Class 10 Sanskrit Chapter 8 UP Board Solutions सिद्धार्थस्य निर्वेदः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 8 Siddharthasya Nirvedah Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 8 हिंदी अनुवाद सिद्धार्थस्य निर्वेदः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

महाकवि अश्वघोष मूलत: बौद्ध दार्शनिक थे। बौद्ध भिक्षु होने के कारण इन्हें आर्य भदन्त भी कहा जाता है। ये कनिष्क के समकालीन और साकेत के निवासी थे। इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था। अश्वघोष के दो महाकाव्यों—बुद्धचरितम् और सौन्दरनन्द के साथ खण्डित अवस्था में एक (UPBoardSolutions.com) नाटक-शारिपुत्रप्रकरण–भी प्राप्त होता है। इनके वर्णन स्वाभाविक हैं। इनके काव्यों की भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है तथा शैली वैदर्भी है।

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प्रस्तुत पाठ के श्लोक महाकवि अश्वघोष द्वारा विचित ‘बुद्धचरितम्’ महाकाव्य के तृतीय और पञ्चम सर्ग से संगृहीत हैं। इनमें विहार के लिए निकले हुए सिद्धार्थ के मन में दृढ़ वैराग्य के उदय होने का संक्षिप्त वर्णन है।

पाठ-सारांश

एक बार कुमार सिद्धार्थ अपने पिता से आज्ञा लेकर रथ पर बैठकर नगर-भ्रमण के लिए निकले। उन्होंने मार्ग में श्वेत केशों वाले, लाठी का सहारा लेकर चलने वाले, ढीले और इसे अंगों वाले एक वृद्ध पुरुष को देखा। सारथी से पूछने पर उसने बताया कि बुढ़ापा समयानुसार सभी को अता है, आपको भी आएगा। इसके बाद सिद्धार्थ ने मोटे पेट वाले, साँस चलने के कारण काँपते, झुके कन्धे और कृश शरीर वाले तथा दूसरे को सहारा लेकर चलते हुए एक रोगी को देखा। पूछने पर सारथी ने बताया कि इसको धातु विकार से उत्पन्न रोग बढ़ गया है। यह रोग इन्द्र को भी शक्तिहीन बना सकता है। इसके बाद सिद्धार्थ ने बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण और गुणों द्वारा वियुक्त हुए, महानिद्रा में सोये हुए, चेतनारहित, कफन ढककर चार पुरुषों के द्वारा ले जाए जाते हुए एक मृत मनुष्य को देखा। उनकी जिज्ञासा को शान्त करते हुए सारथी ने बताया कि यह मृत्यु सभी मनुष्यों का विनाश करने वाली है। अधम, मध्यम या उत्तम सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित ही होती है।

वृद्ध, रोगी और मृतक को देखकर सिद्धार्थ का मद तत्क्षण लुप्त हो गया। इसके बाद सिद्धार्थ को एक अदृश्य पुरुष भिक्षु वेश में दिखाई पड़ा। पूछने पर उसने बताया कि मैंने जन्म-मृत्यु पर विजय प्राप्त करने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया है और इसे क्षणिक संसार में मैं अक्षय पद को ढूंढ़ रहा हूँ। भिक्षु के पक्षी के समान आकाश-मार्ग में चले जाने पर सिद्धार्थ ने भी अभिनिष्क्रमण के लिए निश्चय कर लिया।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
ततः कुमारो जरयाभिभूतं, दृष्ट्वा नरेभ्यः पृथगाकृतिं तम्।
उवाच सङ्ग्राहकमागतास्थस्तत्रैव निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः॥

शब्दार्थ ततः = तदनन्तर इसके बाद। कुमारः = राजकुमार सिद्धार्थ ने। जरयाभिभूतम् = बुढ़ापे से आक्रान्त। दृष्ट्वा = देखकर पृथगाकृतिम् = भिन्न आकृति वाले को। तम् = उस वृद्ध को। उवाचे = कहा। सङ्ग्राहकम् = घोड़े की लगाम पकड़ने वाले से, सारथी से। आगतास्थः = (UPBoardSolutions.com) उत्पन्न विचारों वाला। तत्र = उस (वृद्ध) पर। निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः = दृष्टि को बिना हिलाये अर्थात् गड़ाये हुए।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के सिद्धार्थस्य निर्वेदः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

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[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग इस श्लोक में पिता की आज्ञा से नगर-विहार को निकले हुए सिद्धार्थ द्वारा एक वृद्ध पुरुष को देखकर सारथी से प्रश्न पूछने का वर्णन है।

अन्वय ततः कुमारः जरयाभिभूतं नरेभ्यः पृथगाकृतिं तं दृष्ट्वा आगतास्थः तत्र एव निष्कम्पनिविष्टदृष्टिः (सन्) सङ्ग्राहकम् उवाच।।

व्याख्या (रथ पर चढ़कर नगर-विहार के लिए निकलने के बाद) कुमार सिद्धार्थ ने बुढ़ापे से आक्रान्त, अन्य मनुष्यों से भिन्न आकार वाले उस वृद्ध पुरुष को देखकर उत्पन्न विचारों वाले, उसी वृद्ध पुरुष पर एकटक दृष्टि लगाये हुए अपने सारथी से कहा। तात्पर्य यह है कि नगर-विहार पर निकलने से पूर्व तक कुमार सिद्धार्थ ने केवल युवा पुरुष और युवतियों को ही देखा था। इसीलिए उस वृद्ध पुरुष को देखकर उनके नेत्र उस पर स्थिर हो गये।

(2)
क एष भोः सूत नरोऽभ्युपेतः, केशैः सितैर्यष्टिविषक्तहस्तः
भूसंवृताक्षः शिथिलानताङ्गः किं विक्रियैषा प्रकृतिर्यदृच्छा ॥

शब्दर्थ कः = कौन। एषः = यह। भोः सूत = हे सारथि!| नरः = मनुष्य, आदमी। अभ्युपेतः = सामने आया हुआ। केशैः = बालों वाला। सितैः = सफेद। यष्टिविषक्तहस्तः = लाठी पर हाथ टिकाये हुए। भूसंवृताक्षः = भौंहों से ढकी हुई आँखों वाला। शिथिलानताङ्ग = ढीले और झुके हुए अंगों वाला। किं = क्या। विक्रिया एषा= यह परिवर्तन| प्रकृतिः = स्वाभाविक स्थिति। यदृच्छा = संयोग।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ द्वारा वृद्ध पुरुष को देखकर सारथी से पूछे जाने का वर्णन है।

अन्वये भोः सूत! सितैः केशैः (युक्तः), यष्टिविषक्तहस्तः, भूसंवृताक्षः, शिथिलानताङ्ग अभ्युपेतः एषः नरः कः (अस्ति)। किम् एषा विक्रिया (अस्ति) (वा) प्रकृतिः यदृच्छा (अस्ति)।

व्याख्या हे सारथि! सफेद बालों से युक्त, लाठी पर टिके हुए हाथ वाला, भौंहों से ढके हुए नेत्रों (UPBoardSolutions.com) वाला, ढीले और झुके हुए अंगों वाला, सामने आया हुआ यह मनुष्य कौन है? क्या यह विकार है अथवा स्वाभाविक रूप है अथवा यह कोई संयोग है?

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(3)
रूपस्य हर्जी व्यसनं बलस्य, शोकस्य योनिर्निधनं रतीनाम्।
नाशः स्मृतीनां रिपुरिन्द्रियाणामेषा जरा नाम ययैष भग्नः ॥ [2009, 13]

शब्दार्थ रूपस्य = रूप का। हर्जी = हरण या विनाश करने वाली। व्यसनम् = संकट या विनाश। बलस्य = बल का। शोकस्य = शोक का। योनिः = जन्म देने वाली मूल कारण निधनम् = विनाशका रतीनाम् = काम-सुखों को। स्मृतीनां = स्मृति को। रिपुः = शत्रु। इन्द्रियाणां = इन्द्रियों को। जरा = बुढापा। यया= जिससे एषः = यह। भग्नः = टूट गया है। प्रसंग सिद्धार्थ के वृद्ध पुरुष के बारे में प्रश्न करने पर सारथी उत्तर देता है।

अन्वय (सारथिः उवाच) एषा रूपस्य हर्जी, बलस्य व्यसनम्, शोकस्य योनिः, रतीनां निधनं, स्मृतीनां नाशः, इन्द्रियाणां रिपुः जरा नाम (अस्ति)। यया एष (नरः) भग्नः।

व्याख्या सारथी ने उत्तर दिया कि यह रूप का विनाश करने वाला, बल के लिए संकटस्वरूप, दु:ख की उत्पत्ति का मूल कारण, काम-सुखों को समाप्त करने वाला, स्मृति को नष्ट करने वाला, इन्द्रियों का शत्रु बुढ़ापा है, जिसके द्वारा यह पुरुष टूट गया है।

(4)
पीतं ह्यनेनापि पयः शिशुत्वे, कालेन भूयः परिमृष्टमुव्र्याम् ।
क्रमेण भूत्वा च युवा वपुष्मान्, क्रमेण तेनैव जरामुपेतः ॥

शब्दार्थ पीतं = पिया गया है। हि = निश्चय ही। अनेन अपि = इसके द्वारा भी। पयः = दूध। शिशुत्वे = बचपन में। कालेन = समय के अनुसार। भूयः = फिर। परिमृष्टम् = लोट लगायी है। उम् = भूमि पर, पृथ्वी पर। क्रमेण = क्रम के अनुसार। भूत्वा = होकर, बनकर। वपुष्मान् = सुन्दर शरीर वाला। तेन = उस। एव = ही। जराम् उपेतः = बुढ़ापे को प्राप्त हुआ।

प्रसंग सारथी राजकुमार को समझा रहा है कि इस वृद्ध ने एक निश्चित क्रम के अनुसार ही यह अवस्था प्राप्त की है।

अन्वय हि अनेन अपि शिशुत्वे पयः पीतम्, कालेन उ भूयः परिमृष्टं क्रमेण च युवा वपुष्मान् भूत्वा तेन एवं क्रमेण जराम् उपेतः।

व्याख्या निश्चय ही इसने भी बचपन में दूध पीया है, समय के अनुसार पृथ्वी पर लोट लगायी है और क्रम से सुन्दर शरीर वाला युवा होकर उसी क्रम में बुढ़ापे को प्राप्त किया है। तात्पर्य यह है कि इस (वृद्ध) की ऐसी अवस्था अकस्मात् ही नहीं हो गयी है, वरन् एक निश्चित क्रम-जन्म, बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, अधेड़ावस्था, वृद्धावस्था के अनुसार हुई है।

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(5)
आयुष्मतोऽप्येष वयोऽपकर्षों, नि:संशयं कालवशेन भावी।
श्रुत्वा जरामुविविजे महात्मा महाशनेर्दोषमिवान्तिके गौः ॥

शब्दार्थ आयुष्मतः = चिरञ्जीवी आपको। अपि = भी। एष = यह। वयः अपकर्षः = अवस्था का हास। निःसंशयम्= निःसन्देह, निश्चित रूप से कालवशेन= समय के अनुसार भावी = होगा। श्रुत्वा = सुनकर। जराम् = वृद्धावस्था को। उद्विविजे = उद्विग्न हो गये। महाशनेः = महान् वज्र के। घोषम् = शब्द को। इव = समान, तरह। अन्तिके = पास में।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृद्धावस्था की निश्चितता के बारे में जानने पर सिद्धार्थ की उद्विग्नता का वर्णन किया गया है।

अन्वय एषः वयोऽपकर्षः कालवशेन आयुष्मतः अपि नि:संशयं भावी। महात्मा जरां श्रुत्वा अन्तिके महाशनेः घोषं (श्रुत्वा) गौः इव उद्विविजे।

व्याख्या सारथि कुमार सिद्धार्थ से कहता है कि यह अवस्था का ह्रास भी समय के कारण दीर्घ आयु वाले (UPBoardSolutions.com) आपको भी नि:सन्देह होगा। इस प्रकार वह महान् आत्मा वाले कुमार सिद्धार्थ बुढ़ापे के विषय में सुनकर; पास में महान् वज्र की ध्वनि को सुनने वाली; गाय के समान उद्विग्न हो गये।

(6)
अथापरं व्याधिपरीतदेहं, त एव देवाः ससृजुर्मनुष्यम्।
दृष्ट्वा च तं सारथिमाबभाषे, शौद्धोदनिस्तद्गतदृष्टिरेव॥

शब्दार्थ अथ = इसके बाद। अपरम्= दूसरे व्याधिपरीतदेहम् = रोग से व्याप्त शरीर वाले। ते एव देवाः = उन देवताओं ने ही। ससृजुः = रचना कर दी। दृष्ट्वा = देखकर। च= और म्= उसको। सारथिम् = सारथी से। आबभाषे = बोला। शौद्धोदनिः = शुद्धोदन की पुत्र, सिद्धार्थ। तद्गत दृष्टिः = उसी पर दृष्टि लगाये हुए।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के द्वारा एक रोगी को देखकर उसके बारे में सारथी से प्रश्न पूछने का वर्णन है।

अन्वय अथ ते एव देवाः अपरं मनुष्यं व्याधिपरीतदेहं ससृजुः। तं च दृष्ट्वा शौद्धोदनि: तद्गतदृष्टिः एव सारथिम् आबभाषे।।

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व्याख्या इसके बाद उन्हीं देवताओं ने दूसरे मनुष्य को रोग से व्याप्त शरीर वाला रच दिया। उस (रोगी) को देखकर राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ ने उसी पर टकटकी लगाये हुए ही सारथी से कहा।

(7)
स्थूलोदर-श्वासचलच्छरीरः, स्वस्तांसबाहुः कृशपाण्डुगात्रः।
अम्बेति वाचं करुणं बुवाणः, परं समाश्लिष्य नरः क एषः ॥

शब्दार्थ स्थूलोदरः = मोटे पेट वाला; निकले हुए पेट वाला। श्वासचलच्छरीरः = साँस लेने से हिलते (काँपते) हुए शरीर वाला। स्वस्तांसबाहुः = ढीले कन्धे और भुजा वाला| कृशपाण्डुगात्रः = दुर्बल और पीले शरीर वाला। अम्बेति वाचं =’हाय माता’ इस प्रकार के वचन को। करुणम् = करुणापूर्वका बुवाणः = बोलता हुआ। परं = दूसरे से। समाश्लिष्य = लिपटकर, सहारा लेकर

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में रोगी के सम्बन्ध में जिज्ञासु सिद्धार्थ द्वारा सारथी से प्रश्न पूछा गया है।

अन्वय (सिद्धार्थः सारथिम् अपृच्छत्) स्थूलोदरः, श्वासचलच्छरीरः, स्रस्तांसबाहुः, कृश-पाण्डुगात्रः, परं समाश्लिष्य ‘अम्ब’ इति करुणं वाचं ब्रुवाणः एषः नरः कः (अस्ति)?

व्याख्या सिद्धार्थ ने सारथी से पूछा कि मोटे पेट वाला, साँस लेने से काँपते हुए शरीर वाला, झुके हुए ढीले कन्धे और भुजा वाला, दुर्बल और पीले शरीर वाला, दूसरे का सहारा लेकर ‘हाय माता!’ इस प्रकार के करुणापूर्ण वचन कहता हुआ यह मनुष्य कौन है?

(8)
ततोऽब्रवीत् सारथिरस्य सौम्य!, धातुप्रकोपप्रभवः प्रवृद्धः।
रोगाभिधानः सुमहाननर्थः, शक्रोऽपि येनैष कृतोऽस्वतन्त्रः॥

शब्दार्थ ततः = इसके बाद अब्रवीत् = कहा। सारथिरस्य (सारथिः + अस्य) = इसके (सिद्धार्थ) सारथी ने। सौम्यः = हे सौम्य!, हे भद्र!| धातुप्रकोपप्रभवः = वात, पित्त, कफ आदि धातुओं की विषमता के कारण उत्पन्न।प्रवृद्धः = बढ़ा हुआ। रोगाभिधानः = रोग नामका सुमहान् (UPBoardSolutions.com) अनर्थः = बहुत बड़ा अनिष्ट शक्रोऽपि = इन्द्र भी। येन = जिस रोग से। एष = यहा कृत = किया गया। अस्वतन्त्रः = पराधीन।

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प्रसग प्रस्तुत श्लोक में सारथी सिद्धार्थ को रोगी के विषय में बता रही है।

अन्वय ततः सारथिः अब्रवीत्-सौम्य! अस्य धातुप्रकोपप्रभवः रोगाभिधानः (नाम) सुमहान् अनर्थः प्रवृद्धः येन एष शक्रः अपि अस्वतन्त्रः कृतः।।

व्याख्या इसके बाद सारथी ने कहा–हे सौम्य इसका वात, पित्त, कफ आदि धातुओं की विषमता के कारण उत्पन्न हुआ रोग नाम का अत्यन्त बड़ा संकट बढ़ गया है, जिसने इस इन्द्र को भी पराधीन कर दिया है। तात्पर्य यह है कि धातुओं (वात-पित्त-कफ) की विषमता या सामंजस्य बिगड़ जाने के कारण रोग के उत्पन्न हो जाने पर इन्द्र जैसे महान् बलशाली को भी दूसरों का सहारा लेने के लिए विवश होना पड़ता है।

(9)
अथाब्रवीद् राजसुतः स सूतं, नरैश्चतुर्भिर्हियते क एषः ?
दीनैर्मनुष्यैरनुगम्यमानो, यो भूषितोऽश्वास्यवरुध्यते च ॥

शब्दार्थ अथ = इसके बाद। अब्रवीत् = कहा। राजसुतः = राजकुमार (सिद्धार्थ) ने। सः = वह, उस। सूतं = सारथी को। नरैश्चतुर्भिः = चार मनुष्यों के द्वारा। ह्रियते = ले जाया जा रहा है। दीनैः मनुष्यैः = दीन-हीन या दुःखी मनुष्यों के द्वारा। अनुगम्यमानः = अनुगमन किया जाता है। यः = जो भूषितः = फूलमालाओं और चन्दन आदि से सजाया गया। अश्वासी = श्वास-विहीन अवरुध्यते च = और (कफन से) ढका जा रहा है, बाँधा गया

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ एक अरथी को ले जाये जाते हुए देखकर उसके विषय में सारथि से पूछते हैं।

अन्वय अथ स: राजसुतः सूतम् अब्रवीत्-(हे सूत!) यः भूषितः अश्वासी अवरुध्यते च। दीनै: मनुष्यैः अनुगम्यमाने एषः कः चतुर्भिः नरैः हियते।

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व्याख्या इसके पश्चात् उस राजकुमार ने सारथि से कहा–हे सारथि! जो चन्दन और फूलमालाओं आदि से सजाया गया, श्वासविहीन और (कफन से) ढका हुआ है, दीन-दु:खी लोगों के द्वारा अनुगमन किया जाता हुआ यह कौन चार आदमियों के द्वारा ले जाया जा रहा है?

(10)
बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैर्वियुक्तः, सुप्तो विसञ्जस्तृणकाष्ठभूतः।
सम्बध्य संरक्ष्य च यत्नवद्भिः , प्रियाप्रियैस्त्यज्यते एष कोऽपि ॥

शब्दार्थ बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैः = बुद्धि, इन्द्रिय, प्राणों और गुणों से। वियुक्तः = अलग हुआ। सुप्तः = (सदा के लिए) सोया हुआ। विसञ्जः = संज्ञाहीना तृणकाष्ठभूतः = तिनके और लकड़ी के समान हुआ अर्थात् निर्जीव। सम्बध्य = अच्छी तरह बाँधकर। संरक्ष्य = सुरक्षित करके च = और यत्नवद्भिः = प्रयत्न करने वाले, प्रयत्नशीला प्रियाप्रियैः = प्रिय और अप्रिय सबके द्वारा। त्यज्यते = (सदा के लिए) छोड़ा जा रहा है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सारथि मृतक व्यक्ति के विषय में सिद्धार्थ को बता रहा है।

अन्वय बुद्धीन्द्रियप्राणगुणैः वियुक्तः, सुप्तः, विसञ्ज्ञः, तृणकाष्ठभूतः एष कोऽपि यत्नवद्भिः प्रियाप्रियैः सम्बध्य संरक्ष्य च त्यज्यते।

व्याख्या सारथि ने उत्तर दिया कि हे कुमार! बुद्धि, इन्द्रियों, प्राणों और गुणों से बिछुड़ा हुआ महानिन्द्रा (UPBoardSolutions.com) में सोया हुआ, चेतना से शून्य, तृण और काष्ठ के समान निर्जीव, यह कोई (मृत मनुष्य) यत्न करने वाले प्रिय और अप्रिय लोगों के द्वारा अच्छी तरह बाँधकर और भली-भाँति रक्षा करके (सदा के लिए) छोड़ा जा रहा है।

(11)
ततः प्रणेता वदति स्म तस्मै, सर्वप्रजानामयमन्तकर्ता।
हीनस्य मध्यस्य महात्मनो वा, सर्वस्य लोके नियतो विनाशः ॥ (2012, 14]

शब्दार्थ प्रणेता = रथ हाँकने वाला सारथी। वदति स्म = कहा। तस्मै = उससे (सिद्धार्थ से)। सर्वप्रजानाम् = सभी प्रजाओं का; अर्थात् जो जन्मे हैं उन सबका। अयम् = यह; अर्थात् मृत्यु या काल। अन्तकर्ता = अन्त करने वाला। हीनस्य = छोटे स्तर वाले का। मध्यस्य= मध्यम स्तर वाले का। महात्मनः वा = या उत्तम स्तर वाले का। सर्वस्य लोके = संसार में सभी का। नियतः विनाशः = विनाश या मृत्यु निश्चित है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सारथी मृत्यु की अवश्यम्भाविता के विषय में सिद्धार्थ को बता रहा है।

अन्वय ततः प्रणेता तस्मै वदति स्म–अयं सर्वप्रजानाम् अन्तकर्ता (अस्ति)। लोके हीनस्य मध्यस्य महात्मनः वा सर्वस्य विनाशः नियतः (अस्ति)।

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व्याख्या इसके बाद सारथी ने उन सिद्धार्थ से कहा-यह (मृत्यु) सभी प्रजाओं का अन्त करने वाली है। संसार में अधम, मध्यम या उत्तम सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है। तात्पर्य यह है कि इस संसार में जन्म लेने वाले सभी व्यक्तियों की मृत्यु सुनिश्चित है, चाहे जन्म लेने वाला व्यक्ति उत्कृष्ट हो या निकृष्ट।

(12)
इति तस्य विपश्यतो यथावज्जगतोव्याधिजराविपत्तिदोषान्।
बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ विजगामात्मगतो मदः क्षणेन ॥

शब्दार्थ इति = इस प्रकार। तस्य = उसका (सिद्धार्थ का)। विपश्यतः = विशेष रूप से देखते या समझते हुए। यथावत् = सही ढंग से। जगतः = संसार के व्याधिजराविपत्तिदोषान्= बीमारी, बुढ़ापा, मृत्युरूप दोषों को। बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ = बल, यौवन और जीवन की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में। विजगाम = लुप्त हो गया। आत्मगतः = अपने अन्दर स्थित। मदः = मद, अहंकार, उल्लास। क्षणेन = क्षण भर में

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के मन में विरक्ति के उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है।

अन्वय इति जगतः व्याधिजराविपत्तिदोषान् यथावत् विपश्यतः तस्य बलयौवनजीवितप्रवृत्तौ आत्मगतः मदः क्षणेन विजगाम।

व्याख्या इस प्रकार संसार के रोग, वृद्धावस्था, मृत्युरूप दोषों को सही ढंग से विशेष रूप से समझते हुए उसका (सिद्धार्थ का) शक्ति, यौवन और जीवन की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में अपने अन्दर स्थित अहंकार क्षणभर में लुप्त हो गया। तात्पर्य यह है कि सिद्धार्थ उसी क्षण (UPBoardSolutions.com) यह भूल गये कि वे राजकुमार हैं। उन्हें यह अनुभव हो गया कि वे भी एक सामान्य मनुष्य हैं।

(13)
पुरुषैरपरैरदृश्यमानः पुरुषश्चोपससर्प भिक्षुवेषः ।।
नरदेवसुतस्तमभ्यपृच्छद् वद कोऽसीति शशंस सोऽथ तस्मै ॥

शब्दार्थ पुरुषैः अपरैः = दूसरे मनुष्यों के द्वारा। अदृश्यमानः = न दिखाई पड़ने वाला। पुरुषः = मनुष्य। च= और। उपससर्प = पास आया। भिक्षुवेषः = भिक्षुक वेष वाला। नरदेवसु ..= राजकुमार (सिद्धार्थ) ने। तम् = उससे। अभ्यपृच्छत् = पूछा। वद = बताओ। कोऽसीति (कः + असि + इति) = कौन हो, यहा शशंस = कहा। सोऽथ (सः + अथ) = इसके बाद उसने। तस्मै = उससे (सिद्धार्थ से)।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में एक दिव्य पुरुष को देखकर सिद्धार्थ उससे उसके विषय में पूछते हैं।

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अन्वय अपरैः पुरुषैः अदृश्यमानः भिक्षुवेषः पुरुषः च (एनम्) उपससर्प। नरदेवसुतः तम् अभ्यपृच्छत्-(त्वं) कः असि? इति वद। अथ सः तस्मै शशंस।।

व्याख्या दूसरे लोगों से न देखा गया और भिक्षु का वेश धारण करने वाला कोई पुरुष उसके (सिद्धार्थ के) पास आया। राजकुमार सिद्धार्थ ने उससे पूछा-तुम कौन हो? यह बताओ। इसके बाद उसने उनसे कहा। तात्पर्य यह है कि सिद्धार्थ के मन में जब अहंकार दूर हो जाता है तभी दिव्य पुरुष उनको दिखाई पड़ता है, जिसे उनका सारथी नहीं देख पाता।

(14)
नृपपुङ्गव! जन्ममृत्युभीतः, श्रमणः प्रव्रजितोऽस्मि मोक्षहेतोः।
जगति क्षयधर्मके मुमुक्षुर्मुगयेऽहं शिवमक्षयं पदं तत् ॥

शब्दार्थ नृपपुङ्गव = राजाओं में श्रेष्ठ। जन्ममृत्युभीतः = जन्म और मृत्यु से डरा हुआ। श्रमणः = साधु या संन्यासी। प्रव्रजितः अस्मि = सब कुछ छोड़कर घर से निकला हुआ अर्थात् संन्यासी हूँ। मोक्षहेतोः = मोक्ष अर्थात् मुक्ति के लिए। जगति = संसार से। क्षयधर्मके = नष्ट होना ही जिसका धर्म (स्वभाव) है; अर्थात् नश्वर। मुमुक्षुः = मोक्ष की इच्छा वाला। मृगये= ढूंढ़ रहा हूँ। शिवम् अक्षयं पदम् = विनाशरहित मंगलमय स्थान को।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में संन्यासी अपने परिचय और लक्ष्य के विषय में सिद्धार्थ से कह रहा है।

अन्वय नृपपुङ्गव! जन्ममृत्युभीत: (अहं) मोक्षहेतोः श्रमणः प्रव्रजित: अस्मि। क्षयधर्मके (UPBoardSolutions.com) जगति मुमुक्षुः अहं तत् अक्षयं शिवं पदं मृगये।

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व्याख्या हे राजाओं में श्रेष्ठ! जन्म और मृत्यु के दु:ख से डरा हुआ मैं मोक्ष के लिए संन्यासी होकर घर से निकल पड़ा हूँ। विनाशशील अर्थात् नश्वर संसार में मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करने वाला मैं उस अविनाशी मंगलमय पद की खोज कर रहा हूँ।

(15)
गगनं खगवद् गते च तस्मिन्, नृवरः सञ्जहृषे विसिपिये च।
उपलभ्य ततश्च धर्मसञ्ज्ञामभिनिर्याणविधौ मतिं चकार ॥

शब्दार्थ गगनं = आकाश में। खगवत् = पक्षी की तरह गते = जाने पर। च = और। तस्मिन् = उस (भिक्षु) के नृवरः = मनुष्यों में श्रेष्ठ, सिद्धार्थ। सञ्जहृषे = हर्षित हुआ। विसिष्मिये = विस्मित हुआ; उपलभ्य = प्राप्त करके धर्मसञ्ज्ञाम् = धर्म के ज्ञान को। अभिनिर्याणविधौ = अभिनिष्क्रमण में। मतिं चकार = विचार किया।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्धार्थ के भी संन्यास-ग्रहण करने के विषय में विचार करने के बारे में बताया गया है।

अन्वय तस्मिन् खगवत् गगनं गते नृवरः सञ्जहषे विसिष्मिये च। ततः धर्मसंज्ञां च उपलभ्य अभिनिर्याणविधौ मतिं चकार।

व्याख्या उस (भिक्षु) के पक्षी के समान आकाश में चले जाने पर अर्थात् उड़ जाने पर मनुष्यों में श्रेष्ठ सिद्धार्थ प्रसन्न हुए और आश्चर्यचकित हुए तथा उससे धर्म का बोध प्राप्त करके अभिनिष्क्रमण करने का विचार किया। तात्पर्य यह है कि उस भिक्षु से सही ज्ञान प्राप्त (UPBoardSolutions.com) हो जाने के कारण सिद्धार्थ अत्यधिक हर्षित हुए और घर त्याग कर संन्यास-ग्रहण करने का संकल्प कर लिया।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1)
नाशः स्मृतीनां रिपुरिन्द्रियाणामेषा जरा नाम ययैष भग्नः।
एषा जरा नाम ययैष भग्नः। [2010, 14]

सन्दर्भ यह सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘सिद्धार्थस्य निर्वेदः’ नामक पाठ से अवतरित है।

[संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वृद्धावस्था के दोषों पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ यह स्मृतियों को नष्ट करने वाला इन्द्रियों का शत्रु वृद्धावस्था ९, जिससे यह व्यक्ति टूट गया है।

व्याख्या वृद्धावस्था में व्यक्ति की स्मरण-शक्ति क्षीण हो जाती है और ज्यों-ज्यों यह अवस्था बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों वह और भी अधिक क्षीण होती जाती है। इसके अतिरिक्त वृद्धावस्था में व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियाँ भी शिथिल हो जाती हैं और उनकी कार्य करने की शक्ति या तो कम हो जाती है अथवा समाप्त हो जाती है। यही कारण है कि वृद्धावस्था में व्यक्ति कम सुनने लगता है, उसे कम दिखाई देने लगता है और उसकी सोचने की शक्ति भी कम (UPBoardSolutions.com) हो जाती है। इसलिए बुढ़ापे को स्मृतियों (याददाश्त) को नष्ट करने वाला तथा इन्द्रियों का शत्रु कहा गया है, जो कि उचित है।

(2) शक्रोऽपि येनैष कृतोऽस्वतन्त्रः। [2006]

प्रसंग प्रत्येक व्यक्ति कभी-न-कभी बीमार अवश्य होता है, इस सूक्ति में इसी सत्य का उद्घाटन किया गया है।

अर्थ इन्द्र भी इस (रोग) के द्वारा स्वतन्त्र नहीं किये गये; अर्थात् उन्हें भी इस रोग ने नहीं छोड़ा।

व्याख्या सिद्धार्थ का सारथी उन्हें रोग के विषय में बता रहा है कि रोग एक ऐसी व्याधि है, जिससे कोई भी प्राणी बच नहीं पाता है। अपने सम्पूर्ण जीवन में प्रत्येक प्राणी कभी-न-कभी बीमार अवश्य पड़ता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, इस रोग ने तो इन्द्र को भी नहीं छोड़ा था। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि बढ़ा हुआ रोग जब व्यक्ति को पूर्णरूपेण असमर्थ बना देता है तब इन्द्र भी चाहने पर उसकी रक्षा नहीं कर सकते। तात्पर्य यह है कि रोग के द्वारा पूरी तरह से पराधीन किया गया मनुष्य इन्द्र द्वारा भी स्वाधीन नहीं किया जा सकता।

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(3) सर्वस्य लोके नियतो विनाशः।। [2006, 08, 09, 10, 11, 13]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति के माध्यम से कवि संसार के शाश्वत नियमों को स्पष्ट कर रहा है।

अर्थ संसार में सबका विनाश निश्चित है।

व्याख्या संसार में जो भी जड़-चेतन पदार्थ हैं, उनमें से कोई भी चिरस्थायी नहीं है। संसार में जो भी वस्तु उत्पन्न होती है, वह अवश्य ही नष्ट होती है। विनाश से कोई भी वस्तु बच नहीं सकती, चाहे वह प्राणियों का शरीर हो या वृक्ष, पर्वत आदि अन्य कुछ। इस संसार में ऐसा कुछ (UPBoardSolutions.com) भी नहीं है, जो उत्पन्न तो हुआ हो लेकिन उसका विनाश न हुआ हो। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः धुवं जन्ममृतस्य च।”

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) ततः कुमारो ……………………………………………… निष्कम्प-निविष्ट-दृष्टिः ॥ (श्लोक 1) :
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः अश्वघोषः कथयति यत् वृद्धावस्थापीडितं भिन्नाकृति: पुरुषं दृष्ट्वा आगतास्थः कुमार सिद्धार्थः अपलकदृष्ट्या पश्यन् तं वृद्धं स्वसारथिम् अब्रवीत्।।

(2) क एष भोः ………………………………………………प्रकृतिर्यदृच्छा ॥ (श्लोक 2)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके सिद्धार्थः अवदत्-भोः सूत! मत्समक्षम् उपस्थितः श्वेतकेश-युक्तः, यष्टिविषक्तहस्तः, दीर्घभूसंवृताक्षः, शिथिलाङ्गः पुरुषः कः अस्ति? कथमस्य एषा दशा उत्पन्ना? अस्य एषा दशा स्वाभाविकी अथवा संयोगेन सजातः।

(3) रूपस्य हर्जी ……………………………………………… ययैष भग्नः ॥ (श्लोक 3) [2006]
संस्कृतार्थः सिद्धार्थस्य वचनं श्रुत्वा सारथिः प्रत्यवदत्-कुमार! अस्य पुरुषस्य वृद्धावस्था वर्तते। एषां वृद्धावस्था रूपस्य हरणकर्जी, बलस्य विनाशिनी, शोकस्य कारणं, कामानां निधनं, स्मृतीनां नाशः, इन्द्रियाणां शत्रुः चास्ति। वृद्धावस्था सर्वेषां कष्टानां कारणम् अस्ति।

(4) ततोऽब्रवीत् ……………………………………………… कृतोऽस्वतन्त्रः॥ (श्लोक 8)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महाकविः अश्वघोषः कथयति यत् कुमार सिद्धार्थस्य वचनं श्रुत्वा सारथिः अब्रवीत्-हे सौम्य! अस्य पुरुषस्य धातवः क्षीणः विकृतः अभवन्। रोगस्य वर्धनात् अयं पुरुषः असमर्थः अभवत्। अतएव इन्द्रः अपि तं रक्षितुं न समर्थः।।

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(5) ततः प्रणेता ……………………………………………… नियतो विनाशः ॥ (श्लोक 11) [2007, 08]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके सारथिः कथयति-भो राजकुमार! कालः सर्वेषाम् उत्पन्नानाम् अन्तकर्ता (UPBoardSolutions.com) अस्ति। अस्मिन् लोके उत्तम-मध्यम-हीन जनानां सर्वेषां विनाः नियतो वर्तते। य: उत्पन्न: भवति सः अवश्यमेव विनश्यति। न कः अपि सर्वदा एव तिष्ठति।।

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Class 10 Sanskrit Chapter 5 UP Board Solutions विश्वकविः रवीन्द्रः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 5 Vishwakavi Ravindra Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 5 हिंदी अनुवाद विश्वकविः रवीन्द्रः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मातृभाषा बांग्ला थी। ये अनेक वर्षों तक इंग्लैण्ड में रहे थे। इसलिए इन पर वहाँ की भाषा तथा संस्कृति का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। इन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में साहित्य-रचना की है। ये नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय थे। इनकी रचना ‘गीताञ्जलि’ पर इनको यह पुरस्कार प्राप्त हुआ था। ‘गीजाञ्जलि’ के पश्चात् इनकी दूसरी कृति या निर्माण ‘विश्वभारती है। इसमें प्राचीन भारतीय पद्धति (UPBoardSolutions.com) अर्थात् आश्रम पद्धति से शिक्षा दी जाती है। इन्होंने भारतीय और पाश्चात्य संगीत का समन्वय करके संगीत की एक नवीन शैली को जन्म दिया, जिसे ‘रवीन्द्र संगीत’ कहा जाता है। प्रस्तुत पाठ में रवीन्द्रनाथ जी के जीवन-परिचय के साथ-साथ इनकी साहित्यिक एवं सामाजिक उपलब्धियों पर भी प्रकाश डाला गया है।

पाठ-सारांश [2006, 07,08, 11, 12, 13, 15]

प्रसिद्ध महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ का बांग्ला साहित्य में वही स्थान है जो अंग्रेजी-साहित्य में शेक्सपीयर का, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास का और हिन्दी-साहित्य में तुलसीदास का। इनका नाम आधुनिक भारतीय कलाकारों में भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ये केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही नहीं, वरन् रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी जाने जाते हैं।

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इन्होंने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य की नवीन रवीन्द्र-संगीत-शैली प्रारम्भ की। शिक्षाविद् के रूप में इनके नवीन प्रयोगात्मक विचारों को प्रतीक ‘विश्वभारती है, जिसमें आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है। ये दीन और दलित वर्ग की हीन दशा के महान् सुधारक थे।

वैभव में जन्म रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ती नगर में 7 मई, सन् 1861 ईस्वी को एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री देवेन्द्रनाथ एवं माता का नाम श्रीमती शारदा देवी था। इनके पास विपुल अचल सम्पत्ति थी। इनका प्रारम्भिक जीवन नौकर-चाकरों की देख-रेख में बीता। खेल और स्वच्छन्द विहार का समय न मिलने से इनका मन उदास रहता था।

प्रकृति-प्रेम इनके भवन के पीछे एक सुन्दर सरोवर था। उसके दक्षिणी किनारे पर नारियल के पेड़ और पूर्वी तट पर एक बड़ा वट वृक्ष था। रवीन्द्र अपने भवन की खिड़की में बैठकर इस दृश्य को देखकर प्रसन्न होते थे। वे सरोवर में स्नान करने के लिए आने वालों की चेष्टाओं और वेशभूषा को देखते रहते थे। शाम के समय सरोवर के किनारे बैठे बगुलों, हंसों और जलमुर्गों के स्वर को बड़े प्रेम से सुनते थे।

शिक्षा रवीन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने घर पर ही बांग्ला के साथ गणित, विज्ञान और संस्कृत का अध्ययन किया। इसके बाद इन्होंने कलकत्ता के ‘ओरियण्टले सेमिनार स्कूल’ और ‘नॉर्मल स्कूल में प्रवेश लिया, लेकिन वहाँ अध्यापकों के स्वेच्छाचरण और सहपाठियों की हीन मनोवृत्तियों तथा अप्रिय स्वभाव को देखकर इनका मन वहाँ नहीं लगा। सन् 1873 ई० में पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें अपने साथ हिमालय पर ले गये। वहाँ हिमाच्छादित पर्वत-श्रेणियों और सामने (UPBoardSolutions.com) हरे-भरे खेतों को देखकर इनका मन प्रसन्न हो गया। पिता देवेन्द्रनाथ इन्हें प्रतिदिन नवीन शैली में पढ़ाते थे। कुछ समय बाद हिमालय से लौटकर इन्होंने विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की।

सत्रह वर्ष की आयु में रवीन्द्र अपने भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लन्दन गये, परन्तु वहाँ वे बैरिस्टर की उपाधि न प्राप्त कर सके और दो वर्ष बाद ही कलकत्ता लौट आये।

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साहित्यिक प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ में साहित्य-रचना की स्वाभाविक प्रतिभा थी। उनके परिवार में घर पर प्रतिदिन गोष्ठियाँ, चित्रकला की प्रदर्शनी, नाटक-अभिनय और देश-सेवा के कार्य होते रहते थे। इन्होंने अनेक कथाएँ और निबन्ध लिखकर उनको ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ आदि पारिवारिक पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया।

रचनाएँ इन्होंने शैशव संगीत, प्रभात संगीत, सान्ध्य संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि प्रतिभा (गीतिनाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि आदि अनेक रचनाएँ लिखीं। इनकी प्रतिभा कथा, कविता, नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि में समान रूप से उत्कृष्ट थी। गीताञ्जलि पर इन्हें साहित्य का ‘नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

महात्मा गाँधी जी के प्रेरक गुरु सन् 1932 ई० में गाँधी जी पूना की जेल में थे। अंग्रेजों की हिन्दू-जाति के विभाजन की नीति के विरुद्ध वे जेल में ही आमरण अनशन करना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए रवीन्द्र जी से ही अनुमति माँगी और उनको समर्थन प्राप्त करके आमरण अनशन किया। रवीन्द्रनाथ (UPBoardSolutions.com) का जीवन उनके काव्य के समान मनोहारी और लोक-कल्याणकारी था। उनकी मृत्यु 7 अगस्त, 1941 ई० को हो गयी थी, लेकिन उनकी वाणी आज भी काव्य रूप में प्रवाहित है।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
आङ्ग्लवाङ्मये काव्यधनः शेक्सपियर इव, संस्कृतसाहित्ये कविकुलगुरुः कालिदास इव, हिन्दीसाहित्ये महाकवि तुलसीदास इव, बङ्गसाहित्ये कवीन्द्रो रवीन्द्रः केनाविदितः स्यात्। आधुनिक भारतीयशिल्पिषु रवीन्द्रस्य स्थानं महत्त्वपूर्णमास्ते इति सर्वैः ज्ञायत एव। तस्य बहूनि योगदानानि पार्थक्येन वैशिष्ट्यं लभन्ते। न केवलमाध्यात्मिकसांस्कृतिकक्षेत्रेषु तस्य योगदान महत्त्वपूर्णमपितु रचनात्मकसाहित्यकारतयापि तस्य नाम लोकेषु सुविदितमेव सर्वैः।।

शब्दार्थ वाङ्मये = साहित्य में। काव्यधनः = काव्य के धनी। कवीन्द्रः = कवियों में श्रेष्ठ। केनाविदितः = किसके द्वारा विदित नहीं हैं, अर्थात् सभी जानते हैं। आस्ते = है। पार्थक्येन = अलग से। लोकेषु = लोकों में। सुविदितमेव = भली प्रकार ज्ञात है।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘विश्वकविः रवीन्द्रः’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के महत्त्वपूर्ण योगदानों का उल्लेख किया गया है।

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अनुवाद अंग्रेजी-साहित्य में काव्य के धनी शेक्सपियर के समान, संस्कृत-साहित्य में कविकुलगुरु कालिदास के समान, हिन्दी-साहित्य में महाकवि तुलसीदास के समान बांग्ला-साहित्य में कवीन्द्र रवीन्द्र किससे अपरिचित हैं अर्थात् सभी लोगों ने उनका नाम सुना है। आधुनिक (UPBoardSolutions.com) भारतीय कलाकारों में रवीन्द्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है, यह सभी जानते हैं। उनके बहुत-से योगदान अलग से विशेषता प्राप्त करते हैं। केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही उनका योगदान महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में भी उनका नाम संसार में सबको विदित ही है।

(2)
सांस्कृतिकक्षेत्रे सङ्गीतविधासु नृत्यविधासु च सः नूतनां शैली प्राकटयत्। सा शैली ‘रवीन्द्र सङ्गीत’ नाम्ना ख्यातिं लभते। एवं नृत्यविधासु परम्परागतशैलीमनुसरताऽनेन शिल्पिना नवीना नृत्यशैली आविष्कृता। अन्यक्षेत्रेष्वपि शिक्षाविद्रूपेण तेन नवीनानां विचाराणां सूत्रपातो विहितः। तेषां प्रयोगात्मकविचाराणां पुजीभूतः निरुपमः प्रासादः ‘विश्वभारती’ रूपेण सुसज्जितशिरस्कः राजते। यत्र आश्रमशैल्याः नवीनशैल्या साकं समन्वयो वर्तते। दीनानां दलितवर्गाणां दशासमुद्धर्तृरूपेणाऽसौ अस्माकं भारतीयानां पुरः प्रस्तुतोऽभवत्।

शब्दार्थ सांस्कृतिकक्षेत्रे = संस्कृति से सम्बद्ध क्षेत्र में विधासु = विधाओं में, प्रकारों में। प्राकटयत् = प्रकट की। ख्याति = प्रसिद्धि को। अनुसरता = अनुसरण करते हुए। आविष्कृता = खोज की। शिक्षाविद्रूपेण = शिक्षाशास्त्र के ज्ञाता के रूप में। पुञ्जीभूतः = एकत्र, समूह बना हुआ। प्रासादः = महला सुसज्जितशिरस्कः = भली-भाँति सजे हुए सिर वाला। साकं = हाथा समन्वयः = ताल-मेल। समुद्धर्तृरूपेण असौ = उद्धार करने वाले के रूप में यह पुरः = सामने।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश-द्वय में रवीन्द्र जी के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत-विधा और नृत्य-विधाओं में उन्होंने नवीन शैली प्रकट की। वह शैली ‘रवीन्द्र-संगीत’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। इस प्रकार नृत्य-विधाओं में परम्परागत शैली का अनुसरण करते हुए इस कलाकार ने नवीन नृत्य शैली का आविष्कार किया। दूसरे क्षेत्रों में भी शिक्षाविद् के रूप में नवीन विचारों का सूत्रपात किया। उनके प्रयोगात्मक विचारों का एकत्रीभूत स्वरूप अनुपम भवन ‘विश्वभारती के रूप में सजे हुए सिर वाला होकर सुशोभित है, जहाँ पर आश्रम शैली का नवीन शैली के साथ समन्वय है। दीनों और दलित वर्गों की दशा के सुधारक के रूप में वे हम भारतीयों के सामने प्रस्तुत थे।

(3)
रवीन्द्रनाथस्य जन्म कलिकातानगरे एकषष्ट्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे मईमासस्य सप्तमे दिवसे (7 मई, 1861) अभवत्। अस्य जनकः देवेन्द्रनाथः, जननी शारदा देवी चास्ताम्। रवीन्द्रस्य जन्म एकस्मिन् सम्भ्रान्ते समृद्धे ब्राह्मणकुले जातम्। यस्य सविधे अचला विशाला सम्पत्तिरासीत्। अतो भृत्यबहुलं भृत्यैः परिपुष्टं संरक्षितं जीवनं बन्धनपूर्णमन्वभवत्। अतः स्वच्छन्दविचरणाय, क्रीडनाय सुलभोऽवकाशः नासीत्तेन मनः खिन्नमेवास्त।

रवीन्द्रनाथस्य जन्म ………………………………………………….. बन्धनपूर्णमन्वभवत्।।

शब्दार्थ एकषष्ट्यधिकोष्टादशशततमे = अठारह सौ इकसठ में। ख्रीष्टाब्दे = ईस्वी में। आस्ताम् = थे। सम्भ्रान्ते = सम्भ्रान्त। धनिके = धनी। सविधे = पास में। अचला = जो न चल सके। भृत्यबहुलं = नौकरों की अधिकता वाले। परिपुष्टं = सभी प्रकार से पुष्ट हुए। (UPBoardSolutions.com) बन्धनपूर्णमन्वभवत् = बन्धनपूर्ण अनुभव हुआ। नासीत्तेन = नहीं था, इस कारण से। खिन्नमेवास्त = दुःखी ही था।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के वैभवसम्पन्न प्रारम्भिक जीवन का वर्णन किया गया है।

अनुवाद रवीन्द्रनाथ का जन्म कलकत्ता नगर में सन् 1861 ईस्वी में मई मास की 7 तारीख को हुआ था। इनके पिता देवेन्द्रनाथ और माता शारदा देवी थीं। रवीन्द्र का जन्म एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पास विशाल अचल सम्पत्ति थी; अतः उन्होंने नौकरों की अधिकता से पूर्ण, सेवकों से पुष्टे किये गये, देखभाल किये गये जीवन को बन्धनपूर्ण अनुभव किया। इसलिए स्वच्छन्द विचरण के लिए, खेलने के लिए उनके पास इच्छित समय नहीं था, इस कारण से उनका मन दुःखी रहता था। (4) वैभवशालिभवनस्य पृष्ठभागे एकं कमनीयं सरः आसीत्। यस्य दक्षिणतटे नारिकेलतरूणां पङ्क्ति राजते स्म। पूर्वस्मिन् तटे जटिलस्तपस्वी इव महान् जीर्णः पुरातनः एकः वटवृक्षोऽनेकशाखासम्पन्नोऽन्तरिक्षं परिमातुमिव समुद्यतः आसीत्।। भवनस्य वातायने समुपविष्टः बालकः दृश्यमिदं दशैं दशैं परां मुदमलभत। अस्मिन्नेव सरसि तत्रत्याः निवासिनः यथासमयं स्नातुमागत्य स्नानञ्च कृत्वा यान्ति स्म। तेषां परिधानानि विविधाः क्रियाश्च दृष्ट्वा बालः किञ्चित्कालं प्रसन्नः अजायत। मध्याह्वात् पश्चात् सरोवरेः शून्यतां भजति स्म। सायं पुनः बकाः हंसाः जलकृकवाकवः विहंगाः कोलहलं कुर्वाणाः स्थानानि लभन्ते स्म। तस्मिन् काले इदमेव कम्न सरः बालकस्य मनोरञ्जनमकरोत् । [2015]

वैभवशालिभवनस्य ………………………………………………….. समुद्यतः आसीत् ।।
भवनस्य वातायने ………………………………………………….. शून्यतां भजति स्म
भवनस्य वातायने ………………………………………………….. मनोरञ्जनमकरोत् । [2012]

शब्दार्थ वैभवशालिभवनस्य = ऐश्वर्य सामग्री से परिपूर्ण भवन के पृष्ठभागे = पिछले भाग में। कमनीयम् = सुन्दर। राजते स्म = सुशोभित थी। जटिलस्तपस्वी = जटाधारी तपस्वी। जीर्णः = पुराना। वटवृक्षः = बरगद का पेड़। परिमातुम् = मापने के लिए। समुद्यतः = तत्पर। वातायने = खिड़की में। समुपविष्टः = बैठा हुआ। परां मुदम् = अत्यन्त प्रसन्नता को। स्नातुं आगत्य = नहाने के लिए आकर। कृत्वा = करके। परिधानानि = वस्त्र। दृष्ट्वा = देखकर। शून्यतां भजति स्म = सूना हो जाता था। जलकृकवाकवः = जल के मुर्गे। कम्रम् =सुन्दर।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्र के प्रकृति-प्रेम का मनोहारी वर्णन किया गया है।

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अनुवाद वैभवपूर्ण भवन के पिछले भाग में एक सुन्दर तालाब था। जिसके दक्षिण किनारे पर नारियल के वृक्षों की पंक्ति सुशोभित थी। पूर्वी किनारे पर जटाधारी तपस्वी के समान बड़ा, बहुत पुराना एक वट का वृक्ष था। अनेक शाखाओं से सम्पन्न वह (वृक्ष) मानो आकाश को मापने के लिए तैयार था। भवन की खिड़की में बैठा हुआ बालक (रवीन्द्र) इस दृश्य को देख-देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त करता था। इसी सरोवर में वहाँ के निवासी समयानुसार स्नान के लिए आते और स्नान करके जाते थे। उनके वस्त्रों और विविध क्रियाओं को देखकर बालक कुछ समय के लिए प्रसन्न हो जाता था। दोपहर के बाद सरोवर निर्जन (जन-शून्य) हो जाता था। शाम को फिर बगुले, हंस, जलमुर्गे, पक्षी कोलाहल करते हुए (अपना-अपना) स्थान प्राप्त कर लेते थे। उस समय यही सुन्दर सरोवर बालक (रवीन्द्र) का मनोरंजन करता था।

(5)
शिक्षा-रवीन्द्रस्य प्राथमिकी शिक्षा गृहे एव जाता। शिक्षणं बङ्गभाषायं प्रारभत। प्रारम्भिकं विज्ञानं, संस्कृतं, गणितमिति त्रयो पाठ्यविषयाः अभूवन्। प्रारम्भिकगृहशिक्षायां समाप्तायां बालकः उत्तरकलिकातानगरस्य ओरियण्टल सेमिनार विद्यालये प्रवेशमलभत्। तदनन्तरं नार्मलविद्यालयं गतवान् परं कुत्रापि मनो न रमते स्म। सर्वत्र अध्यापकानां स्वेच्छाचरणं सहपाठिनां तुच्छारुचीः अप्रियान् स्वभावांश्च विलोक्य मनो न रेमे। अतः शून्यायां घटिकायां मध्यावकाशेऽपि च ऐकान्तिकं जीवनं बालकाय रोचते स्म। बालकस्य मनः विद्यालयेषु न रमते इति विचिन्त्य जनको देवेन्द्रनाथः त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे खीष्टाब्दे (1873) सूनोरुपनयनसंस्कारं विधाय तं स्वेन सार्धमेव हिमालयमनयत्। तत्र पितुः सम्पर्केण बालकस्य मनः स्वच्छतामभजत्। तत्रत्यस्य भवनस्य पृष्ठभागे हिमाच्छादिताः पर्वतश्रेणयः आसन्। भवनाभिमुखं शोभनानि (UPBoardSolutions.com) सुशाद्वलानि क्षेत्राणि राजन्ते स्म। अत्रत्यं प्राकृतिकं जीवनं बालकस्य मनो नितरामरमयत्। जनको देवेन्द्रनाथः प्रतिदिवसं नवीनया पद्धत्या पाठयति स्म। पितुः पाठनशैली बालकाय रोचते स्म। कालान्तरं हिमालयात् प्रतिनिवृत्य पुनः विद्यालयीयां शिक्षा लेभे।

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प्रारम्भिक गृहशिक्षायां ………………………………………………….. रोचते स्म। [2006]

शब्दार्थ प्रारभत = प्रारम्भ हुआ। प्रवेशमलेभत्=प्रवेश प्राप्त किया। कुत्रापि= कहीं भी। नरमते स्म = नहीं लगता था। स्वेच्छाचरणं = अपनी इच्छा के अनुकूल (स्वतन्त्र) आचरण। तुच्छारुचीः = खराब आदतें। रेमे =रमा, लगा। शून्यायां घटिकायां = खाली घेण्टे में। ऐकान्तिकं = एकान्त से सम्बन्धित। त्रिसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे = अठारह सौ तिहत्तर में। सूनोरुपनयनसंस्कारं (सूनोः + उपनयन संस्कारं)= पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार। विधाय= करके। स्वेन सार्धम्=अपने साथ। तत्रत्यस्य= वहाँ के। सुशाद्वलानि=सुन्दर घास से युक्त। राजन्ते स्म = सुशोभित थे। नितराम् = अत्यधिक। अरमयत् = रम गया। प्रतिनिवृत्य = वापस लौटकर। लेभे = प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बालक रवीन्द्र का पढ़ने में मन न लगने एवं पिता के साथ हिमालय पर जाकर पढ़ने का वर्णन है।

अनुवाद रवीन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। पढ़ाई बांग्ला भाषा में प्रारम्भ हुई। प्रारम्भ में विज्ञान, संस्कृत और गणित ये तीन पाठ्य-विषय थे। प्रारम्भिक गृह-शिक्षा समाप्त होने पर बालक ने उत्तरी कलकत्ता नगर के ‘ओरियण्टल सेमिनार स्कूल में प्रवेश लिया। इसके बाद नॉर्मल विद्यालय में गया, परन्तु कहीं भी (उसका) मन नहीं लगता था। सब जगह अध्यापकों के स्वेच्छाचरण, सहपाठियों की तुच्छ इच्छाओं और बुरे स्वभावों को देखकर (इनका) मन नहीं लगा। इसलिए खाली घण्टे और मध्य अवकाश में भी बालक को एकान्त का जीवन अच्छा लगता था। बालक का मन विद्यालयों में नहीं लगता है-ऐसा सोचकर पिता देवेन्द्रनाथ सन् 1873 ईस्वी में पुत्र का उपनयन संस्कार कराके उसे अपने साथ ही हिमालय पर ले गये। वहाँ पिता के सम्पर्क से बालक का मन स्वस्थ हो गया। वहाँ के भवन के पिछले भाग में बर्फ से ढकी पर्वत-श्रेणियाँ थीं। भवन के सामने सुन्दर हरी घास से युक्त खेत सुशोभित थे। यहाँ के प्राकृतिक जीवन ने बालक के मन को बहुत प्रसन्न कर दिया। पिता देवेन्द्रनाथ प्रतिदिन नवीन पद्धति द्वारा पढ़ाते थे। पिता की पाठन-शैली बालक को अच्छी लगती थी। कुछ समय पश्चात् हिमालय से लौटकर पुन: विद्यालयीय शिक्षा प्राप्त की।

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(6)
सप्तदशवर्षदेशीयो रवीन्द्रनाथः अष्टसप्तत्यधिकाष्टादशशततमे ख्रीष्टाब्दे सितम्बरमासे भ्रात्रा न्यायाधीशेन सत्येन्द्रनाथेन सार्धं विधिशास्त्रमध्येतुं लन्दननगरं गतवान्। दैवयोगाद् रवीन्द्रस्य बैरिस्टरपदवी पूर्णतां नागात्। सः पितुराज्ञया भ्रात्रा सत्येन्द्रनाथेन साकम् अशीत्यधिकाष्टादशशततमे (UPBoardSolutions.com) खीष्टाब्दे (1880) फरवरीमासे लन्दननगरात् कलिकातानगरमायातः। इङ्ग्लैण्डदेशस्य वर्षद्वयावासे पाश्चात्यसङ्गीतस्य सम्यक् परिचयस्तेन लब्धः।

शब्दार्थ सप्तदशवर्षदेशीयो = सत्रह वर्षीय। अष्टसप्तत्यधिकोष्टादशशततमे = अठारह सौ अठहत्तर में। विधिशास्त्रम् = न्याय-शास्त्र, कानून शास्त्र। अध्येतुम् = पढ़ने के लिए। पूर्णतां नागात् = पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई। सम्यक् = अच्छी तरह।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ द्वारा लन्दन जाने और वकालत की शिक्षा प्राप्त न करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद सत्रह वर्ष की अवस्था में रवीन्द्रनाथ सन् 1878 ईस्वी में सितम्बर महीने में भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ न्याय-शास्त्र (वकालत) पढ़ने के लिए लन्दन नगर गये। दैवयोग से रवीन्द्र की बैरिस्टर की उपाधि पूर्ण नहीं हुई। वे पिता की आज्ञा से भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1880 ईस्वी में फरवरी के महीने में लन्दन नगर से कलकत्ता नगर आ गये। इंग्लैण्ड देश के दो वर्ष के निवास में उन्होंने पाश्चात्य संगीत का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर लिया।

(7)
साहित्यिक प्रतिभायाः विकासः-रवीन्द्रस्य साहित्यिकरचनायां नैसर्गिकी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा तु प्रधानकारणमासीदेव। परं तत्रत्या पारिवारिकपरिस्थितिरपि विशिष्टं कारणमभूत्। यथा—गृहे। प्रतिदिनं साहित्यिकं वातावरणं, कलासाधनायाः गतिविधयः, नाटकानां मञ्चनानि, सङ्गीतगोष्ठ्यः, चित्रकलानां प्रदर्शनानि, देशसेवाकर्माणि सदैव भवन्ति स्म। किशोरावस्थायामेव रवीन्द्रः अनेकाः कथाः निबन्धाश्च लिखित्वा पारिवारिकपत्रिकासु भारती-साधना-तत्त्वबोधिनीषु मुद्रयति स्म। [2013]

शब्दार्थ नैसर्गिकी = स्वाभाविक नवनवोन्मेषशालिनी = नये-नये विकास वाली प्रतिभा = रचनाबुद्धि। कलासाधनायाः = कला-साधना की। गोष्ठ्यः = गोष्ठियाँ। मुद्रयति स्म = छपवाते थे।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक रुचि एवं रचनात्मक प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद रवीन्द्र की साहित्यिक रचना में स्वाभाविक नये-नये विकास वाली प्रतिभा तो प्रधान कारण थी ही, परन्तु वहाँ की पारिवारिक परिस्थिति भी विशेष कारण थी; जैसे—घर में प्रतिदिन साहित्यिक वातावरण, कला–साधना की गतिविधियाँ, नाटकों का अभिनय, संगीत-गोष्ठियाँ, (UPBoardSolutions.com) चित्रकलाओं का प्रदर्शन, देश-सेवा के कार्य सदा होते थे। किशोर अवस्था में ही रवीन्द्र अनेक कथाओं और निबन्धों को लिखकर पारिवारिक पत्रिकाओं ‘भारती’, ‘साधना’, ‘तत्त्वबोधिनी’ में छपवाते थे।

(8)
तेन च शैशवसङ्गीतम्, सान्ध्यसङ्गीतम्, प्रभातसङ्गीतम्, नाटकेषु रुद्रचण्डम्, वाल्मीकि-प्रतिभा गीतिनाट्यम्, विसर्जनम्, राजर्षिः, चोखेरबाली, चित्राङ्गदा, कौडी ओकमल, गीताञ्जलिः इत्यादयो बहवः ग्रन्थाः विरचिताः। गीताञ्जलिः वैदेशिकैः नोबलपुरस्कारेण पुरस्कृतश्च। एवं बहूनि प्रशस्तानि पुस्तकानि बङ्गसाहित्याय प्रदत्तानि। कवीन्द्ररवीन्द्रस्य प्रतिभा कथासु, कवितासु, नाटकेषु, उपन्यासेषु, निबन्धेषु समानरूपेण उत्कृष्टा दृश्यते। सत्यमेव गीताञ्जलिः चित्राङ्गदा च कलादृष्ट्या महाकवेरुभेऽपि रचने वैशिष्ट्यमावहतः।।

शब्दार्थ विरचिताः = लिखे। पुरस्कृतः = पुरस्कृत, पुरस्कार प्राप्त, सम्मानित किया। प्रशस्तानि = प्रशंसनीय। प्रदत्तानि = दिये। उत्कृष्टा = श्रेष्ठ, उन्नत उभेऽपि = दोनों ही। वैशिष्ट्यमावहतः = विशेषता धारण करते हैं।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक कृतियों का विवरण दिया गया है।

अनुवाद उन्होंने (रवीन्द्रनाथ ने) शैशव संगीत, सान्ध्य संगीत, प्रभात संगीत, नाटकों में रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा (गीतिनाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की। गीताञ्जलि को विदेशियों ने नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया है। इस प्रकार बहुत-सी सुन्दर पुस्तकें उन्होंने बांग्ला-साहित्य को प्रदान कीं। कवीन्द्र रवीन्द्र की प्रतिभा कथाओं में, कविताओं में, नाटकों में, उपन्यासों और निबन्धों में समान रूप से उत्कृष्ट दिखाई देती है। वास्तव में महाकवि की दोनों ही रचनाएँ गीताञ्जलि और चित्रांगदा कला की दृष्टि से विशिष्टता को धारण करती हैं।

(9)
द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्दे महात्मागान्धी पुणे कारागारेऽवरुद्धः आसीत्। ब्रिटिशशासकाः अनुसूचितजातीयानां सवर्णहिन्दूजातीयेभ्यः पृथक् निर्वाचनाय प्रयत्नशीलाः आसन्।

यस्य स्पष्टमुद्देश्यं हिन्दूजातीयानां परस्परं विभाजनमासीत्। बहुविरोधे कृतेऽपि ब्रिटिशशासकाः शान्ति ने लेभिरे विभाजयितुं च प्रयतमाना एवासन्। तदा महात्मागान्धी हिन्दूजातिवैक्यं स्थापयितुं कारागारे आमरणम् अनशनं प्रारभत। गुरुदेवस्य रवीन्द्रनाथस्य चानुमोदनमैच्छत्। यतश्च महात्मागान्धी गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य केवलमादरमेव नाकरोत्, अपि तु यथाकालं समीचीनसम्मत्यै मुखमपि ईक्षते स्म। महात्मा एनं कवीन्द्र रवीन्द्र गुरुममन्यता रवीन्द्रनाथः तन्त्रीपत्रे ‘भारतस्य एकतायै सामाजिकाखण्डतायै च अमूल्य-जीवनस्य बलिदानं सर्वथा समीचीनं, परं जनाः दारुणायाः विपत्तेः गान्धिनः जीवनमभिरक्षेयुः इति लिखित्वा प्रत्युदतरत्। रवीन्द्रः आमरणस्य अनशनस्य समर्थनमेव न कृतवानपि तु प्रायोपवेशने प्रारब्धे पुणे कारागारञ्चागतवान्।

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शब्दार्थ द्वात्रिंशदधिकैकोनविंशे शततमे = उन्नीस सौ बत्तीस में अवरुद्धः = बन्दा स्पष्टमुद्देश्यं = स्पष्ट उद्देश्य। लेभिरे = प्राप्त कर रहे थे। समीचीनम् = उचित| मुखमपि ईक्षते स्म = मुख की ओर देखते थे, अपेक्षा करते थे। तन्त्रीपत्रे = तार (टेलीग्राम) में। अभिरक्षेयुः = रक्षा करें। प्रत्युदतरत् = उत्तर दिया। प्रायोपवेशने = अनशन के समय।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा गाँधी द्वारा कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानने एवं उनसे सम्मति लेने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद सन् 1932 ईस्वी में महात्मा गाँधी पुणे में जेल में बन्द थे। ब्रिटिश शासक अनुसूचित जाति वालों का सवर्ण हिन्दू जाति वालों से अलग निर्वाचन कराने के लिए प्रयत्न में लगे थे, जिसका स्पष्ट उद्देश्य हिन्दू जाति वालों का आपस में बँटवारा करना था। बहुत विरोध करने पर भी अंग्रेजी शासक शान्ति को प्राप्त न हुए। अर्थात् अपने प्रयासों को बन्द नहीं किया और (देश एवं हिन्दू जाति को) विभाजित करने के लिए प्रयत्नशील रहे। तब महात्मा गाँधी ने हिन्दू जातियों (UPBoardSolutions.com) में एकता स्थापित करने के लिए जेल में आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के अनुमोदन की इच्छा की; क्योंकि महात्मा गाँधी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का केवल आदर ही नहीं करते थे, अपितु समयानुसार सही सलाह के लिए उनसे अपेक्षा भी करते थे। महात्मा इन कवीन्द्र रवीन्द्र को गुरु मानते थे। रवीन्द्रनाथ ने तार में भारत की एकता और सामाजिक अखण्डता के लिए अमूल्य जीवन का बलिदान सभी प्रकार से सही है, परन्तु लोग भयानक विपत्ति से गाँधी जी के जीवन की रक्षा करें” लिखकर उत्तर दे दिया। रवीन्द्र ने आमरण अनशन का समर्थन ही नहीं किया, अपितु उपवास के प्रारम्भ होने पर पुणे जेल में आ गये।

(10)
एवं बहुवर्णिकं, गरिमामण्डितं साहित्यिक, सामाजिकं, दार्शनिकं, लोकतान्त्रिकं जीवनं तस्य काव्यमिव मनोहारि सर्वेभ्यः कल्याणकारि प्रेरणादायि चाभूत्। एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे खीष्टाब्देऽगस्तमासस्य सप्तमे दिनाङ्के (7 अगस्त, 1941) रवीन्द्रस्य पार्थिव शरीरं वैश्वानरं प्राविशत्। अद्यापि गुरुदेवस्य रवीन्द्रस्य वाक् काव्यरूपेण अस्माकं समक्षं स्रोतस्विनी इव सततं प्रवहत्येव। अधुनापि करालस्य कालस्य करोऽपि वाचं मूकीकर्तुं नाशकत्।

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जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ॥

शब्दार्थ बहुवर्णिकम् = बहुरंगी, अनेक प्रकार का। गरिमामण्डितम् = गरिमा (गौरव) से युक्त। एकचत्वारिंशदधिकैकोनविंशे शततमे = उन्नीस सौ इकतालिस में। पार्थिवम् = मिट्टी से बना, भौतिक वैश्वानरम् = अग्नि में। प्राविशत = प्रविष्ट हुआ। वाक् = वाणी। स्रोतस्विनी इव = नदी के समान। प्रवहत्येव = बहती ही है। वाचं मूकीकर्तुम् = वाणी को मौन करने के लिए। नाशकत् = समर्थ नहीं हुआ। सुकृतिनः = सुन्दर कार्य करने वाले रससिद्धाः = रस है सिद्ध जिनको। कवीश्वराः = कवियों में ईश्वर अर्थात् कवि श्रेष्ठ| यशःकाये = यशरूपी शरीर में जरामरणजे = वृद्धावस्था और मृत्यु से उत्पन्न।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कवीन्द्र रवीन्द्र के जीवन का मूल्यांकन किया गया है, उनके देहान्त की बात कही गयी है और सुन्दर रचनाकार के रूप में उनके यश का गान किया गया है।

अनुवाद इस प्रकार उनका बहुरंगी, गरिमा से मण्डित, साहित्यिक, सामाजिक, दार्शनिक, लोकतान्त्रिक जीवन उनके काव्य के समान सुन्दर, सबके लिए कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद था। सन् 1941 ईस्वी में अगस्त महीने की 7 तारीख को रवीन्द्र का पार्थिव शरीर अग्नि में प्रविष्ट हो गया। आज भी गुरुदेव रवीन्द्र की वाणी काव्य के रूप में हमारे सामने नदी के समान निरन्तर बह रही है। आज भी भयानक मृत्यु का हाथ भी (उनकी) वाणी को चुप करने में समर्थ नहीं हो सका। पुण्यात्मा, (UPBoardSolutions.com) रससिद्ध वे कवीश्वर जयवन्त होते हैं, जिनके यशरूपी शरीर में बुढ़ापे और मृत्यु से उत्पन्न भय नहीं है। इसलिए कविगण हमेशा यशरूपी शरीर से ही जीवित रहते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना ‘गीताञ्जलि’ पर प्रकाश डालिए।
या
‘गीताञ्जलि’ के रचयिता का नाम लिखिए। [2006,07,14]
या
विश्वकवि रवीन्द्र की सबसे प्रसिद्ध रचना कौन-सी है? [2011]
या
रवीन्द्रनाथ को नोबेल पुरस्कार किस रचना पर मिला? [2007]
या
रवीन्द्रनाथ को किस पुस्तक पर कौन-सा पुरस्कार दिया गया था? [2010]
उत्तर :
गीताञ्जलि महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बांग्ला भाषा में लिखे गये गीतों का संकलन है। यह महाकवि की एक अत्यधिक विशिष्ट रचना है। इसका अंग्रेजी अनुवाद; जो कि स्वयं रवीन्द्रनाथ के द्वारा ही। किया गया; को सन् 1913 ईस्वी में विदेशियों द्वारा ‘नोबेल पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।

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प्रश्न 2.
विश्वकवि रवीन्द्र का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
या
विश्वकवि रवीन्द्र का परिचय दीजिए। या कविवर रवीन्द्र का जन्म कब और कहाँ हुआ था? [2008]
या
विश्वकवि रवीन्द्र के माता-पिता का नाम लिखिए। [2010, 12, 13]
या
कवीन्द्ररवीन्द्र की प्रमुख रचनाओं/कृतियों के नाम लिखिए। [2006,08, 10]
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, सन् 1861 ईस्वी में कलकत्ता नगर के एक सम्भ्रान्त और समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ तथा माता का नाम शारदा देवी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। बाद में इन्होंने स्कूल में प्रवेश ले लिया, लेकिन वहाँ इनका मन नहीं लगा। 17 वर्ष की अवस्था में ये अपने बड़े भाई के साथ इंग्लैण्ड गये। वहाँ इन्होंने दो वर्ष के निवास में पाश्चात्य संगीत का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। इन्होंने शैशव संगीत, प्रभात संगीत, (UPBoardSolutions.com) सान्ध्य संगीत (गीति काव्य); रुद्रचण्ड, वाल्मीकि-प्रतिभा (गीति नाट्य), विसर्जन, राजर्षि, चोखेरबाली, चित्रांगदा, कौड़ी ओकमल, गीताञ्जलि इत्यादि बहुत-से ग्रन्थों की रचना की। महात्मा गाँधी इन्हें अपना गुरु मानते थे। सन् 1941 ईस्वी में 7 अगस्त को इनका पार्थिव शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

प्रश्न 3.
रवीन्द्रनाथ टैगोर के सांस्कृतिक और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सांस्कृतिक क्षेत्र में संगीत और नृत्य विधाओं में एक नवीन शैली का प्रचलन किया, जिसे रवीन्द्र-शैली के नाम से जाना जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में भी इन्होंने नवीन विचारों का प्रारम्भ किया। इनके विचारों का पुंजस्वरूप भवन ‘विश्वभारती के रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है। यहाँ पर शिक्षा की आश्रम शैली, नवीन शैली के साथ समन्वित रूप में विद्यमान है।

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प्रश्न 4.
विश्वकवि रवीन्द्र के बाल्य-जीवन का उल्लेख कीजिए। या* * बचपन में बालक रवीन्द्रनाथ का मेन क्यों खिन्न रहता था? [2009]
उत्तर :
रवीन्द्रनाथ का जन्म अतुल धनराशि तथा वैभव से सम्पन्न एक अत्यधिक धनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सेवकों द्वारा पालित, पोषित और रक्षित होने के कारण ये अपने जीवन को बन्धनपूर्ण मानते थे। स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने और खेलने का अवसर न मिलने के कारण ये पर्याप्त खिन्नता का अनुभव करते थे। इनके वैभवशाली भवन के पीछे एक सुन्दर सरोवर था जिसके एक ओर नारियल के वन और दूसरी ओर बरगद का वृक्ष था। भवन के झरोखे में बैठकर रवीन्द्रनाथ इस प्राकृतिक दृश्य को देखकर बहुत प्रसन्न होते थे। प्रात:काल के समय सरोवर में स्त्री-पुरुष स्नान के लिए आते थे। उनकी विविध रंग-बिरंगी पोशाकों को देखकर बालक रवीन्द्रनाथ प्रसन्न हो जाते थे। सायंकाल में यह सरोवर पक्षियों की चहचहाहट से गुंजित हो उठता था। यह सब कुछ बालक रवीन्द्रनाथ को बहुत सुखद प्रतीत होता था।

प्रश्न 5.
‘विश्वकवि’ संज्ञा किस आधुनिक कवि को दी गयी है? [2010,11]
उत्तर :
‘विश्वकवि’ संज्ञा आधुनिक कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर को दी गयी है।

प्रश्न 6.
विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिए रवीन्द्रनाथ किसके साथ और कहाँ गये? [2006]
उत्तर :
विधिशास्त्र का अध्ययन करने के लिए रवीन्द्रनाथ अपने बड़े भाई न्यायाधीश सत्येन्द्रनाथ के साथ सन् 1878 ई० में लन्दन गये।

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प्रश्न 7.
विश्वकवि रवीन्द्र की तुलना किन-किन कवियों से की गयी है? [2010]
उत्तर :
विश्वकवि रवीन्द्र की तुलना अंग्रेजी कवि शेक्सपियर, संस्कृत कवि कालिदास और हिन्दी कवि गोस्वामी तुलसीदास से की गयी है।

प्रश्न 8.
‘विश्वभारती’ का परिचय दीजिए। [2009]
उत्तर :
एक शिक्षाविद् के रूप में रवीन्द्रनाथ ने नवीन विचारों का सूत्रपात किया था। उनके प्रयोगात्मकशिक्षात्मक विचारों का प्रतिफल विश्वभारती के रूप में अपना मस्तक उन्नत किये हुए आज भी सुशोभित हो रहा है। इस संस्था में अध्ययन-अध्यापन की आश्रम-व्यवस्था तथा नवीन (UPBoardSolutions.com) शैली का समन्वय है।।

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प्रश्न 9.
विश्वकवि रवीन्द्र की साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दीजिए।
उत्तर :
[
संकेत ‘पाठ-सारांश’ के उपशीर्षकों’ ‘साहित्यिक प्रतिभा के धनी’ एवं ‘रचनाएँ की सामग्री को संक्षेप में लिखें।]

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Class 9 Sanskrit Chapter 9 UP Board Solutions प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 9
Chapter Name प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 9 Prachin Panch Vaigyanik Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 9 हिंदी अनुवाद प्राचीनाः पञ्चवैज्ञानिकाः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय- मनुष्य के मन में ब्रह्माण्ड के ग्रहों, उपग्रहों, नक्षत्रादि को देखकर इनके सम्बन्ध में सृष्टि , के प्रारम्भ से ही जिज्ञासा रही है। भारत के ज्योतिर्विद् आचार्यों ने बड़े परिश्रम से इनके बारे में सूक्ष्म जानकारी प्राप्त की। इस दिशा में सबसे पहले आचार्य वराहमिहिर ने ईसा की चौथी शती के उत्तरार्द्ध में ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ नामक ग्रन्थ लिखकर पूर्व-प्रचलित सिद्धान्तों का परिचय दिया। इनके पश्चात्

आर्यभट ने ईसा की छठी शती के पूर्वार्द्ध में ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनके लगभग सौ वर्षों के पश्चात् भास्कराचार्य (प्रथम) नामक ज्योतिर्विद् ने ‘आर्यभटीय’ पर भाष्य लिखा तथा ‘लघु-भास्कर्य’ और ‘महा-भास्कर्य’ नामक दो ग्रन्थों की रचना कर उन्हीं (आर्यभट) के सिद्धान्तों का प्रसार किया। इनके पश्चात् ब्रह्मगुप्त नाम के अत्यन्त प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य हुए, जिन्होंने ‘खण्डखाद्यक’ और ‘ब्रह्मस्फुट (UPBoardSolutions.com) सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनके पश्चात् ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में भास्कराचार्य (द्वितीय) हुए, जिन्होंने चार प्रसिद्ध ज्योतिष-ग्रन्थों ‘लीलावती’, ‘बीजगणित’, ‘सिद्धान्तशिरोमणि’ और ‘करणकुतूहल’ की रचना की। प्रस्तुत पाठ में इन्हीं भारतीय विद्वानों का परिचय कराया गया है।

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पाठ-सारांश

(1) वराहमिहिर— यह रत्नगर्भा भारतभूमि अनेक वैज्ञानिकों की जन्मदात्री रही है। राजा विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में वराहमिहिर नाम के एक गणितज्ञ विद्वान् थे। इनके पिता आदित्यदास भगवान् सूर्य के उपासक थे। सूर्य की उपासना से प्राप्त अपने पुत्र का नाम उन्होंने वराहमिहिर रखा। वराहमिहिर की विद्वत्ता से प्रभावित होकर ‘विक्रमादित्य’ उपाधिधारी सम्राट चन्द्रगुप्त ने इन्हें अपनी सभा के नवरत्नों में स्थान दिया।

वराहमिहिर राजकीय कार्य के पश्चात् अपने समय का उपयोग ग्रहों की गणना और पुस्तक लिखने में किया करते थे। फलित ज्योतिष में अधिक रुचि होते हुए भी इन्होंने अपने ‘वृहत्संहिता नामक ग्रन्थ में ग्रह-नक्षत्र की गणना से संवत् का निर्धारण, सप्तर्षि मण्डल के उदय तथा अस्त के काल को निश्चित किया।

वराहमिहिर ने प्राचीन और मध्यकाल के राजाओं की उत्पत्ति का समय भी निर्धारित किया। इन्होंने अपने ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ ग्रन्थ की रचना करके लोगों को पूर्व प्रचलित पितामह, रोमक, पोलिश, सूर्य, वशिष्ठ आदि के सिद्धान्तों से अवगत कराया। इन्होंने पृथ्वी के उत्पत्तिविषयक और धूमकेतु के उत्पत्तिविषयक और धूमकेतु के उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों की भी खोज की।

(2) आर्यभट्ट– आर्यभट्ट भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषी और गणितज्ञ थे। इन्होंने ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने आर्यभटीय ग्रन्थ में वृत्त का व्यास और परिधि, अनुपात

आदि विषय प्रस्तुत किये। इन्होंने सूर्य और चन्द्र-ग्रहण के विषय में राहु और केतु द्वारा ग्रसे जाने की प्रचलित धारणी का तर्को से खण्डन किया और सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य के चारों ओर चक्कर लग्नाती है। इन्होंने अपने आर्यभटीय ग्रन्थ में शून्य का महत्त्व, रेखागणित, बीजगणित, (UPBoardSolutions.com) अंकगणित आदि के विषयों का अन्तर स्पष्ट किया। इनके कार्यों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए ही भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट’ रखा गया।

(3) भास्कराचार्य (प्रथम)- भारतीय खगोल-वैज्ञानिकों में दो भास्कराचार्य हुए। इनमें से प्रथम भास्कराचार्य 600 ईसवी में दक्षिण भारत में हुए। इन्होंने ‘आर्यभटीय भाष्य’, ‘महाभास्कर्य’ और ‘लघुभास्कर्य’ नामक तीन ग्रन्थों की रचना करके आर्यभट्ट के सिद्धान्तों को ही विवेचन किया।

(4) ब्रह्मगुप्त- ब्रह्मगुप्त ने 598 ईसवी में ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ ग्रन्थ की रचना की। भास्कर द्वितीय ने इन्हें ‘गणक चक्र-चूड़ामणि’ की उपाधि से विभूषित किया। ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट्ट के द्वारा स्थापित सिद्धान्तों का खण्डन किया। इन्होंने पूर्वकाल के श्रीसेन, विष्णुचन्द्र, लाट, प्रद्युम्न आदि विद्वानों के सिद्धान्तों की भी आलोचना की। इनके ‘खण्डखाद्यक’ और ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों का अनुवांद ‘अरबी भाषा में हुआ।

 (5) भास्कराचार्य (द्वितीय)- भास्कराचार्य द्वितीय प्राचीन वैज्ञानिकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपना जन्म-स्थान ‘विज्जऽविड’ तथा जन्म-समय 1114 ईसवी लिखा है। इनकी प्रसिद्धि ‘सिद्धान्तशिरोमणि’, ‘लीलावती’, ‘बीजगणित’ और ‘करणकुतूहल’ नामक पुस्तकों के कारण हुई। इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘लीलावती’ है। इनकी ‘सूर्यसिद्धान्त’ पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर अनेक पाश्चात्य विद्वान् अत्यधिक प्रभावित हुए।

इन्होंने सिद्ध किया कि गोलाकार पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। इन्होंने बताया कि सूर्य के ऊपर चन्द्रमा की छाया पड़ने के कारण सूर्यग्रहण तथा चन्द्रमा के ऊपर पृथ्वी की छाया पड़ने से चन्द्र-ग्रहण होता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन के पूर्व ही भास्कराचार्य ने बता दिया था कि पृथ्वी अपने केन्द्र से सभी वस्तुओं को खींचती है तथा पृथ्वी ग्रह-नक्षत्रों की आपसी आकर्षणशक्ति से ही इस रूप में स्थित है।

भास्कराचार्य ने बीजगणित विषय में भी अनेक नये तथ्यों का आविष्कार किया था। उन्होंने बाँस की नली की सहायता से ही गणना करके अपने सिद्धान्तों की पुष्टि करके झूठे विचारों का खण्डन किया। बाद में उनके गणित के सिद्धान्त वैज्ञानिक उपकरणों से परीक्षित करने पर शुद्ध पाये गये। वे एक-एक नक्षत्र के बारे में सोचते हुए रात-रातभर नहीं सोते थे। उनके कार्यों की स्मृति में ही आधुनिक भारतीयों ने दूसरे उपग्रह का नाम भास्कर रखा।

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चरित्र चित्रण

 आर्यभट्ट

परिचय- वैदेशिक वैज्ञानिक आये-दिन नित नये सिद्धान्तों के प्रतिपादन की बात करते हैं, जब . कि भारतीय वैज्ञानिकों ने उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन आज से हजारों वर्ष पूर्व कर दिया था। यह भारत

की विडम्बना ही है कि हमने अपने वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार नहीं किया, जब कि उन्हीं सिद्धान्तों को दूसरे वैज्ञानिक आज अपने नामों से प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। हमारे ऐसे ही प्राचीन वैज्ञानिकों में एक नाम है–आर्यभट्ट का। उनके चरित्र की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है। उनका चरित्र-चित्रण निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है|

(1) महान् संस्कृतज्ञ– आर्यभट्ट वैज्ञानिक होने के साथ-साथ महान् संस्कृतज्ञ भी थे। उन्होंने उत्कृष्ट संस्कृत में ‘आर्यभटीय’ और ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की, जिन पर अनेक भाष्य और व्याख्याएँ लिखी गयीं।

(2) महान् ज्योतिर्विद्- भारत क्या, अपितु विश्व के महान् ज्योतिषाचार्यों की गणना में आर्यभट्ट का स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने प्राचीन परम्परा से चली आ रही ज्योतिषविषयक (UPBoardSolutions.com) राहु-केतु जैसे ग्रहों की अवधारणाओं को खण्डन करके उनके विषय में वैज्ञानिक और तर्कसंगत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके ज्योतिष को वैज्ञानिक रूप प्रदान किया। |”

(3) मूर्धन्य खगोलज्ञ- अन्तरिक्ष एवं ग्रहों से सम्बन्धित प्रामाणिक जानकारी महान् वैज्ञानिक आर्यभट्ट ने ही विश्व को उपलब्ध करायी। उन्होंने सर्वप्रथम इस तथ्य का रहस्योद्घाटन किया कि पृथ्वी स्थिर नहीं है, वरन् वह अपने स्थान पर घूमती रहती है। सूर्य, चन्द्रमा, अन्य ग्रहों और उपग्रहों के विषय में भी उन्होंने अनेक रहस्यों का उद्घाटन करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया।

(4) श्रेष्ठ गणितज्ञ- आर्यभट्ट एक महान् वैज्ञानिक होने के साथ-साथ एक श्रेष्ठ गणितज्ञ भी थे। उन्होंने अपने ‘आर्यभटीय’ नामक ग्रन्थ में शून्य के महत्त्व को प्रतिपादित करने के अतिरिक्त रेखागणित, बीजगणित और अंकगणित के अनेक सिद्धान्तों के प्रतिपादन के साथ ही इनके सूक्ष्म अन्तरों के विवेचन को भी स्पष्ट किया। | निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि आर्यभट्ट विलक्षण मेधा के धनी वैज्ञानिक थे, जिन्होंने विज्ञान, ज्योतिष, गणित एवं खगोल के क्षेत्र में भारतीय मेधा का लोहा विश्व से मनवाकर हमारे राष्ट्रीय गौरव को उन्नत किया।

कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्‍न

प्रश्‍न 1
आचार्य वराहमिहिर ने सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण एवं सप्तर्षिमण्डल-विषयक किन . तथ्यों को प्रस्तुत किया है? लिखिए।
उत्तर
प्रस्तुत प्रश्न का पूर्व अर्द्धश त्रुटिपूर्ण है; क्योंकि सूर्य-ग्रहण एवं चन्द्र-ग्रहण के विषय में वराहमिहिर ने कोई तथ्य प्रस्तुत नहीं किया है, वरन् इनसे सम्बन्धित तथ्य आर्यभट्ट ने प्रस्तुत किये हैं। : हाँ, सप्तर्षिमण्डल विषयक तथ्य इन्हीं के द्वारा प्रतिपादित हैं। इन्होंने सप्तर्षिमण्डले के उदय तथा अस्त होने के निश्चित समय का उद्घाटन किया था।

प्रश्‍न 2
आचार्य आर्यभट्ट के अवदानों और उनके व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर
आचार्य आर्यभट्ट ने अवदानस्वरूप वृत्त के व्यास, परिधि, अनुपात आदि गणित-विषयक, सूर्य-ग्रहण, चन्द्र-ग्रहण एवं पृथ्वी के अपने स्थान पर घूमने सम्बन्धी और सूर्य की । परिक्रमा करने के भूगोलविषयक तथ्य प्रस्तुत किये।

इनका जन्म तथा शिक्षा कुसुमपुर में हुई। ये गणित तथा ज्योतिष के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने ‘आर्यभटीय’ तथा ‘तन्त्र’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनकी श्लाघनीय खोजों के लिए भारत सरकार ने इनके सम्मान में प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा।

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प्रश्‍न 3
भास्कराचार्य प्रथम कहाँ के निवासी थे? उनके समय और लिखी गयी पुस्तकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भास्कराचार्य प्रथम दक्षिण भारत के निवासी थे। विद्वान् इनका समय 600 ईसवी निर्धारित करते हैं। इन्होंने आर्यभटीय भाष्य, महाभास्कर्य एवं लघुभास्कर्य नामक तीन ग्रन्थों की रचना की।

प्रश्‍न 4
आचार्य ब्रह्मगुप्त के बारे में पाठ के आधार पर हिन्दी में 15 पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर
महान् ज्योतिर्विद् ब्रह्मगुप्त का जन्म 598 ईसवी में हुआ। भास्कराचार्य प्रथम के उपरान्त इनका आविर्भाव हुआ। इन्होंने ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इनकी विद्वत्ता का परिचय इस बात से मिलता है कि भास्कराचार्य द्वितीय ने इन्हें ‘गणकचक्रचूड़ामणि’ की उपाधि से अलंकृत किया। (UPBoardSolutions.com) इन्होंने आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित एवं भास्कराचार्य प्रथम द्वारा पुनरीक्षित सिद्धान्तों का खण्डन किया। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती श्रीसेन, विष्णुचन्द्र, लाट, प्रद्युम्न आदि विद्वानों के सिद्धान्तों की भी सम्यक्

आलोचना की। इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रायः इनके बाद के सभी वैज्ञानिकों ने अनुकरण किया। इनके सिद्धान्तों की सत्यता, उपयोगिता के कारण ही इनके ग्रन्थों का विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया। इनके ‘खण्डखाद्यक’ एवं ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त’ नामक दो ग्रन्थों का अनुवाद अरबी भाषा में हुआ। विज्ञान के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है।

प्रश्‍न 5
भास्कराचार्य द्वितीय ने किन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया? लिखिए।
उत्तर
भास्कराचार्य द्वितीय ने पृथ्वी के गोल होने, सूर्य के चारों ओर निश्चित कक्षा में पृथ्वी के घूमने, सूर्य के ऊपर चन्द्रमा की छाया पड़ने पर सूर्य-ग्रहण तथा पृथ्वी की छाया चन्द्रमा के ऊपर पड़ने पर चन्द्रग्रहण होने, पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति के होने, ग्रह-नक्षत्रों की आकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी के ब्रह्माण्ड में वर्तमान स्थिति में स्थित होने तथा बीजगणित के अनेकानेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।

लघु-उतरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के संस्कृत में उत्तर लिखिए

प्रश्‍न 1
अस्मिन् अध्याये वर्णिताः वैज्ञानिकाः के के सन्ति?
उत्तर-
अस्मिन्  अध्याये वर्णिताः वराहमिहिरः, आर्यभट्टः, भास्कराचार्यः प्रथमः, ब्रह्मगुप्तः, भास्कराचार्यः द्वितीय: चेति पञ्चवैज्ञानिकाः सन्ति।

प्रश्‍न 2
तेषां पुस्तकानां नामानि कानि सन्ति?
उत्तर
तेषां पुस्तकानां नामानि निम्नांकितानि सन्ति
वैज्ञानिकाः
वृहत्संहिता
आर्यभट्टः
भास्कराचार्यः (प्रथमः)

ब्रह्मगुप्तः
भास्कराचार्य (द्वितीयः)

पुस्तकानां नामानि  ।

(i) पञ्चसिद्धान्तिका, (ii) वृहत्संहिता। आर्यभट्टः ।
(i) आर्यभटीयम्,       (ii) तन्त्रम्।
(i) आर्यभटीयम् भाष्यम्, (ii) महाभास्कर्यम्,
(ii) लघुभास्कर्यम्। ब्रह्मगुप्तः
(i) खण्डखाद्यक, (ii) ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तः भास्कराचार्य (द्वितीयः)
(i) सिद्धान्तशिरोमणिः, (ii) लीलावती,
(iii) बीजगणित, | (iv) करणकुतूहलम्।

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प्रश्‍न 3
ग्रहणविषये पूर्वे का धारणासी?
उत्तर
ग्रहणविषये पूर्वेषां धारणा आसीत् यत् सूर्यचन्द्रमसौ राहु-केतुभ्यां ग्रस्येते।

प्रश्‍न 4
आर्यभटीयं केन विरचितम्?
उत्तर
आर्यभटीयम् आर्यभट्टेन विरचितम्।

प्रश्‍न 5
भास्कराचार्यः केन यन्त्रसाहाय्येन नक्षत्राणां परीक्षणमकरोत्?
उत्तर
भास्कराचार्यः वंशनलिका साहाय्येन नक्षत्राणां परीक्षणमकरोत्।

प्रश्‍न 6
भारतवर्षस्य प्रथमोपग्रहः कस्य नाम सूचयति?
उत्तर
भारतवर्षस्य प्रथमोपग्रहः ‘आर्यभट्टः आर्यभट्टस्य नाम सूचयति।

प्रश्‍न 7
गणकचक्रचूडामणिः कस्य पदव्यासीत्?
उत्तर
गणकचक्रचूडामणिः ब्रह्मगुप्तस्य पदव्यासीत्।

प्रश्‍न 8

वराहमिहिरस्य पितुः नाम किमासीत्?
उत्तर
वराहमिहिरस्य पितुः नाम आदित्यदासः आसीत्।

प्रश्‍न 9
चन्द्रगुप्तविक्रमादित्येन स्वसभायां कस्मै कुत्र च स्थानं दत्तम्।
उत्तर
चन्द्रगुप्तविक्रमादित्येन स्वसभायां वराहमिहिराय नवरत्नेषु स्थानं दत्तम्।

प्रश्‍न 10
आर्यभट्टप्रस्थापितसिद्धान्तानां प्रत्याख्याता कः आसीत्?
उत्तर
आर्यभट्टप्रस्थापितसिद्धान्तानां प्रत्याख्याता ब्रह्मगुप्तः आसीत्?

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प्रश्‍न 11
वराहमिहिरेण स्वग्रन्थे के पञ्चसिंद्धान्तोः प्रस्तुतः?
उत्तर
वराहमिहिरेण स्वग्रन्थे पैतामह-रोमक-पोलिश-सूर्य-वशिष्ठादीनां सिद्धान्ताः प्रस्तुताः

प्रश्‍न 12
भारतवर्षस्य द्वितीयोपग्रहः कस्य नाम सूचयति?
उत्तर
भारतवर्षस्य द्वितीयोपग्रहः ‘भास्करः’ भास्कराचार्य द्वितीयस्य नाम सूचयति।

वस्तुनिष्ठ प्रनोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में से एक कौन थे?
(क) ब्रह्मगुप्त
(ख) वराहमिहिर
(ग) भास्कराचार्य प्रथम
(घ) आर्यभट्ट

2. वराहमिहिर की रचना का क्या नाम है?
(क) करणकुतूहलम् ।
(ख) पञ्चसिद्धान्तिका
(ग) सिद्धान्तशिरोमणि
(घ) तन्त्रम् ।

3. वराहमिहिर राजकीय कार्य से बचे समय का उपयोग किस रूप में करते थे?
(क) ग्रन्थों की रचना करते थे
(ख) अपने परिवार के साथ विनोद करते थे
(ग) भगवान सूर्य की उपासना करते थे
(घ) भ्रमण करते थे ।

4. सूर्य और चन्द्रग्रहण के विषय में प्रचलित अवधारणा का खण्डन किसने किया था?
(क) वराहमिहिर ने
(ख) भास्कराचार्य द्वितीय ने
(ग) ब्रह्मगुप्त ने ।
(घ) आर्यभट्ट ने।

5. भास्कराचार्य प्रथम का समय और विषय-क्षेत्र क्या है?
(क) 498 ई०/गणितज्ञ
(ख) 1114 ई०/ज्योतिर्विद
(ग) 600 ई०/खगोलज्ञ
(घ) 500 ई०/खगोलज्ञ

6. ब्रह्मगुप्त द्वारा ब्रह्मसिद्धान्त’ ग्रन्थ की रचना की गयी ।
(क) 598 ई० में
(ख) 698 ई० में
(ग) 498 ई० में :
(घ) 398 ई० में

7. ‘गणकचक्रचूड़ामणि’ की उपाधि ब्रह्मगुप्त को किसके द्वारा प्रदत्त की गयी थी?
(क) आर्यभट्ट द्वारा
(ख) भास्कराचार्य प्रथम द्वारा।
(ग) भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा
(घ) वराहमिहिर द्वारा

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8. ‘पृथ्वी गोल है और सूर्य का चक्कर लगाती है’ इस तथ्य के प्रथम प्रतिपादक थे
(क) ब्रह्मगुप्त ।
(ख) आर्यभट्ट
(ग) भास्कराचार्य द्वितीय
(घ) भास्कराचार्य प्रथम

9.’लीलावती’ और ‘बीजगणित’ नामक रचनाओं के रचयिता हैं.
(क) आदित्यदास
(ख) ब्रह्मगुप्त
(ग) श्रीसेनविष्णुचन्द्र
(घ) भास्कराचार्य द्वितीय

10. भारत द्वारा प्रेषित प्रथम उपग्रह का क्या नाम था?
(क) वराहमिहिर
(ख) भास्कर
(ग) आर्यभट्ट
(घ) एस० एन० एल० वी

11. कस्य जनकः आदित्यदासः आसीत्?
(क) ब्रह्मगुप्तस्य
(ख) भास्कराचार्यस्य
(ग) वराहमिहिरस्य
(घ) आर्यभट्टस्य

12. केन प्रतिपादितं यत् पृथ्वी स्वस्थाने भ्रमन्ती सूर्यं परिक्रामति?
(क) आर्यभट्टेन
(ख) वराहमिहिरेण
(ग) भास्कराचार्येण
(घ) ब्रह्मगुप्तेन ।

13.’•••••••••• उषित्वा आर्यभट्टः विद्यार्जनम् अकरोत्।’ वाक्य में रिक्त स्थान की पूर्ति होगी
(क) ‘प्रयागे’ से
(ख) “कुसुमपुरे’ से
(ग) वाराणस्याम्’ से
(घ) “काम्पिल्ये’ से ।

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14. ‘खण्डखाद्यक ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तयोरनुवादः •••••••••••••• भाषायामपि जातः।’ में वाक्य-पूर्ति
(क) “हिन्दी’ से ।
(ख) “लैटिन’ से ,
(ग) “आंग्ल’ से
(घ) “अरबी’ से

15. केन निर्धारितं यद् गोलकाकारा पृथ्वी परिक्रामति सूर्यम्? |
(क) वराहमिहिर ।
(ख) ब्रह्मगुप्त
(ग) आर्यभट्ट
(घ) भास्कराचार्य (द्वितीय)

16. ‘सूर्योपरि चन्द्रस्य छाया यदा पतति तदा ••••••••••••••• भवति।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) पूर्णिमा’ से
(ख) सूर्यग्रहणम्’ से
(ग) ‘उल्कापातम्’ से
(घ) चन्द्रग्रहणम्’ से

17. बीजगणित विषयेऽपि केन अनेकानां नूतनतथ्यानामाविष्कारः कृतः?
(क) वराहमिहिरेण
(ख) ब्रह्मगुप्तेन
(ग) भास्कराचार्यद्वितीयेन ।
(घ) आर्यभट्टेन

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Class 9 Sanskrit Chapter 13 UP Board Solutions आरोग्य-साधनानि Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 13
Chapter Name आरोग्य-साधनानि (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 13 Aarogya – Sadhnani Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 13 हिंदी अनुवाद आरोग्य-साधनानि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय-भारतीय चिकित्सा विज्ञान के दो अमूल्य रत्न हैं-‘चरक-संहिता’ और ‘सुश्रुत-संहिता’। महर्षि चरक ने ईसा से 500 वर्ष पूर्व ‘अग्निवेश-संहिता’ नामक ग्रन्थ का प्रतिसंस्कार करके चरक-संहिता’ की रचना की थी। इसके 200 वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व ‘सुश्रुत-संहिता’ नामक ग्रन्थ की रचना महर्षि सुश्रुत द्वारा की गयी। चरक-संहिता में काय-चिकित्सा को और सुश्रुत-संहिता में शल्य-चिकित्सा (UPBoardSolutions.com) को प्रधानता दी गयी है। इन दोनों ग्रन्थों में रोगों की चिकित्सा के साथ-साथ वे उपाय भी बताये गये हैं, जिनका पालन करने से रोगों की उत्पत्ति ही नहीं होती।

प्रस्तुत पाठ के सभी श्लोक ‘चरक-संहिता’ और ‘सुश्रुत-संहिता’ से संगृहीत किये गये हैं। इन। श्लोकों में आरोग्य की रक्षा के लिए व्यायाम आदि उपायों पर प्रकाश डाला गया है।

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व्यायाम की परिभाषा-जो शारीरिक चेष्टा स्थिरता के लिए बल को बढ़ाने वाली होती है, उसे . व्यायाम कहते हैं।  व्यायाम की आवश्यकता-व्यायाम करने से शरीर में हल्कापन, कार्यक्षमता में स्थिरता, दु:खों को सहन करने की शक्ति, वात; पित्त; कफ आदि विकारों का विनाश और पाचन-क्रिया की शक्ति में वृद्धि होती है।

व्यायाम की मात्रा- मनुष्य को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन शारीरिक क्षमता की अर्द्ध मात्रा के अनुसार, व्यायाम करना चाहिए। जब मनुष्य के हृदय में उचित स्थान पर स्थित वायु मुख में पहुँचने लगती है तो उसे बलार्द्ध (शारीरिक क्षमता की अर्द्धमात्रा) कहते हैं। इससे अधिक व्यायाम करने से (UPBoardSolutions.com) शारीरिक थकान हो जाती है, जिससे शारीरिक बल की क्षति होने की सम्भावना होती है।अधिक व्यायाम से हानियाँ–अधिक व्यायाम करने से शरीर और इन्द्रियों की थकान, रुधिर

आदि धातुओं का नाश, प्यास; रक्त-पित्त का दुःसाध्य रोग, सॉस की बीमारी, बुखार, उल्टी आदि हानियाँ होती हैं; अतः शारीरिक शक्ति से अधिक व्यायाम कभी भी नहीं करना चाहिए।

व्यायाम करने के बाद सावधानी– व्यायाम करने के बाद शरीर को चारों ओर से धीरे-धीरे मलना चाहिए; अर्थात् शरीर की मालिश करनी चाहिए।

व्यायाम के लाभ- व्यायाम करने से शरीर की वृद्धि, लावण्य, शरीर के अंगों की सुविभक्तता, पाचन-शक्ति का बढ़ना, आलस्यहीनता, स्थिरता, हल्कापन, स्वच्छता, शारीरिक थकान-इन्द्रियों की थकान–प्यास-ठण्ड-गर्मी आदि को सहने की शक्ति और श्रेष्ठ आरोग्य उत्पन्न होता है। व्यायाम करने से मोटापा घटता है और शत्रु भी व्यायाम करने वाले को पीड़ित नहीं करते हैं। उसे सहसा बुढ़ापा और बीमारियाँ भी नहीं आती हैं। व्यायाम रूपहीन को रूपवान बना देता है। वह स्निग्ध भोजन करने वाले बलशालियों के लिए हितकर है। वसन्त और शीत ऋतु में तो विशेष हितकारी है।

स्नान करने के लाभ- स्नान करने से पवित्रता, वीर्य और आयु की वृद्धि, थकान-पसीना और मैल का नाश, शारीरिक बल की वृद्धि और ओज उत्पन्न होता है।

सिर में तेल लगाना–सिर में तेल लगाने से सिर का दर्द, गंजापन, बालों को पकना एवं झड़ना नहीं होता। सिर की अस्थियों का बल बढ़ता है और बाल काले, लम्बे और मजबूत जड़ों वाले हो जाते हैं।

भोजन के नियम- प्रेम, रुचि या अज्ञान के कारण अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। हितकर भोजन भी देखभाल कर करना चाहिए। विषम भोजन से रोगों और कष्टों का होना देखते हुए, बुद्धिमान पुरुष को हितकर, परिमित और समय पर भोजन करना चाहिए।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलश्रद्ध
देहव्यायामसङ्ख्याता मात्रया तां समाचरेत् ॥

शब्दार्थ
शरीरचेष्टा = देह की क्रिया।
चेष्टा = क्रिया अथवा च + इष्टा = अभीष्ट, वांछित।
स्थैयुर्था = स्थिरता के लिए।
बलवद्धिनी = बल को बढ़ाने के स्वभाव वाली।
इष्टा = अभीष्ट।
देहव्यायामसङ्ख्याता = शारीरिक व्यायाम नाम वाली।
मात्रया= थोड़ी मात्रा में, अवस्था के अनुसार।
समाचरेत् = उचित मात्रा से करना चाहिए।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘आरोग्य-साधनानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के सभी श्लोकों के लिए सही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में शारीरिक व्यायाम की आवश्यकता बतायी गयी है।।

अन्वय
स्थैर्यार्था बलवद्धिनी च या शरीरचेष्टा इष्टा (अस्ति) (सा) देहव्यायामसङ्ख्याता, तां | मात्रय समाचरेत्।।

व्याख्या
स्थिरता के लिए और बल को बढ़ाने वाली जो शरीर की क्रिया अभीष्ट है, वह शारीरिक व्यायाम के नाम वाली है। उसे अवस्था के अनुसार उचित मात्रा में करना चाहिए अर्थात् व्यायाम आयु और मात्रा के अनुसार ही किया जाना चाहिए। |

(2)
लाघवं कर्मसामर्थ्यं स्थैर्यं दुःखसहिष्णुता।
दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते ॥

शब्दार्थ
लाघवम् = हल्कापन।
कर्मसामर्थ्य = कार्य करने की क्षमता।
स्थैर्यम् = स्थिरता।
दुःखसहिष्णुता = कष्टों को सहन करने की शक्ति।
दोषक्षयः = प्रकोप को प्राप्त वात, पित्त, कफ आदि दोषों का विनाश।
अग्निवृद्धिः = भोजन पचाने वाली अग्नि की वृद्धि।
उपजायते = उत्पन्न होता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम से होने वाले लाभ बताये गये हैं। ।

अन्वय
व्यायामात् लाघवं, कर्मसामर्थ्य, स्थैर्य, दु:खसहिष्णुता, दोषक्षयः, अग्निवृद्धिः च उपजायते।।।

व्याख्या
व्यायाम करने से शरीर में फुर्तीलापन (हल्कापन), कार्य करने की शक्ति, स्थिरता, दु:खों को सहन करने की शक्ति, वात-पित्त कफ़ आदि दोषों का विनाश और भोजन पचाने वाली अग्नि की वृद्धि उत्पन्न होती है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर की सर्वविध उन्नति होती है।

(3)
सर्वेष्वृतुष्वहरहः पुम्भिरात्महितैषिभिः ।
बलस्यार्धेन कर्त्तव्यो व्यायामो हन्त्यतोऽन्यथा ॥

शब्दार्थ
सर्वेष्वृतुष्वहरहः (सर्वेषु + ऋतुषु + अहरह:) = सभी ऋतुओं में प्रतिदिन।
पुम्भिः = पुरुषों के द्वारा।
आत्महितैषिभिः = अपना हित चाहने वाले।
बलस्य = बल के।
अर्धेन = आधे द्वारा।
कर्तव्यः = करना चाहिए।
हन्ति = हानि पहुँचाता है।
अतोऽन्यथा = इससे विपरीत करने से।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में अधिक व्यायाम करने से होने वाली हानि को बताया गया है।

अन्वये
आत्महितैषिभिः पुम्भिः सर्वेषु ऋतुषु अहरह: बलस्य अर्धेन व्यायामः कर्त्तव्यः। अतोऽन्यथा हन्ति।।

व्याख्या
अपना हित चाहने वाले पुरुषों को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन अपनी आधी शक्ति से व्यायाम करना चाहिए। इससे भिन्न करने से यह हानि पहुँचाता है। तात्पर्य यह है कि थकते हुए व्यायाम नहीं करना चाहिए और बहुत हल्का व्यायाम भी नहीं करना चाहिए।

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(4)
हृदि स्थानस्थितो वायुर्यदा वक्त्रं प्रपद्यते।
व्यायामं कुर्वतो जन्तोस्तद् बलार्धस्य लक्षणम् ॥

शब्दार्थ
हृदि = हृदय में।
स्थानस्थितः = उचित स्थान पर ठहरा हुआ।
वक्त्रं प्रपद्यते = मुख में पहुंचने लगती है।
कुर्वतः = करते हुए।
जन्तोः = जन्तु का।
बलार्धस्य = बल का आधा भाग।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में आधे बल का लक्षण बताया गया है।

अन्वय
व्यायामं कुर्वतः जन्तोः हृदि स्थानस्थितः वायुः यदा वक्त्रं प्रपद्यते, तद् बलार्धस्य लक्षणम् (अस्ति)।।

व्याख्या
व्यायाम करने वाले प्राणी के हृदय पर अपने स्थान पर स्थित वायु जब मुख में पहुँचते लगती है, वह आधे बल का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि जब व्यायाम करते-करते श्वाँस का आदान-प्रदान मुख के माध्यम से शुरू हो जाए; अर्थात् साँस फूलने लगे; तो इसे आधे बल का लक्षण समझना चाहिए।

(5)
श्रमः क्लमः क्षयस्तृष्णा रक्तपित्तं तामकः ।
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छदिश्च जायते ॥

शब्दार्थ
श्रमः = थकावट।
क्लमः = इन्द्रियों की थकान।
क्षयः = रक्त आदि धातुओं की कमी।
तृष्णा = प्यास।
रक्तपित्तम् = एक दुःसाध्य रोग।
प्रतामकः = श्वास सम्बन्धी रोग।
कासः = खाँसी।
छर्दिः = उल्टी।
जायते = उत्पन्न हो जाते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में अति व्यायाम करने से होने वाली हानियाँ बतायी गयी हैं।

अन्वय
अतिव्यायामतः श्रमः, क्लमः, क्षयः, तृष्णा, रक्तपित्तम्, प्रतामकः, कासः, ज्वरः, छर्दिः च जायते।

व्याख्या
अधिक व्यायाम करने से शारीरिक थकावट, इन्द्रियों की थकावट, रक्त आदि । धातुओं की कमी, प्यास, रक्तपित्त नामक दु:साध्य रोग, श्वास सम्बन्धी रोग, खाँसी, बुखार और उल्टी आदि रोग हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अत्यधिक व्यायाम करने से अनेकानेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

(6)
व्यायामहास्यभाष्याध्व ग्राम्यधर्म प्रजागरान् ।
नोचितानपि सेवेत बुद्धिमानतिमात्रया॥ |

शब्दार्थ
हास्य = हास-परिहास।
भाष्य = बोलना।
अध्व = मार्ग-गमन।
ग्राम्यधर्म = स्त्री-सहवास।
प्रजागरान् = जागरण।
उचितान् = उचित, अभ्यस्त।
सेवेत = सेवन करना चाहिए।
अतिमात्रया = अत्यधिक मात्रा में।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यक्ति के लिए असेवनीय बातों के विषय में बताया गया है।

अन्वय
बुद्धिमान व्यायाम-हास्य-भाष्य-अध्व-ग्राम्यधर्म-प्रजागरान् उचित अपि अति मात्रया न सेवेत।।

व्याख्या
बुद्धिमान् पुरुष को व्यायाम, हँसी-मजाक, बोलना, रास्ता तय करना, स्त्री-सहवास और जागरण का अभ्यस्त होने पर भी अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान पुरुष को सदैव किसी भी चीज के अति सेवन से बचना चाहिए। |

(7)
शरीरांयासजननं कर्म व्यायामसज्ञितम् ।
तत्कृत्वा तु सुखं देहं विमृदनीयात् समन्ततः ॥

शब्दार्थ
शरीरायसिजननं = शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाला।
व्यायाम सञ्जितम् = व्यायाम नाम दिया गया है।
सुखम् = सुखपूर्वक।
विमृद्नीयात् = मलना चाहिए, दबाना चाहिए।
समन्ततः = चारों ओर से।

प्रसंग
व्यायाम के बाद शरीर-मालिश की आवश्यकता पर बल दिया गया है।

अन्वय
व्यायामसज्ञितम् शरीरायासजननं कर्म (अस्ति) तत् कृत्वा तु देहं समन्ततः सुखं विमृद्नीयात्।।

व्याख्या
व्यायाम नाम वाला शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाला कर्म है। उसे करने के बाद तो शरीर को चारों ओर से आराम से मसलना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर में थकावट उत्पन्न होती है। इसके बाद शरीर की मालिश की जानी चाहिए।

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(8-9)
शरीरोपचयः कान्तिर्गात्राणां सुविभक्तता।
दीप्ताग्नित्वमनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा ॥
श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां सहिष्णुता।
आरोग्यं चापि परमं व्यायामादुपजायते ॥

शब्दार्थ
शरीरोपचयः = शरीर की वृद्धि।
कान्तिः = चमक, सलोनापन।
गात्राणां = शरीर का।
सुविभक्तता = अच्छी प्रकार से अलग-अलग विभक्त होना।
दीप्ताग्नित्वम् = पेट की पाचनशक्ति का बढ़ना।
अनालस्यं = आलस्यहीनता, उत्साह।
स्थिरत्वं = स्थिरता, दृढ़ता।
लाघवम् = हल्कापन।
मृजा = स्वच्छता।
श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां = शारीरिक थकाने, इन्द्रियों की थकान, प्यास, गर्मी, सर्दी आदि की।
सहिष्णुता = सहन करने की योग्यता।
आरोग्यम् = स्वास्थ्य।
उपजायते = उत्पन्न होता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक-युगल में व्यायाम के लाभ बताये गये हैं।

अन्वय
व्यायामात् शरीरोपचय, कान्तिः, गात्राणां सुविभक्तता, दीप्ताग्नित्वम्, अनालस्यं, स्थिरत्वं, लाघवं, मृजा, श्रम-क्लम-पिपासा-उष्ण-शीत आदीनां सहिष्णुता परमम् आरोग्यं च अपि उपजायते।

व्याख्या
व्यायाम करने से शरीर की वृद्धि,सलोनापन, शरीर के अंगों को भली प्रकार से । अलग-अलग विभक्त होना; पाचन-क्रिया का बढ़ना; आलस्य का अभाव, स्थिरता, हल्काषन, स्वच्छता, शारीरिक थकावट, इन्द्रियों की थकावट, प्यास, गर्मी-सर्दी आदि को सहने की शक्ति और उत्तम आरोग्य भी उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने से शरीर सर्वविध पुष्ट होता है।

(10)
न चास्ति सदृशं तेन किञ्चित् स्थौल्यापैकर्षणम्।
न च व्यायामिनं मर्त्यमर्दयन्त्यरयो भयात् ॥

शब्दार्थ
स्थौल्यार्पकर्षणम् = मोटापे (स्थूलता) को कम करने वाला।
व्यायामिनम् = व्यायाम करने वाले को।
मय॑म् = मनुष्य को। अर्दयन्ति= पीड़ित करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम को मोटापा स्थूलकोयत्व कम करने के साधन के रूप्न में . निरूपित किया गया है।

अन्वय
तेन सदृशं च स्थौल्यापकर्षणं किञ्चित् न (अस्ति)। अरय: व्यायामिनं मर्त्य भयात् न अर्दयन्ति।

व्याख्या
उस (व्यायाम) के समान मोटापे को कम करने वाला अन्य कोई साधन नहीं है। शत्रु लोग भी व्यायाम करने वाले पुरुष को अपने भय से पीड़ित नहीं करते हैं। तात्पर्य यह है कि व्यायाम स्थूलकाता को तो कम करता ही है, व्यक्ति को शत्रु भय से भी मुक्ति दिलाता है।

(11)
न चैनं सहसाक्रम्य जरा समधिरोहति ।।

स्थिरीभवति मांसं च व्यायामाभिरतस्य हि ॥

शब्दार्थ
सहसाक्रम्य = अचानक आक्रमण करके।
जरा = बुढ़ापा।
समधिरोहति = सवार होता है।
स्थिरीभवति = मजबूत हो जाता है।
मांसं = मांसपेशियाँ।
व्यायामाभिरतस्य (व्यायाम + अभिरतस्य) = व्यायाम में तत्पर ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
सहसा आक्रम्य एनं जरा न समधिरोहति। व्यायाम अभिरतस्य हि मांसं च स्थिरीभवति।

व्याख्या
सहसा आक्रमण करके बुढ़ापा-इस पर (व्यायाम करने वाले पर) सवार नहीं होता है। व्यायाम में तत्पर मनुष्य का मांस भी मजबूत हो जाता है। तात्पर्य यह है कि व्यायाम करने वाला व्यक्ति शीघ्र बूढ़ा नहीं होता है। उसकी मांसपेशियाँ भी बहुत मजबूत हो जाती हैं।

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(12)
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य पद्भ्यामुवर्तितस्य च।।
व्याधयो नोपसर्पन्ति सिंहं क्षुद्रमृगा इव ॥

शब्दार्थ
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य = व्यायाम से कूटे गये शरीर वाले।
पद्भ्यां = पैरों से।
उद्वर्तितस्य = रौंदे गये।
नउपसर्पन्ति= पास नहीं जाती हैं।
क्षुद्रमृगाः इव= छोटे-छोटे पशुओं की तरह।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य पद्भ्याम् उर्वर्तितस्य च व्याधयः सिंहं क्षुद्रमृगाः इव न उपसर्पन्ति।

व्याख्या
व्यायाम से कूटे गये शरीर वाले और पैरों से रौंदे गये व्यक्ति के पास बीमारियाँ उसी तरह नहीं जाती हैं, जैसे सिंह के पास छोटे-छोटे जानवर नहीं आते हैं। तात्पर्य यह है कि निरन्तर व्यायाम करने से मजबूत शरीर वाला व्यक्ति सामान्य मनुष्यों की तुलना में अधिक बीमार नहीं पड़ता।

(13)
वयोरूपगुणैहनमपि कुर्यात् सुदर्शनम् ।।
व्यायामो हि सदा पथ्यो बलिनां स्निग्धभोजिनाम्।
स च शीते वसन्ते च तेषां पथ्यतमः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
वयोरूपगुणैः हीनम् = आयु, रूप तथा गुण से हीन (व्यक्ति) को।
कुर्यात् = करना चाहिए।
सुदर्शनम् = सुन्दर दिखाई पड़ने वाला।
पथ्यः = हितकर।
बलिनाम् = शक्तिशालियों का।
स्निग्धभोजिनाम् = चिकनाई से युक्त भोजन करने वाले।
पथ्यतमः = अत्यधिक हितकर।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यायाम के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है।

अन्वय
व्यायामः हि वयोरूपगुणैः हीनम् अपि (पुरुष) सुदर्शनं कुर्यात्। सः स्निग्धभोजिनां बलिनां (कृते) सदा पथ्यः, किन्तु शीते वसन्ते च तेषां (कृते) पथ्यतमः स्मृतः।

व्याख्या
निश्चय ही व्यायाम अवस्था, रूप और अन्य गुणों से रहित व्यक्ति को भी देखने में सुन्दर बना देता है। वह चिकनाई से युक्त भोजन करने वाले बलवान् पुरुषों के लिए सदा हितकारी है, किन्तु वसन्त और शीत ऋतु में वह अत्यन्त हितकारी माना गया है। तात्पर्य यह है कि (UPBoardSolutions.com) व्यायाम सौन्दर्यरहित व्यक्ति को भी सौन्दर्यवान् बना देता है। वसन्त और शीत ऋतु में तो इसका किया जाना अत्यधिक हितकारी होता है।

(14)
पवित्रं वृष्यमायुष्यं श्रमस्वेदमलापहम्।।
शरीरबलसन्धानं स्नानमोजस्करं परम् ॥

शब्दार्थ
वृष्यम् = वीर्य की वृद्धि करने वाला।
आयुष्यम् = आयु की वृद्धि करने वाला।
श्रमस्वेद-मलापहम् = थकान, पसीने और मैल को दूर करने वाला।
शरीरबलसन्धानम् = शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाला।
ओजस्करम् = कान्ति को बढ़ाने वाला।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में स्नान के लाभ बताये गये हैं।  अन्वये-स्नानं पवित्रं, वृष्यम्, आयुष्यं, श्रम-स्वेद-मलापहं, शरीरबलसन्धानं, परम् ओजस्करं । च (मतम्)।

व्याख्या
स्नान को पवित्रता लाने वाला, वीर्य की वृद्धि करने वाला, आयु को बढ़ाने वाला, थकान-पसीना और मैल को दूर करने वाला, शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाला और अत्यन्त ओज । उत्पन्न करने वाला माना गया है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के लिए स्थान बहुत ही लाभदायक है।

(15)
मेध्यं पवित्रमायुष्यमलक्ष्मीकलिनाशनम्।
पादयोर्मलमार्गाणां शौचाधानमभीक्ष्णशः ॥

शब्दार्थ
मेध्यम् = बुद्धि (मेधा) की वृद्धि करने वाला।
आयुष्यम् = आयुष्य की वृद्धि करने वाला।
अलक्ष्मीकलिनाशनम् = दरिद्रता और पाप को नष्ट करने वाला। पादयोः पैरों की
मलमार्गाणां = मल बाहर निकलने के रास्ते।
शौचाधानम् = सफाई करना।
अभीक्ष्णशः = निरन्तर।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में दोनों पैरों और मल-मार्गों की सफाई के लाभ बताये गये हैं।

अन्वय
पादयोः मलमार्गाणां (च) अभीक्ष्णशः शौचाधानं मेध्यं, पवित्रम्, आयुष्यम्, अलक्ष्मी-कलिनाशनं (च भवति)।

व्याख्या
दोनों पैरों और (भीतरी) मल को निकालने के मार्गों गुदा आदि की निरन्तर सफाई बुद्धि को बढ़ाने वाली, पवित्रता करने वाली, आयु को बढ़ाने वाली और दरिद्रता और पाप को नष्ट करने वाली होती है। तात्पर्य यह है कि शरीर की स्वच्छता शरीर को पवित्र करने वाली और आयु को बढ़ाने वाली तो है ही, निर्धनता को भी नष्ट करती है।

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(16)
नित्यं स्नेहार्दशिरसः शिरःशूलं न जायते ।
न खालित्यं ने पालित्यं न केशाः प्रपतन्ति च ॥

शब्दार्थ
नित्यम् = प्रतिदिन।
स्नेहार्दशिरसः = तेल से गीले सिर वाले का।
शिरःशूलम् = सिर का दर्द।
खालित्यम् = गंजापन।
पालित्यम् = बालों का पक जाना।
प्रपतन्ति = झड़ते हैं, गिरते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
नित्यं स्नेहार्दशिरसः (जनस्य) शिरः शुलं न जायते, न च खालित्यं न (च) पालित्यं (भवति), केशाः न प्रपतन्ति (च)।

व्याख्या
सदा तेल से भीगे सिर वाले व्यक्ति के सिर में दर्द नहीं होता है। उसके न गंजापन होता है, न केश पकते हैं और न बाल झड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि सदैव सिर में तेल लगाने वाला व्यक्ति सिर के समस्त अन्त:बाह्य विकारों से मुक्त रहता है।

(17)
बलं शिरःकपालानां विशेषेणाभिवर्धते।
दृढमूलाश्च दीर्घाश्च कृष्णाः केशा भवन्ति च ॥

राख्दार्थ
शिरःकपालानां = सिर की अस्थियों का।
विशेषण = विशेष रूप से।
अभिवर्धते = बढ़ता है।
दृढमूलाः = मजबूत जड़ों वाले।
दीर्घाः = लम्बे।
कृष्णाः = काले।
भवन्ति = होते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
(स्नेहार्द्रशिरसः जनस्य) शिर:कपालानां बलं विशेषेण अभिवर्धते, केशाः दृढमूलाः दीर्घाः, कृष्ण च भवन्ति।

व्याख्या
(तेल से गीले सिर वाले पुरुष की) सिर की अस्थियों को बल विशेष रूप से बढ़ता है। बाल मजबूत जड़ों वाले, लम्बे और काले होते हैं। तात्पर्य यह है कि सदैव सिर में तेल लगाने वाला व्यक्ति सिर के समस्त अन्त:-बाह्य विकारों से मुक्त रहता है।

(18)
इन्द्रियाणि प्रसीदन्ति सुत्वम् भवति चाननम्।।
निद्रालाभः सुखं च स्यान्मूनि तैलनिषेवणात् ॥

शब्दार्थ
इन्द्रियाणि = इन्द्रियाँ।
प्रसीदन्ति= प्रसन्न हो जाती हैं।
सुत्वम् = सुन्दर त्वचा वाला।
निद्रालाभः = नींद की प्राप्ति।
मूर्टिन = सिर पर।
तैलनिषेवणात् = तेल की मालिश करने से।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में सिर पर तेल लगाने के गुण बताये गये हैं।

अन्वय
मूर्छिन तैलनिषेवणात् इन्द्रियाणि प्रसीदन्ति, आननं च सुत्वक् भवति, निद्रालाभः च सुखं स्यात्।।

व्याख्या
सिर पर तेल का सेवन करने से इन्द्रियाँ प्रसन्न हो जाती हैं, मुखे सुन्दर त्वचा वाला हो जाती है और नींद की प्राप्ति सुखपूर्वक होती है। तात्पर्य यह है कि सिर पर तेल लगाने वाला व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से प्रसन्न रहता है।

(19)
न रागान्नाप्यविज्ञानादाहारमुपयोजयेत् ।
परीक्ष्य हितमश्नीयाद् देहो स्याहारसम्भवः॥

शब्दार्थ
रागात् = प्रेम या रुचि के कारण।
अविज्ञानात् = बिना जाने हुए।
उपयोजयेत् = उपयोग करना चाहिए।
परीक्ष्य = अच्छी तरह देखभालकर।
अश्नीयात् = खाना चाहिए।
आहारसम्भवः = भोजन से बनने वाला अर्थात् आहार से सम्भव।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में भोजन करने के नियम बताये गये हैं।

अन्वय
(नरः) न रागात् न अपि अविज्ञानात्, आहारम् उपयोजयेत्। परीक्ष्य हितम् अश्नीयात्। हि देहः आहारसम्भवः।

व्याख्या
मनुष्य को न प्रेम या रुचि के कारण और न ही अज्ञान के कारण भोजन का उपयोग करना चाहिए। अच्छी तरह देखभाल कर हितकारी भोजन करना चाहिए। निश्चय ही शरीर भोजन से बनने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को देखभाल कर और स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन ही करना चाहिए। प्रेम और रुचि के कारण अधिक भोजन नहीं करना चाहिए।

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(20)
हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः।
पश्यन् रोगान् बहून् कष्टान् बुद्धिमान् विषमशिनात् ॥

शब्दार्थ
हिताशी = हितकर भोजनं करने वाला।
मिताशी = थोड़ा भोजन करने वाला।
कालभोजी = समय पर भोजन करने वाला।
जितेन्द्रियः = अपनी इन्द्रियों को वश में करने वाला।
पश्यन् = देखते हुए।
बहून्= बहुत।
विषमाशनात् = विषम (अंटसंट) भोजन करने से।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में भोजन करने के नियम बताये गये हैं।

अन्वय्
बुद्धिमान् विषमाशनात् बहून् रोगान् कष्टान् च पश्यन् हिताशी स्यात्, मिताशी स्यात्, कालभोजी, जितेन्द्रियः च स्यात्।।

व्याख्या
बुद्धिमान् पुरुष को विषम भोजन करने से होने वाले बहुत-से रोगों और कष्टों को देखते हुए हितकर भोजन करने वाला, परिमित (थोड़ा) भोजन करने वाला, समय पर भोजन करने वाला और जितेन्द्रिय होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को सर्वविध सन्तुलित भोजन करने वाला होना चाहिए।

(21)
नरो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।
दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः ॥

शब्दार्थ
हिताहार-विहारसेवी = हितकर भोजन और विहार (भ्रमण) का सेवन करने वाला।
समीक्ष्यकारी = विचारकर काम करने वाला।
विषयेष्वसक्तः = विषयों में आसक्ति न रखने वाला।
दाता = दान देने वाला।
समः = सभी जीवों में समान भाव रखने वाला।
सत्यपरः = सत्य ही जिसके लिए सबसे उत्कृष्ट है; अर्थात् सत्य को सर्वोपरि मानने वाला।
क्षमावान् = क्षमाभाव से युक्त।
आप्तोपसेवी = विश्वसनीय व्यक्तियों का संसर्ग करने वाला।
अरोगः = नीरोग।। 

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में निरोग होने के उपाय बताये गये हैं।

अन्वय
हिताहार-विहारसेवी, समीक्ष्यकारी, विषयेषु असक्तः, दाता, समः, सत्येपरः, क्षमावान्, आप्तोपसेवी, च नरः अरोगः भवति।

व्याख्या
हितकर भोजन और विहार (भ्रमण) करने वाला, विचारकर कार्य करने वाला, विषय-वासनाओं में आसक्ति न रखने वाला, दान देने वाला, सुख-दुःख को समान समझने वाला, सत्य बोलने वाला, क्षमा धारण करने वाला और विश्वसनीय-जनों की संगति करने वाला मनुष्य रोगरहित होता है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1)
व्याधयो नोपसर्पन्ति सिंहं क्षुद्रमृगा इव।।
सन्दर्थ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘आरोग्यसाधनानि’ नामक पाठ से उद्धृत है। .

प्रसंग
इस सूक्ति में व्यायाम की उपयोगिता को बताया गया है।

अर्थ
(व्यायाम करने वाले के) समीप बीमारियाँ उसी प्रकार नहीं जातीं, जिस प्रकार से सिंह के समीप छोटे प्राणी।।

व्याख्या
व्यायाम करने वाले व्यक्ति का शरीर इतना बलिष्ठ और मजबूत हो जाता है कि बीमारियाँ उसके समीप जाते हुए उसी प्रकार भय खाती हैं, जिस प्रकार से छोटे-छोटे जीव सिंह के समीप जाते हुए भय खाते हैं; अर्थात् व्यायाम करने वाला व्यक्ति नीरोगी होता है। अत: व्यक्ति को , नियमित व्यायाम द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ रखना चाहिए।

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(2) शरीरबलसन्धानं स्नानमोजस्करं परम्।।

सन्दर्य
पूर्ववत्।

प्रसंग
स्नान के महत्त्व को प्रस्तुत सूक्ति में समझाया गया है।

अर्थ
स्नान शरीर की शक्ति तथा ओज को बहुत अधिक बढ़ाने वाला होता है।

व्याख्या
स्नान करने से शरीर का मैल और पसीना साफ हो जाता है, जिससे शरीर में रक्त को संचार बढ़ जाता है। रक्त-संचार के बढ़ जाने से व्यक्ति अपने शरीर में ऐसी स्फूर्ति का अनुभव करता है, मानो उसमें कहीं से अतिरिक्त शक्ति का समावेश हो गया हो। त्वचा के मैल इत्यादि के धुल जाने (UPBoardSolutions.com) से त्वचा में चमक आ जाती है, जिससे व्यक्ति का चेहरा चमकने लगता है। इसीलिए स्नान को शक्ति तथा ओज को बढ़ाने वाला माना गया है।

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Class 9 Sanskrit Chapter 12 UP Board Solutions यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 12
Chapter Name यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 12 Yaksha Yudhishthir Sanlaap Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 12 हिंदी अनुवाद यक्ष-युधिष्ठिर-संलाप के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–प्रस्तुत पाठ महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’ के वनपर्व से संगृहीत है। इन , श्लोकों में यक्ष और युधिष्ठिर के संलाप द्वारा जीवन एवं जगत् के व्यावहारिक पक्ष की मार्मिक व्याख्या की गयी है।

अपने प्रवास के समय एक बार पाँचों पाण्डव वन में थे। युधिष्ठिर को प्यास लगती है। वह सहदेव को पानी लेने के लिए जलाशय पर भेजते हैं। जलाशय में एक यक्ष था। वह पानी पीने से पूर्व अपने प्रश्न का उत्तर देने को कहता है और कहता कि यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल लोगे  तो मर जाओगे।” यक्ष के प्रश्नों का उत्तर न दे सकने के कारण क्रमशः सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम उसके द्वारा मृतप्राय कर दिये जाते हैं। अन्त में युधिष्ठिर जलाशय पर आते हैं। यक्ष उन्हें भी प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल पीने नहीं देता है। वह उन्हें रोककर कहता है कि “यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दोगे तो तुम जल ले सकते हो।” युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रस्ताव को स्वीकार किया और उसके द्वारा पूछे गये सभी प्रश्नों का उत्तर दिया।

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पाठ-सारांश

यक्ष-युधिष्ठिर के मध्य हुए वार्तालाप का संक्षिप्त सार इस प्रकार है|

यक्ष
भूमि से बड़ा, आकाश से ऊँचा, वायु से अधिक वेगवान् और घास से संख्या में अधिक कौन है?
युधिष्ठिर
माता भूमि से बड़ी, पिता आकाश से ऊँचा, मन वायु से अधिक वेगवान् और चिन्ता घास से संख्या में अधिक है। 

यक्ष
सोते हुए कौन पलक बन्द नहीं करता? पैदा हुआ कौन चेष्टा नहीं करता? किसके हृदय नहीं है और वेग से कौन बढ़ता है?
युधिष्ठिर
सोती हुई मछली पलक बन्द नहीं करती, पैदा हुआ अण्डा चेष्टा नहीं करता, पत्थर के – हृदय नहीं है और नदी वेग से बढ़ती है।

यक्ष
प्रवासी, गृहस्थ, रोगी और मरने वाले का मित्र कौन है?
युधिष्ठिर
प्रवासी की विद्या, गृहस्थ की पत्नी, रोगी का वैद्य और मरने वाले का मित्र दान होता ।

यक्ष
धान्यों, धनों, लाभ और सुखों में उत्तम क्या है?
युधिष्ठिर
धान्यों में कुशलता, धनों में शास्त्र-ज्ञान, लाभों में नीरोगिता, सुखों में सन्तोष उत्तम है।

यक्ष
व्यक्ति किसे छोड़कर प्रिय होता है? किसे छोड़कर शोक नहीं करता? किसे छोड़कर धनवान् और क़िसे छोड़कर सुखी होता है?
युधिष्ठिर
व्यक्ति अहंकार छोड़कर प्रिय, क्रोध छोड़कर शोकहीन, इच्छा छोड़कर धनवान् और लोभ छोड़कर सुखी होता है।

यक्ष
पुरुष, राष्ट्र, श्राद्ध और यज्ञ कैसे मृत होता है?
युधिष्ठिर
निर्धन पुरुष, राजाहीन राष्ट्र, वेदज्ञहीन श्राद्ध और दक्षिणाहीन यज्ञ मृत होता है।

यक्ष
पुरुष का दुर्जय शत्रु, अन्तहीन रोग, सज्जन और दुर्जन कौन है?
युधिष्ठिर
क्रोध दुर्जय शत्रु, लोभ अन्तहीन रोग, सर्वहितकारी सज्जन और दयाहीन दुर्जन, होता है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
किंस्विद्गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्।
किंस्विच्छीघ्रतरं वायोः किंस्विबहुतरं तृणात् ॥

शब्दार्थ
यक्ष उवाच = यक्ष ने कहा।
किंस्विद् = कौन-सा।
गुरुतरम् = अधिक बड़ा, अधिक  भारी।
भूमेः = भूमि से।
उच्चतरं = अधिक ऊँचा।
खात् = आकाश से।
शीघ्रतरं = शीघ्रगामी।
बहुतरम् = संख्या में अधिक
तृणात् = तृण, घास।

सन्दर्य
प्रस्तुत श्लोक संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘यक्ष-युधिष्ठिर-संलापः’ पाठ से उधृत है।

[संकेत-पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से कुछ महान् वस्तुओं के विषय में प्रश्न पूछता है

अन्वय
भूमेः गुरुतरं किंस्विद् (अस्ति)? खात् उच्चतरं च किंस्विद् (अस्ति)? वायोः शीघ्रतरं , किंस्विद् (अस्ति)? तृणात् बहुतरं किंस्विद् (अस्ति)? | व्याख्या-यक्ष ने कहा-भूमि से अधिक भारी कौन-सी वस्तु है? आकाश से अधिक ऊँची कौन-सी वस्तु है? वायु से अधिक शीघ्रगामी कौन-सी वस्तु है? घास से संख्या में अधिक कौन-सी , वस्तु है?

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(2)
माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा ।
मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात् ॥

शब्दार्थ
वातात् = वायु से।
बहुतरी = संख्या में अधिक।

प्रसंग
यक्ष के द्वारा पूछे गये प्रश्नों– भूमि से अधिक भारी, आकाश से अधिक ऊँची, वायु से अधिक शीघ्रगामी और घास से संख्या में अधिक कौन-सी वस्तु है—का उत्तर युधिष्ठिर इस प्रकार देते हैं ।

अन्वय
माता भूमेः गुरुतरा (अस्ति) तथा पिता खात् उच्चतरः (अस्ति)। मनः वातात् शीघ्रतरम् (अस्ति)। चिन्ता तृणात् बहुतरी (अस्ति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-माता भूमि से अधिक भारी (गौरवशालिनी) है तथा पिता आकाश से अधिक ऊँचा है। मन वायु से अधिक तीव्रगामी है और चिन्ता घास से सख्या में बहुत अधिक है।

(3)
किंस्वित्सुप्तं न निमिषति किंस्विज्जातं न चेङ्गते ।
कस्यस्विदधृदयं नास्ति कास्विद्वेगेन वर्धते ॥

शब्दार्थ
सुप्तं = सोते हुए।
निमिषति = पलक गिराती है।
जातं = उत्पन्न होने पर।
इङ्गते = चेष्टा करता है।
कस्यस्विद् = किस वस्तु के।
कास्विद् = कौन-सी वस्तु।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है।

अन्वय
किंस्वित् सुप्तं न निमिषति? किंस्विद् जातं न इङ्गते? कस्यस्विद् हृदयम् न अस्ति? कास्विद् वेगेन वर्धते?

व्याख्या
यक्ष ने कहा-सोती हुई कौन-सी वस्तु पलक नहीं गिराती? कौन-सी वस्तु उत्पन्न हुई चेष्टा नहीं करती? किस वस्तु के हृदय नहीं है? कौन-सी वस्तु वेग से बढ़ती है? |

(4)
मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चेङ्गते ।।
अश्मनो हदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते ॥

शब्दार्थ
मत्स्यः = मछली।
अण्डं = अण्डा।
अश्मनः = पत्थर का।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष के प्रश्नों-सोती हुई कौन-सी वस्तु पलक नहीं गिराती, कौन-सी वस्तु उत्पन्न हुई चेष्टा नहीं करती, किस वस्तु के हृदय नहीं है तथा कौन-सी वस्तु वेग से बढ़ती है-का उत्तर युधिष्ठिर देते हैं।

अन्वय
सुप्त: मत्स्यः न निमिषति। जातम् अण्डं न च इङ्गते। अश्मनः हृदयं न अस्ति। नदी वेगेन वर्धते।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-सोती हुई मछली पलक नहीं गिराती है। उत्पन्न हुआ अण्डा चेष्टा नहीं करता है। पत्थर के हृदय नहीं होता है और नदी वेग से बढ़ती है।

(5)
किंस्वित्प्रवसतो मित्रं किंस्विन्मित्रं गृहे सतः ।।
आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन्मित्रं मरिष्यतः ॥

शब्दार्थ
प्रवसतः = विदेश में रहने वाले का।
गृहे = घर में।
आतुरस्य = रोगी का।
मरिष्यतः = मरने वाले का।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है।

अन्वय
प्रवसतः किंस्वित् मित्रम् (अस्ति)? गृहे सत: किंस्वित् मित्रम् (अस्ति)? आतुरस्य च किं मित्रम् (अस्ति)? मरिष्यतः किंस्विद् मित्रम् (अस्ति)?। व्याख्या-यक्ष ने कहा-विदेश में रहने वाले का कौन मित्र है? घर में रहने वाले का कौन मित्र है? रोगी का कौन मित्र है? मरने वाले को कौन मित्र है?

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(6)
विद्या प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः ।।

आतुरस्यभिषमित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः ॥

शब्दार्थ
भार्या = पत्नी।
भिषक् = वैद्य।

प्रसंग
युधिष्ठिर यक्ष के मित्र सम्बन्धी प्रश्नों-विदेश में रहने वाले का, घर में रहने वाले का, रोगी का और मरते हुए का मित्र कौन होता है–का उत्तर देते हैं।

अन्वय
विद्या प्रवसतः मित्रम् (अस्ति)। गृहे सत: भार्या मित्रम् (अस्ति)। आतुरस्य भिषक् मित्रम् (अस्ति)। मरिष्यतः मित्रं दानम् (अस्ति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-विद्या प्रवास में रहने वाले की मित्र होती है। घर में रहने वाले की मित्र पत्नी होती है। रोगी का मित्र वैद्य होता है और मरने वाले का मित्र दान होता है।

(7)
धान्यानामुत्तमं किंस्विद्धनानां स्यात्किमुत्तमम्। .
लाभानामुत्तमं किं स्यात्सुखानां स्यात्किमुत्तमम् ॥

शब्दार्थ
धान्यानाम् = धान्यों में।
धनानां = धनों में।
उत्तमम् = उत्तम, अच्छा।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से विभिन्न उत्तम वस्तुओं के सम्बन्ध में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
धान्यानाम् उत्तमं किंस्विद् (अस्ति)? धनानाम् उत्तमं किं स्यात्? लाभानाम् उत्तमं किं स्यात्? सुखानाम् उत्तमं किं स्यात्? ।

व्याख्या
यक्ष ने कहा-धान्यों में उत्तम क्या है? धनों में उत्तम क्या है? लाभों में उत्तम क्या है? सुखों में उत्तम क्या है?

(8)
धान्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम्।।
लाभानां श्रेय आरोग्यं सुखानां तुष्टिरुत्तमा॥

शब्दार्थ
दाक्ष्यम् = दक्षता, कुशलता।
श्रुतम् = शास्त्र ज्ञान।
श्रेयः = श्रेष्ठ।
तुष्टिः = सन्तोष।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के उत्तम वस्तु सम्बन्धी प्रश्नों-धान्यों में, धनों में, लाभों में और सुखों में उत्तम क्या है—का उत्तर देते हुए कहते हैं

अन्वय
धान्यानाम् उत्तमं दाक्ष्यम् (अस्ति)। धनानाम् उत्तमं श्रुतम् (भवति)। लाभानां श्रेयः आरोग्यम् (अस्ति)। सुखानाम् उत्तमा तुष्टिः (अस्ति)। |

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-धान्यों में उत्तम कुशलता है। धनों में उत्तम शास्त्र-ज्ञान है। लाभों में श्रेष्ठ नीरोगिता (आरोग्यता) है। सुखों में उत्तम सन्तोष है।

(9)
किं नु हित्वा प्रियो भवति किं नु हित्वा न शोचति।
किं नु हित्वाऽर्थवान्भवति किं नु हित्वा सुखी भवेत् ॥

शब्दार्थ
किं नु = किसे, क्या।
हित्वा = छोड़कर।
शोचति = शोक करता है।
अर्थवान् = धनवान्।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से हितकारी त्याग के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वये
(नरः) किं नु हित्वा प्रियः भवति? किं नु हित्वा न शोचति? किं नु हित्वा अर्थवान् भवति? किं नु हित्वा सुखी भवेत्? | व्याख्या—यक्ष ने कहा—मनुष्य क्या चीज छोड़करे प्रिय होता है? किस वस्तु को छोड़कर शोक नहीं करता है ? क्या छोड़कर धनवान् होता है? क्यों छोड़कर सुखी होता है? |

(10)
मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति ।
कामं हित्वाऽर्थवान्भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत् ॥

राख्दार्थ
मानम् = अहंकार को।
कामम् = इच्छा को। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के त्याग सम्बन्धी प्रश्नों—मनुष्य क्या छोड़कर प्रिय होता है, किस वस्तु को छोड़कर शोक नहीं करता, क्या छोड़कर धनवान् होता है तथा क्या छोड़कर सुखी होता है–का उत्तर दे रहे हैं।

अन्वये
(नरः) मानं हित्वा प्रियः भवति। क्रोधं हित्वा न शोचति। कामं हित्वा अर्थवान् भवति। लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा–(मनुष्य) अहंकार को छोड़कर प्रिय होता है। क्रोध को छोड़कर शोक नहीं करता है। इच्छा को छोड़कर धनवान् होता है। लोभ को छोड़कर सुखी होता है।

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(11)
मृतः कथं स्यात्पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत् ।।
आद्धं मृतं वा स्यात्कथं यज्ञो मृतो भवेत् ॥

राख्दार्थ-
मृतः = मरा हुआ।
आद्धं = पितरों के लिए किया गया पिण्डदानादि कर्म।
यज्ञ = देव-पूजन, यजन-कर्म।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से कुछ मृत वस्तुओं के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
पुरुषः कथं मृत: स्यात्? राष्ट्रं कथं मृतं भवेत्? श्राद्धं कथं वा मृतम् स्यात? यज्ञः कथं मृत: भवेत्?

व्याख्या
यक्ष ने कहा-पुरुष कैसे मृत होता है? राष्ट्र कैसे मृत होता है? श्राद्ध कैसे मृत होता है? यज्ञ कैसे मृत होता है? |

(12)
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः ॥

शब्दार्थ
दरिद्रः = निर्धन।
अराजकम् = राजा के बिना।
अश्रोत्रियम् = वेदज्ञ विद्वान् से रहित।
अदक्षिणः = दक्षिणा से रहित।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के मृत वस्तु सम्बन्धी प्रश्नों—पुरुष, राष्ट्र, श्राद्ध, यज्ञ कैसे मृत होता है के उत्तर देते हैं।

अन्वय
दरिद्रः पुरुषः मृतः (भवति)। अराजकं राष्ट्रं मृतं (भवति)। अश्रोत्रियं श्राद्धं मृतं  (भवति)। अदक्षिणः तु यज्ञः मृतः (भवति)।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा-दरिद्र पुरुष मृत होता है। राजारहित राष्ट्र मृत होता है। वेद-ज्ञाता विद्वान् से रहित श्राद्ध मृत होता है; दक्षिणारहित यज्ञ मृत होता है अर्थात् बिना दक्षिणा दिये यज्ञ का कोई महत्त्व नहीं होता।

(13)
कः शत्रुर्दुर्जयः पुंसां कश्च व्याधिरनन्तकः।
कीदृशश्च स्मृतः साधुरसाधुः कीदृशः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
कः = कौन।
दुर्जयः = जो कठिनाई से जीता जा सके।
पुंसाम् = पुरुषों के लिए।
व्याधिः = रोग।
अनन्तकः = अन्तहीन।
कीदृशः = कैसा।
स्मृतः = माना गया है।
साधुः = सज्जन।
असाधुः = दुर्जन।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में यक्ष युधिष्ठिर से शत्रु, रोग और सज्जन-दुर्जन के विषय में प्रश्न पूछता है।

अन्वय
पुंसां दुर्जयः शत्रुः कः (अस्ति)?”अनन्तकः व्याधिः च कः (अस्ति)? साधुः च कीदृशः स्मृतः? असाधुः कीदृशः स्मृतः? । |

व्याख्या
यक्ष ने कहा-पुरुषों के लिए कठिनाई से जीतने योग्य शत्रु कौन-सा है? अन्तहीन रोग कौन-सा है? सज्जन कैसा माना गया है? दुर्जन कैसा माना गया है?

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(14)
क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुभो व्याधिरनन्तकः ।।
सर्वभूतहितः ‘ साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः ॥

शब्दार्थ
संर्वभूतहितः = सब प्राणियों का हित करने वाला।
निर्दयः = दयाहीन।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर यक्ष के–शत्रु, रोग और सज्ज़न-दुर्जन सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देते हैं।

अन्वय
क्रोधः सुदुर्जयः शत्रुः (अस्ति)। लोभः अनन्तकः व्याधिः (अस्ति)। साधुः  सर्वभूतहितः स्मृतः। असाधुः निर्दयः (स्मृतः)।।

व्याख्या
युधिष्ठिर ने कहा–क्रोध अत्यन्त कठिनाई से जीतने योग्य शत्रु होता है। लोभ अन्तहीन रोग है। साधु सब प्राणियों का हित करने वाला माना गया है। दुर्जन दयाहीन माना गया है।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1) माता गुरुतरा भूमेः खात्पितोच्चतरस्तथा।।

सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘यक्ष-युधिष्ठिरसंलापः’ नामक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

फ्संग
प्रस्तुत सूक्ति में माता-पिता के स्थान को सर्वोच्च बताया गया है।

अर्थ
माता भूमि से बड़ी और पिता आकाश से ऊँचा है।

व्याख्या
धरती माता की तरह ही अनेक वनस्पतियों तथा दूसरे जीवों को जन्म देती है। वह माता की तरह ही अपने अन्न-जल और वायु से उनका पोषण करती है। लेकिन धरती अपनी इन

सन्तानों पर कष्ट आने पर उनके कष्ट स्वयं नहीं ले लेती और न ही उन्हें दूर करने का कोई प्रयास करती है। जब कि माता अपनी सन्तानों के दु:ख अपने ऊपर ले लेती है और कभी-कभी तो उनके दुःखों को दूर करने के लिए अपने प्राणों तक को न्योछावर कर देती है। निश्चित ही वह भूमि से बड़ी है।

आकाश सबसे ऊँचा है, उसकी ऊँचाई अनन्त है। वह किसी को अपने से ऊँचा निकलने का अवसर नहीं देता। वह किसी को ऊँचा उठाने के लिए स्वयं नीचा नहीं हो जाता। जब कि पिता अपनी सन्तानों को अनन्त ऊँचाइयों तक ऊँचा उठाना चाहता है, इसके लिए वह स्वयं झुक जाता है तथा अपने

अस्तित्व तक को दाँव पर लगा देता है। वह अपने बलिदान से अपनी सन्तानों को ऊँचा उठाने का हर ‘सम्भव प्रयत्न करता है, यही कारण है उसे आकाश से भी ऊँची कहा गया है। ”

(2)

आतुरस्य भिषङिमत्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में रोगी तथा मृतप्राय व्यक्ति के मित्र के विषय में बताया गया है।

अर्थ
रोगी का मित्र वैद्य तथा मरते हुए का मित्र दान होता है।

व्याख्या
व्यक्ति को जो कष्टों से बचाये, वही सच्चा मित्र कहलाता है। रोगी व्यक्ति को चिकित्सक ही उसके रोग के कष्टों से मुक्ति दिला सकता है और मरते हुए व्यक्ति को दान ही यों के कष्टों से मुक्ति दिलाता है। इसीलिए वैद्य (चिकित्सक) को रोगी को तथा दान को मरने वाले का मित्र बताया गया है। कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य में लिखा है कि ‘लोकान्तर सुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम्।’ अर्थात् तप और दान के पुण्यस्वरूप सुख परलोक में ही प्राप्त होता है।

(3)
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।

प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में दरिद्र पुरुष और राजाहीन राष्ट्र की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ
दरिद्र पुरुष मृत होता है। राजारहित राष्ट्र मृत होता है।

व्याख्या
दरिद्र व्यक्तिं सदैव अभावों का जीवन जीता है। धन के अभाव में वह अपनी किसी भी आशा को फलित होते हुए, नहीं देख पाता, जिससे उसका जीवन निराशा से भर जाता है, उसके जीवन का उत्साह समाप्त हो आता है, उसकी संवेदना मर जाती है। संवेदनाहीन व्यक्ति मरे हुए के समान ही होता है। इसीलिए दरिद्र पुरुष को मृत उचित ही कहा गया है। | जिस राष्ट्र का कोई राजा नहीं होता, उस पर पड़ोसी राजा अपना अधिकार करके उसे अपने राज्य में मिला लेता है और उस राष्ट्र का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। अस्तित्वहीनता ही मृत्यु है; अत: वास्तव में राजारहित राष्ट्र मृत ही होता है। तात्पर्य यह है कि राजा के अभाव में राष्ट्र की कल्पना ही निरर्थक है।

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(4)
सर्वभूतहितः साधुरसाधुर्निर्दयः स्मृतः।

प्रसंग
सज्जन और दुर्जन के स्वभावों के अन्तर को प्रस्तुत सूक्ति में स्पष्ट किया गया है।

अर्थ
साधु (सज्जन) समस्त प्राणियों का हित करने वाला माना गया है। असाधु (दुर्जन) दयाहीन माना गया है।

व्याख्या
सज्जन व्यक्ति संसार के समस्त अच्छे-बुरे प्राणियों का हित चाहने वाले होते हैं। उनके मन में यह भावना कभी नहीं आती कि यह प्राणी बुरी है अथवा इसने उनको हानि पहुँचायी थी; अतः उनका हित नहीं किया जाना चाहिए। वे सभी का समानभाव से हित-साधन करते हैं, भले ही वह प्राणी अच्छा हो अथवा बुरा

सज्जनों की इस प्रवृत्ति के विपरीत दुर्जन संसार के अच्छे तथा बुरे सभी प्राणियों को निर्दयतापूर्वक कष्ट देते हैं। किसी की दीन-हीन दशा को देखकरे भी उनके मन में दया नहीं उपजती। दूसरों की पीड़ा में उन्हें आनन्द आता है। वे ऐसे व्यक्ति के दुःख को देखकर भी नहीं पिघलते, जिसने कभी उन पर उपकार किया हो। इसीलिए सज्जनों को सबका हित करने वाला और दुष्टों को निर्दयी माना जाता है।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) माता गुरुतरा ••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••वृणात् ॥(श्लोक 2)
संस्कृतार्थः-
अस्मिन् श्लोके महाराजः युधिष्ठिरः कथयति–“जननी पृथिव्याः श्रेष्ठा भवति, जनकः आकाशात् उच्चतरः अस्ति। मनः वायोः अपि शीघ्रगामी भवति। चिन्ता च तृणेभ्यः अपि भूयसी भवति।”

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