UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Physics
Chapter Chapter 7
Chapter Name Alternating Current (प्रत्यावर्ती धारा)
Number of Questions Solved 85
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current (प्रत्यावर्ती धारा)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
एक 100 Ω का प्रतिरोधक 220 V, 50 Hz आपूर्ति से संयोजित है।
(a) परिपथ में धारा का rms मान कितना है?
(b) एक पूरे चक्र में कितनी नेट शक्ति व्यय होती है?
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प्रश्न 2.
(a) ac आपूर्ति का शिखर मान 300 V है। rms वोल्टता कितनी है?
(b) ac परिपथ में धारा का rms मान 10 A है। शिखर धारा कितनी है?
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प्रश्न 3.
एक 44 mH को प्रेरित्र 220 V, 50 Hz आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ में धारा के rms मान को ज्ञात कीजिए।
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प्रश्न 4.
एक 60 µF का संधारित्र 110 V, 60 Hz ac आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ में धारा के rms मान को ज्ञात कीजिए।

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q4.1

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प्रश्न 5.
प्रश्न 3 व 4 में एक पूरे चक्र की अवधि में प्रत्येक परिपथ में कितनी नेट शक्ति अवशोषित होती है? अपने उत्तर का विवरण दीजिए।
हल-
प्रश्न 3 व 4 दोनों में ही पूरे चक्र में नेट शून्य शक्ति व्यय होती है।
विवरण- शुद्ध प्रेरित्र तथा शुद्ध धारिता दोनों में धारा तथा विभवान्तर के बीच 90° का कलान्तर होता है।
शक्ति गुणांक cos φ = cos 90° = 0
प्रत्येक में नेट शक्ति व्यय P = Vrms x irms x cos φ = 0

प्रश्न 6.
एक LCR परिपथ की, जिसमें L = 2.0 H, C = 32 µF तथा R = 10 Ω अनुनाद आवृत्ति ωr परिकलित कीजिए। इस परिपथ के लिए Q का क्या मान है?
हल-
दिया है, L = 2.0 हेनरी
C = 32 x 10-6 फैराडे
R = 10 ओम
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प्रश्न 7.
30 µF का एक आवेशित संधारित्र 27 mH के प्रेरित्र से जोड़ा गया है। परिपथ के मुक्त दोलनों की कोणीय आवृत्ति कितनी है?
हल-
दिया है,
C = 30 µF = 30 x 10-6 F, L = 27 mH = 27 x 10-3 H
प्रारम्भिक आवेश, q0 = 6 mC = 6 x 10-3 C
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प्रश्न 8.
कल्पना कीजिए कि प्रश्न 7 में संधारित्र पर प्रारम्भिक आवेश 6 mC है। प्रारम्भ में परिपथ में कुल कितनी ऊर्जा संचित होती है? बाद में कुल ऊर्जा कितनी होगी?
हल-
दिया है, C = 30 x 10-6 F, Q0 = 6 x 10-3 C
प्रारम्भ में परिपथ में संचित ऊर्जा
E = संधारित्र की ऊर्जा + प्रेरित्र की ऊर्जा
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q8
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q8.1
परिपथ में कोई प्रतिरोध नहीं जुड़ा है तथा शुद्ध धारिता तथा शुद्ध प्रेरक में ऊर्जा हानि नहीं होती है। अतः बाद में परिपथ में कुल 0.6 J ऊर्जा ही बनी रहेगी।

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प्रश्न 9.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ को, जिसमें R = 20 Ω, L = 1.5 H तथा C = 35 µF, एक परिवर्ती आवृत्ति की 200V ac आपूर्ति से जोड़ा गया है। जब आपूर्ति की आवृत्ति परिपथ की मूल आवृत्ति के बराबर होती है तो एक पूरे चक्र में परिपथ को स्थानान्तरित की गई माध्य शक्ति कितनी होगी?
हल-
जब आपूर्ति की आवृत्ति = परिपथ की मूल आवृत्ति, तो परिपथ (L-C-R) अनुनादी परिपथ होगा जिसकी प्रतिबाधा Z = ओमीय प्रतिरोध R = 20 ओम
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प्रश्न 10.
एक रेडियो को MW प्रसारण बैण्ड के एक खण्ड के आवृत्ति परास के एक ओर से दूसरी ओर (800 kHz से 1200 kHz) तक समस्वरित किया जा सकता है। यदि इसके LC परिपथ का प्रभावकारी प्रेरकत्व 200 µH हो तो उसके परिवर्ती संधारित्र की परास कितनी होनी चाहिए?
[संकेत : समस्वरित करने के लिए मूल आवृत्ति अर्थात् LC परिपथ के मुक्त दोलनों की आवृत्ति रेडियो तरंग की आवृत्ति के समान होनी चाहिए]
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प्रश्न 11.
चित्र 7.1 में एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथदिखलाया गया है जिसे परिवर्ती आवृत्ति के 230 V के स्रोत से जोड़ा गया है। L = 5.0 H, C = 80 µF, R = 40 Ω.
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(a) स्रोत की आवृत्ति निकालिए जो परिपथ में अनुनाद उत्पन्न करे।
(b) परिपथ की प्रतिबाधा तथा अनुनादी आवृत्ति पर धारा का आयाम निकालिए।
(c) परिपथ के तीनों अवयवों के सिरों पर विभवपात के rms मानों को निकालिए। दिखलाइए कि अनुनादी आवृत्ति पर LC संयोग के सिरों पर विभवपात शून्य है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q11.1
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प्रश्न 12.
किसी LC परिपथ में 20 mH का एक प्रेरक तथा 50 uF का एक संधारित्र है जिस पर प्रारम्भिक आवेश 10 mC है। परिपथ का प्रतिरोध नगण्य है। मान लीजिए कि वह क्षण जिस पर परिपथ बन्द किया जाता है t = 0 है।
(a) प्रारम्भ में कुल कितनी ऊर्जा संचित है? क्या यह LC दोलनों की अवधि में संरक्षित है?
(b) परिपथ की मूल आवृत्ति क्या है?
(c) किस समय पर संचित ऊर्जा ।
(i) पूरी तरह से विद्युत है (अर्थात वह संधारित्र में संचित है)?
(ii) पूरी तरह से चुम्बकीय है (अर्थात प्रेरक में संचित है)?
(d) किन समयों पर सम्पूर्ण ऊर्जा प्रेरक एवं संधारित्र के मध्य समान रूप से विभाजित है?
(e) यदि एक प्रतिरोधक को परिपथ में लगाया जाए तो कितनी ऊर्जा अन्ततः ऊष्मा के रूप में क्षयित होगी?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q12
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q12.2

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प्रश्न 13.
एक कुण्डली को जिसका प्रेरण 0.50 H तथा प्रतिरोध 100 Ω है, 240 V व 50 Hz की एक आपूर्ति से जोड़ा गया है।
(a) कुण्डली में अधिकतम धारा कितनी है?
(b) वोल्टेज शीर्ष व धारा शीर्ष के बीच समय-पश्चता (time lag) कितनी है?
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q13.1

प्रश्न 14.
यदि परिपथ को उच्च आवृत्ति की आपूर्ति (240V, 10 kHz) से जोड़ा जाता है तो प्रश्न 13 (a) तथा (b) के उत्तर निकालिए। इससे इस कथन की व्याख्या कीजिए कि अति उच्च आवृत्ति पर किसी परिपथ में प्रेरक लगभग खुले परिपथ के तुल्य होता है। स्थिर अवस्था के पश्चात किसी dc परिपथ में प्रेरक किस प्रकार का व्यवहार करता है?
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प्रश्न 15.
40 Ω प्रतिरोध के श्रेणीक्रम में एक 100 μF के संधारित्र को 110 V, 60 Hz की आपूर्ति से जोड़ा गया है।
(a) परिपथ में अधिकतम धारा कितनी है?
(b) धारा शीर्ष व वोल्टेज शीर्ष के बीच समय-पश्चता कितनी है?
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प्रश्न 16.
यदि परिपथ को 110 V, 12 kHz आपूर्ति से जोड़ा जाए तो प्रश्न 15 (a) व (b) का उत्तर निकालिए। इससे इस कथन की व्याख्या कीजिए कि अति उच्च आवृत्तियों पर एक संधारित्र चालक होता है। इसकी तुलना उस व्यवहार से कीजिए जो किसी dc परिपथ में एक संधारित्र प्रदर्शित करता है।
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प्रश्न 17.
स्रोत की आवृत्ति को एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ की अनुनासी आवृत्ति के बराबर रखते हु तीन अवयवों L c तथा को समान्तर क्रम में लगाते हैहाल्ल्शाइए किसमान्तर LCR परिपथ में इस आवृत्ति पर कुल धारा न्यूनतम है। इस आवृति के लिए प्रश्न 11 में निर्दिष्ट स्रोत तथा अवयवों के लिए परिपथ की हर शाखा में धारा के rms मान को परिकलित। कीजिए।
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प्रश्न 18.
एक परिपथ को जिसमें 80 mH का एक प्रेरक तथा 60 µF का संधारित्र श्रेणीक्रम में है, 230V, 50 Hz की आपूर्ति से जोड़ा गया है। परिपथ का प्रतिरोध नगण्य है।
(a) धारा का आयाम तथा rms मानों को निकालिए।
(b) हर अवयव के सिरों पर विभवपात के rms मानों को निकालिए।
(c) प्रेरक में स्थानान्तरित माध्य शक्ति कितनी है?
(d) संधारित्र में स्थानान्तरित माध्य शक्ति कितनी है?
(e) परिपथ द्वारा अवशोषित कुल माध्य शक्ति कितनी है?
[‘माध्य में यह समाविष्ट है कि इसे पूरे चक्र के लिए लिया गया है।]
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प्रश्न 19.
कल्पना कीजिए कि प्रश्न 18 में प्रतिरोध 15 Ω है। परिपथ के हर अवयव को स्थानान्तरित माध्य शक्ति तथा सम्पूर्ण अवशोषित शक्ति को परिकलित कीजिए।
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प्रश्न 20.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ को जिसमें L = 0.12 H, C = 480 nF, R = 23 Ω, 230 V परिवर्ती आवृत्ति वाल स्रोत से जोड़ा गया है।
(a) स्रोत की वह आवृत्ति कितनी है जिस पर धारा आयाम अधिकतम है? इस अधिकतम मान को निकालिए।
(b) स्रोत की वह आवृत्ति कितनी है जिसके लिए परिपथ द्वारा अवशोषित माध्य शक्ति अधिकतम है?
(c) स्रोत की किस आवृत्ति के लिए परिपथ को स्थानान्तरित शक्ति अनुनादी आवृत्ति की शक्ति की आधी है?
(d) दिए गए परिपथ के लिए Q कारक कितना है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q20UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 21.
एक श्रेणीबद्ध LCR परिपथ के लिए जिसमें L = 3.0 H, C = 27 µF तथा R = 7.4 Ω अनुनादी आवृत्ति तथा ९कारक निकालिए। परिपथ के अनुनाद की तीक्ष्णता को सुधारने की इच्छा से “अर्ध उच्चिष्ठ पर पूर्ण चौड़ाई” को 2 गुणक द्वारा घटा दिया जाता है। इसके लिए उचित उपाय सुझाइए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q21
अर्ध उच्चिष्ठ पर पूर्ण चौड़ाई को आधा करने अथवा समान आवृत्ति के लिए Q को दोगुना करने हेतु प्रतिरोध R का आधा कर देना चाहिए।

प्रश्न 22.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

  1. क्या किसी ac परिपथ में प्रयुक्त तात्क्षणिक वोल्टता परिपथ में श्रेणीक्रम में जोड़े गए अवयवों के सिरों पर तात्क्षणिक वोल्टताओं के बीजगणितीय योग के बराबर होता है? क्या यही बात rms वोल्टताओं में भी लागू होती है?
  2. प्रेरण कुण्डली के प्राथमिक परिपथ में एक संधारित्र का उपयोग करते हैं।
  3. एक प्रयुक्त वोल्टता संकेत एक dc (UPBoardSolutions.com) वोल्टता तथा उच्च आवृत्ति के एक ac वोल्टता के अध्यारोपण से निर्मित है। परिपथ एक श्रेणीबद्ध प्रेरक तथा संधारित्र से निर्मित है। दर्शाइए कि dc संकेत C तथा ac संकेत L के सिरे पर प्रकट होगा।
  4. एक लैम्प से श्रेणीक्रम में जुड़ी चोक को एक dc लाइन से जोड़ा गया है। लैम्प तेजी से चमकता है। चोक में लोहे के क्रोड को प्रवेश कराने पर लैम्प की दीप्ति में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। यदि एक ac लाइन से लैम्प का संयोजन किया जाए तो तदनुसार प्रेक्षणों की प्रागुक्ति कीजिए।
  5. ac मेंस के साथ कार्य करने वाली फ्लोरोसेंट ट्यूब में प्रयुक्त चोक कुण्डली की आवश्यकता क्यों होती है? चोक कुण्डली के स्थान पर सामान्य प्रतिरोधक का उपयोग क्यों नहीं होता?

उत्तर-

  1. हाँ, परन्तु यह तथ्य rms वोल्टताओं के लिए सत्य नहीं है क्योंकि विभिन्न अवयवों की rms वोल्टताएँ समान कला में नहीं होती।
  2. संधारित्र को जोड़ने से, परिपथ को तोड़ते समय चिनगारी देने वाली धारा संधारित्र को आवेशित करती है; अतः चिनगारी नहीं निकल पाती।
  3. संधारित्र dc सिग्नल को रोक देता है; अत: dc सिग्नल वोल्टता संधारित्र के सिरों पर प्रकट होगा जबकि ac सिग्नल प्रेरक के सिरों पर प्रकट होगा।
  4. dc लाइन के लिए V = 0
    अतः चोक की प्रतिबाधा XL = 2πvL = 0
    अतः चोक दिष्ट धारा के मार्ग में कोई रुकावट नहीं डालती, इससे लैम्प तेज चमकता है। ac लाइन में चोक उच्च प्रतिघात उत्पन्न करती है (L का (UPBoardSolutions.com) मान अधिक होने के कारण); अतः लैम्प में धारा घट जाती है और उसकी चमक मद्धिम पड़ जाती है।
  5. चोक कुण्डली एक प्रेरक का कार्य करती है और बिना शक्ति खर्च किए ही धारा को कम कर देती है। यदि चोक के स्थान पर प्रतिरोधक का प्रयोग करें तो वह धारा को कम तो कर देगा परन्तु इसमें विद्युत शक्ति ऊष्मा के रूप में व्यय होती रहेगी।

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प्रश्न 23.
एक शक्ति संप्रेषण लाइन अपचायी ट्रांसफॉर्मर में जिसकी प्राथमिक कुण्डली में 4000 फेरे हैं, 2300 वोल्ट पर शक्ति निवेशित करती है। 230V की निर्गत शक्ति प्राप्त करने के लिए द्वितीयक में कितने फेरे होने चाहिए?
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प्रश्न 24.
एक जल विद्युत शक्ति संयंत्र में जल दाब शीर्ष 300 m की ऊँचाई पर है तथा उपलब्ध जल प्रवाह 100 m3s-1 है। यदि टरबाइन जनित्र की दक्षता 60% हो तो संयंत्र से उपलब्ध विद्युत शक्ति का आकलन कीजिए, g = 9.8 m s-2
हल-
दिया है, h = 300m, g = 9.8m/s, जल का आयतन V = 100 m3, समय t = 1 s, जनित्र की दक्षता = 60%
जल विद्युत शक्ति = जल-स्तम्भ का दाब x प्रति सेकण्ड प्रवाहित जल का आयतन
= hvg x V= 300 x 10 x 9.8 x 100 = 29.4 x 107 W
जनित्र द्वारा उत्पन्न विद्युत शक्ति = कुल शक्ति x दक्षता
= 29.4 x 107 x [latex]\frac { 60 }{ 100 }[/latex]
= 176.4 x 106 W = 176.4 MW

प्रश्न 25.
440V पर शक्ति उत्पादन करने वाले किसी विद्युत संयंत्र से 15 km दूर स्थित एक छोटे से कस्बे में 220 V पर 800 kW शक्ति की आवश्यकता है। विद्युत शक्ति ले जाने वाली दोनों तार की लाइनों का प्रतिरोध 0.5 Ω प्रति किलोमीटर है। कस्बे को उप-स्टेशन में लगे 4000-220V अपचायी ट्रांसफॉर्मर से लाइन द्वारा शक्ति पहुँचती है।
(a) ऊष्मा के रूप में लाइन से होने वाली शक्ति के क्षय का आकलन कीजिए।
(b) संयंत्र से कितनी शक्ति की आपूर्ति की जानी चाहिए, यदि क्षरण द्वारा शक्ति का क्षय नगण्य है।
(c) संयंत्र के उच्चायी ट्रांसफॉर्मर की विशेषता बताइए।
हल-
(a) तार की लाइनों का प्रतिरोध R = 30 km x 0.5 Ω km-1 = 15 Ω
उप-स्टेशन पर लगे ट्रांसफॉर्मर के लिए Vp = 4000 V, Vs = 220 v माना।
प्राथमिक परिपथ में धारा = ip
द्वितीयक परिपथ में धारा = is
ट्रांसफॉर्मर द्वारा द्वितीयक परिपथ में दी गई शक्ति
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यह धारा सप्लाई लाइन से होकर गुजरती है।
लाइन में होने वाला शक्ति क्षय P = ip2 x R = (200)2 x 15 W = 600 kW

(b) संयंत्र द्वारा आपूर्ति की जाने वाली शक्ति = 800 kW + 600 kW = 1400 kW

(c) सप्लाई लाइन पर विभवपात V = ip x R = 200 x 15 = 3000 V
उप-स्टेशन पर लगा अपचायी ट्रांसफॉर्मर 4000 V – 220 V प्रकार का है;
अतः इस ट्रांसफॉर्मर की प्राथमिक कुण्डली पर विभवपात = 4000 V
संयंत्र पर लगे उच्चायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा प्रदान की जाने वाली वोल्टता = 3000 + 4000 = 7000 V
अत: यह ट्रांसफॉर्मर 440 V – 7000 V प्रकार का होना चाहिए।
सप्लाई लाइन में प्रतिशत शक्ति क्षय = [latex]\frac { 600 kW }{ 1400 kW }[/latex] x 100 = 42.86 %

प्रश्न 26.
प्रश्न 25 को पुनः कीजिए। इसमें पहले के ट्रांसफॉर्मर के स्थान पर 40,000-220 V का अपचायी ट्रांसफॉर्मर है। [पूर्व की भाँति क्षरण के कारण हानियों को नगण्य मानिए। यद्यपि अब यह सन्निकटन उचित नहीं है, क्योंकि इसमें उच्च वोल्टता पर संप्रेषण होता है] अतः समझाइए कि क्यों उच्च वोल्टता संप्रेषण अधिक वरीय है?
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(b) संयंत्र द्वारा प्रदान की जाने वाली शक्ति = 800 kW + 6 kW = 808 W

(c) सप्लाई लाइन पर विभवपात V = Ip x R = 20 x 15 = 300 V
उपस्टेशन पर लगा ट्रांसफॉर्मर 40000 V – 220 V प्रकार का है; अतः इसकी।
प्राथमिक कुण्डली पर विभवपात = 40000 V
संयंत्र पर लगे उच्चायी ट्रांसफॉर्मर द्वारा प्रदान की जाने वाली
वोल्टता = 40000 V + 300 V = 40300 V
संयंत्र पर लगा ट्रांसफॉर्मर 440 V – 40300 V प्रकार का होना चाहिए।
सप्लाई लाइन में प्रतिशत शक्ति क्षय = [latex]\frac { 6 }{ 806 }[/latex] x 100 = 0.74%

प्रत्यावर्ती धारा 247 प्रश्न 25 व 26 के हलों से स्पष्ट है कि विद्युत शक्ति उच्च वोल्टता पर सम्प्रेषित करने से सप्लाई लाइन में होने वाला शक्ति क्षय बहुत घट जाता है। यही कारण है (UPBoardSolutions.com) कि विद्युत उत्पादन संयंत्रों से विद्युत शक्ति का सम्प्रेषण उच्च वोल्टता पर किया जाता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वोल्टमीटर द्वारा मापे गए प्रत्यावर्ती धारा के मेन्स का विभव 200 वोल्ट प्राप्त होता है, तो इस विभव का वर्ग-माध्य-मूल मान होगा- (2017)
(i) 200√2 वोल्ट
(ii) 100√2 वोल्ट
(iii) 200 वोल्ट
(iv) 400/π वोल्ट
उत्तर-
(iii) 200 वोल्ट

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प्रश्न 2.
एक ऐमीटर का प्रत्यावर्ती परिपथ में पाठ्यांक 4 ऐम्पियर है। परिपथ में धारा का शिखर मान है- (2014)
(i) 4 ऐम्पियर
(ii) 8 ऐम्पियर
(iii) 4√2 ऐम्पियर
(iv) 2√2 ऐम्पियर
उत्तर-
(iii) 4√2 ऐम्पियर

प्रश्न 3.
विशुद्ध प्रेरकीय परिपथ में शक्ति गुणांक का मान है- (2011)
(i) शून्य
(ii) 0.1
(iii) 1
(iv) अनन्त
उत्तर-
(i) शून्य

प्रश्न 4.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में 8 ओम का प्रतिरोध तथा 6 ओम प्रतिघात का प्रेरकत्व श्रेणीक्रम में लगे हैं। परिपथ की प्रतिबाधा होगी
(i) 2 ओम
(ii) 10 ओम
(iii) 14 ओम
(iv) 14√2 ओम
उत्तर-
(ii) 10 ओम

प्रश्न 5.
अनुनाद की स्थिति में L-C परिपथ की आवृत्ति है- (2010, 17)
(i) 2π√LC
(ii) [latex s=2]\frac { 1 }{ 2\Pi } \sqrt { LC }[/latex]
(iii) [latex s=2]\frac { 1 }{ 2\Pi } \sqrt { \frac { 1 }{ LC } }[/latex]
(iv) [latex s=2]2\Pi \sqrt { \frac { 1 }{ LC } }[/latex]
उत्तर-
(iii) [latex s=2]\frac { 1 }{ 2\Pi } \sqrt { \frac { 1 }{ LC } }[/latex]

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प्रश्न 6.
एक श्रेणी अनुनादी LCR परिपथ में धारिता C से 4C परिवर्तित की जाती है। उतनी ही अनुनादी आवृत्ति के लिए प्रेरकत्व Lको परिवर्तित करना चाहिए- (2016)
(i) 2L
(ii) [latex]\frac { L }{ 2 }[/latex]
(iii) 4L
(iv) [latex]\frac { L }{ 4 }[/latex]
उत्तर-
(iv) [latex]\frac { L }{ 4 }[/latex]

प्रश्न 7.
एक L-C-R परिपथ को प्रत्यावर्ती धारा के स्रोत से जोड़ा गया है। अनुनाद की स्थिति में लगाये गये विभवान्तर एवं प्रवाहित धारा में कलान्तर होगा- (2017)
(i) शून्य
(ii) [latex s=2]\frac { \Pi }{ 4 }[/latex]
(iii) [latex s=2]\frac { \Pi }{ 2 }[/latex]
(iv) π
उत्तर-
(i) शून्य

प्रश्न 8.
किसी प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में वोल्टेज V तथा धारा i हो तब शक्ति क्षय- (2014)
(i) Vi
(ii) [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] Vi
(ii) [latex s=2]\frac { 1 }{ \surd 2 }[/latex] Vi
(iv) V तथा के बीच कला कोण पर निर्भर करता है।
उत्तर-
(iv) V तथा i के बीच कला कोण पर निर्भर करता है।

प्रश्न 9.
किसी ट्रांसफॉर्मर में क्या सम्भव नहीं है ? (2010)
(i) भंवर धारा
(ii) दिष्ट धारा
(iii) प्रत्यावर्ती धारा
(iv) प्रेरित धारा
उत्तर-
(ii) दिष्ट धारा

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में विभवान्तर का वंर्ग-माध्य-मूल मान 220 V है। विभव का शिखर मान क्या है? (2014)
हल-
विभव का शिखर मान V0 = Vrms √2 = 200√2 वोल्ट.

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प्रश्न 2.
किसी प्रत्यावर्ती धारा का वर्ग-माध्य-मूल मान 8 ऐम्पियर है। इसका शिखर मान ज्ञात कीजिए। (2013)
हल-
धारा का शिखर मान i0 = irms √2 = 8√2 ऐम्पियर

प्रश्न 3.
किसी परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा का शीर्ष मान √2 A है। धारा का वर्ग-माध्य-मूल (rms) मान ज्ञात कीजिए। (2015)
हल-
धारा का वर्ग-माध्य-मूल (rms) मान
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प्रश्न 4.
एक प्रत्यावर्ती विभव E = 240√2 sin300πt से प्रदर्शित है। विभव का वर्ग-माध्य-मूल मान एवं आवृत्ति ज्ञात कीजिए।
हल-
प्रत्यावर्ती विभव के समीकरण E = 240√2 sin300πt की तुलना E = E0 sinωt से करने पर
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प्रश्न 5.
एक प्रत्यावर्ती धारा का समीकरण i = 4 sin (100πt – θ) है। धारा का आवर्तकाल ज्ञात कीजिए। (2017)
हल-
समीकरण i = 4 sin (100πt – θ) की समीकरण i = i0 sin (2πft – θ) से तुलना करने पर
2πft = 100πt
f = 50 हर्ट्ज़
धारा का आवर्तकाल T = [latex]\frac { 1 }{ f }[/latex] = [latex]\frac { 1 }{ 50 }[/latex] = 0.2 सेकण्ड

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प्रश्न 6.
एक प्रत्यावर्ती वोल्टता का समीकरण V = 100√2 sin (100πt) है। वोल्टता का वर्ग माध्य मूल मान तथा आवृत्ति ज्ञात कीजिए। (2017)
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प्रश्न 7.
प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रेरण प्रतिघात का अर्थ समझाइए। (2013)
उत्तर-
प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में शुद्ध प्रेरकत्व द्वारा धारा के मार्ग में उत्पन्न प्रभावी प्रतिरोध परिपथ को प्रेरण प्रतिघात कहलाता है। इसे XL से व्यक्त करते हैं तथा
XL = ωL = 2πfL

प्रश्न 8.
100 mH प्रेरकत्व की कुण्डली में 50 Hz आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा प्रवाहित हो रही है। कुण्डली का प्रेरण प्रतिघात ज्ञात कीजिए। (2013)
हल-
L = 100 mH = 100 x 10-3 H = 0.1 H
f = 50 Hz
प्रेरण प्रतिघात XL = 2πfL = 2 x 3.14 x 50 x 0.1 = 31.4 ओम

प्रश्न 9.
निम्न चित्र से प्रेरक कुण्डली के प्रतिघात की गणना कीजिए- (2012)
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हल-
दी गयी समीकरण V = 10 sin 1000 t की समीकरण V = V0 sinωt है से तुलना करने पर
ω = 1000 सेकण्ड-1
कुण्डली का प्रतिघात XL = ωL = 1000 x 20 x 10-3 Ω = 20 Ω

प्रश्न 10.
किसी प्रत्यावर्ती परिपथ में 8 ओम का प्रतिरोध 6 ओम प्रतिघात के प्रेरकत्व से श्रेणीक्रम में जुड़ा है। परिपथ के प्रतिबाधा की गणना कीजिए। (2015)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current VSAQ 10

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प्रश्न 11.
एक कुण्डली की प्रतिबाधा 141.4 Ω तथा प्रतिरोध 100 Ω है। उसका प्रतिघात कितना होगा ? (2010)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current VSAQ 11.1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 12.
L-R परिपथ के शक्ति गुणांक का सूत्र लिखिए। (2011)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current VSAQ 12

प्रश्न 13.
कुण्डली में उत्पन्न वैद्युत वाहक बल का व्यंजक कोणीय चाल के पदों में लिखिए। (2014)
उत्तर-
कुण्डली में उत्पन्न वैद्युत वाहक बल e = NBAω sinωt
sinωt की महत्तम मान 1 होता है तब वैद्युत वाहक बल e = NBAω

प्रश्न 14.
प्रत्यावर्ती धारा तथा प्रत्यावर्ती वोल्टेज के समीकरण लिखिए जब प्रत्यावर्ती धारा स्रोत से एक संधारित्र जोड़ा जाता है। (2013)
उत्तर-
i = i0 sin(ωt + 90°) तथा V = V0 sin ωt.
इन दोनों समीकरणों से स्पष्ट है कि धारा i वोल्टता V से 90° कलान्तर अग्रगामी है।

प्रश्न 15.
एक LC परिपथ अनुनाद की स्थिति में है। यदि C = 1.0 x 10-6 F तथा L = 0.25 H हो, तो परिपथ में दोलन की आवृत्ति ज्ञात कीजिए। (2015)
हल-
परिपथ में दोलन की आवृत्ति
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प्रश्न 16.
RC का विमीय समीकरण निकालिए जबकि R प्रतिरोध तथा C धारिता है। (2017)
हल-
RC की विमा = [R की विमा] [C की विमा]
= [ML2T-3A-2][M-1L-2T4A2]
= [M0L0T]

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प्रश्न 17.
एक L-C-R परिपथ के शक्ति गुणांक का व्यंजक क्या है? इसका अधिकतम और न्यूनतम मान क्या है? (2014, 17, 18)
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प्रश्न 18.
नीचे दिए गए प्रत्यावर्ती परिपथ (i), (ii) व (iii) में आरोपित प्रत्यावर्ती वोल्टेज की आवृत्ति बढ़ाने पर धारा के मान पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (2012, 14)

उत्तर-
परिपथ (i) में धारा घट जायेगी क्योंकि परिपथ का प्रभावी प्रतिरोध XL (= ωL) आवृत्ति बढ़ने पर बढ़ जायेगा। परिपथ (ii) में वही धारा रहेगी क्योंकि प्रतिरोध R वोल्टेज की आवृत्ति पर निर्भर नहीं करता। परिपथ (ii) में धारा बढ़ जायेगी क्योंकि इसका प्रभावी प्रतिरोध XC = ([latex s=2]\frac { 1 }{ \omega c }[/latex]) आवृत्ति बढ़ाने पर घट जायेगा।

प्रश्न 19.
L-C-Rपरिपथ में अनुनाद की दशा में शक्ति गुणांक का मान कितना होता है? (2014)
उत्तर-
L-C-R परिपथ में अनुनाद की दशा में शक्ति गुणांक का मान 1 होता है।

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प्रश्न 20.
चित्र 7.4 में प्रत्यावर्ती वोल्टमीटर द्वारा नापे गए विभवान्तर VL, VC तथा VR क्रमशः 20 V, 11 V तथा 12 V प्राप्त हुए। परिणामी विभवान्तर तथा परिपथ धारा में कलान्तर ज्ञात कीजिए। (2013)
हल-
परिणामी विभवान्तर तथा परिपथ धारा में कलान्तर

प्रश्न 21.
दिए गए परिपथ में प्रत्यावर्ती स्रोत का विद्युत वाहक बल तथा परिपथ का शक्ति गुणांक ज्ञात कीजिए। (2017, 18)

प्रश्न 22.
वैद्युत अनुनाद से आप क्या समझते हैं? (2015)
उत्तर-
किसी वैद्युत परिपथ की वह स्थिति, जब किसी विशेष अनुनादी आवृत्ति पर उस परिपथ की प्रतिबाधाओं या प्रवेश्यता के मान परस्पर निरस्त हो जाएँ, ‘वैद्युत अनुनाद’ कहलाती है।

प्रश्न 23.
दिष्ट धारा परिपथ में ट्रांसफॉर्मर का उपयोग क्यों नहीं किया जाता है? (2012)
उत्तर-
दिष्ट धारा परिपथ में ट्रांसफॉर्मर का उपयोग (UPBoardSolutions.com) नहीं किया जा सकता क्योंकि दिष्ट धारा से क्रोड में परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न नहीं हो सकता।

प्रश्न 24.
एक उच्चायी ट्रांसफॉर्मर 220 वोल्ट पर कार्य करता है तथा एक लोड में 3 ऐम्पियर धारा देता है। प्राथमिक तथा द्वितीयक फेरों की संख्या का अनुपात 1:15 है। प्राथमिक कुण्डली में धारा की गणना कीजिए। (2009)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current VSAQ 24

लघु उत्तरीय प्रश्न

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प्रश्न 1.
प्रत्यावर्ती धारा के वर्ग-माध्य-मूल मान का व्यंजक प्राप्त कीजिए। किसी प्रत्यावर्ती धारा का शिखर मान 10√2 ऐम्पियर है। धारा का वर्ग-माध्य-मूल मान ज्ञात कीजिए। (2015, 17, 18)
हल-
प्रत्यावर्ती धारा की एक पूर्ण साइकिल के लिए धारा के वर्ग i2 के औसत मान के वर्गमूल को धारी का ‘वर्ग-माध्य-मूल मान’ (rms value) कहते हैं। इसे irms से प्रदर्शित करते हैं।
एक पूर्ण साइकिल के लिए i2 का माध्य (औसत) मान
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प्रश्न 2.
प्रत्यावर्ती वोल्टता के वर्ग-माध्य-मूल मान की परिभाषा लिखिए। एक प्रत्यावर्ती वोल्टता का समीकरण V = 300√2 sin500πt वोल्ट है। प्रत्यावर्ती धारा के वर्ग-माध्य-मूल मान एवं आवृत्ति की गणना कीजिए। (2016)
उत्तर-
प्रत्यावर्ती वोल्टता का वर्ग-माध्य-मूल मान- (UPBoardSolutions.com) प्रत्यावर्ती वोल्टेज की एक पूर्ण साइकिल के लिए वोल्टेज के वर्ग के औसत मान के वर्गमूल को वोल्टता का वर्ग-मध्य-मूल मान कहते हैं। इसे Vrms से प्रदर्शित करते हैं।
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प्रश्न 3.
0.21 हेनरी का प्रेरक तथा 12 ओम का प्रतिरोध 220 वोल्ट एवं 50 हर्ट्ज के प्रत्यावर्ती आवृत्ति धारा स्रोत से जुड़े हैं। परिपथ में धारा का मान और धारा एवं स्रोत के विभवान्तर में कलान्तर ज्ञात कीजिए। (2014)
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प्रश्न 4.
दिए गए वैद्युत परिपथ में प्रतिबाधा, ऐमीटर का पाठ्यांक एवं शक्ति गुणांक ज्ञात कीजिए। (2016)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 4
हल-
यहाँ, R = 40 Ω, L = 0.1 हेनरी
दी गई समीकरण V = 200 sin300t की तुलना
समीकरण V = V0 sinωt से करने पर,
V0 = 200 वोल्ट, ω = 300 रेडियन/सेकण्ड
प्रेरण प्रतिघात = XL = ωL = 300 x 0.1 = 30 Ω
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प्रश्न 5.
0.1 हेनरी का प्रेरकत्व तथा 30 ओम प्रतिरोध को श्रेणीक्रम में V = 10 sin400t प्रत्यावर्ती वोल्टेज से जोड़ा गया है। परिपथ में प्रेरण प्रतिघात, प्रतिबाधा, धारा का शिखर मान एवं वोल्टेज और धारा के बीच कलान्तर ज्ञात कीजिए। (2014)
हल-
दी गयी समीकरण V = 10 sin400t वोल्ट की प्रत्यावर्ती वोल्टता समीकरण V= V0sinωt से तुलना करने पर,
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प्रश्न 6.
प्रतिघात का विमीय समीकरण लिखिए। दिए गये परिपथ में ज्ञात कीजिए-
(i) परिपथ में प्रवाहित धारा का अधिकतम मान
(ii) परिपथ में प्रवाहित धारा का वर्ग-माध्य-मूल मान
(iii) वोल्टता एवं धारा में कलान्तर। (2013)

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 6
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 6.1

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प्रश्न 7.
प्रत्यावर्ती परिपथ के लिए औसत शक्ति का व्यंजक प्राप्त कीजिए तथा वाटहीन धारा को समझाइए। (2010, 12)
या
वाटहीन धारा क्या है ? (2012, 15, 17)
या
किसी प्रत्यावर्ती धारा की शक्ति के लिए सूत्र ज्ञात कीजिए। शक्ति गुणांक किसे कहते हैं? (2013)
या
प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में व्यय शक्ति का सूत्र लिखिए। (2018)
उत्तर-
LR परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा की औसत शक्ति-यदि किसी प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रतिरोध है तथा प्रेरकत्व L दोनों हैं तो धारा i वोल्टता V से कला में पश्चगामी होती (UPBoardSolutions.com) है। यदि धारा और वोल्टता के बीच का कलान्तर φ है तो परिपथ के लिए किसी क्षण वोल्टता तथा धारा के मान निम्नलिखित समीकरणों से व्यक्त कर सकते हैं।
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प्रश्न 8.
चोक कुण्डली का कार्य-सिद्धान्त समझाइए। चोक कुण्डली में वाटहीन धारा के महत्त्व को समझाइए। (2010, 12, 14, 17)
उत्तर-
चोक कुण्डली- प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में वैद्युत ऊर्जा का ह्रास हुए बिना धारा को कम करने का एक साधन उपलब्ध है जिसे चोक कुण्डली कहते हैं। यह एक ऊँचे (UPBoardSolutions.com) प्रेरकत्व की कुण्डली होती है जो एक पृथक्कृत (insulated) ताँबे के मोटे तार को बहुत-से फेरों में लोहे की पटलित क्रोड पर लपेटकर बनायी जाती है। इस कुण्डली का ओमीय प्रतिरोध लगभग शून्य रहता है। इसका प्रेरकत्व काफी ऊँचा रहता है।
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इस प्रकारे समी० (1) के अनुसार चोक कुण्डली में औसत शक्ति लगभग शून्य होगी। इस प्रकार चोक कुण्डली का कार्य-सिद्धान्त वाटहीन धारा के सिद्धान्त पर आधारित है। अतः प्रत्यावर्ती धारा परिपथों में चोक कुण्डली के उपयोग से ऊर्जा क्षय में पर्याप्त कमी हो जाती है।

प्रश्न 9.
10 वोल्ट, 2 कीटंक बल्ब को 100 वोल्ट, 40 हर्ट्ज के प्रत्यावर्ती धारा स्रोत से जलाना है। बल्ब के श्रेणीक्रम में जोड़े जाने हेतु आवश्यक चोक-कुण्डली के प्रेरकत्व की गणना कीजिए। (2014)
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 9.1

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प्रश्न 10.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में 100 हर्टज आवृत्ति पर सप्लाई विभवान्तर 80 वोल्ट है। एक संधारित्र को श्रेणीक्रम में 10 ओम प्रतिरोधक के साथ इस परिपथ में जोड़ा जाता है तो परिपथ का शक्ति गुणांक 0.5 हो जाता है। इस संधारित्र की धारिता ज्ञात कीजिए। (2015)
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प्रश्न 11.
एक 50 वाट 100 वोल्ट के वैद्युत लैम्प को 200 वोल्ट, 60 हर्ट्ज के विद्युत मेन्स से जोड़ना है। लैम्प के श्रेणी क्रम में आवश्यक संधारित्र की धारिता ज्ञात कीजिए। (2017)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 11
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

प्रश्न 12.
दिए गए परिपथ में ज्ञात कीजिए (i) ऐमीटर (A) का पाठ्यांक (ii) वोल्टमीटर (V) का पाठ्यांक (iii) शक्ति-गुणांक। (2013, 17)
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current Q12.1

प्रश्न 13.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रेरकत्व (L), संधारित्र (C) तथा प्रतिरोध (R) श्रेणीक्रम में जोड़े गये हैं। परिपथ से L को हटा देने पर वोल्टता तथा विद्युत धारा के बीच 1/3 का कलान्तर होता है। यदि के बजाय परिपथ सेc को हटा दें तब भी कलान्तर [latex s=2]\frac { \Pi }{ 3 }[/latex] रहता है। परिपथ का शक्ति गुणांक क्या होगा? (2015)
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प्रश्न 14.
एक प्रत्यावर्ती परिपथ में प्रतिरोध, संधारित्र तथा प्रेरण कुण्डली एक प्रत्यावर्ती स्रोत से श्रेणीक्रम में संयोजित हैं। इनके सिरों के विभवान्तर क्रमशः 40 वोल्ट, 20 वोल्ट तथा 50 वोल्ट हैं। परिपथ में प्रत्यावर्ती स्रोत का विभव एवं परिपथ का शक्ति-गुणांक ज्ञात कीजिए। (2012, 15)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 14

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प्रश्न 15.
एक प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रेरकत्व, संधारित्र तथा प्रतिरोध श्रेणीक्रम में जोड़े गये हैं। प्रत्यावर्ती वोल्टेज तथा धारा के समीकरण दिये गये हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 15
ज्ञात कीजिए-
(i) प्रत्यावर्ती धारा स्रोत की आवृत्ति
(ii) V तथा i के मध्य कलान्तर
(iii) परिपथ की प्रतिबाधा। (2013)
हल-
धारा तथा वोल्टता के समीकरणों से स्पष्ट है कि
V0 = 200 वोल्ट, i0 = 5 ऐम्पियर
तथा ω = 314 रेडियन/सेकण्ड
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प्रश्न 16.
एक श्रेणी L-C-R परिपथ, जिसमें L = 10.0 H, C = 40 µF तथा R = 60 Ω को 240 V के परिवर्ती आवृत्ति के प्रत्यावर्ती धारा स्रोत से जोड़ा गया है। गणना कीजिए-
(i) स्रोत की कोणीय आवृत्ति जो परिपथ को अनुनाद की अवस्था में लाता है।
(ii) अनुनादी आवृत्ति पर धारा। (2014)
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प्रश्न 17.
चित्र 7.12 में प्रदर्शित प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में प्रतिरोध R, संधारित्र C तथा प्रेरक कुण्डली L के सिरों के बीच उपलब्ध विभवान्तर प्रदर्शित किए गए हैं। प्रत्यावर्ती धारा स्रोत के विद्युत वाहक बले की गणना कीजिए। (2015)
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प्रश्न 18.
अनुनादी परिपथ से क्या अभिप्राय है? श्रेणी व समान्तर अनुनादी परिपथ के लिए आवश्यक प्रतिबन्ध तथा प्रत्येक अनुनाद की स्थिति में आवृत्ति का व्यंजक लिखिए। इनमें अन्तर भी स्पष्ट कीजिए। (2010)
उत्तर-
अनुनादी परिपथ (Resonant Circuits)- वे प्रत्यावर्ती धारा परिपथ जो अपने पर आरोपित प्रत्यावर्ती वोल्टता की आवृत्ति के एक विशेष मान के संगत प्रत्यावर्ती धारा को अपने अन्दर से प्रवाहित होने देते हैं अथवा प्रवाहित होने से रोक देते हैं, अनुनादी परिपथ कहलाते हैं। ये निम्न दो प्रकार के होते हैं-

1. श्रेणी अनुनादी परिपथ (Series Resonant Circuit)- वह प्रत्यावर्ती धारा परिपथ जिसमें प्रेरकत्व L, धारिता C तथा प्रतिरोध R परस्पर श्रेणीक्रम में जुड़े होते हैं तथा यह परिपथ इस पर आरोपित प्रत्यावर्ती वोल्टता की आवृत्ति के एक विशेष मान fo के संगत अधिकतम प्रत्यावर्ती धारा (UPBoardSolutions.com) को अपने अन्दर से प्रवाहित होने देता है, श्रेणी अनुनादी परिपथ कहलाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

2. समान्तर अनुनादी परिपथ (Parallel Resonant Circuit)- वह प्रत्यावर्ती धारा परिपथ जिसमें कुण्डली (प्रेरकत्व = L) व संधारित्र (धारिता = C) प्रत्यावर्ती वोल्टता स्रोत से समान्तर क्रम में जुड़े हों तथा यह परिपथ इस पर आरोपित प्रत्यावर्ती वोल्टता की आवृत्ति के विशेष मान fo के संगत धारा को अपने अन्दर से प्रवाहित नहीं होने देता हो; समान्तर अनुनादी परिपथ कहलाता है। यह विशेष आवृत्ति fo इसकी अनुनादी आवृत्ति कहलाती है। यह (L-C) परिपथ की स्वाभाविक आवृत्ति होती है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 18.2

प्रश्न 19.
L-C-R संयोजन के लिए श्रेणी क्रम अनुनादी परिपथ बनाइए। इस परिपथ के लिए अनुनादी आवृत्ति का सूत्र प्राप्त कीजिए। (2017)
या
एक प्रत्यावर्ती वोल्टेज स्रोत V = V0 sinωt से प्रेरकत्व L संधारित्र C तथा प्रतिरोध R श्रेणी क्रम में जुड़े हैं। वेक्टर आरेख खींचकर परिपथ की प्रतिबाधा तथा कला कोण के सूत्र निकालिए। (2016)
या
किसी प्रत्यावर्ती परिपथ में L, C और R श्रेणीक्रम में जुड़े हैं। इस परिपथ का आरेख बनाइए। परिपथ की प्रतिबाधा एवं अनुनादी आवृति के लिए सूत्र लिखिए। यदि परिपथ में लगा प्रत्यावर्ती विभव 300 वोल्ट हो, प्रेरण प्रतिघात 50 ओम, धारितीय प्रतिघात 50 ओम तथा ओमीय प्रतिरोध 10 ओम हों तो परिपथ की प्रतिबाधा तथा L, C व R के सिरों के बीच विभवान्तर ज्ञात कीजिए।
या
प्रत्यावर्ती वोल्टेज स्रोत V = V0 sinωt से विप्रेरक L संधारित C तथा प्रतिरोध R तीनों श्रेणी क्रम में जुड़े हैं। सिद्ध कीजिए कि परिपथ की प्रतिबाधा Z का मान
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
हल-
माना प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में, प्रेरकत्व L की एक कुण्डली, धारिता C का संधारित्र तथा प्रतिरोध R को श्रेणीक्रम में जोड़कर प्रत्यावर्ती धारा-स्रोत V = V0 sinωt से जोड़ देते हैं [चित्र 7.15 (a)]। इस दशा में प्रतिरोध R के सिरों के बीच प्रेरित विभवान्तर VR तथा धारा i समान कला में होंगे, (UPBoardSolutions.com) प्रेरकत्व L के सिरों के बीच प्रेरित विभवान्तर VL, धारा i से कला में 90° अग्रगामी होगा तथा धारिता C सिरों के बीच प्रेरित विभवान्तर VC, धारा i से कला में 90° पश्चगामी होगा। [चित्र 7.15 (b) ]। अतः VL तथा VC का परिणामी विभवान्तर VL – VC होगा। यदि L-C-R परिपथ में परिणामी विभवान्तर V हो, तब
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 19.1UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 19.3

प्रश्न 20.
एक आदर्श ट्रांसफॉर्मर की प्राथमिक एवं द्वितीयक कुण्डलियों में फेरों की संख्या क्रमशः 1100 एवं 110 है। प्राथमिक कुण्डली में सप्लाई वोल्टेज 220 वोल्ट है। यदि द्वितीयक कुण्डली से जुड़े यंत्र की प्रतिबाधा 220 ओम हो, तो प्राथमिक कुण्डली द्वारा ली गई धारा का मान ज्ञात कीजिए। (2014)
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प्रश्न 21.
220 वोल्ट आपूर्ति से किसी आदर्श ट्रांसफॉर्मर की प्राथमिक कुण्डली द्वारा उस समय कितनी धारा ली जाती है जब यह 110V-550 W के रेफ्रिजरेटर को शक्ति प्रदान करता (2017)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current SAQ 21
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प्रश्न 22.
एक उच्चायी ट्रांसफॉर्मर में प्राथमिक तथा द्वितीयक कुण्डलियों में फेरों की संख्याओं का अनुपात 1 : 200 है। यदि इसे 200 वोल्ट की प्रत्यावर्ती धारा की मेन लाइन से जोड़ दें तो द्वितीयक में प्राप्त वोल्टता ज्ञात कीजिए। यदि प्राथमिक में धारा का मान 2.0 ऐम्पियर हो तो द्वितीयक में प्रवाहित अधिकतम धारा का मान ज्ञात कीजिए। (2013)
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ट्रांसफॉर्मर की रचना तथा कार्यविधि का वर्णन कीजिए। (2017)
या
ट्रांसफॉर्मर का नामांकित चित्र बनाइए तथा उसके परिणमन अनुपात का सूत्र व्युत्पादित कीजिए। (2010)
या
ट्रांसफॉर्मर का सिद्धान्त क्या है? (2018)
उत्तर-
ट्रांसफॉर्मर (Transformer)- अन्योन्य प्रेरण (mutual induction) के सिद्धान्त पर आधारित यह एक ऐसी युक्ति है जिससे प्रत्यावर्ती धारा के विभव को कम अथवा अधिक किया जाता है। ट्रांसफॉर्मर केवल प्रत्यावर्ती धारा या विभव को ही परिवर्तित करने के काम आते हैं, दिष्ट धारा या विभव के परिवर्तन में नहीं। ये दो प्रकार के होते हैं-

  1. उच्चायी ट्रांसफॉर्मर (Step-up Transformer)- इनके द्वारा कम विभवे वाली प्रबल प्रत्यावर्ती धारा को ऊँचे विभव वाली निर्बल धारा में बदला जाता है।
  2. अपचायी ट्रांसफॉर्मर (Step-down Transformer)- इनके द्वारा ऊँचे विभव वाली निर्बल प्रत्यावर्ती धारा को कम विभव वाली प्रबल धारा में बदला जाता है।

रचना- इसमें कच्चे लोहे की आयताकार गोलाकार मुड़ी हुई पत्तियाँ एक पटलित क्रोड (laminated core) के रूप में होती हैं। ये पत्तियाँ एक-दूसरे के ऊपर वार्निश से जोड़ दी जाती हैं जिससे कि ये एक-दूसरे से पृथक्कृत रहें। फलतः क्रोड में कम भंवर धाराएँ उत्पन्न होती हैं और वैद्युत ऊर्जा का ह्रास घट जाता है। इस क्रोड पर ताँबे के तार की दो कुण्डलियाँ इस प्रकार लपेटी जाती हैं कि वे एक-दूसरे से (UPBoardSolutions.com) तथा लोहे की क्रोड से पृथक्कृत रहें [चित्र 7.16 (a)] इनमें से एक पर ताँबे के मोटे तार के कम फेरे होते हैं तथा दूसरी में ताँबे के पतले तार के अधिक फेरे होते हैं। इनमें एक को प्राथमिक कुण्डली (Primary coil) और दूसरी को ‘द्वितीयक कुण्डली’ (Secondary coil) कहते हैं। उच्चायी ट्रांसफॉर्मर में मोंटे तार की कम फेरों वाली प्राथमिक कुण्डली होती है, और पतले तार की अधिक फेरों वाली कुण्डली द्वितीयक कुण्डली होती है [चित्र 7.16 (b)] अपचायी ट्रांसफॉर्मर में इसके विपरीत होता है [चित्र 7.16 (c)]]
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कार्यविधि- जिस वि० वा० बल को परिवर्तित करना होता है, उसे सदैव प्राथमिक कुण्डली से जोड़ते हैं। जब प्राथमिक कुण्डली में प्रत्यावर्ती धारा प्रवाहित होती है तो धारा के प्रत्येक चक्कर में क्रोड एक बार एक दिशा में चुम्बकित होती है तथा दूसरी बार दूसरी दिशा में। अतः क्रोड में एक परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार प्राथमिक कुण्डली की वैद्युत-ऊर्जा का क्रोड में चुम्बकीय ऊर्जा के रूप में स्थानान्तरण हो जाता है। चूंकि द्वितीयक कुण्डली इस क्रोड पर लिपटी रहती है, अतः क्रोड के बार-बार चुम्बकन तथा विचुम्बकन होने की क्रिया से इस कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय-फ्लक्स में लगातार परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार (UPBoardSolutions.com) वैद्युत-चुम्बकीय प्रेरण के प्रभाव से द्वितीयक कुण्डली में उसी आवृत्ति का प्रत्यावर्ती वि० वा० बल उत्पन्न हो जाता है। इस प्रेरित वि० वा० बल का मान दोनों कुण्डलियों के फेरों की संख्या के अनुपात तथा प्राथमिक कुण्डली को दिये गये वि० वा० बल पर निर्भर करता है। माना कि प्राथमिक एवं द्वितीयक कुण्डलियों में तार के फेरों की संख्या क्रमशः N, और N, हैं। मान लो कि चुम्बकीय फ्लक्स का कोई क्षरण (leakage) नहीं होता है जिससे कि दोनों कुण्डलियों के प्रत्येक फेरे में से समान फ्लक्स गुजरता है। माना कि किसी क्षण कुण्डलियों के प्रत्येक फेरे से बद्ध फ्लक्स का मान ऎ है। तब फैराडे के वैद्युत-चुम्बकीय प्रेरण के नियमानुसार प्राथमिक कुण्डली में उत्पन्न प्रेरित वि० वा० बल
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
यदि प्राथमिक परिपथ का प्रतिरोध नगण्य हो तथा ऊर्जा का कोई क्षय न हो तो प्राथमिक कुण्डली में प्रेरित वि० वा० बल ep, का मान प्राथमिक परिपथ में लगाये गये विभवान्तर Vp के तुल्य (लगभग) होगा। इसके अतिरिक्त यदि द्वितीयक परिपथ खुला हो (अर्थात् प्रतिरोध अनन्त हो) तो द्वितीयक कुण्डली के सिरों के बीच विभवान्तर Vs उसमें उत्पन्न प्रेरित वि० वा० बल es के तुल्य होगा। इन आदर्श परिस्थितियों में
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current LAQ 1.2जहाँ r को ‘परिणमन-अनुपात’ (transformation ratio) कहते हैं। उच्चायी ट्रांसफॉर्मर के लिए r का मान r से अधिक तथा अपचायी ट्रांसफॉर्मर के लिए 1 से कम होता है।

यदि ट्रांसफॉर्मर द्वारा वैद्युत विभव को बढ़ाना है तो विद्युत वाहक बल के स्रोत को उस कुण्डली से सम्बन्धित करते हैं जिसके तार मोटे हैं और जिसमें फेरों की संख्या कम होती है। उपर्युक्त सूत्र से स्पष्ट है। कि इस दशा में Vs, Vp से बड़ा होगा; अर्थात् r का माने 1 से अधिक होगा। (UPBoardSolutions.com) वैद्युत-विभव को कम करने के लिए विद्युत वाहक बल के स्रोत को पतले तार से बनी अधिक फेरों वाली कुण्डली से जोड़ते हैं। स्पष्ट है कि इस दशा में Vs का मान Vp से कम होगा जिसके फलस्वरूप r का मान 1 से कम होगा।

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प्रश्न 2.
एक समांग चुम्बकीय क्षेत्र में क्षेत्र के लम्बवत् किसी अक्ष के परितः कोणीय वेग से घूमती हुई आयताकार कुण्डली में उत्पन्न प्रेरित विद्युत वाहक बल का सूत्र निगमित कीजिए। प्रेरित विद्युत वाहक बल कब महत्तम होगा और कब शून्य? (2011)
उत्तर-
माना एक कुण्डली के तल का क्षेत्रफल A है तथा इसमें तार के N फेरे हैं। इस कुण्डली को एक नियत कोणीय वेग ω से चित्र 7.17 (a) की भाँति एक ऊर्ध्वाधर अक्ष YY’ के परितः एकसमान चुम्बकीय क्षेत्र B में दक्षिणावर्त दिशा में घुमाया जा रहा है।
माना किसी क्षण कुण्डली के तल पर खींचा गया अभिलम्ब अर्थात् कुण्डली का अक्ष चित्र 7.17 (b) की भाँति [latex s=2]\vec { B }[/latex] की दिशा के साथ θ कोण (UPBoardSolutions.com) बनाता है। इस क्षण चुम्बकीय क्षेत्र B का कुण्डली के तल के लम्बवत् घटक B cosθ से होगा।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
e = NBAω sinωt …(1)
प्रेरित वि० वी० बल के लिए सूत्र (1) से स्पष्ट है कि प्रेरित वि० वा० बल का मान समय t के साथ-साथ निरन्तर बदलता रहेगा परन्तु sinωt का अधिकतम मान 1 होता है। अतः प्रेरित विद्युत वाहक बल e का
अधिकतम मान = NBAω होगा। यदि इसको e0 से प्रदर्शित किया जाए तो प्रेरित विद्युत वाहक बल के लिए सूत्र (1) को निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जाता है।
e = e0 sinωt …(2)

जहाँ e का अधिकतम मान e0 = NBAω
उपर्युक्त सूत्र (2) से स्पष्ट है कि जब किसी कुण्डली (UPBoardSolutions.com) को चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाया जाता है तो उसमें प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है जो ज्या-वक्र (sine curve) की भाँति बदलता रहता है। इसका मान कुण्डली के घुमाव कोण θ = ωt पर निर्भर करता है।

जब कुण्डली का तल चुम्बकीय क्षेत्र के लम्बवत् होता है तब से θ = 0°
अतः e = e0 sin 0° = 0
अर्थात् e का मान शून्य होता है। यह कुण्डली की प्रारम्भिक स्थिति है तथा प्रत्येक चक्कर के पश्चात् यही स्थिति होती है।

जब कुण्डली चौथाई चक्कर घूम जाती है तो θ = 90°
तथा इस दशा में e = e0 sin 90° = e0 (अधिकतम)
यही स्थिति कुण्डली के तीन-चौथाई चक्कर घूमने पर आती है परन्तु विपरीत दिशा में प्रेरित विद्युत वाहक बल अधिकतम होता है।
अर्थात् e = – e0
इस प्रकार कुण्डली के पहले आधे चक्कर में कुण्डली में उत्पन्न प्रेरित वि० वी० बल शून्य से बढ़कर अधिकतम मान को प्राप्त करता है तथा पुनः घटकर शून्य हो (UPBoardSolutions.com) जाता है, जबकि शेष आधे चक्कर में यह विपरीत दिशा में अधिकतम मान को प्राप्त करता है तथा पुनः घटकर शून्य हो जाता है। यही क्रिया बार-बार दोहरायी जाती है।

प्रश्न 3.
ए०सी० जनित्र की रचना एवं कार्यविधि समझाइए। दिष्ट धारा की तुलना में प्रत्यावर्ती धारा के क्या लाभ हैं जिनके कारण अब आमतौर पर प्रत्यावर्ती धारा ही प्रयोग की जाती है?
हल-
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र का सिद्धान्त तथा कार्य-प्रणाली चित्र द्वारा समझाइए। (2014)
उत्तर-
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र अथवा डायनमो
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की क्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग विद्युत जनित्र अथवा डायनमो में किया गया है। यह एक ऐसी विद्युत चुम्बकीय मशीन है जिसके द्वारा यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदला जाता है। प्रत्यावर्ती धारा को उत्पन्न करने के लिये प्रत्यावर्ती-धारा डायनमो तथा दिष्ट धारा को उत्पन्न करने के लिए दिष्ट-धारा डायनमो का उपयोग होती है।

सिद्धान्त- जब किसी बन्द कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में तेजी से घुमाया जाता है तो उसमें से गुजरने वाली फ्लक्स-रेखाओं की संख्या में लगातार परिवर्तन होता रहता है। जिसके (UPBoardSolutions.com) कारण कुण्डली में वैद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। कुण्डली को घुमाने में जो कार्य करना पड़ता है (अर्थात् यान्त्रिक ऊर्जा व्यय होती है) वही कुण्डली में वैद्युत ऊर्जा के रूप में प्राप्त होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current
रचना- इसके तीन मुख्य भाग होते हैं (चित्र 7.18)।
(i) क्षेत्र चुम्बक (Field Magnet)- यह एक शक्तिशाली चुम्बक NS होता है। इसके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल रेखाएँ चुम्बक के ध्रुव N से S की ओर होती हैं।
(ii) आर्मेचर (Armature)- चुम्बक के ध्रुवों के N बीच में पृथक्कृत ताँबे के तारों की एक कुण्डली ABCD होती है, जिसे आर्मेचर कुण्डली कहते सर्दी-वलय हैं। कुण्डली कई फेरों की होती है तथा ध्रुवों के बीच क्षैतिज अक्ष पर जल के टरबाइन से घुमाई जाती है।
(iii) सप वलय तथा ब्रुश (Slip Rings and Brushes)- कुण्डली के सिरों का सम्बन्ध अलग-अलग दो ताँबे के छल्लों से होता है जो आपस में एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते और कुण्डली के साथ उसी अक्ष पर घूमते हैं। इन्हें ‘सप वलय’ कहते हैं। इन छल्लों को दो कार्बन की ब्रुश X तथा ? स्पर्श करती रहती हैं। ये ब्रुश स्थिर रहती हैं तथा छल्ले इन ब्रुशों के नीचे फिसलते हुए घूमते हैं। इन ब्रुशों का सम्बन्ध उस बाह्य परिपथ से कर देते हैं जिसमें वैद्युत धारा भेजनी होती है।

क्रिया- जब आमेचर-कुण्डली ABCD घूमती है तो कुण्डली में से होकर जाने वाली फ्लक्स-रेखाओं की संख्या में परिवर्तन होता है। अत: कुण्डली में धारा प्रेरित हो जाती है। मान लो कुण्डली दक्षिणावर्त (clockwise) दिशा में घूम रही है तथा किसी क्षण क्षैतिज अवस्था में है (चित्र 7.18)। इस क्षण कुण्डली की भुजा AB ऊपर उठ रही है तथा भुजा CD नीचे आ रही है। फ्लेमिंग के दायें हाथ के नियम अनुसार, (UPBoardSolutions.com) इन भुजाओं में प्रेरित धारा की दिशा वही है जो चित्र में दिखाई गई है। अत: धारा ब्रुश X से बाहर जा रही है (अर्थात् यह ब्रुश धन ध्रुव है) तथा ब्रुश Y पर वापस आ रही है (अर्थात् यह ब्रुश ऋण ध्रुव है)। जैसे ही कुण्डली अपनी ऊध्र्वाधर स्थिति से गुजरेगी, भुजा AB नीचे की ओर आने लगेगी तथा CD ऊपर की ओर जाने लगेगी। अतः अब धारा ब्रुश Y से बाहर जायेगी तथा ब्रुश X पर वापस आयेगी। इस प्रकार आधे चक्कर के बाद बाह्य परिपथ में धारा की दिशा बदल जायेगी। अत: परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा’ (alternating current) उत्पन्न होती है।

प्रत्यावर्ती धारा की-दिष्ट-धारा की तुलना में उपयोगिता आजकल घरेलू व औद्योगिक कार्यों में प्रत्यावर्ती धारा का ही उपयोग होता है क्योंकि दिष्ट-धारा की तुलना में इसके निम्न लाभ हैं|

(i) प्रत्यावर्ती धारा को पावर हाऊस से किसी स्थान पर ट्रांसफॉर्मर की सहायता से उच्च वोल्टेज पर भेजा जा सकता है तथा वहाँ इसे पुन: निम्न वोल्टेज पर लाया जा सकता है। इस प्रकार भेजने में लागत भी कम आती है तथा ऊर्जा ह्रास भी बहुत घट जाता है। ट्रांसफॉर्मर का उपयोग दिष्ट-धारा के लिए नहीं किया जा सकता। अत: दिष्ट-धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में ऊर्जा ह्रास भी होता है तथा लागत भी अधिक आती है।

(ii) प्रत्यावर्ती धारा को चोक-कुण्डली द्वारा बहुत कम ऊर्जा ह्रास पर नियन्त्रित किया जा सकता है, जबकि दिष्ट-धारा ओमीय प्रतिरोध द्वारा ही नियन्त्रित की जा सकती है जिसमें अत्यधिक ऊर्जा ह्रास होता है।

(iii) प्रत्यावर्ती धारा वाले यन्त्र; जैसे-वैद्युत मोटर, दिष्ट-धारा वाले यन्त्रों की तुलना में सुदृढ़ व सुविधाजनक होते हैं।

(iv) जहाँ दिष्ट धारा की आवश्यकता होती है (जैसे-विद्युत अपघटन में, संचायक सेलों को आवेशित करने में, वैद्युत चुम्बक बनाने में) वहाँ दिष्टकारी (rectifer) द्वारा प्रत्यावर्ती धारा को सुगमता से | दिष्ट-धारा में बदल लिया जाता है।

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प्रश्न 4.
एक कुण्डली 220 वोल्ट, 50 हर्ट्ज वाले प्रत्यावर्ती धारा स्रोत से 20 ऐम्पियर धारा तथा 200 वाट शक्ति लेती है। कुण्डली का प्रतिरोध तथा प्रेरकत्व ज्ञात कीजिए। (2017)
हल-
कुण्डली में शक्ति-क्षय P, केवल इसके ओमीय प्रतिरोध R के कारण है। अतः  UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 7 Alternating Current

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 12 Biotechnology and its Applications

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 12
Chapter Name Biotechnology and its Applications
Number of Questions Solved 18
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 12 Biotechnology and its Applications (जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
बीटी (Bt) आविष के रवे कुछ जीवाणुओं द्वारा बनाये जाते हैं, लेकिन जीवाणु स्वयं को नहीं मारते हैं; क्योंकि –
(क) जीवाणु आविष के प्रति प्रतिरोधी हैं।
(ख) आविष अपरिपक्व है।
(ग) आविष निष्क्रिय होता है।
(घ) आविष जीवाणु की विशेष थैली में मिलता है।
उत्तर
(ग) आविष निष्क्रिय होता है।

प्रश्न 2.
पारजीनी जीवाणु क्या है? किसी एक उदाहरण द्वारा सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर
जब किसी इच्छित लक्षण वाली जीन (gene) को जीवाणु के जीनोम में प्रविष्ट कराकर कोई उत्पादन प्राप्त किया जाता है तो विदेशी जीन युक्त जीवाणु को पारजीनी जीवाणु (transgenic bacteria) कहते हैं।

उदाहरणमानव इन्सुलिन आनुवंशिक प्रौद्योगिकी के द्वारा तैयार किया गया है। इन्सुलिन दो छोटी पॉलिपेप्टाइड श्रृंखलाओं का बना होता है, श्रृंखला ‘ए’ व श्रृंखला ‘बी’ जो आपस में डाइसल्फाइड बन्धों द्वारा जुड़ी होती हैं। मानव इन्सुलिन में प्राक् हॉर्मोन संश्लेषित होता है जिसमें पेप्टाइड-सी’ होता है। यह पेप्टाइड ‘सी’ परिपक्व इन्सुलिन में नहीं पाया जाता, यह परिपक्वता के समय इन्सुलिन से पृथक् हो जाता है। सन् 1983 में मानव इन्सुलिन की श्रृंखला ‘ए’ और ‘बी’ के अनुरूप दो डी०एन०ए० अनुक्रमों को तैयार किया गया जिसे ई० कोलाई के प्लाज्मिड (plasmid) में प्रवेश कराकर इन्सुलिन श्रृंखलाओं का उत्पादन किया गया। इन अलग-अलग निर्मित श्रृंखलाओं ‘ए’ और ‘बी’ को निकालकर डाइसल्फाइड बन्ध (disulphide bonds) द्वारा आपस में संयोजित कर मानव इन्सुलिन को तैयार किया गया। इन्सुलिन डायबिटीज को नियन्त्रित करने के लिए एक उपयोगी औषधि है। इन्सुलिन के जीन की क्लोनिंग करने का श्रेय भारतीय मूल के डॉ० शरण नारंग (Dr. Saran Narang) को जाता है। इन्होंने अपना प्रयोग कनाडा के ओटावा (Ottava) में किया था।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 12 Biotechnology and its Applications img-1

प्रश्न 3.
आनुवंशिक रूपांतरित फसलों के उत्पादन के लाभ व हानि का तुलनात्मक विभेद कीजिए।
उत्तर
लाभ

  1. फसली पौधे आनुवंशिक रूपांतरण के द्वारा उत्पादकता की दर को बढ़ाते हैं।
  2. आनुवंशिक रूप से रूपांतरित पौधे प्रतिकूल परिस्थितियों; जैसे- सूखे, अत्यधिक ठण्ड को सहने की क्षमता विकसित करते हैं।
  3. आनुवंशिक रूप से रूपांतरित पौधों में विषाणु प्रतिरोधकता व हानिकारक कीट से प्रतिरोधकता | का गुण विकसित किया जाता है।
  4. फसली पौधों में आनुवंशिक रूपांतरण करके खनिज लवण को अवशोषित करने व प्रयुक्त करने के लिए पौधे विकसित किये गये हैं।
  5. आनुवंशिक रूपान्तरण से पौधे विकसित किए गये ताकि मण्ड व अन्य व्यावसायिक उत्पाद की उच्च मात्रा प्राप्त हो सके।
  6. आनुवंशिक रूप से रूपांतरित पौधों की रासायनिक पीड़कनाशी पर निर्भरता कम होती है।
  7. आनुवंशिक रूपान्तरित फसलें कटाई के पश्चात् होने वाले नुकसान को कम करने में सहायक होती हैं।

हानि

  1. अपतृणनाशी जीन पौधों में प्रविष्ट कराये जाते हैं, इनसे फसली पौधों में से कोई भी स्वयं सुपर अपतृण बन सकती है।
  2. आनुवंशिक रूपांतरित फसलें लोगों में एलर्जी उत्पन्न कर सकती हैं।
  3. आनुवंशिक रूपांतरित फसलें बहुत महँगी पड़ती हैं।
  4. ऐसी फसलें काटने की प्रक्रिया में बहुत-से पौधों के अवशेष भूमि में छोड़ दिये जाते हैं, जो जैविक वायुमण्डल को नुकसान पहुंचाते हैं।
  5. इस विधि द्वारा उत्पादित कुछ फसलों में बीज पैदा करने की क्षमता का क्षय हो सकता है।

प्रश्न 4.
क्राई प्रोटीन्स क्या हैं? उस जीव का नाम बताइए जो इसे पैदा करता है। मनुष्य इस प्रोटीन को अपने फायदे के लिए कैसे उपयोग में लाता है?
उत्तर
क्राई प्रोटीन एक विषाक्त प्रोटीन है जो cry gene द्वारा कोड की जाती है। क्राई प्रोटीन्स कई प्रकार के होते हैं, जैसे- जो प्रोटीन्स जीन क्राई 1 ऐ०सी० वे क्राई 2 ए० बी० द्वारा कूटबद्ध होते हैं, वे कपास के मुकुल कृमि को नियन्त्रित करते हैं, जबकि क्राई 1 ए० बी० मक्का छेदक को नियन्त्रित करता है।

क्राई प्रोटीन बेसिलस थुरिनजिएंसिस (Bt) द्वारा बनता है। इसके निर्माण को नियन्त्रित करने वाले जीन को क्राई जीन कहते हैं, जैसे—क्राई 1 ए० वी०, क्राई 1 ए० सी०, क्राई 11 ए० वी०। यह जीवाणु प्रोटीन को एन्डोटॉक्सिन के रूप में प्रोटॉक्सिन क्रिस्टलीय अवस्था में उत्पन्न करता है।

दो क्राई (cry) जीन कॉटन (Bt कॉटन) में डाले जाते हैं, जबकि एक कॉर्न (Bt कॉर्न) में डाला जाता है। जिसके परिणामस्वरूप Bt कॉटन बॉलवार्म के लिए प्रतिरोधक बन जाता है, जबकि Bt कॉर्न प्रतिरोधकता-कॉर्नबोर के लिये विकसित करता है।

प्रश्न 5.
जीन चिकित्सा क्या है? एडीनोसीन डिएमीनेज (ADA) की कमी का उदाहरण देते हुए इसका सचित्र वर्णन कीजिए। (2018)
उत्तर
“जीन चिकित्सा में मानव में उपस्थित दोषपूर्ण जीन को स्वस्थ्य व क्रियाशील जीन से बदला जाता है।
जीन चिकित्सा द्वारा किसी बच्चे या भ्रूण में चिह्नित किए गये जीन के दोषों को सुधार किया जा सकता है। इसमें रोग के उपचार के लिए जीन को व्यक्ति की कोशिकाओं या ऊतकों में प्रवेश कराया जाता है। इस विधि में आनुवंशिक दोष वाली कोशिकाओं के उपचार हेतु सामान्य जीन को व्यक्ति या भ्रूण में स्थानान्तरित करते हैं जो निष्क्रिय जीन की क्षतिपूर्ति कर उसके कार्यों को सम्पन्न करते हैं।
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जीन चिकित्सा का पहला प्रयोग सन् 1990 में एक चार वर्षीय लड़की में एडीनोसीन डिएमिनेज (ADA) की कमी को दूर करने के लिए किया गया था। यह एंजाइम प्रतिरक्षातंत्र में कार्य के लिए अति आवश्यक होता है। कुछ बच्चों में ADA की कमी को उपचार अस्थिमज्जा में प्रत्यारोपण से होता है। जीन चिकित्सा में सर्वप्रथम रोगी के रुधिर से लसीकाणु को निकालकर शरीर से बाहर संवर्धन किया। जाता है।

सक्रिय ADA का सी०डीएनए (cDNA) संवाहक द्वारा लसीकाणु में प्रविष्ट कराकर लसीकाणु को रोगी के शरीर में वापस पहुँचा दिया जाता है। ये कोशिकाएँ मृतकाय होती हैं। इसलिए आनुवंशिक निर्मित लसीकाणु को समय-समय पर रोगी के शरीर से अलग करने की आवश्यकता होती है। यदि मज्जा कोशिकाओं से विलगित अच्छे जीन्स को प्रारंभिक भ्रूणीय अवस्था की कोशिकाओं से उत्पादित ADA में प्रवेश करा दिया जाए तो यह एक स्थाई उपचार हो सकता है।

प्रश्न 6.
ई० कोलाई जैसे जीवाणु में मानव जीन की क्लोनिंग एवं अभिव्यक्ति के प्रायोगिक चरणों का आरेखीय निरूपण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
पुनर्योगज डी०एन०ए० तकनीक
DNA में किसी प्रकार के हेर-फेर या एक जीव के DNA में दूसरे जीव के DNA को जोड़ना, DNA पुनर्योगज (DNA recombination) कहलाता है। इस तकनीक को आनुवंशिक इंजीनियरिंग या DNA इंजीनियरिंग भी कहते हैं।

इस तकनीक द्वारा DNA खण्डों के नए क्रम तैयार किए जाते हैं। प्रकृति में यह कार्य गुणसूत्रों में विनिमय (crossing over) प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। DNA पुनर्योगज तकनीक द्वारा उच्च जन्तु और पौधों के DNA के इच्छित भागों की अनेकों प्रतिकृतियाँ (copies) तैयार की जाती हैं। इस प्रक्रिया को प्रायः जीवाणुओं में सम्पन्न कराया जाता है।
पुनर्योगज DNA प्राप्त करने के लिए निम्न तीन विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं –

(i) DNA की दो शृंखलाओं के अन्तिम छोर पर नई DNA श्रृंखलाएँ जोड़कर (By joining new DNA chains at the end point of two chains of DNA) – यदि DNA के सिरे पर कुछ क्षारक (जैसे- CCCCC) जोड़ दें तथा दूसरे DNA के सिरे पर इसके संयुग्मी क्षारक (GGGGG) जोड़ दें और फिर इन दोनों प्रकार के DNA को मिलाएँ तो नई श्रृंखला आपस में हाइड्रोजन बन्ध बनाकर दो भिन्न DNA अणुओं को संयुक्त कर देगी। इस कार्य के लिए विशेष एन्जाइम टर्मिनल ट्रान्सफरेज (terminal transferase) का उपयोग किया जाता है। अनजुड़े स्थानों को डी०एन०ए० लाइगेज (DNA ligase) नामक एन्जाइम द्वारा जोड़ देते हैं।
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(ii) प्रतिबन्ध एन्जाइम्स की सहायता से (With the help of restriction enzymes) – इस विधि में संयुग्मी क्षारकों के बीच हाइड्रोजन बन्ध बनाकर संकर DNA का निर्माण किया जाता है। इस विधि में एक विशेष एन्जाइम, प्रतिबन्ध एण्डोन्यूक्लिएज टाइप-II एन्जाइम (restriction endonuclease enzyme) का उपयोग किया जाता है। ये एन्जाइम चाकू की तरह कार्य करते हैं तथा DNA श्रृंखला को विशिष्ट स्थानों पर इस प्रकार से काटते हैं कि वांछित जीन्स वाले खण्ड प्राप्त हो सकें। अब तक लगभग 350 प्रकार के प्रतिबन्ध एण्डोन्यूक्लिएज एन्जाइम ज्ञात हैं जो DNA अणु में 100 से अधिक अभिज्ञान स्थलों (recognition sites) को पहचानते हैं। पृथक् DNA खण्ड को लाइगेज एन्जाइम द्वारा आवश्यकतानुसार DNA खण्ड से जोड़कर पुनर्योगज DNA अणु के रूप में (संवाहक वेक्टर) किसी पोषद कोशिका में प्रवेश कराकर इसकी असंख्य प्रतियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।

जैसे- ई० कोलाई प्लाज्मिड संवाहक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इस विधि से दो विभिन्न जीवों; विभिन्न प्रकार के पौधों आदि के मध्य संकरण की सम्भावना बढ़ गई है। इतना ही नहीं, पौधों और जन्तुओं में संकरण की सम्भावना भी बढ़ गई है। संकरित जीन में दोनों ही जीवों के गुण उपस्थित होंगे।
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(iii) क्लोनिंग (Cloning)—यह विधि सबसे सरल तथा उपयोगी है। शरीर में प्रत्येक पदार्थ के संश्लेषण के लिए कोई निश्चित जीन उत्तरदायी होता है। यदि इस विशिष्ट जीन को प्लाज्मिड के साथ संकरित करा दिया जाए और इस संकरित DNA को पुनः जीवाणु की कोशिका में स्थापित कर उपयुक्त संवर्धन माध्यम में उगने दिया जाए तो जीवाणु में वह जीन उसी पदार्थ को संश्लेषण करता है जो कि वह मूल शरीर में करता था। इस समस्त प्रक्रम को क्लोनिंग कहते हैं। पोषी जीवाणु के लिए ई० कोलाई का उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 7.
तेल के रसायनशास्त्र तथा r-DNA तकनीक के बारे में आपको जितना भी ज्ञान प्राप्त है, उसके आधार पर बीजों से तेल हाइड्रोकार्बन हटाने की कोई एक विधि सुझाइए।
उत्तर
ग्लिसरॉल के एक अणु के साथ तीन वसीय अम्लों के संघनन द्वारा तेल बनता है। वसीय अम्ल एक एंजाइम संकर द्वारा बनते हैं जिसे वसीय अम्ल सिन्थेटेज कहते हैं। एक या ज्यादा जीन बनाने वाले वसीय अम्ल की निष्क्रियता वसीय अम्लों का संश्लेषण रोक सकती है। प्लेवट् टोमेटो में एंजाइम पॉलीग्लेक्टोमूटेनेज की निष्क्रियता से जुड़ा होता है। यह बिना तेल वाले बीज उत्पन्न करेगा।

प्रश्न 8.
इण्टरनेट से पता लगाइए कि गोल्डन राइस (गोल्डन धान) क्या है?
उत्तर
गोल्डन राइस (ओराइजा सैटाइवा) जैव प्रौद्योगिकी द्वारा उत्पन्न चावल की एक किस्म है। इस किस्म के चावल में बीटा कैरोटीन (प्रो-विटामिन A) पाया जाता है जो कि जैव संश्लेषित है। सन् 2005 में गोल्डन राइस-2 की एक और किस्म तैयार की गई जिसमें 23 गुना अधिक बीटा केरोटीन होता है।
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प्रश्न 9.
क्या हमारे रक्त में प्रोटिओजेज तथा न्यूक्लिएजेज हैं?
उत्तर
नहीं।

प्रश्न 10.
इण्टरनेट से पता लगाइए कि मुखीय सक्रिय औषध प्रोटीन को किस प्रकार बनाएँगे? इस कार्य में आने वाली मुख्य समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर
मुखीय औषध प्रोटीन के निर्माण में ड्यूटेरियम एक्सचेंज मास स्पेक्ट्रोमीटरी (DXMS : Deuterium Exchange Mass Spectrometry) तकनीक का प्रयोग किया जाता है। यह तकनीक प्रोटीन संरचना और उसके प्रकार्यों का अध्ययन करने के लिए एक शक्तिशाली माध्यम है। इस कार्य में आने वाली मुख्य समस्याएँ श्रम और समय की हैं। यह एक जटिल प्रक्रिया होती है। अत: मुखीय प्रोटीन्स का निर्माण कम ही किया जा रहा है।

जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करके जीवाणुओं की सहायता से पुनर्योगज चिकित्सीय औषधि मानव इन्सुलिन (ह्यूमुलिन) प्राप्त की गई है। यह एक औषध प्रोटीन है। निकट भविष्य में मानव इन्सुलिन मधुमेह रोग से पीड़ित लोगों को मुख से दिया जा सकेगा।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
Bt टॉक्सिन है – (2014)
(क) अन्त: कोशिकीय लिपिड
(ख) अन्तः कोशिकीय क्रिस्टलित प्रोटीन
(ग) बाह्य कोशिकीय क्रिस्टलित प्रोटीन
(घ) लिपिड
उत्तर
(ग) बाह्य कोशिकीय क्रिस्टलित प्रोटीन

प्रश्न 2.
पौधों में अपतृणनाशी प्रतिरोधक जीन होता है – (2014)
(क) Ct
(ख) Mt
(ग) Bt
(घ) Gst
उत्तर
(घ) Gst

प्रश्न 3.
विडाल परीक्षण किसके निदान से संबंधित है? (2014)
(क) मलेरिया
(ख) कोलेरा
(ग) टाइफॉइड
(घ) पीत ज्वर
उत्तर
(ग) टाइफॉइड

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रकृति में समजात डी०एन०ए० का पुनर्योजन कहाँ और कैसे होता है? लिखिए।
उत्तर
प्रकृति में समजात डी०एन०ए० का पुनर्योजन डी०एन०ए० के समजात अणुओं या इन अणुओं के समजात खण्डों के बीच होता है। ये निम्नलिखित प्रक्रियाओं द्वारा होता है –

  1. पारगमने
  2. संयुग्मन
  3. रूपान्तरण
  4. पारक्रमण
  5. स्थान परिवर्तन।

प्रश्न 2.
असमजात डी०एन०ए० पुनर्संयोजन को परिभाषित कीजिए तथा स्थान-परिवर्ती (ट्रांसपोसॉन) या जम्पिंग जीन्स को समझाइए।
उत्तर

  1. असमजात डी0एन0ए0 पुनर्संयोजन – इस प्रकार के पुनर्संयोजन में एक गुणसूत्र का कोई खण्ड इससे पृथक् होकर किसी अन्य असमजात गुणसूत्र से जुड़ता है।
  2. स्थान-परिवर्ती या जम्पिंग जीन्स – कोशिकाओं में स्थित DNA अणुओं के ऐसे जीनरूपी खण्ड जो अणु के एक स्थान से हटकर अन्य स्थान पर जुड़ते रहते हैं और इस प्रकार DNA अणुओं का पुनसँयोजन करते रहते हैं, स्थान-परिवर्ती या जम्पिंग जीन्स कहलाते हैं।

प्रश्न 3.
पारजीनी जन्तु से आप क्या समझते हैं? (2014, 16)
या
‘पारजीनी जन्तु क्या हैं? पारजीनी जन्तुओं के उत्पादन की एक मुख्य विधि का उल्लेख कीजिए। (2017)
उत्तर
ऐसे जन्तु जिनके DNA में परिचालन विधि द्वारा एक अतिरिक्त जीन व्यवस्थित कर दिया जाता है तथा जो अपना लक्षण भी व्यक्त करता है, पारजीनी जन्तु कहलाते हैं।
पारजीनी जन्तुओं को रिकॉम्बीनेन्ट DNA तकनीक द्वारा विजातीय जीन को प्रवेश कराकर आनुवंशिक रूप से रूपान्तरित किया जाता है।

प्रश्न 4.
बायोपाइरेसी किसे कहते हैं? (2014, 15, 16, 17, 18)
उत्तर
मल्टीनेशनल कम्पनियों व दूसरे संगठनों द्वारा किसी राष्ट्र या उससे सम्बन्धित लोगों से बिना व्यवस्थित अनुमोदन वे क्षतिपूरक के जैव संसाधनों का उपयोग करना बायोपाइरेसी कहलाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पुनर्योगज डी०एन०ए० तकनीकी की सहायता से इन्सुलिन का उत्पादन हम कैसे कर सकते हैं? (2018)
या
डी०एन०ए० पुनर्योगज तकनीक का मानव हित में उपयोग बताइए। (2014, 15, 16, 17)
उत्तर
इन्सुलिन एक प्रोटीन है जिसके अमीनों अम्ल अनुक्रम (प्राथमिक संरचना) के बारे में सर्वप्रथम फ्रेडरिक सेंगर, 1954 ने पता लगाया। यह प्रोटीन दो पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं का बना होता है-A श्रृंखला (A chain) तथा B श्रृंखला (B chain), जो आपस में डाइसल्फाइड बंधों द्वारा जुड़ी होती हैं। A श्रृंखला 21 अमीनो अम्ल अवशेष से जबकि B श्रृंखला 30 अमीनो अम्ल अवशेष से बनी होती है। A-श्रृंखला में एक N-छोर ग्लाइसिन (GLY) एवं एक C-छोर होता है जबकि B-श्रृंखला में एक N-छोर फिनाइल एलेनीन (Phe) एवं एक C-छोर एलेनीन (Ala) होता है। दो सल्फाइड बंध (-S-S-) A श्रृंखला की 7वीं तथा 20वीं स्थिति पर तथा B श्रृंखला की 7वीं तथा 19वीं स्थिति पर सिस्टीन अमीनो अम्लों के बीच स्थित होते हैं। एक तीसरा डाइसल्फाइड बंध (-S-S-) A श्रृंखला की 6वीं एवं 11 वीं स्थिति पर सिस्टीन (cys) अमीनो अम्लों के बीच भी स्थित होता है।

इन्सुलिन की दोनों श्रृंखलाओं का जैव संश्लेषण (bio-synthesis) एकल पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला प्रोइन्सुलिन (proinsulin) के रूप में होता है जिसमें B श्रृंखलाएँ 33 अमीनो अम्लों के संयोजी पॉलीपेप्टाइड द्वारा अन्तरआबंध होती हैं।
प्रोइन्सुलिन के संश्लेषण का नियंत्रण क्रोमोसोम संख्या 11 की छोटी भुजा पर स्थित जीन द्वारा होता है। इसकी प्रोटियोलाइटिक संसाधन द्वारा इन्सुलिन के रूप में उत्पत्ति होती है।

आनुवंशिकतः अभियांत्रिक इन्सुलिन (Genetically Engineered Insulin) – वयस्कों में होने वाले मधुमेह का नियंत्रण निश्चित समयांतराल पर इन्सुलिन लेने से ही संभव है।
मानव सहित स्तनधारियों में इन्सुलिन प्राक्-हार्मोन (pro – hormone) के रूप में संश्लेषित होता है। जिसमें एक अतिरिक्त फैलाव होता है जिसे पेप्टाइड ‘सी’ (peptide – C) कहते हैं। संसाधन (processing) से बने इन्सुलीन में यह ‘C’ पेप्टाइड नहीं होता है। क्योंकि परिपक्वता के समय यह इन्सुलिन से अलग हो जाता है। पुनर्योगज DNA तकनीकियों का प्रयोग करते हुए इन्सुलिन के उत्पादन में मुख्य चुनौती यह है कि इन्सुलिन को एकत्रित कर परिपक्व रूप में तैयार किया जाये।

सन् 1983 में एली लिली (Eli Lilly) नामक एक अमेरिकी कम्पनी ने दो DNA अनुक्रमों को तैयार किया जो मानव इन्सुलिन की श्रृंखला A तथा B के अनुरूप होते हैं, जिसे ईश्चेरिचिया कोलाई (E.coli) के प्लास्मिड में प्रवेश कराया जाता है। अब E. coli को संवर्धन माध्यम में वृद्धि कराते हैं। यह अवश्य ध्यान दिया जाता है कि संवर्धन माध्यम (culture medium) में इन्सुलिन बनाने वाले सभी अमीनो अम्ल अवश्य हों। E.coli द्वारा दो पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं (A और B) का संश्लेषण अलग-अलग होता है।

इन अलग-अलग निर्मित श्रृंखलाओं में A और B को निकालकर डाइसल्फाइड बंध बनाकर आपस में संयोजित कर मानव इन्सुलिन का निर्माण किया गया है। यह इन्सुलिन मानव इन्सुलिन से अत्यधिक समानता रखता है; अतः इसे झूमेलिन (humalin) कहा जाता है। इसको मधुमेह रोगी द्वारा लिए जाने पर कोई साइड-इफेक्ट या एलर्जी भी नहीं होती है।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology: Principles and Processes

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 11
Chapter Name Biotechnology: Principles and Processes
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology: Principles and Processes (जैव प्रौद्योगिकी-सिद्धान्त व प्रक्रम)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आप दस पुनर्योगज प्रोटीन के बारे में बता सकते हैं जो चिकित्सीय व्यवहार के काम में लाये जाते हैं? पता लगाइये कि वे चिकित्सीय औषधि के रूप में कहाँ प्रयोग किये जाते हैं? (इंटरनेट की सहायता लें)।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology Principles and Processes img-1

प्रश्न 2.
एक सचित्र (चार्ट) (आरेखित निरूपण के साथ) बनाइए जो प्रतिबन्धन एन्जाइम को (जिस क्रियाधार डी०एन०ए० पर यह कार्य करता है उसे), उन स्थलों को जहाँ यह डी०एन०ए० को काटता है व इनसे उत्पन्न उत्पाद को दर्शाता है।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology Principles and Processes img-2
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology Principles and Processes img-3

प्रश्न 3.
कक्षा ग्यारहवीं में जो आप पढ़ चुके हैं, उसके आधार पर क्या आप बता सकते हैं कि आण्विक आकार के आधार पर एन्जाइम बड़े हैं या डी०एन०ए०। आप इसके बारे में कैसे पता लगाएँगे?
या
एन्जाइम (विकर) पर टिप्पणी लिखिए। (2018)
उत्तर
एन्जाइम्स (enzymes) प्रोटीन्स होते हैं। प्रोटीन्स अणु अत्यधिक जटिल संरचना वाले वृहदाणु होते हैं। इनका निर्माण ऐमीनो अम्लों से होता है। प्रकृति में लगभग 300 प्रकार के ऐमीनो अम्ल पाए जाते हैं, किन्तु इनमें से केवल 20 ऐमीनो अम्ल ही जन्तु एवं पादप कोशिकाओं में पाए जाते हैं। ऐमीनो अम्ल श्रृंखलाबद्ध होकर परस्पर पेप्टाइड बन्ध द्वारा जुड़े रहते हैं। प्रत्येक प्रोटीन अणु की पॉलिपेप्टाइड श्रृंखला में ऐमीनो अम्लों का क्रम विशिष्ट प्रकार का होता है। प्रोटीन्स का आण्विक भार बहुत अधिक होता है। विभिन्न ऐमीनो अम्ल से बनने वाली प्रोटीन्स विभिन्न प्रकार की होती हैं। हमारे शरीर में लगभग 50,000 प्रकार की प्रोटीन्स पायी जाती हैं।

डी०एन०ए० के जैविक-वृहदाणु (biological macromolecules) जटिल संरचना वाले होते हैं। ये प्रोटीन्स (एन्जाइम) से भी बड़े जैविक गुरुअणु होते हैं। इनका अणुभार 106 से 109 डाल्टन तक होता है। डी०एन०ए० अणु पॉलिन्यूक्लिओटाइड श्रृंखला से बना होता है। डी०एन०ए० से कम अणुभार वाले m-RNA, t-RNA तथा r-RNA का निर्माण होता है। आर०एन०ए० प्रोटीन संश्लेषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आर०एन०ए० संश्लेषण हेतु डी०एन०ए० अणु विभिन्न स्थान पर द्विगुणित होकर छोटी-छोटी अनुपूरक श्रृंखलाएँ अर्थात् राइबोन्यूक्लिओटाइड अम्ल का एक छोटा अणु बनाती हैं। इन्हें प्रवेशक (primers) कहते हैं। आर०एन०ए०:प्रवेशकों के संश्लेषण का उत्प्रेरण आर०एन०ए० पॉलिमरेज (RNA polymerase) एन्जाइम करत है। आर०एन०ए० अणु प्रोटीन संश्लेषण के काम आते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि डी०एन०ए० अणु प्रोटीन्स (एन्जाइम्स) से भी बड़े अणु होते हैं।

प्रश्न 4.
मानव की एक कोशिका में DNA की मोलर सान्द्रता क्या होगी? अपने अध्यापक से परामर्श लीजिये।
उत्तर
मानव में DNA 3 M प्रति कोशिका होती है अर्थात् मानव की एक कोशिका में DNA की मोलर सांद्रता 3 होगी।

प्रश्न 5.
क्या सुकेंद्रकी कोशिकाओं में प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज मिलते हैं? अपना उत्तर सही सिद्ध कीजिये।
उत्तर
हाँ, सुकेंद्रकी कोशिकाओं में प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज मिलते हैं।
प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज DNA अनुक्रम की लम्बाई के निरीक्षण के बाद कार्य करता है। जब यह अपना विशिष्ट पहचान अनुक्रम पा जाता है तब DNA से जुड़ता है तथा द्विकुंडलिनी की दोनों लड़ियों को शर्करा-फॉस्फेट आधार स्तंभों में विशिष्ट केन्द्रों पर काटता है। प्रत्येक प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज DNA में विशिष्ट पैसिंड्रोमिक न्यूक्लियोटाइड अनुक्रमों को पहचानता है।

प्रश्न 6.
अच्छी हवा व मिश्रण विशेषता के अतिरिक्त कौन-सी अन्य कंपन फ्लास्क सुविधाएँ हैं?
उत्तर
कंपन फ्लास्क द्वितीयक चुनाव के समय किण्वन के लिये परम्परागत विधि है। इसलिये दंड विलोडक हौज बायोरिएक्टर द्वारा उत्पादों को अधिक आयतन तक संवर्धित किया जा सकता है। यह मात्रा 100 लीटर से 1000 लीटर तक हो सकती है। वांछित उत्पादन पाने के लिये जीव-प्रतिकारक अनुकूलतम परिस्थितियाँ, जैसे- तापमान, pH, क्रियाधार, विटामिन, लवण, ऑक्सीजन आदि उपलब्ध कराता है। इस बायोरिएक्टर में अच्छी हवा व मिश्रण की विशेषता के अतिरिक्त यह कम खर्चीला है तथा इसमें ऑक्सीजन स्थानान्तरण की दर बहुत अधिक होती है।

प्रश्न 7.
शिक्षक से परामर्श कर पाँच पैलिंड्रोमिक अनुप्रयास करें तथा क्षारक-युग्म नियमों का पालन करते हुये पैलिंड्रोमिक अनुक्रम बनाने के उदाहरण का पता लगाइये।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology Principles and Processes img-4

प्रश्न 8.
अर्द्धसूत्री विभाजन को ध्यान में रखते हुए क्या बता सकते हैं कि पुनर्योगज डी०एन०ए० किस अवस्था में बनते हैं?
उत्तर
अर्द्धसूत्री विभाजन में गुणसूत्रों की संख्या घटकर आधी रह जाती है। प्रथम अर्द्धसूत्री विभाजन में प्रत्येक जोड़ी के समजात गुणसूत्रों के मध्य एक या अनेक खण्डों की अदला-बदली अर्थात् पारगमन (crossing over) होता है।

प्रथम अर्द्धसूत्री विभाजन की प्रथम पूर्वावस्था (Ist prophase) की उपअवस्था जाइगोटीन (zygotene) में समजात गुणसूत्र जोड़े बनाते हैं। इस प्रक्रिया को सूत्रयुग्मन (synapsis) कहते हैं। पैकिटीन (pachytene) उपअवस्था में सूत्रयुग्मक सम्मिश्र (synaptonemal complex) में एक या अधिक स्थानों पर गोल सूक्ष्म घुण्डियाँ दिखाई देने लगती हैं, इन्हें पुनर्संयोजन घुण्डियाँ (recombination nodules) कहते हैं।

समजात गुणसूत्रों के परस्पर जुड़े क्रोमैटिड्स (chromatids) के मध्य एक या अधिक खण्डों की पारस्परिक अदला-बदली को पारगमन कहते हैं। इससे समजात पुनसँयोजित डी०एन०ए० (recombinant DNA) बन जाता है। पुनर्संयोजन घुण्डियाँ उन स्थानों पर बनती हैं जहाँ पर पारगमन हेतु क्रोमैटिड्स के टुकड़े टूटकर पुनः जुड़ते हैं।

प्रश्न 9.
क्या आप बता सकते हैं कि प्रतिवेदक (रिपोर्टर) एंजाइम को वरणयोग्य चिह्न की उपस्थिति में बाहरी DNA को परपोषी कोशिकाओं में स्थानान्तरण के लिये मॉनीटर करने के लिये किस प्रकार उपयोग में लाया जा सकता है?
उत्तर
प्रतिकृतियन की उत्पत्ति वह अनुक्रम है जहाँ से प्रप्तिकृतियन की शुरूआत होती है और जब किसी DNA का कोई खंड इस अनुक्रम से जुड़ जाता है तब परपोषी कोशिकाओं के अन्दर प्रतिकृति कर सकता है। यह अनुक्रम जोड़े गये DNA के प्रतिरूपों की संख्या के नियन्त्रण के लिये भी उत्तरदायी है। ‘ori’ के साथ संवाहक को वरणयोग्य चिह्न की आवश्यकता भी होती है, जो अरूपांतरणों की पहचान एवं उन्हें समाप्त करने में सहायक हो और रूपांतरणों की चयनात्मक वृद्धि को होने दे। रूपांतरण एक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत DNA के एक खंड को परपोषी जीवाणु में प्रवेश कराते हैं।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित का संक्षिप्त वर्णन कीजिये –

  1. प्रतिकृतियन का उद्भव
  2. बायोरिएक्टर (2017)
  3. अनुप्रवाह संसाधन

उत्तर
1. प्रतिकृतियन का उद्भव – यह वह अनुक्रम है जहाँ से प्रतिकृतियन की शुरूआत होती है। जब बाहरी DNA का कोई खंड इस अनुक्रम से जुड़ जाता है तब प्रतिकृति कर सकता है। एक प्रोकैरियोटिक DNA में सामान्यतया एक प्रतिकृतियन स्थल होता है जबकि यूकैरियोटिक DNA में एक से अधिक प्रतिकृतियन स्थल होते हैं।

2. बायोरिएक्टर – बायोरिएक्टर एक बर्तन के समान है, जिसमें सूक्ष्मजीवों, पौधों, जन्तुओं एवं मानव कोशिकाओं का उपयोग करते हुये कच्चे माल को जैव रूप से विशिष्ट उत्पादों व्यष्टि एंजाइम आदि में परिवर्तित किया जाता है। वांछित उत्पाद पाने के लिये जीव-प्रतिकारक अनुकूलतम परिस्थितियाँ, जैसे-तापमान, pH, क्रियाधार, विटामिन, लवण, ऑक्सीजन आदि उपलब्ध कराता है।

सामान्यतया सर्वाधिक उपयोग में लाया जाने वाला बायोरिएक्टर विडोलन (स्टिरिंग) प्रकार का है। विडोलित हौज रिएक्टर सामान्यतया बेलनाकार होते हैं या इसमें घुमावदार आधार होता है। जिससे रिएक्टर के अंदर की सामग्री को मिश्रण में सहायता मिलती है। विडोलक प्रतिकारक के अंदर की सामग्री को मिश्रित करने के साथ-साथ प्रतिकारक में सभी जगह ऑक्सीजन की उपलब्धता भी कराते हैं। प्रत्येक जीव-प्रतिकारक रिएक्टर में एक प्रक्षोभक यन्त्र होता है। इसके अतिरिक्त उसमें ऑक्सीजन-प्रदाय यंत्र, झाग- नियन्त्रण यन्त्र, तापक्रम नियन्त्रण यन्त्र, pH होता है। प्रतिक्रिया नियन्त्रण तंत्र तथा प्रतिचयन द्वारा होता है जिससे समय-समय पर संवर्धित उत्पाद की थोड़ी मात्रा निकाली जा सकती है।

3. अनुप्रवाह संसाधन – जैव प्रौद्योगिकी द्वारा तैयार उत्पाद को बाजार में भेजने से पूर्व उसे कई प्रक्रमों से गुजारा जाता है। इन प्रक्रमों में पृथक्करण एवं शोधन सम्मिलित है और इसे सामूहिक रूप से अनुप्रवाह संसाधन कहते हैं। उत्पाद को उचित परिरक्षक के साथ संरूपित किया जाता है। औषधि के मामले में ऐसे संरूपण को चिकित्सीय परीक्षण से गुजारते हैं। प्रत्येक उत्पाद के लिये सुनिश्चित गुणवत्ता नियन्त्रण परीक्षण की भी आवश्यकता होती है। अनुप्रवाह संसाधन एवं गुणवत्ता नियन्त्रक परीक्षण अलग-अलग उत्पाद के लिये भिन्न-भिन्न होता है।

प्रश्न 11.
संक्षेप में बताइये –
(क) PCR
(ख) प्रतिबंधन एंजाइम और DNA
(ग) काइटिनेज
उत्तर
(क) PCR (Polymerase Chain Reaction) – PCR का अर्थ पॉलीमरेज चेन रिऐक्शन (पॉलीमरेज श्रृंखला अभिक्रिया) है। इस विधि द्वारा कम समय में जीन की कई प्रतिकृतियों का संश्लेषण किया जाता है। इस कार्य के लिये एक विशेष उपकरण थर्मल साइक्लर का उपयोग किया जाता है।
PCR चक्र में मुख्य रूप से तीन चरण होते हैं –

  1. निष्क्रियकरण,
  2. तापानुशीलन तथा
  3. विस्तार।

निष्क्रियकरण में DNA को 92°C पर 1 मिनट तक थर्मल साइक्लर में गर्म किया जाता है जिससे उसके दोनों स्टैंड अलग हो जाते हैं। तापानुशीलन में अभिक्रिया मिश्रण के तापक्रम को घटाया जाता है। यह सामान्यतया 48°C रहता है। इसे इस तापक्रम पर भी 1 मिनट के लिये रखा जाता है। इसके बाद विस्तार किया जाता है जो 27°C पर 1 मिनट के लिये होता है। इस चक्र को 34 – 37 बार दुहराया जाता है। इस प्रक्रम द्वारा DNA खंड को एक अरब गुणा तक प्रवर्धित किया जा सकता है।

पॉलिमरेज श्रृंखला अभिक्रया में DNA खंड के अतिरिक्त उपक्रमकों, एंजाइम टैंक, DNA पॉलीमरेज, मैग्नीशियम क्लोराइड, डाइमेथाइल सल्फॉक्साइड की आवश्यकता पड़ती है। उपक्रमकों (प्राइमर्स) को दो समुच्चयों की आवश्यकता पड़ती है – एक 5′ से 3′ की ओर जाने के लिये तथा एक 3′ व 5′ की ओर जाने के लिए। प्राइमर्स छोटे रासायनिक संश्लेषित अल्प न्यूक्लियोटाइड हैं जो DNA क्षेत्र के पूरक होते हैं।
PCR के उपयोग इस प्रकार हैं:

  1. रोगाणुओं की पहचान में
  2. विशिष्ट उत्परिवर्तन को पहचानने में
  3. DNA फिंगर प्रिटिंग में
  4. पादप रोगाणुओं का पता लगाने में
  5. विलुप्त जीवों तथा मनुष्यों के ममी अवशेष से DNA खंड के क्लोनिंग में।

(ख) प्रतिबंधन एंजाइम और DNA – प्रतिबंधन एंजाइम को ‘आणविक कैंची’ कहा जाता है। वह एंजाइम जो DNA को काटता है प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज कहलाता है। अभी तक 900 से अधिक प्रतिबंधन एंजाइमों की खोज हो चुकी है। ये जीवाणुओं के 230 से अधिक प्रभेदों से अलग किये गये हैं। इनमें से प्रत्येक प्रतिबंधन एंजाइम विभिन्न अनुक्रमों को पहचानते हैं।

प्रतिबंधन एंजाइम डबल स्टेंडेड DNA को खंडित करता है। ये एंजाइम DNA को एक विशेष स्थल पर काटता है; जैसे- एंजाइम ECORI प्लाज्मिड अनुक्रम GAATTC को G और A के मध्य काटता है। प्रतिबंधन एंजाइम के नामकरण में परम्परानुसार नाम का पहला शब्द वंश एवं दूसरा और तीसरा शब्द प्रकेन्द्रकी कोशिकाओं की जाति से लिया गया है जिनसे ये पृथक् किये गये थे। जैसे ECORI को ई० कोलाई RY 13 से प्राप्त किया गया है। ECORI में वर्ण R, RY प्रभेद से लिया गया है।

(ग) काइटिनेज – इस एंजाइम का उपयोग कवक कोशिका को तोड़ने के लिये किया जाता है जिससे DNA के साथ वृहद अणु; जैसे- RNA, प्रोटीन, वसा एवं पॉलिसैकेराइड बाहर निकलते हैं।

प्रश्न 12.
अपने अध्यापक से चर्चा करके पता लगाइये कि निम्नलिखित के बीच कैसे भेद करेंगे?
(क) प्लाज्मिड DNA तथा गुणसूत्रीय DNA
(ख) RNA तथा DNA
(ग) एक्सोन्यूक्लिएज तथा एंडोन्यूक्लिएज
उत्तर
(क) प्लाज्मिड DNA तथा गुणसूत्रीय DNA में अन्तर
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(ख) RNA तथा DNA में अन्तर
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(ग) एक्सोन्यूक्लिएज तथा एंडोन्यूक्लिएज में अन्तर
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परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
जीनी-इन्जीनियरिंग में जैविक कैंची का कार्य करने वाला एन्जाइम है – (2017)
(क) लाइगेज
(ख) न्यूक्लिएज
(ग) पॉलीमरेज
(घ) रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लिएज
उत्तर
(घ) रिस्ट्रिक्शन एण्डोन्यूक्लिएज

प्रश्न 2.
डी०एन०ए० खण्डों की पहचान करते हैं – (2017)
(क) नॉर्दर्न ब्लोटिंग से
(ख) सदर्न ब्लोटिंग से
(ग) वेस्टर्न ब्लोटिंग से
(घ) इन सभी से
उत्तर
(ख) सदर्न ब्लोटिंग से

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आनुवंशिक इंजीनियरिंग में प्रयुक्त होने वाला सबसे सामान्य बैक्टीरिया कौन-सा है?
उत्तर
ई० कोलाई।

प्रश्न 2.
आनुवंशिकी अभियांत्रिकी में उपयोगी किन्हीं दो एन्जाइमों के नाम तथा कार्य लिखिए। (2017)
उत्तर

  1. प्रतिबंधन एण्डोन्यूक्लिएज एंजाइम (Restriction Endonuclease Enzyme) – यह DNA के भीतर विशिष्ट स्थलों पर ही DNA को काटता है।
  2. DNA लाड़गेजिज (DNA Ligases) – यह एंजाइम DNA के खुले सिरों को जोड़ता है।

प्रश्न 3.
आण्विक कैंचियाँ क्या हैं? इसकी परिभाषा दीजिए। (2017)
उत्तर
प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज एन्जाइम को आण्विक कैंची कहते हैं। यह DNA को खंडों में काटता है।

प्रश्न 4.
एण्डोन्यूक्लिएज का क्या कार्य है?
उत्तर
एण्डोन्यूक्लिएज DNA को भीतर से विशिष्ट स्थलों पर काटते हैं।

प्रश्न 5.
प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज कब कार्य करता है?
उत्तर
प्रत्येक प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज DNA अनुक्रम की लम्बाई के निरीक्षण के बाद कार्य करता है।

प्रश्न 6.
DNA के खंडों को आपस में किस एन्जाइम से जोड़ा जाता है?
उत्तर
लाइगेज।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्लाज्मिड्स क्या होते हैं। प्राणियों के जीवन में इनकी उपयोगिता का वर्णन कीजिए। (2009)
या
प्लाज्मिड्स के चार प्रमुख गुण लिखिए। (2010)
या
प्लाज्मिड्स कहाँ पाये जाते हैं? इनका उपयोग क्या और कहाँ होता है? (2011, 16, 17)
या
प्लाज्मिड्स क्या हैं और ये कहाँ पाये जाते हैं? (2015, 17)
या
प्लाज्मिड पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2018)
उत्तर
प्लाज्मिड्स
प्लाज्मिड्स (plasmids) जीवाणु कोशिका में प्राकृतिक रूप से पाये जाते हैं। यह एक दोहरे स्टैण्ड वाला DNA अणु है जो केन्द्रकाभ (nucleoid) के बाहर स्थित होता है। प्लाज्मिड्स की प्रतिकृति स्वतन्त्र होती है। जीवाणु प्लाज्मिड में केवल कुछ ही जीन होते हैं जो कई बार लैंगिक जनन से सम्बन्धित होते हैं। इन जीनों की जीवाणु कोशिका की अन्य जैव प्रक्रियाओं में कोई भूमिका नहीं होती है। इनमें उपस्थित जीन्स, प्रतिरोधी पदार्थों के निर्माण, किण्वन आदि क्रियाओं का नियमन भी करते हैं। स्वनियन्त्रित प्रतिकृति गुण होने के कारण निम्न दो प्रकार के प्लाज्मिड्स ज्ञात हैं –

1. एकल प्रतिलिपि प्लामिडस (Single Copy Plasmids) – ये प्लाज्मिड्स प्रतिकृति करके केवल एक ही प्रतिलिपि (copy) बनाते हैं।

2. बहुप्रतिलिपि प्लाज्मिड्स (Multicopy Plasmids) – ये प्लाज्मिड्स प्रतिकृति करके एक से अधिक प्रतिलिपियाँ बनाते हैं। इस प्रकार की एक जीवाणु कोशिका में परिणामस्वरूप 10 – 12 प्लाज्मिड्स पाये जा सकते हैं (कभी-कभी इनकी संख्या 1000 तक भी होती है)। ऐसे प्लाज्मिड्स का उपयोग क्लोनिंग साधन के रूप में किया जाता है।

प्लाज्मिड की एक विशेषता है कि इसका डी०एन०ए० विजातीय डी०एन०ए० खण्ड से जुड़कर भी दूसरी कोशिका में प्रवेश करने की क्षमता बनाये रखता है। ऐसे प्लाज्मिड्स ही वेक्टर के रूप में प्रयुक्त होते हैं। सबसे पहला आनुवंशिक इंजीनियरिंग से तैयार किया गया वेक्टर प्लाज्मिड PBR322 था जिसे ई० कोलाई के COIE प्लाज्मिड से तैयार किया गया था। दूसरी ओर प्लाज्मिड्स जीवाणु कोशिकाद्रव्य में मुक्त रूप से पाये जाते हैं। इन्हें सहज ही यहाँ से पृथक् किया जा सकता है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जीनी अभियान्त्रिकी (प्रौद्योगिकी) क्या है? मनुष्य के लिए लाभदायक विभिन्न क्षेत्रों में इसके अनुप्रयोगों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। (2018)
या
जीनी अभियान्त्रिकी क्या होती है? इसे पुनर्संयोजी डी०एन०ए० प्रौद्योगिकी क्यों कहते हैं? मानव हित में इसकी उपयोगिता का उल्लेख कीजिए। (2009, 12, 13, 15)
या
जेनेटिक इंजीनियरिंग की प्रयोज्यता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2010)
या
जैव प्रौद्योगिकी से आप क्या समझते हैं? (2014)
या
आनुवंशिक अभियान्त्रिकी के मानव हित में चार अनुप्रयोग लिखिए। (2014, 16)
या
जैव प्रौद्योगिकी की उपयोगिता पर टिप्पणी लिखिए। (2013)
या
जैव प्रौद्योगिकी के किन्हीं दो उपयोगों का उल्लेख कीजिए। (2014)
या
आनुवंशिक अभियान्त्रिकी से आप क्या समझते हैं? चिकित्सा अथवा कृषि-क्षेत्र में आनुवंशिक अभियान्त्रिकी की उपयोगिताएँ लिखिए। (2015)
या
जैव प्रौद्योगिकी के बारे में आप क्या जानते हैं? जैव प्रौद्योगिकी के मानव स्वास्थ्य के क्षेत्र में दो उपयोग बताइए। (2015, 17)
या
आनुवंशिक इन्जीनियरिंग क्या है? इसका कोई एक उपयोग लिखिए। (2017)
उत्तर
आनुवंशिक इंजीनियरी या जीनी अभियान्त्रिकी/प्रौद्योगिकी
आनुवंशिक अभियान्त्रिकी या जेनेटिक इन्जीनियरिंग या जीन अभियान्त्रिकी को जीन क्लोनिंग (gene cloning) भी कहते हैं। जीवों में समलक्षणी गुणों (phenotypic characters) में परिवर्तन हेतु आनुवंशिक पदार्थ (genetic material) को जोड़ना (adding), हटाना (removing) या ठीक करना (repairing) आनुवंशिक इंजीनियरी का उद्देश्य है। क्योंकि DNA अणुओं में जोड़-तोड़ जीनी अभियान्त्रिकी को आधार होता है, इसे पुनर्संयोजी डी०एन०ए० प्रौद्योगिकी भी कहते हैं।

जीन अभियान्त्रिकी में आनुवंशिक पदार्थ का हेर-फेर (manipulation) पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर निर्देशित किया जाता है। अर्थात् जीवों के आनुवंशिक पदार्थ (DNA) में जोड़-तोड़ करके उनके दोषपूर्ण आनुवंशिक लक्षणों के जीन्स को हटाकर, उनके स्थान पर DNA में उत्कृष्ट लक्षणों के जीन्स को समाविष्ट करना ही जीनी अभियान्त्रिकी (genetic engineering) है।

इस तकनीक में दो DNA अणुओं को सर्वप्रथम कोशिका केन्द्रक से पृथक् किया जाता है और एक या अधिक प्रकार के विशेष एन्जाइम, रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम (restriction enzyme) के द्वारा उनके टुकड़े किये जाते हैं। इसके बाद इन टुकड़ों को इच्छानुसार जोड़कर कोशिका में पुनरावृत्ति व जनन के लिए पुनः स्थापित कर दिया जाता है। संक्षेप में जीन क्लोनिंग या आनुवंशिक इन्जीनियरिंग विदेशी (foreign) DNA के एक विशिष्ट टुकड़े को कोशिका में स्थापित करना होता है।

आर्बर (Arber, 1962) ने बैक्टीरिया कोशिकाओं में रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम (restriction enzyme) नामक ऐसे पदार्थ की उपस्थिति की जानकारी प्राप्त की जो किसी भी बाह्य डी०एन०ए० को विशिष्ट टुकड़ों में तोड़ने के लिए एक तीव्र रसायन का कार्य करता है। यह न्यूक्लिक अम्ल की फॉस्फेट-शर्करा बन्धता को तोड़ता है। किसी बैक्टीरिया पर जब कोई विषाणु आक्रमण करता है तब यह प्रक्रिया उसमें रक्षास्थल का कार्य करती है। स्मिथ (Smith, 1970) ने ग्राम ऋणात्मक बैक्टीरिया हीमोफिलस इन्फ्लुएन्जी (Hemophilus influenzae) से रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम विलगित किया और सन् 1971 में नैथन्स ने बन्दर के ट्यूमर विषाणु (एसवी 40) के DNA को तोड़ने के लिए एक एन्जाइम का उपयोग किया।

सन् 1978 तक लगभग 100 से भी अधिक विभिन्न प्रकार के रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम या निर्बन्धन एण्डोन्यूक्लिएज (restriction endonuclease) विलगित करके लक्षणित किये जा चुके थे। इस प्रकार इसकी खोज सन् 1970 में आर्बर, नैथन्स एवं स्मिथ (Arber, Nathans and Smith) ने की। इसके लिए उन्हें वर्ष 1978 ई० में नोबेल पुरस्कार भी मिला। इसी से जीन अभियान्त्रिकी की नींव पड़ी।

जीनी अभियान्त्रिकी के विभिन्न उपयोग
आनुवंशिक इंजीनियरिंग का प्रयोग व्यावसायिक उत्पादनों, अनेक मानव जीन्स की खोज, रोगों के कारण व उनके इलाज की सहायता में हो रहा है। हम जीन्स के नियन्त्रण में संश्लेषित होने वाले अनेक लाभदायक पदार्थों का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन कर सकते हैं। इस प्रौद्योगिकी के महत्त्वपूर्ण प्रयोज्य इस प्रकार हैं –

1. जीन्स का निर्माण – किसी विशेष कोशिका से m-RNA अणु को अलग करके प्रतिवर्ती ट्रांस्क्रिप्टेज (reverse transcriptase) एन्जाइम की सहायता से इस पर DNA श्रृंखला का संश्लेषण कराया जा सकता है।

2. जीन का विश्लेषण तथा संग्रह – DNA अणुओं को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर उनका संग्रह करके किसी भी जीव के सम्पूर्ण जीनोम का विश्लेषण किया जा सकता है। इसे “जीनी संग्रह के रूप में रिकॉर्ड किया जा सकता है। संग्रह की इस विधि को “शॉटगन विधि (shotgun method)’ कहते हैं।

3. जीन्स को प्रतिस्थापन – जीनी चिकित्सा (gene therapy) से अवांछित जीन्स को हटाया जा सकता है और इसके स्थान पर नये वांछित जीन्स को प्रवेश कराया जा सकता है। इस प्रकार
व्यक्ति की लम्बाई, बुद्धि, ताकत आदि को नियन्त्रित किया जा सकता है।

4. रोगजनक विषाणुओं का रूपान्तरण – रोगजनक विषाणुओं के आनुवंशिक पदार्थ में परिवर्तन करके कैंसर, एड्स (AIDS) आदि रोगों के विषाणुओं को रोगजनक के बजाय इन्हीं रोगों के
उपचार में प्रयोग किया जा सकता है।

5. विषाणु प्रतिरोधी मुर्गियाँ – जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा मुर्गियों की ऐसी प्रजातियों का विकास किया गया है जो विषाणुओं के संक्रमण का प्रतिरोध करती हैं।

6. व्यक्तिगत जीन्स को अलग करना – कुछ जीन्स को अलग करने की तकनीक विकसित की गयी, जो निम्नलिखित समूहों में वर्गीकृत की जा सकती हैं –

  1. विशेष प्रकार की प्रोटीन बनाने वाली जीन,
  2. r-RNA की जीन्स तथा
  3. नियन्त्रण करने वाली जीन्स; जैसे- प्रोमोटर जीन तथा रेगुलेटरी जीन। चूजों में ओवोएल्ब्यूमिन की जीन, चूहों में ग्लोबिन तथा इम्यूनोग्लोबिन जीन्स, अनाजों व लेग्यूम्स में प्रोटीन संग्रह की जीन्स आदि को पृथक् किया जा चुका है।

7. समुद्री तेल फैलाव का सफाया – इसमें पहले एक प्लाज्मिड में कई जीन्स को जोड़कर एक पुनसँयोजित DNA बनाया जाता है और इसका पुंजकीकरण करके एक समुद्री जीवाणु में प्रवेश कराया जाता है। यह जीवाणु समुद्री सतह पर फैले तेल का सफाया कर देता है। इसे उच्चझक्की जीवाणु (superbug bacterium) कहते हैं।

8. पौधों में नाइट्रोजन अनुबन्धन – पुनर्संयोजी DNA प्रौद्योगिकी के द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता रखने वाले जीवाणुओं का संवर्द्धन करके इन्हें फलीरहित पादपों में प्रविष्ट कराया जाता है।

9. आनुवंशिक रोगों का पता लगाना – अनेक रोगों का गर्भ में ही एम्निओसेण्टेसिस (amniocentesis) तकनीक द्वारा पता लगाया जाता था, किन्तु DNA पुनर्संयोजन तकनीक द्वारा पुंजकीकृत डी०एन०ए० क्रम (cloned DNA sequence) के उपलब्ध होने से गर्भस्थ शिशु के पूरे जीनोटाइप का निरीक्षण किया जा सकता है। इस विधि के द्वारा बिन्दु उत्परिवर्तन, विलोपन आदि सभी उत्परिवर्तनों का पता लगाया जा सकता है। इस विधि का प्रयोग गर्भस्थ शिशु में थैलेसीमिया, फिनाइलकीटोन्यूरिया आदि रोगों का पता लगाने के लिए किया जा रहा है।

10. औद्योगिक रसायन – पेट्रोल, ईंधन, कीटनाशी, आसंजक (adhesives), प्रणोदक (propellants), विलायक (solvents), रंजक (dyes), विस्फोटक आदि कई प्रकार के पदार्थ हमें खनिज तेल पदार्थों से प्राप्त होते हैं। इन्हें हम जीनी अभियान्त्रिकी द्वारा रूपान्तरित जीवाणुओं की सहायता से पादपों के किण्वन से प्राप्त कर सकते हैं।

11. इस तकनीक के द्वारा इन्सुलिन तथा मानव वृद्धि हॉर्मोन का उत्पादन किया जा रहा है।

12. इस तकनीक द्वारा मानव इण्टरफेरॉन (interferon) (ल्यूकोसाइटिक इण्टरफेरॉन, फाइब्रोब्लास्टिक इण्टरफेरॉन, प्रतिरक्षक इण्टरफेरॉन) का उत्पादन किया जा रहा है।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 10 Microbes in Human Welfare

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 10 Microbes in Human Welfare (मानव कल्याण में सूक्ष्मजीव) are part of UP Board Solutions for Class 12 Biology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 10 Microbes in Human Welfare (मानव कल्याण में सूक्ष्मजीव).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 10
Chapter Name Microbes in Human Welfare
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 10 Microbes in Human Welfare (मानव कल्याण में सूक्ष्मजीव)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जीवाणुओं को नग्न आँखों द्वारा नहीं देखा जा सकता, परन्तु सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा जा सकता है। यदि आपको अपने घर से अपनी जीव विज्ञान प्रयोगशाला तक एक नमूना ले जाना हो और सूक्ष्मदर्शी की सहायता से इस नमूने से सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति को प्रदर्शित करना हो तो किस प्रकार का नमूना आप अपने साथ ले जाएँगे और क्यों?
उत्तर
हम अपने घर में आसानी से उपलब्ध होने वाले दही को प्रयोगशाला में नमूने के रूप में ले जा सकते हैं व सूक्ष्मजीव की उपस्थिति को प्रदर्शित कर सकते हैं क्योकि दूध का दही में परिवर्तन या किण्वन लैक्टोबैसिलस जीवाणु की सहायता से होता है। इसलिए दही में ये सूक्ष्मजीव उपस्थित होते हैं।

प्रश्न 2.
उपापचय के दौरान सूक्ष्मजीव गैसों का निष्कासन करते हैं; उदाहरण द्वारा सिद्ध कीजिए।
उत्तर
चावल, आटा, दाल का बना नरम-नरम आटा जिसका प्रयोग डोसा व इडली बनाने में होता है। जीवाणु द्वारा किण्वित होता है। इस आटे का फूला हुआ दिखना CO2 के उत्पादन के कारण होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 10 Microbes in Human Welfare img-1
इसी तरह ब्रैड का सना हुआ आटा यीस्ट द्वारा किण्वित होता है।

प्रश्न 3.
किस भोजन (आहार) में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया मिलते हैं? इनके कुछ लाभप्रद उपयोगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया लैक्टिक अम्ल उत्पन्न करके दुध को दही में बदल देता है। यह दूध की शर्करा लैक्टोज को लैक्टिक एसिड में बदलता है। लैक्टिक अम्ल दूध की प्रोटीन केसीन को जमाकर दही में परिवर्तित कर देता है। यह जीवाणु दूध से लैक्टोज को निकाल देता है परंतु बहुत-से व्यक्तियों को बिना लैक्टोज के दूध पीने पर एलर्जी होती है। ये जीवाणु महत्त्वपूर्ण विटामिन B12 उत्पन्न करते हैं तथा ये सड़ाने वाले जीवाणु व हानिकारक सूक्ष्मजीवों की वृद्धि को रोकते हैं।

प्रश्न 4.
कुछ पारम्परिक भारतीय आहार जो गेहूं, चावल तथा चना (अथवा उनके उत्पाद) से बनते हैं और उनमें सूक्ष्मजीवों का प्रयोग शामिल हो, उनके नाम बताइए।
उत्तर
गेहूं, चावल तथा चना (अथवा उनके उत्पाद) से सूक्ष्मजीवों का प्रयोग करके भटूरा (गेहुँ से), डोसा व इडली (चावल व उड़द की दाल) इत्यादि से बनते हैं।

प्रश्न 5.
हानिप्रद जीवाणु द्वारा उत्पन्न करने वाले रोगों के नियन्त्रण में किस प्रकार सूक्ष्मजीव महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं?
उत्तर
प्रतिजैविक (antibiotic) सूक्ष्मजीवधारियों (microbes) के उपापचयी व्युत्पन्न होते हैं। ये किसी अन्य सूक्ष्म जीवधारी जैसे-जीवाणु के लिए हानिकारक अथवा निरोधी होते हैं। प्रतिजैविक, प्रतियोगिता निरोध द्वारा रोगों को ठीक करते हैं। अधिकतर प्रतिजैविक बैक्टीरिया से ही प्राप्त होते हैं। प्रतिजैविक जैसे- पेनिसिलिन (Penicillin) का उत्पादन सूक्ष्मजीवों (कवक) द्वारा किया जाता है। यह प्रतिजैविक हानिकारक रोगों को उत्पन्न करने वाले सूक्ष्मजीवों को मारने के काम आते हैं। प्रतिजैविक संक्रमित रोग जैसे- डिफ्थीरिया, काली खाँसी तथा न्यूमोनिया की रोकथाम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पेनिसिलिन सर्वप्रथम प्राप्त प्रतिजैविक है। इसकी खोज एलेक्जेण्डर फ्लेमिंग (Alexander Fleming) ने की थी।

प्रश्न 6.
किन्हीं दो कवक प्रजातियों के नाम लिखिए, जिनका प्रयोग प्रतिजैविकों (एंटीबायोटिक्स) के उत्पादन में किया जाता है।
उत्तर

  1. रैमाइसिन को म्यूकर रैमोनियास नामक कवक से।
  2. पेनिसिलिन को पेनिसिलियम नोटेटम नामक कवक से प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 7.
वाहित मल से आप क्या समझते हैं? वाहित मल हमारे लिए किस प्रकार से हानिप्रद है?
उत्तर
प्रतिदिन नगर व शहरों से व्यर्थ जल की बहुत बड़ी मात्रा जनित होती है। इस व्यर्थ जल का प्रमुख घटक मनुष्य का मल-मूत्र है। नगर में इस व्यर्थ जल को वाहित मल (सीवेज) कहते हैं।

  1. वाहित मल (सीवेज) में कार्बनिक पदार्थों की बड़ी मात्रा तथा सूक्ष्मजीव पाये जाते हैं, जो अधिकांशतः रोगजनकीय होते हैं।
  2. वाहित मल में ऑक्सीजन की कमी होती है। इसलिए कार्बनिक पदार्थों का विघटन भी नहीं हो पाता है। इसके फलस्वरूप वाहित मल वातावरण को प्रदूषित करते हैं।

प्रश्न 8.
प्राथमिक तथा द्वितीयक वाहित मल उपचार के बीच पाए जाने वाले मुख्य अन्तर कौन-से हैं?
उत्तर
वाहित मल का उपचार वाहित मल संयन्त्र में किया जाता है जिससे यह प्रदूषण मुक्त हो सके। यह उपचार दो चरणों में सम्पन्न होता है –

1. प्राथमिक उपचार (Primary treatment) – प्राथमिक उपचार में मुख्यत: बड़े-छोटे कणों को भौतिक क्रियाओं; जैसे- अवसादन (sedimentation), निस्यंदन (filtration), प्लवन आदि द्वारा अलग किया जाता है। सबसे पहले तैरते हुए कूड़े-करकट को नियंदन द्वारा हटा दिया जाता है। इसके बाद ग्रिट (grit) मृदा तथा छोटे कणों को अवसादन द्वारा पृथक् किया जाता है। बारीक कण प्राथमिक स्लज (primary sludge) के रूप में नीचे बैठ जाते हैं और प्लावी बहिःस्राव (supernatant effluent) का निर्माण होता है। बहि:स्राव को प्राथमिक उपचार टैंक से द्वितीयक उपचार के लिए ले जाया जाता है।

2. द्वितीयक उपचार (Secondary treatment) – द्वितीयक उपचार में सूक्ष्मजीवधारियों का उपयोग किया जाता है। जैसे-ऑक्सीकरण ताल एक उथला जलाशय होता है जिसमें वाहित मल एकत्रित किया जाता है। इसमें कार्बनिक पदार्थ अधिक होने के कारण शैवाल और जीवाणुओं की अच्छी वृद्धि होने लगती है।

जीवाणु अपघटन करते हैं और शैवाल उनसे उत्पन्न कार्बन डाइ ऑक्साइड का प्रकाश संश्लेषण में उपयोग करते हैं। प्रकाश संश्लेषण में विमोचित ऑक्सीजन जल को दूषित होने से बचाती है। इस प्रकार ऑक्सीकरण ताल, शैवाल और जीवाणुओं के बीच सहजीविता का उदाहरण है। ऑक्सीजन ताल में होने वाली क्रियाओं द्वारा संक्रामक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं और कार्बनिक पदार्थों के अपघटन के पश्चात् केवल नुकसान न देने वाले पदार्थ ही रह जाते हैं। द्वितीयक उपचार के पश्चात् प्लान्ट से बहि:स्राव सामान्यत: जल के प्राकृतिक स्रोतों जैसे-नदियों, झरनों आदि में छोड़ दिया जाता है अथवा तृतीयक उपचार हेतु रासायनिक क्रियाविधियों द्वारा इससे नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस लवणों को पृथक् करने के पश्चात् बहि:स्राव को जलाशयों में मुक्त कर दिया जाती है।

प्रश्न 9.
क्या सूक्ष्मजीवों का प्रयोग ऊर्जा के स्रोतों के रूप में भी किया जा सकता है? यदि हाँ, तो किस प्रकार से? इस पर विचार करें।
उत्तर
हाँ, सूक्ष्मजीवों का प्रयोग ऊर्जा के स्रोतों के रूप में भी किया जा सकता है। बायोगैस एक प्रकार से गैसों (मुख्यतः मीथेन) का मिश्रण है जो सूक्ष्मजीवी सक्रियता द्वारा उत्पन्न होती है। गोबर में पादपों के सेलुलोजीय व्युत्पन्न प्रचुर मात्रा में होते हैं। अतः इसका प्रयोग बायोगैस को पैदा करने में किया जाता है। गोबर में मुख्य रूप से मिथेनोबैक्टीरियम पाया जाता है, जो मीथेन का उत्पादन करते हैं। बायोगैस (गोबर गैस) संयन्त्र का उपयोग मुख्य रूप से गाँवों में खाना बनाने एवं प्रकाश उत्पन्न करने में किया जाता है।

प्रश्न 10.
सूक्ष्मजीवों का प्रयोग रसायन उर्वरकों तथा पीड़कनाशियों के प्रयोग को कम करने के लिए भी किया जा सकता है। यह किस प्रकार सम्पन्न होगा? व्याख्या कीजिए। (2014, 15, 16, 17, 18)
उत्तर
जैव नियन्त्रण (Bio Control) – पादप रोगों तथा पीड़कों (pests) के नियन्त्रण के लिए जैववैज्ञानिक विधि (biological methods) का प्रयोग ही जैव नियन्त्रण (bio control) है। आधुनिक समाज में ये समस्याएँ रसायनों, कीटनाशियों तथा पीड़कनाशियों के बढ़ते हुए प्रयोगों की सहायता से नियन्त्रित की जाती हैं। ये रसायन मनुष्यों तथा जीव-जन्तुओं के लिए अत्यन्त ही विषैले तथा हानिकारक होते हैं। विषाक्त रसायन खाद्य श्रृंखला के माध्यम से जीवधारियों के शरीर में पहुंचते हैं। ये पर्यावरण को भी प्रदूषित करते हैं।

जैव उर्वरक के रूप में सूक्ष्मजीव (Microbes as biofertilizers) – जैव उर्वरकों का मुख्य स्रोत जीवाणु, कवक तथा सायनोबैक्टीरिया होते हैं। लेग्यूमिनस पादपों की जड़ों पर उपस्थित ग्रंथियों का निर्माण राइजोबियम (Rhizobium) जीवाणु के सहजीवी सम्बन्ध द्वारा होता है। ये जीवाणु वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर कार्बनिक रूप में परिवर्तित करते हैं। मृदा में मुक्तावस्था में रहने वाले अन्य जीवाणु जैसे-एजोस्पाइरिलम (Azospirilum) तथा एजोटोबैक्टर (Azotobacter) भी वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर मृदा में नाइट्रोजन अवयव की मात्रा को बढ़ाते हैं।

कवक अनेक पादपों के साथ सहजीवी सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इस सम्बन्ध को माईकोराइजा (Mycorrhiza) कहते हैं। ग्लोमस (Glomus) जीनस के बहुत-से कवक सदस्य माइकोराइजा बनाते हैं। इस सम्बन्ध में कवकीय सहजीवी मृदा से जल एवं पोषक तत्वों का अवशोषण कर पादपों को प्रदान करते हैं और पादपों से भोजन प्राप्त करते हैं।
सायनोबैक्टीरिया (Cyanobacteria) स्वपोषित सूक्ष्मजीव हैं जो जलीय तथा स्थलीय वायुमण्डल में विस्तृत रूप से पाए जाते हैं। इनमें से अधिकांश वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को नाइट्रोजन यौगिकों के रूप में स्थिर करके मृदा की उर्वरता को बढ़ाते हैं। जैसे-ऐनाबीना (Anabaena), नॉस्टॉक (Nostoc) आदि। धान के खेत में सायनोबैक्टीरिया महत्त्वपूर्ण जैव उर्वरक की भूमिका निभाते हैं।

पीड़क तथा रोगों का जैव नियन्त्रण (Biological Control of Pests & Diseases) – जैव नियन्त्रण विधि से विषाक्त रसायन तथा पीड़कनाशियों पर हमारी निर्भरता को काफी हद तक कम किया जा सकता है। बैक्टीरिया बैसीलस थूरिनजिएन्सिस (Bacillus thuringiensis) को प्रयोग बटरफ्लाई कैटरपिलर नियन्त्रण में किया जाता है। पिछले दशक में आनुवंशिक अभियान्त्रिकी की सहायता से वैज्ञानिक बैसीलस थूरिनजिएन्सिस टॉक्सिन जीन को पादपों में पहुँचा सके हैं। ऐसे पादप पीड़के द्वारा किए गए आक्रमण के प्रति प्रतिरोधी होते हैं। Bt-कॉटन इसका एक उदाहरण है जिसे हमारे देश के कुछ राज्यों में उगाया जाता है। ड्रेगनफ्लाई (dragonflies), मच्छर और ऐफिड्स (aphids) आदि Bt-कॉटन को क्षति नहीं पहुंचा पाते।

जैव वैज्ञानिक नियन्त्रण के तहत कवक ट्राइकोडर्मा (Trichoderma) का उपयोग पादप रोगों के उपचार में किया जाता है। यह बहुत-से पादप रोगजनकों का प्रभावशील जैव नियन्त्रण कारक है। बेक्यूलोवायरसिस (Baculoviruses) ऐसे रोगजनक हैं जो कीटों तथा सन्धिपादों (आर्थोपोड्स) पर हमला करते हैं। अधिकांश बैक्यूलोवायरसिस जो जैव वैज्ञानिक नियन्त्रण कारकों की तरह प्रयोग किए जाते हैं, वे न्यूक्लिओपॉलिहीड्रोवायरस (nucleopolyhedrovirus) प्रजाति के अन्तर्गत आते हैं। यह विषाणु प्रजाति-विशेष; सँकरे स्पेक्ट्रम कीटनाशीय उपचारों के लिए अति उत्तम मानी जाती हैं।

प्रश्न 11.
जल के तीन नमूने लो, एक-नदी का जल, दूसरा-अनुपचारित वाहित मल जले तथा तीसरा-वाहित मल उपचार संयन्त्र से निकला द्वितीयक बहिःस्राव; इन तीनों नमूनों पर ‘अ’, ‘ब’, ‘स’ के लेबल लगाओ। इस बारे में प्रयोगशाला कर्मचारी को पता नहीं है कि कौन-सा क्या है? इन तीनों नमूनों ‘अ’, ‘ब’, ‘स’ का बी०ओ०डी० रिकॉर्ड किया गया जो क्रमशः 20 mg/L, 8 mg/L तथा 400 mg/L निकाला। इन नमूनों में कौन-सा सबसे अधिक प्रदूषित नमूना है? इस तथ्य को सामने रखते हुए कि नदी का जल अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छ है। क्या आप सही लेबल का प्रयोग कर सकते हैं?
उत्तर
BOD (बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड) ऑक्सीजन की उस मात्रा को संदर्भित करता है जो जीवाणु द्वारा एक लीटर पानी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों की खपत निश्चित समय-काल में करता है। तथा उन्हें ऑक्सीकृत करता है।

अनुपचारित वाहित मल जल सबसे अधिक प्रदूषित होता है क्योंकि इसमें मनुष्य का मल-मूत्र, कपड़े की धुलाई से उत्पन्न जल, औद्योगिक तथा कृषि अपशिष्ट आदि उपस्थित रहता है, इसलिए इस जल का BOD सबसे अधिक होगा। नदी का जल साफ होता है क्योंकि इसमें कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बहुत कम होती है, अत: इस जल को BOD सबसे कम होगा। इसलिए ये निम्नलिखित प्रकार से लेबल किए जा सकते हैं –
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 10 Microbes in Human Welfare img-2

प्रश्न 12.
उन सूक्ष्मजीवों के नाम बताओ जिनसे साइक्लोस्पोरिन-ए (प्रतिरक्षा निषेधात्मक औषधि) तथा स्टैटिन (रक्त कोलिस्ट्रॉल लघुकरण कारक) को प्राप्त किया जाता है।
उत्तर

  1. साइक्लोस्पोरिन-ए का उत्पादन ट्राइकोडर्मा पॉलोस्पोरम नामक कवक से किया जाता है।
  2. स्टैटिन (लोभास्टैटिन) का उत्पादन मोनॉस्कस परफ्यूरीअस से किया जाता है।

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में सूक्ष्मजीवियों की भूमिका का पता लगाएँ तथा अपने अध्यापक से इनके विषय में विचार-विमर्श करें –

  1. एकल कोशिका प्रोटीन (SCP)
  2. मृदा।

उत्तर
1. एकल कोशिका प्रोटीन (Single Cell Protein) – शैवाल (algae); जैसे- स्पाइरुलिना, क्लोरेला तथा सिनेडेस्मस एवं कवक (fungi); जैसे- यीस्ट सैकेरोमाइसीटी, टॉरुलाप्सिस तथा कैंडिडा का उपयोग एकल कोशिका प्रोटीन के रूप में किया जा रहा है।

2. मृदा (Soil) – यह एक अकेला निवास स्थल है जिसमें विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीव तथा प्राणिजात उपस्थित रहते हैं और उच्च पादपों को यांत्रिक सहायता एवं पोषक तत्त्व प्रदान करते हैं, जिस पर मनुष्य की सभ्यता आधारित है। पौधे के विकास पर राइजोस्फीयर सूक्ष्मजीवों का लाभदायक प्रभाव पड़ता है। राइजोस्फीयर में सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रतिक्रिया के फलस्वरूप CO2 तथा कार्बनिक अम्ल का निर्माण होता है जो पौधे में अकार्बनिक पोषकों को घुलाते हैं। कुछ राइजोस्फीयर सूक्ष्मजीव वृद्धि उत्तेजक पदार्थ भी उत्पादित करते हैं। जीवाणु, कवक, सायनोबैक्टीरिया आदि जैव उर्वरक मृदा की पोषक
गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित को घटते क्रम में मानव समाज कल्याण के प्रति उनके महत्त्व के अनुसार संयोजित करें; महत्त्वपूर्ण पदार्थ को पहले रखते हुए कारणों सहित अपना उत्तर लिखें- बायोगैस, सिट्रिक एसिड, पेनिसिलिन तथा दही
उत्तर

  1. पेनिसिलिन – यह एक प्रतिजैविक है। इसका उपयोग बहुत-से जीवाणु-जनित रोगों; जैसे- सिफलिस, गठिया, डिफ्थीरिया, फेफड़े का संक्रमण आदि के उपचार में किया जाता है।
  2. बायोगैस – इसका उपयोग खाना बनाने एवं प्रकाश पैदा करने में किया जाता है। गोबर गैस निर्माण के उपरान्त उपयोग की गई गोबर की स्लरी का प्रयोग उर्वरक के रूप में किया जाता है।
  3. सिट्रिक एसिड – इसका उपयोग बहुत-से भोज्य पदार्थों के परिरक्षण के रूप में किया जाता है। सिट्रिक अम्ल का उत्पादन ऐस्परजिलस नाइजर नामक कवक द्वारा किया जाता है।
  4. दही – यह एक दुग्ध उत्पाद है जिसका उपयोग हम प्रतिदिन करते हैं। लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया दूध को दही में परिवर्तित कर देते हैं।

प्रश्न 15.
जैव- उर्वरक किस प्रकार से मृदा की उर्वरता को बढ़ाते हैं?
उत्तर
जैव-उर्वरक का निर्माण विभिन्न प्रकार के जीवों; जैसे- नील- हरित शैवाल या सायनोबैक्टीरिया, जीवाणु एवं कवक से होता है।
सायनोबैक्टीरिया की कई जातियाँ; जैसे- नॉस्टॉक, ऐनाबीना, टोलीप्रोथ्रिक्स आदि वायुमण्डल से नाइट्रोजन गैस को ग्रहण कर इसे नाइट्रोजन यौगिकों में परिणत कर देती हैं। इनमें हेट्रोसिस्ट नामक विशेष कोशिका पायी जाती है, जो नाइट्रोजन-स्थिरीकरण में मुख्य भूमिका निभाती हैं तथा मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती हैं।

सहजीवी जीवाणु; जैसे- राइजोबियम मटर कुल के पौधों की जड़ों में ग्रंथियाँ बनाते हैं और वायुमण्डल से नाइट्रोजन गैस ग्रहण कर इसे नाइट्रोजन के यौगिकों के रूप में परिणत करते हैं। इससे मृदा की पोषक शक्ति की वृद्धि होती है।
भूमि में पाए जाने वाले मुक्तजीवी जीवाणु; जैसे-एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम भी वायुमण्डल के नाइट्रोजन को स्थिरीकृत करते हैं।
माइकोराइजा के कवक पौधों को पोषक तत्त्व प्रदान करते हैं। कवक के तन्तु मृदा से फॉस्फोरस तथा अन्य पोषकों को ग्रहण कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
स्ट्रेप्टोमाइसिन उत्पादित की जाती है –
(क) स्ट्रेप्टोमाइसिस स्कोलियस द्वारा
(ख) स्ट्रेप्टोमाइसिस फ्रेडी द्वारा
(ग) स्ट्रेप्टोमाइसिस वैनेजुएली द्वारा
(घ) स्ट्रेप्टोमाइसिस ग्रीसिअस द्वारा
उत्तर
(घ) स्ट्रेप्टोमाइसिस ग्रीसिअस द्वारा

प्रश्न 2.
सायनोबैक्टीरिया का प्रयोग जैव-उर्वरक के रूप में खेतों में किया जाता है –
(क) गेहूं
(ख) मक्का
(ग) धान
(घ) गन्ना
उत्तर
(ग) धान

प्रश्न 3.
किस तत्त्व के पोषण के लिए माइकोराइजा उत्तरदायी है?
(क) पोटैशियम
(ख) कॉपर
(ग) जिंक
(घ) फॉस्फोरस
उत्तर
(घ) फॉस्फोरस

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
यीस्ट कोशिकाओं का किण्वन में क्या योगदान है? (2014)
उत्तर
यीस्ट कोशिकाएँ किण्वन की प्रक्रिया में शर्कराओं को तोड़कर उन्हें अम्ल, गैसों तथा ऐल्कोहॉल में परिवर्तित कर देती हैं।

प्रश्न 2.
बायोगैस के घटक गैसों के नाम लिखिए तथा इससे मनुष्य को होने वाले दो लाभ बताइए। (2016, 17)
उत्तर
बायोगैस एक प्रकार से गैसों (जिसमें मुख्यतः मेथेन शामिल है) का मिश्रण है जो सूक्ष्मजीवी सक्रियता द्वारा उत्पन्न होती है। कुछ बैक्टीरिया जो सेल्यूलोजीय पदार्थों पर अवायुवीय रूप से उगते हैं; वह CO2 तथा H2 के साथ-साथ बड़ी मात्रा में मेथेन भी उत्पन्न करते हैं।

प्रश्न 3.
जैव उर्वरक के रूप में प्रयुक्त दो सूक्ष्म जीवों के नाम लिखिए।
उत्तर
राइजोबियम तथा एनाबीना।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
घरेलू उत्पादों तथा औद्योगिक उत्पादन में सूक्ष्मजीवों के महत्त्व को समझाइए। (2014, 15, 16, 17, 18)
उत्तर
1. घरेलू उत्पादों में सूक्ष्मजीव
हम प्रतिदिन सूक्ष्मजीवियों अथवा उनसे व्युत्पन्न पदार्थों का प्रयोग करते हैं। इसका सामान्य उदाहरण दूध से दही को उत्पादन है। सूक्ष्मजीव जैसे लैक्टोबैसिलस तथा अन्य जिन्हें सामान्यतः लैक्टिक ऐसिड बैक्टीरिया कहते हैं, दूध में वृद्धि करते हैं और उसे दही में परिवर्तित कर देते हैं।
इसके अतिरिक्त डोसा, इडली, ब्रेड आदि को बनाने में भी सूक्ष्मजीवों का प्रयोग किया जाता है जो दाल-चावल के आटे व मैदा को स्पंजित कर देते हैं।

2. औद्योगिक उत्पादन में सूक्ष्मजीव
औद्योगिक क्षेत्र में भी सूक्ष्मजीवों का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है। सूक्ष्मजीव विशेषकर यीस्ट (सैकेरोमाइसीस सैरीविसेई) का प्रयोग प्राचीन काल से ही वाइन, बीयर, ह्विस्की, ब्रांडी, रम आदि के उत्पादन में किया जाता रहा है। सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रतिजैविकों (एंटीबायोटिक) का भी उत्पादन होता है। एक प्रमुख एंटीबायोटिक पेनिसिलिन का उत्पादन ( पेनिसिलियम नोटेटम) नामक सूक्ष्मजीव से किया। जाता है।

कुछ विशेष प्रकार के रसायनों; जैसे-कार्बनिक अम्ल, ऐल्कोहॉल, एंजाइम आदि के व्यावसायिक तथा औद्योगिक उत्पादन में भी सूक्ष्मजीवों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ-ऐसीटिक अम्ल का उत्पादन ऐसीटोबैक्टर एसिटाई तथा एथेनॉल का उत्पादन सकेरोमाइसीस सैरीविसेई नामक सूक्ष्मजीवों द्वारा किया जाता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production (खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति) are part of UP Board Solutions for Class 12 Biology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production (खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 9
Chapter Name Strategies for Enhancement in Food Production
Number of Questions Solved 43
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production (खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मानव कल्याण में पशुपालन की भूमिका की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर
मानव कल्याण में पशुपालन की भूमिका (Role of Animal Husbandry in Human Welfare)-विश्व की बढ़ती जनसंख्या के साथ खाद्य उत्पादन की वृद्धि एक प्रमुख आवश्यकता है। पशुपालन पर लागू होने वाले जैविक सिद्धान्त खाद्य उत्पादन बढ़ाने के हमारे प्रयासों में मुख्य भूमिका निभाते हैं। पशुपालन, पशु प्रजनन तथा पशुधन वृद्धि की एक कृषि पद्धति है। पशुपालन का सम्बन्ध पशुधन जैसे-भैंस, गाय, सुअर, घोड़ा, भेड़, ऊँट, बकरी आदि के प्रजनन तथा उनकी देखभाल से होता है जो मानव के लिए लाभप्रद हैं। इसमें कुक्कुट पालन तथा मत्स्य पालन भी शामिल हैं। मत्स्यकी (fisheries) में मत्स्यों (मछलियों), मृदुकवची (मोलस्क) तथा क्रस्टेशिआई (प्रॉन, क्रैब आदि) का पालन-पोषण, उनको पकड़ना (शिकार) बेचना आदि शामिल हैं। अति प्राचीनकाल से मानव द्वारा मधुमक्खी, रेशमकीट, झींगा, केकड़ा, मछलियाँ, पक्षी, सुअर, भेड़, ऊँट आदि का प्रयोग उनके उत्पादों जैसे- दूध, अण्डे, मांस, ऊन, रेशम, शहद आदि प्राप्त करने के लिए किया जाता रहा है।

डेरी उद्योग (dairying) एक पशुप्रबन्धन है जिससे मानव खपत के लिए दुग्ध तथा इसके उत्पाद प्राप्त होते हैं। कुक्कुट का प्रयोग भोजन (मांस) प्राप्त करने के लिए अथवा उनके अण्डों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। मधुमक्खी पालन शहद के उत्पादन के लिए मधुमक्खियों के छत्तों का रख-रखाव है। शहद उच्च पोषक महत्त्व का एक आहार है तथा आयुर्वेद औषधियों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। मधुमक्खियों से मोम भी प्राप्त होता है, मोम का प्रयोग कान्तिवर्द्धक सौन्दर्य प्रसाधनों में तथा विभिन्न प्रकार के पॉलिश वाले उद्योगों में किया जाता है। एक गणना के अनुसार विश्व का 70 प्रतिशत से भी अधिक पशुधन भारत तथा चीन में है।

प्रश्न 2.
यदि आपके परिवार के पास एक डेरी फार्म है, तब आप दुग्ध उत्पादन में उसकी गुणवत्ता तथा मात्रा में सुधार लाने के लिए कौन-कौन से उपाय करेंगे?
उत्तर
डेरी फार्म प्रबन्धन से दुग्ध की गुणवत्ता में सुधार तथा उसका उत्पादन बढ़ता है। मूल रूप से डेरी फार्म में रहने वाले पशुओं की नस्ल की गुणवत्ता पर ही दुग्ध उत्पादन निर्भर करता है। क्षेत्र की जलवायु एवं परिस्थितियों के अनुरूप उच्च उत्पादन एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली नस्लों को अच्छी नस्ल माना जाता है। उच्च उत्पादन क्षमता प्राप्त करने के लिए पशुओं की अच्छी देखभाल, जिसमें उनके रहने के लिए अच्छा आवास तथा पर्याप्त स्वच्छ जल एवं रोगमुक्त वातावरण होना आवश्यक है। पशुओं को भोजन देते समय चारे की गुणवत्ता तथा मात्रा पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त दुग्धीकरण तथा दुग्ध उत्पादों के भण्डारण और परिवहन के दौरान स्वच्छता तथा पशुओं का कार्य करने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य का महत्त्व सर्वोपरि है। पशु चिकित्सक का नियमित जाँच हेतु आना अनिवार्य है। इन सभी कठोर उपायों को सुनिश्चित करने के लिए सही-सही रिकॉर्ड रखने एवं समय-समय पर निरीक्षण की आवश्यकता होती है। इससे समस्याओं की पहचान और उनका समाधान शीघ्रतापूर्वक निकालना सम्भव हो जाता है।

प्रश्न 3.
नस्ल शब्द से आप क्या समझते हैं? पशु प्रजनन के क्या उद्देश्य हैं?
उत्तर
नस्ल (Breed) – पशुओं का वह समूह जो वंश तथा सामान्य लक्षणों जैसे- सामान्य दिखावट, आकृति, आकार, संरूपण आदि में समान हों, एक नस्ल के कहलाते हैं।
पशु प्रजनन का उद्देश्य (Objectives of Animal Breeding) – पशु प्रजनन, पशुपालन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। पशु प्रजनन का उद्देश्य पशुओं के उत्पादन को बढ़ाना तथा उनके उत्पादों की वांछित गुणवत्ता में सुधार करना है। कृत्रिम प्रजनन द्वारा उच्च दुग्ध उत्पादन वाली नस्ल की मादाओं तथा उच्च गुणवत्ता वाले मांस (कम वसा वाले मांस) प्रदान करने वाली नस्लों को सफलतापूर्वक जनित किया गया है जिससे अल्पकाल में ही बड़ी संख्या में पशुधन में वृद्धि सम्भव है।

प्रश्न 4.
पशु प्रजनन के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली विधियों के नाम बताएँ। आपके अनुसार कौन – सी विधि सर्वोत्तम है? क्यों?
उत्तर
पशु प्रजनन के लिए आधुनिक समय में निम्नलिखित विधियाँ प्रयोग में लाई जा रही हैं –
1. अन्तःप्रजनन (Inbreeding) – एक ही नस्ल के पशुओं के मध्य जब प्रजनन होता है तो वह अन्तःप्रजनन कहलाता है। इस विधि में एक नस्ल से उत्तम किस्म का नर तथा उत्तम किस्म की मादा को पहले अभिनिर्धारित किया जाता है तथा जोड़ों में उनका संगम कराया जाता है। ऐसे संगम से जो संतति उत्पन्न होती है, उस संतति का मूल्यांकन किया जाता है तथा भविष्य में कराए जाने वाले संगम के लिए अत्यन्त उत्तम किस्म के नर तथा मादा की पहचान की जाती है। इससे सामान्यत: जनन क्षमता तथा उत्पादन दोनों को बनाए रखने में सहायता मिलती है।

2. बहिःप्रजनन (Out breeding) – इसमें एक ही नस्ल की या भिन्न-भिन्न नस्लों या भिन्न प्रजातियों के सदस्य भाग लेते हैं। यह निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है –

  1. बहिःसंकरण (Out-crossing) – इसमें एक ही नस्ल के ऐसे पशुओं का चयन किया जाता है जो 4-6 पीढ़ियों तक किसी भी वंशावली में संयुक्त (उभय) पूर्वज नहीं होते। इससे अन्तः प्रजनन अवसादन या अवर्नमन (depression) समाप्त हो जाता है। इस संगम के फलस्वरूप प्राप्त संतति बहिःसंकर (out-cross) कहलाती है।
  2. संकरण (Hybridization) – संकरण किसी जीव की ऐच्छिक विशिष्टताओं के संरक्षण एवं प्रसार की महत्त्वपूर्ण युक्ति है। जन्तु संकरण द्वारा मानवोपयोगी पशु-पक्षियों की नस्ल सुधारकर अधिकाधिक लाभ प्राप्त किया जाता है। संकरण दो विभिन्न नस्लों के वांछनीय गुणों के संयोजन में सहायक होता है। इससे नई नस्ल जो वर्तमान नस्लों से श्रेष्ठ होती हैं, प्राप्त की जाती हैं जैसे-हिसरडेल (Hisardale) नस्ल की भेड़ का विकास बीकानेरी भेड़ (ewes) तथा मैरीनो रेम्स (मेढ़ा-rams) से किया गया है।
  3. अन्त:विशिष्ट संकरण (Interspecific hybridization) – जब विभिन्न प्रजातियों के नर तथा मादा पशुओं के मध्य संकरण कराया जाता है तो इसे अन्त:विशिष्ट संकरण (interspecific hybridization) कहते हैं। उदाहरण के लिए-गधा तथा घोड़ा अलग-अलग जाति के पशु हैं, किन्तु इन पशुओं के आपस में संकरण द्वारा खच्चर उत्पन्न कराया जाता है। खच्चर गधे एवं घोड़े से अधिक शक्तिशाली होता है।

कृत्रिम निषेचन (Artificial Insemination) – इस विधि में वांछित गुणों वाले नर पशुओं के वीर्य को वीर्य बैंकों में सुरक्षित रखते हैं तथा आवश्यकतानुसार इच्छित मादा पशु के गर्भाशय में एक विशेष पिचकारी द्वारा वीर्य को पहुँचा दिया जाता है।
भारत में संकरण विधि द्वारा जन्तुओं की नस्ल सुधार हेतु अनेक शासकीय एवं अशासकीय अनुसन्धान संस्थान आई०सी०ए०आर० (ICAR-Indian Council of Agriculture Research) के अधीन कार्यरत हैं। इन संस्थानों में कार्यरत वैज्ञानिकों के शोध एवं प्रयासों द्वारा गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ा, ऊँट, कुक्कुट, मछली आदि जन्तुओं की नस्ल एवं उपयोगिता में गुणात्मक सुधार हुआ है। फलतः अनेक जन्तु उत्पादों में विश्व में भारत को अग्रणी स्थान प्राप्त है। कृत्रिम वीर्य-सेचन सबसे अच्छी (सर्वोत्तम) पशु प्रजनन विधि है। इससे अल्प समय में उच्च गुणवत्ता वाले पशुओं को सफलतापूर्वक जनित किया जाता है।

प्रश्न 5.
मौन (मधुमक्खी) पालन से आप क्या समझते हैं? हमारे जीवन में इसका क्या महत्त्व है?
या
मधुमक्खियों द्वारा निर्माण किये जाने वाले दो प्रमुख उत्पादों के नाम लिखिए। (2018)
उत्तर
मौन पालन (मधुमक्खी पालन-Bee Keeping)-शहद के उत्पादन के लिए मधुमक्खियों के छत्तों का रख-रखाव ही मधुमक्खी पालन अथवा मौन पालन (Bee keeping) कहलाता है। मधुमक्खी पालन का व्यवसाय किसी भी क्षेत्र में जहाँ जंगली झाड़ियों, फलों के बगीचों तथा लहलहाती फसलों के पर्याप्त कृषि क्षेत्र या चरागाह हों किया जा सकता है। मधुमक्खी पालन यद्यपि अपेक्षाकृत आसान है, परन्तु इसके लिए विशेष प्रकार के कौशल की आवश्यकता होती है। मधुमक्खी पालन प्राचीनकाल से चला आ रहा एक कुटीर उद्योग है। मधुमक्खियों से शहद तथा मोम प्राप्त होता है। शहद का उपयोग आयुर्वेदिक औषधियों में किया जाता है। मोम का उपयोग कान्तिवर्द्धक वस्तुओं की तैयारी तथा विभिन्न प्रकार के पॉलिश वाले उद्योगों में किया जाता है। पुष्पीकरण के समय यदि मधुमक्खी के छत्तों को खेतों के बीच में रख दिया जाए तो इससे पौधों की परागण क्षमता बढ़ जाती है और इस प्रकार फसल तथा शहद दोनों के उत्पादन में सुधार हो जाता है।

प्रश्न 6.
खाद्य उत्पादन को बढ़ाने में मत्स्यकी की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर
मत्स्यकी की भूमिका (Role of Fishery) – मत्स्यपालन के अन्तर्गत मछली पालने के तरीकों एवं इनके रख-रखाव और उपयोग के बारे में अध्ययन किया जाता है। मछलियों से मांस (प्रोटीन का स्रोत), तेल इत्यादि प्राप्त होता है। मत्स्यकी एक प्रकार का उद्योग है, जिसका सम्बन्ध मछली अथवा अन्य जलीय जीव को पकड़ना, उनका प्रसंस्करण (processing) तथा उन्हें बेचने से होता है। हमारी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग आहार के रूप में मछली, मछली उत्पादों तथा अन्य जलीय जन्तुओं पर आश्रित है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में मत्स्यकी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह समुद्र तटीय राज्यों में अनेक लोगों को आय तथा रोजगार प्रदान करती है। बहुत-से लोगों के लिए यह जीविका का एकमात्र साधन है। मत्स्यकी की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए इसके उत्पादन को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार की तकनीकें अपनाई जा रही हैं। नीली क्रान्ति (Blue Revolution) मछली उत्पादन से जुड़ी है। इसके अन्तर्गत अलवणीय तथा लवणीय जलीय प्राणियों के उत्पादन में-द्धि की जाती है।

मछली उत्तम प्रोटीन का खाद्य संसाधन है। मछलियों की अलवणीय नस्लों कतला, रोहू, मृगल, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प आदि प्रमुख हैं। कतला मछलियों की वृद्धि सबसे तेज होती है। समुद्री मछलियों के अतिरिक्त झींगा (prawn), केकड़ा (crabs), लॉबस्टर (lobster), ऑयस्टर (oyester) आदि प्रमुख समुद्री खाद्य संसाधन हैं।

प्रश्न 7.
पादप प्रजनन में भाग लेने वाले विभिन्न चरणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर
पादप प्रजनन (Plant Breeding) – पादप प्रजनन कार्यक्रम अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप से पूरे विश्व के सरकारी संस्थानों तथा व्यापारिक संस्थानों द्वारा चलाए जाते हैं। फसल की एक नई
आनुवंशिक नस्ल के प्रजनन में निम्नलिखित मुख्य चरण होते हैं –
(क) परिवर्तनशीलता का संग्रहण (Collection of Variability) – किसी भी प्रजनन कार्यक्रम का मूलाधार आनुवंशिक परिवर्तनशीलता है। बहुत-सी फसलों में यह गुण उन्हें अपनी पूर्ववर्ती आनुवंशिक जंगली प्रजातियों से प्राप्त होता है। किसी फसल में पाए जाने वाले सभी जीन्स के विविध ऐलील (alleles) के समस्त संग्रहण (पादप बीजों के रूप में) को उसका जननद्रव्य (जर्मप्लाज्म) संग्रहण कहते हैं।

(ख) जनकों का मूल्यांकन तथा चयन (Evaluation and Selection of Parents) – पादपों को उनके लक्षणों के वांछनीय संयोजन के साथ अभिनिर्धारित किए जाने के लिए जननद्रव्य (जर्मप्लाज्म) को मूल्यांकित किया जाता है। चयन किए गए पादपों की संख्या वृद्धि कर उनका प्रयोग संकरण की प्रक्रिया में किया जाता है। इस प्रकार वांछनीय एवं शुद्ध वंशक्रम तैयार कर लिया जाता है।

(ग) चयनित जनकों के मध्य संकरण (Cross hybridization among the Selected Parents) – वांछित लक्षणों को बहुधा दो भिन्न जनकों से प्राप्त कर संयोजित किया जाता है। यह संकरण (hybridization) द्वारा सम्भव है कि जनकों के संकरण से वांछित आनुवंशिक लक्षणों का संगम एक पौधे में हो सके। जैसे—उच्च प्रोटीन गुणवत्ता वाले जनक तथा रोग प्रतिरोधक जनक के संयोजन से वांछित (उच्च प्रोटीन-गुणवत्ता एवं रोग प्रतिरोधक) आनुवंशिक लक्षणों वाला पौधा प्राप्त किया जा सकता है।

(घ) श्रेष्ठ पुनर्योगज का चयन तथा परीक्षण (Selection and Testing of Super Recombinant) – प्रजनन उद्देश्य को प्राप्त करने में चयन की यह प्रक्रिया अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्तर्गत संकरों (hybrids) की संतति से ऐसे पादपों का चयन किया जाता है जिनमें वांछित लक्षण संयोजित हों। स्वपरागण द्वारा शुद्ध लक्षणों को प्राप्त किया जाता है।

(ङ) नए कंषणों का परीक्षण, निर्मुक्त होना तथा व्यापारिकरण (Testing, Release and Commercialization of New Cultivars) – नए चयनित वंशक्रम को उनके उत्पादन तथा अन्य गुणवत्ता; रोगप्रतिरोधकता आदि गुणों के आधार पर मूल्यांकित किया जाता है। मूल्यांकित पौधों को अनुसन्धान वाले खेतों में जहाँ उपयुक्त उर्वरक; सिंचाई तथा अन्य शस्य प्रबन्धन उपलब्ध हों, वहाँ उगाया जाता है तथा उसमें उपर्युक्त गुणों का मूल्यांकन किया जाता है। इसके पश्चात् चयनित पादपों के बीजों को व्यापारिक स्तर पर उगाने के लिए निर्गत कर दिया जाता है।

प्रश्न 8.
जैव प्रबलीकरण का क्या अर्थ है? व्याख्या कीजिए। (2015, 16, 17)
उत्तर
जैव प्रबलीकरण (Biofortification) – उन्नत खाद्य गुणवत्ता रखने वाली फसलों में पादप प्रजनन को जैव प्रबलीकरण कहते हैं। जैव प्रबलीकरण द्वारा प्राप्त उच्च विटामिन, खनिज, प्रोटीन तथा स्वास्थ्यवर्द्धक वसा वाली प्रजनित फसलें जनस्वास्थ्य को सुधारने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रायोगिक माध्यम होती हैं। उन्नत पोषक गुणवत्ता के लिए निम्नलिखित को सुधारने के उद्देश्य से प्रजनन किया जाता है –

  1. प्रोटीन की मात्रा तथा गुणवत्ता,
  2. तेल की मात्रा तथा गुणवत्ता,
  3. विटामिन की मात्रा,
  4. सूक्ष्मपोषक तथा खनिज की मात्रा।

जैव प्रबलीकरण के द्वारा ही मक्का, गेहूँ तथा धान की उच्च गुणवत्ता वाली किस्में विकसित की गई हैं। सन् 2000 में विकसित की गई मक्का में ऐमीनो एसिड, लाइसीन तथा ट्रिप्टोफैन की दुगुनी मात्रा विकसित की गई। गेहूं की किस्म (एटलस 66 कृष्य) जिसमें उच्च प्रोटीन मात्रा है, विकसित की गई हैं। धान की उच्च लौह तत्त्व वाली किस्म विकसित की गई, इसमें सामान्यत: प्रयोग में लाई गई किस्मों की तुलना में लौह तत्त्व की मात्रा पाँच गुना अधिक है। भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली ने प्रचुर मात्रा में विटामिन तथा खनिज वाली सब्जियों की फसलें विकसित की हैं।

प्रश्न 9.
विषाणु मुक्त पादप तैयार करने के लिए पादप को कौन-सा भाग सबसे अधिक उपयुक्त है। तथा क्यों?
उत्तर
विषाणु मुक्त पादप तैयार करने के लिए पादप का शीर्ष तथा कक्षीय भाग (विभज्योतक) सबसे अधिक उपयुक्त होता है, क्योंकि यह भाग विषाणु से अप्रभावित रहता है।

प्रश्न 10.
सूक्ष्मप्रवर्धन द्वारा पादपों के उत्पादन के मुख्य लाभ क्या हैं?
उत्तर
सूक्ष्मप्रवर्धन (Micropropagation) – ऊतक संवर्धन द्वारा हजारों की संख्या में पादपों को उत्पन्न करने की विधि सूक्ष्मप्रवर्धन कहलाती है। इनमें प्रत्येक पादप आनुवंशिक रूप से मूल पादप के समान होते हैं जिससे वे तैयार किए जाते हैं। ये सोमाक्लोन (somaclones) कहलाते हैं। अधिकांश महत्त्वपूर्ण खाद्य पादपों जैसे-टमाटर, केला, सेब आदि का बड़े पैमाने पर उत्पादन इस विधि द्वारा किया गया है।

इस विधि द्वारा अत्यन्त ही अल्प अवधि में हजारों पादप तैयार किए जा सकते हैं। इस विधि का अन्य महत्त्वपूर्ण उपयोग रोगग्रसित पादपों से स्वस्थ पादपों को प्राप्त करना है। यद्यपि पादप विषाणु से संक्रमित है, परन्तु विभज्योतक (शीर्ष तथा कक्षीय) विषाणु से अप्रभावित रहती है। अत: विभज्योतक (मेरिस्टेम) को अलग करके उन्हें विट्रो संवर्धन में उगाया जाता है, ताकि विषाणु मुक्त पादप तैयार हो सकें। वैज्ञानिकों को केला, गन्ना, आलू आदि संवर्धित विभज्योतक तैयार करने में काफी सफलता मिली है।

वैज्ञानिकों ने पादपों से एकल कोशिकाएँ अलग की हैं तथा उनकी कोशिकाभित्ति का पाचन हो जाने से प्लाज्मा झिल्ली द्वारा घिरा नग्न प्रोटोप्लास्ट पृथक् किया जा सका है। प्रत्येक किस्म में वांछनीय लक्षण विद्यमान होते हैं। पादपों की दो विभिन्न किस्मों से अलग किया गया प्रोटोप्लास्ट युग्मित होकर संकर प्रोटोप्लास्ट उत्पन्न करता है जो आगे चलकर नए पादप को जन्म देता है। यह संकर कायिक संकर (somatic hybrid) कहलाता है तथा यह प्रक्रम कायिक संकरण (somatic hybridization) कहलाता है।

प्रश्न 11.
पत्ती में कर्तातक पादप के प्रवर्धन में जिस माध्यम का प्रयोग किया जाता है, उसके विभिन्न घटकों का पता लगाओ।
उत्तर
इस माध्यम के निम्नलिखित घटक होते हैं –

  1. एक्सप्लाण्ट (शीर्षस्थ या कक्षस्थ कलिकाओं का भाग)
  2. संवर्धन माध्यम (सूक्रोज, अकार्बनिक लवण, विटामिन, अमीनो अम्ल )
  3. वृद्धि नियन्त्रक (ऑक्सिन, साइटोकाइनिन)

प्रश्न 12.
शस्य पादपों के किन्हीं पाँच संकर किस्मों के नाम बताएँ, जिनका विकास भारतवर्ष में हुआ है।
उत्तर

  1. शर्बती सोनोरा (गेहूं की किस्म)
  2. गंगा 5 (मक्का की किस्म)
  3. साबरमती BC-S/55 (धान की किस्म)
  4. पूसा-240 (चने की किस्म)
  5. पूसा बोतड (सरसों की किस्म)

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक एवं बहुरूपी कीट है (2017)
(क) घरेलू मक्खी
(ख) मधुमक्खी
(ग) मच्छर
(घ) कॉकरोच
उत्तर
(ख) मधुमक्खी

प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा उत्पाद मधुमक्खी से प्राप्त किया जाता है? (2017)
(क) शहद
(ख) मोम
(ग) रेशम
(घ) शहद और मोम
उत्तर
(घ) शहद और मोम

प्रश्न 3.
कच्चा रेशम का निर्माण किसके द्वारा होता है? (2018)
(क) नर रेशम कीट
(ख) मादा रेशम कीट
(ग) नर व मादा दोनों रेशम कीट
(घ) कैटरपिलर लारवा
उत्तर
(घ) कैटरपिलर लारवी

प्रश्न 4.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान कहाँ स्थित है?
(क) हैदराबाद
(ख) शिमला
(ग) भोपाल
(घ) नई दिल्ली
उत्तर
(घ) नई दिल्ली

प्रश्न 5.
पादप प्रजनन की मुख्य विधि है (2017)
(क) वरण
(ख) प्रसंकरण
(ग) प्रवेशन
(घ) इनमें से सभी
उत्तर
(घ) इनमें से सभी

प्रश्न 6.
पादप प्रजनन द्वारा उन्नत खाद्य गुणवत्ता वाले पौधों का निर्माण कहलाता है- (2017)
(क) बायोफोर्टीफिकेशन
(ख) बायोमेगनिफिकेशन
(ग) बायोडिग्रेडेशन
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(क) बायोफोर्टीफिकेशन

प्रश्न 7.
यदि किसी पौधे में दूसरी एक या अधिक जीन्स का प्रवेश करा दिया जाए, तो पौधा कहलाएगा (2017)
(क) ट्रान्सग्रेसिव
(ख) ट्रान्सजेनिक
(ग) त्रिगुणित
(घ) त्रिसोमिक
उत्तर
(ख) ट्रान्सजेनिक

प्रश्न 8.
बी०टी० फसलों के उत्पादन में निम्नलिखित में से कौन भाग लेता है? (2017)
(क) शैवाल
(ख) फफूदी
(ग) जीवाणु
(घ) ये सभी
उत्तर
(ग) जीवाणु

प्रश्न 9.
बी०टी० कपास में कीटनाशक के रूप में एक प्रकार का होता है- (2017)
(क) प्रोटीन
(ख) “लिपिड
(ग) कार्बोहाइड्रेट
(घ) विटामिन
उत्तर
(क) प्रोटीन

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पशुपालन के दो लाभ बताइए। (2015)
उत्तर

  1. दुधारू पशुओं को पालने से हमें उनसे दूध प्राप्त होता है।
  2. पाले गये पशुओं के गोबर का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है जिससे मृदा की उर्वरता बनी रहती है।

प्रश्न 2.
शहतूत के रेशमकीट का वैज्ञानिक नाम लिखिए। (2017)
उत्तर
बॉम्बिक्स मोराइ (Bombyx mori)

प्रश्न 3.
मधुमक्खी की दो प्रजातियों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए। (2014, 16)
उत्तर
एपिस मेलीफेरो (Apis melifero) तथा एपिस इण्डिका (Apis indica)।

प्रश्न 4.
भारत में हरित क्रान्ति का जनक किसे कहते हैं? (2015)
उत्तर
भारत में हरित क्रान्ति का जनक डॉ० एम०एस० स्वामीनाथन को कहते हैं।

प्रश्न 5.
किन्हीं दो बी०टी० फसलों के नाम लिखिए। इनके निर्माण में भाग लेने वाले मुख्य जीवाणु का भी नाम लिखिए। (2017)
उत्तर

  1. BT कपास
  2. BT बैंगन।

BT फसलों के निर्माण के लिए बैसीलस थूरीनजिएंसिस नामक जीवाणु का उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 6.
दलहनी पौधों के लिए नाइट्रोजन युक्त खाद की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती हैं क्यों? (2014)
उत्तर
दलहनी पौधों की जड़ों में प्रकृति में उपस्थित मुक्त नाइट्रोजन गैस का स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु (राइजोबियम, नाइट्रोबैक्टर आदि) पाये जाते हैं जिनके कारण उन्हें नाइट्रोजन युक्त खाद की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती हैं।

प्रश्न 7.
एकल कोशिका प्रोटीन देने वाले दो जीवों के नाम लिखिए। (2017)
उत्तर
स्पाइरुलीना एवं यीस्ट।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पशुपालन क्या है? इसमें सुधार लाने की विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर
पशुपालन
पशुपालन, व्यावहारिक जीव विज्ञान की वह शाखा है जो पालतू पशुओं को मितव्ययितापूर्ण एवं स्वस्थ रखने की कला का ज्ञान कराती है। पशुपालन में सुधार लाने की विभिन्न विधियाँ निम्नवत् हैं

  1. आस-पास का तापमान (Near by Temperature) – पशुओं के आस-पास लगभग 20°C ताप उपयुक्त रहता है। ताप में अधिक भिन्नता होने पर चारा ग्रहण क्षमता तथा पाचन क्रिया प्रभावित होने से उत्पादन घटता है।
  2. धूप या विकिरण (Sunshine or Radiation) – मौसम के अनुसार पशुओं को धूप या विकिरण से बचाने का प्रबन्ध करना चाहिए ताकि शरीर में ताप/ऊर्जा सन्तुलन में सहायता मिले।
  3. भोजन व पानी का प्रबन्ध (Arrangement of Food and Water) – पशुओं के लिए पर्याप्त व सन्तुलित भोजन व पानी का प्रबन्ध होना चाहिए। गर्मी में अपेक्षाकृत पानी की अधिक आवश्यकता होती है।
  4. उचित व्यवहार (Good Behaviour) – पशुओं के साथ दया व मित्रतापूर्ण व्यवहार करने से उनका दुग्ध उत्पादन बढ़ता है।
  5. स्वास्थ्य परीक्षण (Health Checkup) – पशुओं का नियमित अन्तराल पर स्वास्थ्य परीक्षण कराना चाहिए तथा बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही उसको पृथक् कर देना चाहिए और योग्य पशु चिकित्सक से उपचार कराना चाहिए।
  6. खुरों की छटाई (Hoof Triming) – खुरों को समय-समय पर काटते रहना चाहिए क्योंकि एक ही स्थान पर रहने से उनके खुर बढ़ जाते हैं, चलने में कठिनाई होती है।
  7. व्यायाम (Exercise) – पशुओं को चारागाह में भेजकर या अन्य किसी माध्यम से घुमाने वव्यायाम की व्यवस्था होनी चाहिए।
  8. सींग रोधन – पशुओं की पारस्परिक सुरक्षा तथा अपनी सुरक्षा हेतु सींग रोधन अपनाना चाहिए।
  9. बिछावन व्यवस्था – पशुशाला या पशु बाँधने के स्थान पर मौसम के अनुसार सूखा भूसा, लकड़ी का बुरादा या रेत आदि का प्रयोग बिछावन के रूप में अवश्य करें।
  10. बाह्य-परजीवियों से रक्षा (Protection from External Parasites) – पशु के रहने के स्थान पर मक्खियाँ, जू, खटमले, पिस्सू, चीचड़ी आदि पैदा न होने दें। ये सभी पशु की दैहिक क्रियाओं पर बुरा प्रभाव डालती हैं। अतः सफाई के साथ-साथ कीटनाशकों का प्रयोग करें।
  11. अपशिष्टों से बचाव – घर की सड़ी-गली खाद्य वस्तुओं अथवा अन्य अपशिष्टों को पशुओं को नहीं देना चाहिए, ऐसा करना उनके लिए प्राण घातक भी हो सकता है।

प्रश्न 2.
मधुमक्खी के बीच संचार का वर्णन कीजिए। (2013)
उत्तर
बहुत पहले से लोग जानते हैं कि जब कोई मधुमक्खी (स्काउट मक्खी – scout bee) भोजन के किसी नये स्रोत का पता लगाकर छत्ते में लौटती है तो इसके शीघ्र बाद ही छत्ते से कई भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियाँ, स्काउट मक्खी को साथ लिये बिना ही, स्वतन्त्र रूप से नये स्रोत की ओर उड़ जाती हैं। अतः स्पष्ट है कि स्काउट मक्खियाँ भोजन के नये स्रोतों की सूचना भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियों को देती हैं। सदियों से वैज्ञानिक मधुमक्खियों में इस सूचना-प्रसारण की विधि का पता लगाने का प्रयास करते रहे हैं। अर्नेस्ट स्पाइट्ज़नर (Ernest Spytzner, 1788) ने पहले-पहल बताया कि स्काउट मक्खियाँ कुछ विशिष्ट प्रकार की गतियों (movements) द्वारा सूचना-प्रसारण करती हैं। इन गतियों को अब “मधुमक्खी के नाच (bee dances)’ कहते हैं। सन् 1946 से 1969 तक अनवरत अनुसंधान के फलस्वरूप, प्रो० कार्ल वॉन फ्रिश (Karl Von Frisch) ने “मधुमक्खी के नाच’ की व्याख्या करने में सफलता पाई और इसके लिये नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने पता लगाया कि सूचना-प्रसारण के लिये भोजन-खोजकर्ता या स्काउट मक्खियाँ दो प्रकार का “नाच’ करती हैं। (चित्र 7.1)-(1) गोल नाच तथा (2) दुम-दोलनी नाच।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production img-1

1. गोल नाच (Round Dance) – इस नाच में स्काउट मक्खी क्रमशः दाईं-बाईं ओर गोल-गोल चक्कर काटती है। ऐसे नाच द्वारा सूचना-प्रसारण तब किया जाता है जब नया भोजन-स्रोत निकट (छत्ते से 75 मीटर तक) ही होता है। इसमें स्रोत की दिशा की सूचना प्रसारित नहीं होती; स्काउट मक्खी द्वारा लाई गई फूलों की सुगन्ध से ही भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियों का मार्गनिर्देशन हो जाता है और ये निर्दिष्ट फूलों तक पहुँच जाती हैं।

2. दुम-दोलनी नाच (Tail-wagging or “Shuffle” Dance) – स्काउट मक्खियाँ इस नाच द्वारा सूचना-प्रसारण तब करती हैं जब नया भोजन-स्रोत छत्ते से 75 मीटर से अधिक दूर होता है।
इस नाच द्वारा भोजन-स्रोत की दूरी एवं सूर्य के संदर्भ में इसकी दिशा के ज्ञान का भी प्रसारण होता है। इसमें स्काउट मक्खी पहले एक सीधी रेखा पर तेजी से चलती है। फिर इस रेखा के एक ओर अर्धवृत्ताकार पथ पर चल कर वापस इसी सीधी रेखा पर चलती है। फिर इस रेखा के दूसरी ओर अर्धवृत्ताकार पथ पर चलकर वापस सीधी रेखा पर चलती है। यही गति बार-बार दोहराई जाती है। सीधी रेखा पर चलते समय यह उदर के पिछले अर्थात् पुच्छ भाग को तेजी से दायें-बायें हिलाती रहती है और साथ ही पंखों को फड़-फड़ाकर एक मन्द गति ध्वनि उत्पन्न करती रहती है।

सीधी रेखा पर मक्खी की गति की दिशा से, सूर्य की वर्तमान स्थिति के अनुसार, भोजन-स्रोत की दिशा का ज्ञान होता है। पूर्ण नाच की दर तथा सीधी रेखा पर चलते समय दुम-दोलनी की दर एवं ध्वनि की तीव्रता से स्रोत की दूरी का ज्ञान होता है। यदि सीधी रेखा पर मक्खी छत्ते में ऊपर से नीचे की ओर चलती है तो स्रोत छत्ते से सूर्य की ओर न होकर विपरीत दिशा में होता है और यदि यह गति नीचे से ऊपर की ओर होती है तो स्रोत सूर्य की दिशा में होता है। यदि स्रोत सूर्य की दिशा से किसी कोण पर होता है तो सीधी रेखा भी तद्नुसार ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर की ओर न होकर उसी कोण पर होती है। नाच के समय भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियाँ स्काउट मक्खी को छु-छूकर स्पर्श-ज्ञान द्वारा तथा स्काउट मक्खी के पंखों की फड़-फड़ाहट की ध्वनि की श्रवण-संवेदना द्वारा सूचना ग्रहण करती हैं।

प्रश्न 3.
पीडक जन्तु (पेस्ट) किसे कहते हैं? किन्हीं दो कृषि पीडक कीटों के नाम, उनसे होने वाली हानि एवं उत्पादन पर प्रभाव तथा उनके नियंत्रण के उपायों का वर्णन कीजिए। (2014)
उत्तर
पीड़क जन्तु-मनुष्य भोजन के लिए कृषि द्वारा भूमि से अनाज, फल, सब्जी आदि उगाता है, लेकिन कोई भी फसल ऐसी नहीं होती जिससे अनेक प्रकार के कीट अपना भोजन प्राप्त न करते हों। पेड़-पौधों की जड़ों, तनों, पत्तियों, कलियों, फूलों, बीजों आदि पर विभिन्न प्रकार के कीट आक्रमण करते हैं। लगभग एक-तिहाई फसल के भागीदार ये कीट बन जाते हैं। इससे हमारे देश को लगभग 500 करोड़ और अकेले उत्तर प्रदेश को 50 करोड़ की हानि प्रतिवर्ष होती है। इन हानिकारक कीटों को ही हम पीड़क जन्तु या पीड़क कीट कहते हैं।

दो कृषि पीइक कीटों के नाम – दो मुख्य कृषि पीड़क कीटों के नाम निम्नवत् हैं।
1. टिड्डी
2. ईख की गिडार
हानि एवं उत्पादन पर प्रभाव

  1. फसल को टिड्डियों से बहुत हानि होती है। एक टिड्डी दल में करोड़ों तक की संख्या में टिड्डियाँ हो सकती हैं जो कुछ ही मिनटों में सम्पूर्ण फसल का सफाया कर देती हैं, जिससे उत्पादन शून्य भी हो सकता है।
  2. ईख की गिडार गन्ने के तने को भीतर से खोखला कर देती है जिससे उत्पादन घट जाता है।

नियंत्रण के उपाय – निम्नलिखित उपायों द्वारा पीड़क कीटों को नियन्त्रित किया जा सकता है।

  1. यान्त्रिक नियन्त्रण,
  2. भौतिक नियन्त्रण
  3. जैविक नियन्त्रण (बन्ध्याकरण, कीट भक्षण, परजीविता),
  4. सांस्कृतिक नियन्त्रण,
  5. वैज्ञानिक नियन्त्रण तथा
  6. रासायनिक नियन्त्रण।

प्रश्न 4.
पादप प्रजनन का महत्त्व बताइए। (2015)
उत्तर
पादप प्रजनन का महत्त्व
पादप प्रजनन से फसलों की वांछित गुणों व उच्च गुणवत्ता वाली प्रजातियों को विकसित किया जा सकता है। पादप प्रजनन के निम्न प्रमुख लाभ हैं –
1. उत्पादन में वृद्धि (Increase in Production) – तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्य संसाधनों को बढ़ाने की आवश्यकता है। पादप प्रजनन द्वारा फसली पौधों की पैदावार व गुणवत्ता को बढ़ाना सम्भव हुआ है। हरित क्रान्ति (green revolution) नामक प्रयास से भारत में गेहूं की नयी, उन्नत फसलें विकसित की गयी हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने गेहूँ की 591-किस्मों से NP-4, NP-52, कल्याण सोना-227, सोनोरा-64 जैसी उन्नत किस्में तैयार की हैं। गेहूँ के अतिरिक्त मक्का, धान, जौ, गन्ना की भी उन्नत किस्में विकसित की गयी हैं।

2. गुणवत्ता में सुधार (Improvement in Quality) – पादप प्रजनन से हम स्वेच्छा से पौधों के | श्रेष्ठ गुणों का विकास करके पौधों की गुणवत्ता सुधार सकते हैं। फसली पौधों की गुणवत्ता में
सुधार का अर्थ है-अधिक पैदावार, रोग प्रतिरोधकता आदि। चने की G-24 किस्म का दाना गहरे भूरे रंग का होता है तथा Pb 7, I-58 व G-17 के साथ इसके संकरण से C-158 व C-132 जैसी गुणवान किस्में विकसित की गयी हैं।

3. रोग व पीइक प्रतिरोधकता (Resistivity for Diseases and Insects) – पौधों में विषाणु, जीवाणु, कवक आदि से विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। उदाहरण-आलू में अंगमारी (blight) रोग, गन्ने में लाल विगलन (red-rot) व काले किट्ट (black rust) का रोग आदि कवकजनित होते हैं। पादप प्रजनन द्वारा पौधों की रोग प्रतिरोधी किस्में विकसित की गयी हैं। उदाहरण-गेहूँ की C-228, C-253 व चने की GP-17, GP-24 आदि।

4. विशेष मृदा व विशेष जलवायु हेतु किस्में (Varieties for Particular Soil and Climate) – भारतवर्ष में प्रत्येक क्षेत्र की जलवायु व मृदा विभिन्न प्रकार की है। मृदा व जलवायु की विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए पादप-प्रजनन द्वारा पौधों की ऐसी किस्में उत्पन्न की गयी हैं जो विभिन्न प्रकार की मृदा व जलवायु में विकसित हो सकती हैं। उदाहरण – पंजाब की मृदा मूंगफली की वृद्धि के लिए अनुकूलित नहीं है। अतः पादप प्रजनन द्वारा मूंगफली की ऐसी किस्में उत्पन्न की गयी हैं जो ऊसर व रेतीली मृदा में भी उग सकती हैं। पादप प्रजनन से पतन प्रतिरोधी किस्में (varieties resistant to lodging) भी तैयार की गई हैं।

प्रश्न 5.
खाद्य उत्पादन में दलहनी पौधों की भूमिका का वर्णन कीजिए। (2014)
उत्तर
दलहनी पौधों के अन्तर्गत दाल वाले पौधे; जैसे-अरहर, चना, मूंग, उड़द आदि सम्मिलित होते हैं। दालें प्रोटीन का मुख्य स्रोत होती हैं क्योंकि इनमें प्रोटीन प्रचुर मात्रा में उपस्थित होती है। यदि हम खाद्य उत्पादन में दलहनी पौधों का विस्तार करेंगे तो ये हमें दो प्रकार से लाभ पहुँचाएँगी –

  1. हमें प्रोटीन का एक अच्छा स्रोत प्राप्त होगा तथा
  2. भूमि उपजाऊ होगी क्योकि दलहनी पौधे मृदा की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि करते हैं। इनकी जड़ों में कुछ विशिष्ट जीवाणुओं की गाँठे होती हैं जो मृदा में नाइट्रोजन के स्तर को बढ़ाती हैं।

प्रश्न 6.
जैविक आवर्धन पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
अनेक प्रकार के कीटनाशक पदार्थ (pesticides), खरपतवारनाशी (weedicides) व अन्य क्लोरीनयुक्त पदार्थ ऐसे पदार्थ हैं जिनका जीवधारियों द्वारा बहुत कम विघटन होता है, अर्थात् ये अक्षयकारी (non-biodegradable) होते हैं। इनका उपयोग कृषि की उपज बढ़ाने के लिए किया जाता है। ये पदार्थ खाद्य श्रृंखला के द्वारा पौधों व जन्तुओं के शरीर में जाते हैं और वहीं पर संचित होते रहते हैं। इनकी सान्द्रता प्रत्येक ट्रॉफिक स्तर पर बढ़ती जाती है और उच्च उपभोक्ता में अधिकतम हो जाती है। इस क्रिया को जैविक आवर्धन (biological magnification or biological amplification) कहते हैं।

DDT तथा BHC आदि कीटनाशक पदार्थ वसा में घुलनशील होते हैं। अतः ये मनुष्यों व जन्तुओं के वसा ऊतक (adipose tissue) में संचित हो जाते हैं। श्वसन क्रिया में वसा के ऑक्सीकरण के समय ये पदार्थ रुधिर वाहिनियों में प्रवेश करके विषैला प्रभाव दिखाते हैं और इससे कैन्सर तक हो जाता है। इसी को देखते हुए कृषि में DDT के प्रयोग पर प्रतिबन्ध है, परन्तु इसका उपयोग मलेरिँया नियन्त्रण में किया जाता है।

प्रश्न 7.
संकर ओज पर टिप्पणी लिखिए। (2014, 15, 16, 17)
उत्तर
संकर ओज-भिन्न-भिन्न आनुवंशिक संगठन युक्त दो या दो से अधिक जातियों में मौजूद लक्षणों को एक ही जाति में विकसित करने की विधि को संकरण कहते हैं तथा इस प्रकार प्राप्त हुई जातियों को संकर ओज कहते हैं।

प्रश्न 8.
आनुवंशिकीय रूपान्तरित फसलों पर टिप्पणी लिखिए। (2014, 15)
उत्तर
कीट पीड़कों से प्रतिरोधकता विकसित करने की यह पादप प्रजनन विधि है। इस विधि से प्राप्त पौधों पर कीट पीड़कों का कोई प्रभाव नहीं होता। ये पौधे जीवाणु, कवक जीन द्वारा परिवर्तित कर दिये जाते हैं इसलिए इन्हें आनुवंशिकीय रूपान्तरित फसल कहा जाता है। उदाहरणार्थ-बी०टी० फसलें।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए –

  1. BT कपास तथा
  2. हरित क्रान्ति। (2014, 16, 17)

उत्तर
BT कपास
बैसीलस थूरीनजिएंसिस (Bacillus thuringiensis) नामक जीवाणु ऐसी प्रोटीन (जीव विष) को निर्माण करता है जिसमें अनेक प्रकार के कीटों (तम्बाकू का कीट, सैनिक कीट, मूंग कीट) को नष्ट करने की क्षमता होती है। बैसीलस जीवाणु से बनी जीव विष कीटनाशक होता है, लेकिन जीवाणु में निष्क्रिय होता है। कीट में पहुँचते ही सक्रिय हो जाता है तथा कीटों की मृत्यु हो जाती है। जीव विष को बनाने वाली जीवाणु से जीन को पृथक् करके फसलों में समाविष्ट कर देते हैं। इसी प्रकार BT-कपास नामक पौधे का निर्माण कर लिया गया है। BT-कपास पर शलभ (Ballworms) कृमि का प्रभाव नहीं होता है और उत्पादन बढ़ जाता है। जीव विष को बनाने वाली जीन को क्राई (cry) कहते हैं। ये कई प्रकार की होती हैं।

हरित क्रान्ति
भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत के सकल घरेलू उत्पादन की लगभग 33 प्रतिशत आय तथा समष्टि की लगभग 62 प्रतिशत जनता को रोजगार कृषि से प्राप्त होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती हुई जनसंख्या के पोषण की थी क्योंकि यहाँ कृषि योग्य भूमि सीमित थी। इसके लिए वह वृहद् योजना बनाने की आवश्यकता थी जिससे उपलब्ध भूमि में अधिक-से-अधिक पैदावार की जा सके। 1960 ई० के मध्य से पादप प्रजनन की विधियों का उपयोग कर गेहूँ, धान, मक्का आदि की उन्नत संकर किस्में विकसित की गईं। परिणामस्वरूप खाद्य उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई। इसे प्रावस्था को ‘हरित क्रान्ति’ (Green Revolution) के नाम से जाना जाता है। भारत में हरित क्रान्ति के प्रारम्भ हेतु प्रमुख योगदान डॉ० एम०एस० स्वामीनाथन (Dr. M.S. Swaminathan) व डॉ० नॉर्मन बोरलॉग (Dr. Norman Borlog) ने दिया था। अपने इस योगदान के लिए इन्हें अनेक पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए –

  1. BT बैंगन तथा
  2. ऊतक संवर्धन। (2014, 16, 17, 18)

या
पूर्ण शक्तता (टोटीपोटेन्सी) किसे कहते हैं? ऊतक संवर्धन की प्रमुख विधियों का चित्रों की सहायता से वर्णन कीजिए। (2015)
या
ऊतक संवर्धन क्या है? इसके अन्तर्गत आने वाले विभिन्न पदों के नाम लिखिए। (2015, 17)
उत्तर
BT बैंगन
बैसीलस थूरीनजिएंसिस नामक जीवाणु ऐसी प्रोटीन का निर्माण करता है जिसमें अनेक प्रकार के कीटों (तम्बाकू का कीट, सैनिक कीट, मूंग कीट) को नष्ट करने की क्षमता होती है। बेसीलस जीवाणु से बना यह जीव विष कीटनाशक होता है। जीवाणु में निष्क्रिय परन्तु कीट में पहुँचते ही सक्रिय हो जाता है जिससे कीटों की मृत्यु हो जाती है। जीव विष को बनाने वाले जीवाणु से जीव को पृथक् करके बैंगन की फसल में समाविष्ट कर देते हैं। इनसे BT बैंगन का निर्माण होता है जिस पर पीड़कों का कोई प्रभाव नहीं होता है।

ऊतक संवर्धन
इस तकनीक का विकास सर्वप्रथम सन् 1902 में गोटलीब हेबर लेन्डटू द्वारा किया गया। भोजन की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इस तकनीक का उपयोग करते हैं। इसके अन्तर्गत प्रयोगशाला के भीतर पादप कोशिका, ऊतक, अंगों की वृद्धि पात्रों में उपस्थित कृत्रिम संवर्धन माध्यम में करके पौधों की संख्या में अपार वृद्धि करते हैं। एक कोशिका अथवा मूल कोशिका द्वारा पूरा पौधा विकसित करने की क्षमता को पूर्ण शक्तता (टोटीपोटेन्सी) कहते हैं। इस प्रक्रिया को ऊतक संवर्धन (tissue culture) कहते हैं। इस विधि से अल्प काल में हजारों की संख्या में पादपों का उत्पादन किया जाता है। इसे सूक्ष्म प्रवर्धन (micro propagation) भी कहते हैं।

सन् 1957 में स्टीवर्ड नामक वैज्ञानिक ने एकल कोशिका से पूर्ण पौधे की वृद्धि को सिद्ध किया। ऊतक संवर्धन में अनेक वृद्धि नियन्त्रक जैसे- ऑक्सिन (auxin) व साइटोकाइनिन (cytokinine) की आवश्यकता होती है। ऊतक संवर्धन की प्रमुख दो विधियाँ हैं –

  1. प्रयोगशाला में वृद्धि जैसे-कैलस (callus) व निलम्बन संवर्धन,
  2. एक्स प्लान्ट जैसे- मेरीस्टेम संवर्धन, भ्रूण संवर्धक, परागकोश संवर्धन, जीवद्रव्य संवर्धन आदि।

संवर्धन के ये प्रयोग आनुवंशिक इन्जीनियरिंग (genetic engineering) में बहुत लाभदायक हैं, क्योंकि नई किस्म के पौधे उत्पन्न करने में कोशिका संवर्धन एक प्रमुख विधि है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production img-2

प्रश्न 11.
एकल कोशिका प्रोटीन पर टिप्पणी लिखिए।
या
एकल कोशिका प्रोटीन क्या है? किन्हीं दो एकल कोशिका प्रोटीन के वानस्पतिक नाम लिखिए। (2014)
उत्तर
एकल कोशिका प्रोटीन
सूक्ष्मजीवों को मनुष्य तथा पशुओं के पोषण में प्रोटीन के स्रोत के रूप में उपयोग में लाया जा रहा है, जैसे- यीस्ट, स्पाइरुलीना आदि।
एकल कोशिका प्रोटीन द्वारा आवश्यक सभी अमीनो अम्ल शरीर को प्राप्त होते हैं। उच्चवर्गीय पौधों के स्थान पर जीवाणु तथा यीस्ट बेहतर प्रोटीन स्रोत हैं, क्योंकि खाद्य के रूप में प्रयुक्त किए जाने वाले उच्च वर्गीय पौधों में लाइसीन अमीनो अम्ल नहीं पाया जाता है। एकल कोशिका प्रोटीन के उत्पादन के लिए कम जगह की आवश्यकता पड़ती है। इसका उत्पादन जलवायु से भी प्रभावित नहीं होता है। शैवाल, जैसे-स्पाइरुलीना, क्लोरेला तथा सिनेडेस्मस का उपयोग एकल कोशिका प्रोटीन के रूप में किया जा रहा है। स्पाइरुलीना को आलू-संसाधन संयन्त्र से निर्मुक्त अवशिष्ट जल जिसमें स्टार्च की। मात्रा उपस्थित रहती है, में आसानी से उगाया जा सकता है।

यहाँ तक कि इसे भूसा, शीरा, पशु खाद तथा मेल-जल में भी उगाया जा सकता है। स्पाईरुलीना में प्रोटीन के अतिरिक्त खनिज, वसा, कार्बोहाइड्रेट तथा विटामिन भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। प्रदूषित जल में आसानी से उगाए जाने के कारण स्पाइरुलीना का उपयोग पर्यावरणीय प्रदूषण को भी कम करने के लिए किया जाता है। शैवालों के अतिरिक्त कवक, जैसे-यीस्ट (सेकेरोमाइसीज), टॉरुलाप्सिस तथा कैंडिडा का उपयोग भी एकल कोशिका प्रोटीन के रूप में किया जा रहा है। फ्यूजेरियम एवं मशरूम के कवकतन्तु को एकल कोशिका प्रोटीन के रूप में उपयोग बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।

गणना की गई है कि 0.5 टन सोयाबीन से 40 किलोग्राम प्रोटीन प्रति 24 घंटे में प्राप्त हो सकती है। इसकी तुलना में 0.5 टन यीस्ट से उसी समय-सीमा में 50 टन प्रोटीन प्राप्त हो सकती है। इसी प्रकार प्रतिदिन 25 किलोग्राम दूध देने वाली गाय 200 ग्राम प्रोटीन पैदा करती है। इसी समय में 250 ग्राम सूक्ष्मजीव; जैसे-मिथायलोफिलस मिथायलोटोपस 25 टन तक प्रोटीन उत्पन्न कर सकते हैं।

प्रश्न 12.
केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान उत्तर प्रदेश की राजधानी, लखनऊ में स्थित है। यहाँ जैव चिकित्सा विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित अनेक वैज्ञानिक कार्यरत हैं। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् स्थापित होने वाली प्रयोगशालाओं में से यह एक है। इस संस्थान का उद्घाटन 17 फरवरी, 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया था। प्रशासनिक और वैज्ञानिक प्रयोजनों के लिए संस्थान को जनशक्ति, तकनीकी और वैज्ञानिक सहायता उपलब्ध कराने के लिए इसे 17 अनुसंधान एवं विकास विभाग और कुछ डिवीजनों में बाँटा गया है। इनके अलावा इस संस्थान के बाहर स्थित दो डाटा सेंटर और एक फील्ड स्टेशन कार्य कर रहे हैं।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्य के लिए लाभदायक तीन कीटों के जन्तु-वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा उनके उत्पाद का उल्लेख कीजिए। उनमें से किसी एक कीट के जीवन चक्र का वर्णन कीजिए। (2011, 12)
या
रेशम कीट पालन किसे कहते हैं ? रेशम कीट का सचित्र जीवन चक्र लिखिए। (2009, 17)
या
आर्थिक महत्त्व के किन्हीं दो कीटों के नाम लिखिए तथा उनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का मनुष्य के लिए उपयोग बताइए। (2008,09, 15, 16, 17)
या
किन्हीं दो लाभदायक कीटों का वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा उनके द्वारा उत्पादित पदार्थ का नाम एवं मानव द्वारा उपयोग बताइए। (2010, 11, 12, 15)
या
मनुष्य के आर्थिक महत्त्व के किन्हीं तीन कीटों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिये तथा इनके द्वारा उत्पादित पदार्थों की उपयोगिता बताइए। भारतवर्ष में पाए जाने वाले रेशम कीट की विभिन्न प्रजातियों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए। (2014)
या
मनुष्य के लिए लाभदायक किन्हीं दो कीटों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा इनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले उत्पादों का आर्थिक महत्त्व बताइए। (2013, 14, 15)
या
मानव के लिए लाभदायक दो कीटों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए। (2014, 16)
या
आर्थिक महत्त्व के कीटों की एक सूची दीजिए। इनमें से किसी एक द्वारा उत्पादित उत्पादों का उपयोग लिखिए। (2015)
या
टिप्पणी लिखिए-

  1. रेशम,
  2. लाख (2015)

या
किन्हीं दो लाभदायक कीटों के प्राणि वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा उनके उत्पादित पदार्थों का मानव हित में उपयोग बताइए। (2017)
या
रेशम कीट का आर्थिक महत्त्व लिखिए। (2018)
उत्तर
मनुष्य के लिए लाभदायक तीन कीट
1. रेशम कीट (Silkworm = Bombyx mort)
इसकी बॉम्बिक्स मोराइ (Bombyx mori) नामक जाति का शहतूत के वृक्षों पर पालन किया जाता है। इस कीट से उत्तम किस्म का रेशम प्राप्त किया जाता है। इसकी एन्थेरिया पैपिया (Antheraeg pupia) नामक जाति से उच्च कोटि का रेशम टसर प्राप्त किया जाता है।

2. मधुमक्खी (Honey bee = Apis indica)
यह एक सामाजिक, बहुरूपी (polymorphic) कीट है। यह मोम की एक छत्तेनुमा कालोनी बनाकर रहती है। प्रत्येक छत्ते में हजारों की संख्या में षट्भुजीय कोष्ठक होते हैं। अनेक कोष्ठकों को खाद्य भण्डार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है जिनमें यह बहुत मात्रा में शहद (honey) एकत्र रखती है। अन्य कोष्ठकों में इसके बच्चों, अण्डों आदि की देखभाल की जाती है।

एक बड़े छत्ते में एक ऋतु में लगभग 150 किलोग्राम तक शहद प्राप्त हो जाता है। मधु मनुष्य के लिए एक प्राकृतिक शक्तिवर्द्धक एवं रोगाणु रोधक, अम्लीय पदार्थ होता है। इसमें औषधि महत्त्व के लगभग 80 प्रकार के पदार्थ होते हैं।
मधुमक्खी का पूरा छत्ता मोम का बना होता है। मोम प्रायः सफेद अथवा हल्का पीला-सा होता है और अनेक सौन्दर्य प्रसाधनों को तैयार करने के लिए आधार पदार्थ होता है।

3. लाख का कीट (Lac insect = Tachardia lacca)
ये कीट प्रतिकूल वातावरणीय परिस्थितियों तथा शत्रुओं से सुरक्षित रहने के लिए ढाक, साल, पीपल, बरगद, अंजीर आदि वृक्षों पर अण्डे देते समय लाख का रक्षात्मक खोल बनाते हैं। यह 1-2 सेमी मोटी पपड़ी के रूप में होता है। हमारे देश में एक महत्त्वपूर्ण उद्योग के रूप में लाख एकत्र किया जाता है। लाख का उपयोग वार्निश, चमड़ा, मोहरी लाख, बिजली के सामान, खिलौने, बर्तन, चूड़ियाँ आदि बनाने में किया जाता है।

रेशम कीट पालन
रेशम उद्योग का एक रोमांचकारी इतिहास है। कहा जाता है कि लगभग 2600 ईसा पूर्व चीन की एक महारानी सी लिंगची (Si Ling Chi) ने अपनी वाटिका में पेड़ों पर सफेद से रंग के कोकून फलों की भाँति लटके हुए देखे। इन्हें देखकर वह आकर्षित हुई और उनमें से सूक्ष्म धागे उतरवाकर महीन व चमकदार कपड़ा बुनवाया जो बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ। चीनियों ने रेशम के उद्योग को बढ़ाया और गुप्त रखा, किन्तु कुछ समय बाद पुजारियों द्वारा यह रहस्य किसी प्रकार से यूरोप पहुँच गया। अब यह उद्योग यूरोप तथा एशिया के अनेक देशों में प्रचलित है किन्तु अमेरिका में जहाँ पर श्रमिकों की समस्या है वहाँ यह सफल नहीं हो सका।

रेशम प्राप्ति के लिए रेशम कीट का पालन करना रेशम कीट पालन या सेरीकल्चर (sericulture) कहलाता है। यह कार्य चीन, जापान, इटली, स्पेन आदि देशों में बहुत बड़े पैमाने पर किया जाता है। भारत में असम, मैसूर आदि स्थानों पर इनका पालन औद्योगिक महत्त्व के लिए किया जाता है। समूचे विश्व में लगभग 3 हजार करोड़ किग्रा रेशम इन्हीं कीटों से प्राप्त किया जाता है। रेशम इसकी कोकून अवस्था से प्राप्त किया जाता है। 25 हजार कोकूनों से लगभग 1 पौण्ड रेशम प्राप्त होता है। रेशम का उपयोग रेशमी वस्त्र, साड़ियों आदि के निर्माण में किया जाता है।

रेशम कीट का जीवन चक्र
रेशम कीट एकलिंगी (unisexual) होने के कारण नर तथा मादा कीट अलग-अलग होते हैं। रेशम कीट शहतूत की पत्तियों पर पाला जाता है। इनका भोजन शहतूत की पत्तियाँ हैं।
1. अण्डे (Eggs) – मादा रेशमकीट एक बार में 300 से 400 अण्डे शहतूत की पत्तियों पर देती | है। अण्डे देने के बाद मादा कीट भोजन लेना बन्द कर देती है और 4-5 दिन में मर जाती है।
2. डिम्भक (Larva) – अण्डे से 8-10 दिन में चिकना व बेलनाकार लारवा निकलता है, जिसे इल्ली या कैटरपिलर (caterpillar) कहते हैं। इसका रंग सफेद होता है तथा शरीर 13 खण्डों में बँटा होता है। यह अधिक सक्रिय होने के कारण तेजी से शहतूत की पत्तियों को खाता है। शरीर के दोनों ओर 8 जोड़ी श्वासरन्ध्र (spiracles) होते हैं। शहतूत की पत्तियों को खाकर यह तेजी से बड़ा होता है और चार बार त्वक्पतन या निर्मोचन करके 30-35 दिन में 7-8 सेमी लम्बा हो जाती है। परिपक्व इल्ली पत्ती खाना बन्द कर देती है। अब इसमें एक जोड़ी लार ग्रन्थियाँ बन जाती हैं जिनसे निकला लसदार पदार्थ हवा में सूखकर रेशम (silk) के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

प्यूपा तथा उसका कोठून (Pupa and its Cocoon) – इल्ली जब विश्रामावस्था में आ जाती है तो उसके सिर की दोनों लार ग्रन्थियों (salivary glands) से विकसित रेशम ग्रन्थियों से स्रावित एक प्रकार की चिपचिपा पदार्थ लैबियम (labium) के सूक्ष्म रन्ध्रों द्वारा निकलता जाता है। यह पदार्थ वायु के सम्पर्क में आकर पाँच अति महीन सूत्रों के रूप में सूखता जाता है। इसी समय एक गोंद के समान पदार्थ सेरिसिन (sericin) जो दो अन्य ग्रन्थियों से आता है, इन सूत्रों को आपस में चिपकाकर एक ठोस तन्तु के रूप में बदल जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production img-3

इस समय जब ठोस सूत्र का उत्पादन हो रहा होता है तो इल्ली (कैटरपिलर) प्रकाश से हटकर अँधेरे की ओर जाकर अपने सिर को इस तरह घुमाती है कि रेशम तन्तु शरीर पर लिपटता जाता है और तीन-चार दिनों बाद रेशम के महीन तन्तुओं से बना कोकून (cocoon) इल्ली को अपने अन्दर पूर्णतः बन्द कर लेता है। एक कोकून पर लगभग 1000-1500 मीटर लम्बा रेशम का तन्तु होता है। कोकून के अन्दर विश्रामावस्था में इल्ली भूरे रंग के प्यूपा (pupa) में बदल जाती है।

प्यूपा के शरीर से उदर की टाँगें लुप्त हो जाती हैं, वक्ष पर दो जोड़ा पंख बनते हैं तथा शरीर अब कीट की भाँति हो जाता है। यह शिशु कीट ही कोकून को तोड़कर बाहर निकलता है जो रेशम कीट या रेशम शलभ (moth) कहलाता है। एक रेशम कीट का जीवन चक्र लगभग 56 दिनों में पूर्ण होता है। नर व मादा शलभ कोकूनों से निकलने के शीघ्र बाद ही मैथुन करते हैं तथा 3-4 दिनों में मर जाते हैं।

रेशम उद्योग
प्यूपावरण (puparium) के अन्दर जब कीट प्रौढ़ हो जाता है तो वह अपनी क्षारीय लार से कोकून का एक सिरा गला देता है और इसे तोड़कर बाहर निकल आता है। अब यह अपना स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करता है। ऐसा होने से, चूंकि कोकून कट-फट जाता है और उसके सूत्र टूट जाते हैं तो वह रेशम के धागे प्राप्त करने अर्थात् रेशम उद्योग के लिए बेकार हो जाता है। इसलिए पूर्ण रूप से कीट के बनने तथा उसके निकलने के पूर्व ही रेशम उद्योग के लिए कोकून एकत्र कर लिये जाते हैं।

एकत्र किये गये कोकून जिनके अन्दर कीट होता है, उबलते हुए पानी में डाल दिये जाते हैं ताकि उनके अन्दर उपस्थित कीट मर जाये और कोकूनों से महीन तन्तु बिना कटे-फटे उतार लिया जाये।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 9 Strategies for Enhancement in Food Production img-4
रेशम का तन्तु जो कोकून के ऊपर पाया जाता है वह अत्यधिक महीन होता है अतः रेशम बनाने के लिए 6-6 या 8-8 तन्तुओं को ऐंठकर धागे बनाये जाते हैं जिनसे रेशम का कपड़ा तैयार किया जाता है। 454 ग्राम रेशम लगभग 25000 (पच्चीस हजार) कोकूनों से प्राप्त होता है।

प्रश्न 2.
श्रम विभाजन के संदर्भ में मधुमक्खी के विभिन्न प्रारूपों का उल्लेख कीजिए तथा इनके कार्यों का वर्णन कीजिए। (2013)
उत्तर
मधुमक्खी की कॉलोनी बहुत ही सुव्यवस्थित बस्ती होती है। इसके हजारों सदस्य एक ही परिवार के होते हैं। बहुरूपी सदस्य तीन प्रकार के होते हैं –

  1. केवल एक बड़ी-सी रानी मक्खी (queen),
  2. लगभग 100 नर मक्खियाँ या ड्रोन्स (drones) तथा
  3. हजारों (60 हजार तक) छोटी श्रमिक मक्खियों (workers)।

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रानी मक्खी (The Queen) – यह कॉलोनी की सर्वश्रेष्ठ सदस्य होती है, क्योंकि कॉलोनी का मूल अस्तित्व ही इसी के संदर्भ में होता है। यह सामान्यतः लगभग पाँच वर्ष तक जीवित रहती है और अण्डे देने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं करती। इसीलिये इसमें बहुत बड़े अण्डाशय (ovaries) होते हैं। अण्डाशयों के कारण उदर भाग बहुत बड़ा होता है। अत: इसका शरीर एक श्रमिक मक्खी से लगभग पाँच गुना बेड़ा (15 से 20 मिमी लम्बी) और तीन गुना भारी होता है। इसके अन्य अंग-पंख, मुखांग, मस्तिष्क, डंक आदि–कम विकसित होते हैं। लार एवं मोम ग्रंथियाँ नहीं होतीं। इस प्रकार, यह न तो उड़ सकती है और न मधु या मोम बना सकती है। पोषण के लिये इसे पूर्णरूपेण श्रमिक मक्खियों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका डंक कम विकसित होते हुये भी क्रियाशील होता है और इसे यह सुरक्षा (defense) के काम में ला सकती है, परन्तु इसका प्रमुख उपयोग यह अण्डारोपण (oviposition) में करती है। अपने जीवनकाल में यह लगभग पन्द्रह लाख अण्डे देती है। एक दिन में सामान्यत: यह एक से तीन हजार अण्डे देती है, परन्तु अण्डारोपण केवल जननकाल (हमारे देश में शरद ऋतु एवं बसन्त) में होता है।

नर मक्खियाँ या झोन्स (Drones) – छत्ते की लगभग 100 नर मक्खियाँ रानी से काफी छोटी (7 से 15 मिमी लम्बी) परन्तु हृष्ट-पुष्ट होती हैं। इनमें उदर भाग कुछ चौड़ा, पाद लम्बे तथा मस्तिष्क, पंख और नेत्र बड़े होते हैं। इनमें भी लार एवं मोम ग्रन्थियाँ नहीं होतीं। अत: पोषण के लिये ये भी श्रमिक मक्खियों पर निर्भर करती हैं। इनमें डंक भी नहीं होता। अतः ये अपनी सुरक्षा भी नहीं कर सकतीं। इनका एकमात्र कार्य रानी का निषेचन करना होता है। अतः जननकाल में श्रमिक मक्खियाँ इनका उपयुक्त पोषण करती हैं और ये प्राय: छत्ते के बाहर उन्मुक्त उड़-उड़ कर जननकाल में उत्पन्न हुई युवा रानी मक्खियों से सम्भोग करती रहती हैं। जननकाल के बाद, ग्रीष्म ऋतु में, श्रमिक मक्खियाँ नर मक्खियों का तिरस्कार करने लगती हैं और अन्त में गरमी से इन्हें मर जाने के लिये छत्ते से बाहर खदेड़ देती हैं।

श्रमिक मक्खियाँ (Worker Bees) – ये नर मक्खियों से भी छोटी (5 से 10 मिमी लम्बी), परन्तु अपेक्षाकृत अधिक हृष्ट-पुष्ट एवं कुछ गहरे रंग की होती हैं। पंख और मुखांग बहुत मजबूत होते हैं। पूर्ण शरीर पर घने, रोम-सदृश शूक (bristles) होते हैं। दूसरे से पाँचवें उदर खण्डों के अधर तल पर एक-एक जोड़ी जेबनुमा (pocket-like) मोम ग्रन्थियाँ (wax glands) होती हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा स्रावित मोम को श्रमिक मक्खियाँ अपने मैन्डिबल्स द्वारा खूब चबा-चबाकर इससे नये कोष्ठक बनाती हैं। इन मक्खियों के पाद फूल से पराग (pollens) एकत्रित करने के लिये उपयोजित होते हैं। सभी पादों पर कड़े शूकों के पराग ब्रुश (pollen brushes)” तथा तीसरी जोड़ी के (मेटाथोरैक्सी) पादों पर एक-एक “पराग डलियाँ (pollen baskets) होती हैं। जब ये मक्खियों फूलों का रस चूसने जाती हैं। तो इनके मुखांगों एवं शूकों से अनेक पराग कण चिपक जाते हैं। पराग ब्रुशों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों से छुड़ा-छुड़ाकर पराग कणों को पराग डलियों में इकट्ठा किया जाता है।
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अत्यधिक सक्रिय जीवन होने के कारण श्रमिक मक्खियाँ केवल दो से चार महीनों तक ही जीवित रहती हैं। प्रत्येक मक्खी वयस्क बनने के साथ-साथ पहले ही दिन से अथक परिश्रम में जुट जाती है। अत: इनकी कोई बाल्यावस्था नहीं होती। आयु के साथ-साथ इसके कार्य बदलते रहते हैं। तदनुसार प्रत्येक छत्ते की श्रमिक मक्खियों को निम्नलिखित तीन प्रमुख कालवर्गों (age groups) में बाँटा जा सकता है।
1. अपमार्जक या सफाई मक्खियाँ (Scavenger or Sanitary Bees) – वयस्क होते ही पहले तीन दिन प्रत्येक श्रमिक मक्खी रिक्त कोष्ठकों की सफाई करती है।

2. उपचारिका या आया मक्खियाँ (Nurse or House Bees) – चौथे से लगभग पन्द्रहवें दिन तक प्रत्येक श्रमिक मक्खी छत्ते के रख-रखाव एवं शिशुओं के पालन-पोषण से सम्बन्धित विभिन्न कार्य निम्नलिखित क्रम में करती है।

  1. चौथे से छठे दिन तक यह, “उपमाता या धाय (foster mother)” की भाँति, बड़े शिशुओं को मधु एवं पराग का मिश्रण खिलाती है। कभी-कभी यह छत्ते के आस-पास के वातावरण का जायजा लेने हेतु इसके चारों ओर उड़ती है।
  2. सातवें दिन इसकी मैक्सिलरी ग्रन्थियाँ (maxillary glands) सक्रिय हो जाती हैं। इन ग्रंथियों से एक “शाही जैली (royal jelly)’ का स्रावण होने लगता है। अतः अब श्रमिक मक्खी रानी, युवा शिशुओं तथा उन बड़े शिशुओं को जिनका विकास भावी रानियों में होना होता है, शाही जैली खिलाने का काम करने लगती हैं।
  3. लगभग बारहवें दिन की श्रमिक मक्खी में मोम ग्रन्थियाँ सक्रिय हो जाती हैं। अतः अब मक्खी छत्ते की मरम्मत और नये कोष्ठकों के निर्माण का कार्य करने लगती है। मोम ग्रन्थियों से मोम की पपड़ियाँ-सी स्रावित होती हैं। इन्हें मक्खी अपने बिचले (दूसरी जोड़ी के) पादों द्वारा खुरचकर मैन्डिबल्स द्वारा चबाती है और लार में सान-सानकर उपयोग में लाती है। पुराने कोष्ठकों की दीवारों की टूट-फूट एवं दरारों को भरने हेतु ये मक्खियाँ प्रोपोलिस (propolis) नामक एक गोंद-सदृश पदार्थ भी बनाती है। यह पदार्थ भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियों द्वारा पौधों से एकत्रित राल (resin) से बनाया जाता है। बारहवें से लगभग पंद्रहवें दिन तक तीन-चार दिन के इस जीवनकाल में श्रमिक मक्खियाँ, छत्ते की मरम्मत एवं पुनर्निर्माण के अतिरिक्त, अन्य निम्नलिखित कर्तव्य (duties) भी साथ-साथ निभाती रहती हैं।

(a) प्रहरी मक्खियाँ (Sentinel Bees) – इस कर्त्तव्य में श्रमिक मक्खियाँ छत्ते के प्रवेश द्वार पर पहरा देती हैं।
(b) सैनिक मक्खियाँ (Soldier Bees) – इस कर्तव्य में ये घुसपैठियों से छत्ते की सुरक्षा करती हैं। यदि किसी दूसरे परिवार अर्थात् दूसरे छत्ते की मधुमक्खी भी आ जाती है तो सैनिक मक्खियाँ इसे डंकों द्वारा मारकर छत्ते से बाहर फेंक देती हैं। इसके अतिरिक्त ये मक्खियाँ भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियों द्वारा लाये गये पुष्परस (nectar) की जॉच भी करती हैं।
(c) रानी की अंगरक्षक मक्खियाँ (Retinue of Queen) – इस कर्त्तव्य में लगभग पचास मक्खियाँ हर समय रानी मक्खी को घेरे रहती हैं; इसके शरीर की सफाई और सुरक्षा करती हैं, इसके मल को छत्ते से बाहर निकालती हैं, समय-समय पर इसे शाही जैली खिलाती हैं तथा इसके द्वारा दिये गये अण्डों को पृथक् कोष्ठकों में पहुँचाती हैं।
(d) संवाती मक्खियाँ (Fanning Bees) – इस कर्त्तव्य में ये मक्खियाँ अण्डों एवं नन्हें शिशुओं को गरम रखने तथा पंखों को बार-बार फड़फड़ाकर छत्ते की दूषित वायु को बाहर निकालने का काम करती हैं।

3. भोजन-खोजकर्ता (Scout Bees) एवं भोजन-संग्रहकर्ता मक्खियाँ (Foraging or Field Bees) – लगभग पंद्रह दिन की आयु के बाद, प्रत्येक श्रमिक मक्खी अपने जीवन के सबसे कठिन काम में जुट जाती है। भोजन के नये स्रोत की खोज में, या पहले से ज्ञात स्रोतों से जल, पुष्परस एवं पराग एकत्रित करके लाने हेतु यह बार-बार छत्ते से दूर-दूर उड़कर वापस आती है। इस प्रकार यह पुष्परस के लिये छत्ते एवं स्रोत के बीच प्रतिदिन सात से पंद्रह चक्कर लगाती है। स्पष्ट है कि जल भी मधुमक्खी के लिये बहुत आवश्यक होता है। सामान्यतः एक कॉलोनी में प्रतिदिन एक-दो लीटर जल की आवश्यकता होती है। यदि जल की कमी हो जाये तो श्रमिक मक्खियों एक-दो दिन से अधिक जीवित नहीं रह सकतीं।

कुछ वैज्ञानिकों की धारणा है कि उपरोक्त श्रम विभाजन एवं विविध कर्तव्यों के अतिरिक्त, प्रत्येक छत्ते में तीन-चार सबसे पुरानी या वृद्ध श्रमिक मक्खियों को एक नियन्त्रक (controller) दल या नियन्त्रक परिषद (board of directors) होती है जो अन्य सभी मक्खियों की क्रियाओं को नियन्त्रित रखती है।

प्रश्न 3.
मधुमक्खी पालन से आप क्या समझते हैं? मधुमक्खी के जीवन चक्र का सचित्र वर्णन कीजिए। मधुमक्खी पालन द्वारा बनाये हुए पदार्थों के नाम लिखिए। (2014)
या
भारत में पाई जाने वाली किन्हीं दो प्रजाति की शहद की मक्खियों के जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए। इनमें से किसी एक की पालन विधि का वर्णन कीजिए। (2014)
या
टिप्पणी लिखिए-शहद (मधु) (2015)
या
“मधुवाटिकाएँ क्या हैं? मधुमक्खी के जीवन चक्र का सचित्र वर्णन कीजिए। इनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का आर्थिक महत्त्व बताइए। (2017)
उत्तर
मधुमक्खी पालन मधु (शहद) एवं मोम प्राप्त करने हेतु व्यावसायिक स्तर पर मधुमक्खियों को पालना, मधुमक्खी पालन कहलाता है। इसके लिए बड़े-बड़े मधुमक्खी के फॉर्म स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें मधुवाटिकाएँ कहते हैं। इनमें मधुमक्खी पालन वैज्ञानिक विधियों से किया जाता है। भारत में पाई जाने वाली दो प्रजाति की शहद की मक्खियों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. एपिस इण्डिका;
  2. एपिस मेलीफेरो।

मधुमक्खी का जीवन चक्र
एक नए छत्ते की सारी मधुमक्खियाँ एक ही रानी मक्खी की सन्तानें होती हैं। रानी मक्खी के अण्डे दो प्रकार के होते हैं।

  1. निषेचित द्विगुणित अण्डे (Fertilized Diploid Eggs) – इनमें गुणसूत्रों की संख्या 32 होती है। इनके भ्रूणीय परिवर्धन से सपुंसक रानी मक्खियाँ या नपुंसक श्रमिक मक्खियाँ बनती हैं। सम्भवतः रानी मक्खी के शरीर से स्रावित एक पदार्थ, ऐल्फा कीटोग्लूटेरिक अम्ल के प्रभाव से श्रमिक मक्खियाँ नपुंसक हो जाती हैं।
  2. अनिषेचित एकगुणित अण्डे (Unfertilized Haploid Eggs) – इनमें गुणसूत्रों की संख्या 16 होती है। इनके भ्रूणीय परिवर्धन से नर मक्खियाँ अर्थात् ड्रोन्स (drones) बनते हैं।

छत्ते में तीन प्रकार की मक्खियों के विकास हेतु भिन्न प्रकार के कोष्ठक होते हैं-श्रमिकों के लिए छोटे षट्भुजीय, ड्रोन्स के लिए मध्यम माप के षट्भुजीय तथा रानियों के लिए बड़े त्रिभुजाकार से। भ्रूणीय परिवर्धन का समय भी तीनों प्रकार की मक्खियों के लिए भिन्न होता है-श्रमिक के लिए 21, ड्रोन के लिए 14 तथा रानी के लिए 16 दिन। प्रत्येक अण्डे से लगभग तीन दिन बाद एक छोटा-सा, सुंडी जैसा शिशु या लार्वा निकलता है जिसे ग्रब कहते हैं। दो दिन तक प्रत्येक लार्वा को आया मक्खियाँ शाही जैली खिलाती हैं। इसके बाद, रानियों की लार्वी का पोषण तो शाही जैली से ही किया जाता है, परन्तु ड्रोन्स एवं श्रमिक मक्खियों की लार्वी को केवल मधु एवं पराग दिया जाता है।

सक्रिय पोषण के फलस्वरूप, प्रत्येक लार्वा में तीव्र वृद्धि होती है। इस वृद्धिकाल में लार्वा में पाँच बार त्वपतन (moulting or ecdysis) होता है। पाँचवें त्वक्पतन के बाद, प्रत्येक लार्वा के कोष्ठक को श्रमिक मक्खियाँ मोम की एक टोपी से बन्द कर देती हैं। अपने बन्द कोष्ठक में प्रत्येक लार्वा अपने चारों ओर रेशमी धागे का एक कोकून (cocoon) बना लेता है और कोकून के भीतर, कायान्तरण द्वारा, प्यूपा (pupa) में बदल जाता है। कायान्तरण द्वारा प्रत्येक प्यूपा शीघ्र ही एक युवा मक्खी (imago) में बदल जाता है जो अपने मैन्डीबल्स की सहायता से कोकून तथा मोम की टोपी को काटकर बाहर निकल आती है।
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मधुमक्खी पालन द्वारा बनाए गए पदार्थ
मधुमक्खी पालन द्वारा निम्नलिखित पदार्थ बनाए जाते हैं।
1. मधू (Honey) – मधुमक्खियों के छत्तों से हमें प्रतिवर्ष लाखों किलोग्राम मधु और मोम मिलता है। एक 150 ग्राम भार के छत्ते में मधु के भण्डारण हेतु लगभग 9100 मोम के कोष्ठक होते हैं। जिनमें चार किलोग्राम तक मधु भरा हो सकता है। तद्नुसार एक बड़े छत्ते से एक ऋतु में 150 किलोग्राम तक मधु मिल जाता है। एक किलोग्राम मधु बनाने के लिए एक भोजन-संग्रहकर्ता मक्खी को एक से डेढ़ लाख बार पुष्परस लाना पड़ता है। यदि फूल छत्ते से औसतन 1500 मीटर दूर हों, अर्थात् एक बार पुष्परस लाने हेतु भोजन-संग्रहकर्ता को तीन किलोमीटर उड़ना पड़े तो एक किलोग्राम मधु बनाने के लिए इसे 3,60,000 से 4,50,000 किलोमीटर, अर्थात् पृथ्वी के चारों ओर 8 से 11 बार चक्कर लगाने के बराबर उड़ना पड़ेगा।

मधु मनुष्य के लिए एक प्राकृतिक शक्तिवर्धक (tonic) एवं रोगाणुरोधक (antiseptic), अम्लीय पदार्थ होता है। इसमें औषधीय महत्त्व के लगभग 80 प्रकार के पदार्थ होते हैं। प्रमुख पदार्थ होते हैं ग्लूकोस एवं फ्रक्टोस (glucose and fructose), शर्कराएँ, डायस्टेज, इन्वर्टेज, कैटेलेज, परऑक्सीडेज, लाइपेज (diastase, invertase, catalase, peroxidase, lipase) आदि एन्जाइम, कई लाभदायक लवण, कार्बनिक अम्ल (मैलिक, सिट्रिक, टार्टरिक, ऑक्जेलिक-malic, citric, tartaric, Oxalic acid) तथा विटामिन (vitamins)। मधु को घाव पर लगा देने से घाव में रोगाणुओं का संक्रमण (infection) नहीं होता और घाव के शीघ्र ठीक होने में सहायता मिलती है। अतः फोड़ा-फुन्सी, नासूर आदि के इलाज में इसका उपयोग होता है। आँखों की सफाई के लिए इसका काजल की भाँति उपयोग करते हैं। अनेक आयुर्वेदिक दवाइयाँ मधु के साथ खाई जाती हैं। प्राचीनकाल में मृत मानव शरीर को परिरक्षित रखने हेतु इसे शहद में रखा जाता था।

2. मधुमक्खी का मोम (Beeswax) – मधुमक्खी का पूरा छत्ता मोम का बना होता है। मोम प्रायः सफेद, कभी-कभी हल्का पीला-सा होता है। विविध प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनों (cosmetics) को तैयार करने में आधार पदार्थ (base material) के रूप में इसका व्यापक उपयोग होता है। कई प्रकार के औषधीय मरहम एवं तेल भी इससे बनाए जाते हैं। मूर्तियाँ और मॉडल, पेन्ट (paints), जूतों की पॉलिश, संगमरमर को जोड़ने वाला सरेस (glue), काँच पर लिखने वाली पेन्सिलों आदि को बनाने में भी इसका उपयोग होता है।

3. मधुमक्खी का विष (Bee Venom or Apitoxin) – यह एक तेज अम्ल (acid) होता है जिसमें महत्त्वपूर्ण प्रतिजैविक औषधि (antibiotic drug) के गुण होते हैं। रुधिर में पहुँचने पर यह विष शरीर के सुरक्षा तन्त्र (immunity) को सुदृढ़ बनाता है। अतः अन्य विषैले जन्तुओं के दंश, रुधिरक्षीणता (anaemia), गठिया (rheumatism) आदि कई रोगों, तन्त्रिका तन्त्र की गड़बड़ियों, कई प्रकार के नेत्र एवं चर्म रोगों, उच्च रुधिरचाप आदि के उपचार में इस विष का प्रयोग किया जाता है।

मधुमक्खी के छत्ते के सीमेन्ट पदार्थ (propolis) तथा पराग का भी औषधीय उपयोग किया जाता रहा है। स्वयं मधुमक्खी के शरीर से बनाई गई एक औषधि डिफ्थीरिया (diphtheria) रोग के उपचार के लिए काम में लाई जाती है।

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