UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 21 Reward and Punishment in Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 21
Chapter Name Reward and Punishment in Education
(शिक्षा में पुरस्कार एवं दण्ड)
Number of Questions Solved 38
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 21 Reward and Punishment in Education (शिक्षा में पुरस्कार एवं दण्ड)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पुरस्कार का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। छात्रों को दिये जाने वाले पुरस्कारों के मुख्य प्रकारों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पुरस्कार का अर्थ एवं परिभाषा
सीखने की प्रक्रिया में पुरस्कार और दण्ड का विशेष महत्त्व है। अच्छा कार्य करने पर पुरस्कार और बुरा कार्य करने पर दण्ड मिलना एक स्वाभाविक बात है। पुरस्कार एक सुखद अनुभव के रूप में प्राप्त होता है, जो कि अच्छे कार्य करने पर व्यक्ति को प्राप्त होता है। किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा भी किसी। व्यक्ति को अच्छे कार्य करने के उपलक्ष्य में पुरस्कार प्रदान किया जाता है। लेकिन शिक्षा में पुरस्कार का महत्त्व मुख्यतया अनुशासन स्थापित करने में है। वास्तव में पुरस्कार अच्छे कार्यों की प्रेरणा देते हैं, जबकि दण्ड बुरे कार्यों को करने से रोकते हैं।

पुरस्कार का अर्थ बालक को अच्छे कार्यों को करने के फलस्वरूप सुखद अनुभूति कराने से है। अच्छे कार्यों को करने से बालक को उल्लास तथा आनन्द की अनुभूति होती है और वह पुनः श्रेष्ठ कार्यों को करने के लिए उत्साहित तथा प्रेरित होता है। पुरस्कार-प्राप्ति की आकाँक्षा से ही बालक श्रेष्ठ कार्य करने के लिए तत्पर हो जाता है और अपनी क्षमताओं का अभूतपूर्व प्रदर्शन भी करता है। इस प्रकार पुरस्कार एक प्रेरणादायक सथा लाभकारी प्रेरक का कार्य करती है।

पुरस्कार की कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

  1. सेवर्ड (Seward) के अनुसार, “पुरस्कार व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालने के लिए सम्बन्धित कार्य के साथ सुखद स्मृति का संयोजन करना है।”
  2. हरलॉक (Harlock) के अनुसार, “पुरस्कार वांछित कार्य के साथ सुखद साहचर्य स्थापित करने का साधन है।”
  3. रायबर्न (Ryburn) के अनुसार, “पुरस्कार बालक में सर्वोत्तम कार्य करने की भावना जाग्रत करता है।”

उपर्युक्त वर्णित परिभाषाओं द्वारा ‘पुरस्कार’ का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। वास्तव में पुरस्कार एक साधन है जो सम्बन्धित व्यक्ति को अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करने हेतु इस्तेमाल किया जाता है।

पुरस्कार के प्रकार
पुरस्कार के अनेक रूप या प्रकार हैं। कुछ प्रमुख प्रकारों का विवरण निम्नलिखित है

1. आदर या सम्मान :
जब कोई बालक, अध्ययन, खेलकूद, अनुशासन आदि के क्षेत्र में विशेष योग्यता का प्रदर्शन केरता है, तो उसे छात्रों, अध्यापकों और विद्यालय की ओर से सम्मानित किया जाता ‘ है। उदाहरण के लिए, यदि विद्यालय का कोई छात्र बोर्ड की परीक्षा में प्रदेश भर में प्रथम स्थान प्राप्त करता। है, तो विद्यालय की ओर से उसे सम्मानित किया जाता है। इस प्रकार से दिये जाने वाले पुरस्कार को उच्च कोटि का पुरस्कार माना जाता है।

2. प्रशंसा :
यदि कोई बालक पढ़ने-लिखने, खेलकूद, नाटक आदि में विशेष योग्यता प्रदर्शित करता हो तो विद्यालय के सभी छात्रों के समक्ष उसकी प्रशंसा की जाती है और उसे गौरवान्वित किया जाता है। इस प्रकार की प्रशंसा से बालक की आत्मसन्तुष्टि होती है और उसका उत्साहवर्धन होता है। प्रशंसा “पाने के लिए वह पहले से भी अधिक उत्तम कार्य करने के लिए प्रोत्साहित होता है।

3. छात्रवृत्ति :
यदि कोई बालक अपनी कक्षा में निरन्तर विशिष्ट सफलता प्राप्त करता है और सदैव : *प्रथम स्थान प्राप्त करता है, तो उसे प्रतिमाह छात्रवृत्ति के रूप में एक निश्चित धनराशि प्रदान की जाती हैं। छात्रवृत्ति से छात्र को परिश्रम करने की सशक्त प्रेरणा मिलती है और उसका उत्साहवर्धन भी होता है।

4. सुविधाएँ :
कक्षा में पढ़ाई-लिखाई तथा विद्यालय में खेलकूद में अग्रणी रहने वाले बालक को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। विद्यालय शुल्क में छूट, छात्रावास में नि:शुल्क रहने की सुविधा, पुस्तकों की नि:शुल्क व्यवस्था आदि सुविधाएँ प्रतिभावान बालकों को प्रत्येक विद्यालय में प्राप्त होती हैं। इन सुविधाओं से बालकों को निरन्तरआगे बढ़ने की प्रेरणा प्राप्त होती है।

5. प्रमाण-पत्र :
विद्यालयों में विभिन्न योग्यताओं के प्रदर्शन के उपलक्ष में छात्रों को प्रमाण-पत्र भी प्रदान किये जाते हैं। इन प्रमाण-पत्रों से भी छात्रों को अच्छे कार्य करने की प्रेरणा मिलती है।

6. प्रगति-पत्र पर अंकन :
छात्रों के प्रगति-पत्र पर उनकी विशिष्ट योग्यताओं से सम्बन्धित अंकन भी किये जाते हैं; जैसे परीक्षा में प्रथम श्रेणी या अनुशासन प्रिय छात्रों को ‘ए’ श्रेणी से विभूषित किया जाता है। इन प्रगति-पत्रों से ही छात्रों की विशेषताओं का ज्ञान लोगों को हो जाता है। दूसरी ओर छात्र भी उन्हें लोगों को दिखाते में हर्ष तथा गर्व का अनुभव करते हैं।

7. पदक तथा तसगे या मैडल :
शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्टता प्राप्त करने पर छात्रों को स्वर्ण, रजत, काँस्य आदि धातु के पदक व तमगे आदि प्रदान किये जाते हैं।

8. उपयोगी वस्तुएँ :
कॉलेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर प्रत्येक विद्यालय में विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। जो छात्र इन प्रतियोगिताओं में विजयी होते हैं, उन्हें पुस्तकें, बनियाने, घड़ी, कलम, हॉकी, जूते-मौजे आदि अनेक उपयोगी वस्तुएँ पुरस्कार के रूप में प्रदान की जाती हैं। इन वस्तुओं से भी छात्रों का उत्साहवर्धन होता है।

9. शील्ड और कप :
खेल-कूद, वाद-विवाद तथा निबन्ध आदि की प्रतियोगिताओं में विजेताओं को व्यक्तिगत या सामूहिक दोनों रूपों में शील्ड या कप प्रदान किये जाते हैं; जैसे-फुटबॉल टूर्नामेण्ट के लिए निर्धारित विशेष कप। इनके अतिरिक्त विजेताओं को बहुत-सी अन्य वस्तुएँ भी पुरस्कार के रूप में प्रदान की जाती हैं।

10. सफलता :
किसी कार्य में सफलता का मिलना ही एक बड़ा पुरस्कार होता है, क्योंकि सफलता से बालक की आत्म-सन्तुष्टि होती है तथा वह प्रगति-पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित तथा प्रोत्साहित होता है।

प्रश्न 2
पुरस्कार देते समय ध्यान में रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख कीजिए। या शिक्षा में पुरस्कार और दण्ड का महत्त्व अच्छी तरह से स्पष्ट कीजिए। [2008]
उत्तर :
पुरस्कार देते समय ध्यान रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातें। यह सत्य है कि शिक्षा के क्षेत्र में बालकों को पुरस्कार देने का विशेष महत्त्व है, परन्तु पुरस्कारों से अधिकतम लाभ तेभी हो सकता है, जब उनको देते समय निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए

  1. पुरस्कार उसी छात्र को देना चाहिए जो कि पुरस्कार पाने का उचित अधिकारी हो, अर्थात् पुरस्कार देने में पक्षपात नहीं करना चाहिए। यदि अधिकारीगण निष्पक्ष भाव से पुरस्कार देने का कार्य नहीं करते हैं। और किसी छात्र के साथ पक्षपात करते हैं तो अन्य छात्रों में असन्तोष की भावना उत्पन्न होगी तथा उनमें अनुशासनहीनता बढ़ जाएगी।
  2. पुरस्कार की घोषणा उचित अवसर पर की जानी चाहिए।
  3. पुरस्कार विशेष रूप से उन बालकों को देना चाहिए जो विभिन्न क्षेत्रों में समान रूप से विशिष्ट योग्यता को प्रदर्शन करें, क्योंकि शिक्षा का मूल उद्देश्यलालक का सर्वांगीण विकास करना ही है।
  4. पुरस्कार जीवन की साधारण बातों; जैसे–समयपालन, नियमपालन, स्वच्छता, शिष्ट व्यवहार, परिश्रम आदि पर देने चाहिए। जीवन की बड़ी बातों; जैसे-सत्यप्रियता, संयम, प्रेम, ईमानदारी आदि पर छोटे-छोटे पुरस्कार नहीं देने चाहिए। इससे उनका महत्त्व कम हो जाता है।
  5. पुरस्कार उन गुणों के लिए देना चाहिए जो छात्र ने अपने प्रयल. या परिश्रम द्वारा विकसित किये हों। जन्मजात विशेषताओं के लिए पुरस्कार नहीं देना चाहिए।
  6. छात्रों को केवल प्रेरणा देने के लिए ही पुरस्कार दिये जाने चाहिए। पुरस्कार मिलने के लालच में ही अच्छे कार्य करने की आदत उनमें नहीं पड़ने दी जानी चाहिए।
  7. पुरस्कार मूल्यवान नहीं होने चाहिए, क्योंकि इससे छात्रों में ईष्र्या-द्वेष की भावना में वृद्धि होती है।
  8. छोटे बच्चों को वर्ष में कई बार पुरस्कार देने चाहिए, जबकि बड़े बालकों को केवल महत्त्वपूर्ण अवसरों पर ही पुरस्कार देने चाहिए।
  9. पुरस्कार तभी दिया जाना चाहिए, जब आलक ने कठोर परिश्रम किया हो। बिना परिश्रम के पुरस्कार मिलने से विपरीत प्रभाव पड़ता है।
  10. पुरस्कार इस विधि से वितरित करने चाहिए कि बालकों में व्यक्तिगत भावना के साथ सामूहिक भावना का विकास हो।
  11. पुरस्कार इतनी अधिक संख्या में नहीं देने चाहिए, जिससे प्रत्येक छात्र को पुरस्कार मिल जाए। ऐसा करने से पुरस्कार का महत्त्व कम हो जाता है।

प्रश्न 3
दण्ड से आप क्या समझते हैं ? छात्रों को दिये जाने वाले दण्ड के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
दण्ड का अर्थ एवं परिभाषा
जब भी कहीं ‘पुरस्कोर’ की चर्चा होती है, वहीं साथ-ही-साथ दण्ड की भी बात की जाती है। दण्ड और पुरस्कार दो विरोधी अवधारणाएँ हैं। पुरस्कार जहाँ सुखदायक है, क्हीं दण्ड कष्टदायी है। पुरस्कार को उद्देश्य बालकों को आनन्द की अनुभूति कराना है, जबकि दण्ड का लक्ष्य बालक को कष्ट की अनुभूति कराना है। जब किसी बालक को किसी कार्य के परिणामस्वरूप कष्टदायक अनुभव प्राप्त होता है, चाहे वह प्रकृति-प्रदत्त हो या अर्जित, तब उसे दण्ड कहा जाता है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही दण्ड व्यवस्था रही है, जब कोई व्यक्ति प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है तो समाज उसे दण्ड देता है।

सामान्य अर्थ में निर्धारित नियमों का पालन न करना तथा उनके अनुकूल बाबर ने करना ही अपराध है और दण्ड अफ्ष की वह प्रतिक्रिया है, जो विद्यालय या समाज द्वारा अपराधी के आचरण के विरुद्ध प्रदर्शित की जाती है। इस प्रकार “दण्ड का अर्थ है-कष्ट, जुर्माना या न्यायानुसार दण्ड, शारीरिक पीड़ा अथवा डाँट-फटकार देना।” देण्ड के सामान्य अर्थ को जान लेने के उपरान्त दण्ड की कुछ व्यवस्थित परिभाषाओं का उल्लेख करना भी आवश्यक है। दण्ड की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. सदरलैण्ड के अनुसार, “दण्ड में वह पीड़ा या कष्ट निहित है जो जानबूझकर दी जाती है और किसी ऐसे मूल्य द्वारा उचित ठहराई जाती है, जिसे उसे पीड़ा में छिपा माना जाता है।”
  2. टेफ्ट के अनुसार, “हम दण्ड की परिभाषा उस चेतन दबाव के रूप में कर सकते हैं, जो समाज की शान्ति भंग करने वाले व्यक्ति को अवांछनीय अनुभवों वाला कष्ट देता है। यह कष्ट सदैव ही उस व्यक्ति के हित में नहीं होता।”
  3. थॉमसन के अनुसार, “दण्ड एक साधन है, जिसके द्वारा अवांछनीय कार्य के साथ दुःखद भवना. को सम्बन्धित करके उसको दूर करने का प्रयास किया जाता है।
  4. सेना के अनुसार, “दण्ड एक प्रकार की सामाजिक निन्दा है और इसमें यह आवश्यक नहीं है। कि पीड़ा या कष्ट सम्मिलित हो।”

दण्ड के प्रकार
दण्ड अनेक प्रकार के होते हैं, जिन्हें हम दो वर्गों में रख सकते हैं।

I. सरल दण्ड
सरल दण्ड वे होते हैं, जिसके देने से दण्डित होने वाले को कोई बड़ी शारीरिक क्षति नहीं पहुँचती है। सरल दण्ड निम्नलिखित होते हैं

1. डाँटना व फटकारना :
छोटे-मोटे अपराधों के लिए बालक को सबके सामने डाँटना, फटकारना या झिड़क देना ही पर्याप्त है। सबके सामने डाँटे जाने पर बालक लज्जित हो जाते हैं। और साधारणतया अपराध की पुनरावृत्ति नहीं करते हैं। लेकिन डाँटना, फटकारना समयानुकूल हो और केवल आवश्यकता पड़ने पर ही इसका प्रयोग किया जाए, अन्यथा बहुत अधिक डॉटने पर बालक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

2. अवकाश के बाद रोकना :
जब कोई छात्र नियमित रूप से कक्षा में देर से आने लगे या गृह-कार्य नियमित रूप से न करें तो विद्यालय के अवकाश के बाद भी उसे रोका जा सकता है। इस समय उसे पढ़ने-लिखने का कार्य नहीं देना चाहिए, अन्यथा अध्ययन से अरुचि हो जाएगी, किन्तु रोक लेने पर उसके घर में सूचना अवश्य भिजवा देनी चाहिए।

3. आर्थिक दण्ड :
कक्षा में देर से आने, लगातार कई दिनों तक कक्षा में अनुपस्थित रहने या विद्यालय की कोई वस्तु तोड़ देने पर छात्र को आर्थिक दण्ड दिया जा सकता है। किन्तु वास्तव में यह दण्ड तो अभिभावकों को दिया जाता है, क्योंकि उसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से बालक पर नहीं पड़ता। तथापि बालकों की गलतियों के लिए उन्हें इस रूप में दण्डित किया जा सकता है। आजकल विद्यालयों में आर्थिक दण्ड बहुत प्रचलित है, क्योंकि यह दण्ड देनी असान होता है और अन्य प्रकार के दण्डों के लिए अध्यापकों को सोच-विचार करना पड़ता है।

4. नैतिक दण्ड :
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित दण्ड दिये जाते हैं

  1. अपमानित करना : कक्षा में गलती करने वाले छात्र को मूर्ख बनाकर अपमानित किया जाता है, किन्तु इससे छात्रं में अध्यापक के प्रति प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होती है।
  2. क्षमा-याचना : अपराधी बालक को भरी कक्षा में या विद्यालय के सभी छात्रों के सामने क्षमा-याचना करने का आदेश दिया जाता है।
  3. स्थान परिवर्तन : गलती करने वाले छात्र को कक्षा में सबसे पीछे बिठा देना या एक कोने से दूसरे कोने में बिठा देना ही इस प्रकार का दण्ड है।
  4. सुविधाओं से वंचित करना : अपराध करने पर परिस्थिति के अनुकूल छात्रों को अनेक सुविधाओं से वंचित कर देना भी एक दण्ड है। ये सुविधाएँ हैं-आधी या पूरी शुल्क छूट को रद्द करना, पुस्तकीय सहायता से वंचित कर देना, छात्रावास में नि:शुल्क रहने की सुविधा समाप्त कर देना आदि।
  5. कक्षा में प्रवेश निषेध : कक्षा में निरन्तर अन्य छात्रों को परेशान करने पर उस छात्र को कक्षा के अन्दर आने की अनुमति न देना भी एक दण्ड है। कुछ अध्यापक देर से आने वाले छात्रों को भी कक्षा में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते हैं। इससे उनकी पढ़ाई में क्षति पहुँचती है और वे अन्य बुराइयों में लिप्त हो जाते हैं। अतः यह दण्ड किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिए।
  6. विद्यालय से निष्कासन : गम्भीर अपराध करने या बार-बार अपराध करने पर छात्र को विद्यालय से निष्काषित भी कर दिया जाता है। लेकिन मनोवैज्ञानिक इस दण्ड को अनुचित मानते हैं, क्योंकि इससे छात्र का सुधार नहीं होता है।
  7. अतिरिक्त कार्य देना : ऐसे छात्रों को जो, खाली समय होने के कारण या जल्दी कार्य कर लेने पर बदमाशी करते हैं, अतिरिक्त कार्य दे, देना चाहिए ताकि वे काम में लगे रहें। लेकिन यह दण्ड भी बड़ी सावधानी के साथ देना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि अधिक कार्य से उसे अरुचि हो जाए।
  8. खेल तथा अन्य सामूहिक कार्यों से वंचित करना : छात्रों में एक साथ कार्य करने, खेलने तथा बातें करने की भावना बड़ी प्रबल होती है। अत: सामूहिक कार्यों से वंचित कर देने पर और कुछ समय के लिए अकेला हो जाने पर छात्र को कष्ट होता है। इसलिए समयानुकूल यह एक उपयोगी दण्ड है।
  9. प्रगति-पत्र पर उल्लेख छात्र के प्रगति : पत्र पर अपराध का विवरण लिख दिया जाए, जिससे छात्र तथा उसके प्रगति-पत्र को पढ़ने वाले अपराध के विषय में जान जाएँ और छात्र को उससे लज्जा का अनुभव हो।

II. शारीरिक दण्ड या कठोर दण्ड
शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत थप्पड़ मारना, घूसा जमाना, कान उमेठना, बेंत मारना, मुर्गा बनाना तथा दण्ड-बैठक कराना आदि हैं। पहले विद्यालयों में इस प्रकार के दण्डों का विशेष प्रचलन था, लेकिन कभी-कभी इनके भयंकर परिणाम होते थे और बालक अंगहीन तक हो जाते थे। लेकिन आजकल सामान्यतया इसका प्रयोग वर्जित है। इन दण्डों का प्रयोग तभी करना चाहिए, जब अन्य सभी उपाय असफल हो जाएँ।

जहाँ तक सम्भव हो सुधारात्मक दण्ड ही देने चाहिए। यदि शारीरिक दण्ड देने आवश्यक ही हों तो यह केवल शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट बच्चों को ही दिये जाएँ, कमजोर तथा चौदह वर्ष से कम आयु वाले छात्रों को ये दण्ड न दिये जाएँ, न ही क्रोध के आवेश में दिये जाएँ। लेकिन ऐसे दण्ड अपराध करने के तुरन्त बाद ही दिये जाने चाहिए।

प्रश्न 4
दण्ड देते समय ध्यान में रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख कीजिए। या विद्यालय में दण्ड देते समय किन-किन सावधानियों को ध्यान में रखना आवश्यक है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
दण्ड देते समय ध्यान रखने योग्य महत्त्वपूर्ण बातें
विद्यालय में अनुशासन स्थापित करने में दण्डों का अपना एक विशेष महत्त्व है। इसके बिना अनुशासन स्थापित होना कठिन है। दण्ड अनेक प्रकार के होते हैं। कौन-सा दण्ड कब दिया जाए, कितनी मात्रा में दिया जाए, किसके द्वारा दिया जाए आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर जाने बिना हम दण्डों से यथोचित लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। इसीलिए दण्ड देते समय बहुत-सी सावधानियाँ रखनी पड़ती हैं। इनका विवरण इस प्रकार है

1. दण्ड अपराध के अनुरूप हो :
जिस प्रकार का अपराध किया जाए, उसी के अनुरूप या उसी प्रकार का दण्ड भी दिया जाए। यदि कोई छत्र कक्षा में देर से आता है तो उसे छुट्टी के बाद देर तक रोका जाए। यदि वह गृहकार्य करके नहीं लाता तो अपने सामने उसे गृह-कार्य करायें। आजकल अधिकतर अपराधों के लिए आर्थिक दण्ड दिया जाता है, जो कि उचित नहीं है। केवल विद्यालय की कोई वस्तु तोड़ने पर ही आर्थिक दण्ड देना चाहिए।

2. दण्ड अपराध के अनुपात में हो :
छोटे अपराध करने पर छोटा दण्ड और बड़ा अपराध करने पर बड़ा दण्ड देना चाहिए। दण्ड की मात्रा अपराध की गम्भीरता के अनुकूल होनी चाहिए, तभी उसका यथोचित प्रभाव पड़ता है।

3. दण्ड बालक की प्रकृति के अनुरूप हो :
कुछ बालक शरीर से कमजोर होते हैं। ऐसे बालकों को कठोर शारीरिक दण्ड नहीं देना चाहिए। कुछ बालकों को थोड़ा डाँटने भर से ही गहरा प्रभाव पड़ जाता है, उन्हें अधिक मात्रा में दण्ड नहीं देना चाहिए। कुछ बालकों पर साधारण झिड़कियों का कोई प्रभाव नहीं | पड़ता, ऐसे बालक के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिए।

4. दण्ड गम्भीरता के साथ देना चाहिए :
दण्ड देते समय अध्यापक को गम्भीर रहना चाहिए। प्रफुल्ल मुद्रा या मजाक करते हुए दण्ड नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता. और छात्र दण्ड के महत्त्व को नहीं समझ पाता।

5. दण्ड के कारण का ज्ञान :
दण्डित होने वाले छात्र को यह अवश्य ज्ञान होना चाहिए कि उसे किस कारण से दण्ड दिया जा रहा है, तभी छात्र अपराध के कारण को दूर करने का प्रयास करेगा।

6. समयानुकूल दण्ड :
अंपराध और दण्ड के मध्य समय का अन्तराल अधिक नहीं होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो सके अपराध करने के तुरन्त बाद दण्ड दिया जाना चाहिए ताकि अपराध और दण्ड में सम्बन्ध बना रहे। अपराध के बहुत समय बाद दण्ड देने से दोनों के बीच सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता।

7. उचित दण्ड :
किसी अपराध के लिए जो दण्ड दिया जाए, वह अध्यापक, दण्डित होने वाले छात्र और अन्य छात्रों की दृष्टि में उचित होना चाहिए। दण्ड अनुचित होने पर छात्रों में असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है।

8. सम्पूर्ण समूह को दण्ड नहीं देना चाहिए :
कभी-कभी कक्षा के कुछ छात्र शोरगुल करते हैं या गलती करते हैं तो कक्षा के सभी छात्रों पर मार पड़ती है या जुर्माना किया जाता है। यह सुधारक दण्ड
अनुचित है। दण्ड केवल उन्हीं छात्रों को देना चाहिए, जिन्होंने कोई ) दण्ड देने वाले का व्यक्हार अपराध किया हो।

9. दण्ड विचारपूर्वक दिया जाए :
अपराध के कारण को। जानकर तथा अपराध की गुरुता को समझकर ही दण्ड देना चाहिए, अन्यथा कभी-कभी गलत दण्ड दे दिया जाता है। अतः दण्ड देने से पूर्व विचार-विमर्श करना आवश्यक है।

10. उदाहरण बोध दण्ड :
अपराधी बालक को इस प्रकार दण्डित करना चाहिए कि अन्य देखने वाले छात्रों के सामने वह एक उदाहरण का कार्य करे और अन्य छात्र इस प्रकार का अपराध करने की ओर प्रवृत्त न हों।

11. सुधारक दण्ड :
दण्ड में बदले या प्रतिशोध की भावना नहीं होनी चाहिए। दण्ड सुधार करने की भावना से दिये जाने चाहिए, तभी उनको यथेष्ट प्रभाव पड़ता है।

12. दण्ड देने वाले का व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए :
दण्ड क्रोध या बदले की भावना से न देकर सहानुभूतिपूर्ण तरीके से देना चाहिए ताकि छात्र यह समझे कि अध्यापक हमारा हितचिन्तक है। इसलिए मुझे अमुक अपराध के लिए दण्डित किया गया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
छात्रों को पुरस्कार देने के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
छात्रों को पुरस्कार देने के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं।

1. अनुशासन के प्रति आस्था :
जब अनुशासित रहने पर या अनुशासन सम्बन्धी उत्तम कार्य करने पर छात्रों को पुरस्कृत किया जाता है, तो उनकी अनुशासन के प्रति आस्था अधिक बढ़ जाती है। दूसरे शब्दों में, पुरस्कार द्वारा छात्रों में अनुशासन स्थापित किया जा सकता हैं।

2. स्वस्थ प्रतियोगिता जाग्रत करना :
प्रायः यह देखा गया है कि पढ़ने-लिखने या खेल-कूद में। छात्रों में फ्रस्पर प्रतिस्पर्धा होने लगती है। एक छात्र दूसरे छात्र से आगे निकलने की भरसक कोशिश करता है। इससे विकास तथा सीखने की क्रिया अति तीव्र हो जाती है। अतः पुरस्कार छात्रों में स्वस्थ प्रतियोगिता को उत्पन्न करते हैं और छात्रों को अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित करते हैं। इसीलिए सीखने तथा अनुशासन में पुरस्कार का विशेष महत्त्व है।

3. अध्यापकों के प्रति आदर की भावना :
पुरस्कार द्वारा छात्रों का उत्साहवर्धन होता है। उन्हें प्रसन्नता प्राप्त होती है तथा अपने अध्यापकों के प्रति उनके हृदय में आदर के भाव उत्पन्न होते हैं और बढ़ते हैं। अतः अध्यापकों के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करना पुरस्कार का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।

4. अच्छे मर्यों के प्रति उत्साह उत्पन्न करना :
यह निर्विवाद सत्य है कि पुरस्कार प्राप्त होने पर छात्र को सुख मिलता है। अतः जिस कार्य से पुरस्कार का सम्बन्ध होता है उस कार्य से छात्र को लगाव हो जाता है और वह अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित तथा उत्साहित होता है।

5. कार्यों में रुचि जाग्रत करना :
जिन कार्यों के लिए पुरस्कार दिये जाते हैं, उनमें छात्रों की रुचि उत्पन्न हो जाती है और वे उन कार्यों को मन लगाकर करना पसन्द करते हैं।

6. चरित्र का विकास :
पुरस्कारों द्वारा उत्तम कार्यों तथा अच्छी बातों के प्रति छात्र के मन में स्थायी भाव बन जाते हैं। इस प्रकार पुरस्कार छात्र के चरित्र के विकास में भी सहायक होते हैं।

प्रश्न 2
पुरस्कार देने के मुख्य लाभों का उल्लेख कीजिए। [2011, 14]
या
सीखने में पुरस्कार की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए। (2007)
उत्तर :
पुरस्कार देने से निम्नांकित लाभ होते हैं

  1. पुरस्कार बालकों को प्रेरित करते हैं तथा आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
  2. पुरस्कार सुर्खदायक होते हैं। अत: वे बालक में कार्य के प्रति रुचि तथा उत्साह उत्पन्न करते हैं।
  3. पुरस्कार व्यक्ति के आत्म-सम्मान में वृद्धि करते हैं तथा उसके अहम् की सन्तुष्टि करते हैं। इसके साथ ही वे उसमें उच्च अनुशासन का भाव उत्पन्न करते हैं।
  4. पुरस्कार अच्छे कार्यों को उल्लास से प्रतिबद्ध कर देते हैं और इस प्रकार उनकी आवृत्ति अधिक होने लगती है।
  5. पुरस्कार बालकों की आकाँक्षा स्तर को भी ऊँचा उठाते हैं। इसके फलस्वरूप बालक अपने को सदैव अच्छा बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
  6. पुरस्कारों से प्रेरित होकर बालक आत्म-निर्देशित होता है तथा उसमें विचारों की सक्रियता और गतिशीलता उत्पन्न होती है।
  7. आर्थिक लाभ से युक्त पुरस्कार छात्रों को आर्थिक दृष्टि से भी लाभ पहुँचाते हैं।
  8. पुरस्कार बालक को उत्तम आचरण की दिशा में प्रवृत्त करते हैं। इनसे उसका आचरण नियन्त्रित भी होती है।
  9. बालकों में परस्पर प्रतिस्पर्धा तथा प्रतियोगिता का विकास होता है और उनमें आगे बढ़ने की होड़ लग जाती है।
  10. बालकों के पुरस्कृत होने पर उनसे सम्बन्धित अध्यापक, माता-पिता और अभिभावक आदि भी गौरवान्वित होते हैं और बालक को आगे तथा उन्नति करने के लिए सदैव प्रेरित करते रहते हैं। बालक भी उनकी असलेता तथा अपनी आत्म-सन्तुष्टि कायम रखने के लिए कठोर परिश्रम करते हैं।

प्रश्न 3.
पुरस्कार वितरण से होने वाली हानियों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
इसमें सन्देह नहीं है कि पुरस्कारों का शिक्षा में विशेष महत्त्व है, तथापि थॉमसन (Thomson) व अन्य मनोवैज्ञानिकों ने पुरस्कारों द्वारा होने वाली अनेक हानियों का भी उल्लेख किया है, जिनमें प्रमुख अलिखित हैं

  1. पुरस्कार पाने के लालच में कभी-कभी बालक खेलकूद तथा पाठ्य सहगामी क्रियाओं में अधिक भाग लेने लगते हैं, जिससे उनकी पढ़ाई-लिखाई चौपट हो जाती है तथा उनकाशैक्षिक स्तर काफी गिर जाता है।
  2. पुरस्कार छात्रों में पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष की भावना उत्पन्न कर देते हैं। इस भावना के कारण छात्र कभी-कभी एक-दूसरे को भारी अहित कर बैठते हैं।
  3. जब बालकों को ध्यान पुरस्कार पर केन्द्रित हो जाता है तो वे प्रत्येक कार्य पुरस्कार प्राप्त करने के लिए ही करते हैं। यदि किसी कार्य में पुरस्कार मिलने वाला नहीं होता तो वे उसकी ओर समुचित ध्यान नहीं देते हैं।
  4. पुरस्कार बालकों का ध्यान कार्य या कर्तव्यं से हटाकर परिणाम पर केन्द्रित करते हैं। इससे कभी-कभी कर्तव्य की अवहेलना हो जाती है।
  5. पुरस्कार छात्रों को प्रायः बाह्य रूप से प्रेरित करते हैं तथा कार्य में उनकी वास्तविक रुचि उत्पन्न नहीं करते।
  6. पुरस्कार न पाने वाले छात्रों में हीनता की भावना उत्पन्न होती है और वे कुण्ठाग्रस्त हो जाते हैं।
  7. प्रायः बालक धोखा देकर भी पुरस्कार पाने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 4
दण्ड क्या है? शिक्षा में इसकी क्या उपयोगिता है? [2016]
या
शिक्षा के क्षेत्र में दण्ड का क्या स्थान है?
उत्तर :
जब किसी व्यक्ति को किसी कार्य के परिणामस्वरूप कष्टदायक अनुभव प्राप्त होता है, चाहे वहु प्रकृति-प्रदत्त हो या अर्जित, तब उसे दण्ड किसी व्यक्ति को अनुचित कार्य करने पर दिया जाता  हैं।

शिक्षा में दण्ड की उपयोगिता
शिक्षा के क्षेत्र, में अनुशासन स्थापित करने में दण्ड का विशेष महत्त्व है। मध्यकालीन शिक्षा में दण्ड’ को अनुशासन स्थापना का प्रमुख साधन समझा जाता था। उस समय उक्ति प्रचलित थी कि डण्डा छूटा बालक बिगड़ा (Spare the rod and spoil the child)। उस समय छात्र द्वारा गलती करने पर उसे कठोरतमै दण्ड दिया जाता था। मध्यकाल में शारीरिक दण्ड की प्रधानता थी।

लेकिन बाद में शिक्षा के क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक विचारधारा के प्रवेश के फलस्वरूप शारीरिक दण्ड़ की प्रधानता समाप्त हो गयी, किन्तु अन्य प्रकार को दण्ड आज भी प्रचलित है, क्योंकि दण्ड के अभाव में अनुशासन की स्थापना करना एक कल्पना ही है। छात्रों की बुरी आदतों को छुड़ाने, उन्हें अनुचित कार्य करने से रोकने तथा बुराइयों से बचाने के लिए दण्ड अत्यन्त आवश्यक है। दण्ड के स्वरूप को निर्धारित करने में विशेष सूझ-बूझ से काम लेना चाहिए। दण्ड का उद्देश्य सदैव सुधारात्मक ही होना चाहिए।

प्रश्न 5
विद्यालयों में दण्ड की व्यवस्था के मुख्य लाभ क्या हैं?
या
दण्ड के दो लाभ बताइए। [2011]
उत्तर :
शिक्षा के क्षेत्र में दण्ड से निम्नांकित लाभ हैं

1. गलतियों पर रोक :
किसी गलती पर यदि छात्र को दण्डं मिल जाता है तो वह उसे गलती से दूर रहने की कोशिश करता है और उसकी पुनरावृत्ति नहीं करता।

2. अपराधों में कमी :
दण्ड द्वारा छात्र की अपराधी प्रवृत्ति में सुधार हो जाता है, जिससे उसके अपराधों में निरन्तर कमी आने लगती है। अपराध के फलस्वरूप मिला हुआ दण्ड दुःख की अनुभूतियों से जुड़ जाता है और बालक अपराधी कार्य से दूर रहता है।

3. अपराधों पर नियन्त्रणं :
किसी छात्र को जब किसी अनुचित कार्य के लिए दण्ड मिलता है तो अन्य छात्र भी उस कार्य को नहीं करते, क्योंकि उन्हें भी दण्ड पाने का भय लगने लगता है। इस प्रकार दण्डों से भावी अपराधों पर नियन्त्रण हो जाता है।

4. अनुशासन की स्थापना :
कुछ छात्र ऐसे भी होते हैं, जो सकारात्मक उपायों से नहीं सुधरे सकते। उन्हें सुधारने और अनुशासित रखने के लिए दण्ड बहुत आवश्यक तथा उपयोगी होते हैं।

5. बुरी आदतों को छुड़ाना :
बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए उनके साथ दुःखद या अप्रिय अनुभूतियों को प्रतिबद्ध करना उपयोगी होता है। बुरी आदतों के फलस्वरूप दण्ड पाने पर छात्र उन आदतों से बचते हैं।

6. चरित्र :
निर्माण में सहायक-दण्ड के फलस्वरूप छात्रों में अनेक प्रकार के दुर्गुणों का विकास नहीं हो पाता। इससे भी उनके चरित्र की समुचित विकास होता है।

प्रश्न 6
विद्यालयों में दण्ड की व्यवस्था होने की क्या हानियाँ हो सकती हैं?
या
दण्ड की दो हानियाँ लिखिए। (2015)
उत्तर :
प्राय: यह देखा गया है कि दण्ड देने वालों की असावधानी से दण्डों का दुरुपयोग हो जाता है। ऐसी दशा में दण्ड से अनेक हानियाँ होती हैं। इन हानियों का विवेचन निम्नलिखित है

1.प्रतिशोध की भावना :
दण्डिस होने पर दण्ड देने वाले के प्रति छात्रों में बदला या प्रतिशोध लेने की भावना प्रबल हो जाती है और अवसर पाने पर वे अपने दण्ड का प्रतिशोध लेने की कोशिश करते हैं।

2. अपराधों पर अधिक बल :
प्रायः देखा गया है कि अध्यापक दण्ड देते समय छात्र के अपराध या गलती का बार-बार लेख करता है और बताता है कि उसी गलती के लिए उसे दण्ड दिया जा रहा है। इस प्रकार छात्र के मन पर अपराध या गलती की गहरी छाप पड़ जाती है, जो हानिकारक होती है।

3. मानसिक विकास में अवरोध :
अधिक कठोर दण्ड देने से छात्रों में असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है और उनका मानसिक विकास भी अवरुद्ध हो जाता है।

4. भावना-ग्रन्थियों का निर्माण :
कठोर दण्ड छात्रों की इच्छा या भावनाओं को दबा देते हैं, जिससे वे अचेतन मन में जाकर ग्रन्थियों का निर्माण करती हैं तथा उन्हें कुण्ठाग्रस्त बना देती हैं।

5. अस्थायी प्रभाव :
छात्र पर दण्ड का प्रभाव स्थायी नहीं हो पाता। दण्ड के भय से छात्र भले ही कोई कार्य करना छोड़ दे, किन्तु दण्ड से उसके हृदय का परिवर्तन नहीं होता है।

6. दण्ड का आदी होना :
बार-बार दण्डित होने पर छात्र दण्ड का आदी हो जाता है और दण्ड का उस पर क्षणिक प्रभाव ही पड़ता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
विद्यालय में छात्रों को किन-किन क्षेत्रों में पुरस्कार दिये जा सकते हैं ?
उत्तर :
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य विशिष्ट या उल्लेखनीय कार्य कर सकता है। अत: प्रत्येक क्षेत्र में पुरस्कार दिये जा सकते हैं। विद्यालय में भी छात्रों द्वारा अनेक क्षेत्रों में प्रशंसनीय कार्य किये जाते हैं। कुछ प्रमुख क्षेत्र, जिनमें पुरस्कार देने चाहिए, निम्नलिखित हैं

  1. बौद्धिक क्षेत्र – बौद्धिक कार्यो; जैसे-पढ़ने-लिखने, वाद-विवाद तथा निबन्ध प्रतियोगिताओं आदि के लिए पुरस्कारों की व्यवस्था होनी चाहिए।
  2. शारीरिक कार्य – शारीरिक स्वास्थ्य, कुश्ती, खेलकूद आदि के लिए भी पुरस्कार देने चाहिए।
  3. नैतिक श्रेष्ठता – नैतिक दृष्टि से उत्तम आचरण करने वाले छात्रों को भी पुरस्कार दिये जाने चाहिए।
  4. सामुदायिक कार्य – सामुदायिक कार्य के सम्पादन तथा सामुदायिक भावना के विकास के लिए पुरस्कार दिये जाने चाहिए।
  5. उपस्थिति व आचरण – कक्षा में नियमित उपस्थिति तथा सदाचरण के लिए भी पुरस्कार दिये। जाने चाहिए।

प्रश्न 2
दण्ड के प्रतिशोधात्मक उद्देश्य का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रतिशोध को उचित दण्ड कहा जाता है। इसके अनुसार जिस व्यक्ति ने जैसा किया है, उसे उसी प्रकार का दण्ड दिया जाना चाहिए। प्राचीनकाल में दण्ड का यह उद्देश्य सर्वमान्य था और जैसे को तैसा (Tit for Tat) का सिद्धान्त प्रचलित था। उस समय प्रतिशोध या बदला लेने के उद्देश्य से दण्ड दिया जाता था। आज भी अप्रत्यक्ष रूप से इस उद्देश्य से दण्ड दिया जाता है।

राज्य मृत व्यक्ति की आत्मा की शान्ति के लिए तथा उसके परिवार वालों के सन्तोष के लिए हत्यारे को मृत्यु-दण्ड या आजीवन कारावास का दण्ड देता है। अतः दण्ड का यह उद्देश्य नैतिक न्याय की सन्तुष्टि पर आधारित है परन्तु वर्तमान शैक्षिक मान्यताओं के अनुसार बालक के लिए दण्ड की व्यवस्था की यह उद्देश्य उचित नहीं है।

प्रश्न 3.
दण्ड के प्रतिरोधात्मक उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रतिरोधात्मक शब्द प्रतिरोध से बना है। इसका अर्थ है-रोकना या रास्ते पर रोक लगा देना तांकि चलने वाला उस रास्ते पर न जा सके। दूसरे शब्दों में, समाज के द्वारा उन व्यक्तियों पर रोक लगाना जो गलत रास्तों पर चलकर समाज को हानि या चोट पहुँचाते हैं। यह उद्देश्य कठोर दण्ड पर आधारित है। दण्ड की कठोरता के कारण बालक भविष्य में कभी भी अपराध की ओर उन्मुख होने का साहस नहीं करेगा। दण्ड कठोर होने के कारण विद्यालय के अन्य छात्र भी अपराध की ओर अग्रसर नहीं होंगे। आजकल विद्यालयों में दण्ड के इस उद्देश्य को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता।

प्रश्न 4.
दण्ड के सुधारात्मक उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
यह उद्देश्य इस तथ्य पर आधारित है कि बालक की शारीरिक विशेषताएँ और वंशानुक्रम अपराध के कारण नहीं हैं, बल्कि विद्यालय, परिवार तथा समाज का वातावरण अपराध के लिए जिम्मेदार है, न कि बालक। इस उद्देश्य के अनुसार अपराधियों को सुधार किया जाए और उन्हें योग्य नागरिक के समान जीना और जीने देने का पाठ सिखाया जाए। विद्यालय व समाज के वातावरण का सुधार किया जाए, क्योंकि इससे ही अपराधियों का जन्म होता है। इस उद्देश्य के अन्तर्गत कारावास के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। इन कारागारों को सुधार गृह भी कहा जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
पुरस्कार से क्या आशय है ? [ 2010, 12 ]
उत्तर :
पुरस्कार का आशय बालक को अच्छे कार्यों को करने के फलस्वरूप सुखद अनुभूति कराने से है।

प्रश्न 2
‘पुरस्कार’ की एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
“पुरस्कर वांछित कार्य के साथ सुखद साहचर्य स्थापित करने का साधन है।” [ हेरलॉक ]

प्रश्न 3
बालकों को विद्यालय में सामान्य रूप से दिये जाने वाले पुरस्कार के चार प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. प्रशंसा
  2. पदक या मैडल
  3. प्रमाण-पत्र तथा
  4. छात्रवृत्ति।

प्रश्न 4
पुरस्कार प्रदान करने के चार मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पुरस्कार प्रदान करने के मुख्य उद्देश्य हैं

  1. अनुशासन के प्रति आस्था
  2. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करना
  3. कार्यों के प्रति रुचि जाग्रत करना तथा
  4. अच्छे कार्यों के प्रति उत्साह उत्पन्न करना

प्रश्न 5
विद्यालय में पुरस्कार प्रदान करने में ध्यान रखने योग्य प्रमुख तथ्य क्या है ?
उत्तर :
पुरस्कार प्रदान करते समय ध्यान में रखने योग्य प्रमुख बात यह है कि पुरस्कार देने का निर्णय हर प्रकार से तटस्थ हो, अर्थात् उसमें कोई पक्षपात न हो।

प्रश्न 6
दण्ड कितने प्रकार का होता है?
उत्तर :
दण्ड दो प्रकार का होता है।

  1. सरल दण्ड तथा
  2. शारीरिक दण्ड या कठोर दण्ड

प्रश्न 7
दण्ड-व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य क्या होना चाहिए ? [2013]
उत्तर :
दण्ड-व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य सुधारात्मक होना चाहिए।

प्रश्न 8
सीखने में दण्ड का क्या स्थान है ? [2008]
उत्तर :
सीखने में दण्ड का महत्त्वपूर्ण स्थान है, परन्तु यह सुधारात्मक होना चाहिए।

प्रश्न 9
मध्यकाल में भारत में किस प्रकार के दण्ड का प्रचलन था?
उत्तर :
मध्यकाल में भारत में कठोर दण्ड-व्यवस्था का प्रचलन था।

प्रश्न 10
बालकों को दिया जाने वाला आर्थिक दण्ड क्यों अनुचित माना जाता है?
उत्तर :
आर्थिक दण्ड का प्रत्यक्ष प्रभाव अलक पर नहीं बल्कि उसके अभिभावकों पर पड़ती है। अतः इसे अनुचित माना जाता है।

प्रश्न 11
दण्ड-व्यवस्था से प्राप्त होने वाले चार लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. गलतियों पर रोक
  2. अपराधों पर नियन्त्रण एवं कमी
  3. अनुशासन की स्थापना तथा
  4. बुरी आदतों को समाप्त करना।

प्रश्न 12
मूर्त पुरस्कार किसे कहते हैं? तीन उदाहरण दीजिए। [2010]
उत्तर :
किसी वस्तु अथवा सामग्री के रूप में दिया जाने वाला पुरस्कार मूर्त पुरस्कार कहलाता है। इसके उदाहरण हैं कोई उपयोगी वस्तु (बैट, फुटबॉल आदि), शील्ड तथा धनराशि।

प्रश्न 13
सीखने में पुरस्कार का क्या स्थान है? [2009]
उत्तर :
सीखने की प्रक्रिया में पुरस्कार एक प्रबल प्रेरक के रूप में कार्य करता है।

प्रश्न 14
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. पुरस्कार-व्यवस्था पूर्णरूप से अनावश्यक है।
  2. विद्यालय में पुरस्कार-व्यवस्था से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विकास होता है।
  3. सार्वजनिक रूप से की गयी प्रशंसा भी पुरस्कार ही है।
  4.  बालकों के लिए कठोर शारीरिक दण्ड ही सर्वोत्तम दण्ड है।
  5. दण्ड का उद्देश्य सुधारात्मक होना चाहिए।

उत्तर :

  1. असत्य
  2. सत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
“पुरस्कार वांछित कार्य के प्रति सुखद साहचर्य स्थापित करने का साधन है।” यह किसकी परिभाषा है ?
(क) हरलॉक की
(ख) थॉर्नडाइक की
(ग) टरमन की
(घ) रायबर्न की
उत्तर :
(क) हरलॉक की

प्रश्न 2
“पुरस्कार व्यक्ति में अच्छा कार्य करने की भावना जाग्रत करता है।” यह कथन है
(क) मैक्डूगल का
(ख) वुडवर्थ का
(ग) हिलगार्ड को
(घ) रायबर्न काँ
उत्तर :
(घ) रायबर्न का

प्रश्न 3
अमूर्त पुरस्कार है (2012)
(क) छात्रवृत्ति
(ख) प्रमाण-पत्र
(ग) उपयोगी वस्तुएँ
(घ) प्रशंसा
उत्तर :
(घ) प्रशंसा

प्रश्न 4
पुरस्कार का प्रमुख उद्देश्य है
(क) छात्रों को खेलने की प्रेरणा देना
(ख) कक्षा में अनुशासन स्थापित करना
(ग) छात्रों को प्रतिस्पर्धी बनाना।
(घ) छात्रों में रुचि, उत्साह एवं लगन से कार्य करने की भावना उत्पन्न करना
उत्तर :
(घ) छात्रों में रुचि, उत्साह एवं लगन से कार्य करने की भावना उत्पन्न करना

प्रश्न 5
थार्नडाइक के सीखने के किस नियम का समान्य पुरस्कार व्यवस्था से है?
(के) यारी का नियम
(ख) अध्याय का नियम
(ग) प्रभाव का नियम
(घ) उपर्युक्त तीनों नियम
उत्तर :
(ग) प्रभाव का नियम

प्रश्न 6
दण्ड, एकू.सीथन है, जिसके द्वेय अवांछनीय कार्य के साथ कुःखद भावना को सम्बन्विं करके उसे दूर करने म प्रयास किया जात है। यह परिभाषा सिक्की है?
(क) थॉमसन
(ख) रॉसेक
(ग) जे० एस० रॉस
(घ) थॉर्नडाइक
उत्तर :
(क) थॉमसन

प्रश्न 7
“दण्ड अवांछनीय व्यवहार को दूर करने का दमनात्मक साधन है।” यह परिभाषा दी
(क) बी० एन० झा ने
(ख) क्रो एवं क्रो ने
(ग) किलपैट्रिक ने
(घ) रॉसेक व अन्य ने
उत्तर :
(घ) रॉसेक व अन्य ने

प्रश्न 8
उपेक्षात्मक दण्ड का उदाहरण है
(क) विद्यालय का कमरा साफ करवाना
(ख) विद्यालय में अवकाश के बाद गृहकार्य पूरा करवाना
(ग) दूसरों के सामने लज्जित करना
(घ) कक्षा में पीछे बैठाना
उत्तर :
(घ) कक्षा में पीछे बैठाना

प्रश्न 9
दण्ड और पुरस्कार है
(क) मनोवैज्ञानिक प्रेरक
(ख) स्वाभाविक प्रेरक
(ग) कृत्रिम प्रेरक
(घ) सामाजिक प्रेरक
उत्तर :
(घ) सामाजिक प्रेरक

प्रश्न 10
उद्दण्ड छात्रों के लिए कौन-सा दण्ड लाभकारी है?
(क) नसिक दण्ड
(ख) आर्थिक दण्ड
(ग) शारीरिक दण्ड
(घ) सामाजिक दण्छ
उत्तर :
(ग) शारीरिक दण्ड

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UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 1

UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 1 are part of UP Board Class 12 Hindi Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 1.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Hindi
Model Paper Paper 1
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 1

समय 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक 100

खण्ड ‘क’

निर्देश
(i) प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
(ii) सभी प्रश्नों के उत्तर देने अनिवार्य हैं।
(iii) सभी प्रश्नों हेतु निर्धारित अंक उनके सम्मुख अंकित हैं

प्रश्न 1.
(क) हिन्दी का पहला मौलिक उपन्यास है। (1)
(a) आनन्द मठ
(b) परीक्षागुरु
(c) गबन
(d) तितली

(ख) अष्टयाम’ के रचनाकार हैं। (1)
(a) विट्ठलनाथ
(b) अग्रदास
(c) नाभादास
(d) गोकुलनाथ

(ग) द्विवेदी युग का लेखक इनमें से कौन नहीं है?  (1) 
(a) श्यामसुन्दर दास
(b) बालमुकुन्द गुप्त
(c) पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
(d) डॉ. नगेन्द्र

(घ) निम्नलिखित में से कौन-सी रचना नाटक है? (1) 
(a) गोदान
(b) स्कन्दगुप्त
(c) चिन्तामणि
(d) अशोक के फूल

(ङ) आलोचना के क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय साहित्यकार हैं। (1)
(a) मिश्रबन्धु
(b) सुदर्शन
(c) गुलाब राय
(d) रामचन्द्र शुक्ल

प्रश्न 2.
(क) ‘रामभक्ति शाखा के कवि नहीं हैं। (1)
(a) तुलसीदास
(b) अग्रदास
(c) नन्ददास
(d) नाभादास

(ख) “उर्वशी’ रचना है.(1)
(a) जयशंकर प्रसाद
(b) सूरदास
(c) रामधारी सिंह
(d) महादेवी वर्मा

(ग) रामचन्द्रिका के रचनाकार हैं। (1) 
(a) चिन्तामणि
(b) कृष्णादास
(c) भिखारीदास
(d) केशवदास

(घ) कविकुल कल्पतरु’ के रचनाकार हैं। (1)  
(a) मतिराम
(b) चिन्तामणि
(c) कुलपति मिश्र
(d) भूषण

(ङ) “भड़ौवा संग्रह’ के रचनाकार हैं। (1)
(a) ग्वाल
(b) पद्माकर
(c) बेनीबन्दीजन
(d) द्विजदेव

प्रश्न 3.
निम्नलिखित अवतरणों को पढ़कर उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। (6 x 2 = 10)
पृथ्वी और आकाश के अन्तराल में जो कुछ सामग्री भरी है, पृथ्वी के चारों 
ओर फैले हुए गम्भीर सागर में जो जलचर एवं रत्नों की राशियाँ हैं, उन । सबके प्रति चेतना और स्वागत के नए भाव राष्ट्र में फैलने चाहिए। राष्ट्र के नवयुवकों के हृदय में उन सबके प्रति जिज्ञासा की नई किरणें जब तक नहीं फूटतीं तब तक हम सोए हुए के समान हैं। विज्ञान और उद्यम दोनों को मिलाकर राष्ट्र के भौतिक स्वरूप का एक नया ठाट खड़ा करना है। यह कार्य प्रसन्नता, उत्साह और अथक परिश्रम के द्वारा नित्य आगे बढ़ाना चाहिए। हमारा यह ध्येय हो कि राष्ट्र में जितने हाथ हैं, उनमें से कोई भी इस कार्य में भाग लिए बिना रीता न रहे। तभी मातृभूमि की पुष्कल समृद्धि और समग्र रूपमण्डन प्राप्त किया जा सकता है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) राष्ट्रीय चेतना में भौतिक ज्ञान-विज्ञान के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
(ii) लेखक ने राष्ट्र की सुप्त अवस्था कब तक स्वीकार की है?
(iii) विज्ञान और श्रम के संयोग से राष्ट्र प्रगति के पथ पर कैसे अग्रसर हो । सकता है?
(iv) लेखक के अनुसार, राष्ट्र समृद्धि का उद्देश्य कब पूर्ण नहीं हो पाएगा?
(v) ‘स्वागत’ का सन्धि विच्छेद करते हुए उसका भेद बताइए।

अथवा
मैं यह नहीं मानता कि समृद्धि और अध्यात्म एक-दूसरे के विरोधी हैं या । भौतिक वस्तुओं की इच्छा रखना कोई गलत सोच है। उदाहरण के तौर पर, मैं खुद न्यूनतम वस्तुओं का भोग करते हुए जीवन बिता रहा हूँ, लेकिन मैं सर्वत्र समृद्धि की कद्र करता हूँ, क्योंकि यह अपने साथ सुरक्षा तथा विश्वास लाती है, जो अन्ततः हमारी आजादी को बनाए रखने में सहायक है। आप आस-पास देखेंगे, तो पाएँगे कि खुद प्रकृति भी कोई काम आधे-अधूरे मन से नहीं करती। किसी बगीचे में जाइए। मौसम में आपको फूलों की बहार देखने को मिलेगी अथवा ऊपर की तरफ ही देखें, यह ब्रह्माण्ड आपके अनन्त तक फैला दिखाई देगा, आपके यकीन से भी परे।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठं से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?
(ii) लेखक अध्यात्म एवं भौतिकता को एक-दूसरे के समान मानने के विषय में क्या तर्क देता है?
(iii) भौतिक समृद्धि के महत्त्व के विषय में लेखक का मत स्पष्ट कीजिए।
(iv) लेखक के अनुसार मनुष्य को जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक वस्तुओं । को किस प्रकार स्वीकार करना चाहिए?
(v)  ‘समृद्धि’ शब्द के पर्यायवाची लिखिए।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। (5 x 2= 10)

परत चन्द्र प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो।
लोल लहर लहि नचत कबहूँ सोई मन भायो।
मनु हरि दरसन हेत चन्द्र जल बसत सुहायो।
कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो।
कै रास रमन में हरि मुकुट आभा जल दिखरात है।
के जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है।।

उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने किसका वर्णन किया हैं?
(ii) “मनु हरि दरसन हेत चन्द्र जल बसत सुहायो’ पंक्ति का आशय स्पष्ट | कीजिए।
(iii) कवि ने चन्द्रमा की किन-किन रूपों में कल्पना की है?
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में प्रयुक्त मानवीकरण अलंकार को स्पष्ट कीजिए।
(v) ‘हरि’ व ‘लहर’ शब्दों के दो-दो पर्यायवाची लिखिए।

अथवा
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बनेफिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गतिरोधक शूल बने। अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला हैक्या वह केवल अवसाद मलिन झरते आँसू की माला है? वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याली हैवे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन-कारी हाला है। मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लियामैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है! मैं कहता हूँ मैं बढ़ता हूँ मैं नभ की चोटी चढता हूँ। कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ। मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने । इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने! भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बनेतेरी पुकार-सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने!
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपनी कैसी चाह (इच्छा) को व्यक्त किया
(ii) प्रेम की वास्तविक अनुभूति से कैसे लोग अनभिज्ञ रह जाते हैं?
(iii) कवि ने धूल से क्या प्रेरणा ली है?
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में निहित उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
(v) “इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने।” प्रस्तुत पंक्ति ।
में कौन-सा अलंकार है?

प्रश्न 5.
निम्नलिखित लेखकों में से किसी एक लेखक का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। (4)
(क) कन्हैयालाल प्रभाकर मिश्र
(ख) जी, सुन्दर रेड्डी ।
(ग) डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल
(घ) हरिशंकर परसाई

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कवियों में से किसी एक का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। (4)
(क) जगन्नाथदास रत्नाकर
(ख) सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय”
(ग) अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’.
(घ) रामधारी सिंह दिनकर

प्रश्न 7.
(क) ‘बहादुर’ अथवा ‘लाटी’ कहानी की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। (4)
अथवा
‘खून का रिश्ता’ अथवा ‘कर्मनाशा की हार’ कहानी के मुख्य पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
(ख) स्वपठित नाटक के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों में से किसी एक प्रश्न 
का उत्तर दीजिए  (4)
(i) ‘कुहासा और किरण’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालिए। | अथवा कुहासा और किरण’ नाटक के प्रमुख नारी पात्र का चरित्र-चित्रण | कीजिए।
(ii) ‘आन का मान’ नाटक के उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए। अथवा ‘आन का मान’ नाटक की ऐतिहासिकता पर अपने विचार व्यक्त 
कीजिए।
(ii) ‘राजमुकुट’ नाटक के अन्तिम यानी चतुर्थ अंक की कथा संक्षिप्त रूप 
में लिखिए। अथवा ‘राजमुकुट’ नाटक के आधार पर शक्तिसिंह की चारित्रिक विशेषताओं | पर प्रकाश डालिए। |
(iv) ‘गरुड़ध्वज’ नाटक में कौन-सा अंक आपको सबसे अच्छा लगा और 
| क्यों? स्थनी भाषा-शैली की दृष्टि से गरुडध्वज’ नाटक की समीक्षा कीजिए।
(v) ‘सूत-पुत्र’ नाटक के द्वितीय अंक की कथा का सार संक्षेप में लिखिए। अथना ‘सूत-पुत्र के आधार पर श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित खण्डकाव्यों में से स्वपठित खण्डकाव्य के आधार पर किसी एक प्रश्न का उत्तर दीजिए। (4)
(क) ‘मुक्तियज्ञ’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की समीक्षा कीजिए। अथनी ‘मुक्तियज्ञ’ के नामकरण की सार्थकता पर संक्षेप में प्रकाश डालते हुए। 
रचना के उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
(ख) ‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथावस्तु की विशेषताएँ बताइए। अथवा “नारी अबला नहीं, शक्तिरूपा है।” द्रौपदी के चरित्र के माध्यम से इस
कथन की सार्थकता प्रमाणित कीजिए।
(ग) रश्मिरथी खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का कथानक अपने शब्दों में 
लिखिए। अथवा ‘रश्मिरथी’ के आधार पर कुन्ती के चरित्र की विशेषताएँ बताइए।
(घ) “आलोक-वृत्त’ खण्डकाव्य में जीवन के किन श्रेष्ठ मूल्यों की परख की
| गई है? अथनी ‘आलोक-वृत्त’ में महात्मा गाँधी के विचारों को सुन्दर रूप में वाणी दी गई है। स्पष्ट कीजिए।
(ङ) ‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। अथवा ‘त्यागपथी’ का शीर्षक इसके कथानक की दृष्टि से कहाँ तक । उपयुक्त है?
(च) श्रवण कुमार खण्डकाव्य के शीर्षक की सार्थकता सिद्ध कीजिए। अथवा ‘श्रवण कुमार’ के आधार पर महाराज दशरथ का चरित्र-चित्रण कीजिए

खण्ड ‘ख’

प्रश्न 1.
निम्नलिखित अवतरणों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद कीजिए। (5+ 5 = 10)
(क) संस्कृतसाहित्यस्य आदिकवि: वाल्मीकिः, महर्षिव्या॑सः, कविकुलगुरुः | कालिदासः अन्ये च भास-भारवि-भवभूत्यादयो महाकवयः स्वकीयैः ग्रन्थरत्नैः अद्यापि पाठकानां हृदि विराजन्ते। इयं भाषा अस्माभिः मातृसमं सम्माननीया वन्दनीया च, यतो भारतमातु: स्वातन्त्र्यं, गौरवम्, अखण्डत्वं सांस्कृतिकमेकत्वञ्च संस्कृतेनैव सुरक्षितुं शक्यन्ते। इयं संस्कृतभाषा सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा श्रेष्ठा चास्ति। ततः सुष्टूक्तम् ‘भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती’ इति।
अथवा
अतीते प्रथमकल्पे जनाः एकमभिरूपं सौभाग्यप्राप्तम्। सर्वाकारपरिपूर्ण 
पुरुषं राजानमकुर्वन्। चतुष्पदा अपि सन्निपत्य एकं सिंहं राजानमकुर्वन्। ततः शकुनिगणाः हिमवत्-प्रदेशे एकस्मिन् पाषाणे सन्निपत्य ‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च। अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति।अराजको वासो नाम ने वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः’ इति उक्तवन्तः। अथ ते परस्परमवलोकयन्तः एकमुलूकं दृष्ट्वा ‘अयं नो रोचते’ इत्यावचन्।

(ख) सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्। | सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।। अथना पश्य रूपाणि सौमित्रे वनानां पुष्पशालिनाम्।  सृजतां पुष्पवर्षाणि वर्ष तोयमुचामिव।।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में दीजिए। (4+4=8)
(क) काकः उलूकस्य विरोधं कथम् अकरोत्?
(ख) श्रीकृष्णः दुर्योधनस्य किमपरं नाम वदति?
(ग) हेमन्ते जलचारिण: जले किं नावगाहन्ति?
(घ) कस्य खलु दर्शनेन इदं सर्वं विदितं भवति?

प्रश्न 3.
(क) भक्ति रस अथवा वात्सल्य रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।
(ख) दृष्टान्त अथवा श्लेष अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।  (2)
(ग) ‘हरिगीतिका’ अथवा ‘उपेन्द्रवज्रा छन्द का लक्षण उदाहरण सहित  लिखिए। 
(2)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर अपनी भाषा-शैली में निबन्ध लिखिए। (9)
(क) जल-संकट से जूझता मानव
(ख) भारत की सांस्कृतिक विविधता
(ग) लोकतन्त्र में मीडिया की भूमिका
(घ) इण्टरनेट की दुनिया ।
(ङ) यदि मैं प्रधानाचार्य होता।

प्रश्न 5.
(क)
(i) सज्जनः का सन्धि-विच्छेद होगा?
(a) सत् + जनः
(b) सद् + जन्:
(c) सज्ज + नः
(d) सज् + जन्:

(ii) योद्धा में कौन-सी सन्धि होगी?
(a) रुत्व.
(b) उत्व
(c) जश्त्व
(d) दीर्घ

(iii) हरिश्चन्द्रः तथा नायक; में कौन-सी सन्धि है?

(ख)
(i) ‘सरित्सु’ शब्द रूप हैं ‘सरित’ शब्द के
(a) चतुर्थी बहुवचन का
(b) षष्ठी एकवचन का
(c) पञ्चमी बहुवचन का ।
(d) सप्तमी बहुवचन का

(ii) ‘यान्’ शब्द रूप है ‘यत्’ का
(a) प्रथमा पुंलिङ्ग
(b) पञ्चमी स्त्रीलिङ्ग
(c) द्वितीया पुंलिङ्ग
(d) द्वितीया नपुंसकलिङ्ग बहुवचन

(ग)
(i) ‘नेष्यन्ति’ ‘नी’ धातु के किस लकार, पुरुष और वचन का रूप है? (1)
(ii) ‘स्था’ धातु विधिलिङ्लकार, मध्यम पुरुष, बहुवचन का रूप है (1)

(घ)
(i) निम्नलिखित में किसी एक शब्द में धातु एवं प्रत्यय का योग स्पष्ट कीजिए। (1)
कृत्वा, गृहीत्वा, आप्तवा
(ii) निम्नलिखित में से किसी एक शब्द में प्रत्यय बताइए (1)
विद्यावान, पुरुषता, दर्शितव्यः

(ङ)
रेखांकित पदों में से किन्हीं दो में प्रयुक्त विभक्ति तथा उससे सम्बन्धित नियम का उल्लेख कीजिए।
(i) बालकः अश्वात् पतति।
(ii) सः पृष्ठेनं कुञ्जः।
(iii) शुक्रदेवाय नमः

(च)
निम्नलिखित में से किसी एक का विग्रह करके समास का नाम लिखिए।
(i) प्रत्यर्थम्
(ii) पीयूषपाणिः
(iii) समुद्रम (2)

प्रश्न 6.
निम्नलिखित वाक्यों में से किन्हीं चार का संस्कृत में अनुवाद कीजिए।(4)
(क) तुम किस कक्षा में पढ़ते हो?
(ख) सूर्य उदय होने पर कमल खिलता है।
(ग) हिमालय भारत की रक्षा करता है।
(घ) हिमालय से गंगा निकलती है।
(ङ) कवियों में कालिदास श्रेष्ठ ।
(च) रमेश कान से बहरा है।

व्याख्या सहित उत्तर
खण्ड ‘क’

उत्तर 1.
(क) (b) परीक्षागुरु
(ख) (c) नाभादास
(ग) (d) डॉ. नगेन्द्र
(घ) (b) स्कन्दगुप्त
(ङ) (d) रामचन्द्र शुक्ल

उत्तर 2.
(क) (c) नन्ददास
(ख) (c) रामधारी सिंह
(ग) (d) केशवदास
(घ) (b) चिन्तामणि
(ङ) (c) बेनीबन्दीजन

उत्तर 3.
(i) लेखक के अनुसार, राष्ट्रीयता की भावना केवल भावनात्मक स्तर तक ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि भौतिक ज्ञान-विज्ञान के प्रति जागृति के स्तर पर भी होनी चाहिए, क्योंकि पृथ्वी एवं आकाश के बीच विद्यमान नक्षत्र, समुद्र में स्थित जलचर, खनिजों एवं रत्नों का ज्ञान आदि भौतिक ज्ञान-विज्ञान राष्ट्रीय चेतना को सुदृढ़ बनाने हेतु आवश्यक होते हैं।

(ii) लेखक ने राष्ट्र की सुप्त अवस्था तब तक स्वीकार की है, जब तक नवयुवकों में राष्ट्रीय चेतना और भौतिक ज्ञान-विज्ञान के प्रति जिज्ञासा विकसित न हो जाए। जब तक राष्ट्र के नवयुवक जिज्ञासु और जागरूक नहीं होंगे, तब तक राष्ट्र को सुप्तावस्था में ही माना जाना चाहिए।

(iii) लेखक के अनुसार, विज्ञान और परिश्रम दोनों को एक दूसरे के साथ मिलकर काम करना चाहिए, तभी किसी राष्ट्र की भौतिक स्वरूप उन्नत बन सकता है अर्थात् विज्ञान का विकास इस प्रकार हो कि उससे श्रमिकों को हानि न पहुँचे और उनके कार्य और कुशलता में वृद्धि हो। यह कार्य बिना किसी दबाव के हो तथा सर्वसम्मति में हो। इस प्रकार कोई भी राष्ट्र प्रगति कर सकता है।

(iv) लेखक के अनुसार, राष्ट्र समृद्धि का उद्देश्य तब तक पूर्ण नहीं हो पाएगा, जब तक देश का कोई भी नागरिक बेरोजगार होगा, क्योंकि राष्ट्र का निर्माण एक-एक व्यक्ति से होता है। यदि एक भी व्यक्ति को रोजगार नहीं मिलेगा, तो राष्ट्र की प्रगति अवरुद्ध हो जाएगी।

(v) सु + आगत = स्वागत (यण् सन्धि)

अथवा
(i) प्रस्तुत गद्यांश ‘हम और हमारा आदर्श’ से लिया गया है। इसके लेखक | ए. पी. जे. अब्दुल कलाम हैं।
(ii) लेखक अध्यात्म एवं भौतिकता को एक-दूसरे के समान मानने के विषय में 
तर्क देते हैं कि समृद्धि अर्थात् धन, वैभव व सम्पन्नता को अध्यात्म के समान महत्त्व देते हुए उन्हें एक-दूसरे का विरोधी मानने से इनकार करते हैं तथा साथ ही वे भौतिकतावादी मानसिकता रखने वालों को गलत मानने के पक्षधर नहीं हैं।
(iii) लेखक मनुष्य के जीवन में धन-वैभव, सम्पन्नता आदि को महत्त्वपूर्ण 
मानते हुए स्पष्ट करते हैं कि भौतिक सुख-सुविधाएँ मनुष्य में सुरक्षा एवं विश्वास का भाव उत्पन्न करती हैं, जो उनकी स्वतन्त्रता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका को निर्वाह करती हैं तथा मनुष्य में आत्मबल का संचार करती है।
(iv) लेखक के अनुसार जिस प्रकार प्रकृति अपने सभी कार्य पूरे समभाव से 
करती है, उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन में वस्तुओं को भौतिक एवं आध्यात्मिक दो वर्गों में विभाजित नहीं करना चाहिए, अपितु उन्हें सहज भाव से एक स्वरूप स्वीकारते हुए जीवन को जीना चाहिए। |
(v) समृद्धि अत्यन्त सम्पन्नता, धन।

उत्तर 4.
(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने यमुना के जल पर पड़ते हुए चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब का वर्णन किया है, जिसे देखकर कवि के मन में अनेक कल्पनाएँ उत्पन्न हो रही हैं। कभी वह उसे लहरों पर नृत्य करता हुआ प्रतीत होता है, तो कभी वह श्रीकृष्ण के मुकुट की आभा के समान प्रतीत होता है।
(ii) प्रस्तुत पंक्ति का आशय यह है कि यमुना नदी में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को 
देखकर कवि को ऐसा लग रहा है, मानो चन्द्रमा यमुना के जल में यह सोचकर आ बसा है कि जब कृष्ण यमुना-तट पर विहार करने आएँगे, तब उसे उनके दर्शन प्राप्त हो जाएँगे।
(iii) कवि ने यमुना नदी के जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को देखकर विभिन्न कल्पनाएँ की हैं कभी वह उसे पानी पर नृत्य करता हुआ दिखाई देता है, कभी वह श्रीकृष्ण के मुकुट की आभा के समान प्रतीत होता है तथा कभी वह कवि को यमुना के हृदय के रूप में दिखाई देता है।
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने चन्द्रमा के विभिन्न क्रियाकलापों की तुलना 
मानवीय क्रियाकलापों से की है; जैसे- नन्द्रमा का नदी की लहरों पर नृत्य करना या श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यमुना तट पर आना आदि। चन्द्रमा का इस तरह वर्णन मानवीकरण अलंकार का उदाहरण है।
(v)
शब्द           पर्यायवाची 
हरि विष्णु,      कृष्ण |
लहर तरंग,    हिलोर

अथवा

(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि को अपने जनपद की धूल बन जाना स्वीकार है,
भले ही उस धूल का प्रत्येक कण उसे जीवन में आगे बढ़ने से रोके और उसके लिए पीड़ादायक ही क्यों न बन जाए। इसके पश्चात् भी वह कष्ट सहकर भी मातृभूमि की सेवा करने या उसके काम आ जाने की चाह व्यक्त करता है।

(ii) प्रेम को जीवन के अनुभव का कड़वा प्याला मानने वाले लोग सकारात्मक दृष्टिकोण के नहीं होते, अपितु वे मानसिक रूप से विकृत होते हैं, किन्तु वे लोग भी चेतनाविहीन निर्जीव की भाँति ही हैं। जिनके लिए प्रेम की चेतना लुप्त करने वाली मदिरा है, क्योंकि ऐसे लोग प्रेम की वास्तविक अनुभूति से अनभिज्ञ रह जाते हैं।

(iii) कवि धूल से प्रेरणा लेते हुए कहता है कि जिस प्रकार धूल लोगों के पैरों तले रौंदी जाती है, परन्तु वह हार न मानकर उल्टे आँधी के रूप में आकर रौंदने वाले को ही पीड़ा पहुँचाने लगती है। उसी प्रकार मैं भी जीवन के संघर्षों से पछाड़ खाकर कभी हार नहीं मानता और आशान्वित होकर आगे की ओर बढ़ता चला जाता हैं।

(iv) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने जीवन में संघर्ष के महत्त्व पर बल दिया है। यदि हमारे समक्ष कोई जटिल समस्या आ जाए, तो हमें उसका सामना करते हुए उसका समाधान ढूँढना चाहिए। जो लोग इन समस्याओं का सामना करने से घबराते हैं, वास्तव में उनके जीवन को सार्थक नहीं कहा जा सकता।

(v) प्रस्तुत पंक्ति में ‘पग’ शब्द की पुनरावृत्ति हुई है, अतः यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

कृतियाँ
प्रभाकरजी के कुल  ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं
1. रेखाचित्र नई पीढ़ी के विचार, ज़िन्दगी मुस्कराई. माटी हो गई | सोना, भूले-बिसरे चेहरे।
2. लघु कथा आकाश के तारे, धरती के फूल।
3. संस्मरण दीप जले-शंख बजे।
4. ललित निबन्ध क्षण बोले कण मुस्काए, बाजे पायलिया के मुँघरू।
5. सम्पादन प्रभाकरजी ने ‘नया जीवन’ और ‘विकास’ नामक दो 
समाचार-पत्रों का सम्पादन किया। इनमें इनके सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षिक समस्याओं पर आशावादी और निर्भीक विचारों का परिचय मिलता है। इनके अतिरिक्त, ”महके आँगन चहके द्वार’ इनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है।

उत्तर 5.
(क) भाषा-शैली
प्रभाकर जी की भाषा सामान्य रूप से तत्सम प्रधान, शुद्ध और साहित्यिक खड़ी बोली है। उसमें सरलता, सुबोधता और स्पष्टता दिखाई देती है। इनकी भाषा भावों और विचारों को प्रकट करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग ने इनकी भाषा को और अधिक सजीव तथा व्यावहारिक बना दिया है। इनका शब्द संगठन तथा वाक्य-विन्यास अत्यन्त सुगठित है। इन्होंने प्रायः छोटे-छोटे व सरल वाक्यों का प्रयोग किया है। इनकी भाषा में स्वाभाविकता, व्यावहारिकता और भावाभिव्यक्ति की क्षमता है। प्रभाकर जी ने भावात्मक, वर्णनात्मक, चित्रात्मक तथा नाटकीय शैली का प्रयोग मुख्य रूप से किया है। इनके साहित्य में स्थान-स्थान पर व्यंग्यात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं। हिन्दी साहित्य में स्थान कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ मौलिक प्रतिभासम्पन्न गद्यकार थे। इन्होंने हिन्दी-गद्य की अनेक नई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाकर उसे समृद्ध किया है। हिन्दी भाषा के साहित्यकारों में अग्रणी और अनेक दृष्टियों से एक समर्थ गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित इस महान् साहित्कार को, मानव-मूल्यों के सजग प्रहरी के रूप में भी सदैव स्मरण किया जाएगा।

(ख) जी. सुन्दर रेड्डी
जीवन-परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ श्री जी, सुन्दर रेड्डी का जन्म वर्ष 1919 में आन्ध्र प्रदेश में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा संस्कृत एवं तेलुगू भाषा में हुई व उच्च शिक्षा हिन्दी में। श्रेष्ठ विचारक, समालोचक एवं उत्कृष्ट निबन्धकार प्रो. जी. सुन्दर रेड्डी लगभग 30 वर्षों तक आन्ध विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। इन्होंने हिन्दी और तेलुगू साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर पर्याप्त काम किया।

साहित्यिक सेवाएँ श्रेष्ठ विचारक, सजग समालोचक, सशक्त निबन्धकार, हिन्दी और दक्षिण की भाषाओं में मैत्री-भाव के लिए प्रयत्नशील, मानवतावादी दृष्टिकोण के पक्षपाती प्रोफेसर जी. सुन्दर रेड्डी का व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त प्रभावशाली है। ये हिन्दी के प्रकाण्ड पण्डित हैं। आन्ध्र विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर अध्ययन एवं अनुसन्धान विभाग में हिन्दी और तेलुगु साहित्यों के विविध प्रश्नों पर इन्होंने तुलनात्मक अध्ययन और शोधकार्य किया है। अहिन्दीभाषी प्रदेश के निवासी होते हुए भी प्रोफेसर रेड्डी का हिन्दी भाष पर अच्छा अधिकार है। इन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

कृतियाँ अब तक प्रो. रेड्डी के आठ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी जिन रचनाओं से साहित्य-संसार परिचित है, उनके नाम इस प्रकार हैं
(i) साहित्य और समाज,
(ii) मेरे विचार
(iii) हिन्दी और तेलुगू : एक तुलनात्मक अध्ययन,
(iv) दक्षिण की भाषाएँ और उनका साहित्य
(v) वैचारिकी
(vi) शोध और बोध
(vii) वेलुगु वारुल (तेलुगू)
(viii) लैंग्वेज प्रॉब्लम इन इण्डिया’ (सम्पादित अंग्रेज़ी ग्रन्थ) इनके अतिरिक्त हिन्दी, तेलुगू तथा अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं में इनके अनेक निबन्ध प्रकाशित हुए हैं। इनके प्रत्येक निबन्ध में इनका मानवतावादी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।

भाषा-शैली प्रो. जी, सुन्दर रेड्डी की भाषा शुद्ध, परिष्कृत, परिमार्जित तथा साहित्यिक खड़ीबोली है, जिसमें सरलता, स्पष्टता और सहजता का गुण विद्यमान है। इन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है। इन्होंने अपनी भाषा को प्रभावशाली बनाने के लिए मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग भी किया है। इन्होंने प्रायः विचारात्मक, समीक्षात्मक, सूत्रात्मक, प्रश्नात्मक आदि। शैलियों का प्रयोग अपने साहित्य में किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान प्रो. जी. सुन्दर रेड्डी हिन्दी साहित्य जगत के उच्चकोटि के विचारक, समालोचक एवं निबन्धकार हैं। इनकी रचनाओं में विचारों की परिपक्वता, तथ्यों की सटीक व्याख्या एवं विषय सम्बन्धी स्पष्टता दिखाई देती है। इसमें सन्देह नहीं कि अहिन्दीभाषी क्षेत्र से होते हुए भी इन्होंने हिन्दी भाषा के प्रति अपनी जिस निष्ठा व अटूट साधना का परिचय दिया है, वह अत्यन्त प्रेरणास्पद है। अपनी सशक्त लेखनी से इन्होंने हिन्दी साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है।

(ग) डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल
जीवन-परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ भारतीय संस्कृति और पुरातत्व के विद्वान् वासुदेवशरण अग्रवाल का जन्म वर्ष 1904 में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के खेड़ा नामक ग्राम में हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद एम.ए.,पी.एच.डी. तथा डी.लिट्. की उपाधि इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इन्होंने पालि, संस्कृत, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं एवं उनके साहित्य का गहन अध्ययन किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में पुरातत्त्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे वासुदेवशरण अग्रवाल दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय के भी अध्यक्ष रहे। हिन्दी की इस महान् विभूति का वर्ष 1967 में स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ इन्होंने कई ग्रन्थों का सम्पादन व पाठ शोधन भी किया। जायसी के ‘पद्मावत’ की संजीवनी व्याख्या और बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत करके इन्होंने हिन्दी साहित्य को गौरवान्वित किया।

इन्होंने प्राचीन महापुरुषों – श्रीकृष्ण, वाल्मीकि, मनु आदि का आधुनिक दृष्टिकोण से बुद्धिसंगत’चरि-चित्रण प्रस्तुत किया। कृतियाँ डॉ. अग्रवाल ने निबन्ध-रचना, शोध और सम्पादन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं।
1. निबन्ध-संग्रह पृथिवी, पुत्र, कल्पलता, कला और संस्कृति, कल्पवृक्ष, 
भारत की एकता, माता भूमि, वाग्धारा आदि।
2. शोध पाणिनिकालीन भारत
3. सम्पादन जायसीकृत पद्मावत की सजीवनी व्याख्या, बाणभट्ट के हर्षचरित का सांस्कृतिक अध्ययन। इसके अतिरिक्त इन्होंने पालि,
प्राकृत और संस्कृत के अनेक ग्रन्थों का भी सम्पादन किया। भाषा-शैली डॉ. अग्रवाल की

भाषा-शैली उत्कृष्ट एवं पाण्डित्यपूर्ण है। इनकी भाषा शुद्ध तथा परिष्कृत खड़ी बोली है। इन्होंने अपनी भाषा में अनेक प्रकार के देशज शब्दों का प्रयोग किया है, जिसके कारण इनकी भाषा सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक लगती है। इन्होंने प्रायः उर्दू, अंग्रेजी आदि की शब्दावली, मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग नहीं किया है। इनकी भाषा विषय के अनुकूल है। संस्कृतनिष्ठ होने के कारण भाषा में कहीं-कहीं अवरोध आ गया है, किन्तु इससे भाव प्रवाह में कोई कमी नहीं आई है। अग्रवाल जी की शैली में उनके व्यक्तित्व तथा विद्वता की सहज अभिव्यक्ति हुई है। इसलिए इनकी शैली विचार प्रधान है। इन्होंने गवेषणात्मक, व्याख्यात्मक तथा उद्धरण शैलियों का प्रयोग भी किया है। हिन्दी-साहित्य में स्थान पुरातत्त्व-विशेषज्ञ डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल

हिन्दी साहित्य में पाण्डित्यपूर्ण एवं सुललित निबन्धकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। पुरातत्त्व व अनुसन्धान के क्षेत्र में, उनकी समता कर पाना अत्यन्तकठिन है। उन्हें एक विद्वान् टीकाकार एवं साहित्यिक ग्रन्थों के कुशल सम्पादक के रूप में भी जाना जाता है। अपनी विवेचना-पद्धति की | मौलिकता एवं विचारशीलता के कारण वे सदैव स्मरणीय रहेंगे।

(घ) हरिशंकर परसाई

जीवन-परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ मध्य प्रदेश में इटारसी के निकट जमानी नामक स्थान पर हिन्दी के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1924 को हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश में हुई। नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. करने के बाद उन्होंने कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य किया, लेकिन साहित्य सृजन में बाधा का अनुभव करने पर इन्होंने नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन प्रारम्भ किया। इन्होंने प्रकाशक एवं सम्पादक के तौर पर जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका का स्वयं सम्पादन और प्रकाशन किया, जो बाद में आर्थिक कारणों से बन्द हो गई। हरिशंकर परसाई जी ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखते रहे। 10 अगस्त, 1995 को इस यशस्वी साहित्यकार का देहावसान हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ व्यंग्यप्रधान निबन्धों के लिए प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले परसाई जी की दृष्टि लेखन में बड़ी सूक्ष्मता के साथ उतरती थी। उनके हृदय में साहित्य सेवा के प्रति कृतज्ञ भाग विद्यमान था। साहित्य-सेवा के लिए परसाई जी ने नौकरी को भी त्याग दिया। काफी समय तक आर्थिक विषमताओं को झेलते हुए भी ये ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन एवं सम्पादन करते रहे। पाठकों के लिए हरिशंकर परसाई एक जाने-माने और लोकप्रिय लेखक हैं। कृतियाँ परसाई जी ने अनेक विषयों पर रचनाएँ लिखीं। इनकी रचनाएँ देश की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। परसाई जी ने अपनी कहानियों, उपन्यासों तथा निबन्धों से व्यक्ति और समाज की कमजोरियों, विसर्गतियों और आडम्बरपूर्ण जीवन पर गहरी चोट की हैं। परसाई जी की रचनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है। |
(i) कहानी-संग्रह हँसते हैं, रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे।
(ii) उपन्यास रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज।
(iii) निबन्-संग्रह तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमान की परत, पगडण्डियों का जमाना, सदाचार की ताबीज, शिकायत मुझे भी है, और अन्त में।

भाषा शैली परसाई जी ने क्लिष्ट व गम्भीर भाषा की अपेक्षा व्यावहारिक अर्थात् सामान्य बोलचाल की भाषा को अपनाया, जिसके कारण इनकी भाषा में सहजता, सरलता व प्रवाहमयता का गुण दिखाई देता है। इन्होंने अपनी रचनाओं में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया है, जिससे रचना में रोचकता का पुट आ गया है। इस रोचकता को बनाने के लिए परसाई जी ने उर्दू व अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों तथा कहावतों एवं मुहावरों का बेहद सहजता के साथ प्रयोग किया है, जिसने इनके कथ्य की प्रभावशीलता को दोगुना कर दिया है। इन्होंने

अपनी रचनाओं में मुख्यतः व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया और | उसके माध्यम से समाज की विभिन्न कुरीतियों पर करारे व्यंग्य किए। हिन्दी-साहित्य में स्थान हरिशंकर परसाई जी हिन्दी-साहित्य के एक प्रतिष्ठित व्यंग्य लेखक थे। मौलिक एवं अर्थपूर्ण व्यंग्यों की रचना में परसाई जी सिद्धहस्त थे। हास्य एवं व्यंग्यप्रधान निबन्धों की रचना करके इन्होंने हिन्दी-साहित्य में एक विशिष्ट अभाव की पूर्ति की। इनके व्यंग्यों में समाज एवं व्यक्ति की कमज़ोरियों पर तीखा प्रहार मिलता है। आधुनिक युग के व्यंग्यकारों में उनका नाम सदैव स्मरणीय रहेगा।।

उत्तर 6.
(क) जगन्नाथदास ‘रत्नाकर
जीवन-परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ आधुनिक काल के ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में 1866 ई. (विक्रम सम्वत् 1923) में हुआ था। ‘रत्नाकर’ जी के पिता श्री पुरुषोत्तमदास भारतेन्दु जी के समकालीन, फारसी भाषा के विद्वान् और हिन्दी काव्य के मर्मज्ञ थे। स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद 1891 ई. में वाराणसी के क्वीन्स कॉलेज से बी. ए. की डिग्री प्राप्त करके वर्ष 1902 में अयोध्या-नरेश के निजी सचिव नियुक्त हुए और वर्ष 1928 तक इसी पद पर रहे। राजदरबार से सम्बद्ध होने के कारण इनका रहन-सहन सामन्ती था, बेकिन इनमें प्राचीन धर्म, संस्कृति और साहित्य के प्रति गहरी आस्था थी। इन्हें प्राचीन भाषाओं का का ज्ञान था तथा ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाओं में गति भी थी। वर्ष 1932 में इनकी मृत्यु हरिद्वार में हुई।

साहित्यिक गतिविधियों इन्होंने ‘साहित्य-सुधानिधि’ और ‘सरस्वती’ के सम्पादन, “रसिक भल’ के पालन शा ‘शी नागरी प्रमारिणी सभा की स्थापना एवं उसके विकास में योगदान दिया।
कृतियाँ गद्य एवं पद्य दोनों दिशाओं में साहित्य सृजन करने वाले रत्नाकर जो मूलतः वे थे। इनकी प्रमुख कृतियों में हिण्डोला, समालोचनादर्श, हरिश्चन्द्र, गंगालहरी, श्रृंगारलहरी, विलहरी, राष्ट्रक, गंगावतरण त्या व शत; लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने सुपार, दिलकण्टाभरण, दीप मश, सुन्दरगार, हमीर हल, पकी गद्यायली, रस-विनोद, हि-तरांगेणी, बिहारी नार आदि ग्रन्थों का सम्पादन भी किया।  काव्यगत विशेषताएँ झाले. मात्रजगन्नाथ ना भावों के कुशल वितरे होने के कारण उन्होंने मानव के हृदय के सभी कोनों को झाँककर अपने ‘काव्य में ऐसे चित्र प्रस्तुत किए हैं। कि पाठक नन्हें पढ़ते ही भा-विभोर हो जाते हैं।

1. काय का विशुद्ध शुद्ध कप रत्नाकर जी के काय का धर्म विषय भक्ति कक्ष के अनु। भति, श्रृंगार, भ्रमर गीत आदि से सम्मानित है और इनके दर्गन करने की शैली रीतिकाल के समय ही हैं। अतः उनके विषय में यह सत्य ही कहा गया है  आत्मा को रीतिकाल के बोरों में अश्ति कर दिया है। एनके काव्य का विषय शुद्ध में पौराणिक है। उन्होंने उद्ध्व-शतक, गंगावतरण, हरिश्चन्द्र आदि रचनाओं में पौराणिक कथाओं ही अपनाया है। बनाकर स्त्री के काम में vita भावना के साथ साथ रीय भावना भी मिली है।

2. भाव चित्रण नागर जी भाऊ के कुशल चितरे थे। उन्होंने अपने काव्य में क्रोध, प्रसन्नता, क्षत्साहू, शोक, प्रेम, मृणा आदि मानवीय व्यापारों के सुन्दर चित्र उपस्थित किए हैं।

जैसे- दृक्-ट इवै हैं मन मु मारे काय,
कि हैं कठोर है-पाहम चलाना।
एक मनन त बसि के उपारी ,
हिय में अने। मन तान बसवी ना।

3. प्रकृते चित्र बनाकर जी ने अपने शय में प्रत का अत्यन्त ही मनोहारी वर्णन किया है। उनके प्रति चित्रण पर रीतिकालीन प्रभाव त्यष्ट रूप से दिखाई देती हैं।

4. रत्त इनके काव्य में लगभग सभी रसों को समुचित स्थान प्राप्त है, किन्तु संयोग मृगार की अपेक्षा विलम्म श्रृंगार में अधिक सजीवता व मार्भिकता है तथा वीर, रौद्र व भयानक रसों का भी सु-वर वर्गन हैं।

कला पवा

1. भाषा रत्नाकर जी भाषा के मर्मज्ञ तथा शब्दों के आचार्य थे। सामान्यतया । इन्होंने काव्य में पौद साहिरिगक ब्रजभाषा को ही अपनाया, लेकिन . जह-हीं बनारशी बोली का भी समावेश होता है। भाषा 
याकरण-सम्मत, मधुर एवं प्रवाहयुक्त है। वाक्य विन्यास सुसंगठित एवं प्रवाहपूर्ण है। कहावत एवं मुहावरों का भी कुशल प्रयोग किया है।

2. छन्द योजना इन्होंने मुदतः रोल, छय, दोहा, कवित्त एवं संवैया के अपनाया। उद्धव शक और गारली में रत्नाकर जी ने अपना सर्वाधिक | भय छन्द कविता का प्रयोग किया।

3. अलंकार योजना अलंकरों का समावेश अत्यन्त स्वाभाविक तरीके से हुआ | हैं, इन्होंने मुख्यतः रूपक, अपेक्षा, उपमा, असंगटि, स्मरण, मतप, अनुप्रास, इले, यमक आदि का प्रयोग किया। इनकी रचनाओं में प्राचीन और मध्ययुगीन समस्त भारतीय साहित्य का सौष्ठव बड़े स्वत्य, सनुवल एवं मनोरम रुप में उपलब्ध होता है।

4. शैली रत्नाकर जी के काव्य में पित्रामक, आलंकारिक व चामत्कारिक शैली का प्रयोग किया गया है। हिन्दी साहित्य में स्थान रत्नाकर जी हिन्दी के छन जंगमगाते रत्नों में से एक हैं, जिनकी आभा चिरकाल तक बनी रहेगी। अपने व्यक्तित्व तशा अपनी मान्यताओं को इतने में सफल गाणी प्रदान की है। उस छाप इनकी साहित्यिक रचनाओं में स्पष्ट रूप से देखी जा । सकती हैं।

(ख) सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

जीव-परिचय एवं साहित्यिक उपलयि साँच्चदानन्द रानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्म वर्ष 1911 में हुआ था। इनके पिता पति नन्द शास्त्री प तारपुर (जालन्धर) अगर के निवासी और बम गीध रात ATHLण थे। आग्नेय का जीवन एवं व्यक्तित्व बचपन से ही अन्तर्मुखी एवं आत्मकेन्द्रित होने लगा था। भारत की स्वामीना की । एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन में भाग लेने के कारण इन 4 तक जेल में दावा 2 वर्षों तक घर में नज़रबन्द रखा गया। इन्होंने बी.एस.सी. करने के बाद अग्रेजी, हिन्दी एवं संस्कृत का स्वाया।

गन ध्ययन किया। ‘सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’ और अंग्रेजी त्रैमासिक ‘वाक’ का शम्पादन किया। इन्होंने समाचार साप्ताहिक ‘दिनमाग’ और ‘नया प्रतीक’ पत्रों का भी सम्पादन किया। तत्कालीन प्रगतिवादी काव्य का ही एक साप ‘प्रयोगवाद’ काव्यान्दोलन के कप में प्रतिफलित हुआ। इंसा प्रवर्तन ‘तार सप्तक’ के माध्यम से ‘अज्ञेय’ ने किया। तार शतक की भूमिका इस नए आन्दोजन का शोषणा-पत्र सिद्ध हुई। हिन्दी के इस महान विभूति का स्वर्गवान 4 अप्रैल, 1947 को हो गया। साहित्यिक गतिविधियाँ अज्ञेय प्रयोगशील नूतन परम्परा के वर्ग वाहक होने के साथ-साम अपने पh भनेक कवियों को लेकर चलते हैं, जो उन्हीं के समान नवीन विषयों एवं नवीन शिष्य के समर्थक हैं। अज्ञेय छन नामों में से हैं जिन्होंने मुनिक हि-साहित्य को एक नया आयाम, नया सम्मान एवं नया गौरव प्रदान किया। हिन्दी साहित्य को आधुनिक बनाने का श्रेय अग्नेय को जाता है। अज्ञेय का कवि, साहित्यकार, गकार, सम्पादक, पत्रकार भी रूप में। महत्वपूर्ण स्थान हैं। कृतिय । ‘अज्ञेय’ ने साहित्य के गद्य एवं पद्य दोनों किओं में लेखन कार्य किए।

1. कविता संग्रह भग्नदूत, चिन्ता, इत्यलम्. हरी इस पर भार, बावरा आहे, इन्द्र धनु रौंदे हुए थे, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, जरी को करेगामय प्रभामय।।
2. अंग्रेज़ी काष्यति ‘निजन डेज एण्ड अदर पोवन’
3. निबन्ध संग्रह सब रंग और कुछ राग, आत्मनेपद, लिखि कागद 
आदि।
4. आजोबना हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, त्रिशंकु आदि।
5. छपन्यास शेखर : एक जीवनी (दो भाग), नदी के द्वीप, | अपने अपने अजनबी आदि।
6. कहानी संग्रह विप्शगा, परम्परा, कोवरी की बात, शरणार्थी, | जयदल, तेरे ये प्रतिप, अमर अक्षरी आदि।।
7. यात्र-साहित्य अरें यायावर! रहेगा याद, एक बूंद सहसा ली। काव्यगत विताएँ
मा पह
1. मानवतावादी दृष्टिकोण इनका दृष्टिकोण मानवतावादी श्रा। 
इन्होंने अपने सुहम कलात्मक बोध, व्यापक जीवन-अनुभूति, समृद्ध कल्पना-शक्ति तथा सहज लेकिन संकेतमयी अभिव्यंजना द्वारा भावनाओं के नान एवं अगर आप को उजागर किया।

2. व्यक्ति की निजता को महत्व अज्ञेय ने समष्टि के महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी मन ही ना या मा यति -ए। रखा। व्यक्ति के मन की गरिमा को इन्होंने फिर से सापित किया। ये निरन्तर व्यक्ति के मन के विकास की यात्रा को महत्त्वपूर्ण मानकर यज्ञ हैं।

 3. रहस्यानुभूति अज्ञेय नै संसार की सभी वस्तुओं को ईश्वर की देन माना हैं ता कवि ने प्रति ही विराट सत्ता के प्रति अपना सर्व अर्पित किया हैं। इस प्रकार आनेय की रचनाओं में रहस्यवादी अनुभूति की प्रधानता दृष्टिगोचर होती हैं।

4. प्रकृति पित्रण अज्ञेय की रचनाओं में प्रकृति के विविध चित्र मिलते हैं, उनके काव्य में प्रकृति की आनन्यन बनकर चित्रित होती है, तो कभी दीपन बनकर। अज्ञेय ने प्रकृति का मानवीकरण र तसे प्रागी की भाँति अपने काव्य में प्रस्तुत किया है। प्रकृति मनुष्य की ही तरह व्यबसर करती दृष्टिगोचर होती है।

कल पक्ष  

1. नवीन काव्यधारा का प्रवर्तन इन्होंने मानवीय एवं प्राकृतिक जगत के 
यन्दनो के बोतवाल की भाषा में तथा बार्तालाप एवं स्वागत शैली में व्यक्त किया। इन परम्परागत आलंकारिकता एवं जाकता के आतंक से कामशिला को मुक्त कर भाग व्यापार का प्रवर्तन किया।
2. भाषा इनके काव्य में भाषा के तीन सार मिलते हैं 

  •  संस्कृत में परिनिति शब्दावली
  • ब्राम्य एवं देश व्यों का प्रयोग 
  • बोलचाल व व्यावहारिक भाग।

3. शैली के काध्य में दिवि काव्य शैलिय; जैसे—ायावादी साक्षामिक शैली, भावात्मक शैली, प्रयोगवादी सपाट शैली, व्यंग्यात्मक शैली, प्रतीकात्मक शैली व स्त्रियात्मक शैनी मौजूद है। “

4. प्रतीक एवं बिम्ब अय जी के काव्य में प्रतीक एवं बिम्ब योजना दर्शनीय | है। इही बचे एवं गह। स्तुत किए तथा सार्थक प्रतीवों का प्रयोग किया।

5. अलंकार एवं छन्द इनके य में उपमा सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इसके राथ-साथ रूमक, तुल्स , उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, विशेषण विपर्यय भी प्रयुक्त हुए हैं। इन्होंने मुक्त छन्दों का खुलकर प्रयोग किया है। इसके अलावा गीतिका, बथै, हरिगीतिका, मालिनी, शिखरिणी अदि दों का भी प्रयोग किया। हिन्दी साहित्य में स्थान अज्ञेय जी नई कविता के कर्णधार माने जाते हैं। ये प्रत्यः का यथावत् चित्रण करने वाले सर्वप्रथम साहित्यकार थे। देश और समाज के प्रति इनके मन में अपार ।’नई will’ के 15 के रूप में इन्हें सदा याद किया जाता रहेगा।

(ग)
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जीवन परिचय एवं साहित्यिक पतयि द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि और लेखक अयोग्रासिंह उपाय ‘हरिऔ” म जन्म 1565 ई. में छत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में निजामाबाद नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम पति गोलासिंह उपाध्याय तथा माता का नाम रुक्मिणी देवी था। स्वाध्याय से इन्होंने हिन्दी, संत, नरसी और अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। इन्होंने अगभग 30 वर्ष तक का-गों के पद पर ये किया। इनके जीवन वा ध्येय अध्यापन ही रहा। इसलिए इन्होंने अशी हिन्दू विश्वविधालय में अवैतनिक रूप से व्यापन कार्य किया। इनमें बना नियमवास’ पर इन्हें हिन्दी के सर्वोत्तम पुरस्कार ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया। इनका नश्वर शरीर वर्ष 1947 में परमात्मा में लीन हो । सहित्यिक गतिविमि प्रारम्भ में ‘हरिऔप’ ची ब्रा भाषा में काव्य धन्दा किया करते थे, परन्तु बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने यहीबौनी हिन्दी में मय बना की। इरिऔध जी के काव्य में लोकमंगल का स्वर मिलता हैं। कृतिय हरिऔध जी की 15 से अधिक लिखी रचनाओं में तीन रचना विशेष रूप से 

‘पाति ‘ तमा वैदे दनवास) ‘प्रियप्रवास’ खड़ीबोली में लिखा गया पहला महाअ हैं, जो 17 सग में विभाजित है। इसमें राधा कृष्ण को सामान्य नायक नायिका के स्तर से कर विरोधी एवं विश्व में के रूप में चित्रित किया गया है। भय काव्यों के प्रतिदिन इनकी म कविता के अनेक प्रचौपदे’, ‘मुमते चौपई’, ‘प-प्रसून’, ‘ग्रा–गीत’, ‘कन्यनता’ आदि लेबनीय हैं।

नाट्य कृतियाँ ‘प्रद्युम्न विजय’, ‘रुक्मिणी परिणय
उपन्यास ‘मैमकान्ता’, ‘वैत हिन्दी का ज्ञात’ तथा ‘अधरिला फुल काव्यगत विताएँ ।

भाव पक्ष  
1. वयं विषय की विविधता निजय जी की प्रमुख विशेषता है। इनके काव्य में प्राचीन क्यानकों में नवीन उदभावनाओं के दर्शन होते हैं। इनकी दयनाओं में इनके आध्य भगवान मात्र न होकर जननायक एवं जनसेवक हैं। छहॉर्न -राधा, राम-सीता से सम्बन्धित विषयों के साथ-साथ आधुनिक समस्याओं को लेकर उन पर नवीन ढं। ॥ अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

2. वियोग और नाम गर्ग  के अब में वियोग एवं वास का वर्णन मिलता है। उन्होंने निय प्रवास में कृष्ण के मा गमन तथा उसके बाद अन । दशा का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। रिऔध जी ने कुश के वियोग में इस सम्पूर्ण अवासियों का क्या पुत्र वियोग में व्यथित यशोदा क करुण मित्र भी प्रस्तुत किया है।

3. नोक सेवा की भावना हरिऔध जी ने गण को ईश्वर के रूप में न देखकर आदर्श मान्य एवं लोक-सेवक के रूप में अपने काव्य में चित्रित किया है।

4. प्रकवि-विनर जी प्रकृति वित्रण सराहनीय है। उन्हें काव्य में वह भी अवसर मिला, उन्होंने प्रवृति का चित्रण किया है साथ ही इसे विविध रू में भी अपनाया है। हरिऔध जी का प्रति चिन जीव एवं परिस्थितियों के अनुकूल है। प्रत सम्बन्धित प्राणियों के सुख में सुखी एवं दु:ख में दुखी दिखाई देती हैं। कृष्ण के वियोग में ब्रश के वृक्ष भी रोते हैं| “यूनों-पापों सकन पर हैं वादिदें लखानी, होते हैं या विपद सब र्यो आँसुओं में दिखा के

कल पक्ष  
1. भाषा कैव्य के 3 में भाव, भाषा, शैली,एवं अलंकारों की दृष्टि से हरेक गी की अव्व साधना महान् हैं। इनकी रचनाओं में कोमलकान्त पदावनीगुका ब्रजभाषा (रसङ्गलश) के साथ संस्कृतनिश खड़ी बोली का प्रयोग (भियान’, वैदेही बन्यास) द्रव्य है। इन्होंने मुहावरेदार बोलचाल की सीबोली “चोसे चौपद’, ‘चुभते चौपई) का प्रयोग किया। चिलिए आचार्य शुजन ने इन्हें ‘विकलात्मक काना’ में सिद्धहस्त कहा है। एक और सरन एवं प्रजित हिन्दी का प्रयोग, तो दूसरी और संस्कृतनिष्ट शब्दावली के साथ साथ सामासिक एवं आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग भी हैं।

2. शैली इन्होंने प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों शैलियों का सत प्रदी। अपने फध्य में किया। इसके अ त के झों में इतिवृशामक, मुहावरेदार, संस्क यनिष्ठ, समकारपूर्ण एवं सरल हिन्दी शैलियों का अभियोजना शिल्य होने दृष्टि से सफल प्रयोग मिलता हैं।

3. छन्द सवैया, वित्त, पय, दोहा आदि इनके प्रिय द हैं। और इन्द्रवी, शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, मासिनी, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बिया आदि संस्कृत वर्णवृत्तों का प्रयोग भी इन्होंने किया।

4. अलंकार इन्होंने शब्दालंकार एवं अर्यालकर दोनों का भरपुर एवं स्वाभाविक प्रयोग किया है। इनके अव्यों में उपमा के अतिरिक्त पक, धा, अपति, मतिरेक, सन्देह, स्मरण, प्रीप, दृष्टान्त, निदर्शना, अन्तरन्यास आदि अलंकारों का भानार्थक प्रयोग मिलता है।

हिन्दी साहित्य में स्क्यान इरिस जी अपने जीवनकाल में ‘कवि सम्राट’, ‘साहित्य वाचस्पति’ आदि च्यापियों से सम्मानित हुए। हुरिया जी अनेक सायिक समाओं एवं हिंदी साहि सम्मेलनों के सभापति भी है। इनकी साहित्यिक सेवाओं का ऐतिहासिक | महत्व है। निसन्देह ये हिन्दी साहित्य की एक महान विभूति है।।

(घ)
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
जीवन परिचय एवं साहित्यिक एपलब्धिय राष्ट्रीय भागमाओं के औजस्वी कवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में  सितम्बर, 1908 को हुआ था। वर्ष 1932 में पटना कॉलेज से बी.ए. किया और फिर एक स्कूल में अध्यापक हो गए। वर्ष 1960 में इन् मुजफ्फरपुर के नातलेत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग का यह निगुका किया गया। 4 15  राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। वर्ष 1972 में इन्हें ‘ ती’ पुरस्कार मिला।। 21 अप्रैल, 1974 को भी परागन का शह दिनकर । के लिए अस्त है।

साहित्यिक गतिविधियाँ रामधारी सिंह दिनकर छायावादोत्तर काल एवं प्रगतिवादी कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि थे। दिनकर जी ने राष्ट्रप्रेम, लोकप्रेम आदि विभिन्न विषयों पर का न्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कवेतों की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों स सानाबाना दिया। ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना र्वशी की कहानी मानवीय मैम, वासना और सम्बों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। कृतियाँ दिनकर जी ने काव्य एवं गद्य दोनों क्षेत्रों में सशक्त साहित्य का जन किया। इनमें प्रमुख काय रचनाओं में मुका, रसदनती, हुँबर,दव, रश्मिरथी, शी, परशुराम की प्रतीक्षा, नील कुसुम, वाल, साहनी, सीपी और शंख, हारे को हरिनाम आदि शामिल हैं।

 1. रैगुका इसमें अतीत के गौरव के प्रति कवि का आदर भाव या वर्तमान वर नीरता से दुखी मन की वेदना व्यक्त हुई हैं।
2. होकार इसमें कांत ने वर्तमान दशा के प्रति आक्रोश व्यक्त किया है।
3. सामर्षेनी इसमें सामाजिक चेतना, स्वदेश-प्रेम तथा विश्व वेदना की | वताएँ हैं।
4. मेत्र में ‘भाभारत’ के ‘शान्ति पर्व’ के ना को आधार 
बनाकर वर्तमान परिवतियों का चित्र है।
5. उर्वशी एर्ग रश्मिरी में प्रसिद्ध प्रबन्ध काव्य हैं, जिनमें विचार तत्व की । 
धानता है।
दिनकर की गह्म रचनाओं में ‘साहो के चार आयाय अत्यन्त एलनीय हैं। यह आलोचनात्मक हुन्थ है। इसके अतिरिक्त भी इन्होंने अनेक माध सम्बन्धी पुस्तकें लिखी काव्यगत

विशेषताएँ भात
भाव पक्ष  
1. राष्ट्रीयता का स्वर राष्ट्रीय भेना के कवि दिनकर जी शर्यता से 
सबसे बड़ा धर्म समझते हैं। इनकी कृति , ननिदान एवं राष्ट्रप्रेम की भावना से परिपूर्ण हैं। दिनकर जी ने भारत के कण आग को जगाने ल प्रयास किया। इनमें हृदय एवं बुद्धि का अद्भुत समन्वय था। इसी कारण इनका कवि कप जितना सजग है, विचारक रूप उतना ही प्रखर है।

2. प्रगतिशीलता दिनकर जी ने अपने समय के प्रगतिशील दृष्टिकोण को अपनाया। इन्होंने सहते रबलिहानों, अर्जरका गृषकों और शोषित मज़दूरों के कार्मिक चित्र अंकित किए हैं। दिनकर जी की ‘हिमालय, ‘ताण्डव’, ‘बोधिसत्य’, ‘कमै वैवा’, ‘पाटलिपुत्र की गंगा’ आदि वनाएँ प्रगतिवादी विचारधारा पर आधारित हैं।

3. प्रेम एवं सौन्दर्य ओज एवं क्रान्तिकारिता के कवि होते हुए भी दिनकर जी के अन्दर एक सुकुमार पनाओं का कवे भी मौजूद हैं। इसके | द्वारा रचित काव्य ग्रन्थ ‘रसवती’ तो प्रेम एवं मृगार की खान है।

4. रस-निरुपण दिनकर जी के काव्य का मूल स्वर ओज़ हैं। अतः ये मुख्यतः वीर रस के कवि हैं। श्रृंगार रस का भी इनके झयों में सुन्दर परिपाक हुआ है। वीर रका के राक के ध्र रस, न मान्य की व्या मि  कण वैग्य पान १ पर शान्त  योग मिलता है।

कला पक्ष 
1. भामा दिनकर जी भाषा के मर्मज्ञ हैं। इन भाषा सरल, सुबोध 
एवं व्यावहारिक है, जिसमें सर्वत्र भावानुकुलता का गुण पाया जाता हैं। इनकी भाषा प्रायः संस्कृत की तत्सम शब्दावली से युक्त है, परन्तु दिवस के अनुरूप इन्होंने न केवल तद्भव अपितु ई. बांग्ला और अंग्रेज़ी के प्रदलित शब्दों के भी प्रयोग किए हैं।

2. शैली औज एवं प्रसाद इनकी शैली के प्रचाना गुण हैं। मन्स और मुक्तक दोनों ही काव्य शैलियों में इन्होंने अपनी रचनाएँ। सफलतापूर्वक पर की है। गीत मुक्तक एवं पाय मुक्तक दोनों  भय है।

3. छन्द परम्परागत छन्दों में दिकर जी के प्रिय न्द है-नीतिका, सार, सरसी, हरिगीतिका, रोना, उपमाला आदि। नए छन्दों में अतुकात मुकक, चतुदी आ ॥ प्रगगि बिरयाई पड़ता है। प्रीति इन स्वनिर्मित न्द है, जिसका प्रयोग ‘रसवनी’ में किया माना है। कहीं- I, ।, 18 जैसे लोक प्रचलित छद भी मक हुए हैं।

4. अलंकार आले जरों का प्रयोग इनके काव्य में चमत्कार-प्रदर्शन के लिए नहीं, बल्कि कविता की योजना शक्ति बढाने के लिए या काव्य की शोभा बढ़ाने के लिए किया गया है। उपमा, रूप, उमेरा, ट्रान्त, तिरेक, दि अलंकारों का प्रयोग इनके काम में शामिक कप में 1आ है। हिन्दी साहित्य में स्थान रामधारीसिंह ‘दिनकर’ की गणना भनेक य के रात में भी है। विशेष रूप से राष्ट्रीय चेतना एव ।रने वाले पैरों में इनका विशिष्ट स्थान है। ये भारतम्  के रक्षक, अतिकारी चिन्तक, अपने दुग का प्रतिनिमित्व करने वाले हिंदी के गौरव हैं, जिन्हें पाकर हिन्दी वास्तव में धन्य हो गई।

उत्तर 7.
(क)
‘दिलवहादुर’ से ‘बहादुर’ बनने की प्रक्रिया दिलबहादुर लगभग 12-3 वर्ष का एक पहा । है  पिता की यह में। मृत्यु हो चुकी है और उसकी माँ अहुत गुस्सै गभग की है। माँ की पिटाई की दE से वह घर से भाग कर एक मध्यमवर्गीय परिवार में नौकर बन जाता है, जहाँ गृहस्वामिनी निर्मला बड़ी उदारता के साथ जसके नाम से दिन’ शब्द हटाकर उसे सिर्फ बहादुर पुकारती हैं। अब स्वतन्त्र दिलबहादुर’ नौकर ‘बहादुर’ बन गया।

परिश्रमी एवं मुख बहादुर बहादुर अपना परिश्रमी सका है, जो अपनी मेहनत से पूरे घर को न केवल साफ़ सुथरा रखता है, बल्कि पर के सभी सदस्यों की भी मा को पूरा करता हैं। उसके आने से परिवार के सभी सदन ई है। अमित एवं कामचोर या आलसी बन गए हैं। राना काम करने के माम[द गर हमेशा सका हा हैं। हैंगना और सान्ना मानो उसकी आदत बन गई थी। वह त में सोते समय ये-कई गीत अवश्य गुनगुनाता है।

किशोर की बदतमीज़ी निर्मला का बड़ा लड़का किशोर एक बिगड़ा हुआ न था, जो शा-शौकत तया रोथ से ना पसन्द करता था। उसने अपने सारे काम बहादुर को सौंप दिए। यदि बहादुर उसके काम में थोड़ी सी भी लापरवाही न्रता, तो वह बहादुर को गालियों देता। छोटी-छोटी गलती पर वह वहादुर क पीटता भी था। बहादुर पिटाई खाकर एक कोने में चुपचा।  और  देर बाद घर के म में पूर्ववत् जुट जाता। एक दिन किशोर ने बहादुर के ‘भर का अवा’ कह दिया, जिससे उसके शामिमांग की है। पा और उसने किशोर फा के रने से मना कर दिया। उसने लेखक के पड़ों पर नौते हुए कहा कि “बाबूजी, मैया ने मेरे मरे बाप को क्यों जाकर खड़ा किसा?” इतना कहकर वहे.

निर्मला के रिश्तेदार द्वारा चोरी का आरोप लगाना निर्मला के व्यवहार में भी अन्तर आने लगा और अब उसने बहादुर के लिए रोटियाँ सेंकनी बन्द कर दीं। वह भी बहादुर पर pथ उठाने लगी। मारपीट एवं गालियों के कारण बहादुर से गलतियों एवं भूलें अधिक होने लगी |

एक दिन निर्मला के घर उसके रिश्तेदार अपने परिवार के काथ आए। घाय-नाश्ते के बाद बातचीत के दौरान अचानक रिश्तेदार के पत्नी ने अपने | ग्यारह रुपये पर में खो जाने की बात कही। सभी ने दूर पर ही शक किया। बहादुर के झगातार मना करने के बावजूद उसे इराया, घमकाया एवं | पीटा गया, कि बहादुर पर लगा यह आरोप झूठा झा, इसलिए वह लगातार इससे इनकार करता है। अन्त में लेखक ने भी उसे पीटा।

बहादुर के प्रति घरवालों का झा यार त घटना के बाद से घर के सभी सदस्य बहादुर को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे और उसे कुत्ते की | तरह दुरचरने लगे। बहादुरी बड्या ही खिन्न रहने झगा। अब उसके अन्दरपरिवार के लोगों के प्रति अपनापन नहीं रहा। अन्दर से वह अड़ी बैनी एने अपन महसूस करता था। |

बहादुर का घर से भाग जाना एक दिन उसके हाथ से शिल पृटकर गिर गई और उसके दो टुकड़े हो गए। पिटाई के इर तथा रोगों के क्रूर एवं असम्य व्यवहार से तग आकर वह अपना सारा सामान घर में ही छोडवर काहीं चला गया। वह अपना भी कोई सामान लेकर नहीं गया था। निर्मला, उसके पति एवं | किशोर को उसकी ईमानदारी पर विश्वास हो गया था। वे जानते थे कि रिश्तेदार के रुपये उसने नहीं चुराए थे। समी बहादुर पर स्वयं द्वारा किए गए अत्यामा के लिए पाताप करने लगे।

कथानायक कप्तान जोशी की पत्नी को वाय रोग हो जाना क्यान्यक कप्तान जोशी अपनी पत्नी ‘मानो’ से अत्यधिक प्रेम करते हैं। विवाह के तीसरे दिन ही क्यान में युद्ध हेतु बस जाना पया, तब वानों सिर्फ 16 वर्ष की थी। अपने पति | अनुपस्थिति में बानो ने ननदों के ताने सुने, मतीनों के कपये मोर, ससुर के हज बने, पहाड़ की दुली छतों परसैर बद पीसकर बद्रिय बनाई |आदि। से मानसिक तना भी दी गई कि ससका पति जापानियों द्वारा कैद | कर लिया गया है और वह कभी नहीं आएगा। इन सब कारणों से निरन्तर घुलती रही बानो क्षय रोग से पीड़ित होकर चारपाई  लेती हैं।

कप्तान का पानी के प्रति अगाध प्रेम प्तान अपनी पत्नी ‘बानो से अत्यधिक प्रेम करता है। जब वह दो वर्ष बाद लौटकर घर आता है, तो उसे पता चलता है कि घर वालों ने बानों के क्षय रोग होने पर सैनेटोरियम भेज दिया है। यह | दूसरे दिन ही व पाच गया। उसे देखकर बानो के बने और की धारा में दो साल के सारे डझाइने सुना दिए। सैनेटोरियम के डॉक्टर द्वारा बानों की मौत नज़दीक आने की स्थिति में कम साली करने म उसे नोटिस में दिया गया। कप्तान ने भूमिका बनाते हुए बानो से कैसे कि अब पहा मन नहीं लगा है। ल किसी और जगह चलेंगे। वह नि–त अपनी पन की वा ॥ बिना कोई परहेज एवं पधानी बरते । 

बानो द्वारा आगल्या का प्रयासू करना बन्नी मा गरे नि उसे भी | सैनेटौरिम घोड़ने का नोटिस मिल गया है, जिसका अर्थ हुआ कि जब वह भी | मी चै कप्तान में रात 1 बा ॥ बलाता है, उससे अपना प्यार जाता रहा। म शान को लगा कि यानी सो गई, तो वह भी सोने मला जाता है। सुबह छड़ने पर सानो आप पलंग पर भी मि। इस दिन भी घाट पर थानों की साड़ी नि। काम्  भी नहीं मिली, तो उसने | मझा बानो नदी में बकर मर गई।

नाटी’ के रूप में ‘वानों का मिलना जब कप्तान को पूरा विश्वास हो गया कि बानो अब इस दुनिया में नहीं है, तो घरवालों के जोर देने से उसने दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी प्रभा से इसे दो बेटे एवं एक बेटी है। और यह भी कप्तान से अब मेजर हो गया है। लगभग वर्ष बाद नैनीताल |में बैंगवियों के दल में छु। ‘लाटी’ मिलती है, जो यथार्थ में ‘बानौ“ धी। असे वैदियों के बीच बानों जब ‘लाटी’ के रूप में मिलती है, तो मेजर उसे पहचान नेता हैं। पता चलता है कि गुरु महाराज ने अपनी औषपियों से उसका क्षय रोग ती कर दिया था, लेकिन इस मया में उसकी स्मरण शक्ति और आवाज़ दोनों चली गई। अब न तो वह बोल पाती हैं और न ही उसे अपना अतीत याद हैं। वह वैष्णवियों के दल के साथ चली जाती है और मेजर स्वयं को पहले से अधिक दूदा एवं खोखला महसूस करता है।

अथवा
मानवीय संवेदनाओं के कथा शिल्पी भीष साहनी की कहानी सुन का रिश्ता’ में वीरजी प्रमुख पात्र हैं, जिसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ उलेखनीय है

शिक्षित युवक धीरज वास्तव में बहुत अच्छा एवं आदर्श नवयुवक है, जो सही अर्थों में शिक्षित है। वह नवयुवक पर-परिवार के झगभग सभी सदस्यों का विरोध करता हुआ अशेने दहेज के विरुद्ध विद्रोह करता है क्या सभी को अपन। सुसंगत निर्णय मानने के लिए बाध्य करता है। इसके कहने पर ही नि चाचा मंगलसेन उसके पिताजी के साथ राम के घर सगाई लेकर जा पाते हैं।
आजमगर एवं दहेज में विश्वास नहीं वीरजी सही अर्थों में शिक्षित एवं समझदार नवगुवक है। वह अपने विवाह में किसी भी तरह 

आइबर या दिखावापन पसन्द नहीं करता है। वह दहेज के रूप में शगुन का सिर्फ मना कपमा स्वीकार कर है। च में भी दर रहना चाहता है। यही कारण है कि वाह गेल पिताजी को और उनके यधिक आग्रह के बाद सय में बाधाजी को सगाई में जाने देता है।

कमानता की भावना का पोषक वीरजी एक सदरा गुराक है, जो अपने गरीब चाचा मंगलन की भी बराबर का सम्मान दिलवाता है। उसी की ज़िद का परिणाम होता है कि पिताजी को कोभक अंगों को ले जाने के लिए राज़ी होना पड़ता है। वह सनी रिहतेदारों की जगह मारीद मंगलसेन को अधिक प्राथमिकता देता है। व्यपार मत मृदु भा। नारी एक वाल गक है और घर के सभी सदस्यों के प्रति उत्तम व्यवहार बड़ा ही मृदु हैं। यह अपने गरीब चाचा मंगलसेन को अत्यधिक समान देता है तथा इककर उनके पाँव ता है।।

अपनी संगिनी के प्रति स्नेहिल भावना वीज अपनी होने वाली पत्नी प्रभा के प्रति अत्यन्त स्नेहयुक्त भावना रखता है। वह मान को देखकर ही प्रभा के स्पर्श की कल्पना से मुलकित होने लगता है। वह चाहता है कि रामान को एथ में लेकर चूस ले ।

सून के रिश्ते का हिमायती वीरजी न के रिश्ते की अहमियत को समझने वाला जानिक कि युवक है। वह सभी बातों में कि एवं तार्किक कृय से परखने के बाद भी परम्परा की उस मर्यादा को नहीं भूलता, जो बड़ों के मनि टों का अर्नाव्य हैं। इसके अतिरिक्त, वह इस भावना एवं संवेदना से भी अळी तरह परिचित है। कि रन के रिश्ते वाले चाचा मंगलसैन अपने भतीजे की शादी से सम्बन्धित क्या-क्या ल ५०ते हो। यही कारण है कि वह अपनी सगई में चाचा को भेजने की जिद करता है और सफल होता हैं। इस प्रकार, का जा सकता है कि वीरजीं में किसी नायक के सभी गुण नौजूद है, जिसके हरित्र के पाठक आसानी से विस्मृत नहीं कर सकते हैं।

अथवा
शिवप्रसाद सिंह द्वारा रचित कहानी ‘कर्मनाशा ने हार के मुख्य पात्र मैरों पाण्डे का प्रगतिशील एवं निर्भक चरित्र रूढ़िवादी समाज ने फटकारते हुए साय को स्वीकार करने की भावना को बल प्रदा करता हैं। मैरो पाण्ड़े के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं

कर्तव्यनिश एवं आदर्शवादिता नैरों पाण्हें पुरानी पीढी के आदर्शवादी व्यक्ति है, जो अपने भाई को मुत्र की भाँति पालते हैं तथा पैगू होते हुए भी स्वयं – परिश्रम करके अपने भाई की देखभाल में कोई कमी नहीं होने देते।

विचारशीलता नैरो पाण्हें एक सच्चरित्र, गम्भीर एवं विचारशील बक्तित्व से सम्पन्न है। मैं गाँव सभी ग त वारविका से परिचित है, लेकिन किसी के राज़ को कमी छनागर नहीं करते हैं। वे श्यों का बौद्धिक एवं तार्किक विश्लेषण करते हैं।

तत्-प्रेम मैरो पाण्ड़े के अपने ऑटे भाई में अत्यधिक प्रेम है। उन्होंने पुत्र के समान अपने भाई के पागल || है। कुरीलिए कुलदीप के घर से माग गाने पर पाण्डे दुःख के सागर में धन-टर लगता है।

मर्यादावादी और मानवतावादी मारम में मै पाण्डे अपनी मर्यादावादी भावनाओं के रंग मत के अपने परिवार का ग नहीं बना पाते हैं, लेकिन मानवतावादी भावना से प्रेरित होकर वे फुलमत एवं उसके बच्चे की शर्मनाशा मादी में बलि देने का कड़ा विरोध करते है तथा इसे अपने परिवार का सदस्य स्पीकर करते हैं।

प्रगतिशीलता
मैरो पाण्डे के विचार अत्यन्त प्रगतिशील हैं। ये अन्धविश्वासों का 
म्न एवं रूङिवादिता का विरोध करने को तत्पर ते हैं। वे कर्मनाशा ही बाद को रोकने के लिए निर्दोष प्राणियों की बलि दिए जाने सम्बन्धी अन्धविश्वास का विरोध करते हैं। वे बौद्धिक एवं तार्किक दृष्टिकोण से बढ़ रोकने के लिए बाँध बनाने का उपाय सुझाते हैं। निर्भीकता एवं साहसीपन मैरो पाण्ड़े के व्यक्तित्व में निर्भीकता एवं साहसीपन के गुण मौजूद हैं। वे सहित गाँव के सभी लोगों के अत्यन्त ही निडरता के साथ कर्मनाशा को मानव-यति दिए जाने का विरोरा गा है। वे साहस से कहते हैं कि गति रोगों के पापों का हिसाब देने लगे तो यहाँ मौजूद सभी लोगों को कर्मनाशा की धार में समाना होगा। उनकी निर्भीकता एवं साहस देखकर सभी लोग स्तब्भारी हैं। इस प्रकार, मैरों पाण्ये मानधन भन के बल पर सामाजिक वियों का निरता के साथ विरोध करते हैं । काशी की लहरों को पराजित होने के लिए विवश कर देते हैं।

(ख)

(i)
मस्त नाटक नाटककार र उद्देश्य देश में माफ भ्रष्टाचार में और 
दृष्टिपात कर, शसे देश को बधाकर आदर्श मिति की ओर ले जाना जा देने ए राष्ट्रीय चेतना की रक्षा करने का आदेश दे। है। इसी उद्देश्य के तहत निराशा, भ्रष्टाचार, घन के नै कुहासापूर्ण वातावरण को देशप्रेम, कर्नाव्यनिष्ठा, आस्था, नवचेतना एवं आचरण की उज्वलता की किरण के प्रकरण में तप म।आशा एवं आशक्षा का संकेत मिलता है। कुहासे के रूप में कृष्ण चैतन्य, विपिन बिहारी, उमेशचन्द्र जैसे पात्र हैं, तो किरण के रूप में अमूल्य, सुनन्दा, प्रना, गायत्री आदि पात्र हैं। में अष्टाचार और पाखण्ड के कुहासे को अपने आचरण की किरण से दूर झरने के लिए प्रयत्नरत हैं। आज सम्पूर्ण समाज एवं देश को अष्टाचार, बेईमानी, पूर्तता आदि के कुहासे ने बुरी तरह साबित कर रखा है. ऐसे में समाज एवं देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले सीमित लोग ही आशा की किरण के रूप में समग्र समाज में एक चित मार्ग की ओर अग्रसर करते हैं। इस तरह पट होता है कि प्रस्तुत नाटक का नाम ।। और किरण सर्वथा शक है ।

अथवा
विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित ‘कुहासा और किरण’ नाटक के शवधिक प्रमुख नारी पात्र सुनन्दा पुरय, साहसी, कातुर (चालक), गथी, कर्तव्यपरायण, दृढसंकल्पित एवं कशील युती हैं। सुनन्दा की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित

भ्रष्टाचारियों एवं मुखौटाचारियों की विरोपी सुनन्दा का व्यक्तित्व ईमानदारी एवं कर्तव्यनिष्ठा से भरपूर है। वह अष्टाचार को समाप्त करने तथा पाणियों का रहस्य खोलने में अन्त तक अमू का साथ देती है।।

जागरुकता को महत्व जागरूकता के महत्वपूर्ण मानने वाली सुनन्दा समाचार पत्रों के मइव एवं उनमें निति शक्ति को समझती है।

वाकपटु
सुन्दा  व्यक्तित्व का अत्यन्त विशिष्ट पातु उसकी वाकपटुता 
है। नसकी ग्यों से भरी वाक्पटुता गलत मार्ग पर जा रहे लोगों को सही मार्ग पर इनाने का छन । के म रने में काफी हद तक सफल रही हैं। राहदता सुन्दा अमूल्य की विवशता को समझती है। वह अमूला में पैसाए जाने का विरोध करते हुए अन्याय से जुझने के लिए तत्पर है। नारी सुलभ गुर्गों के साथ साथ उसमें युगानुरुप नेतना एवं जाति का भाव भी लक्षित है। इस तरह कहा जा सकता है कि सुनन्दा एक प्रगतिशील, व्यवहारकुशल, दृवसंकलित, देशप्रेमी एवं ताकि बौद्धिक क्षमतावाली नवयुवती है, जो समाज कों बार बनाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करती है।

(ii)
श्री हरि प्रेमी जी ने प्रस्तुत ऐतिहासिक नाटक के माध्यम से 
मानवीय गुणों को रेखांकित किया है तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता यानि साम्प्रदायिक सौहार्द के सन्देश में प्रसारित करने की सफल अशिश की है। वीर दुर्गादास जहा भारतीय हिन्दु संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं इनके समानान्तर मुगल सत्ता को रखा। गया है। सदाचार, सदभाग, गिम, गौरी, भाष्य ता की भावना, साम्प्रदायिक एकता, जनतन्त्र का समर्थन, आशापार का दिन आदि गुणों से युक्त दुर्गादास का चरित्रांकन किया गया है। वास्तव में, नाटककार का उद्देश्य हैं- आधुनिक भारत के युवकों को आदर्श स्थिति से अवगत कराना चा उनमें उन मद भावनाओं जो

साम्प्रदायिक एकता भी अश्य भी नाटग में प्रमुख उद्देश्यों में शामिल हैं। राष्ट्र का उदयन एवं लोगों में जागरण की चेतना का भसार । नाटक का मन सन्देश है। इस नाटक के माद्रीय निर्माण एव । एकता के लक्ष्यों को प्राप् की सार्थक कोशिश की गई है। नाटक में सपा नाम पत्र के माजाम से प्रेम के तहत लक्षणों से लोगों को परिचित कराया है। जब यह कहती हैं “प्रेम केवल भोग की ही माँग नहीं करता, वह त्याग और बलिदान भी चाहता है।” यह आज के गवयुवकों को दिया जाने । वाला वा अनश है, । चा चावा स्वरूप से अधिक आन्तरिक भाव को महत्व देता है।

भारतीय युवकों एवं नागरिकों में स्वदेश के प्रति गहन अपनत्व की । भावना के प्रसार करना नादर का एक प्रमुख उद्देश्य हैं। इसके साथ ही, नाक के नार। नयागाय एवं विश्वयक[व भी सन्देश दिया गया है। इस प्रकार, पुरानी मध्ययुगीन या मुगलकालीन हानी या धानक को माध्यम बनाकर नाटककार ने आधुनिक मानवीय सन्देशों में सहजता के साथ सम्प्रेषित करने में सफलता घात में है।

अथा श्री हरिकृय ‘प्रेमी द्वारा रचित नाटक “आन को मान’ वस्तुतः एक ऐतिहासिक नाटक है, जिसमें कल्पना का उचित समन्वय किया गया हैं। नाटक का समय, पात्र । घटनाएँ आदि मारीन या मुगलगझीन भारत से सम्बद्ध हैं। औरंगजेब, अकबर द्वितीय, मेहरुन्निसा, जीनतुन्निसा, बुद्धन्द अतर, सफीयनुन्निसा, शुजाअत स, दुर्गादास, अजीत सिंह, मुदीदास आदि प्रशिद्ध ऐतिहासिक

जोधपुर के महाराज जसवन्त सिंह का अफगानिस्तान यात्रा से लौटते हुए कालगति को प्राप्त । ना, रास्ते में चन्नी दोनों रानियों द्वारा दो पुत्रों को जन्म देना।

औरंगजेय द्वारा महाराज के परिवार को राम धर्म अपनाने के । लिए दबाव बनना, दुर्गादास के नेतृत्व में अजीत सिंह का निकल भागना, प्रतिशोध में औरंगजेब द्वारा पोपुर पर आक्रमण करना, अकमर हिंीय का ईन् भाग ना उसके पुत्र एवं पूरी की। देखभाल दुर्गादास द्वारा करना आदि महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएँ हैं। इसके अलावा, कुछ अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों; जैसे- औरंगजेब की धर्माता, उसकी राज्य विस्तार नीति, साम्प्रदायिक बैमनस्य, व्यापार एवं छला वा हास आदि को । सफलतापूर्वक नाटक में दर्शाया गया है। नाटक में कई जगहों पर नाटककार ने कल्पना का समुचित समन्वय किया है, जिससे नाटक में होचता एवं प्रासंगिका कर । समावेश हो गया है। अतः कहा। जा सकता है कि यह नाटक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से एक सफल एवंफालीन परिस्थितियों को सर्भक अंग से प्रस्तुत करने में समर्थ नाटक है।

(iii)
हल्दीघाटी का युद्ध जमा हो जाने पर भी चाणा में अकबर से हार नहीं 
मा। अवर में प्रताप की देशभक्ति, आम-याग एवं 4 से प्रभावित होकर उनसे भेंट करने की इच्छा प्रकट हो। शक्तिसिंह साधू-वैशा में देश में विवरण र रहा था और प्रजा में देशप्रेम की भावना । एकता की भावना जाग्रत न । कमर के मानवीय गुणों से होने के म शक्तिशिर में प्रताप के आबर को गट क छ-प्रपा नहीं माना। उसका विचार था कि दोनों के मेल से देश में शाति एवं एकता की धापना होगी।

इस चतुर्थ अंक में ही नाटक का मार्मिक स्थल समाहित है। एक दिन राणा प्रताप के पास जा में एक संन्यासी आया, जिसका यि श्यागत-मार न कर पाने के कारण राणा प्रताप अत्यन्त च्छिन्न हुए। अतिथि को भोजन देने के लिए राणा प्रताप की बेटी चम्। पास में वो वी रोटी लेकर आई। उसी समय को लिलाव जम्पा के हाथ से रोटी कर भाग गया। इसी क्रम में चम्पा गिर गई और सिर में गहरी चोट लगने से गर्ग सिधार गई। कुछ समय बाद अकबर संन्यासी देश में वहाँ आया और प्रताप से बोलाआप उस अकबर से तो भी कर सकते हैं, जो भारतमाता को अपनी माँ समझता है और आपकी तरह ही उशी घय बोलता है। मृत्युशय्या पर पसे महाराणा प्रताप को रह-रहकर अपने देश की याद आती है। वे अपने ब-गों, पुत्रों और सम्बन्धियों को मातृभूमि की स्वतन्त्रता एवं या का व्रत दिलाते हुए भारतमाता की जय बोलो हुए स्वर्ग किधर जाते हैं।

अथवा
नाटककार भी यति हुदय द्वारा लि1ि Jटक ‘राजमुड’ के नाक मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप का छटा भाई शक्तिसिंह नाम के प्रमुख पात्रों में शामिल है। इसन चरित्र निण लिखित बिन्दुओं के आधार पर ना जा सकता है

देश-प्रेमी एवं मानवीयता का रक्षक मराणा प्रताप के अनुज शक्तिसिंह को नाटक के अन्तर्गत मानवता क, देश-प्रेमी एवं व्याग की प्रतिमा के कप में मित्रित । किया गया है। वह मार के लिए अपने ही 4 का रकानात करने के लिए तैयार नहीं है। वह जगमन की कुता में एक मिचारिन में भी बचाता है।

राज्य-वैभव या गा के प्रति अनासक्त शक्तिसिंह का चरित्र माग भावना से । परिपूर्ण है। यह सत्ता के लिए अपने भाइयों से संघर्ष नहीं करना और मुह में अपने माई महाराणा प्रताप की दो भुगल सैनिकों से भी बचाता है। के गद्दी पर बैठने । में कोई आसक्ति नहीं हैं।

निर्मीक एवं स्पष्ट वकता वह बेलाग एवं निर्भीक वक्ता है और जो उसे छघित ज्ञगता है, वहीं । एवं करता है। वह अकबर की से। में सम्मिलित होने के बावड़ मेधा के खिलाफ अकबर की शाम नहीं देता।। आत में शकिसिंह का भातृ-प्रेम उसके चरित्र को यातित करने वाला है। महाराणा प्रताप  घात लगाए हुए दो मुगल शैको को शसिंह ने अपने एक । दार ॥ त के घाट उतार दिया। सिह ने अपने बड़े भाई राणा प्रताप से मा-गाना भी कीं तया एनके प्राणों की रक्षा के लिए उन्हें अपना घोड़ा भी सौंप दिया।

राष्ट्रीय एकता एवं साम्प्रदायिक सद्भावना का पोषक शक्तिसिंह का दृष्टिकोण राष्ट्रीय अ को मुलमन्त्र मन होने वाला है ता र मुस्लिम एकता का भी  क है। वह मुगल शासकों को भारत देश के ही अमिन्न । अंग मानता है और उसे विश्वास है कि ये सभी एक दिन भारतमाता की जय बोलेगे।  अन्तर्व से पति शक्तिसिंह आन्तरिक तर पर घोर अाईन्छ से जूझ रहा है।

चत चरित्र का शक्तिसिंह प्रतिशोध की भावना और देशभक्ति के द्वन्द्व से फिर जाता है, कि पीत अन्ततः देशभक्ति की ही होती है। कुछ मानवीय दुर्बलतों में अपनी उपस्थिति से शक्ति के चरित्र को गार्थ का २५ विगा है, जिससे उसका चरित्र और अधिक निखर गया है।

(iv)
प्रसिद्ध नार मीनारायण मिश्र द्वारा विति नाटक ‘गरज’ ईशा पूर्व प्रथम शताब्दी के भारतीय इतिहास के पाक पर आरित नाटक हैं। इस नाटक में अनि । हैं, जिनमें से तीसरा अर, मुङ्गों को 31 अगा। नाटक के पृय । अन्तिम अंक की । अनि में 10 की गई है। विषमशीन के में अनेक वीरों ने माला से भ ॥ हुनत कराया। विषमशीन अ पनी है, जिसके कारण भने राणा से प्रभावित हॉकर उसके समर्थक बन जाते हैं। अवन्ति में माकन का एक मन्दिर हैं, जिस पर गण’ लहराता रहता है। मन्दिर का पुजारी मलयवती एवं वासी से बताता है। विषमशीन द्वारा युद्ध जीतकर आने के बाद की अपनी पुत्री वासन्ती का विवाह विक्रममित्र से अनुमति लेकर लिदास से कर देते हैं। नाटक के स तुतीय अंक में ही विषगशील का शयाभिषेक होता है तथा कालिदाम को मन्त्री नियुक्त किया जाता है। राजमाता जैन आचार्यों को शमा कर देती हैं। कलिदास की सलाह लेकर विषमशीन का नाम उसके पिता महेन्द्रादिर। या विक्रममित्र के सिर पर विक्रमादित्य’ रखा जाता है। विक्रम संन्यासी बन जाते हैं। विभागिय के नाम पर उसी दिन में क्रिम संवत् का प्रवर्तन होता है तथा नाटक यहीं पर मत मा|

अथवा
लक्ष्मीनारायण मिश्र द्वारा रचित नाटक ‘ग’ की भाषा सुगम, सहज एवं गुपचित है। हालाँकि इसकी भाषा संस्कृतनिष्ठ बड़ी बोली है, लेकिन पाठक की सुवोधता का लेखक में पर्याप्त ध्यान रखा है। सुबोध एवं सहज शैली में लिखे गए इस नाटक में मुहावरों एवं लोकोक्तियों का सपलतापूर्वक प्रयोग किया गया है। भाषा में क-कहीं लिष्टता है. नैकिन यह ऐतिरिक्शा को देखते हुए उचित प्रतीत होता है। नाटककार मीनारायण मिश्र जी ने विचारात्मक, दार्शनिक, श्यात्मक आदि शैलियों का पात्रों के अनुकूल प्रयोग किया है। कुल मिलाकर नाटक दी भाषा सम्म, एवं आकर्षक है, जिसके कारण भाषा-शैली दृष्टि से इस धा को पाल रचना माना जा सकता है। नाटक की ताकत तो  प्रत्यया भागात करती है। जैसे-वो भीतर जो देश । , उसी ने उसे काम बना। दिया। उस मार में है प्रोजन व अगर । उसका पालन मैंने सीक तरह किया, जैसे यह मेरे अशा का ही नहीं, मेरे इस शरीर का हो।

लगीनारायण श द्वारा लिखित नाटक पात्र एवं चनि-चिग की दृष्टि से एक सफल नाटक है। प्रस्तुत नाटक में 14 पुरुष पात्रों और 1 री पात्रों को मिलाकर कुल 15 पात्र हैं। इसके मुख्य. पात्रों में विभिन्न विषमशीन, कालिदास, मरावी, यासती, का-रेश राणा कुमार कार्तिकेय शामिल हैं। विभिन्न पात्रों में विविध प्रकार के चरित्र वाचारी, वीर, साहित्यकार, गीर, लम्पट एवं देशद्रोही। पात्रों का चरि-पित्रण नाटक के कय के अनुसार ही किया। गया है। केंद्रीय पात्र विक्रममित्र हैं, जिनके चारों और नाटक पृता है।।

(v)
‘सूत-पुत्र’ नाटक का द्वितीय अंक द्रौपदी के गगर से आरम्भ होताहैं। राजकुमार और दर्शक एक सुन्दर मण्डप के नीचे अपने-अपने आसनों पर विशान हैं। खौलते तेल के कहा है पर एक खम्भे पर लगातार पूने वाले चक्र पर एक मली है। 14वर में विजयी । बनने के लिए 8 में देखकर हम माली की ल को केना है। अनेक ५ सय मेघने की कोशिश करते हैं और अपने हकर वैत जाते हैं। गिगिता में कर्ण के भाग लेने पर पद पति करते हैं और उसे अयोग्य घोषित कर देते हैं। दुर्योधन इसी समय अंग देश के २ वि अन्रता है। इसके बावजूद क का अवि व उसकी पात्र सिद्ध नहीं हो पा और ऊर्ग निराश होन में आता है।

उसी समय  वेश में अर्जुन एवं भीम नामा”। में प्रवेश करते हैं लक्ष्यते मिलने पर अर्जुन मी  ख देव देते हैं तथा भारी पदी उन्हें वरमाला पहना में है। अर्जुन द्वौपदी को लेकर चले जाते हैं। सूने भिमप में दुधन एवं कर्ण र ते हैं। दुधग कर्ण द्रौपदी को बलपूर्वक धीगरों के लिए कहा है, जिसे क नकार देता है। दुर्योधन ग वेशधारी अन एवं भीम से संधर्व करता है और उसे पता चल जाता है कि पावों को ज्ञाक्षागृह में लाकर मारने की उसकी योजना असफल हो गई है। कर्ण पाण्यों को भी भाग्यशाली बनाता है। यहीं पर द्वितीय अंक समाप्त हो जाता हैं।

डॉ. गंगा सहाय ‘प्रेमी द्वारा लिखित सूत-पुत्र में कर्ण के बाद सबसे प्रभावशाली एवं केन्द्रीय चरित्र कृष्ण का है, जिनके व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएं प्रय हैं।

महाज्ञानी श्रीकण एक आनी पुरुष के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। गुळभूमि में अर्जुन के व्याकुल होने पर वे उन्हें जीवन का सार एवं रहस्य समझाते है। वे तो स्वर भगवान् ।  के ही रूप हैं। अत: उनसे अधिक संसार के बारे में और किसी को क्या ज्ञान हो

कुशल राजनीति का चरित्र एक ऐसे कुशल रानी के रूप में प्रस्तुत | किया गया है, जिसके कारण भने महाभारत के युद्ध में नियमों में सक्षम हो | सकै कण को इन्द्र से प्रक्ष अमोय अस्त्र को प्रकृया ने घटोत्कच र क्त कर अर्जुन को विजय सु वन कर दो।।

वीरता या उच्चकोटि के गुणों के प्रशंसक अर्जुन के पक्ष में शामिल होने के थावह प्रण की वीरता की प्रशंसा किए बिना ना सके। वे कर्ण को अनुविधा को मुक्त कण्त से प्रशंसा करते हैं।

कुशल बाएक कुशल एवं चतुर वकता के रूप में मने आते हैं। श्रीकृष्ण अपनी कुशल बातों से अर्जुन को हर समय प्रोत्साहित करते रहते हैं तथा अन्ततः युद्ध में उसे मनाते हैं।

अवसर का लाभ उठाने वाले वस्तुतः ओकृष्ण समय च अगर के भाव को हचानते हैं। आषा हु अपर फिर लौटकर नहीं आता और उनकी रणनीति आए | हुए क का भापूर लाभ उठाने को रही है। ये अवसर नुकते नहीं हैं। यही कारण है कि कर्ण जित हो जई और अर्जुन को विजय प्राप्त होते है ।

पश्चाताप की भावना श्रीकृष्ण भगवान का स्वरुप होते हुए भी मानणय भयर रखते हैं, इसलिए उन पचाताप को भावना भी आती हैं। उन्हें इस बात का पश्चाताप है कि के साथ न्यायोचित महार नहीं किया। निहत्थे कर्ण पर अर्जुन द्वारा घाण वर्ण कराकर उन्होंने नैतिक रूप से, उचित व्यवहार नहीं किया। उहें इस बात का । पश्चाताप है, लेकिन कुटनीति एवं रणनीति इस व्यवहार को उचित ठहराती है। इस प्रकार, श्रीकृष्ण का चरित्र नाक में कुछ समय के लिए | ही सामने आता है, लेकिन वह अत्यन्त ही प्रभावशाली एवं शत है, जो पाठकों एवं दर्शकों पर अपना गहरा प्रभाव डालता है।

उत्तर 8.
(क)
मुश्तियश हवा सुमिनन्दन पन्त द्वारा रचित ‘लोकायतन’ महकाय का एक और है। इसमें वर्ष 1921 से 1947 तक के मध्य घटित अंधेज शासकों ने मक पर कर लगा दिया था। महात्मा गाँधी ने इसका विरोध किया। ये साबरमती आश्रम के चौबीस दिनों के या करके ही ग्राम पहुँचे और सागरतट पर नमक बनाकर ‘नमक कानू’

”वह वास दिनों का पथ व्रत, दो सौ मील किए पद पाय।
स्म-स्म पा शन पूजन, दिया वीज अ वर्ग।”

इसके माध्यम से अंग्रेज़ों के इस कानून का विरोध करके जनता में चेतना छापन्न करना चाहते थे। उनके इस विरोध का आधार सत्य और अहिंसा था। गाँधी के इस नत्याग्रह से शासक मा हो गए और उन्होंने भारतीयों पर दमन मा आरम कर दिया। गौ मा मताओं को जेल में न दिया गया। भारतीयों द्वारा ने भरी आ । जैसे-जैसे दमनचक्र बढ़ता गया, वैसे-वैसे मुविज भी बता चला गया। गांधीजी ने मारतीयों को क्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया। सबने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना प्रारम्भ कर दिया।

वर्ष 1947 में भारत में ‘साइमन कमीशन’ आया, जिसका भारतीयों ने भएकार किया। साइमन कमीशन को वापस जाना पका। वर्ष 1942 में ग में भारत छोड़ो’ का नारा दिया। अब सब पूर्ण स्वतन्त्रता चाहते थे। अमेज़ों ने ‘फूट झालो’ की नीति अपनाकर ‘मुस्लिम लीग’ की स्थापना करा दी। मुस्लिम लीग ने भारत विभाजन की माँग की। वर्ग  में भारत को पूर्ण स्थान : शशित कर दिया गया। अई में भारत और पाकिस्तान के रूप में देश का विभाजन कर दिया।देश में एक और तो स्वतन्त्रता र उत्सव मनाया जा रहा था, वहीं दूसरी और विभाग के विरोध में गाँधीजी मौत धारण किए हुए  थे। वे चाहते थे कि हिंदू-मुस्लिम पारस्परिक बैर को त्यागकर अत्य,

अहिंसा, प्रेम आदि सात्विक गुणों को अपनाएँ और निल-जुलकर रहें। इस प्रकार ‘मुक्तियन’ खन्य देशभक्ति से परिपू, गाँधी गुग के स्वर्णिम इति। म काव्यात्मक आलेख हैं। में इस युग का वर्णन है, भारत में चारों ओर हलचल मची हुई थी, पाते और फ्रांति की अग्नि पर रही थी। कविवर पक्ष ने महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व और कृतित्व के माध्यम से विभिन्न आदेश की पना का सपना प्रयास 

अथवा
‘मुगिन’ खण्व्य का सम्पूर्ण शाक भारत के स्वता संग्राम से 
जुड़ा हुआ है। इसके नायक महामा गाँधी हैं, जो परम्परागत नायक से हर हैं। इनका यही व्यक्तित्व भारतीय जनता के प्रेरणा र शक्ति देता है। भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए इन्होंने एक प्रकार से या कम आयोजन किया, जिसमें अनेक देशभक्तों ने हँसते-हैरते अपने प्राणों के आहुति दे दी, अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। देश की मुक्ति के लिए झाए गए च । रण ही इस युद्धका का नाम ‘आशि ‘ नया गया, को पूर्णतया सार्थक एवं धित है। ‘मुगिन’ एक उद्देश्य प्रधान गा है। कवि इस रचना के माध्यम से मनुष्य को प्रसन्न भारत की भी परिस्थितियों से पचत कराना चाता है। इस दर्दश्य में कवि पूर्णतया अपना रहा है। कवि ने मुनिक युग में घटना को खण्डकाव्य का विषय बनाया हैं। उनका उद्देश्य भनी पीढ़ी से देश की आजादी के इति॥

परिचित कराना है, साथ ही गी दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका में प्रदर्शित करना है। कवि ने परिसमी भौतिकवादी दर्शन और गाँधीवादी मूल्यों के बीच संघर्ष का चित्रण किया है और अन्त में गाँधीवादी जीवन मूल्यों की विजय का शंखनाद किया है। क का उद्देश्य असत्य पर कारों की विजय, हिंसा पर अहिंसा की आय दिखाकर मानवता के प्रति लगी आस्था अत्यन्न करना है तथा जन-जन में विश्वबन्धुत्व और प्रेम की भावना का संचार करना है। पन्त जी ने ‘मुनिया के माध्यम से लोक कल्याण का सन्देश दिया है। काव्य के नायक गाँधीजी को लोकनायक के रूप में चित्रित कर जातिवाद, साम्प्रदायिता और रंगभेद का कट्टर विरोध किया है। कति का उद्देश्य केतन इत्रता संग्राम के दृश्यों का चित्रण करना ही नहीं है वरन् कवि ने शाश्वत जीवन मूल्यों भी उपयोग किया है जो सत्य, आला, त्याग, प्रेम और कणा की विश्वव्यापी भावनाओं पर आधरित हैं। गाँधीवादी दर्शन को माध्यम बनकर कति ने विश्वमा और गानावाद सभी आदेश की स्थापना की है।

(ख)
प्रस्तुत सहकाव्य की का ‘माभारत’ के द्रौपदी चीर-हरण कीअत्यन्त शित, केतु मार्मिक घटना पर आधारित है। यह एक अत्यन्त ल य हैं, जिसमें कवि ने पुरातन आरम्यान में वर्तमान सन्दर्भ में मरा किया है। दुधन पाम् को शीदा के लिए आमन्त्रित करता है और ल प्रपंच से उनका सह । एन लेता है।

वैदिर में स्वयं कोर  आमा ने वापसी की भी न पर लगा देते हैं और हार जाते हैं। इस पर कौरब गरी सभा में द्रौपदी को वश्त्रहीन करके अपमानित करना चाहते हैं। हुशासन पद के चीते हुए उसे सभा  मा ।। द्वौपदी के लिए यह अपमान असह्य हो । है। वह सभा में प्रश्न ताती हैं कि जो व्यकित वर्ष की हार गया है, उसे अपनी पी को 4 पर लगाने का क्या असर ? अतः मैं रवों द्वारा नित नहीं | दुःशासन उसका चीर-हरण करना चाहता है। उसके इस कुकर्म पर द्रौपदी अपने सम्पूर्ण आसन के साथ सत्य का सहारा लेकर उसे करती हैं। और वस्त्र खींचने की चुनौती देती है ।

“अरे ! दुःशासन निर्लज्ज!
तू नारी का भी लेघा
फैले उनका अपमान
मैं इत्तका बोय।”

तब भाभी। युःशासन दुर्योधन के आदेश पर भी उसके ५-हण का साहस । नहीं कर पाता। शुधन का छोटा भाई विर्ग द्रौपदी को पा लेता है। उसके नर्थन् । अ। सभासद भी दुधन और दुःसन की निदा करते हैं, क्योंकि | वै ॥ या भी है कि यदि 7 घाइयों के प्रति जा हुए अन्याय के | रोका नाहीं ॥, तो इसका परिणाम त बुरा होगा। अमा: राष्ट्र गावों के राज्य में लौटाकर उन्हें मुफ्त करने की घोषणा करते हैं। इस खत में से ने द्रौपदी के वी-हन की ट। में कृण द्वारा दी बदाए जाने की अछि || को प्रसत नहीं किया है। द्रौपदी का | सत्य, न्याय

कन्न पक्ष हैं। साई मह है कि जिसके पास । र न्याय का बल हो, | भरत्या हुशासन तसा धीर २७ नहीं कर सकता। हरि प्रसाद भाय ने इस आ को अत्यधिक प्रभावी और गुग के अन्त जत किया है और नारी के सम्मान में रक्षा करने के संगम को दोहराया है। इस प्रकार स्ति । की कथावस्तु अन्न लग गई है। कथा का गहन अत्यन्त शला से किया गया हैं। इस प्रकार ” की जीत को एक | सफल काम’ कहना सा जात हो।

अथवा
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का खण्डकाव्य ‘सत्य की जीत’ की नाविका द्रौपदी है। 
व ने उसे महाभारत की द्रौपदी के समान सुकुमार, निरीह प में मन न करके आत्मसम्मान से गुका, ओजस्वी, रात एवं वाकपटु रोगना के रूप में चित्रित किया है। द्रौपदी की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं ।

1. स्वाभिमानिनी द्रौपदी स्वाभिमानिनी हैं। वह अपमान सहन नहीं कर सकती। वह अपना अपना भारी पाति आ अपमान राम है। वह नारी के स्वाभि को ॥ पचाने वाली किसी भी भात ॥ नकार नहीं कर सके। ‘सव की त’ की द्रौपदी ‘महाभारत’ की द्रौपदी को बिलकुल अलग है। वह असहाय और अबला नहीं है। वह अन्यागी और अपनी पुरु से संघर्ष करने वाली है।

2. निर्भीक एवं चशी दौपदी निर्भीक एवं साहसी है। शासन द्वौपदी के बाल खींचकर भरी सभा में ले आता है और उसे अपमानित करना चाहता है। तब ब्रौपदी व साहस एवं निर्भीकता के साथ इशा गर्म और पापी कर पुकी हैं।

3. विवेकशील द्वीप पुत्र के पाई-पीछे आँखें बन्द के चलने वाली नारी नहीं है । |adक से काम लेने वाली है। वह । अना में यह सिद्ध कर है कि कि स्वयं को हार गया , से अपनी पत्नी को दाँव पर | अमर ही नहीं हैं। अतः वह ५। जिजित नहीं ।

4. सत्यनिष्ठ एवं न्यायप्रिय द्रौपदी सत्यनिष्ठ है, साथ ही न्यायप्रिय भी हैं। वह अपने प्राण देकर भी सत्य और न्याय का पालन करना चाहती हैं। जब दुःशासन द्रौपदी के शव एवं शील का हरण करना चाहता है, तब वह उसे झलकती हुई कहती हैं।

‘न्याय में ही मुझे विश्वास,
सत्य में शक्ति अनन्त महान्।
मानती आई हैं मैं रात,
सत्या ही है ईश्वर, भगवान्।”

5. वीरग। औषधी वश होकर पुत्र के मा कवा असहाय और अबला ना ग है। वह चुनौती देकर दण्ड देने को काटद्ध तीरांगना है।

 “अरे ! दुःशासन निर्बज!
देख तू नारी का भी ।
किसे कहते चसका अपमान,
कराऊँगी मैं इसका बोध।”

6. नारी जाति का आदर्श हौपदी सम्पूर्ण नारी जाति के लिए एक आदर्श है। दुःशासन गा को वासना एनी भोग की वस्तु कहता है, तो वह बताती हैं कि नानी बह शकिा है, जो विशाल चट्टान को भी हिला देती हैं। पापियों के नाश के लिए वह गैरवी भी बन सकती हैं। वह ही है।

“पुरुष के पास से 8 सिपी,
बनेगी धरा नहीं यह स्वर्ग।
पाहिए नारी का नारीत्व,
तभी होगा यह पूरा शर्ग।”

सार छप में वहा जा सकता है कि द्रौपदी पाण्कु ल, वीरांगना, स्वाभिमानिनी, गौरव सम्पन्न, सत्य और न्याय की पक्षधर, रत-शायी, जाग के स्वाभिमान में मति एवं नारी जाति का आदर्श है।

(ग)
राजपुत्रों के विरोध में दुःखी होकर कर्ण ब्राह्मण सम में परशुराम जी के पास धनु । शो के लिए गाया। परशुर। भये प्रेम के साथ कर्ण को धर्ना सिखाई। एक दिन परशुर। जी ने की जा पर सिर गते रहे थे, तभी एक की। कर्ण की पपा पर चढ़कर धून नुसता चूसता उसकी आँधा में प्रदिष्ट हो गया। रक्त थाने लगा। पर अ इ असहनीय पीडा हो पाच सहन करता रहा और ज्ञान । योकि कहीं गुदेव की नि। व  पड़ जाए। जंघा से निकले रक्त के स्पर्श से गुरुदेव की निदा भग हो गई। अब परशुराम कर्ण के ब्रह्मण होने पर सह । अन्त में कर्ण ने अपनी बात बताई। इस पर परशुराम ने से ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का अधिकार न लिया और इसे भाप में दिया। क गुरु के अरणों का स्पष्ट मा को सता आया।

अथवा
कुती शवों की माता हैं। सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म कुन्ती के गर्भ से ही हुआ था। इस प्रक५ कुती के पाँच नहीं वरन् : पुत्र थे। इसी की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं ।

1 समाज मीक शी लोकलाज के भय से अपने ज्ञात शिशु को गंगा में बहा देती है। वह कभी भी श्री ५ीकार नहीं कर पाती। रों युवा और वीररस की  भर्न देकर भी अपना न करने का हम भी कर पाती। जब मन की विभीषिका सामने आती है तो वह कर्ण से एकान्त में है और अपनी दयनीय स्थिति को आगरा करती है।

2. एक ममतानगी माँ की ममता की सात [ है। ती को जब पता चला है कि र्ण कर के अन्य पच त्रों में होने वाला है, तो वह कर्ण को मनाने इसके पास जाती है और उसके प्रति अपना मनत्य एवं वा प्रेम प्रकट रही हैं। वह न शाही कि उनके पुत्र भूमि में एक-दूसरे गे । यद्यपि कर्ण उनकी बात स्वीकार नहीं करता, पर 1 से आशीर्वाद देती है, उसे अंक में भरकर अपनी वाल्या भावना को समष्टि करती हैं।

3. अन्तर्मन प्रती के पुत्र परस्पर शत्रु बने हुए थे, तब कुन्ती के मन में भीषण अन्तर्द्वन्द्व मषा हुआ था, वह बड़ी छान में पड़ी हुई थी। पीची पाहनों और कर्ण में से किसी की भी हानि हो, पर वह हागि तो इन्हीं की होगी। वह इस स्थिति को होना चाहती थी, पतु कर्ण के अर्थकार कर दें। पर वह इस नियति को आने के लिए विवश हो जाती है। इस प्रझर कवि ने ‘मिथ’ में कुशी के चरित्र में कई प्रण गुणों का समावेश किया है और इस विवश माँ की ममता को भाडा बना दिया है।

(घ)
कविवर गुलाम म्हेलवाल ने ‘आलोक’ में महात्मा गाँधी के व्यकि को चित्रित किया है। महात्मा जी के चरित्र में हम कथक’ कह सकते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने सदगुणों एवं सदविचारों में भारतीय संस्कृति की चेतना को प्रकाशित किया है। इन्होंने विग में सत्य, प्रेम, अशा आदि भावनाओं का प्रकाश पैलाया। इस दृष्टिकोण से यह शीर्वक उपयुक्त है। यह गाँधी जी के जीवन, उनके चरित्र, गुणों, रिद्धान्तों एवं दर्शन को पूर्णरूप में परिभावित करता हुआ एक साहित्यिक एवं दार्शनिक शीर्षक हैं।आलोक नृत: उद्देश्य (सन्देश) श्री खण्डेलवाल की रचना ‘आलोक-वृत’ में उनके उद्देश्य इस प्रकार परिलक्षित होते हैं।

1. देशप्रेम की भावना को जाग्रत करना इस खण्डअथ का सर्वप्रथम उददेश्य देशवासियों में स्वदेश प्रेम की भावना जागृत करना है। यह अण्डकी भारत के पूर्व में भारत के गरमग अतीत ॥ णन करके देशमेन की भावना जगाना चाहता है।

2. चाय और अहिंसा का गहन इस काव्य के मम में सत्य और अहिंसा के महत्व को दर्शाया है। कांव का मानना है कि सत्य और हे को पर हम विनियों को भी पूरा कर सकते है। नेगी के उदाहरण द्वारा यह सिद्ध करने का वा है कि सत्य और अहिंसा के द्वारा हम प्रत्येक तंक से पूरा कर सकते हैं।

3. त्याग और बलिदान की भावना का सन्देश नहाना गी ने देश के स्वतन्त्र कराने के लिए महान् त्याग एवं अपना सर्वस्व बलिदान किया। वे अनेक बार जेल गए और उन्होंने अनेक कष्टों को सहन किया। इस प्रकार कवि गधी के उदाहरण को मरतुत करके देश के युवकों को देश के लिए त्याग और बलिदान करने की प्रेरणा देता है।

4. साधनों की पवित्रता में विश्वास गाँधीजी का विचार था कि मनुष्य को सदैव पवित्र आचरण पाना चाहिए और साधनों को भी पता होग। चाहिए अर्थात् यह को भी धन अपनाए. वे पवित्र होने चाहिए। हमें देश को स्वतन्त्र कराने के लिए अट और हिंसा का सहारा कभी नहीं लिया। इन्होंने देश की ताज़ा के लिए है, साथ, है। जैसे नी का प्रयोग किया, जिसमें में संपन्न मी रहे।

5. राष्ट्रीय एकता एवं योग की भावना अंडेज शतकों ने हमारे देश में फूट के बीज बोकर परमर प्रणा एवं हिंसा के माथे पर दिए थे। आज का भारत प्राचीन भारत के समान ही विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों का संगम है। इनारे देश की ‘रान्ता तभी सुरक्षित रह सकती है. ध म धर्म, सम्प्रदाय एवं जातिगत भावनाओं से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को बनाए रखें। इ को ध्यान में रखकर यह सन्देश दिया गया है कि में साम्प्रदायिक ए॥ ॥य भेद-भाव में भूलक ; की एकता बनाए खनी चाहिए। इस प्रकार आलोक-वृत्त खण्श गरी के जीवन चरित्र को माध्यम बनाकर लोगों को राष्ट्र प्रेम, सत्य, अहिंसा, परोपकार, न्याय, सदाचार आदि के प्रेरणा देने के उद्देश्य में सफल रहा है।

अथवा
‘आलोक’ समकक्ष के नायक आत्मा भी हैं। । ने एक लोकनायक के  प्रश्तुत किया है। इनका जीवन के आर्य हमारे लिए सदैव प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। मधीजी की मारित्रिक दिशाएँ इस प्रकार है।

1. देशप्रेमी जी के चरित्र की सर्वप्रथम विशेषता है-नक देशप्रेमी होना। नगी ने देश में इतना से करते थे कि उन्हो । तन, मन, धन लम 0 देश के लिए समर्पित कर दिया। वे अनेक बार कारागार में गए। अगों के अपमान और अत्याचार सा।।

2. चात्य और अहिंसा के उपासक गाँधीजी देश की कान्त। सत्य औरहैं ना चाहते थे। वे ।। शारी अस्त्र मानते हैं। उन्होंने अपने जीवन में हिंसा न करने का वृह निश्चय किस। ६ विरला व्यक्ति हैं। इस  प्रकार अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन कर सकता है।

3. ईश्वर के प्रति आस्थावान गाँधीजी पुरुषार्थी तो हैं. पर ईश्वर के प्रति इत्र आस्थावान भी हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो भी किया, ईश्वर को साक्षी मानकर ही किया। उनका मानना था कि मापन पवित्र होने पाहिए और परिणाम की इच्छा नहीं करनी चाहिए। परिणाम ईश्वर पर हो शेद देने चाहिए।

4. माननीय मूल्यों के प्रति निष्ठावान गीजी ने अपने जीवन में मानवीय मूल्य एनं सदाचरण को सवैब बनाए रखा। वे मानव-मानव में अनार नहीं मानते थे। वे समानता के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। उनके अनुसार जाति, धर्म, वर्ण एवं रूप के आधार पर भेदभाव करना अनुचित है। ये को से १ ‘पाप से मा को पापी से नहीं।

5. स्वतन्त्रता प्रेमी गाँधीजी के जीवन का मुख्य उद्देश्य देश को स्वतन्त्र करवाना है। वे भारत माता की माता के लिए जा भी वारने को तैयार हैं। वे देशवासियों को गुलामी की जंजीरों ॥ ने के लिए रित है।

6. हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक छन्होंने सवैत दू और मुसलमानों को एक साथ रहने की प्रेर। “विश्वबन्ध ”वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से ओत-प्रोत थे। वे सभी को पूरी देखना चाहते हैं। ये वन भर जनता की एकता के सूत्र में बौने के लिए प्रयास करते हैं और हिन्दू मुसलमानों को भाई-भाई की तरह रहने की  में हैं।

7. श्वदेशी वस्तु एवं खादी को गाय गाँधीजी ने स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की प्रेरणा दी और न्। विदेशी वस्तुओं का बहार किया। जन-जन में खादी का प्रसार कि। और उसे अपनाने की पेरणा दी। विश्वासी गीजी आतिशास से परिपूर्ण थे। अपने धन में | उन्होंने जो भीपूर्ण

8. आत्मविश्वास के साथ या और उसमें वे न गी है। सत्याग्रह भी में सत्य की शक्ति पर पूर्ण भरोसा किया। अपने सम्र के अत पर ही अपने ईश को अंग्रेजों के जल से त इन्टवाया। भारत को आ अतः कहा जा सकता है कि गरी एक मानव हैं। उनके निर्मल चरित्र पर गली छटाने का साहस किसी में ही है।

(ङ) कवि शगेर शुक्ल ‘अंधल’ द्वारा लिखित ‘ परी’ मध्य एक ऐतिहा। अव्य है जिसमें प्री शादी के प्रसिद्ध काट धन के याग, तप एवं शान्तिा का वर्णन किया गया है। सराट हर्ष की वीरता का वर्णन करते हुए कति ने इसमें राजनैतिक ए|| एवं विदेशी आकाओं में भारत में भागने का भी वर्णन किया है। ‘त्यागी’ खण्का की काव्यगत विशेषताएँ भिलिखित हैं।

भावपशीय शाएँ
 ‘यागपथ’ खण्डकाग की भाव सम्बधी विशेषताएँ मिलिरित है।
1. मार्गिका “काय में अनेक नार्निक भ भ संयोजन किया | गया है। इसमें हर्षवर्धन की माता का सितारों, राज्यवर्धन की 
वैराग्य हेतु तत्परता, ज्यश्री के विशवा । पर हर्ष की ध्याता, राज्य द्वारा आधार के समय इषण के मिलन का मार्मिक चित्रण हुआ है।

2. गिन’त्यागपथी’ में कति में प्रकृति के विभिन्न रूपों का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है। आखेट के समर्थन को निता के रोग होने का समाधा५ मिला है, के रम्त भित्र को नौट भाते हैं।

“व-पर अतित, रार-वर्षण से जलाए,
फिर गिरि श्रेणी में सोही से बाहर आए।”

3. रस निरुपण ‘त्यागी’ में कवि ने करुण, रौद्र, शान्त आदि रसों का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं।

कम रस

“भुई। मच गुण्य को मेड न् । तुम भी जाओ,
ओहो विचार यह, मुझे चरण में शिफ्ट।”

वीर रस

“कुन्नौज-विजय को वाहिनी सत्वर,
गुजित था चारों ओर युद्ध का ही स्वर।”

कलापीय विशेषता ‘त्यागपशी’ खण्डकाव्य की लागत विशेषताएँ निम्नलिवित है।

1. भाषाशैनी खण्डकाव्य की भाषा कथावस्तु और पति नायक के अनुरुप होती है। ‘शागपधी’ की भाशा तत्सम शब्दों से परिपूर्ण है। हर्ष के , मानवप्रेम, त्याग, अहंसा, निष्काम कर्म आदि आदिश को प्रस्तुत करने के लिए भाषा को सम्माना अनिवार्य थी। वक्तुतः’ ‘त्यागपथ’ की भाषा सांस्कृतिक अनिय शब्दों से परिपूर्ण है। जैसे- “जन-जन वहाँ थासाश्रु, जब वल्डन इन्हीं ने ले लिए।”

2. अलंकार योजना ‘त्यापी’ खण्डकाव्य में छपमा, पक एवं उत्प्रेक्षा आदि भकारों के स्वामाविक प्रयोग किया गया है। “श्री दी। उनकी शीर्ष भगियों में इस की लालिमा, पीने चलीं ज्यों बाल वेि का तेज न अग्निमा”

3. छन्द योजना सम्पूर्ण खण्मका  मात्राओं के गीतिका छन्द में पित हैं। पाँच का अन्त में पारी का प्रयोग हुआ है। यह रचना की समाप्ति का ही सूचक नहीं वरन् वर्णन की दृष्टि से प्रशस्ति | का भी सूचक है।

4. संवाद शिल्य ‘त्यागपधी स्व-काव्य में कवि ने सरल, मार्मिक एवं प्रवाहपूर्ण संवादों का समावेश करके अपनी काव्य और नाट्य नता क य दिया है। अनेक स्थानों पर काव्य नाटिका जैसा आनन्द प्राप्त होता है।

“संवाद यदि ई मिला हो आपमें उसका कहीं,
 वृष्ण कक्षा में इसी न खोजने जाऊँ वहीं।”

अथवा
विवर रामार शुक्ल ‘अचत’ द्वारा रचित ‘त्याग’ सहकाव्य सम्राट हर्षवर्मन के जीवन पर आधारित हैं। सम्राट हवन का सम्पूर्ण जीवन संध एवं त्याग बी कहानी है। इस महान् सर्ट ने रानीन युग के छोटे-टे राज्यों में विभक्त भारत को एक विशाल साम्राज्य सूत्र में घर शान्ति, शक्ति एवं विकास का मार्ग प्रशक्त किया। वे प्रा । वास्तविक उन्नति चाहते थे। उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों से राष्ट्र की रक्षा की थी। शशि-यापना के बाद जब उए शक्ति साम्राज्य की स्थापना कर . ब भी उन्होंने विलासिता की राह नहीं पकड़ीं, वरन् सर्व त्याग करने का ने किया। इसी संकल्प के कारण। वे तीर्थराज प्रयाग में ही पनि वर्ष बाद अपने च । दान कर देते थे। कि राजपत्र अता किसी सम्राट ] त्या की वह आलौकिक 
ज्योति मरी हुई हो तो वह ‘त्यागपथ’ ही कलाएगा।

(च)
शिवबाप्तक शुक्ल द्वारा रचित ‘अवग कुमार’ सशक का प्रमुख पत्र अवण कुमार के रूप में प्रस्तुत किया गया हैं। इस प्रमुख पात्र की चरित्रा विशेषताओं पर प्रकाश डालना ही कवि का प्रमुख उद्देश्य है। सुलकाव्या का मुख्य उद्देश्य होने के कारण इसका शीर्षक ‘अवग फुमार’ रखा गया है, जो कयनानुसार पूर्णतः उपयुक्त प्रतीत होता हैं। ‘श्रवण कुमार’ खण्डकाव्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व मार्मिक प्रसंग दशरंध का अवण कुमार के पिता द्वारा शर्षित होना है, परन्तु इस प्रसंग की अभिव्यक्तिका भाप श्रवण कुमार के व्यक्ति से ही बया है। ग्रन्डकाव्य में क्यास्तु के अनुसार दशरथ्य का अरित्र सक्रियता की दृष्टि से सर्वाधिक है परन्तु शरण के सरित्र के माध्यम से भी अण कुमार के ।

चरित्र की विशेषताएँ ही प्रकाशित हुई है। अत: इस प्डकाष्य का मुख्य पात्र श्रवण कुमार ही है और श्रवण कुमार के उपयुक्त है।मन । शिवबा ल रा रचित ‘अव कुमार” “शकाग में दशरथ का चरित्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वह एक योग्य शासक एवं आखेट प्रेमी हैं। वह रघुवंशी । अण के पुत्र हैं। सम्पूर्ण काम में बड़े अद्यन्त विरान है। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं।

1. योग्य शासक राजा दशरथ एक योग्य शासक हैं। वह अपनी प्रजा में। देखभाल पुत्रवत रूप में करते हैं। उनके राज्य में प्रा अत्यन्त सुखी हैं। चोरी का नामोनिशान नहीं है। उनके शासन में चारों ओर सुख समृद्धि का बोलबाला है। वह विद्वानों का यथोचित सत्कार करते हैं।

2. उगन में उत्पन्न राज। बशरथ जन्म उन में हुआ था। पृयु. त्रिश, सुगर, दिलीप,  हरिश्चन्द्र और अज़ जैसे महान् राजा इनके पूर्वज थे।

3. आरसेट प्रेमी जा दशरम आखेट प्रेमी हैं। इसलिए वन के महीने में जब चारों ओर हरियाली छा जाती है, तब उन्होंने शिकार करने का निश्चय |किया। शब्दभेदी बाण चलाने में वे अत्यंत कुशल हैं।

4. अर्द्धस्य ने परिपूर्ण शब्दमेथी घाण से जब अदा कुमार की मृत्यु हो जाती है, तो वह सोचते हैं कि मैंने यह पाप कर्म क्यों कर डाला? यदि मैं थोड़ी देर और सोया ता या रथ का पहिया टूट जाता गा और कोई रुकावट आ जाती, तो मैं या जाता। उन्हें लगता है कि मैं अब श्रवण कुमार के अर्थ माता-पिता को कैसे रामझाऊँगा, कैसे उन्हें तमन्त्री देंगा? इस तो इस बात का है कि अब युग-युगों तक नृनके साथ यह पाप कथा चलती रहेगी।

5. छदार वे आया उदार हैं। श्रवण कुमार के माता-पिता द्वारा दिए गए आप वों वह चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। किसी और को वह इस बारे में बताते नहीं हैं, पर मन ही मन यह पीड़ा उन्हें खटकती रहती है।

6. विना एवं वयात् वह अत्यन्त विनम्र एवं दयालु हैं। अहंकार उनमें लेगाव भीम। तें किसी का दु:ख न गते। प्रवण कुमार को जब उनका बाण लगता है, तो वे अत्यंत चिमिगत हो जलते हैं। वह आरमग्लानि से भर तते हैं और उनके माता पिता के सामने अपना अपराध मीका के लेते हैं। इस तरह, राजा दशरथ का चरित्र महान् गुगों से परिपूर्ण है। प्रायशित और आत्मग्लानि की अग्नि में तपकर वे शुद्ध हो जाते हैं।

खण्ड ‘ख’

उत्तर 1.
(क) उत्तर के लिए पाठ १ का गद्यांश । (पृष्ठ , 152) देखें। 
मा
अथवा
के लिए पाठ 5 का गद्यांश 1 (पूट से, 14) देखें।

(ख) उत्तर के लिए पात 8 कम फ्लोक 2 ( स. 188) देखें।
अथवा
अथवा उत्तर के लिए पाठ 4 का श्लोक 5 (पृ . 153) देखें।

उत्तर 2.
(क) अक: भीषणाकृतिकारणात उलूकस्य विरोधम् अकरोत्।
(ख) श्रीकृष्णः दुर्योधनस्य सुयोधनः इति अपरं नाम वदति।
(ग) हेमन जलचारिण: शीतस्य कारणात् जले नावगाहन्तिा
(घ) आत्मनः खलु दर्शनेन इदं सर्व विदितं भवति। |

उत्तर 3.
मक्किा रस –
परिभाषा भक्तिका रस का प्रादुर्भाव भगवद्-अनुरक्ति तथा अनुराग से होता है। रसशास्त्र के प्राचीन विहान् भक्ति रस को भगवद विषयक रति भानक श्रृंगार रन् का ही एक प्रकार मानते हैं।

प्रमुख अवयव स्थायी भाव-भगवद्-विवशक रति
आलम्बन- नाम, भीमा, भगवान बुद्ध, भगवान शिव, रीता, रामा यशोधरा आदि।
छद्दीपन-ईश्वर की गतिविधियाँ, उनके चित्र, मूर्ति एवं सत्संग आदि।
अनुमान-मजन, कीर्तन, रामलीला, ईश्वर के प्रेम में लीन होकर नाचन-गाना आदि।।
संचारी भाव – निर्वेद, हर्ष, वितर्क, मति आदि।
उदाहरण

अधियाँ इरि दशान की प्यासी,
देख्यो पारा मत जैन को शिवि। हूत उदासी।

त्यष्टीकरण चाँ स्थायी भाव है-औकृष्ण के प्रति गोपियों अथवा राम्रा का नुरा| भाल -पग भीगा है एवं शव का अ॥ आकर गोपियों को समझाना उद्दीपन है। श्रीकृष्ण के वियोग में गोपियों का उदास रहना और उनके आने की राह देखना अनुमाद है। संचारी भाग हैं हर्ग, मोह, शंख आदि। अतः यहाँ भक्ति रस हैं।

चारा रा परिभाषा गानों के प्रति प्रभाव का वर्णन वाच ॥ के अन्तर्गत आता हैं। इस रस का जन्म शोटे बच्चों की मधुर चेष्टा, उनकी बोली अथवा उनकी अन्य राज गतिविधियों के प्रति माता, पिता, गुरु त अब बड़े लोगों के स्नेह, प्रेम आदि के मारा होता है।

प्रमुख अन साथी माथ-वत्सल
आलम्बन-पुत्र, पुत्री, शिष्य आदि।

छद्दीपन-माप्त हत, बों का पुतलाक बोलना, मोहक कप में चलना एवं उनके द्वारा वध कर के आकर्षक क्रियाकलाप करना, बों को प-रंग एवं इनके खिलौने आदि। अनुभा-बच्चों को गोद लेना, नका आलिंगन करना, उन्हें चुमना, शपथपाना, उनके सिर पर हाथ फेरणा आदि। संचारी भाव-हर्ष, आवेग, मोह, शंका, गर्व, चिन्ता आदि।
उतारण
कबहु ससि गत आरि  का प्रतिबिम्ब निहारि  कई रान
बजाइ के भारत मातु श म मोद म।
कई शिरई करें हवि के पुनि लेत सोई हि लागि अरें।
अवधेश के बालक बारि सदा तुझी मन मन्दिर में वि।

स्पष्टीकरण ग यी भाव हैं—बालक राम, मण, भरत, शत्रुघ्न के प्रति माताओं का संह। माताएँ आय हैं। चारों बालक आरक्षण एवं उनकी बाल क्रिया उद्दीपन हैं। अनुमान है- बालों के प्रति माताओं के मन में मोह का छाप ।। संचारी भाव है-हर्ष, गर्व, भह आदि। अतः यहीं वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति हुई है।

(ख)
परिभाषा ही पगेय एवं उपमान तम्या के सघार घों की अभिव्यक्ति बिम्ब-प्रतिमिन भाव से की गई हो, वहाँ दृष्टान्त असर होता है। यह अर्थालंकार के अन्तर्गत जाता है। दाहरण दुसह दुराज जान को, क्यों न बर्दै दुःख द्वन्द्व।।

अधिक अँधेरो कत, नि गास रवि-जन्द।। स्पष्टीकरण ही प्रथम पंक्ति में वात दो राजा उपमेय और द्वितीय पति में वर्मत सुर्य एवं गन्दमा छपमान हैं। स्थन पकि में उपमेय का साधारण धर्म है- दुःन का बहाना और हिय पंक्ति में सम्मान का सामान्य धर्म हैरा इस प्रकार सागर धम में भिन्न होने पर भी बिम्ब-प्रतिविम्। भाव से धन किए जाने से या अनेकार की अभिव्यक्ति हुई है। क्लेष अलंकार परिमाण ले। का सामान्य अर्थ है–दिपकना। जहा. शब्द का एक बार प्रयोग किए जाने पर भी उसके दो या दो से अधिक भिन्न भिन्न अर्थ निकले, तो वहीं नेत्र का होता है। इस प्रकार व अर में एक ही शब्द में कई अर्थ विपके अर्थात् छिपे होते हैं।

उदाहरण
जो भूत भीड़ थी मस्तक में स्मृति- ई।
दुर्दिन में औसू बनकर वह आग बरसने आई।।

स्पष्टीकरण
यहाँ ‘अभीभूत’ और ‘दुर्दिन’ शब्द के दो-दो अर्थ हैं। घनीभूत का एक अ है । अर्थात बादल के रूप धारण की हुई, तो दूसरा अर्थ है-एकत्र की हुई, वहीं दुर्दिन का एक अर्थ है-मेघाजवि दिन, तो दूसरा अयं है बुरा दिन अर्थात् कटप्रद समय। अतः यही लेष अलंकार की घटा उभरकर सामने आई हैं।

(ग)
हरिगीतिका यह मात्रिक सम छन्द हैं। चार चरणों गाने इस छन्द का प्रत्येक मरण  मात्रओं का होता है। इस पद में  तथा 1 माओं पर यति और अ में नए-गुरु वर्गों का प्रयोग किया जाता है।
उदाहरण 
बग-वृन्द होता है अतः फेल कल नहीं तो वहीं।
बस मन्द भारत का गमन ही मौन हैं खोता जहाँ।।
इस भौति धीरे से परस्पर कह उगता की कथा
यों दीखते हैं वृा ये हों विश्व के प्रहरी सका।

स्पष्टीकरण या चार चरणों वाले इस काव्यांश के परोक चरण में  मात्राएँ हैं तया  एवं मात्राओं पर यति का विधान भी है। अः गह हरिगीतिका छन्द का उदाहरण हैं। उपेन्द्रका यह सम् वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में , ग, ग, अर्थात् जगर, जगण, जगण और दो गुरु के काम से वर्ग होते हैं।
उदाहरण 

बड़ा कि दा कुछ न के
परन्तु पूर्वादर सोच ली ।
बिना विचारे यदि कान होगा
कभी  अचण परिणाम होगा।

उत्तर 4.
(क)
जल संकट से जूझता मानव
संकेत मिनु-भूगा, जब संकट के कारण, पल की उपाधि, जल र के पार, अप ‘।
भूमिका कहा जाता है-जल ही जीवन है। जल के बिना न तो मनुष्य का जीवन सम्भव है, न तो वह किसी कार्य को संचालित कर सकता है। जल मानव की मूल आवश्यकता है। यूँ तो पी के धरातल का 71% भाग जल से भरा है, किन्तु इनमें से अधिकतर हिस्से का पानी वा अथवा पीने योग्य नहीं है। पूर्व पर मनुष्य के लिए जितना पेयजल विद्यमान है, उनमें से अधिकतर अब प्रदूषित हो चुका है. इसके कारण ही पेयजल की समस्या उत्पन्न हो गई है। जिस अनुपात में ज-प्रदून में वृद्धि हो रही है. यदि यह वृद्धि यूँ ही जारी रहीं, तो वह दिन दूर नहीं जब अगता विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाए। जल की अनुपता की इस स्थिति को ही संकट कहा जाता है। जल संकट के कारण जल संकट के कई कारण हैं। पृथ्वी पर जन के अनेक स्रोत हैं; जैसे- जल, नदियाँ, औन, पोखर, अने, भूमि जल आदि। 
ने का गण में सिंचाई एवं अन्य कार्यों के लिए भूमिगत जल के अत्यधिक प्रयोग के रण भूमिगत जल के स्तर में गिरावट आई है। औद्योगीकरण के कारण नदियों का जल प्रदूषित होता जा रहा है।

इन्हीं अरमों में पेयजल की समस्या हो गई है। प्राकृतिक कोसायनों में मनुष्य के लिए वायु के बाद जल का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके अभाव में उसके जीवन की कपन भी नहीं की जा सकती। औदन के लिए जल की इस अनिवार्यता के कारण ही जल को जीवन की संज्ञा दी गई है। मनुष्य के शरीर में जल की मात्रा 65% होती है। रक्त के संचालन, शरीर के विभिन्न अंगों को स्वस्थ रखने, शरीर के विभिन्न तर्को को मुलायम तम्या ओघदार रखने के अतिरिक्त शरीर की कई अन्य प्रक्रियाओं के लिए भी जल की समुचित मात्रा की भावश्यकता होगी हैं। इसके अभाव में मनुष्य की मृत्यु निश्चित है।

दैनिक जीवन में गर्ग करते हुए, पसीने एवं जैसन प्रया के दौरान उनके शरीर से ल बाहर निकलता है, इसलिए उसे नियत रागग पर पानी पीते रहने की आवश्यकता होती है। स्वास्य विज्ञान के अनुसार, एक गत्वा मनुष्य में प्रतिदिन कम-से-कम चार लीटर पानी पीना चाहिए। जीवन के लिए जन की इस अनिवार्यता के अतिरिक्त दैनिक जीवन के अन्य कार्या; जैसे भोजन चकाने, क्यों साफ करने, मुँह-य धोने एवं नहाने के लिए भी जल की आवश्यकता परती है। मनुष्य अपने भोजन के लिए पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर है। मति के पे-धं एवं की भी अपने जीवन के लिए जान पर है। निर्भर हैं। पसलों की सिंचाई. मक्य उद्योग एवं अन्य कई प्रकार के उद्योगों में जत की आवश्यकता पड़ती है। इन सब दृष्टिकोण से भी जस की उपयोगिता मनुष्य के लिए बढ़ जाती है।

जल की उपयोगिता जीवन की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति ने सहायक होने के अतिरिका जल ऊर्जा का भी एक प्रमुख स्रोत है। पर्वतों पर चे जलाशयों में जल का रिक्षण कर जल विद्युत उत्पन्न की जाती है। देश के कई पत्रों में विद्युत का यह प्रमुख स्रोत है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है और हमारी कृषि वर्षा पर निर्भर करती है।

वर्षा की अनिश्चितता को दूर करने के लिए भी ज-रग आवश्यक है। वृ॥ व लाने पर्यावरण में जल के संरक्षण में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त वृक्ष वायुमण्डल में नमी बनाए रखते हैं और तापमान की वृद्धि को भी रोकते हैं।

अतः ज-संकट के समान के लिए वृक्षों की कटाई पर नियन्त्रण कर वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। वृक्षारोपण से पर्यावरण के प्रदूषण को भी कम या जा सकता है। नदियों के जल के प्रदूषण को नियन्त्रित करने के लिए नदियों के किनारे स्थापित उद्योगों द्वारा अपने अपशिष्टों को नदियों में प्रवाहित करने से रोकना होगा। शरी भागों के गन्दे पानी को भी प्रायः देयों में हैं। महाया जाता है। इन गन्दै पानी से नदियों में जाने से पहले इन उपचार करना होगा। कारखानों में गन्दे पानी के उपधार के लिए विभिन्न प्रकार के संयन्त्र लगाने । इन सबके अतिरिक्त जल संचयन एवं जल-प्रबन्। के भी विशेष महत्व दिए जाने की आवश्यकता है। जल के वितरण की चित बागा करनी होगी। जीं तक सम्भव ही जन का वितरण पाइपों के माध्यम से ही कना चाहिए, ताकि भूमि जल को न शोले एवं उसमें छहरी गन्दगी नाश न हो। जल संग है। नए लाशयों का निर्माण करने के बाद न पा जल को प्रदूषित होने से बचाया  सकता है। खेतों में सिंचाई के नाम को पक्का कर जल संरक्षित किया जा सकता है। वर्षा के पानी के संरक्षण के लिए घरों की छतों पर बड़े-बड़े टैंक बनाए जा सकते हैं।

जल संरक्षण के उपाय
पसंट को दूर करने के लिए जल के अनावश्यक शर्म से मना चाहिए। जल के उपभोग को कम करने एवं इसके संरक्षण के नए जनसत्या पर नियण भी वर्गक है। जल को संरमित करने के नए गाँवों में बड़े तालाबों एवं पौधरों का निर्माण किया जाना चाहिए, जिनमें वर्षा का ज्ञान आरक्षित हो सके और पद आवश्यकता हो, स स ग आगग रियाई ने किया जा सके। ऐसा करने से भूमिगत जन के सर में गति । अमिक वर्षा वाले क्षेत्रों में वष-जल की उपलब्धता अधिक होती है। अतः ऐसे गानों पर बड़े-बड़े बच्चों न निर्माण किया जा सकता है। इन गधों से जल का संरक्षण तो. होता ही हैं, मत्स्य पालन एवं विद्युत उत्पादन में भी सहायता मिलती है।

उपहार मनुष्य में अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रति का सन्तुलन बिगड़ा हैं और अपने लिए भी खतरे की स्थिति पण कर ली है। अब प्रकृति का प्रेम प्राणी होने के नाते उसका कर्तव्य बनता है कि वह जल संकट की समस्या के समाधान के लिए जल संरक्षण पर जोर हैं। जल मनुष्य ही नहीं, बल्कि पृथ्वी के हर प्राणी के लिए आवश्यक है. इसलिए अत को न की संज्ञा दी गई है। यदि जल की समुचित मात्र पृथ्वी पर न हो, तो तापमान में वृति के कारण भी प्राणियों का मीना मुहाल हो जाएगा। इस आय प्रमाण एवं अन्य कारणों से अपन्न गल-संकट के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है, इसलिए अपने एवं पृथ्वी के अस्तित्व की । के लिए उसे इस जन किट का समाधान शीघ्र करना ही होगा और इसके लिए आवश्यक म धनी हॉगे।।

(ख)
भारत की सांस्कृतिक विविधता
संकेा निन्द- भूमिका, भौगोलिक एवं प्राकृतिक विशि , भारतीय संस्कृति की यता, साहित्य, कला एवं शिप की समृद्धता, उपसंहार।
भूमिका भारत पर हुए अनेक विदेशी आक्रमण तथा लगभग दो सौ वर्दी के साम्राज्यवादी शासन के फलस्वरूप यह पहले से मौजूद सांस्कृतिक विविधताओं में और अधिक वृद्धि हुई। अत्यधिक विपतालों के बावजूद भारत एक है और इस एकता का कारण हैं-हाँ की समेकित संस्कृति। भारत एक ऐसा देश है, ज एक और सालों भर बर्फ से इके पर्वत हैं, तो दूसरी और हमेशा गर्म रहने वाले प्रदेश, एक और घने एवं विस्तृत बन हैं, तो दूसरी ओर रेगिस्तान। इस भौगोलिक एवं प्राकृतिक विविणता ने ही भारत में सांस्कृतिक विविधताओं वाला देश बनाया है।

भारतीय संस्कृत में मानव जीवन को अधिक सुगवरित करके इसे चार अदाओं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थं एवं संन्यास में विभाजित करने वाले तस्य मिलते हैं। इसके अतिरिक्त धर्म, अर्थ, काम एवं गौ को माना जीवन के चार पुरावा के झमें परिभाषित किया गया है। मनुष्य के भगिक शुद्धीकरण एवं सामाजिक दायित्वों के निर्गहन के उद्देश्यं से सो संस्कारों की भी व्यवस्था की गई है। ये सोलह स्किार हैं-गर्भाधान, पुंसवन, सीमनोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्मण, अन्नप्राशन, चूडाकरण, ऊर्गय, विधाम, उपनयन वेदारम्भ, केशात, समावर्तन, विवाह एवं अन्त्ये इसके अतिरिक्त, पितृ न, ऋत्र जग तथा देव जग नामक तीन ऋ की चर्चा भी भारतीय वैदिक हिन्द के अन्तर्गत की गई है।

भौगोलिक एवं प्राकृतिक विविधता भारत एक ऐसा सांस्कृतिक चिकिता याला देश है, जहाँ मिन , माघओं, व, खान्–श, देशना आदि की विविधताओं वाले लोग निवास करते हैं। यह हिन्दू मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, मैौद्ध, जैन आदि धर्मों में आ रखने वाले लोग रहते हैं। इन सभी से अपने-अपने मतों के अनुसार पूजा पद्धति अपनाने और अनुसरण करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। इन सभी धर्मों की मान्यताओं एवं विचारों में पर्याप्त अनार होते हुए भी रानी लोग परस्पर प्रेम और हार्द से राहते हैं। ये प्रेम और सौहार्द की भावना भारत की प्राचीन समेकित संस्कृति की अद्वितीय विशेषता है। दूसरे शब्दों में, यदि कहा जाए तो भारतीय संस्कृति एक ऐसे नहातमुद्र के समान है, जिसमें विभिन्न मतान्तर रूपी धाराएँ मिलकर भारतीय संस्कृति का अनिन अंग बन गई। भारत को यदि पद, त्योहारों और मेतों देश कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भारतीय संस्कृति की अंतता तिने अधिक पद और मेलों का आयोजन मारत में होता है, उतना विश्व के किसी अन्य देश में नहीं होता। भारत में मुख्य रूप से मनाए जाने वाले पर्यों में होली, दिवाली, रक्षाबन्धन, दशहरा, ईय, बकरीद, गु-फाइने, गुरुपर्व, वैसाखी, गणेश चतुर्थी, नागपंचमी, जन्माष्गी , रामनवमी, महावीर जयन्ती, त पुजा, नवरात्रि, रंगाली बिद्, जमशेद नवरोज, वसन्त पंचमी, भौगाती बिहू, पागल, वीषु, विसमस, ईस्टर; ओणम, आज पूर्णिमा, भाई दूज, शिवरात्रि, मोहर्रम, मकर संक्रान्ति, लोहड़ी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिका यहाँ अनेक तीर्थ स्थान भी है, जिनमें अदीनाथ, पुरी, द्वारिका तथा रामेश्वरम् हिन्दुओं के चार पवित्र मान बताए गए हैं। यहां के लगभग प्रत्येक राजा अथवा शहर में कई-कई प्रसिद्ध धार्मिक ग्यत अवश्य मित जाएगा। इसके अलावा यही विभिन्न मेलों, उत्सव तथा कुम्म एवं अर्द्धकुम का भी आयोजन किया जाता है। इन समस्त धार्मिक कर्मकन्हीं में प्यात्मिक उन्नयन की माता के साथ समाज के सुसंगठन एवं उनमें समय त्यापित करने के प्रयत्न भी दृष्टिगोचर होते हैं।

साहित्य, कला एवं शिल्प को समृद्धता
भारतभूमे अनेक महापुरुषों की जन्मत्यजी भी रही हैं। श्रीश, मु, महावीर स्वामी, गुरुनानक, कबीर, अग, अकबर, सूरदास, मीराब, दयानन्द सरस्वती, नागदेव, शन्त तुकाराम, प्रभु बैतन्य, महात्मा गाँधी, विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, राजा राममोहन राय जैसे सत्य, अहिंसा, सरिता, शानि, पवित्रता, आदर्श, प्रेम, सौहार्द, पारस्परिक भाईचारे, विश्वबंधुत्व, त्याग एवं समर्पण के मार्ग पर मानवमात्र को चलने की प्रेरणा देने वाले महापुरुष भारतभूमि पर ही अवतरित हुए थे। भारत में भाषाओं की कि बहुलता है। यह विमिन भाषा परिवार के अनेक मात्राएँ प्रपतन में हैं. लेकिन इसके बावजूद वे सभी एक ही कये में बनी हुई हैं। सभी भाषाओं पर संस्कृत मश का प्रभाव देखने को मिलता है। भारत प्रजातियों का एक अवघर है. लेकिन बाहर से आई इतिह, आर्य, शङ, सिधिन्, हूण, तुर्क, पठान, मंगोल अदि प्र गती यहीं के समान में इतनी घुल मिल गई है। उनका पृथक अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया है।

उपसंहार नि अ में कहा जा सकता है कि बाहुरी तौर पर भारतीय समाज में संस्कृति एवं जीवन के सर पर विभिन्नता दिखाई देने पर भी भारत की संस्कृति, विचार एवं राष्ट्रीयता मूलतः एक है। इस एकता को वापिस नहीं किया जा सकता और इसका प्रमाण देश पर हुए अनेक बाहरी आक्रमण के बाद इसकी एकता में निहित है।

(ग) लोकतन्त्र में नीमिया की भूमिका
संकेत निन्द् भूग, लोन्त्र का सजग प्रहरी, गीता का वित क्षेत्र, जनमत के निर्माण का दायित्य, उपसंहार

भूमिका
आधुनिक शि में लोकतन्त्र एवं लोकतान्त्रिक शाओं की गति से विकास हुआ है। मीडिया नोकतन्त्र की एक सशक्त होत्या है। मीडिया अर्थात् जनयार के माध्यम (रेडियो, टेकवेज, समाचार-पत्र आदि) किसी भी समाज अथवा चाकी , आर्थिक, राजनीतिक एवं कि गतिविधियों को प्रतिबिम्बित करते हैं। जिन साधनों का प्रयोग कर एक बड़ी जनसरया तक विचार, भावनाओं और सूचनाजों के समेकित किया जाता है, त हुन जनसंचार माध्यम कहते हैं। मीडिया अर्थात् जनसंचार माध्यम को तीन व मुद्रण माध्यम, इलेक्ट्रॉनिक मायन एवं नव-इलेक्ट्रॉनिक माध्यम, में विभाजित । जाता है। मृग माध्यम के अन्तर्गत शार-पत्र, पत्रिकाएँ. पुस्तके आते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मगन के मार्ग शैलियों, टेलीविजन । सिनेमा आते हैं। -इलेक्ट्रॉनिक मग इटरनेट हैं। ऋषना मौ योगिकी के इस युग में सूचनाओं तक व्यक्तियों की पहुँच में तेजी आने के साथ ही मीविया के महत्व में भी वृद्धि हुई है। मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े चहेना कि समाज के व्यक्तियों की आवश्यकता बनती जा रही है ।

लोकतन्त्र का शा प्रहरी विभिन्न देशों में सम्पन्न होने वाली आगगक एवं राजनीतिक क्रान्तियों में मीडिया की भूमिका अति महत्वपूर्ण रही है। भया की इस का एवं महत्वपूर्ण भूमिका में देते हुए, टेन के राति विचारक आम ने इसे “लोकन्के को कतम क ण प्रदान किया है। लोकतन्त्र के अन्य तीन स्तम्भ हैं-विधायिक, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका।विधायिका का कार्य कानून का निर्माण करना है. कार्यपालिका का कार्य शसे गू करना एवं मापन का कार्य अनून का पालन करना होता है। इन तीनों स्तनों पर निगरानी रखकर लोकतान्त्रिक भावनाओं की रा जिम्मेदारी पत्रकारिता जगत् अर्थात् मीडिया पर ही होती है। लोकतान्त्रिक राष्ट्रों में जहाँ विचारों एवं व्यक्ति की कान्ता प्रदान की गई है, वहीं इस स्वतन्त्रता का शही अंग मापक हिया द्वारा ही किया जा ।

म समय में ही एक और मीडिया में देश की राजनीतिक, सामाजिक ए भ गतिविधियों के जानकारी प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर विदेशों में काटने वाली घटनाओं एवं परिवर्तित होते समाजिक मूल्यों को भी अवगत कराता है। अतः मीडिया सत्र के एक सजग और सहा परी है, जिसके माध्यम से नशापारण अपनी इच्छाएँ. विरोध, समर्थन एवं आलोचना शमी कुछ प्रकट करते हैं। दूसरे श में यह कहा जा सकता है कि मीडिया जग अकाओं की अभिव्यक्ति का एक प्रभावी मैच , उनका प्रतिदिन है। यही कारण है कि बने से बड़े चाजनीतिज्ञ भी मीडिया की अवहेलना करने से इनते हैं।

मीडिया का विस्तृत क्षेत्र समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ विश्वभर में जनसंचार का प्रमुख एवं म हैं। समाचार-पत्र के अतिरिका शगों भी जनसंचार का एक प्रमुख शाम है, खासकर दूरदराज के नशे में जारी अभी तक ती नहीं की है । जिन क्षेत्रों के लोग आर्थिक  हैं। प्रारम्भ में हेलीविजन की लोकप्रियता का कारण इस पर प्रसारित होने वाले सीमित कामाधार, धारावाहिक एवं सिनेमा थे। बाद में कई न्यूज चैनल की स्थापना के साथ ही या अनार का एक ऐसा सशत म म गया, जिसकी पहुँच कोहों लोगों तक हो गई। अब आठ सौ से अधिक टेलीविजन चैनल चौबीस धम्टे निरन्तर विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। इन्टरनेट अगसंचार का एक नयीन इलेक्ट्रॉनिक माध्यम है।

इण्टरनेट वह जिन है. जो व्यक्ति के सभी अदे की तामील करने को तैयार रहता है। विदेश जाने के लिए कई जहाज का कट बुक कराना हो, तो पर्यटन स्थल पर स्ति होटल का कोई कमरा बुक कराना हो. किती किताब में ऑर्डर देना हो, अपने यापार को थाने के लिए विज्ञापन देना हो, अपने मित्रों से ऑनलाइन चैटिंग करनी हो, बॉक्टनों से स्वास्थ्य सञ्चयी सल्लाह लेनी हो या वीनों से कानूनी लाह लेनी हो, इण्टरनेट र मर्ज की दवा है। नेता हो । अभिनेता, विद्या हो या शिशाक, पातक हो या लेखक, सबके लिए इण्टरनेट उपयोगी साबित हो रा है।

जनमत के निर्माण का वाणिज्य मीडिया, एक ओर तो जनता के प्रवक्ता के रूप में कार्य करता है। जनता द्वारा सरकार की टियों से सम्बन्धित शिकायतें मीडिया द्वारा अभिव्यक्त की जाती है तो दूसरी ओर, सरकार के लिए महिमा के मन में की मन मान्य करा समक्ष हो जाता है। लोकतन्त्र में जनमत का अति महत्वपूर्ण स्थान है और इस जनमत के निर्माण का दायित्व भी मीडिया पर ही होता है। सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों पर टिगियों एवं आलोचनाओं द्वारा वास्तविकता को या जनता के समक्ष रखता है। महत्वपूर्ण नीतियों के चाटिल , नगर की गम से परे होता है, मीडिया द्वारा ही स्पष्ट किया जाता है। गीडिया द्वारा सम्पूर्ण विश्व में समाचारों एवं विचारों को प्रसारित किया जाता है तथा जनता को विश्व में घटित होने काली पटनाओं के सम्मका में अन नारी सुलभ कराई जाती है। मीडिया का एक अति महत्वपूर्ण कार्य यह है कि यह देश-विश्व के लोगों हेतु रास्ट्रीय मया अतर्राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूरी समस्याओं पर परिचय और वाद-विवाद में भाग लैना आसान बनाता है। उपहार मीडिया का प्रभाव आधुनिक समान पर  देखा जा सकता है। आधुनिक समय में मीडिया एक जन्तर्राष्ट्रीय अगिकरण की भूमिका का निर्वहन कर रहा है।

विभिन्न देशों में घटित घटनाओं एवं समाधारों का व्यापक नरेण भया के माध्यम से प्राप्त होता है। यह तानाशाह को अपनी जनता एवं विश्व समुदाय से याविकता को पाने से रोकता है। आप टीवी भी परी अमाचार जैन र र घण्टे महत्वपूर्ण भटनाएँ, जो तरल अटित हुई होती हैं. बेकिंग माग के माध्यम से दिखाई जाती हैं। मोठिया के माध्यम से लोगों को देश की प्रत्येक गतिविधि

के जानकारी तो मिलती ही है, सब ही उनका मनोरंजन भी होता है। किसी भी देश में जा का मार्गदर्शन करने के लिए निष्पक्ष एवं निक मीडिया का होना आवश्यक है। मीडिया देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है। नीङ्गिमा सरकार एवं जनता के बीच एक सेतु का कार्य करता है। जनता की समस्या इसी माम से जन-जन तक पागा जाता है। एक उत्तरदायी वा त देश में कानून तथा को भए भने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को कायम रखने में ही भूमिका निभा सकता है।

(घ)
इण्टरनेट की दुनिया संकेत बिन्दु भूक, इण्टरनेट के मार, इ e , उपयोगिता इन्टरनेट ते नि उपहार भूमिका आज के युग में इन्टरनेट के दुनिया ने लोगों को इतना अधिक प्रभावित कर दिया है कि लोग ज्ञान प्राप्ति के अतिरिक्त सेनने, पइने, संगीत सुनने, शिकारी करने तथा अपने अनेक अन्य देश्यों को पूरा करने के लिए मर र अता एक चमफाइ लगता है, जिसमें संचार में गति एवं विनियता नाकर पूरी दुनिया में परिवर्तित कर दिया है।

इन्टरनेट का प्रसार सूचना एवं अन्य इलेक्ट्रानिक संसाधनों के सा करने के लिए विभिन्न संचार मयमों से आपस में जुड़े इम्प्यूटरों एवं अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों का समूह. कन्यूटर नेटवर्क कझाता है और इन्हीं कम्प्यूटर नेटवर्क का विश्वस्तरीय नेटवर्क इन्टरगेट है। शीत युद्ध के दौरान वर्ष 1968 में अमेरिका के प्रतिरक्षा विभाग ने युद्ध की स्थिति में अमेरिकी सूचना संसाधनों के संरक्षण एवं आपस में सूचना को साझा करने के उदेश्य से पहली बार कु कम्प्यूटरों के एक नेटवर्क अरपान (ARPANET) की शप।  या ग आधार पर अन्य कम्प्यूटर नेटवक का निर्माण हुआ, जो आगे चलकर विश्वस्तरीय नेटवर्क इन्टरनेट के रूप में तब्दील हो गया। इसमें विश्वभर के कम्प्युटर नेटवर्क एक मानक प्रोटोकन के माध्यम से जुड़े होते हैं। दुनिया के किसी मी मइण्टरनेट के की संज्ञा नहीं दी जा सका इतका कोई मुख्यालय अथवा केन्द्रीय प्रबन्ध नहीं है। अई भी अति जिसके पास किसी इण्टरनेट सेवा प्रदाता कम्पनी इण्टरनेट सुविधा है. अपने कम्प्यूटर के माध्यम से इससे जुड़ सकता है।

विश्व के कुल 7 अरब से अधिक लोगों में से लगभग 3 अरब लोग इण्टरनेट से पड़े हुए हैं। अमेरिका व चीन में इण्टरनेट से जुड़े लोगों की संख्या सवक हैं, विश्व में सरे नम्बर पर स्थित देश भारत में इण्टरनेट से जुड़े लोगों की संख्या ज्ञगभग 25 करोड़ से अधिक है। पूरे विश्व में इण्टरनेट से जुड़ने वाले लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही हैं। पहले। सभी प्रकार की सूचनाओं को साझा करना सम्भव नहीं था, लेकिन अब इप्टरनेट के माध्यम से न वेव सुचनाओं, बल्कि वीडियो कर भी। आदान-प्रदान किया जा सकता है।

इससे प्राप्त होने वाले लाभ के तहत यात्रा म टिकट बुक कराने से लेकर किताब का ऑर्डर देने, अपने व्यापार को बढ़ावा देने के लिए विज्ञापन देने, अपने मित्रों से ऑनलाइन बैंटिंग करने, प्रत्येक प्रकार का परम ) आदि तक शामिल है। इण्टरनेट की उपयोगिता भारत में इण्टरनेट सेवा की शुरूआत बी एस एन एल ने वर्ष 1995 में की थी। अब एयरटेल, रिलायन्स, टाटा इम्डिकोम, वोडाप्लेन जैसी दूरसंचार कम्पनियाँ भी इन्टरनेट सेवा उपलब्ध कराती हैं। पहले ई-मेल के माध्यम से दस्तावेजों एवं छवियों आदानप्रदान ही किया जाता था, अब ऑनलाइन बातचीत का प्रयोग लगातार बद रहा है और चैटिंग के माध्यम से हम किसी भी मुद्दे पर बहस कर सकते हैं। इण्टरनेट के माध्यम से गौजिया हाउस ध्वनि और दृश्य दोनों माध्यमों के द्वारा ताजातरीन खबरें और मौसम सम्बन्धी जानकारियाँ हम तक आसानी से पहुँचा रहे है।

नेता हों या अभिनेता, विद्यार्थी हो या शिक्षक, पावक हो या लेखक, वैज्ञानिक हो दा चिन्तक, सबके लिए इण्टरनेट समान रूप से उपयोगी सास्ति हो रहा है। अब इसके माध्यम से न सिर्फ उच्च शिक्षा हासिल की जा सकती हैं, बल्कि रोज़गार की माप्ति में भी यह सहायक साबित होता है। विभिन्न प्रकार के शक्षण एवं जनमत संह इण्टरनेट के द्वारा भी-मौत किए जा सकते हैं। इण्टरनेट से हानि इण्टरनेट के ई इनाम हैं, तो इसकी कई खामिय भी हैं। इसके माध्यम से नग्न दृश्यों तक बच्चों की पहुंच आसान हो गई है। कई लोग इण्टरनेट के योग Ya cों को देने और सूचनाओं को चुराने में करते हैं। इससे साइबर अपरामों में वृद्धि हुई है। इण्टरनेट से जुड़ते समय वायरसों द्वारा सुरक्षिा फाइनों के नश्ट या संक्रमित होने का खतरा भी बना रहता है। इन वायरस से बचने के लिए एण्टी वायरस सॉफ्टवेयर का प्रयोग आवश्यक होता है। इन सबके अतिरिक्त बहुत-से लोग इस पर अनावश्यक और गलत कई एवं तथ्य भी प्रकार करते रहते हैं। अतः इस परप: ममी कहो या न जा माना नहीं माना जा सकता। इनके इस्तेमाल के वक्त हमें अफी सावधानी बरतने की जरूरत पड़ती है।

उपहार इस प्रकार, इन्टरनेट में शान का सागर है, तो इसमें करे की भी कमी नहीं है। आप इसका सही मग हो, जो हमारी तीव्र गति से । प्रगत होगी और यदि इसन गलत प्रयोग किया जाए, तो कु-कचरे के अलावा हमें कुछ भी नहीं मिलेगा। अतः आने वाली थीढ़ी को इसका सही उपयोग सिखाना आवश्यक है, अन्यथा बध्यों या कम जादु के युवा वर्ग के लिए यह दोधारी तलवार साबित हो सकता है।

(क) उत्तर के लिए निबन्ध सं. 21 (पृष्ठ सं. 206) देखें।

उत्तर 
5.
UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 1 image 1
(ङ)
(i) यह ‘अश्वात्” पद में पञ्चमी विभक्ति है। पञ्चमी विभक्ति का नियम 
अथवा सूत्र है-विमपार्यपादानम्। इस नियम के अनुसार, जब किसी वस्तु का घुव (निश्क्ति) वस्तु से स्थायी अलगाव होता है, तो उसे अपादान कहते हैं और ‘अपादाने मी’ सूत्र के अनुसार, अपादान में पञ्चमी विभक्ति ती है।
(ii) यहाँ ‘पृहंन” पद में तृतीया विभक्ति हैं। तृतीया विन्दति का नियम 
अथवा सूत्र है-येनाङ्गविकारः। इस निगम के अनुसार, विकृत अंग के मागम् अंगी जा गिकार शिरा 16 आने पर विकृत अंग के वाचक शब्द में तृतीया विभक्ति होती है।
(iii) यहाँ शुकदेवाय’ पद में चतुर्थी विभक्ति है। चतुर्थी विभक्ति का 
 नियम अथवा सूत्र है- नमः स्वस्तिस्वाहावयाऽर्नवगौगाय। इस सूत्र के अनुसार, नमः, स्वस्ति, स्याहा, स्वधा, अलम, वषट् शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 1 image 2

उत्तर 6.
(क) संस्कृत अनुवाद-त्वं करिगन् आयाम् पठसि?
(ख) संस्कृत अनुवाद सूर्योदये कमले विकसति।
(ग) संस्कृत नुवाद-मायः मारत रक्षा।
(घ) संस्कृत अनुवाद हिमालयात् गङ्गा प्रभवति।
(छ) संस्कृत अनुवाद-कवि कालिदासः श्रेष्ठः अस्ति।
(च) संस्कृत अनुवाद-रगेशः कर्मन बधिरः अस्ति।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism (राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism (राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 9
Chapter Name Nationalism and Internationalism
(राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism (राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
राष्ट्रीयता की परिभाषा दीजिए तथा इसके विभिन्न पोषक तत्वों की विवेचना कीजिए।
या
‘राष्ट्रीयता क्या है? इसके निर्माणक तत्त्व बताइए। [2011]
या
राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं? [2013, 15]
उत्तर
‘राष्ट्रीयता’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Nationality’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है, जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Natio’ शब्द से हुई है। इस शब्द से जन्म और जाति का बोध होता है। राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भावना है। यह लोगों को एक सूत्र में बाँधने का कार्य करती है। विभिन्न विद्वानों ने राष्ट्रीयता की परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं-

  1. एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार, ‘‘राष्ट्रीयता एक ऐसी मनोदशा को कहते हैं जिसमें व्यक्ति अपने राष्ट्र के प्रति उच्चतम भक्ति को अनुभव करता है।”
  2. मैकियावली के अनुसार, राष्ट्रीयता उस सक्रिय भावना को कहते हैं जो लोगों में एक साथ रहने से उत्पन्न होती है।”
  3. डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार, “राष्ट्रीयता की निश्चित परिभाषा देना कठिन है, परन्तु यह स्पष्ट है कि ऐतिहासिक गतिविधि में यह पृथक् अस्तित्व की उस चेतना का प्रतीक है जो सामान्य आदतों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, स्मृतियों, आकांक्षाओं, अवर्णनीय सांस्कृतिक सम्प्रदायों तथा हितों पर आधारित है।”
  4. हॉलैण्ड के अनुसार, “राष्ट्रीयता एक ऐसी आध्यात्मिक भावना है जो लोगों को राजनीतिक रूप में एकता के बन्धन में रहने के लिए प्रेरित करती है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर राष्ट्रीयता का अर्थ साधारण शब्दों में इस प्रकार बताया जा सकता है कि “राष्ट्रीयता उन लोगों का समूह है जो समान भाषा, समान जाति या वंश, समान साहित्य, समान इतिहास, समान रीति-रिवाजों, समान विचारधारा और समान राजनीतिक आकांक्षा आदि के आधार पर अपने को एक समझते हों और इसी प्रकार अपने को एक समझने वाले दूसरे लोगों को अलग मानते हों।”

राष्ट्रीयता के मुख्य निर्माणक तत्त्व
लोगों में राष्ट्रीयता के लिए आवश्यक एकता की भावना उत्पन्न करने में कई तत्त्व सहायक सिद्ध होते हैं। राष्ट्रीयता के मुख्य सहायक तत्त्व निम्नवत् हैं-

  1. मातृभूमि – प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृभूमि से लगाव होना स्वाभाविक है। इस लगाव के कारण ही वे आपस में एक भावना से बँधे रहते हैं।
  2. जातीय एकता – जिमर्न तथा ब्राइस जातीय एकता को राष्ट्रवाद के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान मानते हैं। एक ही जाति के लोगों में रीति-रिवाजों, धर्म तथा रहन-सहन की एकरूपता होती है, जिससे राष्ट्रीय भावना विकसित होती है।
  3. समान संस्कृति – एक देश में निवास करने वाले व्यक्तियों के मध्य समान परम्पराएँ, रीति-रिवाज, साहित्य एवं रहन-सहन की विधि एक-दूसरे को जोड़ने के लिए सीमेण्ट की तरह है।
  4. भाषायी एकता – भाषा की एकता भी राष्ट्रीयता के प्रारम्भिक विकास में सहयोगी होती है। भाषा से लोगों में पारस्परिक निकटता उत्पन्न होती है। समान आदर्श तथा समान संस्कृति को बढ़ावा मिलता है तथा राष्ट्रीय एकता में वृद्धि होती है, क्योंकि ये दोनों ही राष्ट्रीयता के आधार हैं।
  5. धार्मिक एकता – एक ही धर्म के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना शीघ्रता से उत्पन्न हो जाती है; अतः धर्म लोगों को एकता के सूत्र में पिरोकर राष्ट्रीयता के विकास में सहायक बनाता है।
  6. भौगोलिक एकता – भौगोलिक एकता से भी राष्ट्रीयता का विकास होता है। रुथनास्वामी ने ठीक ही कहा है कि “राजनीति हमें बाँटती है, धर्म हमारे बीच दीवारें खड़ी कर देते हैं, संस्कृति हमें एक-दूसरे से पृथक् करती है, किन्तु देश और धरती का प्रेम हमें एक सूत्र में बाँधता है। भौगोलिक एकता के विकास के अभाव में राष्ट्रीयता का विकास असम्भव है।”
  7. एक शासन – लम्बे समय तक एक ही शासन के अधीन रहने से भी राष्ट्रीयता की भावना का जन्म तथा विकास होता है।
  8. समान इतिहास – समान इतिहास भी राष्ट्रीयता के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। जिन लोगों का समान इतिहास होता है, उनमें एकता की भावना का होना स्वाभाविक है।
  9. समान हित – राष्ट्रीयता के विकास के लिए समान हित भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यदि लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक हित समान हों तो उनमें एकता की उत्पत्ति होना स्वाभाविक ही है।
  10. संघर्ष के समय राष्ट्रीय एकता – एक राष्ट्र में व्यक्ति परस्पर अधिक संगठित रहते हैं। वे साधारण मनमुटाव को भुलाकर आने वाली विपत्तियों का सामना करते हैं। भारत-पाक युद्ध के समय भारतीय राष्ट्रीय एकता इसका प्रमाण है।
  11. राज़नीतिक आकांक्षाएँ – राष्ट्रीयता के विकास में राजनीतिक आकांक्षाएँ महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। जब लोगों के समूह में विदेशी राज्य को समाप्त करने की भावना आती है तो राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न होती है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीयता की परिभाषा दीजिए। ‘राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्वों पर प्रकाश डालिए।
या
‘राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्वों तथा उनको दूर करने के उपायों का वर्णन कीजिए।
या
राष्ट्रीयता के विकास में बाधक किन्हीं दो तत्त्वों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
(संकेत–राष्ट्रीयता की परिभाषा हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तर देखें।
राष्ट्रीय भावना (राष्ट्रीयता) के विकास में बाधक तत्त्व राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्व निम्नवत् हैं-

1. अज्ञान और अशिक्षा – शिक्षा राज्य में रहने वाले मनुष्यों को मानसिक रूप से एक-दूसरे के समीप लाकर उनमें एक सामान्य दृष्टिकोण को जन्म देती है जिसका परिणाम राष्ट्रीयता होता है। इसके नितान्त विपरीत अज्ञान और अशिक्षा मानव मस्तिष्कों के मेल में बाधक सिद्ध होते हैं और इनके द्वारा राष्ट्रीयता के विकास में बाधा ही डाली जाती है।

2. आवागमन के अच्छे साधनों का अभाव – यदि आवागमन के अच्छे साधन न हों तो एक ही राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति एक-दूसरे से सम्पर्क स्थापित नहीं कर पाते। इसके परिणामस्वरूप उनमें वह एकता की भावना उत्पन्न नहीं हो पाती, जो राष्ट्रीयता का प्राण है।

3. साम्प्रदायिकता की भावना – जब व्यक्तियों के द्वारा अपने सम्प्रदाय विशेष को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है तो उसे साम्प्रदायिकता की भावना कहते हैं। साम्प्रदायिकता की यह भावना स्वाभाविक रूप से राष्ट्रीयता के विकास में बहुत अधिक बाधक होती है, क्योंकि साम्प्रदायिकता के बहाव में व्यक्ति राष्ट्रीय हितों को भूलकर सम्प्रदाय विशेष के हितों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं।

4. जातिवाद एवं भाषावाद – जातिवाद तथा भाषावाद भी राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक तत्त्व हैं। जातिवाद की भावना के कारण व्यक्ति केवल अपनी जाति के लोगों से ही स्नेह रखते हैं तथा अन्य जाति के लोगों से घृणा करते हैं। इससे राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं हो पाता। इसी प्रकार जब व्यक्ति अपनी भाषा को ही सब कुछ समझकर अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष का रुख अपना लेते हैं, तो इससे भाषायी उपद्रवों को बढ़ावा मिलता है और राष्ट्रीयता को आघात पहुँचता है।

5. प्रान्तीयता की भावना – प्रान्तीयता की भावना भी राष्ट्रीयता के विकास में बहुत बाधक होती है। इस भावना के कारण विभिन्न प्रान्तों में रहने वाले लोग अपने आपको राष्ट्र का नागरिक न समझकर एक प्रान्त का ही निवासी समझते हैं। इस भावना के कारण देश में क्षेत्रीय उपद्रव उठ खड़े होते हैं और देश अनेक टुकड़ों में बँट जाता है।

6. देशभक्ति का अभाव – जब एक देश के व्यक्ति अपने देश के प्रति भक्ति नहीं रखते, उन्हें अपने देश की सभ्यता और संस्कृति से लगाव नहीं होता तो राष्ट्रीय चेतना का उदय नहीं हो पाता और राष्ट्रीय भावना का विकास रुक जाता है।
राष्ट्रीयता के विकास के लिए आवश्यक है कि जातिवाद, भाषावाद, प्रान्तीयता और साम्प्रदायिकता की भावनाओं का त्याग कर स्वस्थ, उदार और विवेकपूर्ण देशभक्ति का मार्ग अपनाया जाये।

राष्ट्रवाद के मार्ग की बाधाओं को दूर करने के उपाय
राष्ट्रवाद के मार्ग की बाधाओं को दूर करने के लिए प्रमुख रूप से निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

1. संकुचित भावनाओं का त्याग और देश-प्रेम की प्रबल भावना – जाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्र विशेष के प्रति प्रेम में कोई बुराई नहीं है, यदि व्यक्ति इनकी तुलना में देश के प्रति प्रेम अर्थात् राष्ट्रवाद की भावना को अधिक प्रबल रूप में अपनाएँ। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में राष्ट्रवाद की भावना इतनी प्रबल होनी चाहिए कि वह जाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय और प्रदेश के प्रति प्रेम को राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधक न बनने दें।

2. देश के विभिन्न भागों में साहित्यिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक सम्पर्क – देश की एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, जिसके माध्यम से राष्ट्रवाद की भावनाओं का विकास हो। व्यक्तियों द्वारा न केवल राष्ट्रभाषा वरन् अपने से भिन्न प्रदेश की भाषा, साहित्य और संस्कृति का ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए। व्यक्तियों में अपने से भिन्न भाषा और संस्कृति रखने वाले व्यक्तियों के मनोभावों को समझने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, जिससे राष्ट्रवाद के मार्ग की मनोवैज्ञानिक बाधा दूर हो सके और राष्ट्रवाद की भावना पल्लवित हो सके।

3. शिक्षा का प्रचार-प्रसार और सही शिक्षा व्यवस्था – शिक्षित व्यक्तियों से उदार दृष्टि अपनाने की आशा की जा सकती है। अत: शिक्षा का बहुत तेजी से प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। शिक्षा व्यवस्था में मानवीय दृष्टिकोण को उदार बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए और व्यक्तियों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा के द्वारा नागरिकों में व्यक्तिगत और संकुचित स्वार्थों को नियन्त्रित करने और देशहित को सर्वोपरि समझने की प्रवृत्ति विकसित की जानी चाहिए।

4. आवागमन के अच्छे साधन – आवागमन के बहुत अच्छे और सुविधाजनक साधन विकसित किये जाने चाहिए, जिससे एक ही देश में विभिन्न क्षेत्रों के निवासी एक-दूसरे के अधिकाधिक सम्पर्क में आएँ और राष्ट्रवाद को अपना सकें।

5. सभी क्षेत्रों का सन्तुलित आर्थिक विकास – राष्ट्रीय सरकार द्वारा अपने देश के सभी क्षेत्रों का सन्तुलित और अधिकाधिक सम्भव सीमा तक आर्थिक विकास करने की नीति अपनायी जानी चाहिए, जिससे आर्थिक कारणों से किन्हीं क्षेत्रों में तीव्र असन्तोष न उत्पन्न हो सके।

6. दलीय राजनीति पर अंकुश – आज के लोकतान्त्रिक राज्यों में यह निर्बलता देखी गयी है। कि राजनीतिक दल शासन पर अधिकार करना या बनाये रखना अपना एकमात्र उद्देश्य बना लेते हैं और वे ‘दलीय राजनीति का खेल खेलते हुए राष्ट्रीय हितों को हानि पहुँचाते हैं। अतः शासक दल और विपक्षी दल सभी के द्वारा दलीय राजनीति पर अंकुश रखा जाना चाहिए और सत्ता प्राप्ति की तुलना में राष्ट्रवाद को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाना चाहिए।

7. न्यायपूर्ण और सुदृढ़ शासन – शासन ऐसा होना चाहिए जो उपद्रवी तत्त्वों और संकुचित प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने में समर्थ हो, लेकिन जिसके द्वारा अपनी शक्तियों को न्यायपूर्ण और संयमित रूप में ही प्रयोग किया जाये।

राष्ट्रवाद के विकास में शिक्षक, समाचार-पत्रों के सम्पादक, धार्मिक और सामाजिक जीवन का नेतृत्व करने वाले वर्ग, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं और नेता तथा देश के सर्वोच्च नेतृत्व-सभी की महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं। ये वर्ग अपनी भूमिकाएँ भली प्रकार सम्पादित करें, तभी राष्ट्रवाद की भावना का विकास और राष्ट्रवाद के भाव को उदार, लेकिन पूर्ण अंशों में बनाये रखने का कार्य सम्भव हो सकेगी।

प्रश्न 3.
राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2008, 10, 11, 14]
या
राष्ट्रवाद (राष्ट्रीयता) के गुण-दोषों की विवेचना कीजिए। [2014]
या
क्या राष्ट्रीयता विकास में बाधक है? [2014]
या
क्या उग्र राष्ट्रवाद विश्व-शान्ति के मार्ग की बाधा है? व्याख्या कीजिए। [2010]
या
‘राष्ट्रीयता एक अभिशाप है।’ स्पष्ट कीजिए। [2010]
उत्तर
(संकेत-राष्ट्रवाद हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तरे देखें]
राष्ट्रीयता के गुण
किसी भी राष्ट्र के विकास में राष्ट्रीयता एक वरदान का कार्य करती है। इस भावना के फलस्वरूप अनेक नये राष्ट्रों का निर्माण हुआ है। राष्ट्रीयता को यदि इसके सही अर्थों में अपनाया जाये तो यह अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और विश्व शान्ति की स्थापना में सहायक सिद्ध हो सकती है। राष्ट्रीयता के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. राजनीतिक एकता की शिक्षक – राष्ट्रीयता की भावना के कारण भी लोग मिलकर रहना सीखते हैं।
  2. देश-प्रेम का आधार – राष्ट्रीयता और देशभक्ति पर्यायवाची शब्द हैं। राष्ट्रीयता व्यक्तियों को अपने देश के प्रति प्रेम करना सिखाती है। जब व्यक्ति अपने देश से प्रेम करने लगते हैं तो वे देश की उन्नति करने का प्रयत्न भी करते हैं।
  3. राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए प्रेरक – राष्ट्रीयता की भावना से लोग आपसी भेदभाव को भूलकर देश को आजाद कराने के लिए संघर्ष और आन्दोलन करते हैं।
  4. संस्कृति के विकास में सहायक – राष्ट्रीयता की भावना भाषा, साहित्य, विज्ञान, कला तथा संस्कृति के विकास में बहुत सहायता प्रदान करती है।
  5. आर्थिक विकास में योगदान – राष्ट्रीयता ने राष्ट्र के विकास में बहुत योगदान दिया है। देश के विकास के लिए नागरिक, व्यापारी अच्छी वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जिससे उद्योग धन्धे और व्यापारों की उन्नति होती है और देश का आर्थिक विकास होता है।
  6. चरित्र-निर्माण में सहायक – राष्ट्रीयता व्यक्तियों के चरित्र-निर्माण में सहायक होती है। राष्ट्रीयता मनुष्य को अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्र के लिए त्याग करना सिखाती है। राष्ट्रीयता व्यक्तियों में अनुशासन, कर्तव्यपरायणता, सहयोग, सहानुभूति, सहायता इत्यादि नागरिक गुणों की शिक्षा देती है।
  7. उदारवाद का परिचायक – राष्ट्रवाद का आत्म-निर्णय के अधिकार से सम्बद्ध होना ही स्वतन्त्रता के विचार का परिचायक है। व्यक्ति व राज्य में प्रजातन्त्रीय विचार संचारित होते हैं। जो साम्राज्यवादी विचारों का विरोध करते हैं।
  8. विभिन्नताओं की रक्षा – राष्ट्रवाद संकीर्णताओं को लाँघकर मानव को एक बनाता है। विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग व वर्ण के लोगों को एकता के सूत्र में बाँधता है।
  9. विश्व-शान्ति की संस्थापक – राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और विश्व-शान्ति की स्थापना में सहायक होती है। यह विश्व-बन्धुत्व की भावना में वृद्धि करती है।

राष्ट्रीयता के दोष-राष्ट्रीयता एक अभिशाप
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राष्ट्रीयता मानव समुदाय के लिए एक वरदान है, किन्तु जब यह भावना बहुत संकुचित अथवा उग्र रूप धारण कर लेती है तो यह विध्वंसक हो जाती है तथा एक अभिशाप बन जाती है। पं० जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि राष्ट्रीयता एक ऐसा विचित्र तत्त्व है जो एक देश के इतिहास में जीवन, विकास, शक्ति और एकता का संचार करता है, वह संकुचित भी बनाता है; क्योंकि इसके कारण एक व्यक्ति अपने देश के बारे में विश्व के अन्य देशों से पृथक् रूप से सोचता है।” राष्ट्रीयता के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं-

1. विश्व-शान्ति के लिए घातक – उग्र-राष्ट्रीयता मानवता और विश्व-शान्ति के लिए घातक है। उग्र-राष्ट्रीयता की भावना के कारण ही एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से घृणा करता है।

2. अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में बाधक – उग्र-राष्ट्रीयता के कारण विभिन्न राष्ट्रों के बीच अच्छे तथा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाते हैं। राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों में कटुता पैदा हो जाती है। अत: उग्र-राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक है।

3. साम्राज्यवाद की जनक – उग्र-राष्ट्रीयता साम्राज्यवाद की जड़ है। उग्र-राष्ट्रीयता की भावना से ही विश्व में साम्राज्यवाद का उदय हुआ।

4. विकास कार्यों में बाधक – उग्र-राष्ट्रीयता के कारण राष्ट्र का विकास भी रुक जाता है। उग्र राष्ट्रीयता के कारण राष्ट्रों के पारस्परिक सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं जिसके कारण उन्हें अपनी रक्षा के लिए बड़ी-बड़ी सेनाओं को रखना पड़ता है तथा रक्षा और सेना पर बहुत व्यय करना पड़ता है। फलस्वरूप राष्ट्र के विकास की योजनाओं पर अपेक्षित व्यय नहीं हो पाता।

5. युद्धों को बढ़ावा – उग्र-राष्ट्रीयता ही युद्ध को जन्म देती है। संकीर्ण राष्ट्रीयता सैन्यवाद की ओर प्रवृत्त करती है जिसका अन्तिम परिणाम युद्ध होता है। युद्धों में अपार धन और जन की हानि होती है। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों का एक प्रमुख कारण उग्र-राष्ट्रीयता की भावना ही थी। हेज ने लिखा है, “वर्तमान शताब्दी के अधिकांश युद्धों को कारण राष्ट्रवाद है। इसने विगत सौ वर्षों में जितना रक्तपात कराया है, उतना मध्ययुग के कई सौ वर्षों में धर्म या किसी अन्य तत्त्व ने नहीं कराया।”

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism

प्रश्न 4.
अन्तर्राष्ट्रीयता से आप क्या समझते हैं? इसके विकास और सफलताओं पर प्रकाश डालिए। [2010]
या
‘अन्तर्राष्ट्रीयता का क्या तात्पर्य है? अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना विकसित करना क्यों आवश्यक है? दो कारण लिखिए तथा उदाहरण देकर समझाइए।
या
अन्तर्राष्ट्रीयता से आप क्या समझते हैं? इसके विकास के मार्ग की प्रमुख बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2010, 12, 14, 16]
या
अन्तर्राष्ट्रीयता से आप क्या समझते हैं? इसके मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2010]
या
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं की चर्चा कीजिए। [2016]
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीयता
अन्तर्राष्ट्रीयता विश्व-बन्धुत्व या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना का राजनीतिक रूप है। इस भावना का आधार मनुष्य-मात्र की समानता या भ्रातृभाव है। इस सम्बन्ध में प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. गोल्डस्मिथ के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीयता एक भावना है जिसके अनुसार व्यक्ति केवल अपने राज्य का ही सदस्य नहीं, वरन् समस्त विश्व का नागरिक है।”
  2. जॉन वाटसन के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रवाद विचारों व कार्यों की वह पद्धति है, जिसका उद्देश्य विश्व के राज्यों में शान्तिपूर्ण सहयोग का विकास करना है।”
  3. लॉयड गैरीसन के शब्दों में, “हमारा देश समस्त विश्व है, हमारे देशवासी सम्पूर्ण मानव-जाति के हैं। हम अपनी जन्मभूमि को उसी तरह प्रेम करते हैं, जिस प्रकार हम अन्य देशों को प्रेम करते हैं।”

संक्षिप्त रूप में कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीयता ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्तों पर आधारित वह मनोभावना है जिसके वशीभूत होकर कोई व्यक्ति स्वयं को देश का नागरिक होने के साथ-साथ समस्त विश्व का नागरिक समझने लगती है और एक राष्ट्र अन्य राष्ट्रों के साथ परस्पर सहयोग एवं मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करके विश्व-शान्ति की स्थापना करने का प्रयत्न करता है।

अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक तत्त्व
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में अनेक तत्त्वों ने अपना योगदान दिया है, जिनमें से कुछ प्रमुख तत्त्वों का वर्णन निम्नलिखित है-

  1. विश्व-बन्धुत्व – विश्व-बन्धुत्व की धारणा अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में एक प्रमुख सहायक तत्त्व है। सभी मनुष्य भाई-भाई हैं। सबको एक ही ईश्वर ने जन्म दिया है। इन आध्यात्मिक सिद्धान्तों ने अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में बहुत योग दिया है।
  2. औद्योगिक क्रान्ति तथा आर्थिक अन्योन्याश्रितता – 19वीं शताब्दी में हुई औद्योगिक क्रान्ति ने विश्व की अर्थव्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन कर दिये। वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि हुई, अतिरिक्त उत्पादन की खपत के लिए बाजारों की खोज की गयी तथा राज्यों में आत्मनिर्भरता बढ़ी। इस आर्थिक आदान-प्रदान ने राष्ट्रों को परस्पर निकट लाने में सहायता प्रदान की तथा अन्तर्राष्ट्रीयता को प्रोत्साहन मिला।
  3. वैज्ञानिक आविष्कार – आज के वैज्ञानिक युग में विभिन्न आविष्कारों ने राष्ट्रों के बीच सम्पर्क स्थापित करने में सहायता दी है। टेलीफोन, टेलीग्राम, रेल, वायुयान, मोटर, रेडियो, टेलीविजन आदि के द्वारा विविध राष्ट्रों के बीच आवागमन तथा सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में आदान-प्रदान होने लगे हैं। सम्पूर्ण विश्व आज एक इकाई के रूप में प्रतीत होता है। इससे अन्तर्राष्ट्रीयता को विशेष प्रोत्साहन मिला है।
  4. समाचार-पत्र तथा साहित्य – समाचार-पत्रों तथा साहित्य ने भी अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के विकास में पर्याप्त योगदान दिया है। समाचार-पत्र एवं साहित्य का अध्ययन करने से उन्हें एक-दूसरे के जीवन, संस्कृति आदि के विषय में व्यापक जानकारी प्राप्त होती है तथा उनमें अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित होता है।
  5. विशुद्ध राष्ट्रीयता – विशुद्ध (उदार) राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक होती है। उग्र-राष्ट्रीयता एक संकुचित धारणा है, जब कि विशुद्ध राष्ट्रीयता मानवतावादी दृष्टिकोण की पोषक है।
  6. अन्तर्राष्ट्रीय कानून – विभिन्न राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों व व्यवहार के नियमन हेतु अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का निर्माण किया गया है। सभी देश इन कानूनों का आदर करते हैं और विवाद की स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की शरण ली जाती है। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय कानून भी अन्तर्राष्ट्रीयता में सहायक हुए हैं।
  7. अन्तर्राष्ट्रीय खेल – अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में खेलों ने भी पर्याप्त योगदान दिया है। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ओलम्पिक खेल, एशियाई खेल तथा अन्य प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। ये प्रतियोगिताएँ भी अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक सिद्ध होती हैं।
  8. अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन और संगठन – आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से विविध देशों के बीच मैत्री एवं सहयोगपूर्ण सम्बन्ध स्थापित होने लगे हैं। इन अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों व संगठनों से ऐसा वातावरण उत्पन्न होता है, जो अन्तर्राष्ट्रीयता के लिए। अत्यन्त उपयोगी होता है।

अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्त्व
अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में मुख्यतया निम्नलिखित तत्त्व बाधक सिद्ध होते हैं-

  1. उग्र-राष्ट्रीयता – अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा संकुचित या उग्र-राष्ट्रीयता की है।
  2. राज्यों की सम्प्रभुता – अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में दूसरी बड़ी बाधा राष्ट्रीय राज्यों की सम्प्रभुता है। सम्प्रभुता के आधार पर प्रत्येक राष्ट्र अपने क्षेत्र में अपने को सर्वोच्च समझता है। ऐसी परिस्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीयता की स्थापना करना सर्वथा असम्भव है।
  3. सैन्यवाद – आज विश्व में विभिन्न शक्तिगुट (Power Blocks) बने हुए हैं; जैसे- NATO, SEATO आदि। इनके कारण विश्व में शीत युद्ध की स्थिति बनी हुई है। यह सैन्यवाद भी अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक सिद्ध होता है।
  4. पूँजीवाद व साम्राज्यवाद – अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में एक बाधा पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद है। पूँजीवादी देश निर्बल, अविकसित, अर्द्ध-विकसित देशों पर आधिपत्य स्थापित करता है। इस प्रकार पूँजीवाद साम्राज्यवाद का रूप धारण कर लेता है। साम्राज्यवादी नीतियाँ अन्तर्राष्ट्रीयता का तीव्र विरोध करती हैं।
  5. राजनीतिक मतभेद – आज विभिन्न देशों की राजनीतिक गतिविधियाँ इस प्रकार की हो गयी हैं कि उनमें परस्पर संघर्ष व टकराव की स्थिति बनी रहती है। यह संघर्ष व टकराव अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक सिद्ध होता है।
  6. राष्ट्रों की महत्त्वाकांक्षा – राष्ट्रों की बढ़ती महत्त्वाकांक्षाएँ व स्वार्थी प्रवृत्तियाँ भी अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक सिद्ध होती हैं।

प्रश्नं 5.
“स्वस्थ राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता की आधारशिला है।” इस कथन के आधार पर राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता के सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए। [2009, 11, 13, 14]
या
क्या राष्ट्रवाद विश्व-शान्ति के लिए हानिकारक है?
या
क्या राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद परस्पर विरोधी हैं?
या
राष्ट्रवाद तथा अन्तर्राष्ट्रीयवाद में सम्बन्ध बताइए। [2014]
उत्तर
राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद का पारस्परिक सम्बन्ध वर्तमान समय की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर दो परस्पर विरोधी धारणाएँ प्रचलित हैं। प्रथम, और मात्र सतही अध्ययन पर आधारित धारणा के अन्तर्गत राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद को परस्पर विरोधी कहा जाता है। इस श्रेणी के विचारकों का कथन है कि राष्ट्रवाद का तात्पर्य व्यक्ति का अपने प्रदेश के प्रति अनन्यतापूर्ण प्रेम है, जबकि अन्तर्राष्ट्रवाद का आशय यह है कि व्यक्ति अपने आपको सम्पूर्ण मानवीय जगत् का एक सदस्य समझकर सम्पूर्ण मानवीय जगत् के प्रति आस्था रखे।

लेकिन उपर्युक्त विचारधारा मिथ्या धारणाओं पर आधारित है। वास्तव में राष्ट्रवाद तथा अन्तर्राष्ट्रवाद परस्पर विरोधी नहीं हैं। राष्ट्रवाद का अन्तर्राष्ट्रवाद से विरोध केवल उसी स्थिति में होता है, जब राष्ट्रवाद को बहुत अधिक संकुचित और उग्र रूप में ग्रहण किया जाता है। विशुद्ध उदार राष्ट्रवाद जो कि राष्ट्रवाद का वास्तविक और उचित रूप है अपने उपासकों को देशभक्ति का सन्देश तो देता है, लेकिन यह देशभक्ति दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा, द्वेष या बैर की भावना से प्रेरित न होकर ‘जीओ और जीने दो’ (Live and let live) की विचारधारा पर आधारित होती है। ‘जीओ और जीने दो’ की भावना पर आधारित विशुद्ध राष्ट्रवाद के इस भाव को व्यक्त करते हुए विलियम लॉयड गैरीसन लिखते हैं, “हमारा देश संसार है, हमारे देशवासी सारी मानवता हैं। हम अपने राष्ट्र (देश) को उसी प्रकार प्यार करते हैं जैसे हम अन्य देशों को प्यार करते हैं।’

इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रवाद का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठा न रखें। अन्तर्राष्ट्रवाद राज्यों के विलय या अन्त की माँग नहीं करता, वरन् वह तो केवल यह चाहता है कि राष्ट्रीय हितों को मानवता के व्यापक हितों के साथ इस प्रकार से समन्वित किया जाये कि सभी राष्ट्र समानता और परस्परिक सहयोग के आधार पर शान्तिपूर्ण, सुखी और समृद्धि का जीवन व्यतीत राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता 143 कर सकें। हेज के शब्दों में, “आदर्श अन्तर्राष्ट्रीय विश्व का तात्पर्य सर्वोत्कृष्ट स्थिति वाले राष्ट्रों के एक विश्व से ही है।” अत: स्वस्थ राष्ट्रीयता के आधार पर ही अन्तर्राष्ट्रीयता का सफल संगठन हो सकता है। एक सफल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन राष्ट्रीयता की स्वस्थ धारणा पर ही निर्भर करता है।

इस प्रकार राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद परस्पर विरोधी नहीं, वरन् राष्ट्रवाद अन्तर्राष्ट्रवाद की भूमिका या उसका प्रथम चरण है। जोसेफ (Joseph) के शब्दों में कहा जा सकता है कि राष्ट्रीयता व्यक्ति को मानवता से मिलाने वाली आवश्यक कड़ी है।” महात्मा गाँधी भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि “मेरे विचार से बिना राष्ट्रवादी हुए अन्तर्राष्ट्रवादी होना असम्भव है। अन्तर्राष्ट्रवाद तभी सम्भव हो सकता है, जब कि राष्ट्रवाद एक यथार्थ बन जाये।”
लेकिन इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि राष्ट्रवाद/अन्तर्राष्ट्रवाद के प्रथम चरण के रूप में उसी समय कार्य कर सकता है, जब कि राष्ट्रवाद को उग्र और संकुचित रूप में न अपनाकर उदार और विशुद्ध रूप में, देशभक्ति और सम्पूर्ण मानवता के हितों के एकाकार के रूप में अपनाया जाये। उग्र राष्ट्रवाद, जिसे बीसवीं सदी में हिटलर और मुसोलिनी द्वारा अपनाया गया, कुद्ध का कारण और अन्तर्राष्ट्रीयता का नितान्त विरोधी होता है। अतः एक पंक्ति में कहा जा सकता है कि ‘उदार या विशुद्ध राष्ट्रवाद अन्तर्राष्ट्रवाद का प्रथम चरण, लेकिन उग्र-राष्ट्रवाद अन्तर्राष्ट्रीयता का नितान्त विरोधी है।”

आज आवश्यकता इस बात की है कि सत्य और न्याय पर आधारित राष्ट्रवाद और देशभक्ति के विशुद्ध भाव को ग्रहण किया जाये। बीसवीं सदी के प्रबुद्ध मनीषी लॉस्की लिखते हैं, “यूरोप का मानसिक जीवन सीजर और नेपोलियन का नहीं, ईसा का है, पूर्व की सभ्यता पर चंगेजखाँ और अकबर की अपेक्षा बुद्ध का प्रभाव कहीं गहरा और व्यापक है। अगर हमें जीना है तो इस सत्य को सीखना-समझना पड़ेगा। घृणा को प्रेम से जीता जाता है, असद् को सद् से, अधर्मता का परिणाम भी उसी जैसा होता है।”

आज के विश्व का प्रश्न राष्ट्रवाद या अन्तर्राष्ट्रवाद नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि देशप्रेम और स्वस्थ राष्ट्रवाद की भावना को उच्चतम स्तर तक विकसित किया जाये और उसके आधार पर अन्तर्राष्ट्रीयता, विश्व-शान्ति और विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास हो।

प्रश्न 6.
संयुक्त राष्ट्र के गठन के उद्देश्य क्या थे? इसके अंगों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (2012)
उत्तर
संयुक्त राष्ट्र संघ
युद्ध को रोकने और समस्त विश्व में शान्ति बनाये रखने के उद्देश्य से 1919 में एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन ‘राष्ट्र संघ’ (League of Nations) की स्थापना की गयी थी। 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो जाने पर राष्ट्र की असफलता स्पष्ट हो गयी। ऐसी स्थिति में विविध अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में नवीन अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना पर विचार किया गया और ‘सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन’ के आधार पर 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। उसी समय से संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सहयोग की दिशा में कार्य कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य
संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र के अनुसार इस संगठन के मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा बनाये रखना और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शान्ति विरोधी तत्त्वों का निराकरण व आक्रामक कृत्यों को दूर करना।
  2. राष्ट्रों में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना व विश्वशान्ति को सुदृढ़ बनाने के अन्य उपाय करना।
  3. आर्थिक, सामाजिक और अन्य सभी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना।
  4. उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए विभिन्न राष्ट्रों के प्रयत्नों तथा कार्यों में मेल स्थापित करना और इस दृष्टि से एक केन्द्र के रूप में कार्य करना।

सदस्यता (Membership) प्रारम्भ में ही संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले 51 राज्य इसके प्रारम्भिक सदस्य हैं। घोषणा-पत्र के अनुसार उन राज्यों को भी सदस्यता प्रदान की जा सकती है, जिन्हें सुरक्षा परिषद् के 5 स्थायी सदस्यों सहित सुरक्षा परिषद् के बहुमत और साधारण सभा के 2/3 बहुमत का समर्थन प्राप्त हो। किसी देश की शान्तिप्रियता, विधान के नियमों को स्वीकार करने तथा संघ के उत्तरदायित्व को पूरा करने की समर्थता भी संघ की सदस्यता के लिए अनिवार्य है। घोषणा-पत्र के सिद्धान्त का उल्लंघन किये जाने पर सम्बन्धित राज्य को संघ से निकाला जा सकता है।

संघ की सदस्य संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही है और वर्तमान समय में इस संगठन की सदस्य संख्या 193 हो गई है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्विट्जरलैण्डे तटस्थता की विदेशी नीति का पालन करता है तथा विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के आपसी विवादों से स्वयं को पूर्णतया अलग रखने की इच्छा के कारण उसने 2001 ई० तक संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त नहीं की। यदि कोई सदस्य देश संयुक्त राष्ट्र के नियमों-आदेशों की लगातार अवहेलना करता है, तो सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा उसकी सदस्यता समाप्त कर सकती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंग और उनके कार्य
संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य 6 अंग हैं-

  1. साधारण सभा (महासभा) (General Assembly),
  2. सुरक्षा परिषद् (Security Council),
  3. आर्थिक व सामाजिक परिषद् (Economic and Social Council),
  4. प्रन्यास परिषद् (Trusteeship Council),
  5. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice),
  6. सचिवालय (Secretariat)

इनमें से प्रत्येक के संगठन और कार्यों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है-

1. महासभा – संयुक्त राष्ट्र की एक महासभा होती है। सभी सदस्य-राष्ट्रों को महासभा की सदस्यता दी जाती है। प्रत्येक सदस्य राष्ट्र को इसमें अपने पाँच प्रतिनिधि भेजने का अधिकार है, किन्तु किसी भी निर्णायक मतदान के अवसर पर उन पाँचों का केवल एक ही मत माना जाता है। इस सभा का अधिवेशन वर्ष में एक बार सितम्बर माह में होता है। आवश्यकता पड़ने पर एक से अधिक बार भी अधिवेशन हो सकता है। महासभा प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय विषय पर विचार कर सकती है। साधारण विषयों में बहुमत से निर्णय लिया जाता है, किन्तु विशेष विषयों के निर्णय के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता पड़ती है। सभा के कार्यों की देख-रेख के लिए एक अध्यक्ष होता है। इसकी नियुक्ति स्वयं महासभा ही करती है। यह सभा सुरक्षा परिषद् के 10 अस्थायी तथा आर्थिक व सामाजिक परिषद् के 54 सदस्यों का निर्वाचन करती है। संयुक्त राष्ट्र के बजट को स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार महासभा को ही दिया गया है।

2. सुरक्षा परिषद् – सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। सुरक्षा परिषद् में कुल 15 सदस्य होते हैं, जिनमें 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस तथा साम्यवादी चीन इसके 5 स्थायी सदस्य हैं। 10 अस्थायी सदस्यों का चुनावों महासभा द्वारा दो वर्षों के लिए होता है। इस परिषद् का मुख्य कार्य विश्वशान्ति को प्रत्येक प्रकार से सुरक्षित रखना है। किसी भी वाद-विवाद का अन्तिम निर्णय पाँच स्थायी सदस्यों की सहमति एवं चार अस्थायी सदस्यों की सहमति के आधार पर लिया जाता है। यदि स्थायी सदस्यों में से किसी एक सदस्य की किसी विषय पर अस्वीकृति हो जाती है, तो वह निर्णय रद्द हो जाता है। स्थायी सदस्यों के इस अधिकार को ‘निषेधाधिकार’ (Veto Power) कहते हैं।

इस परिषद् को विश्व में शान्ति स्थापना करने के लिए असीम अधिकार प्राप्त हैं। इस परिषद् ने अपने इन अधिकारों का अनेक अवसरों पर सदुपयोग भी किया है। इसे आवश्यकतानुसार अपनी सैन्य शक्ति के प्रयोग करने का भी अधिकार प्राप्त है।
सुरक्षा परिषद् के प्रमुख कार्य – सुरक्षा परिषद् के प्रमुख कार्य निम्नवत् हैं-

  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा स्थापित करना।
  • अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष और विवाद के कारणों की जाँच करना और उसके निराकरण के शान्तिपूर्ण समाधान के उपाय खोजना।
  • युद्धविराम लागू करने के लिए आर्थिक सहायता को रोकना और सैन्य शक्ति का प्रयोग करना।
  • महासभा को नए सदस्यों के सम्बन्ध में सुझाव देना।
  • अपनी वार्षिक तथा अन्य रिपोर्ट महासभा को भेजना।

3. आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् – परिषद् के इस अंग की स्थापना का उद्देश्य आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े हुए राष्ट्रों को आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति के लिए सहायता देना है। इसके 54 सदस्यों का कार्य अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ, समाज, स्वास्थ्य तथा शिक्षा एवं संस्कृति आदि से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन कर इनके समाधान हेतु योजना बनाना होता है।

4. प्रन्यास परिषद् – इस परिषद् का मुख्य लक्ष्य विश्व में पराधीन एवं पिछड़े हुए देशों की सुरक्षा व देखभाल करना है। इस परिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • सुरक्षित प्रदेश के सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करना।
  • संरक्षित क्षेत्रों की जनता के आवेदन-पत्रों पर विचार करना।
  • संरक्षित क्षेत्रों के स्थलों का घटनास्थल पर जाकर स्वयं निरीक्षण करना।

माइक्रोनेशिया तथा पलाऊ राज्यों के सार्वभौमिक राष्ट्र बन जाने के बाद ट्रस्टीशिप काउंसिल के अन्तर्गत अब कोई राज्य नहीं है। यद्यपि अब भी माइक्रोनेशिया की सुरक्षा का भार संयुक्त राज्य अमेरिका पर ही है। 5. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय – यह संयुक्त राष्ट्र को न्यायालय है। इसमें 15 न्यायाधीश हैं, जिनका चुनाव सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा द्वारा होता है। इस न्यायालय का कार्य अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार सदस्य राष्ट्रों के कानूनी विवादों को निपटाना है। यह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग (नीदरलैण्ड) में स्थित है।

6. सचिवालय – यह संयुक्त राष्ट्र का प्रधान कार्यालय है। इसका प्रमुख सेक्रेटरी जनरल होता है। इसे महासचिव भी कहते हैं। इसके अधीन लगभग 10 हजार छोटे-बड़े अधिकारियों का एक वर्ग है। इसकी नियुक्ति सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा करती है। महासचिव का कार्य संयुक्त राष्ट्र के कार्यों की रिपोर्ट तैयार कर प्रतिवर्ष महासभा के सम्मुख प्रस्तुत करना होता है। इसके अतिरिक्त शान्ति एवं सुरक्षा के भंग होने की आशंका से सम्बन्धित आशय की सूचना महासचिव सुरक्षा परिषद् को देता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राष्ट्रीयता के विकास में दो उत्तरदायी तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
या
राष्ट्रवाद के दो कारण लिखिए। [2009]
या
राष्ट्रीयता के किन्हीं दो तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2009, 11, 12]
उत्तर
राष्ट्रीयता के विकास में दो उत्तरदायी तत्त्व निम्नवत् हैं-

1. भाषायी एकता – भाषा की एकता भी राष्ट्रीयता का एक निर्माणक तत्त्व है और राष्ट्रीयता के निर्माण में जातीय एकता की अपेक्षा भाषा की एकता का महत्त्व अधिक है। इस सम्बन्ध में बर्नार्ड जोजफ ने तो यहाँ तक कहा है, “भाषा राष्ट्रीयता का सबसे शक्तिशाली तत्त्व है।” सामान्य भाषा ऐतिहासिक परम्पराओं को जीवित रखने में सहायक होती है और एक ऐसे राष्ट्रीय मनोविज्ञान को जन्म देती है जिसमें सामान्य नैतिकता का विकास सम्भव होता है, लेकिन सामान्य भाषा के बिना भी राष्ट्रीयता का विकास हो सकता है और एक भाषायी क्षेत्र भी पृथक्-पृथक् राष्ट्र हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, स्विट्जरलैण्ड और भारत में एक से अधिक भाषाएँ बोली जाने पर भी ये एक राष्ट्र हैं और अमेरिका तथा कनाडा में एक ही भाषा बोले जाने पर भी ये पृथक्-पृथक् राष्ट्र हैं।

2. जातीय एकता – लम्बे समय तक जातीय एकता राष्ट्रीयता का सबसे मुख्य आधार रहा है। ऐसा माना जाता है कि राष्ट्रीयता एक विशेष प्रकार की आत्मिक चेतना के भाव का नाम है। जिसमें समान जातीयता का तत्त्व शायद सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, किन्तु अब राष्ट्रीयता के निर्माणक तत्त्व के रूप में जातीयता का महत्त्व कम होता जा रहा है और प्रो० हेज के शब्दों |में कहा जा सकता है, “यदि कहीं रक्त की पवित्रता मिल सकती है तो वह केवल असभ्य जातियों में ही सम्भव है।’ स्विट्जरलैण्ड, भारत, कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका इस बात के उदाहरण हैं कि जातीय एकता राष्ट्रीयता के निर्माण हेतु आवश्यक नहीं है।

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प्रश्न 2.
राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधक तत्त्वों का संक्षिप्त परिचय दीजिए। [2007, 08, 14]
उत्तर
राष्ट्रीयता के विकास में बाधक बनने वाली अनेक बातें हैं। राष्ट्रीयता के विकास के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं-

1. अज्ञान एवं अशिक्षा – अज्ञान तथा अशिक्षा व्यक्तियों को मानसिक रूप से पृथक् करते हैं, उनमें कलुषित भावनाएँ भरते हैं और इस प्रकार राष्ट्रीयता के विकास में बाधक सिद्ध होते है।

2. साम्प्रदायिकता की भावना – साम्प्रदायिकता राष्ट्रीयता के मार्ग की प्रमुख बाधा है। इससे राष्ट्रीयता खण्डित होती है। साम्प्रदायिकता का अर्थ है-“सम्प्रदाय का हौआ खड़ा करके व्यक्तियों की भावनाओं को भड़काना और राष्ट्रीयता’ की जगह ‘साम्प्रदायिक उन्माद फैलाना।” कट्टरपन्थी शक्तियाँ राष्ट्र को एकता और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने से रोकती

3. यातायात के श्रेष्ठ साधनों का अभाव – आवागमन के अच्छे साधनों के अभाव में विभिन्न राज्यों के अन्तर्गत दूरस्थ स्थानों के निवासियों में संवादहीनता की स्थिति के कारण एकता की वह भावना जन्म नहीं ले पाती जो राष्ट्रीयता की आत्मा होती है।

4. प्रान्तीयता की भावना – इस भावना के कारण विभिन्न प्रान्तों में रेहने वाले व्यक्ति स्वयं को राष्ट्र का नागरिक न समझकर प्रान्त विशेष का ही निवासी मानते हैं। इसी भावना के कारण क्षेत्रीय स्तर पर संघर्ष होता रहता है, जिससे राष्ट्रीयता की भावना को क्षति पहुँचती है।

5. भाषावाद – जिन देशों में अनेक भाषा में बोलने वाले व्यक्ति निवास करते हैं वहाँ पर प्रायः व्यक्ति अपनी भाषा को ही सब-कुछ समझकर अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष-भाव अपना लेते हैं। इससे भाषायी उपद्रवों को प्रोत्साहन मिलता है, जिसका राष्ट्रीयता पर घातक प्रभाव पड़ता है।

6. जातिवाद – जातिवाद भी राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक है। जातिवाद की भावना दूसरी जाति के प्रति घृणा का भाव जाग्रत करती है। जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज छोटे-छोटे भागों में बँटा होता है। प्रत्येक जाति राष्ट्रीय हितों के स्थान पर जातीय हितों को प्राथमिकता देती है। इसी कारण राष्ट्रीयता की भावना का विकास नहीं हो पाता है।

प्रश्न 3.
अन्तर्राष्ट्रीयता की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2007, 08]
या
अन्तर्राष्ट्रीयता के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2011, 14, 15]
या
लघु उत्तर दीजिए- अन्तर्राष्ट्रीयता के गुण।
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीयता की विशेषताएँ या गुण निम्नलिखित हैं-

  1. जिस प्रकार राष्ट्रीयता देश-प्रेम की भावना है, उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीयता विश्व-प्रेम की भावना है। अन्तर्राष्ट्रीयता विश्वबन्धुत्व की आध्यात्मिक भावना का रूपान्तर है।
  2. अन्तर्राष्ट्रीयता एक भावना है जिसके अनुसार व्यक्ति केवल अपने राज्य का ही सदस्य नहीं, वरन् विश्व का नागरिक है।
  3. अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना से मनुष्यों के अन्दर मित्रता और सहानुभूति की भावना जाग्रत होती है।
  4. इससे विश्व के सभी व्यक्तियों की उन्नति होती है तथा सम्पूर्ण विश्व एक राष्ट्र के रूप में संगठित हो जाता है।
  5. इस भावना के विकास के कारण जो धन हथियारों और सेना पर देश अपने रक्षार्थ व्यय करते हैं, वह बच जाएगा और संसार की भलाई में लगाया जा सकता है।
  6. राष्ट्रीयता से उत्पन्न हुए जो गन्दे छल और तुच्छ द्वेष के भाव बने थे, वे अन्तर्राष्ट्रीयता के कारण नष्ट हो जाएँगे।
  7. समस्त देशों के अन्दर उच्च और निम्न का जो भाव एक-दूसरे के प्रति बनता है, वह नष्ट हो जाएगा।
  8. अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का पूरा विस्तार हो जाने के पश्चात् संसार में पूर्ण शान्ति स्थापित हो जाएगी तथा युद्ध का भय सदा के लिए जाता रहेगा।

प्रश्न 4.
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक किन्हीं चार तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक चार तत्त्व निम्नवत् हैं-

1. वैज्ञानिक आविष्कार – आधुनिक युग विज्ञान का युग है और इस युग में वैज्ञानिक खोजों और आविष्कारों के कारण विश्व के सभी देश एक-दूसरे के बहुत निकट आ गये हैं। रेल, मोटर, जहाज, वायुयान, तार, टेलीफोन, रेडियो आदि ने विभिन्न राज्यों के बीच की दूरी को समाप्त कर सम्पूर्ण विश्व को एक इकाई बना दिया है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण विश्व के जिस नवीन रूप का उदय हुआ है, उससे अन्तर्राष्ट्रीयता को विशेष प्रोत्साहन मिला है।

2. समाचार-पत्र, रेडियो व साहित्य – अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में समाचार-पत्र, रेडियो व | अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। एक देश के समाचार-पत्र दूसरे देश में भी जाते हैं और मडरियागा (Madariaga) के शब्दों में, “विचारों और समाचारों की दृष्टि से आज के विश्व ने एक संयुक्त इकाई का रूप धारण कर लिया है। अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संघ व संगठन जैसे यूनेस्को’ ऐसे साहित्य का प्रचुर मात्रा में प्रकाशन कर रहे हैं, जिससे विभिन्न देशों के निवासी एक-दूसरे के जीवन, संस्कृति और समस्याओं से भलीभाँति परिचित हो सकें। इस प्रकार समाचार-पत्र व साहित्य अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करने में बड़े सहायक सिद्ध हुए हैं।

3. राष्ट्रीयता – यद्यपि यह कथन विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होता है कि राष्ट्रीयता ने अन्तर्राष्ट्रीयता को जन्म दिया, किन्तु बहुत कुछ सीमा तक यह एक सत्य है। इतिहास की यह शिक्षा है कि विकासक्रम के अन्तर्गत विचारधाराएँ प्रतिक्रियाओं के रूप में जन्म लेती हैं। जब 19वीं सदी के राष्ट्रीय राज्य अपनी चरम सीमा पर पहुँच गये तो उनके कुछ दुर्गुण स्पष्ट हुए और उन्होंने विश्वयुद्ध जैसी जटिल समस्याएँ भी उत्पन्न कर दीं। अतः मानवता के सुख और शान्ति के लिए इस संकीर्ण राष्ट्रीयता का अन्त कर अन्तर्राष्ट्रीयता की स्थापना की दिशा में विचार किया गया। इस प्रकार राष्ट्रीयता की प्रतिक्रिया के रूप में अन्तर्राष्ट्रीयता के सिद्धान्त तथा व्यवहार का जन्म हुआ।

4. अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन और संगठन – राष्ट्रों में पारस्परिक स्नेह और सद्भावना का विकास करने में राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ और इसी प्रकार के अन्य संगठनों का योग भी कम नहीं है। अब तो जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण हो रहा है। और इसकी संख्या बढ़ती जा रही है। राजनीतिक क्षेत्र के अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी अब ऐसे संगठनों की कमी नहीं है, जिनका रूप अन्तर्राष्ट्रीय है और जो अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के विकास में यथेष्ट योग दे रहे हैं। ये सम्मेलन और संगठन ऐसे वातावरण की सृष्टि करते हैं, जिसका होना अन्तर्राष्ट्रीयता के लिए नितान्त आवश्यक है।

प्रश्न 5.
संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा (महासभा) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
यह संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे प्रमुख अंग है। संघ के सभी सदस्य साधारण महासभा के सदस्य होते हैं। यह सभा प्रतिवर्ष अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव करती है। प्रत्येक राज्य साधारण महासभा में अपने 5 प्रतिनिधि भेज सकता है, परन्तु उनका केवल एक मत होता है। साधारण महासभा का वर्ष में केवल एक अधिवेशन सितम्बर माह के तीसरे गुरुवार को प्रारम्भ होता है। आवश्यकता अनुभव होने पर महामन्त्री विशेष अधिवेशन भी बुला सकता है। सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का निर्णय 2/3 बहुमत से और अन्य प्रश्नों का निर्णय साधारण बहुमत से किया जाता है। साधारण महासभा यद्यपि मुख्य रूप से चार प्रकार के कार्य करती है-विचार-विमर्श सम्बन्धी, निर्वाचन सम्बन्धी, आर्थिक और संवैधानिक। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य विचार-विमर्श सम्बन्धी है। यह अपनी महत्त्वपूर्ण सिफारिशें सुरक्षा परिषद् को भेजती है। साधारण महासभा सुरक्षा परिषद् के 10 अस्थायी सदस्यों, आर्थिक व सामाजिक परिषद् के 54 सदस्यों व अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों को चुनती है। यह महासचिव के चुनाव में भाग लेती है, संघ के बजट पर विचार करती है व स्वीकार करती है। अपने 2/3 बहुमत से घोषणा-पत्र में संशोधन कर सकती है। शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव से साधारण महासभा के महत्त्व और शक्तियों में आशातीत वृद्धि हुई है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
भाषा की एकता कैसे राष्ट्रीयता का निर्माण करने में सहायक है ?
उत्तर
राष्ट्रीयता के निर्माण में भाषा की एकता का केन्द्रीय महत्त्व है। किसी जन-समूह में पायी जाने वाली सामान्य भाषा एक सामान्य साहित्य, संस्कृति तथा गौरव को जन्म देती है। रैम्जे म्योर के अनुसार, “राष्ट्र के निर्माण में भाषा जाति की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।” मैक्स हिल्डबर्ट बोहम का कथन है कि “आधुनिक राष्ट्रीयता का सम्भवतः सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व भाषा है। सामान्य भाषा ऐतिहासिक परम्पराओं को जीवित रखने में सहायक सिद्ध होती है। किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि बिना सामान्य भाषा के राष्ट्रीयता हो ही नहीं सकती। स्विट्जरलैण्ड में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं फिर भी वह एक राष्ट्र है। अमेरिका और कनाडा के निवासी एक ही भाषा बोलते हैं, परन्तु अलग-अलग राष्ट्र हैं। भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं फिर भी भारत एक राष्ट्र के रूप में है। अनुभवी विद्वानों का विचार है कि शिक्षा के प्रसार से धीरे-धीरे सामान्य भाषा की उपयोगिता शिथिल होती जाएगी।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीयता के मार्ग की बाधाओं को दूर करने के उपायों की विवेचना कीजिए। [2007, 12]
उत्तर
राष्ट्रीयता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को निम्नांकित उपायों से दूर किया जा सकता है।

  1. संकुचित भावनाओं का त्याग और देश-प्रेम या देशभक्ति की प्रबल भावना का विकास किया जाना चाहिए।
  2. देश के विभिन्न भागों में भावनात्मक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक सम्पर्क बढ़ाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।
  3. शिक्षा का व्यापक स्तर पर प्रचार तथा प्रसार किया जाना चाहिए तथा शिक्षा व्यवस्था का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए।
  4. देशभर में परिवहन तथा संचार के साधनों का पर्याप्त विकास किया जाना चाहिए।
  5. देश के सभी क्षेत्रों का सन्तुलित आर्थिक विकास किया जाना चाहिए।
  6. संकीर्ण हितों तथा स्वार्थपूर्ण मनोवृत्तियों पर आधारित राजनीति को नियन्त्रित किया जाना चाहिए
  7. देश में सुदृढ़ तथा न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था की जानी चाहिए।

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प्रश्न 3.
राष्ट्रवाद के दो लाभ बताइए। [2012]
उत्तर
राष्ट्रवाद के दो लाभ निम्नवत् हैं-

  1. देश-प्रेम का आधार – राष्ट्रीयता और देशभक्ति पर्यायवाची शब्द हैं। राष्ट्रीयता व्यक्तियों को अपने देश के प्रति प्रेम करना सिखाती है। जब व्यक्ति अपने देश से प्रेम करने लगते हैं तो वे देश की उन्नति करने का प्रयत्न भी करते हैं।
  2. चरित्र-निर्माण में सहायक – राष्ट्रीयता व्यक्तियों के चरित्र-निर्माण में सहायक होती है। राष्ट्रीयता मनुष्य को अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्र के लिए त्याग करना सिखाती है। राष्ट्रीयता व्यक्तियों में अनुशासन, कर्तव्यपरायणता, सहयोग, सहानुभूति, सहायता इत्यादि नागरिक गुणों की शिक्षा देती है।

प्रश्न 4.
राष्ट्र तथा राष्ट्रीयता में कोई दो अन्तर बताइए। [2007]
उत्तर
राष्ट्र तथा राष्ट्रीयता में दो मूलभूत अन्तर निम्नवत् हैं-

  1. राष्ट्रीयता एक पवित्र भावना है, जो क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, सम्प्रदाय, संस्कृति और सभ्यता की भिन्नता होते हुए भी लोगों को एकता के सूत्र में बाँधकर राष्ट्र को सुदृढ़ तथा संगठित करती है। यह एक नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। इसके विपरीत, जब राष्ट्रीयता राजनीतिक एकता तथा स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेती है तो वह राष्ट्र कहलाने लगती है। उदाहरणस्वरूप सन् 1947 से पूर्व भारतीय मुस्लिम एक राष्ट्रीयता के प्रतीक थे। परन्तु जब पाकिस्तान नामक एक अलग राज्य की स्थापना हुई तो वे पाकिस्तान में एक राष्ट्र कहलाने लगे।
  2. राष्ट्रीयता एक अमूर्त भावना है, जबकि राष्ट्र का रूप मूर्त होता है।

प्रश्न 5.
‘राष्ट्रवाद; सैन्यवाद एवं युद्ध को जन्म देता है।’ इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर
जब किसी देश की राष्ट्रीयता की भावना अपने उग्र रूप में चरम शिखर पर पहुँच जाती है तो यह दूसरे देशों के लिए एक बड़ा खतरा बन जाती है। राष्ट्रीयता के कारण अपने राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति पनपती है। इससे दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा और अपनी राष्ट्रीय पद्धति उन पर थोपने की भावना पैदा होती है; अतः युद्धों का जन्म होता है और युद्ध के लिए सेना की आवश्यकता पड़ती है, जिससे सैन्यवाद को प्रोत्साहन मिलता है। फ्रांस और जर्मनी के नागरिक सैकड़ों वर्षों तक इसी भावना के कारण एक-दूसरे को शत्रु समझते रहे। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध का मूल कारण राष्ट्रवाद ही था। हेज ने लिखा है, “वर्तमान शताब्दी के अधिकांश युद्धों का कारण राष्ट्रवाद है। इसने विगत सौ वर्षों में जितना रक्तपात कराया है, उतना मध्ययुग के कई सौ वर्षों में धर्म या किसी अन्य तत्त्व ने नहीं कराया।”

प्रश्न 6.
अन्तर्राष्ट्रीयता की दो बाधाओं का उल्लेख कीजिए। [2007]
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीयता की दो बाधाएँ निम्नवत् हैं-

1. आतंकवाद – अभी हाल ही के वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में एक नई और बड़ी बाधा ने जन्म लिया है, यह बाधा है—आतंकवाद और राज्य प्रायोजित आतंकवाद। जब एक राज्य या धार्मिक कट्टरता पर आधारित कोई संगठन किसी अन्य राज्य या राज्यों के प्रसंग में आतंकवादी गतिविधियों को अपनाता और प्रोत्साहित करता है तो राज्यों के आपसी सम्बन्धों में गहरे विरोध की स्थिति जन्म ले लेती है तथा वातावरण अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में एक बड़ा बाधक तत्त्व बन जाता है।

2. साम्राज्यवाद – अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में दूसरी बड़ी बाधा शक्तिशाली राज्यों की साम्राज्यवादी भावना है जिसका एक रूप उपनिवेशवाद कहा जा सकता है। साम्राज्यवाद राजनीतिक और आर्थिक शोषण का एक ऐसा यन्त्र है जो पिछड़े हुए देश को विकसित नहीं होने देता। डॉ० डी०एन० प्रिट (Dr. D.N. Pritt) का विचार है, “विश्वे संघ सम्बन्धी कोई भी प्रस्ताव उस समय तक सफलता के द्वार तक नहीं पहुंच सकता है, जब तक कि संसार में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद उपस्थित है।”

प्रश्न 7.
संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख उद्देश्य क्या हैं? [2007, 08, 10, 11, 14, 16]
या
संयुक्त राष्ट्र संघ के दो प्रमुख उद्देश्यों को लिखिए। [2011, 13]
उत्तर
संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र के अनुसार इसके निम्नलिखित चार प्रमुख उद्देश्य हैं।

  1. सामूहिक व्यवस्था द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखना और आक्रामक प्रवृत्तियों को नियन्त्रण में रखना।
  2. राष्ट्रों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना एवं विश्व-शान्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए अन्य उपाय करना।
  3. आर्थिक, सामाजिक और अन्य सभी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना।
  4. उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न राष्ट्रों के प्रयत्नों एवं कार्यों में सामंजस्य स्थापित करना और इस दृष्टि से एक केन्द्र के रूप में कार्य करना।

प्रश्न 8.
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के संगठन का वर्णन कीजिए।
उत्तर
यह संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यकारिणी है। संघ में इसका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। सुरक्षा परिषद् में 5 स्थायी सदस्य तथा 10 अस्थायी सदस्य हैं। स्थायी सदस्य हैं—संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस तथा साम्यवादी चीन। शेष 10 अस्थायी सदस्यों का चुनाव साधारण महासभा द्वारा 2 वर्ष के लिए किया जाता है। सुरक्षा परिषद् का प्रमुख कार्य विश्व-शान्ति बनाये रखना है। परिषद् में कार्य-विधि सम्बन्धी विषयों पर 15 सदस्यों में से 9 सदस्यों के मत से निर्णय हो जाते हैं, परन्तु अन्य सभी विषयों पर इन 9 मतों में 5 स्थायी सदस्यों के मत आवश्यक होते हैं। प्रत्येक स्थायी सदस्य को निषेधाधिकार (Veto) प्राप्त होता है। अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने में सुरक्षा परिषद् ने बहुत सराहनीय कार्य किये हैं। यदि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई विवाद परस्पर बातचीत, मध्यस्थों द्वारा, अन्य प्रतिबन्ध लगाकर हल न किया जा सके तो यह आक्रामक राष्ट्र के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही कर सकती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की तिथि एवं वर्ष लिखिए। [2014, 16]
उत्तर
24 अक्टूबर, 1945

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ के दो अंगों के नाम लिखिए। [2008]
या
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार अंगों के नाम लिखिए। [2011, 14, 15]
उत्तर

  1. महासभा,
  2. सुरक्षा परिषद्,
  3. न्यास परिषद् तथा
  4. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय।

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प्रश्न 3.
सुरक्षा परिषद् में कुल कितने सदस्य हैं? [2007, 09, 11, 12, 13]
उत्तर
सुरक्षा परिषद् में कुल पन्द्रह सदस्य होते हैं।

प्रश्न 4.
सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के नाम बताइए।
या
सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों के नाम बताइए। [2007, 08, 09, 10, 12]
उत्तर
सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य हैं- संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस तथा साम्यवादी चीन (एशिया से)।

प्रश्न 5.
राष्ट्रवाद के दो कारकों को लिखिए। [2009]
या
राष्ट्रवाद के दो गुण बताइए। [2012]
उत्तर

  1. राष्ट्रीयता साहित्य और संस्कृति का विकास करती है।
  2. राष्ट्रवाद विभिन्नताओं की रक्षा करता है।

प्रश्न 6.
अन्तर्राष्ट्रीयता के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2007, 11, 14]
उत्तर

  1. विश्व सरकार की कल्पना का साकार होना – अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के द्वारा ही विश्व सरकार की कल्पना को मूर्त रूप दिया जा सकता है।
  2. मानव-मात्र का विकास सम्भव होना – अन्तर्राष्ट्रीयता के भावों के सहारे हम संकीर्ण राष्ट्रीय दायरे से बाहर निकलकर समस्त विश्व को अपना बना सकेंगे और तब सारा विश्व ही हमारा कुटुम्ब या परिवार-सा हो जाएगा।

प्रश्न 7.
राष्ट्रीयता (राष्ट्रवाद) के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. जातीय भेदभाव की भावना तथा
  2. साम्राज्यवाद।

प्रश्न 8.
राष्ट्रीयता किसे कहते हैं ?
उत्तर
प्रो० गिलक्रिस्ट के शब्दों में, “राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक भावना है।”

प्रश्न 9.
राष्ट्रीयता के किन्हीं दो तत्त्वों का वर्णन कीजिए। [2007, 09, 11]
या
राष्ट्रीयता का कोई एक मूल तत्त्व बतलाइए। [2014]
उत्तर

  1. भाषा की एकता तथा
  2. सामान्य संस्कृति तथा परम्पराएँ।

प्रश्न 10.
अन्तर्राष्ट्रीयता के दो गुण बताइए।
उत्तर

  1. विभिन्न राष्ट्रों में सहयोग की भावना उत्पन्न होती है तथा
  2. युद्ध की सम्भावना कम हो जाती है।

प्रश्न 11.
अन्तर्राष्ट्रीयता के विकास में सहायक दो तत्त्व बताइए।
उत्तर

  1. यातायात के साधनों का विकास तथा
  2. अन्तर्राष्ट्रीय खेल।

प्रश्न 12.
अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में आने वाली दो बाधाएँ क्या हैं? [2007, 12]
उत्तर

  1. साम्राज्यवाद तथा
  2. सैन्यवाद।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 9 Nationalism and Internationalism

प्रश्न 13.
संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्य कार्यालय कहाँ है? [2007, 09, 13, 15]
उत्तर
न्यूयॉर्क (अमेरिका) में।

प्रश्न 14.
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव का निर्वाचन कैसे होता है?
उत्तर
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव की नियुक्ति सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर साधारण सभा द्वारा 5 वर्षों के लिए की जाती है।

प्रश्न 15.
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का मुख्यालय कहाँ है? [2015]
उत्तर
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का मुख्यालय हेग में है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. निम्नलिखित में कौन-सा राष्ट्रीयता का तत्त्व है?
(क) शिक्षा
(ख) साम्प्रदायिकता
(ग) यातायात के साधन
(घ) भाषा की एकता

2. राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधक तत्त्व हैं-
(क) ऐतिहासिक स्मृतियाँ
(ख) भाषा
(ग) अज्ञान एवं अशिक्षा
(घ) जातीय एकता

3. निम्नलिखित में से कौन-सा राष्ट्रीयता का निर्माणक तत्त्व नहीं है? [2007]
(क) भौगोलिक एकता
(ख) धार्मिक एकता
(ग) सामान्य आर्थिक हित
(घ) क्षेत्रीयता

4. राष्ट्रीयता का गुण है-
(क) साम्प्रदायिकता
(ख) एकता की स्थापना में योगदान
(ग) साम्राज्यवाद
(घ) सैन्यवाद

5. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का प्रधान कार्यालय है
(क) न्यूयॉर्क में
(ख) वाशिंगटन में
(ग) जेनेवा में
(घ) हेग में

6. वह भारतीय महिला जो संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा की अध्यक्षा बनी थीं
(क) श्रीमती इन्दिरा गाँधी
(ख) अरुणा आसफ अली
(ग) सरोजिनी नायडू
(घ) श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित

7. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई- [2008, 11, 14]
(क) 24 अक्टूबर, 1944 में
(ख) 15 नवम्बर, 1945 में
(ग) 24 अक्टूबर, 1946 में
(घ) 24 अक्टूबर, 1945 में

8. सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या है-
(क) चार
(ख) पाँच
(ग) सात
(घ) आठ

9. सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य है
(क) भारत
(ख) स्पेन
(ग) जर्मनी
(घ) चीन

10. निम्नलिखित में से सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य कौन-सा देश नहीं है ? [2012]
(क) अमेरिका
(ख) ब्रिटेन
(ग) फ्रांस,
(घ) जर्मनी

11. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में कितने न्यायाधीश होते हैं?
(क) 10
(ख) 12
(ग) 15
(घ) इनमें से कोई नहीं

12. निम्नलिखित में से कौन संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य नहीं है- [2012, 14]
(क) यू० एस० ए०
(ख) चीन
(ग) जापान
(घ) फ्रांस

13. संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय कहाँ स्थित है? [2009, 15, 16]
(क) मास्को
(ख) जेनेवा
(ग) पेरिस
(घ) न्यूयॉर्क

उत्तर

  1. (घ) भाषा की एकता,
  2. (ग) अज्ञान एवं अशिक्षा,
  3. (घ) क्षेत्रीयता,
  4. (ख) एकता की स्थापना में योगदान,
  5. (घ) हेग में,
  6. (घ) श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित,
  7. (घ) 24 अक्टूबर, 1945 में,
  8. (ख) पाँच,
  9. (घ) चीन,
  10. (घ) जर्मनी,
  11. (ग) 15,
  12. (ग) जापान,
  13. (घ) न्यूयॉर्क

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UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 3

UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 3 are part of UP Board Class 12 Hindi Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 3.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Hindi
Model Paper Paper 3
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Hindi Model Papers Paper 3

समय 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक 100

खण्ड ‘क’

निर्देश
(i) प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
(ii) सभी प्रश्नों के उत्तर देने अनिवार्य हैं।
(iii) सभी प्रश्नों हेतु निर्धारित अंक उनके सम्मुख अंकित हैं

प्रश्न 1.
(क) आदिकाल का नाम ‘वीरगाथा काल’ किस इतिहासकार ने रखा [1]
(i) हजारीप्रसाद द्विवेदी
(ii) महावीर प्रसाद द्विवेदी ।
(iii) शान्तिप्रिय द्विवेदी
(iv) रामचन्द्र शुक्ल

(ख) खलिक बारी’ के रचयिता हैं। [1]
(i) अमीर खुसरों
(ii) अबुन पान
(iii) ध्वाजा अहमद
(iv) अबुमान

(ग) निम्नलिखित में से कौन अपनी व्यंग्य रचनाओं के लिए प्रसिद्ध [1]
(i)  श्यामसुन्दर दास
(ii) गुलाब राय
(iii) रिशांकर परसाई
(iv) रामचन्द्र शुक्ल ।

(घ) रूपक रहस्य रचना है। [1]
(i) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की
(ii) श्यामसुन्दर दास की
(iii) बासुदेवशरण अग्रवाल की
(iv) जैनेन्द्र कुमार की

(ङ) ‘तन्त्रालोक से यन्त्रलोक तक रचना की विधा है [1]
(i) मेट वा ।
(ii) संस्मरण
(iii) रिपोर्ताज
(iv) यात्रा-वृत्त

प्रश्न 2.
(क) श्रृंगार शिरोमणि’ के रचनाकार हैं। [1]
(i) जसवन्त सिंह द्वितीय
(ii) द्विजदेव ।
(iii) ‘वाल ।
(iv) प्रताप

(ख) ‘सोमनाथ’ की रचना है । [1]
(i) अगदर्पण
(ii) रस प्रबोध
(iii) रसपीयूनिधि
(iv) पदावली

(ग) हरी घास पर क्षण मर’ के रचयिता हैं | [1]
(i) त्रिलोचन
(ii) अझ्य
(iii) केदारनाथ अग्रवाल
(iv) ‘भाकर माचवे

(घ) सहीं सुमेलित है [1]
(i) भारत भारती/महाकाव्य
(ii) मणभग/चरितकाव्य ।
(iii) गीतिनगरकाव्य
(iv) रश्मिरथी/खण्डकाव्य

(ङ) निम्नलिखित में से कौन-सी पन्त जी की प्रगतिवादी रचना मानी जाती है। [1]
(i) पल्लय
(ii) युगान्त
(iii) गुंजन
(iv) वीणा

प्रश्न 3.
निम्नलिखित अवतरणों को पढ़कर उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। [5 x 2 = 10]
इच्छाएँ नाना हैं और नानाविध हैं और उसे प्रवृत्त रखती हैं। इस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर पक जाता है और निवृत्ति चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। इस संसार को अभी राग-भाव से वह चाहता है कि अगले क्षण उतने ही विराग भाव में वह उसका विनाश चाहता है। पर राग-द्वेष को वासनाओं से अन्त में झुंझलाहट और छटपटाहट ही उसे हाय आती है। ऐसी अवस्था में इसका सच्चा भाग्योदय कहलाएगा अगर वह नत-नग्न होकर भाग्य को सिर आँखों लेगा और प्राप्त कर्त्तव्य में ही अपने पुरुषार्थ की इति मानेगा।
उपयुक्त गांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रवृति-निवृत्ति के चक्र में फंसा मनुष्य क्यों थक जाता है?
(ii) प्रेम और ईष्र्या की वासनाओं में पढ़कर व्यक्ति की स्थिति कैसी | हो जाती है?
(iii) लेखक के अनुसार मनुष्य का सच्चा भाग्योदय कब सम्भव है?
(iv) ‘प्रवृत्ति, राग’ शब्दों के क्रमशः विलोम शब्द लिखिए।
(v) ‘राग-द्वेष’ का समास विग्रह करके समास का भेद भी लिखिए।

अथवा
आज के अनेक आर्थिक और सामाजिक विधानों की हम जाँच करें, तो पता चलेगा कि वे हमारी संस्कृतिक चेतना के क्षीण होने के कारण युगानुकूल परिवर्तन और परिवर्द्धन की कमी से बनी हुई रूढ़ियो, परकायों के साग संघर्ष की परिस्थिति में उत्पन्न मग को पूरा करने के लिए अपनाए गए उपाय अथवा परायों द्वारा थोपी गई या उनका अनुकरण कर स्वीकार की गई व्यवस्थाएं मात्र हैं। भारतीय संस्कृति के नाम पर उन्हें जिन्दा रखा जा सकता।
उपर्युका गाश को पढ़कर मिलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक | कौन है?
(ii) लेखक के अनुसार भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कमजोर होने | का मुख्य कारण क्या है?
(iii) युगानुरूप परिवर्तन एवं विकास नहीं होने का मुख्य कारण क्या
चत शुक्लब म के
(iv) भारतीय नीतियों एवं सिद्धान्त किस प्रकार विदेशियों की नकल मात्र बनकर रह गए हैं?
(v) ‘परिस्थिति’, व सांस्कृतिक’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग एवं 
प्रत्यय छांटकर लिखिए।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। [5 x 2 = 10]
मई चकित छबि चकित हरि हर-कप मनोहर। है आनहि के मान रहे तन घरे धरोहर।। गयो कोप को लोप चोप और उमाई।। चित शिकनाई चढ़ी कढ़ी सब रो रुखाई। कृपानिपान सुजान सम्भु हिय की गति जानी। दियौ सीम पर हम बाम कर के मनमानी।। सकुचति ऐचति अंग गंग सुख संग ताजानी। जटा-फूट हिम कूट सघन बन सिटि समानी। उपर्युका पद्मश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने किसका वर्णन किया है?
(ii) गंगा का क्रोध किस प्रकार शान्त हुआ?
(iii) “सकुपति ऐचति ग ग सुख संग लजानी।” पंक्ति का 
अशय स्पष्ट कीजिए।
(iv) शिवजी की जटाओं में स्थान पाकर गंगा की स्थिति में क्या 
परिवर्तन हुआ?
(v) प्रस्तुत पद्यांश में कौन-सा रस निहित है?
अथवा

झूम-झूम मृदु गर-गरच घन घोर!
राग–अमर! अम्बर में घर निज रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में
घर, मरु तरु-मर्म, सागर में,
सरित-जड़ित-गति चकित पवन में
मन में, विजन-गइन फानन में,
आनन-आनन में, रव घोर कठोर
राग- अमर! अम्बर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष!. ,
बरस तू बरस बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको
यहा, दिया मुझको भी निश
गर्जन-गैर-संसार!

उपयुक्त पाश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पशि किस कविता से अवतरित है तथा इसके कवि कौन हैं?
(ii) प्रात पद्यांश में कवि ने बादत के किस रूप का वर्णन किया
(iii) “पार से चल तू मुझको, बहा दिखा मुझको भी नि॥”–पकिन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बादलों से क्या आदान किया है।
(v) ‘निर्झर’ और ‘संसार’ शब्द में में उपसर्ग शब्दांश ऑटकर 
लिखिए।

प्रश्न 5.
(क)
निम्नलिखित लेखकों में से किसी एक लेक का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए । [4]
(i) मोहन राकेश
(ii) वासुदेवशरण अग्रवाल
(iii) शैनन्द्र कुमार

(ख) निम्नलिखित कवियों में से किसी एक का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए। [4]
(i) महादेवी वर्मा
(ii) मैथिलीशरण गुप्त
(iii) जयशंकर प्रसाद

प्रश्न 6.
यू का रिश्ता’ अथवा ‘पंचलाइट’ कहानी के नायक का चरित्र-चित्रण कौजिए। [अधिकतम सीमा शब्द 80] [4]
अथवा
‘कर्मनाशा की हार’ अथवा ‘बहादुर’ कहानी का कथानक संक्षेप  में लिखिए।

प्रश्न 7.
स्वपठित नाटक के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों में से किसी एक प्रश्न का उत्तर दीजिए। [4]
(i) कुहासा और किरण’ एक समस्या मूलक नाटक है। सिम 
कीजिए।
अथवा
‘कुहामा और किण’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।

(ii) ‘आन का मान’ नाटक की समीक्षा नाटकीय तरणों की दृष्टि से कीजिए।
अथवा
‘आन का मान’ नाटक के आधार पर औरंगजेब का | चरित्र-चित्रण कीजिए।

(iii) ‘गरुष्णा ‘ नाटक के तृतीय अंक की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
‘गरुड़ग’ नाटक में किस समस्या को बताया गया है? ?

(iv) ‘सूतपुत्र नाटक के नायक कर्ण के अन्तर्द्वन्द्व पर अपने शब्दों 
 में प्रकाश डालिए।
अथवा
‘सुत-पुत्र’ नाटक के तृतीय अंक में वर्णित कुन्ती एवं कर्ण के संवाद को अपने शब्दों में लिखिए।

(v) राजमुकुट’ नाटक के कथानक को अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
‘राजभुट’ नाटक के आधार पर अतिमि का चरित्र चित्रण | कीजिए।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित खुद्दकाव्यों में से स्वपठित खुइकाव्य के आधार पर किसी एक प्रश्न का उत्तर दीजिए। [4]
(क) “अषण कुमार खण्डकाव्य में करुणा एवं प्रेम की विङ्गल मन्दाकिनी प्रवाहित होती है।” इस कथन की विवेचना
अयवा
“दशरथ का अन्तद्वंद्व ‘प्रवण कुमार’ खण्डकाव्य की अनुपम निधि है।” इस उक्ति के आलोक में दशरथ का चरित्र-चित्रण कीजिए।

(ख)
‘मुक्तिन’ नाटक के कथानक को विशेषताएं लिखिए।
अथवा
‘मुक्तिन’ नाटक के शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।

(ग)
“त्यागपथी खण्डकाव्य में सम्राट हर्षवर्द्धन का चरित्र ही केन्द्र में है और उसी के चारों ओर कथानक का चक्र घुमा है।”—इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
खण्डकाव्य की विशेषताओं के आधार पर ‘त्यागपथी’ का मूल्यांकन कीजिए।

(घ)
रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का कथासार अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
कर्ण के चरित्र में ऐसे कौन-से गुण हैं, जो उसे महामानव की 
कोटि तक उठा देते हैं? रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के आधार पर | स्पष्ट कीजिए।

(ङ)
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य की कथा की मुख्य घटनाओं को अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
‘सत्य की जीत’ खण्डकाव्य के आधार पर द्रौपदी का चरित्र-चित्रण कीजिए।

(च)
‘आलोक वृत’ खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
आलोक-वृत्त खण्डकाव्य पीड़ित मानवता को सत्य एवं अहिंसा का सन्देश देता है। इस कथन की विवेचना कीजिए।

खण्ड ‘ख’

प्रश्न 9.
निम्नलिखित अवतरणों का सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद कीजिए। [2 + 5 =7]
(क)
याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीमुवाच-मैत्रेयी! उद्यास्मन् अहम् अस्मात्स्या नादस्मि। ततस्तेऽनया कात्यायन्या विच्छेदं करवाणि इति। मैत्रेय उवाच-वदीयं सर्वा पृथ्वी वित्तेन पूर्णा स्यात् तत् कि तेनहममृता स्यामिति। याज्ञवल्क्य उवाच नैति। यथैवोपकरणवतां जीवन तथैव ते जीवनं स्यात्। अमृतस्य तु नाशास्ति वित्तेन इति। सा मैत्रेयी उवाच-येन नामृता स्याम् किमकं तेन कुर्याम्? देव भगवान् केवलममृतत्वसाधन जानाति, तदेव में हि। याज्ञवल्क्य उवाच-प्रिया नः सती त्वं प्रियं भाषसे। हि, उपविश, व्याख्यास्यामि ते अमृतत्वसाधनम्।
अथवा
हिन्दी-संस्कृताङ्ग्लभाषासु अस्य समान अधिकारः आसीत् । हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थानान्नामुत्यानायअयं निरन्तर प्रयत्नमकरोत् शिकायैव देशे समाजे च नवीनः प्रकाशः उदेति अत: श्रीमालयौय: वाराणस्यां काशीविश्वविद्यालयस्य संस्थापनमकरोत्। अस्य निर्माणाय अयं जनान् घनम् अपाचत अनाश्च महत्यस्मिन् कानयज्ञे प्रभूत घनमस्मै प्रायच्छन्, तेन निर्मितोऽयं विशालः विश्वविद्यालयः भारतीयानां दानशीलतायाः श्रीमालवीयस्य यशसः  प्रतिमूर्तिरिय विभाति। साधारस्थितिकोऽपि जन: महतोत्साहेन, मनस्वित्या, पौरुषेण च असाधारणमपि कार्य कर्तुं क्षमः इत्यदर्शयत् मनीषिमूर्धन्यः मालवीयः। एतदर्थमेव जनास्त महामना इत्युपाधिना अभिभातुमारब्धवन्तः।

(ख)

स्वनैघनानां प्लवगाः प्रबुद्ध विहाय निद्रा चिरसन्निरुद्धाम्। [2+5=7]
अनेकरूपाकृतिवर्णनादाः नवम्युषाराभिहता नदन्ति।
मता गजेन्द्र मुदिता गवेन्द्राः वनेषु विक्रान्ततर मृगेन्द्राः
रम्या नगेन्द्रा निभृता नरेन्द्राः प्रक्रीडितौ वारिधरैः सुरेन्द्रः।
अथवा
राम नाम नृपात्मजैसक्कदमैत्विा रिपून् भुज्यते।
तल्लोके न तु याच्यते न च पुननाय का दीयते।।
काङ्क्षा चेन्नृपतित्वमाप्तुमचिरात् कुर्वन्तु ते साहसम्।।
स्वैरं वा प्रविशन्तु शान्तमतिभिर्जुष्ट शमायाश्रमम्।।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में दीजिए। [2 +2=4] 
(क) अन्यदा भोजः कुत्र अगच्छत्?
(ख) राजहंसः पधिमथे कस्मै दुहितरम् अददात् ?
(ग) मालवीयमहोदयस्य प्रारम्भिक शिक्षा कुत्र अभवत्?
(घ) वासुदेब कस्य दौत्येन कुत्र गतः?

प्रश्न 11.
(क) वीभत्स’ अथवा ‘वियोग श्रृंगार रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। [2]
(ख) उपम’ अथवा ‘यमक अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।
(ग) वसन्ततिलका’ अथवा ‘सोरा’ का लक्षण एवं उदाहरण लिखिए। [2]

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर अपनी भाषा-शैली में निबन्ध लिखिए। [2 +7=9]
(i) वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण-दोष
(ii) दूरदर्शन की उपयोगिता
(iii) मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना
(iv) स्वदेश प्रेम।
(v) वर्तमान समय में समाचार-पत्रों का महत्व

प्रश्न 13.
(क)
(i) ‘नायक’ का सन्धि–विच्छेद है। [1]
(a) नै + अकः
(b) नाय + अवाः
(c) नाय + के
(d) नौ + अकः

(ii) उल्लास:’ का सन्धि विच्छेद है। [1]
(a) उन + लागः
(b) चद् + झासः
(c) 91 + लात्तः
(d) 4 इंग्लासः

(iii) रामामत:’ का सन्धि-विशेद है। [1]
(a) राम + अत:
(b) भी । आप्रतः
(c) राम + अतः
(d) रामः + अत

(ख)
(i) नीलाम्बुजम्’ में समाप्त है। [1]
(a) बहुहि समास
(b) कर्मधारय समास
(c) अव्ययीभाव समास
(d) द्विगु समास

(ii) त्रिलोकी’ में समास है [1]
(a) इन्हें समास
(b) द्विगु समास
(c) तत्पुरुष समास
(d) बहुमीहि सनात

प्रश्न 14.
(क)
नेष्यति’ ‘नी’ पान के किस सकार, किस पुरुष तथा किस वचन का रूप है । 
[1/2 +1/2 +1/2 + 1/2 = 2]

(ख)
(i) तिष्ठेव’ रूप है।
(a) विधिलिलकार, प्रथम पुत्व, द्विवचन
(b) विपिछलकार, उत्तम पुरुष, दिवचन
(c) ललकार, मध्यम पुरु, बहुवचन
(d) लोट्लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन

(ii) ‘अनय:’ रूप है ।
(a) ललकार, मध्यम पुरुष, द्विवचन
(b) ललकार, मध्यम पुरुष, एकवचम्
(c) लक्षकार, प्रयन पुरुष, बहुपन्
(d) वार, प्रम भुष, यवन

(ग)
(i) ‘विद्वत्वम्’ में प्रत्यय है।
(a)  क्त
(b) त्व
(c) मतुम्
(d) अतीयर

(ii) ‘धनवान’ में प्रत्यय है।
(a) तव्य
(b) क्त्वा
(c) वतुर्
(d) मतुप

(घ)
निम्नलिखित रेखांकित पदों में से किन्हीं दो में प्रयुक्त विभक्ति तथा उससे सम्बन्धित नियम का उल्लेख कीजिए। [2]
(i) मातुः हृदयं कन्या प्रति स्निग्धं भवति।
(ii) छत्रासु लता श्रेष्ठा।।
(iii) आमपि त्वया साधं यास्यामि।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित वाक्यों में से किन्हीं दो वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद [4]
(क) में राष्ट्रभाषा का आदर करना चाहिए।
(ख) मैं कल वाराणसी नगर आऊँगा।
(ग) कश्मीर की शोभा पर्यटकों का मन मोह लेती है।
(घ) दरिद्र को भिक्षा देना पुण्यकार्य है।

Answers

उत्तर 1.
(क) (iv) रामचन्द्र शुक्ल
(ख) (i) अमीर खुसरों
(ग) (iii) रिशांकर परसाई
(घ) (ii) श्यामसुन्दर दास की
(ङ) (ii) संस्मरण

उत्तर 2.
(क) (iv) प्रताप
(ख) (iii) रसपीयूनिधि
(ग) (ii) अझ्य
(घ) (iv) रश्मिरथी/खण्डकाव्य
(ङ) (ii) युगान्त

उत्तर 13.
(क)
(i) (a). नै + अकः
(ii) (c). 91 + लात्तः
(iii) (d). रामः + अत

(ख)
(i) (b) कर्मधारय समास
(ii)  (b) द्विगु समास

उत्तर 14.
(ख)
(i) (b) विपिछलकार, उत्तम पुरुष, दिवचन
(ii) (b) ललकार, मध्यम पुरुष, एकवचम्

(ग)
(i) (b) त्व
(ii) (d) मतुप

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कथा भारती Chapter 3 प्रायश्चित

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कथा भारती Chapter 3 प्रायश्चित (भगवतीचरण वर्मा) are part of UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कथा भारती Chapter 3 प्रायश्चित (भगवतीचरण वर्मा).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name प्रायश्चित (भगवतीचरण वर्मा)
Number of Questions 2
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi कथा भारती Chapter 3 प्रायश्चित (भगवतीचरण वर्मा)

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प्रश्न 2.
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(3) उद्देश्य–वेर्मा जी की इस कहानी का उद्देश्य इस सत्य को अभिव्यंजित करना है कि वर्तमान में मनुष्य का लगाव मात्र धेन में केन्द्रित है, शेष सभी रिश्ते-नाते नगण्य होते जा रहे हैं। कहानी में धर्मान्धता पर भी प्रहार किये गये हैं तथा समाज में व्याप्त रिश्वतखोरी, बेईमानी और मतलबपरस्ती पर भी यथार्थवादी व्यंग्यों का प्रहार करते हुए धर्मान्धता के वशीभूत हुए लोगों को इस पाश से निकालने का प्रयास किया गया है। लेखक को कहानी लिखने के उद्देश्य में पूर्ण सफलता मिली है।

इस प्रकार ‘प्रायश्चित कहानी लेखक की सफल यथार्थवादी रचना है। कहानी का आरम्भ, मध्य और समापन रोचक व औचित्यपूर्ण है। कहानी में अन्त तक यह कौतूहल बना रहता है कि प्रायश्चित में पण्डित परमसुख को क्या मिलेगा ? अन्त अप्रत्याशित और कलात्मक है। कहानी-कला की कसौटी पर ‘प्रायश्चित एक सफल, व्यंग्यात्मक तथा यथार्थवादी सामाजिक कहानी के रूप में खरी उतरती है।

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