UP Board Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे

UP Board Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
स्पष्ट कीजिए कि घुमंतू समुदायों को बार-बार एक जगह से दूसरी जगह क्यों जाना पड़ता है? इस निरंतर आवागमन से पर्यावरण को क्या लाभ है?
उत्तर:
ऐसे लोगों को घुमंतू या खानाबदोश कहते हैं जो एक स्थान पर टिक कर नहीं रहते बल्कि अपनी जीविका के निमित्त एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। इन घुमंतू लोगों का जीवन इनके पशुओं पर निर्भर होता है। वर्ष भर किसी एक स्थान पर पशुओं के लिए पेयजल और चारे की (UPBoardSolutions.com) व्यवस्था सुलभ नहीं हो पाती ऐसे में ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमणशील रहते हैं। जब तक एक स्थान पर चरागाह उपलब्ध रहता है तब तक ये वहाँ रहते हैं, परन्तु चरागाह समाप्त होने पर पुनः दूसरे नए स्थान की ओर चले जाते हैं।
घुमंतू लोगों के निरंतर आवागमन से पर्यावरण को निम्न लाभ होते हैं-

  1. यह खानाबदोश कबीलों को बहुत से काम जैसे कि खेती, व्यापार एवं पशुपालन करने का अवसर प्रदान करता है।
  2. उनके पशु मृदा को खाद उपलब्ध कराने में सहायता करते हैं।
  3. यह चरागाहों को पुनः हरा-भरा होने और उसके अति-चारण से बचाने में सहायता करता है क्योंकि चरागाहें अतिचारण एवं लम्बे प्रयोग के कारण बंजर नहीं बनतीं।
  4. यह विभिन्न क्षेत्रों की चरागाहों के प्रभावशाली प्रयोग में सहायता करता है।
  5. निरंतर स्थान परिवर्तन के कारण किसी एक स्थान की वनस्पति का अत्यधिक दोहन नहीं होता है।
  6. चरागाहों की गुणवत्ता बनी रहती है।
  7. लगातार स्थान परिवर्तन से भूमि की उर्वरता बनी रहती है।

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प्रश्न 2.
इस बारे में चर्चा कीजिए कि औपनिवेशिक सरकार ने निम्नलिखित कानून क्यों बनाए? यह भी बताइए कि इन कानूनों से चरवाहों के जीवन पर क्या असर पड़ा?

  1. परती भूमि नियमावली
  2. वन अधिनियम
  3. अपराधी जनजाति अधिनियम
  4. चराई कर।

उत्तर:
1. परती भूमि नियमावली बनाने के कारण – अंग्रेज सरकार परती भूमि को व्यर्थ मानती थी, क्योंकि परती भूमि से उसे कोई लगान प्राप्त नहीं होती थी। साथ ही परती भूमि का उत्पादन में कोई योगदान नहीं होता था। यही कारण था कि अंग्रेज सरकार ने परती भूमि का विकास करने के लिए (UPBoardSolutions.com) अनेक नियम बनाए जिन्हें परती भूमि नियमावली के नाम से जाना जाता है।
परती भूमि नियमावली का चरवाहों के जीवन पर प्रभाव-

  1. चरवाहे अपने पशुओं को अब निश्चित चरागाहों में ही चराते थे जिससे चारा कम पड़ने लगा।
  2. चारे की कमी के कारण पशुओं की सेहत और संख्या घटने लगी।
  3. चरागाहों का आकार सिमटकर बहुत छोटा रह गया।
  4. बचे हुए चरागाहों पर पशुओं का दबाव बहुत अधिक बढ़ गया।

2. वन अधिनियम बनाने के कारण – अंग्रेज वन अधिकारी ऐसा मानते थे कि वनों में पशुओं को चराने के अनेक नुकसान हैं। पशुओं के चरने से छोटे जंगली पौधों और वृक्षों की नयी कोपलें नष्ट हो जाती हैं जिससे नए पेड़ों का विकास रुक जाता है। इसलिए औपनिवेशिक (UPBoardSolutions.com) सरकार ने अनेक वन अधिनियम पारित किए जिसके द्वारा वनों को आरक्षित तथा पशुचारण को नियमित किया जा सके।
वन अधिनियम का चरवाहों पर प्रभाव-

  1. वनों में उनके प्रवेश और वापसी का समय निश्चित कर दिया गया।
  2. वन नियमों का उल्लंघन करने पर भारी जुर्माने की व्यवस्था लागू की गई।
  3. घने वन जो बहुमूल्य चारे के स्रोत थे, उनमें पशुओं को चराने पर रोक लगा दी गई।
  4. कम घने वनों में पशुओं को चराने के लिए परमिट लेना अनिवार्य कर दिया गया।

3. “अपराधी जनजाति अधिनियम बनाने के कारण – अंग्रेज अधिकारी घुमंतू लोगों को शक की निगाह से देखते थे। अंग्रेजों का ऐसा मानना था कि इन लोगों के बार-बार स्थान परिवर्तन के कारण इन लोगों की पहचान करना तथा इनका विश्वास करना कठिन कार्य है। घुमंतू लोगों से कर संग्रह करना और कर निर्धारण दोनों कठिन कार्य हैं। उक्त कारणों से प्रेरित होकर अंग्रेज सरकार ने 1871 ई० में (UPBoardSolutions.com) अनेक घुमंतू समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में डाल दिया और उनकी बिना परमिट आवागमन को प्रतिबन्धित कर दिया।
अपराधी जनजाति अधिनियम को घुमंतू लोगों पर प्रभाव-

  1. अनेक समुदायों ने पशुपालन के स्थान पर वैकल्पिक व्यवसायों को अपनाना आरंभ कर दिया।
  2. अपराधी सूची में शामिल किए गए घुमंतू समुदाय एक स्थान पर स्थायी रूप से रहने के लिए विवश हो गए।
  3. स्थायी रूप से बसने के कारण अब वे स्थानीय चरागाहों पर ही निर्भर ही गए जिसके कारण उनके पशुओं की संख्या में तेजी से कमी आई।

4. चराई कर लागू किए जाने के कारण – अंग्रेज सरकार ने अपनी आय बढ़ाने के लिए यथासंभव प्रयास किया। इसी क्रम में चरवाहों पर चराई कर लगाया गया। चरवाहों से चरागाहों में चरने वाले एक-एक जानवर पर करे वसूल किया जाने लगा। देश के अधिकतर चरवाही इलाकों में 19वीं सदी के मध्य से ही चरवाही टैक्स लागू कर दिया गया था। प्रति मवेशी कर की देर तेजी से बढ़ती चली गयी और कर वसूली की व्यवस्था दिनोंदिन सुदृढ़ होती गयी। 1850 से 1880 ई० के दशकों के बीच टैक्स वसूली का काम बाकायदा बोली लगाकर ठेकेदारों को सौंप जाता था।

ठेकेदारी पाने के लिए ठेकेदार सरकार को जो पैसा देते थे उसे वसूल करने और साल भर में ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा बनाने के लिए वे जितना चाहे उतना कर वसूल सकते थे। 1880 ई० के दशक तक आते-आते सरकार ने अपने कारिंदों के माध्यम से सीधे चरवाहों से ही कर वसूलना शुरू (UPBoardSolutions.com) कर दिया। हरेक चरवाहे को एक ‘पास’ जारी कर दिया गया। किसी भी चरागाह में दाखिल होने के लिए चरवाहों को पास दिखाकर पहले टैक्स अदा करना पड़ता था। चरवाहे के साथ कितने जानवर हैं और उसने कितना टैक्स चुकाया है, इस बात को उसके पास में दर्ज कर दिया जाता था।

चरवाहों पर चराई कर का प्रभाव–प्रति मवेशी कर लागू होने पर चरवाहों ने पशुओं की संख्या को सीमित कर दिया। अनेक चरवाहों ने अवर्गीकृत चरागाहों की खोज में स्थान परिवर्तन कर लिया। अनेक चरवाहा समुदायों ने पशुपालन के साथसाथ वैकल्पिक व्यवसायों को अपनाना आरंभ कर दिया। इससे पशुपालन करने वालों की कठिनाई को समझा जा सकता है।

प्रश्न 3.
मसाई समुदाय के चरागाह उनसे क्यों छिन गए? कारण बताएँ।।
उत्तर:
‘मासाई’, पूर्वी अफ्रीका का एक प्रमुख चरवाहा समुदाय है। औपनिवेशिक शासनकाल में मसाई समुदाय के चरागाहों को सीमित कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं तथा प्रतिबन्धों ने उनकी चरवाही एवं व्यापारिक दोनों ही गतिविधियों पर विपरीत प्रभाव डाला। मासाई समुदाय के (UPBoardSolutions.com) अधिकतर चरागाह उस समय छिन गए जब यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने अफ्रीका को 1885 ई० में विभिन्न उपनिवेशों में बाँट दिया।

श्वेतों के लिए बस्तियाँ बनाने के लिए मासाई लोगों की सर्वश्रेष्ठ चरागाहों को छीन लिया गया और मासाई लोगों को दक्षिण केन्या एवं उत्तर तंजानिया के छोटे से क्षेत्र में धकेल दिया गया। उन्होंने अपने चरागाहों का लगभग 60 प्रतिशत भाग खो दिया। औपनिवेशिक सरकार ने उनके आवागमन पर विभिन्न बंदिशें लगाना प्रारंभ कर दिया। चरवाहों को भी विशेष आरक्षित स्थानों में रहने के लिए बाध्य किया गया। विशेष परमिट के बिना उन्हें उन सीमाओं से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी। क्योंकि मासाई लोगों को एक निश्चित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया था, इसलिए वे सर्वश्रेष्ठ चरागाहों से कट गए और एक ऐसी अर्द्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर

मजबूर कर दिया गया जहाँ सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी। उन्नीसवीं सदी के अंत में पूर्व अफ्रीका में औपनिवेशिक सरकार ने स्थानीय किसान समुदायों को अपनी खेती की भूमि बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। जिसके परिणामस्वरूप मासाई लोगों के चरागाह खेती की जमीन में तब्दील हो गए।
मासाई लोगों के रेवड़ (भेड़-बकरियों वाले लोग) चराने के विशाल क्षेत्रों को शिकारगाह बना दिया गया (उदाहरणतः कीनिया में मासाई मारा व साम्बूरू नैशनल पार्क (UPBoardSolutions.com) और तंजानिया में सेरेनगेटी पार्क। इन आरक्षित जंगलों में चरवाहों को आना मना था। वे इन इलाकों में न तो शिकार कर सकते थे और न अपने जानवरों को ही चरा सकते थे। 14,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला सेरेनगेटी नैशनल पार्क भी मसाईयों के चरागाहों पर कब्जा करके बनाया गया था।

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प्रश्न 4.
आधुनिक विश्व ने भारत और पूर्वी अफ्रीकी चरवाहा समुदायों के जीवन में जिन परिवर्तनों को जन्म दिया उनमें कई समानताएँ थीं। ऐसे दो परिवर्तनों के बारे में लिखिए जो भारतीय चरवाहों और मासाई गड़रियों, दोनों के बीच समान रूप से मौजूद थे।
उत्तर:
भारत और पूर्वी अफ्रीका दोनों ही उस समय औपनिवेशिक शक्तियों के अधीन थे, इसलिए उन पर शासन करने वाली औपनिवेशिक शक्तियाँ उन्हें संदेह की दृष्टि से देखती थीं। इन दोनों देशों में औपनिवेशिक शोषण के तरीके में भी समानता थी।
मासाई गड़रियों और भारतीय चरवाहों को हम निम्न रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं-
(i) भारत और अफ्रीका दोनों में ही जंगल यूरोपीय शासकों द्वारा आरक्षित कर दिए गए और चरवाहों का इन जंगलों में प्रवेश निषेध कर दिया गया। ये आरक्षित जंगल इन दोनों देशों में अधिकतर उन क्षेत्रों में थे जो पारंपरिक रूप से खानाबदोश चरवाहों की चरगाह थे। इस प्रकार, (UPBoardSolutions.com) दोनों ही मामलों में औपनिवेशिक शासकों ने खेतीबाड़ी को प्रोत्साहन दिया जो अंततः चरवाहों की चरागाहों के पतन का कारण बनी।

(ii) भारत और पूर्वी अफ्रीका के चरवाहा समुदाय खानाबदोश थे और इसलिए उन पर शासन करने वाली औपनिवेशिक शक्तियाँ उन्हें अत्यधिक संदेह की दृष्टि से देखती थीं । यह उनके और अधिक पतन का कारण बना।

(iii) दोनों स्थानों के चरवाहा समुदाय अपनी-अपनी चरागाहें कृषि-भूमि को तरजीह दिए जाने के कारण खो बैठे। भारत में चरागाहों को खेती की जमीन में तब्दील करने के लिए उन्हें कुछ चुनिंदा लोगों को दिया गया। जो जमीन इस प्रकार छीनी गई थी वे अधिकतर चरवाहों की चरागाहें थीं। ऐसे बदलाव चरागाहों के पतन एवं चरवाहों के लिए बहुत-सी समस्याओं का कारण बन गए। इसी प्रकार (UPBoardSolutions.com) अफ्रीका में भी मासाई लोगों की चरागाहें श्वेत बस्ती बसाने वाले लोगों द्वारा उनसे छीन ली गईं और उन्हें खेती की जमीन बढ़ाने के लिए स्थानीय किसान समुदायों को हस्तांतरित कर दिया गया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक सरकार ने ‘अपराधी जनजाति अधिनियम’ कब पारित किया?
उत्तर:
सन् 1871 में।

प्रश्न 2.
गुज्जर बकरवाल समुदाय किस राज्य से सम्बन्धित है?
उत्तर:
गुज्जर बकरवाल समुदाय भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य से सम्बन्धित है।

प्रश्न 3.
कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के प्रमुख चरवाहा समुदायों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के प्रमुख चरवाहा समुदाय हैं-गोल्ला, कुरूमा, कुरूबा आदि।

प्रश्न 4.
राइका समुदाय भारत के किस राज्य से सम्बन्धित है?
उत्तर:
‘राइका’ समुदाय भारत के राजस्थान राज्य से सम्बन्धित है।

प्रश्न 5.
बंजारा समुदाय के लोग देश के किन राज्यों में पाए जाते हैं?
उत्तर:
बंजारा समुदाय के लोग भारत के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र राज्यों में पाए जाते हैं।

प्रश्न 6.
गद्दी समुदाय किस राज्य से सम्बन्धित है?
उत्तर:
गद्दी समुदाय के लोग देश के हिमाचल प्रदेश राज्य से सम्बन्धित हैं।

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प्रश्न 7.
बुग्याल से क्या आशय है?
उत्तर:
ऊँचे पहाड़ों पर स्थित घास के हरे-भरे मैदानों को बुग्याल कहते हैं।

प्रश्न 8.
धंगर समुदाय बारिश शुरू होते ही सूखे पठारों की ओर क्यों लौट जाते हैं?
उत्तर:
धंगर समुदाय के लोग प्रमुख रूप से भेड़-बकरियाँ पालते हैं। भेड़ें मानसून के गीले मौसम को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं इसलिए वे इस मौसम में सूखे पठारों की ओर चले जाते हैं।

प्रश्न 9.
अफ्रीका के प्रमुख चरवाहा समुदाय और उनके द्वारा पालित मवेशियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विश्व की आधी से अधिक चरवाही जनसंख्या अफ्रीका में निवास करती है। इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना जैसे समुदाय भी शामिल हैं। इनमें से अधिकतर अब अर्द्ध शुष्क घास के मैदानों या सूखे रेरिनों में रहते हैं जहाँ वर्षा आधारित खेती करना बहुत कठिन है। ये ऊँट, बकरी, भेड़ व गधे जैसे पशु पालते हैं और दूध, मांस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं।

प्रश्न 10.
नोमड़ किन्हें कहते हैं?
उत्तर:
नोमड़ वे लोग हैं जो एक स्थान पर नहीं रहते अपितु अपनी आजीविका कमाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते हैं। भारत के कई हिस्सों में हम प्रायः खानाबदोश चरवाहों को उनके बकरियों और भेड़ों या ऊँटों और अन्य पशुओं के साथ घूमते हुए देखते हैं।

प्रश्न 11.
अपराधी जनजाति अधिनियम 1871 के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार खानाबदोश कबीलों को अपराधी की नजर से देखती थी। भारत की औपनिवेशिक सरकार द्वारा सन् 1871 में अपराधी जनजाति अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम ने दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को अपराधी समुदायों की (UPBoardSolutions.com) सूची में रख दिया। बिना किसी वैध परिमट के इन समुदायों को उनकी विशिष्ट ग्रामीण बस्तियों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।

प्रश्न 12.
भारत के विभिन्न भागों में पाए जाने वाले चरवाहों के नाम लिखिए।
उत्तर:
गुज्जर बकरवाल जम्मू कश्मीर के घुमन्तू चरवाहे, गद्दी हिमाचल प्रदेश के घुमंतू चरवाहे, धंगर महाराष्ट्र के घुमंतू चरवाहे, कुरुमा, कुरुबा तथा गोल्ला कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के चरवाहे, बंजारे उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के घुमंतू चरवाहे, राइका राजस्थान के घुमंतू चरवाहे आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 13.
औपनिवेशिक शासन का चरवाहों की जिन्दगी पर प्रभाव बताइए।
उत्तर:
औपनिवेशिक शासन के दौरान चरवाहों की जिंदगी में गहरे बदलाव आए। उनके चरागाह सिमट गए, इधर-उधर आने जाने पर बंदिशें लगने लगीं और उनसे जो लगान वसूल किया जाता था उसमें भी वृद्धि हुई। खेती में उनका हिस्सा घटने लगा और उनके पेशे और हुनरों पर भी बहुत बुरा असर पड़ा।

प्रश्न 14.
कुरुबा, कुरुमा और गोल्ला चरवाही के अलावा और कौन-सा व्यवसाय करते हैं?
उत्तर:
गोल्ला समुदाय के लोग गाय-भैंस पालते थे जबकि कुरुमा और कुरुबा समुदाय भेड़-बकरियाँ पालते थे और हाथ के बुने कम्बल बेचते थे। ये लोग जंगलों और छोटे-छोटे खेतों के आस-पास रहते थे। वे अपने जानवरों की देखभाल के साथ-साथ कई दूसरे काम-धंधे भी करते थे।

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प्रश्न 15.
किन्नौरी, शेरपा और भोटिया किस तरह के चरवाहे हैं?
उत्तर:
हिमालय के पर्वतीय भागों में रहने वाले भोटिया, शेरपा और किन्नौरी समुदाय के लोग अपने मवेशियों को चराने के काम हेतु मौसमी बदलावों के हिसाब से खुद को ढालते थे और अलग-अलग इलाकों में पड़ने वाले चरागाहों का बेहतरीन इस्तेमाल करते थे। जब एक चरागाह की हरियाली (UPBoardSolutions.com) खत्म हो जाती थी या इस्तेमाल के काबिल नहीं रह जाती थी तो वे किसी और चरागाह की तरफ चले जाते थे।

प्रश्न 16.
गद्दी चरवाहे किस तरह अपने मवेशियों को चराते थे? उत्तर- हिमाचल प्रदेश के गद्दी चरवाहे मौसमी
उतार:
चढ़ाव का सामना करने के लिए इसी तरह सर्दी-गर्मी के हिसाब से अपनी जगह बदलते रहते थे। वे भी शिवालिक की निचली पहाड़ियों में अपने मवेशियों को झाड़ियों में चराते हुए जाड़ा बिताते थे। अप्रैल आते-आते वे उत्तर की तरफ चल पड़ते और पूरी गर्मियाँ लाहौल और स्पीति में बिता देते। जब बर्फ पिघलती और ऊँचे दरें खुल जाते तो उनमें से बहुत सारे ऊपरी पहाड़ों में स्थित घास के मैदानों में जा पहुँचते थे।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अफ्रीका के निर्धन चरवाहों का जीवन उनके मुखिक से किस तरह अलग था?
उत्तर:
मुखियाओं के पास नियमित आमदनी थी जिससे वे जानवर, सामान और जमीन खरीद सकते थे। वे युद्ध एवं अकाल की विभीषिका को झेल कर बचे रह सकते थे। उन्हें अब चरवाही एवं गैर-चरवाही दोनों तरह की आमदनी होती थी और अगर उनके जानवर किसी वजह से घट (UPBoardSolutions.com) जाते तो वे और जानवर खरीद सकते थे। किन्तु ऐसे चरवाहों का जीवन इतिहास अलग था जो केवल अपने पशुओं पर ही निर्भर थे। प्रायः उनके पास बुरे सैमय में बचे रहने के लिए संसाधन नहीं होते थे। युद्ध एवं अकाल के दिनों में वे अपना लगभग सब कुँछ आँवा बैठते थे।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक सरकार ने अफ्रीकी चरवाहों पैर कौन-से प्रतिबन्ध लगाए थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार ने अफ्रीकी चरवाहों पर निम्न प्रतिबन्ध लगाए-

  1. मासीई लोगों के रेवेंड़ चराने के विशील क्षेत्रों को शिकारगाह बना दिया गया। इन आरक्षित जंगलों में चरवाहों को आना मना था।
  2. मूल निवासियों को भी पास जारी किए गए थे जिन्हें दिखाए बिना उन्हें प्रतिबंधित क्षेत्रों में प्रवेश करने नहीं दिया जाता था।
  3. औपनिवेशिक सरकार ने उनके आने-जाने पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए।
  4. चरवाहा समुदाय को विशेष रूप से निर्धारित स्थानों पर निवास करने के लिए बाध्य किया गया।
  5. बिना किसी वैधं परमिट के ईनं (UPBoardSolutions.com) समुदायों को उनकी विशिष्ट ग्रामीण बस्तियों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।
  6. वे सर्वश्रेष्ठ चरागाहों से कैट गए और उन्हें एक ऐसी अर्द्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर मजबूर कर दिये गये जहाँ सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी।

प्रश्न 3.
औपनिवेशिक सरकार ने भीरत में परेती भूमि नियमावली क्यों लागू की तथा इसका क्या प्रभाव हुआ?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार परती भूमि को बैंकार मानती थी, क्योंकि इससे उसे कोई राजस्व प्राप्त नहीं होता था। अतः वह सभी चरागाहों को कृषि भूमि में परिवर्तित कैरनी चाहती थी। उसका मानना था कि यदि ऐसा कर दिया जाए तो भू-राजस्व भी बढ़ेगा और जूट (पटसन), कपास, गेहूँ जैसी फसलों के उत्पादन में भी वृद्धि होगी। सभी चरागाहों को अंग्रेज सरकार परती भूमि मानती थी क्योंकि उससे उन्हें कोई लंगान नहीं मिलती था। उन्नीसवीं सदी के मध्य से देश के विभिन्न भागों में परती भूमि विकास के लिए नियम बनाए जाने लगे। इन (UPBoardSolutions.com) नियमों की सहायता से सरकार गैर-खेतिहर जमीन को अपने अधिकार में लेकर कुछ विशेष लोगों को सौंपने लगी। इन लोगों को विभिन्न प्रकार की छूट प्रदान की गई और ऐसी भूमि पर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इनमें से कुछ लोगों को इस नई जमीन पर बसे गाँव का मुखिया बना दिया गया। इस तरह कब्जे में ली गई ज्यादातर जमीन वास्तव में चरागाहों की थी जिनका चरवाहे नियमित रूप से इस्तेमाल किया करते थे। इस तरह खेती के फैलाव से चरागाह सिमटने लगे जिसने चरवाहों के जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाली।

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प्रश्न 4.
राइको समुदाय के जीवन-विधि को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राइका देश के पश्चिमी राज्य राजस्थान का प्रमुख चरवाहा समुदाय है। यह क्षेत्र वर्ष में बहुत कम हैं #प्त करता है। इसीलिए खेती की उपज हर साल घटती-बढ़ती रहती थी। बहुत सारे इलाकों में तो दूर-दूर तक कोई फल होती ही नहीं थी। इसके चलते राइका खेती के साथ-साथ चरवाही का भी काम करते थे। बरसात में तो बाड़मेर, जैसलमेर, औध और बीकानेर के राइका अपने गाँवों में ही रहते थे क्योंकि इस दौरान (UPBoardSolutions.com) उन्हें वहीं चारा मिल जाता था। लेकिन अक्टूबर आते-अति ये चरागाह सूखने लगते थे। नतीजतन ये लोग नए चरागाहों की तलाश में दूसरे इलाकों की तरफ निकल जाते थे और अगंली बरसात में ही वापस लौटते थे। राइकाओं का एक वर्ग ऊँट पालता था जबकि कुछ भेड़-बकरियाँ पालते थे।

प्रश्न 5.
घरवाहा समुदाय की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चरवाहा समुदाय का जीवन निरंतर प्रकृति से संघर्ष में बीतता था। उन्हें निरंतर प्राकृतिक एवं मानवीय समस्याओं और बदलती परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था, जैसे-
(क) स्थायी संबंधों की स्थापनी – उन्हें अपने प्रवास के प्रत्येक ठिकाने ,पर रहने वाले निवासियों तथा अधिकारियों से घनिष्ठ संपर्क बनाए रखने की आवश्यकता होती है अन्यथा वे उन क्षेत्रों में उनके पशुचारण पर प्रतिबंध लगी कते हैं।

(ख) दिशा का निर्धारण – प्रवास की दिशा निर्धारित करना चरवाहा समुदाय की एक प्रमुख समस्या होती है क्योंकि गलत दिशा का चयन उन्हें तथा उनके पशुओं के लिए भोजन तथा पानी की समस्या उपस्थित कर सकता है।

(ग) प्रवास की समय सीमा का निर्धारण – प्रवास काल में किस स्थान पर कितने समय तक रुकना है जिससे वे चरागाहों तक सही समय पर पहुँच सकें और मौसम बिगड़ने से पहले सही सलामत वापस आ सकें अर्थात् प्रवास की अवधि और रेवड़ के साथ कब और कहाँ ठहरना है (UPBoardSolutions.com) आदि, का निर्धारणजी एक कठिन समस्या होती है जिसे एक लंबे अनुभव द्वारा ही हल किया जा सकता है। चरवाहा समुदाय अपनी जीवन सम्बन्धी अनेक आवश्यकताओं के लिए गैर-चरवाहा समुदायों पर भी निर्भर होते हैं, ऐसे में समाज अन्य समूहों से भी उनके मानवीय सम्बन्ध स्थापित होते हैं।

प्रश्न 6.
चराई-कर ने चरवाहा समुदाय पर क्या प्रभाव डाला?
उत्तर:
चराई-कर का चरवाहा समुदाय पर प्रभाव-भारत में अंग्रेज सरकार ने 19वीं शताब्दी के मध्य अपनी आय बढ़ाने के लिए अनेक नए कर लगाए। इन्हीं में से एक चराई-कर था, जो पशुओं पर लगाया गया था। यह कर प्रति पशु पर लिया जाता था। कर वसूली के तरीकों में परिवर्तन के साथ-साथ यह कर निरंतर बढ़ता गया। पहले तो यह कर सरकार स्वयं वसूल करती थी परंतु बाद में यह काम ठेकेदारों को सौंप दिया गया। ठेकेदार बहुत अधिक कर वसूल करते थे और सरकार को एक निश्चित कर ही देते थे। फलस्वरूप खानाबदोशों का शोषण होने लगा। अतः बाध्य होकर उन्हें अपने पशुओं की संख्या कम करनी पड़ी। फलस्वरूप खानाबदोशों के लिए रोजी-रोटी की समस्या उत्पन्न हो गई।
इस प्रकार औपनिवेशिक सरकार द्वारा लागू किए गए इन विभिन्न नियमों ने चरवाहा समुदायों के जीवन को और अधिक कष्टपूर्ण बना दिया।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक प्रतिबन्धों ने चरवाहा समुदाय पर क्या प्रभाव डाला?
उत्तर:
औपनिवेशिक प्रतिबन्धों ने चरवाहा समुदाय को निम्न प्रकार से प्रभावित किया-

  1. चरागाहों की कमी होने के कारण बचे हुए चरागाहों पर दबाव बहुत अधिक बढ़ गया जिससे चरागाहों की गुणवत्ता में कमी आई।
  2. चारे की मात्रा और गुणवत्ता में कमी का प्रभाव पशुओं के स्वास्थ्य एवं संख्या पर भी पड़ा।
  3. इससे चरागाह क्षेत्रों के कमी की समस्या उत्पन्न हो गई जिसके कारण चरवाहा समुदायों के सामने रोजी-रोटी का संकट उपस्थित हो गया।
  4. वनों को आरक्षित कर दिया गया जिसके कारण अब वे वनों में पहले की तरह आजादी से अपने पशुओं को नहीं चरा सकते थे।

प्रश्न 8.
बार-बार पड़ने वाले अकाल का मासाई समुदाय के चरागाहों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
अकाल किसी भी स्थान की फसलों, चरागाहों और जन-जीवन पर विनाशकारी प्रभाव डालता है। वर्षा न होने पर चरागाह सूख जाते हैं। ऐसी स्थिति में यदि चरवाहे स्थानान्तरण न करें तो भोजन के अभाव में जानवरों की मृत्यु निश्चित है। फिर भी औपनिवेशिक प्रशासन में मासाई (UPBoardSolutions.com) लोगों को प्रतिबंधित क्षेत्रों में रहने के लिए बाध्य किया गया। विशेष परमिट के बिना ये लोग इनकी सीमाओं के बाहर नहीं जा सकते थे।

1933 और 1934 ई0 में पड़े केवल दो साल के भयंकर सूखे में मासाई आरक्षित क्षेत्र के आधे से अधिक जानवर मर चुके थे। जैसे-जैसे चरने की जगह सिकुड़ती गई, सूखे के दुष्परिणाम भयानक रूप लेते चले गए। बार-बार आने वाले बुरे सालों की वजह से चरवाहों के जानवरों की संख्या में लगातार गिरावट आती गई।

प्रश्न 9.
औपनिवेशिक सरकार मासाई समुदाय में मुखिया की नियुक्ति क्यों करती थी?
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार ने विभिन्न मासाई समुदाय में मुखिया की नियुक्ति की। मुखिया कबीलों से सम्बन्धित मामलों को देखते थे। ये मुखिया धीरे-धीरे धन संचय करने लगे। उनके पास अपनी नियमित आमदनी थी जिससे वे जानवर, सामान और जमीन खरीद सकते थे। वे अपने गरीब पड़ोसियों को लगान चुकाने के लिए कर्ज देते थे। उनमें से अधिकतर मुखिया बाद में शहरों में जाकर बस गए और व्यापार करने लगे। अब वे युद्ध एवं अकाल की विभीषिका को झेल कर बचे रह सकते थे। उन्हें अब चरवाही एवं गैर-चरवाही दोनों तरह की आमदनी होती थी और अगर उनके जानवर किसी वजह से घट जाते तो वे
और जानवर खरीद सकते थे।

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प्रश्न 10.
कोंकण के स्थानीय किसान धंगर चरवाहों का स्वागत क्यों करते थे?
उत्तर:
कोंकण एक उपजाऊ क्षेत्र है और यहाँ पर्याप्त वर्षा होती है। यहाँ के किसान चावल की खेती करते हैं।
वे दो कारणों से धंगर चरवाहों का स्वागत करते हैं-

  1. धंगर के पशुओं का गोबर तथा मलमूत्र मिट्टी में मिल जाता है, जिससे भूमि पुनः उर्वरता प्राप्त कर लेती है। प्रसन्न होकर कोंकण के किसान धंगरों को चावल देते हैं जो वे वापस लौटते समय अपने साथ ले जाते हैं।
  2. जब धंगर कोंकण पहुँचते हैं तब तक खरीफ की फसल की कटाई हो चुकी होती है। तब किसानों को अपने खेत रबी की फसल के लिए तैयार करने होते हैं। (UPBoardSolutions.com) उनके खेतों में धान के इँठ अभी मिट्टी में फँसे होते हैं। धंगरों के पशु इन इँठों को खा जाते हैं और मिट्टी साफ हो जाती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अफ्रीका में चरवाही पर एक संक्षिप्त टिप्पणी दीजिए।
उत्तर:
विश्व की आधे से अधिक चरवाही जनसंख्या अफ्रीका में निवास करती है। आज भी अफ्रीका के लगभग सवा दो करोड़ लोग रोजी-रोटी के लिए किसी-न-किसी तरह की चरवाही गतिविधियों पर ही आश्रित हैं। इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना जैसे जाने-माने समुदाय भी शामिल हैं। इनमें से अधिकतर अब अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों या सूखे रेगिस्तानों में रहते हैं जहाँ वर्षा आधारित खेती करना बहुत कठिन है। यहाँ के चरवाहे गाय, बैल, ऊँट, बकरी, भेड़ व गधे पालते हैं। ये लोग दूध, मांस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं। कुछ चरवाहे व्यापार और यातायात संबंधी काम भी करते हैं। कुछ लोग आमदनी बढ़ाने के लिए (UPBoardSolutions.com) चरवाही के साथ-साथ खेती भी करते हैं। कुछ लोग चरवाही से होने वाली मामूली आय से गुजर नहीं हो पाने पर कोई भी धंधा कर लेते हैं। अफ्रीकी चरवाहों को जीवन औपनिवेशिक काल एवं उत्तर-औपनिवेशिक काल में बहुत अधिक बदल गया है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम सालों से ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार पूर्वी अफ्रीका में भी स्थानीय किसानों को अपनी खेती के क्षेत्रफल को अधिक से अधिक फैलाने के लिए प्रोत्साहित करने लगी। जैसे-जैसे खेती का प्रसार हुआ वैसे-वैसे चरागाह खेतों में तब्दील होने लगे। ये चरवाहों के लिए ढेरों कठिनाइयाँ लेकर आए। उनका जीवन बहुत कठिन बन गया।

प्रश्न 2.
मासाई समुदाय के सामाजिक जीवन का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
मासाई लोगों की वास्तविक संपत्ति इनके पशु होते हैं। प्रत्येक मासाई परिवार में बड़ी संख्या में पशु-पालन किया जाता है। पशुओं से दूध निकालने का कार्य महिलाएँ करती हैं। यह कार्य दिन निकलने से पहले और सूर्य डूबने से पहले किया जाता है। ये लोग प्रायः कच्चे दूध का ही उपयोग करते हैं। केवल रोगग्रस्त मासाई ही उबालकर दूध का उपयोग करते हैं। दूध को हिलाकर मक्खन बनाया जाता है किन्तु ये लोग पनीर बनाना नहीं जानते। मासाई लोग भेड़ पालन भी करते हैं। इनसे दूध, ऊन तथा मांस प्राप्त होता है। परंतु भेड़ों का (UPBoardSolutions.com) स्थान इनके सामाजिक जीवन में अधिक महत्त्व का नहीं है, भेड़ों के साथ कुछ बकरियाँ भी पाली जाती हैं। बकरियों से दूध और मांस दोनों प्राप्त होते हैं। अधिकांश परिवारों में कुछ गधे भी पाले जाते हैं, जिन पर बोझा ढोने का काम लिया जाता है। कुछ लोग इस कार्य के लिए ऊँट भी रखते हैं। कुत्तों का प्रयोग पशुओं की देखभाल के लिए किया जाता है।

मासाई समुदाय के सभी सदस्य पशुपालन का कार्य नहीं करते हैं। प्रायः 16 से 30 वर्ष के लोगों को युद्ध के लिए रखा जाता है। इनका कर्त्तव्य अपने दल के लोगों तथा पशुओं की रक्षा करना है। ये सिपाही बड़े आनंद से जीवन बिताते हैं। ये लोग तेज धार वाले बचें, लोहे की तलवार और हड्डी की बनी ढाल का प्रयोग करते हैं।

मासाई समाज की एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि समय-समय पर युवकों को योद्धाओं के दल में भेजा जाता है। ये उन लोगों का स्थान ग्रहण करते हैं जो प्रौढ़ हो जाते हैं और उन्हें शादी करके परिवार बसाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। युवकों को योद्धावर्ग में सम्मिलित होने से पूर्व (UPBoardSolutions.com) योद्धाओं के सब गुण अपनाने पड़ते हैं और बाद में उनका मुंडन-संस्कार होता है। प्रत्येक वर्ग को कुछ नाम दिया जाता है, जैसे-‘लुटेरा’, ‘सफेद तलवार’ इत्यादि। योद्धाओं का आयु के अनुसार वर्गीकरण किया जाता है। मासाई लोग सदा अपनी संपत्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं, जिसमें ये योद्धा बड़े सहायक होते हैं।
मासाई के जीवन की तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं-

  1. बालपन,
  2. योद्धापन और
  3. वृद्ध।

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प्रश्न 3.
भारत के पठारी क्षेत्र में रहने वाले धंगर चरवाहा समुदाय का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
धंनगर (धंगर) महाराष्ट्र का प्रमुख चरवाहा समुदाय है। ये लोग महाराष्ट्र के मध्य पठारी क्षेत्रों में रहते हैं। 20वीं सदी की शुरुआत में इनकी जनसंख्या 4,67,000 थी। इस समुदाय के अधिकांश लोग पशुचारण पर आश्रित हैं परंतु कुछ लोग कंबल और चादरें भी बनाते हैं। महाराष्ट्र का यह भाग कम वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण अर्द्धशुष्क प्रदेश है। यहाँ प्राकृतिक वनस्पति के रूप में काँदेदार झाड़ियाँ मिलती हैं जो पशुओं को चारा जुटाती हैं। अक्टूबर में यहाँ बाजरा की फसल काटने के उपरांत ये लोग पश्चिम में कोंकण क्षेत्र में पहुँच जाते थे। इस यात्रा में लगभग एक महीना लग जाता था। कोंकण एक उपजाऊ प्रदेश है और यहाँ वर्षा भी पर्याप्त होती है।

अतः यहाँ के किसान चावल की खेती करते थे। ये धंगर चरवाहों का स्वागत करते थे जिसके मुख्य कारण निम्नलिखित थे जिसे समय धंगर किसान कोंकण पहुँचते थे उस समय तक खरीफ (चावल) की फसल कट चुकी होती थी। अब किसानों को अपने खेत रबी की फसल के लिए तैयार करने (UPBoardSolutions.com) होते थे। उनके खेतों में धान के नँठ अभी मिट्टी में फँसे होते थे। धांगरों के पशु इन ढूंठों को खा जाते थे और मिट्टी साफ हो जाती थी। धंगरों के पशुओं का गोबर तथा मलमूत्र मिट्टी में मिल जाता था। अतः मिट्टी फिर से उर्वरता प्राप्त कर लेती थी। प्रसन्न होकर कोंकणी किसान धांगरों को चावल देते थे जो वे वापसी पर अपने साथ ले जाते थे।

प्रश्न 4.
भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले चरवाहा समुदाय का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक चरवाहा समुदाय रहते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख समुदायों का विवरण इस प्रकार है-
(1) गुज्जर समुदाय – मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी गुज्जर लोग गाय और भैंस पालते हैं। ये हिमालय के गिरीपद क्षेत्रों (भाबर क्षेत्र) में रहते हैं। ये लोग जंगलों के किनारे झोंपड़ीनुमा आवास बना कर रहते हैं। पशुओं को चराने का कार्य पूरुष करते हैं। पहले दूध, मक्खन और घी इत्यादि को स्थानीय बाजार में बेचने का कार्य महिलाएँ करती थीं परंतु अब ये इन उत्पादों को परिवहन के साधनों (टैंपो, मोटरसाइकिल आदि) की सहायता से निकटवर्ती शहरों में बेचते हैं। इस समुदाय के लोगों ने इस क्षेत्र में स्थायी रूप से बसना (UPBoardSolutions.com) आरंभ कर दिया है परंतु अभी भी अनेक परिवार गर्मियों में अपने पशुओं को लेकर ऊँचे पर्वतीय घास के मैदानों (बुग्याल) की ओर चले जाते हैं। इस समुदाय को स्थानीय नाम ‘वन गुज्जर’ के नाम से भी जाना जाता है। अब इस समुदाय ने पशुचारण के साथ-साथ स्थायी रूप से कृषि करना भी आरंभ कर दिया है। हिमाचल के अन्य प्रमुख चरवाहा समुदाय भोटिया, शेरपा तथा किन्नौरी हैं।

(2) गुज्जर बकरवाल – इन लोगों ने 19वीं शताब्दी में जम्मू-कश्मीर में बसना आरंभ कर दिया। ये लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े झुण्ड पालते हैं जिन्हें रेवड़ कहा जाता है। बकरवाल लोग अपने पशुओं के साथ मौसमी स्थानान्तरण करते हैं। सर्दियों के मौसम में यह अपने पशुओं को लेकर शिवालिक पहाड़ियों में चले आते हैं क्योंकि ऊँचे पर्वतीय मैदान इस मौसम में बर्फ से ढक जाते हैं इसलिए उनके पशुओं के लिए चारे का अभाव होने लगता है जबकि हिमालय के दक्षिण में स्थित शिवालिक पहाड़ियों में बर्फ न होने के कारण उनके पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा उपलब्ध हो जाता है। सर्दियों के समाप्त होने के साथ ही अप्रैल माह में यह समुदाय अपने काफिले को लेकर उत्तर की ओर चलना शुरू कर देते हैं।

पंजाब के दरों को पार करके जब ये समुदाय कश्मीर की घाटी में पहुँचते हैं तब तक गर्मी के कारण बर्फ पिघल चुकी होती है तथा चारों तरफ नई घास उगने लगती है। सितम्बर के महीने तक ये इस घाटी में ही डेरा डालते हैं और सितम्बर महीने के अंत में पुनः दक्षिण की ओर लौटने लगते हैं। (UPBoardSolutions.com) इस प्रकार यह समुदाय प्रति वर्ष दो बार स्थानांतरण करता है। हिमालय पर्वत में ये ग्रीष्मकालीन चरागाहें, 2,700 मीटर से लेकर 4,120 मीटर तक स्थित हैं।

(3) गद्दी समुदाय – हिमाचल प्रदेश के निवासी गद्दी समुदाय के लोग बकरवाल समुदाय की तरह अप्रैल और सितम्बर के महीने में ऋतु परिवर्तन के साथ अपना निवास स्थान परिवर्तित कर लेते हैं। सर्दियों में जब ऊँचे क्षेत्रों में बर्फ जम जाती है, तो ये अपने पशुओं के साथ शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आ जाते हैं। मार्ग में वे लाहौल और स्पीति में रुककर अपनी गर्मियों की फसल को काटते हैं तथा सर्दियों की फसल की बुवाई करते हैं। अप्रैल के अंत में वे पुनः लाहौल और स्पीति पहुँच जाते हैं और अपनी फसल काटते हैं। (UPBoardSolutions.com) इसी बीच बर्फ पिघलने लगती है और दरें साफ हो जाते हैं इसलिए गर्मियों में अपने पशुओं के साथ ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में पहुँच जाते हैं। गद्दी समुदाय में भी पशुओं के रूप में भेड़ तथा बकरियों को ही पाला जाता है।

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प्रश्न 5.
मासाई समुदाय को औपनिवेशिक शासन ने किस प्रकार प्रभावित किया?
उत्तर:
मासाई समुदाय के जीवन को औपनिवेशिक शासन ने निम्न प्रकार से प्रभावित किया-
(1) सामाजिक हस्तक्षेप – औपनिवेशिक शासन ने मासाई की सामाजिक संरचना को भी प्रभावित किया। उन्होंने कई मासाई उपसमूहों के मुखिया तय कर दिए तथा उनके कबीलों की समस्त जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। विभिन्न समुदायों के मध्य होने वाले युद्धों पर पाबंदी लगा दी गई जिसके कारण योद्धा वर्ग तथा वरिष्ठ जनों की परंपरागत सत्ता कमजोर हो गई। मासाई समाज धीरे-धीरे अमीर तथा गरीब में (UPBoardSolutions.com) बँटने लगा क्योंकि मुखिया की नियमित आमदनी के अनेक स्रोत थे परंतु साधारण चरवाहों की आय बहुत सीमित थी जिसके कारण उनके बीच का अंतर निरंतर बढ़ता गया।

(2) सीमाओं का निर्धारण – औपनिवेशिक शासन से पूर्व मासाई चरवाहों पर कोई क्षेत्रीय प्रतिबंध नहीं था। वे अपने रेवड़ के साथ भोजन तथा पानी की खोज में कहीं भी आ-जा सकते थे। परंतु अब सभी चरवाहा समुदायों को भी विशेष आरक्षित इलाकों की सीमाओं में कैद कर दिया गया। अब ये समुदाय इन आरक्षित इलाकों की सीमाओं के पार आ-जा नहीं सकते थे। वे विशेष पास लिए बिना अपने जानवरों को लेकर बाहर नहीं जा सकते थे। लेकिन परमिट (पास) हासिल करना भी कोई आसान काम नहीं था। इसके लिए उन्हें तरह-तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता था और उन्हें तंग किया जाता था। अगर कोई नियमों का पालन नहीं करता था तो उसे कड़ी सजा दी जाती थी।

(3) सूखा तथा अकाल की विषम स्थिति – औपनिवेशिक शासन से पूर्व कम वर्षा अथवा अकाल की स्थिति में चरवाहा समुदाय स्थान परिवर्तन के द्वारा इस प्राकृतिक आपदा का सामना सफलतापूर्वक कर लेते थे परंतु चरागाह समुदायों की सीमाओं का निर्धारण हो जाने के पश्चात् सूखे की आशंका सदा बनी रहती थी।

(4) शिकार के लिए चराई क्षेत्र को आरक्षण – मासाइयों के विशाल चराई क्षेत्र पर औपनिवेशिक शासकों ने पशुओं के शिकार के लिए पार्क बना दिए। इन पार्को में कीनिया के मासाई मारा तथा सांबू नेशनल पार्क तथा तंजानिया का सेरेंगेटी नेशनल पार्क के नाम लिए जा सकते हैं। सेरेंगेटी नेशनल पार्क 14,760 किमी से भी अधिक क्षेत्र पर बनाया गया था। मासाई लोग इन पार्को में न तो पशु चरा (UPBoardSolutions.com) सकते थे और न ही शिकार कर सकते थे।
अच्छे चराई क्षेत्रों के छिन जाने तथा जल संसाधनों के अभाव से शेष बचे चराई क्षेत्र की गुणवत्ता पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। चारे की आपूर्ति में भारी कमी आई। फलस्वरूप पशुओं के लिए आहार जुटाने की समस्या गंभीर हो गई।

(5) चरागाहों का कम होना – औपनिवेशिक शासन से पहले मासाई लैंड का इलाका उत्तरी कीनिया से लेकर तंजानिया के घास के मैदानों (स्टेपीज) तक फैला हुआ था। उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों ने अफ्रीका में कब्जे के लिए मारकाट शुरू कर दी और बहुत सारे इलाकों को छोटे-छोटे उपनिवेशों में तब्दील करके अपने-अपने कब्जे में ले लिया।

1885 ई० में ब्रिटिश, कीनिया और जर्मन के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय टंगानयिका सीमा खींचकर मासाई लैंड के दो बराबरबराबर टुकड़े कर दिए गए। बाद के सालों में सरकार ने गोरों को बसाने के लिए बेहतरीन चरागाहों को अपने कब्जे में ले लिया। मासाईयों को दक्षिणी कीनिया और उत्तरी तंजानिया के छोटे से इलाके में समेट दिया गया। औपनिवेशिक शासन से पहले मासाईयों के पास जितनी (UPBoardSolutions.com) जमीन थी उसका लगभग 60 फीसदी हिस्सा उनसे छीन लिया गया। उन्हें ऐसे सूखे इलाकों में कैद कर दिया गया जहाँ न तो अच्छी बारिश होती थी और न ही हरे-भरे चरागाह थे।

(6) कृषि क्षेत्रों का विस्तार – ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने पूर्वी अफ्रीका में स्थानीय किसानों को कृषि क्षेत्र का विस्तार करने के लिए प्रेरित किया। कृषि क्षेत्र बढ़ाने के लिए चरागाहों को कृषि-खेतों में बदला गया जिसके कारण चरागाह क्षेत्र बहुत तेजी से कम होने लगे।

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UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 5 स्मृति (गद्य खंड)

UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 5 स्मृति (गद्य खंड)

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( विस्तृत उत्तरीय प्रश्न )

प्रश्न 1. निम्नांकित गद्यांशों में रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या और तथ्यपरक प्रश्नों के उत्तर दीजिये –
(1) 
जाड़े के दिन थे ही, तिस पर हवा के प्रकोप से कँपकँपी लग रही थी। हवा मज्जा तक ठिठुरा रही थी, इसलिए हमने कानों को धोती से बाँधा। माँ ने भेंजाने के लिए थोड़े-से चने एक धोती में बाँध दिये। हम दोनों भाई अपना-अपना डण्डा लेकर घर से निकल पड़े। उस समय उस बबूल के डण्डे से जितना मोह था, उतना इस उम्र में रायफल से नहीं। मेरा डण्डा अनेक साँपों के लिए नारायण-वाहन हो चुका था। मक्खनपुर (UPBoardSolutions.com) के स्कूल और गाँव के बीच पड़नेवाले आम के पेड़ों से प्रतिवर्ष उससे आम झूरे जाते थे। इस कारण वह मूक डण्डा सजीव-सा प्रतीत होता था। प्रसन्नवदन हम दोनों मक्खनपुर की ओर तेजी से बढ़ने लगे। चिट्ठियों को मैंने टोपी में रख लिया, क्योंकि कुर्ते में जेबें न थीं।
प्रश्न
(1) प्रस्तुत गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(2) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(3) लेखक ने चिट्ठियों को कहाँ रख लिया था?
(4) लेखक ने चिट्ठियों को टोपी में क्यों रख लिया?
(5) लेखक ने डण्डे की तुलना किससे की है?

उत्तर-

  1. सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ में संकलित एवं श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित ‘स्मृति’ नामक निबन्ध से उधृत है। प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने अपनी बाल्यावस्था का सजीव चित्रण करते हुए बचपन की छोटी-छोटी बारीकियों को स्पष्ट किया है।
  2. रेखांकित अंशों की व्याख्या- लेखक शीतऋतु का वर्णन करते हुए कहता है कि “जाड़े का दिन था। हाड़ कॅपा देने वाली ठण्ड थी। इसलिए हमने कानों को धोती से बाँध लिया। माँ ने चना भैजाने के लिए उसे एक धोती में बाँध कर मुझे दिया। मैं और छोटा भाई डण्डा लेकर घर से चल पड़े। उस समय उस बबूल के डण्डे से जितना लगाव था उतना आज एक रायफल से नहीं है। मैं उस (UPBoardSolutions.com) डण्डे से अनेक साँपों को मार चुका था। प्रतिवर्ष इसी डण्डे से आम के टिकोरे तोड़े जाते थे। इसीलिए वह डण्डी मुझे अत्यन्त प्रिय था। हम दोनों भाई मक्खनपुरे की ओर आगे बढ़े। कुर्ते में जेब न होने के कारण चिट्ठियों को मैंने टोपी में रख लिया था।”
  3. लेखक ने चिट्ठियों को अपनी टोपी में रख लिया था। “
  4. लेखक के कुर्ते में जेबें न थीं, इसलिए उसने चिट्ठियों को टोपी में रख लिया।
  5. लेखक ने डण्डे की तुलना गरुण से की है।

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(2) साँप से फुसकार करवा लेना मैं उस समय बड़ा काम समझता था। इसलिए जैसे ही हम दोनों उस कुएँ की ओर से निकले, कुएँ में ढेला फेंककर फुसकार सुनने की प्रवृत्ति जागृत हो गयी। मैं कुएँ की ओर बढ़ा। छोटा भाई मेरे पीछे हो लिया, जैसे बड़े मृगशावक के पीछे छोटा मृगशावक हो लेता है। कुएँ के किनारे से एक ढेला उठाया और उझककर एक हाथ से टोपी उतारते हुए साँप पर ढेलो गिरा दिया, पर मुझ पर तो बिजली-सी गिर पड़ी।
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
(2) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(3) लेखक को कब लगा कि उस पर बिजली सी गिर पड़ी?

उत्तर-

  1. सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ में संकलित एवं श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित ‘स्मृति’ नामक निबन्ध से उद्धृत है। इन पंक्तियों में लेखक ने अपने बचपन की एक घटना का वर्णन किया है। स्कूल जाते समय एक कुआँ पड़ता, जो सूख गया है। पता नहीं एक काला साँप उसमें कैसे गिर पड़ा था। स्कूल जाते समय बच्चे उसकी फुसकार सुनने के लिए पत्थर मारते थे।
  2. रेखांकित अंशों की व्याख्या- लेखक कहता है कि ”मैं बचपन में साँप से फुसकार करवा लेना महान् कार्य समझता था। मैं और छोटा भाई जब कुएँ की तरफ से गुजरे तो फुसकार सुनने की इच्छा बलवती हुई । मैं कुएँ की तरफ बढ़ा और छोटा भाई मेरे पीछे हो गया। कुएँ के किनारे से मैंने एक ढेला उठाया और एक हाथ से टोपी उतारते हुए साँप पर प्रहार किया, लेकिन मैं एक अजीब संकट (UPBoardSolutions.com) में फँस गया। टोपी उतारते हुए मेरी तीनों चिट्ठियाँ कुएँ में गिर पड़ीं। साँप ने फुसकारा था या नहीं मुझे आज भी ठीक से याद नहीं है। मेरी स्थिति उस समय वही हो गयी थी जैसे घास चरते हुए हिरन की आत्मा गोली लगने पर निकल जाती है और वह तड़पता रहता है। चिट्ठियों के कुएँ में गिरने से मेरी भी स्थिति हिरन जैसी हो गयी थी।”
  3. लेखक को टोपी उतारते हुए तीन चिट्ठियाँ कुएँ में गिर पड़ीं। उस समय लेखक पर बिजली-सी गिर पड़ी।

(3) साँप को चक्षुःश्रवा कहते हैं। मैं स्वयं चक्षुःश्रवा हो रहा था। अन्य इन्द्रियों ने मानो सहानुभूति से अपनी शक्ति आँखों को दे दी हो। साँप के फन की ओर मेरी आँखें लगी हुई थीं कि वह कब किस ओर को आक्रमण करता है, साँप ने मोहनीसी डाल दी थी । शायद वह मेरे आक्रमण की प्रतीक्षा में था, पर जिस विचार और आशा को लेकर मैंने कुएँ में घुसने की ठानी थी, वह तो आकाश-कुसुम था । मनुष्य का अनुमान और भावी योजनाएँ कभी-कभी कितनी मिथ्या और उल्टी निकलती हैं। मुझे साँप का साक्षात् होते ही (UPBoardSolutions.com) अपनी योजना और आशा की असम्भवता प्रतीत हो गयी। डण्डा चलाने के लिए स्थान ही न था। लाठी या डण्डा चलाने के लिए काफी स्थान चाहिए, जिसमें वे घुमाये जा सकें। साँप को डण्डे से दबाया जा सकता था, पर ऐसा करना मानो तोप के मुहरे पर खड़ा होना था।
प्रश्न
(1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए। |
(2) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(3) चक्षुःश्रवा के नाम से कौन-सा जीव जाना जाता है?

उत्तर-

  1. सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यावतरण पं० श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित ‘स्मृति’ नामक संस्मरणात्मक निबन्ध से अवतरित है। प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने कुएँ से पत्र निकालने की योजना का वर्णन किया है।
  2. रेखांकित अंशों की व्याख्या- लेखक का कहना है कि “साँप एक ऐसा जीव है जिसे चक्षुःश्रवा के नाम से जाना जाता है। वहाँ मैं स्वयं चक्षुःश्रवा हो रहा था। मुझे कुएँ में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अन्य इन्द्रियों ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति नेत्रों को दे दी है। मेरी आँखें साँप के फन पर थीं कि साँप किस तरफ से आक्रमण कर सकता है। इसलिए मैं बिल्कुल चौकन्ना था। उधुर साँप भी मेरे आक्रमण की प्रतीक्षा में था। मैंने जिस संकल्प के साथ कुएँ में प्रवेश किया था, लगता था संकल्प अधूरा ही रह जायेगा। (UPBoardSolutions.com) साँप से सामना होते ही मेरी योजना एवं आशा असम्भव-सी प्रतीत होने लगी। लाठी-डण्डा चलाने के लिए पर्याप्त स्थान चाहिए। कुएँ में डण्डा चलाने के लिए स्थान बहुत कम था, वहाँ केवल साँप को डण्डे से दबाया जा सकता था, लेकिन ऐसा करना तोप के आगे खड़ा होना था।”
  3. चक्षुःश्रवा के नाम से साँप को जाना जाता है। माना जाता है कि सर्प कर्णविहीन होने के कारण आँख से सुनता भी है।

प्रश्न 2. श्रीराम शर्मा का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।

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प्रश्न 3. श्रीराम शर्मा की साहित्यिक विशेषताओं को बताते हुए उनकी भाषा-शैली भी स्पष्ट कीजिए।

प्रश्न 4. श्रीराम शर्मा के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा श्रीराम शर्मा को साहित्यिक परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।

श्रीराम शर्मा
( स्मरणीय तथ्य )

जन्म-सन् 1892 ई० (1949 वि०)। मृत्यु-सन् 1967 ई० । जन्म-स्थान-किरथरा (मैनपुरी) उ० प्र० । शिक्षा-बी० ए० ।
साहित्य सेवा – सम्पादक (विशाल भारत), आत्मकथा लेखक, संस्मरण तथा शिकार साहित्य के लेखक।
भाषा – सरल, प्रवाहपूर्ण, सशक्त, उर्दू एवं ग्रामीण शब्दों का प्रयोग विषयानुकूल।
शैली – वर्णनात्मक रोचक शैली।
रचनाएँ – सन् बयालीस के संस्मरण, सेवाग्राम की डायरी, शिकार साहित्य, प्राणों का सौदा, बोलती प्रतिमा, जंगल के जीव। |

  • जीवन-परिचय- हिन्दी में शिकार साहित्य के प्रणेता पं० श्रीराम शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में 23 मार्च, सन् 1892 ई० को हुआ था। प्रयाग विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् ये पत्रकारिता के क्षेत्र में उतर आये। आपने ‘विशाल भारत’ नामक पत्र का (UPBoardSolutions.com) सम्पादन बहुत दिनों तक किया। इनका जीवन के प्रति दृष्टिकोण मुख्यतः राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत है। आपने राष्ट्रीय आन्दोलनों में बराबर भाग लिया है जिसकी सजीव झाँकियाँ आपकी रचनाओं में परिलक्षित होती हैं। आपकी मृत्यु एक लम्बी बीमारी के पश्चात् सन् 1967 ई० में हो गयी।
  • कृतियाँ –
    • संस्मरण-साहित्य- सेवाग्राम की डायरी’ और ‘सन् बयालीस के संस्मरण’ में इन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन और उस समय के समाज की झाँकी प्रस्तुत की है।
    • शिकार साहित्य- ‘जंगल के जीव’, ‘प्राणों का सौदा’, ‘बोलती प्रतिमा’, ‘शिकार’ में आपका शिकार-साहित्य संगृहीत है। इन सभी रचनाओं में रोमांचकारी घटनाओं का सजीव वर्णन हुआ है । इन कृतियों में घटना-विस्तार के साथसाथ पशुओं के मनोविज्ञान का भी सम्यक् परिचय दिया गया है।
    • जीवनी-‘नेताजी’ और ‘गंगा मैया ।’ । इन कृतियों के अतिरिक्त शर्मा जी के फुटकर लेख अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे।
    • साहित्यिक परिचय– शर्मा जी हिन्दी में शिकार साहित्य प्रस्तुत करने में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। इनके शिकार साहित्य में घटना विस्तार के साथ-साथ पशु-मनोविज्ञान को सम्यक् परिचय भी मिलता है। शिकार साहित्य के अतिरिक्त शर्मा जी ने ज्ञानवर्द्धक एवं विचारोत्तेजक लेख भी लिखे हैं जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में तथा संस्मरणात्मक निबन्धों और शिकार सम्बन्धी कहानियों को लिखने (UPBoardSolutions.com) में शर्मा जी का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिकार साहित्य को हिन्दी में प्रस्तुत करनेवाले शर्मा जी पहले साहित्यकार हैं।
    • भाषा-शैली- शर्मा जी की भाषा स्पष्ट और प्रवाहपूर्ण है। भाषा की दृष्टि से ये प्रेमचन्द के अत्यन्त निकट माने जा सकते हैं, यद्यपि ये छायावादी युग के विशिष्ट साहित्यकार रहे हैं। आपकी भाषा में संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों के साथ-साथ लोकभाषा के शब्दों के प्रयोग से भाषा अत्यन्त सजीव एवं सम्प्रेषणीयता के गुण से सम्पन्न हो गयी है।
      इनकी शैली स्पष्ट एवं वर्णनात्मक है जिसमें स्थान-स्थान पर स्थितियों का विवेचन मार्मिक और संवेदनशील होता है। शर्मा जी की शिकार सम्बन्धी, संस्मरणात्मक कहानियों और निबन्धों में शैलीगत विशेषता है जो रोमांच और कौतूहल आद्योपान्त बनाये रखती है।

( लघु उत्तरीय प्रश्न )

प्रश्न 1. ‘स्मृति’ निबन्ध के आधार पर बाल-सुलभ वृत्तियों को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर- बालमन अत्यन्त चंचल होता है। बाल्यावस्था में अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता है। बाल्यावस्था में कभी-कभी बड़े साहसिक कार्य सम्पन्न हो जाते हैं।

प्रश्न 2. लेखक ने अपने डण्डे के विषय में क्या कहा है? |
उत्तर- लेखक ने अपने डण्डे के विषय में कहा है कि उस उम्र में बबूल के डण्डे से जितना मोह था, उतना इस उम्र में रायफल से नहीं।

प्रश्न 3. लेखक के कुएँ में साँप से संघर्ष के समय उसके छोटे भाई की मनोदशा कैसी थी? |
उत्तर- लेखक ने कहा है कि ”जब मैं कुएँ के नीचे जा रहा था तो छोटा भाई रो रहा था। मैंने उसे ढाँढस दिलाया कि मैं कुएँ में पहुँचते ही साँप को मार दूंगा।”

प्रश्न 4. लेखक की तीन साहित्यिक विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर- लेखक की भाषा सहज, प्रवाहपूर्ण एवं प्रभावशाली है। भाषा की दृष्टि से इन्होंने प्रेमचन्द जी के समान ही प्रयोग किये हैं। इन्होंने अपनी भाषा को सरल एवं सुबोध बनाने के लिए संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों के साथ-साथ लोकभाषा के शब्दों का प्रयोग किया है।

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प्रश्न 5. ‘स्मृति ‘ पाठ से आपने क्या समझा? अपने शब्दों में लिखिए। |
उत्तर- ‘स्मृति’ पाठ से यह बात उभरकर सामने आती है कि बच्चे अत्यन्त साहसी होते हैं। उन्हें मृत्यु का भय नहीं होता है। इस उम्र में वे बड़े-बड़े साहसिक कार्य कर बैठते हैं।

प्रश्न 6. ‘स्मृति’ पाठ से दस सुन्दर वाक्य लिखिए।
उत्तर- सन् 1908 ई० की बात है। जाड़े के दिन थे। हवा के प्रकोप से कँपकँपी लग रही थी। हवा मज्जा तक ठिठुरा रही थी। हम दोनों उछलते-कूदते एक ही साँस में गाँव से चार फर्लाग दूर उस कुएँ के पास आ गये । कुआँ कच्चा था और चौबीस हाथ गहरा था। कुएँ की पाट पर बैठे (UPBoardSolutions.com) हम रो रहे थे। दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियाँ कट जाती हैं। छोटा भाई रोता था और उसके रोने का तात्पर्य था कि मेरी मौत मुझे नीचे बुला रही है। छोटे भाई की आशंका बेजा थी, पर उस फैं और धमाके से मेरा साहस कुछ और बढ़ गया।

प्रश्न 7. चिट्ठियों को कुएँ में गिरता देख लेखक की क्या मनोदशा हुई? |
उत्तर- चिट्ठियों को कुएँ में गिरता देख लेखक की मनोदशा उसी प्रकार हुई जैसे घास चरते हुए हिरन की आत्मा गोली से हत होने पर निकल जाती है और वह तड़पता रह जाता है।

प्रश्न 8. ‘वह कुएँ वाली घटना किसी से न कहे।’ लेखक ने अपने साथी लड़के से क्यों कहा?
उत्तर- ‘वह कुएँ वाली घटना किसी से न कहे।’ ऐसा लेखक ने अपने साथी लड़के से घरवालों के भय से कहा था।

प्रश्न 9. कुएँ में साहसपूर्वक उतरकर चिट्ठियों को निकाल लाने के कार्य का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर- लेखक पाँच धोतियाँ जोड़कर कुएँ के नीचे उतरा। नीचे कच्चे कुएँ का व्यास बहुत कम था, अत: साँप को डण्डे से मारना आसान नहीं थी। लेखक का कहना है कि डण्डे के मेरी ओर खिंच आने से मेरे और साँप के आसन बदल गये। मैंने तुरन्त ही लिफाफे और पोस्टकार्ड चुन लिये।

प्रश्न 10. लेखक और साँप के बीच संघर्ष के विषय में लिखिए।
उत्तर- जब लेखक चिट्ठियाँ लेने कुएँ में उतरा तो साँप ने वार किया और डण्डे से चिपट गया। डण्डा हाथ से छूटा तो नहीं, पर झिझक, सहम अथवा आतंक से अपनी ओर खिंच गया और गुंजल्क मारता हुआ साँप का पिछला भाग मेरे हाथों से छू गया। डण्डे को मैंने एक ओर पटक दिया । यदि (UPBoardSolutions.com) कहीं उसका दूसरा वार पहले होता, तो उछलकर मैं साँप पर गिरता और न बचता। डण्डे के मेरी ओर खिंच आने से मेरे और साँप के आसन बदल गये। मैंने तुरन्त ही लिफाफे और पोस्टकार्ड चुन लिये।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. श्रीराम शर्मा किस युग के लेखक थे?
उत्तर- श्रीराम शर्मा शुक्ल एवं शुक्लोत्तर युग के लेखक थे।

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प्रश्न 2. श्रीराम शर्मा ने किस पत्रिका का सम्पादन किया था?
उत्तर- श्रीराम शर्मा ने ‘विशाल भारत’ का सम्पादन किया था।

प्रश्न 3. ‘स्मृति’ लेख किस शैली में लिखा गया है?
उत्तर- ‘स्मृति’ लेख वर्णनात्मक शैली में लिखा गया है।

प्रश्न 4. चिट्ठी किसने लिखी थी?
उत्तर- चिट्ठी श्रीराम शर्मा के बड़े भाई ने लिखी थी।

प्रश्न 5. निम्नलिखित में से सही वाक्य के सम्मुख सही (√) का चिह्न लगाओ
(अ) साँप को चक्षुःश्रवा कहते हैं।                             (√)
(ब) ‘स्मृति’ लेख ‘शिकार’ पुस्तक से लिया गया है।    (√)
(स) कुआँ पक्का और दस हाथ गहरा था।                (×)
(द) ‘स्मृति’ में सन् 1928 की बात है।                        (×)

व्याकरण-बोध

प्रश्न 1. निम्नलिखित समस्त पदों का समास-विग्रह कीजिए तथा समास का नाम बताइए –
विषधर, चक्षुःश्रवा, प्रसन्नवदन, मृग-समूह, वानर-टोली।
उत्तर-
विषधर        –   विष को धारण करनेवाला (सर्प) – बहुब्रीहि समास
चक्षुःश्रवा     –   आँखों से सुननेवाला                    –   बहुब्रीहि समास
प्रसन्नवदन   –   प्रसन्न वदन वाला                       –    कर्मधारय समास
मृग-समूह    –   मृगों का समूह                          –    सम्बन्ध तत्पुरुष
वानर-टोली  –   वानरों की टोली                         –   सम्बन्ध तत्पुरुष

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प्रश्न 2. निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ बताते हुए वाक्य-प्रयोग कीजिए –
बेड़ियाँ कट जाना, बेहाल होना, आँखें चार होना, तोप के मुहरे पर खड़ा होना, टूट पड़ना, मोरचे पड़ना।
उत्तर-

  • बेड़ियाँ कट जाना- (मुक्त हो जाना)
    दासता की बेड़ियाँ कट जाने से देश आजाद हो गया।
  • बेहाल होना- (व्याकुल होना)
    राम के वन चले जाने पर दशरथ जी बेहाल हो गये।
  • आँखें चार होना- (प्रेम होना)
    आँखें चार होने पर प्रेम होता है।
  • तोप के मुहरे पर खड़ा होना- (मुकाबले पर डटना)
    हमारे देश के नौजवान तोप के मुहरे पर खड़े होने के लिए तैयार रहते हैं।
  • टूट पड़ना- (धावा बोल देना)
    हमारे देश के नौजवान जब पाकिस्तानी सेना पर टूट पड़े तो उसके छक्के छूट गये।
  • मोरचे पड़ना- (मुकाबला होना)
    कारगिल युद्ध में भारतीय सेना को पाकिस्तानी सेना से मोरचे पड़ गये।

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 (Section 4)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 भारत का विदेशी व्यापार (अनुभाग – चार)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 भारत का विदेशी व्यापार (अनुभाग – चार)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
भारत में निर्यात व्यापार की तीन विशेषताएँ बताइट। [2012]
उत्तर :
भारत के विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताएँ भारत के विदेशी व्यापार की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. अधिकांश भारतीय विदेशी व्यापार (लगभग 90%) समुद्री मार्गों द्वारा किया जाता है। हिमालय पर्वतीय अवरोध के कारण समीपवर्ती देशों एवं भारत के मध्य धरातलीय आवागमन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसी कारण देश का अधिकांश व्यापारे पत्तनों द्वारा अर्थात् समुद्री मार्गों द्वारा ही किया जाता है।

2. भारत का निर्यात व्यापार 27% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 20% उत्तरी अमेरिकी देशों, 51% एशियाई एवं ऑस्ट्रेलियाई देशों तथा 20% अफ्रीकी एवं दक्षिणी अमेरिकी देशों से किया जाता है। कुल निर्यात व्यापार का 61.1% भाग विकसित देशों (UPBoardSolutions.com) (सं० रा० अमेरिका 17.4%, जापान 7.2%, जर्मनी 6.8% एवं ब्रिटेन 5.8%) को किया जाता है। इसी प्रकार आयात व्यापार 26% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 39% एशियाई एवं ऑस्ट्रेलियाई देशों, 13% उत्तरी अमेरिकी देशों तथा 7% अफ्रीकी देशों से किया जाता है।

3. यद्यपि भारत में विश्व की लगभग 17% जनसंख्या निवास करती है, परन्तु विश्व व्यापार में भारत का भाग 0.5% से भी कम है, जबकि अन्य विकसित एवं विकासशील देशों का भाग इससे कहीं अधिक है। इस प्रकार देश के प्रति व्यक्ति विदेशी व्यापार का औसत अन्य देशों से बहुत कम है।

4. भारत के विदेशी व्यापार का भुगतान सन्तुलन स्वतन्त्रता के बाद से ही हमारे पक्ष में नहीं रहा है। सन् 1960-61 ई० का तथा 1970-71 ई० में भुगतान सन्तुलन हमारे पक्ष में रहा है। सन् 1980-81 ई० में घाटा ₹ 5,838 करोड़ था, 1990-91 ई० में यह घाटा ₹ 10,635 करोड़ तक पहुँच गया। वर्ष 1999-2000 में व्यापार घाटा १ 55,675 करोड़ हो गया। परन्तु 2000-2001 ई० में इस घाटे में कुछ गिरावट आई और यह घटकर ₹ 27,302 करोड़ हो गया है। तत्पश्चात् पुन: इस घाटे में वृद्धि होनी शुरू हो गयी। वर्ष 2005-06 के आँकड़ों के मुताबिक इस घाटे के ₹ 1,75,727 करोड़ होने का ” अनुमान है। वर्ष 2006-07 में विदेशी व्यापार में घाटा 56 अरब डॉलर से अधिक का रहा। 2011-12 में व्यापार घाटा बढ़कर 8,85,492 करोड़ हो गया। अमेरिकी डॉलर के हिसाब से 184.5 बिलियन डॉलर का हो गया। घाटे में वृद्धि का प्रमुख कारण आयात में भारी वृद्धि का होना है। आयात में भारी वृद्धि पेट्रोलियम पदार्थों के आयात के कारण हुई है।

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5. देश का अधिकांश विदेशी व्यापार लगभग 35 देशों के मध्य होता है, जो विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है।

6. विगत दो दशकों में भारत के आयातों की प्रकृति में भारी परिवर्तन हुए हैं। पहले भारत निर्मित माल का अधिक आयात करता था, किन्तु अब खाद्य तेल, पेट्रोलियम तथा उसके उत्पाद, स्नेहक पदार्थ, उर्वरक, कच्चे माल तथा पूँजीगत वस्तुओं का भी आयात करने लगा है।

7. निर्यातों की प्रकृति में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। पहले भारत के निर्यात पदार्थों में कृषि तथा खनन-आधारित कच्चे मालों की प्रधानता थी, अब भारत सूती वस्त्र, सिले-सिलाये वस्त्र, जूट का ग़मान, चमड़ा निर्मित सामान, अभ्रक, मैंगनीज, लौह-अयस्क, मशीनरी, साइकिल, पंखे, फर्नीचर, रेल के इंजन तथा उपकरण, सीमेण्ट, हौजरी, हस्त निर्मित वस्तुएँ, रत्न-जवाहरात, आभूषण आदि का निर्यात करता है।

8. 31 अगस्त, 2004 ई० में भारत ने नई निर्यात नीति लागू कर दी है। इस नीति के तहत निर्यात क्षेत्र को सेवा कर से मुक्त कर दिया गया है तथा लघुत्तर व कुटीर उद्योगों हेतु निर्यात संवर्द्धन पूँजीगत सामान योजना के तहत निर्यात दायित्व पूरा करने की (UPBoardSolutions.com) समय सीमा को आठ वर्षों की बजाय 12 वर्ष किया गया है।

प्रश्न 2.
भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार के महत्त्व तथा भारतीय निर्यातों और आयातों की दिशा पर प्रकाश डालिए। [2017]
या
भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार के महत्त्व पर एक नोट लिखिए।
या
भारत के विदेशी व्यापार की दिशा लिखिए। किसी देश के लिए विदेशी व्यापार का महत्त्व समझाइए। [2010]
या
भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्यात व्यापार के तीन महत्त्व लिखिए। [2013]
उत्तर :

भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का महत्त्व

किसी भी देश का विदेशी व्यापार उसके आर्थिक विकास का दर्पण होता है। विदेशी व्यापार के दो घटक होते हैं –

  1. आयात तथा
  2. निर्यात। विदेशी व्यापार से प्रत्येक देश लाभान्वित होता है।

निम्नलिखित तथ्यों से भारत के विदेशी व्यापार का महत्त्व स्पष्ट होता है –

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1. प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण उपयोग – एक देश ऐसे उद्योगों की स्थापना एवं संचालन करता है, जिनसे उसे अधिकतम तुलनात्मक लाभ प्राप्त होता है और वह उस बाजार (देश) में अपनी उत्पादित वस्तुओं को बेचता है, जहाँ उसे वस्तुओं का सर्वाधिक मूल्य मिलता है। फलत: वह उपलब्ध प्राकृतिक ‘ संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करता है।

2. औद्योगीकरण को प्रोत्साहन – विदेशी व्यापार के माध्यम से देश में (UPBoardSolutions.com) उद्योग-धन्धों को विकसित करने के लिए आवश्यक उपकरण, कच्चा माल व तकनीकी ज्ञान सरलता से उपलब्ध हो जाते हैं। फलतः देश में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता है।

3. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सद्भावना में वृद्धि – विदेशी व्यापार के फलस्वरूप विभिन्न देशों के नागरिक एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में आते हैं और एक-दूसरे के विचारों एवं दृष्टिकोणों से परिचित होते हैं। फलस्वरूप सांस्कृतिक सहयोग एवं परस्पर विश्वास में वृद्धि होती है।

4. सस्ती वस्तुओं की उपलब्धि – विदेशी व्यापार के फलस्वरूप विदेशों से सस्ती एवं उत्तम वस्तुएँ उपलब्ध होने लगती हैं। इन वस्तुओं के उपभोग से लोगों के जीवन-स्तर एवं आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती है।

5. भौगोलिक श्रम-विभाजन – विदेशी व्यापार के स्वतन्त्र होने पर प्रत्येक देश उन वस्तुओं का उत्पादन करता है, जिनसे उसे सर्वाधिक प्राकृतिक लाभ प्राप्त होता है अथवा जिनकी उत्पादन-लागत न्यूनतम होती है। इस प्रकार विदेशी व्यापार की क्रियाएँ भौगोलिक श्रम-विभाजन को सम्भव बनाती हैं।

6. उपभोक्ताओं को लाभ – उत्पादन अनुकूलतम परिस्थितियों में होने के कारण वस्तु की उत्पादन लागत कम हो जाती है, जिससे उपभोक्ताओं को उत्तम वस्तुएँ कम कीमत पर देश में ही उपलब्ध हो जाती हैं। इससे उनके जीवन-स्तर में वृद्धि होती है।

7. उत्पादन व तकनीकी क्षमता में सुधार – विदेशी व्यापार के कारण देश के उद्योगपतियों को सदैव विदेशी प्रतियोगिता का भय बना रहता है। वे जानते हैं कि यदि वे उच्चकोटि का उत्पादन कम लागत पर न कर सके तो उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की माँग कम हो जाएगी। अतः वे अपनी कार्यकुशलता एवं उत्पादन तकनीकी में सुधार करते रहते हैं।

8. एकाधिकारी प्रवृत्ति पर अंकुश – विदेशी प्रतियोगिता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में एकाधिकारी प्रवृत्ति पर अंकुश लगा रहता है, जिससे उपभोक्ता की एकाधिकारात्मक शोषण से रक्षा होती है।

9. कच्चे माल की उपलब्धि – विदेशी व्यापार के कारण विभिन्न देशों को आवश्यक कच्चा माल सरलता से उपलब्ध हो जाता है, जिससे देश के औद्योगीकरण को प्रोत्साहन मिलता है।

10. मूल्य-स्तर में समानता की प्रवृत्ति – विदेशी व्यापार के कारण विश्व के प्राय: सभी देशों में वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में समानता की प्रवृत्ति पायी जाती है।

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11. विदेशी विनिमय की उपलब्धि – विदेशी व्यापार विदेशी विनिमय को अर्जित करने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है।

12. आय की प्राप्ति – विदेशी व्यापार के कारण सरकार को भारी मात्रा में आयात व निर्यात कर लगाकर आय की प्राप्ति होती है।

भारत के विदेशी व्यापार (आयात-निर्यात) की दिशा

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के विदेशी व्यापार के स्वरूप में निम्नलिखित परिवर्तन हुए हैं –

  1. भारत का विदेशी व्यापार कॉमनवेल्थ देशों तक सीमित न रहकर विश्वव्यापी हो गया है।
  2. स्वतन्त्रता के पूर्व भारत कच्चे पदार्थों (कृषि तथा खनिजों) का (UPBoardSolutions.com) निर्यातक देश था, किन्तु स्वतन्त्रता के बाद उसके निर्यातों में तैयार माल सम्मिलित हुए तथा उनमें विविधता आ गयी।
  3. स्वतन्त्रता के पूर्व भारत में पर्याप्त अन्नोत्पादन होता था, किन्तु देश के विभाजन के बाद गेहूँ तथा चावल के बड़े उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान में चले जाने से भारत को अन्न का आयात करना पड़ा।
  4. खाद्य एवं कृषिगत पदार्थ भारत के परम्परागत निर्यात पदार्थ रहे हैं, किन्तु अब भारत मशीनरी, सूती वस्त्र, सिले-सिलाये वस्त्र, हस्तनिर्मित वस्तुओं आदि का भी निर्यात करने लगा है।

भारतीय निर्यातों का आधे से अधिक भाग पश्चिमी यूरोप के विकसित देशों, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जापान को, लगभग एक-तिहाई भाग पूर्वी यूरोप तथा अन्य विकासशील देशों को और केवल एक छोटा-सा भाग मध्य-पूर्व के तेल उत्पादक देशों को जाता है। भारत के निर्यातों में रूस और जापान का महत्त्व बढ़ा है तथा ब्रिटेन का एकाधिकार समाप्त हो गया है। भारत का अपने पड़ोसी देशों से व्यापार कम होता जा रहा है तथा पूर्व साम्यवादी देशों-पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया व रूस से बढ़ा है। भारत जिन देशों को निर्यात करता है, क्रमानुसार उनके नाम हैं—सं० रा० अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, इटली, सऊदी अरब, इराक, कुवैत, हॉलैण्ड, ईरान, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया आदि।

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भारतीय आयातों का आधे से अधिक भाग विकसित देशों से होता है। एक-चौथाई भाग पूर्वी यूरोपीय देशों एवं अन्य विकसित देशों से और एक बहुत बड़ा भाग (20%) मध्य-पूर्व के तेल उत्पादक देशों से होता है। भारत के आयात में संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, पश्चिमी जर्मनी, कनाडा तथा जापान से होने वाले आयातों में विशेष वृद्धि हुई है। भारत के आयातों में ब्रिटेन का एकाधिकार समाप्त हो गया है और कुछ नये देशों; जैसे-ईरान और अन्य पूर्व (UPBoardSolutions.com) साम्यवादी देशों के साथ व्यापार बढ़ा है। भारत जिन देशों से आयात करता है, क्रमानुसार उनके नाम हैं—सं० रा० अमेरिका, जापान, सऊदी अरब, इराक, रूस, जर्मनी, ईरान, फ्रांस, ब्रिटेन, कनाडा, कुवैत आदि।

प्रश्न 3.
भारत के प्रमुख आयातों का उल्लेख कीजिए। [2018]
या
भारत के आयात की चार प्रमुख मदें लिखिए।
उत्तर :

भारत के प्रमुख आयात

भारत विश्व के 140 देशों से 6,000 से अधिक वस्तुओं का आयात करता है। देश की विकासशील अर्थव्यवस्था की आवश्यकता के अनुरूप आयातों में भी भारी वृद्धि दर्ज हुई है। देश में आयात किये जाने वाले प्रमुख पदार्थ निम्नलिखित हैं –

1. पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पाद – भारत के आयात में पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पादों का विशिष्ट स्थान है। यह आयात बहरीन, फ्रांस, इटली, अरब, सिंगापुर, संयुक्त राज्य अमेरिका, ईरान, इण्डोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात, मैक्सिको, अल्जीरिया, म्यांमार, इराक, रूस आदि देशों से किया जाता है।

2. मशीनें – देश के आर्थिक एवं औद्योगिक विकास के लिए भारी मात्रा में मशीनों का आयात किया जा रहा है। इनमें विद्युत मशीनों का आयात सबसे अधिक किया जाता है। इसके अतिरिक्त सूती वस्त्र उद्योग, कृषि, बुल्डोजर, शीत भण्डारण, चमड़ा, चाय एवं चीनी उद्योग, वायु-सम्पीडक, खनिज आदि अनेक प्रकार के उद्योगों से सम्बन्धित मशीनों का आयात ब्रिटेन, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, बेल्जियम, फ्रांस, जापान, कनाडा, चेक तथा स्लोवाक गणतन्त्र देशों से किया जाता है।

3. कपास एवं रद्दी रुई – भारत में उत्तम सूती वस्त्र तैयार करने के लिए लम्बे रेशे वाली कपास तथा विभिन्न प्रकार के कपड़ों के लिए रद्दी रुई विदेशों से आयात की जाती है। यह कपास एवं रुई मित्र, संयुक्त राज्य अमेरिका, तंजानिया, कीनिया, सूडान, पीरू, (UPBoardSolutions.com) पाकिस्तान आदि देशों से मँगवायी जाती है।

4. अलौह धातुएँ, लोहे तथा इस्पात का सामान – इन वस्तुओं का कुल आयातित माल में दूसरा स्थान है। ऐलुमिनियम, पीतल, ताँबा, काँसा, सीसा, जस्ता, टिन आदि धातुएँ विदेशों से अधिक मात्रा में मँगवायी जाती हैं। इन वस्तुओं का आयात प्रायः ब्रिटेन, कनाडा, स्विट्जरलैण्ड, स्वीडन, संयुक्त राज्य अमेरिका, बेल्जियम, कांगो गणतन्त्र, मोजाम्बिक, ऑस्ट्रेलिया, म्यांमार, सिंगापुर, मलेशिया, रोडेशिया, जापान आदि देशों से किया जाता है।

5. उर्वरक एवं रसायन – अनेक रासायनिक उद्योगों के लिए रासायनिक कच्चे माल तथा उर्वरक आयात, किये जाते हैं। भारत में कृषि के विकास के लिए उर्वरकों की बहुत आवश्यकता है; क्योंकि देश में इनका उत्पादन यथेष्ट मात्रा में नहीं होता है। भारत इनको आयात संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, कनाडा आदि देशों से करता है।

6. खाद्यान्न एवं अन्य उत्पाद – अतिशय जनसंख्या तथा कुछ वर्षों में प्रतिकूल मौसम के कारण देश में खाद्यान्नों की कमी हो गयी है, जिससे देश को भारी मात्रा में इनका आयात करना पड़ा है। अमेरिका, कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया खाद्यान्नों (मुख्यतः गेहूँ) के आयात के प्रमुख स्रोत हैं। खाद्यान्नों के अतिरिक्त भारत के द्वारा विदेशों से मोती तथा मूल्यवान व विकल्प रत्न भी मँगवाये जाते हैं एवं खाद्य तेल, कागज व गत्ता या लुगदी, कृत्रिम रेशे तथा औषधियों का आयात किया जाता है।

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प्रश्न 4.
भारत के प्रमुख निर्यातों का उल्लेख कीजिए। [2017, 18]
या
भारत से निर्यात की जाने वाली किन्हीं तीन प्रमुख वस्तुओं का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर :

भारत के प्रमुख निर्यात

भारत एक विकासशील देश है। इसके निर्यातों में निरन्तर वृद्धि हो रही है। यह 190 देशों को 7,500 वस्तुओं का निर्यात करता है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं –

1. जूट का सामान – भारत के निर्यात व्यापार में जूट का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसके निर्यात से विदेशी मुद्रा का 35% भाग प्राप्त होता है। इससे निर्मित बोरे, टाट, मोटे कालीन, फर्श, गलीचे, रस्से, तिरपाल आदि निर्यात किये जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, (UPBoardSolutions.com) ब्रिटेन, अर्जेण्टाइना, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, रूस, अरब गणराज्य इसके मुख्य ग्राहक हैं। पच्चीस वर्ष पूर्व तक इसी के निर्यात को प्रथम स्थान प्राप्त था, किन्तु अब दूसरी वस्तुओं का निर्यात अधिक होने लगा है।

2. चाय – भारत द्वारा अपनी कुल चाय का 59% भाग ब्रिटेन को निर्यात किया जाता हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका (4%), रूस (12%), कनाडा (3%), ईरान (1%), अरब गणराज्य (6%), नीदरलैण्ड (2%) तथा सूडान एवं जर्मनी इसके अन्य प्रमुख ग्राहक हैं।

3. खालें, चमड़ा व चमड़े की वस्तुएँ – भारतीय चमड़े की माँग मुख्यत: ब्रिटेन (45%), जर्मनी (10%), फ्रांस (7%) एवं संयुक्त राज्य अमेरिका (9%) देशों में रहती है। अन्य ग्राहकों. में इटली, जापान, बेल्जियम और यूगोस्लाविया आदि देश हैं। भारत के निर्यात व्यापार की यह भी एक महत्त्वपूर्ण मंद है।

4. तम्बाकू – भारत द्वारा ब्रिटेन, जापान, पाकिस्तान, अदन, चीन, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों को तम्बाकू को निर्यात किया जाता है। भारत तम्बाकू के निर्यात से लगभग ₹ 1,000 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त करता है।

5. रसायन, मछली एवं समुद्री उत्पाद – भारत अमेरिका आदि देशों को प्रॉन, श्रिम्प आदि लोकप्रिय मछली किस्मों तथा अन्य समुद्री उत्पादों का निर्यात करता है। इनके अतिरिक्त भारत द्वारा रसायन, उससे सम्बद्ध उत्पाद, भेषज व प्रसाधन सामग्री का भी निर्यात किया जाता है।

6. खनिज पदार्थ – भारत अभ्रक, मैंगनीज तथा लौह-अयस्क का निर्यात करता है। अमेरिका तथा जर्मनी भारतीय अभ्रक के प्रमुख ग्राहक हैं। लौह धातु का निर्यात मुख्यतः जापान को किया जाता है।

7. सूती वस्त्र – भारत अपने सूती वस्त्रों का निर्यात इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका, मलाया, म्यांमार, अदन, इथोपिया, सूडान, अफगानिस्तान, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों को करता है। इस क्षेत्र में जापान एवं चीन भारत से प्रतिस्पर्धा करने वाले देश हैं। अत: इसके निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार ने निर्यात प्रोत्साहन परिषद् की स्थापना की है।

8. इंजीनियरिंग का सामान – भारत ने इंजीनियरिंग के सामान का निर्यात करना भी प्रारम्भ कर दिया है। इसके अन्तर्गत मोटरें, रेल के डिब्बे, बिजली के पंखे, सिलाई की मशीनें, टेलीफोन, विद्युत उपकरण आदि प्रमुख हैं। भारत इन वस्तुओं का निर्यात-रूस, (UPBoardSolutions.com) अमेरिका, हंगरी, श्रीलंका, इराक आदि देशों को करता है।

9. मसाले – भारत अमेरिका तथा यूरोपीय देशों को मसाले का निर्यात करता है।

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10. आभूषण, रत्न एवं जवाहरात – भारत से स्वर्ण आभूषण, रत्नों तथा जवाहरातों के निर्यात भी किये जाते हैं।

प्रश्न 5.
व्यापार से क्या आशय है? ये कितने प्रकार के होते हैं? भारत के विदेशी व्यापार की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या
भारत के विदेशी व्यापार की किन्हीं दो अभिवन प्रवृत्तियों की व्याख्या कीजिए। [2018]
उत्तर :
दो पक्षों के मध्य वस्तुओं के ऐच्छिक, पारस्परिक एवं वैधानिक लेन-देन को व्यापार कहते हैं। एक देश के व्यापार को दो भागों में बाँटा जा सकता है-घरेलू व विदेशी। जब किसी देश के विभिन्न स्थानों, प्रदेशों अथवा क्षेत्रों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय होता है, तो इसे आन्तरिक, घरेलू अथवा अन्तक्षेत्रीय व्यापार कहते हैं और जब विभिन्न राष्ट्रों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय होता है, तो इसे विदेशी, बाह्य अथवा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कहते हैं। इस प्रकार विदेशी व्यापार से हमारा अभिप्राय विभिन्न राष्ट्रों के मध्य होने वाले व्यापार से है।

विदेशी व्यापार की विशेषताएँ – [संकेत-इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का उत्तर देखें।

प्रश्न 6.
भारत की आयात-निर्यात नीति पर एक लेख लिखिए।
या
भारत की नवीन आयात-निर्यात नीति की चार विशेषताएँ लिखिए।
या
भारत के निर्यात में वृद्धि कैसे की जा सकती है? कोई दो सुझाव दीजिए। [2013]
या
भारत के विदेशी व्यापार की किन्हीं दो अभिनव प्रवृत्तियों की व्याख्यान कीजिए। [2018]
उत्तर :
भारत का आयात दो वित्तीय वर्षों को छोड़कर सदैव निर्यात से अधिक रहा है। इसलिए भारत का विदेशी व्यापार सन्तुलन भी प्रतिकूल ही रहा है। इस प्रतिकूलता को कम करने के लिए ही सरकार आयात-निर्यात नीति की घोषणा करती है, जिसका उद्देश्य आयातों को नियन्त्रित करना और निर्यातों को प्रोत्साहित करना होता है। आयात-निर्यात नीति, 1997-2002 ई० का उद्देश्य गत नीतियों की उपलब्धियों को सुदृढ़ करना और उदारीकरण की प्रक्रिया को आगे ले जाना था। कार्य-प्रणाली को सुचारु और सरल बनाने, परिमाणात्मक प्रतिबन्धों को चरणबद्ध तरीके से हटाने और निर्यातक समुदाय के लिए अनुकूल (UPBoardSolutions.com) वातावरण तैयार करने हेतु ठोस उपाय अपनाये गये तथा सभी मामलों में निर्यात सम्बन्धी अनिवार्यता को पूरा करने की अवधि बढ़ाकर 8 वर्ष कर दी गयी।

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शुल्क में छूट दिये जाने की योजना का विस्तार किया गया है जिससे इसमें निर्यात पश्चात् निःशुल्क पुन:पूर्ति लाइसेन्स-योजना को सम्मिलित किया जा सके। निर्यात पूर्व डी०ई०पी०बी० योजना समाप्त कर दी गयी है। निर्यात पश्चात् डी०ई०पी०बी० योजना अभी चल रही है, किन्तु इसकी दरों को युक्तिसंगत बनाया गया है। इसी प्रकार विश्वसनीय निर्यात लाभों को भी युक्तिसंगत बनाया गया है। निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक प्रतिबन्धों में ढील दी गयी है, बुनियादी सुविधाओं में सुधार लाने की घोषणा की गयी है तथा सभी निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों को मुक्त व्यापार क्षेत्र में बदल दिया गया है। इस प्रकार भारत की आयात-निर्यात नीति में निरन्तर संशोधन किये जा रहे हैं। इसी प्रकार अब पूँजीगत सामान, कच्चा माल, मध्यवर्ती माले, घटक सामान, उपभोज्य वस्तुएँ, कलपुर्जे, सहायक पुजें, औजार और अन्य सामान बिना किसी प्रतिबन्ध के आयात किये जा सकते हैं, बशर्ते कि ऐसा सामान आयात निषेध सूची में सम्मिलित न हो।

भारत ने 1 अप्रैल, 2001 ई० को अपनी नयी विदेशी व्यापार नीति की घोषणा की। नयी व्यापार नीति का उद्देश्य है कि निर्यातक लोग लालफीताशाही, जटिल प्रक्रियाओं और मनमाने निर्णयों से मुक्त होकर उत्पादन, निर्यात वृद्धि, बाजार और व्यापार पर ध्यान दें।

नयी विदेशी व्यापार नीति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं –

सरकार ने निर्यात की मात्रा में 20% वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य निर्धारित किया है। सात सौ चौदह वस्तुओं के आयात को अप्रैल, 2000 से तथा 715 वस्तुओं के आयात को अप्रैल, 2001 से कोटा पाबन्दी से मुक्त कर दिया है। निर्यात को बढ़ावा देने के लिए 5 हजार से अधिक वस्तुओं को निर्यात-शुल्क से मुक्त करने और उनके लिए निर्यात लाइसेन्स खत्म करने का निश्चय किया है। सरकार का कहना है कि चीन की तरह उदार निवेश की व्यवस्था वाले विशेष आर्थिक क्षेत्र देश में स्थापित किये जाएँगे तथा रत्न, आभूषण, कृषि रसायनों, जैव औषधियों, चमड़ा, सिले हुए वस्त्रों, रेशम और ग्रेनाइट क्षेत्र में निर्यात को बढ़ावा देने के विशेष प्रयास किये जाएँगे। तटकर आयोग को मजबूत बनाया जाएगा।

नयी विदेश व्यापार-नीति देश को उदारीकरण और बाजार-व्यवस्था के लिए (UPBoardSolutions.com) तैयार कर देश को आर्थिक मजबूती प्रदान करेगी।

प्रश्न 7.
भारत के विदेशी व्यापार की संरचना लिखिए।
उत्तर :

विदेशी व्यापार की संरचना

(i) आयात संरचना – भारत की आयात संरचना में तीन प्रकार की वस्तुएँ सम्मिलित हैं –

  1. पूँजी वस्तुएँ; जैसे—मशीन, धातुएँ, अलौह धातुएँ, परिवहन साधन।
  2. कच्चा माल; जैसे-खनिज तेल, कपास, जूट तथा रासायनिक पदार्थ।
  3. उपभोक्ता वस्तुएँ; जैसे-खाद्यान्न, विद्युत उपकरण, औषधियाँ, वस्त्र, कागज आदि।

योजनाकाल में आयात संरचना में निम्नलिखित परिवर्तन हुए हैं –

  1. इस्पात, खनिज तेल वे रासायनिक पदार्थों के आयात में तेजी से वृद्धि हुई है।
  2. मशीनों के आयात में वृद्धि-दर बढ़ी है।
  3. खाद्यान्नों के आयात में कमी हुई है।

(ii) निर्यात संरचना – भारत की निर्यात संरचना में चार प्रकार की वस्तुएँ सम्मिलित हैं –

  1. खाद्यान्न; जैसे—अनाज, चाय, तम्बाकू, कॉफी, मसाले, काजू आदि।
  2. कच्चा माल जैसे—खालें, चमड़ा, ऊन, रुई, कच्चा लोहा, मैंगनीज, खनिज पदार्थ, हीरे-जवाहरात आदि।
  3. निर्मित वस्तुएँ; जैसे-जूट का सामान, कपड़ा, चमड़े का सामान, रेशम के वस्त्र, तैयार कपड़े, सीमेण्ट, रसायन, खेल का सामान, जूते आदि।
  4. पूँजीगत वस्तुएँ; जैसे-मशीनें, परिवहन उपकरण, लोहा-इस्पात, इन्जीनियरिंग वस्तुएँ, सिलाई मशीन आदि।

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योजनाकाल में निर्यात संरचना में निम्नलिखित परिवर्तन हुए हैं

  1. पटसन, वस्त्र, चाय, कच्ची धातु, काजू तथा तम्बाकू आदि परम्परागत वस्तुओं के निर्यात में निरन्तर वृद्धि हुई है।
  2. तम्बाकू, मसाले, अभ्रक, आदि के निर्यात में कमी हुई है।
  3. वनस्पति तेल, गोंद तथा रुई आदि के निर्यात में कमी हुई है।
  4. चमड़ा और चमड़े से बनी वस्तुएँ, खेल का सामान और परियोजनागत सामान के निर्यात की प्रगति में कमी आई है।
  5. गत कुछ वर्षों में निर्मित वस्तुओं के निर्यात में आशातीत वृद्धि हुई है। (UPBoardSolutions.com) इनमें चमड़ा तथा उससे बने माल लोहा और इस्पात, रसायन और इन्जीनियरिंग का समान, शक्कर और हस्तशिल्प का सामान मुख्य हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विदेशी व्यापार से आप क्या समझते हैं? इसके महत्व पर प्रकाश डालिए।
या
विदेशी व्यापार से होने वाले चार लाभ बताइए।
या
भारत के आर्थिक विकास में विदेशी व्यापार के कोई दो योगदान बताइए।
उत्तर :

विदेशी व्यापार

व्यापार मुख्यत: दो प्रकार का होता है—(1) देशी व्यापार तथा (2) विदेशी व्यापार। विदेशी व्यापार का अर्थ उस व्यापार से है, जिसके अन्तर्गत दो या दो से अधिक राष्ट्रों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय किया जाता है; उदाहरणार्थ, यदि हम इंग्लैण्ड से मशीनें आयात करें या ऑस्ट्रेलिया को खेल का सामान निर्यात करें, तो इन दोनों को ही विदेशी व्यापार कहा जाएगा।
[संकेत – विदेशी व्यापार के महत्त्व के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न सं० 2 देखें।]

प्रश्न 2.
आयात-निर्यात को स्पष्ट कीजिए तथा उनके एक-एक उदाहरण भारतीय सन्दर्भ में लिखिए।
उत्तर :
देश की आर्थिक समृद्धि एवं विकास आयात-निर्यात पर निर्भर करता है। जब दों या अधिक देश पारस्परिक रूप से वस्तुओं का आयात-निर्यात करते हैं तो इसे विदेशी व्यापार कहते हैं। आयात एवं निर्यात को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है –

आयात – जब कोई देश अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ अन्य देश से मँगाता है, तो इसे आयात कहा जाता है। इस प्रकार कोई भी देश किसी वस्तु का आयात इसलिए करता है कि या तो अमुक वस्तु का उत्पादन उस देश में नहीं किया जाता अथवा उसकी उत्पादन (UPBoardSolutions.com) लागत उसके आयात मूल्य से अधिक पड़ती है। उदाहरण के लिए–भारत विदेशों से पेट्रोलियम का आयात करता है।

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निर्यात – ज़ब कोई देश अपने अधिकतम उत्पादन को अन्य देश को भेजता है, तो उसे निर्यात कहा जाता है। इस प्रकार किसी वस्तु का निर्यात इसलिए किया जाता है कि उस देश में उत्पन्न की गयी उस अतिरिक्त उत्पादित वस्तु की माँग विदेशों में है तथा उसे निर्यात करके विदेशी मुद्रा प्राप्त की जा सकती है। उदाहरण के लिए-भारत द्वारा चाय विदेशों को भेजना निर्यात है।

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत का विदेशी व्यापार परम्परागत तथा कृषि प्रधान देश की भाँति था। परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हुए औद्योगिक विकास ने भारत के विदेशी व्यापार के स्वरूप को काफी हद तक प्रभावित किया है। वर्तमान में भारत की निर्यात-सूची में 500 से अधिक वस्तुएँ हैं।

देश की औद्योगिक विकास की गति तीव्र होने से आयातों में भारी वृद्धि हुई है। साथ ही आयातों की प्रकृति भी बदलती है। अब मुख्य रूप से मशीनों, दुर्लभ कच्चे माल, तेल, रासायनिक पदार्थ आदि वस्तुओं का आयात होता है। निर्यात की तुलना में आयात अधिक होने के कारण भारत का व्यापार-सन्तुलन प्रतिकूल रहता है।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के बाद भारत में निर्यात की प्रवृत्ति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के निर्यातों में वृद्धि हुई है, किन्तु आयातों की तुलना में वृद्धि की दर धीमी रही है। निर्यात की मुख्य प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. योजना काल में निर्यातों में भारी वृद्धि हुई है और विविधता आयी है।
  2. हमारे निर्यातों में परम्परागत वस्तुओं व कच्चे माल के स्थान पर निर्मित वस्तुओं का निर्यात बढ़ा है।
  3. निर्यात की जाने वाली मुख्य वस्तुएँ हैं-जूट का सामान, सूती वस्त्र, चाय, (UPBoardSolutions.com) खनिज पदार्थ, तम्बाकू, खाल और चमड़ा, तिलहन, चीनी, मसाले व इंजीनियरिंग का सामान।
  4. सर्वाधिक निर्यात एशिया व ओसोनिया देशों को किये जाते हैं।

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प्रश्न 4
अन्तर्राष्ट्रीय एवं देशीय व्यापार के दो अन्तरों को स्पष्ट कीजिए। [2011]
या
विदेशी व्यापार और आन्तरिक व्यापार में अन्तर बताइए। [2010, 11]
या
राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में अन्तर बताइट। [2016]
उत्तर :
अन्तर्राष्ट्रीय और देशीय व्यापार के दो अन्तर निम्नलिखित हैं –

  • जब किसी देश के विभिन्न स्थानों, प्रदेशों अथवा क्षेत्रों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय होता है तो उसे देशीय व्यापार कहते हैं और जब विभिन्न राष्ट्रों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय होता है तो उसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कहते हैं।
  • अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के दो अंग हैं—आयात और निर्यात। आयात के लिए विदेशी मुद्रा प्रदान करनी होती है और निर्यात करने पर विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है; जब कि देशीय व्यापार में अपने देश की मुद्रा ही प्रयुक्त होती है। इसमें विदेशी मुद्रा का कोई लेन-देन नहीं होता।

प्रश्न 5.
भारत के विदेशी व्यापार की दिशा में क्या मुख्य परिवर्तन हुए हैं?
या
स्वाधीनता के बाद भारत के विदेशी व्यापार के स्वरूप में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए। [2013]
उत्तर :
स्वतन्त्रता के बाद भारत के विदेशी व्यापार के स्वरूप में निम्नलिखित परिवर्तन हुए हैं –

  1. भारत का विदेशी व्यापार कॉमनवेल्थ देशों तक सीमित न रहकर विश्वव्यापी हो गया है।
  2. स्वतन्त्रता के पूर्व भारत कच्चे पदार्थों (कृषि तथा खनिजों) का निर्यातक देश था, किन्तु स्वतन्त्रता के बाद उसके निर्यातों में तैयार माल सम्मिलित हुए तथा उनमें विविधता आ गई।
  3. स्वतन्त्रता के पूर्व भारत में पर्याप्त अन्नोत्पादन होता था, किन्तु (UPBoardSolutions.com) देश के विभाजन के बाद गेहूँ तथा चावल के बड़े उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान में चले जाने से भारत को अन्न का आयात करना पड़ा।
  4. खाद्य एवं कृषिगत पदार्थ भारत के परम्परागत निर्यात पदार्थ रहे हैं, किन्तु अब भारत मशीनरी, सूती – वस्त्र, सिले-सिलाये वस्त्र, हस्तनिर्मित वस्तुओं आदि का भी निर्यात करने लगा है।

भारतीय निर्यातों का आधे से अधिक भाग पश्चिमी यूरोप के विकसित देशों संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जापान को, लगभग एक-तिहाई भाग पूर्वी यूरोप तथा अन्य विकासशील देशों को और केवल एक छोटा-सा भाग मध्य-पूर्व के तेल उत्पादक देशों को जाता है। भारत के निर्यातों में रूस और जापान का महत्त्व बढ़ा है तथा ब्रिटेन का एकाधिकार समाप्त हो गया है। भारत का अपने पड़ोसी देशों से व्यापार कम होता जा रहा है तथा पूर्व साम्यवादी देशों-पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया व रूस से बढ़ा है। भारत जिन देशों को निर्यात करता है, क्रमानुसार उनके नाम हैं—सं० रा० अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, इटली, सऊदी अरब, इराक, कुवैत, हॉलैण्ड, ईरान, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया आदि।

प्रश्न 6.
विदेशी व्यापार के अनुकूल प्रभाव क्या होते हैं ?
उत्तर :
विदेशी व्यापार के प्रमुख अनुकूल प्रभाव निम्नवत् हैं –

  1. विदेशी व्यापार भारत के लिए विदेशी मुद्रा अर्जित करता है, जो विदेशों से लिये हुए ऋणों तथा ब्याजों की अदायगी में काम आती है।
  2. विदेशी व्यापार से भारतीयों के जीवन-स्तर में वृद्धि होती है।
  3. भारत शेष संसार से लाभदायक ढंग से उन वस्तुओं को खरीद सकता है जिनका अपने ही देश में उत्पादन करने पर लागत अधिक आती है, उसकी तुलना में वे विश्व व्यापार में सस्ती उपलब्ध रहती हैं। इन वस्तुओं के उपभोग से लोगों के जीवन-स्तर एवं आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती है।
  4. भारत शेष संसार को उन वस्तुओं की बिक्री कर सकता है, जिनका वह (UPBoardSolutions.com) अधिक सफलता से अर्थात् दूसरे देशों की तुलना में सस्ता उत्पादन कर सकता है। इस प्रकार विदेशी व्यापार की क्रियाएँ भौगोलिक श्रम-विभाजन को सम्भव बनाती हैं।
  5. आयातों के द्वारा भारत अनिवार्य वस्तुओं की किसी भी कमी को पूरा कर सकता है।
  6. भारत दूसरे देशों से उन पूँजीगत वस्तुओं को मँगवा सकता है जिन वस्तुओं का वह बिल्कुल उत्पादन नहीं कर सकता अथवा बहुत कुशलता से उत्पादन नहीं कर सकता।

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प्रश्न 7.
भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का क्या महत्त्व या लाभ है?
उत्तर :
भारत के लिए विदेशी व्यापार के महत्त्व या लाभ निम्नलिखित हैं –

1. प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण उपयोग – एक देश ऐसे उद्योगों की स्थापना एवं संचालन करता है, जिनसे उसे अधिकतम तुलनात्मक लाभ प्राप्त होता है और उस बाजार (देश) में वह अपनी उत्पादित वस्तुओं को बेचता है, जहाँ उसे वस्तुओं का सबसे अधिक मूल्य मिलता है। फलस्वरूप वह उपलब्ध प्राकृतिक संसाधानों को सर्वोत्तम उपयोग करता है।

2. औद्योगीकरण को प्रोत्साहन – विदेशी व्यापार के माध्यम से देश में उद्योग-धन्धों को विकसित करने के लिए आवश्यक उपकरण, कच्चा माल व तकनीकी ज्ञान सरलता से उपलब्ध हो जाते हैं। फलतः देश में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता है।

3. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सदभावना में वृद्धि – विदेश व्यापार के (UPBoardSolutions.com) फलस्वरूप विभिन्न देशों के नागरिक एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में आते हैं और एक-दूसरे के विचारों एवं दृष्टिकोणों से परिचित होते हैं। फलस्वरूप सांस्कृतिक सहयोग एवं परस्पर विश्वास में वृद्धि होती है।

प्रश्न 8.
निर्यात व्यापार से आप क्या समझते हैं? भारत की चार प्रमुख निर्यात की वस्तुओं का उल्लेख कीजिए। [2014, 18]
उत्तर :
निर्यात व्यापार–किसी देश द्वारा अपने देश से दूसरे देशों को वस्तुएँ बेचने का व्यापार निर्यात व्यापार कहलाता है।

भारत देश की चार प्रमुख निर्यात की वस्तुएँ निम्नवत् हैं –

  1. चाय
  2. तम्बाकू
  3. सूती वस्त्र
  4. चमड़ा व चमड़े से बनी वस्तुएँ।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विदेशी व्यापार का क्या अर्थ है ? [2014]
या
विदेशी व्यापार से आप क्या समझते हैं ? [2010, 11, 18]
या
विदेशी व्यापार को स्पष्ट कीजिए। [2015]
उत्तर :
जब दो या दो से अधिक देश परस्पर एक-दूसरे की वस्तुओं या सेवाओं का क्रय-विक्रय करते हैं तब इसे विदेशी व्यापार कहते हैं।

प्रश्न 2.
व्यापार सन्तुलन का क्या अर्थ है?
उत्तर :
यदि निर्यात आयातों से अधिक होते हैं तो देश का व्यापार-शेष ‘अनुकूल’ होता है। यदि आयात निर्यातों से अधिक होते हैं तो व्यापार-शेष प्रतिकूल’ होता है। यदि निर्यात और आयात बराबर होते हैं तो व्यापार-शेष सन्तुलित होता है। इसी को (UPBoardSolutions.com) व्यापार सन्तुलन भी कहते हैं।

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प्रश्न 3.
भारत के आयात की किन्हीं चार वस्तुओं के नामों का उल्लेख कीजिए। [2010, 11, 14, 16, 18]
उत्तर :
भारत के आयात की चार वस्तुओं के नाम हैं –

  1. खनिज तेल
  2. उर्वरक एवं रसायन
  3. मशीनें तथा
  4. धातुएँ; जैसे-टिन, पीतल, ताँबा।

प्रश्न 4.
भारत के विदेशी व्यापार को अनुकूल बनाने हेतु दो सुझाव दीजिए।
उत्तर :
भारत के विदेशी व्यापार को अनुकूल बनाने हेतु दो सुझाव इस प्रकार हैं-

  1. अधिकतम निर्यात किया जाना चाहिए तथा
  2. न्यूनतम आयात किया जाना चाहिए।

प्रश्न 5.
भारत में निर्यात-वृद्धि के लिए दो सुझाव दीजिए। [2013]
उत्तर :
भारत में निर्यात वृद्धि के लिए दो सुझाव निम्नवत् हैं –

  1. प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति बढ़ाने के लिए (UPBoardSolutions.com) उत्पादन लागत घटायी जानी चाहिए।
  2. निर्यात वस्तुओं की किस्म में सुधार किया जाना चाहिए।

प्रश्न 6.
आन्तरिक व्यापार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
जंब किसी देश के विभिन्न स्थानों, प्रदेशों अथवा क्षेत्रों के बीच वस्तुओं व सेवाओं का क्रय-विक्रय होता है, तो उसे आन्तरिक व्यापार करते हैं।

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प्रश्न 7.
विदेशी व्यापार के दो उद्देश्य लिखिए।
या
विदेशी व्यापार की आवश्यकताओं पर प्रकाश डालिए। [2015]
उत्तर :
विदेशी व्यापार के दो उद्देश्य निम्नवत् हैं –

  1. औद्योगीकरण को प्रोत्साहन देना।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व सद्भावना में वृद्धि करना।

प्रश्न 8.
आयात एतं निर्यात का अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2015, 16]
उत्तर :
“आयात’ का अर्थ है-विदेशों से माल अपने देश (UPBoardSolutions.com) में मँगाना तथा “निर्यात का अर्थ है–विदेशों में अपने देश का माल भेजना।

प्रश्न 9.
भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार के दो लाभ लिखिए।
उत्तर :
भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार के दो लाभ इस प्रकार हैं –

  1. भारत की राष्ट्रीय आय और पूँजी–निर्माण में वृद्धि होती है तथा
  2. देश को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती हैं।

प्रश्न 10.
भारत से निर्यात की जाने वाली दो वस्तुओं के नाम लिखिए। [2010, 11, 16, 17]
उत्तर :
भारत से निर्यात की जाने वाली दो वस्तुएँ हैं –

  1. चाय तथा
  2. जूट का सामान।

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प्रश्न 11.
भारत के निर्यात व्यापार की दो समस्याएँ लिखिए।
उत्तर :

  1. कच्चे माल की अनुपलब्धता।
  2. हिमालय पर्वतीय अवरोध के समीपवर्ती (UPBoardSolutions.com) देशों एवं भारत के मध्य धरातलीय आवागमन की सुविधा उपलब्ध नहीं है।

प्रश्न 12.
भारत की दो निर्यात की जाने वाली परम्परागत तथा दो गैर-परम्परागत वस्तुओं के नाम लिखिए।
या
भारतीय निर्यात की किन्हीं दो प्रमुख वस्तुओं का उल्लेख कीजिए। [2010, 11, 16]
या
भारत के किन्हीं दो आयात तथा दो निर्यात वस्तुओं का उल्लेख कीजिए। [2015, 16]
उत्तर :
परम्परागत निर्यातक वस्तुएँ – चाय और जूट।
गैर-परम्परागत निर्यातक वस्तुएँ (UPBoardSolutions.com) – सिले वस्त्र, इंजीनियरिंग का सामान।

प्रश्न 13.
भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के नाम लिखिये।
उत्तर :
भारत से जूट का सामान, चाय, तम्बाकू, सूती वस्त्र, चमड़ा व चमड़े से बनी वस्तुएँ आदि निर्यात की जाती हैं।

प्रश्न 14.
भारत में आयात की जाने वाली मुख्य वस्तुएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :
भारत में पेट्रोल एवं पेट्रोलियम उत्पाद, मशीनें, कपास एवं रद्दी रुई, अलौह धातुएँ, लोहे तथा इस्पात का सामान आयात किया जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. कौन-सा ग्रुप भारत के आयात व्यापार को दर्शाता है?

(क) चाय, खाद्य तेल, तम्बाकू, पेट्रोलियम
(ख) पेट्रोलियम, जूट की वस्तुएँ, कपास, खाद्य तेल
(ग) रसायन, मशीनें, खाद्य तेल, पेट्रोलियम
(घ) रसायन, कपड़े की वस्तुएँ, जूट की वस्तुएँ, कपास

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2. भारत की प्रमुख आयातित वस्तु है।

(क) ऊनी मशीनें
(ख) सूती वस्त्र
(ग) खनिज तेल
(घ) जूट उत्पाद

3. वर्तमान में भारत के निर्यातों का अकेला सबसे बड़ा खरीदार है –

(क) सं० रा० अमेरिका
(ख) इंग्लैण्ड
(ग) अफ्रीकी देश
(घ) तेल उत्पादक देश

4. व्यापार सन्तुलन किसे कहते हैं?

(क) आयात अधिक हो
(ख) निर्यात अधिक हो
(ग) आयात व निर्यात बराबर हों
(घ) आयात व निर्यात न हों।

5. निम्नलिखित में से कौन-से देश-समूह भारत के आयात में प्रमुख हिस्सा रखते हैं?

(क) अफ्रीकी देश
(ख) विकसित देश
(ग) दक्षिणी अमेरिका के देश
(घ) दक्षिण-पश्चिमी एशिया के देश

6. भारत के निर्यात व्यापार में कितने प्रतिशत हिस्सा विकसित देशों का है?

(क) 4%
(ख) 6%
(ग) 61%
(घ) 59%

7. विश्व व्यापार में भारत का कितना अंश है?

(क) 3.6%
(ख) 2.6%
(ग) 1.6%
(घ) 0.6%

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8. निम्नलिखित में से भारत की प्रमुख निर्यात वस्तु कौन-सी है? [2012]

(क) कागज
(ख) खनिज तेल
(ग) खाद्य तेल
(घ) जवाहरात व आभूषण

9. भारत का सर्वाधिक विदेशी व्यापार निम्नलिखित में से किस देश के साथ होता है?

(क) जापान
(ख) रूस
(ग) ब्रिटेन
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका

10. कौन-सा समूह भारत के निर्यात व्यापार को दर्शाता है? [2017]

(क) खनिज तेल, चाय, अभ्रक, खाद्य तेल
(ख) चाय, मशीनरी, खाद्य तेल, लौह-अयस्क
(ग) चाय, लौह-अयस्क, चमड़े की वस्तुएँ, अभ्रक
(घ) लौह-अयस्क, चाय, खनिज-तेल, मशीनरी

11. कौन-सा समूह भारत के आयात व्यापार को दर्शाता है?

(क) खनिज तेल, कच्चा जूट, चाय, लौह-अयस्क
(ख) अभ्रक, चाय, कच्चा जूट, खनिज तेल
(ग) चाय, लौह-अयस्क, खनिज तेल, खाद्य तेल
(घ) खनिज तेल, खाद्य तेल, कच्चा जूट, मशीनरी

12. निम्नलिखित में से भारत के आयातों में सर्वाधिक मूल्य किस वस्तु का है? [2017]

(क) कृषि पदार्थ
(ख) धातु एवं खनिज
(ग) विनिर्मित सामान
(घ) अशुद्ध तेल एवं उत्पाद

13. निम्नलिखित में से कौन-सी वस्तु भारत के निर्यात की वस्तु है? [2009, 13, 18]

(क) खनिज तेल
(ख) जूट निर्मित वस्तुएँ।
(ग) मशीनें
(घ) मशीनों के पुर्जे

14. अपने देश की सीमा के अन्दर व्यापार कहलाता है

(क) आन्तरिक व्यापार
(ख) विदेशी व्यापार
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं

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15. व्यापार घाटे को कम करने का उपाय है

(क) निर्यातों को बढ़ाना
(ख) आयातों को कम करना
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं

16. विदेशी व्यापार नीति लागू की गयी

(क) 1 अप्रैल, 2001 से
(ख) 1 अप्रैल, 2003 से
(ग) 1 अप्रैल, 1951 से
(घ) 1 अप्रैल, 2002 से

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17. भारत में निम्नलिखित वस्तुओं में से सबसे अधिक किस वस्तु का निर्यात किया जाता है? [2014, 17]

(क) मशीनरी
(ख) चाय
(ग) उर्वरक
(घ) खनिज तेल

18. निम्नलिखित में से किसका आयात भारत में किया जाता है? [2016]

(क) चाय
(ख) कॉफी
(ग) पेट्रोलियम
(घ) लौह-अयस्क

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 (Section 4)

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 8 are helpful to complete your homework.

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : राष्ट्रीय भावना

UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : राष्ट्रीय भावना

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सांस्कृतिक निबन्ध : राष्ट्रीय भावना

1. स्वदेश-प्रेम [2010, 11, 12, 13, 14, 15, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी [2010]
  • देश-भक्ति/देश-प्रेम। [2011, 14]
  • जननी-जन्मभूमि प्रिय अपनी
  • राष्ट्र-प्रेम का महत्त्व [2016]
  • राष्ट्र की सुरक्षा में नवयुवकों का योगदान
  • हमारा प्यारा भारतवर्ष [2012, 13]
  • सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा [2016]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. देश-प्रेम की स्वाभाविकता,
  3. देश-प्रेम का अर्थ,
  4. देश-प्रेम का क्षेत्र,
  5. देश के प्रति हमारे कर्तव्य,
  6. भारतीयों को देश-प्रेम,
  7. उपसंहार।

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प्रस्तावना—ईश्वर द्वारा बनायी गयी सर्वाधिक अद्भुत रचना है ‘जननी’, जो नि:स्वार्थ प्रेम की प्रतीक है, प्रेम का ही पर्याय है, स्नेह की मधुर बयार है, सुरक्षा का अटूट कवच है, संस्कारों के पौधों को ममता के जल से सींचने वाली चतुर (UPBoardSolutions.com) उद्यान-रक्षिका है, जिसका नाम प्रत्येक शीश को नमन के लिए झुक जाने को प्रेरित कर देता है। यही बात जन्मभूमि के विषय में भी सत्य है। इन दोनों का दुलार जिसने पा लिया उसे स्वर्ग का पूरा-पूरा अनुभव धरा पर ही हो गया। इसीलिए जननी और जन्मभूमि की महिमा को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया हैं।

देश-प्रेम की स्वाभाविकता–प्रत्येक देशवासी को अपने देश से अनुपम प्रेम होता है। अपना देश चाहे बर्फ से ढका हुआ हो, चाहे गर्म रेत से भरा हुआ हो, चाहे ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ हो, वह सबके लिए प्रिय होता है। इस सम्बन्ध में रामनरेश त्रिपाठी की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं

विषुवत रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।।
रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर ॥
ध्रुववासी जो हिम में तम में, जी लेता है काँप-काँप कर।।
वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ॥

प्रात:काल के समय पक्षी भोजन-पानी के लिए कलरव करते हुए दूर स्थानों पर चले तो जाते हैं, परन्तु सायंकाल होते ही एक विशेष उमंग और उत्साह के साथ अपने-अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं। जब पशु-पक्षियों को अपने घर से, अपनी मातृभूमि से इतना प्यार हो सकता है तो भला मानव को अपनी जन्मभूमि से, अपने देश से क्यों प्यार नहीं होगा? कहा भी गया है कि माता और जन्मभूमि की तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ है

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

देश-प्रेम को अर्थ-देश-प्रेम का तात्पर्य है-देश में रहने वाले जड़-चेतन सभी से प्रेम, देश की सभी संस्थाओं से प्रेम, देश के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेशभूषा से प्रेम, देश के सभी धर्मों, मतों, भूमि, पर्वत, नदी, वन, तृण, लता सभी से प्रेम और अपनत्व रखना, उन सबके प्रति गर्व की अनुभूति करना। सच्चे देश-प्रेमी के लिए देश का कण-कण पावन और पूज्य होता है

सच्चा प्रेम वही है, जिसकी तृप्ति आत्मबलि पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥
देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित।
आत्मा के विकास से, जिसमें मानवता होती है विकसित ॥

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सच्चा देश-प्रेमी वही होता है, जो देश के लिए नि:स्वार्थ भावना से बड़े-से-बड़ा त्याग कर सकता है। स्वदेशी वस्तुओं का स्वयं उपयोग करता है और दूसरों को उनके उपयोग के लिए प्रेरित करता है। सच्चा देशभक्त उत्साही, सत्यवादी, महत्त्वाकांक्षी (UPBoardSolutions.com) और कर्तव्य की भावना से प्रेरित होता है।

देश-प्रेम का क्षेत्र-देश-प्रेम का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। सैनिक युद्ध-भूमि में प्राणों की बाजी लगाकर, राज-नेता राष्ट्र के उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर, समाज-सुधारक समाज का नवनिर्माण करके, धार्मिक नेता मानव-धर्म का उच्च आदर्श प्रस्तुत करके, साहित्यकार राष्ट्रीय चेतना और जन-जागरण का स्वर फेंककर, कर्मचारी, श्रमिक एवं किसान निष्ठापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करके, व्यापारी मुनाफाखोरी व तस्करी का त्याग कर अपनी देशभक्ति की भावना को प्रदर्शित कर सकता है।

देश के प्रति हमारे कर्तव्य-जिस देश में हमने जन्म लिया है, जिसका अन्न खाकर और अमृत के समान जल पीकर, सुखद वायु का सेवन कर हम बलवान् हुए हैं, जिसकी मिट्टी में खेल-कूदकर हमने पुष्ट शरीर प्राप्त किया है, उस देश के प्रति हमारे अनन्त कर्तव्य हैं। हमें अपने प्रिय देश के लिए कर्तव्यपालन और त्याग की भावना से श्रद्धा, सेवा एवं प्रेम रखना चाहिए। हमें अपने देश की एक इंच भूमि के लिए तथा उसके सम्मान और गौरव के लिए प्राणों की बाजी लगा देनी चाहिए। यह सब करने पर भी जन्मभूमि या अपने देश के ऋण से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकते।

भारतीयों का देश-प्रेम-भारत माँ ने ऐसे असंख्य नर-रत्नों को जन्म दिया है, जिन्होंने असीम त्याग-भावना से प्रेरित होकर हँसते-हँसते मातृभूमि पर अपने प्राण अर्पित कर दिये। अनेकानेक वीरों ने अपने अद्भुत शौर्य से शत्रुओं के दाँत खट्टे किये हैं। वन-वन भटकने वाले महाराणा प्रताप ने घास की रोटियाँ खाना स्वीकार किया, परन्तु मातृभूमि के शत्रुओं के सामने कभी मस्तक नहीं झुकाया। शिवाजी ने देश और मातृभूमि की सुरक्षा के लिए गुफाओं में छिपकर शत्रु से टक्कर ली और रानी लक्ष्मीबाई ने महलों के सुखों को त्यागकर शत्रुओं से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक उल्ला खाँ (UPBoardSolutions.com) आदि न जाने कितने देशभक्तों ने विदेशियों की अनेक यातनाएँ सहते हुए, मुख से ‘वन्देमातरम्’ कहते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूम लिया।

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उपसंहार-खेद का विषय है कि आज हमारे नागरिकों में देश-प्रेम की भावना अत्यन्त दुर्लभ होती जा रही है। हमारी पुस्तकें भले ही राष्ट्र प्रेम की गाथाएँ पाठ्य-सामग्री में सँजोये रहें, परन्तु वास्तव में नागरिकों के हृदय में गहरा व सच्चा राष्ट्र-प्रेम ढूंढ़ने पर भी उपलब्ध नहीं होता।

प्रत्येक देशवासी को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके देश भारत की देशरूपी बगिया में राज्यरूपी अनेक क्यारियाँ हैं। जिस प्रकार एक माली अपने उपवन की सभी क्यारियों की देखभाल समान भाव से करता है उसी प्रकार हमें भी देश के सर्वांगीण विकास का प्रयास करना चाहिए।

स्वदेश-प्रेम मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसे संकुचित रूप में ग्रहण न कर व्यापक रूप में ग्रहण करना चाहिए। संकुचित रूप में ग्रहण करने से विश्व-शान्ति को खतरा हो सकता है। हमें स्वदेश-प्रेम की । भावना के साथ-साथ समग्र मानवता के (UPBoardSolutions.com) कल्याण को भी ध्यान में रखना चाहिए।

2. हमारा राष्ट्रीय पर्व : स्वाधीनता दिवस

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  • स्वतन्त्रता दिवस |
  • विद्यालय में आयोजित राष्ट्रीय पर्व

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व,
  3. विभिन्न समारोह मनाये जाने के कारण,
  4. राष्ट्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय स्तरों पर कार्यक्रमों का आयोजन,
  5. हमारे विद्यालय में स्वतन्त्रता दिवस समारोह,
  6. उपसंहार।

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प्रस्तावना–भारतवर्ष में जिस प्रकार सामाजिक और धार्मिक पर्व (त्योहार) बहुत धूमधाम से मनाये जाते हैं, उसी प्रकार यहाँ राष्ट्रीय पर्वो को भी विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्रता दिवस एक राष्ट्रीय पर्व है, जिसे प्रतिवर्ष 15 अगस्त को सम्पूर्ण भारत में बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों के द्वारा बड़ी धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह हमारे लिए एक महत्त्वपूर्ण दिन है। इस दिन हमारा देश सैकड़ों वर्षों की विदेशी दासता से मुक्त हुआ था। (UPBoardSolutions.com) हम सब इस दिन को एक ऐतिहासिक दिन के रूप में मनाते हैं। स्वतन्त्रता के पुनीत पर्व पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी स्वतन्त्रता को अमर बनाये रखेंगे और स्वतन्त्रतासेनानियों के अधूरे स्वप्नों को साकार कर दिखाएँगे। कृतज्ञ राष्ट्र की उन अमर शहीदों को यही सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि होगी।

स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व-स्वतन्त्रता दिवस का हम सबके लिए बहुत महत्त्व है; क्योंकि देश को स्वतन्त्र कराने के लिए हमारे देश के न जाने कितने वीर जवानों ने अपने प्राणों की बलि दी है, कितनी माताओं ने अपने होनहार पुत्रों को खोया है, कितनी बहनों के भाई उनसे बिछुड़ गये, कितनी सुहागिनों की माँगें सूनी हो गयीं। अनेक नेताओं ने स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए वर्षों जेलों की यातनाएँ भोगी हैं। वे अंग्रेजों द्वारा दी गयी यातनाओं से डिगे नहीं, वरन् जी-जान से अपनी कोशिश में जुटे रहे। उन्होंने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए भारतीय जनता को उत्साहित किया। कहने का तात्पर्य यह है कि कड़ी मेहनत और बलिदानों के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हो सका है। जो वस्तु जितनी अधिक मेहनत और बलिदानों से प्राप्त की जाती है, उसका महत्त्व उतना ही अधिक बढ़ जाता है।

विभिन्न समारोह मनाये जाने के कारण–स्वतन्त्रता दिवस के दिन हम विभिन्न समारोहों का आयोजन करके उन शहीदों की याद को तरोताजा करते हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी और अमर हो गये। उनकी याद प्रत्येक भारतवासी को देश के लिए निछावर हो जाने की प्रेरणा देती है। इन समारोहों से देश के भावी कर्णधारों के हृदय में राष्ट्रभक्ति के बीज अंकुरित हो जाते हैं तथा जनजन के मन में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ उद्वेलित हो जाती हैं। साथ ही सैकड़ों वर्षों की दासता से मुक्ति मिलने के कारण इस दिन को याद रखना और उत्सव मनाना एक स्वाभाविक बात हो जाती है।

राष्ट्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय स्तरों पर कार्यक्रमों का आयोजन-खुशी के कारण ही स्वतन्त्रता दिवस सभी स्तरों-राष्ट्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय–पर बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिवस की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपना सन्देश प्रसारित करते हैं। दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से पहले प्रधानमन्त्री सेना की तीनों टुकड़ियों, अन्य सुरक्षा बलों, स्काउटों आदि का निरीक्षण कर सलामी लेते हैं। फिर लाल किले के मुख्य द्वार पर पहुँचकर राष्ट्रीय ध्वज फहराकर उसे सलामी देते हैं तथा राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इस सम्बोधन में पिछले वर्ष सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लेखाजोखा, अनेक नवीन योजनाओं तथा देश-विदेश से सम्बन्ध रखने वाली नीतियों के बारे में उद्घोषणा की जाती है। अन्त में राष्ट्रीय गान के साथ यह मुख्य समारोह समाप्त हो जाता है। रात्रि में दीपों की जगमगाहट से विशेषकर संसद भवन व राष्ट्रपति भवन की सजावट देखते ही बनती है। राज्यों की राजधानी में भी यह उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है। राज्यों के मुख्यमन्त्री प्रदेश की जनता को (UPBoardSolutions.com) सम्बोधित कर उसे प्रदेश की प्रगति की योजनाओं से अवगत कराते हैं। छोटे-बड़े सभी नगरों में इस अवसर पर अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, जिनमें ध्वजारोहण, राष्ट्रगान और उत्साहवर्द्धक भाषण होते हैं। सर्वत्र प्रभातफेरी का भी आयोजन किया जाता है।

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हमारे विद्यालय में स्वतन्त्रता दिवस समारोह हमारे विद्यालय में भी स्वतन्त्रता दिवस प्रत्येक वर्ष बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस वर्ष भी प्रात:काल 8 बजे विद्यालय के प्रांगण में प्रधानाचार्य, अध्यापक और सभी विद्यार्थी उपस्थित हो गये। ध्वजारोहण के साथ उत्सव आरम्भ हुआ। प्रधानाचार्य महोदय ने तिरंगा झण्डा फहराया। एन० सी० सी० कैडेटों ने झण्डे को सलामी दी और स्काउट ने बैण्ड बजाया। सभी ने मिलकर राष्ट्रगान गाया। फिर प्रधानाचार्य, सभी अध्यापक और विद्यार्थी अपने-अपने स्थान पर बैठ गये। सर्वप्रथम कुछ विद्यार्थी बारी-बारी से मंच पर आये और उन्होंने देशभक्ति के गीत सुनाये तथा कविताओं के अलावा ओजपूर्ण भाषण भी दिये। विद्यार्थियों के पश्चात् कुछ अध्यापकों ने भी भाषण दिये। किसी ने स्वतन्त्रता का अर्थ और महत्त्व समझाया तो किसी ने भारतीय संस्कृति और उसके गौरवमय इतिहास पर प्रकाश डाला। अन्त में हमारे प्रधानाचार्य महोदय ने अपना ओजस्वी भाषण दिया तथा विद्यार्थियों को अपने कर्तव्य को ईमानदारी और सच्चाई से पालन करने की शिक्षा दी।

उपसंहार-यह उत्सव देश में सभी स्थानों पर बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। यह हमें इस बात की याद दिलाता है कि इस दिन हम अंग्रेजों की परतन्त्रता की यातनामयी बेड़ियों से बड़ी कठिनाई से मुक्त हुए थे। देश की स्वतन्त्रता के लिए हमारे वीरों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी; अतः हमें इसकी

तन-मन-धन से रक्षा करनी चाहिए और अवसर पड़ने (UPBoardSolutions.com) पर भारत की एकता और अखण्डता के लिए अपना बलिदान देने हेतु तैयार रहना चाहिए। स्वतन्त्रता के पुनीत पर्व पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी स्वतन्त्रता को अमर रखेंगे तथा स्वतन्त्रता-सेनानियों के अधूरे सपनों को साकार करेंगे। उन अमर शहीदों के लिए कृतज्ञ राष्ट्र की यही सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि होगी।

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3. हमारे राष्ट्रीय पर्व [2015]

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  • भारत के राष्ट्रीय त्योहार

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. गणतन्त्र दिवस,
  3. स्वतन्त्रता दिवस,
  4. गाँधी जयन्ती,
  5. राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–भारतवर्ष को यदि विविध प्रकार के त्योहारों का देश कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। इस धरा-धाम पर इतनी जातियाँ, धर्म और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं कि उनके सभी त्योहारों को एक-एक दिन में दो-दो त्योहार मनाकर भी वर्ष भर में पूरा नहीं किया जा सकता। पर्वो का मानव-जीवन व राष्ट्र के जीवन में विशेष महत्त्व होता है। इनसे नयी प्रेरणा मिलती है, जीवन की नीरसता दूर होती है तथा रोचकता और आनन्द में वृद्धि होती है। जिन पर्वो का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, जाति या धर्म के मानने वालों से न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र से होता है तथा जो पूरे देश में सभी नागरिकों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाये जाते (UPBoardSolutions.com) हैं, उन्हें . राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस एवं गाँधी जयन्ती हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं। ये उन अमर शहीदों व देशभक्तों का स्मरण कराते हैं, जिन्होंने राष्ट्र की स्वतन्त्रता, गौरव व इसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए अपने प्राणों को भी सहर्ष निछावर कर दिया।

गणतन्त्र दिवस-गणतन्त्र दिवस हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रतिवर्ष 26 जनवरी को समस्त देशवासियों द्वारा मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 ई० में हमारे देश में अपना संविधान लागू हुआ था। इसी दिन हमारा राष्ट्र पूर्ण स्वायत्त गणतन्त्र राज्य बना; अर्थात् भारत को पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न गणराज्य घोषित किया गया। यही दिन हमें 26 जनवरी, 1930 का भी स्मरण कराता है, जब जवाहरलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पारित किया गया था।

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गणतन्त्र दिवस का त्योहार बड़ी धूमधाम से यों तो देश के प्रत्येक भाग में मनाया जाता है, पर इसका मुख्य आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में ही किया जाता है। इस दिन सबसे पहले देश के प्रधानमन्त्री इण्डिया गेट पर शहीद जवानों की याद में प्रज्वलित की गयी जवान ज्योति पर सारे राष्ट्र की ओर से सलामी देते हैं। उसके बाद अपने मन्त्रिमण्डल के सदस्यों के साथ राष्ट्रपति महोदय की अगवानी करते हैं। राष्ट्रपति भवन के सामने स्थित विजय चौक में राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ ही मुख्य पर्व मनाया जाना आरम्भ होता है। इस दिन विजय चौक से प्रारम्भ होकर लाल किले तक जाने वाली परेड समारोह का प्रमुख आकर्षण होती है। क्रम से तीनों सेनाओं (जल, थल, वायु), सीमा सुरक्षा बल, अन्य सभी प्रकार के बलों, पुलिस आदि की टुकड़ियाँ राष्ट्रपति को सलामी देती हैं। एन० सी० सी०, एन० (UPBoardSolutions.com) एस० एस० तथा स्काउट, स्कूलों के बच्चे सलामी के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए गुजरते हैं। इसके उपरान्त सभी प्रदेशों की झाँकियाँ आदि प्रस्तुत की जाती हैं तथा शस्त्रास्त्रों का भी प्रदर्शन किया जाता है। राष्ट्रपति को तोपों की सलामी दी जाती है तथा परेड, झाँकियों आदि पर हेलीकॉप्टरों-हवाई जहाजों से पुष्प वर्षा की जाती है। ”

स्वतन्त्रता दिवस-पन्द्रह अगस्त के दिन मनाया जाने वाला स्वतन्त्रता दिवस का त्योहार दूसरा मुख्य राष्ट्रीय त्योहार माना गया है। इसके आकर्षण और मनाने का मुख्य केन्द्र दिल्ली स्थित लाल किला है। यों सारे नगर और सारे देश में भी अपने-अपने ढंग से इसे मनाने की परम्परा है। स्वतन्त्रता दिवस प्रत्येक वर्ष अगस्त मास की पन्द्रहवीं तिथि को मनाया जाता है। इसी दिन लगभग दो सौ वर्षों के अंग्रेजी दासत्व के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हुआ था। इसी दिन ऐतिहासिक लाल किले पर हमारा तिरंगा झण्डा फहराया गया था। यह स्वतन्त्रता राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के भगीरथ प्रयासों व अनेक महान् नेताओं तथा देशभक्तों के बलिदान की गाथा है। यह स्वतन्त्रता इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इसे बन्दूकों, तोपों जैसे अस्त्र-शस्त्रों से नहीं वरन् सत्य, अहिंसा जैसे शस्त्रास्त्रों से प्राप्त किया गया था। इस दिवस की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपना सन्देश प्रसारित करते हैं। दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से पहले प्रधानमन्त्री सेना की तीनों टुकड़ियों, अन्य सुरक्षा बलों, स्काउटों आदि का निरीक्षण कर सलामी लेते हैं। फिर लाल किले के मुख्य द्वार पर पहुँचकर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर उसे सलामी देते हैं तथा राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इसे सम्बोधन में पिछले वर्ष सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लेखा-जोखा, अनेक नवीन योजनाओं तथा देश-विदेश से सम्बन्ध रखने वाली नीतियों के बारे में उद्घोषणा की जाती है। अन्त में, राष्ट्रीय गान के साथ यह मुख्य समारोह समाप्त हो जाता है।

गाँधी जयन्ती-गाँधी जयन्ती भी हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रतिवर्ष गाँधीजी के जन्म-दिवस की शुभ स्मृति में 2 अक्टूबर को देश भर में मनाया जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन में गाँधीजी ने अहिंसात्मक रूप से देश का नेतृत्व किया और देश को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने सत्याग्रह, असहयोग
आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन से शक्तिशाली अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर । विवश कर दिया। गाँधीजी ने राष्ट्र एवं दीन-हीनों की सेवा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। प्रतिवर्ष सारा देश उनके त्याग, (UPBoardSolutions.com) तपस्या एवं बलिदान के लिए उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके बताये गये रास्ते पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करता है।

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राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व-इन तीन मुख्य पर्वो के अतिरिक्त अन्य कई पर्व भी भारत में मनाये जाते हैं और उनका भी राष्ट्रीय महत्त्व स्वीकारा जाता है। ईद, होली, वसन्त पंचमी, बुद्ध पंचमी, वाल्मीकि प्राकट्योत्सव, विजयादशमी, दीपावली आदि इसी प्रकार के पर्व माने जाते हैं। हमारी राष्ट्रीय अस्मिता किसी-न-किसी रूप में इन सभी पर्वो के साथ जुड़ी हुई है, फिर भी मुख्य महत्त्व उपर्युक्त तीन पर्वो का ही

उपसंहार-त्योहार तीन हों या अधिक, सभी का महत्त्व मानवीय एवं राष्ट्रीय अस्मिता को उजागर करना ही होता है। मानव-जीवन में जो एक आनन्दप्रियता, उत्सवप्रियता की भावना और वृत्ति छिपी रहती है, उनका भी इस प्रकार से प्रकटीकरण और स्थापन हो जाया करता है।
हमारे राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीय एकता के प्रेरणास्रोत हैं। ये पर्व सभी भारतीयों के मन में हर्ष, उल्लास और नवीन राष्ट्रीय चेतना का संचार करते हैं। साथ ही देशवासियों को यह संकल्प लेने हेतु भी प्रेरित करते हैं कि वे अमर शहीदों के बलिदानों को व्यर्थ नहीं जाने देंगे तथा अपने देश की रक्षा, (UPBoardSolutions.com) गौरव व इसके उत्थान के लिए सदैव समर्पित रहेंगे।

4. राष्ट्रीय एकता [2009, 10, 15]

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  • राष्ट्रीय सुरक्षा एवं एकता
  • राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्र-प्रेम

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रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय,
  2. भारत में अनेकता के विविध रूप,
  3. राष्ट्रीय एकता का आधार,
  4. राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता,
  5. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ,
  6. राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय-‘एकता’ एक भावात्मक शब्द है, जिसका अर्थ है‘एक होने की भाव’। इस प्रकार ‘राष्ट्रीय एकता’ का अभिप्राय है देश का सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से एक होना। इन दृष्टिकोणों से भारत में अनेकता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु बाह्य रूप से दिखाई देने वाली इस अनेकता के मूल में वैचारिक एकता , निहित है। अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है। किसी भी राष्ट्र की एकता उसके राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक होती है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव पर अभिमान नहीं होता, वह मनुष्य नहीं है

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नरपशु है निरा और मृतक समान है।

भारत में अनेकता के विविध रूप-भारत एक विशाल देश है। उसमें अनेकता होनी स्वाभाविक ही , है। धर्म के क्षेत्र में हिन्दू , मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलम्बी यहाँ निवास करते हैं। इतना ही नहीं, एक-एक धर्म में भी कई अवान्तर भेद हैं। सामाजिक दृष्टि से विभिन्न जातियाँ, उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर आदि विविधता के सूचक हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, पूजा-पाठ आदि की भिन्नता ‘अनेकता’ (UPBoardSolutions.com) की द्योतक है। राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद आदि अनेक वाद राजनीतिक विचार-भिन्नता का संकेत करते हैं। आर्थिक दृष्टि से पूँजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि विचारधाराएँ भिन्नता दर्शाती हैं। इसी प्रकार भारत की प्राकृतिक शोभा, भौगोलिक स्थिति, ऋतु-परिवर्तन आदि में भी पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है।

राष्ट्रीय एकता का आधार हमारे देश की एकता के आधार दर्शन (Philosophy) और साहित्य (Literature) हैं। ये सभी प्रकार की भिन्नताओं और असमानताओं को समाप्त करने वाले हैं। भारतीय दर्शन सर्व-समन्वय की भावना का पोषक है। यह किसी एक भाषा में नहीं लिखा गया है, अपितु यह देश की विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है। इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्र के निवासियों द्वारा लिखे जाने के बावजूद क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता, वरन् सबके लिए भाईचारे, मेल-मिलाप और सद्भाव का सन्देश देता हुआ देशभक्ति के भावों को जगाता है।

राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता–राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता है। भारत के सन्तों ने तो प्रारम्भ से ही मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं माना, वे तो सम्पूर्ण मनुष्य-जाति को एक सूत्र में बाँधने के पक्षधर रहे।

राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था, “जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी।” अत: देश की स्वतन्त्रता की रक्षा और राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय एकता का होना परम आवश्यक है।

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राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ-उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अनेक समाज-सुधारकों और दूरदर्शी राजपुरुषों के सत्प्रयत्नों से यह आन्तरिक एकता मजबूत हुई। लेकिन स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अनेक तत्त्व इसको खण्डित करने में सक्रिय रहे हैं, जो निम्नवत् हैं

(क) साम्प्रदायिकता–साम्प्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टिकोण है। संसार के विविध धर्मों में जितनी बातें बतायी मयी हैं, उनमें से अधिकांश बातें समान हैं; जैसे–प्रेम,
सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा, पवित्रता आदि। सच्चा धर्म कभी भी दूसरे से घृणा करना नहीं सिखाता। वह तो सभी से प्रेम करना, सभी की सहायता करना, सभी को समान समझना सिखाता है।

(ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता-अंग्रेज शासकों ने न केवल धर्म, वरन् प्रान्तीयता की अलगाववादी भावना को भी भड़काया है। इसीलिए जब-तब राष्ट्रीय भावना के स्थान पर हमें पृथक् अस्तित्व (राष्ट्र) और पृथक् क्षेत्रीय शासन स्थापित करने की माँगें (UPBoardSolutions.com) सुनाई पड़ती हैं। इस प्रकार क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत बड़ी बाधा है। ।

(ग) भाषावाद–भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। यहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। प्रत्येक भाषा-भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों से बढ़कर मानता है। फलत: विद्वेष और घृणा का प्रचार होता है और अन्ततः राष्ट्रीय एकता प्रभावित होती है।

(घ) जातिवाद-मध्यकाल में भारत के जातिवादी स्वरूप में जो कट्टरता आयी थी, उसने अन्य जातियों के प्रति घृणा और विद्वेष का भाव विकसित कर दिया। पुराकाल की कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था ने वर्तमान में जन्म पर आधारित कट्टर जाति-प्रथा का रूप ले लिया, जिसने भी भारत की एकता को बुरी तरह प्रभावित किया।

राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय–वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रस्तुत हैं

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(क) सर्वधर्म समभाव-विभिन्न धर्मों में जितनी भी अच्छी बातें हैं, यदि उनकी तुलना अन्य धर्मों । की बातों से की जाए तो उनमें एक अद्भुत समानता दिखाई देगी; अतः हमें सभी धर्मों का समान आदर करना चाहिए। धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर किसी को ऊँचा या नीचा समझना अनुचित है।

(ख) समष्टि-हित की भावना–यदि हमें अपनी स्वार्थ-भावना को त्यागकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें तथा धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के नाम पर न सोचकर समूचे राष्ट्र के नाम पर सोचे तो अलगाववादी भावना के स्थान पर एकता की भावना सुदृढ़ होगी।

(ग) एकता का विश्वास–भारत में जो दृश्यमान अनेकता है, उसके अन्दर ही एकता का भी निवास है–इस बात का प्रचार समुचित ढंग से किया जाए, जिससे सभी नागरिकों को अनेकता में अन्तर्निहित एकता का विश्वास हो सके। वे पारस्परिक प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास जगा सकें।

(घ) शिक्षा को प्रसार–छोटी-छोटी व्यक्तिगत द्वेष की भावनाएँ राष्ट्र को कमजोर बनाती हैं। शिक्षा का सच्चा अर्थ एक व्यापक अन्तर्दृष्टि व विवेक है। इसलिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थी की संकुचित भावनाएँ शिथिल हों।

(ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त–आजकल स्वार्थी राजनेता साम्प्रदायिक अथवा जातीय विद्वेष, घृणा और हिंसा भड़काते हैं और सम्प्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस प्रकार के राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त और राजनीतिक वातावरण (UPBoardSolutions.com) के स्वच्छ होने से भी एकता का भाव सुदृढ़ होगा।

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उपसंहार-राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा, क्योंकि मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना ही संसार में समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। इसीलिए जब तक हममें मानवीयता की भावना विकसित नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। यह भाव उपदेशों, भाषणों और राष्ट्रीय गीत के माध्यम से सम्भव नहीं।

5. राष्ट्रभाषा हिन्दी [2014]

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का योगदान
  • राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएँ
  • देश की सम्पर्क भाषा : हिन्दी

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्रता से पूर्व हिन्दी,
  3. सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी,
  4. हिन्दी : एक सक्षम भाषा,
  5. हिन्दी के विकास में बाधाएँ,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–स्वतन्त्रता से पूर्व देश अंग्रेजी शासन के अधीन था। अंग्रेजों को अपना राज-काज चलाने के लिए कुछ ऐसे पढ़े-लिखे भारतीय और लिपिकों की आवश्यकता थी, जो स्वयं को भाषा के ज्ञान के कारण अन्य भारतीयों से श्रेष्ठ समझते हों। दुर्भाग्यवश उन्हें ऐसे लोगों का पूरा वर्ग ही मिल गया। देश की परतन्त्रता तक तो दूसरी बात थी, लेकिन देश के स्वतन्त्र होने के बाद भी इस वर्ग का चरित्र नहीं बदला और वह इस प्रयास में लगा रहा कि किसी भी (UPBoardSolutions.com) तरह अंग्रेज़ी ही देश की कामकाजी भाषा बनी रहे। उसे अपने प्रयास में सफलता भी मिली, जब हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित किये जाने के बावजूद भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गयी कि आगामी 15 वर्ष तक हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा भी सरकारी काम-काज की भाषा बनी रहेगी। तब से अब तक पैंसठ से भी अधिक वर्ष बीत गए, लेकिन सरकारी काम-काज की भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व आज भी बना हुआ है।

स्वतन्त्रता से पूर्व हिन्दी-भारत में अंग्रेजों के पैर पसारने और जमाने से पूर्व हिन्दी ही जनभाषा थी। देश में अंग्रेजी भाषा का प्रचार-प्रसार होने से पूर्व शताब्दियों तक हिन्दी देश को भावनात्मक एकता के सूत्र में बाँधे रही। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में हिन्दी भाषी लोगों के अलावा अनेक अहिन्दी भाषी लेखकों, सन्तों और नेताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिनमें महात्मा गाँधी, स्वामी दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, बंकिमचन्द्र चटर्जी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी-आज पंजाब से लेकर असोम तक तथा जम्मू-कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र-आन्ध्र प्रदेश तक बोली और समझी जाने वाली एकमात्र भाषा हिन्दी ही है। इसी भाषा के द्वारा , विभिन्न प्रदेशों के निवासी अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। अमृतसर से चलकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल को पार करके अंसोम के गुवाहाटी नगर तक पहुँचने वाला ट्रक ड्राइवर रास्ते भर जिस भाषा का प्रयोग करता है, वह हिन्दी ही है। इस प्रकार हिन्दी भारत के जन-सामान्य की सम्पर्क भाषा बन गयी है। यह वह भाषा है, जो सम्पूर्ण राष्ट्र को एकसूत्र में बाँधने का काम करती है और हमारी राष्ट्रीय एकता को मजबूत भी करती है।

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हिन्दी : एक सक्षम भाषा–आज हिन्दी एक सक्षम भाषा बन चुकी है। स्वतन्त्रता के समय हिन्दी पर यह आरोप लगाया जाता था कि इसमें वैज्ञानिक और गम्भीर विवेचनात्मक विषयों के लिए अनुकूल शब्दावली का अभाव है, लेकिन स्वतन्त्रता के बाद इस ओर गम्भीर प्रयास किये गये हैं। तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये शब्दों को गढ़ लिया गया है। नये होने के कारण ये शब्द थोड़े कठिन प्रतीत होते हैं। इसी को आधार बनाकर अंग्रेजी प्रेमी हिन्दी पर यह आरोप लगाते हैं कि इसकी शब्दावली कठिन है। लेकिन यह ध्यान रखने की बात है कि कोई भी नई बात शुरू में कठिन ही लगा करती है। भाषा कोई भी हो, उसे सीखने में (UPBoardSolutions.com) परिश्रम और समय तो लगता ही है। अतः अपने राष्ट्र और भाषा के गौरव की रक्षा के लिए हमें अपनी भाषा को सीखने में थोड़ा परिश्रम तो करना ही चाहिए।

हिन्दी के विकास में बाधाएँ-हिन्दी के विकास में कुछ प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं
(i) राजनीतिक कारणों ने अहिन्दी भाषी लोगों के मन में यह बात बैठा दी है कि यदि अंग्रेजी न रही, तो प्रतियोगी परीक्षाओं में हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों का वर्चस्व हो जाएगा और अहिन्दी भाषी दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रह जाएंगे।
(ii) सरकार और प्रशासन में कतिपय महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन कुछ स्वार्थी लोग यह समझते हैं कि यदि अंग्रेजी का स्थान हिन्दी ने ले लिया, तो उनका वर्चस्व समाप्त हो जाएगा और एक गरीब मजदूर का बेटा भी उनसे स्पर्धा करने की स्थिति में आ जाएगा।
(iii) कुछ स्वार्थी लोग प्रादेशिक भाषाओं के विकास की बात करके हिन्दी को उनका प्रतिद्वन्द्वी बताते हैं, जबकि हिन्दी का प्रादेशिक भाषाओं से कोई बैर नहीं। हिन्दी के विकास-मार्ग में यदि कोई भाषा बाधा है, तो वह अंग्रेजी है। अंग्रेजी ही हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं की जीवन-शक्ति को चूसकर स्वयं पोषित होती रही है।
उपसंहार–राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था

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है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी॥

वास्तविकता यह है कि हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है, जो भारत की सबसे सम्पन्न भाषा है। यही सम्पूर्ण देश की सम्पर्क भाषा आज भी बनी हुई है। अपनी सरलता, स्पष्टता, समर्थता और बोधगम्यता के कारण यह राष्ट्रभाषा का गौरव पाने की अधिकारिणी (UPBoardSolutions.com) है। प्रत्येक भारतवासी का यह कर्तव्य है कि वह अपने दैनिक जीवन में हिन्दी का अधिक-से-अधिक प्रयोग करे और हिन्दी में बोलने में गर्व का अनुभव करे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने भी उचित ही लिखा है–

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल।

6. देश की प्रगति में विद्यार्थियों की भूमिका (2015)

सम्बद्ध शीर्षक

  • देशोन्नति में छात्रों का योगदान [2012]
  • छात्र जीवन/विद्यार्थी जीवन [2014]
  • राष्ट्र की सुरक्षा में नवयुवकों का योगदान ।
  • विद्यार्थी और देश-प्रेम

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रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. विद्यार्थी जीवन का महत्त्व,
  3. कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थान,
  4. भ्रष्टाचार व दुराचार को उन्मूलन,
  5. काले धन की समाप्ति हेतु प्रयास,
  6. चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना–विद्यार्थी राष्ट्र का भावी नेता और शासक है। देश की उन्नति और भावी विकास का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उसके सबल कन्धों पर आने वाला है। वास्तव में राष्ट्र की उन्नति और प्रगति के लिए । वह मुख्य धुरी का काम कर सकता है। जिस देश का विद्यार्थी सतत जागरूक, सतर्क और सावधान होता है, वह देश प्रगति की दौड़ में कभी पीछे नहीं रह सकता। विद्यार्थी एक नवजीवन का सशक्त संवाहक होता है। उसमें रूढ़ियों और (UPBoardSolutions.com) परम्पराओं के अटकाव नहीं होते, पूर्वाग्रह से उसकी दृष्टि धूमिल नहीं होती, वरन् वह नये विचारों एवं योजनाओं को क्रियान्वित करने की भरपूर क्षमता से ओतप्रोत होता है।

विद्यार्थी जीवन का महत्त्व-‘विद्यार्थी’ शब्द की संरचना है-‘विद्या +अर्थी’ अर्थात् जो विद्यार्जन में सदा संलग्न रहने वाला हो। विद्या प्राप्त करने के लिए परिश्रम और लगन की आवश्यकता होती है। आचार्य चाणक्य ने ठीक ही कहा है, “सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ ? सुख चाहने वाला विद्या को छोड़ दे और विद्या चाहने वाला सुख को छोड़ दे।’ शास्त्रों में आदर्श विद्यार्थी को एकाग्रचित्त, सजग, चुस्त, कम भोजन करने वाला और चरित्र-सम्पन्न बताया गया है

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काकचेष्टा बकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी सदाचारी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम् ॥

एक अच्छा विद्यार्थी देशवासियों में देशभक्ति की भावना उजागर कर सकता है। देश की एकता व संगठन की भावना को सवल बनाकर भावात्मक एकता को पुष्ट कर सकता है।

कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थाने–आज देश में कई अन्धविश्वास, अशिक्षा, अज्ञान, रूढ़ियाँ तथा कुप्रथाएँ प्रचलित हैं। इससे देश की यथोचित प्रगति नहीं हो पा रही है। विद्यार्थियों को इन रूढ़ियों और कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए बीड़ा उठाना होगा। आज भी गाँवों में लोग ऋणग्रस्त और शोषण के शिकार हैं। विद्यार्थियों को गाँवों में जाकर साक्षरता, सहकारिता आदि कार्यक्रमों को चलाने में सहयोग करना चाहिए। गाँवों में लघु और कुटीर उद्योगों के प्रचलन के महत्त्व को समझाकर उनके विकास के लिए उन्हें पर्याप्त प्रशंसा, प्रोत्साहन व सम्मान भी देना चाहिए।

भ्रष्टाचार व दुराचार का उन्मूलन–आज देश में सर्वत्र भ्रष्टाचार व्याप्त है। कोई भी कार्य रिश्वत के बिना नहीं चलता। पुलिस व न्यायालय-कर्मचारी खुले रूप से रिश्वत माँगते हैं। रक्षक ही भक्षक बन गये हैं। मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। इस भ्रष्टाचार से लड़ना कोई सामान्य बात नहीं है। इसके लिए निर्भीक विद्यार्थियों को आगे आकर इस भ्रष्टाचाररूपी दानव से लड़ना होगा। जब तक देश से भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा, देश की प्रगति होना मुमकिन नहीं है।

देश में दुराचार की विभीषिका भी बढ़ती जा रही है। लूटपाट, हत्याएँ और बलात्कार की घटनाओं से समाचार-पत्रों के पृष्ठ-के-पृष्ठ रँगे रहते हैं। देश में प्रचलित शासन-व्यवस्था भले और ईमानदार आदमियों के हाथों में न रहकर भ्रष्ट, बदमाश, सफेदपोश लोगों के हाथों में चली गयी है। इस अभाव की पूर्ति विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। उसे इस महामारी से लड़कर इसका उन्मूलन करना होगा।

काले धन की समाप्ति हेतु प्रयास-काला धन अथवा कालाबाजार रूपी महादानव भी बड़ा शक्तिशाली, दुर्धर्ष और महा भयंकर है। जनता किसी ऐसे सहयोग व नेतृत्व की आकांक्षा रखती है जो इस विषम स्थिति से देश की रक्षा कर सके। इससे लोहा लेने (UPBoardSolutions.com) के लिए भी विद्यार्थी वर्ग ही तत्पर हो सकता है।

चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव—बड़े-बड़े कल-कारखाने खोलने से तथा बड़े-बड़े बाँध बनाने से राष्ट्र सच्चे अर्थों में विकास नहीं कर सकता। हमें आने वाली पीढ़ियों के चरित्र-निर्माण की ओर विशेष ध्यान देना है। चरित्र-निर्माण ही शिक्षा का मुख्य व पवित्र उद्देश्य होना चाहिए। जिस देश में चरित्रवान् लोग रहते हैं, उस देश का सिर गौरव से सदा ऊँचा रहता है।

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उपसंहार–किसी देश की वास्तविक उन्नति उसके परिश्रमी, लगनशील, पुरुषार्थी और चरित्रवान् पुरुषों से ही सम्भव है। भारत के विद्यार्थी भी चरित्रवान् बनकर देश के अन्दर वर्तमान में व्याप्त सभी बुराइयों का उन्मूलन कर देश की प्रगति में सच्चा योगदान कर सकते हैं। आज का विद्यार्थी वर्ग राजनीतिक पार्टियों के चक्कर में उलझकर अपने भविष्य को अन्धकारमय बना रहा है। आज के विद्यार्थी को इन सबसे अलग रहकर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। उसकी भावना राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर करने की होनी चाहिए।

7. भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. संस्कृति क्या है?,
  3. भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना–हजारों वर्षों की परम्पराओं से पुष्ट भारतवर्ष किसी समय विश्व गुरु कहलाता था। जिस । समय आज के उन्नत एवं सभ्य कहे जाने वाले राष्ट्र अस्तित्वहीन थे या जंगली अवस्था में थे, उस समय । भारत-भूमि पर वैदिक ऋचाएँ लिखी जा रही थीं, वैदिक (UPBoardSolutions.com) मन्त्रों के गान पूँज रहे थे और यज्ञों की पवित्र ज्वालाओं का सुगन्धित धुआँ पूरे वातावरण को आनन्दमय बना रहा था। भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति महान् है। कविवर इकबाल ने लिखा है कि

यूनान मिस्र रोमाँ, सब मिट गए जहाँ से,
लेकिन बचा है अब तक, नामो-निशां हमारा।

निश्चय ही उनका संकेत भारत की महान् संस्कृति की ओर ही था। हजारों वर्ष की पराधीनता का अन्धकार भी हमें हमारी प्राचीन विरासत से वंचित नहीं कर पाया। रामायण, महाभारत, वेद-पुराण आज भी हमारे पूज्य ग्रन्थ हैं और आज भी गंगा, नर्मदा, कावेरी हमारे लिए पवित्र हैं। भारतीय संस्कृति अजर-अमर है। क्योंकि यह समय के साथ बदलती रही है। इसमें मानव-मात्र की रक्षा का भाव निहित है।

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संस्कृति क्या है ?–संस्कृति वह है जो श्रेष्ठ कृति अर्थात् कर्म के रूप में व्यक्त होती है। कर्म निश्चय ही विचार पर आधारित होता है। जो ज्ञान एवं भाव-सम्पदा हमारे कर्मों को श्रेष्ठ बनाती है वही संस्कृति है। मनुष्य में पशुता और देवत्व का वास साथ-साथ रहता है। जो भाव या विचार हमें पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाते है, उन्हें संस्कृति का अंग माना जाना चाहिए।

मनुष्य, जब जन्म लेता है, तब वह प्राकृतिक अवस्था में होता है। समाज के प्रभाव एवं उसके अपने अनुभव उसे प्रकृति में विकृति की ओर ले जा सकते हैं और सृकृति की ओर भी। सुकृति अर्थात् अच्छे कार्यों की ओर ले जाना ही संस्कृति का कार्य है। दूध यदि विकृति की ओर जाएगा तो वह फट जाएगा। यदि सुकृति की ओर जाएगा तो दही, मक्खन आदि पदार्थों का निर्माण होगा और उसकी कीमत भी अधिक बढ़ जाएगी। इसी प्रकार मनुष्य यदि पशुत्व अथवा दानवत्व की ओर जाएगा तो उसकी हत्या करनी पड़ेगी और यदि वह देवत्व की ओर जाएगा, तो उसकी पूजा होगी। भारतीय संस्कृति ने सदा ही अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रार्थना की है; यथा–तमसो मा ज्योतिर्गमय। संस्कृति हमारे भौतिक जीवन को सुधारती है और हमारे ऐन्द्रिक जगत् को परिष्कृत करती है। विचारों एवं भावों का परिष्कार भी संस्कृति का ही कार्य है। संस्कृति यह कार्य साहित्य, विज्ञान एवं कलाओं का प्रचार-प्रसार करके करती है।

भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ-भारतीय संस्कृति की एक विशेषता यह है कि यह किसी एक जाति अथवा राष्ट्र तक सीमित नहीं। वैदिक ऋषि सारे विश्व को आर्य अर्थात् श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं। वे अपने मन्त्रों में सम्पूर्ण सृष्टि के लिए मंगल-कामना करते हैं तथा मानव-मात्र को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने का प्रण दोहराते हैं।

भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भौतिक उन्नति को हम भारतवासियों ने त्याज्य नहीं माना परन्तु उसे आत्मिक जीवन से ज्यादा महत्त्व भी नहीं दिया। साधु-महात्माओं की पर्ण कुटियों पर सम्राटों ने सदा ही सिर झुकाये हैं, सन्तोष एवं संयम को यहाँ सदा सम्मान मिला है। ईश्वर में अटल विश्वास रखने वाले अधनंगे फकीरों ने यहाँ के जन-जीवन को सम्राटों की अपेक्षा अधिक प्रभावित किया है। त्याग हमारी भारतीय संस्कृति में सदा से (UPBoardSolutions.com) ही सम्मान पाता रहा है।

भारतीय संस्कृति में नारी सदा ही सम्मान एवं पूजा की अधिकारिणी रही है। कृष्ण से पहले राधा और राम से पहले सीता का नाम केवल यहीं लिया जाता है। इसी देश में नारी को शक्ति के रूप में, ज्ञान के प्रकाश के रूप में, लक्ष्मी की उज्ज्वलता के रूप में देखा जा सकता है। विश्व की अन्य किसी भी संस्कृति में नारी-शक्ति को ऐसा गौरवपूर्ण स्थान नहीं मिला है।

भारतीय संस्कृति उदार, ग्रहणशील एवं समय के साथ परिवर्तनशील रही है। अनेक विदेशी संस्कृतियाँ इससे टकराकर नष्ट हो गयीं या इसी का अंग बन गयीं। यहाँ पर शक, कुषाण, हूण, पठान, मुसलमान, पारसी, यहूदी, ईसाई सभी आये और सभी ने यहाँ की संस्कृति को पुष्ट किया और इसी संस्कृति में धीरे-धीरे विलीन हो गये। भारतीय संस्कृति इस अर्थ में समन्वय प्रधान संस्कृति है। यह सुन्दर फूलों के एक ऐसे गुलदस्ते के समान है, जिसमें विभिन्न रंगों-वर्णो के फूल हैं।

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उपसंहार–सार रूप में हम कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति सही अर्थों में मानव-संस्कृति है, उदार संस्कृति है, अध्यात्म-प्रधान और आदर्श-परक संस्कृति है तथा मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा करने वाली संस्कृति है।

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UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल

UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल (सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी)

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अभ्यास

प्रश्न 1.
खजुराहो के मन्दिर किस वंश के शासकों ने बनवाए थे ?
उत्तर :
खजुराहो के मन्दिर चन्देल वंश के शासकों ने बनवाए थे।

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प्रश्न 2.
नरसिम्हा प्रथम ने कौन सा मन्दिर बनवाया था ?
उत्तर :
नरसिम्हा प्रथम ने कोणार्क का सूर्य मन्दिर बनवाया था।

प्रश्न 3.
चंद्रावार का युद्ध किनके बीच लड़ा गया ?
उत्तर :
चंद्रावर का युद्ध मुहम्मद गोरी और कन्नौज के राजा जयचंद के बीच लड़ा गया।

प्रश्न 4.
राजपूत काल में शिक्षा के मुख्य केन्द्र कौन-कौन से थे ?
उत्तर ;
राजपूत शासकों के समय में आश्रमों, पाठशालाओं एवं विश्वविद्यालयों में शिक्षा दी जाती थी। इस समय नालन्दा, विक्रमशिला, उज्जयिनी, कन्नौज, काशी, धारानगरी प्रमुख शिक्षा केन्द्र थे।

प्रश्न 5.
उत्तर भारत में राजपूतों के राजनैतिक महत्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
उत्तरी भारत में राजपूत (या राजपुत्र) नामक क्षत्रिय वर्ग उदित हुआ। परमार, चौहान, चंदेल, प्रतिहार और गहरवार आदि अग्निकुण्ड से निकले क्षत्रिय माने गए। इनमें परस्पर झूठी शान, प्रतिष्ठा और प्रभुत्व के लिए युद्ध होते रहते थे। उनमें पारस्परिक एकता नहीं थी ! ये एक-दूसरे को झुकाने के (UPBoardSolutions.com) लिए युद्ध करते थे। बड़े केन्द्रीय शासन का अभाव था। स्थानीय मुद्दे, स्थानीय सोच, स्थानीय भाषा अधिक प्रबल हो गई। लोगों की सोच संकुचित हो चली।

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प्रश्न 6.
राजपूत कालीन सामाजिक व्यवस्था का वर्णन करें।
उत्तर :
ब्राहृमणों का समाज में उच्च स्थान था। राजपूत साहसी, स्वाभिमानी और आतिथ्य भाव वाले वीर योद्धा थे। धनी लोग कीमती वस्त्र-आभूषण पहनते थे। बालविवाह और सतीप्रथा का चलन हो गया था। विधवा-विवाह वर्जित था। स्त्रियों की स्थिति निम्न थी। वर्णव्यवस्था कठोर हो गई थी। लोगों का मानसिक दृष्टिकोण संकुचित हो चुका था।

प्रश्न 7.
भवन निर्माण की उत्तर भारतीय तथा दक्षिण भारतीय शैली के बारे में लिखिए।
उत्तर :
मोटे तौर पर भवन निर्माण की दो शैलियाँ थीं- उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय। इनमें भेद मुख्यतः मन्दिर के शिखर के आकार में देखा जाता है। उत्तर भारतीय शिखरों का (UPBoardSolutions.com) आकार टेढ़ी रेखाओं से घिरी हुई ठोस मीनार की भाँति रहता था। मध्य में खुला हुआ तथा ऊपर एक बिन्दु पर आकर समाप्त हो जाता था। उदाहरणतः लिंगराज मन्दिर, भुवनेश्वर।

दक्षिण भारतीय शिखर पिरामिड की तरह दिखते थे, जिसमें कई खण्ड होते थे। प्रत्येक खण्ड क्रमशः ऊपर की ओर अपने नीचे वाले खण्ड से छोटा होता जाता था, और सबसे ऊपर जाकर छोटे तथा गोलाकार टुकड़े में हो जाता था। दक्षिण भारत के मन्दिरों में स्तम्भों का मुख्य स्थान है जबकि उत्तर भारत के मन्दिरों में इनका सर्वथा अभाव दिखाई देता है।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित रचनाओं के लेखकों के नाम लिखिए।
UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल 1
UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल 2

गतिविधि – मानचित्र को देखकर निम्नलिखित को पूरा करिए –
निम्न वंश वर्तमान में किस राज्य में स्थित हैं –
UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल 3

प्रोजेक्ट कार्य –
नोट – विद्यार्थी स्वयं करें।

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