UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 5 Introduction to Euclid’s Geometry

UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 5 Introduction to Euclid’s Geometry (युक्लिड के ज्यामिति का परिचय)

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प्रश्नावली 5.1

प्रश्न 1.
निम्नलिखित कथनों में से कौन-से कथन सत्य हैं और कौन-से कथन असत्य हैं? अपने उत्तरों के लिए। कारण दीजिए।
(i) एक बिन्दु से होकर केवल एक ही रेखा खींची जा सकती है।
(ii) दो भिन्न बिन्दुओं से होकर जाने वाली असंख्य रेखाएँ हैं।
(iii) एक सांत रेखा दोनों ओर अनिश्चित रूप से बढ़ाई जा सकती है।
(iv) यदि दो वृत्त बराबर हैं तो उनकी त्रिज्याएँ बराबर होती हैं।
(v) दी गई आकृति में, यदि AB = PQ और PQ = XY है तो AB = XY होगा :
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हल :
(i) क्योंकि प्रतिच्छेदी रेखाएँ, संगामी रेखाएँ इत्यादि ज्यामिति तथ्य दिए कथन को खण्डित करते हैं।
साथ-ही-साथ एक बिन्दु से होकर अपरिमित रूप से अनेक रेखाएँ खींची जा सकती हैं।
अत: कथन असत्य है।
(ii) क्योंकि दो भिन्न बिन्दुओं से होकर केवल एक रेखा खींची जा सकती है।
अतः कथन असत्य है।
(iii) एक सांत रेखा दोनों ओर अनिश्चित रूप से बढ़ाई जा सकती है।
अत: कथन सत्य है।
(iv) क्योंकि दो वृत्तों की त्रिज्याएँ समान होने पर ही वृत्त समान होते हैं।
अत: कथन सत्य है।
(v) यदि AB= PQ और PQ= XY ।
तो AB = XY (यूक्लिड के प्रथम अभिगृहीत से)
अत: कथन सत्य है।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित पदों में से प्रत्येक की परिभाषा दीजिए। क्या इनके लिए कुछ ऐसे पद हैं जिन्हें परिभाषित करने की आवश्यकता है? वे क्या हैं और आप इन्हें कैसे परिभाषित कर पाएँगे? ।
(i) समान्तर रेखाएँ
(ii) लम्ब रेखाएँ
(iii) रेखाखण्डे
(iv) वृत्त की त्रिज्या
(v) वर्ग।
हल :
(i) समान्तर रेखाएँ : दो सरल रेखाएँ जिनमें कोई भी उभयनिष्ठ बिन्दु नहीं होता है एक-दूसरे के समान्तर कहलाती हैं।
‘बिन्दु’ तथा ‘सरल रेखा कुछ ऐसे पद हैं जिन्हें परिभाषित करने की आवश्यकता है। ‘बिन्दु’ तथा ‘सरल रेखा’ को यूक्लिड के शब्दों में परिभाषित कर सकते हैं :
एक बिन्दु वह है जिसका कोई भाग नहीं होता है।
एक रेखा चौड़ाई रहित लम्बाई होती है तथा एक सीधी रेखा ऐसी रेखा है जो स्वयं पर बिन्दुओं के साथ सपाट रूप से स्थित होती है।

(ii) लम्बरेखाएँ : यदि दो समान्तर रेखाओं में से कोई एक 90° के कोण पर घूमती है तब दोनों रेखाएँ एक-दूसरे के
लम्बवत् होती हैं। ‘90° के कोण का घुमाव’ ऐसा पद है जिसे परिभाषित करने की आवश्यकता है।
घुमाव को अन्तर्ज्ञानात्मक रूप मान लिया जाता है, अतः इसका प्रयोग नहीं कर सकते हैं।

(iii) रेखाखण्ड : दो अन्त बिन्दुओं (end points) के साथ किसी रेखा को रेखाखण्ड कहते है|
‘बिन्दु’ तथा ‘रेखा’ कुछ ऐसे पद हैं जिन्हें परिभाषित करने की आवश्यकता है। परन्तु इन्हें भाग (i) में परिभाषित कर चुके हैं।

(iv) वृत्त की त्रिज्या : किसी वृत्त के केन्द्र से वृत्त की परिधि के किसी बिन्दु तक खींचे रेखाखण्ड को वृत्त की त्रिज्या कहते हैं।
केन्द्र ऐसा पद है जिसे परिभाषित करने की आवश्यकता है।
केन्द्र’ को वृत्त के अन्दर एक बिन्दु के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसकी वृत्त पर स्थित सभी बिन्दुओं से दूरी समान होती है।

(v) वर्ग : वर्ग वह क्षेत्र या प्रदेश है जो समान लम्बाई के चार रेखाखण्डों से घिरा होता है तथा प्रत्येक दो किनारों के बीच 90° का कोण होता है।
क्षेत्र या प्रदेश, किनारे तथा कोण को अन्तर्ज्ञानात्मक रूप मान लिया जाता है।

प्रश्न 3.
नीचे दी हुई दो अभिधारणाओं पर विचार कीजिए :
(i) दो भिन्न बिन्दु A और B दिए रहने पर, एक तीसरा बिन्दु C ऐसा विद्यमान है जो A और B के बीच स्थित होता है।
(ii) यहाँ कम-से-कम ऐसे तीन बिन्दु विद्यमान हैं कि वे एक रेखा पर स्थित नहीं हैं।
क्या इन अभिधारणाओं में कोई अपरिभाषित शब्द हैं? क्या ये अभिधारणाएँ अविरोधी हैं? क्या ये यूक्लिड की अभिधारणाओं से प्राप्त होती हैं? स्पष्ट कीजिए।
हल :
दोनों अभिधारणाओं में निम्न दो शब्द अपरिभाषित हैं : बिन्दु और रेखा।
दोनों अभिधारणाएँ परस्पर अविरोधी नहीं हैं।
ये अभिधारणाएँ यूक्लिड की अभिधारणाओं का अनुसरण नहीं करतीं परन्तु ये निम्न अभिगृहीत के अनुरूप हैं।
दिए गए दो भिन्न बिन्दुओं से होकर एक अद्वितीय रेखा खींची जा सकती है।
(i) माना AB एक सरल रेखा है।
अपरिमित रूप से ऐसे अनेक बिन्दु हैं जो इस रेखा पर स्थित हैं। दो अन्त बिन्दुओं A तथा B को छोड़कर इनमें से किसी का भी चयन करते हैं। यह बिन्दु A तथा B के मध्य स्थित होता है।
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(ii) कम-से-कम ऐसे तीन बिन्दुओं का होना आवश्यक है जिनमें से एक बिन्दु को अन्य दोनों बिन्दुओं को जोड़ने वाली सरल रेखा पर नहीं होना चाहिए।

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प्रश्न 4.
यदि दो बिन्दुओं A और B के बीच एक बिन्दु C ऐसा स्थित है कि AC = BC है, तो सिद्ध कीजिए कि AC = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] AB है। एक आकृति खींचकर इसे स्पष्ट कीजिए।
हल :
बिन्दु C दो बिन्दुओं A और B के बीच स्थित है,
UP Board Solutions for Class 9 Maths Chapter 5 Introduction to Euclid’s Geometry img-3
AC + BC = AB
परन्तु दिया है। AC = BC
AC + AC = AB
2AC = AB
[latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] . 2AC = AB (बराबरों के आधे भी परस्पर बराबर होते हैं)
AC = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] AB
Proved.

प्रश्न 5.
प्रश्न 4 में, C रेखाखण्ड AB को मध्य-बिन्दु कहलाता है। सिद्ध कीजिए कि रेखाखण्ड का एक और केवल एक ही मध्य-बिन्दु होता है।
हल :
माना यदि सम्भव है तो C और C” रेखाखण्ड AB के दो मध्य-बिन्दु हैं।
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C, रेखाखण्ड AB का मध्य-बिन्दु है।
AC = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] AB
पुनः C”, रेखाखण्ड AB का मध्य-बिन्दु है।
AC” = [latex]\frac { 1 }{ 2 }[/latex] AB
यूक्लिड के अभिगृहीत से,
AC = AC”
AC – AC” = AC” – AC”
CC” = 0
C और C” समान बिन्दु हैं।
अतः रेखाखण्ड का एक और केवल एक ही मध्य-बिन्दु होता है।
Proved.

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प्रश्न 6.
दी गई आकृति में, यदि AC = BD है, तो सिद्ध कीजिए कि AB = CD है।
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हल :
बिन्दु B, बिन्दुओं A तथा C के मध्य स्थित है।
AB + BC = AC
पुनः बिन्दु C, बिन्दुओं B तथा D के मध्य स्थित है। .
BC + CD = BD परन्तु दिया है।
AC = BD
AB + BC = BC + CD
बराबरों से बराबर (BC) घटाने पर,
AB + BC – BC = BC + CD – BC
AB = CD
Proved.

प्रश्न 7.
यूक्लिड की अभिगृहीतों की सूची में दिया हुआ अभिगृहीत 5 एक सर्वव्यापी सत्य क्यों माना जाता है?
हल :
यूक्लिड का 5वाँ अभिगृहीत निम्नलिखित है :
पूर्ण अपने भाग से बड़ा होता है?
यह सर्वव्यापी सत्य है क्योंकि पूर्ण का कोई भी भाग क्यों न हो, वह अस्तित्व में पूर्ण से ही आया होगा तब इसके लिए प्रमाण देने की आवश्यकता ही नहीं है।

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प्रश्नावली 5.2

प्रश्न 1.
आप यूक्लिड की पाँचवीं अभिधारणा को किस प्रकार लिखेंगे ताकि वह सरलता से समझी जा सके।
हल :
यदि दो रेखाओं l और m को तीसरी रेखा n काटती है और रेखा n के एक ही ओर बने दोनों अन्तः कोणों का योग दो समकोण से कम हो तो l और m रेखाएँ बढ़ाने पर उसी ओर मिलेंगी जिस ओर के कोणों का योग 2 समकोण से कम होगा।
अथवा
दो भिन्न प्रतिच्छेदी रेखाएँ एक ही रेखा के समान्तर नहीं हो सकतीं।
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प्रश्न 2.
क्या यूक्लिड की पाँचवीं अभिधारणा से समान्तर रेखाओं के अस्तित्व का औचित्य निर्धारित होता है? स्पष्ट कीजिए।
हल :
यदि दो रेखाओं l और m को तीसरी रेखा n काटती है और n के एक ही ओर बने अन्त: कोणों ∠1 और ∠2 का योग 2 समकोण हो तो रेखाएँ l और m, बढ़ाने पर रेखा n को इस ओर प्रतिच्छेद नहीं करेंगी। इसी प्रकार यदि ∠3 + ∠4 = 2 समकोण तो रेखाएँ l और m, बढ़ाने पर रेखा n के इस ओर भी प्रतिच्छेद नहीं करेंगी। अत: रेखाएँ l और m कभी प्रतिच्छेद नहीं करती। हैं। इस प्रकार रेखाएँ l और m समान्तर होंगी।
अत: यह कथन सत्य है।
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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 6 कर्ण (खण्डकाव्य)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 6 कर्ण (खण्डकाव्य)

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प्रश्न 1
‘कर्ण’ खण्डकाव्य में कितने सर्ग हैं ? उनके नाम बताइए।
उत्तर
कर्ण खण्डकाव्य में सात सर्ग हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं—

  1. रंगशाला में कर्ण,
  2. द्यूतसभा में द्रौपदी,
  3. कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान,
  4. श्रीकृष्ण और कर्ण,
  5. माँ-बेटा,
  6.  कर्ण-वध,
  7. जलांजलि।।

प्रश्न 2
‘कर्ण खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 15, 16, 17]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। [2012, 13, 15]
या
‘कर्ण खण्डकाव्य के कथानक पर प्रकाश डालिए। [2012, 13, 14]
उत्तर
श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ नामक खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभक्त है। इसकी कथावस्तु महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्ण के जीवन से सम्बद्ध है।

प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) में कर्ण के जन्म से लेकर द्रौपदी के स्वयंवर तक की कथा का संक्षेप में वर्णन है। कुन्ती को; जब वह अविवाहित थी; सूर्य की आराधना के फलस्वरूप एक तेजस्वी पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसने लोक-लाज और कुल (UPBoardSolutions.com) की मर्यादा के भय से उस शिशु को नदी की धारा में बहा दिया। नि:सन्तान सारथी अधिरथ उस बालक को घर ले आया। उसके द्वारा पाले जाने के कारण वह ‘सूत-पुत्र कहलाया।

एक दिन वह बालक राजभवन की रंगशाला में पहुँच गया। सूत-पुत्र होने के कारण वहाँ उसकी वीरता का उपहास किया गया और उसे सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया। पाण्डवों से ईष्र्या रखने वाले दुर्योधन ने स्वार्थवश उसे प्रेम और सम्मान प्रदान किया। इससे कर्ण के आहत मन को कुछ धीरज एवं बल मिला।।

द्रौपदी के स्वयंवर में जब कर्ण मत्स्य-वेध करने उठा, तब द्रौपदी ने भी हीन जाति का कहकर उसे अपमानित किया। इस प्रकार दूसरी बार एक नारी द्वारा अपमानित होकर भी वह मौन ही रहा, किन्तु क्रोध की चिंगारी उसके नेत्रों से फूटने लगी।

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द्वितीय सर्ग (द्युतसभा में द्रौपदी) में अर्जुन द्वारा मत्स्य-वेध से लेकर द्रौपदी के चीर-हरण तक का कथानक वर्णित है। द्रौपदी के स्वयंवर में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने मत्स्य-वेध करके द्रौपदी का वरण कर लिया। द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की वधू बनकर आ गयी। विदुर के समझाने-बुझाने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का आधा राज्य मिल गया।

युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ में आमन्त्रित दुर्योधन को जल-स्थल का भ्रम हो गया। इस पर द्रौपदी ने व्यंग्य किया, जिस पर दुर्योधन क्षोभ से भर गया।

वापस आकर उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर शकुनि की सलाह से चूत-क्रीड़ा की योजना बनायी और पाण्डवों को आमन्त्रित किया। इस द्यूत-क्रीड़ा में युधिष्ठिर सारा राजपाट, भाइयों और अन्त में द्रौपदी को भी हार बैठे। कर्ण और दुर्योधन ने बदले का उपयुक्त अवसर जानकर द्रौपदी को निर्वस्त्र करने को कहा। कर्ण को अपना प्रतिशोध लेना था। वह बोला–पाँच पतियों वाली कुलवधू कैसी? कर्ण ने दु:शासन को इस प्रकार उत्तेजित तो किया परन्तु बाद में वह अपने इस दुष्कृत्य के लिए आजीवन पछताता रहा।

तृतीय सर्ग (कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान) में दुर्योधन द्वारा वैष्णव-यज्ञ करने से लेकर, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान करने तक का कथानक है। दुर्योधन ने चक्रवर्ती सम्राट् का पद ग्रहण करने के लिए वैष्णव-यज्ञ किया। कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं जब तक अर्जुन को नहीं मार (UPBoardSolutions.com) दूंगा, तब तक कोई भी याचक मुझसे जो कुछ भी माँगेगा, मैं वही दान दे दूंगा, मांस-मदिरा का सेवन नहीं करूंगा और अपने चरण भी नहीं धुलवाऊँगा। अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे; अतः इन्द्र ब्राह्मण का वेश बनाकर कर्ण के पास गये और कवच-कुण्डल का दान माँगा।

कर्ण ने इन्द्र की याचना पर जन्म से प्राप्त अपने दिव्य कवच-कुण्डल सहर्ष शरीर से काटकर दे दिये। ये ही कर्ण की जीवन-रक्षा के सुदृढ़ आधार थे। । |

चतुर्थ सर्ग (श्रीकृष्ण और कर्ण) में श्रीकृष्ण द्वारा कौरव-पाण्डवों को समझौता कराने, समझौता न होने पर कर्ण को कौरव पक्ष से युद्ध न करने के लिए समझाने के असफल प्रयास का वर्णन है। श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से कौरवों की राजसभा में दूत के रूप में न्याय माँगने गये, किन्तु दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि युद्ध के अतिरिक्त अब और कोई रास्ता नहीं है। श्रीकृष्ण निराश होकर कर्ण को समझाते हैं कि तुम पाण्डवों के भाई हो; अतः अपने भाइयों के पक्ष का समर्थन करो। |

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कर्ण की आँखों में वेदना के आँसू उमड़ आये। वह बोला कि मुझे आज तक घृणा, अनादर और अपमान ही मिला है। आज अधिरथ मेरे पिता और राधा मेरी माँ हैं। इन्हें छोड़कर मैं कुन्ती को अपनी माँ के रूप में ग्रहण नहीं कर सकता। मैं मित्र दुर्योधन के प्रति कृतघ्न नहीं बन सकता। लेकिन आप यह बात कभी युधिष्ठिर से मत कहिएगा कि मैं उनका बड़ा भाई हूँ, अन्यथा वे यह राज-पाट छोड़ देंगे। बहुत दिनों से मुझे एक आत्मग्लानि रही है कि द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई थी और मैंने ही वह दुष्कर्म कराया था। अतः इस शरीर को त्यागकर अपने इस दुष्कर्म का प्रायश्चित्त करूंगा।

पञ्चम सर्ग (माँ-बेटा) में कुन्ती द्वारा कर्ण के पास जाने का वर्णन है। पाण्डवों के लिए चिन्तित कुन्ती बहुत सोच-विचारकर कर्ण के आश्रम पहुँचती है। कुन्ती के कुछ कहने से पहले ही कर्ण ने अपने जीवनभर की पीड़ा को साकार करते हुए अपने हृदय की ज्वाला माँ के सम्मुख स्पष्ट कर दी।

वह बोला कि माँ होकर तुमने मेरे साथ छल किया। में अपने मित्र दुर्योधन का कृतज्ञ हूँ, मैं उसे धोखा नहीं दे सकता। यह विडम्बना ही होगी कि एक माता अपने पुत्र के द्वार से खाली हाथ लौट जाए। मैंने केवल अर्जुन को ही मारने की प्रतिज्ञा की है। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन के अतिरिक्त किसी पाण्डव को नहीं मारूंगा।

षष्ठ सर्ग (कर्ण-वध) में महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से लेकर कर्ण की मृत्यु तक की कथा का वर्णन है। महाभारत का युद्ध आरम्भ हुआ। भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति बनाये गये। वे इस शर्त पर सेनापति बने कि वे कर्ण का सहयोग नहीं लेंगे। युद्ध के दसवें दिन घायल होकर शर-शय्या पर पड़ने के बाद कर्ण के भीष्म पितामह के पास पहुँचने पर उन्होंने उसको भर आँख निहारने की (UPBoardSolutions.com) इच्छा प्रकट की तथा उसे दानवीर, धर्मवीर और महावीर बतलाया।

भीष्म पितामह ने कहा कि तुम भी अर्जुन आदि की तरह कुन्ती के ही पुत्र हो। हमारी इच्छा यही है कि तुम पाण्डवों से मिल जाओ। कर्ण ने अपने को प्रतिज्ञाबद्ध बताते हुए ऐसा करने से मना कर दिया। उसने पितामह से कहा कि भले ही उस ओर कृष्ण हों, किन्तु अर्जुन को मारने हेतु मैं हर प्रयास करूंगा। यह सुनकर पितामह ने उसे अपने शस्त्रास्त्र उठाकर दुर्योधन का स्वप्न पूर्ण करने के लिए कहा।

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भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को सेनापति नियुक्त किया गया। पन्द्रहवें दिन वे भी वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध के सोलहवें दिन कर्ण कौरव दल के सेनापति बने। उनकी भयंकर बाण-वर्षा से पाण्डव विचलित होने लगे, तभी भीम का पुत्र घटोत्कच भयंकर मायापूर्ण आकाश युद्ध करता हुआ कौरव सेना पर टूट पड़ा। कर्ण ने अमोघ-शक्ति का प्रहार कर घटोत्कच को मार डाला। इस अमोघ-शक्ति का प्रयोग वह केवल अर्जुन पर करना चाहता था। (UPBoardSolutions.com) अचानक कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया। कर्ण रथ से उतरकर स्वयं पहिया निकालने लगा। तभी श्रीकृष्ण का आदेश पाते ही अर्जुन ने नि:शस्त्र कर्ण का बाण-प्रहार से वध कर दिया।

सप्तम सर्ग (जलांजलि) में युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर द्वारा कर्ण को जलांजलि देने की कथा का वर्णन है। कर्ण के वीरगति प्राप्त करते ही कौरव सेना का मानो प्रदीप बुझ गया। वे शक्तिहीन हो गये। सेना अस्त-व्यस्त हो गयी। कर्ण के बाद शल्य और दुर्योधन भी मारे गये। युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को जलदान किया। तभी कुन्ती की ममता उमड़ पड़ी और उसने युधिष्ठिर से कर्ण को भाई के रूप में जलदान करने का आग्रह किया।

युधिष्ठिर के द्वारा पूछने पर कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य प्रकट कर दिया। यह जानकर कि कर्ण उनके बड़े भाई थे, युधिष्ठिर का मन भर आया और वे बोले कि “माँ! वे हमारे अग्रज थे। कर्ण जैसे महामहिम, दानवीर, दृढ़प्रतिज्ञ, दृढ़-चरित्र, समर-धीर, अद्वितीय तेजयुक्त भाई को पाकर कौन धन्य नहीं होता। उन्होंने कठोर शब्दों में कहा कि “तुम्हारे द्वारा इस रहस्य को छिपाने के कारण ही वे जीवनभर अपमान (UPBoardSolutions.com) का घूट पीते रहे।” युधिष्ठिर के हृदय की इस करुण व्यंजना के साथ ही खण्डकाव्य समाप्त हो जाता

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प्रश्न 3
‘कर्ण’ काव्य के प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए।
उत्तर
श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ नामक खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभक्त है। कथावस्तु के आधार पर ही सर्गों का नामकरण किया गया है। इसकी कथावस्तु महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्ण के जीवन से सम्बद्ध है। प्रथम सर्ग का नाम ‘रंगशाला में कर्ण’ है। इस सर्ग में कर्ण के जन्म से लेकर द्रौपदी के स्वयंवर तक की कथा का संक्षेप में वर्णन है। कुन्ती को; जब वह अविवाहित थी; सूर्य की आराधना के फलस्वरूप एक तेजस्वी पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। (UPBoardSolutions.com) उसने लोक-लाज और कुल की मर्यादा के भय से उस शिशु को नदी की धारा में बहा दिया। नि:सन्तान सारथी अधिरथ उस बालक को अपना पुत्र मानकर घर ले आया। उसे भला क्या ज्ञात था कि जो बालक उसे मिला है, उसमें साक्षात् सूर्य का तेज है। यही बालक महाभारत का अजेय वीर, कर्मवीर और दानवीर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध होगा। उसके द्वारा पाले जाने के कारण वह ‘सूत-पुत्र’ तथा पत्नी राधा के पुत्र-रूप में ‘राधेय’ कहलाया।

एक दिन वह बालक राजभवन की रंगशाला में पहुँच गया। सूत-पुत्र होने के कारण वहाँ उसकी वीरता का उपहास किया गया। यद्यपि वह सुन्दर और सुकुमार बालक था, किन्तु अर्जुन ने उसे सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया। कौरव-पाण्डव राजकुमारों के गुरु कृपाचार्य भी उससे घृणा करते थे।

दुर्योधन कर्ण के वीर-वेश और ओज से अत्यन्त प्रभावित था। पाण्डवों से ईष्र्या रखने वाले दुर्योधन ने सोचा कि इसे अपनी ओर मिला लेने से भविष्य में पाण्डव-पक्ष को दबाये रखना सम्भव हो जाएगा; अतः स्वार्थवश उसने उसे प्रेम और सम्मान प्रदान किया। (UPBoardSolutions.com) इससे कर्ण के आहत मन को कुछ धीरज एवं बल मिला।

द्रौपदी के स्वयंवर में बड़े-बड़े वीर धनुर्धर आये हुए थे और स्वयंवर की प्रतिज्ञा के अनुसार लक्ष्यवेध करना था। जब कर्ण मत्स्य-वेध करने उठा, तब द्रौपदी ने भी उसको हीन जाति का कहकर अपमानित किया-

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सूत-पुत्र के साथ ने मेरा गठबन्धन हो सकता।
क्षत्राणी का प्रेम न अपने गौरव को खो सकता॥

इस प्रकार दूसरी बार एक नारी द्वारा अपमानित होकर भी वह मौन ही रहा, किन्तु क्रोध की चिंगारी उसके नेत्रों से फूटने लगी।’सूर्य की ओर बंकिम दृष्टि करके, उसने मन-ही-मन अपने अपमान को बदला ” लेने को प्रण कर लिया।

प्रश्न 4
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग (चूतसभा में द्रौपदी) का सारांश लिखिए। [2010, 13, 14]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा अपनी भाषा में लिखिए।
उत्तर
द्वितीय सर्ग में अर्जुन द्वारा मत्स्य-वेध से लेकर द्रौपदी के चीर-हरण तक का कथानक वर्णित है। द्रौपदी के स्वयंवर में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने मत्स्य-वेध करके द्रौपदी का वरण कर लिया। बाद में जब भेद खुला तो अन्य राजागण ईष्र्या से प्रेरित हो गये, किन्तु द्रौपदी अर्जुन को पाकर धन्य थी। द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की वधू बनकर आ गयी। विदुर के समझाने-बुझाने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का आधा राज्य मिल गया।

युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ में आमन्त्रित दुर्योधन उनके यश-वैभव और राज्य की सुव्यवस्था देखकर ईर्ष्या व द्वेष से जलने लगा। दुर्योधन ने जैसे ही सभाभवन में प्रवेश किया तो उसे जहाँ जल भरा था, वहाँ स्थल का और जहाँ स्थल था, वहाँ जल का भ्रम हो गया। इस पर द्रौपदी ने व्यंग्य किया, जिस पर दुर्योधन क्षोभ से भर गया।

वापस आकर उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर शकुनि की सलाह से द्यूत-क्रीड़ा की योजना बनायी और पाण्डवों को आमन्त्रित किया। इस द्यूत-क्रीड़ा में युधिष्ठिर; सारा राजपाट, भाइयों और अन्त में द्रौपदी को भी हार बैठे। दुर्योधन की आज्ञा से दु:शासन द्रौपदी को भरी सभा में बाल पकड़कर घसीटता हुआ लाया। द्रौपदी ने बहुत अनुनय-विनय की, परन्तु इस दुष्कृत्य को देखकर भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, पाण्डव तथा सभी सभासद मौन रह गये। कर्ण और दुर्योधन की प्रसन्नता का ठिकाना न था। कर्ण ने बदले का उपयुक्त अवसर जानकर दु:शासन को उत्तेजित किया और द्रौपदी को निर्वस्त्र करने को कहा। विकर्ण से (UPBoardSolutions.com) यह अन्याय सहन नहीं हुआ, उसने अन्याय का विरोध किया, परन्तु कर्ण को अपना प्रतिशोध लेना था। वह बोला—विकर्ण, यह कुलवधू नहीं, दासी है। पाँच पतियों वाली कुलवधू कैसी? उसने दु:शासन को आज्ञा दी–

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दुःशासन मत ठहर, वस्त्र हर ले कृष्णा के सारे।
वह पुकार ले रो-रोकर, चाहे वह जिसे पुकारे॥

कर्ण ने दुःशासन को इस प्रकार उत्तेजित तो किया परन्तु बाद में अपने इस दुष्कृत्य के लिए वह आजीवन पछताता रहा।

प्रश्न 5
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग (कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान) की कथा का सारांश लिखिए। [2009, 10, 12, 14, 15, 17, 18]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान के प्रसंग को लिखिए। [2013, 15]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का वर्णन कीजिए। [2011, 12, 13, 14, 17]
उत्तर
तृतीय सर्ग में दुर्योधन द्वारा वैष्णव-यज्ञ करने से लेकर, कर्ण द्वारा अर्जुन-वध की प्रतिज्ञा तथा कवच-कुण्डल दान करने तक का कथानक है। दुर्योधन ने चक्रवर्ती सम्राट् का पद ग्रहण करने के लिए वैष्णव-यज्ञ किया। कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं जब तक अर्जुन को नहीं मार दूंगा, तब तक कोई भी याचक मुझसे जो कुछ भी माँगेगा, मैं उसे वह दान में दे दूंगा, मांस-मदिरा का सेवन नहीं करूंगा, अपने चरण भी नहीं धुलवाऊँगा और न ही शान्ति से बैतूंगा। युधिष्ठिर को इस प्रतिज्ञा से चिन्ता हुई, जबकि दुर्योधन की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। कर्ण के पास जन्मजात कवच-कुण्डल थे, जिनके रहते उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था। अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे; अत: इन्द्र को अपने पुत्र के प्राणों की चिन्ता हुई। वह ब्राह्मण का वेश बनाकर कर्ण के पास गये और कवच-कुण्डल का दान (UPBoardSolutions.com) माँगा। सूर्य ने यद्यपि अपने पुत्र कर्ण को स्वप्न में इन्द्र की इस चाल के प्रति सावधान कर दिया था, तथापि दानवीर कर्ण ने उनसे साफ-साफ कह दिया –

ब्राह्मण माँगे दान, कर्ण ले निज हाथों को मोड़।

कोई भी याचक बनकर यदि मुझसे मेरे प्राण भी माँगे तो वह भी मेरे लिए अदेय नहीं। कर्ण ने इन्द्र की याचना पर जन्म से प्राप्त अपने दिव्य कवच-कुण्डल सहर्ष शरीर से काटकर दे दिये। ये ही कर्ण की जीवन-रक्षा के सुदृढ़ आधार थे।

प्रश्न 6
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के ‘श्रीकृष्ण और कर्ण’ नामक चतुर्थ सर्ग की कथा (कथावस्तु या कथानक) का सारांश लिखिए। [2012, 13, 14, 15, 18]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए। [2018]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप का उद्धरण देते हुए चतुर्थ सर्ग की कथा का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2011, 12, 17]
उत्तर
चतुर्थ सर्ग में श्रीकृष्ण द्वारा कौरव-पाण्डवों का समझौता कराने, समझौता न होने पर कर्ण को कौरव पक्ष से युद्ध न करने के लिए समझाने के असफल प्रयास का वर्णन है। श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से कौरवों की राजसभा में दूत के रूप में न्याय माँगने गये, किन्तु दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि युद्ध के अतिरिक्त अब और कोई रास्ता नहीं है। श्रीकृष्ण निराश होकर कर्ण को कुछ दूर तक रथ में अपने साथ लाते हैं और उसे (UPBoardSolutions.com) समझाते हैं कि तुम पाण्डवों के भाई हो; अत: अपने भाइयों के पक्ष का समर्थन करो। तुम धर्मप्रिय, बुद्धिमान् और धनुर्धर हो। तुम पापी और दुराचारी का साथ मत दो। तुम मेरे साथ पाण्डवों के पक्ष में चलो और सम्राट् का पद प्राप्त करो। |

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कर्ण की आँखों में वेदना के आँसू उमड़ आये। वह बोला कि मुझे आज तक घृणा, अनादर और अपमान ही मिला है। मैं कुन्ती का पुत्र हूँ।’ यह कहने के तो कुन्ती के पास कई अवसर आये

यों न उपेक्षित होता मैं, यों भाग्य न मेरा सोता।
स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता॥
घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया, यह मेरी करुण कहानी।
देखो, सुनो कृष्ण !क्या कहता इन आँखों का पानी।।।

कर्ण आगे कहता है कि आज अधिरथ मेरे पिता और राधा मेरी माँ हैं। इन्हें छोड़कर कैसे मैं कुन्ती को अपनी माँ के रूप में ग्रहण कर लूं? कैसे मैं मित्र दुर्योधन के प्रति कृतघ्न बनूं, जिसने मुझ पर अपूर्व उपकार किया है? तुम अर्जुन को महावीर, अदम्य और अजेय कहते हो, लेकिन अर्जुन की वीरता तुम्हारे ही बल से है, अन्यथा वह कुछ भी नहीं। मैं जानता हूँ, जिधर तुम हो, विजय उधर ही होगी। अर्जुन से जाकर कह देना कि अब तो मेरे पास कवच और कुण्डल भी नहीं हैं, किन्तु मेरा पुरुषार्थ और आत्मबल ही मुझे यह बलिदान देने के लिए प्रेरित कर रहा है। आप यह बात कभी युधिष्ठिर से मत कहिएगा कि मैं उनका बड़ा भाई हूँ, (UPBoardSolutions.com) अन्यथा वे यह राज-पाट छोड़ देंगे और दुर्योधन का कृतज्ञ होने के कारण मैं सब कुछ उसके चरणों पर धर, दूंगा।

बहुत दिनों से मुझे एक आत्मग्लानि रही है कि द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई थी और मैंने ही वह दुष्कर्म कराया था। अतः इस शरीर को त्यागकर अपने इस दुष्कर्म का प्रायश्चित्त करूगा।

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प्रश्न 7
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के माँ-बेटा’ नामक पञ्चम सर्ग की कथा का सारांश अथवा कथानक लिखिए। [2010, 12, 15, 18]
या
‘कर्ण खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण तथा कुन्ती के वार्तालाप का वर्णन कीजिए। [2013]
उत्तर
पञ्चम सर्ग में कुन्ती द्वारा कर्ण के पास जाने का वर्णन है। महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने में पाँच दिन शेष हैं। पाण्डवों के लिए चिन्तित कुन्ती बहुत सोच-विचारकर कर्ण के आश्रम पहुँचती है। कुन्ती के कुछ कहने से पहले ही कर्ण ने उसे अपने जीवनभर की पीड़ा को साकार करते हुए ‘सूत-पुत्र राधेय कहकर प्रणाम किया। कुन्ती की आँखों में आँसू आ गये। उसने कहा कि तुम कुन्ती-पुत्र और पाण्डवों के बड़े भाई हो। आज अपने भाइयों में मिलकर दुर्योधन का कपटजाल तोड़ दो। कर्ण ने अपने हृदय की ज्वाला माँ के सम्मुख स्पष्ट कर दी

क्यों तुमने उस दिन न कही, सबके सम्मुख ललकार।
कर्ण नहीं है सूत-पुत्र, वह भी है राजकुमार॥

स्वयं कुन्ती के सम्मुख राजभवन में अपमान, स्वयंवर-सभा में अपमान तथा सर्वत्र सूत-पुत्र कहलाने की उसकी पीड़ा उभर आयी। वह बोला कि मेरे अपमानित और लांछित होते समय तुम्हारा पुत्र-प्रेम कहाँ गया था ? मैं अपने मित्र दुर्योधन का कृतज्ञ हूँ, मैं उसे धोखा नहीं दे सकता। कर्ण की वाणी सुनकर कुन्ती की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वह मौन खेड़ी थी। कर्ण ने कहा कि यद्यपि भाग्य मेरे साथ बहुत खिलवाड़ कर रहा है फिर भी यह विडम्बना ही होगी कि एक माता अपने पुत्र के द्वार से खाली हाथ लौट जाए। उसने कहा कि मैंने केवल अर्जुन को ही मारने की प्रतिज्ञा की है। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं (UPBoardSolutions.com) अर्जुन के अतिरिक्त किसी पाण्डव को नहीं मारूंगा। मेरे हाथों यदि अर्जुन मारा गया तो तुम अपनी इच्छानुसार उसको रिक्त स्थान मुझसे भर सकती हो और यदि मैं स्वयं मारा गया तो भी तुम पाँच पाण्डवों की माता तो रहोगी ही। इच्छित वरदान पाकर कुन्ती लौट गयी, परन्तु वह कर्ण के मन में विचारों का तूफान उठा गयी।

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प्रश्न 8
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के ‘कर्ण-वध’ नामक षष्ठ सर्ग की कथा को संक्षेप में लिखिए। [2011, 14, 15]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए। [2016]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य की सबसे प्रमुख घटना का वर्णन कीजिए। [2010, 12]
या
“कर्ण अपने प्रण व धुन का पक्का
था
” खण्डकाव्य के आधार पर इसकी पृष्टि कीजिए। [2014]
उत्तर
इस सर्ग में महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से लेकर कर्ण के मृत्यु तक की कथा का वर्णन है। पाँच दिन बाद महाभारत का युद्ध आरम्भ हुआ। भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति बनाये गये। वे इस शर्त पर सेनापति बने कि वे कर्ण का सहयोग नहीं लेंगे; क्योंकि वह कपटी, अत्याचारी, अधिरथी तथा अभिमानी है। कर्ण ने उनका प्रण सुनकर प्रतिज्ञा की कि वह भीष्म पितामह के जीवित रहते शस्त्र ग्रहण नहीं करेंगे अन्यथा सूर्य-पुत्र नहीं कहलाएँगे। भीष्म प्रतिदिन अकेले दस सहस्र वीरों को मारते थे, किन्तु दसवें दिन बाणों से घायल होकर वे शरशय्या पर गिर पड़े। कर्ण के भीष्म पितामह के पास पहुँचने पर (UPBoardSolutions.com) उन्होंने कर्ण को भर आँख निहारने की इच्छा प्रकट की, उसे जल के भंवर में नाव खेने वाला कहा तथा उसे दानवीर, धर्मवीर और महावीर बतलाया

घूण्र्य काल-जल में बस तू ही नौका खेने वाला।
दानवीर तू, धर्मवीर तू, तू सम्बल आरत का।
जो न कभी बुझ सकता, वह दीप महाभारत का।

भीष्म पितामह ने कहा कि मैंने तेरा सूत-पुत्र कह कर तिरस्कार किया, केवल इसलिए कि तुम किसी भी तरह इस युद्ध से विरत हो जाओ और दुर्योधन अपने इस युद्धरूपी काण्ड में सफल न हो सके। उन्होंने पुनः कहा कि तुम यह सन्देह छोड़ दो कि तुम सूत-पुत्र हो। तुम भी अर्जुन आदि की तरह कुन्ती के ही पुत्र हो। हमारी इच्छा यही है कि तुम पाण्डवों से मिल जाओ। कर्ण ने अपने को प्रतिज्ञाबद्ध बताते हुए ऐसा करने से मना कर दिया। उसने पितामह से कहा कि विधि के लिखे हुए को कौन बदल सकता है? मुझसे भी मेरा। मन यही कहता है कि मैं अपनी मृत्यु की कहानी स्वयं लिख रहा हूँ। किन्तु यह भी सत्य है पितामह कि मैं अपना साहस नहीं छोडूंगा। भले ही उस ओर कृष्ण हों, किन्तु अर्जुन को मारने हेतु मैं हर प्रयास करूंगा। यह सुनकर पितामह ने कर्ण की जय-जयकार की और उसके मार्ग के समस्त अमंगलों को दूर होने की कामना की। उसे अपने शस्त्रास्त्र उठाकर दुर्योधन का स्वप्न पूर्ण करने के लिए कहा।

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भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को सेनापति नियुक्त किया गया। पन्द्रहवें दिन वे भी वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध के सोलहवें दिन कर्ण कौरव दल के सेनापति बने। उनकी भयंकर बाण-वर्षा से पाण्डव विचलित होने लगे, तभी भीम का पुत्र घटोत्कच भयंकर मायापूर्ण आकाश युद्ध करता हुआ कौरव सेना फ्र टूट पड़ा। घटोत्कच के भीषण प्रहार से कौरव सेना में त्राहि-त्राहि मच गयी। उन्होंने रक्षा के लिए कर्ण को पुकारा। कर्ण ने अमोघ-शक्ति का प्रहार कर घटोत्कच को मार डाला। इस अमोघ-शक्ति का प्रयोग वह केवल अर्जुन पर करना चाहता था, किन्तु परिस्थितिवश उसे उसका प्रयोग घटोत्कच पर करना पड़ गया। वह सोचने लगा, यह सब कुछ कृष्ण को माया है, अब अर्जुन की विजय निश्चित है। थोड़ा-सा दिन शेष था। अचानक कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया। सारथी प्रयास करने पर भी रथ का पहिया न निकाल सका, तब कर्ण रथ से उतरकर स्वयं पहिया निकालने लगा। तभी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रहार करने के लिए आदेश दिया; क्योंकि युद्ध में धर्म-अधर्म का विचार किये बिना (UPBoardSolutions.com) शत्रु को परास्त करना चाहिए। आदेश पाते ही अर्जुन ने नि:शस्त्र कर्ण का बाण-प्रहार से वध कर दिया। कर्ण की मृत्यु पर श्रीकृष्ण भी अश्रुपूर्ण नेत्रों से रथ से उतर ‘कर्ण! हाय वसुसेन वीर’ कहकर दौड़ पड़े।

प्रश्न 9
‘कर्ण खण्डकाव्य के जलांजलि’ नामक सप्तम सर्ग की कथा का सार लिखिए। [2009, 14]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण के सम्बन्ध में युधिष्ठिर और कुन्ती के मध्य हुए वार्तालाप को अपने शब्दों में लिखिए। [2010]
या
ऐसा कीर्तिवान भाई पा होता कौन न धन्य ।
किन्तु आज इस पृथ्वी पर, हतभाग्य न मुझ-सा अन्य ।।
उक्त पंक्तियों में व्यक्त वेदना का भाव पठित खण्डकाव्य के आधार पर स्पष्ट कीजिए। [2009, 10]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर सप्तम सर्ग का मार्मिक चित्रांकन कीजिए। [2011]
उत्तर
सप्तम सर्ग में युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर द्वारा कर्ण को जलांजलि देने की कथा का वर्णन है। कर्ण के वीरगति प्राप्त करते ही कौरव सेना का मानो प्रदीप बुझ गया। वे शक्तिहीन हो गये। सेना , अस्त-व्यस्त हो गयी। कर्ण के बाद शल्य सेनापति बने परन्तु वे भी युधिष्ठिर द्वारा मारे गये। अन्त में गदा युद्ध में भीम द्वारा दुर्योधन भी मारा गया। युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों का जलदान किया, तभी कुन्ती की ममता उमड़ पड़ी और उसने युधिष्ठिर से कर्ण को सबसे बड़े भाई के रूप में जलदान करने का आग्रह किया। युधिष्ठिर उसके इस आग्रह पर चकित रह गये।

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युधिष्ठिर के द्वारा पूछने पर कुन्ती ने कर्ण के जन्म और उसको नदी में बहाये जाने का रहस्य प्रकट कर दिया। यह भी बताया कि वह कर्ण से मिलकर यह रहस्य उस पर स्पष्ट कर चुकी है। यह जानकर कि कर्ण उनके बड़े भाई थे, युधिष्ठिर को मन भर आया और वे बोले कि “माँ! वे हमारे अग्रज थे। कर्ण जैसे महामहिम, दानवीर, दृढ़प्रतिज्ञ, दृढ़-चरित्र, समर-धीर, अद्वितीय तेजयुक्त भाई को पाकर कौन धन्य नहीं होता। किन्तु (UPBoardSolutions.com) आज हमारे जैसा हतभाग्य और कौन है? उन्होंने कठोर शब्दों में कुन्ती को इस बात के लिए दोषी । ठहराया और कहा कि तुम्हारे द्वारा इस रहस्य को छिपाने के कारण ही वे जीवन भर अपमान का घूट पीते रहे। उन्होंने बड़े आदर से कर्ण का स्मरण करते हुए जलदान किया और अपने मन की पीड़ा इस प्रकार व्यक्त की–

मानव को मानव न मिला, धरती को धृति धीर।
भूलेगा इतिहास भला, कैसे यह गहरी पी॥

युधिष्ठिर के हृदय की इस करुण व्यंजना के साथ ही खण्डकाव्य समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 10
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर नायक कर्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्र उदघाटित कीजिए।
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए और बताइए कि उन्हें जीवनभर अपने किस कृत्य के प्रति ग्लानि रही ? [2014]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की वीरता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए। [2015]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण के उत्कृष्ट व्यक्तित्व की तीन या चार चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता पर प्रकाश डालते हुए उसके अन्य गुणों पर प्रकाश डालिए।
या
कर्ण सच्चे दानवीर, युद्धवीर तथा प्राणवीर थे।” इस कथन की पुष्टि कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कीजिए। [2011]
उत्तर
श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ नामक खण्डकाव्य का नायक महाभारत का अजेय योद्धा कर्ण है। इस काव्य में कर्ण के जन्म से लेकर मृत्यु तक की प्रमुख घटनाओं का वर्णन है। कर्ण की वीरता और उसके जीवन के करुण पक्ष का वर्णन करना ही कवि का लक्ष्य है। उसके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) जन्म से परित्यक्त–अविवाहित कुन्ती ने सूर्य की उपासना के फलस्वरूप सूर्य के तेजस्वी अंश को पुत्र-रूप में प्राप्त किया था। कुन्ती द्वारा त्याग दिये जाने के कारण वह माता के स्नेह से तो वंचित न रहा किन्तु सूत-पुत्र कहलाये जाने के कारण (UPBoardSolutions.com) आजीवन लांछित होता रहा। यह जानकर कि वह कुन्ती–पुत्र है, जिसको उसने लोक-समाज के लिए हृदय पर पत्थर रखकर त्याग दिया था, उसकी व्यथा और भी बढ़ गयी।

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(2) पग-पग पर अपमानित–वीर कर्ण समाज में सूत-पुत्र के रूप में जाना गया। राजभवन में राजकुमार अर्जुन ने उसे राधेय, सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया तथा स्वयंवर-सभा में द्रौपदी ने मत्स्यवेध करने से रोककर उसको अपमानित किया। माता कुन्ती उसका इस प्रकार अपमान होते देखकर भी उसे अपना न सकी। ऐसे अपमानों से उसका हृदय प्रतिशोध की अग्नि से जल उठा। वह श्रीकृष्ण से अपने हृदय की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहता है–

घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया, यह मेरी करुण कहानी।
देखो, सुनो कृष्ण क्या कहता, इन आँखों का पानी॥

(3) अद्वितीय तेजवान्–कर्ण सूर्य-पुत्र है; अतः स्वभावत: तेजस्वी है। उसका कमलमुख राजकुमारों की शोभा को हरण करने वाला है। युधिष्ठिर जलांजलि सर्ग में कहते हैं

अद्वितीय था तेज, और अनुपम था उनका ओज।।
हाय कहाँ मैं पाऊँ उनका पावन चरण-सरोज।

कुन्ती उसके तेजस्वी व्यक्तित्व को देखकर विस्मित और गद्गद हो गयी थी। वह अपने पुत्र की शोभा देखती ही रह जाती है। कवि ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है

एक सूर्य था उगा गगन में ज्योतिर्मय छविमान।
और दूसरा खड़ा सामने पहले का उपमान।।

(4) स्नेह और ममता का भूखा–कर्ण जीवनभर अपनी माता, भाई और गुरुजनों (UPBoardSolutions.com) का स्नेह न पा सका। उनसे उसे केवल लांछन और तिरस्कार हीं मिला। उसका हृदय सदा माँ की ममता पाने को तरसता रहा। वह कुन्ती से कहता है

यों न उपेक्षित होता मैं, यों भाग्य न मेरा सोता।
स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता॥

(5) अद्वितीय दानी-कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था। उसने प्रण किया था कि जब तक वह अर्जुन का वध नहीं कर लेगा, तब तक जो भी याचक उससे जो कुछ माँगेगा, वह उसे देगा। उसके पिता सूर्य ने समझाया कि कपटी इन्द्र को अपने कवच-कुण्डल देकर अपनी शक्ति क्षीण न करो, परन्तु उसने सहर्ष इन्द्र को अपने कवच-कुण्डल पकड़ा दिये। वह कहता है कि धरती भले ही काँप उठे, आकाश फटने लगे; किन्तु कर्ण अपनी दानशीलता से कभी पीछे नहीं हट सकता

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चाहे पलट जाय पलभर में महाकाल की धारा।
वीर कर्ण का किन्तु न झूठा हो सकता प्रण प्यारा॥

कवच-कुण्डल देकर उसने स्वयं अपनी मृत्यु बुला ली, परन्तु अपनी दानशीलता नहीं छोड़ी।।

(6) दृढ़प्रतिज्ञ-कर्ण ने जो भी प्रण किया, उसे पूरा किया। अर्जुन का वध होने तक उसने दान का व्रत लिया था, जिसे उसने अपने कवच-कुण्डल देकर भी पूर्ण किया। कुन्ती को चारों भाइयों की रक्षा का वचन दिया था, उसे भी उसने युद्ध के समय में निभाया

किन्तु न अपना प्रण भूले थे, वीर कर्ण पलभर भी।
भीम नकुल का धर्मराज का, किया नवध पाकर भी॥

(7) आत्मविश्वासी-कर्ण को अपने शौर्य और पराक्रम पर अविचल आत्मविश्वास है। वह कृष्ण से, कुन्ती से और भीष्म से बातें करते हुए आत्मविश्वासपूर्वक अर्जुन का वध करने को कहता है। उसने कृष्ण । को स्पष्ट कह दिया था कि भले ही अब उसके पास कवच-कुण्डल नहीं हैं, किन्तु आत्मबल और आत्मविश्वास अब भी है।

(8) अजेय योद्धा-कर्ण महान् पराक्रमी और अजेय योद्धा था। उसके रण-कौशल से सभी परिचित थे। अर्जुन के वध की उसकी प्रतिज्ञा सुनकर दुर्योधन को प्रसन्नता और पाण्डवों को भय उत्पन्न हुआ था। इन्द्र भी कर्ण के पराक्रम के कारण उसके द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा से चिन्तित थे। कृष्ण भी कर्ण की युद्ध-कुशलता से परिचित थे; अत: अर्जुन को नि:शस्त्र कर्ण पर धर्म-विरुद्ध प्रहार करने का आदेश देते हैं। कर्ण के पराक्रम तथा शौर्य की प्रशंसा शर-शय्या पर भीष्म पितामह भी करते हैं।

(9) प्रतिशोध की भावना से दग्ध-स्वाभिमानी और वीर कर्ण को कदम-कदम पर अपमान और तिरस्कार सहना पड़ा। उसने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर द्रौपदी को निर्वस्त्र करने के लिए दुःशासन को उकसाया। राजभवन में हुए अपमान के कारण ही उसने अर्जुन का वध करने का निश्चय किया। पाण्डवों का भाई होने पर भी प्रतिशोध की भावना ने ही उसकी स्नेह-भावना को नहीं जगने दिया।

(10) विवेकी और कृतज्ञ-कृष्ण ने कर्ण को पाण्डवों का पक्ष लेने के लिए बहुत (UPBoardSolutions.com) समझाया, किन्तु उसने उपकारी मित्र दुर्योधन से छल करना उचित नहीं समझा। वह दुर्योधन के उपकार को न भूलकर आजीवन उसके साथ रहता है। वह कृष्ण से कहता है-

मैं कृतज्ञ हूँ दुर्योधन का, उपकारों से हारा।
राजपाट उसके चरणों पर, चुप धर दूंगा सारा॥

(11) पश्चात्ताप से युक्त–कर्ण को द्रौपदी का भरी सभा में कराया गया अपमान सदैव कष्ट देता रहा। वह कृष्ण से कहता है-

धिक् कृतज्ञता को जिसने, ऐसा दुष्कर्म कराया।
प्रायश्चित्त करूंगा केशव, छोड़ नीच यह काया॥

(12) करुणामय जीवन-कर्ण का सम्पूर्ण जीवन करुणा से पूर्ण था। जन्म होते ही उसे माता ने त्याग दिया। राजभवन में सूत-पुत्र होने के कारण उसे अपमानित होना पड़ा। द्रौपदी के द्वारा किये गये अपमान का घूटे पीना पड़ा। जीवनभर माता, भाई और गुरुजनों के स्नेह से वंचित रहना पड़ा। सगे भाइयों के विरुद्ध हथियार उठाने पड़े। अजेय-योद्धा होते हुए भी वह अन्यायपूर्वक मारा गया। इस प्रकार पूरे काव्य में वीर कर्ण के जीवन का करुण पक्ष ही उभारा गया है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि कर्ण महाभारत के वीरों का सिरमौर है, फिर भी उसे नियतिवश : अपमान, तिरस्कार और छल-प्रपंच का शिकार होना पड़ा। इस प्रकार कर्ण के जीवन का करुण पक्ष अत्यधिक मार्मिक है।

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प्रश्न 11
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर भीष्म पितामह का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 10]
उतर
भीष्म पाण्डव और कौरवों के पूज्य एवं परमादरणीय पितामह थे। कौरव और पाण्डव दोनों ही उन्हें श्रद्धा से पितामह कहते थे। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) वीर शिरोमणि-भीष्म पितामह बड़े वीर और पराक्रमी योद्धा थे। महाभारत के युद्ध में उन्होंने प्रतिदिन दस हजार सैनिकों को मारने की शपथ ली थी। कौरव तथा पाण्डव दोनों ही उनकी वीरता के सम्मुख नतमस्तक थे।

(2) परम नीतिज्ञ-भीष्म पितामह कर्त्तव्यपरायण होने के साथ-साथ बड़े नीतिज्ञ भी थे। वे पूर्ण मन से कौरवों का साथ नहीं दे पा रहे थे, क्योंकि वे जानते थे कि कौरव अनीति के मार्ग पर चल रहे हैं। वे नहीं चाहते थे कि युद्ध में जीत कौरवों की हो। कर्ण को वे नीच, अर्धरथी और अभिमानी इसीलिए कहते हैं जिससे कर्ण का तेज कम हो जाये, क्योंकि वे उसकी युद्ध-कुशलता और दुर्योधन के प्रति पूर्ण निष्ठा को भली-भाँति जानते थे। उनकी इस नीति का प्रभाव भी हुआ; क्योंकि कर्ण ने यह प्रतिज्ञा की कि पितामह के जीते जी वह युद्ध में शस्त्र नहीं उठाएगा।

(3) न्याय एवं धर्म के समर्थक-भीष्म पितामह परिस्थितियोंवश ही कौरवों की (UPBoardSolutions.com) ओर से युद्ध करते हैं। वे नहीं चाहते कि युद्ध में दुर्योधन की विजय हो। वे पाण्डवों से अति प्रसन्न हैं; क्योंकि पाण्डव सत्य, न्याय और धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं। वे अनीति तथा अन्याय से घृणा करते हैं।

(4) शौर्य तथा पराक्रम के प्रेमी-शर-शय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह कर्ण के शौर्य और वीरता । की बड़ी प्रशंसा करते हैं तथा कर्ण के प्रति कहे गये अपमानजनक शब्दों पर पश्चात्ताप करते हैं। वे वीर और पराक्रमी योद्धा का बड़ा ही सम्मान करते हैं। कर्ण की प्रशंसा वे इन शब्दों में करते हैं-

तेरे लिए फूल आदर के, खिलते मेरे मन में।
देखा तुझ सा महावीर, मैंने न कभी जीवन में।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भीष्म पितामह का चरित्र एक वीर, पराक्रमी और न्यायवादी धर्म-प्रिय योद्धा को चरित्र है।

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प्रश्न 12
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2015]
उत्तर
श्रीकृष्ण ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के एक उदात्त-चरित्र महापुरुष हैं। वे एक अवतारी पुरुष और भगवान् के रूप में माने जाते हैं। अपने अलौकिक चरित्र से उन्होंने भारतीय जन-मानस को चमत्कृत किया है। तथा अपने महान् एवं अनुकरणीय चरित्र से लोगों को अत्यन्त प्रभावित भी किया है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) कूटनीतिज्ञ—कर्ण खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं में श्रीकृष्ण का विशेष हाथ है। वे पाण्डवों के परम हितैषी हैं। कृष्ण हर पल उनका ध्यान रखते हैं तथा समय-समय पर उन्हें सचेत भी करते हैं। शत्रु को नीचा दिखाना, साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति द्वारा किसी भी प्रकार से उसे वश में करना वे भली प्रकार जानते हैं। कर्ण की शक्ति को जानकर ही वे जहाँ उसे साम नीति द्वारा पाण्डवों के पक्ष में करने का प्रयास करते हैं, वहीं दुर्योधन के (UPBoardSolutions.com) अवगुणों को बताने में भेद-नीति अपनाते हैं। वे कर्ण से कहते हैं-

दुर्योधन का साथ न दो, वह रणोन्मत्त पागल है।
द्वेष, दम्भ से भरा हुआ, अति कुटिल और चंचल है॥

दाम नीति का प्रयोग करते हुए वे कर्ण को प्रलोभन देते हैं

चलो तुम्हें सम्राट बनाऊँ, अखिल विश्व का क्षण में।

कर्ण जब उनकी सभी बातों को ठुकरा देता है तो कृष्ण उसे अहंकारी भी बतलाते हैं। निश्चित ही वे सभी प्रकार की नीतियों में निष्णात हैं।

(2) परिस्थितियों के मर्मज्ञ-श्रीकृष्ण तो भगवान हैं। वे त्रिकालदर्शी हैं, भविष्यद्रष्टा हैं तथा परिस्थितियों को भली प्रकार समझने में सक्षम हैं। वे भली-भाँति जानते हैं कि धर्मयुद्ध में कर्ण को कोई मार नहीं सकता। तभी तो वे समय आने पर अर्जुन को कर्ण का वध करने का संकेत देते हैं। वे कहते हैं-

बाण चला दो, चूक गये तो लुटी सुकीर्ति सँजोयी।

(3) पाण्डवों के रक्षक-श्रीकृष्ण पाण्डवों के परम हितैषी हैं। वे हर परिस्थिति में पाण्डवों की रक्षा करते हैं, क्योंकि पाण्डव सत्य, न्याय और धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं, जिसकी स्थापना करने के लिए ही पृथ्वी पर उनका अवतार हुआ है। युद्ध में वे अर्जुन की रक्षा के लिए ही घटोत्कच को बुलवाते हैं और कर्ण के हाथ से उसका वध करवाकर अर्जुन का जीवन सुरक्षित करते हैं। |

(4) पराक्रम-प्रेमी–कृष्ण पराक्रमी एवं शूरवीर पुरुषों की निष्पक्ष होकर प्रशंसा करते हैं। वे कर्ण को एक अपराजेय योद्धा समझते हैं तथा उसके शौर्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-

धर्मप्रिय, धृति-धर्म धुरी को तुम धारण करते हो।
वीर, धनुर्धर धर्मभाव तुम भू-भर में भरते हो।

(5) मायावी-कृष्ण की माया से महाभारत के सभी योद्धा परिचित हैं। वे महाभारत युद्ध में केवल अर्जुन के रथ के सारथी ही बने हैं और उन्होंने अस्त्र-शस्त्र न उठाने कीप्रतिज्ञा भी की है, किन्तु फिर भी सभी वीर योद्धा उनसे भयभीत रहते हैं। जिन बातों को बड़े-बड़े वीर प्रयत्न करके भी नहीं जान पाते, उन बातों को कृष्ण सहज रूप में ही जान लेते हैं। कर्ण भी कहता है कि कृष्ण की माया अर्जुन को तो छाया की तरह घेरे रहती है–

घेरे रहती है अर्जुन को छाया सदा तुम्हारी।।

इस प्रकार से कृष्ण का चरित्र अलौकिक, दिव्य तथा अन्यान्य सद्गुणों से युक्त है।

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प्रश्न 13
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख नारी पात्र ‘कुन्ती’ का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2012, 13, 15]
या
‘कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती के चरित्र की किन्हीं तीन विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2009]
उत्तर
कविवर केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ खण्डकाव्य की कुन्ती प्रमुख स्त्री-पात्र है। वह महाराज पाण्डु की पत्नी तथा पाण्डवों की माता है। खण्डकाव्य से उसके चरित्र की अधोलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं

(1) अभिशप्त माता-खण्डकाव्य के प्रारम्भ में ही कुन्ती एक कुंवारी माँ की शापित स्थिति में सम्मुख आती है, जो सामाजिक निन्दा और भय से व्याकुल है। अपने नवजात पुत्र के प्रति उसके हृदय में ममता को अजस्र स्रोत फूट रहा है, किन्तु वह लोक-लाज के भय से विवश होकर अपने पुत्र को गंगा नदी की धारा में बहा देती है।

(2) एक दुःखिया माँ–खण्डकाव्य में कुन्ती को एक दु:खी माँ के रूप में दर्शाया गया है। उसके पुत्र पाण्डवों को उनका राज्यांश नहीं मिल रहा है तथा विवश होकर उनको कौरवों से युद्ध करना पड़ा रहा। है। कुन्ती इससे भयभीत तथा दु:खी है। वह कर्ण के पास जाती है और (UPBoardSolutions.com) उस पर उसकी माँ होने का पूरा राज खोल देती है। कर्ण उसे ताना मारता है, दुर्योधन का साथ न छोड़ने को कहता है तथा अर्जुन का वध करने की अपनी प्रतिज्ञा को भी दोहराता है। अन्ततः उदास तथा दु:खी होकर कुन्ती वापस लौट आती है।

(3) चिन्तित माँ-कौरव और पाण्डवों में युद्ध होने वाला है। कर्ण अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा कर चुका है। कुन्ती इस चिन्ता में अति व्याकुल है कि युद्ध-भूमि में उसके पुत्र ही एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ेंगे और मृत्यु को प्राप्त होंगे।

(4) ममतामयी माँ-‘कर्ण’ खण्डकाव्य में कुन्ती के मातृत्व की बहुपक्षीय झाँकी देखने को मिलती है। वह एक कुँवारी माँ है, जो अपनी ममता का गला स्वयं ही घोटती है। महाभारत के युद्ध में जब वह देखती है कि भाई-भाई ही एक-दूसरे को मारने हेतु तत्पर हैं, तब वह अपने पुत्र पाण्डवों की रक्षा के लिए कर्ण के पास जाती है और उससे तिरस्कृत भी होती है। फिर भी कर्ण के प्रति उसको वात्सल्य भाव रोके नहीं रुकता। वह कर्ण से कहती है

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माँ कहकर झंकृत कर दो मेरे प्राणों का तार ।।

जलदान के अवसर पर वह युधिष्ठिर से कर्ण का जलदान करने के लिए आग्रह करती है। | निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कुन्ती परिस्थितियों की मारी एक सच्ची माँ है, जो अपनी ममता को गहरा दफनाकर भी दफना नहीं पाती। उसको मातृरूप कई रूपों में हमारे सामने (UPBoardSolutions.com) आता है, जो भारतीय नारी की सामाजिक और पारिवारिक विवशताओं को मार्मिक अभिन्यक्ति प्रदान करता है।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi छन्द

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छन्द

परिभाषा–छन्द Chhand का अर्थ है—बन्धन। जिस रचना में मात्रा, वर्ण, गति, विराम, तुक आदि के नियमों । का विचार रखकर शब्द-योजना की जाती है, उसे छन्द कहते हैं। इस प्रकार छन्द नियमों का एक बन्धन है। छन्द प्रयोग के कारण (UPBoardSolutions.com) ही रचना पद्य कहलाती है और इसी से उसमें संगीतात्मकता उत्पन्न हो जाती है। यह काव्य को स्मरण योग्य बना देता है। हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार, “अक्षर, अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्रा-गणना तथा यति, गति से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य-रचना ‘छन्द’ कहलाती है।”

छन्द-ज्ञान के लिए इसके निम्नलिखित छ: अंगों का ज्ञान होना आवश्यक है-
(1) वर्ण-वर्ण दो प्रकार के होते हैं

  • लघु-हस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ) को लघु कहते हैं। इसे ” चिह्न से प्रकट किया जाता है।
  • गुरु–दीर्घ अक्षर (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ) को गुरु कहते हैं। इसे ‘5’ चिह्न से प्रकट किया जाता है।

(2) मात्रा—किसी वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं। लघु की एक मात्रा ।’ तथा गुरु की दो मात्राएँ ‘5’ मानी जाती हैं। लघु वर्ण की अपेक्षा गुरु वर्ण के उच्चारण में दुगुना समय लगता है।

वर्गों की गणना करते समय वर्ण चाहे लघु हों अथवा गुरु उन्हें एक ही माना जाता है; यथा-‘रम’, ‘राम’, ‘रमा’, ‘रामा’। इन चारों शब्दों में वर्ण दो ही हैं, लेकिन मात्राएँ क्रमशः 1 + 1 = 2, 2 + 1 = 3, 1 + 2 = 3, 2 + 2 = 4 हैं। नीचे लिखे वर्ण गुरु माने जाते हैं

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  • अनुस्वारयुक्त वर्ण गुरु माना जाता है; जैसे-‘संत’ और ‘हंस’ शब्द के ‘सं’ और ‘हं’ गुरु हैं।
  • विसर्ग ‘:’ से युक्त वर्ण गुरु माना जाता है; उदाहरण के लिए-‘अत:’ शब्द में ‘त:’ गुरु वर्ण है।
  • चन्द्रबिन्दु से युक्त लघु वर्ण लघु ही रहता है; जैसे-हँसना’ का हैं लघु है।
  • संयुक्ताक्षर से पूर्व का लघु वर्ण गुरु माना जाता है; जैसे-‘गन्ध’ शब्द में ‘ग’ लघु है लेकिन ‘न्ध’ संयुक्ताक्षर के पूर्व आने के कारण ‘ग’ गुरु वर्ण (अर्थात् दो मात्रा) माना जाएगा। जब संयुक्ताक्षर से पूर्व लघु वर्ण पर अधिक बल नहीं रहता, (UPBoardSolutions.com) तब वह लघु ही माना जाता है; जैसे-‘तुम्हारे में ‘म्ह’ संयुक्ताक्षर के पूर्व होने पर भी ‘तु’ लघु ही रहेगा।
  • कभी-कभी पाद या चरण की पूर्ति के लिए चरण के अन्त का लघु वर्ण भी विकल्प से गुरु या दीर्घ मान लिया जाता है।
  • हलन्त वर्षों की गणना नहीं की जाती; किन्तु उनके पूर्व का वर्ण गुरु मान लिया जाता है। | कभी-कभी दीर्घ वर्ण भी पद्य की लय में पढ़ते समय लघु या ह्रस्व ही पढ़ा जाता है; जैसे-‘अवधेश के द्वारे सकारे गयी’ में ‘के’ दीर्घ होते हुए भी लघु ही पढ़ा जा रहा है। इसलिए यह लघु ही माना जाएगा। तात्पर्य यह है कि किसी भी वर्ण का लघु अथवा गुरु होना, उसके उच्चारण में लिये गये समय पर निर्भर करता है।

(3) गति (लय)–कविता के कर्णमधुर प्रवाह को गति कहते हैं।
(4) यति (विराम)—पाठकों के साँस लेने, रुकने या ठहरने को यति कहते हैं।
(5) तुक-छन्दों के चरण के अन्त में समान वर्गों की आवृत्ति को तुक कहते हैं।
(6) चरण–प्रत्येक छन्द में प्रायः चार भाग होते हैं; जिन्हें चरण, पद या पाद कहते हैं। चरणों को अल्पविराम द्वारा अलग कर दिया जाता है। जिन छन्दों के चारों चरणों की मात्राएँ या वर्ण एक-से हों वे ‘सम’ कहलाते हैं; जैसे–चौपाई, इन्द्रवज्रा आदि। जिसमें पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे की मात्राओं या वर्षों से समता हो वे ‘अर्द्धसम’ कहलाते हैं; जैसे—दोहा, सोरठा आदि। जिन छन्दों में चार से अधिक (छ:) चरण हों और वे एक-से न हों ‘विषम’ कहलाते हैं; जैसे-छप्पय और कुण्डलिया।

गण-लघु-गुरु क्रम से तीन वर्गों के समुदाय को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के होते हैं। ‘यमाताराजभानसलगा’ से इसके वर्णरूप व्यक्त हो जाते हैं। इनका संकेत और उदाहरणसहित स्पष्टीकरण निम्नवत् है-

UP Board Solutions for Class 10 Hindi छन्द img-1

प्रकार–मात्रा और वर्ण के आधार पर छन्द मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं
(अ) मात्रिक छन्द-जिस छन्द में मात्राओं की गणना की जाती है, उसे मात्रिक छन्द कहते हैं। मात्रिक छन्दों में वर्गों के लघु और गुरु के क्रम का विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। इन छन्दों के प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है। ये तीन प्रकार के होते हैं-सम, अर्द्धसम और विषम।

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(ब) वर्णिक छन्द–जिन छन्दों की रचना वर्गों की गिनती के अनुसार होती है, उन्हें वर्णिक छन्द कहते हैं। वर्णिक छन्दों के भी तीन भेद होते हैं-सम, अर्द्धसम तथा विषम। 21 वर्षों तक के वर्णिक छन्द ‘साधारण’, 22 से 26 वर्षों के वर्णिक छन्द ‘सवैया’ तथा 26 से (UPBoardSolutions.com) अधिक वर्ण वाले छन्द ‘दण्डक’ कहलाते हैं। वर्णिक छन्द का एक क्रमबद्ध नियोजित और व्यवस्थित रूप वर्णिक वृत्त कहलाता है। वर्णिक वृत्तों के प्रत्येक चरण का निर्माण वर्गों की एक निश्चित संख्या एक लघु-गुरु के निश्चित क्रम के अनुसार होता है।

मुक्त छन्द–हिन्दी में आजकल लिखे जा रहे छन्द मुक्त छन्द हैं। इन छन्दों में वर्ण और मात्रा का कोई बन्धन नहीं होता। ये तुकान्त भी होते हैं और अतुकान्त भी।

[विशेष—पाठ्यक्रम में केवल सोरठा एवं रोला मात्रिक छन्द ही निर्धारित हैं।]

सोरठा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण-सोरठा अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 11-11 मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। पहले और तीसरे चरण के अन्त में गुरु-लघु (SI) आते हैं और कहीं-कहीं तुक भी मिलती है। यह दोहे का उल्टा होता है;
उदाहरण-

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अन्य उदाहरण—-
(1) सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे ।
बिहँसे करुना ऐन, चितई जानकी लखनु तन ।।
(2) रहिमन पुतरी स्याम, मनहु जलज मधुकर लसै ।
कैधों सालिगराम, रूपा के अरघा धरै ।।
(3) मैं समुझ्यौ निरधार, यह जगु काँचौं काँच सौ ।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ ।।
(4) नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन बारिज नयन ।
करउ सो मम उर धाम, सदा छीरसागर संयन ।।

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रोला [2012, 13, 14, 16, 17, 18]

लक्षण–यह चार पंक्तियों वाला एक सममात्रिक छन्द है। इसमें (UPBoardSolutions.com) आठ चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 11 और 13 के विराम (यति) से 24 मात्राएँ होती हैं;
उदाहरण–

UP Board Solutions for Class 10 Hindi छन्द img-3

अन्य उदाहरण-
(1) उड़ति फुही की फाब, फबति फहरति छबि छाई ।।
ज्यौं परबत पर परत, झीन बादर दरसाई ।।
तेरनि-किरन तापर बिचित्र बहुरंग प्रकासै ।।
इंद्रधनुस की प्रभा, दिव्य दसहूँ दिसि भासै ।।
(2) इहिं बिधि धावति इँसंति, ढरति ढरकति सुख-देनी ।।
मनहुँ सँवारति सुंभ सुरपुर की सुगम निसेनी ।।
बिपुल बेग बंल बिक्रम कैं ओजनि उमगाई ।
हरहराति हरषाति संभु-सनमुख जब आई ।।
(3) भई थकित छबि चेकिंत हेरि हर-रूप मनोहर ।।
है आर्नहिं के प्रान रहे तन धरे धरोहर ।।
भयो कोप कौ लोप चोप औरै उमगाई।
चित चिकनाई चढ़ी कढ़ी सब रोष रुखाई ।।

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अभ्यास

प्रश्न 1
निम्नलिखित में कौन-सा छन्द है; उसका लक्षण (परिभाषा) भी बताइए
(1) रहिमन मोहिं न सुहाय, अमी पियावत मान बिनु ।
बरु विष देय बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ।। [2010]
(2) लिखकर लोहित लेख, डूब गया दिनमणि अहा।।
व्योम सिन्धु सखि देख, तारक बुदबुदे दे रहा ।।
(3) सुनत सुमंगल बैन, मन (UPBoardSolutions.com) प्रमोद तन पुलक भर ।।
सरद सरोरुह नैन, तुलसी भरे सनेह जल ।।
(4) जो सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिवर बदन ।
करहुँ अनुग्रह सोइ, बुद्धि रासि सुभ-गुन-सदन ।। [2010]
(5) भरत चरित कर नेम, तुलसी जे सादर सुनहिं ।
सियाराम पद प्रेम, अवसि होई मन रस विरति ।।
(6) सीय बिआहबि राम, गरब दूरि करि नृपन के।।
जीति को सके संग्राम, दसरथ के रनबॉकुरे ।।
(7) बन्दउँ गुरुपद-कंज, कृपा-सिंधु नर-रूप हरि ।
महामोह तम पुंज, जासु बचन रविकर-निकर ।। [2010]
उत्तर
(1) सोरठा,
(2) सोरठा,
(3) सोरठा,
(4) सोरठा,
(5) सोरठा,
(6) सोरठा,
(7) सोरठा।
[ संकेत–छन्द के लक्षण (परिभाषा) के लिए उनके दिये गये विवरण को पढ़िए।]

प्रश्न 2
सोरठा छन्द को लक्षण तथा उदाहरण दीजिए। [2012, 13, 14, 16]
या
सोरठा छन्द की परिभाषा लिखिए तथा उदाहरण दीजिए। [2009, 11, 13, 15]
उत्तर
[ संकेत–सोरठा छन्द में दिये गये विवरण को पढ़िए।]

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प्रश्न 3
छन्द कितने प्रकार के होते हैं ? मात्रिक छन्द का कोई एक उदाहरण दीजिए।
या
छन्द कितने प्रकार के होते हैं ? इनमें से किसी एक का उदाहरण लिखिए।
उत्तर
मात्रा और वर्ण के आधार पर छन्द (UPBoardSolutions.com) दो प्रकार के होते हैं—
(क) मात्रिक तथा
(ख) वर्णिक।
मात्रिक छन्द (दोहा) का उदाहरण

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बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनानु हैं, हरि नीके ए नैन ॥

प्रश्न 4
सोरठा अथवा रोला छन्द की परिभाषा दीजिए तथा एक उदाहरण भी दीजिए। [2011, 12, 13, 14, 16]
या
रोला छन्द की परिभाषा (लक्षण) तथा उदाहरण भी दीजिए। [2011, 12, 13, 14, 16]
उत्तर
[ संकेत-छन्द में दिये गये विवरण के अन्तर्गत पढ़े ]

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 16 अन्तरिक्ष-विज्ञानम् (गद्य – भारती)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 16
Chapter Name अन्तरिक्ष-विज्ञानम् (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 16 अन्तरिक्ष-विज्ञानम् (गद्य – भारती)

पाठ-सारांश

अन्तरिक्ष–प्रकृति के विधान में बहुवर्णी शाटिका को पहने पृथ्वी जिस प्रकार मानवों को नदी-नद-पर्वत-रत्नरूपमयी अपनी विशाल सम्पत्ति से मोह लेती है, उसी प्रकार विशाल, अनन्त, नि:सीम और ब्रह्मस्वरूपात्मक अन्तरिक्ष भी मानवों को आकृष्ट करता है। अनन्त आकाश में असंख्य नक्षत्र, पुच्छल तारे, नीहारिकाएँ, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, चन्द्रमा, सप्तर्षि, 27 नक्षत्र और राशियाँ हैं, जो इसकी चकाचौंध को स्पष्ट करती हैं।

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सौर-साम्राज्य–आकाश में स्थित सौर-साम्राज्य में एक सूर्य, नौ ग्रह, 28 उपग्रह, अनेक ग्रहकणिकाएँ, हजारों धूमकेतु और अनेक उल्काएँ हैं। ये ग्रह-कणिकाएँ मंगल और बृहस्पति नक्षत्र के बीच बिखरी हुई हैं। धूमकेतु ग्रहों और उपग्रहों से भिन्न होते हैं। छोटे-छोटे टिमटिमाते हुए प्रकाशबिन्दु तारा हैं। भीषण गर्मी और जलाभाव के कारण प्राणियों का यहाँ रहना असम्भव है।

सूर्य-सूर्य थाली के आकार का दिखाई देता हुआ भी वैसा नहीं है। यह पृथ्वी से तेरह लाख गुना बड़ा है तथा पृथ्वी से इसकी दूरी नौ करोड़ तीस लाख मील है। चन्द्रमा भी सूर्य जैसा ही दिखाई पड़ता है किन्तु वह पृथ्वी से भी बहुत छोटा है। नक्षत्र सूर्य की अपेक्षा बड़े होते हैं, परन्तु छोटे-छोटे दिखाई देते हैं। इसका कारण यह है कि जो वस्तु जितनी दूर होती है वह उतनी ही छोटी दिखाई देती है। सूर्य यदि क्षणभर के (UPBoardSolutions.com) लिए भी अपने आकर्षण को रोक ले तो सभी ग्रह और उपग्रह आपस में टकराकर गिर पड़ेगे और पृथ्वी तो चूर्ण-चूर्ण हो जाएगी। यदि सूर्य अपना प्रकाश और ताप देना बन्द कर दे तो सभी जड़-चेतन का विनाश हो जाये। यही कारण है कि सूर्य हमारा महान् उपकारक है।

सप्तर्षि और ध्रुव की स्थिति-उत्तरी दिशा में सप्तर्षि तारे हल के आकार में चमकते हैं। तीन तारे ऊपर पूँछ के रूप में तथा शेष चार नीचे चमकते हैं। इन्हीं के पास ध्रुव तारा भी चमकता है।

धूमकेतु-1908 ई० में एक फुच्छल तारा (धूमकेतु) उत्तर की ओर देखा गया था। दूसरा धूमकेतु 1910 ई० में दिखाई दिया। धूमकेतु की पूँछ अत्यन्त विशाल और भाप से बनी होती है। यह सौर-साम्राज्यँ के परिवार का नहीं है। यदि यह कभी सौर-साम्राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाता है तो सूर्य इसे बलात् खींचकर घुमा देता है। इसे अपशकुन का द्योतक माना जाता है।

उल्काएँ–गहन रात्रि में जब आकाश स्वच्छ होता है, उस समय बाण के आकार का चकाचौंध करने वाला प्रकाश आकाश को चीरता हुआ वेग से दूर तक दौड़कर लुप्त हो जाता है। लोग इसे लूक टूटना’ कहते हैं और इसे देखने पर फूलों का नाम लेकर या थूककर सम्भावित अनिष्ट का निवारण करते हैं। वास्तव में उल्काएँ इकट्ठी होकर इधर-उधर घूमती हैं। जब ये पृथ्वी की सीमा में पहुँचती हैं। तब वायुमण्डल से घर्षण (UPBoardSolutions.com) करके जलती हुई फैलती हैं और फिर नष्ट हो जाती हैं। कुछ अधजली अवस्था में भूमि पर भी गिर जाती हैं। ऐसी उल्काएँ.कलकत्ता के संग्रहालय में रखी हुई हैं।

चन्द्रमा-चन्द्रमा सभी नक्षत्रों में पृथ्वी के अधिक समीप है। इसकी कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं। चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काटता रहता है और 28 दिन में पृथ्वी का एक चक्कर पूरा कर लेता है। चन्द्रमा की कलाओं से तिथियों और महीनों का निर्माण होता है। चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है। जब वह सूर्य और पृथ्वी के मध्य में आ जाता है, तब ग्रहण होता है। चन्द्रमा के जिस भाग पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है, वह कला रूप में दिखाई देता है और वही प्रकाश क्रम से घटता-बढ़ता रहता है। (UPBoardSolutions.com) अमावस्या के दिन चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी के मध्य में होता है। उसका जो भाग सूर्य के सामने होता है, वह प्रकाशमान होता है और वह भाग पृथ्वी पर दिखाई नहीं देता। पूर्णिमा के दिन पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के मध्य में होती है, उस समय सम्पूर्ण चन्द्रमा प्रकाशमान दिखाई देता है।

नीहारिकाएँ-आकाश में विशाल आकार के वाष्पीय पदार्थों के जो समूह दिखाई देते हैं, वे नीहारिकाएँ हैं। रात के समय आकाश के बीच से सड़क बनाता हुआ-सा प्रकाश दिखाई पड़ता है। आकाश में बहुत-सी नीहारिकाएँ हैं, ये ऊँची-नीची बड़े आकार की, गोल आकार की और कुण्डली के आकार की होती हैं। एक नीहारिका सूर्य से दस खरब गुनी बड़ी होती है। बड़ी नीहारिका स्वयं में एक बड़ा ब्रह्माण्ड होती है। नीहारिका में असंख्य तारे होते हैं। इसे आकाश-गंगा भी कहते हैं। |

नौ ग्रह-आधुनिक वैज्ञानिक सूर्य के बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, वरुण, वारुणी और यम ये नौ ग्रह बताते हैं। भारतीय ज्योतिषी सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु को नौ ग्रह कहते हैं।

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शोंगद्यां का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) प्रकृतेः विधाने यत्र इयं वसुन्धरा विभिन्नेषु रूपेषु बहुवर्णिकां शाटिकां परिधाय स्वकीयया विशालया नदी-वन-पर्वत-रत्न-रूपया सम्पत्तया मानवानां मनो मोहयति, तथैव विशालमिदमन्तरिक्षं नि:सीमकमनन्तं हिरण्यगर्भात्मकं चास्ति। अस्मिन्ननन्ते आकाशे अनन्तानि नक्षत्राणि, पुच्छलताराः, नीहारिकाः, ग्रहाः, उपग्रहाः, आदित्याः, चन्द्रमाः, सप्तर्षयः, सप्तविंशतिनक्षत्राणि संवत्सरप्रवर्तकाः राशयः विलीनाः चाकचिक्यं प्रकटयन्ति।

शब्दार्थ
बहुवर्णिकां = अनेक रंगों की।
शाटिकां = साड़ी।
परिधाय = पहनकर।
निः सीमकम् = सीमारहित।
हिरण्यगर्भात्मकम् = ब्रह्मस्वरूपात्मक।
आदित्याः = सूर्य।
सप्तविंशति = सत्ताइस।
विलीनाः = समायी हुई।
चाकचिक्यम् = चकाचौंधं।
प्रकटयन्ति = प्रकट करती है। |

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित। ‘अन्तरिक्ष-विज्ञानम्’ पाठ से उद्धृत किया गया है
[संकेत-इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] । प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में अन्तरिक्ष की विशालता एवं पृथ्वी की विचित्रता बतायी गयी है।

अनुवाद
प्रकृति के विधान में जहाँ यह पृथ्वी विभिन्न रूपों में बहुरंगी साड़ी पहनकर नदी, वन, पर्वत, रत्नरूप अपनी विशाल सम्पत्ति से मानवों के मन को मोह लेती है, उसी प्रकार यह विशाल अन्तरिक्ष असीम, अनन्त और ब्रह्मस्वरूप वाला है। इस अनन्त आकाश में असंख्य नक्षत्र, पुच्छल तारे, (UPBoardSolutions.com) आकाश-गंगाएँ, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, चन्द्रमा, सप्तर्षि, तारे, सत्ताइस नक्षत्र, संवत्सरों की प्रवर्तक राशियाँ विलीन होकर चकाचौंध प्रकट करती हैं।

(2) कैवले सौरसाम्राज्ये एकः आदित्यः, तस्य नवग्रहाः अष्टाविंशत्युपग्रहान सन्ति। अनेकाः ग्रहकणिकाः सहस्रं धूम्रकेतवः तथैव अनन्ता उल्काश्च समुपलभ्यन्ते। ग्रहकणिकाः, मङ्गलबृहस्पतिनक्षत्रयोरन्तरले विकीर्णाः सन्ति। ताः लघ्व्यः सन्ति, उल्काश्च ततोऽपि अतिलघ्व्यः। धूम्रकेतवः ग्रहेभ्यः उपग्रहेभ्यश्च भिन्नाः भवन्ति। ते परिमाणेन लघवः आकाशे इतस्ततः विकीर्णाः सन्ति। अल्पीयांसं प्रकाशबिन्दु ध्रियमाणाः टिमटिमायन्ते तास्तास्ताराः। तत्र भीषणमौष्ण्यं जलाभावश्चातः प्राणिनां निःश्वसनमसम्भवम्।

शाब्दार्थ
अष्टाविंशत्युपग्रहाः = अट्ठाइस उपग्रह।
ग्रहकणिकाः = छोटे-छोटे ग्रह के कण (टुकड़े)।
समुपलभ्यन्ते = प्राप्त होती हैं।
अन्तराले = मध्य में।
विकीर्णाः = फैली हुई।
लघ्व्यः = छोटी-छोटी।
इतस्ततः = इधर-उधर।
अल्पीयांसम् = थोड़ी-सी।
श्रियमाणाः = धारण करते हुए।
औष्ण्यम् = गर्मी।
निवसनम् = रहना।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में सौर-मण्डल का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
केवल सौर-मण्डल में एक सूर्य, उसके नौ ग्रह, अट्ठाइस उपग्रह हैं। अनेक छोटे-छोटे ग्रह, हजारों धूमकेतु और उसी प्रकार अनन्त उल्काएँ पायी जाती हैं। ग्रह-कणिकाएँ मंगल और बृहस्पति नक्षत्रों के मध्य में फैली हैं। वे बहुत छोटी हैं और उल्काएँ उनसे भी अधिक छोटी होती हैं। धूमकेतु ग्रहों और उपग्रहों से भिन्न होते हैं। वे परिमाण में छोटे, आकाश में इधर-उधर फैले हुए हैं।

थोड़े-से प्रकाश के बिन्दु को धारण करते हुए अनेक तारे टिमटिमाते रहते हैं। वहाँ भीषण गर्मी है एवं जल का अभाव है; अत: प्राणियों का वहाँ रहना असम्भव है।

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(3) सूर्यः स्थाल्याकारः प्रतीयते परम् एवं नास्ति। अयं पृथिव्याः त्रयोदशलक्षात्मको गुणितो अतीव महान् वेविद्यते। चन्द्रोऽपि प्रायः सूर्य इव वीक्षते। परन्तु पृथिव्या अपि लघुरस्ति। नक्षत्राणामाकारं आवं-श्रावं पाठे-पाठं मनोऽतीव विमुग्धतां भजते। तानि सूर्यापेक्षया अतीव महान्ति प्रतिभान्ति, परं लघूनि दृश्यन्ते। कारणमिदं यद्वस्तु यावदूरं भवति, तद्वस्तु लघु दृश्यते। सूर्यो यदि ऐक क्षणमपि नैजमाकर्षणमवरुन्धीत् तदा सर्वे (UPBoardSolutions.com) ग्रहाः उपग्रहाश्च परस्परं संघर्षणं, परिघट्टनञ्च कुर्वाणाः स्वस्थानात् च्यवीरन्। वराकी पृथिवी तु सर्वथैव चूर्णतां गच्छेत्। इत्थमेकमपि मुहूर्तं तापं प्रकाशञ्च यदि सूर्योऽवरुन्ध्यात् तदा अस्माकं समेषां जडचेतनानां सर्वनाशो जायेत। सौरसाम्राज्ये यानि पिण्डानि सन्ति तेषां गतिः सुनिश्चिता, तानि एकस्यामेव दिशि गतिं प्रकुर्वते, तस्यामेव धुरि परिचलन्ति। द्वौ त्रयो वा उपग्रहा एवंविधाः सन्ति ये विपरीत दिशं वहन्ति। ते सर्वे सौरसाम्राज्ये नियमं व्यवस्थामेवावलम्बन्ते। पृथिवीतः सूर्यः त्रिंशल्लक्षाधिकनवकोटिमीलापरिमिते दूरेऽस्ति। चन्द्रोऽपि पृथिवीतः लक्षद्वयात्मके दूरे वसति।

शब्दार्थ
स्थाल्याकारः = थाली के आकार वाला।
प्रतीयते = प्रतीत होता है।
वेविद्यते = विद्यमान है।
वीक्षते = दिखाई पड़ता है।
आवं-आवम् = सुन-सुनकर।
पाठे-पाठम् = पढ़-पढ़कर।
विमुग्धतां भजते = मुग्ध हो जाता है।
प्रतिभान्ति = प्रतीत होते हैं।
यावत् दूरं = जितनी दूर।
नैजम् = स्वयं से सम्बन्धित।
अवरुन्धीत = रोक ले।
च्यवीरन् = गिर पड़े।
वराकी = बेचारी।
चूर्णता गच्छेत् = चूर्ण हो जाये।
अवरुन्ध्यात् = रोक ले।
समेषाम् = सभी का।
प्रकुर्वते = करते हैं।
धुरि = धुरी पर।
वहन्ति = चलते हैं।
अवलम्बन्ते = सहारा लेते हैं।
त्रिंशल्लक्षाधिकनवकोटिमील = नौ करोड़ तीस लाख मील।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में सौर-मण्डल में सूर्य के आकार, उसके पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव तथा उसकी स्थिति बतायी गयी है।

अनुवाद
सूर्य थाली के आकार को मालूम पड़ता है, परन्तु ऐसा नहीं है। यह पृथ्वी से तेरह लाख गुना अधिक बड़ा विद्यमान है। चन्द्रमा भी प्रायः सूर्य के समान दिखाई देता है, परन्तु यह पृथ्वी से भी छोटा है। नक्षत्रों के आकार को सुन-सुनकर, पढ़-पढ़कर मन अत्यन्त मुग्ध हो जाता है, वे सूर्य की अपेक्षा अत्यन्त विशाल होते हैं, परन्तु छोटे दिखाई देते हैं। इसका यह कारण है कि जो वस्तु जितनी दूर होती है, वह वस्तु उतनी छोटी दिखाई देती है। यदि सूर्य एक क्षण को भी अपना आकर्षण रोक दे, तब सब ग्रह और उपग्रह आपस में रगड़ते हुए और टकराते हुए अपने स्थान से गिर पड़े। बेचारी पृथ्वी तो पूरी तरह से चूर्ण-चूर्ण हो जाये। इसी प्रकार यदि सूर्य एक (UPBoardSolutions.com) मुहूर्त (थोड़े समय) को भी ताप और प्रकाश बन्द कर दे, तब हम सभी जड़-चेतन प्राणियों का सर्वनाश हो जाये। सौर-साम्राज्य में जो पिण्ड हैं, उनकी गति सुनिश्चित है और वे एक ही दिशा में गमन करते हैं और उसी धुरी पर घूमते हैं। दो या तीन उपग्रह इस तरह के हैं, जो विपरीत दिशा में चलते हैं। वे सब सौर-साम्राज्य में नियम और व्यवस्था का ही सहारा लेते हैं। सूर्य पृथ्वी से नौ करोड़ तीस लाख मील दूरी पर है। चन्द्रमा भी पृथ्वी से दो लाख मील दूरी पर रहता है।”

(4) सप्तर्षयः ध्रुवं च-उत्तरस्यां दिशि सप्तर्षयः हलाकारं प्रतिभासन्ते। तिस्राः ताराः उपरि एकस्यां पुङ्क्तौ पुच्छरूपेण, चतस्रः चतुरस्रतयाधः प्रतिभासन्ते। समीपे धुवं भं भासते।

शब्दार्थ
हलाकारम् = हल के आकार के
प्रतिभासन्ते = चमकते हैं।
पुच्छरूपेण = पूँछ के रूप में।
चतुरस्रतयाधः (चतुरस्रतया + अधः) = चौकोर तथा नीचे।
भम् = तारा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में सप्तर्षि तारों और ध्रुव के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
सप्तर्षि तारे और धुव-उत्तर दिशा में सप्तर्षि तारे हल के आकार में चमकते हैं। तीन तारे ऊपर एक पंक्ति में पूँछ रूप में, चार चौकोर होने से नीचे की ओर चमकते हैं। पास में ध्रुव तारा चमकता है। ”

(5) धूम्रकेतुः-अष्टाधिकैकोनविंशतिशततमेऽब्दे एको महान् धूम्रकेतुः रात्रेरन्तिमे प्रहरे गगने उत्तरस्यां दिशि दृष्टः। इत्थम् द्वितीयो धूम्रकेतुः दशाधिकैकोनविंशे शततमें ख्रीष्टाब्देऽपि वीक्षितो जनैः। धूम्रकेतोः पुच्छमतिविशालमल्पीयसा वाष्पेण निर्मितं भवति। एककिलोग्राम-भारात्मकं परिमाणं प्रायः भवति। धूम्रकेतुः सौरसाम्राज्धस्य परिवारो नास्ति। अयं सौरजगतः बहिरेव इतस्ततः परिभ्रमति। यदा सौरसाम्राज्यस्य (UPBoardSolutions.com) परिवारो नास्ति। अयं सौरजगतः बहिरेव इतस्ततः परिभ्रमति। यदा सौरसाम्राज्यस्य सीमानं प्रविशति तदा सूर्यः बलादार्कषति। यावत् न परिक्रमते | तावत् मुक्तो न भवति। अयम् अतिथिः दैवयोगात् सौरसाम्राज्यमाविशति। यः शक्तिहीनः धूम्रकेतुर्भवति च सततं परिभ्रमन्नेव तिष्ठति। कश्चन नश्यत्येव। एनमपशकुनस्यापि द्योतकं मन्यन्ते।।

शब्दार्थ
अष्टाधिकैकोनविंशतिशततमेऽब्दे = सन् 1908 में।
रात्रेः अन्तिमे = रात के अन्तिम में।
दशाधिकैकोनविंशे = 1910 में।
वीक्षितः = देखा गया।
अल्पीयसा वाष्पेण = थोड़ी-सी भाप से।
बहिरेव = बाहर ही।
इतस्ततः = इधर-उधर।
परिभ्रमति = चारों ओर घूमता है।
सीमानम् = सीमा को।
प्रविशति = प्रवेश करता है।
बलादाकर्षति = बल से खींचता है।
परिक्रमते = घूमता है।
आविशति = प्रवेश करता है।
परिभ्रमन्नेव तिष्ठति = घूमता ही रहता है।
कश्चन = कोई।
नश्यत्येव = नष्ट हो जाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में धूमकेतु (पुच्छल तारा) का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
धूम्रकेतु-सन् 1908 ईसवी में एक बड़ा धूमकेतु रात्रि के अन्तिम प्रहर में आकाश में उत्तर दिशा में दिखाई दिया था। इसी प्रकार दूसरा धूमकेतु सन् 1910 ईसवी में लोगों ने देखा। धूमकेतु की अत्यन्त विशाल पूँछ थोड़ी-सी भाप से बनी होती है। प्रायः इसका भार एक किलोग्राम के बराबर होता है। धूमकेतु सौर-साम्राज्य परिवार का नहीं है। यह सौर-जगत् के बाहर की इधर-उधर घूमता है। जब वह सौर-साम्राज्य की (UPBoardSolutions.com) सीमा में प्रवेश करता है, तब सूर्य इसे बलपूर्वक अपनी ओर खींचता है। यह जब तक नहीं घूमता है, तब तक मुक्त नहीं होता है। यह अतिथि दैवयोग से ही सौर-साम्राज्य में प्रवेश करता है। जो धूमकेतु बलहीन (कमजोर) होता है, वह निरन्तर घूमता ही रहता है। कोई नष्ट हो जाता है। इसे अपशकुन का भी सूचक मानते हैं। |

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(6) उल्काः–गहने निशीथे यदा गगनमतिस्वच्छं भवति। तदा एकः शराकारः विभ्राजिष्णुः चाकचिक्यं ध्रियमाणः पुञ्जीभूतः प्रकाशः सकलं नभः द्विधा विभजन् महता वेगेन धावन्दूरं गत्वा लुप्तोऽपि भवति।जनाः लूकः त्रुटित इति कथयन्ति। तं दृष्ट्वा पञ्चपुष्पाणां नामोच्चारणेन, केचन षष्ठीवनेन अशुभनिवारणं कुर्वते। साधारणाः जनाः यत् किमपि बुवन्तु किन्तु नक्षत्रपतने धारायाः विनाशः अवश्यम्भावी। वस्तुतः उल्काः पिण्डीभूताः इतस्तत: परिभ्रमन्ति। यदा पृथिव्याः सीमानमाश्रयन्ते, घनीभूतेन वायुमण्डलेन सङ्कर्षणं कृत्वा निष्क्रामन्ति तदा ज्वलन्तः अग्रे प्रसरन्ति पुनश्च नश्यन्ति। कदापि अर्धज्वलनावस्थायां पतित्वा भूमिमा-विशन्ति। एवंविधाः उल्काः कलिकातानगरस्य सङ्ग्रहालये संस्थापिताः सन्ति।

शब्दार्थ
गहने निशीथे = घनी रात में।
शराकारः = बाण के आकार वाला।
विभ्राजिष्णुः = विशेष चमकीला।
ध्रियमाणः = रहता हुआ।
पुञ्जीभूतः = एकत्र हुआ।
द्विधा = दो भागों में।
त्रुटितः = टूटा हुआ।
ष्ठीवनेन = थूकने से।
परिभ्रमन्ति = घूमती हैं।
सीमानमाश्रयन्ते = सीमा का आश्रय लेती हैं।
निष्क्रामन्ति = निकलती हैं।
भूमिमाविशन्ति = पृथ्वी में घुस जाती हैं।
अर्धज्वलनावस्थायां = आधी जली हुई अवस्था में।
संस्थापिताः सन्ति = रखी हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में उल्काओं का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
उल्काएँ-घनी रात में जब आकाश अत्यन्त स्वच्छ होता है, तब एक बाण के आकार का, चमकता हुआ, चकाचौंध करता हुआ, पुंजीभूत (एकत्रित) प्रकाश सारे आकाश को दो भगों में विभाजित करता हुआ बड़े वेग से दूर जाकर लुप्त हो जाता है। इसे लोग ‘लूक टूट गया’ कहते हैं। उसे देखकर कुछ लोग पाँच फूलों के नाम के उच्चारण के द्वारा और कुछ थूककर अशुभ निवारण करते हैं। साधारण लोग जो कुछ भी कहें, किन्तु नक्षत्र के गिरने में पृथ्वी का विनाश अवश्य होता है। वास्तव में उल्काएँ एकत्रित होकर इधर-उधर घूमती हैं। (UPBoardSolutions.com) जब ये पृथ्वी की सीमा में पहुँचती हैं, घने वायुमण्डल से रगड़ (संघर्ष) करके निकल जाती हैं, तब (उल्काएँ) जलते हुए आगे फैल जाती हैं। और फिर नष्ट हो जाती हैं। कभी आधी जली अवस्था में गिरकर पृथ्वी में प्रवेश कर जाती हैं। इस प्रकार की उल्काएँ कलकत्ती नगर के संग्रहालय में रखी हुई हैं।

(7) चन्द्रमाः–चन्द्रमाः पृथिव्या एव निर्गत्य गतः एवं वैज्ञानिका अपि भाषन्ते। सर्वेष्वपि नक्षत्रेषु एकः चन्द्रमा एव धरायाः समीपवर्ती वर्तते। चन्द्रमसः कलाः क्षीणा भवन्ति, परिवर्धन्ते। चन्द्रे कलङ्कः अस्ति, राहुरेनं ग्रस्ते इत्यादिकाः वार्ताः प्राचीनकालतः प्रचलन्ति। अधुना सर्वा अपि गल्पीभूता जाताः। चन्द्रः पृथिवीं परितः अण्डाकारं भ्रमति। पृथिवी स्वयं सूर्यं परितः भ्रमति। चन्द्रमास्तु पृथिवीं परितः चलति। प्रायः अष्टाविंशतितमे दिवसे परिक्रमा पूरयति। गर्तिलान् पर्वतान् कलङ्कान् कथयन्ति वैज्ञानिकाः। चन्द्रस्य कलाभिः तिथीनां मासानाञ्च निर्माणं भवति। चन्द्रः सूर्यप्रकाशात् प्रकाशितो भवति। यदा चन्द्रः सूर्यपृथिव्योरन्तराले जायते, तदा ग्रहणं भवति एवं वदन्ति वैज्ञानिकाः। चन्द्रोपरि सूर्यस्य प्रकाशः यस्मिन् भागे पतति सः भागः प्रकाशितः कलारूपेण दृष्टिपथमायाति। स एव प्रकाशः तेनैव क्रमेण वर्धते, ह्रसति च।।

अमावस्यायां चन्द्रः सूर्यपृथिव्योः मध्ये भवति, चन्द्रस्य यः अर्धभागः सूर्याभिमुखं भवति स भागः प्रकाशमानो भवति। प्रकाशितः स भागः पृथिव्या न दृष्टो जायते। केवलः अप्रकाशितोऽर्धभागः पृथिवीस्थैः जनैः दृश्यते। प्रकाशाभावे चन्द्रस्य दर्शनं न जायते। अयं कालः अमानाम्नाभिधीयते।।

पूर्णिमायां पृथिवी सूर्यचन्द्रमसोः मध्ये भवति। सूर्येण प्रकाशितं सकलं चन्द्रमण्डलं दृष्टिगोचरं भवति।।

शब्दार्थ
निर्गत्य = निकलकर।
भाषन्ते = कहते हैं।
परिवर्धन्ते = बढ़ती हैं।
राहुः एनम् = राहु इसको।
ग्रसते = निगल लेता है।
गल्पीभूताः = गप बनकर, असत्य।
परितः = चारों ओर।
पूरयति = पूरी करता है।
गर्तिलान् = गड्डेदार।
सूर्यपृथिव्योः अन्तराले = सूर्य और पृथ्वी के मध्य में।
जायते = होता है।
दृष्टिपथम् आयाति = दिखाई देता है।
हसति = घटता है।
सूर्याभिमुखम् = सूर्य के सम्मुख।
पृथिवीस्थैः जनैः = धरती पर रहने वाले लोगों के द्वारा।
अमानाम्नाभिधीयते = अमा (अमावस्या) के नाम से कहा जाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रमा की स्थिति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
चन्द्रमा-चन्द्रमा पृथ्वी से निकलकर ही (आकाश में) गया है, ऐसा वैज्ञानिक भी कहते हैं। सभी नक्षत्रों में अकेला चन्द्रमा ही पृथ्वी के समीप स्थित है। चन्द्रमा की कलाएँ घटती और बढ़ती हैं। चन्द्रमा में कलंक होता है, राहु इसे ग्रसता है, इत्यादि बातें प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। अब ये सभी असत्य बनकर रह गयी हैं। चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर अण्डे के आकार में घूमता है। पृथ्वी स्वयं सूर्य के चारों ओर घूमती है। चन्द्रमा तो पृथ्वी के चारों ओर चलता है। प्रायः अट्ठाइसवें दिन चक्कर पूरा कर लेता है। गड्डेदार पर्वतों को वैज्ञानिक कलंक (UPBoardSolutions.com) कहते हैं। चन्द्रमा की कलाओं से तिथि और महीनों का निर्माण होता है। चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है। जब चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य में आ जाता है, तब ग्रहण होता है, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। चन्द्रमा के ऊपर जिस भाग पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है, वह प्रकाशित भाग कला के रूप में दृष्टि में आता है। वही प्रकाश उसी क्रम से बढ़ता और घटता है।

अमावस्या के दिन चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य में होता है। चन्द्रमा का जो आधा भाग सूर्य की ओर होता है, वह भाग प्रकाशमान होता है। वह प्रकाशित भाग पृथ्वी से नहीं दिखाई देता। केवल अप्रकाशित आधा भाग पृथ्वी पर स्थित लोगों को दिखाई देता है। प्रकाश के अभाव में चन्द्रमा का दर्शन नहीं होता है। यह समय ‘अमावस्या के नाम से पुकारा जाता है। । पूर्णिमा के दिन पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के मध्य में होती है। सूर्य से प्रकाशित सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल दिखाई पड़ता है।

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(8) नीहारिकाः—विशालतमानाकाराणां वाष्पीयपदार्थानां समूहो, नीहारिका।रात्रौ आकाशं द्विधा कुर्वन् विशालो राजमार्ग इव यः प्रकाशः मध्येऽवलोक्यते, सः नीहारिका नाम्ना घुष्यते। आकाशे बहव्यः नीहारिकाः भवन्ति। इमानतावनताः, बृहदाकाराः, दीर्घवृत्ताकाराः, कुण्डलिताः वा भवन्ति। नीहारिकायाः परिमाणं सूर्यतः दशखर्वगुणितं भवति। दीर्घा नीहारिका एकं पृथक् ब्रह्माण्डं भवति। नीहारिकामध्ये अगणिताः (UPBoardSolutions.com) ताराः, तारां परितः वाष्पीयपदार्थाः भवन्ति। रात्रौ निर्मला गङ्गा इवे दृष्टिपथमायाति। अतः आकाशगङ्गा नाम्नाभिधीयते। अस्यां दशसहस्रकोटयः गुम्फिताः परस्परमाकृष्टाः ताराः भवन्ति।

आधुनिका वैज्ञानिकाः (सूर्यग्रहेषु ) बुध-शुक्र-पृथ्वी-मङ्गल-बृहस्पति-शनि-यूरेनस (वरुण)-नेपच्यून (वारुणी )-प्लेटो ( यम) इति नवग्रहान् वर्णयन्ति। चन्द्रं पृथिवी-ग्रह कथयन्ति। भारतीयां ज्योतिर्विदः सूर्य-चन्द्र-मंगल-बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनि-राहु-केतून् नवग्रहान् निर्दिशन्ति।

एवमेन्तरिक्षं विभुः, अनन्तं नि:सीमात्मकं चास्ते। अत्रत्यमेकमपि नक्षत्रं वर्णनातीतमस्ति।

शब्दार्थ
विशालतमानाम् आकाराणाम् = अत्यन्त विशाल आकार का।
वाष्पीयपदार्थानाम् = भाप के पदार्थों का।
द्विधा = दो भागों में।
अवलोक्यते = देखा जाता है।
घुष्यंते = पुकारा जाता है।
नतावनता = ऊँची-नीची।
कुण्डलिताः = कुण्डली (गोल) के आकार की।
दशखर्वगुणितं = दसे खरब गुना।
दृष्टिपथमायाति = दिखाई देती है।
दशसहस्त्रकोटयः = दस हजार करोड़।
गुम्फिताः = गॅथी हुई।
ज्योतिर्विदः = ज्योतिषी।
निर्दिशन्ति = निर्दिष्ट करते हैं।
विभुः = व्यापक।
निः सीमात्मकम् = सीमारहित।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में नीहारिकाओं का वर्णन और नवग्रहों का नाम-निर्देश किया गया है।

अनुवाद
नीहारिकाएँ—अत्यन्त विशाल आकार का वाष्पीय पदार्थों का समूह नीहारिका है। रात्रि में आकाश को दो भागों में करता हुआ, विशाल राजमार्ग के समान जो प्रकाश मध्य में दिखाई देता है, वह नीहारिका’ के नाम से पुकारा जाता है। आकाश में बहुत-सी नीहारिकाएँ होती हैं। ये ऊँची-नीची, बड़े आकार की, बड़े घेरे के आकार की अथवा कुण्डली के आकार की होती हैं। नीहारिका का परिमाण (माप) सूर्य से दस खरब गुना होता है। एक बड़ी नीहारिका एक अलग ब्रह्माण्ड होती है। नीहारिका के मध्य में अगणित तारे और तारों के चारों ओर वाष्पीय पदार्थ होते हैं। रात्रि में स्वच्छ गंगा के समान दिखाई पड़ती हैं; अतः ‘आकाश गंगा’ के नाम से पुकारी जाती हैं। (UPBoardSolutions.com) इसमें दस हजार करोड़ परस्पर आकृष्ट हुए गुंथे हुए तारे होते हैं। | आधुनिक वैज्ञानिक (सूर्य के ग्रहों में) बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, वरुण, वारुणी और यम इन नौ ग्रहों का वर्णन करते हैं। चन्द्रमा को पृथ्वी का ग्रह कहते हैं। भारतीय ज्योतिषी सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु को नौ ग्रह कहते हैं। इस प्रकार अन्तरिक्ष सर्वशक्तिमान, अनन्त और नि:सीम है। इसका एक भी नक्षत्र वर्णन से परे है।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
‘अन्तरिक्ष-विज्ञानम्’ पाठ का सारांश लिखिए। या सौरमण्डल के सदस्यों का परिचय’ अन्तरिक्ष-विज्ञानम्’ पाठ के आधार पर दीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षकं की सामग्री को अपने शब्दों में लिखिए।]

प्ररन 2
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए(क) धूमकेतु,(ख) उल्का, (ग) चन्द्रमा,(घ) नीहारिका और (ङ) सूर्य।
उत्तर
(संकेत-“पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत सम्बद्ध शीर्षकों की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।

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प्ररन 3
अन्तरिक्ष के विस्तार और शोभा का वर्णन कीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दिये गये शीर्षकों ‘सौर- साम्राज्य और ‘अन्तरिक्ष’ से सम्बद्ध सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखें]

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UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 17 सामान्य घरेलू देशज औषधियाँ तथा सामान्य विषों के प्रतिकारक पदार्थ

UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 17 सामान्य घरेलू देशज औषधियाँ तथा सामान्य विषों के प्रतिकारक पदार्थ

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 9 Home Science . Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Home Science Chapter 17 सामान्य घरेलू देशज औषधियाँ तथा सामान्य विषों के प्रतिकारक पदार्थ.

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
सामान्य घरेलू देशज औषधियों से क्या आशय है? कुछ मुख्य घरेलू औषधियों का सामान्य परिचय दीजिए।
या
कुछ घरेलू देशज औषधियों के नाम एवं उपयोगिता बताइए।
उत्तर:
सामान्य देशज औषधियाँ
रोग एवं दुर्घटनाएँ घरेलू अथवा पारिवारिक जीवन की सामान्य घटनाएँ हैं जो कि प्रायः पीड़ित व्यक्ति के साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्यों को भी अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक कठिनाइयों में डाल देती हैं। प्राथमिक चिकित्सा तथा घरेलू औषधियों के ज्ञान का धैर्यपूर्वक उपयोग कर इन कठिनाइयों की गम्भीरता को न केवल कम किया जा सकता है, वरन् कई बार इनका सहज ही निवारण भी किया जा सकता है। सामान्यतः घरों में प्रयुक्त होने वाले मसालों, तरकारियों एवं फलों तथा सहज ही उपलब्ध सामान्य औषधियों का देशज घरेलू औषधियों के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि घर पर उपलब्ध होने वाले सामान्य पदार्थों को घरेलू देशज औषधियाँ कहा जाता है। ये पदार्थ विभिन्न शारीरिक विकारों में कष्ट-निवारक के रूप में इस्तेमाल किए (UPBoardSolutions.com) जाते हैं। इन घरेलू देशज औषधियों की जानकारी मनुष्य ने अपने दीर्घकालिक अनुभवों द्वारा प्राप्त की है तथा यह जानकारी पीढ़ी दर-पीढ़ी इसी रूप में हस्तान्तरित होती रहती है; उदाहरण के लिए–प्रायः सभी परिवारों के पेट दर्द में अजवाइन का प्रयोग किया जाता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अजवाइन को घरेलू देशज औषधि की श्रेणी में रखा जाता है। वैसे सामान्य रूप से अजवाइन एक मसाले के रूप में इस्तेमाल होती है। मुख्य सामान्य घरेलू देशज औषधियों तथा उनकी उपयोगिता का सामान्य परिचय निम्नर्णित है

(क) कुछ मसाले घरेलू औषधियों के रूप में
मसालों के रूप में इस्तेमाल होने वाले विभिन्न पदार्थ, कई छोटे-छोटे रोगों और कष्टों के लिए लाभप्रद गुण रखते हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित सूची देखिए

  1. अजवाइन: यह पेट के दर्द को कम करती है। अफारा और गैस में भी लाभदायक है।
  2. सोंठ: यह वायु के रोगों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
  3.  हींग: यह पेट के रोगों के लिए अत्यधिक लाभप्रद है। गैस, अफारा आदि में इसे पानी में घोलकर पेट पर लगाने से भी आराम मिलता है। अन्य पदार्थ; जैसे-अजवाइन, सोंठ, नमक आदि के साथ मिलाकर देने से पेट का दर्द, गैस, अफारे की शिकायत दूर हो जाती है।
  4.  काली मिर्च: यह गले को साफ करती है और कफ को हटाती है।
  5.  जीरा: यह पाचन क्रिया के लिए बहुत अच्छां पदार्थ है। भूख को बढ़ाता है।
  6.  मेथी: यह भूख को बढ़ाती है। इसके बने लड्डू वायु के दर्द में लाभप्रद हैं।
  7.  हल्दी: यह रक्त को शुद्ध करती है। इसका प्रयोग त्वचा को साफ करने में किया जाता है। यह कीटाणुनाशक है। छोटे-मोटे पेट के कीड़े इससे नष्ट हो जाते हैं।
  8.  लोंग: यह दाँत के दर्द के लिए एक अच्छी औषधि है। इसे पीसकर लगाने से दर्द बन्द हो जाता है। गले की खराश में भी लोग चूसी जाती है।
  9.  राई: मिरगी के रोगी को बारीक पिसी हुई राई सुंघाने से मूच्र्छा दूर हो जाती है।
  10.  अदरक: यह पाचन-क्रिया में सहायक है तथा वायु के रोगों को ठीक करता है।
  11.  नमक: यह घाव को साफ करने के लिए एक अच्छा पदार्थ है। गरम पानी में मिलाकर सिकाई करने से सूजन ठीक हो जाती है। गरम पानी में घोलकर गरारे करने से गला साफ होता है, कफ हटता है और सूजन कम हो जाती है।
  12.  सौंफ: यह खुनी पेचिश के लिए अत्यधिक लाभप्रद दवा है। पानी में उबालकर अर्क देने से यह बीमारी ठीक हो जाती है। इसका पानी अधिक प्यास को कम करता है तथा गर्मी के कारण होने वाले सिर दर्द को ठीक करता है।।
  13.  दाल: चीनी-दस्त और मरोड़ों में कत्था के साथ प्रयोग की जाती है।
  14.  पोदीना: सूखा हुआ पोदीना तथा उसका अर्क उल्टियों को बन्द करता है। पोदीना पाचन क्रिया में भी सहायक है।

(ख) कुछ सामान्य घरेलू उपयोग के पदार्थ

  1. आमाहल्दी: पिसी हुई अवस्था में चोट या मोच के रोगी को दी जाती है जो कि काफी आरामदायक है।
  2.  चूना: चोट, मोच इत्यादि पर आमाहल्दी चूने के साथ लगाने से दर्द में कमी होती है तथा मोच ठीक हो जाती है। बरौं के डंक मारने पर भी चूना लगाया जा सकता है।
  3. फिटकरी: रक्त-स्राव को रोकती है। गुलाब जल में मिलाकर आँख में डालने से दुखती हुई आँखें ठीक हो जाती हैं।
  4. कत्था: इसका चूरा मुँह के छालों को ठीक करता है।
  5.  तुलसी: तुलसी की पत्तियाँ जुकाम, बुखार आदि के लिए आराम देने वाली हैं। शहद के साथ प्रयोग करने से खाँसी ठीक हो जाती है।
  6. गोले का तेल: जले हुए स्थान पर लगाने से जलन कम होती है। घाव भी जल्दी ठीक हो जाता है।
  7.  गुलाब जल: अनेक नेत्र रोगों के लिए शान्तिदायक है।
  8.  मुलहटी: खाँसी को ठीक करती है। मुँह में डालने से खाँसी बन्द हो जाती है।
  9.  ईसबगोल: इसकी भूसी कब्जनाशक है। पानी या दूध के साथ लेने पर कब्ज-निवारक होती है तथा दही में अच्छी तरह से मिला कर लेने पर दस्त को रोकती है।
  10.  नीम की पत्तियाँ: कीटाणुनाशक हैं, चर्म रोगों के लिए अति गुणकारी हैं। इनके पानी से नहाने से चर्म रोग ठीक हो जाते हैं। सर्पदंश में इसको खिलाने से विष का प्रभाव कम हो जाता है। पानी में उबाल कर बालों को धोने से जुएँ नष्ट हो जाती हैं।

(ग) कुछ औषधियाँ तथा रासायनिक पदार्थ

  1.  पोटैशियम परमैंगनेट या लाल दवा:
    अनेक कीट पतंगों के काटने, बिच्छू के डंक मारने तथा सर्पदंश के घाव में भरने से विष को नष्ट कर देती है। संक्रामक रोगों के फैलने के समय इसे पानी में मिलाकर पीना चाहिए।
  2. स्प्रिट: घाव साफ करने तथा अन्य कामों के लिए उपयोगी है।
  3. बोरिक एसिड: घाव धोने के काम आता है। यह कीटाणुनाशक है। इसका हल्का घोल आँख । धोने के काम में लाया जाता है।
  4.  मरक्यूरोक्रोम: जल के साथ इसका घोल घाव पर लगाने से घाव शीघ्र भर जाता है तथा इस
    पर अन्य विषों का प्रभाव नहीं होता है।
  5.  अमोनिया: इसे सुंधाने से मूच्र्छा दूर हो जाती है। इसे विषैले कीट द्वारा काटने पर अथवा डंक मारने पर प्रयोग में लाया जाता है।
  6.  अमृत धारा: जी मिचलाना, दस्त, उल्टी (वमन) आदि में महत्त्वपूर्ण घरेलू औषधि है।
  7. डिटॉल: यह कीटाणुनाशक है। घाव धोने के काम आता है।
  8.  बरनॉल:  जले स्थान पर लगाने के लिए एक अच्छी क्रीम है।
  9. आयोडेक्स: यह एक सूजन कम करने वाली औषधि है, जो मोच एवं दर्द में आराम देती है।
  10.  कुनैन: यह शुद्ध अथवा रासायनिक पदार्थों के साथ मिश्रित रूप में प्रायः गोलियों के आकार में सहज ही उपलब्ध हो जाती है। मलेरिया ज्वर के लिए यह एक उत्तम औषधि है।

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प्रश्न 2:
विष कितने प्रकार के होते हैं? विषपान किए व्यक्ति का सामान्य उपचार आप किस प्रकार करेंगी?
या
यदि किसी बच्चे ने कोई विषैला पदार्थ खा लिया है, तो उसे किस प्रकार का प्रतिकारक पदार्थ दिया जाएगा? उदाहरण दीजिए। क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए?
या
टिप्पणी लिखिए-विष कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
विष के प्रकार

सामान्यतः शरीर को हानि पहुँचाने वाले पदार्थ विष कहलाते हैं। ये पदार्थ प्रायः मुँह के द्वारा अथवा विषैले जीव-जन्तुओं के काटने पर शरीर में अन्दर प्रवेश करते हैं। विषपान करने पर शरीर में प्रवेश करने वाले विषैले पदार्थों को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है

(1) जलन उत्पन्न करने वाले विष:
ये विष शरीर के जिस भाग में प्रवेश करते हैं उसे या तो जला देते हैं अथवा उसमें जलन उत्पन्न करते हैं। कास्टिक सोडा, अमोनिया, कार्बोलिक एसिड तथा खनिज अम्ल आदि इस वर्ग के प्रमुख विष हैं। इस प्रकार के विष से प्रायः जीभ, गले तथा मुखगुहा में भयंकर जलन होती है तथा श्वास लेने में कठिनाई का अनुभव होता है।

(2) उदर अथवा आहारनाल को हानि पहुँचाने वाले विष:
इस प्रकार के विष उदर में पहुंचकर भयंकर उथल-पुथल पैदा करते हैं। ये कण्ठ, ग्रासनली, आमाशय एवं आँतों में जलन एवं दर्द उत्पन्न करते हैं। इनके शिकार व्यक्ति उदरशूल अनुभव करते हैं तथा उन्हें मतली आने लगती है। इस वर्ग के अन्तर्गत आने वाले प्रमुख विष हैं संखिया, पारा, पिसा हुआ शीशा तथा विषैले एवं सड़े-गले खाद्य पदार्थ।

(3) निद्रा उत्पन्न करने वाले विष:
इस प्रकार के विष को खाने पर नींद आने लगती है जो कि विष की अधिकता होने पर प्रगाढ़ निद्रा अथवा संज्ञा-शून्यता में परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार के विष का अत्यधिक सेवन करने से कई बार रोगियों की मृत्यु भी हो जाती है। अफीम, मॉर्फिन तथा डाइजीपाम (कम्पोज, वैलियम आदि) इत्यादि इस वर्ग के प्रमुख विष हैं।

(4) तन्त्रिका-तन्त्र को हानि पहुँचाने वाले विष:
इनका प्रभाव प्रायः स्नायुमण्डल अथवा विभिन्न नाड़ियों पर होता है; जिसके फलस्वरूप नेत्रों की पुतलियाँ फैल जाती हैं, मस्तिष्क चेतना शून्य हो सकता है अथवा शरीर के विभिन्न अंगों में पक्षाघात हो सकता है। भाँग, धतूरा, क्लोरोफॉर्म तथा मदिरा इसी प्रकार के प्रमुख विष हैं।

विषपान करने पर उपचार

विषपाने एक गम्भीर दुर्घटना है, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिदिन अनेक व्यक्ति अनेक प्रकार के कष्ट भोगते हुए अकाल ही मृत्यु की गोद में चले जाते हैं। इस समस्या का समाधान करना सम्भव है, यदि पीड़ित व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा सहायता उपलब्ध हो जाए तथा कुछ सुरक्षात्मक उपायों का (UPBoardSolutions.com) कठोरतापूर्वक पालन किया जाए। चिकित्सा सहायता सदैव समय पर उपलब्ध होनी सम्भव नहीं है; अतः विषपान करने वाले व्यक्तियों के सामान्य उपचार के उपायों की जानकारी प्राप्त करना अति आवश्यक

(क) सुरक्षात्मक उपाय:
कई बार अनेक व्यक्ति (विशेष रूप से बच्चे) अज्ञानतावश अथवा नादानी में विषपान का शिकार हो जाते हैं। इस प्रकार की दुर्घटनाओं को निम्नलिखित उपायों का कठोरतापूर्वक पालन कर सहज ही टाला जा सकता है

  1.  घर में प्रयुक्त होने वाले सभी क्षारों एवं अम्लों को नामांकित कर यथास्थान रखें। ध्यान रहे कि ये स्थान बच्चों की पहुँच से सदैव दूर हों।
  2.  पुरानी तथा प्रयोग में न आने वाली औषधियों को घर में न रखें।
  3.  सभी औषधियों को उनकी मूल शीशी अथवा डिब्बी में रखें।
  4. कभी भी अन्धकार में कोई औषधि प्रयोग न करें।
  5.  चिकित्सक के पूर्व परामर्श के बिना कोई जटिल औषधि न प्रयोग करे।
  6.  पेण्ट वाले पदार्थ प्रायः विषैले होते हैं; अत: इनका प्रयोग सावधानीपूर्वक करें।
  7.  कीटाणुनाशक (स्प्रिट व डिटॉल, फिनाइल) आदि तथा कीटनाशक (फ्लिट व बेगौन स्प्रे आदि) पदार्थ विषैले होते हैं। इन्हें सावधानीपूर्वक प्रयोग करें तथा प्रयोग करते समय कम-से-कम श्वालें।
  8. खाना पकाने से पूर्व दाल, शाक-सब्जियों एवं फलों को अच्छी प्रकार से धोएँ ताकि ये पूर्णरूपसे कीटनाशक रासायनिक पदार्थों के प्रभाव से मुक्त हो जायें।
  9.  बच्चों को समय-समय पर प्रेमपूर्वक उपर्युक्त बातों की जानकारी दें।

(ख) प्राथमिक चिकित्सा सहायता:
योग्य चिकित्सक अथवा अस्पताल से चिकित्सा सहायता प्रायः विलम्ब से प्राप्त होती है, जबकि विषपान किए व्यक्ति का उपचार तत्काल होना आवश्यक है। अतः विषपान सम्बन्धी प्राथमिक चिकित्सा का ज्ञान होना अति आवश्यक है। इसके लिए कुछ महत्त्वपूर्ण बातों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए

  1. रोगी के आस-पास विष की शीशी अथवा पुड़िया की खोज करें जिससे कि विष का प्रकार ज्ञात हो सके तथा उसके अनुसार उपयुक्त उपचार प्रारम्भ किया जा सके।
  2.  विष का प्रभाव कम करने के लिए रोगी को वमन कराकर उसके उदर से विष दूर करने का प्रयास करें।
  3.  यदि रोगी क्षारक अथवा अम्लीय विष से पीड़ित है, तो वमन न कराएँ। इस प्रकार के रोगियों को विष-प्रतिरोधक देना ही उचित रहता है।
  4.  क्षारीय विष से पीड़ित व्यक्ति को नींबू का रस अथवा सिरका पिलाना लाभप्रद रहता है। अम्लीय विष से पीड़ित व्यक्तियों को चूने का पानी, खड़िया, मिट्टी अथवा मैग्नीशियम का घोल देना उत्तम रहता है।
  5. आस्फोटक विष के उपचार के लिए रोगी को गरम पानी में नमक मिलाकर वमन कराना चाहिए। कई बार वमन कराने के बाद उसे अरण्डी का तेल पिलाना चाहिए।
  6. निद्रा उत्पन्न करने वाले विष के उपचार में रोगी को जगाए रखने का प्रयास करें। वमन कराने के उपरान्त उसे तेज चाय अथवा कॉफी पीने के लिए देना लाभप्रद रहता है।
  7. रोगी के हाथ व पैर सेंकते रहना चाहिए। रोगी को गुदा द्वारा नमक का पानी चढ़ाना लाभप्रद रहता है।
  8. आवश्यकता पड़ने पर रोगी को कृत्रिम उपायों से श्वास दिलाने का प्रयास करना चाहिए।
  9.  रोगी को अस्पताल भिजवाने का तुरन्त प्रबन्ध करें। रोगी के साथ उसके वमन अथवा लिए गए विष का नमूना अवश्य ले जाएँ। इससे विष के सम्बन्ध में शीघ्र जानकारी प्राप्त होने से उपयुक्त चिकित्सा तत्काल आरम्भ हो सकती है।

(ग) सामान्य विषों के प्रतिकारक पदार्थों का उपयोग:
विषपान किए व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त विष एवं उसके प्रतिरोधक पदार्थ की जानकारी होने से विषपान के रोगी का उपचार सहज ही सम्भव है। सामान्य विषों के प्रतिकारक पदार्थ प्रायः निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

(1) जलन पैदा करने वाले विषों के प्रतिकारक पदार्थ

(अ) क्षारीय विष:
क्षारीय विषों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए अम्लों का प्रयोग करना चाहिए। उदाहरण-नींबू का रस एवं सिरका।
(ब) अम्लीय विष:
इनके प्रतिकारक पदार्थ क्षारीय होते हैं। गन्धक, शोरे व नमक के अम्लों को प्रभावहीन करने के लिए

  1.  चूना या खड़िया मिट्टी पानी में मिलाकर दें।
  2. जैतून का तेल पानी में मिलाकर दें।
  3. पर्याप्त मात्रा में दूध दें।

(2) आहार नाल को हानि पहुँचाने वाले विषों के प्रतिकारक पदार्थ

  1. संखिया: यह एक भयानक विष है। टैनिक अम्ल के प्रयोग द्वारा इस विष के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
  2. गन्धक: कार्बोनेट एवं मैग्नीशिया गन्धक के विष को प्रभावहीन करने के लिए उत्तम रासायनिक पदार्थ हैं।

(3) निद्रा उत्पन्न करने वाले विषों के प्रतिकारक पदार्थ

  1. अफीम: इस विष से पीड़ित व्यक्ति को गरम पानी में नमक मिलाकर वमन कराना चाहिए।
  2. निद्रा की गोलियाँ: इनसे प्रभावित व्यक्ति का उपचार अफीम के समान ही किया जाता है। रोगी को नमक के गरम पानी द्वारा वमन कराया जाता है तथा उसके उदर की सफाई की जाती है।

(4) तन्त्रिका-तन्त्र को हानि पहुँचाने वाले विषों के प्रतिकारक पदार्थ

  1. तम्बाकू: इसमें निकोटीन नामक विष होता है। गरम पानी में नमक डालकर रोगी को वमन करायें तथा तेज चाय व कॉफी पीने के लिए दें।
  2.  मदिरा: मदिरा के प्रभाव को नष्ट करने के लिए रोगी को वमन कराएँ तथा उसके उदर की पानी द्वारा सफाई करें। नींबू व नमक मिला गरम पानी पिलाने से लाभ होता है।
  3. भाँग एवं गाँजा: पीड़ित व्यक्ति को वमन कराकर खट्टी वस्तुएँ खिलानी चाहिए। यदि रोगी होश में है, तो उसे गरम दूध पिलाया जा सकता है।
  4. क्लोरोफॉर्म: इस विष का प्रतिकारक है एमाइल नाइट्राइट जो कि इसके प्रभाव को कम करता है।
  5. धतूरा: धतूरे के बीजों में घातक विष होता है। इस विष से पीड़ित व्यक्ति को होश में लाकर वमने कराना चाहिए। इसके बाद उसे गर्म दूध में एक चम्मच ब्राण्डी मिलाकर दी जा सकती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
घरेलू औषधियों का महत्त्व बताइए।
या
गृहिणी के लिए घरेलू औषधियों का ज्ञान क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
घरेलू देशज औषधियों का महत्त्व

प्रत्येक घर-परिवार में रोगों एवं दुर्घटनाओं का होना सामान्य बातें हैं। परन्तु ये सामान्य बातें ही कई बार गम्भीर समस्याओं को जन्म दे सकती हैं। उदाहरण के लिए-रोग की प्रारम्भिक अवस्था में चिकित्सक के पास न जाने पर रोग गम्भीर रूप धारण कर लेता है। अथवा किसी रोग एवं दुर्घटना में (UPBoardSolutions.com) तत्काल चिकित्सा सहायता न उपलब्ध हो पाने पर रोगी की हालत गम्भीर हो सकती है। उपर्युक्त दोनों ही प्रकार की समस्याओं के निदान के लिए घरेलू देशजे औषधियों का व्यावहारिक ज्ञान होना आवश्यक है। इससे प्रत्येक गृहिणी निम्नलिखित प्रकार से लाभान्वित हो सकती है—

(1) तत्काल उपचार:
घरेलू देशज औषधियों का व्यावहारिक ज्ञान होने पर गृहिणी किसी भी सामान्य रोग का तत्काल उपचार कर सकती है, जिसके फलस्वरूप रोग एवं दुर्घटनाएँ गम्भीर रूप नहीं ले पाते।

(2) समय एवं धन की बचत:
घरेलू देशज औषधियों से परिचित होने पर गृहिणी को घर-परिवार में होने वाले छोटे-छोटे रोगों के लिए चिकित्सक तक दौड़ने की आवश्यकता नहीं होती, जिससे (UPBoardSolutions.com) उसके समय की पर्याप्त बचत होती है। घरेलू औषधियाँ प्रायः अपेक्षाकृत संस्ती एवं सहज ही उपलब्ध होती हैं। इनका समय-समय पर उपयोग करने से अपेक्षाकृत कम व्यय होता है अर्थात् धन की. पर्याप्त बचत होती है।

(3) साहस एवं आत्मविश्वास में वृद्ध:
घरेलू औषधियों से भली प्रकार परिचित गृहिणी परिवार के किसी सदस्य के रोग अथवा दुर्घटनाग्रस्त होने पर अपना धैर्य नहीं खोती तथा उत्पन्न समस्या का साहसपूर्वक एवं आत्मविश्वास से सामना करती है।

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प्रश्न 2:
तीन घरेलू दवाइयों के नाम एवं उपयोग बताइए।
या
दो घरेलू दवाइयों के नाम एवं उपयोग बताइए।
उत्तर:
कुछ महत्त्वपूर्ण घरेलू दवाइयों के नाम एवं उपयोग अग्रलिखित हैं

(1) हींग:
यह पेट के रोगों में बहुत लाभ पहुँचाती है। गैस व अफारा आदि में पानी में घोलकर पेट | पर लगाने से रोगी को पर्याप्त लाभ होता है। अजवाइन, सौंठ वे नमक के साथ मिलाकर देने से यह
अधिक प्रभावी हो जाती है।

(2) नमक:
सामान्य नमक (सोडियम क्लोराइड) घावों को साफ करने के लिए एक अच्छी औषधि का कार्य करता है। गरम पानी में मिलाकर सिकाई करने पर यह पर्याप्त आराम पहुँचाता है। जल-अल्पता या निर्जलीकरण होने पर इसे उबाल कर ठण्डा किए हुए पानी में चीनी के साथ मिलाकर बार-बार (UPBoardSolutions.com) पिलाने पर रोगी को अत्यधिक लाभ होता है। गरम पानी में नमक डालकर गरारे करने से गले के रोगों में विशेष लाभ होता है।

(3) सौंफ:
खुनी पेचिश के लिए सौंफ एक उत्तम औषधि है। इस रोग में सौंफ को पानी में उबालकर उसका अर्क दिया जाता है। यह प्यास को कम करती है तथा गर्मी के कारण होने वाले सिर दर्द में आराम पहुँचाती है।

प्रश्न 3:
कृमि रोग का उपचार आप कैसे करेंगी?
उत्तर:
इस रोग में पेट में विभिन्न प्रकार के बड़े-बड़े कीड़े हो जाते हैं, जिनके कारण रोगी के पेट में दर्द रहता है, उसके मुँह से लार टपकती है तथा वह सोते समय दाँत किटकिटाता है। इस प्रकार के रोगी को पपीते के बीज (ताजे अथवा सूखे) पीसकर खिलाने से उसके पेट के कीड़े मरकर मल के साथ बाहर निकल जाते हैं। एक से दो माशे तक अजवाइन का चूर्ण गुड़ के साथ दिन में दो या तीन बार देने से कीड़े नष्ट हो जाते हैं।

प्रश्न 4:
हैजा रोग का उपचार आप किस प्रकार करेंगी?
उत्तर:
हैजा रोग में दस्त एवं वमन के कारण पीड़ित व्यक्ति के शरीर में पानी की कमी हो जाती है; अत: उसे एक लीटर उबले हुए पानी में आधा चम्मच नमक, आधा चम्मच खाने का सोडा तथा एक चम्मच चीनी अथवा गुड़ मिलाकर बार-बार पिलाना चाहिए। अब रोगी को अमृतधारा की 10-15 बूंदें पानी में (UPBoardSolutions.com) डालकर देनी चाहिए जिससे कि रोगी की वमन रुक सकें। अब हरा धनिया, पुदीना और सौंफ को समान मात्रा में लेकर तथा इसमें सेंधा नमक मिलाकर चटनी की तरह पीस लें। इसके सेवन से रोगी को पर्याप्त आराम मिलता है। समय मिलते ही रोगी को किसी योग्य चिकित्सक को दिखाएँ।

प्रश्न 5:
निमोनिया रोग का उपयक्तु उपचार लिखिए।
उत्तर:
इस रोग में सामान्यतः ज्वर के साथ रोगी शीत का अनुभव करता है। उसके सीने में कफ एकत्रित हो जाता है, खाँसी रहती है तथा पसलियों में दर्द रहता है। पीड़ित व्यक्ति को गर्म स्थान में रखकर उसकी पसलियों के दोनों ओर पिसी हुई अलसी लगी रुई के पैड लगाने चाहिए। फूला हुआ सुहागा, फूली हुई फिटकरी, तुलसी की पत्तियाँ, अदरक पीसकर पान के रस एवं शहद में मिलाकर रोगी को दिन में चार या पाँच बार देना चाहिए।

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प्रश्न 6:
जुकाम अथवा नजले का घरेलू उपचार बताइए।
उत्तर:
जुकाम एवं नजला सामान्य रोग हैं जो कि प्रायः ऋतु परिवर्तन के समय अथवा शीत ऋतु में अधिक होते हैं। छींक आना, आँखों एवं नाक से पानी जाना, कान बन्द हो जाना तथा खाँसी व कफ निकलना आदि रोग के सामान्य लक्षण हैं।
शीत ऋतु में हुई खाँसी एवं श्वास रोग में सहजन की जड़ की छाल को घी या तेल में मिलाकर धूम्रपान करने से लाभ होता है। जुकाम के प्रारम्भ में दूध में हल्दी डालकर (UPBoardSolutions.com) उबालकर पीने से लाभ होता हैं। अधिक सिर दर्द व नाक से पानी बहने पर लौंग का दो बूंद तेल शक्कर अथवा बताशे के साथ खाने से अत्यधिक लाभ होता है। नए जुकाम में पीपल का चूर्ण शहद में अथवा चाय में मिलाकर सेवन करने से शीघ्र आराम होता है। चाय में काली मिर्च का चूर्ण डालकर पीने से भी जुकाम में पर्याप्त लाभ होता है?

प्रश्न 7:
बिच्छू एवं शहद की मक्खी के काटने पर आप क्या उपचार करेंगी?
उत्तर:
बिच्छू के काटने पर उपचार-बिच्छू द्वारा काटने पर निम्नलिखित उपचार करने चाहिए

  1. काटने के स्थान के थोड़ा ऊपर टूर्नीकेट बाँधना चाहिए।
  2.  काटे हुए स्थान पर बर्फ रखने पर तथा नोवोकेन का इन्जेक्शन लगाने पर पीड़ा में कमी आती है।
  3.  रोग नियन्त्रित न होने पर योग्य चिकित्सक से परामर्श लें।

शहद की मक्खी के काटने पर उपचार:
पीड़ित व्यक्ति को काटने के स्थान पर सूजन आ जाती है। तथा भयंकर जलन होती है। इसके लिए निम्नलिखित उपचार करने चाहिए

  1.  काटे स्थान को दबाकर डंक निकालना चाहिए।
  2.  घाव पर अमोनिया अथवा नौसादर एवं चूने की सम मात्रा मिलाकर लगानी चाहिए।
  3. काटे हुए स्थान पर स्प्रिट लगानी चाहिए।
  4. एण्टी-एलर्जी की गोलियाँ (एविल आदि) लेने से लाभ होता है।

प्रश्न 8:
विष कितने प्रकार से शरीर में पहुँचता है?
उत्तर:
प्राय: निम्नलिखित चार प्रकार से विष हमारे शरीर में प्रवेश करता है

  1. मुँह द्वारा-खाने-पीने की वस्तुओं में मिलाकर खाने अथवा खिलाने से विष शरीर में प्रवेश कर सकता है।
  2.  सँघने से कुछ विशेष प्रकार के विष पूँघने पर श्वास क्रिया के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। उदाहरण-पेन्ट्स, फिनिट आदि।
  3.  विषैले जीव-जन्तुओं के काटने पर-अनेक जीव-जन्तु (बिच्छू, साँप, मधुमक्खी आदि) विषैले होते हैं। ये काटने अथवा डंक मारने पर अपने विष को हमारे शरीर में प्रवेश करा देते हैं।
  4. सामान्य घाव या इन्जेक्शन के घाव द्वारा इस विधि द्वारा अनेक विषैले कीटाणु एवं विष – हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
घरेलू देशज औषधियों से क्या आशय है?
उत्तर:
जब किसी रोग या कष्ट के निवारण के लिए घर पर सामान्य इस्तेमाल की वस्तुओं को उपयोग में लाया जाता है तो उन सामान्य वस्तुओं को घरेलू देशज औषधि कहा जाता है। जैसे कि पेट-दर्द के निवारण के लिए अजवाइन एक घरेलू औषधि है।

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प्रश्न 2:
गुलाब जल का क्या प्रयोग है? .
उत्तर:
यह नेत्रों की अत्यन्त उपयोगी औषधि है। यह नेत्र रोगों को ठीक करता है तथा नेत्रों को ठण्डक व शान्ति देने वाला होता है।

प्रश्न 3:
जल जाने पर कोई दो घरेलु औषधियों के नाम बताए।
उत्तर:
गोले का तेल या बरनॉल।

प्रश्न 4:
साँप के काटने पर अंग में बन्ध क्यों लगाया जाता है?
उत्तर:
अंग में बन्ध लगाने से उस स्थान से रुधिर का तेजी से इधर-उधर बहना बन्द हो जाता है। और विष पूरे शरीर में नहीं फैलता।

प्रश्न 5:
तुलसी के पत्ते का औषधि उपयोग बताइए।
उत्तर:
तुलसी के पत्ते ज्वर तथा जुकाम को शान्त करते हैं। शहद के साथ खाँसी में लाभदायक हैं।

प्रश्न 6:
आमाहल्दी का उपयोग बताइए।
उत्तर:
पिसी हुई आमाहल्दी दूध के साथ देने से चोट तथा मोच में आराम मिलता है।

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प्रश्न 7:
किन्हीं दो घरेलू औषधियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
अजवाइन, हींग, काला नमक आदि।

प्रश्न 8:
नकसीर छूटने पर आप कौन-सी घरेलू औषधिय प्रयोग करेंगी?
उत्तर:
नाक में देशी घी डालने तथा गीली-पीली मिट्टी सुंघाने से नाक द्वारा होने वाले रक्तस्राव में कमी आती है।

प्रश्न 9:
विष की शीशियों को लेबल करने से क्या लाभ है?
उत्तर:
विष की शीशियों को नामांकित (लेबल) कर रखने से भूलवश विषपान का भय नहीं रहता।

प्रश्न 10:
औषधियों का सेवन सदैव पर्याप्त प्रकाश में करना चाहिए। क्यों?
उत्तर:
क्योंकि अन्धकार में गलत औषधियाँ खा लेने की सम्भावना रहती है।

प्रश्न 11:
भाँग पिए व्यक्ति का आप क्या उपचार करेंगी?
उत्तर:
ऐसे व्यक्ति को खटाई (जैसे कि इमली का पानी) पिलाने से भाँग के विषैले प्रभाव को कम किया जा सकता है।

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प्रश्न 12:
जी मिचलाने अथवा उल्टी आने पर प्रयुक्त होने वाली किन्हीं दो घरेलू औषधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जी मिचलाने अथवा वमन रोकने के लिए

  1.  अमृतधारा की 5-6 बूंदें पानी में डालकर पिलायें तथा
  2. पोदीना व प्याज पीसकर तथा उसमें नीबू का रस डालकर रोगी को पिलायें।

प्रश्न 13:
लू लगने पर रोगी को पीने के लिए क्या देना चाहिए?
उत्तर:
लू लगने पर रोगी को पीने के लिए आम का पन्ना देना चाहिए।

प्रश्न 14:
बेल का शर्बत क्यों उपयोगी माना जाता है ?
उत्तर:
बेल का शर्बत पेट सम्बन्धी विकार दूर करता है तथा पेचिश में विशेष लाभदायक होता है।

प्रश्न 15:
दाँतों में दर्द होने पर आप क्या औषधि प्रयोग करेंगी?
उत्तर:
पिसी हुई लौंग अथवा लौंग का तेल प्रभावित दाँत के निचले भाग पर लगाने से दर्द में पर्याप्त लाभ होता है।

प्रश्न 16:
मुँह एवं जीभ पर छाले होने पर आप क्या उपचार करेंगी?
उत्तर:
प्रभावित भाग पर ग्लिसरीन अथवा कत्थे का चूरा लगाने से पर्याप्त लाभ होता है।

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प्रश्न 17:
मलेरिया ज्वर में रोगी को कौन-सी घरेलू औषधि देनी चाहिए?
उत्तर:
तुलसी के पत्ते में काली मिर्च को सम मात्रा में पीसकर दिन में तीन या चार बार देने से मलेरिया के रोगी को लाभ होगा।

प्रश्न 18:
अफीम खा लेने पर चेहरे का रंग कैसा हो जाता है?
उत्तर:
अफीम खा लेने पर चेहरा पीला पड़ जाता है तथा नेत्रों की पुतलियाँ सिकुड़कर छोटी हो जाती हैं।

प्रश्न 19:
विभिन्न दवाएँ घर पर रखते समय आप क्या सावधानियाँ रखेंगी?
उत्तर:

  1.  घर में दवाएँ उनकी मूल शीशियों, डिब्बों अथवा रैपर में रखनी चाहिए।
  2.  दवाइयों को उनके निर्देशानुसार ठण्डे अथवा गरम तथा प्रकाश अथवा अन्धकार आदि निर्दिष्ट स्थान में रखना चाहिए।
  3.  दवाइयाँ सदैव सुरक्षित स्थान पर बच्चों की पहुँच से दूर रखी जानी चाहिए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न:
प्रत्येक प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। इनमें से सही विकल्प चुनकर लिखिए

(1) घरेलू देशज औषधियों के प्रयोग को उपयोगी माना जाता है
(क) आकस्मिक रोगों या दुर्घटनाओं के तुरन्त उपचार के लिए,
(ख) इनके प्रयोग से धन एवं समय की बचत होती है,
(ग) दुर्घटना घटित होने पर गृहिणी का मनोबल बना रहता है,
(घ) उपर्युक्त सभी उपयोग एवं लाभ।

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(2) सौंफ का प्रयोग किस रोग में किया जाता है?
(क) खूनी पेचिश,
(ख) निमोनिया,
(ग) कृमि रोग,
(घ) जुकाम।

(3) कृमि रोग में दिए जाते हैं
(क) धतूरे के बीज,
(ख) पपीते के बीज,
(ग) टमाटर के बीज,
(घ) खरबूजे के बीज।

(4) अमृतधारा का प्रयोग किया जाता है
(क) मलेरिया में,
(ख) कृमि रोग में,
(ग) खुनी पेचिश में,
(घ) वमन रोकने में।

(5) ईसबगोल की भूसी दी जाती है
(क) श्वास सम्बन्धी रोगों में,
(ख) हृदय रोग में,
(ग) पेचिश में,
(घ) काली खाँसी में।

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(6) जले हुए स्थान पर जलन कम करने के लिए आप क्या लगाएँगी?
(क) लौंग का तेल,
(ख) गोले का तेल,
(ग) सरसों का तेल,
(घ) अमृतधारा।

(7) नींद लाने वाला विष कौन-सा है?
(क) अफीम,
(ख) कास्टिक सोडा,
(ग) धतूरा,
(घ) संखिया।

(8) सबसे अधिक खतरनाक एवं हानिकारक विष कौन-से होता है?
(क) आहारनाल में जल उत्पन्न करने वाले विष
(ख) नींद लाने वाले विष,
(ग) मस्तिष्क तथा तन्त्रिकाओं पर बुरा प्रभाव डालने वाले विष,
(घ) मांसपेशियों में ऐंठन लाने वाले विष।

(9) निमोनिया के रोगी को आप कौन-सा पेय पदार्थ देंगी?
(क) लस्सी,
(ख) शर्बत,
(ग) चाय,
(घ) कोका कोला।

(10) साँप के काटे घाव पर कौन-सी वस्तु लगानी चाहिए?
(क) सल्फर,
(ख) बरनॉल,
(ग) पोटैशियम परमैंगनेट,
(घ) नमक।

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(11) बिच्छू के काटने पर तुरन्त दिया जाता है
(क) गर्म चाय,
(ख) गर्म दूध,
(ग) कहवा,
(घ) ब्राण्डी।

(12) कीटाणुनाशक पदार्थ है
(क) टाटरी,
(ख) अमृतधारा,
(ग) डिटॉल,
(घ) गोले का तेल।

(13) मुलहठी दी जाती है
(क) विष फैलने पर,
(ख) दस्तों के लिए,
(ग) खाँसी होने पर,
(घ) मलेरिया ज्वर में।

(14) पोटैशियम परमैंगनेट काम आता है
(क) चोट पर लगाने के लिए,
(ख) घाव को साफ करने के लिए,
(ग) घाव को भरने के लिए,
(घ) कीड़े-मकोड़ों को मारने के लिए।

(15) मलेरिया ज्वर के लिए एकमात्र दवा है
(क) सौंठ, अजवाइन तथा हींग,
(ख) कुनैन की गोलियाँ,
(ग) लौंग का पान,
(घ) पोदीने का पानी।

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(16) अम्ल तथा क्षार मुख्य रूप से उत्पन्न करते हैं
(क) जलन,
(ख) पीड़ा,
(ग) बेचैनी,
(घ) नींद।

उत्तर:
(1) (घ) उपर्युक्त सभी उपयोग एवं लाभ,
(2) (क) खूनी पेचिश,
(3) (ख) पपीते के बीज,
(4) (घ) वमन रोकने में,
(5) (ग) पेचिश में,
(6) (ख) गोले का तेल,
(7) (क) अफीम,
(8) (ग) मस्तिष्क तथा तन्त्रिकाओं पर बुरा प्रभाव डालने वाले विष,
(9) (ग) चाय,
(10) (ग) पोटैशियम परमैंगनेट,
(11) (क) गर्म चाय,
(12) (ग) डिटॉल,
(13) (ग) खाँसी होने पर,
(14) (ख) घाव को साफ करने के लिए,
(15) (ख) कुनैन की गोलियाँ,
(16) (क) जलन ।

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