UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 5
Chapter Name Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary
(सरकार के अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका)
Number of Questions Solved 71
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary (सरकार के अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
सरकार के प्रमुख अंग कौन-कौन से हैं? लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका का क्या महत्त्व है? इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
व्यवस्थापिका के कार्यों का वर्णन कीजिए तथा इसका कार्यपालिका से सम्बन्ध बताइए। [2012]
या
व्यवस्थापिका के मुख्य कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2010, 14]
या
व्यवस्थापिका के कार्यों की व्याख्या कीजिए। वर्तमान युग में व्यवस्थापिका के ह्रास के क्या कारण हैं? [2014, 16]
या
व्यवस्थापिका के आधारभूत कार्यों का वर्णन कीजिए और संसदात्मक प्रणाली में इसकी विशिष्ट भूमिका पर भी प्रकाश डालिए। [2007, 14]
या
व्यवस्थापिका का अर्थ तथा उसके कार्य बताइए। व्यवस्थापिका की महत्ता पर भी प्रकाश डालिए।
या
व्यवस्थापिका के संगठन पर प्रकाश डालिए तथा इसके कार्यों का वर्णन कीजिए। [2010]
या
व्यवस्थापिका के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए और वर्तमान समय में व्यवस्थापिका की शक्तियों में हास के कारण बताइए। [2016]
उत्तर
सरकार के प्रमुख अंग।
सभी व्यक्तियों द्वारा सरकार को एक से अधिक अंगों में विभाजित करने की आवश्यकता अनुभव की गयी है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को व्यवस्थापन तथा शासन विभाग इन दो अंगों में विभाजित किया गया है। कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार को 5 या 6 अंगों में विभाजित करने का प्रयत्न किया गया है, परन्तु सामान्य धारणा यही है कि प्रमुख रूप से सरकार के निम्नलिखित तीन अंग होते हैं-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। व्यवस्थापिका कानून बनाने और राज्य की नीति को निश्चित करने का कार्य करती है, कार्यपालिका इन कानूनों को कार्यरूप में परिणतं कर शासन का संचालन करती है और न्यायपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर न्याय प्रदान करने और संविधान की व्याख्या व रक्षा करने का कार्य करती है।

व्यवस्थापिका का अर्थ
व्यवस्थापिका सरकार का वह अंग है, जो राज्य प्रबन्ध चलाने के लिए कानूनों का निर्माण करता है, पुराने कानूनों का संशोधन करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें रद्द भी कर सकता है। व्यवस्थापिका को सरकार के अन्य अंगों से श्रेष्ठ माना जाता है; क्योंकि लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका लोगों की एक प्रतिनिधि सभा होती है। लॉस्की के शब्दों में, “कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की शक्तियों की सीमा व्यवस्थापिका द्वारा बतायी गयी इच्छा होती है।”

व्यवस्थापिका का संगठन
कानून-निर्माण और सरकार की नीति-निर्धारण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है। व्यवस्थापिका का संगठन दो रूपों में किया जा सकता है। व्यवस्थापिका या तो एक सदन हो सकता है अथवा दो सदन। जिस व्यवस्थापिका में एक सदन होता है, उसे एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका और जिसमें दो सदन होते हैं, उसे द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका कहा जाता है। द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन को निम्न सदन (Lower House) और द्वितीय सदन को उच्च सदन (Upper House) कहा जाता है। प्रथम सदन की शक्ति पर अंकुश रखने तथा उसके द्वारा किये। गये कार्यों पर पुनर्विचार करने के लिए ही द्वितीय सदन की आवश्यकता अनुभव की गयी।

आधुनिक काल में अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका प्रणाली को ही अपनाया गया है। भारत, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में व्यवस्थापिका में दो सदन ही पाये जाते हैं, जबकि पुर्तगाल, ग्रीस, चीन, तुर्की आदि देशों में व्यवस्थापिका में केवल एक सदन है।

व्यवस्थापिका के कार्य
वर्तमान समय में लोकतन्त्रीय राज्यों में व्यवस्थापिका द्वारा निम्नलिखित प्रमुख कार्य सम्पादित किये जाते हैं।

  1. कानून-निर्माण सम्बन्धी कार्य – विधायिका का महत्त्वपूर्ण कार्य विधि-निर्माण करना है। व्यवस्थापिका कानून का प्रारूप तैयार करती है, उस पर वाद-विवाद कराती है, प्रारूप में संशोधन कराती है तथा कानून को अन्तिम रूप देती है।
  2. विमर्शात्मक कार्य एवं जनमत-निर्माण – व्यवस्थापिका के सदनों में जन-कल्याण से सम्बन्धित विभिन्न नीतियों और योजनाओं पर विचार-विमर्श होता है। व्यवस्थापिका राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श और वांछित सूचनाएँ प्रस्तुत कर जनमत का निर्माण करती है।
  3. वित्त सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य राष्ट्र की वित्त-व्यवस्था पर नियन्त्रण रखना भी है। प्रजातान्त्रिक देशों में व्यवस्थापिका प्रत्येक वित्तीय वर्ष के आरम्भ में . उस वर्ष के अनुमानित बजट को स्वीकृत करती है। इसकी स्वीकृति के बिना नये कर लगाने तथा आय-व्यय से सम्बन्धित कार्य नहीं किये जा सकते हैं।
  4. न्याय सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका क्रो न्याय-क्षेत्र में भी कुछ कार्य करने पड़ते हैं। भारत ; की संसद को उच्च कार्यपालिका के पदाधिकारियों पर महाभियोग लगाने और उनके निर्णय का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार उसे सदन की मानहानि की स्थिति में सदन को निर्णय देने एवं दोषी व्यक्ति को दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।
  5. कार्यपालिका पर नियन्त्रण – प्रत्यक्ष रूप से व्यवस्थापिका प्रशासन में भाग नहीं लेती, लेकिन प्रशासन पर उसका नियन्त्रण निश्चित रूप से होता है। संसदात्मक शासन-प्रणाली में विधायिका प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर, अविश्वास, निन्दा, स्थगन तथा कटौती के प्रस्ताव रखकर, मन्त्रियों द्वारा प्रस्तुत किये गये विधेयकों तथा अन्य प्रस्तावों को अस्वीकार करने आदि के माध्यम से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है। अध्यक्षात्मक शासन में व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखती है।
  6. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य – अनेक देशों में व्यवस्थापिका को कुछ निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में संसद के दोनों सदन उपराष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं। स्विट्जरलैण्ड में व्यवस्थापिका मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों, न्यायाधीशों तथा प्रधान सेनापति का निर्वाचन करती है।
  7. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका समय-समय पर किन्हीं विशेष कार्यों की जाँच करने के लिए आयोगों और समितियों की नियुक्ति का कार्य भी करती है। इसके अलावा व्यवस्थापिका द्वारा इंग्लैण्ड, अमेरिका, भारत आदि देशों में कार्यरत सरकारी निगमों के कार्यों और क्रियाकलापों पर भी पूर्ण नियन्त्रण रखा जाता है।

इस प्रकार, व्यवस्थापिका शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वह विधि-निर्माण के अतिरिक्त प्रशासन, न्याय, वित्त, संविधान, निर्वाचन आदि क्षेत्रों में अनेक कार्य करती है।

व्यवस्थापिका की महत्ता
सरकार के तीनों ही अंगों द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, लेकिन इन तीनों में व्यवस्थापन विभाग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यवस्थापन विभाग ही उन कानूनों का निर्माण करता है जिनके आधार पर कार्यपालिका शासन करती है और न्यायपालिका न्याय प्रदान करने का कार्य करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य के लिए आवश्यक आधार प्रदान करती है। व्यवस्थापन विभाग केवल कानूनों का ही निर्माण नहीं करता, वरन् प्रशासन की नीति भी निश्चित करता है और संसदात्मक शासन-व्यवस्था में तो कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण भी रखता है। संविधान में संशोधन का कार्य भी व्यवस्थापिका के द्वारा ही किया जाता है।
अत: यह कहा जा सकता है कि व्यवस्थापन विभाग सरकार के दूसरे अंगों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति रखता है।

शक्ति में हास के कारण
विधायिका के महत्त्व में कमी और इसकी शक्तियों के पतन के लिए कई कारण उत्तरदायी रहे हैं। संक्षेप में विधायिका के पतन के निम्नलिखित कारण हैं।

1. कार्यपालिका की शक्तियों में असीम वृद्धि – पूर्व की तुलना में विभिन्न कारणों से कार्यपालिका का अधिक महत्त्वपूर्ण होना स्वाभाविक है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि इसकी शक्तियों में वृद्धि का विपरीत प्रभाव विधायिका पर पड़ता है। इसीलिए विगत शताब्दी में अनेक राष्ट्रों में विधायिका की संस्था और कमजोर हुई है।

2. प्रतिनिधायन के०सी० ह्वीयर – के मतानुसार प्रतिनिधायन द्वारा कार्यपालिका ने विधायिका की कीमत पर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया है। इस सिद्धान्त के फलस्वरूप कार्यपालिका को विधि-निर्माण का अधिकार प्राप्त हो गया। व्यवहार में विभिन्न कारणों से विधायिका ने स्वतः कार्यपालिका को यह शक्ति प्रदान की। अतः विधि-निर्माण का जो मुख्य कार्यं विधायिका के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत था। वह भी प्रतिनिधायन के कारण उसके क्षेत्राधिकार से निकलता चला गया।

3. संचार साधनों की भूमिका – रेडियो और टेलीविजन विज्ञान के ऐसे चमत्कार हैं, जिन्होंने कार्यपालिका के प्रधान को जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़ा। संचार साधनों के ऐसे. विकास से कार्यपालिका के प्रधान द्वारा विधायिका को नजरअन्दाज कर सीधा जनसम्पर्क स्थापित किया। जाने लगा जिसका प्रतिकूल प्रभाव विधायिका की शक्तियों पर पड़ता गया।

4. दबाव गुटों और हितसमूहों का विकास – बीसवीं शताब्दी में विधायिका के सदस्यों का एक मुख्य कार्य जन-शिकायतों को सरकार तक पहुँचाना रहा, लेकिन दबाव गुटों और हितसमूहों के विकास के कारण उसकी इस भूमिका में भी कमी आई। पिछली शताब्दी में नागरिक संगठित हितसमूहों का सदस्य होता गया। परिणामस्वरूप विधायिका की अनदेखी कर कार्यपालिका से वह सीधा सम्पर्क जोड़ लेता था और अपनी माँगों को मनवाने के सन्दर्भ में सफलता प्राप्त करता था। अतः विधायिका पृष्ठभूमि में चली गई और निर्णय-प्रक्रिया में कार्यपालिका ही मुख्य भूमिका अदा करती रही।

5. परामर्शदात्री समितियों और विशेषज्ञ समितियों का विकास – प्रत्येक मन्त्रालय और विभाग में सलाहकार समितियाँ गठित होने लगी हैं तथा विशेषज्ञों के संगठन बनाए जाने लगे हैं। विधेयकों का प्रारूप तैयार करने में इनसे सलाह ली जाती है। सदन में जब विचार-विमर्श होता है और सदस्यों द्वारा संशोधन प्रस्तुत किए जाते हैं, तब यह कहकर उन्हें चुप कर दिया जाता है कि इस पर विशेषज्ञों की सलाह ली जा चुकी है। फलस्वरूप विधायिका के समक्ष ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृत करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता है।

6. युद्ध और संकट की स्थिति – प्रायः सभी लोकतान्त्रिक देशों में राज्याध्यक्ष ही सेना का प्रधान होता है, सैनिक मामलों में विधायिका कुछ भी नहीं कर सकती। अतः युद्ध या अन्य संकटकाल के समय विधायिका नहीं अपितु कार्यपालिका सर्वेसर्वा बन जाती है, ऐसी कठिन परिस्थितियों में तुरन्त निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए सन् 1971 के युद्ध में भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वतन्त्र रूप से युद्ध-नीति का संचालन किया था। अमेरिका में भी राष्ट्रपति निक्सन ने वियतनाम युद्ध के दौरान कई बार कांग्रेस की अवहेलना की थी। फॉकलैण्ड युद्ध में भी ब्रिटिश प्रधानमन्त्री श्रीमती मार्ग रेट थैचर ने देश का नेतृत्व स्वयं किया था। अतः युद्ध या संकट के समय कार्यपालिको ऐसी स्थिति ला देती है, जिसमें विधायिका के समक्ष उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। यह प्रक्रिया बीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई।

7. संकट व तनाव की अवस्था का युग – रॉबर्ट सी० बोन ने 20वीं शताब्दी को ”चिन्ता का युग” कहा है। उक्त शसाब्दी में विभिन्न देशों में किसी-न-किसी कारण से प्रायः ही संकट के बादल मंडराते रहे, जो न केवल सरकारों को बल्कि नागरिकों को भी तनाव की स्थिति में ला देते थे। संचार-साधनों के विकास के कारण विश्व की घटनाओं का समाचार निरन्तर रेडियो तथा टेलीविजन द्वारा मिलना सामान्य बात थी। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही उनकी आशा का केन्द्र बनी। यही कारण है कि चिन्ता के उस युग में विधायिका लोगों को आश्वस्त करने की भूमिका नहीं निभा सकी। यह कार्य कार्यपालिका का हो गया। आज कार्यपालिका सर्वशक्तिमान बनने की दिशा में बढ़ रही है।

प्रश्न 2.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण एवं दोषों (पक्ष एवं विपक्ष) का वर्णन कीजिए। [2007, 10, 12]
या
व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन की उपयोगिता पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
उत्तर
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/उपयोगिता (पक्ष में तर्क)
द्वि-सदनात्मक या द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के पक्ष में जो तर्क दिये जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं-

1. उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर पुनर्विचार – द्वितीय सदन का प्रमुख कार्य प्रथम सदन के उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर विचार करना है। प्रथम सदन में नवयुवक तथा जोशीले सदस्यों की प्रधानता रहती है। वे आवेश में आकर ऐसे कानूनों का निर्माण कर डालते हैं जो जनहित में नहीं होते। द्वितीय सदन में, जिसमें अधिकांश अनुभवी तथा गम्भीर व्यक्ति होते हैं, प्रथम सदन द्वारा पारित कानूनों का पुनरावलोकन करके उत्पन्न भूलों को दूर कर देते हैं। ब्लंटशली ने ठीक ही लिखा है कि “दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें सदा अच्छा देखती हैं, विशेषतया जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करना आवश्यक हो।’ लॉस्की के अनुसार, “नियन्त्रण संशोधन तथा रुकावट डालने में जो काम द्वितीय सदन करता है, उससे उसकी आवश्यकता स्वयं सिद्ध है।”

2. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक – एक-सदनात्मक व्यवस्था में उसके निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी हो जाने की पूरी सम्भावना रहती है, किन्तु द्वि-सदनात्मक व्यवस्था में इस प्रकार की सम्भावना का अन्त हो जाता है। ब्राइस का कहना है, “दो सदनों की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि एक सदन की स्वाभाविक प्रवृत्ति घृणापूर्ण, अत्याचारी तथा भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है, जिसे रोकने के लिए एकसमान सत्ताधारी द्वितीय सदन का अस्तित्व आवश्यक है।” इस प्रकार द्वितीय सदन की विद्यमान स्वतन्त्रता की गारण्टी व कुछ सीमा तक अत्याचार से सुरक्षा भी है।

3. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन – लॉर्ड एक्टन का कहना है कि “स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए द्वितीय सदन अत्यन्त आवश्यक है। यह नीतियों में सन्तुलन स्थापित करता है तथा अल्पसंख्यकों की रक्षा और प्रथम सदन के दोषों को दूर करता है।’

4. प्रथम सदन के कार्य – भार में कमी–द्वितीय सदन विवादास्पद कार्यों को अपने हाथ में लेकर प्रथम सदन की कार्य-भार हल्का कर देता है और उसे अधिक सुचारु रूप से कार्य करने का अवसर प्रदान करता है। आधुनिक प्रगतिशील देशों में एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रूप से निभाने में असमर्थ होती है; अत: द्वितीय सदन की आवश्यकता है।

5. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एकदूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है। कि दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती है।”

6. अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व – व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन के होने से अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है।

7. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जब कि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

8. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।

9. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाता है।

10. प्रथम सदन का सहयोगी – द्वितीय सदन प्रथम सदन का सहयोगी होता है। इस सम्बन्ध में हेनरीमैन ने लिखा है कि ‘‘बिल्कुल न होने से किसी भी सरकार का द्वितीय सदन अच्छा है, क्योंकि एक व्यवस्थित द्वितीय सदन प्रथम का शत्रु नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक अंग है।” द्वि-सदनात्मक प्रणाली में दोनों सदन एक-दूसरे के सहयोगी होते हैं।

11. जनमत जानने का अच्छा साधन – जब कोई विधेयक प्रथम सदन से पारित होकर दूसरे सदन में विचारार्थ भेजा जाता है, तब जनता को इस बीच के समय में उसे पर अपना विचार व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ पर विधेयक पर विचार करने में कुछ समय अवश्य लग जाता है। इस सम्बन्ध में लॉर्ड ब्राइस ने लिखा है कि “द्वितीय सदन का मुख्य कार्य केवल इतना विलम्ब करना होना चाहिए जिससे जनता को निम्न सदन द्वारा प्रस्तुत ऐसे विधेयकों पर अपना मत व्यक्त करने का अवसर मिल सके जिनके सम्बन्ध में शासन के पास पहले से जनता का कोई आदेश नहीं है।”

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दोष (विपक्ष में तर्क)
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

1. रूढ़िवादिता – द्वितीय सदन रूढ़िवादी होता है, क्योंकि उसके अधिकांश सदस्य धनी एवं अनुदार प्रवृत्ति के होते हैं। इसलिए वे प्रगतिशील एवं सुधारात्मक विधेयकों के पारित होने में बाधक सिद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में लॉस्की ने लिखा है कि “अत्यन्त उपयोगी सुधारों में द्वितीय सदन को विलम्ब लगाने की शक्ति देना सम्भवत: कालान्तर में विनाश को जन्म देना है और जन-क्रान्ति का मार्ग निर्मित करना है।”

2. अनावश्यक या हानिकारक – प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक ऐबेसेयीज का कहना है कि “कानून जनता की इच्छा है। जनता की एक ही समय में तथा एक ही विषय पर दो विभिन्न इच्छाएँ नहीं हो सकतीं। अतएव जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली परिषद् आवश्यक रूप से एक ही होनी चाहिए। जहाँ कहीं दो सदन होंगे, मतभेद तथा विरोध अवश्यम्भावी होंगे तथा जनता की इच्छा अकर्मण्यता का शिकार बन जाएगी।” वह पुनः कहता है कि यदि द्वितीय सदन का प्रथम सदन से मतभेद हो तो यह उसकी शैतानी है और यदि वह उससे सहमत है। तो उसका अस्तित्व अनावश्यक है। चूंकि वह या तो सहमत होगा या असहमत; अतएव उसका अस्तित्व किसी दिशा में भी लाभदायक नहीं है।

3. उत्तरदायित्व का अभाव – आलोचकों का कहना है कि द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन अपने उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हो जाता है।

4. संगठन की कठिनाई – द्वितीय सदन के संगठन के सम्बन्ध में कोई आदर्श प्रणाली नहीं है। यदि द्वितीय सदन सामान्य मताधिकार के आधार पर निर्वाचित है तो वह निम्न सदन की पुनरावृत्ति मात्र रह जाता है और यदि उसका निर्वाचन उच्च सम्पत्तिगत योग्यता के आधार पर हुआ है तो वह रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रियावादी होगा। यदि द्वितीय सदन वंशानुगत है तो वह निम्न सदन के हितों एवं उनकी आकांक्षाओं का विरोधी होगा। यदि वह अंशतः निर्वाचित तथा अंशतः मनोनीत है तो स्वयं अपने विपरीत विभाजित होने के कारण किसी भी रचनात्मक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं होगा और यदि वह कार्यपालिका अथवा निम्न सदन द्वारा नियुक्त है तो नियुक्त करने वाली सत्ता के अतिरिक्त यह और किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा।

5. धन का अपव्यय – द्वि-सदनात्मक प्रणाली में धन के अपव्यय में अधिक वृद्धि हो जाती है। तथा इससे अनावश्यक विलम्ब भी होता है, क्योंकि दूसरे सदन में विचारार्थ कोई विधेयक भेजना केवल देरी करना ही है। फिर इस अपव्यय का भार जनता को अतिरिक्त करों के रूप में वहन करना पड़ता है। यह धन द्वितीय सदन की अपेक्षा जनहित के कार्यों में उचित रूप से लगाया जा सकता है।

6. प्रजातन्त्रीय प्रणाली का विरोध – आयंगर का कहना है कि “यद्यपि द्वि-सदनात्मक शासन प्रणाली जनतन्त्र के अन्दर एक प्राचीन परम्परा है, किन्तु यह प्रणाली जनतन्त्र पर विश्वास करने में हिचकिचाती है और अल्पसंख्यकों को ही सन्तुष्ट करने का प्रयास करती है। कभी-कभी द्वितीय सदन हारे हुए नेताओं का सुरक्षित भण्डार सिद्ध हो सकता है।

7. भूल-सुधार का महत्त्वहीन दावा – यह कहना कि प्रथम सदन आवेश में आकर जनहित विरोधी कानूनों का निर्माण कर सकता है, उचित नहीं है; क्योंकि प्रथम सदन प्रत्येक विधेयक पर तीन बार विचार करता है। इस प्रकार उसमें किसी प्रकार की भूल रह जाने की बहुत कम सम्भावना रह जाती है। द्वितीय सदन में केवल विधेयक पर प्रथम सदन के तर्क-वितर्क ही दोहराये जाते हैं। इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आधुनिक युग में व्यवस्थापन एकाएक कानून की पुस्तक पर नहीं आ जाता, प्रायः प्रत्येक विधेयक विचार एवं विश्लेषण की एक लम्बी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कानून बना है। अतः जल्दबाजी के व्यवस्थापन को रोकने की दृष्टि से दूसरे सदन को महत्त्व राजनीति की वर्तमान दशा में अत्यन्त कम हो गया है।’

8. संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना – जहाँ द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका होती है वहाँ संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना बनी रहती है। इससे शासन-व्यवस्था में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है। फ्रेंकलिन के शब्दों में, “द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका एक ऐसी गाड़ी के समान है जिसके दोनों सिरों पर एक-एक घोड़ा हो और वे दोनों घोड़ा-गाड़ी को अपनी-अपनी ओर खींच रहे हों ।”

9. अल्पमतों को प्रतिनिधित्व देने हेतु अन्य सन्तोषजनक प्रबन्ध सम्भव – द्वितीय सदन के आलोचकों का मत है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की व्यवस्था आवश्यक नहीं है। अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान में दूसरे उपाय किये जा सकते हैं, जिस तरह भारतीय संविधान में आंग्ल-भारतीय समुदाय, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये गये हैं।

10. संघीय व्यवस्था के लिए अनावश्यक – दलबन्दी के उदय हो जाने के बाद संघीय शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन का होना आवश्यक नहीं रह गया है, क्योंकि द्वितीय सदन के प्रतिनिधि राज्यों के हितों और आवश्यकताओं को दृष्टि में न रखकर अपने दलों के स्वार्थों का ही ध्यान रखते हैं। इस प्रकार वे राज्यों के प्रतिनिधि न बनकर वास्तविक रूप में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि बनकर रह जाते हैं। इस सम्बन्ध में रॉबर्टसन ने लिखा है, “संघ राज्यों की विशेष परिस्थितियों को छोड़कर द्वितीय सदन के पक्ष में कोई मान्य सैद्धान्तिक तर्क नहीं है और उसके | विरुद्ध उठाये गये सैद्धान्तिक तक का अभी समुचित उत्तर नहीं दिया गया है।”

उपर्युक्त तक में सत्य का अंश है, फिर भी अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी है। शायद इसका कारण यह है कि उच्च सदन के निर्माण से बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि द्वितीय सदन पूर्ण जागरूकता के साथ प्रथम सदन द्वारा पारित किये गये विधेयकों पर पुनर्विचार करे तो लोकप्रिय सदन की जल्दबाजी और मनमानी पर उपयोगी एवं आवश्यक प्रतिबन्ध लग सकता है. इसके अतिरिक्त विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिये जाने पर कानून-निर्माण का कार्य अधिक पूर्णता के साथ किये जाने की आशा की जा सकती है। रैम्जे म्योर के अनुसार, “द्वितीय सदन का महत्त्वपूर्ण उपयोग यह है कि उसमें राष्ट्रीय नीति के सामान्य प्रश्नों पर ठण्डे वातावरण में शान्ति के साथ विचार होता है जैसा कि निम्न सदन में असम्भव है। किन्तु यह आवश्यक है कि द्वितीय सदन की रचना में कुछ सुधार हो। जे०एस० मिल के शब्दों में, “यदि एक सदन जनता की सभा हो तो दूसरा सदन राजनीतिज्ञों की सभा हो।’

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प्रश्न 3.
व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर किस प्रकार नियन्त्रण रखती है? विवेचना कीजिए।
या
संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के मध्य उचित सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2007]
या
संसदीय शासन-प्रणाली में व्यवस्थापिका किस प्रकार कार्यपालिका को नियन्त्रित करती है? [2007, 13]
उत्तर
सरकार के तीनों अंगों में व्यवस्थापिका का स्थान महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, क्योंकि व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर ही कार्यपालिका शासन करती है तथा न्यायपालिका न्याय प्रदान करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका शासन का मूलाधार है। इसके अतिरिक्त व्यवस्थापिका जनता द्वारा निर्वाचित संस्था है, यह जन-आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इस कारण भी लोकतन्त्र में इसका बहुत अधिक महत्त्व होना नितान्त स्वाभाविक है।
कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के सम्बन्ध की प्रकृति ही शासन की दो प्रमुख प्रणालियोंसंसदात्मक (Parliamentary) प्रणाली और अध्यक्षात्मक (Presidential) प्रणाली में भेद स्थापित करती है। संसदात्मक प्रणाली में कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के मध्य सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ होता है।

कार्यपालिका को व्यवस्थापिका की एक समिति कहा जा सकता है। अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका सिद्धान्त रूप में सर्वथा एक-दूसरे से अलग होते हैं, परन्तु शासने की आवश्यकताएँ इन्हें पूर्णरूपेण पृथकू नहीं रहने देती हैं। इस प्रकार व्यवहार रूप में दोनों एक-दूसरे को नियन्त्रित और मर्यादित करती हैं। प्रत्येक राज्य में कार्यपालिका को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कुछ विधायी कार्य करने पड़ते हैं और व्यवस्थापिका को कुछ कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य करने पड़ते हैं। कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के सम्बन्ध का अध्ययन दो रूपों में किया जा सकता है-

  1. कार्यपालिका की विधायी शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण।
  2. व्यवस्थापिका की प्रशासनिक शक्तियाँ और उसका कार्यपालिका पर नियन्त्रण।

1. कार्यपालिका की विधायी शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण- कार्यपालिका कई प्रकार से विधायी अर्थात् कानून- निर्माण सम्बन्धी कार्यों में भाग लेती है। संसदीय शासन-प्रणाली वाले देशों में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका का अधिवेशन बुलाने, उसको स्थगित करने तथा समाप्त करने का अधिकार होता है। वह निम्न सदन को भंग करके नये चुनाव के लिए आदेश दे सकती है, परन्तु अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली वाले देशों में कार्यपालिका व्यवस्थापिका को समय-समय पर देश की कानून सम्बन्धी आवश्यकताओं से अवगत कराती रहती है और उसका उचित नेतृत्व और पथ-प्रदर्शन करती है। कार्यपालिका समस्त विधेयकों का प्रारूप (Draft) तैयार करती है और व्यवस्थापिका में उन्हें प्रस्तुत करती है तथा विपक्ष की आलोचनाओं को सहन करती हुई पारित कराती है। अध्यक्षात्मक प्रणाली में कार्यपालिका अप्रत्यक्ष रूप से विधायी कार्य को प्रभावित करती है। दूसरे शब्दों में, इस प्रणाली में राष्ट्रपति को केवल सन्देशों के माध्यम से ही व्यवस्थापिका का ध्यान आलोचनाओं की ओर आकर्षित करने का अधिकार होता है। अमेरिका के राष्ट्रपति को व्यवस्थापिका (काँग्रेस) को सन्देश भेजने का अधिकार है।

संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक दोनों प्रकार की प्रणालियों में कार्यपालिका को अध्यादेश जारी करने तथा व्यवस्थापिका द्वारा पारित विधेयकों के सम्बन्ध में निषेधाधिकार प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त होता है। ब्रिटेन की संसद सम्राट् के निषेधाधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकती। बहुत-से राज्यों में व्यवस्थापिका बहुमत के आधार पर इसे अस्वीकार कर सकती है। हैमिल्टन के अनुसार, “निषेधाधिकार कार्यपालिका के लिए कवच का काम करता है। कुछ देशों में प्रतिनिध्यात्मक विधायी प्रणाली का प्रयोग किया जाने लगा है, जिसके कारण कार्यपालिका की विधायी शक्तियों को क्षेत्र और अधिक विकसित हो गया है।

2. व्यवस्थापिका की प्रशासनिक शक्तियाँ और उसका व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण – दूसरी ओर कार्यपालिका भी कई प्रकार से व्यवस्थापिका द्वारा नियन्त्रित होती है। संसदीय प्रणाली में यह नियन्त्रण अध्यक्षात्मक प्रणाली की अपेक्षा अधिक होता है। संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका का जीवन व्यवस्थापिका की इच्छा पर निर्भर होता है। दूसरे शब्दों में, कार्यपालिका उस समय तक अपने पद पर बनी रहती है जब तक कि उसे व्यवस्थापिका का विश्वास प्राप्त है। व्यवस्थापिका अविश्वास प्रस्ताव पारित करके, कार्यपालिका के शासन सम्बन्धी आचरण की निन्दा का प्रस्ताव स्वीकृत करके, अनुदान स्वीकार करके अथवा सरकार द्वारा प्रस्तुत किसी प्रस्ताव को अस्वीकृत करके मन्त्रिमण्डल को अपने पद से हटा सकती है। अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली में इस प्रकार के नियन्त्रण उपलब्ध नहीं होते हैं। इसमें कार्यपालिका को नियन्त्रित करने के दूसरे साधन हैं। अमेरिका में लोक सदन (House of Representatives) राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा पद से हटा सकता है। इसी प्रकार सीनेट को कार्यपालिका द्वारा की गयी उच्च नियुक्तियों को स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार है तथा राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक सन्धि के लिए उसकी अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है।

कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के सम्बन्धों के उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों ही एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखती हैं। ऐसी स्थिति में यह अत्यन्त आवश्यक होता है कि इन दोनों के सम्बन्ध परस्पर सहयोगपूर्ण होने चाहिए। यदि पारस्परिक सहयोग नहीं रहेगा तो शासन-कार्य सुचारु रूप से चलना असम्भव हो जायेगा।

प्रश्न 4.
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं? इसके विविध रूपों का वर्णन कीजिए। [2010, 14]
या
कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए। [2011]
या
कार्यपालिका क्या है? आधुनिक काल में इसके बढ़ते हुए महत्त्व के क्या करण हैं? [2007, 11, 13]
या
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2009, 11, 14]
या
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं? कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख कीजिए। वर्तमान समय में कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के कारणों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर
कार्यपालिका सरकार का दूसरा प्रमुख अंग है। इतना ही नहीं, ‘सरकार’ शब्द का आशय कार्यपालिका से ही होता है। कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को क्रियान्वित करती है और उनके आधार पर प्रशासन का संचालन करती है।

गार्नर ने कार्यपालिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “व्यापक एवं सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका के अधीन वे सभी अधिकारी, राज्य-कर्मचारी तथा एजेन्सियाँ आ जाती हैं, जिनका कार्य राज्य की इच्छा को, जिसे व्यवस्थापिका ने व्यक्त कर कानून का रूप दे दिया है, कार्यरूप में परिणत करना है।”
गिलक्रिस्ट के अनुसार, “कार्यपालिका सरकार का वह अंग है, जो कानूनों में निहित जनता की इच्छा को लागू करती है।

कार्यपालिका के विविध रूप (प्रकार)
कार्यपालिका के निम्नलिखित रूप होते हैं-

  1. नाममात्र की कार्यपालिका – ऐसी कार्यपालिका; जिसके अन्तर्गत एक व्यक्ति, जो सिद्धान्त रूप से शासन का प्रधान होता है तथा जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किये जाते हैं, परन्तु वह स्वयं किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं करता; नाममात्र की होती है। ब्रिटेन की सम्राज्ञी तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका हैं।
  2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो वास्तव में कार्यकारिणी की शक्तियों का प्रयोग करती है। ब्रिटेन, फ्रांस तथा भारत में मन्त्रिपरिषद् वास्तविक कार्यपालिका के उदाहरण हैं।
  3. एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका वह होती है, जिसमें कार्यपालिका की सम्पूर्ण शक्तियाँ एक व्यक्ति के अधिकार में होती हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का उदाहरण है।
  4. बहुल कार्यपालिका – बहुल कार्यपालिका में कार्यकारिणी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर अधिकारियों के समूह में निहित होती है। इस प्रकार की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में है।
  5. पैतृक कार्यपालिका – पैतृक कार्यपालिका उस कार्यपालिका को कहते हैं, जिसके प्रधान का पद पैतृक अथवा वंश-परम्परा के आधार पर होता है। ऐसी कार्यपालिका ग्रेट ब्रिटेन में है।
  6. निर्वाचित कार्यपालिका – जहाँ कार्यपालिका के प्रधान का निर्वाचन किया जाता है, वहाँ निर्वाचित कार्यपालिका होती है। ऐसी कार्यपालिका भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में है।
  7. संसदात्मक कार्यपालिका – इसमें शासन-सम्बन्धी अधिकार मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों में निहित होते हैं। वे व्यवस्थापिका (भारत में संसद) के सदस्यों में से ही चुने जाते हैं और अपनी नीतियों के लिए व्यक्तिगत रूप से तथा सामूहिक रूप से उसी के प्रति उत्तरदायी होते हैं। व्यवस्थापिका मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके उसे पदच्युत कर सकती है। ब्रिटेन तथा भारत में ऐसी ही कार्यपालिका है।
  8. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका – इसमें मुख्य कार्यपालिका व्यवस्थापिका से पृथक् तथा स्वतन्त्र होती है और उसके प्रति उत्तरदायी नहीं होती। संयुक्त राज्य अमेरिका में इसी प्रकार की कार्यपालिका है। वहाँ पर कार्यपालिका का प्रधान राष्ट्रपति होता है, जिसका निर्वाचन चार वर्ष के लिए किया जाता है। इस अवधि के पूर्व महाभियोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रक्रिया द्वारा उसे अपदस्थ नहीं किया जा सकता। वह अपने कार्य के लिए वहाँ की कांग्रेस (व्यवस्थापिका) के प्रति उत्तरदायी नहीं है। वह अपनी सहायता के लिए मन्त्रिमण्डल का निर्माण कर सकता है, परन्तु उनके किसी भी परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

कार्यपालिका के कार्य
कार्यपालिका के कार्य वास्तव में सरकार के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। आधुनिक राज्यों में कार्यपालिका का महत्त्व बढ़ता जा रहा है तथा इसके मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-
1. कानूनों को लागू करना और शान्ति-व्यवस्था बनाये रखना – कार्यपालिका का प्रथम कार्य व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों को राज्य में लागू करना तथा देश में शान्तिव्यवस्था को बनाये रखना होता है। कार्यपालिका का कार्य कानूनों को लागू करना है, चाहे वह कानून अच्छा हो या बुरा। कार्यपालिका देश में शान्ति व कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस आदि का प्रबन्ध भी करती है।

2. नीति-निर्धारण सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्धारण करना है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपनी नीति-निर्धारित करके उसे संसद के समक्ष प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका को अपनी नीतियों को विधानमण्डल के समक्ष प्रस्तुत नहीं करना पड़ता है। वस्तुतः कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक तथा विदेशनीति को निश्चित करती है और उस नीति के आधार पर ही अपना शासन चलाती है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बाँटा जाता है।

3. नियुक्ति सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका को देश का शासन चलाने के लिए अनेक कर्मचारियों की नियुक्ति करनी पड़ती है। प्रशासनिक कर्मचारियों की नियुक्ति अधिकतर प्रतियोगिता परीक्षाओं के आधार पर की जाती है। भारत में राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, राजदूतों, एडवोकेट जनरल, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है। अमेरिका में राष्ट्रपति को उच्चाधिकारियों की नियुक्ति के लिए सीनेट की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अमेरिका का राष्ट्रपति उन सभी कर्मचारियों को हटाने कां अधिकार रखता है, जिन्हें कांग्रेस महाभियोग के द्वारा नहीं हटा सकती।

4. वैदेशिक कार्य – दूसरे देशों से सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। विदेश नीति को कार्यपालिका ही निश्चित करती है तथा दूसरे देशों में अपने राजदूतों को भेजती है और दूसरे देशों के राजदूतों को अपने देश में रहने की स्वीकृति प्रदान करती है। दूसरे देशों से सन्धि या समझौते करने के लिए कार्यपालिका को संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में कार्यपालिका का अध्यक्ष या उसका प्रतिनिधि भाग लेता है।

5. विधि-सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका के पास विधि-सम्बन्धी कुछ शक्तियाँ भी होती हैं। संसदीय सरकार में कार्यपालिका की विधि-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा मन्त्रिमण्डल के सदस्य व्यवस्थापिका के ही सदस्य होते हैं। वे व्यवस्थापिका की बैठकों में , भाग लेते हैं और प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में 95 प्रतिशत प्रस्ताव मन्त्रियों द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं, क्योंकि मन्त्रिमण्डल का व्यवस्थापिका में बहुमत होता है, इसलिए प्रस्ताव आसानी से पारित हो जाते हैं। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के समर्थन के बिना कोई प्रस्ताव – पारित नहीं हो सकता। संसदीय सरकार में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका का अधिवेशन बुलाने का अधिकार भी होता है। जब व्यवस्थापिका का अधिवेशन नहीं हो रहा होता है, उस समय कार्यपालिका को अध्यादेश जारी करने का अधिकार भी प्राप्त होता है।

6. वित्तीय कार्य – राष्ट्रीय वित्त पर व्यवस्थापिका का नियन्त्रण होता है। वित्तीय व्यवस्था बनाये रखने में कार्यपालिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु कार्यपालिका ही बजट तैयार करके उसे व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करती है। कार्यपालिका को व्यवस्थापिका में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण उसे बजट पारित कराने में किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। नये कर लगाने व पुराने कर समाप्त करने के प्रस्ताव भी कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका स्वयं बजट प्रस्तुत नहीं करती, अपितु बजट कार्यपालिका की देख-रेख में ही तैयार किया जाता है। भारत में वित्तमन्त्री बजट प्रस्तुत करता है।

7. न्यायिक कार्य – न्याय करना न्यायपालिका का मुख्य कार्य है, परन्तु कार्यपालिका के पास भी कुछ न्यायिक शक्तियाँ होती हैं। बहुत-से देशों में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। कार्यपालिका के अध्यक्ष को अपराधी के दण्ड को क्षमा करने अथवा कम करने का भी अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है। ब्रिटेन में यह शक्ति सम्राट् के पास है। राजनीतिक अपराधियों को क्षमा करने का अधिकार भी कई देशों में कार्यपालिका को ही प्राप्त है।

8. सैनिक कार्य – देश की बाह्य आक्रमणों से रक्षा के लिए कार्यपालिका अध्यक्ष सेना का अध्यक्ष भी होता है। भारत तथा अमेरिका में राष्ट्रपति अपनी-अपनी सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति (कमाण्डर-इन- चीफ) हैं। सेना के संगठन तथा अनुशासन से सम्बन्धित नियम कार्यपालिका द्वारा ही बनाये जाते हैं। आन्तरिक शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए भी सेना की सहायता ली जा सकती है। सेना के अधिकारियों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा ही की जाती है तथा संकटकालीन स्थिति में कार्यपालिका सैनिक कानून लागू कर सकती है। भारत का राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा कर सकता है।

9. संकटकालीन शक्तियाँ – देश में आन्तरिक संकट अथवा किसी विदेशी आक्रमण की स्थिति में कार्यपालिका का अध्यक्ष संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकटकाल में कार्यपालिका बहुत शक्तिशाली हो जाती है और संकट का सामना करने के लिए अपनी इच्छा से शासन चलाती है।

10. उपाधियाँ तथा सम्मान प्रदान करना – प्रायः सभी देशों की कार्यपालिका के पास विशिष्ट व्यक्तियों को उनकी असाधारण तथा अमूल्य सेवाओं के लिए उपाधियाँ और सम्मान प्रदान करने का अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में यह अधिकार राष्ट्रपति के पास है, जब कि ब्रिटेन में सम्राट् के पास।
कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के कारण

व्यवस्थापिका की शक्ति के कम होने तथा कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि होने के निम्नलिखित कारण हैं-

1. लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा – वर्तमान में सभी देशों में राज्य को लोक कल्याणकारी संस्था माना जाता है। वह जनता की भलाई के अनेक कार्य करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सामाजिक व आर्थिक सुधार, वेतन-निर्धारण आदि इसी के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाता है और जनहित की योजनाएँ क्रियान्वित की जाती हैं। इससे कार्यपालिका का कार्य-क्षेत्र बढ़ जाता है तथा वह व्यापक हो जाती है।

2. दलीय पद्धति – आधुनिक प्रजातन्त्र राजनीतिक दलों के आधार पर संचालित होता है। दलों के आधार पर ही व्यवस्थापिका व कार्यपालिका का संगठन होता है। संसदीय शासन में बहुमत प्राप्त दल ही कार्यपालिका का गठन करता है। दलीय अनुशासन के कारण कार्यपालिका अधिनायकवादी शक्तियाँ ग्रहण कर लेती है और अपने दल के बहुमत के कारण उसे व्यवस्थापिका का भय नहीं रहता है। व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी रहते हुए भी कार्यपालिका शक्तिशाली होती जा रही है। ब्रिटेन में द्विदलीय पद्धति ने भी कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि की है।

3. प्रतिनिधायन – व्यवस्थापिका कार्यों की अधिकतम तथा व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कानूनों के सिद्धान्त तथा रूपरेखा की रचना कर शेष नियम बनाने हेतु कार्यपालिका को सौंप देती है। इससे व्यवहार में कानून बनाने का एक व्यापक क्षेत्र कार्यपालिका को प्राप्त हो जाता है तथा कार्यपालिका की शक्तियों में असाधारण वृद्धि हो जाती है।

4. समस्याओं की जटिलता – वर्तमान में राज्य को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए विशेष ज्ञान, अनुभव व योग्यता की आवश्यकता होती है। व्यवस्थापिका के सामान्य योग्यता के निर्वाचित सदस्य इन समस्याओं के समाधान में असमर्थ रहते हैं। कार्यपालिका ही इन समस्त समस्याओं का समाधान करती है, इसलिए उसकी शक्तियों की वृद्धि का स्वागत किया जाता है।

5. नियोजन – आज का युग नियोजन का युग है। सभी राष्ट्र अपने विकास के लिए नियोजन की प्रक्रिया को अपनाते हैं। योजनाएँ तैयार करना, उन्हें लागू करना तथा उनका मूल्यांकन करना कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होता है। इससे कार्यपालिका का व्यापक क्षेत्र में आधिपत्य हो जाता है।

6. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा विदेशी व्यापार – आधुनिक युग में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तथा युद्ध एवं शान्ति के प्रश्न अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। ये कार्यपालिका द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार विदेशी व्यापार, विदेशी सहायता तथा विदेशी पूँजी या विदेशों में पूँजी से सम्बन्धित कार्यों को कार्यपालिका द्वारा सम्पादित करना एक सामान्य प्रक्रिया है। इनसे कार्यपालिका का महत्त्व सरकार के अन्य अंगों से अधिक हो गया है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में साम्यवाद के प्रचार तथा प्रसार को रोकने के लिए अमेरिकी कांग्रेस द्वारा राष्ट्रपति को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इससे राष्ट्रपति की शक्तियों में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गई है।

7. कार्यपालिका को व्यवस्थापिका के विघटन का अधिकार – वर्तमान में संसदीय शासन में व्यवस्थापिका को विघटित करने का कार्यपालिका को पूर्ण अधिकार है। मन्त्रिमण्डल की इस शक्ति के कारण कार्यपालिकों का व्यवस्थापिका पर आधिपत्य हो गया है। अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका व्यवस्थापिका को पदच्युत नहीं कर सकती। इस कारण व्यवस्थापिका शक्तिशाली ही बनी रहती है।
आधुनिक युग की प्रवृत्ति कार्यपालिका शक्ति के निरन्तर विस्तार की ओर अग्रसर है। लिप्सन के शब्दों में, “मतदाता द्वारा राज्य को सौंपा गया प्रत्येक नया कर्तव्य और शासन द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक अतिरिक्त शक्ति ने कार्यपालिका की सत्ता और महत्त्व में वृद्धि की है।”

कार्यपालिका का महत्त्व
कार्यपालिका शक्ति को प्राथमिक अर्थ है विधानमण्डल द्वारा अधिनियन्त्रित कानूनों का पालन कराना। किन्तु आधुनिक राज्य में यह कार्य उतना साधारण नहीं जितना कि अरस्तू के युग में था। राज्यों के कार्यों में अनेक गुना विस्तार हो जाने के कारण व्यवहार में सभी अवशिष्ट कार्य कार्यपालिका के हाथों में पहुँच गये हैं तथा इसकी महत्ता दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। आज कार्यपालिका प्रशासन की वह शक्ति है जिससे राज्य के सभी कार्य सम्पादित किये जाते हैं।
आज कार्यपालिका का महत्त्व इस कारण भी है कि नीति-निर्धारण तथा उसकी कार्य में परिणति, व्यवस्था बनाये रखना, सामाजिक तथा आर्थिक कल्याण का प्रोन्नयन, विदेश नीति का मार्गदर्शन, राज्य का साधारण प्रशासन चलाना आदि सभी महत्त्वपूर्ण कार्य, कार्यपालिका ही सम्पादित करती है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 5 Organs of Government: Legislature, Executive and Judiciary

प्रश्न 5.
न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007, 11, 14]
या
आधुनिक काल में न्यायपालिका के कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो गई है।” इस कथन के आलोक में न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए। [2016]
या
आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा कीजिए। [2013, 16]
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? इसकी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? [2009, 14]
या
आधुनिक लोकतन्त्र में स्वतन्त्र न्यायपालिका का क्या महत्त्व है? न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए क्या कदम उठाये जाने चाहिए? [2016]
या
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कार्यों एवं उसकी बढ़ती हुई महत्ता की व्याख्या कीजिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने हेतु क्या व्यवस्था की जानी चाहिए? [2007, 09, 10, 12, 13]
या
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में न्यायपालिका के कार्यों तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन कीजिए। [2014]
उत्तर
न्यायपालिका के कार्य
आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यत: निम्नलिखित कार्य करने पड़ते है-

1. न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। कार्यपालिका कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकदमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं तथा उन पर अपना न्यायपूर्ण निर्णय देती है।

2. कानूनों की व्याख्या करना – न्यायपालिका विधानमण्डल में बनाये हुए कानूनों की व्याख्या के साथ-साथ उन कानूनों की व्याख्या भी करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका के द्वारा की गयी कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इन्कार नहीं कर सकता।

3. कानूनों का निर्माण – साधारणतया कानून निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कानून के कई नये अर्थों को जन्म देते हैं, जिससे कानूनों का स्वरूप ही बदल जाता है और एक नये कानून का निर्माण हो जाता है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकदमे भी आते हैं, जहाँ उपलब्ध कानूनों के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं।

4. संविधान का संरक्षण – संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका पर होता है। यदि व्यवस्थापिका कोई ऐसा कानून बनाये, जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायपालिका की इस शक्ति को न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) का नाम दिया गया है। संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त होता है। इसी प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है।

5. संघ का संरक्षण – जिन देशों ने संघात्मक शासन-प्रणाली को अपनाया है, वहाँ न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन-प्रणाली में कई बार केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभिन्न प्रकार के मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं, इनका निर्णय न्यायपालिका द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के कार्य में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के कार्यों में।

6. नागरिक अधिकारों का संरक्षण – लोकतन्त्र को जीवित रखने के लिए नागरिकों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है। यदि इनकी सुरक्षा नहीं की जाती तो कार्यपालिका निरंकुश और तानाशाह बन सकती है। नागरिकों की स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अनेक राज्यों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था का संविधान में उल्लेख कर दिया गया है जिससे उन्हें संविधान और न्यायपालिका को संरक्षण प्राप्त हो सके। इस प्रकार न्यायपालिका का विशेष उत्तरदायित्व होता है कि वह सदैव यह दृष्टि में रखे कि सरकार का कोई अंग इन अधिकारों का अतिक्रमण न कर सके।

7. परामर्श देना – कई देशों में न्यायपालिका कानून सम्बन्धी परामर्श भी देती है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है, परन्तु इस सलाह को मानना या न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर है।

8. प्रशासनिक कार्य – कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासकीय नियन्त्रण रहता है।

9. आज्ञा-पत्र जारी करना – न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे अमुक कार्य नहीं कर सकते और यह किसी कार्य को करवा भी सकती है। यदि वे कार्य न किये जाएँ तो न्यायालय बिना अभियोग चलाये दण्ड दे सकता है अथवा मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड के कार्य – न्यायपालिका कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड का भी कार्य करती है, जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकदमों के निर्णयों तथा सरकार को दिये गये परामर्शो का रिकॉर्ड भी रखना पड़ता है। इन निर्णयों तथा परामर्शों की प्रतियाँ किसी भी समय प्राप्त की जा सकती हैं।

न्यायपालिका का महत्त्व
व्यक्ति एक विचारशील प्राणी है और इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने कुछ विशेष स्वार्थ भी होते हैं। व्यक्ति के विचारों और उसके स्वार्थों में इस प्रकार के भेद होने के कारण उनमें परस्पर संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त शासन-कार्य करते हुए शासक वर्ग ‘अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में सदैव ही एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता रहती है जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवादों को हल कर सके और शासक वर्ग को अपनी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य कर सके। इन कार्यों को करने वाली सत्ता का नाम ही न्यायपालिका है।

राज्य के आदिकाल से लेकर आज तक किसी-न-किसी रूप में न्याय विभाग का अस्तित्व सदैव ही रहा है और सामान्य जनता के दृष्टिकोण से न्यायिक कार्य का सम्पादन सर्वाधिक महत्त्व रखता है। राज्य में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी ही पूर्ण और श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय करने में पक्षपात किया जाता है, अनावश्यक व्यय और विलम्ब होता है। या न्याय विभाग में अन्य किसी प्रकार का दोष है तो जनजीवन नितान्त दु:खपूर्ण हो जाएगा। न्याय विभाग के सम्बन्ध में ब्राइस ने अपनी श्रेष्ठ शब्दावली में कहा है कि न्याय विभाग की कुशलता से बढ़कर सरकार की उत्तमता की दूसरी कोई भी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और चीज से नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता है, जितना कि उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र व अपक्षपाती न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है। वर्तमान समय में तो न्यायपालिका का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है, क्योकि अभियोगों के निर्णय के साथ-साथ न्यायपालिका संविधान की व्याख्या और रक्षा का कार्य भी करती है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनाये रखने हेतु उपाय
स्वतन्त्र न्यायपालिका उत्तम शासन की कसौटी है। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका का संगठन और कार्यविधि ऐसी हो जिससे वह बिना किसी भय और दबाव के स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके। स्वतन्त्र न्यायपालिका बनाये रखने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था होनी चाहिए-

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल – अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल का निर्धारण कार्यपालिका के द्वारा किया जाता है। नियुक्ति का आधार योग्यता और प्रतिभा को बनाया जाता है।

2. न्यायाधीशों का वेतन – न्यायाधीशों को वेतन के रूप में अच्छी धनराशि मिलनी चाहिए। उचित वेतन होने पर ही वे निष्पक्षता और ईमानदारी से काम कर पाएँगे।

3. न्यायाधीशों की पदोन्नति – न्यायाधीशों की पदोन्नति के भी निश्चित नियम होने चाहिए। योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही न्यायाधीशों की पदोन्नति होनी चाहिए। पदोन्नति का अधिकार नियुक्त करने वाली संस्था या कार्यपालिका को न होकर उच्चतम न्यायालय को होना चाहिए।

4. न्यायाधीशों को हटाना – न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। न्यायाधीशों को भ्रष्ट या अयोग्य होने पर ही उनके पद से हटाया जाना चाहिए।

5. न्याय तथा शासन सम्बन्धी कार्यों का विभाजन – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी अनिवार्य है कि शासन तथा न्याय विभाग दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हों। यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका पृथक् नहीं हैं तो न्यायाधीश अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अपनी न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं।

6. न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद देने से अलग रखा जाना – सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी न्यायाधीश को अन्य किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

7. न्यायाधीशों के निर्णयों, कार्यों और चरित्र की अनुचित आलोचना पर प्रतिबन्ध – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों के कार्यकाल में कोई भी उनके वैयक्तिक चरित्र अथवा कार्यों पर टिप्पणी न करे और उनके निर्णयों की आलोचना न करे।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
द्विसदनीय व्यवस्थापिका क्यों आवश्यक है? उसकी उपयोगिता के पक्ष में दो कारण बताइए।
या
द्विसदनात्मक विधानमण्डल (व्यवस्थापिका) की दो विशेषताएँ बताइए। [2009, 10]
या
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2010]
या
व्यवस्थापिका में उच्च सदन होने के चार लाभों का उल्लेख कीजिए।
या
द्विसंसदीय व्यवस्थापिका के लाभ बताइए। [2010, 14]
या
व्यवस्थापिका में दूसरे सदन का होना आवश्यक है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2010]
उत्तर
अधिकांश सभ्य देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका को अपनाया गया है। दूसरा सदन पहले सदन के प्रतिनिधियों द्वारा कानून निर्माण करते समय आवेश, जल्दबाजी व अदूरदर्शिता से काम लेने पर अंकुश लगाता है। अतः दूसरा सदन नियन्त्रक व सुधारक का कार्य करते हुए पहले। सदन के कार्यों की समीक्षा करता है। भारत सहित तमाम देशों में यही व्यवस्था लागू है। एक सदन वाली व्यवस्था कुछ देशों तक सिमटकर रह गई है, जिसमें धर्मप्रधान देश, सर्वाधिकारीवादी सरकारे तथा तानाशाही वाले कुछ राष्ट्र शामिल हैं। दूसरे सदन की आवश्यकता से सम्बन्धित कुछ बिन्दु निम्नलिखित हैं-

  1. यह पहले सदन की जल्दबाजी पर रोक लगाता है।
  2. यह सदन ज्ञानी व अनुभवी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
  3. यह व्यवस्थापिका की कार्यकुशलता को बढ़ाता है।
  4. यह लोकमत को जागरूक करने में सहायक है, जिससे जनता कानूनों के सम्बन्ध में अपनी राये प्रकट कर सकती है।
  5. यह लोकमत को जागरूक करने में सहायक है, जिससे जनता कानूनों के सम्बन्ध में अपनी राय प्रकट कर सकती है।

उपर्युक्त कारणों के आधार पर कहा जा सकता है कि एक सभ्य व प्रजातान्त्रिक राष्ट्र में व्यवस्थापिका में दूसरे सदन का भी होना लाभकारी व आवश्यक है।

द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/लाभ/उपयोगिता
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका की उपयोगिता (गुण/लाभ/) के पक्ष में चार तर्क निम्नलिखित है-

1. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

2. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।

3. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाता है।

4. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एकदूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है कि “दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती हैं।”

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा किन्हीं दो तरीकों का वर्णन कीजिए जिनसे व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर नियन्त्रण स्थापित करती है। [2014]
या
व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण के दो साधन बताइए। [2016]
या
कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखने के लिए विधायिका कौन-से साधन अपनाती है? ऐसे किन्हीं चार साधनों का उल्लेख कीजिए। [2014, 16]
उत्तर
सरकार के तीनों अंगों द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, लेकिन इन तीनों में व्यवस्थापक विभाग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सामान्यतया व्यवस्थापिका निम्नलिखित साधनों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण करती है।

  1. आर्थिक नियन्त्रण – वर्तमान समय में व्यवस्थापिका कानून-निर्माण के साथ-साथ राष्ट्रीय वित्त पर नियन्त्रण करने का कार्य भी करती है। व्यवस्थापिका की स्वीकृति के बिना, कार्यपालिका आय-व्यय से सम्बन्धित कोई कार्य नहीं कर सकती।
  2. प्रशासन सम्बन्धी कार्यों पर नियन्त्रण – संसदात्मक शासन में व्यवस्थापिका प्रश्नों, स्थगन प्रस्तावों, निन्दा प्रस्तावों और अविश्वास प्रस्तावों के माध्यम से कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण रखती है और कार्यपालिका का अस्तित्व व्यवस्थापिका की इच्छा पर निर्भर करता है।
  3. समितियों और आयोगों की नियुक्ति द्वारा नियन्त्रण – विधानमण्डल समय-समय पर किन्हीं विशेष कार्यों की जाँच करने के लिए समितियों और आयोगों की नियुक्ति का कार्य करता है और इनके माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों की छानबीन करता है।
  4. जनभावनाओं की अभिवृद्धि द्वारा नियन्त्रण – लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका एक ऐसा स्थान है जहाँ पर जनता के प्रतिनिधि सरकार (कार्यपालिका) का ध्यान जनता के कष्टों की ओर आकर्षित करते हैं और शासन को जनहित के कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं।

व्यवस्थापिका के दो कार्य
व्यवस्थापिका के दो कार्य निम्नवत हैं-

  1. कानूनों का निर्माण – व्यवस्थापिका का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कानूनों का निर्माण करना है। यह आवश्यकता के अनुसार नए कानून बनाती है, पुराने कानूनों में संशोधन करती है और अनावश्यक कानूनों को रद्द करती है।
  2. संविधान में संशोधन – व्यवस्थापिका को संविधान करने का अधिकार भी प्राप्त होता है। संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की है। इंग्लैण्ड में व्यवस्थापिका (ब्रिटिश संसद) ही सर्वोपरि है। वह साधारण कानूनों के समान ही संविधान में संशोधन कर सकती है। परन्तु संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत में संशोधन की विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है।

प्रश्न 3.
कार्यपालिका के निर्माण (नियुक्ति) की प्रमुख विधियों को लिखिए।
उत्तर
आधुनिक समय में कार्यपालिका की नियुक्ति विभिन्न देशों में अलग-अलग पद्धतियों से की जाती है। इस विषय में निम्नलिखित पद्धतियाँ प्रमुख हैं-

1. वंशानुगत पद्धति – इस पद्धति का सम्बन्ध राजतन्त्रीय शासन से है। इसमें पद की अवधि आजीवन होती है और उत्तराधिकार ज्येष्ठाधिकार कानून द्वारा शासित होता है। प्राचीन व मध्य युग में कार्यपालिका के निर्माण की यह सर्वाधिक प्रचलित पद्धति रही है। यद्यपि वर्तमान समय में यह पद्धति लोकप्रिय नहीं है, किन्तु ब्रिटेन, स्वीडन, डेनमार्क, जापान आदि देशों में नाममात्र की कार्यपालिका की नियुक्ति वंशानुगत पद्धति के आधार पर की जाती है।

2. जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन – कुछ देशों में कार्यपालिका का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। मैक्सिको, ब्राजील, पेरू आदि लैटिन अमेरिकी देशों में राष्ट्रपति को सर्वसाधारण जनता द्वारा ही निर्वाचित किया जाता है।

3. जनता द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन – इस पद्धति में सर्वसाधारण जनता द्वारा एक निर्वाचक मण्डल का निर्वाचन किया जाता है और इस निर्वाचक मण्डल द्वारा कार्यकारिणी का चुनाव किया जाता है। अमेरिका के राष्ट्रपति के निर्वाचन की यही पद्धति है, किन्तु व्यवहार में राष्ट्रपति के चुनाव ने प्रत्यक्ष चुनाव का रूप ग्रहण कर लिया है।

4. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन – इस पद्धति में कार्यपालिका को व्यवस्थापिका द्वारा चुना जाता है। स्विट्जरलैण्ड में कार्यपालिका प्रधान के चुनाव की यही पद्धति है।

5. मनोनयन – संसदात्मक शासन-व्यवस्था वाले देशों में सम्राट् या राष्ट्रपति तो नाममात्र की कार्यपालिका होती है; अत: इन शासन-व्यवस्थाओं में वास्तविक कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिपरिषद् की नियुक्ति का प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। ब्रिटेन में जिस राजनीतिक दल को ‘लोक-सदन’ (House of Commons) में बहुमत प्राप्त होता है, सम्राट् के द्वारा उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता है। इसी व्यक्ति द्वारा साधारणतया अपने ही राजनीतिक दल से सहयोगियों की टीम को चुनकर मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किया जाता है। भारत में इसी पद्धति का अनुसरण किया गया है। वास्तविक कार्यपालिका के निर्माण के सम्बन्ध में यही पद्धति सर्वाधिक सन्तोषजनक पायी गयी है।

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प्रश्न 4.
कार्यपालिका के चार कार्यों का वर्णन कीजिए। [2012]
या
आधुनिक राज्यों में कार्यपालिका के किन्हीं चार कार्यों का समुचित उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 16]
उत्तर
कार्यपालिका के कार्य कार्यपालिका के चार कार्य निम्नवत् हैं-

1. आन्तरिक शासन सम्बन्धी कार्य – प्रत्येक राज्य, राजनीतिक रूप में संगठित समाज है। और इस संगठित समाज की सर्वप्रथम आवश्यकता शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना होता है। तथा यह कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। इसके अतिरिक्त व्यापार और यातायात, शिक्षा और स्वास्थ्य से सम्बन्धित सुविधाओं की व्यवस्था और कृषि पर नियन्त्रण, आदि कार्य भी कार्यपालिका द्वारा ही किये जाते हैं।

2. सैनिक कार्य – सामान्यतया राज्य की कार्यपालिका का प्रधान सेनाओं के सभी अंगों (स्थल, जल और वायु) के प्रधान के रूप में कार्य करता है और विदेशी आक्रमण से देश की रक्षा करना कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। अपने इस कार्य के अन्तर्गत कार्यपालिका आवश्यकतानुसार युद्ध अथवा शान्ति की घोषणा कर सकती है।

3. विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य – कार्यपालिका के विधि-निर्माण सम्बन्धी कार्य बहुत कुछ सीमा तक शासन-व्यवस्था के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। सभी प्रकार की शासन-व्यवस्थाओं में कार्यपालिका को विधानमण्डल का अधिवेशन बुलाने और स्थगित करने का अधिकार होता है। संसदात्मक शासन में तो कार्यपालिका विधि-निर्माण के क्षेत्र में व्यवस्थापिका का नेतृत्व करती है और विशेष परिस्थितियों में लोकप्रिय सदन को भंग करते हुए नव-निर्वाचन का आदेश दे सकती है। वर्तमान समय में तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि कार्यपालिका ही व्यवस्थापिका की स्वीकृति से कानूनों का निर्माण करती है।

4. वित्तीय कार्य – यद्यपि वार्षिक बजट स्वीकृत करने का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है, किन्तु इस बजट का प्रारूप तैयार करने का कार्य कार्यपालिका ही कर सकती है। कार्यपालिका का वित्त विभाग आय के विभिन्न साधनों द्वारा प्राप्त आय के उपभोग पर विचार करता है।

प्रश्न 5.
कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि के चार कारण दीजिए।
या
आधुनिक लोकतन्त्र में कार्यपालिका के बढ़ते हुए प्रभाव के चार कारण लिखिए। [2009, 14]
उत्तर
कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं|

1. साधारण योग्यता के व्यक्तियों का चुनाव – व्यवस्थापिका के सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर चुने जाते हैं और अधिक योग्यता वाले व्यक्ति चुनाव के पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। अत: बहुत कम योग्यता वाले व्यक्ति और पेशेवर राजनीतिज्ञ व्यवस्थापिका में चुनकर आ जाते हैं। ये कम योग्य व्यक्ति अपने कार्यों व आचरण से व्यवस्थापिका की गरिमा को कम करते हैं।

2. जनकल्याणकारी राज्य की धारणा – वर्तमान समय में जनकल्याणकारी राज्य की धारणा के कारण राज्य के कार्य बहुत अधिक बढ़ गये हैं और इन बढ़े हुए कार्यों को कार्यपालिका द्वारा ही किया जा सकता है। अतः व्यवस्थापिका की शक्तियों में निरन्तर कमी और कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि होती जा रही है।

3. दलीय पद्धति – दलीय पद्धति के विकास ने भी व्यवस्थापिका की शक्ति में कमी और कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि कर दी है। संसदात्मक लोकतन्त्र में बहुमत दल के समर्थन पर टिकी हुई कार्यपालिका बहुत अधिक शक्तियाँ प्राप्त कर लेती है।

4. प्रदत्त व्यवस्थापन – वर्तमान समय में कानून निर्माण का कार्य बहुत अधिक बढ़ जाने और इस कार्य के जटिल हो जाने के कारण व्यवस्थापिका के द्वारा अपनी ही इच्छा से कानून निर्माण की शक्ति कार्यपालिका के विभिन्न विभागों को सौंप दी जाती है। इसे ही प्रदत्त व्यवस्थापन कहते हैं और इसके कारण व्यवस्थापिका की शक्तियों में कमी तथा कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि हो गयी है।

प्रश्न 6.
लोकतन्त्र में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के दो उपायों का उल्लेख कीजिए। [2007, 10]
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के दो उपाय लिखिए। [2016]
उत्तर
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और उसके द्वारा विविध प्रकार के कार्य किये जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्त्तव्यपालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। सीधे-सादे शब्दों में इसका आशय यह है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल, किसी वर्ग विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करे।
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के दो उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. न्यायाधीश की योग्यता – न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को दिया जाए जिनकी व्यावसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। राज्य-व्यवस्था के संचालन में न्यायाधिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्त्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्त्व को नष्ट कर देंगे।
  2. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सत्ता अभियोक्ता और साथ-ही-साथ न्यायाधीश होने पर स्वतन्त्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 7.
न्यायपालिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के पक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
लोकतन्त्रात्मक शासन में स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए। [2010, 14]
उत्तर
किसी लोकतन्त्रात्मक शासन में एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका सर्वथा अनिवार्य है। इसे आधुनिक और प्रगतिशील संविधानों एवं शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्षण माना जाता है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है।

1. लोकतन्त्र की रक्षा हेतु – लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानता हैं। नागरिकों की स्वतन्त्रता और कानून की दृष्टि से व्यक्तियों की समानता—इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्वतन्त्र न्यायपालिका को ‘लोकतन्त्र का प्राण’ कहा जाता है।

2. संविधान की रक्षा हेतु – आधुनिक युग के राज्यों में संविधान की सर्वोच्चता का विचार प्रचलित है। संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है। न्यायपालिका द्वारा इस दायित्व का भली-भाँति निर्वाह उस समय ही सम्भव है, जब न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो। स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की धाराओं की स्पष्ट व्याख्या करती है तथा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के उन कार्यों को जो संविधान के विरुद्ध होते हैं, अवैध घोषित कर देती है। इस प्रकार स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है।

3. न्याय की रक्षा हेतु – न्यायपालिका का प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका यह कार्य तभी ठीक प्रकार से कर सकती है, जबकि वह निष्पक्ष और स्वतन्त्र हो तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व अन्य कारणों की अपेक्षा नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अधिक है। इसके लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र और निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है।

न्यायपालिका के दो कार्य न्यायपालिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं-

1. कानूनों की व्याख्या करना – कानूनों की भाषा सदैव स्पष्ट नहीं होती है और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रत्येक परिस्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका ही करती है। न्यायालयों द्वारा की गयी इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानून के समान ही होती है।

2. लेख जारी करना  – सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है तो न्यायालय उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है। इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध आदि लेख प्रमुख हैं।

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प्रश्न 8.
‘न्यायिक सक्रियतावाद’ से क्या आशय है?
या
‘न्यायिक सक्रियतावाद’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
न्यायिक सक्रियतावाद का आशय है- “संविधान, कानून और अपने दायित्वों के प्रसंग में कानूनी व्याख्या से आगे बढ़कर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों और सामाजिक-आर्थिक न्याय की आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए संविधान और कानून की रचनात्मक व्याख्या करते हुए न्यायपालिका का जनसाधारण के हितों की रक्षा के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना।”
न्यायिक सक्रियतावाद के विविध रूप और मान्यताएँ इस प्रकार हैं-

  1. जनहितकारी अभियोगों को मान्यता।
  2. कानूनी-न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल।
  3. न्यायपालिका को शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण का अधिकार है।
  4. न्यायपालिका शासन को आवश्यक निर्देश दे सकती है।

न्यायिक सक्रियतावाद के आधार पर न्यायपालिका ने सम्बद्ध देशों की समस्त राजव्यवस्था में बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति प्राप्त कर ली है।
न्यायपालिका द्वारा अपनाई गई न्यायिक सक्रियतावाद की यह स्थिति बहुत अधिक विवाद का विषय बनी हुई है। आलोचकों का कहना है कि न्यायपालिका ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ के आधार पर ‘व्यवस्थापिका के तीसरे सदन’ की भूमिका निभाने की चेष्टा कर रही है। कुछ अन्य इसे एक तरह की न्यायिक तानाशाही’ कहते हैं। ये आलोचनाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण होते हुए भी इनमें ‘सत्य के अंश हो सकते हैं, लेकिन स्थिति का दूसरा पक्ष यह है कि जब केन्द्रीय और राज्य स्तर की विधायी और कार्यपालिका संस्थाएँ अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं रहीं, तब न्यायपालिका ने परिस्थितियों से प्रेरित और बाध्य होकर ही न्यायिक सक्रियता की स्थिति को अपनाया है। इस प्रकार आज की स्थिति के लिए स्वयं न्यायपालिका उत्तरदायी नहीं है। न्यायपालिका ने अपनी इस भूमिका के आधार पर जनता में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रति विश्वास को बनाए रखा है और सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों के प्रहरी की भूमिका निभाई है।
न्यायिक सक्रियता के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भी यह मानना होगा कि न्यायिक सक्रियता मात्र एक अस्थायी स्थिति ही हो सकती हैं। एक ऐसी लक्ष्मण रेखा अंकित करने की आवश्यकता है जिससे न्यायपालिका व्यवस्थापिका या कार्यपालिका के दायित्वों को न हथिया ले।’

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
द्वि-सदनात्मकवाद (द्वि-सदन-पद्धति) का अर्थ बताइए। (2013)
उत्तर
द्वि-सदनात्मक प्रणाली ऐतिहासिक विकास तथा संयोग का परिणाम है। यह व्यवस्था ब्रिटिश संवैधानिक विकास की देन है। इंग्लैण्ड की संसद जो विश्व की सबसे प्राचीन संसद है, संयोग से द्वि-सदनात्मक हो गई है। अन्य प्रजातान्त्रिक देशों में भी ब्रिटिश परम्परा का अनुसरण किया गया। पोलस्की के शब्दों में, “यह केवल ऐतिहासिक संयोग की बात है। कि इंग्लैण्ड की व्यवस्थापिका द्वि-सदनात्मक थी और उसी का अनुसरण अन्य देशों में भी किया गया। विलोबी ने कहा है-“यदि ब्रिटिश संसद द्वि-सदनात्मक न होती तो शायद संसार के विधानमण्डल भी द्वि-सदनात्मक नहीं होते।” आज सभी बड़े प्रजातान्त्रिक राज्यों में व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं। एक सदन को उच्च सदन या द्वितीय सदन और दूसरे सदन को निम्न या प्रथम सदन कहते हैं।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका का महत्त्व लिखिए। [2007]
उत्तर
व्यवस्थापिका का महत्त्व
सरकार के सभी अंगों में व्यवस्थापिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। गार्नर के अनुसार-“राज्य की इच्छा जिन अंगों द्वारा व्यक्त होती है, उनमें व्यवस्थापिका का स्थान नि:सन्देह सर्वोच्च है।” गिलक्रिस्ट का कथन है—“व्यवस्थापिका शक्ति का अधिक भाग है।” वास्तव में व्यवस्थापिका यदि अपने कार्यों को सम्पादित न करे, तो कार्यपालिका और न्यायपालिका भी अपना दायित्व पूरा नहीं कर सकती हैं। व्यवस्थापिका केवल कानूनों का निर्माण ही नहीं करती है, वरन् प्रशासन से सम्बन्धित नीतियों का निर्धारण भी करती है तथा कार्यपालिका की शक्ति पर भी नियन्त्रण स्थापित करती है। संसदात्मक शासन प्रणाली में व्यवस्थापिका के कार्यों में अधिक वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 3.
एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के दो लाभ स्पष्ट कीजिए।
या
एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दो गुण बताइए।
या
“एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका में जहाँ धन व समय की बचत होती है वहीं कार्य में गतिरोध भी कम आता है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका वाले देशों में व्यवस्थापन-कार्य में धन और समय की पर्याप्त बचत हो जाती है, क्योंकि एक ही सदन होने से विधेयक को दूसरे सदन में भेजने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इससे दूसरे सदन में होने वाली समय और धन की बर्बादी को रोका जा सकता है। लॉर्ड ब्राइस के शब्दों में, “यदि द्वितीय सदन प्रथम सदन का विरोध करता है तो अहितकर है और यदि वह उसके साथ सहयोग करता है तो अनावश्यक है।

प्रश्न 4.
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर
कार्यपालिका के विभिन्न प्रकार कार्यपालिका के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं-

1. नाममात्र की कार्यपालिका – वह व्यक्ति जो सैद्धान्तिक रूप से शासन का प्रधान है तथा जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किए जाते हैं एवं स्वयं किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं करता, नाममात्र का कार्यपालक प्रधान होता है और इस प्रकार की कार्यपालिका नाममात्र की कार्यपालिका होती है। उदाहरणार्थ इंग्लैण्ड का सम्राट तथा भारत का राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका हैं। नाममात्र की कार्यपालिका के अधिकारों के प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती है तथा वास्तविक कार्यकारिणी की शक्तियाँ मन्त्रिपरिषद् में निहित होती है।

2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका उसे कहते हैं, जो वास्तव में कार्यकारिणी की शक्तियों का प्रयोग करती है। इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा भारत की मन्त्रिपरिषद् वास्तविक कार्यपालिका का उदाहरण हैं।

3. एकल कार्यपालिका – एकल कार्यपालिका उसे कहते हैं, जिसमें कार्यपालिका की सम्पूर्ण शक्तियाँ एक व्यक्ति के अधिकार में होती हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका का ही उदाहरण है।

4. बहुल कार्यपालिका – इस प्रकार की कार्यपालिका में कार्यकारिणी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर अनेक अधिकारियों के समूह में निहित होती है। इस प्रकार की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में है। वहाँ कार्यपालिका-सत्ता सात सदस्यों की एक परिषद् में निहित होती है।

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प्रश्न 5.
न्यायिक समीक्षा क्या है? [2016]
उत्तर
न्यायिक समीक्षा का अर्थ
न्यायिक समीक्षा का अर्थ है-एक कानून या आदेश की समीक्षा और वैधता निर्धारित करने के लिए न्यायपालिका की शक्ति को प्रदर्शित करना। विधायी कार्यों की न्यायिक समीक्षा का अर्थ वह शक्ति है जो विधायिका द्वारा पारित कानून को संविधान में निहित प्रावधानों और विशेषकर संविधान के भाग-3 के अनुसार सुनिश्चित करती है। निर्णयों की न्यायिक समीक्षा के मामले में, उदाहरण के लिए जब एक कानून को इस आधार पर चुनौती दी गयी कि इसे बिना किसी प्राधिकरण या अधिकार से विधायिका द्वारा पारित किया गया है, विधायिका द्वारा पारित किया गया कानून वैध है। या नहीं, इसके बारे में फैसला लेने का अधिकार अदालत के पास सुरक्षित होता है। इसके अलावा हमारे देश में किसी भी विधायिका के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वे अदालतों द्वारा दिए गए निर्णय की अवज्ञा या उपेक्षा कर सकें।
अदालतों के पास न्यायिक समीक्षा की व्यापक शक्तियाँ हैं। इन शक्तियों का बड़ी सावधानी और नियन्त्रण के साथ प्रयोग किया जाता है। इन शक्तियों की निम्न सीमाएँ हैं-

  1. इसके पास केवल निर्णय तक पहुँचने में प्रक्रिया का सही ढंग से पालन किया गया है या नहीं देखने की ही अनुमति होती है, लेकिन स्वयं निर्णय लेने की अनुमति नहीं होती है।
  2. इसे केवल हमारे सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय जैसी अदालतों को सौंपा जाता है।
  3. जब तक बिल्कुल जरूरी न हो तब तक नीतिगत मामलों और राजनीतिक सवालों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
  4. एक बार कानून के पारित होने पर यह स्थिति बदलने के साथ असंवैधानिक हो सकता है। यह शायद कानून प्रणाली में खालीपन पैदा कर सकती है। इसलिए यह कहा जा सकता है। कि अदालत द्वारा दिए गए निर्देश तभी बाध्यकारी होंगे जब तक कानून अधिनियमित नहीं हो जाते हैं अर्थात् यह प्राकृतिक रूप से अस्थायी है।
  5. यह कानून की व्याख्या और उसे अमान्य कर सकता है, लेकिन खुद कानून नहीं बना सकता है।

प्रश्न 6.
कार्यपालिका और न्यायपालिका में सम्बन्ध बताइए।
उत्तर
लोकतन्त्र की सफलता के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रहना आवश्यक माना जाता है, परन्तु व्यवहार में इनका पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ठ होता है। क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका में निहित होता है। इन दोनों का सम्बन्ध निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के प्रधान द्वारा ही की जाती है।
  2. कार्यपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करती है और न्यायपालिका कानूनों का उल्लंघन करने वालों को दण्डित करती है तथा शक्ति का अतिक्रमण करने से कार्यपालिका को रोकती है।
  3. न्यायपालिका के दण्डात्मक निर्णयों का कार्यान्वयन कार्यपालिका ही करती है।
  4. न्यायपालिका कार्यपालिका के भ्रष्ट कर्मचारियों को भी दण्डित करने का अधिकार रखती है। तथा कर्तव्यविमुख होने की अवस्था में किसी भी विभाग के विभागाध्यक्ष से आख्या माँग सकती है तथा तत्सम्बन्धित आदेश दे सकती है।
  5. न्यायपालिका के निर्णयों की आलोचना करने का अधिकार कार्यपालिका को नहीं है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
सरकार के शक्ति-विभाजन की उपयोगिता बताइए।
उत्तर
इसमें नागरिक निरंकुश नहीं हो पाता तथा शासन में सुगमता व कार्यकुशलता की वृद्धि होती है।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के चार कार्य बताइए। या व्यवस्थापिका के दो कार्य बताइए। [2013]
उत्तर

  1. कानूनों का निर्माण करना,
  2. संविधान में संशोधन करना,
  3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना तथा
  4. वित्तीय कार्य करना।

प्रश्न 3.
भारत में कितने सदनों वाली व्यवस्थापिका है ?
उत्तर
भारत में दो सदनों वाली व्यवस्थापिका है।

प्रश्न 4.
एक-सदनीय व्यवस्थापिका के दो गुण बताइए। [2010]
उत्तर

  1. प्रबल उत्तरदायित्व की भावना तथा
  2. समय और धन की बचत।

प्रश्न 5.
एक-सदनीय व्यवस्थापिका के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. सदन के निरंकुश होने की आशंका तथा
  2. राज्यों के उचित प्रतिनिधित्व का अभाव।

प्रश्न 6.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2014]
उत्तर

  1. द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक लगाता है।
  2. द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के कार्य में परिपक्वता उत्पन्न होती है।

प्रश्न 7.
द्वि-सदनात्मक विधानमण्डल (व्यवस्थापिका) की दो मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर

  1. इस व्यवस्था में दोनों सदन एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं।
  2. इस व्यवस्था में अल्पसंख्यकों तथा विशिष्ट हित को भी समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है।

प्रश्न 8.
द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के दो दोष लिखिए। [2012]
उत्तर

  1. दोनों सदनों के बीच प्रायः टकराव की सम्भावना बनी रहती है।
  2. राज्य के व्यय में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 9.
द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के दो लाभ बताइए।
उत्तर

  1. प्रथम सदन की निरंकुशता पर नियन्त्रण तथा
  2. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन।

प्रश्न 10.
सरकार का कौन-सा अंग वार्षिक बजट पास करने का कार्य करता है ?
उत्तर
व्यवस्थापिका।

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प्रश्न 11.
भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका का नाम क्या है?
उत्तर
भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका का नाम ‘संसद है।

प्रश्न 12.
व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका को नियन्त्रित करने का एक साधन लिखिए।
उत्तर
‘काम रोको प्रस्ताव रखकर।

प्रश्न 13.
सरकार के तीनों अंगों के नाम लिखिए। (2010)
उत्तर

  1. व्यवस्थापिका
  2. कार्यपालिका तथा
  3. न्यायपालिका।

प्रश्न 14.
कार्यपालिका के दो प्रमुख कार्य बताइए। [2008, 11, 16]
उत्तर

  1. कार्यपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों को कार्यान्वित करती है तथा
  2. विदेश नीति का संचालन करती है।

प्रश्न 15
कार्यपालिका की नियुक्ति की दो विधियाँ बताइए।
उत्तर

  1. निर्वाचन पद्धति तथा
  2. वंशानुगत पद्धति।

प्रश्न 16.
किन देशों में व्यवस्थापिका के दोनों सदनों द्वारा कार्यपालिका के अध्यक्ष या समिति का चुनाव होता है?
उत्तर
स्विट्जरलैण्ड, यूगोस्लाविया और तुर्की।

प्रश्न 17.
किन देशों में कार्यपालिका के अध्यक्ष का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं के मतों द्वारा होता है?
उत्तर
फ्रांस, ब्राजील, चिली, पेरू, मैक्सिको, घाना आदि।

प्रश्न 18.
भारत में राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है?
उत्तर
भारत में राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से किया जाता है। एक निर्वाचन मण्डल के सदस्य राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।

प्रश्न 19.
अध्यक्षात्मक शासन में राष्ट्रपति विधि-निर्माण को कैसे प्रभावित कर सकता है?
उत्तर
अध्यक्षात्मक शासन में राष्ट्रपति व्यवस्थापिका को सन्देश भेजकर और ‘विलम्ब निषेधाधिकार का प्रयोग करके सीमित रूप से विधि-निर्माण को प्रभावित कर सकता है।

प्रश्न 20.
कार्यपालिका का एक न्यायिक कार्य बताइए।
उत्तर
प्रशासनिक विभाग द्वारा अर्थदण्ड देना, कार्यपालिका का एक न्यायिक कार्य है।

प्रश्न 21.
नाममात्र की कार्यपालिका का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर
भारत का राष्ट्रपति व ब्रिटेन की सम्राज्ञी नाममात्र की कार्यपालिका के उदाहरण हैं।

प्रश्न 22.
बहुल कार्यपालिका का एक लक्षण बताइए।
उत्तर
इस व्यवस्था में कार्यकारिणी सम्बन्धी शक्तियाँ एक व्यक्ति के हाथों में निहित न होकर अनेक व्यक्तियों की एक परिषद् अथवा अनेक अधिकारियों के समूह में निहित होती हैं।

प्रश्न 23.
कार्यपालिका के किन्हीं दो रूपों का उल्लेख कीजिए। [2010]
उत्तर

  1. एकल कार्यपालिका तथा
  2. बहुल कार्यपालिका।

प्रश्न 24.
न्यायाधीशों की नियुक्ति की विधियाँ लिखिए।
उत्तर

  1. जनता द्वारा निर्वाचन,
  2. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन तथा
  3. कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति।

प्रश्न 25.
ऐसे एक देश का नाम लिखिए जहाँ न्यायपालिका निर्वाचित होती है।
उत्तर
स्विट्जरलैण्ड ऐसा देश है जहाँ न्यायपालिका निर्वाचित होती है।

प्रश्न 26.
न्यायपालिका के दो कार्य बताइए। [2011, 12, 15]
उत्तर
न्यायपालिका के दो कार्य हैं-

  1. कानूनों की व्याख्या करना तथा निर्णय देना एवं
  2. मौलिक अधिकारों की रक्षा करना।

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प्रश्न 27.
न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता बनाये रखने के दो उपाय बताइए।
उत्तर

  1. योग्य व प्रतिभावान न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ तथा
  2. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण।

प्रश्न 28.
एक आदर्श न्यायाधीश के दो प्रमुख गुण लिखिए। [2016]
उत्तर

  1. निष्पक्षता तथा
  2. कानूनों का पूर्ण ज्ञान।

प्रश्न 29.
स्वतन्त्र न्यायपालिका के दो गुणों का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर

  1. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति तथा
  2. नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की रक्षा।

प्रश्न 30.
शक्ति-पृथक्करण के सिद्धान्त का प्रतिपादक कौन था? [2015]
उत्तर
मॉण्टेस्क्यू शक्ति-पृथक्करण सिद्धान्त का प्रतिपादक व समर्थक है।

प्रश्न 31.
किस प्रकार की शासन प्रणाली में नाममात्र की और वास्तविक कार्यपालिका होती [2012]
उत्तर
संसदात्मक शासन प्रणाली में।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. किस देश में उच्च सदन का गठन वंश-परम्परा के आधार पर होता है ?
(क) इटली में
(ख) जापान में
(ग) इंग्लैण्ड में
(घ) कनाडा में

2. किस देश में उच्च सदन के सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते हैं ?
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) भारत में
(ग) अमेरिका में
(घ) कनाडा में

3. भारत में उपराष्ट्रपति का चुनाव करते हैं-
(क) सभी मतदाती ।
(ख) विभिन्न राज्यों के विधानसभा-सदस्य
(ग) निर्वाचन मण्डल
(घ) संसद के दोनों सदन

4. व्यवस्थापिका का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है- [2011, 13, 15, 16]
(क) कानून बनवाना
(ख) कार्यपालिका पर नियन्त्रण
(ग) संविधान संशोधन
(घ) बजट पास करना

5. सरकार के अंगों की संख्या कितनी है?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार

6. व्यवस्थापिका का कार्य नहीं है- [2015]
(क) कानून बनाना
(ख) बजट पास करना
(ग) कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना
(घ) बजट बनाना

7. प्रत्यायोजित व्यवस्थापन में निम्नलिखित में से किसके अधिकारों की वृद्धि होती है? [2011, 14]
(क) व्यवस्थापिका
(ख) कार्यपालिका
(ग) न्यायपालिका
(घ) राष्ट्रपति

8. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है-
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) चीन में
(ग) जापान में
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका में

9. नाममात्र की कार्यपालिका है-
(क) संयुक्त राज्य अमेरिका में
(ख) फ्रांस में
(ग) पाकिस्तान में
(घ) इंग्लैण्ड में

10. बहुलवादी कार्यपालिका का उदाहरण है-
(क) भारत
(ख) चीन
(ग) स्पेन
(घ) स्विट्जरलैण्ड

11. नाममात्र की और वास्तविक कार्यपालिका में अन्तर किस सरकार का लक्षण है?
(क) संसदात्मक
(ख) अध्यक्षात्मक
(ग) राजतन्त्र
(घ) संघात्मक

12. कार्यपालिका का कार्यकाल किस सरकार में निश्चित होता है?
(क) संघात्मक
(ख) अध्यक्षात्मक
(ग) संसदात्मक
(घ) एकात्मक

13. कार्यपालिका का कार्य है- [2007]
(क) कानून बनाना
(ख) विधानसभा के अध्यक्ष का चुनाव करना
(ग) बजट पारित करना
(घ) प्रशासन चलाना या विधि को लागू करना

14. न्यायपालिका का अर्थ है- [2008, 09, 11, 12, 13, 14]
(क) प्रशासन चलाना
(ख) कानून बनाना
(ग) सुरक्षा प्रदान करना
(घ) संविधान की रक्षा करना

15. न्यायपालिका का प्रमुख कार्य है- [2012, 15]
(क) कानूनों का निर्माण करना
(ख) कानूनों को लागू करना।
(ग) कानूनों की व्याख्या करना
(घ) अच्छे कानूनों के लिए सलाह देना

16. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता महत्त्वपूर्ण है-
(क) लोकतन्त्र की रक्षा हेतु
(ख) देश की शान्ति हेतु
(ग) देश की बाहरी सुरक्षा हेतु
(घ) देश की प्रगति हेतु

17. सर्वप्रथम किस देश में न्यायाधीशों का निर्वाचन जनसाधारण द्वारा किया गया?
(क) इंग्लैण्ड में
(ख) जर्मनी में
(ग) भारत में
(घ) फ्रांस में

18. संघात्मक शासन में केन्द्र एवं राज्यों के मध्य संवैधानिक विवादों के समाधान की जिम्मेदारी किस पर है?
(क) संसद
(ख) राष्ट्रपति
(ग) न्यायपालिका
(घ) प्रधानमन्त्री

19. न्यायपालिका का निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य नहीं है? [2008, 12]
(क) संविधान की रक्षा करना
(ख) मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करना।
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन
(घ) कानूनों का कार्यान्वयन करना

20. निम्नलिखित में से कौन-सा सरकार का अंग नहीं है? [2011]
(क) कार्यपालिका
(ख) व्यवस्थापिका
(ग) लोकमत
(घ) न्यायपालिका

21. निम्नलिखित में से कौन-सा सरकार का आवश्यक अंग है? [2011, 13, 14, 15]
(क) राजनीतिक दल
(ख) न्यायपालिका
(ग) जनमत
(घ) निर्वाचन आयोग

उत्तर

  1. (ग) इंग्लैण्ड में,
  2. (घ) कनाड़ा में,
  3. (घ) संसद के दोनों सदन,
  4. (क) कानून बनवाना,
  5. (ग) तीन,
  6. (घ) बजट बनाना,
  7. (घ) राष्ट्रपति,
  8. (घ) संयुक्त राज्य अमेरिका में,
  9. (घ) इंग्लैण्ड में,
  10. (घ) स्विट्जरलैण्ड,
  11. (क) संसदात्मक,
  12. (ख) अध्यक्षात्मक,
  13. (घ) प्रशासन चलाना या विधि को लागू करना,
  14. (घ) संविधान की रक्षा करना,
  15. (ग) कानूनों की व्याख्या करना,
  16. (क) लोकतन्त्र की रक्षा हेतु,
  17. (घ) फ्रांस में,
  18. (ग) न्यायपालिका,
  19. (घ) कानूनों का कार्यान्वयन करना,
  20. (ग) लोकमत,
  21. (ख) न्यायपालिका

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 13
Chapter Name Indian National Movement
(1885-1919 AD)
(भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन
(1885-1919 ई०)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD) (भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1919 ई०)

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में गोपालकृष्ण गोखले की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उतर:
गोपालकृष्ण गोखले कांग्रेस के उदारवादी नेता थे। जब से वे कांग्रेस में आये, मृत्युपर्यन्त अपनी विद्वता, नीतिमत्ता, ज्ञान और सात्विक स्वभाव के कारण उस पर छाए रहे। गाँधी जी के राजनीतिक गुरु गोखले ने 1905 ई० में बनारस अधिवेशन की अध्यक्षता की। बंगाल विभाजन तथा इसके परिणामों के बारे में ब्रिटिश जनता को अवगत कराने के लिए वे 1906 ई० में इंग्लैण्ड गए। वहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 ई० में इन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी’ नामक संस्था स्थापित की, जिसका मुख्य उद्देश्य भारत के राष्ट्रीय हितों का संवर्धन करना,

भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करना तथा इनमें पारस्परिक सौहार्द बढ़ाना था। गोखले ने सरकार से इस बात का अनुरोध किया कि नमक पर टैक्स कम किया जाए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इण्डियन सिविल सर्विस का भारतीयकरण हो। गोखले यह भी चाहते थे कि सेना पर होने वाले व्यय को घटाया जाए। भारतीय मामलों से सम्बन्धित प्रश्नों पर बातचीत के लिए गोखले कई बार इंग्लैण्ड गए। ‘अनिवार्य शिक्षा विधेयक को व्यवस्थापिका परिषद् में उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत किया गया था। गोखले ने भारतीय समाज में व्याप्त कई बुराइयों का भी विरोध किया। 1915 ई० में 49 वर्ष की आयु में गोखले का निधन हो गया।

प्रश्न 2.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में बाल गंगाधर तिलक के योगदान का वर्णन कीजिए।
उतर:
बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के उग्रवादी दल के प्रतिभासम्पन्न नेता थे। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादी विचारधारा के जन्मदाता वे ही थे। उन्होंने ही सबसे पहला नारा लगाया “स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे प्राप्त करके ही रहूँगा।” वास्तव में, उन्होंने देश में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र गति प्रदान की थी तथा कांग्रेस के आन्दोलन को जन आन्दोलन में परिवर्तित करने का सराहनीय कार्य किया था।

प्रश्न 3.
बाल गंगाधर तिलक व गोपालकृष्ण गोखले के विचारों की भिन्नता पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
तिलक और गोखले दोनों ऊँचे दर्जे के देशभक्त थे। दोनों ने जीवन में भारी त्याग किया था, परन्तु उनके स्वभाव एक-दूसरे से बहुत भिन्न थे। यदि हम उस समय की भाषा का प्रयोग करें तो कह सकते है कि गोखले नरम विचारों के थे और तिलक गरम विचारों के। गोखले मौजूदा संविधान को मात्र सुधारना चाहते थे लेकिन तिलक उसे नए सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले को नौकरशाही के साथ मिलकर कार्य करना था, तिलक को उससे अनिर्वायत: संघर्ष करना था। गोखले जहाँ सम्भव हो, सहयोग करने तथा जहाँ जरूरी हो, विरोध करने की नीति के पक्षपाती थे। तिलक का झुकाव रुकावट तथा अडुंगा डालने की नीति की ओर था। गोखले को प्रशासन तथा उनके सुधार की मुख्य चिन्ता थी, तिलक के लिए राष्ट्र तथा उसका निर्णय मुख्य था।

गोखले का आदर्श थाप्रेम और सेवा, तिलक का आदर्श था- सेवा और कष्ट सहना। गोखले विदेशियों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते थे, तिलक का तरीका विदेशियों को देश से हटाना था। गोखले दूसरों की सहायता पर निर्भर करते थे, तिलक अपनी सहायता स्वयं करना चाहते थे। गोखले उच्च वर्ग और शिक्षित लोगों की ओर देखते थे, तिलक सर्वसाधारण या आम जनता की ओर। गोखले का अखाड़ा था- कौंसिल भवन, तिलक का मंच था-गाँव की चौपाल। गोखले अंग्रेजी में लिखते थे, तिलक मराठी में। गोखले का उद्देश्य था- स्वशासन, जिसके लिए लोगों को अंग्रेजों द्वारा पेश की गई कसौटी पर खरा उतरकर अपने को योग्य साबित करना था, तिलक का उद्देश्य था- स्वराज्य, जो प्रत्येक भारतवासी का जन्मसिद्ध अधिकार था और जिसे वे बिना किसी बाधा की परवाह किए लेकर ही रहेंगे। गोखले अपने समय के साथ थे, जबकि तिलक अपने समय के बहुत आगे।।

प्रश्न 4.
होमरूल आन्दोलन का विवरण दीजिए।
उतर:
होमरूल आन्दोलन स्वशासन प्राप्त करने का वैधानिक संगठन था। सन् 1916 ई० में आयरिश महिला श्रीमति एनी बेसेण्ट ने
मद्रास (चेन्नई) और लोकमान्य गंगाधर तिलक ने बम्बई में होमरूल लीग की स्थापना की। लीग का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत वैधानिक तरीकों से स्वशासन प्राप्त करना और इस दशा में जनमत तैयार करना था। तिलक ने अपने ‘मराठा’ तथा ‘केसरी’ व एनी बेसेन्ट ने ‘कॉमलवील’ तथा ‘न्यू इण्डिया’ समाचार-पत्रों द्वारा गृह-शासन का जोरदार प्रचार किया। शीघ्र ही यह आन्दोलन सम्पूर्ण भारत में फैल गया। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया। इंग्लैण्ड में भी होमरूल लीग की स्थापना हुई। मजदूर दल के नेता ‘होराल्ड लास्की’ ने इसे प्रोत्साहन दिया।

प्रश्न 5.
मार्ले-मिण्टो सुधार पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
मार्ले-मिण्टो सुधार( 1909 ई० )- मार्ले-मिण्टो सुधार वस्तुतः मुसलमानों को खुश करने, नरमपंथियों को उलझन में डालने और अतिवादियों को शान्त करने का प्रयास था। संक्षेप में इस सुधार का उद्देश्य अधिकार देने के स्थान पर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का अनुसरण करना था। इस अधिनियम की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं

  1. इसके द्वारा केन्द्रीय लेजिस्टलेटिव के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर अब 69 कर दी गई, किन्तु न उनके अधिकार बढ़े और न ही उनकी शक्तियाँ।।
  2. अधिनियम के अनुसार वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् तथा प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषदों में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति का प्रावधान किया गया।
  3. इस अधिनियम का सबसे बड़ा दोष मुसलमानों के लिए पृथक् चुनाव मण्डल प्रदान करना था। इसका आशय यह था कि मुसलमान सम्प्रदाय को भारतीय राष्ट्र से पूर्णतया पृथक् वर्ग के रूप में स्वीकार किया गया। इस अधिनियम की उल्लेखनीय उपलब्धि यह भी रही कि इसके द्वारा भारत सचिव की परिषद् तथा भारत के गवर्नर जनरल की कार्यपालिका परिषद् में भारतीय सदस्यों का समावेश किया गया।
  4. इस प्रकार इस अधिनियम में सुधारों के नाम पर चुनाव पद्धति में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया ताकि भारतीय राष्ट्रवादियों की एकता को तोड़कर उन्हें विभिन्न भागों में बाँट दिया जाए। यह अधिनियम एक कूटनीतिक चाल साबित हुआ। इसके माध्यम से मुसलमान युवकों को कांग्रेस में जाने से रोका गया और उग्र राष्ट्रवादियों के भारतीय कांग्रेस में आने पर नियन्त्रण किया गया। महान् उदारवादी मदनमोहन मालवीय और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इन सुधारों की तीव्र आलोचना की। वहीं मुस्लिम लीग इन सुधारों से बहुत प्रसन्न थी।

प्रश्न 6.
उदारवादियों की दो उपलब्धियों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
उदारवादियों की दो उपलब्धियाँ निम्नवत् हैं|
(i) भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार तैयार करना- यद्यपि उदारवादियों को प्रत्यक्ष रूप से कोई सफलता प्राप्त न हो सकी। तथापि अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने भविष्य में होने वाले आन्दोलनों के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। यदि वे प्रारम्भिक काल में ही पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग करने लगते अथवा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सक्रिय प्रतिरोध की नीति को अपनाते तो सम्भवतया उनके आन्दोलन को शैशवकाल में ही कुचल दिया जाता और स्वतन्त्रता की दिशा में आगामी रणनीति इच्छित रूप में सफल न हो पाती। के०एम० मुंशी के शब्दों में- “यदि पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस के रूप में एक अखिल भारतीय संस्था देश के राजनीति क्षेत्र में कार्यरत न होती तो ऐसी अवस्था में गाँधी जी का कोई विस्तृत आन्दोलन सफल न होता।”

(ii) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 ई०- उदारवादियों की सफलता को 1892 ई० के भारतीय परिषद् अधिनियम के सन्दर्भ में भी लिया जा सकता है। यद्यपि यह भारतीयों को सन्तुष्ट न कर सका, लेकिन फिर भी देश के संवैधानिक विकास की दिशा में यह एक निश्चित प्रगतिशील कदम था।।

प्रश्न 7.
बंगाल के विभाजन के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उतर:
सन् 1905 ई० में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा कर दी जिसके परिणाम स्वरूप बंगाल में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण देश में विद्रोह का तूफान उठ खड़ा हुआ। इससे भारत में गरम आन्दोलन की जो विचारधारा उत्पन्न हुई उसे स्वदेशी आन्दोलन की संज्ञा दी गई। बंगाल विभाजन से देश में समस्त राष्ट्रवादी विचारों को भयंकर आघात पहुँचा तथा इस नीति ने साम्प्रदायिक समस्या को कई गुणा बढ़ा दिया। इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में जन-सभाओं का आयोजन किया गया।

प्रश्न 8.
नरम दल के प्रतिष्ठाता कौन थे?
उतर:
नरम दल के प्रतिष्ठाता गोपालकृष्ण गोखले थे। सन् 1905 ई० में उन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की, जिसका प्रमुख उद्देश्य भारत के राष्ट्रीय हितों का संवर्धन करना, भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करना तथा पारस्परिक सौहार्द बढ़ाना था।

प्रश्न 9.
आप एनी बेसेण्ट और उनके होमरूल संघ के विषय में क्या जानते हैं? या होमरूल आन्दोलन से आप क्या समझते हैं?
उतर:
श्रीमति ऐनी बेसेण्ट- ये एक आयरिश महिला थीं। सन् 1893 ई० में श्रीमति ऐनी बेसेण्ट भारत आईं और अडयार (मद्रास) स्थित थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष बनीं। श्रीमति ऐनी बेसेण्ट ने हिन्दू धर्म की बड़ी प्रशंसा की और बालगंगाधर तिलक के साथ मिलकर भारत की स्वाधीनता के लिए होमरूल आन्दोलन चलाया। ये एक बार कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्ष भी बनीं। इन्होंने शिक्षा के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। होमरूल आन्दोलन के लिए लघुउत्तरीय प्रश्न संख्या-4 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 10.
अतिवादी दल के प्रतिष्ठाता कौन थे?
उतर:
अतिवादी दल के प्रतिष्ठाता बाल गंगाधर तिलक थे। उन्होंने अंग्रेजी शासन का विरोध करने के लिए स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर जोर दिया। अखाड़ा, लाठी, गणपति व शिवाजी महोत्सवों के द्वारा तिलक ने महाराष्ट्र में नवजागृति का संचार किया। इनका नारा था- “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।”

प्रश्न 11.
नरम दल के नेताओं के नाम बताओ।
उतर:
नरम दल के प्रमुख नेता गोपालकृष्ण गोखले, दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रास बिहारी घोष, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि थे।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रथम चरण की विवेचना कीजिए।
उतर:
राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रथम चरण (1885-1919 ई०)- प्रारम्भ में कांग्रेस के आन्दोलन की गति बहुत धीमी थी। इसका मुख्य कारण कांग्रेस का शैशवकाल था। यह समय सुधारवादी तथा वैधानिक युग के नाम से भी विख्यात है। इस समय कांग्रेस पर उदारवादियों का प्रभाव रहा। इन उदारवादियों ने विनय-अनुनय की नीति अपनाई, परन्तु उनकी इस नीति ने 19वीं शताब्दी के अन्तिम एवं 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरणों में अतिवादी विचारधारा को जन्म दिया। 1885-1905 ई० के दौरान कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य संवैधानिक, आर्थिक, प्रशासनिक सुधार एवं नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की माँग करना था। इस समय तक कांग्रेस को जनसमर्थन भी प्राप्त नहीं हो सका था। मुख्य रूप से शिक्षित मध्य वर्ग तक ही इसका प्रभाव रहा। प्रारम्भ में कांग्रेस ने उदारवादी रुख अपनाया।

उदारवादी आन्दोलन का युग- प्रारम्भिक बीस वर्षों में कांग्रेस आम जनता के कष्ट निवारण हेतु ब्रिटिश सरकार को प्रार्थना पत्र ही भेजती रही। इस चरण के प्रमुख कांग्रेसी नेता गोपालकृष्ण गोखले, पंडित मदन मोहन मालवीय, दादाभाई नौरोजी आदि थे। ये सभी नेता शान्तिपूर्वक अंग्रेजी सरकार से अपनी माँगें मनवाने के पक्ष में थे परन्तु इनकी उदारवादी प्रवृत्ति का कांग्रेस को कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि स्वार्थी व कुटिल अंग्रेजों पर प्रार्थना-पत्र व याचना-पत्र कोई प्रभाव नहीं डाल पाए और न ही उदारवादी नेता अंग्रेजों पर किसी भी प्रकार का दबाव बनाने में सफल हो पाए।

1885-1905 ई० के काल को उदारवादियों का काल अथवा उदार राष्ट्रवाद का काल भी कहा जाता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रारम्भ में अत्यन्त नरम थी। आरम्भ से ही कांग्रेस का दृष्टिकोण विशुद्ध राष्ट्रीय रहा। इसने किसी वर्ग विशेष के हित का समर्थन नहीं किया वरन् सभी प्रश्नों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया। प्रारम्भिक दौर में कांग्रेस की पूरी बागडोर नरम राष्ट्रवादियों के हाथ में थी। इस समय भारतीय राजनीति में ऐसे व्यक्तियों का प्रभाव था, जो उन अंग्रेजों के प्रति श्रद्धा रखते थे, जिनका उदारवादी विचारधारा में विश्वास था। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रासबिहारी घोष, गोपालकृष्ण गोखले इत्यादि नेता नरमपंथी विचारों के प्रमुख स्तम्भ थे।

कुछ अंग्रेज भी उदारवादी विचारधारा के समर्थक थे, जिनमें छूम, विलियम वेडरवर्न, जॉर्ज यूल, स्मिथ प्रमुख थे। इन्हीं उदारवादी नेताओं ने कांग्रेस का दो दशकों (1885-1905 ई०) तक मार्गदर्शन किया। ये उदारवादी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को अभिशाप नहीं वरन् वरदान समझते थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का यह कथन उदारवादियों की मनोवृत्ति को स्पष्ट करता है, “अंग्रेजों के न्याय, बुद्धि और दयाभाव में हमारी दृढ़ आस्था है। विश्व की महानतम प्रतिनिधि संस्था, संसदों की जननी ब्रिटिश कॉमन सदन के प्रति हमारे हृदय में असीम श्रद्धा है।” कांग्रेस की प्रसिद्धी बढ़ती गई। उसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1885 ई० में इसके 72 सदस्य थे, जो 1890 ई० में 2,000 तक पहुंच गए।

कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की यह धारणा थी कि अंग्रेज सच्चे और न्यायप्रिय हैं। कांग्रेस के आरम्भिक नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश सरकार के समक्ष सार्वजनिक मुद्दों से सम्बन्धित माँगों को रखकर देश के प्रबुद्ध देशवासियों, नेताओं व कार्यकर्ताओं के मध्य राष्ट्रीय एकता की भावना जाग्रत की जा सकती है। कांग्रेस के 12वें अधिवेशन पर मुहम्मद रहीमतुल्ला ने कहा था कि, संसार में सूर्य के नीचे शायद ही कोई इतनी ईमानदार जाति हो, जितना की अंग्रेज।”

कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में संवैधानिक सुधारों की माँग की गई, जिसमें 1885 ई० के अधिनियम द्वारा निर्मित भारत सचिव व इण्डियन कौंसिल को समाप्त करने को कहा गया, क्योंकि उसमें कोई भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था। प्रान्तों में भी विधान परिषदों के पुनर्गठन की माँग रखी गई। इन माँगों के फलस्वरूप 1892 ई० का इण्डियन कौंसिल ऐक्ट पास हुआ, जिसके अनुसार केन्द्रीय एवं प्रान्तीय विधायिकाओं की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई।

इस समय कांग्रेस ने देश की स्वतन्त्रता की माँग नहीं की, केवल भारतीयों के लिए रियायतें ही माँगी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया। किन्तु न तो यह शब्द लोकप्रिय हुआ और न ही इसका कांग्रेस के प्रस्तावों में उल्लेख था। न्यायपालिका के क्षेत्र में कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष माँग रखी कि शासन और न्याय कार्यों को अलग रखा जाए। अपने चौथे अधिवेशन में कांग्रेस ने माँग रखी कि भूमि कर को स्थायी, कम व निश्चित किया जाए और किसानों को शोषण से बचाने के लिए कानूनों में सुधार किए जाएँ। नागरिकों के सम्बन्ध में राजद्रोह सम्बन्धी कानून को वापस लिए जाने की माँग की। भारतीय सेना का देश से बाहर प्रयोग न किया जाए तथा सैनिक सेवा में भारतीयों को उच्च स्थान दिए जाएँ। कांग्रेस ने प्रशासन सुधार, प्रेस की स्वतन्त्रता आदि माँगों को भी सरकार के सम्मुख रखा। हालाँकि उदारवादियों का दृष्टिकोण देशहित में था परन्तु वे सरकार के समक्ष अपनी माँगें याचनापूर्वक व हीन शब्दों में रखते थे। जबकि सरकार का रुख प्रतिरोधात्मक था। अत: उनकी माँगों की उपेक्षा की गई। अन्ततः सरकार कांग्रेस को नापसन्द करने लगी।।

प्रश्न 2.
“भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारम्भिक चरण में उदारवादियों का आधिपत्य था।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय आन्दोलन में अतिवादियों के उदय की समीक्षा कीजिए।
उतर:
अतिवादियों अथवा गरम दल का उदय (1905-1919 ई०)- उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक कांग्रेस की नरमपंथी नीतियों के विरुद्ध असन्तोष बढ़ता जा रहा था। कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनकी भिक्षा-याचना की नीति के फलस्वरूप कांग्रेस में एक नए तरुण दल का उदय हुआ, जो पुराने नेताओं के ढोंग एवं आदर्शों का कड़ा आलोचक बन गया। फलत: कांग्रेस दो गुटों में बँटने लगी- नरमपंथी और गरमपंथी। नरमपंथी नेताओं ने देश में राजनीतिक ढाँचे का तो निर्माण कर लिया था, परन्तु उसे वैचारिक स्थायित्व न मिला। वे अपनी विद्वता, देशभक्ति और समर्पण भावना में किसी से पीछे न थे, परन्तु उन्हें न तो अंग्रेजों की ईमानदारी और न्यायप्रियता पर सन्देह था और न ही उनका अपना कोई जनाधार। उन्होंने अपने भाषणों, विचारों और लेखों द्वारा शिक्षित समाज को राजनीतिक शिक्षा के सिद्धान्तों से परिचित कराया था, परन्तु अब आवश्यकता उसके व्यावहारिक प्रयोग की थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को स्थापित हुए 20 वर्ष हो चुके थे, परन्तु उसके फायदे समाज के सम्मुख दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। नरमपंथियों का सम्पर्क मुख्यत: कुछ पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोगों तक ही सीमित था। उनकी पहुँच सामान्य जनता, कृषक, मजदूर, मध्यम वर्ग तक न थी। भारतीय जनमानस के बढ़ते हुए असन्तोष, सरकार की अकर्मण्यता और कांग्रेस की उदासीनता की अभिव्यक्ति राष्ट्रीय चेतना के रूप में हुई। इसके उन्नायक लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचन्द्र पाल थे। उन्होंने भारतीय जनमानस में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, देशभक्ति और साहस की भावना का संचार किया। अतिवादियों ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाए

  • निष्क्रिय विरोध अर्थात् सरकारी सेवाओं, न्यायालयों, स्कूलों तथा कॉलेजों का बहिष्कार कर ब्रिटिश सरकार का विरोध।
  • स्वदेशी को बढ़ावा तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।
  • राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा नए राष्ट्र का निर्माण।

राष्ट्रवादियों के अतिवादी विचार 1857 ई० के विद्रोह के बाद धीरे- धीरे बढ़ रहे थे। बदलती हुई परिस्थितियों में सरकार के द्वारा दमन किए जाने के बावजूद अतिवादी विचार तेजी से बढ़े। शताब्दी के अन्त तक असन्तोष की लहर ग्रामीण समाज, किसानों तथा मजदूरों तक फैल गई। इन परिस्थितियों ने कई नेताओं को अपनी माँगों और कार्यवाही को लेकर वाकपटु बना दिया। ये नेता अतिसुधारवादी या अतिवादी के नाम से जाने गए।

क्रान्तिकारी राष्ट्रीयता के बढ़ने के अनेक कारण थे। राजनीतिक रूप से जागरूक लोगों का नरमपंथी नेतृत्व के सिद्धान्तों तथा उनके कार्य के तरीकों से मोहभंग हो चुका था। 1892 ई० के भारतीय कौंसिल अधिनियम से लोगों को बहुत निराशा हुई तथा प्लेग और अकाल जैसी आपदाओं में ब्रिटिश सरकार द्वारा ठीक से प्रबंधन न किए जाने पर उनके प्रति कड़वाहट बढ़ती गई। दमनकारी ब्रिटिश नीतियों; जैसे-1898 ई० के राजद्रोह के विरुद्ध कानून और 1899 ई० के राजकीय गोपनीयता अधिनियम ने आग में घी का काम किया। इसके अन्य कारणों में आयरलैण्ड और रूस का क्रान्तिकारी आन्दोलन जैसी अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएँ, निवेशों में भारतीयों का अपमान, अरविन्द घोष, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचन्द्र पाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में एक क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी विचारों की शाखा का अस्तित्व में आना, शिक्षा प्रसार के बावजूद बेरोजगारी का बढ़ना आदि थे। अन्तत: लॉर्ड कर्जन की नीतियों के कारण हुए 1905 ई० के बंगाल विभाजन से जन-विरोध भड़क उठा।

प्रश्न 4.
गरम राष्ट्रवाद के उदय के क्या कारण थे?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गरमवादी विचारधारा के उदय के निम्नलिखित कारण थे
(i) शासन द्वारा कांग्रेस की माँगों की उपेक्षा तथा 1892 ई० के सुधार कानून की अपर्याप्तता- उदारवादी नेताओं की अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा ईमानदारी में गहन आस्था थी। अतः उन्हें पूरी आशा थी कि ब्रिटिश सरकार उनके द्वारा प्रस्तावित सुधार प्रस्तावों को अवश्य ही अपनाएगी। उदारवादियों की प्रार्थनाओं और माँगों की पूर्ति के सन्दर्भ में ब्रिटिश शासन ने जो कुछ दिया, वह 1892 ई० का कौसिल एक्ट था। यह सुधार कानून निराशाजनक और अपर्याप्त था। इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को वास्तविक अधिकार नहीं दिए गए थे। निर्वाचन की प्रणाली भी अप्रत्यक्ष ही रखी गई थी। कांग्रेस इन सुधारों से अप्रसन्न थी।

कांग्रेस निरन्तर विधानपरिषदों के विस्तार, निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि, परिषदों के अधिकारों के विस्तार, न्याय-सुधार तथा सिविल सर्विस परीक्षा भारत में कराए जाने की माँग करती रही, परन्तु सरकार ने उन्हें पूरा नहीं किया। एस०एन० बनर्जी का मत है- “विधानपरिषदों में निर्मित विधियाँ पूर्व-निश्चित होती थीं एवं वादविवाद औपचारिकता मात्र होता था, जिसे कुछ व्यक्ति धोखा कह सकते हैं।” लाला लाजपत राय ने कहा था-“भारतीयों को अब भिखारी बने रहने में सन्तोष नहीं करना चाहिए और उन्हें अंग्रेजों की कृपा पाने के लिए गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए।’

(ii) हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान- कांग्रेस के उदारवादी नेता- गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, रासबिहारी घोष आदि भारत और इंग्लैण्ड के सम्बन्धों को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते थे और ब्रिटिश संस्कृति की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे, जबकि गरम विचारधारा वाले नेता- बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष और विपिनचन्द्र पाल इन विचारों से अप्रसन्न थे। उनके विचारों पर स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमती ऐनी बेसेण्ट के इस विचार का प्रभाव पड़ा कि भारत की वैदिक संस्कृति पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।

धार्मिक पुनर्जागरण के प्रभाव से भारतीयों के मन तथा मस्तिष्क में पाश्चात्य वेशभूषा, शिक्षा, विचारधारा और जीवन पद्धति के विरुद्ध गहन प्रतिक्रिया थी। अरविन्द घोष का मत था- “स्वतन्त्रता हमारे जीवन का एक उद्देश्य है और हिन्दू धर्म हमारे उद्देश्य की पूर्ति करेगा। ……….. राष्ट्रीयता एक धर्म है और ईश्वर की देन है।” इस नवजागरण के प्रभाव के कारण ही उदारवाद ने अति राष्ट्रवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया। ऐनी बेसेण्ट ने कहा था कि सम्पूर्ण हिन्दू प्रणाली पश्चिमी सभ्यता से बढ़कर है। स्वामी दयानन्द तथा स्वामी विवेकानन्द के दिव्य विचारों से प्रभावित होकर अमेरिका के ‘दि न्यूयॉर्क हेराल्ड’ने सम्पादकीय टिप्पणी की थी कि हमें अनुभव हो रहा है कि उन सरीखे धर्म के विद्वत्जनों के देश में ईसाई पादरी भेजना कितनी बड़ी मूर्खता है।

(iii) आर्थिक शोषण- ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों से भी युवा वर्ग में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। सरकार की आर्थिक नीति का मूल लक्ष्य अंग्रेज व्यापारियों तथा उद्योगपतियों का हित करना था, न कि भारतीयों का। भारत सरकार ने भारतीय आर्थिक हितों को नि:संकोच ब्रिटिश व्यापारिक हितों के रक्षार्थ बलिदान कर दिया था। ब्रिटिश सरकार निरन्तर भारत विरोधी आर्थिक नीतियों का अनुसरण कर रही थी। पहले सूती माल पर आयात कर 5% था, सरकार ने इसे घटाकर 3.5% कर दिया और सरकार ने भारतीय मिलों पर 3.5% उत्पादन कर लगा दिया।

इससे भारतीय मिलों का काम-काज ठप हो गया। इस स्थिति ने भारतीयों के लिए बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न कर दी। सरकार की आर्थिक नीति के विरुद्ध भारतीयों में घोर असन्तोष व्याप्त हो गया। वे सरकारी नीति का विरोध करने लगे और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाने लगा। शिक्षित भारतीयों को भी अपनी योग्यतानुसार सरकारी पदों की प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उनमें भी असन्तोष की भावनाएँ तीव्र हो गईं। ए०आर० देसाई के शब्दों में- “शिक्षित भारतीयों में बेकारी से उत्पन्न राजनीतिक असन्तोष भारत में गरम राष्ट्रवाद के उदय का एक प्रमुख कारण रहा।” ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति के कारण भारतीय वस्तुएँ महँगी हो गईं व विदेशी वस्तुएँ सस्ती हो गईं, जिसके कारण प्रतिस्पर्धा में भारतीय वस्तुएँ पीछे छूट गईं।

(iv) अकाल और प्लेग का प्रकोप- उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में देश में अकाल के भीषण बादल मँडराने लगे। 1876 ई० से 1900 ई० तक 25 वर्षों में देश में 18 बार अकाल पड़ा। 1896-97 ई० में बम्बई में सबसे भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल का प्रभाव 70 हजार वर्ग मील के क्षेत्र पर पड़ा तथा लगभग दो करोड़ लोग इसके शिकार हुए। यदि सरकार ने अपनी पूर्ण क्षमता और उत्साह से सहायता कार्य का बीड़ा उठाया होता तो अकाल इतना भीषण रूप धारण नहीं करता। अभी अकाल का घाव भरा भी न था कि बम्बई प्रेसीडेंसी में 1897-98 ई० में प्लेग का प्रकोप व्याप्त हो गया। पूना के आस-पास भयंकर प्लेग फैल गया, जिसमें सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार 1 लाख 73 हजार व्यक्तियों की मृत्यु हुई।

प्लेग कमिश्नर रैंड ने सैनिकों को सेवा-कार्य सौंपा और उन्हें घरों में घुसने, निरीक्षण करने और रोगग्रस्त व्यक्तियों को अस्पताल पहुँचाने का दायित्व सौंपा। सैनिकों के अनैतिक कृत्यों से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएँ आहत हुईं। अनेक स्थानों पर दंगे प्रारम्भ हो गए। एक नवयुवक दामोदर हरि चापेकर ने रैंड तथा उनके सहयोगी लेफ्टिनेन्ट ऐर्ट को अपनी गोली का शिकार बनाया। सरकार इन क्रान्तिकारी गतिविधियों से तिलमिला उठी और उसने कठोर कदम उठाए। महाराष्ट्र में अत्याचार का ताण्डव शुरू हो गया। ‘केसरी’ के सम्पादक तिलक को सरकार विरोधी भावनाएँ उभारने के लिए 18 मास के कठोर कारावास का दण्ड दिया गया। इससे देश में विद्रोह का तूफान उमड़ पड़ा। दामोदर हरि चापेकर द्वारा रैंड की हत्या यह सूचना दे रही थी कि भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रता का प्रवेश हो चुका है।

(v) अंग्रेजों की जाति विभेद की नीति- भारत तथा अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार का एक प्रमुख कारण अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई जाति विभेद की नीति थी। भारतीयों को निम्न जाति का समझा जाता था। आंग्ल-भारतीय समाचार-पत्र खुले रूप में अंग्रेजों को भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करने की भावना को प्रोत्साहन देते थे। लॉर्ड कर्जन की नीतियों ने जाति विभेद की नीति को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अपने एक भाषण में स्पष्ट कहा था- “पश्चिमी लोगों में सभ्यता और पूर्वी लोगों में मक्कारी पाई जाती है। इन जाति विभेद की नीतियों ने भारतीयों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आक्रोश की भावना को उत्तेजित किया और उन्हें अति राष्ट्रवादी बना दिया।

(vi) अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव- इस काल में विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं, जिनका भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा। इन घटनाओं के प्रभाव के कारण भारतीयों में दीनता और निराशा के स्थान पर राष्ट्रीय उत्साह और साहस की भावना का उदय हुआ। ऐसी प्रथम घटना 1897 ई० में अफ्रीका के एक छोटे से राष्ट्र अबीसीनिया द्वारा इटली को पराजित किया जाना था। गैरेट के शब्दों में- “इटली की हार ने 1897 ई० में तिलक के आन्दोलन को बल प्रदान किया। इसी प्रकार 1905 ई० में जापान द्वारा इटली को पराजित किए जाने की घटना से भारतीयों में यह भावना सुदृढ़ हुई कि अनन्य देशभक्ति, बलिदान और राष्ट्रीयता की भावना को अपने जीवन में उतारकर ही भारतीय स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में घटित इन घटनाओं का भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त इसी समय मित्र, फारस व टर्की में स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था। आयरलैण्ड में स्वशासन के लिए व रूस में जारशाही के विरुद्ध आन्दोलन तीव्र गति से चल रहा था। इन सब घटनाओं ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का व्यापक संचार किया। इन सब घटनाओं के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि मैजिनी, गैरीबाल्डी और कावूर के प्रेरक नेतृत्व में इटलीवासियों की राष्ट्रीय एकता एवं स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयासों का भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा। गुरुमुख निहाल सिंह के शब्दों में- “…. भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने अपने देशवासियों में स्वदेश प्रेम जाग्रत करने के लिए इटली के उदाहरण से काम लिया।”

(vii) लॉर्ड कर्जन की दमनकारी नीतियाँ- लॉर्ड लैन्सडाउन और एल्गिन के दमनकारी शासन के बाद 1898 ई० में लॉर्ड कर्जन भारत के वायसराय बनकर आए। कर्जन साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के पक्षपाती थे और राजनीतिक आन्दोलनों को पूर्णतः कुचल देने के पक्षधर थे। उन्होंने शासन-सत्ता सँभालते ही ऐसे कार्य करने प्रारम्भ कर दिए कि जनता में विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी। उन्होंने केन्द्रीकरण की नीति अपनाई, जिससे साम्राज्यवाद की जड़ें गहराई तक पहुँचाई जा सकें। कलकत्ता कॉर्पोरेशन ऐक्ट (1904 ई०) पारित करके स्वायत्तशासी संस्थाओं पर सरकार का नियन्त्रण करने के लिए 25 निर्वाचित प्रतिनिधियों की संस्था कम कर दी।

भारतीय विश्वविद्यालय ऐक्ट (1904 ई०) के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकार के हस्तक्षेप को बढ़ाया गया। शिक्षित वर्ग में इन परिवर्तनों से बहुत अधिक असन्तोष व्याप्त हो गया और उसने इस विश्वविद्यालय ऐक्ट की कटु आलोचना की। ऑफीशियल सीक्रेट ऐक्ट (1904 ई०) के द्वारा सरकारी सूचनाओं का भेद देना व सरकार के विरोध में समाचार-पत्रों की आलोचना भी अपराध घोषित कर दिया गया। उनकी सैन्य नीति भी बहुत विवादास्पद थी। उन्होंने अधिक मात्रा में सैनिक व्यय किया। उनकी सैन्य नीति का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करना था।

इससे भी भारतीयों में असन्तोष बढ़ा। कर्जन का भारतीयों के प्रति बड़ा अभद्र और अन्यायपूर्ण व्यवहार था। 1905 ई० में एक दीक्षान्त भाषण में उन्होंने कहा था- “भारतीयों में सत्य के प्रति आस्था नहीं है और वास्तव में भारतवर्ष में सत्य को कभी आदर्श ही नहीं माना गया है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा था- “भारत राष्ट्र नाम की चीज नहीं है।” अत: लॉर्ड कर्जन की इन नीतियों ने गरम राष्ट्रवादी विचारधारा को पनपने का अवसर प्रदान किया। गोपालकृष्ण गोखले के अनुसार- “कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए वही कार्य किया, जो मुगल शासन के लिए औरंगजेब ने किया था।

(viii) बंगाल का विभाजन- बंगाल विभाजन ने गरम राष्ट्रवाद को कार्य-रूप में परिणत होने का अवसर प्रदान किया। 1905 ई० में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा की। इसके परिणामस्वरूप केवल बंगाल में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण देश में विद्रोह का तूफान उठ खड़ा हुआ। बंगाल के विभाजन के द्वारा कर्जन बंगाल की बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को नष्ट करना चाहते थे। बंगाल विभाजन हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालने के उद्देश्य से किया गया था। पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को भड़काया गया था कि इस विभाजन का ध्येय उनके बहुमत का प्रान्त बनाना है। पूर्वी बंगाल के गवर्नर सर वैम्फाइल्ड फूलर ने कहा था- “उसकी दो स्त्रियाँ हैं- एक हिन्दू व एक मुसलमान, किन्तु वह दूसरी को अधिक चाहता है।”

बंगाल विभाजन से देश में समस्त राष्ट्रवादी विचारों को भयंकर रूप से आघात पहुँचा। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने स्पष्ट किया था बंगाल का विभाजन हमारे ऊपर बम की तरह गिरा है। हमने समझा कि हमारा घोर अपमान किया गया है।” बंगाल विभाजन का विरोध करने के लिए गोपालकृष्ण गोखले इंग्लैण्ड तक पहुँचे, किन्तु वहाँ उनके विरोधी स्वरों पर ध्यान नहीं दिया गया और वे निराशावस्था में ही भारत लौटे। उन्होंने कहा भी था- “नवयुवक यह पूछने लगे कि संवैधानिक उपायों का क्या लाभ है, यदि इनका परिणाम बंगाल का विभाजन ही होना था।” बंगाल विभाजन के विषय में डॉ० जकारिया का कथन है- “उद्देश्य और प्रभाव की दृष्टि से बंगाल का विभाजन-कार्य नितान्त धूर्ततापूर्ण था।” वस्तुत: बंगाल विभाजन का उद्देश्य भारतीयों की राष्ट्रीयता की भावना को कुचलना था, परन्तु व्यवहार में इसका विपरीत परिणाम निकला और गरमवादी राष्ट्रीयता की भावना सम्पूर्ण देश में फैल गई। इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में जनसभाओं का आयोजन किया गया। अकेले बंगाल में ही 1,000 सभाएँ की गईं।

(ix) विदेशों में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार- विदेशों में भारतीयों के प्रति बहुत अधिक दुर्व्यवहार किया जा रहा था। अफ्रीका से लौटकर डॉ० बी०सी० मुंजे ने कहा था कि हमारे शासक यह विश्वास नहीं करते कि हम भी मनुष्य हैं। भारतीयों के साथ दक्षिण अफ्रीका में अत्यन्त अपमानजनक व्यवहार किया गया। उन्हें प्रथम श्रेणी में रेल यात्रा की अनुमति नहीं थी। वे पगडण्डी पर नहीं चल सकते थे। रात्रि में 9 बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकल सकते थे। इन्हीं अत्याचारों को समाप्त कराने के लिए गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन का संचालन किया। इस आन्दोलन का प्रभाव भारतीय जनता पर भी पड़ा।

(x) नवयुवकों का भिक्षावृत्ति वाली नीति पर से विश्वास समाप्त हो जाना- कांग्रेस के प्रथम काल (1885-1905 ई०) में कांग्रेस की नीति उदारवादी तथा भिक्षावृत्ति वाली थी। किन्तु युवकों का एक ऐसा वर्ग बन गया था, जिसका इस नीति पर से विश्वास ही उठ गया और वे उग्र नीति का समर्थन करने लगे। इन उग्र राष्ट्रवादियों के तीन प्रमुख नेता थे- लाल, बाल तथा पाला ये नेता अटूट देशभक्त और ब्रिटिश शासन के कट्टर विरोधी थे। बालगंगाधर तिलक के शब्दों में, “हमारा आदर्श

दया की भिक्षा माँगना नहीं, अपितु आत्मनिर्भरता है। इसके साथ ही उनका नारा था- “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” गरम विचारों वाले राष्ट्रवादियों के कार्यक्रम में विदेशी वस्तुओं तथा संस्थाओं का बहिष्कार करना और स्वदेशी आन्दोलन तथा राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना करना मुख्य मुद्दे थे। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में“उनके उपदेश, संगठन-पद्धति, विदेश विरोधी प्रचार और व्यायामशालाओं ने विद्रोह के ऐसे बीज बोए, जिनके अत्यधिक
व्यापक परिणाम हुए।”

(xi) राजनीतिक कारण- गरम राष्ट्रवाद का उदय होने तथा विकास में राजनीतिक कारणों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन् 1892 से 1904 ई० तक ब्रिटेन में कंजर्वेटिव पार्टी का शासन रहा, जिसने उग्र साम्राज्यवादी नीति को अपनाया। वे भारतीयों को किसी भी रूप में राजनीतिक अधिकार प्रदान करने तथा राजनीतिक संस्थाओं की संरचनाओं एवं शक्तियों में किसी भी प्रकार के परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं थे। उनके द्वारा ऐसे कानूनों का निर्माण किया गया, जो भारतीयों के हितों के विरुद्ध थे। इसलिए धीरे-धीरे भारतीयों का ब्रिटिश न्यायप्रियता पर से विश्वास उठने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि अब स्वयं उदारवादी भी खुलकर ब्रिटेन की भारत विरोधी एवं साम्राज्यवादी नीतियों की आलोचना करने लगे।

(xii) पाश्चात्य क्रान्तिकारी आन्दोलनों तथा विचारधाराओं का प्रभाव- भारतीय नवयुवकों पर पाश्चात्य देशों में चलाए जा रहे क्रान्तिकारी आन्दोलनों, साहित्य एवं सिद्धान्तों ने बहुत गहरा प्रभाव डाला। विभिन्न देशों में स्वतन्त्रता के लिए चलाए गए आन्दोलनों ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत में भी संवैधानिक आन्दोलनों के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करना कोई आसान कार्य नहीं है। सफलता को तो केवल शक्ति, विद्रोह एवं क्रान्ति के मार्ग के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। आयरलैण्ड का आदर्श भारतीय नवयुवकों के समक्ष था, जहाँ स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए उन्हें अपने रक्त का बलिदान करना पड़ा। इन परिस्थितियों से बाध्य होकर उदारवादियों में से ही ऐसे नवयवुकों का उदय हुआ, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार की अनौचित्यपूर्ण नीतियों का विरोध करने का साहस किया। ऐसे ही नवयुवकों की विचारधारा को गरम राष्ट्रवाद के नाम से जाना जाता है। आगे चलकर इसी विचारधारा ने क्रान्तिकारी विचारधारा को जन्म दिया।

प्रश्न 5.
उदारवाद व गरम राष्ट्रवाद की विचारधाराओं में क्या अन्तर था?
उतर:
उदारवादी और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी दोनों ही भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की दो विचारधाराएँ रही हैं। इन दोनों विचारधाराओं का अन्तर निम्नप्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है
(i) यद्यपि दोनों का मूल उद्देश्य एक था- स्वशासन की प्राप्ति, लेकिन स्वशासन के सम्बन्ध में दोनों के दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न | थे। उदारवादी ब्रिटिश शासन की अधीनता में प्रतिनिधित्व तथा संसदीय संस्थाओं की स्थापना करना चाहते थे तथा वे क्रमिक राजनीतिक सुधारों के पक्ष में थे। इसके विपरीत, गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी विदेशी शासन के कट्टर विरोधी तथा किसी भी रूप में उसके अस्तित्व के विरोधी थे।

(ii) उदारवादियों को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास था, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों को अंग्रेजों की नीयत तथा उदारता में तनिक भी विश्वास नहीं था।

(iii) उदारवादियों के विचार में ब्रिटेन तथा भारत के हितों में मूलभूत विरोध नहीं था। इसके विपरीत, गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों की धारणा यह थी कि ब्रिटेन तथा भारत के हित एक-दूसरे से नितान्त विपरीत हैं।

(iv) उदारवादी भिक्षावृत्ति जैसे साधनों के समर्थक थे, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी इन साधनों को अपनाना सम्मान के विरुद्ध समझते थे। गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों के प्रमुख साधन विदेशी वस्तुओं एवं संस्थाओं का बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा थे और बहिष्कार इनका सबसे प्रमुख साधन था।

(v) उदारवादी पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के पोषक थे, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी प्राचीन हिन्दू धर्म, सभ्यता और संस्कृति तथा उसके आधार पर विकसित हिन्दू राष्ट्रीयता के समर्थक थे।

(vi) उदारवादियों के नेता गोपालकृष्ण गोखले थे और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों के नेता बाल गंगाधर तिलक थे।

(vii) उदारवादी नौकरशाही व्यवस्था को पसन्द करते थे, किन्तु गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी इस व्यवस्था के विरोधी थे।

(viii) उदारवादी सरकार के साथ सहयोग करने में विश्वास रखते थे, किन्तु गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी सरकार से असहयोग करने के पक्षपाती थे।

(ix) उदारवादियों का आदर्श प्रेम व सेवा था, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों का आदर्श सेवा और कष्ट सहना था।

(x) उदारवादी स्वशासन में विश्वास रखते थे और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों की स्वराज्य में आस्था थी।

प्रश्न 6.
गोपालकृष्ण गोखले व बाल गंगाधर तिलक का परिचय देते हुए दोनों की विचारधारा के अन्तर को समझाइए।
उतर:
गोपालकृष्ण गोखले- कांग्रेस के उदारवादी नेताओं में गोपालकृष्ण गोखले का प्रमुख स्थान है। ये एक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। इनका जन्म 9 मई, 1866 ई० को महाराष्ट्र के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सन् 1902 ई० में ये फर्युसन कॉलेज के प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए तथा अपनी बुद्धिमता और कर्त्तव्यपरायणता के कारण ‘सार्वजनिक सभा’ के मन्त्री बने। यह सभा बम्बई की एक प्रमुख राजनीतिक संस्था थी। सन् 1889 ई० में इन्होंने भारतीय राष्ट्रीयता कांग्रेस में प्रवेश किया।

सन् 1902 ई० में ये केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्य निर्वाचित हुए। सदस्य बनने के बाद इन्होंने नमक-कर-उन्मूलन, सरकारी नौकरियों में चुनाव, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के प्रसार, स्वतन्त्र भारतीय अर्थव्यवस्था आदि के पक्ष में सराहनीय प्रयत्न किए। मिण्टो-मालें सुधार योजना के निर्माण में उनका सक्रिय योगदान रहा था। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भी प्रयत्न किया। उनके अपने देश के प्रति नि:स्वार्थ सेवा-भाव को देखकर, लॉर्ड कर्जन जैसे व्यक्ति ने भी उनकी प्रशंसा में कहा था, “ईश्वर ने आपको असाधारण योग्यता दी है और आपने बिना किसी शर्त के इसको देश-सेवा में लगा दिया है।

सन् 1905- 1907 ई० में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रतिक्रियावादी कार्यों का कड़ा विरोध किया। इसके साथ ही स्वतन्त्रता को संवैधानिक ढंग से प्राप्त करने में भी प्रयत्न किया। इन्होंने सन् 1905 ई० में भारत सेवक समिति नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था का लक्ष्य मातृ-भाषा के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करना और ऐसे सार्वजनिक कार्यकताओं को शिक्षित करना था, जो देश के उन्नति के लिए संवैधानिक रूप से कार्य करें। गोखले ने भारत में सुधारों की एक योजना भी तैयार की, जिसे गोखले की ‘राजनीतिक वसीयत’ या ‘इच्छा-पत्र’ कहा जाता है।

बाल गंगाधर तिलक- बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के उग्रवादी दल के प्रतिभासम्पन्न नेता थे। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादी विचारधारा के वे ही जन्मदाता थे। उन्होंने ही सबसे पहले नारा लगाया, “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” वास्तव में, उन्होंने ही देश में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र गति प्रदान की थी तथा कांग्रेस के आन्दोलन को जन-आन्दोलन में परिवर्तित करने का सराहनीय कार्य किया था।

बाल गंगाधर तिलक का जन्म 12 जुलाई, 1856 ई० में रत्नागिरि के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अपना अध्ययन कार्य समाप्त करने के बाद वे ‘दक्षिण शिक्षा समिति द्वारा स्थापित पूना के न्यू इंग्लिश स्कूल में गणित के अध्यापक नियुक्त हो गए। तिलक जी स्वभाव से निर्भीक, दृढ़-निश्चयी एवं स्वाभिमानी थे। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन देश की सेवा में समर्पित कर दिया। 1 अगस्त, 1920 ई० को ये 64 वर्ष की आयु पूरी कर स्वर्ग सिधार गए।

तिलक और गोखले की विचारधारा में अन्तर- तिलक एवं गोखले दोनों उच्चकोटि के महान् देशभक्त एवं राष्ट्रीय नेता थे किन्तु दोनों के विचारों में मौलिक अन्तर था। डॉ० पट्टाभि सीतारमैय्या ने अपने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में तिलक और गोखले की तुलना इस प्रकार की है- तिलक और गोखले दोनों ऊँचे दर्जे के देशभक्त थे। दोनों ने जीवन में भारी त्याग किया था, परन्तु उनके स्वभाव एक-दूसरे से बहुत भिन्न थे। यदि हम उस समय की भाषा का प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि गोखले नरम विचारों के थे और तिलक गरम विचारों के। गोखले मौजूदा संविधान को मात्र सुधारना चाहते थे लेकिन तिलक उसे नए सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले को नौकरशाही के साथ मिलकर कार्य करना था, तिलक को उससे अनिवार्यतः संघर्ष करना था। गोखले जहाँ सम्भव हो, सहयोग करने तथा जहाँ जरूरी हो, विरोध करने की नीति के पक्षपाती थे।

तिलक का झुकाव रुकावट तथा अडंगा डालने की नीति की ओर था। गोखले को प्रशासन तथा उनके सुधार की मुख्य चिन्ता थी, तिलक के लिए राष्ट्र तथा उसका निर्णय मुख्य था। गोखले का आदर्श था- प्रेम और सेवा, तिलक का आदर्श था- सेवा और कष्ट सहना। गोखले विदेशियों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते थे, तिलक का तरीका विदेशियों को देश से हटाना था। गोखले दसरों की सहायता पर निर्भर करते थे, तिलक अपनी सहायता स्वयं करना चाहते थे। गोखले उच्च वर्ग और शिक्षित लोगों की ओर देखते थे, तिलक सर्वसाधारण या आम जनता की ओर। गोखले का अखाड़ा था- कौंसिल भवन, तिलक का मंच था- गाँव की चौपाल। गोखले अंग्रेजी में लिखते थे, तिलक मराठी में। गोखले का उद्देश्य था- स्वशासन, जिसके लिए लोगों को अंग्रेजों द्वारा पेश की गई कसौटी पर खरा उतरकर अपने को योग्य साबित करना था, तिलक का उद्देश्य था- स्वराज्य, जो प्रत्येक भारतवासी का जन्मसिद्ध अधिकार था और जिसे वे बिना किसी बाधा की परवाह किए लेकर ही रहेंगे। गोखले अपने समय के साथ थे, जबकि तिलक अपने समय के बहुत आगे।।

प्रश्न 7.
होमरूल तथा माले मिण्टो सुधार पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
होमरूल आन्दोलन (1916 ई०)- स्वशासन प्राप्त करने का यह वैधानिक संगठन था। एनी बेसेण्ट ने 1 सितम्बर, 1916 में मद्रास (चेन्नई) में होमरूल लीग की स्थापना की। इसकी आठ स्थानों पर शाखाएँ खोली गई। मद्रास (चेन्नई) के चीफ जस्टिस सुब्रह्मण्यम् अय्यर का इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा। वस्तुतः होमरूल आन्दोलन की शुरूआत ही लोकमान्य तिलक ने की थी। मार्च, 1916 में तिलक ने पूना में होमरूल लीग की स्थापना की। लीग का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत सभी वैधानिक तरीकों से स्वशासन प्राप्त करना और इस दिशा में जनमत तैयार करना था। तिलक ने अपने मराठा तथा केसरी व एनी बेसेण्ट ने अपने ‘कॉमन वील’ तथा ‘न्यू इण्डिया’ नामक समाचार-पत्रों के माध्यम से गृह-शासन की माँग का जोरदार प्रचार किया। शीघ्र ही यह आन्दोलन समस्त भारत में फैल गया। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया था। इंग्लैण्ड में भी होमरूल लीग की स्थापना हुई। मजदूर दल के नेता ‘होराल्ड लास्की’ ने इसे प्रोत्साहन दिया।

1917 ई० तक होमरूल आन्दोलन अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया। सरकार ने तिलक और एनी बेसेण्ट के बढ़ते हुए प्रभाव को गम्भीरता से देखा एवं दमनकारी नीति अपनाई। एनी बेसेण्ट को गिरफ्तार कर लिया तथा तिलक पर भी दिल्ली और पंजाब में आने पर प्रतिबन्ध लगाए गए। एनी बेसेण्ट की गिरफ्तारी के विरोध में जगह-जगह सभाएँ हुईं। स्थान-स्थान पर प्रदर्शन किए गए। मजबूर होकर सरकार ने एनी बेसेण्ट को छोड़ दिया। इन्हीं दिनों 20 अगस्त, 1917 को भारत सचिव मॉण्टेग्यू की प्रसिद्ध घोषणा हुई, इस घोषणा के अनुसार भारत में धीरे-धीरे उत्तरदायी सरकार देने का प्रावधान रखा गया। इस घोषणा के बाद होमरूल आन्दोलन समाप्त हो गया। मार्ले-मिण्टो सुधार (1909 ई०)- उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-5 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित के विषय में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

(क) मुस्लिम लीग
(ख) गदर पार्टी
(ग) उदारवादी व अतिवादी
(घ) लखनऊ समझौता

उतर:
(क) मुस्लिम लीग- हिन्दू और मुसलमानों में पारस्परिक वैमनस्य पैदा करना बंगाल विभाजन का प्रमुख उद्देश्य था। लॉर्ड कर्जन अपने इस उद्देश्य में लगभग सफल हो चुका था। अब मुसलमानों को बंगाल विभाजन के पक्ष में करने के लिए अंग्रेजों ने प्रयास करना शुरू कर दिया। अंग्रेज सरकार ने भारतीय मुसलमानों को कांग्रेस विरोधी किसी संस्था को बनाने के लिए प्रेरित किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु अंग्रेजों के समर्थक ढाका के नवाब सलीमुल्ला खाँ ने ‘मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस के अवसर पर मुसलमानों के सामने एक अलग राजनीतिक संस्था बनाने का प्रस्ताव रखा। 30 दिसम्बर, 1906 ई० को नवाब बकर-उल-मुल्क की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग’ की स्थापना करने का निर्णय लिया गया।

इस निर्णय से ब्रिटिश सरकार को बहुत प्रसन्नता हुई। क्योंकि उनकी ‘फूट डालो राज करो’ की नीति सफल हो रही थी। जल्दी ही तत्कालीन अंग्रेजी वायसराय लॉर्ड मिण्टो के निजी सचिव डनलप स्मिथ ने अलीगढ़ कॉलेज के प्रधानाचार्य आर्कबोल्ड को पत्र लिखकर मुसलमानों का एक शिष्टमण्डल अपनी माँगों के साथ वायसराय से मिलने के लिए आमंत्रित किया। अतः 1 अक्टूबर, 1906 ई० को आगा खाँ के नेतृत्व में एक मुस्लिम शिष्टमण्डल लॉर्ड मिण्टो से मिला। लॉर्ड मिण्टो ने मुसलमानों की माँगों को पूरा करने का आश्वासन दिया। परिणामस्वरूप 30 दिसम्बर, 1906 ई० में इसी शिष्टाण्डल ने मुस्लिम लीग की स्थापना की। इस लीग का पहला अधिवेशन नवाब सलीमुल्ला खाँ के नेतृत्व में ढाका में हुआ। अत: मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेजो की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति की सबसे बड़ी सफलता थी।

(ख) गदर पार्टी आन्दोलन- लाला हरदयाल ने 10 मई, 1913 को कैलिफोर्निया के यूली नामक नगर की एक सभा में गदर पार्टी की स्थापना की। पार्टी ने ‘गदर समाचार-पत्र’ भी निकाला। प्रथम महायुद्ध के समय गदर पार्टी ने इंग्लैण्ड के शत्रुओं से साँठगाँठ कर भारत में 21 फरवरी, 1915 को सशस्त्र क्रान्ति की योजना बनाई। लाहौर इसकी योजना का केन्द्र था। विष्णु गणेश पिंगले और रासबिहारी इसके प्रमुख आयोजक थे। किन्तु इस योजना का पता अंग्रेज अधिकारियों को लगने से यह असफल रही। उन्होंने लगभग सभी नेताओं तथा समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया। गदर आन्दोलनकर्ताओं में से सत्रह व्यक्तियों को फाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया। कई लोगों को आजीवन कारावास मिला। इनके अतिरिक्त गदर आन्दोलन से सम्बन्धित दो दर्जन अन्य सिक्खों को भी फाँसी दे दी गई। गदर पार्टी आन्दोलन में लाला हरदयाल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

इनकी गतिविधियों का केन्द्र अमेरिका रहा। भारत में भी इसके विस्तार के प्रयत्न हुए। इस हेतु अनेक प्रतिनिधिमण्डल भारत भेजे गए। भारत सरकार को अमेरिका व कनाड़ा से सिक्खों के आगमन से गहरी चिन्ता हुई। कामा गाता मारू नामक एक जलयान तीन सौ इक्यावन यात्रियों के साथ 26 सितम्बर, 1914 को हुगली पहुँचा। भारत सरकार ने 29 अगस्त को विदेशियों के लिए एक अध्यादेश पारित किया, जिसके अन्तर्गत किसी का भी भारत आगमन अवैध माना जा सकता था। इन भारतीयों को भी उपर्युक्त नियम के अन्तर्गत रोकने की कोशिश की गई। बजबज नामक बन्दरगाह पर जहाज पहुँचने पर तलाशी हुई और संघर्ष हुआ। अठारह यात्री मार दिए गए और लगभग पच्चीस यात्री घायल हो गए। वास्तव में यह विद्रोह नहीं था, क्रूर हत्याकाण्ड था। कुछ यात्रियों को पंजाब भेज दिया गया। इसी भॉति 29 अक्टूबर, 1915 को एक-दूसरा जहाज एस० एस० तोशामारू’ भारत पहुंचा।

(ग) उदारवादी व अतिवादी- सन् 1885- 1905 ई० के काल को उदारवादियों का काल अथवा उदार राष्ट्रवाद का काल भी कहा जाता है। प्रारम्भिक दौर में कांग्रेस की पूरी बागडोर उदारवादियों के हाथ में थी। इस समय भारतीय-राजनीति में ऐसे व्यक्तियों का प्रभाव था, जो उन अंग्रेजों में श्रद्धा रखते थे, जिनका उदारवादी विचारधारा में विश्वास था। दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रासबिहारी घोष, पंडित मदन मोहन मालवीय, गोपालकृष्ण गोखले आदि नेता उदारवादी विचारधारा के प्रमुख नेता थे। कुछ अंग्रेज भी उदारवादी विचारधारा के समर्थक थे, जिनमें छूम, विलियम वेडरवर्न, जॉर्ज यूल, स्मिथ प्रमुख थे। उदारवादी नेताओं ने कांग्रेस का दो दशकों (1885-1905 ई०) तक मार्गदर्शन किया। ये उदारवादी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को अभिशाप नहीं वरन् वरदान समझते थे।

1895-1905 ई० के काल में भारत और विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं और कुछ ऐसी शक्तियाँ क्रियाशील हुई, जिन्होंने भारतीय राष्ट्र के अपेक्षाकृत युवा वर्ग को पूर्ण स्वतंत्रता की माँग के लिए प्रेरित किया और कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनकी भिक्षा-नीति के फलस्वरूप कांग्रेस में नए दल का उदय हुआ, जो पुराने नेताओं के ढोंग और आदर्शों का कड़ा आलोचक बन गया। यह दल अतिवादी कहलाया। अतिवादी विचारधारा के समर्थकों में आत्मबलिदान और स्वतंत्रता की भावना के साथ-साथ, प्रबल देश-प्रेम तथा विदेशी शासन के प्रति घृणा थी। इस विचारधारा के समर्थक उग्र नीति का प्रयोग चाहते थे। जिसके अन्तर्गत विदेशी वस्तुओं और शासन का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं स्वशासन की स्थापना आदि को सम्मिलित किया जा सकता था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्रपाल, अरविन्द घोष आदि अतिवादी प्रमुख नेता थे।

(घ) लखनऊ समझौता- 1907 ई० में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस में फूट पड़ने से अतिवादी नेता, उदारवादी कांग्रेस से पृथक् हो गए। 1907 ई० से 1915 ई० तक कांग्रेस पर उदारवादी नेताओं का प्रभुत्व बना रहा। इस समय तक कांग्रेस अपनी भिक्षावृत्ति की नीतियों के कारण एक उत्साहहीन संस्था का रूप धारण कर चुकी थी। इसी पृष्ठभूमि में बम्बई (मुम्बई) कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में संशोधन कर दिया, जिसके अनुसार 1916 ई० में अतिवादी नेता कांग्रेस में प्रवेश कर सकते थे। 1916 ई० में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का अधिवेशन लखनऊ में एक साथ ही आयोजित हुआ।

यह दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण था- एक, इसमें अतिवादियों का पुन: प्रवेश और दूसरा, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य समझौता। इस समझौते के अन्तर्गत कांग्रेस ने अस्थायी रूप से मुसलमानों के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन की बात मान ली और मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की स्वशासन की मॉग का समर्थन करना स्वीकार कर लिया। यह समझौता लखनऊ पैक्ट के नाम से विख्यात है। इस प्रकार अनजाने में एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो गई जिसकी परिणति भारत विभाजन के रूप में हुई। रोचक बात यह है कि लखनऊ समझौते में एक ओर बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेण्ट और दूसरी ओर मुहम्मद अली जिन्ना की अग्रणी भूमिका थी।

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UP Board Class 10 English Model Papers Paper 2

UP Board Class 10 English Model Papers Paper 2 are part of UP Board Class 10 English Model Papers . Here we have given UP Board Class 10 English Model Papers Paper 2.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 10
Subject English
Model Paper Paper 2
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 10 English Model Papers Paper 2

Time : 3 hrs 15 min
Maximum Marks : 70

Instruction First 15 minutes are allotted for the candidates to read the question paper.
Note:

  1. This question paper is divided into two sections A and B.
  2. All questions from the two sections are compulsory.
  3. Marks are indicated against each question.
  4. Read the questions very carefully before you start answering them.

Section A

Question 1.
Read the following passage carefully and answer the questions given below it:
“Which is the biggest vessel ?”
“The Earth, which contains all  are thin itself, is the greatest vessel.”
“What is happiness ?” ‘
“Happiness is the result of good conduct.”
. “What is that, by giving up which man becomes loved by all?” “Pride. For, if man gives up being proud, he will be loved by all.”
“What is the loss which yields joj r and not sorrow ?”
“Anger, if we give up being angry , we will no longer be subject to sorrow.”
“What is that, by giving up which ; man becomes rich ?” “Desire. If man gives up being greedy, he will become wealthy.”
“What makes one a real ‘Brahmai la ? Is it birth, good conduct or learning ? Answer decisively.”
“Birth and learning do not make c me a Brahmana; good conduct alone does. However learn led a person may be, he will not be a ‘Brahmana’ without g riving up bad habits.
Even though he may be learned in the four Vedas, a man of bad conduct falls to a lower class.”

  1. What is happiness? (2)
  2. What makes one a real Brahmana? (2)

Question 2.
Answer one of the following quest: ions in about 60 words:(4)

  1. Who was Socrates and what we are his teachings ?
  2. How should we pass on the flame of knowledge and skill to others?

Question 3.
Answer two of the following questions in about 25 words each: (2+2=4)

  1. When did Lencho receive then letter? Why did he become angry?
  2. How can learning be a friend to a traveller ?
  3. Who are Brahma and Sarasv /ati ? How are they related?

Question 4.
Match the words of List A with their meanings in List ‘B’: (1 x 4=4)

List A List B
Homage Harmony
Bidding Tribute
Summon Command
Concord Call somebody to the court

 

Question 5.
Read the following lines of poetry and answer the questions given below it:

Tell me not, in mournful numbers,
Life is but an empty dream !
For the soul is dead that slumbers,
And things are not what they seem.

  1. What do the people hold about life? (2)
  2. What does the poet call as ‘dead’? (2)

Question 6.
Give the central idea of any one of the following poems: (3)

  1. The Fountain
  2. The Psalm of Life

OR 
Write four lines from one of the poems given in your textbook. (Do not copy out the lines given in this question paper).

Question 7.
Answer two of the following questions in about 25 words each: (2+2=4)

  1. What did Edison think when he saw the bird flying ?
  2. What did the village boy say to his friends after sitting on the,green mound? What did his friends do?
  3. How did Luz Long help Jesse Owens in qualifying for ‘ the final jumps ?

Question 8.
Point out true and false statements in the following: (1 x 4=4)

  1. An angry athlete is an athlete who will make mistakes.
  2. Vikramaditya’s beautiful palace stands even today.
  3. After observing three days’ prayer and fasting, the King of Ujjain ascended the throne.
  4. Even in his childhood, Edison loved to do experiments.

Question 9.
Select the most suitable alternative to complete the following statements : (1 x 4=4)
1. Edison succeeded in making an electric bulb after nearly
(A) one thousand experiments
(B) two thousand experiments
(C one thousand and two hundred experiments
(D) one thousand and five hundred experiments

2. Jesse Owens could not clear the first two trial jumps because he was
(A) discouraged by his coach
(B) not a good athlete
(C) angry at Hitler’s Aryan superiority theory
(D) disturbed by his rival Luz Long

3. When the king of Ujjain was making his first attempt to sit on the throne of Vikramaditya,
(A) one of the angels told him to purify his soul to be worthy of sitting on it and flew away
(B) his people warned him against doing so
(C) all the angels became angry and flew away
(D) the shepherd boy stopped him

4. The King of Ujjain could not sit on the judgement seat of Vikramaditya because
(A) he was afraid of the cowherd boy
(B) every time he was pushed aside by an angel
(C) he thought himself to be unworthy of it
(D) he wanted to be a just king

Section B 

Question 10.
Do as indicated against each of the following sentences:

  1. by does not treachery like honest anything earn man honest an to (Frame a correct sentence by re-ordering the words) (2)
  2. Have you prepared the list? (Change into passive voice) (2)
  3. The boy said to Jus mother, “I will never leave you alone.” (Change into indirect speech) (2)
  4. Sumit to see us off and on. (come) (Use correct form of the verb given to fill in the blank) (2)

Question 11.

  1. Choose the correct preposition from the ones given below the sentence to fill in the blank : (2)
    Abhinandan is a good dancer being a flight steward. (from, beside, besides, on)
  2. Complete the following sentence : (2)
    You should do what
  3. Complete the spellings of the following words : (2 + 2 = 1)
    1. ph_l_ ph_r
    2. sh__:h_rd
  4. Punctuate the following sentence using capital letters wherever necessary: (2)
    the woman asked the stranger where do you hail from

Question 12.
Translate the following in English: (4)

एक गाँव में एक अंघा व्यक्ति रह ता था। उस गाँव में आग लग गई । सारे लोग गाँव छोड़कर भागने लगे। उर ी गाँव में एक लँगड़ा (अपाहिज) आदमी भी रहता था। अंधे आदमी ने अपा हिज आदमी से कहा, “तुम मेरे कन्धों पर बैठो। तुम मुझे रास्ता दिखाना, मैं चलूंगा।’ दोनों ने अपनी होशियारी से खुद को बचा लिया और गाँव के बाहर चले गए।

Question 13.
Write an application to the Principal of your School requesting him to issue the school leaving certificate. (4)
(Do not write your Name and Roll No)
OR
Write a letter to your friend boosting his/her confidence for the national level 1 admin ton competition he/she is going to participate in (Do not write your Name and Roll No)

Question 14.
Write a composition c in one of the following topics in about 60 words. Points are given below for each topic to develop the composition: (6)
1. Television
(A) Introduction
(B) Its Good Effect
(C) Its Bad Effect
(D) Conclusion

2. The Book You Little Most
(A) Name of the Book
(B) Its Author and l His Reputation
(C) Its Theme, Language and Style
(D) Its Qualities
(E) Reasons for Your Liking It

2. Pollution
(A) Introduction e ind Meaning
(B) Kinds of Pollution
(C) Harms Cause d by Pollution
(D) Prevention of Pollution
(E) Conclusion

Question 15.
Read the following passage carefully and answer the questions given below it:
One thing Albino waif i made to realise from the beginning was that he wasn’t  abnormal. His brothers and sister would often tease him and 1 would stop playing with him.

He would ask his mother why 1 he was different from his siblings ? She would say because God wanted him this way, may be for some special reason. He would wonder apart from being the reason for fun and we sorry for others what special reason it could be ? But, his n bother loved him a lot. His colour didn’t matter to her and she loved him, unconditionally. She would bring his favourite 1 berries and nuts and would play with him when everyone around would not be talking to him.

  1. What was Albino made to realise? (3)
  2. What shows that Albino’s mother loved him a lot? (3)

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality (स्वतन्त्रता और समानता) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality (स्वतन्त्रता और समानता).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 3
Chapter Name Liberty and Equality (स्वतन्त्रता और समानता)
Number of Questions Solved 37
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality (स्वतन्त्रता और समानता)

विस्तृत उत्तीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके विभिन्न प्रकारों की व्याख्या कीजिए। [2010, 14, 16]
या
स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? सकारात्मक स्वतन्त्रता तथा नकारात्मक स्वतन्त्रता की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। [2012]
या
स्वतन्त्रता से आप क्या समझते हैं? नागरिकों को प्राप्त विभिन्न स्वतन्त्रताओं का उल्लेख कीजिए। [2014]
या
स्वतन्त्रता के विभिन्न प्रकारों का सविस्तार वर्णन कीजिए। [2007]
उत्तर
स्वतन्त्रता जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। बर्स के अनुसार- “स्वतन्त्रता न केवल सभ्य जीवन का आधार है, वरन् सभ्यता का विकास भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर ही निर्भर करता है। स्वतन्त्रता मानव की सर्वप्रिय वस्तु है। व्यक्ति स्वभाव से स्वतन्त्रता चाहता है क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वतन्त्रता सबसे आवश्यक तत्त्व है। मानव के समस्त अधिकारों में स्वतन्त्रता का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अभाव में अन्य अधिकारों का उपयोग नहीं हो सकता है।

स्वतन्त्रता का अर्थ

स्वतन्त्रता का अर्थ निम्न दो रूपों में स्पष्ट किया जाता है-
1. स्वतन्त्रता का नकारात्मक अर्थ
‘स्वतन्त्रता’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘लिबर्टी’ (Liberty) शब्द का हिन्दी अनुवाद है। ‘लिबर्टी’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के लिबर’ (Liber) शब्द से हुई। ‘लिबर’ का अर्थ ‘बन्धनों का न होना होता है। अतः स्वतन्त्रता का शाब्दिक अर्थ ‘बन्धनों से मुक्ति’ है अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी बन्धन के अपनी इच्छानुसार सभी कार्यों को करने की सुविधा प्राप्त होना ही ‘स्वतन्त्रता है।
वस्तुतः स्वतन्त्रता का यह अर्थ अनुचित है क्योंकि यदि हम कहें कि कोई भी व्यक्ति किसी की हत्या करने के लिए स्वतन्त्र है, तो यह स्वतन्त्रता न होकर अराजकता है। इस दृष्टि से मैकेंजी ने ठीक ही लिखा है, “पूर्ण स्वतन्त्रता जंगली गधे की आवारागर्दी की स्वतन्त्रता है।”
इस सम्बन्ध में बार्कर (Barker) का मत है- “कुरूपता के अभाव को सौन्दर्य नहीं कहते, इसी प्रकार बन्धनों के अभाव को स्वतन्त्रता नहीं कहते, अपितु अवसरों की प्राप्ति को स्वतन्त्रता कहते हैं।”

2. स्वतन्त्रता का सकारात्मक अर्थ
स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ मनुष्य के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा तथा ऐसे बन्धनों का अभाव है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में बाधक हों। स्वतन्त्रता के सकारात्मक पक्ष को स्पष्ट करते हुए ग्रीन ने लिखा है, “योग्य कार्य करने अथवा उसके उपयोग करने की सकारात्मक शक्ति को स्वतन्त्रता कहते हैं। इसी प्रकार सकारात्मक पक्ष के सम्बन्ध में लॉस्की का कथन है,
स्वतन्त्रता से अभिप्राय ऐसे वातावरण को बनाए रखना है, जिसमें कि व्यक्ति को अपना पूर्ण विकास करने का अवसर मिले। स्वतन्त्रता का उदय अधिकारों से होता है। स्वतन्त्रता पर विवेकपूर्ण प्रतिबन्ध आरोपित करने का पक्षधर है।

स्वतन्त्रता की परिभाषाएँ
स्वतन्त्रता की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का विवेचन निम्नलिखित है-

  • लॉस्की के अनुसार – “स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ राज्य की ओर से ऐसे वातावरण का निर्माण करना है, जिसमें कि व्यक्ति आदर्श नागरिक जीवन व्यतीत करने योग्य बन सके तथा अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके।
  • मैकेंजी के अनुसार – “स्वतन्त्रता सब प्रकार के बन्धनों का अभाव नहीं, अपितु तर्करहित प्रतिबन्धों के स्थान पर तर्कसंगत प्रतिबन्धों की स्थापना है।”
  • बार्कर के अनुसार – “स्वतन्त्रता प्रतिबन्धों का अभाव नहीं, परन्तु वह ऐसे नियन्त्रणों का अभाव है, जो मनुष्य के विकास में बाधक हो।”
  • हरबर्ट स्पेंसर के अनुसार – “प्रत्येक व्यक्ति जो चाहता है, वह करने के लिए स्वतन्त्र है, बशर्ते कि वह किसी अन्य व्यक्ति की समान स्वतन्त्रता का अतिक्रमण न करे।”
  • रूसो के अनुसार – “उन कानूनों का पालन करना जिन्हें हम अपने लिए निर्धारित करते हैं, स्वतन्त्रता है।”
  • मॉण्टेस्क्यू के अनुसार – “स्वतन्त्रता उन सब कार्यों को करने का अधिकार है जिनकी स्वीकृति कानून देता है।”
  • ग्रीन के अनुसार- “स्वतन्त्रता उन कार्यों को करने अथवा उन वस्तुओं के उपभोग करने की शक्ति है जो करने या उपभोग के योग्य हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि स्वतन्त्रता स्वेच्छाचारिता का नाम नहीं है। आप वहीं तक स्वतन्त्र हैं जहाँ तक दूसरे की स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती। ऐसी स्थिति में सामान्य मापदण्डों का ध्यान रखना पड़ता है।

स्वतन्त्रता के प्रकार (रूप)
स्वतन्त्रता के विभिन्न रूप तथा उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

1. प्राकृतिक स्वतन्त्रता – इस प्रकार की स्वतन्त्रता के तीन अर्थ लगाए जाते हैं। पहला अर्थ यह है कि स्वतन्त्रता प्राकृतिक होती है। वह प्रकृति की देन है तथा मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र होता है। इसी विचार को व्यक्त करते हुए रूसो ने लिखा है, “मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होता है; किन्तु वह सर्वत्र बन्धनों में जकड़ा हुआ है।” (Man is born free but everywhere he is in chains.) इस प्रकार प्राकृतिक स्वतन्त्रता का अर्थ मनुष्यों की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता है। दूसरे अर्थ के अनुसार, मनुष्य को वही स्वतन्त्रता प्राप्त हो, जो उसे प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त थी। तीसरे अर्थ के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य स्वभावत: यह अनुभव करता है कि स्वतन्त्रता का विचार इस रूप में मान्य है कि सभी समान हैं और उन्हें व्यक्तित्व के विकास हेतु समान सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए।

2. नागरिक स्वतन्त्रता – नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय व्यक्ति की उन स्वतन्त्रताओं से है। जिनको एक व्यक्ति समाज या राज्य का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। गैटिल के शब्दों में, “नागरिक स्वतन्त्रता उन अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को कहते हैं, जिनकी सृष्टि राज्यं अपने नागरिकों के लिए करता है।” सम्पत्ति अर्जित करने और उसे सुरक्षित रखने की स्वतन्त्रता, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा कानून के समक्ष समानता आदि स्वतन्त्रताएँ नागरिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत ही सम्मिलित की जाती हैं।

3. राजनीतिक स्वतन्त्रता – इस स्वतन्त्रता के अनुसार प्रत्येक नागरिक बिना किसी वर्णगत, लिंगगत, वंशगत, जातिगत, धर्मगत भेदभाव के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से शासन-कार्यों में भाग ले सकता है। इस स्वतन्त्रता की व्याख्या करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “राज्य के कार्यों में सक्रिय भाग लेने की शक्ति ही राजनीतिक स्वतन्त्रता है।” राजनीतिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत मताधिकार, निर्वाचित होने का अधिकार तथा सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार, राजनीतिक दलों तथा दबाव-समूहों के निर्माण आदि सम्मिलित किए जाते हैं। शान्तिपूर्ण साधनों के आधार पर सरकार का विरोध करने का अधिकार भी राजनीतिक स्वतन्त्रता में सम्मिलित किया जाता है।

4. आर्थिक स्वतन्त्रता – आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार अथवी अपने श्रम के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त करने की स्वतन्त्रता है। आर्थिक स्वतन्त्रता की परिभाषा देते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आर्थिक स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिदिन की जीविका उपार्जित करने की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। वस्तुतः यह स्वतन्त्रता रोजगार प्राप्त करने की स्वतन्त्रता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार या अपने श्रम के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो तथा किसी प्रकार भी उसके.श्रम का दूसरे के द्वारा शोषण न किया जा सके।
5. धार्मिक स्वतन्त्रता – प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की सुविधा ही धार्मिक स्वतन्त्रता कहलाती है। इस प्रकार की स्वतन्त्रता के लिए यह आवश्यक है कि राज्य किसी धर्म-विशेष के साथ पक्षपात न करके सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करे। साथ ही किसी व्यक्ति को बलपूर्वक धर्म परिवर्तन हेतु प्रेरित न किया जाए और न ही उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई जाए।

6. नैतिक स्वतन्त्रता – व्यक्ति को अपनी अन्तरात्मा के अनुसार व्यवहार करने की पूरी सुविधा प्राप्त होना ही नैतिक स्वतन्त्रता है। काण्ट, हीगल, ग्रीन आदि विद्वानों ने नैतिक स्वतन्त्रता का प्रबल समर्थन किया है।

7. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता – व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति के उन कार्यों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए, जिनका सम्बन्ध केवल उसके व्यक्तित्व से ही हो। इस प्रकार के कार्यों में भोजन, वस्त्र, धर्म तथा पारिवारिक जीवन को सम्मिलित किया जा सकता है।

8. सामाजिक स्वतन्त्रता – सभी व्यक्तियों को समाज में अपना विकास करने की सुविधा प्राप्त होना ही सामाजिक स्वतन्त्रता है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक, क्रिया-कलापों आदि में बिना किसी भेदभाव के सम्मिलित होने के लिए स्वतन्त्र है।

9. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता – राष्ट्रीय स्वतन्त्रता; राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा आत्म-निर्णय के अधिकार से सम्बन्धित है। इस प्रकार की स्वतन्त्रता के अन्तर्गत राष्ट्र को भी स्वतन्त्र होने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता की परिभाषा दीजिए तथा उसका कानून के साथ सम्बन्ध स्थापित कीजिए। [2011, 15]
या
कानून और स्वतन्त्रता के मध्य सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2015]
उत्तर
स्वतन्त्रता की परिभाषा
[संकेत–स्वतन्त्रता की परिभाषा हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 का अध्ययन करें]
स्वतन्त्रता और कानून का सम्बन्ध
स्वतन्त्रता और कानून के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर राजनीतिक विचारकों में बहुत अधिक मतभेद है और इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से निम्नलिखित दो विचारधाराओं का प्रतिपादन किया गया है-

1. अराजकतावादियों और व्यक्तिवादियों के विचार – प्रथम विचारधारा को प्रतिपादन, अराजकतावादी और व्यक्तिवादी विचारकों द्वारा किया गया है। अराजकतावादियों के अनुसार, स्वतन्त्रता का तात्पर्य व्यक्तियों की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है और राज्य के कानून शक्ति पर आधारित होने के कारण व्यक्तियों की इच्छानुसार कार्य करने में बाधक होते हैं, अतः स्वतन्त्रता और कानून परस्पर विरोधी हैं। अराजकतावादी ‘विलियम गॉडविन’ के शब्दों में, “कानून सबसे अधिक घातक प्रकृति की संस्था है। व्यक्तिवादी भी राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हुए कानून और स्वतन्त्रता को परस्पर विरोधी बताते हैं। उनका कथन है कि “एक की मात्रा जितनी अधिक होगी, दूसरे की मात्रा उतनी ही कम | हो जायेगी।

2. आदर्शवादियों के विचार – अराजकतावादी और व्यक्तिवादी धारणा के नितान्त विपरीत आदर्शवादी विचारकों और राजनीति विज्ञान के वर्तमान विद्वानों ने इस विचार का प्रतिपादन किया है कि कानून स्वतन्त्रता को सीमित नहीं करते वरन् स्वतन्त्रता की रक्षा और उसमें वृद्धि करते हैं। विलोबी के अनुसार, “जहाँ नियन्त्रण होते हैं, वहीं स्वतन्त्रता का अस्तित्व होता है।’ लॉक और रिची के द्वारा भी यही मत व्यक्त किया गया है और हॉकिन्स ने तो यहाँ तक कहा है कि “व्यक्ति जितनी अधिक स्वतन्त्रता चाहता है उतनी ही अधिक सीमा तक उसे शासन की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए।’

इन आदर्शवादी विद्वानों का दृष्टिकोण बहुत कुछ सीमा तक सही है और कानून निम्नलिखित तीन प्रकार से व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करते और उसमें वृद्धि करते हैं-

1. कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता की अन्य व्यक्तियों के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं- यदि समाज के अन्तर्गत किसी भी प्रकार के कानून न हों तो समाज के शक्तिशाली व्यक्ति निर्बल व्यक्तियों पर अत्याचार करेंगे और संघर्ष की इस अनवरत प्रक्रिया में किसी भी व्यक्ति की स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रहेगी।

2. कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता की राज्य के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं- साधारणतया वर्तमान समय के राज्यों में दो प्रकार के कानून होते हैं—साधारण कानून और संवैधानिक कानून। इन दोनों प्रकार के कानूनों में से संवैधानिक कानूनों द्वारा राज्य के हस्तक्षेप से व्यक्ति की स्वतन्त्रता को रक्षित करने का कार्य किया जाता है। भारत और अमेरिका आदि राज्यों के संविधानों में मौलिक अधिकारों की जो व्यवस्था है, वह इस सम्बन्ध में श्रेष्ठ उदाहरण है। यदि राज्य इन मौलिक अधिकारों (संवैधानिक कानूनों) के विरुद्ध कोई कार्य करता है तो व्यक्ति न्यायालय की शरण लेकर राज्य के हस्तक्षेप से अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकता है।

3. स्वतन्त्रता के नकारात्मक स्वरूप के अतिरिक्त इसका एक सकारात्मक स्वरूप भी होता है- स्वतन्त्रता के सकारात्मक स्वरूप का तात्पर्य है व्यक्ति को व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करना। कानून व्यक्तियों के व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्रदान करते हुए उन्हें वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। वर्तमान समय में लगभग सभी राज्यों द्वारा जनकल्याणकारी राज्य के विचार को अपना लिया गया है और राज्य कानूनों के : माध्यम से एक ऐसे वातावरण के निर्माण में संलग्न हैं जिनके अन्तर्गत व्यक्ति अपने व्यक्तित्व : का पूर्ण विकास कर सकें। राज्य के द्वारा की गयी अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था, अधिकतम श्रम और न्यूनतम वेतन के सम्बन्ध में कानूनी व्यवस्था, जनस्वास्थ्य का प्रबन्ध आदि कार्यों द्वारा नागरिकों को व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं और इस प्रकार राज्य नागरिकों को वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान कर रहा है।

यदि राज्य सड़क पर चलने के सम्बन्ध में किसी प्रकार के नियमों का निर्माण करता है, मद्यपान पर रोक लगाता है या टीके की व्यवस्था करता है तो राज्य के इन कार्यों से व्यक्तियों की स्वतन्त्रता सीमित नहीं होती, वरन् उसमें वृद्धि ही होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि साधारण रूप से राज्य के कानून व्यक्तियों की स्वतन्त्रता की रक्षा और उसमें वृद्धि करते हैं।
स्वतन्त्रता और कानून के इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण ही रैम्जे म्योर ने लिखा है कि “कानून और स्वतन्त्रता इस प्रकार अन्योन्याश्रित और एक-दूसरे के पूरक हैं।”

सभी कानून स्वतन्त्रता के साधक नहीं लेकिन राज्य द्वारा निर्मित सभी कानूनों के सम्बन्ध में इस प्रकार की बात नहीं कही जा सकती है कि वे मानवीय स्वतन्त्रता में वृद्धि करते हैं। यदि शासन अपने ही स्वार्थों को दृष्टि में रखकर कानूनों का निर्माण करता है, जनसाधारण के हितों की अवहेलना करता है और बिना किसी विशेष कारण के नागरिकों की स्वतन्त्रताएँ सीमित करता है। तो राज्य के इन कानूनों से व्यक्तियों की स्वतन्त्रता सीमित ही होती है। उदाहरणार्थ, हिटलर और मुसोलिनी द्वारा निर्मित अनेक कानून स्वतन्त्रता के विरुद्ध थे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी कानून नागरिकों की स्वतन्त्रता में वृद्धि नहीं करते, वरन्। ऐसा केवल उन्हीं कानूनों के सम्बन्ध में कहा जा सकता है जिनके सम्बन्ध में, लॉस्की के शब्दों में व्यक्ति यह अनुभव करते हैं कि मैं इन्हें स्वीकार कर सकता और इनका पालन कर सकता हूँ।”
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यदि राज्य का कानून जनता की इच्छा पर आधारित है तो वह स्वतन्त्रता का पोषक होगा और यदि वह निरंकुश शासन की इच्छा का परिणाम है तो स्वतन्त्रता का विरोधी हो सकता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Liberty and Equality

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता एवं समानता का सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए। [2007, 12, 14]
या
“स्वतन्त्रता की समस्या का केवल एक ही हल है और वह हल समानता में निहित है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2010, 14]
या
समानता को परिभाषित कीजिए तथा स्वतन्त्रता के साथ इसके सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए। [2009]
या
स्वतन्त्रता और समानता के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। [2007, 11, 12, 14]
या
“स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2011, 15, 16]
उत्तर
समानता का अर्थ साधारण रूप से समानता का अर्थ यह लगाया जाता है कि सभी व्यक्तियों को ईश्वर ने बनाया है; अतः सभी समान हैं और इसी कारण सभी को समान सुविधाएँ व आय का समान अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार का मत व्यक्त करने वाले व्यक्ति प्राकृतिक समानता में विश्वास व्यक्त करते हैं, किन्तु यह विचार भ्रमपूर्ण है, क्योंकि प्रकृति ने ही मनुष्यों को बुद्धि, बल तथा प्रतिभा के आधार पर समान नहीं बनाया है। अप्पादोराय के शब्दों में, “यह स्वीकार करना कि सभी मनुष्य समान हैं, उतना ही भ्रमपूर्ण है जितना कि यह कहना कि भूमण्डल समतल है।”

मनुष्यों में असमानता के दो कारण हैं- प्रथम, प्राकृतिक और द्वितीय, सामाजिक या समाज द्वारा उत्पन्न। अनेक बार यह देखने में आता है कि प्राकृतिक रूप से समान होते हुए भी व्यक्ति असमान हो जाते हैं, क्योंकि आर्थिक समानता के अभाव में सभी को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के समान अवसर उपलब्ध नहीं हो पाते। इस प्रकार समाज द्वारा उत्पन्न परिस्थितियाँ मनुष्य के बीच असमानता उत्पन्न कर देती हैं।

नागरिकशास्त्र की अवधारणा के रूप में समानता से हमारा तात्पर्य समाज द्वारा उत्पन्न इस असमानता का अन्त करने से होता है। दूसरे शब्दों में, समानता का तात्पर्य अवसर की समानता से है। सभी व्यक्तियों को अपने विकास के लिए समान सुविधाएँ व समान अवसर प्राप्त हों, ताकि किसी भी व्यक्ति को यह कहने का अवसर न मिले कि यदि उसे यथेष्ट सुविधाएँ प्राप्त होतीं तो वह अपने जीवन का विकास कर सकता था। इस प्रकार समाज में जाति, धर्म व भाषा के आधार पर व्यक्तियों में किसी प्रकार का भेद न किया जाना अथवा इन आधारों पर उत्पन्न विषमता का अन्त करना ही समानता है। समानता की परिभाषा व्यक्त करते हुए लॉस्की ने लिखा है कि “समानता मूल रूप से समतल करने की प्रक्रिया है। इसीलिए समानता का प्रथम अर्थ विशेषाधिकारों का अभाव और द्वितीय अर्थ अवसरों की समानता से है।”

समानता के दो पक्ष: नकारात्मक और सकारात्मक – समानता की परिभाषा का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समानता के दो पक्ष हैं- (1) नकारात्मक तथा (2) सकारात्मक। नकारात्मक पक्ष से तात्पर्य है कि सामाजिक क्षेत्र में किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव न हो तथा सकारात्मक पक्ष का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकाधिक विकास के लिए समान अवसर प्राप्त हों। उदाहरणार्थ-शिक्षा की आवश्यकता सबके लिए होती है; अतः राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने सब नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर प्रदान करे।

समानता के विविध रूप
समानता के विविध रूपों में नागरिक समानता, सामाजिक समानता, राजनीतिक समानता, आर्थिक समानता, प्राकृतिक समानता, धार्मिक समानता एवं सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी समानता प्रमुख हैं।

स्वतन्त्रता और समानता का सम्बन्ध
स्वतन्त्रता और समानता के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर राजनीतिशास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद हैं और इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो विचारधाराओं का प्रतिपादन किया गया है, जो इस प्रकार हैं-

1. स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं- कुछ व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता के जन-प्रचलित अर्थों के आधार पर इन्हें परस्पर विरोधी बताया गया है। उनके अनुसार स्वतन्त्रता अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है, जब कि समानता का तात्पर्य प्रत्येक प्रकार से सभी व्यक्तियों को समान समझने से है। इस आधार पर सामान्य व्यक्ति ही नहीं, वरन् डी० टॉकविले और एक्टन जैसे विद्वानों द्वारा भी इन्हें परस्पर विरोधी माना गया है। लॉर्ड एक्टन एक स्थान पर लिखते हैं कि समानता की उत्कृष्ट अभिलाषा के कारण स्वतन्त्रता की आशा ही व्यर्थ हो गयी है।

2. स्वतन्त्रता और समानता परस्पर पूरक हैं- उपर्युक्त प्रकार की विचारधारा के नितान्त विपरीत दूसरी ओर विद्वानों का एक बड़ा समूह है, जो स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी नहीं वरन् पूरक़ मानते हैं। रूसो, टॉनी, लॉस्की और मैकाइवर इस मत के प्रमुख समर्थक हैं और अपने मत की पुष्टि में इन विद्वानों ने निम्नलिखित तर्क दिये हैं-

स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी बताने वाले विद्वानों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता की गलत धारणा को अपनाया गया है। स्वतन्त्रता का तात्पर्य ‘प्रतिबन्धों के अभाव’ या स्वच्छन्दता से नहीं है, वरन् इसका तात्पर्य केवल यह है कि अनुचित प्रतिबन्धों के स्थान पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था की जानी चाहिए और उन्हें अधिकतम सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए, जिससे उनके द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास किया जा सके। इसी प्रकार पूर्ण समानता एक काल्पनिक वस्तु है और समानता का तात्पर्य पूर्ण समानता जैसी किसी काल्पनिक वस्तु से नहीं, वरन् व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक और पर्याप्त सुविधाओं से है, जिससे सभी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें और इस प्रकार उस असमानता का अन्त हो सके, जिसका मूल कारण सामाजिक परिस्थितियों का भेद है। इस प्रकार स्वतन्त्रता और समानता दोनों ही व्यक्तित्व के विकास हेतु नितान्त आवश्यक हैं।

प्रश्न 4.
समता (समानता) का अर्थ स्पष्ट कीजिए। इसके कितने प्रकार होते हैं? उनका वर्णन कीजिए। [2009, 14, 16]
या
समानता का अर्थ स्पष्ट कीजिए। समानता के विविध रूपों का वर्णन कीजिए। [2008, 10, 16]
(संकेत-समानता के अर्थ हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 3 का अध्ययन करें)
उत्तर
समानता के भेद अथवा प्रकार समानता के विभिन्न भेदों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

1. प्राकृतिक समानता – प्लेटो के अनुसार, “प्राकृतिक समानता से अभिप्राय यह है कि सब मनुष्य जन्म से समान होते हैं। स्वाभाविक रूप से सभी व्यक्ति समान हैं, हम सबका निर्माण एक ही विश्वकर्मा ने एक ही मिट्टी से किया है। हम चाहे अपने को कितना ही धोखा दें, ईश्वर को निर्धन, किसान और शक्तिशाली राजकुमार सभी समान रूप से प्रिंय हैं।” आधुनिक युग में प्राकृतिक समानता को कोरी कल्पना माना जाता है। कोल के अनुसार, “मनुष्य शारीरिक बल, पराक्रम, मानसिक योग्यता, सृजनात्मक शक्ति, समाज-सेवा की भावना और सम्भवतः सबसे अधिक कल्पना-शक्ति में एक-दूसरे से मूलतः भिन्न हैं।” संक्षेप में, वर्तमान युग में प्राकृतिक समानता का आशय यह है कि प्राकृतिक रूप से नैतिक आधार पर ही सभी व्यक्ति समान हैं तथा समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की असमानताएँ कृत्रिम हैं।

2. सामाजिक समानता – सामाजिक समानता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान अधिकार प्राप्त हों और सबको समान सुविधाएँ मिलें। जिस समाज में जन्म, जाति, धर्म, लिंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता, वहाँ सामाजिक समानता होती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा जो मानव-अधिकारों की घोषणा की गयी है, उसमें सामाजिक समानता पर विशेष बल दिया गया है।

3. नागरिक या कानूनी समानता – नागरिक समानता का अर्थ नागरिकता के समान अधिकारों से होता है। नागरिक समानता के लिए यह आवश्यक है कि सब नागरिकों के मूलाधिकार सुरक्षित हों तथा सभी नागरिकों को समान रूप से कानून का संरक्षण प्राप्त हो। नागरिक समानता की पहली अनिवार्यता यह है कि समस्त नागरिक कानून के समक्ष समान हों। यदि कानून धन, पद, जाति अथवा अन्य किसी आधार पर भेद करता है तो उससे नागरिक समानता समाप्त हो जाती है और नागरिकों में असमानता का उदय होता है।

4. राजनीतिक समानता – जब राज्य के सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त हो तो वहाँ के लोगों को राजनीतिक समानता प्राप्त रहती है। राजनीतिक समानता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को मत देने, निर्वाचन में खड़े होने तथा सरकारी नौकरी प्राप्त करने का समान अधिकार होता है। उनके साथ जाति, धर्म यो अन्य किसी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता। राजनीतिक समानता लोकतन्त्र की आधारशिला होती है।

5. धार्मिक समानता – धार्मिक समानता का अर्थ यह है कि धार्मिक मामलों में राज्य तटस्थ हो और सब नागरिकों को अपनी इच्छा से धर्म मानने की स्वतन्त्रता हो। राज्य धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न करे। प्राचीन और मध्यकाल में इस प्रकार की धार्मिक समानता का अभाव था, परन्तु आज धर्म और राजनीति एक-दूसरे से अलग हो गये हैं और सामान्यतः राज्य नागरिकों के धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता।

6. आर्थिक समानता – आर्थिक समानता का अभिप्राय यह है कि समाज में धन के वितरण की उचित व्यवस्था हो तथा मनुष्यों की आय में बहुत अधिक असमानता नहीं होनी चाहिए। लॉस्की के अनुसार, “आर्थिक समानता का अभिप्राय यह है कि राज्य में सभी को समान सुविधाएँ तथा अवसर प्राप्त हों।’ इस सन्दर्भ में लॉर्ड ब्राइस का मत है कि “समाज से सम्पत्ति के सभी भेदभाव समाप्त कर दिये जाएँ तथा प्रत्येक स्त्री-पुरुष को भौतिक साधनों एवं सुविधाओं का समान भाग दिया जाए।”
संक्षेप में, आर्थिक समानता से सम्बन्धित प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-

  • समाज में सभी को समान रूप से व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता हो।
  • प्रत्येक मनुष्य को इतना वेतन या पारिश्रमिक अवश्य प्राप्त हो कि वह अपनी न्यूनतम आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।
  • राज्य में उत्पादन और उपभोग के साधनों का वितरण और विभाजन इस प्रकार से हो कि आर्थिक शक्ति कुछ ही व्यक्तियों या वर्गों के हाथों में केन्द्रित न हो सके। सी० ई० एम० जोड के अनुसार, “स्वतन्त्रता का विचार, जो राजनीतिक विचारधारा में बहुत महत्त्वपूर्ण है, जब आर्थिक क्षेत्र में लागू किया गया तो उससे विनाशकारी परिणाम निकले, जिसके फलस्वरूप समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं का उदय हुआ, जो आर्थिक समानता पर विशेष बल देती हैं और जिनकी यह निश्चित धारणा है कि आर्थिक समानता के अभाव में वास्तविक राज़नीतिक स्वतन्त्रता कदापि प्राप्त नहीं हो सकती।’ वास्तविकता यह है कि आर्थिक समानता सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं का आधार है और आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक भ्रम है। प्रो० जोड के अनुसार, “आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।”
  • सुदृढ़ राजनीतिक एवं नागरिक समानता की कल्पना अपेक्षित आर्थिक समानता की पृष्ठभूमि पर ही की जा सकती है।

7. शैक्षिक एवं सांस्कृतिक समानता – शैक्षिक समानता का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने तथा अन्य योग्यताएँ विकसित करने का समान अवसर मिलना चाहिए और शिक्षा के क्षेत्र में जाति, धर्म, वर्ण और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। समानता का तात्पर्य यह है कि सांस्कृतिक दृष्टि से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सभी वर्गों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति बनाये रखने का अधिकार होना चाहिए। इसका महत्त्व इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि इसे भारतीय संविधान में मूल अधिकारों के अन्तर्गत रखा जाता है।

8. नैतिक समानता – इस समानता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने चरित्र का विकास करने के लिए अन्य व्यक्तियों के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।

9. राष्ट्रीय समानता – प्रत्येक राष्ट्र समान है, चाहे कोई राष्ट्र छोटा हो या बड़ा। इसलिए प्रत्येक राष्ट्र को विकास करने के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
“आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2011, 13, 16]
उत्तर
लॉस्की, रूसो, मैकाइवर, सी०ई०एम० जोड आदि विचारक स्वतन्त्रता एवं समानता को एक-दूसरे को पूरक मानते हैं। इन विद्वानों का मत है कि आर्थिक समानता के अभाव में स्वतन्त्रता का अस्तित्व निरर्थक है। प्रो०.पोलार्ड के अनुसार, “स्वतन्त्रता की समस्या का केवल एक हल है और वह हल समानता में निहित है।”

सी०ई०एम० जोड के अनुसार, “स्वतन्त्रता का विचार, जो राजनीतिक विचारधारा में बहुत महत्त्वपूर्ण है, जब आर्थिक क्षेत्र में लागू किया गया तो उससे विनाशकारी परिणाम निकले, जिसके फलस्वरूप समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं का उदय हुआ, जो आर्थिक समानता पर विशेष बल देती है और जिनकी यह निश्चित धारणा है कि आर्थिक समानता के अभाव में वास्तविक राजनीतिक स्वतन्त्रता कदापि प्राप्त नहीं हो सकती।’ वास्तविकता यह है कि आर्थिक समानता सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं का आधार है और आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक भ्रम है। प्रो० जोड के अनुसार, “आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।”

विद्वानों का मत है कि जब तक प्रत्येक नागरिक को आर्थिक क्षेत्र में समान अवसर प्रदान किये जाते हैं तब तक राजनीतिक स्वतन्त्रता की अवधारणा केवल एक भ्रम है। उनका मानना है कि यदि समाज में आर्थिक समानता नहीं है तो धनिक वर्ग अन्य वर्गों का शोषण करेगा तथा उनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता को भी प्रभावित करेगा। ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी कि राजनीतिक सत्ता पूँजीपतियों में निहित हो जाएगी और राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा समानता केवल शब्दों तक ही सीमित रह जाएगी। इस विचारधारा को मानने वाले विद्वान् निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं

  1. आर्थिक विषमता का फल पूँजीपतियों को ही मिलता है। उनका राजनीतिक क्षेत्र में प्रभुत्व रहता है और परिणामस्वरूप जनसाधारण के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
  2. निर्धनता आर्थिक विषमता का ही परिणाम होती है। निर्धन वर्ग पूँजीपतियों से धन लेकर उनके पक्ष में मतों को बेच देता है और राजनीतिक स्वतन्त्रता मात्र कहने की बात रह जाती है।
  3. बहुधा धनिक वर्ग धन के बल पर सरकारी पदों को प्राप्त कर लेता है और योग्य परन्तु निर्धन व्यक्ति यह पद प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक विषमता राजनीतिक स्वतन्त्रता का हनन करती है।
  4. आर्थिक विषमता के कारण निर्धन व्यक्ति के अधिकारों तथा उसकी स्वतन्त्रता पर कुठाराघात होता रहता है। निर्धनता के कारण ऐसा व्यक्ति न्यायालय की शरण भी नहीं ले पाता तथा चुपचाप शोषण व उत्पीड़न को सहता रहता है।
  5. निर्धन व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में ही फंसे रहते हैं। उनको अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का आभास भी नहीं होता। निर्धन व्यक्तियों में शिक्षा का अभाव होता है। इस कारण धनिक वर्ग प्रेस तथा विचाराभिव्यक्ति के साधनों पर अधिकार होने के कारण निर्धन वर्ग के लोगों को आसानी से अपने प्रभाव में ले लेता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक भ्रम है।

प्रश्न 2.
“स्वतन्त्रता व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है।” विवेचना कीजिए।
या
“स्वतन्त्रता उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर
स्वतन्त्रता अमूल्य वस्तु है और उसका मानवीय जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। स्वतन्त्रता का मूल्य व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर समान है। स्वतन्त्रता का महत्त्व न होता तो विभिन्न देशों में लाखों व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान न दिया जाता। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है।
और इन विविध अधिकारों में स्वतन्त्रता का स्थान निश्चित रूप से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य का सम्पूर्ण भौतिक, मानसिक एवं नैतिक विकास स्वतन्त्रता के वातावरण में ही सम्भव है।

स्वतन्त्रता की व्याख्या करते हुए लॉस्की ने भी कहा है कि “स्वतन्त्रता उस वातावरण को बनाए रखती है जिसमें व्यक्ति को जीवन को सर्वोत्तम विकास करने की सुविधा प्राप्त हो।” इस प्रकार स्वतन्त्रता का तात्पर्य ऐसे वातावरण और परिस्थितियों की विद्यमानता से है जिसमें व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके। स्वतन्त्रता निम्नलिखित आदर्श दशाएँ प्रस्तुत करती हैं-

  1. न्यूनतम प्रतिबन्ध – स्वतन्त्रता का प्रथम तत्त्व यह है कि व्यक्ति के जीवन पर शासन और समाज के दूसरे सदस्यों की ओर से न्यूनतम प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिससे व्यक्ति अपने विचार और कार्य-व्यवहार में अधिकाधिक स्वतन्त्रता का उपभोग कर सके तथा अपना विकास सुनिश्चित कर सके।
  2. व्यक्तित्व विकास हेतु सुविधाएँ – स्वतन्त्रता का दूसरा तत्त्व यह है कि समाज और राज्य द्वारा व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकाधिक सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए।

इस प्रकार स्वतन्त्रता जीवन की ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबन्ध हों और व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकतम सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता का महत्त्व बताइए।
उत्तर
स्वतन्त्रता का महत्त्व
मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है और व्यक्ति के विविध अधिकारों में स्वतन्त्रता का स्थान निश्चित रूप में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। बर्टेण्ड रसैल कहते हैं, “स्वतन्त्रता की इच्छा व्यक्ति की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है और इसी के आधार पर सामाजिक जीवन का निर्माण सम्भव है। मनुष्य का सम्पूर्ण भौतिक, मानसिक एवं नैतिक विकास स्वतन्त्रता के वातावरण में ही सम्भव है।

यदि हम प्रकृति पर दृष्टि डालें तो भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतन्त्रता के बिना किसी भी वस्तु का विकास सम्भव नहीं है। पेड़-पौधे भी स्वतन्त्रता के वातावरण में ही विकसित हो सकते हैं। जो पौधा या पेड़ किसी विशाल वृक्ष की छाया या दबाव में पड़ जाता है, उसका विकास रुक जाता है। इसी प्रकार पिंजड़े में बन्द पक्षी या सर्कस के क्रठहरे में बन्द शेर सही अर्थों में पक्षी या शेर नहीं रहते वे अपना सारभूत तत्त्व खो देते हैं। सृष्टि के इन प्राणियों के सम्बन्ध में जो बात सत्य है, वह विवेकशील मनुष्य के सम्बन्ध में और भी अधिक सत्य है। मनुष्य का भौतिक, बौद्धिक तथा नैतिक विकास स्वतन्त्रता के बिना सम्भव ही नहीं है। इसी आधार पर जे०एस० मिल द्वारा अपनी पुस्तक ‘On Liberty’ में स्वतन्त्रता को मानव-जीवन का मूल आधार बताया गया है। बर्स ने ठीक ही लिखा है कि स्वतन्त्रता न केवल सभ्य जीवन का आधार है, वरन् सभ्यता का विकास भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर ही निर्भर करता है। इसी प्रकार महाकवि तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में लिखा है ‘करि विचार देखहुँ मन माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।’

स्वतन्त्रता अमूल्य वस्तु है और उसका मानवीय जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। यह बात व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय स्वतन्त्रता दोनों के ही सम्बन्ध में सत्य है। स्वतन्त्रता का महत्त्व न होता, तो विभिन्न देशों में लाखों व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान न दिया जाता। इटली के प्रसिद्ध देशभक्त मैजिनी (Mazzini) का कथन है कि “स्वतन्त्रता के अभाव में आप अपना कोई कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते। अतएव आपको स्वतन्त्रता का अधिकार दिया जाता है और जो भी शक्ति आपको इस अधिकार से वंचित रखना चाहती हो, उससे जैसे भी बने, अपनी स्वतन्त्रता छीन लेना आपका कर्तव्य है।”

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प्रश्न 4.
“स्वतन्त्रता तथा कानून परस्पर विरोधी हैं।” इस विचार को मान्यता प्रदान करने वालों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
कुछ विद्वानों का विचार है कि स्वतन्त्रता तथा कानून परस्पर विरोधी हैं, क्योंकि कानून स्वतन्त्रता पर अनेक प्रकार के बन्धन लगाता है। इस विचार को मान्यता देने वालों में व्यक्तिवाद, अराजकतावादी, श्रम संघवादी तथा कुछ अन्य विद्वान् हैं। इस मत के अलग-अलग विचार अग्रलिखित हैं-

  1. व्यक्तिवादियों के विचार – व्यक्तिवादी विचारधारा राज्य के कार्यों को सीमित करने के पक्ष में है। व्यक्तिवादियों के अनुसार, “वही शासन-प्रणाली श्रेष्ठ है जो सबसे कम शासन करती है। जितने कम कानून होंगे, उतनी ही अधिक स्वतन्त्रता होगी।
  2. अराजकतावादियों के विचार – अराजकतावादियों की मान्यता है कि राज्य अपनी शक्ति के प्रयोग से व्यक्ति की स्वतन्त्रता को नष्ट करता है। इसीलिए अराजकतावादी राज्य को समाप्त कर देने के समर्थक हैं। अराजकतावादी विचारक विलियम गॉडविन के मतानुसार, “कानून सर्वाधिक घातक प्रकृति की संस्था है।”……………“राज्य का कानून, दमन तथा उत्पीड़न का | एक नवीन यन्त्र है।
  3. श्रम संघवादियों के विचार – मजदूर संघवादियों की मान्यता है कि राज्य के कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित करते हैं। इन कानूनों का प्रयोग सदैव ही पूँजीपतियों के हितों को बढ़ावा देने हेतु किया गया है। इससे मजदूरों की स्वतन्त्रता नष्ट होती है। चूंकि राज्य के कानून मजदूरों के हितों का विरोध कर पूँजीपतियों का समर्थन करते हैं, इसलिए मजदूर संघवादी भी राज्य को समाप्त करने के पक्षधर हैं।
  4. बहुलवादियों के विचार – बहुलवादियों की मान्यता है कि राज्य के पास भी जितनी अधिक सत्ता होगी, व्यक्ति को उतनी ही कम स्वतन्त्रता होगी। इसलिए राज्य-सत्ता को अलग-अलग समूहों में विभाजित कर दिया जाना चाहिए।

उपर्युक्त विभिन्न विचारों के अध्ययनोपरान्त हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि कानून एवं स्वतन्त्रता में कोई सम्बन्ध नहीं है, अर्थात् ये परस्पर विरोधी हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1
नागरिक स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
नागरिक स्वतन्त्रता
समाज का सदस्य होने के कारण व्यक्ति को जो स्वतन्त्रता प्राप्त होती है, उसको नागरिक स्वतन्त्रता की उपमा दी जाती है। नागरिक स्वतन्त्रता की रक्षा राज्य करता है। इसमें नागरिकों की निजी स्वतन्त्रता, धार्मिक स्वतन्त्रता, सम्पत्ति का अधिकार, विचार-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, इकट्टे होने तथा संघ इत्यादि बनाने की स्वतन्त्रता सम्मिलित हैं। गैटिल ने नागरिक स्वतन्त्रता का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि “नागरिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य उन अधिकारों एवं विशेषाधिकारों से है जिन्हें राज्य अपनी प्रजा हेतु उत्पन्न करता है तथा उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है।”

नागरिक स्वतन्त्रता विभिन्न राज्यों में अलग-अलग होती है। जहाँ लोकतन्त्रीय राज्यों में यह स्वतन्त्रता अधिक होती है, वहीं तानाशाही राज्यों में कम। भारत के संविधान में नागरिक स्वतन्त्रता का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
आर्थिक स्वतन्त्रता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
आर्थिक स्वतन्त्रता
आर्थिक स्वतन्त्रता से आशय आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी उस स्थिति से है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपना जीवन-यापन कर सके। लॉस्की के शब्दों में, “आर्थिक स्वतन्त्रता का यह अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका अर्जित करने की समुचित सुरक्षा तथा सुविधा प्राप्त हो।’

जिस राज्य में भूख, गरीबी, दीनता, नग्नता तथा आर्थिक अन्याय होगा वहाँ व्यक्ति कभी भी स्वतन्त्र नहीं होगा। व्यक्ति को पेट की भूख, अपने बच्चों की भूख तथा भविष्य में दिखाई देने वाली आवश्यकताएँ प्रत्येक पल दु:खी करती रहेंगी। व्यक्ति कभी भी स्वयं को स्वतन्त्र अनुभव नहीं करेगा तथा न ही वह नागरिक एवं राजनीतिक स्वतन्त्रता का भली-भाँति उपभोग कर सकेगा। अतः राजनीतिक एवं नागरिक स्वतन्त्रता को हासिल करने के लिए आर्थिक स्वतन्त्रता का होना परमावश्यक है। लेनिन ने उचित ही कहा है कि “आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में राजनीतिक अथवा नागरिक स्वतन्त्रता अर्थहीन है।’

प्रश्न 3.
क्या स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं?
या
समानता के आवेश ने स्वतन्त्रता की आशा को व्यर्थ कर दिया।” इस कथन का परीक्षण कीजिए।
उत्तर
इंस विचारधारा के समर्थकों में डी० टॉकविले, लॉर्ड एक्टन तथा क्रोचे प्रमुख हैं। इनके अनुसार, स्वतन्त्रता एवं समानता एक-दूसरे के विरोधी हैं। स्वतन्त्रता समानता को नष्ट करती है तथा समानता स्वतन्त्रता का विनाश करती है। इस विचारधारा के अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ व्यक्ति की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति है। व्यक्ति के ऊपर सभी प्रकार के बन्धनों तथा नियन्त्रणों का अभाव ही स्वतन्त्रता है। समानता का आशय सभी क्षेत्रों में बरोबरी से है। अतः स्वतन्त्रता से समानता का हनन होता है तथा समानता से स्वतन्त्रता का अन्त हो जाता है, क्योंकि पूर्ण समानता राज्य के नियन्त्रण से ही सम्भव है तथा राज्य का नियन्त्रण स्वतन्त्रता को समाप्त कर देता है। ऐसी स्थिति में स्वतन्त्रता एवं समानता में से एक की स्थापना ही सम्भव है; अतः ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। लॉर्ड एक्टन के अनुसार, समानता की अभिलाषा ने स्वतन्त्रता की आशा को व्यर्थ कर दिया है।”

प्रश्न 4.
धार्मिक स्वतन्त्रता से क्या आशय है?
उत्तर
व्यक्ति धर्म पर किसी प्रकार का बन्धन स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि आज अनेक राज्यों में व्यक्ति को कोई भी धर्म मानने, प्रचार करने तथा धारण करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। भारतीय संविधान में भी धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।
धर्मतन्त्र राज्यों में राज्य का एक धर्म होता है तथा उसी धर्म के अनुयायियों को विशेष सुविधाएँ प्राप्त होती हैं; जबकि धर्मनिरपेक्ष राज्य में व्यक्ति को अपनी इच्छा का कोई भी धर्म धारण करने की स्वतन्त्रता होती है तथा सभी धर्म एकसमान होते हैं।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता से क्या आशय है?
उत्तर
यह स्वतन्त्रता सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं तथा अधिकारों की आधारशिला है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का तात्पर्य राष्ट्र की स्वतन्त्रता से है। जिस प्रकार व्यक्ति को स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए ठीक उसी प्रकार से एक राष्ट्र को भी अपने पूर्ण विकास के लिए स्वतन्त्र होना आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता राज्य की आन्तरिक एवं बाह्य स्वाधीनता है। जो राष्ट्र अपने आन्तरिक प्रशासन तथा बाह्य सम्बन्धों के स्थापन में स्वतन्त्र होता है, किसी दूसरे देश के अधीन नहीं होता; वह स्वतन्त्र और सम्प्रभु राष्ट्र होता है। लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों तथा नियमों के अधीन प्रत्येक राष्ट्र की स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध रहता है।

प्रश्न 6.
स्वतन्त्रता नैतिक गुणों के विकास में कैसे सहायक होती है?
उत्तर
स्वतन्त्रता व्यक्ति में प्रेम, दया, सहानुभूति, त्याग, सहयोग इत्यादि नैतिक गुणों को विकसित करके सामाजिक सभ्यता का विकास करती है जो मानवीय मूल्यों के लिए परमावश्यक है।
स्वतन्त्रता के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। स्वतन्त्रता के माध्यम से ही वे साधन उपलब्ध कराये जाते हैं जिनसे व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।

प्रश्न 7.
समानता की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
समानता की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  1. आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति – समानता की यह विशेषता है कि व्यक्ति कम-से-कम अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके तथा अपने जीवन का निर्वाह कर सके।
  2. प्रगति के समान अवसर – समानता का एक सकारात्मक पक्ष है जिसका अर्थ यह है कि सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के उनके व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर सुलभ होने चाहिए।
  3. विशेष अधिकारों की अनुपस्थिति – समानता में यह निहित है कि किसी भी वर्ग विशेष के व्यक्ति को लिंग, वंश, जन्म-स्थान, धर्म तथा राजनीतिक पद के आधार पर ऐसे कुछ भी विशेष अधिकार नहीं मिलने चाहिए जिनसे कि अन्य व्यक्ति वंचित हों।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता मनुष्य के लिए किस प्रकार उपयोगी है?
उत्तर
स्वतन्त्रता मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता को परिभाषित करें। [2014]
उत्तर
“स्वतन्त्रता उस वातावरण को बनाये रखना है जिसमें व्यक्ति को अपने जीवन का सर्वोत्तम विकास करने की सुविधा प्राप्त हो।’

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प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के दो भेद या प्रकार बताइए। [2009, 10, 14]
उत्तर

  1. नागरिक स्वतन्त्रता तथा
  2. राजनीतिक स्वतन्त्रता।

प्रश्न 4.
समानता का वास्तविक अर्थ लिखिए।
उत्तर
समानता प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों के उपयोग करने का यथाशक्ति समान अवसर प्रदान करने का प्रयत्न है।

प्रश्न 5.
समानता के दो प्रकार या भेद बताइए। [2010]
उत्तर

  1. आर्थिक समानता तथा
  2. राजनीतिक समानता।

प्रश्न 6.
किन्हीं दो राजनीतिक स्वतन्त्रताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. राष्ट्र को स्वतन्त्र होने का अधिकार तथा
  2. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन के कार्यों में भाग लेने का अधिकार।

प्रश्ग 7.
सकारात्मक स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
सकारात्मक स्वतन्त्रता एक पूर्ण मानव के रूप में कार्य करने की स्वतन्त्रता है। यह मानव का विकास करने की शक्ति है।

प्रश्न 8.
प्राकृतिक स्वतन्त्रता से रूसो का क्या अभिप्राय है?
उत्तर
रूसो के शब्दों में, मनुष्य जन्मतः स्वतन्त्र है, परन्तु सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है।

प्रश्न 9.
आर्थिक स्वतन्त्रता के विषय में लेनिन ने क्या कहा है?
उत्तर
लेनिन ने कहा है कि आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में राजनीतिक अथवा नागरिक स्वतन्त्रता अर्थहीन है।

प्रश्न 10.
लॉस्की ने ‘समानता की क्या परिभाषा दी है?
उत्तर
लॉस्की के अनुसार, समानता प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों का उपयोग करने हेतु यथाशक्ति समान अवसर प्रदान करने का प्रयत्न है।

प्रश्न 11.
कानून के समक्ष समानता का क्या अर्थ है? [2013]
उत्तर
जब सभी के लिए बिना किसी भेदभाव के एक-से कानून तथा एक-से न्यायालय होते हैं, तब नागरिकों को कानूनी समानता प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 12.
राजनीतिक स्वतन्त्रताओं के दो उदाहरण दीजिए। [2013, 16]
उत्तर

  1. मत देने का अधिकार तथा
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार।

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प्रश्न 13.
‘ऑन लिबर्टी’ नामक ग्रन्थ किसने लिखा ? [2010, 11, 14]
उत्तर
जे० एस० मिल ने।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. स्वतन्त्रता के नकारात्मक पहलू का विचारक था-
(क) ग्रीन
(ख) गाँधी जी
(ग) लास्की
(घ) रूसो

2. स्वतन्त्रता के सकारात्मक (वास्तविक) पहलू का विचारक था
(क) हॉब्स
(ख) सीले
(ग) कोल
(घ) मैकेंजी

3. स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं।” इस विचारधारा का समर्थक था-
(क) लॉस्की
(ख) सी० ई० एम० जोड
(ग) क्रोचे
(घ) पोलार्ड

4. “स्वतन्त्रता एवं समानता एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस विचारधारा का समर्थक है-
(क) डी० टॉकविले
(ख) लॉर्ड एक्टन
(ग) क्रोचे
(घ) लॉस्की

5. “आर्थिक समानता के बिना राज़नीतिक स्वतन्त्रता एक भ्रम है।” यह कथन किसका है? [2014]
(क) लॉस्की का,
(ख) प्रो० जोड का
(ग) रूसो का
(घ) क्रोचे का

6. नागरिक स्वतन्त्रता निम्नलिखित में से किसे कहते हैं?
(क) रोजगार पाने की स्वतन्त्रता
(ख) कानून के समक्ष समानता
(ग) चुनाव लड़ने की स्वतन्त्रता
(घ) राजकीय सेवा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता

7. ‘लिबर्टी (स्वतन्त्रता) की व्युत्पत्ति लिबर’ शब्द से हुई है, जो शब्द है- [2007, 13]
(क) संस्कृत भाषा का
(ख) लैटिन भाषा का
(ग) फ्रांसीसी भाषा का
(घ) हिब्रू भाषा का

8. “स्वतन्त्रता अति-शासन की विरोधी है।” यह कथन किसका है? [2011]
(क) कोल
(ख) सीले
(ग) लॉस्की
(घ) ग्रीन

9. यदि किसी व्यक्ति को आवागमन की स्वतन्त्रता नहीं प्राप्त है, तो उसे निम्नांकित में से किस स्वतन्त्रता से वंचित किया जा सकता है? [2013]
(क) नागरिक स्वतन्त्रता
(ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता
(ग) आर्थिक स्वतन्त्रता
(घ) धार्मिक स्वतन्त्रता

उत्तर

  1. (घ) रूसो,
  2. (घ) मैकेंजी,
  3. (ग) क्रोचे,
  4. (घ) लॉस्की,
  5. (ख) प्रो० जोड का,
  6. (ख) कानून के समक्ष समानता,
  7. (ख) लैटिन भाषा का,
  8. (ख) सीले,
  9. (ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता।

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UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व) are part of UP Board Solutions for Class 12 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12  Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 6
Chapter Name Personality
(व्यक्तित्व)
Number of Questions Solved 43
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 6 Personality (व्यक्तित्व)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यक्तित्व से क्या आशय है? अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। 
सन्तुलित व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताओं का भी उल्लेख कीजिए।
या
व्यक्तित्व का क्या अर्थ है? स्पष्ट कीजिए। 
(2008)
या
व्यक्तित्व को परिभाषित कीजिए।
(2013)
उत्तर

व्यक्तित्व की अवधारणा

‘व्यक्तित्व’ एक प्रचलित और आम शब्द है जिसे लोगों ने अपनी-अपनी दृष्टि से जाँचा-परखा है। आधुनिक समय में इसे ऐसे गुणों का संगठन स्वीकार किया जाता है जिनमें अनेक मानवीय गुण अन्तर्निहित तथा संगठित होते हैं। इसके स्वरूप को लेकर लोगों के विचारों में भिन्नता है। कुछ इसे चरित्र का उद्गम स्थान, कुछ शारीरिक-मानसिक विकास का योग, अच्छे-बुरे व्यवहार की समीक्षा करने वाली सन्तुलितं

शक्ति, तो कुछ शरीर के गठन-सौष्ठव व ओजपूर्ण आकर्षक मुखाकृति का पर्याय समझते हैं। वास्तव में ये समस्त अलग-अलग विचार व्यक्तित्व नहीं हैं; न शरीर, ने मस्तिष्क और न मानव का बाह्य स्वरूप ही। व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व इन समस्त अवयवों का सम्पूर्ण एवं सन्तुलित रूप है।

व्यक्तित्व का अर्थ

‘व्यक्तित्व’ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थ एवं दृष्टिकोण में किया जाता है

(1) शाब्दिक अर्थ में, इस शब्द का उद्गम लैटिन भाषा के ‘पर्सनेअर (personare) शब्द से माना गया है। प्राचीनकाल में, ईसा से एक शताब्दी पहले persona’ शब्द व्यक्ति के कार्यों को स्पष्ट करने के लिए प्रचलित था। विशेषकर इसका अर्थ नाटक में काम करने वाले अभिनेताओं द्वारा पहने। जाने वाले नकाब से समझा जाता था, जिसे धारण करके अभिनेता अपना असली रूप छिपाकर नकली वेश में रंगमंच पर अभिनय करते थे। समय बीता और रोमन काल में ‘persona’ शब्द का अर्थ हो गया-‘स्वयं वह अभिनेता जो अपने विलक्षण एवं विशिष्ट स्वरूप के साथ रंगमंच पर प्रकट होता था।’ इस भाँति व्यक्तित्व’ शब्द किसी व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप का समानार्थी बन गया।

(2) सामान्य अर्थ में, व्यक्तित्व से अभिप्राय, व्यक्ति के उन गुणों से है जो उसके शरीर सौष्ठव, स्तर तथा नाक-नक्श आदि से सम्बन्धित हैं।

(3) दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार, सम्पूर्ण व्यक्तित्व आत्मतत्त्व की पूर्णता में निहित है।

(4) अपने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अन्तर्गत, व्यक्तित्व से अभिप्राय व्यक्ति के सामाजिक गुणों के संगठित स्वरूप तथा उन गुणों की प्रभावशीलता से है।

(5) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार, मानव-जीवन की किसी भी अवस्था में व्यक्ति का व्यक्तित्व एक संगठित इकाई है जिसमें व्यक्ति के वंशानुक्रम और वातावरण से उत्पन्न समस्त गुण समाहित होते हैं। दूसरे शब्दों में, व्यक्तित्व में बाह्य गुणों (जैसे-रंग, रूप, मुखाकृति, स्वर, स्वास्थ्य तथा पहनावा अदि) तथा आन्तरिक गुणों (जैसे-आदतें, रुचि, अभिरुचि, चरित्र, संवेगात्मक संरचना, बुद्धि, योग्यता तथा अभियोग्यता आदि) का समन्वित तथा संगठित रूप परिलक्षित होता है। इसके साथ ही व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मनुष्य के व्यवहार से होती है अथवा व्यक्तित्व पूरे व्यवहार का दर्पण है और मनुष्य व्यवहार के माध्यम से निजी व्यक्तित्व को अभिप्रकाशित करता है। सन्तुलित व्यवहार, सुदृढ़ व्यक्तित्व का परिचायक है। इस स्थिति में व्यक्तित्व को विभिन्न मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organisation) कहा जा सकता है।

व्यक्तित्व की परिभाषा

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व को परिभाषित करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रयास किये हैं। प्रमुख मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. बोरिंग के अनुसार, “व्यक्ति के अपने वातावरण के साथ अपूर्व एवं स्थायी समायोजन के योग को व्यक्तित्व कहते हैं।”
  2. मन के अनुसार, “व्यक्तित्व वह विशिष्ट संगठन है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के गठन, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रवणताओं को सम्मिलित किया जा सकता है।”
  3. गोर्डन आलपोर्ट के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के उन मनोशारीरिक संस्थानों का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ उसके अनूठे समायोजन को निर्धारित करता है।’
  4. वारेन का विचार है, व्यक्तित्व व्यक्ति का सम्पूर्ण मानसिक संगठन है जो उसके विकास की किसी भी अवस्था में होता है।”
  5. म्यूरहेड ने व्यक्तित्व की व्यापक अवधारणा प्रस्तुत की है। उसके शब्दों में, “व्यक्तित्व में सम्पूर्ण व्यक्ति का समावेश होता है। व्यक्तित्व व्यक्ति के गठन, रुचि के प्रकारों, अभिवृत्तियों, व्यवहार, क्षमताओं, योग्यताओं तथा प्रवणताओं का सबसे निराला संगठन है।”
  6. वुडवर्थ के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार की विशेषता है, जिसका प्रदर्शन उसके विचारों को व्यक्त करने के ढंग, अभिवृत्ति एवं रुचि, कार्य करने के ढंग तथा जीवन के प्रति दार्शनिक विचारधारा के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  7. रेक्स के अनुसार, “व्यक्तित्व समाज द्वारा मान्य एवं अमान्य गुणों का सन्तुलन है।”
  8. ड्रेबट के अनुसार, “व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं सामाजिक गुणों के सुसंगठित एवं गत्यात्मक संगठन के लिए किया जाता है, जिसको वह अन्य व्यक्तियों के साथ सामाजिक आदान-प्रदान में व्यक्त करता है। उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता हैं कि-
    • व्यक्ति एक मनोशारीरिक प्राणी है,
    •  वह अपने वातावरण से समायोजन (अनुकूलन) करके निजी व्यवहार का निर्माण करता है,
    • मनुष्य की शारीरिक-मानसिक विशेषताएँ उसके व्यवहार से जुड़कर संगठित रूप में दिखाई पड़ती हैं। यह संगठन ही व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता है तथा
    • प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व स्वयं में विशिष्ट होता है। व्यक्तित्व में व्यक्ति के समस्त बाहरी एवं आन्तरिक गुणों को सम्मिलित किया जाता है।

      सन्तुलित व्यक्तित्व की विशेषताएँ

आदर्श नागरिक बनने के लिए मनुष्य के व्यक्तित्व का सन्तुलित होना अपरिहार्य है और आदर्श जीवन जीने के लिए अच्छा एवं सन्तुलित व्यक्तित्व एक पूर्व आवश्यकता है, किन्तु प्रश्न यह है कि ‘एक आदर्श व्यक्तित्व के क्या मानदण्ड होंगे? इसका उत्तर हमें निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से प्राप्त होगा अथवा, दूसरे शब्दों में, सन्तुलित व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

(1) शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health)- सामान्य दृष्टि से व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य सन्तुलित एवं उत्तम व्यक्तित्व का पहला मानदण्ड है। अच्छे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का शारीरिक गठन, स्वास्थ्य तथा सौष्ठव प्रशंसनीय होता है। वह व्यक्ति निरोगी होता है तथा उसके विविध शारीरिक संस्थान अच्छी प्रकार कार्य कर रहे होते हैं।

(2) मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health)- अच्छे व्यक्तित्व के लिए स्वस्थ शरीर के साथ स्वस्थ मन भी होना चाहिए। स्वस्थ मन उस व्यक्ति का कहो जाएगा जिसमें कम-से-कम औसत बुद्धि पायी जाती हो, नियन्त्रित तथा सन्तुलित मनोवृत्तियाँ हों और उनकी मानसिक क्रियाएँ भी कम-से-कम सामान्य रूप से कार्य कर रही हों।

(3) आत्म-चेतना (Self-consciousness)– सन्तुलित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति स्वाभिमानी तथा आत्म-चेतना से युक्त होता है। वह सदैव ऐसे कार्यों से बचता है जिसके करने से वह स्वयं अपनी ही नजर में गिरता हो या उसकी अपनी आत्म-चेतना आहत होती हो। वह चिन्तन के समय भी आत्म-चेतना को सुरक्षित रखता है तथा स्वस्थ विचारों को ही मन में स्थान देता है। | (4) आत्म-गौरव (Self-regard)-आत्म-गौरव का स्थायी भाव अच्छे व्यक्तित्व का परिचायक है तथा व्यक्ति में आत्म-चेतना पैदा करता है। आत्म-गौरव से युक्त व्यक्ति आत्म-समीक्षा के माध्यम से प्रगति का मार्ग खोजता है और विकासोन्मुख होता है।

(5) संवेगात्मक सन्तुलन (Emotional Balance)- अच्छे व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है। कि उसके समस्त संवेगों की अभिव्यक्ति सामान्य रूप से हो। उसमें किसी विशिष्ट संवेग की प्रबलता नहीं होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति को संवेग-शून्य भी नहीं होना चाहिए।

(6) सामंजस्यता (Adaptability)- सामंजस्यता या अनुकूलन का गुण अच्छे व्यक्तित्व की पहली पहचान है। मनुष्य और उसके चारों ओर का वातावरण परिवर्तनशील है। वातावरण के विभिन्न घटकों में आने वाला परिवर्तन मनुष्य को प्रभावित करता है; अतः सन्तुलित व्यक्तित्व में अपने वातावरण के साथ अनुकूलन करने या सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता होनी चाहिए। सामंजस्य की इस प्रक्रिया में या तो व्यक्ति स्वयं को वातावरण के अनुकूल परिवर्तित कर लेता है या वातावरण में अपने अनुसार परिवर्तन उत्पन्न कर देता है।

(7) सामाजिकता (Sociability)- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है; अत: उसमें अधिकाधिक सामाजिकता की भावना होनी चाहिए। सन्तुलित व्यक्तित्व में स्वस्थ सामाजिकता की भावना अपेक्षित है। स्वस्थ सामाजिकता का भाव मनुष्य के व्यक्तित्व में प्रेम, सहानुभूति, त्याग, सहयोग, उदारता, संयम तथा धैर्य का संचार करता है जिससे उसका व्यक्तित्व विस्तृत एवं व्यापक होता जाता है। इस भाव के संकुचन से मनुष्य स्वयं तक सीमित, स्वार्थी, एकान्तवासी तथा समाज से दूर भागने लगता है। सामाजिकता की भावना व्यक्ति के व्यक्तित्व को विराट सत्ता की ओर उन्मुख करती है।

(8) एकीकरण (Integration)- मनुष्य में समाहित उसके समस्त गुण एकीकृत या संगठित स्वरूप में उपस्थित होने चाहिए। सन्तुलित व्यक्तित्व के लिए उन सभी गुणों का एक इकाई के रूप में समन्वय अनिवार्य है। किसी एक गुण या पक्ष का आधिक्य या वेग व्यक्तित्व को असंगठित बना देता है। ऐसा बिखरा हुआ व्यक्तित्व असन्तुष्ट व दु:खी जीवन की ओर संकेत करता है। अत: अच्छे व्यक्तित्व में एकीकरण या संगठन का गुण पाया जाता है।

(9) लक्ष्योन्मुखता या उद्देश्यपूर्णता (Purposiveness)- प्रत्येक मनुष्य के जीवन का कुछ-न-कुछ उद्देश्य या लक्ष्य अवश्य होता है। निरुद्देश्य या लक्ष्यविहीन जीवन असफल, असन्तुष्ट तथा अच्छा जीवन माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को सुदूर उद्देश्य ऊँचा, स्वस्थ तथा सुनिश्चित होना चाहिए एवं उसकी तात्कालिक क्रियाओं को भी प्रयोजनात्मक होना चाहिए। एक अच्छे व्यक्तित्व में उद्देश्यपूर्णता का होना अनिवार्य है।

(10) संकल्प- शक्ति की प्रबलता (Strong Will Power)-प्रबल एवं दृढ़ इच्छा शक्ति के कारण कार्य में तन्मयता तथा संलग्नता आती है। प्रबल संकल्प लेकर ही बाधाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। स्पष्टतः संकल्प-शक्ति की प्रबलता सन्तुलित व्यक्तित्व का एक उचित मानदण्ड है।।

(11) सन्तोषपूर्ण महत्त्वाकांक्षा (Satisfactory Ambition)- उच्च एवं महत् आकांक्षाएँ मानव-जीवन के विकास की द्योतक हैं, किन्तु यदि व्यक्ति इन उच्च आकांक्षाओं के लिए चिन्तित रहेगा तो उससे वह स्वयं को दु:खी एवं असन्तुष्ट हो पाएगा। मनुष्य को अपनी मन:स्थिति को इस प्रकार निर्मित करना चाहिए कि इन उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति के अभाव में उसे असन्तोष या दु:ख का बोध न हो। मनोविज्ञान की भाषा में इसे सन्तोषपूर्ण महत्त्वाकांक्षा कहा गया है और यह सुन्दर व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है।

हमने ऊपर लिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत एक सम्यक् एवं सन्तुलित व्यक्तित्व की विशेषताओं का अध्ययन किया है। इन सभी गुणों का समाहार ही एक आदर्श व्यक्तित्व’ कहा जा सकता है जिसे समक्ष रखकर हम अन्य व्यक्तियों से उसकी तुलना कर सकते हैं और निजी व्यक्तित्व को उसके अनुरूप ढालने का प्रयास कर सकते हैं।

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के विकास को कौन-कौन से कारक प्रभावित करते हैं? व्यक्तित्व पर वंशानुक्रम एवं जैवकीय कारकों के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए। (2008)
या
व्यक्तित्व के जैविक निर्धारकों का विवेचन कीजिए। (2013, 15)
या
अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है?(2014, 17)
या
थायरॉइड ग्रन्थि व्यक्तित्व को कैसे प्रभावित करती है? (2012)
उत्तर
व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारक या घटक जीवन के विकास की प्रक्रिया में कोई व्यक्ति दो बातों से प्रभावित होता है-वंशार्जित शक्तियाँ (या वंशानुक्रम) तथा वातावरण। मनोविज्ञान की दुनिया में यह प्रश्न काफी समय तक विवादास्पद रहा कि व्यक्तित्व के विकास को वंशानुक्रम प्रभावित करता है अथवा वातावरण। मनोवैज्ञानिकों के गहन अध्ययन, प्रयोगों, निरीक्षण तथा निष्कर्षों के आधार पर आज निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास; वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों से ही प्रभावित होता है।

वंशानुक्रम एवं जैवकीय कारक

वंशानुक्रम द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न गुणों का निर्धारण होता है तथा यह व्यक्ति के जैवकीय कारकों को अत्यधिक प्रभावित करता है। जैवकीय कारकों में से कुछ प्रधान कारक इस प्रकार हैं-शरीर-रचना, स्नायु-संस्थान, ग्रन्थि-रचना, प्रवृत्तियाँ एवं संवेग। मानव-शरीर से सम्बन्धित ये कारक व्यक्तित्व पर प्रभाव रखते हैं। अब हम इन कारकों के विषय में संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करेंगे|

(A) शरीर रचना (Physique)- किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर वंशानुक्रम का प्रभाव उसकी शारीरिक बनावट या शरीर रचना के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शरीर की कद-काठी, नाक-नक्श, मुखाकृति, त्वचा का वर्ण, नेत्र की संरचना व वर्ण, होंठों की बनावट, हाथ-पैर का आकार व लम्बाई आदि सभी बातें वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों द्वारा सुनिश्चित होती हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि आकर्षक व्यक्तित्व दूसरे लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है, किन्तु जो व्यक्तित्व अन्य लोगों के आकर्षण का केन्द्र नहीं बन पाता, हीन भावना से ग्रसित हो जाता है। इसी प्रकार मोटा व्यक्ति प्रसन्नचित तथा विनोदी प्रकृति का, किन्तु दुबला-पतला व्यक्ति चिड़चिड़े स्वभाव का होता है। स्पष्टत: व्यक्ति की शरीर रचना उसके व्यवहार को प्रभावित करती है और व्यवहार उसके व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है। निष्कर्ष यह है कि शरीर रचना का व्यक्तित्व के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

(B) स्नायु-संस्थान (Nervous System)- व्यक्ति का बाह्य व्यवहार जो व्यक्तित्व को चित्रित करता है, स्नायु संस्थान द्वारा संचालित, नियन्त्रित एवं प्रभावित करता है। मानव की बुद्धि, उसकी मानसिक क्रियाएँ तथा अनुक्रियाएँ भी स्नायु-संस्थान की देन हैं। बहुत-सी मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं; जैसे—स्मृति, प्रतिक्षेप, निरीक्षण, चिन्तन तथा मनन आदि का स्नायु-संस्थान से गहरा सम्बन्ध है। व्यक्ति का व्यक्तित्व स्नायु-संस्थान से जुड़ी इन सभी बातों का एक समन्वित पूर्ण रूप है। और स्नायु-संस्थान की रचना वंशानुक्रम से प्राप्त होती है। इसे भॉति, वंशानुक्रम स्नायु-संस्थान के माध्यम से व्यक्तित्वे पर स्पष्ट प्रभाव रखता है।

(C) ग्रन्थि-रेचना (Gland’s Structure)– व्यक्ति के शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रन्थियों का स्वरूप तथा संगठन वंशानुक्रम के द्वारा निर्धारित होता है। ग्रन्थियों की रचना निम्नलिखित दो प्रकार की होती है

(1) नलिकायुक्त. या बहिःस्रावी ग्रन्थियाँ (Exocrine Glands)— ये ग्रन्थियाँ शरीर के विभिन्न भागों में एक नलिका द्वारा अपना स्राव पहुँचाती हैं। इनमें मुख्य हैं-लार ग्रन्थियाँ, आमाशय ग्रन्थियाँ, वृक्क ग्रन्थियाँ, यकृत, अश्रु ग्रन्थियाँ, स्वेद ग्रन्थियाँ आदि। अधिकांश नलिकायुक्त ग्रन्थियाँ पाचन-संस्थान से सम्बन्ध रखती हैं।

(2) नलिकाविहीन या अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Ductless or Endocrine Glands)- इन ग्रन्थियों में कोई नलिका नहीं पायी जाती और ये अपना स्राव रक्त में सीधे ही प्रवाहित कर देती हैं। व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली प्रमुख नलिकाविहीन ग्रन्थियों को वन निम्नवत् है

(i) गल ग्रन्थि (Thyroid Gland) गल ग्रन्थि की कम या अधिक क्रियाशीलता मानव व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करती है। इसकी सामान्य क्रियाशीलता में कमी श्लेष्मकाय (Myxoedema) नामक रोग के रूप में प्रकट होती है, जिसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क एवं पेशियों की क्रिया मन्द हो जाती है, स्मृति कमजोर पड़ जाती है तथा ध्यान और चिन्तन में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। यदि किसी व्यक्ति में यह ग्रन्थि जन्म से ही मन्द या नष्ट हो गयी हो। तो उसके कारण कुरूप, बौने, अजाम्बुक बाल (Cretins) तथा मूढ़बृद्धि (Imbecile) बच्चे जन्म लेते हैं। इसकी अधिक क्रियाशीलता के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा, अशान्त, उद्विग्न, चिन्तायुक्त, तनावग्रस्त तथा अस्थिर हो जाता है। गल ग्रन्थि की अत्यधिक क्रिया के कारण व्यक्ति की लम्बाई बढ़ जाती है।

(ii) अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal Cland)- वृक्क के काफी समीप स्थित यह ग्रन्थि अधिवृक्की (Adrenin) नामक रस का स्राव करती है जिसकी कमी या अधिकता व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। अधिवृक्की के स्राव की कमी से व्यक्ति के शरीर में कमजोरी तथा शिथिलता बढ़ती है, त्वचा का रंग काला पड़ जाता है, चयापचय (Metabolism) की क्रिया मन्द पड़ जाती है, रोगों की अवरोधक क्षमता धीमी तथा स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसके आधिक्य से रक्तचाप बढ़ता है, हृदय की धड़कन तेज हो जाती है, सॉस की गति तीव्र हो जाती है, पसीना आने लगता है, आँख की पुतलियाँ चौड़ी हो जाती हैं, आमाशय तथा पाचन ग्रन्थियों सम्बन्धी क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं, आपत्तिकाल में प्राणी की शक्तियाँ संगठित होने लगती हैं तथा पुरुषोचित गुणों का विकास होता है। इसके परिणामस्वरूप स्त्रियों का स्वर भारी होने लगता है, नेत्रों की गोलाई समाप्त हो जाती है और दाढ़ी उगने लगती है।

(iii) पोष ग्रन्थि (Pituitary Gland)- मानव-मस्तिष्क में स्थित पोष ग्रन्थि या पीयूष ग्रन्थि के पिछले भाग से निकलने वाला स्राव जल के चयापचय, रक्तचाप तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं को नियन्त्रित करता है। ग्रन्थि के अग्र भाग से निकलने वाला रस अन्य ग्रन्थियों को नियन्त्रित करता है। व्यक्ति के विकास के दौरान पोष ग्रन्थि की क्रियाशीलता तेज होने के कारण शरीर के आकार की असामान्य वृद्धि हो जाती है, किन्तु इस ग्रन्थि की क्रिया मन्द पड़ जाने पर व्यक्ति का शारीरिक गठन कुरूप, कद बौना तथा बुद्धि निम्न स्तर की हो जाती है।

(iv) अग्न्याशय (Pancreas)– अग्न्याशय एक नलिकाविहीन ग्रन्थि है जिससे निकलने वाला अग्न्याशयिक रस (Pancreatic Juice) भोजन के पाचन में मदद देता है। इसके अतिरिक्त यह ग्रन्थि रक्त में इन्सुलिन (Insulin) नामक रस भी छोड़ती है जो रक्त में पहुँचकर शर्करा के उपयोग में मांसपेशियों की मदद भी करता है। इन्सुलिन की परिवर्तित मात्रा रक्त में शर्करा की मात्रा को परिवर्तित कर देती है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के स्वभाव तथा भावावस्था पर प्रभाव पड़ता है।

(v) जनन ग्रन्थियाँ (Gonads)- जनन ग्रन्थियों की कमी या अधिकता से लैंगिक लक्षणों तथा यौन-क्रियाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है और इस प्रकार व्यक्ति को व्यक्तित्व प्रभावित होता है। इन ग्रन्थियों से निकला स्राव पुरुषों में पुरुषोचित तथा स्त्रियों में स्त्रियोचित लक्षणों की वृद्धि तथा विकास का कारण बनता है। इस ग्रन्थि के कारण पुरुष तथा नारी में अपने-अपने लिंग के अनुसार यौन चिह्न दिखाई पड़ते हैं। वंशानुक्रम द्वारा प्राप्त ग्रन्थि रचना और उसके स्राव के प्रभाव से शारीरिक परिवर्तन होता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में ग्रन्थियाँ वंशानुक्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक हैं।

(D) संवेग तथा आन्तरिक स्वभाव (Emotions and Temperament)— व्यक्ति के कुछ विशेष लक्षण ‘संवेग तथा आन्तरिक स्वभाव से निर्मित होते हैं; अतः व्यक्तित्व के निर्माण तथा विकास में इन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रेम, क्रोध तथा भय आदि कुछ संवेग व्यक्ति अपने वंशानुक्रम से प्राप्त करता है, जिनका स्वरूप व मात्रा ग्रन्थियों पर आधारित होते हैं। इसके अतिरिक्त आन्तरिक स्वभाव भी इन्हीं पर निर्भर करता है जिसके फलस्वरूप कुछ लोग प्रेमी, तो कुछ क्रोधी, कुछ डरपोक, कुछ चिड़चिड़े या दयालु होते हैं।

(E) मूलप्रवृत्तियाँ, चालक एवं सामान्य आन्तरिक प्रवृत्तियाँ– जन्मजात मूल व आन्तरिक प्रवृत्तियाँ तथा चालक व्यक्ति को वंशानुक्रम से मिलते हैं। ये व्यक्ति के व्यवहार को अत्यधिक रूप से प्रभावित करते हैं तथा परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं।

प्रश्न 3
व्यक्तित्व के विकास पर पर्यावरण का क्या प्रभाव पड़ता है? बालक के व्यक्तित्व पर परिवार, विद्यालय तथा समाज के प्रभाव का उल्लेख कीजिए।
या
व्यक्तित्व के पर्यावरणीय निर्धारकों का विवेचन कीजिए। (2013, 15)
या
व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार और विद्यालय की भूमिका स्पष्ट कीजिए। (2010, 12)
या
परिवार, विद्यालय और समाज किस प्रकार व्यक्तित्व को निर्धारित करते हैं? (2018)
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाला दूसरा मुख्य कारक है-‘पर्यावरण’। व्यक्ति जिस प्रकार के पर्यावरण में रहता है, उसके व्यक्तित्व का विकास उसी के अनुरूप होता है। पर्यावरण अपने

आप में एक विस्तृत अवधारणा है तथा इसका व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भी विस्तृत प्रभाव पड़ता है। बालक के व्यक्तित्व के विकास के सन्दर्भ में पर्यावरण के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए क्रमशः परिवार, विद्यालय तथा समाज के प्रभाव को जानना अभीष्ट है।

व्यक्तित्व पर परिवार का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास पर परिवार का सबसे पहला और सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व पर परिवार के प्रभाव को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं

(1) परिवार के सदस्य एवं बालक का व्यक्तित्व- बालक अपने परिवार में जन्म लेता है। नवजात शिशु सर्वप्रथम अपनी माता और उसके बाद पिता के सम्पर्क में आता है। यद्यपि बालक का परिवार के सभी सदस्यों से निकट का सम्पर्क रहता है, किन्तु उसका माता-पिता से सबसे नजदीक का सम्बन्ध होता है। माता-पिता के संस्कार उसमें संचरित होते हैं। इसी के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक विकास सम्भव होता है। माता-पिता का स्नेह बालक के व्यक्तित्व को विकसित करता है। अधिक स्नेह बालक को जिद्दी, शैतान तथा पराश्रयी बना देता है तो स्नेह का अभाव अपराधी। अतः बालक को उचित स्नेह मिलना चाहिए और उसे अनावश्यक रूप से डाँटना-फटकारना नहीं चाहिए। अध्ययनों से ज्ञात होता है कि संयुक्त परिवार में पलने से बालक में सामाजिक सुरक्षा की भावना प्रबल होती है। परिवार के सभी सदस्य बालक के व्यक्तित्व को विकसित करने में सहयोग देते हैं। |

(2) परिवार के मुखिया का व्यक्तित्व- सामान्यतः बालक स्वयं को परिवार के मुखिया के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है। मुखिया का चरित्र, आचरण, व्यवहार तथा रहन-सहन के तरीके बालक पर अमिट छाप छोड़ते हैं। आमतौर पर परिवार के लड़के अपने पिता तथा लड़कियाँ अपनी माता के व्यक्तित्व का अनुशीलन करते हैं; अतः परिवार के मुखिया को चाहिए कि वह स्वयं को एक आदर्श व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करे। आजकल के समाज में प्राय: माता-पिता ही परिवार के मुखिया होते हैं।

(3) स्वतन्त्रता और व्यक्तित्व– परिवार में निर्णय लेने की स्वतन्त्रता का होना या न होना, बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। बहुत-से परिवारों में बच्चों को अपने विषय में बड़े-बड़े निर्णय लेने की छूट रहती है। इससे बच्चे स्वतन्त्र प्रकृति के बन जाते हैं जिससे उनका व्यक्तित्व अनियन्त्रित हो सकता है। किन्हीं परिवारों में साधारण बातों के लिए बच्चों को अभिभावकों के निर्णय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इससे बालक दब्बू तथा दूसरों पर निर्भर रहने के आदी हो जाते हैं और समस्याओं के विषय में उचित समय पर उचित निर्णय नहीं ले पाते।

(4) विघटित परिवार और बालक का व्यक्तित्व- विघटित परिवारों (Broken Homes) से अभिप्राय उन परिवारों से है जिनमें माता-पिता के मध्य कलह, तनाव तथा द्वन्द्व की स्थिति बनी रहती है। ऐसे वातावरण से परिवार का वातावरण दूषित हो जाता है और बालक का व्यक्तित्व कुण्ठित तथा विकृत हो जाता है। अध्ययन बताते हैं कि समाज के अधिकांश अपराधी, वेश्याएँ, यौन-विकृति के लोग तथा समाज-विरोधी कार्य करने वाले लोग विघटित परिवारों की देन होते हैं। विघटित परिवार में बालक को माता-पिता का स्नेह नहीं मिलता, उनका उचित समाजीकरण नहीं हो पाता, उनकी प्राकृतिक यौन-जिज्ञासाएँ व इच्छाएँ नियन्त्रित नहीं हो पातीं और इसी कारण परिष्कृत संस्कारों से विमुख होकर जीवन-भर असन्तुलित व्यक्तित्व का बोझ ढोते हैं।

(5) परिवार की आर्थिक स्थिति- परिवार से जुड़े विभिन्न कारकों में आर्थिक पक्ष की अवहेलना नहीं की जा सकती। निर्धन परिवार के बच्चों का जीवन संघर्षपूर्ण एवं कष्टप्रद रहता है। जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यक्तित्व में परिश्रमी होना, सहिष्णुता, कष्टसाध्यता, कठोरता तथा अध्यवसाय का प्राकृतिक समावेश हो जाता है। धनी परिवार के बच्चे भ्रमणशील, आलसी, आरामपसन्द तथा फिजूल खर्च हो जाते हैं। परिवार की आर्थिक स्थिति बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

व्यक्तित्व पर विद्यालय का प्रभाव

विद्यालय को एक लघु समाज (Miniature Society) कहा जाता है, जिसे सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति व प्राप्ति के लिए निर्मित किया जाता है। विद्यालय बालक के व्यक्तित्व निर्माण एवं विकास के लिए पर्याप्त उत्तरदायी है। इसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) अध्यापक का प्रभाव – विद्यार्थीगण अपने अध्यापक को आदर्श के रूप में देखते हैं तथा जाने-अनजाने उनके आचरण के अनुसार ही स्वयं को ढालते हैं। अध्यापक का चरित्र, व्यवहार एवं व्यक्तित्व बालकों का पथ-प्रदर्शन करता है। अपने विद्यार्थियों के प्रति सहानुभूति, प्रेम एवं सहयोग प्रदर्शित करने वाले अध्यापकों का व्यक्तित्व बालकों पर अनुकूल प्रभाव रखता है। इसके विपरीत विद्यार्थियों के प्रति कठोर, रुक्ष एवं बुरा व्यवहार प्रदर्शित करने वाले अध्यापक अपने विद्यार्थियों के असम्मान, घृणा तथा तिरस्कार के भागी बनते हैं।

(2) सहपाठियों एवं मित्रों का प्रभाव- विद्यालय में समाज के कोने-कोने से विद्यार्थियों का आगमन होता है। स्कूल में बालक समाज के प्रत्येक वर्ग, स्तर तथा समुदाय के बालकों के साथ उठता-बैठता, खेलता-कूदता, पढ़ता-लिखता तथा विभिन्न व्यवहार करता है। बालक की आदतों के निर्माण में उसके सहपाठियों का विशेष योगदान रहता है। कक्षा के सहपाठियों के सम्पर्क में आकर बालक अच्छी-बुरी सभी तरह की बातें ग्रहण करता है। प्रेम, सहयोग, मित्रता, नेतृत्व आदि के भाव बालक से बालकं में आते हैं तो चोरी, झूठ बोलना, आक्रमण तथा ईष्र्या आदि की प्रवृत्तियाँ भी वह एक-दूसरे से सीखता है। सदाचार से युक्त सहपाठी एवं मित्रगण बालक को सद्गुणों से भर देते हैं तो कुसंग से उसका व्यक्तित्व विकृत भी हो जाता है।

(3) समूह का प्रभाव- विद्यालय में विभिन्न उद्देश्यों को लेकर बालकों के समूह या दल बन जाते हैं। ये दल अपने भीतर से एक नेता चुनकर उसका अनुगमन करते हैं। खेलकूद वाले बालकों का अपना एक समूह होता है, शैतान बालकों को अलग और पढ़ने वाले बालकों का अलग ही समूह या दल होता है। बालक का व्यक्तित्व अपने समूह से प्रभावित होता है।

व्यक्तित्व पर समाज का प्रभाव

प्रत्येक बालक अपने परिवार तथा विद्यालय का सदस्य बनने के साथ-ही-साथ समाज का भी सदस्य बनता है। एक स्थिति में समाज भी बालक या व्यक्ति के व्यक्तित्व को अनिवार्य रूप से प्रभावित करता है। भातीय समाज में जाति-व्यवस्था को बोल बाला है। इस स्थिति में हमारे समाज में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति का मूल्यांकन उसकी जाति के सन्दर्भ में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त बालक अपने जीवन एवं व्यवहार के अनेक तरीके, सोचने के ढंग तथा विभिन्न प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति को समाज के नियमों एवं आदर्शों के अनुसार ही निर्धारित करता है। बालक की सामाजिक स्थिति भी उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। उच्च सामाजिक वर्ग के बालकों में बड़प्पन की भावना प्रबल होती है। इसके विपरीत निम्न सामाजिक वर्ग के बालकों में प्रायः किसी-न-किसी रूप में हीन भावना विकसित हो जाया करती है। उच्च एवं निम्न सामाजिक वर्ग के परिवारों की आर्थिक स्थिति का अन्तर सम्बन्धित बालकों के व्यक्तित्व को अनुकूल अथवा प्रतिकूल रूप में प्रभावित करती है।

प्रश्न 4
व्यक्ति के व्यक्तित्व पर सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का क्या प्रभाव पड़ता है? स्पष्ट  कीजिए।
उत्तर

व्यक्तित्व पर सामाजिक तथा सांस्कृतिक तत्त्वों का प्रभाव

समाज सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना है। समाज में तरह-तरह के व्यक्ति अपनी विशिष्ट स्थिति एवं कार्य रखते हुए एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। समाज से जुड़े हुए विभिन्न पहलुओं तथा अवयवों का मनुष्य के व्यक्तित्व पर अमिट प्रभाव पड़ता है। इस प्रभाव का निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं

(1) वर्ण-व्यवस्था एवं व्यक्तित्व- भारतीय समाज में व्यक्ति की स्थिति तथा उसके कार्य वर्ण-व्यवस्था पर आधारित रहे हैं। वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। किसी विशेष वर्ण में जन्म लेने वाला बालक उस वर्ण के लिए समाज द्वारा निर्धारित नियमों, मूल्यों तथा संस्कारों से परिचालित होता है। ये नियम, मूल्य, संस्कार, स्थिति एवं कार्य उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। ज्ञान लेने व देने वाले ब्राह्मण का व्यक्तित्व निश्चित रूप से समाज की सेवा करने वाले शूद्र के व्यक्तित्व से भिन्न होगा। इसी प्रकार वीरोचित कार्य करने वाले क्षत्रिय का व्यक्तित्व व्यापारी वैश्य से पृथक् दिखाई देगा। स्पष्टतः हमारे समाज की वर्ण-व्यवस्था व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव रखती है।

(2) सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप व्यक्तित्व- समाज की जैसी परिस्थितियाँ होती हैं, उसी के अनुरूप मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास भी होता है। अधिकांश लोग सामाजिक नियमों, प्रथाओं, परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। दीर्घकाल में पालन करने की यह परिपाटी जीवन शैली और व्यक्तित्व का एक अंग बन जाती है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति अपने सामाजिक बहिष्कार या विरोध से भी डरता है। इसी कारण से वह समाज-विरोधी कार्य करना नहीं चाहता। व्यक्ति की आदतें, प्रवृत्तियाँ तथा सोचने- विचारने का ढंग भी सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाता है। इसमें सन्देह नहीं है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व पर उसकी सामाजिक परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव पड़ता है।

(3) व्यक्तिगत एवं सामूहिक संघर्ष- मानव-समाज का इतिहास व्यक्ति और समूह के संघर्ष की गाथा रहा है। कुछ लोग समाज की रुग्ण रूढ़ियों तथा परिपाटियों का विरोध करते हैं और समाज में उनके विरुद्ध विचारधारा का प्रचार करते हैं। रूढ़िवादी एवं विरोधी विचारधारा वाले लोगों में संघर्ष विभिन्न समस्याओं व तनावपूर्ण परिस्थितियों को जन्म देता है, जिनका मनुष्य के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।

(4) धार्मिक संस्थाएँ– मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गिरजाघर आदि सभी धार्मिक स्थान हैं जहाँ विभिन्न धर्मों के अनुयायी अपने इष्ट की पूजा-आराधना तथा ध्यान करते हैं। धार्मिक संस्थाओं के नियमों का लगातार पालन करने तथा धर्मस्थलों पर नियमित जाने से व्यक्ति धार्मिक प्रवृत्ति का हो जाता है जिससे उसके व्यक्तित्व पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।।

(5) क्लब एवं गोष्ठियाँ आदि- क्लब तथा गोष्ठियाँ व्यक्तित्व के निर्माण में काफी योगदान देते हैं। समाज के लोग मनोरंजन या ज्ञान-चर्चा आदि के लिए क्लब या गोष्ठी बनाते हैं और एक निश्चित स्थान पर निश्चित समय पर एकत्र होते हैं। वहाँ खेलकूद, नाच-गाना, वार्तालाप, चर्चाएँ आदि के माध्यम से व्यक्तित्व प्रभावित होता है। बच्चों के भी अपने क्लब होते हैं।

(6) सिनेमा तथा टेलीविजन– आज की दुनिया में सिनेमा तथा टेलीविजन ने लोगों को इतना आकर्षित किया है कि अधिकतर लोग यहाँ तक कि बच्चे भी इनके आदी हो चुके हैं। फिल्म तथा अन्य कार्यक्रमों को देखकर बालक उनमें प्रदर्शित अच्छी-बुरी बातों का अनुकरण करते हैं। सिनेमा और टेलीविजन बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में विशिष्ट स्थान रखते हैं।

(7) मेले एवं त्योहार-तरह- तरह के मेले एवं त्योहार भी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक कारक हैं। इन कारकों का बालकों के व्यक्तित्व के विकास में उल्लेखनीय योगदान होता है। मेले एवं त्योहारों के माध्यम से बालक सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत होते हैं तथा उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का अत्यधिक योगदान होता है। वर्तमान समय में इण्टरनेट, फेसबुक तथा सोशल मीडिया जैसे कारक भी युवावर्ग के व्यक्तित्व को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

प्रश्न 5
किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर आर्थिक कारकों के पड़ने वाले प्रभावों का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
या
आर्थिक कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
यह सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व एक अत्यधिक जटिल एवं बहुपक्षीय संगठन होता है जिसका विकास असंख्य कारकों के घात-प्रतिघात के परिणामस्वरूप होता है। जहाँ तक प्राकृतिक कारकों का प्रश्न है, वे तो किसी-न-किसी रूप में सभी प्राणियों को प्रभावित करते हैं। ये कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं, परन्तु मनुष्य क्योंकि एक सामाजिक प्राणी है तथा उसने अत्यधिक व्यापक संस्कृति भी विकसित की है; अत: प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में । सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों का भी अत्यधिक योगदान होता है। सामाजिक मनुष्य के जीवन में आर्थिक कारकों की भी अत्यधिक प्रभावकारी भूमिका होती है। आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन को व्यापक रूप में प्रभावित करते हैं। आर्थिक कारकों के अन्तर्गत हम व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति की दशाओं, धन-प्राप्ति के स्रोतों एवं उपायों तथा आर्थिक अभावों, संकट एवं समृद्धि आदि का बहुपक्षीय अध्ययन करते हैं। आर्थिक कारक प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास एवं निर्धारण में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।

व्यक्तित्व तथा आर्थिक कारक

व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास एवं गठन पर आर्थिक कारकों का व्यापक एवं निरन्तर प्रभाव पड़ता है। आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर सक्रिय रहते हैं। तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते रहते हैं। जीवन के विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति के व्यक्तित्व पर आर्थिक कारकों के पड़ने वाले प्रभाव का विवरण निम्नलिखित है|

(1) शैशवावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव-
आर्थिक कारक शिशु के जन्म से पूर्व ही उसे प्रभावित करना प्रारम्भ कर देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि यदि गर्भावस्था में माँ को सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार एवं आवश्यक औषधियाँ आदि उपलब्ध हों तो जन्म लेने वाला शिशु शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। गर्भवती स्त्री को सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने के लिए धन की आवश्यकता होती है अर्थात् आर्थिक कारक की उल्लेखनीय भूमिका होती है। इसी प्रकार जन्म के उपरान्त शिशु के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा सुचारु विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार तथा अन्य सुविधाओं की अत्यधिक आवश्यकता होती है। सम्पन्न परिवारों में जन्म लेने वाले शिशुओं को ये समस्त सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं; अत: इन शिशुओं का विकास सुचारु रूप से होता है तथा उनका व्यक्तित्व भी सामान्य रूप से विकसित होता है। इस प्रकार के शिशुओं के व्यक्तित्व में सामान्य रूप से अभावजनित ग्रन्थियों का विकास नहीं होता।

दुर्भाग्यवश अथवा परिस्थितियोंवश अनेक परिवार ऐसे भी हैं जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं। तथा अभावपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इन परिवारों में जन्म लेने वाले शिशुओं को न तो पौष्टिक एवं सन्तुलित आहार उपलब्ध हो पाता है और न ही सामान्य जीवन के लिए आवश्यक अन्य सुविधाएँ ही पलब्ध हो पाती हैं अर्थात् उनकी शैशवावस्था अभावग्रस्त होती है। इस वर्ग के शिशुओं में शारीरिक एवं मानसिक विकास प्रायः कुण्ठित हो जाता है तथा उनका व्यक्तित्व भी सामान्य रूप से विकसित नहीं हो पाता। ऐसे शिशुओं के व्यक्तित्व में कुछ अभावजनित ग्रन्थियों का क्रमशः विकास होने लगता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि आर्थिक कारक शिशु के जन्म से पूर्व ही सक्रिय हो जाते हैं। तथा शैशवावस्था से ही शिशु के व्यक्तित्व को गम्भीर रूप से प्रभावित करने लगते हैं।

(2) बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- आर्थिक कारक व्यक्ति के जीवन में सदैव सक्रिय एवं प्रभावकारी रहते हैं। जब व्यक्ति शैशवावस्था को पार करके बाल्यावस्था में पदार्पण करता है तब उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारकों में आर्थिक कारकों का भी उल्लेखनीय स्थान होता है। बाल्यावस्था में पहुँचने के साथ-ही-साथ बालकों को आर्थिक कारकों की

आवश्यकता एवं महत्त्व की जानकारी प्राप्त होने लगती है। सम्पन्न परिवारों के बच्चे अपनी आवश्यकताओं को सरलता से पूरा कर लेते हैं तथा उनकी आवश्यकताएँ भी निरन्तर रूप से बढ़ती जाती हैं। ऐसे बच्चे प्रायः तनाव रहित, प्रसन्न तथा सन्तुष्ट रहते हैं। इस स्थिति में बच्चों का मानसिक, बौद्धिक एवं संवेगात्मक विकास सुचारु रूप से होता है। ऐसे बच्चों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण सकारात्मक होता है तथा उनमें सुरक्षा की भावना तथा आत्मविश्वास की कभी कमी नहीं होती। ये समस्त कारक बालक के व्यक्तित्व के विकास पर अच्छा प्रभाव डालते हैं तथा बालक के व्यक्तित्व का सुचारु विकास होता है। जहाँ तक आर्थिक रूप से अभावग्रस्त परिवारों का प्रश्न है, उनके बच्चों के व्यक्तित्व पर परिवार की आर्थिक स्थिति का गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इन परिवारों के बच्चों को अपनी आवश्यकताओं को नियन्त्रित करना पड़ता है तथा अनेक बार तो अभावों में ही जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इस वर्ग के बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के कुण्ठित होने की प्रायः आशंका रहती है। ये बच्चे अनेक बार निराशा तथा असुरक्षा की भावना से घिर जाते हैं तथा उनमें आत्मविश्वास का भी समुचित विकास नहीं हो पाता।।

बाल्यावस्था में व्यक्तित्व के सुचारु विकास में शिक्षा की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा की उत्तम व्यवस्था के लिए भी पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। सम्पन्न परिवारों के बच्चों के लिए उत्तम शिक्षा ग्रहण करना सरल होता है, जबकि अभावग्रस्त परिवारों के बच्चे या तो शिक्षा से वंचित ही रह जाते हैं अथवा केवल साधारण एवं कामचलाऊ शिक्षा ही ग्रहण कर पाते हैं। शैक्षिक सुविधाओं के अन्तर के कारण भी भिन्न-भिन्न आर्थिक स्थिति वाले बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है। शिक्षा के अतिरिक्त बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में खेल एवं मनोरंजन के साधनों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भिन्न-भिन्न आर्थिक वर्ग वाले परिवारों के बच्चों का खेलों एवं मनोरंजन के साधनों में भी स्पष्ट अन्तर होता है। इस अन्तर का भी बच्चों के व्यक्तित्व के विकास पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था में भी व्यक्तित्व के विकास पर आर्थिक कारकों का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है।

(3) युवावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- युवावस्था में प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी व्यवसाय का वरण करता है। इस अवस्था का व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इस अवस्था में भी आर्थिक कारकों द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। सम्पन्न परिवारों के युवकों को व्यावसायिक चुनाव के लिए अधिक सुविधाएँ एवं अवसर उपलब्ध होते हैं। इन युवकों को व्यवसाय-वरण में सामान्य रूप से कोई विशेष संघर्ष नहीं करना पड़ता। इन परिस्थितियों में सम्बन्धित युवाओं के व्यक्तित्व का विकास एक भिन्न रूप में होता है। इससे भिन्न आर्थिक दृष्टि से हीन अथवा सीमित साधनों से युक्त परिवारों के युवाओं को व्यवसाय के वरण के लिए सामान्य रूप से अधिक योग्य एवं निपुण बनना पड़ता है तथा साथ ही भरपूर संघर्ष भी करने पड़ते हैं। इस प्रकार के प्रयास करने वाले युवा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नितान्त भिन्न रूप में होता है। ऐसा देखने में आता है। कि अपनी योग्यता एवं संघर्ष के बल पर सफलता अर्जित करने वाले युवा अधिक सन्तुष्ट तथा

आत्मविश्वास से परिपूर्ण होते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि युवावस्था में भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर आर्थिक कारकों को अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है।

(4) वयस्कावस्था में आर्थिक कारकों का प्रभाव- वयस्कावस्था में भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में आर्थिक कारकों का उल्लेखनीय योगदान होता है। व्यक्ति की आय एवं धन-उपार्जन के ढंग एवं उपायों का भी उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। जो व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए किसी सम्मानजनक एवं समाज द्वारा स्वीकृत व्यवसाय का वरण करते हैं, उनके व्यक्तित्व में सामान्य रूप से आत्म-विश्वास तथा स्थायित्व के गुणों का समुचित विकास होता है। इससे भिन्न कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो प्रायः धन-उपार्जन के लिए कुछ ऐसे उपायों को अपनाते हैं। जिन्हें समाज में बुरा माना जाता है। ऐसे व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विकास नितान्त भिन्न रूप में होता है। ऐसे व्यक्तियों का व्यक्तित्व सामान्य नहीं होता तथा उनके व्यक्तित्व में अस्थिरता, तनाव तथा परेशानी के लक्षण देखे जा सकते हैं। समाज द्वारा निन्दनीय व्यवसायों को अपनाने वाले व्यक्ति के ।

व्यक्तित्व में कुटिलता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। व्यवसाय की प्रकृति के अतिरिक्त वयस्क व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी उसके व्यक्तित्व को अनिवार्य रूप से प्रभावित करती है। आर्थिक रूप से सम्पन्न तथा आर्थिक रूप से अभावग्रस्त व्यक्ति के व्यक्तित्व में अत्यधिक अन्तर देखा जा सकता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक स्तर पर आर्थिक कारकों द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है तथा जीवन के प्रत्येक स्तर पर व्यक्ति के व्यक्तित्व के ल्किास पर आर्थिक कारकों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 6
चरित्र एवं व्यक्तित्व से क्या आशय है? चरित्र एवं व्यक्तित्व के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर

व्यक्तित्व और चरित्र

व्यक्तित्व के विषय में अध्ययन के दौरान चरित्र की अवधारणा से परिचित होना आवश्यक है। वस्तुत: व्यक्तित्व और चरित्र का निकट का सम्बन्ध है। इनके पारस्परिक सम्बन्ध तथा विभेद को निम्नलिखित प्रकार से जान सकते हैं-

चरित्र (Character)- चरित्र सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार होता हैं। चरित्र का सम्बन्ध मनुष्य के व्यवहार से है। सामाजिक मान्यताओं तथा आदर्शों के अनुरूप व्यक्ति का व्यवहार ‘सच्चरित्र’ कहा जाएगा, किन्तु इसके विपरीत व्यवहार ‘दुष्चरित्र’ की श्रेणी में रखा जाएगा। मुनरो के अनुसार, “चरित्र में स्थायित्व होता है जिसके द्वारा सामाजिक निर्णय लिये जाते हैं। इसके लिए व्यक्ति की स्थायी मान्यताओं तथा उसके चुनाव की प्रकृति जो उसके व्यवहार में परिलक्षित होती है, चरित्र कहलाती है।” झा के मतानुसार, “एक व्यक्ति का चरित्र वह मानसिक कारक है जो उसके सामाजिक व्यवहार को निश्चित करता है। कुछ विचारकों ने चरित्र को स्थायी भावों का एक संगठन कहा है।

व्यक्तित्वं (Personality)— व्यक्तित्व, शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक लक्षणों, रुचि, अभिरुचि, योग्यता, क्षमता तथा चरित्र आदि का एक समन्वित रूप एवं संगठन है। जब व्यक्ति के समस्त गुण मिलकर एक इकाई का स्वरूप धारण करते हैं तो व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस प्रकार चरित्र, व्यक्तित्व का एक आवश्यक अंग है और व्यक्तित्व में चरित्र समाहित होता है।

चरित्र एवं व्यक्तित्व का पारस्परिक सम्बन्ध– व्यक्ति का चरित्र विभिन्न स्थायी भावों का एक संगठन है, जबकि उसका व्यक्तित्व (चरित्र सदृश) अनेकानेक गुणों का एक समन्वित संगठन है। इससे बोध होता है कि यदि व्यक्तित्व एक सम्पूर्ण शरीर है तो चरित्र उसका एक अंग-मात्र है। चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया में जब कुछ संवेग किसी प्राणी या वस्तु विशेष से जुड़ जाते हैं तो वे स्थायी भाव बनाते हैं। व्यक्ति के समस्त स्थायीभाव, किशोरावस्था के नजदीक, एक प्रमुख स्थायीभाव से जुड़ जाते हैं। स्थायीभाव आत्म-सम्मान से जुड़कर आत्म-सम्मान को स्थायीभाव निर्मित करते हैं जो समस्त व्यवहार का संचालन करता है। संगठित चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण तभी होता है जब समस्त स्थायीभाव आत्म से सम्यक् ढंग से संगठित होते हैं। संगठित चरित्र, संगठित व्यक्तित्व को जन्म देता है। इस भाँति सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

इसके विपरीत, यदि व्यक्ति संवेगात्मक रूप से असन्तुलित हो जाए तो तनाव की स्थिति में उसके स्थायी भावों का संगठन भी ठीक प्रकार से नहीं हो सकेगा। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति का व्यक्तित्व असंगठित तथा असन्तुलित हो जाएगा। व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियों तथा संवेगों के दमन से भावना ग्रन्थियों का निर्माण होता है, जिनके कारण व्यक्तित्व विघटित हो जाता है।

उदाहरणों द्वारा पुष्टि- चरित्र एवं व्यक्तित्व निर्माण एवं सम्बन्धीकरण की इस प्रक्रिया को विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है

  1. व्यक्ति के समस्त स्थायी भाव ईश्वर भक्ति के स्थायीभाव से जुड़कर धार्मिक व्यक्तित्व का विकास करते हैं। धार्मिक व्यक्ति धार्मिक कार्यों में सबसे अधिक रुचि दिखाता है तथा उसकी तुलना में अन्य कार्यों को छोड़ देता है।
  2. धनलोलुपता के स्थायीभाव से जुड़कर व्यक्ति धन इकट्ठा करने वाला स्वार्थी, लोभी. कंजूस, बेईमान व्यक्तित्व धारण कर लेता है। उसके लिए धन से बढ़कर कुछ नहीं होता तथा वह सच्चाई, ईमानदारी, दया, ममता, न्याय और नैतिकता को पैसे की बलिवेदी पर न्योछावर कर देता है।
  3. इसी प्रकार, राष्ट्रभक्ति का स्थायीभाव प्रधान होने पर अन्य सभी स्थायीभाव उससे जुड़कर देशभक्त व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। देशभक्त के लिए राष्ट्र की आन-मान, मर्यादा, रक्षा तथा श्री-सम्पन्नता ही सब-कुछ है। वह अपने राष्ट्रहित में सभी स्वार्थों को बलिवेदी पर अर्पित कर देता है।

निष्कर्षतः व्यक्ति का चरित्र-निर्माण उसके व्यक्तित्व सम्बन्धी आन्तरिक प्रारूप को पर्याप्त सीमा तक सुनिश्चित करता है। इसी से उसका व्यवहार संचालित होता है और व्यवहार प्रदर्शन ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वप्रधान एवं महत्त्वपूर्ण अवयव है।

प्रश्न 7
असामान्य व्यक्तित्व (Abnormal Personality) से क्या आशय है? असामान्य व्यक्तित्व के लक्षणों, कारणों तथा उपचार के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

असामान्य व्यक्तित्व

प्रत्येक व्यक्ति वातावरण की सरल एवं जटिल परिस्थितियों में अपने व्यक्तित्व के गुणों के आधार पर समायोजन करता है। अपने वातावरण के साथ समायोजन की प्रक्रिया में सफल व्यक्ति ‘सामान्य व्यक्तित्व’ वाला होता है, किन्तु जो व्यक्ति वातावरण के साथ कुसमायोजित होते हैं ऐसे व्यक्ति ‘असामान्य व्यक्तित्व’ वाले कहे जाते हैं। सामान्य व्यक्तित्व संगठित होता है, जबकि असामान्य व्यक्तियों का व्यक्तित्व विघटित प्रकार का होता है। व्यक्तित्व का यह विघटन या तो किसी क्षेत्र-विशेष में या कुछ क्षेत्रों में हो सकता है। व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व भी विघटित हो सकता है। यह विघटन अंशकाल के लिए मा पूर्णकाल के लिए भी हो सकता है। वस्तुतः सामान्य प्रकार के व्यक्तित्व में समस्त गुण या लक्षण (Traits) समन्वित होते हैं, किन्तु असामान्य व्यक्तित्व में ये लक्षण पूर्ण रूप से समन्वित नहीं होते।

लक्षण–मैस्लो  तथा मिटिलमैन नामक मनोवैज्ञानिकों ने सामान्य समायोजित व्यक्तियों की विशेषताओं का वर्णन किया है। उनकी दृष्टि में ऐसे व्यक्तियों का व्यवहार लक्ष्यपूर्ण होता है, उनमें सुरक्षा की उपयुक्त भावना होती है, उपयुक्त संवेगात्मकता-स्वच्छन्दता आत्मूल्यांकन पाया जाता है, वैयक्तिकता को बनाये रखना और समूह की जरूरतों को पूरा करने की योग्यता होती है, साथ ही उनमें पूर्व अनुभवों से सीखने की योग्यता भी रहती है। ऐसे संगठित व्यक्तित्व के लक्षण यदि किसी व्यक्ति में नहीं हों तो उन्हें असामान्य कहा जाएगा।

वास्तविकता यह है कि दुनियाभर के ज्यादातर लोगों का व्यवहार पूर्णरूपेण संगठित नहीं होता, उनके व्यक्तित्व में कुछ-न-कुछ विकृति या विघटन पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, विश्व के सभी व्यक्ति सामान्य व्यक्तित्व वाले नहीं होते, थोड़ी-बहुत असामान्यता की हम अपने दैनिक जीवन के व्यवहार में उपेक्षा कर देते हैं और अल्प विघटित व्यक्तित्व को संगठित व्यक्तित्व की श्रेणी में रख लेते हैं।

असामान्यताएँ– असामान्य व्यक्तित्व वाले लोगों के व्यवहार असामान्य होते हैं और वे किसी-न-किसी मानसिक रोग से पीड़ित हो सकते हैं। इन रोगों में प्रमुख हैं-स्वप्नचारिता (Somnambulims), हिस्टीरिया, स्मृतिभ्रंशता (Amnesia), बहुरूपी व्यक्तित्व (Multiple Personaliy), स्नायु दुर्बलता (Nervous thenia) तथा मनोविदलता (Sohizophrenia) आदि। अलग-अलग व्याधियों में किसी-न-किसी प्रकार का व्यक्तित्व-विघटन कम या ज्यादा मात्रा में पाया। जाता है और उसी के अनुसार व्यक्तित्व की असामान्यता दृष्टिगोचर होती है।

कारण- मनोवैज्ञानिकों ने असामान्य व्यक्तित्व के विभिन्न कारण बताये हैं जिनमें वंशानुक्रम, तनाव, अन्तर्द्वन्द्व, बुद्धि की कमी, विरोधी आदतें, रुचियों व इच्छाओं में समायोजन न होना आदि प्रमुख हैं। सिगमण्ड फ्रॉयड नामक मनोवैज्ञानिक ने असामान्य व्यक्तित्व का कारण यौन-इच्छाओं का दमित होना माना है। इसके अतिरिक्त बहुत-से अन्य कारण हैं जो शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक आधारों से जुड़े हैं।

उपचार— आजकल असामान्य व्यक्तित्व को पुन: सामान्य एवं सन्तुलित बनाने के लिए अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। व्यक्तित्व में उत्पन्न साधारण असामान्यताओं को साक्षात्कार व सुझाव की मदद से दूर किया जा सकता है, किन्तु गम्भीर अवस्था में मनोविश्लेषण पद्धति द्वारा चिकित्सा की जाती है। अति गम्भीर असामान्यताओं के लिए विद्युत आघात, न्यूरो सर्जरी तथा क्लाइण्ट सेण्टर्ड थेरैपी की मदद ली जाती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
फ्रॉयड के अनुसार व्यक्तित्व-विकास की प्रक्रिया का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
फ्रॉयड ने अपने मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है। फ्रॉयड की मान्यता है कि व्यक्तित्व की संरचना तीन तत्त्वों या इकाइयों से हुई है। इन्हें फ्रॉयड ने क्रमशः इड, इगो तथा सुपर इगो के रूप में वर्णित किया है। यदि इन तीनों इकाइयों में सन्तुलन बना रहता है तो व्यक्तित्व सन्तुलित रहता है। यदि इन इकाइयों में सन्तुलन बिगड़ जाता है तो व्यक्तित्व के सन्तुलन के बिगड़ने की आशंका रहती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि व्यक्ति का इड प्रबल हो जाये तो वह व्यक्ति प्रायः स्वार्थी, सुखवादी तथा अनियन्त्रित प्रकार का हो जाता है। इससे भिन्न यदि किसी व्यक्ति में इगो या अहम् प्रबल हो जाये तो व्यक्ति में मैं भाव’ हावी हो जाता है। यदि व्यक्ति में सुपर इगो या पराहम् प्रबल हो तो वह व्यक्ति आदर्शवादी बन जाता है। इस स्थिति में स्पष्ट है कि व्यक्तित्व के सन्तुलन के लिए इड, इगो तथा सुपर इगो में समन्वय आवश्यक है।

प्रश्न 2
व्यक्तित्व के मुख्य शीलगुणों का उल्लेख कीजिए। (2018)
उत्तर
व्यक्तित्व अपने आप में एक व्यापक एवं जटिल अवधारणा है। व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए उसके मुख्य तत्त्वों अथवा शीलगुणों को जानना अवश्यक है। मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि व्यक्तित्व का निर्माण मुख्य रूप से चार तत्त्वों या शीलगुणों से होता है। व्यक्तित्व के ये तत्त्व शीलगुण हैं क्रमशः मानसिक गुण या तत्त्व, शारीरिक गुण या तत्त्व, सामाजिकता तथा दृढ़ता। मानसिक गुणों का अध्ययन करने के लिए इन्हें तीन भागों में बाँटा जाता हैं। ये भाग हैं—ज्ञान एवं बुद्धि, स्वभाव तथा संकल्प-शक्ति एवं चरित्र। व्यक्तित्व के निर्माण में सर्वाधिक योगदान ज्ञान तथा बुद्धि का ही होता है।

बुद्धि के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। सामान्य रूप से माना जाता है कि प्रभावशाली एवं उत्तम व्यक्तित्व के लिए व्यक्ति को बौद्धिक स्तर उच्च होना चाहिए। इसके विपरीत, मन्द बुद्धि वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व प्रायः असंगठित तथा निम्न स्तर का ही होता है। व्यक्तित्व के निर्माण में व्यक्ति के स्वभाव की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों का व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता है तथा उनके व्यवहार के अनुसार ही व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। व्यक्तित्व के निर्माण के लिए संकल्प-शक्ति एवं चरित्र की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उच्च एवं सुदृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व उत्तम एवं सराहनीय माना जाता है तथा इनके विपरीत निम्न चरित्र तथा दुर्बल संकल्प-शक्ति वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निम्न ही माना जाता है। व्यक्तित्व के निर्माण में शारीरिक गुणों एवं तत्त्वों को भी अत्यधिक महत्त्व है। व्यक्तित्व के बाहरी पक्ष का निर्माण शरीर से ही होता है। आकर्षक शरीर वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रायः आकर्षक माना जाता है।

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने तो शारीरिक लक्षणों के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। मानसिक एवं शारीरिक गुणों के अतिरिक्त व्यक्तित्व के निर्माण में सामाजिकता का भी उल्लेखनीय स्थान है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास मुख्य रूप से उसकी सामाजिक अभिवृति के ही अनुकूल होता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण सामाजिकता के ही आधार पर किया है। व्यक्तित्व का एक अति आवश्यक तत्त्व या शीलगुण दृढ़ता भी है। व्यक्तित्व के सन्दर्भ में दढ़ता से आशय है-व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व होना। जिस व्यक्ति के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व होता है उसका व्यक्तित्व भी स्थिर होता है। व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों में स्थायित्व या दृढ़ता के अभाव में व्यक्तित्व को संगठित नहीं माना जा सकता।

प्रश्न3
पारम्परिक भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तित्व के वर्गीकरण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
भारतीय पारम्परिक विचारधारा के अनुसार व्यक्तित्व के वर्गीकरण का एक मुख्य आधार गुण, स्वभाव एवं कर्म स्वीकार किया गया है। इस आधार पर व्यक्तित्व के तीन वर्ग निर्धारित किये गये हैं। जिन्हें क्रमशः सात्विक, राजसिक तथा तामसिक कहा गया है। इस वर्गीकरण के अन्तर्गत सात्विक व्यक्ति के मुख्य लक्षण–शुद्ध आहार ग्रहण करना, धर्म एवं अध्यात्म में रुचि रखना तथा बुद्धि की प्रधानता हैं। राजसिक व्यक्तित्व के लक्षण हैं-अधिक उत्साह, पराक्रम, वीरता, युद्धप्रियता तथा शान-शौकत से परिपूर्ण जीवन। तामसिक व्यक्तित्व के लक्षण पाये गये हैं—समुचित बौद्धिक विकास न होना तथा कौशलपूर्ण कार्यों को करने की क्षमता न होना। इस वर्ग के व्यक्ति प्राय: आलस्य, प्रमाद आदि दुर्गुणों से युक्त होते हैं। तामसिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों का आचरण निम्न स्तर का होता है तथा ये प्रायः मद-व्यसन तथा गरिष्ठ आहार ग्रहण करना पसन्द करते हैं। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार, ब्राह्मण वर्ण सात्विक, क्षत्रिय वर्ण राजसिक, वैश्य वर्ण राजसिक-तामसिक तथा शूद्र वर्ण तामसिक प्रवृत्ति वाले होते हैं।

प्रश्न 4
शारीरिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक क्रैशमर (Kretschmer) ने शारीरिक संरचना में भिन्नता को व्यक्तित्व के वर्गीकरण का आधार माना है। उसने 400 व्यक्तियों की शारीरिक रूपरेखा का अध्ययन किया तथा उनके व्यक्तित्व को मुख्य रूप से दो समूहों में इस प्रकार बॉटा

(A) साइक्लॉयड (Cycloid)- क्रैशमर के अनुसार, “साइक्लॉयड व्यक्ति प्रसन्नचित्त, सामाजिक प्रकृति के, विनोदी तथा मिलनसार होते हैं। इनका शरीर मोटापा लिये हुए होता है। ऐसे व्यक्तियों का जीवन के प्रति वस्तुवादी दृष्टिकोण पाया जाता है।”

(B) शाइजॉएड (Schizoid)— साइक्लॉयड के विपरीत शाइजॉएड व्यक्तियों की शारीरिक बनावट दुबली-पतली होती है। ऐसे लोग मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संकोची, शान्त स्वभाव, एकान्तवासी, भावुक, स्वप्नदृष्टा तथा आत्म-केन्द्रित होते हैं। क्रैशमर ने इसके अतिरिक्त चार उप-समूह भी बनाये हैं

  1. सुडौलकाय (Athletic)– स्वस्थ शरीर, सुडौल मांसपेशियाँ, मजबूत हड्डियाँ, चौड़ा | वक्षस्थल तथा लम्बे चेहरे वाले शक्तिशाली लोग जो इच्छानुसार अपने कार्यों का व्यवस्थापन कर लेते हैं। ये क्रियाशील होते हैं। कार्यों में रुचि लेते हैं तथा अन्य चीजों की अधिक चिन्ता नहीं करते।।
  2. निर्बल (Asthenic)- लम्बी भुजाओं व पैर वाले दुबले-पतले निर्बल व्यक्ति जिनका सीना चपटा, चेहरा तिकोना तथा ठोढ़ी विकसित होती है। ऐसे लोग दूसरों की निन्दा तो करते हैं, लेकिन अपनी निन्दा सुनने के लिए तैयार नहीं होते।
  3. गोलकाय (Pyknic)- बड़े सिर और धड़ किन्तु छोटे कन्धे, हाथ-पैर वाले तथा गोल छाती वाले असाधारण शरीर के ये लोग बहिर्मुखी होते हैं।
  4. स्थिर-बुद्धि (Dysplasic)- ग्रन्थीय रोगों से ग्रस्त तथा मिश्रित प्रकार के प्रारूप वाले इन व्यक्तियों का शरीर साधारण होता है।

प्रश्न 5
स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
या
शेल्डन द्वारा दिए गए व्यक्तित्व के प्रकार बताइए। (2010)
उत्तर
शेल्डन (Sheldon) नामक मनोवैज्ञानिक ने व्यक्तित्व के वर्गीकरण के लिए मनुष्यों के स्वभाव को आधार स्वरूप स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तियों को निम्नलिखित तीन भागों में बॉटा है|
(1) एण्डोमॉर्फिक (Endomorphic)- गोलाकार शरीर वाले कोमल और देखने में मोटे व्यक्ति इस विभाग के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे लोगों का व्यवहार आँतों की आन्तरिक पाचन शक्ति पर निर्भर करता है।

(2) मीजोमॉर्फिक (Mesomorphic)–
आयताकार शरीर रचना वाले इन लोगों का शरीर शक्तिशाली तथा भारी होता है।

(3) एक्टोमॉर्फिक (Ectomorphic)- इन लम्बाकार शक्तिहीन व्यक्तियों में उत्तेजनशीलता अधिक होती है। ऐसे लोग बाह्य जगत् में निजी क्रियाओं को शीघ्रतापूर्वक करते हैं। शैल्डन ने उपर्युक्त तीन प्रकार के व्यक्तियों के स्वभाव का अध्ययन करके व्यक्तित्व के निम्नलिखित तीन वर्ग बताये हैं

(A) विसेरोटोनिक (Viscerotonic)– एण्डोमॉर्फिक वर्ग के लिए विसेरोटोनिक प्रकार का व्यक्तित्व रखते हैं। ये लोग आरामपसन्द तथा गहरी व ज्यादा नींद लेते हैं। किसी परेशानी के समय दूसरों की मदद पर आश्रित रहते हैं। ये अन्य लोगों से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रखते हैं तथा तरह-तरह के भोज्य-पदार्थों के लिए लालायित रहते हैं।

(B) सोमेटोटोनिक (Somatotonic)- मीजोमॉर्फिक वर्ग के अन्तर्गत आने वाले सोमेटोटोनिक व्यक्तित्व के लोग बलशाली तथा निडर होते हैं। ये अपने विचारों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करना पसन्द करते हैं। ये कर्मशील होते हैं तथा आपत्ति से भय नहीं खाते। |

(C) सेरीब्रोटोनिक (Cerebrotonic)– एक्टोमॉर्फिक वर्ग में सम्मिलित सेरीब्रोटोनिक व्यक्तित्व के लोग धीमे बोलने वाले, संवेदनशील, संकोची, नियन्त्रित तथा एकान्तवासी होते हैं। संयमी होने के कारण ये अपनी इच्छाओं तथा भावनाओं को दमित कर सकते हैं। आपातकाल में ये दूसरों की सहायता लेना पसन्द नहीं करते। ये सौम्य स्वभाव के होते हैं। इन्हें गहरी नींद नहीं आती।

प्रश्न 6
सामाजिकता पर आधारित व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
टिप्पणी लिखिए-बहिर्मुखी व्यक्तित्व।
या
टिप्पणी लिखिए-अन्तर्मुखी व्यक्तित्व।
या
अन्र्तमुखी व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताइए। अन्तर्मुखी एवं बहिर्मुखी व्यक्तित्व में अन्तर स्पष्ट करें। (2018)
उत्तर
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जंग (Jung) ने व्यक्तित्व के वर्गीकरण के लिए सामाजिकता को 
आधार स्वरूप स्वीकार किया तथा इस आधार पर मानवीय व्यक्तित्व के दो मुख्य वर्ग निर्धारित किये, जिन्हें क्रमश: बहिर्मुखी व्यक्तित्व तथा अन्तर्मुखी व्यक्तित्व कहा गया। व्यक्तित्व के इन दोनों वर्गों या प्रकारों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है–

(A) बहिर्मुखी (Extrovert)- बहिर्मुखी व्यक्तियों की रुचि बाह्य जगत् में होती है। इनमें सामाजिकता की प्रबल भावना होती है और ये सामाजिक कार्यों में लगे रहते हैं। इनकी अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले लोगों का ध्यान सदा बाह्य समाज की ओर लगा रहता है। यही कारण है कि इनका आन्तरिक जीवन कष्टमय होता है।
  2. ऐसे व्यक्तियों में कार्य करने की दृढ़ इच्छा होती है और ये वीरता के कार्यों में अधिक रुचि रखते हैं।
  3. इनमें समाज के लोगों से शीघ्र मेल-जोल बढ़ा लेने की प्रवृत्ति होती है। समाज की दशा पर विचार करना इन्हें भाता है तथा ये उसमें सुधार लाने के लिए भी प्रवृत्त होते हैं।
  4. अपनी अस्वस्थता एवं पीड़ा की ये बहुत कम परवाह करते। हैं।
  5. ये चिन्तामुक्त होते हैं।
  6. ये आक्रामक, अहंवादी तथा अनियन्त्रित प्रकृति के होते हैं।
  7. ये प्रॉय: प्राचीन विचारधारा के पोषक होते हैं।
  8. ये धारा प्रवाह बोलने वाले तथा मित्रवत् व्यवहार करने वाले होते हैं।
  9. ये शान्त एवं आशावादी होते हैं।
  10. परिस्थिति और आवश्यकताओं के अनुसार ये स्वयं को व्यवस्थित कर लेते हैं।
  11. ऐसे व्यक्ति शासन करने तथा नेतृत्व करने की इच्छा रखते हैं। ये जल्दी से घबराते भी नहीं हैं।
  12. बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोगों में अधिकतर समाज-सुधारक, राजनीतिक नेता, शासक व प्रबन्धक, खिलाड़ी, व्यापारी और अभिनेता सम्मिलित होते हैं।
  13. ये ऐसे भावप्रधान व्यक्ति होते हैं जो जल्दी ही भावनाओं के वशीभूत हो जाते हैं। इनमें स्त्रियाँ मुख्य स्थान रखती हैं और ऐसे पुरुष भी जो दूसरों का दु:ख-दर्द देखकर जल्दी ही पिघल जाते हैं।

(B) अन्तर्मुखी (Introvert)- अन्तर्मुखी व्यक्तियों की रुचि स्वयं में होती है। इनकी सामाजिक कार्यों में रुचि न के बराबर होती है। स्वयं अपने तक ही सीमित रहने वाले ऐसे लोग संकोची तथा एकान्तप्रिय होते हैं। इनकी अन्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के लोग कम बोलने वाले, लज्जाशील तथा पुस्तक-पत्रिकाओं को पढ़ने में गहरी रुचि रखते हैं।
  2. ये चिन्तनशील तथा चिन्ताओं से ग्रस्त रहते हैं।
  3. सन्देही प्रवृत्ति के कारण ये अपने कार्य में अत्यन्त सावधान रहते हैं।
  4. ये अधिक लोकप्रिय नहीं होते।
  5. इनका व्यवहार आज्ञाकारी होता है लेकिन ये जल्दी ही घबरा जाते हैं।
  6. ये आत्मकेन्द्रित और एकान्तप्रिय होते हैं।
  7. इनमें लचीलापन नहीं पाया जाता और क्रोध करने वाले होते हैं।
  8. ये चुपचाप रहते हैं।
  9. ये अच्छे लेखक तो होते हैं किन्तु अच्छे वक्ता नहीं होते।
  10. समाज से दूर रहकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक आदि समस्याओं के विषय में ये चिन्तनरत तो रहते हैं लेकिन समाज में सामने आकर व्यावहारिक कार्य नहीं कर पाते।

बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के व्यक्तियों की विभिन्न विशेषताओं का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति समाज में शायद ही कुछ हों जिन्हें विशुद्धतः बहिर्मुखी या अन्तर्मुखी का नाम दिया जा सके। अधिकांश व्यक्तियों का व्यक्तित्व ‘मिश्रित प्रकार का होता है जिसमें बहिर्मुखी तथा अन्तर्मुखी दोनों व्यक्तित्वों की विशेषताएँ निहित होती हैं। ऐसे व्यक्तित्व को उभयमुखी व्यक्तित्व अथवा विकासोन्मुख व्यक्तित्व (Ambivert Personality) की संज्ञा प्रदान की जाती है।

प्रश्न 7
व्यक्तित्व-निर्माण के सन्दर्भ में आनुवंशिकता तथा पर्यावरण के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास का अध्ययन करने वाले विद्वानों के अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में सर्वाधिक योगदान प्रदान करने वाले मुख्य कारक दो हैं, जिन्हें क्रमशः आनुवंशिकता अथवा वंशानुक्रमण (Heredity) तथा पर्यावरण (Environment) के नाम से जाना जाता है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से इन दोनों कारकों की प्राथमिकता निर्धारित की है।

एक वर्ग के विद्वानों का मत है कि बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में केवल आनुवंशिकता का ही योगदान होता है। इन विद्वानों की मान्यता है कि बालक के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास उसकी वंश-परम्परा के ही अनुसार होता है। साधारण शब्दों में कहा जा सकता हैं कि बच्चों के गुणों एवं लक्षणों का निर्धारण उनके माता-पिता एवं पूर्वजों के गुणों एवं लक्षणों से ही होता है। ये विद्वान् पर्यावरण के प्रभाव को कोई महत्त्व प्रदान नहीं करते तथा कहते हैं कि व्यक्ति स्वयं अपने पर्यावरण को अपने अनुकूल ढाल लेता है।

व्यक्तित्व का अध्ययन करने वाला विद्वानों का एक अन्य वर्ग बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में पर्यावरण के प्रभाव की प्राथमिकता मानता है। इस वर्ग के विद्वानों का मत है कि व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में पर्यावरण की भूमिका ही मुख्य होती है। इस वर्ग के विद्वानों के अनुसार जन्म के समय शिशु में व्यक्तित्व सम्बन्धी कोई गुण नहीं होते तथा बाद में पर्यावरण के प्रभाव से ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास होता है। एक पर्यावरणवादी विद्वान् का कथन इस प्रकार है, “मुझे एक दर्जन बच्चे दीजिए मैं आपकी माँग के अनुसार उनमें से किसी को चिकित्सक, वकील, व्यापारी अथवा चोर बना सकता हूँ। मनुष्य कुछ नहीं है, वह पर्यावरण का दास है, उसकी उपज है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरणवादियों के अनुसार बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में आनुवंशिकता का कोई योगदान नहीं होता है।

उपर्युक्त विवरण को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि वास्तव में ये दोनों मत एकांगी हैं। तथा अपने आप में पूर्ण रूप से सत्य नहीं हैं। वास्तव में बालक के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास में आनुवंशिकता तथा पर्यावरण दोनों का ही योगदान होता है।

प्रश्न 8
व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन के लिए जिम्मेदार मुख्य कारक कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर
नियमित एवं सहज-सामान्य जीवन व्यतीत करने से व्यक्ति का व्यक्तित्व संगठित रहता है। पन्तु जीवन में निरन्तर असामान्यता से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्तिगत कारक भी व्यक्तित्व के विघटन के लिए जिम्मेदार होते हैं। व्यक्तित्व के विघटन के मुख्य कारण अग्रलिखित हो सकते हैं-

(1) व्यक्ति की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना – व्यक्तित्व के संगठन के लिए संकल्प-शक्ति का प्रबल होना अति आवश्यक है। इस स्थिति में यदि किसी व्यक्ति की संकल्प-शक्ति दुर्बल हो जाती है तो उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

(2) असामान्य मूलप्रवृत्तियाँ– व्यक्ति के जीवन में मूलप्रवृत्तियों का विशेष महत्त्व होता है। यदि व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियाँ सामान्य रूप से सन्तुष्ट रहती हैं तो व्यक्ति का व्यक्तित्व सामान्य एवं संगठित रहता है। परन्तु व्यक्ति की मूलप्रवृत्तियाँ असामान्य रूप ग्रहण कर लेती हैं तथा उनकी सामान्य सन्तुष्टि नहीं हो पाती तो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

(3) बौद्धिक न्यूनता- व्यक्तित्व के संगठन के लिए समुचित रूप से विकसित बुद्धि का होना। अनिवार्य माना जाता है। यदि किसी व्यक्ति में बौद्धिक न्यूनता हो अर्थात् बौद्धिक विकास सामान्य से कम हो तो उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। वास्तव में न्यून बुद्धि वाला व्यक्ति जीवन में आवश्यक समायोजन नहीं कर पाता; अत: उसके व्यक्तित्व के विघटन के अवसर अधिक आ सकते हैं।

(4) इच्छाओं का दमन- इच्छाओं की सामान्य पूर्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व को संगठित बनाये रखने में सहायक होती है। यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छाओं को निरन्तर दमित करने के लिए बाध्य हो जाता है तो उसे व्यक्ति के व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। सभ्य समाज में प्राय: व्यक्ति को अपनी यौन-इच्छाओं का अधिक दमन करना पड़ता है। इससे व्यक्तित्व के विघटन की आंशका बढ़ जाती है।

(5) गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक रोग– निरन्तर रहने वाले शारीरिक रोग व्यक्ति को सामान्य जीवन व्यतीत करने से प्रायः रोक देते हैं। इसे बाध्यता का प्रतिकूल प्रभाव व्यक्तित्व के संगठन पर पड़ता है तथा व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है। इसी प्रकार कुछ मानसिक रोग भी व्यक्तित्व के विघटेन के लिए प्रबल कारक सिद्ध होते हैं।

(6) दिवास्वप्नों का लिप्त रहना- दिवास्वप्न देखना मनुष्य की एक असामान्य प्रवृत्ति है। यदि यह प्रवृत्ति बढ़ जाती है तो व्यक्ति यथार्थ जीवन से क्रमश: दूर जाने लगता है। यदि कोई व्यक्ति निरन्तर दिवास्वप्न देखने का आदी हो जाता है तो उसके व्यक्तित्व के विघटन की आशंका बढ़ जाती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
वार्नर द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
वार्नर (Warner) ने शारीरिक आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया तथा इस वर्गीकरण के अन्तर्गत उसने दस प्रकार के व्यक्तित्वों का उल्लेख किया है।
व्यक्तित्व के ये दस प्रकार हैं-

  1. सामान्य व्यक्तित्व
  2. असामान्य बुद्धि वाला व्यक्तित्व
  3. मन्द बुद्धि वाला व्यक्तित्व
  4. अविकसित शरीर का व्यक्तित्व
  5. स्नायविक व्यक्तित्व
  6. स्नायु रोगी व्यक्तित्व
  7. अपरिपुष्ट व्यक्तित्व
  8. सुस्त और पिछड़ा हुआ व्यक्तित्व
  9. अंगरहित व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा
  10. मिर्गी ग्रस्त व्यक्तित्व

प्रश्न 2
टरमन द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
टरमन (Terman) नामक मनोवैज्ञानिक ने अपने दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उसने व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारण के लिए व्यक्ति की बुद्धि-लब्धि को मुख्य आधार स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तित्व के आठ प्रकार या वर्ग निर्धारित किये, जो इस प्रकार हैं-

  1. प्रतिभाशाली व्यक्तित्व
  2. उप-प्रतिभाशाली व्यक्तित्व
  3. अत्युत्कृष्ट व्यक्तित्व
  4. उत्कृष्ट बुद्धि व्यक्तित्व
  5. सामान्य बुद्धि व्यक्तित्व
  6. मन्द बुद्धि व्यक्तित्व
  7. मूर्ख तथा
  8. जड़-मूर्ख।

प्रश्न 3
थॉर्नडाइक द्वारा निर्धारित किया गया व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
थॉर्नडाइक (Thorndike) ने अपने ही दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उसने व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारण के लिए व्यक्ति की विचार शक्ति को आधार स्वीकार किया तथा इस आधार पर व्यक्तित्व के निम्नलिखित तीन वर्ग निर्धारित किये

(1) सूक्ष्म विचारक- इस वर्ग में उन व्यक्तियों या बालकों को सम्मिलित किया जाता है जो किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसके पक्ष तथा विपक्ष में सूक्ष्म रूप से विस्तृत विचार करते हैं। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति सामान्य रूप से विज्ञान, गणित तथा तर्कशास्त्र में अधिक रुचि रखते हैं।

(2) प्रत्यय विचारक- प्रत्ययों के माध्यम से चिन्तन करने वाले व्यक्तियों को इस वर्ग में रखा जाता है। ये व्यक्ति शब्दों, संख्या तथा संकेतों आदि प्रत्ययों के आधार पर विचार करने में रुचि रखते हैं।

(3) स्थूल विचारक- थॉर्नडाइक ने तीसरे वर्ग के व्यक्तियों को स्थूल विचारक कहा है। इस वर्ग के व्यक्ति स्थूल चिन्तन में रुचि रखते हैं तथा अपने जीवन में क्रिया पर अधिक बल देते हैं।

प्रश्न 4
अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व के बीच कोई दो अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2009, 11, 16)
उत्तर
अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों की रुचि स्वयं में होती है तथा सामाजिक कार्यों में इनकी रुचि न के बराबर होती है। इससे भिन्न बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों की रुचि बाह्य जगत् में होती है। इनमें सामाजिकता की प्रबल भावना होती है और ये सामाजिक कार्यों में लगे रहते हैं। अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति प्राय: शर्मीले होते हैं तथा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करना पसन्द करते हैं। इससे भिन्न बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से मिलने में शर्म अनुभव नहीं करते तथा अपनी समस्याओं का समाधान अन्य व्यक्तियों से बातचीत करके ही करते हैं।

प्रश्न 5
व्यक्तित्व के विघटन के उपचार की सुझाव विधि का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
विघटित व्यक्तित्व के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को सुझाव विधि (Suggestion Method) कहा जता है। इस विधि के अन्तर्गत समस्याग्रस्त व्यक्ति को किसी विशेषज्ञ अथवा उच्च बुद्धि वाले व्यक्ति द्वारा आवश्यक सुझाव दिये जाते हैं। इन सुझावों के प्रभाव से व्यक्ति के व्यवहार एवं दृष्टिकोण में क्रमशः परिवर्तन होने लगता है तथा उसका व्यक्तित्व भी संगठित होने लगता है। व्यक्तित्व के विघटन के उपचार के लिए आत्म-सुझाव भी प्रायः उपयोगी सिद्ध होता है। आत्म-सुझाव के अन्तर्गत व्यक्ति को स्वयं अपने आप को कुछ ऐसे सुझाव दिये जाते हैं जो उसके मानसिक स्वास्थ्य में सुधार करने में उल्लेखनीय योगदान प्रदान करते हैं।

प्रश्न 6
टिप्पणी लिखिए-आस्था-उपचार।
उत्तर
अति प्राचीनकाल से मानसिक रोगों तथा व्यक्ति की असामान्यता के निवारण के लिए आस्था-उपचार विधि को अपनाया जाता रहा है। आस्था-उपचार प्रणाली अपने आप में कोई वैज्ञानिक उपचार पद्धति नहीं है। इसका आधार आस्था तथा विश्वास ही है। इस प्रणाली के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा किसी महान् व्यक्ति या ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास निर्मित किया जाता है तथा माना जाता है कि उसी की कृपा से व्यक्ति की असामान्यता या रोग निवारण हो जाता है। आस्था-उपचार पद्धति में समर्पण का भाव निहित होता है।

प्रश्न 7
व्यक्तित्व-विघटन के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सम्मोहन विधि का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व के विघटन तथा असामान्यता के निवारण के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को सम्मोहन विधि के नाम से जाना जाता है। इस विधि के अन्तर्गत एक व्यक्ति उपचारक की भूमिका निभाता है तथा उसे सम्मोहनकर्ता कहा जाता है। सम्मोहनकर्ता अपनी विशेष शक्ति द्वारा सम्बन्धित व्यक्ति की चेतना को प्रभावित करता है तथा उसे नियन्त्रित करके आवश्यक निर्देश देता है। सम्मोहित व्यक्ति सम्मोहनकर्ता के आदेशों को ज्यों-का-त्यों पालन करने को बाध्य हो जाता है। 
सम्मोहनकर्ता सम्बन्धित व्यक्ति को वे समस्त व्यवहार न करने का आदेश देता है जो व्यक्ति के विघटन अथवा असामान्यता के प्रतीक होते हैं। सम्मोहित व्यक्ति सम्मोहनकर्ता के आदेशों को स्वीकार कर लेता है। इसके उपरान्त सम्मोहनकर्ता सम्बन्धित व्यक्ति को चेतना के सामान्य स्तर पर ले आता है। ऐसा माना जाता है कि चेतना के सामान्य स्तर पर आ जाने पर भी व्यक्ति उन सब आदेशों का पालन करता रहता है जो उसे सम्मोहन की अवस्था में दिये जाते हैं। इस प्रकार व्यक्ति का व्यवहार सामान्य हो जाता है तथा व्यक्तित्व के विघटनकारी लक्षण समाप्त हो जाते हैं।

प्रश्न 8
टिप्पणी लिखिए-मनोविश्लेषण विधि।
उत्तर
व्यक्तित्व की असामान्यता एवं विघटन के निवारण के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि को मनोविश्लेषण विधि के नाम से जाना जाता है। इस विधि को प्रारम्भ करने का श्रेय मुख्य रूप से फ्रॉयड नामक मनोवैज्ञानिक को है। इस विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम सम्बन्धित व्यक्ति की व्यक्तित्व सम्बन्धी असामान्यता के मूल कारण को ज्ञात किया जाता है। इसके लिए मुक्त-साहचर्य तथा स्वप्न-विश्लेषण विधियों को अपनाया जाता है। सामान्य रूप से व्यक्ति के अधिकांश असामान्य व्यवहारों का मुख्य कारण किसी इच्छा का अनावश्यक दमन हुआ करता है। असामान्य व्यवहार के मूल कारण को ज्ञात करके सम्बन्धित दमित इच्छा को किसी उचित एवं समाज-सम्मत ढंग से पूरा करने का सुझाव दिया जाता है। दमित इच्छाओं के सन्तुष्ट हो जाने से व्यक्तित्व की असामान्यता का निवारण हो जाता है तथा व्यक्ति का व्यक्तित्व क्रमशः सामान्य एवं संगठित होने लगता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1 निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए

1. व्यक्ति के समस्त बाहरी तथा आन्तरिक गुणों की समग्रता को ……………के नाम से जाना जाता है।
2. व्यक्तित्व व्यक्ति के मनोदैहिक गुणों का……….संगठन है।
3. किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण उसके जन्मजात तथा……… गुणों के द्वारा होता है।
4. व्यक्ति के व्यक्तित्व के सही रूप का अनुमान उसके ………को देखकर लगाया जा सकता है।
5. शारीरिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण ………ने प्रस्तुत किया है। (2018)
6. स्थूलकाय……….. का एक प्रकार होता है।
7. व्यक्ति के स्वभाव के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण…………….नामक मनोवैज्ञानिक ने । प्रस्तुत किया है।
8. सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण मुख्य रूप से…………. नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया है
9. अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी के प्रकार हैं।
10. अन्तर्मुखता-बहिर्मुखता वर्गीकरण…………..द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
11. मिलनसार, सामाजिक, क्रियाशील तथा यथार्थवादी व्यक्ति के व्यक्तित्व को….कहा 
जाता है।
12. टरमन नामक मनोवैज्ञानिक ने व्यक्तित्व का वर्गीकरण व्यक्ति की………… के आधार पर 
किया है।
13. सन्तुलित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति मानसिक रूप से………….. होता है।
14. व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक हैं—
(1) आनुवंशिकता तथा |
(2)………….।
15. बाहरी जगत् में अधिक रुचि लेने वाले तथा प्रबल सामाजिक भावना वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व 
…………कहलाता है।
16. भिन्न-भिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास ……… होता है।
17. आर्थिक कारक व्यक्ति के व्यक्तित्व को………… 
प्रभावित करते हैं।
18. व्यक्तित्व के विघटन का व्यक्ति के जीवन पर…….प्रभाव पड़ता है।
19. आनुवंशिकता के वाहक कारक कहलाते हैं।
20. सम्मोहन तथा आस्था उपचार से…….का उपचार किया जाता है।
21. असामान्य व्यक्तित्व के उपचार के लिए मनोविश्लेषण विधि का प्रतिपादन……..ने किया
22. मन के तीन पक्षों इड, इगो एवं सुपर-इगो में…………….. व्यक्तित्व का तार्किक, व्यवस्थित विवेकपूर्ण भाग है।। (2016)
23. थायरॉइड ग्रन्थि से निकलने वाले स्राव (रस) को ….कहते हैं। (2017)
उत्तर-
1. व्यक्तित्व
2. गत्यात्मक
3, अर्जित
4. व्यवहार
5. क्रैशमर
6. व्यक्तित्व
7. शैल्डन
8. जंग
9. व्यक्तित्व
10. जंग
11. बहिर्मुखी
12. बुद्धिलब्धि
13. स्वस्थ
14. पर्यावरण
15. बहिर्मुखी
16. भिन्न-भिन्न रूप में
17. गम्भीर
18. प्रतिकूल
19. जीन्स
20. असामान्य व्यक्ति
21. फ्रॉयड
22. सुपर-इगो
23. थायरॉक्सिन

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए

प्रश्न 1.
अंग्रेजी के शब्द Personality की उत्पत्ति किस भाषा के किस शब्द से हुई?
उत्तर
Personality शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘personare’ शब्द से हुई है।

प्रश्न 2.
व्यक्तित्व में व्यक्ति के किन-किन गुणों को सम्मिलित किया जाता है?
उत्तर
व्यक्तित्व में व्यक्ति के समस्त बाहरी एवं आन्तरिक गुणों को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 3.
व्यक्ति के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मुख्य रूप से किस माध्यम से होती है?
उत्तर
व्यक्ति के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मुख्य रूप से उसके व्यवहार के माध्यम से होती है।

प्रश्न 4.
व्यक्तित्व की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए आलपोर्ट द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
आलपोर्ट के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के उन मनोशारीरिक संस्थानों का गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण के साथ उसके अनूठे समायोजन को निर्धारित करता है।’

प्रश्न 5.
व्यक्तित्व की मन के द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
मन के अनसार, “व्यक्तित्व वह विशिष्ट संगठन है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के गठन, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रवणताओं को सम्मिलित किया जा सकता है।

प्रश्न 6.
शारीरिक संरचना के आधार पर क्रैशमर ने व्यक्तित्व के किन-किन प्रकारों का उल्लेख किया है?
उत्तर
शारीरिक संरचना के आधार पर क्रैशमर ने व्यक्तित्व के मुख्य रूप से दो प्रकारों अर्थात् साइक्लॉयड तथा शाइजॉएड का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उसने व्यक्तित्व के चार अन्य प्रकारों का भी उल्लेख किया है—

  1. सुडौलकाय
  2. निर्बल
  3. गोलकाय तथा
  4. स्थिर-बुद्धि।

प्रश्न 7.
सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व के कौन-कौन से प्रकार निर्धारित किये गये हैं?
उत्तर
सामाजिकता के आधार पर व्यक्तित्व के मुख्य रूप से दो प्रकार निर्धारित किये गये हैं

  1. बहिर्मुखी व्यक्तित्व तथा
  2. अन्तर्मुखी व्यक्तित्व।

प्रश्न 8.
सन्तुलित व्यक्तित्व की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होना
  2. संवेगात्मक सन्तुलन तथा सामंजस्यता
  3. सामाजिकता तथा
  4. संकल्प शक्ति की प्रबलता।

प्रश्न 9.
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक हैं-आनुवंशिकता तथा पर्यावरण।

प्रश्न 10.
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले चार मुख्य जैवकीय कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले चार मुख्य जैवकीय कारक हैं-

  1. शरीर रचना
  2. स्नायु संस्थान
  3. ग्रन्थि रचना तथा
  4. संवेग एवं आन्तरिक स्वभाव।।

प्रश्न 11.
बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मुख्य पारिवारिक कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर
बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मुख्य पारिवारिक कारक हैं

  1. परिवार के मुखिया का प्रभाव
  2. परिवार के अन्य सदस्यों का प्रभाव
  3. परिवार में उपलब्ध स्वतन्त्रता
  4. परिवार का संगठित अथवा विघटित होना तथा
  5. परिवार की आर्थिक स्थिति।

प्रश्न 12.
विद्यालय में बालक के व्यक्तित्व पर मुख्य रूप से किस-किसका प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
विद्यालय में बालक के व्यक्तित्व पर पड़ने वाले मुख्य प्रभाव हैं

  1. अध्यापक का प्रभाव
  2. सहपाठियों का प्रभाव तथा
  3. समूह का प्रभाव।

प्रश्न 13.
व्यक्तित्व के विघटन के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. व्यक्तित्व की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना
  2. असामान्य मूलप्रवृत्तियाँ
  3. बौद्धिक न्यूनता
  4. इच्छाओं का दमन
  5. गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक रोग तथा
  6. दिवास्वप्नों में लिप्त रहना।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
परसोना शब्द किससे सम्बन्धित है?
(क) प्राणी से।
(ख) ज्ञान से
(ग) योग्यता से
(घ) व्यक्तित्व से
उत्तर
(घ) व्यक्तित्व से

प्रश्न 2.
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व को किस प्रकार का संगठन माना जाता है?
(क) अस्पष्ट
(ख) स्पष्ट ।
(ग) गत्यात्मक
(घ) स्थायी एवं कठोर
उत्तर
(ग) गत्यात्मक

प्रश्न 3.
सन्तुलित व्यक्तित्व का लक्षण नहीं है (2018)
(क) सुरक्षा की भावना
(ख) उपयुक्त स्व-मूल्यांकन
(ग) दिवास्वप्न ।
(घ) यथार्थ आत्म-ज्ञान
उत्तर
(ग) दिवास्वप्न

प्रश्न 4.
व्यक्तित्व की अवधारणा है
(क) जैविक
(ख) मनोशारीरिक
(ग) मनोभौतिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) मनोशारीरिक

प्रश्न 5.
“व्यक्तित्व में सम्पूर्ण व्यक्ति का समावेश होता है। व्यक्तित्व व्यक्ति के गठन, रुचि के
प्रकारों, अभिवृत्तियों, व्यवहार, क्षमताओं, योग्यताओं तथा प्रवणताओं का सबसे निराला संगठन है।”-यह कथन किसका है?
(क) मन
(ख) म्यूरहेड
(ग) आलपोर्ट
(घ) फ्रॉयड
उत्तर
(ख) म्यूरहेड

प्रश्न 6.
किस मनोवैज्ञानिक ने शारीरिक संरचना में भिन्नता को व्यक्तित्व के वर्गीकरण का आधार माना है?
(क) शेल्डन
(ख) जंग
(ग) क्रैशमर
(घ) वार्नर
उत्तर
(ग) क्रैशमर

प्रश्न 7.
अन्तर्मुखी-बहिर्मुखी-
(क) सामाजिक परिस्थितियाँ हैं ।
(ख) तनाव-दबाव के सूचक हैं।
(ग) व्यक्तित्व के शीलगुण हैं ।
(घ) व्यक्तित्व के दोष हैं ।
उत्तर
(ग) व्यक्तित्व के शीलगुण हैं ।

प्रश्न 8.
अन्तर्मुखी व बहिर्मुखी प्रकार के व्यक्तित्व का वर्णन करने वाले मनोवैज्ञानिक हैं (2014, 17)
(क) शेल्डन
(ख) जुग
(ग) एडलर
(घ) आलपोर्ट
उत्तर
(ख) जुग

प्रश्न 9.
मिलनसार, सामाजिक क्रियाशील तथा यथार्थवादी व्यक्ति के व्यक्तित्व को कहा जाता है
(क) अन्तर्मुखी व्यक्तित्व
(ख) बहिर्मुखी व्यक्तित्व
(ग) उभयमुखी व्यक्तित्व
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) बहिर्मुखी व्यक्तित्व

प्रश्न 10.
आर्थिक कारकों का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है
(क) केवल शैशवावस्था में ।
(ख) केवल बाल्यावस्था में
(ग) केवल वैवाहिक अवस्था में
(घ) जीवन की प्रत्येक अवस्था में
उत्तर
(घ) जीवन की प्रत्येक अवस्था में

प्रश्न 11.
व्यक्ति के व्यक्तित्व में आनुवशिकता के वाहक कहलाते हैं
(क) गुणसूत्र,
(ख) जीन्स
(ग) रक्त कोशिकाएँ
(घ) ये सभी
उत्तर
(ख) जीन्स

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन नलिकाविहीन ग्रन्थि नहीं हैं?
(क) गल ग्रन्थि
(ख) पीयूष ग्रन्थि
(ग) लार ग्रन्थि
(घ) शीर्ष ग्रन्थि
उत्तर
(ग) लार ग्रन्थि

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में किसको ‘मास्टर ग्रन्थि’ कहते हैं? (2017) 
(क) थायरॉड्ड
(ख) पैराथायरॉइड
(ग) एड्रीनल
(घ) पिट्यूटरी
उत्तर
(घ) पिट्यूटरी

प्रश्न 14.
व्यक्तित्व के विघटन का कारण नहीं होता
(क) व्यक्ति की संकल्प शक्ति का दुर्बल होना
(ख) बौद्धिक न्यूनता
(ग) इच्छाओं का दमन ।
(घ) शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना
उत्तर
(घ) शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना

प्रश्न 15.
व्यक्तित्व की असामान्यता के उपचार के लिए अपनायी जाती है (2014)
(क) सम्मोहन विधि
(ख) मनोविश्लेषण विधि
(ग) सुझाव विधि
(घ) ये सभी विधियाँ
उत्तर
(घ) ये सभी विधियाँ

प्रश्न 16.
व्यक्तित्व को सन्तुलित बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण हैं
(क) इदम्
(ख) अहम्
(ग) पराहं
(घ) ये तीनों
उत्तर
(ख) पराहं ये तीनों

प्रश्न 17.
सामाजिक आदर्शों से संचालित होता है (2018)
(क) अहम्
(ख) पराहं
(ग) इदम् ।
(घ) ये सभी
उत्तर
(ख) पराहं

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