UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 10 State: As an Informal Agency of Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 10
Chapter Name State: As an Informal Agency of Education (राज्य: शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में)
Number of Questions 15
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 10 State: As an Informal Agency of Education (राज्य: शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में)

वस्तुत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य से आप क्या समझते हैं? राज्य के मुख्य शैक्षिक कार्यों का उल्लेख कीजिए।
शिक्षा के अभिकरण के रूप में राज्य के कार्यों की विवेचना कीजिए।
या
राज्य के शैक्षिक कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
शिक्षा के क्षेत्र में राज्य के उत्तर:दायित्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

राज्य की परिभाषा

राज्य व्यक्तियों का वह समूह है जो निश्चित भूमि पर रहता है, जिसकी अपनी संगठित सरकार होती है और जो बाह्य नियन्त्रणों से पूर्ण स्वतन्त्र होती है। इस प्रकार से स्पष्ट होता है कि राज्य के चार तत्त्व होते हैं-भूमि या प्रदेश, जनसंख्या, सरकार एवं सम्प्रभुता।

राज्य की परिभाषा देते हुए गार्नर ने लिखा है, “राज्य न्यून संख्यक या बहुसंख्यक व्यक्तियों के समुदाय को कहते हैं जो कि निश्चित भूभाग में रहता है, जो बाहरी नियन्त्रण से पूर्णतया मुक्त है और जिसकी एक ऐसी संगठित सरकार होती है, जिसकी आज्ञा का पालन अधिकांश निवासी स्वाभाविक रूप से करते हैं।’

राज्य के शैक्षिक कार्य

राज्य के शैक्षिक कार्यों का विवेचन निम्नलिखित है
1. राष्ट्रीय शिक्षा योजना का निर्माण-राज्य का सबसे पहला कार्य यह है कि वह देश में एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा योजना का संचालन करे, जिससे समाज के सभी वर्गों के व्यक्तियों के हितों की रक्षा हो सके। इस दृष्टिकोण को सामने रखकर राज्य शिक्षाशास्त्रियों, विचारकों एवं राजनीतिज्ञों के सहयोग से एक शिक्षा योजना बनाता है और उसके द्वारा नागरिकों के सर्वांगीण विकास का। प्रयत्न करता है। इसके अतिरिक्त राज्य शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं माध्यम को निर्धारित करता है। राष्ट्रीय शिक्षा योजना का वास्तविक जीवन के निकट होना अत्यन्त आवश्यक है, जिससे शिक्षा पाने के बाद व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा होने में समर्थ हो सके।

2. शिक्षा को अनिवार्य करना-
राज्य को राष्ट्र के सभी बालकों के बौद्धिक और मानसिक विकास की ओर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि बौद्धिक विकास होने पर ही वह इसे योग्य बन सकेंगे कि अपने कर्तव्यों और अधिकारों को समझ सकें। इसलिए राज्य को चाहिए कि वह निश्चित स्तर तक शिक्षा को अनिवार्य बनाए। इससे देश के सभी नागरिक शिक्षित होंगे और वे अपना तथा देश का कल्याण कर सकेंगे।

3. विद्यालयों की स्थापना-
वर्तमान समय में प्रत्येक राज्य का यह कर्तव्य है कि वह विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार के विद्यालयों की स्थापना करे और व्यक्तिगत प्रयासों से खुले हुए विद्यालयों को मान्यता प्रदान करे। राज्य को विद्यालयों के निरीक्षण की भी व्यवस्था करनी चाहिए।

4. शिक्षा हेतु धन का प्रबन्ध-
राज्य का यह एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है कि वह सभी स्तरों की शिक्षा के लिए धन की व्यवस्था करे। इसके साथ-ही-साथ राज्य को सभी प्रकार के विद्यालयों को आर्थिक सहायता देनी चाहिए। राज्य सरकारी विद्यालयों के व्यय का वहन तो करेगा ही, लेकिन गैर-सरकारी विद्यालयों को भी उसे अनुदान देना चाहिए।

5. योग्य शिक्षकों की व्यवस्था-
शिक्षा प्रक्रिया को समुचित रूप से चलाने के लिए कुशल एवं योग्य शिक्षकों की बहुत आवश्यकता होती है, इसलिए राज्य का यह प्रमुख कर्तव्य हो जाता है कि वह विद्यार्थियों के लिए योग्य शिक्षकों की व्यवस्था करे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राज्य स्थान-स्थान पर प्रशिक्षण विद्यालय खोलता है, जो देश के लिए योग्य शिक्षक तैयार करते हैं। इसके साथ-ही-साथ राज्य यह भी व्यवस्था करता है कि प्रशिक्षित अध्यापकों को उनकी योग्यतानुसार विद्यालयों में अध्यापन कार्य का अवसर मिले, ताकि देश की शिक्षा का स्तर ऊँचा उठ सके।

6. सैनिक शिक्षा की व्यवस्था-
उच्च विद्यालयों में सैनिक शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का एक प्रमुख कर्तव्य है, जिससे आवश्यकता पड़ने पर हमारे देश के नवयुवक बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा कर सकें। इसके लिए राज्य की ओर से स्थान-स्थान पर सैनिक विद्यालयों की स्थापना की जाती है।

7. नागरिकता का प्रशिक्षण-
लोकतन्त्र की प्रगति एवं स्थायित्व योग्य नागरिकों पर निर्भर है। अतः राज्य का कार्य बालकों को नागरिकता का प्रशिक्षण देना है, जिससे वह नागरिक गुणों से सुसज्जित होकर राज्य के आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विकास में योगदान दे सके। प्रशिक्षण चार रूपों में होना चाहिए

  • राजनीतिक प्रशिक्षण- राज्य को चाहिए कि वह नवयुवकों के मन में अपनी राजनीतिक विचारधारा को समाविष्ट कर दे। इसके लिए उन्हें राजनीतिक प्रशिक्षण देना चाहिए। इससे नागरिक यह समझने लगेंगे कि उनके कर्तव्य और अधिकार क्या हैं और उनका पालन किस प्रकार करना चाहिए। वह राजनीतिक कार्यों में भी सक्रिय भाग ले सकेंगे। इसके लिए राज्य को रेडियो प्रसारण, राजनीतिक प्रदर्शनी, राजनीतिक उत्सवों आदि का आयोजन करना चाहिए।
  • सामाजिक प्रशिक्षण- राज्य को छात्रों को सामाजिक प्रशिक्षण देना चाहिए जिससे कि वह समाज के महत्त्वपूर्ण सदस्य बन सकें। राज्य को इस प्रकार का सामाजिक वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए जिसमें रहकर सामाजिक भावना का विकास हो और व्यक्ति समाज की प्रगति के लिए कार्य करे।
  • आर्थिक प्रशिक्षण- किसी भी राष्ट्र की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों को आर्थिक दृष्टि से प्रशिक्षित किया जाए। इसके लिए राज्य को चाहिए कि वह कृषि, उद्योग, विज्ञान आदि के प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान करे, जिससे कि नवयुवक जीविकोपार्जन का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें।
  • सांस्कृतिक प्रशिक्षण- राज्य को चाहिए कि वह देश के नवयुवकों को सांस्कृतिक प्रशिक्षण प्रदान करे, जिससे कि वे अपनी संस्कृति की सुरक्षा तथा उसका विकास कर सकें। इसके लिए राज्य को स्थान-स्थान पर सांस्कृतिक सोसाइटियों, चित्रशालाओं, अजायबघरों, मनोरंजन गृहों इत्यादि की स्थापना करनी चाहिए। इसके साथ-ही-साथ राज्य को चाहिए कि वह सांस्कृतिक मण्डलों, सांस्कृतिक भ्रमणों एवं सामुदायिक केन्द्रों को पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान करे।

8. शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण-राज्य का कार्य शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करने में सहायता देना है। इसके लिए राज्य के उच्चकोटि के दार्शनिकों, शिक्षा विशेषज्ञों, राजनीतिज्ञों व शिक्षा मन्त्रियों को समाज की आवश्यकताओं का अध्ययन करना चाहिए और फिर इन आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित करने चाहिए।

9. परिवार और विद्यालयों में सम्बन्ध स्थापित करना-
राज्य को एक ऐसी संस्था का निर्माण करना चाहिए जिसमें कि अभिभावकों एवं शिक्षकों के प्रतिनिधि और उच्चकोटि के शिक्षा अधिकारी सम्मिलित हों। इस संस्था का कार्य यह विचार करना है कि किस तरह से शिक्षा द्वारा व्यक्ति और समाज का हित सम्भव हो सकता है।

10. शैक्षणिक शोध को प्रोत्साहन- 
शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के शैक्षणिक अन्वेषणों की आवश्यकता है। इन अन्वेषणों के लिए राज्य को धन की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे शिक्षा के नए-नए आदर्श एवं नई-नई विधियाँ निर्मित हो सकें।

11. शिक्षण-संस्थाओं पर आवश्यक नियन्त्रण-
प्रायः यह देखने में आता है कि राजकीय शिक्षण संस्थाओं के अधिकारी अनैतिक कार्य करते हैं, जिससे अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के समक्ष अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। इसलिए राज्य का कर्तव्य है कि वह शिक्षण संस्थाओं पर आवश्यक नियन्त्रण रखे, जिससे इन शिक्षण संस्थाओं का विघटन न होने पाए। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि राज्य को अनेक प्रकार के शैक्षिक कार्य करने पड़ते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण एक बुराई है।
उत्तर:

शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण : एक बुराई

शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण हो या शिक्षा राज्य के नियन्त्रण से मुक्त हो, इस विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। व्यक्तिवादियों के अनुसार राज्य को शिक्षा में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, क्योंकि राज्य का कार्य केवल नागरिकों की रक्षा करना है। लॉक (Locke), मिल (Mill), बेन्थम (Benthem) आदि विचारकों ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है। व्यक्तिवादियों का कथन है कि यद्यपि कुछ निश्चित उद्देश्यों के लिए व्यक्ति राज्य का अनुशासन स्वीकार करेगा, परन्तु बहुत-से ऐसे कार्य भी हैं जिनमें व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्र है। मिल का कहना है कि “व्यक्ति पवित्र है और उसकी स्वतन्त्रता में राज्य का सहसा हस्तक्षेप सहन नहीं किया जा सकता।”
इस मत के समर्थकों का तर्क है–

  1. राज्य का शिक्षा पर नियन्त्रण रहने से व्यक्तियों में स्वतन्त्र विचारों का प्रसार रुक जाता है और धीरे-धीरे वाणी की स्वतन्त्रता का लोप हो जाता है।
  2. राज्य द्वारा नियन्त्रित शिक्षा-व्यवस्था में बालक के व्यक्तिव के विकास पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता, क्योंकि उनकी रुचियों, सीमाओं और इच्छाओं की पूर्ण अवहेलनी की जाती है और उसे राज्य द्वारा निर्धारित एक निश्चित साँचे के अनुसार अपने को ढालना होता है। प्रश्न 2 स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक है।

शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक है।

कुछ विद्वान् शिक्षा पर राज्य के नियन्त्रण को अच्छी बताते हैं। इनका मत है कि शिक्षित व्यक्तियों का उपयोग राज्य को ही करना है। शिक्षा पा लेने पर व्यक्ति सुयोग्य नागरिक के रूप में समाज और राज्य की सेवा में जुटेगा। इस सेवा के रूप का निर्धारण करना राज्य का कर्तव्य है। इसलिए राज्य यह अधिक अच्छी तरह समझ सकता है कि शिक्षित व्यक्तियों का उपयोग किस क्षेत्र में और कैसे किया जाए। यदि शिक्षा पर राजकीय नियन्त्रण के समर्थकों का यह तर्क ठीक है तो वस्तुतः राज्य को यह अधिकार है कि वह बालक की शिक्षा के रूप का निर्धारण करे।

इस मत के समर्थकों का यह भी कहना है कि शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तिगत प्रयत्नों को प्रोत्साहन नहीं देना। चाहिए, क्योंकि व्यक्तिगत संस्थाएँ बालकों के हित को सर्वोपरि न रखकर व्यावसायिक दृष्टिकोण से अपना काम करती हैं। इनमें अध्यापकों का वेतन बहुत कम होता है और आवश्यक शैक्षिक उपकरण उपलब्ध नहीं रहते। इस प्रकार समष्टिवादी मत के अनुसार शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था राज्य द्वारा ही होनी चाहिए। राज्य को शिक्षा पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए। रूस के साम्यवादी विचारक पिंकविच (Pinckvitch) ने इस मत का समर्थन करते हुए लिखा है, “सार्वजनिक शिक्षा, जिसका उद्देश्य भावी नागरिकों का सुधार करना है, एक ऐसा शक्तिशाली यन्त्र है जो राज्य दूसरों को हस्तान्तरित नहीं कर सकता।

प्रश्न 3.
बालक की शिक्षा में राज्य का अधिक महत्त्व है अथवा समाज का? इस प्रकरण पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:

बालक की शिक्षा में राज्य तथा समाज का महत्त्व

बालक की शिक्षा में राज्य तथा समाज दोनों का ही विशेष योगदान तथा महत्त्व होता है। राज्य द्वारा शिक्षा की नीतियों का निर्धारण किया जाता है, शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना की जाती है तथा उनकी व्यवस्था एवं संचालन किया जाता है। शिक्षा के स्तर का निर्धारण तथा शिक्षण संस्थाओं के निरीक्षण का कार्य भी राज्य द्वारा ही किया जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में राज्य की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इससे भिन्न बालक के समाजीकरण तथा सद्गुणों के विकास में समाज की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है।

बालक की अनौपचारिक शिक्षा का एक मुख्य अभिकरण समाज ही है। समाज द्वारा बालक को आजीवन शिक्षित किया जाता है, जब कि राज्य द्वारा की गई शिक्षा की व्यवस्था केवल सीमित समय के लिए ही होती है। राज्य द्वारा प्रदान की गई शिक्षा प्राप्त करके बालक जीविका-उपार्जन के लिए योग्यता का प्रमाण-पत्र प्राप्त कर सकता है, जब कि समाज द्वारा प्रदान की गई शिक्षा को प्राप्त करके बालक व्यावहारिक जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बालक की औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का महत्त्व अधिक है, जब कि बालक की अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में समाज का महत्त्व अधिक है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य और शिक्षा के सम्बन्ध के विषय में समन्वयवादी दृष्टिकोण का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक शिक्षाशास्त्री न तो पूर्णरूप से व्यक्तिवादी मत को स्वीकार करते हैं और न ही समष्टिवादी मत को, बल्कि उन्होंने मध्यम मार्ग अपनाया है। उनके अनुसार शिक्षा को न तो राज्य के पूर्ण नियन्त्रण में रखा जा सकता है और न ही उसे राज्य के नियन्त्रण से सर्वथा मुक्त किया जा सकता है। उनका कथन है कि शिक्षा जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। कोई भी एक संस्था सभी के लिए इसकी व्यवस्था नहीं कर सकती। इसलिए शिक्षा पर राज्य के नियन्त्रण के साथ-साथ परिवार एवं धार्मिक संस्थाओं का भी नियन्त्रण होना चाहिए। इस प्रकार हमें राज्य के सीमित हस्तक्षेप तथा सीमित नियन्त्रण की नीति अपनानी चाहिए। राज्य का सीमित हस्तक्षेप केवल मार्गदर्शन के लिए होना चाहिए।

प्रश्न 2.
स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा के क्षेत्र में एकरूपता लाने का कार्य केवल राज्य ही कर सकता है।
उत्तर:
शिक्षा एक सार्वजनिक रूप से सम्पन्न होने वाली प्रक्रिया है। देश के सभी क्षेत्रों में बालक-बालिकाओं की शिक्षा का प्रावधान है। इस स्थिति में आवश्यक है कि शिक्षा के स्वरूप में एकरूपता हो। शिक्षा के क्षेत्र में एकरूपता लाने का कार्य राज्य द्वारा ही किया जा सकता है। यदि शिक्षा को राज्य के नियन्त्रण से मुक्त कर दिया जाए तो शिक्षा को संचालित करने वाली विभिन्न संस्थाएँ अपने-अपने दृष्टिकोण से शिक्षा को भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रदान कर सकती हैं, परन्तु यदि शिक्षा राज्य के नियन्त्रण में होगी तो देश के सभी क्षेत्रों में शिक्षा का स्वरूप एक ही होगा तथा शिक्षा के क्षेत्र में एकरूपता होगी।

निश्चित उत्तरीय प्रत

प्रश्न 1.
‘राज्य’ की एक सरल परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
“राज्य एक संगठन है, जो किसी निश्चित भूभाग पर सर्वशक्तिमान सरकार के माध्यम से शासन करता है। यह सामान्य नियमों के द्वारा व्यवस्था बनाए रखता है।” -मैकाइवर

प्रश्न 2.
एक व्यवस्थित संगठन के रूप में राज्य के अनिवार्य तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
एक व्यवस्थित संगठन के रूप में राज्य के अनिवार्य तत्त्व हैं—

  • भूमि,
  • जनसंख्या,
  • सरकार तथा
  • सत्ता।

प्रश्न 3.
बालकों की शिक्षा के दृष्टिकोण से राज्य का मुख्यतम शैक्षिक कार्य क्या है?
उत्तर:
बालकों की शिक्षा के दृष्टिकोण से राज्य का मुख्यतम शैक्षिक कार्य है-शिक्षा की राष्ट्रीय नीति का निर्धारण तथा उसे लागू करना।

प्रश्न 4.
राज्य शिक्षा का औपचारिक/अनौपचारिक अभिकरण है।
उत्तर:
राज्य शिक्षा का औपचारिक अभिकरण है।

प्रश्न 5.
आपके दृष्टिकोण से शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
शिक्षा के क्षेत्र में एकरूपता तथा एक निश्चित स्तर बनाए रखने के लिए शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक है।

प्रश्न 6.
अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था कौन कर सकता है?
उत्तर:
अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था केवल राज्य ही कर सकता है।

प्रश्न 7.
राज्य शिक्षा के किस अभिकरण का उदाहरण है ?
उत्तर:
औपचारिक अभिकरण।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र वाले सत्ता सम्पन्न राजनीतिक संगठन को राज्य कहते हैं।
  2. राज्य द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में कोई योगदान नहीं दिया जा सकता।
  3. हमारे देश में शिक्षा की नीति का निर्धारण राज्य द्वारा ही किया जाता है।
  4. शिक्षा के क्षेत्र में एकरूपता लाने का कार्य केवल विभिन्न धार्मिक संस्थाएँ ही कर सकती हैं।
  5. औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का महत्त्व अधिक है, जब कि अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में समाज का महत्त्व अधिक है।

उत्तर:

  1. सत्य,
  2. असत्य,
  3. सत्य,
  4. असत्य,
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
लॉक, मिल तथा बेन्थम आदि व्यक्तिवादी विचारकों की मान्यता है–
(क) शिक्षा पर राज्य का पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए।
(ख) शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण एक बुराई है।
(ग) केवल प्राथमिक शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण होना चाहिए।
(घ) केवल विज्ञान की शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण होना चाहिए।

प्रश्न 2.
सार्वजनिक शिक्षा, जिसका उद्देश्य भावी नागरिकों का सुधार करना है, एक ऐसा शक्तिशाली यन्त्र
है जो राज्य दूसरों को हस्तान्तरित नहीं कर सकता है।” यह कथन किसका है।
(क) बेन्थम का
(ख) पिंकविच का
(ग) लॉक का
(घ) प्लेटो का

प्रश्न 3.
हमारे देश में शैक्षिक नीति का निर्धारण किया जाता है
(क) शिक्षकों के द्वारा
(ख) धर्माचार्यों के द्वारा
(ग) राज्य के द्वारा।
(घ) प्रधानमन्त्री के द्वारा

प्रश्न 4.
राज्य का प्रमुख शैक्षिक दायित्व क्या है?
(क) सुरक्षा का प्रबन्ध करना
(ख) अपने विचारों को जनता तक पहुँचाना
(ग) धर्म का प्रचार करना
(घ) जनशिक्षा का प्रबन्ध करना।

प्रश्न 5.
देश में शिक्षा को एकरूपता प्रदान कर सकता है
(क) समाज
(ख) धर्म
(ग) राज्य
(घ) कोई नहीं

उत्तर:

1. (ख) शिक्षा पर राज्य को नियन्त्रण एक बुराई है,
2. (ख) पिंकविच का,
3. (ग) राज्य के द्वारा,
4. (घ) जनशिक्षा का प्रबन्ध करना,
5. (ग) राज्य।

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 21 Development of Language

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Subject Pedagogy
Chapter Chapter 21
Chapter Name Development of Language (भाषा का विकास)
Number of Questions Solved 21
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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 21 Development of Language (भाषा का विकास)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भाषा के विकास से क्या आशय है? भाषा के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
या
शैशवावस्था में भाषा-विकास के विभिन्न चरणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:

भाषा-विकास का आशय
(Meaning of Language Development)

बालकों के मानसिक विकास को समझने के लिए भाषा के विकास का जानना आवश्यक है। भाषा भाव तथा विचार व्यक्त करने का एक साधन है। भाषा के अतिरिक्त हम दूसरी तरह से भी भाव तथा विचार व्यक्त करते हैं, किन्तु जितनी सुविधा से हेम शब्दों द्वारा उन्हें व्यक्त कर सकते हैं, उतनी सुविधा से हम किसी दूसरी तरह से व्यक्त नहीं कर सकते। भाषा केवल विचार अभिव्यक्ति का ही साधन मात्र नहीं है, वरन् वह हमारी अनेक मानसिक शक्तियों की वृद्धि का भी मुख्य आधार है। प्रो० स्वीट के शब्दों में, “भाषा; ध्वनि तथा वाणी द्वारा विचार की अभिव्यक्ति है।’ बालक जन्म के समय केवल क्रन्दन करता है। वह क्रमश: भाषा सीखता है। इस प्रकार से बालक द्वारा भाषा को सीखने की प्रक्रिया को ही ‘भाषा का विकास’ या ‘भाषागत विकास’, कहते हैं। भाषा के विकास के लिए शिशु का अन्य व्यक्तियों के साथ सम्पर्क स्थापित होना अनिवार्य शर्त है।

भाषा-विकास का स्वरूप
(Nature of Language Development)

क्रो और क्रो (Crow & Crow) के अनुसार भाषा के विकास पर विचार करते समय दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक है

  1. संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ; जैसे-देखना और सुनना।
  2. संवेदन क्रिया सम्बन्धी अनुक्रियाएँ; जैसे-बोलना, लिखना तथा चित्रांकन।

भाषा-विकास की अवस्थाएँ (चरण)
(Stages of Language Development)

बालक के भाषा-विकास की प्रमुख अवस्थाएँ (चरण) निम्नांकित हैं|

1. चिल्लाना एवं रोना- बालक जन्म लेने के पश्चात् ही रोना और चिल्लाना प्रारम्भ कर देता है। अत: चिल्लाना तथा रोना ही उसकी प्रारम्भिक भाषा मानी जा सकती है। जब शिशु कुछ बड़ा हो जाता है तो उसका मास का शिशु भूख लगने या पेट में दर्द होने पर रोने लग जाता है। रोते समय उसका चेहरा लाल हो जाता है और आँखों में आँसू भी बहने लगते हैं, परन्तु ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होने लगता है, उसके रोने में
बलबलाना कमी आ जाती है।
हाव-भाव

2. बलबलाना- बालक का चिल्लाना ही उसके बलबलाने में परिवर्तित हो जाता है और इसी बलबलाने से शब्द उच्चारण का विकास होता है। बलबलाना चिल्लाने की ध्वनियों से अलग होता है। क्रो एवं क्रो के अनुसार बलबलाने की आयु 3 मास से 8 मास तक। होती है। हैवलाक इसे 12 मास मानता है। बालक बलबलाना कब प्रारम्भ करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसके स्वर यन्त्रों का विकास कहाँ तक हुआ है। मैकार्थी बलबलाने को एक खेल मानते हैं। बालक इसमें एक आनन्द का अनुभव करता है। प्रायः प्रसन्नता की दशा में ही बालक बलबलाता है। बलबलाने में एक ही ध्वनि की पुनरावृत्ति होती है। बालक प्रथम स्वरों को ही दोहराता है और व्यंजनों का उच्चारण बाद में करता है। अतः सर्वप्रथम अ, इ, उ, ए आदि स्वर दोहराये जाते हैं।

3. हाव-भाव- हाव-भाव भी भाषा विकास में अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बालक में हाव-भाव का आविर्भाव बलबलाने के साथ-साथ ही हो जाता है। छोटे बालक शब्दों के उच्चारण के साथ हाव-भाव भी प्रदर्शित करते हैं और इस प्रकार बोले गये शब्दों पर बल देते हैं। वास्तव में छोटे बालकों के साथ हाव-भाव को शब्दों का स्थानापन्न समझना चाहिए।

4. शब्द-भण्डार- ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होने लगता है, त्यों-त्यों उसके शब्द-भण्डार में वृद्धि होती जाती है। प्रारम्भ में बालक संज्ञाओं का प्रयोग अधिक करता है। दो वर्ष का बालक लगभग पचास प्रतिशत से अधिक संज्ञाएँ बोलता है। इन संज्ञाओं में मुख्यतया मूल आवश्यकताओं से सम्बन्धित संज्ञाएँ होती हैं। धीरे-धीरे उसकी रुचि खिलौने आदि में होने लगती है। अतः वह उनके नाम भी लेना सीख जाता है। संज्ञाओं के पश्चात् बालक क्रियाओं का प्रयोग करना सीखते हैं। प्रायः साधारण क्रिया-सूचक शब्द; जैसे-लाओ, आओ, लो, दो, पकड़ो आदि का प्रयोग बालक पहले करता है। डेढ़-दो वर्ष का बालक विशेषण शब्दों का प्रयोग करना सीख जाता है। प्रारम्भ में प्रायः गरम, ठण्डा, अच्छा, बुरा आदि विशेषणों का ही प्रयोग करता है। तीन वर्ष का बालक सर्वनामों का भी प्रयोग करना सीख जाता है। स्मिथ, शर्ती, गैसेल, थॉमसन आदि के अनुसार इस अवस्था के बालक लगभग 900 शब्दों का प्रयोग करते हैं। बालक पाँच वर्ष में दो हजार और छह वर्ष में लगभग 2500 शब्दों का प्रयोग करने लग जाते हैं। संक्षेप में उसके शब्द भण्डार में तीव्रता से वृद्धि होती

5. वाक्य-निर्माण- भाषा विकास की एक अन्य अवस्था वाक्य-निर्माण की अवस्था है। 12वें मास में बालक वाक्य प्रयोग करने लग जाता है। प्रारम्भ में बालक एक शब्द के वाक्यों का प्रयोग करते हैं; जैसे-‘पानी’। इसका अर्थ है-‘मुझे पानी दो।’ 18वें मास में दो शब्दों के वाक्यों का प्रयोग करने लगते हैं। इन दो शब्दों में प्राय: एक शब्द संज्ञा होती है और दूसरी क्रिया; जैसे-‘खाना खाऊँ। गैसेल, गैरीसन, मैकार्थी तथा जर्सील्ड का मत है कि ढाई वर्ष के पश्चात् बालक पूरे वाक्यों का प्रयोग करने लग जाता है। प्रारम्भ में बालक सरल वाक्यों का प्रयोग करता है, बाद में लम्बे और मिश्रित वाक्यों का। कुशाग्र और प्रतिभाशाली बालक अपेक्षाकृत लम्बे तथा मिश्रित वाक्यों का प्रयोग सरलता से कर लेता है। 5 वर्ष के बालक छ: से दस शब्दों का प्रयोग अपने वाक्यों में करने लग जाते हैं।

6. शुद्ध उच्चारण- दस मास की आयु तक के बालक की बोली को समझना बहुत कठिन है। केवल परिवार के लोग ही उसकी भाषा या बोली का अर्थ लगा पाते हैं, क्योंकि उसका उच्चारण शुद्ध नहीं होता। लगभग 18 मास के पश्चात् ही उसका उच्चारण सुधर पाता है तथा तीन वर्ष की आयु तक उसमें पर्याप्त सुधार हो जाता है। जरसील्ड के अनुसार, बालकों के उच्चारण में व्यक्तिगत भेद पाये जाते हैं। कुछ छोटे बालके बड़े होने पर भी शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते। इस भेद का प्रमुख कारण है-स्वर यन्त्रों के विकास में अन्तर, परिवार के सदस्यों द्वारा अशुद्ध उच्चारण, प्रेरणा में अन्तर। उपर्युक्त विवरण द्वारा भाषा के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का सामान्य परिचय प्राप्त हो जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बालक के भाषागत विकास को विभिन्न कारक या तत्त्व प्रभावित करते हैं। इस प्रकार के मुख्य कारक हैं-परिपक्वता, शारीरिक स्वास्थ्य, सीखने के अवसर एवं अनुकरण, ” बौद्धिक क्षमता, लिंग-भेद, पारिवारिक सम्बन्ध तथा परिवार का सामाजिक-आर्थिक स्तर।

प्रश्न 2
वे कौन-से कारक हैं, जो बालकों के भाषा-विकास को प्रभावित करते हैं? विवेचना कीजिए।
उत्तर:

भाषा-विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(Factors Influencing the Language Development)

बालकों के भाषा-विकास को प्रभावित करने वाले कारक इस प्रकार हैं|

1. स्वास्थ्य स्वास्थ्य का प्रभाव भाषा- विकास पर भी पड़ता है। जीवन के पहले दो वर्षों में गम्भीर या लम्बी बीमारी होने से बालक का भाषा-विकास ठीक से नहीं हो पाता। रोगी बालक को अन्य बालकों का सम्पर्क नहीं मिलता। बिना बोले ही उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। उसे बोलने की कोई प्रेरणा नहीं मिलती, जिससे उसका भाषा-विकास पिछड़ जाता है। जिन बालकों में श्रवण दोष पाया जाता है उनका भाषा-विकास अवरोधित हो जाता है। दोषयुक्त तालु, कण्ठ, दाँत तथा जबड़ों के कारण भी बालक शुद्ध भाषा की योग्यता प्राप्त नहीं कर पाता।

2. बुद्धि परीक्षणों के द्वारा यह देखा गया है कि बालक की बुद्धि व उसकी भाषा- योग्यता में गहरा सम्बन्ध है। तीव्रबुद्धि बालक सामान्य बालक की अपेक्षा कम-से-कम चार माह पूर्व बोलना प्रारम्भ कर देता है और मन्दबुद्धि बालक सामान्य बुद्धि वाले बालक से बोलने में तीन वर्ष पिछड़ जाता है। परन्तु सभी मन्दबुद्धि बालकों के सम्बन्ध में यह बात नहीं कही जा सकती। ऐसा भी देखा गया है कि जो बालक अपनी प्रारम्भिक कक्षाओं में भाषा में पिछड़े रहते हैं, ऊँची कक्षाओं में काफी आगे बढ़ जाते हैं।

3. सामाजिक-आर्थिक स्थिति बालक के भाषा- विकास पर परिवार की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का प्रभाव भी पड़ता है। शिक्षित परिवार के बालकों का भाषा-विकास अशिक्षित परिवार के बालकों की तुलना में अधिक द्रुतगति से होता है। उच्च सामाजिक स्तर के परिवारों के बालकों का शब्द-भण्डार निर्धन परिवारों के बालकों की अपेक्षा अधिक होता है। मेकार्थी के अनुसार, “उच्च व्यवसाय वाले परिवारों के बालकों पारिवारिक सम्बन्ध की वाक्य-रचना निम्नकोटि के व्यवसाय वाले परिवारों के बालकों की वाक्य-रचना की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर होती है। इन सबका कारण यही है कि शिक्षित और उच्च सामाजिक व आर्थिक स्तर के परिवारों के बालकों को सीखने और समझने के अधिक अवसर उपलब्ध होते हैं।”

4. पारिवारिक सम्बन्ध- बालक के माता-पिता के साथ क्या सम्बन्ध हैं, माता-पिता बालक के साथ कितना समय व्यतीत करते हैं, माता-पिता बालक से अत्यधिक प्रेम करते हैं या उसे हर समय झिड़कते हैं, इन सब बातों का प्रभाव बालक के भाषा-विकास पर पड़ता है। जिन परिवारों में बालकों की संख्या अधिक होती है, वहाँ माता-पिता बालकों की ओर उचित ध्यान नहीं दे पाते, जिसके परिणामस्वरूप बालकों का भाषा-विकास पिछड़ जाता है। अकेले बालक का विकास जुड़वाँ बालक की तुलना में अधिक अच्छा होता है। क्योंकि जुड़वाँ बालकों को अनुकरण के अवसर नहीं मिलते। सामान्य परिवार में पले बालक का भाषा-विकास अनाथालय में पले बालक की अपेक्षा अच्छा होता है।

5. लिंग-भेद- जीवन के प्रथम वर्ष में शिशु के भाषा-विकास में किसी प्रकार का लिंग-भेद नहीं पाया जाता लेकिन दूसरे वर्ष के आरम्भ से ही यह अन्तर स्पष्ट होने लगता है। लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा शीघ्र बोलना शुरू करती हैं। शब्द-भण्डार, वाक्यों की लम्बाई और उनकी शुद्धता, भाषा की समझ और उच्चारण आदि में लड़कियाँ लड़कों से आगे होती हैं और यह श्रेष्ठता लड़कियों में काफी बड़ी अवस्था तक बनी रहती है लेकिन अन्त में पूर्ण विकास की स्थिति में बहुधा लड़के लड़कियों से आगे हो जाते हैं।}

6. दो भाषाएँ- जहाँ बालक को एक साथ दो भाषाएँ सिखाई जाती हैं वहाँ बालक का भाषा-विकास अवरुद्ध हो जाता है। क्योंकि बालक का ध्यान दोनों ओर रहता है, उसके मस्तिष्क में सन्देह पैदा हो जाता है, उसे एक ही बात के लिए दो-दो शब्द याद करने पड़ते हैं। इससे बालक का शब्द-भण्डार नहीं बढ़ पाता। वह सही उच्चारण नहीं कर पाता। उसमें तनाव पैदा हो जाता है। उसके मस्तिष्क पर व्यर्थ का बोझा लदा रहता है, जिससे उसे समायोजन करने में कठिनाई पैदा होती है। दो भाषाएँ सीखने से केवल भाषा-विकास पर ही नहीं उसके चिन्तन पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। वह यह निश्चय नहीं कर पाता कि किस समय कौन-सा शब्द बोलना उचित है। अतः शैशवावस्था में बालक को केवल उसकी मातृभाषा ही सिखाई जानी चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भाषा-विकास के मुख्य सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
या
भाषा का विकास बालक में किस प्रकार सम्भव है? इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:

भाषा-विकास के मुख्य सिद्धान्त
(Main Theories of Language Development)

बालक में भाषा का विकास कुछ सिद्धान्तों के अनुसार होता है। इन सिद्धान्तों का विवरण निम्नलिखित है-

1. बोलने के लिए प्रेरणा- बालक को प्रारम्भ में बोलने के लिए किसी-न-किसी प्रकार की प्रेरणा या प्रोत्साहन की आवश्यकता रहती है। वह प्रारम्भ में अपनी मूल आवश्यकताओं के अनुसार ही बोलना सीखता है। दूसरे शब्दों में, बालक भाषा का प्रयोग करके अपने माता-पिता को अपनी विभिन्न आवश्यकताओं से अवगत कराने का प्रयास करता है। संक्षेप में, बालकों में भाषा का विकास प्रेरणाओं पर आधारित होता है।

2. अनुकरण- बालक का भाषा का विकास उसकी अनुकरण-क्षमता पर भी निर्भर करता है। वह अपने परिवारजनों द्वारा बोले गये शब्दों का भी अनुकरण बड़े चाव से करता है। अत: यह आवश्यक है कि बालकों के सम्मुख जिन शब्दों का प्रयोग किया जाए उनको शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण किया जाए।

3. स्वर यन्त्र की परिपक्वता- गले, फेफड़ों और स्वर यन्त्र के द्वारा शब्द उच्चारण का कार्य होता है। इनके अतिरिक्त तालू, होंठ, नाक और दाँत भी शब्दोच्चारण में सहायक होते हैं। ज्यों-ज्यों इन अंगों में परिपक्वता आती है, त्यों-त्यों भाषा विकसित होती है।

4. सम्बद्धता- बालक के भाषा-विकास में सम्बद्धता का अपना विशेष योग रहता है। वह अपने विकास-क्रम में शब्दों और उसके अर्थों का सम्बन्ध तथा साहचर्य समझने लगता है। उदाहरण के लिएबालक के सम्मुख जब ‘कुत्ता’ शब्द बोला जाता है, तो उसके सम्मुख कुत्ता उपस्थित किया जाता है। इस प्रकार कुत्ता शब्द के अर्थ से वह ‘कुत्ते’ नामक जानवर से परिचित हो जाता है। भविष्य में जब कभी ‘कुत्ता’ शब्द बोला जाता है तो बिना कुत्ता देखे ही बालक के मानस पटल पर उसकी प्रतिभा अंकित हो जाती है।

प्रश्न 2
मानव-समाज के लिए भाषा का क्या महत्त्व है?
उत्तर:

मानव-समाज के लिए भाषा का महत्त्व
(Importance of Language for Human Society)

समस्त प्राणी-जगत् में केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जिसके पास अत्यधिक विकसित भाषा है। विकसित भाषा के ही कारण मनुष्य एक विकसित एवं बहुक्षमतायुक्त प्राणी है। भाषा के ही आधार पर मानव-समाज अत्यधिक संगठित एवं व्यवस्थित है। मानवीय संस्कृति के भरपूर विकास में भी सर्वाधिक योगदान भाषा का ही है। भाषा के अभाव के ही कारण अन्य कोई भी पशु संस्कृति का विकास नहीं कर पाया है। मानव-समाज में सम्पन्न होने वाली समस्त सामाजिक अन्त:क्रियाएँ मुख्य रूप से भाषा के ही माध्यम से परिचालित होती हैं। इस तथ्य को शैरिफ तथा शैरिफ ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शब्दों के द्वारा व्यक्ति एक-दूसरे के निकट सम्बन्ध में आते हैं। भाषा के माध्यम से व्यक्ति ऐसी योजनाएँ बनाता है जो मनुष्य को भविष्य में उन्नति की ओर ले जाती हैं। भाषा के माध्यम से व्यक्ति संचित ज्ञान को अन्य व्यक्तियों तक पहुँचाता है। मानव-समाज में व्यक्ति के समाजीकरण की प्रक्रिया में भी सर्वाधिक योगदान भाषा का ही होता है। भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा व्यक्ति पर समाज का नियन्त्रण लागू किया जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है कि समाज में बालकों की शिक्षा की प्रक्रिया भी मुख्य रूप से भाषा के ही माध्यम से सम्पन्न होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बालक के सन्दर्भ में भाषा के विकास पर परिपक्वता तथा शारीरिक स्वास्थ्य का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
बालक के भाषागत विकास पर उसकी परिपक्वता तथा शारीरिक स्वास्थ्य को अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है। बोलना अनेक अंगों पर निर्भर करता है; जैसे–फेफड़े, गला, जीभ, होंठ, दाँत, स्वर यन्त्र तथा मस्तिष्क के बाकी केन्द्र आदि। बालक के ये अंग जब परिपक्व हो जाते हैं, तब ही बालक ठीक से बोल पाता है। इसके अतिरिक्त यदि कोई बालक दीर्घकाले तक बीमार रहता है तो भी उसके बोलने की क्रिया कुछ बिगड़ सकती है। यदि बालक के सुनने की क्षमता कम हो या उसके कानों में कुछ दोष हो तो भी बालक की भाषा का विकास सामान्य नहीं रह पाता। यही कारण है कि बधिर बच्चे मूक या गूंगे भी होते हैं।

प्रश्न 2
भाषागत विकास का बालक की बौद्धिक क्षमता से क्या सम्बन्ध है?
उत्तर
टरमन, शर्ली, मैकार्थी आदि मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बालक की बौद्धिक क्षमता और उसके भाषा-विकास में विशेष सम्बन्ध है। बालक की बोली सुनकर उसकी बौद्धिक योग्यता का ज्ञान हो जाता है, परन्तु जरसील्ड का कहना है कि बोलने की क्षमता को बौद्धिक योग्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है। उनके अनुसार जो बालक शीघ्र बोलना सीख जाता है, वह प्राय: सामान्य बुद्धि का होता है और यह भी आवश्यक नहीं है कि जो बालक देर से बोलना सीखता है, वह मन्दबुद्धि वाला ही हो।

प्रश्न 3
भाषागत विकास पर लिंग-भेद का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
एक वर्ष तक बालक तथा बालिका में भाषा-विकास प्राय: एक-सा होता है, परन्तु दूसरे वर्ष से ही दोनों में अन्तर प्रारम्भ हो जाता है। बालिकाएँ बालकों की अपेक्षा पहले बोलना प्रारम्भ कर देती हैं। बालिकाएँ लम्बे वाक्य सरलता से बोल सकती हैं, परन्तु बालक छोटे-छोटे वाक्य ही बोल पाते हैं। इसी प्रकार बालिकाओं को शब्दोच्चारण बालकों की तुलना में अधिक शुद्ध होता है। मैकार्थी के अनुसार, इस भिन्नता का कारण है, बाल्यावस्था में बालिकाओं का अपनी माँ के साथ अधिक रहना। बालक अपने पिता से अधिक लगाव का अनुभव करते हैं, परन्तु पिता प्रायः जीविका हेतु बाहर जाकर कार्य करते हैं। अत: बालकों का भाषा-विकास उचित ढंग से नहीं हो पाता।

प्रश्न 4
भाषागत विकास पर सीखने के अवसरों तथा अनुकरण का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
वातावरण में अनेक ऐसे तत्त्व होते हैं, जो बालक के भाषा-विकास में सहायक होते हैं। इन तत्त्वों में सीखने के अवसर और अनुकरण प्रमुख हैं। जिन बालकों को भाषा सीखने के पर्याप्त अवसर प्रदान किये जाते हैं, वे शीघ्र ही सीख जाते हैं। बालक का शब्द-भण्डार पड़ोसी बालकों के साथ खेलने से भी पर्याप्त विकसित होता है। माता-पिता के बोलने-चालने का अनुकरण करके भी बालक बहुत-कुछ सीखते हैं। अत: माता-पिता का कर्तव्य है कि वे अपने बच्चे के सम्मुख शुद्ध और प्रभावमयी भाषा का ही प्रयोग करें। जिन परिवारों के सदस्य आपस में गाली-गलौज और असभ्य शब्दों का प्रयोग करते हैं, वहाँ बालक भी गाली-गलौज करने लग जाते हैं।

प्रश्न 5
बालक के भाषागत विकास पर पारिवारिक सम्बन्धों का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
पारिवारिक सम्बन्ध भाषा-विकास में विशेष योग देते हैं। मैकार्थी और थॉमसन के अनुसार, अनाथालय में रहने वाले बालक बहुत अधिक रोते हैं और कम बलबलाते हैं। ये बालक प्राय: देर से बोलना प्रारम्भ करते हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि बालक का भाषा-विकास परिवार में ही समुचित ढंग से होता है। माता-पिता के सम्पर्क और दुलार में बालक शीघ्र बोलना सीख जाता है। डेविस तथा मैकार्थी के अनुसार, बड़े लड़के की भाषा अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होती है, क्योंकि प्रौढ़ लोगों के साथ उसका सम्पर्क अधिक रहता है।

प्रश्न 6
भाषागत विकास पर परिवार के सामाजिक-आर्थिक स्तर का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
कुछ मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि जिन परिवारों का सामाजिक तथा आर्थिक स्तर निम्न होता है, उनमें पले बालक देर से बोलना सीखते हैं। जर्सील्ड, गेसेल, डेविस, यंग तथा मैकार्थी के अनुसार, उच्च वर्गों के बालक जल्दी बोलना सीखते हैं तथा अधिक बोलते हैं। इस प्रकार के वातावरण में पले बालकों का उच्चारण भी शुद्ध होता है तथा शब्द-भण्डार बड़ा होता है। इन बच्चों की भाषा अधिक सुसंस्कृत, शिष्ट तथा परिष्कृत होती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भाषा से क्या आशय है?
उत्तर:
पारस्परिक संचार के शाब्दिक रूप को भाषा कहा जाता है।

प्रश्न 2
भाषा की एक संक्षिप्त परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
‘‘भाषा की परिभाषा व्यक्तियों के बीच परम्परागत प्रतीकों के पाध्यम से विचार-विनिमय की प्रणाली के रूप में की जा सकती है।”

प्रश्न 3
नवजात शिशु की भाषा किस रूप में होती है?
उत्तर:
नवजात शिशु का क्रन्दन या जन्म-रोदन ही उसकी प्रारम्भिक भाषा होती है।

प्रश्न 4
भाषा के विकास के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक क्या है?
उत्तर:
भाषा के विकास के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक है-सामाजिक सम्पर्क।

प्रश्न 5
मानवीय भाषा के मुख्य प्रकारों या रूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मानवीय भाषा के मुख्य प्रकार यो रूप हैं-

  1. वाचिक अथवा मौखिक भाषा
  2. अंकित अथवा लिखित भाषा तथा
  3. सांकेतिक भाषा।

प्रश्न 6
संस्कृति के विकास में भाषा के योगदान या महत्त्व को स्पष्ट करने वाला कोई कथन लिखिए।
उत्तर:
“निश्चित रूप से भाषा मानव-संस्कृति की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वस्तु है तथा भाषा के बिना संस्कृति का अस्तित्व और कार्य नहीं हो सकता।”

प्रश्न 7
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. भाषा पारस्परिक संचार का सर्वोत्तम माध्यम है
  2. शिशु की प्रारम्भिक भाषा क्रन्दन के रूप में होती है
  3. भाषा के विकास के अभाव में शिक्षा की प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती है
  4. संस्कृति के विकास, संरक्षण एवं हस्तान्तरण में सर्वाधिक योगदान भाषा का ही होता है
  5. सामाजिक सम्पर्क के नितान्त अभाव में भी भाषा को सुचारु रूप से विकास हो सकता है

उत्तर:

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
विचारों के आदान-प्रदान का प्रमुख साधन है
(क) भाषा
(ख) संकेत
(ग) प्रतीक
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 2.
शिशु की भाषा का प्रारम्भ होता है
(क) बुब्बू शब्द से
(ख) माँ शब्द से
(ग) जन्म-रोदन से
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 3.
भाषागत विकास के लिए अनिवार्य शर्त है
(क) नियमित रूप से विद्यालय में जाना
(ख) लिखना-पढ़ना सीखना
(ग) सामाजिक सम्पर्क
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 4.
भाषा के विकास को प्रभावित करने वाले कारक हैं
(क) परिपक्वता
(ख) सामाजिक सम्पर्क
(ग) परिवार का सामाजिक एवं आर्थिक स्तर
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 5.
भाषा तथा शिक्षा का सम्बन्ध है
(क) भाषा तथा शिक्षा में कोई सम्बन्ध नहीं है
(ख) भाषा तथा शिक्षा का सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है
(ग) भाषा सीखने के लिए शिक्षा आवश्यक है
(घ) सामान्य रूप से भाषा के माध्यम से ही शिक्षा का आदान-प्रदान होता है

उत्तर:

  1. (क) भाषा
  2. (ग) जन्म रोदन से
  3. (ग) सामाजिक सम्पर्क
  4. (घ) उपर्युक्त सभी
  5. (घ) सामान्य रूप से भाषा के माध्यम से ही शिक्षा का आदान-प्रदान होता है

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 5 अथातो घुमक्कड़-जिज्ञासा

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Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 5
Chapter Name अथातो घुमक्कड़-जिज्ञासा (राहुल सांकृत्यायन)
Number of Questions 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 5 अथातो घुमक्कड़-जिज्ञासा (राहुल सांकृत्यायन)

लेखक का साहित्यिक परिचय और कृतियाँ

प्रश्न 1.
राहुल सांकृत्यायन का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी प्रमुख कृतियों पर प्रकाश डालिए।
या
राहुल सांकृत्यायन को साहित्यिक परिचय दीजिए एवं उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

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इन्होंने पाँच बार सोवियत संघ, श्रीलंका और तिब्बत की यात्रा की। छ: मास वे यूरोप में रहे। एशिया को तो, इन्होंने छान ही डाला था। कोरिया, मंचूरिया, ईरान, अफगानिस्तान, जापान, नेपाल आदि देशों का पर्यटन करने में इन्होंने अपना बहुत-सा समय बिताया। इन्होंने भारत के तो कोने-कोने का भ्रमण किया। बद्रीनाथ, केदारनाथ, कुमाऊँ-गढ़वाल से लेकर कर्नाटक, केरल, कश्मीर, लद्दाख तक भ्रमण किया। राहुल जी मुक्त विचारों के व्यक्ति थे। घुमक्कड़ी ही इनकी पाठशाला थी। यही इनका विश्वविद्यालय था। इन्होंने विश्वविद्यालय की चौखट पर पैर भी नहीं रखा था। भारत का यह पर्यटन-प्रिय साहित्यकार 14 अप्रैल, सन् 1963 ई० को संसार त्यागकर परलोक सिधार गया।

साहित्यिक योगदान–राहुल जी उच्चकोटि के विद्वान् और अनेक ऋषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने धर्म, दर्शन, पुराण, इतिहास, भाषा एवं यात्रा पर ग्रन्थों की रचनाएँ कीं। हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में इन्होंने ‘अपभ्रंश काव्य-साहित्य और दक्षिणी हिन्दी-साहित्य’ आदि श्रेष्ठ रचनाएँ प्रस्तुत की। इनकी रचनाओं में प्राचीनता का पुनरावलोकन, इतिहास का गौरव और तत्सम्बन्धी स्थानीय रंगत विद्यमान है। इनकी साहित्यिक सेवाओं का निरूपण निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है-

निबन्धकार के रूप में निबन्धकार के रूप में राहुल जी ने भाषा और साहित्य से सम्बन्धित निबन्धों की रचना की, जिनमें धर्म, इतिहास, राजनीति और पुरातत्त्व प्रमुख हैं। इन्होंने रूढ़ियों के बन्धन ढीले करने के लिए धर्म, ईश्वर, सदाचार आदि विषयों पर निबन्ध लिखे। अपने निबन्धों में इन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने । पर पर्याप्त बल दिया तथा उर्दू-मिश्रित हिन्दी का विरोध किया। उपन्यासकार के रूप में राहुल जी ने अपने उपन्यासों में भारत के प्राचीन इतिहास का गौरवशाली रूप प्रस्तुत किया है। इन्होंने ‘सिंह सेनापति’ नामक उपन्यास में राजतन्त्र और गणतन्त्र की तुलना करते हुए गणतन्त्र को श्रेष्ठ सिद्ध किया है।

कहानीकार के रूप में राहुल जी के कहानी-संग्रहों में ‘वोल्गा से गंगा’ और ‘सतमी के बच्चे’ श्रेष्ठ संग्रह हैं। ‘वोल्गा से गंगा में इन्होंने पिछले आठ हजार वर्षों के मानव-जीवन का विकास कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। ‘सतमी के बच्चे कहानी-संग्रह में आकर्षक और कलात्मक ढंग से (लघु मानव) के प्रति राग और ममता को प्रस्तुत किया गया है।

अन्य विधा-लेखक के रूप में इनके – अतिरिक्त राहुल जी ने जीवनी, संस्मरण और यात्रा-साहित्य की विधाओं पर भी प्रभावशाली रीति से सुन्दर रचनाएँ लिखीं। ‘मेरी जीवन यात्रा’ नामक इनका आत्मकथात्मक ग्रन्थ पाँच खण्डों में विभक्त है। ‘बचपन की स्मृतियाँ’, ‘असहयोग के मेरे साथी’ आदि संस्मरणात्मक रचनाओं में इनका व्यक्तित्व उभरा है। इन्हें यात्रा-साहित्य लिखने में सर्वाधिक सफलता मिली है। इनकी रचनाओं में देश-विदेश की यात्राओं का वर्णन है। घुमक्कड़शास्त्र में घुमक्कड़ी का महत्त्व बताया गया है।

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साहित्य में स्थान-भाषा के प्रकाण्ड पण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपने अनुभव पर आधारित विशद लेखन से हिन्दी-साहित्य के विकास में अपूर्व योगदान दिया है। इन्होंने अपनी साहित्यिक रचनायों में प्राचीन इतिहास एवं वर्तमान जीवन के उन अंशों पर भी लिखा है, जिन पर आमतौर पर अन्य लेखकों की दृष्टि भी नहीं गयी थी।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 4 शिक्षा का उद्देश्य

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Chapter Chapter 4
Chapter Name शिक्षा का उद्देश्य (डॉ० सम्पूर्णानन्द)
Number of Questions 4
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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 4 शिक्षा का उद्देश्य (डॉ० सम्पूर्णानन्द)

लेखक का साहित्यिक परिचय और भाषा-शैली

प्रश्न 1.
डॉ० सम्पूर्णानन्द की साहित्यिक सेवाओं (परिचय) का उल्लेख कीजिए।
या
डॉ० सम्पूर्णानन्द का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए।
या
डॉ० सम्पूर्णानन्द का साहित्यिक परिचय दीजिए एवं उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए।

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साहित्य में स्थान–डॉ० सम्पूर्णानन्द ने हिन्दी में गम्भीर विषयों पर निबन्धों और ग्रन्थों की रचना की। इनकी रचनाओं में मौलिक चिन्तन, गम्भीरता और उच्च स्तर का पाण्डित्य पाया जाता है। सम्पादन के क्षेत्र में भी इन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया है। एक मनीषी साहित्यकार के रूप में हिन्दी-साहित्य में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान सदा बना रहेगा।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 आचरण की सभ्यता

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 आचरण की सभ्यता (सरदार पूर्णसिंह) are part of UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi . Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 आचरण की सभ्यता (सरदार पूर्णसिंह).

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Chapter Chapter 3
Chapter Name आचरण की सभ्यता (सरदार पूर्णसिंह)
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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 आचरण की सभ्यता (सरदार पूर्णसिंह)

लेखक का साहित्यिक परिचय और कृतियाँ

प्रश्न 1.
“सरदार पूर्णसिंह का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए।
या
सरदार पूर्णसिंह का साहित्यिक परिचय दीजिए एवं उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।

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