UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 (Section 1)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 नवजागरण तथा राष्ट्रीयता का विकास (अनुभाग – एक)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नवजागरण से क्या तात्पर्य है ? भारत में नवजागरण के कारणों पर प्रकाश डालिए। [2018]
             या
बीसवीं शताब्दी से पूर्व भारत में नवचेतना जाग्रत करने में सहायक कारकों की व्याख्या कीजिए।
             या
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में समाज-सुधार आन्दोलनों में सहायक किन्हीं दो कारणों को स्पष्ट कीजिए।
             या
भारत में राष्ट्रीय जागरण में सहायक किन्हीं चार कारणों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :

नवजागरण का अर्थ

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में एक ऐसी नवीन चेतना का उदय हुआ, जिसने देश के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन को नवचेतना एवं नवजागरण प्रदान किया, जिसे भारतीय नवजागरण या पुनर्जागरण (Renaissance) के नाम से (UPBoardSolutions.com) पुकारते हैं। “पुनर्जागरण का अर्थ विद्या, कला, विज्ञान, साहित्य और भाषाओं के विकास से लगाया जाता है। भारत में आये जागरण ने पश्चिमी सभ्यता से तर्क, समानता और स्वतन्त्रता की प्रेरणा लेकर भारत के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। इसने प्राचीन भारतीय सभ्यता में उत्पन्न दोषों को दूर करते हुए उसे प्रगति के लिए नवीन आधार और जीवन प्रदान किया। आधुनिक भारत में इस नवजागरण के फलस्वरूप नये सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों का उदय हुआ। प्रारम्भ में नवजागरण आन्दोलन केवल एक बौद्धिक जागृति थी, किन्तु बाद में इस आन्दोलन के फलस्वरूप देश में अनेक महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथा धार्मिक सुधार हुए।

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भारत में नवजागरण के कारण

भारत में नवजागरण के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे –

1. हिन्दू धर्म व समाज के दोष – उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज और हिन्दू धर्म में अनेक दोष उत्पन्न हो गये थे; जैसे-जाति-प्रथा, सती–प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह निषेध, मूर्तिपूजा, छुआछूत, अन्धविश्वास आदि। भारतीय समाज और धर्म की रक्षा के लिए समाज-सुधारकों ने प्रत्येक दोषों और कुरीतियों को दूर करना आवश्यक समझा।

2. राष्ट्रीयता की भावना का विकास – सन् 1857 ई० की क्रान्ति ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न कर दी। इसके फलस्वरूप भारतवासी अपने अधिकारों के लिए तथा समाज-धर्म में व्याप्त बुराइयों को। दूर करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो गये। इससे देश में नवजागरण की लहर उत्पन्न हो गयी।

3. पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार – भारत के राष्ट्रीय नवजागरण में पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीयों का परिचय यूरोप के ऐसे विचारकों से हुआ जो राष्ट्रीयता, लोकतन्त्र तथा स्वतन्त्रता की भावना से परिपूर्ण थे। इससे भारतीयों की मनोवृत्ति में परिवर्तन आने लगा और वे गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए व्याकुल हो उठे।

4. महान् सुधारकों का जन्म – उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के सौभाग्य से देश के विभिन्न भागों में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, सर सैयद अहमद खाँ, गुरु राम सिंह तथा केशवचन्द्र सेन जैसे महापुरुषों ने जन्म लिया। ये उच्चकोटि के विद्वान् तथा सच्चे धर्म-प्रेमी थे। इनमें आत्मविश्वास, दृढ़ निश्चय तथा समाजकल्याण की भावनाएँ प्रबल थीं। इनके प्रयत्नों के फलस्वरूप ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, अलीगढ़ आन्दोलन आदि सुधारवादी आन्दोलनों का जन्म हुआ।

5. प्रेस तथा साहित्य का योगदान – उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम अर्द्ध भाग में अंग्रेजी तथा देशी भाषाओं में अनेक समाचार-पत्र तथा पत्रिकाएँ छपने लगी थीं। सुधारों के लेख प्राय: समाचार-पत्रों में छपते रहते थे। लोकमान्य तिलक, बंकिम चन्द्र (UPBoardSolutions.com) चटर्जी, माइकल मधुसूदन दत्त, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि ने जनता को राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत साहित्य प्रदान किया। इनके द्वारा लिखी पुस्तकें देश के विभिन्न भागों में पहुँच गयीं, जिनसे सुधारों के विचारों का खूब प्रचार-प्रसार हुआ।

6. यातायात तथा डाक-व्यवस्था का प्रभाव – ब्रिटिश सरकार ने भारत में अपने लाभ के लिए यातायात और संचार के साधनों का विकास किया। देश भर में रेल, डाक व तार व्यवस्था के फैल जाने से देश के एक भाग से दूसरे भाग में जाना या सम्पर्क करना आसान हो गया। इससे देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आने लगे और परस्पर विचार-विमर्श करने लगे। इससे जनता में राष्ट्रीय चेतना का संचार होने लगा।

7. विदेशी घटनाओं का प्रभाव – इसी समय विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिन्होंने भारतीयों पर गहरा प्रभाव डाला। इटली और जर्मनी का राजनीतिक एकीकरण (1870-71 ई०), इंग्लैण्ड के सुधार आन्दोलन (1832-67 ई०), अमेरिका में दासों की मुक्ति (1865 ई०) आदि घटनाओं ने भारतीयों के मन में भी राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया।

8. ईसाई धर्म का प्रचार – सन् 1813 ई० के चार्टर ऐक्ट के बाद बहुत अधिक संख्या में ईसाई धर्म के प्रचारक भारत में आये। वे अपने भाषणों में हिन्दू तथा इस्लाम धर्म की कठोर शब्दों में निन्दा करते थे। वे बड़ी संख्या में हिन्दुओं, मुसलमानों तथा सिक्खों को ईसाई बनाने में सफल होने लगे। इन परिस्थितियों में हिन्दू तथा इस्लाम धर्म के शुभचिन्तकों की आँखें खुलीं और उन्होंने अपने धर्म की
बुराइयों को दूर करने के लिए प्रयास प्रारम्भ कर दिये।

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प्रश्न 2.
राजा राममोहन राय के जीवन एवं मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए। [2010, 11, 12]
             या
राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व एवं किन्हीं तीन सामाजिक सुधारों का वर्णन कीजिए।
             या
राजा राममोहन राय कौन थे ? उन्हें आधुनिक भारत का जनक क्यों कहा जाता है ? (2018)
             या
ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की ? ब्रह्म समाज के योगदान पर प्रकाश डालिए। [2012]
             या
ब्रह्म समाज की स्थापना कब हुई थी ? इसके संस्थापक कौन थे ? ब्रह्म समाज ने किन सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया ? किन्हीं चार का उल्लेख कीजिए। [2014]
             या
ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की ? ब्रह्म समाज द्वारा किन सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया गया ? [2014]
             या
राजा राममोहन राय के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2015]
             या
भारतीय नवजागरण में राजा राममोहन राय का क्या योगदान था? [2016]
             या
राजा राममोहन राय कौन थे? इनके प्रमुख योगदान का वर्णन कीजिए। [2016, 17]
             या
19 वीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण में राजा राममोहन राय के योगदान की विवेचना कीजिए। [2018]
उतर :
राजा राममोहन राय को भारत के नवजागरण का अग्रदूत कहा जाता है। ये पहले भारतीय थे जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में सुधारों के युग का श्रीगणेश किया। इन्हीं के कार्यों के परिणामस्वरूप भारत में नवजागरण की शुरुआत हुई तथा भारत आज (UPBoardSolutions.com) आधुनिक रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है। इसी कारण उन्हें ‘आधुनिक भारत का जनक’ भी कहा जाता है।

राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1774 ई० को बंगाल के हुगली जिले में हुआ था। ये बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न तथा उच्चकोटि के विद्वान् थे। इन्होंने दस भाषाओं में पाण्डित्य प्राप्त किया था तथा अपना अधिकांश जीवन भारतीय समाज की बुराइयों को दूर करने में लगाया। निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाएगा कि ये भारत के नवजागरण के अग्रदूत तथा आधुनिक भारत के जनक थे

1. ब्रह्म समाज के संस्थापक – भारतीय समाज एवं धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के उद्देश्य से राजा राममोहन राय ने 20 अगस्त, 1828 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) में एक ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की। यही सभा आगे चलकर ‘ब्रह्म समाज’ कहलायी। शीघ्र ही यह राष्ट्रीय संस्था बन गयी। इस संस्था के माध्यम से इन्होंने ही सर्वप्रथम देश में अनेक सामाजिक-धार्मिक सुधार के कार्य किये अर्थात् ब्रह्म समाज द्वारा उन्होंने देश में नवजागरण का कार्य प्रारम्भ किया।

2. ब्रह्म समाज के आदर्श – ब्रह्म समाज के आदर्श तथा सिद्धान्त उच्चकोटि के थे। इनमें पुराने आदर्शों का समावेश तो था ही, साथ में नवीन तार्किक विचारों को भी समुचित महत्त्व दिया गया था। इन्होंने बहुदेववाद का खण्डन करते हुए एक ईश्वर की पूजा पर बल दिया। मूर्तिपूजा व धार्मिक कर्मकाण्डों तथा आडम्बरों पर इन्होंने तीव्र प्रहार किया। जाति-पाँति और ऊँच-नीच के भेदभाव का विरोध किया और लाखों लोगों को ईसाई होने से बचा लिया।

3. सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त – राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने दृढ़ संकल्प, पूर्ण विश्वास तथा गम्भीरता से भारत के पिछड़े अन्धविश्वासी समाज में नयी रोशनी का दीप जलाया। इन्होंने बाल-विवाह, सती–प्रथा, बहु-विवाह, पर्दा-प्रथा, छुआछूत आदि का जोरदार विरोध किया। इन्हीं के विचारों से प्रभावित होकर लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने 1829 ई० में सती–प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। विधवा-पुनर्विवाह को न्यायसंगत (UPBoardSolutions.com) ठहराते हुए इन्होंने इसके पक्ष में जनमत तैयार किया। पुरुषों के समान ही स्त्रियों के अधिकारों का समर्थन करते हुए इन्होंने स्त्रियों के सामाजिक उत्थान का बीड़ा उठाया।

4. पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन – राजा राममोहन राय पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति के आधार पर भारत का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। इनका मानना था कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार के बिना सामाजिक कुरीतियाँ दूर नहीं हो सकतीं। इन्हीं के विचारों से सहमत होकर लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा लागू की। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन के लिए देश में अनेक शिक्षण-संस्थाएँ खोली गयीं। ये स्त्री-शिक्षा के भी बड़े समर्थक थे।

5. राजनीतिक जागृति लाने में योगदान – यद्यपि राजा राममोहन राय ने प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में भाग नहीं लिया, किन्तु इन्होंने देश में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया तथा लोगों को एकता के सूत्र में बाँधने के प्रयास किये। इन्होंने विचारों की अभिव्यक्ति तथा प्रेस की स्वतन्त्रता पर बल दिया, जिससे लोगों में जागृति आये।। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राजा राममोहन राय भारत में नवजागरण के अग्रदूत’ तथा आधुनिक भारत के जनक’ थे। इन्हीं के दृढ़ संकल्प तथा गम्भीर प्रयासों से भारत में सामाजिक व धार्मिक सुधारों के युग का शुभारम्भ हुआ। इसीलिए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था, “राजा (UPBoardSolutions.com) राममोहन राय ने भारत में नये युग का सूत्रपात किया। वस्तुतः वे आधुनिक भारत के जनक थे।”

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प्रश्न 3.
स्वामी दयानन्द सरस्वती का संक्षिप्त परिचय देते हुए आर्य समाज के सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय दीजिए। [2012, 13, 15, 16, 17]
             या
आर्य समाज की स्थापना किसने किस मुख्य उद्देश्य से की थी ? इसके धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों का वर्णन कीजिए। इसका क्या योगदान रहा ?
             या
आर्य समाज के प्रमुख चार सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए। [2016]
             या
उन्नीसवीं शताब्दी के पुनर्जागरण में स्वामी दयानन्द के योगदान की विवेचना कीजिए। [2010]
             या
स्वामी दयानन्द का जीवन-परिचय दीजिए। [2011]
             या
आर्य समाज की स्थापना किसने की ? इसका मुख्य कार्य क्या है ? [2013]
             या
स्वामी दयानन्द सरस्वती कौन थे ? उनके प्रमुख कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2012]
             या
आर्य समाज की स्थापना कब और किसके द्वारा की गयी ? इनके द्वारा किए गए किन्हीं चार समाज-सुधारों का वर्णन कीजिए। (2015)
             या
आर्य समाज की स्थापना किसने की थी ? उनके मुख्य सिद्धान्त व कार्य का वर्णन कीजिए। (2015, 16)
             या
भारतीय नवजागरण में स्वामी दयानन्द का क्या योगदान था? [2016]
उत्तर :
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती थे। उनका जन्म 1824 ई० में काठियावाड़ के एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। अल्प आयु में ही इनमें हिन्दू धर्म में व्याप्त आडम्बरों के प्रति विद्रोह की भावना जाग उठी। 22 वर्ष की आयु में ही इन्होंने संन्यास ले लिया। उसके बाद 15 वर्ष तक वे ज्ञान-प्राप्ति के उद्देश्य से जगह-जगह विद्वानों तथा संन्यासियों से मिलते रहे। सन् 1861 ई० में इन्होंने स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया। तीन वर्ष तक गुरु से शिक्षा ग्रहण की तथा वेदों का गहन अध्ययन किया। वेदों ने उनकी सारी जिज्ञासाओं को शान्त किया। इन्होंने अनुभव किया कि वेदों के आधार पर भारतीय समाज का पुनः निर्माण किया जा सकता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यों की गौरवशाली परम्पराओं की श्रेष्ठता को पुन: स्थापित करने के उद्देश्य से 10 अप्रैल, 1875 ई० में बम्बई (मुम्बई) में आर्य समाज की स्थापना की। इन्होंने भारतवासियों में अपने राष्ट्र, संस्कृति, धर्म और भाषा के (UPBoardSolutions.com) प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के अथक प्रयास किये। स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म के मूलभूत तत्त्वों पर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की।

सुधारों पर बल

धर्म-सुधार कार्य – आर्य समाज के धर्म-सुधार सम्बन्धी मूलभूत कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. आर्य समाज ने हिन्दुओं में उनके प्राचीन धर्म-ग्रन्थ वेदों के प्रति आस्था उत्पन्न की। वेदों को सत्य और सभी ज्ञान-विज्ञान का स्रोत बताकर हिन्दू धर्म व संस्कृति की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया। परिणामस्वरूप हिन्दुओं में आत्मविश्वास का संचार हुआ।
  2. स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म को इस्लाम तथा ईसाई धर्म के खतरे से बचाया।
  3. स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म पर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा।
  4. हिन्दू धर्म को छोड़कर गये हिन्दुओं को (UPBoardSolutions.com) पुनः हिन्दू धर्म में वापस लिया। साथ ही ईसाई और मुसलमानों को भी हिन्दू धर्म स्वीकार करने के लिए आमन्त्रित किया।
  5. मूर्तिपूजा, पाखण्ड तथा अन्धविश्वासों का खण्डन किया।
  6. महँगे और जटिल हिन्दू संस्कारों के स्थान पर सुलभ और सरल संस्कार की विधि अपनायी।

समाज-सुधार कार्य – आर्य समाज के समाज-सुधार सम्बन्धी मूलभूत कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. जातीय भेदभाव की समाप्ति के लिए जाति-भेद निवारक संघ की स्थापना की गयी।
  2. वेश्यावृत्ति की समाप्ति हेतु आवश्यक कानून बनाने के लिए प्रस्ताव पेश किये गये।
  3. बहु-विवाह, बाल-विवाह, सती–प्रथा, पर्दा-प्रथा आदि के विरोध के लिए जनमत तैयार किया गया।
  4. आर्यसमाजी पद्धति से सम्पन्न अन्तर्जातीय विवाहों को कानूनसम्मत बनाया गया।

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योगदान

शिक्षा के क्षेत्र में योगदान – आर्य समाज के शिक्षा के क्षेत्र में निम्नलिखित योगदान रहे –

  1. समाज के सर्वांगीण विकास और बौद्धिक जागृति के लिए सम्पूर्ण देश में डी०ए०वी० (दयानन्द ऐंग्लो-वेदिक) शिक्षण केन्द्रों की स्थापना की गयी।
  2. प्राचीन शिक्षा-पद्धति के आधार पर अनेक गुरुकुल (UPBoardSolutions.com) शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की गयी।
  3. हरिद्वार में गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी।

राष्ट्रीय भावना का विकास – राष्ट्रीयता की भावना के विकास में आर्य समाज का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। स्वामी दयानन्द ने ही सर्वप्रथम ‘स्वराज्य’ और ‘स्वदेशी’ शब्दों का प्रयोग किया था। हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने वाले पहले व्यक्ति भी वही थे।

आर्य समाज के सिद्धान्त

आर्य समाज के मूलभूत सिद्धान्त अथवा शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं –

  1. ईश्वर ही एकमात्र ज्ञान का प्रमुख कारण है। वह सत्य है। विद्या और वे पदार्थ जो विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका मूल परमेश्वर है।
  2. ईश्वर सत्यं, शिवं, सुन्दरं, शाश्वत, असीमित, दयावान, अजन्मा, सर्वशक्तिमान, अतुलनीय एवं अपरिवर्तनीय है, अत: उसकी उपासना करनी चाहिए। मूर्तिपूजा निरर्थक है।
  3. सत्य को ग्रहण करना चाहिए और असत्य को त्यागने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। सभी कार्य धर्मानुसार अर्थात् उचित-अनुचित और सत्य-असत्य का विचार करके करना चाहिए।
  4. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए, अर्थात् अज्ञान के अन्धकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाना चाहिए।
  5. सबसे प्रेमपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।
  6. आर्यों का ज्ञान वेदों में संकलित है; अत: प्रत्येक आर्य के लिए वेदों का अध्ययन परम धर्म एवं कर्तव्य है, ऐसा मानकर इनका अध्ययन करना चाहिए।
  7. संसार में भलाई का कार्य करना समाज का मुख्य उद्देश्य है; अत: सबको अपनी उन्नति के साथ-साथ अन्य की भी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
  8. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति से ही सन्तुष्ट न होकर सबकी उन्नति को अपनी उन्नति समझना चाहिए।
  9. सार्वजनिक कल्याण के विरुद्ध कोई कार्य नहीं (UPBoardSolutions.com) करना चाहिए। 10. ऊँच-नीच, छुआछूत, जाति-पाँति आदि वेदों की मान्यताओं के विरुद्ध हैं। इनका त्याग करना चाहिए।

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प्रश्न 4.
स्वामी विवेकानन्द के जीवन, कार्यों एवं उपदेशों का विवरण दीजिए। [2010, 14]
             या
स्वामी विवेकानन्द के जीवन की प्रमुख घटनाओं तथा उनके सामाजिक-धार्मिक योगदान का वर्णन कीजिए।
             या
स्वामी विवेकानन्द को हम क्यों याद करते हैं ? दो कारण लिखिए। [2010, 13]
             या
स्वामी विवेकानन्द का परिचय देते हुए उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन के सिद्धान्तों और सेवा-कार्यों पर प्रकाश डालिए।
             या
स्वामी विवेकानन्द पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2011]
             या
स्वामी विवेकानन्द कौन थे ? उनकी लोकप्रियता के क्या कारण हैं? [2011, 18]
             या
विवेकानन्द के व्यक्तित्व एवं कार्यों पर प्रकाश डालिए। [2013]
             या
रामकृष्ण मिशन की स्थापना के सिद्धान्तों और कार्यों का वर्णन कीजिए। रामकृष्ण मिशन के सेवा कार्यों का वर्णन कीजिए। [2009]
उत्तर :

धार्मिक और सामाजिक योगदान

स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञान और दर्शन से समस्त विश्व को आलोकित किया। 12 जनवरी, 1863 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) के एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में इनका जन्म हुआ। इनका बचपन का नाम नरेन्द्रदत्त था। ये बड़ी ही प्रखर बुद्धि के नवयुवक थे। पहले ये पाश्चात्य संस्कृति को उत्तम मानते थे, परन्तु गुरु रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आने पर इनके विचार परिवर्तित हो गये। ये इस निर्णय पर पहुँचे कि सत्य या ईश्वर को जानने का सच्चा मार्ग अनुरागपूर्ण साधना का मार्ग ही है। सन् 1893 ई० में ये शिकागो के सर्वधर्मसम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। इनकी ओजस्वी वाणी से जो विचार प्रस्फुटित हुए उसका सम्मोहन वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति तथा विश्व-जगत् पर छा गया। स्त्री-पुरुष इनकी एक झलक पाने के लिए ही उतावले हो गये। सन् 1897 ई० में इन्होंने धर्म और समाज-सुधार के कार्य (UPBoardSolutions.com) को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से वेल्लूर में रामकृष्ण परमहंस मिशन की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द ने मानवता की सच्चे अर्थों में सेवा की। इन्होंने धार्मिक पाखण्ड, जाति-प्रथा, अस्पृश्यता, बाल-विवाह तथा देवदासी-प्रथा का घोर विरोध किया, किन्तु ये मूर्ति-पूजा के समर्थक थे और मूर्ति पूजा को आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में एक प्रारम्भिक अवस्था मानते थे। ये बुराई का उन्मूलन शिक्षा द्वारा करना चाहते थे। 14 जुलाई, 1902 ई० में 39 वर्ष की अल्पायु में ही इनका स्वर्गवास हो गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि “यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकानन्द को पढ़ना चाहिए।’

रामकृष्ण मिशन के सिद्धान्त (उपदेश) निम्नलिखित हैं –

  1. ईश्वर निराकार तथा सर्वव्यापक है। वह सभी पर दयालु है। आत्मा ईश्वरीय रूप ही है। ईश्वर की सच्ची उपासना करनी चाहिए। इस ईश्वर की उपासना करते हुए प्रेम-मार्ग में लोक-कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
  2. हिन्दू धर्म, हिन्दू सभ्यता और हिन्दू रहन-सहन सबसे प्राचीनतम है, श्रेष्ठ है, सुन्दर है, शिव है। इसने दूसरों को भी प्रेरणा दी है और संसार का प्रथम शिक्षक भी यही है।
  3. प्रत्येक हिन्दू को अपनी सभ्यता और अपने धर्म की सुरक्षा में वृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। तथा पाश्चात्य भौतिक चमक-दमक से दूर रहना चाहिए।
  4. प्रत्येक व्यक्ति को सादा, पवित्र व त्यागमय जीवन व्यतीत करना चाहिए तथा मानवता की सेवा करनी चाहिए।
  5. सभी धर्म अच्छे हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म में आस्था तथा विश्वास रखना चाहिए।

रामकृष्ण मिशन के कार्य – समाज-सुधार को रामकृष्ण मिशन में प्रमुखता दी गयी है। समाज में व्याप्त कुप्रथाओं को दूर करने के लिए सक्रिय प्रयास किये गये हैं। दीन-दुःखियों की सेवा तथा सहायता करने का भी निर्देश दिया गया है। ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन पर भी इस मिशन में बल दिया गया है। इसलिए शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना का कार्य यहाँ भी प्रमुख रूप से हुआ। इस मिशन द्वारा विदेशों में भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता का (UPBoardSolutions.com) प्रचार किया गया। नवजागरण में यह बहुत ही व्यावहारिक योगदान था। भारत के शिक्षित युवकों पर भी इस मिशन का अच्छा प्रभाव रहा है। देश पर आने वाले संकटों का सामना करने की दशा में भी इस संस्था ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

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प्रश्न 5.
किन्हीं दो मुस्लिम-सुधार आन्दोलनों का वर्णन कीजिए। उसका तत्कालीन मुस्लिम समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ? (2013)
             या
अलीगढ़ आन्दोलन क्या था ? यह मुस्लिम समुदाय के लिए किस प्रकार लाभकारी था ?
             या
सर सैयद अहमद खाँ ने मुसलमानों में व्याप्त किन कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया ?
             या
अलीगढ़ आन्दोलन के प्रवर्तक कौन थे? इस आन्दोलन ने मुस्लिम समाज को जाग्रत करने में क्या योगदान दिया ?
             या
वहाबी आन्दोलन क्यों प्रारम्भ हुआ ?
             या
अलीगढ़ आन्दोलन का क्या उद्देश्य था? इसके मुख्य प्रवर्तक कौन थे? उनके किसी एक महत्त्वपूर्ण योगदान का उल्लेख कीजिए। (2018)
             या
निम्नलिखित मुस्लिम सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए (2017)
(क) वहाबी आन्दोलन, (ख) अलीगढ़ आन्दोलन तथा (ग) देवबन्द आन्दोलन।
उत्तर :
प्रारम्भ में जो सुधार आन्दोलन हुए वे प्रायः हिन्दू धर्म और समाज से सम्बन्धित रहे; अत: मुस्लिम समाज उनसे अपेक्षित लाभ न उठा सका। मुस्लिम समाज की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति अच्छी न थी। हिन्दू आन्दोलन की प्रतिक्रियास्वरूप (UPBoardSolutions.com) मुस्लिम समाज के आधुनिकीकरण के लिए भी सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुए। इन आन्दोलनों ने जहाँ सामाजिक बुराइयों को दूर करने में योगदान दिया, वहीं भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना के उत्थान में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। ये आन्दोलन निम्नलिखित थे –

(1) सैयद अहमद बरेलवी : वहाबी आन्दोलन
मुस्लिम समाज में अनेक सुधारात्मक आन्दोलन फले-फूले। इनमें वहाबी आन्दोलन एक प्रमुख आन्दोलन था। यह आन्दोलन अठारहवीं शताब्दी में अरब में मुहम्मद अब्दुल वहाब ने आरम्भ किया। भारत में वहाबी आन्दोलन के जन्मदाता सैयद अहमद बरेलवी (1787-1831 ई०) थे। इन्होंने कुरान को जनसाधारण में सरलता से समझाने के लिए उर्दू भाषा में अनूदित करवाया। वहाबी आन्दोलन का उद्देश्ये मुस्लिम जगत् में चेतना, धर्म-सुधार और संगठन उत्पन्न करना रहा। इन्होंने मुसलमानों के जीवन से अनेक बुराइयों को दूर करके इस्लाम धर्म की वास्तविक पवित्रता को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया तथा पाश्चात्य सभ्यता का विरोध किया। इस आन्दोलन के दो प्रमुख उद्देश्य थे-अपने धर्म का प्रचार एवं मुस्लिम समाज में सुधार।

(2) सर सैयद अहमद खाँ : अलीगढ़ आन्दोलन
मुस्लिम समाज में जागृति उत्पन्न करने में सर सैयद अहमद खाँ का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने इस्लामी शिक्षा का गहन अध्ययन किया तथा पाश्चात्य शिक्षा का ज्ञान भी प्राप्त किया। इन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया तथा मुस्लिमों में नवजागरण का कार्य सम्पन्न किया। इनके द्वारा किये गये प्रमुख सुधार-कार्य इस प्रकार थे

  1. इन्होंने मुस्लिम समाज के आधुनिकीकरण के लिए अंग्रेजी के अध्ययन पर बल दिया। इसी उद्देश्य से इन्होंने 1875 ई० में अलीगढ़ में ‘मोहम्मडन ऐंग्लो ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना की, जो बाद में अलीगढ़ विश्वविद्यालय में परिणत हो गया।
  2. इन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों और धार्मिक अन्धविश्वासों का खुलकर विरोध किया।
  3. इस्लाम को मानवतावादी स्वरूप देने का प्रयत्न किया।
  4. इन्होंने सभी समुदायों को परस्पर भ्रातृ-भाव से रहने की सलाह दी।
  5. इन्होंने स्त्रियों में पर्दा-प्रथा का विरोध किया तथा स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया।

अलीगढ़ आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता चिराग अली, अल्ताफ हुसैन, नज़ीर अहमद तथा मौलाना शिवली नोगानी थे। अलीगढ़ आन्दोलन मुस्लिम जगत् में सुधार का महान् आन्दोलन था। ये हिन्दू और मुसलमानों की एकता के भी पक्षपाती थे।

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(3) मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी : अहमदिया आन्दोलन
मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी (1838-1908 ई०) ने 1889 ई० में अहमदिया आन्दोलन का सूत्रपात किया। इन पर पाश्चात्य विचारधारा, थियोसॉफिकल सोसायटी और हिन्दुओं के सुधार आन्दोलन को पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इनसे प्रभावित होकर इन्होंने इस्लाम धर्म को सरल और व्यापक बनाने के लिए यह आन्दोलन चलाया। इनका सब धर्मों की मौलिक एकता में विश्वास था। ये गैर-मुस्लिम लोगों से घृणा करने और जिहाद के विरुद्ध थे। ये सच्चे धर्म-सुधारक थे। ये पर्दा-प्रथा, बहु-विवाह तथा तलाक के समर्थक थे। इनकी पुस्तक का नाम ‘बराहीन-ए-अहमदिया है। इनके समर्थकों की संख्या बहुत कम थी तथा इन्हें ‘नबी’ के नाम से पुकारा जाता था।

(4) देवबन्द आन्दोलन
एक मुसलमान उलेमा, जो प्राचीन मुस्लिम साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे, ने देवबन्द आन्दोलन चलाया। उन्होंने मुहम्मद कासिम तथा रशीद अहमद गंगोही के नेतृत्व में देवबन्द (सहारनपुर, उत्तर प्रदेश) में शिक्षण-संस्था की स्थापना की। इस आन्दोलन के दो मुख्य उद्देश्य रहे-कुरान तथा हदीस की शिक्षाओं का प्रसार करना और विदेशी शासकों के विरुद्ध जेहाद’ की भावना को बनाये रखना। देवबन्द आन्दोलन ने 1885 (UPBoardSolutions.com) ई० में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का स्वागत किया। इनके अतिरिक्त नदवा-उल-उलूम (लखनऊ, 1894 ई०, मौलाना शिवली नोगानी), महल-ए-हदीस (पंजाब, मौलाना सैयद नज़ीर हुसैन) नामक मुस्लिम संस्थाओं ने भी मुस्लिम समाज को जाग्रत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

इन मुस्लिम आन्दोलनों ने मुसलमानों में राजनीतिक तथा सामाजिक चेतना की वृद्धि की; जिसके परिणामस्वरूप मुसलमानों की स्थिति में पर्याप्त सुधार हुए। इन्होंने पाश्चात्य रीति-रिवाजों को देखा और उनके प्रभावस्वरूप मुस्लिम समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को समाप्त कर दिया। इन आन्दोलनों के नेताओं ने नारी-शिक्षा की ओर भी ध्यान देना प्रारम्भ किया। यद्यपि मुसलमानों में इस चेतना के जागने से साम्प्रदायिकता की भावना प्रबल हो गयी और देश में हिन्दू-मुसलमानों के मध्य झगड़े होने लगे, तथापि इन आन्दोलनों के फलस्वरूप ही अनेक देशभक्तों व राष्ट्रीय मुस्लिम नेताओं का उदय भी हुआ।

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प्रश्न 6.
नवजागरण का सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
             या
नवजागरण के तत्कालीन समाज पर पड़ने वाले चार प्रभावों का वर्णन कीजिए।
             या
उन्नीसवीं शताब्दी में भारतवर्ष में हुए धार्मिक एवं समाज सुधार आन्दोलनों ने किस प्रकार सामाजिक उत्थान में योगदान किया? [2016]
उत्तर :
नवजागरण का प्रभाव नवजागरण का भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके प्रभाव से समाज का कोई भी अंग अछूता ने रहा। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। भारतीय समाज में एक नयी चेतना, स्फूर्ति और शक्ति का संचार हुआ। नवजागरण के भारतीय समाज पर निम्नलिखित प्रमुख प्रभाव पड़े

1. सामाजिक कुरीतियों में कमी – सुधार आन्दोलन से पहले भारतीय समाज में अनेक बुराइयाँ व्याप्त थीं। सभी सुधारों ने एक स्वर से इन कुरीतियों पर तीव्र प्रहार किया। इन आन्दोलनों से प्रभावित होकर अंग्रेजी सरकार ने कुप्रथाओं (UPBoardSolutions.com) को समाप्त करने के लिए कानून बनाये। सन् 1829 ई० में सती–प्रथा के विरुद्ध कानून बनाया गया तथा 1843 ई० में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया तथा 1856 ई० में विधवाओं को पुनर्विवाह की कानूनी अनुमति मिल गयी। इसी प्रकार बहु-विवाह तथा पर्दा-प्रथा में कमी आयी। छुआछूत के विरुद्ध भी भावनाएँ पनपने लगीं। अत: नवजागरण के फलस्वरूप सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध एक सशक्त वातावरण तैयार हो गया।

2. प्राचीन भारतीय साहित्य के अध्ययन में वृद्धि – उन्नीसवीं शताब्दी के सुधार आन्दोलनों का एक प्रमुख प्रभाव यह पड़ा कि भारतवासियों में अपने प्राचीन दर्शन, साहित्य, कला तथा विज्ञान के अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न हुई। देश के प्राचीन इतिहास तथा धार्मिक ग्रन्थों की खोज प्रारम्भ हो गयी, संस्कृत भाषा का तीव्रती से प्रसार हुआ, प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों का बड़े पैमाने पर प्रकाशन किया जाने लगा तथा भारतीय अपने देश के प्राचीन ग्रन्थों को बड़ी रुचि से पढ़ने लगे। इस सम्बन्ध में मैक्समूलर जैसे पाश्चात्य विद्वानों का बड़ा योगदान रहा।

3. भारतीय सभ्यता-संस्कृति के प्रति रुझान – पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार के कारण देश के शिक्षित लोग भारतीय सभ्यता-संस्कृति की उपेक्षा करने लगे थे। विभिन्न सुधार आन्दोलनों ने इस प्रवृत्ति पर रोक लगायी तथा भारतीयों में अपने धर्म, संस्कृति तथा जीवन-दर्शन के प्रति प्रेम उत्पन्न किया। आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन और थियोसॉफिकल सोसायटी के प्रयासों के परिणामस्वरूप भारतीय जनमानस फिर से अपने धर्म तथा संस्कृति पर गर्व करने लगा।

4. बुद्धिवादी दृष्टिकोण का विकास – नवजागरण का एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि शिक्षित लोग धार्मिक, सामाजिक तथा अन्य समस्याओं पर बुद्धि और तर्क के आधार पर विचार करने लगे। अब वे प्राचीन रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं के अन्ध-भक्त नहीं रहे वरन् तार्किक दृष्टि तथा अनुभव के आधार पर समस्याओं के हल ढूंढ़ने लगे।

5. पाश्चात्य शिक्षा को बढ़ावा – सर्वप्रथम राजा राममोहन राय के प्रयासों से देश में अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति का प्रारम्भ हुआ। परिणामतः पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, स्वतन्त्रता, समानता, लोकतन्त्र आदि विचारों से भारतीय परिचित और प्रभावित हुए। पाश्चात्य शिक्षा के कारण भारत में जन-जागरण की शुरुआत हो गयी।

6. धार्मिक आडम्बरों में कमी – नवजागरण के कारण भारतीयों के धार्मिक जीवन में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सुधार आन्दोलनों ने मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्डों का तीव्र विरोध किया। इससे धार्मिक आडम्बरों में कमी आयी, पुरोहितों का प्रभाव कम हुआ तथा मठों-मन्दिरों में फैले दुराचारों में भी कमी आयी।

7. स्त्रियों की दशा में सुधार – समाज-सुधार आन्दोलनों के परिणामस्वरूप स्त्रियों की दशा में बहुत सुधार हुआ। सती–प्रथा, बाल-विवाह, कन्या-वध आदि पर रोक लगाये जाने तथा विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति मिलने से स्त्रियों का समाज में (UPBoardSolutions.com) सम्मान बढ़ा। सभी सुधारकों ने स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल दिया। इन आन्दोलनों के फलस्वरूप भारतीय स्त्रियों ने आगे चलकर स्वतन्त्रता-संग्राम में पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर योगदान दिया।

8. साहित्य का विकास – साहित्य के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नवजागरण एवं नवोत्थान की भावनाओं का सूत्रपात किया। अपने ‘भारत दुर्दशा’ नामक नाटक में इन्होंने विदेशी शासन से उत्पन्न दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया। बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘आनन्दमठ’ की रचना करके भारतीय नवजागरण तथा राष्ट्रीय नवचेतना में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। इनके द्वारा रचित ‘वन्देमातरम्’ गीत राष्ट्रीय जागृति का महान् प्रेरक बना। अनेकानेक साहित्यकारों ने भारतीय भाषाओं में रचनाएँ करके देश की मान-मर्यादा एवं साहित्य की गरिमा को बढ़ाया।

9. राष्ट्रीय एकता तथा देशभक्ति की भावना का उदय – तत्कालीन सुधार आन्दोलन तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक व्यवस्था को सुधारने के लिए किये गये थे, किन्तु उन्होंने राष्ट्रीयता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। नवजागरण के फलस्वरूप लोगों में राष्ट्रीय एकता की भावना जाग्रत हुई। वे जाति, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के भेदभाव को भुलाकर अपने को भारतवासी मानने लगे। इससे राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार हुआ, जिसने धीरे-धीरे देश-प्रेम तथा देश-भक्ति की भावना को जन्म दिया। लोगों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भावनाएँ जोर पकड़ती गयीं। राष्ट्रीयता की यही भावना भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की आधारशिला बनी। हजारों भारतीय नवयुवक देश की स्वाधीनता हेतु अपने प्राण भी देने के लिए तैयार हो गये। परिणामस्वरूप मई, 1857 ई० में मेरठ में क्रान्ति के प्रारम्भ होने के बाद स्वाधीनता संग्राम धीरे-धीरे समूचे देश में फैल गया।

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प्रश्न 7.
भारत में राष्ट्रीयता के उदय पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।
उत्तर :

भारत में राष्ट्रीयता का उदय

भारत में चले सुधार आन्दोलनों के द्वारा समाज में चले आ रहे अन्धविश्वासों, कुरीतियों एवं कुप्रथाओं को दूर करने का निरन्तर प्रयास किया गया। नवजागरण ने अंग्रेजों द्वारा शोषित भारतीयों के मन में असन्तोष व क्रोध की भावना का संचार किया। धीरे-धीरे भारतीयों के हृदय में आत्मविश्वास तथा नवचेतना पैदा हुई। इस नवचेतना ने राष्ट्रीयता की भावना को जन्म दिया, जिससे प्रेरणा प्राप्त कर भारतवासी अपने देश की स्वतन्त्रता की माँग करने लगे।

आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन भारत पर अंग्रेजों द्वारा किए गए अधिकार की चुनौती का उत्तर था। विदेशी शासन द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय भावना का विकास किया। जिसका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष परिणाम भारत में राष्ट्रीय (UPBoardSolutions.com) आन्दोलन की परिस्थितियों का निर्माण था।

कारण-अंग्रेजी शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर अत्यन्त विनाशकारी प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति’ ने भारतीय कुटीर उद्योग, कृषि एवं व्यापार को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप भारतीय बेरोजगार हो गए एवं उनकी अर्थव्यवस्था खस्ता हाल होने लगी।

वास्तव में प्रशासनिक सुविधाएँ, सैनिक रक्षा के उद्देश्य, आर्थिक व्यापार तथा व्यापारिक शोषण की बालों को ध्यान में रखते हुए ही परिवहन के तीव्र साधनों की अनेक योजनाएँ बनीं। सन् 1853 ई० में लॉर्ड डलहौजी द्वारा शुरू की गई रेल प्रणाली के विकास के साथ-ही-साथ परिवहन के अन्य साधनों ने प्रान्तों को नगरों से तथा नगरों को गाँवों से जोड़ दिया गया। इससे भारतीयों में विचारों का परस्पर आदान-प्रदान होने लगा।

सन् 1850 ई० के बाद शुरू हुई आधुनिक डाक-व्यवस्था तथा बिजली के तार ने देश को एक करने में सहायता की। अन्तर्देशीय-पत्र, समाचार-पत्र तथा पार्सलों को कम दर में भेजने की व्यवस्था ने देश के सामाजिक, शैक्षणिक, बौद्धिक तथा राजनीतिक जीवन में एक भारी परिवर्तन ला दिया। डाकखानों के द्वारा राष्ट्रीय साहित्य पूरे देश में भेजा जा सकता था।

लॉर्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी कार्य; जैसे—दिल्ली दरबार, वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट, आर्क्स ऐक्ट, ICS की परीक्षा की आयु 21 वर्ष करना, द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध आदि ने राष्ट्रीयता के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।

भारत के सबसे लोकप्रिय वायसराय लॉर्ड रिपन के समय में इल्बर्ट बिल पारित हुआ। परन्तु इस अधिनियम की यूरोपियों में हुई कटु प्रतिक्रिया के कारण वायसराय द्वारा इसे वापस लेना पड़ा। इसका भारतीय जनता पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा।

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प्रश्न 8.
भारत में राष्ट्रीयता के उदय के कारणों पर प्रकाश डालिए।
             या
सन् 1857 ई० से 1885 ई० के मध्य भारत में राष्ट्रीय चेतना के विकास के प्रमुख कारणों की व्याख्या कीजिए। [2010]
             या
भारत में राष्ट्रीय जागृति के उद्भव के उत्तरदायी कारणों की विवेचना कीजिए।
             या
राष्ट्रीय जागरण के तीन सामाजिक तथा तीन राजनैतिक कारण लिखिए [2014]
             या
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में राजनीतिक चेतना के विकास के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिए। [2016]
उत्तर :
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का तेजी से विकास हुआ, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे –

1. अंग्रेजों द्वारा आर्थिक शोषण – पहले ईस्ट इण्डिया कम्पनी और बाद में ब्रिटिश शासन ने भारतीय लोगों का भरपूर आर्थिक शोषण किया। दोषपूर्ण भूमि-कर व्यवस्था के कारण किसानों को अपनी भूमि-सम्पत्ति से वंचित होना पड़ा। नव-जमींदार र्ग कृषित भूमि का वास्तविक स्वामी बन बैठा। अकाल आदि प्राकृतिक प्रकोपों ने निर्धन जनता पर अत्यधिक बोझ डाल दिया। दस्तकार तथा शिल्पकार बेरोजगार हो गये। उद्योगपति और (UPBoardSolutions.com) व्यापारी वर्ग को भी आर्थिक क्षति हुई। इन भयंकर परिस्थितियों में लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति गहरा आक्रोश पैदा हुआ। वे ब्रिटिश शासन को जड़ से उखाड़ने के लिए कृतसंकल्प हो गये।

2. देश को प्रशासनिक एकीकरण – अंग्रेजों ने प्रशासनिक सुविधा के लिए देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँधा। इससे भारत एक राष्ट्र के रूप में उदित हुआ। देश की जनता में अंग्रेजों के प्रशासन तथा शोषण के विरुद्ध एके राष्ट्रीय दृष्टिकोण का उदय तथा विकास हुआ।

3. पाश्चात्य चिन्तन तथा शिक्षा – पाश्चात्य शिक्षा के माध्यम से भारतीय लोग पाश्चात्य चिन्तन से | परिचित हुए, जिससे लोगों में राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ। पाश्चात्य दार्शनिकों, विचारकों तथा लेखकों के विचारों ने भारतीयों में स्वतन्त्रता, समानता, लोकतन्त्र तथा देशभक्ति की भावनाओं का संचार किया।

4. सांस्कृतिक विरासत – अपने अतीत का पुनरीक्षण करके कुछ भारतीयों में अपनी पुरातन सांस्कृतिक विरासत से गर्व तथा त्य-सन्तोष को अन्डी भावना जाग्रत हुई। इस भावना के कारण कुछ ले नवीन विचारधाराओं तथा प्रवृत्ति से विमुख अवश्य हुए, किन्तु साथ ही विदेशियों से स्वयं को मुक्त करने का उत्साह भी उनमें जागा।

5. सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन – राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, सैयद अहमद खाँ आदि हिन्दू तथा मुस्लिम समाज-सुधारकों ने अनेक सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन चलाये। इन आन्दोलनों से भारतीय लोगों में नवजीवन का संचार हुआ, उनमें सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना जागी।

6. जातीय भेदभाव तथा ईसाई धर्म में अन्तरण – अंग्रेजों ने जातिभेद की नीति अपनायी तथा भारतीय लोगों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए अनेक प्रलोभन दिये। इस जबरदस्ती धर्मान्तरण के कारण भारतीयों के | हृदय में क्षोभ तथा अपमान की भावनाएँ पैदा हुईं। परिणामस्वरूप वे अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध जाग्रतहुए।

7. ब्रिटिश प्रशासन –लॉर्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी शासनकाल में वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट, आर्स ऐक्ट आदि नये विनियमों ने भारतीयों के हृदय में अंग्रेजों के शासन के प्रति रोष पैदा किया। लॉर्ड रिपन के काल में इल्बर्ट बिल के विरुद्ध यूरोपीय लोगों की जातीय कटुता को देख भारतीय लोग चकित रह गये। इन अनुभवों ने भारतीयों को राष्ट्रीय स्तर पर संगठित होकर आन्दोलन के लिए तैयार किया।

8. प्रेस की भूमिका – उन्नीसवीं शताब्दी में अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, हिन्द, ट्रिब्यून आदि समाचार-पत्र और पत्रिकाओं ने जनता में राष्ट्रवादी विचारधारा को फैलाने में बहुत योगदान दिया। प्रेस ने अंग्रेजों की अन्याय तथा भेदभावपूर्ण नीतियों का खण्डन करके भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। तिलक ने ‘केसरी’ के माध्यम से लोगों में अथाह धैर्य और साहस का संचार किया। देश के विभिन्न भागों के नेताओं तथा लोगों को परस्पर एक सूत्र में बाँधते हुए प्रेस ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को गति दी।

9. अन्तर्राष्ट्रीय जागरण का प्रभाव – विश्व के अनेक देशों में स्वतन्त्रता के लिए संग्राम हुए और वे स्वतन्त्रता प्राप्त करने में सफल भी हुए। इन सभी अन्तर्राष्ट्रीय जागरण की घटनाओं से भारतीयों में भी राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ।

10. भारतीयों के साथ भेदभाव – भारतीयों को अंग्रेजों के समान अधिकार प्रदान नहीं किये गये थे। राज्यों के उच्च पदों पर भारतीयों को अनेक आधारों पर अयोग्य बताते हुए नियुक्त नहीं किया जाता था। ऐसी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के साथ 1869 ई० में और अरविन्द (UPBoardSolutions.com) घोष के साथ 1877 ई० में हुआ। भारतीयों के साथ इस प्रकार का भेदभाव अपनाये जाने से बुद्धिजीवी वर्ग में अत्यधिक असन्तोष पैदा हुआ और वे राष्ट्रीय जागरण के कार्य में लग गये।

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प्रश्न 9.
भारतीय उदारवादियों के कार्यक्रम तथा उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में ए०ओ० ह्युम नामक अंग्रेज क्यों रुचि ले रहे थे?
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किस प्रकार हुई ? आरम्भ में इसके उद्देश्य, कार्यक्रम तथा कार्य-प्रणाली क्या थी ?
             या
प्रारम्भ में कांग्रेस के क्या उद्देश्य थे ? इसकी प्रारम्भिक नीति को उदारवादी नीति क्यों कहा जाता है ? इसका परित्याग करके उग्र राष्ट्रवाद की नीति क्यों अपनायी गयी ? [2009, 11]
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारम्भिक चरण में उदारवादियों का आधिपत्य था।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2010]
             या
उदारवादी नेताओं के प्रमुख उद्देश्यों को लिखिए।
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसने की थी ? आरम्भ में इसके क्या उद्देश्य थे? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन उद्देश्य लिखिए। [2014]
             या
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब, कहाँ और किसके द्वारा की गयी? इसके तीन मुख्य उद्देश्य लिखिए। [2015, 17]
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब और कहाँ की गयी? इसके प्रमुख उद्देश्य क्या थे? (2016)
             या
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब की गयी? इसके प्रथम अध्यक्ष कौन थे? इसके प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :
सन् 1885 ई० में भारतीय सिविल सर्विस के रिटायर्ड अधिकारी सर ए०ओ० ह्युम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की दिशा में पहल की। इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों को यह प्रेरणा दी कि वे एक ऐसी संस्था का निर्माण करें जो भारतीयों के सामाजिक, राजनीतिक तथा आध्यात्मिक जीवन का उत्थान कर सके। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन ने भी इस दिशा में सहयोग दिया, क्योंकि इस प्रकार की संस्था से भारतीयों की (UPBoardSolutions.com) इच्छा तथा कार्यक्रमों का पता चलता रहता और ब्रिटिश सरकार उचित कार्रवाई करके 1857 ई० की क्रान्ति जैसी अप्रिय घटना की पुनरावृत्ति न होने देती। सन् 1884 ई० में मद्रास (चेन्नई) में दीवान बहादुर रघुनाथ राय के निवास पर एक अखिल भारतीय संस्था की स्थापना की योजना बनी, जिसके फलस्वरूप 1885 ई० में इस संस्था की स्थापना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में हुई। कांग्रेस की स्थापना में दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयब जी आदि ने भी सहयोग दिया। कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 1885 ई० में व्योमेशचन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में बम्बई में हुआ था। द्वितीय अधिवेशन 1886 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में तथा तीसरा अधिवेशन मद्रास(चेन्नई) में बदरुद्दीन तैयब जी की अध्यक्षता में हुआ था।

सन् 1885-1905 ई० में उदारवादियों के उद्देश्य तथा कार्यक्रम

कांग्रेस के आरम्भिक दौर में नरमपन्थी नेताओं; जैसे-दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले आदि का प्रभुत्व बना रहा। उनके उद्देश्य तथा कार्य निम्नलिखित थे

  1. उन्होंने विधानसभाओं की शक्तियों के विस्तार तथा स्वशासन में प्रशिक्षण की माँग की।
  2. उन्होंने आर्थिक सुधारों के अन्तर्गत गरीबी को दूर करने के लिए कृषि का विकास करने, भू-राजस्व कम करने तथा उद्योगों के विस्तार की माँग की।
  3. उन्होंने प्रशासकीय सेवाओं के उच्च पदों का भारतीयकरण करने की माँग की।
  4. उन्होंने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए भाषण तथा प्रेस की स्वतन्त्रता की माँग की।

इस प्रकार भारतीय नेताओं ने राष्ट्रीय जागृति पैदा की तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनमत तैयार किया। इन मेताओं ने एक राजनीतिक तथा आर्थिक कार्यक्रम देकर देशवासियों को एक ही मंच से राष्ट्रीय संघर्ष करने के लिए तैयार किया।

उदारवादियों की कार्यप्रणाली

  1. अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इन नेताओं ने शान्तिपूर्ण संवैधानिक तरीके अपनाये।
  2. उन्हें ब्रिटिश शासकों की न्यायप्रियता पर पूरा विश्वास था; अत: उन्होंने ब्रिटिश शासकों से मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखा।
  3. वे संवैधानिक सुधारों में विश्वास करते थे; अतः वे याचिकाएँ, अपीलें, निवेदन-पत्र आदि ब्रिटिश सरकार को इस आशा से भेजते थे कि वह उन पर सहानुभूतिपूर्ण ढंग से विचार करेगी तथा उनकी माँगों को स्वीकार करेगी। इसी कारण इनकी कार्यप्रणाली तथा नीतियों को उदारवादी नीति कहा जाता है। कुछ अन्य विद्वान इन उदारवादी नेताओं की कार्यप्रणाली को ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ की संज्ञा भी देते हैं।

उपलब्धियाँ

ब्रिटिश सरकार ने नरमपन्थियों से कोई सहयोग नहीं किया; अतः ये नेता अपने उद्देश्य की प्राप्ति में विफल रहे। इसलिए 1905 ई० के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन की बागडोर गरमपन्थी नेताओं के हाथों में चली गयी, जो क्रान्तिकारी साधनों द्वारा अपना उद्देश्य प्राप्त करना चाहते थे।

उग्र राष्ट्रवाद की नीति अपनाने के कारण – उदारवादी युग की 20 (UPBoardSolutions.com) वर्षों की लम्बी अवधि में भी कांग्रेस लोगों में जागृति पैदा करने में सफल न हो सकी। उदारवादी आन्दोलन की सफलता अंग्रेजों की सहानुभूति और दया पर निर्भर थी। कांग्रेस को आन्दोलन जनता का आन्दोलन न था।

उदारवादियों ने सरकार से रियायतें माँगीं, स्वतन्त्रता नहीं। इसको आधार बलिदान नहीं था। बंकिम चन्द्र चटर्जी ने इस आन्दोलन को भिक्षावृत्ति की संज्ञा दी। लाला लाजपत राय ने लिखा कि 20 वर्षों के आन्दोलन के बाद भी रोटी के स्थान पर अंग्रेजों से पत्थर ही मिले।

उदारवादी अंग्रेजी ताज के प्रति भक्ति-भाव रखते थे। उनकी एक और गलती यह थी कि उनका विश्वास था कि यदि अंग्रेज भारत से चले गये तो भारतीय हितों की हानि होगी। उदारवादी लोगों की आकांक्षाओं को समझ न सके। वे यह भी न समझ सके कि भारतीयों और अंग्रेजों के हित एक-दूसरे के विरोधी हैं। इसलिए बिना लड़े अंग्रेज अपने अधिकारों को छोड़ने को तैयार न थे।

सन् 1915 ई० तक उदारवादी नेताओं का कांग्रेस पर पूरा अधिकार था, परन्तु धीरे-धीरे उग्रवादी नेताओं ने उनके नेतृत्व को चुनौती दी और अन्ततः 1923 ई० में उदारवादी युग पूरी तरह समाप्त हो गया।

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प्रश्न 10.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महात्मा गांधी का क्या योगदान था ? [2010]
             या
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये आन्दोलनों का मूल्यांकन कीजिए। [2014]
             या
भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गांधी जी द्वारा चलाये गये तीन प्रमुख आन्दोलनों का वर्णन कीजिए। [2014, 15, 16, 17, 18]
उत्तर :
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महात्मा गांधी का योगदान प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन ने बहुत जोर पकड़ लिया। इसी समय महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रवेश किया और वे शीघ्र ही राष्ट्रवादियों के सर्वप्रिय नेता बन गये। सन् 1920 ई० से 1947 ई० तक इन्होंने अपनी असाधरण योग्यता से स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व किया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गांधी की भूमिका अद्वितीय है। इसी कारण 1919 ई० से 1947 ई० तक के काल को ‘गांधी युग’ कहा जाता है। गांधी जी का समस्त आन्दोलन सत्य, अहिंसा, शान्तिपूर्ण विरोध तथा साधने व साध्य के औचित्य पर आधारित था। महात्मा गांधी का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान निम्नलिखित है

1. असहयोग आन्दोलन – यह महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये आन्दोलनों में प्रथम महत्त्वपूर्ण आन्दोलन था। पंजाब में हो रही नृशंस घटनाओं पर रोक लगाने के उद्देश्य से गांधी जी ने 1920 ई० में असहयोग आन्दोलन का आरम्भ किया। इस आन्दोलन का उद्देश्य सरकार से किसी भी प्रकार का सहयोग न करना था। इसका आरम्भ गांधी जी ने अपनी ‘केसरे-हिन्द’ की उपाधि को गवर्नर जनरल को लौटाकर किया। जनता ने भी बड़ा उत्साह दिखाया। सैकड़ों व्यक्तियों ने अपनी-अपनी उपाधियाँ त्याग दीं। हजारों छात्रों ने स्कूल तथा कॉलेज छोड़ दिये। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया तथा विदेशी वस्त्रों की होली जलायी गयी। चुनावों, सरकारी नौकरियों, संस्थाओं तथा उत्सवों का बहिष्कार किया गया। गांधी जी के आह्वान पर प्रिंस ऑफ वेल्स (ब्रिटेन के युवराज) के भारत आगमन पर उनका देश-भर में बहिष्कार किया गया। 5 फरवरी, 1922 ई० को चौरी-चौरा गाँव में हुई हिंसात्मक घटना से दुःखी होकर गांधी जी ने इस आन्दोलन को स्थगित कर दिया। इस आन्दोलन के स्थगित (UPBoardSolutions.com) होने पर सरकार ने राजद्रोह के आरोप में गांधी जी को 6 वर्ष के लिए बन्दी बना लिया।

2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन – सन् 1929 ई० में कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति’ को अपना लक्ष्य घोषित किया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गांधी जी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन का प्रारम्भ महात्मा गांधी ने गुजरात के डाण्डी नामक स्थान पर नमक बनाकर सरकार के नमक-कानून को तोड़कर किया। सन् 1931 ई० में गांधी-इर्विन समझौता हुआ। गांधी जी ने आन्दोलन स्थगित करके द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेना स्वीकार किया, किन्तु वार्ता के विफल होने पर पुनः आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया गया। यह आन्दोलन 1934 ई० तक चलता रहा।

3. व्यक्तिगत सत्याग्रह – अंग्रेजी सरकार ने भारतीयों को द्वितीय विश्वयुद्ध में नेताओं के साथ कोई परामर्श किये बिना ही धकेल दिया था। परिणामतः 1940-41 ई० में महात्मा गांधी के नेतृत्व में सरकार के इस कदम का विरोध करने हेतु सत्याग्रह आन्दोलन चलाया गया था।

4. भारत छोड़ो आन्दोलन – 8 अगस्त, 1942 ई० को कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पास किया गया। गांधी जी ने देशवासियों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया, किन्तु अगले दिन 9 अगस्त की सुबह ही महात्मा गांधी तथा अन्य महत्त्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इन गिरफ्तारियों की जनता में भयंकर प्रतिक्रिया हुई और समस्त भारत में प्रदर्शन, हड़तालें, तोड़फोड़, सरकारी इमारतों को आग लगाना, थानों व पुलिस चौकियों पर हमले आदि घटनाएँ हुईं। अनेक स्थानों पर विद्रोहियों ने अस्थायी नियन्त्रण कायम कर लिया। यद्यपि अंग्रेज सरकार आन्दोलन को कुचलने में सफल हो गयी तथापि पाँच वर्ष बाद ही वह भारत को छोड़ने के लिए विवश हुई। यह एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन था, जिसका श्रेय मुख्यतया महात्मा गांधी को प्राप्त है।

5. भारत का विभाजन तथा स्वतन्त्रता की प्राप्ति – 3 जून, 1947 ई० को लॉर्ड माउण्टबेटन ने घोषणा की कि 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत का विभाजन कर दिया जाएगा। यद्यपि कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया, किन्तु गांधी जी ने इसका विरोध किया। भारत के विभाजन के समय महात्मा गांधी ने बंगाल (नोआखाली) में साम्प्रदायिक आधार पर होने वाले रक्तपात को रोका। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन को जन-आन्दोलन बनाया तथा ब्रिटिश साम्राज्यवादी शिकंजे से भारत को मुक्त कराने में अद्वितीय योगदान दिया। केवल यही नहीं अपितु हिन्दू-मुस्लिम एकता, हरिजनोद्धार, महिलाओं की (UPBoardSolutions.com) स्थिति में सुधार, स्वदेशी भावना का प्रचार आदि महात्मा गांधी की अन्य महत्त्वपूर्ण देन हैं। राष्ट्र को अभूतपूर्व योगदान के कारण ही महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता है।

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प्रश्न 11.
भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के योगदान पर प्रकाश डालिए। उसका क्या परिणाम हुआ ?
             या
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सुभाषचन्द्र बोस तथा उनळी आजाद हिन्द फौज की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
             या
सुभाषचन्द्र बोस पर टिप्पणी लिखिए। [2014]
             या
भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में सुभाषचन्द्र बोस के योगदान की विवेचना कीजिए। [2015, 16]
उत्तर :
सुभाषचन्द्र बोस को जन्म 23 जनवरी, 1897 ई० में कटक में हुआ था। वे जन्मजात क्रान्तिकारी थे। भारत के स्वतन्त्रता के इतिहास में सुभाषचन्द्र बोस का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपनी आई०सी०एस० की नौकरी को छोड़कर सुभाष राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े। असहयोग आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उन्होंने गांधी जी को पूरा सहयोग दिया। प्रिंस ऑफ वेल्स के बहिष्कार आन्दोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया, जिस कारण अंग्रेज सरकार ने उन्हें दिसम्बर, 1921 ई० में 6 महीने के लिए जेल भेज दिया।

जब गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया तो सुभाषचन्द्र बोस को बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने गांधी जी का साथ छोड़ दिया। इसके बाद वे स्वराज्य पार्टी की स्थापना के कार्य में लग गये। सन् 1924 ई० में सरकार ने उन पर क्रान्तिकारी षड्यन्त्र का आरोप लगाकर उन्हें बन्दी बना लिया। सन् 1929 ई० में उन्हें रिहा कर दिया गया। सन् 1929 ई० में जब कांग्रेस ने अपना उद्देश्य पूर्ण स्वराज्य घोषित किया तो वे फिर से कांग्रेस में सम्मिलित हो गये।

सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस की उदारवादी नीति से बहुत असन्तुष्ट थे, क्योंकि वे सशस्त्र क्रान्ति के पक्ष में थे। इस बीच वे बीमार पड़ गये और इलाज के लिए यूरोप चले गये। सन् 1936 ई० में भारत लौटने पर उन्होंने पुनः स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। सन् (UPBoardSolutions.com) 1938 ई० में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये, किन्तु कुछ , समय पश्चात् कांग्रेस से अलग हो गये और ‘फारवर्ड ब्लॉक’ नामक एक नया संगठन बनाया।

ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें सरकार विरोधी होने का आरोप लगाकर जेल भेजा गया तथा बाद में घर पर ही नजरबन्द कर दिया गया। सन् 1941 ई० में सुभाष ब्रिटिश सरकार को चकमा देकर भारत से बाहर चले गय और अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुँच गये। जापानी सहायता से ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए फरवरी, 1943 ई० में वे जापान पहुँचे। जापानी सरकार की सहायता से उन्होंने ‘आजाद हिन्द फौज’ को गठन किया और अपने अनुयायियों को जयहिन्द’ का नारा दिया। भारत को स्वतन्त्रता दिलाने हेतु उनकी सेना ने उत्तर-पूर्व की ओर से भारत पर आक्रमण कर दिया। आजाद हिन्द फौज आगे बढ़ती हुई असम तक आ पहुँची, किन्तु उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान हार गया। इसके परिणामस्वरूप आजाद हिन्द फौज को जापान से सहायता मिलनी बन्द हो गयी और उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उन्हीं दिनों एक वायुयान दुर्घटना में सुभाष जी की मृत्यु हो गयी।

परिणाम – डॉ० वी०पी० वर्मा के अनुसार, “एक राजनीतिक कार्यकर्ता तथा नेता के रूप में बोस ओजस्वी राष्ट्रवाद के समर्थक थे। देशभक्ति उनके व्यक्तित्व का सार तथा उनकी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति थी। ऐसे राष्ट्रवादी नेता के संघर्ष का परिणाम उत्साहवर्धक ही होना था।

उनके द्वारा गठित आजाद हिन्द फौज का नारा–“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”- युवाओं में स्वाधीनता की भावना तीव्र करने में मील का पत्थर साबित हुआ। सुभाषचन्द्र बोस क्रान्तिकारी और राष्ट्रवादी नेता थे। उनके प्रयासों से भारतीयों में राजनीतिक चेतना तीव्रतम रूप में अभिव्यक्त हुई। वे इतने अच्छे वक्ता थे कि जो भी उनको सुनता राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत हो पक्का देशभक्त बन जाता।

सुभाषचन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज का भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष में बड़ा (UPBoardSolutions.com) महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत की आजादी के लिए उन्होंने जो बलिदान किये उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता।

प्रश्न 12.
गरम दल के प्रमुख नेताओं ‘लाल-बाल-पाल’ के कार्यों एवं योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
             या
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर टिप्पणी लिखिए।
             या
लाल-बाल-पाल से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
लाल-बाल-पाल कांग्रेस के तीन प्रमुख नेताओं की एक तिकड़ी थी। ये तीनों नेता कांग्रेस की उग्र या गरम विचारधारा के नेता थे। इनका विचार था कि ब्रिटिश सरकार से स्वराज्य या कोई अन्य सुविधा, उग्रवादी विद्रोह करके ही प्राप्त की जा सकती है। इन्होंने 1907 ई० में कांग्रेस की भिक्षावृत्ति की नीति से असन्तुष्ट होकर कांग्रेस का विभाजन करते हुए उग्रवादी दल का निर्माण किया। लाला लाजपत राय (लाल) पंजाब में सक्रिय थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (बाल) महाराष्ट्र में तथा बिपिनचन्द्र पाल (पाल) बंगाल में सक्रिय थे। इन सभी ने अपने क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभायी। इनका जीवन-परिचय तथा योगदान निम्नलिखित है –

1. लाला लाजपत राय – पंजाब केसरी लाला लाजपत राय स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रमुख कर्णधार थे। इनका जन्म 28 जनवरी, 1865 ई० को पंजाब के फिरोजपुर जिले में हुआ था। आप एक पत्रकार, वकील, शिक्षाशास्त्री, राजनीतिक नेता, समाज-सुधारक तथा सच्चे देशभक्त थे। इन्होंने लोकमान्य तिलक के साथ मिलकर क्रान्तिकारी आन्दोलन का संचालन किया। पंजाब में सामाजिक सुधारों के कार्यों को भी इन्होंने शुरू किया। सन् 1896 ई० में आपने इंग्लैण्ड जाकर वहाँ की जनता को भारतीयों के कष्टों से अवगत कराया। सन् 1905 ई० में इन्होंने कांग्रेस के माध्यम से स्वतन्त्रता आन्दोलन का कार्य शुरू किया था। ये सक्रिय (UPBoardSolutions.com) आन्दोलन के कारण कई बार जेल भी गये। सन् 1923 ई० में आप केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्य चुने गये। सन् 1928 ई० के साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व करते समय इन्हें पुलिस की लाठी से घातक चोट लग गयी थी। 17 नवम्बर, 1928 ई० को इनका देहान्त हो गया।

2. बाल गंगाधर तिलक – बाल गंगाधर तिलक भारत के महान् राष्ट्रीय नेता थे। इनका जन्म 23 जुलाई, 1856 ई० को महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये उग्र विचारधारा के समर्थक थे, इसलिए कांग्रेस में गरम दल के जन्मदाता थे। इनका कहना था कि, ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। और हम उसे लेकर रहेंगे।’ इन्होंने दो समाचार-पत्र ‘मराठा’ और ‘केसरी’ निकाले तथा महाराष्ट्र में ‘शिवाजी उत्सव’ और ‘गणपति उत्सव’ का शुभारम्भ किया। अपने त्याग, तपस्या और देशभक्ति से वे’लोकमान्य’ बन गये। सन् 1893 ई० के अकाल और प्लेग के समय इन्होंने पीड़ितों की बहुत सेवा की। इन्होंने जनता में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की, भिक्षावृत्ति का विरोध किया, भारतीय संस्कृति व जीवन-मूल्यों की पुनः स्थापना की तथा विभिन्न आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया। जन-आन्दोलन चलाने के कारण इन्हें जेल में बन्द कर दिया गया। सन् 1914 ई० में ये जेल से मुक्त होकर बाहर आये। इसके बाद होमरूल आन्दोलन के कर्णधार बन गये। इन्होंने स्वराज्य की महत्ता पर विशेष बल दिया था। तिलक जी 1918 ई० में इंग्लैण्ड भी गये। वहाँ से लौटने के बाद ये अधिकांशतः बीमार रहने लगे और 1 अगस्त, 1920 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया।

3. बिपिनचन्द्र पाल – बिपिनचन्द्र पाल का जन्म 7 नवम्बर, 1858 ई० को हबीगंज (वर्तमान में बांग्लादेश) में हुआ था। इन्होंने राष्ट्र के दलों को इस प्रकार संगठित करने की बात कही जिससे कोई भी शक्ति, जो हमारे मुकाबले में आये, हमारी इच्छा के सामने दबने को मजबूर हो जाए। इनका मानना था कि हमें अंग्रेजी सरकार को पूर्ण बहिष्कार करना चाहिए। यदि हम सरकार को नौकरी करने वाले आदमी न दें तो हम सरकार की कार्यप्रणाली को असम्भव बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त भी प्रशासन की कार्य-पद्धति को कई तरह से असम्भव बनाया जा सकता है।

सन् 1907 ई० में बिपिनचन्द्र पाल ने मद्रास (चेन्नई) प्रान्त का दौरा किया और स्वराज्य का नारा बुलन्द किया। उन्हें 6 महीने जेल में रखा गया था, क्योंकि उन्होंने अरविन्द घोष के विरुद्ध गवाही देने से मना कर दिया था। जेल से रिहा होते ही उन्होंने एक सार्वजनिक सभा की, स्वराज्य का झण्डा फहराया और प्रत्येक विदेशी वस्तु का बहिष्कार करने का निश्चय किया। वास्तव में, बिपिनचन्द्र पाल खुले आम सरकार की सत्ता की अवहेलना करने के (UPBoardSolutions.com) पक्षधर थे। वे भारतीयों के मन से ब्रिटिश सरकार का भय निकालकर, उनमें स्वदेशी की भावना का संचार करना चाहते थे। 20 मई, 1932 ई० को इनका स्वर्गवास हो गया।

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प्रश्न 13.
मुस्लिम लीग की स्थापना कब हुई ? इसकी नीतियों का वर्णन कीजिए। इसका क्या प्रभाव पड़ा ? (2011)
             या
मुस्लिम लीग के दो मुख्य उद्देश्यों की विवेचना कीजिए। उसकी नीति के किन्हीं तीन परिणामों का वर्णन कीजिए।
             या
मुस्लिम लीग के मुख्य सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए। भारतीय राजनीति में उसके प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 ई० में हुई, जो अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का परिणाम थी। भारत में राष्ट्रवादी आन्दोलन के उदय को ब्रिटिश सरकार ने अपने साम्राज्य के लिए बहुत बड़ा खतरा माना। उन्होंने देश में राष्ट्रीय भावना को रोकने के लिए भारतीयों को धार्मिक आधार पर बाँटने की नीति अपनायी। अंग्रेजों ने मुसलमानों का हिमायती बनकर यह कहना शुरू कर दिया कि कांग्रेस में तो हिन्दुओं का बाहुल्य है और राष्ट्रीय आन्दोलन मुसलमानों के हित में नहीं है। उन्होंने मुसलमानों को अलग प्रतिनिधित्व देने का लालच दिया तथा मुसलमान जमींदारों व नवशिक्षित युवकों को अपने पक्ष में कर लिया (UPBoardSolutions.com) और उन्हीं के द्वारा मुसलमानों में पृथकतावादी भावनाओं का संचार किया। अंग्रेज मुसलमानों को अपना पृथक् राजनीतिक संगठन बनाने के लिए उकसाते रहे। साम्प्रदायिकता तथा पृथकतावादी प्रवृत्तियों के पराकाष्ठा पर पहुँच जाने पर 1906 ई० में ढाका ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।

दो उद्देश्य-
आगा खाँ के नेतृत्व में स्थापित मुस्लिम लीग के दो प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  1. भारतीय राजनीति में मुसलमानों का पृथक् अस्तित्व कायम करना उनके लिए पृथक् निर्वाचन-प्रणाली की माँग करना और उन्हें अधिक-से-अधिक प्रतिनिधित्व दिलाने का प्रयास करना।
  2. मुसलमानों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रभाव से बचाना और मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा और भ्रातृभाव उत्पन्न करना।

मुस्लिम लीग एक प्रतिक्रियावादी संस्था थी तथा इस पर मुसलमान राजाओं, जमींदारों, उद्योगपतियों तथा ऐसे व्यक्तियों का नियन्त्रण था, जो ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू थे। उसका कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं था तथा उसकी नीति मात्र कांग्रेस को नीचा दिखाने तथा मुसलमानों को हिन्दुओं से पृथक् करने की थी। इस नीति के निम्नलिखित तीन प्रभाव सामने आये

1. स्वतन्त्रता संग्राम पर प्रभाव – भारतीय मुस्लिम लीग की गतिविधियों का देश के स्वतन्त्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव पड़ा। मुस्लिम लीग की हठधर्मिता तथा पृथकतावादी प्रवृत्तियों के कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति में देर हुई।

2. हिन्दू-मुस्लिम एकता का अहित – सन् 1857 ई० के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में हिन्दू और मुसलमानों ने कन्धे-से-कन्धा मिलाकर अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष किया था। अंग्रेज इस हिन्दू-मुस्लिम एकता को अपने लिए खतरा समझते थे। लीग की नीतियों ने हिन्दू-मुसलमानों को पृथक् करने का निन्दनीय कार्य किया और उनके बीच घृणा के बीज बोये।

3. देश का विभाजन – यद्यपि 1911-13 ई० के दौरान कुछ घटनाओं; जैसे-बंगाल-विभाजन; के कारण मुस्लिम लीग ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हो गयी और उसके बाद कई वर्षों तक मुस्लिम लीग ने राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस का साथ दिया, किन्तु बाद में मुस्लिम (UPBoardSolutions.com) लीग फिर कांग्रेस के विरुद्ध हो गयी और दोनों में बराबर खींचातानी चलती रही। मुस्लिम लीग की प्रतिक्रियावादी तथा साम्प्रदायिकता की नीति के कारण ही 1947 ई० मे भारत का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण हुआ।

लध उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रार्थना समाज की स्थापना और कार्यों का वर्णन कीजिए।
             या
समाज-सुधार के क्षेत्र में प्रार्थना-समाज के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रार्थना समाज : स्थापना-सन् 1849 ई० में महाराष्ट्र में परमहंस सभा की स्थापना की गयी। लेकिन इसका प्रभाव सीमित था और वह शीघ्र ही टूट गयी। डॉ० आत्माराम पाण्डुरंग ने एक संगठन 1867 ई० में बनाया, जिसका उद्देश्य विचारयुक्त प्रार्थना और समाज-सुधार था। उसका नाम प्रार्थना समाज रखा गया। प्रार्थना समाज ने नामदेव, तुकाराम, रामदास और एकनाथ जैसे मराठी सन्तों से प्रेरणा ली। उनका उद्देश्य हिन्दू समाज में सुधार करना था।
कार्य

  1. इस समाज ने जाति-प्रथा का विरोध किया और अन्तर्जातीय विवाह, विधवा-पुनर्विवाह और स्त्री-शिक्षा पर बल दिया। इसने अछूतों के उद्धार का काम भी किया।
  2. इस समाज ने एक ब्रह्म की उपासना का सन्देश दिया तथा धर्म को जातिवाद-रूढ़िवाद से मुक्त करने का प्रयास किया। समाज ने जाति-व्यवस्था और पुरोहितों के आधिपत्य की आलोचना की।
  3. अछूतों, दलितों और पीड़ितों की दशा सुधारने के लिए कई कल्याणकारी (UPBoardSolutions.com) संस्थाओं का संगठन किया; । जैसे—दलित जाति मण्डल, समाज सेवा संघ और दक्कन शिक्षा सभा।

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प्रश्न 2.
आर्य समाज तथा ब्रह्म समाज के मध्य दो समानताओं और तीन असमानताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
आर्य समाज व ब्रह्म समाज में निम्नलिखित दो समानताएँ एवं तीन असमानताएँ थीं –

समानताएँ –

  • दोनों ही मानते हैं कि ईश्वर एक है और उसकी पूजा आध्यात्मिक रूप से होनी चाहिए। दोनों ही मूर्तिपूजा को नहीं मानते।
  • दोनों की मान्यता है कि ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक है।

असमानताएँ –

  • आर्य समाज वेदों को ही ज्ञान का स्रोत मानता है और उनके अध्ययन को आवश्यक मानता है; जबकि ब्रह्म समाज वेदों की बात नहीं करता, वह प्रार्थना और मनुष्य के कर्म को अधिक महत्त्व देता है।
  • ब्रह्म समाज सभी धर्मों की शिक्षाओं और उपदेशों को सत्य मानकर सभी धर्मों का आदर करने की बात कहता है; जबकि आर्य समाज हिन्दू धर्म को महत्त्व देता है। यह हिन्दू धर्म को इस्लाम तथा ईसाई धर्म के खतरे से बचाता है तथा धर्म-परिवर्तन कर बने ईसाइयों व मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म अपनाने को आमन्त्रित करता है।
  • आर्य समाज सत्य और ज्ञान पर अधिक बल देता है तथा ज्ञान का स्रोत वेदों को मानता है। ब्रह्म समाज सत्य और प्रेम पर अधिक बल देता है।

प्रश्न 3.
गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक ने समाज-सेवा के क्षेत्र में क्यों प्रसिद्धि पायी ?
उत्तर :
गोपालकृष्ण गोखले – गोपालकृष्ण गोखले में दिल और दिमाग की अद्भुत योग्यताएँ थीं और इन्होंने जीवन में बड़ी तेजी से उन्नति की। सन् 1905 ई० में गोखले ने मातृभूमि की सेवा करने के लिए सार्वजनिक कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग देने हेतु ‘सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी की स्थापना की। .. गोखले को सदा उन भूखे, दुर्बल किसानों का ध्यान रहता था, जो दो रोटियों के लिए सुबह से शाम तक मेहनत करते थे, परन्तु निःसहाय थे। उनका विचार (UPBoardSolutions.com) था कि घृणा करने से भारत तथा ब्रिटेन दोनों को हानि है। उनका यही प्रयत्न रहा कि दोनों पक्षों में मेल-मिलाप हो तथा टकराव को टाला जाए। मिण्टो-मालें सुधारों को पास कराने में गोखले ने जो कुछ किया, वह प्रशंसनीय है। गोखले एक रचनात्मक व्यक्ति थे। वे अन्तर्जातीय सद्भावना और सहयोग के नवीन युग के पैगम्बर सदृश थे।

बाल गंगाधर तिलक – बाल गंगाधर तिलक राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय रहते हुए भी भारतीय समाज के सुधार एवं उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहे। ये सामाजिक शोषण, प्रतिरोध, आडम्बर, कुरीतियों और भेदभाव से समाज को मुक्त करना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन्होंने होमरूल आन्दोलन प्रारम्भ किया तथा समाज को जगाने में अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगा दी। इसके लिए इन्होंने ‘केसरी’ व ‘मराठा’ समाचार-पत्रों का सहारा लिया। ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’, इस घोषणा ने भारतीय समाज को झकझोर दिया।

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प्रश्न 4.
भारतीय समाज के उत्थान में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
सती–प्रथा के बन्द होने से विधवाओं की समस्या पहले से भी अधिक गम्भीर रूप में सामने आयी। सती–प्रथा के प्रचलन के कारण विधवाओं की संख्या उतनी अधिक नहीं थी, लेकिन जब यह प्रथा अवैध घोषित हो गयी तो विधवाओं की संख्या में काफी वृद्धि हुई। 19वीं सदी के समाज-सुधारक विधवा-विवाह के लिए आन्दोलन करने लगे। संस्कृत के महान् विद्वान् पंडित ईश्वरचन्द विद्यासागर ने. विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए प्रबल आन्दोलन किया। उन्होंने शास्त्रों से उदाहरण देकर यह प्रमाणित कर दिया कि हिन्दू शास्त्रों के द्वारा विधवा पुनर्विवाह निषिद्ध नहीं है। बड़ी संख्या में हस्ताक्षर इकट्ठे करके सरकार के (UPBoardSolutions.com) पास एक प्रार्थना-पत्र भेजा गया। उनके प्रयत्नों से 1856 ई० में विधवा-विवाह जायज घोषित कर दिया गया। सामाजिक संस्थाओं के द्वारा अनेक विधवा-आश्रम भी देश में कायम किये गये।

प्रश्न 5.
थियोसॉफिकल सोसायटी पर एक निबन्य लिखिए। (2010)
             या
थियोसॉफिकल सोसायटी का संक्षिप्त परिचय देते हुए भारत में एनी बेसेण्ट के योगदान पर प्रकाश डालिए। (2010)
             या
एनीबेसेण्ट के जीवन-वृत्त एवं कार्यों (उपलब्धियों) पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
एनीबेसेण्ट का जन्म 1847 ई० में इंग्लैण्ड में हुआ था। इनकी माता आयरलैण्ड की रहने वाली थीं। ये प्रगतिशील विचारों की महिला थीं। सन् 1893 ई० में ये थियोसॉफिकल सोसायटी का कार्य करने के लिए भारत आयीं। कालान्तर में इन्होंने हिन्दू धर्म को स्वीकार किया और इसकी श्रेष्ठता के प्रति सम्भाषण किया। ये शोषण, प्रतिरोध, आडम्बर, कुरीतियों और भेदभाव से मुक्त समाज की स्थापना में रुचि रखती थीं। ये राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन से भी जुड़ गयी थीं। इन्होंने अपनी सम्पूर्ण क्षमता राष्ट्रीय जागरण में लगा दी। इन्होंने बाल गंगाधर तिलक के साथ 1916 ई० में होमरूल आन्दोलन शुरू किया। एनीबेसेण्ट ब्रिटिश साम्राज्य की शत्रु नहीं थीं। वे केवल भारतीयों को निद्रा से जगाना तथा झिंझोड़ना चाहती थीं। उन्होंने कहा था, मैं भारत की लम्बी बन्दूक हूँ, जो सब सोने वालों को जगाये, जिससे वे जाग सकें और अपनी मातृभूमि के लिए कार्य कर सकें।”

एनीबेसेण्ट की योजना राष्ट्रीय उग्रवादियों को क्रान्तिकारियों के साथ समझौतापूर्ण सन्धि से अलग रखने के लिए, साम्राज्य के अन्तर्गत किसी भी स्थिति में सन्तुष्ट बनाये रखने के लिए तथा संयुक्त कांग्रेस में उन्हें नरम दल वालों के साथ एक ही पंक्ति में लाने की थी। (UPBoardSolutions.com) उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि अपना राज्य भारतीयों का जन्मसिद्ध अधिकार है तथा भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अपनी सेवाओं के उपलक्ष्य में तथा ब्रिटिश राजगद्दी के लिए आज्ञाकारिता के पुरस्कार के रूप में इसे लेने को तैयार न थे।

होमरूल आन्दोलन 1917 ई० में अपने शिखर पर पहुंचा। उस वर्ष भारत सरकार ने आन्दोलन के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की। एनीबेसेण्ट को बन्दी बना लिया गया। उनकी मुक्ति के लिए आन्दोलन हुआ। तिलक जी ने निष्क्रिय संघर्ष करने की धमकी दी। भारत का सम्पूर्ण वातावरण उत्साह से भर उठा। किन्तु उसी समय अगस्त, 1917 ई० में राज्य सचिव ने एक प्रसिद्ध घोषणा की, जिसके द्वारा भारतीयों को क्रमशः उत्तरदायी सरकार देने का वचन दिया गया, परिणामस्वरूप होमरूल आन्दोलन ठण्डा पड़ गया।

एनी बेसेण्ट 1917 ई० में कांग्रेस की प्रधान निर्वाचित हुईं। इसी वर्ष मि० मॉण्टेस्क्यू भारत आये। उन्होंने भारत का भ्रमण किया तथा जनप्रतिनिधियों से भेंट की। सन् 1919 ई० में भारत सरकार का अधिनियम स्वीकृत हुआ। 20 सितम्बर, 1933 ई० में अड्यार में एनीबेसेण्ट का निधन हो गया।

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प्रश्न 6.
सत्यशोधक समाज के चार सिद्धान्तों को लिखिए।
उत्तर :
सत्यशोधक समाज के प्रमुख चार सिद्धान्त अग्रलिखित हैं –

  1. सर्वधर्म समभाव एवं पारस्परिक सहनशीलता की प्रेरणा देना।
  2. जाति-पाँति, छुआछूत तथा वर्गीय भेदभाव का विरोध करना।
  3. स्त्रियों को समाज में ऊँचा स्थान दिलाने की प्रेरणा देना तथा पर्दा-प्रथा एवं सती–प्रथा का विरोध करना।
  4. शिक्षा के क्षेत्र में भी सुधार एवं प्रचार करना।

प्रश्न 7.
अनुदारवादियों के विचार उदारवादियों से किस प्रकार भिन्न थे ?
             या
नरमपंथी एवं गरमपंथी कांग्रेसियों की नीतियों एवं कार्यक्रमों का अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2014]
             या
नरमपन्थियों और गरमपन्थियों के बीच क्या अन्तर थे ? [2015]
उत्तर :
प्रारम्भ में कांग्रेस पर उदारवादियों का ही अधिक प्रभाव रहा, परन्तु बाद में कांग्रेस के सदस्यों में वैचारिक मतभेद उत्पन्न होने लगा। सन् 1907 ई० के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस दो दलों ‘उदारवादी’ एवं ‘अनुदारवादी’ में विभाजित हो गई। इसका प्रमुख कारण इन दोनों गुटों की विचारधारा में अन्तर होना था। उदारवादी नेता अहिंसात्मक और वैधानिक तरीके से ही स्वतन्त्रता की माँग करने में विश्वास करते थे। अनुदारवादी नेताओं को, उदारवादी (UPBoardSolutions.com) नेताओं का यह तरीका पसन्द नहीं था। उनका विचार था कि एक प्रकार से, अंग्रेजों से आजादी के लिए भीख माँगने के समान है। वे स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए उग्रवादी तरीकों को अपनाना चाहते थे। इसी प्रकार यद्यपि दोनों दलों के नेताओं का लक्ष्य एक ही था, परन्तु उस लक्ष्य अर्थात् स्वतन्त्रता प्राप्त करने के तरीकों के सम्बन्ध में दोनों की विचारधाराएँ भिन्न थीं।

उदारवादी नेताओं में दादाभाई नौरोजी, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि प्रमुख थे, जबकि लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, विपिनचन्द्र पाल आदि अनुदारवादी नेता थे।

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प्रश्न 8.
भारत-विभाजन के लिए उत्तरदायी कारकों का उल्लेख कीजिए।
             या
सन् 1947 ई० में भारत के विभाजन के लिए उत्तरदायी कारकों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर :
सन् 1947 ई० में भारत के विभाजन के लिए निम्नलिखित कारक मुख्यत: उत्तरदायी थे –

  1. अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज्य करो’ नीति – यह नीति भारत के विभाजन का मूल कारण थी। इस नीति ने साम्प्रदायिकता का जहर घोला तथा मुस्लिम लीग को मुसलमानों के लिए पृथक् राज्य की माँग करने के लिए उकसाया।
  2. मुस्लिम लीग की भूमिका – जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार से द्वि-राष्ट सिद्धान्त के आधार पर मुसलमानों के लिए पृथक् राज्य बनाने की माँग की।
  3. हिन्दू महासभा की भूमिका – हिन्दू महासभा के नेताओं ने अपने भड़काने वाले भाषणों द्वारा मुसलमानों को पृथक् राज्य की माँग करने के लिए उकसाया। मुसलमानों को यह डर था कि स्वतन्त्रता के बाद हिन्दू बहुमत वाले देश में उनके हितों की रक्षा न हो (UPBoardSolutions.com) सकेगी।
  4. साम्प्रदायिक दंगे – देश-भर में व्यापक रूप से साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन दु:खद घटनाओं के फलस्वरूप अन्तत: देश का विभाजन हो ही गया।

प्रश्न 9.
दादाभाई नौरोजी को ‘ग्रैण्ड ओल्ड मैन ऑफ इण्डिया’ क्यों कहा जाता है ? राष्ट्रीय आन्दोलन में उनका क्या योगदान था ?
             या
दादाभाई नौरोजी की प्रसिद्धि के क्या कारण थे ? (2011)
उत्तर :
दादाभाई नौरोजी को निम्नलिखित कारणों से ‘ग्रैण्ड ओल्ड मैन ऑफ इण्डिया’ कहा जाता है –

1. दादाभाई नौरोजी (1825-1917) ने 61 वर्ष भारत की सेवा की (40 वर्ष कांग्रेस की स्थापना के पहले और 21 वर्ष उसके बाद)। बाद में आप स्थायी रूप से इंग्लैण्ड में बस गये थे और वहाँ हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्य चुने गये थे। आप तीन बार 1886, 1893 और 1906 ई० में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये।

2. कांग्रेस के मंच से सबसे पहले स्वराज्य माँगने का श्रेय दादाभाई नौरोजी को ही है। कलकत्ता अधिवेशन में उनके अध्यक्षीय भाषण में स्वराज्य पर ही बल दिया गया था। आपने कहा था कि हमें मेहरबानी नहीं, इंसाफ चाहिए।

3. दादाभाई नौरोजी पहले भारतीय नेता थे, जिन्होंने भारतीय जनता का ध्यान उस ओर खींचा कि देश पर ब्रिटिश शासन होने के कारण भारत की सम्पत्ति बड़ी तेजी से ब्रिटेने जा रही है। आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पावर्टी एण्ड ब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ में अपने ये विचार प्रकट किये थे।

4. डॉ० पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार, दादाभाई नौरोजी का नाम भारतीय देशभक्तों की सूची में सबसे पहले आता है। इनका सम्बन्ध कांग्रेस की स्थापना के समय से ही इससे रहा और अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक ये इसकी सेवा करते रहे। इन्होंने कांग्रेस को शिकायतें दूर करने वाली एक मामूली संस्था से उठाकर स्वराज्य-प्राप्ति के एक निश्चित उद्देश्य के लिए काम करने वाली एक राष्ट्रीय सभा बना दिया।

5. सी०वाई० चिन्तामणि के अनुसार, “वर्षों तक इंग्लैण्ड में और भारत में दिन-रात प्रतिकूल और अनुकूल परिस्थितियों में और ऐसी निराशाजनक दशाओं में भी, जिनमें किसी आदमी का दिल टूट जाता है, दादाभाई ने अटल भाव से पूर्ण नि:स्वार्थ भाव और शक्ति से मातृभूमि की सेवा की। गोखले के अनुसार, “अगर मनुष्य में कहीं दिव्यता हो सकती है तो वह दादाभाई नौरोजी में थी।”

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प्रश्न 10.
सूरत के अधिवेशन में कांग्रेस में फूट क्यों हो गई ? दोनों गुटों के एक-एक नेता का नाम लिखिए। (2012)
             या
सूरत के अधिवेशन में इण्डियन नेशनल कांग्रेस किन दो दलों में विभाजित हो गई और क्यों? दोनों दलों में से प्रत्येक के एक-एक नेता का नाम लिखिए। (2018)
उत्तर :
ब्रिटिश सरकार के प्रति चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन में उदारवादियों और उग्रवादियों के मतभेद चरम सीमा पर पहुँच गये। दोनों ही दलों के आन्दोलन के तरीके भिन्न-भिन्न थे। उग्र राष्ट्रवादी, स्वदेशी तथा बहिष्कार आन्दोलन को देशव्यापी बनाने के लिए कांग्रेस पर अपना आधिपत्य जमाना चाहते थे। इन्हीं परिस्थितियों में 1907 ई० में सूरत में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें दोनों दलों की शक्तियों का परीक्षण हुआ। सूरत अधिवेशन में नरम (UPBoardSolutions.com) दल ने अध्यक्ष पद के लिए डॉ० रासबिहारी घोष तथा उग्र राष्ट्रवादियों ने लाला लाजपत राय का नाम प्रस्तावित किया। उस समय नरम दल बहुमत में था। इस प्रकार 1907 ई० में सूरत का कांग्रेस अधिवेशन (जो गोखले का गढ़ था) उदारवादियों और उग्र राष्ट्रवादियों के मध्य रणस्थल बन गया। इस अधिवेशन में दोनों दिन अव्यवस्था बनी रही और पुलिस बुलानी पड़ी। परिणामस्वरूप कांग्रेस का औपचारिक रूप से विभाजन हो गया। उग्र राष्ट्रवादी एक संवैधानिक संशोधन द्वारा कांग्रेस से निष्कासित कर दिए गए।

सूरत में कांग्रेस विभाजन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार का उग्र राष्ट्रवादियों के विरुद्ध आतंक का ताण्डव शुरू हो गया। सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय को देश निकाला दे दिया गया। तिलक को बर्मा में माण्डले भेज दिया गया। विपिनचन्द्र पाल को जेल में बन्द कर दिया गया। उनका अपराध यह था कि उन्होंने अरविन्द घोष के विरुद्ध चलाये गये मुकदमे में उन्हें बचाने का प्रयास किया था। ब्रिटिश सरकार ने अलीपुर बम काण्ड (1908 ई०) के सम्बन्ध में अरविन्द घोष और उनके भाई वारिन्द्र घोष सहित बड़ी संख्या में क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। इन लोगों के मुकदमे को ‘अलीपुर बम काण्ड’ कहा जाता है। अधिकांश अभियुक्तों को दोषी पाया गया और उनमें से वारिन्द्र सहित कुछ को आजीवन कारावास दिया गया।

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प्रश्न 11.
लाला लाजपतराय क्यों प्रसिद्ध हैं ? [2011]
उत्तर :
सच्चे राष्ट्रवादी लाला जी ने ‘पंजाबी’ तथा ‘वन्देमातरम्’ नामक दैनिक समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया तथा अंग्रेजी साप्ताहिक-पत्र ‘द पिपुल’ का सम्पादन कार्य भी किया। वे 1905 ई० से राजनीति में पूर्ण सक्रिय हो गये। 1905 ई० के बंगाल विभाजन के समय इन्होंने इंग्लैण्ड जाकर जनमत को कर्जन के विरुद्ध करने का प्रयत्न किया था। 1907 ई० में उन्होंने सरदार अजीतसिंह के साथ ‘कोलोनाइजेशन बिल’ के खिलाफ एक बड़ा आन्दोलन चलाया। आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने उन्हें पकड़कर बर्मा की माण्डले जेल में बन्द कर दिया। 1914 ई० में लाला जी ने अमेरिका प्रवास के दौरान दो संस्थाओं ‘इण्डियन होमरूल’ (UPBoardSolutions.com) एवं ‘इन्फॉरमेशन ब्यूरो’ की स्थापना की। साथ ही ‘यंग इण्डिया’ नामक समाचार-पत्र का भी सम्पादन किया। लालाजी ने आर्य समाज, भारत में इंग्लैण्ड का ऋण, मैजिनी की जीवनी, शिवाजी की जीवनी आदि पुस्तकों की रचना कर प्रबुद्ध वर्ग को जाग्रत किया और प्रसिद्धि पायी।

प्रश्न 12.
गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक के विचारों में क्या अन्तर था ? किन्हीं दो बिन्दुओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
तिलक और गोखले दोनों उच्च श्रेणी के देशभक्त थे। दोनों ने अपने जीवन में बड़ी कुर्बानियाँ की थीं, परन्तु उनके विचारों में अन्तर था। उनके विचारों के दो बिन्दु अग्रवत् हैं –

  1. गोखले नरम विचारों के थे और तिलक गरम विचारों के। गोखले का लक्ष्य मौजूदा संविधान को सुधारना था, तिलक उसे नये सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले को आवश्यक रूप से नौकरशाही के साथ मिलकर काम करना था, तिलक को उससे आवश्यक रूप से लड़ना था।
  2. गोखले जहाँ हो सके वहाँ सहयोग और जहाँ जरूरी हो विरोध के पक्षधर थे। तिलक रुकावट डालने की नीति को पसन्द करते थे। गोखले को प्रशासन और उसके सुधार की मुख्य चिन्ता थी, तिलक का राष्ट्र और उसकी उन्नति का विचार था।

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प्रश्न 13.
सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन-परिचय देते हुए स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनका योगदान लिखिए। [2010]
उत्तर :
जीवन परिचय-सरदार वल्लभभाई पटेल को लौह-पुरुष के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म 21 अक्टूबर, 1875 ई० को गुजरात के एक धनी परिवार में हुआ था। ये एक प्रतिष्ठित वकील थे। सन् 1918 ई० में गांधी जी द्वारा चलाये गये किसान आन्दोलन में ये उनके साथ मिल गये। सन् 1918-19 ई० से पटेल पूर्णत: कांग्रेस के साथ जुड़ गये और सन् 1927 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। स्वतन्त्र भारत के ये प्रथम उपप्रधानमन्त्री बने। 15 दिसम्बर, 1950 ई० को आपका निधन हो गया।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान

बारदोली सत्याग्रह – सरदार वल्लभभाई पटेल का नाम बारदोली सत्याग्रह से जुड़ा हुआ है। महात्मा गांधी के कहने पर पटेल ने बारदोली के किसानों के सत्याग्रह का आयोजन किया। किसानों ने सत्याग्रह इसलिए किया, क्योंकि सरकार ने लगान बहुत बढ़ा दिया था। सत्याग्रह के दौरान किसानों को बहुत-सी यातनाएँ सहनी पड़ीं। उनकी फसलें नीलाम कर दी गयीं। उनके मवेशियों को सरकार उठाकर ले गयी और बेच डाला। परन्तु सरदार पटेल के नेतृत्व में किसान सत्याग्रह पर डटे रहे। अन्त में सरकार को उनकी माँगें माननी पड़ी।

रियासतों का भारत संघ में विलय – रियासतों के भारत में विलय के बिना सरदार पटेल भारत की स्वतन्त्रता को अधूरा समझते थे। अपने विशाल हृदय, दूरदर्शिता और उदारता परन्तु कठोर निर्णय-शक्ति का उपयोग करते हुए इन्होंने प्रत्येक बाधा को दूर किया। पहले रक्षा, विदेश मामलों और संचार के विषयों में देशी रियासतों को सम्मिलित किया, फिर उनका संगठन करके अन्त में पूरी तरह से केन्द्र में विलय करके समस्त देश को विधान की दृष्टि से एक बना दिया।

सरदार पटेल ने रियासती विभाग के अन्तर्गत एक उपसमिति का गठन भी किया। इनके सुझाव पर रियासती मन्त्रालय बनाया गया और वे स्वयं उसके अध्यक्ष हुए। सरदार पटेल के प्रयत्नों का यह परिणाम हुआ कि 15 अगस्त, 1947 ई० तक जूनागढ़, हैदराबाद (UPBoardSolutions.com) और कश्मीर को छोड़कर सभी रियासतें भारतीय संघ में सम्मिलित हो गयीं।

फरवरी, 1948 ई० में एक रेफरेण्डम के द्वारा जूनागढ़ का विलय 20 जनवरी, 1949 ई० को काठियावाड़ के संयुक्त राज्य में हो गया। हैदराबाद के विलय को सुनिश्चित करने के लिए सरदार पटेल ने पुलिस कार्रवाई करने का निश्चय किया। पुलिस कार्रवाई 13 सितम्बर, 1948 ई० को शुरू हुई और तीन दिन के भीतर निजाम ने हथियार डाल दिये। 1 नवम्बर, 1948 ई० को हैदराबाद भारतीय संघ में सम्मिलित हो गया। जब कबायली लोग, जिन्हें पाकिस्तान मदद दे रहा था, श्रीनगर पर कब्जा करने वाले थे, तब महाराजा कश्मीर ने भारत सरकार से सहायता माँगी और 26 अक्टूबर, 1947 ई० को भारत संघ में विलय के प्रवेश पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।

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प्रश्न 14.
सन् 1857 ई० की क्रान्तिकारी घटना के बाद भारतीयों में असन्तोष उत्पन्न होने की कई घटनाएँ हुईं। उनमें से निम्नलिखित दो पर प्रकाश डालिए [2010]
(क) वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट तथा
(ख) इल्बर्ट बिल (विधेयक)। इन पर भारतीयों की क्या प्रतिक्रिया हुई ?
उत्तर :
(क) वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अनेक अंग्रेजी दैनिक पत्रों की स्थापना हुई। भारतीय भाषाओं में भी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं को आरम्भ हुआ। धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के लगभग 500 पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। इन पत्र-पत्रिकाओं ने जनता में राष्ट्रीय चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। बाल गंगाधर तिलक द्वारा स्थापित मराठी पाक्षिक पत्र तथा केसरी ऐसा ही पत्र था।

भारतीय प्रेस पर सेंसर लगाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने समय-समय पर अनेक (UPBoardSolutions.com) कानून बनाये। ऐसा ही एक कानून 1878 ई० में लिटन ने ‘वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट’ पास करवे रतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

भारतीयों की प्रतिक्रिया-समाचार-पत्रों पर कठोर प्रतिबन्ध लगाने से बुद्धिजीवी वर्ग में ब्रिटिश शासन के प्रति आक्रोश और स्वराष्ट्र के प्रति अनुराग बढ़ा। लोकमान्य तिलक के केसरी व मराठा समाचार-पत्र अब अंग्रेजों के प्रति आग उगलने लगे।

(ख) इल्बर्ट बिल (विधेयक) – सन् 1873 ई० के फौजदारी दण्ड संहिता के अन्तर्गत किसी भी भारतीय न्यायाधीश को यूरोपीय अपराधियों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। यह पूर्ण रूप से अन्याय था तथा उच्च पदों पर आसीन भारतीयों को असहनीय था। रिपन ने इस अन्याय को दूर करने के उद्देश्य से अपनी परिषद् के विधि सदस्य इल्बर्ट की सहायता के लिए एक बिल पारित कराने का प्रयास किया। अत: 2 फरवरी, 1883 ई० को एक बिल प्रस्तुत किया गया। विधेयक का उद्देश्य था कि जाति-भेद पर आधारित सभी न्यायिक अयोग्यताएँ तुरन्त समाप्त कर दी जाएँ और भारतीय तथा यूरोपीय न्यायाधीशों की शक्तियाँ समान कर दी जाएँ। परन्तु जैसे ही बिल प्रस्तुत हुआ, उसका घोर विरोध किया गया। यूरोपियनों के कड़े विरोध के सम्मुख रिपन को झुकना पड़ा और यह बिल पास नहीं हो सका।

भारतीयों की प्रतिक्रिया – इस बिल के पास न होने से भारतीयों में निराशा की लहर दौड़ गयी। उन्हें अब अंग्रेजों से किसी प्रकार के न्याय की उम्मीद न रही, लेकिन इससे भारतीयों में राजनीतिक चेतना का संचार हुआ। इस विधेयक और इसके विरोध में किये गये आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता पर जो प्रभाव डाला, वह प्रभाव विधेयक के मूल रूप में पास होने पर कभी नहीं हो सकता था।

यद्यपि आजाद हिन्द फौज भारत को स्वतन्त्र कराने में सफल न हो सकी, फिर भी सुभाषचन्द्र बोस और आजाद हिन्द फौज की गतिविधियों ने देश में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को शक्ति अवश्य प्रदान की।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ब्रह्म समाज की स्थापना कब और किसने की ? [2011]
उतर :
ब्रह्म समाज की स्थापना राजा राममोहन राय ने सन् 1828 ई० में की।

प्रश्न 2.
आर्य समाज की स्थापना कब और किसके द्वारा की गयी ? [2011, 13, 16]
             या
स्वामी दयानन्द ने किस संस्था की प्रतिष्ठा की थी ? [2011]
उत्तर :
आर्य समाज की स्थापना 1875 ई० में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा बम्बई (मुम्बई) में की गयी।

प्रश्न 3.
रामकृष्ण मिशन की स्थापना कब और किसने की थी ? [2009, 17]
उत्तर :
रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1897 ई० में की थी।

प्रश्न 4.
रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय कहाँ स्थापित किया गया ? [2010]
उत्तर :
रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय वेलूरमठ, कलकत्ता (कोलकाता) में स्थापित किया गया।

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प्रश्न 5.
सर सैयद अहमद खाँ ने किस शिक्षा केन्द्र की स्थापना तथा कब की ?
उत्तर :
सर सैयद अहमद खाँ ने 1875 ई० में ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरियण्टल (UPBoardSolutions.com) कॉलेज की स्थापना की, जिसे 1920 ई० में ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित कर दिया गया।

प्रश्न 6.
थियोसॉफिकल सोसायटी का मुख्यालय भारत में कहाँ खोला गया ?
उत्तर :
थियोसॉफिकल सोसायटी का मुख्यालय 1882 ई० में भारत में अड्यार (वर्तमान चेन्नई के निकट) खोला गया।

प्रश्न 7.
भारत में थियोसॉफिकल आन्दोलन कहाँ से प्रारम्भ हुआ ?
उत्तर :
भारत में थियोसॉफिकल आन्दोलन अड्यारे (चेन्नई) से प्रारम्भ हुआ।

प्रश्न 8.
प्रार्थना समाज का संस्थापक कौन था ?
उत्तर :
प्रार्थना समाज के संस्थापक डॉ० आत्माराम पाण्डुरंग थे।

प्रश्न 9.
आर्य समाज के प्रमुख ग्रन्थ का नाम लिखिए। इसकी रचना किसने की थी ? (2009, 10, 11)
उत्तर :
आर्य समाज के प्रमुख ग्रन्थ का नाम ‘सत्यार्थप्रकाश’ है। (UPBoardSolutions.com) इसकी रचना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने की थी।

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प्रश्न 10.
शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किसने किया था ?
उत्तर :
स्वामी विवेकानन्द ने।

प्रश्न 11.
सत्यार्थ प्रकाश के लेखक कौन थे ?
उत्तर :
स्वामी दयानन्द सरस्वती।

प्रश्न 12.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का प्रारम्भिक नाम क्या था ?
उत्तर :
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का प्रारम्भिक नाम ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज’ था।

प्रश्न 13.
किन्हीं दो उदारवादी नेताओं के नाम लिखिए।
             या
उदारवादी नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता आदि कांग्रेस के उदारवादी नेता थे।

प्रश्न 14.
भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन के दो प्रमुख नेताओं के नाम लिखिए। [2011, 18]
उत्तर :
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दो प्रमुख नेता दादाभाई नौरोजी तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी थे।

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प्रश्न 15.
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के गरम दल के दो नेताओं के नाम लिखिए। [2014]
उत्तर :

  1. बाल गंगाधर तिलक।
  2. विपिन चन्द्र पाल।

प्रश्न 16.
कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
कांग्रेस को प्रथम अधिवेशन 1885 ई० में बम्बई (UPBoardSolutions.com) (मुम्बई) में हुआ था।

प्रश्न 17.
पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव कब और कहाँ स्वीकार किया गया ?
उत्तर :
दिसम्बर, 1929 ई० के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव स्वीकार किया गया।

प्रश्न 18.
गरम दल के अधिष्ठाता कौन थे ?
उत्तर :
गरम दल के अधिष्ठाता बाल गंगाधर तिलक थे।

प्रश्न 19.
होमरूल लीग के दो नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
होमरूल लीग के दो नेता थे –

  1. श्रीमती एनीबेसेण्ट तथा
  2. मोतीलाल नेहरू।

प्रश्न 20.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष कौन थे ?
उत्तर :
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष व्योमेशचन्द्र बनर्जी थे।

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प्रश्न 21.
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर :
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड 13 अप्रैल, 1919 ई० को अमृतसर में हुआ।

प्रश्न 22.
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड का मुख्य कारण लिखिए।
उत्तर :
इस हत्याकाण्ड का मुख्य कारण 1919 ई० का रॉलेट ऐक्ट था। इसका विरोध करने पर डॉ० सत्यपाल और डॉ० किचलू को गिरफ्तार कर लिया गया। इन गिरफ्तारियों के विरुद्ध विरोध प्रकट करने के लिए लोग 13 अप्रैल, 1919 ई० को अमृतसर (UPBoardSolutions.com) के जलियाँवाला बाग में एकत्रित हुए। तत्कालीन गवर्नर जनरल डायर के आदेश पर इन निहत्थे लोगों पर सैनिकों ने गोलियाँ बरसायीं।

प्रश्न 23.
भारत विभाजन का मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर :
भारत विभाजन का मुख्य कारण मुस्लिम लीग की अपनी माँगों को लेकर हठधर्मिता और कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति थी।

प्रश्न 24.
काकोरी षड्यन्त्र काण्ड में शहीद होने वाले क्रान्तिकारियों में से किसी एक का नाम लिखिए।
उत्तर :
काकोरी षड्यन्त्र काण्ड में शहीद होने वाले एक क्रान्तिकारी थे—रामप्रसाद बिस्मिल। इनके दूसरे साथी का नाम था-अशफाक उल्ला खाँ।

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प्रश्न 25.
“स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” यह नारा किसने दिया था ? [2011, 18]
उत्तर :
बाल गंगाधर तिलक ने।

प्रश्न 26.
सुभाषचन्द्र बोस के सैन्य संगठन का क्या नाम था ? उनका नारा क्या था ? [2013]
उत्तर :
Indian National Army. (आजाद हिन्द फौज)। इसका नारा था-‘दिल्ली चलो।

प्रश्न 27.
1893 ई० में विश्वधर्म सम्मेलन किस स्थान पर आयोजित किया गया था ? इसमें भारत की ओर से किसने भाग लिया ? [2013]
उत्तर :
1893 ई० में विश्वधर्म सम्मेलन शिकागो में आयोजित किया गया था। इसमें भारत की ओर से स्वामी विवेकानन्द ने भाग लिया था।

प्रश्न 28.
राजा राममोहन राय और स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित संस्थाओं के सिद्धान्तों में क्या , समानताएँ थीं? [2016]
उत्तर :
आर्य समाज व ब्रह्म समाज में निम्नलिखित समानताएँ थीं –

  1. दोनों ही मानते हैं कि ईश्वर एक ही है और उसकी पूजा आध्यात्मिक रूप से होनी चाहिए। दोनों ही मूर्तिपूजा को नहीं मानते।
  2. दोनों की मान्यता है कि ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान (UPBoardSolutions.com) व सर्वव्यापक है।

प्रश्न 29.
सर सैयद अहमद खाँ ने मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए क्या किया? कोई दो बिन्दु लिखिए। [2016]
उत्तर :

  1. इन्होंने मुस्लिम समाज में अपेक्षित सुधारों पर बल दिया तथा उन्हें शिक्षित करने का भरसक प्रयास किया।
  2. इन्होंने मुसलमानों को रूढ़िवादिता में न रहकर युग के साथ चलने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 30.
उन्नीसवीं सदी के दो ऐसे समाचार-पत्रों का नाम बताइट जो अब भी प्रकाशित होते हैं। [2013]
उत्तर :
उन्नीसवीं सदी के दो प्रमुख समाचार-पत्रों के नाम इस प्रकार हैं –

  1. टाइम्स ऑफ इण्डिया (1861 ई०)।
  2. अमृत बाजार पत्रिका (1868 ई०)।

ये दोनों समाचार-पत्र अब भी प्रकाशित हो रहे हैं।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

1. ब्रह्म समाज की स्थापना कब हुई ? [2012]

(क) 1828 ई० में
(ख) 1875 ई० में
(ग) 1906 ई० में
(घ) 1919 ई० में

2. ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की? [2018]

(क) राजा राममोहन राय
(ख) ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(ग) केशवचन्द्र सेन
(घ) महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर

3. आर्य समाज के संस्थापक कौन थे ? [2012]

(क) विवेकानन्द ।
(ख) श्रद्धानन्द
(ग) सहजानन्द
(घ) दयानन्द सरस्वती

4. आर्य समाज की स्थापना किस वर्ष हुई ?

(क) 1882 ई० में
(ख) 1857 ई० में
(ग) 1875 ई० में
(घ) 1885 ई० में

5. रामकृष्ण मिशन की स्थापना किसके द्वारा की गयी ?

(क) स्वामी रामकृष्ण
(ख) स्वामी विवेकानन्द
(ग) स्वामी दयानन्द
(घ) राजा राममोहन राय

6. दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कब और कहाँ की थी ?

(क) 1824 ई० में हरिद्वार में
(ख) 1875 ई० में मुम्बई में
(ग) 1857 ई० में दिल्ली में
(घ) 1867 ई० में कन्याकुमारी में

7. थियोसॉफिकल सोसाइटी की स्थापना किसने की ?

(क) एनीबेसेण्ट ने
(ख) सर सैयद अहमद खाँ ने
(ग) मैडम ब्लावेट्स्की ने
(घ) राजा राममोहन राय ने।

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8. अहमदिया आन्दोलन का संस्थापक कौन था ? [2013]

(क) शिब्ली नूमानी
(ख) मिर्जा गुलाम अहमद
(ग) वली उल्लाह
(घ) मुहम्मद कासिम ननौतवी

9. थियोसॉफिकल सोसायटी का मुख्यालय कहाँ है ?

(क) अड्यार में
(ख) बंगलुरु में
(ग) नयी दिल्ली में
(घ) कोलकाता में

10. मोहम्मडन ऐंग्लो इण्डियन ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना कब हुई ?

(क) 1857 ई० में
(ख) 1875 ई० में
(ग) 1885 ई० में
(घ) 1890 ई० में

11. मुस्लिम एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना किस नगर में की गयी थी ? [2012]

(क) आगरा
(ख) अलीगढ़
(ग) अजमेर
(घ) अहमदाबाद

12. अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का प्रथम वार्षिक अधिवेशन हुआ था (2013)

(क) कराची में
(ख) लखनऊ में
(ग) अलीगढ़ में
(घ) लाहौर में

13. ‘सत्यार्थप्रकाश’ का सम्बन्ध किससे है ? [2011, 18]

(क) ब्रह्म समाज से
(ख) आर्य समाज से
(ग) रामकृष्ण मिशन से
(घ) थियोसॉफिकल सोसायटी से

14. ‘भारत सेवक समाज’ नामक संस्था की स्थापना किसने की थी ? [2011]
             या
सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी के संस्थापक थे [2011]

(क) गोपालकृष्ण गोखले ने
(ख) सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने
(ग) ज्योतिबा फुले ने
(घ) आत्माराम पाण्डुरंग ने

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15. बंगाल का विभाजन कब हुआ ? [2011]

(क) सन् 1907 में
(ख) सन् 1904 में
(ग) सन् 1905 में
(घ) सन् 1906 में

16. ‘वन्देमातरम्’ गीत के रचयिता कौन थे ? [2011]

(क) रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) सोहनलाल द्विवेदी
(ग) रामधारी सिंह ‘दिनकर’
(घ) बंकिमचन्द्र चटर्जी

17. निम्नलिखित में कौन इण्डियन नेशनल कांग्रेस के उदार दल से सम्बन्धित था ?

(क) बाल गंगाधर तिलक
(ख) विपिनचन्द्र पाल
(ग) लाला लाजपत राय
(घ) फिरोजशाह मेहता

18. श्रीमती एनीबेसेण्ट निवासी थीं

(क) भारत की
(ख) इंग्लैण्ड की
(ग) फ्रांस की
(घ) आयरलैण्ड की

19. कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव किस वर्ष पारित किया गया था ? (2017)

(क) 1929 ई० में
(ख) 1940 ई० में
(ग) 1942 ई० में
(घ) 1945 ई० में

20. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक कौन थे ?

(क) सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
(ख) गोपालकृष्ण गोखले
(ग) एलन ऑक्टेवियन ह्यूम
(घ) महात्मा गांधी

21. भारत में मुस्लिम लीग की स्थापना कब हुई ? (2013)

(क) 1905 ई० में।
(ख) 1906 ई० में
(ग) 1916 ई० में
(घ) 1919 ई० में

22. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज’ की स्थापना कहाँ की थी ? (2010)

(क) टोकियो में
(ख) हांगकांग में
(ग) जकार्ता में
(घ) सिंगापुर में

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23. जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड किस वर्ष हुआ था ?

(क) 1917 ई० में
(ख) 1918 ई० में
(ग) 1919 ई० में
(घ) 1920 ई० में

24. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी (2015)

(क) 1857 ई० में
(ख) 1885 ई० में
(ग) 1895 ई० में
(घ) 1905 ई० में

25. पूर्ण स्वराज्य दिवस प्रथम बार कब आयोजित किया गया था ? या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज’ प्राप्त करने का लक्ष्य कब घोषित किया ? (2013)

(क) 26 जनवरी, 1920 ई० में
(ख) 26 जनवरी, 1930 ई० में
(ग) 26 जनवरी, 1935 ई० में।
(घ) 26 जनवरी, 1950 ई० में

26. अलीगढ़ आन्दोलन का संस्थापक था (2014)
             या
अलीगढ़ आन्दोलन के प्रवर्तक थे (2015)

(क) मिर्जा गुलाम अहमद
(ख) सैयद अहमद बरेलवी
(ग) सर सैयद अहमद खान
(घ) शौकत अली

27. आधुनिक भारत का निर्माता किसे माना जाता है? [2015, 17]

(क) स्वामी विवेकानन्द को
(ख) रामकृष्ण परमहंस को
(ग) स्वामी दयानन्द सरस्वती को
(घ) राजा राममोहन राय को

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28. निम्नलिखित में से किसने होम रूल लीग की स्थापना की थी? (2015, 16)

(क) लाला लाजपत राय
(ख) मोहम्मद अली जिन्ना
(ग) विपिन चन्द्र पाल
(घ) बाल गंगाधर तिलक

29. ‘ग्रेट ओल्ड मैन ऑफ इण्डिया’ कहा जाता था (2012)

(क) गोपाल कृष्ण गोखले को
(ख) सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को
(ग) दादा भाई नौरोजी को
(घ) फिरोजशाह मेहता को

30. कूका आन्दोलन किसने प्रारम्भ किया था? (2017)

(क) सन्त गुरु राम सिंह
(ख) लाला हरदयाल
(ग) सरदार भगत सिंह
(घ) बाल गंगाधर तिलक

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 नवजागरण तथा राष्ट्रीयता का विकास 1

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 भारतीय संस्कृति (गद्य खंड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 भारतीय संस्कृति (गद्य खंड)

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जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न 1.
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के जीवन-परिचय एवं रचनाओं पर प्रकाश डालिए। [2009, 10]
या
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी रचनाओं के नाम लिखिए। [2011, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद एक सादगीपसन्द कृषक पुत्र थे। जहाँ वे एक देशभक्त राजनेता थे, वहीं कुशल वक्ता एवं श्रेष्ठ लेखक भी थे। सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और निर्भीकता इनके रोम-रोम में बसी हुई थी। साहित्य के क्षेत्र में भी इनका योगदान बहुत स्पृहणीय रहा है। अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से इन्होंने हिन्दी-साहित्य को समृद्ध किया है। सांस्कृतिक, शैक्षिक, सामाजिक आदि विषयों पर लिखे गये इनके लेख हिन्दी-साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।

जीवन-परिचय-देशरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का जन्म सन् 1884 ई० में बिहार राज्य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम महादेव सहाय था। इनका परिवार गाँव के सम्पन्न और प्रतिष्ठित कृषक परिवारों में से धा। इन्होंने कलकत (कोलकाता) विश्वविद्यालय से एम० ए०: t!ल-एल० बी० की परीक्षा उतीर्ण की थी। ये प्रतिभासम्पन्न और मेधावी छात्र थे और परीक्षा में सदैव प्रथम आते थे। (UPBoardSolutions.com) कुछ समय तक मुजफ्फरपुर कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् ये.पटना और कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील भी रहे। इनका झुकाव प्रारम्भ से ही राष्ट्रसेवा की ओर था। सन् 1917 ई० में गाँधी जी के आदर्शों और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर इन्होंने चम्पारन के आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और वकालत छोड़कर पूर्णरूप से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े। अनेक बार जेल की यातनाएँ भी भोगीं। इन्होंने विदेश जाकर भारत के पक्ष को विश्व के सम्मुख रखा। ये तीन बार अखिल भारतीय कांग्रेस के सभापति तथा भारत के संविधान का निर्माण करने वाली सभा के सभापति चुने गये।।

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राजनीतिक जीवन के अतिरिक्त बंगाल और बिहार में बाढ़ और भूकम्प के समय की गयी इनकी सामाजिक सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। ‘सादा जीवन उच्च-विचार’ इनके जीवन को पूर्ण आदर्श था। इनकी प्रतिभा, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और निष्पक्षता से प्रभावित होकर इनको भारत गणराज्य का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया। इस पद को ये संन् 1952 से सन् 1962 ई० तक सुशोभित करते रहे। भारत सरकार ने इनकी महानताओं के सम्मान-स्वरूप देश की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से सन् 1962 ई० में इनको अलंकृत किया। जीवन भर राष्ट्र की नि:स्वार्थ सेवा करते हुए ये 28 फरवरी, 1963 ई० को दिवंगत हो गये।
रचनाएँ-राजेन्द्र बाबू की प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है

(1) ‘चम्पारन में महात्मा गाँधी’—इसमें किसानों के शोषण और अंग्रेजों के विरुद्ध गाँधीजी के . आन्दोलन का बड़ा मार्मिक वर्णन है। (2) ‘बापू के कदमों में-इसमें महात्मा गाँधी के प्रति श्रद्धा-भावना व्यक्त की गयी है। (3)‘मेरी आत्मकथा’—यह राजेन्द्र बाबू द्वारा सन् 1943 ई० में जेल में लिखी गयी थी। इसमें तत्कालीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति का लेखा-जोखा है। (4) ‘मेरे यूरोप के अनुभव’-इसमें इनकी यूरोप की यात्रा का वर्णन है। इनके भाषणों के भी कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त (5) शिक्षा और संस्कृति, (6) भारतीय शिक्षा, (7) गाँधीजी की देन, (8), साहित्य, (9) संस्कृति का अध्ययन, (10) खादी का अर्थशास्त्र आदि इनकी अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं। |

साहित्य में स्थान–डॉ० राजेन्द्र प्रसाद सुलझे हुए राजनेता होने के साथ-साथ उच्चकोटि के विचारक, साहित्य-साधक और कुशल वक्ता थे। ये ‘सादी भाषा और गहन विचारक’ के रूप में सदैव स्मरण किये जाएँगे। हिन्दी की आत्मकथा विधा में इनकी पुस्तक मेरी आत्मकथा’ का उल्लेखनीय स्थान है। ये हिन्दी के अनन्य सेवक और प्रबल प्रचारक थे। राजनेता के रूप में अति-सम्मानित स्थान पर विराजमान होने के साथ-साथ (UPBoardSolutions.com) हिन्दी-साहित्य में भी इनका अति विशिष्ट स्थान है।

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गुद्यांशों पर आधारित प्रश्न

प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से |महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।
प्रश्न 1.

अगर असम की पहाड़ियों में वर्ष में तीन सौ इंच वर्षा मिलेगी तो जैसलमेर की तप्तभूमि भी मिलेगी, जहाँ साल में दो-चार इंच भी वर्षा नहीं होती। कोई ऐसा अन्न नहीं, जो यहाँ उत्पन्न न किया जाता हो। कोई ऐसा फल नहीं, जो यहाँ पैदा नहीं किया जा सके। कोई ऐसा खनिज पदार्थ नहीं, जो यहाँ के भू-गर्भ : में न पाया जाता हो और न कोई ऐसा वृक्ष अथवा जानवर है, जो यहाँ फैले हुए जंगलों में न मिले। यदि इस सिद्धान्त को देखना हो कि आबहवा का असर इंसान के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर पड़ता है तो उसका जीता-जागता सबूत भारत में बसने वाले भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग देते हैं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग क्या प्रमाण देते हैं ?
  2. भारत की भूमि की क्या विशेषता है ?

[खनिज पदार्थ = पृथ्वी को खोदकर निकाले गये पदार्थ; जैसे-लोहा, चाँदी, पीतल आदि। भू-गर्भ = पृथ्वी के अन्दर। आबहवा = वातावरण।]
उत्तर
(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड’ में संकलित डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा लिखित ‘भारतीय संस्कृति’ नामक निध से उद्धृत है। अथवा निम्नवत् लिखेंपाठ का नाम-भारतीय संस्कृति। लेखक का नाम–डॉ० राजेन्द्र (UPBoardSolutions.com) प्रसाद
[विशेष—इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए इस प्रश्न का यही उत्तर इसी रूप में प्रयुक्त होगा।]

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(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-भारतीय संस्कृति में निहित विभिन्नता में एकता का चित्रण करते हुए लेखक कहते हैं कि भारतीय वसुन्धरा धन-धान्य से परिपूर्ण है। इसी कारण कोई ऐसा अन्न या फल नहीं है जिसे यहाँ पैदा न किया जा सकता हो। भारतीय वसुन्धरा के गर्भ में अनेक खनिज पदार्थ पाये जाते हैं। हर प्रकार की वनस्पति और हर प्रकार के जानवर यहाँ पाये जाते हैं। लेखक के कहने का आशय यह है कि यहाँ बहुत-सी ऐसी बातें हैं जो भारत की एकता में भी अनेकता के दर्शन कराने में सत्य प्रतीत होती हैं।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि यदि किसी व्यक्ति को इस सिद्धान्त को देखना है कि वातावरण का असर व्यक्ति के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर कितना अधिक पड़ता है तो उसका जीता-जागता प्रमाण भारत में बसने वाले भिन्नभिन्न प्रान्तों के लोग हैं क्योंकि उन सभी का खान-पान, रहन-सहन और वेश-भूषा भिन्न-भिन्न ही है।
(स)

  1. भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में रहने वाले लोग यह प्रमाणित करते हैं कि यहाँ के वातावरण का प्रभाव यहाँ के निवासियों, उनके रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, शरीर और मस्तिष्क पर पड़ता है।
  2. भारत की भूमि की विशेषता यह है कि यहाँ सभी प्रकार के अन्न और फल उत्पन्न किये जा सकते हैं। सभी खनिज पदार्थ यहाँ की भूमि में पाये जाते हैं और इसकी भूमि पर उगे जंगलों में सभी प्रकार के वृक्ष और जानवर पाये जाते हैं।
  3. भारत में वर्षा की विशेषता यह है कि एक तरफ तो यहाँ की (UPBoardSolutions.com) असम की पहाड़ियों में तीन सौ इंच तक वर्षी होती है और दूसरी तरफ जैसलमेर (राजस्थान) की भूमि पर तीन इंच भी नहीं होती।

प्रश्न 2.
भिन्न-भिन्न धर्मों के मानने वाले भी, जो सारी दुनिया के सभी देशों में बसे हुए हैं, यहाँ भी थोड़ी-बहुत संख्या में पाये जाते हैं और जिस तरह यहाँ की बोलियों की गिनती आसान नहीं, उसी तरह यहाँ भिन्न-भिन्न धर्मों के सम्प्रदायों की भी गिनती आसान नहीं। इन विभिन्नताओं को देखकर अगर अपरिचित आदमी घबड़ाकर कह उठे कि यह एक देश नहीं, अनेक देशों का एक समूह है, यह एक जाति नहीं, अनेक जातियों का समूह है तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि ऊपर देखने वाले को, जो गहराई में नहीं जाता, विभिन्नता ही देखने में आएगी।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारत के सम्बन्ध में कौन-सी बात आश्चर्य की नहीं मानी जाती ?
  2. भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी किस देश में बसे हुए हैं ? भारत के जल और वाणी की विशेषता
    को एक पंक्ति में व्यक्त कीजिए।
  3. सतही दृष्टि से देखने पर किसी व्यक्ति को  भारत के सम्बन्ध में क्या दिखाई पड़ता है ?
  4. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि यह विश्व अनेक देशों में विभक्त है और इन सभी देशों के भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज, संस्कृति और धर्म हैं। पूरे विश्व में इन धर्मों को मानने वाले लोग भी अलग-अलग हैं। भारत की एक अपनी विशिष्टता है कि यहाँ पर विश्व के सभी देशों के निवासी अथवा किसी भी धर्म को मानने वाले व्यक्ति कम संख्या में ही सही, लेकिन मिल अवश्य जाएँगे। जिस प्रकार भारत के विभिन्न प्रान्तों, जनपदों और ग्रामों में बोली जाने वाली बोलियों की गणना करना अत्यधिक कठिन है, उसी प्रकार इस भारतभूमि पर निवास करने वाले लोगों के भिन्न-भिन्न धर्म और इन धर्मों के भी कई-कई सम्प्रदायों की गणना करना भी निश्चित ही आसान कार्य नहीं है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारतभूमि की इतनी विभिन्नताओं को देखकर दूसरे देशवासी या ऐसे व्यक्ति जो यहाँ के मौलिक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, घबरा जाते हैं और कह बैठते हैं कि भारत तो एक देश है ही नहीं, वरना (UPBoardSolutions.com) यह तो अनेक देशों का समूह है। यहाँ के निवासी भी किसी एक जाति के नहीं हैं, वरन् अनेकानेक जातियों के हैं। दूसरे देशवासियों की इस प्रकार की बातों में आश्चर्य करने योग्य कुछ भी नहीं है; क्योंकि वे इस देश को ऊपर-ही-ऊपर अर्थात् सतही दृष्टि से देखते हैं, वे इस बात की गहराई में नहीं उतरते। निश्चित ही ऐसे लोगों को भारत में विभिन्नता अर्थात् अनेकता ही नजर आएगी।
(स)

  1. “भारत एक देश नहीं वरन् अनेक देशों का समूह है, यहाँ एक जाति के लोग नहीं रहते वरन् अनेकानेक जातियों के लोग निवास करते हैं,” भारत के सम्बन्ध में यही बात आश्चर्य की नहीं मानी जाती।
  2. भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले; भले ही कम संख्या में हों; लेकिन भारत में विश्व के सभी धर्मों को मानने वाले पाये जाते हैं। भारत के जल और वाणी की विशेषता को व्यक्त करते हुए एक पंक्ति कही जा सकती है-“कोस-कोस पर बेदले पानी, चार कोस पर बानी।।
  3. सतही दृष्टि से देखने वालों को भारत में विभिन्नता अर्थात् अनेकता ही नजर आती है।
  4. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक भारतभूमि की विविधता का (UPBoardSolutions.com) बहुत ही सार्थक और धनात्मक रूप में वर्णन करता है। इससे लेखक का अपने देश और उसकी संस्कृति के प्रति प्रेम झलकता है।

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प्रश्न 3.
पर विचार करके देखा जाए तो इन विभिन्नताओं की तह में एक ऐसी समता और एकता फैली हुई है, जो अन्य विभिन्नताओं को ठीक उसी तरह पिरो लेती है और पिरोकर एक सुन्दर समूह बना देती है—जैसे रेशमी धागा भिन्न-भिन्न प्रकार की और विभिन्न रंग की सुन्दर मणियों अथवा फूलों को पिरोकर एक सुन्दर हार तैयार कर देता है, जिसकी प्रत्येक मणि या फूल दूसरों से न तो अलग है और न हो सकता है और केवल अपनी ही सुन्दरता से लोगों को मोहता नहीं, बल्कि दूसरों की सुन्दरता से वह स्वयं सुशोभित होता है और इसी तरह अपनी सुन्दरता से दूसरों को भी सुशोभित करता है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में मणि या फूल की क्या विशेषता बतायी गयी है ?
  2. विभिन्नताओं की तह में फैली एकता किस प्रकार की है ?
  3. भारतीय संस्कृति के विषय में कुछ पंक्तियाँ लिखिए।

[ तह में = जड़ में । मोहता = मोहित करता।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हमारे देश की संस्कृति में अनेक विविधताएँ तो हैं, पर ये सभी विविधताएँ बाहरी दृष्टि से देखने पर ही प्रतीत होती हैं। भीतर से देखने पर सबमें एक अनोखी एकता और समानता (UPBoardSolutions.com) व्याप्त है। जिस प्रकार मोतियों और रंग-बिरंगे फूलों को एक रेशमी धागा एक साथ एक हार के रूप में जोड़े रखता है, उसी प्रकार हमारी संस्कृति भी अनेक धर्मों, जातियों, भाषाओं तथा दूसरी भिन्नताओं को एक साथ जोड़े रखती है। एकता के इस धरातल पर हम सब केवल भारतीय रह जाते हैं।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि इस हार की प्रत्येक मणि या पुष्प अन्य मणि या पुष्पों से न तो भिन्न है और न ही हो सकती है। ये हार या पुष्प.अपनी सुन्दरता से ही । दूसरों को नहीं लुभाते, वरन् दूसरों की सुन्दरता से खुद सुशोभित भी होते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार माला के फूल अपने सौन्दर्य से दूसरों को मोहित ही नहीं करते अपितु दूसरों के गले में डाले जाने पर उनको सुशोभित भी करते हैं, इसी प्रकार हमारे देश की धार्मिक, भाषायी और जातिगत विभिन्नता स्वयं तो सुशोभित होती ही है, हमारे देश को भी सुशोभित करती है।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में मणि या फूल की विशेषता के रूप में कहा गया है कि ये केवल अपनी सुन्दरता से ही लोगों को मोहित नहीं करते वरन् दूसरों की सुन्दरता से स्वयं भी सुशोभित होते हैं।
    विभिन्नताओं की तह में फैली एकता उस रेशमी धागे के समान है जो विभिन्न प्रकार की मणिमुक्ताओं और फूलों को अपने में गूंथकर एक होर बना देता है।
  2. भारत और भारतीय संस्कृति के विषय में कहा जा सकता है-“हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, ईसाई आदि सभी इसी देश में रहने वाले हैं। उनके मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आदि अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु भारतरूपी जो बड़ा मन्दिर है, (UPBoardSolutions.com) वह सबका है। सब मजहबों के लोग एक ही ईश्वर की इबादत करते हैं।” कविवर द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने भी ऐसे ही भाव व्यक्त किये हैं-‘हम सब सुमन एक उपवन के।’

प्रश्न 4.
यह केवल एक काव्य की भावना नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक सत्य है, जो हजारों वर्षों से अलग-अलग अस्तित्व रखते हुए अनेकानेक जल-प्रपातों और प्रवाहों का संगमस्थल बनकर एक प्रकाण्ड और प्रगाढ़ समुद्र के रूप में भारत में व्याप्त है, जिसे भारतीय संस्कृति का नाम दे सकते हैं। इन अलग-अलग नदियों के उद्गम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं और रहे हैं। इनकी धाराएँ भी अलग-अलग बहती हैं और प्रदेश के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्न और फल-फूल पैदा करती रहती हैं; पर सबमें एक ही शुद्ध, सुन्दर, स्वस्थ और शीतल जल बहता रहा है, जो उद्गम और संगम में एक ही हो जाता है। [2010]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतीय संस्कृति का नाम किसे दिया जा सकता है ? स्पष्ट कीजिए।
  2. भारत की नदियों में कैसी भिन्नता और कैसी एकता है ? स्पष्ट कीजिए।

[ अस्तित्व = सत्ता। प्रपात = झरना। प्रकाण्ड = बहुत बड़ा। प्रगाढ़ = गहरा। उद्गम = निकलने का स्थान।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि भारतीय संस्कृति की समता फूलों की माला से करना तथा यहाँ की भाषाओं और जातियों को रंग-बिरंगे फूल कहना केवल काव्य की कल्पना नहीं है, वरन् यह एक यथार्थ है, एक ऐतिहासिक सत्य है। जिस प्रकार हजारों वर्षों से प्रवाहित होते आ रहे झरने और नदियों के उद्गम अलग-अलग होने पर भी उनका जल दूर-दूर से आकर सागर में समा जाता है, जो उनका (UPBoardSolutions.com) मिलन-स्थल होता है; उसी प्रकार भारत में भी विभिन्न धर्म, विचारधारा और जाति रूपी झरने हजारों वर्षों से आकर मिल रहे हैं, जिससे एक विस्तृत और सागर के समान ही एक गहन गम्भीर भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हर एक नदी का उद्गम स्थल अलग-अलग होता है। उसका मार्ग भी दूसरे से भिन्न होता है और हर नदी के किनारे की भूमि में प्रदेश की जलवायु और मिट्टी के अनुसार अलग-अलग प्रकार की फसलें पैदा होती हैं, पर इन सभी नदियों में एक ही पानी है, जो सागर में एक साथ मिलता है और फिर बादल के रूप में एक जैसा बरसता है। जिस प्रकार नदियों का जल अपने उद्गम (बादल) और संगम (सागर) पर एक जैसा हो जाता है, उसी प्रकार विभिन्न स्थानों से आयी हुई संस्कृतियाँ अपने संगम-स्थल भारतीय संस्कृति में एक-सी सुखद और कल्याणकारी हो गयी हैं।
(स)

  1. भारत के विभिन्न धर्म, विचारधारा और जाति रूपी जल-प्रपात और प्रवाह हजारों वर्षों से आकर भारत में व्याप्त हैं। इसे ही विस्तृत और सागर के समान गहन और गम्भीर भारतीय संस्कृति का नाम दिया जा सकता है।
  2. भारत की नदियों के उद्गम स्थल भिन्न-भिन्न हैं। ये अलग-अलग स्थानों से होकर बहती हैं और विभिन्न प्रकार की उपज करती हैं। लेकिन इन सभी नदियों में एक ही शुद्ध, शीतल, स्वच्छ और स्वास्थ्यवर्द्धक जल प्रवाहित होता रहता है, जो अपने उद्गम और संगम में एक हो जाता है।

प्रश्न 5.
आज हम इसी निर्मल, शुद्ध, शीतल और स्वस्थ अमृत की तलाश में हैं और हमारी इच्छा, अभिलाषा और प्रयत्न यह है कि वह इन सभी अलग-अलग बहती हुई नदियों में अभी भी उसी तरह बहता रहे और इनको वह अमर तत्त्व देता रहे, जो जमाने के हजारों थपेड़ों को बरदाश्त करता हुआ भी आज हमारे अस्तित्व को कायम रखे हुए है और रखेगा। [2016]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. कवि इकबाल की उक्ति का अपने शब्दों में अर्थ लिखिए।
  2. लेखक ने प्रस्तुत गद्यांश में किस अमर-तत्त्व की ओर संकेत किया है ?
  3. हमारे अस्तित्व को कौन कायम रखे हुए है? ।

[ निर्मल = स्वच्छ। अभिलाषा = चाह। बरदाश्त करना = सहना। अस्तित्व = विद्यमान होना। ]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–भारतीय संस्कृतिरूपी विशाल सागर में आकर गिरने वाली इन नदियों में, एक ही भाव से शुद्ध, स्वच्छ, शीतल तथा स्वास्थ्यप्रद जल, अमृत के समान प्रवाहित होता रहता है। इस जल में एक ही उदात्त भाव का समावेश है, जो भारतीय संस्कृति को अमरता और स्थिरता प्रदान करता है। लेखक की हार्दिक इच्छा है कि विभिन्न विचारधाराओं के रूप में प्रवाहित इन नदियों में वह अमृत (UPBoardSolutions.com) तत्त्व सदैव बना रहे, जिससे सभी लोगों में प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना का संचार हो। इस भावना का विस्तृत रूप ही सनातन धर्म है और यही भारतीय संस्कृति की उदात्त परम्परा भी है। यद्यपि इस देश ने तरह-तरह के संकट झेले हैं, तथापि भारतीय संस्कृति में विद्यमान विभिन्नता में एकता एक ऐसा तत्त्व है, जो आज तक मिटाया नहीं जा सका है।

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(स)

  1. प्रसिद्ध शायर इकबाल का कहना है कि “न जाने कितनी बार इस देश पर बाहरी लोगों द्वारा आक्रमण किये गये और अनगिनत बार यह देश आक्रमणकारियों की धर्मान्धता का शिकार हुआ; किन्तु यहाँ एक ऐसा तत्त्व अवश्य विद्यमान रहा, जिसके बल पर भारतीय संस्कृति का अस्तित्व आज तक बना हुआ है।”
  2. लेखक ने प्रस्तुत गद्यांश में ‘अनेकता में एकता’ नामक (UPBoardSolutions.com) अमर-तत्त्व की ओर संकेत किया है और यह स्पष्ट किया है कि इस शक्ति के द्वारा भारतीय संस्कृति भविष्य में भी जीवित और स्थायी बनी रहेगी।
  3. हमारे अस्तित्व को जल कायम रखे हुए है।

प्रश्न 6.
यह एक नैतिक और आध्यात्मिक स्रोत है, जो अनन्त काल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण देश में बहता रहा है और कभी-कभी मूर्त रूप होकर हमारे सामने आता रहा है। यह हमारा सौभाग्य रहा है। कि हमने ऐसे ही एक मूर्त रूप को अपने बीच चलते-फिरते, हँसते-रोते भी देखा है और जिसने अमरत्व की याद दिलाकर हमारी सूखी हड्डियों में नयी मज्जा डाल हमारे मृतप्राय शरीर में नये प्राण फेंके और मुरझाये हुए दिलों को फिर खिला दिया। वह अमरत्व सत्य और अहिंसा का है, जो केवल इसी देश के लिए नहीं, आज मानवमात्र के जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गया है। [2013, 15]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. मानव-मात्र के जीवन के लिए क्या आवश्यक है ? इसका मूर्त रूप कौन है, जिसका
    गद्यांश में वर्णन किया गया है ? या लेखक ने गद्यांश में क्या सन्देश देना चाहा है ?
  2. भारतीय संस्कृति में विद्यमान अमर-तत्त्व का स्रोत बताइए। यह हमारे सम्मुख किस रूप | में आता रहा है ?
  3. लेखक ने अमर-तत्त्व का स्रोत किसे बताया है ?

[ नैतिक = नीति और चरित्र सम्बन्धी। आध्यात्मिक = आत्मा से सम्बन्धित। स्रोत = प्रवाह। मूर्त = साकार। मज्जा = चर्बी। मृतप्राय = लगभग मरा हुआ।]
उत्तर
(अ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताया है कि हमारी संस्कृति में निहित अमृत-तत्त्व का स्रोत नैतिक और आध्यात्मिक है, जो आदिकाल से ही प्रत्यक्ष (दृष्टिगोचर) तथा अप्रत्यक्ष (अगोचर) रूप में सम्पूर्ण (UPBoardSolutions.com) देश में बहता चला आ रहा है। यह कभी-कभी स्थूल रूप में अर्थात् मूर्त रूप में किसी महापुरुष के रूप में भी जन्म लेता रहा है।

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(ब)द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक यह बता रहे हैं कि हम बड़े ही भाग्यवान् हैं कि इसी प्रकार के एक स्थूल रूप को (महात्मा गाँधी के रूप में) हमने अपने बीच चलतेफिरते और हँसते-रोते हुए देखा है। इसी मूर्त रूप ने परतन्त्रता के परिणामस्वरूप सूख चुकी हमारी हड्डियों को अमृत-तत्त्व की स्मृति दिलाकर नयी मज्जा प्रदान की। मरे हुए से हमारे शरीर में प्राणों का संचार किया, निराश एवं मुरझाये हुए दिलों को प्राणदान देकर पुनः खिला दिया और उनमें नूतन ऊर्जा का संचार किया। उस मूर्त रूप ने जो अमर-तत्त्व प्रदान किया वह सत्य और अहिंसा का है।
(स)

  1. मानव-मात्र के जीवन के लिए सत्य और अहिंसा नामक अमर-तत्त्व की आवश्यकता है। आज की बढ़ती हुई हिंसात्मक वृत्ति में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है। सत्य और अहिंसा के मूर्तिमान स्वरूप राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी हैं, जिनका प्रस्तुत गद्यांश में सांकेतिक रूप से वर्णन किया गया है।
  2. भारतीय संस्कृति में विद्यमान अमर-तत्त्व का स्रोत नैतिक और आध्यात्मिक है जो कि अनन्त काल से कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष और कभी मूर्त रूप में हम सभी के सम्मुख आता रहा है।
  3. लेखक ने अमर-तत्त्व को स्रोत भारतीय संस्कृति को बताया है।

प्रश्न 7.
हम इस देश में प्रजातन्त्र की स्थापना कर चुके हैं, जिसका अर्थ है व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता, जिसमें वह अपना पूरा विकास कर सके और साथ ही सामूहिक और सामाजिक एकता भी। व्यक्ति और समाज के बीच में विरोध का आभास होता है। व्यक्ति अपनी उन्नति और विकास चाहता है और यदि एक की उन्नति और विकास दूसरे की उन्नति और विकास में बाधक हो तो संघर्ष पैदा होता है और यह संघर्ष तभी दूर हो सकता है, जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों। हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा-तत्त्व पर स्थापित रहा है। जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रजातन्त्र का क्या अर्थ है ? यहाँ किस देश में प्रजातन्त्र की बात की जा रही है ?
  2. नैतिक सिद्धान्तों में किस तत्त्व को प्रमुख स्थान दिया गया है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

[आभास = प्रतीति। पथ = मार्ग।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या–विद्वान् लेखक का कहना है कि हमें अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। हम कोई भी कार्य करने के लिए स्वतन्त्र हैं, किन्तु हमारा यह नैतिक कर्तव्य भी है कि हम अपने कार्य को इस प्रकार सम्पन्न करें, जिससे किसी दूसरे को उससे किसी प्रकार की असुविधा न हो। यदि हम ऐसा सोचकर कार्य करेंगे तो हमारी सामाजिक एकता बनी रहेगी और सभी को उन्नति करने के एक (UPBoardSolutions.com) समान अवसर मिलेंगे। संघर्ष तब होता है, जब एक के स्वार्थ दूसरे के स्वार्थ में बाधा पहुँचाते हैं। इस संघर्ष को टालने का एकमात्र उपाय अहिंसा या त्याग-भावना का अनुसरण करना है। इसी अहिंसा-तत्त्व पर हमारी संस्कृति टिकी हुई है। जब भी हम मानवीय मूल्यों की बात करते हैं, तब अहिंसा को मुख्य स्थान देते हैं।

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(स)

  1. प्रजातन्त्र का अर्थ है–व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता, जिसमें वह स्वयं के साथ-साथ अपने समूह और समाज का भी विकास कर सके। इस गद्यांश में भारत में प्रजातन्त्र की बात की जा रही है।
  2. नैतिक सिद्धान्तों में अहिंसा-तत्त्व को ही प्रमुख स्थान दिया गया है; क्योंकि व्यक्तिगत और सामूहिक उन्नति के विकास में आड़े आने वाला संघर्ष तभी दूर हो सकता है; जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक के द्वारा अहिंसा-तत्त्व के महत्त्व को उद्घाटित किया गया है। उसका कहना है कि व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य संघर्ष तभी दूर हो सकेगा, जब सभी लोग अहिंसा के मार्ग पर चलें और हिंसा की भावना का त्याग कर दें।

प्रश्न 8.
अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है और हिंसा का दूसरा रूप या नाम स्वार्थ है, जो प्राय: भोग के रूप में हमारे सामने आता है। पर हमारी सभ्यता ने तो भोग भी त्याग से ही निकाला है और भोग भी त्याग में ही पाया है। श्रुति कहती है-‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। इसी के द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच का विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच का विरोध, समाज और समाज के बीच का विरोध, देश और देश के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं। हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्त्व से ओत-प्रोत है। [2015)
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. हिंसा और अहिंसा के लिए प्रस्तुत गद्यांश में क्या कहा गया है ?
  2. श्रुति क्या कहती है ? स्पष्ट कीजिए।
  3. विभिन्न प्रकार के विरोध क्या हैं ? इन्हें किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है ?
  4. हमारे नैतिक सिद्धान्तों में किस चीज को प्रमुख स्थान दिया गया है ? इसका दूसरा रूप
    क्या है?

[ भोग = सांसारिक वस्तुओं का उपयोग। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः = इसलिए त्याग की भावना से भोग करो। श्रुति = वेद, उपनिषद्।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश कीयाख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि भारतीय संस्कृति में अहिंसा की अवधारणा का विशेष महत्त्व है। वास्तव में हमारी संस्कृति अहिंसा के मूल तत्त्व पर ही आधारित है। संस्कृति में नैतिक मान्यताओं का विशेष महत्त्व होता है। भारतीय संस्कृति में स्वीकृत अधिकांश नैतिक मान्यताएँ भी अहिंसा के तत्त्व पर ही आधारित हैं। अहिंसा का दूसरा नाम ही त्याग है। इसी प्रकार हिंसा का दूसरा (UPBoardSolutions.com) नाम स्वार्थ है। हिंसा का रूप पदार्थों के भोग के रूप में हमारे सामने आता है। मनुष्य स्वार्थ के कारण जब पदार्थों का अकेले ही उपभोग करता है, तभी हिंसा का जन्म होता है। भारतीय संस्कृति में त्याग और भोग का समन्वय है। जब तक हम किसी वस्तु का त्याग नहीं करेंगे, तब तक दूसरा उसका उपभोग नहीं कर सकता। इस प्रकार त्याग से ही भोग की प्राप्ति होती है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि वेद और उपनिषदों में भी त्यागपूर्वक भोग को महत्त्व दिया गया है। हम जिन पदार्थों का भोग करें, त्याग (अनासक्ति) की भावना से करें। त्याग की भावना से सभी आपसी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। इसी भावना से व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का समाज से, समाज का समाज से और देश का देश से संघर्ष समाप्त हो सकता है। सभी संघर्ष स्वार्थ या भोग को लेकर होते हैं। यदि हम सभी विरोधों या संघर्षों को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें अपनी नैतिक चेतना को इसी तत्त्व त्याग से ओत-प्रोत करना होगा।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में कहा गया है कि हिंसा का ही दूसरा रूप ‘स्वार्थ’ है, जो भोग के रूप में व्यक्तियों के सम्मुख आता है और अहिंसा का दूसरा रूप त्याग है। भारतीय संस्कृति में भोग को भी त्याग से ही निकाला गया है।
  2. श्रुति कहती है कि “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ अर्थात् त्याग की भावना से ही भोग करना चाहिए; क्योंकि त्यागं की भावना से ही सभी आपसी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं।
  3. विभिन्न प्रकार के विरोध हैं—व्यक्ति-व्यक्ति का विरोध, (UPBoardSolutions.com) व्यक्ति-समाज का विरोध, समाजसमाज का विरोध, समाज-देश का विरोध, देश-देश का विरोध आदि। इन सभी प्रकार के विरोधों को त्याग की भावना के प्रस्फुटन के द्वारा समाप्त किया जा सकता है।
  4. हमारे नैतिक सिद्धान्तों में अहिंसा को प्रमुख स्थान दिया गया है। इसका दूसरा रूप त्याग है।

प्रश्न 9.
इसलिए हमने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को स्वतन्त्रतापूर्वक पनपने और भिन्न-भिन्न भाषाओं को विकसित और प्रस्फुटित होने दिया। भिन्न-भिन्न देशों के लोगों को अपने में अभिन्न भावे से मिल जाने दिया। भिन्न-भिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में मिलाया और अपने को उनमें मिलने दिया और देश और विदेश में एकसूत्रता तलवार के जोर से नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द से स्थापित की। दूसरों के हाथों और पैरों पर, घर और सम्पत्ति पर जबरदस्ती कब्जा नहीं किया, उनके हृदयों को जीता और इसी वजह से प्रभुत्व, जो चरित्र और चेतना का प्रभुत्व है, आज भी बहुत अंशों में कायम है, जबकि हम स्वयं उस चेतना को बहुत अंशों में भूल गये हैं और भूलते जा रहे हैं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतीयों ने विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं के लिए क्या किया ?
  2. भारतीय लोगों ने विभिन्न देशों के व्यक्तियों और संस्कृतियों के साथ क्या किया?
  3. भारतीयों ने किस प्रकार एकता स्थापित की ?
  4. भारतीयों का प्रभुत्व अभी भी दूसरों पर क्यों कायम है ?
  5. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?

[ प्रस्फुटित = फलने-फूलने। एकसूत्रता = एकता। सौहार्द = मित्रता का भाव। कब्जा = अधिकार। प्रभुत्व = वैभव।]
उत्तर
(अ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताया है कि भारतीय संस्कृति ने कभी-भी उन संस्कृतियों-सभ्यताओं को विकसित होने में बाधा नहीं पहुँचाई, जो उसकी अपनी नहीं थीं। उसका कहना है कि भारतवासियों ने सदैव (UPBoardSolutions.com) अलग-अलग विचारधाराओं को; जो कि धर्म, आदि विभिन्न रूपों में होती हैं; सदैव विकसित होने और उनके अपने ही ढंग से उन्हें पल्लवित-पुष्पित होने दिया। विभिन्न देशों के लोगों को इस प्रकार अपने में मिल जाने दिया जैसे कि वे उनके अपने ही हों। भारतवासियों ने विभिन्न देशों की संस्कृतियों को स्वयं में मिला लिया और स्वयं को उनकी संस्कृतियों में मिल जाने दिया।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारतीय संस्कृति ने एकता और समरसता का यह कार्य बलपूर्वक नहीं किया, वरन् प्रेम और मित्रता की भावना से किया। उन्होंने कभी-भी विदेशियों के शारीरिक अंगों पर, चल-अचल सम्पत्ति पर बलपूर्वक अधिकार करने का प्रयास नहीं किया, वरन् सदैव उनके हृदय पर अधिकार जमाने का प्रयास किया; क्योंकि किसी के शरीर पर तो बलपूर्वक अधिकार किया जा सकता है, लेकिन हृदय पर नहीं। यही कारण है कि आज भी भारतीयों का जो प्रभाव दूसरों पर बना हुआ है, वह उनके चरित्र और चेतना का है। अन्तिम पंक्ति में लेखक भारतीयों की वर्तमान स्थिति पर अफसोस प्रकट करते हुए कह रहे हैं कि आज भारतीय अपने उस गुण को; जिसके बल पर वे दूसरों पर कायम थे; स्वयं भूल चुके हैं और भूलते ही जा रहे हैं।
(स)

  1. भारतवासियों ने विभिन्न धर्मों को स्वतंन्त्रतापूर्वक पल्लवित-पुष्पित होने और भिन्न-भिन्न वैचारिक धाराओं को बिना किसी रोक-टोक के अपने-अपने मार्ग पर प्रवाहित होने दिया।
  2. भारतीय लोगों ने भिन्न-भिन्न देश के व्यक्तियों को अपने में मिल जाने दिया तथा विभिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में तथा अपने देश की संस्कृति को उनमें मिल जाने दिया।
  3. भारतीयों ने स्वदेश और विदेश में एकता प्रेम और सौहार्द से (UPBoardSolutions.com) स्थापित की, बलपूर्वक नहीं।
  4. भारतीयों का प्रभुत्व दूसरों पर अभी भी मात्र इसीलिए कायम है क्योंकि उन्होंने उनके हृदयों को जीत लिया, उनके घर, धन, सम्पत्ति और बाह्य व्यक्तित्व को कभी अपने अधीन नहीं किया।
  5. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने भारतीयों के उच्च आदर्श को स्पष्ट किया है जो दूसरों पर अपना प्रभुत्व प्रेम और सौहार्द से स्थापित करता है तथा यह भी बताया है कि वर्तमान समय में भारतीय स्वयं उससे विमुख होते जा रहे हैं।

प्रश्न 10.
हर प्रकार की प्रकृतिजन्य और मानवकृत विपदाओं के पड़ने पर भी हम लोगों की सृजनात्मक शक्ति कम नहीं हुई। हमारे देश में साम्राज्य बने और मिटे, विभिन्न सम्प्रदायों का उत्थान-पतन हुआ, हम विदेशियों से आक्रान्त और पददलित हुए, हम पर प्रकृति और मानवों ने अनेक बार मुसीबतों के पहाड़ ढा दिये, पर फिर भी हम लोग बने रहे, हमारी संस्कृति बनी रही और हमारा जीवन एवं सृजनात्मक शक्ति बनी [2009]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक क्या कहना चाहता है ? स्पष्ट कीजिए।
  2. किस-किस प्रकार की विपत्तियों के पड़ने पर भी भारतवासियों की सृजनात्मकता कम नहीं हुई ?

[प्रकृतिजन्य = प्रकृति द्वारा उत्पन्न। मानवकृत = मनुष्यों द्वारा उत्पन्न। विपदा = आपदा, आपत्ति, विपत्ति। सृजनात्मक शक्ति = नवीन निर्माण की शक्ति।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या इतिहास को साक्षी बनाते हुए लेखक कहता है कि : भारतवर्ष में साम्राज्य बने, समाप्त हुए; विभिन्न सम्प्रदाय विकसित हुए और उनका पतन भी हुआ तथा विदेशियों ने हम पर आक्रमण किये और हमें अपमानित भी किया। (UPBoardSolutions.com) प्रकृति और मनुष्यों ने एक बार नहीं अनेक बार हमारे ऊपर मुसीबतों के पहाड़ ढाये लेकिन हमारी संस्कृति इतनी महान् है कि उसने सभी को अपने में समाविष्ट कर लिया। इसी कारण हमारी संस्कृति, हमारा जीवन और हमारी सृजनात्मक शक्ति आज तक बनी हुई है। निश्चित रूप से हमारी संस्कृति सभी संस्कृतियों से श्रेष्ठ एवं महान् है।

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(स)

  1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने भारतीय संस्कृति के महान् आध्यात्मिक-नैतिक आधार तथा । विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं को उच्च बनाये रखने के आधार को स्पष्ट किया है। संक्षेप में, लेखक ने भारतीय संस्कृति की महानता को स्पष्ट किया है।
  2. प्रत्येक प्रकार की प्रकृतिजन्य (यथा-भूकम्प, बाढ़, सूखा आदि) और मानवजन्य विपत्तियों के पड़ने पर भी भारतवासियों की सृजनात्मक शक्ति में कभी कमी नहीं आयी।
    रही।

प्रश्न 11.
हम अपने दुर्दिनों में भी ऐसे मनीषियों और कर्मयोगियों को पैदा कर सके, जो संसार के इतिहास के किसी युग में अत्यन्त उच्च आसन के अधिकारी होते। अपनी दासता के दिनों में हमने गाँधी जैसे कर्मठधर्मनिष्ठ क्रान्तिकारी को, रवीन्द्र जैसे मनीषी कवि को और अरविन्द तथा रमण महर्षि जैसे योगियों को पैदा किया और उन्हीं दिनों में हमने ऐसे अनेक उद्भट विद्वान् और वैज्ञानिक पैदा किये, जिनका सिक्का संसार मानता है। जिन हालातों में पड़कर संसार की प्रसिद्ध जातियाँ मिट गयीं, उनमें हम न केवल जीवित ही रहे, वरन् अपने आध्यात्मिक और बौद्धिक गौरव को बनाये रख सके। उसका कारण यही है कि हमारी सामूहिक चेतना ऐसे नैतिक आधार पर ठहरी हुई है, जो पहाड़ों से भी मजबूत, समुद्रों से भी गहरी और आकाश से भी अधिक व्यापक है।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. कैसे दुर्दिनों में भारत ने किन उच्च आसन के अधिकारी व्यक्तियों को जन्म दिया है ?
  2. किन परिस्थितियों में पड़कर संसार की प्रसिद्ध जातियाँ मिट गयीं ?
  3. भारतवासियों की सामूहिक चेतना कैसे आधार पर स्थित है ?

[दुर्दिन = बुरे दिन। मनीषी = बुद्धिमान। आसन = स्थान। उद्भट = श्रेष्ठ, असाधारण!]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या इतिहास को साक्षी बनाते हुए लेखक राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारत देश को भी बुरे दिन देखने पड़े थे, परन्तु यह भी सत्य है कि इन बुरे दिनों में भी भारत ने अनेक विद्वानों एवं कर्मयोगियों को जन्म दिया। ये महान् भारतीय सपूत इतने योग्य थे कि उन्हें संसार के किसी भी भाग में, किसी भी युग में अनिवार्य रूप से सम्मान एवं उच्च पद के योग्य ही समझा जाता। जब हमारा देश परतन्त्र था तब भी (UPBoardSolutions.com) हमारे देश में महात्मा गाँधी जैसे कर्मठ और धर्म में रत रहने वाले क्रान्तिकारी, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे विचारशील कवि, योगिराज अरविन्द घोष तथा रमण महर्षि जैसे महान् योगी व्यक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। इसी काल में हमारे देश में अनेक वैज्ञानिक एवं महान् विद्वान भी उद्भूत हुए जिनकी योग्यता को आज भी सारा संसार स्वीकार करता है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि जिस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में विश्व की अनेक जातियाँ प्रायः समाप्त हो गयीं, उसी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में हम भारतीय हर प्रकार से अपने आपको कुशल बनाये रखने में सफल तो रहे ही, हमने अपने आध्यात्मिक एवं बौद्धिक गौरव को भी बनाये रखा। इस विशिष्टता का मुख्य कारण यह है कि हमारी सामूहिक चेतना का आधार सुदृढ़ नैतिकता है। हमारी नैतिक चेतना पहाड़ों के समान मजबूत, समुद्र से भी गहन तथा आकाश से भी अधिक व्यापक है। इन्हीं गुणों के कारण भारतीय संस्कृति महान् है, जिसके कारण हमारे देश ने अपने बुरे दिनों में भी विश्वविख्यात महान् व्यक्तियों को जन्म दिया।
(स)

  1. परतन्त्रता/दासता के दिनों में भारत ने महात्मा गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविन्द आदि के साथ-साथ अनेक वैज्ञानिक और विद्वानों को, जो उच्च आसन के अधिकारी थे, जन्म दिया।
  2. दासता अथवा परतन्त्रता की परिस्थितियों में पड़कर संसार की अनेक प्रसिद्ध जातियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
  3. भारतवासियों की सामूहिक चेतना पर्वतों से भी दृढ़, समुद्रों से भी गहरी और आकाश से भी अधिक व्यापक नैतिक आधार पर स्थित है।

प्रश्न 12.
दूसरी बात जो इस सम्बन्ध में विचारणीय है, वह यह है कि संस्कृति अथवा सामूहिक चेतना ही हमारे देश का प्राण है। इसी नैतिक चेतना के सूत्र से हमारे नगर और ग्राम, हमारे प्रदेश और सम्प्रदाय, हमारे विभिन्न वर्ग और जातियाँ आपस में बँधी हुई हैं। जहाँ उनमें और सब तरह की विभिन्नताएँ हैं, वहाँ उन सब में यह एकता है। इसी बात को ठीक तरह से पहचान लेने से बापू ने जनसाधारण को बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में क्रान्ति करने के लिए तत्पर करने के लिए इसी नैतिक चेतना का सहारा लिया था। [2011, 17]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. क्रान्ति के लिए बापू ने किसका सहारा लिया था ?
  2. लेखक ने भारतीय संस्कृति की एकता और उसके बल का क्या महत्त्व बताया है ?

[विचारणीय = विचार करने योग्य बुद्धिजीवी = समाज का प्रबुद्ध वर्ग।]
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हमें सर्वप्रथम वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास के अनुचित परिणामों को ध्यान में रखना चाहिए। विचार करने योग्य दूसरी बात यह है कि भारतीय संस्कृति अथवा भारतवासियों की सम्पूर्ण व एकीकृत चेतन शक्ति ही इस देश का जीवन है। बिना इसके देश का जीवन ही सम्भव नहीं है। ऐसी चेतन शक्ति; जो नैतिकता पर आश्रित है; से हमारे देश के सभी शहर, गाँव और (UPBoardSolutions.com) सभी प्रदेश, सभी धर्म और उनको मानने वाले विभिन्न सम्प्रदाय, इन सम्प्रदायों के विभिन्न वर्ग और इनसे सम्बद्ध जातियाँ आपस में बँधी हुई हैं। जहाँ इनमें सभी तरह की विभिन्नताएँ और विषमताएँ फैली हुई हैं, वहीं उन सबमें एक एकता है, जिसे ध्यान से देखने, समझने और पहचानने की आवश्यकता है।
(स)

  1. क्रान्ति के लिए बापू ने सामान्य जनता को बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में क्रान्ति करने के लिए तैयार किया था और गद्यांश के रेखांकित अंश में उल्लिखित नैतिक चेतना का सहारा लिया था।
  2. लेखक ने भारतीय संस्कृति की एकता और उसके बल का यह महत्त्व बताया है कि इसी के कारण सम्पूर्ण भारत के सभी शहर, गाँव, प्रदेश, विभिन्न जातियाँ, सम्प्रदाय, वर्ग आदि एक सूत्र में बँधे हुए हैं, जिसके कारण गाँधीजी ने देश की जनता को क्रान्ति के लिए तत्पर किया।

प्रश्न 13.
मैं तो यही समझता हूँ कि यदि हमें अपने समाज और देश में उन सब अन्यायों और अत्याचारों की पुनरावृत्ति नहीं करनी है, जिनके द्वारा आज के सारे संघर्ष उत्पन्न होते हैं तो हमें अपनी ऐतिहासिक, नैतिक चेतना या संस्कृति के आधार पर ही अपनी आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए अर्थात् उसके पीछे वैयक्तिक लाभ और भोग की भावना प्रधान न होकर वैयक्तिक त्याग और सामाजिक कल्याण की भावना ही प्रधान होनी चाहिए। हमारे प्रत्येक देशवासी को अपने सारे आर्थिक व्यापार उसी भावना से प्रेरित होकर करने चाहिए। वैयक्तिक स्वार्थों और स्वत्वों पर जोर न देकर वैयक्तिक कर्तव्य और सेवा-निष्ठा पर जोर देना चाहिए और हमारी प्रत्येक कार्यवाही इसी तराजू पर तौली जानी चाहिए। [2012, 15]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. भारतवासियों को अपनी आर्थिक व्यवस्था किस प्रकार बनानी चाहिए ?
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश के भाव पर आधारित एक पंक्ति लिखिए।
  4. आर्थिक व्यापार करने में किस भावना की प्रधानता होनी चाहिए ?

[ पुनरावृत्ति = फिर से दोहराना। आर्थिक व्यवस्था = धन का वितरण और उपभोग। स्वत्व = अधिकार। सेवा-निष्ठा = सेवा-भावना में विश्वास।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि हमें समाज और देश में अन्यायों और अत्याचारों को फिर से न दोहराये जाने के लिए अपनी आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहिए। आर्थिक व्यवस्था के दूषित होने के कारण ही सारे संघर्ष उत्पन्न होते हैं। हमारी आर्थिक व्यवस्था का आधार नैतिक चेतना या संस्कृति द्वारा निर्धारित होना चाहिए। धन से सम्बन्धित जितने भी कार्य किये जाएँ, उनमें सदैव नैतिकता का ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसा करने से अन्याय, अत्याचार और संघर्ष समाप्त हो जाएँगे।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि किसी भी कार्य को करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं स्वार्थ को बढ़ावा तो नहीं मिल रहा है। प्रत्येक कार्य कर्तव्य और सेवा की भावना से करना चाहिए। हमें अपने स्वार्थों और अधिकारों की पूर्ति का कर्म तथा कर्तव्य और सेवा की भावना का अधिक ध्यान रखना चाहिए, अर्थात् जिस प्रकार तराजू दो पदार्थों के परिमाण में (UPBoardSolutions.com) समन्वय बनाकर दोनों के साथ न्याय करती हैं, उसी प्रकार हमें प्रत्येक कार्य में भोग तथा स्वार्थ का कर्तव्य और सेवा-भावना के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए। इससे संघर्ष होने की सम्भावना नहीं रहेगी।
(स)

  1. भारतवासियों को अपनी आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार से बनानी चाहिए कि उसमें व्यक्तिगत स्वार्थ और भोग की भावना की प्रधानता न हो; क्योंकि स्वार्थों के टकराने से संघर्ष उत्पन्न होता है। अतः स्वार्थ की भावना को त्यागकर सामाजिक हित का ध्यान रखते हुए अपनी आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि मनुष्य को अपने समस्त आर्थिक कार्य वैयक्तिक त्याग, सामाजिक कल्याण, सेवा और कर्तव्य-भावना से प्रेरित होकर करने चाहिए। हमें अपनी नैतिक चेतना या संस्कृति के आधार पर ही अपने कार्य करने चाहिए। लेखक की यह भावना गाँधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के समान है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश के भाव पर आधारित एक पंक्ति हो सकती है-“सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।”
  4. आर्थिक व्यापार करने में वैयक्तिक त्याग, सामाजिक कल्याण, सेवा और कर्तव्य-भावना की प्रधानता होनी चाहिए।

प्रश्न 14.
आज विज्ञान मनुष्यों के हाथों में अद्भुत और अतुल शक्ति दे रहा है, उसका उपयोग एक व्यक्ति और समूह के उत्कर्ष और दूसरे व्यक्ति और समूह के गिराने में होता ही रहेगा। इसलिए हमें उस भावना को जाग्रत रखना है और उसे जाग्रत रखने के लिए कुछ ऐसे साधनों को भी हाथ में रखना होगा, जो उस अहिंसात्मक त्याग-भावना को प्रोत्साहित करें और भोग-भावना को दबाये रखें। नैतिक अंकुश के बिना शक्ति मानव के लिए हितकर नहीं होती। वह नैतिक अंकुश यह चेतना या भावना ही दे सकती है। वही उंस शक्ति को परिमित भी कर सकती है और उसके उपयोग को नियन्त्रित भी। [2011, 14, 16, 18]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. विज्ञान द्वारा प्रदत्त शक्ति को प्रयोग किस प्रकार से हो सकता है ? इस शक्ति का प्रयोग किस भावना से किया जाना चाहिए?
  2. किसके बिना प्राप्त शक्ति मानव-मानवता के लिए हितकर नहीं होती ? या उपर्युक्त अवतरण में लेखक ने मानव को क्या सन्देश दिया है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने क्या सुझाव दिया है? क्या आप इससे सहमत हैं?
  4. विज्ञान के सम्बन्ध में लेखक का क्या विचार है? स्पष्ट कीजिए। या आज विज्ञान मनुष्य को क्या दे रहा है?

[अतुल = जिसकी तुलना न हो सके। उत्कर्ष = उत्थान। प्रोत्साहित करना = उत्साहित करना, प्रेरणा देना। अंकुश == नियन्त्रण। परिमित = सीमित।।
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्य-अंश में लेखक कह रहा है कि वर्तमान युग विज्ञान की उन्नति का युग है। विज्ञान की उन्नति से मनुष्य को असीमित शंक्ति प्राप्त हो गयी है, किन्तु विज्ञान से प्राप्त शक्ति का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इस शक्ति का उपयोग एक व्यक्ति अथवा समूह के उत्थान के लिए तथा दूसरे व्यक्ति और समूह को गिराने में हो रहा है। लेखक का कहना है कि समाज में या राष्ट्र में ऐसी भावना उत्पन्न होनी चाहिए, (UPBoardSolutions.com) जिससे विज्ञान की शक्ति के इस दुरुपयोग को रोकने के लिए अहिंसात्मके त्याग की भावना को बढ़ावा दिया जा सके।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि यदि विज्ञान की शक्ति पर प्रेम और अहिंसा जैसे नैतिक मूल्यों का नियन्त्रण नहीं लगाया गया तो यह मानव का हित नहीं कर सकती। नैतिक बन्धन से विज्ञान की असीमित शक्ति सीमित हो सकती है और उसका उपयोग विनाश के लिए न कर निर्माण के लिए किया जा सकता है। आज विज्ञान की शक्ति को कल्याण की दिशा में प्रेरित करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। |
(स)

  1. विज्ञान के द्वारा प्रदत्त अतुलनीय शक्ति का उपयोग एक समूह और व्यक्ति के उत्थान तथा दूसरे समूह और व्यक्ति का पतन करने के लिए हो सकता है। इस शक्ति का प्रयोग अहिंसात्मक त्याग की भावना से किया जाना चाहिए।
  2. नैतिकता के अंकुश के बिना प्राप्त शक्ति मानव और मानवता के लिए हितकारी नहीं होती। यही उस असीमित शक्ति को सीमित कर सकती है और उसके दुरुपयोग को नियन्त्रित भी कर सकती है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने विज्ञान की संहारक नीति को नियन्त्रित करने का सुझाव दिया है तथा इसके नियन्त्रण के लिए अहिंसा से परिपूर्ण त्याग की भावना को आवश्यक बताया है। मैं लेखक के इस कथन से शत-प्रतिशत सहमत हूँ।
  4. विज्ञान के सम्बन्ध में लेखक का विचार है कि उसने मनुष्य के हाथों में अद्भुत और अतुल शक्ति दी है। इस शक्ति का उपयोग व्यक्ति और समूह के उत्कर्ष के लिए किया जाना चाहिए। इसके लिए व्यक्ति को अपने अन्दर अहिंसा-त्याग की भावना को प्रोत्साहित करना चाहिए।

प्रश्न 15.
वर्तमान युग में भारतीय संस्कृति के समन्वय के प्रश्न के अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है। कि भारत की प्रत्येक प्रादेशिक भाषा की सुन्दर और आनन्दप्रद कृतियों का स्वाद भारत के अन्य प्रदेशों के लोगों को कैसे चखाया जाए। मैं समझता हूँ कि इस बारे में दो बातें विचारणीय हैं। क्या इस सम्बन्ध में यह उचित नहीं होगा कि प्रत्येक भाषा की साहित्यिक संस्थाएँ उस भाषा की कृतियों को संघ-लिपि; अर्थात् । देवनागरी में भी छपवाने का आयोजन करें।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) लेखक के अनुसार भारतीय संस्कृति के समन्वय के लिए क्या किया जाना चाहिए ?
उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक डॉ० राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं कि वर्तमान में हमें अपने पुराने सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाकर भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक स्वरूप को अक्षुण्ण बनाये रखना होगा। विभिन्न भाषावाद भी हमारी संस्कृति के समन्वयात्मक स्वरूप को आघात पहुँचा रहे हैं। इसका समाधान सुझाते हुए लेखक कहते हैं कि भारत में अनेकानेक प्रादेशिक भाषाएँ हैं और प्रत्येक भाषा में अनेक सुन्दर और आनन्द प्रदान करने (UPBoardSolutions.com) वाली साहित्यिक कृतियाँ हैं। यदि हम इन कृतियों के सारतत्त्व से अन्य भाषा-भाषियों को परिचित करा सकें तो हमारी समस्या का बहुत कुछ समाधान हो सकता है।

(स) लेखक के अनुसार भारतीय संस्कृति के समन्वय के लिए प्रत्येक प्रादेशिक भाषा की साहित्यिक कृतियों का अनुवाद कराके उसे भारत की संघलिपि; अर्थात् हिन्दी; में छपवाना चाहिए।

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प्रश्न 16.
दूसरी बात यह है, ऐसी संस्था की स्थापना की जाए, जो इन सब भाषाओं में आदान-प्रदान का सिलसिला अनुवाद द्वारा आरम्भ करे। यदि सब भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला सांस्कृतिक संगम स्थापित हो जाता है तो इस बारे में बड़ी सहूलियत होगी। साथ ही, वह संगम साहित्यिकों को प्रोत्साहन भी प्रदान कर सकेगा और अच्छे साहित्य के स्तर के निर्धारण और सृजन करने में भी पर्याप्त अच्छा कार्य कर सकेगा। साहित्य संस्कृति का एक व्यक्त रूप है। उसके दूसरे रूप-गान, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि में देखे जाते हैं। भारत अपनी एकसूत्रता इन सब कलाओं द्वारा प्रदर्शित करता आया है। [2013] |,
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक को नाम (सन्दर्भ) लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) भारत अपनी एकसूत्रता किन-किन कलाओं द्वारा प्रदर्शित करता आया है ?
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि भारतवर्ष में विद्यमान विभिन्न संस्कृतियों के समन्वय के लिए यह आवश्यक है कि हम सब मिलकर एक ऐसी संस्था की स्थापना करें जो सभी भारतीय भाषाओं की कृतियों में पारस्परिक आदान-प्रदान का सिलसिला अनुवाद द्वारा प्रारम्भ करे। लेखक के कहने का आशय है कि संस्था ऐसी होनी चाहिए जो किसी एक भारतीय भाषा की कृति का अन्य सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर सके।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का कहना है कि भारतवर्ष में विद्यमान विभिन्न संस्कृतियों में समन्वय के लिए आवश्यक है कि विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों का समन्वय हो जाये। यदि कोई इस प्रकार का संगम स्थापित हो जाता है तो यह विभिन्न भाषा के साहित्यकारों को साहित्य-सृजन के लिए प्रोत्साहित कर सकेगा। इसके साथ ही यह संगम साहित्य के स्तर के उत्थान तथा उत्तमोत्तम साहित्य की रचना (UPBoardSolutions.com) करने में भी पर्याप्त रूप से सहायक सिद्ध होगा।
(स) भारत अपनी एकसूत्रता को गान, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, मूर्तिकला इत्यादि कलाओं के द्वारा प्रदर्शित करता आया है।

प्रश्न 17.
यदि पृथ्वी पर स्वर्ग कहीं है तो यहाँ ही है, यहाँ ही है, यहाँ ही है। यह स्वप्न तभी सत्य होगा और पृथ्वी पर स्वर्ग तो तभी स्थापित होगा, जब अहिंसा, सत्य और सेवा का आदर्श सारे भूमण्डल में मानवजीवन का मुख्य आधार और प्रधान प्रेरकशक्ति हो गया होगा। |
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. “यदि पृथ्वी पर स्वर्ग कहीं है तो यहाँ ही है, यहाँ ही है, यहाँ ही है’ के लिए पाठ में आयी काव्य-पंक्ति लिखिए।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है ?

उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि भारत की सुन्दर धरती को पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाता है। परन्तु आज समाज में जैसा वातावरण व्याप्त है, उसे देखते हुए इसे पृथ्वी को स्वर्ग नहीं कहा जा सकता। स्वर्ग की स्थापना तो सत्य, अहिंसा और नि:स्वार्थ सेवा की भावना से होती है। यदि हम वास्तव में इस धरती पर स्वर्ग उतारना चाहते हैं तो हमें इस बात का प्रयास करना चाहिए कि मनुष्य के जीवन की प्रत्येक गतिविधि सत्य, अहिंसा और सेवाभाव से प्रेरित हो। ऐसा होने पर संघर्ष, द्वेष, घृणा और युद्ध की समस्या स्वत: ही समाप्त हो जाएगी तथा मानव-जीवन सुखमय और आनन्दमय हो जाएगा।
(स)

  1. प्रश्न में उल्लिखित अंश के लिए पाठ में आयी काव्य-पंक्ति है
    गर फिरदौस बर रुए जमींनस्त,
    हमींअस्तो, हमींअस्तो, हमींअस्त।
  2.  प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने पृथ्वी पर स्वर्ग की कल्पना को साकार करने (UPBoardSolutions.com) के लिए सत्य, अहिंसा, कर्तव्य-पालन और सेवा-भाव की भावना पर बल दिया है।

व्याकरण एवं रचा-बोध ।

प्रश्न 1
निम्नलिखित शब्दों में एक ही प्रत्यय लगा है। प्रत्यय को मूल शब्दों से अलग कीजिए और उन्हें देखकर प्रत्यय लगने के बाद शब्द में होने वाले परिवर्तन के विषय में एक नियम का प्रतिपादन कीजिए नैतिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, बौद्धिक, ऐतिहासिक, सामूहिक, प्रादेशिक, साहित्यिक
उत्तर
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प्रश्न 2
निम्नलिखित शब्दों में उपसर्ग को मूल शब्दों से अलग कीजिए अत्याचार, उपार्जन, उपयोग, प्रत्येक, परिश्रम, आदान।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 भारतीय संस्कृति (गद्य खंड) img-2

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प्रश्न 3
निम्नलिखित शब्द उपसर्ग और प्रत्यय दोनों के योग से बने हैं। उपसर्ग और प्रत्यय दोनों को मूल शब्दों से पृथक् कीजिए विभिन्नता, सुशोभित, प्रस्फुटित, प्रोत्साहित, अहिंसात्मक, प्रतिनिधित्व, प्रदर्शित।
उत्तर
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प्रश्न 4
निम्नलिखित प्रत्ययों से पाँच-पाँच शब्दों की रचना कीजिए- पूर्वक, त्व, प्रद, ईय, आत्मक, जन्य।
उत्तर
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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड)

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जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न 1.
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के जीवन-परिचय एवं रचनाओं पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17]
उत्तर
प्रचार से दूर हिन्दी के मौन साधक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी हिन्दी के प्रतिष्ठित निबन्धकार, कवि, सम्पादक तथा साहित्य मर्मज्ञ थे। साहित्य-सृजन की प्रेरणा आपको विरासत में मिली थी, जिसके कारण आपने विद्यार्थी जीवन से ही लिखना प्रारम्भ कर दिया था। ललित निबन्धों के लेखन के लिए आपको प्रभूत यश प्राप्त हुआ। एक गम्भीर विचारक, शिष्ट हास्य-व्यंग्यकार और कुशल आलोचक के रूप में आप हिन्दी-साहित्य में विख्यात हैं।

जीवन-परिचय-श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जन्म सन् 1894 ई० में मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले के खैरागढ़ नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता श्री उमराव बख्शी तथा बाबा पुन्नालाल बख्शी साहित्य-प्रेमी और कवि थे। इनकी माताजी को भी साहित्य से प्रेम था। अतः परिवार के साहित्यिक वातावरण का प्रभाव इनके मन पर भी गहरा पड़ा और ये विद्यार्थी जीवन से ही कविताएँ लिखने लगे। बी०ए० उत्तीर्ण करने के बाद (UPBoardSolutions.com) बख्शी जी ने साहित्य-सेवा को अपना लक्ष्य बनाया तथा कहानियाँ और कविताएँ लिखने लगे। द्विवेदी जी बख्शी जी की रचनाओं और योग्यताओं से इतने अधिक प्रभावित थे कि अपने बाद उन्होंने ‘सरस्वती’ की बागडोर बख्शी जी को ही सौंपी। द्विवेदी जी के बाद 1920 से 1927 ई० तक इन्होंने कुशलतापूर्वक ‘सरस्वती’ के सम्पादन का कार्य किया। ये नम्र स्वभाव के व्यक्ति थे और ख्याति से दूर रहते थे। खैरागढ़ के हाईस्कूल में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् इन्होंने पुनः ‘सरस्वती’ का सम्पादन-भार सँभाला। सन् 1971 ई० में 77 वर्ष की आयु में निरन्तर साहित्य-सेवा करते हुए आप गोलोकवासी हो गये।

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कृतियाँ-बख्शी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने निबन्ध, काव्य, कहानी, आलोचना, नाटक आदि पर अपनी लेखनी चलायी। निबन्ध और आलोचना के क्षेत्र में तो ये प्रसिद्ध हैं ही, अपने ललित निबन्धों के कारण भी ये विशेष रूप से स्मरण किये जाते हैं। इनकी रचनाओं का विवरण अग्रलिखित है

  1. निबन्ध-संग्रह-‘पंचपात्र’, ‘पद्मवन’, ‘तीर्थरेणु’, ‘प्रबन्ध-पारिजात’, ‘कुछ बिखरे पन्ने, ‘मकरन्द बिन्दु’, ‘यात्री’, ‘तुम्हारे लिए’, ‘तीर्थ-सलिल’ आदि। इनके निबन्ध जीवन, समाज, धर्म, संस्कृति और साहित्य के विषयों पर लिखे गये हैं। |
  2. काव्य-संग्रह-‘शतदल’ और ‘अश्रुदल’ इनके दो काव्य-संग्रह हैं। इनकी कविताएँ प्रकृति और प्रेमविषयक हैं।
  3. कहानी-संग्रह-‘झलमला’ और ‘अञ्जलि’, इनके दो कहानी-संग्रह हैं। इन कहानियों में मानव-जीवन की विषमताओं का चित्रण है।
  4. आलोचना-‘हिन्दी-साहित्य विमर्श’, ‘विश्व-साहित्य’, ‘हिन्दी उपन्यास साहित्य’, ‘हिन्दी कहानी साहित्य, साहित्य शिक्षा’ आदि इनकी श्रेष्ठ आलोचनात्मक पुस्तकें हैं।
  5. अनूदित रचनाएँ–जर्मनी के मॉरिस मेटरलिंक के दो नाटकों (UPBoardSolutions.com) का ‘प्रायश्चित्त’ और ‘उन्मुक्ति का बन्धन’ शीर्षक से अनुवाद।
  6. सम्पादन-‘सरस्वती’ और ‘छाया’। इन्होंने सरस्वती के सम्पादन से विशेष यश अर्जित किया।
    साहित्य में स्थान-बख्शी जी भावुक कवि, श्रेष्ठ निबन्धकार, निष्पक्ष आलोचक, कुशल पत्रकार एवं कहानीकार हैं। आलोचना और निबन्ध के क्षेत्र में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। विश्व-साहित्य में इनकी गहरी पैठ है। अपने ललित निबन्धों के लिए ये सदैव स्मरण किये जाएँगे। विचारों की मौलिकता और शैली की नूतनता के कारण हिन्दी-साहित्य में शुक्ल युग के निबन्धकारों में इनके निबन्धों को विशिष्ट स्थान है।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्न,

प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से |महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।
प्रश्न 1.
अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबन्ध-लेखक ए० जी० गार्डिनर का कथन है कि लिखने की एक विशेष मानसिक स्थिति होती है। उस समय मन में कुछ ऐसी उमंग-सी उठती है, हृदय में कुछ ऐसी स्फूर्ति-सी आती है, मस्तिष्क में कुछ ऐसा आवेग-सा उत्पन्न होता है कि लेख लिखना ही पड़ता है। उस समय विषय की चिन्ता नहीं रहती। कोई भी विषय हो, उसमें हम अपने हृदय के आवेग को भर ही देते हैं। हैट टाँगने के लिए कोई भी ख़ुटी काम दे सकती है।  उसी तरह अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त है। असली वस्तु है हैट, खूटी नहीं। इसी तरह मन के भाव ही तो यथार्थ वस्तु हैं, विषय नहीं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. ‘हैट’ और ‘ख़ुटी’ का उदाहरण इस गद्यांश में क्यों दिया गया हैं ? स्पष्ट कीजिए।
  2. विशेष मानसिक स्थिति में क्या होता है ?
  3. मनोभावों को व्यक्त करने के लिए किसकी आवश्यकता होती है ?

[ उमंग = उल्लास, उत्साह अथवा आनन्द की स्थिति। स्फूर्ति = (शारीरिक एवं मानसिक) ताजगी।, आवेग = मानसिक उत्तेजना या उत्कट भावना।]
उत्तर
(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड में संकलित तथा श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्वारा लिखित ‘क्या लिखें ?’ शीर्षक ललित निबन्ध से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिखें-
पाठ का नाम क्या लिखें? लेखक का नाम-श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी।
[ विशेष—इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए इस (UPBoardSolutions.com) प्रश्न का यही उत्तर इसी रूप में प्रयुक्त होगा।]

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( ब ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–ए० जी० गार्डिनर अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबन्धकार हुए हैं। उन्होंने कहा है कि मन की विशेष स्थिति में ही निबन्ध लिखा जाता है। उसके लिए मन के भाव ही यथार्थ होते हैं, विषय नहीं। मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त हो सकता है। निबन्ध लिखने की विशेष मनोदशा के सम्बन्ध में उनका कहना है कि उस समय मन में एक विशेष प्रकार का उत्साह और स्फूर्ति आती है और मस्तिष्क में एक विशेष प्रकार की आवेगपूर्ण स्थिति बनती है और उस आवेग को उमंग के कारण विषय की चिन्ता किये बिना निबन्ध लिखने को बाध्य होना ही पड़ता है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–श्री ए० जी० गार्डिनर के कथन को विस्तार देते हुए पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी कहते हैं कि कोई भी विषय हो लेखक उसमें अपने हृदय के आवेग को भर ही देता है। सामान्य से सामान्य विषय भी लेखक और उसके मानसिक आवेग द्वारा विशिष्ट बना दिया जाता है। उदाहरण के लिए जिस प्रकार एक हैट को टॉगने के लिए किसी भी खूटी का प्रयोग किया जा सकता है, उसी प्रकार हृदय (UPBoardSolutions.com) के अनेक भाव किसी भी विषय पर व्यवस्थित रूप में व्यक्त किये जा सकते हैं। अतः असली वस्तु हैट है न कि ख़ुटी। यही अवस्था साहित्य-रचना में भी होती है; अर्थात् मन के भावे ही असली वस्तु हैं, विषय अथवा शीर्षक नहीं। तात्पर्य यह है कि यदि हृदय में भाव एवं विचार हों तो किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है।
(स)

  1. प्रस्तुत गद्यांश में हैट का उदाहरण मनोभावों के लिए दिया गया है और ख़ुटी का विषय के लिए। गार्डिनर महोदय के अनुसार जिस प्रकार मुख्य वस्तु हैट होती है, ख़ुटी नहीं उसी प्रकार मन के भावविचार मुख्य हैं, विषय नहीं। आशय यह है कि यदि मन में भाव एवं विचार हों तो किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है।
  2. विशेष मानसिक स्थिति में व्यक्ति के मन में उमंग उठती है, हृदय में स्फूर्ति आती है और मस्तिष्क में कुछ ऐसा आवेग उत्पन्न होता है कि व्यक्ति उसे अभिव्यक्ति देने के लिए लिखने बैठ जाता है।
  3. मनोभावों को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त विषय की आवश्यकता होती है।

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प्रश्न 2.
उन्होंने स्वयं जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया, उसी को अपने निबन्धों में लिपिबद्ध कर दिया। ऐसे निबन्धों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे मन की स्वच्छन्द रचनाएँ हैं। उनमें न कवि की उदात्त कल्पना रहती है, न आख्यायिका-लेखक की सूक्ष्म दृष्टि और न विज्ञों की गम्भीर तर्कपूर्ण विवेचना। उनमें लेखक की सच्ची अनुभूति रहती है। उनमें उसके सच्चे भावों की सच्ची अभिव्यक्ति होती है, उनमें उसका उल्लास रहता है। ये निबन्ध तो उस  मानसिक स्थिति में लिखे जाते हैं, जिसमें न ज्ञान की गरिमा रहती है और न कल्पना की महिमा, जिसमें हम संसार को अपनी ही दृष्टि से देखते हैं और अपने ही भाव से ग्रहण करते हैं। [2017]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. निबन्ध किस मानसिक स्थिति में लिखे जाते हैं ?
  2. मॉनटेन की शैली के निबन्धों की विशेषता क्या है ?
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस शैली के निबन्धों की विशेषता बतायी है ?

उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी लिखते हैं कि मॉनटेन के अनुसार स्वच्छन्दतावादी शैली में लिखे गये निबन्धों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि ऐसे निबन्ध लेखक के हृदय की बन्धनमुक्त रचनाएँ होते हैं। इसमें कवि के समान उच्च कल्पनाएँ और किसी कहानी लेखक के समान सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती और न ही विद्वानों के समान गम्भीर तर्कपूर्ण विवेचना की आवश्यकता होती है। (UPBoardSolutions.com) इसमें लेखक अपने मन की सच्ची भावनाओं को स्वतन्त्रता और प्रसन्नता के साथ व्यक्त करता है। इन निबन्धों को लिखते समय लेखक पाण्डित्य-प्रदर्शन की अवस्था से भी दूर रहता है। वह अपने भावों को जिस रूप में चाहता है, उसी रूप में अभिव्यक्त करता है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी लिखते हैं कि स्वच्छन्दतावादी शैली में लिखे गये निबन्धों में लेखक अपने मन में उठने वाले भावों को ज्यों-का-त्यों व्यक्त कर देता है। इन निबन्धों में न ही ज्ञान की गुरुता निहित होती है और न ही कल्पना की उड़ान। ये निबन्ध लेखक के मन के सच्चे उद्गार होते हैं। वह संसार का जैसा अनुभव करता है और जिस रूप में देखता है। बिना उसमें आलंकारिकता व पाण्डित्य-प्रदर्शन के उसी रूप में व्यक्त कर देता है। |
(स)

  1. निबन्ध ऐसी मानसिक स्थिति में लिखे जाते हैं जिसमें न तो ज्ञान का गौरव निहित होता है। और न ही कल्पना की ऊँची उड़ान। निबन्ध में लेखक अपने ही विचारों की अभिव्यक्ति करता है।
  2. नटेन की शैली के निबन्धों की विशेषता है कि वे लेखक के हृदय की बन्धनमुक्त रचनाएँ हैं। जिनमें लेखक की वास्तविक अनुभूति और उसके भावों का वास्तविक प्रकटीकरण होता है।
  3. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने स्वच्छन्दतावादी (बन्धनमुक्त) शैली के निबन्धों की विशेषता बतायी है। और स्पष्ट किया है कि इन निबन्धों में बनावट, ऊँची कल्पना और तर्कपूर्ण विवेचना नहीं होती।

प्रश्न 3.
दूर के ढोल सुहावने होते हैं; क्योंकि उनकी कर्कशता दूर तक नहीं पहुँचती। जब ढोल के पास बैठे। हुए लोगों के कान के पर्दे फटते रहते हैं, तब दूर किसी नदी के तट पर, संध्या समय, किसी दूसरे के कान में वही शब्द मधुरता का संचार कर देते हैं। ढोल के उन्हीं शब्दों को सुनकर वह अपने हृदय में किसी के विवाहोत्सव का चित्र अंकित कर लेता है। कोलाहल से पूर्ण घर के एक कोने में बैठी हुई किसी लज्जाशीला ‘नव-वधू की कल्पना वह अपने मन में कर लेता है। उस नव-वधू के प्रेम, उल्लास, संकोच, आशंका और विषाद से युक्त हृदय के कम्पन ढोल की कर्कश ध्वनि को मधुर बना देते हैं; क्योंकि उसके साथ आनन्द का कलरव, उत्सव व प्रमोद और प्रेम का संगीत ये तीनों मिले रहते हैं। तभी उसकी कर्कशता समीपस्थ लोगों को भी कटु नहीं प्रतीत होती और दूरस्थ लोगों के लिए तो वह अत्यन्त मधुर बन जाती है। [2010, 13]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. प्रस्तुत अंश में ‘दूर के ढोल’ और ‘नव-वधू’ में साम्य और वैषम्य बताइए।
  2. ढोल की आवाज किसके लिए कर्कश होती है और किसके लिए मधुर ?
  3. ढोल की कर्कश ध्वनि को कौन मधुर बना देता है और क्यों ?
  4. दूर के ढोल सुहावने क्यों होते हैं ?

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[ ढोल = एक प्रकार का वाद्य। सुहावना = अच्छा लगने वाला। कर्कशता = कर्णकटुता। कोलाहल = शोरगुल। आशंका = सन्देह। कलरव = (चिड़ियों की) मधुर ध्वनि।]
उत्तर.
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का कथन है कि दूर के ढोल इसलिए अच्छे लगते हैं क्योंकि उनकी कर्णकटु ध्वनि बहुत दूर तक नहीं पहुँचती है। जब वे बज रहे होते हैं तो समीप बैठे हुए लोगों के कान (UPBoardSolutions.com) के पर्दे फाड़ रहे होते हैं जब कि दूर किसी भी नदी के किनारे सन्ध्याकालीन समय के शान्त वातावरण में बैठे हुए लोगों को अपने मधुर स्वर से प्रसन्न कर रहे होते हैं।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का कथन है कि ढोल की कर्कश ध्वनि दूर बैठे किसी व्यक्ति को प्रसन्न इसलिए करती है; क्योंकि वह अपने मन में कोलाहल से पूर्ण किसी घर के कोने में शादी के कारण लज्जाशील युवती की भी कल्पना करने लगता है। शादी की मधुर कल्पना, प्रेम, उल्लास (हर्ष), संकोच, सन्देह और दुःख से युक्त हृदय के कम्पन उस ढोल के कर्णकटु शब्दों को मधुर बना देते हैं। इसका कारण यह है कि उस नव-विवाहिता के हृदय में आनन्द का मधुर राग, उत्सव, विशेष प्रसन्नता और प्रेम का संगीत-ये तीनों तत्त्व एक साथ अवस्थित रहते हैं। कहने का भावे यह है कि यदि विवाह होने की प्रसन्नता, जीवन की मधुर कल्पनाएँ और प्रिय के प्रति प्रेम की भावना न हो तो नव-विवाहिता को भी विवाहोत्सव में बजने वाला ढोल सुहावना न लगे।
(स)

  1. ढोल की ध्वनि जब दूर से आती सुनाई देती है, उसी समय वह कानों में मधुरता का संचार करती है, लेकिन पास से सुनाई देने पर वह कानों के पर्दे भी फाड़ सकती है। लेकिन नव-वधू की कल्पना ” दोनों ही स्थितियों में–विवाहोत्सव में उपस्थित अथवा दूर बैठे विवाहोत्सव की कल्पना कर रहे–व्यक्ति के मन में मधुरता का संचार करती है और समीप बैठे रहने पर भी उसे ढोल की ध्वनि मधुर ही लगती है।
  2. ढोल की ध्वनि समीप बैठे व्यक्ति के लिए कर्कश होती है और दूर बैठे व्यक्ति के लिए मधुर। लेकिन जब समीप में बैठा व्यक्ति विवाहोत्सव में उपस्थित किसी नव-वधू की कल्पना अपने मन में कर लेता है, उस समय उसे ढोल की कर्कश ध्वनि (UPBoardSolutions.com) भी मधुर ही सुनाई पड़ती है।
  3. ढोल की कर्कश ध्वनि को किसी नव-वधू के प्रेम, उल्लास, संकोच आदि भावों से युक्त हृदय के कम्पन मधुर बना देते हैं, क्योंकि उसके साथ आनन्द की मधुर ध्वनि, उत्सव का आनन्द और प्रेम का संगीत तीनों ही मिले-जुले रहते हैं।
  4. दूर के ढोल सुहावने इसलिए होते हैं क्योंकि कानों को कठोर लगने वाली उनकी कर्कश ध्वनि दूर तक नहीं पहुँचती।

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प्रश्न 4.
जो तरुण संसार के जीवन-संग्राम से दूर हैं, उन्हें संसार का चित्र बड़ा ही मनमोहक प्रतीत होता है, जो वृद्ध हो गये हैं, जो अपनी बाल्यावस्था और तरुणावस्था से दूर हट आये हैं, उन्हें अपने अतीतकाल की स्मृति बड़ी सुखद लगती है। वे अतीत का ही स्वप्न देखते हैं। तरुणों के लिए जैसे भविष्य उज्ज्वल होता है, वैसे ही वृद्धों के लिए अतीत। वर्तमान से दोनों को असन्तोष होता है। तरुण भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं और वृद्ध अतीत को खींचकर वर्तमान में देखना चाहते हैं। तरुण क्रान्ति के समर्थक होते हैं और वृद्ध अतीत-गौरव के संरक्षक। इन्हीं दोनों के कारण वर्तमान सदैव क्षुब्ध रहता है और इसी से वर्तमान काल सदैव सुधारों का काल बना रहता है।
[2009, 12, 15, 17]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. वर्तमान समय सदैव सुधारों का समय क्यों बना रहता है ?
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  3. युवा और वृद्ध व्यक्तियों के वैचारिक अन्तर को स्पष्ट कीजिए। या तरुण और वृद्ध दोनों क्या चाहते हैं?
  4. संसार का चित्र किसे बड़ा मनमोहक प्रतीत होता है ?
  5. तरुण और वृद्ध दोनों क्या चाहते हैं ?

[ तरुण = युवक। अतीत = बीता समय। संरक्षक = रक्षा करने वाला। क्षुब्ध = दु:खी। ]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या--लेखक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी का कहना है कि जिन नौजवानों ने संसार के कष्टों, समस्याओं और कठिनाइयों का सामना नहीं किया, उन्हें यह संसार बड़ा आकर्षक और सुन्दर प्रतीत होता है; क्योंकि वे अपने उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न देखते हैं, जीवन-संघर्षों से बहुत दूर रहते हैं और दूर के ढोल तो सभी को सुहावने लगते हैं। जो अपनी बाल्यावस्था और जवानी को पार करके (UPBoardSolutions.com) अब वृद्ध हो गये हैं, वे बीते समय के गीत गाकर प्रसन्न होते हैं। नवयुवकों से भविष्य दूर होता है और वृद्धों से उनका बचपन बहुत दूर हो गया होता है। इसीलिए नवयुवकों को भविष्य तथा वृद्धों को अतीत प्रिय लगता है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री बख्शी जी का कहना है कि नवयुवक उत्साह और साहस के साथ वर्तमान को बदलना चाहते हैं और वृद्ध बीते हुए समय और उच्च सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करना चाहते हैं। इसी संघर्ष में दोनों का जीवन सदैव तनावपूर्ण रहता है। पर इससे लाभ यह है कि युवकों के प्रयास से वर्तमान काल में सुधार होते हैं और वृद्धों के प्रयास से गौरवपूर्ण संस्कृति की रक्षा होती है।
(स)

  1. वर्तमान समय सदैव सुधारों का समय इसलिए बना रहता है; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह युवा हो अथवा वृद्ध, अपने वर्तमान से दुःखी होता है। युवा अपने भविष्य के सुखद स्वप्न देखते हैं और वृद्ध अपने अतीत के सुखों का गान करते हैं। वर्तमान किसी को अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वह उनके सामने होता है। वस्तुत: जो भी हमें प्राप्त होता रहता है, हम प्राय: उससे असन्तुष्ट ही रहते हैं, इसलिए उसमें परिवर्तन करते रहते हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय सदैव सुधारों का समय बना रहता है।
  2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहता है कि वृद्धों की सोच से हमारी संस्कॅति सुरक्षित रहती है। और युवाओं की सोच से वर्तमान में सुधार होते रहते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो आगे आने वाली पीढ़ियाँ सदैव एक ही अतीत को ढोती रहतीं।
  3. युवाओं को भविष्य की स्मृति मनमोहक प्रतीत होती है और वृद्धों (UPBoardSolutions.com) को अतीत की। युवाओं के लिए भविष्य उज्ज्वल होता है और वृद्धों के लिए अतीत। युवा भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं और वृद्ध अतीत को। युवा क्रान्ति के समर्थक होते हैं और वृद्ध अंतीत-गौरव के संरक्षक।
  4. संसार का चित्र ऐसे युवाओं को बड़ा ही आकर्षक प्रतीत होता है, जो जीवन रूपी संग्राम से बहुत दूर हैं; अर्थात् जिन्होंने संसार के कष्टों, समस्याओं और कठिनाइयों का सामना नहीं किया है।
  5. तरुण और वृद्ध दोनों ही वर्तमान से असन्तुष्ट होते हैं। तरुण भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं। और वृद्ध अतीत को। तरुण क्रान्ति का समर्थन करते हैं और वृद्ध अतीत के गौरव का संरक्षण।

प्रश्न 5.
मनुष्य जाति के इतिहास में कोई ऐसा काल ही नहीं हुआ, जब सुधारों की आवश्यकता न हुई हो। तभी तो आज तक कितने ही सुधारक हो गये हैं। पर सुधारों का अन्त कब हुआ? भारत के इतिहास में बुद्धदेव, महावीर स्वामी, नागार्जुन, शंकराचार्य, कबीर, नानक, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द और महात्मा गाँधी में ही सुधारकों की गणना समाप्त नहीं होती। सुधारकों का दल नगर-नगर और गाँव-गाँव में होता है। यह सच है कि जीवन में नये-नये क्षेत्र उत्पन्न होते जाते हैं और नये-नये सुधार हो जाते हैं। न दोषों का अन्त है और न सुधारों का। जो कभी सुधार थे, वही आज दोष हो गये हैं और उन सुधारों का फिर नव सुधार किया जाता है। तभी तो यह जीवन प्रगतिशील माना गया है। [2016]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. मनुष्य जाति के इतिहास में कब सुधारों की आवश्यकता नहीं हुई? कुछ प्रमुख सुधारकों के नाम लिखिए।
  2. “प्रत्येक वस्तु, पदार्थ, विचार परिवर्तनशील हैं’, इस सत्य का वर्णन करते हुए एक वाक्य लिखिए।
  3. जीवन प्रगतिशील क्यों माना गया है?

उत्तर
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि मानव-समाज विस्तृत है। इसमें सदैव सुधार होते रहते हैं। बुद्ध से गाँधी तक सुधारकों के एक बड़े समूह का जन्म इस देश में हुआ है। जीवन में दोषों की श्रृंखला बहुत लम्बी होती है। इसीलिए सुधारों का क्रम सदैव चलता रहता है। सुधारकों के दल प्रत्येक नगर और ग्राम में होते हैं। जीवन में अनेकानेक क्षेत्र होते हैं और नित नवीन उत्पन्न भी होते जाते हैं। प्रत्येक में कुछ दोष होते हैं, जिनमें सुधार अवश्यम्भावी होता है। सुधार किये जाने पर इनमें तात्कालिक सुधार तो हो जाता है परन्तु आगे चलकर कालक्रम में वे ही सुधार फिर दोष माने जाने लगते हैं और (UPBoardSolutions.com) उनमें फिर से सुधार किये जाने की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। इसी सुधारक्रम और परिवर्तनशीलता से जीवन प्रगतिशील मना गया है।

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(स)

  1. मनुष्य जाति के इतिहास में ऐसा कोई समय ही नहीं आया, जब सुधारों की आवश्यकता नहीं हुई। आशय यह है कि मनुष्य जाति के इतिहास में सदैव ही सुधारों की आवश्यकता होती रही है और होती रहेगी। कुछ प्रमुख समाज-सुधारकों के नाम हैं—गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, नागार्जुन आदि शंकराचार्य, कबीरदास, गुरु नानकदेव, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी, विनोबा भावे आदि।।
  2. “प्रत्येक वस्तु, पदार्थ, विचार परिवर्तनशील हैं’, इस सत्य का वर्णन करते हुए हम एक वाक्य लिख सकते हैं कि, “परिवर्तन प्रकृति का नियम है। मात्र परिवर्तन के अतिरिक्त सम्पूर्ण सृष्टि परिवर्तनशील है।”
  3. न दोषों का अन्त है और न सुधारों का। जो कभी सुधार थे, वही आज दोष हो गये हैं और उन सुधारों को फिर नव सुधार किया जाता है। तभी तो यह जीवन प्रगतिशील माना गया है।

प्रश्न 6.
हिन्दी में प्रगतिशील साहित्य का निर्माण हो रहा है। उसके निर्माता यह समझ रहे हैं कि उनके साहित्य में भविष्य का गौरव निहित है। पर कुछ ही समय के बाद उनका यह साहित्य भी अतीत का स्मारक हो जाएगा और आज जो तरुण हैं, वही वृद्ध होकर अतीत के गौरव का स्वप्न देखेंगे। उनके स्थान में तरुणों । का फिर दूसरा दल आ जाएगा, जो भविष्य का स्वप्न देखेगा। दोनों के ही स्वप्न सुखद होते हैं; क्योंकि दूर के ढोल सुहावने होते हैं।
[2010, 11, 14, 16, 18]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)

  1. “दूर के ढोल सुहावने क्यों होते हैं ?” स्पष्ट कीजिए।
  2. प्रस्तुत अवतरण में लेखक क्या कहना चाहता है ?
  3. प्रगतिशील साहित्य को अतीत का स्मारक क्यों कहा गया है।
  4. लेखक ने साहित्य के निर्माण में किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?
  5. प्रगतिशील साहित्य-निर्माता क्या समझकर साहित्य-निर्माण कर रहे हैं?

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[ निर्माण = रचना। निर्माता = बनाने वाला। निहित = छिपा हुआ। अतीत = भूतकाल। स्मारक = यादगार।]
उत्तर
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-विद्वान् लेखक श्री बख्शी जी साहित्यिक सुधार की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि युवा साहित्यकार वर्तमान में भूत और भविष्य का समन्वय करते हुए यह सोचकर प्रगतिवादी साहित्य की रचना कर रहे हैं क्योंकि उनके साहित्य में भविष्य के गौरव का वर्णन किया गया है; अत: भविष्य में उसमें सुधार की आवश्यकता नहीं होगी, किन्तु कुछ समय पश्चात् ही उनके सोचे की यह भव्य इमारत धराशायी हो जाएगी और आज के ये युवा लेखक भी एक दिन वृद्ध होकर अतीत का गुणगान करेंगे।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या–साहित्यिक सुधार की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए विद्वान लेखक श्री बख्शी जी कहते हैं कि आज के युवा लेखक भी एक दिन वृद्ध होकर अतीत का गुणगान करेंगे। और उस समय के जो युवा साहित्यकार होंगे वे वर्तमान से असन्तुष्ट होकर कोई और नया साहित्य रचने लगेंगे। वे भी भविष्य के लिए चिन्तित होंगे। यह क्रम सनातन है। युवाओं से भविष्य दूर है और वृद्धों से अतीत; इसीलिए (UPBoardSolutions.com) दोनों को ये सुखद लगते हैं। यह मानव स्वभाव है कि जो वस्तु उसकी पहुँच से दूर होती है, वह उसे अच्छी लगती है और वह उसे पाने का प्रयत्न करती रहता है। इसीलिए ‘दूर के ढोल सुहावने वाली कहावत चरितार्थ हुई है।
(स)

  1. युवाओं से भविष्य दूर है और वृद्धों से अतीत। इसीलिए दोनों को ये ही सुखद लगते हैं। यह मानव स्वभाव है कि जो वस्तु उसकी पहुँच से दूर होती है, वही उसे अच्छी लगती है और वह उसी को पाने का प्रयत्न भी करती है। इसीलिए कहा जाता है कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं।’
  2. प्रस्तुत अवतरण में लेखक का कहना है कि जो कुछ भी आज प्रासंगिक है, कल वही अप्रासंगिक हो जाएगा और उसमें सुधार की अपेक्षा की जाने लगेगी। यह अप्रासंगिकता और सुधार का क्रम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में और साहित्य में भी निरन्तर चलता रहता है।
  3. प्रगतिशील साहित्य को अतीत का स्मारक इसलिए कहा गया है कि वह भी कुछ समय बाद अतीत (बीती हुई) की वस्तु हो जाता है।
  4.  लेखक ने साहित्य के निर्माण में निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है
    • हिन्दी भाषा के अन्तर्गत प्रगतिशील साहित्य का निर्माण हो रहा है।
    • साहित्य में भविष्य का गौरव निहित होता है। |
  5.  प्रगतिशील साहित्य-निर्माण यह समझकर साहित्य-निर्माण कर रहे हैं कि उनके साहित्य में भविष्य का गौरव निहित है।

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व्याकरण एवं रचना-बोध

प्रश्न 1
निम्नलिखित शब्दों से उपसर्ग पृथक् कीजिए तथा उस उपसर्ग से बनने वाले दो अन्य शब्द भी लिखिए
सम्मति, निबन्ध, विज्ञ, दुर्बोध, अभिव्यक्ति।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड) img-2

प्रश्न 2
निम्नलिखित शब्दों से प्रत्यय अलग करके लिखिए तथा उस प्रत्यय से बने दो अन्य शब्द बताइए-
शीर्षक, विद्वत्ता, प्रतिभावान्, लज्जाशील, समीपस्थ, सुखद। शब्द
उत्तर
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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड) img-3

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प्रश्न 3
निम्नलिखित शब्दों का इस प्रकार से वाक्यों में प्रयोग कीजिए कि उनका अर्थ स्पष्ट हो जाए-आवेग, विश्वकोश, गाम्भीर्य, कर्कशता, विषाद, दूरस्थ
उत्तर
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 3 क्या लिखें? (गद्य खंड) img-4

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प्रश्न 4
प्रस्तुत पाठ में निम्नलिखित साहित्यकारों की जिन विशेषताओं का उल्लेख हुआ है, उन्हें लिखिए-श्रीहर्ष, बाणभट्ट, अमीर खुसरो, सेनापति।
उत्तर
श्रीहर्ष–श्रीहर्ष की भाषा-शैली बड़ी क्लिष्ट है, जिसे केवल विषय-विशेषज्ञ ही समझ सकते हैं। अस्पष्टता अथवा दुर्बोधता उनकी शैली का दोष है।
बाणभट्ट–बाणभट्ट की भाषा-शैली सामासिक पदावली से युक्त है, जिसमें वाक्य अत्यधिक लम्बे हो गये हैं।
अमीर खुसरो—विभिन्न विषयों का एक सूत्र में समन्वय (UPBoardSolutions.com) कर देना अमीर खुसरो के साहित्य की महती विशेषता है। यही विशेषता उन्हें अन्य साहित्यकारों से पृथक् करती है।
सेनापति-श्रीहर्ष की भाँति सेनापति की भाषा-शैली भी दुर्बोध है।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 2 ममता (गद्य खंड)

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जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न 1.
जयशंकर प्रसाद के जीवन-परिचय एवं रचनाओं पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 11]
या
जयशंकर प्रसाद का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 18]
उत्तर-
हिन्दी-साहित्य को प्रसाद जी की उपलब्धि एक युगान्तरकारी घटना है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये हिन्दी-साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए ही अवतरित हुए थे। यही कारण है कि हिन्दी-साहित्य का प्रत्येक पक्ष इनकी लेखनी से गौरवान्वित हो उठा है। ये हिन्दी के महान् कवि, नाटककार, कहानीकार, निबन्धकार आदि के रूप में जाने जाते हैं। हिन्दी-साहित्य इन्हें सदैव याद रखेगा।

जीवन-परिचय – हिन्दी-साहित्य के महान् कवि, नाटककार, कहानीकार एवं निबन्धकार श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में वाराणसी के प्रसिद्ध हुँघनी साहू परिवार में हुआ था। इनके पिता बाबू देवीप्रसाद काशी के प्रतिष्ठित और धनाढ्य व्यक्ति थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई तथा स्वाध्याय से ही इन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और फारसी का श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त किया और साथ ही वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन आदि का (UPBoardSolutions.com) भी गहन अध्ययन किया। माता-पिता तथा बड़े भाई की मृत्यु हो जाने पर इन्होंने व्यवसाय और परिवार का उत्तरदायित्व सँभाला ही था कि युवावस्था के पूर्व ही भाभी और एक के बाद दूसरी पत्नी की मृत्यु से इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा। फलतः वैभव के पालने में झूलता इनका परिवार ऋण के बोझ से दब गया। इनको विषम परिस्थितियों से जीवन-भर संघर्ष करना पड़ा, लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी और निरन्तर साहित्य-सेवा में लगे रहे। क्रमशः प्रसाद जी का शरीर चिन्ताओं से जर्जर होता गया और अन्तत: ये क्षय रोग से ग्रस्त हो गये। 14 नवम्बर, सन् 1937 ई० को केवल 48 वर्ष की आयु में हिन्दी साहित्याकाश में रिक्तता उत्पन्न करते हुए इन्होंने इस संसार से विदा ली। |

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कृतियाँ – प्रसाद जी ने काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास और निबन्धों की रचना की। इनकी प्रमुख कृतियों का विवरण निम्नलिखित है|
(1) नाटक- ‘स्कन्दगुप्त’, ‘अजातशत्रु’, ‘चन्द्रगुप्त’, ‘विशाख’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘कामना, ‘राज्यश्री’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘करुणालय’, ‘एक पूँट’, ‘सज्जन’, ‘कल्याणी-परिणय’ आदि इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। प्रसाद जी के नाटकों में भारतीय और पाश्चात्य नाट्य-कला का सुन्दर समन्वय है। इनके नाटकों में राष्ट्र के गौरवमय इतिहास का सजीव वर्णन हुआ है।
(2) कहानी – संग्रह-‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’ तथा ‘इन्द्रजाल प्रसाद जी की कहानियों के संग्रह हैं। इनकी कहानियों में मानव-मूल्यों और भावनाओं का काव्यमय चित्रण हुआ है।
(3) उपन्यास – कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण)। प्रसाद जी ने अपने इन उपन्यासों में जीवन की वास्तविकता का आदर्शोन्मुख चित्रण किया है।
(4) निबन्ध-संग्रह – ‘काव्यकला तथा अन्य निबन्ध’। इस निबन्ध-संग्रह में प्रसाद जी के गम्भीर चिन्तन तथा साहित्य सम्बन्धी स्वस्थ दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति हुई है।
(5) काव्य – ‘कामायनी’ (महाकाव्य), ‘आँसू’, ‘झरना’, ‘लहर’ आदि प्रसिद्ध काव्य हैं। ‘कामायनी’ श्रेष्ठ छायावादी महाकाव्य है।

साहित्य में स्थान – प्रसाद जी छायावादी युग के जनक तथा युग-प्रवर्तक रचनाकार हैं। बहुमुखी प्रतिभा के कारण इन्होंने मौलिक नाटक, श्रेष्ठ कहानियाँ, उत्कृष्ट निबन्ध और उपन्यास लिखकर हिन्दी-साहित्य के कोश की श्रीवृद्धि की है। आधुनिक हिन्दी के (UPBoardSolutions.com) मूर्धन्य साहित्यकारों में प्रसाद जी का विशिष्ट स्थान है।

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के शब्दों में, भारत के इने-गिने श्रेष्ठ साहित्यकारों में प्रसाद जी का स्थान सदैव ऊँचा रहेगा।” इनके विषय में किसी कवि ने उचित ही कहा है सदियों तक साहित्य नहीं यह समझ सकेगा तुम मानव थे या मानवता के महाकाव्य थे।

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गद्यांशों पर आधारित प्रश्न

प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।

प्रश्न 1.
रोहतास दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिये, वह सुख के कंटक-शयन में विकल थी। वह रोहतास दुर्गपति के मन्त्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थी-हिन्दू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ-निराश्रय प्राणी है- तब उसकी विडम्बना का कहाँ अन्त था ? [2012, 14]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्रस्तुत गद्यांश में किसके बारे में और क्या कहा गया है ?
2. हिन्दू-विधवा को तुच्छ-निराश्रय प्राणी क्यों कहा गया है ?
या
उपर्युक्त गद्यांश में हिन्दू-विधवा की स्थिति कैसी है ?
3. ममता की वेदना का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
4. ममता कौन थी? वह क्या देख रही थी?
[ प्रकोष्ठ = राजप्रासादे के मुख्य द्वार के पास का कमरा। शोण = सोन नदी। वेदना = दुःख। दुहिता = पुत्री। निराश्रय = अनाथ। विकल = दु:खी। विडम्बना = पीड़ा।]
उत्तर-
(अ) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक (UPBoardSolutions.com) ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड’ में संकलित ‘ममता’ नामक कहानी से उधृत है। इसके लेखक छायावादी युग के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद हैं।
अथवा निम्नवत् लिखिए
पाठ का नाम-ममता। लेखक का नाम-श्री जयशंकर प्रसाद।
[ विशेष—इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न ‘अ’ का यही उत्तर इसी रूप में लिखा जाएगा।]

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(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – श्री जयशंकर प्रसाद जी का कहना है कि रोहतास राजप्रासाद के मुख्य द्वार के निकट अपने कमरे में बैठी हुई ममता सोन नदी के तेज बहाव को देख रही है। विधवा ममता का यौवन भी सोन नदी के प्रवाह के समान पूर्ण रूप से उमड़ रहा था। भरी तरुणाई में विधवा हो जाने के कारण उसका मन दु:ख से भरा था। उसके मस्तिष्क में आँधी के समाम तीव्रगति से अपने भावी जीवन की चिन्ता से सम्बन्धित अनेक विचार उत्पन्न हो रहे थे। उसकी आँखों से दु:ख के आँसू निरन्तर बह रहे थे और राजप्रासाद की समस्त सुख-सुविधाएँ उसे काँटे की भाँति कष्ट पहुँचा रही थीं। कोमल बिस्तरों पर शयन भी उसे काँटों की शय्या के समान प्रतीत होता था।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – श्री जयशंकर प्रसाद जी का कहना है कि ममता रोहतास दुर्ग के अधिपति के मन्त्री चूड़ामणि की इकलौती पुत्री थी। इसलिए उसके पास सुख-सुविधाओं के अभाव होने को प्रश्न ही नहीं उठता था; अर्थात् उसके पास सभी सुख विद्यमान थे, परन्तु वह सुखी नहीं थी क्योंकि वह एक हिन्दू बाल विधवा थी। हिन्दू समाज में विधवा का जीवन दु:खी, उपेक्षित और अनाथ जैसा होता है। इस कारण उसका जीवन उसके लिए भार बन जाता है। संसार की सभी सुख-सुविधाएँ भी उसको शान्ति प्रदान नहीं कर पाती हैं। ऐसी ही विकट परिस्थितियों से युक्त ममता के कष्टों का भी अन्त नहीं था।

(स) 1. प्रस्तुत गद्यांश में रोहतास दुर्ग के दुर्गपति के मन्त्री चूड़ामणि की एकमात्र कन्या ममता के विषय में कहा गया है, जो कि युवावस्था में ही विधवा हो गयी थी। समस्त प्रकार की सुख-सुविधाओं की उपलब्धता होने के बाद भी उसकी परेशानियों का अन्त नहीं था।
2. सामाजिक परिस्थितियों के कारण आज भी हिन्दू समाज में (UPBoardSolutions.com) विधवा का जीवन दु:खी, उपेक्षित और अनाथ जैसा होता है। इस कारण उसका जीवन उसके लिए भारस्वरूप हो जाता है। इसी कारण से हिन्दूविधवा को तुच्छ-निराश्रय प्राणी कहा गया है।
3. ममता रोहतास दुर्गपति के मन्त्री चूड़ामणि की इकलौती पुत्री थी। उसके पास सुख के समस्त साधन विद्यमान थे। फिर भी उसके मन में पीड़ा थी, मस्तिष्क में विचारों की आँधी चल रही थी, आँखों में आँसुओं की झड़ी थी और आरामदायक शय्या भी उसे काँटों की शय्या के समान पीड़ा पहुँचा रही थी।
4. ममता रोहतास दुर्ग के अधिपति के मन्त्री चूड़ामणि की इकलौती पुत्री थी, जो विधवा हो गयी थी। राजप्रासाद के मुख्य द्वार के निकट अपने कमरे में बैठी हुई वह सोन नदी के तेज बहाव को देख रही थी।

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प्रश्न 2.
“हे भगवान्! तब के लिए! विपद के लिए! इतना आयोजन! परमपिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस। पिताजी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिन्दू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके? यह असम्भव है। फेर दीजिए पिताजी, मैं काँप रही हूँ इसकी चमक आँखों को अंधा बना रही है।” [2013]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. किस वस्तु की चमक ममता की आँखों को अन्धा बना रही थी ?
2. परमपिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस।’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
3. इस गद्यांश में ममता की किस मनोवृत्ति को स्पष्ट किया गया है ?
[विपद = आपत्ति, संकट। आयोजन = (यहाँ पर) भौतिक सुख-सुविधाओं का संग्रह। भू-पृष्ठ = पृथ्वी तल।]
उत्तर-
(बे) रेखांकित अंश की व्याख्या – जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि जब ममता ने स्वर्ण-आभूषणों से भरा हुआ थाल देखा तब वह हतप्रभ रह गयी। वह आश्चर्य प्रकट करती हुई अपने पिता से कहती है कि आप विपत्ति के लिए इतने धन का संग्रह क्यों कर रहे हैं। (UPBoardSolutions.com) भगवान की इच्छा के विरुद्ध आपने यह बहुत बड़ा दुस्साहस किया है। हम ब्राह्मण हैं। क्या इस पृथ्वी पर ऐसा कोई हिन्दू व्यक्ति न बचेगा जो किसी ब्राह्मण की क्षुधा को शान्त करने के लिए थोड़ा-सा अन्न भिक्षा के रूप में भी नहीं देगा। पिताजी! निश्चित ही यह बात असम्भव है कि पृथ्वी पर कोई हिन्दू (सधर्मी) व्यक्ति न मिले और ब्राह्मण को भिक्षा भी न मिले।

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(स) 1. थाल में रखे हुए सुवर्ण के सिक्कों की चमक; जो कि ममता के पिता ने शेरशाह से उत्कोच (घूस) के रूप में स्वीकार किये थे; ममता की आँखों को अन्धा बना रही थी। आशय यह है कि विधर्मियों से उत्कोच के रूप में आये सुवर्ण से उत्पन्न सम्भावित भय के कारण उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया था।
2. ‘परमपिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस’ से आशय है कि ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध किया जाने वाला दुस्साहस। तात्पर्य यह है कि ईश्वर यदि हमें विपत्ति में डालना ही चाहता है तो हमें उसकी इच्छा के विपरीत प्रयास नहीं करना चाहिए।
3. इस गद्यांश में ममता की निर्लोभता, अनुचित धन के प्रति विमुखता तथा ईश्वर व ब्राह्मणत्व में विश्वास की मनोवृत्ति को स्पष्ट किया गया है।

प्रश्न 3.
काशी के उत्तर में धर्मचक्र विहार मौर्य और गुप्त सम्राटों की कीर्ति का खण्डहर था। भग्न चूड़ा, तृण-गुल्मों से ढके हुए प्राचीर, ईंटों के ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्प की विभूति, ग्रीष्म की चन्द्रिका में अपने को शीतल कर रही थी।
जहाँ पंचवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिए पहले मिले थे, उसी स्तूप के भग्नावशेष की मलिन छाया में एक झोपड़ी के दीपालोक में एक स्त्री पाठ कर रही थी – “अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।” [2011]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. स्तूप के अवशेष की छाया में स्त्री क्या पढ़ रही थी ? उसका अर्थ लिखिए।
2. पंचवर्गीय भिक्षु कौन थे ? ये गौतम से क्यों और कहाँ मिले थे ?
3. धर्मचक्र कहाँ स्थित था ?
[विहार = बौद्ध-भिक्षुओं का आश्रम। भग्न चूड़ा = भवन का टूटा हुआ ऊपरी भाग। तृण-गुल्म = तिनकों अथवा घास या लताओं का गुच्छा। प्राचीर = चहारदीवारी, परकोटा। विभूति = ऐश्वर्य। चन्द्रिका = चाँदनी।]
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – श्री जयशंकर प्रसाद जी का कहना है कि काशी भारत का पवित्र तीर्थ स्थल है। इसके उत्तर में सारनाथ है, जहाँ बौद्ध भिक्षुकों के बौद्ध-विहार टूटकर खण्डहरों में बदल चुके थे। इन बौद्ध-विहारों को मौर्यवंश के राजाओं तथा गुप्तकाल के सम्राटों ने बनवाया था। इन बौद्ध-विहारों में तत्कालीन वास्तुकला एवं शिल्पकला के बेजोड़ नमूने अब भी स्पष्ट दिखाई दे रहे थे जो कि मौर्य और गुप्त वंश के सम्राटों की (UPBoardSolutions.com) कीर्ति को गान करते प्रतीत हो रहे थे। इन भवनों के शिखर टूट चुके थे। खण्डहरों की दीवारों पर घास-फूस तथा लताएँ उग आयी थीं। टूटी-फूटी ईंटों के ढेर इधर-उधर बिखरे पड़े थे और इन ईंटों में बिखरी पड़ी थी भव्य भारतीय शिल्पकला। ग्रीष्म ऋतु की शीतल चाँदनी में यह उत्कृष्ट शिल्पकला अब अपने को भी शीतल कर रही थी।

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(स) 1. स्तूप के अवशेष की छाया में दीपक के प्रकाश में बैठी एक स्त्री पाठ कर रही थी‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते’, अर्थात् जो भक्त अनन्य भावना से मेरा चिन्तन करते हैं, उपासना करते हैं; उनका योग-क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ।
2. पंचवर्गीय भिक्षु गौतम बुद्ध के प्रथम पाँच शिष्य थे, जो उनका उपदेश ग्रहण करने के लिए काशी के उत्तर में स्थित सारनाथ नामक स्थान पर (गद्यांश में वर्णित) खण्डहरों में मिले थे।
3. धर्मचक्र मौर्य और गुप्त सम्राटों की कीर्ति के अवशेष रूप में काशी के उत्तर में (सारनाथ नामक स्थान पर) स्थित था।

प्रश्न 4.
“गला सूख रहा है, साथी छूट गये हैं, अश्व गिर पड़ा है—इतना थका हुआ हूँ इतना!”कहते-कहते वह व्यक्ति धम से बैठ गया और उसके सामने ब्रह्माण्ड घूमने लगा। स्त्री ने सोचा, यह विपत्ति कहाँ से आयी! उसने जल दिया, मुगल के प्राणों की रक्षा हुई। वह सोचने लगी-“सब विधर्मी दया के पात्र नहीं-मेरे पिता का वध करने वाले आततायी!” घृणा से उसका मन विरक्त हो गया। [2009]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. गद्यांश में वर्णित व्यक्ति कौन है ?
2. व्यक्ति की व्यथा-कथा का वर्णन अपने शब्दों में लिखिए।
[ अश्व = घोड़ा। विपत्ति = मुसीबत। विधर्मी = पापी। आततायी = अत्याचारी।]
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – श्री जयशंकर प्रसाद जी कह रहे हैं कि सारनाथ के बौद्ध विहार के खण्डहरों में रहने वाली ममता ने मन-ही-मन सोचा कि यह विपत्ति अचानक कहाँ से आ गयी। ममता ब्राह्मणी थी, उसे हुमायूँ पर दया आ गयी। उसने हुमायूँ को जल दिया। जल पीने के पश्चात् हुमायूँ को होश आया।

ममता अपने मन में सोचने लगी कि मैंने इस मुगल को जल देकर उचित नहीं किया। इसके प्राण तो बच गये लेकिन क्या पता अब यह मेरे साथ कैसा व्यवहार करेगा क्योंकि सभी विधर्मी दया के योग्य नहीं होते। अपने पिता के वध का स्मरण कर (UPBoardSolutions.com) उसका मन विरक्त हो गया; क्योंकि पितृ-हन्ता को तो कदापि आश्रय न देना चाहिए।

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(स) 1. गद्यांश में वर्णित व्यक्ति बाबर का पुत्र हुमायूँ है। हुमायूँ चौसा के युद्ध में शेरशाह से पराजित होकर भागता है और भागते हुए सारनाथ के खण्डहरों में आश्रय पाता है और ममता से उसकी कुटिया में विश्राम करने की आज्ञा देने का आग्रह करता है।
2. व्यक्ति कहता है कि मैं युद्ध में पराजित हो गया हूँ। प्यास के कारण मेरा गला सूख रहा है। मुझसे मेरे साथी अलग हो गये हैं। थकान के कारण घोड़ा गिर पड़ा है। इतना थका हुआ हूँ कि चलने में भी असमर्थ हूँ। यह कहते हुए वह पृथ्वी पर ही बैठ जाता है। उसके सामने मानो सम्पूर्ण सृष्टि घूमने लगती है अर्थात् आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है।

प्रश्न 5.
“मैं ब्राह्मणी हूँ, मुझे तो अपने धर्म-अतिथि–देव की उपासना का पालन करना चाहिए, परन्तु यहाँ नहीं-नहीं सब विधर्मी दया के पात्र नहीं। परन्तु यह दया तो नहीं कर्तव्य करना है। तब?”
मुगल अपनी तलवार टेककर उठ खड़ा हुआ। ममता ने कहा-“क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो; ठहरो।”
छल! नहीं, तब नहीं, स्त्री! जाता हूँ, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा? जाता हूँ। भाग्य का खेल है।” [2009]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. “क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो।” वाक्य किसने कहा और क्यों ?
2. “छल ! नहीं, तब नहीं स्त्री जाता हूँ।” वाक्य किसने-किससे कहा और क्यों ?
[ विधर्मी = अपने धर्म के विरुद्ध आचरण करने वाला, दूसरे धर्म का।]
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – ममता अपने मन में सोचती है कि मैं तो ब्राह्मणी हूँ और सच्चा ब्राह्मण कभी अपने धर्म से विमुख नहीं होता, मुझे भी अपने अतिथि-धर्म का पालन करना चाहिए।
और इसको विश्राम करने की आज्ञा दे देनी चाहिए। अगले ही पल उसके मन में विचार आता है कि यह तो धर्मभ्रष्ट मुगल है। मुगलों ने ही उसके पिता की हत्या की थी। यदि विधर्मी कोई और होता तो उसके प्रति दया दिखाकर उसे आश्रय दिया जा सकता था। पितृ-हन्ता को तो कदापि आश्रय न देना चाहिए। तभी उसके अन्त:करण में फिर से हलचल मचती है कि मैं तो इसके ऊपर कोई दया नहीं दिखाऊँगी, वरन् अतिथि-धर्म का पालन करके अपने कर्त्तव्य को ही निभाऊँगी।

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(स) 1. “क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो।” वाक्य ममता ने मुगल हुमायूँ से कहे; क्योंकि उसके पिता की हत्या भी विधर्मियों अर्थात् मुगलों ने ही की थी। वह दोनों ही मुगलवंशियों में कोई भेद नहीं कर सकी थी।
2. “छल ! नहीं, तब नहीं स्त्री ! जाता हूँ।” वाक्य मुगल हुमायूँ ने (UPBoardSolutions.com) ममता से कहे थे। हुमायूँ तैमूर का वंशज था। उसको मानना था कि तैमूर का वंशज कुछ भी कर सकता था, लेकिन किसी स्त्री के साथ धोखा कदापि नहीं कर सकता था।

प्रश्न 6.
चौसा के मुगल-पठान युद्ध को बहुत दिन बीत गये। ममता अब सत्तर वर्ष की वृद्धा है। वह अपनी झोपड़ी में एक दिन पड़ी थी। शीतकाल का प्रभात था। उसका जीर्ण कंकाल खाँसी से गूंज रहा था। ममता की सेवा के लिए गाँव की दो-तीन स्त्रियाँ उसे घेरकर बैठी थीं; क्योंकि वह आजीवन सबके सुख-दु:ख की सहभागिनी रही।
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. ‘मुगल-पठान युद्ध’ से क्या आशय है ? यह किनके बीच हुआ था ?
2. जीर्ण-कंकाल खाँसी से गूंज रहा था।’ से क्या आशय है ?
[ वृद्धा = बुढ़िया। शीत = सर्दी। प्रभात = प्रात:काल।]
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि शीतकाल को प्रात:काल था। ममता को खाँसी थी। खाँसी के कारण उसे श्वास लेने में भी कठिनाई महसूस हो रही थी। उसका गला सँध रहा था। श्वास के साथ बलगम की आवाज स्पष्ट सुनायी दे रही थी। ममता अकेली थी। उसका किसी से इस संसार में खून का रिश्ता नहीं था और न तो उसका कोई रिश्तेदार ही था। जीवन के दुःखपूर्ण इन अन्तिम क्षणों में यदि कोई उसकी मदद करने वाला था तो केवल उस गाँव की दो या तीन औरतें जो उसके पास उसकी सेवा करने में संलग्न थीं, उसे घेरकर बैठी हुई थीं क्योंकि ममता भी मानवता की साक्षात् प्रतिमूर्ति थी। उसने भी निराश्रयों को आश्रय दिया था। सभी के सुख-दु:ख में सहभागिनी रही थी।

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(स) 1. मुगल-पठान युद्ध से आशय हुमायूँ (मुगल) और शेरशाह (पठान) के मध्य हुए चौसा के युद्ध से है। यह युद्ध सन् 1536 ई० के आसपास हुआ था।
2. जीर्ण कंकाल से आशय कंकालवत् रह गये शरीर से है। ममता को खाँसी (UPBoardSolutions.com) इतनी तेजी से आ रही थी कि वह कंकाल मात्र रह गये शरीर में से गूंजती हुई बाहर आती प्रतीत हो रही थी।

प्रश्न 7.
अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुककर कहा-“मैं नहीं जानती कि वह शहंशाह था, या साधारण मुगल; पर एक दिन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा। मैंने सुना था कि वह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था। मैं आजीवन अपनी झोपड़ी के खोदे जाने के डर से भयभीत रही। भगवान् ने सुन लिया, मैं आज .. इसे छोड़े जाती हूँ। तुम इसका मकान बनाओ या महल, मैं अपने चिर-विश्राम-गृह में जाती हूँ।” [2010, 12]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. शहंशाह शब्द किसके लिए प्रयोग किया गया है ?
2. ‘चिर-विश्राम-गृह’ से क्या आशय है ?
3. वह (ममता) आजीवन क्यों भयभीत रही ?
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – श्री जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि ममता ने अश्वारोही को बुलाकर उससे कहा कि उस व्यक्ति ने मेरे घर का नवनिर्माण कराने का आदेश अपने एक अधीनस्थ को दिया था। मैं अपनी पूरी जिन्दगी में इस भय से भयभीत रही कि कहीं मैं अपने इस मामूली घर से भी बेघर न हो जाऊँ। लेकिन ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुन ली और मुझे जीवित रहते बेघर होने से बचा लिया। आज मैं इस घर को छोड़कर (UPBoardSolutions.com) जा रही हूँ; अर्थात् अब मेरे जीवन का अन्त समय निकट आ गया है। अब तुम यहाँ पर मकान बनाओ अथवा महल, मुझे कोई चिन्ता नहीं; क्योंकि अब मैं अपने उस घर में जा रही हूँ जहाँ मुझे अनन्त काल तक विश्राम प्राप्त होगा।

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(स) 1. प्रस्तुत गद्यांश में ‘शहंशाह’ शब्द मुगल सल्तनत के बाबर के पुत्र और अकबर के पिता हुमायूं के लिए प्रयोग किया गया है।
2. चिर-विश्राम-गृह से आशय ऐसे गृह से है जहाँ मनुष्य अनन्त समय तक विश्राम कर सके अथवा ऐसा गृह जिसका स्थायित्व अन्तहीन समय तक बनी रहे, और जिसमें व्यक्ति अन्तहीन समय तक विश्राम भी कर सके।
3. वह (ममता) अपने जीवन-पर्यन्त अपनी झोपड़ी के खोदे जाने के भय से भयभीत रही क्योंकि मुगल (हुमायूँ) ने उसके घर को बनवाने का आदेश दिया था।

व्याकरण एवं रचना-बोध

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से उपसर्ग और प्रत्यय से बने शब्दों को अलग-अलग छाँटिए तथा उनसे उपसर्ग और प्रत्यय को अलग कीजिए-
व्यथित, दुश्चिन्ता, पीलापन, अनर्थ, मन्त्रित्व, भारतीय, पंचवर्गीय, उपदेश, विरक्त, अतिथि, आजीवन, अनन्त।
उत्तर-
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 2 ममता (गद्य खंड) img-2

प्रश्न 2.
निम्नलिखित पदों में नियम-निर्देशपूर्वक सन्धि-विच्छेद कीजिए-
निराश्रय, दुश्चिन्ता, पतनोन्मुख, भग्नावशेष, दीपालोक, हताशा, अश्वारोही।
उत्तर-
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 2 ममता (गद्य खंड) img-3

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित पदों का नामसहित समास-विग्रह कीजिए-
कंटक-शयन, दुर्गपति, अनर्थ, तृण-गुल्म, वंशधर, शीतकाल, आजीवन, अनन्त, अष्टकोण।
उत्तर-
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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 2 ममता (गद्य खंड) img-4

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 मित्रता (गद्य खंड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 मित्रता (गद्य खंड)

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जीवन – परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न 1.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 16]
या
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए। [2009]
या
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 17, 18]
उत्तर-
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्याकाश के ऐसे देदीप्यमान (UPBoardSolutions.com) नक्षत्र हैं जो पाठक को अज्ञान रूपी अन्धकार से दूर हटाकर ज्ञान के ऐसे आलोक में ले जाते हैं, जहाँ विवेक और बुद्धि का सुखद साम्राज्य होता है। शुक्ल जी एक कुशल निबन्धकार तो थे ही, वे समालोचना और इतिहास-लेखन के क्षेत्र में भी अग्रगण्य थे। इन्होंने अपने काल के ही नहीं अपितु वर्तमान के भी लेखक और पाठक दोनों का ही पर्याप्त मार्गदर्शन किया है।

जीवन-परिचय – हिन्दी के प्रतिभासम्पन्न मूर्धन्य समीक्षक एवं युग-प्रवर्तक साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म सन् 1884 ई० में बस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके पिता चन्द्रबली शुक्ल मिर्जापुर में कानूनगो थे। इनकी माता अत्यन्त विदुषी और धार्मिक थीं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता के पास जिले की राठ तहसील में हुई और इन्होंने मिशन स्कूल से मित्रता 73 दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। गणित में कमजोर होने के कारण ये आगे नहीं पढ़ सके। इन्होंने एफ० ए० (इण्टरमीडिएट) की शिक्षा इलाहाबाद से ली थी, किन्तु परीक्षा से पूर्व ही विद्यालय छूट गया। इसके पश्चात् इन्होंने मिर्जापुर के न्यायालय में नौकरी आरम्भ कर दी। यह नौकरी इनके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी, अतः ये मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला के अध्यापक हो गये। अध्यापन का कार्य करते हुए इन्होंने अनेक कहानी, कविता, निबन्ध, नाटक आदि की रचना की। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर इन्हें हिन्दी शब्द-सागर’ के सम्पादन-कार्य में सहयोग के लिए श्यामसुन्दर दास जी द्वारा काशी नागरी प्रचारिणी सभा में ससम्मान बुलवाया गया। इन्होंने 19 वर्ष तक काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का सम्पादन भी किया। कुछ समय पश्चात् इनकी नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक के रूप में हो । गयी और श्यामसुन्दर दास जी के अवकाश प्राप्त करने के बाद ये हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी हो गये। स्वाभिमानी और गम्भीर प्रकृति का हिन्दी का यह दिग्गज साहित्यकार सन् 1941 ई० में स्वर्गवासी हो गया।

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रचनाएँ – शुक्ल जी एक प्रसिद्ध निबन्धकार, निष्पक्ष आलोचक, श्रेष्ठ इतिहासकार और सफल सम्पादक थे। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत् है-
(1) निबन्ध – इनके निबन्धों का संग्रह ‘चिन्तामणि’ (दो भाग) तथा ‘विचारवीथी’ नाम से प्रकाशित हुआ।
(2) आलोचना – शुक्ल जी आलोचना के सम्राट् हैं। इस क्षेत्र में इनके तीन ग्रन्थ प्रकाशित हुए –
(क) रस मीमांसा – इसमें सैद्धान्तिक आलोचना सम्बन्धी निबन्ध हैं,
(ख) त्रिवेणी – इस ग्रन्थ में सूर, तुलसी और जायसी पर आलोचनाएँ लिखी गयी हैं तथा
(ग) सूरदास।
(3) इतिहास – युगीन प्रवृत्तियों के आधार पर लिखा गया इनका हिन्दी-साहित्य का इतिहास हिन्दी के लिखे गये सर्वश्रेष्ठ इतिहासों में एक है।
(4) सम्पादन – इन्होंने ‘जायसी ग्रन्थावली’, ‘तुलसी ग्रन्थावली’, ‘भ्रमरगीत सार’, ‘हिन्दी शब्द-सागर’, ‘काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ और ‘आनन्द कादम्बिनी’ का कुशल सम्पादन किया।
इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने कहानी (ग्यारह वर्ष का समय), काव्य-रचना (अभिमन्यु-वध) की रचना की तथा कुछ अन्य भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद भी किये। इनमें ‘मेगस्थनीज का भारतवर्षीय विवरण’, ‘आदर्श जीवन’, ‘कल्याण का आनन्द’, ‘विश्व प्रबन्ध’, ‘बुद्धचरित’ (काव्य) आदि प्रमुख हैं।

साहित्य में स्थान – हिन्दी निबन्ध को नया आयाम देकर उसे ठोस धरातल पर प्रतिष्ठित करने वाले शुक्ल जी हिन्दी-साहित्य के मूर्धन्य आलोचक, श्रेष्ठ निबन्धकार, निष्पक्ष इतिहासकार, महान् शैलीकार एवं युग-प्रवर्तक साहित्यकार थे। ये हृदय से कवि, मस्तिष्क से आलोचक और जीवन से अध्यापक थे। हिन्दी-साहित्य में इनका मूर्धन्य स्थान है। इनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण ही इनके समकालीन हिन्दी गद्य के काल को ‘शुक्ल युग’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

शुक्ल जी के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है (UPBoardSolutions.com) कि आचार्य शुक्ल उन महिमाशाली लेखकों में हैं, जिनकी प्रत्येक पंक्ति आदर के साथ पढ़ी जाती है और भविष्य को प्रभावित करती रहती है। आचार्य शब्द ऐसे ही कर्ता साहित्यकारों के योग्य है।”

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गद्यांशों पर आधारित प्रश्न

प्रश्न-पत्र में केवल 3 प्रश्न (अ, ब, स) ही पूछे जाएँगे। अतिरिक्त प्रश्न अभ्यास एवं परीक्षोपयोगी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण दिए गये हैं।
प्रश्न 1.
निम्नलिखित अवतरणों के आधार पर उनके साथ दिये गये प्रश्नों के उत्तर लिखिए-
(1) हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं, जब कि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है, हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप का चाहे, उस रूप का करें-चाहे राक्षस बनावें, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों को साथ करना और बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं; क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दबाव रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। [2014, 18]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए अथवा गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. लेखक के अनुसार व्यक्तियों को किन लोगों का साथ नहीं करना चाहिए ?
या
कैसे लोगों को साथ करना बुरी है?
2. सामाजिक जीवन में प्रवेश के समय चित्त, भाव और प्रवृत्ति की स्थिति को स्पष्ट कीजिए।
3. प्रस्तुत अवतरण में लेखक क्या कहना चाहता है ?
4. सामाजिक जीवन के प्रारम्भिक समय में हमारी क्या स्थिति होती है ?
[अपरिमार्जित = बिना शुद्ध की हुई। प्रवृत्ति = मन का झुकाव। अपरिपक्व = अविकसित, जो परिपक्व नहीं है।]
उत्तर-
(अ) प्रस्तुत गद्यावतरण’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित एवं हमारी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ के गद्य-खण्ड में संकलित ‘मित्रता’ नामक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा निम्नवत् लिखें-
पाठ का नाम – मित्रता। लेखक का नाम – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल।
[विशेष – इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न ‘अ’ का यही उत्तर इसी रूप में लिखा जाएगा।]

(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कथन है कि जब (UPBoardSolutions.com) हम अपने घर से बाहर निकलकर समाज में कार्य आरम्भ करते हैं, तब हम प्रायः अपरिपक्व ही होते हैं। उस समय हमारा मन कोमल होता है। हम जिस किसी स्वभाव के लोगों के सम्पर्क में आते हैं, उनका हमारे चित्त पर अवश्य प्रभाव पड़ता है; क्योंकि हमें उस समय अच्छे-बुरे का विवेक नहीं होता। हमारे विचार अच्छी तरह शुद्ध नहीं होते और हमारा स्वभाव पूरी तरह विकसित भी नहीं होता।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कहना है कि जब व्यक्ति घर की सीमाओं से बाहर निकलकर सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है, उस समय उसका स्वभाव कच्ची मिट्टी के समान होता है। मिट्टी की मूर्ति जब तक आग में नहीं तपायी जाती, तब तक उसे इच्छानुसार रूप दिया जा सकता है। उसी प्रकार जब तक हमारे स्वभाव और विचारों में दृढ़ता नहीं होगी, तब तक हमारे आचरण को मनचाहे रूप में ढाला जा सकता है। उस समय हमारे ऊपर मित्रों के आचरण का गहरा प्रभाव पड़ता है, यदि उस समय हम पर अच्छी बातों का प्रभाव पड़ गया तो हम देवताओं के समान सम्माननीय बन सकते हैं और बुरी बातों का प्रभाव पड़ गया तो हमारा आचरण राक्षसों के समान घृणित और नीच भी हो सकता है।

तृतीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का मत है कि हमें ऐसे लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए, जिनकी इच्छा-शक्ति हमसे अधिक सबल और संकल्प हमसे अधिक दृढ़ हों। इसका कारण यह है कि वे अपनी बात, जो चाहे अच्छी हो या बुरी, हमसे बिना विरोध के मनवा लेंगे; परिणामस्वरूप हम निर्बल होते चले जाएँगे। हमें निर्बल संकल्प शक्ति के लोगों का साथ करना इन दृढ़ संकल्प शक्ति वाले लोगों से भी अधिक बुरा है, जो हमारी ही बात को सर्वोपरि रखते हों। ऐसी स्थिति में उचित प्रतिरोध और सहयोग के अभाव में हमारी ही प्रवृत्तियाँ बिगड़ सकती हैं। तात्पर्य यह है कि हाँ में हाँ मिलाने वाले तथा अच्छी-बुरी दोनों बातों का समर्थन करने वाले व्यक्ति सच्चे मित्र नहीं हो सकते।

(स) 1. लेखक के अनुसार हमें निम्नलिखित दो प्रकार के लोगों का साथ नहीं करना चाहिए
(i) ऐसे लोग जिनकी हर बात हमें बिना विरोध के माननी पड़ती हो।
(ii) ऐसे लोग जो सदैव हमारी ही बात को महत्त्व प्रदान करें अथवा ऊपर रखें।
2. सामाजिक जीवन में प्रवेश के समय हमारे भाव अच्छी तरह शुद्ध नहीं होते, हमारा चित्त कोमल होता है और हमारी प्रवृत्ति पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं होती।
3. प्रस्तुत अवतरण में लेखक कहना चाहता है कि किशोरावस्था सबसे अधिक (UPBoardSolutions.com) संवेदनशील और क्रियात्मक अवस्था होती है। इस अवस्था में उचित-अनुचित का विवेक नहीं होता। अतः मित्रों का चयन करते समय विशेष जागरूकता रखनी चाहिए।
4. सामाजिक जीवन के प्रारम्भिक समय में हमारी स्थिति कच्ची मिट्टी की मूर्ति के सदृश होती है, जिसे इच्छानुसार कोई भी स्वरूप दिया जा सकता है।

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प्रश्न 2. हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस-ये ही दो-चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह एक ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान् का वचन है-‘विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा होती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाए, उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।’ [2009]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्रस्तुत अवतरण में लेखक क्या कहना चाहता है ?
2. सामान्यतया लोग व्यक्ति में क्या देखकर उससे मित्रता कर लेते हैं ?
3. सामान्य रूप में व्यक्ति मैत्री के समय क्या नहीं देखता है?
[ चटपट = शीघ्र। मित्र = दोस्त। उद्देश्य = लक्ष्य। विश्वासपात्र = विश्वास करने योग्य]
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि मित्र बनाते समय हमें यह सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति को हम मित्र बना रहे हैं, उस व्यक्ति को मित्र बनाकर क्या हम अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं, क्या उस व्यक्ति के अन्दर वे सभी गुण विद्यमान हैं जिनकी हमें अपने जीवन के लक्ष्य को पाने में आवश्यकता है। यदि व्यक्ति को विश्वास करने योग्य मित्र मिल जाता है तो उसे एक ऐसा साधन मिल जाता है जो आत्मशिक्षा के कार्य को सरल बना देता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है कि विश्वासपात्र मित्र हमें पग-पग पर सचेत करता है। विश्वासपात्र मित्र भाग्यशाली लोगों को ही प्राप्त होता है; क्योंकि ऐसा मित्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में रक्षा करता है। जिस व्यक्ति को ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि उसे कोई बड़ा संचित धन मिल गया है।

(स) 1. प्रस्तुत अवतरण में लेखक कहना चाहता है कि साधारणतया व्यक्ति अन्य व्यक्ति के बाह्य व्यक्तित्व को देखकर ही उससे मित्रता कर लेते हैं जब कि मित्रता का आधार व्यक्ति का अन्तर्व्यक्तित्व होना चाहिए।
2. सामान्यतया लोग किसी व्यक्ति का हँसमुख चेहरा, उसके बात करने का तरीका, उसकी चालाकी, उसकी निर्भीकता आदि गुणों को देखकर ही उससे मित्रता कर लेते हैं।
3. सामान्य रूप में व्यक्ति मैत्री के समय यह नहीं देखता कि मित्रता का उद्देश्य क्या है तथा जीवन में उसका क्या मूल्य है।

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प्रश्न 3. विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों से हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब वे हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन-निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम-से-उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी-से-अच्छी माता का-सा । धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक पुरुष को करना चाहिए। [2009, 11, 13, 16, 18]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
1. प्रस्तुत अवतरण में शुक्ल जी क्या कहना चाहते हैं?
2. व्यक्ति को अपने मित्रों से कैसी उम्मीद रखनी चाहिए?
या
उत्तम मित्र से क्या अपेक्षा रखनी चाहिए ?
3. लेखक ने सच्ची मित्रता के लिए कौन-कौन-सी उपमाएँ दी हैं ?
या
लेखक ने सच्चे मित्र की तुलना किससे की है?
4. एक सच्ची मित्र किसे कह सकते हैं।
या
‘मित्रता’ पाठ के आधार पर विश्वासपात्र मित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(स)
[औषध = दवाई। सचेत = सावधान। हतोत्साहित = निराश। निपुणता = चतुरता। परख = पहचानने की केला।]
उत्तर-
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य शुक्ल जी का कहना है कि जिस प्रकार अच्छी औषध आपके शरीर को अनेक प्रकार के रोगों से बचाकर स्वस्थ बना देती है, उसी प्रकार विश्वसनीय मित्र अनेक बुराइयों से बचाकर हमारे जीवन को उन्नत तथा सुन्दर बनाता है। हमारा मित्र ऐसा होना चाहिए, जिस पर हमें यह विश्वास हो कि वह हमें सदा उत्तम कार्यों में लगाएगा, हमारे मन में अच्छे विचारों को उत्पन्न करेगा, बुराइयों (UPBoardSolutions.com) और गलतियों से हमें बचाता रहेगा। हममें सत्य और मर्यादा के प्रति प्रेम को विकसित करेगा, उनमें किसी तरह की कमी नहीं आने देगा। यदि हम बुरे मार्ग पर चलेंगे तो वह हमें उससे हटाकर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देगा और जब कभी हमें उद्देश्यों के प्रति निराशा उत्पन्न होगी तो वह आशा का संचार कर अच्छे कार्यों के प्रति हमारा उत्साह बढ़ाएगा।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विश्वासी मित्र हमें गरिमा से जीवनयापन करने में प्रत्येक सम्भव सहायता प्रदान करेगा, जिससे हम सुविधा एवं सम्मानपूर्वक जी सकें।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का कहना है कि जिस तरह कुशल वैद्य नाड़ी देखकर तत्काल रोग का पता लगा लेता है, उसी प्रकार सच्चा मित्र हमारे गुणों और दोषों को परख लेता है। जिस प्रकार अच्छी माता धैर्य के साथ सभी कष्टों को सहन कर मधुर व्यवहार करती है, उसी प्रकार सच्चा मित्र अपने मित्र को बड़े धैर्यपूर्वक कुमार्ग से हटाकर स्नेह के साथ सन्मार्ग पर लगाता है। अत: हमें ऐसा मित्र चुनना चाहिए, जिस पर हमें यह विश्वास हो कि वह हमें कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग की। ओर ले जाएगा।

(स) 1. प्रस्तुत अवतरण में शुक्ल जी ने अच्छे और विश्वासपात्र मित्र के महत्त्व को प्रकट करते हुए कहा है कि ऐसे मित्र में गुण-दोष की परख होती है, धैर्य एवं स्नेह होता है तथा ऐसा मित्र ही जीवन को सफल बनाने में सहायक होता है। लेखक ने विश्वासपात्र से ही मित्रता करने की प्रेरणा दी है।
2. व्यक्ति को अपने मित्रों से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि वे उन्हें उत्तम कार्यों की ओर प्रवृत्त करेंगे, मन में अच्छे विचारों को उत्पन्न करेंगे, बुराइयों और गलतियों से उन्हें बचाएँगे, सत्य; पवित्रता और मर्यादा के प्रति प्रेम को विकसित करेंगे, सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देंगे तथा निरुत्साहित होने पर उत्साहित करेंगे।
3. लेखक ने सच्ची मित्रता की निम्नलिखित तीन उपमाएँ (तुलना) दी हैं
(i) जीवन के लिए एक औषध के समान होती है।
(ii) निपुणता और परख में उत्तम वैद्य के समान होती है।
(iii) स्नेह और धैर्य में माता के समान होती है।
4. हम ऐसे मित्र को सच्चा मित्र कह सकते हैं जो हमें उत्तम संकल्पों से दृढ़ करेगा, बुराइयों और त्रुटियों से हमें बचाएगा, हम में सत्य, पवित्रता और मर्यादा रूपी मानवीय मूल्यों को पुष्ट करेगा, बुरे मार्ग पर । चलने से हमें रोकेगा और सदैव उत्साहित करेगा।

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प्रश्न 4. बाल-मैत्री में जो मग्न करने वाला आनन्द होता है, जो हृदय को बेधने वाली ईष्र्या और खिन्नता होती है, वह और कहाँ ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है! हृदय के कैसे-कैसे उद्गार निकलते हैं। वर्तमान कैसा आनन्दमय दिखाई पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभाने वाली कल्पनाएँ मन में रहती हैं। कितनी जल्दी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना-मनाना होता है। ‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। [2009]
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक क्या कहना चाहता है ?
2. बचपन की मित्रता कैसी होती है? इसमें बातों की क्या भूमिका है ?
3. ‘सहपाठी की मित्रता’ से क्या आशय स्पष्ट होता है?
[ मग्न = लीन। अनुरक्ति = प्रेम। उद्गार = मन के भाव।]
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कथन है कि बाल-मैत्री जहाँ असीम आनन्द को प्रदान करने वाली होती है, वहीं ईर्ष्या और खिन्नता का भाव भी उसमें शीघ्र ही आ जाता है। बालक का स्वभाव होता है कि यदि कोई उसके मन की बात कह दे तो (UPBoardSolutions.com) वह उससे अपार स्नेह करता है और यदि कोई उसके मन के प्रतिकूल आचरण कर दे तो उसका मन छोटी-छोटी बातों को लेकर खिन्न हो जाता है, लेकिन यह खिन्नता क्षणिक होती है। बालकों की मित्रता में जैसी मधुरता एवं प्रेम होता है, उसका उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। बच्चों में एक-दूसरे के प्रति जो विश्वास देखने को मिलता है, वह भी परमानन्द प्रदान करने वाला होता है। अपने भविष्य के लिए उनके मन में जो अनेकानेक कल्पनाएँ होती हैं, उसके कारण उन्हें वर्तमान आनन्ददायक दिखाई पड़ता है।

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(स) 1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने बाल-मैत्री एवं बाल-स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए इस पर आधारित मित्रता का अत्यधिक स्वाभाविक चित्रण किया है तथा यह स्पष्ट किया है कि बचपन आनन्ददायक होता है।
2. बचपन की मित्रता बड़ी विचित्र होती है। इसमें मन को आह्लादित करने वाला आनन्द होता है, ईर्ष्या और खिन्नता का भाव होता है, मधुरता एवं प्रेम होता है, एक-दूसरे के प्रति विश्वास होता है तथा भविष्य के प्रति मन में अनेकानेक कल्पनाएँ होती हैं। बचपन में बातें बहुत जल्दी लगती हैं और बालक तनिकसी बात पर रुष्ट हो जाते हैं और थोड़ी ही देर में मान भी जाते हैं। यह रूठना और मान जाना अत्यधिक शीघ्र होता है।
3. ‘सहपाठी की मित्रता’ एक निश्छल-निष्कपट तथा चंचलतापूर्ण उद्दण्डता (UPBoardSolutions.com) से युक्त प्रेमपूर्ण सम्बन्ध । को प्रकट करती है। यह उक्ति बहुत ही सामान्य-सी प्रतीत होती है, किन्तु इस उक्ति में हृदय में हलचल मचा देने वाले अनेक भाव निहित हैं।

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प्रश्न 5. ‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किन्तु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूँ कि मित्र चाहते हुए बहुत-से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होंगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन की झंझटों में चलता नहीं।
(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक क्या कहना चाहता है ?
2. युवा पुरुष और बालक की मित्रता में क्या अन्तर होता है ?
3. क्या मित्रता में कल्पित आदर्श सहायक होते हैं ?
उत्तर-
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य शुक्ल का कथन है कि बचपन में जब बच्चे एक साथ विद्यालयों में पढ़ते हैं और आपस में मित्र बनते हैं, तब की मित्रता में और जब वे युवावस्था में पहुँचते हैं, तब उनकी मित्रता का स्वरूप बदल जाता है। (UPBoardSolutions.com) अब उनकी मित्रता में अधिक दृढ़ता, शान्ति और गम्भीरता होती है। बात-बात पर रूठने व मनाने-मानने की स्थिति नहीं रह जाती। युवावस्था में उम्र के अनुसार जो अनुभव एवं चिन्तन की प्रवृत्ति विकसित होती है, उससे व्यक्तित्व के साथ मैत्रीभाव में भी दृढ़ता आती है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कथन है कि मानव-जीवन अनेकानेक कष्टसंकटों से घिरा होता है। इसमें कल्पित आदर्श के आधार पर मित्रता नहीं की जाती, अपितु यथार्थ के आधार पर मित्र बनाये जाते हैं और बहुत सोच-समझकर बनाये जाते हैं; क्योंकि कल्पित आदर्श के आधार पर बनाये गये मित्र स्थायी नहीं हो सकते और जीवन की संकटापन्न परिस्थितियों में वे हमारे लिए सहायक भी नहीं होते तथा मित्रता की मधुर कल्पनाएँ व्यर्थ सिद्ध होने लगती हैं।

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(स) 1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने बाल्यावस्था और युवावस्था की मित्रता एवं उस समय के मित्रों के मध्य तुलना की है तथा यह स्पष्ट किया है कि मित्रता में कोरी-मधुर कल्पनाओं से नहीं वरन् व्यावहारिकता से काम लेना चाहिए।
2. युवा पुरुषों की मित्रता स्थायी, शान्तिप्रियता और गम्भीरता से युक्त होती है, जब कि बालकों की मित्रता इनसे मुक्त होती है।
3. मित्रता में कल्पित आदर्श सामान्य स्थितियों-परिस्थितियों में तो सहायक हो सकते हैं, लेकिन विषम परिस्थितियों में कदापि सहायक नहीं होते।

प्रश्न 6. सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रकृति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है; पर जीवन-संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनमें से कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें। जिससे अपने छोटे-छोटे काम तो हम निकालते जाएँ, पर भीतर-ही-भीतर घृणा करते रहें? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हमें पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए-ऐसी सहानुभूति, जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। [2011, 17]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक क्या कहना चाहता है ?
2. मित्र कैसा होना चाहिए ?
या
लेखक ने अच्छे मित्र की क्या विशेषताएँ बतायी हैं ?
3. किसे मित्र नहीं कहा जा सकता ?
4. मित्रों के बीच परस्पर क्या होना चाहिए ?
5. सामान्यतया क्या देखकर मित्रता की जाती है ?
[पथ-प्रदर्शक = मार्ग दिखाने वाला। प्रीति-पात्र = जो प्रेम के योग्य हो। सहानुभूति = दूसरों के सुख-दुःख में समान अनुभूति।]
उत्तर-
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं माना,जा सकता, जो हमारे गुणों की तो प्रशंसा करता हो लेकिन मन में हमसे प्रेम न रखता हो। ऐसे व्यक्ति को भी मित्र नहीं माना जा सकता, जो समय-समय पर अपने (UPBoardSolutions.com) छोटे-बड़े काम निकालकर स्वार्थ तो सिद्ध कर लेता है लेकिन अन्दर-ही-अन्दर अपने हृदय में हमसे घृणा करता हो। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मित्रता के आधार प्रेम-स्नेह होना चाहिए।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि मित्र के प्रति हृदय में प्रेम होना चाहिए। सच्चा मित्र विश्वास करने योग्य, सही मार्ग बताने वाला और भाई के समान निष्कपट प्रेम करने वाला होता है। हमारी और हमारे मित्र की आपस में सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए जिससे वह हमारे हानिलाभ को अपना हानि-लाभ समझे और हम उसके हानि-लाभ को अपना। तात्पर्य यह है कि सच्ची मित्रता में सच्चा स्नेह होना चाहिए। जिनके हृदय में परस्पर घृणा भरी हो, वे मित्र नहीं हो सकते।

(स) 1. शुक्ल जी का कहना है कि सामान्यतया व्यक्ति के बाह्य व्यक्तित्व को देखकर उससे मित्रता करं ली जाती है, जबकि मित्रता का आधार व्यक्ति का अन्तर्व्यक्तित्व होना चाहिए, जिसकी लोग प्रायः अनदेखी करते हैं।
2. मित्र उचित मार्ग को दिखाने वाला, पूर्णरूपेण विश्वसनीय, स्नेह के योग्य तथा भाई के समान होना चाहिए।
3. ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता, जो प्रत्यक्ष में हमारे गुणों का तो प्रशंसक हो लेकिन हमसे आन्तरिक स्नेह न रखता हो।
4. मित्रों के बीच परस्पर सहानुभूति होनी चाहिए और सहानुभूति भी ऐसी होनी चाहिए, जिससे प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के हानि-लाभ को अपना हानि-लाभ समझे।
5. साधारणतया किसी को सुन्दर चेहरा, रंग-रूप, मन को लुभाने वाली चाल, स्वभाव में खुलापन आदि देखकर हम किसी से मित्रता कर लेते हैं लेकिन ऐसे मित्र जीवन में प्राय: काम नहीं आते।

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प्रश्न 7. मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रुचि के हों। इसी प्रकार प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी, पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। [2017]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
2. राम-लक्ष्मण और कर्ण-दुर्योधन के स्नेह और मित्रता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
[ वांछनीय = इच्छिता उग्र = भयानक। उद्धत = उत्तेजित। उच्चाशय = ऊँचे विचारों वाला।]
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि सच्ची मित्रता के लिए ‘दो व्यक्तियों के स्वभाव का एक समान होना कोई महत्त्व नहीं रखता है। यदि इसमें महत्त्व है तो केवल इस बात का कि दोनों व्यक्ति एक-दूसरे से कितनी सहानुभूति रखते हैं। यदि वे ऐसा समझते हैं तो विपरीत स्वभाव का होने पर भी उनकी मित्रता सच्ची सिद्ध होती है और यदि वे ऐसा नहीं समझते तो समान स्वभाव का होने पर भी मित्रता नहीं निभ सकती। राम-लक्ष्मण एवं कर्ण-दुर्योधन के दृष्टान्त इस तथ्य के स्पष्ट उदाहरण हैं।

(स) 1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहते हैं कि मित्रता के लिए समान स्वभाव एवं रुचि का होना ही आवश्यक नहीं है। इस बात को उन्होंने दृष्टान्तपूर्वक सिद्ध भी किया है कि परस्पर विपरीत स्वभाव वाले भी मित्र हो सकते हैं।
2. राम धैर्यशाली और शान्त स्वभाव के थे, जबकि लक्ष्मण उग्र और उत्तेजित (UPBoardSolutions.com) स्वभाव वाले, लेकिन स्वभाव की भिन्नता होने पर भी उनमें प्रगाढ़ स्नेह था। इसी प्रकार से कर्ण महान विचारों वाले और दानी थे, जब कि दुर्योधन स्वार्थी तथा लोभी था, फिर भी उन दोनों की मित्रता अटूट ही रही। उनके इन अटूट स्नेहसिक्त सम्बन्धों का एकमात्र कारण उनके मध्य में उपजी सहानुभूति ही थी, जिसने उनके विपरीत स्वभाव या प्रकृति की खाई को पाट दिया था।

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प्रश्न 8. यंह कोई बात नहीं कि एक ही स्वभाव और रुचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। जो गुण हममें नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ हूँढ़ता है, निर्बल बली को, धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षा वाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था। [2012]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. क्या देखकर व्यक्ति एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं ? सोदाहरण समझाइए।
2. समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर क्यों आकर्षित होते हैं ?
[ प्रफुल्लित चित्त = प्रसन्नचित्त हृदय। निर्बल = कमजोर। बली = ताकतवर। चन्द्रगुप्त = प्राचीन काल में मगध देश का शासक। चाणक्य = चन्द्रगुप्त का विद्वान मन्त्री तथा अर्थशास्त्र’ नामक पुस्तक का लेखक।]
उत्तर-
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि दो व्यक्तियों में मित्रता होने के । लिए यह आवश्यक नहीं है कि उनके स्वभाव एक जैसे हों और उनकी रुचियाँ समान हों। वरन् भिन्न स्वभाव के लोगों में भी मित्रता हो सकती है। समाज में व्याप्त विभिन्नता को देखकर निर्धन, धनी की ओर; निर्बल, शक्तिशाली की ओर तथा विनीत, नम्र व गम्भीर व्यक्ति उत्साही व्यक्ति की ओर आकर्षित होते हैं जिससे कि उन्हें विपरीत समय में उचित प्रेरणा मिल सके। इसका मूल कारण यही है कि व्यक्ति चाहता है कि जो गुण उसमें नहीं हैं उसे मित्र रूप में ऐसा व्यक्ति मिलना चाहिए जिसमें वे गुण हों। चिन्ताग्रस्त व्यक्ति प्रफुल्लित चित्त वाले व्यक्ति की तलाश में रहता है, जिससे कि वह भी कुछ समय के लिए तो चिन्तामुक्त हो जाए।
(स) 1. विभिन्नता को देखकर व्यक्ति एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। आशय यह है कि व्यक्ति में जो गुण नहीं होते हैं, उन्हें जब वह दूसरे व्यक्ति में देखता है तो उसकी ओर आकर्षित होता है; जैसे – चन्द्रगुप्त अपने विद्वान मन्त्री चाणक्य की ओर तथा (UPBoardSolutions.com) अकबर मनोरंजन के लिए बीरबल की ओर।
2. समाज में विभिन्नता देखकर ही व्यक्ति एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं क्योंकि व्यक्ति में होने वाले कतिपय गुणों का अभाव उसे उस गुण से युक्त व्यक्ति की ओर आकर्षित करता है।

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प्रश्न 9. मित्र का कर्तव्य इस प्रकार बताया गया है- ‘उच्च और महान् कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।’ यह कर्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़-चित्त और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए, जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए, जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा। [2012, 14, 18]
(अ) उपर्युक्त अवतरण का सन्दर्भ लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. मित्र के कौन-से कर्तव्य बताये गये हैं ?
2. मित्र किस प्रकार के होने चाहिए ?
3. गद्यांश में प्रयुक्त मुहावरों का अर्थ लिखकर वाक्य में प्रयोग कीजिए। [निज की = अपनी। सामर्थ्य = शक्ति। पल्ला पकड़ा था = सहारा लिया था।]
उत्तर-
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि सच्चा मित्र वही है, जो आवश्यकता पड़ने पर अपनी शक्ति और सामर्थ्य से भी कहीं अधिक मित्र की सहायता करे। मित्र का कर्तव्य है कि वह मित्र के विपद्ग्रस्त होने पर उसकी इस प्रकार सहायता करे कि उसका साहस और उत्साह बना। रहे। वह अपने को नितान्त अकेला समझकर निराश न हो, वरन् उसका मनोबल बना रहे। इस प्रकार से सहायता करने पर वह अपनी शक्ति से भी कई गुना बड़े कार्य सरलता से कर लेगा।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि मित्र के महान् कार्यों में सहायता देने, उत्साहित करने जैसे कर्तव्यों का निर्वाह वही व्यक्ति कर सकता है, जो स्वयं दृढ़ विचारों और सत्य संकल्पों वाला होता है। अत: मित्र बनाते समय हमें ऐसे व्यक्ति को खोजना चाहिए, जिसमें हमसे बहुत अधिक साहस एवं आत्मबल विद्यमान हो।

तृतीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि हमें अपने मित्र ऐसे बनाने चाहिए जो समाज में आदरणीय और मान्य हों, हृदय से निर्विकार हों, मृदुभाषी एवं सत्यनिष्ठ हों तथा सभ्य एवं परिश्रमी हों। इन गुणों से युक्त मित्र पर ही स्वयं को छोड़ा जा (UPBoardSolutions.com) सकता है, अर्थात् उन पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है। इस प्रकार के मित्रों को ही वास्तविक मित्र माना जा सकता है जिनसे कभी भी किसी भी प्रकार के धोखे या कपट की आशंका नहीं रहेगी।

(स) 1. मित्र के कर्तव्य हैं- उचित और श्रेष्ठकार्य में मित्र की सहायता करना, उसके उत्साह और साहस को इस प्रकार बढ़ाना कि वह अपनी सामर्थ्य से अधिक का काम कर सके।
2. हमारे मित्र इस प्रकार के होने चाहिए जो समाज में आदरणीय हों, शुद्ध हृदय के हों, मृदुभाषी हों, परिश्रमी हों, सभ्य हों और सत्यवादी हों। ऐसे ही मित्रों को वास्तविक मित्र माना जा सकता है।

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3. मन बढ़ाना (उत्साहित करना)-जाम्बवन्त ने हनुमान का मन इस प्रकार बढ़ाया कि वे समुद्र लाँघकर लंका जाने के लिए तैयार हो गये।
पल्ला पकड़ना (सहारा लेना)-सुग्रीव ने बालि से मुक्ति पाने के लिए ही राम का पल्ला पकड़ा था।

प्रश्न 10. उनके लिए फूल-पत्तियों में कोई सौन्दर्य नहीं, झरनों के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त सागर-तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य में सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है; जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा, जो तरस न खाएगा? उसे ऐसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए।
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने क्या प्रेरणा दी है ?
2. कौन-से लोग फूल-पत्तियो में सौन्दर्य को, झरनों में संगीत का, सागर-तरंगों में रहस्यों का . आभास नहीं कर पाते ?
3. कुत्सित विचारों वाले व्यक्तियों को क्या प्राप्त नहीं होता ?
[इन्द्रिय-विषयों = भोग-विलासों। नीचाशयों = नीचे विचारों। कुत्सित = बुरे। कलुषित = काले अथवा मैले। नाशोन्मुख = नाश की ओर प्रवृत्त। पतित होते = गिरते हुए।].
उत्तर-
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि जो आचरणहीन और हृदयहीन व्यक्ति प्रकृति के सौन्दर्य का आनन्द नहीं ले सकते, जिनके लिए फूलों की सुन्दरता और झरनों की कल-कल ध्वनि का कोई महत्त्व नहीं, जिन्हें सागर में उठती लहरों के (UPBoardSolutions.com) गम्भीर रहस्य का ज्ञान नहीं, ऐसे लोग मित्र बनाने योग्य नहीं होते। जो लोग परिश्रम करने में आनन्द का अनुभव नहीं करते, जिनके हृदय में प्रेमभाव नहीं होती, जिनका मन सदा अशान्त रहता है, ऐसे लोग भी मित्रता के योग्य नहीं होते।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि जो लोग केवल इन्द्रिय-सुख की इच्छा करते हैं और उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, जिनका हृदय गन्दे और घृणित भावों से भरा हुआ है, ऐसे लोग गन्दे और निम्न कोटि के विचारों के कारण सतत विनाश की ओर बढ़ रहे होते हैं और अन्ततः अज्ञान के गर्त में गिरकर नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार के लोगों का दिन-प्रतिदिन पतन होता रहता है, जिसे देखकर सभी को दया ही आती है। ऐसे पतन की ओर अग्रसर लोगों से कदापि मित्रता नहीं करनी चाहिए।

(स) 1. लेखक ने बुरी संगति से बचने की प्रेरण देते हुए कहा है कि कुत्सित विचारों वाले व्यक्तियों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग स्वयं तो पतित होते ही हैं, दूसरों के भी पतन का कारण बनते हैं।
2. जिन व्यक्तियों के मन-मस्तिष्क भोग-विलास में लिप्त हैं, जिनका हृदय निम्नस्तरीय विचारों से भरा हुआ है, ऐसे ही व्यक्तियों को फूल-पत्तियों में सौन्दर्य का, झरनों में सुमधुर संगीत का और सागर-लहरों के रहस्यों का आभास नहीं होता।
3. कुत्सित विचारों वाले व्यक्तियों को सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थ का आनन्द नहीं मिलता, सच्चे स्नेह का सुख नहीं मिलता और कोमल हृदय की शान्ति प्राप्त नहीं होती।

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प्रश्न 11. कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्ढे में गिराती-जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जाएगी। [2011, 13, 15, 17]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. युवा पुरुष की संगति के बारे में क्या कहा गया है ?
2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ?
3. अच्छी संगति से होने वाले लाभों को उदाहरण देकर समझाइए।
4. कुसंग का क्या प्रभाव होता है ?
[ कुसंग = बुरा साथ। सद्वृत्ति = अच्छा आचरण। क्षय = नाश। अवनति = पतन। बाहु = भुजा।]
उत्तर-
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी कहते हैं कि बुरी संगति घातक बुखार के समान हानिकारक होती है। जिस तरह कोई व्यक्ति यदि भयानक ज्वर से ग्रसित हो तो वह ज्वर उसके शरीर और स्वास्थ्य को नष्ट कर देता है तथा कभी-कभी प्राण भी ले लेता है, उसी प्रकार बुरी संगति हमारी नैतिकता, सदाचार, मन तथा बुद्धि को नष्ट कर देती है।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – मानव-जीवन में युवावस्था सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है। कुसंगति किसी युवा मनुष्य की सारी प्रगति को उसी तरह रोक लेती है, जिस तरह पैर में बँधा हुआ भारी पत्थर किसी व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ने देता, वरन् प्रायः उसे गिरा देता है। इसी प्रकार कुसंगति में लिप्त मनुष्य का पतन होने लगता है और वह दिन-प्रतिदिन पतन के मार्ग पर अग्रसर होता रहता है। इसके विपरीत अच्छी संगति हमारे लिए एक ऐसी सुदृढ़ (UPBoardSolutions.com) बाँह अर्थात् सहारा होती है जो हमें गिरने नहीं देती, अपितु उन्नति के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ाती है और जीवन को शुद्ध, सात्विक तथा उन्नत बनाती है।

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(स) 1. युवा पुरुष की बुरी संगति उसे अवनति के गड्ढे में प्रतिदिन गिरती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो वह उसे निरन्तर उन्नति की ओर अग्रसर करेगी।
2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहता है कि कुसंगति मनुष्य के पतन और सत्संगति उसके उत्थान का कारण होती है। इसलिए व्यक्ति को बुरी संगति से बचकर रहना चाहिए।
3. अच्छी संगति सहारा देने वाली बाँह के समान होती है, जो व्यक्ति की जीवन-रक्षक और उसे उन्नति की ओर ले जानी वाली होती है।
4. कुसंग का प्रभाव बहुत भयानक होता है। यह मनुष्य की नैतिकता और अच्छे आचरण को नष्ट कर देता है। इसके साथ-साथ वह उसकी बुद्धि का भी क्षय करता रहता है।

प्रश्न 12. बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी-भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं, जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्राय: सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नहीं। [2017]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. किस बात को प्रायः सभी लोग जानते-समझते हैं ?
2. किन लोगों के क्षणमात्र के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और क्यों ?
[घड़ी-भर = थोड़ी देर। भ्रष्ट होना = पतन होना। चित्त = मन। अटल भाव = न हटने वाली भावना। भद्दे व फूहड़ = बेढंगा और अश्लील, जिसमें कला-सुरुचि आदि का अभाव हो।
उत्तर-
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – प्रस्तुत गद्यांश में शुक्ल जी ने बुरी संगति को व्यक्ति की उन्नति में बाधक बताते हुए कहा है कि समाज में अनेकानेक लोग इस प्रकार के होते हैं जिनके साथ थोड़ी देर के लिए भी रह लेने से व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता का पतन हो (UPBoardSolutions.com) जाता है। ऐसे लोग उस थोड़ी-सी देर में ही ऐसी-ऐसी बातें कह डालते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के तो सुनने लायक भी नहीं होती। ऐसी बातों से व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर इतने बुरे प्रभाव पड़ते हैं कि उससे उसके हृदय की पवित्रता; अर्थात् मन के अच्छे भाव समाप्त हो जाते हैं।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि बुरी आदतें या भावना व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में स्थायी रूप से विराजमान रहती हैं और बहुत समय तक स्थिर रूप में जमी रहती हैं। अपनी बात को और अधिक पुष्ट करते हुए लेखक कहते हैं कि इस बात का तो सामान्य लोगों ने भी अनुभव किया होगा कि बेढंगे और अश्लील गीत जितने शीघ्र व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में अपनी पैठ (पहुँच) बनाते हैं, उतनी शीघ्र कोई अच्छी या लाभकर बात नहीं।

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(स) 1. भद्दे व अश्लील गीत जितने शीघ्र याद हो जाते हैं उतनी शीघ्र कोई अच्छी बात याद नहीं होती। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते-समझते हैं।
2. बुरे लोगों की क्षणमात्र की संगति से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि बहुत कम समय में ही वे इतनी बुरी बातें कह डालते हैं, जिनसे मन की पवित्रता समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 13. जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे; अत: हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो। [2012, 14, 16]
(अ) प्रस्तुत अवतरण के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. कुसंगति में पड़ा हुआ मनुष्य क्या नहीं देखता और क्यों ?
2. कुसंगति में पड़े हुए मनुष्य के साथ क्या होता है ?
3. विवेक कुण्ठित हो जाने से मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
4. लेखक ने हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का क्या उपाय सुझाया है ?
5. सबसे अच्छा उपाय क्या है?
6. बुरी बातों का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी ने बुरी संगति को कीचड़ के समाने कहा है और बताया है कि इस कीचड़ से सदा बचकर रहना चाहिए, अन्यथा यह हमारे आचरण को दूषित कर देगा। यदि कोई मनुष्य एक बार बुरी संगत में फंस गया और (UPBoardSolutions.com) कलंकित हो गया तो वह फिर बार-बार कलंकित होने से नहीं डरता और धीरे-धीरे बुरी आदतों का अभ्यस्त हो जाता है। जब बुराई आदत बन जाती है, तब वह उससे घृणा भी नहीं करता और न बुरा कहने से चिढ़ता ही है।

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द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – शुक्ल जी का कहना है कि कुसंगति में पड़े हुए व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और उसे भले-बुरे की पहचान भी नहीं रह जाती। उसे बुराई ही भलाई दीखने लगती है और वह इतना गिर जाता है कि बुराई की पूजा भक्त की तरह करने लगता है। इसलिए यदि अपने हृदय । और आचरण को निष्कलंक और उज्ज्वल बनाये रखना है तो बुरी संगति की छूत से बचना चाहिए।
(स) 1. कुसंगति में पड़ा हुआ मनुष्य यह नहीं देखता कि वह एक-के-बाद-एक कितनी कुसंगतियों में पड़ता चला जा रहा है; क्योंकि वह इन कुसंगतियों का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसकी इनसे घृणा समाप्त हो जाती है।
2. कुसंगति में पड़े हुए मनुष्य का विवेक कुण्ठित हो जाता है और उसे अपने भले-बुरे की पहचान भी नहीं रह जाती। अन्ततः वह बुराई में ही आकण्ठ डूब जाता है।
3. विवेक कुण्ठित हो जाने से मनुष्य को भले-बुरे की पहचान नहीं रह जाती और अन्ततः वह भी । बुराई का भक्त बन जाती है।
4. लेखक ने हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने के लिए स्वयं को बुरी संगति से दूर रखने का उपाय सुझाया है।
5. सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्ति स्वयं को बुरी संगति की छूत से बचाये तथा अपने हृदय को उज्जवल और निष्कलंक रखे।
6. बुरी बातों का व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। बुरी बातों का अभ्यस्त हो जाने पर उनके प्रति उसकी घृणा कम हो जाती है और धीरे-धीरे व्यक्ति बुराई को ही पूर्णरूपेण अपना लेता है।

व्याकरण एवं रचना-बोध

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों से उपसर्ग और मूल-शब्दों को अलग करके लिखिए
प्रवृत्ति, संकल्प, कुमार्ग, सहानुभूति, उच्चाशय, कुसंग, निष्कलंक, उज्ज्वल।
उत्तर-
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प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों से प्रकृति (मूल शब्द) को अलग करके लिखिए-
उपयुक्तता, निपुणता, आनन्दमय, चिन्ताशील, सत्यनिष्ठ, बुद्धिमान्, दुर्भाग्यवश, ग्रन्थकार, सात्विक, कलुषित, लड़कपन
उत्तर-
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 1 मित्रता (गद्य खंड) img-3

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित प्रत्ययों से पाँच-पाँच शब्दों की रचना कीजिए-
इक, इत, मय, ई, कार।
उत्तर-
इक – श्रमिक, पारिवारिक, सामाजिक, नागरिक, राजनीतिक आदि।
इतं – लिखित, पठित, रचित, फलित, चलित आदि।
मय – आनन्दमय, कर्ममय, प्रेममय, (UPBoardSolutions.com) भक्तिमय, संगीतमय आदि।
ई – देशी, विदेशी, परदेशी, नगरी, अंग्रेजी आदि।
कार – स्वर्णकार, लेखाकार, रचनाकार, निबन्धकार, कलाकार आदि।

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