोड़ने से अनेक लाभ होते हैं; जैसे-

  1. अपराधी की मनोवृत्ति में परिवर्तन होता है और उसे भविष्य में समाज-विरोधी कार्य न करने का प्रोत्साहन मिलता है।
  2. वह जेल के दूषित वातावरण से बच जाता है।
  3. उसमें अनुशासन की भावना उत्पन्न होती है।
  4. जेल में रहने पर उस पर जो खर्च होता है वह परिवीक्षा पर छोड़ने से बच जाता है।

प्रश्न 6
“प्रत्येक मानव व्यवहार सीखा हुआ व्यवहार है-अपराधी व्यवहार भी मानव व्यवहार है, अतः सीखा हुआ व्यवहार है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सदरलैण्ड (Sutherland) का विचार है कि अपराध एक सीखा हुआ व्यवहार है, जो अन्तक्रिया तथा सम्पर्क के द्वारा एक से दूसरे व्यक्ति द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसे कभी भी वंशानुक्रम के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। यद्यपि इस व्यवहार को किसी भी समूह में रहकर सीखा जा सकती है, लेकिन मुख्यतः यदि व्यक्ति के प्राथमिक समूहों का वातावरण अपराधी हो तो व्यक्ति जल्दी ही अपराधी व्यवहार को ग्रहण कर लेता है। कोई व्यक्ति कितनी परिस्थिति से तथा किस सीमा तक अपराधी व्यवहार को सीखेगा यह प्राथमिक समूहों की चार परिस्थितियों पर निर्भर करता है, अर्थात्

  1. प्राथमिकता,
  2. पुनरावृत्ति,
  3. अवधि तथा
  4. तीव्रता।

इसका तात्पर्य है कि एक व्यक्ति कितनी कम आयु में अपराधी समूहों के सम्पर्क में आया (प्राथमिक), कितनी बार उसे ऐसे सम्पर्क का अवसर मिला (पुनरावृत्ति), कितने अधिक समय तक यह अपराधियों के सम्पर्क में रहा (अवधि) तथा यह सम्पर्क कितनी घनिष्ठता का रहा (तीव्रता) आदि कारक ही इस बात का निर्धारण करते हैं कि अपराधी व्यवहारों की सीख कितनी प्रभावपूर्ण होगी। सदरलैण्ड का कथन है कि अपराधी व्यवहारों की सीख एक व्यक्ति को केवल अपराध के तरीकों का ही प्रशिक्षण नहीं देती बल्कि उसकी मनोवृत्तियों तथा प्रेरणाओं को भी बदल देती है। व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ जब इस तरह बदल जाती हैं कि वह नियमों के पालन की अपेक्षा नियमों के उल्लंघन को अपने व्यक्तित्व को अंग बना लेता है तो स्वाभाविक रूप में वह अपराध की ओर बढ़ने लगता है। सीख की यह मात्रा सभी अपराधियों में भिन्न-भिन्न होती है। यही कारण है कि सभी अपराधियों की विशेषताएँ भी एक-दूसरे से कुछ भिन्न होती हैं। इसी आधार पर सदरलैण्ड ने अपने सिद्धान्त को विभिन्नतायुक्त संगति सिद्धान्त’ (Theory of Differential Association) का नाम दिया है। इस सिद्धान्त द्वारा प्रस्तुत मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं-

  1. अपराधी व्यवहार एक सीखा हुआ व्यवहार है;
  2. अपराधी व्यवहार की सीख अन्तक्रिया और संचार के माध्यम से प्रभावपूर्ण बनती है;
  3. अपराधी व्यवहार का एक बड़ा भाग प्राथमिक समूहों में सीखा जाता है;
  4. अपराधी व्यवहार की सीमा अथवा दर सीखने की प्रक्रिया की प्राथमिकता, पुनरावृत्ति, अवधि तथा तीव्रता के अनुसार घटती-बढ़ती है तथा
  5. अपराधी व्यवहार भी अन्य प्रक्रियाओं के समान एक सामाजिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 7
“हमें अपराधी से नहीं अपराध से घृणा करनी चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में मृत्युदण्ड अपराध निरोध का निकृष्टतम साधन है।” स्पष्ट कीजिए।
या
‘अपराधी जन्मजात नहीं होते वरन बनाये जाते हैं। व्याख्या कीजिए [2007, 11]
या
यह कथन किसका है कि अपराधी बनाये जाते हैं? [2009, 10, 12, 15]
उत्तर:
समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार अपराधी जन्मजात नहीं होते, बल्कि समाज द्वारा बनाये जाते हैं। सदरलैण्ड के अनुसार, दूसरे व्यवहारों के समान अपराध भी एक सीखा हुआ व्यवहार है, जो पारस्परिक सम्पर्क तथा अन्तक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। कोई व्यक्ति कितनी शीघ्रता से तथा किस मात्रा में अपराध सीखेगा, यह उसकी आयु, पुनरावृत्ति, अवधि तथा तीव्रता पर निर्भर करता है। यही कारण है कि कुछ अपराधी सामान्य श्रेणी के होते हैं, जब कि कुछ बहुत गम्भीर प्रकार के अपराधी बन जाते हैं।

कुछ समाजशास्त्रियों का मत है कि अपराध को सम्बन्ध बुरी संगति अथवा दोषपूर्ण सामाजिक पर्यावरण से है। इस दृष्टिकोण से अपराध के लिए व्यक्ति की अपेक्षा समाज अधिक उत्तर:दायी है। वास्तव में अनेक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मानसिक और शैक्षणिक दशाएँ संयुक्त रूप से अपराधी व्यवहार को प्रोत्साहन देती हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि अपराधी जन्मजात नहीं होते हैं, बल्कि व्यक्ति जब एक से अधिक कारकों द्वारा प्रभावित होता है, केवल उसी समय उसमें अपराधी प्रवृत्ति जाग्रत होती है।

अपराध के लिए दण्ड-विधान का औचित्य समझने के लिए अपराध के कारणों को समझने की आवश्यकता है। अपराध के लिए अपराधी की जगह व्यक्ति के दोषपूर्ण वंशानुक्रम, मानसिक अस्वस्थता एवं बीमारी, मानसिक अस्थिरता और संघर्ष, औद्योगीकरण और नगरीकरण, व्यापारिक उतार-चढ़ाव, निर्धनता तथा बेरोजगारी, सामाजिक कुरीतियाँ, टूटे परिवार, अशिक्षा आदि को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में किसी भी अपराधी को दण्ड देने की बजाय, सामाजिक दशाओं को बदलने के लिए गम्भीर प्रयास किये जाने चाहिए। हमें अपराधी से नहीं बल्कि उन सामाजिक परिस्थितियों से घृणा करनी चाहिए जो अपराधी को जन्म देती हैं।

अतः मृत्युदण्ड को अपराध रोकने का निकृष्टतम साधन कहना सर्वथा उचित ही है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
अपराधी कितने प्रकार के होते हैं ? [2007]
उत्तर:
विभिन्न विद्वानों ने अपराध तथा अपराधियों का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया है। सामान्यतया अपराधी निम्न प्रकार के होते हैं|

  1. जन्मजात अपराधी
  2. अपस्मारी अपराधी-ये अपराधी मानसिक विकारों के कारण उचित और अनुचित में भेद नहीं कर पाते।
  3. आकस्मिक अपराधी-ये अपराधी विशेष परिस्थितियों में ही अपराध करते हैं।
  4. आवेगयुक्त अपराधी-वे अपराधी, जो बहुत शीघ्र आवेग-पूर्ण स्थिति में आकर अपराध करते हैं।
  5. व्यावसायिक अपराधी-ये अपराधी अपराध को अपनी आजीविका का साध्य मानते हैं।
  6. श्वेतवसन अपराधी–ये अपराधी समाज में उच्च वर्ग के सदस्य होते हैं तथा महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों अथवा व्यापार में लगे होते हैं।

प्रश्न 2
अपराध के चार प्रमुख कारण लिखिए।
उत्तर:
अपराध के चार प्रमुख कारण लिखिए।

  1. तलाक, मृत्यु, कलह आदि पारिवारिक दशाएँ।
  2. निर्धनता, बेरोजगारी एवं अशिक्षा जैसे आर्थिक कारक।
  3. औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की प्रक्रियाएँ।
  4. विधवा पुनर्विवाह निषेध, वेश्यावृत्ति, देवदासी प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियाँ।

प्रश्न 3
क्या मद्यपान भी अपराधों का कारण है ?
उत्तर:
मद्यपान (शराबखोरी) ने भी अपराधों को बढ़ावा दिया है। कई लोग सामान्य स्थिति में अपराध नहीं कर पाते, वे शराब पीकर अपराध करते हैं। यौन अपराध, लड़ाई-झगड़े, हत्या, घातक आक्रमण, जुआ, भ्रष्टाचार एवं वाहन द्वारा दुर्घटना आदि अपराध कई बार शराब पीकर ही

किये जाते हैं। शराब पीने पर व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और उसमें उत्तेजना पैदा हो जाती है। परिणामस्वरूप वह अपराध कर बैठता है। शराबी व्यक्ति का अक्सर नैतिक पतन हो जाता है, वह उचित-अनुचित में भेद नहीं कर पाता और अपराध करने लगता है। ब्रुसेल्स ने अपने अध्ययन में यह पाया कि 70 प्रतिशत अपराधी शराब पीते थे। स्पष्ट है कि मद्यपान भी अपराध का एक प्रमुख कारण है।

प्रश्न 4
नगरीकरण कैसे अपराधों का एक कारक है ?
उत्तर:
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण परस्पर सम्बन्धित प्रक्रियाएँ हैं। इसलिए जो परिस्थितियाँ औद्योगीकरण के कारण अपराध के लिए उत्तर:दायी हैं, लगभग वे ही परिस्थितियाँ नगरों में मौजूद हैं। नगरों में संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है, वहाँ पर आवास-सुविधाओं का अभाव है, नवीनता का आकर्षण एवं फैशन नगरीय जीवन की विशेषताएँ हैं। व्यापारिक मनोरंजन, स्त्री-पुरुषों के अनुपात में अन्तर, स्त्रियों को मिलने वाली स्वतन्त्रता, नैतिकता के बदलते प्रतिमान, जाति एवं संयुक्त परिवार के नियन्त्रण का अभाव आदि कारक नगरीय जीवन में अपराध को जन्म देने में सहायक हो रहे हैं।

प्रश्न 5
औद्योगीकरण कैसे अपराधों का एक कारक है ?
उत्तर:
औद्योगीकरण ने हमारे सामाजिक जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन किये हैं। इसके कारण बड़े-बड़े नगरों का जन्म हुआ, लोगों में गतिशीलता बढ़ी, जाति का नियन्त्रण शिथिल हुआ, संयुक्त परिवार टूटे तथा सामुदायिक जीवन का ह्रास हुआ। मिल-मालिकों एवं मजदूरों के बीच संघर्ष बढ़ा, आए दिन हड़ताल, तोड़-फोड़, घेराव, तालाबन्दी और आगजनी जैसे सामूहिक अपराध होने लगे। औद्योगिक केन्द्रों में वेश्यावृत्ति, जुआखोरी एवं शराबी-वृत्ति में भी वृद्धि हुई।

प्रश्न 6
‘आयु भी अपराधों का एक प्रभावी कारक है, व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अपराध एवं आयु में भी सह-सम्बन्ध पाया जाता है। सामान्यतः 20 से 24 वर्ष की आयु में ही अपराध अधिक किये जाते हैं, बचपन एवं वृद्धावस्था में कम। इंग्लैण्ड में पुरुषों द्वारा सर्वाधिक अपराध 12 से 15 वर्ष की आयु में तथा स्त्रियों द्वारा 15 से 17 वर्ष की आयु में किये गये। इसकी तुलना में अमेरिका में 18 से 44 वर्ष की आयु में अपराध अधिक हुए हैं। अपराध की प्रकृति के साथ-साथ अपराधियों की आयु में भी अन्तर पाया जाता है। हत्या एवं डकैती युवा लोगों द्वारा अधिक की जाती है, बच्चों द्वारा छोटे-छोटे झगड़े एवं चोरियाँ तथा वृद्धों द्वारा यौनसम्बन्धी अपराध अधिक किये जाते हैं। आयु का सम्बन्ध शारीरिक विकास से है। पूर्ण विकसित व्यक्ति ऐसे अपराध अधिक करता है जिनमें शारीरिक शक्ति की अधिक आवश्यकता होती है।

प्रश्न 7
अपराध के कारणों से सम्बन्धित आर्थिक सिद्धान्त के बारे में बताइए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स, एंजिल्स, विलियम बोंजर आदि का मत है कि अपराध आर्थिक कारणों से ही होते हैं। जब समाज में आर्थिक विषमता बढ़ती है, लोगों की भोजन, वस्त्र और निवास सम्बन्धी आवश्यक आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं होतीं, तो मजबूरन उन्हें अपराध का सहारा लेना पड़ता है। किन्तु यह मत एकपक्षीय है, क्योंकि आर्थिक कारणों के अलावा कई अन्य कारण भी अपराध के लिए उत्तर:दायी होते हैं।

प्रश्न 8
पैरोल (Parole) पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पैरोल पर उन अपराधियों को छोड़ा जाता है जिन्हें लम्बी अवधि की सजा मिली हो और उसका कुछ भाग वे काट चुके हों। सजा काटने के दौरान यदि अपराधी का आचरण अच्छा रहता है तो जेल अधिकारी की सिफारिश पर उसे शेष सजा से मुक्ति मिल जाती है। पैरोल का उद्देश्य भी अपराधी का सुधार करना है। पैरोल पर छूटने वाले से अपेक्षा की जाती है कि वह कुछ शर्तों का पालन करेगा। ऐसा न करने पर उसे पुनः दण्ड भुगतने को कहा जाता है। पैरोल पर छूटे अपराधी की देखभाल के लिए पैरोल अधिकारी होता है। पैरोल से भी कई लाभ हैं; जैसे–

  1. राज्य के खर्चे में कमी आती है। तथा अच्छे आचरण को बढ़ावा मिलता है,
  2. जेल के दूषित वातावरण से अपराधी को शीघ्र मुक्ति मिल जाती है और
  3. उसे समाज से अनुकूलन करने का एक अवसर मिल जाता है।

प्रश्न 9
अपराध किसे कहते हैं? [2014]
उत्तर:

अपराध का अर्थ एवं परिभाषा

समाज की व्यवस्था बनाये रखने के लिए नियमों, कानूनों, प्रथाओं और परम्पराओं के अनुपालन पर बल दिया गया है। कुछ समाज-विरोधी ऐसे भी व्यक्ति होते हैं, जो नियमों और कानूनों का उल्लंघन करते हैं। उनके द्वारा किए गये राज्य–विरोधी या कानून-विरोधी कार्य ही अपराध कहलाते हैं।

अपराध एक ऐसा कार्य है, जो लोक-कल्याण के लिए अहितकर समझा जाता है तथा जिसे राज्य के द्वारा पारित कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया जाता है। इसके उल्लंघनकर्ता को दण्ड दिया जाता है। अपराध को लैण्डिस तथा लैण्डिस ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है
लैण्डिस तथा लैण्डिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने समूह-कल्याण के लिए हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिए राज्य पर दण्ड देने की शक्ति है।”

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
इलियट और मैरिल के अनुसार अपराध की क्या परिभाषा है?
उत्तर:
इलियट और मैरिल के अनुसार, “समाज-विरोधी व्यवहार जो कि समूह द्वारा अस्वीकार किया जाता है, जिसके लिए समूह दण्ड निर्धारित करता है, अपराध के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

प्रश्न 2
डॉ० हैकरवाल ने अपराध की क्या परिभाषा दी है ?
उत्तर:
डॉ० हैकरवाल ने अपराध के सामाजिक पक्ष को प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि, सामाजिक दृष्टिकोण से अपराध व्यक्ति का एक ऐसा व्यवहार है जो कि उन मानव सम्बन्धों की व्यवस्था में बाधा डालता है, जिन्हें समाज अपने अस्तित्व के लिए प्राथमिक दशा के रूप में स्वीकार करता है।”

प्रश्न 3
‘अपराधी जन्मजात होते हैं। यह कथन किसका है ? [2007, 08, 09, 11, 12, 13, 14, 15]
उत्तर:
यह कथन लॉम्ब्रोसो का है।

प्रश्न 4
“समाज की असन्तुलित आर्थिक व्यवस्था ही अपराध का प्रमुख कारण है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन प्रसिद्ध विद्वान् लॉम्ब्रोसो का है।

प्रश्न 5
“अपराध का प्रमुख सम्बन्ध जलवायु से है। जलवायु तथा मौसम में परिवर्तन होने के साथ ही अपराधी में भी परिवर्तन देखने को मिलता है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन प्रसिद्ध विद्वान् क्वेटलेट का है।

प्रश्न 6
यह कथन किसका है-‘अपराधी बनाये जाते हैं ? [2009, 10, 15, 16]
या
“अपराधी समाज द्वारा बनाए जाते हैं?” किसका कथन है? [2016, 17]
उत्तर:
सदरलैण्ड का।

प्रश्न 7
“करुणा और ईमानदारी की प्रचलित भावनाओं का उल्लंघन ही अपराध है।” यह किसका कथन है ?
उत्तर:
यह कथन गैरोफैलो का है।

प्रश्न 8
‘अपराध सीखा हुआ व्यवहार है।’ यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन ‘सदरलैण्ड’ का है।

प्रश्न 9
अपराध सम्बन्धी कैलेण्डर किसने बनाया ?
उत्तर:
अपराध सम्बन्धी कैलेण्डर लैकेसन ने बनाया।

प्रश्न 10
अपराधों के कारणों से सम्बन्धित समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक कौन हैं?
उत्तर:
अपराधों के कारणों से सम्बन्धित समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक सदरलैण्ड

प्रश्न 11
अपराध के लिए जैविकीय कारकों को उत्तर:दायी ठहराने वाले समाजशास्त्री कौन हैं?
उत्तर:
अपराध के लिए जैविकीय कारकों को उत्तर:दायी ठहराने वाले समाजशास्त्री लॉम्ब्रोसो

प्रश्न 12
‘आर्थिक निर्धारणवाद’ अवधारणा से कौन समाजशास्त्री सम्बन्धित है ?
उत्तर:
आर्थिक निर्धारणवाद’ अवधारणा से सदरलैण्ड सम्बन्धित हैं।

प्रश्न 13
‘प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
उत्तर: ‘
प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी’ नामक पुस्तक के लेखक सदरलैण्ड हैं।

प्रश्न 14
लॉम्ब्रोसो ने अपराधियों को कितने भागों में बाँटा ?
उत्तर:
लॉम्ब्रोसो ने अपराधियों को निम्नलिखित चार भागों में बाँटा है-

  1. जन्मजाते,
  2. अपस्मारी,
  3. आकस्मिक तथा
  4. आवेगयुक्त अपराधी।

प्रश्न 15
किसी भी समाज का अपराध से पूर्णतया रहित हो पाना सम्भव है। (सत्य/असत्य) [2017]
उत्तर:
असत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
‘अपराधिक कैलेण्डर’ के प्रतिपादक कौन थे ?
(क) समनर
(ख) जिंन्सबर्ग।
(ग) कार्ल मार्क्स
(घ) हंटिंग्टन और क्वेटलेट
उत्तर:
(घ) हंटिंग्टन और क्वेटलेट

प्रश्न 2.
कौन-सा सिद्धान्त अपराध की व्याख्या सुख-दुःख की धारणा के आधार पर करता है ?
(क) बहुकारकीय
(ख) जैविकीय
(ग) शास्त्रीय
(घ) आर्थिक
उत्तर:
(ग) शास्त्रीय

प्रश्न 3.
श्वेतवसन अपराध अवधारणा से कौन समाजशास्त्री जुड़ा है ? [2008, 10]
(क) सदरलैण्ड
(ख) लॉम्ब्रोसो
(ग) कार्ल मार्क्स
(घ) एंजिल्स
उत्तर:
(क) सदरलैण्ड

प्रश्न 4.
अपराध के शास्त्रीय सिद्धान्त से सम्बन्धित हैं [2011, 17]
या
अपराध के शास्त्रीय सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं? [2015, 16]
(क) बेन्थम
(ख) मॉण्टेस्क्यू
(ग) बकल
(घ) कार्ल मार्क्स
उत्तर:
(क) बेन्थम

प्रश्न 5.
अच्छे आचरण के कारण बन्दीगृह से अस्थायी मुक्ति को कहते हैं
(क) प्रोबेशन
(ख) पैरोल
(ग) मुक्ति सहायता
(घ) आचरण मुक्ति
उत्तर:
(ख) पैरोल

प्रश्न 6.
सदरलैण्ड किस पुस्तक के लेखक थे ?
(क) सोशल डिसऑर्गेनाइजेशन
(ख) सोशल चेंज
(ग) प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी
(घ) सोसायटी
उत्तर:
(ग) प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी।

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