UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 14 Exertion of Ahimsa in Politics

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 14
Chapter Name Exertion of Ahimsa in Politics
(राजनीति में अहिंसा का प्रयोग)
Number of Questions Solved 16
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 14 Exertion of Ahimsa in Politics (राजनीति में अहिंसा का प्रयोग)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
चोरी चौरा काण्ड कहाँ हुआ था?
उतर:
असहयोग आन्दोलन के समय देशभर में किसानों के व्यापक आन्दोलन हो रहे थे। इसी दौरान उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के चोरी चौरा नामक ग्राम में 5 फरवरी 1922 ई० में लगभग 3000 सत्याग्रहियों ने एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया। आयोजन शान्ति पूर्ण था। अचानक भीड़ पर पुलिस ने गोलियाँ चला दी। भीड़ उत्तेजित हो गई और थाने को घेर लिया गया एवं 22 पुलिसकर्मियों को जिन्दा जला दिया गया। इस घटना को इतिहास में चोरी चौरा काण्ड के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 2.
भारत छोड़ो आन्दोलन पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
उतर:
गाँधी जी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रवादियों द्वारा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध किया गया अन्तिम आन्दोलन ‘भारत छोड़ो आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। 8 अगस्त, 1942 को बम्बई (मुम्बई) में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति द्वारा भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया गया। इस आन्दोलन की विशेषता थी कि यह एक अहिंसात्मक आन्दोलन नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय जनता के आक्रोश का प्रतीक था। महात्मा गाँधी ने इस आन्दोलन में करो या मरो’ का नारा दिया। यही आन्दोलन भारत में ब्रिटिश शासन के सूर्यास्त का कारण बना।

प्रश्न 3.
खिलाफत आन्दोलन के उद्देश्यों की विवेचना कीजिए।
उतर:
खिलाफत आन्दोलन, भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के खलीफा के समर्थन में ब्रिटेन के खिलाफ चलाया। इस आन्दोलन का समर्थन गाँधी जी ने भी किया। इसका उद्देश्य खलीफा की शक्ति को पुनः स्थापित करना तथा भारतीय हिन्दू और मुसलमानों को एक सूत्र में बाँधना था।

प्रश्न 4.
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के सम्बन्ध में आप क्या जानते हैं?
उतर:
रॉलेट ऐक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा का आयोजन किया गया। इस सभा में रौलेट ऐक्ट का विरोध करने के लिए लगभग 2,000 स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया। उस समय अंग्रेजी सरकार ने किसी भी सामूहिक एकत्रीकरण एवं जुलूस पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर रखी थी। जनरल डायर ने सभा करने वाले लोगों को सबक सिखाना चाहा। उसने वहाँ पहुँचते ही गोली चलाने का आदेश दे दिया। लगभग दस मिनट तक निरन्तर गालियाँ चलती रहीं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार वहाँ 379 लोग मारे गए। जबकि कांग्रेस समिति के अनुसार मरने वालों की संख्या लगभग 1,000 थी।

प्रश्न 5.
रॉलेट ऐक्ट पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व अंग्रेजी सरकार ने भारतीयों को अनेक सुविधाएँ देने का आश्वासन दिया था परन्तु विश्वयुद्ध के पश्चात् भी अंग्रेजों ने अपनी नीतियों को नहीं बदला और पहले से भी अधिक कठोर नियम भारतीयों पर लागू कर दिए। 19 मार्च, 1919 को अंग्रेजी सरकार ने दमनकारी कानून रॉलेट ऐक्ट’ को पारित किया। इस ऐक्ट के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को सन्देह के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था, परन्तु उसके विरुद्ध “न कोई अपील, न कोई दलील और न कोई वकील’ किया जा सकता था। इसे काला कानून कहकर पुकारा गया। इस ऐक्ट के विरोध में सम्पूर्ण भारत में हड़ताल आयोजित की गई एवं जुलूस निकाले गए।

प्रश्न 6.
किन्हीं दो क्रान्तिकारियों का परिचय दीजिए।
उतर:
चन्द्रशेखर आजाद (1906-1931)- चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ तहसील के भावरा गाँव में हुआ। ब्राह्मण परिवार में जन्मे चन्द्रशेखर आजाद एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। इन्होंने हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ की स्थापना की। इन्होंने अपने दल के सदस्यों के साथ लाला लाजपत राय की हत्या के लिए उत्तरदायी पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या की तथा केन्द्रीय असेम्बली हॉल में बम धमाका किया। चन्द्रशेखर आजाद को 23 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के कम्पनी बाग में पुलिस से लड़ते हुए अपनी ही गोली से वीरगति प्राप्त हुई। वे विदेशी शासन के कभी हाथ न आए, इस प्रकार उन्होंने अपना ‘आजाद’ नाम सार्थक रखा।

सुखदेव (1907-1931)- सुखदेव को बाल्यकाल से ही मातृभूमि से विशेष अनुराग था। रानी लक्ष्मीबाई व अन्य वीरों की वीरगाथा उन्हें प्रभावित करती थी। वे भगत सिंह के बचपन के साथी थे तथा भगत सिंह को क्रान्तिपथ पर लाने वाले सुखदेव ही थे। वे नौजवान भारत सभा’ के संस्थापक थे। 15 अप्रैल को लाहौर बम फैक्ट्री कांड में सुखदेव पकड़े गए तथा 23 मार्च, 1931 को सुखदेव अपने मित्र भगत सिंह व राजगुरु के साथ फाँसी पर चढ़ गए।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“महात्मा गाँधी एक महान् राष्ट्र निर्माता थे।” इस कथन की पुष्टि में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उतर:
महात्मा गाँधी का परिचय- महात्मा गाँधी भारत की ही नहीं, वरन् विश्व की महान् विभूतियों में से एक थे। उनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई० को काठियावाड़ के एक नगर पोरबन्दर में हुआ था। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। उनके पिता का नाम करमचन्द गाँधी और माता का नाम पुतलीबाई था। उनके पिता और दादा काठियावाड़ की एक छोटी-सी रियासत के दीवान थे। मैट्रीकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे वकालत की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गए और तीन वर्ष पश्चात् वहाँ से सफल बैरिस्टर बनकर भारत लौटे।

गाँधी जी के विचार- महात्मा गाँधी वर्तमान युग के एक महान् चिंतक, विचारक और सुधारक थे, जिन्होंने भारतीय सामाजिक जीवन की मूल समस्याओं पर गहन चिंतन व मनन किया। गाँधी जी के राजनीतिक विचार धर्म पर आधारित थे। वे राजनीति में सत्य, अहिंसा, नैतिकता, विश्वबन्धुत्व, त्याग और आत्मविश्वास को महत्त्व देते थे। गाँधी जी ने अपने विचार 1909 ई० में ‘हिन्द स्वराज्य’ नामक पुस्तक में लिखे। गाँधी जी ने सत्याग्रह को सर्वोपरि मानते हुए लिखा है कि “सत्याग्रह एक ऐसा आध्यात्मिक सिद्धान्त है, जो मनुष्य-मात्र के प्रेम पर आधारित है।

इसमें विरोधियों के प्रति घृणा की भावना नहीं है।” आगे अहिंसा के बारे में लिखते हैं, “यद्यपि अहिंसा का अर्थ क्रियात्मक रूप से जानबूझकर कष्ट उठाना है….. इस सिद्धान्त को मानने वाला व्यक्ति अपनी इज्जत, धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए एक अन्यायपूर्ण साम्राज्य की समस्त शक्तियों को भी चुनौती दे सकता है। अपने पराक्रम द्वारा उसके पतन के बीज भी बो सकता है।” महात्मा गाँधी का साधन और साध्य के बारे में निश्चित मत था कि केवल साध्य ही पवित्र नहीं होना चाहिए बल्कि साधन भी उतना ही पवित्र होना चाहिए। वे साधन और साध्य को बीज और पौधे की भाँति एक-दूसरे से सम्बन्धित मानते थे। उनका मत था कि हिंसा के मार्ग से प्राप्त साधन बाद में नष्ट हो जाएगा। विश्व के इतिहास में उनका यह प्रयोग अलौकिक और कल्पनातीत था।

गाँधी जी का भारतीय राजनीति में प्रवेश- भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में 1919 ई० का वर्ष एक विशिष्ट स्थान रखता है, क्योंकि इसी वर्ष महात्मा गाँधी जैसे महान् व्यक्तित्व ने देश के राजनीतिक आन्दोलन में सक्रिय रूप से पर्दापण किया। उन दिनों प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था। युद्ध में गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार की बहुत सहायता की। परन्तु युद्ध की समाप्ति पर रौलेट ऐक्ट के दुष्परिणामों, जलियाँवाला बाग हत्याकांड तथा खिलाफत के प्रश्न के कारण देश में असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात किया और कुछ ही वर्षों में उनकी ख्याति सर्वत्र फैल गई।

1919 ई० से लेकर 1947 ई० तक गाँधी जी ने कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन का सफल नेतृत्व किया। इसी कारण उन्हें इसी काल के राष्ट्रीय आन्दोलन का कर्णधार कहा जाता है। देश की राजनीति पर गाँधी जी का व्यापक प्रभाव था। गाँधी जी ने भारत की स्वतन्त्रता के लिए तीन महत्त्वपूर्ण आन्दोलन चलाए थे‘असहयोग आन्दोलन’, ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ और ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’। सत्याग्रह और अहिंसा की नीति से ही उन्होंने विश्व की महान् शक्ति ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध किया और अन्त में विवश होकर 15 अगस्त, 1947 ई० को अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र कर दिया।

गाँधी जी के कार्य- गाँधी जी ने अहिंसा के मार्ग पर चलकर सर्वप्रथम सत्याग्रह आन्दोलन 1917 ई० में बिहार चम्पारन में तथा दूसरा सत्याग्रह आन्दोलन 1918 ई० में गुजरात के खेड़ा में चलाया। महात्मा गाँधी द्वारा किसानों का समर्थन करने के कारण सरकार को झुकना पड़ा। सन् 1918 ई० में महात्मा गाँधी ने अहमदाबाद मिल मजदूरों की समस्या को अनशन द्वारा समाप्त कर दिया। अपने इन कार्यों के कारण महात्मा गाँधी ने भारतीय समाज के निर्बल वर्ग से अपना तादात्मय स्थापित कर लिया व भारतीय राजनीति में एक नैतिक शक्ति के रूप में सामने आए।

सामाजिक जागरण में महात्मा गाँधी का योगदान- गाँधी जी ने सामाजिक न्याय की भावना बड़ी प्रबल थी। उनके हृदय में भारत की शोषित और दलित जातियों के प्रति विशेष सहानुभूति, प्रेम और सहयोग की भावना थी। उन्होंने अछूतों के पक्ष में आवाज उठाई और उनके हितों को सुरक्षित करने के लिए हर सम्भव प्रयास किया। महात्मा गाँधी ने इन्हें ‘हरिजन’ कहकर सम्मानित किया। उन्होंने इसी उद्देश्य से ‘हरिजन’ नामक पत्रिका भी प्रकाशित कराई, जिनके माध्यम से वे छुआछूत के विरुद्ध प्रभावशाली लेख प्रकाशित करते रहते थे। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दुओं को हरिजनों के प्रति उदार होने की प्रेरणा दी और मन्दिरों के द्वार हरिजनों के लिए खोल देने को कहा।

गाँधी जी स्वयं भी हरिजनों की बस्तियों में रहे, जिससे उच्च वर्ग के लोग हरिजनों से घृणा करना छोड़ दें। गाँधी जी महिलाओं के उत्थान के समर्थक थे तथा वे विधवा पुनर्विवाह में विश्वास रखते थे। उन्होंने मद्यपान का भी विरोध किया तथा वे समाज से शोषण का अन्त करना चाहते थे। गाँधी जी गौवंश की रक्षा को धार्मिक व आर्थिक दोनों दृष्टियों से आवश्यक मानते थे। अत: उन्होंने गौवध निषेध का समर्थन किया था। महात्मा गाँधी के इन्हीं प्रयत्नों के परिणामस्वरूप हमारे राष्ट्रीय जीवन में सामाजिक आदर्शों और समानता की भावना विकसित हुई, जिसने आधुनिक भारत की आधारशिला रखने में बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उल्लेखनीय है कि भारतीय जीवन-पद्धति पर गाँधीवादी दर्शन का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि उनके कुछ सिद्धान्त भारतीय संविधान के भाग IV में राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के अन्तर्गत समाहित किए गए हैं।

उपर्युक्त सुधारों के अतिरिक्त महात्मा गाँधी साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। उनकी यह पंक्ति आज भी हमारे हृदय को झंकृत कर देती है, “ईश्वर अल्ला एक ही नाम। सब को सन्मति दे भगवान।” वे चाहते थे कि उनके देशवासी प्रेम और शान्ति से रहें। वे मानवता के सच्चे हितैषी थे। इस दृष्टि से महात्मा गाँधी को आधुनिक भारत का युग-पुरुष एवं राष्ट्रनिर्माता कहना सर्वथा उचित है।

प्रश्न 2.
महात्मा गाँधी की विचारधारा व कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पर टिप्पणी कीजिए
(क) असहयोग आन्दोलन
(ख) सविनय अवज्ञा आन्दोलन
(ग) साइमन कमीशन
(घ) भारत छोड़ो आन्दोलन
उतर:
(क) असहयोग आन्दोलन- रॉलेट ऐक्ट, जलियाँवाला बाग काण्ड और खिलाफत आन्दोलन के उत्तर में गाँधी जी ने 1 अगस्त, 1920 ई० को असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी। सितम्बर, 1920 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) के विशेष अधिवेशन में और पुनः दिसम्बर, 1920 ई० में नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में इसका समर्थन किया गया। कांग्रेस का लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन की बजाय स्वराज्य घोषित करना था। मोहम्मद अली जिन्ना, एनी बेसेण्ट और विपिन चन्द्र कांग्रेस के इस असहयोग से सहमत न थे, अत: उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। असहयोग आन्दोलन कार्यक्रम के दो मुख्य पक्ष थे- ध्वंसात्मक और रचनात्मक।।

(i) ध्वंसात्मक कार्यक्रम- इसमें उपाधियों और अवैतनिक पदों का परित्याग, सरकारी और गैर सरकारी समारोहों का बहिष्कार, सरकारी नियन्त्रण वाले विद्यार्थियों तथा कॉलेजों का त्याग, वकीलों तथा मुवक्किलों द्वारा ब्रिटिश न्यायालयों का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार आदि शामिल थे।

(ii) रचनात्मक कार्यक्रम- इसमें राष्ट्रीय न्यायालयों और विद्यालयों की स्थापना, स्वदेशी को बढ़ावा देना, चरखा और खादी को लोकप्रिय बनाना, स्वयं सेवक दल का गठन तथा तिलक स्मारक के लिए स्वराज कोष के रूप में एक करोड़ रुपए एकत्र करना मुख्य कार्य थे। आन्दोलन का प्रारम्भ महात्मा गाँधी ने अपनी उपाधियाँ त्यागकर किया। देश के अन्य नेताओं और प्रभावशाली व्यक्तियों ने भी अपनी उपाधियाँ और पदवियाँ छोड़ दीं। विद्यार्थियों ने स्कूल और कॉलेज छोड़े। इस दौरान काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामिया, गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना हुई। देश के सभी बड़े नेताओं ने अपनी वकालत छोड़ दी। विधानमण्डलों का बहिष्कार किया गया। कोई भी कांग्रेसी विधानमण्डल के चुनाव में खड़ा नहीं हुआ। नवम्बर, 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स का बहिष्कार किया गया। सरकार ने कांग्रेस और खिलाफत कमेटियों को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। स्थान-स्थान पर विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और स्वदेशी का प्रचार किया गया। गाँधी जी ने लोगों को ‘तिलक स्वराज्य फंड’ दान देने का आग्रह किया परिणामस्वरूप एक करोड़ रुपए से भी अधिक धनराशि इकट्ठी हो गई।

(ख) सविनय अवज्ञा आन्दोलन- सविनय अवज्ञा का अर्थ अंग्रेजी शासन के कानून की शान्तिपूर्ण ढंग से अवहेलना करना था। महात्मा गाँधी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन के कार्यक्रमों की घोषणा करने का अधिकार 1 फरवरी, 1930 ई० की कांग्रेस कार्यकारिणी से मिल चुका था, फिर भी गाँधी जी इस प्रयास में रहे कि संघर्ष का रास्ता टल जाए। इसके लिए गाँधी जी ने न्यूनतम कार्यक्रम के अनुसार 11 सूत्री माँग-पत्र लॉर्ड डरविन के सम्मुख रखा और कहा कि अगर सरकार उनकी माँगों पर ध्यान नहीं देती है, तो वह नमक कानून भंग कर सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ कर देंगे। सरकारी प्रतिक्रिया अनुकूल नहीं थी। परिणामस्वरूप गाँधी जी ने यह कहते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की कि ब्रिटिश सरकार की संगठित हिंसा को रोकने का एकमात्र रास्ता संगठित अहिंसा ही हो सकती है।” गाँधी जी ने नमक कानून तोड़कर इस आन्दोलन को शुरू करने का विचार किया।

गाँधी जी ने नमक कानून तोड़ने के लिए यादगार दाण्डी यात्रा अपने 78 अनुयायियों के साथ 12 मार्च, 1930 ई० को शुरू की। 200 मील की पदयात्रा कर 5 अप्रैल को दाण्डी पहुँचे और 6 अप्रैल को समुद्र के किनारे उन्होंने नमक कानून तोड़कर देशव्यापी आन्दोलन कर दिया। इस प्रकार नमक कानून को तोड़ना दमनकारी ब्रिटिश कानूनों के प्रति भारतीय जनता के विरोध का प्रतीक था। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के कार्यक्रम

  • गाँव-गाँव में गैर-कानूनी नमक बनाया जाए।
  • महिलाओं द्वारा शराब, अफीम और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना दिया जाए।
  • विदेशी कपड़ों को जलाया जाए।
  • सरकारी कर्मचारी नौकरियों से त्यापत्र दें।
  • छात्रों द्वारा स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार किया जाए।
  • भू-राजत्व, लगान व अन्य करों का भुगतान न किया जाए।
  • व्यापक हड़तालों और प्रदर्शनों का संयोजन किया जाए।

शीघ्र ही यह आन्दोलन तेजी से फैला। छात्रों, मजदूरों, किसानों और महिलाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। महिलाओं ने परम्परागत पर्दे को छोड़कर शराब की दुकानों पर धरने दिए। किसानों ने लगान देना बन्द कर दिया। विद्यार्थियों ने स्कूल और कॉलेज छोड़े। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार से कई अंग्रेजी मिलें बन्द हो गईं। यह एक ऐसा युग परिवर्तनकारी कदम था जो लीक से हटकर था। सरकार ने दमन की नीति अपनायी जिससे असन्तोष की आग भड़क उठी। गाँधी जी के साथ हजारों लोग गिरफ्तार हुए तथा कांग्रेस को अवैध घोषित कर दिया।

(ग) साइमन कमीशन- 1919 ई० के सुधार अधिनियम के अनुसार 10 वर्ष के बाद शासन सुधारों की समीक्षा के लिए कमीशन नियुक्त करने की व्यवस्था थी। अतः यह आयोग 1929 ई० में बैठना था, किन्तु इंग्लैण्ड की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण वहाँ की अनुदार पार्टी ने यह कमीशन 1927 ई० में ही नियुक्त कर दिया। इसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन के कारण यह ‘साइमन कमीशन’ के नाम से जाना जाता है। इसमें कुल सात सदस्य थे जिनमें कोई भी भारतीय न था। अतः इसे ‘वाटर मैन कमीशन’ भी कहते हैं।

कमीशन के आगमन से पूर्व ही इनका विरोध प्रारम्भ हो गया था। कांग्रेस, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग सभी ने इसका विरोध करने का निर्णय लिया। जब यह कमीशन 3 फरवरी, 1928 ई० को बम्बई (मुम्बई) पहुँचा तो इसे जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा। देश के सभी प्रमुख नगरों में नवयुवकों ने हड़ताल करके काली झण्डियाँ दिखाकर और ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारों से इसका स्वागत किया। लाहौर में विद्यार्थियों ने लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस निकाला। पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लाजपतराय पर लाठी से प्रहार किया।

उनको सख्त चोटें आईं और एक महीने के बाद उनका देहान्त हो गया। मृत्यु से पूर्व उन्होंने भाषण देते हुए कहा, “मेरे शरीर पर लगी एक-एक चोट ब्रिटिश राज्य के कफन की कील सिद्ध होगी।” लाजपतराय की मृत्यु से युवा क्रान्तिकारी क्रोधित हो गए और साण्डर्स की हत्या कर दी। लखनऊ में भी पं० जवाहरलाल नेहरू और गोविन्द वल्लभपन्त के नेतृत्व में प्रदर्शन हुआ। कमीशन का विरोध प्रायः सभी दलों व वर्गों के बावजूद भी साइमन कमीशन ने दो बार भारत का दौरा किया। साइमन कमीशन की रिपोर्ट मई, 1930 ई० में प्रकाशित हुई, जिसमें निम्नलिखित बातें कही गईं

  • प्रान्तों में दोहरा शासन समाप्त करके उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाए।
  • भारत के लिए संघीय शासक की स्थापना की जाए।
  • उच्च न्यायालय को भारतीय सरकार के अधीन कर दिया जाए।
  • अल्पसंख्यकों के हितों के लिए गर्वनर व गर्वनर जनरल को विशेष शक्तियाँ प्रदान की जाएँ।
  • सेना का भारतीयकरण हो।
  • बर्मा (म्यांमार) को भारत से पृथक् कर दिया जाए तथा सिन्ध एवं उड़ीसा (ओडिशा) को नये प्रान्त के रूप में मान्यता प्रदान की जाए।
  • प्रत्येक दस वर्ष पश्चात् भारत की संवैधानिक प्रगति की जाँच को समाप्त कर दिया जाए तथा ऐसा नवीन लचीला संविधान बनाया जाए, जो स्वत: विकसित होता रहे।

भारतीयों ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया क्योंकि इसमें आकाँक्षाओं के अनुरूप कहीं भी औपनिवेशिक स्वराज्य स्थापना की बात नहीं कही गई। साइमन कमीशन का आगमन और बहिष्कार सम्पूर्ण देश की बिखरी हुई राजनीतिक भावना को जोड़ने में सहायक सिद्ध हुआ। लाला लाजपत राय की मृत्यु ने देश के नवयुवकों को उत्साहित किया। सर शिवस्वामी अय्यर ने इसे रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक बताया, किन्तु फिर भी इस कमीशन की अनेक बातों को 1935 ई० के अधिनियम में अपना लिया गया।

(घ) भारत छोड़ो आन्दोलन- ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ गाँधी जी द्वारा आयोजित अन्तिम आन्दोलन था। इस आन्दोलन की विशेषता थी कि यह एक अहिंसात्मक आन्दोलन नहीं था, बल्कि भारतीय जनता के ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चरम आक्रोश का प्रतीक था। अन्ततोगत्वा यही आन्दोलन भारत में ब्रिटिश राज्य के सूर्यास्त का कारण बना था।

वर्धा प्रस्ताव ( जुलाई 1942 ई०)- अप्रैल 1942 ई० में इलाहाबाद में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में यह निश्चित किया गया कि कांग्रेस किसी ऐसी स्थिति को किसी भी दशा में स्वीकार नहीं कर सकती, जिसमें भारतीयों को ब्रिटिश सरकार के दास के रूप में कार्य करना पड़े। जुलाई 1942 ई० में कांग्रेस कार्य-समिति की वर्धा में सम्पन्न बैठक में गाँधी जी के इन विचारों का समथर्न किया गया कि भारत समस्या का समाधान अंग्रेजों के भारत छोड़ देने में ही है।

भारत छोड़ो प्रस्ताव- वर्धा प्रस्ताव के निश्चय के अनुसार 7 अगस्त, 1942 ई० को बम्बई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। न केवल भारत वरन् सम्पूर्ण विश्व की निगाहें इस अधिवेशन पर लगी हुई थीं। भविष्य के इतिहास तथा घटनाओं ने इस अधिवेशन को ऐतिहासिक अधिवेशन की संज्ञा प्रदान की। इस समिति ने पर्याप्त विचारविमर्श के उपरान्त भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया था, “यह समिति कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के 14 जुलाई, 1942 ई० के प्रस्ताव का समर्थन करती है तथा उसका यह विश्वास है कि बाद की घटनाओं ने इसे और अधिक औचित्य प्रदान किया है और इस बात को स्पष्ट कर दिखाया है कि भारत में ब्रिटिश शासन का तत्काल ही अन्त भारत के लिए और मित्र-राष्ट्रों के आदर्शों की पूर्ति के लिए अति आवश्यक है। इसी पर युद्ध का भविष्य और स्वतन्त्रता तथा प्रजातन्त्र की सफलता निर्भर है।”

भारत छोड़ो आन्दोलन के कारण- भारत छोड़ो आन्दोलन के अनेक कारण थे, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं
(i) क्रिप्स मिशन की असफलता- भारत के संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के मार्ग की समस्याओं को सुलझाने के लिए मार्च 1942 ई० में सर स्टेफर्ड क्रिप्स की अध्यक्षता में क्रिप्स मिशन भारत आया। इस मिशन के प्रस्ताव व सुझाव दोषपूर्ण तथा अपर्याप्त थे।

(ii) युद्ध की भयंकरता व शरणार्थियों के प्रति कठोर व्यवहार-
इधर भारत पर जापान के आक्रमण का भय लगातार बढ़ रहा था। अंग्रेजों द्वारा ऐसी स्थिति में भारतीयों को दिए जाने वाले प्रलोभन को महात्मा गाँधी ने ‘विफल हो रहे बैंक का उत्तर दिनांकित चेक’ कहा और प्रलोभन में न आने के लिए भारतीयों को आगाह किया। बर्मा से जो भारतीय शरणार्थी भारत आ रहे थे, वे दु:खभरी कहानियाँ सुनाते थे। बर्मा में रह रहे अंग्रेजों को बचाने का भरपूर प्रयास किया गया, लेकिन भारतीय मूल के लोगों का अपमान किया गया।

(iii) बंगाल में आतंक का राज्य-
पूर्वी बंगाल में भय और आतंक का साम्राज्य था। वस्तुओं के मूल्य बढ़ते जा रहे थे, मुद्रा पर से विश्वास हटता जा रहा था। गाँधी जी को भी यह विश्वास हो गया था कि अंग्रेज भारत की सुरक्षा करने में असमर्थ है। इसलिए गाँधी जी ने अंग्रेजों को भारत से चले जाने को कहा।

(iv) दयनीय आर्थिक स्थिति-
यूरोप युद्ध के कारण आर्थिक स्थिति बहुत खराब होती जा रही थी, वस्तुओं के मूल्य बढ़ते जा रहे थे और जनता को अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। मध्यम वर्ग की स्थिति विशेष रूप से सोचनीय थी।

(v) जापानी आक्रमण का भय तथा असन्तोषजनक ब्रिटिश रक्षा-व्यवस्था-
भारतीयों को यह विश्वास हो गया था कि ब्रिटेनवासी भारत की सुरक्षा करने में असमर्थ हैं। जापान ने सिंगापुर, मलाया तथा बर्मा पर विजय प्राप्त कर ली थी और भारत पर उसके आक्रमण का भय लगातार बढ़ता जा रहा था क्योंकि अंग्रेजों के गृह राज्य इंलैण्ड और जापान के बीच युद्ध चल रहा था और भारत में अंग्रेजी शासन होने के कारण जापान द्वारा भारत पर आक्रमण की आशंका थी। ऐसी स्थिति में भारतीय यह सोचते थे कि यदि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएँ तो शायद जापान भारत पर आक्रमण न करे। भारत छोड़ो आन्दोलन का कार्यक्रम- आन्दोलन से सम्बन्धित कर्णधारों के गिरफ्तार हो जाने से जनता दिशाहीन होकर असमंजस में पड़ गई। जनता के समक्ष कोई स्पष्ट निर्देश या कार्यक्रम नहीं था। गाँधी जी के केवल कुछ वाक्य थे- ‘करो या मरो’, ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो।’ ऐसी दशा में कांग्रेस के शेष नेताओं की ओर से 12- सूत्री कार्यक्रम प्रकाशित कर दिया गया।

इस आन्दोलन के कार्यक्रम के मुख्य आधार निम्नलिखित थे
(अ) ‘करो या मरो’ का नारा लगाया गया।
(ब) 12 सूत्री कार्यक्रम बनाया गया, जिसके द्वारा सार्वजनिक सभाएँ करने, नमक बनाने तथा कर न देने पर विशेष बल दिया गया।
(स) पुलिस थानों व तहसीलों को अहिंसात्मक तरीकों से अकर्मण्य बनाने पर बल दिया गया।
(द) आवागमन के साधनों को हानि पहुँचाने की मनाही की गई।
(य) अंग्रेजों से की गई अपील के बेकार हो जाने की अवस्था में कांग्रेस हिंसा का अनिच्छापूर्वक उपयोग करने के लिए बाध्य हो जाएगी।

प्रश्न 4.
कांग्रेस ने असहयोग आन्दोलन क्यों प्रारम्भ किया? उसके क्या परिणाम हुए?
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 5.
असहयोग आन्दोलन के कारण व उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। इसके स्थगन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
असहयोग आन्दोलन के कारण व उद्देश्य- इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-3 के उत्तर का अवलोकन कीजिए। असहयोग आन्दोलन का स्थगन- असहयोग आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था। देशभर में किसानों द्वारा व्यापक आन्दोलन हो रहे थे। इसी दौरान उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में चौरीचौरा गाँव में 5 फरवरी 1922 ई० में लगभग 3,000 सत्याग्रहियों ने एक विशाल प्रदर्शन किया। प्रदर्शन पूरी तरह शान्त था। अचानक पुलिस ने भीड़ पर गोली चला दी। भीड़ उत्तेजित हो गई और थाने को घेर लिया गया एवं 22 पुलिसकर्मियों को जीवित जला दिया। गाँधी जी ने इसे गम्भीरता से लिया और 12 फरवरी, 1922 में इस आन्दोलन को स्थगित करने की घोषणा कर दी।

गाँधी जी की इस घोषणा से सम्पूर्ण देश स्तब्ध रह गया व लोगों का उत्साह ठण्डा पड़ गया। अंग्रेजों ने अवसर का लाभ उठाकर गाँधी जी को 10 मार्च, 1922 को बन्दी बना लिया व उन्हें छह वर्ष का कठोर दण्ड देकर जेल भेज दिया। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप कांग्रेस की स्थिति पहले से अधिक सुदृढ़ हो गई व कांग्रेस की पहुँच आम हिन्दुस्तानियों तक हो गई। परन्तु असहयोग आन्दोलन को वापस लेना एक अविवेकपूर्ण निर्णय था। गाँधी जी के इस निर्णय की तत्कालीन नेताओं ने आलोचना की। सुभाष चन्द्र बोस के अनुसार, “यह राष्ट्र के दुर्भाग्य के अलावा कुछ नहीं था।” देशबन्धु चितरंजनदास व मोतीलाल नेहरू भी इस निर्णय से दु:खी थे, क्योंकि उस समय आन्दोलन अपने चरम पर था। ब्रिटिश शासन इस आन्दोलन से घबरा गया था। परन्तु गाँधी जी द्वारा इसे वापस लेने के निर्णय से अंग्रेजों ने चैन की साँस ली।

प्रश्न 6.
स्वाधीनता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 7.
सेल्यूलर जेल के विषय में लिखिए।
उतर:
सेल्यूलर जेल( काले पानी की सजा )- भारत के क्रान्तिकारियों द्वारा आजादी के लिए लड़ी गई लड़ाई वास्तव में रोंगटे खड़े कर देने वाली अविस्मरणीय गौरव गाथा है। देश के असंख्य किशोर-किशोरियों, युवक और नवयौवनाओं ने अपना सर्वस्व देश की खातिर होम कर दिया था। ऐसे क्रान्तिकारियों से ब्रिटिश शासन सदैव भयग्रस्त रहता था। इनमें से अनेक राष्ट्रभक्तों को आजीवन कारावास की सजा दी जाती थी और भारत की मुख्यभूमि से सुदूर समुद्रपार अण्डमान के टापू पर निर्वासित कर दिया जाता था, इसी को काले पानी की सजा कहा जाता था। वहाँ पर विस्तृत क्षेत्र में कोठरीनुमा जेल थी, उसे कोठरीनुमा होने के कारण अंग्रेजी में Cellular Jail (सेल्यूलर जेल) कहा गया। इसमें तीन प्रकार के कैदी रखे जाते थे- राज्य के विद्रोही, जघन्य अपराधी तथा राजनीतिक बन्दी।

इस जेल का निर्माण 1906 ई० में हुआ था, यहाँ पर क्रान्तिकारियों को भयंकर यातनाएँ दी जाती थीं। यहाँ पर उनके क्रियाकलापों में शामिल था- लकड़ी काटना, पत्थर तोड़ना, एक हफ्ते तक हथकड़ियों को पहनकर खड़े रहना, तन्हाई के दिन बिताना, चार दिनों तक भूखा रहना, दस दिनों तक क्रॉस बार की स्थिति में रहना आदि। क्रान्तिकारियों की जबान सूख जाती थी, दिमाग सुन्न हो जाता था तथा कई कैदी तो जान गंवा बैठते थे। लेकिन इनका अपराध था कि ये अपनी मातृभूमि से बेहद प्यार करते थे और दु:ख सहते हुए भी हँसते-हँसते मातृभूमि के लिए शहीद हो जाते थे।

कालेपानी की सजा काटने वाले कुछ देशभक्तों के नाम हैं- डॉ० दीवान सिंह कालेपानी (इनका उपनाम ही ‘कालेपानी’ हो गया), मौलाना हक, बटुकेश्वर दत्त, बाबाराव सावरकर, विनायक दामोदर सावरकर (वीर सावरकर- इन्हें दो आजीवन कारावास की सजा हुई थी), भाई परमानन्द, चिदम्बरम पिल्लै, सुब्रह्मण्यम शिव, सोहन सिंह, वामनराव जोशी, नन्द गोपाल। वाघा जतिन के जीवित साथी सतीशचन्द्र पाल को यहाँ भयंकर मानसिक व शारीरिक यातनाएँ दी गई थीं। वीरेन्द्र कुमार घोष, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, वीरेन्द्रचन्द्र सेन को यहाँ कैदी जीवन में भयानक यातनाएँ सहनी पड़ीं। लेकिन ब्रिटिश सरकार इन्हें इनके स्वदेश प्रेम से अलग नहीं कर सकी। महात्मा गाँधी व रवीन्द्रनाथ टैगोर को अनेक मौकों पर इन वीर देशभक्तों के पक्ष में सरकार से बहस करनी पड़ी थी।

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम जननायक नेताजी सुभाष ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अण्डमान टापू को अंग्रेजों से जीत लिया था और इसका नामकरण किया गया ‘शहीद’। अब कैदियों के लिए सुभाष मुक्तिदाता थे तथा टापू कालापानी नहीं अपितु उनका अपना घर’ हो गया था। जेल के अनेक खण्डों को ध्वस्त कर दिया गया, शेष बचे भाग को 1969 ई० से राष्ट्रीय स्मारक में बदल दिया गया। 10 मार्च, 2006 ई० को जेल की शताब्दी मनाई गई और उस काल के उन स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों का भावभीना स्मरण किया गया, जो इस जेल में रहे थे।

प्रश्न 8.
भारतीय क्रान्तिकारियों व उनके बलिदान का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उतर:
चन्द्रशेखर आजाद (1906-1931)- चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ तहसील के भावरा गाँव में हुआ। ब्राह्मण परिवार में जन्मे चन्द्रशेखर आजाद एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। इन्होंने हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ की स्थापना की। इन्होंने अपने दल के सदस्यों के साथ लाला लाजपत राय की हत्या के लिए उत्तरदायी पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या की तथा केन्द्रीय असेम्बली हॉल में बम धमाका किया। चन्द्रशेखर आजाद को 23 फरवरी, 1931 ई० को इलाहाबाद के कम्पनी बाग में पुलिस से लड़ते हुए अपनी ही गोली से वीरगति प्राप्त हुई। वे विदेशी शासन के कभी हाथ न आए, इस प्रकार उन्होंने अपना ‘आजाद’ नाम सार्थक रखा।

सुखदेव (1907-1931)- सुखदेव को बाल्यकाल से ही मातृभूमि से विशेष अनुराग था। रानी लक्ष्मीबाई व अन्य वीरों की वीरगाथा उन्हें प्रभावित करती थी। वे भगत सिंह के बचपन के साथी थे तथा भगत सिंह को क्रान्तिपथ पर लाने वाले सुखदेव ही थे। वे नौजवान भारत सभा’ के संस्थापक थे। 15 अप्रैल को लाहौर बम फैक्ट्री कांड में सुखदेव पकड़े गए तथा 23 मार्च, 1931 ई० को सुखदेव अपने मित्र भगत सिंह व राजगुरु के साथ फॉसी पर चढ़ गए।

भगत सिंह (1907-1931)- भगत सिंह का नाम स्वतन्त्रता संग्राम में सर्वोपरि है। क्रान्तिकारी विचार उन्हें विरासत में मिले। साण्डर्स को गोली मारना तथा केन्द्रीय असेम्बली में बम धमाका करना उनके शौर्य का परिचय देता है। उनका उद्घोष ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ देशभक्तों का प्रमुख नारा बन गया। 23 मार्च, 1931 ई० में यह महान् देशभक्त फाँसी पर चढ़ अमर हो गया।

राजगुरु ( 1909-1931)- इनका जन्म पूना के निकट खेड़ा गाँव में हुआ था। वे बनारस में शारीरिक शिक्षक के रूप में काम करने लगे। यहीं राजगुरु क्रान्तिकारियों के प्रभाव में आए। साण्डर्स को सर्वप्रथम गोली का निशाना बनाने वाले राजगुरु ही थे। 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर चढ़े। फाँसी के तख्ते पर भगत सिंह बीच में, राजगुरु दाएँ और सुखदेव बाएँ थे। भगत सिंह कह रहे थे- “दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी वतन की खुशबू आएगी।”

शहीद यतीन्द्रनाथ (1904-1929 ई०)- यतीन्द्रनाथ क्रान्तिकारी विचारों और गतिविधियों के कारण 25 नवम्बर, 1925 को ‘बंगाल फौजदारी कानून के अन्तर्गत पकड़े गए थे। इन्होंने लाहौर केन्द्रीय कारागार में देशभक्तों के साथ जेल के अत्याचारों के विरोध में अनशन भी किया, जिसमें 62 दिन के निरन्तर उपवास के बाद यतीन्द्रनाथ 13 सितम्बर, 1929 ई० को शहीद हो गए। रानी गेंडिनल्यू- पूर्वोत्तर भारत में 1930 से 1932 ई० के मध्य क्रांति की जनक रानी पेंडिनल्यू थी। पूर्वोत्तर सीमा प्रान्त के नागरिकों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जागृत करने में गेंडिनल्यू की मुख्य भूमिका रही।

नागाओं का नेतृत्व करने वाली 13 वर्ष की इस बालिका ने इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया। सत्याग्रह आन्दोलन के असफल होने पर रानी ने सशस्त्र क्रान्ति का निश्चय किया। परिणामत: सरकार ने गेंडिनल्यू को गिरफ्तार करने के लिए पुरस्कार की घोषणा की। सेना की मदद से 18 अक्टूबर, 1932 ई० को समोमा ग्राम में रानी को पकड़ लिया गया। उस समय रानी की उम्र 17 वर्ष थी। उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। रानी का पूरा यौवन जेल में व्यतीत हो गया।

रानी देश की आजादी के बाद भी 21 माह तक जेल में रही और 9 अप्रैल, 1949 को रिहा की गई। नेहरू जी ने उसके बारे में सही लिखा था, “एक दिन ऐसा आएगा कि जब भारत उसे स्नेहपर्वक याद करेगा।” स्वतन्त्रता की 25 वीं वर्षगाँठ पर दिल्ली के लाल किले में आयोजित समारोह में जब रानी को ताम्रपत्र प्रदान किया गया तो चारों ओर खुशी की लहर दौड़ गई। इस महान् स्वतन्त्रता सेनानी को नागालैण्ड की ‘जॉन ऑफ ऑर्क’ कहा गया है।

अन्य क्रान्तिकारियों में रासबिहारी बोष और सचिन सान्याल ने दूर दराज के क्षेत्रों, पंजाब, संयुक्त प्रान्त में क्रान्तिकारी गतिविधियों हेतु गुप्त समितियों का गठन किया था, हेमचन्द्र कानूनगो ने सैन्य प्रशिक्षण के लिए विदेश गमन किया था। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के न्यायाधीश की गाड़ी को बम से उड़ा दिया था। वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में महाराष्ट्र के युवाओं ने सशस्त्र विद्रोह द्वारा अंग्रेजों को खदेड़ने की योजना बनाई। तिलक के शिष्यों दामोदर चापेकर व बालकृष्ण चापेकर ने लेफ्टिनेंट एर्स्ट व मिस्टर रैण्ड की हत्या कर पूना में प्लेग फैलने का बदला लिया। लाला लाजपत राय व अजित सिंह के अतिरिक्त भाई परमानन्द, आग हैदर, उर्दू कवि लालचन्द फलक ने भी पंजाब में क्रान्तिकारी गतिविधियों को नई ऊँचाइयाँ दीं।

अजित सिंह को देश से निर्वासित कर दिया गया और वे फ्रांस पहुँचकर सूफी अम्बा प्रसाद, भाई परमानन्द व लाला हरदयाल के सहयोग से मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के लिए क्रान्तिकारी गतिविधियों में लगे रहे। इंग्लैण्ड में क्रान्ति की ज्वाला को श्यामजीकृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, मदनलाल ढींगरा ने जलाए रखा। इन क्रान्तिवीरों ने ‘इण्डिया हाउस’ नामक संस्था बनाई, जिसका उद्देश्य भारत में अंग्रेजी शासन को आतंकित कर स्वराज्य प्राप्त करना था। यहीं पर सावरकर ने अपनी कालजयी कृति ‘1857 का स्वतन्त्रता संग्राम’ लिखी। उन्होंने मैजिनी की आत्मकथा का मराठी में अनुवाद किया। ढींगरा को

कर्नल विलियम कर्जन की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर फाँसी पर चढ़ा दिया गया तथा सावरकर को नासिक षड्यन्त्र केस में काले पानी (अंडमान में निर्वासन) की सजा दी गई। फ्रांस में क्रान्तिकारी गतिविधियों को सरदार सिंह राणा तथा श्रीमती भीकाजी रुस्तम कामा ने पेरिस से जारी रखा, ‘फ्री इण्डिया सोसायटी’ की स्थापना की तथा वन्दे मातरम् अखबार निकाला। भीकाजी विदेशी महिला थीं लेकिन भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष में उन्होंने अतुलनीय योगदान किया। उड़ीसा के तट पर स्थित बालासोर पर बाघा जतिन पुलिस के साथ मुठभेड़ में शहीद हुए।

क्रान्तिकारियों ने विभिन्न पुस्तकें व पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित कीं, जिनमें देश पर कुर्बान होने वाले जाँबाज किशोर-किशोरियों के त्याग को उकेरा गया। इनमें ‘आत्मशक्ति’, ‘सारथी’, ‘बिजली’ प्रमुख हैं। उपन्यासों में सचिन सान्याल की बन्दी जीवन तथा शरतचन्द्र चटर्जी की पाथेर दाबी उल्लेखनीय हैं। शांतिसुधा घोष ने अध्यापन कार्य जारी रखते हुए नारी शक्तिवाहिनी’ संस्था की स्थापना की, जिसने किशोरियों को अस्त्र संचालन में इतना कुशल बना दिया कि वे साक्षात दुर्गा व चण्डी बन अंग्रेजों का
काल बन गईं तथा क्रान्तिकारियों की ढाल बन उनका संबल बनीं।

प्रश्न 9.
गाँधी जी की ऐतिहासिक डांडी यात्रा के विषय में लिखिए।
उतर:
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रारम्भ डांडी यात्रा की ऐतिहासिक घटना से हुआ। इसमें गाँधी जी और गुजरात विद्यापीठ तथा साबरमती आश्रम के 78 सदस्यों ने भाग लिया। 12 मार्च, 1930 ई० को गाँधी जी ने अपने इन 78 सहयोगियों के साथ साबरमती आश्रम से डांडी के लिए प्रस्थान किया। 200 मील की दूरी पैदल ही 24 दिन में तय की गई। स्थान-स्थान पर हजारों नर-नारियों ने सत्याग्रह दस्ते का जय-जयकार किया। सरदार पटेल, जो गाँव का दौरा कर जनता को सजग कर रहे थे, की गिरफ्तारी और सजा ने जनता को भड़का दिया।

इस ऐतिहासिक यात्रा का उल्लेख करते हुए बाम्बे क्रॉनिकल ने लिखा था- “इस विशद् राष्ट्रीय घटना के पूर्व, उसके साथ-साथ तथा उसके बाद भी जो दृश्य देखने में आए, वे इतने उत्साहपूर्ण, शानदार और इतने जीवन्त थे कि वर्णन नहीं किया जा सकता। ….. यह एक शानदार आन्दोलन का प्रारम्भ है और निश्चय ही भारत के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान होगा।” 5 अप्रैल, 1930 ई० को गाँधी जी डांडी पहुँचे तथा 6 अप्रैल को आत्म-शुद्धि के उपरान्त उन्होंने समुद्र के पानी से नमक बनाकर नमक कानून को भंग किया। इस प्रकार गाँधी जी ने नमक कानून का उल्लंघन कर सत्याग्रह का प्रारम्भ किया।

प्रश्न 10.
खिलाफत आन्दोलन से आप क्या समझते हो? इसका भारत की राजनीति में क्या महत्व है?
उतर:
खिलाफत आन्दोलन- खिलाफत आन्दोलन भारतीय मुसलमानों का मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध विशेषकर ब्रिटेन के खिलाफ तुर्की के खलीफा के समर्थन में आन्दोलन था। तुर्की का खलीफा समूचे विश्व में सुन्नी मुसलमानों का धर्म गुरु माना जाता था। प्रथम महायुद्ध (1914-1918 ई०) में तुर्की अंग्रेजों के विरुद्ध जर्मनी के पक्ष में था। जर्मनी की पराजय से तुर्की की पराजय जुड़ी हुई थी। युद्ध के अन्त में तुर्की साम्राज्य को मित्र देशों ने आपस में बाँट लिया। इस तरह तुर्की साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इससे भारतीय मुसलमान बहुत क्षुब्ध हो गये। यहाँ खिलाफत आन्दोलन का मुख्य कारण था।।

उद्देश्य और कार्य- खिलाफत आन्दोलन का उद्देश्य खलीफा की शक्ति को पुनः स्थापित करना था। इस समय भारत में राष्ट्रीय एकता का वातावरण था। लखनऊ समझौते में लीग और कांग्रेस बहुत निकट आ गयी थीं। लीग पर राष्ट्रवादी मुसलमानों का वर्चस्व था। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड में हिन्दुओं और मुसलमानों पर समान रूप से अत्याचार हुए थे। अतः राष्ट्रवादी मुसलमान अली बन्धु, मौलाना आजाद, हकीम अजमल खाँ तथा हजरत मोहानी के नेतृत्व में खिलाफत कमेटी बनाई गई। अखिल भारतीय खिलाफत कांग्रेस नवम्बर, 1919 ई० को दिल्ली में बुलाई गई। गाँधी जी इसमें शामिल हुए। लोकमान्य तिलक और गाँधी दोनों ही हिन्दू-मुसलमानों की एकता के लिए इस आन्दोलन को आवश्यक समझते थे।

गाँधी जी के शब्दों में “खिलाफत आन्दोलन हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता के सूत्र में बाँधने का अवसर है, जो हमें 100 वर्षों तक नहीं मिलने वाला है।” उन्होंने 1920 ई० में यह भी घोषणा कर दी कि ‘‘खिलाफत का प्रश्न संवैधानिक सुधारों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है’ मार्च, 1920 ई० को विधिवत खिलाफत कमेटी ने असहयोग आन्दोलन की घोषणा कर दी। सर्वप्रथम गाँधी जी इसमें शामिल हुए और युद्धकाल की सेवा के उपलक्ष्य में मिली ‘केसर-ए-हिन्द’ की उपाधि लौटा दी। नवम्बर, 1919 ई० में गाँधी जी खिलाफत कमेटी के अध्यक्ष चुने गए। सर्वत्र स्कूलों तथा कॉलेजों का बहिष्कार हुआ। शान्तिपूर्ण प्रदर्शन हुए जिसमें महिलाओं और बच्चों ने भाग लिया।

असहयोग और खिलाफत आन्दोलन साथ-साथ चले परन्तु असहयोग आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव से खिलाफत आन्दोलन उसके सामने दब गया। उधर तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा द्वारा खलीफा के पद को समाप्त करने के साथ ही खिलाफत का प्रश्न भी समाप्त हो गया।

इस आन्दोलन के सम्बन्ध में आलोचकों ने खिलाफत आन्दोलन को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के गाँधी जी के प्रयासों को एक राजनीतिक भूल मानी है, परन्तु खिलाफत आन्दोलन ने थोड़े समय के लिए ही सही, हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को सुदृढ़ किया। खिलाफत आन्दोलन ने उदार राष्ट्रवादी मुसलमानों को राष्ट्रीय संग्राम में शरीक होने का मौका दिया तथा इसने असहयोगा आन्दोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राजनीति सम्बन्धी निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name राजनीति सम्बन्धी निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राजनीति सम्बन्धी निबन्ध

राजनीति सम्बन्धी निबन्ध

भारत में लोकतन्त्र की सफलता

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारतीय लोकतन्त्र और राजनीतिक दल
  • भारत में लोकतन्त्र : सफल अथवा असफल
  • भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य [2011, 14, 15]
  • भारत में लोकतन्त्र

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. दलों को संवैधानिक मान्यता,
  3. भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रणाली,
  4. दलों की अनिवार्यता,
  5. दल द्वारा सरकार की रचना,
  6. विरोधी दल का महत्त्व,
  7. राजनीतिक दलों की उपयोगिता,
  8. भारत में लोकतन्त्र की सफलता,
  9. उपसंहारा

प्रस्तावना-भारतीय संविधान की प्रस्तावना ने भारत को लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया है। लोकतन्त्र और प्रजातन्त्र समान अर्थ वाले शब्द हैं। आधुनिक युग में लोकतन्त्र को शासन की सर्वोत्तम प्रणाली माना गया है। अनेक विद्वानों ने लोकतन्त्र की व्याख्या की है। यूनान के दार्शनिक क्लीयॉन (Cleon) ने प्रजातन्त्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि “वह व्यवस्था प्रजातान्त्रिक होगी, जो जनता की होगी, जनता के द्वारा और जनता के लिए होगी।” बाद में यही परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा भी दुहरायी गयी। भारत का एक सामान्य शिक्षित व्यक्ति प्रजातन्त्र का अर्थ एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया से लगाता है जो वयस्क मताधिकार चुनाव, कम-से-कम दो राजनीतिक दल, स्वतन्त्र न्यायपालिका, प्रतिनिध्यात्मक एवं उत्तरदायी सरकार, स्वस्थ जनमत, स्वतन्त्र प्रेस तथा मौलिक अधिकारों की विशिष्टताओं से युक्त हो। विस्तृत अर्थों में प्रजातन्त्र एक आदर्श है, स्वयं में एक ध्येय है न कि साधन। एक प्रजातान्त्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास का समुचित अवसर प्राप्त होता है, आर्थिक शोषण की अनुपस्थिति होती है, एकता तथा नैतिकता का वास होता है।

दलों को संवैधानिक मान्यता--भारत में प्राचीन काल से ही लोकतान्त्रिक शासन-पद्धति विद्यमान है तथा विश्व में सबसे बड़ा लोकतन्त्रात्मक राष्ट्र भारत है। यहाँ हर पाँच वर्ष के बाद चुनाव होते हैं। चुनाव में जो पार्टी विजयी होती है, वह सरकार बनाती है। भारत का संविधान हर नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त संविधान प्रत्येक व्यक्ति को संस्था या संगठन बनाने का अधिकार भी देता है। इस कारण देश में कई दल या पार्टियाँ हैं, जो अपने सिद्धान्तों एवं आदर्शों को लेकर चुनाव के अखाड़े में उतरती हैं।

भारतीय लोकतन्त्र का आधार इंग्लैण्ड का लोकतान्त्रिक स्वरूप रहा है। इंग्लैण्ड में केवल दो ही दल हैं। भारत का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ अनेकानेक दल हैं, लेकिन कोई भी सशक्त दल नहीं है। लगभग चालीस वर्षों तक कांग्रेस सशक्त दल के रूप में सत्ता में थी, लेकिन आपसी फूट के कारण अब उसका भी अपना प्रभाव समाप्त होता जा रहा है।

भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रणाली-भारत में प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र प्रचलन में है। इस पद्धति में जनता अपने प्रतिनिधि वोट द्वारा चुनती है। जे० एस० मिल के अनुसार, “प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र वह है, जिसमें सम्पूर्ण जनता अथवा उसका बहुसंख्यक भाग शासन की शक्ति का प्रयोग उन प्रतिनिधियों द्वारा करते हैं, जिन्हें वह समय-समय पर चुनते हैं।”

प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों का होना आवश्यक है। ये दल संख्या में दो या दो से अधिक भी हो सकते हैं। निर्दलीय व्यवस्था के अन्तर्गत प्रजातन्त्र चले नहीं सकता। इसलिए प्रजातन्त्र में दलीय व्यवस्था अपरिहार्य है। राजनीतिक दल व्यक्तियों का एक संगठित समूह होता है जिसका राजनीतिक विषयों के सम्बन्ध में एक मत होना आवश्यक है। गिलक्रिस्ट के अनुसार, “राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है, जो एक-से राजनीतिक विचार रखता है और एक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर नियन्त्रण रखता है।”

दलों की अनिवार्यता–राजनीतिक दलों के मुख्य कार्य राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक समस्याओं के सम्बन्ध में अपने विचार निश्चित करके जनता के सामने रखना है। दल तद्नुसार विचार वे मान्यता रखने वाले प्रत्याशियों को चुनाव में खड़ा करते हैं। इस प्रकार विभिन्न राजनीतिक दल अपने आदर्श और उद्देश्यों के प्रति जनता को आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं।

इस प्रकार आधुनिक युग की प्रजातन्त्रीय पद्धति में राजनीतिक दलों का महत्त्व स्थापित हो जाता है। जो व्यक्ति चुनाव में चुन लिया जाता है, वह दल के नियन्त्रण में रहने के कारण मनमानी नहीं कर पाता। यदि दल का नेतृत्व योग्य और ईमानदार व्यक्ति के हाथों में होता है, तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि दुराचरण के कारण उसकी प्रतिष्ठा और जनप्रियता कम न हो। यह सत्य है कि निष्पक्ष, नि:स्वार्थ व योग्य व्यक्ति आजकल चुनाव लड़ना पसन्द नहीं करते। यह हमारे प्रजातन्त्र की बहुत बड़ी कमजोरी है। फिर भी इस वास्तविकता से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राजनीतिक दल प्रजातन्त्र के लिए अनिवार्य हैं।

दल द्वारा सरकार की रचना-चुनाव के बाद जिस दल के प्रत्याशी अधिक संख्या में निर्वाचित होकर संसद या विधानमण्डलों में पहुँचते हैं, वही दले मन्त्रिमण्डल बनाता है और शासन की बागडोर सँभालता है। यदि किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो दो या अधिक दल स्वीकृत न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर मिलकर मन्त्रिमण्डल बनाते हैं। शेष विरोधी पक्ष में रहकर सरकार की नीति और कार्यक्रम की समीक्षा करते हैं। यदि मन्त्रिमण्डल के सभी मन्त्री एक राजनीतिक दल के नहीं हों तो सरकार के विभिन्न विभागों के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकेगा और कोई दीर्घकालीन कार्यक्रम नहीं चल सकेगा। इसके विपरीत यदि किसी सुसंगठित दल के पास शासन-सत्ता हो तो वह आगामी चुनाव तक निश्चिन्त होकर शासन चला सकता है। शासक दल के सदस्य संसद के बाहर भी सरकार की नीतियों का स्पष्टीकरण करके निरन्तर जन-समर्थन प्राप्त करते रहते हैं।

विरोधी दल का महत्त्व-शासक दल के दूसरी ओर विरोधी पक्ष रहता है। जहाँ विरोधी पक्ष में एक से अधिक दल होते हैं, वहाँ अधिक सदस्यों वाले दल का नेता या अन्य कोई व्यक्ति जिसके विषय में सभी दलों की सहमति हो जाए विरोधी पक्ष का नेता चुन लिया जाता है। वास्तव में संसदीय प्रजातन्त्र में विरोधी पक्ष का बड़ा महत्त्व होता है। विरोधी पक्ष सरकार की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखता है। कोई भी प्रस्ताव या विधेयक बिना वाद-विवाद के पारित नहीं हो सकता। स्थगन-प्रस्तावों, निन्दा-प्रस्तावों और अविश्वास-प्रस्तावों के भय से शासक दल मनमानी नहीं कर सकता और सदा सतर्क रहता है। यदि विरोधी पक्ष बिल्कुल ही न रहे या अति दुर्बल व अशक्त हो तो सरकार निरंकुश हो सकती है तथा सत्तारूढ़ दल जनमत की अवहेलना करे सकता है।

राजनीतिक दलों की उपयोगिता–राजनीतिक दल जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने का कार्य करते हैं। वे सरकार द्वारा किये गये कार्यों का औचित्य व त्रुटियाँ जनता को बतलाते हैं। जनता एक प्रकार से विरोधी दलों के लिए अदालत का कार्य करती है। उसके सामने शासक दल और विरोधी दल अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं और फिर उससे आगामी चुनाव में निर्णय माँगते हैं। विभिन्न दलों के तर्क-वितर्क सुनकर जनता भी राजनीतिक परिपक्वता प्राप्त करती है। इस प्रकार जन-शिक्षा और जन-जागृति के लिए राजनीतिक दलों का बड़ा महत्त्व है।

भारत में लोकतन्त्र की सफलता-अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन कैनेडी के अनुसार, “लोकतन्त्र में एक मतदाता का अज्ञान सबकी सुरक्षा को संकट में डाल देता है।” हम जानते हैं कि भारत के लगभग आधे मतदाता अशिक्षित हैं और वोट’ के महत्त्व से अपरिचित हैं। ऐसी स्थिति भारत की लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली पर निश्चित रूप से प्रश्न-चिह्न लगाती है।

आज भारतीय लोकतन्त्र उठा-पटक की स्थिति से गुजर रहा है। वह देश जिसने लोकतन्त्र के चिराग को प्रज्वलित कर तृतीय विश्व के देशों को आलोकित करने की आशा का संचार किया था, आज उसके चिराग की रोशनी स्वयं मद्धिम होती जा रही है। राष्ट्र की छवि दिनानुदिन धूमिल पड़ती जा रही है तथा राजनीतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। कह सकते हैं कि भारतीय लोकतन्त्र संक्रमण की स्थिति से गुजर रहा है।

लोकतन्त्र के चार आधार-स्तम्भ होते हैं–विधायिकी, न्यायपालिका, कार्यपालिका और समाचारपत्र। वर्तमान में संसद और विधानसभाओं में हाथा-पायी, गाली-गलौज, एक-दूसरे पर अश्लील आरोप आदि होते हैं तथा जनता के प्रतिनिधि जनता का विश्वास खोते रहे हैं। सन् 1967 के चुनावों के बाद त्यागी, योग्य, ईमानदार एवं चरित्रवान् व्यक्तियों को कम ही चुना जा सका है। निर्वाचित सदस्य जन-कल्याण की भावना से दूर रहे हैं तथा भारतीय राजनीति का अपराधीकरण हुआ है। फलतः लोकतान्त्रिक मूल्यों को आघात पहुंचा है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता लोकतन्त्र में अनिवार्य है। आज भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति, उनके स्थानान्तरण, पदोन्नति आदि में जिस प्रकार की नीति का परिचय दिया जाता है उससे न्यायपालिका के चरित्र को आघात पहुँचा है। दूसरी ओर लाखों मुकदमे न्यायालयों में न्याय की आशा में लम्बित पड़े हुए हैं। ग्लैडस्टन के मतानुसार, “Justice delayed is justice denied” अर्थात् विलम्बित न्याय न्याय से वंचित करना है। ऐसी स्थिति में भारत में लोकतन्त्र की सफलता कैसे मानी जा सकती है ?

भारत में लोकतन्त्र की जड़े खोदने का कार्य करती है-कार्यपालिका। प्रशासन की सुस्ती, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, शीघ्र निर्णय न लेना, अधिकारियों का आमोद-प्रमोद में डूबे रहना, स्वच्छन्द प्रवृत्ति के लोगों का प्रशासन में घुस आना, देश में आतंकवाद और अराजकता को रोकने के लिए ठोस कदम ने उठाना, गरीबी और बेराजगारी पर नियन्त्रण न कर पाना प्रशासन की असफलता के द्योतक हैं। ऐसे प्रशासन से तो लोकतन्त्र की सफलता की क्या कल्पना की जा सकती है ?

लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ है–समाचार-पत्र; अर्थात् लोकतन्त्र की रीढ़ है–विचारों की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति। आज इस पर भी अनेक नाजायज विधानों द्वारा इनके मनोबल को तोड़ा जाता है। ऐसे में भारत में लोकतन्त्र की सफलता पर प्रश्न-चिह्न लगना स्वाभाविक है।

उपसंहार-आवश्यकता है कि भारत में सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन लाया जाए तथा दिनानुदिन गिरते हुए राष्ट्रीय चरित्र को बचाया जाए। राष्ट्रीय भावना का दिनोदिन ह्रास होता जा रहा है, इसे उन्नत किया जाना चाहिए। मन्त्रिमण्डलीय अधिनायक तन्त्र, दल-बदल की संक्रामकता, केन्द्र-राज्य में बिगड़ते सम्बन्ध, सांसदों का गिरता हुआ नैतिक स्तर तथा प्रान्तीय पृथकतावाद को समाप्त करना होगा। समस्त नागरिकों को आर्थिक व सामाजिक न्याय उपलब्ध कराना होगा। लोकतन्त्र में शासन-सत्ता वस्तुतः सेवा का साधन समझी जानी चाहिए। लोकतन्त्र की सफलता के लिए नेताओं एवं शासकों में लोक-कल्याण की भावना का होना आवश्यक है। यद्यपि लोकतन्त्र में पक्ष-विपक्ष की भावना मैं और मेरा, तू और तेरा’ की भाव-धारा को जन्म देती है तथापि पक्षों का होना भी एक अपरिहार्य आवश्यकता है। यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि मतभेद व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और वैमनस्य का रूप न ग्रहण कर लें।

यदि उपर्युक्त बातें पूरी होती रहें तो कोई भी झोंका भारतीय लोकतन्त्र को हिला नहीं सकता; क्योंकि कोई भी व्यवस्था यदि जन-आकांक्षाओं की पूर्ति करती है तो उस व्यवस्था के प्रति लोगों की आशाएँ खण्डित नहीं होतीं।।

प्रजातन्त्र में दलों का होना अति आवश्यक है। राजनीतिक दल चाहे शासक के रूप में हों या विरोधी पक्ष के रूप में, उनसे जनता का हित-साधन ही होता है, किन्तु बरसाती मेंढकों की तरह राजनीतिक दलों का बढ़ना देश के लिए अहितकर और विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। इससे फूट, द्वेष, हिंसा, कलह आदि बढ़ते हैं और देश में कोई रचनात्मक व अभ्युदय कार्यक्रम नहीं हो पाते। अतः हमारे देश में भी इंग्लैण्ड की तरह द्विदल प्रणाली विकसित हो सके तो वह दिन सौभाग्य व खुशहाली का दिन होगा।

विद्यार्थी और राजनीति [2009, 11]

सम्बद्ध शीर्षक

  • वर्तमान राजनीति में विद्यार्थियों की सहभागिता
  • वर्तमान छात्रसंघ चुनाव : दशा एवं दिशा
  • वर्तमान राजनीति में युवकों की भूमिका [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्र भारत में विद्यार्थी का दायित्व,
  3. विद्यार्थी से अपेक्षाएँ,
  4. लोकतन्त्र में राजनीति का महत्त्व,
  5. सक्रिय राजनीति में भाग लेने से हानियाँ,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-‘विद्यार्थी का अर्थ है ‘विद्या का अर्थी’; अर्थात् विद्या की चाह रखने वाला। इस प्रकार विद्यार्जन को ही मुख्य लक्ष्य बनाकर चलने वाला अध्येता विद्यार्थी कहलाता है। जिस प्रकार चर्मचक्षुओं के बिना मनुष्य अपने चारों ओर के स्थूल जगत् को नहीं देख पाता, उसी प्रकार विद्यारूपी ज्ञानमय नेत्रों के बिना वह अपने वास्तविक स्वरूप को भी नहीं पहचान सकता और अपने जीवन को सफल नहीं बना सकता। इसी कारण विद्याध्ययन का समय अत्यधिक पवित्र समय माना गया है; क्योंकि मानव अपने शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक जीवन की आधारशिला इसी समय रखता है। विद्याध्ययन एक तपस्या है और तपस्या बिना समाधि के, बिना चित्त की एकाग्रता के सम्भव नहीं। इसलिए विद्यार्थी अन्तर्मुखी होकर ही विद्यार्जन कर सकता है। दूसरी ओर, राजनीति पूर्णत: बहिर्मुखी विषय है। तब विद्यार्थी और राजनीति का परस्पर क्या सम्बन्ध हो सकता है ? इस पर विचार अपेक्षित है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि आज राजनीति का राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इतना बोलबाला है कि कोई समझदार व्यक्ति चाहकर भी उससे सर्वथा असम्पृक्त नहीं रह सकता।

स्वतन्त्र भारत में विद्यार्थी का दायित्व–स्वतन्त्रता से पहले प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक ही अभिलाषा थी कि किसी भी प्रकार देश को विदेशी शासन से मुक्त कराया जाए। इसके लिए प्रौढ़ नेताओं तक ने विद्यार्थियों से सहयोग की माँग की और सन् 1942 ई० के आन्दोलन में न जाने कितने होनहार युवक-युवतियों ने विद्यालयों का बहिष्कार कर और क्रान्तिकारी बनकर देश के लिए असह्य यातनाएँ झेली और हँसते-हँसते अपना जीवन भारतमाता की बलिवेदी पर अर्पण कर दिया। वह एक असामान्य समय था, आपातु काले था, जिसमें उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय का विचार नहीं था। पर देश के स्वतन्त्र होने के बाद विद्यार्थियों पर राष्ट्र-निर्माण का गुरुतर दायित्व आ पड़ा है; क्योंकि युवक ही किसी देश के भावी भाग्य-विधाता होते हैं। वृद्धजने तो केवल दिशा-निर्देश दे सकते हैं, किन्तु उन निर्देशों को क्रियान्वित करने की क्षमता पौरुषसम्पन्न युवाओं में ही निहित होती है।।

विद्यार्थी से अपेक्षाएँ-मनुष्य का प्रारम्भिक जीवन ज्ञानार्जन के लिए होता है, जब कि वह अपनी शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियों को अधिक-से-अधिक विकसित और परिपुष्ट कर अपने परिवार और समाज की सेवा के लिए स्वयं को तैयार करता है। इस समय विद्यार्थी विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। आज का विद्यार्थी निश्चित ही कल का नागरिक और नेता होगा, परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह समय राजनीति तथा अन्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने का है, उन्हें प्रयोग में लाने का नहीं।

सुयोग्य विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह अपने देश की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उनकी पूर्ति के लिए स्वयं को ढाले। इसके लिए सबसे पहले उसे अपने देश के भूगोल, इतिहास और संस्कृति से भली-भाँति परिचित होना आवश्यक है; क्योंकि बिना अपने देश की मिट्टी से जुड़े, उसकी उपलब्धियों और अभावों, क्षमताओं और दुर्बलताओं को गहराई से समझे कोई व्यक्ति देश का सच्चा हित-साधन नहीं कर सकता। आज हमारा देश अनेक बातों में विदेशी तकनीक पर निर्भर है। किसी स्वतन्त्र देश के लिए यह स्थिति कदापि वांछनीय नहीं कही जा सकती। विद्यार्थी वैज्ञानिक, औद्योगिक एवं हस्तशिल्प आदि का उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त कर इस स्थिति को सुधार सकते हैं। इसी प्रकार समाज के सामने मुँह खोले खड़ी अनेक समस्याओं; जैसे—अन्धविश्वास, रूढ़िग्रस्तता, अशिक्षा, महँगाई, भ्रष्टाचार, दहेज-प्रथा आदि के उन्मूलन में भी वे अपना मूल्यवान योगदान कर सकते हैं।

लोकतन्त्र में राजनीति का महत्त्व-अन्यान्य विषयों के साथ विद्यार्थी को राजनीति का भी ज्ञान प्राप्त करना उचित है; क्योंकि वर्तमान युग में राजनीति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर छा गयी है। यद्यपि यह स्थिति सुखद नहीं कही जा सकती, परन्तु वास्तविकता से मुँह मोड़ना भी समझदारी नहीं है। सबसे पहले तो विद्यार्थी को अपने अधिकारों और कर्तव्यों का सम्यक् ज्ञान होना चाहिए। साथ ही उसे संसार में प्रचलित विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का गम्भीर तुलनात्मक अध्ययन करके उनके अपेक्षित गुणावगुण की परीक्षा करना तथा अपने देश की दृष्टि में उनमें से कौन-से विचार कल्याणकारी सिद्ध हो सकते हैं। इस पर गम्भीर चिन्तन-मनन करना वांछनीय है।

लोकतन्त्र में निर्वाचन प्रणाली द्वारा शासन-तन्त्र का गठन होता है। लोकतन्त्र में शासक दल का चुनाव जनता करती है, इसलिए जनता का सुशिक्षित होना, अपने मत की शक्ति को पहचानना और देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, लोभ, भय आदि को मन में स्थान न दे देश के भावी कर्णधारों का चुनाव करना लोकतन्त्र की सफलता का बीजमन्त्र है। विद्यार्थियों को इस दिशा में शिक्षित करना चाहिए। आज कोई देश अपने में सिमटकर संसार से अलग-थलग होकर नहीं रह सकता। वर्तमान युग में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की लपेट में छोटे-बड़े सभी देश आते हैं, इसलिए विद्यार्थी को भी चाहिए कि वह विश्व में घटने वाली घटनाओं पर बारीकी से नजर रख अपने देश पर पड़ने वाले उसके सम्भावित प्रभावों का भी आकलन करे। ऐसा विद्यार्थी ही आगे चलकर अपने देश का सच्चा पथ-प्रदर्शक बन सकता है। इससे सिद्ध होता है कि विद्यार्जन का काल ज्ञान-संचय का काल है, अर्जित ज्ञान को क्रियात्मक रूप देने का नहीं।

सक्रिय राजनीति में भाग लेने से हानियाँ–सक्रिय राजनीति में भाग लेने से विद्यार्थी को सबसे पहली हानि तो यही होती है कि उसका शैक्षणिक ज्ञान अधूरा रह जाता है। अधकचरे ज्ञान को लेकर कोई व्यक्ति जनता को योग्य दिशा नहीं दे सकता। छात्रावस्था भोलेपन, आदर्शवाद और भावुकता की होती है। उस समय व्यक्ति में जोश तो होता है, पर होश नहीं होता। अनेक विद्यार्थी ऐसे हैं, जो कि राजनीतिक क्षेत्र में तो उतरे किन्तु राजनीति में न पड़कर अपराधी प्रवृत्ति में पड़ गये। राजनीति वस्तुत: अधिकार, पद एवं सत्ता की अन्धी दौड़ है। नि:सन्देह ये कलुषित प्रवृत्तियाँ हैं जिनका दुष्परिणाम कॉलेजों में होने वाली दादागिरी, हिंसा व अन्य छात्र-उत्पीड़न के रूप में कई बार हमारे सम्मुख आ चुका है।

दूसरों के नेतृत्व का गुण अत्यन्त विरल होता है, किन्तु आधुनिक राजनीति में बलपूर्वक दूसरों को अपना अनुगामी बनाया जाता है। यह अस्वस्थ दूषित मनोवृत्ति सम्पूर्ण परिवेश को विषाक्त कर देती है। विद्यालय व महाविद्यालय का पवित्र परिवेश राजनीति की पदचाप से मलिन हो उठता है। इस प्रकार न केवल विद्यार्थी का जीवन नष्ट हो जाता है, अपितु राष्ट्र को भी अपूरणीय क्षति पहुँचती है; क्योंकि वह अपने एक अत्यधिक उपयोगी घटक की क्षमताओं को अपने विकास के लिए उपयोग होने की बजाय, अपने हित के विरुद्ध प्रयोग होते देखता है। कश्मीर का ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है, जहाँ युवक सक्रिय राजनीति की कुटिलता में फँसकर राष्ट्रहित के स्थान पर राष्ट्रध्वंस करने एवं राष्ट्र के घोर शत्रुओं का मनोरथ पूरा करने में लगे हैं।

अत: विद्यार्थी और राष्ट्र दोनों का हित इसी में है कि विद्यार्थी सच्चे अर्थों में विद्या का अर्थी ही बना रहकर अपने सर्वांगीण विकास द्वारा अपनी और राष्ट्र की सेवाओं के लिए स्वयं को तैयार करे।

उपसंहार-निष्कर्ष यह है कि विद्यार्थी का मुख्य कार्य विद्यार्जन द्वारा अपने भावी जीवनव्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय को सफल बनाने की तैयारी करना है। वर्तमान युग में राजनीति के व्यापक प्रभाव को देखते हुए विद्यार्थी को उसका भी विभिन्न कोणों से गहरा सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करना उचित है, पर क्रियात्मक राजनीति से दूर रहने में ही उसका और राष्ट्र का कल्याण है। उसे अपने कर्तव्य को समझना चाहिए और लक्ष्य पर दृष्टि जमानी चाहिए। राजनीति के कण्टकाकीर्ण पथ पर पैर रखना अभी उसके लिए उचित नहीं है।

लोकतन्त्र और समाचार-पत्र

सम्बद्ध शीर्षक

  • आज के युग में समाचार-पत्रों का महत्त्व
  • समाचार-पत्र और वर्तमान जीवन
  • समाचार-पत्रों की उपयोगिता [2011]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. लोकतन्त्र में समाचार-पत्रों की भूमिका (क) राजनीतिक भूमिका; (ख) सामाजिक भूमिका; (ग) आर्थिक भूमिका,
  3. समाचार-पत्रों के लाभ (क) शिक्षा के प्रसार में सहायक; (ख) साहित्यिक उन्नति; (ग) व्यापार में सहायक; (घ) मनोरंजन के साधन,
  4. समाचार पत्रों से हानिया,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-‘लोकतन्त्र’ का अर्थ है ‘लोक का तन्त्र’ अर्थात् ‘जनता द्वारा शासन’। भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के शब्दों में, “लोकतन्त्र जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है” (Democracy is the government of the people, for the people, by the people)। इस प्रकार लोकतन्त्र में जनता ही सर्वेसर्वा होती है, अर्थात् अपनी भाग्यविधाता आप होती है। सारा जनसमुदाय प्रत्यक्ष रूप से शासन नहीं कर सकता, इसलिए वह एक निश्चित संख्या में अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजता है, जो पारस्परिक सहयोग से देश के लिए हितकारी कानून बनाते हैं। इस प्रकार किसी देश एवं उसमें रहने वाले जनसमुदाय की उन्नति या अवनति उसके द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों की योग्यता एवं प्रामाणिकता पर निर्भर करती है। अतः लोकतन्त्र में यह नितान्त वांछनीय है कि प्रतिनिधियों का चुनाव बहुत सोच-समझकर उनकी क्षमता के आधार पर किया जाए। इसके लिए जनता का शिक्षित और ज्वलन्त देशभक्ति से सम्पन्न होना नितान्त आवश्यक है।

दुर्भाग्यवश हमारे देश की अधिकांश जनता अशिक्षित या अर्द्ध-शिक्षित है, इसीलिए उसे लोकतन्त्र की आवश्यकताओं की दृष्टि से यथासम्भव शिक्षित करना प्राथमिक आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के दायित्व के गुरुतर भार को सर्वाधिक कुशलता से उठाने की क्षमता एकमात्र समाचार-पत्रों में ही है, क्योंकि समाचारपत्र प्रतिदिन धनी-निर्धन सभी तक पहुँचते हैं।

लोकतन्त्र में समाचार-पत्रों की भूमिका–लोकतन्त्र में समाचार-पत्रों की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका जनता को शिक्षित करने में है। इस भूमिका पर निम्नलिखित तीन दृष्टियों से विचार किया जा सकता है|
(क) राजनीतिक भूमिका-लोकतन्त्र में निर्वाचन का सर्वाधिक महत्त्व है; क्योंकि उसी पर देश का भविष्य निर्भर करता है। समाचार-पत्र विभिन्न राजनीतिक दलों की घोषित नीतियों, उनके द्वारा चुनाव में पार्टी-टिकट पर खड़े किये गये प्रत्याशियों या निर्दलीय रूप में खड़े व्यक्तियों की योग्यता एवं पृष्ठभूमि का विस्तृत परिचय, चुनाव की प्रणाली एवं प्रक्रिया आदि का विवरण तथा विभिन्न नेताओं और प्रत्याशियों के भाषण आदि देकर जनता को शिक्षित करते हैं। इससे मतदाताओं को योग्य प्रत्याशी के चयन में सुविधा होती है।

सरकार बन जाने पर उसके कार्यकलाप एवं विरोधी दलों द्वारा उसकी समय-समय पर की जाने वाली आलोचनाओं, शासन की गतिविधियों एवं उसके द्वारा उठाये गये कदमों के औचित्य-अनौचित्य का पता समाचार-पत्रों के द्वारा चलता रहता है। साथ ही सम्पादक के नाम पत्रों, अग्रलेखों एवं देश के विभिन्न अंचलों में बसे प्रबुद्धजनों के मन्तव्यों से सरकारी गतिविधियों के विषय में जनता की प्रतिक्रिया का पता चलता है, जिससे स्वस्थ जनमत का विकास होता है और जनता सरकार पर दबाव डालकर उसे गलत कार्य करने से रोकती है। यदि सरकार लोक-विरोधी कार्य करती है तो मतदाता उसे अगले चुनाव में अपदस्थ करने का निर्णय ले सकते हैं। इससे शासक-वर्ग लोकमत की अवहेलना करने का साहस नहीं कर पाता।

जनता शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों, आन्दोलनों एवं स्मरण-पत्रों द्वारा भी सरकार को अपने मत से अवगत कराकर उसकी देश या समाज-विरोधी गतिविधियों का विरोध करती है या अपनी उचित माँगें मनवाने के लिए दबाव डालती है। इस सबके समाचार भी समाचार-पत्रों में बराबर छपते रहते हैं, जिससे माँग के पक्ष या विपक्ष में जनमत के अधिक सुसंगठित होने में सुविधा होती है। | इसके अतिरिक्त समाचार-पत्रों में देश-विदेश की घटनाएँ एवं अपने देश पर पड़ने वाले उसके सम्भावित प्रभावों आदि का विवरण भी छपता रहता है, जिससे जनता को विश्व के विभिन्न देशों की आन्तरिक और बाह्य स्थिति तथा अपने देश के प्रति उनके मैत्री या शत्रुतापूर्ण रवैये की जानकारी भी मिलती रहती है। दैनन्दिन समाचारों के अतिरिक्त समाचार-पत्रों में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के विषय में सुयोग्य विद्वानों के समीक्षात्मक लेख, परिचर्चा आदि भी छपते रहते हैं, जिससे जनता को विभिन्न घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की दिशा मिलती है।

विज्ञजनों के अनुसार लोकतन्त्र की सफलता जनता की सतत जागरूकता पर निर्भर रहती है। यदि जनता अपने चुने प्रतिनिधियों पर प्रत्येक समय कड़ी नजर नहीं रखती तो शासकों के स्वेच्छाचारी या निरंकुश हो जाने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की वाटरगेट काण्ड में लिप्तता को उजागर करने का श्रेय यदि वहाँ के राष्ट्रनिष्ठ समाचार-पत्रों को है तो निक्सन को उसके पद से अविलम्ब हटवाने का श्रेय वहाँ की सतत जागरूक जनता को। ऐसे ही देश में लोकतन्त्र सफल होता है।

किन्तु भारत में लोकतन्त्र एक मजाक बनकर रह गया है। इसका एक कारण तो यह है कि यहाँ के समाचार-पत्र अपना दायित्व पूर्ण निष्ठा से नहीं निभा पाते। जो थोड़े-बहुत स्वलन्त्र विचारों के राष्ट्रनिष्ठ पत्र हैं। भी, वे सरकार द्वारा बुरी तरह नियन्त्रित और प्रताड़ित हैं। जब तक समाचार-पत्र निर्भीकतापूर्वक शासक-दल की राष्ट्रघातक नीतियों का भण्डाफोड़ नहीं करेंगे, जनता को यह नहीं सिखाएँगे कि लोकतन्त्र में राष्ट्र ही सर्वोपरि होता है, व्यक्ति नहीं; तब तक लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता और सत्ताधारी स्वेच्छाचारी बनते रहेंगे। समाचार-पत्रों के माध्यम से भारत की अधिकतर अशिक्षित जनता को इस सम्बन्ध में जागरूक बनाकर ही उसे लोकतन्त्र में सफल बनाया जा सकता है।

(ख) सामाजिक भूमिका–समाचार-पत्रों की सामाजिक भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं, अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों का भण्डाफोड़ कर समाचार-पत्र इन बुराइयों को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देकर समाज-सुधार का पथ प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार के विभिन्न प्रकार के अपराधों में संलग्न व्यक्तियों के कारनामे उजागर कर एक ओर जनता को सावधान करते हैं तो दूसरी ओर सरकार द्वारा उनकी रोकथाम में भी सहायक सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, भ्रष्टाचार, शोषण, अनाचार, अत्याचार आदि के विरुद्ध प्रबल जनमत जगाने में भी समाचार-पत्रों की भूमिका उल्लेखनीय रही है।

(ग) आर्थिक भूमिका-समाचार-पत्र देश के अर्थतन्त्र को पुष्ट करने में पर्याप्त सहयोग देते हैं। इसके लिए दैनिक समाचार-पत्रों में एक पृष्ठ व्यापार से सम्बन्धित होता है। आयात-निर्यात के समाचार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की वृद्धि में सहायक होते हैं। अनेक जीवनोपयोगी वस्तुओं के विज्ञापन एवं पते भी समाचार-पत्रों में प्रकाशित होते हैं, जिनसे क्रेता-विक्रेता दोनों को लाभ प्राप्त होता है। सरकार की आर्थिक नीतियों या प्रस्तावित कानूनों आदि की पूर्वसूचना देकर समाचार-पत्र जनता को उनका समर्थन या विरोध करने या संशोधन कराने की प्रेरणा देते हैं। इस प्रकार समाचार-पत्र सरकार, व्यापारी वर्ग एवं जनता के मध्य आर्थिक समाचारों के वाहक एवं समीक्षक के रूप में देश के आर्थिक ढाँचे को सुदृढ़ बनाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

समाचार-पत्रों के लाभ-समाचार-पत्रों से मुख्य रूप से निम्नलिखित लाभ होते हैं
(क) शिक्षा के प्रसार में सहायक-समाचार-पत्रों में समाचार के अतिरिक्त ऐसे गहन विषयों पर प्रकाश डाला जाता है, जिनके अध्ययन से हमें ज्ञान-विज्ञान से सम्बद्ध अनेक बातें मालूम होती रहती हैं। अल्प शिक्षित लोगों के ज्ञान को बढ़ाने में समाचार-पत्रों का विशेष योगदान होता है। समाचार-पत्रों द्वारा सर्वसाधारण के बीच भी शिक्षा के प्रसार में अधिक सहायता मिलती है। उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को भी समाचार-पत्रों में नित्य नये-नये तत्त्वों, नये-नये विचारों और आविष्कारों की अनेक तथ्ययुक्त बातें पढ़ने को मिलती हैं, जिनसे उन्हें अपने ज्ञान-विस्तार का सुअवसर प्राप्त होता है।

(ख) साहित्यिक उन्नति-समाचार-पत्रों के प्रकाशन से साहित्यिक क्षेत्र में भी बहुत विकास हुआ है। आज समाचार-पत्रों में विशेष रूप से साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाओं में अनेक कहानियाँ, निबन्ध, महापुरुषों की जीवनी, लेख, एकांकी व नाटक प्रकाशित होते हैं, जिनसे साहित्य की उन्नति में पर्याप्त सहायता मिलती है।

(ग) व्यापार में सहायक-व्यापारिक उन्नति में भी समाचार-पत्र बहुत सहायक होते हैं। समाचार-पत्रों में अनेक वस्तुओं के विज्ञापन छपते हैं, जिनसे उनका प्रचार होता है और बाजार में उनकी माँग बढ़ती है।

(घ) मनोरंजन के साधन–समाचार-पत्र मनोरंजन का भी अच्छा साधन हैं। समाचार-पत्रों से हम विश्राम के समय कविताएँ, निबन्ध और कहानियाँ पढ़कर अपना मनोरंजन करते हैं।

समाचार-पत्रों से हानियाँ–समाचार-पत्र जब व्यापक देशहित को भुलाकर किसी राजनीतिक दल, पूँजीपति, सम्प्रदाय विशेष या सरकार के हाथ का खिलौना बन जाते हैं तो उनसे भयंकर हानि होती है; क्योंकि प्रतिदिन लाखों लोगों तक पहुँचने के कारण ये प्रचार का सबसे प्रबल साधन हैं। ऐसे समाचार-पत्रों में जो समाचार या सूचनाएँ प्रकाशित होती हैं, वे मुख्यतः अपने स्वामी की स्वार्थ-सिद्धि को दृष्टि में रखने से पक्षपातपूर्ण और संकुचित होती हैं। बहुत-से समाचार-पत्र अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए झूठी अफवाहें, निराधार एवं सनसनीपूर्ण समाचार, अभिनेत्रियों और मॉडल गर्ल्स के अश्लील चित्र प्रकाशित कर अनैतिकता को प्रोत्साहित करते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश में बहुत-से दंगे-झगड़े और साम्प्रदायिक उपद्रव समाचार-पत्रों द्वारा ही प्रोत्साहित किये गये। इस प्रकार के जातिगत, साम्प्रदायिक एवं प्रादेशिक विचार राष्ट्रीय एकता में बाधक सिद्ध होते हैं। कुछ समाचार-पत्र यदि सरकारी नीतियों का विवेचन कर जनता को वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ रखकर देश का बड़ा अहित करते हैं तो कुछ सरकार की सही नीतियों की भी अन्यायपूर्ण आलोचना कर जनता को भ्रमित करते हैं।

उपसंहार–वर्तमान युग में समाचार-पत्रों का महत्त्व असन्दिग्ध है। वे यदि देशहित को सर्वोपरि मानकर निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता का आदर्श अपनाएँ तो देश का महान् उपकार कर सकते हैं। समाचार-पत्रों को लोकतन्त्र के चार शक्ति-स्तम्भों में से एक माना गया है। समाचार-पत्र लोगों को कूप-मण्डूकता से उबारकर जागरूक बनाते हैं, जनमत का निर्माण करते हैं। निष्पक्ष समाचार-पत्र राष्ट्र के आर्थिक आधार को पुष्ट करने के साथ-साथ सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन करते हैं। वे न केवल देश के जनमत, अपितु विश्व-जनमत तक को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। सच तो यह है कि समाचार-पत्र लोकतन्त्र के सतत सजग प्रहरी हैं। उनके बिना आज स्वस्थ लोकतन्त्र की कल्पना तक नहीं की जा सकती।

आरक्षण की नीति एवं राजनीति [2009]

सम्बद्ध शीर्षक

  • आरक्षण : वरदान या अभिशाप [2011, 16, 17]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. भूमिका,
  2. आरक्षण का इतिहास,
  3. आरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान,
  4. आरक्षण के आधार,
  5. अखिल भारतीय स्तर पर आरक्षण,
  6. आरक्षण की नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता,
  7. उपसंहार

भूमिका--किसी सामाजिक समस्या के समाधान को जब राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना लिया जाता है, तब क्या होता है, इसका उदाहरण आरक्षण के रूप में हमारे सामने है। लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व देश के तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने देश के पिछड़े वर्गों के बारे में मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की थी। तब राजनीति के मण्डलीकरण ने सारे भारतीय समाज में हलचल मचा दी थी और देश दो वर्गों-अगड़े और पिछड़े-में बँट गया था। यह खाई इतने वर्षों में कुछ पटी थी कि अब केन्द्रीय मानव संसाधन मन्त्रालय के मुखिया द्वारा पुनः आरक्षण लागू करने का संकेत देकर इस खाई को और चौड़ा कर दिया है। अब वैसा ही एक बँटवारा पुनः दस्तक दे रहा है।

आरक्षण का इतिहास-सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था स्वतन्त्र भारत में नहीं, अपितु स्वतन्त्रता से पूर्व भी लागू थी। सन् 1919 के भारत सरकार अधिनियम लागू होने के बाद भारत के मुसलमानों ने सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की माँग की। मॉग के इस दबाव के कारण ब्रिटिश सरकार ने सरकारी नौकरियों में 33.5 प्रतिशत स्थान अल्पसंख्यक समुदाय के लिए आरक्षित कर दिये तथा इस व्यवस्था को 4 जुलाई, 1934 ई० को एक प्रस्ताव द्वारा निश्चित आकार प्रदान किया। अल्पसंख्यकों के लिए इस कोटे में मुसलमानों के लिए 25 प्रतिशत और एंग्लो-इण्डियन समुदाय के लिए 8% प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये; इसके अतिरिक्त अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए 6 प्रतिशत स्थानों को आरक्षित करने का प्रावधान था। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को दिया गया समस्त आरक्षण समाप्त कर दिया गया, लेकिन ऐंग्लो-इण्डियन समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था आगामी दस वर्ष के लिए जारी रखी गयी।

संविधान निर्माताओं ने सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था के लिए संस्तुति की। इस सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़े वर्गों में अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ और पिछड़ी जातियाँ सम्मिलित हैं। राष्ट्रपति ने सन् 1950 ई० में एक संवैधानिक आदेश जारी करके राज्यों एवं संघीय, क्षेत्रों में रहने वाली इस प्रकार की जातियों की एक अनुसूची जारी की। इन अनुसूचित जातियों और जनजातियों को प्रारम्भ में सरकारी नौकरियों में और लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में (ऐंग्लो-इण्डियन के लिए भी) प्रारम्भिक रूप से दस वर्ष के लिए आरक्षण प्रदान किया गया जिसे समय-समय पर निरन्तर रूप से आठवें (1950), तेईसवें (1970), पैंतालीसवें (1980), बासठवें (1989) एवं उन्नासीवें (1999) संविधान संशोधनों द्वारा 10-10 वर्ष के लिए बढ़ाया जाता रहा, जो अब 2020.ई० तक के लिए कर दिया गया है। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आरक्षण तत्कालीन भारतीय समाज की एक आवश्यकता था। सदियों से दबाये-कुचले गये दलित वर्ग को शेष समाज के समकक्ष लाने के लिए आरक्षण की बैसाखी आवश्यक थी। अब भी अन्य पिछड़े वर्गों को आगे लाने के लिए उन्हें कोई-न-कोई सहारा देना आवश्यक है।

आरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान-भारत के संविधान में समानता के मौलिक अधिकार के अन्तर्गत लोक-नियोजन में व्यक्ति को अवसर की समानता प्रदान की गयी है। अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के अवसर की समानता प्रदान की गयी है, लेकिन राज्य को यह अधिकार दिया गया है कि वह राज्य के पिछड़े हुए (पिछड़े वर्ग का तात्पर्य यहाँ सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग से है) नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों में आरक्षण के लिए व्यवस्था कर सकता है। सतहत्तरवें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16 में 4 (क) जोड़ा गया, जिसके द्वारा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के पक्ष में राज्य के अधीन सेवाओं में प्रोन्नति के लिए प्रावधान करने का अधिकार राज्य को प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 15 में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध किया गया है। अनुच्छेद 15 (4) राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष उपबन्ध करने का अधिकार प्रदान करता है।

अनुच्छेद 341 और 342 राष्ट्रपति को यह अधिकार देते हैं कि वह सम्बन्धित राज्य या संघ राज्य क्षेत्र में तत्सम्बन्धित राज्यपाल या उपराज्यपाल या प्रशासक से परामर्श करके लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों या उनके समूहों को अनुसूचित जाति के रूप में उस राज्य के लिए विनिर्दिष्ट कर सकेगा। इसी प्रकार राष्ट्रपति अनुसूचित जनजातियों या जनजातीय समुदायों या उनके कुछ भागों अथवा समूहों को तत्सम्बन्धित राज्य या संघ राज्य-क्षेत्र के लिए अनुसूचित जनजातियों के रूप में विनिर्दिष्ट कर सकता है। इस अनुसूची में संसद किसी को सम्मिलित या निष्कासित कर सकती है। अनुच्छेद 335 में संघ या राज्य की गतिविधियों से सम्बन्धित किसी पद या सेवा में नियुक्ति में प्रशासनिक कार्यकुशलता बनाये रखने के साथ-साथ अनुसूचित जातियों/जनजातियों के सदस्यों के दावों का लगातार ध्यान रखने की व्यवस्था है।

आरक्षण के लिए आधार–किसी वर्ग को आरक्षण प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि-

  1. वह वर्ग सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हो,
  2. इस वर्ग को राज्याधीन पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिल सका हो,
  3. कोई ‘जाति’ इस वर्ग में आ सकती है यदि उस जाति के 90% लोग सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हों।

विवाद का प्रमुख विषय यह रहा है कि कुल कितने प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया जा सकता है। संविधान में इस विषय पर कुछ नहीं लिखा गया है, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने सन् 1963 में यह निर्णय दिया कि कुल आरक्षण कुल रिक्तियों के पचास प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। मण्डल आयोग की संस्तुतियों को सन् 1991 में लागू करने पर इसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी। उच्चतम न्यायालय की विशेष संविधान पीठ ने उस समय भी यह निर्णय दिया कि कुल आरक्षण कुल रिक्तियों के पचास प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता।

अखिल भारतीय स्तर पर आरक्षण-अखिल भारतीय स्तर पर खुली प्रतियोगिता परीक्षा के द्वारा सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों में अनुसूचित जातियों के लिए 15% अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% और पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था है। खुली प्रतियोगिता को छोड़कर अन्य तरीके से अखिल भारतीय स्तर पर सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों में अनुसूचित जातियों के लिए 16.67%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% तथा पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण का प्रावधान है।
आरक्षण की नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता-आरक्षण देने के पीछे मूल भावना का दुरुपयोग यदि राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है तब इस विषय पर गम्भीर चिन्तन-मनन की आवश्यकता है। सामाजिक न्याय करते-करते अन्य वर्गों के साथ अन्याय न होता चला जाए, इसका ध्यान रखना भी अनिवार्य है। केवल आरक्षण ही सामाजिक न्याय दिला सकता है, यह सोचना गलत है। अत: आरक्षण के अतिरिक्त और कोई अन्य विकल्प खोजा जाना चाहिए जो सभी वर्गों की उन्नति करे और उन्हें न्याय प्रदान करे।

आरक्षण की व्यवस्था हमारी सामाजिक आवश्यकता थी और एक सीमा तक अब भी है, लेकिन हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि आरक्षण एक बैसाखी है, पाँव नहीं। यदि अपंगता स्थायी न हो तो डॉक्टर यथाशीघ्र बैसाखी का उपयोग बन्द करने की सलाह देते हैं और बैसाखी का उपयोग करने वाला भी यही चाहता है कि उसकी अपंगता का यह प्रतीक जल्दी-से-जल्दी छुटे। इस स्वाभाविक और नैसर्गिक सच्चाई को न मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने वालों ने समझना चाहा और न ही संविधान के 104वें संशोधन के अनुसार काम करने का दावा करने वाले वर्तमान में समझना चाह रहे हैं।

पिछड़ी जातियों का हमदर्द होना कतई गलत नहीं है, सामाजिक समरसता की एक बड़ी जरूरत है। यह। लेकिन हमदर्द होने और हमदर्द दिखाई देने में अन्तर होता है। इसी अन्तर के चलते न तो पन्द्रह साल पहले यह सोचा गया था और न ही आज यह सोचा जा रहा है कि ऐसा कोई भी कर्दम उठाते समय समाज के उन्नत समझे जाने वाले वर्गों की आशंकाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। सभी राजनीतिक दल आज पिछड़ी जातियों को यह समझाने में लगे हुए हैं कि केवल उन्हें ही उनके विकास की चिन्ता है, जब कि वास्तविकता यह है कि उनकी (राजनीतिक दलों) चिन्ता उनका (पिछड़ी जातियों) समर्थन जुटाने की है न कि उनका विकास करने की या न उनका हमदर्द बनने की। वास्तविक विकास तो सदैव अपने पैरों पर खड़ा होने-चलने-दौड़ने से होता है, न कि बैसाखी के सहारे घिसटने से।

उपसंहार-यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि जिनके हाथों में हमने देश की बागडोर सौंपी, उन्होंने पिछड़ी जातियों की शिक्षा और समाज को बेहतर बनाने की दिशा में कभी सोचा ही नहीं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि पिछली आधी सदी में उन्होंने इस बारे में क्या कोशिश की ? ऐसी किसी कोशिश को न होना एक अपराध है, जो हमारे नेतृत्व ने आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी के प्रति किया है। इसमें सन्देह नहीं कि इस काम में आपराधिक देरी हुई है, पर यह काम आज भी शुरू हो सकता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि पिछली आधी सदी में समाज को जोड़ने की ईमानदार कोशिश नहीं हुई। सत्ता की राजनीति का खेल खेलने वालों के पास निर्माण की राजनीति के लिए कभी समय ही नहीं रहा। धर्म, जाति, वर्ग सब उनकी सत्ता की राजनीति का हथियार बन कर रह गये।

आज आरक्षण से समाज के बँटने के खतरे बताये जा रहे हैं। समाज को तो हमने जातियों, वर्गों में पहले ही बाँट रखा है। समाज को जोड़ने का एक ही तरीका है, विकास की राह पर सब कदम मिलाकर चलें। विकास में सबकी समान भागीदारी हो। आरक्षण की व्यवस्था का विवेकशील क्रियान्वयन इस समान भागीदारी का एक माध्यम बन सकता है। यही समान भागीदारी हमें जोड़ेगी, मजबूत बनाएगी। आवश्यकता आरक्षण को सम्पूर्णत: नकारने की नहीं, उसे विवेकपूर्ण बनाने और सभी पक्षों द्वारा सीमित अवधि के साधन के रूप में स्वीकारने की है। | निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आरक्षण निश्चित रूप से हमारी एक सामाजिक आवश्यकता है। कोई भी सभ्य समाज अपने पिछड़े साथियों को आगे लाने के लिए, विकास की दौड़ में सहभागी बनाने के लिए ऐसी व्यवस्था का समर्थन ही करेगा; क्योंकि यह पिछड़े लोगों का अधिकार है और उन्नत लोगों का दायित्व। हाँ, यह भी जरूरी है कि बैसाखी को यथासमय फेंक देने की बात भी सबके दिमाग में रहे।

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UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 1

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 10
Subject Home Science
Model Paper Paper 1
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 1

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 70

निर्देश :
प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
सामान्य निर्देश :

  • सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  • प्रश्न-पत्र में बहुविकल्पीय, अतिलघु उत्तरीय, लघु उत्तरीय और दीर्घ उत्तरीय चार प्रकार के प्रश्न हैं। उनके उत्तर हेतु निर्देश प्रत्येक प्रकार के प्रश्न के पहले दिए गए हैं।

निर्देश :
प्रश्न संख्या 1 तथा 2 बहुविकल्पीय हैं। निम्नलिखित प्रश्नों में प्रत्येक के चार-चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। उनमें से सही विकल्प चुनकर उन्हें
क्रमवार अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए।

प्रश्न 1.
(क) बी सी जी का टीका किस रोग की रोकथाम के लिए लगाया जाता है?  [ 1 ]
1. कर्णफेर
2. तपेदिक
3. मलेरिया
4. पोलियो

(ख) गोंद के कलफ का प्रयोग किन कपड़ों पर किया जाता है? [ 1 ]
1. ऊनी वस्त्रों पर
2. रेशमी वस्त्रों पर
3. सूती वस्त्रों पर
4. रंगीन वस्त्रों पर

(ग) रिंग कुशन का प्रयोग कब किया जाता है?  [ 1 ]
1. सर्दी लगने पर
2. हैजा होने पर
3. मोच आने पर
4. शैय्या घाव होने पर

(घ) दूध मापने की इकाई क्या है?  [ 1 ]
1. मिलीलीटर, लीटर
2. किलोग्राम, ग्राम
3. सेण्टीमीटर, मीटर
4. इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 2.
(क) ‘वरिष्ठ नागरिक जमा योजना’ खाता खोला जाता है। [ 1 ]
1. 60 वर्ष के उपरान्त
2. 69 वर्ष के पूर्व
3. 50 वर्ष से पूर्व
4. 21 वर्ष के बाद

(ख) अचल जोड़ कहाँ पाया जाता है? [ 1 ]
1. कोहनी
2. खोपड़ी
3. घुटने
4. कलाई

(ग) गर्म पानी की बोतल का प्रयोग किया जाता है। [ 1 ]
1. पेट दर्द में
2. मोच आने पर
3. घाव में
4. इनमें से कोई नहीं

(घ) लौह-तत्त्व की कमी से कौन-सा रोग हो जाता है? [ 1 ]
1. बेरी-बेरी
2. मरास्मस
3. एनीमिया
4. तपेदिक

निर्देश :
प्रश्न संख्या 3 तथा 4 अतिलघु उत्तरीय हैं। प्रत्येक खण्ड का उत्तर अधिकतम 25 शब्दों में लिखिए।

प्रश्न 3.
(क) हैजा रोग किस जीवाणु से फैलता है। इसके बचाव के कोई दो उपाय लिखिए। [ 2 ]
(ख) राम ने एक दर्जन केला ₹ 10 में खरीदा तथा ₹ 12 में बेचा। बताइए। क उसे कितने प्रतिशत लाभ हुआ? [ 2 ]
(ग) बजट सम्बन्धी एंजिल का सिद्धान्त क्या है? [ 2 ]
(घ) शुद्ध जल का क्या आवश्यक गुण है? [ 2 ]
(ङ) कब्ज के रोगी के आहार में मुख्यतया किन भोज्य पदार्थों का समावेश होना चाहिए? [ 2 ]

प्रश्न 4.
(क) ओवन क्या है? इसकी देखभाल आप कैसे करेंगी। [ 2 ]
(ख) कपड़े पर निशान लगाने के लिए किस चॉक का प्रयोग करते हैं और क्यों? [ 2 ]
(ग) वस्त्र की ड्राफ्टिंग करने से क्या लाभ होता है? [ 2 ]
(घ) पाक क्रिया के मुख्य उद्देश्य क्या हैं? [ 2 ]
(ङ) कंकाल तन्त्र की क्या उपयोगिता है? [ 2 ]

निर्देश :
प्रश्न संख्या 5 से 7 तक लघु उत्तरीय हैं, इसके प्रत्येक खण्ड का उत्तर 50 शब्दों के अन्तर्गत लिखिए।

प्रश्न 5.
(क) बैंक के बचत खाते तथा चालू खाते में क्या अन्तर है? [ 2 + 2 ]
अथवा
पारिवारिक बजट बनाने के लाभों का उल्लेख कीजिए। [ 4 ]

(ख) अधिक धन के खर्च के बिना घर की सजावट कैसे कर सकते हैं? उल्लेख कीजिए। [ 2 + 2 ]
अथवा
गृह सज्जा में लकड़ी के फर्नीचर की देखभाल एवं सफाई के बारे में लिखिए। [ 4 ]

प्रश्न 6.
(क) गृह-गणित का ज्ञान होना गृहिणी के लिए क्यों आवश्यक है? [ 2 + 2 ]
अथवा
शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 2 ]

(ख) पेचिश तथा अतिसार में क्या अन्तर है? [ 2 + 2 ]
अथवा
पर्यावरण संरक्षण के लिए जनता को कैसे जागरूक किया जा सकता है? [ 2 + 2 ]

प्रश्न 7.
(क) पर्यावरण प्रदूषण जनजीवन को कैसे प्रभावित करता है? [ 2 + 2 ]
अथवा
रोग-प्रतिरोधक क्षमता से क्या तात्पर्य है? रोग-प्रतिरक्षा के प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [ 2 + 2 ]

(ख) ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों का रख-रखाव एवं सुरक्षा आप किस प्रकार करेगी। [ 2 + 2 ]
अथवा
“प्रत्येक गृहिणी के लिए सिलाई कला का ज्ञान आवश्यक है।” स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 2 ]

निर्देश :
प्रश्न संख्या 8 से 10 दीर्घ उतरीय हैं। प्रश्न संख्या 8 एवं 9 में विकल्प दिए गए हैं। प्रत्येक प्रश्न के एक ही विकल्प का उत्तर लिखना है। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर 100 शब्दों के अन्तर्गत लिखिए।

प्रश्न 8.
घर में रसोईघर का क्या महत्त्व है? रसोईघर की व्यवस्था का वर्णन कीजिए। [ 2 + 2 + 2 ]
अथवा
सेक से क्या तात्पर्य हैं? यह कितने प्रकार की होती है? किसी एक विधि का विवरण दीजिए। [ 2 + 2 + 2 ]

प्रश्न 9.
सामान्य स्वस्थ व्यक्ति और रोगी के भोजन में क्या अन्तर होते हैं? रोगी को भोजन देते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? [ 2 + 4 ]
अथवा
सन्धि किसे कहते है? सन्धि कितने प्रकार की होती है? चल सन्धि को उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए। [ 2 + 4 ]

प्रश्न 10.
कृत्रिम श्वसन से आप क्या समझती हैं? कृत्रिम श्वसन की किन्हीं दो विधियों का सामान्य परिचय दीजिए। (2 + 4)

उत्तरमाला

उत्तर 1 :
(क)  1. तपेदिक
(ख) : 2. रेशमी वस्त्रों पर
(ग) : 4. शैय्या घाव होने पर
(घ) : 1. मिलीलीटर, लीटर

उत्तर 2 :
(क) : 1. 60 वर्ष के उपरान्त
(ख) : 2. खोपड़ी
(ग)  : 1. पेट दर्द में
(घ) : 3. एनीमिया

उत्तर 3 :
(क) : हैजा रोग विब्रियो कॉलेरी नामक जीवाणु से फैलता है, इस रोग से बचा के दो प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं। [ 2 ]

  1. नियमित रूप से हैजा का टीका लगवाएँ।
  2. दूध एवं पानी को उबालकर पीना चाहिए।

(ख) : ₹ 10 में खरीदकर ₹ 12 में बेचा
अर्थात् लाभ = 12 -10 = ₹ 2
प्रतिशत लाभ = 2/10 x 100= 20%
20% लाभ हुआ।
(ग) : आय-व्यय से सम्बन्धित इस सिद्धान्त के अनुसार, “पारिवारिक आय बढ़ने के साथ-साथ किसी परिवार के भोजन एवं खाद्य सामग्री पर किए जाने वाले व्ययों में प्रतिशत कमी तथा विलासिता की मदों (शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य) पर होने वाले व्ययों में प्रतिशत वृद्धि अंकित की जाती है।”
(घ) : शुद्ध जल रंगहीन, गन्धहीन, पारदर्शी तथा एक प्रकार की प्राकृतिक चमक से युक्त होता है। इस जल में रोगों के रोगाणुओं का नितान्त अभाव होता है।
(ङ) : कब्ज के रोगी को रेशेदार भोज्य पदार्थों की अधिकता वाले भोजन के साथ हरी सब्जियों, फल, सम्पूर्ण दालें तथा चोकरयुक्त आटे की रोटियाँ आदि पदार्थों का अपने भोजन में समावेश करना चाहिए।

उत्तर 4 :
(क) : ओवन रसोईघर में प्रयुक्त होने वाला विद्युत चालित उपकरण है। इसमें भोजन सेंकने की विधि से पकाया जाता है। ओवन की सुरक्षा हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

  1. ओवन को सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करना चाहिए तथा इसके स्विच, सकिट तथा तार की समय-समय पर जांच करते रहना चाहिए।
  2. इसकी आन्तरिक सफाई करते रहना चाहिए।
  3. इसकी आन्तरिक सतह को कभी खुरचकर साफ नहीं करना चाहिए।

(ख) : मिल्टन चॉक टिकियों के रूप में विभिन्न रंगों व आकारों में बाजार में मिलते हैं। इससे कपड़ों को काटने के लिए चिह्न लगाते हैं, क्योंकि यह धोने पर सरलता से छूट जाता है। गहरे रंग पर भी इसके चिह्न अच्छी तरह चमकते हैं, जिससे वस्त्र को सरलता से काटा जा सकता है।
(ग) : ड्राफ्टिग कर लेने से वस्त्र सही नाप के अनुसार बनता है तथा पहनने वाले के शरीर पर अच्छा लगता है, क्योंकि इससे वस्त्र का खाका तैयार हो जाता है।
(घ) : पाक क्रिया का मुख्य उद्देश्य भोजन को स्वादिष्ट, सुपाच्य एवं रोगाणुमुक्त बनाना है।
(ङ) : कंकाल तन्त्र की उपयोगिता निम्नलिखित है।

  1. शरीर को आकृति प्रदान करता है।
  2. शरीर के कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करता है।
  3. शरीर को गति प्रदान करता है।
  4. शरीर को दृढता प्रदान करता है।
  5. रक्तकणों के निर्माण में सहायता प्रदान करता है।
  6. कैल्सियम को संचित करने में सहायता प्रदान करता है।

उत्तर 5 :
(क) : उत्तर बचत खाते एवं चालू खाते में अन्तर बचत खाता

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बचत व चालू खाते की उपयोगिता

1. बचत खाता :
व्यक्तिगत एवं पारिवारिक बचतों के लाभकारी विनियोग की सुविधा प्रदान करता है। इस खाते में जमा धनराशि पर निपरित दर से ब्याज प्राप्त होता है। अतः अतिरिक्त आय की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त इस खाते में जमा धनराशि का अन्यत्र महत्त्वपूर्ण योजनाओं में भी विनियोग किया जाता है।

2. चालू खाता :
व्यापारिक लेन-देन की सुविधा उपलब्य कराता है। उल्लेखनीय है कि बैंक इस खाते में जमा धन का कहीं अन्यत्र विनियोग नहीं कर सकता। अतः खाताधारी आवश्यकता पड़ने पर, चाहे जितनी बार खाते में जमा घन निकाल सकता है।
अथवा
उत्तर :
पारिवारिक बजट एक प्रकार का व्यवस्थित प्रलेख अथवा प्रपत्र होता है, जिसमें सम्बन्धित परिवार के निश्चित अवधि में होने वाले आय-व्यय का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। क्रेग एवं रश के अनुसार, “पारिवारिक बजट भूतकाल के व्यय, भविष्य के अनुमानित व्यय तथा वर्तमान समय की मदों पर निश्चित व्यय का लेखा-जोखा है।” बजट के अर्थ एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए वेबर ने भी इसे अपने शब्दों में परिभाषित किया है।

वेबर के अनुसार, “पारिवारिक बजट पारिवारिक आय को व्यवस्थित रूप से इस प्रकार व्यय करने का तरीका है, जिससे कि अधिकतम सदस्यों के सुख व कल्याण में वृद्धि हो सके। पारिवारिक बजट असावधानीपूर्वक तथा अव्यवस्थित रूप से व्यय करने के स्थान पर योजनाबद्ध एवं विवेकपूर्ण व्यय को प्रतिस्थापित करने का ढंग या उपाय है।”

पारिवारिक बजट या बजट बनाने से गृहिणियों तथा परिवार को निम्न लाभ होते हैं।

  1. आय का उचित उपयोग बजट के माध्यम से गृहिणी परिवार की आय का सदुपयोग करती है।
  2. अनावश्यक पारिवारिक व्यय पर नियन्त्रण पारिवारिक बजट में सभी आवश्यकताओं एवं व्यय की मदों को चिह्नित किया जाता है, इससे अनावश्यक व्यय को ज्ञात करना सरल होता हैं

(ख) : बहुत  :
से लोगों का मानना है कि गृह-सज्जा में बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती है और धन के अभाव में गृह-सज्जा सम्भव नहीं है। उनकी यह धारणा भ्रामक है। वास्तव में, गृह-सज्जा के लिए कीमती तथा अधिक संख्या में वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उपलब्ध वस्तुओं की उत्तम व्यवस्था एवं कलात्मकता की आवश्यकता होती है।

यदि किसी घर में बहुत-सी बहुमूल्य वस्तुएँ एवं साधन उपलब्ध हों, परन्तु वे सब व्यवस्थित न हों तथा उनमें कलात्मकता का नितान्त अभाव हो, तो उसे घर को सुसज्जित नहीं कहा जा सकता। आय कम होने की स्थिति में बहुमूल्य वस्तुएँ में उपलब्ध होने पर हस्तनिर्मित वस्तुओं से भी गृह-सज्जा की जा सकती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि गृह सज्जा के लिए अधिक घन की आवश्यकता अनिवार्य शर्त नहीं हैं।
अथवा
उत्तर :
फर्नीचर की वस्तुएँ सामान्यतः लकड़ी, लोहे तथा प्लास्टिक की बनी होती हैं। इनकी सफाई और देखभाल निम्नलिखित प्रकार से की जाती है। लकड़ी के फर्नीचर की सफाई की विधियाँ अलग-अलग होती है।

1. सफेद लकड़ी :
गर्म पानी में सर्फ घोलें तथा मुलायम सूती कपड़े को घोल में भिगोकर वस्तुओं को धीरे-धीरे रगड़कर साफ करना चाहिए।

2. पेण्ट की हुई लकड़ी :
ऐसी वस्तुओं को नींबू द्वारा साफ किया जा सकता है।

3. पॉलिश की हुई लकड़ी :
आधा लीटर पानी में सिरको ड़ालकर कपड़ा भिगोकर रगड़े, फिर सूखे कपड़े से पोंछकर सरसों या मिट्टी के तेल से चमकाये।

4. लोहे का फर्नीचर :
लोहे के फर्नीचर को हल्के नर्म कपड़े से झाड़ा जाता है और साथ ही गीले कपड़े व साबुन से साफ किया जाता है। वर्ष में एक बार इस पर पेण्ट अवश्य किया जाना चाहिए।

5. प्लास्टिक की वस्तुओं एवं फर्नीचर की सफाई :
घर में प्लास्टिक की अनेक वस्तुओं; जैसे-कुर्सी, मेज, बाल्टी, मग इत्यादि को साफ करने के लिए गीले कपड़े में साबुन लगाकर पोंछना चाहिए। गुनगुने पानी का प्रयोग भी करना चाहिए। उसके पश्चात् सूखे कपड़े से पोंछना चाहिए। प्लास्टिक की वस्तुओं को तेज धूप में नहीं रखना चाहिए।

उत्तर 6 :
(क) :
गृह गणित का गृहिणियों के लिए महत्त्व गृह अर्थव्यवस्था के संचालन का कार्य मुख्यतः गृहिणियों पर ही होता है। घरेलू कार्यों में बजट बनाना, आय व्यय का हिसाब रखना, दूध, सब्जी, राशन आदि का हिसाब रखना तथा उनकी कीमत अथवा मूल्य के अनुसार भुगतान करना आदि कार्य आते हैं। इन सभी कार्यों हेतु गणितीय गणनाओं की आवश्यकता होती है। इन सभी कार्यों को सुचारु रूप से करने हेतु गृह गणित का ज्ञान होना प्रत्येक गृहिणी के लिए आवश्यक है।अथवा
उत्तर : शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर
UP Board Class 10 Home Science Model Papers Paper 1 image 2

(ख) : पेचिश तथा अतिसार में अन्तर
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अथवा
उत्तर :
पर्यावरण का मानव जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है, पर्यावरण संरक्षण के लिए। जनचेतना का होना बहुत आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण का लक्ष्य निम्नलिखित उपायों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

  1. पर्यावरण शिक्षा द्वारा जनता में पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाई जा सकती है। सामान्य जनता को पर्यावरण के महत्त्व, भूमिका तथा प्रभाव आदि से अवगत कराना आवश्यक है।
  2. वैश्विक स्तर पर पर्यावरण सरक्षण पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कराना चाहिए; जैसे-स्टॉकहोम सम्मेलन (1972), रियो डि जेनेरियो सम्मेलन (1992)
  3. गाँव, शहर, जिला, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों पर पर्यावरण संरक्षण में लोगों को शामिल करना चाहिए।
  4. पर्यावरण अध्ययन से सम्बन्धित विभिन्न सेमिनार पुनश्चर्या, कार्य-गोष्ठियाँ, दृश्य-श्रव्य प्रदर्शनी आदि का आयोजन कराया जा सकता है।
  5. विद्यालय, विश्वविद्यालय स्तर पर पर्यावरण अध्ययन विषय को लागू करना एवं प्रौढ़ शिक्षा में भी पर्यावरण-शिक्षा को स्थान देना महत्त्वपूर्ण उपाय है।

उत्तर 7 :
(क) : प्रदूषण का अर्थ प्राकृतिक पर्यावरण में उपस्थित विभिन्न घटकों अथवा तत्त्वों के सन्तुलन में वह बदलाव, जिसका मानव जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, प्रदूषण कहलाता है। पर्यावरण प्रदूषण वर्तमान समय में मानव के समक्ष उत्पन्न एक गम्भीर समस्या है। पर्यावरण प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर पड़ता है। पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव को हम निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट कर सकते हैं।

जन स्वास्थ्य पर प्रभाव
जन स्वास्थ्य पर प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. प्रदूषण से विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य सम्बन्धी बीमारियाँ; जैसे-हैजा, कॉलरा, टायफाइड आदि होती हैं।
  2. ध्वनि प्रदूषण से सर दर्द, चिड़चिड़ापन, रक्तचाप बढ़ना, उत्तेजना, हृदय की घड़कने बढ़ना आदि समस्याएँ होती हैं।
  3. जल प्रदूषण से टायफाइड, पेचिश, ब्लू बेबी सिण्ड्रोम, पाचन सम्बन्धी विकार (कब्ज) आदि समस्याएँ होती हैं।
  4. वायु प्रदूषण से फेफड़े एवं श्वास सम्बन्धी, श्वसन-तन्त्र की बीमारियाँ होती हैं।

व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर प्रभाव
व्यक्तिगत कार्यक्षमता पर प्रभाव निम्नलिखित है।

  1. पर्यावरण प्रदूषण व्यक्ति की कार्यक्षमता को प्रभावित करता है।
  2. इससे व्यक्ति की कार्यक्षमता अनिवार्य रूप से घटती है।
  3. प्रदूषित वातावरण में व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं रह पाता।
  4. प्रदूषित वातावरण में व्यक्ति की चुस्ती, स्फूर्ति, चेतना आदि भी घट जाती

आर्थिक जीवन पर प्रभाव
आर्थिक जीवन पर प्रभाव निम्नलिखित हैं।

  1. पर्यावरण-प्रदूषण का गम्भीर प्रभाव जन सामान्य की आर्थिक गतिविधियों एवं आर्थिक जीवन पर पड़ता है।
  2. कार्यक्षमता घटने से उत्पादन दर घटती है।
  3. साधारण एवं गम्भीर रोगों के उपचार में अधिक व्यय करना पड़ता है।
  4. आय दर घटने तथा व्यय बढ़ने पर आर्थिक संकट उत्पन्न होता है।

इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण मानव जीवन पर बहुपक्षीय, गम्भीर तथा प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करता है। अतः इसके समाधान हेतु व्यक्ति एवं राष्ट्र दोनों को मिलकर कार्य करना चाहिए।
अथवा
उत्तर :
विभिन्न रोगाणुओं से संघर्ष करने वाली शरीर की इस क्षमता को ही रोग प्रतिरक्षा’ या रोग-प्रतिरोधक क्षमता अथवा रोग-प्रतिबन्धक शक्ति (Immunity Power) कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में यह क्षमता या शक्ति भिन्नभिन्न स्तरों में पाई जाती है। यही नहीं एक ही व्यक्ति में भी यह क्षमता भिन्न-भिन्न समय में कम या अधिक हो सकती है। रोग प्रतिरक्षा दो प्रकार की होती हैं।

1. प्राकृतिक रोग-प्रतिरोधक क्षमता :
प्राकृतिक रूप से ही प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में विभिन्न रोगों का मुकाबला करने की क्षमता होती है, जो जन्मजात होती है। मनुष्य की इस क्षमता को ही प्राकृतिक रोग-प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं।

2. कृत्रिम अथवा अर्जित रोग-प्रतिरोधक क्षमता :
रोगग्रस्त होने से बचने एवं स्वस्थ बने रहने के लिए प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ अतिरिक्त रोग-प्रतिरोधक क्षमता की आवश्यकता होती है। यह अतिरिक्त क्षमता विभिन्न उपायों द्वारा प्राप्त की जा सकती है। इस अतिरिक्त रोग प्रतिरोधक क्षमता को ही स्वास्थ्य विज्ञान की भाषा में कृत्रिम अथवा अर्जित रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं।

रोग प्रतिरक्षा की प्राप्ति के स्रोत नियमित और सन्तुलित जीवनशैली तथा स्वच्छ खानपान के अतिरिक्त टीके या इंजेक्शन पद्धति द्वारा भी अतिरिक्त रोग-प्रतिरोधक क्षमता का विकास किया जाता है।

(ख) : ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों का रख-रखाव
ऊनी एवं रेशमी वस्त्रों के रख-रखाव हेतु अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता होती है, जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है।

  1. ऊनी वस्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए सम्बन्धित बॉक्स में फिनाइल अथवा नेफ्थेलीन की गोलियाँ अवश्य ही रखी जानी चाहिए।
  2. जरी एवं तिल्ले-गोटे वाले वस्त्रों को अन्य वस्त्रों से अलग स्थानों पर मलमल या अन्य किसी महीन सूती वस्त्र से लपेटकर ही रखना चाहिए।
  3. यदि वस्त्रों को अधिक समय तक बन्द रखना हो, तो समय-समय पर धूप एवं हवा लगा देनी चाहिए।
  4. यदि फिनाइल की गोलियाँ समाप्त हो गई हों, तो अतिरिक्त गोलियाँ रख देनी चाहिए।

अथवा
उत्तर :
गृहिणियों द्वारा घर पर ही अपनी आवश्यकता एवं सुविधा के अनुसार वस्त्रों की सिलाई व मरम्मत की जा सकती है। यह कार्य पर्याप्त सुविधाजनक तथा लाभदायक भी होता है। अतः प्रत्येक गृहिणी को सिलाई कला का ज्ञान होना आवश्यक है। घर पर वस्त्रों की सिलाई के निम्नलिखित लाभ होते हैं।

  1. घर पर स्वयं वस्त्रों की सिलाई करने से धन की पर्याप्त बचत होती है।
  2. घर पर स्वयं सिलाई करने से वस्त्र शीघ्र ही सिलकर तैयार हो जाते हैं। अतः समय की भी बचत होती है।
  3. कपड़े की बचत होती है और साथ ही कपड़े का सदुपयोग किया जा सकता है। सिलाई कार्य में बचे हुए कपड़े को अनेक प्रकार से उपयोग में लाया जा सकता है; जैसे-हमाल, थैले-थैलियाँ बनाना आदि।
  4. अपनी रुचि एवं पसन्द का डिजाइन बनाया जा सकता है।
  5. घर पर वस्त्रों की सिलाई से विशेष प्रकार के सन्तोष एवं आनन्द की प्राप्ति होती है।

उत्तर 8 :
घर में रसोईघर का महत्व
प्रत्येक घर में अनिवार्य रूप से भोजन पकाने हेतु एक रसोईघर होता है। रसोईघर में ही विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री, भोजन पकाने के साधन एवं उपकरण तथा तैयार यो पकाया हुआ भोजन रखा जाता है। अतः घर में रसोईघर का बहुत अधिक महत्त्व है। रसोईघर का महत्त्व इससे भी स्पष्ट होता है कि रसोईघर में गृहिणी प्रतिदिन अपना पर्याप्त समय व्यतीत करती है तथा यहाँ पाक क्रिया जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। इस दृष्टिकोण से रसोईघर गृणी की सुविधाओं के अनुकूल होनी चाहिए। रसोईघर की उत्तम व्यवस्था का गृहिणी एवं परिवार के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत अव्यवस्थित रसोईघर होने पर गृहिणी तथा परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

रसोईघर की व्यवस्था
रसोईघर की सुव्यवस्था अतिआवश्यक तत्त्व है। मुख्यवस्थित रसोईघर जहाँ एक ओर गृहिणी की कुशलता, इक्षता तथा सुरुचिपूर्णता का प्रमाण है, वहीं दूसरी ओर सुव्यवस्थित रसोईघर में कार्य करना अधिक सरल एवं सुविधाजनक होता है। रसोईघर की सुव्यवस्था हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

1. रसोईघर की समस्त वस्तुएँ यथास्थान ही रखी जाएँ :
प्रत्येक वस्तु का स्थान निर्धारित करके उसे अपने यथास्थान पर रखना चाहिए। स्थान चयन करते समय कार्यों की सुविधा एवं सरलता को भी ध्यान में रखना चाहिए। किसी वस्तु या उपकरण का प्रयोग करने के उपरान्त उसे पुनः निर्धारित स्थान पर रख देना चाहिए। नित्य प्रयोग के सभी बर्तनों को आगे तथा कभी-कभी प्रयोग में आने वाले बर्तनों को पीछे रखा जा सकता है। रसोईघर के कूड़े को भी टोकरी अथवा ढक्कन युक्त हिने में ही डालना चाहिए, इससे रसोईघर में सफाई अनी रहती है तथा कार्य सरलता से पूर्ण होता जाता है।

2. खाद्य सामग्री का उचित संग्रह :
रसोईघर में विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्रियों; जैसे-आटा, दाल, चावल, चीनी आदि को भिन्न-भिन्न ढंग से संभालकर रखना आवश्यक होता है। आटा, दाल, चीनी तथा चावल आदि को बन्द डिब्बों अथवा कनस्तर आदि में रखना चाहिए, जिससे चीटी, कॉकरोच आदि कीट इन्हें दूषित न कर सकें। ताजा तैयार की गई खाद्य सामग्री आदि को भी ढककर रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त ताजे फलों तथा सब्जियों को फ्रिज में ही रखना चाहिए। सूखी खाद्य सामग्रियों के सभी डिब्बों पर समुचित लेबल लगाए जाने चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था होने पर, आवश्यकता पड़ने पर परिवार का कोई भी सदस्य किसी भी वस्तु को ढूँढ सकता है।

3. रसोईघर के बर्तनों की सफाई :
रसोईघर की व्यवस्था के अन्तर्गत यह आवश्यक है। कि रसोईघर के बर्तनों की नियमित सफाई होनी चाहिए। रसोईघर में प्रयुक्त भिन्न-भिन्न प्रकार के बर्तनों की सफाई उपयुक्त विधि द्वारा ही की जानी चाहिए, अन्यथा या तो बर्तनों की समुचित सफाई नहीं हो पाएगी अयया बना में कुछ दाय आ जाने की आशंका रहेगी। उदाहरण के लिए, स्टील के बर्तनों को याद राख या बालू से साफ किया जाए, तो उनकी चमक घट जाती है तथा खरोंच पड़ने की भी आशंका बनी रहती है। बर्तनों को भली-भाँति साफ करके तया सुखाकर यथास्थान रखा जाना चाहिए। बर्तनों की सफाई के साथ साथ रसोईघर को नियमित सफाई भी आवश्यक है। पूरी तरह से साफ सुथरे रसोईघर को ही सुव्यवस्थित रसोईघर कहा जा सकता है।
अथवा
शरीर के किसी अंग में दर्द होने अथवा सूजन आने पर प्रभावित व्यक्ति को सैंक पहुँचाई जाती है।
सैंक दो प्रकार की होती हैं

  1. गर्म सैंक
  2. ठण्ड़ी सेंक

गर्म सेक
शरीर के किसी रोगग्रस्त भाग या अंग को अतिरिक्त ताप या ऊष्मा पहुंचाने की क्रिया को गर्म सेक कहते हैं। श्वसन तन्त्र से बलगम को निकालने, दर्द कम करने, फोड़े-फुसी को पकाने तथा उनसे मवाद निकालने के लिए गर्म सेक की आवश्यकता पड़ती है। गर्म सेंक प्रदान करने के प्रयोजन भिन्न-भिन्न होते हैं। इस भिन्नता के अनुरूप गर्म सेक प्रदान करने के साधन एवं विधियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। गर्म सेंक देने के तीन मुख्य साधन निम्नलिखित हैं

1. गर्म-शुष्क सेंक :
इसके लिए कपड़ा रूई आदि को किसी तवे इत्यादि पर सीधे गर्म करते हैं और बाद में सीधे उस अंग पर रखते हैं, जिसकी सिकाई करनी हो। यह सेंक गर्म-शुष्क कहलाती हैं। कभी-कभी कुछ विशेष अंगों को इस प्रकार सिकाई की जाती है। जैसे- गर्म पानी की बोतल द्वारा सेंक, गर्म सेक प्रदान करने की एक विधि हैं। इस प्रकार की सेंक देने के लिए एक रबड़ की बनी हुई बोतल इस्तेमाल की जाती है। इस बोतल में गर्म पानी को डालकर यथास्थान गर्म सेक दी जाती है। इस प्रकार की सेक को दर्द कम करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
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विधि इसके प्रयोग की विधि निम्नलिखित है

  1. सर्वप्रथम अनुमान से पानी की कुछ मात्रा को गर्म कर दिया जाता हैं।
  2. इसके उपरान्त बोतल के खाली भाग को हाथ से दबाकर अन्दर की वायु को बाहर निकाल देना चाहिए।
  3. इसके बाद बोतल का 2/3 भाग पानी से भरकर, बोतल के हुक्कन को कसकर बन्द कर देना चाहिए।
  4. इसके उपरान्त बोतल को किस तौलिए अथवा मोटे सूती कपड़े में लपेटकर सेक प्रदान करने के लिए शरीर के सम्बन्धित अंग पर रखना चाहिए।
  5. कुछ-कुछ समय उपरान्त बोतल को उस अंग से हटाते रहना चाहिए।
  6. कभी भी बोतल को बिना कपड़े में लपेटे शरीर के सम्पर्क में नहीं लाना चाहिए। बोतल का शरीर से सीधा सम्पर्क कराने से शरीर की त्वचा के झुलस जाने का भय रहता है।

2. गर्म-तर सेंक
गर्म पानी में कपड़ा भिगोकर की जाने वाली सेक गर्म-तर सेक कहलाती हैं। यह कुछ विशेष अंगा पर की जाती है। जैसे-आँख व किसी पात्र इत्यादि पर। विधि गर्म-तर सेंक के प्रयोग की विधि निम्न प्रकार है।

  1. इसके लिए एक मलमल के कपड़े का टुकड़ा लिया जाता है, जिसे तौलिए में लपेट दिया जाता है।
  2. अब इस तौनिए को चिलमची या गर्म पानी की केतली आदि में भिगोते हैं।
  3. अब कपड़े को निकाल लेना चाहिए तथा ध्यान रहे कपड़ा बहुत अधिक गर्म न हो।
  4. तत्पश्चात् तौलिए को दोनों सिरों से पकड़कर निचोड़ दिया जाता हैं।

3. गर्म-गीली सेंक
पैरों में दर्द इत्यादि की स्थिति में इस विधि से पैरों की सिकाई की जाती है। इस विधि में गर्म पानी की बाल्टी या टब में पैर डालकर सिकाई की जाती है। इस विधि मेपैरों को सिकाई हेतु नमक व वोरिङ पाउडर डाला जा सकता है।

ठण्डी सेंक के लिए बर्फ की टोपी का प्रयोग

  1. बर्फ की टोपी या थैली का प्रयोग हुण्डी सेक पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है। कभी-कभी ज्वर की दशा में रोगी के शरीर का तापमान अत्यन्त ऊँचा हो जाता है, उस समय तापमान को सामान्य स्तर तक लाने के लिए उण्डी पट्ट्टी या बर्फ की टोपी का प्रयोग किया जाता है। बर्फ की टोपी का प्रयोग शरीर के किसी विशेष स्थान पर हुण्डी सैक पहुँचाने के लिए भी किया जाता हैं।
  2. तेज ज्वर को कम करने के लिए, शरीर से होने वाले रक्तस्राव को रोकने के लिए तथा सूजन एवं दर्द को कम करने के लिए उड़ी सेक की आवश्यकता पड़ती है।

उत्तर 9 :
स्वस्थ व्यक्ति एवं रोगी के भोजन में अन्तर
स्वस्थ व्यक्ति को सामान्य, पौष्टिक तथा सन्तुलित आहार प्रण करना चाहिए, परन्तु यदि व्यक्ति किसी साधारण अथवा गम्भीर रोग से पीड़ित है, तो रोग की प्रकृति के अनुसार रोगी के आहार में आवश्यक परिवर्तन करने चाहिए। इस प्रकार के आहार को आहार एवं पोषण विज्ञान की भाषा में उपचारार्थ आहार’ कहते हैं। कुछ रोग ऐसे होते हैं, जो किसी पोषक तत्व की कमी के कारण उत्पन्न होते हैं, जबकि कुछ रोग पाचन तन्त्र अथवा उत्सर्जन तन्त्र की अव्यवस्था के कारण उत्पन्न होते हैं। अतः रोग की प्रकृति को दृष्टिगत रखते हुए उपचारार्थ आहार के तत्वों के अनुपात एवं मात्रा आदि का निर्धारण किया जाता है।आहार के निर्धारण में यह ध्यान रखा जाता है कि रोगी को जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता हो, उन सभी तत्वों का आहार में समुचित मात्रा में समावेश होना चाहिए। रोग की अवस्था में रोगी को दो प्रकार का आहार देना चाहिए–तरल आहार एवं अर्द्ध तरल आहार।

रोगी को भोजन कराना
रोग की अवस्था में व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तित हो जाता है। व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है तथा उसकी शारीरिक गतिविधियां कम हो जाती हैं। इससे व्यक्ति की भूख व पाचन क्रिया भी प्रभावित होती है। इससे कुछ रोगी अत्यधिक कमजोर हो जाते हैं। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए रोगी को भोजन कराते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है।

  1. रोग की अवस्था में रोगी के भोजन का विशेष ध्यान रखना चाहिए। रोगी को नियमित भोजन देना चाहिए, जिससे उसकी भूख नष्ट न हो।
  2. रोगी को भोजन डॉक्टर की सलाह से उचित रूप में तथा समयानुसार देना चाहिए।
  3. रात्रि की अपेक्षा दिन में भोजन देना अधिक उचित है।
  4. सोते हुए रोगी को जगाकर भोजन नहीं देना चाहिए।
  5. रोगी के पास न लाने से पूर्व उसे और उसके आस पास के स्थानको भोजन हेतु पूरी तरह तैयार कर लेना चाहिए; जैसे
    •  रोगी के मुँह-हाथ को स्पंज कर देना चाहिए।
    •  रोगी के आस-पास का स्थान पूर्णतः स्वछ कर लेना चाहिए।
    •  बिस्तर तथा वस्त्रों की रक्षा के लिए तौलिए का प्रयोग करना
    • यदि डॉक्टर ने उठने से मना किया है, तो तकिए के सहारे उसे पलंग पर ही बैठा देना चाहिए।
  6. भोजन अपेक्षित ठण्डा या गर्म होना चाहिए।
  7. भोजन लाने में स्वच्छता एवं आकर्षण हो, जिससे भोजन के प्रति रोगी की रुचि बढ़े। भोजन कराने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।
  8. रोगी के भोजन करने के पश्चात् जूठे बर्तन तुरन्त हटा देने चाहिए। |
  9. उठने में असमर्थ रोगी को केवल तरल पदार्थ ही भोजन के रूप में दिए जाने चाहिए। रोगी को भोजन कराते समय प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। भोजन की प्यालियाँ, कटोरियाँ तथा लहें अधिक भरी नहीं होनी चाहिए।

अथवा
सन्धि का अर्थ
सन्धि (जोड़) शरीर के उन स्थानों को कहते हैं, जहाँ दो अस्थियाँ एक-दूसरे से मिलती हैं; जैसे–कन्ये, कुहनी या कुल्हे की सन्धि।

अस्थि सन्धि
कंकाल तन्त्र में दो या दो से अधिक अस्थियों के परस्पर सम्बद्ध होने के स्थल को अस्थि सन्धि कहा जाता है। सन्धियां शरीर को गति प्रदान करने में सहायक होती हैं। अस्थि सन्धियाँ दो प्रकार की होती हैं

  1. अचल सन्धि
  2. चल सन्धि

अचल सन्धि
इस प्रकार की सन्धियों में दो या दो से अधिक हड्डियाँ आपस में इस प्रकार जुड़ी होती है कि वे बिल्कुल हिल न सकें अर्थात् लगभग स्थिर स्थिति में हों। इस प्रकार की अस्थियों की बनावट कंटीली अथवा आरी के समान नुकीली होती हैं। ये नुहोलापन एक अस्थि को दूसरी अस्थि से फंसाए रखने में मजबूती प्रदान करता है। इस प्रकार के जोड़ खोपड़ी में पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार की अचल सन्धि भी होती है, जिसमें एक हड्डी का सिरा दूसरी हड्डी पर बने एक उपयुक्त स्थान में स्थित हो जाता है तथा इन हड्डियों के सिरे संयोजी ऊतकों द्वारा जकड़कर इस तरह बंध जाते हैं कि सन्धि अचल हो जाती हैं। पसलियों एवं रीढ़ की हड्डी तथा पसलियों एवं छाती की हड्डी के बीच इसी प्रकार के जोड़ पाए जाते हैं।

चल सन्धि
चल सन्धियों की बनावट इस प्रकार होती है। कि इसे अपनी इच्छानुसार किसी निश्चित दिशा अथवा अन्य दिशाओं में हिलाया तथा की सहायता से शरीर के विभिन्न अंगों को मोड़ा, घुमाया या चलाया जा सकता है। शरीर में बनावट के आधार पर चल सन्धियां प्रमुखतः अपूर्ण तथा पुर्ण दो प्रकार की होती है।

1. अपूर्ण सन्धि :
ये केवल उपास्थियों द्वारा बनी हुई सन्धियाँ हैं तथा इनकी गति अत्यधिक सीमित होती है। कूल्हे की दोनों प्यूविस अस्थियों के मध्य अपूर्ण सन्धि होती है।

2. पूर्ण सन्धि :
इसमें जुड़ने वाली अस्थियों के मध्य स्थित रिक्त स्थान में एक द्रव भरा रहता है,जिससे इनमें पर्याप्त गति होती है। पूर्ण सन्धि के प्रमुख उपप्रकार निम्न हैं।

(i) कब्जेदार सन्धि :
इस प्रकार की सन्धि में शरीर के अंगों को एक दिशा में घुमाया जा सकता है। इस प्रकार की सन्धि में कोई एक हड्डी या उसका कोई प्रवर्ष इस प्रकार बढ़ा रहता है कि वह एक निश्चित दिशा के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में गति को पूर्णतः रोकता हैं। कोहनी, घुटना तथा अंगुलियों में इस प्रकार का जोड़ पाया जाता हैं।
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(ii) कन्दुक-खल्लिका या गेंद और प्यालेदार सन्धियाँ :
इस सन्धि में एक हड्डी का सिरा गेंद के समान गोल होता है और दूसरी हड्डी का सिरा प्याले की तरह होता है। प्यालेनुमा आकार वाले सिरे में गेद याला सिरा स्थित रहता है, जिसे चारों ओर घुमाया जा सकता है। कुल्हें तथा जाँघ में इस प्रकार के जोड़ पाए जाते हैं। घूमते । समय अस्थियों को रगड़ से बचाने के लिए गाढा तरल पदार्थ प्यालेनुमा एवं गेंद वाले सिरे के मध्य भरा रहता है। यह तरल पदार्थ अत्यन्त लचीली झिल्ली के अन्दर बन्द रहता है। जोड़ पर रज्जु भी संलग्न होती हैं, जिससे अस्थियाँ एक-दूसरे से दूर न हों। इन दोनों सिरों पर उपास्थियों का आवरण भी चढ़ा रहता हैं.
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(iii) खुटीदार सन्धि :
इसे कीलदार या धुराग्र सन्धि भी कहा जाता है, इसमें एक अस्थि प्रवर्ध धुरी की। तरह या बँटे की तरह सीधी होती है। इस धुरी पर दूसरी अस्थि इस प्रकार टिकी रहती है कि इनको इधर-उधर भी घुमाया जाए, इसमें घंटे वाली। हड्डी गति नहीं करती है, बल्कि उस पर टिकी हुई हड्डी ही गतिमान होती है। रीढ़ की हड्डी की पहली दूसरी कशेरुक, खोपड़ी के साथ इसी प्रकार का जोड़ बनाती हैं। रीढ़ की हड्डी के कशेरुक का एक प्रवर्घ निकला रहता है, जिस पर खोपड़ी रखी रहती है। इसी सन्धि की सहायता से हम खोपड़ी को इधर-उधर तथा ऊपर-नीचे हिला सकते हैं।
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(iv) प्रसार अथवा फिसलनदार सन्धि :
इसे ‘विसपी सन्धि’ रेडियस अल्ना भी कहा जाता है। ये सन्धियाँ वास्तविक रूप में किसी जोड़ का निर्माण नहीं करतीं, बल्कि इनकी हड्डियाँ होती हैं, जो इन हड्डियों को गति करने के लिए। फिसलने में मदद करती हैं। इस प्रकार की सुधि में दोनों हड्डियों के बीच कार्टिलेज की गद्दी पाई जाती है। कशेरुकों के योजी प्रवर्षों के मध्य तथा प्रबाहु के रेडियस-अल्ना एवं कलाई के बीच इस प्रकार की सन्धि पाई जाती है।
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(v) पर्याण सन्धि :
यह सन्धि कन्दुक-खल्लिका सन्धि के समान होती है, परन्तु इसमें कन्दुक-खल्लिका का विकास न्यून होता है।
उदाहरण :
अंगूठे के जोड़, जिन्हें अंगुलियों की अपेक्षा इधर-उधर अधिक घुमाया जा सकता है।
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अस्थि-सन्धियों की उपयोगिता
अस्थि सन्धियों का मानव शरीर में निम्नलिखित महत्त्व हैं।

  1. मानव शरीर अस्थि-सन्धियों पर ही गतिमान रहता है। जैसे-मुड़ना, दौड़ना, वस्तु पकड़ना आदि। अतः सन्धियाँ शारीर को गति प्रदान करने में सहायक हैं।
  2. शरीर की विभिन्न क्रियाएँ; जैसे – शरीर में झुकाव, श्वास लेना आदि शरीर की हड्डियों के मध्य पाई जाने वाली सन्धियों पर निर्भर होती हैं। विभिन्न प्रकार की शारीरिक गतिविधियाँ सन्धियों के प्रकार पर निर्भर करती हैं। उदाहरण कोहनी का जोड़ (सन्धि) एक कब्जेदार सन्धि हैं, जो हाथों को पीछे मुड़ने से रोकती हैं, इसी प्रकार कन्दुक-खल्लिका ऐसी सन्धि है, जो सम्पूर्ण बाँह को किसी भी दिशा में आसानी से घूमने देती हैं।
  3. खोपड़ी के बीच में उपस्थित सन्धियाँ विशेष कार्य करती हैं। इन्हीं सन्धियों के कारण बाल्यावस्था में मस्तिष्क के विकसित होने में किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं होता। यहीं सन्धियाँ आगे चलकर अचल हो जाती हैं, जिससे मजबूत कपाल का निर्माण होता है।

उत्तर 10 :
प्राकृतिक श्वसन
वायुमण्डल से प्राप्त आवश्यक ऑक्सीजन को फेफड़ों से कोशिकाओं तक पहुंचाने तथा अशुद्ध वायु या कार्बन डाइऑक्साइड को फेफड़ों से वायुमण्डल में लाने की क्रिया प्राकृतिक श्वसन कहलाती हैं।

कृत्रिम श्वसन का अर्थ एवं आवश्यकता
जब किसी कारणवश फेफड़ों में स्वाभाविक तौर से स्वच्छ वायु का आना-जाना बाधित हो जाए, जिसके फलस्वरूप प्राणी की दम घुटने की स्थिति आ जाती है, तो इस स्थिति में प्राणी को मरने से बचाने के लिए कृत्रिम श्वसन की आवश्यकता पड़ती है। यह भी कहा जा सकता हैं कि कृत्रिम श्वसन का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को बचाना है, जोकि किसी अन्य व्यक्ति के प्रयास द्वारा सम्भव हैं। फेफड़ों में वायु का आना-जाना बाधित होने के कारण कोशिकाओं को ऑक्सीजन की आवश्यक पूर्ति नहीं हो पाती हैं।

इस ऑक्सीजन पूर्ति के अभाव में व्यक्ति की मृत्यु तक हो सकती है। इस स्थिति में कोशिकाओं में ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए व्यक्ति वे फेफड़ों में किसी कृत्रिम-विधि द्वारा स्वच्छ तथा ताजी ऑक्सीजन युक्त वायु को भरा जाना ही कृत्रिम श्वसन कहलाता हैं।दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि किसी अन्य व्यक्ति के प्रयासों द्वारा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की श्वसन क्रिया को चलाना ही कृत्रिम श्वसन क्रिया है। कृत्रिम श्वसन क्रिया का मुख्य उद्देश्य सम्बन्धित व्यक्ति के जीवन को बचाना होता है।

कृत्रिम श्वसन की विधियाँ
कृत्रिम श्वसन की तीन प्रमुख विधियाँ हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित हैं।

1. शेफर विधि
पानी में दुबे व्यक्ति को इस विधि द्वारा कृत्रिम श्वसन दिया जाता है,  इस विधि में जिस व्यक्ति को कृत्रिम श्वसन देना होता है, सर्वप्रथम उसके वस्त्र उतार दिए जाते हैं। यदि यह सम्भव न हो, तो कम-से-कम उसके वक्षस्थल के वस्त्र उतार देने चाहिए। यदि किसी कारणवश यह भी सम्भव न हो तो उन्हें इतना ढीला कर देना चाहिए कि वक्षीय कटहरे पर किसी प्रकार का दबाव न रहे।
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तत्पश्चात् निम्नलिखित प्रक्रिया अपनानी चाहिए

  1. दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को पेट की ओर से लिटाकर मुँह को एक ओर कर देना चाहिए। टांगों को फैला देना चाहिए।
  2. नाक, मुंह इत्यादि को अच्छी तरह साफ कर दें, ताकि श्वास भली-भाँति आ-जा सके। प्राथमिक उपचार करने वाले व्यक्ति को रोगी के एक ओर उसके पाश्र्व में, कमर के पास अपने घुटने भूमि पर टिकाकर, पैरों को थोड़ा-सा रोगी की टाँगों के साथ कोण बनाते हुए बैठ जाना चाहिए। इसके बाद रोग की पीठ पर अपने दोनों हाथों को फैलाकर इस प्रकार रखना चाहिए कि दोनों हाथों के अंगूठे रीढ़ की हड्डी के ऊपर समानान्तर रूप में सिर की ओर मिलाकर रखें। ध्यान रखना चाहिए कि इस समय अंगुलियाँ फैली हुई अर्थात् अंगूठे लगभग 90° के कोण पर रोगी की कमर पर रहे। चिकित्सक को अपने हाथ रोगी की पसलियों के पीछे रखने चाहिए।
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  3. अब दोनों हाथों को पूरी तरह जमाते हुए तथा बिना कोहनी को मोड़े चिकित्सक को आगे की ओर झुकना चाहिए। इस समय चिकित्सक का वजन घुटने तथा हाथ पर रहेगा। इससे रोगी के पेट पर दबाव पड़ेगा तथा इस क्रिया से बक्षीय गुहा फैल जाएगी और फेफड़ों में उपस्थित वायु दबाव के कारण बाहर निकल जाएगी। यदि रोगी के फेफड़ों में पानी भर गया है तो वह भी इस क्रिया से बाहर निकल जाएगा।
  4. चिकित्सक को अपना हाथ यथास्थान रखकर ही धीरे-धीरे झुकाव कम करनाचाहिए, यहाँ तक कि बिल्कुल दबाव न रहे। इस क्रिया से बक्षीय गुहा पूर्व स्थिति में आ जाएगी एवं फेफड़ों में वायु का दबाव कम होने से वायुमण्डल की वायु स्वतः ही अन्दर आ जाएगी।
  5. इस प्रकार दबाव डालने एवं हटाने की प्रक्रिया को एक मिनट में 12-13 बार शनैः-शनैः क्रमिक रूप से दोहराते रहना चाहिए।

शेफर विधि की सावधानियाँ

  1. वक्ष पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए; जैसे—कपड़ा, इत्यादि का कसाव।
  2. गर्दन पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए।
  3. नाक, मुँह आदि भली-भाँति साफ कर लेने चाहिए। दबाव डालने एवं कम करने की क्रिया लगातार एवं एक बराबर क़म से होनी चाहिए।
  4. प्राकृतिक श्वसन प्रारम्भ हो जाने पर भी कुछ समय तक रोगी को देखते रहना चाहिए।

2. सिल्वेस्टर विधि
इस विधि में रोगी को किसी समतल स्थान पर लिटाया जाता है, उसके वस्त्रों को ढीला करके गर्दन के पीछे कन्धों के बीच में कोई तकिया इत्यादि लगाया जाता है, जिससे सिर पीछे को नीचा हो जाए। इस विधि से रोगी को श्वसन कराने के लिए दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है। एक व्यक्ति सिर की और घुटने के सहारे बैठकर रोगी के दोनों हाथों को अपने दोनों हाथों के द्वारा अलग-अलग पकड़ लेता है

इस समय दूसरा व्यक्ति रूमाल या किसी अन्य साफ कपड़े से रोगी की जीभ को पकड़कर बाहर की तरफ खीचे रहता है। पहला व्यक्ति रोगी के दोनों हाथों को उसके वक्ष की ओर ले जाते हुए अपने घुटने पर सीधा होकर आगे की ओर झुकता हुआ रोगी को छाती पर दबाव डालता है। इस प्रकार उस रोगी की भुजाओं को उसके वक्ष की ओर ले जाया जाता हैं।और फिर पुर्व स्थिति में सिर की और खींच लेता है। क्रमिक रूप से 1 मिनट में लगभग 12 बार इस क्रिया को दुहराने से  प्रारम्भ हो जाती है।
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सिल्वेस्टर विधि की सावधानियाँ

  1. रोगी की जीभ को कसकर पकड़ना चाहिए।
  2. रोगी को किसी समतल स्थान पर लिटाना चाहिए तथा उसके वस्त्र इत्यादि ढीले कर देने चाहिए, जिससे वक्ष पर किसी प्रकार का भाव न रहे।
  3. जिस क्रम से चिकित्सक ऊपर उठे, उसी क्रम से नीचे बैठे अर्थात् दबाव डालने और दबाव कम करने की प्रक्रिया एक जैसी होनी

3. लाबाई विधि :
यदि शेफर्स और सिल्वैस्टर विधियों द्वारा श्वास देना सम्भव न हो तो इस विधि का प्रयोग किया जाता है, जैसे वक्ष स्थल की कोई हड्डी इत्यादि। टूटने पर डॉक्टर के आने तक इस विधि द्वारा रोगी को ऑक्सीजन उपलब्ध कराकर जीवित रखा जा सकता है। दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को एक करवट से लिटाकर उसके समीप एक ओर चिकित्सक को अपने घुटने के आधार पर बैठकर रोगी की नाक, मुंह इत्यादि को भलीभाँति साफ र लेना चाहिए।

किसी स्वच्छ रुमाल या कपड़े से रोगी की शुभ पकड़कर बाहर खींचनी चाहिए और 2 सेकण्ड के लिए छोड़ देनी चाहिए। इस समय रोगी का मुंह खुला रहना चाहिए तथा इसके लिए रोगी के मुँह में कोई चम्मच इत्यादि डाली जा सकती है। इस क्रिया को तब तक दोहराते । रहना चाहिए जब तक कि रोगी को प्राकृतिक श्वसन प्रारम्भ न हो जाए।

लाबार्ड विधि की सावधानियाँ
जीभ दांतों के बीच नहीं दबनी चाहिए, इसके लिए चम्मच अथवा लकड़ी इत्यादि कोई कड़ी यस्तु रोगी के मुंह में रखनी चाहिए।
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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 11
Chapter Name Interest
Number of Questions Solved 43
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest (ब्याज)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
ब्याज की परिभाषा दीजिए। ब्याज कितने प्रकार का होता है ? कुल ब्याज के कौन-कौन से अंग हैं ? समझाइए। [2010]
उत्तर:
ब्याज का अर्थ एवं परिभाषाएँ
ब्याज वह भुगतान है जो पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाता है। वह एक प्रकार से ऋण कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।

विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गयी ब्याज की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

प्रो० मार्शल के अनुसार, “ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग की कीमत है।” कार्वर के अनुसार, “ब्याज वह आय है जो पूँजी के स्वामी को दी जाती है।”
प्रो० विक्सेल के अनुसार, “ब्याज एक भुगतान है जो पूँजी को उधार लेने वाला, उसकी उत्पादकता के कारण त्याग के प्रतिफल के रूप में देता है।”
मेयर्स के अनुसार, “ब्याज ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।”
प्रो० कीन्स के अनुसार, “ब्याज एक पुरस्कार है जो लोगों को अपने धन को संगृहीत मुद्रा के अतिरिक्त और किसी रूप में रखने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु दिया जाता है।’
जे० एस० मिल के अनुसार, “ब्याज केवल आत्म-त्याग का पुरस्कार है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है किब्याज पूँजी अथवा ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दिया जाने वाला भुगतान है। या ब्याज तरलता का परित्याग करने का भुगतान है। या बचत करने में किये जाने वाले त्याग का पुरस्कार है।

ब्याज के भेद या प्रकार
प्रो० मार्शल ने ब्याज दो प्रकार का बताया है
(1) विशुद्ध ब्याज तथा
(2) कुल ब्याज

1. विशुद्ध ब्याज – विशुद्ध ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को कहते हैं, जबकि ऋण देने के सम्बन्ध में किसी प्रकार की जोखिम, असुविधा तथा अतिरिक्त कार्य नहीं होता। विशुद्ध ब्याज के अन्तर्गत केवल पूँजी का पारितोषिक ही सम्मिलित होता है, जिसे प्रतीक्षा का प्रतिफल भी कहा जा सकता है। इसमें किसी अन्य प्रकार का भुगतान सम्मिलित नहीं होता।
प्रो० मार्शल ने लिखा है – “अर्थशास्त्र में जब हम ब्याज शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका अभिप्राय केवल पूँजी के पारितोषण या प्रतीक्षा से होता है।” संक्षेप में, पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को विशुद्ध ब्याज कहते हैं।

2. कुल ब्याज – कुल ब्याज से अभिप्राय उस रकम या भुगतान से होता है जो एक ऋणी ऋणदाता को देता है। इसके अन्तर्गत विशुद्ध ब्याज के अतिरिक्त जोखिम को प्रतिफल, असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त काम का भुगतान आदि भी सम्मिलित होता है।
प्रो० चैपमैन के अनुसार, “कुल ब्याज में पूँजी के ऋण के लिए भुगतान तथा व्यक्तिगत व व्यावसायिक जोखिम के लिए भुगतान, विनियोग की असुविधाओं के लिए भुगतान तथा विनियोग की व्यवस्था तथा उसमें निहित चिन्ताओं के लिए भुगतान सम्मिलित होता है।”

कुल ब्याज के अंग
कुल ब्याज में निवल ब्याज के अतिरिक्त अन्य तत्त्व भी सम्मिलित रहते हैं। ये निम्नलिखित हैं

1. निवल ब्याज या आर्थिक ब्याज – निवल ब्याज या शुद्ध ब्याज कुल ब्याज का एक प्रमुख अंग होता है। पूँजी उत्पत्ति का साधन है; अत: राष्ट्रीय आय में से कुछ भाग पूँजी के प्रयोग के प्रतिफल के रूप में लिया जाता है। पूँजी के प्रयोग के बदले में किया जाने वाला यह भुगतान, जिसे शुद्ध ब्याज कहते हैं, कुल ब्याज का ही एक भाग होता है।

2. जोखिम का पुरस्कार – रुपया उधार देना जोखिमपूर्ण व्यवसाय है। ऋणदाता को अपनी रकम डूब जाने का भय रहता है। इस कारण वह विशुद्ध ब्याज से अधिक ब्याज लेता है। जोखिम का यह पुरस्कार कुल ब्याज का ही एक भाग होता है। प्रो० मार्शल के अनुसार जोखिम दो प्रकार की होती है|

(अ) व्यावसायिक जोखिम – जोखिमपूर्ण व्यवसायों में रकम डूबने का अधिक भय रहता है। तथा कुछ व्यापारिक जोखिम बाजार में होने वाले परिवर्तनों; जैसे – फैशन में परिवर्तन, नये-नये आविष्कारों आदि के कारण वस्तु के उत्पादन से पूर्व ही माँग का गिरना, वस्तु का मूल्य कम होना आदि के कारण उत्पन्न होती है। इस जोखिम के लिए ऋणदाता अतिरिक्त भुगतान प्राप्त करता है।

(ब) व्यक्तिगत जोखिम – व्यक्तिगत जोखिम व्यक्ति-विशेष के स्वभाव के कारण उत्पन्न होती है। ऋणी व्यक्ति बेईमान हो सकता है, जिसके कारण रकम डूब सकती है। इस प्रकार की जोखिम के लिए ऋणदाता कुछ अतिरिक्त भुगतान ब्याज के रूप में लेता है।

3. असुविधा तथा कष्ट के लिए पुरस्कार – कभी-कभी ऋणदाता को ऋण की वापसी में पर्याप्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऋणी प्राय: समय पर रुपया वापस नहीं लौटाते हैं या ऋण वापस ही नहीं करते हैं। वह ब्याज के साथ ही अपनी असुविधा के लिए कुछ अतिरिक्त धनराशि उसमें और जोड़ देता है।

4. व्यवस्था तथा प्रबन्ध का प्रतिफल – ऋणदाता को व्यवसाय संचालन के लिए कुछ कर्मचारी रखने पड़ते हैं। कभी-कभी मुकदमेबाजी भी करनी होती है जिसमें वकीलों का व्यय, कोर्ट फीस तथा अन्य खर्च करने होते हैं। ऋणदाता को स्वयं भी कुछ अतिरिक्त कार्य करना पड़ता है। इस व्यवस्था तथा प्रबन्ध को प्रतिफल भी कुल ब्याज में सम्मिलित होता है।

प्रश्न 2
ब्याज-निर्धारण के आधुनिक सिद्धान्त को समझाइए। [2010]
या
क्लासिकल अर्थशास्त्रियों के द्वारा प्रतिपादित ब्याज दर के निर्धारण सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
या
ब्याज-निर्धारण के माँग और पूर्ति सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
या
ब्याज की दर मुद्रा की माँग व पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। व्याख्या कीजिए। [2011]
उत्तर:
ब्याज-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त
ब्याज के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन संस्थापित अर्थशास्त्रियों ने किया तथा बाद में इसका विकास मार्शल, पीगु, कैसेल्स, वालरा, टॉजिग तथा नाईट के द्वारा किया गया। ब्याज-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त माँग और पूर्ति का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर पूँजी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होती है। पूँजी की माँग विनियोग से तथा उसकी पूर्ति बचत से उत्पन्न होती है, इसलिए ब्याज की दर बचत और विनियोग से निर्धारित होती है। ब्याज की दर एक सन्तुलन स्थापित करने वाला तत्त्व है जो बचत और विनियोग को बराबर करता है।

पूँजी की मॉग – पूँजी की माँग विशेष रूप से उत्पादकों द्वारा उत्पादन कार्यों में विनियोग करने के लिए की जाती है। यद्यपि उपभोग के लिए भी लोग रुपया उधार लेते हैं तथा इस पर ब्याज भी देते हैं। व्यक्तियों और संस्थाओं के अतिरिक्त सरकारें भी निर्माण कार्यों व युद्ध आदि के लिए पूँजी उधार लेती हैं।

उत्पादन कार्यों के लिए जो ऋण लिये जाते हैं, उनके सम्बन्ध में ब्याज की अधिकतम दर पूँजी की उत्पादिता के आधार पर निश्चित होती है। पूँजी की माँग उसकी उत्पादिता के कारण ही की जाती है। अत: पूँजी की सहायता से अधिक उत्पादन किया जा सकता है। उत्पादन में उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने के कारण अधिकाधिक मात्रा में पूँजी का प्रयोग किये जाने पर उसकी सीमान्त उत्पादकता घटती जाती है। अन्त में एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि पूँजी की सीमान्त उत्पादकता प्रचलित ब्याज की दर के बराबर हो जाती है। पूँजी की यह इकाई सीमान्त इकाई (Marginal Unit) होती है। पूँजी की इस अन्तिम इकाई के बाद कोई भी उत्पादक पूँजी का विनियोग नहीं करता, क्योंकि इसके बाद में प्रयोग की जाने वाली पूँजी पर मिलने वाली उत्पादन वृद्धि से अधिक ब्याज देना पड़ता है और उसे हानि होती है। पूँजी पर दिया जाने वाला ब्याज उसकी सीमान्त उत्पादिता के बराबर होता है। अतः ब्याज की अधिकतम सीमा पूँजी की सीमान्त उत्पादकता है। कोई भी उत्पादक इस सीमा से अधिक ब्याज देने को तैयार नहीं होगा।

इस प्रकार ब्याज की दरे जितनी नीची होगी, पूँजी की माँग उतनी ही अधिक होगी तथा ब्याज की दर जितनी ऊँची होगी, पूँजी की माँग उतनी ही कम होगी।

पूँजी की पूर्ति – पूँजी की पूर्ति बचत की मात्रा पर निर्भर करती है। जितनी अधिक बचत की जाएगी, पूँजी की पूर्ति उतनी ही अधिक होगी। ब्याज की प्राप्ति के उद्देश्य से ही बचत की जाती है। बचत करने में व्यक्ति को अपनी वर्तमान आवश्यकता को स्थगित करना पड़ता है। व्यक्ति उसी समय पूँजी उधार देता है जब उसे त्याग का प्रतिफल प्राप्त हो। इस प्रकार पूँजी की पूर्ति ब्याज की दर का परिणाम होती है। ऊँची ब्याज दर पर अधिक मात्रा में बचत की जाएगी, इसलिए पूँजी की पूर्ति अधिक होगी। इसके विपरीत नीची ब्याज दर पर कम बचत की जाएगी; अतः पूँजी की पूर्ति कम होगी। इस प्रकार ब्याज की दर और पूँजी की पूर्ति में सीधा सम्बन्ध होता है। ब्याज की निम्नतम दर वह होती है। जिस पर सीमान्त बचत करने वाले को बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। दूसरे शब्दों में, पूँजी बाजार में जो अन्तिम पूँजी पूर्तिकर्ता है उसके कष्ट एवं त्याग के लिए जो रकम ब्याज के रूप में दी जाएगी, वही पूँजी की सीमान्त ब्याज दर होगी या सीमान्त उधार देने वाले के त्याग की क्षतिपूर्ति की मात्रा ब्याज की निम्नतम सीमा निर्धारित करेगी।

ब्याज-दर का निर्धारण – पूँजी बाजार में ब्याज की दर पूँजी की मॉग और पूर्ति के सन्तुलन बिन्दु पर निर्धारित होगी। अन्य शब्दों में, जहाँ बचतों का पूर्ति वक्र उसके माँग वक्र को काटता है उसे ब्याज की सन्तुलन दर कहा जाता है। यदि माँग पक्ष में मोलभाव करने की शक्ति अधिक होगी तो ब्याज की दर पूँजी की सीमान्त उत्पादिता के निकट होगी। इसके विपरीत पूर्ति पक्ष के प्रबल होने पर ब्याज-दर पूँजी की सीमान्त लागत के आस-पास होगी। इस प्रकार ब्याज दर उधार देने वालों की न्यूनतम तथा उधार लेने वालों की अधिकतम सीमा के बीच उस स्थान पर निश्चित होती है, जहाँ पूँजी की माँग और पूर्ति बराबर होती हैं।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – मान लीजिए किसी नगर में ब्याज की विभिन्न दरों पर पूँजी की माँग और पूर्ति निम्न तालिका के अनुसार हैं
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उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि ब्याज दर बढ़ने से पूँजी की पूर्ति बढ़ती है तथा माँग कम हो जाती है। जब ब्याज दर 3 प्रतिशत है तब पूँजी की माँग तथा पूर्ति बराबर है। अत: ब्याज दर 3 प्रतिशत निर्धारित होगी।

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 2
निम्नांकित चित्र में Ox-अक्ष पर पूँजी की माँग एवं पूर्ति (करोड़ रु में) तथा OY-अक्ष पर ब्याज की दर (प्रतिशत ₹ में)। दिखायी गयी है। चित्र में DD माँग वक्र तथा SS पूर्ति वक्र हैं, जो आपस में एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं। E बिन्दु जिस पर पूँजी की माँग एवं पूर्ति बराबर हैं। चित्र में EQ ब्याज की , सन्तुलन दर है। OQ पूँजी की माँग की जाने वाली मात्रा तथा उसकी पूर्ति की मात्रा है। ब्याज की दर इसे सन्तुलन दर से कम या अधिक नहीं हो सकती; अत: बाजार में OR ब्याज की दर ही रहने की प्रवृत्ति रखेगी।

प्रश्न 3
ब्याज-दर निर्धारण के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की सचित्र व्याख्या करें। [2010]
या
तरलता-पसन्दगी (अधिमान) क्या है? इसके द्वारा ब्याज की दर का निर्धारण कैसे होता है?
या
कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2010, 12]
या
कीन्स के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त की व्याख्या चित्र सहित कीजिए। [2013]
या
कीन्स द्वारा दिए गए ब्याज दर के सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर:
प्रो० कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज का सिद्धान्त ‘तरलता-पसन्दगी’ सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। प्रो० कीन्स के अनुसार, ब्याज शुद्ध रूप से मौद्रिक तत्त्व है और वह मुद्रा की माँग व पूर्ति के द्वारा निर्धारित होता है। वे ब्याज को नकदी की कीमत’ (Price of Cash) अथवा किसी निश्चित समय के लिए तरलता का त्याग करने का पुरस्कार मानते हैं।

ब्याज तरलता का परित्याग करने की कीमत है। मुद्रा धन का सबसे तरल रूप है और इसीलिए लोग अपने धन को तरल नकदी के रूप में रखना पसन्द करते हैं। वे अपनी तरलता-पसन्दगी का परित्याग तभी करेंगे जब उन्हें उसके लिए पर्याप्त पुरस्कार दिया जाए। यह पुरस्कार ब्याज के रूप में दिया जाता है। इस प्रकार ब्याज तरलता का परित्याग करने के लिए दी जाने वाली कीमत है। लोगों की तरलता-पसन्दगी जितनी अधिक होगी, उन्हें तरलता का परित्याग करने को प्रोत्साहित करने के लिए उतनी ही ऊँची ब्याज की दर देनी होगी।

ब्याज की दर भी अन्य वस्तुओं की कीमत की भाँति नकदी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होतो है। नकदी की माँग लोगों की तरलता-पसन्दगी के द्वारा निर्धारित होती है। लोगों की तरलता-पसन्दगी निम्नलिखित बातों पर निर्भर है

1. सौदा उद्देश्य – व्यक्तियों तथा व्यावसायिक फर्मों के द्वारा अपने दैनिक भुगतानों को निपटाने के लिए नकदी की माँग की जाती है। लोगों की आय कुछ समयावधि के पश्चात् होती है, जबकि उन्हें व्यय निरन्तर करना पड़ता है; इसलिए लोग अपने व्यापारिक सौदों को निपटाने के लिए अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं। प्रो० कीन्स के अनुसार, सौदा उद्देश्य के लिए नकदी की माँग लोगों की आय तथा निपटाये जाने वाले सौदों की मात्रा पर निर्भर होती है।

2. दूरदर्शिता उद्देश्य – प्रत्येक व्यक्ति अथवा फर्म अपने पास कुछ नकद मुद्रा इसलिये रखना चाहती है कि आवश्यकता पड़ने पर आकस्मिक खर्चा को निपटाया जा सके। बीमारी, मुकदमा, दुर्घटना, बेरोजगारी तथा अन्य किसी आकस्मिक घटना के हो जाने पर नकदी की कमी बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न कर सकती है। इसलिए दूरदर्शिता के कारण व्यक्ति अतिरिक्त नकदी अपने पास रखना चाहता है।

3. सट्टा उद्देश्य – लोगों के द्वारा नकदी की माँग इसलिए भी की जाती है जिससे कि वे सट्टे के कारण उत्पन्न लाभों को प्राप्त कर सकें। सट्टे से अभिप्राय ब्याज की दर की अनिश्चितता से लाभ प्राप्त करना है।

नकदी की कुल माँग इन तीनों उद्देश्यों के लिए की जाने वाली माँग का योग होती है। प्रो० कीन्स ने सौदा उद्देश्य के लिए नकदी की माँग को दूरदर्शिता उद्देश्य की माँग से एक साथ मिलाया है तथा इसे L1 के द्वारा तथा सट्टा उद्देश्य को L2 के द्वारा व्यक्त किया है। इस प्रकार नकदी की कुल माँग L = L1 + L2

मुद्रा की पूर्ति – मुद्रा की पूर्ति सरकार तथा केन्द्रीय बैंक की मुद्रा-सम्बन्धी नीति पर निर्भर होती है, इसलिए मुद्रा की पूर्ति प्रायः निश्चित रहती है और उसमें बहुत कम परिवर्तन होते हैं; अत: उसे एक समानान्तर खड़ी रेखा के द्वारा दिखाया जा सकता है।

ब्याज का निर्धारण – इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर उस बिन्दु पर निर्धारित होती है। जहाँ पर नकदी के लिए माँग और नकदी की पूर्ति ठीक एक-दूसरे के बराबर होती है अर्थात् जहाँ पर तरलता-पसन्दगी वक्र नकद मुद्रा के पूर्ति वक्र को काटता है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण
संलग्न चित्र में OX-अक्ष पर नकदी की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर ब्याज की दर दिखायी गयी है। चित्र में MM नकद मुद्रा की पूर्ति रेखा हैं तथा LP तरलता-पसन्दगी वक्र अथवा नकद मुद्रा का माँग वक्र है। C बिन्दु पर LP वक्र MM वक्र को काटता है, इसीलिए इसे सन्तुलन-बिन्दु कहा जा सकता है। इस बिन्दु पर नकद मुद्रा की माँग और पूर्ति बराबर हैं; अत: ब्याज की दरे CM या OI’ होगी। यदि नकद मुद्रा की माँग बढ़ जाती है और LP वक्र L1 वक्र का स्थान ले लेता है तो ब्याज की दर CM से बढ़कर नकद मुद्रा की पूर्ति रेखा DM या OI’ हो जाएगी।
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आलोचनाएँ –

  1.  यह सिद्धान्त पूँजी की उत्पादकता को, मुद्रा की माँग को प्रभावित करने वाला तत्त्व नहीं मानता और इसीलिए इस सिद्धान्त के द्वारा किया गया मुद्रा की माँग का विश्लेषण अपूर्ण है।
  2. इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज तरलता का परित्याग करने का पुरस्कार है, किन्तु आलोचकों के अनुसार, ब्याज तरलता का परित्याग करने के लिए नहीं दिया जाता, बल्कि वह इसलिये दिया जाता है क्योंकि पूँजी उत्पादक होती है।
  3.  ब्याज का तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त एकपक्षीय है, क्योंकि वह केवल मुद्रा की माँग अथवा तरलता-पसन्दगी पर जोर देता है।
  4. यह सिद्धान्त मौद्रिक तत्त्वों पर आवश्यकता से अधिक जोर देता है और ब्याज-निर्धारण को प्रभावित करने वाले वास्तविक तत्त्वों की ओर कोई ध्यान नहीं देता।

इन आलोचनाओं के होते हुए भी कीन्स के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त को सबसे अधिक मान्यता मिली है और उसे ब्याज-निर्धारण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त समझा जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
ब्याज की परिभाषा दीजिए। ब्याज लेने और देने का आधार क्या है?
या
ब्याज को परिभाषित कीजिए। [2011, 14, 15]
उत्तर:
ब्याज की परिभाषा – ब्याज वह भुगतान है जो पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाता है। वह एक प्रकार के ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है। प्रो० मार्शल के अनुसार, “ब्याज किसी बाजार में पूंजी के प्रयोग के बदले में दी जाने वाली कीमत है।”

पूँजी पर ब्याज देने का आधार – पूँजी की माँग उसकी उत्पादकता के कारण उत्पन्न होती है। पूँजी की माँग इसलिए की जाती है क्योंकि वह उपभोग की वस्तुएँ उत्पन्न कर सकती है जो हमारे लिए
ब्याज की दर उपयोगी होती हैं; अत: पूँजी पर ब्याज दिया जाता है। पूँजी की माँग विनियोग से उत्पन्न होती है; अतः ब्याज की दर विनिमय से निर्धारित होती है। पूँजी पर ब्याज लेने का आधार-समाज में पूँजी की पूर्ति बचत की मात्रा पर निर्भर होती है। बचत प्रतीक्षा और त्याग का परिणाम होती है।

पूँजी को उधार देने में ऋणदाता को पूँजी का त्याग करना पड़ता है तथा पूँजी के वापस आने तक संयम और प्रतीक्षा करनी पड़ती है। अतः वह पूंजी के बदले पारिश्रमिक के रूप में ब्याज प्राप्त करना चाहता है जिससे लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। अतः कोई भी ऋणदाता अपनी पूँजी पर त्याग किये जाने वाले सीमान्त त्याग के आधार पर ब्याज लेना चाहता है।

प्रश्न 2
कुल (सकल) ब्याज और शुद्ध ब्याज के अन्तर को बताइए। [2007, 11, 12, 14]
उत्तर:
कुल ब्याज एवं शुद्ध ब्याज में अन्तर
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प्रश्न 3
ब्याज क्यों दिया जाता है ? कारण बताइए। [2010,2016]
उत्तर:
ब्याज निम्नलिखित कारणों से दिया जाता है

1. पूँजी की उत्पादकता के कारण – ऋणी ब्याज इसलिए देता है कि पूँजी में उत्पादकता का गुण विद्यमान है। पूँजी की उत्पादकता के कारण ही पूँजी की माँग होती है। ब्याज पूँजी की उत्पादकता के कारण पैदा होता है। श्रम पूँजी की सहायता से अधिक धन उत्पन्न करता है, बिना पूँजीगत वस्तुओं की अपेक्षा के अर्थात् श्रम पूँजीगत वस्तुओं (मशीनें, औजार एवं अन्य पूँजीगत वस्तुओं) को प्रयोग करके उत्पादन में अधिक वृद्धि करता है। जो लोग पूँजी का उपयोग करते हैं उनकी आय बढ़ जाती है। पूँजी का उपयोग उत्पादक है, इसलिए उधार लेने वाले पूँजीपति को ब्याज देने के लिए तैयार रहते हैं।

2. पूंजी के त्याग एवं प्रतीक्षा के कारण – ऋणी ब्याज इसलिए भी देता है, क्योंकि वह जानता है कि जब कोई व्यक्ति अपनी आय का कुछ भाग बचाता है तो वह अपने उपभोग को कुछ समय के लिए स्थगित करता है। बचत करने में उसे प्रतीक्षा एवं त्याग करना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति अपनी पूँजी का त्याग एवं प्रतीक्षा तब तक नहीं करेगा जब तक उसे किसी प्रकार का लालच न दिया जाए। लालच के रूप में ऋणी उसे ब्याज देता है। इस प्रकार ब्याज प्रतीक्षा के लिए दिया जाने वाला मूल्य है।

3. बचत को प्रोत्साहित करने के लिए – कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो तभी बचत करते हैं जब उन्हें उसके लिए यथेष्ट पुरस्कार मिलता है। ऐसे लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु भी ब्याज दिया जाता है।

4. वर्तमान सुख की क्षतिपूर्ति के कारण – पूँजीपति को वर्तमान वस्तुओं के उपभोग को छोड़ना पड़ता है और ये वर्तमान वस्तुएँ भविष्य की वस्तुओं पर एक प्रकार का परितोषण रखती हैं। इस परितोषण की हानि की क्षतिपूर्ति के लिए ही ब्याज दिया जाता है।

प्रश्न 4
क्या ब्याज दर शून्य हो सकती है? [2006, 08, 15]
या
ब्याज दर के शून्य न होने के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए। [2006, 10]
उत्तर:
ब्याज दर की शून्यता
इस विषय में कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि जैसे-जैसे देश को आर्थिक एवं सामाजिक विकास होता जाएगा, ब्याज की दर घटती जाएगी और एक ऐसी स्थिति आ जाएगी कि ब्याज दर शून्य हो जाएगी। विकसित देशों में ब्याज की दरें विकासशील देशों की अपेक्षा कम हैं और प्रायः कम होती जा रही हैं। ब्याज दर कम होते जाने से ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ समय पश्चात् ब्याज की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यह केवल कल्पना है। शुम्पीटर का कहना है कि “ब्याज दर शून्य हो सकती है, परन्तु उस समय जबकि उत्पादन क्रिया रुक जाए और समाज गतिहीन अवस्था में पहुँच जाए।” अत: ब्याज दर का शून्य होना मात्र भ्रामक एवं सैद्धान्तिक है। व्यावहारिक जीवन में यह स्थिति देखने को नहीं मिलती और न भविष्य में ही ऐसी सम्भावना है।

ब्याज-दर शून्य न होने के कारण

  1.  पूँजी की माँग का निरन्तर बने रहना – ज्ञान एवं सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानवीय आवश्यकताओं में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। इसलिए पूँजी की माँग सदैव बनी रहेगी और ब्याज-दर शून्य नहीं हो सकती।
  2.  बचत के लिए प्रलोभन आवश्यक है – उधार देने वालों को यदि संयम और प्रतीक्षा के लिए कुछ भी प्रतिफल न मिले तो वे बचत नहीं करेंगे; अतः उन्हें ब्याज मिलना आवश्यक है। इस कारण ब्याज – दर कभी भी शून्य नहीं हो सकती।।
  3.  ऋण देने की असुविधाओं एवं व्यय के कारण – ऋणदाता को पूँजी उधार देने में जो जोखिम, असुविधाएँ तथा प्रबन्ध व्यय करना पड़ता है, यदि इसके लिए उसे कुछ प्रतिफल नहीं मिलेगी तो कोई भी व्यक्ति पूँजी उधार देने के लिए तैयार नहीं होगा। इस कारण भी ब्याजदर शून्य नहीं हो सकती।
  4.  देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए – आर्थिक विकास एक सतत प्रक्रिया है। यह लगातार चलती रहती है। अतः पूँजी की माँग सर्वदा बनी रहेगी, क्योंकि पूँजी के अभाव में देश की प्रगति नहीं हो सकती। इस कारण भी ब्याज-दर शून्य नहीं हो सकती।।
  5.  पूँजी में उत्पादकता का गुण होना – पूँजी में उत्पादकता का गुण होता है। पूँजी की सीमान्त उत्पादकता कभी भी शून्य नहीं हो सकती। इसलिए ब्याज दर कभी भी शून्य नहीं हो सकती।
    स्पष्ट है कि भविष्य में ब्याज-दर शून्य या शून्य से कम हो सकती है, केवल भ्रामक, त्रुटिपूर्ण एवं आधारहीन विचार है।

प्रश्न 5
देश के विभिन्न भागों में ब्याज की दर में भिन्नता के क्या कारण हैं ? समझाइए।
उत्तर:
ब्याज की दरों में भिन्नता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं|

1. ऋण का प्रयोजन – ऋणदाता ऋण देते समय यह ध्यान रखता है कि ऋण उत्पादक कार्यों के लिए लिया जा रहा है अथवा अनुत्पादक कार्यों के लिए। उत्पादक कार्यों के लिए ऋण कम ब्याज की दर पर मिल जाता है, क्योंकि ऐसे ऋणों की वापसी की अधिक सम्भावना रहती है। इसके विपरीत अनुत्पादक कार्यों के लिए दिये जाने वाले ऋणों पर ब्याज की दर अधिक होती है, क्योंकि ऐसे ऋणों में जोखिम अधिक होती है। इस प्रकार ब्याज की दर में भिन्नता पायी जाती है।

2. ऋण की अवधि – ऋण की अवधि के अनुसार भी ब्याज की दरों में भिन्नता होती है। यह अवधि जितनी अधिक लम्बी होती है, ब्याज की दर उतनी ही ऊँची होती है। अल्पकालीन ऋणों की अपेक्षा दीर्घकालीन ऋणों पर ब्याज की दर ऊँची होती है। दीर्घकालीन ऋणों पर ब्याज की दर अधिक इसलिए होती है, क्योंकि इन ऋणों के सम्बन्ध में ऋणदाता को अधिक समय के लिए तरलता-पसन्दगी को त्याग करना पड़ता है। भविष्य में अनिश्चितता के कारण इस प्रकार के ऋणों में जोखिम भी अधिक होती है।

3. ऋणी की साख – यदि ऋणी व्यक्ति की साख उत्तम है तो उसे कम ब्याज पर ऋण प्राप्त हो जाता है। इसके विपरीत, यदि ऋणी की साख एवं आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो उसे ऋण ऊँची ब्याज दर पर प्राप्त होता है।

4. व्यवसाय की प्रकृति – जोखिमपूर्ण व्यवसायों में ऋण ऊँची ब्याज दर पर ही प्राप्त हो सकता है, क्योंकि ऐसे व्यवसायों में पूँजी डूब जाने का भय बना रहता है। इसके विपरीत कम जोखिम वाले व्यवसायों के लिए ऋण कम ब्याज दर पर प्राप्त हो जाते हैं।

5. ऋण की जमानत – ऋण के रूप में दी जाने वाली धनराशि की सुरक्षा के लिए जमानत ली जाती है। जमानत पर ऋण देने में जोखिम कम होती है। अतः जमानत पर ऋण कम ब्याज दर पर दिये जाते हैं और बिना जमानत पर दिये जाने वाले ऋणों की ब्याज दर ऊँची होती है।

6. बैंकिंग सुविधा में भिन्नता – जिन स्थानों पर बैंकिंग व्यवस्था और सहकारी साख सुविधाओं का विकास अधिक होता है वहाँ पर ब्याज की दर कम होती है तथा जिन स्थानों पर बैंकिंग व्यवस्था व सहकारी साख संस्थाओं का विकास कम होता है वहाँ पर ब्याज दर अधिक होती है। यही कारण है कि भारत में नगरों की अपेक्षा ग्रामों में ब्याज दर ऊँची है।

7. सुविधाओं में अन्तर – जिन व्यक्तियों से ऋण की वापसी सुविधापूर्वक हो जाती है, उन्हें कम ब्याज दर पर ऋण दिया जा सकता है। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों से ऋण की वापसी कठिनाई से होती है, उन्हें अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दर पर ऋण दिया जाता है।

8. पूँजी बाजार में प्रतियोगिता – यदि ऋणदाता और ऋण में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है। तब ब्याज की देर समान रहेगी, किन्तु भारत में प्राय: प्रतियोगिता का अभाव है, इसी कारण ब्याज की दरों में भिन्नता पायी जाती है। गाँवों में रहने वाले व्यक्तियों को मुद्रा बाजार का ज्ञान नहीं होता; अतः ऋणदाता इनसे अधिक ब्याज की दर वसूल करने में सफल हो जाते हैं। इसके विपरीत शहरों में बैंकों व साहूकारों में समुचित जमानत पर ऋण देने की प्रतियोगिता होती है; इसीलिए वहाँ ब्याज की दर नीची होती है। अतः पूँजी बाजार में प्रतियोगिता भी ब्याज की दर को प्रभावित करती है।

प्रश्न 6
भारत में ब्याज-दर की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
भारत में ब्याज-दर की निम्नलिखित तीन विशेषताएँ पायी जाती हैं

(अ) ऊँची ब्याज-दर
भारत में ब्याज की दरें विकसित देशों की अपेक्षा बहुत ऊँची हैं। ब्याज की ऊँची दरें होने के निम्नलिखित कारण हैं

1. पूँजी की अधिक माँग – भारत एक विकासशील देश है। नियोजन के माध्यम से अपने आर्थिक विकास में प्रयत्नशील है। इस हेतु पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है। प्रत्येक क्षेत्र चाहे वह कृषि है या उद्योग-धन्धे या देश में सड़कों, नहरों व बाँधों का निर्माण, सभी में पूँजी की आवश्यकता होती है। इस कारण पूँजी की माँग अधिक और ब्याज-दरें ऊँची हैं।

2. पूँजी की पूर्ति कम –
हमारे देश में पूँजी की पूर्ति की कमी है, क्योंकि यहाँ के निवासी निर्धन । एवं अशिक्षित हैं। उनके पास संचय शक्ति का अभाव है। इस कारण भी ब्याज-दर ऊँची है।

3. उन्नत बैकिंग व्यवस्था की कमी – भारत में अब तक भी बैंकिंग व्यवस्था का पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी साख संस्थाओं एवं बैंकों का अभाव है। इस कारण ब्याज-दरें ऊँची हैं।

4. निर्धनता एवं अज्ञानता – हमारे देश के अधिकांश निवासी निर्धन एवं अशिक्षित हैं। निर्धनता के कारण वे ऋण प्राप्त करने के लिए अच्छी जमानत नहीं दे पाते। अज्ञानता के कारण वे अनुत्पादक कार्यों; जैसे-विवाह, मृत्यु-भोज, मुकदमेबाजी आदि के लिए भी ऋण लेते हैं, जिससे ब्याज-दरें ऊँची रहती हैं।

5. अत्यधिक ब्याज लेने की प्रवृत्ति – हमारे देश के महाजनों एवं साहकारों की मनोवृत्ति अधिक ब्याज प्राप्त करने की होती है। वे किसानों एवं मजदूरों की विवशता का लाभ उठाकर अधिक-से-अधिक ब्याजदर प्राप्त करना चाहते हैं। इस कारण भी भारत में ब्याज दरें ऊँची हैं।

(ब) ब्याज-दर में स्थानीय भिन्नता

भारत में ब्याज दरों की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता ब्याज दरों में स्थानीय भिन्नता का पाया जाना है। भारत में नगरों की अपेक्षा गाँवों में ब्याज-दरें ऊँची होती हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं

  1.  बैंकिंग एवं संगठित साख बाजार का अभाव।
  2. अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋण लेना।
  3.  निर्धनता के कारण उचित जमानत का न होना।
  4.  ग्रामीण जनता का अशिक्षित होना।
  5.  संगठित बाजार के अभाव के कारण महाजनों का मनमाने ढंग से ऋण देना तथा ऊँची ब्याज-दर वसूल करना।

इसके विपरीत शहरों में ब्याज-दरें नीची होती हैं, क्योंकि

  1.  शहरों में बैंकिंग व्यवस्था सुदृढ़ होती है।
  2. पूँजी बाजार अधिक संगठित होता है।
  3. नगरों के लोग अधिकतर उत्पादक कार्यों के लिए ऋण लेते हैं।
  4. उधार लेने वाले अच्छी जमानत देते हैं।
  5. साख संस्थाओं में प्रतियोगिता पायी जाती है।
  6. नगरों के लोग अपेक्षाकृत शिक्षित होते हैं। इस कारण वे साख बाजार से परिचित होते हैं।

(स) ब्याज-दर में मौसमी भिन्नता।
हमारे देश में ब्याज की दर पर मौसम का प्रभाव भी पड़ता है। किसानों को फसल की बुआई के समय एवं कटाई के समय अधिक ऋण की आवश्यकता होती है। फसल की बुआई के समय खाद, पानी, बीज एवं मजदूरी के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है तथा फसल कटने के समय मण्डी तक पहुँचाने में धन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार फसल बुआई एवं कटाई के समय पर ब्याज-दर ऊँची होती है, शेष समय में ब्याज-दर अपेक्षाकृत नीची रहती है। इसी प्रकार शादी-विवाह भी भारत में एक समय-विशेष पर होते हैं। उस समय ब्याज-दरें ऊँची हो जाती हैं। इस कारण भारत में ब्याज-दरों में मौसमी विभिन्नता पायी जाती है।

प्रश्न 7
भारत में कृषकों द्वारा दी जाने वाली ब्याज-दरें ऊँची होती हैं। क्यों ? कारण दीजिए।
उत्तर:
भारतीय कृषक द्वारा दी जाने वाली ब्याज-दर ऊँची होने के कारण

  1. कृषक को उपभोग कार्यों के लिए ऋण लेना पड़ता है, क्योकि फसल नष्ट होने पर या विवाह-शादी, जन्म-मरण, मुकदमेबाजी के लिए कृषकों को ऋण की आवश्यकता होती है। अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋणों पर जोखिम अधिक होती है; अत: अधिक ब्याज लिया जाता है।
  2. कृषकों के पास ऋण लेने के लिए भूमि के अतिरिक्त कोई जमानत नहीं होती। वह भूमि को भय के कारण जमानत के रूप में नहीं रखता है; अत: जमानत के अभाव में ब्याज अधिक देना पड़ता है।
  3. उन्नत बैंकिंग व्यवस्था की अपर्याप्तता के कारण भी किसानों को ऊँची ब्याज दर पर ही ऋण प्राप्त होता है, क्योंकि भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बैंकिंग व्यवस्था का विकास नहीं हो पाया है।
  4. देश में कृषकों को साख प्रदान करने वाली संस्थाएँ; जैसे – सहकारी साख समितियाँ, व्यापारिक बैंक एवं भूमि विकास बैंक, केवल उत्पादन कार्यों के लिए ही ऋण देते हैं। फसल नष्ट होने पर कृषकों को उपभोग हेतु भी ऋण की आवश्यकता होती है जिसके लिए उसे महाजन आदि का सहारा लेना पड़ता है। महाजनों की ब्याज दरें ऊँची होती हैं।
  5. बैंक या साख संस्थाओं से ऋण मिलने में किसान को अधिक समय लगता है। इस देरी से बचने के लिए भी किसान महाजनों के पास ही जाते हैं जहाँ उनका पूर्ण शोषण होता है। महाजन ऊँची ब्याज दर पर ऋण प्रदान करता है।
  6.  अशिक्षा और अज्ञानता के कारण भी भारतीय कृषक ऊँची ब्याज-दर पर ऋण लेते हैं। उन्हें मुद्रा बाजार का ज्ञान नहीं होता है।
  7.  गाँवों के किसान थोड़ी मात्रा में प्रायः छोटी आवश्यकताओं हेतु ऋण लेते हैं। ऐसे ऋण देने व वसूल करने में प्रबन्ध व्यय अधिक होता है; अत: ब्याज-दर ऊँची होती है।
  8.  फसलों की बुआई के समय किसानों की ऋण सम्बन्धी आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, क्योंकि इस समय उन्हें उत्पादक और उपभोग सम्बन्धी दोनों प्रकार के कार्यों के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है; अतः पूँजी की माँग बढ़ने से ब्याज-दर ऊँची हो जाती है।
  9. ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजी की माँग अधिक होने पर भी पूँजी बहुत कम है। इस कारण किसानों को ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेने के लिए विवश होना पड़ता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित तालिका के अनुसार ब्याज की दर क्या होगी ? चित्र बनाइए।
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 5
उत्तर:
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 11 Interest 6
उपर्युक्त तालिका के अनुसार ब्याज की दर 3 प्रतिशत होगी (देखें संलग्न रेखाचित्र)।

प्रश्न 2
ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त – यह सिद्धान्त ब्याज-निर्धारण के पूर्ति पक्ष का विश्लेषण करता है और यह बताता है कि ब्याज की दर किस प्रकार ‘बचत करने की लागत के द्वारा निश्चित होती है। सीनियर के अनुसार, समस्त पूँजी त्याग का परिणाम है। पूँजी बचत से उत्पन्न होती है, बचत करने के लिए त्याग करना पड़ता है। बचत करने के लिए वर्तमान उपभोग का त्याग करना पड़ता है। ब्याज इसलिए दिया जाता है क्योंकि ऋणदाता बचत करने के लिए अपने वर्तमान उपभोग का त्याग करता है। उपयोग का त्याग करना कष्टपूर्ण होता है जिसके लिए बचत करने वाले को प्रतिफल मिलना चाहिए। अत: ब्याज वह पारितोषण है जो बचत करने वाले को उस संयम या त्याग की क्षतिपूर्ति के लिए दिया जाता है जो उसे बचते करने में करना पड़ता है। ब्याज बचत करने वालों को उनके त्याग अथवी संयम के लिए मिलने वाला पुरस्कार है। बचत करने में जो त्याग करना पड़ता है। उसका द्रव्य मूल्य ‘बचत करने की लागत है’ और ब्याज इस लागत के बराबर होता है। बचत करने में जितना अधिक त्याग करना पड़ता है ब्याज की दर उतनी ही ऊँची होती है।

प्रश्न 3
फिशर का समय पसन्दगी सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
फिशर ने अपने सिद्धान्त में समय के महत्त्व को माना है और कहा है कि मनुष्य वस्तुओं के वर्तमान उपभोग को भविष्य की अपेक्षा अधिक पसन्द किये जाने का कारण भविष्य का अनिश्चित होना नहीं है, बल्कि मनुष्य में पायी जाने वाली एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मनुष्य की यह समय पसन्दगी ही ब्याज का कारण है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि लोगों की एक समय पसन्दगी होती है। और जब वे बचत करते हैं तो उन्हें इस समय पसन्दगी का त्याग करना होता है। ब्याज समय पसन्दगी के त्याग के लिए पुरस्कार है।

प्रश्न 4
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
ब्याज के पारितोषिक सिद्धान्त का पूर्ण विकास बॉम बावर्क ने किया। उनके अनुसार, पारितोषिक सिद्धान्त मनोविज्ञान की इस धारणा पर आधारित है कि मनुष्य वर्तमान को भविष्य की अपेक्षा अधिक महत्त्व देता है। बॉम बावर्क के अनुसार, ब्याज को मुख्य कारण वर्तमान वस्तुओं का भविष्य की वस्तुओं की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होना है। इस कारण वर्तमान वस्तुओं को भविष्य की वस्तुओं की तुलना में एक प्रकार का परितोषण मिलता है।

प्रश्न 5
कीन्स द्वारा बताये गये तरलता-पसन्दगी के तीन उद्देश्यों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) सौदा उद्देश्य – लोग अपने व्यापारिक सौदों को निपटाने के लिए अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं।
(2) दूरदर्शिता उद्देश्य – लोग दूरदर्शी होते हैं। भविष्य की आकस्मिकता को ध्यान में रखकर अपनी आय का कुछ भाग नकदी के रूप में रखते हैं।
(3) सट्टा उद्देश्य – लोग सट्टे के कारण उत्पन्न लाभों को प्राप्त करने के लिए भी अपनी आय को तरल रूप में रखते हैं।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
विशुद्ध ब्याज किसे कहते हैं? [2007, 08, 10]
उत्तर:
विशुद्ध ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को कहते हैं, जबकि ऋण देने के सम्बन्ध में किसी प्रकार की जोखिम, असुविधा तथा अतिरिक्त कार्य नहीं होता।

प्रश्न 2
कुल ब्याज के आवश्यक तत्त्व बताइए।
उत्तर:
कुल ब्याज के आवश्यक तत्त्व हैं

  1. विशुद्ध ब्याज,
  2. जोखिम का प्रतिफल,
  3. असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा
  4. ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त काम का भुगतान।

प्रश्न 3
ब्याज के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के द्वारा ब्याज कैसे निर्धारित होता है ?
उत्तर:
ब्याज के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार पूँजी की उत्पादकता उसके ब्याज को निश्चित करती है और ब्याज की दर पूँजी की उत्पादकता दर के समानुपाती होती है।

प्रश्न 4
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त में प्रो० मार्शल ने क्या सुधार किया ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त के दोषों को दूर करने के लिए त्याग के स्थान पर प्रतीक्षा शब्द का प्रयोग किया, इसलिए इस सिद्धान्त का वर्तमान रूप ‘प्रतीक्षा सिद्धान्त’ है।

प्रश्न 5
ब्याज का ऋण-योग्य कोष सिद्धान्त किस अर्थशास्त्री का है ?
उत्तर:
ब्याज का ऋण-योग्य कोष का सिद्धान्त सर्वप्रथम प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ‘नट विकसेल’ के द्वारा प्रतिपादित किया गया।

प्रश्न 6
ब्याज का माँग और पूर्ति सिद्धान्त क्या है?
या
ब्याज का क्लासिकल सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
ब्याज का माँग और पूर्ति सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर पूँजी की माँग और पूर्ति से निर्धारित होती है। पूँजी की माँग विनियोग से तथा उसकी पूर्ति बचत से उत्पन्न होती है, इसलिए ब्याज की दर बचत और विनियोग से निर्धारित होती है।

प्रश्न 7
सकल एवं शुद्ध ब्याज में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2006, 07, 08, 09, 10, 11]
उत्तर:
पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को विशुद्ध ब्याज कहते हैं। कुल ब्याज में शुद्ध ब्याज के अतिरिक्त जोखिम का प्रतिफल असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले अतिरिक्त कार्य का भुगतान भी सम्मिलित होता है।

प्रश्न 8
ब्याज के तरलता अधिमान (पसन्दगी) सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया ? [2008, 10, 11, 12, 15, 16]
उत्तर:
जे० एम० कीन्स ने।

प्रश्न 9
जे० एम० कीन्स के अनुसार ब्याज क्या है ? [2009, 15]
उत्तर:
“ब्याज तरलता का परित्याग करने की कीमत है।” मुद्रा धन का सबसे तरल रूप है।

प्रश्न 10
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त
या
एजियो सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन थे ?
उत्तर:
ब्याज का पारितोषिक सिद्धान्त सर्वप्रथम जॉन रे के द्वारा प्रतिपादित किया गया।

प्रश्न 11
“ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग के बदले में दी जाने वाली कीमत है।” यह परिभाष किस अर्थशास्त्री की है ?
उत्तर:
प्रो० मार्शल की।

प्रश्न 12
ब्याज ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिए दी जाने वाली कीमत है।” यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री की है ?
उत्तर:
मेयर्स की।

प्रश्न 13
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया था ?
उत्तर:
ब्याज के त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन अर्थशास्त्री सीनियर ने किया था।

प्रश्न 14
ब्याज की दर में भिन्नता के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
ब्याज की दर में भिन्नता के दो कारण हैं

  1. व्यवसाय की प्रकृति तथा
  2. ऋण की प्रकृति।

प्रश्न 15
ब्याज निर्धारण के केसीय सिद्धान्त का नाम लिखिए। [2013]
या
जॉन मेनार्ड कीन्स द्वारा प्रतिपादित ब्याज के सिद्धान्त का नाम लिखिए। [2015]
उत्तर:
ब्याज निर्धारण के केन्सीय सिद्धान्त का नाम तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त है।

प्रश्न 16
ब्याज उत्पत्ति के किस साधन का पुरस्कार है?
उत्तर:
ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में प्राप्त होने वाला पुरस्कार है।

प्रश्न 17
ब्याज-दर निर्धारण के किन्हीं दो सिद्धान्तों के नाम लिखिए। [2015]
उत्तर:
(1) ब्याज का त्याग सम्बन्धी सिद्धान्त तथा
(2) ब्याज का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त।

प्रश्न 18
जोखिम उठाने का पुरस्कार क्या होता है? [2015, 16]
उत्तर:
ब्याज।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
उधार देने योग्य कोषों के प्रयोग के बदले में दी गयी राशि को कहते हैं
(क) लगान
(ख) ब्याज
(ग) मजदूरी
(घ) लाभ
उत्तर:
(ख) ब्याज।

प्रश्न 2
“ब्याज वह कीमत है, जो उधार देने योग्य कोषों के प्रयोग के बदले में दी जाती है। यह परिभाषा है
(क) जे० एम० कीन्स की
(ख) मेयर्स की
(ग) प्रो० मार्शल की
(घ) पीगू की।
उत्तर:
(ख) मेयर्स की।

प्रश्न 3
ब्याज वह पुरस्कार है जो प्राप्त होता है
(क) पूँजीपति को
(ख) भूस्वामी को
(ग) प्रबन्धक को
(घ) उद्यमी को
उत्तर:
(क) पूँजीपति को।

प्रश्न 4
ब्याज की दर के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है?
(क) ब्याज की दर शून्य हो सकती है।
(ख) ब्याज की दर शून्य नहीं हो सकती
(ग) आर्थिक विकास के साथ-साथ ब्याज की दर में वृद्धि होती रहती है।
(घ) ब्याज की दर ज्ञात नहीं की जा सकती
उत्तर:
(ख) ब्याज की दर शून्य नहीं हो सकती।

प्रश्न 5
पूँजी के प्रयोग के बदले में दिया जाने वाला पुरस्कार हैया पूँजी पर पुरस्कार को कहते हैं [2015]
(क) लाभ
(ख) लगान
(ग) ब्याज
(घ) मजदूरी
उत्तर:
(ग) ब्याज।

प्रश्न 6
“ब्याज निश्चित अवधि के लिए तरलता के परित्याग का पुरस्कार है।” यह कथन किसका है? [2006, 07, 10, 13, 14, 15, 16]
(क) मार्शल
(ख) पीगू
(ग) रॉबर्टसन
(घ) कीन्स
उत्तर:
(घ) कीन्स।

प्रश्न 7
ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त में सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग निर्भर है
(क) जनसंख्या के आकार पर
(ख) आय-स्तर पर
(ग) रहन-सहन के स्तर पर
(घ) ब्याज की दर पर
उत्तर:
(घ) ब्याज की दर पर।

प्रश्न 8
ब्याज का तात्पर्य है
(क) पूँजी से प्राप्त होने वाला प्रतिफल
(ख) पूँजी से प्राप्त होने वाली अतिरिक्त आय
(ग) पूँजीगत लाभ
(घ) पूँजी से प्राप्त होने वाला कमीशन
उत्तर:
(क) पूँजी से प्राप्त होने वाला प्रतिफल।

प्रश्न 9
ब्याज के तरलता-पसन्दगी सिद्धान्त में मुद्रा का पूर्ति वक्र किस रूप में होता है? [2006]
(क) बाएँ से दाएँ ऊपर की ओर उठता हुआ
(ख) बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरता हुआ
(ग) क्षैतिज रेखा के रूप में
(घ) ऊर्ध्वाधर रेखा के रूप में।
उत्तर:
(घ) ऊर्ध्वाधर रेखा के रूप में।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन ब्याज के तरलता अधिमान (पसन्दगी) सिद्धान्त के प्रतिपादक थे? [2014, 15]
(क) रिकाडों
(ख) एडम स्मिथ
(ग) मार्शल
(घ) कीन्स
उत्तर:
(घ) कीन्स।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध

विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध

विज्ञान : वरदान या अभिशाप [2009, 10]

सम्बद्ध शीर्षक

  • विज्ञान और समाज [2011]
  • विज्ञान के बढ़ते चरण
  • विज्ञान के चमत्कार [2014]
  • विज्ञान लाभ एवं हानि
  • विज्ञान की देन
  • वैज्ञानिक प्रगति और मानव-जीवन
  • विज्ञान का कल्याणकारी स्वरूप
  • विज्ञान का रचनात्मक स्वरूप [2013, 18]
  • विज्ञान और मानव-कल्याण [2016]

प्रमुख विचार-विन्द

  1. प्रस्तावना,
  2. विज्ञान : वरदान के रूप में—(क) यातायात के क्षेत्र में; (ख) संचार के क्षेत्र में; (ग) दैनन्दिन जीवन में; (घ) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में; (ङ) औद्योगिक क्षेत्र में; (च) कृषि के क्षेत्र में; (छ) शिक्षा के क्षेत्र में; (ज) मनोरंजन के क्षेत्र में,
  3. विज्ञान : अभिशाप के रूप में,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना-आज का युग वैज्ञानिक चमत्कारों का युग है। मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आज विज्ञान ने आश्चर्यजनक क्रान्ति ला दी है। मानव-समाज की सारी गतिविधियाँ आज विज्ञान से परिचालित हैं। दुर्जेय प्रकृति पर विजय प्राप्त कर आज विज्ञान मानव का भाग्यविधाता बन बैठा है। अज्ञात रहस्यों की खोज में उसने आकाश की ऊँचाइयों से लेकर पाताल की गहराइयाँ तक नाप दी हैं। उसने हमारे जीवन को सब ओर से इतना प्रभावित कर दिया है कि विज्ञान-शून्य विश्व की आज कोई कल्पना तक नहीं कर सकता, किन्तु दूसरी ओर हम यह भी देखते हैं कि अनियन्त्रित वैज्ञानिक प्रगति ने मानव के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। इस स्थिति में हमें सोचना पड़ता है कि विज्ञान को वरदान समझा जाए या अभिशाप। अतः इन दोनों पक्षों पर समन्वित दृष्टि से विचार करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना उचित होगा।

विज्ञान : वरदान के रूप में आधुनिक मानव का सम्पूर्ण पर्यावरण विज्ञान के वरदानों के आलोक से आलोकित है। प्रातः जागरण से लेकर रात के सोने तक के सभी क्रिया-कलाप विज्ञान द्वारा प्रदत्त साधनों के सहारे ही संचालित होते हैं। प्रकाश, पंखा, पानी, साबुन, गैस स्टोव, फ्रिज, कूलर, हीटर और यहाँ तक कि शीशा, कंघी से लेकर रिक्शा, साइकिल, स्कूटर, बस, कार, रेल, हवाई जहाज, टी०वी०, सिनेमा, रेडियो आदि जितने भी साधनों का हम अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं, वे सब विज्ञान के ही वरदान हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि आज का अभिनव मनुष्य विज्ञान के माध्यम से प्रकृति पर विजय पा चुका है-

आज की दुनिया विचित्र नवीन,
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन ।
हैं बँधे नर के करों में वारि-विद्युत भाप,
हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप ।
है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
लाँघ सकता नर सरित-गिरि-सिन्धु एक समान ॥

विज्ञान के इन विविध वरदानों की उपयोगिता कुछ प्रमुख क्षेत्रों में निम्नलिखित है-
(क) यातायात के क्षेत्र में प्राचीन काल में मनुष्य को लम्बी यात्रा तय करने में बरसों लग जाते थे, किन्तु आज रेल, मोटर, जलपोत, वायुयान आदि के आविष्कार से दूर-से-दूर स्थानों पर बहुत शीघ्र पहुँचा जा सकता है। यातायात और परिवहन की उन्नति से व्यापार की भी कायापलट हो गयी है। मानव केवल धरती ही नहीं, अपितु चन्द्रमा और मंगल जैसे दूरस्थ ग्रहों तक भी पहुंच गया है। अकाल, बाढ़, सूखी आदि प्राकृतिक विपत्तियों से पीड़ित व्यक्तियों की सहायता के लिए भी ये साधन बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इन्हीं के चलते आज सारा विश्व एक बाजार बन गया है।

(ख) संचार के क्षेत्र में-बेतार के तार ने संचार के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है। आकाशवाणी, दूरदर्शन, तार, दूरभाष (टेलीफोन, मोबाइल फोन), दूरमुद्रक (टेलीप्रिण्टर, फैक्स) आदि की सहायता से कोई भी समाचार क्षण भर में विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाया जा सकता है। कृत्रिम उपग्रहों ने इस दिशा में और भी चमत्कार कर दिखाया है।

(ग) दैनन्दिन जीवन में विद्युत् के आविष्कार ने मनुष्य की दैनन्दिन सुख-सुविधाओं को बहुत बढ़ा दिया है। वह हमारे कपड़े धोती है, उन पर प्रेस करती है, खाना पकाती है, सर्दियों में गर्म जल और गर्मियों में शीतल जल उपलब्ध कराती है, गर्मी-सर्दी दोनों से समान रूप से हमारी रक्षा करती है। आज की समस्त औद्योगिक प्रगति इसी पर निर्भर है।

(घ) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में मानव को भयानक और संक्रामक रोगों से पर्याप्त सीमा तक बचाने का श्रेय विज्ञान को ही है। कैंसर, क्षय (टी० बी०), हृदय रोग एवं अनेक जटिल रोगों का इलाज विज्ञान द्वारा ही सम्भव हुआ है। एक्स-रे एवं अल्ट्रासाउण्ड टेस्ट, ऐन्जियोग्राफी, कैट या सीटी स्कैन आदि परीक्षणों के माध्यम से शरीर के अन्दर के रोगों का पता सरलतापूर्वक लगाया जा सकता है। भीषण रोगों के लिए आविष्कृत टीकों से इन रोगों की रोकथाम सम्भव हुई है। प्लास्टिक सर्जरी, ऑपरेशन, कृत्रिम अंगों का प्रत्यारोपण आदि उपायों से अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति दिलायी जा रही है। यही नहीं, इससे नेत्रहीनों को नेत्र, कर्णहीनों को कान और अंगहीनों को अंग देना सम्भव हो सका है।

(ङ) औद्योगिक क्षेत्र में भारी मशीनों के निर्माण ने बड़े-बड़े कल-कारखानों को जन्म दिया है, जिससे श्रम, समय और धन की बचत के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में उत्पादन सम्भव हुआ है। इससे विशाल जनसमूह को आवश्यक वस्तुएँ सस्ते मूल्य पर उपलब्ध करायी जा सकी हैं।

(च) कृषि के क्षेत्र में लगभग 121 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाला हमारा देश आज यदि कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो सका है, तो यह भी विज्ञान की ही देन है। विज्ञान ने किसान को उत्तम बीज, प्रौढ़ एवं विकसित तकनीक, रासायनिक खादे, कीटनाशक, ट्रैक्टर, ट्यूबवेल और बिजली प्रदान की है। छोटे-बड़े बाँधों का निर्माण कर नहरें निकालना भी विज्ञान से ही सम्भव हुआ है।

(छ) शिक्षा के क्षेत्र में मुद्रण-यन्त्रों के आविष्कार ने बड़ी संख्या में पुस्तकों का प्रकाशन सम्भव बनाया है, जिससे पुस्तकें सस्ते मूल्य पर मिल सकी हैं। इसके अतिरिक्त समाचार-पत्र, पत्र-पत्रिकाएँ आदि भी मुद्रण-क्षेत्र में हुई क्रान्ति के फलस्वरूप घर-घर पहुँचकर लोगों का ज्ञानवर्द्धन कर रही हैं। आकाशवाणी-दूरदर्शन आदि की सहायता से शिक्षा के प्रसार में बड़ी सहायता मिली है। कम्प्यूटर के विकास ने तो इस क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है।

(ज) मनोरंजन के क्षेत्र में-चलचित्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के आविष्कार ने मनोरंजन को सस्ता और सुलभ बना दिया है। टेपरिकॉर्डर, वी० सी० आर०, वी० सी० डी० आदि ने इस दिशा में क्रान्ति ला दी है और मनुष्य को उच्चकोटि का मनोरंजन सुलभ कराया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मानव-जीवन के लिए विज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई वरदान नहीं है।

विज्ञान : अभिशाप के रूप में विज्ञान का एक और पक्ष भी है। विज्ञान एक असीम शक्ति प्रदान करने वाला तटस्थ साधन है। मानव चाहे जैसे इसका इस्तेमाल कर सकता है। सभी जानते हैं कि मनुष्य में दैवी प्रवृत्ति भी है और आसुरी प्रवृत्ति भी। सामान्य रूप से जब मनुष्य की दैवी प्रवृत्ति प्रबल रहती है तो वह मानव-कल्याण से कार्य किया करता है, परन्तु किसी भी समय मनुष्य की राक्षसी प्रवृत्ति प्रबल होते ही कल्याणकारी विज्ञान एकाएक प्रबलतम विध्वंस एवं संहारक शक्ति का रूप ग्रहण कर सकता है। इसका उदाहरण गत विश्वयुद्ध का वह दुर्भाग्यपूर्ण पल है, जब कि हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम-बम गिराया गया था। स्पष्ट है कि विज्ञान मानवमात्र के लिए सबसे बुरा अभिशाप भी सिद्ध हो सकता है। गत विश्वयुद्ध से लेकर अब तक मानव ने विज्ञान के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति की है; अतः कहा जा सकता है कि आज विज्ञान की विध्वंसक शक्ति पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गयी है।

विध्वंसक साधनों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार से भी विज्ञान ने मानव का अहित किया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथ्यात्मक होता है। इस दृष्टिकोण के विकसित हो जाने के परिणामस्वरूप मानव हृदय की कोमल भावनाओं एवं अटूट आस्थाओं को ठेस पहुंची है। विज्ञान ने भौतिकवादी प्रवृत्ति को प्रेरणा दी है, जिसके परिणामस्वरूप धर्म एवं अध्यात्म से सम्बन्धित विश्वास थोथे प्रतीत होने लगे हैं। मानव-जीवन के पारस्परिक सम्बन्ध भी कमजोर होने लगे हैं। अब मानव भौतिक लाभ के आधार पर ही सामाजिक सम्बन्धों को विकसित करता है।

जहाँ एक ओर विज्ञान ने मानव-जीवन को अनेक प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं वहीं दूसरी ओर विज्ञान के ही कारण मानव-जीवन अत्यधिक खतरों से परिपूर्ण तथा असुरक्षित भी हो गया है। कम्प्यूटर तथा दूसरी मशीनों ने यदि मानव को सुविधा के साधन उपलब्ध कराये हैं तो साथ-साथ रोजगार के अवसर भी छीन लिये हैं। विद्युत विज्ञान द्वारा प्रदत्त एक महान् देन है, परन्तु विद्युत का एक मामूली झटका ही व्यक्ति की इहलीला समाप्त कर सकता है। विज्ञान ने तरह-तरह के तीव्र गति वाले वाहन मानव को दिये हैं। इन्हीं वाहनों की आपसी टक्कर से प्रतिदिन हजारों व्यक्ति सड़क पर ही जान गॅवा देते हैं। विज्ञान के दिन-प्रतिदिन होते जा रहे नवीन आविष्कारों के कारण मानव पर्यावरण असन्तुलन के दुष्चक्र में भी फंस चुका है।

अधिक सुख-सुविधाओं के कारण मनुष्य आलसी और आरामतलब बनता जा रहा है, जिससे उसकी शारीरिक शक्ति का ह्रास हो रहा है और अनेक नये-नये रोग भी उत्पन्न हो रहे हैं। मानव में सर्दी और गर्मी सहने की क्षमता घट गयी है।

वाहनों की बढ़ती संख्या से सड़कें पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो रही हैं तो उनसे निकलने वाले ध्वनि प्रदूषक मनुष्य को स्नायु रोग वितरित कर रहे हैं। सड़क दुर्घटनाएँ तो मानो दिनचर्या का एक अंग हो चली हैं। विज्ञापनों ने प्राकृतिक सौन्दर्य को कुचल डाला है। चारों ओर का कृत्रिम आडम्बरयुक्त जीवन इस विज्ञान की ही देन है। औद्योगिक प्रगति ने पर्यावरण-प्रदूषण की विकट समस्या खड़ी कर दी है। साथ ही गैसों के रिसाव से अनेक व्यक्तियों के प्राण भी जा चुके हैं।

विज्ञान के इसी विनाशकारी रूप को दृष्टि में रखकर महाकवि दिनकर मानव को चेतावनी देते हुए कहते हैं—

सावधान, मनुष्य ! यदि विज्ञान है तलवार।
तो इसे दे फेंक, तजकर मोह, स्मृति के पार ॥
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार।
काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार ॥

उपसंहार–विज्ञान सचमुच तलवार है, जिससे व्यक्ति आत्मरक्षा भी कर सकता है और अनाड़ीपन में अपने अंग भी काट सकती है। इसमें दोष तलवार का नहीं, उसके प्रयोक्ता का है। विज्ञान ने मानव के सम्मुख असीमित विकास का मार्ग खोल दिया है, जिससे मनुष्य संसार से बेरोजगारी, भुखमरी, महामारी आदि को समूल नष्ट कर विश्व को अभूतपूर्व सुख-समृद्धि की ओर ले जा सकता है। अणु-शक्ति का कल्याणकारी कार्यों में उपयोग असीमित सम्भावनाओं का द्वार उन्मुक्त कर सकता है। बड़े-बड़े रेगिस्तानों को लहराते खेतों में बदलना, दुर्लंघ्य पर्वतों पर मार्ग बनाकर दूरस्थ अंचलों में बसे लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना, विशाल बाँधों का निर्माण एवं विद्युत उत्पादन आदि अगणित कार्यों में इसका उपयोग हो सकता है, किन्तु यह तभी सम्भव है, जब मनुष्य में आध्यात्मिक दृष्टि का विकास हो, मानव-कल्याण की सात्त्विक भावना जगे। अतः स्वयं मानव को ही यह निर्णय करना है कि वह विज्ञान को वरदान रहने दे या अभिशाप बना दे।

धर्म और विज्ञान [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. धर्म और विज्ञान का विरोध,
  3. धर्म और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू,
  4. धर्म मनुष्य को भीरु बनाता है और विज्ञान साहसी,
  5. धर्म भी विज्ञान है और विज्ञान भी धर्म है,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-संस्कृत में धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है–‘ध्रियते लोकोऽनेन, धरति लोकं वा।’ अर्थात् इस संसार के धारण करने योग्य जो भी बातें हैं, वे सभी धर्म हैं और वे सभी बातें धारण करने योग्य हैं, जो संसार के लिए कल्याणकारी हैं। विज्ञान भी उन्हीं सब कार्यों अथवा अनुसन्धानों को करने की अनुमति प्रदान करता है, जो संसार के लिए कल्याणकारी हैं। इस प्रकार धर्म और विज्ञान का उद्देश्य एक ही है।

धर्म और विज्ञान का विरोध-आध्यात्मिक स्तर पर धर्म और विज्ञान दो विपरीत विचारधाराएँ हैं। धर्म परम-सुख (मोक्ष/परमानन्द) की प्राप्ति के लिए भौतिकवाद का विरोध करते हुए उसे त्यागने की बात करता है, जबकि विज्ञान भौतिक संसार से बाहर किसी सुख की सत्ता तो स्वीकार नहीं करता; अतः वह मनुष्य को परम-सुख की प्राप्ति के लिए भौतिकवाद में किण्ठ डूबने के लिए प्रेरित करता है।

धर्म और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू-वस्तुत: धर्म और विज्ञान दो विरोधी अवधारणाएँ नहीं हैं, वरन् एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ही सत्य के रूप का उद्घाटन करते हैं। हाँ, सत्य के उद्घाटन की दोनों की पद्धतियाँ अवश्य ही अलग-अलग हैं। जहाँ एक ओर धर्म ने मानव को मानसिक शान्ति प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर विज्ञान ने भौतिक सुख। धर्म ने मानव के हृदय को परिष्कृत किया है तो विज्ञान ने उसकी बुद्धि को।

धर्म मनुष्य को भीरु बनाता है और विज्ञान साहसी-धर्म सर्वशक्तिमान् एवं अनादि ईश्वर की कल्पना करके मनुष्य को असहाय और भीरु बनाता है। इसी भीरुता के कारण मनुष्य ईश्वर की आलोचना करने से डरता है। ईश्वर के प्रति उसकी अटूट आस्था एवं विश्वास उसे भाग्यवादी बनाकर अकर्मण्य बनाते हैं, जबकि विज्ञान मनुष्य को निर्भीक और साहसी बनाकर उसे निरन्तर कर्म करते हुए रहने की प्रेरणा प्रदान करता है।

धर्म भी विज्ञान है और विज्ञान भी धर्म है-धर्म और विज्ञान का जो विरोध दृष्टिगत होता है, वह धर्म से सम्बन्धित पाखण्डों, अन्धविश्वासों, अन्धश्रद्धा और कर्मकाण्डों की अधिकता और अनिवार्यता के कारण है। वस्तुतः धर्म को यदि हम उसकी परिभाषा के आलोक में देखें तो पाते हैं कि धर्म किसी भी अतार्किक बात की स्वीकृति नहीं देता, वह विज्ञान की भाँति ठोस तर्को का पक्षपाती है। वह भी एक विज्ञान है, जो तर्कों के आधार पर ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके उसे तर्कपूर्ण विधियों से प्राप्त करने का मार्ग दिखाता है।

धार्मिक लोग जिस भौतिकवाद की दुहाई देकर विज्ञान की आलोचना करते हैं, वह वास्तव में उनका अज्ञान है। विज्ञान केवल मनुष्य के कल्याण का पक्षपाती है, उसने अग्नि की खोज खाना पकाने और ऊर्जा के स्रोत के रूप में मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए की, अब अगर कोई उसकी अग्नि से किसी का घर जलाने लगे तो उसमें विज्ञान का क्या दोष? विज्ञान ने तो अपना धर्म निभाते हुए मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए अग्नि की खोज की, अब अगर अधर्म का आचरण करके मनुष्य किसी का घर जलाकर विनाश को आमन्त्रण दे तो इससे विज्ञान की धार्मिकता कहाँ कम होती है। धर्म वही है, जिसे प्राणिमात्र के कल्याण केलिए धारण किया जाए तो विज्ञान भी वही है, जिसका प्रत्येक अनुसन्धान प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है। इस प्रकार विज्ञान ही धर्म है।।

उपसंहार-आज यदि आवश्यकता है तो विज्ञान एवं धर्म के पारस्परिक समन्वय की है, क्योंकि न तो विज्ञान से विमुख धर्म मनुष्य का कल्याण करने में समर्थ है और न ही विज्ञान धर्म से अलग होकर अपने कल्याणकारी स्वरूप की रक्षा कर सकता है।

कम्प्यूटर : आधुनिक मानव-यन्त्र [2013, 15, 16]

सम्बद्ध शीर्षक

  • कम्प्यूटर के प्रयोग से लाभ तथा हानि [2013]
  • कम्प्यूटर की उपयोगिता [2010]
  • कम्प्यूटर का महत्त्व
  • कम्प्यूटर की आत्मकथा
  • भारत में कम्प्यूटर का महत्त्व [2013, 14, 18]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना : कम्प्यूटर क्या है ?
  2. कम्प्यूटर के उपयोग,
  3. कम्प्यूटर तकनीक से हानियाँ,
  4. कम्यूटर और मानव-मस्तिष्क,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना--कम्प्यूटर असीमित क्षमताओं वाला वर्तमान युग का एक क्रान्तिकारी साधन है। यह एक ऐसा यन्त्र-पुरुष है, जिसमें यान्त्रिक मस्तिष्कों को रूपात्मक और समन्वयात्मक योग तथा गुणात्मक घनत्व पाया जाता है। इसके परिणामस्वरूप यह कम-से-कम समय में तीव्रगति से त्रुटिहीन गणनाएँ कर लेता है। आरम्भ में, गणित की जटिल गणनाएँ करने के लिए ही कम्प्यूटर का आविष्कार किया गया था। आधुनिक कम्प्यूटर के प्रथम सिद्धान्तकार चार्ल्स बैबेज ( सन् 1792-1871 ई०) ने गणित और खगोल-विज्ञान की सूक्ष्म सारणियाँ तैयार करने के लिए ही एक भव्य कम्प्यूटर की योजना तैयार की थी। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशक में अमेरिकी इंजीनियर हरमन होलेरिथ ने जनगणना से सम्बन्धित आँकड़ों का विश्लेषण करने के लिए पंचका पर आधारित कम्प्यूटर का प्रयोग किया था। दूसरे महायुद्ध के दौरान पहली बार बिजली से चलने वाले कम्प्यूटर बने। इनका उपयोग भी गणनाओं के लिए ही हुआ। आज के कम्प्यूटर केवल गणनाएँ करने तक ही सीमित नहीं रह गये हैं वरन् अक्षरों, शब्दों, आकृतियों और कथनों को ग्रहण करने में अथवा इससे भी अधिक अनेकानेक कार्य करने में समर्थ हैं। आज कम्प्यूटरों का मानव-जीवन के अधिकाधिक क्षेत्रों में उपयोग करना सम्भव हुआ है। अब कम्प्यूटर संचार और नियन्त्रण के भी शक्तिशाली साधन बन गये हैं।

कम्प्यूटर के उपयोग-आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कम्प्यूटरों के व्यापक उपयोग हो रहे हैं—

(क) प्रकाशन के क्षेत्र में सन् 1971 ई० में माइक्रोप्रॉसेसर का आविष्कार हुआ। इस आविष्कार ने कम्प्यूटरों को छोटा, सस्ता और कई गुना शक्तिशाली बना दिया। माइक्रोप्रॉसेसर के आविष्कार के बाद कम्प्यूटर का अनेक कार्यों में उपयोग सम्भव हुआ। शब्द-संसाधक (वर्ड प्रोसेसर) कम्प्यूटरों के साथ स्क्रीन व प्रिण्टर जुड़ जाने से इनकी उपयोगिता का खूब विस्तार हुआ है। सर्वप्रथम एक लेख सम्पादित होकर कम्प्यूटर में संचित होता है। टंकित मैटर को कम्प्यूटर की स्क्रीन पर देखा जा सकता है और उसमें संशोधन भी किया जा सकता है। इसके बाद मशीनों से छपाई होती है। अब तो अतिविकसित देशों (ब्रिटेन आदि) में बड़े समाचार-पत्रों में सम्पादकीय विभाग में एक सिरे पर कम्प्यूटरों में मैटर भरा जाता है तथा दूसरे सिरे पर तेज रफ्तार से इलेक्ट्रॉनिक प्रिण्टर समाचार-पत्र छापकर निकाल देते हैं।

(ख) बैंकों में कम्प्यूटर का उपयोग बैंकों में किया जाने लगा है। कई राष्ट्रीयकृत बैंकों ने चुम्बकीय संख्याओं वाली चेक-बुक भी जारी कर दी हैं। खातों के संचालन और लेन-देन का हिसाब रखने वाले कम्प्यूटर भी बैंकों में स्थापित हो रहे हैं। आज कम्प्यूटर के द्वारा ही बैंकों में 24 घण्टे पैसों के लेन-देन की ए० टी० एम० (Automated Teller Machine) जैसी सेवाएँ सम्भव हो सकी हैं। यूरोप और अमेरिका में ही नहीं अब भारत में भी ऐसी व्यवस्थाएँ अस्तित्व में आ गयी हैं कि घर के निजी कम्प्यूटरों के जरिये बैंकों से भी लेन-देन का व्यवहार सम्भव हुआ है।

(ग) सूचनाओं के आदान-प्रदान में प्रारम्भ में कम्प्यूटर की गतिविधियाँ वातानुकूलित कक्षों तक ही सीमित थीं, किन्तु अब एक कम्प्यूटर हजारों किलोमीटर दूर के दूसरे कम्प्यूटरों के साथ बातचीत कर सकता है तथा उसे सूचनाएँ भेज सकता है। दो कम्प्यूटरों के बीच यह सम्बन्ध तारों, माइक्रोवेव तथा उपग्रहों के जरिये स्थापित होता है। सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए देश के सभी प्रमुख छोटे-बड़े शहरों को कम्प्यूटर नेटवर्क के जरिये एक-दूसरे से जोड़ने की प्रक्रिया शीघ्र ही पूर्ण होने वाली है। इण्टरनेट जैसी सुविधा से आज देश का प्रत्येक नगर सम्पूर्ण विश्व से जुड़ गया है।

(घ) आरक्षण के क्षेत्र में कम्प्यूटर नेटवर्क की अनेक व्यवस्थाएँ अब हमारे देश में स्थापित हो गयी हैं। सभी प्रमुख एयरलाइन्स की हवाई यात्राओं के आरक्षण के लिए अब ऐसी व्यवस्था है कि भारत के किसी शहर से आपकी समूची हवाई यात्रा के आरक्षण के साथ-साथ विदेशों में आपकी इच्छानुसार होटल भी आरक्षित हो जाएगा। कम्प्यूटर नेटवर्क से अब देश के सभी प्रमुख शहरों में रेल-यात्रा के आरक्षण की व्यवस्था भी अस्तित्व में आ गयी है।

(ङ) कम्प्यूटर ग्राफिक्स में कम्प्यूटर केवल अंकों और अक्षरों को ही नहीं, वरन् रेखाओं और आकृतियों को भी सँभाल सकते हैं। कम्प्यूटर ग्राफिक्स की इस व्यवस्था के अनेक उपयोग हैं। भवनों, मोटरगाड़ियों, हवाई-जहाजों आदि के डिज़ाइन तैयार करने में कम्प्यूटर ग्राफिक्स का व्यापक उपयोग हो रहा है। वास्तुशिल्पी अब अपने डिज़ाइन कम्प्यूटर स्क्रीन पर तैयार करते हैं और संलग्न प्रिण्टर से इनके प्रिण्ट भी प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ तक कि कम्प्यूटर चिप्स के सर्किटों के डिजाइन भी अब कम्प्यूटर ग्राफिक्स की मदद से तैयार होने लगे हैं। वैज्ञानिक अनुसन्धान भी कम्प्यूटर के स्क्रीन पर किये जा रहे हैं।

(च) कला के क्षेत्र में कम्प्यूटर अब चित्रकार की भूमिका भी निभाने लगे हैं। चित्र तैयार करने के लिए अब रंगों, तूलिकाओं, रंग-पट्टिका और कैनवास की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है। चित्रकार अब कम्प्यूटर के सामने बैठता है और अपने नियोजित प्रोग्राम की मदद से अपनी इच्छा के अनुसार स्क्रीन पर रंगीन रेखाएँ प्रस्तुत कर देता है। रेखांकनों से स्क्रीन पर निर्मित कोई भी चित्र ‘प्रिण्ट’ की कुञ्जी दबाते ही, अपने समूचे रंगों के साथ कम्प्यूटर से संलग्न प्रिण्टर द्वारा कागज पर छाप दिया जाता है।

(छ) संगीत के क्षेत्र में कम्प्यूटर अब सुर सजाने का काम भी करने लगे हैं। पाश्चात्य संगीत के स्वरांकन को कम्प्यूटर स्क्रीन पर प्रस्तुत करने में कोई कठिनाई नहीं होती, परन्तु वीणा जैसे भारतीय वाद्य की स्वरलिपि तैयार करने में कठिनाइयाँ आ रही हैं, परन्तु वह दिन दूर नहीं है जब भारतीय संगीत की स्वर-लहरियों को कम्प्यूटर स्क्रीन पर उभारकर उनका विश्लेषण किया जाएगा और संगीत-शिक्षा की नयी तकनीक विकसित की जा सकेंगी।

(ज) खगोल-विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटरों ने वैज्ञानिक अनुसन्धान के अनेक क्षेत्रों का समूचा ढाँचा ही बदल दिया है। पहले खगोलविद् दूरबीनों पर रात-रातभर आँखें गड़ाकर आकाश के पिण्डों का अवलोकन करते थे, किन्तु अब किरणों की मात्रा के अनुसार ठीक-ठीक चित्र उतारने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरण उपलब्ध हो गये हैं। इन चित्रों में निहित जानकारी का व्यापक विश्लेषण अब कम्प्यूटरों से होता है।

(झ) चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन भी एक सरल कम्प्यूटर ही है। मतदान के लिए ऐसी वोटिंग मशीनों का उपयोग सीमित पैमाने पर ही सही अब हमारे देश में भी हो रहा है।

(ज) उद्योग-धन्धों में कम्प्यूटर उद्योग-नियन्त्रण के भी शक्तिशाली साधन हैं। बड़े-बड़े कारखानों के संचालन का काम अब कम्प्यूटर सँभालने लगे हैं। कम्प्यूटरों से जुड़कर रोबोट अनेक किस्म के औद्योगिक उत्पादनों को सँभाल सकते हैं। कम्प्यूटर भयंकर गर्मी और ठिठुरती सर्दी में भी यथावत् कार्य करते हैं। इनका उस पर कोई असर नहीं पड़ता। हमारे देश में अब अधिकांश निजी व्यवसायों में कम्प्यूटर का प्रयोग होने लगा है।

(ट) सैनिक कार्यों में आज प्रमुख रूप से महायुद्ध की तैयारी के लिए नये-नये शक्तिशाली सुपर कम्प्यूटरों का विकास किया जा रहा है। हाशक्तियों की ‘स्टार वार्स’ की योजना कम्प्यूटरों के नियन्त्रण पर आधारित है। पहले भारी कीमत देकर हमारे देश में सुपर कम्प्यूटर आयात किये जा रहे थे; परन्तु अब इन सुपर कम्प्यूटरों का निर्माण हमारे देश में भी किया जा रहा है।

(ठ) अपराध निवारण में अपराधों के निवारण में भी कम्प्यूटर की अत्यधिक उपयोगिता है। पश्चिम के कई देशों में सभी अधिकृत वाहन मालिकों, चालकों, अपराधियों का रिकॉर्ड पुलिस के एक विशाल कम्प्यूटर में संरक्षित होता है। कम्प्यूटर द्वारा क्षण मात्र में अपेक्षित जानकारी उपलब्ध हो जाती है, जो कि अपराधियों के पकड़ने में सहायक सिद्ध होती है। यही नहीं, किसी भी अपराध से सन्दर्भित अनेकानेक तथ्यों में से विश्लेषण द्वारा कम्प्यूटर नये तथ्य ढूंढ़ लेता है तथा किसी अपराधी को कैसा भी चित्र उपलब्ध होने पर वह उसकी सहायता से अपराधी के किसी भी उम्र और स्वरूप की तस्वीर प्रस्तुत कर सकता है।

कम्प्यूटर तकनीक से हानियाँ-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कम्प्यूटर तकनीकी के निरन्तर बढ़ते जा रहे व्यापक उपयोगों ने जहाँ एक ओर इसकी उपयोगिता दर्शायी है, वहीं दूसरी ओर इसके भयावह परिणामों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि कम्प्यूटर हर क्षेत्र में मानव-श्रम को नगण्य बना देगा, जिससे भारत सदृश जनसंख्या बहुल देशों में बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। विभिन्न विभागों में इसकी स्थापना से कर्मचारी भविष्य के प्रति अनाश्वस्त हो गये हैं।

बैंकों आदि में इस व्यवस्था के कुछ दुष्परिणाम भी सामने आये हैं। दूसरों के खातों के कोड नम्बर जानकर प्रति वर्ष करोड़ों डॉलरों से बैंकों को ठगना अमेरिका में एक आम बात हो गयी है। हमारे देश के बैंकों में बिना कम्प्यूटरों के करोड़ों की ठगी के मामले आये दिन सामने आते रहते हैं। ज्योतिष के क्षेत्र में भी इसके परिणाम शत-प्रतिशत सही नहीं निकले हैं।

कम्प्यूटर और मानव-मस्तिष्क-कम्प्यूटर के सन्दर्भ में ढेर सारी भ्रान्तियाँ जनसामान्य के मस्तिष्क में छायी हुई हैं। कुछ लोग इसे सुपर पावर समझ बैठे हैं, जिसमें सब कुछ करने की क्षमता है। किन्तु उनकी धारणाएँ पूर्णरूपेण निराधार हैं। वास्तविकता तो यह है कि कम्प्यूटर एकत्रित आँकड़ों का इलेक्ट्रॉनिक विश्लेषण प्रस्तुत करने वाली एक मशीन मात्र है। यह केवल वही काम कर सकता है, जिसके लिए इसे निर्देशित किया गया हो। यह कोई निर्णय स्वयं नहीं ले सकता और न ही कोई नवीन बात सोच सकता है। यह मानवीय संवेदनाओं, अभिरुचियों, भावनाओं और चित्त से रहित मात्र एक यन्त्र-पुरुष है, जिसकी बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient : I.O.) मात्र एक मक्खी के बराबर होती है, यानि बुद्धिमत्ता में कम्प्यूटर मनुष्य से कई हजार गुना पीछे है।।

उपसंहार-निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी के भी दो पक्ष हैं। इसको सोच समझकर उपयोग किया जाए तो यह वरदान सिद्ध हो सकता है, अन्यथा यह मानव-जाति की तबाही का साधन भी बन सकता है। इसीलिए कम्प्यूटर की क्षमताओं को ठीक से समझना जरूरी है। इलेक्ट्रॉनिकी शिक्षा एवं साधन; कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी की उपेक्षा नहीं कर सकते। लेकिन इनके लिए यदि बुनियादी शिक्षा की समुचित व्यवस्था की जाती, देश में टेक्नोलॉजी के साधन जुटाये जाते और पाश्चात्य संस्कृति में विकसित हुई इस टेक्नोलॉजी को देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर धीरे-धीरे अपनाया जाता तो अच्छा होता।।

इण्टरनेट

सम्बद्ध शीर्षक

  • इण्टरनेट : लाभ और हानियाँ [2017, 18]
  • भारत में इण्टरनेट का विकास
  • सूचना प्रौद्योगिकी और मानव-कल्याण [2013, 14]
  • इण्टरनेट की शैक्षिक उपयोगिता [2016]

प्रमुखविचार-बिन्दु–

  1. भूमिका,
  2. इतिहास और विकास,
  3. इण्टरनेट सम्पर्क,
  4. इण्टरनेट सेवाएँ,
  5. भारत में इण्टरनेट,
  6. भविष्य की दिशाएँ,
  7. उपसंहार

भूमिका-इण्टरनेट ने विश्व में जैसा क्रान्तिकारी परिवर्तन किया, वैसा किसी भी दूसरी टेक्नोलॉजी ने नहीं किया। नेट के नाम से लोकप्रिय इण्टरनेट अपने उपभोक्ताओं के लिए बहुआयामी साधन प्रणाली है। यह दूर बैठे उपभोक्ताओं के मध्य अन्तर-संवाद का माध्यम है; सूचना या जानकारी में भागीदारी और सामूहिक रूप से काम करने का तरीका है; सूचना को विश्व स्तर पर प्रकाशित करने का जरिया है और सूचनाओं को अपार सागर है। इसके माध्यम से इधर-उधर फैली तमाम सूचनाएँ प्रसंस्करण के बाद ज्ञान में परिवर्तित हो रही हैं। इसने विश्व-नागरिकों के बहुत ही सुघड़ और घनिष्ठ समुदाय का विकास किया है।

इण्टरनेट विभिन्न टेक्नोलॉजियों के संयुक्त रूप से कार्य का उपयुक्त उदाहरण है। कम्प्यूटरों के बड़े पैमाने पर उत्पादन, कम्प्यूटर सम्पर्क-जाल का विकास, दूर-संचार सेवाओं की बढ़ती उपलब्धता और घटता खर्च तथा आँकड़ों के भण्डारण और सम्प्रेषण में आयी नवीनता ने नेट के कल्पनातीत विकास और उपयोगिता को बहुमुखी प्रगति प्रदान की है। आज किसी समाज के लिए इण्टरनेट वैसी ही ढाँचागत आवश्यकता है जैसे कि सड़कें, टेलीफोन या विद्युत् ऊर्जा।

इतिहास और विकास–इण्टरनेट का इतिहास पेचीदा है। इसका पहला दृष्टान्त सन् 1962 ई० में मैसाचुसेट्स टेक्नोलॉजी संस्थान के जे० सी० आर० लिकप्लाइडर द्वारा लिखे गये कई ज्ञापनों के रूप में सामने आया था। उन्होंने कम्प्यूटर की ऐसी विश्वव्यापी अन्तर्सम्बन्धित श्रृंखला की कल्पना की थी जिसके जरिये वर्तमान इण्टरनेट की तरह ही आँकड़ों और कार्यक्रमों को तत्काल प्राप्त किया जा सकता था। इस प्रकार के नेटवर्क में सहायक बनी तकनीकी सफलता पहली बार इसी संस्थान के लियोनार्ड क्लिनरोक ने सुझायी थी। उनकी यह सूझ पैकेट स्विचिंग नाम की नयी टेक्नोलॉजी थी जो सामान्य टेलीफोन प्रणाली में प्रयुक्त सर्किट स्विचिंग टेक्नोलॉजी से मिलती-जुलती थी। पैकेट स्विचिंग उस पत्र पेटी की तरह थी, जिसका इस्तेमाल चाहे जितने लोग कर सकते थे। इसके जरिये दुनिया में कम्प्यूटर अन्य कम्प्यूटरों से जुड़े बिना भी एक-दूसरे से संवाद कायम कर सकते थे।

इण्टरनेट के इतिहास में 1973 का वर्ष ऐसा था जिसने अनेक मील के पत्थर जोड़े और इस प्रकार अधिक विश्वसनीय और स्वतन्त्र नेटवर्क की शुरुआत हुई। इसी वर्ष में इण्टरनेट ऐक्टिविटीज बोर्ड की स्थापना की गयी। इस वर्ष के नवम्बर महीने में डोमेन नेमिंग सर्विस (डीएनएस) का पहला विवरण जारी किया गया और वर्ष की आखिरी महत्त्वपूर्ण घटना इण्टरनेट का सेना और आम लोगों के लिए उपयोग के वर्गीकरण द्वारा सार्वजनिक नेटवर्क के उदय के रूप में सामने आया तथा इसी के साथ आज प्रचलित इण्टरनेट ने जन्म लिया।

इण्टरनेट का बाद का इतिहास मुख्यत: बहुविध उपयोग का है जो नेटवर्क की आधारभूत संरचना से ही सम्भव हो सका। बहुविध उपयोग की दिशा में पहला कदम फाइल ट्रांसफर प्रणाली का विकास था। इससे दूर-दराज के कम्प्यूटरों के बीच फाइलों का आदान-प्रदान सम्भव हो सका। सन् 1984 ई० में इण्टरनेट से जुड़े कम्प्यूटरों की संख्या 1000 थी जो सन् 1989 ई० में एक लाख के ऊपर पहुँच चुकी थी। 90 के दशक के आरम्भ में इण्टरनेट पर सूचना प्रस्तुति के नये तरीके सामने आये। सन् 1991 ई० में मिनेसोटा विश्वविद्यालय द्वारा तैयार गोफर नामक सरलता से पहुँच योग्य डाक्युमेण्ट प्रस्तुति प्रणाली अस्तित्व में आयी। इससे पहले सन् 1990 ई० में ही टिम बर्नर-ली ने वर्ल्ड वाइड वेब (www) का आविष्कार करके सूचना प्रस्तुति का एक नया तरीका सामने रखा जो सरलता से इस्तेमाल योग्य सिद्ध हुआ।

सन् 1993 ई० में ट्रैफिकल वेब ब्राउजर का आविष्कार इण्टरनेट के क्षेत्र में एक बड़ी घटना थी। इससे न केवल विवरण वरन चित्रों का भी दिग्दर्शन सम्भव हो गया। इस वेब ब्राउजर को मोजाइक कहा गया। इस समय तक इण्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 20 लाख से अधिक हो गयी थी और आज प्रचलित इण्टरनेट आकार ले चुका था।

इण्टरनेट सम्पर्क–इण्टरनेट का आधार राष्ट्रीय या क्षेत्रीय सूचना इन्फ्रास्ट्रक्चर होता है जो सामान्यत: हाइबैण्ड विड्थ ट्रंक लाइनों से बना होता है और जहाँ से विभिन्न सम्पर्क लाइनें कम्प्यूटरों को जोड़ती हैं जिन्हें आश्रयदाता (होस्ट) कम्प्यूटर कहते हैं। ये आश्रयदाता कम्प्यूटर प्रायः बड़े संस्थानों; जैसे—विश्वविद्यालयों, बड़े उद्यमों और इण्टरनेट कम्पनियों से जुड़े होते हैं और इन्हें इण्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर (आईएसपी) कहा जाता है। आश्रयदाता कम्प्यूटर चौबीसों घण्टे काम करते हैं और अपने उपभोक्ताओं को सेवा प्रदान करते हैं। ये कम्प्यूटर विशेष संचार लाइनों के जरिये इण्टरनेट से जुड़े रहते हैं। इनके उपभोक्ताओं/व्यक्तियों के पीसी (पर्सनल कम्प्यूटर) साधारण टेलीफोन लाइन और मोडेम के जरिए इण्टरनेट से जुड़े रहते हैं।

एक सामान्य उपभोक्ता एक निश्चित राशि का भुगतान करके आईएसपी से अपना इण्टरनेट खाता प्राप्त कर लेता है। आईएसपी लॉगइन नेम, पासवर्ड (जिसे उपभोक्ता बदल भी सकता है) और नेट से जुड़ने के लिए कुछ एक जानकारियाँ उपलब्ध करा देता है। एक बार इण्टरनेट से जुड़ जाने पर उपभोक्ता इण्टरनेट की तमाम सेवाओं तक अपनी पहुँच बना सकता है। इसके लिए उसे सही कार्यक्रम का चयन करना होता है। ज्यादातर इण्टरनेट सेवाएँ उपभोक्ता-सर्वर रूपाकार पर काम करती हैं। इनमें सर्वर वे कम्प्यूटर हैं जो नेट से जुड़े हुए व्यक्तिगत कम्प्यूटर उपभोक्ताओं को एक या अधिक सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं। इसे सेवा के वास्तविक प्रयोग के लिए उपभोक्ता को उस विशेष सेवा के लिए आश्रित (क्लाइण्ट) सॉफ्टवेयर की जरूरत होती है।

इण्टरनेट सेवाएँ-इण्टरनेट की उपयोगिता उपभोक्ता को उपलब्ध सेवाओं से निर्धारित होती है। इसके उपभोक्ता को निम्नलिखित सेवाएँ उपलब्ध हैं-
(क) ई-मेल-ई-मेल या इलेक्ट्रॉनिक मेल इण्टरनेट का सबसे लोकप्रिय उपयोग है। संवाद के अन्य माध्यमों की तुलना में सस्ता, तेज और अधिक सुविधाजनक होने के कारण इसने दुनिया भर के घरों और कार्यालयों में अपनी जगह बना ली है। इसके द्वारा पहले भाषायी पाठ ही प्रेषित किया जा सकता था, लेकिन अब सन्देश, चित्र, अनुकृति, ध्वनि, आँकड़े आदि भी प्रेषित किये जा सकते हैं।

(ख) टेलनेट-टेलनेट एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके माध्यम से उपभोक्ता को किसी दूर स्थित कम्प्यूटर से स्वयं को जोड़ने की सुविधा प्राप्त हो जाती है।

(ग) इण्टरनेट चर्चा (चैट)–नयी पीढ़ी में इण्टरनेट रिले चैट या चर्चा व्यापक रूप से लोकप्रिय है। यह ऐसी गतिविधि है, जिसमें भौगोलिक रूप से दूर स्थित व्यक्ति एक ही चैट सर्वर पर लॉग करके की-बोर्ड के जरिये एक-दूसरे से चर्चा कर सकते हैं। इसके लिए एक वांछित व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जो निश्चित समय पर उस लाइन पर सुविधापूर्वक उपलब्ध हो।।

(घ) वर्ल्ड वाइड वेब–यह सुविधा इण्टरनेट के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित उपयोगों में से एक है। यह इतनी आसान है कि इसके प्रयोग में बच्चों को भी कठिनाई नहीं होती। यह मनचाही संख्या वाले अन्तर्सम्बन्धित डॉक्युमेण्ट का समूह है, जिसमें से प्रत्येक डॉक्युमेण्ट की पहचान उसके विशेष पते से की जा सकती है। इस पर उपलब्ध सबसे महत्त्वपूर्ण सेवाओं में से एक सर्विंग है। इण्टरनेट में शताधिक सर्च इंजन कार्यरत हैं जिनमें गूगल सर्वाधिक लोकप्रिय है।

(ङ) ई-कॉमर्स-इण्टरनेट की प्रगति की ही एक परिणति ई-कॉमर्स है। किसी भी प्रकार के व्यवसाय को संचालित करने के लिए इण्टरनेट पर की जाने वाली कार्यवाही को ई-कॉमर्स कहते हैं। इसके अन्तर्गत वस्तुओं का क्रय-विक्रय, विभिन्न व्यक्तियों या कम्पनियों के मध्य सेवा या सूचना आते हैं।
इन मुख्य सेवाओं के अतिरिक्त इण्टरनेट द्वारा और भी अनेक सेवाएँ प्रदान की जाती हैं, जिनके असीमित उपयोग हैं।

भारत में इण्टरनेट–भारत में इण्टरनेट का आरम्भ आठवें दशक के अन्तिम वर्षों में अनेट (शिक्षा और अनुसन्धान नेटवर्क) के रूप में हुआ था। इसके लिए भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक विभाग और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी थी। इस परियोजना में पाँच प्रमुख संस्थान, पाँचों भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और इलेक्ट्रॉनिक निदेशालय शामिल थे। अनेंट का आज व्यापक प्रसार हो चुका है और वह शिक्षा और शोध समुदाय को देशव्यापी सेवा दे रहा है। एक अन्य प्रमुख नेटवर्क नेशनल इन्फॉर्मेटिक्स सेण्टर (एनआईसी) के रूप में सामने आया, जिसने प्राय: सभी जनपद मुख्यालयों को राष्ट्रीय नेटवर्क से जोड़ दिया। आज देश के विभिन्न भागों में यह 1400 से भी अधिक स्थलों को अपने नेटवर्क के जरिये जोड़े हुए है।

आम आदमी के लिए भारत में इण्टरनेट का आगमन सन् 15 अगस्त, 1995 ई० को हो गया था, जब विदेश संचार निगम लिमिटेड ने देश में अपनी सेवाओं का आरम्भ किया। प्रारम्भ के कुछ वर्षों तक इण्टरनेट की पहुँच काफी धीमी रही, लेकिन हाल के वर्षों में इसके उपभोक्ता की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई है। सन् 1999 ई० में टेलीकॉम क्षेत्र निजी कम्पनियों के लिए खोल दिये जाने के परिणामस्वरूप अनेक नये सेवा प्रदाता बेहद प्रतिस्पर्धा विकल्पों के साथ सामने आये। भारत में इण्टरनेट के उपभोक्ताओं की संख्या वर्ष अप्रैल 2010 तक 7 करोड़ की संख्या को पार कर चुकी है। भारत में इण्टरनेट का उपयोग करने वाले विश्व की तुलना में 5% हैं और भारत पूरे विश्व में चौथे स्थान पर है। सरकारी एजेंसियाँ इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि आईटी का लाभ सामान्य जन तक पहुँचाया जा सके। भारतीय रेल द्वारा कम्प्यूटरीकृत आरक्षण, आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा शहरों के मध्य सूचना प्रणाली की स्थापना तथा केरल सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा फास्ट रिलायबिल इन्स्टेण्ट एफीशिएण्ट नेटवर्क फॉर डिस्बर्समेण्ट ऑफ सर्विसेज (फ्रेण्ड्स) जैसी पेशकशों ने इस दिशा में देश के आम नागरिकों की अपेक्षाओं को बहुत बढ़ा दिया है।

भविष्य की दिशाएँ-भविष्य के प्रति इण्टरनेट बहुत ही आश्वस्तकारी दिखाई दे रहा है और आज के आधार पर कहीं अधिक प्रगतिशाली सेवाएँ प्रदान करने वाला होगा। भविष्य के नेटवर्क जिन उपकरणों और साधनों को जोड़ेगे, वे मात्र कम्प्यूटर नहीं होंगे, वरन् माईक्रोचिप से संचालित होने के कारण तकनीकी अर्थों में कम्प्यूटर जैसे होंगे। आने वाले समय में केवल कार्यालय ही नहीं निवास, स्कूल, अस्पताल और हवाई अड्डे एक-दूसरे से जुड़े हुए होंगे। व्यक्ति के पास व्यक्तिगत डिजीटल सहायक ऐसे पाम टॉप होंगे, जो वायरलेस और मोबाइल टेक्नोलॉजियों का उपयोग करके किसी भी उपलब्ध नेटवर्क से स्वतः जुड़ जाएँगे। लोग अपने मोबाइल फोन के जरिये ही विभिन्न देयों का भुगतान कर सकेंगे और कारें हाईवे पर भीड़-भाड़ पर नजर रखने और अपने चालकों को सुविधाजनक रास्ते के बारे में सुझाव देने में समर्थ होंगी। इण्टरनेट व्यक्तियों और समुदायों को परस्पर घनिष्ठ रूप से काम के लिए सक्षम बना देगा और भौगोलिक दूरी के कारण आने वाली बाधाओं को समाप्त कर देगा। कम्प्यूटर रचित समुदायों का उदय हो जाएगा और तब दमनकारी शासकों के लिए विश्व में अपनी लोकप्रियता को सुरक्षित रख पाना सम्भव नहीं रह जाएगा। भविष्य में टेक्नोलॉजी का उपयोग संस्कृति, भाषा और विरासत की विविधता की रक्षा के लिए किया जाएगा तथा भविष्य की राजनीतिक व्यवस्था भी इससे अछूती नहीं रहेगी।

उपसंहार-टेक्नोलॉजियों के लोकप्रिय होते ही सामान्य शिक्षित नागरिकों के लिए भी यह पूरी तरह आसान हो जाएगा कि वह कानून-निर्माण की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी कर सकें। इसके फलस्वरूप कहीं अधिक समर्थ लोकतन्त्र सम्भव हो सकेगा जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों के उत्तरदायित्व कुछ अलग प्रकार के होंगे। भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती इण्टरनेट टेक्नोलॉजी के दोहन की है जिससे समाज के हर वर्ग तक उसके फायदों की पहुँच सम्भव बनायी जा सके। किसी भी टेक्नोलॉजी का उपयोग हमेशा समूचे समाज के लिए होना चाहिए न कि उसको समाज के कुछ वर्गों को वंचित करने के लिए एक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। एक बार यह उपलब्धि हासिल की जा सके तो वास्तव में सम्भावनाओं की कोई सीमा ही नहीं है। संक्षेप में, क्रान्ति तो अभी आरम्भ ही हुई है।

भारत की वैज्ञानिक प्रगति

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ
  • भारतीय विज्ञान की देन

प्रमुख विचार-बिन्द–

  1. प्रस्तावना,
  2. स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् की स्थिति,
  3. विभिन्न क्षेत्रों में हुई वैज्ञानिक प्रगति,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना—सामान्य मनुष्य की मान्यता है कि सृष्टि का रचयिता सर्वशक्तिमान ईश्वर है, जो इस संसार का निर्माता, पालनकर्ता और संहारकर्ता है। आज विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि वह ईश्वर के प्रतिरूप ब्रह्मा (निर्माता), विष्णु (पालनकर्ता) और महेश (संहारकर्ता) को चुनौती देता प्रतीत हो रहा है। कृत्रिम गर्भाधान से परखनली शिशु उत्पन्न करके उसने ब्रह्मा की सत्ता को ललकारा है, बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना कर और लाखों-करोड़ों लोगों को रोजगार देकर उसने विष्णु को चुनौती दी है तथा सर्व-विनाश के लिए परमाणु बम का निर्माण कर उसने शिव को चकित कर दिया है।

विज्ञान का अर्थ है किसी भी विषय में विशेष ज्ञान विज्ञान मानव के लिए कामधेनु की तरह है जो उसकी सभी कामनाओं की पूर्ति करता है तथा उसकी कल्पनाओं को साकार रूप देता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान प्रवेश कर चुका है चाहे वह कला का क्षेत्र हो या संगीत और राजनीति का। विज्ञान ने समस्त पृथ्वी और अन्तरिक्ष को विष्णु के वामनावतार की भाँति तीन डगों में नाप डाला है।।

स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् की स्थिति–बीसवीं शताब्दी को विज्ञान के क्षेत्र में अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ हासिल करने के कारण विज्ञान का युग कहा गया है। आज संसार ने ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत अधिक प्रगति कर ली है। भारत भी इस क्षेत्र में किसी अन्य वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नत कहे जाने वाले देशों से यदि आगे नहीं, तो बहुत पीछे या कम भी नहीं है। 15 अगस्त, सन् 1947 में जब अंग्रेजों की गुलामी का जूआ उतार कर भारत स्वतन्त्र हुआ था, तब तक कहा जा सकता है कि भारत वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर शून्य से अधिक कुछ भी नहीं था। सूई तक का आयात इंग्लैण्ड आदि देशों से करना पड़ता था। लेकिन आज सुई से लेकर हवाई जहाज, जलयान, सुपर कम्प्यूटर, उपग्रह तक अपनी तकनीक और बहुत कुछ अपने साधनों से इस देश में ही बनने लगे हैं। लगभग पाँच दशकों में इतनी अधिक वैज्ञानिक प्रगति एवं विकास करके भारत ने केवल विकासोन्मुख राष्ट्रों को ही नहीं, वरन् उन्नत एवं विकसित कहे जाने वाले राष्ट्रों को भी चकित कर दिया है। भारतीय प्रतिभा का लोहा आज सम्पूर्ण विश्व मानने लगा है।

विभिन्न क्षेत्रों में हुई वैज्ञानिक प्रगति–डाक-तार के उपकरण, तरह-तरह के घरेलू इलेक्ट्रॉनिक सामान, रेडियो-टेलीविजन, कारें, मोटर गाड़ियाँ, ट्रक, रेलवे इंजिन और यात्री तथा अन्य प्रकार के डिब्बे, कल-कारखानों में काम आने वाली छोटी-बड़ी मशीनें, कार्यालयों में काम आने वाले सभी प्रकार के सामान, रबर-प्लास्टिक के सभी प्रकार के उन्नत उपकरण, कृषि कार्य करने वाले ट्रैक्टर, पम्पिंग सेट तथा अन्य कटाई-धुनाई–पिसाई की मशीनें आदि सभी प्रकार के आधुनिक विज्ञान की देन माने जाने वाले साधन आज भारत में ही बनने लगे हैं। कम्प्यूटर, छपाई की नवीनतम तकनीक की मशीनें आदि भी आज भारत बनाने लगा है। इतना ही नहीं, आज भारत में अणु शक्ति से चालित धमन भट्टियाँ, बिजली घर, कल-कारखाने आदि भी चलने लगे हैं तथा अणु-शक्ति का उपयोग अनेक शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए होने लगा है। पोखरण में भूमिगत अणु-विस्फोट करने की बात तो अब बहुत पुरानी हो चुकी है।

आज भारतीय वैज्ञानिक अपने उपग्रह तक अन्तरिक्ष में उड़ाने तथा कक्षा में स्थापित करने में सफल हो चुके हैं। आवश्यकता होने पर संघातक अणु, कोबॉल्ट और हाइड्रोजन जैसे बम बनाने की दक्षता भी भारतीय वैज्ञानिकों ने हासिल कर ली है। विज्ञान-साधित उपकरणों, शस्त्रास्त्रों का आज सैनिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्व बढ़ गया है। अपने घर बैठकर शत्रु देश के दूर-दराज के इलाकों पर आक्रमण कर पाने की वैज्ञानिक विधियाँ और शस्त्रास्त्र आज विशेष महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। धरती से धरती तक, धरती से आकाश तक मार कर सकने वाली कई तरह की मिसाइलें भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा बनायी गयी हैं जो आज भारतीय सेना के पास हैं और अन्य अनेक का विकास-कार्यक्रम अनवरत चल रहा है। युद्धक टैंक, विमान, दूर-दूर तक मार करने वाली तोपें आदि भारत में ही बन रही हैं। कहा जा सकता है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की सहायता से विश्व के सैन्य अभियान जिस दिशा में चल रहे हैं, भारत भी उस दिशा में किसी से पीछे नहीं है। गणतन्त्र दिवस की परेड के अवसर पर प्रदर्शित उपकरणों से यह स्पष्ट हो जाता है। फिर भी भारत को इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना है।

विज्ञान ने भारतीयों के रहन-सहन और चिन्तन-शक्ति को पूर्णरूपेण बदल डाला है। भारत हवाई जहाज, समुद्र के वक्षस्थल को चीरने वाले जहाज, आकाश का सीना चीर कर निकल जाने वाले रॉकेट, कृत्रिम उपग्रह आदि के निर्माण में अपना अग्रणी स्थान रखता है। 19 अप्रैल, 1975 को सोवियत प्रक्षेपण केन्द्र से ‘आर्यभट्ट’ नामक उपग्रह का सफल प्रक्षेपण कर भारत ने अन्तरिक्ष युग में प्रवेश किया और तब से आज तक उसने मुड़कर पीछे नहीं देखा। स्क्वैडून लीडर राकेश शर्मा 1984 ई० में रूसी अन्तरिक्ष यात्रियों के साथ अन्तरिक्ष यात्रा भी कर चुके हैं। भास्कर, ऐपल, इन्सेट, रोहिणी जैसे अनेक उपग्रह अन्तरिक्ष में स्थापित कर भारत विश्व की महाशक्तियों के समकक्ष खड़ा है। इन उपग्रहों से हमें मौसम सम्बन्धी जानकारी मिलती है तथा संचार व्यवस्था भी सुदृढ़ हुई है।

आधुनिक विज्ञान की सहायता से आज भारत ने चिकित्सा क्षेत्र में बड़ी प्रगति की है। एक्सरे, लेसर किरणें आदि की सहायता से अब भारत में ही असाध्य समझे जाने वाले अनेक रोगों के उपचार होने लगे हैं। हृदय-प्रत्यारोपण, गुर्दे का प्रत्यारोपण, जैसे कठिन-से-कठिन माने जाने वाले ऑपरेशन आज भारतीय शल्य-चिकित्सकों द्वारा सफलतापूर्वक सम्पादित किये जा रहे हैं। सभी प्रकार की बहुमूल्य प्राण-रक्षक ओषधियों का निर्माण भी यहाँ होने लगा है।

ऊर्जा के क्षेत्र में भी भारतीय वैज्ञानिकों की प्रगति सराहनीय है। इन्होंने नदियों की मदमस्त चाल को बाँधकर उनके जल का उपयोग सिंचाई और विद्युत निर्माण में किया। सौर ऊर्जा, पवन चक्कियाँ, ताप बिजलीघर, परमाणु बिजलीघर आदि ऊर्जा के क्षेत्र में हमारी प्रगति को दर्शाते हैं। महानगरों में गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण, सड़कें, फ्लाईओवर, सब-वे आदि हमारी अभियान्त्रिकीय प्रगति को दर्शाते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के भीतर से जल, अनेक खनिज और समुद्र को चीर कर तेल के कुएँ भी खोज निकाले हैं। बॉम्बे हाई से तेल को उत्खनन इसका जीता-जागता उदाहरण है।

कुछ एक अपवादों को छोड़कर, भारत में अधिकांश कार्य हाथों के स्थान पर मशीनों से हो सकने सम्भव हो गये हैं। मानव का कार्य अब इतना ही रह गया है कि वह इन मशीनों पर नियन्त्रण रखे। आटा पीसने से लेकर गूंधने तक, फसल बोने से लेकर अनाज को बोरियों में भरने, वृक्ष काटने से लेकर फर्नीचर बनाने तक सभी कार्य भारत में निर्मित मशीनों द्वारा सम्पन्न होने लगे हैं। विज्ञान ने मानव के दैनिक जीवन के लिए भी अनेक क्रान्तिकारी सुविधाएँ जुटायी हैं। रेडियो, फैक्स, रंगीन टेलीविजन, टेपरिकॉर्डर, वी० सी० आर०, सी० डी० प्लेयर, दूरभाष, कपड़े धोने की मशीन, धूल-मिट्टी हटाने की मशीन, कूलर, पंखा, फ्रिज, एयरकण्डीशनर, हीटर आदि आरामदायक मशीनें भारत में ही बनने लगी हैं, जिनके अभाव में मानव-जीवन नीरस प्रतीत होता है। घरों में लकड़ी-कोयले से जलने वाली अँगीठी का स्थान कुकिंग गैस ने और गाँवों में उपलों से जलने वाले चूल्हों का स्थान गोबर गैस संयन्त्र ने ले लिया है। चलचित्रों के क्षेत्र में हमारी प्रगति सराहनीय है। कम्प्यूटर का प्रवेश और उसका विस्तार हमारी तकनीकी प्रगति की ओर इंगित करते हैं।

उपसंहार-घर-बाहर, दफ्तर-दुकान, शिक्षा-व्यवसाय, आज कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ विज्ञान का प्रवेश न हुआ हो। भारत का होनहार वैज्ञानिक हर दिशा, स्थल और क्षेत्र में सक्रिय रहकर अपनी निर्माण एवं नव-नव अनुसन्धान प्रतिभा का परिचय दे रहा है। इतना ही नहीं भारतीय वैज्ञानिकों ने विदेशों में भी भारतीय वैज्ञानिक प्रतिभा की धूम मचा रखी है। आज भारत में जो कृषि या हरित क्रान्ति, श्वेत क्रान्ति आदि सम्भव हो पायी है, उन सबका कारण विज्ञान और उसके द्वारा प्रदत्त नये-नये उपकरण तथा ढंग ही हैं। आज हम जो कुछ भी खाते-पीते और पहनते हैं, सभी के पीछे किसी-न-किसी रूप में विज्ञान को कार्यरत पाते हैं। विज्ञान को कार्यरत करने वाले कोई विदेशी नहीं, वरन् भारतीय वैज्ञानिक ही हैं। उन्हीं की लगन, परिश्रम और कार्य-साधना से हमारा देश भारत आज इतनी अधिक वैज्ञानिक प्रगति कर सका है। भविष्य में यह और भी अधिक, सारे संसार से बढ़कर वैज्ञानिक प्रगति कर पाएगा इस बात में कतई कोई सन्देह नहीं।

मनोरंजन के आधुनिक साधन

सम्बद्ध शीर्षक

  • मनोरंजन के विविध प्रकार

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना : जीवन में मनोरंजन का महत्त्व,
  2. मनोरंजन के साधनों का विकास,
  3. आधुनिक काल में मनोरंजन के विविध साधन–(क) वैज्ञानिक साधन; (ख) अध्ययन; (ग) ललित कला सम्बन्धी; (घ) खेल सम्बन्धी; (ङ) विविध,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना : जीवन में मनोरंजन का महत्त्व-जीवन में मनोरंजन मानो सब्जी में नमक की भाँति आवश्यक है। यह मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। यह उसे प्रसन्नचित्त बनाने की गारण्टी तथा जीवन के कटु अनुभवों को भुलाने की ओषधि दोनों ही है। एक नन्हा शिशु भी इसको आकांक्षी है और एक वयोवृद्ध व्यक्ति के लिए भी यह उतना ही महत्त्वपूर्ण है। बच्चों को बेवजह रोना इस बात का संकेत है कि वह उकता रहा है। यदि वृद्ध सनकी और चिड़चिड़े हो उठते हैं तो उसका कारण भी मनोरंजन का अभाव ही है।

मनोरंजन वस्तुत: हमारे जीवन की सफलता का मूल है। मनोरंजनरहित जीवन हमारे लिए भारस्वरूप बन जाएगा। यह केवल हमारे मस्तिष्क के लिए ही नहीं, शारीरिक स्वास्थ्य-वृद्धि के लिए भी परमावश्यक है। मनोरंजन के विविध रूप-खेलकूद, अध्ययन व सुन्दर दृश्यों के अवलोकन से हमारा हृदय असीम आनन्द से भर उठता है। इससे शरीर के रक्त-संचार को नवीन गति और स्फूर्ति मिलती है तथा हमारे स्वास्थ्य की अभिवृद्धि भी होती है।

मनोरंजन के साधनों का विकास मनोरंजन की इसी गौरव-गरिमा के कारण बहुत प्राचीन काल से ही मानव-समाज मनोरंजन के साधनों का उपयोग करता आया है। शिकार खेलना, रथ दौड़ाना आदि विविध कार्य प्राचीन काल में मनोरंजन के प्रमुख साधन थे, परन्तु आजकल युग के परिवर्तन के साथ-साथ मनोरंजन के साधन भी बदल गये हैं। विज्ञान ने मनोरंजन के क्षेत्र में क्रान्ति कर दी है। आज कठपुतलियों का नाचे जनसमाज की आँखों के लिए उतना प्रिय नहीं रहा, जितना कि सिनेमा के परदे पर हँसते-बोलते नयनाभिराम दृश्य।

आधुनिक काल में मनोरंजन के विविध साधन–
(क) वैज्ञानिक साधन–सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन आदि विज्ञान प्रदत्त मनोरंजन के साधनों ने आधुनिक जनसमाज में अत्यन्त लोकप्रियता प्राप्त कर ली है। साप्ताहिक अवकाश के दिनों में जनता की भारी भीड़ सिनेमाघरों की खिड़की पर दृष्टिगोचर होती है। रेडियो तो मनोरंजन का पिटारा है। इसे अपने घर में रख सुन्दर गाने, भाषण, समाचार आदि सुन सकते हैं। टेलीविजन तो इससे भी आगे बढ़ गया है। इसमें तो बोलने वाले को सशरीर अपने नेत्रों के सम्मुख देखा जा सकता है तथा विविध कार्यक्रमों, खेलों आदि के सजीव प्रसारण को देखकर पर्याप्त मनोरंजन किया जा सकता है।

(ख) अध्ययन–साहित्य का अध्ययन भी मनोरंजन की श्रेणी में आता है। यह हमें मानसिक आनन्द देता है और चित्त को प्रफुल्लित करता है। पत्र-पत्रिकाएँ और उपन्यास रेल-यात्रा के दौरान बड़े सहायक होते हैं। साहित्य द्वारा होने वाले मनोरंजन से मन की थकान ही नहीं मिटती, ज्ञान की अभिवृद्धि भी होती है।

(ग) ललित-कला सम्बन्धी--संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्रकला आदि ललित-कलाएँ भी मनोरंजन के उत्कृष्ट साधन हैं। संगीत के मधुर स्वरों में आत्म-विस्मृत करने की अपूर्व शक्ति होती है।

(घ) खेल सम्बन्धी–ललित-कलाओं के साथ-साथ खेल भी मनोरंजन के प्रिय विषय हैं। हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट, टेनिस, बैडमिण्टन आदि खेलों से खिलाड़ी एवं दर्शकों का बहुत मनोरंजन होता है। विद्यार्थी वर्ग के लिए खेल बहुत ही हितकर हैं। इनके द्वारा उनका मनोरंजन ही नहीं होता, अपितु स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। बड़े-बड़े नगरों में तो इस प्रकार के खेलों को देखने के लिए हजारों की संख्या में दर्शकगण पैसा व समय खर्च करके आनन्द लूटते हैं। गर्मी की साँय-साँय करती लूओं से भरे वातावरण में घर बैठकर साँप-सीढ़ी, लूडो, ताश, कैरम, शतरंज खूब खेले जाते हैं। ये खेल प्रायः ऐसे लोगों का मनोरंजन अधिक करते हैं, जो घर से बाहर निकलना पसन्द ही नहीं करते या कम निकलते हैं।

(ङ) विविध-कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिन्हें अभीष्ट कार्य को पूर्ण करने में ही आनन्द की प्राप्ति हो जाती है। कुछ लोग अपने कार्य-स्थलों से लौटने के बाद अपने उद्यान को ठीक प्रकार से सँवारने में ही घण्टों व्यतीत कर देते हैं, इससे ही इनका मनोरंजन हो जाती है। कुछ लोगों का मनोरंजन फोटोग्राफी होता है। गले में कैमरा लटकाया और चल दिये घूमने। कहीं मन-लुभावना आकर्षक-सी दृश्य दिखाई दिया और उन्होंने उसे कैमरे में कैद कर लिया। इसी से मन प्रफुल्लित हो उठा। कुछ लोगों का शौक होता है देश-विदेश की टिकटें एकत्रित करने का। इस संग्रह में ही उनका अधिकांश समय बीत जाता है। पुराने लिफाफों पर से टिकटें उतारने में ही उन्हें आनन्द आता है।

मेले-तमाशे, सैर-सपाटे, यात्रा-देशाटन आदि मनोरंजन के विविध साधन हैं। इनसे हमारा मनोरंजन तो होता ही है, साथ-ही-साथ हमारा व्यावहारिक ज्ञान भी बढ़ता है। देशाटन द्वारा विविध स्थान और वस्तुएँ देखने को प्राप्त होती हैं। राहुल सांकृत्यायन तो देशाटन द्वारा अर्जित ज्ञान के कारण ही महापण्डित कहलाये और देशाटन से प्राप्त होने वाले ज्ञान और मिलने वाले मनोरंजन पर ‘घुमक्कड़-शास्त्र’ ही लिख डाला। सन्तों ने तो हर काम को हँसते-खेलते अर्थात् मनोरंजन करते हुए करने को कहा है। यहाँ तक कि ध्यान (Meditation) भी मन को प्रसन्न करते हुए किया जा सकता है—हसिबो खेलिबो धरिबो ध्यानं ।

उपसंहार निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जीवन में अन्य कार्यों की भाँति मनोरंजन भी उचित मात्रा में होना ही चाहिए। सीमा से अधिक मनोरंजन समय जैसी अमूल्य सम्पत्ति को नष्ट करता है। जिस प्रकार आवश्यकता से अधिक भोजन अपच का कारण बन शरीर के रुधिर-संचार में विकार उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अधिक मनोरंजन भी हानिकारक होता है। हमें चाहिए कि उचित मात्रा में मनोरंजन करते हुए अपने जीवन को उल्लासमय और सरल बनायें।

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