UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

स्वदेश-प्रेम

सम्बद्ध शीर्षक

  • जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
  • राष्ट्रधर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है।
  • राष्ट्र के गौरव की सुरक्षा और हमारा कर्तव्य

प्रमुख विचार – बिन्दु

  1.  प्रस्तावना,
  2. देश प्रेम की स्वाभाविकता,
  3.  देश-प्रेम का अर्थ
  4.  देश-प्रेम का क्षेत्र,
  5. देश के प्रति कर्तव्य,
  6.  भारतीयों का देश-प्रेम,
  7.  देशभक्तों की कामना
  8.  उपसंहार।

प्रस्तावना – ईश्वर द्वारा बनायी गयी सर्वाधिक अद्भुत रचना है ‘जननी’, जो नि:स्वार्थ प्रेम की प्रतीक है, प्रेम का ही पर्याय है, स्नेह की मधुर बयार है, सुरक्षा का अटूट कवच है, संस्कारों के पौधों को ममता के जल से सींचने वाली चतुर उद्यान रक्षिका है, जिसका नाम प्रत्येक शीश को नमन के लिए झुक जाने को प्रेरित कर देता है। यही बात जन्मभूमि के विषय में भी सत्य है। इन दोनों का दुलार जिसने पा लिया उसे स्वर्ग का पूरा-पूरा अनुभव धरा पर ही हो गया। इसीलिए जननी और जन्मभूमि की महिमा को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है। यही कारण है कि स्वदेश से दूर जाकर मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी एक प्रकार की उदासी और रुग्णता का अनुभव करने लगते हैं।

देश-प्रेम की स्वाभाविकता – प्रत्येक देशवासी को अपने देश से अनुपम प्रेम होता है। अपना देश चाहे बर्फ से ढका हुआ हो, चाहे गर्म रेत से भरा हो, चाहे ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हो, वह सबके लिए प्रिय होता है। इस सम्बन्ध में कविवर रामनरेश त्रिपाठी की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं

विषुवत् रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर ॥
ध्रुववासी जो हिम में तम में, जी लेता है काँप-काँप कर।
वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ॥

प्रात:काल के समय पक्षी भोजन-पानी के लिए कलरव करते हुए दूर स्थानों के लिए चले जाते हैं परन्तु सायंकाल होते ही एक विशेष उमंग और उत्साह के साथ अपने-अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं। पशु-पक्षियों में उसके लिए इतना मोह और लगाव हो जाता है कि वे उसके लिए मर-मिटने हेतु भी तत्पर रहते हैं

आग लगी इस वृक्ष में, जलते इसके पात,
तुम क्यों जलते पक्षियो! जब पंख तुम्हारे पास?
फल खाये इस वृक्ष के, बीट लथेड़े पात,
यही हमारा धर्म है, जलें इसी के साथ।

पशु-पक्षियों को भी अपने घर से, अपनी मातृभूमि से इतना प्यार है तो भला मानव को अपनी जन्मभूमि से, अपने देश से क्यों प्यार नहीं होगा? वह तो विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि, बुद्धिसम्पन्न एवं सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी है। माता और जन्मभूमि की तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ है। संस्कृत के किसी महान् कवि ने ठीक ही कहा है – जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।

देश-प्रेम का अर्थ – देश-प्रेम का तात्पर्य है – देश में रहने वाले जड़-चेतन सभी प्राणियों से प्रेम, देश की सभी झोपड़ियों, महलों तथा संस्थाओं से प्रेम, देश के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेश-भूषा से प्रेम, देश के सभी धर्मों, मतों, भूमि, पर्वत, नदी, वन, तृण, लता सभी से प्रेम और अपनत्व रखना व उन सभी के प्रति गर्व की अनुभूति करना। सच्चे देश-प्रेमी के लिए देश का कण-कण पावन और पूज्य होता है।

सच्चा प्रेम वही है, जिसकी तृप्ति आत्मबल पर हो निर्भर ।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥
देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित ।
आत्मा के विकास से, जिसमें मानवता होती है विकसित ॥

सच्चा देश-प्रेमी वही होता है, जो देश के लिए नि:स्वार्थ भावना से बड़े-से-बड़ा त्याग कर सकता है। स्वदेशी वस्तुओं का स्वयं उपयोग करता है और दूसरों को भी उनके उपयोग के लिए प्रेरित करता है। सच्चा देशभक्त उत्साही, सत्यवादी, महत्त्वाकांक्षी और कर्तव्य की भावना से प्रेरित होता है। वह देश में छिपे हुए गद्दारों से सावधान रहता है और अपने प्राणों को हथेली पर रखकर देश की रक्षा के लिए शत्रुओं का मुकाबला करता है।

देश-प्रेम का क्षेत्र – देश-प्रेम का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। सैनिक युद्ध-भूमि में प्राणों की बाजी लगाकर, राज-नेता राष्ट्र के उत्थान का मार्ग प्रशस्त. कर, समाज-सुधारक समाज का नवनिर्माण करके, धार्मिक नेता मानव-धर्म का उच्च आदर्श प्रस्तुत करके, साहित्यकार राष्ट्रीय चेतना और जन-जागरण का स्वर फेंककर, कर्मचारी, श्रमिक एवं किसान निष्ठापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करके, व्यापारी मुनाफाखोरी व तस्करी का त्याग कर अपनी देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। ध्यान रहे, सभी को अपना कार्य करते हुए देशहित को सर्वोपरि समझनी चाहिए।

देश के प्रति कर्त्तव्य – जिस देश में हमने जन्म लिया है, जिसका अन्न खाकर और अमृत समान जल पीकर, सुखद वायु का सेवन कर हम बलवान् हुए हैं, जिसकी मिट्टी में खेल-कूदकर हमने पुष्ट शरीर प्राप्त किया है, उस देश के प्रति हमारे अनन्त कर्तव्य हैं। हमें अपने प्रिय देश के लिए कर्तव्यपालन और त्याग की भावना से श्रद्धा, सेवा एवं प्रेम रखना चाहिए। हमें अपने देश की एक इंच भूमि के लिए तथा उसके सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देनी चाहिए। यह सब करने पर भी जन्मभूमि या अपने देश से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकते हैं।

भारतीयों का देश-प्रेम – भारत माँ ने ऐसे असंख्य नर-रत्नों को जन्म दिया है, जिन्होंने असीम त्याग-भावना से प्रेरित होकर हँसते-हँसते मातृभूमि पर अपने प्राण अर्पित कर दिये। कितने ही ऋषि-मुनियों ने अपने तप और त्याग से देश की महिमा को मण्डित किया है तथा अनेकानेक वीरों ने अपने अद्भुत शौर्य से शत्रुओं के दाँत खट्टे किये हैं। वन-वन भटकने वाले महाराणा प्रताप ने घास की रोटियाँ खाना स्वीकार किया, परन्तु मातृभूमि के शत्रुओं के सामने कभी मस्तक नहीं झुकाया। शिवाजी ने देश और मातृभूमि की सुरक्षा के लिए गुफाओं में छिपकर शत्रु से टक्कर ली और रानी लक्ष्मीबाई ने महलों के सुखों को त्यागकर शत्रुओं से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, अशफाकउल्ला खाँ आदि न जाने कितने देशभक्तों ने विदेशियों की अनेक यातनाएँ सहते हुए, मुख से वन्दे मातरम्’ कहते हुए हँसते-हँसते

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ॥

भारत का इतिहास ऐसे अनेक वीरों को साक्षी है, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा और मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को त्याग दिया और मन में मर-मिटने का अरमान लेकर शत्रु पर टूट पड़े। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपतराय आदि अनेक देशभक्तों ने अनेक कष्ट सहकर और प्राणों का बलिदान करके देश की स्वाधीनता की ज्योति को प्रज्वलित किया। इसी स्वदेश प्रेम के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अनेकों कष्ट सहे, जेलों में रहे तथा अन्त में अपने प्राण निछावर कर दिये। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, सरदार बल्लभभाई पटेल, पं० जवाहरलाल नेहरू आदि देशरत्नों ने आजीवन देश की सेवा की। श्रीमती इन्दिरा गांधी देश की एकता और अखण्डता के लिए नृशंस आतंकवादियों की गोलियों का शिकार बनीं।।

देशभक्तों की कामना – देशभक्तों को सुख-समृद्धि, धन, यश, कंचन और कामिनी की आकांक्षा नहीं होती है। उन्हें तो केवल अपने देश की स्वतन्त्रता, उन्नति और गौरव की कामना होती है। वे देश के लिए जीते हैं और देश के लिए मरते हैं। मृत्यु के समय भी उनकी इच्छा यही होती है कि वे देश के काम आयें। कविवर माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में एक पुष्प की भी यही कामना है

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक॥

उपसंहार – खेद का विषय है कि आज हमारे नागरिकों में देश-प्रेम की भावना अत्यन्त दुर्लभ होती जा रही है। नयी पीढ़ी का विदेशों से आयातित वस्तुओं और संस्कृतियों के प्रति अन्धाधुन्ध मोह, स्वदेश के बजाय विदेश में जाकर सेवाएँ अर्पित करने के सजीले सपने वास्तव में चिन्ताजनक हैं। हमारी पुस्तकें भले ही राष्ट्रप्रेम की गाथाएँ पाठ्य-सामग्री में सँजोये रहें, परन्तु वास्तव में नागरिकों के हृदय में गहरा व सच्चा राष्ट्रप्रेम ढूंढ़ने पर भी उपलब्ध नहीं होता। हमारे शिक्षाविदों व बुद्धिजीवियों को इस प्रश्न का समाधान ढूंढ़ना ही होगा कि अब मात्र उपदेश या अतीत के गुणगान से वह प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। हमें अपने राष्ट्र की दशा व छवि अनिवार्य रूप से सुधारनी होगी।
प्रत्येक देशवासी को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके देश भारत की देशरूपी बगिया में राज्यरूपी अनेक क्यारियाँ हैं । किसी एक क्यारी की उन्नति एकांगी उन्नति है और सभी क्यारियों की उन्नति देशरूपी उपवन की सर्वांगीण उन्नति है। जिस प्रकार एक माली अपने उपवन की सभी क्यारियों की देखभाल समान भाव से करती है उसी प्रकार हमें भी देश का सर्वांगीण विकास करना चाहिए। किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष को लक्ष्य न मानकर समग्रतापूर्ण चिन्तन किया जाना चाहिए, क्योंकि सबकी उन्नति में एक की उन्नति तो अन्तर्निहित होती ही है। प्रत्येक देशवासी का चिन्तन होना चाहिए कि “यह देश मेरा शरीर है और इसकी क्षति मेरी ही क्षति है।’ जब ऐसे भाव प्रत्येक भारतवासी के होंगे तब कोई अपने निहित स्वार्थों के पीछे रेल, बस अथवा सरकारी सम्पत्तियों की होली नहीं जलाएगा और न ही सरकारी सम्पत्ति का दुरुपयोग ही करेगा।
स्वदेश-प्रेम मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसे संकुचित रूप में ग्रहण न करे व्यापक रूप में ग्रहण करना चाहिए। संकुचित रूप में ग्रहण करने से विश्व शान्ति को खतरा हो सकता है। हमें स्वदेश-प्रेम की भावना के साथ-साथ समग्र मानवता के कल्याण को भी ध्यान में रखना चाहिए।

 हमारे राष्ट्रीय पर्व

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारत के राष्ट्रीय त्योहार

प्रमुख विचार-बिन्दु 

  1.  प्रस्तावना,
  2.  गणतन्त्र दिवस,
  3.  स्वतन्त्रता दिवस,
  4. गांधी जय
  5. राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना – भारतवर्ष को यदि विविध प्रकार के त्योहारों का देश कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। इस धरा-धाम पर इतनी जातियाँ, धर्म और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं कि उनके सभी त्योहारों को यदि मनाना शुरू कर दिया जाए तो शायद एक-एक दिन में दो-दो त्योहार मना कर भी वर्ष भर में उन्हें पूरा नहीं किया जा सकता। पर्वो का मानव-जीवन व राष्ट्र के जीवन में विशेष महत्त्व होता है। इनसे नयी प्रेरणा मिलती है, जीवन की नीरसता दूर होती है तथा रोचकता और आनन्द में वृद्धि होती है। पर्व या त्योहार कई तरह के होते हैं; जैसे-धार्मिक, सांस्कृतिक, जातीय, ऋतु सम्बन्धी और राष्ट्रीय। जिन पर्वो का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, जाति या धर्म के मानने वालों से न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र से होता है तथा जो पूरे देश में सभी नागरिकों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाये जाते हैं, उन्हें राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस एव गांधी जयन्ती हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं। ये राष्ट्रीय पर्व समस्त भारतीय जन-मानस को एकता के सूत्र में पिरोते हैं। ये उन अमर शहीदों व देशभक्तों का स्मरण कराते हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए जीवन-पर्यन्त संघर्ष किया और राष्ट्र की स्वतन्त्रता, गौरव व इसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए अपने प्राणों को भी सहर्ष न्योछावर कर दिया।

गणतन्त्र दिवस – गणतन्त्र दिवस हमारा एक प्रमुख राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को देशवासियों द्वारा मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 ई० में हमारे देश में अपना संविधान लागू हुआ था। इसी दिन हमारा राष्ट्र पूर्ण स्वायत्त गणतन्त्र राज्य बना अर्थात् भारत को पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न गणराज्य घोषित किया गया। यही दिन हमें 26 जनवरी, 1930 का भी स्मरण कराता है, जब पं० जवाहरलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पारित किया गया था।

गणतन्त्र दिवस का त्योहार बड़ी धूमधाम से यों तो देश के प्रत्येक भाग में मनाया जाता है, पर इसका मुख्य आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में ही किया जाता है। इस दिन सबसे पहले देश के प्रधानमन्त्री इण्डिया गेट पर शहीद जवानों की याद में प्रज्वलित की गयी जवान ज्योति पर सम्पूर्ण राष्ट्र की ओर से सलामी देते हैं। उसके बाद प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रिमण्डल के सदस्यों के साथ राष्ट्रपति महोदय की अगवानी करते हैं। राष्ट्रपति भवन के सामने स्थित विजय चौक में राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ ही मुख्य पर्व मनाया जाना आरम्भ होता है। इस दिन विजय चौक से प्रारम्भ होकर लाल किले तक जाने वाली परेड समारोह का प्रमुख आकर्षण होती है। क्रम से तीनों सेनाओं (जल, थल, वायु), सीमा सुरक्षा बल, अन्य सभी प्रकार के बलों, पुलिस आदि की टुकड़ियाँ राष्ट्रपति को सलामी देती हैं। एन० सी० सी०, एन० एस० एस० तथा स्काउट, स्कूलों के बच्चे सलामी के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए गुजरते हैं। इसके उपरान्त सभी प्रदेशों की झाँकियाँ आदि प्रस्तुत की जाती हैं तथा शस्त्रास्त्रों का भी प्रदर्शन किया जाता है। राष्ट्रपति को तोपों की सलामी दी जाती है। परेड और झाँकियों आदि पर हेलीकॉप्टरों-हवाई जहाजों से पुष्प वर्षा की जाती है। यह परेड राष्ट्र की वैज्ञानिक, कला व संस्कृति के उत्थान को दर्शाती है। रात को राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और अन्य राष्ट्रीय महत्त्व के स्थलों पर रोशनी की जाती है, आतिशबाजी होती है और इस प्रकार धूम-धाम से यह राष्ट्रीय त्योहार सम्पन्न होता है।

स्वतन्त्रता दिवस – पन्द्रह अगस्त के दिन मनाया जाने वाला स्वतन्त्रता दिवस का त्योहार भारत का दूसरा मुख्य राष्ट्रीय त्योहार माना गया है। इसके आकर्षण और मनाने का मुख्य केन्द्र दिल्ली स्थित लाल किला है। यों तो समस्त नगर और सम्पूर्ण देश में भी अपने-अपने ढंग से इसे मनाने की परम्परा है। स्वतन्त्रता दिवस प्रत्येक वर्ष अगस्त मास की पन्द्रहवीं तिथि को मनाया जाता है। इसी दिन लगभग दो सौ वर्षों के अंग्रेजी दासत्व के पश्चात् हमारा देश स्वतन्त्र हुआ था। इसी दिन ऐतिहासिक लाल किले पर हमारा तिरंगा झण्डा फहराया गया था। यह स्वतन्त्रता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के भगीरथ प्रयासों व अनेक महान् नेताओं तथा देशभक्तों के बलिदान की गाथा है। यह स्वतन्त्रता इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इसे बन्दूकों, तोपों जैसे अस्त्र-शस्त्रों से नहीं वरन् सत्य, अहिंसा जैसे शस्त्रास्त्रों से प्राप्त किया गया। इस दिन सम्पूर्ण राष्ट्र देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले शहीदों का स्मरण करते हुए देश की स्वतन्त्रता को बनाये रखने की शपथ लेता है। इस दिवस की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपना सन्देश प्रसारित करते हैं। दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से पहले प्रधानमन्त्री सेना की तीनों टुकड़ियों, अन्य सुरक्षा बलों, स्काउटों आदि का निरीक्षण कर सलामी लेते हैं। फिर लाल किले के मुख्य द्वार पर पहुँचकर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर उसे सलामी देते हैं तथा राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इस सम्बोधन में पिछले वर्ष सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लेखा-जोखा, अनेक नवीन योजनाओं तथा देश-विदेश से सम्बन्ध रखने वाली नीतियों के बारे में उद्घोषणा की जाती है। अन्त में राष्ट्रीय गान के साथ यह मुख्य समारोह समाप्त हो जाता है। रात्रि में दीपों की जगमगाहट से विशेषकर संसद भवन व राष्ट्रपति भवन की सजावट देखते ही बनती है।

गांधी जयन्ती – गांधी जयन्ती भी हमारी एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रति वर्ष गांधी जी के जन्म-दिवस 2 अक्टूबर की शुभ स्मृति में देश भर में मनाया जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन में गांधी जी ने अहिंसात्मक रूप से देश का नेतृत्व किया और देश को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन से शक्तिशाली अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। गांधी जी ने राष्ट्र एवं दीन-हीनों की सेवा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। प्रति वर्ष सम्पूर्ण देश उनके त्याग, तपस्या एवं बलिदान के लिए उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके बताये गये रास्ते पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इस दिन सम्पूर्ण देश में विभिन्न प्रकार की सभाओं, गोष्ठियों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। गांधी जी की समाधि राजघाट पर देश के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व अन्य विशिष्ट लोग पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। महात्मा गांधी अमर रहें” के नारों से सम्पूर्ण वातावरण गूंज उठता है।

राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व – इन तीन मुख्य पर्वो के अतिरिक्त अन्य कई पर्व भी यहाँ मनाये जाते हैं. और उनका भी राष्ट्रीय महत्त्व स्वीकारा जाता है। ईद, होली, वसन्त पंचमी, बुद्ध पंचमी, वाल्मीकि प्राकट्योत्सव, विजयादशमी, दीपावली आदि इसी प्रकार के पर्व माने जाते हैं। हमारी राष्ट्रीय अस्मिता किसी-न-किसी रूप में इन सभी त्योहारों के साथ जुड़ी हुई है, फिर भी मुख्य महत्त्व उपर्युक्त तीन पर्वो का ही है।

उपसंहार – त्योहार तीन हों या अधिक, सभी का महत्त्व मानवीय एवं राष्ट्रीय अस्मिता को उजागर करना ही होता है। मानव-जीवन में जो एक आनन्दप्रियता, उत्सवप्रियता की भावना और वृत्ति छिपी रहती है, उनका भी इस प्रकार से प्रकटीकरण और स्थापन हो जाया करता है। इस प्रकार के त्योहार सभी देशवासी मिलकर मनाया करते हैं, इससे राष्ट्रीय एकता और ऊर्जा को भी बल मिलता है जो इनका वास्तविक उद्देश्य एवं प्रयोजन होता है। हमारे राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीय एकता के प्रेरणा-स्रोत हैं। ये पर्व सभी भारतीयों के मन में हर्ष, उल्लास और नवीन राष्ट्रीय चेतना का संचार करते हैं। साथ ही देशवासियों को यह संकल्प लेने हेतु भी प्रेरित करते हैं कि वे अमर शहीदों के बलिदानों को व्यर्थ नहीं जाने देंगे तथा अपने देश की रक्षा, गौरव व इसके उत्थान के लिए सदैव समर्पित रहेंगे।

राष्ट्रीय एकता

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक उपाय
  • राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता
  • राष्ट्रीय एकीकरण और उसके मार्ग की बाधाएँ
  • राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्त्व
  • राष्ट्रीय अखण्डता – आज की माँग
  • भारत की राष्ट्रीय एकता

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय,
  2. भारत में अनेकता के विविध रूप,
  3.  राष्ट्रीय एकता का आधार,
  4.  राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता,
  5. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाए
    (क) साम्प्रदायिकता;
    (ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता;
    (ग) भाषावाद;
    (घ) जातिवाद;
    (ङ) संकीर्ण मनोवृत्तिा
  6. राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय
    (क) सर्वधर्म समभाव;
    (ख) समष्टि हित की भावना;
    (ग) एकता का विश्वास;
    (घ) शिक्षा का प्रसार;
    (ङ) राजनीतिक छल-छयों का अन्त,
  7. उपसंहार ।

प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय – एकता एक भावात्मक शब्द है, जिसका अर्थ है-‘एक होने का भाव’। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है-देश का सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से एक होना। भारत में इन दृष्टिकोणों से अनेकता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु बाह्य रूप से दिखलाई देने वाली इस अनेकता के मूल में वैचारिक एकता निहित है। अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय एकता उसके राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक होती है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव पर अभिमान नहीं होता, वह मनुष्य नहीं

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं नरपशु है निरा, और मृतक समान है।

भारत में अनेकता के विविध रूप – भारत एक विशाल देश है। उसमें अनेकता होनी स्वाभाविक ही है। धर्म के क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलम्बी यहाँ निवास करते हैं। इतना ही नहीं, एक-एक धर्म में भी कई अवान्तर भेद हैं; जैसे-हिन्दू धर्म के अन्तर्गत वैष्णव, शैव, शाक्त आदि। वैष्णवों में भी रामपूजक और कृष्णपूजक हैं। इसी प्रकार अन्य धर्मों में भी अनेकानेक अवान्तर भेद हैं।

सामाजिक दृष्टि से विभिन्न जातियाँ, उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर आदि विविधता के सूचक हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, पूजा-पाठ आदि की भिन्नता ‘अनेकता’ की द्योतक है। राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद आदि अनेक वाद राजनीतिक विचार-भिन्नता का संकेत करते हैं। साहित्यिक दृष्टि से भारत की प्राचीन और नवीन भाषाओं में रचित साहित्य की भिन्न-भिन्न शैलियाँ विविधता की सूचक हैं। आर्थिक दृष्टि से पूँजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि विचारधाराएँ भिन्नता दर्शाती हैं। इसी प्रकार भारत की प्राकृतिक शोभा, भौगोलिक स्थिति, ऋतु-परिवर्तन आदि में भी पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारत अत्यन्त प्राचीन काल से एकता के सूत्र में बँधा रहा है।

राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं सार्वभौमिक सत्ता बनाये रखने के लिए राष्ट्रीयता की भावना का उदय होना परमावश्यक है। यही वह भावना है, जिसके कारण राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र के सम्मान, गौरव और हितों का चिन्तन करते हैं।

राष्ट्रीय एकता का आधार – हमारे देश की एकता के आधार दर्शन (Philosophy) और साहित्य (Literature) हैं। ये सभी प्रकार की भिन्नताओं और असमानताओं को समाप्त करने वाले हैं। भारतीय दर्शन सर्व-समन्वय की भावना का पोषक है। यह किसी एक भाषा में नहीं लिखा गया है, अपितु यह देश की विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है। इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्र के निवासियों द्वारा लिखे जाने के बावजूद क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता, वरन् सबके लिए भाई-चारे, मेल-मिलाप और सद्भाव का सन्देश देता हुआ देशभक्ति के भावों को जगाता है।
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता – राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता है। भारत के सन्तों ने तो प्रारम्भ से ही मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं माना। वह तो सम्पूर्ण मनुष्य जाति को एक सूत्र में बाँधने के पक्षधर रहे हैं। नानक का कथन है

अव्वले अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दै।
एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मन्दे॥

यदि हम भारतवासी अपने में निहित अनेक विभिन्नताओं के कारण छिन्न-भिन्न हो गये तो हमारी फूट का लाभ उठाकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने का प्रयास करेंगे। ऐसा ही विचार राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने व्यक्त किया था-‘जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी।” अत: देश की स्वतन्त्रता की रक्षा और राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय एकता का होना परम आवश्यक है।

राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ – मध्यकाल में विदेशी शासकों का शासन हो जाने पर भारत की इस अन्तर्निहित एकता को आघात पहुँचा था, किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अनेक समाज-सुधारकों और दूरदर्शी राजपुरुषों के सद्प्रयत्नों से यह आन्तरिक एकता मजबूत हुई थी, किन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अनेक तत्त्व इस आन्तरिक एकता को खण्डित करने में सक्रिय रहे हैं, जो निम्नवत् हैं

(क) साम्प्रदायिकता – साम्प्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टिकोण है। संसार के विविध धर्मों में जितनी बातें बतायी गयी हैं, उनमें से अधिकांश बातें समान हैं; जैसे–प्रेम, सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा, पवित्रता आदि। सच्चा धर्म कभी भी दूसरे से घृणा करना नहीं सिखाता। वह तो सभी से प्रेम करना, सभी की सहायता करना, सभी को समान समझना सिखाता है। जहाँ भी विरोध और घृणा है, वहाँ धर्म हो ही नहीं सकता। जाति-पाँति के नाम पर लड़ने वालों पर इकबाल कहते हैं-मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।

(ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता – अंग्रेज शासकों ने न केवल धर्म, वरन् प्रान्तीयता की अलगाववादी भावना को भी भड़काया है। इसीलिए जब-तब राष्ट्रीय भावना के स्थान पर प्रान्तीय अलगाववादी भावना बलवती होने लगती है और हमें पृथक् अस्तित्व (राष्ट्र) और पृथक् क्षेत्रीय शासन स्थापित करने की माँगें सुनाई पड़ती हैं। एक ओर कुछ तत्त्व खालिस्तान की माँग करते हैं तो कुछ तेलुगूदेशम् और ब्रज प्रदेश के नाम पर मिथिला राज्य चाहते हैं। इस प्रकार क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत बड़ी बाधी बन गयी है।

(ग) भाषावाद – भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। यहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। प्रत्येक  भाषा-भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों से बढ़कर मानता है। फलत: विद्वेष और घृणा का प्रचार होता है और अन्ततः राष्ट्रीय एकता प्रभावित होती है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत को एक संघ के रूप में गठित किया गया और प्रशासनिक सुविधा के लिए चौदह प्रान्तों में विभाजित किया गया, किन्तु धीरे-धीरे भाषावाद के आधार पर प्रान्तों की माँग बलवती होती चली गयी, जिससे भारत के प्रान्तों की भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया गया। तदुपरान्त कुछ समय तो शान्ति रही, लेकिन शीघ्र ही अन्य अनेक विभाषी बोली बोलने वाले व्यक्तियों ने अपनी-अपनी विभाषा या बोली के आधार पर अनेक आन्दोलन किये, जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना को धक्का पहुंचा।

(घ) जातिवाद – मध्यकाल में भारत के जातिवादी स्वरूप में जो कट्टरता आयी थी, उसने अन्य जातियों के प्रति घृणां और विद्वेष का भाव विकसित कर दिया था। पुराकाल की कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था ने जन्म पर आधारित कट्टर जाति-प्रथा का रूप ले लिया और प्रत्येक जाति अपने को दूसरी से ऊँची मानने लगी। इस तरह जातिवाद ने भी भारत की एकता को बुरी तरह प्रभावित किया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हरिजनों के लिए आरक्षण की राजकीय नीति का आर्थिक दृष्टि से दुर्बल सवर्ण जातियों ने कड़ा विरोध किया। विगत वर्षों में इस विवाद पर लोगों ने तोड़-फोड़, आगजनी और आत्मदाह जैसे कदम उठाकर देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर दिया। इस प्रकार जातिवाद राष्ट्रीय एकता के मार्ग में आज एक बड़ी बाधा बन गया है।

(ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति – जाति, धर्म और सम्प्रदायों के नाम पर जब लोगों की विचारधारा संकीर्ण हो जाती है, तब राष्ट्रीयता की भावना मन्द पड़ जाती है। लोग सम्पूर्ण राष्ट्र का हित न देखकर केवल अपने जाति, धर्म, सम्प्रदाये अथवा वर्ग के स्वार्थ को देखने लगते हैं।

राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय – वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रस्तुत हैं

(क) सर्वधर्म समभाव – विभिन्न धर्मों में जितनी भी अच्छी बातें हैं, यदि उनकी तुलना अन्य धर्मों की बातों से की जाये तो उनमें एक अद्भुत समानता दिखाई देगी; अतः हमें सभी धर्मों का समान आदर करना चाहिए। धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर किसी को ऊँचा या नीचा समझना नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से एक पाप है। धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने के लिए गहरे विवेक की आवश्यकता है। सागर के समान उदार वृत्ति रखने वाले इनसे प्रभावित नहीं होते।

(ख) समष्टि-हित की भावना – यदि हम अपनी स्वार्थ-भावना को त्यागकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें तो धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के नाम पर न सोचकर समूचे राष्ट्र के नाम पर सोचेंगे और इस प्रकार अलगाववादी भावना के स्थान पर राष्ट्रीय भावना का विकास होगा, जिससे अनेकता रहते हुए भी एकता की भावना सुदृढ़ होगी।

(ग) एकता का विश्वास – भारत में जो दृश्यमान् अनेकता है, उसके अन्दर एकता का भी निवास है—इस बात का प्रचार ढंग से किया जाये, जिससे कि सभी नागरिकों को अन्तर्निहित एकता का विश्वास हो सके। वे पारस्परिक प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास जगा सकें।

(घ) शिक्षा का प्रसार – छोटी-छोटी व्यक्तिगत द्वेष की भावनाएँ राष्ट्र को कमजोर बनाती हैं। शिक्षा का सच्चा अर्थ एक व्यापक अन्तर्दृष्टि व विवेक है। इसलिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थी की संकुचित भावनाएँ शिथिल हों। विद्यार्थियों को मातृभाषा तथा राष्ट्रभाषा के साथ एक अन्य प्रादेशिक भाषा का भी अध्ययन करना चाहिए। इससे भाषायी स्तर पर ऐक्य स्थापित होने से राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी।

(ङ) राजनीतिक छलछद्मों का अन्त – विदेशी शासनकाल में अंग्रेजों ने भेदभाव फैलाया था, किन्तु अब स्वार्थी राजनेता ऐसे छलछद्म फैलाते हैं कि भारत में एकता के स्थान पर विभेद ही अधिक पनपता है। ये राजनेता साम्प्रदायिक अथवा जातीय विद्वेष, घृणा और हिंसा भड़काते हैं और सम्प्रदाय विशेष को मसीहा बनकर अपना स्वार्थ-सिद्ध करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक छलछद्मों का अन्त राजनीतिक वातावरण के स्वच्छ होने से भी एकता का भाव सुदृढ़ करने में सहायता मिलेगी। उपर्युक्त उपायों से भारत की अन्तर्निहित एकता का सभी को ज्ञान हो सकेगा और सभी उसको खण्डित करने के प्रयासों को विफल करने में अपना योगदान कर सकेंगे। इस दिशा में धार्मिक महापुरुषों, समाज-सुधारकों, बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों और महिलाओं को विशेष रूप से सक्रिय होना चाहिए तथा मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने पर सबल राष्ट्र के घटक स्वयं भी अधिक पुष्ट होंगे।

उपसंहार – राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा, क्योंकि मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। इसीलिए जब तक हममें मानवीयता की भावना विकसित नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। यह भाव उपदेशों, भाषणों और राष्ट्रीय गीत के माध्यम से सम्भव नहीं।

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UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi परिचयात्मक निबन्ध

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Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name परिचयात्मक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi परिचयात्मक निबन्ध

परिचयात्मक निबन्ध

एक महापुरुष की जीवनी (राष्ट्रपिता महात्मा गांधी)

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरा प्रिय राजनेता
  • मेरा आदर्श पुरुष
  • महात्मा गांधी की प्रासंगिकता

प्रमुख विचार-बिन्दु:

  1. प्रस्तावना,
  2.  जीवनवृत्त,
  3. गांधीजी के सिद्धान्त :
    (अ) अहिंसा (व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा, राजनीति में अहिंसा);
    (ब) शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त,
  4. राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक,
  5.  कुटीर उद्योगों पर बल,
  6.  प्रेरणादायक गुण,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना – मानव जीवन एक रहस्य है। इसके रहस्ये अनेक बार मनुष्य को उस मोड़ पर ला खड़ा करते हैं, जहाँ वह किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में होता है। उसे कुछ सूझता ही नहीं। ऐसी स्थिति में ‘महाजनो येन गताः स पन्था के अनुरूप व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। जीवन की ऐसी उलझनों से सुलझने के लिए जिस महापुरुष ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया; उसका नाम है-मोहनदास करमचन्द गांधी। यही मेरे आदर्श पुरुष हैं। इनके बाह्य व आन्तरिक व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए महाकवि पन्त जी लिखते हैं

तुम मांसहीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थिशेष ! तुम अस्थिहीन,

तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवले,
हे चिर पुराण ! हे चिर नवीन !

यद्यपि बाह्य रूप से देखने में गांधीजी अस्थियों का ढाँचामात्र लगते थे, किन्तु उनमें आत्मिक बल अमित था। वस्तुतः राजनीति जैसे स्थूल और भौतिकवादी क्षेत्र में उन्होंने आत्मा की आवाजे पर बल दिया, नैतिकता का प्रतिपादन किया तथा साध्य के साथ साधन की शुद्धता को भी आवश्यक ठहराया। विश्व राजनीति को यह उनका विशिष्ट योगदान था, जिससे प्रेरणा लेकर कई पराधीन देशों में स्वातन्त्र्य-आन्दोलन चलाये गये और स्वतन्त्रता प्राप्त की गयी।

जीवनवृत्त – मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को पोरबन्दर (गुजरात) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री करमचन्द गांधी तथा माँ का नाम श्रीमती पुतलीबाई था। करमचन्द गांधी पोरबन्दर रियासत के दीवान थे। सात वर्ष की अवस्था में मोहनदास गांधी एक गुजराती पाठशाला में पढ़ने गये। बाद में अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए, जहाँ से उन्होंने अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत तथा धार्मिक ग्रन्थों का भी अध्ययन किया। इण्टेन्स की परीक्षा पास करने के उपरान्त ये विलायत चले गये।

भारत लौटने पर गांधीजी ने पहले राजकोट और फिर बेम्बई में वकालत शुरू की। उन्हें सेठ अब्दुल्ला फर्म के एक हिस्सेदार के मुकदमे को लेकर दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ पग-पग पर रंगभेद-नीति के फलस्वरूप भारतीयों का अपमान देखकर तथा स्वयं आप बीते कठोर अनुभवों के आधार पर उन्होंने रंगभेद-नीति को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। प्रिटोरिया में भारतीयों की पहली सभा में गांधीजी ने भाषण दिया और यहीं से इनके सार्वजनिक जीवन का आरम्भ हुआ। सन् 1896 ई० में गांधीजी भारत आये और सपरिवार पुन: अफ्रीका लौट गये। लौटने पर उन्हें गोरों का विशेष विरोध सहना पड़ा, परन्तु गांधीजी ने साहस न छोड़ा और कई आन्दोलनों का संचालन करते रहे। सेवा में उनको अडिग विश्वास था। बोअर-युद्ध (सन् 1899 ई०) तथा जूलू-विद्रोह (सन् 1906 ई०) में स्वयंसेना स्थापित करके उन्होंने पीड़ितों की पर्याप्त सेवा की।

सन् 1914 ई० में वे भारत लौट आये। यहाँ आकर उन्होंने चम्पारन में किसानों पर किये जाने वाले अत्याचारों तथा कारखानों के कर्मचारियों पर मालिकों द्वारा की गयी ज्यादतियों का खुलकर विरोध किया और भारत के सार्वजनिक जीवन में पदार्पण किया। सन् 1924 ई० में वे बेलगाँव में कांग्रेस-अध्यक्ष चुने गये। सन् 1930 ई० में कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखा और इस आन्दोलन के समस्त अधिकार गांधीजी को सौंप दिये। 4 मार्च, सन् 1931 ई० को गांधी-इरविन समझौता हुआ। दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेन्स में कांग्रेस-प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी इंग्लैण्ड गये और अंग्रेज सरकार से स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता न मिली तो कांग्रेस का आन्दोलन भी जारी रहेगा।

अगस्त, सन् 1942 ई० में गांधीजी ने भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित किया; जिससे देश में एक महान् आन्दोलन छिड़ा। गांधीजी तथा अन्य नेता जेल में बन्द कर दिये गये। सन् 1946 ई० के हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष में गांधीजी ने नोआखाली की पैदल यात्रा की और वहाँ शान्ति स्थापित करने में सफल हुए। 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को भारत को स्वतन्त्रता मिली। देश में उत्पन्न अन्य समस्याओं को सुलझाने में गांधीजी लगे ही थे कि सहसा 30 जनवरी, सन् 1948 ई० को वे शहीदों की परम्परा में चले गये।

गांधीजी के सिद्धान्त (अ) अहिंसा – गांधी जी का सबसे प्रमुख सिद्धान्त था व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में अहिंसा का प्रयोग। अहिंसा आत्मा का बल है। वे अहिंसा का मूल प्रेम में मानते थे। वे लिखते हैं-“पूर्ण अहिंसा समस्त जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का पूर्ण अभाव है, इसलिए वह मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों-यहाँ तक कि विषैले कीड़ों और हिंसक जानवरों का भी आलिंगन करती है।” उन्होंने बार-बार कहा है कि अहिंसा वीर को धर्म है, कायर का नहीं; क्योंकि हिंसा करने की पूरी सामर्थ्य रखते हुए भी जो हिंसा नहीं करता, वही अहिंसा-धर्म का पालन करने में समर्थ होता है।

(1) व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा – अहिंसा का अर्थ है-प्रेम, दया और क्षमा। अपने व्यक्तिगत जीवन, में भी गांधीजी ने इस सिद्धान्त को चरितार्थ करके दिखाया। वे जीव मात्र से प्रेम करते थे। दोनों और दलितों के लिए तो उनके प्रेम और करुणा की कोई सीमा ही न थी। वे इसे मानवता के प्रति घोर अपराध मानते थे कि किसी को नीचा या अस्पृश्य समझा जाये; क्योंकि भगवान् की दृष्टि में समस्त प्राणी समान हैं। इसीलिए उन्होंने अछूतोद्धार का आन्दोलन चलाया, जिसे उन्होंने हरिजनोद्धार कहा। हिन्दू समाज के प्रति यह उनकी बहुत बड़ी सेवा थी। उनके आन्दोलन के फलस्वरूप हरिजनों को मन्दिर में प्रवेश का अधिकार मिला। उनकी दया भावना ने उन्हें प्राणिमात्र की सेवा के लिए प्रेरित किया। परचुरे शास्त्री भयंकर कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। गांधीजी ने उन्हें अपने साथ रखा। इतना ही नहीं, उनके घावों को भी वे स्वयं अपने हाथ से साफ करते थे। इससे उनकी परदुःख-कातरता एवं सेवा-भावना का पता चलता है। अपने साथियों का भी गांधीजी बहुत ध्यान रखते थे। एक अवसर पर एक सज्जन आकर गांधीजी को कुछ फल दे गये, जिनमें चीकू भी थे। गांधीजी ने कुछ चीकू अपने एक साथी को देते हुए कहा- “इन्हें महादेव को दे आओ, उसे चीकू बहुत पसन्द हैं।” | अपने शत्रु को क्षमा करने की घटनाएँ तो उनके जीवन में भरी पड़ी हैं। उन्होंने अपने आश्रम में साँप, बिच्छु
आदि को मारना वर्जित कर दिया था। उन्हें पकड़कर दूर छोड़ दिया जाता था। एक बार एक साँप गांधीजी के कन्धे पर चढ़ गया। उनके साथियों ने उनकी ओढ़ी हुई चादर समेत उसे खींचकर दूर ले जाकर छोड़ दिया। इस प्रकार गांधीजी ने अपने जीवन में भी अहिंसा को चरितार्थ करके दिखाया।

(2) राजनीति में अहिंसा – राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा के सिद्धान्त का व्यवहार उन्होंने तीन शस्त्रों के रूप में किया-सत्याग्रह, असहयोग और बलिदान। सत्याग्रह का अर्थ है – सत्य के प्रति आग्रह अर्थात् जो आदमी को ठीक लगे, उस पर पूरी शक्ति और निष्ठा से चलना, किसी के दबाव के आगे झुकना नहीं। असहयोग का अर्थ है-बुराई से, अन्याय से, अत्याचार से सहयोग न करना। यदि कोई सताये, अन्याय करे तो किसी भी काम में उसका साथ न देना। बलिदान का आशय है-सच्चाई के लिए, न्याय के लिए, अपने प्राण तक न्यौछावर कर देना। इन तीनों हथियारों का प्रयोग गांधीजी ने पहले दक्षिण अफ्रीका में किया, फिर भारत में।

(ब) शिक्षा-सम्बन्धी सिद्धान्त – शिक्षा से गांधीजी का तात्पर्य बालक के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास से था। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं-“शिक्षा से तात्पर्य उन समस्त शक्तियों के दोहन से है, जो शिशु एवं मानव के शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा में निहित हैं। साथ ही उनके अनुसार, “कोई भी वह शिक्षा पूर्ण नहीं है, जो लड़के-लड़कियों को आदर्श नागरिक नहीं बनाती।”

गांधीजी के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों का केन्द्र-बिन्दु है-व्यवसाय और व्यवसाय से उनका आशय हस्तकला से है। वे लिखते हैं-“मैं बालक की शिक्षा का आरम्भ किसी उपयोगी हस्तकला के शिक्षण से करूंगा, जिससे वह आरम्भ से ही अर्जन करने में समर्थ हो सके। इससे एक तो वह शिक्षा का व्यय वहन कर सकेगा और फिर वह अपने भावी जीवन में पूर्ण रूप से आत्म-निर्भर भी हो सकेगा। इस प्रकार शिक्षा बेकारी दूर करने का एक प्रकार से बीमा है। वे विद्यालयों को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे अर्थात् शिक्षकों की व्यवस्था विद्यालय के उत्पादन से ही हो सके और राज्य-सरकार छात्रों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के खरीदने की व्यवस्था करे।

राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक – गांधीजी राष्ट्रभाषा के बिना किसी स्वतन्त्र राष्ट्र की कल्पना ही नहीं करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि किसी विदेशी भाषा के माध्यम से बालक की क्षमताओं का पूर्ण विकास सम्भव नहीं। इसी कारण राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।

कुटीर उद्योगों पर बल – गांधीजी भारत जैसे विशाल देश की समस्याओं और आवश्यकताओं को बहुत गहराई तक समझते थे। वे जानते थे कि ऐसे देश में जहाँ विशाल जनसंख्या के कारण जनशक्ति की कमी नहीं, आर्थिक आत्म-निर्भरता एवं सम्पन्नता के लिए कुटीर उद्योग ही सर्वाधिक उपयुक्त साधन हैं। गांधीजी ने ग्रामों को आर्थिक स्वावलम्बन प्रदान करने के लिए खादी उद्योग को बढ़ावा दिया और चरखे को अपने आर्थिक सिद्धान्तों को केन्द्रबिन्दु बना लिया तथा प्रत्येक गांधीवादी के लिए प्रतिदिन चरखा चलाना और खादी पहनना अनिवार्य कर दिया।

प्रेरणादायक गुण – गांधीजी में ऐसे अनेक महान् गुण विद्यमान थे, जिनसे प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए। उनका पहला गुण था–समय का सदुपयोग। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ न गॅवाते थे, यहाँ तक कि दूसरों से बात करते समय भी वे कुछ-न-कुछ कोम अवश्य करते रहते थे, चाहे वह आश्रम की सफाई का काम हो या चरखा चलाने का या रोगियों की सेवा-शुश्रूषा का। यही कारण है कि इतनी अधिक व्यस्तता के बावजूद वे अनेक ग्रन्थ और लेखादि लिख सके।

दूसरा महत्त्वपूर्ण गुण था – दूसरों को उपदेश देने से पहले किसी आदर्श को स्वयं अपने जीवन में क्रियान्वित करना। उदाहरणार्थ-वे अपना सारा काम स्वयं अपने ही हाथों करते थे, यहाँ तक कि अपना मल-मूत्र भी स्वयं साफ करते थे। इसके बाद ही वे आश्रमवासियों को भी ऐसा करने की प्रेरणा देते थे।

मितव्ययिता गांधी जी का एक अन्य प्रेरक गुण था। वे तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु को भी व्यर्थ नहीं समझते थे, अपितु उसका अधिकतम सदुपयोग करने का प्रयास करते थे। इस सम्बन्ध में आश्रमवासियों को भी उनका कठोर आदेश था। गांधी जी की सारग्रहिणी प्रवृत्ति भी बड़ी प्रेरणाप्रद थी। वे अपने कटुतम आलोचक और विरोधी की बात भी बड़ी शान्ति से सुनते और अपने कटु विरोधी व्यक्ति की उचित बात को साररूप में ग्रहण कर लेते थे। एक बार कोई अंग्रेज युवक एक लम्बे पत्र में गांधीजी को सैकड़ों भद्दी-भद्दी गालियाँ लिखकर स्वयं उनके पास पहुँचा और पत्र उन्हें दिया। पत्र पर दृष्टि डालते ही उन्होंने उसका आशय समझ लिया और उसमें लगी आलपिन को अपने पास रखकर पृष्ठों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया। युवक ने उनसे इसका कारण पूछा। गांधीजी ने कहा कि इसमें सार वस्तु केवल इतनी ही थी, जो मैंने ले ली।

उपसंहार – सारांश यह है कि गांधीजी ने अपने नेतृत्व के गुणों से जनता की असीम श्रद्धा अर्जित की। उन्होंने भारत की जनता में स्वाभिमान और आत्म-विश्वास जगाया, अपने अधिकार के लिए लड़ने का मनोबल दिया, देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा दी तथा स्वदेशी आन्दोलन द्वारा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के स्वीकरण का मन्त्र दिया। उनके खादी आन्दोलन ने ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा दिया, राष्ट्रभाषा के महत्त्व एवं गौरव के प्रबल समर्थन द्वारा उन्होंने कितने ही हिन्दीतर-भाषियों को हिन्दी सीखने की प्रेरणा दी तथा राष्ट्रभाषा आन्दोलन को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दिया। अपने अनेकानेक व्यक्तिगत गुणों के कारण अपने सम्पर्क में आने वालों को उन्होंने अन्दर तक प्रभावित किया और दीन-दु:खियों के सदृश स्वयं भी अधनंगे रहकर तथा निर्धनता और सादगी का जीवन अपनाकर लोगों से “महात्मा” और “बापू’ का प्रेममय सम्बोधन पाया। सचमुच वे वर्तमान भारत की एक महान् विभूति थे।

मेरे प्रिय कवि: तुलसीदास

सम्बद्ध शीर्षक

  • तुलसी का समन्वयवाद
  • हमारे प्रिय जन-कवि : तुलसीदास
  • रामकाव्यधारा के प्रमुख कवि : तुलसीदास
  • कोई लोकप्रिय समाज-सुधारक
  • कविता लसी पा तुलसी की कला

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1.  प्रस्तावना,
  2.  तत्कालीन परिस्थितियाँ
  3.  तुलसीकृत रचनाएँ,
  4.  तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में,
  5.  तुलसी के राम,
  6.  तुलसी की निष्काम भक्ति-भावना,
  7.  तुलसी की समन्वय साधना
    (क) सगुण-निर्गुण का समन्वय,
    (ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय,
    (ग) युगधर्म-समन्वय,
    (घ) साहित्यिक समन्वय,
  8.  तुलसी के दार्शनिक विचार,
  9.  उपसंहार।

प्रस्तावना – यद्यपि मैंने बहुत अधिक अध्ययन नहीं किया है, तथापि भक्तिकालीन कवियों में कबीर, सूर, तुलसी और मीरा तथा आधुनिक कवियों में प्रसाद, पन्त और महादेवी के काव्य का रसास्वादन अवश्य किया है। इन सभी कवियों के काव्य का अध्ययन करते समय तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नत-मस्तक होता रहा हूँ। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है।

तत्कालीन परिस्थितियाँ – तुलसीदास का जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ था, जब हिन्दू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फंस चुका था। हिन्दू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्रायः विनष्ट हो चुकी थी और कहीं कोई पथ-प्रदर्शक नहीं था। इस युग में जहाँ एक ओर मन्दिरों का विध्वंस किया गया, ग्रामों व नगरों का विनाश हुआ, वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरम सीमा पर पहुँच गयी। इसके अतिरिक्त तलवार के बल पर धर्मान्तरण कराया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमताओं का ताण्डव हो रहा था और विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी परिस्थिति में भोली-भोली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। उस समय दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उसके नैतिक जीवन की नौका की पतवार सँभाल ले।

गोस्वामी तुलसीदास ने अन्धकार के गर्त में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया और उसमें अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपनी अमर कृति श्रीरामचरितमानस द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं में समन्वय स्थापित किया। उन्होंने अपने युग को नवीन दिशा, नयी गति एवं नवीन प्रेरणा दी। उन्होंने सच्चे लोकनायक के समान समाज में व्याप्त वैमनस्य की चौड़ी खाई को पाटने का सफल प्रयत्न किया।

तुलसीकृत रचनाएँ – तुलसीदास जी द्वारा लिखित 12 ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। ये ग्रन्थ हैं श्रीरामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘दोहावली’, ‘रामललानहछू’, ‘पार्वतीमंगल’, ‘जानकीमंगल’, ‘बरवै रामायण’, वैराग्य संदीपनी’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’ तथा ‘रामाज्ञाप्रश्नावली’। तुलसी की ये रचनाएँ विश्व-साहित्य की अनुपम निधि हैं।

तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में – आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है “लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके; क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।”

तुलसी के राम – तुलसी उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परब्रह्म हैं, जिन्होंने भूमि का भार हरण करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था

जब-जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥

तुलसी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है, लेकिन अन्त में वे यही कहते हैं

माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे॥

राम के प्रति उनकी अनन्य भक्ति अपनी चरम-सीमा छूती है और वे कह उठते हैं कि

कसँ कहाँ तक राम बड़ाई। राम न सकहिं, राम गुन गाही।

तुलसी के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे और शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।

तुलसीदास की निष्काम भक्ति-भावना – सच्ची भक्ति वही है, जिसमें लेन-देन का भाव नहीं होता। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। तुलसी के अनुसार

मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु विषम भव भीर ॥

तुलसी की समन्वय-साधना – तुलसी के काव्य की सर्वप्रमुख विशेषता उसमें निहित समन्वय की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कारण ही वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाये। उनके काव्य में समन्वय के निम्नलिखित रूप दृष्टिगत होते हैं

(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय – जब ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों से सम्बन्धित विवाद, दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था तो तुलसीदास ने कहा

सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

(ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय – तुलसी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करके अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, उनकी भक्ति तो सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देने वाली है। उनका सिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण के सदृश दुष्कर्म नहीं

भगतिहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव-संभव खेदा॥

तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम-नाम का मोती पिरो दिया है

हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥

(ग) युगधर्म-समन्वय – भक्ति की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और उन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसी ने इनका भी विलक्षण समन्वय प्रस्तुत किया है

कृतजुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग ।
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग।

(घ) साहित्यिक समन्वय – साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, रस एवं अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं, विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में भी संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

तुलसी के दार्शनिक विचार – तुलसी ने किसी विशेष वाद को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वैष्णव धर्म को इतना व्यापक रूप प्रदान किया कि उसके अंन्तर्गत शैव, शाक्त और पुष्टिमार्गी भी सरलता से समाविष्ट हो गये। वस्तुतः तुलसी भक्त हैं और इसी आधार पर वह अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। उनकी भक्ति सेवक-सेव्य भाव की है। वे स्वयं को राम का सेवक मानते हैं और राम को अपना स्वामी।।

उपसंहार – तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है, बाहर से नहीं। तुलसी के सम्बन्ध में हरिऔध जी के हृदय से स्वत: फूट पड़ी प्रशस्ति अपनी समीचीनता में बेजोड़ है

बने रामरसायन की रसिका, रसना रसिकों की हुई सुफला।
अवगाहन मानस में करके, मन-मानस का मल सारा टला ॥
बनी पावन भाव की भूमि भली, हुआ भावुक भावुकता का भला।
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला ॥

सचमुच कविता से तुलसी नहीं, तुलसी से कविता गौरवान्वित हुई। उनकी समर्थ लेखनी का सम्बल पा वाणी धन्य हो उठी।
तुलसीदास जी के इन्हीं सभी गुणों का ध्यान आते ही मन श्रद्धा से परिपूरित हो उन्हें अपना प्रिय कवि मानने को विवश हो जाता है।

मेरे प्रिय साहित्यकार (जयशंकर प्रसाद)

सम्बद्ध शीर्षक

  • अपना (मेरा) प्रिय कवि
  • मेरा प्रिय लेखक
  • प्रिय कवि अथवा लेखक

प्रमुख विचार-बिन्दु:

  1.  प्रस्तावना,
  2. साहित्यकार का परिचय,
  3. साहित्यकार की साहित्यसम्पदा
    (क) काव्य,
    (ख) नाटक,
    (ग) उपन्यास,
    (घ) कहानी,
    (ङ) निबन्ध,
  4. छायावाद के श्रेष्ठ कवि,
  5.  श्रेष्ठ गद्यकार,
  6.  उपसंहार।

प्रस्तावना – संसार में सबकी अपनी-अपनी रुचि होती है। किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है तो किसी की संगीत में किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में इतना अधिक रचा गया है कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में सम्भव ही नहीं है। फिर साहित्य में भी अनेक विधाएँ हैं–कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध आदि। अतः मैंने सर्वप्रथम हिन्दी-साहित्य का यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं-जयशंकर प्रसाद प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी-साहित्य में भाव और कला, अनुभूति और अभिव्यक्ति, वस्तु और शिल्प सभी क्षेत्रों में युगान्तकारी परिवर्तन किये हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजना-शक्ति प्रदान की है। इन सबने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वे मेरे प्रिय साहित्यकार बन गये हैं।

साहित्यकार का परिचय – श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध हुँघनी-साहु परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य-रचना आरम्भ कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था में इनके ऊपर विपत्तियों को पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता व बड़े भाई का देहान्त हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कन्धों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को आपका देहावसान हुआ। अड़तालीस वर्ष के छोटे से जीवन में इन्होंने जो बड़े-बड़े काम किये, उनकी कथा सचमुच अकथनीय है।

साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा – प्रसाद जी की रचनाएँ सन् 1907-08 ई० में सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थी। ये रचनाएँ ब्रजभाषा की पुरानी शैली में थीं, जिनका संग्रह ‘चित्राधार में हुआ। सन् 1913 ई० में ये खड़ी बोली में लिखने लगे।

प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनाएँ कीं। इनका वर्गीकरण निम्नवत् है

(क) काव्य – कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना; आँसू, लहर और कामायनी (महाकाव्य)।
(ख) नाटक – इन्होंने कुल मिलाकर 13 नाटक लिखे। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं-चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी।
(ग) उपन्यास – कंकाल, तितली और इरावती।
(घ) कहानी – प्रसाद जी की विविध कहानियों के पाँच संग्रह हैं – छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल।।
(ङ) निबन्ध – प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे, जिनका संग्रह है-काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध।।

छायावाद के श्रेष्ठ कवि – छायावाद हिन्दी कविता के क्षेत्र का एक आन्दोलन है जिसकी अवधि सन् 1920-36 ई० तक मानी जाती है। प्रसाद जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वच्छन्दतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद जी की ‘आँसु’ नाम की कृति के साथ हिन्दी में छायावाद का जन्म हुआ। आँसू का प्रतिपाद्य हैविप्रलम्भ श्रृंगार। प्रियतम के वियोग की पीड़ा वियोग के समय आँसू बनकर वर्षा की भाँति उमड़ पड़ती है

जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति-सी नभ में छायी।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी ।।

प्रसाद के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है; यथा–सौन्दर्य-निरूपण एवं श्रृंगार भावना, प्रकृति-प्रेम, मानवतावाद, प्रेम भावना, आत्माभिव्यक्ति, प्रकृति पर चेतना का आरोप, वेदना और निराशा को स्वर, देश-प्रेम की अभिव्यक्ति, नारी के सौन्दर्य का वर्णन, तत्त्व-चिन्तन, आधुनिक बौद्धिकता, कल्पना का प्राचुर्य तथा रहस्यवाद की मार्मिक अभिव्यक्ति। अन्यत्र इंगित छायावाद की कलागत विशेषताएँ अपने उत्कृष्ट रूप में इनके काव्य में उभरी हुई दिखाई देती हैं।

आँसू मानवीय विरह का एक प्रबन्ध काव्य है। इसमें स्मृतिजन्य मनोदशा एवं प्रियतम के अलौकिक रूप-सौन्दर्य को मार्मिक वर्णन किया गया है। ‘लहर’. आत्मपरक प्रगीत मुक्तक है, जिसमें कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुन्दर और मधुर रूपकमये यह गीत ‘लहर से संगृहीत है

बीती विभावरी जाग री।
अम्बर-पनघट में डुबो रही;
तारा-घट ऊषा नागरी।

‘प्रसाद की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना है – कामयानी महाकाव्य, जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव-चेतना के विकास का काव्यमय निरूपण किया गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में-“यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसके विचारात्मक आधार के अनुसार श्रद्धा या रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शान्तिमय आनन्द का अनुभव कराती है। वही उसे आनन्द-धाम तक पहुँचाती है, जब कि इड़ा या बुद्धि आनन्द से दूर भगाती है।” अन्त में कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान तीनों के सामंजस्य पर बल दिया है; यथा

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी क्यों हो मन की?
एक दूसरे से मिले न सके, वह विडम्बना जीवन की।

श्रेष्ठ गद्यकार – गद्यकार प्रसाद की सर्वाधिक ख्याति नाटककार के रूप में है। उन्होंने गुप्तकालीन भारत को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करके गांधीवादी अहिंसामूलक देशभक्ति का सन्देश दिया है। साथ ही अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों का सफल चित्रण किया है। नारी की स्वतन्त्रता एवं महिमा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है। प्रत्येक नाटक का संचालन सूत्र किसी नारी पात्र के ही हाथ में रहता है। उपन्यास और कहानियों में भी सामाजिक भावना का प्राधान्य है। उनमें दाम्पत्य-प्रेम के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है। उनके निबन्ध विचारात्मक एवं चिन्तनप्रधान हैं, जिनके माध्यम से प्रसाद ने काव्य और काव्य-रूपों के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

उपसंहार – पद्य और गद्य की सभी रचनाओं में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित हिन्दी है। इनकी शैली आलंकारिक एवं साहित्यिक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी गद्य-रचनाओं में भी इनका छायावादी कवि-हृदय झाँकता हुआ दिखाई देता है। मानवीय भावों और आदर्शों में उदात्तवृत्ति का सृजन विश्व-कल्याण के प्रति इनकी विशाल-हृदयता का सूचक है। हिन्दी-साहित्य के लिए प्रसाद जी की यह बहुत बड़ी देन है। ‘प्रसाद की रचनाओं में छायावाद पूर्ण प्रौढ़ती, शालीनता, गुरुता और गम्भीरता को प्राप्त दिखाई देता है। अपनी विशिष्ट कल्पना-शक्ति, मौलिक अनुभूति एवं नूतन अभिव्यक्ति पद्धति के फलस्वरूप प्रसाद हिन्दी-साहित्य में मूर्धन्य स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। समग्रतः यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत महान् है। जिस कारण वे मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार रहे हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 English Model Paper

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject English Grammar
Chapter Name Synthesis
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 English Model Paper

Section ‘A’

(i) Explain with reference to the context any one of the following passages :
(a) Politically and economically India faces many problems of great difficulty, and no one can forecast her future with any certainty. But it is safe to predict that, whatever the future may be, the Indians of coming generations will not be unconvincing and self-conscious copies of Europeans, but will be men rooted in their traditions, and aware of the continuity of their culture. Already, after only seven years of Independence, the extremes of national self- denigration and fanatical cultural chauvinism are disappearing. We believe that Hindu civilization is in the act of performing its most spectacular feat of synthesis.

(b) Compassion, daya, is the quality which is more characteristic of women than of men. I read recently a book which speaks about the decline of womanhood, and says that this is so because there is a decline in compassion. In other words, the natural quality of women is compassion. If you do not have compassion, you are not human. It is therefore, essential for every human being to develop the quality of considerateness, kindness and compassion. Without these qualities we are only human animals, nara pasu, not more than that.

(c) When an artery becomes blocked, the portion of the heart muscle it feeds, dies. This leaves scar tissue–it may be no larger than a small marble, but it can be half the size of a tennis ball. How serious the trouble is depends on the size
and position of the plugged artery.

(ii) Explain with reference to the context any one of the following extracts : ‘

(a)
Where the mind is without fear and the head is held high;
Where knowledge is free;
Where the world has not been broken up into
fragments by narrow domestic walls;
Where words come out from the depth of truth;

(b)
The woods are lovely, dark and deep,
But I have promises to keep.
And miles to go before I sleep,
And miles to go before I sleep.

(c)
The wounded snake its hood unfurls
The flame stirred up doth blaze,
The desert air resounds the calls
of heart-struck Lion’s rage

2. Answer one of the following questions in not more than 30 words : 4
(a) What misery did partition between India and Pakistan cause to the people?
(b) What are the opportunities available to women in present times?

3. Fill in the blanks in the following sentences with suitable words or phrases given below the sentences : 4 × 1 = 4
(a) It was a ………… porter giving me a hint that this was my station.
[(a) healthy (b) handsome (c) friendly (d) cruel ]

(b) John hardly …………. thinks of me which is good.
[(a) never (b) ever (c) always (d) sometimes ]

(c) The ‘Upanishads’ will not …………. to inspire the ment of thought.
[(a) cease (b) crease (c) breeze (d) greese ]

(d) I do not know which of us into the ………. ……….. first.
[(a) carriage (b) courage (c) cartridge (d) cottage]

4. Give the central idea of any one of the following poems : 6
(a) My Heaven
(b) The Song of the Free
(c) Stopping by Woods on a Snowy Evening.

5. Answer one of the following questions in not more than 75 words : 8
(a) “In Portia’s personality, we find a blend of beauty and brain.” Comment.
(b) How is Jessica’s elopment connected with the plot of the play?

6. Answer two of the following questions in not more than 30 words each : 4 + 4 = 8
(a) What was the first demand of the child while accompanying his parents to the fair?
(b) How had Gyan Babu to put in his resignation?
(c) Where did Sanku work?

7. Define ‘Hyperbole’ and give an example of it. 2 + 2 = 4

Section ‘B’

8.
(a) Change the following into indirect form of speech (any one) :
(i) The teacher said to me very angrily, “Why have you come?” Have I not told you, never to see your face again”‘?
(ii) He said, “Thank you”.

(b) Combine the following sentences as directed within the brackets (any one): 2
(i) A tiger was hungry. He killed a bullock. The bullock was hefty. (into simple sentence)
(ii) He ran so quickly. He soon overtook his father. (into complex sentence)

(c) Transform the following sentences as directed within the brackets (any one): 2
(i) No sooner, I entered the room, than he started rebuking me. (into affirmative sentence)
(ii) He begged his father to forgive him.(into passive voice)

(d) Correct two of the following sentences : 1 + 1 = 2
(i) Two miles are not a long distance.
(ii) He returned back only yesterday.
(iii) The news is very good to be true.
(iv) He is very interested in games.

9.
(a) Give the synonyms of the following words : 3 x 1 = 3
(i) Efficient
(ii) Lament
(iii) Champion

(b) Give the antonyms of the following words : 3 x 1 = 3
(i) Domestic
(ii) Reveal
(iii) Aware.

(c) Use the following words in sentences of your own so as to bring out the difference in their meanings clearly : 1 + 1 = 2
(i) Career
(ii) Carrier.

(d) Substitute one word for the following expressions: 3 x 1 = 3
(i) Which is contrary to law.
(ii) A child whose parents are dead.
(iii) Eclipse of the moon.

(e) Use three of the following idioms/phrases in your own sentences so as to bring out their meanings clear: 3 x 1 = 3
(i) Hue and cry
(ii) Black sheep
(iii) Beat about the bush
(iv) In black and white
(v) A fool’s paradise.

Translate the following into English:
10.
भारतवर्ष एक महान देश है। इसका अतीत बहुत ही शानदार रहा है। विदेशी आक्रमणकारियों ने इस देश को लूटने का प्रयास किया। इसकी संस्कृति तथा इसके ज्ञान-विज्ञान को मिटाने का प्रयास किया। परन्तु देशप्रेमियों के बलिदान और बहादुरी के कारण वे सफल नहीं हुए। आज भी देश में किसी चीज की कमी नहीं है। यदि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई जनसंख्या पर नियंत्रण हो जाये तो देश फिर समृद्ध हो जाएगा। पर्यावरण प्रदूषण देश की एक बड़ी समस्या है। इस ओर प्रत्येक देशप्रेमी नागरिक को जागरूक होने की आवश्यकता है। आपसी भाईचारा और मेल-जोल की भावनों को सदैव बढ़ावा देने की आवश्यकता है। भारत एक महान देश था, आज भी है और सदैव रहेगा।

11. Write an essay on one the following topics in about 250 words : 12
(a) Youth Unrest
(b) Your Views on Terrorism
(c) True Journalism
(d) Bio-farming : Its Necessity Today
(e) My Favourite Book

12. Read the following passage carefully and answer the questions that follow :
It is most intensely true that above all things, the interest of your whole life depends on your being diligent, not what it is called today, in this place where you have come to get education. Diligent ! that includes in it all virtues that a student can have. I mean it to include all those qualities of conduct that lead on to the acquiretment of real instruction and improvement in such a place. If you believe me, you are young, your’s is the golden season of your life. As you have heard it called, so it verily is the seed-time of life, in which, if you not sow or if sow tares, instead of wheat, you cannot expect reap well afterwards, and you will arrive at little.
(a) Attempt a summary of the above passage.
(b) Give a suitable title to the above passage.
(c) Explain the italicized portions.
(d) What type of seed we should sow in our life-time?
(e) How will you say that life depends on your being diligent? 1

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UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi आत्मकथात्मक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 12
Chapter Name आत्मकथात्मक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi आत्मकथात्मक निबन्ध

आत्मकथात्मक निबन्ध

 यदि मैं भारत का प्रधानमन्त्री होता

सम्बद्ध शीर्षक

  • यदि मैं इस प्रदेश का माध्यमिक शिक्षा-मन्त्री होता

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1.  प्रस्तावना,
  2.  शिक्षा-व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन,
  3.  प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण और पुनरुद्धार पर बल,
  4. शासनिक और प्रशासनिक सुधार,
  5.  न्याय व्यवस्था में सुधार,
  6. चुनाव प्रणाली में आमूल परिवर्तन,
  7.  औद्योगिक नीति में परिवर्तन,
  8. कर प्रणाली में सुधार,
  9.  परिवार कल्याण योजना का क्रियान्वयन,
  10. गृह और विदेश नीति,
  11. सैन्य-शक्ति का पुनर्गठन,
  12. मनोरंजन और खेलकूद के क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन,
  13.  खाद्य-नीति,
  14. सामाजिक और धार्मिक नीति,
  15. उपसंहार।

प्रस्तावना – देश का प्रधानमन्त्री बनना दीर्घकालीन राजनीतिक साधना का परिणाम होता है। वर्तमान समय में प्राचीन काल के राजाओं जैसा युग नहीं है कि जिस पर कृपा हो गयी उसे ही प्रधानमन्त्री बना दिया गया। वर्तमान भारत में राज्य के संचालन के लिए प्रजातन्त्रात्मक शासन-पद्धति प्रचलित है, जिसके अन्तर्गत प्रधानमन्त्री के निर्वाचन का विधान है। इसके लिए सर्वप्रथम मुझे किसी संसदीय क्षेत्र से चुनाव में खड़ा होकर चुनाव जीतना होगा। इसके पश्चात् जिस दल का मैं सदस्य हूँ, यदि उस दल का संसद में बहुमत हो और उस दल द्वारा सर्वसम्मति से मुझे अपना नेता चुन लिया जाए तो मेरे प्रधानमन्त्री बनने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। प्रधानमन्त्री बनने के लिए इतना प्रयत्न तो करना ही पड़ेगा। प्रधानमन्त्री बन ज़ाना फूलों की शय्या नहीं है, यह तो काँटों का ताज है, जिसमें काँटे निरन्तर चुभते ही रहते हैं। यदि मैं प्रधानमन्त्री बन ही जाऊँ तो वर्तमान शासन की गलत नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करके ऐसी व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास करूंगा कि भारत संसार के सर्वाधिक शक्तिशाली, गौरवशाली और वैभवशाली देशों में गिना जाए। प्रधानमन्त्री बनने के बाद मेरे द्वारा निम्नलिखित कार्य प्राथमिकता के आधार पर सम्पन्न किये जाएँगे

शिक्षा-व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन – संसार का कोई भी देश शिक्षा द्वारा ही उन्नति करता है। इसलिए मेरा पहला काम होगा कि मैं भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी को वास्तविक अर्थों में देश की राजभाषा बनाऊँ और अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी इसको व्यवहार में लाये जाने को प्रोत्साहित करू। बिना अपनी भाषा को अपनाये संसार का कोई भी देश प्रगति नहीं कर सकता। बाबू भारतेन्दुजी ने कहा ही है

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल।

जापान और चीन के उदाहरण हमारे सामने हैं। अतः संविधान-सभा के निर्णय के अनुसार केन्द्र की भाषा एकमात्र हिन्दी होगी। विभिन्न प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाएँ मान्य होंगी। प्रादेशिक सरकारें आपस में तथा केन्द्र से हिन्दी में पत्राचार करेंगी। विश्वविद्यालयों, उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय की भाषा हिन्दी होगी। भारत में सभी प्रकार की शिक्षा–तकनीकी और गैर-तकनीकी-देशी भाषाओं के माध्यम से ही दी जाएगी। आशय यह है कि अंग्रेजों की दासता की निशानी अंग्रेजी का इस देश से सर्वथा लोप कर दिया जाएगा। केवल उन्हीं लोगों के लिए अंग्रेजी सिखाने की व्यवस्था होगी, जो किसी विशेष उद्देश्य से उसे सीखना चाहेंगे। इस प्रकार अपनी भाषाओं के माध्यम से देश की प्राचीन संस्कृति का पुनरुद्धार होगा तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान जागेगा।

प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण और पुनरुद्धार पर बल – देश के पुरातत्त्व विभाग को बहुत मजबूत बनाया जाएगा और उसे प्रचुर धन उपलब्ध कराया जाएगा, जिससे वह देश भर में आवश्यक स्थानों पर अन्वेषण कराकर भारत के प्राचीन इतिहास की खोई हुई कड़ियों को खोजे। जो प्राचीन मूर्तियाँ, भवन, सिक्के या अन्य अवशेष विद्यमान हैं या खोज के परिणामस्वरूप निकलेंगे उनकी सुरक्षा और रख-रखाव की व्यवस्था की जाएगी।

शासनिक और प्रशासनिक सुधार – मैं अपने मन्त्रिमण्डल का आकार बहुत सीमित रखेंगा जिसमें विशेष योग्यतासम्पन्न, ईमानदार, चरित्रवान एवं देशभक्त मन्त्री ही सम्मिलित किये जाएँगे, जिन्हें बहुत सादगी से रहने को प्रेरित किया जाएगा। प्रदेशों में भी ऐसी ही व्यवस्था अपनाये जाने पर बल दिया जाएगा। साथ ही केन्द्रीय सचिवालय एवं अन्यान्य कार्यालयों का आकार घटाकर अतिरिक्त लोगों की कुशलता का लाभ अन्यत्र उठाया जाएगा।

इसी प्रकार प्रशासनिक अधिकारियों को जनता का शासक या शोषक नहीं, जनता का सेवक बनना सिखाया जाएगा। विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों में देशभक्त कर्मचारियों को नियुक्त कर उन्हें बहुत सादगी, कार्यकुशलता एवं निष्ठा से काम करने की प्रेरणा दी जाएगी। उनसे आशा की जाएगी कि वे विदेशों में अपने देश के हित के सजग प्रहरी बनकर रहें।

न्याय-व्यवस्था में सुधार – न्यायालय राजनीतिक या अन्य किसी प्रकार के हस्तक्षेप से पूर्णत: मुक्त रखे जाएँगे। न्याय-प्रक्रिया बहुत सरल और सस्ती बनायी जाएगी। अधिकांश विवादों को आपसी समझौतों से हल करने के प्रयास किये जाएँगे। अधिवक्ताओं पर आधारित प्रक्रिया को एक सीमा तक परिवर्तित करने के प्रयास किये जाएंगे। इससे न्यायालयों में लम्बित मुकदमों की संख्या घटेगी। निर्धनों और असहायों को न्याय नि:शुल्क दिलाया जाएगा और वादों का निपटारा एक निश्चित अवधि के अन्दर करना अनिवार्य होगा।

चुनाव-प्रणाली में आमूल परिवर्तन – सत्ता की राजनीति के स्थान पर सेवा की राजनीति चलाने के लिए चुनाव-प्रणाली में परिवर्तन नितान्त आवश्यक है। इसके लिए सबसे पहले अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आदि के कृत्रिम और हानिकारक विभाजन समाप्त करके देश की भावात्मक एकता का पथ प्रशस्त किया जाएगा। किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म, सम्प्रदाय या भाषी के आधार पर नहीं, अपितु शुद्ध योग्यता और कार्यक्षमता के आधार पर ही प्रोत्साहन दिया जाएगा। मत देने का वर्तमान क्रम समाप्त करके न्यूनतम अर्हता एवं आयु वाले मतदाता को ही मतदान का अधिकार होगा तथा चुनाव में प्रत्याशी के रूप में खड़े होने वाले के लिए भी कुछ न्यूनतम योग्यता निर्धारित कर दी जाएगी। दल परिवर्तन को कानून द्वारा अवैध घोषित कर दिया जाएगा और दूसरे दल की सदस्यता और किसी भी रूप में दूसरे दल से सम्बद्धता स्वीकार करने पर उसे पुनः मतदाताओं का विश्वास प्राप्त करना होगा। चुनाव-प्रणाली अत्यधिक सस्ती, सरल और आधुनिक बना दी जाएगी।

औद्योगिक नीति में परिवर्तन – कुटीर एवं लघु उद्योग-धन्धों को पूरी लगन से पुनर्जीवित किया जाएगा। डेयरी-उद्योग को बढ़ावा दिया जाएगा तथा उसी से वनस्पति घी के स्थान पर देशी घी प्रचुर मात्रा में सस्ते मूल्य पर उपलब्ध कराया जाएगा। गो-हत्या को पूर्णत: बन्द कर देश के पशुधन को समुचित संरक्षण दिया जाएगा। बड़े उद्योगों को केवल कुछ ही चीजें बनाने की छूट देकर अधिकांश माल लघु उद्योगों से तैयार कराकर सरकार उसकी बिक्री की व्यवस्था करेगी। इससे बेरोजगारी के उन्मूलन में बहुत सहायता मिलेगी। देश के प्रत्येक नागरिक को रोजगार उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व होगा। देश में फैशन और विलासिता की सामग्री के उत्पादन को निरुत्साहित कर सादगी और सात्विकता पर बल दिया जाएगा। देश में तैयार हो रहे माल की गुणवत्ता पर सतर्क दृष्टि रखी जाएगी। आयात कम कर दिया जाएगा और निर्यात को पूरा बढ़ावा दिया जाएगा। विदेशी ऋण लेना बन्द करके देश की आवश्यकताओं और साधनों के अनुरूप लघु विकास-योजनाएँ अल्पकालिक आधार पर बनायी जाएँगी। तस्करी का कठोरतापूर्वक दमन किया जाएगा। कोटा-परमिट आदि कृत्रिम प्रतिबन्ध समाप्त कर उद्योगों को फलने-फूलने के पर्याप्त अवसर प्रदान किये जाएँगे।

कर-प्रणाली में सुधार – देश में विद्यमान सैकड़ों करों के स्थान पर केवल तीन-चार प्रमुख कर रखे जाएँगे। कर-प्रणाली बहुत सरल बनायी जाएगी, जिससे शिक्षित-अशिक्षित प्रत्येक व्यक्ति सुविधापूर्वक अपना कर जमा कर सके। इससे चोरबाजारी का उन्मूलन होगा और कालाधन व सफेद धन का भेद समाप्त होकर सारा धन देश के विकास में लग सकेगा।

परिवार-कल्याण योजना का क्रियान्वयन – अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में मैं परिवार को नियोजित करने पर विशेष बल दूंगा; क्योंकि बढ़ती हुई जनसंख्या को सीमित किये बिना देश का समग्र विकास किसी भी स्थिति में सम्भव है ही नहीं।

गृह और विदेश-नीति – भारत में पनप रही अलगाववादी प्रवृत्तियों को गृह-नीति के अन्तर्गत समाप्त किया जाएगा। इसके लिए भारत के सभी प्रदेशों में भारतीयता की भावना जगाने वाले कार्यक्रम चलाये जाएँगे और देश में हिंसा तथा तोड़-फोड़ करने वालों को सख्ती से कुचला जाएगा। राष्ट्रीय भावना को धर्म से ऊपर रखा जाएगा। प्रत्येक प्रदेश को उसके विकास के लिए समुचित धनराशि दी जाएगी और आदिवासियों, जनजातियों आदि को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने एवं उनको समुचित विकास करने का पूरा प्रयत्न किया जाएगा। ग्राम पंचायतों को उनका पुराना गौरव लौटाया जाएगा। नगरों और ग्रामों में स्वच्छता पर विशेष बल दिया जाएगा, जिससे वातावरण प्रदूषण-मुक्त बने। विदेश-नीति के अन्तर्गत भारत के मित्र देशों को हर प्रकार की सम्भव सहायता दी जाएगी और शत्रु-राष्ट्रों के प्रति कड़ा रुख अपनाया जाएगा।

सैन्य-शक्ति का पुनर्गठन – सेना के तीनों अंगों को अत्यधिक सक्षम बनाया जाएगा। शस्त्रास्त्रों के लिए विदेशों पर निर्भर न रहकर देश को इतना शक्तिशाली बना दिया जाएगा कि संसार का कोई भी देश भारत से टकराने का खतरा मोल न ले। कश्मीर से धारा 370 समाप्त कर शेष भारत के साथ उसकी पूर्ण भावात्मक एकता स्थापित की जाएगी। साथ ही पाकिस्तान तथा चीन द्वारा अनधिकृत रूप से हड़प ली गयी भारतीय भूमि को भी वापस लेने का पूरा प्रयास किया जाएगा।

मनोरंजन और खेलकूद के क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन – सिनेमा और दूरदर्शन द्वारा लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति सम्मान जाग्रत करने का अभियान चलाया जाएगा। पश्चिम की नकल पर बने वासना और अपराध के उत्तेजक चित्र बिल्कुल बन्द कर दिये जाएँगे। खेलकूद के क्षेत्र में बाह्य हस्तक्षेप बिल्कुल समाप्त करके योग्यता के आधार पर ही विभिन्न खेलों के लिए खिलाड़ियों का चयन होगा और उन्हें इतना अच्छा प्रशिक्षण और प्रोत्साहन दिया जाएगा कि वे संसार के किसी भी देश के खिलाड़ी से श्रेष्ठतर हों।

खाद्य-नीति – इसके अन्तर्गत विशाल सिंचाई-योजनाओं के स्थान पर स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप लघु सिंचाई योजनाओं को लागू किया जाएगा। रासायनिक खाद के कारखाने बन्द कर दिये जाएँगे; क्योंकि वे भूमि को बंजर बनाने के साथ-साथ अनाज में विष मिला रहे हैं। इनके स्थान पर नदियों में गिरने वाले सीवरों और कारखानों की गन्दगी को मशीनों से साफ कर स्वच्छ जल नदियों में छोड़ा जाएगा और मल को खाद के रूप में खेतों में प्रयुक्त किया जाएगा।

सामाजिक और धार्मिक नीति – समाज के प्रत्येक व्यक्ति और वर्ग को आगे बढ़ने का पूर्ण सुयोग उपलब्ध होगा। सामाजिक कुरीतियों एवं अनाचारों; जैसे-दहेज-प्रथा, बाल-विवाह आदि को सख्ती से दबाया जाएगा, नारी-सम्मान की पूर्ण रक्षा की जाएंगी एवं जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए देश भर में समान नागरिक आचार-संहिता लागू करने के अतिरिक्त अन्यान्य समुचित उपायों को भी दृढ़तापूर्वक अपनाया जाएगा। धार्मिक नीति के अन्तर्गत धार्मिक स्वतन्त्रता तो हर एक को उपलब्ध होगी, परन्तु धर्म को अलगाववाद का हथियार बनाने की छूट न दी जाएगी। देशभक्तों को समुचित प्रोत्साहन एवं संरक्षण देने के साथ-साथ देशद्रोहियों का सख्ती से दमन किया जाएगा।

उपसंहार – भारत संसार को महान् जनतान्त्रिक देश है। इसकी सांस्कृतिक एवं सभ्यता सम्बन्धी परम्पराएँ बड़ी प्राचीन हैं। इसलिए मैं अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में देश की सांस्कृतिक उन्नति करूंगा तथा सार्वभौमिक उन्नति के लिए प्रयत्न करता रहूँगा। प्रत्येक स्तर पर देश को स्वावलम्बी बनाने के साथ-साथ कर्तव्यनिष्ठा को पुरस्कृत और कर्तव्यहीनता को दण्डित किया जाएगा। किसी भी विषय में राजनीतिक, प्रशासनिक या अन्य किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप, पक्षपात, भाई-भतीजावाद या अन्याय को सहन नहीं किया जाएगा। मेरा मूलमन्त्र होगा ज्वलन्त राष्ट्रनिष्ठा, मितव्ययिता एवं देशी संसाधनों के भरपूर उपयोग से अर्जित पूर्ण स्वावलम्बन। यह मेरा कथन मात्र नहीं है। यदि मुझे यह सुअवसर प्राप्त हो तो मैं अपने समस्त आदर्श प्रत्यक्ष सत्य कर दिखा देने में पूर्ण सक्षम हूँ

गंगा की आत्मकथा

सम्बद्ध शीर्षक

  • मैं गंगा हूँ।

मैं गंगा हूँ। मुझे त्रिपथगा भी कहते हैं; क्योंकि स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–तीनों लोकों में मेरी धाराएँ हैं। स्वर्ग में मैं मन्दाकिनी कहलाती हूँ, पृथ्वी पर भागीरथी तथा पाताल में वैतरणी। आज अपनी आत्मकथा सुनाने चली हूँ तो सभी कुछ बताऊँगी। कुछ भी छिपाकर रखने का मेरा स्वभाव नहीं; क्योंकि लोक-कल्याण ही मेरा व्रत है।। सम्भव है मेरी आत्मकथा से आपका भी कुछ कल्याण हो जाए। वैसे मेरी बड़ी महिमा है। ऋषि-महर्षि मेरा स्तवन करते नहीं थकते, देवगण मेरे गुणों का बखान करते नहीं अघाते, मानव मेरे दर्शन और स्पर्शन कर कृतार्थता का अनुभव करते हैं। इतना ही नहीं, मरने के बाद भी हिन्दू अपना अन्तिम संस्कार मेरे तट पर ही कराना चाहते हैं। आखिर मुझे इतना गौरव मिला कैसे?

वैसे तो मैं हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री कहलाती हूँ। उमा मेरी छोटी बहन है। पर मुख्यत: मैं अपने को ‘विष्णुपदी कहती हूँ; क्योंकि इसी नाम में मेरे महान् गौरव का मूल निहित है। जब भगवान् विष्णु ने वामनावतार धारण करके राजा बलि को छला था, तब उन्होंने विराट् रूप धारणकर दो डगों में तीनों लोकों को नाप लिया था। उस समय उनका एक चरण ब्रह्मलोक में भी पहुंचा था। इससे परम प्रसन्न हो भगवान् ब्रह्मा ने तत्काल उस चरण को जल से धोकर वह पाद्य अपने कमण्डलु में धारण कर लिया। बस, वही जल मेरा मूल उत्स बना है। सर्वलोकेश्वर भगवान् विष्णु के चरणों से उद्भूत होने के कारण ही मैं ‘विष्णुपदी’ कहलायी और यही मेरे अभूतपूर्व माहात्म्य का कारण बना।

मैं भगवान् ब्रह्मा के कमण्डलु में शायद बन्दी ही रह जाती, यदि महाराज सगर के प्रप्रपौत्र, असमंच के प्रपौत्र, अंशुमान् के पौत्र एवं दिलीप के पुत्र महापराक्रमी महाराज भगीरथ ने अमित तेजस्वी महामुनि कपिल के शाप से दग्ध अपने पूर्वजों (सगर के साठ हजार पुत्रों) को सद्गति दिलाने के लिए कठोर तपस्या न की होती। सच तो यह है कि मैं ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर आने को राजी न हुई, किन्तु जब तीन-तीन पीढ़ियों की उग्र तपस्या से द्रवित हो भगवान् ब्रह्मा ने मुझे मर्त्यलोक में भेजने का वचन दे दिया, तब मैं क्या करती? महाराज सगर मुझे पृथ्वी पर लाने की चिन्ता करते-करते स्वर्ग सिधार गये। उनके पौत्र अंशुमान् हिमालय पर बत्तीस हजार वर्षों तक कठोर तपस्या करके भी विफल मनोरथ ही दिवंगत हो गये। उनके पुत्र दिलीप ने भी बड़ी तपस्या की, परन्तु यह कार्य सिद्ध न हुआ। अन्त में भगीरथ ने घोर तपस्या द्वारा भगवान् ब्रह्मा को वश में कर ही लिया। उन्होंने यह सिद्ध कर ही दिखाया कि तपस्या से असाध्य भी साध्य हो जाता है।

अस्तु, ब्रह्माजी ने मुझे मर्त्यलोक में भेजने की सहमति तो दे दी, पर एक समस्या भगीरथ के सामने रख दी-“स्वर्ग से उतरते समय मेरे दुर्धर्ष-वेग को सहन करने की क्षमता योगिराज भगवान् शंकर को छोड़कर किसी में नहीं; अतः तुम आराधना द्वारा उन्हें गंगा को धारण करने हेतु सहमत करो।’ धन्य हैं भगीरथ! वे पुनः उग्र तपस्या में लीन हो गये और अन्तत: भगवान् शंकर को भी प्रसन्न कर ही लिया। वे तत्काल हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर जटाएँ फैलाकर खड़े हो गये और भगीरथ से मेरा आह्वान करने को कहा। भगीरथ ने भगवान् ब्रह्मा की स्तुति की और उन्होंने तत्काल अपने कमण्डलु से मुझे उतार दिया। सच कहूँ! मुझमें उस समय असीम अहंकार उत्पन्न हुआ कि भला कौन है, जो मेरे दुर्धर्ष-वेग को सहन कर सकता है। मैं शिव को अपने प्रचण्ड वेग में बहाती, मर्त्यलोक को डुबोती, सीधे रसातल चली जाऊँगी, परन्तु भगवान् शिव तो अन्तर्यामी ठहरे! मेरा अहंकार जानकर उन्हें बड़ा क्रोध आया। फलतः जैसे ही मैं आकाश को निनादित करती, घनपटल को चीरती, वायु को थरथराती और पृथ्वी को कँपकँपाती ब्रह्मलोक से चली तो मेरे वेग से तीनों लोक काँप उठे। अस्तु, जैसे ही मैं उतरी वैसे ही भगवान् शंकर ने मुझे अपनी जटाओं में बाँध लिया। मैंने बहुत जोर मारा, पर बाहर निकलने का रास्ता ही न मिला। तब भगीरथ फिर भगवान् त्रिपुरारि का स्तवन करने लगे। तब उन्होंने मुझे बिन्दुसर में छोड़ी और मैं वहाँ से समस्त पर्वत प्रदेश को अपनी धमक से दहलाती पृथ्वी की ओर दौड़ पड़ी। भगीरथ दिव्य-रथ में मेरा मार्गदर्शन करते हुए मेरे आगे-आगे चल रहे थे। पृथ्वी पर मैं मदमाती, इठलाती, निश्चिन्त हो भागी चली जा रही थी, क्योंकि यहाँ भला कौन बैठा था मेरी गति को रोकने वाला? पर आश्चर्य कि अघटित घटित हो ही गया! जह्न नाम के एक महातपस्वी राजर्षि यज्ञ कर रहे थे। उनका यज्ञमण्डप मेरे मार्ग में पड़ता था। मुझे यह बाधा सहन न हुई और मैं उसे बहा ले चली, परन्तु यहाँ तो एक दूसरे ही शंकर निकल आये। जहु ने क्रुद्ध हो मुझे चुल्लू में भरकर पी लिया और मैं उनके पेट में बन्दी हो गयी। भगीरथ बेचारे ने उन्हें भी मनाया, देवताओं ने आकर उनका गुणगान किया और मुझे उनकी पुत्री बनाया। तब कहीं जाकर उन्होंने मुझे कानों के मार्ग से निकाला। तब से मैं जाह्नवी’ (जह्वपुत्री) कहलायी। बस, फिर सागर तक कोई बाधा न मिली। सागर मुझसे मिलकर खिल उठा, परन्तु मुझे तो भगीरथ का मनोरथ पूरा करना था, इसलिए तत्काल पाताल में जाकर मैंने सगर के साठ हजार पुत्रों की भस्म को अपने जल से आप्लावित कर दिया। उसी क्षण वे सब दिव्य-देह धारणकर स्वर्गलोक को चल दिये। देवता पुष्पवर्षा करने लगे, सिद्ध और महर्षिगण मेरी यशोगाथा गाने लगे, भगीरथ हर्षविभोर हो श्रद्धा से मेरे चरणों पर लेट गये। तो यह है मेरी आपबीती!
अस्तु, तब से मैं निरन्तर बहती हुई लोकहित में लगी हैं। उत्तर भारत की भूमि मुझे पाकर धन्य हो गयी। मैंने जिधर दृष्टि फेरी उधर ही खेत लहलहा उठे और धन-धान्य की वृष्टि होने लगी। मेरे तट पर अगणित नगर और ग्राम बस गये। हिन्दुओं के महान् तीर्थ–हरिद्वार, प्रयाग और काशी – मेरे ही तट पर हैं। यह सब कुछ प्रत्यक्ष

परन्तु तुम्हारा आज का यह युग ठहरी बुद्धिवादी। तर्क-वितर्क के बिना भला ये किसी की महिमा क्यों मानने लगे। इसलिए कुछ लोगों ने कहना शुरू किया कि यह पौराणिक आख्यान प्रतीकात्मक हैं। फिर लगे वे आधुनिक ढंग से उसकी व्याख्या करने। पहली बार उन्होंने यह खोज निकाला कि गंगा नदी नहीं, नहर है। उन्होंने दावा किया कि इसके तल की मिट्टी नदियों जैसी प्राकृतिक है ही नहीं। अब उनकी व्याख्या सुनिए। उत्तर भारत गंगा के आने से पहले मरुभूमि जैसा बंजर था। वर्षा के अनिश्चित जल से काम न चलता था। सर्वत्र हा-हाकार मचा हुआ था। लोग सूखे और गर्मी से दग्ध हुए जा रहे थे। यह हुआ कपिल मुनि के शाप से सगरपुत्रों का दग्ध होना अर्थात् सगर की प्रजा का पीड़ित होना। राजा सगर ने हिमालय में इंजीनियरों को भेजकर खोज करायी। पता

चला वहाँ जल का एक विशाल भण्डार है। यदि उसे पृथ्वी पर उतारा जा सके तो समस्या सदा के लिए हल हो जाए। सगर ने बड़ा प्रयास किया, परन्तु सफल न हुए। अगली तीन पीढ़ियाँ असफल प्रयासों में खप गयीं। यह हुई तीन पीढ़ियों की तपस्या। आखिर में भगीरथ हुए। वे स्वयं महान् इंजीनियर थे। उन्होंने कार्य पूरा करने का बीड़ा उठाया और राजपाट मन्त्रियों पर छोड़ हिमालय पहुँचे। वर्षों हिमालय के अन्तर्वर्ती भू-भाग का सर्वेक्षण किया और समस्या का समाधान ढूंढ़ निकाला। यह हुआ भगोरथ की तपस्या से ब्रह्माजी के प्रसन्न होकर अपने कमण्डलु से गंगा को छोड़े जाने का आख्यान। अस्तु, भगीरथ ने पहले हिमालय की तलहटी से गंगा सागर तक एक विराट नहर खुदवायी। फिर हिमालय में उस विशाल जल-भण्डार के पास एक प्रणाली (नाली) खुदवायी जो अनेक स्थानों पर पर्वत के अन्दर सुरंग के रूप में जाती थी। यह महान् कौशल का कार्य था, जिसमें अनेक वर्ष लग गये और प्रचुर धन व्यय हुआ। अब असली समस्या उस जल-भण्डार को इस प्रणाली से मिलाने की थी जो बड़ा ही भयप्रदायक कार्य था। इसे भी भगीरथ ने कुशल इंजीनियरों के दल के सहयोग से हल किया और जल की एक पतली धार उस प्रणाली में छोड़ी, जिससे वह बाद में जल के वेग से स्वतः ही चौड़ी हो जाए। यह हुआ भगवान् शिव द्वारा गंगा को धारण करना और फिर बिन्दुसर में छोड़ना। कैसी लगी यह बुद्धिवादी व्याख्या? नि:सन्देह आपको रोचक प्रतीत हुई होगी।

अस्तु, मैं पतितपावनी कही जाती हूँ। मेरा जल बरसों पात्र में भरकर रखने पर भी दूषित नहीं होता था, किन्तु । अब वह बात कम होती जा रही है। प्रगति के नाम पर स्थापित कल-कारखाने अपना कचरा और दूषित जल मुझमें छोड़ रहे हैं। सैकड़ों नाले गन्दगी बहाकर मुझमें मिल रहे हैं। मेरा जल दूषित होता जा रहा है। मन में कई बार क्षोभ उत्पन्न होता है कि मैं इस मर्त्यलोक को छोड़कर ब्रह्मलोक को लौट जाऊँ, पर जब लाखों भक्तों को अपने दर्शन से गद्गद होते तथा हजारों सन्त-महात्माओं को अपनी स्तुति करते पाती हूँ, तो उन्हें निराश करने को मुन नहीं होता; इसलिए मैं तुम लोगों को, जो मेरी यह आत्मकथा सुन रहे हो, सावधान करती हूँ कि जाकर अपने उन आत्मघाती, पथभ्रष्ट देशवासियों को समझाओ कि मेरी पवित्रता बनाये रखने में उन्हीं का हित साधन है, अन्यथा मुझे तो कुछ फर्क नहीं पड़ता। मैं सदा के लिए वापस ब्रह्मलोक चली जाऊँगी। शायद इसी भय से कम्पित होकर सरकार ने मुझे पवित्र बनाये रखने हेतु अनेकानेक योजनाएँ कार्यान्वित की हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 16 Means of Transport

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography
Chapter Chapter 16
Chapter Name Means of Transport (यातायात के साधन)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 16 Means of Transport (यातायात के साधन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न
ट्रांस-साइबेरियन, कैनेडियन-पैसिफिक एवं केप-काहिरा रेलमार्गों का वर्णन कीजिए तथा इनका व्यापारिक महत्त्व भी समझाइए।
या
ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग का वर्णन कीजिए तथा उसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। [2007, 10]
या
टिप्पणी लिखिए ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग। [2008, 14, 16]
या
टिप्पणी लिखिए कैनेडियन-पैसिफिक रेलमार्ग।
या
कनाडा के आर्थिक विकास में कैनेडियन पैसिफिक रेलमार्ग के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
या
कैनेडियन पैसिफिक रेलमार्ग के महत्त्व की विवेचना कीजिए।
या
ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग को भौगोलिक विवरण दीजिए।
या
रेल परिवहन की सुविधाओं का विवेचन कीजिए तथा इसके आर्थिक विकास में ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग की भूमिका का विवरण कीजिए। [2012]
या
ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग को प्रदर्शित करने के लिए एक रेखामानचित्र बनाइए। [2013, 14]
या
रूस के आर्थिक विकास में ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग की भूमिका का विवरण दीजिए। [2013)
उत्तर

(1) ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग
Trans-Siberian Railway

ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग विश्व का सबसे लम्बा रेलमार्ग है। यह एशिया महाद्वीप के सुदूरपूर्व में प्रशान्त तट पर स्थित ब्लाडीवॉस्टक नगर को युरोपीय रूस की राजधानी मास्कसोडत है। पूनः मास्को से यह लेनिनग्राड तक जाता है। इसके बाद मास्को एवं लेनिनग्राड से विभिन्न यूरोपीय नगरों तक रेलमार्गों एवं सड़क मार्गों द्वारा पहुँचा जा सकता है। यह यूरोपीय देशों को एशिया के आन्तरिक एवं पूर्वी प्रशान्ततटीय क्षेत्रों तक पहुँचने का एकमात्र स्थलीय मार्ग है। ब्लाडीवॉस्टक से मास्को तक यात्रा करने में इस रेलमार्ग द्वारा केवल 10 दिन का समय लगता है। टोकियो से लन्दन तक जलमार्ग द्वारा यात्रा करने में लगभग डेढ़ माह का समय लग जाता है, जबकि इस मार्ग द्वारा केवल 15 दिनों में ही पहुँचा जा सकता है। इस रेलमार्ग का निर्माण सन् 1891 से 1905 ई० के दौरान हुआ तथा 1905 ई० में इसे परिवहन के लिए खोल दिया गया। इसकी कुल लम्बाई बाल्टिक सागर पर स्थित लेनिनग्राड से प्रशान्त के तट पर स्थित ब्लाडीवॉस्टक तक 8,700 किमी है। सन् 1945 ई० से इस रेलमार्ग को दोहरा बना दिया गया है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 16 Means of Transport 1

इस प्रकार इस रेलमार्ग द्वारा पूर्व एवं पश्चिम को सम्बन्ध स्थापित होने के साथ-साथ साइबेरिया के वन, कृषि, खनिज संसाधनों तथा उद्योग-धन्धों को पर्याप्त विकास हुआ है। इस रेलमार्ग के बन जाने से साइबेरिया में स्थित कोयला, लौह-अयस्क, मैंगनीज, बॉक्साइट, कोबाल्ट, क्रोमियम, निकिल, टंगस्टन, ताँबा, टिन, जस्ता, सीसा, अभ्रक, गन्धक, पोटाश, सोना, प्लेटिनम, यूरेनियम आदि खनिजों का शोषण सम्भव हो सका है। साइबेरिया में इन खनिजों की प्राप्ति इसी रेलमार्ग द्वारा सम्भव हो पायी है। अतः यह रेलमार्ग रूस के लिए वरदान सिद्ध हुआ है। इस रेलमार्ग की स्थापना से पूर्व साइबेरिया अत्यन्त पिछड़ा हुआ तथा उपेक्षित प्रदेश था।

जार शासनकाल में साइबेरिया को ‘काले पानी’ की संज्ञा दी जाती थी, परन्तु इस रेलमार्ग की स्थापना के बाद इस प्रदेश की आर्थिक प्रगति प्रारम्भ हुई तथा आज साइबेरिया रूस का बहुमूल्य खजाना सिद्ध हुआ है। साइबेरिया के वन उत्पाद गेहूँ, मक्खन, पनीर, मांस, खाल, ऊन, समूर एवं खनिज पदार्थ यूरोपीय रूस को इसी रेलमार्ग द्वारा भेजे जाते हैं तथा इनके बदले निर्मित सामान पूर्व की ओर आता है। साइबेरिया में जनसंख्या को सघन बसाव भी इसी रेलमार्ग के सहारे-सहारे विकसित हुआ है। साइबेरिया के सभी प्रमुख नगर इसी रेलमार्ग के सहारे-सहारे विकसित हुए हैं। यूरोपीय रूस के बहुत-से निवासियों को साइबेरिया में बसाने के लिए यही रेलमार्ग सहायक रहा है।

प्रारम्भ में इसका उद्देश्य शासन-प्रबन्ध तथा दैनिक आवश्यकताओं के कार्यों की पूर्ति करना निर्धारित किया गया था। कालान्तर में इसका व्यापारिक महत्त्व अधिक बढ़ गया। साइबेरिया प्रदेश का आर्थिक विकास इसी रेलमार्ग की देन कहा जा सकता है।

इस रेलमार्ग की स्थिति बाल्टिक सागर में फिनलैण्ड की खाड़ी पर स्थित लेनिनग्राड नगर से । प्रारम्भ होकर मास्को तक है। लेनिनग्राड रूस का प्रमुख उत्तरी-पश्चिमी पत्तन है। मास्को औद्योगिक प्रदेश से विभिन्न मशीनरी एवं औद्योगिक पदार्थ इस रेलमार्ग द्वारा साइबेरिया के विभिन्न क्षेत्रों को भेजे जाते हैं। पश्चिमी साइबेरिया, मध्य साइबेरिया एवं पूर्वी साइबेरिया में कृषि एवं उद्योगों को सन्तुलित विकास करने के लिए ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग पर बहुत से नगरीय केन्द्रों की स्थापना में वृद्धि हुई है। ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग पर निम्नलिखित ब्रांच रेलवे लाइन स्थापित की गयी हैं –

  1. यूराल प्रदेश में स्वर्डलोव्स्क, चिल्याबिंस्क, मैग्नीटोगोर्क आदि केन्द्र विकसित हुए हैं।
  2. पश्चिमी साइबेरिया में कुजबास प्रदेश में नोवोसिबिर्क, बरनोल, प्रोकोपयेवस्क, नोवोकुजतेक, बियस्क, केमरोव, तोमस्क आदि महत्त्वपूर्ण केन्द्र विकसित हुए हैं।
  3. मध्य एशिया में ट्रांस-साइबेरियन रेलवे की एक शाखा दक्षिणी समान्तर रेलवे कुईबाइशेव से इटस्क तक जाती है। इस प्रदेश में ट्रांस-साइबेरियन रेलवे के दोनों ओर क्रस्नोयार्क, मिनुसिंस्क, तायशेत, बास्कचेरमेखोव, इकुंटस्क, कोर्टूनोवा, उलान-ऊदे, चिंता आदि केन्द्रों का विकास हुआ है।
  4. सुदूर-पूर्व में आमूर नंदी बेसिन में मौंगोचा, त्यागदा, खावरोवस्क, क्रोसोमोलस्क, ब्लाडीवॉस्टक आदि केन्द्रों का क्किास हुआ है।

व्यापारिक महत्त्व – इस प्रकार यह रेलमार्ग एशिया महाद्वीप के उत्तरी भाग में पश्चिम को पूरब से जोड़ने वाली प्रमुख कड़ी का कार्य करता है जिससे पूर्व एवं पश्चिम एक सूत्र में बँध गये हैं। इस रेलमार्ग द्वारा मास्को में निर्मित वस्तुएँ साइबेरिया एवं साइबेरिया प्रदेश का कच्चा माल (खाद्यान्न, वन-उत्पाद एवं खनिज पदार्थ) आदि रूस के विभिन्न औद्योगिक केन्द्रों तथा अन्य नगरीय केन्द्रों को भेजे जाते हैं। इसी रेलमार्ग द्वारा कोयला, मक्खन एवं गेहूँ यूरोपीय देशों को भेजे जाते हैं; अत: सोवियत गणराज्यों के आर्थिक विकास में इस रेलमार्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

(2) कैनेडियन-पैसिफिक रेलमार्ग
Canadian Pacific Railway

इस रेलमार्ग का, कनाडा के लिए वही महत्त्व है जो ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग का साइबेरिया (रूस) के लिए है। इसका विस्तार भी शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेश में ट्रांस-साइबेरियून रेलवे की भाँति लगभग उन्हीं अक्षांशों में अर्थात् पूरब से पश्चिम को है। यह रेलमार्ग कनाडा के पूर्वी एवं पश्चिमी तटों को जोड़ता है। इस प्रकार प्रशान्त महासागरीय एवं अन्ध महासागरीय तटों पर स्थित पत्तनों से जुड़ा होने के कारण यह जलयानों द्वारा जल भाग का चक्कर लगाकर की जाने वाली अनावश्यक यात्रा को बचा लेता है। अतः इस रेलमार्ग का वास्तविक महत्त्व यात्रा की दृष्टि से न होकर आर्थिक दृष्टि से अधिक है। कनाडा के प्रमुख नगर इसी रेलमार्ग के सहारे-सहारे विकसित हुए हैं।

साइबेरिया की भाँति कनाडा में भी जनसंख्या का जमाव इन क्षेत्रों में बहुत ही कम तथा दूर-दूर छिटका हुआ था। शीत ऋतु में जलमार्गों के जम जाने के कारण आवागमन अवरुद्ध हो जाता था। इस प्रकार मानवीय जन-जीवन एवं व्यापार में बाधा उपस्थित होती थी, परन्तु इस स्लमार्ग के निर्माण के बाद वर्ष भर के लिए यातायात की सुविधाएँ प्राप्त हो गयी हैं तथा आर्थिक क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति हुई है। कनाडा के विभिन्न प्रान्तों में प्रशासनिक कार्यों की देखभाल के लिए भी इस रेलमार्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है, अर्थात् देश के आन्तरिक भाग एक-दूसरे से सम्बन्धित हो गये हैं। इस रेलमार्ग के साथ-साथ ही कनाडा के आन्तरिक भागों में जनसंख्या के सघन संकेन्द्रण हुए हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Chapter 16 Means of Transport 2
इस रेलमार्ग का निर्माण वर्ष 1882-86 के मध्य हुआ था। यह रेलमार्ग कनाडा के पूर्वी भाग में न्यूब्रिन्सविक राज्य के प्रमुख पत्तनों सेण्टजॉन तथा हेलीफैक्स को देश के पश्चिमी भाग में संयुक्त राज्य की सीमा पर स्थित बैंकूवर नगर से जोड़ता है। इस रेलमार्ग की लम्बाई 5,600 किमी है। सर्वप्रथम यह सेण्टजॉन से प्रारम्भ होकर संयुक्त राज्य में प्रवेश कर सेण्टलारेंस नदी पर स्थित कनाडा के मॉण्ट्रियल नगर जाता है। मॉण्ट्रियल कनाडा का प्रमुख औद्योगिक एवं व्यापारिक नगर है। शीतकाल में सेण्टलारेंस नदी के जम जाने के कारण इसका पत्तन व्यापारिक कार्यों के लिए अनुपयुक्त हो जाता है, जिससे इस रेलमार्ग का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। मॉण्ट्रियल से यह ओटावा नदी के किनारे-किनारे होता हुआ उस पर स्थित ओटावा नगर पहुँचता है जो कनाडा की राजधानी है। यह वन उत्पादों की प्रमुख मण्डी है जहाँ से ये उत्पाद देश के विभिन्न भागों को भेजे जाते हैं।

यहाँ से यह रेलमार्ग सूरन झील के उत्तर में स्थित सडबरी नगर पहुँचता है जो खनिज पदार्थों का प्रमुख भण्डार है। इस क्षेत्र से खनिज पदार्थों को इस रेलमार्ग द्वारा देश के अन्य भागों में भेजा जाता है। यहाँ से यह रेलमार्ग कनाडा के प्रेयरी प्रदेश में प्रवेश करता है जो गेहूँ उत्पादन का विस्तृत प्रदेश है। इस प्रदेश में विनीपेग प्रमुख नगर है जो विश्वप्रसिद्ध गेहूँ की एक बड़ी मण्डी है। यहीं पर कैनेडियन नेशनल रेलमार्ग इससे मिल जाता है। विनीपैग से यह रेलमार्ग सस्केचवान प्रान्त की राजधानी रेजिना नगर में पहुँचता है। रेजिना के पश्चात् मैदानी भाग समाप्त हो जाता है तथा पहाड़ी प्रदेश प्रारम्भ हो जाता है। रॉकी पर्वत की तलहटी में स्थित कैलगैरी नगर यहाँ पर प्रमुख रेलवे स्टेशन है। इस नगर से रॉकी पर्वत की ऊँचाई बढ़नी प्रारम्भ हो जाती है तथा यह रेलमार्ग बांफ नगर पहुँच जाता है। यहाँ से रॉकी पर्वतों की गहन ऊँचाई को पार करने के लिए इसे किकिंग-हार्स दर्रा पार करना पड़ता है, जिसकी समुद्र-तल से ऊँचाई 1,600 मीटर है। तत्पश्चात् यह रेलमार्ग रॉकी पर्वतीय प्रदेश की सॅकरी घाटियों को पार कर फ्रेजर नदी के मुहाने एवं प्रशान्त तट पर स्थित बैंकूवर नगर में पहुँचकर समाप्त हो जाता है।

व्यापारिक महत्त्व – इस प्रकार कनाडा के आर्थिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक एवं राजनीतिक विकास का श्रेय इस रेलमार्ग को दिया जा सकता है। कनाडा के प्रेयरी प्रदेश का भारी मात्रा में उत्पादित गेहँ देश के पूर्वी क्षेत्रों में इसी रेलमार्ग द्वारा पहुँचाया जाता है। इस रेलमार्ग द्वारा यात्रा करने पर लिवरपूल से चीन तथा जापान पहुँचने में लगभग 1,800 किमी की यात्रा कम हो जाती है। इसके द्वारा कनाडा के पूर्वी, मध्यवर्ती एवं पश्चिमी क्षेत्रों के मध्य आर्थिक समन्वय स्थापित हो सका है तथा सम्पूर्ण देश एकता के सूत्र में बँध गया है। प्रेयरी प्रदेश के आर्थिक विकास में इस रेलमार्ग ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अत: इस रेलमार्ग का कनाडा के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

(3) केप-काहिरा रेलमार्ग
Cape-Kahira Railway

यह अफ्रीका महाद्वीप का सबसे महत्त्वपूर्ण रेलमार्ग है, परन्तु यह रेलमार्ग अभी तक अपूर्ण है। फिर भी झीलों एवं सरिताओं में नाव द्वारा तथा सड़कों पर मोटरों का उपयोग कर इसके द्वारा अफ्रीका के सुदूर-दक्षिणी सिरे पर स्थित केपटाउन नगर से उत्तरी-पूर्वी सिरे पर स्थित काहिरा नगर पहुँचने में 14,500 किमी लम्बी यात्रा के लिए एकमात्र प्रमुख रेल परिवहन मार्ग है। इस रेलमार्ग से प्रभावित प्रदेशों में पर्याप्त आर्थिक विकास हुआ है। दक्षिणी अफ्रीकी गणराज्य, उत्तरी एवं दक्षिणी रोडेशिया तथा कांगो गणतन्त्र इस रेलमार्ग से सर्वाधिक प्रभावित अफ्रीकी देश हैं। दक्षिणी अफ्रीका के बहुमूल्य खनिजों-हीरा, सोना, ताँबा आदि-के दोहन में इस रेलमार्ग का विशेष योगदान रहा है। उत्तरी अफ्रीका में नील नदी घाटी का आर्थिक विकास इसी रेलमार्ग की देन है।
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व्यापारिक महत्त्व – केप-काहिरा रेलमार्ग का प्रारम्भ अफ्रीका महाद्वीप में सुदूर-दक्षिणी छोर पर केपटाउन नगर से होता है जो उत्तर की ओर किम्बरले नगर तक पहुँचता है। यह नगर हीरे की खानों के लिए विश्वप्रसिद्ध है। किम्बरले से नैटाल तथा ट्रांसवाल नगरों के लिए रेलमार्गों की शाखाएँ जाती हैं। इन उप-रेलमार्गों पर ब्लूएनमफाउण्टेन, जोहान्सबर्ग एवं प्रिटोरिया प्रसिद्ध नगर स्थित हैं। इस रेलमार्ग की प्रमुख शाखा किम्बरले से उत्तर में मफेकिंग होती हुई बेचुआनालैण्ड के शुष्क प्रदेश को जाती है। इसके बाद यह जिम्बाब्वे की राजधानी मुख्यालय-बुलावायो-पहुँचती है। यहाँ से इसकी एक शाखा देश के प्रमुख नगर सेलिसबरी से होती हुई पुर्तगाली मोजाम्बिक के पूर्वी तट पर बुकामा स्थित बेइरा पत्तन पहुँचती है।

बुलावायो से इसकी प्रधान शाखा को जेम्बजी नदी पार करनी पड़ती है। यहाँ से यह रेलमार्ग इस नदी के उत्तरी छोर पर विक्टोरिया प्रपात पर स्थित लिविंग्स्टन स्टेशन पर पहुँचता है जहाँ से यह उत्तर की ओर उत्तरी रोडेशिया को पार करता है। इसके मध्य में ब्रोकन हिल स्टेशन पड़ता है जो ताँबा, सीसा, जस्ता, कोबाल्ट एवं ऐस्बेस्टॉस धातुओं का प्रमुख उत्पादक क्षेत्र है। इसके बाद कांगो गणतन्त्र में यह एलिजाबेथ विले नगर है पहुँचती है जो कटंगा प्रदेश में ताँबे की खानों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ से यह दो ६ शाखाओं में विभाजित हो जाता है-प्रथम शाखा पश्चिम में अंगोला में प्रवेश कर तटीय प्रदेश में स्थित बेंगुला पत्तन पहुँचती है तथा दसरी शाखा उत्तर-पश्चिम में कांगो गणतन्त्र के पोर्ट फ्रैंक नगर तक पहुँचती है।

यह रेलमार्ग एलिजाबेथ विले नगर से काहिरा जाने के लिए भंग हो जाता है। इससे आगे सड़कें तथा झीलें हैं। टैंगानिको तथा विक्टोरिया झीलों को नाव द्वारा तथा स्थलीय दूरी को सड़कों द्वारा तय किया जाता है। यह रेलमार्ग नील नदी के किनारे पर स्थित कोस्टी नगर से प्रारम्भ होता है तथा यहाँ से नील नदी के समानान्तर चला गया है। सेनार, खाम, अटबारा आदि नगरों को पार कर यह वादीहैफा नगर तक जाता है। यहाँ से अस्वान तक पुनः रेलमार्ग है। नील नदी की यात्रा नाव से करनी पड़ती है। अस्वान से काहिरा तक पुनः रेलमार्ग है जो नील नदी की घाटी में ठीक उसके समानान्तर चलता है।

प्रश्न 2
व्यापारिक जलमार्ग के रूप में स्वेज एवं पनामा नहरों के व्यापारिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए।
या
व्यापारिक मार्ग के रूप में स्वेज नहर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
या
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए –
(अ) स्वेज नहर एवं
(ब) पनामा नहर।
या
विश्व के दो प्रमुख महासागरीय मार्गों का उल्लेख कीजिए तथा उनका आर्थिक महत्त्व बताइए। [2010]
या
पनामा नहर को एक रेखा मानचित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए। [2013, 14]
या
विश्व के मुख्य समुद्री मार्गों का उल्लेख कीजिए तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उनके महत्त्व का वर्णन भी कीजिए। [2016]
या
स्वेज नहर का वर्णन कीजिए तथा विश्व व्यापार में इसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। [2012, 16]
या
स्वेज नहर को दिखाते हुए एक रेखा मानचित्र बनाइए। [2013]
उत्तर

(अ) स्वेज नहर Suez Canal

स्वेज नहर विश्व की सबसे बड़ी जहाजी नहर है जो स्वेज के स्थल जलडमरूमध्य को काटकर बनायी गयी है। यह भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ती है। फर्जीनेण्ड-डी-लैसेप्से नामक एक फ्रांसीसी इन्जीनियर की देख-रेख में इस नहर का निर्माण 1859 ई० से प्रारम्भ होकर 1869 ई० में समाप्त हुआ था। इस नहर के निर्माण कार्य पर 180 लाख पौण्ड खर्च आया था। सन् 1956 से इस नहर पर मिस्र का आधिपत्य है।
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स्वेज नहर लाल सागर पर स्थित पोर्ट स्वेज को भूमध्य सागर पर स्थित पोर्ट सईद से जोड़ती है। इस नहर की लम्बाई 173 किमी, गहराई 17 मीटर तथा चौड़ाई 365 मीटर है। इस नहर का निर्माण ग्रेट बियर, लिटिल बियर, टिमसा तथा मैनजाला नमकीन जल की झीलों को मिलाकर किया गया है। स्वेज नहर की सुरक्षा के दृष्टिकोण से नहर के पश्चिम की ओर स्वेज पत्तन से सईद पत्तन तक नहर के सहारे-सहारे रेलमार्ग का निर्माण किया गया है।

यह नहर पूरी लम्बाई तक समुद्री सतह पर बनायी गयी है, इसी कारण इसमें पनामा नहर की भाँति झालें (Locks) नहीं हैं। यह नहर पुरानी दुनिया के सघन बसे देशों के मध्य से गुजारी गयी है। यही कारण है कि इस नहर द्वारा दूसरे जलमार्गों की अपेक्षा अधिक देशों में आवागमन किया जा सकता है। इस जलमार्ग की महत्ता इस तथ्य में है कि इस मार्ग में दो स्थानों पर ईंधन मिलता है- प्रथम, म्यांमार एवं पूर्वी द्वीप समूह में खनिज तेल तथा द्वितीय, पश्चिमी यूरोपीय देशों में कोयला। इसी कारण यह नहर, पनामा नहर की अपेक्षा अधिक लाभदायक सिद्ध हुई है। पनामा नहर में संयुक्त राज्य के तेल क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर ईंधन प्राप्त नहीं होता है। स्वेज नहर से होकर गुजरने वाले मार्ग में बहुत से पत्तन विकसित हुए हैं जिनमें जिब्राल्टर, माल्टा, स्वेज, अदन, मुम्बई, कोलकाता एवं सिंगापुर बहुत ही प्रसिद्ध हैं। इन सभी पत्तनों पर ईंधन की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। प्रत्येक खाड़ी में समुद्र से गुजरता हुआ जलमार्ग स्वेज नहर मार्ग से अवश्य ही मिलता है।

स्वेज नहर जलमार्ग में जलयान 12 से 15 किमी प्रति घण्टे की गति से चलते हैं, क्योंकि तेज गति से चलने पर नहर के किनारे टूटने का भय बना रहता है। इस नहर को पार करने में सामान्यतया 12 घण्टे का समय लग जाता है। इस नहर से एक-साथ दो जलयान पार नहीं हो सकते हैं। अतः जब एक जलयान निकलता है तो दूसरे जलयान को गोदी में बाँध दिया जाता है। इस प्रकार इस नहर से होकर एक दिन में अधिक-से-अधिक 24 जलयानों का आवागमन हो सकता है।

स्वेज नहर बन जाने से यूरोप एवं सुदूर-पूर्व के देशों के मध्य दूरी काफी कम हो गयी है। लिवरपूल से मुम्बई आने में 7,250 किमी; हांगकांग पहुँचने में 4,500 किमी; न्यूयॉर्क से मुम्बई पहुँचने में 4,500 किमी की दूरी कम हो जाती है। इस नहर के कारण ही भारत तथा यूरोपीय देशों के व्यापारिक सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए हैं।

स्वेज नहर द्वारा किया जाने वाला व्यापार – अफ्रीका के पश्चिमी देशों तथा सुदूर-पूर्व को जाने वाला अधिकतर सामान भारी होता है। इसका प्रमुख कारण इन देशों से अधिकांशतः खाद्यान्न, लकड़ी, कच्चा सामान ही विदेशों को भेजे जाते हैं। पूर्वी देशों का पश्चिमी देशों से व्यापार काफी पुराना है, जो भिन्न-भिन्न मार्गों द्वारा किया जाता है। उत्तरी-पश्चिमी देशों से अधिकांशतः सभी प्रकार की मशीनें, लोहे का सामान, कोयला, विभिन्न प्रकार की निर्मित वस्तुएँ, वस्त्र तथा अन्य यूरोपीय उत्पाद भेजे जाते हैं।

हिन्द महासागरीय देशों को छोड़कर दक्षिणी-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर खाद्यान्न तथा अन्य प्राथमिक उत्पाद (कच्चा माल) भेजे जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप से गेहूँ, ऊन, ताँबा एवं सोना; न्यूजीलैण्ड से ऊन एवं मक्खन; चीन तथा श्रीलंका से चाय; मॉरीशस तथा जावा से चीनी; बांग्लादेश से जूट; पाकिस्तान से गेहूँ; मंचूरियों से सोयाबीन; फारसे की खाड़ी, म्यॉमार एवं इण्डोनेशिया से खनिज तेल; प्रशान्त महासागर में स्थित द्वीपों से नारियल; पूर्वी अफ्रीकी देशों से रबड़, हाथी दाँत तथा कच्चा चमड़ा आदि पदार्थ इस नहर द्वारा पश्चिमी यूरोपीय एवं अमेरिकी देशों को निर्यात किये जाते हैं।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि स्वेज नहर जलमार्ग से खाद्यान्न एवं अन्य प्राथमिक उत्पाद जर्मनी, फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, इटली आदि यूरोपीय देशों को भेजे जाते हैं। प्राथमिक उत्पादों के निर्यातक देशों में इण्डोनेशिया, म्यांमार, श्रीलंका, फिलीपीन्स, मलेशिया, थाईलैण्ड, चीन, हांगकांग आदि प्रमुख हैं। अतः पूर्वी तथा पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि सम्बन्धों को प्रगाढ़ करने तथा उनके आदान-प्रदान करने में स्वेज नहर प्रमुख भूमिका निभा रही है।

स्वेज नहर का व्यापारिक महत्त्व
Commercial Importance of Suez Canal

स्वेज नहर के व्यापारिक महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है –

  1. स्वेज नहर का निर्माण यूरोपवासियों ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए किया था। युरोपीय देशों के तैयार माल इसी नहर द्वारा दक्षिणी-पूर्वी देशों के बाजारों तक पहुँचते थे। अत: एक लम्बे समय तक यह नहर ब्रिटिश साम्राज्य की जीवनरेखा बनी रही।
  2. यह नहर पश्चिमी तथा पूर्वी देशों के मध्य एक कड़ी का काम करती है। यह यूरोपीय देशों का सुदूर-पूर्व, भारत व मध्य-पूर्व के अन्य देशों से सम्बन्ध स्थापित करती है।
  3. इस नहर को आर्थिक महत्त्व उस समय स्पष्ट हो गया था जब यह 7 माह के लिए बन्द रही। उस समय यूरोप में खनिज तेल का अकाल उत्पन्न हो गया था तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अधिकांश वस्तुओं के मूल्य बहुत ऊँचे हो गये थे।
  4. इसी नहर के बल पर यूरोपियनों ने पूर्वी देशों में अपने औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित किये थे।
  5. इसी नहर के माध्यम से पूर्वी संस्कृति एवं सभ्यता का विकास पश्चिमी देशों में तथा पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति का विस्तार पूर्वी देशों में हुआ है।
  6. इस नहर के बनने से भारत, मध्य-पूर्व, दक्षिणी एशिया के देशों की दूरी यूरोपीय देशों से बहुत घट गयी है। पहले जो जलयान दक्षिणी अफ्रीका के केप मार्ग का अनुसरण करते थे, अब सीधे स्वेज मार्ग से जाते हैं जिससे समय तथा ईंधन दोनों की ही भारी बचत होती है।

(ब) पनामा नहर Panama Canal

स्वेज नहर की सफलता से प्रेरित होकर पनामा जलमार्ग योजना निर्धारित की गयी थी। इस अन्तर्राष्ट्रीय जलमार्ग के महत्त्व को स्वेज जलमार्ग से किसी भी रूप में कम नहीं आँका जा सकता है। फ्रांसीसी इन्जीनियर फडनेण्ड-डी-लैसेप्स ने 1882 ई० में इस नहर के निर्माण का असफल प्रयास किया था, परन्तु संयुक्त राज्य ने 1904 ई० में प्रारम्भ कर 1914 ई० तक इस नहर का निर्माण कार्य पूर्ण करा दिया था। इसके निर्माण पर 7.5 करोड़ डॉलर का खर्च आया था। इस नहर का निर्माण पनामा के स्थल-जलडमरूमध्य को काटकर किया गया है जो प्रशान्त तट पर स्थित पनामा पत्तन को अन्ध महासागरीय तट पर स्थित कोलन पत्तन से जोड़ती है।
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यह नहर 82 किमी लम्बी, 12 मीटर गहरी तथा 90 मीटर चौड़ी है। इस नहर से प्रतिदिन 50 जलयान पार हो सकते हैं। पनामा नहर का निर्माण एक पहाड़ी को काटकर किया गया है, जिस कारण इसका तल सर्वत्र एकसमान नहीं है, बल्कि झीलों (Locks) का प्रयोग करना पड़ता है। इनमें गाटून, ट्रेलोडीमिग्वल एवं मिराफ्लोर्स झीलें प्रमुख हैं। गार्जेस नदी द्वारा उत्पादित जल-विद्युत शक्ति का उपयोग जलयानों को इस नहर से बाहर खींचने में किया जाता है। इस प्रकार इस नहर का निर्माण 15 अगस्त, 1914 ई० को पूर्ण हुआ था।

उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीपों को जोड़ने वाली पनामा जल-सन्धि को काटकर पनामा नहरको निर्मित किया गया है। इस नहर की चौड़ाई अधिक होने के कारण इसमें दो जलयान एक साथ गुजर सकते हैं। इस पर संयुक्त राज्य अमेरिका का आधिपत्य है। आवागमन के समय सभी फाटकों को एक-साथ नहीं खोला जा सकता है, बल्कि एक-एक कर खोला जाता है जिससे जल-स्तर समान रहे। जल-स्तर के एकसमान हो जाने पर ही जलयान को आगे जाने दिया जाता है।

नहर के निर्माण का सबसे अधिक लाभ संयुक्त राज्य अमेरिका को हुआ है, क्योंकि इसके द्वारा इस देश की पूर्वी एवं पश्चिमीतटीय दूरी बहुत कम हो गयी है। इस नहर से होकर न्यूयॉर्क से सैनफ्रांसिस्को जाने में 12,650 किमी; सैनफ्रांसिस्को से लिवरपूल एवं न्यूआर्लियन्स जाने में क्रमश: 9,100 किमी एवं 14,250 किमी; याकोहामा से न्यूयॉर्क जाने में 6,050 किमी; याकोहामा से न्यूआर्लियन्स जाने में 9,170 किमी, वालपैरेजो (चिली) से न्यूयॉर्क जाने में 6,020 किमी की दूरी कम हो गयी है। पनामा नहर के निर्माण से पूर्व उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के पश्चिमी तट से यूरोपीय देशों को जाने वाले जलयानों को दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप का पूरा चक्कर लगाकर जाना पड़ता था, परन्तु अब वे सीधे पनामा नहर से निकल जाते हैं। दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के पश्चिमी देशों से ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैण्ड जाने वाले जलयानों को पनामा नहर के मार्ग से जाने में कम-से-कम 6,020 किमी की दूरी कम तय करनी पड़ती है।

पनामा नहर द्वारा किया जाने वाला व्यापार – पनामा नहर के बन जाने से संयुक्त राज्य अमेरिका के पत्तनों की पारस्परिक दूरी कम हो गयी है। इस नहर से होकर न्यूजीलैण्ड से मक्खन, पनीर, ऊन, अण्डे तथा भेड़ का मांस; जापान से रेशम एवं रबड़ की वस्तुएँ; चीन से चाय एवं चावल तथा फिलीपीन्स से तम्बाकू एवं सन आदि पदार्थ भेजे जाते हैं। पश्चिमी यूरोपीय देशों तथा पूर्वी अमेरिकी देशों को बोलीविया से चाँदी, पीरू से शोरा, इक्वेडोर से सिनकोना एवं कोलम्बिया से लकड़ी भेजी जाती है। एटलांटिक महासागरीय देशों से प्रशान्त महासागरीय देशों को जो वस्तुएँ भेजी जाती हैं, उनमें पश्चिमी द्वीप समूह से गन्ना, तम्बाकू एवं केला; उत्तरी अमेरिका के पूर्वी भागों तथा यूरोपीय देशों से लौह-इस्पात का सामान एवं खनिज तेल प्रमुख हैं।

पनामा नहर जलमार्ग से प्रतिवर्ष 1,500 लाख टन माल ढोया जाता है। प्रशान्त महासागर से एटलाण्टिक महासागर में आने वाले कुल माल का 44% तथा एटलाण्टिक महासागर से प्रशान्त महासागर को जाने वाले कुल माल का 56% भाग इसी जलमार्ग से आता-जाता है। इस मार्ग से व्यापार में वृद्धि हुई। है, परन्तु यह वृद्धि आशा से कुछ कम है।

पनामा नहर का व्यापारिक महत्त्व
Commercial Importance of Panama Canal

पनामा नहर के व्यापारिक महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है –

  1. पनामा नहर के बनने से उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तथा पश्चिमी तटों के बीच लगभग 12,650 किमी की दूरी कम हो गयी है। इसके माध्यम से चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड आदि देशों की दूरी ग्रेट ब्रिटेन से बहुत घट गयी है।
  2. पनामा दूसरी अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की नहर है। इसके द्वारा संयुक्त राज्य के पूर्वी तथा पश्चिमी तटों, यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा एशियाई देशों के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध सृदृढ़ हुए हैं तथा दक्षिणी-पूर्वी एशियाई देशों के व्यापार में बहुत वृद्धि हुई है।
  3. पनामा नहर से संयुक्त राज्य अमेरिका के न केवल व्यापार में ही विशेष वृद्धि हुई है, वरन् यह देश अपनी सुरक्षा-व्यवस्था के लिए कम व्यय में सेना तथा सैनिक सामान दोनों तटों पर सुगमता से भेज सकता है।
  4. पनामा नहर के बनने से पश्चिमी द्वीप समूह तथा कैरेबियन द्वीपों के व्यापार में तीव्रता से वृद्धि
  5. ग्रेट ब्रिटेन से न्यूजीलैण्ड तथा ऑस्ट्रेलिया जाने वाले जलयान अब स्वेज नहर के स्थान पर इसी मार्ग से आने-जाने लगे हैं।
  6. प्रशान्त महासागर की ओर से अन्ध महासागर की ओर आने वाले कुल माल का लगभग 44% तथा अन्ध महासागर से प्रशान्त महासागर की ओर जाने वाले कुल माल का लगभग 56% व्यापार इसी नहर-मार्ग द्वारा होता है।
  7. यह नहर अपेक्षाकृत अधिक गहरी तथा चौड़ी है। इसमें दो जहाज बगैर किसी प्रतीक्षा के पार हो जाते हैं।
  8. स्वेज नहर की तुलना में इस नहर से व्यापार अधिक शान्तिपूर्वक होता है तथा करे भी कम देना होता है।

प्रश्न 3
वायु परिवहन का महत्व बताइए तथा विश्व के प्रमुख वायुमार्गों का उल्लेख कीजिए। या वायु परिवहन की सुविधाओं का विवेचन कीजिए तथा विश्व के प्रमुख वायुमार्गों का वर्णन कीजिए। [2013]
उत्तर

वायु परिवहन का महत्त्व
Importance of Air Transport

विश्व में वायुमार्गों का विकास प्रथम विश्वयुद्ध (1914-19 ई०) के बाद हुआ है। आधुनिक युग में इसका बड़ा ही महत्त्व है। इस परिवहन के निम्नलिखित लाभ हैं –

  1. वायु परिवहन की गति बहुत ही तीव्र होती है। जिस दूरी को जलयानों द्वारा 20 दिनों में पार किया जा सकता है, उसे वायुयान द्वारा केवल 13 घण्टे में ही पार किया जा सकता है।
  2. लम्बी दूरी की यात्राओं के लिए वायु परिवहन अधिक आरामदायक है, जिसमें यात्रियों को। ‘जी घबराने’ जैसी शिकायतें नहीं होतीं जैसा कि समुद्री यात्रा में होता है।
  3. वायु-यात्रा की पहुँचे पर्वत-श्रेणियों, मरुस्थलों तथा विस्तृत वन-क्षेत्रों के पार भी हो सकती है, जहाँ रेलगाड़ियाँ या मोटरगाड़ियाँ आदि अन्य परिवहन-साधन नहीं पहुँच पाते।

वायुयानों द्वारा अधिक यात्रियों, डाक, हल्के भार में अधिक मूल्य के सामान तथा शीघ्र खराब होने वाले खाद्य पदार्थों का परिवहन सुगमता से किया जाता है। इसके द्वारा की जाने वाली अग्रलिखित यात्राएँ प्रमुख स्थान रखती हैं –

  1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारी महाद्वीपों एवं महासागरों को पार कर महत्त्वपूर्ण व्यापार वायु-यात्राओं द्वारा पूर्ण करते हैं।
  2. वायु परिवहन द्वारा पर्यटक-यात्राओं और पर्यटन उद्योग को भारी प्रोत्साहन मिला है। प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक अपने राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटक-स्थलों की वायु-यात्राएँ करते हैं।
  3. वायु-यात्राओं द्वारा लाखों व्यक्ति राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलनों, राजनीतिक सभाओं, तकनीकी गोष्ठियों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों, प्रदर्शनियों, अधिवेशनों, मेलों तथा प्रशासनिक कार्यों आदि में भाग लेते हैं।

विश्व के प्रमुख वायुमार्ग
Main Air Routes of the World

विश्व के प्रमुख वायुमार्ग निम्नलिखित हैं –
(1) यूरोप एवं अमेरिका के बीच का वायुमार्ग (North-Atlantic Airways) – यह अफ्रीका के अटलाण्टिक तट के साथ-साथ डकार या लागोस तक जाता है। यहाँ से यह मार्ग अन्ध महासागर को पार कर ब्राजील के पेरानाम्बुके नगर पहुँचता है तथा यहीं से एक अन्य मार्ग चिली से सेण्टियागो तक जाता है। अन्ध महासागर के किनारे संयुक्त राज्य के वायुमार्ग पेरानाम्बुके में जाकर मिलते हैं।

यूरोप से ही एक दूसरा मार्ग लन्दन से शैनन, गैण्डर, ओटावा होता हुआ न्यूयॉर्क तक जाता है। एक और मार्ग स्टॉकहोम से ओस्लो, रिकजाविक, गैण्डर और ओटावा होता हुआ न्यूयॉर्क में मिल जाता है। एक अन्य मार्ग पेरिस से लिस्बन, एजोर्स, बरमूदा होता हुआ न्यूयॉर्क पहुँचता है।

(2) युरोप तथा ऑस्ट्रेलिया के बीच का वायुमार्ग (Europe-Australia Airways) – इस मार्ग पर फ्रांसीसी, डच तथा ब्रिटिश वायुयान उड़ान भरते हैं। ब्रिटिश वायुमार्ग लन्दन से आरम्भ होकर मसेंलीज, एथेन्स, सिकन्दरिया, काहिरा, गाजा, बगदाद, बहरीन, शीराज, करांची, जोधपुर, दिल्ली, इलाहाबाद, कोलकाता, रंगून, बैंकाक, पेनांग, सिंगापुर, वटाविया, डारविन, ब्रिसबेन तथा सिडनी होता हुआ मेलबोर्न तक जाता है। फ्रांसीसी तथा डच वायुयान भी लगभग इसी मार्ग पर ही उड़ान भरते हैं। रूस में एक नया वायुमार्ग मास्को से ब्लाडीवॉस्टक तक जाता है।

(3) यूरोप तथा अफ्रीका के मध्य वायुमार्ग (Europe-Africa Airways) – इस मार्ग पर इटली, फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश वायुयानों का नियन्त्रण है। अफ्रीका के महत्त्वपूर्ण वायुमार्ग ब्रिटेन के आधिपत्य में हैं। ब्रिटिश वायुयान टैम्पटन से प्रारम्भ होकर भूमध्य सागर के समीप स्थित सिकन्दरिया तक जाते हैं। सिकन्दरिया से यह मार्ग सीधे खातूंम (सूडान) को जाता है। यहाँ पर यह दो शाखाओं में बँट जाता है। इसकी पहली शाखा पश्चिम में लागोस तक जाती है तथा दूसरी सुदूर-दक्षिण में केपटाउन तक।
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(4) अमेरिका तथा एशिया के मध्य वायुमार्ग (America-Asian Airways) – इस वायुमार्ग। द्वारा प्रशान्त महासागर के लिए संयुक्त राज्य के वायुयानों द्वारा यात्रा की जाती है। यह मार्ग सैनफ्रांसिस्को से आरम्भ होकर प्रशान्त महासागर के मध्य होनोलूलू, मिडवे द्वीप, बैंक द्वीप तथा मनीला होता हुआ कैण्टन तक जाता है। एक अन्य मार्ग सिडनी से ऑकलैण्ड, होनोलूलू, सैनफ्रांसिस्को होता हुआ बैंकूवर तक जाता है। एक तीसरा मार्ग सैनफ्रांसिस्को से अलास्का होकर टोकियो तक जाता है।

(5) जर्मनी के वायुमार्ग (German Airways) – यहाँ से वायुमार्ग विभिन्न दिशाओं को जाते हैं। उत्तर में नार्वे, स्वीडन एवं फिनलैण्ड को; दक्षिण में चेक एवं स्लोवाकिया तथा यूनान को; पूर्व में पोर्टलैण्ड एवं दक्षिणी इटली को; दक्षिण-पश्चिम में पुर्तगाल तथा स्पेन को और पश्चिम में फ्रांस तथा संयुक्त राज्य अमेरिका को वायुमार्ग जाते हैं।

(6) पश्चिमी यूरोप के वायुमार्ग (west-European Airways) – यह वायुमार्ग रूस के मार्गों से जुड़े हैं, परन्तु रूस से होकर पूर्वी देशों से इनका सम्बन्ध नहीं है। रूस के वायुमार्ग मास्को से काबुल, मांचुको, खबारोवस्कं होते हुए पूर्वी छोर पर स्थित ब्लाडीवॉस्टक तक जाते हैं।
वायु परिवहन तथा वायुमार्गों के विकास की दृष्टि से विश्व में संयुक्त राज्य अमेरिका का स्थान प्रमुख है। इसके पूर्वी तट पर बोस्टन, न्यूयॉर्क एवं वाशिंगटन तथा पश्चिमी तट पर सिएटल, सैनफ्रांसिस्को एवं लॉस एंजिल्स विश्वप्रसिद्ध वायु-पत्तन हैं।

(7) अन्य वायुमार्ग

  1. शिकागो-ब्लाडीवॉस्टक वायुमार्ग – शिकागो से आरम्भ होकर यह वायुमार्ग बरमूदा, लिस्बन, पेरिस, बर्लिन, मास्को, टोमस्क, इटस्क होता हुआ ब्लाडीवॉस्टक तक जाता है। यहाँ से यह जापान के टोकियो तथा चीन के बीजिंग नगरों से जुड़ा है।
  2. शिकागो-केपटाउन वायुमार्ग – यह मार्ग शिकागो से लन्दन होता हुआ सिकन्दरिया, काहिरा, खाम, नैरोबी, किम्बरले होकर केपटाउन तक जाता है।
  3. शिकागो-ब्यूनस-आयर्स वायुमार्ग – शिकागो से प्रारम्भ होकर यह वायुमार्ग मियामी, ट्रिनिडाड, बेलेम, रियोडिजेनेरो होता हुआ ब्यूनस-आयर्स में पहुँचता है।
  4. सैनफ्रांसिस्को-वालपैरेजो वायुमार्ग – सैनफ्रांसिस्को से प्रारम्भ होकर यह वायुमार्ग साल्टलेक सिटी, मैक्सिको, पनामा एवं लीमा होते हुए वालपैरेजो तक पहुँचता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पाइप लाइन परिवहन का क्या महत्त्व है ?
उत्तर
आज के युग में खनिज तेल, प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम उत्पादों के उपभोग में तेजी से वृद्धि होती जा रही है। प्रायः इन पदार्थों का उत्पादन बसाव क्षेत्रों से सुदूरवर्ती भागों (घने वन-क्षेत्रों, समुद्रों, पर्वतीय क्षेत्रों आदि) में किया जाता है। यहाँ से इन पदार्थों को शोधनशालाओं तथा शोधनशालाओं से उपभोक्ता (बाजार) क्षेत्रों में भेजा जाता है। पूर्व में यह कार्य पूर्णत: जल, सड़क तथा रेल परिवहन द्वारा किया जाता है, जिसमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।

इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए यह उचित समझा गया कि अन्य देशों की भाँति यह कार्य पाइप लाइनों के माध्यम से किया जाये। इसी कारण आज पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के क्षेत्रों से शोधनशालाओं (Refineries) तक कच्चा खनिज तेल भेजने और शोधनशाओं से पेट्रोलियम उत्पादों को बड़े-बड़े नगरों, बाजार केन्द्रों अर्थात् खपत केन्द्रों तक भेजने के लिए पाइप लाइनें बिछायी जा रही हैं। ये पाइप लाइनें थल और जल दोनों क्षेत्रों में बिछायी जा सकती हैं। जिन देशों में पेट्रोलियम अथवा प्राकृतिक गैस की भारी माँग हो तथा उसकी आपूर्ति के लिए बड़े भण्डार भी उपलब्ध हों, तो पाइप लाइनों का निर्माण लाभकारी रहता है। पाइप लाइनों को भविष्य में कोयले और लौह-अयस्क के परिवहन के लिए भी बड़े पैमाने पर प्रयोग करने की सम्भावना है।

प्रश्न 2
विश्व के प्रमुख पाइप लाइन परिवहन क्षेत्रों का विवरण दीजिए।
उत्तर
कनाड़ा, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, दक्षिण-पश्चिमी एशियां के तेल उत्पादक देश और यूरोप के प्रमुख पेट्रोलियम के प्राकृतिक गैस उपभोक्ता देशों में पाइप लाइनों की सघनता पायी जाती है। विश्व में पाइप लाइन रखने वाले प्रमुख देशों का विवरण अग्रलिखित है –
(1) संयुक्त राज्य अमेरिका – इस देश में विश्व की सबसे लम्बी पाइप लाइनें स्थित हैं जो 4 लाख किमी लम्बी हैं। ये तेल और प्राकृतिक गैस की पाइप लाइनें देश के बड़े-बड़े उत्पादक क्षेत्रों और बड़े-बड़े नगरों के बीच बिछायी गयी हैं।

(2) रूस – आज रूस विश्व का प्रमुख खनिज तेल और प्राकृतिक गैस उत्पादक देश है। इस देश का पूर्व-पश्चिम विस्तार अधिक है और उत्पादक क्षेत्रों का कुछ ही केन्द्रों पर जमाव होने से इस देश में पाइप लाइनों की लम्बाई अधिक है। यहाँ तेल पाइप लाइनों की लम्बाई 75 हजार किमी और गैस पाइप लाइनों की लम्बाई 1.7 लाख किमी है। साइबेरिया के तेल क्षेत्र से यूरोप के समाजवादी देशों को तेल पहुँचाने के लिए 5,327 किमी लम्बी ‘द्रुझबा’ पाइप लाइन बिछायी गयी है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक पाइप लाइनों द्वारा कच्चा तेल व प्राकृतिक गैस, उत्पादक क्षेत्रों में शोधनशालाओं तक तथा शोधनशालाओं से उपभोक्ता केन्द्रों तक पहुँचायी जाती है।

(3) कनाडा – कनाडा को भी पूर्व-पश्चिम विस्तार अधिक है। यहाँ तेल व प्राकृतिक गैस उत्पादक क्षेत्र रॉकी के पूर्व में स्थित हैं, जबकि उपभोक्ता केन्द्र पूर्वी कनाडा में झीलों के पास स्थित हैं। यहाँ 43,436 किमी लम्बी तेल पाइप लाइनें हैं जिनमें एडमण्टन-मॉण्ट्रियल और एडमण्टन बैंकूवर पाइप लाइने महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ गैस की पाइप लाइनों की लम्बाई 2 लाख 31 हजार किमी है। यहाँ ट्रांस-कनाडा गैस पाइप लाइन (एल्बर्टा-मॉण्ट्रियल) 10,632 किमी लम्बी है जो संसार में सबसे लम्बी गैस पाइप लाइन है।

(4) चीन – चीन का भी पूर्व-पश्चिम विस्तार अधिक है और तेल-क्षेत्र पश्चिम में सीक्यांग बेसिन में व उपभोक्ता केन्द्र देश के पूर्वी भाग में पाये जाते हैं। अतः यहाँ 20,000 किमी लम्बी पाइप लाइनें बिछायी गयी हैं। पहली पाइप लाइन डाकिंग तेल क्षेत्र से लूटा पत्तन तथा पीकिंग की तेल शोधनशालाओं तक तथा दूसरी लैंचाउ से ल्हासा (तिब्बत) तक बिछायी गयी है।

प्रश्न 3
व्यापारिक मार्ग के रूप में स्वेज नहर का क्या महत्त्व है?
उत्तर
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 के अन्तर्गत ‘स्वेज नहर का व्यापारिक महत्त्व’ शीर्षक देखें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
कनाडा के प्रमुख रेलमार्ग का नाम बताइए।
उत्तर
कनाडा के प्रमुख रेलमार्ग का नाम कैनेडियन-पैसिफिक रेलमार्ग’ है।

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प्रश्न 2
ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग कहाँ से कहाँ तक है तथा इसकी कुल लम्बाई क्या है?
उत्तर
ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग लेनिनग्राड से ब्लाडीवॉस्टक तक है तथा यह 8,960 किलोमीटर लम्बा है।

प्रश्न 3
दो महाद्वीपों के बीच स्थित रेलमार्ग का नाम बताइए। (2007)
उत्तर
दो महाद्वीपों एशिया महाद्वीप (में लम्बाई दो-तिहाई) और यूरोप महाद्वीप (में लम्बाई शेष एक-तिहाई) के बीच स्थित रेलमार्ग है- ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग।

प्रश्न 4
स्वेज नहर का निर्माण कितने समय में पूर्ण हुआ?
उत्तर
स्वेज नहर का निर्माण दस वर्ष में पूर्ण हुआ।

प्रश्न 5
स्वेज नहर का निर्माण किसकी देख-रेख में किया गया?
उत्तर
स्वेज नहर का निर्माण फडनेण्ड-डी-लैसेप्स नामक फ्रांसीसी इन्जीनियर की देख-रेख में किया गया।

प्रश्न 6
स्वेज नहर किन दो सागरों को जोड़ती है? [2013]
उत्तर
स्वेज नहर भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ती है।

प्रश्न 7
पनामा नहर का निर्माण कब हुआ?
उत्तर
पनामा नहर का निर्माण 1904 ई० से प्रारम्भ होकर 1914 ई० में पूर्ण हुआ।

प्रश्न 8
पनामा नहर से सर्वाधिक लाभ किस देश को हुआ?
उत्तर
पनामा नहर के बन जाने से सर्वाधिक लाभ संयुक्त राज्य अमेरिका को हुआ। इससे संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी तथा पश्चिमी तटों के बीच की दूरी में 12,650 किमी की बचत हुई है।

प्रश्न 9
पनामा नहर किन दो महासागरों को जोड़ती है? [2014]
उत्तर
प्रशान्त महासागर एवं अटलाण्टिक महासागर को जोड़ती है।

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1
यातायात के साधनों में सबसे सस्ता है –
(क) सड़क यातायात
(ख) रेल यातायात
(ग) जल यातायात
(घ) वायु यातायात
उत्तर
(ग) जल यातायात।

प्रश्न 2
स्वेज नहर मिलाती है – [2009, 11, 13, 14, 15, 16]
(क) भूमध्य सागर-काला सागर
(ख) भूमध्य सागर-लाल सागर
(ग) भूमध्य सागर-अरब सागर
(घ) काला सागर-लाल सागर
उत्तर
(ख) भूमध्य सागर-लाल सागर।

प्रश्न 3
यूनियन पैसेफिक रेलमार्ग कहाँ स्थित है?
(क) अफ्रीका
(ख) कनाडा
(ग) यू०एस०ए०
(घ) फ्रांस
उत्तर
(ग) यू०एस०ए०

प्रश्न 4
ट्रांस-साइबेरियन रेलमार्ग पर स्थित नहीं है। [2012]
(क) मास्को
(ख) ओमस्क
(ग) नोवोसिब्रिस्क
(घ) रेजिना
उत्तर
(घ) रेजिना।

प्रश्न 5
जर्मनी की जलमार्ग नदियों में कौन सम्मिलित नहीं है?
(क) गेरुन
(ख) राइन
(ग) वेजर
(घ) ओडर
उत्तर
(क) गेरुन।

प्रश्न 6
चीन में रेलमार्ग अनुसरण करते हैं।
(क) अक्षांशों का
(ख) देशान्तरों का
(ग) कर्क रेखा का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) देशान्तरों का।

प्रश्न 7
कोयला नदी किस नदी को कहा जाता है?
(क) राइन
(ख) मरे
(ग) दामोदर
(घ) वोल्गा
उत्तर
(क) राइन।

प्रश्न 8
जर्मनी में उत्तरी सागर व बाल्टिक सागर को जोड़ने वाली नहर है।
(क) गोटा नहर
(ख) कील नहर
(ग) उत्तरी सागर नहर
(घ) न्यू वाटर वे
उत्तर
(ख) कील नहर।

प्रश्न 9
निम्नलिखित में से किस यातायात मार्ग में भारत का विश्व में पाँचवाँ स्थान है?
(क) सड़क मार्ग
(ख) वायु मार्ग
(ग) जलमार्ग
(घ) रेलमार्ग
उत्तर
(ख) वायु मार्ग।

प्रश्न 10
स्वेज नहर से सर्वाधिक लाभान्वित होने वाला देश है। [2010]
(क) ग्रेट ब्रिटेन
(ख) भारत
(ग) ब्राजील
(घ) जर्मनी
उत्तर
(ख) भारत।

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