UP Board Solutions for Class 10 Hindi सांस्कृतिक निबन्ध : राष्ट्रीय भावना

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सांस्कृतिक निबन्ध : राष्ट्रीय भावना

1. स्वदेश-प्रेम [2010, 11, 12, 13, 14, 15, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी [2010]
  • देश-भक्ति/देश-प्रेम। [2011, 14]
  • जननी-जन्मभूमि प्रिय अपनी
  • राष्ट्र-प्रेम का महत्त्व [2016]
  • राष्ट्र की सुरक्षा में नवयुवकों का योगदान
  • हमारा प्यारा भारतवर्ष [2012, 13]
  • सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा [2016]

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. देश-प्रेम की स्वाभाविकता,
  3. देश-प्रेम का अर्थ,
  4. देश-प्रेम का क्षेत्र,
  5. देश के प्रति हमारे कर्तव्य,
  6. भारतीयों को देश-प्रेम,
  7. उपसंहार।

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प्रस्तावना—ईश्वर द्वारा बनायी गयी सर्वाधिक अद्भुत रचना है ‘जननी’, जो नि:स्वार्थ प्रेम की प्रतीक है, प्रेम का ही पर्याय है, स्नेह की मधुर बयार है, सुरक्षा का अटूट कवच है, संस्कारों के पौधों को ममता के जल से सींचने वाली चतुर (UPBoardSolutions.com) उद्यान-रक्षिका है, जिसका नाम प्रत्येक शीश को नमन के लिए झुक जाने को प्रेरित कर देता है। यही बात जन्मभूमि के विषय में भी सत्य है। इन दोनों का दुलार जिसने पा लिया उसे स्वर्ग का पूरा-पूरा अनुभव धरा पर ही हो गया। इसीलिए जननी और जन्मभूमि की महिमा को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया हैं।

देश-प्रेम की स्वाभाविकता–प्रत्येक देशवासी को अपने देश से अनुपम प्रेम होता है। अपना देश चाहे बर्फ से ढका हुआ हो, चाहे गर्म रेत से भरा हुआ हो, चाहे ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ हो, वह सबके लिए प्रिय होता है। इस सम्बन्ध में रामनरेश त्रिपाठी की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं

विषुवत रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।।
रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर ॥
ध्रुववासी जो हिम में तम में, जी लेता है काँप-काँप कर।।
वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ॥

प्रात:काल के समय पक्षी भोजन-पानी के लिए कलरव करते हुए दूर स्थानों पर चले तो जाते हैं, परन्तु सायंकाल होते ही एक विशेष उमंग और उत्साह के साथ अपने-अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं। जब पशु-पक्षियों को अपने घर से, अपनी मातृभूमि से इतना प्यार हो सकता है तो भला मानव को अपनी जन्मभूमि से, अपने देश से क्यों प्यार नहीं होगा? कहा भी गया है कि माता और जन्मभूमि की तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ है

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

देश-प्रेम को अर्थ-देश-प्रेम का तात्पर्य है-देश में रहने वाले जड़-चेतन सभी से प्रेम, देश की सभी संस्थाओं से प्रेम, देश के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेशभूषा से प्रेम, देश के सभी धर्मों, मतों, भूमि, पर्वत, नदी, वन, तृण, लता सभी से प्रेम और अपनत्व रखना, उन सबके प्रति गर्व की अनुभूति करना। सच्चे देश-प्रेमी के लिए देश का कण-कण पावन और पूज्य होता है

सच्चा प्रेम वही है, जिसकी तृप्ति आत्मबलि पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥
देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित।
आत्मा के विकास से, जिसमें मानवता होती है विकसित ॥

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सच्चा देश-प्रेमी वही होता है, जो देश के लिए नि:स्वार्थ भावना से बड़े-से-बड़ा त्याग कर सकता है। स्वदेशी वस्तुओं का स्वयं उपयोग करता है और दूसरों को उनके उपयोग के लिए प्रेरित करता है। सच्चा देशभक्त उत्साही, सत्यवादी, महत्त्वाकांक्षी (UPBoardSolutions.com) और कर्तव्य की भावना से प्रेरित होता है।

देश-प्रेम का क्षेत्र-देश-प्रेम का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। सैनिक युद्ध-भूमि में प्राणों की बाजी लगाकर, राज-नेता राष्ट्र के उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर, समाज-सुधारक समाज का नवनिर्माण करके, धार्मिक नेता मानव-धर्म का उच्च आदर्श प्रस्तुत करके, साहित्यकार राष्ट्रीय चेतना और जन-जागरण का स्वर फेंककर, कर्मचारी, श्रमिक एवं किसान निष्ठापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करके, व्यापारी मुनाफाखोरी व तस्करी का त्याग कर अपनी देशभक्ति की भावना को प्रदर्शित कर सकता है।

देश के प्रति हमारे कर्तव्य-जिस देश में हमने जन्म लिया है, जिसका अन्न खाकर और अमृत के समान जल पीकर, सुखद वायु का सेवन कर हम बलवान् हुए हैं, जिसकी मिट्टी में खेल-कूदकर हमने पुष्ट शरीर प्राप्त किया है, उस देश के प्रति हमारे अनन्त कर्तव्य हैं। हमें अपने प्रिय देश के लिए कर्तव्यपालन और त्याग की भावना से श्रद्धा, सेवा एवं प्रेम रखना चाहिए। हमें अपने देश की एक इंच भूमि के लिए तथा उसके सम्मान और गौरव के लिए प्राणों की बाजी लगा देनी चाहिए। यह सब करने पर भी जन्मभूमि या अपने देश के ऋण से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकते।

भारतीयों का देश-प्रेम-भारत माँ ने ऐसे असंख्य नर-रत्नों को जन्म दिया है, जिन्होंने असीम त्याग-भावना से प्रेरित होकर हँसते-हँसते मातृभूमि पर अपने प्राण अर्पित कर दिये। अनेकानेक वीरों ने अपने अद्भुत शौर्य से शत्रुओं के दाँत खट्टे किये हैं। वन-वन भटकने वाले महाराणा प्रताप ने घास की रोटियाँ खाना स्वीकार किया, परन्तु मातृभूमि के शत्रुओं के सामने कभी मस्तक नहीं झुकाया। शिवाजी ने देश और मातृभूमि की सुरक्षा के लिए गुफाओं में छिपकर शत्रु से टक्कर ली और रानी लक्ष्मीबाई ने महलों के सुखों को त्यागकर शत्रुओं से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक उल्ला खाँ (UPBoardSolutions.com) आदि न जाने कितने देशभक्तों ने विदेशियों की अनेक यातनाएँ सहते हुए, मुख से ‘वन्देमातरम्’ कहते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूम लिया।

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उपसंहार-खेद का विषय है कि आज हमारे नागरिकों में देश-प्रेम की भावना अत्यन्त दुर्लभ होती जा रही है। हमारी पुस्तकें भले ही राष्ट्र प्रेम की गाथाएँ पाठ्य-सामग्री में सँजोये रहें, परन्तु वास्तव में नागरिकों के हृदय में गहरा व सच्चा राष्ट्र-प्रेम ढूंढ़ने पर भी उपलब्ध नहीं होता।

प्रत्येक देशवासी को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके देश भारत की देशरूपी बगिया में राज्यरूपी अनेक क्यारियाँ हैं। जिस प्रकार एक माली अपने उपवन की सभी क्यारियों की देखभाल समान भाव से करता है उसी प्रकार हमें भी देश के सर्वांगीण विकास का प्रयास करना चाहिए।

स्वदेश-प्रेम मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसे संकुचित रूप में ग्रहण न कर व्यापक रूप में ग्रहण करना चाहिए। संकुचित रूप में ग्रहण करने से विश्व-शान्ति को खतरा हो सकता है। हमें स्वदेश-प्रेम की । भावना के साथ-साथ समग्र मानवता के (UPBoardSolutions.com) कल्याण को भी ध्यान में रखना चाहिए।

2. हमारा राष्ट्रीय पर्व : स्वाधीनता दिवस

सम्बद्ध शीर्षक

  • स्वतन्त्रता दिवस |
  • विद्यालय में आयोजित राष्ट्रीय पर्व

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व,
  3. विभिन्न समारोह मनाये जाने के कारण,
  4. राष्ट्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय स्तरों पर कार्यक्रमों का आयोजन,
  5. हमारे विद्यालय में स्वतन्त्रता दिवस समारोह,
  6. उपसंहार।

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प्रस्तावना–भारतवर्ष में जिस प्रकार सामाजिक और धार्मिक पर्व (त्योहार) बहुत धूमधाम से मनाये जाते हैं, उसी प्रकार यहाँ राष्ट्रीय पर्वो को भी विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्रता दिवस एक राष्ट्रीय पर्व है, जिसे प्रतिवर्ष 15 अगस्त को सम्पूर्ण भारत में बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों के द्वारा बड़ी धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह हमारे लिए एक महत्त्वपूर्ण दिन है। इस दिन हमारा देश सैकड़ों वर्षों की विदेशी दासता से मुक्त हुआ था। (UPBoardSolutions.com) हम सब इस दिन को एक ऐतिहासिक दिन के रूप में मनाते हैं। स्वतन्त्रता के पुनीत पर्व पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी स्वतन्त्रता को अमर बनाये रखेंगे और स्वतन्त्रतासेनानियों के अधूरे स्वप्नों को साकार कर दिखाएँगे। कृतज्ञ राष्ट्र की उन अमर शहीदों को यही सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि होगी।

स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व-स्वतन्त्रता दिवस का हम सबके लिए बहुत महत्त्व है; क्योंकि देश को स्वतन्त्र कराने के लिए हमारे देश के न जाने कितने वीर जवानों ने अपने प्राणों की बलि दी है, कितनी माताओं ने अपने होनहार पुत्रों को खोया है, कितनी बहनों के भाई उनसे बिछुड़ गये, कितनी सुहागिनों की माँगें सूनी हो गयीं। अनेक नेताओं ने स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए वर्षों जेलों की यातनाएँ भोगी हैं। वे अंग्रेजों द्वारा दी गयी यातनाओं से डिगे नहीं, वरन् जी-जान से अपनी कोशिश में जुटे रहे। उन्होंने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए भारतीय जनता को उत्साहित किया। कहने का तात्पर्य यह है कि कड़ी मेहनत और बलिदानों के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हो सका है। जो वस्तु जितनी अधिक मेहनत और बलिदानों से प्राप्त की जाती है, उसका महत्त्व उतना ही अधिक बढ़ जाता है।

विभिन्न समारोह मनाये जाने के कारण–स्वतन्त्रता दिवस के दिन हम विभिन्न समारोहों का आयोजन करके उन शहीदों की याद को तरोताजा करते हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी और अमर हो गये। उनकी याद प्रत्येक भारतवासी को देश के लिए निछावर हो जाने की प्रेरणा देती है। इन समारोहों से देश के भावी कर्णधारों के हृदय में राष्ट्रभक्ति के बीज अंकुरित हो जाते हैं तथा जनजन के मन में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ उद्वेलित हो जाती हैं। साथ ही सैकड़ों वर्षों की दासता से मुक्ति मिलने के कारण इस दिन को याद रखना और उत्सव मनाना एक स्वाभाविक बात हो जाती है।

राष्ट्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय स्तरों पर कार्यक्रमों का आयोजन-खुशी के कारण ही स्वतन्त्रता दिवस सभी स्तरों-राष्ट्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय–पर बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिवस की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपना सन्देश प्रसारित करते हैं। दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से पहले प्रधानमन्त्री सेना की तीनों टुकड़ियों, अन्य सुरक्षा बलों, स्काउटों आदि का निरीक्षण कर सलामी लेते हैं। फिर लाल किले के मुख्य द्वार पर पहुँचकर राष्ट्रीय ध्वज फहराकर उसे सलामी देते हैं तथा राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इस सम्बोधन में पिछले वर्ष सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लेखाजोखा, अनेक नवीन योजनाओं तथा देश-विदेश से सम्बन्ध रखने वाली नीतियों के बारे में उद्घोषणा की जाती है। अन्त में राष्ट्रीय गान के साथ यह मुख्य समारोह समाप्त हो जाता है। रात्रि में दीपों की जगमगाहट से विशेषकर संसद भवन व राष्ट्रपति भवन की सजावट देखते ही बनती है। राज्यों की राजधानी में भी यह उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है। राज्यों के मुख्यमन्त्री प्रदेश की जनता को (UPBoardSolutions.com) सम्बोधित कर उसे प्रदेश की प्रगति की योजनाओं से अवगत कराते हैं। छोटे-बड़े सभी नगरों में इस अवसर पर अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, जिनमें ध्वजारोहण, राष्ट्रगान और उत्साहवर्द्धक भाषण होते हैं। सर्वत्र प्रभातफेरी का भी आयोजन किया जाता है।

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हमारे विद्यालय में स्वतन्त्रता दिवस समारोह हमारे विद्यालय में भी स्वतन्त्रता दिवस प्रत्येक वर्ष बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस वर्ष भी प्रात:काल 8 बजे विद्यालय के प्रांगण में प्रधानाचार्य, अध्यापक और सभी विद्यार्थी उपस्थित हो गये। ध्वजारोहण के साथ उत्सव आरम्भ हुआ। प्रधानाचार्य महोदय ने तिरंगा झण्डा फहराया। एन० सी० सी० कैडेटों ने झण्डे को सलामी दी और स्काउट ने बैण्ड बजाया। सभी ने मिलकर राष्ट्रगान गाया। फिर प्रधानाचार्य, सभी अध्यापक और विद्यार्थी अपने-अपने स्थान पर बैठ गये। सर्वप्रथम कुछ विद्यार्थी बारी-बारी से मंच पर आये और उन्होंने देशभक्ति के गीत सुनाये तथा कविताओं के अलावा ओजपूर्ण भाषण भी दिये। विद्यार्थियों के पश्चात् कुछ अध्यापकों ने भी भाषण दिये। किसी ने स्वतन्त्रता का अर्थ और महत्त्व समझाया तो किसी ने भारतीय संस्कृति और उसके गौरवमय इतिहास पर प्रकाश डाला। अन्त में हमारे प्रधानाचार्य महोदय ने अपना ओजस्वी भाषण दिया तथा विद्यार्थियों को अपने कर्तव्य को ईमानदारी और सच्चाई से पालन करने की शिक्षा दी।

उपसंहार-यह उत्सव देश में सभी स्थानों पर बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। यह हमें इस बात की याद दिलाता है कि इस दिन हम अंग्रेजों की परतन्त्रता की यातनामयी बेड़ियों से बड़ी कठिनाई से मुक्त हुए थे। देश की स्वतन्त्रता के लिए हमारे वीरों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी; अतः हमें इसकी

तन-मन-धन से रक्षा करनी चाहिए और अवसर पड़ने (UPBoardSolutions.com) पर भारत की एकता और अखण्डता के लिए अपना बलिदान देने हेतु तैयार रहना चाहिए। स्वतन्त्रता के पुनीत पर्व पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी स्वतन्त्रता को अमर रखेंगे तथा स्वतन्त्रता-सेनानियों के अधूरे सपनों को साकार करेंगे। उन अमर शहीदों के लिए कृतज्ञ राष्ट्र की यही सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि होगी।

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3. हमारे राष्ट्रीय पर्व [2015]

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारत के राष्ट्रीय त्योहार

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. गणतन्त्र दिवस,
  3. स्वतन्त्रता दिवस,
  4. गाँधी जयन्ती,
  5. राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–भारतवर्ष को यदि विविध प्रकार के त्योहारों का देश कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। इस धरा-धाम पर इतनी जातियाँ, धर्म और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं कि उनके सभी त्योहारों को एक-एक दिन में दो-दो त्योहार मनाकर भी वर्ष भर में पूरा नहीं किया जा सकता। पर्वो का मानव-जीवन व राष्ट्र के जीवन में विशेष महत्त्व होता है। इनसे नयी प्रेरणा मिलती है, जीवन की नीरसता दूर होती है तथा रोचकता और आनन्द में वृद्धि होती है। जिन पर्वो का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, जाति या धर्म के मानने वालों से न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र से होता है तथा जो पूरे देश में सभी नागरिकों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाये जाते (UPBoardSolutions.com) हैं, उन्हें . राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस एवं गाँधी जयन्ती हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं। ये उन अमर शहीदों व देशभक्तों का स्मरण कराते हैं, जिन्होंने राष्ट्र की स्वतन्त्रता, गौरव व इसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए अपने प्राणों को भी सहर्ष निछावर कर दिया।

गणतन्त्र दिवस-गणतन्त्र दिवस हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रतिवर्ष 26 जनवरी को समस्त देशवासियों द्वारा मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 ई० में हमारे देश में अपना संविधान लागू हुआ था। इसी दिन हमारा राष्ट्र पूर्ण स्वायत्त गणतन्त्र राज्य बना; अर्थात् भारत को पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न गणराज्य घोषित किया गया। यही दिन हमें 26 जनवरी, 1930 का भी स्मरण कराता है, जब जवाहरलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पारित किया गया था।

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गणतन्त्र दिवस का त्योहार बड़ी धूमधाम से यों तो देश के प्रत्येक भाग में मनाया जाता है, पर इसका मुख्य आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में ही किया जाता है। इस दिन सबसे पहले देश के प्रधानमन्त्री इण्डिया गेट पर शहीद जवानों की याद में प्रज्वलित की गयी जवान ज्योति पर सारे राष्ट्र की ओर से सलामी देते हैं। उसके बाद अपने मन्त्रिमण्डल के सदस्यों के साथ राष्ट्रपति महोदय की अगवानी करते हैं। राष्ट्रपति भवन के सामने स्थित विजय चौक में राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ ही मुख्य पर्व मनाया जाना आरम्भ होता है। इस दिन विजय चौक से प्रारम्भ होकर लाल किले तक जाने वाली परेड समारोह का प्रमुख आकर्षण होती है। क्रम से तीनों सेनाओं (जल, थल, वायु), सीमा सुरक्षा बल, अन्य सभी प्रकार के बलों, पुलिस आदि की टुकड़ियाँ राष्ट्रपति को सलामी देती हैं। एन० सी० सी०, एन० (UPBoardSolutions.com) एस० एस० तथा स्काउट, स्कूलों के बच्चे सलामी के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए गुजरते हैं। इसके उपरान्त सभी प्रदेशों की झाँकियाँ आदि प्रस्तुत की जाती हैं तथा शस्त्रास्त्रों का भी प्रदर्शन किया जाता है। राष्ट्रपति को तोपों की सलामी दी जाती है तथा परेड, झाँकियों आदि पर हेलीकॉप्टरों-हवाई जहाजों से पुष्प वर्षा की जाती है। ”

स्वतन्त्रता दिवस-पन्द्रह अगस्त के दिन मनाया जाने वाला स्वतन्त्रता दिवस का त्योहार दूसरा मुख्य राष्ट्रीय त्योहार माना गया है। इसके आकर्षण और मनाने का मुख्य केन्द्र दिल्ली स्थित लाल किला है। यों सारे नगर और सारे देश में भी अपने-अपने ढंग से इसे मनाने की परम्परा है। स्वतन्त्रता दिवस प्रत्येक वर्ष अगस्त मास की पन्द्रहवीं तिथि को मनाया जाता है। इसी दिन लगभग दो सौ वर्षों के अंग्रेजी दासत्व के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हुआ था। इसी दिन ऐतिहासिक लाल किले पर हमारा तिरंगा झण्डा फहराया गया था। यह स्वतन्त्रता राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के भगीरथ प्रयासों व अनेक महान् नेताओं तथा देशभक्तों के बलिदान की गाथा है। यह स्वतन्त्रता इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इसे बन्दूकों, तोपों जैसे अस्त्र-शस्त्रों से नहीं वरन् सत्य, अहिंसा जैसे शस्त्रास्त्रों से प्राप्त किया गया था। इस दिवस की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपना सन्देश प्रसारित करते हैं। दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से पहले प्रधानमन्त्री सेना की तीनों टुकड़ियों, अन्य सुरक्षा बलों, स्काउटों आदि का निरीक्षण कर सलामी लेते हैं। फिर लाल किले के मुख्य द्वार पर पहुँचकर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर उसे सलामी देते हैं तथा राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इसे सम्बोधन में पिछले वर्ष सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लेखा-जोखा, अनेक नवीन योजनाओं तथा देश-विदेश से सम्बन्ध रखने वाली नीतियों के बारे में उद्घोषणा की जाती है। अन्त में, राष्ट्रीय गान के साथ यह मुख्य समारोह समाप्त हो जाता है।

गाँधी जयन्ती-गाँधी जयन्ती भी हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रतिवर्ष गाँधीजी के जन्म-दिवस की शुभ स्मृति में 2 अक्टूबर को देश भर में मनाया जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन में गाँधीजी ने अहिंसात्मक रूप से देश का नेतृत्व किया और देश को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने सत्याग्रह, असहयोग
आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन से शक्तिशाली अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर । विवश कर दिया। गाँधीजी ने राष्ट्र एवं दीन-हीनों की सेवा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। प्रतिवर्ष सारा देश उनके त्याग, (UPBoardSolutions.com) तपस्या एवं बलिदान के लिए उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके बताये गये रास्ते पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करता है।

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राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व-इन तीन मुख्य पर्वो के अतिरिक्त अन्य कई पर्व भी भारत में मनाये जाते हैं और उनका भी राष्ट्रीय महत्त्व स्वीकारा जाता है। ईद, होली, वसन्त पंचमी, बुद्ध पंचमी, वाल्मीकि प्राकट्योत्सव, विजयादशमी, दीपावली आदि इसी प्रकार के पर्व माने जाते हैं। हमारी राष्ट्रीय अस्मिता किसी-न-किसी रूप में इन सभी पर्वो के साथ जुड़ी हुई है, फिर भी मुख्य महत्त्व उपर्युक्त तीन पर्वो का ही

उपसंहार-त्योहार तीन हों या अधिक, सभी का महत्त्व मानवीय एवं राष्ट्रीय अस्मिता को उजागर करना ही होता है। मानव-जीवन में जो एक आनन्दप्रियता, उत्सवप्रियता की भावना और वृत्ति छिपी रहती है, उनका भी इस प्रकार से प्रकटीकरण और स्थापन हो जाया करता है।
हमारे राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीय एकता के प्रेरणास्रोत हैं। ये पर्व सभी भारतीयों के मन में हर्ष, उल्लास और नवीन राष्ट्रीय चेतना का संचार करते हैं। साथ ही देशवासियों को यह संकल्प लेने हेतु भी प्रेरित करते हैं कि वे अमर शहीदों के बलिदानों को व्यर्थ नहीं जाने देंगे तथा अपने देश की रक्षा, (UPBoardSolutions.com) गौरव व इसके उत्थान के लिए सदैव समर्पित रहेंगे।

4. राष्ट्रीय एकता [2009, 10, 15]

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रीय सुरक्षा एवं एकता
  • राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्र-प्रेम

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रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय,
  2. भारत में अनेकता के विविध रूप,
  3. राष्ट्रीय एकता का आधार,
  4. राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता,
  5. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ,
  6. राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय-‘एकता’ एक भावात्मक शब्द है, जिसका अर्थ है‘एक होने की भाव’। इस प्रकार ‘राष्ट्रीय एकता’ का अभिप्राय है देश का सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से एक होना। इन दृष्टिकोणों से भारत में अनेकता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु बाह्य रूप से दिखाई देने वाली इस अनेकता के मूल में वैचारिक एकता , निहित है। अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है। किसी भी राष्ट्र की एकता उसके राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक होती है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव पर अभिमान नहीं होता, वह मनुष्य नहीं है

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नरपशु है निरा और मृतक समान है।

भारत में अनेकता के विविध रूप-भारत एक विशाल देश है। उसमें अनेकता होनी स्वाभाविक ही , है। धर्म के क्षेत्र में हिन्दू , मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलम्बी यहाँ निवास करते हैं। इतना ही नहीं, एक-एक धर्म में भी कई अवान्तर भेद हैं। सामाजिक दृष्टि से विभिन्न जातियाँ, उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर आदि विविधता के सूचक हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, पूजा-पाठ आदि की भिन्नता ‘अनेकता’ (UPBoardSolutions.com) की द्योतक है। राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद आदि अनेक वाद राजनीतिक विचार-भिन्नता का संकेत करते हैं। आर्थिक दृष्टि से पूँजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि विचारधाराएँ भिन्नता दर्शाती हैं। इसी प्रकार भारत की प्राकृतिक शोभा, भौगोलिक स्थिति, ऋतु-परिवर्तन आदि में भी पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है।

राष्ट्रीय एकता का आधार हमारे देश की एकता के आधार दर्शन (Philosophy) और साहित्य (Literature) हैं। ये सभी प्रकार की भिन्नताओं और असमानताओं को समाप्त करने वाले हैं। भारतीय दर्शन सर्व-समन्वय की भावना का पोषक है। यह किसी एक भाषा में नहीं लिखा गया है, अपितु यह देश की विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है। इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्र के निवासियों द्वारा लिखे जाने के बावजूद क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता, वरन् सबके लिए भाईचारे, मेल-मिलाप और सद्भाव का सन्देश देता हुआ देशभक्ति के भावों को जगाता है।

राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता–राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता है। भारत के सन्तों ने तो प्रारम्भ से ही मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं माना, वे तो सम्पूर्ण मनुष्य-जाति को एक सूत्र में बाँधने के पक्षधर रहे।

राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था, “जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी।” अत: देश की स्वतन्त्रता की रक्षा और राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय एकता का होना परम आवश्यक है।

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राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ-उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अनेक समाज-सुधारकों और दूरदर्शी राजपुरुषों के सत्प्रयत्नों से यह आन्तरिक एकता मजबूत हुई। लेकिन स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अनेक तत्त्व इसको खण्डित करने में सक्रिय रहे हैं, जो निम्नवत् हैं

(क) साम्प्रदायिकता–साम्प्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टिकोण है। संसार के विविध धर्मों में जितनी बातें बतायी मयी हैं, उनमें से अधिकांश बातें समान हैं; जैसे–प्रेम,
सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा, पवित्रता आदि। सच्चा धर्म कभी भी दूसरे से घृणा करना नहीं सिखाता। वह तो सभी से प्रेम करना, सभी की सहायता करना, सभी को समान समझना सिखाता है।

(ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता-अंग्रेज शासकों ने न केवल धर्म, वरन् प्रान्तीयता की अलगाववादी भावना को भी भड़काया है। इसीलिए जब-तब राष्ट्रीय भावना के स्थान पर हमें पृथक् अस्तित्व (राष्ट्र) और पृथक् क्षेत्रीय शासन स्थापित करने की माँगें (UPBoardSolutions.com) सुनाई पड़ती हैं। इस प्रकार क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत बड़ी बाधा है। ।

(ग) भाषावाद–भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। यहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। प्रत्येक भाषा-भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों से बढ़कर मानता है। फलत: विद्वेष और घृणा का प्रचार होता है और अन्ततः राष्ट्रीय एकता प्रभावित होती है।

(घ) जातिवाद-मध्यकाल में भारत के जातिवादी स्वरूप में जो कट्टरता आयी थी, उसने अन्य जातियों के प्रति घृणा और विद्वेष का भाव विकसित कर दिया। पुराकाल की कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था ने वर्तमान में जन्म पर आधारित कट्टर जाति-प्रथा का रूप ले लिया, जिसने भी भारत की एकता को बुरी तरह प्रभावित किया।

राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय–वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रस्तुत हैं

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(क) सर्वधर्म समभाव-विभिन्न धर्मों में जितनी भी अच्छी बातें हैं, यदि उनकी तुलना अन्य धर्मों । की बातों से की जाए तो उनमें एक अद्भुत समानता दिखाई देगी; अतः हमें सभी धर्मों का समान आदर करना चाहिए। धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर किसी को ऊँचा या नीचा समझना अनुचित है।

(ख) समष्टि-हित की भावना–यदि हमें अपनी स्वार्थ-भावना को त्यागकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें तथा धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के नाम पर न सोचकर समूचे राष्ट्र के नाम पर सोचे तो अलगाववादी भावना के स्थान पर एकता की भावना सुदृढ़ होगी।

(ग) एकता का विश्वास–भारत में जो दृश्यमान अनेकता है, उसके अन्दर ही एकता का भी निवास है–इस बात का प्रचार समुचित ढंग से किया जाए, जिससे सभी नागरिकों को अनेकता में अन्तर्निहित एकता का विश्वास हो सके। वे पारस्परिक प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास जगा सकें।

(घ) शिक्षा को प्रसार–छोटी-छोटी व्यक्तिगत द्वेष की भावनाएँ राष्ट्र को कमजोर बनाती हैं। शिक्षा का सच्चा अर्थ एक व्यापक अन्तर्दृष्टि व विवेक है। इसलिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थी की संकुचित भावनाएँ शिथिल हों।

(ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त–आजकल स्वार्थी राजनेता साम्प्रदायिक अथवा जातीय विद्वेष, घृणा और हिंसा भड़काते हैं और सम्प्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस प्रकार के राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त और राजनीतिक वातावरण (UPBoardSolutions.com) के स्वच्छ होने से भी एकता का भाव सुदृढ़ होगा।

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उपसंहार-राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा, क्योंकि मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना ही संसार में समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। इसीलिए जब तक हममें मानवीयता की भावना विकसित नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। यह भाव उपदेशों, भाषणों और राष्ट्रीय गीत के माध्यम से सम्भव नहीं।

5. राष्ट्रभाषा हिन्दी [2014]

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का योगदान
  • राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएँ
  • देश की सम्पर्क भाषा : हिन्दी

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्रता से पूर्व हिन्दी,
  3. सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी,
  4. हिन्दी : एक सक्षम भाषा,
  5. हिन्दी के विकास में बाधाएँ,
  6. उपसंहार।

प्रस्तावना–स्वतन्त्रता से पूर्व देश अंग्रेजी शासन के अधीन था। अंग्रेजों को अपना राज-काज चलाने के लिए कुछ ऐसे पढ़े-लिखे भारतीय और लिपिकों की आवश्यकता थी, जो स्वयं को भाषा के ज्ञान के कारण अन्य भारतीयों से श्रेष्ठ समझते हों। दुर्भाग्यवश उन्हें ऐसे लोगों का पूरा वर्ग ही मिल गया। देश की परतन्त्रता तक तो दूसरी बात थी, लेकिन देश के स्वतन्त्र होने के बाद भी इस वर्ग का चरित्र नहीं बदला और वह इस प्रयास में लगा रहा कि किसी भी (UPBoardSolutions.com) तरह अंग्रेज़ी ही देश की कामकाजी भाषा बनी रहे। उसे अपने प्रयास में सफलता भी मिली, जब हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित किये जाने के बावजूद भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गयी कि आगामी 15 वर्ष तक हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा भी सरकारी काम-काज की भाषा बनी रहेगी। तब से अब तक पैंसठ से भी अधिक वर्ष बीत गए, लेकिन सरकारी काम-काज की भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व आज भी बना हुआ है।

स्वतन्त्रता से पूर्व हिन्दी-भारत में अंग्रेजों के पैर पसारने और जमाने से पूर्व हिन्दी ही जनभाषा थी। देश में अंग्रेजी भाषा का प्रचार-प्रसार होने से पूर्व शताब्दियों तक हिन्दी देश को भावनात्मक एकता के सूत्र में बाँधे रही। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में हिन्दी भाषी लोगों के अलावा अनेक अहिन्दी भाषी लेखकों, सन्तों और नेताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिनमें महात्मा गाँधी, स्वामी दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, बंकिमचन्द्र चटर्जी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी-आज पंजाब से लेकर असोम तक तथा जम्मू-कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र-आन्ध्र प्रदेश तक बोली और समझी जाने वाली एकमात्र भाषा हिन्दी ही है। इसी भाषा के द्वारा , विभिन्न प्रदेशों के निवासी अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। अमृतसर से चलकर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल को पार करके अंसोम के गुवाहाटी नगर तक पहुँचने वाला ट्रक ड्राइवर रास्ते भर जिस भाषा का प्रयोग करता है, वह हिन्दी ही है। इस प्रकार हिन्दी भारत के जन-सामान्य की सम्पर्क भाषा बन गयी है। यह वह भाषा है, जो सम्पूर्ण राष्ट्र को एकसूत्र में बाँधने का काम करती है और हमारी राष्ट्रीय एकता को मजबूत भी करती है।

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हिन्दी : एक सक्षम भाषा–आज हिन्दी एक सक्षम भाषा बन चुकी है। स्वतन्त्रता के समय हिन्दी पर यह आरोप लगाया जाता था कि इसमें वैज्ञानिक और गम्भीर विवेचनात्मक विषयों के लिए अनुकूल शब्दावली का अभाव है, लेकिन स्वतन्त्रता के बाद इस ओर गम्भीर प्रयास किये गये हैं। तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये शब्दों को गढ़ लिया गया है। नये होने के कारण ये शब्द थोड़े कठिन प्रतीत होते हैं। इसी को आधार बनाकर अंग्रेजी प्रेमी हिन्दी पर यह आरोप लगाते हैं कि इसकी शब्दावली कठिन है। लेकिन यह ध्यान रखने की बात है कि कोई भी नई बात शुरू में कठिन ही लगा करती है। भाषा कोई भी हो, उसे सीखने में (UPBoardSolutions.com) परिश्रम और समय तो लगता ही है। अतः अपने राष्ट्र और भाषा के गौरव की रक्षा के लिए हमें अपनी भाषा को सीखने में थोड़ा परिश्रम तो करना ही चाहिए।

हिन्दी के विकास में बाधाएँ-हिन्दी के विकास में कुछ प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं
(i) राजनीतिक कारणों ने अहिन्दी भाषी लोगों के मन में यह बात बैठा दी है कि यदि अंग्रेजी न रही, तो प्रतियोगी परीक्षाओं में हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों का वर्चस्व हो जाएगा और अहिन्दी भाषी दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रह जाएंगे।
(ii) सरकार और प्रशासन में कतिपय महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन कुछ स्वार्थी लोग यह समझते हैं कि यदि अंग्रेजी का स्थान हिन्दी ने ले लिया, तो उनका वर्चस्व समाप्त हो जाएगा और एक गरीब मजदूर का बेटा भी उनसे स्पर्धा करने की स्थिति में आ जाएगा।
(iii) कुछ स्वार्थी लोग प्रादेशिक भाषाओं के विकास की बात करके हिन्दी को उनका प्रतिद्वन्द्वी बताते हैं, जबकि हिन्दी का प्रादेशिक भाषाओं से कोई बैर नहीं। हिन्दी के विकास-मार्ग में यदि कोई भाषा बाधा है, तो वह अंग्रेजी है। अंग्रेजी ही हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं की जीवन-शक्ति को चूसकर स्वयं पोषित होती रही है।
उपसंहार–राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था

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है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी॥

वास्तविकता यह है कि हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है, जो भारत की सबसे सम्पन्न भाषा है। यही सम्पूर्ण देश की सम्पर्क भाषा आज भी बनी हुई है। अपनी सरलता, स्पष्टता, समर्थता और बोधगम्यता के कारण यह राष्ट्रभाषा का गौरव पाने की अधिकारिणी (UPBoardSolutions.com) है। प्रत्येक भारतवासी का यह कर्तव्य है कि वह अपने दैनिक जीवन में हिन्दी का अधिक-से-अधिक प्रयोग करे और हिन्दी में बोलने में गर्व का अनुभव करे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने भी उचित ही लिखा है–

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल।

6. देश की प्रगति में विद्यार्थियों की भूमिका (2015)

सम्बद्ध शीर्षक

  • देशोन्नति में छात्रों का योगदान [2012]
  • छात्र जीवन/विद्यार्थी जीवन [2014]
  • राष्ट्र की सुरक्षा में नवयुवकों का योगदान ।
  • विद्यार्थी और देश-प्रेम

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रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. विद्यार्थी जीवन का महत्त्व,
  3. कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थान,
  4. भ्रष्टाचार व दुराचार को उन्मूलन,
  5. काले धन की समाप्ति हेतु प्रयास,
  6. चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना–विद्यार्थी राष्ट्र का भावी नेता और शासक है। देश की उन्नति और भावी विकास का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उसके सबल कन्धों पर आने वाला है। वास्तव में राष्ट्र की उन्नति और प्रगति के लिए । वह मुख्य धुरी का काम कर सकता है। जिस देश का विद्यार्थी सतत जागरूक, सतर्क और सावधान होता है, वह देश प्रगति की दौड़ में कभी पीछे नहीं रह सकता। विद्यार्थी एक नवजीवन का सशक्त संवाहक होता है। उसमें रूढ़ियों और (UPBoardSolutions.com) परम्पराओं के अटकाव नहीं होते, पूर्वाग्रह से उसकी दृष्टि धूमिल नहीं होती, वरन् वह नये विचारों एवं योजनाओं को क्रियान्वित करने की भरपूर क्षमता से ओतप्रोत होता है।

विद्यार्थी जीवन का महत्त्व-‘विद्यार्थी’ शब्द की संरचना है-‘विद्या +अर्थी’ अर्थात् जो विद्यार्जन में सदा संलग्न रहने वाला हो। विद्या प्राप्त करने के लिए परिश्रम और लगन की आवश्यकता होती है। आचार्य चाणक्य ने ठीक ही कहा है, “सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ ? सुख चाहने वाला विद्या को छोड़ दे और विद्या चाहने वाला सुख को छोड़ दे।’ शास्त्रों में आदर्श विद्यार्थी को एकाग्रचित्त, सजग, चुस्त, कम भोजन करने वाला और चरित्र-सम्पन्न बताया गया है

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काकचेष्टा बकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी सदाचारी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम् ॥

एक अच्छा विद्यार्थी देशवासियों में देशभक्ति की भावना उजागर कर सकता है। देश की एकता व संगठन की भावना को सवल बनाकर भावात्मक एकता को पुष्ट कर सकता है।

कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थाने–आज देश में कई अन्धविश्वास, अशिक्षा, अज्ञान, रूढ़ियाँ तथा कुप्रथाएँ प्रचलित हैं। इससे देश की यथोचित प्रगति नहीं हो पा रही है। विद्यार्थियों को इन रूढ़ियों और कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए बीड़ा उठाना होगा। आज भी गाँवों में लोग ऋणग्रस्त और शोषण के शिकार हैं। विद्यार्थियों को गाँवों में जाकर साक्षरता, सहकारिता आदि कार्यक्रमों को चलाने में सहयोग करना चाहिए। गाँवों में लघु और कुटीर उद्योगों के प्रचलन के महत्त्व को समझाकर उनके विकास के लिए उन्हें पर्याप्त प्रशंसा, प्रोत्साहन व सम्मान भी देना चाहिए।

भ्रष्टाचार व दुराचार का उन्मूलन–आज देश में सर्वत्र भ्रष्टाचार व्याप्त है। कोई भी कार्य रिश्वत के बिना नहीं चलता। पुलिस व न्यायालय-कर्मचारी खुले रूप से रिश्वत माँगते हैं। रक्षक ही भक्षक बन गये हैं। मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। इस भ्रष्टाचार से लड़ना कोई सामान्य बात नहीं है। इसके लिए निर्भीक विद्यार्थियों को आगे आकर इस भ्रष्टाचाररूपी दानव से लड़ना होगा। जब तक देश से भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा, देश की प्रगति होना मुमकिन नहीं है।

देश में दुराचार की विभीषिका भी बढ़ती जा रही है। लूटपाट, हत्याएँ और बलात्कार की घटनाओं से समाचार-पत्रों के पृष्ठ-के-पृष्ठ रँगे रहते हैं। देश में प्रचलित शासन-व्यवस्था भले और ईमानदार आदमियों के हाथों में न रहकर भ्रष्ट, बदमाश, सफेदपोश लोगों के हाथों में चली गयी है। इस अभाव की पूर्ति विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। उसे इस महामारी से लड़कर इसका उन्मूलन करना होगा।

काले धन की समाप्ति हेतु प्रयास-काला धन अथवा कालाबाजार रूपी महादानव भी बड़ा शक्तिशाली, दुर्धर्ष और महा भयंकर है। जनता किसी ऐसे सहयोग व नेतृत्व की आकांक्षा रखती है जो इस विषम स्थिति से देश की रक्षा कर सके। इससे लोहा लेने (UPBoardSolutions.com) के लिए भी विद्यार्थी वर्ग ही तत्पर हो सकता है।

चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव—बड़े-बड़े कल-कारखाने खोलने से तथा बड़े-बड़े बाँध बनाने से राष्ट्र सच्चे अर्थों में विकास नहीं कर सकता। हमें आने वाली पीढ़ियों के चरित्र-निर्माण की ओर विशेष ध्यान देना है। चरित्र-निर्माण ही शिक्षा का मुख्य व पवित्र उद्देश्य होना चाहिए। जिस देश में चरित्रवान् लोग रहते हैं, उस देश का सिर गौरव से सदा ऊँचा रहता है।

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उपसंहार–किसी देश की वास्तविक उन्नति उसके परिश्रमी, लगनशील, पुरुषार्थी और चरित्रवान् पुरुषों से ही सम्भव है। भारत के विद्यार्थी भी चरित्रवान् बनकर देश के अन्दर वर्तमान में व्याप्त सभी बुराइयों का उन्मूलन कर देश की प्रगति में सच्चा योगदान कर सकते हैं। आज का विद्यार्थी वर्ग राजनीतिक पार्टियों के चक्कर में उलझकर अपने भविष्य को अन्धकारमय बना रहा है। आज के विद्यार्थी को इन सबसे अलग रहकर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। उसकी भावना राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर करने की होनी चाहिए।

7. भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. संस्कृति क्या है?,
  3. भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना–हजारों वर्षों की परम्पराओं से पुष्ट भारतवर्ष किसी समय विश्व गुरु कहलाता था। जिस । समय आज के उन्नत एवं सभ्य कहे जाने वाले राष्ट्र अस्तित्वहीन थे या जंगली अवस्था में थे, उस समय । भारत-भूमि पर वैदिक ऋचाएँ लिखी जा रही थीं, वैदिक (UPBoardSolutions.com) मन्त्रों के गान पूँज रहे थे और यज्ञों की पवित्र ज्वालाओं का सुगन्धित धुआँ पूरे वातावरण को आनन्दमय बना रहा था। भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति महान् है। कविवर इकबाल ने लिखा है कि

यूनान मिस्र रोमाँ, सब मिट गए जहाँ से,
लेकिन बचा है अब तक, नामो-निशां हमारा।

निश्चय ही उनका संकेत भारत की महान् संस्कृति की ओर ही था। हजारों वर्ष की पराधीनता का अन्धकार भी हमें हमारी प्राचीन विरासत से वंचित नहीं कर पाया। रामायण, महाभारत, वेद-पुराण आज भी हमारे पूज्य ग्रन्थ हैं और आज भी गंगा, नर्मदा, कावेरी हमारे लिए पवित्र हैं। भारतीय संस्कृति अजर-अमर है। क्योंकि यह समय के साथ बदलती रही है। इसमें मानव-मात्र की रक्षा का भाव निहित है।

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संस्कृति क्या है ?–संस्कृति वह है जो श्रेष्ठ कृति अर्थात् कर्म के रूप में व्यक्त होती है। कर्म निश्चय ही विचार पर आधारित होता है। जो ज्ञान एवं भाव-सम्पदा हमारे कर्मों को श्रेष्ठ बनाती है वही संस्कृति है। मनुष्य में पशुता और देवत्व का वास साथ-साथ रहता है। जो भाव या विचार हमें पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाते है, उन्हें संस्कृति का अंग माना जाना चाहिए।

मनुष्य, जब जन्म लेता है, तब वह प्राकृतिक अवस्था में होता है। समाज के प्रभाव एवं उसके अपने अनुभव उसे प्रकृति में विकृति की ओर ले जा सकते हैं और सृकृति की ओर भी। सुकृति अर्थात् अच्छे कार्यों की ओर ले जाना ही संस्कृति का कार्य है। दूध यदि विकृति की ओर जाएगा तो वह फट जाएगा। यदि सुकृति की ओर जाएगा तो दही, मक्खन आदि पदार्थों का निर्माण होगा और उसकी कीमत भी अधिक बढ़ जाएगी। इसी प्रकार मनुष्य यदि पशुत्व अथवा दानवत्व की ओर जाएगा तो उसकी हत्या करनी पड़ेगी और यदि वह देवत्व की ओर जाएगा, तो उसकी पूजा होगी। भारतीय संस्कृति ने सदा ही अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रार्थना की है; यथा–तमसो मा ज्योतिर्गमय। संस्कृति हमारे भौतिक जीवन को सुधारती है और हमारे ऐन्द्रिक जगत् को परिष्कृत करती है। विचारों एवं भावों का परिष्कार भी संस्कृति का ही कार्य है। संस्कृति यह कार्य साहित्य, विज्ञान एवं कलाओं का प्रचार-प्रसार करके करती है।

भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ-भारतीय संस्कृति की एक विशेषता यह है कि यह किसी एक जाति अथवा राष्ट्र तक सीमित नहीं। वैदिक ऋषि सारे विश्व को आर्य अर्थात् श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं। वे अपने मन्त्रों में सम्पूर्ण सृष्टि के लिए मंगल-कामना करते हैं तथा मानव-मात्र को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने का प्रण दोहराते हैं।

भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भौतिक उन्नति को हम भारतवासियों ने त्याज्य नहीं माना परन्तु उसे आत्मिक जीवन से ज्यादा महत्त्व भी नहीं दिया। साधु-महात्माओं की पर्ण कुटियों पर सम्राटों ने सदा ही सिर झुकाये हैं, सन्तोष एवं संयम को यहाँ सदा सम्मान मिला है। ईश्वर में अटल विश्वास रखने वाले अधनंगे फकीरों ने यहाँ के जन-जीवन को सम्राटों की अपेक्षा अधिक प्रभावित किया है। त्याग हमारी भारतीय संस्कृति में सदा से (UPBoardSolutions.com) ही सम्मान पाता रहा है।

भारतीय संस्कृति में नारी सदा ही सम्मान एवं पूजा की अधिकारिणी रही है। कृष्ण से पहले राधा और राम से पहले सीता का नाम केवल यहीं लिया जाता है। इसी देश में नारी को शक्ति के रूप में, ज्ञान के प्रकाश के रूप में, लक्ष्मी की उज्ज्वलता के रूप में देखा जा सकता है। विश्व की अन्य किसी भी संस्कृति में नारी-शक्ति को ऐसा गौरवपूर्ण स्थान नहीं मिला है।

भारतीय संस्कृति उदार, ग्रहणशील एवं समय के साथ परिवर्तनशील रही है। अनेक विदेशी संस्कृतियाँ इससे टकराकर नष्ट हो गयीं या इसी का अंग बन गयीं। यहाँ पर शक, कुषाण, हूण, पठान, मुसलमान, पारसी, यहूदी, ईसाई सभी आये और सभी ने यहाँ की संस्कृति को पुष्ट किया और इसी संस्कृति में धीरे-धीरे विलीन हो गये। भारतीय संस्कृति इस अर्थ में समन्वय प्रधान संस्कृति है। यह सुन्दर फूलों के एक ऐसे गुलदस्ते के समान है, जिसमें विभिन्न रंगों-वर्णो के फूल हैं।

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उपसंहार–सार रूप में हम कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति सही अर्थों में मानव-संस्कृति है, उदार संस्कृति है, अध्यात्म-प्रधान और आदर्श-परक संस्कृति है तथा मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा करने वाली संस्कृति है।

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UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल

UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल (सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी)

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अभ्यास

प्रश्न 1.
खजुराहो के मन्दिर किस वंश के शासकों ने बनवाए थे ?
उत्तर :
खजुराहो के मन्दिर चन्देल वंश के शासकों ने बनवाए थे।

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प्रश्न 2.
नरसिम्हा प्रथम ने कौन सा मन्दिर बनवाया था ?
उत्तर :
नरसिम्हा प्रथम ने कोणार्क का सूर्य मन्दिर बनवाया था।

प्रश्न 3.
चंद्रावार का युद्ध किनके बीच लड़ा गया ?
उत्तर :
चंद्रावर का युद्ध मुहम्मद गोरी और कन्नौज के राजा जयचंद के बीच लड़ा गया।

प्रश्न 4.
राजपूत काल में शिक्षा के मुख्य केन्द्र कौन-कौन से थे ?
उत्तर ;
राजपूत शासकों के समय में आश्रमों, पाठशालाओं एवं विश्वविद्यालयों में शिक्षा दी जाती थी। इस समय नालन्दा, विक्रमशिला, उज्जयिनी, कन्नौज, काशी, धारानगरी प्रमुख शिक्षा केन्द्र थे।

प्रश्न 5.
उत्तर भारत में राजपूतों के राजनैतिक महत्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
उत्तरी भारत में राजपूत (या राजपुत्र) नामक क्षत्रिय वर्ग उदित हुआ। परमार, चौहान, चंदेल, प्रतिहार और गहरवार आदि अग्निकुण्ड से निकले क्षत्रिय माने गए। इनमें परस्पर झूठी शान, प्रतिष्ठा और प्रभुत्व के लिए युद्ध होते रहते थे। उनमें पारस्परिक एकता नहीं थी ! ये एक-दूसरे को झुकाने के (UPBoardSolutions.com) लिए युद्ध करते थे। बड़े केन्द्रीय शासन का अभाव था। स्थानीय मुद्दे, स्थानीय सोच, स्थानीय भाषा अधिक प्रबल हो गई। लोगों की सोच संकुचित हो चली।

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प्रश्न 6.
राजपूत कालीन सामाजिक व्यवस्था का वर्णन करें।
उत्तर :
ब्राहृमणों का समाज में उच्च स्थान था। राजपूत साहसी, स्वाभिमानी और आतिथ्य भाव वाले वीर योद्धा थे। धनी लोग कीमती वस्त्र-आभूषण पहनते थे। बालविवाह और सतीप्रथा का चलन हो गया था। विधवा-विवाह वर्जित था। स्त्रियों की स्थिति निम्न थी। वर्णव्यवस्था कठोर हो गई थी। लोगों का मानसिक दृष्टिकोण संकुचित हो चुका था।

प्रश्न 7.
भवन निर्माण की उत्तर भारतीय तथा दक्षिण भारतीय शैली के बारे में लिखिए।
उत्तर :
मोटे तौर पर भवन निर्माण की दो शैलियाँ थीं- उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय। इनमें भेद मुख्यतः मन्दिर के शिखर के आकार में देखा जाता है। उत्तर भारतीय शिखरों का (UPBoardSolutions.com) आकार टेढ़ी रेखाओं से घिरी हुई ठोस मीनार की भाँति रहता था। मध्य में खुला हुआ तथा ऊपर एक बिन्दु पर आकर समाप्त हो जाता था। उदाहरणतः लिंगराज मन्दिर, भुवनेश्वर।

दक्षिण भारतीय शिखर पिरामिड की तरह दिखते थे, जिसमें कई खण्ड होते थे। प्रत्येक खण्ड क्रमशः ऊपर की ओर अपने नीचे वाले खण्ड से छोटा होता जाता था, और सबसे ऊपर जाकर छोटे तथा गोलाकार टुकड़े में हो जाता था। दक्षिण भारत के मन्दिरों में स्तम्भों का मुख्य स्थान है जबकि उत्तर भारत के मन्दिरों में इनका सर्वथा अभाव दिखाई देता है।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित रचनाओं के लेखकों के नाम लिखिए।
UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल 1
UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल 2

गतिविधि – मानचित्र को देखकर निम्नलिखित को पूरा करिए –
निम्न वंश वर्तमान में किस राज्य में स्थित हैं –
UP Board Solutions for Class 6 History Chapter 11 राजपूत काल 3

प्रोजेक्ट कार्य –
नोट – विद्यार्थी स्वयं करें।

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 (Section 4)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 आर्थिक विकास में राज्य की भूमिका (अनुभाग – चार)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को निर्धारित करने वाले तत्वों की विवेचना कीजिए।
या
किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास में राज्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है। स्पष्ट कीजिए।
या
आर्थिक विकास में राज्य की क्या भूमिका होती है?
उत्तर :

अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को निर्धारित करने वाले तत्त्व

विकासशील देश में अनेक आर्थिक अवरोध आर्थिक विकास की गति को अवरुद्ध करते हैं। देश में पूँजी का अभाव, प्राकृतिक साधनों का अल्प दोहन, बचत एवं विनियोग की कमी, औद्योगीकरण का अभाव, पूँजी निर्माण की कमी, बढ़ती बेरोजगारी आदि अनेक समस्याएँ विकासशील देशों में आर्थिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनाने में अवरोध खड़े करती हैं; अत: इन विकासशील देशों में सरकार का दायित्व होता है कि वह देश के प्राकृतिक साधनों का उचित दोहन सुनिश्चित करने के लिए पूँजी, कुशल श्रमिक; उद्यमता, तकनीकी ज्ञान, परिवहन एवं संचार के साधन, शक्ति एवं ऊर्जा के साधन आदि (UPBoardSolutions.com) उपलब्ध कराये। सरकार इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक नीतिगत उपयोग; जैसे—राजकोषीय नीति, मौद्रिक नीति, औद्योगिक नीति, श्रम नीति आदि से आर्थिक विकास  हेतु अनुकूल वातावरण बनाने में अपना योगदान देती है। देश में बचत-विनियोग को प्रोत्साहित करने व औद्योगीकरण को बढ़ावा देने, कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित करने आदि सभी कार्यों में सरकार निर्णायक भूमिका निभाती है। इस प्रकार आर्थिक विकास के लिए एक योजनाबद्ध रणनीति बनाने और उसका क्रियान्वयन करके आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति करने में सरकार का महत्त्वपूर्ण योगदान है। राज्य के नियन्त्रण के अभाव में सुनियोजित आर्थिक विकास सम्भव ही नहीं है। हमारे संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों में आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्वों को प्रमुख स्थान दिया गया है। ये तत्त्व प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अर्थव्यवस्था के संचालन में सरकार की जिम्मेदारी की सीमा को निश्चित करते हैं। संविधान में वर्णित महत्त्वपूर्ण नीति-निदेशक सिद्धान्त जो हमारे आर्थिक जीवन को प्रभावित करते हैं, निम्नलिखित हैं –

  1. सभी नागरिकों के लिए जीविका के पर्याप्त साधन जुटाना।
  2. सामान्य हित के लिए समाज के भौतिक साधनों का उचित वितरण।
  3. एक उचित सीमा से अधिक धन के केन्द्रीकरण पर रोक।
  4. स्त्रियों और पुरुषों दोनों के समान काम के लिए समान वेतन।
  5. श्रमिकों की शक्ति व स्वास्थ्य की रक्षा तथा श्रमिकों को (UPBoardSolutions.com) उनकी अपनी आयु एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अधिक खतरनाक कार्यों को स्वीकार करने के लिए बाध्य करने वाली परिस्थितियों को हटाना।
  6. बच्चों की शोषण से रक्षा करना।
  7. काम और शिक्षा का अधिकार तथा बेकारी, बीमारी और वृद्धावस्था में सार्वजनिक सहायता उपलब्ध कराना।
  8. काम के उचित वातावरण को सुरक्षित बनाना।
  9. रोजगार और जीवन को उचित स्तर दिलाना।
  10. कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लोगों के आर्थिक हितों को प्रोत्साहन देना।
  11. वैज्ञानिक आधार पर कृषि एवं पशुपालन को संगठित करना।

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प्रश्न 2.
आर्थिक विकास प्रक्रिया में राजकीय हस्तक्षेप एवं विधियों की विस्तृत विवेचना कीजिए।
या
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सफल क्रियान्वयन हेतु क्या कदम उठाने चाहिए? कोई दो सुझाव दीजिए। (2013)
या
औद्योगिक लाइसेन्सिग व्यवस्था को समझाइए तथा इसके उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए। मौद्रिक नीति का अर्थ एवं उद्देश्य लिखिए।
या
विकासशील देशों के आर्थिक विकास के लिए दो उपाय सुझाइए। [2010]
या
राजकोषीय नीति से आप क्या समझते हैं? अर्थव्यवस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए करारोपण के महत्त्व को लिखिए।
या
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को प्रभावी बनाने में सरकार द्वारा किए गए प्रयास लिखिए। भारतीय रिजर्व बैंक के किन्हीं चार प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2013]
या
उत्पादन और वितरण पर नियन्त्रण हेतु राज्य कौन-से उपाय करता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :

राज्य द्वारा हस्तक्षेप : हस्तक्षेप के प्रकार एवं विधियाँ

भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है। यहाँ सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र दोनों ही साथ-साथ कार्य करते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र को उद्देश्य ‘सामाजिक हित में वृद्धि करना है, किन्तु निजी क्षेत्र का उद्देश्य ‘अधिकतम लाभ अर्जित करना है। इस (UPBoardSolutions.com) उद्देश्य की पूर्ति हेतु निजी उत्पादक उपभोक्ताओं व श्रमिकों का अनेक प्रकार से शोषण करते हैं। राज्य का दायित्व समाज को उनके शोषण से बचाना है। इसके लिए सरकार आर्थिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करती है। यह हस्तक्षेप निम्नलिखित तीन विधियों द्वारा किया जाता है

  • राजकोषीय नीति
  • मौद्रिक नीति एवं
  • उत्पादन एवं वितरण पर भौतिक नियन्त्रण।

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1. राजकोषीय नीति

सामान्यतः राजकोषीय नीति से अभिप्राय सार्वजनिक व्यय व सार्वजनिक ऋण से सम्बन्धित नीतियों से लगाया जाता है। प्रो० आर्थर स्मिथीज के शब्दों में, ‘राजकोषीय नीति वह नीति है, जिसमें सरकार अपने व्यय तथा आगम के कार्यक्रम को राष्ट्रीय (UPBoardSolutions.com) आय, उत्पादन अथवा रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने और अवांछित प्रभावों को रोकने के लिए प्रयुक्त करती है।’ राजकोषीय नीति आर्थिक नीति का एक प्रभावशाली यन्त्र है और आर्थिक स्थायित्व का एक सशक्त साधन है।

इस प्रकार राजकोषीय नीति के अन्तर्गत सरकार सार्वजनिक आय (करारोपण), सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण के द्वारा अर्थव्यवस्था पर वांछित प्रभाव डालने का प्रयास करती है। राजकोषीय नीति के प्रमुख उपकरण निम्नलिखित हैं –

(i) करारोपण कर – एक अनिवार्य अंशदान है, जिसे प्रत्येक करदाता के अनिवार्य रूप से सरकार के कर विभाग को देना होता है। एक नीति के उपकरण के रूप में कर अर्थव्यवस्था को निम्न प्रकार प्रभावित करते हैं –

  1. अमीर व्यक्तियों की आय पर अपेक्षाकृत अधिक कर लगाकर आय एवं धन के वितरण की, विषमताएँ कम की जा सकती हैं।
  2. ऐसा कर-ढाँचा, जिसमें कर की दरें क्रमशः बढ़ती जाती हैं (प्रगतिशील कर-प्रणाली), एक न्यूनतम आय के स्तर को करमुक्त रखते हुए, आय की असमानता को कम रखने में सहायक है।
  3. विलासिता की वस्तुओं पर ऊँचे कर लगाकर आय की असमानता को कम किया जा सकता है।
  4. ऊँचे प्रत्यक्ष कर आयातों को हतोत्साहित करते हैं।
  5. अप्रत्यक्ष करों में कमी औद्योगिक विकास को गति प्रदान करती है।
  6. कर विकास के लिए आवश्यक पूँजी जुटाते हैं।
  7. करों द्वारा प्राप्त आय के परिणामस्वरूप सार्वजनिक (UPBoardSolutions.com) निवेश में वृद्धि आर्थिक एवं सामाजिक आधारिक संरचना के विकास में सहायक है।

(ii) सार्वजनिक व्यय – केन्द्र, राज्य व स्थानीय संस्थाओं द्वारा किए गए व्यय को सार्वजनिक व्यय कहते हैं। आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक व्यय का निम्नलिखित प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है

  1. सार्वजनिक व्यय द्वारा उपभोग स्तर, जीवन स्तर, कार्यक्षमता का स्तर और अन्तत: उत्पादकता के स्तर में वृद्धि की जा सकती है।
  2. सार्वजनिक व्यय आर्थिक साधनों के स्थानान्तरण को प्रभावित करता है।
  3. प्रगतिशील सार्वजनिक व्यय की पद्धति अपनाकर आर्थिक विषमताओं को कम किया जा सकता है।
  4. सार्वजनिक व्यय द्वारा सार्वजनिक निर्माण कार्य की योजनाओं को आरम्भ करके रोजगार में वृद्धि की जा सकती है।
  5. सार्वजनिक व्यय द्वारा आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

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(iii) सार्वजनिक ऋण – जब सरकार अपनी वित्तीय आवश्यकताओं को अपनी आय की सामान्य मदों से पूरा नहीं कर पाती, तो उसे सार्वजनिक ऋण का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार सार्वजनिक ऋण सरकार के व्ययों की पूर्ति करने (UPBoardSolutions.com) का एक साधन है। अत: सरकार द्वारा लिया गया ऋण सार्वजनिक ऋण कहलाता है। यह ऋण अपने ही देश में अथवा विदेश से लिया जा सकता है। सार्वजनिक ऋण अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित प्रभाव डालते हैं –

  1. उत्पादक कार्यों पर व्यय किया गया सार्वजनिक ऋण उत्पादन शक्ति में वृद्धि करता है।
  2. सरकारी ऋण सुरक्षित व सुविधाजनक होते हैं। अतः ये बचत को प्रोत्साहित करते हैं।
  3. यदि ऋण निर्धन व्यक्तियों के लाभार्थ व्यय किया जा सकता है तो इससे आर्थिक असमानताएँ कम होती हैं।
  4. ऋण वर्तमान में उपभोग को घटाते हैं।
  5. ऋण द्वारा उद्योग और व्यापार में वांछनीय परिवर्तन लाए जा सकते हैं।

2. मौद्रिक नीति

सामान्यतया मौद्रिक नीति से आशय सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक की उस नियन्त्रण नीति से लगाया जाता है, जिसके अन्तर्गत कुछ निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मुद्रा की मात्रा, उसकी लागत (ब्याज दर) तथा उसके उपयोग को नियन्त्रित करने के उपाय किए जाते हैं। प्रो० हैरी जी० जॉन्सन के शब्दों में, “मौद्रिक नीति का अर्थ केन्द्रीय बैंक की उस नियन्त्रण नीति से है, जिसके द्वारा केन्द्रीय बैंक सामान्य आर्थिक नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से मुद्रा की पूर्ति पर नियन्त्रण करता है।

मौद्रिक नीति साख की पूर्ति और उसके उपयोग को प्रभावित करके, स्फीति का मुकाबला करके तथा भुगतान सन्तुलन के साम्य को स्थापित करके आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने में सहायक होती है। इसके माध्यम से निजी उपयोग अथवा सरकारी व्यय के साधनों के प्रवाह को घटाया-बढ़ाया जा सकता है तथा विनियोग और पूँजी-निर्माण के लिए उपलब्ध साधनों की मात्रा में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता है (UPBoardSolutions.com) और इस प्रकार कृषि व उद्योगों की मुद्रा एवं साख की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। किसी भी देश की एक उपयुक्त मौद्रिक नीति बचत व विनियोग के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करती है, साख की लागत को कम करके बचत व विनियोग को प्रोत्साहित करती है, मौद्रिक संस्थाओं की स्थापना करके निष्क्रिय साधनों को गतिशील बनाती है, स्फीति के दबाव को नियन्त्रित करके अतिरिक्त विनियोग के लिए उपयुक्त वातावरण पैदा करती है और हीनार्थ प्रबन्ध द्वारा विकासात्मक विनियोग के लिए अतिरिक्त । साधन उपलब्ध कर सकती है।

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भारत में मौद्रिक नीति का संचालक-भारतीय रिजर्व बैंक

भारतीय रिजर्व बैंक भारत का केन्द्रीय बैंक है। इसकी स्थापना 1 अप्रैल, 1935 ई० को की गई थी। 1 अप्रैल, 1949 ई० को इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। यह बैंक मुख्यतः निम्नलिखित कार्यों को सम्पन्न करता है –

  1. पत्र मुद्रा का निर्गमन करना।
  2. बैंकों के बैंक का कार्य करना।
  3. सरकार के बैंकर, एजेण्ट तथा सलाहकार के रूप में कार्य करना।
  4. विनियम दर को स्थिर बनाए रखना।
  5. कृषि व उद्योग की साख की व्यवस्था करना।
  6. आँकड़े संकलित करना तथा इन्हें प्रकाशित करना।
  7. मुद्रा व साख पर नियन्त्रण रखना।

3. उत्पादन एवं वितरण पर भौतिक नियन्त्रण

सरकार उत्पादन एवं वितरण के क्षेत्रों में भौतिक हस्तक्षेप के माध्यम से भारतीय अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण लगाती है।

(i) उत्पादन के क्षेत्र में नियन्त्रण – सरकार औद्योगिक नीति व लाइसेन्सिंग प्रक्रिया के माध्यम से अर्थव्यवस्था के औद्योगिक क्षेत्र को नियन्त्रित करती है।

औद्योगिक लाइसेन्सिंग – सरकार आर्थिक क्रियाओं पर आवश्यकतानुसार हस्तक्षेप करती है उत्पादन के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप का प्रथम स्वरूप औद्योगिक लाइसेन्स रहा है। भारतीय संसद ने ‘औद्योगिक नीति प्रस्ताव, 1948’ के बाद 1951 ई०  में औद्योगिक विकास एवं नियमन अधिनियम लागू किया था। इसके अन्तर्गत भारत में समस्त विनिर्माण इकाइयों को सरकार के पास पंजीकृत कराना अनिवार्य था। वर्तमान औद्योगिक नीति (1991 ई०) के प्रस्तावों के अनुसार, अब कुछ इकाइयों को छोड़कर जो सुरक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, अन्यों को पंजीकृत कराना अनिवार्य नहीं है।

पुरानी व्यवस्था में लाइसेन्सिग नियमों को निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए अपनाया गया था –

  1. उद्योगों का सन्तुलित क्षेत्रीय विकास।
  2. बड़े व्यावसायिक घरानों की और अधिक वृद्धि पर रोक।
  3. नए उद्योगों को संरक्षण।
  4. लघु उद्योगों के लिए कुछ क्षेत्रों को रिजर्व करना।

कठोर नियमों एवं प्रशासनिक नियन्त्रणों में वृद्धि के कारण निजी क्षेत्र हतोत्साहित हो रहा था। अब इस नीति में उदारता औद्योगिक विकास की ओर एक सराहनीय कदम है।

1991 ई० में घोषित उदारवादी औद्योगिक नीति एवं बाद में किए गए संशोधनों (UPBoardSolutions.com) के अन्तर्गत, अब केवल 5 उद्योगों के लिए लाइसेन्स लेना अनिवार्य है, विदेशी पूँजी विनियोग को प्रोत्साहन दिया गया है, विदेशी तकनीक के अनेक समझौतों के स्वत: अनुमोदन की व्यवस्था की गई है और निजी क्षेत्र के विस्तार को प्रोत्साहित किया गया है।

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(ii) सार्वजनिक वितरण प्रणाली – अर्थव्यवस्था पर सरकार का भौतिक नियन्त्रण सार्वजनिक वितरण और राशनिंग प्रणाली के रूप में भी होता है। जैसा कि हम जानते हैं, माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित मूल्य सामाजिक दृष्टि से सदैव वांछनीय नहीं होते। वस्तुओं की पूर्ति के कम होते ही, उनके मूल्य तेजी से बढ़ने लगते हैं। हमारे देश में अनिवार्य वस्तुओं की प्रायः कमी रहती है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं –

  1. हम खाद्यान्नों जैसी अनिवार्य एवं विपणन योग्य वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर पाते।
  2. उत्पादित माल के भण्डारण एवं विपणन में पर्याप्त दोष हैं।
  3. बड़े व्यवसायी सट्टा बाजारी के लिए खाद्यान्नों का संग्रह कर लेते हैं।

माँग पक्ष की दृष्टि से भारतीय उपभोक्ताओं की क्रय-शक्ति में बहुत असमानताएँ हैं। निर्धन लोगों के पास क्रय-शक्ति का अभाव रहता है। अत: यदि खाद्यान्नों को माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के सहारे छोड़ दिया जाए तो क्रय-शक्ति के अभाव के कारण हमारी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग इन्हें खरीद नहीं पाएगा। फलस्वरूप एक ओर तो कुपोषण एवं भुखमरी होगी और दूसरी ओर अपव्यय एवं अति उपभोग की स्थिति होगी। अत: यह आवश्यक है कि सरकार खाद्यान्न, मिट्टी का तेल और इसी प्रकार की अन्य अनिवार्य वस्तुओं की वसूली, कीमत-निर्धारण और वितरण इस प्रकार करे कि उसकी माँग और पूर्ति के दबावों से रक्षा की जा सके। इसके लिए सरकार तीन कदम उठा सकती है –

1. प्राथमिक उत्पादक को उसकी उपज की पर्याप्त कीमत अवश्य दी जानी चाहिए, अन्यथा वह उत्पादन बढ़ाने में हिचकिचाएगा। अतः सरकार को एक ऐसी कीमत की घोषणा के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए, जिस पर वह सार्वजनिक वसूली के माध्यम से किसान के अतिरिक्त माल को खरीद सके। हमारे देश में केन्द्र सरकार कृषि मूल्य आयोग के सुझावों के आधार पर कृषि वस्तुओं के वसूली मूल्य की घोषणा करके कृषि को खरीदती है।

2. वसूल किए गए स्टॉक के लिए पर्याप्त भण्डारण सुविधाओं का निर्माण किया जाना चाहिए। इससे सरकार के पास बड़ा सुरक्षित भण्डार भौजूदं रहेगा, बाजार में कीमत-स्थिरता बनी रहेगी और सट्टे बाजारी की प्रवृत्ति हतोत्साहित होगी। सार्वजनिक वितरण-प्रणाली (UPBoardSolutions.com) के माध्यम से बनी वस्तुओं का विक्रय किया जाता है।

3. सम्पूर्ण देश में सरकरी नियन्त्रण वाले वितरण केन्द्रों अथवा ‘उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से अनिवार्य वस्तुओं की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को प्रभावी बनाया जाता है।

भारत में खाद्यान्न, चीनी, मिट्टी का तेल आदि का वितरण ‘उचित मूल्य की दुकानों से होता है। नियन्त्रित वस्तुओं की बिक्री उपभोक्ता सहाकरी समितियों के माध्यम से की जाती है। खाद्यान्नों एवं चीनी की सार्वजनिक वितरण की व्यवस्था आंशिक राशनिंग की योजना के माध्यम से उचित मूल्य की दुकानों द्वारा की जाती है। उपभोक्ताओं के लिए प्रति व्यक्ति कोटा निर्धारित कर दिया जाता है। इस प्रकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से अल्प आय या निम्न वर्ग के उपभोक्ताओं को उपभोग संरक्षण देना है।

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प्रश्न 3.
‘वैट’ (मूल्यवर्द्धित कर) से आप क्या समझते हैं? भारत में वैट की आवश्यकता बताइए।
उत्तर :

मूल्यवर्द्धित कर

जिस कर की वसूली मूल्यवृद्धि के प्रत्येक चरण (उत्पादन या वितरण) द्वारा की जाती है, उसे मूल्यवर्द्धित कर (VAT) कहते हैं। जैसाकि इसके नाम से भी स्पष्ट होता है कि यह मूल्यवर्धन (value addition) पर लगाया गया कर है, जो भारत में राज्यों द्वारा लगाया जाता है।

कर लगाने की ‘वैट’ विधि एक बेहतर कर-व्यवस्था है; क्योंकि इसमें कर की वसूली मूल्यवर्धन के प्रत्येक स्तर पर की जाती है, इस कारण इसे ‘बहु-बिन्दु कर’ (multi-point tax) व्यवस्था भी कहते हैं। इसके विपरीत गैट-वैट विधि में ‘एकल-बिंदु कर’ (single-point tax) व्यवस्था होती है जिससे ‘कर पर कर (tax upon tax) लगने लगता है तथा मुद्रास्फीति पर इसका ‘क्रमपाती प्रभाव’ (Cascading Effect) पड़ता है और इस कारण महँगाई बढ़ती है। भारत जैसे देश में, जहाँ एक बहुत बड़ी जनसंख्या क्रयशक्ति निम्न होने के कारण बेहतर जीवन-स्तर से नीचे गुजर-बसर करती है, कर वसूलने (UPBoardSolutions.com) की व्यवस्था वैट पद्धति (VAT Method) पर होना अति तर्कसंगत है। यह कर प्रणाली बिना ‘धनी-विरोधी’ (anti-ich) होते हुए भी ‘गरीबी-मित्रवत् (prop-poor) है।

भारत में वैट’ की आवश्यकता

विश्व के 150 से अधिक देश अपने अप्रत्यक्ष करों का संग्रहण मूल्यवर्धित कर (वैट) पद्धति पर ही करते हैं। जिससे वैश्वीकरण की प्रक्रिया में हो रही अर्थव्यवस्थाओं की समेकन प्रक्रिया को पूरा करने के लिए भी भारत को इस प्रणाली को अपनाने की जरूरत प्रतीत हो रही थी। भारत में भी अप्रत्यक्ष करों की वसूली के लिए वैट’ विधि को अपनाना आवश्यक है। इसे हम निम्न प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं –

(i) चूंकि गैर-वैट पद्धति में कर की वसूली.एक ही बिन्दु पर की जाती है जिस कारण कर पर कर लगाने से मूल्य वृद्धि होती जाती है, जो गरीब-विरोधी (anti-poor) है। अतः वैट को अपनाने से यह मूल्य-वृद्धि नहीं होगी जिससे गरीबों की भी क्रयशक्ति बढ़ेगी तथा उनके जीवन-स्तर में सुधार होगा।

(ii) भारत एक संघीय राजव्यवस्था है, जहाँ केन्द्र सरकार के अलावा राज्य सरकारों द्वारा भी कई प्रकार के अप्रत्यक्ष करों की वसूली की जाती है। यद्यपि केन्द्र द्वारा आरोपित अप्रत्यक्ष कर पूरे देश में एकसमान हैं, लेकिन राज्यों के अप्रत्यक्ष करों (उत्पाद शुल्क, बिक्री कर, मनोरंजन कर इत्यादि) में हमेशा से ही भिन्नता रही है। इस प्रकार भारत के अलग-अलग राज्यों में अप्रत्यक्ष करों का भार भी अलग-अलग है। अर्थात् यह कह सकते हैं कि भारत का बाजार एकीकृत (unified) नहीं है जिससे भारत में उत्पादन और व्यापार करना काफी मुश्किल कार्य रहा है। यही कारण था कि ‘वैट’ के माध्यम से राज्यों के अप्रत्यक्ष कर में समानता लाने के लिए राज्य वैट’ (वैट) (UPBoardSolutions.com) की शुरुआत की गयी जिसने राज्यों के बिक्री करों का स्थान लिया तथा इसकी वसूली मूल्यवर्द्धित पद्धति पर प्रारंभ हुई। इस प्रक्रिया को ही ‘समरूप वैट’ (Uniform VAT) की शुरुआत भी कहते हैं।

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(iii) इसके अलावा आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया के फलीभूत होने के लिए भारत के बाजार को एकरूप या समरूप करना आवश्यक था जिसकी शुरुआत ‘वैट’ से की गयी।

(iv) भारतीय संघीय व्यवस्था में आर्थिक रूप से मजबूत संघ एवं कमजोर राज्यों का उद्भव हुआ, इस | कारण राज्य जिस स्थानीय विकास कार्य के प्रति उत्तरदायी थे, उसमें निरंतर ह्रास हुआ। चूंकि वैट विधि में राज्यों की कर वसूली बढ़ती है; अत: भारत में इस प्रणाली को अपनाना आवश्यक है।

(v) हालाँकि भारत में अप्रत्यक्ष करों की भारी चोरी होती रही है, परन्तु वैट विधि के लागू होने से कर चोरी घटी है; क्योंकि इस विधि में किसी भी स्तर पर किए गए मूल्यवर्द्धन की पुष्टि के लिए पूर्व में की गयी खरीद की रसीद दिखलाना आवश्यक है। इस विधि द्वारा करों की दोहरी संवीक्षा’ (double check) संभव है और कर की चोरी रोकना स्वतः संभव हो जाता है।

(vi) ‘राज्य वैट में राज्यों के अन्य अप्रत्यक्ष करों एवं केन्द्र के कई अप्रत्यक्ष करों को शामिल कर दिया जाए तो कर की व्यवस्था काफी सरल’ (Simple) और ‘दक्ष’ (Efficient) भी हो जाएगी। ऐसे ही भविष्य के कर को ‘एकल वैट’ (Single VAT) कहा जाएगा जिसकी कोशिश ‘वस्तु एवं सेवा कर (Goods and Services Tax-GST) द्वारा करने की कोशिश की गई है। इस प्रकार, इन सभी बातों को ध्यान में रखकर कर सुधार (चेलिया कमेटी एवं केलकर कमेटी) (UPBoardSolutions.com) शुरू किए गए जिनमें एक सीमा तक सफलता भी मिली है और इन्हें आगे जारी रखने का प्रोत्साहन मिला है। विदित हो कि वर्ष 1996 में केन्द्र सरकार ने वैट पद्धति से उत्पाद शुल्क वसूलना शुरू किया था और इस कर को एक नया नाम सेनवैट (CENVAT’) दिया गया था।

हालाँकि कमेटी का एक अन्य प्रस्ताव राज्यों के उत्पाद शुल्क एवं बिक्री कर को एक कर, राज्य वैट (State VAT) अथवा वैट को मिला देने का था, लेकिन राज्यों की इच्छाशक्ति के अभाव में यह संभव नहीं हो सका। अन्ततः राज्यों के केवल बिक्री कर का नाम बदलकर वैट कर दिया गया और इसकी वसूली वैट पद्धति पर की जाने लगी। कुछ राज्यों ने इसे लागू नहीं किया, जबकि कुछ ने बाद में लागू किया, यद्यपि इसका अनुभव उत्साहजनक रहा।

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प्रश्न 4.
सेवा कर क्या है? वस्तु एवं सेवाकर का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

सेवा कर

पिछले दशक में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ती रही है। वर्ष 1994-95 में भारत सरकार ने सेवा कर लागू किया जिससे उसके कर राजस्व में वृद्धि होती रही है। सेवा कर एक प्रकार को अप्रत्यक्ष कर है; क्योंकि इसमें सेवा प्रदाता कर देता है और वह इसकी प्रतिपूर्ति करयोग्य वस्तुओं को खरीदने वालों या प्राप्तकर्ताओं से करता है।

वर्ष 1994 में केवल तीन सेवाओं से शुरू होकर आज सेवाकर 100 से अधिक सेवाओं पर लागू है। संघीय बजट 2015-16 में सेवा कर को बढ़ाकर 14 प्रतिशत कर दिया गया जिसमें शिक्षा उपकर भी शामिल है, जबकि पहले यह शिक्षा उपकर सहित 12.36 प्रतिशत था, (UPBoardSolutions.com) परन्तु 15 नवम्बर, 2015 को सेवा कर की दर को स्वच्छ भारत उपकर जोड़कर 14.5% कर दिया गया। इसके बाद 1 जून, 2016 से सभी करयोग्य सेवाओं पर 0.5 कृषि कल्याण उपकर लगाया गया है जिससे सेवा कर की दर बढ़कर 15% हो गयी है। यह परिवर्तन केन्द्र एवं राज्यों दोनों स्तरों पर सेवाओं पर करारोपण को सुगम बनाने के लिए किया गया।

वस्तु एवं सेवा कर

वस्तु एवं सेवाकर (जी०एस०टी०) एक ऐसा कर है, जो राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी वस्तु या सेवा के निर्माण, बिक्री और प्रयोग पर लगाया जाता है। इस कर व्यवस्था के लागू होने के बाद उत्पाद शुल्क, केन्द्रीय बिक्री कर, सेवा कर जैसे केन्द्रीय कर तथा राज्य स्तर के बिक्री कर या वैट, एण्ट्री टैक्स, लॉटरी टैक्स, स्टॉम्प ड्यूटी, टेलीकॉम लाइसेन्स फीस, टर्नओवर टैक्स इत्यादि समाप्त हो जाएँगे। इस कर व्यवस्था में वस्तु एवं सेवा की खरीद पर दिए गए कर को उनकी सप्लाई के (UPBoardSolutions.com) समय दिए जाने वाले कर के मुकाबले समायोजित कर दिया जाता है, हालाँकि यह कर भी अन्त में ग्राहक को ही देना होता है; क्योंकि वही सप्लाई चेन में खड़ा अन्तिम व्यक्ति होता है।

सर्वप्रथम अप्रत्यक्ष करों के क्षेत्र में सुधारों की शुरुआत वर्ष 2003 में केलकर समिति ने की थी, इसके बाद संप्रग सरकार ने वर्ष 2006 में जी०एस०टी० विधेयक प्रस्तावित किया था तथा पहली बार यह विधेयक वर्ष 2011 में लाया गया था। जी०एस०टी० व्यवस्था विश्व के 140 देशों में लागू है। वर्ष 1954 में जी०एस०टी० लागू करने वाला फ्रांस विश्व का पहला देश है। भारत की तरह की दोहरी जी०एस०टी० व्यवस्था ब्राजील और कनाडा में भी है। वर्ष 2000 में तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने जी०एस०टी० पर विचार के लिए विशेष अधिकारप्राप्त समिति का गठन किया था तथा समिति का अध्यक्ष पश्चिम बंगाल के तत्कालीन वित्त मंत्री असीम दासगुप्ता को बनाया तथा असीम दासगुप्ता समिति को जी०एस०टी० के लिए मॉडल तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई थी।

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वर्ष 2005 में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने आम बजट में जी०एस०टी० के विचार को सार्वजनिक तौर पर सामने रखा था। इसके अलावा वर्ष 2009 में जी०एस०टी० के बारे में एक विमर्श-पत्र रखा गया तथा बाद में सरकार ने राज्यों के वित्त मंत्रियों की एक अधिकारसम्पन्न समिति बनाई थी। हालाँकि वर्ष 2014 में तत्कालीन संप्रग सरकार ने इससे सम्बन्धित विधेयक तैयार किया था, किन्तु लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने के कारण यह विधेयक पारित नहीं हो सका। वर्तमान सरकार इसे लोकसभा में लेकर आई और इसे स्थायी समिति में भेजा गया।

वस्तु एवं सेवा कर (जी०एस०टी०) से सम्बन्धित संविधान संशोधन (122वाँ) विधेयक 8 अगस्त, 2016 को लोकसभा में पारित हो गया तथा सभी सदस्यों ने इस बिल के पक्ष में मतदान किया। हालाँकि राज्यसभा ने 3 अगस्त, 2016 को जी०एस०टी० विधेयक को सर्वसम्मति के साथ पारित कर दिया था। इस संविधान संशोधन विधेयक का राष्ट्रपति की स्वीकृति से पूर्व आधे से अधिक राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा समर्थन किया जाना था, इसी क्रम में असम देश का पहला राज्य था जिसकी विधानसभा ने सर्वप्रथम इस विधेयक का समर्थन किया। तत्पश्चात् बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली, नागालैण्ड, महाराष्ट्र, हरियाणा, सिक्किम, मिजोरम, तेलंगाना, गोवा, ओडिशा, राजस्थान, अरुणाचल प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश राज्यों की विधानसभाओं द्वारा इस विधेयक को पारित किए (UPBoardSolutions.com) जाने के बाद 8 सितम्बर, 2016 को राष्ट्रपति द्वारा इस विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दी गई। इसी के साथ संविधान संशोधन (101वाँ) अधिनियम, 2016 लागू हुआ। इस अधिनियम का क्रियान्वयन 1 जुलाई, 2017 से प्रारम्भ किया गया जिसमें वस्तु एवं सेवाकर की दरों को चार स्तरों में बाँटा गया है, जो क्रमश: 5%, 12%, 18% तथा 28% हैं।

इस कर व्यवस्था में केन्द्र और राज्यों, दोनों के कर केवल बिक्री के समय वसूले जाएँगे, साथ ही ये दोनों ही कर निर्माण लागत (मैन्यूफैक्चरिंग कॉस्ट) के आधार पर तय होंगे जिससे वस्तु और सेवाओं के दाम कम होंगे और आम उपभोक्ताओं को लाभ होगा।

गरीबों के लिए जरूरी चीजों को जी०एस०टी० के दायरे से बाहर रखा गया है, इससे गरीबी दूर करने में भी मदद मिलेगी, बैंकों में भी पारदर्शिता आएगी। छोटे उद्यमियों को भी उनके रिकॉर्ड के हिसाब से आसानी से कर्ज मिल सकेगा जिससे उनके व्यापार में भी आशातीत वृद्धि हो सकेगी। इसके अन्तर्गत भारत सरकार द्वारा कुछ केन्द्रीय एवं कुछ राज्य के अप्रत्यक्ष करों को समाहित किया गया है जिनका विवरण निम्नलिखित है –

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 (Section 4)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अर्थव्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप क्यों आवश्यक है ?
उत्तर :
अर्थव्यवस्था के संचालन में राज्य की निर्णायक भूमिका होती है। राज्य के नियन्त्रण के बिना सुनियोजित आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था पायी जाती है, जिसमें निजी तथा सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्र साथ-साथ विद्यमान हैं। भारतीय संविधान में राज्य का एक प्रमुख उद्देश्य ‘समाजवादी’ गणतन्त्र की स्थापना करना है, यह तभी सम्भव है जब अर्थव्यवस्था पर राज्य का सम्पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हो।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का बाजार तन्त्र सामाजिक उद्देश्यों की अवहेलना करता है और केवल स्व-लाभ की भावना से प्रेरित होकर उत्पादन क्रिया सम्पादित करता है। अर्थव्यवस्था में बढ़ते धन और आय के वितरण की असमानताओं को कम करने (UPBoardSolutions.com) और समाज़ में अधिकतम लोक-कल्याण की दृष्टि से सरकार अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार के नियन्त्रण लगाकर हस्तक्षेप करती है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में आवश्यकतानुसार नियन्त्रण उपायों को अपनाना सरकारी हस्तक्षेप कहलाता है। कराधान, मौद्रिक नीति, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राशनिंग आदि सरकारी हस्तक्षेप के उदाहरण हैं।

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अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता एक अन्य कारण से भी है। देश के आर्थिक विकास हेतु आवश्यक निवेश के लिए राज्य को साधन जुटाने की आवश्यकता होती है। शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार, ऊर्जा आदि सामाजिक तथा आर्थिक सेवाओं को प्रदान करने के लिए राज्य को धन की आवश्यकता होती है। इसलिए राज्य को अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करना आवश्यक होता है। यह कार्य राजकोषीय नीति, मौद्रिक नीति तथा उत्पादन एवं वितरण पर भौतिक नियन्त्रण द्वारा सम्पादित किया जाता है। इस प्रकार राज्य के हस्तक्षेप का मुख्य उद्देश्य आर्थिक असमानता को समाप्त करना तथा आर्थिक न्याय की स्थापना करना है।

प्रश्न 2.
देश में मौद्रिक नियन्त्रण स्थापित करने वाली किन्हीं दो संस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मौद्रिक नीति का अभिप्राय ऐसी नीति से है जिसे मौद्रिक अधिकारी द्वारा देश में साख और मुद्रा की मात्रा को नियमित एवं नियन्त्रित करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। देश का केन्द्रीय बैंक मौद्रिक नीति लागू करने के लिए अधिकृत होता है। भारत में देश का केन्द्रीय बैंक ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ मौद्रिक नीति का नियमन करता है। भारतीय रिजर्व बैंक अनेक उपायों द्वारा देश में साख-मुद्रा की पूर्ति को नियन्त्रित करता है। इन उपायों में प्रमुख हैं –

1. बैंक दर नीति – वह ब्याज की दर, जिस पर केन्द्रीय बैंक व्यापारिक बैकों को ऋण प्रदान करता है, बैंक दर कहलाती है। यदि बैंक दर अधिक होती है, तो व्यापारिक बैंक भी ऊँची ब्याज की दर पर रुपया उधार देंगे। यदि बैंक दर नीची होगी, तो व्यापारिक बैंक व्यापारियों को कम ब्याज की दर पर रुपया उधार देंगे। इस प्रकार बैंक दर और ब्याज दरे में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। बैंक दर में वृद्धि से साख की मात्रा कम होती है और बैंक दर में कमी से साख की मात्रा बढ़ती है।

2. खुले बाजार की कार्यवाही – खुले बाजार की कार्यवाही से तात्पर्य, केन्द्रीय बैंक द्वारा प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय करना है। जब केन्द्रीय बैंक प्रतिभूतियों को खरीदता है, तो इससे व्यापारिक बैंकों के जमा कोष बढ़ते हैं और इससे अधिक साख का सृजन किया जा सकता है। जब साख की मात्रा में विस्तार करना होता है, तो केन्द्रीय बैंक प्रतिभूतियों को खरीदता है। साख की मात्रा को कम करने के लिए केन्द्रीय बैंक खुले बाजार में प्रतिभूतियों को बेचता है।

प्रश्न 3.
राजकोषीय नीति तथा मौद्रिक नीति में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
राजकोषीय नीति – राजकोषीय नीति से अभिप्राय सरकार द्वारा अपने बजट, कराधान, व्यय तथा ऋण नीति की ऐसी व्यवस्था से है, जिसका उद्देश्य सरकार द्वारा आर्थिक विकास प्राप्त करना है।
मौद्रिक नीति – मौद्रिक नीति से अभिप्राय ऐसी नीति से है, जिसे मौद्रिक अधिकारी द्वारा देश में मुद्रा तथा साख की मात्रा को नियमित एवं नियन्त्रित करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।

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प्रश्न 4.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है ? इसके दो महत्त्व/लाभ बताइए। [2009]
या
सार्वजनिक वितरण प्रणाली का क्या तात्पर्य है? इसके दो लाभों को-उल्लेख कीजिए। [2014]
या
भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दो उद्देश्यों/लाभ का वर्णन कीजिए। [2017]
या
भारत में राशनिंग व्यवस्था के दो महत्त्व बताइए।
या
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के किन्हीं तीन महत्त्वों को बताइट। [2015]
उत्तर :
माँग और आपूर्ति की शक्तियाँ अर्थव्यवस्था में उत्पादन व वितरण के प्रश्नों का हमेशा ही सामाजिक दृष्टि से एक वांछनीय हल प्रस्तुत नहीं कर पातीं। हमारे देश में भोजन, ईंधन और कपड़े जैसी अनिवार्य वस्तुओं की माँग और पूर्ति के मामले में दोष व्याप्त हैं।

पूर्ति की ओर से समस्या वस्तु की दुर्लभता की है। इस दुर्लभता के कारण-अपर्याप्त उत्पादन, उत्पादन के भण्डारण व विपणन में कमियाँ तथा सट्टे एवं कालाबाजारी के लाभों के लिए जमाखोरी की प्रवृत्ति हो सकते हैं।

माँग की ओर से समस्या गरीबी और उपभोक्ताओं की क्रय-शक्ति में पर्याप्त असमानताओं की है। उदाहरण के लिए, यदि खाद्यान्नों को; माँग और पूर्ति की मुक्त शक्तियों द्वारा; निर्धारित कीमतों पर बेचने दिया जाए तो वे व्यावहारिक रूप में हमारी जनसंख्या के एक बहुत (UPBoardSolutions.com) बड़े भाग की पहुँच से बाहर हो जाएँगे। ऐसे में एक ओर तो कुपोषण एवं भुखमरी की स्थिति होगी तथा दूसरी ओर अपव्यय एवं अति उपभोग की।

इस समस्या से निबटने के तीन प्रभावी उपायों में से एक है—सार्वजनिक वितरण प्रणाली। इसके अन्तर्गत समूचे देश में सरकारी नियन्त्रण वाले वितरण केन्द्रों अथवा उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से अनिवार्य वस्तुओं का वितरण किया जाता है। भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली खाद्यान्न और चीनी की बिक्री करने वाली उचित मूल्य की दुकानों के तन्त्र के माध्यम से सफलतापूर्वक काम करती है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली का प्रथम उद्देश्य माँग और पूर्ति के मध्य की खाई को पाटना है। इसका दूसरी उद्देश्य यह है कि इसने अनिवार्य खाद्य और अनिवार्य वस्तुओं की जमाखोरी को दूर करने में अहम् भूमिका निभाई है।

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प्रश्न 5.
आर्थिक विकास हेतु सरकार को कर लगाने चाहिए। इसके पक्ष में कोई दो तर्क लिखिए।
उत्तर :
आर्थिक विकास हेतु सरकार को कर लगाने चाहिए, इसके पक्ष में दो तर्क हैं –

  1. विकास के लिए आवश्यक पूँजी जुटाने का कार्य सरकार करों द्वारा ही करती है।
  2. करों द्वारा प्राप्त आय के परिणामस्वरूप सार्वजनिक निवेश में वृद्धि आर्थिक एवं सामाजिक आधारिक संरचना के विकास में सहायक है।

प्रश्न 6.
मौद्रिक नीति से क्या अभिप्राय है ? इसके उद्देश्य लिखिए।
या
भारत की मौद्रिक नीति के किन्हीं दो उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2009]
उत्तर :
मौद्रिक नीति का अभिप्राय ऐसी नीति से है, जिसे मौद्रिक अधिकारी द्वारा देश में साख और मुद्रा की मात्रा को नियमित एवं नियन्त्रित करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इसके उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. बचत व विनियोग के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करना।
  2. साख की लागत को कम करके बचत व विनियोग को प्रोत्साहित करना।
  3. मौद्रिक संस्थाओं की स्थापना करके निष्क्रिय साधनों को गतिशील बनाना।
  4. स्फीति के दबाव को नियन्त्रित करके अतिरिक्त विनियोग के लिए उपयुक्त वातावरण पैदा करना।
  5. हीनार्थ प्रबन्धन द्वारा विकासात्मक विनियोग के लिए अतिरिक्त साधन उपलब्ध करना।

प्रश्न 7.
जी०एस०टी० के लाभ बताइए।
उत्तर :
जी०एस०टी० के लाभ (Benefits of GST)-जी०एस०टी० एक अधिक सटीक कर पद्धति है जिसका अनुपालन निष्पक्ष तथा वितरण अधिक आकर्षक है। जी०एस०टी० मौजूदा टैक्स ढाँचे की तरह कई स्थानों पर न लगकर केवल गन्तव्य स्थान (Destination Point) पर लगेगा। मौजूदा व्यवस्था के अनुसार किसी सामान पर फैक्टरी से निकलते समय टैक्स लगता है और फिर खुदरा स्थान पर भी, जब वह बिकता है तो वहाँ भी उस पर टैक्स जोड़ा जाता है। (UPBoardSolutions.com) जानकारों का मानना है कि इस नई व्यवस्था से जहाँ भ्रष्टाचार में कमी आएगी, वहीं लाल फीताशाही भी कम होगी और पारदर्शिता बढ़ेगी, पूरा देश एक साझा व्यापार बढ़ाने में सहायक होगा।

सरकार को लाभ-जी०एस०टी० के तहत कर संरचना आसान होगी और ‘कर-आधार’ बढ़ेगा। इसके दायरे से बहुत कम सामान और सेवाएँ बच पाएँगे। एक अनुमान के अनुसार, जी०एस०टी० व्यवस्था लागू होने के बाद निर्यात, रोजगार और आर्थिक विकास में बढ़ोतरी होगी, इससे देश को सालाना के ₹ 15 अरब की अतिरिक्त आमदनी होगी।

कम्पनियों को लाभ-वस्तुओं और सेवाओं के दाम कम होने से उनकी खपत बढ़ेगी, इससे कम्पनियों का लाभ बढ़ेगा। इसके अतिरिक्त उन पर टैक्स का औसत बोझ कम होगा। कर केवल बिक्री के स्थान पर लगने से उत्पादन लागत (प्रोडक्शन कॉस्ट) कम होगी जिससे निर्यात बाजार में कम्पनियों की प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ेगी।

जनता को लाभ-इस कर व्यवस्था में केन्द्र और राज्यों दोनों के कर केवल बिक्री के समय वसूले (UPBoardSolutions.com) जाएँगे। साथ ही ये दोनों ही कर निर्माण लागत (मैन्यूफैक्चरिंग कॉस्ट) के आधार पर तय होंगे, इससे वस्तु और सेवाओं के दाम कम होंगे और आम उपभोक्ताओं को लाभ होगा।

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गरीबों के लिए जरूरी चीजों को जी०एस०टी० के दायरे से बाहर रखा गया है। इससे गरीबी दूर करने में भी मदद मिलेगी। बैंकों में भी पारदर्शिता आएगी, वे गरीबों को कर्ज देने में आनाकानी नहीं करेंगे। छोटे उद्यमियों को भी उनके रिकॉर्ड के हिसाब से आसानी से कर्ज मिलेगा; क्योंकि अब सब कुछ ऑनलाईन होगा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका किन बातों पर निर्भर करती है ?
उत्तर :
अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है

  1. राज्य द्वारा स्वीकृत सिद्धान्त तथा
  2. अर्थव्यवस्था में निर्णय लेने वाले व्यक्ति।

प्रश्न 2.
मिश्रित अर्थव्यवस्था को परिभाषित कीजिए। [2010]
उत्तर :
श्री दूधनाथ चतुर्वेदी के अनुसार, “मिश्रित अर्थव्यवस्था एक ऐसी आर्थिक प्रणाली है जिसमें निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र, दोनों का पर्याप्त मात्रा में सह-अस्तित्व होता है। दोनों के कार्यों का क्षेत्र निर्धारित कर दिया जाता है, परन्तु निजी क्षेत्र की प्रमुखता रहती है। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में इस प्रकार कार्य करते हैं कि बिना शोषण के देश के सभी वर्गों के आर्थिक कल्याण में वृद्धि हो तथा तीव्र आर्थिक विकास प्राप्त हो सके।

प्रश्न 3.
एक पूर्णतया समाजवादी अर्थव्यवस्था में मुख्य निर्णयकर्ता कौन होता है ?
उत्तर :
एक पूर्णतया समाजवादी अर्थव्यवस्था में मुख्य निर्णयकर्ता राज्य होता है।

प्रश्न 4.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में बिक्री की जाने वाली किन्हीं दो प्रमुख वस्तुओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत बिक्री की जाने वाली दो प्रमुख वस्तुओं के नाम हैं

  1. चीनी तथा
  2. मिट्टी का तेल।

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प्रश्न 5.
उन तीन विधियों का नाम लिखिए जिनके द्वारा राज्य एक मिश्रित अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करता है।
या
आर्थिक क्रियाओं में राज्य सरकार के हस्तक्षेप की किन्हीं दो विधियों के नाम लिखिए। [2011]
या
भारतीय अर्थव्यवस्था के किन्हीं तीन क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए जिनमें राज्य हस्तक्षेप करता है। [2015]
उत्तर :

  1. राजकोषीय नीति द्वारा
  2. मौद्रिक नीति द्वारा
  3. उत्पादन एवं वितरण पर भौतिक नियन्त्रण द्वारा।

प्रश्न 6.
भारत में आवश्यक वस्तुओं की कमी के क्या कारण हैं ?
उत्तर :
भारत में आवश्यक वस्तुओं की कमी के मुख्य दो कारण निम्नलिखित हैं –

  1. उत्पादन का अपर्याप्त होना तथा
  2. भण्डारण एवं विपणन सुविधाओं में कमी।

प्रश्न 7.
बाजार में माँग और पूर्ति की शक्तियाँ किसके पक्ष में होती हैं ?
उत्तर :
बाजार में माँग और पूर्ति की शक्तियाँ उन्हीं के पक्ष में (UPBoardSolutions.com) होती हैं जो अधिक खर्च करने की स्थिति में होते हैं।

प्रश्न 8.
व्यावसायिक बैंकों को दिशा देना एवं नियन्त्रित करना किसका काम है ?
उत्तर :
व्यावसायिक बैंकों को दिशा देने और नियन्त्रित करने का काम भारतीय रिजर्व बैंक का है।

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प्रश्न 9.
भारतीय रिजर्व बैंक के चार प्रमुख कार्य लिखिए। [2014, 15]
उत्तर :
भारतीय रिजर्व बैंक के तीन प्रमुख कार्य हैं—

  1. पत्र-मुद्रा का निर्गमन
  2. विनिमय दर को स्थिर बनाये रखना
  3. सरकार के बैंकर का कार्य तथा
  4. बैंकों का बैंक।

प्रश्न 10.
विदेशी विनिमय की खरीद व बिक्री को कौन-सी संस्था नियन्त्रित करती है ?
उत्तर :
भारतीय रिजर्व बैंक।

प्रश्न 11.
भारत के केन्द्रीय बैंक का नाम बताइए। इसकी स्थापना व राष्ट्रीयकरण कब-कब किया गया ?
उत्तर :
भारत के केन्द्रीय बैंक का नाम भारतीय रिजर्व बैंक (रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया) है। इसकी स्थापना 1 अप्रैल, 1935 ई० को हुई थी और 1 अप्रैल, 1949 ई० को इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।

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प्रश्न 12.
भारत में मौद्रिक नीति का नियन्त्रण कौन करता है ?
उत्तर :
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया।

प्रश्न 13.
राशनिंग का एक महत्त्व लिखिए। [2009]
उत्तर :
इससे वस्तु की कीमतें स्थिर रहती हैं तथा सट्टे, कालाबाजारी व जमाखोरी की भी रोकथाम हो जाती है।

प्रश्न 14.
आर्थिक विकास से क्या आशय है?
उत्तर :
आर्थिक विकास एक निरन्तर चलती रहने वाली प्रक्रिया है, (UPBoardSolutions.com) जिससे वास्तविक राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में दीर्घकालीन वृद्धि होती है।

प्रश्न 15.
सरकारी हस्तक्षेप से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
अर्थव्यवस्था में बढ़ते धन और आय के वितरण की असमानताओं को कम करने, विकास की दृष्टि से आवश्यक निवेशों के लिए साधन जुटाने और समाज में अधिकतम लोक-कल्याण की दृष्टि से सरकार अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार के नियन्त्रण लगाकर हस्तक्षेप करती है। (UPBoardSolutions.com) इस प्रकार अर्थव्यवस्था में आवश्यकतानुसार नियन्त्रण उपायों को अपनाना सरकारी हस्तक्षेप कहलाता है।

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प्रश्न 16.
अर्थव्यवस्था में राज्य किन तरीकों से हस्तक्षेप करता है ?
उत्तर :
अर्थव्यवस्था में राज्य निम्नलिखित तरीकों से हस्तक्षेप कर सकता है –

  1. कराधान
  2. मौद्रिक नीति तथा
  3. सार्वजनिक वितरण एवं राशनिंग।

प्रश्न 17.
राशनिंग व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
राशनिंग से आशय है-सरकारी नियन्त्रण की दुकानों द्वारा उचित मूल्य पर खाद्यान्न व आवश्यक वस्तुओं का प्रति व्यक्ति निर्धारित कोटा उपलब्ध कराना।

प्रश्न 18.
औद्योगिक लाइसेन्सिग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
औद्योगिक लाइसेन्स प्रणाली के अन्तर्गत औद्योगिक विकास एवं नियमन (UPBoardSolutions.com) अधिनियम (1951) लागू किया गया, जिसके अधीन भारत की सभी विनिर्माण औद्योगिक इकाइयों को पंजीकृत करवाना अनिवार्य किया गया।

प्रश्न 19.
औद्योगिक लाइसेन्सिग के दो प्रमुख उद्देश्य लिखिए।
उतर :

  1. उद्योगों का क्षेत्रीय स्तर पर सन्तुलित विकास करना।
  2. नव-संचालित उद्योगों का संरक्षण करना।

प्रश्न 20.
पंजीकरण औद्योगिक लाइसेन्सिंग का क्या अभिप्राय है ? [2010]
उत्तर :
भारतीय संसद ने ‘औद्योगिक नीति प्रस्ताव 1948’ के बाद 1951 ई० में औद्योगिक विकास एवं नियमन अधिनियम” लागू किया। इसी को पंजीकरण औद्योगिक लाइसेन्सिग प्रणाली का नाम दिया गया।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

1. हमारी (भारतीय) अर्थव्यवस्था है [2009, 16]

(क) पूँजीवादी
(ख) समाजवादी
(ग) मिश्रित
(घ) साम्यवादी

2. औद्योगिक लाइसेन्स आवश्यक नहीं है

(क) लघु उद्योगों की स्थापना के लिए।
(ख) कुटीर उद्योगों की स्थापना के लिए।
(ग) उद्योगों के विस्तार के लिए
(घ) नयी इकाई लगाने के लिए।

3. मौद्रिक नियन्त्रण किया जाता है [2014]
या
भारत में मौद्रिक नीति कौन नियन्त्रित करता है? [2013, 16]

(क) रिजर्व बैंक द्वारा।
(ख) वित्तीय संस्थाओं द्वारा
(ग) राज्य सरकार द्वारा
(घ) केन्द्र सरकार द्वारा।

4. सार्वजनिक वितरण प्रणाली का क्या उद्देश्य है?

(क) उत्पादन संरक्षण
(ख) विदेशी विनिमय संरक्षण
(ग) मजदूरी संरक्षण
(घ) उपभोक्ता संरक्षण

5. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सम्मिलित नहीं है

(क) खाद्यान्न
(ख) चीनी
(ग) मिट्टी का तेल
(घ) डीजल

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6. निम्नलिखित में से भारतीय रिजर्व बैंक का मुख्य कार्य कौन-सा है?

(क) केवल मुद्रा का लेन-देन करना
(ख) केवल ऋण सुविधा उपलब्ध कराना।
(ग) केवल विदेशी विनिमय एवं क्रय-विक्रय का नियन्त्रण
(घ) केवल आयात-निर्यात पर नियन्त्रण करना।

7. भारत में विदेशी विनिमय की खरीद एवं बिक्री पर नियन्त्रण कौन-सा बैंक करता है? [2009]
या
भारत में विदेशी विनिमय को नियन्त्रित करने वाला निम्नलिखित में से कौन है? [2013, 16]

(क) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया
(ख) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया
(ग) सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
(घ) यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया

8. भारत में मौद्रिक नीति का संचालन व नियन्त्रण कौन-सा बैंक करता है? [2009,14]

(क) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया
(ख) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया
(ग) सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
(घ) बैंक ऑफ इण्डिया

9. निम्नलिखित में से भारत का केन्द्रीय बैंक कौन है? [2015, 18]

(क) पंजाब नेशनल बैंक
(ख) पंजाब एण्ड सिन्ध बैंक
(ग) भारतीय रिजर्व बैंक
(घ) सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया

10. सरकारी हस्तक्षेप का उदाहरण है

(क) राजकोषीय नीति
(ख) मौद्रिक नीति
(ग) सरकारी नियन्त्रण
(घ) ये सभी

11. नई औद्योगिक नीति की घोषणा हुई थी

(क) 1950 में
(ख) 1982 में
(ग) 1986 में
(घ) 1991 में

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12. भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना हुई थी [2011, 15, 17]

(क) 1935 में
(ख) 1940 में
(ग) 1945 में
(घ) 1950 में

13. भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण कब हुआ? [2017]

(क) 1 अप्रैल, 1949
(ख) 26 जनवरी, 1950
(ग) 1 अप्रैल, 1951
(घ) 1 जनवरी, 1948

14. भारत में आर्थिक उदारीकरण की नीति कब आरम्भ हुई? [2017, 18]

(क) 1981 ई० में
(ख) 1998 ई० में
(ग) 1991 ई० में।
(घ) 1988 ई० में

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 (Section 4)

Hope given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 are helpful to complete your homework.

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UP Board Solutions for Class 9 English Poetry Chapter 2 Sympathy (Charles Mackay)

UP Board Solutions for Class 9 English Poetry Chapter 2 Sympathy  (Charles Mackay)

Read the following stanzas given below and answer the questions that follow each:
निचे दिये हुए निम्नलिखित पद्यांशों को पढ़िये और उनके नीचे दिये हुए प्रश्नों के उत्तर दीजिए

(a) I lay in sorrow, deep distressed;
My grief a proud man heard;
His looks were cold, he gave me gold,
But not a kindly word.
My sorrow passed–I paid him back
The gold he gave to me;
Then stood erect and spoke my thanks
And blessed his charity.

Questions.
(i) Write name of the poem from which the above stanza has been selected. Who is the poet of the poem?
उस कविता का नाम लिखिए जिससे उपरोक्त पद्यांश लिया गया है। कविता के रचयिता कौन है?
(ii) Which words rhyme with each other in the above stanza?
उपरोक्त पद्यांश में कौन से शब्द एक दूसरे के तुकान्त है?
(iii) How did a proud man help the poet?
एक घमण्डी व्यक्ति ने किस प्रकार कवि की सहायता की?
(iv) What did the poet do when his sorrow passed?
जब कवि को दुःख समाप्त हो गया तब उसने क्या किया?
Answers.
(i) The name of the poem is Sympathy’. Charles Mackay is the poet of the poem.
कविता का नाम ‘Sympathy’ है। कविता के रचयिता Charles Mackay है।
(ii) Heard rhyme with word.
Heard, word का तुकान्त है।
(iii) The proud man helped the poet by giving him gold (money).
घमण्डी आदमी ने सोना (धन) देकर कवि की सहायता की।
(iv) When his sorrow passed, he paid him back his money.
जब उसका दुःख समाप्त हो गया तब उसने उसका धन वापस कर दिया।

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(b) I lay in want, and grief, and pain;
A poor man passed my way;
He bound my head, he gave me bread,
He watched me night and day.
How shall I pay him back again
For all he did to me?
Oh, gold is great, but greater far
Is heavenly sympathy.

Questions.
(i) Name the poem from which the above stanza has been taken. Who is the poet of the poem?
उस कविता का नाम लिखिए जिससे उपरोक्त पद्यांश लिया गया है। कविता के रचयिता कौन हैं?
(ii) Who passed by the poet?
कवि के पास से कौन गुजरा?
(iii) How did the poor man help the poet?
मंडी आदमी ने कवि की सहायता किस प्रकार की?
(iv) The poor man’s help is greater than gold. Why?
गरीब आदमी की सहायता सोना (धन) से महान है। क्यों?
Answers.
(i) The name of the poem is Sympathy’ and the poet is Charles Mackay.
कविता का नाम ‘Sympathy’ है और कवि Charles Mackay हैं।
(ii) A poor man passed by the poet.
एक गरीब आदमी कवि के पास से होकर गुजरा।
(iii) The poor man pressed his head. He gave him bread and looked after him day and night.
गरीब आदमी ने उसका सिर दबाया। उसने उसे रोटी दी और दिन रात उसकी देखभाल की।
(iv) The poor man’s help is greater than gold because gold can be repaid but words of sympathy
can not be paid back.
गरीब आदमी की सहायता सोना (धन) से महान है क्योंकि सोने (धन) को चुकाया जा सकता है किन्तु सहानुभूति
के शब्द चुकाये नहीं जा सकते।

(A) SOLVED QUESTIONS OF TEXT BOOK

Answer the following questions :
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए ।

Question 1.
Who lays in sorrow?
कष्ट में कौन था?
Answer:
The poet lay in sorrow.
कवि कष्ट में था।
Question 2.
Was the poet satisfied with his help? If not so, why?
क्या कवि उसकी सहायता से सन्तुष्ट था, यदि नहीं तो क्यों?
Answer:
The poet was not satisfied with his help because he did not express sympathy.
कवि उसकी सहायता से सन्तुष्ट नहीं था क्योंकि उसने सहानुभूति नहीं व्यक्त की थी।

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Question 3.
How did the poet repay the proud man when his sorrow had passed?
जब कवि का कष्ट समाप्त हो गया तो उसने घमण्डी आदमी को उसका ऋण किस प्रकार चुकाया?
Answer:
When the sorrow of the poet had passed, he went to the proud man and repaid his gold(money).
जब कवि का कष्ट समाप्त हो गया तो वह घमण्डी आदमी के पास गया और उसका धन वापस कर दिया।
Question 4.
How did a poor man help the poet when later on he lay in want and grief again?
जब कवि बाद में पुनः अभाव और पीड़ा में पड़ा हुआ (UPBoardSolutions.com) था तो एक गरीब आदमी ने उसकी सहायता किस प्रकार की?
Answer:
The poor man pressed the head of the poet. He gave him bread and looked after him day and
night.
गरीब आदमी ने कवि का सिर दबाया। उसने उसे रोटी दी और दिन-रात उसकी देखभाल की।
Question 5.
Why does the poet think that it is difficult to pay back the poor man?
कवि क्यों सोचता है कि उस गरीब आदमी को ऋण चुकाना कठिन है?
Answer:
They poet thinks that it is difficult to pay back the poor man because his service and words of
sympathy can not be paid back.
कवि सोचता है कि उस गरीब आदमी का ऋण चुकाना कठिन ह क्योंकि उसकी सेवा और सहानुभूति के शब्द वापस नहीं किये जा सकते।

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Question 6.
What difference do you find between the attitude of the proud man and the attitude
of the poor man?
आपको घमण्डी आदमी के दृष्टिकोण तथा गरीब आदमी के दृष्टिकोण में क्या अन्तर मिलता है?
Answer:
The attitude of the proud man was full of pride while the attitude of the poor man was full of
sympathy.
घमण्डी आदमी का दृष्टिकोण गर्व से भरा हुआ था तथा (UPBoardSolutions.com) गरीब आदमी का दृष्टिकोण सहानुभूति से पूर्ण था।
Question 7.
Why is sympathy described as heavenly’?
सहानुभूति को दिव्य क्यों कहा गया है?
Answer:
Sympathy is described as heavenly because it is not based on any selfish motive.
सहानुभूति को दिव्य कहा गया है क्योंकि यह स्वार्थपूर्ण उद्देश्य पर आधारित नहीं है।
Question 8.
Which of the following qualities would you describe as heavenly?
आप निम्नलिखित गुणों में से किन-किन को दिव्य कहेंगे?
pride (घमण्ड), selfishness (स्वार्थपरता), kindness (दयालुता), goodness (बहुत अच्छा), indifference
towards the poor (गरीबों के प्रति उदासीनता), loving care of the old and sick (बूढ़े तथा बीमार व्यक्तियों की
स्नेह युक्त देखभाल).
Answer:
The qualities of goodness, kindness and loving (UPBoardSolutions.com) care of the old and sick can be described as heavenly.
भलाई, दयालुता, बूढ़े तथा बीमार व्यक्तियों की स्नेह युक्त देखभाल को दिव्य गुण कहा जा सकता है।

(B) APPRECIATING THE POEM

Question 1.
Give the central idea of the poem.
कविता का केन्द्रीय भाव लिखिए।
Answer:
Sympathy is a divine quality. It is greater than money. Money can be paid back while sympathy
cannot be paid back.
सहानुभूति एक दिव्य गुण है। यह धन से महान है। धन वापस किया जा सकता है जबकि सहानुभूति को वापस नहीं
किया जा सकता।

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Question 2.
Who is the poet of the poem?
कविता के रचयिता कौन हैं?
Answer:
The poet of the poem is Charles Mackay.
कविता के रचयिता चार्ल्स मैके हैं।
Question 3.
Bring out clearly the idea behind the words “His looks were cold.”
‘His looks were cold’ में निहित भाव को स्पष्ट कीजिए।
Answer:
“His looks were cold” means that his sight was indifferent.
‘His looks were cold’ का तात्पर्य है कि उसकी अन्तर्दृष्टि में उदासीनता थी।
Question 4.
Mention, from the poem, any two words that rhyme together.
कविता में किन्हीं दो शब्दों को लिखिए जो आपस में तुकान्त हों।
Answer:
Way and day rhyme together.
Way और day आपस में तुकान्त है।

UP Board Solutions for Class 6 Hindi Chapter 36 डॉ० राम मनोहर लोहिया (महान व्यक्तिव)

UP Board Solutions for Class 6 Hindi Chapter 36 डॉ० राम मनोहर लोहिया (महान व्यक्तिव)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 6 Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 6 Hindi Chapter 36 डॉ० राम मनोहर लोहिया (महान व्यक्तिव)

पाठ का सारांश

डॉ० राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, सन् 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के अन्तर्गत अकबरपुर तहसील (वर्तमान में अम्बेडकर नगर) में हुआ था। इनके पिता श्री हीरा लाल लोहिया तथा (UPBoardSolutions.com) माता श्रीमती चन्द्री देवी थीं। जब ये लगभग ढाई वर्ष के थे, तभी इनकी । माताजी का स्वर्गवास हो गया। माताजी के न रहने पर इनका पालन-पोषण इनकी दादीजी ने किया।

इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अकबरपुर के प्राइमरी स्कूल में हुई। अकबरपुर की पढ़ाई समाप्त करने के बाद ये अपने पिता के साथ मुम्बई चले गये। इन्होंने मुम्बई से मैट्रिक, बनारस से इण्टरमीडिएट और कोलकाता के विद्यासागर कॉलेज से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् डॉ० लोहिया ने बर्लिन (जर्मनी) से सन् 1932 में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।

डॉ० धि प्राप्त की। डॉ. हि सन् 1933 के प्रारम्भ में स्वदेश लौटे। स्वदेश लौटने के बाद ये समाज के उत्थान हेतु देश में संचालित समाजवादी आन्दोलन के साथ जुड़ गए। सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी इन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया। ये कई माह तक भूमिगत रहे और इसी समय इन्होंने गुप्त रेडियो स्टेशन की स्थापना की। (UPBoardSolutions.com) रेडियो के अनेक प्रसारणों के माध्यम से लोगों में नवीन चेतना जाग्रत की और आन्दोलन को जारी रखा। ब्रिटिश काल में ये कई बार जेल भी गए।

सन् 1963 में ये फर्रुखाबाद संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव में लोकसभा के सदस्य चुने गए। समाजवाद के प्रेरक स्तम्भ डॉ. लोहिया का 12 अक्टूबर, सन् 1967 को देहावसान हो गया।

डॉ० राम मनोहर लोहिया एक प्रबुद्ध विचारक और लेखक भी थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- इतिहास चक्र, अंग्रेजी हटाओ, धर्म पर एक दृष्टि, मार्क्सवाद और समाजवाद, समाजवादी चिन्तन, संसदीय आचरण आदि। ‘जंगजू आगे बढो’ और ‘मैं आज़ाद हैं। इनकी प्रमुख पुस्तिकाएँ हैं। भूमि सेना और एक घण्टा देश को दो उनके मौलिक चिन्तन के प्रमुख उदाहरण हैं।

अहिंसा के प्रति डॉ० लोहिया की आस्था, सत्याग्रह के व्यापक प्रयोग में उनका विश्वास, रचनात्मक कार्यक्रमों में उनकी निष्ठा, विकेन्द्रीकरण के आधार पर देश की राजनीति और अर्थनीति में गुणात्मक सुधार (UPBoardSolutions.com) लाने का उनका संकल्प गांधीजी की वैचारिक विरासत का प्रमाण है।

वास्तव में उनकी दृष्टि सार्वभौमिक व सम्पूर्ण थी। उनकी प्रासंगिकता इसलिए भी है कि उनकी समाजवादी विचारधारा समस्याओं का केवल विश्लेषण ही नहीं करतीं अपितु उनका समाधान भी प्रस्तुत करती है।

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अभ्यास

प्रश्न 1.
डॉ० राम मनोहर लोहिया ने डॉक्टरेट की उपाधि कहाँ से प्राप्त की?
उत्तर :
डॉ० राम मनोहर लोहिया ने डॉक्टरेट की उपाधि बर्लिन (जर्मनी) से प्राप्त की।

प्रश्न 2.
डॉ० लोहिया की तीन प्रमुख रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
डॉ. लोहिया की तीन प्रमुख रचनाएँ हैं- इतिहास चक्र, अँग्रेजी हटाओ तथा धर्म पर एक दृष्टि।

प्रश्न 3.
डॉ० राम मनोहर लोहिया के व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
डॉ० राम मनोहर लोहिया एक निर्भीक व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में किसी भी स्तर पर कथनी और करनी में विरोधाभास नहीं था। उन्होंने अपने कर्म व चिंतन के द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास को सदैव प्राथमिकता दी

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित कथनों में सही कथन पर (✓) तथा गलत कथन पर (✗) का चिह्न लगाइए।
उत्तर :

(क) डॉ० लोहिया का जन्म अकबरपुर तहसील में हुआ था। (✓)
(ख) इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा बनारस से उत्तीर्ण की। (✗)
(ग) डॉ० लोहिया ने ‘नमक सत्याग्रह’ पर अपना शोध प्रबन्ध पूरा किया। (✓)
(घ) डॉ० लोहिया सन् 1963 में फूलपुर से लोकसभा सदस्य चुने गए। (✗)

प्रश्न 5.
सही जोड़े बनाइए।
उत्तर :
UP Board Solutions for Class 6 Hindi Chapter 36 डॉ० राम मनोहर लोहिया (महान व्यक्तिव) 1

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