UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 8 Local Governments

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 8 Local Governments (स्थानीय शासन)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Political Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 8 Local Governments (स्थानीय शासन).

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत का संविधान ग्राम पंचायत को स्व-शासन की इकाई के रूप में देखता है। नीचे कुछ स्थितियों का वर्णन किया गया है। इन पर विचार कीजिए और बताइए कि स्व-शासन की इकाई बनने के क्रम में पंचायत के लिए ये स्थितियाँ सहायक हैं या बाधक?

(क) प्रदेश की सरकार ने एक बड़ी कम्पनी को विशाल इस्पात संयंत्र लगाने की अनुमति दी है। इस्पात संयंत्र लगाने से बहुत-से गाँवों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। दुष्प्रभाव की चपेट में आने वाले गाँवों में से एक की ग्राम सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया कि क्षेत्र में कोई भी बड़ा उद्योग लगाने से पहले गाँववासियों की राय ली जानी चाहिए और उनकी शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए।

(ख) सरकार का फैसला है कि उसके कुल खर्चे का 20 प्रतिशत पंचायतों के माध्यम से व्यय होगा।

(ग) ग्राम पंचायत विद्यालय का भवन बनाने के लिए लगातार धन माँग रही है, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने माँग को यह कहकर ठुकरा दिया है कि धन का आवंटन कुछ दूसरी योजनाओं के लिए हुआ है और धन को अलग मद में खर्च नहीं किया जा सकता।

(घ) सरकार ने डूंगरपुर नामक गाँव को दो हिस्सों में बाँट दिया है और गाँव के एक हिस्से को जमुना तथा दूसरे को सोहना नाम दिया है। अब डूंगरपुर गाँव सरकारी खाते में मौजूद नहीं है।

(ङ) एक ग्राम पंचायत ने पाया कि उसके इलाके में पानी के स्रोत तेजी से कम हो रहे हैं। ग्राम पंचायतों ने फैसला किया कि गाँव के नौजवान श्रमदान करें और गाँव के पुराने तालाब तथा कुएँ को फिर से काम में आने लायक बनाएँ।
उत्तर-
(क) यह स्थिति ग्राम पंचायत में बाधक है क्योंकि यहाँ पर सरकार ने ग्राम पंचायत से परामर्श किए बिना एक बड़ा इस्पात संयंत्र लगाने का फैसला किया जिससे ग्राम के गरीब लोगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

(ख) यह स्थिति भी ग्राम पंचायत के लिए बाधक है क्योंकि इससे ग्राम पंचायत पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा।

(ग) तीसरी स्थिीत में भी ग्राम पंचातय की विद्यालय भवन-निर्माण के लिए की जा रही धन की माँग को ठुकरा दिया गया है जिससे ग्राम पंचायत की स्थिति कमजोर होती है।

(घ) यहाँ ग्राम के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया गया है; अतः ग्राम पंचायत होगी ही नहीं।

(ङ) ग्राम पंचायत के लिए यह स्थिति सहायक है। इसमें पानी की कमी को दूर करने के लिए ग्राम के नौजवानों का सहयोग लेकर पुराने कुओं और तालाबों को कामयाब बनाने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 2.
मान लीजिए कि आपको किसी प्रदेश की तरफ से स्थानीय शासन की कोई योजना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ग्राम पंचायत स्व-शासन की इकाई के रूप में काम करे, इसके लिए आप उसे कौन-सी शक्तियाँ देना चाहेंगे? ऐसी पाँच शक्तियों का उल्लेख करें और प्रत्येक शक्ति के बारे में दो-दो पंक्तियों में यह भी बताएँ कि ऐसा करना क्यों जरूरी है।
उत्तर-
ग्राम पंचायतों को योजना की सफलता के लिए निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की जा सकती हैं-
1. शिक्षा के विकास के क्षेत्र में – शिक्षा का विकास ग्रामीण क्षेत्र के लिए अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा-प्राप्ति के पश्चात् ही नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों को जान सकेंगे तथा अपनी भागीदारी को निश्चित करेंगे।
2. स्वास्थ्य के विकास के क्षेत्र में – ग्रामों में स्वास्थ्य शिक्षा का व स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रायः अभाव रहता है; अत: इस क्षेत्र में ग्राम पंचायत की महत्त्वपूर्ण भूमिका अपेक्षित है।
3. कृषि के विकास के क्षेत्र में – कृषि का विकास ग्रामीण क्षेत्र की प्रमुख आवश्यकता है, क्योंकि ग्रामीण जीवन कृषि पर ही निर्भर करता है। ग्राम पंचायत, ग्राम व सरकार के बीच कड़ी है। अत: इस क्षेत्र में ग्राम पंचायत को विशेष कार्य करना चाहिए।
4. खेतों में उत्पन्न फसल को बाजार तक ले जाने के बारे में जानकारी देना – ग्रामीणों को खेतों में उपजे अन्न को ग्राम में ही बेचना पड़ता है, जिसके कारण उन्हें पैदावार का उचित लाभ नहीं मिल पाता। अतः यह आवश्यक है कि पैदावार सही समय पर बाजार में पहुंचाई जाए।
5. पंचायतों के वित्तीय स्रोतों को एकत्र करना – ग्राम की आर्थिक दशा हमेशा कमजोर रहती है; अत: ग्राम के सभी स्रोतों का समुचित उपयोग करना चाहिए और ग्राम पंचायत को सरकार से ग्रामीण विकास के लिए आवश्यक धन लेना चाहिए।

प्रश्न 3.
सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73वें संशोधन में आरक्षण के क्या प्रावधान हैं? इन प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका किस तरह बदलता है?
उत्तर-
संविधान के 73 वें संशोधन से अनुसूचित जाति के लोगों के लिए व महिलाओं के लिए कुछ सीटों में से प्रत्येक वर्ग के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं। यह आरक्षण ग्राम पंचायतों, पंचायत समितियों व जिला परिषदों में सदस्यों व पदों में किया गया है। इस आरक्षण से महिलाओं की व अनुसूचित जाति के लोगों की स्थिति में सम्मानजनक परिवर्तन हुआ है। इससे पहले इन वर्गों की स्थानीय संस्थाओं में पर्याप्त भागीदारी नहीं हुआ करती थी। परन्तु अब यह भागीदारी निश्चित हो गई है। जिससे इनमें एक विश्वास उत्पन्न हुआ है।

प्रश्न 4.
संविधान के 73 वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद स्थानीय शासन के बीच मुख्य भेद बताएँ।
उत्तर-

  1. 73वें संविधान संशोधन से पूर्व ग्राम पंचायतें सरकारी आदेशों के अनुसार गठित की जाती थीं परन्तु 73वें संशोधन के पश्चात् से इनका संवैधानिक आधार हो गया है।
  2. 73वें संविधान संशोधन से पूर्व इन संस्थाओं के चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से हुआ करते थे परन्तु 73 वें संशोधन के बाद से चुनाव प्रत्यक्ष होते हैं।
  3. 73वें संविधान संशोधन से पहले अनुसूचित जाति व महिलाओं के लिए स्थानों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी परन्तु 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् महिलाओं व अनुसूचित जाति के लोगों को आरक्षण दिया गया है।
  4. पहले इन संस्थाओं के कार्यकाल अनिश्चित थे परन्तु अब निश्चित कर दिए गए हैं।
  5. 73वें संविधान संशोधन से पूर्व ये संस्थाएँ आर्थिक रूप से कमजोर थीं परन्तु अब आर्थिक रूप से सुदृढ़ हैं।

प्रश्न 5.
नीचे लिखी बातचीत पढे। इस बातचीत में जो मुद्दे उठाए गए हैं उसके बारे में अपना मत दो सौ शब्दों में लिखें।

आलोक – हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्थानीय निकायों से स्त्रियों को आरक्षण देने से सत्ता में उनकी बराबर की भागीदारी सुनिश्चित हुई है।

नेहा – लेकिन, महिलाओं को सिर्फ सत्ता के पद पर काबिज होना ही काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि स्थानीय निकायों के बजट में महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान हो।

जएश – मुझे आरक्षण का यह गोरखधन्धा पसन्द नहीं। स्थानीय निकाय को चाहिए कि वह गाँव के सभी लोगों का खयाल रखे और ऐसा करने पर महिलाओं और उनके हितों की देखभाल अपने आप हो जाएगी।
उत्तर-
विगत 60 वर्षों की स्थानीय संस्थाओं की कार्यशैली व ग्रामीण वातावरण के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इन स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं का व अनुसूचित जाति के लोगों का इनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं हुआ। जो प्रतिनिधित्व था वह बहुत कम था। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन के आधार पर महिलाओं व अनुसूचित जाति के लोगों को ग्रामीण व नगरीय स्थानीय संस्थाओं में प्रत्येक को कुल स्थानों का एक-तिहाई आरक्षण दिया गया है जिससे महिलाओं की व अनुसूचित जाति के लोगों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आया है वे इनमें एक विश्वास उत्पन्न हुआ है। इस आरक्षण से इन वर्गों की स्थानीय संस्थाओं में भागीदारी सुनिश्चित हुई है।

स्थानीय संस्थाएँ प्रशासन की इकाई हैं जिन्हें आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए स्थानीय स्रोतों का उपभोग करने के साथ-साथ प्रान्तीय सरकारों के केन्द्र सरकारों को भी इन स्थानीय संस्थाओं की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए।

साथ ही महिलाओं के लिए भी बजट में अलग प्रावधान होना चाहिए। साथ ही यह भी सत्य है कि केवल आरक्षण ही काफी नहीं है, स्थानीय निकाय को चाहिए कि वे गाँव के सभी लोगों के लिए विकास कार्यों का ध्यान रखें।

प्रश्न 6.
73 वें संशोधन के प्रावधानों को पढे। यह संशोधन निम्नलिखित सरोकारों में से किससे ताल्लुक रखता है?
(क) पद से हटा दिए जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
(ख) भूस्वामी सामन्त और ताकतवर जातियों का स्थानीय निकायों में दबदबा रहता है।
(ग) ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता बहुत ज्यादा है। निरक्षर लोगों गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते हैं।
(घ) प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास गाँव की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन का होना जरूरी है।
उत्तर-
(घ) प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास गाँव की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन को होना जरूरी है।

प्रश्न 7.
नीचे स्थानीय शासन के पक्ष में कुछ तर्क दिए गए हैं। इन तर्को को आप अपनी पसंद से वरीयता क्रम में सजाएँ और बताएँ कि किसी एक तर्क की अपेक्षा दूसरे को आपने ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्यों माना है? आपके जानते वेगवसल गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला निम्नलिखित कारणों में से किस पर और कैसे आधारित था?
(क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।
(ख) स्थानीय जनता द्वारा बनायी गई विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गई विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।
(ग) लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
(घ) आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन-प्रतिनिधियों से संपर्क कर पाना मुश्किल होता है।
उत्तर-
उपर्युक्त को वरीयता क्रम निम्नवत् होगा-
(1) ग (2) क (3) खे (4) घ।
बैंगेवसल गाँव की पंचायत का फैसला ‘ग’ उदाहरण पर आधारित है जिसमें यह व्यक्त किया गया है। कि स्थानीय लोग अपनी समस्याओं, हितों व प्राथमिकताओं को बेहतर समझते हैं। अत: उन्हें अपने बारे में निर्णय लेने का स्वयं अधिकार प्रदान करना चाहिए।

प्रश्न 8.
आपके अनुसार निम्नलिखित में कौन-सा विकेंद्रीकरण का साधन है? शेष को विकेंद्रीकरण के साधन के रूप में आप पर्याप्त विकल्प क्यों नहीं मानते?
(क) ग्राम पंचायत का चुनाव होगा।
(ख) गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत।
(घ) प्रदेश सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। प्रखंड विकास अधिकारी (बीडीओ) ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है।
उत्तर-
(ख) उदाहरण में शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की स्थिति है जिसमें ग्राम के लोग स्वयं यह निश्चित करते हैं कि कौन-सी परियोजना उनके लिए उपयोगी है। अन्य उदाहरणों में विकेन्द्रीकरण की स्थितिं निम्नलिखित कारणों से प्रतीत नहीं होती-
(क) ग्राम पंचायतों के चुनाव से सम्बद्ध है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की बात कही गई है।
(घ) बीडीओ ग्राम पंचायत के समक्ष रिपोर्ट पेश करता है।

प्रश्न 9.
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र प्राथमिक शिक्षा के निर्णय लेने में विकेन्द्रीकरण की भूमिका का अध्ययन करना चाहता था। उसने गाँववासियों से कुछ सवाल पूछे। ये सवाल नीचे लिखे हैं। यदि गाँववासियों में आप शामिल होते तो निम्नलिखित प्रश्नों के क्या उत्तर देते?
गाँव का हर बालक/बालिका विद्यालय जाए, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए-इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा की बैठक बुलाई जानी है।

(क) बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला आप कैसे करेंगे? सोचिए कि आपके चुने हुए दिन में कौन बैठक में आ सकता है और कौन नहीं?
(अ) प्रखण्ड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
(ब) गाँव का बाजार जिस दिन लगता है।
(स) रविवार।
(द) नाग पंचमी/संक्रांति

(ख) बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? कारण भी बताएँ।
(अ) जिला-कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह।
(ब) गाँव का कोई धार्मिक स्थान।
(स) दलित मोहल्ला।
(द) ऊँची जाति के लोगों का टोला।
(ध) गाँव का स्कूल।

(ग) ग्राम सभा की बैठक में पहले जिला-समाहर्ता (कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया। परिपत्र में बताया गया था कि शैक्षिक रैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएँ और रैली किस रास्ते होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में, विद्यालय भवन की दशा के बारे में और विद्यालय के खुलने-बंद होने के समय के बारे में भी चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आ सकी। लोगों की भागीदारी के लिहाज से इसको आप अच्छा कहेंगे या बुरा? कारण भी बताएँ।।

(घ) अपनी कक्षा की कल्पना ग्राम सभा के रूप में करें। जिस मुद्दे पर बैठक में चर्चा होनी थी उस पर कक्षा में बातचीत करें और लक्ष्य को पूरा करने के लिए कुछ उपाय सुझाएँ।
उत्तर-
(क) प्रखण्ड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा निश्चित किया हुआ कोई दिन।
(ख) गाँव का स्कूल बैठक के लिए उचित स्थान रहेगा क्योकि यहाँ पर गाँव के सभी लोग आते हैं। वे इस स्थान से भली-भाँति परिचित हैं।
(ग) उपर्युक्त स्थिति में स्पष्ट किया गया है कि स्थानीय सरकारों की वास्तविक स्थिति क्या है तथा स्थानीय संस्थाओं की बैठकों में स्थानीय लोगों की भागीदारी कितनी कम होती है। इन संस्थाओं की बैठकें केवल औपचारिकताएँ होती हैं तथा स्थानीय लोगों को निर्णयों की सूचना दे दी जाती है। महिलाओं की अनुपस्थिति इन बैठकों में लगभग ने
के बराबर ही होती है तथा उनके विचारों पर कोई ध्यान नहीं देती।
(घ) अगर हमारी कक्षा एक ग्राम सभा में परिवर्तित हो जाए और उसमें चर्चा का विषय, स्थानीय लोगों का कल्याण व भागीदारी हो तो इस बात का सर्वसम्मति से निर्णय करने का प्रयाय किया जाएगा कि शक्तियों के विकेन्द्रीकरण के उद्देश्य को प्राप्त किया जाए। इसके लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-

  • ग्राम विकास में स्थानीय लोगों की भागीदारी होनी चहिए।
  • शक्तियों का अधिक-से-अधिक विकेन्द्रीकरण हो।
  • महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो।
  • कमजोर वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
  • सरकार की ग्रामों तक सीधी पहुँच हो।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पंचायत समिति का क्षेत्र है –
(क) ग्राम
(ख) जिला
(ग) विकास खण्ड
(घ) नगर
उत्तर :
(क) ग्राम

प्रश्न 2.
पंचायती राज-व्यवस्था में एकरूपता संविधान के किस संशोधन द्वारा लाई गई?
(क) 42वें संशोधन द्वारा
(ख) 73वें संशोधन द्वारा
(ग) 46वें संशोधन द्वारा
(घ) 44वें संशोधन द्वारा
उत्तर :
(ख) 73वें संशोधन द्वारा

प्रश्न 3.
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई है –
(क) ग्राम
(ख) जिला
(ग) प्रदेश
(घ) नगर
उत्तर :
(ख) जिला

प्रश्न 4.
पंचायती राज का सबसे निचला स्तर है –
(क) ग्राम पंचायत
(ख) ग्राम सभा
(ग) पंचायत समिति
(घ) न्याय पंचायत
उत्तर :
(क) ग्राम पंचायत।

प्रश्न 5.
न्याय पंचायत के कार्य-क्षेत्र में सम्मिलित नहीं है
(क) छोटे दीवानी मामलों का निपटारा
(ख) मुजरिमों पर जुर्माना
(ग) मुजरिमों को जेल भेजना
(घ) छोटे फौजदारी मामलों का निपटारा
उत्तर : 
(ग) मुजरिमों को जेल भेजना।

प्रश्न 6.
जिला परिषद् के सदस्यों में सम्मिलित नहीं है –
(क) जिलाधिकारी
(ख) पंचायत समितियों के प्रधान
(ग) कुछ विशेषज्ञ
(घ) न्यायाधीश
उत्तर :
(घ) न्यायाधीश।

प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत की बैठक होनी आवश्यक है –
(क) एक सप्ताह में एक
(ख) एक माह में एक
(ग) एक वर्ष में दो
(घ) एक वर्ष में चार
उत्तर :
(ख) एक माह में एक।

प्रश्न 8.
नगरपालिका के अध्यक्ष का चुनाव होता है –
(क) एक वर्ष के लिए
(ख) पाँच वर्ष के लिए
(ग) चार वर्ष के लिए
(घ) तीन वर्ष के लिए
उत्तर :
(ख) पाँच वर्ष के लिए।

प्रश्न 9.
नगरपालिका परिषद् का ऐच्छिक कार्य है
(क) नगरों में रोशनी का प्रबन्ध करना
(ख) नगरों में पेयजल की व्यवस्था करना
(ग) नगरों की स्वच्छता का प्रबन्ध करना
(घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना
उत्तर :
(घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना।

प्रश्न 10.
जिला परिषद की आय का साधन है –
(क) भूमि पर लगान
(ख) चुंगी कर
(ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर
(घ) आयकर
उत्तर :
(ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर।

प्रश्न 11.
जिला पंचायत कार्य नहीं करती
(क) जन-स्वास्थ्य के लिए रोगों की रोकथाम करना
(ख) सार्वजनिक पुलों तथा सड़कों का निर्माण करना
(ग) प्रारम्भिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
(घ) यातायात का प्रबन्ध करना
उत्तर :
(घ) यातायात का प्रबन्ध करना

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य नगरपालिका परिषद् नहीं करती ?
(क) पीने के पानी की आपूर्ति
(ख) रोशनी की व्यवस्था
(ग) उच्च शिक्षा का संगठन
(घ) जन्म-मृत्यु का लेखा
उत्तर :
(ग) उच्च शिक्षा का संगठन।

प्रश्न 13.
जनपद का सर्वोच्च अधिकारी है –
(क) मुख्यमन्त्री
(ख) जिलाधिकारी
(ग) पुलिस अधीक्षक
(घ) जिला प्रमुख
उत्तर :
(ख) जिलाधिकारी।

प्रश्न 14.
जिले के शिक्षा विभाग का प्रमुख अधिकारी है –
(क) जिला विद्यालय निरीक्षक
(ख) बेसिक शिक्षा अधिकारी
(ग) राजकीय विद्यालय क़ा प्रधानाचार्य
(घ) माध्यमिक शिक्षा परिषद् का क्षेत्रीय अध्यक्ष
उत्तर :
(क) जिला विद्यालय निरीक्षक।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
स्थानीय स्वशासन से आशय है-किसी स्थान विशेष के शासन का प्रबन्ध उसी स्थान के लोगों द्वारा किया जाना तथा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोजना।।

प्रश्न 2.
स्थानीय शासन तथा स्थानीय स्वशासन में दो भेद बताइए।
उत्तर :

  1. स्थानीय शासन उतना लोकतान्त्रिक नहीं होता जितना स्थानीय स्वशासन होता है।
  2. स्थानीय शासन स्थानीय स्वशासन की अपेक्षा कम कुशल होता है।

प्रश्न 3.
क्या पंचायती राज-व्यवस्था अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो सकी है ?
उत्तर :
यद्यपि कहीं-कहीं पर पंचायती राज व्यवस्था ने कुछ अच्छे कार्य किये हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि पंचायती राज व्यवस्था अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल कम ही हुई है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था क्या है ?
उत्तर :
पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन इकाइयों का प्रावधान किया गया है –

  1. ग्राम पंचायत
  2. पंचायत समिति तथा
  3. जिला परिषद्।

प्रश्न 5.
पंचायती राज को सफल बनाने के लिए किन शर्तों का होना आवश्यक है ?
उत्तर :
पंचायती राज को सफल बनाने के लिए इन शर्तों का होना आवश्यक है –

  1. लोगों का शिक्षित होना
  2. स्थानीय मामलों में लोगों की रुचि
  3. कम-से-कम सरकारी हस्तक्षेप तथा
  4. पर्याप्त आर्थिक संसाधन।

प्रश्न 6.
जिला प्रशासन के दो मुख्य अधिकारियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जिला प्रशासन के दो मुख्य अधिकारी हैं –

  1. जिलाधीश तथा
  2. वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एस०एस०पी०)।

प्रश्न 7.
जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य बताइए।
उत्तर :
जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य हैं :

  1. पीने के पानी की व्यवस्था करना
  2. प्राथमिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
  3. जन-स्वास्थ्य के लिए महामारियों की रोकथाम तथा
  4. जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।

प्रश्न 8.
जिला पंचायत की दो प्रमुख समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
जिला पंचायत की दो प्रमुख समितियाँ हैं :

  1. वित्त समिति तथा
  2. शिक्षा एवं जनस्वास्थ्य समिति।

प्रश्न 9.
क्षेत्र पंचायत का सबसे बड़ा वैतनिक अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
क्षेत्र पंचायत का सर्वोच्च वैतनिक अधिकारी क्षेत्र विकास अधिकारी होता है।

प्रश्न 10.
ग्राम सभा के सदस्य कौन होते हैं ?
उत्तर :
ग्राम की निर्वाचक सूची में सम्मिलित प्रत्येक ग्रामवासी ग्राम सभा का सदस्य होता है।

प्रश्न 11.
अपने राज्य के ग्रामीण स्थानीय स्वायत्त शासन की दो संस्थाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
ग्रामीण स्वायत्त शासन की दो संस्थाओं के नाम हैं –

  1. ग्राम सभा तथा
  2. ग्राम पंचायत।

प्रश्न 12.
ग्राम पंचायत के अधिकारियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
ग्राम पंचायत के अधिकारी हैं –

  1. प्रधान तथा
  2. उप-प्रधान।

प्रश्न 13.
ग्राम पंचायत के चार कार्य बताइए।
उत्तर :
ग्राम पंचायत के चार कार्य हैं –

  1. ग्राम की सम्पत्ति तथा इमारतों की रक्षा करना
  2. संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
  3. कृषि और बागवानी का विकास करना तथा
  4. लघु सिंचाई परियोजनाओं से जल-वितरण का प्रबन्ध करना।

प्रश्न 14.
ग्राम पंचायतों का कार्यकाल क्या है ?
उत्तर :
ग्राम पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष होता है। विशेष परिस्थितियों में सरकार इसे कम भी कर सकती है।

प्रश्न 15.
न्याय पंचायत के पंचों की नियुक्ति किस प्रकार होती है ?
उत्तर :
ग्राम पंचायत के सदस्यों में से विहित प्राधिकारी न्याय पंचायत के उतने ही पंच नियुक्त करता है जितने कि नियत किये जाएँ। ऐसे नियुक्त किये गये व्यक्ति ग्राम पंचायत के सदस्य नहीं रहेंगे।

प्रश्न 16.
पंचायती राज की तीन स्तर वाली व्यवस्था की संस्तुति करने वाली समिति का नाम लिखिए।
उत्तर :
बलवन्त राय मेहता समिति।

प्रश्न 17.
किन संविधान संशोधनों द्वारा पंचायतों और नगरपालिकाओं से सम्बन्धित उपबन्धों का संविधान में उल्लेख किया गया ?
उत्तर :

  1. उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा जिला पंचायत की व्यवस्था।
  2. उत्तर प्रदेश नगर स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासने की व्यवस्था।

प्रश्न 18.
नगर स्वायत्त संस्थाओं के नाम बताइए।
उत्तर :

  1. नगर-निगम तथा महानगर निगम
  2. नगरपालिका परिषद् तथा
  3. नगर पंचायत।

प्रश्न 19.
नगर-निगम किन नगरों में स्थापित की जाती है ? उत्तर प्रदेश में नगर-निगम का गंठन किन-किन स्थानों पर किया गया है ?
उत्तर :
पाँच लाख से दस लाख तक जनसंख्या वाले नगरों में नगर-निगम स्थापित की जाती है। उत्तर प्रदेश के आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, बरेली, मेरठ, अलीगढ़, मुरादाबाद, गाजियाबाद, गोरखपुर आदि में नगर-निगम कार्यरत हैं। कानपुर तथा लखनऊ में महानगर निगम स्थापित हैं।

प्रश्न 20.
नगर-निगम के दो कार्य बताइए।
उत्तर :
नगर निगम के दो कार्य हैं –

  1. नगर में सफाई व्यवस्था करना तथा
  2. सड़कों व गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना।

प्रश्न 21.
नगर-निगम की दो प्रमुख समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर :
नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ हैं –

  1. कार्यकारिणी समिति तथा
  2. विकास समिति।

प्रश्न 22.
नगर-निगम का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर :
नगर-निगम का अध्यक्ष नगर प्रमुख (मेयर) होता है।

प्रश्न 23.
नगर-निगम में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कितनी होती है ?
उत्तर :
नगर-निगम के निर्वाचित सदस्यों (सभासदों) की संख्या सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है। यह संख्या कम-से-कम 60 और अधिक-से-अधिक 110 होती है।

प्रश्न 24.
उत्तर प्रदेश में नगरपालिका परिषद का गठन किन स्थानों के लिए किया जाएगा ?
उत्तर :
नगरपालिका परिषद् का गठन 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले ‘लघुतर नगरीय क्षेत्रों में किया जाता है।

प्रश्न 25.
जिले (जनपद) का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी कौन है ?
उत्तर :
जिले का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी जिलाधिकारी (उपायुक्त) होता है।

प्रश्न 26.
जिलाधिकारी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कौन-सा है ?
उत्तर :
जिले में शान्ति-व्यवस्था की स्थापना करना जिलाधिकारी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है।

प्रश्न 27.
जिलाधिकारी की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर :
जिलाधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है।

प्रश्न 28.
जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी जिला विद्यालय निरीक्षक होता है।

प्रश्न 29.
जिले के विकास-कार्यों से सम्बन्धित जिला स्तरीय अधिकारी का पद नाम लिखिए।
उत्तर :
मुख्य विकास अधिकारी।

प्रश्न 30.
जिले में पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर :
जिले में पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (S.S.P) होता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन से आप क्या समझते हैं ? इस प्रदेश में कौन-कौन-सी स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ कार्य कर रही हैं ?
उत्तर :
केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है, जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं।

  • नगरीय क्षेत्र – नगर-निगम या नगर महापालिका, नगरपालिका परिषद् और नगर पंचायत।
  • ग्रामीण क्षेत्र – ग्राम पंचायत, न्याय पंचायत, क्षेत्र पंचायत तथा जिला पंचायत।।

प्रश्न 2.
भारत में स्थानीय संस्थाओं का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में स्थानीय स्वशासी संस्थाओं का देश की राजनीति और प्रशासन में विशेष महत्त्व है। किसी भी गाँव या कस्बे की समस्याओं का सबसे अच्छा ज्ञान उस गाँव या कस्बे के निवासियों को ही होता है। इसलिए वे अपनी छोटी सरकार का संचालन करने में समर्थ तथा सर्वोच्च होते हैं। इन संस्थाओं का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होता है –

  1. इनके द्वारा गाँव तथा नगर के निवासियों की प्रशासन में भागीदारी सम्भव होती है।
  2. ये संस्थाएँ प्रशासन तथा जनता के मध्य अधिकाधिक सम्पर्क बनाये रखने में सहायक होती हैं। इसके फलस्वरूप जिला प्रशासन को अपना कार्य करने में आसानी होती है।
  3. स्थानीय विकास तथा नियोजन की प्रक्रियाओं में भी ये संस्थाएँ सहायक सिद्ध होती हैं।

प्रश्न 3.
ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में क्या अन्तर है ?
उत्तर :
ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत में निम्नलिखित अन्तर हैं –

  1. ग्राम पंचायत, ग्राम सभा से सम्बन्धित होती है तथा ग्राम सभा के कार्यों का सम्पादन ग्राम पंचायत के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार ग्राम पंचायत, ग्राम सभा की कार्यकारिणी होती है। ग्राम पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य ही करते हैं।
  2. ग्राम सभा का प्रमुख कार्य क्षेत्रीय विकास के लिए योजनाएँ बनाना और ग्राम पंचायत का कार्य उन योजनाओं को व्यावहारिक रूप प्रदान करना है।
  3. ग्राम सभा की वर्ष में दो बार तथा ग्राम पंचायत की माह में एक बार बैठक होना आवश्यक है।
  4. कर लगाने का अधिकार ग्राम सभा को दिया गया है न कि ग्राम पंचायत को।
  5. ग्राम सभा एक बड़ा निकाय है, जबकि ग्राम पंचायत उसकी एक छोटी संस्था है।
  6. ग्राम सभा का निर्वाचन नहीं होता है, जबकि ग्राम पंचायत, ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित संस्था होती है।

दीर्घ लघु उरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पंचायती राज के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
या
भारत में पंचायती राज-व्यवस्था का प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ ?
उत्तर :
पंचायती राज’ का अर्थ है-ऐसा राज्य जो पंचायत के माध्यम से कार्य करता है। ऐसे शासन के अन्तर्गत ग्रामवासी अपने में से वयोवृद्ध व्यक्तियों को चुनते हैं, जो उनके विभिन्न झगड़ों का निपटारा करते हैं। इस प्रकार के शासन में ग्रामवासियों को अपनी व्यवस्था के प्रबन्ध में प्रायः पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार पंचायती राज स्वशासन का ही एक रूप है।

यद्यपि भारत के ग्रामों में पंचायतें बहुत पुराने समय में भी विद्यमान थीं, परन्तु वर्तमान समय में पंचायती राज-व्यवस्था का जन्म स्वतन्त्रता के पश्चात् ही हुआ। पंचायती राज की वर्तमान व्यवस्था का सुझाव बलवन्त राय मेहता समिति ने दिया था। देश में पंचायती राज-व्यवस्था सर्वप्रथम राजस्थान में लागू की गयी, बाद में मैसूर (वर्तमान कर्नाटक), तमिलनाडु, उड़ीसा, असम, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में भी यह व्यवस्था लागू की गयी। बलवन्त राय मेहता की मूल योजना के अनुसार पंचायतों का गठन तीन स्तरों पर किया गया –

  1. ग्राम स्तर पर पंचायतें
  2. विकास खण्ड स्तर पर पंचायत समितियाँ तथा
  3. जिला स्तर पर जिला परिषद्।

संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1993 द्वारा पूरे प्रदेश में इस व्यवस्था के स्वरूप में एकरूपता लायी गयी है।

प्रश्न 2.
पंचायती राज के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

पंचायती राज की उपलब्धियाँ (गुण) –

  1. पंचायती राज पद्धति के फलस्वरूप ग्रामीण भारत में जागृति आयी है।
  2. पंचायतों द्वारा गाँवों में कल्याणकारी कार्यों के कारण गाँवों की हालत सुधरी है।
  3. पंचायतों द्वारा संचालित प्राथमिक और वयस्क विद्यालयों के फलस्वरूप गाँवों में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार हुआ है।
  4. पंचायतों ने सफलतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं की ओर अधिकारियों का ध्यान खींचा है।

पंचायती राज के दोष – पंचायती राज पद्धति के कारण गाँवों के जीवन में कई बुराइयाँ भी आयी हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  1. पंचायतों के लिए होने वाले चुनावों में हिंसा, भ्रष्टाचार और जातिवाद का बोलबाला रहता है। यहाँ तक कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी इससे परे नहीं होते।
  2. यह भी कहा जाता है कि पंचायती राज के सदस्य चुने जाने के पश्चात् लोग अपने कर्तव्यों को ठीक प्रकार से नहीं करते।
  3. यहाँ रिश्वतखोरी चलती है और धन का बोलबाला रहता है। धनी आदमी पंचों को खरीद लेते
  4. स्वयं पंच लोग अनपढ़ होते हैं, इसलिए वे विभिन्न समस्याओं को सुलझाने की योग्यता ही नहीं रखते।
  5. पंच लोग पार्टी-लाइनों पर चुने जाते हैं, इसलिए वे सभी लोगों को निष्पक्ष होकर न्याय नहीं दे सकते। संक्षेप में, भारत में पंचायती राज एक मिश्रित वरदान है।

प्रश्न 3.
ग्राम पंचायत के संगठन, पदाधिकारी, कार्यकाल एवं इसके पाँच कार्यों का विवरण दीजिए।
उत्तर :

संगठन – ग्राम पंचायत में ग्राम प्रधान के अतिरिक्त 9 से 15 तक सदस्य होते हैं। इसमें 1,000 की जनसंख्या पर 9 सदस्य; 1,000-2,000 की जनसंख्या तक 11 सदस्य; 2,000 3,000 की। जनसंख्या तक 13 सदस्य तथा 3,000 से ऊपर की जनसंख्या पर सदस्यों की संख्या 15 होती है। ग्राम पंचायत के सदस्य के रूप में निर्वाचित होने की न्यूनतम आयु 21 वर्ष है। ग्राम पंचायत में नियमानुसार सभी वर्गों तथा महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया है।

कार्यकाल – ग्राम पंचायत का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए होता है, किन्तु विशेष परिस्थितियों में सरकार इसे समय से पूर्व भी विघटित कर सकती है।

पदाधिकारी – ग्राम पंचायत का प्रमुख अधिकारी ग्राम प्रधान’ कहलाता है। प्रधान की सहायता के लिए उप-प्रधान’ की व्यवस्था होती है। प्रधान का निर्वाचन ग्राम सभा के सदस्य पाँच वर्ष की अवधि के लिए करते हैं। उप-प्रधान का निर्वाचन पंचायत के सदस्य पाँच वर्ष के लिए करते हैं।

ग्राम पंचायत

पाँच कार्य – ग्राम पंचायत के कार्य इस प्रकार हैं –

  1. कृषि और बागवानी का विकास तथा उन्नति, बंजर भूमि और चरागाह भूमि का विकास तथा उनके अनधिकृत अधिग्रहण एवं प्रयोग की रोकथाम करना।
  2. भूमि विकास, भूमि सुधार और भूमि संरक्षण में सरकार तथा अन्य एजेन्सियों की सहायता करना, भूमि चकबन्दी में सहायता करना।
  3. लघु सिंचाई परियोजनाओं से जल वितरण में प्रबन्ध और सहायता करना; लघु सिंचाई परियोजनाओं के निर्माण, मरम्मत और रक्षा तथा सिंचाई के उद्देश्य से जलापूर्ति का विनियमन।
  4. पशुपालन, दुग्ध उद्योग, मुर्गी-पालन की उन्नति तथा अन्य पशुओं की नस्लों का सुधार करना।
  5. गाँव में मत्स्य पालन का विकास।

प्रश्न 4.
नगरपालिका परिषद् के पाँच प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर :
नगरपालिका परिषद् के पाँच प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

(1) सफाई की व्यवस्था – सम्पूर्ण नगर को स्वच्छ एवं सुन्दर रखने का दायित्व नगरपालिका का ही होता है। यह सड़कों, नालियों और अन्य सार्वजनिक स्थानों की सफाई कराती है तथा नगर को स्वच्छ रखने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय एवं मूत्रालयों का निर्माण कराती है।

(2) पानी की व्यवस्था – नगरवासियों के लिए पीने योग्य स्वच्छ जल का प्रबन्ध नगरपालिका परिषद् ही करती है।

(3) शिक्षा का प्रबन्ध – अपने नगरवासियों की शैक्षिक स्थिति को सुधारने के लिए नगरपालिका परिषदें प्राइमरी स्कूल खोलती हैं। ये लड़कियों एवं अशिक्षित लोगों की शिक्षा का विशेष रूप से प्रबन्ध करती हैं।

(4) निर्माण सम्बन्धी कार्य – नगरपालिका परिषदें नगर में नालियाँ, सड़कें, पुल आदि बनवाने की व्यवस्था करती हैं। सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष एवं पार्क बनवाना भी इनके प्रमुख कार्य हैं। कुछ समृद्ध नगरपालिका परिषदें यात्रियों के लिए होटल, सरायों एवं धर्मशालाओं की भी व्यवस्था करती हैं। निर्माण सम्बन्धी ये कार्य नगरपालिका की ‘निर्माण समिति’ करती है।

(5) रोशनी की व्यवस्था – सड़कों, गलियों एवं सभी सार्वजनिक स्थानों पर प्रकाश का समुचित प्रबन्ध भी नगरपालिका परिषद् ही करती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्नं 1.
स्थानीय स्वशासन का क्या अर्थ है ? स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता तथा महत्त्व बताइए।
या
भारत में स्थानीय स्वशासन के अर्थ, आवश्यकता और उसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारत में केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए ग्राम पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं। व्यावहारिक रूप में वे सभी कार्य जिनका सम्पादन वर्तमान समय में ग्राम पंचायतों, जिला पंचायतों, नगरपालिकाओं, नगर निगम आदि के द्वारा किया जाता है, वे स्थानीय स्वशासन के अन्तर्गत आते हैं।

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है –

(1) लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने में सहायक – भारत में स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने के लिए स्थानीय स्वशासन व्यवस्था ठोस आधार प्रदान करती है। उसके माध्यम से शासन-सत्ता वास्तविक रूप से जनता के हाथ में चली जाती है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्वशासन-व्यवस्था, स्थानीय निवासियों में लोकतान्त्रिक संगठनों के प्रति रुचि उत्पन्न करती है।

(2) भावी नेतृत्व का निर्माण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ भारत के भावी नेतृत्व को तैयार करती हैं। ये विधायकों और मन्त्रियों को प्राथमिक अनुभव एवं प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, जिससे वे भारत की ग्रामीण समस्याओं से अवगत होते हैं। इस प्रकार ग्रामों में उचित नेतृत्व का निर्माण करने एवं विकास कार्यों में जनता की रुचि बढ़ाने में स्थानीय स्वशासन की महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।

(3) जनता और सरकार के पारस्परिक सम्बन्ध – भारत की जनता स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के माध्यम से शासन के बहुत निकट पहुँच जाती है। इससे जनता और सरकार में एक-दूसरे की कठिनाइयों को समझने की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त दोनों में सहयोग भी बढ़ता है, जो ग्रामीण उत्थान एवं विकास के लिए आवश्यक है।

(4) स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी – ग्राम पंचायतों के कार्यकर्ता और पदाधिकारी स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। इन स्थानीय पदाधिकारियों के सहयोग के अभाव में न तो राष्ट्र के निर्माण का कार्य सम्भव हो पाता है और न ही सरकारी कर्मचारी अपने दायित्व का समुचित रूप से पालन कर पाते हैं।

(5) प्रशासकीय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ केन्द्रीय व राज्य सरकारों को स्थानीय समस्याओं के भार से मुक्त करती हैं। स्थानीय स्वशासन की इकाइयों के माध्यम से ही शासकीय शक्सियों एवं कार्यों का विकेन्द्रीकरण किया जा सकता है। लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया में शासन-सत्ता कुछ निर्धारित संस्थाओं में निहित होने के स्थान पर, गाँव की पंचायत के कार्यकर्ताओं के हाथों में पहुँच जाती है। भारत में इस व्यवस्था से प्रशासन की कार्यकुशलता में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

(6) नागरिकों को निरन्तर जागरूक बनाये रखने में सहायक – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ लोकतन्त्र की प्रयोगशालाएँ हैं। ये भारतीय नागरिकों को अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग की शिक्षा तो देती ही हैं, साथ ही उनमें नागरिकता के गुणों का विकास करने में भी सहायक होती हैं।

(7) लोकतान्त्रिक परम्पराओं के अनुरूप – लोकतन्त्र का आधारभूत तथा मौलिक सिद्धान्त यह है। कि सत्ता का अधिक-से-अधिक विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। स्थानीय स्वशासन की इकाइयाँ इस सिद्धान्त के अनुरूप हैं।

(8) नौकरशाही की बुराइयों की समाप्ति – स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी से प्रशासन में नौकरशाही, लालफीताशाही तथा भ्रष्टाचार जैसी बुराइयाँ उत्पन्न नहीं होती हैं।

(9) प्रशासनिक अधिकारियों की जागरूकता – स्थानीय लोगों की शासन में भागीदारी के कारण प्रशासन उस क्षेत्र की आवश्यकताओं के प्रति अधिक सजग तथा संवेदनशील हो जाता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि स्थानीय स्वशासन लोकतन्त्र का आधार है। यह लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण (Democratic Decentralisation) की प्रक्रिया पर आधारित है। यदि प्रशासन को जागरूक तथा अधिक कार्यकुशल बनाना है तो उसका प्रबन्ध एवं संचालन स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप स्थानीय संस्थाओं के द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए।

प्रश्न 2.
पंचायती राज-व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारत गाँवों का देश है। ब्रिटिश राज में गाँवों की आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था शोचनीय हो गयी थी; अतः स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद देश में पंचायती राज-व्यवस्था द्वारा गाँवों में राजनीतिक तथा आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण का प्रयास किया गया। बलवन्त राय मेहता -मिति ने पंचायती राज-व्यवस्था के लिए त्रि-स्तरीय योजना का परामर्श दिया। इस योजना में स. निचले स्तर पर ग्राम सभा और ग्राम पंचायतें हैं। मध्य स्तर पर क्षेत्र समितियाँ तथा उच्च स्तर पर जिला परिषदों की व्यवस्था की गयी थी।

भारतीय गाँवों में बहुत पहले से ही ग्राम पंचायतों की व्यवस्था रही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने संयुक्त प्रान्तीय पंचायत राज कानून बनाकर पंचायतों के संगठन सम्बन्धी उल्लेखनीय कार्य को किया था। सन् 1947 ई० के इस कानून के अनुसार ग्राम पंचायत के स्थान पर ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत की व्यवस्था की गयी थी। अब उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 के अनुसार भी ग्राम सभा, ग्राम पंचायत तथा न्याय पंचायत की ही व्यवस्था को रखा गया है।

ग्राम पंचायत के कार्य तथा शक्तियाँ

ग्राम सभा के निर्देशन तथा मार्गदर्शन में कार्य करती हुई ग्राम पंचायत, पंचायती राज व्यवस्था की सबसे छोटी आधारभूत इकाई है। यह ग्राम पंचायत सरकार की कार्यपालिका के रूप में कार्य करती है। ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है –

ग्राम पंचायत के कार्य

ग्राम पंचायत के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं –

  1. गाँव की सफाई-व्यवस्था करना
  2. रोशनी का प्रबन्ध करना
  3. संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
  4. गाँव एवं गाँव की इमारतों की रक्षा करना
  5. जन्म-मरण का लेखा-जोखा रखना
  6. बालक एवं बालिकाओं की शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना
  7. खेलकूद की व्यवस्था करना
  8. कृषि की उन्नति का प्रयत्न करना
  9. श्मशान भूमि की व्यवस्था करना
  10. सार्वजनिक चरागाहों की व्यवस्था करना
  11. आग बुझाने का प्रबन्ध करना
  12. जनगणना और पशुगणना करना
  13. प्राथमिक चिकित्सा का प्रबन्ध करना
  14. खाद एकत्र करने के लिए स्थान निश्चित करना
  15. जल-मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध करना
  16. प्रसूति-गृह खोलना
  17. सरकार द्वारा सौंपे गये अन्य कार्य करना
  18. आदर्श नागरिकता की भावना को प्रोत्साहन देना
  19. ग्रामीण जनता को शासन-व्यवस्था से परिचित कराना
  20. अस्पताल खुलवाना
  21. पुस्तकालय एवं वाचनालयों की व्यवस्था करना
  22. पार्क बनवाना
  23. गृहउद्योगों को उन्नत करने का प्रयत्न करना
  24. पशुओं की नस्ल सुधारना
  25. स्वयंसेवक दल का संगठन करना
  26. सहकारी समितियों का गठन करना
  27. सहकारी ऋण प्राप्त करने में किसानों की सहायता करना
  28. अकाल या अन्य विपत्ति के समय गाँव वालों की सहायता करना तथा
  29. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना आदि कार्य सम्मिलित होते हैं।

ग्राम पंचायत की शक्तियाँ

ग्राम पंचायत के कुछ सदस्य न्याय पंचायत के रूप में कार्य करते हुए अपने गाँव के छोटे-छोटे झगड़ों का निपटारा भी करते हैं। दीवानी के मामलों में ये ₹ 500 के मूल्य तक की सम्पत्ति के मामलों की सुनवाई कर सकते हैं तथा फौजदारी के मुकदमों में इसे ₹ 250 तक का जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त है।

भारतीय संविधान में किये गये 73वें संशोधन के द्वारा ग्राम पंचायत को व्यापक अधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। साथ ही ग्राम पंचायत के कार्य-क्षेत्र को भी व्यापक बनाया गया है जिसके अन्तर्गत 29 नियमों से युक्त एक विस्तृत सूची को रखा गया है।

प्रश्न 3.
क्षेत्र पंचायत किस प्रकार संगठित की जाती है ? यह अपने क्षेत्र के विकास के लिए कौन-कौन-से कार्य करती है ?
या
क्षेत्र पंचायत (पंचायत समिति) के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश रायत (संशोधन) अधिनियम, 1994′ के सेक्शन 7 (1) के द्वारा क्षेत्र समिति का नाम बदलकर क्षेत्र पंचायत कर दिया गया है। यह ग्राम पंचायत के ऊपर के स्तर की इकाई होती है। राज्य सरकार गजट में अधिसूचना द्वारा प्रत्येक खण्ड के लिए एक क्षेत्र पंचायत स्थापित करेगी। पंचायत का नाम खण्ड के नाम पर होगा।

संगठन – क्षेत्र पंचायत एक प्रमुख और निम्नलिखित प्रकार के सदस्यों से मिलकर बनती है –

  1. खण्ड की सभी ग्राम पंचायतों के प्रधान।
  2. निर्वाचित सदस्य – ये पंचायती क्षेत्र के 2000 जनसंख्या वाले प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं।
  3. लोकसभा और विधानसभा के ऐसे सदस्य, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पूर्णत: अथवा अंशत: उस खण्ड में सम्मिलित हैं।
  4. राज्यसभा तथा विधान परिषद् के ऐसे सदस्य, जो खण्ड के अन्तर्गत निर्वाचको के रूप में पंजीकृत हैं।

उपर्युक्त सदस्यों में केवल निर्वाचित सदस्यों को ही प्रमुख अथवा उप-प्रमुख के निर्वाचन तथा उनके विरुद्ध अविश्वास के मामलों में मत देने का अधिकार होता है।

योग्यता – क्षेत्र पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए प्रत्याशी में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –

  1. उसका नाम क्षेत्र पंचायत की प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में हो।
  2. वह विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
  3. उसकी आयु 21 वर्ष हो।
  4. वह किसी लाभ के सरकारी पद पर न हो।

स्थानों को आरक्षण – प्रत्येक क्षेत्र पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे। क्षेत्र पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में आरक्षित स्थानों का अनुपात यथासम्भव वही होगा जो उस खण्ड में अनुसूचित जातियों अथवा जनजातियों की या पिछड़े वर्गों की जनसंख्या का अनुपात उस खण्ड की कुल जनसंख्या में है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा।

अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

पदाधिकारी – क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से ही एक प्रमुख, एक ज्येष्ठ उप-प्रमुख तथा एक कनिष्ठ उप-प्रमुख चुने जाते हैं। राज्य में क्षेत्र पंचायतों के प्रमुखों के पद अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये हैं।

कार्यकाल – क्षेत्र पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार 5 वर्ष की अवधि से पहले भी क्षेत्र पंचायत को विघटित कर सकती है। प्रमुख, उप-प्रमुख अथवा क्षेत्र पंचायत का कोई भी सदस्य 5 वर्ष की अवधि से पूर्व भी त्यागपत्र देकर अपना पद त्याग सकता है। प्रमुख तथा उप-प्रमुख के द्वारा अपने कर्तव्यों का पालन न करने की स्थिति में उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें पदच्युत किया जा सकता है। क्षेत्र पंचायत के विघटन के छ: माह की अवधि के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है।

अधिकारी – क्षेत्र पंचायत का सबसे प्रमुख अधिकारी ‘खण्ड विकास अधिकारी (Block Development Officer) होता है। इस पर समस्त प्रशासन का उत्तरदायित्व होता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारी भी होते हैं।

अधिकार और कार्य – क्षेत्र पंचायत के प्रमुख अधिकार और कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. कृषि, भूमि विकास, भूमि सुधार और लघु सिंचाई सम्बन्धी कार्यों को करना।
  2. सार्वजनिक निर्माण सम्बन्धी कार्य करना।
  3. कुटीर और ग्राम उद्योगों तथा लघु उद्योगों का विकास करना।
  4. पशुपालन तथा पशु सेवाओं में वृद्धि करना।
  5. स्वास्थ्य तथा सफाई सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
  6. शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास से सम्बद्ध कार्य कराना।
  7. पेयजल, ईंधन और चारे की व्यवस्था करना।
  8. ग्रामीण आवास की व्यवस्था करना।
  9. चिकित्सा तथा परिवार कल्याण सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
  10. बाजार तथा मेलों की व्यवस्था करना।
  11. प्राकृतिक आपदाओं में सहायता प्रदान करना।
  12. ग्राम सभाओं का निरीक्षण करना तथा खण्ड विकास योजनाएँ लागू करना।

प्रश्न 4.
न्याय पंचायत का संगठन किस प्रकार होता है ? इसके प्रमुख अधिकार क्या हैं ?
उत्तर :
प्रत्येक ग्राम सभा न्याय पंचायत के लिए पंचों का निर्वाचन करती है। इन निर्वाचित सदस्यों में से सरकारी अधिकारी शिक्षा, प्रतिष्ठा, अनुभव एवं योग्यता के आधार पर पंच मनोनीत करता है। प्रत्येक न्याय पंचायत में सदस्यों की संख्या इस प्रकार होती है कि वह पाँच से पूरी-पूरी विभक्त हो जाए। 1 से 6 गाँव सभाओं वाली न्याय पंचायत के पंचों की संख्या 15, 7 से 9 तक 20 तथा 9 से अधिक होने पर 25 होगी।

न्याय पंचायत के सदस्य अपने मध्य से एक सरपंच तथा एक सहायक सरपंच चुनते हैं। इस पद पर उन्हीं पढ़े-लिखे व्यक्तियों को निर्वाचित किया जाता है जो कार्यवाही लिख सकें।

प्रमुख अधिकार

न्याय पंचायत को दीवानी, फौजदारी तथा माल के मुकदमे देखने का अधिकार प्राप्त है। न्याय पंचायतों को ₹ 500 की मालियत के मुकदमे सुनने का अधिकार दिया गया है। फौजदारी के मुकदमों में वह ₹ 250 तक जुर्माना कर सकती है। यह किसी को कारावास या शारीरिक दण्ड नहीं दे सकती। यदि कोई गवाह उपस्थित नहीं होता है तो यह है 25 का जमानती वारण्ट जारी कर सकती है। यदि न्याय पंचायत यह समझ ले कि किसी व्यक्ति से शान्ति भंग होने की आशंका है तो वह उससे 15 दिन तक के लिए ₹ 100 का मुचलका ले सकती है।

न्याय पंचायत को न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं। न्याय पंचायत का अनादर करने वाले व्यक्ति को न्याय ५ पंचायत मानहानि का अपराधी बनाकर उस पर ₹ 5 जुर्माना कर सकती है। न्याय पंचायत के निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती। चोरी, अश्लीलता, गाली-गलौज, स्त्री की लज्जा, अपहरण आदि के मुकदमो की सुनवाई न्याय पंचायत करती है। इन मुकदमों में वकीलों को पेश होने का प्रावधान नहीं रखा गया है। किसी मुकदमे में अन्याय होने पर न्याय पंचायत के दीवानी के मुकदमे की निगरानी मुंसिफ के यहाँ तथा माल के मुकदमे की निगरानी हाकिम परगना के यहाँ हो सकती है। राज्य सरकार न्याय पंचायतों के कार्यों पर नियन्त्रण रखती है, जिससे निर्णयों में कोई पक्षपात न हो सके तथा न्याय पंचायतें सही रूप से अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें।

प्रश्न 5.
जिला पंचायत का गठन किस प्रकार होता है ? इसके प्रमुख कार्य तथा आय के साधन लिखिए।
उत्तर :
त्रि-स्तरीय पंचायती राज-व्यवस्था की सर्वोच्च इकाई जिला पंचायत होती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 पारित करके जिला परिषद् का नाम बदलकर जिला पंचायत कर दिया है।

गठन – जिला पंचायत के गठन में निम्नलिखित दो प्रकार के सदस्य होते हैं –

(क) निर्वाचित सदस्य – निर्वाचित सदस्यों की सदस्य-संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। साधारणतया 50,000 से अधिक की जनसंख्या पर एक सदस्य निर्वाचित किया जाता है। यह निर्वाचन वयस्क मतदान द्वारा होता है।

(ख) अन्य सदस्य – अन्य सदस्यों में कुछ पदेन सदस्य होते हैं, जो कि निम्नवत् हैं –

  1. जनपद की सभी क्षेत्र पंचायतों के प्रमुख।
  2. लोकसभा तथा विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें जिला पंचायत क्षेत्र का कोई भाग समाविष्ट है।
  3. राज्यसभा तथा विधान परिषद् के वे सदस्य जो उस जिला पंचायत क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत हैं।

आरक्षण – प्रत्येक जिला पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए नियमानुसार स्थान आरक्षित रहेंगे। आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, जिला अनुपात में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात इन जातियों एवं वर्गों की जनसंख्या का जिला पंचायत क्षेत्र की समस्त जनसंख्या में है। संशोधित प्रावधानों के अन्तर्गत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा। अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान; इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। प्रत्येक जिला पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान; महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

योग्यता – जिला पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ अपेक्षित हैं –

  1. ऐसे सभी व्यक्ति, जिनका नाम उस जिला पंचायत के किसी प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र के लिए निर्वाचक नामावली में सम्मिलित है।
  2. जो राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की आयु-सीमा के अतिरिक्त अन्य सभी योग्यताएँ रखता है।
  3. जिसने 21 वर्ष की आयु पूरी कर ली है।

अधिकारी – प्रत्येक जिला पंचायत में दो अधिकारी होते हैं-अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, जिनका चुनाव निर्वाचित सदस्यों द्वारा गुप्त मतदान प्रणाली के आधार पर होता है। अध्यक्ष बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह जिले में रहता हो, उसकी आयु 21 वर्ष से कम न हो तथा उसका नाम मतदाता सूची में हो। इन दोनों का निर्वाचन पाँच वर्ष के लिए किया जाता है। राज्य सरकार पाँच वर्ष की अवधि, से पूर्व भी इन्हें पदच्युत कर सकती है। ये पद भी अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित होते हैं। अध्यक्ष पंचायतों की बैठकों का सभापतित्व करता है, पंचायत के कार्यों का निरीक्षण करता है एवं कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखता है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसका पदभार उपाध्यक्ष सँभालता है।

इन अधिकारियों के अतिरिक्त छोटे-बड़े, स्थायी-अस्थायी अनेक वैतनिक कर्मचारी भी होते हैं, जो इन अधिकारियों के प्रति जिम्मेदार होते हैं तथा जिला पंचायत का कार्य निष्पादित करते हैं।

कार्य – जिले के समस्त ग्रामीण क्षेत्र की व्यवस्था तथा विकास का उत्तरदायित्व जिला पंचायत पर है। इस दायित्व को पूरा करने के लिए जिला परिषद् निम्नलिखित कार्य करती है

  1. सार्वजनिक सङ्कों, पुलों तथा निरीक्षण-गृहों का निर्माण एवं मरम्मत करवाना।
  2. प्रबन्ध हेतु सड़कों का ग्राम सड़कों, अन्तग्रम ग्राम सड़कों तथा जिला सड़कों में वर्गीकरण करना।
  3. तालाब, नाले आदि बनवाना।
  4. पीने के पानी की व्यवस्था करना।
  5. रोशनी का प्रबन्ध करना।
  6. जनस्वास्थ्य के लिए महामारियों और संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना।
  7. अकाल के दौरान सहायता हेतु राहत कार्य चलाना।
  8. क्षेत्र समिति एवं ग्राम पंचायत के कार्यों में तालमेल स्थापित करना।
  9. ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्र समितियों के कार्यों का निरीक्षण करना।
  10. प्राइमरी स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना।
  11. सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना।
  12. कांजी हाउस तथा पशु चिकित्सालय की व्यवस्था करना।
  13. जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।
  14. परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू करना।
  15. अस्पताल खोलना तथा मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था करना।
  16. पुस्तकालय-वाचनालय का निर्माण एवं उनका अनुरक्षण करना।
  17. कृषि की उन्नति के लिए उचित प्रबन्ध करना।
  18. खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकना आदि।

आय के साधन – जिला पंचायत अपने कार्यों को पूर्ण करने के लिए निम्नलिखित साधनों से आय प्राप्त करती है –

  1. हैसियत एवं सम्पत्ति कर
  2. स्कूलों से प्राप्त फीस
  3. अचल सम्पत्ति से कर
  4. लाइसेन्स कर
  5. नदियों के पुलों तथा घाटों से प्राप्त उतराई कर
  6. कांजी हाउसों से प्राप्त आय
  7. मेलों, हाटों एवं प्रदर्शनियों से प्राप्त आय तथा
  8. राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान।

प्रश्न 6.
अपने प्रदेश में नगरपालिका परिषद का गठन किस प्रकार होता है ? नगर के विकास के लिए वे कौन-कौन-से कार्य करती हैं ?
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 ई०’ के अनुसार 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले नगर को ‘लघुतर नगरीय क्षेत्र का नाम दिया गया है तथा इनके प्रबन्ध के लिए नगरपालिका परिषद् की व्यवस्था का निर्णय लिया गया है।

गठन – नगरपालिका परिषद् में एक अध्यक्ष और तीन प्रकार के सदस्य होंगे। ये तीन प्रकार के सदस्य निम्नलिखित हैं –

(1) निर्वाचित सदस्य – नगरपालिका परिषद् में जनसंख्या के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की संख्या 25 से कम और 55 से अधिक नहीं होगी। राज्य सरकार सदस्यों की यह संख्या निश्चित करके सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित करेगी।

(2) पदेन सदस्य – (i) इसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें पूर्णतया अथवा अंशतः वे नगरपालिका क्षेत्र सम्मिलित होते हैं।
(ii) इसमें राज्यसभा और विधान परिषद् के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उस नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत निर्वाचक के रूप में पंजीकृत हैं।

(3) मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान अथवा अनुभव हो। ऐसे सदस्यों की संख्या 3 से कम और 5 से अधिक नहीं होगी। इन मनोनीत सदस्यों को नगरपालिका परिषद् की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों के समान (सभासद) नगरपालिका परिषद् के सदस्यों को भी सभासद’ ही कहा जाएगा।

पदाधिकारी – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में एक ‘अध्यक्ष और एक ‘उपाध्यक्ष होगा। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में या पद रिक्त होने पर उपाध्यक्ष के द्वारा अध्यक्ष के रूप में कार्य किया जाता है। अध्यक्ष का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है। उपाध्यक्ष का निर्वाचन नगरपालिका परिषद् के सभासदों द्वारा एक वर्ष की अवधि के लिए किया जाता है।

अधिकारी और कर्मचारी – उपर्युक्त के अतिरिक्त परिषद् के कुछ वैतनिक अधिकारी व कर्मचारी भी होते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी’ (Executive Officer) होता है। जिन परिषदों में ‘प्रशासनिक अधिकारी न हों, वहाँ परिषद् विशेष प्रस्ताव द्वारा एक या एक से अधिक सचिव नियुक्त करती है।

कार्य – नगरपालिका अपनी समितियों के माध्यम से नगरों के विकास के लिए निम्नलिखित कार्य करती है –

(I) अनिवार्य कार्य – नगरपालिका परिषद् को निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं –

  1. सड़कों का निर्माण तथा उनकी मरम्मत व सफाई करवाना।
  2. नगरों में जल की व्यवस्था करना।
  3. नगरों में प्रकाश की व्यवस्था करना।
  4. सड़कों के किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाना।
  5. नगर की सफाई का प्रबन्ध करना।
  6. औषधालयों का प्रबन्ध करना तथा संक्रामक रोगों से बचने के लिए टीके लगवाना।
  7. शवों को जलाने एवं दफनाने की उचित व्यवस्था करना।
  8. जन्म एवं मृत्यु का विवरण रखना।
  9. नगरों में शिक्षा की व्यवस्था करना।
  10. आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की व्यवस्था करना।
  11. सड़कों तथा मोहल्लों का नाम रखना व मकानों पर नम्बर डलवाना।
  12. बूचड़खाने बनवाना तथा उनकी व्यवस्था करना।
  13. अकाल के समय लोगों की सहायता करना।

(II) ऐच्छिक कार्य – नगरपालिका परिषद् निम्नलिखित कार्यों को भी पूरा करती है –

  1. नगर को सुन्दर तथा स्वच्छ बनाये रखना।
  2. पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर व विश्राम-गृहों की स्थापना करना।
  3. प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर की शिक्षा की व्यवस्था करना।
  4. पागलखाना और कोढ़ियों के रखने के स्थानों आदि की व्यवस्था करना।
  5. बाजार तथा पैंठ की व्यवस्था करना।
  6. पागल तथा आवारा कुत्तों को पकड़वाना।
  7. अनाथों के रहने तथा बेकारों के लिए रोजी का प्रबन्ध करना।
  8. नगर में नगर-बस सेवा चलवाना।
  9. नगर में नये-नये उद्योग-धन्धे विकसित करने के लिए सुविधाएँ प्रदान करना।

प्रश्न 7.
नगर-निगम की रचना और उसके कार्यों पर प्रकाश डालिए।
या
उच्चर प्रद्वेश के नगर-निगम के संगठन व कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन-विधि (संशोधन), 1994 के अन्तर्गत 5 लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर को ‘वृहत्तर नगरीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया है तथा ऐसे प्रत्येक नगर में स्वायत्त शासन के अन्तर्गत नगर-निगम की स्थापना का प्रावधान किया गया है। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कानपुर, आगरा, वाराणसी, मेरठ, इलाहाबाद, गोरखपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़, गाजियाबाद, बरेली तथा सहारनपुर नगरों में नगर-निगम स्थापित कर दिये गये हैं। उत्तर प्रदेश के दो नगरों-कानपुर और लखनऊ-की जनसंख्या 10 लाख से अधिक है, अत: इन्हें महानगर तथा इनका प्रबन्ध करने वाली संस्था को ‘महानगर निगम की संज्ञा दी गयी है। वर्तमान में कुछ और नगर-आगरा, वाराणसी, मेरठे—भी ‘महानगर निगम’ बनाये जाने के लिए प्रस्तावित हैं।

गठन – नगर-निगम के गठन हेतु नगर प्रमुख, उपनगर प्रमुख व तीन प्रकार के सदस्य क्रमशः निर्वाचित सदस्य, मनोनीत सदस्य व पदेन सदस्यों का प्रावधान किया गया है। ये तीन प्रकार के सदस्य इस प्रकार हैं –

(1) निर्वाचित सदस्य – नगर-निगम के निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाता है। सभासदों की संख्या कम-से-कम 60 व अधिक-से-अधिक 110 निर्धारित की गयी है। यह संख्या राज्य सरकार द्वारा सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है।

योग्यता – नगर-निगम के सभासद के निर्वाचन में भाग लेने हेतु निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए –

  1. सभासद के निर्वाचन में भाग लेने के लिए नगर-निगम क्षेत्र की मतदाता सूची (निर्वाचन सूची) में उसका नाम अंकित होना चाहिए।
  2. आयु 21 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।
  3. वह व्यक्ति राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की सभी योग्यताएँ व उपबन्ध पूर्ण करता हो।

विशेष – जो स्थान आरक्षित श्रेणियों के लिए आरक्षित किये गये हैं, उन पर आरक्षित वर्ग का व्यक्ति ही निर्वाचन में भाग ले सकेगा।

सभासदों का निर्वाचन – नगर-निगम के सभासदों का चुनाव नगर के वयस्क नागरिकों द्वारा होता है। चुनाव के लिए नगर को अनेक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है, जिन्हें कक्ष’ (Ward) कहा जाता है। प्रत्येक कक्ष से संयुक्त निर्वाचन पद्धति के आधार पर एक सभासद का चुनाव होता है। इस पद हेतु नगर का कोई भी ऐसा नागरिक प्रत्याशी हो सकता है, जिसकी आयु 21 वर्ष हो और जो निवास सम्बन्धी समस्त शर्ते पूरी करता हो।

स्थानों का आरक्षण – प्रत्येक निगम में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये जाएँगे। इस प्रकार से आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात; निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात नगर-निगम क्षेत्र की कुल जनसंख्या में इन जातियों का है। प्रत्येक नगर-निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले स्थानों का 27 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किया जाएगा। इन आरक्षित स्थानों में कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। इन महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों को सम्मिलित करते हुए, प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

(2) मनोनीत सदस्य – नगर-निगम में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा जिन्हें नगर-निगम प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव हो। इन सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी। मनोनीत सदस्यों को नगर निगम की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। इनकी संख्या 5 व 10 के मध्य होगी।

(3) पदेन सदस्य –

  1. लोकसभा और राज्य विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें नगर पूर्णतः अथवा अंशत: समाविष्ट हैं।
  2. राज्यसभा और विधान परिषद् के वे सदस्य, जो उस नगर में निर्वाचक के रूप में पंजीकृत हैं।
  3. उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम, 1965 ई० के अधीन स्थापित समितियों के वे अध्यक्ष जो नगर-निगम के सदस्य नहीं हैं।

कार्यकाल – नगर-निगम का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार धारा 538 के अन्तर्गत निगम को इसके पूर्व भी विघटित कर सकती है।

समितियाँ – नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ होंगी – (1) कार्यकारिणी समिति तथा (2) विकास समिति। इसके अतिरिक्त नगर-निगम में निगम विद्युत समिति, नगर परिवहन समिति और इसी प्रकार की अन्य समितियाँ भी गठित की जा सकती हैं; परन्तु इन समितियों की संख्या 12 से अधिक नहीं होनी चाहिए। अधिनियम, 1994 के अन्तर्गत नगर-निगम को नगर-निगम क्षेत्र में वे ही कार्य करने का निर्देश दिया गया है जो कार्य नगरपालिका परिषद् को नगरपालिका क्षेत्र में करने का निर्देश है।

कार्य

नगर – निगम का कार्य-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। उत्तर प्रदेश के निगमों को 41 अनिवार्य और 43 ऐच्छिक कार्य करने होते हैं; यथा –

अनिवार्य कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत नगर में सफाई की व्यवस्था करना, सड़कों एवं गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना, अस्पतालों एवं औषधालयों का प्रबन्ध करना, इमारतों की देखभाल करना, पेयजल का प्रबन्ध करना, संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना, जन्म-मृत्यु का लेखा रखना, प्राथमिक एवं नर्सरी शिक्षा का प्रबन्ध करना, नगर नियोजन एवं नगर सुधार कार्यों की व्यवस्था करना आदि विभिन्न कार्य सम्मिलित किये गये हैं।

ऐच्छिक कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत निगम को पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर आदि की व्यवस्था के साथ-साथ समय-समय पर लगने वाले मेलों और प्रदर्शनियों की व्यवस्था भी करनी होती है। इन ऐच्छिक कार्यों में ट्रक, बस आदि चलाना एवं कुटीर उद्योगों का विकास करना आदि भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार नगर-निगम लगभग उन्हीं समस्त कार्यों को बड़े पैमाने पर सम्पादित करता है, जो छोटे नगरों में नगरपालिका करती है।

पदाधिकारी – प्रत्येक नगर-निगम में एक नगर प्रमुख तथा एक उप-नगर प्रमुख होगा। नगर प्रमुख का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। इस अवधि से पहले अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा नगर प्रमुख को पद से हटाया जा सकता है।

नगर-निगम में दो प्रकार के अधिकारी होते हैं – निर्वाचित एवं स्थायी। निर्वाचित अधिकारी अवैतनिक तथा स्थायी अधिकारी वैतनिक होते हैं।

(I) निर्वाचित अधिकारी – निर्वाचित अधिकारी मुख्य रूप से इस प्रकार होते हैं –

नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक नगर प्रमुख होता है। नगर प्रमुख के पद के लिए वही व्यक्ति प्रत्याशी हो सकता है, जो नगर का निवासी हो और उसकी आयु कम-से-कम 30 वर्ष हो। नगर प्रमुख का पद अवैतनिक होता है; उसका निर्वाचन नगर के समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है।

उप-नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक ‘उप-नगर प्रमुख भी होता है। नगर प्रमुख की अनुपस्थिति अथवा पद रिक्त होने पर उप-नगर प्रमुख ही नगर प्रमुख के कार्यों का सम्पादन करता है। इसका चुनाव एक वर्ष के लिए सभासद करते हैं।

(II) स्थायी अधिकारी – ये अधिकारी इस प्रकार हैं –

मुख्य नगर अधिकारी – प्रत्येक नगर-निगम का एक मुख्य नगर अधिकारी होता है। यह अखिल भारतीय शासकीय सेवा (I.A.S.) का उच्च अधिकारी होता है। राज्य सरकार इसी अधिकारी के माध्यम से नगर-निगम पर नियन्त्रण रखती है।

अन्य अधिकारी – मुख्य नगर अधिकारी के अतिरिक्त एक या अधिक ‘अपर मुख्य नगर अधिकारी भी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ प्रमुख अधिकारी भी होते हैं; जैसे—मुख्य अभियन्ता, नगर स्वास्थ्य अधिकारी, मुख्य नगर लेखा-परीक्षक आदि।

प्रश्न 8.
नगर पंचायत के संगठन और उसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
नगर पंचायत की रचना तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन),1994 के अनुसार 30 हजार से 1 लाख की जनसंख्या वाले क्षेत्र को ‘संक्रमणशील क्षेत्र घोषित किया गया है, अर्थात् जिन स्थानों पर ‘टाउन एरिया कमेटी’ थी, उन स्थानों को अब ‘टाउन एरिया’ नाम के स्थान पर नगर पंचायत’ नाम दिया गया है। ये स्थान ऐसे हैं जो ग्राम के स्थान पर नगर बनने की ओर अग्रसर हैं।

संरचना – प्रत्येक नगर पंचायत में एक अध्यक्ष व तीन प्रकार के सदस्य होंगे। सदस्य क्रमश: इस प्रकार होंगे –

  1. निर्वाचित सदस्य
  2. पदेन सदस्य तथा
  3. मनोनीत सदस्य।

(1) निर्वाचित सदस्य – नगर पंचायतों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम-से-कम 10 और अधिक-से-अधिक 24 होगी। नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी तथा यह संख्या सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित की जाएगी। निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाएगा। सभासद के निर्वाचन के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले क्षेत्रों (वार्ड) में विभक्त किया जाएगा। वार्ड एक सदस्यीय होगा। प्रत्येक सभासद को निर्वाचन वार्ड के वयस्क मताधिकार प्राप्त नागरिकों के द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति के आधार पर किया जाएगा।

सभासद की योग्यता –

  1. सभासद का नाम नगर की मतदाता सूची में पंजीकृत होना चाहिए।
  2. उसकी आयु कम-से-कम 21 वर्ष होनी चाहिए।
  3. वह राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने के सभी उपबन्ध पूरे करता हो।
  4. जो स्थान आरक्षित हैं, उन स्थानों से आरक्षित वर्ग का स्त्री/पुरुष ही चुनाव लड़ सकता है।

आरक्षण – जनसंख्या के अनुपात में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए वार्ड का आरक्षण होगा। पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत वार्ड आरक्षित होंगे, जिनमें अनुसूचित जाति जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के आरक्षण की एक-तिहाई महिलाएँ सम्मिलित होंगी।

(2) पदेन सदस्य – लोकसभा व विधानसभा के वे सभी सदस्य पदेन सदस्य होंगे, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें पूर्णतया या अंशतया वह नगर पंचायत क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त राज्यसभा व विधान-परिषद् के ऐसे सभी सदस्य, जो उस नगर पंचायत क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में पंजीकृत हैं, पदेन सदस्य होंगे।

(3) मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगर पंचायत में राज्य सरकार द्वारा ऐसे 2 या 3 सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव होगा। ये मनोनीत सदस्य नगर पंचायत की बैठकों में मत नहीं दे सकेंगे।

कार्यकाल – नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा। राज्य सरकार नगर पंचायत का विघटन भी कर सकती है, परन्तु नगर पंचायत के विघटन के दिनांक से 6 माह की अवधि के अन्दर पुनः चुनाव कराना अनिवार्य होगा।

कार्य – नगर पंचायत मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य करेगी –

(1) सर्वसाधारण की सुविधा से सम्बन्धित कार्य करना – इनमें सड़कें बनवाना, वृक्ष लगवाना, सार्वजनिक स्थानों का निर्माण कराना, अकाल, बाढ़ या अन्य विपत्ति के समय जनता की सहायता करना आदि प्रमुख हैं।

(2) स्वास्थ्य-रक्षा सम्बन्धी कार्य करना – इनमें संक्रामक रोगों से बचाव के लिए टीके लगवाना, खाद्य-पदार्थों का निरीक्षण करना, अस्पताल, ओषधियों तथा स्वच्छ जल की व्यवस्था करना आदि प्रमुख हैं।

(3) शिक्षा सम्बन्धी कार्य करना – इनमें प्रारम्भिक-शिक्षा के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था करना, वाचनालय और पुस्तकालय बनवाना तथा ज्ञानक्र्द्धन के लिए प्रदर्शनी लगाना आदि प्रमुख हैं।

(4) आर्थिक कार्य करना – इनमें जल और विद्युत की पूर्ति करना, यातायात के लिए बसों की तथा मनोरंजन के लिए सिनेमा-गृहों (छवि-गृहों) या मेलों आदि की व्यवस्था करना प्रमुख हैं।

(5) सफाई सम्बन्धी कार्य करना – इनमें सड़कों, गलियों तथा नालियों की सफाई कराना, सड़कों पर पानी का छिड़काव कराना आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 9.
जिला प्रशासन में जिलाधिकारी का क्या महत्त्व है ? जिलाधिकारी के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
जिले के शासन में जिलाधिकारी का क्या स्थान है ? उसके अधिकार एवं कर्तव्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :

जिलाधिकारी का महत्त्व

प्रो० प्लाण्डे का यह कथन कि “जिलाधीश राज्य सरकार की आँख, कान, मुँह और भुजाओं के समान है”, जिलाधिकारी के महत्त्व को भली-भाँति बताता है। इस पद पर अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित अनुभवी अधिकारी की ही नियुक्ति की जाती है। जिले में शान्ति-व्यवस्था बनाकर उसका समुचित विकास करना जिलाधिकारी का मुख्य कार्य होता है राज्य सरकार की आय के साधन तो पूरे राज्य में बिखरे पड़े होते हैं। जिलाधिकारी का एक मुख्य कार्य यह भी है कि राज्य-कोष में उसके जिले का अधिकतम योगदान हो। इसके अतिरिक्त यह राज्य सरकार एवं जिले की जनता के बीच एक सेतु का कार्य भी करता है। वह जन-भावनाओं और राज्य सरकार की अपेक्षाओं को इधर से उधर पहुँचाता है जिलाधिकारी के पास अनेक शक्तियाँ होती हैं। वह शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए सेना की सहायता तक ले सकता है। अतः कहा जा सकता है कि जिलाधिकारी का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

जिलाधिकारी के अधिकार एवं कार्य (कर्तव्य)

(1) प्रशासन सम्बन्धी अधिकार – जिले में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने का पूर्ण उत्तरदायित्व जिलाधिकारी पर होता है। इसका यह कार्य सबसे महत्त्वपूर्ण होता है, इसलिए पुलिस विभाग उसके नियन्त्रण में रहकर ही कार्य करता है। जिले की सम्पूर्ण सूचना जिलाधिकारी ही राज्य सरकार के पास भेजता है। जिले में किसी भी प्रकार का झगड़ा होने या शान्ति भंग होने की आशंका होने पर वह सभाओं व जुलूसों पर प्रतिबन्ध लगा सकता है, सेना की सहायता भी ले सकता है तथा गोली चलाने की आज्ञा भी दे सकता है। इसके अतिरिक्त वह प्राकृतिक प्रकोपों के आने पर या महामारियाँ फैलने पर राज्य सरकार से सहायता प्राप्त करके जनता की सहायता भी करता है।

(2) न्याय सम्बन्धी अधिकार – जिलाधिकारी को राजस्व सम्बन्धी तथा किराया नियन्त्रण कानून के अन्तर्गत शहरी सम्पत्ति के विवादों के निपटारे से सम्बद्ध न्यायिक कार्य भी करना होता है। इसी कारण उसे जिलाधीश भी कहा जाता है। अपने अधीनस्थ अधिकारियों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकारी भी जिलाधीश को प्राप्त है।

(3) मालगुजारी (राजस्व) सम्बन्धी अधिकार – जिलाधिकारी सम्पूर्ण जिले की मालगुजारी वसूल करता है तथा इससे सम्बन्धित बड़े-बड़े झगड़ों का समाधान भी करता है। इस कार्य में इसकी सहायता के लिए इसके अधीन डिप्टी कलेक्टर, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, लेखपाल आदि होते हैं। जिले का सरकारी कोष इसी के अधिकार में रहता है।

(4) निरीक्षण सम्बन्धी अधिकार – सम्पूर्ण जिले की शान्ति एवं व्यवस्था का भार जिलाधिकारी पर होता है। इसलिए इसे प्रत्येक विभाग के निरीक्षण करने का अधिकार दिया गया है। जिलाधिकारी जिले के लगभग सभी विभागों का समय-समय पर निरीक्षण करता है और उन पर अपना नियन्त्रण भी रखता है।

(5) विकास सम्बन्धी अधिकार – यद्यपि जिले में विकास सम्बन्धी कार्यों की देख-रेख के लिए एक मुख्य विकास अधिकारी की नियुक्ति की जाती है, तथापि जिले के विकास का उत्तरदायित्व जिलाधिकारी पर ही होता है। जिले के विकास के लिए विभिन्न विकास योजनाएँ बनाना, उनका क्रियान्वयन कराना तथा उन पर नियन्त्रण रखना भी जिलाधिकारी का ही कार्य है।

(6) जनता व सरकार के मध्य सम्बन्ध – जिलाधिकारी ही जनता और सरकार के मध्य एक कड़ी, के रूप में काम करता है तथा तहसील दिवस आदि के सदृश आयोजनों में वह जनता की समस्याओं को सुनकर उनका समाधान भी करता है।

(7) अन्य कार्य – जिले की समस्त स्थानीय संस्थाओं पर पूर्ण नियन्त्रण रखने के साथ-साथ विभिन्न आग्नेयास्त्रों (राइफल, बन्दूक, पिस्तौल आदि) के लाइसेन्स देने का अधिकार भी जिलाधिकारी को ही होता है। वह जिले में अनेक छोटे-छोटे कर्मचारियों की नियुक्ति का कार्य भी करता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जिले का सर्वोच्च पदाधिकारी होने के कारण जिलाधिकारी को प्रशासन एवं विकास-सम्बन्धी अनेक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है। वस्तुत: जिलाधिकारी के अधिकार तथा शक्तियाँ व्यापक हैं।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 8 Local Governments (स्थानीय शासन) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 8 Local Governments (स्थानीय शासन), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism (संघवाद)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Political Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism (संघवाद).

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
नीचे कुछ घटनाओं की सूची दी गई है। इनमें से किसको आप संघवाद की कार्य-प्रणाली के रूप में चिह्नित करेंगे और क्यों?

(क) केन्द्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्त्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम बंगाल के इस पर्वतीय जिले के शासकीय निकाय को ज्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केन्द्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

(ख) वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लाएगी। केन्द्र सरकार ने वर्षा प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान करने की उनकी माँग पर फौरन कार्रवाई कर सके।

(ग) दिल्ली के लिए नए आयुक्त। देश की राजधानी दिल्ली में नए नगरपालिका आयुक्त को बहाल किया जाएगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है। कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह सँभालेंगे। अशोक कुमार अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।

(घ) मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा। राज्यसभा ने बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक पारित किया। मानव संसाधन विकास मन्त्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी ऐसी संस्थाओं का निर्माण होगा।

(ड) केन्द्र ने धन दिया। केन्द्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत अरुणाचल प्रदेश को 533 लाख रुपये दिए हैं। इस धन की पहली.किस्त के रूप में अरुणाचल प्रदेश को 466 लाख रुपये दिए गए हैं।

(च) हम बिहारियों को बताएँगे कि मुंबई में कैसे रहना है। करीब 100 शिव सैनिकों ने मुंबई के जे०जे०, अस्पताल में उठा-पटक करके रोजमर्रा के कामधंधे में बाधा पहुँचाई, नारे लगाए और धमकी दी कि गैर-मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही निपटाएँगे।

(छ) सरकार को भंग करने की माँग कांग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक एलायंस ऑफ नागालैंड (डीएएन) की सरकार को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की माँग की है।

(ज) एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा। विपक्षी दल राजद और उसके सहयोगी कांग्रेस और सीपीआई (एम) के वॉक आउट के बीच बिहार सरकार ने आज नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को भी सरकार ने दोहराया।
उत्तर-
उपर्युक्त उदाहरणों में ‘क’ में वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति दिखाई देती है क्योंकि इसमें सांस्कृतिक व भौगोलिक समीपता के आधार पर स्वायत्त परिषद् का निर्माण कर शक्तियों का बँटवारा किया जाता है जिससे निश्चित क्षेत्र का वहाँ के स्थानीय लोगों की इच्छा व अपेक्षाओं के अनुसार विकास हो सके। दूसरा उदाहरण (ख) भी वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति को प्रकट करता है जिसमें केन्द्र उन राज्यों से व्यय का विवरण माँगता है जो वर्षा से अधिक प्रभावित हुए हैं ताकि उन्हें आवश्यक सहायता दी जा सके। उदाहरण (ङ) में भी वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति है क्योंकि इसमें भी अरुणाचल प्रदेश की पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 2.
बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही होगा और क्यों?
(क) संघवाद से इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक की संस्कृति दूसरे पर लाद दी जाएगी।
(ख) अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेन-देन को संघीय प्रणाली से बाधा पहुँचेगी।
(ग) संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है जो केन्द्र में सत्तासीन हैं उनकी शक्तियाँ सीमित रहें।
उत्तर-
उपर्युक्त में प्रथम कथन (क) सही है क्योंकि संघीय प्रणाली में सभी को अपनी-अपनी संस्कृति के विकास का पूरा अवसर प्राप्त होता है जिसमें यह भी भय नहीं रहता है कि किसी पर दूसरे की संस्कृति लाद दी जाएगी। तीसरा कथन (ग) भी सही है क्योंकि संघीय प्रणाली में शक्तियों का केन्द्र व राज्यों में बँटवारा करके केन्द्र की शक्तियों को सीमित किया जाता है।

प्रश्न 3.
बेल्जियम के संविधान के कुछ प्रारंभिक अनुच्छेद नीचे लिखे गए हैं। इसके आधार पर बताएँ कि बेल्जियम में संघवाद को किस रूप में साकार किया गया है। भारत के संविधान के लिए ऐसा ही अनुच्छेद लिखने का प्रयास करके देखें।
शीर्षक-1 : संघीय बेल्जियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र
अनुच्छेद-1 – बेल्जियम एक संघीय राज्य है—जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।
अनुच्छेद-2 – बेल्जियम तीन समुदायों से बना है—फ्रेंच समुदाय, फ्लेमिश समुदाय और जर्मन समुदाय।
अनुच्छेद-3 – बेल्जियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है-वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र और ब्रूसेल्स क्षेत्र।
अनुच्छेद-4 – बेल्जियम में 4 भाषाई क्षेत्र हैं- फ्रेंच-भाषी क्षेत्र, डच-भाषी क्षेत्र, ब्रसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र। राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषाई क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।
अनुच्छेद-5 – वैलून क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले प्रान्त हैं-वैलून ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल प्रांत हैं- एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैंडर्स, ईस्ट फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
उत्तर-
बेल्जियम के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि बेल्जियम समाज एक बहुसंख्यक (संघीय) समाज है जिसमें विभिन्न जाति, भाषा, बोली के लोग रहते हैं। ये अलग-अलग क्षेत्रों व प्रान्तों में रहते हैं; अतः बेल्जियम में संघीय समाज के कारण संघीय शासन-प्रणाली की भी आवश्यकता है यह एक ऐसा संघ होगा जिसमें विभिन्न क्षेत्र व प्रान्त सम्मिलित होंगे।

भारतीय समाज भी एक संघीय समाज है जिसमें विभिन्न जाति, धर्म, संस्कृति, बोली व भाषा के लोग रहते हैं। भारत 29 राज्यों का संघ है। भारत में संघीय शासन-प्रणाली है परन्तु इसमें अनेक एकात्मक तत्त्व हैं जिन्हें भारतीय एकता, अखण्डता की सुरक्षा के लिए सम्मिलित किया गया है। संविधान की योजना के आधार पर केन्द्र व राज्यों में शक्तियों का विभाजन किया गया है। राज्य अपने क्षेत्र में प्रभावकारी है परन्तु मुख्य विषयों पर केन्द्र को शक्तिशाली बनाया गया है। शक्तियों का विभाजन भी केन्द्र के पक्ष में अधिक है यद्यपि प्रशासन के क्षेत्र में व विकास के क्षेत्र में केन्द्र व राज्य आपसी सहयोग के आधार पर काम करते हैं।

प्रश्न 4.
कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग 300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर आपके सुझाव हों-
(क) केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा
(ख) वित्त-संसाधनों का वितरण
(ग) राज्यपालों की नियुक्ति
उत्तर-
बहुल समाज में सभी वर्गों के विकास के लिए वे उनके हितों की रक्षा के लिए प्रजातन्त्रीय संघीय शासन-प्रणाली आवश्यकता है। संघीय ढाँचे का निर्माण संविधान की योजना के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए।

संघीय शासन-प्रणाली की प्रमुख विशेषता केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन से है। संघ का निर्माण संघीय सिद्धान्तों के आधार पर होना चाहिए जिसमें संघ राज्यों की मर्जी पर आधारित होना चाहिए।, प्रान्तीय व क्षेत्रीय विषयों पर राज्यों का ही नियन्त्रण रहना चाहिए। संघ के पास केवल राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के विषय होने चाहिए। रक्षित शक्तियाँ राज्यों के पास होनी चाहिए। राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता कम-से-कम होनी चाहिए। राज्यों के स्रोतों को राज्यों के विकास के लिए अधिक-से-अधिक उपयोग होना चाहिए। केन्द्र व राज्यों में आर्थिक स्रोतों का विभाजन विवेकपूर्ण आधार पर होना चाहिए।

राज्यपाल राज्यों का संवैधानिक मुखिया कहलाता है जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्र सरकार की सलाह पर करता है। राज्यपाल का पद राज्यों में महत्त्वपूर्ण पद है जो संवैधानिक मुखिया के साथ-साथ केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल के पद की इस स्थिति के कारण इसका राजनीतिकरण हो गया है। अतः संघीय व्यवस्था की सफलता के लिए आवश्यक है कि इस पद का दुरुपयोग न हो व राज्यपाल की नियुक्ति में राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का परामर्श लिया जाना चाहिए व इस पद पर योग्य व निष्पक्ष व्यक्ति की नियुक्ति की जानी चाहिए।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों?
(क) सामान्य भाषा
(ख) सामान्य आर्थिक हित
(ग) सामान्य क्षेत्र
(घ) प्रशासनिक सुविधा
उत्तर-
यद्यपि अभी तक भारत में राज्यों का गठन 1956 के कानून के आधार पर भाषा आधारित होता रहा है परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में प्रशासनिक सुविधा को राज्यों के पुनर्गठन का प्रमुख आधार माना जा रहा है जिससे लोगों को कुशल प्रशासन प्रदान किया जा सके जिसमें स्थानीय लोगों का विकास भी सम्भव हो सके।

प्रश्न 6.
उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिंदी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाए तो क्या ऐसा करना संघवाद के विचार से संगत होगा? तर्क दीजिए।
उत्तर-
यदि उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार जो कि सभी हिन्दी भाषी हैं, सभी को मिला दिया जाए तो भाषाई व सांस्कृतिक दृष्टि से तो वे सभी एक-इकाई के रूप में इकट्ठे हो सकते हैं परन्तु प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से यह उचित नहीं होगा। संघीय प्रशासन का प्रमुख आधार प्रशासनिक सुविधा है। देश में छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड व झारखण्ड का निर्माण प्रशासनिक आधार पर किया गया है।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिनमें प्रादेशिक सरकार की अपेक्षा केन्द्रीय सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान की गई।
उत्तर-
निम्नलिखित चार विशेषताएँ ऐसी हैं जिनके आधार पर केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है-

  1. केन्द्र के पक्ष में शक्तियों का विभाजन,
  2. राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ,
  3. राज्यों में राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था,
  4. अखिल भारतीय सेवाओं की भूमिका।

प्रश्न 8.
बहुत-से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं?
उत्तर-
भारतीय राजनीति में वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित पद राज्यपाल का है। देश के अधिकांश राज्यों को अपने यहाँ के राज्यपालों से किसी-न-किसी रूप में शिकायत रहती है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि अधिकांश राज्यपालों की राजनीतिक पृष्ठभूमि होती है जिसके आधार पर केन्द्र के शासक दल द्वारा उनकी नियुक्ति की जाती है। इस कारण राज्यपाल निरपेक्ष रूप से अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते। इनकी भूमिका केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में होती है जिसके आधार पर इनकी जिम्मेदारी केन्द्र के हितों की रक्षा करना होता है परन्तु ये केन्द्र में जिस दल की सरकार होती है उसके रक्षक बन जाते हैं जिससे राज्यों की सरकारों और राज्यपालों में टकराव उत्पन्न हो जाता है।

प्रश्न 9.
यदि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सी स्थिति किसी देश में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं? संक्षेप में कारण भी दें।
(क) राज्य की विधानसभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की माँग कर रहा है।
(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
(घ) केन्द्र और प्रदेशों में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
(ङ) सांप्रदायिक दंगे में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल-विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया है।
उत्तर-
उपर्युक्त परिस्थितियों में (ग) में दिया गया उदाहरण राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए सबसे उपयुक्त है। ऐसी स्थिति में जब चुनाव के बाद किसी भी दल को आवश्यक बहुमत प्राप्त न हो तो इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि राजनीतिक दलों द्वारा सरकार बनाने के प्रयास में जोड़-तोड़ की राजनीति व विधायकों की खरीद-फरोख्त प्रारम्भ हो जाती है।

प्रश्न 10.
ज्यादा,स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या माँगें उठाई हैं?
उत्तर-
1960 से निरन्तर विभिन्न राज्यों से प्रान्तीय स्वतन्त्रता की माँग निरन्तर उठाई जाती रही है। पश्चिम बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर व कुछ उत्तर पूर्वी राज्यों से विशेष रूप से यह माँग आती रही है-

  1. केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन राज्यों के पक्ष में होना चाहिए।
  2. राज्यों की केन्द्र पर आर्थिक निर्भरता नहीं होनी चाहिए।
  3. राज्यों के मामलों में केन्द्र का कम-से-कम हस्तक्षेप होना चाहिए।
  4. राज्यपाल के पद का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए व राज्यपाल की नियुक्ति में राज्यों में मुख्यमन्त्रियों का परामर्श लिया जाना चाहिए।
  5. सांस्कृतिक स्वायत्तता होनी चाहिए।
  6. सभी राज्यों का समान विकास होना चाहिए।
  7. संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 11.
क्या कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए? क्या इससे दूसरे प्रदेशों में नाराजगी पैदा होती है? क्या इन विशेष प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद मिलती है?
उत्तर-
संघीय प्रशासन के सिद्धान्तों के अनुसार सभी राज्यों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। सभी राज्यों में विकास कार्य समान होने चाहिए। भारत में ऐसा नहीं है। भारत में कुछ छोटे राज्य हैं, कुछ बड़े। राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व है। जम्मू-कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत विशेष दर्जा दिया गया है जिसके आधार पर जम्मू-कश्मीर की राज्य के रूप में अपनी प्रभुसत्ता है। इसी प्रकार से उत्तर-पूर्वी राज्यों (असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश व त्रिपुरा) के विकास के लिए विशेष प्रावधान हैं। इन राज्यों के राज्यपाल को विशेष शक्तियाँ प्राप्त हैं। कमजोर और पिछड़े राज्यों के विकास के लिए विशेष सुविधाएँ देना अनुचित नहीं है और न ही अन्य प्रदेशों को इससे असहमत होना चाहिए। सभी राज्यों की आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए जिससे राष्ट्रीय एकता, अखण्डता को कोई खतरा उत्पन्न न हो।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘फेडरेशन ऑफ वेस्टइंडीज का जन्म किस वर्ष हुआ था?
(क) सन् 1958 में
(ख) सन् 1962 में
(ग) सन् 1963 में
(घ) सन् 1964 में
उत्तर :
(क) सन् 1958 में

प्रश्न 2.
‘यूनियन’ शब्द किस देश के संविधान से लिया गया है?
(क) ऑस्ट्रेलिया
(ख) कनाडा
(ग) ब्रिटेन
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका
उत्तर :
(ख) कनाडा

प्रश्न 3.
“भारत वस्तुतः एक संघात्मक राज्य नहीं है, वरन् अर्द्ध संघात्मक राज्य है।” यह किसका। कथन है?
(क) के० सी० ह्वीयर
(ख) जी० एन० जोशी
(ग) के० सन्थानम,
(घ) डॉ० बी०आर० अम्बेडकर
उत्तर :
(ख) जी० एन० जोशी।

प्रश्न 4.
“भारत का ढाँचा संघात्मक है, किन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है।” यह किसका कथन है?
(क) दुर्गादास बसु
(ख) जस्टिस सप्रू
(ग) एम०वी० पायली
(घ) रणजीत सिंह सरकारिया
उत्तर :
(ग) एम०वी० पायली।

प्रश्न 5.
राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन कब हुआ था?
(क) 1950 ई० में
(ख) 1952 ई० में
(ग) 1954 ई० में
(घ) 1956 ई० में
उत्तर :
(ग) 1954 ई० में

प्रश्न 6.
संघ सूची में कुल कितने विषय है?
(क) 66
(ख) 97
(ग) 47
(घ) 100
उत्तर :
(ख) 97

प्रश्न 7.
राज्य सूची में कितने विषय हैं?
(क) 62
(ख) 64
(ग) 60
(घ) 72
उत्तर :
(क) 62

प्रश्न 8.
समवर्ती सूची पर कानून निर्मित करने का अधिकार किसको प्राप्त है?
(क) केन्द्र को
(ख) राज्य को
(ग) केन्द्र तथा राज्य दोनों को
(घ) केन्द्र-शासित प्रदेश को
उत्तर :
(ग) केन्द्र तथा राज्य दोनों को

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन-सा विषय संघ सूची में सम्मिलित नहीं है?
(क) रक्षा
(ख) विदेश
(ग) वाणिज्य
(घ) शिक्षा
उत्तर :
(घ) शिक्षा

प्रश्न 10.
42वें संविधान संशोधन द्वारा निम्नलिखित में से कौन-सा विषय समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया है?
(क) कृषि
(ख) जेल
(ग) पुलिस
(घ) वन
उत्तर :
(घ) वन

प्रश्न 11.
आपातकालीन स्थिति में भारतीय संघ का ढाँचा हो जाता है –
(क) पूर्ण संघात्मक
(ख) अर्द्ध-संघात्मक
(ग) एकात्मक
(घ) कोई प्रभाव नहीं
उत्तर :
(ग) एकात्मक।

प्रश्न 12.
केन्द्र-राज्य संबंधों से जुड़े मसलों की जाँच के लिए सरकारिया आयोग कब गठित किया गया था?
(क) सन् 1947 में
(ख) सन् 1983 में
(ग) सन् 1984 में
(घ) सन् 1985 में
उत्तर :
(ख) सन् 1983 में

प्रश्न 13.
प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से उत्तर प्रदेश को विभाजित कर कौन-सा राज्य गठित किया गया?
(क) उत्तराखण्ड
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) झारखण्ड
(घ) हरियाणा
उत्तर :
(क) उत्तराखण्ड।

प्रश्न 14.
कावेरीजल प्रवाह किन दो राज्यों के मध्य है?
(क) गुजरात-महाराष्ट्र
(ख) उत्तराखण्ड-हिमाचल प्रदेश
(ग) तमिलनाडु-कर्नाटक
(घ) मध्य प्रदेश-महाराष्ट्र
उत्तर :
(ग) तमिलनाडु-कर्नाटक

प्रश्न 15.
संविधान के अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत किस राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई
(क) पंजाब
(ख) मिजोरम
(ग) सिक्किम
(घ) जम्मू-कश्मीर
उत्तर :
(घ) जम्मू-कश्मीर

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान संघात्मक है या एकात्मक?
उत्तर :
भारतीय संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी।

प्रश्न 2.
संविधान के दो संघात्मक तत्त्व बताइए।
उत्तर :

  1. लिखित संविधान तथा
  2. स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के दो एकात्मक लक्षण बताइए।
उत्तर :

  1. शक्तिशाली केन्द्र तथा
  2. इकहरी नागरिकता।

प्रश्न 4.
भारतीय संघ में कितने राज्य हैं?
उत्तर :
भारत में राज्यों की कुल संख्या 29 है।

प्रश्न 5.
संघ सूची में कितने विषय है?
उत्तर :
संघ सूची में 97 विषय हैं।

प्रश्न 6.
संघ सूची में सम्मिलित किन्हीं दो विषयों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. रक्षा तथा
  2. वैदेशिक मामले।

प्रश्न 7.
समवर्ती सूची के दो विषयों का नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. फौजदारी विधि एवं प्रक्रिया और
  2. शिक्षा

प्रश्न 8.
समवर्ती सूची के विषयों पर किसे कानून बनाने का अधिकार है?
उत्तर :
समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार है।

प्रश्न 9.
उस परिस्थिति का उल्लेख कीजिए, जब संसद राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।
उत्तर :
यदि राज्यसभा अपने 2/3 बहुमत से राज्य सूची में निहित किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे।

प्रश्न 10.
संघ सरकार की आय के ऐसे दो साधन बताइए, जो राज्य सरकार की आय के साधन नहीं हैं।
उत्तर :

  1. केन्द्रीय उत्पाद शुल्क तथा
  2. आयकर।

प्रश्न 11.
संघ सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार किसको है?
उत्तर :
संघ सूची के विषयों पर कानून बनाने का एकमात्र अधिकार भारतीय संसद को है।

प्रश्न 12.
केन्द्र तथा राज्यों में शक्तियों का विभाजन की तीन सूचियों में से शिक्षा किस सूची में
उत्तर :
शिखा को समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया है।

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान में विधायी शक्तियों का विभाजन जिन सूचियों में किया गया है, उनके नाम बताइए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में विधायी शक्तियों का विभाजन निम्नलिखित तीन सूचियों में किया गया

  1. संघ सूची
  2. समवर्ती सूची तथा
  3. राज्य सूची।

प्रश्न 14.
राज्य सूची में कितने विषय हैं?
उत्तर :
राज्य सूची में 62 विषय हैं।

प्रश्न 15.
समवर्ती सूची में कितने विषय हैं?
उत्तर :
समवर्ती सूची में विषयों की संख्या 52 है।

प्रश्न 16.
वित्त आयोग की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर :
वित्त आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति करती है।

प्रश्न 17.
राज्य पुनर्गठन आयोग (1956) के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर :
राज्य पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष फजल अली थे।

प्रश्न 18.
एक संघात्मक राज्य में उच्चतम (सर्वोच्च न्यायालय क्यों आवश्यक है?
उत्तर :
संघ और इकाइयों के बीच विवादों को हल करने के लिए संघात्मक राज्य में एक उच्चतम (सर्वोच्च) न्यायालय का होना आवश्यक है।

प्रश्न 19.
भारत को एक संघात्मक राज्य क्यों कहा जाता है?
उत्तर :
भारत 29 राज्यों तथा 7 संघशासित प्रदेश से बना हुआ एक संघ है और इसमें संघात्मक राज्य की सभी विशेषताएँ हैं, इसलिए इसे संघात्मक राज्य कहा जा सकता है।

प्रश्न 20.
भारतीय संविधान की संघात्मकता की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. संविधान की सर्वोच्चता तथा
  2. केन्द्र व राज्यों में शक्तियों का विभाजन।

प्रश्न 21.
राज्य सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर :
राज्य सूची पर राज्य सरकार कानून बनाती है, परन्तु यदि कोई विषय राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किए जाने पर, उस पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र सरकार को प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 22.
संविधान का अनुच्छेद 370 किस राज्य से संबंधित है?
उत्तर :
संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर राज्य से संबंधित है।

लघु उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघात्मक शासन के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
संघात्मक शासन व्यवस्था वह शासन व्यवस्था होती है जिसमें दो प्रकार की सरकारें होती हैं। वह सरकार, जो समस्त देश का प्रशासन करती है, ‘संघीय सरकार’ कहलाती है तथा दूसरी वह सरकार, जो राज्य का प्रशासन करती है, ‘राज्य-सरकार’ कहलाती है। फ्रीमैन के शब्दों में, “संघात्मक शासन वह है जो दूसरे राष्ट्रों के साथ संबंध में एक राज्य के समान हो, परन्तु आन्तरिक दृष्टि से यह अनेक राज्यों का योग हो।’ डायसी के शब्दों में, “संघात्मक राज्य एक ऐसे राजनीतिक उपाय के अतिरिक्त कुछ नहीं है जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता तथा राज्यों के अधिकारों में मेल स्थापित करना है।”

प्रश्न 2.
भारत में केन्द्र तथा राज्यों के संबंधों पर केन्द्र की स्थिति किस प्रकार की प्रतीत होती है?
उत्तर :
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य संबंधों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया गया है। राज्यों की स्वायत्तता की अपेक्षा केन्द्र को शक्तिशाली बनाने पर अत्यधिक बल दिया गया है। वास्तव में, बजाय इसके कि केन्द्र के हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध लगाए जाते, संविधान ने राज्यों की शक्तियों पर प्रतिबंध लगाए हैं। भारतीय संविधान में अनेक ऐसे प्रावधानों की व्याख्या की गई है, जिन्होंने राज्यों की स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला है तथा राज्यों को संघ सरकार के अधीन कर दिया है। इस स्थिति को देखते हुए आलोचकों को यह कहने का अवसर प्राप्त हुआ है कि भारतीय संघ पूर्ण रूप से एक संघीय राज्य नहीं है।

प्रश्न 3.
संघ (केन्द्र) सूची का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
संघ (केन्द्र) सूची के अन्तर्गत उन विषयों को रखा गया है, जिन पर केवल केन्द्र सरकार ही कानूनों का निर्माण कर सकती है। ये विषय बहुत महत्त्वपूर्ण एवं राष्ट्रीय स्तर के हैं। संघ सूची में 97 विषय हैं। इस सूची में प्रमुख विषय–रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व सन्धि तथा बैंकिंग हैं।

प्रश्न 4.
समवर्ती सूची पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
औपचारिक रूप में और कानूनी दृष्टि से इन तीनों सूचियों के विषयों की संख्या वही बनी हुई है। जो मूल संविधान में है। लेकिन 42वें संविधान संशोधन द्वारा राज्य-सूची के चार विषय (शिक्षा, वन, जंगली पशु तथा पक्षियों की रक्षा एवं नाप-तौल) समवर्ती सूची में सम्मिलित कर दिये गये हैं और समवर्ती सूची में इन चार के अतिरिक्त एक नवीन विषय ‘जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन’ भी सम्मिलित किया गया है। इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गये हैं जिनका महत्त्व क्षेत्रीय एवं संघीय दोनों ही दृष्टियों से है। इस सूची के विषय पर संघ तथा राज्य दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। यदि इस सूची के किसी विषय पर संघीय तथा राज्य सरकार द्वारा बनाये गये कानुन परस्पर विरोधी हों तो सामान्यतया संघ का कानुन मान्य होगा। इस सूची में कुल 52 विषय हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं-फौजदारी विधि तथा प्रक्रिया, निवारक निरोध, विवाह एवं विवाह-विच्छेद, दत्तक एवं उत्तराधिकार, कारखाने, श्रमिक संघ, औद्योगिक विवाद, आर्थिक और सामाजिक योजना, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, पुनर्वास और पुरातत्त्व, शिक्षा, जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन, वन इत्यादि।

प्रश्न 5.
भारत के संविधान में शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना क्यों की गई है?
उत्तर :
भारत के संविधान में शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना इसलिए की गई है, क्योकि –

  1. यह भारत की एकता तथा अखण्डता की परिचायक है।
  2. यह भारत में एकता बनाए रखने का महत्त्वपूर्ण एवं शक्तिशाली साधन है।
  3. समस्त भारत की प्रगति और उन्नति के लिए शक्तिशाली केन्द्र आवश्यक है।
  4. भारत का इतिहास इस बात को सिद्ध करता है कि जब-जब भारत में केन्द्रीय सत्ता कमजोर हुई है,

भारत पर विदेशी राज्यों का आक्रमण हुआ तथा भारत छोटे-छोटे राज्यों की आन्तरिक फूट के कारण अनेक वर्षों तक दासता की जंजीरों में जकड़ा रहा। इसीलिए भारत के संविधान-निर्माताओं ने सोच-विचार कर शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की।

प्रश्न 6.
भारत में संघीय व्यवस्था का भविष्य किस बात पर निर्भर करता है? संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
भारत में संघीय व्यवस्था का भविष्य केन्द्र-राज्य संबंधों के सफल संचालन पर निर्भर करता है। केन्द्र तथा राज्यों का संबंध कतिपय तात्कालिक समस्याओं के समाधान पर निर्भर करेगा। ये समस्याएँ हैं-केन्द्र द्वारा राज्यों को अपने क्षेत्र में अधिक-से-अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करना, केन्द्रीय वित्तीय संसाधनों का राज्यों के मध्य न्यायपूर्ण विभाजन, खाद्य समस्या तथा रिजर्व बैंक में राज्यों द्वारा ओवर ड्राफ्ट लेना। इन समस्याओं में दोनों सरकारों के बीच सहयोग होना चाहिए न कि प्रतिस्पर्धा तथा विरोध।

प्रश्न 7.
भारतीय संघवाद के विशिष्ट लक्षणों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संघवाद के विशिष्ट लक्षण निम्नलिखित हैं –

  1. संविधान के उपबन्धों द्वारा औपचारिक रूप में स्थापित, भारतीय संघीय व्यवस्था का स्वरूप प्रादेशिक है।
  2. भारतीय संघवाद क्षैतिज है जिसका एक सशक्त केन्द्र के प्रति झुकाव है।
  3. भारतीय संघ इस रूप में लचीला है कि वह विशेषतया संकटकाल में एकात्मकस्वरूप में सहजता से बदला जा सकता है।
  4. भारतीय संघ व्यवस्था इस रूप में सहकारी है कि वह सामान्य हितों के मामले में केन्द्र तथा राज्यों से सहयोग की अपेक्षा करती है।
  5. केन्द्र पर एक दल के आधिपत्य के कारण संघ का स्वरूप एकात्मक हो गया है।

प्रश्न 8.
राष्ट्रपति शासन से क्या आशय है?
उत्तर :
भारतीय संविधान में राज्यों में राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत की गई है। यह निम्नलिखित परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है –

  1. किसी राज्य में कानून व्यवस्था भंग हो जाने की स्थिति में।
  2. राज्य में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति में।
  3. किसी भी दल को चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त न हुआ हो। और सरकार का गठन सम्भव न होने की स्थिति में।
  4. सरकार संविधान के अनुसार न चलाई जा रही हो अर्थात् राज्य में केन्द्र सरकार के कानूनों व आदेशों की अवहेलना हो रही हो।

उपर्युक्त स्थितियों में से एक स्थिति में भी राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर निर्णय लेकर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकता है।

प्रश्न 9.
राज्यपाल की विवेकीय शक्तियाँ समझाइए।
उत्तर :
जिन शक्तियों को राज्यपाल स्वयं मुख्यमंत्री व मन्त्रिमण्डल के परामर्श के बिना प्रयोग करता है, उन्हें उसकी विवेकीय शक्तियाँ कहते हैं। राज्यपाल के पास अनेक विवेकीय शक्तियाँ हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं –

  1. राज्यपाल किसी ऐसे बिल को, जिसे विधानसभा ने पास कर दिया हो, राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज सकता है।
  2. जब चुनाव के बाद, राज्य में किसी भी दल को सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त न हो तो राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर किसी दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है।
  3. कानून व्यवस्था का मूल्यांकन व राजनीतिक अस्थिरता का मूल्यांकन करना।
  4. राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में निहित एकात्मक तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान यद्यपि संघात्मक है परन्तु उसमें अनेक एकात्मक तत्त्वों का भी समावेश किया गया है। इसी कारण के० सी० क्लीयर ने इसे ‘अर्द्ध-संघात्मक राज्य की संज्ञा प्रदान की है। भारत की संघात्मक व्यवस्था में निम्नलिखित एकात्मक तत्त्व पाए जाते हैं –

  1. भारत में इकहरी नागरिकता है।
  2. भारत का इकहरा संविधान है।
  3. न्यायपालिका का स्वरूप एकीकृत है।
  4. आपातकालीन स्थिति में राज्य का संघात्मक रूप एकात्मक में परिणत हो जाता है।
  5. राज्य में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है।
  6. राज्य को केन्द्र से पृथक् होने का अधिकार नहीं है।
  7. संसद के उच्च सदन में राज्यों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया है।
  8. केन्द्र; राज्यों की सीमाओं, नामों में परिवर्तन करके नए राज्य का निर्माण कर सकता है।
  9. केन्द्र द्वारा अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है।

प्रश्न 11.
भारतीय राजनीति पर अनुच्छेद 370 के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
वर्तमान में अनुच्छेद 370 विवादास्पद बना हुआ है क्योंकि इसके कारण कश्मीर को विशेष स्थिति प्राप्त है जो उसको शेष भारत से मनोवैज्ञानिक ढंग से पृथक् करती है। कश्मीर को यह विशेष स्थिति तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को देखते हुए अस्थायी रूप से प्रदान की गई थी परन्तु राजनीतिज्ञों न इसे राजनीतिक लाभ के लिए स्थायी बना दिया। अनुच्छेद 370 के कारण ही कश्मीर को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ है। भारतीय संघ में केवल जम्मू-कश्मीर ही ऐसा राज्य है जिसका पृथक् संविधान है। वहाँ पर कोई भी गैर कश्मीरी भारतीय, भूमि नहीं खरीद सकता है तथा स्थायी रूप से निवास नहीं बना सकता है जबकि 1947 ई० में कश्मीर से पाकिस्तान गए लोगों को पुनः कश्मीर वापस लौटने तथा वहाँ बसने का अधिकार है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का संघात्मक स्वरूप अन्य संघों से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर :
विश्व के अनेक राज्यों में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया गया है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त भारत में भी संघात्मक शासन व्यवस्था की नींव डाली गई। हमने अपनी संघात्मक व्यवस्था को अमेरिका से न लेकर कनाडा से ग्रहण किया है। हमने संघ के लिए यूनियन शब्द का प्रयोग किया है। भारत के संघ को विद्वानों ने कमजोर संघ अथवा अर्द्ध-संघ के नाम से सम्बोधित किया है। भारत के संघ में संघात्मक सरकार के सभी लक्षणों का समावेश किया गया है परन्तु फिर भी भारत का संघात्मक स्वरूप अन्य संघों से अनेक प्रकार से भिन्न है। जैसे

(1) भारतीय संविधान में कहीं पर भी संघात्मक शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, इसमें केवल यह कहा गया है कि भारत राज्यों का संघ है।

(2) दूसरे संघों में केन्द्र की तुलना में राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं परन्तु भारत में राज्यों की तुलना में केन्द्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संघ की सूची में वर्णित विषयों की संख्या 97 है जबकि राज्यों को मात्र 62 विषय प्रदान किए गए हैं। समवर्ती सूची में 52 विषयों को सम्मिलित किया गया है। समवर्ती सूची पर केन्द्र तथा राज्यों (दोनों) को कानून-निर्माण करने की शक्ति प्रदान की गई है परन्तु यदि इन दोनों के निर्मित कानूनों में। टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो केन्द्र के कानून को मान्यता प्राप्त होती है।

(3) आपातकालीन स्थिति में भारतीय संघीय व्यवस्था एकात्मक में परिवर्तित हो जाती है।

(4) हमारे संघ का निर्माण इस प्रकार से नहीं हुआ है, जैसे अमेरिका के संघ का निर्माण हुआ था। हमने भारत के विभिन्न राज्यों का समय-समय पर विभाजन करके नए-नए राज्यों का निर्माण किया है जबकि अन्य संघात्मक राज्यों में स्वतन्त्र तथा सम्प्रभु राज्य सम्मिलित हुए थे।

(5) केन्द्रीय विधायिका (संसद) किसी भी राज्य की सीमा में परिवर्तन कर सकती है, यहाँ तक कि वह किसी भी राज्य को समाप्त करके नए राज्य का निर्माण कर सकती है जबकि अन्य संघात्मक राज्यों में इस स्थिति को नहीं अपनाया गया है।

प्रश्न 2.
भारत में संघीय व्यवस्था को क्यों अपनाया गया है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान ने संघात्मक शासन-प्रणाली की व्यवस्था की है। भारत में वर्षों तक अंग्रेजों का शासन रहा। भारत की अपनी परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि अंग्रेजों ने भी 1935 के अधिनियम द्वारा भारत में संघीय प्रणाली की व्यवस्था की थी। स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान निर्माताओं ने इसी व्यवस्था को अपनाया। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा निम्नलिखित कारणों से संघात्मक व्यवस्था को अपनाया गया –

  1. भारत भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से एक उप-महाद्वीप के समान है जिसमें प्रशासनिक दृष्टिकोण से संघात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त हो सकती थी।
  2. भारतीय समाज में विभिन्न धर्म, भाषा, जाति, संस्कृति आदि पाए जाते हैं जिनमें सामंजस्य स्थापित करने के लिए संघात्मक व्यवस्था ही उचित समझी गई।
  3. अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र करने के साथ-साथ देशी रियासतों को भी स्वतन्त्र कर दिया था। इन देशी रियासतों को भारत में मिलाने के लिए संघात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त थी। इसके द्वारा । स्थानीय स्वायत्तता तथा राष्ट्रीय एकता दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति हो जाती है।
  4. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सदैव संघात्मक व्यवस्था की माँग की थी।
  5. भारतीयों को संघात्मक व्यवस्था का अनुभव भी था क्योंकि 1935 में भारत सरकार अधिनियम के अन्तर्गत संघात्मक व्यवस्था ही अपनाई गई थी।

संविधान सभा में डॉ० बी०आर० अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि यह एक संघीय संविधान है क्योंकि यह दोहरे शासन तन्त्र की व्यवस्था करता है जिसमें केंद्र में सघीय सरकार तथा उसके चारों ओर परिधि में राज्य सरकारें हैं जो संविधान द्वारा निर्धारित क्षेत्रों में सर्वोच्च सत्ता का प्रयोग करती हैं।

प्रश्न 3.
केंद्र तथा राज्य संबंधों में राज्यपाल की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
राज्य का अध्यक्ष राज्यपाल होता है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर रहता है। राज्यपाल की नियुक्ति पाँच वर्ष के लिए की जाती है; परन्तु वास्तविकता यह है कि वह अपनी नियुक्ति तथा पदच्युति के लिए केंद्रीय सरकार पर आश्रित रहता है। उसकी यही आश्रियता केंद्र तथा राज्य संबंधों में तनाव का कारण बन जाती है।

जब केंद्र तथा राज्य में विभिन्न दलों की सरकार हो तो राज्य सरकार यह दावा करती है कि राज्यपाल की नियुक्ति उसके परामर्श से की जाए। परन्तु केंद्रीय सरकार अपनी पसंद के व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करके राज्य सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करती है।

राज्यपाल को कुछ ऐसे अधिकार भी प्राप्त हैं जिनका प्रयोग वह अपनी इच्छा से करता है, मंत्रिमण्डल की सलाह पर नहीं। ये अधिकार महत्त्वपूर्ण भी हैं। राज्य में संवैधानिक मशीनरी के असफल होने की रिपोर्ट वह अपने विवेक से करता है जिसके आधार पर केंद्र राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करता है। केंद्र ने अनेक बार उन राज्यों से जहाँ अन्य दल की सरकार थी, राज्यपाल से मनमाने ढंग से ऐसी रिपोर्ट ली और राष्ट्रपति शासन लागू कराया। राज्यपाल के ऐसे कार्यों ने केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव को बढ़ाया है। दिसम्बर 1992 की अयोध्या घटना के पश्चात् केंद्र ने भाजपा द्वारा शासित चारों राज्योंउत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा राजस्थान में राज्यपाल की रिपोर्टों के आधार पर राष्ट्रपति , शासन लागू कर दिया था।

राज्यपाल का एक अधिकार जिसका प्रयोग वह अपने विवेक से करता है और राज्यपालों ने केंद्रीय सरकार के हित में इसका अत्यधिक प्रयोग किया है, वह है राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए। किसी बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजना। इससे राज्य की विधायिका शक्ति प्रभावित होती है और बिल राष्ट्रपति के पास बहुत दिनों तक उसकी स्वीकृति के लिए पड़े रहते हैं। इस प्रकार केंद्र-राज्य संबंधों की दृष्टि से राज्यपाल की भूमिका अत्यन्त विवादास्पद रही है और इसने केंद्र और राज्यों के बीच कटुता और तनाव की स्थिति को बढ़ाया है।

प्रश्न 4.
केन्द्र तथा राज्य के मध्य तनाव के राजनीतिक एवं व्यावहारिक कारण लिखिए।
उत्तर :
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के राजनीतिक कारण केन्द्र तथा राज्य सम्बन्धों का राजनीतिक पक्ष बहुत मुखरित रहा है। केन्द्र तथा राज्य सरकारें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लागती हैं, जिन्हें अग्रनुसार रखा जा सकता है –

(1) केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा एक – दूसरे पर संकीर्ण दलबन्दी की भावना के अनेक आरोप लगाए जाते रहे हैं। केन्द्र में कांग्रेसी शासन के साथ जब कभी किसी राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसका यही आरोप रहा कि केन्द्र राज्य सरकार को गिराने अथवा नीचा दिखाने को प्रयत्नशील है। दूसरी ओर केन्द्र का यह आरोप रहा है कि राज्य सरकार केन्द्र के साथ असहयोग की राजनीति कर रही है। इस तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों से पारस्परिक संबंधों में तनाव पैदा होता है।

(2) डॉ० मिश्र ने लिखा है, “कुछ विपक्षी दल क्षेत्रीय साम्प्रदायिक भावनाओं की मदद से जनता में लोकप्रिय होना चाहते हैं तथा क्षेत्रीय स्तर पर निर्वाचन में सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से केन्द्र तथा राज्य के मध्य तनाव पैदा करते हैं। कुछ वामपन्थी दल, जिनकी लोकप्रियता कुछ क्षेत्रों तक सीमित है निर्वाचन नीति के रूप में केन्द्र के विरुद्ध राजनीतिक प्रचार करते हैं।”

केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के व्यावहारिक कारण

केन्द्र तथा राज्य संबंधों में तनाव के लिए कतिपय व्यावहारिक कारण भी उत्तरदायी रहे हैं, जिनका उल्लेख निम्नानुसार किया जा सकता है –

  1. केन्द्र तथा राज्यों में ये तनाव पैदा हो जाता है कि राज्य द्वारा आर्थिक अनुदान अथवा आर्थिक सहायता माँगने पर केन्द्रीय सरकार एक ओर तो उदार रवैया न अपनाकर यह आरोप लगाती है। कि राज्य सरकारें अपने स्वयं के राजस्व स्रोतों का समुचित विदोहन नहीं करतीं। केन्द्र का यह भी आरोप रहा है कि कुछ राज्य सरकारें उपलब्ध राशि को विकास योजनाओं पर उचित समय पर व्यय नहीं करतीं।
  2. ओवर-ड्राफ्ट को लेकर केन्द्र एवं राज्यों के मध्य संघर्ष तथा तनाव की स्थिति बनी रहती है।
  3. अंतर्राज्यीय विवादों को हल करने के संबंध में केन्द्र सरकार की निष्पक्षता को लेकर भी आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते रहे हैं।

प्रश्न 5.
नए राज्यों की माँग केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का कारण किस प्रकार है?
उत्तर :
भारत की संघीय व्यवस्था में नए राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है। राष्ट्रीय आन्दोलन ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता को नहीं बल्कि समान भाषा, क्षेत्र और संस्कृति के आधार पर एकता को भी जन्म दिया। हमारा राष्ट्रीय आन्दोलन लोकतन्त्र के लिए भी एक आन्दोलन था। अतः राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान यह भी तय किया गया कि यथासम्भव समान संस्कृति और भाषा के आधार पर राज्यों का गठन होगा।

इससे स्वतन्त्रता के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की माँग उठी। सन् 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई जिसने प्रमुख भाषाई समुदायों के लिए भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की सिफारिश की सन् 1956 में कुछ राज्यों का पुनर्गठन हुआ। इससे भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की शुरुआत हुई और यह प्रक्रिया आज भी जारी है। सन् 1960 में गुजरात और महाराष्ट्र का गठन हुआ; सन् 1966 में पंजाब और हरियाणा को अलग-अलग किया गया। बाद में पूर्वोत्तर के राज्यों का पुनर्गठन किया गया और अनेक नए राज्यों; जैसे—मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश अस्तित्व में आए।

1990 के दशक में नए राज्य बनाने की माँग को पूरा करने तथा अधिक प्रशासकीय सुविधा के लिए कुछ बड़े राज्यों का विभाजन किया गया। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को विभाजित कर तीन नए राज्य क्रमश: झारखण्ड, उत्तराखण्ड और छतीसगढ़ बनाए गए। कुछ क्षेत्र और भाषाई समूह अब भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिनमें आन्ध्र प्रदेश में तेलंगाना, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और महाराष्ट्र में विदर्भ प्रमुख हैं। सन् 2014 में आन्ध्र प्रदेश को विभाजित कर ‘तेलंगाना राज्य का गठन कर दिया गया।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“भारत का संविधान अर्द्ध-संघीय शासन-व्यवस्था की स्थापना करता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
“भारत का संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी।” व्याख्या कीजिए।
या
“भारतीय संविधान का रूप संघात्मक है, लेकिन उसकी आत्मा एकात्मक।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
भारत के संघवाद के पक्ष में चार तर्क दीजिए।
या
“भारत एक संघात्मक राज्य है।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
या
भारतीय संघात्मक व्यवस्था के एकात्मक लक्षणों का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय संविधान में संघ और राज्यों के बीच शक्तियों में बँटवारे का आधार और महत्त्व बताइए।
उत्तर :
भारत एक विशाल तथा विभिन्नताओं वाला राज्य है। इस प्रकार के राज्य का प्रबन्ध एक केन्द्रीय सरकार द्वारा सफलतापूर्वक चलाया जाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव भी है। इसी कारण भारत में संघीय शासन-व्यवस्था को अपनाया गया है। लेकिन इसके बावजूद भारत में संघात्मक स्वरूप सम्बन्धी विवाद पाया जाता है, क्योंकि भारतीय संविधान में न तो कहीं ‘संघात्मक और न ही कहीं ‘एकात्मक’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप सम्बन्धी अपने विचारों को व्यक्त करते हुए प्रो० डी० एन० बनर्जी ने उचित ही कहा है कि “भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक तथा भावना में एकात्मक है।” भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप को भली प्रकार से समझने के लिए हमें इसके दोनों पक्षों (संघात्मक तथा एकात्मक) का अध्ययन करना पड़ेगा जो कि निम्नलिखित हैं

भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ (लक्षण)

हालांकि भारतीय संविधान में ‘संघ’ शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन फिर भी व्यवहार में संघात्मक शासन-प्रणाली को ही स्वीकार किया गया है। भारतीय संविधान में कहा गया है कि भारत राज्यों का एक ‘संघ’ होगा। इस तथ्य की अवहेलना नहीं की जा सकती कि भारतीय संविधान में एकात्मक तत्त्व विद्यमान हैं, लेकिन यह भी अटल सत्य है कि भारतीय संविधान में संघात्मक प्रणाली के भी समस्त लक्षण विद्यमान हैं, जिन्हें निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है –

(1) संविधान की सर्वोच्चता – संघात्मक शासन में संविधान को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। संविधान और संविधान द्वारा बनाये गये कानून देश के सर्वोच्च कानून होते हैं। भारतीय संविधान में संवैधानिक सर्वोच्चता का उल्लेख नहीं है, लेकिन फिर भी संविधान की सर्वोच्चता को इस रूप में स्वीकार किया गया है कि भारतीय राष्ट्रपति, संसद इत्यादि सभी संविधान से शक्तियाँ ग्रहण करते हैं और वे संविधान से ऊपर नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, भारतीय राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करते समय यह स्पष्ट किया जाता है कि वह संविधान की रक्षा करेंगे इसके साथ ही भारत की संसद अथवा विधानसभा द्वारा ऐसा कोई कानून पारित नहीं किया जा सकता जो संविधान के विपरीत हो। अतः कहा जा सकता है कि भारत में संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है।

(2) लिखित संविधान – संघात्मक शासन का एक लक्षण संविधान का लिखित होना भी है। यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि संघात्मक राज्य का संविधान लिखित होना क्यों आवश्यक है? लिखित संविधान स्थायी होता है और इसके सम्बन्ध में बाद में मतभेद उत्पन्न होने की सम्भावना बहुत ही कम होती है। चूंकि संघात्मक शासन में दोहरा शासन अर्थात्के न्द्रीय शासन तथा प्रान्तों का शासन होता है, इसलिए इसमें विवादों की सम्भावना बनी रहती है। लेकिन यदि लिखित संविधान के अनुसार प्रत्येक बात को लिखित रूप में दिया गया हो तो फिर परस्पर मतभेद उत्पन्न होने की सम्भावना कम-से-कम हो जाती है।

(3) कठोर संविधान – जब संवैधानिक कानून को साधारण कानून से ऊँचा दर्जा दिया जाता है और संवैधानिक कानून को परिवर्तित करने हेतु साधारण कानून के निर्माण की प्रक्रिया से पृथक् तरीका अपनाया जाता है तो संविधान कठोर होता है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान भी कठोर संविधान की श्रेणी में आता है। इसमें साधारण विषयों को छोड़कर महत्त्वपूर्ण संशोधन करने के लिए संघ राज्य के साथ-साथ इकाई राज्यों के सहयोग की भी आवश्यकता होती है। कठोर संविधान होने के कारण ही उसमें संशोधन प्रक्रिया जटिल है।

(4) विषयों का विभाजन – शासन के संघात्मक स्वरूप का एक लक्षण यह भी है कि इसमें विषयों का विभाजन किया जाता है। भारतीय संविधान में भी विषयों का विभाजन किया गया है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान में तीन सूचियाँ हैं—संघीय सूची जिसमें 98 विषय हैं और जिन पर संसद ही कानून बना सकती है। राज्य सूची जिसमें 62 विषय हैं और जिन पर सामान्यतया राज्यों की विधानसभाएँ ही कानून बनाती हैं। समवर्ती सूची जिसके अन्तर्गत 52 विषय हैं और जिन पर संसद एवं विधानसभा दोनों ही कानून बना सकती हैं। अवशिष्ट विषय संघीय सरकार को सौंपे गये हैं।

(5) दोहरी शासन-व्यवस्था – संघात्मक शासन-प्रणाली में दोहरी शासन-व्यवस्था – (i) केन्द्र सरकार तथा (ii) प्रान्तों की सरकार होती है। भारत में केन्द्र सरकार नयी दिल्ली में है जो कि सम्पूर्ण देश को शासन-प्रबन्ध करती है और दूसरी सरकार प्रत्येक प्रान्त की राजधानी में है जो प्रान्त के हितों को ध्यान में रखती है।

(6) द्विसदनात्मक विधानमण्डल – संघीय सरकार में द्विसदनीय विधानमण्डल की व्यवस्था की जाती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार भारत में भी द्विसदनीय विधानमण्डल का प्रबन्ध है, जिसे संघीय संसद कहा जाता है। भारतीय संघीय संसद के उच्च सदन का नाम राज्यसभा है। संघीय संसद के निम्न (निचले) सदन का नाम लोकसभा है इसके सदस्य एक-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में जनसाधारण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं।

(7) न्यायपालिका की सर्वोच्चता – संघात्मक शासन में अन्य अंगों से न्यायपालिका को सर्वोच्च स्तर दिया जाता है; क्योंकि

  1. संविधान की रक्षा हेतु
  2. संविधान की व्याख्या करने हेतु तथा
  3. केन्द्र एवं राज्यों के विवादों का निपटारा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

भारतीय संविधान में भी केन्द्र में सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों में उच्च न्यायालय का प्रबन्ध करके इन्हें स्वतन्त्र बनाये रखने हेतु सभी व्यवस्थाएँ की गयी हैं। ये न्यायपालिकाएँ भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती हैं।

भारतीय संविधान की एकात्मक विशेषताएँ (लक्षण)

(1) इकहरी (एकल) नागरिकता – एकात्मक सरकार में इकहरी नागरिकता के सिद्धान्त को अपनाया जाता है, व्यक्ति प्रान्तों के नागरिक न होकर सम्पूर्ण देश के नागरिक होते हैं भारतीय संविधान के अन्तर्गत इसी सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है अर्थात् सभी भारतीयों को चाहे वे किसी भी प्रान्त के निवासी क्यों न हों, उन्हें भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार किया गया है। यह एकात्मक तत्त्व का महत्त्वपूर्ण प्रतीक है।

(2) विषयों के विभाजन का अभाव – सामान्यतः संघात्मक शासन-व्यवस्था में केन्द्र अथवा संघ को कुछ सीमित शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं तथा शेष शक्तियाँ राज्यों को प्राप्त होती हैं। लेकिन भारत में इसके विपरीत शक्तियों का बँटवारा किया गया है जो शक्तिशाली केन्द्र का निर्माण करते हैं तथा राज्य अधिक स्वायत्तता का उपभोग नहीं कर सकते।

(3) भारत में समूचे राष्ट्र के लिए एक ही संविधान रखा गया है, जो पुनः एकात्मक तत्त्व है।

(4) एकल न्याय-व्यवस्था – भारत में एकीकृत न्याय-व्यवस्था लागू की गयी है। संयुक्त राज्य अमेरिका की भाँति भारत में दोहरी न्यायिक व्यवस्था नहीं है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय समूचे देश का एकमात्र सर्वोच्च न्यायालय है जिसके आदेशों के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।

(5) आपातकालीन स्थिति – भारतीय संविधान द्वारा अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में राष्ट्रपति को आपातकालीनं घोषणा करने की शक्ति प्रदान की गयी है। आपातकालीन स्थिति में राज्यों की स्वायत्तता समाप्त हो सकती है। पायली के मतानुसार, आपातकालीन स्थिति की घोषणा भारत में संघात्मक शासन के स्वरूप को समाप्त कर देती है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि आपातकाल की घोषणा होते ही बिना किसी औपचारिक संशोधन के भारतीय संविधान एकात्मक हो जाता है।

(6) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति – भारतीय संघ में इकाई राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय शासन के अंग राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा इन्हें उनके पद से हटाने का अधिकार भी राष्ट्रपति के ही पास है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राज्यों के राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।

(7) संविधान संशोधन के सम्बन्ध में केन्द्र की सशक्त स्थिति – संविधान के कुछ उपबन्धों का संशोधन तो केन्द्रीय संसद साधारण कानून पारित करके, कुछ उपबन्धों का संशोधने सदन के दोनों सदन अपने-अपने दो-तिहाई बहुमत से तथा कुछ उपबन्धों का संशोधन संसद आधे से अधिक राज्यों की विधान-सभाओं की स्वीकृति से कर सकती है। राज्यों की विधानसभाएँ अपनी ओर से कोई संशोधन प्रस्तावित नहीं कर सकतीं। इस प्रकार संविधान के संशोधन की व्यवस्था में राज्यों की तुलना में केन्द्र की स्थिति सबल है।

(8) राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने का संसद का अधिकार – भारतीय संविधान के अनुसार संसद कानून द्वारा वर्तमान राज्यों के क्षेत्र को कम अथवा अधिक कर सकती है, उनके नाम बदल सकती है और दो अथवा उससे अधिक राज्यों को मिलाकर एक नवीन राज्य का गठन कर सकती है।

समीक्षा – भारतीय संविधान के उपर्युक्त एकात्मक लक्षणों को देखते हुए प्रो० के० सी० ह्वीयर का कथन है कि “भारतीय संविधान एक ऐसी शासन-प्रणाली की स्थापना करता है, जो अधिक-से-अधिक अर्द्धसंघीय (Quasi-federal) है। यह एक ऐसे एकात्मक राज्य की स्थापना करता है, जिसमें गौण रूप से कुछ संघात्मक तत्त्व हों।” इसी प्रकार जी० एन० जोशी का विचार है कि भारतीय संघ एक संघ नहीं, वरन् अर्द्धसंघ है, जिसमें एकात्मक राज्य की कतिपय महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का समावेश है।” डॉ० डी० डी० बसु के अनुसार, “भारतीय संविधान न तो नितान्त संघात्मक है और न ही एकात्मक, वरन् यह दोनों का मिश्रण है। इसी प्रकार पायली का मत है कि “भारत के संविधान का ढाँचा (रूप) संघात्मक व आत्मा एकात्मक है। कभी-कभी इन एकात्मक लक्षणों को संघात्मक व्यवस्था के उल्लंघनकारी तत्त्व की संज्ञा दे दी जाती है।

प्रश्न 2.
संघात्मक शासन-प्रणाली के गुण लिखिए।
उत्तर :

संघात्मक शासन-प्रणाली के गुण

संघात्मक शासन-प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं –

1. संघीय सरकार निरंकुश नहीं हो पाती – केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के कार्य एवं अधिकार-क्षेत्र संविधान द्वारा निश्चित होते हैं, इसलिए केन्द्र तथा राज्यों में से कोई भी किसी अन्य की सीमा में हस्तक्षेप करके निरंकुश नहीं हो पाता है।

2. प्रशासन में कुशलता – इस व्यवस्था में केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के बीच कार्य एवं शक्तियाँ विभाजित होती हैं। इसीलिए केन्द्रीय सरकार अपनी शक्तियों का समुचित प्रयोग करते हुए देश के महत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पादित करती है और स्थानीय अथवा इकाई सरकारें अपनी शक्तियों का स्वतन्त्रापूर्वक उपयोग करते हुए स्थानीय समस्याओं का समाधान करती हैं इस प्रकार देश का प्रशासन सुचारु रूप से संचालित होता है।

3. विविधता में एकता – प्रत्येक संघ सरकार में अनेक राज्य सम्मिलित होते हैं, जो विभिन्न अर्थों (जाति, धर्म, भाषा, रीति-रिवाज इत्यादि) में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, किन्तु वे अपनी सामान्य समस्याओं को सुलझाने के लिए एक सूत्र में बँधकर रहते हैं। इस प्रकार संघीय शासन के अन्तर्गत विविधता में एकता होती है।

4. बड़े देशों के लिए उपयोगी – विस्तृत क्षेत्र वाले देशों के लिए यह शासन व्यवस्था उत्तम है, क्योंकि एक ही स्थान (केन्द्र) से दूर के स्थानों का शासन ठीक प्रकार से संचालित करना कठिन होता है।

5. नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा – संघात्मक संविधानों में नागरिकों के मूल अधिकारों में सरलता से संशोधन नहीं हो सकता, क्योंकि संविधान कठोर होता है। इसके संशोधन के लिए केन्द्र तथा राज्य दोनों ही की आवश्यकता होती है।

6. स्थानीय स्वशासन में कुशलता-लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “संघवाद स्थानी विधानमण्डलों को काफी शक्तियाँ प्रदान करके राष्ट्रीय विधानमण्डलों को उन बहुत-से कार्यों से मुक्ति दिलाता है, जो उसके लिए अन्यथा बोझ बन जाते हैं। अत: संघीय सरकार को भी राष्ट्रीय हित के विषयों पर पूरा-पूरा ध्यान देने का अवसर मिल जाता है, जिससे प्रशासन में दृढ़ता आ जाती

7. स्थानीय स्वशासन का लाभ – संघात्मक शासन में इकाइयों को स्वशासन का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है, इसलिए ये अपनी जनता की आवश्यकतानुसार आचरण करके नागरिकों के हितों में वृद्धि करती हैं। विगत कुछ वर्षों से, भारत के परिप्रेक्ष्य में पंचायती राज्यों के अधिकारों में वृद्धि इसका ज्वलन्त उदाहरण है।

8. राजनीतिक चेतना एवं विश्व-संघ की ओर कदम – संघीय शासन अपने नागरिकों को श्रेष्ठ राजनीतिक प्रशिक्षण प्रदान करके उनमें राजनीतिक चेतना उत्पन्न करता है। संघ राज्य विश्व-संघ के निर्माण की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण प्रयास है।

प्रश्न 3.
केन्द्र व राज्यों के मध्य विधायी सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
संघात्मक शासन व्यवस्था की यह विशेषता होती है कि इसमें केन्द्र और इकाई राज्य सरकारों के मध्य शक्तियों, अधिकारों एवं कार्यों का संविधान द्वारा स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है, जिससे केंद्र एवं राज्य-सरकारों के मध्य किसी भी प्रकार का विवाद उत्पन्न न हो, दोनों सरकारें अपने-अपने कार्यों एवं उत्तरदायित्वों का समुचित रूप से पालन कर सकें और सम्पूर्ण देश में शान्ति एवं सुरक्षा का वातावरण बना रहे।

केंद्र व राज्य के मध्य विधायी संबंध

संविधान ने विधि या कानून का निर्माण करने से संबंधित विषयों की तीन सूचियाँ बनाई हैं। इन सूचियों को बनाने का उद्देश्य केंद्र और राज्यों की सरकारों के मध्य विधि-निर्माण संबंधी क्षेत्रों को विभक्त करनी है। ये सूचियाँ निम्नलिखित हैं –

1. संघ सूची (Union List) – इस सूची के अंतर्गत उन विषयों को रखा गया है, जिन पर केवल केंद्र सरकार की कानूनों का निर्माण कर सकती है। ये विषय बहुत महत्त्वपूर्ण एवं राष्ट्रीय स्तर के हैं। इस संघ सूची में 97 विषय हैं। इस सूची के प्रमुख विषय–रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व संधि तथा बैंकिंग आदि हैं।

2. राज्य सूची (State List) – मूल संविधान में इस सूची में 66 विषय थे। परन्तु 42वें संवैधानिक संशोधन के उपरान्त अब इस सूची में 62 विषय रह गए हैं। इन सब विषयों से संबंधित कानूनों का निर्माण करने का अधिकार राज्य सरकारों को होता है। वैसे तो इन विषयों पर केवल राज्य सरकारें ही कानून बना सकती हैं; किंतु कुछ विशेष स्थितियों में केंद्र सरकार भी इन विषयों पर कानून बना सकती है। इस सूची के प्रमुख विषय-पुलिस, न्याय, कृषि, स्थानीय स्वशासन आदि हैं।

3. समवर्ती सूची (Concurrent List) – मूल संविधान में इस सूची में 47 विषय थे, परन्तु अब इस सूची में 52 विषय हो गए हैं। इन विषयों पर राज्य एवं केंद्र-दोनों सरकारों को कानून बनाने का समान अधिकार है, परन्तु मतभेद की स्थिति में संघ सरकार के कानून को प्राथमिकता दी जाती है। इस सूची के प्रमुख विषय फौजदारी विधि-प्रक्रिया, शिक्षा, विवाह, न्यास (ट्रस्ट), वन आदि हैं।

4. अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers) – यदि कोई विषय उपर्युक्त तीनों सूचियों में सम्मिलित न हो तो वह अवशिष्ट विषय कहा जाता है और उस पर कानून बनाने का अधिकार केवल संघ सरकार को ही है।

अतः इन सूचियों के विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों के विधि-निर्माण से संबंधित अधिकार-क्षेत्र पृथक्-पृथक् हैं। इस विभाजन के आधार पर यह भी स्पष्ट होता है कि केन्द्र सरकार राज्य सरकार की तुलना में अधिक शक्तिसम्पन्न है। यद्यपि समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दोनों सरकारों को प्राप्त होता है; किन्तु सामान्यतया इन विषयों पर संसद ही कानूनों का निर्माण करती है तथा मतभेद होने की स्थिति में संघ सरकार का कानूनी मान्य होता है।

[नोट – 42वें संवैधानिक संशोधन 1976 के द्वारा राज्य सूची के चार विषय (शिक्षा, वन, वन्य जीव-जन्तुओं और पक्षियों का रक्षण तथा नाप-तौल (समवर्ती सूची में सम्मिलित कर दिए गए तथा समवर्ती सूची में एक नया विषय जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन’ जोड़ा गया। अब समवर्ती सूची में 52 विषय और राज्य सूची में 62 विषय रह गए हैं।]

राज्य सूची के विषयों पर कानून-निर्माण की संसद की शक्ति – संविधान ने संसद को विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार दिया है। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं –

1. संकटकाल की घोषणा के समय – आपातकाल में राज्य सूची के अंतर्गत आने वाले विषयों पर संसद को विधि-निर्माण का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।

2. राज्य सूची का कोई विषय राष्टीय महत्त्व का होने पर – यदि राज्यसभा अपने दो-तिहाई बहुमत से अपने एक प्रस्ताव के माध्यम से राज्य सूची के किसी विषय के संबंध में यह घोषणा कर दे कि राष्ट्रीय हित में उस विषय पर केंद्रीय सरकार को कानून-निर्माण करना चाहिए तो केंद्रीय सरकार (संसद) उस विषय पर कानून बना सकती है। यह कानून एक वर्ष तक लागू रह सकता है। राज्यसभा इसी आशय का दोबारा प्रस्ताव पारित करके इसकी अंवधि में वृद्धि कर सकती है।

3. राज्यों के विधानमण्डलों की प्रार्थना पर – यदि दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल यह प्रस्ताव पारित करें या याना करें कि राज्य सूची के अधीन किसी विषय पर संसद कानून बनाए तो संसद उस विषय पर भी कानून बनाती है।

4. विदेशी राज्यों से संधि के पालन करने के लिए – संविधान के अनुसार संसद को ही किसी संधि, समझौते या अन्य देशों के साथ होने वाले सभी प्रकार के समझौतों का पालन करवाने हेतु कानून बनाने का अधिकार है, भले ही वे विषय राज्य सूची के अंतर्गत आते हों।

5. राज्य में संवैधानिक व्यवस्था भंग होने पर – यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए या इस राज्य का संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाए तो अनुच्छेद 356 के अंतर्गत लगाए गए राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत राष्ट्रपति राज्य विधानमण्डल के समस्त अधिकार संसद को प्रदान कर सकता है।

6. राज्यपाल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करना – राज्य के राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त है कि वह राज्य व्यवस्थापिका द्वारा पारित किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए आरक्षित कर सकता है। राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह उस विधेयक को स्वीकार करे अथवा अस्वीकार करे। केंद्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन होने पर भी विशेष स्थितियों में केंद्र को राज्यों के विषयों पर कानून-निर्माण के व्यापक अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 4.
केन्द्र और राज्यों के प्रशासनिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :

केन्द्र और राज्यों के प्रशासनिक सम्बन्ध

श्री दुर्गादास बसु के शब्दों में, “संघीय व्यवस्था की सफलता और दृढ़ता संघ की विविध सरकारों के बीच अधिकाधिक सहयोग तथा समन्वय पर निर्भर करती है। इसी कारण प्रशासनिक सम्बन्धों की व्यवस्था करते हुए जहाँ राज्यों को अपने-अपने क्षेत्रों में सामान्यतः स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है वहाँ इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि राज्यों के प्रशासनिक तन्त्र पर संघ का नियन्त्रण बना रहे और संघ तथा राज्यों के बीच संघर्ष की सम्भावना कम-से-कम हो जाए। राज्य सरकारों पर संघीय शासन के नियन्त्रण की व्यवस्था निम्नलिखित उपायों के आधार पर की गयी है –

(1) राज्य सरकारों को निर्देश – केन्द्र द्वारा राज्यों को निर्देश सामान्यतया संघीय व्यवस्था के अनुकूल नहीं समझे जाते हैं, लेकिन भारतीय संघ में केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों को निर्देश देने की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 256 में स्पष्ट कहा गया है कि “प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार होगा कि संसद द्वारा निर्मित कानूनों का पालन सुनिश्चित रहे।

(2) राज्य सरकारों को संघीय कार्य सौंपना – संघीय सरकार राज्य सरकारों को कोई भी कार्य सौंप सकती है। यदि राज्यों की सरकार या उसके अधिकारी उसे पूरा न करें, तो राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर राज्य शासन अपने हाथ में ले ले।

(3) अखिल भारतीय सेवाएँ – संविधान संघ तथा राज्य सरकारों के लिए अलग-अलग सेवाओं की व्यवस्था करता है, लेकिन कुछ ऐसी सेवाओं की भी व्यवस्था करता है जो संघ तथा राज्य सरकारें दोनों के लिए सामान्य हैं। इन्हें अखिल भारतीय सेवाएँ कहते हैं और इन सेवाओं के अधिकारियों पर संघीय सरकार का विशेष नियन्त्रण रहता है।

(4) सहायता अनुदान – संघीय शासन द्वारा राज्यों को आवश्यकतानुसार सहायता अनुदान भी दिया जा सकता है। अनुदान देते समय संघ राज्यों पर कुछ शर्ते लगाकर उनके व्यय को भी नियन्त्रित कर सकता है।

(5) अन्तर्राज्यीय नदियों पर नियन्त्रण – संसद को अधिकार है कि वह विधि द्वारा किसी अन्तर्राज्यीय नदी अथवा इसके जल के प्रयोग, वितरण या नियन्त्रण के सम्बन्ध में व्यवस्था करे।

(6) अन्तर-राज्य परिषद् (Inter-State Council) की स्थापना (जून 1990 ई०) – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 में एक ‘अन्तर-राज्य परिषद् की स्थापना का प्रावधान किया गया है और राजमन्नार आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग तथा सबसे अन्त में सरकारिया आयोग, जिसने नवम्बर, 1987 ई० में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की; इन सभी ने अपनी सिफारिशों में इस बात पर बल दिया कि अन्तर- राज्य परिषद् की स्थापना की जानी चाहिए, लेकिन व्यवहार में मई 1990 ई० तक अन्तर-राज्य परिषद् की स्थापना नहीं की गयी थी  इस परिषद् की स्थापना जून 1990 ई० में की गयी है। यह परिषद् संघीय व्यवस्था और केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के सुचारु संचालन हेतु एक विचार-मंच का कार्य करेगी। परिषद् के दिन प्रतिदिन के कार्य हेतु एक स्थायी सचिवालय की स्थापना की गयी है।

(7) संचार साधनों की रक्षा – समस्त भारतीय संघ के संचार साधनों की रक्षा का भार भी संघीय सरकार पर ही है। संघ सरकार राज्यों के अन्तर्गत हवाई अड्डों, रेलों तथा अन्य राष्ट्रीय महत्त्व के आवागमन और संचार साधनों की रक्षा के लिए राज्य सरकारों को आवश्यक आदेश दे सकती है जिनका पालन राज्य सरकारों के लिए आवश्यक है। इन आदेशों के पालन में राज्य सरकारों को जो अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ेगा, वह संघ सरकार राज्य सरकार को देगी।

(8) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति – इस सबके अतिरिक्त राज्य सरकारों पर संघीय शासन के नियन्त्रण का एक प्रमुख उपाय यह है कि प्रधानमन्त्री के परामर्श से राष्ट्रपति राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति करता है जो वहाँ राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।

(9) मुख्यमन्त्री तथा अन्य मन्त्रियों के विरुद्ध आरोपों की जाँच – यदि किसी राज्य में मुख्यमन्त्री या मन्त्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार या अन्य किसी प्रकार के आरोप लगाये जाते हैं तो इस प्रकार का आरोप-पत्र कार्यवाही के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया जाता है और केन्द्रीय सरकार को ही इस बात के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार है कि इन आरोपों की न्यायिक जाँच करवानी चाहिए अथवा नहीं। आरोप सिद्ध हो जाने पर केन्द्रीय सरकार सम्बन्धित मन्त्रियों को पद छोड़ने के लिए कह सकती है। पंजाब के मुख्यमन्त्री कैरो और ओडिशा के मुख्यमन्त्री वीरेन मित्रा को न्यायिक जाँच में दोषी पाये जाने पर ही त्याग-पत्र देना पड़ा था।

(10) राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करना – इन सबके अलावा संविधान के अनुच्छेद 356 में कहा गया है कि यदि किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग हो जाता है तो राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर या अपने विवेक से राष्ट्रपति द्वारा उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग हुआ है अथवा नहीं; इस सम्बन्ध में निर्णय लेने की शक्ति राष्ट्रपति अर्थात् केन्द्रीय शासन को ही प्राप्त है और राष्ट्रपति शासन की यह बड़ी छड़ी राज्यों को केन्द्र के सभी निर्देश मानने के लिए बाध्य करती है। इस प्रकार प्रशासनिक क्षेत्र में राज्यों पर भारत सरकार को प्रभावदायक नियन्त्रण है, लेकिन इनके साथ यह नहीं भुला देना चाहिए कि ये प्रावधान बहुत अधिक सावधानीपूर्वक और संकटकाल में ही उपयोग के लिए हैं। सामान्यतया राज्य को कानून निर्माण और प्रशासन के सम्बन्ध में अपने निश्चित क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त होगी।

प्रश्न 5.
केन्द्र और राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों की परीक्षण कीजिए।
उत्तर :
वित्तीय क्षेत्र में संविधान के द्वारा संघ व राज्य सरकारों के क्षेत्र अलग-अलग कर दिये गये हैं। तथा दोनों ही सरकारें सामान्यतया अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती हैं। इस सम्बन्ध में संविधान द्वारा की गयी व्यवस्था निम्न प्रकार है –

संघीय आय के साधन – संघीय सरकार को आय के अलग साधन प्राप्त हैं। इन साधनों में कृषि आय को छोड़कर अन्य आय पर कर, सीमा-शुल्क, निर्यात-शुल्क, उत्पादन-शुल्क, निगम कर, कम्पनियों के मूल धन पर कर, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति शुल्क आदि प्रमुख हैं।

राज्यों की आय के साधन – वित्त के क्षेत्र में राज्य सरकार के आय के साधन भी अलग कर दिये गये हैं। उनमें भू-राजस्व, कृषि आयकर, कृषि भूमि का उत्तराधिकार शुल्क व सम्पत्ति शुल्क, मादक वस्तुओं पर उत्पादन कर, बिक्री कर, यात्री कर, मनोरंजन कर, दस्तावेज कर आदि प्रमुख हैं। (42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा रेडियो और टेलीविजन से प्रसारित विज्ञापनों पर कर राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में रख दिया गया है।)

व्यय की प्रमुख मदें – संघीय शासन की व्यय की मदें सेना, परराष्ट्र सम्बन्ध आदि हैं, जब कि राज्य शासन के व्यय की मुख्य मदें पुलिस, कारावास, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि हैं।

राज्यों की वित्तीय सहायता – क्योंकि राज्यों की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपर्युक्त साधन पर्याप्त नहीं समझे गये, इसलिए संघीय शासन द्वारा राज्यों को वित्तीय सहायता की व्यवस्था की गयी है, जो इस प्रकार है।

पहले प्रकार के कर ऐसे हैं जो केन्द्र द्वारा लगाये और वसूल किये जाते हैं, पर जिनकी सम्पूर्ण आय राज्यों में बाँट दी जाती है। इस प्रकार के करों में प्रमुख रूप से उत्तराधिकार कर, सम्पत्ति कर, समाचार-पत्र कर आदि आते हैं।

दूसरे प्रकार के वे कर हैं, जो केन्द्र निर्धारित करता, किन्तु राज्य एकत्रित करते और अपने उपयोग में लाते हैं। स्टाम्प शुल्क करं एक ऐसा ही कर है। केन्द्र शासित क्षेत्रों में इन करों की वसूली केन्द्रीय सरकार करती है।

तीसरे प्रकार के कर वे हैं जो केन्द्र द्वारा लगाये व वसूल किये जाते हैं, पर जिनकी शुद्ध आय संघ व राज्यों के बीच बाँट दी जाती है। कृषि आय के अतिरिक्त अन्य आय पर कर प्रमुख रूप से इसी प्रकार का कर है।

राज्यों को अनुदान – संविधान के अनुच्छेद 275 के अनुसार जिन राज्यों को संसद विधि द्वारा अनुदान देना निश्चित करे उन राज्यों को अनुदान दिया जाएगा। ये अनुदान पिछड़े हुए वर्गों को ऊँचा उठाने और अन्य विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए दिये जाएँगे।

सार्वजनिक ऋण प्राप्ति की व्यवस्था – संघीय सरकार अपनी संचित निधि की जमानत पर संसद की आज्ञानुसार ऋण ले सकती है। राज्यों की सरकारें भी विधानमण्डल द्वारा निर्धारित सीमा तक ऋण ले सकती हैं। संघीय सरकार विदेशों से भी ऋण ले सकती है, किन्तु राज्य सरकारें ऐसा नहीं कर सकतीं।

वित्त आयोग – संविधान के अनुच्छेद 280 में व्यवस्था में की गयी है कि प्रति 5 वर्ष बाद राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा। इस आयोग के द्वारा संघ और राज्य सरकारों के बीच करों के वितरण, भारत की संचित निधि में से धन के व्यय तथा वित्तीय व्यवस्था से सम्बन्धित अन्य विषयों पर सिफारिश करने का कार्य किया जाएगा।

प्रश्न 6.
केंद्र तथा राज्य के मध्य तनाव के सांविधानिक कारण लिखिए।
उत्तर :

केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के सांविधानिक कारण

समय-समय पर केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मध्य उपस्थित होने वाले संघर्ष एवं तनावों के कारणों को निम्नलिखित वर्गों में रखा गया है –

(1) भारतीय संविधान में शक्तियों का वितरण केन्द्र के पक्ष में अधिक है। संघ सूची तथा समवर्ती सूची में केन्द्रीय कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को इतने अधिकार प्रदान किए गए हैं कि राज्यों की स्वायत्तता पर आँच आ सकती है। 1970 में तमिलनाडु सरकार द्वारा नियुक्त राजमन्नार समिति ने सिफारिश की थी कि –

  1. संघ सूची तथा समवर्ती सूची में से कुछ शक्तियाँ निकालकर राज्य सूची में डाल देनी चाहिए।
  2. वित्त आयोग को एक अस्थायी अधिकरण बना देना चाहिए, एवं
  3. केन्द्रीय राजस्व स्रोतों को हटाकर राज्यों को हस्तान्तरित कर देना चाहिए जिससे केन्द्र पर राज्यों की वित्तीय निर्भरता कम हो।

(2) राज्य सदैव यह अनुभव करते हैं कि उनकी विधायी तथा प्रशासनिक शक्तियाँ सीमित हैं तथा उन्हें अपने निर्णयों के कार्यान्वयन में केन्द्र के निर्णय का इन्तजार करना पड़ता है। जब केन्द्र तथा राज्य में एक ही दल की सरकार रहती है तब तो समस्या प्रबल नहीं हो पाती है, किन्तु विपरीत स्थिति में तनाव प्रायः बढ़ जाता है। उदाहरणार्थ-1967 के पश्चात् राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं तो शक्तियों के पुनः वितरण की आवाज विशेष रूप से उठाई गई।

(3) राज्यपाल केन्द्र द्वारा नियुक्त ऐसे शक्तिशाली अभिकरण हैं जो राज्यों में केन्द्र का वर्चस्व रखने में सहयोग देते हैं। संविधान उन्हें अधिकार देता है कि समवर्ती सूची में संबंधित विधेयकों को वे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित रखें तथा केन्द्रीय सरकार को यह अवसर प्रदान करें कि वह राष्ट्रपति द्वारा राज्यों द्वारा पारित विधेयक अथवा विधेयकों को अस्वीकृत करा दे। केरल के राज्यपाल ने ई०एम०एस० नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली साम्यवादी सरकार का प्रगतिशील भूमि सुधार विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित रख लिया था। इसके पश्चात् केन्द्रीय सरकार ने इस विधेयक को राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत करा दिया। गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें राज्यपालों की भूमिका से सशंकित रहती हैं। आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन०टी० रामाराव ने तो उन्हें केन्द्रीय जासूस’ तक की संज्ञा दे दी थी। अनेक अवसरों पर गैर-कांग्रेसी सरकारों द्वारा राज्यपाल पद को ही समाप्त करने की माँग की गई है। राज्यपाल पद ने केन्द्र-राज्य संबंधों में तनाव तथा संघर्ष की स्थिति उत्पन्न की है।

(4) आपातकालीन उपबन्धों ने संविधान को एकात्मक स्वरूप प्रदान कर दिया है तथा आपातकाल के समय राज्य सम्पूर्णत: केन्द्र निर्देशित इकाइयाँ बन जाते हैं। यह स्थिति कुछ राज्य सरकारों हेतु बहुत अप्रिय रही है। तनाव के सांविधानिक कारणों का अध्ययन करने पर यह लक्ष्य सामने आती है। राज्य चाहते हैं कि उन्हें अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाए तथा उन पर केन्द्र का अंकुश न रहे।

प्रश्न 7.
अनुच्छेद 370 के सन्दर्भ में बताइए कि जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति भारतीय संघ के अन्य राज्यों से किस प्रकार भिन्न है?
या
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 पर अपने विचार लिखिए।
या
भारतीय संविधान की धारा 370 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को दी गयी किन्हीं दो सुविधाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति भारतीय संघ के अन्य राज्यों से भिन्न है –

(1) भारतीय संघ के अन्य किसी भी राज्य का अपना संविधान नहीं है, लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य का अपना संविधान है जो 26 नवम्बर, 1957 ई० में लागू हुआ था तथा जम्मू-कश्मीर राज्य का प्रशासन इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलता है।

(2) भारतीय संविधान द्वारा संघ और राज्यों के बीच जो शक्ति-विभाजन किया गया है, उसके अन्तर्गत अवशेष शक्तियाँ संघीय सरकार को सौंपी गयी हैं और अवशेष विषयों के सम्बन्ध में कानून- निर्माण का अधिकार संघीय संसद को प्राप्त है, लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इस सम्बन्ध में अपवाद है। अनुच्छेद 370 में व्यवस्था की गयी है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अवशेष शक्तियाँ जम्मू-कश्मीर राज्य के पास ही रहेंगी।

(3) इस राज्य के लिए विधि बनाने की संघीय संसद की शक्ति संघ सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों तक सीमित होगी, जिनको जम्मू-कश्मीर राज्य की सरकार के साथ परामर्श करके उन विषयों के ‘तत्स्थानी विषय’ (Correspond to matters) घोषित कर दें, जिनके सम्बन्ध में ‘अधिमिलन-पत्र’ में भारतीय संसद को अधिकार दिया गया है।

(4) संसद संघ सूची और समवर्ती सूची के अन्य विषयों पर विधि राज्य सरकार की सहमति से ही बना सकेगी।

(5) संविधान के आपातकालीन प्रावधानों के सम्बन्ध में भी जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रसंग में विशेष व्यवस्था है। अनुच्छेद 352, जिसके अन्तर्गत राष्ट्रपति को राष्ट्रीय संकट की घोषणा करने का अधिकार प्राप्त है, जम्मू-कश्मीर राज्य में एक सीमा तक ही और जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति से ही लागू हो सकता है। अनुच्छेद 360, जो राष्ट्रपति को वित्तीय संकट घोषित करने का अधिकार देता है, जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होता। अनुच्छेद 356 के उपबन्ध अर्थात् राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की व्यवस्था जम्मू-कश्मीर राज्य पर भी लागू होगी।

(6) भारत के नागरिक स्वत: ही जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं बन जाते, उन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य में बसने का भी कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत संघ के अन्य राज्यों के निवासियों को जम्मू-कश्मीर राज्य में भूमि अथवा अन्य कोई चल सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार भी नहीं है। अनुच्छेद 370 के कारण ही केन्द्र के अनेक लाभकारी और प्रगतिशील कानून; जैसे-सम्पत्ति कर, शहरी भूमि सीमा कानून और उपहार कर, इत्यादि यहाँ लागू नहीं हो सकते।

(7) राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों से सम्बन्धित संविधान के भाग 4 के उपबन्ध जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होते हैं।

(8) संसद जम्मू-कश्मीर राज्य के विधानमण्डल की सहमति के बिना उस राज्य के नाम, क्षेत्र या सीमाओं में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती।

(9) अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान में किये गये संशोधन जम्मू-कश्मीर राज्य में तब तक लागू नहीं होंगे, जब तक कि राष्ट्रपति आदेश द्वारा उसे जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं कर दें।

जम्मू – कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में धारा 370 की आलोचना अथवा विवाद

जम्मू – कश्मीर राज्य को भारतीय संघ में यह विशेष स्थिति तत्कालीन विशेष परिस्थितियों के कारण प्रदान की गयी थी। जम्मू-कश्मीर राज्य को प्राप्त यह विशेष स्थिति संविधान का अस्थायी या संक्रमणकालीन प्रावधान ही है और इस कारण यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर राज्य को सदैव ही यह विशेष स्थिति प्राप्त रहेगी। वर्तमान समय में भारत की एकता और अखण्डता के प्रबल समर्थकों और भारतीय राजनीति के एक प्रमुख दल भाजपा द्वारा यह कहा जाता है कि जम्मू-कश्मीर में आज आतंकवाद और अलगाववाद की जो स्थिति समय-समय पर खड़ी हो जाती है उसका मूल कारण अनुच्छेद 370 या भारतीय संघ के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को प्राप्त विशेष स्थिति है तथा अलगाववाद की इस स्थिति को समाप्त करने हेतु अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर राज्य के भूतपूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर : समस्या और विश्लेषण’ में पूरे विस्तार के साथ विचार व्यक्त किया है कि “अनुच्छेद 370 विविध निहित स्वार्थों के हाथों शोषण का साधन बन गया है। इस अनुच्छेद के कारण एक दुष्चक्र स्थापित हो गया है जो अलगाववादी शक्तियों को जन्म देता है और ये शक्तियाँ बदले में अनुच्छेद 370 को मजबूत बनाती हैं।” जगमोहन के इस विश्लेषण में तार्किकता और सत्य का अंश है। यह तथ्य है कि अनुच्छेद 370 के कारण अलगाववादी तत्त्वों ने अपनी शक्ति में वृद्धि की है तथा यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर राज्य के आर्थिक विकास में भी एक प्रमुख बाधक तत्त्व रहा है। लेकिन इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि जम्मू-कश्मीर राज्य में आज आतंकवाद और अलगाववाद की जो स्थिति है, अनुच्छेद 370 उसका मूल कारण नहीं है। आज की परिस्थितियों में अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन अधिक सत्य है। कि “मेरा मानना यह है कि केवल धारा 370 हटाने से ही कश्मीर-समस्या हल नहीं हो सकती।” राजनीतिक दलों के आपसी मतभेदों के कारण ही सरकार ने अनुच्छेद 370 को अब स्थायी कर दिया है। 27 जून, 2000 ई० को जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने तीन-चौथाई बहुमत से स्वायत्तता प्रस्ताव पारित किया जिसे स्वीकार करना सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का यह निश्चित रूप से उपयुक्त समय नहीं है। यदि आज अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का प्रयत्न किया जाए, तो वह जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति को अधिक चुनौतीपूर्ण बना सकता है। निष्कर्षतः । भविष्य में अनुच्छेद 370 को समाप्त किया जा सकता है और किया जाना चाहिए, लेकिन आज इस कार्य के लिए उपयुक्त समय नहीं है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism (संघवाद) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism (संघवाद), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 6 Judiciary

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 6 Judiciary (न्यायपालिका)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Political Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 6 Judiciary (न्यायपालिका).

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें-
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश-प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।
उत्तर-
उपर्युक्त कथनों में (ग) बेमेल कथन है जिसमें यह कहा गया है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय यह बिल्कुल नहीं है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह न हो, न्यायपालिका भी संविधान को ही भाग है, वह संविधान के ऊपर नहीं है। न्यायपालिका भी संविधान के अनुसार ही कार्य करेगी। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका बिना किसी अनावश्यक हस्तक्षेप के अपना कार्य करे व इसके निर्णयों को सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह भी है कि न्यायाधीश अपनी नियुक्ति के लिए, सेवाकाल के लिए, सेवाशर्ती व सेवा सुविधाओं के लिए कार्यपालिका व विधायिका पर निर्भर न हो। न्यायाधीश को हटाने का तरीका भी पक्षपातरहित हो। भारत में न्यायपालिका स्वतन्त्र है तथा उसे सम्मानजनक स्थान प्राप्त है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए भारतीय संविधान में निम्नलिखित प्रावधान हैं-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद व विधानसभाओं की कोई भूमिका नहीं है।
  2. न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए निश्चित योग्यताएँ व अनुभव दिए गए हैं।
  3. न्यायपालिका अपने वेतन, भत्तों व अन्य आर्थिक सुविधाओं के लिए कार्यपालिका अथवा संसद पर निर्भर नहीं है। उनके खर्चे से सम्बन्धित बिल पर बहस व मतदान नहीं होता।
  4. न्यायाधीशों का सेवाकाल लम्बा व सुनिश्चित होता है यद्यपि कुछ परिस्थितियों में इनको हटाया भी जा सकती है परन्तु महाभियोग की प्रक्रिया काफी लम्बी व मुश्किल होती है।
  5. न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों के आधार पर उनकी व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती।
  6. जो न्यायालय की व इसके निर्णयों की अवमानना करते हैं, न्यायालय उन्हें दण्डित कर सकता है।
  7. न्यायालय के निर्णय बाध्यकारी होते हैं।

प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार-रिपोर्ट पढे और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें
(क) मामला किसे बारे में है?
(ख) इस मामले में लाभार्थी कौन है?
(ग) इस मामले में फरियादी कौन है?
(घ) सोचकर बताएँ कि कम्पनी की तरफ से कौन-कौन से तर्क दिए जाएँगे?
(ङ) किसानों की तरफ से कौन-से तर्क दिए जाएँगे?
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों को 300 करोड़ रुपये देने को कहा – निजी कारपोरेट ब्यूरो, 24 मार्च 2005
मुंबई – सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस एनर्जी से मुंबई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप-ऊर्जा संयंत्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया है।
दहानु मुंबई से 150 किमी दूर है। एक दशक पहले तक इस इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली-पालन तथा जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयंत्र चालू हुआ और इसी के साथ शुरू हुई इस इलाके की बर्बादी। अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गई। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है। मछली पालन बंद हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी-तंत्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को प्रदूषण नियंत्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सके। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के आदेश के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियंत्रण का संयंत्र स्थापित नहीं हुआ। सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण-नियंत्रण संयंत्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था, इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायंस से 300 करोड़ रुपये की बैंक-गारंटी देने को कहा।
उत्तर-
(क) मामला दहानु मुंबई क्षेत्र के चीकू पैदा करने वाले उन किसानों को मुआवजा देने के बारे में है जिनका थर्मल पावर प्लांट के नुकसानदायक रिसाव के कारण भारी नुकसान हुआ है।
(ख) इस मामले में दहानु क्षेत्र के चीकू उत्पादन करने वाले किसान लाभान्वित हुए हैं।
(ग) इस मामले में दहानु क्षेत्र के चीकू उत्पादन करने वाले किसान फरियादी हैं।
(घ) रिलायंस कम्पनी ने न्यायालय में तर्क दिया कि थर्मल पावर प्लांट के नुकसानदायक रिसाव को नियन्त्रित करने के लिए एक प्रदूषण नियन्त्रक बोर्ड का गठन किया जाना चाहिए।
(ङ) किसानों ने पर्यावरणविदों के सहयोग से कहा था कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख से भूमिगत जल प्रभावित हुआ है।

प्रश्न 5.
नीचे की समाचार-रिपोर्ट पढे और चिह्नित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर की सरकार सक्रिय दिखाई देती है?
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौन-सी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
(ग) इस प्रकरण से सम्बद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से सम्बन्धित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।

सीएनजी – मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ
स्टाफ रिपोर्टर, द हिंदू, सितंबर 23, 2001 राजधानी के सभी गैर-सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों सरकारों में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन-प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरे ईंधन-प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि ईंधन-प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों द्वारा सीएनजी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेंगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जाएगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो-दो मानक को पूरा करते हैं उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालाँकि केन्द्र और दिल्ली अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे लेकिन इनमें समान बिन्दुओं को उठाया जाएगा। केन्द्र सरकार सीएनजी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्रीराम नाइक के बीच हुई बैठक में ये फैसले लिए गए। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ० आर०ए० मशेलकर की अगुवाई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सीएनजी में बदल पाना असंभव है। डॉ० मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश के लिए ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है कि यह समिति छ: माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।
मुख्यमंत्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मसले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया-सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सीएनजी की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लंबी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सीएनजी ईंधन जुटाने तथा अदलात के निर्देशों को अमल में लाने के तरीके और साधनों पर एक साथ ध्यान दिया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने ……….. सीएनजी के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इनकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सीएनजी इस्तेमाल किया जाए, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डोला। श्रीराम नाइक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकि पूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर करना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सीएनजी की आपूर्ति पाइपलाइन के जरिए होती है। और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी।
उत्तर-
इस केस में केन्द्रीय सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार सक्रिय दिखाई देती हैं।
(क) यातायात के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा निश्चित मापदण्डों के आधार पर केस को तय करने में सर्वोच्च न्यायालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी।
(ख) कार्यपालिका प्रदूषण नियंत्रण की नीति तय करेगी तथा न्यायपालिका यह तय करेगी कि कार्यपालिका की नीति (प्रदूषण नियंत्रण) का कितनी उल्लंघन हुआ है।
(ग) इस प्रकरण में राज्य सरकार का नीतिगत निर्णय यह है कि दिल्ली में CNG के प्रयोग की बसें चलेंगी। इस पर दिल्ली सरकार कानून बनाएगी। नीति वे कानून के निर्माण के सम्बन्ध में यह निर्णय लिया गया कि ऐसा करते समय पर्यावरण प्रदूषण से सुरक्षा को मुख्य रूप से ध्यान में रखा जाए।

प्रश्न 6.
देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की भूमिको को आप किस रूप में देखते हैं? (एक काल्पनिक स्थिति का ब्योरा दें और छात्रों से उसे उदाहरण के रूप में लागू करने को कहें)।
उत्तर-
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति यह नियुक्ति प्रधानमन्त्री की सलाह पर करता है। साधारणतया सर्वोच्च न्यायालय में सर्वाधिक वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है, परन्तु अनेक अवसर ऐसे आए हैं जब मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की अपनी कोई विशेष भूमिका नहीं है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं। सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिलती। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस रीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिए हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है उसे । अपना फैसला और उसको कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा | फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
उत्तर-
भारतीय न्याय-प्रणाली में किसी विषय पर उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय आगे आने वाले निर्णयों के लिए मार्गदर्शक होते हैं जो बाध्यकारी भी होते हैं यह स्थिति इक्वाडोर के उदाहरण से भिन्न है क्योंकि वहाँ न्यायाधीश उसी विषय पर दिए गए निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं होता। भारतीय न्याय व्यवस्था व इक्वाडोर की न्याय व्यवस्था में एक समानता यह है कि भारत व इक्वाडोर में न्यायाधीश नवीन परिस्थिति में अपना प्रथम निर्णय किसी विषय पर बदल सकते हैं।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाए जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन-मूल, अपील और परामर्शकारी-से इनका मिलान कीजिए-
(क) सरकार जानना चाहती थी कि क्या यह पाकिस्तान-अधिगृहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के सम्बन्ध में कानून पारित कर सकती है।
(ख) कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
(ग) बाँध-स्थल से हटाए जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।
उत्तर-
(क) परामर्श सम्बन्धी अधिकार।
(ख) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार।
(ग) अपीलीय क्षेत्राधिकार।

प्रश्न 9.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर-
संविधान द्वारा भारत के नामरिकों को यह अधिकार दिया गया है कि यदि नागरिकों को राज्य के कानूनों द्वारा कोई हानि पहुँचती है तो वे उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में विभिन्न प्रकार की याचिकाएँ प्रस्तुत कर सकते हैं। जनहित याचिका का तात्पर्य यह है कि लोकहित के किसी भी मामले में कोई भी व्यक्ति या समूह जिसने व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से सरकार के हाथों किसी भी प्रकार से हानि उठाई हो, अनुच्छेद 21 तथा 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के अनुसार उच्च न्यायालय की शरण ले सकता है।

उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ ला सकता है। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार ‘वाद कारण तथा पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही तथा लोकहित में कार्यवाही ने ले लिया है। जनहित याचिका की विशेष बात यह है कि न्यायालय अपने समस्त तकनीकी तथा कार्यवाही सम्बन्धी नियमों की परवाह किए बिना एक सामान्य पत्र के आधार पर भी कार्यवाही कर सकेगा। जनहित याचिकाओं का महत्त्व-जनहित याचिकाओं के महत्त्व को देखते हुए जनता में इसके प्रति काफी रुचि बढ़ी है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नवत् है-
1. सामान्य जनता की आसान पहुँच – जनहित याचिकाओं द्वारा आम नागरिक भी व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से न्याय के लिए न्यायालय के दरवाजे खटखटा सकता है। जनहित याचिकाओं के लिए किन्हीं विशेष कानूनी प्रावधानों के चक्कर में उलझना नहीं पड़ता है। व्यक्ति सीधे उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय में अपना वाद प्रस्तुत कर सकता है।
2. शीर्घ निर्णय – जनहित याचिकाओं पर न्यायालय तुरन्त न्यायिक प्रक्रिया को प्रारम्भ कर देता है। तथा उन पर जल्दी ही सुनवाई होता है। उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 तथा 32 की राज्य द्वारा अवज्ञा के मामलों को बहुत ही गम्भीरता से लिया है। जनहित याचिकाओं पर तुरन्त सुनवाई के कारण बहुत जल्दी निर्णय लिया जाता है।
3. प्रभावी राहत – अधिकांश जनहित याचिकाओं में यह देखने को मिलती है कि इसमें पीड़ित पक्ष को बहुत अधिक राहत हो जाती है तथा प्रतिवादी को सजा देने का भी प्रावधान है।
4. कम व्यय – जनहित याचिकाओं में याचिका प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति का खर्चा बहुत कम होता है क्योंकि इसमें सामान्य न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना नहीं पड़ता है। यदि न्यायालय याचिका को निर्णय के लिए स्वीकार कर लेता है तो उस पर तुरन्त कार्यवाही के कारण निर्णय हो जाता है। इससे पीड़ित पक्ष को कम खर्च में शीघ्र न्याय प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 10.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर-
भारतीय न्यायपालिका को न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति प्राप्त है जिसके आधार पर न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी आदेशों की संवैधानिक वैधता की जाँच कर सकती है, अगर ये संविधान के विपरीत पाए जाते हैं तो न्यायपालिका उन्हें अवैध घोषित कर सकती है। परन्तु न्यायपालिका नीतिगत विषय पर टिप्पणी नहीं कर सकती। विगत कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने अपनी इस सीमा को तोड़ा है व कार्यपालिका के कार्यों में निरन्तर हस्तक्षेप व बाधा कर रही है जिसे राजनीतिक क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता कहा जाता है जिसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका व न्यायपालिका में टकराव उत्पन्न हो गया है।

प्रश्न 11.
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?
उत्तर-
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से पूर्ण रूप से जुड़ी है। इसने मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को भी काफी विस्तृत कर दिया है। न्यायपालिका ने जीने के अधिकार का अर्थ यह लिया है–सम्मानपूर्ण जीवन, शुद्ध वायु, शुद्ध पानी तथा शुद्ध वातावरण में जीने का अधिकार। इसीलिए न्यायपालिका में पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने, प्रदूषण को रोकने, नदियों को साफ-सुथरा रखे जाने, उद्योगों को आवासीय क्षेत्र से बाहर निकाले जाने, आवासीय क्षेत्रों से दुकानों को हटाए जाने आदि के कितने ही आदेश दिए हैं। इस प्रकार न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को काफी व्यापक बनाया है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?
(क) संसद
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) मन्त्रिपरिषद्
उत्तर :
(ग) राष्ट्रपति।

प्रश्न 2.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है?
(क) इलाहाबाद में
(ख) नयी दिल्ली में
(ग) मुम्बई में
(घ) चेन्नई में
उत्तर :
(ख) नयी दिल्ली में।

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपने पद पर कार्यरत रहता है –
या
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अवकाश प्राप्त करने की आयु है –
(क) 58 वर्ष की आयु तक
(ख) 60 वर्ष की आयु तक
(ग) 65 वर्ष की आयु तक
(घ) 62 वर्ष की आयु तक
उत्तर :
(ग) 65 वर्ष की आयु तक

प्रश्न 4.
भारत में संविधान का संरक्षक कौन है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय
(घ) संसद
उत्तर :
(ग) सर्वोच्च न्यायालय

प्रश्न 5.
उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त कुल कितने न्यायाधीश होते हैं?
(क) 23
(ख) 24
(ग) 30
(घ) 26
उत्तर :
(ग) 30.

प्रश्न 6.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश
उत्तर :
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

प्रश्न 7.
संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की कार्यवाहियों की अधिकृत भाषा है
(क) केवल अंग्रेजी
(ख) अंग्रेजी तथा हिन्दी
(ग) अंग्रेजी तथा कोई भी क्षेत्रीय भाषा
(घ) अंग्रेजी तथा आठवीं सूची में निर्दिष्ट भाषा
उत्तर :
(क) केवल अंग्रेजी।

प्रश्न 8.
भारत में न्यायिक पुनरवलोकन का सिद्धान्त लिया गया है
(क) फ्रांस के संविधान से
(ख) जर्मनी के संविधान से
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से
(घ) कनाडा के संविधान से
उत्तर :
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से

प्रश्न 9.
संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है?
(क) अनुच्छेद 29
(ख) अनुच्छेद 31
(ग) अनुच्छेद 33
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 10.
उच्च न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार किसको है?
(क) प्रधानमन्त्री को
(ख) लोकसभा अध्यक्ष को
(ग) राष्ट्रपति को
(घ) विधिमन्त्री को
उत्तर :
(ग) राष्ट्रपति को

प्रश्न 11.
उच्च न्यायालय के वह कौन-से मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ?
(क) गजेन्द्र गडकर
(ख) एम० हिदायतुल्लाह
(ग) के० सुब्बाराव
(घ) पी० एन० भगवती
उत्तर :
(ख) एम० हिदायतुल्लाह

प्रश्न 12.
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश
उत्तर :
(घ) भारत के मुख्यं न्यायाधीश

प्रश्न 13.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु क्या है?
(क) 65 वर्ष
(ख) 60 वर्ष
(ग) 58 वर्ष
(घ) 62 वर्ष
उत्तर :
(घ) 62 वर्ष

प्रश्न 14.
सर्वोच्च न्यायालय के कार्य-क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है?
(क) संसद द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा।
(ग) मंत्रिमंडल द्वारा
(घ) प्रधानमंत्री द्वारा
उत्तर :
(क) संसद द्वारा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका किसके प्रति जवाबदेह है?
उत्तर :
न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतान्त्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।

प्रश्न 2.
मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या कितनी है?
उत्तर :
भारत के उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीश हैं। इस प्रकार : मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 31 है।

प्रश्न 3.
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 4.
उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर :
भारत के राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है।

प्रश्न 5.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक कार्यरत रह सकते हैं।

प्रश्न 6.
उच्चतस न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार किसको है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार राष्ट्रपति को है।

प्रश्न 7.
उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश के पदच्युति का प्रस्ताव करने के लिए संविधान में क्या आधार बताए गए हैं?
उत्तर :
केवल ‘प्रमाणित कदाचार तथा ‘असमर्थता की स्थिति में ही उसके विरुद्ध पदच्युति का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
भारत का उच्चतम न्यायालय कहाँ पर स्थित है?
उत्तर :
भारत का उच्चतम न्यायालय नई दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 9.
भारत का उच्चतम न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार का प्रयोग किस आधार पर करता है?
उत्तर :
न्यायालय इस अधिकार का प्रयोग ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा करता है।

प्रश्न 10.
उच्चतम न्यायालय के दो अधिकार बताइए।
उत्तर :

  1. मूल अधिकारों की रक्षा
  2. संविधान का संरक्षण

प्रश्न 11.
देश में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन क्या है?
उत्तर :
भारत में न्यायिक सक्रियता को मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका (Social Action Litigation) है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य कार्य क्या हैं?
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के मध्य होने वाले विवादों की सुनवाई करना।
  2. उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करना।
  3. राष्ट्रपति को न्यायिक प्रश्नों पर परामर्श देना।
  4. नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा करना।
  5. संविधान की व्याख्या तथा सुरक्षा करना।
  6. अभिलेख न्यायालय के रूप में कार्य करना।
  7. संघात्मक व्यवस्था को बनाए रखना।
  8. परिवर्तित सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों में संविधान की न्यायसंगत तथा तर्कसंगत व्याख्या प्रस्तुत करना। प्रश्न

प्रश्न 2.
न्यायिक सक्रियता का मानव के सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है? संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
न्यायिक सक्रियता का मानव-जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा है –

  1. उच्चतम न्यायालय ने जनहितकारी विवादों को मान्यता प्रदान की है। इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह अथवा वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है जिसको उसके कानूनों अथवा संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया है।
  2. उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की नवीन व्याख्या की है तथा आम आदमी के जीवन व सुरक्षा को वास्तविक बनाने का प्रयास किया गया है।
  3. उच्चतम न्यायालय ने नागरिकों की गरिमा तथा प्रतिष्ठा की सुरक्षा की ओर अधिक ध्यान केन्द्रित किया है।
  4. उच्चतम न्यायालय ने पूर्णतः स्पष्ट कर दिया है कि कार्यपालिको के ‘स्वविवेक’ पर नियंत्रण किया जाना चाहिए।
  5. वर्तमान में उच्चतम न्यायालय की यह मान्यता बन गई है कि यद्यपि न्यायाधीश का कार्य कानून का निर्माण करना नहीं है, परन्तु वह कानून की रूपरेखा में रंग अवश्य भरता है।

प्रश्न 3.
भारतीय न्यायपालिका एकीकृत न्यायपालिका किस प्रकार है?
उत्तर :
भारतीय न्यायपालिका एकीकृत न्यायपालिका है। इसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय है, मध्य में उच्च न्यायालय है व जिला स्तर पर अधीनस्थ न्यायालय है। ये न्यायालय एकीकृत इस अर्थ में हैं कि उच्चतम न्यायालय का नीचे वाले न्यायालय पर प्रशासनिक व न्यायिक नियंत्रण है। निचली अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में लाया जा सकता है, उच्च न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में लाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं। उच्चतम न्यायालय न्यायाधीशों के स्थानान्तरण करने के लिए भी स्वतन्त्र है। उच्चतम न्यायालय नीचे वाले न्यायालय से किसी भी मुकदमे को अपने पास ले सकता है, अगर उच्चतम न्यायालय यह समझता है कि किसी प्रकरण में कानून का कोई गम्भीर विषय शामिल है। उच्चतम न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों को कोई भी आवश्यक निर्देश दे सकता है।

प्रश्न 4.
सर्वोच्च न्यायालय के परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार को समझाइए।
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार, राष्ट्रपति किसी कानूनी या तथ्य के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श मॉग सकता है। उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रपति को परामर्श देने के लिए खुली सुनवाई (Open Hearings) का भी प्रबन्ध करता है। अमेरिका के संविधान में उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को परामर्श दिए जाने की व्यवस्था नहीं है। इस न्यायालय पर संवैधानिक दृष्टि से ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि उसे परामर्श देना ही पड़े। राष्ट्रपति के लिए भी यह आवश्यक नहीं है। कि वह उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए परामर्श के अनुसार ही कार्य करे।

प्रश्न 5.
जनहित याचिकाओं का भारतीय व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
जनहित याचिकाओं का भारतीय व्यवस्था पर निम्नलिखित प्रभाव दृष्टिगत होता है –

  1. ऐसे लोगों की स्वतन्त्रता व हितों की रक्षा करने में सहायता मिलती है जो स्वयं अपने हितों की रक्षा करने में समर्थ नहीं थे।
  2. इससे सामाजिक एकता का विकास होता है।
  3. इससे राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ हुई है।
  4. न्यायिक सक्रियता का विकास हुआ है।
  5. कार्यपालिका पर भी कुछ नियंत्रण स्थापित हुआ है।
  6. गलत कानून-निर्माण पर रोक लगी है।
  7. नौकरशाही पर नियंत्रण स्थापित हुआ है।
  8. गरीब जनता में विश्वास उत्पन्न हुआ है।

प्रश्न 6.
संसद व न्यायपालिका का मौलिक अधिकारों के संशोधन को लेकर टकराव, संक्षेप में। समझाइए।
उत्तर :
संविधान में संशोधन विशेषकर मौलिक अधिकारों में संशोधन को लेकर न्यायपालिका का संसद से निरन्तर टकराव बना रहा है। प्रारम्भ में शंकरी प्रसाद प्रकरण में न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संसद संविधान के किसी भी भाग में, यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है। सन् 1967 में गोलकनाथ केस में न्यायालय ने अपने इस निर्णय को बदलते हुए नया निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकार में संशोधन नहीं कर सकती। इससे न्यायपालिका व संसद में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई। संसद में गोलकनाथ केस के निर्णय को समाप्त करने के उद्देश्य से 38 व 39वाँ संविधान संशोधन किया जिन्हें 1973 में केशवानन्द भारती केस में चुनौती दी गई जिसमें यह निर्णय हुआ कि संसद, संविधान के किसी भी भाग में यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है परन्तु संविधान की मौलिक रचना में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार न्यायपालिका व संसद में टकराव होता रहा है।

प्रश्न 7.
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में किन अर्हताओं का होना आवश्यक है?
उत्तर :
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित अर्हताओं का होना आवश्यक है –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम-से-कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो।

या वह किसी उच्च न्यायालय या न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो। या राष्ट्रपति की दृष्टि में कानून का उच्चकोटि का ज्ञाता हो।

प्रश्न 8.
अभिलेख न्यायालय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
भारत का उच्चतम न्यायालय अभिलेख (रिकॉर्ड) न्यायालय के रूप में भी कार्य करता है। अभिलेख न्यायालय का यह तात्पर्य है कि न्यायालय के समस्त निर्णयों को अभिलेख के रूप में सुरक्षित रखा जाता है। इन निर्णयों को भविष्य में देश के किसी भी न्यायालय में पूर्व उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय को यह भी अधिकार प्राप्त होता है कि वह अपनी मानहानि के लिए किसी भी व्यक्ति को जुर्माना अथवा कारावास का दण्ड दे सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, अन्य अधीनस्थ न्यायालयों में आवश्यकता पड़ने पर नजीर (केस लॉ) के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं।

प्रश्न 9.
भारत में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका किस प्रकार करती है?
उत्तर :
भारतीय संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भारत के सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान किया गया है। यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करती है या कोई नागरिक किसी दूसरे नागरिक को उसके मौलिक अधिकारों का प्रयोग स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं करने देता, तो प्रभावित व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है। उच्चतम न्यायालय के संविधान में अनुच्छेद 32 में वर्णित ‘संवैधानिक उपचारों के अधिकारों के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है। इने संवैधानिक उपचारों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), अधिकार पृच्छा (Quo Warranto) तथा उत्प्रेषण (Certiorari) नामक पाँच लेखों का प्रयोग नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए किया जाता है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत की संघात्मक व्यवस्था में न्यायपालिका की भूमिका पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
समस्त प्रकार की शासन-प्रणालियों में न्यायपालिका की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, परन्तु । संघात्मक व्यवस्था में न्यायपालिका के दायित्व और भी बढ़ जाते हैं। संघात्मक व्यवस्था में शासन की सत्ता एक लिखित एवं कठोर संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभाजित होती है। केन्द्र की सरकार केवल उन विषयों पर ही कानून का निर्माण कर सकती है, जो संघ-सूची में वर्णित होते हैं तथा राज्य सरकारें राज्य-सूची के विषयों पर ही कानून का निर्माण कर सकती हैं। किसी भी सरकार को दूसरी सरकार के क्षेत्र का अतिक्रमण करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है। यदि ऐसा होता है तो संघात्मक व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी। न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है कि वह शासन के कार्यक्षेत्र एवं शक्तियों पर अपना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अंकुश रखे जिससे इन शक्तियों का दुरुपयोग या अतिक्रमण न होने पाए। इसीलिए न्यायपालिका को यह शक्ति प्राप्त होती है कि वह ऐसे किसी भी कानून अथवा आदेश को अवैध घोषित कर दे जो संविधान की धाराओं का उल्लंघन करता हो। एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिको ही अपने दायित्वों का समुचित रूप से पालन कर सकती है। यदि न्यायपालिका अपने इस अधिकार का प्रयोग न करे तो संघात्मक व्यवस्था एकात्मक शासन व्यवस्था में परिवर्तित हो जाएगी तथा संविधान का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

प्रश्न 2.
लोकतन्त्र में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के दो उपायों का उल्लेख कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के दो उपाय लिखिए।
उत्तर :

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता

न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और उसके द्वारा विविध प्रकार के कार्य किये जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्तव्यपालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। सीधे-सादे शब्दों में इसका आशय यह है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल, किसी वर्ग विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के दो उपाय निम्नलिखित हैं –

1. न्यायाधीश की योग्यता – न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को दिया जाए जिनकी व्यावसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। राज्य व्यवस्था के संचालन में न्यायाधिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्त्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्त्व को नष्ट कर देंगे।

2. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सत्ता अभियोक्ता और साथ-ही-साथ न्यायाधीश होने पर स्वतन्त्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के पक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
लोकतन्त्रात्मक शासन में स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
किसी लोकतन्त्रात्मक शासन में एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका सर्वथा अनिवार्य है। इसे आधुनिक और प्रगतिशील संविधानों एवं शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्षण माना जाता है न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है –

1. लोकतन्त्र की रक्षा हेतु – लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानता हैं। नागरिकों की स्वतन्त्रता और कानून की दृष्टि से व्यक्तियों की समानता-इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्वतन्त्र न्यायपालिका को ‘लोकतन्त्र का प्राण’ कहा जाता है।

2. संविधान की रक्षा हेतु – आधुनिक युग के राज्यों में संविधान की सर्वोच्चता का विचार प्रचलित है। संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है। न्यायपालिका द्वारा इस दायित्व का भली-भाँति निर्वाह उस समय ही सम्भव है, जब न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो। स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की धाराओं की स्पष्ट व्याख्या करती है तथा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के उन कार्यों को जो संविधान के विरुद्ध होते हैं, अवैध घोषित कर देती है। इस प्रकार स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है।

3. न्याय की रक्षा हेतु – न्यायपालिका का प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका यह कार्य तभी ठीक प्रकार से कर सकती है, जबकि वह निष्पक्ष और स्वतन्त्र हो तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व अन्य कारणों की अपेक्षा नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अधिक है। इसके लिए न्यायपालिका को स्वतन्त्र और निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है।

न्यायपालिका के दो कार्य – न्यायपालिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं –

1. कानूनों की व्याख्या करना – कानूनों की भाषा सदैव स्पष्ट नहीं होती है और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रत्येक परिस्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका ही करती है। न्यायालयों द्वारा की गयी इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानून के समान ही होती है।

2. लेख जारी करना – सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है तो न्यायालये उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है। इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध आदि लेख प्रमुख हैं।

प्रश्न 4.
“सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक ही नहीं बल्कि उसे न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति भी प्राप्त है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर :
सर्वोच्च न्यायालय संविधान की पवित्रता की रक्षा भी करता है। यदि संसद संविधान का अतिक्रमण करके कोई कानून बनाती है तो उच्चतम न्यायालय उस कानून को अवैध घोषित कर सकता है। संक्षेप में, सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार है कि वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के उन कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है, जो संविधान के विपरीत हों। इसी प्रकार वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के संविधान का अतिक्रमण करने वाले आदेशों को भी अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने वाला (Interpreter) अन्तिम न्यायालय है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) का अधिकार है, क्योंकि इसे कानूनों की वैधानिकता के परीक्षण की शक्ति प्राप्त है। इस शक्ति के आधार पर न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार का अतिक्रमण करने वाले अनेक कानूनों को गोलकनाथ केस, सज्जनसिंह केस तथा केशवानन्द भारती केस में अवैध घोषित किया है।

प्रश्न 5.
स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।

लोकतन्त्र में न्यायपालिका को महत्त्व इंगित कीजिए।
उत्तर :

स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्त्व अथवा लाभ

न्यायपालिका अपने विविध कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है, जब वह स्वतन्त्र रूप से कार्य करे। स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर स्पष्ट होता है –

1. नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की रक्षा – स्वतन्त्र न्यायपालिका ही ागरिकों की स्वतन्त्रता और मौलिक अधिकारों की रक्षा कर सकती है। चान्सलर कैण्ट के अनुसार, “जहाँ कानूनों की व्याख्या करने, उन्हें लागू करने तथा अधिकारों को अमल में लाने के लिए कोई न्याय विभाग न हो, वहाँ स्वयं अपनी शक्तिहीनता के कारण शासन का विनाश हो जाएगा अथवा शासन के दूसरे विभाग के आदेशों का पालन करने के लिए उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर नागरिक स्वतन्त्रता का सर्वनाश कर देंगे।”

2. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति – निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति कराना न्यायपालिका का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है। न्यायपालिका को अपने इस महत्त्वपूर्ण कार्य के सम्पादन के लिए स्वतन्त्र होना आवश्यक है। उसके कार्यों में व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका को कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

3. लोकतंत्र की सुरक्षा – लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है। लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानती हैं। अतः नागरिकों को स्वतन्त्रता और समानता के अवसर उसी समय प्राप्त हो सकेंगे, जब न्यायपालिका निष्पक्षता के साथ अपने कार्य का सम्पादन करेगी।

4. संविधान की सुरक्षा – स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षक होती है। न्यायपालिका संविधान-विरोधी कानूनों को अवैध घोषित करके रद्द कर देती है। अतः संविधान के स्थायित्व एवं सुरक्षा के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।

5. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण – स्वतन्त्र न्यायपालिको व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखकर शासन की कार्यकुशलता में वृद्धि करती है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रत्येक देश की शासन-प्रणाली में बहुत अधिक महत्त्व है। लोकतन्त्रात्मक शासन के लिए तो स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। वस्तुत: स्वतन्त्र न्यायपालिका के बिना एक सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 6.
उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में संविधान में क्या व्यवस्था की गई है?
उत्तर :

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में संविधान में कुछ व्यवस्थाएँ की गई हैं। इस सम्बन्ध में नियम बनाने का अधिकार संविधान द्वारा संसद को दिया गया है और जिन बातों पर संविधान और संसद ने कोई व्यवस्था न की हो, ऐसी बातों पर स्वयं न्यायालय की अनुमति से कानून बन सकता है। उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई हैं –

(1) जिन विषयों का सम्बन्ध संविधान की व्याख्या के साथ हो या जिनमें कोई संवैधानिक प्रश्न उपस्थित होता हो यो कानून के अर्थ को समझाने की आवश्यकता हो या जिन विषयों पर विचार करने का कार्य राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय को सौंपा गया हो उनकी सुनवाई उच्चतम न्यायालय के कम-से-कम 5 न्यायाधीशों द्वारा की जाएगी।

(2) उच्चतम न्यायालय के सम्मुख किसी ऐसे मुकदमे की अपील भी पेश की जा सकती है जिसकी सुनवाई के पश्चात् यह अनुभव किया जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या करना अनिवार्य है। या कानून के अभिप्राय को तात्त्विक रूप से प्रकट करना होगा। इसी प्रकार के मुकदमे आरम्भ में 5 से कम न्यायाधीशों के सम्मुख प्रस्तुत किए जा सकते हैं। परन्तु यदि यह स्पष्ट हो जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या का स्पष्टीकरण होना आवश्यक है तो उसको भी कम-से-कम 5 न्यायाधीशों के सम्मुख उपस्थित किया जाएगा और उसकी व्याख्या के अनुसार उसका निर्णय किया जाएगा।

(3) उच्चतम न्यायालय के सभी निर्णय खुले तौर पर सम्पन्न होते हैं।

(4) उच्चतम न्यायालय के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे। परन्तु यदि निर्णय से कोई न्यायाधीश सहमत नहीं है तो वह अपना पृथक् निर्णय दे सकती है परन्तु बहुमत से हुआ निर्णय ही मान्य समझा जाएगा।

प्रश्न 7.
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्यायिक पुनरवलोकन का संचालन किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर :

न्यायिक पुनरवलोकन का संचालन

न्यायिक पुनरवलोकन का तात्पर्य न्यायालय द्वारा कानूनों तथा प्रशासकीय नीतियों की संवैधानिकता की जाँच तथा ऐसे कानूनों एवं नीतियों को असंवैधानिक घोषित करना है जो संविधान के किसी अनुच्छेद पर अतिक्रमण करती है।

भारत में भी सर्वोच्च न्यायालय को अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के समान ही न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति प्रदान की गई है। भारत में भी संविधान को सर्वोच्च कानून घोषित किया गया है। अतः न्यायपालिका का यह अधिकार है कि वह संसद अथवा विधानमण्डलों द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को अवैध घोषित कर दे जो संविधान की धाराओं का अतिक्रमण करते हों। भारत का सर्वोच्च न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (Procedure established by law) के आधार पर करता है जबकि अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ (Due process of the law) के आधार पर न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति का प्रयोग करता है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय यह निश्चित करने में भी कोई कानून संवैधानिक शक्ति है अथवा नहीं, प्राकृतिक न्यायालय के सिद्धान्तों को या उचित-अनुचित की अपनी धारणाओं को लागू नहीं कर सकता है।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने पिछले अनेक वर्षों में ऐसे महत्त्वपूर्ण निर्णय दिए हैं जिनमें न्यायिक पुनरवलोकन के अधिकार का प्रयोग किया गया है। जैसे—गोलकनाथ बनाम मद्रास राज्य के मुकदमे में निवारक निरोध अधिनियम के 14वें खण्ड को असंवैधानिक घोषित किया गया है। स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम, पाकिस्तानी शरणार्थियों के भारत आगमन पर रोक लगाने सम्बन्धी अधिनियम, बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम तथा अखबारी कागज सम्बन्धी नीति आदि।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
“आधुनिक काल में न्यायपालिका के कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो गई है। इस कथन के आलोक में न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? इसकी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?
या
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कार्यों एवं उसकी बढ़ती हुई महत्ता की व्याख्या कीजिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने हेतु क्या व्यवस्था की जानी चाहिए?
या
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में न्यायपालिका के कार्यों तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

न्यायपालिका के कार्य

आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यत: निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं –

1. न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। कार्यपालिका कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकदमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं तथा उन पर अपना न्यायपूर्ण निर्णय देती

2. कानूनों की व्याख्या करना – न्यायपालिका विधानमण्डल में बनाये हुए कानूनों की व्याख्या के साथ-साथ उन कानूनों की व्याख्या भी करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका के द्वारा की गयी कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इंकार नहीं कर सकता।

3. कानूनों का निर्माण – साधारणतया कानून-निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कानून के कई नये अर्थों को जन्म देते हैं, जिससे कानूनों का स्वरूप ही बदल जाता है और एक नये कानून का निर्माण हो जाता है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकदमे भी आते हैं, जहाँ उपलब्ध कानूनों के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं।

4. संविधान का संरक्षण – संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका पर होता है। यदि व्यवस्थापिका कोई ऐसा कानून बनाये, जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायपालिका की इसे शक्ति को न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) का नाम दिया गया है संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त होता है। इसी प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है।

5. संघ का संरक्षण – जिन देशों ने संघात्मक शासन-प्रणाली को अपनाया है, वहाँ न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन-प्रणाली में कई बार केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभिन्न प्रकार के मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं, इनका निर्णय न्यायपालिका द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के कार्य में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के कार्यों में।

6. नागरिक अधिकारों का संरक्षण – लोकतन्त्र को जीवित रखने के लिए नागरिकों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है। यदि इनकी सुरक्षा नहीं की जाती तो कार्यपालिका निरंकुश और तानाशाह बन सकती है। नागरिकों की स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अनेक राज्यों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था का संविधान में उल्लेख कर दिया गया है जिससे उन्हें संविधान और न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त हो सके। इस प्रकार न्यायपालिका का विशेष उत्तरदायित्व होता है कि वह सदैव यह दृष्टि में रखे कि सरकार का कोई अंग इन अधिकारों का अतिक्रमण न कर सके।

7. परामर्श देना – कई देशों में न्यायपालिका कानून सम्बन्धी परामर्श भी देती है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है, परन्तु इस सलाह को मानना या न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर है।

8. प्रशासनिक कार्य – कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासकीय नियंत्रण रहता है।

9. आज्ञा-पत्र जारी करना – न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे अमुक कार्य नहीं कर सकते और यह किसी कार्य को करवा भी सकती है। यदि वे कार्य न किये जाएँ तो न्यायालय बिना अभियोग चलाये दण्ड दे सकता है अथवा मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड के कार्य – न्यायपालिका कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड को भी कार्य करती है, जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकदमों के निर्णयों तथा सरकार को दिये गये परामर्शो का रिकॉर्ड भी रखना पड़ता है। इन निर्णयों तथा परामर्शो की प्रतियाँ किसी भी समय, प्राप्त की जा सकती हैं।

न्यायपालिका का महत्त्व

व्यक्ति एक विचारशील प्राणी है और इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने कुछ विशेष स्वार्थ भी होते हैं। व्यक्ति के विचारों और उसके स्वार्थों में इस प्रकार के भेद होने के कारण उनमें परस्पर संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त शासन-कार्य करते हुए शासक वर्ग अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में सदैव ही एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता रहती है जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवादों को हल कर सके और शासक वर्ग को अपनी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य कर सके। इन कार्यों को करने वाली सत्ता का नाम ही न्यायपालिका है।

राज्य के आदिकाल से लेकर आज तक किसी-न-किसी रूप में न्याय विभाग का अस्तित्व सदैव ही रहा है और सामान्य जनता के दृष्टिकोण से न्यायिक कार्य का सम्पादन सर्वाधिक महत्त्व रखता है। राज्य में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी ही पूर्ण और श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय करने में पक्षपात किया जाता है, अनावश्यक व्यय और विलम्ब होता है या न्याय विभाग में अन्य किसी प्रकार का दोष है तो जनजीवन नितान्त दु:खपूर्ण हो जाएगा। न्याय विभाग के सम्बन्ध में बाइस ने अपनी श्रेष्ठ शब्दावली में कहा है, “न्याय विभाग की कुशलता से बढ़कर सरकार की उत्तमता की दूसरी कोई भी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और चीज से नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता है, जितना कि उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र व अपक्षपाती न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है। वर्तमान समय में तो न्यायपालिका का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है, क्योंकि अभियोगों के निर्णय के साथ-साथ न्यायपालिका संविधान की व्याख्या और रक्षा का कार्य भी करती है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनाये रखने हेतु उपाय

स्वतन्त्र न्यायपालिका उत्तम शासन की कसौटी है। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका का संगठन और कार्यविधि ऐसी हो जिससे वह बिना किसी भय और दबाव के स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके। स्वतन्त्र न्यायपालिका बनाये रखने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था होनी चाहिए –

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल – अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल का निर्धारण कार्यपालिका के द्वारा किया जाता है। नियुक्ति का आधार योग्यता और प्रतिभा को बनाया जाता है।

2. न्यायाधीशों का वेतन – न्यायाधीशों को वेतन के रूप में अच्छी धनराशि मिलनी चाहिए। उचित वेतन होने पर ही वे निष्पक्षता और ईमानदारी से काम कर पाएँगे।

3. न्यायाधीशों की पदोन्नति – न्यायाधीशों की पदोन्नति के भी निश्चित नियम होने चाहिए। योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही न्यायाधीशों की पदोन्नति होनी चाहिए। पदोन्नति का अधिकार नियुक्त करने वाली संस्था या कार्यपालिका को न होकर उच्चतम न्यायालय को होना चाहिए।

4. न्यायाधीशों को हटाना – न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। न्यायाधीशों को भ्रष्ट या अयोग्य होने पर ही उनके पद से हटाया जाना। चाहिए।

5. न्याय तथा शासन सम्बन्धी कार्यों का विभाजन – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी अनिवार्य है कि शासन तथा न्याय विभाग दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हों। यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका पृथक् नहीं हैं तो न्यायाधीश अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अपनी न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं।

6. न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद देने से अलग रखा जाना – सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी न्यायाधीश को अन्य किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

7. न्यायाधीशों के निर्णयों, कार्यों और चरित्र की अनुचित आलोचना पर प्रतिबन्ध –  न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों के कार्यकाल में कोई भी उनके वैयक्तिक चरित्र अथवा कार्यों पर टिप्पणी न करे और उनके निर्णयों की आलोचना न करे।

प्रश्न 2.
न्यायाधीशों की नियुक्ति के विषय में आप क्या जानते हैं?
या
उच्चतम न्यायालय के गठन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भारत का उच्चतम न्यायालय राजधानी दिल्ली में स्थित है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन तथा सेवा-शर्तों को निश्चित करने का अधिकार संसद को प्रदान किया गया है। अब उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीश हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों के ऐसे अन्य न्यायाधीशों से परामर्श लेता है, जिनसे वह इस सम्बन्ध में परामर्श लेना आवश्यक समझता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में जुलाई 1998 ई० को राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय में भेजे गए स्पष्टीकरण प्रस्ताव पर विचार करते हुए नौ-सदस्यीय खण्डपीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि उच्चतम न्यायालय में किसी न्यायाधीश की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा किसी न्यायाधीश के स्थानान्तरण के विषय में अपनी संस्तुतियाँ प्रेषित करने से पूर्व उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालय में नियुक्ति करने से पूर्व दो, वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श किया जाना आवश्यक है। यदि दो न्यायाधीश भी विपरीत राय देते हैं। तो मुख्य न्यायाधीश द्वारा सरकार को अपनी सिफारिश नहीं भेजनी चाहिए।

तदर्थ नियुक्तियाँ (ad hoc Appointments) – संविधान के अनुच्छेद 127 के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से तदर्थ नियुक्तियाँ भी कर सकता है। ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु की जाती हैं।

1. न्यायाधीशों की योग्यताएँ – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –
(क) वह भारतीय नागरिक हो।
(ख) वह किसी उच्च न्यायालय में कम-से-कम पाँच वर्ष तक न्यायाधीश रह चुका हो,
अथवा 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो,
अथवा राष्ट्रपति की दृष्टि में लब्धप्रतिष्ठ विधिवेत्ता हो।

2. न्यायाधीशों का कार्यकाल तथा पदच्युति – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्यरत रह सकते हैं। 65 वर्ष की आयु समाप्ति पर उन्हें सेवानिवृत्त कर दिया जाता है। यदि कोई न्यायाधीश चाहे तो इससे पूर्व भी राष्ट्रपति को त्यागपत्र देकर अपने पदभार से मुक्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को सिद्ध कदाचार या असमर्थता के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने के लिए समावेदन प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिए। इसके बाद वह समावेदन राष्ट्रपति के समक्ष रखा जाएगा और उसके आदेश देने पर अमुक न्यायाधीश को उसके पद से हटा दिया जाएगा। लेकिन ऐसा समावेदन संसद के एक ही सत्र में प्रस्तावित और स्वीकृत होना चाहिए। इसी प्रक्रिया के आधार पर उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति रामास्वामी को हटाने का प्रयास संसद द्वारा किया गया था, परन्तु न्यायमूर्ति रामास्वामी ने आरोप सिद्ध होने से पूर्व ही अपना पद-त्याग कर दिया।

3. न्यायाधीशों के वेतन – 1998 ई० के एक अधिनियम द्वारा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ₹ 1 लाख प्रतिमाह और अन्य न्यायाधीशों को ₹ 90,000 प्रतिमाह वेतन निर्धारित किया गया है तथा इसके साथ-साथ उन्हें नि:शुल्क आवास, सवेतन छुट्टियाँ तथा सेवानिवृत्ति प्राप्त करने पर पेंशन आदि की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 3.
भारत के उच्चतम न्यायालय की संरचना का उल्लेख कीजिए। उसे संविधान का संरक्षक क्यों कहा जाता है?
या
“भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक व नागरिकों के मूलाधिकारों का रक्षक कहा जाता है।” व्याख्या कीजिए।
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती है?
या
सर्वोच्च न्यायालय के संगठन का वर्णन कीजिए। उसको ‘संविधान का रक्षक’ एवं ‘नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक’ क्यों कहा जाता है ?
या
उच्चतम न्यायालय का संगठन समझाइए। उसके महत्त्व को भी समझाइए।
या
भारत के उच्चतम न्यायालय के गठन व उसके कार्यों को संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
भारत के उच्चतम न्यायालय के संगठन तथा क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता (महत्त्व)

भारतीय संविधान-निर्माताओं के समक्ष यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि भारत में संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व किसे सौंपा जाए? गम्भीर विचार-विमर्श के पश्चात् संविधान निर्माताओं ने भारत । संघ में लोकतन्त्र, नागरिकों के अधिकार व संविधान की रक्षा का दायित्व एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका को सौंपा। भारत में न्याय-व्यवस्था के शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया गया है। श्री वी० एस० देशपाण्डे के शब्दों में, “भारत में संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व सर्वोच्च न्यायालय को ही है। स्वतन्त्र भारत में सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकरण बहुत गौरवमय रहा है। तथा आम जनता में व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों तथा स्वाधीनता के प्रहरी के रूप में उसके प्रति अटूट श्रद्धा-विश्वास है।”

भारत की संघीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायालय की आवश्यकता अथवा महत्त्व को निम्नलिखित तर्को द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है –

1. संघात्मक शासन के लिए अनिवार्य – संघीय शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण पाया जाता है। ऐसी स्थिति में अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र को लेकर केन्द्र व राज्यों में विवाद की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। अत: केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न किसी भी विवाद के निराकरण हेतु एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष शक्ति का होना अनिवार्य होता है। भारत में इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी है। जी० एन० जोशी ने संघीय व्यवस्था में निष्पक्ष व स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है, “संघात्मक शासन में कई सरकारों का समन्वय होने के कारण संघर्ष अवश्यम्भावी है। अतः संघीय नीति का यह आवश्यक गुण है कि देश में एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था हो, जो संघीय कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका तथा इकाइयों की सरकारों से स्वतन्त्र हो।”

2. संविधान का रक्षक – भारत में एक लिखित और कठोर संविधान को अपनाया गया है और इसके साथ ही संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी है। संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का कार्य सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ही किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा संविधान के रक्षक और संविधान के आधिकारिक व्याख्याता के रूप में कार्य किया जाता है। वह संसद द्वारा निर्मित ऐसी प्रत्येक विधि को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के विरुद्ध हो। अपनी इस शक्ति के आधार पर वह संविधान की प्रभुता और सर्वोच्चता की रक्षा करता है। संविधान के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने पर संविधान की अधिकारपूर्ण व्याख्या उसी के द्वारा की जाती है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय संविधान की रक्षा करता है।

3. परामर्शदात्री संस्था के रूप में – भारत को सर्वोच्च न्यायालय एक परामर्शदात्री संस्था के रूप में भी विशिष्ट दायित्वों का निर्वहन करता है। राष्ट्रपति किसी भी महत्त्वपूर्ण विषय के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँग सकता है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि न्यायालय के परामर्श को स्वीकार करने या न करने के लिए राष्ट्रपति पूर्ण स्वतन्त्र होता है।

4. मौलिक अधिकारों का रक्षक – संविधान के अनुच्छेद 32 में वर्णित है कि न्यायालय संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है। भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का किसी भी रूप में हनन होने पर व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है। इस सम्बन्ध में पायली ने कहा है, “मौलिक अधिकारों का महत्त्व एवं सत्ता समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों से सिद्ध होती है, जिससे कार्यपालिका की निरंकुशता तथा विधानमण्डलों की स्वेच्छाचारिता से नागरिकों की रक्षा होती है।

5. भारत का अन्तिम न्यायालय – भारत की न्यायिक व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय अन्तिम न्यायालय है। परिणामस्वरूप इसके निर्णय अन्तिम व सर्वमान्य होते हैं। इन निर्णयों में परिवर्तन केवल वह ही कर सकता है।

अन्तत: सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता व महत्त्व को डॉ० एम० वी० पायली के इस कथन से प्रमाणित किया जा सकता है, “सर्वोच्च न्यायालय संघीय व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है। यह संविधान की व्याख्या करने वाला, केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों का निराकरण करने वाला तथा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाला अन्तिम अभिकरण है।”

सर्वोच्च न्यायालय का गठन

संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन या सेवा-शर्ते निश्चित करने का अधिकार संसद को दिया गया था। अनुच्छेद 124 के अनुसार, “भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश होंगे।” परन्तु इस सम्बन्ध में संविधान में यह व्यवस्था की गयी है कि संसद विधि के द्वारा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकती है। वर्तमान समय में 1985 ई० में पारित विधि के अन्तर्गत संसद द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 31 कर दी गयी है। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय में 1 मुख्य न्यायाधीश व 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के परामर्श से की जाती है तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाती है।

न्यायाधीशों की योग्यताएँ (मुख्य न्यायाधीश) – संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गयी हैं –

  1. वह भारत को नागरिक हो।
  2. वह कम-से-कम पाँच वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर कार्य कर चुका हो अथवा वह दस वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो।
  3. राष्ट्रपति की दृष्टि में विख्यात विधिवेत्ती हो।
  4. उसकी आयु 65 वर्ष से कम हो।

कार्यकाल – उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बना रह सकता है। 65 वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् उसे पदमुक्त कर दिया जाता है, परन्तु यदि न्यायाधीश समय से पूर्व पदत्याग करना चाहता है, तो वह राष्ट्रपति को अपना.त्याग-पत्र देकर मुक्त,हो सकता है।

महाभियोग – संवैधानिक प्रावधान के अनुसार दुर्व्यवहार व भ्रष्टाचार के आरोप में लिप्त पाये जाने पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद द्वारा 2/3 बहुमत से महाभियोग लगाकर, राष्ट्रपति के माध्यम से पदच्युत किया जा सकता है।

शपथ – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद को ग्रहण करने से पूर्व प्रत्येक न्यायाधीश राष्ट्रपति के समक्ष शपथ लेता है।

वेतन व भत्ते – नवीन वेतनमानों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को र 2,80,000 मासिक वेतन व अन्य न्यायाधीशों को 2,50,000 मासिक वेतन की धनराशि देना निश्चित किया गया है। इसके अतिरिक्त न्यायाधीशों के लिए नि:शुल्क आवास व सेवा-निवृत्ति के पश्चात् पेंशन देने की व्यवस्था भी की गयी है। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि न्यायाधीशों को वेतन व भत्ते भारत की संचित निधि में से दिये जाते हैं, जो संसद के अधिकारक्षेत्र से मुक्त होता है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के वेतन में उनके कार्यकाल के समय में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। केवल वित्तीय आपात के समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते कम किये जा सकते हैं।

उन्मुक्तियाँ – संविधान द्वारा न्यायाधीशों को प्राप्त उन्मुक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों को आलोचना से मुक्त रखा गया है।
  2. किसी भी निर्णय के सम्बन्ध में न्यायाधीश पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसने वह निर्णय स्वार्थवश तथा किसी के हित विशेष को ध्यान में रखकर लिया है।
  3. महाभियोग के अतिरिक्त किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा न्यायाधीश के आचरण के विषय में कोई चर्चा नहीं की जा सकती।

वकालत पर रोक – जो व्यक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन हो जाती है, वह अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् भारत के किसी भी न्यायालय में या किसी अन्य अधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता। संविधान द्वारा यह व्यवस्था न्यायाधीशों को अपने कार्यकाल में निष्पक्ष व स्वतन्त्र होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करने के उद्देश्य को दृष्टि में रखकर की गयी है।

[संकेत – उच्चतम न्यायालय के कार्य व क्षेत्राधिकार तथा न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण हेतु दीर्घ प्रश्न 4 का अध्ययन करें।]

प्रश्न 4.
उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय क्यों कहते हैं? उसके क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय किस प्रकार के लेख (रिट) जारी कर सकते हैं? किन्हीं दो का उदाहरण देते हुए समझाइए।
या
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए और यह भी बताइए कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु संविधान में क्या प्रावधान किए गए हैं?
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों और अधिकारों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
या
न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने के लिए संविधान में क्या व्यवस्थाएँ की गयी हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक तथा अपीलीय क्षेत्राधिकार का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया गया है?
उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय के कार्य और अधिकार

सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोपरि न्यायालय है। अतएव उसे अत्यधिक विस्तृत अधिकार प्रदान किये गये हैं। इन अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में समझा जा सकता है –

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार

श्री दुर्गादास बसु ने कहा कि “यद्यपि हमारा संविधान एक सन्धि या समझौते के रूप में नहीं है, फिर भी संघ तथा राज्यों के बीच व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकारों का विभाजन किया गया है। अतः अनुच्छेद 131 संघ तथा राज्य या राज्यों के बीच न्याय-योग्य विवादों के निर्णय का प्रारम्भिक तथा एकमेव क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय को सौंपता है।”

इस क्षेत्राधिकार को पुनः दो वर्गों में रखा जा सकता है –

(क) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार – प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे अधिकार आते हैं जो उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायालय को प्राप्त नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय कुछ उन विवादों पर विचार करता है जिन पर अन्य न्यायालय विचार नहीं कर सकते हैं। ये विवाद निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  1. भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद।
  2. वे विवाद जिनमें भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्य एक ओर हों और एक या एक से अधिक राज्य दूसरी ओर हों।
  3. दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद।

इस सम्बन्ध में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 26 जनवरी, 1950 के पूर्व जो सन्धियाँ अथवा संविदाएँ भारत संघ और देशी राज्यों के बीच की गयी थीं और यदि वे इस समय भी लागू हों तो उन पर उत्पन्न विवाद सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है।

(ख) प्रारम्भिक समवर्ती क्षेत्राधिकार – भारतीय संविधान में लिखित मूल अधिकारों को लागू करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही उच्च न्यायालयों को भी प्रदान कर दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उचित कार्यवाही करे।

(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार

भारत में एकीकृत न्यायिक-प्रणाली अपनाने के कारण राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं और इस रूप में उसका इन उच्च न्यायालयों पर अधीक्षण और नियंत्रण स्थापित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय में सभी उच्च न्यायालयों और न्यायाधिकरणों द्वारा, केवल सैनिक न्यायालय को छोड़कर, संवैधानिक, दीवानी और फौजदारी मामलों में दिये गये निर्णयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित वर्गों में रखा जा सकता है –

(क) संवैधानिक अपीलें – संवैधानिक मामलों से सम्बन्धित उच्च न्यायालय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील तब की जा सकती है जब कि उच्च न्यायालये यह प्रमाणित कर दे कि इस विवाद में “संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित विधि का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। लेकिन यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण-पत्र देने से इंकार कर देता है तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत अपील की विशेष आज्ञा दे सकती है, यदि उसे यह विश्वास हो जाए कि उसमें कानून का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। निर्वाचन आयोग बनाम श्री वेंकटरावे (1953) के मुकदमे में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या किसी संवैधानिक विषय में अनुच्छेद 132 के अधीन किसी अकेले न्यायाधीश के निर्णय की अपील भी सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है अथवा नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका उत्तर ‘हाँ’ में दिया है।

(ख) दीवानी की अपीलें – संविधान द्वारा दीवानी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपील सुने जाने की व्यवस्था की गयी है। किसी भी राशि का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के पास आ सकता है, जब उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के सुनने योग्य है या उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमे में कोई कानूनी प्रश्न विवादग्रस्त है। यदि उच्च न्यायालय किसी दीवानी मामले में इस प्रकार का प्रमाण-पत्र न दे तो सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी किसी व्यक्ति को अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता है।

(ग) फौजदारी की अपीलें – फौजदारी के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील सुन सकता है। ये अपीलें इन दशाओं में की जा सकती हैं –

  1. जब किसी उच्च न्यायालय ने अधीन न्यायालय के दण्ड-मुक्ति के निर्णय को रद्द करके अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दे दिया हो।
  2. जब कोई उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि विवाद उच्चतम न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किये जाने योग्य है।
  3. जब किसी उच्च न्यायालय के किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से मँगाकर अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दिया हो।
  4. यदि सर्वोच्च न्यायालय किसी मुकदमे में यह अनुभव करता है कि किसी व्यक्ति के साथ वास्तव में अन्याय हुआ है, तो वह सैनिक न्यायालयों के अतिरिक्त किसी भी न्यायाधिकरण के विरुद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है।

(घ) विशिष्ट अपील – अनुच्छेद 136 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह भी अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने विवेक से प्रभावित पक्ष को अपील का अधिकार प्रदान करे। किसी सैनिक न्यायाधिकरण के निर्णय को छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय भारत के किसी भी उच्च न्यायालये या न्यायाधिकरण के निर्णय दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है, चाहे भले ही उच्च न्यायालय ने अपील की आज्ञा से इंकार ही क्यों न किया हो।

अपीलीय क्षेत्राधिकार के दृष्टिकोण से भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व में सबसे अधिक शक्तिशाली है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को लक्ष्य करते हुए ही 1950 ई० को सर्वोच्च न्यायालय के उद्घाटन के अवसर पर भाषण देते हुए श्री एम० सी० सीतलवाड़ ने कहा था कि “यह कहना सत्य होगा कि स्वरूप व विस्तार की दृष्टि से इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ राष्ट्रमण्डल के किसी भी देश के सर्वोच्च न्यायालय तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के कार्यक्षेत्र तथा शक्तियों से व्यापक हैं।”

(3) संविधान का रक्षक व मूल अधिकारों का प्रहरी

संविथान की व्याख्या तथा रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का एक मुख्य कार्य है। जब कभी संविधान की व्याख्या के बारे में कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में स्पष्टीकरण देकर उचित व्याख्या करता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी व्याख्या को अन्तिम तथा सर्वोच्च माना जाता है। केवल संविधान की व्याख्या करना ही नहीं, बल्कि इसकी रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का कार्य है। सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के कार्यों का पुनरवलोकन करने का भी अधिकार है। यदि सर्वोच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून या कार्यपालिका का कोई आदेश संविधान का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून व आदेश को असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस प्रकार न्यायालय संविधान की सर्वोच्चता कायम रखता है।

संविधान की धारा 32 के अनुसार न्यायालय का यह भी उत्तरदायित्व है कि वह मूल अधिकारों की रक्षा करे। इन अधिकारों की रक्षा के लिए यह न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण लेख जारी करता है।

(4) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार

सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार भी है। अनुच्छेद 143 के अनुसार, यदि कभी राष्ट्रपति को यह प्रतीत हो कि विधि या तथ्यों के बारे में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है या उठने वाला है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेना जरूरी है तो वह उस प्रश्न को परामर्श के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता है, किन्तु अनुच्छेद 143 ‘बाध्यकारी प्रकृति का नहीं है। यह न तो राष्ट्रपति को बाध्य करता है कि वह सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर न्यायालय की राय माँगे और न ही सर्वोच्च न्यायालय को बाध्य करता है कि वह भेजे गये प्रश्न पर अपनी राय दे। वैसे भी यह राय न्यायिक उद्घोषणा’ या ‘न्यायिक निर्णय नहीं है। इसीलिए इसे मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।

अब तक राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से अनेक बार परामर्श माँगा है। केरल शिक्षा विधेयक, 1947 में, ‘राष्ट्रपति के चुनाव पर एवं 1978 ई० में ‘विशेष अदालत विधेयक पर माँगी गयी सम्पतियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार मुकदमेबाजी को रोकने या उसे कम करने में सहायक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा सलाहकार की भूमिका अदा करना पसन्द नहीं किया गया है। इस सम्बन्ध में भारत की व्यवस्था कनाडा और बर्मा के अनुरूप है।

(5) अन्य क्षेत्राधिकार

(क) अधीनस्थ न्यायालयों की जाँच – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कार्यों की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है।

(ख) न्यायालयों की कार्यवाही संचालन हेतु नियम बनाना – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही सुचारु रूप से चलाने हेतु नियम बनाने का अधिकार है, परन्तु उन नियमों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अनिवार्य होती है।

(ग) पुनर्विचार का अधिकार – सर्वोच्च न्यायालय यदि ऐसा अनुभव करे कि वह अपने निर्णय में कोई भूल कर बैठा है या उसके निर्णय में कोई कमी रह गयी है, तो उस विवाद पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले निर्णय को बदलकर अनेक बार नये निर्णय दिये हैं।

(6) अभिलेख न्यायालय

अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। इसके दो अर्थ हैं –

  1. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और अदालती कार्यवाही को अभिलेख के रूप में रखा जाएगा जो अधीनस्थ न्यायालयों में दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किये जाएँगे और उनकी प्रामाणिकता के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जाएगा।
  2. इस न्यायालय द्वारा न्यायालय की अवमानना’ के लिए दण्ड दिया जा सकता है। वैसे तो यह बात प्रथम स्थिति में स्वतः ही मान्य हो जाती है, लेकिन संविधान में इस न्यायालय की अवमानना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था विशिष्ट रूप से की गयी है।

सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय का सर्वप्रमुख कार्य संविधान की रक्षा करना ही है। इस सम्बन्ध में श्री डी० के० सेन ने लिखा है, “न्यायालय भारत के सभी न्यायालयों के न्यायिक निरीक्षण की शक्तियाँ रखता है और वही संविधान का वास्तविक व्याख्याता और संरक्षक है। उसका यह कर्तव्य होता है कि वह यह देखे कि उसके प्रावधानों को उचित रूप में माना जा रहा है और जहाँ कहीं आवश्यक होता है वहाँ वह उसके प्रावधानों को स्पष्ट करता है।”

संक्षेप में, मौलिक अधिकारों को छोड़कर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ ‘विश्व के किसी भी सर्वोच्च न्यायालय से अधिक हैं। इस पर भी भारत का सर्वोच्च न्यायालय अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से अधिक शक्तिशाली नहीं है, क्योंकि इसकी शक्तियाँ ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के कारण मर्यादित हैं, इसीलिए यह संसद के तीसरे सदन की भूमिका नहीं अपना सकता है।।

सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता

भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं, जो निम्नवत् हैं –

  1. न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका से पृथक् कर दिया गया है।
  2. न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते भारत सरकार की संचित निधि से दिये जाते हैं। न्यायाधीशों के लिए पर्याप्त वेतन की व्यवस्था की गयी है। न्यायाधीशों के वेतन व भत्तों में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती है।
  3. न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक कार्य कर सकते हैं। यद्यपि महाभियोग लगाकर न्यायाधीशों को अपने पद से हटाने का प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया है, परन्तु वह बहुत जटिल है; इसलिए न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना भी सरल नहीं है।
  4. न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। संसद का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है। इस कारण न्यायाधीश पूर्ण स्वतन्त्र रहते हैं।
  5. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्यों की आलोचना नहीं की जा सकती है। इस कारण भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हैं।
  6. सर्वोच्च न्यायालय को अपने कर्मचारी वर्ग पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त है।
  7. सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्यप्रणाली के संचालन हेतु नियम बनाने का अधिकार है।

प्रश्न 5.
जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) के अर्थ एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
जनहित याचिका से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय-व्यवस्था में इनकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर :

जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) का अर्थ

न्याय के प्रसंग में परम्परागत धारणा यह रही है कि न्यायालय से न्याय पाने को हक उसी व्यक्ति को है जिसके मूल अधिकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसे स्वयं या जिसके पारिवारिक जन को कोई पीड़ा पहुँची है, किन्तु आज की परिस्थितियों में न्यायिक सक्रियतावाद के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने आंग्ल विधि के उपर्युक्त नियम को परिवर्तित करते हुए यह व्यवस्था की है कि कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह या वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है, जिसको उसके कानून या संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से दलित लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ (मुकदमा) ला सकता है। न्यायालय अपने सारे तकनीकी और कार्यविधि सम्बन्धी नियमों की परवाह किये बिना ‘वाद’ लिखित रूप में देने मात्र से ही कार्यवाही करेगा। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार, ‘वाद कारण’ और ‘पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही और लोकहित में कार्यवाही की व्यापक धारणा ने ले लिया है। ऐसे मामले व्यक्तिगत मामलों से भिन्न होते हैं। वैयक्तिक मामलों में ‘वादी’ और ‘प्रतिवादी होते हैं, जब कि जनहित संरक्षण से सम्बन्धित मामले किसी एक व्यक्ति के बजाय ऐसे समूह के हितों की रक्षा पर बल देते हैं जो कि शोषण और अत्याचार का शिकार होता है और जिसे संवैधानिक और मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने गरीब और असहाय लोगों की ओर से जनहित में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मुकदमा लड़ने का अधिकार दे दिया है। इस प्रकार के मुकदमे के लिए जो . प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया जाता है, वह जनहित याचिका’ है तथा इस प्रकार का मुकदमा जनहित अभियोग है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व

जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नलिखित रूप में बताया जा सकता है –

1. समाज के निर्धन व्यक्तियों और कमजोर वर्गों को न्याय प्राप्त होना – भारत में करोड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो राजव्यवस्था और समाज के धनी-मानी व्यक्तियों के अत्याचार भुगत रहे हैं, जिनका शोषण हो रहा है, लेकिन उनके पास न्यायालय में जाने के लिए आवश्यक जानकारी, समझ और साधन नहीं हैं। जनहित याचिकाओं के माध्यम से अब समाज के शिक्षित और साधन सम्पन्न व्यक्ति इन कमजोर वर्गों की ओर से न्यायालय में जाकर इनके लिए न्याय प्राप्त कर सकते हैं। जनहित याचिकाओं की विशेष बात यह है कि ‘वाद’ प्रस्तुत करने के लिए कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना आवश्यक नहीं होता और इन मुकदमों में न्यायालय पीड़ित पक्ष के लिए आवश्यकतानुसार नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था भी करता है।

2. कानूनी न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल – जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत संविधान की भावना को दृष्टि में रखते हुए इस विचार को अपनाया गया कि देश के दीन और दलित जनों के प्रति न्यायालयों का विशेष दायित्व है। अतः इन न्यायालयों को कानूनी न्याय से आगे बढ़कर आर्थिक-सामाजिक न्याय प्रदान करने का प्रयत्न करना चाहिए। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के हरिजनों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं उनकी आर्थिक-सामाजिक दशाओं को जाँचने के लिए एक आयोग गठित किया आयोग की जाँच रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हरिजनों का धन्धा ठेके पर दिये जाने से उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में इस बात का प्रतिपादन किया कि यदि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दी जाती है तो इसे संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन और बेगार मानेंगे। इस प्रकार बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार’ विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बँधुआ मुक्ति मोर्चा संस्था के पत्र को रिट मानकर आयोग नियुक् कर जाँच करवाई और जाँच में जब पाया कि ‘मजदूर अमानवीय दशा में कार्यरत हैं तब न्यायालय ने इन मजदूरों की मुक्ति के आदेश दिये।

3. शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण – जनहित याचिकाओं का एक रूप और प्रयोजन शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण है। संविधान और कानून के अन्तर्गत उच्च कार्यपालिका अधिकारियों को कुछ ‘स्वविवेकीय शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। इस पृष्ठभूमि में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का प्रतिपादन किया कि विवेकात्मक शक्तियों के अन्तर्गत सरकार की कार्यवाही विवेक सम्मत होनी चाहिए तथा इस कार्यवाही को सम्पन्न करने के लिए जो कार्यविधि अपनायी जाए, वह कार्यविधि भी विवेक सम्मत, उत्तम और न्यायपूर्ण होनी चाहिए।

4. शासन को आवश्यक निर्देश देना – 1993-2003 के वर्षों में तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर समस्त राजनीतिक व्यवस्था में पहले से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्राप्त कर ली। इन न्यायालयों ने जब यह देखा कि जाँच एजेन्सियाँ उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध जाँच कार्य में ढिलाई बरत रही हैं तब न्यायालयों ने विभिन्न जाँच एजेन्सियों को अपना कार्य ठीक ढंग से करने के लिए निर्देश दिये और इस बात का प्रतिपादन किया कि व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो, कानून उससे ऊपर है’ तथा सरकारी एजेन्सी को अपना कार्य निष्पक्षता के साथ करना चाहिए। पिछले 20 वर्षों में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायालयों ने बन्धुआ मजदूरी और बाल श्रम की स्थितियाँ समाप्त करने, कानून और व्यवस्था बनाये रखते हुए निर्दोष नागरिकों के जीवन की रक्षा करने, प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी संविधान के प्रावधान को अनिवार्य रूप से लागू करने, बस दुर्घटनाओं को रोकने की दृष्टि से व्यवस्था करने, सफाई की व्यवस्था कर महामारियों की रोकथाम करने, सरसों के तेल और अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने और पर्यावरण की रक्षा आदि के प्रसंग में समय-समय पर अनेक आदेश-निर्देश जारी किये हैं।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 6 Judiciary (न्यायपालिका) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 6 Judiciary (न्यायपालिका), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 5 Legislature

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 5 Legislature (विधायिका)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Political Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 5 Legislature (विधायिका).

पाठ्य पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे। अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रिगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर-
आधुनिक व कल्याणकारी राज्यों में विधायिका के गठन के बिना जनता द्वारा प्रधानमंत्री व मंत्रिमण्डल का चुनाव असम्भव है। जहाँ अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है वहाँ भी राज्यों के आकार बड़े होने के कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा है कि मंत्रियों और राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाए। प्राचीनकाल में राजतन्त्र में भी राजा को विभिन्न विषयों पर परामर्श प्रदान करने के लिए ‘सभा’ या ‘समिति’ होती थी। अतः यह आवश्यक है कि राज्य में एक सभा हो जिसमें विभिन्न विषयों पर चर्चा हो, बहस हो व मतदान हो और निर्णय लिए जा सकें। इस सभा को ही सरकार के गठन का अधिकार सौंपा जाए, जिससे सँरकार, इस सभा के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी हो। संसदीय प्रणाली में तो यह अत्यन्त आवश्यक है। संसद विभिन्न तरीकों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण करती है।

लोककल्याण के उद्देश्य को प्राप्त करने में संसद बाधा नहीं है। लोककल्याणकारी लोकतन्त्रात्मक सरकार एक ऐसी सरकार है जिसमें चर्चा, वाद-विवाद, विचार-विमर्श अत्यन्त आवश्यक हैं जो केवल संसद में ही सम्भव है। संसद में ही कानून बनाने के लिए चर्चा होती है, उसके सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है, बजट पास किया जाता है, मंत्रियों और सरकार के सदस्यों से प्रश्न पूछे जाते हैं और आलोचना की जाती है, संविधान में संशोधन किए जाते हैं। स्पष्ट है कि देश के लिए कारगर सरकार की जरूरत संसद ही पूरा कर सकती है।

प्रश्न 2.
किसी कक्षा में द्वि-सदनीय प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आईं। इन तर्को को पढ़िए और इनसे अपनी सहमति-असहमति के कारण बताइए-
(क) नेहा ने कहा कि द्वि-सदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
(ख) शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
(ग) त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
उत्तर-
नेहा द्वारा कहे गए कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता। जहाँ द्वि-सदनीय प्रणाली है वहाँ दूसरा सदन कमजोर नहीं होता। कहीं उसकी शक्तियाँ कम हो सकती हैं पर वह निरर्थक नहीं हो सकता। भारत की राज्यसभा कुछ क्षेत्रों में विशेष शक्तियाँ रखती है। ब्रिटेन को लॉर्ड सदने गरिमा व परम्परा का प्रतीक है। अमेरिका के सीनेट अनेक क्षेत्रों में निचले सदन अर्थात् प्रतिनिधि सदन में भी अधिक शक्तिशाली है।
सामान्य रूप से उच्च सदन के निम्नलिखित लाभ हैं-

  1. उच्च सदन निम्न सदन की मनमानी पर नियन्त्रण रखता है।
  2. निम्न सदन द्वारा पारित बिलों को उच्च सदन पुनः विचार-विमर्श का अवसर प्रदान करता है।
  3. जनमत-निर्माण में सहायक होता है।
  4. संघीय प्रणाली में द्वितीय सदन आवश्यक है।
  5. विशिष्ट वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है।

शमा का यह तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए, उचित है। अधिकांश देशों में उच्च सदन में योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। ब्रिटेन के लॉर्ड सदन में विशिष्ट वर्ग व पृष्ठभूमि के सदस्यों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है। इसी प्रकार भारत व अमेरिका में भी अनुभवी, योग्य और विशेष योग्यता वाले सदस्यों को इन सदनों में प्रतिनिधित्व दिया जाता है। त्रिदेव का यह तर्क भी सही है कि जिन राज्यों में संघीय प्रणाली नहीं है वहाँ दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती, परन्तु यदि दूसरा सदन होता तो उसकी कुछ उपयोगिता अवश्य होती।

प्रश्न 3.
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियन्त्रण में रख सकती है?
उत्तर-
भारत में कार्यपालिका अपने कार्यों तथा शासन के प्रयोग के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी है, परन्तु यह उत्तरदायित्व वास्तव में लोकसभा के प्रति है जो उस पर राज्यसभा के मुकाबले अधिक प्रभावकारी नियन्त्रण रखती है। इसके कारण निम्नलिखित हैं-
1. प्रधानमंत्री और अधिकतर मंत्री लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल से लिए जाते हैं, राज्यसभा में बहुमत प्राप्त दल से नहीं और वे लोकसभा के प्रति ही वास्तविक रूप से उत्तरदायी होते हैं।
2. धन विधेयक तथा बजट को पारित करने की शक्ति लोकसभा को प्राप्त है। लोकसभा का धन पर नियन्त्रण होने से कार्यपालिका पर भी नियन्त्रण स्थापित हो जाता है।
3. धन विधेयक और बजट; मंत्री ही प्रस्तुत करते हैं और यदि लोकसभा उसे रद्द कर दे या उसमें कमी कर दे तो मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देना पड़ता है।
4. मंत्रिमण्डल उस समय तक ही अपने पद पर रहता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त है। केवल लोकसभा मंत्रिमण्डल को अविश्वास प्रस्ताव पास करके अपदस्थ कर सकती है, राज्यसभा नहीं।

प्रश्न 4.
लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियन्त्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
उत्तर-
लोकसभा जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है, यह कथन उचित है। लोकसभा 543 प्रतिनिधियों को सदन है, ये सदस्य 100 करोड़ से अधिक भारतीय जनता की इच्छाओं, हितों, भावनाओं व अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु इस कार्य को करने के लिए लोकसभा के सदस्यों का सरकार पर नियन्त्रण करना भी अत्यन्त आवश्यक है। सरकार की मनमानी पर नियन्त्रण रखना, जनता के हितों, इच्छाओं व आवश्यकताओं को सरकार तक पहुँचाना भी लोककल्याण की दृष्टि से आवश्यक है। अन्ततः संसद का कार्य जनता के हितों की रक्षा करना ही है।

प्रश्न 5.
नीचे संसद को ज्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दण्डित कर सकें।
उत्तर-
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए-हम इससे पूर्ण सहमत हैं। जब भी सदन की बैठक 4 घण्टे से कम चले तो सदस्यों को उस दिन का भत्ता न दिया जाए। सांसद को बिना काम-काज के भत्ता दिया जाना उचित नहीं है, यह आम-आदमी की जेब पर डाका है। यदि संसद अपेक्षाकृत अधिक समय तक काम करेगी तो देश के विकास कार्य नियत समय पर पूर्ण हो सकेंगे।

(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए-हम इससे पूर्ण सहमत हैं। अधिकांश सांसद सदन से अनुपस्थित रहते हैं जिससे सदन में महत्त्वपूर्ण विषयों पर आवश्यक विचार-विमर्श नहीं हो पाता। इसलिए ऐसा नियम बनाया जाए कि संसद के सदस्य सदन में अनिवार्य रूप से उपस्थित हों।

(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दण्डित कर सके-हमें इससे पूर्ण सहमत हैं। ऐसा होने पर सदन में जो सदस्य उद्दण्डता का व्यवहार करते हैं उन पर अंकुश लगेगा और सदन की कार्यवाही निर्बाध रूप से चलती रहेगी।

प्रश्न 6.
आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्त्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अकसर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे?
उत्तर-
आरिफ का मानना सही है कि संसदीय प्रणाली में अधिकांश बिल सरकारी बिल होते हैं, जिन्हें मंत्री ही तैयार करते हैं व मंत्री ही उसे प्रस्तुत करते हैं। इस स्थिति में व्यावहारिक रूप से यह स्थिति दिखाई देती है कि संसद तो केवल उस बिल पर स्टैम्प लगाने वाली संस्था बन गई है जिन्हें मंत्री प्रस्तुत करते हैं। आरिफ के इस विचार में कुछ सच्चाई अवश्य है परन्तु इसका एक पक्ष यह भी है कि सरकार बनने के बाद सदन कार्यपालिका व विधायिका में बँट जाता है।

विधायिका के सदस्यों का यह दायित्व होता है कि वे सदन में जनहित का दृष्टिगत रखकर सरकार के निर्णयों का समर्थन करें अथवा विरोध करें, भले ही वे किसी भी दल के हों। कार्यपालिका पूरे सदन के लिए जिम्मेदार होती है। सत्ता दल के सदस्य या विरोधी दल के सदस्य सभी विधानपालिका के सदस्य होते हैं। कार्यपालिका में मंत्री व प्रधानमंत्री सम्मिलित होते हैं; अत: संसद केवल एक रबड़ स्टैम्प ही नहीं है। शासक दल के सदस्य सरकार की प्रत्येक सही व गलत बात का समर्थन करेंगे ऐसा नहीं है, क्योंकि उनकी भी संसद सदस्यों के रूप में अपनी विशिष्ट भूमिका है।

प्रश्न 7.
आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण
(क) सांसद/विधायकों को अपनी पसन्द की पार्टी में शामिल होने की छुट होनी चाहिए।
(ख) दल-बदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी क सांसद/विधायकों पर बढ़ा है।
(ग) दल-बदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री-पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
उत्तर-
हम कथन (ग) से पूर्ण सहमत हैं। दल-बदल अधिकांशतः सभी राजनीतिक दलों द्वारा किया गया स्वार्थाधारित कार्य है। ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जहाँ सिद्धान्तों के मतभेद के कारण दल-बदल हुआ हो। भारत में दल-बदल को नियन्त्रित करने के लिए कई प्रयास किए गए। दल-बदल निरोधक कानून’ इस दिशा में एक प्रभावकारी कदम था परन्तु इससे भी दल-बदल घाटा नहीं बल्कि इससे और अधिक बढ़ा। अतः यह सुझाव उचित है कि दल-बदल को रोकने के लिए कोई कठोर दण्ड अवश्य निर्धारित किया जाना चाहिए। दण्ड का यह सुझाव भी उचित है कि जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।

प्रश्न 8.
डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही है कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी हैं, धराशायी हुई है। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन-सा तर्क देंगे?
उत्तर-
डॉली का तर्क उचित है कि सदन का बहुमूल्य समय व्यर्थ की बहस व गतिविधियों में नष्ट हो जाता है तथा उपयोगी कार्य कम हो पाते हैं। संसद के वातावरण व कार्यविधि में गिरावट आई है जिससे संसद की गरिमा को भी धक्का लगा है। आए दिन संसद में गैर-संसदीय भाषा का प्रयोग होता रहता है। और शोर-शराबे में किसी की नहीं सुनी जाती। सदन के अध्यक्ष प्रायः असहाय से दिखाई देते हैं। बहुत छोटी-छोटी बातों पर सदन का बहिष्कार किया जाता है। सदन का माहौल गर्म हो जाता है। कई बार आपस में गुत्थम-गुत्था भी हो जाती है। इस सब के होते संसद के प्रभाव व गरिमा में गिरावट आई है। यह एक गम्भीर विषय है।

सुधा का कथन भी सही है कि बार-बार सरकारें गिरती रहती हैं अर्थात् जिस सरकार का संसद में बहुमत समाप्त हो जाता है वह सरकार गिर जाती है परन्तु यह संसदीय लोकतन्त्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। यह भी संसद की गिरती गरिमा का परिचायक है।

प्रश्न 9.
किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है- बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करता/करती है, तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिसे सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है। और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि मन्त्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
उत्तर-
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा ” के लिए सदन में भेज देती है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, अगर राष्ट्रपति इस पर हस्ताक्षर कर देता है। तो यह कानून बन जाता है। राष्ट्रपति इस प्रकार के बिल को पुनः विचार-विमर्श के लिए भेज सकता है, परन्तु पुनः विचार-विमर्श के बाद राष्ट्रपति को बिल पर स्वीकृति देनी पड़ती है।

प्रश्न 10.
संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-
कानून-निर्माण संसद का काम है और प्रत्येक सदन अपनी समितियों की सहायता से उसे निभाता है। प्रायः बिलों को विस्तृत विचार के लिए किसी समिति को सौंपा जाता है और सदन उस समिति की सिफारिशों के आधार पर उस पर विचार करके उसे पास या अस्वीकृत करता है। अधिकतर मामलों में सदन समिति की सिफारिशों के आधार पर ही उसका निर्णय करता है और इसी आधार पर लोगों का मत है कि इससे संसद की कानून बनाने की शक्ति कुप्रभावित हुई है।

परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। संसद के पास इतना समय नहीं होता कि वह प्रत्येक बिल पर, उसकी प्रत्येक धारा पर विचार कर सके और उस पर प्रत्येक दृष्टिकोण से विश्लेषण कर सके। अत: बिल की विस्तृत समीक्षा समिति अवस्था में ही हो जाती है जो सदन को उस पर विस्तार से विचार करने और निर्णय करने में सहायक होती है। यह आवश्यक नहीं है कि संसद प्रत्येक बिल पर समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करे। सदन में समिति की रिपोर्ट पर विचार करते समय यदि सदन अनुभव करे कि बिल पर भली-भाँति विचार नहीं हुआ है या उस पर पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट दी गई है तो वह उसे उसी समिति या किसी नई समिति को भेज सकता है, समिति की रिपोर्ट को स्वीकार न करके अपना स्वतन्त्र निर्णय भी ले सकता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संसद में कितने सदन हैं?
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) एक
उत्तर :
(क) दो।

प्रश्न 2.
लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए न्यूनतम आयु होनी चाहिए?
(क) 21 वर्ष
(ख) 25 वर्ष
(ग) 28 वर्ष
(घ) 30 वर्ष
उत्तर :
(ख)25 वर्ष

प्रश्न 3.
किसके परामर्श पर राष्ट्रपति लोकसभा को भंग कर सकता है।
(क) मुख्यमंत्री
(ख) राज्यपाल
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) लोकसभा अध्यक्ष
उत्तर :
(ग) प्रधानमंत्री।

प्रश्न 4.
लोकसभा और राज्यसभा के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमंत्री
(ग) उपराष्ट्रपति
(घ) लोकसभा का अध्यक्ष
उत्तर :
(घ) लोकसभा का अध्यक्ष।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस पर राज्यसभा और लोकसभा को समान अधिकार प्राप्त हैं?
(क) वित्त विधेयक पारित करना
(ख) राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाना
(ग) अध्यादेश जारी करना
(घ) राष्ट्रपति के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पारित करना
उत्तर :
(ख) राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाना।

प्रश्न 6.
विधायिका का कार्य नहीं है –
(क) कानून बनाना
(ख) बजट पास करना
(ग) कार्यपालिका पर नियन्त्रण रेखना
(घ) बजट बनाना
उत्तर :
(घ) बजट बनाना।

प्रश्न 7.
विधायिका की शक्ति में ह्रास का कौन-सा तत्त्व नहीं है?
(क) प्रदत्त विधायी शक्तियाँ
(ख) नौकरशाही का प्रभुत्व
(ग) दलीय अनुशासन
(घ) जागरूक जनमत
उत्तर :
(घ) जागरूक जनमत।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित राज्यों में से किसमें द्वि-सदनात्मक व्यवस्था है?
(क) मध्य प्रदेश
(ख) आन्ध्र प्रदेश
(ग) छत्तीसगढ़
(घ) उत्तर प्रदेश
उत्तर :
(घ) उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 9.
भारत की राष्ट्रीय विधायिका का नाम है –
(क) राज्यसभा
(ख) लोकसभा
(ग) संसद
(घ) विधानसभा
उत्तर :
(ग) संसद

प्रश्न 10.
राज्यसभा में केवल एक सीट किस राज्य को दी गई है?
(क) मध्य प्रदेश
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) सिक्किम
(घ) झारखण्ड
उत्तर :
(ग) सिक्किम।

प्रश्न 11.
राज्यसभा में किस राज्य की सर्वाधिक सीटें हैं?
(क) उत्तर प्रदेश
(ख) आन्ध्र प्रदेश
(ग) महाराष्ट्र
(घ) गोवा
उत्तर :
(क) उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 12.
राज्यसभा के सदस्यों को कितने वर्ष के लिए निर्वाचित किया जाता है?
(क) 6 वर्ष
(ख) 7 वर्ष
(ग) 5 वर्ष
(घ) 4 वर्ष
उत्तर :
(क) 6 वर्ष

प्रश्न 13.
भारतीय संसद में कितनी स्थायी समितियाँ हैं?
(क) 25
(ख) 20
(ग) 21
(घ) 24
उत्तर :
(क) 25

प्रश्न 14.
जर्मनी के बुन्देसरैट में कितने संघीय राज्यों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है?
(क) 16
(ख) 17
(ग) 18
(घ) 20
उत्तर :
(क) 16

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संसद के सदनों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारतीय संसद में दो सदन हैं –

  1. उच्च सदन – राज्यसभा तथा
  2. निम्न सदन – लोकसभा।

प्रश्न 2.
राज्यसभा का अध्यक्ष अथवा सभापति कौन होता है?
उत्तर :
राज्यसभा का अध्यक्ष अथवा सभापति भारत का उपराष्ट्रपति होता है। उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करती है।

प्रश्न 3.
राज्यसभा में कितने सदस्य किसके द्वारा मनोनीत हो सकते हैं?
उत्तर :
राज्यसभा में 12 सदस्य, राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं।

प्रश्न 4.
राज्यसभा का कार्यकाल कितने वर्ष का होता है?
उत्तर :
राज्यसभा एक स्थायी संगठन है। इसके सदस्यों की पदावधि 6 वर्ष है और इसके एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष पश्चात् पदमुक्त होते रहते हैं।

प्रश्न 5.
राज्यसभा में अधिक-से-अधिक कितने सदस्य हो सकते हैं?
उत्तर :
राज्यसभा में अधिक-से-अधिक 250 सदस्य हो सकते हैं।

प्रश्न 6.
राज्यसभा में वर्तमान में कितने सदस्य हैं?
उत्तर :
राज्यसभा में वर्तमान में 245 सदस्य हैं।

प्रश्न 7.
लोकसभा का कार्यकाल कितना है?
उत्तर :
सामान्यतया लोकसभा का कार्यकाले 5 वर्ष होता है। संकटकाल में इस अवधि को संसद एक वर्ष के लिए बढ़ा भी संकती है तथा प्रधानमंत्री के परामर्श पर राष्ट्रपति इसे निर्धारित अवधि से पूर्व भंग भी कर सकता है।

प्रश्न 8.
लोकसभा में अधिक-से-अधिक कितने सदस्य हो सकते हैं?
उत्तर :
लोकसभा में अधिक-से-अधिक (550 + 2 मनोनीत एंग्लो इण्डियन =) 552 सदस्य हो सकते हैं।

प्रश्न 9.
लोकसभा में कितने सदस्य नामित (मनोनीत) किए जा सकते हैं?
उत्तर :
लोकसभा में दो एंग्लो-इण्डियन सदस्य नामित किए जा सकते हैं।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद के किस सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है?
उत्तर :
भारतीय संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता

प्रश्न 11.
संसद के दो कार्य लिंखिए।
उत्तर :
संसद के दो कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. कानूनों का निर्माण करना तथा
  2. संघ सरकार का बजट पारित करना।

प्रश्न 12.
‘वित्त विधेयक’ किसे कहते हैं?
उत्तर :
धन सम्बन्धी विधेयक को ‘वित्त विधेयक’ कहते हैं।

प्रश्न 13.
संसद के किस सदन में वित्त विधेयक (धन विधेयक) प्रस्तावित किया जा सकता है?
उत्तर :
धन विधेयक पहले केवल लोकसभा में प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रश्न 14.
वित्त विधेयक और साधारण विधेयक प्रस्तुत करने की प्रक्रिया में कोई एक अन्तर बताइए।
उत्तर :
वित्त विधेयक केवल मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं, जबकि साधारण विधेयक संसद का कोई भी सदस्य सदन में प्रस्तुत कर सकता है।

प्रश्न 15.
संसद के अधिवेशन को कौन आहूत करता है?
उत्तर :
संसद के अधिवेशन को राष्ट्रपति आहूत करता है।

प्रश्न 16.
संसद के दो सत्रों में अधिकतम कितने समय का अन्तर हो सकता है?
उत्तर :
संसद के दो सत्रों में अधिकतम 6 माह का अन्तर हो सकता है।

प्रश्न 17.
लोकसभा द्वारा मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण रखने की एक प्रभावकारी विधि बताइए।
उत्तर :
लोकसभा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकती है, यह भय उस पर नियन्त्रण का कार्य करता है।

प्रश्न 18.
भारतीय संसद के दोनों सदनों में कौन अधिक शक्तिशाली है?
उत्तर :
भारतीय संसद के दोनों सदनों में लोकसभा अधिक शक्तिशाली है, क्योंकि उसे विधायी तथा कार्यपालिका क्षेत्र में राज्यसभा से अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं।

प्रश्न 19.
भारत के किन राज्यों में द्वि-सदनात्मक विधायिका है?
उत्तर :
बिहार, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश एवं आन्ध्र प्रदेश में द्वि-सदनात्मक विधायिका है।

प्रश्न 20.
जर्मनी की द्वि-सदनात्मक विधायिका को क्या कहा जाता है?
उत्तर :
जर्मनी में द्वि-सदनात्मक विधायिका है। दोनों सदनों को बुन्देस्टैग (फेडरल एसेम्बली) और बुन्देसरैट (फेडरल कौन्सिल) कहते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विधानसभा, मंत्रिपरिषद् पर किस प्रकार नियन्त्रण रखती है?
उत्तर :
संसदात्मक शासन-व्यवस्था में कार्यपालिको (मंत्रिपरिषद्) अपने समस्त कार्यों एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्वों के लिए प्रत्यक्ष रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से जनता के प्रति भी उत्तरदायी होती है। इस उत्तरदायित्व के अनुसरण में विधानसभा; मन्त्रिपरिषद् पर अपना प्रभावकारी नियन्त्रण स्थापित करती है। विधानसभा; मन्त्रिपरिषद् पर निम्नलिखित तरीकों के आधार पर नियन्त्रण रखती है –

  1. मंत्रियों से उनके विभाग सम्बन्धी प्रश्न तथा पूरक-प्रश्न पूछकर।
  2. मंत्रिमण्डल के विरुद्ध निन्दा प्रस्ताव पारित करके।
  3. स्थगन प्रस्ताव के आधार पर।
  4. काम रोको प्रस्ताव द्वारा।
  5. अविश्वास प्रस्ताव द्वारा।

प्रश्न 2.
साधारण विधेयक तथा धन विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया के प्रमुख अन्तर लिखिए।
उत्तर :
जिन विधेयकों का सम्बन्ध धन से होता है, उन्हें धन विधेयक कहा जाता है तथा जिन विधेयकों का सम्बन्ध धन से नहीं होता है, उन्हें साधारण विधेयक कहा जाता है। धन विधेयक, साधारण विधेयकों से अनेक बातों में भिन्न है; जैसे –

  1. धन विधेयकों का लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा प्रमाणित होना आवश्यक है, जबकि साधारण विधेयकों के लिए यह आवश्यक नहीं है।
  2. धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व-अनुमति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं किए जा सकते, जबकि साधारण विधेयकों के लिए यह आवश्यक नहीं है।
  3. धन विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तुत किए जाते हैं, जबकि साधारण विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
  4. राज्यसभा धन विधेयक को अस्वीकृत नहीं करती है, वह उसे केवल 14 दिनों तक अपने पास रोक सकती है, जबकि साधारण विधेयक के बारे में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं होती है।

प्रश्न 3.
लोकसभा के सदस्यों के विशेषाधिकारों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
उत्तर :
लोकसभा के सदस्यों को निम्नलिखित विशेषाधिकार प्राप्त हैं –

  1. भाषण की स्वतन्त्रता – लोकसभा के प्रत्येक सदस्य को स्वतन्त्रतापूर्वक भाषण देने का अधिकार प्राप्त है। उसके भाषण के विरुद्ध न्यायालय में किसी भी प्रकारे का अभियोग नहीं लगाया जा सकता।
  2. भाषण और विचारों को प्रकाशित करने का अधिकार – लोकसभा में दिए गए भाषण, तर्क-वितर्क अथवा रिपोर्ट को वह स्वयं प्रकाशित कर सकता है।
  3. गिरफ्तारी से मुक्ति – अधिवेशन के दिनों में तथा अधिवेशन के 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक किसी दीवानी मुकदमे के कारण किसी सदस्य को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

आपराधिक अभियोजना के सम्बन्ध में ऐसी गिरफ्तारियों से सम्बन्धित निर्णय लोकसभा अध्यक्ष का होता है।

प्रश्न 4.
संसद के गिरते हुए स्तर पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
संसद के गिरते हुए स्तर के विभिन्न कारण निम्नलिखित हैं –

  1. पिछले 10-15 वर्षों से संसद के स्तर में तेजी से गिरावट आई है। संसद में आपराधिक प्रवृत्ति के लोग बड़ी संख्या में चुनाव जीतकर आ रहे हैं।
  2. मुख्य कार्य जिसमें अधिकतर सांसद व्यस्त रहते हैं, वह है धन अर्जित करना। चुनाव जीतने के पश्चात् वे चुनाव में हुए खर्च की भरपाई करने में व्यस्त हो जाते हैं।
  3. अपने मन्त्रालयों से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर जब मंत्री सन्तोषजनक ढंग से नहीं दे पाते हैं तो भी उनका उत्तरदायित्व निर्धारित नहीं किया जाता है, न ही वे किसी रूप में दण्डित किए जाते हैं।
  4. जब कभी कोई ज्वलन्त समस्या सामने आती है तो संसद को विश्वास में नहीं लिया जाता है।
  5. कुछ मंत्री तो उस समय संसद में उपस्थित ही नहीं होते जब उनके मन्त्रालयों से सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार होता है।

प्रश्न 5.
राज्यसभा व लोकसभा किन क्षेत्रों में बराबर की शक्तियाँ रखती हैं?
उत्तर :
राज्यसभा व लोकसभा के कार्यों की अगर हम तुलना करें तो स्पष्ट होता है कि कुछ क्षेत्रों में लोकसभा, राज्यसभा के मुकाबले अधिक शक्तिशाली है। कुछ क्षेत्रों में राज्यसभा की अपनी विशेष शक्तियाँ हैं परन्तु कुछ क्षेत्रों में लोकसभा व राज्यसभा की बराबर की शक्तियाँ हैं। ये क्षेत्र निम्नलिखित हैं।

  1. विचार-विमर्श, विभिन्न विषयों पर चर्चा व जनमत-निर्माण में लोकसभा व राज्यसभा की बराबर की शक्तियाँ हैं।
  2. संविधान संशोधन के क्षेत्र में भी दोनों सदनों की बराबर की शक्तियाँ हैं। जब तक संविधान संशोधन बिल दोनों सदनों से अलग-अलग पास नहीं हो जाता तब तक संविधान संशोधन लागू नहीं हो सकता।
  3. चुनाव के क्षेत्र में दोनों सदनों की बराबर की शक्तियाँ हैं। राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के चुनाव में दोनों सदन भाग लेते हैं।
  4. न्यायिक क्षेत्र में दोनों सदनों की शक्तियाँ समान हैं।

प्रश्न 6.
अविश्वास प्रस्ताव पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :

अविश्वास प्रस्ताव

मंत्रिपरिषद् संसद के निम्न सदन (लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के विश्वास पर ही अपने पद पर बनी रह सकती है। यदि लोकसभा यह अनुभव करती है कि सरकार अपने प्रशासनिक दायित्वों का संचालन समुचित रूप से नहीं कर रही है तो लोकसभा के सदस्य सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रख सकते हैं। यह प्रस्ताव प्रायः विपक्ष के सदस्यों द्वारा रखा जाता है। अविश्वास का प्रस्ताव लोकसभा के अध्यक्ष (Speaker) की अनुमति के पश्चात् सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इस पर सदन में सत्ता पक्ष तथा विपक्षी सदस्यों द्वारा विस्तृत चर्चा की जाती है। इस विस्तृत चर्चा के उपरान्त उस पर मतदान किया जाता है। यदि सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव सदन में बहुमत से पारित हो जाता है तो प्रधानमंत्री सहित सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् को तुरन्त अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ती है।

प्रश्न 7.
लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्यों के निर्वाचन में क्या अन्तर है?
उत्तर :
ससंद के दो सदन हैं। राज्यसभा उच्च सदन है, जो राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है तथा लोकसभा निम्न सदन है, जो सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करता है। लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्यों के निर्वाचन में अग्रलिखित अन्तर हैं –

  1. राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है, जबकि लोकसभा के सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष विधि से होता है।
  2. राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन राज्यों, संघशासित प्रदेशों (क्षेत्रों) की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य करते हैं, जबकि लोकसभा के सदस्य सामान्य मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं।
  3. लोकसभा का निर्वाचन, निर्वाचन की बहुमत प्रणाली के आधार पर होता है, जबकि राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की एकल संक्रमणीय मत-पद्धति के आधार पर होता है।
  4. लोकसभा के सदस्य निर्वाचित होने की न्यूनतम आयु 25 वर्ष है, जबकि राज्यसभा के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष है।

प्रश्न 8.
लोकसभा राज्यसभा से शक्तिशाली क्यों है?
उत्तर :
लोकसभा निम्नलिखित कारणों से राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है –

  1. लोकसभा में वित्त विधेयक पहले प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जबकि राज्यसभा में ऐसा नहीं होता है।
  2. साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में दोनों सदनों की शक्ति समान है, परन्तु दोनों सदनों में मतभेद होने पर उनके संयुक्त अधिवेशन में निर्णय लिया जाता है। लोकसभा की सदस्य संख्या राज्यसभा की सदस्य संख्या से अधिक होने के कारण अन्तिम निर्णय लोकसभा के पक्ष में ही होता है।
  3. लोकसभा केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे अपदस्थ कर सकती है, जबकि राज्यसभा को यह अधिकार प्राप्त नहीं है।

प्रश्न 9.
राज्यसभा किस प्रकार एक स्थायी सदन है?
उत्तर :
राज्यसभा भारतीय संसद का उच्च सदन है। इसके सदस्य राज्यों की विधानसभाओं द्वारा चुने जाते हैं। यह स्थायी सदन है जिसका अस्तित्व निरन्तर बना रहता है। इसका स्थायी सदन होना निम्नलिखित तथ्यों द्वारा पुष्ट होता है –

  1. राज्यसभा को राष्ट्रपति विघटित नहीं कर सकता। इसके सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद सेवानिवृत्त होते हैं।
  2. राज्यसभा के सभी सदस्यों का चुनाव एक साथ नहीं होता और न ही वे एक साथ अपने पद का त्याग करते हैं।
  3. इसके एक-तिहाई सदस्य हर दो वर्ष पश्चात् सेवानिवृत्त हो जाते हैं जिसका अर्थ है कि प्रत्येक 2 वर्ष पश्चात् इसके 1/3 स्थानों पर ही पुनः चुनाव होता है।
  4. इस प्रकार इसके कम-से-कम 2/3 सदस्य हर समय पद पर रहते हैं और 1/3 पद भी केवल कुछ समय के लिए रिक्त रह सकते हैं।
  5. इसमें हर समय 1/3 सदस्य चार वर्ष के अनुभव वाले और 1/3 सदस्य 2 वर्ष के अनुभव वाले : होते हैं।

प्रश्न 10.
दल-बदल क्या है? इसे रोकने के क्या उपाय किए गए हैं?
उत्तर :
भारतीय राजनीति में सर्वाधिक प्रचलित राजनीतिक खेल का नाम है-दल-बदल। इसे पक्ष परिवर्तन, एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाना, सदन में सरकारी दल छोड़कर विरोधी दल में मिल जाना, खेमा बदल लेना कुछ भी कह सकते हैं। दल-बदल रोकने के लिए सन् 1985 में संविधान का 52वाँ संशोधन किया गया। इसे दल-बदल निरोधक कानून’ कहते हैं। इसे बाद में 91वें संविधान संशोधन द्वारा पुनः संशोधित किया गया।

प्रश्न 11.
संसदीय समितियों की क्या उपयोगिता है?
उत्तर :
वर्तमाने में प्रायः समस्त देशों में विधानमण्डल अपने कार्यों को अधिक कुशलता तथा शीघ्रता से करने के लिए अनेक समितियों का प्रयोग करते हैं। इन समितियों की निम्नलिखित उपयोगिता है –

(1) वर्तमान में विधि-निर्माण का कार्य अत्यन्त जटिल एवं तकनीकी (Technical) हो गया है। विधानमण्डलों के सभी सदस्य इस कार्य में निपुण नहीं होते हैं। अतः विशेषज्ञों की समितियों द्वारा विधि-निर्माण कार्य अधिक सरलतापूर्वक किया जा सकता है।

(2) वर्तमान में विधानमण्डल के कार्य बहुत विस्तृत एवं व्यापक हो गए हैं। उसके पास इतना समय नहीं है कि प्रत्येक विधेयकों पर सूक्ष्मता से विचार कर सके। इस कार्य को वर्तमान में समितियाँ ही सम्पादित करती हैं।

(3) समितियाँ विभिन्न विधेयकों पर विस्तृत वाद-विवाद कर सकती हैं। वे सभी प्रकार के रिकॉर्डो को मँगवा सकती हैं, गवाहों को बुलवा सकती हैं और आवश्यक बातों की छानबीन भी कर सकती हैं। ये कार्य सदन में सम्भव नहीं हैं।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकसभा की संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
लोकसभा; संसद का निम्न सदन है। यह जनता का प्रतिनिधि सदन है। इसके सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होकर आते हैं। वर्तमान लोकसभा में सदस्यों की संख्या 543 है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति को एंग्लो-इण्डियन समुदाय के दो व्यक्तियों को मनोनीत करने का अधिकार है। लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए यह आवश्यक है कि –

  1. वह व्यक्ति भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।
  3. वह लोकसभा के किसी निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता हो और अन्य सभी अनिवार्य शर्तों को पूरा करता हो।

पागल, दिवालिया, विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त करने वाले, लाभकारी सरकारी पद के स्वामी तथा विधि द्वारा अयोग्य व्यक्ति लोकसभा के सदस्य नहीं बन सकते हैं।

संविधान द्वारा लोकसभा के निर्वाचन में प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार दिया गया है। भारत में वयस्क होने की आयु 18 वर्ष है। निर्वाचन के लिए सम्पूर्ण देश को 543 निर्वाचन क्षेत्रों में विभक्त कर दिया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र में जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, वह लोकसभा का सदस्य (सांसद) बन जाता है।

सामान्यतया लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष है। प्रधानमंत्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति इस काल की समाप्ति के पूर्व भी लोकसभा को भंग कर सकता है। संकटकालीन घोषणा की स्थिति में लोकसभा का कार्यकाल एक वर्ष और बढ़ाया जा सकता है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
राज्यसभा; संसद का उच्च सदन है। संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार, राज्यसभा में प्रतिनिधियों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है। इनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। वे 12 सदस्य ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनका साहित्य, विज्ञान, कला अथवा सामाजिक क्षेत्र में विशेष योगदान होता है। शेष सदस्य राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। वर्तमान राज्यसभा में कुल 245 सदस्य हैं, जिनमें से 233 निर्वाचित और 12 मनोनीत हैं।

राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए यह अनिवार्य है कि –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह कम-से-कम 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह देश के किसी भी क्षेत्र से मतदाता हो सकता है।

वह संसद द्वारा निर्धारित अन्य शर्तों को भी पूरी करता हो।

निर्वाचन – राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष विधि द्वारा किया जाता है। इनका चुनाव प्रत्येक राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा होता है। राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करते रहते हैं और उनके स्थान पर नए सदस्य चुन लिए जाते हैं। इस प्रकार इसके सदस्यों का निर्वाचन 6 वर्ष के लिए किया जाता है। भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन (ex-officio) सभापति होता है। उसे 4,00,000 प्रति माह वेतन, भत्ता तथा लोकसभा के अध्यक्ष के समान अन्य सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं। राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी एक को अपना उपसभापति चुनती है सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति ही सभापति का आसन ग्रहण करता है। वर्तमान में राज्यसभा के सभापति श्री एम० वेंकैया नायडू हैं।

प्रश्न 3.
आधुनिक राज्य में विधायिका के प्रमुख कार्य समझाइए।
उत्तर :
वर्तमान कल्याणकारी राज्यों में सरकार के कार्य, जिम्मेदारियाँ व चुनौतियाँ अत्यधिक बढ़ गई हैं जिसे पूरा करने का वैधानिक आधार विधायिका प्रदान करती है। इसके कार्यों को हम निम्नलिखित रूपों में बाँट सकते हैं –

  1. विचार-विमर्श, चर्चा व वाद-विवाद का मंच।
  2. जनमत-निर्माण का कार्य करना।
  3. कानून-निर्माण का कार्य करना।
  4. बजट पास करना और बजट पर नियन्त्रण।
  5. सरकार पर नियन्त्रण करना।
  6. विभिन्न पदों के लिए चुनाव कार्य करना।
  7. संविधान संशोधन का कार्य करना।
  8. न्यायिक कार्य करना।
  9. आपातकाल में कार्य करना।
  10. विविध कार्य।

प्रश्न 4.
राज्यसभा की क्या उपयोगिता है?
उत्तर :
लोकसभा और राज्यसभा के पारस्परिक सम्बन्धों से यह नहीं समझना चाहिए कि राज्यसभा एक निरर्थक संस्था है। राजयसभा को कुछ महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ भी प्राप्त हैं, जिसके कारण पायली ने कहा है, “राज्यसभा एक निरर्थक सदन अथवा विधि-निर्माण पर केवल रोक लगाने वाला सदन नहीं है। वास्तव में, राज्यसभा शासनतन्त्र को एक आवश्यकै अंग है, केवल दिखावे मात्र को सदन नहीं है। गोपालस्वामी आयंगर ने राज्यसभा की उपयोगिता के सम्बन्ध में कहा था, “संविधान के निर्माताओं का राज्यसभा के गठन का उद्देश्य यह था कि यह सदन महत्त्वपूर्ण मामलों पर सारगर्भित वाद-विवाद करे और उन बिलों को पारित करने में देरी करे, जो शीघ्रता से लोकसभा में पारित कर दिए जाते हैं।” राष्ट्रपति की संकटकालीन उद्घोषणा की स्वीकृति विशेष रूप से दोनों सदनों द्वारा प्राप्त होनी आवश्यक है। यदि घोषणा उस समय की गई हो जब लोकसभा विघटित हो गई हो तो उस समय घोषणा का राज्यसभा द्वारा स्वीकृत होना आवश्यक है। वह राष्ट्रपति पर महाभियोग लगा सकती है और न्यायालय के रूप में बैठकर अभियोग की जाँच कर सकती है।

प्रश्न 5.
क्या अनुशासनहीनता एवं अव्यवस्था के होते हुए भी भारतीय संसद को राष्ट्र की प्रतिनिधि सभा कहा जा सकता है?
उत्तर :
संसद में अनुशासनहीनता एवं अव्यवस्था की घटनाओं के बाद भी भारतीय संसद राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। ये घटनाएँ संसद की अस्थायी घटनाएँ हैं, स्थायी विशेषताएँ नहीं। भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतन्त्रात्मक देश है और विगत 70 वर्षों से निरन्तर सफलता की ऊँचाइयों की ओर अग्रसर है। अब तक संसद के 14 आम चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं और स्वतन्त्र व निष्पक्ष रूप से हुए हैं। इनके कारण संसद के सदस्य समाज के सभी क्षेत्रों, वर्गों, धर्मों और समुदायों से चुने जाते हैं और संसद में अपना स्थान ग्रहण करते हैं और विचाराधीन विषयों पर विचार प्रकट करते हैं। संसद ही जनता का प्रतिनिधित्व करती है और राष्ट्र की प्रतिनिधि सभा कहलाने का अधिकार रखती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि संसद के सदस्य अपने आचरण से राष्ट्र का समय नष्ट करते हैं, जनता के धन का अपव्यय करते हैं और राष्ट्र तथा विश्व के समक्ष गलत आदर्श प्रस्तुत करते हैं, परन्तु यह भी लोकतन्त्र की एक विशेषता है और इसके द्वारा विपक्ष बहुमत की तानाशाही स्थापित नहीं होने देता और संसद कार्यपालिका पर अपना नियन्त्रण बनाए रखती है।

अनुशासन और अव्यवस्था की घटनाएँ हर रोज नहीं घटतीं और कभी-कभी की घटनाओं के आधार पर संसद के पूर्ण अस्तित्व को ही आलोचना का केन्द्र बनाना उचित नहीं है। संसद राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है, वह सरकार के तीनों अंगों में अधिक शक्तिशाली स्थिति अपनाए हुए है। यह राष्ट्रीय विकास में गति देने की भूमिका का भी निर्वाह करती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
व्यवस्थापिका के कार्यों का वर्णन कीजिए तथा इसका कार्यपालिका से सम्बन्ध बताइए।
या
व्यवस्थापिका के मुख्य कार्यों का उल्लेख कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के कार्यों की व्याख्या कीजिए। वर्तमान युग में व्यवस्थापिका के ह्रास के क्या कारण हैं?
या
व्यवस्थापिका के आधारभूत कार्यों का वर्णन कीजिए और संसदात्मक प्रणाली में इसकी विशिष्ट भूमिका पर भी प्रकाश डालिए।
या
व्यवस्थापिका का अर्थ तथा उसके कार्य बताइए। व्यवस्थापिका की महत्ता पर भी प्रकाश डालिए।
या
व्यवस्थापिका के संगठन पर प्रकाश डालिए तथा इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए और वर्तमान समय में व्यवस्थापिका की शक्तियों में क्लास के कारण बताइए।
उत्तर :

सरकार के प्रमुख अंग

सभी व्यक्तियों द्वारा सरकार को एक से अधिक अंगों में विभाजित करने की आवश्यकता अनुभव की गयी है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को व्यवस्थापन तथा शासन विभाग इन दो अंगों में विभाजित किया गया है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को 5 या 6 अंगों में विभाजित करने का प्रयत्न किया गया है, परन्तु सामान्य धारणा यही है कि प्रमुख रूप से सरकार के निम्नलिखित तीन अंग होते हैं—व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। व्यवस्थापिका कानून बनाने और राज्य की नीति को निश्चित करने का कार्य करती है, कार्यपालिका इन कानूनों को कार्यरूप में परिणत कर शासन का संचालन करती है और न्यायपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर न्याय प्रदान करने और संविधान की व्याख्या व रक्षा करने का कार्य करती है।

व्यवस्थापिका का अर्थ

व्यवस्थापिका सरकार का वह अंग है, जो राज्य प्रबन्ध चलाने के लिए कानूनों का निर्माण करता है, पुराने कानूनों का संशोधन करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें रद्द भी कर सकता है। व्यवस्थापिका को सरकार के अन्य अंगों से श्रेष्ठ माना जाता है; क्योंकि लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका लोगों की एक प्रतिनिधि सभा होती है। लॉस्की के शब्दों में, “कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की शक्तियों की सीमा व्यवस्थापिका द्वारा बतायी गयी इच्छा होती है।”

व्यवस्थापिका का संगठन

कानून-निर्माण और सरकार की नीति-निर्धारण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है। व्यवस्थापिका का संगठन दो रूपों में किया जा सकता है। व्यवस्थापिका या तो एक सदन हो सकता है। अथवा दो सदन। जिस व्यवस्थापिका में एक सदन होता है, उसे एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका और जिसमें दो सदन होते हैं, उसे द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका कहा जाता है द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन को निम्न सदन (Lower House) और द्वितीय सदन को उच्च सदन (Upper House) कहा जाता है। प्रथम सदन की शक्ति पर अंकुश रखने तथा उसके द्वारा किये गये कार्यों पर पुनर्विचार करने के लिए ही द्वितीय सदन की आवश्यकता अनुभव की गयी।

आधुनिक काल में अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका प्रणाली को ही अपनाया गया है। भारत, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में व्यवस्थापिका में दो सदन ही पाये जाते हैं, जबकि पुर्तगाल, ग्रीस, चीन, तुर्की आदि देशों में व्यवस्थापिका में केवल एक सदन है।

व्यवस्थापिका के कार्य

वर्तमान समय में लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका द्वारा निम्नलिखित प्रमुख कार्य सम्पादित किये जाते हैं –

1. कानून-निर्माण सम्बन्धी कार्य – विधायिका का महत्त्वपूर्ण कार्य विधि-निर्माण करना है। व्यवस्थापिका कानून का प्रारूप तैयार करती है, उस पर वाद-विवाद कराती है, प्रारूप में संशोधन कराती है तथा कानून को अन्तिम रूप देती है।

2. विमर्शात्मक कार्य एवं जनमत-निर्माण – व्यवस्थापिका के सदनों में जन-कल्याण से सम्बन्धित विभिन्न नीतियों और योजनाओं पर विचार-विमर्श होता है। व्यवस्थापिका राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श और वांछित सूचनाएँ प्रस्तुत कर जनमत का निर्माण करती है।

3. वित्त सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य राष्ट्र की वित्त-व्यवस्था पर नियन्त्रण रखना भी है। प्रजातान्त्रिक देशों में व्यवस्थापिका प्रत्येक वित्तीय वर्ष के आरम्भ में उस वर्ष के अनुमानित बजट को स्वीकृत करती है। इसकी स्वीकृति के बिना नये कर लगाने तथा आय-व्यय से सम्बन्धित कार्य नहीं किये जा सकते हैं।

4. न्याय सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका को न्याय-क्षेत्र में भी कुछ कार्य करने पड़ते हैं। भारत की संसद को उच्च कार्यपालिका के पदाधिकारियों पर महाभियोग लगाने और उनके निर्णय का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार उसे सदन की मानहानि की स्थिति में सदन को निर्णय देने एवं दोषी व्यक्ति को दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।

5. कार्यपालिका पर नियन्त्रण – प्रत्यक्ष रूप से व्यवस्थापिका प्रशासन में भाग नहीं लेती, लेकिन प्रशासन पर उसका नियन्त्रण निश्चित रूप से होता है। संसदात्मक शासन-प्रणाली में विधायिका प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर, अविश्वास, निन्दा, स्थगन तथा कटौती के प्रस्ताव रखकर, मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत किये गये विधेयकों तथा अन्य प्रस्तावों को अस्वीकार करने आदि के माध्यम से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है। अध्यक्षात्मक शासन में व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर। अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखती है।

6. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य – अनेक देशों में व्यवस्थापिका को कुछ निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में संसद के दोनों सदन उपराष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं स्विट्जरलैण्ड में व्यवस्थापिका मंत्रिपरिषद् के सदस्यों, न्यायाधीशों तथा प्रधान सेनापति का निर्वाचन करती है।

7. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका समय-समय पर किन्हीं विशेष कार्यों की जाँच करने के लिए आयोगों और समितियों की नियुक्ति का कार्य भी करती है। इसके अलावा व्यवस्थापिका द्वारा इंग्लैण्ड, अमेरिका, भारत आदि देशों में कार्यरत सरकारी निगमों के कार्यों और क्रियाकलापों पर भी पूर्ण नियन्त्रण रखा जाता है।

इस प्रकार, व्यवस्थापिका शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वह विधि-निर्माण के अतिरिक्त प्रशासन, न्याय, वित्त, संविधान, निर्वाचन आदि क्षेत्रों में अनेक कार्य करती है।

व्यवस्थापिका की महत्ता

सरकार के तीनों ही अंगों द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, लेकिन इन तीनों में व्यवस्थापन विभाग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यवस्थापन विभाग ही उन कानूनों का निर्माण करता है जिनके आधार पर कार्यपालिका शासने करती है और न्यायपालिका न्याय प्रदान करने का कार्य करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य के लिए आवश्यक आधार प्रदान करती है। व्यवस्थापन विभाग केवल कानूनों का ही निर्माण नहीं करता, वरन् प्रशासन की नीति भी निश्चित करता है और संसदात्मक शासन-व्यवस्था में तो कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण भी रखता है। संविधान में संशोधन का कार्य भी व्यवस्थापिका के द्वारा ही किया जाता है।

अतः यह कहा जा सकता है कि व्यवस्थापन विभाग सरकार के दूसरे अंगों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति रखता है।

शक्ति में क्लास के कारण

विधायिका के महत्त्व में कमी और इसकी शक्तियों के पतन के लिए कई कारण उत्तरदायी रहे हैं। संक्षेप में विधायिका के पतन के निम्नलिखित कारण हैं –

1. कार्यपालिका की शक्तियों में असीम वृद्धि – पूर्व की तुलना में विभिन्न कारणों से कार्यपालिका का अधिक महत्त्वपूर्ण होना स्वाभाविक है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि इसकी शक्तियों में वृद्धि का विपरीत प्रभावे विधायिका पर पड़ता है। इसीलिए विगत शताब्दी में अनेक राष्ट्रों में विधायिका की संस्था और कमजोर हुई है।

2. प्रतिनिधायन के०सी० क्लीयर – के मतानुसार प्रतिनिधायन द्वारा कार्यपालिका ने विधायिका की कीमत पर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया है। इस सिद्धान्त के फलस्वरूप कार्यपालिका को विधि-निर्माण का अधिकार प्राप्त हो गया। व्यवहार में विभिन्न कारणों से विधायिका ने स्वतः कार्यपालिकों को यह शक्ति प्रदान की। अतः विधि-निर्माण का जो मुख्य कार्य विधायिका के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत था। वह भी प्रतिनिधायन के कारण उसके क्षेत्राधिकार से निकलता चला गया।

3. संचार साधनों की भूमिका – रेडियो और टेलीविजन विज्ञान के ऐसे चमत्कार हैं, जिन्होंने कार्यपालिका के प्रधान का जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़ा। संचार साधनों के ऐसे विकास से कार्यपालिका के प्रधान द्वारा विधायिका को नजरअन्दाज कर सीधा जनसम्पर्क स्थापित किया जाने लगा जिसका प्रतिकूल प्रभाव विधायिका की शक्तियों पर पड़ता गया।

4. दबाव गुटों और हितसमूहों का विकास – बीसवीं शताब्दी में विधायिका के सदस्यों का एक मुख्य कार्य जन-शिकायतों को सरकार तक पहुँचाना रहा, लेकिन दबाव गुटों और हितसमूहों के विकास के कारण उसकी इस भूमिका में भी कमी आई। पिछली शताब्दी में नागरिक संगठित हितसमूहों का सदस्य होता गया। परिणामस्वरूप विधायिका की अनदेखी कर कार्यपालिका से वह सीधा सम्पर्क जोड़ लेता था और अपनी माँगों को मनवाने के सन्दर्भ में सफलता प्राप्त करता था। अतः विधायिका पृष्ठभूमि में चली गई और निर्णय प्रक्रिया में कार्यपालिका ही मुख्य भूमिका अदा करती रही।

5. परामर्शदात्री समितियों और विशेषज्ञ समितियों का विकास – प्रत्येक मन्त्रालय और विभाग में सलाहकार समितियाँ गठित होने लगी हैं तथा विशेषज्ञों के संगठन बनाए जाने लगे हैं। विधेयकों का प्रारूप तैयार करने में इनसे सलाह ली जाती है। सदन में जब विचार-विमर्श होता है और सदस्यों द्वारा संशोधन प्रस्तुत किए जाते हैं, तब यह कहकर उन्हें चुप कर दिया जाता है कि इस पर विशेषज्ञों की सलाह ली जा चुकी है। फलस्वरूप विधायिका के समक्ष ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृत करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता है।

6. युद्ध और संकट की स्थिति – प्रायः सभी लोकतान्त्रिक देशों में राज्याध्यक्ष ही सेना का प्रधान होता है, सैनिक मामलों में विधायिका कुछ भी नहीं कर सकती। अतः युद्ध या अन्य संकटकाल के समय विधायिका नहीं अपितु कार्यपालिका सर्वेसर्वा बन जाती है, ऐसी कठिन परिस्थितियों में तुरन्त निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए सन् 1971 के युद्ध में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वतन्त्र रूप से युद्ध-नीति का संचालन किया था। अमेरिका में भी राष्ट्रपति निक्सन ने वियतनाम युद्ध के दौरान कई बार कांग्रेस की अवहेलना की थी। फॉकलैण्ड युद्ध में भी ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्रीमती मार्ग रेट थैचर ने देश का नेतृत्व स्वयं किया था। अतः युद्ध या संकट के समय कार्यपालिका ऐसी स्थिति ला देती है, जिसमें विधायिका के समक्ष उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। यह प्रक्रिया बीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई।

7. संकट व तनाव की अवस्था का युग-रॉबर्ट सी० बोन – ने 20वीं शताब्दी को “चिन्ता का युग’ कही है। उक्त शताब्दी में विभिन्न देशों में किसी-न-किसी कारण से प्राय: ही संकट के बादल मंडराते रहे, जो न केवल सरकारों को बल्कि नागरिकों को भी तनाव की स्थिति में ला देते थे। संचार-साधनों के विकास के कारण विश्व की घटनाओं का समाचार निरन्तर रेडियो तथा टेलीविजन द्वारा मिलना सामान्य बात थी। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही उनकी आशा का केन्द्र बनी। यही कारण है कि चिन्ता के उस युग में विधायिका लोगों को आश्वस्त करने की भूमिका नहीं निभा सकी। यह कार्य कार्यपालिका का हो गया। आज कार्यपालिका सर्वशक्तिमान बनने की दिशा में बढ़ रही है।

प्रश्न 2.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण एवं दोषों (पक्ष एवं विपक्ष) का वर्णन कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन की उपयोगिता पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर :
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/उपयोगिता (पक्ष में तर्क) द्वि-सदनात्मकं या द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के पक्ष में जो तर्क दिये जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं –

1. उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर पुनर्विचार – द्वितीय सदन का प्रमुख कार्य प्रथम सदन के उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर विचार करना है। प्रथम सदन में नवयुवक तथा जोशीले सदस्यों की प्रधानता रहती है। वे आवेश में आकर ऐसे कानूनों का निर्माण कर डालते हैं जो जनहित में नहीं होते। द्वितीय सदन में, जिसमें अधिकांश अनुभवी तथा गम्भीर व्यक्ति होते हैं, प्रथम सदन द्वारा पारित कानूनों का पुनरावलोकन करके उत्पन्न भूलों को दूर कर देते हैं। ब्लंटशली ने ठीक ही लिखा है-“दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें सदा अच्छा देखती हैं, विशेषतया जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करना आवश्यक हो।” लॉस्की के अनुसार, “नियन्त्रण संशोधन तथा रुकावट डालने में जो काम द्वितीय सदन करता है, उससे उसकी आवश्यकता स्वयं सिद्ध है।”

2. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक – एक-सदनात्मक व्यवस्था में उसके निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी हो जाने की पूरी सम्भावना रहती है, किन्तु द्वि-सदनात्मक व्यवस्था में इस प्रकार की सम्भावना का अन्त हो जाता है। बाइस का कहना है, “दो सदनों की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि एक सदन की स्वाभाविक प्रवृत्ति घृणापूर्ण, अत्याचारी तथा भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है, जिसे रोकने के लिए एकसमान सत्ताधारी द्वितीय सदन का अस्तित्व आवश्यक है। इस प्रकार द्वितीय सदन की विद्यमान स्वतन्त्रता की गारण्टी व कुछ सीमा तक अत्याचार से सुरक्षा भी है।

3. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन – लॉर्ड एक्टन का कहना है-“स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए द्वितीय सदन अत्यन्त आवश्यक है। यह नीतियों में सन्तुलन स्थापित करता है तथा अल्पसंख्यकों की रक्षा और प्रथम सदन के दोषों को दूर करता है।”

4. प्रथम सदन के कार्य-भार में कमी – द्वितीय सदन विवादास्पद कार्यों को अपने हाथ में लेकर प्रथम सदन का कार्यभार हल्का कर देता है और उसे अधिक सुचारु रूप से कार्य करने का अवसर प्रदान करता है। आधुनिक प्रगतिशील देशों में एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रूप से निभाने में असमर्थ होती है; अतः द्वितीय सदन की आवश्यकता है।

5. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है। और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है-“दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती है।”

6. अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व – व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन के होने से अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है।

7. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम. सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जब कि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान् प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

8. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।

9. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाती है।

10. प्रथम सदन का सहयोगी – द्वितीय सदन प्रथम सदन का सहयोगी होता है। इस सम्बन्ध में हेनरीमैन ने लिखा है-“बिल्कुल न होने से किसी भी सरकार का द्वितीय सदन अच्छा है, क्योंकि एक व्यवस्थित द्वितीय सदन प्रथम का शत्रु नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक अंग है।” द्वि-सदनात्मक प्रणाली में दोनों सदन एक-दूसरे के सहयोगी होते हैं।

11. जनमत जानने का अच्छा साधन – जब कोई विधेयक प्रथम सदन से पारित होकर दूसरे सदन में विचारार्थ भेजा जाता है, तब जनता को इस बीच के समय में उस पर अपना विचार व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ पर विधेयक पर विचार करने में कुछ समय अवश्य लग जाता है। इस सम्बन्ध में लॉर्ड ब्राइस ने लिखा है-“द्वितीय सदन का मुख्य कार्य केवल इतना विलम्ब करना होना चाहिए जिससे जनता को निम्न सदन द्वारा प्रस्तुत ऐसे विधेयकों पर अपना मत व्यक्त करने का अवसर मिल सके जिनके सम्बन्ध में शासन के पास पहले से जनता का कोई आदेश नहीं है।”

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दोष (विपक्ष में तर्क)

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में निम्नलिखिते तर्क दिये जाते हैं –

1. रूढ़िवादिता – द्वितीय सदन रूढ़िवादी होता है, क्योंकि उसके अधिकांश सदस्य धनी एवं अनुदार प्रवृत्ति के होते हैं। इसलिए वे प्रगतिशील एवं सुधारात्मक विधेयकों के पारित होने में बाधक सिद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में लॉस्की ने लिखा है-“अत्यन्त उपयोगी सुधारों में द्वितीय सदन को विलम्ब लगाने की शक्ति देना सम्भवतः कालान्तर में विनाश को जन्म देना है और जन-क्रान्ति का मार्ग निर्मित करना है।”

2. अनावश्यक या हानिकारक – प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक ऐबेसेयीज का कहना है-“कानून जनता की इच्छा है। जनता की एक ही समय में तथा एक ही विषय पर दो विभिन्न इच्छाएँ नहीं हो सकतीं। अतएव जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली परिषद् आवश्यक रूप से एक ही होनी चाहिए। जहाँ कहीं दो सदन होंगे, मतभेद तथा विरोध अवश्यम्भावी होंगे तथा जनता की इच्छा अकर्मण्यता का शिकार बन जाएगी।” वह पुनः कहता है कि यदि द्वितीय सदन का प्रथम सदन से मतभेद हो तो यह उसकी शैतानी है और यदि वह उससे सहमत है तो उसका अस्तित्व अनावश्यक है। चूंकि वह या तो सहमत होगा या असहमत; अतएव उसका अस्तित्व किसी दिशा में भी लाभदायक नहीं है।

3. उत्तरदायित्व का अभाव – आलोचकों का कहना है कि द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन अपने उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हो जाता है।

4. संगठन की कठिनाई – द्वितीय सदन के संगठन के सम्बन्ध में कोई आदर्श प्रणाली नहीं है। यदि द्वितीय सदन सामान्य मताधिकार के आधार पर निर्वाचित है तो वह निम्न सदन की पुनरावृत्ति मात्र रह जाता है और यदि उसका निर्वाचन उच्च सम्पत्तिगत योग्यता के आधार पर हुआ है तो वह रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रियावादी होगा। यदि द्वितीय सदन वंशानुगत है तो वह निम्न सदन के हितों एवं उनकी आकांक्षाओं का विरोधी होगा। यदि वह अंशत: निर्वाचित तथा अंशतः मनोनीत है तो स्वयं अपने विपरीत विभाजित होने के कारण किसी भी रचनात्मक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं होगा और यदि वह कार्यपालिका अथवा निम्न सदन द्वारा नियुक्त है तो नियुक्त करने वाली सत्ता के अतिरिक्त यह और किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा।

5. धन का अपव्यय – द्वि-सदनात्मक प्रणाली में धन के अपव्यय में अधिक वृद्धि हो जाती है तथा इससे अनावश्यक विलम्ब भी होता है, क्योंकि दूसरे सदन में विचारार्थ कोई विधेयक भेजना केवल देरी करना ही है। फिर इस अपव्यय का भार जनता को अतिरिक्त करों के रूप में वहन करना पड़ता है। यह धन द्वितीय सदन की अपेक्षा जनहित के कार्यों में उचित रूप से लगाया जा सकता है।

6. प्रजातन्त्रीय प्रणाली का विरोध-आयंगर का कहना है – “यद्यपि द्वि-सदनात्मक शासन| प्रणाली जनतन्त्र के अन्दर एक प्राचीन परम्परा है, किन्तु यह प्रणाली जनतन्त्र पर विश्वास करने में हिचकिचाती है और अल्पसंख्यकों को ही सन्तुष्ट करने का प्रयास करती है। कभी-कभी द्वितीय सदन हारे हुए नेताओं का सुरक्षित भण्डार सिद्ध हो सकता है।”

7. भूल-सुधार का महत्वहीन दावा – यह कहना कि प्रथम सदन आवेश में आकर जनहित विरोधी कानूनों का निर्माण कर सकता है, उचित नहीं है; क्योंकि प्रथम सदन प्रत्येक विधेयक पर तीन बार विचार करता है। इस प्रकार उसमें किसी प्रकार की भूल रह जाने की बहुत कम सम्भावना रह जाती है। द्वितीय सदन में केवल विधेयक पर प्रथम सदन के तर्क वितर्क ही दोहराये जाते हैं। इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आधुनिक युग में व्यवस्थापन एकाएक कानून की पुस्तक पर नहीं आ जाता, प्रायः प्रत्येक विधेयक विचार एवं विश्लेषण की एक लम्बी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कानून बना है। अतः जल्दबाजी के व्यवस्थापन को रोकने की दृष्टि से दूसरे सदन का महत्त्व राजनीति की वर्तमान दशा में अत्यन्त कम हो गया है।”

8. संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना – जहाँ द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका होती है वहाँ संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना बनी रहती है। इससे शासन-व्यवस्था में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है। फ्रेंकलिन के शब्दों में, “द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका एक ऐसी गाड़ी के समान है जिसके दोनों सिरों पर एक-एक घोड़ा हो और वे दोनों घोड़ा-गाड़ी को अपनी-अपनी ओर खींच रहे हों।”

9. अल्पमतों को प्रतिनिधित्व देने हेतु अन्य सन्तोषजनक प्रबन्ध सम्भव – द्वितीय सदन के आलोचकों का मत है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की व्यवस्था आवश्यक नहीं है। अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान में दूसरे उपाय किये जा सकते हैं, जिस तरह भारतीय संविधान में आंग्ल-भारतीय समुदाय, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये गये हैं।

10. संघीय व्यवस्था के लिए अनावश्यक – दलबन्दी के उदय हो जाने के बाद संघीय शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन का होना आवश्यक नहीं रह गया है, क्योकि द्वितीय सदन के प्रतिनिधि राज्यों के हितों और आवश्यकताओं को दृष्टि में न रखकर अपने दलों के स्वार्थों का ही ध्यान रखते हैं। इस प्रकार वे राज्यों के प्रतिनिधि न बनकर वास्तविक रूप में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि बनकर रह जाते हैं। इस सम्बन्ध में रॉबर्टसन ने लिखा है, “संघ राज्यों की विशेष परिस्थितियों को छोड़कर द्वितीय सदन के पक्ष में कोई मान्य सैद्धान्तिक तर्क नहीं है और उसके विरुद्ध उठाये गये सैद्धान्तिक तर्को को अभी समुचित उत्तर नहीं दिया गया है।

उपर्युक्त तर्को में सत्य का अंश है, फिर भी अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी है। शायद इसका कारण यह है कि उच्च सदन के निर्माण से बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि द्वितीय सदन पूर्ण जागरूकता के साथ प्रथम सदन द्वारा पारित किये गये विधेयकों पर पुनर्विचार करे तो लोकप्रिय सदन की जल्दबाजी और मनमानी पर उपयोगी एवं आवश्यक प्रतिबन्ध लग सकता है, इसके अतिरिक्त विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिये जाने पर कानून-निर्माण का कार्य अधिक पूर्णता के साथ किये जाने की आशा की जा सकती है। रैम्जे म्योर के अनुसार, द्वितीय सदन का महत्त्वपूर्ण उपयोग यह है कि उसमें राष्ट्रीय नीति के सामान्य प्रश्नों पर ठण्डे वातावरण में शान्ति के साथ विचार होता है जैसा कि निम्न सदन में असम्भव है।” क्रिन्तु यह आवश्यक है कि द्वितीय सदन की रचना में कुछ सुधार हो। जे०एस० मिल के शब्दों में, “यदि एक सदन जनता की सभा हो तो दूसरा सदन राजनीतिज्ञों की सभा हो।”

प्रश्न 3.
राज्यसभा के संगठन तथा शक्तियों की विवेचना कीजिए।
या
राज्यसभा के कार्यों एवं शक्तियों को स्पष्ट कीजिए।
या
राज्यसभा के संगठन तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
राज्यसभा के संगठन तथा कार्यों की समीक्षा कीजिए। सिद्ध कीजिए कि लोकसभा की तुलना में राज्यसभा एक कमजोर एवं शक्तिहीन सदन है?
उत्तर :

राज्यसभा – संसद के तीन घटक होते हैं-(1) राष्ट्रपति, (2) लोकसभा तथा (3) राज्यसभा। संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों को मिलाकर बनेगी, जिनके नाम राज्यसभा और लोकसभा होंगे। इससे स्पष्ट है कि भारत में व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं। उच्च सदन को राज्यसभा और निम्न सदन को लोकसभा के नाम से पुकारा जाता है। लोकसभा समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करती है और राज्यसभा राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती है। दोनों सदनों को सम्मिलित रूप से संसद कहा जाता है। राज्यसभा के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन इस प्रकार है –

राज्यसभा की संरचना – राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसका कभी विघटन नहीं होता। राज्यसभा में संघ के इकाई राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 80 में स्पष्ट लिखा है कि राज्यसभा में अधिक-से-अधिक 250 सदस्य होंगे जिनमें अधिक-से-अधिक 238 सदस्य राज्यों की ओर से निर्वाचित होंगे और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करेगा। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 12 सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला, समाज-सेवा या सहकारिता के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव तथा ख्याति प्राप्त व्यक्ति होंगे। इस समय राज्यसभा में कुल सदस्य 245 हैं, जिनमें से 233 राज्यों तथा केन्द्र-शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गये हैं।

चुनाव – राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रीति से होता है। इस निर्वाचन की दृष्टि से भारतीय संघ के राज्य दो श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं – (1) वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ हैं तथा (2) वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ नहीं हैं, वरन् वे केन्द्र द्वारा शासित हैं। जिन राज्यों में विधानसभाएँ हैं, वहाँ विधानसभाओं के सदस्य अपने राज्य के प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। यह चुनाव आनुपातिक पद्धति से एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के द्वारा होता है। वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ नहीं हैं, उनमें प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने का ढंग संसद कानून द्वारा निर्धारित करती

सदस्यों की योग्यताएँ –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह वे सभी योग्यताएँ रखता हो जो संसद द्वारा निश्चित की गयी हों।
  4. वह उस राज्य का निवासी हो जहाँ से वह निर्वाचित होना चाहता है।

कार्यकाल – राज्यसभा एक स्थायी सदन है, परन्तु उसके सदस्यों में से एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करते रहते हैं। इस प्रकार सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है।

गणपूर्ति या कोरम – राज्यसभा की गणपूर्ति या कोरम, समस्त सदस्य-संख्या का 10वाँ भाग होता है। किसी भी कार्यवाही के लिए कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग सदन में उपस्थित होना आवश्यक

राज्यसभा का सभापति – भारत का ‘उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी एक को उपसभापति चुनती है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति राज्यसभा की बैठकों का सभापतित्व करता है और सभापति के कर्तव्यों का पालन करता है। सभापति तथा उपसभापति के वेतन, भत्ते संसद द्वारा निश्चित किये जाते हैं। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति ही सभापति का आसन ग्रहण करता है। राज्यसभा का सभापति सदन की बैठकों का सभापतित्व करता है, सभा में व्यवस्था बनाये रखता है, प्रश्नों पर अपना निर्णय देता है तथा मतदान की। निर्णय घोषित करना आदि कार्य सम्पन्न करता है। वर्तमान समय में राज्यसभा के सभापति श्री एम० वेंकैया नायडू हैं और उपसभापति प्रो० पी० जे० कुरियन हैं।

राज्यसभा के कार्य एवं अधिकार

राज्यसभा के अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में स्पष्ट किया जा सकता है –

(1) विधायिनी अधिकार – राज्यसभा में धन सम्बन्धी विधेयक को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार का विधेयक लोकसभा से पहले भी प्रस्तुत किया जा सकता है। धन सम्बन्धी विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। कोई भी प्रस्ताव संसद द्वारा तब तक पारित नहीं समझा जा सकता और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए तब तक नहीं भेजा जा सकता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् पारित न हो जाए। यदि किसी प्रस्ताव पर दोनों सदनों में मतभेद पैदा हो जाए तो राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का अधिकार रखता है और उसे प्रस्ताव को उसके सामने रखा जाता है। संयुक्त बैठक में प्रस्ताव पर हुआ निर्णय दोनों सदनों का सामूहिक निर्णय समझा जाता है और यदि वह पारित हो जाए तो उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है।

(2) वित्तीय अधिकार – जैसा पहले ही बताया जा चुका है कि धन सम्बन्धी विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। राज्यसभा की वित्तीय शक्तियाँ लोकसभा की अपेक्षा बहुत कम हैं। वित्तीय विधेयक लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में आते हैं। राज्यसभा वित्तीय विधेयक को 14 दिन तक पारित होने से रोक सकती है। राज्यसभा वित्तीय विधेयक को चाहे रद्द कर दे, या उसमें परिवर्तन कर दे, या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, इन दशाओं में वह विधेयक राज्यसभा से पारित समझा जाएगा। यह लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह राज्यसभा की संस्तुतियों को माने या न माने। जिस रूप में लोकसभा ने विधेयक पारित किया था वह विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है।

(3) शासकीय अधिकार – राज्यसभा की कार्यकारी शक्तियाँ बहुत सीमित हैं। यद्यपि राज्यसभा के सदस्य भी मंत्रिमण्डल में शामिल किये जाते हैं फिर भी मंत्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए केवल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है, राज्यसभा के सदस्य प्रश्नों, काम रोको प्रस्तावों और वाद-विवादों के द्वारा मंत्रिमण्डल पर अपना नियन्त्रण रखते हैं, परन्तु इस सबके बावजूद भी कार्यपालिका पर राज्यसभा का वास्तविक नियन्त्रण नहीं है। राज्यसभा को मंत्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उसे हटाने का कोई अधिकार नहीं है।

(4) संविधान संशोधन सम्बन्धी अधिकार – राज्यसभा को संविधान में संशोधन करने का अधिकार लोकसभा की तरह ही प्राप्त है। संविधान संशोधन सम्बन्धी विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत हो सकता है, अर्थात् संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव राज्यसभा में भी प्रस्तावित किया जा सकता है। संशोधन प्रस्ताव उस समय तक पारित नहीं समझा जाता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् बहुमत से पारित न हो जाए। इस प्रकार संशोधन प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों में मतभेद होने पर वह पारित नहीं हो पाएगा।

(5) विविध अधिकार –

  1. राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं, किन्तु मनोनीत सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त नहीं होता।
  2. राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग लगाने और उसकी जाँच करने तथा उसके बारे में निर्णय देने का अधिकार राज्यसभा को है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस मामले में राज्यसभा को उतने ही अधिकार हैं जितने कि लोकसभा को।
  3. उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को उसी समय पदच्युत किया जा सकता है, जब लोकसभा की तरह राज्यसभा भी उनको हटाये जाने के लिए प्रस्ताव पारित करे।
  4. राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व को घोषित करके संसद को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  5. राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर निकाली गयी घोषणा को जारी करने के लिए लोकसभा की तरह राज्यसभा को भी अर्थात् दोनों सदनों के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।

निष्कर्ष – राज्यसभा की शक्तियों और कार्यों से यह स्पष्ट है कि लोकसभा की अपेक्षा राज्यसभा शक्तिहीन सदन सिद्ध होता है, परन्तु फिर भी इस सदन के पास इतनी शक्तियाँ हैं कि यह एक आदर्श सदन कहीं जा सकता है। इसकी अपनी पृथक् गरिमा है। लोकसभा के भंग होने की स्थिति में तो यह सदन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा कार्यपालिका की शक्तियों पर अंकुश लगाता है। इसे किसी भी प्रकार अनावश्यक सदन नहीं कहा जा सकता। राज्यसभा की उपयोगिता के विषय में श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने कहा था, “संविधान-निर्माताओं का राज्यसभा की रचना का उद्देश्य यह था कि यह सदन महत्त्वपूर्ण विषयों पर वाद-विवाद करे और उन विधेयकों को पारित करने में देरी करे जो लोकसभा में शीघ्रता से पारित कर दिये जाते हैं।”

प्रश्न 4.
भारत में लोकसभा के गठन एवं शक्तियों का विवेचन कीजिए तथा राज्यसभा के साथ इसके सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
या
लोकसभा की शक्तियों एवं कार्यों की विवेचना कीजिए।
या
लोकसभा की दो प्रमुख शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
या
लोकसभा के मुख्य कार्य क्या हैं?
या
लोकसभा का कार्यकाल कितना है? क्या इसे समय से पहले विभाजित किया जा सकता है? यदि आपका उत्तर हाँ है तो इसे निर्धारित करने का अधिकार किसके पास है?
या
लोकसभा के संगठन का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

लोकसभा

गठन – संसद का निम्न सदन लोकसभा है, जिसे जन-प्रतिनिधि सदन अथवा लोकप्रिय सदन भी कहा जाता है। भारतीय संविधान में उल्लिखित प्रावधान के अनुसार लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 निश्चित की गयी है। इस सम्बन्ध में संविधान में यह उपबन्ध किया गया है कि अधिकतम 530 सदस्य प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष मतदान द्वारा चुने जाएँगे तथा 20 सदस्यों की संख्या केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए निर्धारित की गयी है। इसके अतिरिक्त संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति द्वारा 2 ऐंग्लो-इण्डियन सदस्यों को मनोनीत करने का भी प्रावधान है। वर्तमान समय में लोकसभा की सदस्य संख्या 545 है। लोकसभा सदस्यों का निर्वाचन जनसंख्या के आधार पर होने के कारण अधिक जनसंख्या वाले प्रदेशों को लोकसभा में अधिक सीटें प्राप्त होती हैं। इस आधार पर लोकसभा में सर्वाधिक सीटें उत्तर प्रदेश राज्य को प्राप्त हैं।

सदस्यों की योग्यताएँ – लोकसभा की सदस्यता के लिए उम्मीदवार को निम्नलिखित योग्यताएँ पूरी करनी आवश्यक हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. संसद द्वारा निर्धारित अन्य सभी योग्यताएँ रखता हो।
  4. वे व्यक्ति जिन्हें संसद द्वारा निर्मित किसी विधि के अन्तर्गत अयोग्य न ठहराया गया हो।
  5. वः केन्द्र व राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ का पद ग्रहण न किये हो तथा वह पागल या दिवालिया न हो।

कार्यकाल – सामान्यत: लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष तक रहता है। संकटकाल में इस अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है, परन्तु एक समय में एक वर्ष से अधिक और संकटकालीन घोषणा समाप्त होने पर छ: महीने से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता। राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले जब चाहे लोकसभा को भंग करके दोबारा चुनाव करवा सकता है। ऐसा कदम उसी समय उठाया जाता है। जब प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को इस प्रकार का परामर्श दे।

निर्वाचन – लोकसभा के चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणाली के आधार पर होते हैं। भारत का प्रत्येक 18 वर्ष का वयस्क नागरिक (स्त्री, पुरुष) लोकसभा चुनावों में मतदान करने का अधिकार रखता है। 5 लाख से 7.5 लाख की जनसंख्या पर प्रत्येक क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है, जिसे एम० पी० या संसद सदस्य कहते हैं।

गणपूर्ति या कोरम – साधारणतया वर्ष में दो बार लोकसभा का अधिवेशन होता है। इन अधिवेशनों को आमन्त्रित करने और भंग करने का अधिकार राष्ट्रपति को होता है। लोकसभा की कार्यवाही हेतु कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग सदन में उपस्थित होना आवश्यक है।

सदस्यों की शपथ – सदस्यों को अपना कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व राष्ट्रपति अथवा राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेनी पड़ती है।

विशेषाधिकार – विशेषाधिकारों के अन्तर्गत सदस्यों को सदन में नियमों और आदेशों का पालन करते हुए बोलने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। सदन में सदस्य जो कुछ भी कहते हैं उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं की जा सकती। सदन का अधिवेशन शुरू होने के 40 दिन पहले, अधिवेशन के मध्य में और अधिवेशन समाप्त होने के 40 दिन बाद इनको किसी भी दीवानी मुकदमे में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, परन्तु फौजदारी मुकदमों अथवा निवारक निरोध या ‘मीसा में पकड़ा जा सकता है। इस स्थिति में सदस्य को बन्दी बनाये जाने की सूचना सदन के अध्यक्ष के पास शीघ्र पहुँचनी चाहिए।

लोकसभा की शक्तियाँ एवं कार्य

जनसंख्या के आधार पर प्रत्यक्ष मतदान-प्रणाली के माध्यम से गठित होने के कारण लोकसभा जनता का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी इच्छा को प्रतिबिम्ब होती है। यही कारण है कि लोकसभा को लोकप्रिय सदन कहा जाता है, जो संसद के सबसे महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में कार्य करता है। संविधान द्वारा लोकसभा को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं

(1) विधायी शक्तियाँ

संविधान द्वारा विधायी क्षेत्र में लोकसभा को महत्त्वपूर्ण स्थिति प्रदान की गयी है। इस क्षेत्र में लोकसभा को प्राप्त प्रमुख शक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

(अ) साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में लोकसभा व राज्यसभा को संविधान द्वारा समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। साधारण विधेयक पर संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति के पश्चात् राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने आवश्यक होते हैं। परन्तु इस सम्बन्ध में लोकसभा की स्थिति राज्यसभा से सुदृढ़ होती है। यदि किसी विधेयक पर संसद के दोनों सदनों में मतभेद उत्पन्न हो जाता है तो निर्णय की अन्तिम शक्ति लोकसभा के पास होती है। राज्यसभा को इस सम्बन्ध में केवल यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह अवित्तीय विधेयक को 6 माह तक रोक सकती है।

(ब) यद्यपि संवैधानिक प्रावधान के अनुसार संसद के किसी भी सदन में साधारण विधेयक प्रस्तावित किये जा सकते हैं, परन्तु व्यवहार में महत्त्वपूर्ण विधेयक साधारणतया लोकसभा में ही प्रस्तावित किये जाते हैं।

(2) वित्तीय शक्तियाँ

वित्तीय क्षेत्र में लोकसभा को शक्तिशाली वे सुदृढ़ स्थिति प्रदान की गयी है। संविधान द्वारा वित्तीय सम्बन्ध में लोकसभा को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं –

(अ) संविधान के अनुच्छेद 109 के अनुसार कोई भी वित्त विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तावित किया जाएगा। लोकसभा के द्वारा पारित किये जाने के पश्चात् विधेयक राज्यसभा को प्रेषित किया जाता है, जहाँ राज्यसभा अपने बहुमत से विधेयक को पारित करती है।

(ब) किसी वित्तीय विधेयक को राज्यसभा केवल 14 दिन तक अपने पास रोक सकती है तथा इस सम्बन्ध में लोकसभा को परामर्श दे सकती है, परन्तु यदि 14 दिन के अन्दर राज्यसभा विधेयक को लोकसभा को न लौटाए तो विधेयक बिना राज्यसभा की स्वीकृति के भी पारित समझा जाता है। इसके अतिरिक्त वार्षिक बजट व अनुदान माँग भी लोकसभा के समक्ष ही प्रस्तुत की जाती है। इस प्रकार वित्तीय क्षेत्र में लोकसभा को सर्वोच्च शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं।

(3) कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकार

कार्यपालिका के क्षेत्र में लोकसभा को निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान किये गये हैं –

(अ) संसदात्मक शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत कार्यपालिका, व्यवस्थापिका के लोकप्रिय सदन के प्रति उत्तरदायी होती है। वह मन्त्रिपरिषद् को अविश्वास प्रस्ताव पारित कर पदच्युत कर सकती है।

(ब) लोकसभा के सदस्य मंत्रियों से प्रश्न व पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं तथा उनकी आलोचना भी कर सकते हैं।

(स) कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियों के अन्तर्गत ही लोकसभा संघ लोक सेवा आयोग, नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक, वित्त आयोग, भाषा आयोग आदि द्वारा प्रेषित उनकी वार्षिक रिपोर्ट पर विचार करती

(द) इसके अतिरिक्त वह अनुचित सरकारी नीतियों पर विरोध प्रदर्शित करते हुए काम रोको प्रस्ताव पास कर सकती है।

(4) संशोधन सम्बन्धी अधिकार

संविधान संशोधन सम्बन्धी क्षेत्र में संसद के दोनों सदनों को समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। संविधान में किये जाने वाले सभी संशोधनों के लिए संसद के दोनों सदनों का बहुमत प्राप्त करना आवश्यक होता है तथा कुछ विषयों में राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति प्राप्त करने का भी प्रावधान किया गया है।

(5) निर्वाचक मण्डल के रूप में

संविधान के अनुच्छेद 54 के अन्तर्गत लोकसभा के सदस्य राज्यसभा व राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों के साथ संयुक्त होकर राष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं। इसके अतिरिक्त लोकसभा सदस्य राज्यसभा के सदस्यों के साथ मिलकर उपराष्ट्रपति का चुनाव करते हैं। लोकसभा के द्वारा लोकसभा अध्यक्ष व उपाध्यक्ष का चुनाव किया जाता है।

(6) जन-समस्याओं का निवारण

लोकसभा के सदस्य जनता की समस्याओं को सुनकर उन्हें समाधान हेतु सरकार तक पहुँचाते हैं। जनता के प्रतिनिधि होने के कारण जन-समस्याओं का शीघ्र निराकरण लोकसभा सदस्यों का प्रमुख कर्तव्य होता है। सरकार द्वारा नीतियों व कानूनों के निर्माण के समय लोकसभा सदस्य अपने क्षेत्र के हितों को ध्यान में रखकर कानूनों का निर्माण कराते हैं।

(7) महाभियोग सम्बन्धी अधिकार

लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर निम्नलिखित प्रमुख पदाधिकारियों को उनके पद से समय से पूर्व पदच्युत कर सकती है –

(अ) वह राज्यसभा के साथ मिलकर राष्ट्रपति पर महाभियोग लगा सकती है।
(ब) वह राज्यसभा के साथ मिलकर उपराष्ट्रपति को पदच्युत कर सकती है।
(स) सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के विरुद्ध महाभियोग लगाकर उन्हें संसद के बहुमत से पदच्युत कर सकती है। राष्ट्रपति द्वारा किसी अपराधी को क्षमादान देने से पूर्व संसद की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक होता है।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोकसभा संसद का प्रमुख व महत्त्वपूर्ण सदन है। डॉ० एम० पी० शर्मा के अनुसार, “यदि संसद राज्य का सर्वोच्च अंग है तो लोकसभा संसद का सर्वोच्च अंग है। व्यवहारतः लोकसभा ही संस्द है।”

राज्यसभा के साथ लोकसभा के सम्बन्ध

भारतीय संसद के दो सदन हैं – लोकसभा व राज्यसभा तथा एक प्रकार से दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। इनके सम्बन्धों की संक्षिप्त विवेचना निम्नलिखित है –

दोनों सदनों के सदस्य समान रूप से राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं तथा राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने को अधिकार भी दोनों सदनों को है। एक सदन महाभियोग लगाता है तो दूसरा उसकी जाँच करता है। सर्वोच्च न्यायालये और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक तथा मुख्य चुनाव आयुक्त को पदच्युत करने के लिए दोनों सदनों की स्वीकृति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति द्वारा की गयी संकटकालीन उद्घोषणा की स्वीकृति संसद के दोनों सदनों से होना आवश्यक है।

सैद्धान्तिक दृष्टि से साधारण या अवित्तीय विधेयकों के सम्बन्ध में दोनों सदनों की शक्तियाँ बराबर हैं। साधारणतः विधेयक दोनों सदनों में से किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
लोकसभा तथा राज्यसभा के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए।
या
“लोकसभा, राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
संसद के दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा में कौन-सा अधिक शक्तिशाली है। और क्यों?
उत्तर :

लोकसभा एवं राज्यसभा के सम्बन्ध

भारतीय संसद के दो सदन होते हैं-उच्च सदन व निम्न सदन। उच्च सदन को राज्यसभा और निम्न सदन को लोकसभा कहते हैं। लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर संसद के नाम से पुकारा जाता है। यद्यपि राज्यसभा, लोकसभा से कम शक्तिशाली है, परन्तु बहुत-से ऐसे कार्य हैं जो राज्यसभा और लोकसभा को सम्मिलित रूप से करने होते हैं।

लोकसभा जनता का संदन है; अतएव समस्त कार्यों में लोकसभा की प्रमुखता होना स्वाभाविक ही है। संविधान-निर्माताओं की यह इच्छा भी थी कि राज्यसभा, लोकसभा की अपेक्षा कमजोर सदन रहे और इस कारण उन्होंने राज्यसभा को उन शक्तियों से विभूषित नहीं किया, जिन्हें लोकसभा को प्रदान किया गया। लोकसभा और राज्यसभा के सम्बन्धों को निम्नलिखित सन्दर्भो में समझा जा सकता है –

(1) साधारण विधेयक – सैद्धान्तिक रूप से साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में दोनों सदनों को समान शक्तियाँ प्राप्त हैं। ऐसे विधेयक किसी भी सदन में पहले प्रस्तुत किये जा सकते हैं जब कोई साधारण विधेयक लोकसभा द्वारा पारित होकर राज्यसभा में जाता है और राज्यसभा उसे अस्वीकार कर देती है, या उसे 6 महीने तक पारित नहीं करती है, या उसमें कुछ ऐसे संशोधन कर देती है, जिससे लोकसभा सहमत नहीं है, तो ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों का सम्मिलित अधिवेशन उस विधेयक पर विचार और मतदान करने हेतु बुलाता है। स्वाभाविक है कि लोकसभा द्वारा पारित विधेयक इस सम्मिलित अधिवेशन में अवश्य ही स्वीकृत हो जाता है, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या, राज्यसभा के सदस्यों की अपेक्षा काफी अधिक होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधारण विधेयक के सम्बन्ध में राज्यसभा कोई भी निषेधाधिकार नहीं रखती है और उसे लोकसभा के सम्मुख झुकना ही पड़ता है। हाँ, किसी विधेयक के पारित होने में राज्यसभा कुछ देर अवश्य लगा सकती है।

(2) वित्त विधेयक – वित्त विधेयक के सम्बन्ध में तो लोकसभा की शक्तियाँ राज्यसभा की शक्तियों से बहुत अधिक हैं। वित्तीय विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जाते हैं। लोकसभा का अध्यक्ष (Speaker) इस बात का निर्णय करता है कि कौन-सा विधेयक वित्तीय विधेयक है। लोकसभा जब किसी वित्तीय विधेयक को पारित करके राज्यसभा के पास उसकी स्वीकृति के लिए भेजती है तो राज्यसभा को अपनी संस्तुति सहित उस विधेयक को लोकसभा को 14 दिन के अन्दर लौटा देना होता है। यदि राज्यसभा उक्त विधेयक को 14 दिन के अन्दर अपनी संस्तुतियों सहित लोकसभा को वापस नहीं करती या ऐसी सिफारिश करती है जो लोकसभा को मान्य नहीं है तो लोकसभा की इच्छा ही सर्वोपरि होगी। अनुदान सम्बन्धी माँग या योजना केवल लोकसभा के समक्ष प्रस्तुत की जाती है और सार्वजनिक व्यय की स्वीकृति का अधिकार केवल लोकसभा को ही होता है। इस सम्बन्ध में राज्यसभा को कोई अधिकार नहीं होता। इस प्रकार वित्तीय सन्दर्भो में राज्यसभा पर्याप्त शक्तिहीन सदन है।

(3) कार्यपालिका का नियन्त्रण – भारत में संसदीय प्रणाली होने के कारण मन्त्रिपरिषद् अपने समस्त कार्यों एवं नीतियों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी है, परन्तु वास्तव में यह उत्तरदायित्व लोकसभा के प्रति है न कि राज्यसभा के प्रति। संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार, मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। राज्यसभा के सदस्य मंत्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं तथा उनसे शासन के प्रति कोई जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु राज्यसभा मंत्रिमण्डल को अविश्वास प्रस्ताव पारित करके नहीं हटा सकती यह अधिकार केवल लोकसभा के पास है। यदि मंत्रिमण्डल को लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त नहीं रहता तो उसे पद त्याग देना पड़ता है। लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित करके, बजट को रद्द करके तथा महत्त्वपूर्ण सरकारी विधेयक अस्वीकार करके मन्त्रिपरिषद् को पदच्युत कर सकती है। मन्त्रिपरिषद् लोकसभा की इच्छाओं के विरुद्ध नहीं चल सकती है; अतः मन्त्रिपरिषद् पर शासन का नियन्त्रण लोकसभा का है न कि राज्यसभा का।

(4) संविधान संशोधन के सम्बन्ध में  राज्यसभा और लोकसभा को संविधान में संशोधन करने का भी अधिकार है। इस सम्बन्ध में दोनों सदन समान अधिकार रखते हैं। संविधान संशोधन विधेयक दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों के बहुमत और सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए। राज्यसभा का यह अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि बिना उसकी स्वीकृति प्राप्त किये लोकसभा संविधान में कोई संशोधन नहीं कर सकती। यदि संविधान संशोधन विधेयक पर दोनों सदनों में मतभेद उत्पन्न हो जाए तो किस उपाय को अपनाया जाएगा, इस सम्बन्ध में संविधान में कुछ भी नहीं लिखा है।

(5) अन्य मामले –

  1. राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाने के लिए दोनों सदन समान रूप से भाग लेते हैं। एक सदन राष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाता है तथा दूसरा जाँच करके उसमें निर्णय देता है। इस प्रकार राष्ट्रपति को पदच्युत करने के लिए दोनों सदनों की सहमति आवश्यक है।
  2. राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के चुनाव में दोनों सदनों को समान अधिकार प्राप्त हैं।
  3. उप-राष्ट्रपति पर महाभियोग का प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार राज्यसभा को है और लोकसभा उस पर जाँचकर निर्णय दे सकती है।
  4. सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को पद से हटाने के लिए प्रस्ताव पारित करने में दोनों सदनों को समान रूप से भाग लेने का अधिकार है।
  5. लोकसभा अपने अध्यक्ष (Speaker) का निर्वाचन स्वयं करती है, किन्तु राज्यसभा का सभापति दोनों सदनों द्वारा चुना गया उप-राष्ट्रपति ही होता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकसभा की शक्तियाँ राज्यसभा की अपेक्षा बहुत अधिक हैं, परन्तु फिर भी राज्यसभा का अपना ही महत्त्व है। राज्यसभा को कुछ ऐसे भी अधिकार प्राप्त हैं जो लोकसभा को प्राप्त नहीं हैं –

  1. अखिल भारतीय सेवाओं का गठन तभी किया जा सकता है जब इस आशय का प्रस्ताव राज्यसभा पारित कर दे
  2. राज्य सूची के किसी विषय को राज्यसभा द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किये जाने पर ही संसद उस पर कानून बना सकती है। इस प्रकार लोकसभा और राज्यसभा का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

प्रश्न 6.
लोकसभा किस प्रकार केंद्रीय मंत्रिपरिषद् को नियन्त्रित करती है।
उत्तर :

लोकसभा तथा केंद्रीय मंत्रिपरिषद् पर नियन्त्रण

लोकसभा तथा केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में घनिष्ठ तथा अटूट सम्बन्ध होता है। केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण अधिकांशतः लोकसदस्यों में से ही किया जाता है। प्रधानमंत्री लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता होता है। प्रधानमंत्री मन्त्रिपरिषद् के प्रति और सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है।

कानूनी दृष्टिकोण से लोकसभा का स्थान मन्त्रिपरिषद् से उच्चतर होता है। लोकसभा मंत्रिपरिषद् की जननी है। मंत्रिपरिषद् संविधान की सीमा के अन्तर्गत कार्य करे तथा वह अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करे, इसके लिए मंत्रिपरिषद् की सीमान्तर्गत लोकसभा का अनवरत नियन्त्रण रहता है। लोकसभा निम्नलिखित साधनों द्वारा मंत्रिपरिषद् पर नियन्त्रण स्थापित करती है –

1. प्रश्न एवं पूरक-प्रश्न – पहला साधन जिसके द्वारा लोकसभा मन्त्रिपरिषद् पर अपना नियन्त्रण स्थापित करती है वह है प्रश्नों तथा पूरक-प्रश्नों का पूछना। लोकसभा के सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त होता है कि उसके सदस्य मंत्रियों से उनके कार्यों से सम्बन्धित प्रश्न पूछ सकें और मंत्रियों का यह दायित्व है कि वे उनका उत्तर दें। यदि कोई मंत्री प्रश्नों का उत्तर सन्तोषजनक ढंग से नहीं दे पाता है तो उसका सम्मान जनसाधारण से कम हो जाता है और इसका प्रभाव आगामी निर्वाचनों पर भी पड़ता है।

2. मन्त्रिपरिषद् की नीति की आलोचना व उसकी स्वीकृति – लोकसभा समय-समय पर मन्त्रिपरिषद् की नीति की आलोचना भी करती है। संसद यदि मन्त्रिपरिषद् की साधारण नीति से अथवा उसके किसी विशेष कार्य से अप्रसन्न है तो वह मन्त्रिपरिषद् के किसी प्रस्ताव, विधेयक एवं उसके द्वारा प्रस्तुत बजट अथवा उसकी अन्य किसी भी नीति को अस्वीकृत करके मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर सकती है; क्योंकि इसकी इस प्रकार की अस्वीकृति का अर्थ यह होता है कि मन्त्रिपरिषद् को लोकसभा का विश्वास प्राप्त नहीं है।

3. कटौती प्रस्ताव – लोकसभा के सदस्यों को यह भी अधिकार प्राप्त होता है कि वे किसी विशेष विभाग के कार्यों व नीतियों के प्रति अपना असन्तोष व्यक्त करने के लिए उस विभाग के व्यय के सम्बन्ध में कटौती प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकें। यदि लोकसभा ऐसे कटौती प्रस्ताव को पारित कर दे तो मंत्रिमण्डल द्वारा त्यागपत्र देना उसका नैतिक कर्तव्य हो जाता है।

4. कार्य स्थगन प्रस्ताव  संसद के सदस्यों को यह अधिकार भी है कि वे किसी विशेष विषय को लेकर काम रोको प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं। यदि इस प्रकार का प्रस्ताव पारित हो जाती है। तो इसका अर्थ यह है कि सदन को उसका ध्यान उस ओर आकर्षित करना पड़ा। ऐसी दशा में भी मंत्रिमण्डल की अयोग्यता सिद्ध हो जाती है तथा उसे नैतिक आधार पर त्यागपत्र देना पड़ता

5. निन्दा प्रस्ताव – लोकसभा के सदस्य किसी विषय को लेकर अथवा सरकार की किसी नीति को लेकर सम्पूर्ण मंत्रिमण्डल अथवा किसी मंत्री के विरुद्ध निन्दा का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं। यदि ऐस प्रस्ताव पारित हो जाता है तो मन्त्रिपरिषद् को नैतिक आधार पर त्यागपत्र देना पड़ता है।

6. अविश्वास का प्रस्ताव – लोकसभा के सदस्यों को यह भी अधिकार प्राप्त है कि यदि वे सरकार की साधारण नीति से असन्तुष्ट हों अथवा सम्पूर्ण मंत्रिमण्डल के क्रियाकलापों से असन्तुष्ट हों तो सरकार के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं।

7. राष्ट्रपति के भाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव – संसद के प्रत्येक अधिवेशन के पहले राष्ट्रपति सदन के सम्मुख भाषण देता है। इस भाषण में राष्ट्र की समस्याओं के प्रति सदन का ध्यान आकर्षित किया जाता है उसके पश्चात् लोकसभा उस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित करती है।

8. आकलन समिति तथा लोक लेखा समिति – लोकसभा की ये दोनों समितियाँ भी मंत्रिपरिषद् को नियन्त्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मंत्रिपरिषद् द्वारा रखी हुई अनुदान की माँगों को आकलन समिति (Estimate Committee) के सम्मुख रखा जाता है तथा यह समिति सदन को अपना प्रतिवेदन देती है। इससे गलत माँगों का निस्तारण हो जाता है। इसके अतिरिक्त जब धन व्यय कर लिया जाता है तो लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee) क्रमशः उस खर्च का परीक्षण करती है। इससे सरकार के असंगत व्ययों पर अंकुश लगता है तथा सरकार की जवाबदेही बढ़ जाती है। अत: धन के दुरुपयोग की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं। इस प्रकार उक्त साधनों से लोकसभा मंत्रिमण्डल का मार्ग निर्देशित करती है, उस पर नियन्त्रण स्थापित करती है तथा उसके कार्यों की देख-रेख करती है। लोकसभा की यह शक्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावकारी है।

प्रश्न 7.
संसद की विभिन्न समितियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :

संसद की समितियाँ

भारतीय संसद की निम्नलिखित समितियाँ हैं –

1. कार्य परामर्शदात्री समिति – यह समिति संसद के समस्त कार्यों के संचालन में सहायता करती है। इस समिति में 15 सदस्य होते हैं तथा लोकसभा का अध्यक्ष ही इस समिति का अध्यक्ष होता है। सदन का कार्य आरम्भ होते ही इस समिति का गठन किया जाता है। यह समिति सदन के कार्यों को संचालित करके उसके लिए नियमों का निर्माण करती है।

2. याचिका समिति – इस समिति में 15 सदस्य होते हैं जिनका नाम-निर्देशन अध्यक्ष द्वारा सदन के आरम्भ में ही किया जाता है। इस समिति का कार्य व्यक्तियों तथा लोकसभा द्वारा प्रेषित याचिकाओं पर सदन को परामर्श देना है। यह समिति प्रत्येक याचिका की जाँच करती है, जो उसे सौंपी जाती है।

3. प्राक्कलन समिति – इस समिति में 30 सदस्य होते हैं, जिनका चुनाव प्रत्येक वर्ष लोकसभा के सदस्यों में से आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय पद्धति द्वारा होता है। इस समिति का कार्य होता है कि वह प्रत्येक विभाग के आय-व्यय अथवा वार्षिक वित्तीय विवरण के प्राक्कलनों का समय-समय पर विश्लेषण करे तथा सदन को मितव्ययिता के सुझाव दे।

4. लोक-लेखा समिति – इस समिति का चुनाव प्रति वर्ष संसद के दोनों सदनों में होता है। इसमें दोनों सदनों के सदस्य लिए जाते हैं। इस समिति की कुल सदस्य संख्या 22 है, जिनमें से 15 सदस्य लोकसभा के तथा 7 सदस्य राज्यसभा के होते हैं। इन सदस्यों का चुनाव भी समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर होता है। समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा का अध्यक्ष करता है। इस समिति का कार्य है—लेखा-परीक्षण। प्रति वर्ष यह समिति नियन्त्रक तथा महालेखा परीक्षक के विवरणों की जाँच करती है तथा अपना प्रतिवेदन संसद के सम्मुख रखती है। समिति की रिपोर्ट सरकार के लिए चेतावनी का कार्य करती है।

5. प्रवर समिति – यह वह समिति है जो साधारणतया प्रत्येक विधेयक पर अपने विचार तथा उससे सम्बन्धित विवरण सदन के सम्मुख प्रस्तुत करती है। प्रवर समिति किसी विधेयक-विशेष हेतु बनाई जाती है और रिपोर्ट देने के बाद उसका समापन हो जाता है। प्रत्येक ऐसी समिति के निर्माण का प्रस्ताव, उसके सदस्यों की संख्या और उसकी सदस्यता का निर्माण विधेयक के प्रस्ताव के अनुसार होता है। प्रवर समितियों के अध्यक्ष की नियुक्ति सदन का अध्यक्ष करता है।

6. व्यक्तिगत सदस्यों के विधेयक तथा प्रस्तावों की समिति – इस समिति में 15 सदस्य होते हैं। इन सदस्यों को लोकसभा की अध्यक्ष एक वर्ष के लिए मनोनीत (Nominate) करता है। इस समिति का मुख्य कार्य गैर-सरकारी सदस्यों के द्वारा प्रस्तुत विधेयकों की जाँच करना है। समिति यह सुझाव भी प्रस्तुत करती है कि गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों के लिए कितना समय दिया जाए।

7. विशेषाधिकार समिति – इस समिति की सदस्य संख्या 15 होती है। सदन के प्रारम्भ में अध्यक्ष द्वारा सदस्यों का मनोनयन किया जाता है। यदि संसद तथा उसके विशेषाधिकारों का मामला उठ खड़ा हो तो यह समिति उसकी जाँच करती है तथा इसके द्वारा प्रस्तुत विवरण के अनुसार ही सदन आगे की कार्यवाही करता है।

8. नियम समिति  इस समिति में भी 15 सदस्य होते हैं, जिन्हें लोकसभा का अध्यक्ष एक वर्ष के लिए नियुक्त करता है। यह समिति संसद द्वारा निर्मित नियमों की जाँच करती है। इस समिति को इन नियमों में संशोधन के लिए संस्तुति करने का भी अधिकार है।

9. संसदात्मक समिति – यह समिति संसद से सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार करती है तथा सदन के समक्ष अपने विवरण को प्रस्तुत करती है।

10. सरकार द्वारा प्रदत्त आश्वासन समिति – इस समिति का मुख्य कार्य यह जाँच करना है कि मंत्रियों ने समय-समय पर जो आश्वासन दिए हैं, वे कहाँ तक पूरे किए गए हैं। समिति सदन को रिपोर्ट प्रस्तुत करती है और बताती है कि मंत्रियों ने अपने आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं और वचनों का पालन किस सीमा तक किया है। इस समिति में 15 सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति लोकसभा का अध्यक्ष एक वर्ष के लिए करता है।

11. अधीनस्थ विधि समिति – यह समिति पर्यवेक्षण करती है कि राज्यों तथा अन्य विभिन्न प्रशासनिक निकायों द्वारा विधि-निर्माण का कार्य समुचित रूप से चल रहा है या नहीं संविधान तथा अन्य विधियों का सम्यक् पालन अधीनस्थ प्राधिकारी कर रहे हैं या नहीं। इन सभी बातों की जाँच तथा सदन को इन सभी बातों से समय-समय पर अवगत कराना इस समिति का प्रमुख कार्य है।

12. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी समिति – इस समिति में 30 से अधिक सदस्य नहीं होते हैं। किसी मंत्री को इस समिति का सदस्य मनोनीत नहीं किया जा सकता है। इसके सदस्यों की पदावधि एक वर्ष से अधिक नहीं होती है। यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी मामलों पर विचार करती है और अपनी रिपोर्ट देती है।

इस समितियों के अतिरिक्त लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति द्वारा कृषि सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), पर्यावरण और वन सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), विज्ञान और प्रौद्योगिकी सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), सामान्य प्रयोजन समिति, आवास समिति (12 सदस्य), पुस्तकालय समिति (6 सदस्य), सांसदों के वेतन-भत्ते सम्बन्धी संयुक्त समिति तथा अन्य संसदीय समितियों का गठन किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
भारतीय संसद की विधि-निर्माण प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

भारतीय संसद की विधि-निर्माण प्रक्रिया

सरकार के तीन अंगों में संसद विधि-निर्माण सम्बन्धी दायित्वों को पूर्ण करती है। विधायी क्षेत्र में संसद को सर्वोच्च शक्ति प्रदान की गयी है। संसद द्वारा निर्मित कानून एक विशेष प्रक्रिया से गुजरने के पश्चात् विधि का रूप धारण करते हैं। इस सम्बन्ध में साधारण विधेयकों व वित्तीय विधेयकों के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् प्रक्रियाओं को अपनाया गया है। विधि-निर्माण सम्बन्धी सभी विधेयक संसद के सम्मुख प्रस्तुत किये जाते हैं। तत्पश्चात् प्रत्येक विधेयक निम्नलिखित तीन वाचनों से होकर गुजरता है –

  1. प्रथम वाचन – प्रथम वाचन का आशय गजट में प्रकाशित विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने से होता है।
  2. द्वितीय वाचन – द्वितीय वाचन के अन्तर्गत गजट के सिद्धान्तों व उपबन्धों पर संसद द्वारा गहन विचार-विमर्श किया जाता है।
  3. तृतीय वाचन – तृतीय वाचन, जो विधेयक पर होने वाला अन्तिम व निर्णायक वाचन होता है, में विधेयक को स्वीकार करने हेतु निर्णय लिया जाता है।

विधेयकों के प्रकार

विधेयकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. सरकारी विधेयक – इस प्रकार के विधेयकों के अन्तर्गत साधारण व वित्तीय दो प्रकार के विधेयक आते हैं तथा इन्हें किसी मंत्री द्वारा संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
  2. गैर-सरकारी विधेयक – ऐसे साधारण विधेयक, जिन्हें मंत्रियों के अतिरिक्त राज्य विधान मण्डल के अन्य सदस्यों द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, गैर-सरकारी विधेयक कहलाते हैं।

साधारण विधेयक

साधारण विधेयक मंत्रियों अथवा संसद के किसी सदस्य के द्वारा सम्बन्धित सदन में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। किसी भी प्रस्तावित साधारण विधेयक को विधि का रूप धारण करने से पूर्व अग्रलिखित प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है –

(1) प्रथम वाचन – साधारण विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने के लिए एक माह पूर्व सूचना देनी पड़ती है। मंत्री द्वारा विधेयक के प्रस्तुतीकरण करने की तिथि अध्यक्ष द्वारा निश्चित की जाती है। निश्चित तिथि पर अध्यक्ष मंत्री को बुलाता है तथा मंत्री विधेयक के सम्बन्ध में समस्त जानकारी सदन के समक्ष प्रस्तुत करता है। इस वाचन के अन्तर्गत विधेयक पर किसी प्रकार का कोई वाद-विवाद नहीं होता, अपितु केवल यह निर्णय किया जाता है कि विधेयक पर आगे की कार्यवाही की जाए या नहीं। सदन में स्वीकृत हो जाने पर विधेयक पर आगे की कार्यवाही की जाती है। विधेयक को प्रस्तुत करने व उसे विचारार्थ आगे प्रेषित करने की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रथम वाचन कहा जाता है।

(2) द्वितीय वाचन – प्रथम वाचन के अन्तर्गत प्रस्ताव के विचारार्थ स्वीकार होने के पश्चात् विधेयक की एक-एक प्रति सदन के सदस्यों में बाँट दी जाती है। साधारणतया प्रथम वाचन में प्रस्तुतीकरण के दो दिन पश्चात् विधेयक पर द्वितीय वाचन प्रारम्भ होता है जिसमें विधेयक के मूल सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है। कुछ विशेष विधेयकों के अतिरिक्त शेष सभी विधेयक विचारार्थ प्रवर समिति को सौंप दिये जाते हैं।

प्रवर समिति – गहन विचार-विमर्श हेतु सदन द्वारा एक प्रवर समिति की नियुक्ति की जाती है, जो सदन के कुछ सदस्यों का एक संगठन होता है। प्रवर समिति में विधेयक के प्रत्येक पक्ष पर विचार करने के पश्चात् विधेयक से सम्बन्धित रिपोर्ट सदन को प्रस्तुत की जाती है। समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट सभापति के द्वारा अनुमोदित होती है।

प्रतिवेदन स्तर – प्रवर समिति द्वारा प्रेषित प्रतिवेदन पर सदन द्वारा गहन विचार-विमर्श किया जाता है। इस स्तर पर विधेयक को या तो उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाता है जिस रूप में उसे प्रवर समिति सदन को प्रेषित करती है या फिर सदन द्वारा उसमें आवश्यक संशोधन किये जा सकते हैं। इस प्रकार द्वितीय वाचन में विधेयक के प्रत्येक पक्ष पर विचार करने तथा उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने के पश्चात् द्वितीय वाचन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।

(3) तृतीय वाचन – प्रवर समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् विधेयक के तृतीय वाचन की तिथि निश्चित कर दी जाती है। यह वाचन विधेयक को अन्तिम चरण होता है। इस वाचने में प्रस्तावक द्वारा विधेयक को पारित करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है। इस वाचन में विधेयक के सामान्य सिद्धान्तों पर बहस कर उसकी भाषा को अधिक-से-अधिक स्पष्ट व सरल बनाने का प्रयत्न किया जाता है। वास्तव में, विधेयक पर तृतीय वाचन की अवस्था मात्र औपचारिकता पूर्ण करने की होती है। इस अवस्था में विधेयक को रद्द करने की सम्भावनाएँ बहुत कम होती हैं।

दूसरा सदन – प्रथम सदन में पारित हो जाने के पश्चात् विधेयक द्वितीय सदन को प्रेषित कर दिया जाता है। यदि द्वितीय सदन भी विधेयक को अपने बहुमत से पास कर देता है तो विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेज दिया जाता है, परन्तु यदि द्वितीय सदन द्वारा विधेयक को अस्वीकार कर दिया जाता है तो राष्ट्रपति संसद की संयुक्त बैठक बुलाकर बहुमत से विवाद का समाधान करता है।

राष्ट्रपति की स्वीकृति – दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पास हो जाने के पश्चात् विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हेतु प्रस्तुत किया जाता है। यदि राष्ट्रपति विधेयक पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर देता है तो विधेयक कानून का रूप धारण कर लेता है, परन्तु यदि राष्ट्रपति विधेयक के सम्बन्ध में संशोधन हेतु कोई सुझाव देकर विधेयक को वापस भेज देता है तो ऐसी स्थिति में संसद विधेयक पर पुनर्विचार करती है। यदि पुनः संसद द्वारा विधेयक पारित कर दिया जाता है। तो विधेयक पर राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है।

इस प्रकार कोई भी अवित्तीय विधेयक अन्ततः कानून का रूप धारण कर लेता है।

वित्त विधेयक

वित्त विधेयक वंह हे जिसका सम्बन्ध राजस्व अथवा व्यय से होता है। संविधान द्वारा वित्त विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया को साधारण विधेयकों से पृथक् रखा गया है। संवैधानिक प्रावधान के अनुसार वित्त विधेयकों को राष्ट्रपति की अनुमति से केवल लोकसभा में ही प्रस्तावित किया जा सकता है तथा किसी भी विधेयक के सम्बन्ध में यह विवाद उत्पन्न होने पर कि वह वित्त विधेयक है अथवा नहीं, निर्णय लोकसभा अध्यक्ष द्वारा लिया जाता है। लोकसभा में प्रस्तावित धन विधेयक के लोकसभा द्वारा पास किये जाने के पश्चात् विधेयक राज्यसभा के विचारार्थ भेजा जाता है। इस सम्बन्ध में राज्यसभा को प्राप्त शक्तियाँ अत्यन्त सीमित हैं। राज्यसभा किसी भी धन विधेयक को अपनी अस्वीकृति व्यक्त करने हेतु केवल 14 दिन तक रोक सकती है। 14 दिन की समयावधि के अन्दर या तो वह इस विधेयक के सम्बन्ध में संशोधन-सम्बन्धी कुछ सुझाव देकर लोकसभा को प्रेषित कर देती है अन्यथा 14 दिन के पश्चात् वित्त विधेयक राज्यसभा की स्वीकृति के बिना भी पारित समझा जाता है। धन विधेयक पर दिये जाने वाले राज्यसभा के परामर्शों को स्वीकार करना या न करना लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है। दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पारित होने के पश्चात् विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून का रूप धारण कर लेता है।

वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं –

  1. धन विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् ही लोकसभा में प्रस्तुत किये जाते हैं।
  2. धन विधेयकों को संसद के दोनों सदनों की संयुक्त समिति को नहीं सौंपा जाता।
  3. धन विधेयकों के सम्बन्ध में एक विशेष तथ्य यह है कि साधारण विधेयकों की भाँति इन विधेयकों को राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए सदन को नहीं लौटाया जा सकता।

प्रश्न 9.
भारतीय संसद की स्थिति और भूमिका का परीक्षण कीजिए।
उत्तर :

भारतीय संसद की स्थिति और भूमिका

भारतीय संसद ब्रिटिश संसद के समान सम्प्रभु नहीं है। नॉर्मन डी० पामर के अनुसार, “भारतीय संसद विस्तृत शक्तियों का प्रयोग करती है तथा महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करती है, तथापि इसके कार्यों पर अनेक प्रतिबन्ध हैं। संघीय प्रणाली तथा संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान करने से इसकी शक्तियाँ सीमित हो गई हैं।”

वास्तव में, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता तथा न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया ने संसद पर सीमाएँ अवश्य लगाई हैं, परन्तु संसद देश की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है, उसे संविधान में संशोधन करने का अधिकार है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संसद की स्थिति ‘संसदीय सम्प्रभुता’ तथा ‘न्यायिक सर्वोच्चता के बीच की है।

भारत में संसद की प्रभावी भूमिका के सम्बन्ध में समय-समय पर सारगर्भित आलोचनाएँ की जाती रही हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल का संसद पर सदा दबाव बना रहा है। प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल जो भी निर्णय लेते हैं, संसद उनका अनुमोदन कर देती है। डॉ० लक्ष्मीलाल सिंघवी के अनुसार, “यह सत्य है कि कानून बनाने की तथा कर व शुल्क लगाने की सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है, किन्तु वास्तविकता यह है कि अधिनियमों का बीजारोपण और अभ्युदय मंत्रालयों में होता है, संसद में केवल मंत्रोच्चारण के साथ उपनयन संस्कार होता है और उन्हें औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता है। इस कथन से स्पष्ट होता है कि मंत्रिमण्डल के प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा उसके दल के संसद में बहुमत होने से संसद के अधिकार प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल ने ग्रहण कर लिए हैं। शक्तिशाली विपक्ष के अभाव में संसद; प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल की इच्छानुसार ही कार्य करती है। पिछले कुछ वर्षों में लोकसभा के स्तर में जो अभूतपूर्व गिरावट देखने को मिली है, वह लोकतन्त्र के लिए चिन्ता का विषय है। सांसदों के आचरण को देखकर हीरेन मुकर्जी ने कहा है, भारतीय संसद स्वर्ण युग प्राप्त किए बिना ही पतन की ओर अग्रसर हो रही है।”

भारतीय संसद के पराभव के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जा सकते हैं –

  1. संसद सदस्य पारस्परिक वाद-विवाद तथा आरोप-प्रत्यारोपों के कारण अपना बहुमूल्य समय नष्ट कर देते हैं, जिससे वे कानून सम्बन्धी मामलों पर गम्भीरता से विचार नहीं कर पाते।
  2. वर्तमान में राज्य के कार्य इतने अधिक विस्तृत हो गए हैं कि प्रत्येक विषय पर विचार करने के लिए न तो संसद के पास समय है और न ही सदस्यों को तकनीकी जानकारी है। अत: संसद को नौकरशाही द्वारा की गई सूचनाओं पर निर्भर रहना पड़ता है जिनकी प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध होती है।
  3. संसद में साधारणतया सरकारी विधेयक ही पारित हो पाते हैं। दलीय अनुशासन के कारण सदन के सदस्यों को इनका समर्थन करना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में व्यवहार में विधि-निर्माण कार्य संसद का न होकर मंत्रिमण्डल का हो गया है।
  4. संसद की वित्तीय शक्तियाँ मात्र औपचारिक हैं, क्योंकि जिस दल को लोकसभा में बहुमत होता है, वही सत्ताधारी होती है और इसके लिए वित्त विधेयक पारित करवाना कठिन कार्य नहीं होता है।
  5. राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है। इन अध्यादेशों को वही मान्यता प्राप्त होती है, जो संसद द्वारा पारित कानूनों को प्राप्त होती है।

भारतीय संसद की अनेक कमियों के बावजूद भी इसने देश की राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को बनाए रखने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। आज संसद की गरिमा को ऊँचा उठाने के लिए इसमें सुधार की आवश्यकता है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 5 Legislature (विधायिका) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 5 Legislature (विधायिका), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive (कार्यपालिका)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Political Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive (कार्यपालिका).

पाठ्य पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है
(क) जहाँ संसद हो वहाँ कार्यपालिका का होना
(ख) संसद द्वारा निर्वाचित कार्यपालिका
(ग) जहाँ संसद कार्यपालिका के रूप में काम करती है।
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत से समर्थन पर निर्भर हो।
उत्तर-
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत से समर्थन पर निर्भर हो।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित संवाद पढे। आप किस तर्क से सहमत हैं और क्यों?
अमित – संविधान के प्रावधानों को देखने से लगता है कि राष्ट्रपति का काम सिर्फ ठप्पा मारना
शमा – राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। इस कारण उसे प्रधानमंत्री को हटाने का भी अधिकार होना चाहिए।
राजेश – हमें राष्ट्रपति की जरूरत नहीं। चुनाव के बाद, संसद बैठक बुलाकर एक नेता चुन सकती है जो प्रधामंत्री बने।
उत्तर-
हम शमा के तर्क से कुछ सीमा तक सहमत हो सकते हैं। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है; अत: उसे प्रधानमंत्री को हटाने का अधिकार भी होना चाहिए। सिद्धान्त रूप से ऐसा है कि राष्ट्रपति ही प्रधानमंत्री की औपचारिक रूप से नियुक्ति करता है व संविधान के अनुच्छेद 78 के अनुरूप प्रधानमंत्री अपना कार्य न करे व राष्ट्रपति को माँगी गई सूचना न दे तो वह प्रधानमंत्री को हटा भी सकता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित को सुमेलित करें-
(क) भारतीय विदेश सेवा – जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा – केंद्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती है जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं और।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ – जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केंद्रीय सेवाएँ – भारत के लिए विदेशों में कार्यरत।
उत्तर-
सुमेलित –
(क) भारतीय विदेश सेवा भारत के लिए विदेशों में कार्यरत।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ – जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केंद्रीय सेवाएँ – केंद्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती है जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं और।

प्रश्न 4.
उस मंत्रालय की पहचान करें जिसने निम्नलिखित समाचार को जारी किया होगा। यह मंत्रालंय प्रदेश की सरकार का है या केंद्र सरकार का और क्यों?
(क) आधिकारिक तौर पर कहा गया है कि सन् 2004-05 में तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम कक्षा 7, 10 और 11 की नई पुस्तकें जारी करेगा।
(ख) भीड़ भरे तिरुवल्लुर-चेन्नई खंड में लौह-अयस्क निर्यातकों की सुविधा के लिए एक नई रेल लूप लाइन बिछाई जाएगी। नई लाइन 80 किमी की होगी। यह लाइन पुट्टुर से शुरू होगी और बंदरगाह के निकट अतिपट्टू तक जाएगी।
(ग) रमयमपेट मंडल में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं की पुष्टि के लिए गठित तीन सदस्यीय उप-विभागीय समिति ने पाया कि इस माह आत्महत्या करने वाले दो किसान फसल के मारे जाने से आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे थे।
उत्तर-
(क) यह समाचार तमिलनाडु सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने जारी किया होगा। क्योंकि राज्य शिक्षा मंत्रालय ही कक्षा 7, 10 व 11 की शिक्षा के विषयों से संबद्ध है।
(ख) यह समाचार केन्द्र सरकार के रेलवे मंत्रालय ने जारी किया होगा जो केन्द्र का विषय है; अतः यह केन्द्र सरकार के अधीन है। यह विषय निर्यात से भी जुड़ा है, यह भी केन्द्र को ही विषय है।
(ग) यह समाचार प्रदेश के कृषि मंत्रालय ने जारी किया होगा। किसानों का विषय राज्य सरकार का है।

प्रश्न 5.
प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने में राष्ट्रपति-
(क) लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ख) लोकसभा में बहुमत अर्जित करने वाले गठबन्धन-दलों के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ग) राज्यसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(घ) गठबंधन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।
उत्तर-
(घ) गठबंधन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।

प्रश्न 6.
इस चर्चा को पढ़कर बताएँ कि कौन-सा कथन भारत पर सबसे ज्यादा लागू होता है?
आलोक – प्रधानमंत्री राजा के समान है। वह हमारे देश में हर बात का फैसला करता है।
शेखर – प्रधानमंत्री सिर्फ ‘बराबरी के सदस्यों में प्रथम’ है। उसे कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं। सभी मंत्रियों और प्रधानमंत्री के अधिकार बराबर हैं।
बॉबी – प्रधानमंत्री को दल के सदस्यों तथा सरकार को समर्थन देने वाले सदस्यों का ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन कुल मिलाकर देखें तो नीति-निर्माण तथा मंत्रियों के चयन में प्रधानमंत्री की बहुत ज्यादा चलती है।
उत्तर-
उपर्युक्त परिस्थितियों में बॉबी का कथन भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री की स्थिति को प्रकट करता है। प्रधानमंत्री की शक्तियाँ निश्चित ही अधिक हैं लेकिन उसे सरकार को समर्थन देने वाले सदस्यों का भी ध्यान रखना पड़ता है।

प्रश्न 7.
क्या मंत्रिमण्डल की सलाह राष्ट्रपति को हर हाल में माननी पड़ती है? आप क्या सोचते हैं? अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 में उल्लेख है कि राष्ट्रपति को उसके कार्यों में सलाह देने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिमण्डल होगा जो उनकी सलाह के अनुसार कार्य करेगा। 42वें संविधान संशोधन के अनुसार यह निश्चित किया गया था कि राष्ट्रपति को मंत्रिमण्डले की सलाह अनिवार्य रूप से माननी होगी। परन्तु संविधान के 44वें संविधान संशोधन में फिर यह निश्चय किया कि राष्ट्रपति प्रथम बार में मंत्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है। वह सलाह’ को पुनः विचार-विमर्श हेतु भेज सकता है परन्तु दुबारा विचार-विमर्श के पश्चात् दी गई ‘सलाह’ को उसे अनिवार्य रूप से मानना होगा।

प्रश्न 8.
कार्यपालिका की संसदीय-व्यवस्था ने कार्यपालिका को नियन्त्रण में रखने के लिए विधायिका को बहुत-से अधिकार दिए हैं। कार्यपालिका को नियन्त्रित करना इतना जरूरी क्यों है? आप क्या सोचते हैं?
उत्तर-
संसदीय सरकार की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें कार्यपालिका (प्रधानमंत्री व मंत्रिमण्डल) संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। विभिन्न संसदात्मक तरीकों से व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर लगातार अपना नियन्त्रण बनाए रखती है। इससे कार्यपालिका की मनमानी पर रोक लगती है और जनहित के निर्णय लिए जा सकते हैं। व्यवस्थापिका जनमते-निर्माण से, ‘काम रोको’ प्रस्ताव से व सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार पर नियन्त्रण करती है। जो स्वच्छ प्रशासन व जनहित के लिए आवश्यक भी है।

प्रश्न 9.
कहा जाता है कि प्रशासनिक-तन्त्र के कामकाज में बहुत ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। सुझाव के तौर पर कहा जाता है कि ज्यादा-से-ज्यादा स्वायत्त एजेंसियाँ बननी चाहिए जिन्हें मंत्रियों को जवाब न देना पड़े।
(क) क्या आप मानते हैं कि इससे प्रशासन ज्यादा जन-हितैषी होगा?
(ख) क्या आप मानते हैं कि इससे प्रशासन की कार्यकुशलता बढ़ेगी?
(ग) क्या लोकतंत्र का अर्थ यह होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रशासन पर पूर्ण नियन्त्रण हो?
उत्तर-
भारत में कार्यपालिका के दो प्रकार दिखाई देते हैं- एक राजनीतिक कार्यपालिका जो अस्थायी होती है। इसमें मंत्रियों के रूप में जन-प्रतिनिधि शामिल होते हैं। दूसरी स्थायी कार्यपालिका होती है। इसमें नौकरशाह (सरकारी कर्मचारी) होते हैं। ये अपने क्षेत्र में अनुभवी व विशेषज्ञ होते हैं। स्थायी नौकरशाही एक निश्चित राजनीतिक-प्रशासनिक वातावरण में कार्य करती है। इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप अधिक होता है। यह नौकरशाही की क्षमता को भी प्रभावित करती है। संसदात्मक कार्यपालिका में यह सम्भव नहीं है कि प्रशासनिक संस्थाएँ पूरी तरह से स्वायत्त हों व उनमें राजनीतिक हस्तक्षेप का कोई प्रभाव न हो। यह निश्चित है कि अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप अगर न हो तो प्रशासनिक संस्थाओं की क्षमता अवश्य बढ़ेगी।

प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र में जन-प्रतिनिधि जनता के हितों के रक्षक माने जाते हैं तथा प्रशासनिक कर्मचारियों व प्रशासनिक अधिकारियों का यह दायित्व है कि जन-प्रतिनिधियों के निर्देशन में जनहित को दृष्टिगत रखते हुए नीति-निर्माण करें। अतः आवश्यक सलाह को हस्तक्षेप नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि यह तो संसदात्मक सरकार के ढाँचे की अनिवार्यता है। जनहित के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक कार्यपालिका व स्थायी नौकरशाही तालमेल बिठाकर अपने-अपने क्षेत्रों में रहकर कार्य करें।

प्रश्न 10.
नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचन आधारित प्रशासन होना चाहिए। इस विषय पर 200 शब्दों में एक लेख लिखें।
उत्तर-
निर्वाचित प्रशासन का अर्थ
विश्व के लगभग सभी देशों में प्रशासन स्थायी कर्मचारियों द्वारा चलाया जाता है जो योग्यता तथा खुली प्रतियोगिता के आधार पर नियुक्त किए जाते हैं। ये कर्मचारी या अधिकारी स्थायी रूप से पद पर बने रहते हैं और उन्हें पद प्राप्त करने के लिए चुनाव नहीं लड़ना पड़ता, इसीलिए उन्हें स्थायी कार्यपालिका कहा जाता है। ये नियुक्ति आधारित प्रशासन का गठन करते हैं। यदि प्रशासन के सभी पदों पर नियुक्ति हेतु निर्वाचन की व्यवस्था कर दी जाए और कर्मचारी को प्रत्येक चार-पाँच वर्ष बाद चुनाव लड़ना पड़े और यह भी आवश्यक नहीं कि वह पुन: इस पद पर चुना जाए तो इसे निर्वाचित प्रशासन कहा जाएगा।

नियुक्त प्रशासन ही उचित तथा लाभदायक है- नियुक्त प्रशासन के स्थान पर निर्वाचित प्रशासन अच्छा तथा लाभदायक नहीं हो सकता, नियुक्त प्रशासन ही उचित होता है। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-
1. प्रशासन एक कला है जिसके लिए विशेष योग्यता तथा जानकारी की आवश्यकता होती है और स्थायी रूप से एक ही प्रकार का कार्य करने से व्यक्ति में अनुभव व निपुणता आती है। यह योग्यता निर्वाचित व्यक्तियों को प्राप्त नहीं होती।
2. स्थायी कर्मचारी राजनीति में भाग न लेकर राजनीतिक कार्यपालिका के निर्देशानुसार शासन चलाते हैं, किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होकर कार्य नहीं करते। निर्वाचित स्थिति प्राप्त करने पर वे राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेंगे और प्रशासनिक कार्य राजनीतिक भेदभाव के आधार पर करेंगे।
3. यदि निर्वाचित कर्मचारी तथा राजनीतिक कार्यपालिका के बीच राजनीतिक विचारधारा के आधार पर विरोध हो तो कर्मचारी मंत्री के आदेशों का पालन न करके खुले रूप में उनका विरोध करेगा, मंत्री के आदेश का पालन नहीं करेगा और प्रशासन में गतिरोध उत्पन्न हो जाएगा।
4. निर्वाचित कर्मचारी प्रशासन के काम में रुचि न लेकर अगले चुनाव में विजय प्राप्त करने की जोड़-तोड़ में लग जाएँगे क्योंकि उनका भविष्य अगले चुनाव पर निर्भर करेगा। इसके विपरीत नियुक्त कर्मचारी को उस पद पर स्थायी तौर पर रहना है और उसकी पदोन्नति अच्छे कार्यों पर निर्भर करेगी।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय मंत्रि-परिषद् के सदस्य सामूहिक रूप से किसके प्रति उत्तरदायी है।
(क) राज्यसभा
(ख) लोकसभा
(ग) लोकसभा व राज्यसभा दोनों
(घ) लोकसभा, राज्यसभा तथा राष्ट्रपति
उत्तर :
(ख) लोकसभा।

प्रश्न 2.
मंत्रिपरिषद का कार्यकाल कितना है?
(क) पाँच वर्ष
(ख) चार वर्ष
(ग) अनिश्चित
(घ) दो वर्ष
उत्तर :
(ग) अनिश्चित।

प्रश्न 3.
प्रधानमंत्री किसके प्रति उत्तरदायी है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) लोकसभा
(ग) राज्यसभा
(घ) उच्चतम न्यायालय
उत्तर :
(ख) लोकसभा।

प्रश्न 4.
भारत में केंद्रीय मंत्रिपरिषद् का कार्यकाल है –
(क) 5 वर्ष
(ख) 4 वर्ष
(ग) अनिश्चित
(घ) 2 वर्ष
उत्तर :
(क) 5 वर्ष।

प्रश्न 5.
मंत्रिपरिषद् का अध्यक्ष होता है –
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमंत्री
(ग) उपराष्ट्रपति
(घ) लोकसभा अध्यक्ष
उत्तर :
(ख) प्रधानमंत्री।

प्रश्न 6.
भारत में किस प्रकार की कार्यपालिका है।
(क) संसदीय
(ख) अध्यक्षात्मक
(ग) अर्द्ध-अध्यक्षात्मक
(घ) राजतन्त्रात्मक
उत्तर :
(क) संसदीय।

प्रश्न 7.
जर्मनी में सरकार का प्रधान कौन होता है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमंत्री
(ग) चांसलर
(घ) उपराष्ट्रपति
उत्तर :
(ग) चांसलर।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से कौन भारत के राष्ट्रपति का चुनाव करता है?
(क) लोकसभा के सदस्य
(ख) लोकसभा एवं राज्यसभा के सदस्य
(ग) लोकसभा एवं विधानसभा के सदस्य
(घ) लोकसभा, राज्यसभा एवं विधानसभा के निर्वाचित सदस्य
उत्तर :
(घ) लोकसभा, राज्यसभा एवं विधानसभा के निर्वाचित सदस्य।

प्रश्न 9.
राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा के कितने सदस्यों को मनोनीत किया जाता है?
(क) 14
(ख) 2
(ग) 15
(घ) 12
उत्तर :
(घ) 12

प्रश्न 10.
राष्ट्रपति शासन की अवधि कितनी होती है?
(क) छ: माह
(ख) एक वर्ष
(ग) दो वर्ष
(घ) निश्चित नहीं
उत्तर :
(क) छ: माह।

प्रश्न 11.
भारतीय सैन्य बल का प्रधान कौन होता है?
(क) प्रधानमंत्री
(ख) थल सेना का अध्यक्ष
(ग) राष्ट्रपति
(घ) उपराष्ट्रपति
उत्तर :
(ग) राष्ट्रपति।

प्रश्न 12.
राज्यसभा का सभापित कौन होता है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) उपराष्ट्रपति
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) स्पीकर
उत्तर :
(ख) उपराष्ट्रपति।

प्रश्न 13.
राष्ट्रपति को महाभियोग की प्रक्रिया द्वारा कौन हटा सकता है?
(क) संसद
(ख) मंत्रिपरिषद्
(ग) उपराष्ट्रपति
(घ) लोकसभा
उत्तर :
(क) संसद।

प्रश्न 14.
मंत्रिपरिषद् की सदस्य संख्या
(क) संविधान में संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा निर्धारित की गई है।
(ख) प्रधानमंत्री निर्धारित करता है।
(ग) लोकसभा अध्यक्ष निर्धारित करता है।
(घ) राष्ट्रपति निर्धारित करता है।
उत्तर :
(क) संविधान में संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा निर्धारित की गई है।

प्रश्न 15.
विदेश नीति का मुख्य निर्माता कौन होता है?
(क) विदेशमंत्री
(ख) राष्ट्रपति
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) राजदूत
उत्तर :
(ग) प्रधानमंत्री।

प्रश्न 16.
संसदीय शासन में वास्तविक शक्ति निहित होती है –
(क) राष्ट्रपति एवं संसद में
(ख) संसद एवं प्रधानमंत्री में
(ग) मंत्रिपरिषद् एवं प्रधानमंत्री में
(घ) राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री में।
उत्तर :
(ग) मंत्रिपरिषद् एवं प्रधानमंत्री में।

प्रश्न 17.
भारतीय कार्यपालिका का ‘पॉकेट वीटों किसके पास होता है?
(क) प्रधानमंत्री
(ख) राष्ट्रपति
(ग) उपराष्ट्रपति
(घ) उपप्रधानमंत्री
उत्तर :
(ख) राष्ट्रपति।

प्रश्न 18.
सरकार के स्थायी कर्मचारी किस सेवा के अन्तर्गत आते हैं?
(क) विधानसभा
(ख) नागरिक सेवा
(ग) संसदीय स्टाफ
(घ) प्रशासनिक स्टाफ
उत्तर :
(ख) नागरिक सेवा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो विधायिका द्वारा स्वीकृत नीतियों और कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार है।

प्रश्न 2.
कार्यपालिका के दो प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर :

  1. कार्यपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों को कार्यान्वित करती है तथा
  2. विदेश नीति का संचालन करती है।

प्रश्न 3.
कार्यपालिका की नियुक्ति की दो विधियाँ बताइए।
उत्तर :

  1. निर्वाचन पद्धति तथा
  2. वंशानुगत पद्धति।

प्रश्न 4.
किन देशों में व्यवस्थापिका के दोनों सदनों द्वारा कार्यपालिका के अध्यक्ष या समिति का चुनाव होता है?
उत्तर :
स्विट्जरलैण्ड, यूगोस्लाविया और तुर्की। प्रश्न 5. किन देशों में कार्यपालिका के अध्यक्ष का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं के मतों द्वारा होता है? उत्तर-फ्रांस, ब्राजील, चिली, पेरू, मैक्सिको, घाना आदि।

प्रश्न 6.
कार्यपालिका को एक न्यायिक कार्य बताइए।
उत्तर :
प्रशासनिक विभाग द्वारा अर्थदण्ड देना, कार्यपालिका का एक न्यायिक कार्य है।

प्रश्न 7.
नाममात्र की कार्यपालिका का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
भारत का राष्ट्रपति व ब्रिटेन की सम्राज्ञी नाममात्र की कार्यपालिका के उदाहरण हैं।

प्रश्न 8.
बहुल कार्यपालिका का एक लक्षण बताइए।
उत्तर :
इस व्यवस्था में कार्यकारिणी सम्बन्धी शक्तियाँ एक व्यक्ति के हाथों में निहित न होकर अनेक व्यक्तियों की एक परिषद् अथवा अनेक अधिकारियों के समूह में निहित होती हैं।

प्रश्न 9.
कार्यपालिका के किन्हीं दो रूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. एकल कार्यपालिका तथा
  2. बहुल कार्यपालिका।

प्रश्न 10.
भारत में कार्यपालिका का औपचारिक प्रधान कौन है?
उत्तर :
भारत में कार्यपालिका का औपचारिक प्रधान राष्ट्रपति होता है।

प्रश्न 11.
राजनीतिक कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर :
सरकार के प्रधान और उनके मंत्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका कहते हैं।

प्रश्न 12.
स्थायी कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर :
जो लोग प्रतिदिन के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होते हैं, वे स्थायी कार्यपालिका कहलाते हैं।

प्रश्न 13.
अमेरिका में किस प्रकार की कार्यपालिका है?
उत्तर :
अमेरिका में अध्यक्षात्मक व्यवस्था है। कार्यकारी शक्तियाँ राष्ट्रपति के पास हैं।

प्रश्न 14.
संसदीय व्यवस्था में सरकार का प्रधान कौन होता है?
उत्तर :
संसदीय व्यवस्था में सरकार का प्रधान प्रधानमंत्री होता है।

प्रश्न 15.
भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन किस प्रकार होता है?
उत्तर :
भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचक-मण्डल द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अन्तर्गत एकल संक्रमणीय पद्धति के आधार पर होता है।

प्रश्न 16.
भारत के राष्ट्रपति का कार्यकाल कितने वर्ष का है?
उत्तर :
भारत के राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष का है।

प्रश्न 17.
राष्ट्रपति राज्यसभा में कितने सदस्यों को मनोनीत करता है?
उत्तर :
राष्ट्रपति राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत करता है।

प्रश्न 18.
राष्ट्रपति को उसके पद से किस प्रकार हटाया जा सकता है?
उत्तर :
महाभियोग प्रस्ताव पारित करके ही राष्ट्रपति को उसके पद से हटाया जा सकता है।

प्रश्न 19.
भारत का प्रथम नागरिक कौन है?
उत्तर :
भारत का प्रथम नागरिक राष्ट्रपति है।

प्रश्न 20.
राष्ट्रपति के निर्वाचक-मण्डल में कौन-कौन सदस्य होते हैं।
उत्तर :
राष्ट्रपति के निर्वाचक-मण्डल में निम्नलिखित सदस्य होते हैं –

  1. संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य
  2. सभी राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य।

प्रश्न 21.
भारत के राष्ट्रपति पद पर कोई व्यक्ति कितनी बार निर्वाचित हो सकता है?
उत्तर :
भारत के राष्ट्रपति पद पर कोई व्यक्ति अनेक बार निर्वाचित हो सकता है।

प्रश्न 22.
संविधान में उल्लिखित विधि के समक्ष समता से भारत में कौन व्यक्ति उन्मुक्त है?
उत्तर :
भारत का राष्ट्रपति उन्मुक्त है।

प्रश्न 23.
किसी एक परिस्थिति का उल्लेख कीजिए, जिसके अन्तर्गत राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है।
उत्तर :
यदि देश पर युद्ध या बाहरी शक्ति का आक्रमण हो जाए या सशस्त्र विद्रोह की अवस्था विद्यमान हो जाए तो उस परिस्थिति में राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है।

प्रश्न 24.
भारत में मंत्रिपरिषद् का प्रधान कौन होता है।
उत्तर :
भारत में मंत्रिपरिषद् का प्रधान प्रधानमंत्री होता है।

प्रश्न 25.
मंत्रिपरिषद् किसके प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है?
उत्तर :
मंत्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है।

प्रश्न 26.
भारतीय नौकरशाही में कौन-कौन सम्मिलित हैं?
उत्तर :
भारतीय नौकरशाही में अखिल भारतीय सेवाएँ, प्रान्तीय सेवाएँ, स्थानीय सरकार के कर्मचारी और लोक उपक्रमों के तकनीकी तथा प्रबन्धकीय अधिकारी सम्मिलित हैं।

प्रश्न 27.
केंद्रीय मंत्रिपरिषद् की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर :
केंद्रीय मंत्रिपरिषद् की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करता है।

प्रश्न 28.
संविधान के अनुसार मंत्रिपरिषद् का क्या कार्य है?
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार मंत्रिपरिषद् का मुख्य कार्य राष्ट्रपति को सहायता व सलाह देना है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि के चार कारण दीजिए।
या
आधुनिक लोकतंत्र में कार्यपालिका के बढ़ते हुए प्रभाव के चार कारण लिखिए।
उत्तर :
कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

1. साधारण योग्यता के व्यक्तियों का चुनाव – व्यवस्थापिका के सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर चुने जाते हैं और अधिक योग्यता वाले व्यक्ति चुनाव के पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। अतः बहुत कम योग्यता वाले व्यक्ति और पेशेवर राजनीतिज्ञ व्यवस्थापिका में चुनकर आ जाते हैं। ये कम योग्य व्यक्ति अपने कार्यों व आचरण से व्यवस्थापिका की गरिमा को कम करते हैं।

2. जनकल्याणकारी राज्य की धारणा – वर्तमान समय में जनकल्याणकारी राज्य की धारणा के कारण राज्य के कार्य बहुत अधिक बढ़ गये हैं और इन बढ़े हुए कार्यों को कार्यपालिका द्वारा ही किया जा सकता है। अतः व्यवस्थापिका की शक्तियों में निरन्तर कमी और कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि होती जा रही है।

3. दलीय पद्धति – दलीय पद्धति के विकास ने भी व्यवस्थापिका की शक्ति में कमी और | कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि कर दी है। संसदात्मक लोकतंत्र में बहुमत दल के समर्थन पर टिकी हुई कार्यपालिका बहुत अधिक शक्तियाँ प्राप्त कर लेती है।

4. प्रदत्त व्यवस्थापन – वर्तमान समय में कानून निर्माण का कार्य बहुत अधिक बढ़ जाने और इस कार्य के जटिल हो जाने के कारण व्यवस्थापिका के द्वारा अपनी ही इच्छा से कानून निर्माण की शक्ति कार्यपालिका के विभिन्न विभागों को सौंप दी जाती है। इसे ही प्रदत्त व्यवस्थापन कहते हैं। और इसके कारण व्यवस्थापिका की शक्तियों में कमी तथा कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि हो गयी है।

प्रश्न 2.
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :

कार्यपालिका के विभिन्न प्रकार

कार्यपालिका के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं –

1. नाममात्र की कार्यपालिका – वह व्यक्ति जो सैद्धान्तिक रूप से शासन का प्रधान है तथा जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किए जाते हैं एवं स्वयं किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं करता, नाममात्र का कार्यपालक प्रधान होता है और इस प्रकार की कार्यपालिका नाममात्र की कार्यपालिका होती है। उदाहरणार्थ, इंग्लैण्ड का सम्राट तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका हैं। नाममात्र की कार्यपालिका के अधिकारों के प्रयोग मंत्रिपरिषद् करती है तथा वास्तविक कार्यकारिणी की शक्तियाँ मंत्रिपरिषद् में निहित होती है।

2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका उसे कहते हैं, जो वास्तव में कार्यकारिणी की शक्तियों का प्रयोग करती है। इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा भारत की मंत्रिपरिषद् वास्तविक कार्यपालिका का उदाहरण हैं।

3. एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका उसे कहते हैं, जिसमें कार्यपालिका की सम्पूर्ण शक्तियाँ एक व्यक्ति के अधिकार में होती हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का ही उदाहरण है।

4. बहुल कार्यपालिका – इस प्रकार की कार्यपालिका में कार्यकारिणी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर अनेक अधिकारियों के समूह में निहित होती है। इस प्रकार की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में है। वहाँ कार्यपालिका-सत्ता सात सदस्यों की एक परिषद् में निहित होती है।

प्रश्न 3.
वर्तमान में कार्यपालिका की नियुक्ति के सम्बन्ध में प्रचलित विभिन्न पद्धतियों को उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
कार्यपालिका की नियुक्ति से सम्बन्धित विभिन्न पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. वंशानुगत पद्धति (ग्रेट ब्रिटेन–राजा)
  2. जनता द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन जो वर्तमान में राजनीतिक दलों के कारण प्रत्यक्ष हो गया है। (संयुक्त राज्य अमेरिका–राष्ट्रपति)।
  3. जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन (फ्रांस-राष्ट्रपति)।
  4. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन (स्विट्जरलैण्ड-बहुल कार्यपालिका)।
  5. ब्रिटेन के राजा द्वारा राष्ट्रमण्डलीय देशों के कार्यपालिका प्रमुख का मनोनयन (जैसे-कनाडा का गवर्नर जनरल)।

प्रश्न 4.
कार्यपालिका के प्रधान के चयन की विधियाँ बताइए।
उत्तर :
कार्यपालिका के प्रधान के चयन की विधियाँ निम्नलिखित हैं –

1. वंशानुगत कार्यपालिका – यह पद्धति इंग्लैण्ड, जापान तथा बेल्जियम आदि देशों में है। इन देशों में राजतन्त्र अभी तक जीवित है। राजा को पद वंशानुगत होता है तथा उसका ज्येष्ठ पुत्र शासन का उत्तराधिकारी होता है।

2. जनता द्वारा निर्वाचन – यह पद्धति चिली, घाना तथा दक्षिण अमेरिका के राज्यों में है। यहाँ जनता राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष निर्वाचन करती है।

3. अप्रत्यक्ष निर्वाचन – यह पद्धति संयुक्त राज्य अमेरिका, अर्जेण्टीना तथा स्पेन में है। इसमें जनता निर्वाचक मण्डल चुनती है और निर्वाचक मण्डल सर्वोच्च कार्यपालिका का चुनाव करता

4. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन – स्विट्जरलैण्ड तथा भारत में यही पद्धति है। इसमें संघ और राज्यों की व्यवस्थापिकाएँ मिलकर राष्ट्रपति या संघीय कार्यकारिणी परिषद् का निर्वाचन करती।

5. मनोनयन – कार्यपालिका को मनोनयन भी होता है। स्वतंत्रता से पूर्व भारत में गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों की नियुक्ति इंग्लैण्ड के सम्राट द्वारा होती थी। कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया में वर्तमान में भी गवर्नर जनरल का पद विद्यमान है।

प्रश्न 5.
व्यवस्थापिका किन दो तरीकों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण स्थापित करती है?
उत्तर :
सैद्धान्तिक दृष्टि से व्यवस्थापिका सर्वोच्च है और कार्यपालिका उसके अधीन होती है। संसदीय शासन में कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी है तथा अध्यक्षात्मक प्रणाली में वह पृथक् रहकर व्यवस्थापिका के कानूनों को लागू करती है। परन्तु आधुनिक युग में कार्यपालिका के अधिकारों में निरन्तर वृद्धि हो रही है और आज वह विश्व के अनेक देशों में व्यवस्थापिका पर हावी होती जा रही है। इंग्लैण्ड में तो कहा जाता है कि आज मंत्रिमण्डल पर जो नियन्त्रण करती है वह संसद नहीं वरन् मंत्रिमण्डल है। रैम्जे म्योर जैसे लेखक कैबिनेट की तानाशाही’ की शिकायत करते हैं। उन्हीं के शब्दों में, “मंत्रिमण्डल की तानाशाही ने संसद की शक्ति तथा सम्मान को बहुत कम कर दिया है।”

प्रश्न 6.
राष्ट्रपति की पदच्युति (महाभियोग) पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 61 में यह प्रावधान किया गया है कि संविधान का अतिक्रमण करने पर राष्ट्रपति को 5 वर्ष के निर्धारित कार्यकाल से पूर्व भी ‘महाभियोग’ की प्रणाली द्वारा पदच्युत किया जा सकता है। महाभियोग द्वारा हटाये जाने की प्रणाली निम्नलिखित है –

(1) संसद के किसी भी एक सदन (उच्च एवं निम्न) के कम-से-कम एक-चौथाई सदस्य उक्त आशय के प्रस्ताव की लिखित सूचना देने के 14 दिन पश्चात् राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने का प्रस्ताव करेंगे।

(2) उक्त महाभियोग प्रस्ताव सम्बन्धित सदन के दो-तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए, तभी वह आगे जाँच के लिए दूसरे सदन में भेजा जाएगा।

(3) दूसरा सदन जब आगामी जाँच-पड़ताल करेगा तो राष्ट्रपति स्वयं वहाँ स्पष्टीकरण देने के लिए उपस्थित हो सकता है, अथवा इस कार्य हेतु वह अपने किसी प्रतिनिधि को भेज सकता है।

(4) यदि दूसरा सदन भी जाँच-पड़ताल के पश्चात् कुल सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से उक्त महाभियोग के प्रस्ताव को पारित कर देता है तो उसी दिन से राष्ट्रपति का पद रिक्त समझा जाएगा।

प्रश्न 7.
संघीय मंत्रिपरिषद् के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार, “राष्ट्रपति को उसके कार्यों के सम्पादन में सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा।” इस प्रकार संविधान की दृष्टि से राष्ट्रपति राज्य को प्रमुख है, परन्तु वास्तविक कार्यपालिका मंत्रिपरिषद् है। भारतीय संविधान ने देश में संसदात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की है संसदात्मक शासन का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख अंग मंत्रिपरिषद् ही है। संसदात्मक शासन व्यवस्था में मंत्रिपरिषद् शासन का आधार-स्तम्भ होता है। बेजहॉट ने मंत्रिपरिषद् को कार्यपालिका तथा विधायिका को जोड़ने वाला कब्जा कहा है। यद्यपि वैधानिक रूप से संघ की कार्यपालिका का सर्वेसर्वा राष्ट्रपति होता है, किन्तु वास्तविक शक्ति मंत्रिपरिषद् में केन्द्रित होती है। इसलिए मंत्रिपरिषद् का अधिक महत्त्वपूर्ण होना स्वाभाविक ही है।

प्रश्न 8.
मंत्रिपरिषद् में कार्यरत मंत्रियों की विभिन्न श्रेणियों की विवेचना कीजिए।
या
मंत्रिपरिषद् में सम्मिलित मंत्रियों की कौन-कौन सी श्रेणियाँ होती हैं?
उत्तर :

मंत्रिपरिषद् में तीन प्रकार के मंत्री होते हैं –

1. कैबिनेट मंत्री – प्रथम श्रेणी में उन मंत्रियों को लिया जाता है, जो अनुभवी, प्रभावशाली एवं अधिक विश्वसनीय होते हैं। ये कैबिनेट की प्रत्येक बैठक में भाग लेते हैं और एक या अधिक विभागों के प्रभारी होते हैं।

2. राज्यमंत्री – इसमें राज्यमंत्रियों को सम्मिलित किया जाता है। इसमें दो प्रकार के मंत्री होते हैं – (क) राज्यमंत्री, (ख) राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार)। स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री मंत्रिमण्डल के सदस्य होते हैं।

3. उपमंत्री – इसके अन्तर्गत उपमंत्री आते हैं। ये किसी कैबिनेट मंत्री या राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) के अधीनस्थ कार्य करते हैं। ये कैबिनेट के सदस्य नहीं होते हैं।

प्रश्न 9.
मंत्रिपरिषद् तथा राष्ट्रपति के सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भारत में कार्यपालिका का अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मंत्रिपरिषद् का गठन उसे परामर्श देने के लिए किया जाता है; किन्तु वास्तविक स्थिति इसके विपरीत है। मंत्रिपरिषद् के निर्णय एवं परामर्श राष्ट्रपति को मानने पड़ते हैं। यद्यपि राष्ट्रपति इनके सम्बन्ध में अपनी व्यक्तिगत असहमति प्रकट कर सकता है; किन्तु वह मंत्रिपरिषद् के निर्णयों को मानने के लिए बाध्य होता है। भारतीय संविधान में किए गए 42वें तथा 44वें संशोधन के अनुसार, राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् का परामर्श कानूनी दृष्टिकोण से मानने के लिए बाध्य है। वह केवल मंत्रिमण्डल से पुनर्विचार के लिए आग्रह ही कर सकता है। वह मंत्रिपरिषद् की नीतियों को किस रूप में प्रभावित करता है, यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर है। मंत्रिपरिषद् में लिए गए समस्त निर्णयों से राष्ट्रपति को अवगत कराया जाता है तथा राष्ट्रपति मंत्रिमण्डल से किसी भी प्रकार की सूचना माँग सकता है। राष्ट्रपति ही मंत्रिमण्डल का गठन करता है। तथा उसे शपथ ग्रहण कराता है। प्रधानमंत्री के परामर्श पर वह किसी भी मंत्री को पदच्युत कर सकता

प्रश्न 10.
प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है और मंत्रिमण्डल राष्ट्रपति को सहायता एवं परामर्श देने वाली समिति है। राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है। वह स्व-विवेकानुसार आचरण उसी समय कर सकता है, जब लोकसभा में किसी दल का स्पष्ट बहुमत न हो। परन्तु व्यावहारिक स्थिति यह है कि राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल का परामर्श मानना होता है; क्योंकि भारत में संसदात्मक शासन व्यवस्था है तथा मंत्रिमण्डल संसद (लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी है। 42वें 44वें संवैधानिक संशोधनों द्वारा अब राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री एवं मंत्रिमण्डल का परामर्श मानना आवश्यक हो गया है। इस प्रकारे राष्ट्रपति केवल कार्यपालिका का वैधानिक अध्यक्ष तथा प्रधानमंत्री वास्तविक अध्यक्ष है। वह राष्ट्रपति और मंत्रिमण्डल के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करता है।

प्रश्न 11.
मंत्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व का अभिप्राय समझाइए। एक उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर :
मंत्रिमण्डलीय कार्यप्रणाली का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है–सामूहिक उत्तरदायित्व। मंत्रिगण व्यक्तिगत रूप से तो संसद के प्रति उत्तरदायी होते ही हैं, इसके अतिरिक्त सामूहिक रूप से प्रशासनिक नीति और समस्त प्रशासनिक कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण मंत्रिमण्डल एक इकाई के रूप में कार्य करता है और सभी मंत्री एक-दूसरे के निर्णय तथा कार्य के लिए उत्तरदायी हैं। यदि लोकसभा किसी एक मंत्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित करे अथवा उस विभाग से सम्बन्धित विधेयक रद्द कर दे तो समस्त मंत्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना होता है।

प्रश्न 12.
किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति में अपने विवेक का प्रयोग करता है?
उत्तर :
निम्नलिखित परिस्थितियों में राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति में अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है –

  1. यदि लोकसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो।
  2. प्रधानमंत्री का आकस्मिक निधन हो जाए अथवा प्रधानमंत्री त्याग-पत्र दे दे।
  3. राष्ट्रपति लोकसभा भंग करके कुछ समय के लिए किसी को भी प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है।

प्रश्न 13.
मंत्रिपरिषद् का सदस्य बनने के लिए कौन-कौन सी योग्यताएँ होनी चाहिए?
उत्तर :
मंत्रिपरिषद् का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह उन समस्त योग्यताओं को पूर्ण करता हो जो कि केंद्रीय संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनने के लिए आवश्यक हैं।
  3. वह केंद्रीय संसद के किसी भी सदन का सदस्य अवश्य होना चाहिए। यदि वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य नहीं है तो मंत्री बनने के 6 माह के भीतर उसे संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनना आवश्यक होगा।

प्रश्न 14.
भारत में संसदीय प्रणाली को क्यों अपनाया गया है?
उत्तर :
भारतीय संविधान में इस बात के लिए लम्बी बहस चली कि संसदीय प्रणाली को अपनाया जाए या अध्यक्षात्मक प्रणाली को। कुछ सदस्य संसदात्मक प्रणाली के पक्ष में थे तथा कुछ सदस्य स्थिरता के कारण अध्यक्षात्मक प्रणाली की इच्छा रखते थे। परन्तु अन्त में संसदीय प्रणाली को अपनाने का निर्णय लिया गया। इसके निम्नलिखित कारण थे –

  1. संसदीय प्रणाली भारत की परिस्थितियों के अधिक अनुकूल है।
  2. संसदीय प्रणाली से भारतीय प्रशासक अधिक परिचित थे।
  3. संसदीय सरकार अधिक उत्तरदायी सरकार है।
  4. इसमें शासन व जनता के बीच अधिक निकटता है। संसदीय प्रणाली में जनता व जनता के प्रतिनिधि अधिक प्रभावकारी तरीके से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखते हैं।

प्रश्न 15.
राष्ट्रपति के विधायी कार्य लिखिए।
उत्तर :
राष्ट्रपति भारत संसद का अभिन्न अंग है। संसद में राष्ट्रपति, लोकसभा व राज्यसभा शामिल होते हैं। राष्ट्रपति विधायी क्षेत्र में निम्नलिखित कार्य करता है –

  1. राष्ट्रपति संसद का अधिवेशन आयोजित करता है, स्थगित करता है व लोकसभा को भंग करता
  2. राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद लोकसभा व राज्यसभा द्वारा पास किया गया बिल कानून बनता
  3. राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् बजट व धन बिल संसद में पाए किए जा सकते हैं। उसकी स्वीकृति के बाद वे लागू होते हैं।
  4. राष्ट्रपति 2 सदस्य लोकसभा में व 12 सदस्य राज्यसभा में मनोनीत कर सकता है।
  5. राष्ट्रपति संसद के लिए कोई भी सन्देश भेज सकता है।
  6. जब लोकसभा व राज्यसभा का अधिवेशन नहीं चल रहा हो तो कानून की आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रपति अध्यादेश जारी कर सकता है जिसमें कानून का प्रभाव होता है।

प्रश्न 16.
एक लोकसेवक की नियुक्ति किस प्रकार होती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लोकसेवक स्थायी कार्यपालिका के अन्तर्गत आते हैं जो राजनीतिक कार्यपालिका की नीतियों, आदेशों तथा कानूनों को क्रियान्वयन करते हैं। पदाधिकारी की नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाती है। उसकी नियुक्ति की प्रक्रिया निम्नानुसार है –

संघीय पदाधिकारी की नियुक्ति के लिए संघ लोकसेवा आयोग तथा राज्य के पदाधिकारी की नियुक्ति के लिए राज्य लोकसेवा आयोग कार्यरत है। सर्वप्रथम पदों के लिए सार्वजनिक सूचना द्वारा योग्यता रखने वाले उम्मीदवारों से प्रार्थना-पत्र माँगे जाते हैं। यदि आवेदकों की संख्या पदों की संख्या से बहुत अधिक हो तो एक लिखित परीक्षा का आयोजन किया जाता है। लिखित परीक्षा के आधार पर एक योग्यता सूची तैयार की जाती है और उसी के अनुसार एक निश्चित संख्या में उम्मीदवारों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाता है। साक्षात्कार में उम्मीदवार की सामान्य ज्ञान, सूझ-बूझ, सतर्कता तथा व्यक्तित्व का परीक्षण किया जाता है और फिर अन्तिम रूप से योग्यता सूची तैयार की जाती है। इस सूची के अनुसार ही पदाधिकारी को नियुक्त किया जाता है और बहुत-से पदों के लिए नियुक्ति से पहले प्रशिक्षण भी दिया जाता है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कार्यपालिका के चार कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
आधुनिक राज्यों में कार्यपालिका के किन्हीं चार कार्यों का समुचित उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

कार्यपालिका के कार्य

कार्यपालिका के चार कार्य निम्नवत् हैं –

1. आन्तरिक शासन सम्बन्धी कार्य – प्रत्येक राज्य, राजनीतिक रूप में संगठित समाज है और इस संगठित समाज की सर्वप्रथम आवश्यकता शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना होता है तथा यह कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। इसके अतिरिक्त व्यापार और यातायात, शिक्षा और स्वास्थ्य से सम्बन्धित सुविधाओं की व्यवस्था और कृषि पर नियन्त्रण आदि कार्य भी कार्यपालिका द्वारा ही किये जाते हैं।

2. सैनिक कार्य – सामान्यतया राज्य की कार्यपालिका का प्रधान सेनाओं के सभी अंगों (स्थल, जल और वायु) के प्रधान के रूप में कार्य करता है और विदेशी आक्रमण से देश की रक्षा करना . कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। अपने इस कार्य के अन्तर्गत कार्यपालिका आवश्यकतानुसार युद्ध अथवा शान्ति की घोषणा कर सकती है।

3. विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका के विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य बहुत कुछ सीमा तक शासन-व्यवस्था के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। सभी प्रकार की शासन-व्यवस्थाओं में कार्यपालिका को विधानमण्डल को अधिवेशन बुलाने और स्थगित करने का अधिकार होता है। संसदात्मक शासन में तो कार्यपालिका विधि-निर्माण के क्षेत्र में व्यवस्थापिका का नेतृत्व करती है और विशेष परिस्थितियों में लोकप्रिय सदन को भंग करते हुए नव-निर्वाचन का आदेश दे। संकती है। वर्तमान समय में तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका की स्वीकृति से कानूनों का निर्माण करती है।

4. वित्तीय कार्य – यद्यपि वार्षिक बजट स्वीकृत करने का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है, किन्तु इस बजट का प्रारूप तैयार करने का कार्य कार्यपालिका ही कर सकती है। कार्यपालिका का वित्त विभाग आय के विभिन्न साधनों द्वारा प्राप्त आय के उपभोग पर विचार करता है।

प्रश्न 2.
लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के दो उपायों का उल्लेख कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के दो उपाय लिखिए।
उत्तर :

न्यायपालिका की स्वतंत्रता

न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और उसके द्वारा विविध प्रकार के कार्य किये जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतंत्र हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के सम्बन्ध में स्वतंत्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्तव्यपालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। सीधे-सादे शब्दों में इसका आशय यह है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल, किसी वर्ग विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करे।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के दो उपाय निम्नलिखित हैं

1. न्यायाधीश की योग्यता – न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को दिया जाए जिनकी व्यावसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। राज्य-व्यवस्था के संचालन में न्यायाधिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्त्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्त्व को नष्ट कर देंगे।

2. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सत्ता अभियोक्ता और साथ-ही-साथ न्यायाधीश होने पर स्वतंत्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा स्वतंत्र न्यायपालिका के पक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
लोकतंत्रात्मक शासन में स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
किसी लोकतंत्रात्मक शासन में एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका सर्वथा अनिवार्य है। इसे आधुनिक और प्रगतिशील संविधानों एवं शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्षण माना जाता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है –

1. लोकतंत्र की रक्षा हेतु – लोकतंत्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतंत्रता और समानता हैं। नागरिकों की स्वतंत्रता और कानून की दृष्टि से व्यक्तियों की समानता -इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्वतंत्र न्यायपालिका को ‘लोकतंत्र का प्राण’ कहा जाता है।

2. संविधान की रक्षा हेतु – आधुनिक युग के राज्यों में संविधान की सर्वोच्चता का विचार प्रचलित है। संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है। न्यायपालिका द्वारा इस दायित्व का भली-भाँति निर्वाह उस समय ही सम्भव है, जब न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष हो। स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की धाराओं की स्पष्ट व्याख्या करती है तथा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के उन कार्यों को जो संविधान के विरुद्ध होते हैं, अवैध घोषित कर देती है। इस प्रकार स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है।

3. न्याय की रक्षा हेतु – न्यायपालिका का प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका यह कार्य तभी ठीक प्रकार से कर सकती है, जबकि वह निष्पक्ष और स्वतंत्र हो तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु – न्यायपालिका की स्वतंत्रता का महत्त्व अन्य कारणों की अपेक्षा नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अधिक है। इसके लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र और निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है।

न्यायपालिका के दो कार्य – न्यायपालिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं

1. कानूनों की व्याख्या करना – कानूनों की भाषा सदैव स्पष्ट नहीं होती है और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रत्येक परिस्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका ही करती है। न्यायालयों द्वारा की गयी इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानून के समान ही होती है।

2. लेख जारी करना – सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है तो न्यायालय उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है। इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध आदि लेख प्रमुख हैं।

प्रश्न 4.
मंत्रिपरिषद् तथा मंत्रिमण्डल में क्या अन्तर है?
उत्तर :

मंत्रिपरिषद् तथा मंत्रिमण्डल में अन्तर

मंत्रिपरिषद् और मंत्रिमण्डल का प्रायः लोग एक ही अर्थ में प्रयोग करते हैं, जब कि इनमें अन्तर हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत के संविधान में मात्र मंत्रिपरिषद् का उल्लेख है। मंत्रिपरिषद् तथा मंत्रिमण्डल के अन्तर को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है

(1) आकार में अन्तर – मंत्रिपरिषद् में लगभग 60 मंत्री होते हैं, जब कि मंत्रिमण्डल में प्रायः 15 से 20 मंत्री होते हैं।

(2) मंत्रिमण्डल, मंत्रिपरिषद का भाग – मंत्रिमंण्डल, मंत्रिपरिषद् का हिस्सा होता है। इसी कारण अनेक विद्वानों ने इसे ‘बड़े घेरे में छोटे घेरे’ की संज्ञा दी है।

(3) प्रभाव में अन्तर – मंत्रिमण्डल के सदस्यों का नीति-निर्धारण पर पूर्ण नियन्त्रण होता है तथा समस्त महत्त्वपूर्ण निर्णय मंत्रिमण्डल द्वारा ही लिये जाते हैं। मंत्रिपरिषद् नीति-निर्धारण में हिस्सा नहीं लेती।

(4) मंत्रिमण्डल की बैठकें लगातार होती रहती हैं – मंत्रिमण्डल की बैठकें साधारणत: सप्ताह में एक बार तथा कई बार भी होती हैं, जब कि मंत्रिपरिषद् की बैठकें कभी नहीं होती हैं।

(5) सभी मंत्री मंत्रिपरिषद के सदस्य होते हैं – जब कि मंत्रिमण्डल के सदस्य मात्र कैबिनेट मंत्री ही होते हैं।

(6) वेतन एवं भत्तों में अन्तर – कैबिनेट मंत्रियों को अन्य मंत्रियों की तुलना में अधिक वेतन एवं भत्ते प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 5.
नौकरशाही की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

नौकरशाही की विशेषताएँ

1. निश्चित कार्यक्षेत्र – नौकरशाही प्रणाली द्वारा प्रशासनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन नियत क्रियाओं की आवश्यकता होती है उनको सुनिश्चित क्रम के आधार पर सरकारी कार्यों के रूप में विभाजित कर दिया जाता है। इस प्रकार नौकरशाही पद्धति में पदाधिकारियों का कार्यक्षेत्र सुनिश्चित कर दिया जाता है।

2. आदेशों का स्पष्टीकरण – इस व्यवस्था में विभिन्न पदाधिकारियों के आदेशों के अधिकार-क्षेत्र को भी स्पष्ट कर दिया जाता है।

3. नियमों के प्रति आस्था – ये आदेश ऐसे नियमों की सीमा से बँधे होते हैं जो अधिकारियों को कार्य पूर्ण करने, चाहे बलपूर्वक ही हो, के लिए प्राप्त होते हैं।

4. योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति – इन दायित्वों की नियमित एवं सर्वदा पूर्ति के लिए तथा सम्बन्धित अधिकारों के क्रियान्वयन हेतु वैधानिक व्यवस्था की जाती है। दायित्वों की पूर्ति के लिए केवल योग्य व्यक्तियों की व्यवस्था की जाती है।

5. पद-सोपान पद्धति पर आधारित – नौकरशाही पद-सोपान पद्धति पर आधारित होती है। इसमें उच्च पदाधिकारी अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों को आदेश तथा निर्देश प्रदान करते हैं।

6. पद के लिए निश्चित योग्यताएँ – इस पद्धति में प्रत्येक पद के लिए योग्यताएँ निर्धारित कर दी जाती हैं।

7. विशिष्ट वर्ग – इस व्यवस्था में पदाधिकारियों का एक विशिष्ट वर्ग बन जाता है।

8. नियमों के प्रति आस्था – इसमें अधिकारी और कर्मचारी नियमों तथा अभिलेखों के प्रति अत्यधिक आस्था रखते हैं। वे नियमों के लकीर के फकीर बन जाते हैं।

9. कठोर एवं व्यवस्थित अनुशासन तथा नियन्त्रण – नौकरशाही संगठन में पदाधिकारी नियन्त्रण एवं अनुशासन में रहकर अपने कार्यों का सम्पादन करते हैं।

प्रश्न 6.
मंत्रिपरिषद् की स्वेच्छाचारिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :

मंत्रिपरिषद् की स्वेच्छाचारिता

संविधान के अनुसार, मन्त्रिपरिषद् के कार्यों पर संसद का नियन्त्रण होता है। यदि लोकसभा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दे तो उसे त्याग-पत्र देना पड़ता है। यह वैधानिक स्थिति है; परन्तु वास्तविक स्थिति इससे भिन्न है। भारत में मन्त्रिपरिषद् का पूर्ण नियन्त्रण है। संसद में वाद-विवाद होते हैं और मतदान द्वारा विधेयकों पर निर्णय लिए जाते हैं,परन्तु अन्त में सम्पूर्ण शक्ति सत्ताधारी दल की ही होती है। मन्त्रिपरिषद् सत्ताधारी दल की शक्ति का केन्द्र है और संसद उसके निर्णयों को अस्वीकार करने में असमर्थ है; क्योंकि मन्त्रिपरिषद् का सदन में बहुमत होता है तथा बहुमत प्राप्त दल के नेता दलीय अनुशासन के कारण मन्त्रिमण्डल द्वारा प्रस्तुत विधेयकों का समर्थन करते हैं। पार्टी ह्विप (आदेश) जारी कर दिया जाता है, तब प्रत्येक सदस्य को दल के निर्देशों के अनुसार कार्य करना पड़ता है। इस प्रकार भारतीय शासन में मन्त्रिपरिषद् की तानाशाही प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

मन्त्रिपरिषद् की स्वेच्छाचारिता का एक कारण यह भी है कि मन्त्रिपरिषद् जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व करती है। लोकसभा के सदस्यों का निर्वाचन जनता करती है और मन्त्रिपरिषद् को लोकसभा का बहुमत प्राप्त होता है। इसलिए परोक्ष रूप में जनता के बहुमत का समर्थन भी मन्त्रिपरिषद् को प्राप्त होता है। वह सदैव इस बात के लिए प्रयत्नशील रहती है कि जनता का बहुत उसके अनुकूल रहे। इसलिए उसकी स्वेच्छाचारिता पर जनता अंकुश लगा सकती है। यदि वह जनमत की उपेक्षा करके स्वेच्छाचारिता की वृत्ति को अपना ले तो उसको शासन-कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होगी। अतः मन्त्रिपरिषद् को जनमत के अनुकूल ही शासन-कार्य करना पड़ता है।

प्रश्न 7.
मन्त्रिपरिषद् तथा लोकसभा के संबंधों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :

मन्त्रिपरिषद् तथा लोकसभा का सम्बन्ध

संविधान के अनुसार, मंत्रिपरिषद् तथा लोकसभा परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। सामूहिक उत्तरदायित्व का तात्पर्य है कि एक मंत्री की गलती सभी मंत्रियों की गलती मानी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप जब एक मंत्री के त्यागपत्र देने की बात आती है तो सम्पूर्ण मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देना पड़ता है। इस प्रकार मंत्री एक-दूसरे से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं। लोकसभा; प्रश्नों, पूरक-प्रश्नों, काम रोको, स्थगन तथा निन्दा-प्रस्तावों द्वारा मंत्रिपरिषद् पर नियन्त्रण रखती है तथा इन आधारों पर मंत्रिपरिषद् को पदच्युत कर सकती है –

1. अविश्वास प्रस्ताव द्वारा – लोकसभा के सदस्य मंत्रिपरिषद् से असन्तुष्ट होकर सदन के सामने अविश्वास का प्रस्ताव ((No Confidence Motion) प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रस्ताव के पारित हो जाने पर मंत्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना होता है।

2. विधेयक की अस्वीकृति – मंत्रिपरिषद् द्वारा प्रस्तुत किसी विधेयक को यदि लोकसभा स्वीकृत न करे तो ऐसी दशा में भी मंत्रिपरिषद् का त्यागपत्र उसका नैतिक दायित्व बन जाता है, क्योंकि यह इस बात का सूचक होता है कि सदन में मंत्रिपरिषद् (अर्थात् बहुमत दल) ने अपना विश्वास खो दिया है।

3. किसी मंत्री के प्रति अविश्वास – यदि लोकसभा किसी मंत्री-विशेष के प्रति अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे तो भी सामूहिक रूप से मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।

4. कटौती का प्रस्ताव – जिस समय लोकसभा में वार्षिक बजट प्रस्तुत किया जाता है, उस समय यदि लोकसभा बजट में कटौती का प्रस्ताव पारित कर दे या किसी काँग को. अस्वीकृत कर दे तो भी मंत्रिपरिषद् को अपना त्यागपत्र देने के लिए विवश होना पड़ता है।

5. गैर-सरकारी प्रस्ताव – यदि लोकसभा किसी ऐसे गैर-सरकारी प्रस्ताव को स्वीकृत कर दे, जिसका मंत्रिमण्डल विरोध कर रहा हो, तो इस स्थिति में मंत्रिमण्डल को अपना पद त्यागना होगा।

सैद्धान्तिक दृष्टि से तो मंत्रिमण्डल पर संसद द्वारा नियन्त्रण रखा जाता है; किन्तु व्यवहार में दलीय अनुशासन के कारण मंत्रिमण्डल ही संसद पर नियन्त्रण रखता है। मंत्रिमण्डल के परामर्श पर राष्ट्रपति लोकसभा को भंग कर सकता है।

प्रश्न 8.
मिश्रित सरकारों के युग में प्रधानमंत्री की स्थिति की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में मिश्रित सरकारों का अस्तित्व है। यह 1996 से आरम्भ हुआ था। जब लोकसभा में किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो और दो या दो से अधिक दल मिलकर बहुमत का निर्माण करते हों तथा मिला-जुला मंत्रिमण्डल बनाते हों तो उसे मिली-जुली सरकार कहते हैं। देश में बहुदलीय व्यवस्था अस्तित्व में है और केन्द्र तथा बहुत-से राज्यों में भी मिले-जुले मंत्रिमण्डल हैं।

मिल-जुले मंत्रिमण्डल के वातावरण ने संसदीय शासन-प्रणाली की कई विशेषताओं को प्रभावित किया है और विशेष रूप से प्रधानमंत्री की स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला है। इसका एक प्रभाव यह भी देखने में आ रहा है कि अब भारत में मंत्रिमण्डल की राजनीतिक एकरूपता भी प्रभावित है और सरकार में भागीदार विभिन्न दलों के सदस्य मंत्री एक-दूसरे की आलोचना भी करते हैं और सार्वजनिक रूप में किसी भी विषय पर विरोधी विचार भी प्रकट करते हैं। अब व्यावहारिक रूप से मंत्रिमण्डल एक इकाई के रूप में कार्य नहीं कर पाता।

प्रधानमंत्री की स्थिति पर प्रभाव – मिली-जुली सरकार का सर्वाधिक विपरीत प्रभाव प्रधानमंत्री की स्थिति पर पड़ा है। उसे अब वह शक्तिशाली स्थिति प्राप्त नहीं है जो एक दल की सरकार वाले मंत्रिमण्डल में प्राप्त थी। अब उसका अधिकतर समय सहयोगी दलों की नाराजगी दूर करने और उन्हें अपने साथ रखने में व्यतीत होता दिखाई देता है। प्रधानमंत्री की स्थिति पर विपरीत प्रभाव दर्शाने वाले बिन्दु निम्नलिखित हैं

  1. अब प्रधानमंत्री मंत्रियों की नियुक्ति में स्वतंत्र नहीं रहा है। पूर्व से ही निश्चित हो जाता है कि सहयोगी दलों से कितने सदस्य मंत्रिमण्डल में लिए जाएँगे।
  2. मिश्रित सरकार के निर्माण में सहयोगी दलों से लिए जाने वाले मंत्रियों के विभागों का निर्णय भी पहले से ही कर दिया जाता है। उसे ऐसे लोगों को भी मंत्री नियुक्त करना पड़ता है जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि रही हो।
  3. प्रधानमंत्री अब चाहते हुए भी किसी मंत्री को अपदस्थ नहीं करवा सकता, विशेषकर सहयोगी दलों से लिए गए मंत्रियों को, चाहे उनकी योग्यता और कार्यक्रम पर प्रश्न-चिह्न ही क्यों न लगा हो।

प्रश्न 9.
स्थायी कार्यपालिका नौकरशाही का क्या अर्थ है? नौकरशाही के गुण लिखिए।
उत्तर :
नौकरशाही को अधिकारी राज्य’ अथवा ‘सेवकतन्त्र’ भी कहा जाता है। यह पदाधिकारी पद्धतियों में सबसे प्राचीन, व्यापक तथा चर्चित है। इसका अर्थ एक ऐसी शासन-व्यवस्था से है, जिसमें कार्यालयों द्वारा शासन संचालित किया जाता है। नौकरशाही’ शब्द अंग्रेजी के ‘Bureaucracy’ का पर्यायवाची है। ‘Bureaucracy फ्रेंच भाषा के ‘Bureau’ तथा ग्रीक भाषा के क्रेसी (kratein) से बना है। शाब्दिक अर्थ में यह अधिकारियों का शासन है। रोबर्ट सी० स्टोन के अनुसार, “इस पद का शाब्दिक अर्थ कार्यालय द्वारा शासन अथवा अधिकारियों द्वारा शासन है। सामान्यतः इसका प्रयोग । दोषपूर्ण प्रशासनिक संस्थाओं के सन्दर्भ में किया गया है। फ्रेंच भाषा में ‘ब्यूरो’ का अर्थ लिखने की मेज या डेस्क से है। इस प्रकार नौकरशाही का अर्थ उस व्यवस्था से है जिसमें कर्मचारी केवल दफ्तर में बैठकर कार्य करते हैं। यह व्यवस्था अर्थात् नौकरशाही प्रशासन के विकृत रूप को प्रकट करती है। जब कर्मचारी वर्ग अपने कार्यों को केवल कानूनी व्यवस्था के अनुसार ही संचालित करता है और व्यवस्था में लालफीताशाही, अनधिकार हस्तक्षेप, अपव्यय, भ्रष्टाचार आदि दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं, तो यह व्यवस्था नौकरशाही’ के नाम से जानी जाती है।

नौकरशाही के गुण

नौकरशाही में अनेक गुण विद्यमान हैं। इसके प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं –

  1. कार्यकुशलता – इस पद्धति का प्रमुख गुण यह है कि यह प्रशासन को कार्यकुशलता प्रदान करती है।
  2. प्रशासकीय एकता – प्रशासकीय एकता को सुदृढ़ता प्रदान करने में यह पद्धति विशेष रूप से उपयोग सिद्ध हुई है।
  3. राजनीतिक तथा वैयक्तिक प्रभावों से दूर – इस व्यवस्था में पदाधिकारी एवं कर्मचारी राजनीतिक एवं वैयक्तिक प्रभावों से दूर रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं।
  4. कानून का पालन – इस व्यवस्था का एक प्रमुख गुण यह है कि इसमें अधिकारी तथा कर्मचारी कानूनों का कठोरता से पालन करते हैं। अतः किसी के साथ पक्षपात नहीं किया जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संसदात्मक कार्यपालिका से क्या आशय है? संसदात्मक कार्यपालिका के गुण और दोषों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

संसदात्मक कार्यपालिका से आशय

संसदात्मक कार्यपालिका उसे कहते हैं, जिसमें कार्यपालिका संसद के नियन्त्रण में रहती है। इस सरकार में देश के सम्पूर्ण शासन का कार्यभार मंत्रिपरिषद् पर होता है और वह अपने कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है। वस्तुत: देश की वास्तविक कार्यपालिका मंत्रिपरिषद् ही होती है। उस पर संसद का नियन्त्रण अवश्य होता है। देश का प्रधान (राष्ट्रपति) नाममात्र का प्रधान होता है। उसे कार्यपालिका से सम्बन्धित समस्त अधिकार प्राप्त होते हैं, किन्तु व्यावहारिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो वह उनका स्वेच्छा से प्रयोग नहीं कर पाता है। भारत और ग्रेट ब्रिटेन में इसी प्रकार की सरकारें विद्यमान हैं।

संसदात्मक कार्यपालिका के गुण

संसदात्मक कार्यपालिका को उत्कृष्ट शासन-प्रणाली के रूप में स्वीकार किया जाता है। इस शासन-प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं –

1. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में सहयोग – इस शासन-प्रणाली में कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका में एक-दूसरे के प्रति पूर्ण सहयोग की भावना होती है; क्योंकि मंत्रिमण्डल के ही सदस्य विधानमण्डल के भी सदस्य होते हैं। इसी कारण कार्यपालिका इन कानूनों को बड़ी सरलता से पारित करवा लेती है, जिन्हें वह देश के लिए उपयोगी समझती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका को देश की आवश्यकतानुसार कानून बनाने में भी सहायता मिलती है।

2. कार्यपालिका निरंकुश नहीं हो पाती – संसदात्मक कार्यपालिका निरंकुश नहीं हो पाती है, क्योंकि उसे किसी भी कानून को पारित करवाने के लिए व्यवस्थापिका पर आश्रित रहना पड़ता है। वह स्वेच्छा से किसी भी कानून को बनाकर तथा उसे देश में लागू करके निरंकुश नहीं बन सकती है। इसके अतिरिक्त व्यवस्थापिका को यह भी अधिकार है कि वह मंत्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके उसे अपदस्थ कर दे। विधायिका मंत्रियों से प्रश्न तथा पूरक प्रश्न भी पूछ सकती है।

3. परिवर्तनशीलता – संसदात्मक कार्यपालिका परिवर्तनशील है। इसका तात्पर्य यह है कि इसमें कार्यपालिका को बदलने में किसी प्रकार की असुविधा नहीं होती है; क्योंकि कार्यरत मंत्रिपरिषद् को किसी भी समय परिवर्तित किया जा सकता है।

4. राजनीतिक शिक्षा का साधन – संसदात्मक कार्यपालिका में राजनीतिक दलों की बहुलती होती है। ये सभी दल सामान्य जनता के समक्ष अपने-अपने कार्यक्रम रखकर उसमें राजनीतिक चेतना को जाग्रत करने का प्रयत्न करते हैं।

5. लोकमत एवं लोक-कल्याण पर आधारित – संसदात्मक कार्यपालिका प्रजातन्त्र प्रणाली का ही एक रूप है, इसलिए यह लोकमत का ध्यान रखते हुए लोक-कल्याणकारी कार्य करने का प्रयत्न करती है।

6. लोकतंत्रीय सिद्धान्तों की रक्षा – लोकतंत्रीय सिद्धान्तों की रक्षा बहुत सीमा तक संसदात्मक कार्यपालिका में ही सम्भव है, क्योंकि संसदात्मक कार्यपालिका में जन-प्रतिनिधियों की प्रत्यक्ष जवाबदेही जनता के प्रति होती है।

संसदात्मक कार्यपालिका के दोष

संसदात्मक कार्यपालिका के प्रमुख दोषों का उल्लेख निम्नलिखित है –

1. शक्ति-पृथक्करण सिद्धान्त के विरुद्ध – संसदात्मक कार्यपालिका का सबसे गम्भीर दोष यह है कि यह शक्ति-पृथक्करण सिद्धान्त के विरुद्ध है। इसमें मंत्रिपरिषद् व्यवस्थापिका का ही एक अंग होती है। इसलिए नागरिकों को सदैव खतरा बना रहता है।

2. शीर्घ निर्णय का अभाव – किसी असामान्य संकट की स्थिति में भी कोई परिवर्तन या नियम शीघ्र लागू करना असम्भव होता है, क्योंकि कार्यपालिका को व्यवस्थापिका से कोई भी कानून लागू करने से पूर्व आज्ञा लेनी पड़ती है; और इसकी प्रक्रिया बहुत जटिल होती है।

3. दलीय तानाशाही का भय – इस व्यवस्था में जिस राजनीतिक दल का व्यवस्थापिका में बहुमत होता है, उसी दल के नेताओं को मंत्रिपरिषद् निर्मित करने का अधिकार होता है। ऐसी स्थिति में इस बात की प्रबल सम्भावना रहती है कि बहुमत प्राप्त सत्तारूढ़ दल स्वेच्छाचारी बन जाए और अपनी मनमानी करने लगे।

4. सरकार की अस्थिरता – इस प्रकार की सरकार में मंत्रिमण्डल का कार्यकाल अनिश्चित होता है। व्यवस्थापिका में मंत्रिमण्डल का बहमत न रह पाने की स्थिति में मंत्रिमण्डल को शीघ्र ही त्यागपत्र देना पड़ जाता है। अत: कभी-कभी ऐसा होता है कि ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य बीच में ही छूट जाते हैं, जो वास्तव में देश के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं। बार-बार सरकार के बनने तथा बिगड़ने से राष्ट्र के धन का अपव्यय होता है तथा बार-बार मतदान प्रक्रिया में भाग लेने के कारण मतदाताओं की उदासीनता बढ़ जाती है।

5. संकट के समय दुर्बल – राष्ट्रीय संकट (आपत्ति) के समय यह सरकार अति दुर्बल अर्थात् शक्तिहीन सिद्ध होती है। संसदात्मक कार्यपालिका में शासन की शक्ति किसी एक व्यक्ति में न होकर मंत्रिपरिषद् के समस्त सदस्यों में निहित होती है। इसलिए संकट के समय शीघ्र निर्णय नहीं हो पाते।

6. योग्य व्यक्तियों की सेवाओं का लाभ न मिल पाना – संसदीय कार्यपालिका में सरकार बहुमत दल की ही बनती है, इसलिए विरोधी दल के योग्य व्यक्तियों को कार्यपालिका से सम्बन्धित शासन कार्यों में अपनी सेवा प्रदान करने का अवसर नहीं मिलता है।

प्रश्न 2.
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं। इसके विविध रूपों का वर्णन कीजिए।
या
कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
कार्यपालिका क्या है? आधुनिक काल में इसके बढ़ते हुए महत्त्व के क्या करण हैं?
या
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
या
कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं? कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए। वर्तमान समय में कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
कार्यपालिका सरकार का दूसरा प्रमुख अंग है। इतना ही नहीं, ‘सरकार’ शब्द का आशय कार्यपालिका से ही होता है। कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को क्रियान्वित करती है और उनके आधार पर प्रशासन का संचालन करती है।

गार्नर ने कार्यपालिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है- “व्यापक एवं सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका के अधीन वे सभी अधिकारी, राज्य-कर्मचारी तथा एजेन्सियाँ आ जाती हैं, जिनका कार्य राज्य की इच्छा को, जिसे व्यवस्थापिका ने व्यक्त कर कानून का रूप दे दिया है, कार्यरूप में परिणत करना है।”

गिलक्रिस्ट के अनुसार, “कार्यपालिका सरकार का वह अंग है, जो कानूनों में निहित जनता की इच्छा को लागू करती है।

कार्यपालिका के विविध रूप (प्रकार)

कार्यपालिका के निम्नलिखित रूप होते हैं –

1. नाममात्र की कार्यपालिका – ऐसी कार्यपालिका; जिसके अन्तर्गत एक व्यक्ति, जो सिद्धान्त रूप से शासन का प्रधान होता है तथा जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किये जाते हैं, परन्तु वह स्वयं किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं करता; नाममात्र की होती है। ब्रिटेन की सम्राज्ञी तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका हैं।

2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो वास्तव में कार्यकारिणी की शक्तियों का प्रयोग करती है। ब्रिटेन, फ्रांस तथा भारत में मंत्रि-परिषद् वास्तविक कार्यपालिका के उदाहरण हैं।

3. एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका वह होती है, जिसमें कार्यपालिका की सम्पूर्ण शक्तियाँ एक व्यक्ति के अधिकार में होती हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का उदाहरण है।

4. बहुल कार्यपालिका – बहुल कार्यपालिका में कार्यकारिणी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर अधिकारियों के समूह में निहित होती है। इस प्रकार की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में है।

5. पैतृक कार्यपालिका – पैतृक कार्यपालिका उस कार्यपालिका को कहते हैं, जिसके प्रधान का | पद पैतृक अथवा वंश-परम्परा के आधार पर होता है। ऐसी कार्यपालिका ग्रेट ब्रिटेन में है।

6. निर्वाचित कार्यपालिका – जहाँ कार्यपालिका के प्रधान का निर्वाचन किया जाता है, वहाँ निर्वाचित कार्यपालिका होती है। ऐसी कार्यपालिका भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में है।

7. संसदात्मक कार्यपालिका – इसमें शासन-सम्बन्धी अधिकार मंत्रि-परिषद् के सदस्यों में निहित होते हैं। वे व्यवस्थापिका (भारत में संसद) के सदस्यों में से ही चुने जाते हैं और अपनी नीतियों के लिए व्यक्तिगत रूप से तथा सामूहिक रूप से उसी के प्रति उत्तरदायी होते हैं। व्यवस्थापिका मंत्रि-परिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके उसे पदच्युत कर सकती है। ब्रिटेन तथा भारत में ऐसी ही कार्यपालिका है।

8. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका – इसमें मुख्य कार्यपालिका व्यवस्थापिका से पृथक् तथा स्वतंत्र होती है और उसके प्रति उत्तरदायी नहीं होती। संयुक्त राज्य अमेरिका में इसी प्रकार की कार्यपालिका है। वहाँ पर कार्यपालिका का प्रधान राष्ट्रपति होता है, जिसका निर्वाचन चार वर्ष के लिए किया जाता है। इस अवधि के पूर्व महाभियोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रक्रिया द्वारा उसे अपदस्थ नहीं किया जा सकता। वह अपने कार्य के लिए वहाँ की कांग्रेस (व्यवस्थापिका) के प्रति उत्तरदायी नहीं है। वह अपनी सहायता के लिए मंत्रिमण्डल का निर्माण कर सकता है, परन्तु उनके किसी भी परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

कार्यपालिका के कार्य

कार्यपालिका के कार्य वास्तव में सरकार के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। आधुनिक राज्यों में कार्यपालिका का महत्त्व बढ़ता जा रहा है तथा इसके मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

1. कानूनों को लागू करना और शान्ति-व्यवस्था बनाये रखना – कार्यपालिका का प्रथम कार्य व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को राज्य में लागू करना तथा देश में शान्ति व्यवस्था को बनाये रखना होता है। कार्यपालिका का कार्य कानूनों को लागू करना है, चाहे वह कानून अच्छा हो या बुरा। कार्यपालिका देश में शान्ति व कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस आदि का प्रबन्ध भी करती है।

2. नीति-निर्धारण सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्धारण करना है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपनी नीति-निर्धारित करके उसे संसद के समक्ष प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका को अपनी नीतियों को विधानमण्डल के समक्ष प्रस्तुत नहीं करना पड़ता है। वस्तुतः कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक तथा विदेश नीति को निश्चित करती है और उस नीति के आधार पर ही अपना शासन चलाती है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बाँटा जाता है।

3. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका को देश का शासन चलाने के लिए अनेक कर्मचारियों की नियुक्ति करनी पड़ती है। प्रशासनिक कर्मचारियों की नियुक्ति अधिकतर प्रतियोगिता परीक्षाओं के आधार पर की जाती है। भारत में राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, राजदूतों, एडवोकेट जनरल, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है। अमेरिका में राष्ट्रपति को उच्चाधिकारियों की नियुक्ति के लिए सीनेट की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अमेरिका का राष्ट्रपति उन सभी कर्मचारियों को हटाने का अधिकार रखता है, जिन्हें कांग्रेस महाभियोग के द्वारा नहीं हटा सकती।

4. वैदेशिक कार्य – दूसरे देशों से सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया। जाता है। विदेश नीति को कार्यपालिका ही निश्चित करती है तथा दूसरे देशों में अपने राजदूतों को भेजती है और दूसरे देशों के राजदूतों को अपने देश में रहने की स्वीकृति प्रदान करती है। दूसरे देशों से सन्धि या समझौते करने के लिए कार्यपालिका को संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में कार्यपालिका का अध्यक्ष या उसका प्रतिनिधि भाग लेता है।

5. विधि-सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका के पास विधि-सम्बन्धी कुछ शक्तियाँ भी होती हैं। संसदीय सरकार में कार्यपालिका की विधि-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा मंत्रिमण्डल के सदस्य व्यवस्थापिका के ही सदस्य होते हैं। वे व्यवस्थापिका की बैठकों में भाग लेते हैं और प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में 95 प्रतिशत प्रस्ताव मंत्रियों द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं, क्योंकि मंत्रिमण्डल का व्यवस्थापिका में बहुमत होता है, इसलिए प्रस्ताव आसानी से पारित हो जाते हैं। संसदीय सरकार में मंत्रिमण्डल के समर्थन के बिना कोई प्रस्ताव पारित नहीं। हो सकता। संसदीय सरकार में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका का अधिवेशन बुलाने का अधिकार भी होता है। जब व्यवस्थापिका का अधिवेशन नहीं हो रहा होता है, उस समय कार्यपालिका को अध्यादेश जारी करने का अधिकार भी प्राप्त होता है।

6. वित्तीय कार्य – राष्ट्रीय वित्त पर व्यवस्थापिका का नियन्त्रण होता है। वित्तीय व्यवस्था बनाये रखने में कार्यपालिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु कार्यपालिका ही बजट तैयार करके उसे व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करती है। कार्यपालिका को व्यवस्थापिका में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण उसे बजट पारित कराने में किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। नये कर लगाने व पुराने कर समाप्त करने के प्रस्ताव भी कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका स्वयं बजट प्रस्तुत नहीं करती, अपितु बजट कार्यपालिका की देख-रेख में ही तैयार किया जाता है। भारत में वित्तमंत्री बजट प्रस्तुत करता है।

7. न्यायिक कार्य – न्याय करना न्यायपालिका का मुख्य कार्य है, परन्तु कार्यपालिका के पास भी कुछ न्यायिक शक्तियाँ होती हैं। बहुत-से देशों में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। कार्यपालिका के अध्यक्ष को अपराधी के दण्ड को क्षमा करने अथवा कम करने का भी अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है। ब्रिटेन में यह शक्ति सम्राट के पास है। राजनीतिक अपराधियों को क्षमा करने का अधिकार भी कई देशों में कार्यपालिका को ही प्राप्त है।

8. सैनिक कार्य – देश की बाह्य आक्रमणों से रक्षा के लिए कार्यपालिका अध्यक्ष सेना का अध्यक्ष भी होता है। भारत तथा अमेरिका में राष्ट्रपति अपनी-अपनी सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति (कमाण्डर-इन- चीफ) हैं। सेना के संगठन तथा अनुशासन से सम्बन्धित नियम कार्यपालिका द्वारा ही बनाये जाते हैं। आन्तरिक शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए भी सेना की सहायता ली जा सकती है। सेना के अधिकारियों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा ही की जाती है। तथा संकटकालीन स्थिति में कार्यपालिका सैनिक कानून लागू कर सकती है। भारत का राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा कर सकता है।

9. संकटकालीन शक्तियाँ – देश में आन्तरिक संकट अथवा किसी विदेशी आक्रमण की स्थिति में कार्यपालिका का अध्यक्ष संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकटकाल में कार्यपालिका बहुत शक्तिशाली हो जाती है और संकट का सामना करने के लिए अपनी इच्छा से शासन चलाती है।

10. उपाधियाँ तथा सम्मान प्रदान करना – प्रायः सभी देशों की कार्यपालिका के पास विशिष्ट व्यक्तियों को उनकी असाधारण तथा अमूल्य सेवाओं के लिए उपाधियाँ और सम्मान प्रदान करने का अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में यह अधिकार राष्ट्रपति के पास है, जब कि ब्रिटेन में सम्राट् के पास।

कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के कारण

व्यवस्थापिका की शक्ति के कर्म होने तथा कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि होने के निम्नलिखित कारण हैं –

1. लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा – वर्तमान में सभी देशों में राज्य को लोक-कल्याणकारी संस्था माना जाता है। वह जनता की भलाई के अनेक कार्य करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सामाजिक व आर्थिक सुधार, वेतन-निर्धारण आदि इसी के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाता है और जनहित की योजनाएँ क्रियान्वित की जाती हैं। इससे कार्यपालिका का कार्य-क्षेत्र बढ़ जाता है तथा वह व्यापक हो जाती है।

2. दलीय पद्धति – आधुनिक प्रजातन्त्र राजनीतिक दलों के आधार पर संचालित होता है। दलों के आधार पर ही व्यवस्थापिका वे कार्यपालिका का संगठन होता है। संसदीय शासन में बहुमत प्राप्त दल ही कार्यपालिका का गठन करता है। दलीय अनुशासन के कारण कार्यपालिका अधिनायकवादी शक्तियाँ ग्रहण कर लेती है और अपने दल के बहुमत के कारण उसे व्यवस्थापिका का भय नहीं रहता है। व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी रहते हुए भी कार्यपालिका शक्तिशाली होती जा रही है। ब्रिटेन में द्विदलीय पद्धति ने भी कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि की है।

3. प्रतिनिधायन – व्यवस्थापिका कार्यों की अधिकता तथा व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कानूनों के सिद्धान्त तथा रूपरेखा की रचना कर शेष नियम बनाने हेतु कार्यपालिका को सौंप देती है। इससे व्यवहार में कानून बनाने का एक व्यापक क्षेत्र कार्यपालिका को प्राप्त हो जाता है। तथा कार्यपालिका की शक्तियों में असाधारण वृद्धि हो जाती है।

4. समस्याओं की जटिलता – वर्तमान में राज्य को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए विशेष ज्ञान, अनुभव वे योग्यता की आवश्यकता होती है व्यवस्थापिका के सामान्य योग्यता के निर्वाचित सदस्य इन समस्याओं के समाधान में असमर्थ रहते हैं। कार्यपालिका ही इन समस्त समस्याओं का समाधान करती है, इसलिए उसकी शक्तियों की वृद्धि का स्वागत किया जाता है।

5. नियोजन – आज का युग नियोजन का युग है। सभी राष्ट्र अपने विकास के लिए नियोजन की प्रक्रिया को अपनाते हैं। योजनाएँ तैयार करना, उन्हें लागू करना तथा उनका मूल्यांकन करना कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होता है। इससे कार्यपालिका का व्यापक क्षेत्र में आधिपत्य हो जाता है।

6. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा विदेशी व्यापार – आधुनिक युग में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा युद्ध एवं शान्ति के प्रश्न अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। ये कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होते हैं इसी प्रकार विदेशी व्यापार, विदेशी सहायता तथा विदेशी पूँजी या विदेशों में पूँजी से सम्बन्धित कार्यों को कार्यपालिका द्वारा सम्पादित करना एक सामान्य प्रक्रिया है। इनसे कार्यपालिका का महत्त्व सरकार के अन्य अंगों से अधिक हो गया है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में साम्यवाद के प्रचार तथा प्रसार को रोकने के लिए अमेरिकी कांग्रेस द्वारा राष्ट्रपति को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इससे राष्ट्रपति की शक्तियों में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गई है।

7. कार्यपालिका को व्यवस्थापिका के विघटन का अधिकार – वर्तमान में संसदीय शासन में व्यवस्थापिका को विघटित करने का कार्यपालिका को पूर्ण अधिकार है। मंत्रिमण्डल की इस शक्ति के कारण कार्यपालिका की व्यवस्थापिका पर आधिपत्य हो गया है। अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका व्यवस्थापिका को पदच्युत नहीं कर सकती। इस कारण व्यवस्थापिका शक्तिशाली ही बनी रहती है।

आधुनिक युग की प्रवृत्ति कार्यपालिका शक्ति के निरन्तर विस्तार की ओर अग्रसर है। लिप्सन के शब्दों में, “मतदाता द्वारा राज्य को सौंपा गया प्रत्येक नया कर्तव्य और शासन द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक अतिरिक्त शक्ति ने कार्यपालिका की सत्ता और महत्त्व में वृद्धि की है।”

कार्यपालिका का महत्त्व

कार्यपालिका शक्ति का प्राथमिक अर्थ है विधानमण्डल द्वारा अधिनियन्त्रित कानूनों का पालन कराना। किन्तु आधुनिक राज्य में यह कार्य उतना साधारण नहीं जितना कि अरस्तू के युग में था। राज्यों के कार्यों में अनेक गुना विस्तार हो जाने के कारण व्यवहार में सभी अवशिष्ट कार्य कार्यपालिका के हाथों में पहुँच गये हैं तथा इसकी महत्ता दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। आज कार्यपालिका प्रशासन की वह शक्ति है जिससे राज्य के सभी कार्य सम्पादित किये जाते हैं।

आज कार्यपालिका का महत्त्व इस कारण भी है कि नीति-निर्धारण तथा उसकी कार्य में परिणति, व्यवस्था बनाये रखना, सामाजिक तथा आर्थिक कल्याण का प्रोन्नयन, विदेश नीति का मार्गदर्शन, राज्य का साधारण प्रशासन चलाना आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य, कार्यपालिका ही सम्पादित करती है।

प्रश्न 3.
भारत में राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए किस प्रणाली को अपनाया जाता है? उनके (राष्ट्रपति) केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के साथ सम्बन्धों की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
उत्तर :

राष्ट्रपति का निर्वाचन

भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रीति से होता है। उसके निर्वाचन के लिए एक निर्वाचक मण्डल बनाया जाता है, जिसमें संसद के निर्वाचित सदस्य एवं राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं। यह निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की एकल-संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा गुप्त मतदान की रीति से होता है।

भारतीय संसद और राज्यों की विधानसभाओं के मनोनीत सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेने का अधिकार नहीं है। राष्ट्रपति के निर्वाचन के सम्बन्ध में दो तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं –

  1. राष्ट्रपति के निर्वाचन में राज्यों के प्रतिनिधित्व में एकरूपता (Uniformity) होती है।
  2. केन्द्र और राज्यों के प्रतिनिधियों के सम्बन्ध में समान स्थिति को बनाए रखने का प्रयास किया गया है।

इस प्रकार राष्ट्रपति के निर्वाचन का परिणाम मतों की साधारण गणना से निर्धारित न होकर एक प्रकार से मतों के मूल्य के आधार पर निर्धारित होता है। राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए निर्वाचक मण्डल के सदस्य किस प्रकार और कितने मत देंगे, इसके लिए निम्नलिखित व्यवस्था अपनाई गई है –

  1. संसद के सदस्यों के मतों और राज्यों की विधानसभाओं के कुल सदस्यों के मतों में समानता स्थापित करने के लिए संविधान बनाने वालों ने एक अनोखा तरीका अपनाया है।
  2. भारत संघ में सम्मिलित राज्यों की जनसंख्या और उनकी विधानसभाओं के सदस्यों की संख्या एकसमान नहीं है और न इन दोनों को अनुपात ही पूर्ण तथा समान है। अत: इस बात को ध्यान में रखकर संविधान बनाने वालों ने प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व देने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था की है –

राज्य की कुल जनसंख्य को राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या से भाग देने पर जो भागफल आए उसको 1000 से भाग दिया जाए और उसके पश्चात् जो भागफल आए उतने ही मत राज्य की विधानसभा के सदस्यों को प्राप्त होंगे। सूत्र रूप में –

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive 1

भारतीय संसद के प्रत्येक सदस्य को कितने मत प्राप्त होंगे, उसकी व्यवस्था निम्न प्रकार की गई हैभारत संघ में सम्मिलित सदस्य राज्यों की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों के मतों के योग को संसद के निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग देने पर जो भागफल आए, उतने मत संसद के निर्वाचित सदस्य को देने का अधिकार प्राप्त होगा। यह निम्न प्रकार है –

संसद के प्रत्येक सदस्य के मत का मूल्य

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive 2

राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए एकल संक्रमणीय मत प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। इस प्रणाली में उम्मीदवार को विजयी होने के लिए निश्चित मत प्राप्त करना आवश्यक है। निश्चित मत प्राप्त करने का सूत्र अग्रलिखित है –

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive 3

काल्पनिक उदाहरण – यदि किसी राज्य की कुल जनसंख्या 5,00,00,000 है तथा निर्वाचित विधानसभा सदस्यों की संख्या 500 है, तो एक निर्वाचित विधानसभा सदस्य (एम०एल०ए०) के मत का मूल्य

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive 4

एक संसद सदस्य (एम०पी०) के मत का मूल्य–यदि राज्यों की विधनसभाओं के कुल निर्वाचित सदस्यों के मतों की कुल संख्या 6,00,00,000 है तथा निर्वाचित एम०पी० 500 हैं, तो एक एम०पी० के मत का मूल्य

UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive 5

निर्धारित कोटा – किसी भी प्रत्याशी को विजयी होने के लिए स्पष्ट बहुमत प्राप्त होना अति आवश्यक है। उसे कुल वैध मतों का आधे से अधिक भाग प्राप्त होना चाहिए। उदाहरण के लिए कुल वैध मत 5,00,000 हैं तो वह उम्मीदवार विजयी मान जाएगा, जो 2,50,001 या इससे अधिक मत प्राप्त करेगा।

मतदान प्रक्रिया एवं मतगणना – राष्ट्रपति पद के लिए कोई भी भारतीय नागरिक, जो निर्धारित योग्यताएँ रखता हो, चुनाव लड़ सकता है। किन्तु शर्त यह है कि उम्मीदवार का नाम 50 निर्वाचित सदस्यों द्वारा प्रस्तावित होना चाहिए और कम-से-कम 50 निर्वाचकों द्वारा उसके नाम का समर्थन होना आवश्यक है।

नामांकन के बाद निश्चित तिथि पर निर्धारित प्रक्रिया द्वारा संसद सदस्य और विधानमण्डलों के सदस्य मतदान करते हैं। प्रत्येक निर्वाचक उम्मीदवारों के नामों (चिह्न सहित) पर अपनी प्राथमिकताएँ 1, 2, 3, 4 अंकित करता है। इसके बाद मतगणना होती है। मतगणना के प्रथम चक्र में उम्मीदवारों को मिली पहली प्राथमिकता को गिना जाता है। यदि किसी उम्मीदवार को इस चक्र की गणना में ही निर्धारित कोटे से अधिक मत मिल जाते हैं, तो उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है, अन्यथा दूसरे चक्र की मतगणना की जाती है।

इस गणना में उम्मीदवारों की मिली द्वितीय प्राथमिकता को गिना जाता है। इस गणना में यदि किसी उम्मीदवार को मिले मत बहुत कम सेते है और ऐसा अनुभव किया जाता है कि उसके विजयी होने की कोई सम्भावना नहीं है, तो उस स्थिति में उसके मतों को अन्य उम्मीदवारों के लिए हस्तान्तरित कर दिया जाता है। यदि इस चक्र में कोई उम्मीदवार निर्धारित कोटे से अधिक मत प्राप्त कर लेता है, तो उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। यह मतगणना तथा मतों के हस्तान्तरण का सिलसिला उस समय तक चलता रहता है, जब तक कि कोई उम्मीदवार निर्धारित मत प्राप्त नहीं कर लेता है। अन्ततः दो उम्मीदवार ही शेष रह जाते हैं। इनमें से जिसे सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे बहुमत के आधार पर विजयी घोषित कर दिया जाता है। राष्ट्रपति के निर्वाचन की व्यवस्था व संचालन चुनाव आयोग करता है। राष्ट्रपति के चुनाव से सम्बन्धित सभी विवाद केवल उच्चतम न्यायालय ही निर्णीत करता है।

मंत्रिपरिषद् एवं राष्ट्रपति का सम्बन्ध

भारत में कार्यपालिका का अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मंत्रिपरिषद् का गठन उसको परामर्श देने के लिए किया जाता है, किन्तु वास्तविक स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। मंत्रिपरिषद् के निर्णय एवं परामर्श राष्ट्रपति को मानने ही पड़ते हैं। यद्यपि राष्ट्रपति इनके सम्बन्ध में अपनी व्यक्तिगत असहमति प्रकट कर सकता है, किन्तु वह मंत्रिपरिषद् के निर्णयों को मानने के लिए बाध्य होता है। भारतीय संविधान में किए गए 42वें तथा 44वें संविधान संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् का परामर्श कानूनी दृष्टिकोण से मानने के लिए बाध्य है। वह मंत्रिपरिषद् से केवल पुनर्विचार के लिए आग्रह ही कर सकता है। वह मंत्रिपरिषद् की नीतियों को किस रूप में प्रभावित करता है, यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर है। मंत्रिपरिषद्में  लिए गए समस्त निर्णयों से राष्ट्रपति को अवगत कराया जाता है तथा राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् से किसी भी प्रकार की सूचना माँग सकता है। राष्ट्रपति ही मंत्रिपरिषद् का गठन करता है तथा उसको शपथ ग्रहण कराती है। प्रधानमंत्री के परामर्श पर वह किसी भी मंत्री को पदच्युत कर सकता है।

प्रश्न 4.
भारत के राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकारों की विवेचना कीजिए व संविधान में उसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
भारत में आपातकाल की घोषणा किन परिस्थितियों में की जाती है? इस घोषणा के क्या परिणाम होते हैं।
या
भारत के राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ बताइए। क्या संकटकालीन स्थितियों में भारत का राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है?
या
भारतीय संघ के राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय राष्ट्रपति की शक्तियों एवं उसकी संवैधानिक स्थिति का मूल्यांकन कीजिए।
या
अनुच्छेद 360 के पीछे मुख्य उद्देश्य क्या है? या राष्ट्रपति एक शक्तिहीन औपचारिक अध्यक्ष मात्र है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
भारत के राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार

सामान्य परिस्थितियों में भारतीय राष्ट्रपति की स्थिति एक संवैधानिक अध्यक्ष की होती है तथा वह अपनी समस्त शक्तियों का प्रयोग मंत्रि-परिषद् के परामर्श से करता है, किन्तु संविधान निर्माताओं ने संकटकाल का सामना करने के लिए संविधान के 18वें भाग में संकटकालीन धाराओं का वर्णन किया है, जिनके अनुसार संकटकाल की स्थिति में राष्ट्रपति देश का सर्वेसर्वा बन जाता है। फिर भी यह अपेक्षा की जाती है कि संकटकाल में राष्ट्रपति अपने अधिकारों का प्रयोग देश के हित को ध्यान में रखकर ही करेगा।

संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में तीन प्रकार के संकटों का वर्णन किया गया है, जो निम्नलिखित हैं

  1. युद्ध, बाह्य आक्रमण तथा सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में
  2. राज्यों में संवैधानिक तन्त्र की विफलता की स्थिति में।
  3. देशव्यापी वित्तीय संकट उत्पन्न होने पर।

1. युद्ध, बाह्य आक्रमण तथा सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में

अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत यदि राष्ट्रपति को यह अनुभव हो कि युद्ध, बाहरी आक्रमण व आन्तरिक अशान्ति के कारण भारत या उसके किसी भाग की शान्ति भंग होने का भय है तो राष्ट्रपति को संकटकालीन घोषणा करने के अधिकार प्राप्त हैं। संविधान में किये गये 44वें संशोधन के द्वारा राष्ट्रपति के इस अधिकार के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख प्रावधान किये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं –

(अ) 44वें संशोधन द्वारा की गयी व्यवस्थाओं के माध्यम से वर्तमान समय में राष्ट्रपति युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह होने या इसकी आशंका होने पर ही आपातकालीन घोषणा कर सकता है। अब राष्ट्रपति के द्वारा केवल आन्तरिक अशान्ति के नाम पर आपातकाल की घोषणा नहीं की जा सकती।

(ब) इस संशोधन के एक अन्य प्रावधान में यह व्यवस्था की गयी है कि राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल की घोषणा तभी की जा सकती है जब मंत्रिमण्डल लिखित रूप से राष्ट्रपति को परामर्श दे।

(स) राष्ट्रपति द्वारा यह घोषणा करने के 1 माह के अन्दर संसद के दोनों सदनों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव को अनुमोदित होना अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार राष्ट्रपति शासन को 6 माह तक लागू रखा जा सकता है। इससे अधिक अवधि के लिए लागू किये जाने पर, प्रति 6 माह पश्चात् उसे संसद की पुनः स्वीकृति प्राप्त होनी अत्यन्त आवश्यक होती है।

घोषणा के प्रभाव – राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 352 के अधीन की जाने वाली आपातकालीन घोषणा के अन्तर्गत संविधान द्वारा नागरिकों को अनुच्छेद 19 के द्वारा दी जाने वाली स्वतंत्रताओं को स्थगित कर दिया जाता है, परन्तु 44वें संशोधन के द्वारा नागरिकों के जीवन और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त आपातकालीन स्थिति में हमारा संविधान एकात्मक शासन का रूप धारण कर लेता है तथा राज्य सरकारें अपनी शक्तियों का प्रयोग केंद्रीय सरकार के निर्देशांनुसार करती हैं। इस स्थिति में राष्ट्रपति संघ और राज्यों के बीच आय के वितरण सम्बन्धी किसी उपबन्ध को संशोधित कर सकता है।

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अब तक युद्ध तथा बाहरी आक्रमण के कारण 1962 ई० में तथा 1971 ई० में आपातकाल की घोषणा की गयी थी। 1975 ई० में श्रीमती इन्दिरा गांधी के समय आन्तरिक अव्यवस्था उत्पन्न होने की आशंका को लेकर देश में आपातकाल की घोषणा की गयी थी।

2. राज्यों में संवैधानिक तन्त्र की विफलता की स्थिति में

संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार, “राज्यों में संवैधानिक तन्त्र के विफल होने पर राष्ट्रपति राज्यपाल के प्रतिवेदन या अन्य किसी प्रकार से यह निश्चित होने पर कि राज्य में प्रशासन संविधान के अनुसार कार्य नहीं कर रहा है, आपातकाल की घोषणा कर सकता है। इस घोषणा को भी राष्ट्रपति प्रथम घोषणा के सदृश ही लागू करता है। 42वें संशोधन के द्वारा यद्यपि इस घोषणा की अवधि को 6 माह से बढ़ाकर 1 वर्ष किया गया था, परन्तु 44वें संशोधन के द्वारा इसे पुनः 6 माह कर दिया गया है। भारत में राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 356 का प्रयोग अब तक विभिन्न राज्यों में 115 बार किया जा चुका है। जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्य प्रमुख हैं।

घोषणा के प्रभाव – राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत की जाने वाली घोषणा के निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं –

  1. राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 356 को किसी राज्य में लागू करने पर राज्य की समस्त विधायिका शक्तियों का प्रयोग केन्द्र द्वारा किया जाता है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा इस स्थिति में किसी भी राज्याधिकारी की कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ हस्तगत कर ली जाती हैं।
  3. उच्च न्यायालय की शक्तियों के अतिरिक्त राज्य से सम्बन्धित समस्त शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति द्वारा किया जा सकता है।
  4. लोकसभा की बैठक न होने की स्थिति में राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि से, बिना लोकसभा की स्वीकृति के, व्यय की अनुमति दे सकता है।
  5. राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों को भी प्रतिबन्धित किया जा सकता है।

3. देशव्यापी वित्तीय संकट उत्पन्न होने पर

अनुच्छेद 360 के अनुसार राष्ट्रपति को वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार प्रदान किया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि भारत की वित्तीय साख को खतरा है, तो राष्ट्रपति राष्ट्र में वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकता है।

घोषणा के प्रभाव – वित्तीय आपात की घोषणा करने पर राष्ट्रपति संघ तथा राज्याधिकारियों के वेतन में कटौती कर सकता है। वह सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन में भी कटौती कर सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित सभी वित्त विधेयक इस स्थिति में राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। राष्ट्रपति केन्द्र व राज्य सरकारों के मध्य धन सम्बन्धी विषयों के वितरण के प्रावधानों में संशोधन भी कर सकता है। इस घोषणा को लागू करने पर राष्ट्रपति द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 19) को प्रतिबन्धित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति नागरिकों के संवैधानिक उपचारों के अधिकारों को भी स्थगित कर सकता है।

वित्तीय घोषणा के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि भारत में अभी तक एक बार भी वित्तीय आपात की घोषणा नहीं की गयी है।

राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति तथा महत्त्व

भारतीय राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति पर्याप्त विवादग्रस्त रही है। संसदीय शासन-प्रणाली के कारण राष्ट्रपति वैधानिक प्रधान है। संविधान के प्रारूप को प्रस्तुत करते हुए डॉ० अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था-“राष्ट्रपति की वही स्थिति है जो इंग्लैण्ड के संविधान में वहाँ के सम्राट् की है। वह राष्ट्र का प्रधान है, कार्यपालिका का नहीं। वह प्रतिनिधित्व करता है, उस पर शासन नहीं करता है। वह साधारणतः मंत्रियों के परामर्श मानने लिए विवश होगा। वह उनके परामर्श के विरुद्ध तथा उनके बिना कुछ नहीं कर सकता।” इस प्रकार वास्तविक कार्यपालिका शक्तियाँ मंत्रिमण्डल में निहित हैं। संविधान द्वारा जो शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गयी हैं, उनका प्रयोग व्यवहार में प्रधानमंत्री व मंत्रिमण्डल करता है। राष्ट्रपति का पद शक्तिहीन होने के कारण कुछ लोगों का कहना है कि राष्ट्रपति का पद महत्त्वहीन है। यह विचार सही नहीं है। संसदीय प्रणाली में राष्ट्रपति पद का विशेष महत्त्व है। यह निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट है –

  1. वह राष्ट्र का प्रतीक है।
  2. वह व्यक्तिगत रूप से कई कार्य करता है।
  3. वह संक्रमण काल में व्यवस्था तथा स्थायित्व बनाये रखता है।
  4. वह संकटकाल में राष्ट्र का नेतृत्व करता है।
  5. वह लोकतंत्र को प्रहरी तथा रक्षक है।
  6. वह अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि यद्यपि राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका नहीं है, फिर भी वह भारतीय शासन का महत्त्वपूर्ण अंश है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था- “हमने अपने राष्ट्रपति को वास्तविक शक्ति नहीं दी है, वरन् हमने उसके पद को सत्ता व प्रतिष्ठा से विभूषित किया है। वह भारतीय शासन-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग है। उसके बिना देश का शासन सुचारु रूप से नहीं चल सकता। 42वें तथा 44वें संशोधनों द्वारा राष्ट्रपति के अधिकारों से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गये हैं। अब राष्ट्रपति को मंत्रि-परिषद् के परामर्शानुसार कार्य करना होगा। वह मंत्रि-परिषद् से पुनर्विचार के लिए आग्रह कर सकता है और मंत्रि-परिषद् के पुनर्विचार को मानने के लिए बाध्य है।

क्या राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है ?
या राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का मूल्यांकन

कुछ आलोचकों का यह मानना है कि संकटकालीन अवस्था में राष्ट्रपति को इतनी अधिक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं कि वह एक निरंकुश शासक अथवा तानाशाह बन सकता है।

श्री हरिविष्णु कामथ ने तो संविधान सभा में इस व्यवस्था को स्वीकार किये जाने वाले दिन को शर्मनाक दिन बताया है। श्री अमरनन्दी के अनुसार, “राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियाँ उसके हाथों में भरी बन्दूक के समान हैं जिनका प्रयोग वह लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अथवा इनको विनष्ट करने के लिए कर सकता है। उसके अधिकारों को देखकर प्रसिद्ध विद्वान् ऐलेन ग्लेडहिल ने लिखा है- “कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में भारत का राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है, परन्तु यदि किंचित गहनता से विचार किया जाए तो व्यावहारिक रूप से यह बात उचित नहीं है। शायद ही कोई ऐसा राष्ट्रपति होगा जो अपने संकटकालीन अधिकारों का वास्तविक उपयोग करेगा।” संकटकालीन अधिकारों के विषय में डॉ० महादेव प्रसाद शर्मा ने लिखा है – “राष्ट्रपति के अधिकारों की सूची कागज पर अत्यन्त विस्तृत प्रतीत होती है और इसमें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं है कि यदि राष्ट्रपति अपनी इन शक्तियों का वास्तविक उपयोग कर सके तो वह संसार का सबसे बड़ा स्वेच्छाचारी शासक होगा।”

उपर्युक्त आलोचनौओं में सत्य को कुछ अंश अवश्य है, परन्तु ये आलोचनाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण भी हैं, क्योंकि संकटकालीन अवस्था केवल कुछ परिस्थितियों के लिए ही होती है। इस सम्बन्ध में टी० टी० कृष्णामाचारी का विचार है-“यदि कार्यपालिका अपनी संकटकालीन शक्तियों का दुरुपयोग करती है तो संसद उसे सबक दे सकती है। हम जानते हैं कि विधायिका में जन-प्रतिनिधि होते हैं जिन्हें प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद जनता के समक्ष अपने पक्ष में मतदान करने का आग्रह करना होता है। ऐसी स्थिति में संकटकालीन घोषणा में कार्यपालिका एवं विधायिका किसी के भी निरंकुश होने की आशंका केवल नाममात्र की होती है।

संविधान के 42वें संशोधन के बाद तो भय अथवा आशंका भी पूर्णत: समाप्त हो गयी है। इस संशोधन के द्वारा यह व्यवस्था कर दी गयी है कि राष्ट्रपति मंत्रिमण्डल के परामर्श को मानने के लिए बाध्य होगा। संविधान के 44वें संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति अधिक-से-अधिक मंत्रि-परिषद् से पुनर्विचार के लिए आग्रह कर सकता है और अन्तत: वह मंत्रिपरिषद् के द्वारा किये गये पुनर्विचार को मानने के लिए बाध्य है। इसलिए अब यह निश्चित हो गया है कि राष्ट्रपति संकटकाल में भी तानाशाह कदापि नहीं बन सकता। राष्ट्रपति तभी तानाशाह बन सकता है जब वह मंत्रि-परिषद् की सलाह की अवहेलना कर दे। इस स्थिति में संसद के द्वारा उस पर महाभियोग लगाया जा सकता है। संविधान को ताक पर रखकर ही राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है। संविधान के दायरे में कार्य करते हुए उसके तानाशाह बन जाने की कोई आशंका नहीं है।

प्रश्न 5.
भारत के राष्ट्रपति की शक्तियों का परीक्षण कीजिए।
या
राष्ट्रपति की वित्तीय शक्तियों का वर्णन कीजिए।
या
“भारत का राष्ट्रपति संघीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रधान है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
भारत के राष्ट्रपति के मुख्य कार्यों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
या
अध्यादेश क्या है? इसे कौन जारी कर सकता है?
या
भारत के राष्ट्रपति की कार्यपालिका और विधायी सम्बन्धी शक्तियों का वर्णन कीजिए।
या
भारत के राष्ट्रपति के कार्यों एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

राष्ट्रपति के अधिकार अथवा शक्तियाँ और कार्य

भारतीय संविधान के अनुसार भारत के राष्ट्रपति को बहुत व्यापक अधिकार प्रदान किये गये हैं। भारत संघ की कार्यपालिका शक्तियाँ संविधान की धारा 53 के अनुसार राष्ट्रपति को प्रदान की गयी हैं, जिनका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों की सहायता से कर सकता है। वस्तुतः संसदीय शासन-प्रणाली होने के कारण वह अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार न करके मंत्रिमण्डल की सहायता से करता है। राष्ट्रपति के इन अधिकारों को मुख्यत: दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है –

(1) सामान्यकालीन शक्तियाँ अथवा अधिकार तथा
(2) संकटकालीन शक्तियाँ अथवा अधिकार।

सामान्यकालीन अधिकारों का वर्णन छ: विभागों के अन्तर्गत किया जा सकता है –

  1. प्रशासकीय या शासन सम्बन्धी अधिकार।
  2. विधायिनी अथवा कानून-निर्माण सम्बन्धी अधिकार।
  3. वित्तीय अथवा अर्थ सम्बन्धी अधिकार।
  4. न्याय सम्बन्धी अधिकार।
  5. विशेषाधिकार।
  6. सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकार।

(1) प्रशासकीय या शासन-सम्बन्धी अधिकार

भारत संघ का शासन-सम्बन्धी प्रत्येक कार्य राष्ट्रपति के नाम से सम्पन्न होता है। राष्ट्रपति के प्रशासकीय अधिकारों को कई भागों में विभाजित किया जा सकता है, जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है –

(क) पदाधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार – सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियाँ राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं। संविधान के अनुच्छेद 75 (1) के अनुसार वह संसद में बहुमत दल के नेता की नियुक्ति प्रधानमंत्री के पद पर करता है तथा प्रधानमंत्री के परामर्श से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। एटार्नी जनरल, महालेखा परीक्षक, संघीय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा दूसरे सदस्य, यदि राज्यों का संयुक्त लोक सेवा आयोग हो तो उनका प्रधान तथा दूसरे सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों, विदेशों को भेजे जाने वाले राजदूतों, राज्यों के राज्यपालों तथा केंद्रीय क्षेत्रों का शासन-प्रबन्ध चलाने के लिए चीफ कमिश्नर तथा उपराज्यपाल आदि की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति को कई प्रकार के आयोगों; जैसे कि भाषा-आयोग, वित्त-आयोग, चुनाव-आयोग तथा पिछड़े वर्गों के सम्बन्ध में आयोग गठित करने का अधिकार प्राप्त है।

(ख) राज्यों के नीति-निदेशन का अधिकार – जैसा पहले बताया जा चुका है कि राष्ट्रपति राज्यों के राज्यपालों एवं मुख्य आयुक्तों आदि की नियुक्ति करता है और इनके माध्यम से राज्यों की नीति का निदेशन करता है तथा राज्यों पर अपना नियन्त्रण रखता है। यदि राष्ट्रपति यह समझता है कि किसी प्रदेश में संवैधानिक शासन-तन्त्र असफल हो रहा है तो उस प्रदेश के समस्त प्रशासकीय अधिकार अपने नियन्त्रण में ले लेता है।

(ग) सैनिक अधिकार – राष्ट्रपति राष्ट्र की सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति है। वह थल, जल, वायु सेनाध्यक्षों की नियुक्ति करता है। वह फील्ड मार्शल की उपाधि भी प्रदान करता है। वह राष्ट्रीय रक्षा समिति का अध्यक्ष होता है। राष्ट्रपति को युद्ध और शान्ति की घोषणा करने का अधिकार है, किन्तु वह इन अधिकारों का प्रयोग कानून के अनुसार ही कर सकता है तथा इसके लिए उसे संसद की स्वीकृति लेनी आवश्यक है।

(घ) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अधिकार – अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करना भी राष्ट्रपति का कार्य है। वह विदेशों से सन्धियाँ एवं राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा व्यापारिक समझौते सम्पन्न करता है। विदेशों से आये हुए राजदूतों के प्रमाण-पत्रों की जाँच भी राष्ट्रपति ही करता है तथा विदेशों में अपने देश के राजदूतों को नियुक्त करता है। यद्यपि समझौतों आदि की पहल मंत्रियों द्वारा की जाती है तथा इनकी पुष्टि संसद द्वारा आवश्यक है फिर भी ये समझौते राष्ट्रपति के नाम से ही सम्पन्न किये जाते हैं।

(2) विधायिनी अथवा कानून-निर्माण सम्बन्धी अधिकार

राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है। संविधान के अनुच्छेद 58 (1) व (2) के अन्तर्गत वह संसद को आमंत्रित करने, स्थगित करने और लोकसभा को भंग करने के अधिकार का प्रयोग कर सकता है। राष्ट्रपति को अनेक विधायिनी शक्तियाँ भी प्राप्त हैं, जिनका उल्लेख निम्नवत् है –

(क) सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार  राष्ट्रपति को राज्यसभा के लिए ऐसे 12 सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार है जो साहित्य, कला, विज्ञान अथवा किसी अन्य क्षेत्र में पारंगत हों। इसके अतिरिक्त वह लोकसभा में भी 2 आंग्ल-भारतीय सदस्यों को मनोनीत कर सकता है।

(ख) संसद का अधिवेशन बुलाने एवं सन्देश भेजने का अधिकार – संविधान द्वारा संसद के दोनों सदनों को अधिवेशन बुलाने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है। राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों को अलग-अलग अथवा एक साथ सम्बोधित कर सकता है अथवा उन्हें सन्देश भेज सकता है।

(ग) राज्यों के विधानमण्डलों पर अधिकार – राष्ट्रपति का अधिकार राज्यों के विधानमण्डलों पर भी होता है। राज्यों के विधानमण्डलों के किसी कार्य पर प्रतिबन्ध लगाने तथा तत्सम्बन्धी कानून बनाने के सम्बन्ध में राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है। अनेक प्रकार के ऐसे विधेयक होते हैं जो राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना लागू नहीं किये जा सकते।

(घ) विधेयक पारित करने का अधिकार – संसद के द्वारा पारित कोई भी विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता जब तक कि राष्ट्रपति उस पर अपनी स्वीकृति न दे दे। यह राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी विधेयक पर हस्ताक्षर करे अथवा न करे। धन विधेयक के अतिरिक्त वह किसी भी विधेयक को संसद में पुनः विचार के लिए वापस भेज सकता है। यह संसद की स्वेच्छा पर होगा कि वह राष्ट्रपति द्वारा की गयी सिफारिशों को माने अथवा न माने। संसद राष्ट्रपति की सिफारिशों पर विचार करके राष्ट्रपति को विधेयक पुनः भेजती है और राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है। सभी धन विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिशों के पश्चात् ही संसद में प्रस्तुत किये जाते हैं।

(ङ) अध्यादेश जारी करने का अधिकार – संविधान के अनुच्छेद 123 (1) के अनुसार आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रपति अध्यादेश भी जारी कर सकता है। यह कार्य वह तभी करता है जब संसद को अधिवेशन न हो रहा हो। राष्ट्रपति के द्वारा जारी किये गये अध्यादेशों की शक्ति तथा प्रभाव वैसा ही होगा जैसा कि अन्य अधिनियमों का होता है। संसद को अधिवेशन प्रारम्भ होने पर इन। अध्यादेशों का अनुमोदन कराना होता है। संसद का अधिवेशन प्रारम्भ होने की तिथि से 6 सप्ताह तक ही यह अध्यादेश लागू रह सकता है, किन्तु यदि संसद चाहे तो उसके द्वारा इस अवधि से पूर्व भी इन अध्यादेशों को समाप्त किया जा सकता है। राष्ट्रपति भी किसी अध्यादेश को किसी भी समय वापस ले सकता है। अनुसूचित क्षेत्रों में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए नियम बनाने का अधिकार भी राष्ट्रपति को प्राप्त है।

(च) लोकसभा को भंग करने का अधिकार – लोकसभा की अवधि 5 वर्ष है, परन्तु राष्ट्रपति निश्चित अवधि से पूर्व भी लोकसभा को भंग कर सकता है। राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग प्रधानमंत्री के परामर्श से करता है। भारत में ऐसा कई बार हो चुका है।

(3) वित्तीय अथवा अर्थ सम्बन्धी अधिकार

भारत के राष्ट्रपति को वित्तीय अधिकार भी प्रदान किये गये हैं। इन अधिकारों का अध्ययन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है –

(क) बजट उपस्थित कराने का अधिकार – प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ में राज्य की आय-व्यय का वार्षिक बजट वित्तमंत्री के माध्यम से राष्ट्रपति ही संसद के समक्ष प्रस्तुत करवाता है। बजट में सरकार की वर्षभर की आय तथा व्यय के अनुमानित आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं।

(ख) कर एवं अनुदान सम्बन्धी अधिकार – राष्ट्रपति नये करों को लगाने अथवा प्रचलित करों को समाप्त करने की सिफारिश कर सकता है। विशिष्ट कार्यों को करने हेतु राष्ट्रपति अनुदान की माँग भी कर सकता है। राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के बिना कोई भी वित्त विधेयक या अनुदान माँग लोकसभा में प्रस्तुत नहीं की जा सकती है।

(ग) आयकर से प्राप्त आय तथा पटसन के निर्यात से प्राप्त आय का वितरण – राष्ट्रपति ही आयकर से होने वाली आय में विभिन्न राज्यों के भाग को निर्धारित करता है तथा यह भी निश्चित करता है कि पटसन के निर्यात कर की आय में से कुछ राज्यों को बदले में क्या धनराशि मिलनी चाहिए।

(घ) वित्त आयोग की नियुक्ति का अधिकार – भारतीय संविधान की धारा 280 के अनुसार वित्त से सम्बन्धित समस्याओं को हल करने के लिए राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति कर सकता है। इसकी नियुक्ति प्रति 5 वर्ष पश्चात् की जाती है। यह आयोग वित्त सम्बन्धी समस्त समस्याओं पर विचार करके उनका समाधान प्रस्तुत कर सकता है।

(4) न्याय सम्बन्धी अधिकार

राष्ट्रपति को न्याय सम्बन्धी भी कुछ अधिकार प्रदान किये गये हैं। राष्ट्रपति ही सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। संसद के प्रस्ताव पर उन्हें पदच्युत भी कर सकता है। राष्ट्रपति को किसी भी अपराध को क्षमादान करने का अधिकार है। मृत्यु-दण्ड प्राप्त किसी भी व्यक्ति को वह क्षमा करके जीवनदान दे सकता है। किसी भी अपराधी के दण्ड को क्षमा करने, कम करने, स्थगित करने तथा अन्य किसी दण्ड में बदलने का भी उसे अधिकार है, परन्तु शर्त यह है कि यह दण्ड सैनिक न्यायालय द्वारा न दिया गया हो।

(5) विशेषाधिकार

भारतीय संविधान ने राष्ट्रपति को कुछ विशेषाधिकार (Immunities) भी प्रदान किये हैं। यद्यपि भारतीय संघ के समस्त कार्य राष्ट्रपति के नाम से होते हैं, किन्तु वह अपने शासन सम्बन्धी और शासकीय कार्यों के लिए किसी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी न होगा। न तो उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कार्यवाही की जा सकती है और न उसकी गिरफ्तारी के लिए कोई वारण्ट जारी किया जा सकता है।

(6) सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकार

संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार सार्वजनिक महत्त्व के किसी प्रश्न पर राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय से कानूनन परामर्श ले सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया परामर्श बाध्यकारी नहीं होता और यह राष्ट्रपति की इच्छा पर है कि वे उस परामर्श को स्वीकार करें अथवा नहीं। इस प्रकार भारत के राष्ट्रपति को शान्तिकाल में विस्तृत शक्तियाँ प्राप्त हैं। शान्तिकाल में वह संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में ही कार्य करेगा। हरिविष्णु कामथ ने संविधान निर्मात्री सभा में कहा था– “हम अपने राष्ट्रपति को एक संवैधानिक अध्यक्ष का रूप देना चाहते हैं, हमारी यह अपेक्षा है कि वह संसद की सलाह तथा निर्देश के अनुसार कार्य करेगा।”

प्रश्न 6.
उपराष्ट्रपति की निर्वाचन पद्धति, कार्यकाल, भत्ते एवं योग्यता का उल्लेख कीजिए तथा राज्यसभा के सभापति के रूप में उनकी भूमिका का परीक्षण कीजिए।
या
उपराष्ट्रपति का निर्वाचन कैसे होता है? उसके अधिकार एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 63 द्वारा भारतं संघ के लिए एक उपराष्ट्रपति की व्यवस्था की गयी है। संविधान में इस प्रावधान की आवश्यकता इस हेतु अनुभव की गयी, क्योंकि अनेक अवसर ऐसे हो सकते हैं जब राष्ट्रपति देश में न हो अथवा अन्य किसी कारणवश कार्यभार ग्रहण करने में सक्षम न हो। ऐसी स्थिति में शासन को ठीक से चलाने के लिए उपराष्ट्रपति की व्यवस्था की गयी है।

(1) योग्यताएँ – उपराष्ट्रपति के पद के लिए प्रत्याशी में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए –

(क) वह भारत का नागरिक हो।
(ख) वह 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।
(ग) वह राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित होने हेतु निर्धारित योग्यताएँ रखता हो।
(घ) वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर कार्य न कर रहा हो।

(2) निर्वाचन – उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में होता है। यह निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति से एकल संक्रमणीय गुप्त मतदान प्रणाली द्वारा होता है। पद ग्रहण करने से पूर्व उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति के समक्ष निष्ठा एवं पद की गोपनीयता से सम्बद्ध शपथ ग्रहण करनी होती है।

(3) कार्यकाल – उपराष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। वह स्वेच्छा से अवधि से पूर्व भी अपने पद से त्याग-पत्र देकर पदमुक्त हो सकता है। उपराष्ट्रपति अपने पद पर तब तक बना रहता है जब तक कि उसका उत्तराधिकारी पद ग्रहण न कर ले। उपराष्ट्रपति अस्थायी रूप से ही राष्ट्रपति पद धारण कर सकता है। उपराष्ट्रपति का पुनः चुनाव भी हो सकता है संवैधानिक व्यवस्था द्वारा उपराष्ट्रपति को 14 दिन का नोटिस देकर राज्यसभा अपने कुल सदस्यों के बहुमत से उसे पदच्युत करने का प्रस्ताव पारित कर सकती है। यह प्रस्ताव लोकसभा द्वारा अनुमोदित होना आवश्यक है।

(4) वेतन तथा भत्ते – उपराष्ट्रपति का वेतन ₹ 4,00,000 है। इसके अलावा उन्हें केंद्रीय मंत्रियों को मिलने वाली अन्य सुविधाएँ प्राप्त होती हैं।

(5) कार्य तथा अधिकार – उपराष्ट्रपति के कार्य तथा अधिकार निम्नलिखित हैं –

  1. वह राज्यसभा का पदेन सभापति होने के कारण राज्यसभा की बैठकों का सभापतित्व करता है।
  2. वह सदन में अनुशासन व्यवस्था बनाये रखता है।
  3. वह सदन द्वारा स्वीकृत विधेयकों पर हस्ताक्षर करता है।
  4. राष्ट्रपति का पद रिक्त होने की स्थिति में वह राष्ट्रपति पद के समस्त कार्य करता है। इस समय वह राज्यसभा का सभापति नहीं रहता है। उपराष्ट्रपति अधिक-से-अधिक 6 माह तक राष्ट्रपति पद पर कार्य कर सकता है। जिस काल में उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति पद पर कार्य करेगा, उसे वे सब उपलब्धियाँ और भत्ते प्राप्त होंगे, जिनका अधिकारी राष्ट्रपति होता है।

प्रश्न 7.
भारतीय शासन में प्रधानमंत्री की स्थिति तथा महत्त्व का वर्णन, विशेष रूप से वर्तमान समय की स्थिति के सन्दर्भ में कीजिए।
या
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के सम्बन्धों का विवेचन कीजिए।
या
संघीय मंत्रिपरिषद् के गठन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए तथा उसमें प्रधानमंत्री की स्थिति का परीक्षण कीजिए।
या
प्रधानमंत्री की शक्तियों तथा स्थिति की विवेचना कीजिए।
या
भारतीय मंत्रिमण्डल की शक्तियों एवं कार्यों का विवेचन कीजिए।
या
भारतीय शासन में प्रधानमंत्री की भूमिका का परीक्षण कीजिए।
या
भारत के प्रधानमंत्री की नियुक्ति कैसे होती है? उसकी शक्तियों का वर्णन कीजिए।
या
भारत के प्रधानमंत्री की शक्तियों और कार्यों का परीक्षण कीजिए।
उत्तर :

संघीय मंत्रिपरिषद्

सैद्धान्तिक रूप से भारतीय संविधान द्वारा समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित मानी गयी है। राष्ट्रपति को सहायता तथा परामर्श देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् की व्यवस्था की गयी है। मूल संविधान के अनुच्छेद 74 में उपबन्धित है—“राष्ट्रपति को उसके कार्यों के सम्पादन में सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक मंत्रि-परिषद् होगी, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा।”

संवैधानिक दृष्टि से राष्ट्रपति वैधानिक प्रधान है, परन्तु वास्तविक कार्यपालिका मंत्रिपरिषद् होती है। मंत्रिपरिषद् संसदात्मक शासन-प्रणाली में शासन का आधार-स्तम्भ होती है। यह कार्यपालिका व व्यवस्थापिका को जोड़ने वाली एक कड़ी है। वास्तव में मंत्रिपरिषद् के ही चारों ओर समस्त राजनीतिक तन्त्र घूमता है। यह शासन रूपी जहाज को चलाने वाला पहिया है। मंत्रिपरिषद् बहुत प्रभावी तथा महत्त्वपूर्ण संस्था है।

मंत्रिपरिषद् का गठन

मंत्रिपरिषद् की रचना में कुछ सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पक्ष निहित हैं। मंत्रिपरिषद् की रचना इस प्रकार होती है –

(1) प्रधानमंत्री की नियुक्ति – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होगी तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री के परामर्श से होगी। सैद्धान्तिक दृष्टि से राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है, किन्तु व्यवहार में इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति की शक्ति बहुत अधिक सीमित होती है। लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया जाता है। किसी भी दल का स्पष्ट बहुमत न होने या बहुमत वाले दल में निश्चित नेता न रहने की स्थिति में राष्ट्रपति स्वविवेक से किसी भी उस व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है, जो लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध कर सके। व्यवहार में 1979, 1984, 1990 और 1996 ई० में ऐसी स्थिति आई, जब राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री की नियुक्ति में अपने विवेक का प्रयोग किया।

(2) प्रधानमंत्री द्वारा मंत्रियों का चयन – मंत्रिपरिषद् के शेष मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री के परामर्श पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। प्रधानमंत्री इस सन्दर्भ में पूर्ण स्वतंत्र होता है। वह अपनी रुचि के व्यक्तियों को छाँटकर उनकी सूची राष्ट्रपति के सम्मुख प्रस्तुत करता है। मंत्रियों का चयन करते समय वह राष्ट्र के विभिन्न समुदायों, वर्गों और भौगोलिक क्षेत्रों को उचित प्रतिनिधित्व देने की चेष्टा करता है। साधारणत: राष्ट्रपति इस सूची का अनुमोदन ही करता है। तथा उक्त व्यक्तियों को मंत्री-पद पर नियुक्त कर देता है।

(3) मंत्रिपरिषद् की सदस्य-संख्या – संविधान में मंत्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं की गयी है। आवश्यकता पड़ने पर मंत्रियों की संख्या बढ़ायी या घटायी जा सकती है। व्यवहार में भारतीय मंत्रिपरिषद् में 35 से लेकर 60 तक सदस्य रहे हैं और मंत्रिमण्डल या कैबिनेट में 12 से लेकर 25 तक सदस्य रहे हैं।

(4) मंत्रियों के पद हेतु आवश्यक योग्यताएँ – संविधान में मंत्रियों की योग्यताओं के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लिखित नहीं है। मंत्रिपरिषद् के प्रत्येक मंत्री को संसद के किसी सदन का सदस्य होना आवश्यक होता है। यदि कोई व्यक्ति मंत्री बनते समय संसद-सदस्य नहीं है तो उसे 6 माह के अन्दर किसी भी सदन की सदस्यता प्राप्त करनी अनिवार्य होती है, अन्यथी उसे पदच्युत कर दिया जाता है।

(5) मंत्रियों के कार्य-विभाजन – मंत्रिपरिषद् के गठन के पश्चात् प्रधानमंत्री द्वारा उनके विभागों का विभाजन किया जाता है। वैधानिक दृष्टि से इस सम्बन्ध में प्रधानमंत्री को पूर्ण शक्ति प्राप्त है। एक मंत्री के अधीन प्रायः एक विभाग होता है, किन्तु कभी-कभी एक से अधिक विभाग भी रहते हैं।

(6) मंत्रियों द्वारा शपथ-ग्रहण – पद-ग्रहण करने के पूर्व प्रधानमंत्री सहित सभी मंत्रियों को राष्ट्रपति के समक्ष पद और गोपनीयता की पृथक्-पृथक् शपथ लेनी पड़ती है।

(7) मंत्रिपरिषद् का कार्यकाल – मंत्रिपरिषद् का कार्यकाल निश्चित नहीं होती। मंत्रिपरिषद् तब तक अस्तित्व में बनी रहती है जब तक उसे संसद का विश्वास प्राप्त रहता है। मंत्रिपरिषद् लोकसभा के कार्यकाल तक, जो सामान्यतया 5 वर्ष होता है, अपने पद पर बनी रहती है। व्यक्तिगत रूप से किसी भी मंत्री का कार्यकाल उसके प्रति प्रधानमंत्री के विश्वास पर निर्भर करता है।

(8) मंत्रियों के स्तर – मंत्रिपरिषद् में तीन स्तर के मंत्री होते हैं, मंत्रिमण्डल अंथवा कैबिनेट स्तर के मंत्री, राज्य मंत्री तथा उपमंत्री। कैबिनेट मंत्री का स्तर सबसे ऊँचा होता है। इसके बाद राज्य मंत्री आते हैं जो विशेष विभागों से सम्बन्धित तथा अपने विभागों के अध्यक्ष भी होते हैं। राज्य मंत्रियों के बाद उपमंत्री आते हैं जो अपने से ज्येष्ठ मंत्री के अधीन रहते हुए उसकी सहायता करते हैं।

उपर्युक्त तीनों स्तरों के मंत्रियों को सामूहिक रूप में मंत्रिपरिषद् के नाम से पुकारा जाता है, किन्तु मंत्रिमण्डल मंत्रिपरिषद् के अन्तर्गत एक छोटा समूह है जिसमें केवल प्रथम स्तर के मंत्री ही सम्मिलित रहते हैं।

(9) सामूहिक उत्तरदायित्व – केंद्रीय मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। मंत्रिगण व्यक्तिगत रूप से तो संसद के प्रति उत्तरदायी होते ही हैं, किन्तु सामूहिक रूप से प्रशासनिक नीति और समस्त प्रशासनिक कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद् एक इकाई के रूप में कार्य करती है, इससे मंत्रिपरिषद् को एक संगठित शक्ति का रूप मिला है, जिसके आधार पर उसे राष्ट्रपति और संसद के सम्मुख अधिक सुदृढ़ स्थिति प्राप्त हो जाती है। एक मंत्री के विरुद्ध अविश्वास का मत पारित होने पर सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

प्रधानमंत्री के कार्य और शक्तियाँ

वर्तमान समय में प्रधानमंत्री की शक्तियाँ इतनी बढ़ गयी हैं कि कुछ लोग भारत की शासन-व्यवस्था को संसदीय शासन या मंत्रिमण्डलात्मक शासन ही नहीं, वरन् प्रधानमंत्री का शासन कहते हैं। प्रधानमंत्री के कार्य तथा शक्तियों का विवरण निम्नलिखित है –

(1) मंत्रिपरिषद् का निर्माण करना – प्रधानमंत्री अपना पद-ग्रहण करने के तुरन्त बाद मंत्रिपरिषद् का निर्माण करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमंत्री को पर्याप्त छूट रहती है। प्रधानमंत्री ही मंत्रिपरिषद् में मंत्रियों की संख्या निर्धारित करता है। वह चाहे तो अपने दल और संसद के बाहर के व्यक्तियों को भी मंत्रिपरिषद् में सम्मिलित कर सकता है, परन्तु ऐसे व्यक्तियों के लिए 6 माह के अन्दर ही संसद के किसी भी सदन का सदस्य होना आवश्यक है।

(2) मंत्रियों के विभागों का बँटवारा और परिवर्तन – मंत्रियों के बीच शासन-सम्बन्धी विविध भागों का बँटवारा प्रधानमंत्री द्वारा ही किया जाता है। उसके द्वारा किये गये अन्तिम विभाग-वितरण पर साधारणतया कोई आपत्ति नहीं की जाती। प्रधानमंत्री मंत्रियों के विभागों में जब चाहे परिवर्तन कर सकता है एवं किसी भी मंत्री को उसके आचरण तथा अनुचित कार्यों के कारण त्याग-पत्र देने के लिए बाध्य भी कर सकता है।

(3) लोकसभा का नेता – संसद में बहुमत प्राप्त दल का नेता होने के कारण प्रधानमंत्री संसद का, मुख्यतया लोकसभा का, नेता होता है। विधि-निर्माण के समस्त कार्यों में प्रधानमंत्री ही नेतृत्व प्रदान करता है। वार्षिक बजट सहित सभी सरकारी विधेयक उसके निर्देशानुसार ही तैयार किये जाते हैं। दलीय सचेतक द्वारा वह अपने दल के सदस्यों को आवश्यक आदेश निर्देश देता है। तथा सदन में व्यवस्था बनाये रखने में वह लोकसभा अध्यक्ष की सहायता करता है।

(4) शासन के विभिन्न विभागों में सामंजस्य स्थापित करना – प्रधानमंत्री शासन के विभिन्न विभागों में सामंजस्य स्थापित करता है, जिससे समस्त शासन एक इकाई के रूप में कार्य करता है। इस उद्देश्य से उसके द्वारा विभिन्न विभागों को निर्देश दिये जा सकते हैं और मंत्रियों के विभागों तथा कार्यों में हस्तक्षेप भी किया जा सकता है।

(5) मंत्रिपरिषद् का कार्य-संचालन – प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद् की बैठकों का सभापतित्व और मंत्रिमण्डल की समस्त कार्यवाही का संचालन करता है। मंत्रिपरिषद् की बैठक में उन्हीं विषयों पर विचार किया जाता है जिन्हें प्रधानमंत्री एजेण्डा में रखे। यद्यपि मंत्रिपरिषद् में विभिन्न विषयों ” का निर्णय आपसी सहमति के आधार पर किया जाता है, किन्तु प्रधानमंत्री का निर्णय ही निर्णायक होता है।

(6) नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – संविधान द्वारा राष्ट्रपति को उच्च अधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त है, किन्तु व्यवहार में उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के परामर्श से ही करता

(7) उपाधियाँ प्रदान करना – भारतीय संविधान द्वारा राष्ट्रीय सेवा के उपलक्ष्य में भारतरत्न, पद्मविभूषण, पद्मश्री आदि उपाधियाँ और सम्मान की व्यवस्था की गयी है, किन्तु व्यवहार में ये उपाधियाँ प्रधानमंत्री के परामर्श पर ही प्रदान की जाती हैं।

(8) अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का प्रतिनिधित्व – भारतीय प्रधानमंत्री का स्थान अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। चाहे विदेश विभाग प्रधानमंत्री के हाथ में हो या न हो, फिर भी अन्तिम रूप से विदेश नीति का निर्णय प्रधानमंत्री ही करता है।

(9) शासन का प्रमुख प्रवक्ता – प्रधानमंत्री देश तथा विदेश में शासन की नीति का प्रमुख तथा अधिकृत प्रवक्ता होता है। यदि कभी संसद में किन्हीं दो मंत्रियों के आपसी विरोधी वक्तव्यों के कारण भ्रम और विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो प्रधानमंत्री का वक्तव्य ही इस स्थिति को स्पष्ट कर सकता है।

(10) देश का सर्वोच्च नेता तथा शासक – प्रधानमंत्री देश का सर्वोच्च नेता तथा शासक होता है। देश का समस्त शासन उसी की इच्छानुसार संचालित होता है। वह व्यवस्थापिका से अपनी इच्छानुसार कानून बनवी सकता है और संविधान में आवश्यक संशोधन भी करवा सकता है।

(11) आम चुनाव प्रधानमंत्री के नाम पर – देश के सामान्य निर्वाचन प्रधानमंत्री के नाम पर ही कराये जाते हैं। इस प्रकार सामान्य निर्वाचन स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा व शक्ति में बहुत वृद्धि कर देते हैं।

प्रधानमंत्री का महत्त्व

देश के शासन में प्रधान के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए रेम्जे म्योर ने लिखा है-“प्रधानमंत्री राज्य (शासन) रूपी जहाज का चालक चक्र है।” प्रधानमंत्री वास्तविक कार्यपालिका का अध्यक्ष होता है जो कि उसी के नेतृत्व में शासन का संचालन करती है। लॉर्ड मार्ले के अनुसार, “प्रधानमंत्री मंत्रिमण्डल के वृत्तखण्ड का मुख्य प्रस्तर है। इस प्रकार देश के शासन की बागडोर प्रधानमंत्री के हाथ में रहती है। उसकी शक्तियों की तुलना अमेरिका के राष्ट्रपति की शक्तियों से की जा सकती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय शासन-व्यवस्था में प्रधानमंत्री की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है। शासन पर उसका प्रभाव अधिकांशतः उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है।

प्रधानमंत्री का राष्ट्रपति के साथ सम्बन्ध

भारतीय शासन-व्यवस्था में प्रधानमंत्री की स्थिति वही है जो ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री की भाँति भारतीय प्रधानमंत्री का कार्य भी राज्याध्यक्ष (राष्ट्रपति) को उसके कार्यों में ‘सहयोग’ और ‘परामर्श देना है, परन्तु वास्तविकता यह है कि सभी निर्णय स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा ही लिये जाते हैं। प्रधानमंत्री मंत्रिमण्डल का निर्माता, संचालनकर्ता एवं संहारकर्ता है। इसीलिए भारतीय प्रधानमंत्री को मंत्रिपरिषद् रूपी मेहराब का प्रमुख खण्ड कहा जाता है। मंत्रिपरिषद् तथा राष्ट्रपति के आपसी सम्बन्धों को दो दृष्टिकोण से स्पष्ट किया जा सकता है -सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक।। सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से स्पष्ट होता है कि मंत्रिपरिषद् राष्ट्रपति को सहायता और परामर्श देने वाली एक समिति है, जिसके परामर्श को मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है।

व्यावहारिक दृष्टि से स्थिति यह है कि उसे मंत्रिपरिषद् का परामर्श मानना ही पड़ता है। व्यवहार में कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग उन्हीं व्यक्तियों के द्वारा किया जा सकता है, जो व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी हों। व्यवस्थापिका के प्रति मंत्रिपरिषद् उत्तरदायी होती है, राष्ट्रपति नहीं। व्यवहार में राष्ट्रपति परामर्श देने का कार्य करता है और निर्णय मंत्रिपरिषद् के द्वारा लिये जाते हैं। 44वें संवैधानिक संशोधन (1978) द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है-“राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् का परामर्श मानने के लिए बाध्य होगा।”

प्रश्न 8.
केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के कार्यों एवं शक्तियों की विवेचना कीजिए।
या
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-संघ की मंत्रिपरिषद्।
उत्तर :

संघीय (केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के कार्य एवं शक्तियाँ

संविधान के अनुच्छेद 74 में यह प्रावधान किया गया है–‘राष्ट्रपति को उसके कार्यों के सम्पादन में सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी, जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होगा।” मंत्रियों द्वारा राष्ट्रपति को जो परामर्श एवं सहायता दी जाएगी, उसे किसी न्यायालय के सामने विवादित मामले के रूप में प्रस्तुत न किया जा सकेगा। वस्तुतः मंत्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है और वह राष्ट्रपति के नाम पर देश का शासन चलाती है। राष्ट्रपति की स्थिति रबड़ की मुहर (Rubber Stamp) की भाँति होती है और कार्यपालिका अर्थात् मंत्रिपरिषद् व्यावहारिक रूप से उसकी शक्तियों एवं अधिकारों का उपभोग कर देश का शासनतन्त्र चलाती है।

मंत्रिपरिषद् के निम्नलिखित कार्य हैं –

1. विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य  प्रत्येक सरकारी विधेयक संसद में किसी-न-किसी मंत्री द्वारा ही प्रस्तुत किया जाता है। ये विधेयक संसद द्वारा पारित होने पर ही कानून का रूप धारण करते हैं। क्योंकि संसद में मंत्रिपरिषद् का बहुमत होता है, इसलिए कोई भी विधेयक उस समय तक पारित नहीं होता है, जब तक उसे मंत्रिपरिषद् का समर्थन नहीं मिल जाता है। इस प्रकार विधि-निर्माण का समस्त कार्यक्रम मंत्रिपरिषद् ही निश्चित करती है।

2. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – राष्ट्रपति उच्चतम व उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, राज्यों के राज्यपालों, तीनों सेनाओं के सेनापत्तियों एवं महान्यायवादी एटर्नी जनरल), नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक आदि की देश के उच्च पदों पर नियुक्तियाँ, मंत्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार ही करता है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से नियुक्तियाँ मंत्रिपरिषद् द्वारा ही होती है।

3. संसद की व्यवस्था – संसद में प्रस्तुत किए जाने वाले समस्त विषयों का निर्णय मंत्रिपरिषद् ही करती है। मंत्रिपरिषद् यह भी निर्णय करती है कि उस विषय को कितना समय दिया जाना चाहिए।

4. वित्त सम्बन्धी कार्य – देश की आर्थिक नीति निर्धारित करने का उत्तरदायित्व भी मंत्रिपरिषद् का ही होता है। अत: वार्षिक बजट तैयार करना, नए कर लगाना, करों की दर निश्चित करना एवं अनावश्यक करो को समाप्त करना आदि कार्य मंत्रिपरिषद् ही करती है।

5. नीति-निर्धारण का कार्य – सरकार की गृह एवं विदेश नीति का निर्धारण मंत्रिपरिषद् द्वारा ही होता है। मंत्रिपरिषद् का प्रत्येक मंत्री अपने विभाग से सम्बन्धित प्रशासन सम्बन्धी नियमों का निर्धारण स्वयं करता है; किन्तु नीति से सम्बन्धित सभी प्रश्न उसे मंत्रिमण्डल के समक्ष प्रस्तुत करने पड़ते हैं। इस सन्दर्भ में मंत्रिमण्डल का निर्णय अन्तिम माना जाता है।

6. राष्ट्रीय कार्यपालिका पर सर्वोच्च नियन्त्रण – सैद्धान्तिक दृष्टि से संघ सरकार की समस्त कार्यपालिका-शक्ति राष्ट्रपति में निहित है, परन्तु व्यवहार में इसका प्रयोग मंत्रिमण्डल द्वारा ही किया जाता है। मंत्रिमण्डल ही आन्तरिक प्रशासन का संचालन करता है और देश की समस्त प्रशासनिक व्यवस्था पर नियन्त्रण रखता है।

7. राज्यों से सम्बन्धित अधिकार – मंत्रिपरिषद् को राज्यों से सम्बन्धित अधिकार प्राप्त होते हैं। वह राज्यों का निर्माण, वर्तमान राज्यों की सीमा में परिवर्तन एवं भाषा के आधार पर प्रान्तों का निर्माण कर सकती है।

प्रश्न 9.
संघीय लोक सेवा आयोग के गठन और कार्यों पर प्रकाश डालिए।
या
संघ लोक सेवा आयोग के कार्यों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत में सार्वजनिक सेवाओं की कार्यप्रणाली का उल्लेख कीजिए।
या
संघ लोक सेवा आयोग के गठन और कार्यों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
संविधान के अनुच्छेद 315 (1) के अनुसार, भारत में अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के पदाधिकारियों की नियुक्ति को व्यवस्थित करने तथा तविषयक नियुक्तियों के निमित्त प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं को संचालित करने हेतु संघ लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गयी है। सदस्यों की संख्या एवं नियुक्ति-संघ लोक सेवा आयोग, अखिल भारतीय सेवाओं तथा संघ लोक सेवाओं के सदस्यों की भर्ती, पदोन्नति एवं अनुशासन की कार्यवाही इत्यादि के सम्बन्ध में सरकार को परामर्श देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 (1) से धारा 323 तक, संघ लोक सेवा आयोग के संगठन तथा कार्यों इत्यादि का विस्तृत वर्णन किया गया है। वर्तमान में संघीय लोक सेवा आयोग में 1 अध्यक्ष तथा 10 सदस्यों की व्यवस्था की गयी है। सदस्यों की संख्या राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करती है तथा अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करता है।

योग्यताएँ – किसी भी योग्य नागरिक को संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य नियुक्त किया जा सकता है। आयोग का सदस्य नियुक्त होने के लिए सामान्य योग्यताओं के अतिरिक्त निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –

  1. वह 65 वर्ष से कम आयु का हो।
  2. दिवालिया, पागल अथवा विवेकहीन न हो।
  3. संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से कम-से-कम आधे सदस्य ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जो कम-से-कम दस वर्ष तक भारत सरकार अथवा राज्य सरकार के अधीन किसी पद पर कार्य कर चुके हों।

सदस्यों की कार्यावधि – संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति 6 वर्ष के लिए होती है। लेकिन यदि कोई सदस्य इससे पूर्व ही 65 वर्ष की हो जाता है तो उसे अपना पद त्यागना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, उच्चतम न्यायालय के परामर्श पर राष्ट्रपति इन्हें पदच्युत भी कर सकता है।

पद-मुक्ति – संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यगण अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर अपने पद से मुक्त भी हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत का राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में उन्हें अपदस्थ भी कर सकता है –

  1. उन पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया जाए और वह उच्चतम न्यायालय में सत्य सिद्ध हो जाए।
  2. यदि वे वेतन प्राप्त करने वाली अंन्य कोई सेवा करने लगे।
  3. यदि वे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिये जाएँ।
  4. यदि वे शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कर्तव्य-पालन के अयोग्य सिद्ध हो जाएँ।

वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्ते-आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्तों को निर्धारित करने का अधिकार राष्ट्रपति को प्रदान किया गया है। किसी सदस्य के वेतन, भत्ते एवं सेवा-शर्तो को उसकी पदावधि में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

संघ लोक सेवा आयोग के कार्य

डॉ० मुतालिब ने आयोग के कार्यों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है –

(1) कार्यकारी
(2) नियामक तथा
(3) अर्द्धन्यायिक। परीक्षाओं के माध्यम से लोक महत्त्व के पदों पर प्रत्याशियों का चयन करना आयोग का कार्यकारी कर्तव्य है। भर्ती की पद्धतियों तथा नियुक्ति, पदोन्नति एवं विभिन्न सेवाओं में स्थानान्तरण आदि आयोग के नियामक प्रकृति के कार्य हैं। लोक सेवाओं से सम्बन्धित अनुशासन के मामलों पर सलाह देना आयोग का न्यायिक कार्य है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 के अनुसार लोक सेवा आयोग को निम्नांकित कार्य सौंपे गये हैं

1. परीक्षाओं का आयोजन – संघ लोक सेवा आयोग का प्रमुख कार्य अखिल भारतीय लोक सेवाओं के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चयन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु यह अनेक प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित करता है। इन परीक्षाओं में जो अभ्यर्थी अपनी योग्यता से पर्याप्त अंक पाता है, उसका चयन कर लिया जाता है। इसके बाद इन व्यक्तियों को सरकारी पदों पर नियुक्ति करने के लिए यह आयोग सरकार से सिफारिश करता है। कुछ पदों के लिए आयोग द्वारा मौखिक परीक्षाओं की व्यवस्था भी की गयी है। मौखिक परीक्षाओं में सफल होने पर सफल अभ्यर्थियों को निर्धारित पदों पर नियुक्त कर दिया जाता है।

2. राष्ट्रपति को प्रतिवेदन – संघीय लोक सेवा आयोग को अपने कार्यों से सम्बन्धित एक वार्षिक रिपोर्ट (प्रतिवेदन) राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ती है। यदि सरकार इस आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट की कोई सिफारिश नहीं मानती है तो राष्ट्रपति इसका कारण रिपोर्ट में लिख देता है और इसके उपरान्त संसद इस पर विचार करती है। इस रिपोर्ट का लाभ यह है कि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किन विभागों में इस आयोग ने स्वेच्छा से कितनी नियुक्तियाँ की हैं और सरकार ने कहाँ तक आयोग के कार्यों में हस्तक्षेप किया है।

3. संघ सरकार को परामर्श – संघ लोक सेवा आयोग अखिल भारतीय लोक सेवाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति की विधि, पदोन्नति, स्थानान्तरण आदि के विषय में संघ सरकार को परामर्श देता है। यह सरकारी कर्मचारियों की किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक क्षति हो जाने पर संघ सरकार को उनकी क्षतिपूर्ति का परामर्श भी देता है और उससे सिफारिश भी करता है। यद्यपि सरकार आयोग के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है, किन्तु सामान्यतः आयोग की सिफारिशों तथा उसके परामर्श को स्वीकार कर ही लिया जाता है, क्योंकि आयोग के सदस्य बहुत कुशल और अनुभवी होते हैं।

4. विशेष सेवाओं की योजना सम्बन्धी सहायता – उस दशा में जब दो या दो से अधिक राज्य किन्हीं विशेष योग्यता वाली सेवाओं के लिए भर्ती की योजना बनाने या चलाने की प्रार्थना करें तो संघ लोक सेवा आयोग उन्हें ऐसा करने में सहायता करता है।

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive (कार्यपालिका) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 4 Executive (कार्यपालिका), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.