UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 5 Legislature

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 5 Legislature (विधायिका)

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पाठ्य पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे। अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रिगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर-
आधुनिक व कल्याणकारी राज्यों में विधायिका के गठन के बिना जनता द्वारा प्रधानमंत्री व मंत्रिमण्डल का चुनाव असम्भव है। जहाँ अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है वहाँ भी राज्यों के आकार बड़े होने के कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा है कि मंत्रियों और राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाए। प्राचीनकाल में राजतन्त्र में भी राजा को विभिन्न विषयों पर परामर्श प्रदान करने के लिए ‘सभा’ या ‘समिति’ होती थी। अतः यह आवश्यक है कि राज्य में एक सभा हो जिसमें विभिन्न विषयों पर चर्चा हो, बहस हो व मतदान हो और निर्णय लिए जा सकें। इस सभा को ही सरकार के गठन का अधिकार सौंपा जाए, जिससे सँरकार, इस सभा के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी हो। संसदीय प्रणाली में तो यह अत्यन्त आवश्यक है। संसद विभिन्न तरीकों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण करती है।

लोककल्याण के उद्देश्य को प्राप्त करने में संसद बाधा नहीं है। लोककल्याणकारी लोकतन्त्रात्मक सरकार एक ऐसी सरकार है जिसमें चर्चा, वाद-विवाद, विचार-विमर्श अत्यन्त आवश्यक हैं जो केवल संसद में ही सम्भव है। संसद में ही कानून बनाने के लिए चर्चा होती है, उसके सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है, बजट पास किया जाता है, मंत्रियों और सरकार के सदस्यों से प्रश्न पूछे जाते हैं और आलोचना की जाती है, संविधान में संशोधन किए जाते हैं। स्पष्ट है कि देश के लिए कारगर सरकार की जरूरत संसद ही पूरा कर सकती है।

प्रश्न 2.
किसी कक्षा में द्वि-सदनीय प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आईं। इन तर्को को पढ़िए और इनसे अपनी सहमति-असहमति के कारण बताइए-
(क) नेहा ने कहा कि द्वि-सदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
(ख) शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
(ग) त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
उत्तर-
नेहा द्वारा कहे गए कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता। जहाँ द्वि-सदनीय प्रणाली है वहाँ दूसरा सदन कमजोर नहीं होता। कहीं उसकी शक्तियाँ कम हो सकती हैं पर वह निरर्थक नहीं हो सकता। भारत की राज्यसभा कुछ क्षेत्रों में विशेष शक्तियाँ रखती है। ब्रिटेन को लॉर्ड सदने गरिमा व परम्परा का प्रतीक है। अमेरिका के सीनेट अनेक क्षेत्रों में निचले सदन अर्थात् प्रतिनिधि सदन में भी अधिक शक्तिशाली है।
सामान्य रूप से उच्च सदन के निम्नलिखित लाभ हैं-

  1. उच्च सदन निम्न सदन की मनमानी पर नियन्त्रण रखता है।
  2. निम्न सदन द्वारा पारित बिलों को उच्च सदन पुनः विचार-विमर्श का अवसर प्रदान करता है।
  3. जनमत-निर्माण में सहायक होता है।
  4. संघीय प्रणाली में द्वितीय सदन आवश्यक है।
  5. विशिष्ट वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है।

शमा का यह तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए, उचित है। अधिकांश देशों में उच्च सदन में योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। ब्रिटेन के लॉर्ड सदन में विशिष्ट वर्ग व पृष्ठभूमि के सदस्यों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है। इसी प्रकार भारत व अमेरिका में भी अनुभवी, योग्य और विशेष योग्यता वाले सदस्यों को इन सदनों में प्रतिनिधित्व दिया जाता है। त्रिदेव का यह तर्क भी सही है कि जिन राज्यों में संघीय प्रणाली नहीं है वहाँ दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती, परन्तु यदि दूसरा सदन होता तो उसकी कुछ उपयोगिता अवश्य होती।

प्रश्न 3.
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियन्त्रण में रख सकती है?
उत्तर-
भारत में कार्यपालिका अपने कार्यों तथा शासन के प्रयोग के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी है, परन्तु यह उत्तरदायित्व वास्तव में लोकसभा के प्रति है जो उस पर राज्यसभा के मुकाबले अधिक प्रभावकारी नियन्त्रण रखती है। इसके कारण निम्नलिखित हैं-
1. प्रधानमंत्री और अधिकतर मंत्री लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल से लिए जाते हैं, राज्यसभा में बहुमत प्राप्त दल से नहीं और वे लोकसभा के प्रति ही वास्तविक रूप से उत्तरदायी होते हैं।
2. धन विधेयक तथा बजट को पारित करने की शक्ति लोकसभा को प्राप्त है। लोकसभा का धन पर नियन्त्रण होने से कार्यपालिका पर भी नियन्त्रण स्थापित हो जाता है।
3. धन विधेयक और बजट; मंत्री ही प्रस्तुत करते हैं और यदि लोकसभा उसे रद्द कर दे या उसमें कमी कर दे तो मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देना पड़ता है।
4. मंत्रिमण्डल उस समय तक ही अपने पद पर रहता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त है। केवल लोकसभा मंत्रिमण्डल को अविश्वास प्रस्ताव पास करके अपदस्थ कर सकती है, राज्यसभा नहीं।

प्रश्न 4.
लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियन्त्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
उत्तर-
लोकसभा जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है, यह कथन उचित है। लोकसभा 543 प्रतिनिधियों को सदन है, ये सदस्य 100 करोड़ से अधिक भारतीय जनता की इच्छाओं, हितों, भावनाओं व अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु इस कार्य को करने के लिए लोकसभा के सदस्यों का सरकार पर नियन्त्रण करना भी अत्यन्त आवश्यक है। सरकार की मनमानी पर नियन्त्रण रखना, जनता के हितों, इच्छाओं व आवश्यकताओं को सरकार तक पहुँचाना भी लोककल्याण की दृष्टि से आवश्यक है। अन्ततः संसद का कार्य जनता के हितों की रक्षा करना ही है।

प्रश्न 5.
नीचे संसद को ज्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दण्डित कर सकें।
उत्तर-
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए-हम इससे पूर्ण सहमत हैं। जब भी सदन की बैठक 4 घण्टे से कम चले तो सदस्यों को उस दिन का भत्ता न दिया जाए। सांसद को बिना काम-काज के भत्ता दिया जाना उचित नहीं है, यह आम-आदमी की जेब पर डाका है। यदि संसद अपेक्षाकृत अधिक समय तक काम करेगी तो देश के विकास कार्य नियत समय पर पूर्ण हो सकेंगे।

(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए-हम इससे पूर्ण सहमत हैं। अधिकांश सांसद सदन से अनुपस्थित रहते हैं जिससे सदन में महत्त्वपूर्ण विषयों पर आवश्यक विचार-विमर्श नहीं हो पाता। इसलिए ऐसा नियम बनाया जाए कि संसद के सदस्य सदन में अनिवार्य रूप से उपस्थित हों।

(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दण्डित कर सके-हमें इससे पूर्ण सहमत हैं। ऐसा होने पर सदन में जो सदस्य उद्दण्डता का व्यवहार करते हैं उन पर अंकुश लगेगा और सदन की कार्यवाही निर्बाध रूप से चलती रहेगी।

प्रश्न 6.
आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्त्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अकसर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे?
उत्तर-
आरिफ का मानना सही है कि संसदीय प्रणाली में अधिकांश बिल सरकारी बिल होते हैं, जिन्हें मंत्री ही तैयार करते हैं व मंत्री ही उसे प्रस्तुत करते हैं। इस स्थिति में व्यावहारिक रूप से यह स्थिति दिखाई देती है कि संसद तो केवल उस बिल पर स्टैम्प लगाने वाली संस्था बन गई है जिन्हें मंत्री प्रस्तुत करते हैं। आरिफ के इस विचार में कुछ सच्चाई अवश्य है परन्तु इसका एक पक्ष यह भी है कि सरकार बनने के बाद सदन कार्यपालिका व विधायिका में बँट जाता है।

विधायिका के सदस्यों का यह दायित्व होता है कि वे सदन में जनहित का दृष्टिगत रखकर सरकार के निर्णयों का समर्थन करें अथवा विरोध करें, भले ही वे किसी भी दल के हों। कार्यपालिका पूरे सदन के लिए जिम्मेदार होती है। सत्ता दल के सदस्य या विरोधी दल के सदस्य सभी विधानपालिका के सदस्य होते हैं। कार्यपालिका में मंत्री व प्रधानमंत्री सम्मिलित होते हैं; अत: संसद केवल एक रबड़ स्टैम्प ही नहीं है। शासक दल के सदस्य सरकार की प्रत्येक सही व गलत बात का समर्थन करेंगे ऐसा नहीं है, क्योंकि उनकी भी संसद सदस्यों के रूप में अपनी विशिष्ट भूमिका है।

प्रश्न 7.
आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण
(क) सांसद/विधायकों को अपनी पसन्द की पार्टी में शामिल होने की छुट होनी चाहिए।
(ख) दल-बदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी क सांसद/विधायकों पर बढ़ा है।
(ग) दल-बदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री-पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
उत्तर-
हम कथन (ग) से पूर्ण सहमत हैं। दल-बदल अधिकांशतः सभी राजनीतिक दलों द्वारा किया गया स्वार्थाधारित कार्य है। ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जहाँ सिद्धान्तों के मतभेद के कारण दल-बदल हुआ हो। भारत में दल-बदल को नियन्त्रित करने के लिए कई प्रयास किए गए। दल-बदल निरोधक कानून’ इस दिशा में एक प्रभावकारी कदम था परन्तु इससे भी दल-बदल घाटा नहीं बल्कि इससे और अधिक बढ़ा। अतः यह सुझाव उचित है कि दल-बदल को रोकने के लिए कोई कठोर दण्ड अवश्य निर्धारित किया जाना चाहिए। दण्ड का यह सुझाव भी उचित है कि जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।

प्रश्न 8.
डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही है कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी हैं, धराशायी हुई है। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन-सा तर्क देंगे?
उत्तर-
डॉली का तर्क उचित है कि सदन का बहुमूल्य समय व्यर्थ की बहस व गतिविधियों में नष्ट हो जाता है तथा उपयोगी कार्य कम हो पाते हैं। संसद के वातावरण व कार्यविधि में गिरावट आई है जिससे संसद की गरिमा को भी धक्का लगा है। आए दिन संसद में गैर-संसदीय भाषा का प्रयोग होता रहता है। और शोर-शराबे में किसी की नहीं सुनी जाती। सदन के अध्यक्ष प्रायः असहाय से दिखाई देते हैं। बहुत छोटी-छोटी बातों पर सदन का बहिष्कार किया जाता है। सदन का माहौल गर्म हो जाता है। कई बार आपस में गुत्थम-गुत्था भी हो जाती है। इस सब के होते संसद के प्रभाव व गरिमा में गिरावट आई है। यह एक गम्भीर विषय है।

सुधा का कथन भी सही है कि बार-बार सरकारें गिरती रहती हैं अर्थात् जिस सरकार का संसद में बहुमत समाप्त हो जाता है वह सरकार गिर जाती है परन्तु यह संसदीय लोकतन्त्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। यह भी संसद की गिरती गरिमा का परिचायक है।

प्रश्न 9.
किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है- बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करता/करती है, तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिसे सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है। और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि मन्त्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
उत्तर-
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा ” के लिए सदन में भेज देती है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, अगर राष्ट्रपति इस पर हस्ताक्षर कर देता है। तो यह कानून बन जाता है। राष्ट्रपति इस प्रकार के बिल को पुनः विचार-विमर्श के लिए भेज सकता है, परन्तु पुनः विचार-विमर्श के बाद राष्ट्रपति को बिल पर स्वीकृति देनी पड़ती है।

प्रश्न 10.
संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-
कानून-निर्माण संसद का काम है और प्रत्येक सदन अपनी समितियों की सहायता से उसे निभाता है। प्रायः बिलों को विस्तृत विचार के लिए किसी समिति को सौंपा जाता है और सदन उस समिति की सिफारिशों के आधार पर उस पर विचार करके उसे पास या अस्वीकृत करता है। अधिकतर मामलों में सदन समिति की सिफारिशों के आधार पर ही उसका निर्णय करता है और इसी आधार पर लोगों का मत है कि इससे संसद की कानून बनाने की शक्ति कुप्रभावित हुई है।

परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। संसद के पास इतना समय नहीं होता कि वह प्रत्येक बिल पर, उसकी प्रत्येक धारा पर विचार कर सके और उस पर प्रत्येक दृष्टिकोण से विश्लेषण कर सके। अत: बिल की विस्तृत समीक्षा समिति अवस्था में ही हो जाती है जो सदन को उस पर विस्तार से विचार करने और निर्णय करने में सहायक होती है। यह आवश्यक नहीं है कि संसद प्रत्येक बिल पर समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करे। सदन में समिति की रिपोर्ट पर विचार करते समय यदि सदन अनुभव करे कि बिल पर भली-भाँति विचार नहीं हुआ है या उस पर पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट दी गई है तो वह उसे उसी समिति या किसी नई समिति को भेज सकता है, समिति की रिपोर्ट को स्वीकार न करके अपना स्वतन्त्र निर्णय भी ले सकता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संसद में कितने सदन हैं?
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) एक
उत्तर :
(क) दो।

प्रश्न 2.
लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए न्यूनतम आयु होनी चाहिए?
(क) 21 वर्ष
(ख) 25 वर्ष
(ग) 28 वर्ष
(घ) 30 वर्ष
उत्तर :
(ख)25 वर्ष

प्रश्न 3.
किसके परामर्श पर राष्ट्रपति लोकसभा को भंग कर सकता है।
(क) मुख्यमंत्री
(ख) राज्यपाल
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) लोकसभा अध्यक्ष
उत्तर :
(ग) प्रधानमंत्री।

प्रश्न 4.
लोकसभा और राज्यसभा के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमंत्री
(ग) उपराष्ट्रपति
(घ) लोकसभा का अध्यक्ष
उत्तर :
(घ) लोकसभा का अध्यक्ष।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस पर राज्यसभा और लोकसभा को समान अधिकार प्राप्त हैं?
(क) वित्त विधेयक पारित करना
(ख) राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाना
(ग) अध्यादेश जारी करना
(घ) राष्ट्रपति के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पारित करना
उत्तर :
(ख) राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाना।

प्रश्न 6.
विधायिका का कार्य नहीं है –
(क) कानून बनाना
(ख) बजट पास करना
(ग) कार्यपालिका पर नियन्त्रण रेखना
(घ) बजट बनाना
उत्तर :
(घ) बजट बनाना।

प्रश्न 7.
विधायिका की शक्ति में ह्रास का कौन-सा तत्त्व नहीं है?
(क) प्रदत्त विधायी शक्तियाँ
(ख) नौकरशाही का प्रभुत्व
(ग) दलीय अनुशासन
(घ) जागरूक जनमत
उत्तर :
(घ) जागरूक जनमत।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित राज्यों में से किसमें द्वि-सदनात्मक व्यवस्था है?
(क) मध्य प्रदेश
(ख) आन्ध्र प्रदेश
(ग) छत्तीसगढ़
(घ) उत्तर प्रदेश
उत्तर :
(घ) उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 9.
भारत की राष्ट्रीय विधायिका का नाम है –
(क) राज्यसभा
(ख) लोकसभा
(ग) संसद
(घ) विधानसभा
उत्तर :
(ग) संसद

प्रश्न 10.
राज्यसभा में केवल एक सीट किस राज्य को दी गई है?
(क) मध्य प्रदेश
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) सिक्किम
(घ) झारखण्ड
उत्तर :
(ग) सिक्किम।

प्रश्न 11.
राज्यसभा में किस राज्य की सर्वाधिक सीटें हैं?
(क) उत्तर प्रदेश
(ख) आन्ध्र प्रदेश
(ग) महाराष्ट्र
(घ) गोवा
उत्तर :
(क) उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 12.
राज्यसभा के सदस्यों को कितने वर्ष के लिए निर्वाचित किया जाता है?
(क) 6 वर्ष
(ख) 7 वर्ष
(ग) 5 वर्ष
(घ) 4 वर्ष
उत्तर :
(क) 6 वर्ष

प्रश्न 13.
भारतीय संसद में कितनी स्थायी समितियाँ हैं?
(क) 25
(ख) 20
(ग) 21
(घ) 24
उत्तर :
(क) 25

प्रश्न 14.
जर्मनी के बुन्देसरैट में कितने संघीय राज्यों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है?
(क) 16
(ख) 17
(ग) 18
(घ) 20
उत्तर :
(क) 16

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संसद के सदनों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारतीय संसद में दो सदन हैं –

  1. उच्च सदन – राज्यसभा तथा
  2. निम्न सदन – लोकसभा।

प्रश्न 2.
राज्यसभा का अध्यक्ष अथवा सभापति कौन होता है?
उत्तर :
राज्यसभा का अध्यक्ष अथवा सभापति भारत का उपराष्ट्रपति होता है। उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करती है।

प्रश्न 3.
राज्यसभा में कितने सदस्य किसके द्वारा मनोनीत हो सकते हैं?
उत्तर :
राज्यसभा में 12 सदस्य, राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं।

प्रश्न 4.
राज्यसभा का कार्यकाल कितने वर्ष का होता है?
उत्तर :
राज्यसभा एक स्थायी संगठन है। इसके सदस्यों की पदावधि 6 वर्ष है और इसके एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष पश्चात् पदमुक्त होते रहते हैं।

प्रश्न 5.
राज्यसभा में अधिक-से-अधिक कितने सदस्य हो सकते हैं?
उत्तर :
राज्यसभा में अधिक-से-अधिक 250 सदस्य हो सकते हैं।

प्रश्न 6.
राज्यसभा में वर्तमान में कितने सदस्य हैं?
उत्तर :
राज्यसभा में वर्तमान में 245 सदस्य हैं।

प्रश्न 7.
लोकसभा का कार्यकाल कितना है?
उत्तर :
सामान्यतया लोकसभा का कार्यकाले 5 वर्ष होता है। संकटकाल में इस अवधि को संसद एक वर्ष के लिए बढ़ा भी संकती है तथा प्रधानमंत्री के परामर्श पर राष्ट्रपति इसे निर्धारित अवधि से पूर्व भंग भी कर सकता है।

प्रश्न 8.
लोकसभा में अधिक-से-अधिक कितने सदस्य हो सकते हैं?
उत्तर :
लोकसभा में अधिक-से-अधिक (550 + 2 मनोनीत एंग्लो इण्डियन =) 552 सदस्य हो सकते हैं।

प्रश्न 9.
लोकसभा में कितने सदस्य नामित (मनोनीत) किए जा सकते हैं?
उत्तर :
लोकसभा में दो एंग्लो-इण्डियन सदस्य नामित किए जा सकते हैं।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद के किस सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है?
उत्तर :
भारतीय संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता

प्रश्न 11.
संसद के दो कार्य लिंखिए।
उत्तर :
संसद के दो कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. कानूनों का निर्माण करना तथा
  2. संघ सरकार का बजट पारित करना।

प्रश्न 12.
‘वित्त विधेयक’ किसे कहते हैं?
उत्तर :
धन सम्बन्धी विधेयक को ‘वित्त विधेयक’ कहते हैं।

प्रश्न 13.
संसद के किस सदन में वित्त विधेयक (धन विधेयक) प्रस्तावित किया जा सकता है?
उत्तर :
धन विधेयक पहले केवल लोकसभा में प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रश्न 14.
वित्त विधेयक और साधारण विधेयक प्रस्तुत करने की प्रक्रिया में कोई एक अन्तर बताइए।
उत्तर :
वित्त विधेयक केवल मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं, जबकि साधारण विधेयक संसद का कोई भी सदस्य सदन में प्रस्तुत कर सकता है।

प्रश्न 15.
संसद के अधिवेशन को कौन आहूत करता है?
उत्तर :
संसद के अधिवेशन को राष्ट्रपति आहूत करता है।

प्रश्न 16.
संसद के दो सत्रों में अधिकतम कितने समय का अन्तर हो सकता है?
उत्तर :
संसद के दो सत्रों में अधिकतम 6 माह का अन्तर हो सकता है।

प्रश्न 17.
लोकसभा द्वारा मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण रखने की एक प्रभावकारी विधि बताइए।
उत्तर :
लोकसभा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकती है, यह भय उस पर नियन्त्रण का कार्य करता है।

प्रश्न 18.
भारतीय संसद के दोनों सदनों में कौन अधिक शक्तिशाली है?
उत्तर :
भारतीय संसद के दोनों सदनों में लोकसभा अधिक शक्तिशाली है, क्योंकि उसे विधायी तथा कार्यपालिका क्षेत्र में राज्यसभा से अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं।

प्रश्न 19.
भारत के किन राज्यों में द्वि-सदनात्मक विधायिका है?
उत्तर :
बिहार, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश एवं आन्ध्र प्रदेश में द्वि-सदनात्मक विधायिका है।

प्रश्न 20.
जर्मनी की द्वि-सदनात्मक विधायिका को क्या कहा जाता है?
उत्तर :
जर्मनी में द्वि-सदनात्मक विधायिका है। दोनों सदनों को बुन्देस्टैग (फेडरल एसेम्बली) और बुन्देसरैट (फेडरल कौन्सिल) कहते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विधानसभा, मंत्रिपरिषद् पर किस प्रकार नियन्त्रण रखती है?
उत्तर :
संसदात्मक शासन-व्यवस्था में कार्यपालिको (मंत्रिपरिषद्) अपने समस्त कार्यों एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्वों के लिए प्रत्यक्ष रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से जनता के प्रति भी उत्तरदायी होती है। इस उत्तरदायित्व के अनुसरण में विधानसभा; मन्त्रिपरिषद् पर अपना प्रभावकारी नियन्त्रण स्थापित करती है। विधानसभा; मन्त्रिपरिषद् पर निम्नलिखित तरीकों के आधार पर नियन्त्रण रखती है –

  1. मंत्रियों से उनके विभाग सम्बन्धी प्रश्न तथा पूरक-प्रश्न पूछकर।
  2. मंत्रिमण्डल के विरुद्ध निन्दा प्रस्ताव पारित करके।
  3. स्थगन प्रस्ताव के आधार पर।
  4. काम रोको प्रस्ताव द्वारा।
  5. अविश्वास प्रस्ताव द्वारा।

प्रश्न 2.
साधारण विधेयक तथा धन विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया के प्रमुख अन्तर लिखिए।
उत्तर :
जिन विधेयकों का सम्बन्ध धन से होता है, उन्हें धन विधेयक कहा जाता है तथा जिन विधेयकों का सम्बन्ध धन से नहीं होता है, उन्हें साधारण विधेयक कहा जाता है। धन विधेयक, साधारण विधेयकों से अनेक बातों में भिन्न है; जैसे –

  1. धन विधेयकों का लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा प्रमाणित होना आवश्यक है, जबकि साधारण विधेयकों के लिए यह आवश्यक नहीं है।
  2. धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व-अनुमति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं किए जा सकते, जबकि साधारण विधेयकों के लिए यह आवश्यक नहीं है।
  3. धन विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तुत किए जाते हैं, जबकि साधारण विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
  4. राज्यसभा धन विधेयक को अस्वीकृत नहीं करती है, वह उसे केवल 14 दिनों तक अपने पास रोक सकती है, जबकि साधारण विधेयक के बारे में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं होती है।

प्रश्न 3.
लोकसभा के सदस्यों के विशेषाधिकारों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
लोकसभा के सदस्यों को निम्नलिखित विशेषाधिकार प्राप्त हैं –

  1. भाषण की स्वतन्त्रता – लोकसभा के प्रत्येक सदस्य को स्वतन्त्रतापूर्वक भाषण देने का अधिकार प्राप्त है। उसके भाषण के विरुद्ध न्यायालय में किसी भी प्रकारे का अभियोग नहीं लगाया जा सकता।
  2. भाषण और विचारों को प्रकाशित करने का अधिकार – लोकसभा में दिए गए भाषण, तर्क-वितर्क अथवा रिपोर्ट को वह स्वयं प्रकाशित कर सकता है।
  3. गिरफ्तारी से मुक्ति – अधिवेशन के दिनों में तथा अधिवेशन के 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक किसी दीवानी मुकदमे के कारण किसी सदस्य को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

आपराधिक अभियोजना के सम्बन्ध में ऐसी गिरफ्तारियों से सम्बन्धित निर्णय लोकसभा अध्यक्ष का होता है।

प्रश्न 4.
संसद के गिरते हुए स्तर पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
संसद के गिरते हुए स्तर के विभिन्न कारण निम्नलिखित हैं –

  1. पिछले 10-15 वर्षों से संसद के स्तर में तेजी से गिरावट आई है। संसद में आपराधिक प्रवृत्ति के लोग बड़ी संख्या में चुनाव जीतकर आ रहे हैं।
  2. मुख्य कार्य जिसमें अधिकतर सांसद व्यस्त रहते हैं, वह है धन अर्जित करना। चुनाव जीतने के पश्चात् वे चुनाव में हुए खर्च की भरपाई करने में व्यस्त हो जाते हैं।
  3. अपने मन्त्रालयों से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर जब मंत्री सन्तोषजनक ढंग से नहीं दे पाते हैं तो भी उनका उत्तरदायित्व निर्धारित नहीं किया जाता है, न ही वे किसी रूप में दण्डित किए जाते हैं।
  4. जब कभी कोई ज्वलन्त समस्या सामने आती है तो संसद को विश्वास में नहीं लिया जाता है।
  5. कुछ मंत्री तो उस समय संसद में उपस्थित ही नहीं होते जब उनके मन्त्रालयों से सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार होता है।

प्रश्न 5.
राज्यसभा व लोकसभा किन क्षेत्रों में बराबर की शक्तियाँ रखती हैं?
उत्तर :
राज्यसभा व लोकसभा के कार्यों की अगर हम तुलना करें तो स्पष्ट होता है कि कुछ क्षेत्रों में लोकसभा, राज्यसभा के मुकाबले अधिक शक्तिशाली है। कुछ क्षेत्रों में राज्यसभा की अपनी विशेष शक्तियाँ हैं परन्तु कुछ क्षेत्रों में लोकसभा व राज्यसभा की बराबर की शक्तियाँ हैं। ये क्षेत्र निम्नलिखित हैं।

  1. विचार-विमर्श, विभिन्न विषयों पर चर्चा व जनमत-निर्माण में लोकसभा व राज्यसभा की बराबर की शक्तियाँ हैं।
  2. संविधान संशोधन के क्षेत्र में भी दोनों सदनों की बराबर की शक्तियाँ हैं। जब तक संविधान संशोधन बिल दोनों सदनों से अलग-अलग पास नहीं हो जाता तब तक संविधान संशोधन लागू नहीं हो सकता।
  3. चुनाव के क्षेत्र में दोनों सदनों की बराबर की शक्तियाँ हैं। राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के चुनाव में दोनों सदन भाग लेते हैं।
  4. न्यायिक क्षेत्र में दोनों सदनों की शक्तियाँ समान हैं।

प्रश्न 6.
अविश्वास प्रस्ताव पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :

अविश्वास प्रस्ताव

मंत्रिपरिषद् संसद के निम्न सदन (लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के विश्वास पर ही अपने पद पर बनी रह सकती है। यदि लोकसभा यह अनुभव करती है कि सरकार अपने प्रशासनिक दायित्वों का संचालन समुचित रूप से नहीं कर रही है तो लोकसभा के सदस्य सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रख सकते हैं। यह प्रस्ताव प्रायः विपक्ष के सदस्यों द्वारा रखा जाता है। अविश्वास का प्रस्ताव लोकसभा के अध्यक्ष (Speaker) की अनुमति के पश्चात् सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इस पर सदन में सत्ता पक्ष तथा विपक्षी सदस्यों द्वारा विस्तृत चर्चा की जाती है। इस विस्तृत चर्चा के उपरान्त उस पर मतदान किया जाता है। यदि सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव सदन में बहुमत से पारित हो जाता है तो प्रधानमंत्री सहित सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् को तुरन्त अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ती है।

प्रश्न 7.
लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्यों के निर्वाचन में क्या अन्तर है?
उत्तर :
ससंद के दो सदन हैं। राज्यसभा उच्च सदन है, जो राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है तथा लोकसभा निम्न सदन है, जो सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करता है। लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्यों के निर्वाचन में अग्रलिखित अन्तर हैं –

  1. राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है, जबकि लोकसभा के सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष विधि से होता है।
  2. राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन राज्यों, संघशासित प्रदेशों (क्षेत्रों) की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य करते हैं, जबकि लोकसभा के सदस्य सामान्य मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं।
  3. लोकसभा का निर्वाचन, निर्वाचन की बहुमत प्रणाली के आधार पर होता है, जबकि राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की एकल संक्रमणीय मत-पद्धति के आधार पर होता है।
  4. लोकसभा के सदस्य निर्वाचित होने की न्यूनतम आयु 25 वर्ष है, जबकि राज्यसभा के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष है।

प्रश्न 8.
लोकसभा राज्यसभा से शक्तिशाली क्यों है?
उत्तर :
लोकसभा निम्नलिखित कारणों से राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है –

  1. लोकसभा में वित्त विधेयक पहले प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जबकि राज्यसभा में ऐसा नहीं होता है।
  2. साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में दोनों सदनों की शक्ति समान है, परन्तु दोनों सदनों में मतभेद होने पर उनके संयुक्त अधिवेशन में निर्णय लिया जाता है। लोकसभा की सदस्य संख्या राज्यसभा की सदस्य संख्या से अधिक होने के कारण अन्तिम निर्णय लोकसभा के पक्ष में ही होता है।
  3. लोकसभा केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे अपदस्थ कर सकती है, जबकि राज्यसभा को यह अधिकार प्राप्त नहीं है।

प्रश्न 9.
राज्यसभा किस प्रकार एक स्थायी सदन है?
उत्तर :
राज्यसभा भारतीय संसद का उच्च सदन है। इसके सदस्य राज्यों की विधानसभाओं द्वारा चुने जाते हैं। यह स्थायी सदन है जिसका अस्तित्व निरन्तर बना रहता है। इसका स्थायी सदन होना निम्नलिखित तथ्यों द्वारा पुष्ट होता है –

  1. राज्यसभा को राष्ट्रपति विघटित नहीं कर सकता। इसके सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद सेवानिवृत्त होते हैं।
  2. राज्यसभा के सभी सदस्यों का चुनाव एक साथ नहीं होता और न ही वे एक साथ अपने पद का त्याग करते हैं।
  3. इसके एक-तिहाई सदस्य हर दो वर्ष पश्चात् सेवानिवृत्त हो जाते हैं जिसका अर्थ है कि प्रत्येक 2 वर्ष पश्चात् इसके 1/3 स्थानों पर ही पुनः चुनाव होता है।
  4. इस प्रकार इसके कम-से-कम 2/3 सदस्य हर समय पद पर रहते हैं और 1/3 पद भी केवल कुछ समय के लिए रिक्त रह सकते हैं।
  5. इसमें हर समय 1/3 सदस्य चार वर्ष के अनुभव वाले और 1/3 सदस्य 2 वर्ष के अनुभव वाले : होते हैं।

प्रश्न 10.
दल-बदल क्या है? इसे रोकने के क्या उपाय किए गए हैं?
उत्तर :
भारतीय राजनीति में सर्वाधिक प्रचलित राजनीतिक खेल का नाम है-दल-बदल। इसे पक्ष परिवर्तन, एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाना, सदन में सरकारी दल छोड़कर विरोधी दल में मिल जाना, खेमा बदल लेना कुछ भी कह सकते हैं। दल-बदल रोकने के लिए सन् 1985 में संविधान का 52वाँ संशोधन किया गया। इसे दल-बदल निरोधक कानून’ कहते हैं। इसे बाद में 91वें संविधान संशोधन द्वारा पुनः संशोधित किया गया।

प्रश्न 11.
संसदीय समितियों की क्या उपयोगिता है?
उत्तर :
वर्तमाने में प्रायः समस्त देशों में विधानमण्डल अपने कार्यों को अधिक कुशलता तथा शीघ्रता से करने के लिए अनेक समितियों का प्रयोग करते हैं। इन समितियों की निम्नलिखित उपयोगिता है –

(1) वर्तमान में विधि-निर्माण का कार्य अत्यन्त जटिल एवं तकनीकी (Technical) हो गया है। विधानमण्डलों के सभी सदस्य इस कार्य में निपुण नहीं होते हैं। अतः विशेषज्ञों की समितियों द्वारा विधि-निर्माण कार्य अधिक सरलतापूर्वक किया जा सकता है।

(2) वर्तमान में विधानमण्डल के कार्य बहुत विस्तृत एवं व्यापक हो गए हैं। उसके पास इतना समय नहीं है कि प्रत्येक विधेयकों पर सूक्ष्मता से विचार कर सके। इस कार्य को वर्तमान में समितियाँ ही सम्पादित करती हैं।

(3) समितियाँ विभिन्न विधेयकों पर विस्तृत वाद-विवाद कर सकती हैं। वे सभी प्रकार के रिकॉर्डो को मँगवा सकती हैं, गवाहों को बुलवा सकती हैं और आवश्यक बातों की छानबीन भी कर सकती हैं। ये कार्य सदन में सम्भव नहीं हैं।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकसभा की संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
लोकसभा; संसद का निम्न सदन है। यह जनता का प्रतिनिधि सदन है। इसके सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होकर आते हैं। वर्तमान लोकसभा में सदस्यों की संख्या 543 है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति को एंग्लो-इण्डियन समुदाय के दो व्यक्तियों को मनोनीत करने का अधिकार है। लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए यह आवश्यक है कि –

  1. वह व्यक्ति भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।
  3. वह लोकसभा के किसी निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता हो और अन्य सभी अनिवार्य शर्तों को पूरा करता हो।

पागल, दिवालिया, विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त करने वाले, लाभकारी सरकारी पद के स्वामी तथा विधि द्वारा अयोग्य व्यक्ति लोकसभा के सदस्य नहीं बन सकते हैं।

संविधान द्वारा लोकसभा के निर्वाचन में प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार दिया गया है। भारत में वयस्क होने की आयु 18 वर्ष है। निर्वाचन के लिए सम्पूर्ण देश को 543 निर्वाचन क्षेत्रों में विभक्त कर दिया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र में जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, वह लोकसभा का सदस्य (सांसद) बन जाता है।

सामान्यतया लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष है। प्रधानमंत्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति इस काल की समाप्ति के पूर्व भी लोकसभा को भंग कर सकता है। संकटकालीन घोषणा की स्थिति में लोकसभा का कार्यकाल एक वर्ष और बढ़ाया जा सकता है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
राज्यसभा; संसद का उच्च सदन है। संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार, राज्यसभा में प्रतिनिधियों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है। इनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। वे 12 सदस्य ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनका साहित्य, विज्ञान, कला अथवा सामाजिक क्षेत्र में विशेष योगदान होता है। शेष सदस्य राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। वर्तमान राज्यसभा में कुल 245 सदस्य हैं, जिनमें से 233 निर्वाचित और 12 मनोनीत हैं।

राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए यह अनिवार्य है कि –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह कम-से-कम 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह देश के किसी भी क्षेत्र से मतदाता हो सकता है।

वह संसद द्वारा निर्धारित अन्य शर्तों को भी पूरी करता हो।

निर्वाचन – राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष विधि द्वारा किया जाता है। इनका चुनाव प्रत्येक राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा होता है। राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करते रहते हैं और उनके स्थान पर नए सदस्य चुन लिए जाते हैं। इस प्रकार इसके सदस्यों का निर्वाचन 6 वर्ष के लिए किया जाता है। भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन (ex-officio) सभापति होता है। उसे 4,00,000 प्रति माह वेतन, भत्ता तथा लोकसभा के अध्यक्ष के समान अन्य सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं। राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी एक को अपना उपसभापति चुनती है सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति ही सभापति का आसन ग्रहण करता है। वर्तमान में राज्यसभा के सभापति श्री एम० वेंकैया नायडू हैं।

प्रश्न 3.
आधुनिक राज्य में विधायिका के प्रमुख कार्य समझाइए।
उत्तर :
वर्तमान कल्याणकारी राज्यों में सरकार के कार्य, जिम्मेदारियाँ व चुनौतियाँ अत्यधिक बढ़ गई हैं जिसे पूरा करने का वैधानिक आधार विधायिका प्रदान करती है। इसके कार्यों को हम निम्नलिखित रूपों में बाँट सकते हैं –

  1. विचार-विमर्श, चर्चा व वाद-विवाद का मंच।
  2. जनमत-निर्माण का कार्य करना।
  3. कानून-निर्माण का कार्य करना।
  4. बजट पास करना और बजट पर नियन्त्रण।
  5. सरकार पर नियन्त्रण करना।
  6. विभिन्न पदों के लिए चुनाव कार्य करना।
  7. संविधान संशोधन का कार्य करना।
  8. न्यायिक कार्य करना।
  9. आपातकाल में कार्य करना।
  10. विविध कार्य।

प्रश्न 4.
राज्यसभा की क्या उपयोगिता है?
उत्तर :
लोकसभा और राज्यसभा के पारस्परिक सम्बन्धों से यह नहीं समझना चाहिए कि राज्यसभा एक निरर्थक संस्था है। राजयसभा को कुछ महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ भी प्राप्त हैं, जिसके कारण पायली ने कहा है, “राज्यसभा एक निरर्थक सदन अथवा विधि-निर्माण पर केवल रोक लगाने वाला सदन नहीं है। वास्तव में, राज्यसभा शासनतन्त्र को एक आवश्यकै अंग है, केवल दिखावे मात्र को सदन नहीं है। गोपालस्वामी आयंगर ने राज्यसभा की उपयोगिता के सम्बन्ध में कहा था, “संविधान के निर्माताओं का राज्यसभा के गठन का उद्देश्य यह था कि यह सदन महत्त्वपूर्ण मामलों पर सारगर्भित वाद-विवाद करे और उन बिलों को पारित करने में देरी करे, जो शीघ्रता से लोकसभा में पारित कर दिए जाते हैं।” राष्ट्रपति की संकटकालीन उद्घोषणा की स्वीकृति विशेष रूप से दोनों सदनों द्वारा प्राप्त होनी आवश्यक है। यदि घोषणा उस समय की गई हो जब लोकसभा विघटित हो गई हो तो उस समय घोषणा का राज्यसभा द्वारा स्वीकृत होना आवश्यक है। वह राष्ट्रपति पर महाभियोग लगा सकती है और न्यायालय के रूप में बैठकर अभियोग की जाँच कर सकती है।

प्रश्न 5.
क्या अनुशासनहीनता एवं अव्यवस्था के होते हुए भी भारतीय संसद को राष्ट्र की प्रतिनिधि सभा कहा जा सकता है?
उत्तर :
संसद में अनुशासनहीनता एवं अव्यवस्था की घटनाओं के बाद भी भारतीय संसद राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। ये घटनाएँ संसद की अस्थायी घटनाएँ हैं, स्थायी विशेषताएँ नहीं। भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतन्त्रात्मक देश है और विगत 70 वर्षों से निरन्तर सफलता की ऊँचाइयों की ओर अग्रसर है। अब तक संसद के 14 आम चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं और स्वतन्त्र व निष्पक्ष रूप से हुए हैं। इनके कारण संसद के सदस्य समाज के सभी क्षेत्रों, वर्गों, धर्मों और समुदायों से चुने जाते हैं और संसद में अपना स्थान ग्रहण करते हैं और विचाराधीन विषयों पर विचार प्रकट करते हैं। संसद ही जनता का प्रतिनिधित्व करती है और राष्ट्र की प्रतिनिधि सभा कहलाने का अधिकार रखती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि संसद के सदस्य अपने आचरण से राष्ट्र का समय नष्ट करते हैं, जनता के धन का अपव्यय करते हैं और राष्ट्र तथा विश्व के समक्ष गलत आदर्श प्रस्तुत करते हैं, परन्तु यह भी लोकतन्त्र की एक विशेषता है और इसके द्वारा विपक्ष बहुमत की तानाशाही स्थापित नहीं होने देता और संसद कार्यपालिका पर अपना नियन्त्रण बनाए रखती है।

अनुशासन और अव्यवस्था की घटनाएँ हर रोज नहीं घटतीं और कभी-कभी की घटनाओं के आधार पर संसद के पूर्ण अस्तित्व को ही आलोचना का केन्द्र बनाना उचित नहीं है। संसद राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है, वह सरकार के तीनों अंगों में अधिक शक्तिशाली स्थिति अपनाए हुए है। यह राष्ट्रीय विकास में गति देने की भूमिका का भी निर्वाह करती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
व्यवस्थापिका के कार्यों का वर्णन कीजिए तथा इसका कार्यपालिका से सम्बन्ध बताइए।
या
व्यवस्थापिका के मुख्य कार्यों का उल्लेख कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के कार्यों की व्याख्या कीजिए। वर्तमान युग में व्यवस्थापिका के ह्रास के क्या कारण हैं?
या
व्यवस्थापिका के आधारभूत कार्यों का वर्णन कीजिए और संसदात्मक प्रणाली में इसकी विशिष्ट भूमिका पर भी प्रकाश डालिए।
या
व्यवस्थापिका का अर्थ तथा उसके कार्य बताइए। व्यवस्थापिका की महत्ता पर भी प्रकाश डालिए।
या
व्यवस्थापिका के संगठन पर प्रकाश डालिए तथा इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए और वर्तमान समय में व्यवस्थापिका की शक्तियों में क्लास के कारण बताइए।
उत्तर :

सरकार के प्रमुख अंग

सभी व्यक्तियों द्वारा सरकार को एक से अधिक अंगों में विभाजित करने की आवश्यकता अनुभव की गयी है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को व्यवस्थापन तथा शासन विभाग इन दो अंगों में विभाजित किया गया है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को 5 या 6 अंगों में विभाजित करने का प्रयत्न किया गया है, परन्तु सामान्य धारणा यही है कि प्रमुख रूप से सरकार के निम्नलिखित तीन अंग होते हैं—व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। व्यवस्थापिका कानून बनाने और राज्य की नीति को निश्चित करने का कार्य करती है, कार्यपालिका इन कानूनों को कार्यरूप में परिणत कर शासन का संचालन करती है और न्यायपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर न्याय प्रदान करने और संविधान की व्याख्या व रक्षा करने का कार्य करती है।

व्यवस्थापिका का अर्थ

व्यवस्थापिका सरकार का वह अंग है, जो राज्य प्रबन्ध चलाने के लिए कानूनों का निर्माण करता है, पुराने कानूनों का संशोधन करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें रद्द भी कर सकता है। व्यवस्थापिका को सरकार के अन्य अंगों से श्रेष्ठ माना जाता है; क्योंकि लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका लोगों की एक प्रतिनिधि सभा होती है। लॉस्की के शब्दों में, “कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की शक्तियों की सीमा व्यवस्थापिका द्वारा बतायी गयी इच्छा होती है।”

व्यवस्थापिका का संगठन

कानून-निर्माण और सरकार की नीति-निर्धारण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है। व्यवस्थापिका का संगठन दो रूपों में किया जा सकता है। व्यवस्थापिका या तो एक सदन हो सकता है। अथवा दो सदन। जिस व्यवस्थापिका में एक सदन होता है, उसे एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका और जिसमें दो सदन होते हैं, उसे द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका कहा जाता है द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन को निम्न सदन (Lower House) और द्वितीय सदन को उच्च सदन (Upper House) कहा जाता है। प्रथम सदन की शक्ति पर अंकुश रखने तथा उसके द्वारा किये गये कार्यों पर पुनर्विचार करने के लिए ही द्वितीय सदन की आवश्यकता अनुभव की गयी।

आधुनिक काल में अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका प्रणाली को ही अपनाया गया है। भारत, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में व्यवस्थापिका में दो सदन ही पाये जाते हैं, जबकि पुर्तगाल, ग्रीस, चीन, तुर्की आदि देशों में व्यवस्थापिका में केवल एक सदन है।

व्यवस्थापिका के कार्य

वर्तमान समय में लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका द्वारा निम्नलिखित प्रमुख कार्य सम्पादित किये जाते हैं –

1. कानून-निर्माण सम्बन्धी कार्य – विधायिका का महत्त्वपूर्ण कार्य विधि-निर्माण करना है। व्यवस्थापिका कानून का प्रारूप तैयार करती है, उस पर वाद-विवाद कराती है, प्रारूप में संशोधन कराती है तथा कानून को अन्तिम रूप देती है।

2. विमर्शात्मक कार्य एवं जनमत-निर्माण – व्यवस्थापिका के सदनों में जन-कल्याण से सम्बन्धित विभिन्न नीतियों और योजनाओं पर विचार-विमर्श होता है। व्यवस्थापिका राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श और वांछित सूचनाएँ प्रस्तुत कर जनमत का निर्माण करती है।

3. वित्त सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य राष्ट्र की वित्त-व्यवस्था पर नियन्त्रण रखना भी है। प्रजातान्त्रिक देशों में व्यवस्थापिका प्रत्येक वित्तीय वर्ष के आरम्भ में उस वर्ष के अनुमानित बजट को स्वीकृत करती है। इसकी स्वीकृति के बिना नये कर लगाने तथा आय-व्यय से सम्बन्धित कार्य नहीं किये जा सकते हैं।

4. न्याय सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका को न्याय-क्षेत्र में भी कुछ कार्य करने पड़ते हैं। भारत की संसद को उच्च कार्यपालिका के पदाधिकारियों पर महाभियोग लगाने और उनके निर्णय का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार उसे सदन की मानहानि की स्थिति में सदन को निर्णय देने एवं दोषी व्यक्ति को दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।

5. कार्यपालिका पर नियन्त्रण – प्रत्यक्ष रूप से व्यवस्थापिका प्रशासन में भाग नहीं लेती, लेकिन प्रशासन पर उसका नियन्त्रण निश्चित रूप से होता है। संसदात्मक शासन-प्रणाली में विधायिका प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर, अविश्वास, निन्दा, स्थगन तथा कटौती के प्रस्ताव रखकर, मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत किये गये विधेयकों तथा अन्य प्रस्तावों को अस्वीकार करने आदि के माध्यम से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है। अध्यक्षात्मक शासन में व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर। अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखती है।

6. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य – अनेक देशों में व्यवस्थापिका को कुछ निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में संसद के दोनों सदन उपराष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं स्विट्जरलैण्ड में व्यवस्थापिका मंत्रिपरिषद् के सदस्यों, न्यायाधीशों तथा प्रधान सेनापति का निर्वाचन करती है।

7. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका समय-समय पर किन्हीं विशेष कार्यों की जाँच करने के लिए आयोगों और समितियों की नियुक्ति का कार्य भी करती है। इसके अलावा व्यवस्थापिका द्वारा इंग्लैण्ड, अमेरिका, भारत आदि देशों में कार्यरत सरकारी निगमों के कार्यों और क्रियाकलापों पर भी पूर्ण नियन्त्रण रखा जाता है।

इस प्रकार, व्यवस्थापिका शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वह विधि-निर्माण के अतिरिक्त प्रशासन, न्याय, वित्त, संविधान, निर्वाचन आदि क्षेत्रों में अनेक कार्य करती है।

व्यवस्थापिका की महत्ता

सरकार के तीनों ही अंगों द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, लेकिन इन तीनों में व्यवस्थापन विभाग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यवस्थापन विभाग ही उन कानूनों का निर्माण करता है जिनके आधार पर कार्यपालिका शासने करती है और न्यायपालिका न्याय प्रदान करने का कार्य करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य के लिए आवश्यक आधार प्रदान करती है। व्यवस्थापन विभाग केवल कानूनों का ही निर्माण नहीं करता, वरन् प्रशासन की नीति भी निश्चित करता है और संसदात्मक शासन-व्यवस्था में तो कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण भी रखता है। संविधान में संशोधन का कार्य भी व्यवस्थापिका के द्वारा ही किया जाता है।

अतः यह कहा जा सकता है कि व्यवस्थापन विभाग सरकार के दूसरे अंगों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति रखता है।

शक्ति में क्लास के कारण

विधायिका के महत्त्व में कमी और इसकी शक्तियों के पतन के लिए कई कारण उत्तरदायी रहे हैं। संक्षेप में विधायिका के पतन के निम्नलिखित कारण हैं –

1. कार्यपालिका की शक्तियों में असीम वृद्धि – पूर्व की तुलना में विभिन्न कारणों से कार्यपालिका का अधिक महत्त्वपूर्ण होना स्वाभाविक है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि इसकी शक्तियों में वृद्धि का विपरीत प्रभावे विधायिका पर पड़ता है। इसीलिए विगत शताब्दी में अनेक राष्ट्रों में विधायिका की संस्था और कमजोर हुई है।

2. प्रतिनिधायन के०सी० क्लीयर – के मतानुसार प्रतिनिधायन द्वारा कार्यपालिका ने विधायिका की कीमत पर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया है। इस सिद्धान्त के फलस्वरूप कार्यपालिका को विधि-निर्माण का अधिकार प्राप्त हो गया। व्यवहार में विभिन्न कारणों से विधायिका ने स्वतः कार्यपालिकों को यह शक्ति प्रदान की। अतः विधि-निर्माण का जो मुख्य कार्य विधायिका के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत था। वह भी प्रतिनिधायन के कारण उसके क्षेत्राधिकार से निकलता चला गया।

3. संचार साधनों की भूमिका – रेडियो और टेलीविजन विज्ञान के ऐसे चमत्कार हैं, जिन्होंने कार्यपालिका के प्रधान का जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़ा। संचार साधनों के ऐसे विकास से कार्यपालिका के प्रधान द्वारा विधायिका को नजरअन्दाज कर सीधा जनसम्पर्क स्थापित किया जाने लगा जिसका प्रतिकूल प्रभाव विधायिका की शक्तियों पर पड़ता गया।

4. दबाव गुटों और हितसमूहों का विकास – बीसवीं शताब्दी में विधायिका के सदस्यों का एक मुख्य कार्य जन-शिकायतों को सरकार तक पहुँचाना रहा, लेकिन दबाव गुटों और हितसमूहों के विकास के कारण उसकी इस भूमिका में भी कमी आई। पिछली शताब्दी में नागरिक संगठित हितसमूहों का सदस्य होता गया। परिणामस्वरूप विधायिका की अनदेखी कर कार्यपालिका से वह सीधा सम्पर्क जोड़ लेता था और अपनी माँगों को मनवाने के सन्दर्भ में सफलता प्राप्त करता था। अतः विधायिका पृष्ठभूमि में चली गई और निर्णय प्रक्रिया में कार्यपालिका ही मुख्य भूमिका अदा करती रही।

5. परामर्शदात्री समितियों और विशेषज्ञ समितियों का विकास – प्रत्येक मन्त्रालय और विभाग में सलाहकार समितियाँ गठित होने लगी हैं तथा विशेषज्ञों के संगठन बनाए जाने लगे हैं। विधेयकों का प्रारूप तैयार करने में इनसे सलाह ली जाती है। सदन में जब विचार-विमर्श होता है और सदस्यों द्वारा संशोधन प्रस्तुत किए जाते हैं, तब यह कहकर उन्हें चुप कर दिया जाता है कि इस पर विशेषज्ञों की सलाह ली जा चुकी है। फलस्वरूप विधायिका के समक्ष ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृत करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता है।

6. युद्ध और संकट की स्थिति – प्रायः सभी लोकतान्त्रिक देशों में राज्याध्यक्ष ही सेना का प्रधान होता है, सैनिक मामलों में विधायिका कुछ भी नहीं कर सकती। अतः युद्ध या अन्य संकटकाल के समय विधायिका नहीं अपितु कार्यपालिका सर्वेसर्वा बन जाती है, ऐसी कठिन परिस्थितियों में तुरन्त निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए सन् 1971 के युद्ध में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वतन्त्र रूप से युद्ध-नीति का संचालन किया था। अमेरिका में भी राष्ट्रपति निक्सन ने वियतनाम युद्ध के दौरान कई बार कांग्रेस की अवहेलना की थी। फॉकलैण्ड युद्ध में भी ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्रीमती मार्ग रेट थैचर ने देश का नेतृत्व स्वयं किया था। अतः युद्ध या संकट के समय कार्यपालिका ऐसी स्थिति ला देती है, जिसमें विधायिका के समक्ष उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। यह प्रक्रिया बीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई।

7. संकट व तनाव की अवस्था का युग-रॉबर्ट सी० बोन – ने 20वीं शताब्दी को “चिन्ता का युग’ कही है। उक्त शताब्दी में विभिन्न देशों में किसी-न-किसी कारण से प्राय: ही संकट के बादल मंडराते रहे, जो न केवल सरकारों को बल्कि नागरिकों को भी तनाव की स्थिति में ला देते थे। संचार-साधनों के विकास के कारण विश्व की घटनाओं का समाचार निरन्तर रेडियो तथा टेलीविजन द्वारा मिलना सामान्य बात थी। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही उनकी आशा का केन्द्र बनी। यही कारण है कि चिन्ता के उस युग में विधायिका लोगों को आश्वस्त करने की भूमिका नहीं निभा सकी। यह कार्य कार्यपालिका का हो गया। आज कार्यपालिका सर्वशक्तिमान बनने की दिशा में बढ़ रही है।

प्रश्न 2.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण एवं दोषों (पक्ष एवं विपक्ष) का वर्णन कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन की उपयोगिता पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर :
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/उपयोगिता (पक्ष में तर्क) द्वि-सदनात्मकं या द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के पक्ष में जो तर्क दिये जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं –

1. उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर पुनर्विचार – द्वितीय सदन का प्रमुख कार्य प्रथम सदन के उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर विचार करना है। प्रथम सदन में नवयुवक तथा जोशीले सदस्यों की प्रधानता रहती है। वे आवेश में आकर ऐसे कानूनों का निर्माण कर डालते हैं जो जनहित में नहीं होते। द्वितीय सदन में, जिसमें अधिकांश अनुभवी तथा गम्भीर व्यक्ति होते हैं, प्रथम सदन द्वारा पारित कानूनों का पुनरावलोकन करके उत्पन्न भूलों को दूर कर देते हैं। ब्लंटशली ने ठीक ही लिखा है-“दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें सदा अच्छा देखती हैं, विशेषतया जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करना आवश्यक हो।” लॉस्की के अनुसार, “नियन्त्रण संशोधन तथा रुकावट डालने में जो काम द्वितीय सदन करता है, उससे उसकी आवश्यकता स्वयं सिद्ध है।”

2. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक – एक-सदनात्मक व्यवस्था में उसके निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी हो जाने की पूरी सम्भावना रहती है, किन्तु द्वि-सदनात्मक व्यवस्था में इस प्रकार की सम्भावना का अन्त हो जाता है। बाइस का कहना है, “दो सदनों की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि एक सदन की स्वाभाविक प्रवृत्ति घृणापूर्ण, अत्याचारी तथा भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है, जिसे रोकने के लिए एकसमान सत्ताधारी द्वितीय सदन का अस्तित्व आवश्यक है। इस प्रकार द्वितीय सदन की विद्यमान स्वतन्त्रता की गारण्टी व कुछ सीमा तक अत्याचार से सुरक्षा भी है।

3. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन – लॉर्ड एक्टन का कहना है-“स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए द्वितीय सदन अत्यन्त आवश्यक है। यह नीतियों में सन्तुलन स्थापित करता है तथा अल्पसंख्यकों की रक्षा और प्रथम सदन के दोषों को दूर करता है।”

4. प्रथम सदन के कार्य-भार में कमी – द्वितीय सदन विवादास्पद कार्यों को अपने हाथ में लेकर प्रथम सदन का कार्यभार हल्का कर देता है और उसे अधिक सुचारु रूप से कार्य करने का अवसर प्रदान करता है। आधुनिक प्रगतिशील देशों में एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रूप से निभाने में असमर्थ होती है; अतः द्वितीय सदन की आवश्यकता है।

5. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है। और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है-“दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती है।”

6. अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व – व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन के होने से अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है।

7. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम. सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जब कि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान् प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

8. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।

9. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाती है।

10. प्रथम सदन का सहयोगी – द्वितीय सदन प्रथम सदन का सहयोगी होता है। इस सम्बन्ध में हेनरीमैन ने लिखा है-“बिल्कुल न होने से किसी भी सरकार का द्वितीय सदन अच्छा है, क्योंकि एक व्यवस्थित द्वितीय सदन प्रथम का शत्रु नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक अंग है।” द्वि-सदनात्मक प्रणाली में दोनों सदन एक-दूसरे के सहयोगी होते हैं।

11. जनमत जानने का अच्छा साधन – जब कोई विधेयक प्रथम सदन से पारित होकर दूसरे सदन में विचारार्थ भेजा जाता है, तब जनता को इस बीच के समय में उस पर अपना विचार व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ पर विधेयक पर विचार करने में कुछ समय अवश्य लग जाता है। इस सम्बन्ध में लॉर्ड ब्राइस ने लिखा है-“द्वितीय सदन का मुख्य कार्य केवल इतना विलम्ब करना होना चाहिए जिससे जनता को निम्न सदन द्वारा प्रस्तुत ऐसे विधेयकों पर अपना मत व्यक्त करने का अवसर मिल सके जिनके सम्बन्ध में शासन के पास पहले से जनता का कोई आदेश नहीं है।”

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दोष (विपक्ष में तर्क)

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में निम्नलिखिते तर्क दिये जाते हैं –

1. रूढ़िवादिता – द्वितीय सदन रूढ़िवादी होता है, क्योंकि उसके अधिकांश सदस्य धनी एवं अनुदार प्रवृत्ति के होते हैं। इसलिए वे प्रगतिशील एवं सुधारात्मक विधेयकों के पारित होने में बाधक सिद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में लॉस्की ने लिखा है-“अत्यन्त उपयोगी सुधारों में द्वितीय सदन को विलम्ब लगाने की शक्ति देना सम्भवतः कालान्तर में विनाश को जन्म देना है और जन-क्रान्ति का मार्ग निर्मित करना है।”

2. अनावश्यक या हानिकारक – प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक ऐबेसेयीज का कहना है-“कानून जनता की इच्छा है। जनता की एक ही समय में तथा एक ही विषय पर दो विभिन्न इच्छाएँ नहीं हो सकतीं। अतएव जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली परिषद् आवश्यक रूप से एक ही होनी चाहिए। जहाँ कहीं दो सदन होंगे, मतभेद तथा विरोध अवश्यम्भावी होंगे तथा जनता की इच्छा अकर्मण्यता का शिकार बन जाएगी।” वह पुनः कहता है कि यदि द्वितीय सदन का प्रथम सदन से मतभेद हो तो यह उसकी शैतानी है और यदि वह उससे सहमत है तो उसका अस्तित्व अनावश्यक है। चूंकि वह या तो सहमत होगा या असहमत; अतएव उसका अस्तित्व किसी दिशा में भी लाभदायक नहीं है।

3. उत्तरदायित्व का अभाव – आलोचकों का कहना है कि द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन अपने उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हो जाता है।

4. संगठन की कठिनाई – द्वितीय सदन के संगठन के सम्बन्ध में कोई आदर्श प्रणाली नहीं है। यदि द्वितीय सदन सामान्य मताधिकार के आधार पर निर्वाचित है तो वह निम्न सदन की पुनरावृत्ति मात्र रह जाता है और यदि उसका निर्वाचन उच्च सम्पत्तिगत योग्यता के आधार पर हुआ है तो वह रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रियावादी होगा। यदि द्वितीय सदन वंशानुगत है तो वह निम्न सदन के हितों एवं उनकी आकांक्षाओं का विरोधी होगा। यदि वह अंशत: निर्वाचित तथा अंशतः मनोनीत है तो स्वयं अपने विपरीत विभाजित होने के कारण किसी भी रचनात्मक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं होगा और यदि वह कार्यपालिका अथवा निम्न सदन द्वारा नियुक्त है तो नियुक्त करने वाली सत्ता के अतिरिक्त यह और किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा।

5. धन का अपव्यय – द्वि-सदनात्मक प्रणाली में धन के अपव्यय में अधिक वृद्धि हो जाती है तथा इससे अनावश्यक विलम्ब भी होता है, क्योंकि दूसरे सदन में विचारार्थ कोई विधेयक भेजना केवल देरी करना ही है। फिर इस अपव्यय का भार जनता को अतिरिक्त करों के रूप में वहन करना पड़ता है। यह धन द्वितीय सदन की अपेक्षा जनहित के कार्यों में उचित रूप से लगाया जा सकता है।

6. प्रजातन्त्रीय प्रणाली का विरोध-आयंगर का कहना है – “यद्यपि द्वि-सदनात्मक शासन| प्रणाली जनतन्त्र के अन्दर एक प्राचीन परम्परा है, किन्तु यह प्रणाली जनतन्त्र पर विश्वास करने में हिचकिचाती है और अल्पसंख्यकों को ही सन्तुष्ट करने का प्रयास करती है। कभी-कभी द्वितीय सदन हारे हुए नेताओं का सुरक्षित भण्डार सिद्ध हो सकता है।”

7. भूल-सुधार का महत्वहीन दावा – यह कहना कि प्रथम सदन आवेश में आकर जनहित विरोधी कानूनों का निर्माण कर सकता है, उचित नहीं है; क्योंकि प्रथम सदन प्रत्येक विधेयक पर तीन बार विचार करता है। इस प्रकार उसमें किसी प्रकार की भूल रह जाने की बहुत कम सम्भावना रह जाती है। द्वितीय सदन में केवल विधेयक पर प्रथम सदन के तर्क वितर्क ही दोहराये जाते हैं। इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आधुनिक युग में व्यवस्थापन एकाएक कानून की पुस्तक पर नहीं आ जाता, प्रायः प्रत्येक विधेयक विचार एवं विश्लेषण की एक लम्बी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कानून बना है। अतः जल्दबाजी के व्यवस्थापन को रोकने की दृष्टि से दूसरे सदन का महत्त्व राजनीति की वर्तमान दशा में अत्यन्त कम हो गया है।”

8. संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना – जहाँ द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका होती है वहाँ संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना बनी रहती है। इससे शासन-व्यवस्था में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है। फ्रेंकलिन के शब्दों में, “द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका एक ऐसी गाड़ी के समान है जिसके दोनों सिरों पर एक-एक घोड़ा हो और वे दोनों घोड़ा-गाड़ी को अपनी-अपनी ओर खींच रहे हों।”

9. अल्पमतों को प्रतिनिधित्व देने हेतु अन्य सन्तोषजनक प्रबन्ध सम्भव – द्वितीय सदन के आलोचकों का मत है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की व्यवस्था आवश्यक नहीं है। अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान में दूसरे उपाय किये जा सकते हैं, जिस तरह भारतीय संविधान में आंग्ल-भारतीय समुदाय, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये गये हैं।

10. संघीय व्यवस्था के लिए अनावश्यक – दलबन्दी के उदय हो जाने के बाद संघीय शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन का होना आवश्यक नहीं रह गया है, क्योकि द्वितीय सदन के प्रतिनिधि राज्यों के हितों और आवश्यकताओं को दृष्टि में न रखकर अपने दलों के स्वार्थों का ही ध्यान रखते हैं। इस प्रकार वे राज्यों के प्रतिनिधि न बनकर वास्तविक रूप में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि बनकर रह जाते हैं। इस सम्बन्ध में रॉबर्टसन ने लिखा है, “संघ राज्यों की विशेष परिस्थितियों को छोड़कर द्वितीय सदन के पक्ष में कोई मान्य सैद्धान्तिक तर्क नहीं है और उसके विरुद्ध उठाये गये सैद्धान्तिक तर्को को अभी समुचित उत्तर नहीं दिया गया है।

उपर्युक्त तर्को में सत्य का अंश है, फिर भी अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी है। शायद इसका कारण यह है कि उच्च सदन के निर्माण से बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि द्वितीय सदन पूर्ण जागरूकता के साथ प्रथम सदन द्वारा पारित किये गये विधेयकों पर पुनर्विचार करे तो लोकप्रिय सदन की जल्दबाजी और मनमानी पर उपयोगी एवं आवश्यक प्रतिबन्ध लग सकता है, इसके अतिरिक्त विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिये जाने पर कानून-निर्माण का कार्य अधिक पूर्णता के साथ किये जाने की आशा की जा सकती है। रैम्जे म्योर के अनुसार, द्वितीय सदन का महत्त्वपूर्ण उपयोग यह है कि उसमें राष्ट्रीय नीति के सामान्य प्रश्नों पर ठण्डे वातावरण में शान्ति के साथ विचार होता है जैसा कि निम्न सदन में असम्भव है।” क्रिन्तु यह आवश्यक है कि द्वितीय सदन की रचना में कुछ सुधार हो। जे०एस० मिल के शब्दों में, “यदि एक सदन जनता की सभा हो तो दूसरा सदन राजनीतिज्ञों की सभा हो।”

प्रश्न 3.
राज्यसभा के संगठन तथा शक्तियों की विवेचना कीजिए।
या
राज्यसभा के कार्यों एवं शक्तियों को स्पष्ट कीजिए।
या
राज्यसभा के संगठन तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
राज्यसभा के संगठन तथा कार्यों की समीक्षा कीजिए। सिद्ध कीजिए कि लोकसभा की तुलना में राज्यसभा एक कमजोर एवं शक्तिहीन सदन है?
उत्तर :

राज्यसभा – संसद के तीन घटक होते हैं-(1) राष्ट्रपति, (2) लोकसभा तथा (3) राज्यसभा। संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों को मिलाकर बनेगी, जिनके नाम राज्यसभा और लोकसभा होंगे। इससे स्पष्ट है कि भारत में व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं। उच्च सदन को राज्यसभा और निम्न सदन को लोकसभा के नाम से पुकारा जाता है। लोकसभा समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करती है और राज्यसभा राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती है। दोनों सदनों को सम्मिलित रूप से संसद कहा जाता है। राज्यसभा के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन इस प्रकार है –

राज्यसभा की संरचना – राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसका कभी विघटन नहीं होता। राज्यसभा में संघ के इकाई राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 80 में स्पष्ट लिखा है कि राज्यसभा में अधिक-से-अधिक 250 सदस्य होंगे जिनमें अधिक-से-अधिक 238 सदस्य राज्यों की ओर से निर्वाचित होंगे और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करेगा। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 12 सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला, समाज-सेवा या सहकारिता के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव तथा ख्याति प्राप्त व्यक्ति होंगे। इस समय राज्यसभा में कुल सदस्य 245 हैं, जिनमें से 233 राज्यों तथा केन्द्र-शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गये हैं।

चुनाव – राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रीति से होता है। इस निर्वाचन की दृष्टि से भारतीय संघ के राज्य दो श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं – (1) वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ हैं तथा (2) वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ नहीं हैं, वरन् वे केन्द्र द्वारा शासित हैं। जिन राज्यों में विधानसभाएँ हैं, वहाँ विधानसभाओं के सदस्य अपने राज्य के प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। यह चुनाव आनुपातिक पद्धति से एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के द्वारा होता है। वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ नहीं हैं, उनमें प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने का ढंग संसद कानून द्वारा निर्धारित करती

सदस्यों की योग्यताएँ –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह वे सभी योग्यताएँ रखता हो जो संसद द्वारा निश्चित की गयी हों।
  4. वह उस राज्य का निवासी हो जहाँ से वह निर्वाचित होना चाहता है।

कार्यकाल – राज्यसभा एक स्थायी सदन है, परन्तु उसके सदस्यों में से एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करते रहते हैं। इस प्रकार सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है।

गणपूर्ति या कोरम – राज्यसभा की गणपूर्ति या कोरम, समस्त सदस्य-संख्या का 10वाँ भाग होता है। किसी भी कार्यवाही के लिए कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग सदन में उपस्थित होना आवश्यक

राज्यसभा का सभापति – भारत का ‘उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी एक को उपसभापति चुनती है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति राज्यसभा की बैठकों का सभापतित्व करता है और सभापति के कर्तव्यों का पालन करता है। सभापति तथा उपसभापति के वेतन, भत्ते संसद द्वारा निश्चित किये जाते हैं। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति ही सभापति का आसन ग्रहण करता है। राज्यसभा का सभापति सदन की बैठकों का सभापतित्व करता है, सभा में व्यवस्था बनाये रखता है, प्रश्नों पर अपना निर्णय देता है तथा मतदान की। निर्णय घोषित करना आदि कार्य सम्पन्न करता है। वर्तमान समय में राज्यसभा के सभापति श्री एम० वेंकैया नायडू हैं और उपसभापति प्रो० पी० जे० कुरियन हैं।

राज्यसभा के कार्य एवं अधिकार

राज्यसभा के अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में स्पष्ट किया जा सकता है –

(1) विधायिनी अधिकार – राज्यसभा में धन सम्बन्धी विधेयक को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार का विधेयक लोकसभा से पहले भी प्रस्तुत किया जा सकता है। धन सम्बन्धी विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। कोई भी प्रस्ताव संसद द्वारा तब तक पारित नहीं समझा जा सकता और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए तब तक नहीं भेजा जा सकता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् पारित न हो जाए। यदि किसी प्रस्ताव पर दोनों सदनों में मतभेद पैदा हो जाए तो राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का अधिकार रखता है और उसे प्रस्ताव को उसके सामने रखा जाता है। संयुक्त बैठक में प्रस्ताव पर हुआ निर्णय दोनों सदनों का सामूहिक निर्णय समझा जाता है और यदि वह पारित हो जाए तो उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है।

(2) वित्तीय अधिकार – जैसा पहले ही बताया जा चुका है कि धन सम्बन्धी विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। राज्यसभा की वित्तीय शक्तियाँ लोकसभा की अपेक्षा बहुत कम हैं। वित्तीय विधेयक लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में आते हैं। राज्यसभा वित्तीय विधेयक को 14 दिन तक पारित होने से रोक सकती है। राज्यसभा वित्तीय विधेयक को चाहे रद्द कर दे, या उसमें परिवर्तन कर दे, या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, इन दशाओं में वह विधेयक राज्यसभा से पारित समझा जाएगा। यह लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह राज्यसभा की संस्तुतियों को माने या न माने। जिस रूप में लोकसभा ने विधेयक पारित किया था वह विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है।

(3) शासकीय अधिकार – राज्यसभा की कार्यकारी शक्तियाँ बहुत सीमित हैं। यद्यपि राज्यसभा के सदस्य भी मंत्रिमण्डल में शामिल किये जाते हैं फिर भी मंत्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए केवल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है, राज्यसभा के सदस्य प्रश्नों, काम रोको प्रस्तावों और वाद-विवादों के द्वारा मंत्रिमण्डल पर अपना नियन्त्रण रखते हैं, परन्तु इस सबके बावजूद भी कार्यपालिका पर राज्यसभा का वास्तविक नियन्त्रण नहीं है। राज्यसभा को मंत्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उसे हटाने का कोई अधिकार नहीं है।

(4) संविधान संशोधन सम्बन्धी अधिकार – राज्यसभा को संविधान में संशोधन करने का अधिकार लोकसभा की तरह ही प्राप्त है। संविधान संशोधन सम्बन्धी विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत हो सकता है, अर्थात् संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव राज्यसभा में भी प्रस्तावित किया जा सकता है। संशोधन प्रस्ताव उस समय तक पारित नहीं समझा जाता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् बहुमत से पारित न हो जाए। इस प्रकार संशोधन प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों में मतभेद होने पर वह पारित नहीं हो पाएगा।

(5) विविध अधिकार –

  1. राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं, किन्तु मनोनीत सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त नहीं होता।
  2. राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग लगाने और उसकी जाँच करने तथा उसके बारे में निर्णय देने का अधिकार राज्यसभा को है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस मामले में राज्यसभा को उतने ही अधिकार हैं जितने कि लोकसभा को।
  3. उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को उसी समय पदच्युत किया जा सकता है, जब लोकसभा की तरह राज्यसभा भी उनको हटाये जाने के लिए प्रस्ताव पारित करे।
  4. राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व को घोषित करके संसद को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  5. राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर निकाली गयी घोषणा को जारी करने के लिए लोकसभा की तरह राज्यसभा को भी अर्थात् दोनों सदनों के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।

निष्कर्ष – राज्यसभा की शक्तियों और कार्यों से यह स्पष्ट है कि लोकसभा की अपेक्षा राज्यसभा शक्तिहीन सदन सिद्ध होता है, परन्तु फिर भी इस सदन के पास इतनी शक्तियाँ हैं कि यह एक आदर्श सदन कहीं जा सकता है। इसकी अपनी पृथक् गरिमा है। लोकसभा के भंग होने की स्थिति में तो यह सदन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा कार्यपालिका की शक्तियों पर अंकुश लगाता है। इसे किसी भी प्रकार अनावश्यक सदन नहीं कहा जा सकता। राज्यसभा की उपयोगिता के विषय में श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने कहा था, “संविधान-निर्माताओं का राज्यसभा की रचना का उद्देश्य यह था कि यह सदन महत्त्वपूर्ण विषयों पर वाद-विवाद करे और उन विधेयकों को पारित करने में देरी करे जो लोकसभा में शीघ्रता से पारित कर दिये जाते हैं।”

प्रश्न 4.
भारत में लोकसभा के गठन एवं शक्तियों का विवेचन कीजिए तथा राज्यसभा के साथ इसके सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
या
लोकसभा की शक्तियों एवं कार्यों की विवेचना कीजिए।
या
लोकसभा की दो प्रमुख शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
या
लोकसभा के मुख्य कार्य क्या हैं?
या
लोकसभा का कार्यकाल कितना है? क्या इसे समय से पहले विभाजित किया जा सकता है? यदि आपका उत्तर हाँ है तो इसे निर्धारित करने का अधिकार किसके पास है?
या
लोकसभा के संगठन का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

लोकसभा

गठन – संसद का निम्न सदन लोकसभा है, जिसे जन-प्रतिनिधि सदन अथवा लोकप्रिय सदन भी कहा जाता है। भारतीय संविधान में उल्लिखित प्रावधान के अनुसार लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 निश्चित की गयी है। इस सम्बन्ध में संविधान में यह उपबन्ध किया गया है कि अधिकतम 530 सदस्य प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष मतदान द्वारा चुने जाएँगे तथा 20 सदस्यों की संख्या केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए निर्धारित की गयी है। इसके अतिरिक्त संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति द्वारा 2 ऐंग्लो-इण्डियन सदस्यों को मनोनीत करने का भी प्रावधान है। वर्तमान समय में लोकसभा की सदस्य संख्या 545 है। लोकसभा सदस्यों का निर्वाचन जनसंख्या के आधार पर होने के कारण अधिक जनसंख्या वाले प्रदेशों को लोकसभा में अधिक सीटें प्राप्त होती हैं। इस आधार पर लोकसभा में सर्वाधिक सीटें उत्तर प्रदेश राज्य को प्राप्त हैं।

सदस्यों की योग्यताएँ – लोकसभा की सदस्यता के लिए उम्मीदवार को निम्नलिखित योग्यताएँ पूरी करनी आवश्यक हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. संसद द्वारा निर्धारित अन्य सभी योग्यताएँ रखता हो।
  4. वे व्यक्ति जिन्हें संसद द्वारा निर्मित किसी विधि के अन्तर्गत अयोग्य न ठहराया गया हो।
  5. वः केन्द्र व राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ का पद ग्रहण न किये हो तथा वह पागल या दिवालिया न हो।

कार्यकाल – सामान्यत: लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष तक रहता है। संकटकाल में इस अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है, परन्तु एक समय में एक वर्ष से अधिक और संकटकालीन घोषणा समाप्त होने पर छ: महीने से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता। राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले जब चाहे लोकसभा को भंग करके दोबारा चुनाव करवा सकता है। ऐसा कदम उसी समय उठाया जाता है। जब प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को इस प्रकार का परामर्श दे।

निर्वाचन – लोकसभा के चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणाली के आधार पर होते हैं। भारत का प्रत्येक 18 वर्ष का वयस्क नागरिक (स्त्री, पुरुष) लोकसभा चुनावों में मतदान करने का अधिकार रखता है। 5 लाख से 7.5 लाख की जनसंख्या पर प्रत्येक क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है, जिसे एम० पी० या संसद सदस्य कहते हैं।

गणपूर्ति या कोरम – साधारणतया वर्ष में दो बार लोकसभा का अधिवेशन होता है। इन अधिवेशनों को आमन्त्रित करने और भंग करने का अधिकार राष्ट्रपति को होता है। लोकसभा की कार्यवाही हेतु कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग सदन में उपस्थित होना आवश्यक है।

सदस्यों की शपथ – सदस्यों को अपना कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व राष्ट्रपति अथवा राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेनी पड़ती है।

विशेषाधिकार – विशेषाधिकारों के अन्तर्गत सदस्यों को सदन में नियमों और आदेशों का पालन करते हुए बोलने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। सदन में सदस्य जो कुछ भी कहते हैं उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं की जा सकती। सदन का अधिवेशन शुरू होने के 40 दिन पहले, अधिवेशन के मध्य में और अधिवेशन समाप्त होने के 40 दिन बाद इनको किसी भी दीवानी मुकदमे में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, परन्तु फौजदारी मुकदमों अथवा निवारक निरोध या ‘मीसा में पकड़ा जा सकता है। इस स्थिति में सदस्य को बन्दी बनाये जाने की सूचना सदन के अध्यक्ष के पास शीघ्र पहुँचनी चाहिए।

लोकसभा की शक्तियाँ एवं कार्य

जनसंख्या के आधार पर प्रत्यक्ष मतदान-प्रणाली के माध्यम से गठित होने के कारण लोकसभा जनता का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी इच्छा को प्रतिबिम्ब होती है। यही कारण है कि लोकसभा को लोकप्रिय सदन कहा जाता है, जो संसद के सबसे महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में कार्य करता है। संविधान द्वारा लोकसभा को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं

(1) विधायी शक्तियाँ

संविधान द्वारा विधायी क्षेत्र में लोकसभा को महत्त्वपूर्ण स्थिति प्रदान की गयी है। इस क्षेत्र में लोकसभा को प्राप्त प्रमुख शक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

(अ) साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में लोकसभा व राज्यसभा को संविधान द्वारा समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। साधारण विधेयक पर संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति के पश्चात् राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने आवश्यक होते हैं। परन्तु इस सम्बन्ध में लोकसभा की स्थिति राज्यसभा से सुदृढ़ होती है। यदि किसी विधेयक पर संसद के दोनों सदनों में मतभेद उत्पन्न हो जाता है तो निर्णय की अन्तिम शक्ति लोकसभा के पास होती है। राज्यसभा को इस सम्बन्ध में केवल यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह अवित्तीय विधेयक को 6 माह तक रोक सकती है।

(ब) यद्यपि संवैधानिक प्रावधान के अनुसार संसद के किसी भी सदन में साधारण विधेयक प्रस्तावित किये जा सकते हैं, परन्तु व्यवहार में महत्त्वपूर्ण विधेयक साधारणतया लोकसभा में ही प्रस्तावित किये जाते हैं।

(2) वित्तीय शक्तियाँ

वित्तीय क्षेत्र में लोकसभा को शक्तिशाली वे सुदृढ़ स्थिति प्रदान की गयी है। संविधान द्वारा वित्तीय सम्बन्ध में लोकसभा को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं –

(अ) संविधान के अनुच्छेद 109 के अनुसार कोई भी वित्त विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तावित किया जाएगा। लोकसभा के द्वारा पारित किये जाने के पश्चात् विधेयक राज्यसभा को प्रेषित किया जाता है, जहाँ राज्यसभा अपने बहुमत से विधेयक को पारित करती है।

(ब) किसी वित्तीय विधेयक को राज्यसभा केवल 14 दिन तक अपने पास रोक सकती है तथा इस सम्बन्ध में लोकसभा को परामर्श दे सकती है, परन्तु यदि 14 दिन के अन्दर राज्यसभा विधेयक को लोकसभा को न लौटाए तो विधेयक बिना राज्यसभा की स्वीकृति के भी पारित समझा जाता है। इसके अतिरिक्त वार्षिक बजट व अनुदान माँग भी लोकसभा के समक्ष ही प्रस्तुत की जाती है। इस प्रकार वित्तीय क्षेत्र में लोकसभा को सर्वोच्च शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं।

(3) कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकार

कार्यपालिका के क्षेत्र में लोकसभा को निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान किये गये हैं –

(अ) संसदात्मक शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत कार्यपालिका, व्यवस्थापिका के लोकप्रिय सदन के प्रति उत्तरदायी होती है। वह मन्त्रिपरिषद् को अविश्वास प्रस्ताव पारित कर पदच्युत कर सकती है।

(ब) लोकसभा के सदस्य मंत्रियों से प्रश्न व पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं तथा उनकी आलोचना भी कर सकते हैं।

(स) कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियों के अन्तर्गत ही लोकसभा संघ लोक सेवा आयोग, नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक, वित्त आयोग, भाषा आयोग आदि द्वारा प्रेषित उनकी वार्षिक रिपोर्ट पर विचार करती

(द) इसके अतिरिक्त वह अनुचित सरकारी नीतियों पर विरोध प्रदर्शित करते हुए काम रोको प्रस्ताव पास कर सकती है।

(4) संशोधन सम्बन्धी अधिकार

संविधान संशोधन सम्बन्धी क्षेत्र में संसद के दोनों सदनों को समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। संविधान में किये जाने वाले सभी संशोधनों के लिए संसद के दोनों सदनों का बहुमत प्राप्त करना आवश्यक होता है तथा कुछ विषयों में राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति प्राप्त करने का भी प्रावधान किया गया है।

(5) निर्वाचक मण्डल के रूप में

संविधान के अनुच्छेद 54 के अन्तर्गत लोकसभा के सदस्य राज्यसभा व राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों के साथ संयुक्त होकर राष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं। इसके अतिरिक्त लोकसभा सदस्य राज्यसभा के सदस्यों के साथ मिलकर उपराष्ट्रपति का चुनाव करते हैं। लोकसभा के द्वारा लोकसभा अध्यक्ष व उपाध्यक्ष का चुनाव किया जाता है।

(6) जन-समस्याओं का निवारण

लोकसभा के सदस्य जनता की समस्याओं को सुनकर उन्हें समाधान हेतु सरकार तक पहुँचाते हैं। जनता के प्रतिनिधि होने के कारण जन-समस्याओं का शीघ्र निराकरण लोकसभा सदस्यों का प्रमुख कर्तव्य होता है। सरकार द्वारा नीतियों व कानूनों के निर्माण के समय लोकसभा सदस्य अपने क्षेत्र के हितों को ध्यान में रखकर कानूनों का निर्माण कराते हैं।

(7) महाभियोग सम्बन्धी अधिकार

लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर निम्नलिखित प्रमुख पदाधिकारियों को उनके पद से समय से पूर्व पदच्युत कर सकती है –

(अ) वह राज्यसभा के साथ मिलकर राष्ट्रपति पर महाभियोग लगा सकती है।
(ब) वह राज्यसभा के साथ मिलकर उपराष्ट्रपति को पदच्युत कर सकती है।
(स) सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के विरुद्ध महाभियोग लगाकर उन्हें संसद के बहुमत से पदच्युत कर सकती है। राष्ट्रपति द्वारा किसी अपराधी को क्षमादान देने से पूर्व संसद की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक होता है।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोकसभा संसद का प्रमुख व महत्त्वपूर्ण सदन है। डॉ० एम० पी० शर्मा के अनुसार, “यदि संसद राज्य का सर्वोच्च अंग है तो लोकसभा संसद का सर्वोच्च अंग है। व्यवहारतः लोकसभा ही संस्द है।”

राज्यसभा के साथ लोकसभा के सम्बन्ध

भारतीय संसद के दो सदन हैं – लोकसभा व राज्यसभा तथा एक प्रकार से दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। इनके सम्बन्धों की संक्षिप्त विवेचना निम्नलिखित है –

दोनों सदनों के सदस्य समान रूप से राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं तथा राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने को अधिकार भी दोनों सदनों को है। एक सदन महाभियोग लगाता है तो दूसरा उसकी जाँच करता है। सर्वोच्च न्यायालये और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक तथा मुख्य चुनाव आयुक्त को पदच्युत करने के लिए दोनों सदनों की स्वीकृति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति द्वारा की गयी संकटकालीन उद्घोषणा की स्वीकृति संसद के दोनों सदनों से होना आवश्यक है।

सैद्धान्तिक दृष्टि से साधारण या अवित्तीय विधेयकों के सम्बन्ध में दोनों सदनों की शक्तियाँ बराबर हैं। साधारणतः विधेयक दोनों सदनों में से किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
लोकसभा तथा राज्यसभा के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए।
या
“लोकसभा, राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
संसद के दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा में कौन-सा अधिक शक्तिशाली है। और क्यों?
उत्तर :

लोकसभा एवं राज्यसभा के सम्बन्ध

भारतीय संसद के दो सदन होते हैं-उच्च सदन व निम्न सदन। उच्च सदन को राज्यसभा और निम्न सदन को लोकसभा कहते हैं। लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर संसद के नाम से पुकारा जाता है। यद्यपि राज्यसभा, लोकसभा से कम शक्तिशाली है, परन्तु बहुत-से ऐसे कार्य हैं जो राज्यसभा और लोकसभा को सम्मिलित रूप से करने होते हैं।

लोकसभा जनता का संदन है; अतएव समस्त कार्यों में लोकसभा की प्रमुखता होना स्वाभाविक ही है। संविधान-निर्माताओं की यह इच्छा भी थी कि राज्यसभा, लोकसभा की अपेक्षा कमजोर सदन रहे और इस कारण उन्होंने राज्यसभा को उन शक्तियों से विभूषित नहीं किया, जिन्हें लोकसभा को प्रदान किया गया। लोकसभा और राज्यसभा के सम्बन्धों को निम्नलिखित सन्दर्भो में समझा जा सकता है –

(1) साधारण विधेयक – सैद्धान्तिक रूप से साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में दोनों सदनों को समान शक्तियाँ प्राप्त हैं। ऐसे विधेयक किसी भी सदन में पहले प्रस्तुत किये जा सकते हैं जब कोई साधारण विधेयक लोकसभा द्वारा पारित होकर राज्यसभा में जाता है और राज्यसभा उसे अस्वीकार कर देती है, या उसे 6 महीने तक पारित नहीं करती है, या उसमें कुछ ऐसे संशोधन कर देती है, जिससे लोकसभा सहमत नहीं है, तो ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों का सम्मिलित अधिवेशन उस विधेयक पर विचार और मतदान करने हेतु बुलाता है। स्वाभाविक है कि लोकसभा द्वारा पारित विधेयक इस सम्मिलित अधिवेशन में अवश्य ही स्वीकृत हो जाता है, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या, राज्यसभा के सदस्यों की अपेक्षा काफी अधिक होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधारण विधेयक के सम्बन्ध में राज्यसभा कोई भी निषेधाधिकार नहीं रखती है और उसे लोकसभा के सम्मुख झुकना ही पड़ता है। हाँ, किसी विधेयक के पारित होने में राज्यसभा कुछ देर अवश्य लगा सकती है।

(2) वित्त विधेयक – वित्त विधेयक के सम्बन्ध में तो लोकसभा की शक्तियाँ राज्यसभा की शक्तियों से बहुत अधिक हैं। वित्तीय विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जाते हैं। लोकसभा का अध्यक्ष (Speaker) इस बात का निर्णय करता है कि कौन-सा विधेयक वित्तीय विधेयक है। लोकसभा जब किसी वित्तीय विधेयक को पारित करके राज्यसभा के पास उसकी स्वीकृति के लिए भेजती है तो राज्यसभा को अपनी संस्तुति सहित उस विधेयक को लोकसभा को 14 दिन के अन्दर लौटा देना होता है। यदि राज्यसभा उक्त विधेयक को 14 दिन के अन्दर अपनी संस्तुतियों सहित लोकसभा को वापस नहीं करती या ऐसी सिफारिश करती है जो लोकसभा को मान्य नहीं है तो लोकसभा की इच्छा ही सर्वोपरि होगी। अनुदान सम्बन्धी माँग या योजना केवल लोकसभा के समक्ष प्रस्तुत की जाती है और सार्वजनिक व्यय की स्वीकृति का अधिकार केवल लोकसभा को ही होता है। इस सम्बन्ध में राज्यसभा को कोई अधिकार नहीं होता। इस प्रकार वित्तीय सन्दर्भो में राज्यसभा पर्याप्त शक्तिहीन सदन है।

(3) कार्यपालिका का नियन्त्रण – भारत में संसदीय प्रणाली होने के कारण मन्त्रिपरिषद् अपने समस्त कार्यों एवं नीतियों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी है, परन्तु वास्तव में यह उत्तरदायित्व लोकसभा के प्रति है न कि राज्यसभा के प्रति। संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार, मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। राज्यसभा के सदस्य मंत्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं तथा उनसे शासन के प्रति कोई जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु राज्यसभा मंत्रिमण्डल को अविश्वास प्रस्ताव पारित करके नहीं हटा सकती यह अधिकार केवल लोकसभा के पास है। यदि मंत्रिमण्डल को लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त नहीं रहता तो उसे पद त्याग देना पड़ता है। लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित करके, बजट को रद्द करके तथा महत्त्वपूर्ण सरकारी विधेयक अस्वीकार करके मन्त्रिपरिषद् को पदच्युत कर सकती है। मन्त्रिपरिषद् लोकसभा की इच्छाओं के विरुद्ध नहीं चल सकती है; अतः मन्त्रिपरिषद् पर शासन का नियन्त्रण लोकसभा का है न कि राज्यसभा का।

(4) संविधान संशोधन के सम्बन्ध में  राज्यसभा और लोकसभा को संविधान में संशोधन करने का भी अधिकार है। इस सम्बन्ध में दोनों सदन समान अधिकार रखते हैं। संविधान संशोधन विधेयक दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों के बहुमत और सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए। राज्यसभा का यह अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि बिना उसकी स्वीकृति प्राप्त किये लोकसभा संविधान में कोई संशोधन नहीं कर सकती। यदि संविधान संशोधन विधेयक पर दोनों सदनों में मतभेद उत्पन्न हो जाए तो किस उपाय को अपनाया जाएगा, इस सम्बन्ध में संविधान में कुछ भी नहीं लिखा है।

(5) अन्य मामले –

  1. राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाने के लिए दोनों सदन समान रूप से भाग लेते हैं। एक सदन राष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाता है तथा दूसरा जाँच करके उसमें निर्णय देता है। इस प्रकार राष्ट्रपति को पदच्युत करने के लिए दोनों सदनों की सहमति आवश्यक है।
  2. राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के चुनाव में दोनों सदनों को समान अधिकार प्राप्त हैं।
  3. उप-राष्ट्रपति पर महाभियोग का प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार राज्यसभा को है और लोकसभा उस पर जाँचकर निर्णय दे सकती है।
  4. सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को पद से हटाने के लिए प्रस्ताव पारित करने में दोनों सदनों को समान रूप से भाग लेने का अधिकार है।
  5. लोकसभा अपने अध्यक्ष (Speaker) का निर्वाचन स्वयं करती है, किन्तु राज्यसभा का सभापति दोनों सदनों द्वारा चुना गया उप-राष्ट्रपति ही होता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकसभा की शक्तियाँ राज्यसभा की अपेक्षा बहुत अधिक हैं, परन्तु फिर भी राज्यसभा का अपना ही महत्त्व है। राज्यसभा को कुछ ऐसे भी अधिकार प्राप्त हैं जो लोकसभा को प्राप्त नहीं हैं –

  1. अखिल भारतीय सेवाओं का गठन तभी किया जा सकता है जब इस आशय का प्रस्ताव राज्यसभा पारित कर दे
  2. राज्य सूची के किसी विषय को राज्यसभा द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किये जाने पर ही संसद उस पर कानून बना सकती है। इस प्रकार लोकसभा और राज्यसभा का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

प्रश्न 6.
लोकसभा किस प्रकार केंद्रीय मंत्रिपरिषद् को नियन्त्रित करती है।
उत्तर :

लोकसभा तथा केंद्रीय मंत्रिपरिषद् पर नियन्त्रण

लोकसभा तथा केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में घनिष्ठ तथा अटूट सम्बन्ध होता है। केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण अधिकांशतः लोकसदस्यों में से ही किया जाता है। प्रधानमंत्री लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता होता है। प्रधानमंत्री मन्त्रिपरिषद् के प्रति और सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है।

कानूनी दृष्टिकोण से लोकसभा का स्थान मन्त्रिपरिषद् से उच्चतर होता है। लोकसभा मंत्रिपरिषद् की जननी है। मंत्रिपरिषद् संविधान की सीमा के अन्तर्गत कार्य करे तथा वह अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करे, इसके लिए मंत्रिपरिषद् की सीमान्तर्गत लोकसभा का अनवरत नियन्त्रण रहता है। लोकसभा निम्नलिखित साधनों द्वारा मंत्रिपरिषद् पर नियन्त्रण स्थापित करती है –

1. प्रश्न एवं पूरक-प्रश्न – पहला साधन जिसके द्वारा लोकसभा मन्त्रिपरिषद् पर अपना नियन्त्रण स्थापित करती है वह है प्रश्नों तथा पूरक-प्रश्नों का पूछना। लोकसभा के सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त होता है कि उसके सदस्य मंत्रियों से उनके कार्यों से सम्बन्धित प्रश्न पूछ सकें और मंत्रियों का यह दायित्व है कि वे उनका उत्तर दें। यदि कोई मंत्री प्रश्नों का उत्तर सन्तोषजनक ढंग से नहीं दे पाता है तो उसका सम्मान जनसाधारण से कम हो जाता है और इसका प्रभाव आगामी निर्वाचनों पर भी पड़ता है।

2. मन्त्रिपरिषद् की नीति की आलोचना व उसकी स्वीकृति – लोकसभा समय-समय पर मन्त्रिपरिषद् की नीति की आलोचना भी करती है। संसद यदि मन्त्रिपरिषद् की साधारण नीति से अथवा उसके किसी विशेष कार्य से अप्रसन्न है तो वह मन्त्रिपरिषद् के किसी प्रस्ताव, विधेयक एवं उसके द्वारा प्रस्तुत बजट अथवा उसकी अन्य किसी भी नीति को अस्वीकृत करके मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर सकती है; क्योंकि इसकी इस प्रकार की अस्वीकृति का अर्थ यह होता है कि मन्त्रिपरिषद् को लोकसभा का विश्वास प्राप्त नहीं है।

3. कटौती प्रस्ताव – लोकसभा के सदस्यों को यह भी अधिकार प्राप्त होता है कि वे किसी विशेष विभाग के कार्यों व नीतियों के प्रति अपना असन्तोष व्यक्त करने के लिए उस विभाग के व्यय के सम्बन्ध में कटौती प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकें। यदि लोकसभा ऐसे कटौती प्रस्ताव को पारित कर दे तो मंत्रिमण्डल द्वारा त्यागपत्र देना उसका नैतिक कर्तव्य हो जाता है।

4. कार्य स्थगन प्रस्ताव  संसद के सदस्यों को यह अधिकार भी है कि वे किसी विशेष विषय को लेकर काम रोको प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं। यदि इस प्रकार का प्रस्ताव पारित हो जाती है। तो इसका अर्थ यह है कि सदन को उसका ध्यान उस ओर आकर्षित करना पड़ा। ऐसी दशा में भी मंत्रिमण्डल की अयोग्यता सिद्ध हो जाती है तथा उसे नैतिक आधार पर त्यागपत्र देना पड़ता

5. निन्दा प्रस्ताव – लोकसभा के सदस्य किसी विषय को लेकर अथवा सरकार की किसी नीति को लेकर सम्पूर्ण मंत्रिमण्डल अथवा किसी मंत्री के विरुद्ध निन्दा का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं। यदि ऐस प्रस्ताव पारित हो जाता है तो मन्त्रिपरिषद् को नैतिक आधार पर त्यागपत्र देना पड़ता है।

6. अविश्वास का प्रस्ताव – लोकसभा के सदस्यों को यह भी अधिकार प्राप्त है कि यदि वे सरकार की साधारण नीति से असन्तुष्ट हों अथवा सम्पूर्ण मंत्रिमण्डल के क्रियाकलापों से असन्तुष्ट हों तो सरकार के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं।

7. राष्ट्रपति के भाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव – संसद के प्रत्येक अधिवेशन के पहले राष्ट्रपति सदन के सम्मुख भाषण देता है। इस भाषण में राष्ट्र की समस्याओं के प्रति सदन का ध्यान आकर्षित किया जाता है उसके पश्चात् लोकसभा उस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित करती है।

8. आकलन समिति तथा लोक लेखा समिति – लोकसभा की ये दोनों समितियाँ भी मंत्रिपरिषद् को नियन्त्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मंत्रिपरिषद् द्वारा रखी हुई अनुदान की माँगों को आकलन समिति (Estimate Committee) के सम्मुख रखा जाता है तथा यह समिति सदन को अपना प्रतिवेदन देती है। इससे गलत माँगों का निस्तारण हो जाता है। इसके अतिरिक्त जब धन व्यय कर लिया जाता है तो लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee) क्रमशः उस खर्च का परीक्षण करती है। इससे सरकार के असंगत व्ययों पर अंकुश लगता है तथा सरकार की जवाबदेही बढ़ जाती है। अत: धन के दुरुपयोग की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं। इस प्रकार उक्त साधनों से लोकसभा मंत्रिमण्डल का मार्ग निर्देशित करती है, उस पर नियन्त्रण स्थापित करती है तथा उसके कार्यों की देख-रेख करती है। लोकसभा की यह शक्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावकारी है।

प्रश्न 7.
संसद की विभिन्न समितियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :

संसद की समितियाँ

भारतीय संसद की निम्नलिखित समितियाँ हैं –

1. कार्य परामर्शदात्री समिति – यह समिति संसद के समस्त कार्यों के संचालन में सहायता करती है। इस समिति में 15 सदस्य होते हैं तथा लोकसभा का अध्यक्ष ही इस समिति का अध्यक्ष होता है। सदन का कार्य आरम्भ होते ही इस समिति का गठन किया जाता है। यह समिति सदन के कार्यों को संचालित करके उसके लिए नियमों का निर्माण करती है।

2. याचिका समिति – इस समिति में 15 सदस्य होते हैं जिनका नाम-निर्देशन अध्यक्ष द्वारा सदन के आरम्भ में ही किया जाता है। इस समिति का कार्य व्यक्तियों तथा लोकसभा द्वारा प्रेषित याचिकाओं पर सदन को परामर्श देना है। यह समिति प्रत्येक याचिका की जाँच करती है, जो उसे सौंपी जाती है।

3. प्राक्कलन समिति – इस समिति में 30 सदस्य होते हैं, जिनका चुनाव प्रत्येक वर्ष लोकसभा के सदस्यों में से आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय पद्धति द्वारा होता है। इस समिति का कार्य होता है कि वह प्रत्येक विभाग के आय-व्यय अथवा वार्षिक वित्तीय विवरण के प्राक्कलनों का समय-समय पर विश्लेषण करे तथा सदन को मितव्ययिता के सुझाव दे।

4. लोक-लेखा समिति – इस समिति का चुनाव प्रति वर्ष संसद के दोनों सदनों में होता है। इसमें दोनों सदनों के सदस्य लिए जाते हैं। इस समिति की कुल सदस्य संख्या 22 है, जिनमें से 15 सदस्य लोकसभा के तथा 7 सदस्य राज्यसभा के होते हैं। इन सदस्यों का चुनाव भी समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर होता है। समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा का अध्यक्ष करता है। इस समिति का कार्य है—लेखा-परीक्षण। प्रति वर्ष यह समिति नियन्त्रक तथा महालेखा परीक्षक के विवरणों की जाँच करती है तथा अपना प्रतिवेदन संसद के सम्मुख रखती है। समिति की रिपोर्ट सरकार के लिए चेतावनी का कार्य करती है।

5. प्रवर समिति – यह वह समिति है जो साधारणतया प्रत्येक विधेयक पर अपने विचार तथा उससे सम्बन्धित विवरण सदन के सम्मुख प्रस्तुत करती है। प्रवर समिति किसी विधेयक-विशेष हेतु बनाई जाती है और रिपोर्ट देने के बाद उसका समापन हो जाता है। प्रत्येक ऐसी समिति के निर्माण का प्रस्ताव, उसके सदस्यों की संख्या और उसकी सदस्यता का निर्माण विधेयक के प्रस्ताव के अनुसार होता है। प्रवर समितियों के अध्यक्ष की नियुक्ति सदन का अध्यक्ष करता है।

6. व्यक्तिगत सदस्यों के विधेयक तथा प्रस्तावों की समिति – इस समिति में 15 सदस्य होते हैं। इन सदस्यों को लोकसभा की अध्यक्ष एक वर्ष के लिए मनोनीत (Nominate) करता है। इस समिति का मुख्य कार्य गैर-सरकारी सदस्यों के द्वारा प्रस्तुत विधेयकों की जाँच करना है। समिति यह सुझाव भी प्रस्तुत करती है कि गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों के लिए कितना समय दिया जाए।

7. विशेषाधिकार समिति – इस समिति की सदस्य संख्या 15 होती है। सदन के प्रारम्भ में अध्यक्ष द्वारा सदस्यों का मनोनयन किया जाता है। यदि संसद तथा उसके विशेषाधिकारों का मामला उठ खड़ा हो तो यह समिति उसकी जाँच करती है तथा इसके द्वारा प्रस्तुत विवरण के अनुसार ही सदन आगे की कार्यवाही करता है।

8. नियम समिति  इस समिति में भी 15 सदस्य होते हैं, जिन्हें लोकसभा का अध्यक्ष एक वर्ष के लिए नियुक्त करता है। यह समिति संसद द्वारा निर्मित नियमों की जाँच करती है। इस समिति को इन नियमों में संशोधन के लिए संस्तुति करने का भी अधिकार है।

9. संसदात्मक समिति – यह समिति संसद से सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार करती है तथा सदन के समक्ष अपने विवरण को प्रस्तुत करती है।

10. सरकार द्वारा प्रदत्त आश्वासन समिति – इस समिति का मुख्य कार्य यह जाँच करना है कि मंत्रियों ने समय-समय पर जो आश्वासन दिए हैं, वे कहाँ तक पूरे किए गए हैं। समिति सदन को रिपोर्ट प्रस्तुत करती है और बताती है कि मंत्रियों ने अपने आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं और वचनों का पालन किस सीमा तक किया है। इस समिति में 15 सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति लोकसभा का अध्यक्ष एक वर्ष के लिए करता है।

11. अधीनस्थ विधि समिति – यह समिति पर्यवेक्षण करती है कि राज्यों तथा अन्य विभिन्न प्रशासनिक निकायों द्वारा विधि-निर्माण का कार्य समुचित रूप से चल रहा है या नहीं संविधान तथा अन्य विधियों का सम्यक् पालन अधीनस्थ प्राधिकारी कर रहे हैं या नहीं। इन सभी बातों की जाँच तथा सदन को इन सभी बातों से समय-समय पर अवगत कराना इस समिति का प्रमुख कार्य है।

12. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी समिति – इस समिति में 30 से अधिक सदस्य नहीं होते हैं। किसी मंत्री को इस समिति का सदस्य मनोनीत नहीं किया जा सकता है। इसके सदस्यों की पदावधि एक वर्ष से अधिक नहीं होती है। यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी मामलों पर विचार करती है और अपनी रिपोर्ट देती है।

इस समितियों के अतिरिक्त लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति द्वारा कृषि सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), पर्यावरण और वन सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), विज्ञान और प्रौद्योगिकी सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), सामान्य प्रयोजन समिति, आवास समिति (12 सदस्य), पुस्तकालय समिति (6 सदस्य), सांसदों के वेतन-भत्ते सम्बन्धी संयुक्त समिति तथा अन्य संसदीय समितियों का गठन किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
भारतीय संसद की विधि-निर्माण प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

भारतीय संसद की विधि-निर्माण प्रक्रिया

सरकार के तीन अंगों में संसद विधि-निर्माण सम्बन्धी दायित्वों को पूर्ण करती है। विधायी क्षेत्र में संसद को सर्वोच्च शक्ति प्रदान की गयी है। संसद द्वारा निर्मित कानून एक विशेष प्रक्रिया से गुजरने के पश्चात् विधि का रूप धारण करते हैं। इस सम्बन्ध में साधारण विधेयकों व वित्तीय विधेयकों के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् प्रक्रियाओं को अपनाया गया है। विधि-निर्माण सम्बन्धी सभी विधेयक संसद के सम्मुख प्रस्तुत किये जाते हैं। तत्पश्चात् प्रत्येक विधेयक निम्नलिखित तीन वाचनों से होकर गुजरता है –

  1. प्रथम वाचन – प्रथम वाचन का आशय गजट में प्रकाशित विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने से होता है।
  2. द्वितीय वाचन – द्वितीय वाचन के अन्तर्गत गजट के सिद्धान्तों व उपबन्धों पर संसद द्वारा गहन विचार-विमर्श किया जाता है।
  3. तृतीय वाचन – तृतीय वाचन, जो विधेयक पर होने वाला अन्तिम व निर्णायक वाचन होता है, में विधेयक को स्वीकार करने हेतु निर्णय लिया जाता है।

विधेयकों के प्रकार

विधेयकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. सरकारी विधेयक – इस प्रकार के विधेयकों के अन्तर्गत साधारण व वित्तीय दो प्रकार के विधेयक आते हैं तथा इन्हें किसी मंत्री द्वारा संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
  2. गैर-सरकारी विधेयक – ऐसे साधारण विधेयक, जिन्हें मंत्रियों के अतिरिक्त राज्य विधान मण्डल के अन्य सदस्यों द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, गैर-सरकारी विधेयक कहलाते हैं।

साधारण विधेयक

साधारण विधेयक मंत्रियों अथवा संसद के किसी सदस्य के द्वारा सम्बन्धित सदन में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। किसी भी प्रस्तावित साधारण विधेयक को विधि का रूप धारण करने से पूर्व अग्रलिखित प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है –

(1) प्रथम वाचन – साधारण विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने के लिए एक माह पूर्व सूचना देनी पड़ती है। मंत्री द्वारा विधेयक के प्रस्तुतीकरण करने की तिथि अध्यक्ष द्वारा निश्चित की जाती है। निश्चित तिथि पर अध्यक्ष मंत्री को बुलाता है तथा मंत्री विधेयक के सम्बन्ध में समस्त जानकारी सदन के समक्ष प्रस्तुत करता है। इस वाचन के अन्तर्गत विधेयक पर किसी प्रकार का कोई वाद-विवाद नहीं होता, अपितु केवल यह निर्णय किया जाता है कि विधेयक पर आगे की कार्यवाही की जाए या नहीं। सदन में स्वीकृत हो जाने पर विधेयक पर आगे की कार्यवाही की जाती है। विधेयक को प्रस्तुत करने व उसे विचारार्थ आगे प्रेषित करने की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रथम वाचन कहा जाता है।

(2) द्वितीय वाचन – प्रथम वाचन के अन्तर्गत प्रस्ताव के विचारार्थ स्वीकार होने के पश्चात् विधेयक की एक-एक प्रति सदन के सदस्यों में बाँट दी जाती है। साधारणतया प्रथम वाचन में प्रस्तुतीकरण के दो दिन पश्चात् विधेयक पर द्वितीय वाचन प्रारम्भ होता है जिसमें विधेयक के मूल सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है। कुछ विशेष विधेयकों के अतिरिक्त शेष सभी विधेयक विचारार्थ प्रवर समिति को सौंप दिये जाते हैं।

प्रवर समिति – गहन विचार-विमर्श हेतु सदन द्वारा एक प्रवर समिति की नियुक्ति की जाती है, जो सदन के कुछ सदस्यों का एक संगठन होता है। प्रवर समिति में विधेयक के प्रत्येक पक्ष पर विचार करने के पश्चात् विधेयक से सम्बन्धित रिपोर्ट सदन को प्रस्तुत की जाती है। समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट सभापति के द्वारा अनुमोदित होती है।

प्रतिवेदन स्तर – प्रवर समिति द्वारा प्रेषित प्रतिवेदन पर सदन द्वारा गहन विचार-विमर्श किया जाता है। इस स्तर पर विधेयक को या तो उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाता है जिस रूप में उसे प्रवर समिति सदन को प्रेषित करती है या फिर सदन द्वारा उसमें आवश्यक संशोधन किये जा सकते हैं। इस प्रकार द्वितीय वाचन में विधेयक के प्रत्येक पक्ष पर विचार करने तथा उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने के पश्चात् द्वितीय वाचन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।

(3) तृतीय वाचन – प्रवर समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् विधेयक के तृतीय वाचन की तिथि निश्चित कर दी जाती है। यह वाचन विधेयक को अन्तिम चरण होता है। इस वाचने में प्रस्तावक द्वारा विधेयक को पारित करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है। इस वाचन में विधेयक के सामान्य सिद्धान्तों पर बहस कर उसकी भाषा को अधिक-से-अधिक स्पष्ट व सरल बनाने का प्रयत्न किया जाता है। वास्तव में, विधेयक पर तृतीय वाचन की अवस्था मात्र औपचारिकता पूर्ण करने की होती है। इस अवस्था में विधेयक को रद्द करने की सम्भावनाएँ बहुत कम होती हैं।

दूसरा सदन – प्रथम सदन में पारित हो जाने के पश्चात् विधेयक द्वितीय सदन को प्रेषित कर दिया जाता है। यदि द्वितीय सदन भी विधेयक को अपने बहुमत से पास कर देता है तो विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेज दिया जाता है, परन्तु यदि द्वितीय सदन द्वारा विधेयक को अस्वीकार कर दिया जाता है तो राष्ट्रपति संसद की संयुक्त बैठक बुलाकर बहुमत से विवाद का समाधान करता है।

राष्ट्रपति की स्वीकृति – दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पास हो जाने के पश्चात् विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हेतु प्रस्तुत किया जाता है। यदि राष्ट्रपति विधेयक पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर देता है तो विधेयक कानून का रूप धारण कर लेता है, परन्तु यदि राष्ट्रपति विधेयक के सम्बन्ध में संशोधन हेतु कोई सुझाव देकर विधेयक को वापस भेज देता है तो ऐसी स्थिति में संसद विधेयक पर पुनर्विचार करती है। यदि पुनः संसद द्वारा विधेयक पारित कर दिया जाता है। तो विधेयक पर राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है।

इस प्रकार कोई भी अवित्तीय विधेयक अन्ततः कानून का रूप धारण कर लेता है।

वित्त विधेयक

वित्त विधेयक वंह हे जिसका सम्बन्ध राजस्व अथवा व्यय से होता है। संविधान द्वारा वित्त विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया को साधारण विधेयकों से पृथक् रखा गया है। संवैधानिक प्रावधान के अनुसार वित्त विधेयकों को राष्ट्रपति की अनुमति से केवल लोकसभा में ही प्रस्तावित किया जा सकता है तथा किसी भी विधेयक के सम्बन्ध में यह विवाद उत्पन्न होने पर कि वह वित्त विधेयक है अथवा नहीं, निर्णय लोकसभा अध्यक्ष द्वारा लिया जाता है। लोकसभा में प्रस्तावित धन विधेयक के लोकसभा द्वारा पास किये जाने के पश्चात् विधेयक राज्यसभा के विचारार्थ भेजा जाता है। इस सम्बन्ध में राज्यसभा को प्राप्त शक्तियाँ अत्यन्त सीमित हैं। राज्यसभा किसी भी धन विधेयक को अपनी अस्वीकृति व्यक्त करने हेतु केवल 14 दिन तक रोक सकती है। 14 दिन की समयावधि के अन्दर या तो वह इस विधेयक के सम्बन्ध में संशोधन-सम्बन्धी कुछ सुझाव देकर लोकसभा को प्रेषित कर देती है अन्यथा 14 दिन के पश्चात् वित्त विधेयक राज्यसभा की स्वीकृति के बिना भी पारित समझा जाता है। धन विधेयक पर दिये जाने वाले राज्यसभा के परामर्शों को स्वीकार करना या न करना लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है। दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पारित होने के पश्चात् विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून का रूप धारण कर लेता है।

वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं –

  1. धन विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् ही लोकसभा में प्रस्तुत किये जाते हैं।
  2. धन विधेयकों को संसद के दोनों सदनों की संयुक्त समिति को नहीं सौंपा जाता।
  3. धन विधेयकों के सम्बन्ध में एक विशेष तथ्य यह है कि साधारण विधेयकों की भाँति इन विधेयकों को राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए सदन को नहीं लौटाया जा सकता।

प्रश्न 9.
भारतीय संसद की स्थिति और भूमिका का परीक्षण कीजिए।
उत्तर :

भारतीय संसद की स्थिति और भूमिका

भारतीय संसद ब्रिटिश संसद के समान सम्प्रभु नहीं है। नॉर्मन डी० पामर के अनुसार, “भारतीय संसद विस्तृत शक्तियों का प्रयोग करती है तथा महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करती है, तथापि इसके कार्यों पर अनेक प्रतिबन्ध हैं। संघीय प्रणाली तथा संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान करने से इसकी शक्तियाँ सीमित हो गई हैं।”

वास्तव में, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता तथा न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया ने संसद पर सीमाएँ अवश्य लगाई हैं, परन्तु संसद देश की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है, उसे संविधान में संशोधन करने का अधिकार है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संसद की स्थिति ‘संसदीय सम्प्रभुता’ तथा ‘न्यायिक सर्वोच्चता के बीच की है।

भारत में संसद की प्रभावी भूमिका के सम्बन्ध में समय-समय पर सारगर्भित आलोचनाएँ की जाती रही हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल का संसद पर सदा दबाव बना रहा है। प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल जो भी निर्णय लेते हैं, संसद उनका अनुमोदन कर देती है। डॉ० लक्ष्मीलाल सिंघवी के अनुसार, “यह सत्य है कि कानून बनाने की तथा कर व शुल्क लगाने की सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है, किन्तु वास्तविकता यह है कि अधिनियमों का बीजारोपण और अभ्युदय मंत्रालयों में होता है, संसद में केवल मंत्रोच्चारण के साथ उपनयन संस्कार होता है और उन्हें औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता है। इस कथन से स्पष्ट होता है कि मंत्रिमण्डल के प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा उसके दल के संसद में बहुमत होने से संसद के अधिकार प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल ने ग्रहण कर लिए हैं। शक्तिशाली विपक्ष के अभाव में संसद; प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल की इच्छानुसार ही कार्य करती है। पिछले कुछ वर्षों में लोकसभा के स्तर में जो अभूतपूर्व गिरावट देखने को मिली है, वह लोकतन्त्र के लिए चिन्ता का विषय है। सांसदों के आचरण को देखकर हीरेन मुकर्जी ने कहा है, भारतीय संसद स्वर्ण युग प्राप्त किए बिना ही पतन की ओर अग्रसर हो रही है।”

भारतीय संसद के पराभव के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जा सकते हैं –

  1. संसद सदस्य पारस्परिक वाद-विवाद तथा आरोप-प्रत्यारोपों के कारण अपना बहुमूल्य समय नष्ट कर देते हैं, जिससे वे कानून सम्बन्धी मामलों पर गम्भीरता से विचार नहीं कर पाते।
  2. वर्तमान में राज्य के कार्य इतने अधिक विस्तृत हो गए हैं कि प्रत्येक विषय पर विचार करने के लिए न तो संसद के पास समय है और न ही सदस्यों को तकनीकी जानकारी है। अत: संसद को नौकरशाही द्वारा की गई सूचनाओं पर निर्भर रहना पड़ता है जिनकी प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध होती है।
  3. संसद में साधारणतया सरकारी विधेयक ही पारित हो पाते हैं। दलीय अनुशासन के कारण सदन के सदस्यों को इनका समर्थन करना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में व्यवहार में विधि-निर्माण कार्य संसद का न होकर मंत्रिमण्डल का हो गया है।
  4. संसद की वित्तीय शक्तियाँ मात्र औपचारिक हैं, क्योंकि जिस दल को लोकसभा में बहुमत होता है, वही सत्ताधारी होती है और इसके लिए वित्त विधेयक पारित करवाना कठिन कार्य नहीं होता है।
  5. राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है। इन अध्यादेशों को वही मान्यता प्राप्त होती है, जो संसद द्वारा पारित कानूनों को प्राप्त होती है।

भारतीय संसद की अनेक कमियों के बावजूद भी इसने देश की राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को बनाए रखने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। आज संसद की गरिमा को ऊँचा उठाने के लिए इसमें सुधार की आवश्यकता है।

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