UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 19 Motivation and Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 19
Chapter Name Motivation and Education (प्रेरणा एवं शिक्षा)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 19 Motivation and Education (प्रेरणा एवं शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्रेरणा का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। प्रेरणा के मुख्य स्रोतों का भी उल्लेख कीजिए।
या
अभिप्रेरणा से आप क्या समझते हैं? [2011, 13, 14]
उत्तर :
प्रेरणा का अर्थ एवं परिभाषा
रेरणा या अभिप्रेरणा वह मानसिक क्रिया है, जो किसी प्रकार के व्यवहार को प्रेरित करती है। दूसरे शब्दों में, प्रेरणा मानसिक तत्परता की वह स्थिति है, जो व्यक्ति को कार्य में नियोजित करती है और किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर करती है। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक अर्थ में प्रेरणा एक प्रकार की आन्तरिक उत्तेजना है,

जिस पर हमारा व्यवहार आधारित रहता है अथवा जो हमें कार्य करने के लिए प्रेरित करती है और लक्ष्य प्राप्ति तक चलती रहती है। कोई व्यक्ति कार्य क्यों करता है ? भोजन क्यों करता है ? प्रेम या घृणा क्यों करता है ? आदि प्रश्नों का सम्बन्ध प्रेरणा से है। इस प्रकार प्रेरणा एक प्रकार की आन्तरिक शक्ति है, जो हमें कार्य करने के लिए प्रेरित को बाध्य करती है।

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरणा की परिभाषा इस प्रकार दी है

1. गिलफोर्ड :
(Guilford) के अनुसार, “प्रेरणा एक कोई भी विशेष आन्तरिक कारक अथवा दशा है, जो क्रिया को प्रारम्भ करने अथवा बनाये रखने को प्रवृत्त होती है।”

2. वुडवर्थ :
(woodworth) के अनुसार, “प्रेरणा व्यक्तियों की दशा का वह समूह है, जो किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए निश्चित व्यवहार स्पष्ट करती है।”

3. मैक्डूगल :
मैक्डूगल के अनुसार, “प्रेरणा वे शारीरिक तथा मानसिक दशाएँ हैं, जो किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।”

4. जॉनसन :
जॉनसन के अनुसार, “प्रेरणा सामान्य क्रियाकलापों का प्रभाव है, जो मानव के व्यवहार को उचित मार्ग पर ले जाती हैं।”

5. बर्नार्ड :
(Bernard) के अनुसार, “प्रेरणा द्वारा उन विधियों का विकास किया जाता है, जो व्यवहार के पहलुओं को प्रमाणित करती हैं।”

6. थॉमसन :
थॉमसन के अनुसार, “प्रेरणा प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मानव व्यवहार के प्रत्येक प्रतिकारक को प्रभावित करती है।”

7.शेफर :
(Shaffar) व अन्य के अनुसार, “प्रेरणा क्रिया की एक ऐसी प्रवृत्ति है जो कि चालक द्वारा उत्पन्न होती है एवं समायोजन द्वारा समाप्त होती है।”

इन परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर निम्नांकित तथ्यों का ज्ञान होता है

  1. प्रेरणा साध्य नहीं साधन है। यह साध्य तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करती है।
  2. प्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को स्पष्ट करती है।
  3. प्रेरणा से क्रियाशीलता व्यक्त होती है।
  4. प्रेरणा पर शारीरिक तथा मानसिक और बाह्य एवं आन्तरिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।
  5. प्रेरणा सीखने का प्रमुख अंग न होकर सहायक अंग है।

प्रेरणा के स्रोत
मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरणा के निम्नांकित स्रोतों का उल्लेख किया है

1. आवश्यकताएँ :
अपने जीवन को बनाये रखने के लिए मनुष्य की कुर्छ अनिवार्य आवश्यकताएँ होती हैं; जैसे वायु, जल और भोजन आदि। जब मनुष्य की इन आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तो शारीरिक तनाव उत्पन्न हो जाता है और वह उनकी प्राप्ति के लिए किसी-न-किसी रूप में क्रियाशील हो जाता है। उदाहरण के लिए, ज़ब किसी व्यक्ति को प्यास लगती है, तो वह पानी की खोज के लिए तत्पर हो जाता है और जब तक उसे पानी प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक उसका शारीरिक तनाव बना रहता है।

प्राप्त हो जाने पर उसका शारीरिक तनाव भी समाप्त हो जाता है। इस सम्बन्ध में बोरिंग और लैंगफील्ड (Boring and Langfield) ने लिखा है-“आवश्यकता शरीर की अनिवार्यता या अभाव है, जिसके परिणामस्वरूप शारीरिक अस्थिरता या तनाव उत्पन्न हो जाता है। इस तनाव में ऐसा व्यवहार करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे आवश्यकता के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाला तनाव समाप्त हो जाता है।”

2. चालक :
चालक (Driver) की उत्पत्ति आवश्यकताओं के द्वारा होती है। उदाहरण के लिए, पानी व्यक्ति की आवश्यकता है। यह पानी की आवश्यकता ही ‘प्यास चालक को जन्म देती है। इस प्रकार चालक प्राणियों को एक निश्चित प्रकार की क्रियाएँ या व्यवहार के लिए प्रेरित करते हैं।

3. उद्दीपन :
उद्दीपन वे वस्तुएँ हैं, जिनके द्वारा चालकों की सन्तुष्टि होती। है। उदाहरण के लिए, प्यास चालक की सन्तुष्टि पानी के द्वारा होती है। अत: यहाँ पानी उद्दीपन (Incentives) कहलाएगा। इसी प्रकार काम चालक’ का उद्दीपन विपरीत लिंगीय प्राणी होगा। बोरिंग व लैंगफील्ड के अनुसार, “उद्दीप्त को उस वस्तुस्थिति या क्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो व्यवहार को उद्दीप्त और निर्देशित करता है।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि आवश्यकता, चालक एवं उद्दीपन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। हिलगार्ड (Hilgard) के शब्दों में, “आवश्यकता से चालक का जन्म होता है। चालक बढ़े हुए तनाव की स्थिति है, जो कार्य और आरम्भिक व्यवहार की ओर अग्रसर रहता है। उद्दीपन बाह्य वातावरण की कोई वस्तु होती है, जिससे आवश्यकता की सन्तुष्टि की प्रक्रिया द्वारा चालक की गति मन्द कर देती है।”

4. प्रेरक :
प्रेरक के अन्तर्गत उद्दीपन चालक, आवश्यकता तथा तनाव आदि सभी आ जाते हैं। प्रेरकों (Motives) के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों के विभिन्न मत हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक प्रेरकों को जन्मजात शक्तियों मानते हैं तो कुछ इन्हें मुक्ति की शारीरिक या मनोवैज्ञानिक स्थिति मानते हैं। परन्तु अधिकांश मनोवैज्ञानिक प्रेरक को वह शक्ति मानते हैं, जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए उत्तेजित करती है। दूसरे शब्दों में, प्रेरक व्यक्ति के व्यवहार की दिशाओं को निर्धारित करते हैं। विभिन्न विद्वानों ने प्रेरकों की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों में दी है

  • ब्लेयर, जेम्स व शिसन के अनुसार, “प्रेरक हमारी मौलिक आवश्यकता से उत्पन्न होने वाली वे शक्तियाँ हैं, जो व्यवहार को दिशा और प्रयोजन प्रदान करती हैं।”
  • शेफर तथा अन्य के अनुसार, “प्रेरक क्रिया की एक ऐसी प्रवृत्ति है, जो कि चालक द्वारा उत्पन्न होती है और समायोजन द्वारा समाप्त होती है।”

प्रश्न 2
सीखने में प्रेरणा के स्थान एवं महत्त्व का उल्लेख कीजिए। या प्रेरणा क्या है ? सीखने के लिए प्रेरणा आवश्यक है। इस कथन की पुष्टि कीजिए। [2007, 08]
या
प्रेरणा की उपयुक्त परिभाषा दीजिए। सीखने में प्रेरणा का क्या योगदान है? [2007, 08]
या
प्रेरणा सीखने के लिए अनिवार्य है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2009, 10]
उत्तर :
[संकेत : प्रेरणा की परिभाषा का अध्ययन उपर्युक्त प्रश्न संख्या 1 के उत्तर के अन्तर्गत करें।]

सीखने में प्रेरणा का स्थान (महत्त्व)
सीखने में प्रेरणा का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। बिना प्रेरणा के हम कुछ सीख ही नहीं सकते। थॉमसन के अनुसार, “बालक की मानसिक क्रिया के बिना विद्यालय में सीखना बहुत कम होता है। सर्वश्रेष्ठ सीखना उस समय होता है, जबकि मानसिक क्रिया सर्वाधिक होती है। अधिकतम मानसिक क्रिया प्रबल प्रेरणा के फलस्वरूप होती है।”

डॉ० सीताराम जायसवाल के अनुसार, “व्यक्ति के अन्दर कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं, जिनके कारण व्यक्ति प्रक्रिया करता है। वातावरण के साथ क्रिया किसी विशेष प्रेरक द्वारा प्रेरित होती है। इसी क्रिया के फलस्वरूप सीखना होता है। इस प्रकार सीखने के लिए अभिप्रेरणा अनिवार्य है।”

वास्तव में सीखने में प्रेरणा की प्रमुख भूमिका रहती है। प्रेरणा सीखने में किस प्रकार सहायक हो सकती है, यह निम्नांकित शीर्षकों से स्पष्ट हो जाएगा

1. ध्यान का केन्द्रीकरण :
सीखने में ध्यान का केन्द्रित होना अत्यन्त आवश्यक है। अध्यापक बालकों को विभिन्न ढंग से प्रेरित करके उन्हें अपने पाठ पर ध्यान केन्द्रित करने में सहायता दे सकता है। इसलिए कैली ने लिखा है कि, “सीखने की प्रक्रिया में प्रेरणा का एक केन्द्रीय स्थान है।”

2. रुचि का विकास :
बालक बिना रुचि के अध्ययन नहीं करते। जब बालक में रुचि जाग्रत हो। जाती है, तो वह किसी विषय या तथ्य को तुरन्त समझ जाता है। ध्यान की एकाग्रता और रुचि में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। ऐसी दशा में अध्यापक का कर्तव्य है कि वह प्रेरणा का उचित प्रयोग करके बालकों में अध्ययन के प्रति रुचि जाग्रत करे। थॉमसन के कवि अनुसार, प्रेरणा छात्रों में रुचि जाग्रत करने की कला हैं।”

3. सीखने की इच्छा का विकास :
प्रेरणा से बालकों में सीखने की इच्छा को बलवली बनाया जा सकता है। इसके लिए अध्यापक को छात्रों की समस्या की जानकारी करा देनी चाहिए तथा उनके लक्ष्य का महत्त्व बता देना चाहिए और साथ-ही-साथ उसमें आत्मविश्वास की भावना जाग्रत करनी चाहिए।

4. लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक :
यदि बालकों को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया जाए तो वे अपने कार्य में विशेष लगन और श्रम से जुट जाते हैं। वास्तव में किसी लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रेरणा का विशेष हाथ रहता है। अतः अध्यापक को इस दिशा में विशेष ध्यान देना चाहिए।

5. अच्छी आदतों के विकास में सहायक :
अच्छी आदतें नवीन ज्ञान को विकसित करने में सहायक होती हैं। यदि अध्यापक बालकों को श्रेष्ठ आदतें डालने के लिए प्रेरित करें तो उन्हें अनेक लाभ होंगे। यदि उनमें सीखने तथा पढ़ने की आदतों का निर्माण कर दिया जाए तो स्वयं अध्ययन में ध्यान लगाएँगे।

6. ज्ञान की प्राप्ति में सहायक :
प्रेरणा द्वारा बालकों को अधिक ज्ञानार्जन के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। अध्यापकों को चाहिए कि वह प्रभावशाली शिक्षण विधियों का प्रयोग करके बालकों को तीव्र गति से ज्ञानार्जन के लिए प्रेरित करे। इसके लिए वे प्रतियोगिता का सहारा ले सकते हैं।

7. अभिवृत्ति के विकास में सहायक :
प्रेरणा बालकों में अभिवृत्ति का विकास करने में सहायक होती है। अध्यापक उचित ढंग से प्रेरित करके बालकों में श्रेष्ठ अभिवृत्तियों का विकास कर सक अभिवृत्तियों का विकास हो जाने से बालक सरलता से कार्य को सीख जाते हैं।

8. सामाजिक गुणों का विकास :
यदि अध्यापक बालकों को सामुदायिक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रेरित करता है तो उनमें सामाजिकता तथा सामुदायिकता का विकास सरलता से किया जा सकता है। विभिन्न सामाजिक प्रेरकों के द्वारा बालकों को सामाजिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

9. चरित्र के निर्माण में सहायक :
शिक्षा की दृष्टि से चरित्र-निर्माण का विशेष महत्त्व है। एक आदर्श चरित्र वाले व्यक्ति की संकल्पशक्ति तथा चित्त को एकाग्र करने की शक्ति अत्यन्त दृढ़ होती है।  प्रेरणा द्वारा बालकों में विभिन्न सद्गुण उत्पन्न किये जा सकते हैं तथा उनकी इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाया जा सकता है।

10. अनुशासन स्थापना में सहायक :
अनुशासनहीन बालक पढ़ने-लिखने के प्रति लापरवाह होते हैं। प्रेरणा के माध्यम से बालकों में अनुशासन की भावना विकसित की जा सकती है। अध्यापक उन्हें सकार्यों के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रेरणा सीखने तथा शिक्षण प्रक्रिया का मुख्य आधार है।

प्रेरणा का प्रभावशाली प्रयोग करके अध्यापक बालकों को उनके लक्ष्य तक पहुँचा सकता है तथा उनमें सद्गुणों का विकास कर चारित्रिक दृढ़ता उत्पन्न कर सकता है। हैरिस के अनुसार, “प्रेरणा की समस्या शिक्षा मनोविज्ञान और कक्षा-भवन की प्रक्रिया, दोनों के लिए केन्द्रीय महत्त्व की है।”

प्रश्न 3
बालकों को प्रेरित करने की मुख्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
या
शिक्षा में प्रेरणा प्रदान करने की विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
बालक को प्रेरित करने की विधियाँ
सीखने में प्रेरणा का विशेष योगदान रहता है। बालकों को सिखाने में प्रेरणा को एक साधन के रूप में प्रयोग करना प्रत्येक अध्यापक का कर्तव्य है। उसका कर्तव्य है कि बालकों को नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए अधिक-से-अधिक प्रेरित करे। यहाँ पर हम कुछ ऐसी विधियों का उल्लेख करेंगे, जिनके द्वारा छात्रों को समुचित तरीके से प्रेरित किया जा सकता है

1. आवश्यकताओं का ज्ञान :
प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के वशीभूत होकर कार्य करता है। अध्यापक का कर्तव्य है कि बालकों को पाठ्य-सामग्री की आवश्यकता का ज्ञान कराये। वह बताये कि अमुक विषय का अध्ययन किस आवश्यकता की पूर्ति करता है।

2. संवेगात्मक स्थिति का ध्यान :
अध्यापक को बालकों की संवेगात्मक स्थिति का भी ध्यान रखना चाहिए। यदि अध्यापक सिखाये जाने वाले विषय का सम्बन्ध बालकों के संवेगों से स्थापित कर देता है। तो उन्हें प्रेरित करने में उसे पूर्ण सफलता मिलेगी। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तथ्य का प्रतिपादन इस ढंग से किया जाना चाहिए कि बालक उससे घृणी न करके प्रेम करे।

3. रुचि :
प्रेरणा प्रदान करने के लिए पाठक में रुचि उत्पन्न करना अत्यन्त आवश्यक है। रुचि से सम्बन्धित करके यदि पाठ पढ़ाया। जाएगा तो बालकों को इच्छानुसार प्रेरित करने में सुगमता होगी।

4. खेल – विधि का प्रयोग :
छोटे बालक खेल में विशेष रुचि लेते हैं। यदि बालकों को खेल के माध्यम से ज्ञान प्रदान किया जाएगा तो वे अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित होंगे। छोटे-बालकों के यथासम्भव खेल-विधि द्वारा ही ज्ञान प्रदान किया जाए।

5. कक्षा का वातावरण :
कक्षा का वातावरण भी प्रेरणामय होना चाहिए। प्रत्येक कक्षा का वातावरण विषय और शिक्षण के अनुकूल होना चाहिए। यदि विज्ञान-कक्षा विभिन्न वैज्ञानिक उपकरणों तथा यन्त्रों से सुसज्जित है तो छात्र वैज्ञानिक अध्ययन के लिए सरलता से प्रेरित हो जाएँगे।

6. विद्यालय का वातावरण :
कक्षा के समान सम्पूर्ण विद्यालय का वातावरण भी प्रेरणामय होना चाहिए। विद्यालय में स्थान-स्थान पर विभिन्न विषयों सम्बन्धी सूचनात्मक घट तथा महापुरुषों के चित्र लगे हों, छात्रों को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन की सुविधाएँ प्राप्त हो, विद्यालय में सुन्दर .. पुस्तकालय हो तथा अध्यापक बालकों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हों और उन्हें हर प्रकार की सूचना देने में आनन्द का अनुभव करते हों, तो ऐसे विद्यालय के छात्र शीघ्रता से प्रेरणा प्राप्त करेंगे।

7. प्रगति का ज्ञान :
जब बालक को यह ज्ञात हो जाता है कि वह अपने कार्य में पर्याप्त प्रगति कर ‘ रहा है तो वह आगे कार्य करने की प्रेरणा ग्रहण करता है। अतः अध्यापक को चाहिए कि वे बालकों को उनकी प्रगति का भी ज्ञान कराते रहें।

8. सफलता :
जब बालक अपने किसी कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है, तो उसे आगे कार्य करने की प्रेरणा मिलती है। फ्रेण्डसन (Frandson) के अनुसार, “सीखने के सफल अनुभव अधिक सीखने की प्रेरणाएँ प्रदान करते हैं। ऐसी दशा में अध्यापक को अपना शिक्षण इस ढंग से करना चाहिए, जिससे कि बालक अपने कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकें।

9. परिणाम का ज्ञान :
वुडवर्थ (Wood worth) के अनुसार, “प्रेरणा परिणामों की तात्कालिक जानकारी से प्राप्त होती है। अतः अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों को पाठ्य-विषयं की जानकारी भली प्रकार करा दे और शिक्षण प्रारम्भ करने के पूर्व ही उन्हें यह बता दे कि अमुक पाठ्य-विषय के अध्ययन से उन्हें क्या लाभ होगा?

10. विचार गोष्ठी:
विचार गोष्ठियों द्वारा बालकों को प्रभावशाली तरीके से प्रेरित किया जा सकता है। अतः कक्षा में अध्यापक को समय-समय पर विचार गोष्ठियों (Seminars) का आयोजन करना चाहिए।

11. प्रतियोगिता :
बालकों में स्वभावतः प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा की भावनाएँ पायी जाती हैं। इस भावना का प्रयोग करके बालकों को प्रभावशाली ढंग से प्रेरित किया जा सकता है। अतः विद्यालय में प्रतिस्पर्धा की क्रियाओं को पर्याप्त संख्या में आयोजित किया जाए, जिससे कि समस्त छात्र किसी-न-किसी रूप में सफलता प्राप्त कर सकें। इन प्रतियोगिताओं में असफल छात्रों को डॉटा-फटकारा भी न जाए; परन्तु प्रतियोगिता को इतना अधिक महत्त्व न दिया जाए कि विद्यालय की सामूहिकता की भावनां नष्ट हो जाएं।

12. सामाजिक तथा सामुदायिक कार्यों में भाग लेना :
बालकों को सामाजिक तथा सामुदायिक कार्यों में भाग लेने के पर्याप्त अवसर मिलने चाहिए। इन कार्यों में भाग लेने से उनके अहम् की सन्तुष्टि होती है और वे आत्म-सम्मान तथा आत्म-प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए प्रेरित होते हैं।

13. प्रशंसा :
हरलॉक के अनुसार, प्रशंसां एक प्रभावशाली प्रेरक है। अच्छे कार्य की प्रशंसा करके बालकों को प्रेरित किया जा सकता है। अतः अध्यापक को बालकों की समय-समय पर अच्छे कार्यों के लिए प्रशंसा करनी चाहिए।

14. पुरस्कार :
पुरस्कार द्वारा भी बालकों को प्रोत्साहित तथा प्रेरित किया जा सकता है। पुरस्कार पाकर बालक प्रफुल्लित होते हैं और वे कार्य करने के लिए प्रेरित होते हैं। पुरस्कार बालकों के मनोबल को भी ऊँचा उठाते हैं। इसमें बालकों में प्रतिस्पर्धा की भावना का भी विकास होता है और वे अधिक लगन तथा उत्साह से कार्य करते हैं। इसके साथ-ही-साथ पुरस्कार बालकों के अहम् की भी सन्तुष्टि करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्रेरकों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
विभिन्न विद्वानों ने प्रेरकों का वर्गीकरण निम्नवत् किया है
1. थॉमसन (Thomson) के अनुसार

  • स्वाभाविक प्रेरक तथा
  • कृत्रिम प्रेरक

2. गैरेट के अनुसार

  • जैविक व मनोवैज्ञानिक प्रेरक तथा
  • सामाजिक प्रेरक

3. मैस्लो (Maslow) के अनुसार

  • जन्मजात प्रेरक तथा
  • अर्जित प्रेरका

प्रेरकों के मुख्य प्रकारों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित हैं

1. जन्मजात प्रेरक :
ये प्रेरक जन्मजात होते हैं। इसके अन्तर्गत भूख, प्यास, सुरक्षा, यौन आदि प्रेरक आते हैं।

2. अर्जित प्रेरक :
ये प्रेरक वातावरण से प्राप्त होते हैं और इनको अर्जित किया जाता है। आदत्, रुचि, सामुदायिकता आदि अर्जित प्रेरकों के स्वरूप हैं।

3. सामाजिक प्रेरक :
इनका व्यक्तियों के व्यवहार पर विशेष प्रभाव पड़ता है। ये मुख्य रूप से सामाजिक आदर्शो, स्थितियों तथा परम्पराओं के कारण उत्पन्न होते हैं। आत्म-प्रदर्शन, आत्म-सुरक्षा, जिज्ञासा तथा रचनात्मकता सामाजिक प्रेरक हैं।

4. मनोवैज्ञानिक प्रेरक :
इनका जन्म प्रबल मनोवैज्ञानिक दशाओं के कारण होता है। इन प्रेरकों में प्रेम, दुःख, भय, क्रोध तथा आनन्द आते हैं।

5. स्वाभाविक प्रेरक :
स्वाभाविक प्रेरक व्यक्ति के स्वभाव में ही पाये जाते हैं। खेल, सुझाव, अनुकरण, सुख प्राप्ति और प्रतिष्ठा आदि ऐसे ही प्रेरक हैं।

6. कृत्रिम प्रेरक :
कृत्रिम प्रेरक मुख्यतया स्वभाविक प्रेरकों के पूरक के रूप में कार्य करते हैं। सहयोग, व्यक्तिगत तथा सामूहिक कार्य, पुरस्कार, दण्ड व प्रशंसा आदि इन प्रेरकों के रूप हैं। ये व्यक्ति के कार्य तथा व्यवहार को नियन्त्रित तथा प्रोत्साहित करते हैं।

प्रश्न 2
जन्मजात तथा अर्जित प्रेरकों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जन्मजात एवं अर्जित दोनों ही प्रकार के प्रेरक मनुष्य की आन्तरिक स्थिति से सम्बन्ध रखते हुए उसमें ऐसी क्रियाशीलता पैदा करते हैं जो लक्ष्य की प्राप्ति तक चलती रहती है। इस मौलिक समानता के बावजूद इनके मध्य निम्नलिखित अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं
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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सकारात्मक प्रेरणा तथा नकारात्मक प्रेरणा से क्या आशय है ?
उत्तर :
प्रेरणा मुख्यतः दो प्रकार की होती है सकारात्मक प्रेरणा तथा नकारात्मक प्रेरणा, इन दोनों प्रकार की प्रेरणाओं का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है

1. सकारात्मक प्रेरणा :
इसे आन्तरिक प्रेरणा भी कहते हैं। इस प्रेरणा में व्यक्ति किसी कार्य को अपनी इच्छा से करता है।

2. नकारात्मक प्रेरणा :
इसमें व्यक्ति किसी कार्य को स्वयं अपनी इच्छा से न करके अन्य व्यक्तियों की इच्छा या बाह्य प्रभाव के कारण करता है। यह बाह्य प्रेरणा भी कहलाती है। अध्यापक पुरस्कार, प्रशंसा, निन्दा आदि का प्रयोग करके अपने छात्रों को नकारात्मक प्रेरणा प्रदान करता है।

शिक्षक को चाहिए कि वह यथासम्भव सकारात्मक प्रेरणा का प्रयोग करके बालकों को अच्छे कार्यों में लगाये। परन्तु जब सकारात्मक प्रेरणा से प्रयोजन सिद्ध न हो सके, तभी उसे नकारात्मक प्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 2
प्रेरणायुक्त व्यवहार के मुख्य लक्षण क्या हैं ?
उत्तर :
प्रेरणायुक्त व्यवहार के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं

1. अधिक शक्ति का संचालन :
प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति के शरीर में शक्ति को अधिक संचालन हो जाता है। ऐसे में व्यक्ति के समस्त कार्य भी कर सकता है जो सामान्य दशा में उनके लिए कठिन होते हैं।

2. परिवर्तनशीलता :
प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति करने के लिए किये  जाने वाले प्रयासों में बार-बार परिवर्तन भी करता है।

3. निरन्तरता :
प्रबल प्रेरणा की दशा में जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक व्यक्ति निरन्तर प्रयास करता रहता है।

4. लक्ष्य प्राप्त करने की व्याकुलता :
प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति को लक्ष्य को प्राप्त करने की व्याकुलता रहती है।

5. लक्ष्य-प्राप्ति :
जब लक्ष्य-प्राप्ति हो जाती है तब व्यक्ति की व्याकुलता समाप्त हो जाती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
किसी कार्य को करने के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक को क्या कहते हैं ?
उत्तर :
किसी कार्य को करने के लिए सर्वाधिक अनिवार्य कारक को प्रेरणा कहते हैं।

प्रश्न 2
प्रेरणा के नितान्त अभाव का व्यक्ति के कार्यों पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर :
प्रेरणा के नितान्त अभाव में व्यक्ति द्वारा कोई कार्य सम्पन्न हो ही नहीं सकता।

प्रश्न 3
प्रेरणा की एक स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
“प्रेरणा वे शारीरिक तथा मानसिक दशाएँ हैं, जो किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।” [मैक्डूगल]

प्रश्न 4
“अभिप्रेरणा किसी कार्य को प्रारम्भ करने, जारी रखने और नियन्त्रित करने की प्रक्रिया है।” यह कथन किसका है? [2007]
उत्तर :
अभिप्रेरणा सम्बन्धी प्रस्तुत कथन गुड (Good) का है।

प्रश्न 5
प्रेरणायुक्त व्यवहार का मुख्य लक्षण क्या होता है?
उत्तर :
प्रेरणायुक्त व्यवहार का मुख्य लक्षण है अतिरिक्त शक्ति का संचालन।

प्रश्न 6
अभिप्रेरणा (प्रेरणा) का कोई एक वर्गीकरण बताइए।
उत्तर :
अभिप्रेरणा के एक वर्गीकरण के अन्तर्गत प्रेरणा को दो वर्गों में बाँटा जाता है

  1. जन्मजात प्रेरक तथा
  2. अर्जित प्रेरक

प्रश्न 7
मुख्य जन्मजात प्रेरक कौन-कौन-से हैं?
उत्तर :
मुख्य जन्मजात प्रेरक हैं-भूख, प्यास, निद्रा तथा काम।

प्रश्न 8
प्रशंसा एवं निन्दा किस प्रकार के प्रेरक है?
उत्तर :
प्रशंसा एवं निन्दा सामान्य अर्जित प्रेरक हैं।

प्रश्न 9
अभिप्रेरणा का सीखने पर क्या प्रभाव पड़ता है ? [2008]
उत्तर :
अभिप्रेरणा की दशा में सीखने की प्रक्रिया सुचारु तथा अच्छे रूप में सम्पन्न होती है।

प्रग 10
प्रेरणा के प्रारम्भ के लिए कौन उत्तरदायी होता है?
उत्तर :
प्रेरणा के प्रारम्भ के लिए आवश्यकता की अनुभूति उत्तरदायी होती है।

न 11
प्रेरणा की उत्पत्ति का स्वाभाविक कारण क्या है ? [2011]
उत्तर :
प्रेरणा की उत्पत्ति का स्वाभाविक कारण है-आवश्यकताओं को अनुभव करना एवं आदत।

प्रश्न 12
भूख कैसा प्रेरक है? [2015]
उत्तर :
भूख एक प्रमुख जन्मजात प्रेरक है।

प्रश्न 13
“अभिप्रेरणा सीखने के लिए राजमार्ग है।” किसने कहा है? [2011, 13, 14, 16]
उत्तर :
स्किनर (Skinner) ने।

प्रश्न 14
अभिप्रेरणा से क्या आशय है? [2016]
उत्तर :
अभिप्रेरणा वह मानसिक क्रिया है, जो किसी प्रकार के व्यवहार को प्रेरित करती है।

प्रश्न 15
निम्नलिखित कथन सत्य हैं
या
असत्य

  1. व्यक्ति के समस्त व्यवहार के पीछे निहित मुख्य कारक प्रेरणा ही है।
  2. प्रेरणाओं के नितान्त अभाव में व्यक्ति पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाता है।
  3. भूख एवं प्यास मुख्य अर्जित प्रेरक हैं।
  4. शिक्षा के क्षेत्र में प्रेरणा का विशेष महत्त्व है।
  5. जीवन में सूफलता प्राप्ति के लिए प्रेरणाओं का विशेष योगदान होता है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. संय
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
किसी भी व्यवहार के सम्पन्न होने के लिए अनिवार्य कारक है
(क) चिन्तन
(ख) लाभ प्राप्ति की आशा
(ग) प्रेरणा
(घ) संवेग
उत्तर :
(ग) प्रेरणा

प्रश्न 2
“अभिप्रेरणा एक ऐसी मनोदैहिक प्रक्रिया है, जो किसी आवश्यकता की उपस्थिति में  उत्पन्न होती है। वह ऐसी प्रक्रिया की ओर गतिशील होती है, जो आवश्यकता को सन्तुष्ट करती है। यह परिभाषा किसकी है?
(क) लावेल की
(ख) वुडवर्थ की
(ग) गिलफोर्ड की
(घ) शेफर की
उत्तर :
(क) लावेल की

प्रश्न 3
“प्रेरक कोई एक विशेष आन्तरिक कारक यो दशा है, जिसमें किसी क्रिया को आरम्भ करने और बनाये रखने की प्रवृत्ति होती है।” यह परिभाषा किसने दी है ?
(क) मैक्डूगल ने
(ख) वुडवर्थ ने
(ग) गिलफोर्ड ने।
(घ) हिलगार्ड ने
उत्तर :
(ग) गिलफोर्ड ने

प्रश्न 4
प्रेरणा का स्वाभाविक कारण है [2015]
(क) आदत
(ख) संस्कार
(ग) रुचि
(घ) संवेग
उत्तर :
(घ) संवेग

प्रश्न 5
प्रेरणा की उत्पत्ति को अर्जित कारण है
(क) आत्मरक्षा की भावना
(ख) मूल-प्रवृत्तियाँ
(ग) अचेतन मन
(घ) रुचि
उत्तर :
(घ) रुचि

प्रश्न 6
भूख और प्यास कैसे प्रेरक हैं ? [2013]
(क) व्यक्तिगत
(ख) सामाजिक
(ग) जन्मजात
(घ) अर्जित
उत्तर :
(ग) जन्मजात

प्रश्न 7
प्रेरणा छात्र में रुचि उत्पन्न करने की कला है।” यह किसका मत है ?
(क) गेट्स का
(ख) वुडवर्थ का
(ग) थॉमसने का
(घ) जे० एस० रॉस का
उत्तर :
(ग) थॉमसन का ।

प्रश्न 8
प्रेरणा परिणामों के तत्कालिक ज्ञान से प्राप्त होती है।” यह कथन किसका है?
(क) वुडवर्थ का
(ख) मैक्डूगल को
(ग) हिलगार्ड का
(घ) कोहलर का
उत्तर :
(क) वुडवर्थ को

प्रश्न 9
शिक्षा के प्रति प्रेरित बालक के लक्षण हैं
(क) अनुशासन के प्रति ईमानदार
(ख) अध्ययन में एकाग्रता
(ग) सद्गुणों तथा अच्छी आदतों से युक्त
(घ) ये सभी लक्षण
उत्तर :
(घ) ये सभी लक्षणे

प्रश्न 10
व्यक्ति की जन्मजात प्रेरणा है [2012, 14]
(क) आदत
(ख) मनोरंजन
(ग) भूख
(घ) महत्त्वाकांक्षा का स्तर
उत्तर :
(ग) भूख

प्रश्न 11
गैरेट के अनुसार प्रेरणा के कितने प्रकार हैं? [2016]
(क) 5
(ख) 3
(ग) 8
(घ) 6
उत्तर :
(ख) 3

प्रश्न 12
‘प्यास किस प्रकार का प्रेरक है? [2016]
(क) अजित
(ख) जन्मजात
(ग) सामाजिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) जन्मजात

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 18 Learning Meaning, Process, Laws and Methods

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 18
Chapter Name Learning Meaning, Process, Laws and Methods
(सीखना-अर्थ, प्रक्रिया, नियम एवं विधियाँ))
Number of Questions Solved 76
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 18 Learning Meaning, Process, Laws and Methods (सीखना-अर्थ, प्रक्रिया, नियम एवं विधियाँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सीखने का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। सीखने की विशेषताओं का सामान्य विवरण भी प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
सीखने का अर्थ व परिभाषा जीवन की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए गते अनुभवों की सहायता से व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया को हम सीखना कहते हैं। वास्तव में, ‘सीखना किसी स्थिति के प्रति एक सक्रिय प्रतिक्रिया है। इस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति के व्यवहार में प्रगतिशील परिवर्तन होते हैं। प्रत्येक प्रतिक्रिया एक अनुभव देती है और यह अनुभव व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाता है। इस सम्पूर्ण प्रतिक्रिया को ही हम सीखना कहते हैं। सीखने की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

1. वुडवर्थ :
(Woodworth) के अनुसार, “नवीन ज्ञान और प्रतिक्रियाओं को करने की प्रक्रिया, सीखने की प्रक्रिया है।”

2. गेट्स :
व अन्य के अनुसार, “अनुभवों और प्रशिक्षण द्वारा अपने व्यवहारों का संशोधन करना ही सीखना है।”

3. स्किनर :
(Skinner) के अनुसार, “सीखना व्यवहार में प्रगतिशील सामंजस्य की प्रतिक्रिया

4. क्रॉनबैक :
(Cronback) के अनुसार, “सीखना, अनुभव के फलस्वरूप व्यवहार में परिवर्तन द्वारा अभिव्यक्त होता है।”

5. कॉलविन :
(Colvin) के अनुसार, “अनुभव के आधार पर हमारे पूर्व-निर्मित व्यवहार में परिवर्तन की प्रक्रिया ही सीखना है।”

6. गिलफोर्ड :
(Guilford) के अनुसार, “व्यवहार के कारण, व्यवहार में परिवर्तन ही सीखना

7. जी० डी० बॉज :
(G. D. Boaz) के अनुसार, “सीखना एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति विभिन्न आदतों, ज्ञान एवं दृष्टिकोण सामान्य जीवन की माँगों की पूर्ति के लिए अर्जित करता है।

8. क्रो व क्रो :
(Crow & Crow) के अनुसार, “ज्ञान और अभिवृत्ति की प्राप्ति ही सीखना है।”

9. प्रेसी :
(Pressy) के अनुसार, “सीखना एक अनुभव है, जिसके द्वारा कार्य में परिवर्तन या समायोजन होता है तथा व्यवहार की गयी विधि प्राप्त होती है।”

10. हिलगार्ड :
(Hilgard) के अनुसार, “सीखना एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई प्रक्रिया आरम्भ होती है या सामना की गयी परिस्थिति द्वारा परिवर्तित की जाती है। इसके लिए आवश्यक है कि क्रिया के परिवर्तन की विशेषताओं, मूल-प्रवृत्तियों की प्रक्रिया, परिपक्वता या प्राणी की अस्थायी आवश्यकताओं के आधार पर उस प्रक्रिया को समझाया न जा सके।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि

  • सीखने का अर्थ व्यवहार में परिवर्तन है।
  • सीखना व्यवहार का संगठन है।
  • सीखना नवीन प्रक्रिया की पुष्टि है।

सीखने की प्रमुख विशेषताएँ
सीखने की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. सीखना परिवर्तन है :
अनुभव जन्म से लेकर मृत्यु तक चलता रहता है। हर समय व्यक्ति कुछ-न-कुछ सीखता रहता है और इसके लाभ उठाकर व्यक्ति अपने सीखने की प्रमुख विशेषताएँ व्यवहार में परिवर्तन करता है। अतः सीखना परिवर्तन है।

2. सीखना खोज करना है :
मर्सेल (Mursell) के अनुसार, “सीखना उसे तथ्य खोजने और जानने का कार्य है, जिसे व्यक्ति खोजना और जानना चाहता है। वास्तव में, सीखना एक प्रकार से खोज करना है। आज मानव ने जो प्रगति की है, उसको मूल आधार इस प्रकार का सीखना ही है।

3. सीखना जीवन-पर्यन्त चलता है :
अनुभव का जीवन में विशेष महत्त्व हैं, और यह जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर चलता रहता है। व्यक्ति जीवनभर कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है और यह प्रक्रिया निरन्तर मृत्यु तक चलती ही रहती है।

4.सीखना सक्रिय है :
सीखना बिना सक्रियता के सम्भव नहीं है। बालक सक्रिय होकर ही सीखता है।

5. सीखना विकास है :
सीखना एक विकास है, जिसका कभी अन्त नहीं होता है। प्रत्येक पल व्यक्ति कुछ-न-कुछ सीखती रहता है, जिसके परिणामस्वरूप उसका मानसिक विकास होता रहता है।

6.सीखना अनुभवों का संगठन है :
एक व्यक्ति जैसे-जैसे अपने अनुभवों के आधार पर नवीन बातें सीखता है, वैसे-ही-वैसे वह आवश्यकतानुसार अपने अनुभवों को संगठित करता जाता है।

7. सीखना सार्वभौमिक है :
सीखना एक सार्वभौमिक क्रिया है, जो समस्त प्राणियों में पायी जाती है। विकास की श्रेणियों के आधार पर प्राणियों के सीखने में अन्तर होता है। पशु-पक्षी कम सीखते हैं, क्योंकि उनमें अपने अनुभव से लाभ उठाने की क्षमता कम होती है। सीखने की प्रवृत्ति मनुष्य में सबसे अधिक पायी जाती है।

8. सीखना उद्देश्यपूर्ण है :
सीखना उद्देश्यपूर्ण होता है। बिना उद्देश्य के सीखना सफल नहीं हो सकता। उद्देश्य की प्रबलता ही सीखने की क्रिया तीव्र करती है।

9. सीखना समायोजन है :
सीखकर मनुष्य अपने को वातावरण से समायोजित करता है। इस प्रकार का समायोजन करना ही सीखना है।

प्रश्न 2
सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
या
सीखने को प्रभावित करने वाले कारकों को बताइए। [2016]
उत्तर :
सीखने को प्रभावित करने वाले कारक
सीखने की प्रक्रिया में अनेक बातें सहायक और बाधक होती हैं। यहाँ हम उन कारकों का अध्ययन करेंगे, जिनसे सीखने की क्रिया प्रभावित होती है।

1. वातावरण :
वातावरण प्रमुख कारक है, जो सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। यदि कक्षा का वातावरण शोरगुलयुक्त है, तो छात्र अपना ध्यान एकाग्र नहीं कर सकेंगे। परिणामस्वरूप वे ठीक प्रकार से सीख भी नहीं सकेंगे। उसके अतिरिक्त यदि छात्रों के बैठने की व्यवस्था उचित प्रकार से नहीं है, प्रकाश और वायु के आवागमन की भी उचित व्यवस्था नहीं है तो भी छात्र ठीक प्रकार से नहीं सीख सकेंगे। मौसम का प्रभाव भी सीखने पर पड़ता है। अत्यधिक ठण्डक और अत्यधिक गर्मी दोनों ही सीखने में बाधा पहुँचाती हैं।

2. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य :
यदि बालकों को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ठीक होगा तो वह किसी भी बात को शीघ्रता से सीख जाएगा। शारीरिक और मानसिक दृष्टि से पिछड़े बालक प्रायः पढ़ने-लिखने में कमजोर रहते हैं और वे बहुत देर से सीख पाते हैं।

3.सीखने का समय :
बालक अधिक समय तक किसी विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकती, क्योंकि अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित करने में उनमें थकावट आ जाती है और उनका ध्यान इधर-उधर भटकने लगता है। दूसरी ओर प्रात:काल छात्र अधिक स्फूर्ति का अनुभव करते हैं। अत: इस समय उन्हें सीखने में सुगमता होती है। दोपहर अथवा शाम को वह इतना अधिक नहीं सीख पाते। इसी प्रकार विद्यालय के प्रथम घण्टे में जो सीखने की गति होती है, वह अन्त के घण्टों में बहुत कम हो जाती है।

4. विषय-सामग्री :
कठिन, नीरस तथा अर्थहीन विषय-सामग्री की अपेक्षा सरल, रोचक तथा अर्थपूर्ण विषय-सामग्री अधिक सुगमता से सीख ली जाती है।

5. सीखने की अवस्था :
प्रौढ़ व्यक्तियों की अपेक्षा छोटे पाक से बालक किसी बात को शीघ्र समझ जाते हैं। भाषा और कला के विषय में यह बात मुख्य रूप से लागू होती है, परन्तु कुछ बातें बालकों की । अपेक्षा प्रौढ़ जल्दी समझते हैं।

6. सीखने की इच्छा :
सीखना बहुत कुछ व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। जिस बात को सीखने की बालकों की प्रबल इच्छा होती है, उसे वे प्रत्येक परिस्थिति में सीख लेते हैं। उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता है। अतः किसी तथ्य को सीखने के लिए छात्रों की इच्छा को उसके अनुकूल बनाना परम आवश्यक है।

7. सीखने की विधियाँ :
सीखने की विधि जितनी ही अधिक सरल, आकर्षक तथा रुचिपूर्ण होगी, उतनी ही सरलता तथा शीघ्रता से बालक सीखेगा।

8. पूर्व अनुभव :
बालक जो कुछ भी सीखता है, वह प्रायः अपने पूर्व अनुभव के आधार पर ही सीखता है। यदि सीखने का सम्बन्ध बालक के पूर्व अनुभव से कर दिया जाए तो वह नवीन बात शीघ्रता तथा सरलता से समझ जाएगा।

9. प्रेरणा :
सीखने की प्रक्रिया में प्रेरणा की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि बालकों को प्रशंसा तथा प्रतियोगिता के आधार पर सिखाया जाए तो वे सुगमता से सीख जाते हैं। सीखने के लिए बालक को प्रेस्ति करना अति आवश्यक है।

10. संवेगात्मक स्थिति :
यदि बालक अत्यधिक क्रोध या भय से ग्रस्त है तो वह ऐसी दशा में कुछ नहीं सीख सकता। संवेगात्मक अस्थिरता सीखने की प्रक्रिया में बाधा डालती है। अत: बालक को संवेगात्मक असन्तुलन या अस्थिरता की दशा में सीखना पूर्णतया असम्भव है।

11. सफलता का ज्ञान :
जब बालक को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि उसे अपने कार्यों में सफलता मिल रही है तो उसका उत्साह बढ़ जाता है और उसे कार्य को शीघ्र समझे जाता है।

प्रश्न 3
थॉर्नडाइक के सीखने के नियम क्या हैं? पावलोव के प्रयोग द्वारा सम्बन्ध प्रत्यावर्तन, का सिद्धान्त समझाइए। [2007]
या
प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखने की प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। [2007]
या
अधिगम के प्रयास एवं भूल सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2014]
उत्तर :
प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखना
इस विधि या सिद्धान्त के प्रतिपादक थॉर्नडाइक हैं और मैक्डूगल ने इसका समर्थन किया है।
थॉर्नडाइक के अनुसार जब हम किसी कार्य को सीखते हैं तो हमारे सामने एक विशेष उद्दीपक (Stimulus) होता है। यह उद्दीपक हमें एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया (Response) करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार उद्दीपक और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध की स्थापना हो जाती है। थॉर्नडाइक ने इसे उद्दीपक-क्रिया-सम्बन्ध बताया है।

उनके अनुसार उद्दीपक-प्रतिक्रिया सम्बन्ध के परिणामस्वरूप जब हम भविष्य के उसी उद्दीपक का पुनः अनुभव करते हैं, तब हम उससे सम्बन्धित उस प्रकार की प्रतिक्रिया करते हैं। यही हमारे सीखने का आधार है। थॉर्नडाइक के अनुसार, “सीखना, सम्बन्ध स्थापित करना है। सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य मस्तिष्क करता है।

1. थॉर्नडाइक :
थॉर्नडाइक के इस सिद्धान्त का सार यह है कि जब हम किसी नवीन बात को सीखते हैं, तो हम तत्काल ही उसे नहीं सीख पाते, वरन् हमें उस बात को सीखने के लिए अनेक प्रयास करने पड़ते हैं और इन प्रयासों के दौरान हम कई त्रुटियाँ भी कर सकते हैं। धीरे-धीरे हमारी त्रुटियों में कमी होती जाती है और हम तथाकथित बात को सीख जाते हैं। उदाहरण के लिए—जब एक बालक प्रारम्भ में पढ़ना-लिखना सीखता है

तो आरम्भ में तो एक अक्षर भी ठीक प्रकार से नहीं लिख पाता और न ही वह शब्दों का सही उच्चारण ही कर पाता है, लेकिन ज्यों-ज्यों वह प्रयास करता है, उसकी त्रुटियों या भूलों में कमी आती जाती है और अन्ततः वह अक्षरों का लिखना और शब्दों का सही उच्चारण करना सीख जाता है। इस विधि से मनुष्य और पशु ही अधिक सीखते हैं। थॉर्नडाइक, मैक्डूगल आदि मनोवैज्ञानिकों ने पशुओं पर भी प्रयोग करके इसका सत्यापन किया

2. थॉर्नडाइक का प्रयोग :
थॉर्नडाइक ने प्रयास एवं त्रुटि या भूल एवं प्रयत्न विधि का सत्यापन करने के लिए एक बिल्ली पर प्रयोग किया। उसने एक भूखी बिल्ली को पिंजरे में बन्द कर दिया। इस पिंजरे में एक बटन लगा था जिसके दबाने पर पिंजरे का दरवाजा झटके के साथ खुल जाता था। उसने पिंजरे के बाहर कुछ भोजन रख दिया। भूखी बिल्ली के लिए भोजन उद्दीपक था। अत: भोजन को देखकर बिल्ली में प्रतिक्रिया हुई।

उसने अनेक प्रकार से निकलने का प्रयास किया। अचानक उसका पंजा बटन पर पड़ गया। पिंजरे का दरवाजा झटके के साथ खुल गया और उसने बाहर आकर भोजन चट कर लिया। कुछ काल के बाद जब बिल्ली को पुनः पिंजरे में बन्द किया गया तो वह बिना कोई त्रुटि किये बटन दबाकर दरवाजा खोलने लगी। इस प्रकार उद्दीपक तथा प्रतिक्रिया में सम्बन्ध की स्थापना से बिल्ली ने बटन दबाकर दरवाजा खोलना सीखा।

(संकेत : पावलोव के सम्बन्ध प्रत्यावर्तन के सिद्धान्त को विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 4 के (ब) में देखें।)

प्रश्न 4
सम्बद्ध प्रत्यावर्तन द्वारा सीखने का प्रयोग सहित वर्णन कीजिए और इसकी शैक्षिक उपयोगिता बताइए। [2012, 13]
या
आई० पी०पावलोव द्वारा किये गये प्रयोग को लिखिए और इसकी सहायता से ‘अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त का विवेचन कीजिए। इसकी शैक्षिक उपयोगिता भी लिखिए। [2007, 15]
या
कोहलर द्वारा किये गये किसी एक प्रयोग को लिखिए और इसकी सहायता से अन्तर्दृष्टि से सीखने के सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
या
अन्तर्दृष्टि अधिगम सिद्धान्त के प्रयोग द्वारा स्पष्ट कीजिए और इसके शैक्षिक निहितार्थ की भी चर्चा कीजिए। [2007]
या
सूझ द्वारा सीखने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए और शिक्षा में इसकी उपयोगिता बताइए। [2011]
या
सूझ द्वारा सीखने का अर्थ किसी प्रयोग की सहायता से स्पष्ट कीजिए और उसके शैक्षिक निहितार्थ बताइए। [2007, 09, 10]
या
अधिगम के सम्बन्ध में प्रत्यावर्तन सिद्धान्त की विवेचना कीजिए तथा इसके शैक्षिक निहितार्थों पर प्रकाश डालिए। [2012]
या
शिक्षा में अनुबन्धित प्रतिक्रिया की क्या उपयोगिता है? [2015]
या
सीखने के सूझ सिद्धान्त को समझाइए। [2009, 13]
या
सूझ द्वारा सीखने के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए और प्रयास तथा त्रटि के सिद्धान्त से इसका अन्तर बताइए। [2016]
उत्तर :
(अ)
सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त
सूझ के सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक गेस्टाल्टवादी (Gestaltist) हैं। उनके अनुसार पशु और मनुष्य ‘सम्बन्ध प्रतिक्रिया’ तथा ‘प्रयास एवं त्रुटि’ से न सीखकर सूझ या अन्तर्दृष्टि (Insight) द्वारा सीखते हैं। उनके मतानुसार सर्वप्रथम प्राणी अपने आस-पास की परिस्थिति के विभिन्न क्षेत्रों में पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना करता है और सम्पूर्ण परिस्थिति को समझने का प्रयास करता है। तत्पश्चात् उसके अनुसार अपनी प्रतिक्रिया करता है। दूसरे शब्दों में, ‘सुझ’ द्वारा सीखने का तात्पर्य परिस्थिति को पूर्णतया समझकर सीखना है। गुड (Good) के अनुसार, “समझ, यथार्थ स्थिति का आकस्मिक, निश्चित और तत्कालीन ज्ञान है।”

कोहलर का प्रयोग :
सूझ द्वारा सीखने के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए कोहलर (Kohler) ने छह वनमानुषों को एक कमरे में बन्द कर दिया। कमरे की छत पर केलों का एक गुच्छा लटका दिया गया तथा कमरे के एक कोने में एक बॉक्स भी रख दिया गया। समस्त वनमानुष केलों को प्राप्त करने के प्रयास करने लगे, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। उनमें से एक वनमानुष इधर-उधर घूमकर बॉक्स के पास पहुँच गया। तत्पश्चात् उसने बॉक्स को पकड़कर खींचा और उसे केलों के नीचे ले जाकर रख दिया तथा बॉक्स के ऊपर खड़े होकर उसने केलों के गुच्छे को उतार कर खा लिया।

इस प्रकार वनमानुष अपनी सूझ के आधार पर सीखते हैं। प्रत्येक कार्य या क्रिया के सीखने में हमें सूझ का प्रयोग करना पड़ता है। विभिन्न समस्याओं का हल भी सूझ के माध्यम से होता है। प्रायः देखा गया है कि किसी ऊँचे स्थान पर रखी मिठाई को बालक वनमानुष की विधि द्वारा ही प्राप्त करते हैं। कोफ्का के अनुसार, “सूझ में व्यक्ति चिन्तन, तर्क तथा कल्पना शक्ति से विशेष काम लेता है, जिस व्यक्ति में जितनी कल्पना-शक्ति होगी, उतनी ही उसमें सूझ होगी।” अल्प स्थान में ही एक इंजीनियर अपनी सूझ से विशाल भवन निर्मित कर देता है।

[संकेत : सीखने के सूझ-सिद्धान्त के शैक्षिक महत्त्व का विवरण अतिलघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 5 में तथा प्रयास तथा त्रुटि के महत्त्व का विवरण भी अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 4 में देखें।]

(ब)
सम्बन्ध प्रतिक्रिया का सिद्धान्त
जब स्वाभाविक उत्तेजक या उद्दीपक (Stimulus) को देखकर प्रतिक्रिया होती है, तब वह सहज क्रिया (Reflex Action) कहलाती है, परन्तु जब अस्वाभाविक उत्तेजक के कारण प्रतिक्रिया होती है तो उसे सम्बन्ध सहज क्रिया या सम्बन्ध प्रतिक्रिया कहा जाता है। उदाहरण के लिए, थाली में रखे भोजन को देखकर कुत्ते के मुख से लार टपकना एक प्रकार की सहज क्रिया है, परन्तु जब किसी अन्य अस्वाभाविक उत्तेजक के कारण लार टपकने लगे तो यह सम्बन्ध प्रतिक्रिया है। लैडेल (Ledell) के अनुसार, “सम्बन्ध सहज क्रिया में कार्य के प्रति स्वाभाविक उत्तेजक के स्थान पर एक प्रभावहीन उत्तेजक होता है, जो कि स्वाभाविक उत्तेजक से सम्बन्धित किये जाने के कारण प्रभावपूर्ण हो जाता है।

इस प्रकार सम्बन्ध प्रतिक्रिया के सिद्धान्त में अस्वाभाविक उत्तेजक के प्रति स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है।

पावलोव का प्रयोग :
पावलोव (Pavlov) रूस का प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक था। उसी ने सम्बन्ध प्रतिक्रिया के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इस विषय में उसके द्वारा कुत्ते पर किया गया परीक्षण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह हम सब जानते हैं कि भोजन को देखकर कुत्ते की लार टपकने लगती है। पॉवलोव ने भोजन देते समय घण्टी बजवाई। भोजन और घण्टी की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप कुत्ते के मुख से लार टपकने लगी। इसी प्रकार घण्टी के प्रति कुत्ते की प्रतिक्रिया सम्बन्ध सहज क्रिया कहलाई। इसे निम्नलिखित ढंग से समझाया जा सकता है

भोजन (स्वाभाविक उत्तेजक) – प्रतिक्रिया → “लार टपकना”
भोजन (स्वाभाविक उत्तेजक), घण्टी बजाना (अस्वाभाविक उत्तेजक) – प्रतिक्रिया → “लार टपकना”।
कुत्ते के समान ही मनुष्य भी ‘सम्बन्ध प्रतिक्रिया द्वारा सीखता है। उदाहरण के लिए-हम वुडवर्ड (woodword) द्वारा किया गया परीक्षण प्रस्तुत करते हैं। एक वर्ष के बालक को खरगोश दिखाया गया। बालक खरगोश को देखकर प्रसन्न होकर उसे पकड़ने के लिए लपका। जैसे ही वह खरगोश के निकट आया, एक जोरदार धमाका किया गया। परिणामस्वरूप बालक भयभीत होकर पीछे हट गया। इस प्रयोग को अनेक बार दोहराया गया। बाद में बिना धमाके की आवाज के केवल खरगोश को देखकर ही बालक डरने लगा।

सिद्धान्त का महत्त्व शिक्षा के क्षेत्र में इस सिद्धान्त के महत्त्व से सम्बन्धित निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं

  1. पावलोव के अनुसार, “विभिन्न प्रकार की आदतें, जो कि प्रशिक्षण, शिक्षा और अनुशासन पर निर्भर प्रतिक्रिया की श्रृंखला मात्र हैं।”
  2. व्यक्ति का प्रत्येक व्यवहार सम्बन्ध प्रतिक्रिया के सिद्धान्त पर आधारित है। हमारी दैनिक आदतें भी इसी सिद्धान्त पर निर्भर करती हैं।
  3. इस सिद्धान्त के आधार पर बालकों में अच्छी आदतों का विकास किया जा सकता है।
  4. यह सिद्धान्त सीखने की स्वाभाविक विधि पर प्रकाश डालता है।
  5. इस सिद्धान्त के द्वारा बालकों को वातावरण के अनुकूल सामंजस्य स्थापित करने की शिक्षा दी जा सकती है।
  6. इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों के भय सम्बन्धी रोगों का निदान किया जा सकता है।
  7. इस सिद्धान्त के द्वारा बालकों की संवेगात्मक अस्थिरता दूर की जा सकती है।
  8. यह सिद्धान्त उन बालकों के लिए उपचार प्रस्तुत करता है, जो मानसिक रूप से अस्वस्थ होते हैं।
  9. जिन विषयों में चिन्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती है, उनके लिए यह सिद्धान्त बहुत उपयोगी है; जैसे—अक्षर विन्यास, सुलेख आदि।

आलोचना :
अनेक मनोवैज्ञानिकों ने निम्नलिखित तर्कों के आधार पर इस सिद्धान्त की आलोचना की है

  1. सम्बन्ध प्रतिक्रिया में अस्थायित्व होता है।
  2. इस सिद्धान्त को प्रतिष्ठदन मुख्यतया बालकों और पशुओं पर किये गये प्रयोगों के आधार पर किया गया है। वयस्क व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह मौन है।
  3. यह सिद्धान्त यान्त्रिकता पर अधिक बल देता है और व्यक्ति को केवल एक यन्त्र मानकर चलता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सीखने की प्रक्रिया के मुख्य तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सीखने की प्रक्रिया सरल नहीं होती है। इसलिए इसे आसानी से समझना सम्भव नहीं है। विश्लेषण करने पर सीखने की प्रक्रिया में निम्नलिखित तत्त्व मिलते हैं

1. उत्तेजना-अनुक्रिया :
सीखना अर्जित होता है। इस दृष्टि से व्यक्ति को अपने पर्यावरण में कुछ उत्तेजना अवश्य मिलती है और उसके प्रति अनुक्रिया होती है। इस प्रकार सीखने की प्रक्रिया में उत्तेजना तथा अनुक्रिया होती है।

2. उद्देश्य और लक्ष्य :
सीखना एक सोद्देश्य प्रक्रिया है। जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा समाज में सम्मान आदि पाने के उद्देश्य से व्यक्ति सीखता है।

3. अभिप्रेरणा :
सीखना अर्जित अवश्य होता है, परन्तु इसके लिए कुछ-न-कुछ अभिप्रेरण होना। चाहिए। छात्र सीखने के लिए प्रयत्न इसलिए करता है कि उसे परीक्षा पास करने पर नौकरी और सम्मान मिल सकता है।

4. प्रत्यक्षीकरण :
सीखने में प्रत्यक्षीकरण होना आवश्यक है। यदि छात्र को अपने लक्ष्य एवं प्रयत्न के परिणाम स्पष्ट दिखलाई देने लगते हैं तो सीखना सरल और सफल भी होता है और छात्र उसमें लगा रहता है।

5. पुनर्बलन :
पुनर्बलन की क्रिया से व्यक्ति सीखने के लिए बाध्य हो जाता है और उसे बल भी प्राप्त होता है। छात्र को शिक्षक का आदेश, दूसरों की प्रतिस्पर्धा, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि से शक्ति मिलती है।

6. एकीकरण :
सीखने में व्यक्ति को अपने ध्यान को विभिन्न वस्तुओं में एकीकृत करना पड़ता है। और किसी प्रयोजन के साथ उनको ग्रन्थित करना पड़ता है, जिससे सफलता मिलती है।

7. साहचर्य :
सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अपने पूर्व अनुभव ज्ञान से नये अनुभव ज्ञान का साहचर्य कर लेता है। हरबर्ट ने अपने प्रशिक्षण में इसे अपनाया है।

8. अनुकूलन :
सीखने की प्रक्रिया में अनुकूलन एक आवश्यक तत्त्व होता है। छात्र की प्रकृति का सीखने की सामग्री के साथ अनुकूलन होना चाहिए, अन्यथा सीखना सम्भव नहीं होगा। छात्र की क्षमता सीखने की सामग्री को भी अपने अनुकूल बना लेती है, यदि छात्र प्रयत्न करता है।

9. संपरिवर्तन :
सीखने की प्रक्रिया के फलस्वरूप संपरिवर्तन होता है और मूल व्यवहार शिष्ट एवं परिमार्जित हो जाते हैं।

प्रश्न 2
परिपक्वता तथा सीखने में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर :
हमें बात है कि सीखना, व्यवहारे परिवर्तन या व्यवहार अर्जन की एक प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति का व्यवहार परिवर्तन या तो परिपक्वता के कारण होता है या किसी नयी बात को ग्रहण करने के कारण। परिवर्तन की प्रक्रिया में नयी-नयी क्रियाएँ और व्यवहार प्रदर्शित तथा विकसित होते रहते हैं। परिपक्वता शारीरिक विकास की प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत बढ़ती हुई आयु के साथ, शरीर व स्नायुमण्डल का विकास, सीखने की सामर्थ्य को जन्म देता है।

स्पष्टतः सीखने के परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है। परिपक्वता की प्रक्रिया सीखने से पूर्व की स्थिति है तथा यह सीखने का आधार है। परिपक्वता के अभाव में किसी क्रिया को सीखना न केवल दुष्कर अपितु असम्भव है। वस्तुतः परिपक्वता किसी व्यवहार को अर्जित करने (सीखने) की एक पूर्व आवश्यकता है।

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि मानव के विकास की प्रक्रिया में परिपक्वता और सीखना दोनों की सशक्त भूमिका है। यदि परिपक्वता के अभाव में सीखना सम्भव नहीं है तो सीखने के अभाव में व्यक्ति की परिपक्वता भी निरर्थक है। समुचित परिपक्वता ग्रहण कर यदि कोई मनुष्य व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी व्यवहार या क्रियाएँ सीखता है तो इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझा जाएगा। इस भाँति परिपक्वता और सीखने में गहरा सम्बन्ध है।

प्रश्न 3
परिपक्वता तथा सीखने में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
परिपक्वता तथा सीखने में अन्तर को निम्नलिखित तालिका के माध्यम से दर्शाया जा सकता है।
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 18 Learning Meaning, Process, Laws and Methods image 1
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 18 Learning Meaning, Process, Laws and Methods image 2

प्रश्न 4
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के नियमों की विवेचना कीजिए। उपयुक्त उदाहों सहित अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए।
या
थॉर्नडाईक के सीखने के मुख्य नियमों का वर्णन कीजिए। [2007, 11, 12, 13, 15, 16]
उत्तर :
सीखने के नियमों को सर्वप्रथम व्यवस्थित ढंग से थॉर्नडाइक ने प्रस्तुत किया था, इसीलिए इन्हें थॉर्नडाइक के सीखने के नियमों के रूप में जाना जाता है। थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के मुख्य नियम तीन हैं

  1. सीखने का तत्परता का नियम्
  2. सीखने का अभ्यास का नियम तथा
  3. सीखने का प्रभाव का नियम।

सीखने का तत्परता को नियम
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित तत्परता का नियम बताता है कि जब कोई भी व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तत्पर होता है (अर्थात् तैयार रहता है) तो सीखने की क्रिया सरलता और शीघ्रता से सम्पन्न होती है। व्यक्ति जिसे समय किसी कार्य को सीखने की धुन में रहता है तो वह सीखने में आनन्द का अनुभव करता है। बांलक में किसी नवीन ज्ञानं या क्रिया को सीखने की तत्परता तभी आती है जब उसमें रुचि होती है और उसके अन्दर सीखने के लिए प्रेरणा उत्पन्न कर दी जाए।

अतः शिक्षक को पाठ शुरू करने से पूर्व बालक की रुचि और जिज्ञासा पर ध्यान देना चाहिए तथा उन्हें सीखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। कुछ विद्यार्थियों की किसी विशेष विषय में रुचि नहीं होती जिसकी वजह से तत्परता के नियम की अवहेलना हो सकती है। तत्परता का नियम कुछ निष्कर्षों को महत्त्व देता हैं। प्रथम, इस नियम के अनुसार सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहने की दशा में विद्यार्थी को अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता और सीखने की प्रक्रिया सन्तोषजनक रहती है।

द्वितीय, यदि व्यक्ति सीखने के लिए विवश नहीं है और पूर्णरूप से भी तत्पर है तो सीखने में अत्यधिक सन्तुष्टि प्राप्त होगी। तृतीय, सीखने के लिए बलपूर्वक विवश किये जाने पर अरुचि के कारण कार्य असन्तोषजनक होगा। इस भाँति कहा जा सकता है कि “जब कोई बन्धन किसी कार्य को करने के लिए नहीं होता है तो वह प्रक्रिया आनन्द देती है। और जब सीखने की इच्छा नहीं होती तो व्यक्ति सीखने को तैयार नहीं होता तथा उसे बाध्य किया जाता है, तब क्रोध उत्पन्न होता है।”

[संकेत : सीखने के द्वितीय एवं तृतीय नियम का विवरण अगले प्रश्नों (प्रश्न सं० 5 व 6) में देखिए।]

प्रश्न 5
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के ‘अभ्यास के नियम का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने का दूसरा मुख्य नियम है-अभ्यास का नियम। इसे उपयोग-अनुपयोग का नियम (Law of Use-Disuse) भी कहते हैं। थॉर्नडाइक का विचार है कि अन्य बातें समान रहने पर सीखने की प्रक्रिया में अभ्यास के द्वारा शक्ति में वृद्धि होती है, जबकि अभ्यास की कमी स्थिति और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध को कमजोर बना देती है।

हमारी बहुत-सी प्रतिक्रियाओं में उपयोग तथा अनुपयोग के नियम साथ-साथ कार्य करते हैं। हम स्वतन्त्र भाव से उन्हीं उपयोगी क्रियाओं को दोहराते हैं जिनसे हमें आनन्द मिलता है तथा उन अनुपयोगी क्रियाओं को नहीं दोहराते जिनसे हमें दुःख होता है।

अभ्यास के नियम से स्पष्ट है कि जिस काम को जितना अधिक दोहराया जाएगा, जितनी ही उसकी पुनरावृत्ति की जाएगी, उतनी ही दृढ़ता से वह हमारे मन में बैठ जाता है और उसके करने में उतनी ही कुशलता आ जाती है। गायन, खेल, कविता, पहाड़े तथा गणित आदि से सम्बन्धित नियम सिखाने के उपरान्त बालकों को उनका अभ्यास अवश्य करा देना चाहिए।

प्रश्न 6
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के प्रभाव के नियम का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने का तीसरा मुख्य नियम है 
प्रभाव का नियम (Law of effect)। प्रभाव के नियम को सन्तोष और असन्तोष का नियम भी कह्ते हैं। थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित इस नियम में प्रभावे से तात्पर्य ‘परिणाम’ से है। जिन कार्यों का परिणाम व्यक्ति को सन्तोष प्रदान करता है। तथा उसे सुखद अनुभव देता है-उन कार्यों को मनुष्य सरलता से एवं शीघ्र ही सीख जाता है। इसके विपरीत जिन कार्यों का परिणाम असन्तोषजनक तथा दु:खद अनुभव वाला होता है, उन्हें व्यक्ति भुला, देना चाहता है और बार-बार दोहराना नहीं चाहता।

इसी सन्दर्भ में जिस कार्य को करने से व्यक्ति को प्रशंसा एवं पुरस्कार मिले यानि जिस कार्य का अच्छा प्रभाव (परिणाम) निकले, उसे बालक शीघ्रतापूर्वक सीख जाता है। इसी कारण से शिक्षा में दण्ड एवं पुरस्कार को बहुत अधिक महत्त्व है। बुरा कार्य करने पर बालक दण्ड पाता है किन्तु अच्छे कार्य के लिए उसे पुरस्कृत किया जाता है। प्रभाव का नियम विद्यालय तथा परिवार में पर्याप्त रूप से प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 7
सीखने के पठार से आप क्या समझते हैं।
उत्तर :
जब बालक किसी क्रिया को सीखता है तो उसके सीखने की गति सदा एक-सी नहीं रहती, उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। सीखते समय कुछ काल तक तो ऐसा लगता है कि उस क्रिया को सीखने में पर्याप्त प्रगति हो रही है, परन्तु कुछ काल के पश्चात् ऐसा ज्ञान होने लगता है कि मानो सीखने की प्रगति में बाधा आ गयी है। सीखने में इस प्रकार की अवस्था को ही पठार कहते हैं।

दूसरे शब्दों में, सीखने की प्रक्रिया के बीच में प्रगति का रुक जाना पठार कहलाता है। इस प्रकार का अवरोध प्रायः संगीत, चित्रकला, टंकण आदि सीखने में आता है। रॉस (Ross) के अनुसार, “सीखने की प्रक्रिया की एक प्रमुख विशेषता पठार है। पठार उस अवधि की ओर संकेत करते हैं, जब सीखने की प्रक्रिया में कोई प्रगति नहीं होती है।”

प्रश्न 8
सीखने के पठार के उत्पन्न होने के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सीखने में पठारों के आने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं

  1. जब शारीरिक क्षमता कम हो जाती है, तब सीखने में पठार बन जाता है।
  2. जब उत्साह कम हो जाता है, तब उसके सीखने की प्रगति में अवरोध हो जाता है।
  3. जब बालकों का ध्यान इधर-उधर भटकने लगता है, तब पठार बनने लगते हैं।
  4. लगातार कार्य करते रहने से थकान उत्पन्न हो जाती है और पठार बन्ने लगते हैं।
  5. सीखने की विधि में निरन्तर परिवर्तन करते रहने से भी पठार बन जाते हैं।
  6. दूषित वातावरण भी पठारों के बनने का एक प्रमुख कारण है।
  7. जब बालक सम्पूर्ण कार्य पर ध्यान न देकर उसके एक भाग पर ही ध्यान देने लगता है, तब उसके सीखने में पठार आ जाता है।
  8. जब कोई क्रिया आरम्भ में सरल होती है, परन्तु बाद में कठिन तथा जटिल हो जाती है, तब सीखने में पठार आ जाता है।
  9. सीखने की अनुचित विधि भी पठारों का कारण होती है। जब प्रभावहीन विधियों का प्रयोग किया जाता है, तब सीखने में पठार पैदा होने लगते हैं।
  10. जब पुरानी आदतों को नयी आदतों में संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है, तब भी सीखने में पठार बन जाते हैं।
  11. रायबर्न (Ryburm) के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति में अधिकतम कुशलता होती है, जिससे आगे वह अग्रसर नहीं हो सकता। यही शारीरिक सीमा कहलाती है। जब व्यक्ति इस सीमा पर पहुँच जाता है, तब उसके सीखने के पठार बन जाते हैं।”

प्रश्न 9
सीखने के पठार के निराकरण के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
पठार सीखने वाले व्यक्ति की प्रगति में बाधा डालकर उसके समय को नष्ट करते हैं। ऐसी दशा में उनके निराकरण पर विचार करना अत्यन्त आवश्यक है।

पठारों के निराकरण के लिए। निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

  1. शिक्षक का कर्तव्य है कि जब बालक सीखने में उत्साह को प्रदर्शन न कर रहे हों, तो उन्हें उचित तरीके से सीखने के लिए प्रेरित किया जाए।
  2. पठार का कारण विषय को कठिन व गहन होना भी है। अत: विषय को यथासम्भव सरल बनाकर प्रस्तुत किया जाए।
  3. कार्य को सीखने की उचित विधि अपनायी जाए।
  4. सीखने की क्रिया के बीच में विषयान्तर न किया जाए।
  5. सीखने के लिए उचित वातावरण सृजन किया जाए।
  6. सीखने वाले बालकों के वैयक्तिक भेद या क्षमताओं पर ध्यान दिया जाए तथा उसी के अनुसार उन्हें प्रेरणा तथा विश्राम दिया जाए।
  7. जब एक विधि से बालकों की सीखने की प्रगति रुक जाए तो शिक्षक को उसी के अनुकूल नवीन विधि का प्रयोग करना चाहिए।
  8. किसी प्रबल प्रेरक को अपनाकर भी सीखने के पठार का निराकरण किया जा सकता है। प्रेरण एक ऐसा कारक है जो सीखने को गति प्रदान कर सकता है।

प्रश्न 10
सीखने के अनुकरण के सिद्धान्त का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
1. अनुकरण के सिद्धान्त का तात्पर्य है :
‘अन्य व्यक्तियों के कार्यों को देखकर वैसा ही करके, सीखना।’ दूसरे शब्दों में, हम अनेक बातें अनुकरण के द्वारा सीखते हैं। जब व्यक्ति एक-दूसरे का अनुकरण करके सीखता है तो उसे अनुकरण का सिद्धान्त कहते हैं। बालक अनेक बातें अनुकरण के द्वारा ही सीखता है। बोलना, चलना तथा अनेक बातें अनुकरण के द्वारा ही सीखी जाती हैं।

2. हेगार्टी :
(Hagarty) ने बन्दरों पर प्रयोग करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि अनुकरण द्वारी सीखना, प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखने की अपेक्षा उच्चकोटि का है, परन्तु थॉर्नडाइक के इस सिद्धान्त की कटु आलोचना की है। उनके अनुसार इसका प्रयोग सभी प्रकार के पशुओं पर नहीं किया जा सकता है।

3. सिद्धान्त का महत्त्व :
शिक्षा के क्षेत्र में इस सिद्धान्त का महत्त्व इस प्रकार है।

  • रचनात्मक कार्यों को सीखने के लिए यह सिद्धान्त बहुत उपयोगी है।
  • बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति तीव्र होती है। अत: अनुकरण द्वारा उन्हें अच्छी-अच्छी बातें सिखायी जा सकती हैं।
  • चेतन-मन से किया गया अनुकरण अच्छी आदतों के निर्माण में सहायक होता है।
  • यह सिद्धान्त बालकों के बौद्धिक विकास में सहायक है।
  • शिक्षकों तथा अभिभावकों के आदर्श चरित्र का अनुकरण करके बालक अपने चरित्र का निर्माण करते हैं।
  • मन्दबुद्धि बालकों की शिक्षा में यह सिद्धान्त बहुत उपयोगी है।

प्रश्न 11
सीखने के ‘अन्तसँझ सिद्धान्त को परिभाषित कीजिए! [2016]
उत्तर :
गैस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, प्राणी अपनी सूझ या अन्तर्दृष्टि (Insight) के द्वारा ही सीख पाता है और सूझ के अभाव में वह सीखने में असफल रहता है। उविकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत सूझ निम्न स्तर के प्राणियों से उच्च स्तर के प्राणियों की ओर वृद्धि करती है। चूहे, बिल्ली, कुत्ते की अपेक्षा वनमानुष में तथा इने सबसे ज्यादा मनुष्य में सूझ पायी जाती है। सूझ के कारण ही उच्च स्तर के प्राणी जटिल कार्य करने में समर्थ होते हैं।

गैस्टाल्टवादियों का कहना है कि सीखने की प्रक्रिया प्रयत्न एवं भूल अथवा सम्बद्ध प्रत्यावर्तन के अनुसार न होकर सूझ द्वारा होती है। इस विचारधारा के प्रवर्तके कोहलर (Kohler) तथा कोफ्का (Koffika) थे। सूझ या अन्तर्दृष्टि मनुष्य जैसे विकसित प्राणी का प्रमुख लक्षण है। मानव के निकटवर्ती विकसित प्राणियों तथा वनमानुष और चिम्पैन्जी में भी सूझ की क्षमता निहित होती है। कोहलर तथा कोफ्का के अनुसार हमारा सीखना सूझ के द्वारा होता है और सीखने की लगभग सभी प्रतिक्रियाओं में सूझ की आवश्यकता पड़ती है।

इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषता यह है कि सीखने की प्रत्येक क्रिया का कुछ-न-कुछ उद्देश्य अवश्य होता है तथा सीखने के समस्त प्रयास लक्ष्य द्वारा निर्देशित होते हैं। लक्ष्य में विविध बाधाएँ उत्पन्न होने पर सूझ की आवश्यकता होती है।प्रत्येक बाधा व्यक्ति को नवीन परिस्थिति से अवगत कराती है और वह उस परिस्थिति के विभिन्न अंगों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता है उन्हें समझने की कोशिश करता है।

तत्पश्चात् व्यक्ति समूची परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उसके अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। किसी परिस्थिति विशेष को समझकर उसके अनुसार प्रतिक्रिया करना ही व्यक्ति की सूझ का द्योतक है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्ति जो व्यवहार सीखता है, उसे सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखना (Learning by Insight) कहते हैं।

प्रश्न 12
सीखने की प्रयत्न (प्रयास) एवं भूल (त्रुटि) विधि तथा सूझ विधि के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सीखने की प्रयत्न एवं भूल विधि तथा सूझ विधि का अन्तर निम्नलिखित तालिका में वर्णित हैं।
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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 18 Learning Meaning, Process, Laws and Methods image 4

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सीखना किसे कहते हैं? [2010, 15]
उत्तर :
व्यक्ति के व्यवहार में होने वाले ऐच्छिक परिवर्तन को सीखना कह सकते हैं। सीखने की प्रक्रिया को सम्बन्ध नयी क्रियाओं से होता है तथा इस क्रिया द्वारा सीखी गयी बातों का अन्य बातों पर भी प्रभाव पड़ता है। सीखने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में एक प्रकार की परिपक्वता भी आती है। इन्हीं तथ्यों को गिलफोर्ड ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “हम इस शब्द की परिभाषा विस्तृत रूप में यह कहकर कर सकते हैं कि सीखना व्यवहार के परिणामस्वरूप, व्यवहार में कोई भी परिवर्तन है।”

प्रश्न 2
सीखने की प्रक्रिया पर व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य का क्या प्रभाव प्रड़ता है?
उत्तर :
सीखने की तीव्रता व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य अच्छा न होने पर ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक काम नहीं कर पातीं, व्यक्ति रुचि लेकर कार्य नहीं करता और जल्दी ही थक जाता है। जो व्यक्ति देखने, सुनने, बोलने आदि क्रियाओं में निर्बल होते हैं, वे सीखने में पर्याप्त उन्नति नहीं कर पाते। वस्तुतः सीखने की प्रक्रिया का भौतिक और शारीरिक आधार स्नायु संस्थान है।

स्नायु संस्थान के अन्तर्गत मस्तिष्क और स्नायु आते हैं जिनके कार्य करने की शक्ति पर सीखने की प्रक्रिया निर्भर करती है। मस्तिष्क और स्नायु की शक्ति, व्यक्ति के स्वास्थ्य पर निर्भर है। स्पष्टतः सीखने की क्रिया शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के सीधे रूप में प्रभावित होती है।

प्रश्न 3
सीखने में प्रेरणा का क्या योगदान है? [2007, 08, 09]
उत्तर :
सीखने में प्रेरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सीखने में उन्नति लाने की दृष्टि से उसे प्रेरणायुक्त एवं प्रयोजनशील बना देना चाहिए। प्रेरणायुक्त व्यवहार उत्साह के कारण सीखने की प्रक्रिया को तीव्र कर देता है। अतः शीघ्र प्रेरणा से सीखने की गति में तीव्रता आती है। प्रेरणा का सम्बन्ध लक्ष्य या प्रयोजन । से है। यदि सीखने का लक्ष्य अच्छा है तो व्यक्ति उसे शीघ्र सीखने के लिए प्रेरित होता है। अतएव सीखने की प्रक्रिया को त्वरित करने के लिए उसे उद्देश्यपूर्ण एवं प्रेरणायुक्त कर देना उचित है।

प्रश्न 4
प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखने के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
या
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने की विधि की शैक्षिक उपयोगिता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के सिद्धान्त एवं विधि का विशेष शैक्षिक महत्त्व है। इस विधि के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है।

  1. इस सिद्धान्त को अपनाकर बालक को परिश्रमी बनाया जा सकता है।
  2. यह सिद्धान्त बालकों में धैर्य का पाठ पढ़ाता है।
  3. मन्दबुद्धि के बालकों के लिए यह सिद्धान्त बहुत उपयोगी है।
  4. इस सिद्धान्त के आधार पर बालक जो कुछ भी सीखता है, वह उसके मस्तिष्क में स्थायी हो जाता है।
  5. गणित और विज्ञान जैसे विषयों के लिए इसका प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
  6. इस सिद्धान्त के आधार पर सीखने से बालक विभिन्न समस्याओं का समाधान करना सीखते हैं।

प्रश्न 5
सूझ द्वारा सीखने के सिद्धान्त के शैक्षिक महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
शिक्षा में ‘सूझ द्वारा सीखने के सिद्धान्त का निम्नलिखित कारणों से विशेष महत्त्व है।

  1. यह सिद्धान्त बालकों की कल्पना-शक्ति और तर्क-शक्ति का विकास करता है।
  2. विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए इस सिद्धान्तं का प्रयोग प्रभावशाली तरीके से किया जा सकता है।
  3.  यह सिद्धान्त बालकों को स्वयं ज्ञान को खोजने के लिए प्रेरित करता है।
  4. गणित के शिक्षण में भी इस सिद्धान्त का प्रयोग विशेष उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
  5. ड्रेवर (Drever) के अनुसार, यह सिद्धान्त बालकों को निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में उचित व्यवहार की चेतना प्रदान करता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सीखने से क्या आशय है?
उत्तर :
व्यक्ति के व्यवहार में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को सीखना माना जाता है।

प्रश्न 2
सीखने की स्किनर द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
“सीखना व्यवहार में प्रगतिशील सामंजस्य की प्रक्रिया है।” [ स्किनर ]

प्रश्न 3
सीखने की प्रक्रिया की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. सीखना व्यवहार में होने वाला परिवर्तन है
  2. सीखने की प्रक्रिया जीवनपर्यन्त चलती है
  3. सीखना सक्रिस होता है तथा
  4. सीखना अनुभवों का संगठन है।

प्रश्न 4
सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक हैं

  1. वातावरण
  2. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य
  3. सीखने की इच्छा तथा
  4. प्रबल प्रेरणा।

प्रश्न 5
सीखने के मुख्य नियम किसने प्रतिपादित किये हैं। [2007]
उत्तर :
सीखने के मुख्य नियम थॉर्नडाइक ने प्रतिपादित किये हैं।

प्रश्न 6
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के मुख्य नियम कौन-कौन-से है।
उत्तर :
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के मुख्य नियम हैं

  1. तत्परता का नियम
  2. अभ्यास का नियम तथा
  3. प्रभाव का नियम

प्रश्न 7
शारीरिक परिपक्वता का क्या अर्थ है?
उत्तर :
शरीर के अंगों को विकसित तथा सुदृढ़ या पुष्ट होना ही शारीरिक परिपक्वता है।

प्रश्न 8
सीखने की प्रक्रिया पर परिपक्वता का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
सीखने की प्रक्रिया के लिए शरीर का परिपक्व होना अति आवश्यक है।

प्रश्न 9
थॉर्नडाइक ने सीखने की किस विधि का समर्थन किया है?
उत्तर :
थॉर्नडाइक ने सीखने का प्रयास एवं त्रुटि विधि’ का समर्थन किया है।

प्रश्न 10
थॉर्नडाइक ने पिंजरे में अपना प्रयोग किस पर किया ? [2007, 11]
उत्तर :
बिल्ली, पर।

प्रश्न 11
सीखने के सूझ अथवा अन्तर्दृष्टि के सिद्धान्त के मुख्य प्रतिपादक कौन थे? [2014]
उत्तर :
सीखने के सूझे अथवा अन्तर्दृष्टि के सिद्धान्त के मुख्य प्रतिपादक कोहलर थे।

प्रश्न 12
सीखने के सम्बन्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त के मुख्य प्रतिपादक कौन थे?
उत्तर :
सीखने के सम्बन्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त के मुख्य प्रतिपादक रूसी विद्वान पावलोव थे।

प्रश्न 13
सामान्य जीवन में व्यक्तियों द्वारा सीखने के लिए किस विधि को सर्वाधिक अपनाया जाता है?
उत्तर :
सामान्य जीवन में व्यक्तियों द्वारा सीखने के लिए अनुकरण विधि’ को सर्वाधिक अपनाया जाता है।

प्रश्न 14
सीखने के पठार से क्या आशय है।
उत्तर :
व्यक्ति के सीखने की दर का स्थिर हो जाना अर्थात् सीखने के दर में वृद्धि न होना ही सीखने का पठार कहलाता है।

प्रश्न 15
सीखने के पठार के निराकरण का सर्वाधिक प्रभावकारी उपाय क्या है?
उत्तर :
सीखने के पठार के निराकरण का सर्वाधिक प्रभावकारी उपाय है-किसी प्रबल प्रेरणा को उत्पन्न करना।

प्रश्न 16
सीखने का मुख्य कारण क्या है? [2015]
उत्तर :
सीखने का मुख्य कारण प्रेरणा है।

प्रश्न 17
“व्यवहार के अर्जन में उन्नति की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं।” यह परिभाषा किसने दी है ? [2011]
उत्तर :
प्रस्तुत परिभाषा स्किनर द्वारा प्रतिपादित है।

प्रश्न 18
थॉर्नडाइक ने अधिगम के कितने नियम प्रतिपादित किये हैं। [2014]
उत्तर :
थॉर्नडाइक ने अधिगम के तीन मुख्य नियम प्रतिपादित किये हैं

  1. तत्परता का नियम
  2. अभ्यास का नियम तथा
  3. प्रभाव का नियम

प्रश्न 19
“हम झरके सीखते हैं।” यह किसने कहा है? [2014, 15]
उत्तर :
थॉर्नडाइक ने।

प्रश्न 20
थॉर्नडाइक के अभ्यास के नियम के कितने उपनियम हैं ? [2007]
उत्तर :
थॉर्नडाइक के अभ्यास के नियम के तीन उपनियम हैं

  1. पुनरावृत्ति का नियम
  2. नवीनता का नियम तथा
  3. अनुपयोग का नियम।

प्रश्न21
“व्यवहार के कारण व्यवहार में परिवर्तन ही सीखना है।” यह परिभाषा किसने दी है? [2009]
उत्तर :
गिलफोर्ड ने।

प्रश्न 22
सीखने की प्रक्रिया में उस दशा को क्या कहते हैं, जब व्यक्ति की सीखने की दर स्थिर हो जाती है? [2009]
उत्तर :
सीखने का पठार।

प्रश्न 23
अधिगम में चिम्पैंजी पर किसने प्रयोग किया? [2018]
उत्तर :
कोहलर ने।

प्रश्न 24
सीखने का प्रमुख कारक क्या है? [2009, 15]
उत्तर :
सीखने का प्रमुख कारक “अनुकरण” है।

प्रश्न 25
सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले चार प्रमुख शारीरिक कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. आयु एवं परिपक्वता
  2. लिंग-भेद
  3. स्वास्थ्य तथा
  4. संवेगात्मक स्थिति।

प्रश्न 26
सीखने तथा परिपक्वता में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर :
परिपक्वता सीखने के लिए अनिवार्य शर्त है।

प्रश्न 27
अभिप्रेरणा का सीखने पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
अभिप्रेरणा से सीखने की प्रक्रिया सुचारु एवं सरल हो जाती है।

प्रश्न 28
सीखने के तत्परता के नियम से क्या अभिप्राय है? [2008]
उत्तर :
सीखने के तत्परता के नियम के अनुसार कुछ भी सीखने के लिए व्यक्ति को सर्वप्रथम मानसिक रूप से तैयार होना अनिवार्य है। इस नियम के अनुसार तैयारी या तत्परता सदैव सीखने में सहायक होते हैं।

प्रश्न 29
सीखने के लिए मनुष्यों द्वारा सर्वाधिक किस विधि को अपनाया जाता है?
उत्तर :
अनुकरण विधि।

प्रश्न 30
सीखने की कौन-सी विधि ऐसी है, जिसे प्रमुख रूप से केवल मनुष्यों द्वारा ही अपनाया जाता है?
उत्तर :
सूझ अथवा अन्तर्दृष्टि द्वारा सीखने की विधि।

प्रश्न 31
सीखने की कौन-सी विधि ऐसी है जिसे मनुष्य तथा पशु समान रूप से अपनाते हैं?
उत्तर :
प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखना

प्रश्न 32
सूझ द्वारा सीखने की विधि को दर्शाने के लिए किस मनोवैज्ञानिक ने महत्त्वपूर्ण प्रयोग किया था तथा उसने यह प्रयोग किस पशु पर किया था?
उत्तर :
सूझ द्वारा सीखने की विधि को दर्शाने के लिए कोहलर नामक मनोवैज्ञानिक ने वनमानुष पर महत्त्वपूर्ण प्रयोग किया था।

प्रश्न 33
कोहलर ने अपना प्रयोग किस पर किया?
उत्तर :
कोहलर ने अपना प्रयोग चिम्पैंजी (वनमानुष) पर किया था।

प्रश्न 34
सम्बद्ध-प्रत्यावर्तन द्वारा सीखने की विधि को सर्वप्रथम किसने दर्शाया था?
उत्तर :
रूस के प्रसिद्ध शरीरशास्त्री पावलोव ने।

प्रश्न 35
पावलोव ने अफ्ना महत्त्वपूर्ण प्रयोग किस पशु पर किया था?
उत्तर :
कुत्ते पर।

प्रश्न 36
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. सीखने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं होता।
  2. सीखने की प्रक्रिया केवल शैक्षिक-काल में ही होती है।
  3. सीखने की प्रक्रिया जीवन-पर्यन्त चलती रहती है।
  4. प्रेरणा का सीखने की प्रक्रिया पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
  5. परिपक्वता का सीखने की प्रक्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं है।

उत्तर :

  1. असत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. सत्य
  5. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
“सीखना व्यवहार के परिणामस्वरूप व्यवहार में कोई परिवर्तन है।” यह परिभाषा किसने दी है?
(क) वुडवर्थ ने
(ख) चार्ल्स स्किनर ने
(ग) कॉलविन ने
(घ) गिलफोर्ड ने
उत्तर :
(घ) गिलफोर्ड ने

प्रश्न 2
सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं
(क) कोहलर
(ख) स्किनर
(ग) पावलोव
(घ) थॉर्नडाइक
उत्तर :
(ग) पावलोव

प्रश्न 3
बिल्लियों पर प्रयोग किसने किया ?
(क) थॉर्नडाइक ने
(ख) स्किनर ने।
(ग) कोहलर ने
(घ) टरमन ने
उत्तर :
(क) थॉर्नडाइक ने

प्रश्न 4
नवीन अनुबन्धन सिद्धान्त के प्रवर्तक हैं
(क) पावलोव
(ख) थॉर्नडाइक
(ग) कोहलर
(घ) चाल्र्स स्किनर
उत्तर :
(घ) चार्ल्स स्किनर

प्रश्न 5
प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त किसने प्रतिपादित किया ? [2015]
(क) कोहलर ने
|(ख) थॉर्नडाइक ने
(ग) टरमन ने
(घ) स्किनर ने
उत्तर :
(ख) थॉर्नडाइक ने

प्रश्न 6
प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखना ही
(क) सूझ का सिद्धान्त है
(ख) सम्बन्ध प्रतिक्रिया को सिद्धान्त है
(ग) अनुकरण का सिद्धान्त है
(घ) उद्दीपक प्रतिक्रिया को सिद्धान्त है
उत्तर :
(घ) उद्दीपक प्रतिक्रिया का सिद्धान्त है

प्रश्न 7
अनुकरण का सिद्धान्त किसने प्रतिपादित किया ?
(क) बुडवर्थ ने
(ख) हिलगार्ड ने
(ग) स्किनर ने
(घ) कोहलर ने
उत्तर :
(ख) हिलगार्ड ने

प्रश्न 8
‘करके सीखने की क्रिया से सीखने का कौन-सा नियम सर्वाधिक प्रभावी है ? [2007]
(क) तत्परता का नियम
(ख) अभ्यास का नियम
(ग) प्रभाव का नियम
(घ) मनोवृत्त का नियम
उत्तर :
(क) तत्परता का नियम

प्रश्न 9
कोहलर ने सीखने के निम्नलिखित में से किस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ? [2007, 09, 11]
(क) प्रयास एवं त्रुटि’ द्वारा सीखने का सिद्धान्त
(ख) ‘सूझ’ द्वारा सीखने का सिद्धान्त
(ग) सम्बन्ध प्रत्यावर्तन का सिद्धान्त
(घ) अनुकरण का सिद्धान्त
उत्तर :
(ख) ‘सूझ’ द्वारा सीखने का सिद्धान्त

न 10
थॉर्नडाइक के सीखने के नियम हैं
(क) एक
(ख) तीन
(ग) दो
(घ) चार
उत्तर :
(ख) तीन

प्रश्न 11
“अधिगम जिसमें व्यक्ति किसी समाधान या हल की जाँच करता है कि कहाँ गलतियाँ हैं, उनकी पुनः जाँच कर ठीक करता है और तब तक ठीक करता है जब तक सफल नहीं हो जाता।” यह कथन किसकी विशेषता है? [2015]
(क) प्रयास और त्रुटि द्वारा सीखना
(ख) सूझ द्वारा सीखना
(ग) सम्बन्ध प्रतिक्रिया द्वारा सीखना
(घ) अनुकरण द्वारा सीखना
उत्तर :
(क) प्रयास और त्रुटि द्वारा सीखना

प्रश्न 12
अन्तर्दृष्टि या सूझ द्वारा सीखने के सिद्धान्त के जनक हैं [2009, 14]
(क) मैक्डूगल
(ख) कोहलर
(ग) थॉर्नडाइक
(घ)पावलोव
उत्तर :
(ख) कोहलर

प्रश्न 13
सीखने के उद्दीपक-अनुक्रिया सिद्धान्त के जनक हैं [2011]
या
अधिगम के उद्दीपन-अनुक्रिया सिद्धान्त के प्रतिपादक हैंसीखने के प्रमुख नियमों के प्रतिपादक हैं [2008, 11]
(क) कोहलर
(ख) स्किनर
(ग) थॉर्नडाइक
(घ) पावलोव
उत्तर :
(ग) थॉर्नडाइक

प्रश्न 14
प्रारम्भ में बालक किस प्रकार सीखता है ?
(क) परीक्षण द्वारा
(ख) सूझ द्वारा
(ग) विभेदकरण द्वारा
(घ) प्रयत्न एवं त्रुटि द्वारा
उत्तर :
(धे) प्रयत्न एवं त्रुटि द्वारा

प्रश्न 15
“समस्यात्मक परिस्थिति को समग्र में समझा जाता है और तुरन्त ही हल स्पष्ट रूप से पूर्व-दृष्टि से मन में आ जाता है।” यह कथन किसकी विशेषता है ? [2008]
(क) सूझ द्वारा सीखने की
(ख) प्रयास एवं भूल द्वारा सीखने की
(ग) अनुकरण द्वारा सीखने की
(घ) सम्बन्धीकरण द्वारा सीखने की
उत्तर :
(क) सूझ द्वारा सीखने की।

प्रश्न 16
अधिगम, जो बिना किसी पूर्व-नियोजन के तर्कहीन, यान्त्रिकीय और बिना किसी क्रम के जहाँ हल आकस्मिक होता है, को जाना जाता है [2012]
(क) प्रयास और त्रुटि द्वारा अधिगम
(ख) सूझ द्वारा अधिगम
(ग) सम्बद्ध प्रत्यावर्तन द्वारा अधिगम
(घ) अनुकरण द्वारा अधिगम
उत्तर :
(ख) सूझ द्वारा अधिगम

प्रश्न 17
“प्रगतिशील व्यवहार व्यवस्थापन की प्रक्रिया को अधिगम कहते हैं।” यह कथन किसका है?
(क) थॉर्नडाइक
(ख) स्किनर
(ग) क्रो एवं क्रो
(घ) पारीक
उत्तर :
(ख) स्किनर

प्रश्न 18
सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले शारीरिक कारक हैं
(क) आयु एवं परिपक्वता
(ख) लिंग-भेद
(ग) स्वास्थ्य
(घ) ये सभी कारक
उत्तर :
(घ) ये सभी कारक

प्रश्न 19
सीखने के नियम आधारित हैं
(क) उद्दीपक प्रतिक्रिया सिद्धान्त पर
(ख) सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त पर
(ग) सूझ के सिद्धान्त पर
(घ) प्रयास और त्रुटि की विधि पर
उत्तर :
(क) उद्दीपक प्रतिक्रिया सिद्धान्त पर

प्रश्न 20
सूझ द्वारा समस्या का समाधान प्राप्त होता है [2008]
(क) एकाएक
(ख) समस्या उत्पन्न होने के एक घण्टे बाद
(ग) निद्रा के बाद
(घ) कभी नहीं।
उत्तर :
(क) एकाएक

प्रश्न 21
कोहलर ने अपना मुख्य प्रयोग किस पर किया था?
(क) कुत्ते पर
(ख) बन्दर पर
(ग) चिम्पैंजी पर
(घ) बिल्ली पर
उत्तर :
(ग) चिम्पैंजी पर

प्रश्न 22
किस विधि द्वारा विषय को सीखने में समय की बचत होती है?
(क) प्रयास एवं त्रुटि विधि द्वारा
(ख) सूझ विधि द्वारा।
(ग) सम्बद्ध-प्रत्यावर्तन विधि द्वारा
(घ) उपर्युक्त सभी विधियों द्वारा
उत्तर :
(ख) सूझ विधि द्वारा

प्रष्टग 23
छोटे बच्चे एवं मन्दबुद्धि बालक मुख्य रूप से किस विधि द्वारा कार्य करना सीखते हैं?
(के) सूझ विधि द्वारा
(ख) सम्बद्ध-प्रत्यावर्तन विधि द्वारा
(ग) प्रयास एवं त्रुटि विधि द्वारा
(घ) इन सभी विधियों द्वारा
उत्तर :
(ग) प्रयास एवं त्रुटि विधि द्वारा

प्रश्न 24
सीखने के पठार की दशा में  [2012]
(क) सीखने की गति घट जाती है।
(ख) सीखने की गति बढ़ जाती है।
(ग) सीखने की गति में वृद्धि नहीं होती।
(घ) सब कुछ भूल जाता है।
उत्तर :
(ग) सीखने की गति में वृद्धि नहीं होती।

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 17 Independent India

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 17
Chapter Name Independent India
(स्वतन्त्र भारत)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 17 Independent India (स्वतन्त्र भारत)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 15 अगस्त, 1947 ई०
2. 13 अगस्त, 1948 ई०
3. 18 सितम्बर, 1948 ई०
4. 1950 ई०
5. 26 जनवरी, 1950 ई०
6. 1954ई०
7. अगस्त, 1961 ई०
उतर.
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 251 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए-
उतर.
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 252 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर.
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 252 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 252 व 253 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार प्रमुख उद्देश्य लिखिए।
उतर.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार प्रमुख उद्देश्य निम्नवत् हैं

  1. 2012 ई० तक सभी भूमिहीनों को घर और जमीन उपलब्ध कराना।
  2. 3 वर्ष तक के बच्चों में कुपोषण को घटाकर आधा करना।
  3. वर्ष 2009 ई० तक सभी को पीने का पानी उपलब्ध कराना।
  4. 5.8 करोड़ नए रोजगार के अवसर पैदा करना।

प्रश्न 2.
डॉ० भीमराव अम्बेडकर की भारत के संविधान निर्माण में क्या भूमिका थी?
उतर.
डॉ० भीमराव अम्बेडकर संविधान निर्माण प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। इन्हें संविधान निर्माता कहा जाता है।

प्रश्न 3.
देशी रियासतों के विषय में सरदार पटेल के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
उतर.
स्वतन्त्र भारत के प्रथम उपप्रधानमन्त्री सरदार पटेल के सुझाव पर एक रियासती मन्त्रालय’ का गठन किया गया। सरदार पटेल  को इस मन्त्रालय का मन्त्री बनाया गया। सरदार पटेल ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ देशी रियासतों के विलय का संचालन किया। उपप्रधानमन्त्री एवं रियासती मन्त्रालय के मन्त्री की हैसियत से सरदार पटेल ने रियासतों से भारत संघ में अपना विलय करने की अपील की और उनकी मार्मिक अपील का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। देशी राजाओं ने भी राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव किया। 15 अगस्त, 1947 ई० को 562 देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय हो गया। यह पटेल की एकनिष्ठ दृढ़ता का परिचय था कि उन्होंने जूनागढ़, हैदराबाद, और कश्मीर जैसी रियासतों का बुद्धिमता एवं ताकत के बल पर भारत में विलय किया।

प्रश्न 4.
राज्य नीति के पाँच निर्देशक तत्व लिखिए।
उतर.
राज्य नीति के पाँच निर्देशक तत्व निम्नवत हैं

  1.  कल्याणकारी समाज की रचना
  2. जन स्वास्थ्य का उन्नयन
  3. एक ही आचार-संहिता
  4.  बेकारी के अन्त का प्रयास
  5. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा का प्रयत्न

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की चार विशेषताएँ लिखिए।
उतर.
भारतीय संविधान की चार विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. संविधान की प्रस्तावना
  2. लिखित, निर्मित और विस्तृत संविधान
  3. राज्य के नीति-निर्देशक तत्व
  4. नागरिकों के मूल अधिकार

प्रश्न 6.
भारतीय शिक्षा की चार नवीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
भारतीय शिक्षा की चार नवीन प्रवृत्तियाँ निम्नवत् हैं

  1. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली 
  2. विज्ञान की शिक्षा पर बल
  3. सैनिक शिक्षा पर बल
  4. भावनात्मक एवं राष्ट्रीय एकीकरण के लिए पाठ्यक्रम का नवीनीकरण

प्रश्न 7.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय की भारत की आर्थिक स्थिति का वर्णन कीजिए।
उतर.
अंग्रेजों के लगभग दो सौ साल के शोषण के बाद 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत स्वतन्त्र हुआ। इस दौरान भारतीय 
अर्थव्यवस्था निरन्तर उपेक्षा का शिकार रही थी। शताब्दियों से चले आ रहे आर्थिक शोषण व लूट के कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारत की आर्थिक स्थिति पहले से ही जर्जर अवस्था में थी, पाकिस्तान के निर्माण के कारण भारत अनेक प्राकृतिक संसाधनों से वंचित हो गया। भारत एक निर्धन देश बन गया और इसकी प्रति व्यक्ति आय विश्व के निम्नतम के समतुल्य हो गई।

प्रश्न 8.
स्वतन्त्र भारत की समस्याओं पर सारगर्भित लेख लिखिए।
उतर.
भारत की स्वतन्त्रता के साथ ही कठिनाइयों एवं कष्टों का काल भी आरम्भ हो गया था। देश के विभाजन के बाद दंगों, हत्याओं व लूटमार का भयंकर दौर आरम्भ हुआ। विभाजन की त्रासदी के कारण लाखों की संख्या में शरणार्थी, रियासतों के रूप में बिखरा हुआ अज्ञात भारत का ढाँचा, जर्जर अर्थव्यवस्था, अस्थिर राजनीति यह सब स्वतन्त्र भारत को विरासत में मिला। तत्कालीन भारत के महापुरुषों व राजनीति-वेत्ताओं के अथक परिश्रम ने इन सभी समस्याओं से लोहा लिया और उन्हें एक-एक करके सुलझाना आरम्भ किया।

प्रश्न 9.
दसवी पंचवर्षीय योजना के बारे में टिप्पणी कीजिए।
उतर.
दसवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल 1 अप्रैल, 2002 ई० से 31 मार्च, 2007 ई० था। इसमें आर्थिक विकास का लक्ष्य 80% वार्षिक रखा गया, जबकि वर्तमान में विकास दर 5.5% वार्षिक थी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दस सूत्रीय एजेण्डा तैयार किया गया। इस एजेण्डे में अन्य बातों के अतिरिक्त विनिवेशीकरण कर एवं श्रम-सुधार और वित्तीय समझदारी वाली बातों पर विशेष बल दिया। दसवीं पंचवर्षीय योजना में सर्वाधिक बल कृषि सुधार व वृद्धि दर पर दिया गया। औद्योगिक क्षेत्र के लिए प्रस्तावित औसत दर 8.5% निर्धारित की गई। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए निर्धारित कुल परिव्यय (15,92,300 करोड़ रुपए) में से उद्योग एवं खनिज के लिए 58,939 करोड़ रुपए व्यय करने का प्रावधान था। उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा पूर्वोत्तर राज्यों के लिए औद्योगिक नीति कारगर साबित हुई। प्रसंस्करण उद्योग काफी आगे बढ़ गया।

प्रश्न 10.
डॉ० भीमराव अम्बेडकर के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
डॉ० भीमराव अम्बेडकर ‘दलीतों के मसीहा’ के रूप में प्रसिद्ध हैं। आजादी से पूर्व 1942-46 ई० तक डॉ० भीमराव अम्बेडकर वायसराय के एक्जीक्यू काउंसिल के सदस्य रहे। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद उनको भारत सरकार का कानून मंत्री बनाया गया। भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने अविस्मरणीय कार्य किया। वे संविधान सभा के सदस्य और संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष रहे। उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र पर अनेक पुस्तकों की रचना की। ‘द प्राब्लम ऑफ रुपीज’ तथा ‘रिडल्स ऑन हिन्दुइज्म’ इनके द्वारा रचित महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।

प्रश्न 11.
द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दो प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
द्वितीय पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल अप्रैल, 1956 ई० से मार्च 1961 ई० तक था। इस योजना में विकास के ऐसे ढाँचे को बढ़ावा दिया गया जिससे देश में समाजवादी स्वरूप के समाज का निर्माण हो सके। इस योजना के दो प्रमुख प्रावधान रोजगार में वृद्धि एवं उद्योगीकरण थे।

प्रश्न 12.
स्वतन्त्र भारत की कोई तीन तात्कालिक समस्याएँ लिखिए?
उतर.
स्वतन्त्र भारत की तीन तात्कालिक समस्याएँ निम्न प्रकार हैं

  1. हिन्दू-मुस्लिम दंगे और विस्थापितों की समस्या
  2. राजनीतिक एकीकरण की समस्या
  3. जर्जर आर्थिक स्थिति

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान की दो प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उतर.

  1. लिखित, निर्मित और विस्तृत संविधान ।
  2. सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य |

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान कितने समय में निर्मित किया गया?
उतर.
भारतीय संविधान के निर्माण में 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन का समय लगा।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
“सुनियोजित अर्थतन्त्र( अर्थव्यवस्था) आधुनिक भारत का आधार है।” टिप्पणी कीजिए।
उतर.
दो सौ वर्षों तक अंग्रेजी शासन के अधीन रहने के बाद 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत स्वतन्त्र हुआ। उस समय भारत का
अर्थतन्त्र बहुत ही दयनीय स्थिति में था। जहाँ एक ओर कृषि उत्पादन, भारी और आधारभूत उद्योगों तथा शहरीकरण का निम्न स्तर था, वहीं जनसंख्या भी अत्यधिक थी। स्वतन्त्रता के समय हमारी शिक्षा और अर्थव्यवस्था इतनी पिछड़ी स्थिति में थी कि इनका विकास करना अत्यन्त दुष्कर था। परन्तु स्वतन्त्रता अपने साथ आशा की किरण भी लाई।

स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू की आवश्यक प्राथमिकताओं में से पहली प्राथमिकता आर्थिक तंत्र को सुनियोजित ढंग से मजबूत बनाना था। इसके लिए उन्होंने 1950 ई० में राष्ट्रीय योजना आयोग की स्थापना कर देश के आर्थिक विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं को आरम्भ किया। उत्पादन की अधिकतम सीमा बढ़ाना, पूर्ण रोजगार प्राप्त करना, आय व सम्पत्ति की असमानताओं को कम करना, तथा सामाजिक न्याय उपलब्ध कराना आदि नीति-निर्माताओं द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं को निर्धारित कर आधुनिक भारत का मार्ग प्रशस्त किया। आधुनिक भारत को आधार प्रदान करने के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति से अब
तक ग्यारह पंचवर्षीय योजनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं। कुछ प्रमुख पंचवर्षीय योजनाओं के उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  • प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रही।
  • द्वितीय पंचवर्षीय योजना में औद्योगीकरण पर विशेष बल दिया गया। औद्योगिक उत्पादन में 4.5% वृद्धि हुई तथा लगभग 66 लाख व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त हुआ।
  • चौथी पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य कृषि एवं औद्योगिक उत्पादन बढ़ाना तथा जनसंख्या वृद्धि को रोकना निर्धारित किया।
  • पाँचवी एवं छठी पंचवर्षीय योजना में गरीबी उन्मूलन एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने पर बल दिया गया।
    सातवीं एवं आठवीं पंचवर्षीय योजनाओं में क्रमश: ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि एवं आर्थिक ढाँचे को मजबूत बनाए रखने के लिए क्रियान्वित की गई।
  • नवीं व दसवीं पंचवर्षीय योजनाओं में सर्वाधिक जोर क्रमशः सामाजिक व बुनियादी ढाँचे और सूचना तकनीक के विकास तथा खेती में सुधार व वृद्धि दर पर दिया गया।
  • ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि, सिंचाई, जल संसाधनों का विकास एवं दोहन मुख्य लक्ष्य निर्धारित किया। 
  • बारहवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि, उद्योग एवं सेवा में वृद्धि दर पर विशेष बल दिया गया है। इस प्रकार उपरोक्त पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा सुनियोजित अर्थतन्त्र आधुनिक भारत की आधार शिला है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का संक्षेप में विश्लेषण कीजिए।
उतर.
भारतीय संविधान के तृतीय भाग में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। मूल अधिकार 
वे अधिकार होते हैं जिन्हें देश के सर्वोच्च कानून में स्थान प्राप्त होता है तथा जिनका उल्लंघन कार्यपालिका तथा विधायिका भी नहीं कर सकती है। मूलतः संविधान द्वारा नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किए गये, परन्तु 44 वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार ‘सम्पत्ति के अधिकार’ को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से निकाल दिया गया है, अब यह अधिकार एक कानूनी अधिकार रह गया है। भारतीय संविधान में निम्नलिखित छ: मौलिक अधिकारों का समावेश है]

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  5. संस्कृति और शिक्षा-सम्बन्धी अधिकार ।
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार भारतीय संविधान में उपरोक्त मौलिक अधिकारों का समावेश कर एक प्रगतिशील कदम उठाया गया है। इससे सरकार की

निरकुंशता पर नियन्त्रण किया गया है। जहाँ तक मौलिक अधिकारों पर लगे प्रतिबन्धों या आपातकाल में उनके स्थगन का प्रश्न है, हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि वे प्रतिबन्ध राष्ट्र-हित, सार्वजनिक कल्याण तथा भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप को विकृतियों से बचाने के लिए लगाये गये हैं। परन्तु न्याय पालिका के स्वतन्त्र होने के कारण नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए इस पर विश्वास कर सकते हैं।” मौलिक अधिकारों का संविधान में उल्लेख कर देने से उनके महत्व और सम्मान में वृद्धि होती है। इससे उन्हें साधारण कानून से अधिक उच्च स्थान और पवित्रता प्राप्त हो जाती है। इससे वे अनुल्लंघनीय होते हैं। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के लिए उनका पालन आवश्यक हो जाता है।

प्रश्न 3.
“सरदार पटेल भारतीय एकीकरण के स्थापत्यकार थे।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
उतर.
स्वतन्त्रता के पूर्व भारत में लगभग 600 से अधिक देशी रियासतें थीं। स्वतन्त्र होने के उपरान्त भारत की सरकार के सामने देशी रियासतों को भारत संघ में विलय कराने की गम्भीर चुनौती थी। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए इन सबको भारत संघ में विलय होना आवश्यक था। ये रियासतें सम्पूर्ण भारत के क्षेत्रफल का 48 प्रतिशत और जनसंख्या का 20 प्रतिशत थीं। यद्यपि ये रियासतें अपने आन्तरिक मामलों में स्वतन्त्र थीं, किन्तु वास्तविक रूप में इन सभी रियासतों पर अंग्रेजी शासन का नियन्त्रण स्थापित था। भारतीय देशी रियासतों में राजकीय जागरण 1921 ई० में प्रारम्भ हुआ। सरदार पटेल के सुझाव पर एक रियासती मन्त्रालय बनाया गया। सरदार पटेल को ही इस विभाग का मन्त्री बनाया गया।

सरदार पटेल ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ देशी रियासतों के विलय के कार्य का संचालन किया। 1926 ई० में अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा परिषद का जन्म हुआ, जिसका पहला अधिवेशन एलौट के प्रसिद्ध नेता दीवान बहादुर एम० रामचन्द्र राय की अध्यक्षता में 1927 ई० में हुआ। 1934 ई० में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने रियासतों में उत्तरदायी शासन की बात कही। 1935 ई० के अधिनियम में देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ बनाने की बात कही गई। 1936 ई० के बाद देशी रियासतों में जन आन्दोलन तेजी से बढ़ा। कैबिनेट मिशन, एटली की घोषणा और लॉर्ड माउण्टबेटन की योजना में देशी राजाओं के बारे में विचार रखे गए और प्रायः कहा गया कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद वे स्वतन्त्र होंगे। अपनी इच्छानुसार वे भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित हों अथवा स्वतन्त्र रहें। उपप्रधानमन्त्री एवं रियासती मन्त्रालय के मन्त्री की हैसियत से सरदार पटेल ने रियासतों से भारत संघ में अपना विलय करने की अपील की और इस मार्मिक अपील का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। देशी राजाओं ने भी राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव किया। अतः 15 अगस्त, 1947 ई० को जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ सहित 562 रियासतों ने भारतीय संघ में विलय की घोषणा कर दी।

सरदार वल्लभ भाई पटेल की कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि उन्होंने इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया। हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर का भारत में विलय प्रमुख कठिनाइयों के रूप में उभरकर सामने आया। जूनागढ़ एक छोटी सी रियासत थी और यहाँ नवाब का शासन था। यहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू थी और वह जूनागढ़ का भारत में विलय करने के पक्ष में थी, जबकि नवाब जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। जब नवाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा की तो वहाँ की जनता ने इसका विरोध किया। इसी समय सरदार पटेल ने जूनागढ़ की जनता की सहायता के लिए सेना भेज दी। भारतीय सेना से भयभीत होकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। फरवरी 1948 ई० में जनमत संग्रह के आधार पर जूनागढ़ का भारत में विलय कर लिया गया। हैदराबाद की जनता भी जूनागढ़ के समान ही हैदराबाद को भारत में सम्मिलित करना चाहती थी, जबकि निजाम सीधे ब्रिटिश साम्राज्य से साँठगाँठ कर एक स्वतन्त्र राज्य का स्वप्न देख रहा था। उसकी पाकिस्तान से भी गुप्त वार्ताएँ चल रही थीं।

अक्टूबर, 1947 में उसके साथ एक विशेष समझौता किया गया, जिसमें उसे एक वर्ष तक यथावत् स्थिति की बात कही गई, लेकिन उस पर किसी भी प्रकार की सैन्य वृद्धि या बाहरी मदद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। निजाम की कुटिल चालें चलती रहीं। उसने पाकिस्तान से हथियार मँगवाए तथा रजाकारों की मदद से मनमानी करनी चाही। परिणामत: हैदराबाद की जनता ने निजाम के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। निजाम ने जनता पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। इसी समय सरदार पटेल ने हैदराबाद की जनता का रुख भारत की ओर देखकर सितम्बर 1948 में निजाम को चेतावनी दी। निजाम के न मानने पर 13 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद में कार्यवाही की गई और पाँच दिन में न केवल रजाकारों को खदेड़ दिया गया, बल्कि निजाम ने भी विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। 18 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। इस प्रकार उपरोक्त विवरण के अनुसार सरदार पटेल ने भारतीय एकीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मृत्यु उपरान्त उन्हें ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया।

प्रश्न 4.
“भारत का विकास वस्तुतः पंचवर्षीय योजनाओं से प्रारम्भ हुआ था।” टिप्पणी कीजिए।
उतर.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारत की आर्थिक व्यवस्था अत्यन्त जर्जर थी। भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अर्थव्यवस्था की पुननिर्माण प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। इस उद्देश्य से विभिन्न नीतियाँ और योजनाएँ बनाई गईं। और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से क्रियान्वित की गई। स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की प्राथमिकताओं में से पहली प्राथमिकता भारत के आर्थिक ढाँचे को मजबूत करना था। इसके लिए उन्होंने 1950 ई० में राष्ट्रीय योजना आयोग की स्थापना की। इस आयोग के अन्तर्गत 16 माह के गहन विचार-विमर्श के पश्चात् देश के आर्थिक विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाकाल का जन्म हुआ। प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारम्भ 1 अप्रैल, 1951 ई० को हुआ। अब तक ग्यारह पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। वर्तमान में बारहवीं पंचवर्षीय योजना जारी है जिसका कार्यकाल 2012-2017 है। भारत में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में रखे गए उद्देश्यों को मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • विकास
  • आधुनिकरण
  • आत्मनिर्भरता, तथा
  • सामाजिक न्याय।

पंचवर्षीय योजनाओं की विकास सम्बन्धी उपलब्धियाँ- पंचवर्षीय योजनाओं की विकास उपलब्धि को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
1. विकास दर- आर्थिक प्रगति का महत्त्वपूर्ण मापदण्ड विकास की दर के लक्ष्य की प्राप्ति है। प्रथम योजना में आर्थिक 
विकास की दर 3.6% थी, जो बढ़कर आठवीं योजना में 6.5% हो गई। नवीं पंचवर्षीय योजना में यह 5.5% रही। दसवीं पंचवर्षीय योजना में विकास दर 9% रही। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में 12% का लक्ष्य रखा गया तथा 12 वीं योजना (2012-2017) में 9 प्रतिशत का लक्ष्य है।

2. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय- योजनाकाल में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। भारत में 1950 51 ई० में चालू मूल्यों के आधार पर शुद्ध राष्ट्रीय आय 8,525 करोड़ रुपए थी, जो कि 2001-02 में बढ़कर 19,51,935 करोड़ रु०,2002-03 में 19,95,229 करोड़ रु०, 2009-10 में 51,88,361 करोड़ रु० हो गई, जबकि प्रति व्यक्ति आय 237.5 रु० से बढ़कर 2009-10 में 44,345 रु० हो गई।

3. कृषि उत्पाद- योजनाकाल में कृषि उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। सन् 1950-51 में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन मात्र 50.8 मिलियन टन था, जो 2010-11 में बढ़कर 241.56 मिलियन टन हो गई।

4. औद्योगिक उत्पादन- योजनकाल में औद्योगिक उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई। 1950-51 ई० में, 1993-94 ई० की कीमतों पर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक 7.9 था जो बढ़कर 167 हो गया। दसवीं पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर उद्योग उत्पादन क्षेत्र में 8.75% की वृद्धि हो गई।

5. बचत एवं विनियोग- योजनाकाल में भारत में बचत एवं विनियोग की दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। चालू मूल्य पर | सकल राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में 1950-51 ई० में सकल विनियोग और बचत की दरें क्रमशः 10.4% और 9.3% थीं, दसवीं पंचवर्षीय योजना के अन्त में ये क्रमश: 7.8% और 26.62% थीं। निवेश 28.10% रहा।

6. यातायात एवं संचार- यातायात एवं संचार के क्षेत्र में योजनाकाल में उल्लेखनीय प्रगति हुई। रेलवे लाइनों की लम्बाई 53,596 किलोमीटर से बढ़कर 31 मार्च, 2010 को 63,974 किलोमीटर हो गई। सड़कों की लम्बाई 1,57,000 किलोमीटर से बढ़कर 32 लाख किलोमीटर हो गई। हवाई परिवहन, बन्दरगाहों की स्थिति एवं आन्तरिक जलमार्ग का भी विकास किया गया। संचार-व्यवस्था के अन्तर्गत विकास के क्षेत्रों में डाकखानों, टेलीग्राफ, रेडियो-स्टेशन एवं प्रसारण केन्द्रों की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई।

7. शिक्षा- योजनाकाल में शिक्षा का भी व्यापक प्रसार हुआ है। इस अवधि में स्कूलों की संख्या 2,30,683 से बढ़कर  8,21,988 तथा विश्वविद्यालयों और समान संस्थाओं की संख्या 27 से बढ़कर 315 हो गई।

8. विद्युत उत्पादन क्षमता- योजनाकाल में विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। अगस्त 2004 ई० के आँकड़ोंके अनुसार उत्तर प्रदेश में विद्युत की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत केवल 188 यूनिट है, जो राष्ट्रीय औसत का 50 प्रतिशत है। सन् 2012 ई० की समाप्ति तक नाभकीय विद्युत उत्पादन 10 हजार मेगावाट होने की सम्भावना है।

9. बैंकिग संरचना- प्रथम योजना के आरम्भ  में देश में बैंकिग क्षेत्र अपर्याप्त और असन्तुलित था, परन्तु योजनाकाल में और विशेष रूप से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् देश की बैंकिग संरचना में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। 30 जून, 1969 ई० को व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 8,262 थी, जो कि 31 मार्च, 2009 ई० में बढ़कर 80,547 हो गई।

10. स्वास्थ्य सुविधाएँ- योजनाकाल में देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई। टी० बी०, कुछ महामारियों आदि के उन्मूलन तथा परिवार कल्याण कार्यक्रमों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई।

11. आयात एवं निर्यात- केन्द्र सरकार ने 31 अगस्त, 2004 ई० को विदेशी नीति 2004-09 ई० की घोषणा कर दी है। वर्ष 2010-11 ई० में भारत का निर्यात 11,42,649 करोड़ रुपए तथा आयात 16,83,467 करोड़ रुपए रहा।

पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा भारत का आधुनिकीकरण- आधुनिककरण के क्षेत्र में प्रमुख उपलब्धियों को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

1. कृषि का आधुनिकीकरण- भारत एक कृषि प्रधान देश है; अत: कृषि-संरचना में व्यापक सुधार एवं आधुनिकीकरण पर विशेष ध्यान दिया गया। योजनाकाल में भूमिसुधार कार्यक्रमों का विस्तार किया गया है। रासायनिक खाद व उन्नत बीजों का प्रयोग भी बढ़ा है। कृषि क्षेत्र में आधुनिक कृषि-यन्त्रों एवं उपकरणों को प्रोत्साहन मिला है। इसके अतिरिक्त, सिंचाई सुविधाओं में भी पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हुई है। कृषि उपजों की विपणन व्यवस्था तथा कृषि वित्त-व्यवस्था में भी उल्लेखनीय सुधार हुए हैं।

2. राष्ट्रीय आय की संरचना में परिवर्तन- राष्ट्रीय आय की संरचना में योजनाकाल में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। राष्ट्रीय आय में प्राथमिक क्षेत्र का अनुपात निरन्तर घट रहा है, जबकि द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र का अनुपात निरन्तर बढ़ रहा है।

3. औद्योगिक संरचना में परिवर्तन- योजनाकाल में औद्योगिक संरचना में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हुए है। आधारभूत एवं पूँजीगत उद्योगों की स्थापना की गई है, सार्वजनिक उपक्रमों की संख्या में वृद्धि हुई है, उद्योगों का विविधीकरण हुआ है। तथा उत्पादन तकनीक में व्यापक सुधार हुआ है।

4. बैंकिग संरचना में परिवर्तन- योजनाकाल में बैंकिग व्यवस्था को सुव्यवस्थित, सुगठित एवं विस्तृत किया गया है। ग्रामीण और बैंकरहित क्षेत्रों में बैंकिग सुविधाओं का विस्तार किया गया है, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई है, बैंक साख के वितरण में व्यापक सुधार तथा बैंकिग सुविधाओं में गुणात्मक परिवर्तन किए गए हैं।

  • आत्मनिर्भरता- हमारा देश आर्थिक नियोजन के काल में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हुआ है। पहले जिन वस्तुओं का आयात किया जाता था, आज वे वस्तुएँ हमारे ही देश में निर्मित होने लगी हैं तथा उनका निर्यात भी किया जा रहा है। देश में भारी मशीनें व विद्युत उपकरण आदि भी पर्याप्त मात्रा में तैयार होने लगे हैं। खाद्यान्नों के सम्बन्ध में देश आत्मनिर्भरता प्राप्त कर चुका है। विदेशी सहायता भी पहले की अपेक्षा कम ही ली जा रही है।
  • सामाजिक न्याय- योजनाकाल में सामाजिक न्याय की दृष्टि से मुख्य रूप से दो पहलुओं पर ध्यान दिया गया है- प्रथम, समाज के निर्धन वर्ग के जीवन-स्तर में सुधार किया जाए तथा द्वितीय, धन एवं सम्पत्ति के वितरण में समानता लाई जाए। इस दृष्टि से विभिन्न प्रेरणात्मक एवं संवैधानिक उपाय किए गए हैं, यद्यपि उनसे आशातीत परिणामो की प्राप्ति तो नहीं हो पाई है, परन्तु कुछ सुधार अवश्य हुए हैं।उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत का विकास वास्तविक रूप से पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा आरम्भ हुआ।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उतर.
संविधान एक महत्वपूर्ण प्रलेख है, जिसमें ऐसे नियमों का संग्रह होता है जिसके आधार पर किसी देश का शासन संचालित होता
है। संविधान किसी देश में दीपशिखा का काम करता है, जिसके प्रकाश में देश का शासन संचालित होता है। भारत के संविधान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. संविधान की प्रस्तावना-
प्रत्येक देश के संविधान के प्रारम्भ में सामान्यतया एक प्रस्तावना होती है, जिसमें संविधान के 
मूल उद्देश्यों व लक्ष्यों को स्पष्ट किया जाता है। वास्तव में, प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होता है। बल्कि इसके द्वारा संविधान के स्वरूप का आभास हो जाता है। वस्तुतः इस प्रस्तावना में भारतीय संविधान का मूल दर्शन निहित है। संविधान के 42 वें संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष तथा अखण्डता शब्द जोड़कर इसकी गरिमा को और भी अधिक बढ़ा दिया गया है।

2. लिखित, निर्मित और विस्तृत संविधान- भारतीय संविधान अनेक प्रगतिशील देशों कनाडा, फ्रांस, अमेरिका आदि की भाँति एक लिखित संविधान है। इसका निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था। यह विश्व का सबसे बड़ा संविधान है। डॉ० जेनिंग्स के अनुसार, “भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा, विशाल और व्यापक संविधान है।

3. सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य- संविधान की प्रस्तावना में भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया है। सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न का अर्थ है कि भारत अब बाह्य एवं आन्तरिक क्षेत्र में सभी प्रकार से पूर्ण स्वतन्त्र है। भारतवर्ष में लोकतन्त्रात्मक शासन भी है।

4. संघात्मक संविधान- संविधान द्वारा भारत में संघात्मक शासन की स्थापना की गई है। संविधान के अनुसार, भारत राज्यों का एक संघ है।” अत: इसमें संघात्मक संविधान के सभी तत्व विद्यमान हैं। यद्यपि संविधान का ढाँचा संघात्मक बनाया गया है, परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है, क्योंकि संविधान में अनेक ऐसे एकात्मक तत्व विद्यमान हैं जो एकात्मक शासन-व्यवस्था में ही पाए जाते हैं।

5. धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना- संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया है। धर्मनिरपेक्ष का तात्पर्य है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा। जनता के लोग अपना धर्म चुनने या धर्म परिवर्तन करने के लिए स्वतन्त्र होंगे, और किसी भी पूजा-पद्धति को अपना सकेंगे।

6. संसदात्मक शासन-प्रणाली- भारत ने संसदात्मक प्रणाली को अपनाया है। इसमें शासन करने की वास्तविक शक्ति राष्ट्रपति में नहीं अपितु उसके द्वारा नियुक्त मन्त्रिपरिषद् में हित होती है।

7. राज्य के नीति-निदेशक तत्व- ये तत्व सरकार को दिशा-निर्देश देने और उसका मार्गदर्शन करने वाले बिन्दु हैं, जिनका अनुसरण करना प्रजातान्त्रिक सरकारों का दायित्व होता है। ये नीति-निदेशक तत्व आयरलैण्ड के संविधान से ग्रहण किए गए हैं।

8. नागरिकों के मूल अधिकार- भारत के संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों की समुचित रूप से व्यवस्था की गई है। न्यायपालिका (उच्चतम न्यायालय) को इनका संरक्षक बनाया गया है, परन्तु ये अधिकार पूर्णतया असीमित तथा अनियन्त्रित नहीं हैं। संविधान द्वारा नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे, परन्तु 44 वें संविधान संशोधन  द्वारा ‘सम्पत्ति के अधिकार’ को मौलिक अधिकार की श्रेणी से अलग कर दिया गया है और अब सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार रह गया है। इस प्रकार नागरिकों को अब छह मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

9. मूल कर्तव्यों का वर्णन- मूल कर्तव्यों की धारणा भारत के संविधान में पूर्व सोवियत संघ के संविधान से ली गई है। इनमें नागरिकों से अपील की गई है कि वे संविधान का पालन करें, देश की रक्षा करें, राष्ट्र-सेवा करें, हिंसा से दूर रहें तथा सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखें आदि।

10. अस्पृश्यता का अन्त- संविधान के भाग III अनुच्छेद 17 के आधार पर अस्पृश्यता का अन्त कर दिया गया है। अत: अब छुआछूत की दूषित मनोवृत्ति पर आधारित आचरण करने वाला व्यक्ति अपराधी समझा जाएगा और दण्ड का भागीदार होगा। इस प्रकार संविधान ने देश में सामाजिक समानता स्थापित करने का प्रयत्न किया है।

11. महिलाओं को समान अधिकार- भारतीय संविधान ने नारियों को पुरुषों के समान आदर व सम्मान प्रदान किया है। उन्हें वे समस्त अधिकार प्रदान किए गए हैं, जो पुरुषों को प्राप्त हैं। ऊँचे पदों पर काम करने, मतदान करने, स्वयं चुनाव लड़ने आदि कई अधिकार संविधान ने उन्हें प्रदान किए हैं। सार्वभौमिक अथवा वयस्क मताधिकार- भारतीय संविधान के 61 वें संविधान संशोधन के अनुसार 18 वर्ष की आयु प्राप्त नागरिकों को बिना जाति, धर्म, लिंग, वर्ण के भेदभाव के मतदान का अधिकार प्रदान किया गया है। स्वतन्त्र, निष्पक्ष एवं शक्तिसम्पन्न न्यायपालिका- संविधान में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है, जो संविधान के रक्षक के रूप में कार्य करता है। स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्याय के लिए न्यायपालिका को कार्यपालिका के नियन्त्रण से मुक्त रखा गया है।

12.संकटकालीन उपबन्ध- भारतीय संविधान में कुछ आपातकालीन नियम भी उल्लिखित हैं, जिनके आधार पर संकटकाल में समस्त शक्तियाँ केन्द्र के पास आ जाती हैं अर्थात् संघीय शासन एकात्मक शासन में परिवर्तित हो जाता है। इससे देश की असामान्य स्थिति पर शीघ्र नियन्त्रण कर लिया जाता है। कठोर एवं लचीले संविधान का सम्मिश्रण- भारतीय संविधान कठोर तथा लचीलेपन का सुन्दर समन्वय है। भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं, जिनमें अकेले संसद साधारण कानून की भाँति ही संशोधन कर सकती है तथा कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं, जिनमें संशोधन करने के लिए संसद के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ राज्यों के कम-से-कम आधे विधानमण्डलों की सहमति भी आवश्यक है।

13. विश्व- शान्ति व सार्वभौमिक मैत्री का पोषक- संविधान के 51 वें उपबन्ध के अन्तर्गत यह भी उल्लेख किया गया है कि भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों के साथ सह-अस्तित्व की भावना रखते हुए विश्व-शान्ति और सुरक्षा में सकारात्मक सहयोग देगा।

14.अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की पूरी सुरक्षा- संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों तथा जनजातियों और आदिवासियों की उन्नति हेतु भी विशेष संवैधानिक व्यवस्थाएँ की गई हैं। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों तथा जनजाति के नागरिकों को सेवाओं, विधानसभाओं तथा अन्य क्षेत्रों में विशेष संरक्षण प्रदान किया गया है।

15. कानून का शासन- भारत के संविधान में कानून के शासन की व्यवस्था की गई है। विधि के शासन की अवधारणा ग्रेट ब्रिटेन के संविधान से ली गई है। भारत में कानून के समक्ष सभी नागरिक एकसमान हैं। कानून व दण्ड विधान की पद्धति सभी के लिए एक जैसी है।

16. बहुदलीय संसदीय व्यवस्था- भारत ने द्वि-दलीय पद्धति अथवा एकल-पद्धति को न अपनाकर बहुदलीय पद्धति पर आधारित संसदीय व्यवस्था को अपनाया गया है। बहुदलीय व्यवस्था होने के कारण संसद में समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं तथा जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए अनेक विकल्प भी मिलते हैं।

प्रश्न 6.
देशी रियासतों ( रजवाड़ों ) के एकीकरण में सरदार पटेल की उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
उतर.
देशी रियासतों का एकीकरण- स्वतन्त्र होने के उपरान्त भारत की सरकार के सामने देशी रियासतों को भारत संघ में विलय करने की गम्भीर चुनौती थी। भारत में 600 से अधिक रियासतें विद्यमान थीं। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए इन सबका भारत संघ में विलय होना आवश्यक था। देशी रियासतों के एकीकरण में सरदार पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
1. रियासतों के विलय के लिए मन्त्रालय की स्थापना- सरदार पटेल के सुझाव पर एक रियासती मन्त्रालय बनाया गया। 
सरदार पटेल को ही इस विभाग का मन्त्री बनाया गया। सरदार पटेल बड़ी सूझ-बूझ के साथ देशी रियासतों के विलय के कार्य का संचालन किया।

2. रियासतों को भारत में विलय- उपप्रधानमंत्री एवं रियासती मन्त्रालय के मन्त्री की हैसियत से सरदार पटेल ने रियासतों से भारत संघ में अपना विलय करने की अपील की और इस मार्मिक अपील का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। देशी राजाओं ने भी राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव किया। अतः 15 अगस्त, 1947 ई० को जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ सहित 562 रियासतों ने भारतीय संघ में विलय की घोषणा कर दी। ये रियासतें भारतीय संघ में विलीन हो गईं। जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर का भारत में विलय प्रमुख कठिनाइयों के रूप में उभरकर सामने आया। जूनागढ़ एक छोटी रियासत थी और यहाँ नवाब का शासन था। यहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू थी और वह जूनागढ़ का भारत में विलय  करने के पक्ष में थी, जबकि नवाब जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था।

जब नवाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा की तो वहाँ की जनता ने इसका विरोध किया। इसी समय सरदार पटेल ने जूनागढ़ की जनता की सहायता के लिए सेना भेज दी। भारतीय सेना से भयभीत होकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। फरवरी 1948 ई० में जनमत संग्रह के आधार पर जूनागढ़ का भारत में विलय कर लिया गया। जूनागढ़ के समान हैदराबाद की जनता भी हैदराबाद रियासत का भारत में विलय कराना चाहती थी। इसके विपरित, हैदराबाद का निजाम हैदराबाद को एक स्वतन्त्र राज्य बनाए रखना चाहता था।

परिणामत: हैदराबाद की जनता ने निजाम के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। निजाम ने जनता पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। इसी समय सरदार पटेल ने हैदराबाद की जनता का रुख भारत की ओर देखकर 13 सितम्बर, 1948 ई० को वहाँ पुलिस कार्यवाही के द्वारा हैदराबाद का भारत में विलय करा लिया। कश्मीर के राजा हरिसिंह पहले सम्मिलित होने में हिचकिचाते रहे, लेकिन बाद में पाकिस्तानी आक्रमण से विचलित होकर उन्होंने भी भारतीय संघ में मिलने की घोषणा कर दी। भारतीय सेना ने उन्हें तुरन्त संरक्षण देना स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 7.
स्वतन्त्र भारत की तात्कालिक समस्याओं पर एक विस्तृत लेख लिखिए।
उतर.
भारत की स्वतन्त्रता के साथ ही कठिनाइयों व कष्टों का काल भी प्रारम्भ हो गया था। देश के विभाजन के बाद दंगों, हत्याओं व लूटमार का भयंकर दौर प्रारम्भ हुआ। तत्कालीन भारत में देशी रियासतों की संख्या 600 से अधिक थी। विभाजन की त्रासदी के कारण लाखों की संख्या में शरणार्थी, रियासतों के रूप में बिखरा हुआ अज्ञात भारत का ढाँचा, जर्जर अर्थव्यवस्था, अस्थिर राजनीति यह सब भारत को विरासत के रूप में मिला। परन्तु तत्कालीन भारत के महापुरूषों व राजनीति-वेत्ताओं के अथक परिश्रम ने इन सभी समस्याओं से लोहा लिया और उन्हें एक-एक करके सुलझाना आरम्भ कर दिया। स्वतन्त्र भारत की प्रमुख तात्कालिक समस्याएँ निम्नवत थीं
(1) राजनीतिक एकीकरण- स्वतन्त्रता के पूर्व भारत में लगभग 600 से अधिक देशी रियासतें थीं। स्वतन्त्र होने के उपरान्त 
भारत की सरकार के सामने देशी रियासतों को भारत संघ में विलय कराने की गम्भीर चुनौती थी। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए इन सबको भारत संघ में विलय होना आवश्यक था।। ये रियासतें सम्पूर्ण भारत के क्षेत्रफल का 48 प्रतिशत और जनसंख्या का 20 प्रतिशत थीं। यद्यपि ये रियासतें अपने आन्तरिक मामलों में स्वतन्त्र थीं, किन्तु वास्तविक रूप में इन सभी रियासतों पर अंग्रेजी शासन का नियन्त्रण स्थापित था। भारतीय देशी रियासतों में राजकीय जागरण 1921 ई० में प्रारम्भ हुआ। सरदार पटेल के सुझाव पर एक ‘रियासती मन्त्रालय बनाया गया। सरदार पटेल को ही इस विभाग का मन्त्री बनाया गया।

सरदार पटेल ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ देशी रियासतों के विलय के कार्य का संचालन किया। 1926 ई० में अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा परिषद् का जन्म हुआ, जिसका पहला अधिवेशन एलौट के प्रसिद्ध नेता दीवान बहादुर एम० रामचन्द्र राय की अध्यक्षता में 1927 ई० में हुआ। 1934 ई० में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने रियासतों में उत्तरदायी शासन की बात कही। 1935 ई० के अधिनियम में देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ बनाने की बात कही गई। 1936 ई० के बाद देशी रियासतों में जन आन्दोलन तेजी से बढ़ा। कैबिनेट मिशन, एटली की घोषणा और लॉर्ड माउण्टबेटन की योजना में देशी राजाओं के बारे में विचार रखे गए और प्राय: कहा गया कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद वे स्वतन्त्र होंगे। अपनी इच्छानुसार वे भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित हों अथवा स्वतन्त्र रहें।

उपप्रधानमन्त्री एवं रियासती मन्त्रालय के मन्त्री की हैसियत से सरदार पटेल ने रियासतों से भारत संघ में अपना विलय करने की अपील की और इस मार्मिक अपील का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। देशी राजाओं ने भी राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव किया। अतः 15 अगस्त, 1947 ई० को जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर को छोड़कर छत्तीसगढ़ सहित 562 रियासतों ने भारतीय संघ में विलय की घोषणा कर दी। सरदार वल्लभ भाई पटेल की कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि उन्होंने इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया।

हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर का भारत में विलय प्रमुख कठिनाइयों के रूप में उभरकर सामने आया। जूनागढ़ एक छोटी सी रियासत थी और यहाँ नवाब का शासन था। यहाँ की अधिकांश जनता हिन्दू थी और वह जूनागढ़ का भारत में विलय करने के पक्ष में थी, जबकि नवाब जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। जब नवाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा की तो वहाँ की जनता ने इसका विरोध किया। इसी समय सरदार पटेल ने जूनागढ़ की जनता की सहायता के लिए सेना भेज दी। भारतीय सेना से भयभीत होकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। फरवरी 1948 ई० में जनमत संग्रह के आधार पर जूनागढ़ का भारत में विलय कर लिया गया।

हैदराबाद की जनता भी जूनागढ़ के समान ही हैदराबाद को भारत में सम्मिलित करना चाहती थी, जबकि निजाम सीधे ब्रिटिश साम्राज्य से साँठगाँठ कर एक स्वतन्त्र राज्य का स्वप्न देख रहा था। उसकी पाकिस्तान से भी गुप्त वार्ताएँ चल रही थीं। अक्टूबर, 1947 में उसके साथ एक विशेष समझौता किया गया, जिसमें उसे एक वर्ष तक यथावत् स्थिति की बात कही गई, लेकिन उस पर किसी भी प्रकार की सैन्य वृद्धि या बाहरी मदद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। निजाम की कुटिल चालें चलती रहीं। उसने पाकिस्तान से हथियार मँगवाए तथा रजाकारों की मदद से मनमानी करनी चाही। परिणामतः हैदराबाद की जनता ने निजाम के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। निजाम ने जनता पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। इसी समय

सरदार पटेल ने हैदराबाद की जनता का रुख भारत की ओर देखकर सितम्बर 1948 में निजाम को चेतावनी दी। निजाम के न मानने पर 13 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद में कार्यवाही की गई और पाँच दिन में न केवल रजाकारों को खदेड़ दिया गया, बल्कि निजाम ने भी विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। 18 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। कश्मीर के भारत में विलय पर भी पाकिस्तान से संघर्ष की स्थिति बनी। प्रारम्भ में कश्मीर के राजा हरिसिंह कश्मीर के भारत में सम्मिलित होने में असमंजस की स्थिति में थे। जून, 1947 में माउण्टबेटन कश्मीर गए और उन्होंने वहाँ के महाराजा हरिसिंह से विलय के बारे में शीघ्र आत्मनिर्णय पर जोर दिया और जनमत संग्रह की बात भी कही। महात्मा गाँधी भी महाराजा से मिले, परन्तु अगस्त, 1947 में पाकिस्तानियों ने कबाइलियों के वेश में जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ करनी प्रारम्भ की। पाकिस्तान द्वारा आक्रमण किए जाने से विचलित होकर उन्होंने भी भारतीय संघ में मिलने की घोषणा कर दी।

भारतीय सेना ने उन्हें तुरन्त संरक्षण देना स्वीकार कर लिया। महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर को अपने प्रधानमन्त्री मेहरचन्द महाजन को विलय के पत्रों पर हस्ताक्षर करने दिल्ली भेजा। ये पत्र स्वीकृत कर लिए गए, लेकिन इसी बीच 21-22 अक्टूबर, 1947 को पाकिस्तान ने पठान कबाइलियों सहित कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। 26 अक्टूबर को कश्मीर के महाराजा के कहने पर भारतीय सेनाओं ने 27 अक्टूबर को पाकिस्तान के आक्रमणकारियों को रोका और उन्हें पीछे खदेड़ते हुए जवाबी कार्यवाही की। भारत के प्रधानमन्त्री पं० नेहरू ने पाकिस्तान की इस घुसपैठ के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में अपील की। सुरक्षा परिषद् ने सोच-विचार में लम्बा समय लिया।

13 अगस्त, 1948 को दोनों सेनाओं को युद्धविराम करने, अपनी-अपनी सेनाएँ हटाने और जनमत संग्रह करने को कहा। अभी तक भी कश्मीर की एक तिहाई भूमि पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है। अर्द्धशताब्दी से अधिक गुजर जाने के पश्चात् भी कश्मीर को लेकर आज भी दोनों में विवाद बना हुआ है। 1954 ई० तक विदेशी फ्रांसीसी उपनिवेशों पाण्डिचेरी, कराईकल, यमन, माही तथा चन्द्रनगर को भारत संघ में शामिल कर लिया गया। गोवा, दमन व दीव जिन पर पुर्तगालियों का प्रभुत्व था, सैनिक कार्यवाही द्वारा 1961 ई० में भारत संघ में सम्मिलित किए जा सके। दादर व नगर हवेली के दोनों स्थलों को जनता ने 1954 में पुर्तगालियों से स्वतन्त्र कराया, लेकिन ये भारत संघ का अंग न बन सके। 1961 तक यहाँ ‘स्वतन्त्र दादर व नगर हवेली प्रशासन ने कार्यभार सँभाला। 11 अगस्त, 1961 को ये दोनों स्थल भारत के केन्द्रशासित प्रदेश बने।

(2) हिन्दू-मुस्लिम दंगे और विस्थापितों की समस्या- भारत के विभाजन से जनसंख्या में हुई अदला-बदली विश्व इतिहास में एक अनूठी और वीभत्स घटना थी। दुनिया के इतिहास में कभी भी जनसंख्या की इतनी बड़ी अदली-बदली पहले कभी नहीं हुई थी। इससे पूर्व 1923 ई० में लोसान की सन्धि में ग्रीक व टर्की में जनसंख्या में अदला-बदली हुई थी, जो लगभग एक लाख पच्चीस हजार की थी और जिसे बदलने में 18 महीने लगे थे, जबकि भारत-पाकिस्तान में लगभग एक करोड़ बीस लाख जनसंख्या का आवागमन हुआ और यह केवल तीन महीने में किया गया। एक अन्य आँकड़े के अनुसार 49 लाख भारतीय पश्चिमी पाकिस्तान से और 25 लाख पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से उजड़कर भारत आए। स्वभावत: इस जनसंख्या की अदली-बदली में भयंकर रक्तपात, खून-खराबा और साम्प्रदायिक दंगे हुए। सामूहिक हत्याएँ, लूट, अपहरण, बलात्कार की हजारों घटनाएँ हुईं। बंगाल में नोआखाली, यूनाइटेड प्रोविंसेस में गढ़मुक्तेश्वर और पंजाब में लाहौर, रावलपिण्डी, मुल्तान, अमृतसर तथा गुजरात में भयंकर लूटमार हुई, अनेक लोग मारे गए। इसके अतिरिक्त 150 करोड़ से अधिक की सम्पत्ति की हानि हुई।

3. जर्जर आर्थिक व्यवस्था- अंग्रेजों ने लगभग दो सौ साल बाद अगस्त, 1947 में भारत छोड़ा। इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था निरन्तर उपेक्षा की शिकार रही थी। शताब्दियों से चले आ रहे आर्थिक शोषण व लूट के कारण भारत की आर्थिक व्यवस्था पहले से ही जर्जर अव्यवस्था में थी, पाकिस्तान के निर्माण के कारण भारत अनेक प्राकृतिक संसाधनों से वंचित हो गया। भारत एक निर्धन देश बन गया और इसकी प्रति व्यक्ति आय विश्व के निम्नतम के समतुल्य हो गई। इसे 1948 ई० में 246 रुपए प्रति व्यक्ति माना गया है, जो ब्रिटेन की आय का कुल 10 प्रतिशत और अमेरिका का केवल 5 प्रतिशत थी।। पाकिस्तान के निर्माण से भारत में आर्थिक असन्तुलन उत्पन्न हो गया। भारतीय उद्योग, कृषि व व्यापार इस विभाजन के कारण अत्यधिक प्रभावित हुए। आर्थिक क्षेत्र के असन्तुलित विभाजन के कारण भारत में कच्चे माल की कमी हो गई, जिससे वस्त्र उद्योग ठप्प और अन्न की कमी हो गई।

1947-48 ई० के भारत-पाक संघर्ष ने भारतीय व्यापार को भी बुरी तरह प्रभावित किया। विस्थापितों के आर्थिक झगड़ों ने इसमें और कटुता ला दी। इस काल में उद्योगों के उत्पादन में लगभग 30 प्रतिशत की कमी हो गई। उत्पादन कम होने से बेकारी और बेरोजगारी तेजी से बढ़ी। भारत की आर्थिक नीति की घोषणा 1948 ई० में की गई थी, इस नीति में कई योजनाएँ रखी गई। श्री जय प्रकाश नारायण द्वारा जनवरी, 1950 ई० में ‘सर्वोदय योजना की घोषणा की गई, जिसका उद्देश्य अहिंसा द्वारा शोषणरहित समाज का निर्माण करना बताया गया। इस योजना आयोग के अध्यक्ष पं० जवाहरलाल नेहरू थे। 1 अप्रैल, 1951 ई० से 31 मार्च 1956 ई० तक के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना बनी। वर्तमान में बारहवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है, ऐसी 11 योजनाएँ अब तक पूर्ण हो चुकी हैं।

प्रश्न 8.
“सरदार वल्लभभाई पटेल भारतीय गणतन्त्र के सफल निर्माता थे।” इस कथन के आलोक में उनके द्वारा देशी राज्यों के भारतीय राष्ट्र में विलय के प्रयासों का वर्णन कीजिए।
उतर.
स्वतन्त्र भारत के पहले तीन वर्ष सरदार पटेल उप-प्रधानमन्त्री, गृह मन्त्री, सूचना मन्त्री और राज्य मन्त्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर  
उनकी ख्याति भारत के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीके से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है। 5 जुलाई, 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि- “धीरे-धीरे बहुत-सी देशी रियासतों के शासक भोपाल के नवाब से अलग हो गये और इस तरह नवस्थापित रियासती विभाग की योजना को सफलता मिली। भारत के तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया, जो स्वयं में सम्प्रभुता प्राप्त थीं। उनका अलग झंडा और अलग शासक था।

सरदार पटेल ने आज़ादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही पी.वी.मेनन के साथ मिलकर कई देशी राज्यों को भारत में मिलाने के लिए कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देशी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन रियासतें- हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष सभी राजवाड़ों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें ‘भारत संघ’ में सम्मिलित हो चुकी थीं, जो भारतीय इतिहास की एक बड़ी उपलब्धि थी। जूनागढ़ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और इस प्रकार जूनागढ़ भी भारत में मिला लिया गया।

जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को वैचारिक एवं क्रियात्मक रूप में एक नई दिशा देने के कारण सरदार पटेल ने राजनीतिक इतिहास में एक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। वास्तव में वे आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उनके कठोर व्यक्तित्व में विस्मार्क जैसी संगठन कुशलता, कौटिल्य जैसी राजनीति सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन जैसी अटूट निष्ठा थी। जिस अदम्य उत्साह असीम शक्ति से उन्होंने नवजात गणराज्य की प्रारम्भिक कठिनाइयों का समाधान किया, उसके कारण विश्व के राजनीतिक मानचित्र में उन्होंने अमिट स्थान बना लिया। भारत के राजनीतिक इतिहास में सरदार पटेल के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। सरदार पटेल के ऐतिहासिक कार्यों और किये गये राजनीतिक योगदान निम्नवत् हैंद्वीपसमूह भारत के साथ मिलाने में भी पटेल की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

इस क्षेत्र के लोग देश की मुख्यधारा से कटे हुए थे और उन्हें भारत की आजादी की जानकारी 15 अगस्त, 1947 के कई दिनों बाद मिली। हालांकि यह क्षेत्र पाकिस्तान के नजदीक नहीं था, लेकिन पटेल को लगता था कि इस पर पाकिस्तान दावा कर सकता है। इसलिए ऐसी किसी भी स्थिति को टालने के लिए पटेल ने लक्षद्वीप में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए भारतीय नौसेना का एक जहाज भेजा। इसके कुछ घंटे बाद ही पाकिस्तान नौसेना के जहाज लक्षद्वीप के पास मंडराते देखे गए, लेकिन वहाँ भारत का झंडा लहराते देख उन्हें वापिस कराची लौटना पड़ा।

प्रश्न 9.
भारत प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है”इस तथ्य की समीक्षा कीजिए।
उतर.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना से यह बात स्पष्ट रूप से घोषित की गई है कि भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक, धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य है। इसका अर्थ यह है कि अब भारत पर्ण रूप से स्वतन्त्र है और वह किसी भी बह्य सत्ता के अधीन नहीं है। सम्पूर्ण भारतीय जनता ही शक्ति का स्रोत है। इसका विवेचन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है

1. सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न- हमारे संविधान में यह पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि भारत अपने आन्तरिक तथा बाह्य दोनों क्षेत्रों में
पूर्णतया स्वतन्त्र है। वह किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि को मानने के लिए बाध्य नहीं है। भारतीय संविधान में कहीं भी ब्रिटिश शासन का उल्लेख नहीं है। यद्यपि भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य है, किन्तु वह अपनी इच्छानुसार उससे पृथक भी हो सकता है। श्री जी० एन० जोशी के अनुसार, “भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य इसलिए बना है, क्योंकि ऐसा करना उसके हित तथा लाभ में है।

2. लोकतान्त्रिक- भारतीय संविधान के अनुसार भारतीय शासन लोकतन्त्रात्मक है। समस्तमहत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर अन्तिम निर्णय जनता का होगा। शासन की वास्तविक शक्ति जनता में निहित है। भारत की स्वर्गीया प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गाँधी ने पुनः सत्ता में आने के बाद कहा था, “लोकतन्त्र हमारे लिए केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन है। लोकतन्त्र सिर्फ बहुमत के लिए नहीं सभी के लिए है। आज लोकतन्त्र को बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय से बढ़कर सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय तक ले जाना है।”

3. धर्मनिरपेक्ष- भारत में सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गयी। राज्य किसी विशेष धर्म का संरक्षण नहीं करता, अपितु उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। संविधान संशोधन द्वारा इसे और स्पष्ट कर दिया है।

4. समाजवादी- कांग्रेस का उद्देश्य प्रारम्भ से ही भारत में समाजवाद की स्थापना करना रहा है। उसका उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता पर आधारित समाजवादी समाज की रचना के लिए प्रयत्नशील रहना पड़ा है। संविधान के निर्माताओं का अभिप्राय था कि भारतीय समाज की परम्परागत विषमताओं को दूर करके आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समता के आधार पर एक प्रगतिशील समाज की स्थापना करें। विषमताओं तथा शोषण से मुक्ति का एकमात्र उपाय समाजवादी समाज की स्थापना भी हो सकता है। संविधान में प्रयुक्त समाजवादी एवं धर्मनिरपेक्ष राज्य का यही अर्थ है। भारतीय संविधान में समाजवाद शब्द के साथ लोकतन्त्रात्मक शब्द को भी रखा गया है। इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान एक लोकतान्त्रिक समाजवाद की परिकल्पना करता है।

(5) गणराज्य- भारतीय राज्य गणराज्य इसलिए है, क्योंकि भारत का प्रावधान वंशानुगत शासन नहीं है, अपितु वह अप्रत्यक्ष | रूप से जनता द्वारा निर्वाचित राष्ट्रपति है। वह जनता के प्रतिनिधि मन्त्रिमण्डल के परामर्श से शासन करता है। जनता के प्रतिनिधियों को समस्त शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name परिचयात्मक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi परिचयात्मक निबन्ध

परिचयात्मक निबन्ध

एक महापुरुष की जीवनी (राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी)

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरा प्रिय राजनेता
  • मेरा आदर्श पुरुष
  • वर्तमान युग में गाँधीवाद की प्रासंगिकता
  • हमारे आदर्श महापुरुष

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. जीवनवृत्त,
  3. गाँधी जी के सिद्धान्त-(अ) अहिंसा (व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा, राजनीति में अहिंसा); (ब) शिक्षा-सम्बन्धी सिद्धान्त,
  4. राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक,
  5. कुटीर उद्योग पर बल,
  6. प्रेरणादायक गुण,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-मानव-जीवन एक रहस्य है। इसके रहस्य अनेक बार मनुष्य को उस मोड़ पर ला खड़ा करते हैं, जहाँ वह किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में होता है। उसे कुछ सूझता ही नहीं। ऐसी स्थिति में ‘महाजनो येन गताः स पन्था’ के अनुरूप व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। जीवन की ऐसी उलझनों से सुलझने के लिए जिस महापुरुष ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया; उसका नाम है—मोहनदास करमचन्द गाँधी। यही मेरे आदर्श पुरुष हैं। इनके बाह्य व आन्तरिक व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त जी लिखते हैं

तुम मांसहीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थिशेष ! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवले,
हे चिर पुराण ! हे चिर नवीन !

यद्यपि बाह्य रूप से देखने में गाँधी जी अस्थियों का ढाँचामात्र ही लगते थे, किन्तु उनमें आत्मिक बल अमित था। वस्तुत: राजनीति जैसे स्थूल और भौतिकवादी क्षेत्र में उन्होंने आत्मा की आवाज पर बल दिया, नैतिकता का प्रतिपादन किया तथा साध्य के साथ साधन की शुद्धता को भी आवश्यक ठहराया। विश्व-राजनीति को यह उनका विशिष्ट योगदान था, जिससे प्रेरणा लेकर कई पराधीन देशों में स्वातन्त्र्य-आन्दोलन चलाये गये और स्वतन्त्रता प्राप्त की गयी।

जीवनवृत्त-मोहनदास करमचन्द गाँधी को जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को पोरबन्दर (गुजरात) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री करमचन्द गाँधी तथा माँ का नाम श्रीमती पुतलीबाई था। करमचन्द गाँधी पोरबन्दर रियासत के दीवान थे। सात वर्ष की अवस्था में मोहनदास करमचन्द गाँधी एक गुजराती पाठशाला में पढ़ने गये। बाद में अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए, जहाँ से उन्होंने अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत तथा धार्मिक ग्रन्थों का भी अध्ययन किया। इण्ट्रेन्स की परीक्षा पास करने के उपरान्त ये विलायत चले गये।।

भारत लौटने पर गाँधी जी ने पहले राजकोट और फिर बम्बई में वकालत शुरू की। उन्हें सेठ अब्दुल्ला फर्म के एक हिस्सेदार के मुकदमे को लेकर दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ पग-पग पर रंगभेद-नीति के फलस्वरूप भारतीयों का अपमान देखकर तथा स्वयं आप बीते कठोर अनुभवों के आधार पर उन्होंने रंगभेद-नीति को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। प्रिटोरिया में भारतीयों की पहली सभा में गाँधी जी ने भाषण दिया और यहीं से इनके सार्वजनिक जीवन का आरम्भ हुआ। सन् 1896 ई० में गाँधी जी भारत आये और सपरिवार पुन: अफ्रीका लौट गये। लौटने पर उन्हें गोरों का विशेष विरोध सहना पड़ा, परन्तु गाँधी जी ने साहस न छोड़ा और कई आन्दोलनों का संचालन करते रहे। सेवा में उनका अडिग विश्वास था। बोअर-युद्ध (सन् 1899 ई०) तथा जूलू-विद्रोह (सन् 1906 ई०) में स्वयंसेना स्थापित करके उन्होंने पीड़ितों की पर्याप्त सेवा की।

सन् 1914 ई० में वे भारत लौट आये। यहाँ आकर उन्होंने चम्पारन में किसानों पर किये जाने वाले अत्याचारों तथा कारखानों के कर्मचारियों पर मालिकों द्वारा की गयी ज्यादतियों का खुलकर विरोध किया और भारत के सार्वजनिक जीवन में पदार्पण किया। सन् 1924 ई० में वे बेलगाँव में कांग्रेस-अध्यक्ष चुने गये। सन् 1930 ई० में कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखा और इस आन्दोलन के समस्त अधिकार गाँधी जी को सौंप दिये। 4 मार्च, सन् 1931 ई० को गाँधी-इरविन समझौता हुआ। दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेन्स में कांग्रेस-प्रतिनिधि के रूप में गाँधी जी इंग्लैण्ड गये और अंग्रेज सरकार से स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता न मिली तो कांग्रेस का आन्दोलन भी जारी रहेगा।

अगस्त, सन् 1942 ई० में गाँधी जी ने भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित किया; जिससे देश में एक महान् आन्दोलन छिड़ा। गाँधी जी तथा अन्य नेता जेल में बन्द कर दिये गये। 1946 ई० के हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष में गाँधी जी ने नोआखाली की पैदल यात्रा की और वहाँ शान्ति स्थापित करने में सफल हुए। 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को भारत को स्वतन्त्रता मिली। देश में उत्पन्न अन्य समस्याओं को सुलझाने में गाँधी जी लगे ही थे कि सहसा 30 जनवरी, सन् 1948 ई० को वे शहीदों की परम्परा में चले गये।

गाँधी जी के सिद्धान्त-(अ) अहिंसा-गाँधी जी का सबसे प्रमुख सिद्धान्त था व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में अहिंसा का प्रयोग। अहिंसा आत्मा का बल है। वे अहिंसा का मूल प्रेम में मानते थे। वे लिखते हैं, “पूर्ण अहिंसा समस्त जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का पूर्ण अभाव है, इसलिए वह मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों-यहाँ तक कि विषैले कीड़ों और हिंसक जानवरों का भी आलिंगन करती है।’ उन्होंने बार-बार कहा है कि अहिंसा वीर का धर्म है, कायर का नहीं; क्योंकि हिंसा करने की पूरी सामर्थ्य रखते हुए भी जो हिंसा नहीं करता, वही अहिंसा-धर्म का पालन करने में समर्थ होता है।

(i) व्यक्तिगत एवं सामाजिक अहिंसा-अहिंसा का अर्थ है-प्रेम, दया और क्षमा। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी गाँधी जी ने इस सिद्धान्त को चरितार्थ करके दिखाया। वे जीव मात्र से प्रेम करते थे। दीनों और दलितों के लिए तो उनके प्रेम और करुणा की कोई सीमा ही न थी। वे इसे मानवता के प्रति घोर अपराध मानते थे कि किसी को नीचा या अस्पृश्य समझा जाए; क्योंकि भगवान् की दृष्टि में सारे प्राणी समान हैं। इसीलिए उन्होंने अछूतोद्धार का आन्दोलन चलाया, जिसे उन्होंने हरिजनोद्धार कहा। हिन्दू-समाज के प्रति यह उनकी बहुत बड़ी सेवा थी। उनके आन्दोलन के फलस्वरूप हरिजनों को मन्दिर में प्रवेश का अधिकार मिला।

उनकी दया-भावना ने उन्हें प्राणिमात्र की सेवा के लिए प्रेरित किया। परचुरे शास्त्री भयंकर कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। गाँधी जी ने उन्हें अपने साथ रखा। इतना ही नहीं, उनके घावों को भी वे स्वयं अपने हाथ से साफ करते थे। इससे उनकी परदुःख-कातरता एवं सेवा-भावना का पता चलता है। अपने साथियों का भी गाँधी जी बहुत ध्यान रखते थे। एक अवसर पर एक सज्जन आकर गाँधी जी को कुछ फल दे गये, जिनमें चीकू भी थे। गाँधी जी ने कुछ चीकू अपने एक साथी को देते हुए कहा, “इन्हें महादेव को दे आओ, उसे चीकू बहुत पसन्द हैं।’

अपने शत्रु को क्षमा करने की घटनाएँ तो उनके जीवन में भरी पड़ी हैं। उन्होने अपने आश्रम में साँप, बिच्छू आदि को भी मारना वर्जित कर दिया था। उन्हें पकड़कर दूर छोड़ दिया जाता था। एक बार एक साँप गाँधी जी के कन्धे पर चढ़ गया। उनके साथियों ने उनकी ओढ़ी हुई चादर समेत उसे खींचकर दूर ले जाकर छोड़ दिया। इस प्रकार गाँधी जी ने अपने जीवन में भी अहिंसा को चरितार्थ करके दिखाया।

(ii) राजनीति में अहिंसा-राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा के सिद्धान्त का व्यवहार उन्होंने तीन शस्त्रों के रूप में किया–सत्याग्रह, असहयोग और बलिदान। सत्याग्रह का अर्थ है–सत्य के प्रति आग्रह अर्थात् जो आदमी को ठीक लगे, उस पर पूरी शक्ति और निष्ठा से चलना, किसी के दबाव के आगे झुकना नहीं। असहयोग का अर्थ है-बुराई से, अन्याय से, अत्याचार से सहयोग न करना। यदि कोई सताये, अन्याय करे तो किसी भी काम में उसका साथ न देना। बलिदान का आशय है–सच्चाई के लिए, न्याय के लिए, अपने प्राण तक न्योछावर कर देना। इन तीनों हथियारों का प्रयोग गाँधी जी ने पहले दक्षिण अफ्रीका में किया, फिर भारत में।

(ब) शिक्षा-सम्बन्धी सिद्धान्त–शिक्षा से गाँधी जी का तात्पर्य बालक के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास से था। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं, “शिक्षा से तात्पर्य उन समस्त शक्तियों के दोहन से है, जो शिशु एवं मानव के शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा में निहित हैं। साथ ही उनके अनुसार, “कोई भी वह शिक्षा पूर्ण नहीं है, जो लड़के-लड़कियों को आदर्श नागरिक नहीं बनाती।’

गाँधी जी के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों का केन्द्रबिन्दु है-व्यवसाय और व्यवसाय से उनका आशय हस्तकला से है। वे लिखते हैं-मैं बालक की शिक्षा का आरम्भ किसी उपयोगी हस्तकला के शिक्षण से करूंगा, जिससे वह आरम्भ से ही अर्जन करने में समर्थ हो सके। इससे एक तो वह शिक्षा का व्यय वहन कर सकेगा और फिर वह अपने भावी जीवन में पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर भी हो सकेगा। इस प्रकार शिक्षा बेकारी दूर करने का एक प्रकार से बीमा है। वे विद्यालयों को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे, अर्थात् शिक्षकों की व्यवस्था विद्यालय के उत्पादन से ही हो सके और राज्य सरकार छात्रों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के खरीदने की व्यवस्था करे।।

राष्ट्रभाषा के प्रबल पोषक-गाँधी जी राष्ट्रभाषा के बिना किसी स्वतन्त्र राष्ट्र की कल्पना ही नहीं करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि किसी विदेशी भाषा के माध्यम से बालक की क्षमताओं का पूर्ण विकास सम्भव नहीं। इसी कारण राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।

कुटीर उद्योगों पर बल–गाँधी जी भारत जैसे विशाल देश की समस्याओं और आवश्यकताओं को बहुत गहराई तक समझते थे। वे जानते थे कि ऐसे देश में जहाँ विशाल जनसंख्या के कारण जनशक्ति की कमी नहीं, आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं सम्पन्नता के लिए कुटीर उद्योग ही सर्वाधिक उपयुक्त साधन हैं। गाँधी जी ने ग्रामों को आर्थिक स्वावलम्बन प्रदान करने के लिए खादी उद्योग को बढ़ावा दिया, चरखे को अपने आर्थिक सिद्धान्तों का केन्द्रबिन्दु बना लिया तथा प्रत्येक गाँधीवादी के लिए प्रतिदिन चरखा चलाना और खादी पहनना अनिवार्य कर दिया।

प्रेरणादायक गुण-गाँधी जी में ऐसे अनेक महान् गुण विद्यमान थे, जिनसे प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए। उनका पहला गुण था—समय का सदुपयोग। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाते थे, यहाँ तक कि दूसरों से बात करते समय भी वे कुछ-न-कुछ काम अवश्य करते रहते थे, चाहे वह आश्रम की सफाई का काम हो या चरखा चलाने का या रोगियों की सेवा-शुश्रूषा का। यही कारण है कि इतनी अधिक व्यस्तता के बावजूद वे अनेक ग्रन्थ और लेखादि लिख सके।

दूसरा महत्त्वपूर्ण गुण था—दूसरों को उपदेश देने से पहले किसी आदर्श को स्वयं अपने जीवन में क्रियान्वित करना। उदाहरणार्थ-वे अपना सारा काम स्वयं अपने ही हाथों करते थे, यहाँ तक कि अपना मल-मूत्र भी स्वयं साफ करते थे। इसके बाद ही वे आश्रमवासियों को भी ऐसा करने की प्रेरणा देते थे।

मितव्ययिता उनका एक अन्य प्रेरक गुण था। वे तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु को भी व्यर्थ नहीं समझते थे, अपितु उसका अधिकतम सदुपयोग करने का प्रयास करते थे। इस सम्बन्ध में आश्रमवासियों को भी उनका कठोर आदेश था।

गाँधी जी की सारग्रहिणी प्रवृत्ति भी बड़ी प्रेरणाप्रद थी। वे अपने कटुतम आलोचक और विरोधी की बात भी बड़ी शान्ति से सुनते और अपने कटु विरोधी व्यक्ति की उचित बात को साररूप में ग्रहण कर लेते थे। एक बार कोई अंग्रेज युवक एक लम्बे पत्र में गाँधी जी को सैकड़ों भद्दी-भद्दी गालियाँ लिखकर स्वयं उनके पास पहुँचा और पत्र उन्हें दिया। पत्र पर दृष्टि डालते ही उन्होंने उसका आशय समझ लिया और उसमें लगी आलपिन को अपने पास रखकर पृष्ठों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया। युवक ने उनसे इसका कारण पूछा। गाँधी जी ने कहा कि इसमें सार वस्तु केवल इतनी ही थी, जो मैंने ले ली।

उपसंहार–सारांश यह है कि गाँधी जी ने अपने नेतृत्व के गुणों से जनता की असीम श्रद्धा अर्जित की। उन्होंने भारत की जनता में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाया, उसे अपने अधिकार के लिए लड़ने का मनोबल दिया, देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा दी तथा स्वदेशी आन्दोलन द्वारा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के स्वीकरण का मन्त्र दिया। उनके खादी आन्दोलन ने ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा दिया, राष्ट्रभाषा के महत्त्व एवं गौरव के प्रबल समर्थन द्वारा उन्होंने कितने ही हिन्दीतर-भाषियों को हिन्दी सीखने की प्रेरणा दी तथा राष्ट्रभाषा आन्दोलन को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दिया। अपने अनेकानेक व्यक्तिगत गुणों के कारण अपने सम्पर्क में आने वालों को उन्होंने अन्दर तक प्रभावित किया और दीन-दु:खियों के सदृश स्वयं भी अधनंगे रहकर तथा निर्धनता और सादगी का जीवन अपनाकर लोगों से ‘महात्मा’ और ‘बापू’ का प्रेममय सम्बोधन पाया। सचमुच वे वर्तमान भारत की एक महान् विभूति थे।

मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास [2012, 13, 14, 16, 18]

सम्बद्ध शीर्षक

  • तुलसी का समन्वयवाद
  • हमारे आदर्श कति : तुलसीदास [2012]
  • रामकाव्यधारा के प्रमुख कवि : तुलसीदास
  • लोकनायक तुलसीदास [2011]
  • कविता लसी पा तुलसी की कला [2009]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. तत्कालीन परिस्थितियाँ,
  3. तुलसीकृत रचनाएँ,
  4. ढुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में,
  5. तुलसी के रमि,
  6. तुलसी की निष्काम भक्ति-भावना,
  7. तुलसी की समन्वय-साधना–(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय, (ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय, (ग) युगधर्म-समन्वय, (घ) साहित्यिक समन्वय,
  8. तुलसी के दार्शनिक विचार,
  9. उपसंहार।

प्रस्तावना-यद्यपि मैंने बहुत अधिक अध्ययन नहीं किया है, तथापि भक्तिकालीन कवियों में कबीर, सूर, तुलसी और मीरा तथा आधुनिक कवियों में प्रसाद, पन्त और महादेवी के काव्य का रसास्वादन अवश्य किया है। इन सभी कवियों के काव्य का अध्ययन करते समय तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नतमस्तक होता रहा हूँ। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है।

तत्कालीन परिस्थितियाँ-तुलसीदास को जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ था, जब हिन्दू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फंस चुका था। हिन्दू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्राय: विनष्ट हो चुकी थी और कहीं कोई पथ-प्रदर्शक नहीं था। इस युग में जहाँ एक ओर मन्दिरों का विध्वंस किया गया, ग्रामों व नगरों का विनाश हुआ, वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरम सीमा पर पहुँच गयी। इसके अतिरिक्त तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमताओं का ताण्डव हो रहा था और विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी परिस्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। उस समय दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उसके नैतिक जीवन की नौका की पतवार सँभाल ले।

गोस्वामी तुलसीदास ने अन्धकार के गर्त में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया और उसमें अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपनी अमर कृति ‘श्रीरामचरितमानस’ द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं में समन्वय स्थापित किया। उन्होंने अपने युग को नवीन दिशा, नयी गति एवं नवीन प्रेरणा दी। उन्होंने सच्चे लोकनायक के समान समाज में व्याप्त वैमनस्य की चौड़ी खाई को पाटने का सफल प्रयत्न किया।

तुलसीकृत रचनाएँ-तुलसीदास जी द्वारा लिखित 12 ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। ये ग्रन्थ हैं‘श्रीरामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘दोहावली’, ‘रामलला नहछु’, ‘पार्वती-मंगल’, ‘जानकी-मंगल’, ‘बरवै रामायण’, ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’ तथा ‘रामाज्ञा प्रश्नावली’। तुलसी की ये रचनाएँ विश्व-साहित्य की अनुपम निधि हैं।

तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन हैलोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके; क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की परस्पर विरोधी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।’

तुलसी के राम—तुलसी उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परब्रह्म हैं, जिन्होंने भूमि का भार हरण करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था

जब-जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जने पीरा ॥

तुलसी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है, लेकिन अन्त में वे यही कहते हैं-

माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥

राम के प्रति उनकी अनन्य भक्ति अपनी चरम-सीमा छूती है और वे कह उठते हैं कि-

करू कहाँ तक राम बड़ाई। राम न सकहिं, राम गुन गाही ।।

तुलसी के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे और शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।
तुलसीदास की निष्काम भक्ति-भावना-सच्ची भक्ति वही है, जिसमें लेन-देन का भाव नहीं होता। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। तुलसी के अनुसार-

मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु विषम भव भीर ॥

तुलसी की समन्वय-साधना-तुलसी के काव्य की सर्वप्रमुख विशेषता उसमें निहित समन्वय की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कारण ही वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाये। उनके काव्य में समन्वय के निम्नलिखित रूप दृष्टिगत होते हैं

(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय-जब ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों से सम्बन्धित विवाद, दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था तो तुलसीदास ने कहा
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।
(ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय—तुलसी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करने अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, उनकी भक्ति तो सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देने वाली है। उन रिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण के सदृश दुष्कर्म नहीं–

भगतिहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदी। उभय हरहिं भव-संभव खेदा ।।

तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम-नाम का मोती पिर दिशा —

हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।

(ग) युगधर्म-समन्वय-भक्ति की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और उन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसी ने इनका भी विलक्षण समन्वय प्रस्तुत किया है-

कृतजुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग ॥

(घ) साहित्यिक समन्वय साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, रस एवं अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं, विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में भी संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

तुलसी के दार्शनिक विचार-तुलसी ने किसी विशेष वाद को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वैष्णव धर्म को इतना व्यापक रूप प्रदान किया कि उसके अन्तर्गत शैव, शाक्त और पुष्टिमार्गी भी सरलता से समाविष्ट हो गये। वस्तुत: तुलसी भक्त हैं और इसी आधार पर वह अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। उनकी भक्ति सेवक-सेव्य भाव की है। वे स्वयं को राम का सेवक मानते हैं और राम को अपना स्वामी।

उपसंहार—तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है, बाहर से नहीं। तुलसी के सम्बन्ध में हरिऔध जी के हृदय से स्वत: फूट पड़ी प्रशस्ति अपनी समीचीनता में बेजोड़ है-

बन रामरसायन की रसिका, रसना रसिकों की हुई सुफला।
अवगाहन मानस में करके, मन-मानस का मल सारा टला ॥
बनी पावन भावे की भूमि भली, हुआ भावुक भावुकता का भला ।
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला ॥

सचमुच कविता से तुलसी नहीं, तुलसी से कविता गौरवान्वित हुई। उनकी समर्थ लेखनी का सम्बल पी वाणी धन्य हो उठी।
तुलसीदास जी के इन्हीं सब गुणों का ध्यान आते ही मन श्रद्धा से परिपूरित हो उन्हें अपना प्रिय कवि मानने को विवश हो जाता है।

मेरे प्रिय साहित्यकार: जयशंकर प्रसाद [2013, 14, 15, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • अपना (मेरा) प्रिय कवि [2012, 13, 14, 17]
  • मेरा प्रिय लेखक [2009, 15]
  • मेरे प्रिय कहानीकार [2013]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. साहित्यकार का परिचय,
  3. साहित्यकार की साहित्यसम्पदा-(क) काव्य; (ख) नाटक; (ग) उपन्यास; (घ) कहानी; (ङ) निबन्ध,
  4. छायावाद के श्रेष्ठ कवि,
  5. श्रेष्ठ गद्यकार,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-संसार में सबकी अपनी-अपनी रुचि होती है। किसी व्यक्ति की रुचि चित्रकारी में है तो किसी की संगीत में। किसी की रुचि खेलकूद में है तो किसी की साहित्य में। मेरी अपनी रुचि भी साहित्य में रही है। साहित्य प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में इतना अधिक रचा गया है कि उन सबका पारायण तो एक जन्म में सम्भव ही नहीं है। फिर साहित्य में भी अनेक विधाएँ हैं–कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध आदि। अतः मैंने सर्वप्रथम हिन्दी-साहित्य का यथाशक्ति अधिकाधिक अध्ययन करने का निश्चय किया और अब तक जितना अध्ययन हो पाया है, उसके आधार पर मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार हैं-जयशंकर प्रसाद प्रसाद जी केवल कवि ही नहीं, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार और निबन्धकार भी हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी-साहित्य में भाव और कला, अनुभूति और अभिव्यक्ति, वस्तु और शिल्प सभी क्षेत्रों में युगान्तरकारी परिवर्तन किये हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा को एक नवीन अभिव्यंजना-शक्ति प्रदान की है। इन सबने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है और वे मेरे प्रिय साहित्यकार बन गये हैं।

साहित्यकार का परिचय-श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध हुँघनी-साहु परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बाबू देवी प्रसाद था। लगभग 11 वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने काव्य-रचना आरम्भ कर दी थी। सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। इनके पिता, माता व बड़े भाई का देहान्त हो गया और परिवार का समस्त उत्तरदायित्व इनके सुकुमार कन्धों पर आ गया। गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए एवं अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना करने के उपरान्त 15 नवम्बर, 1937 ई० को आपका देहावसान हुआ। 48 वर्ष के छोटे-से जीवन में इन्होंने जो बड़े-बड़े काम किये, उनकी कथा सचमुच अकथनीय है।

साहित्यकार की साहित्य-सम्पदा–प्रसाद जी की रचनाएँ सन् 1907-08 ई० में सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। ये रचनाएँ ब्रजभाषा की पुरानी शैली में थीं, जिनका संग्रह ‘चित्राधार’ में हुआ। सन् 1913 ई० में ये खड़ी बोली में लिखने लगे। प्रसाद जी ने पद्य और गद्य दोनों में साधिकार रचनाएँ कीं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार है-

(क) काव्य-कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, महाराणा का महत्त्व, झरना, आँसू, लहर और कामायनी (महाकाव्य)।
(ख) नाटक-इन्होंने कुल मिलाकरे 13 नाटक लिखे। इनके प्रसिद्ध नाटक हैं-चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना और ध्रुवस्वामिनी।
(ग) उपन्यास-कंकाल, तितली और इरावती।
(घ) कहानी–प्रसाद की विविध कहानियों के पाँच संग्रह हैं-छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल।
(ङ) निबन्ध–प्रसाद जी ने साहित्य के विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे, जिनका संग्रह है-काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध।

छायावाद के श्रेष्ठ कवि–छायावाद हिन्दी कविता के क्षेत्र का एक आन्दोलन है जिसकी अवधि सन् 1920-1936 ई० तक मानी जाती है। ‘प्रसाद’ जी छायावाद के जन्मदाता माने जाते हैं। छायावाद एक आदर्शवादी काव्यधारा है, जिसमें वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, प्रेम, सौन्दर्य तथा स्वच्छन्दतावाद की सबल अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद की ‘आँसू’ नाम की कृति के साथ हिन्दी में छायावाद का जन्म हुआ। आँसू का प्रतिपाद्य है–विप्रलम्भ श्रृंगार। प्रियतम के वियोग की पीड़ा वियोग के समय आँसू बनकर वर्षा की भाँति उमड़ पड़ती है

जो घनीभूत पीड़ा थी, स्मृति सी नभ में छायी।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आयी ॥

प्रसाद के काव्य में छायावाद अपने पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देता है; यथा–सौन्दर्य-निरूपण एवं श्रृंगार भावना, प्रकृति-प्रेम, मानवतावाद, प्रेम भावना, आत्माभिव्यक्ति, प्रकृति पर चेतना का आरोप, वेदना और निराशा का स्वर, देश-प्रेम की अभिव्यक्ति, नारी के सौन्दर्य का वर्णन, तत्त्व-चिन्तन, आधुनिक बौद्धिकता, कल्पना का प्राचुर्य तथा रहस्यवाद की मार्मिक अभिव्यक्ति। अन्यत्र इंगित छायावाद की कलागत विशेषताएँ अपने उत्कृष्ट रूप में इनके काव्य में उभरी हुई दिखाई देती हैं।

‘आँसू मानवीय विरह का एक प्रबन्ध काव्य है। इसमें स्मृतिजन्य मनोदशा एवं प्रियतम के अलौकिक रूप-सौन्दर्य का मार्मिक वर्णन किया गया है। ‘लहर’ आत्मपरक प्रगीत मुक्तक है, जिसमें कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुन्दर और मधुर रूपकमय यह गीत ‘सहर’ से संगृहीत है।

बीती विभावरी जाग री ।।
अम्बर-पनघट में डुबो रही ;
तारा-घट ऊषा नागरी ।

‘प्रसाद’ की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है-कामायनी महाकाव्य, जिसमें प्रतीकात्मक शैली पर मानव- चेतना के विकास का काव्यमय निरूपण किया गया है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में, “यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसके विचारात्मक आधार के अनुसार श्रद्धा या रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शान्तिमय आनन्द का अनुभव कराती हैं। वही उसे आनन्द-धाम तक पहुँचाती है, जब कि इड़ा या बुद्धि आनन्द से दूर भगाती है।” अन्त में कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान तीनों के सामंजस्य पर बल दिया है; यथा-

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी क्यों हो मन की ?
एक दूसरे से मिल न सके, यह विडम्बना जीवन की ।

श्रेष्ठ गद्यकार-गद्यकार प्रसाद की सर्वाधिक ख्याति नाटककार के रूप में है। उन्होंने गुप्तकालीन भारत को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करके गाँधीवादी अहिंसामूलक देशभक्ति का सन्देश दिया है। साथ ही अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों का सफल चित्रण किया है। नारी की स्वतन्त्रता एवं महिमा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है। उनके प्रत्येक नाटक का संचालन सूत्र किसी नारी पात्र के ही हाथ में रहता है। उपन्यास और कहानियों में भी सामाजिक भावना का प्राधान्य है। उनमें दाम्पत्य-प्रेम के आदर्श रूप का चित्रण किया गया है। उनके निबन्ध विचारात्मक एवं चिन्तनप्रधान हैं, जिनके माध्यम से प्रसाद ने काव्य और काव्य-रूपों के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

उपसंहार-–पद्य और गद्य की सभी रचनाओं में इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित हिन्दी है। इनकी शैली आलंकारिक एवं साहित्यिक है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी गद्य-रचनाओं में भी इनका छायावादी कवि हृदय झाँकता हुआ दिखाई देता है। मानवीय भावों और आदर्शों में उदारवृत्ति का सृजन विश्व-कल्याण के प्रति इनकी विशाल-हृदयता का सूचक है। हिन्दी-साहित्य के लिए प्रसाद जी की यह बहुत बड़ी देन है। ‘प्रसाद’ की रचनाओं में छायावाद पूर्ण प्रौढ़ता, शालीनता, गुरुता और गम्भीरता को प्राप्त दिखाई देता है। अपनी विशिष्ट कल्पना शक्ति, मौलिक अनुभूति एवं नूतन अभिव्यक्ति पद्धति के फलस्वरूप प्रसाद हिन्दी-साहित्य में मूर्धन्य स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। समग्रतः यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत महान् है जिस कारण वे मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकार रहे हैं।

मेरा प्रिय वैज्ञानिक : चन्द्रशेखर वेंकटरमन [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रारम्भिक परिचय,
  3. शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र,
  4. वैज्ञानिक उपलब्धियाँ व नोबेल पुरस्कार,
  5. अन्य पुरस्कार व सम्मान,
  6. निधन एवं उपसंहार।

प्रस्तावना–भारत सदियों से ऐसे मेहपुरुषों की भूमि रही है, जिनके कार्यों से पूरी मानवता का कल्याण हुआ है। ऐसे महापुरुषों की सूची में केवल समाज-सुधारकों, साहित्यकारों एवं आध्यात्मिक गुरुओं के ही नहीं, बल्कि कई वैज्ञानिकों के भी नाम आते हैं। चन्द्रशेखर वेंकटरमन ऐसे ही एक महान् भारतीय वैज्ञानिक थे, जिनकी खोजों के फलस्वरूप विश्व को कई प्राकृतिक रहस्यों का पता लगा। ये ही मेरे आदर्श वैज्ञानिक हैं।।

प्रारम्भिक परिचय-चन्द्रशेखर वेंकटरमन का जन्म 7 नवम्बर, 1888 को तमिलनाडु राज्य में तिरुचिरापल्ली नगर के निकट तिरुवनईकवल नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम चन्द्रशेखर अय्यर एवं माता का नाम पार्वती अम्माल था। चूंकि वेंकटरमन के पिता भौतिक विज्ञान एवं गणित के विद्वान् थे तथा विशाखापत्तनम में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रमन को विज्ञान के प्रति गहरी रुचि एवं अध्ययनशीलता विरासत में मिली। एक वैज्ञानिक होने के बावजूद धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्तित्व उन पर अपनी माँ के स्पष्ट प्रभाव को दर्शाता है, जो संस्कृत की अच्छी जानकार एवं धार्मिक प्रवृत्ति की थीं।

शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र–रमन की प्रारम्भिक शिक्षा विशाखापत्तनम में हुई। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए ये चेन्नई चले गए। वहीं उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से 1994 ई० में बी०ए० एवं 1907 ई० में एम०ए० की डिग्रियाँ प्राप्त की। बी०ए० में उन्होंने कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए गोल्ड मेडल प्राप्त किया था तथा एम०ए० प्रथम श्रेणी में अत्युच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण हुए थे। 1907 ई० में ही ये भारतीय वित्त विभाग द्वारा आयोजित परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर कलकत्ता (कोलकाता) में सहायक महालेखपाल के पद पर नियुक्त हुए। उस समय उनकी आयु मात्र 19वर्ष थी। इतनी कम आयु में इतने उच्च पद पर नियुक्त होने वाले वे पहले भारतीय थे। सरकारी नौकरी के दौरान भी उन्होंने विज्ञान का दामन नहीं छोड़ा और कलकत्ता की भारतीय विज्ञान प्रचारिणी संस्था के संस्थापक डॉ० महेन्द्रलाल सरकार के सुपुत्र वैज्ञानिक डॉ० अमृतलाल सरकार के साथ अपना वैज्ञानिक शोधकार्य करते रहे। 1911 ई० में वे डाक-तार विभाग के अकाउण्टेन्ट जनरल बने। इसी बीच उन्हें भारतीय विज्ञान परिषद् का सदस्य भी बनाया गया। 1917 ई० में विज्ञान को अपना सम्पूर्ण समय देने के लिए उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए। उस समय प्राचार्य का वह पद पालित पद में रूप में था।

वैज्ञानिक उपलब्धियाँ व नोबेल पुरस्कार-सरकारी नौकरी को छोड़कर भौतिक विज्ञान के प्राचार्य पद पर नियुक्त होने के पीछे उनका उद्देश्य अपने वैज्ञानिक अनुसन्धानों को अधिक समय देना था। इस दौरान उनके शोध-पत्र देश-विदेश की कई वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। अपने शोध और अनुसन्धान को गति प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने कई विदेश यात्राएँ भी की। 1921 ई० में ऐसी ही एक समुद्र यात्रा के दौरान समुद्र के गहरे नीले पानी ने उनका ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींचा। फलस्वरूप उन्होंने पानी, हवा, बर्फ आदि पारदर्शक माध्यमों के अणुओं द्वारा परिक्षिप्त होने वाले प्रकाश का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने अपने अनुसन्धानों से यह सिद्ध कर दिया कि पदार्थ के भीतर एक विद्युत तरल पदार्थ होता है, जो सदैव गतिमान रहता है। इसी तरल पदार्थ के कारण केवल पारदर्शक द्रवों में ही नहीं, बल्कि बर्फ तथा स्फटिक जैसे पारदर्शक पदार्थों और अपारदर्शी वस्तुओं में भी अणुओं की गति के कारण प्रकाश किरणों का परिक्षेपण हुआ करता है। किरणों के इसी प्रभाव को ‘रमन प्रभाव’ के नाम से जाना जाता है।

इस खोज के फलस्वरूप यह रहस्य खुला कि आकाश नीला क्यों दिखाई पड़ता है, वस्तुएँ विभिन्न रंगों की क्यों दिखती हैं और पानी पर हिमशैल हरे-नीले क्यों दिखते हैं। इसके अतिरिक्त इस खोज के फलस्वरूप विज्ञान जगत् को असंख्य जटिल यौगिकों के अणु विन्यास को सुलझाने से सम्बन्धित अनेक लाभ हुए। इस खोज के महत्त्व को देखते हुए 1930 ई० में रमन को भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। रमन की रुचि संगीत में थी इसलिए कलकत्ता विश्वविद्यालय की नौकरी के दौरान उन्होंने ध्वनि कम्पन एवं शब्द-विज्ञान के क्षेत्र में भी रोचक बातों का पता लगाया था। 1934 ई० में उन्होंने बंगलौर (बंगलुरु) में भारतीय विज्ञान अकादमी की स्थापना की तथा 1948 से नवस्थापित रमन अनुसन्धान संस्थान, बंगलौर (बंगलुरु) में निदेशक पद पर आजीवन कार्य करते रहे। इस संस्थान में वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक हीरों तथा अन्य रनों की बनावट के बारे में अनुसन्धान करते रहे।

अन्य पुरस्कार व सम्मान–1930 ई० में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार के अतिरिक्त, चन्द्रशेखर वेंकटरमन की उपलब्धियों के लिए देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों एवं सरकारों ने उन्हें कई उपाधियाँ एवं पुरस्कार देकर सम्मनित किया। 1924 ई० में उन्हें रॉयल सोसाइटी का ‘फैलो’ चुना गया, तो 1929 ई० में ‘नाइट’ की पदवी से विभूषित किया गया। सोवियत रूस का श्रेष्ठतम ‘लेनिन शान्ति पुरस्कार’ उन्हें प्रदान किया गया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की। इसके अतिरिक्त इटली की विज्ञान परिषद् ने ‘मेटयूसी पदक’, अमेरिका ने ‘फ्रेंकलिन पदक’ तथा इंग्लैण्ड ने ‘ह्यूजेज पदक’ प्रदान कर रमन को सम्मानित किया। 1954 ई० में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया। यह सम्मान कला, साहित्य और विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए की गई विशिष्ट सेवा और जन-सेवा में उत्कृष्ट योगदान को सम्मानित करने के लिए प्रदान किया जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने जो महान् अनुसन्धान किए थे, उनके लिए वे इसे सम्मान के वास्तविक हकदार थे। उन्होंने ‘रमन प्रभाव’ की खोज 28 फरवरी, 1928 को की थी, इसलिए 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारतीय डाक-तार विभाग ने उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों के महत्त्व को देखते हुए एक डाकटिकट जारी करके श्री रमन को सम्मानित किया।

निधन एवं उपसंहार-चन्द्रशेखर वेंकटरमन वैज्ञानिक एवं शिक्षक ही नहीं, बल्कि एक कुशल वक्ता तथा संगीतप्रेमी भी थे। उन्होंने जीवन भर विज्ञान की सेवा की और रमन अनुसन्धान संस्थान के निदेशक पद पर रहते हुए उनकी मृत्यु 21 नवम्बर, 1970 को 81 वर्ष की अवस्था में हो गई। अपने संस्थान के प्रति उनके अनुराग को देखते हुए उनका दाह-संस्कार संस्थान के प्रांगण में ही किया गया। भारत को वैज्ञनिक अनुसन्धान के क्षेत्र में अग्रसर करने में रमन के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने जो खोजें की थीं, आज उनका विस्तार विज्ञान की अनेक शाखाओं तक हो चुका है। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व भारतीय युवा वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा का बहुमूल्य स्रोत है।

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name साहित्यिक निबन्ध
Category UP Board Solutions

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साहित्यिक निबन्ध

साहित्य समाज का दर्पण है [2011, 14, 16, 17]

सम्बद्ध शीर्षक

  • साहित्य और मानव-जीवन 1. साहित्य और समाज
  • साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है। [2010, 11, 12, 15, 17]
  • साहित्य और जीवन
  • सामाजिक विकास में साहित्य की उपयोगिता [2017]
  • साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध [2017]

प्रमुख विचार-विन्द–

  1. साहित्य क्या है ?
  2. साहित्य की कतिपय परिभाषाएँ,
  3. समाज क्या है ?
  4. साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध : साहित्य समाज को दर्पण,
  5. साहित्य की रचनाप्रक्रिया,
  6. साहित्य का समाज पर प्रभाव,
  7. उपसंहार

साहित्य क्या है?-‘साहित्य’ शब्द ‘सहित’ से बना है। ‘सहित’ का भाव ही साहित्य कहलाता है। (सहितस्य भावः साहित्यः)। ‘सहित’ के दो अर्थ हैं-साथ एवं हितकारी (स + हित = हितसहित) या कल्याणकारी। यहाँ ‘साथ’ से आशय है-शब्द और अर्थ का साथ अर्थात् सार्थक शब्दों का प्रयोग। सार्थक शब्दों का प्रयोग तो ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाएँ करती हैं। तब फिर साहित्य की अपनी क्या विशेषता है ? वस्तुत: साहित्य का ज्ञान-विज्ञान की समस्त शाखाओं से स्पष्ट अन्तर है–(1) ज्ञान-विज्ञान की शाखाएँ बुद्धिप्रधान या तर्कप्रधान होती हैं जबकि साहित्य हृदयप्रधान। (2) ये शाखाएँ तथ्यात्मक हैं जबकि साहित्य कल्पनात्मक। (3) ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का मुख्य लक्ष्य मानव की भौतिक सुख-समृद्धि एवं सुविधाओं का विधान करना है, पर साहित्य का लक्ष्य तो मानव के अन्त:करण को परिष्कार करते हुए, उसमें सदवृत्तियों का संचार करना है। आनन्द प्रदान कराना यदि साहित्य की सफलता है, तो मानव-मन को उन्नयन उसकी सार्थकता। (4) ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं में कथ्य (विचार-तत्त्व) ही प्रधान होता है, कथन-शैली गौण। वस्तुत: भाषा-शैली कहाँ विचाराभिव्यक्ति की साधनमात्र है। दूसरी ओर साहित्य में कथ्य से अधिक शैली का महत्व है। उदाहरणार्थ-

जल उठा स्नेह दीपक-सा
नवनीत हृदय था मेरा,
अब शेष घूमरेखा से
चित्रित कर रहा अंधेरा

कवि का कहना केवल यह है कि प्रिय के संयोगकाल में जो हृदये हर्षोल्लास से भरा रहता था, वही अब उसके वियोग में गुहरे विषाद में डूब गया है। यह एक साधारण व्यापार है, जिसका अनुभव प्रत्येक प्रेमी-हृदय करता है, किन्तु कवि ने दीपक के रूपक द्वारा इसी साधारण-सी बात को अत्यधिक चमत्कारपूर्ण ढंग से कहा है, जो पाठक के हृदय को कहीं गहरा छू लेता है।

स्पष्ट है कि साहित्य में भाव और भाषा, कथ्य और कथन-शैली (अभिव्यक्ति)-दोनों का समान महत्त्व है। यह अकेली विशेषता ही साहित्य को ज्ञान-विज्ञान की शेष शाखाओं से अलग करने के लिए पर्याप्त है।

साहित्य की कतिपय परिभाषाएँ–प्रेमचन्द जी साहित्य की परिभाषा इन शब्दों में देते हैं, “सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है-एक जिज्ञासा का, दूसरा प्रयोजन का और तीसरा आनन्द का। जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का विषय है और आनन्द को सम्बन्ध केवल साहित्य का विषय है। सत्य जहाँ आनन्द का स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है। इस बात को विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर इन शब्दों में कहते हैं, “जिस अभिव्यक्ति का मुख्य लक्ष्य प्रयोजन के रूप को व्यक्त करना नहीं, अपितु विशुद्ध आनन्द रूप को व्यक्त करना है, उसी को मैं साहित्य कहता हूँ।” प्रसिद्ध अंग्रेज समालोचक दक्विन्सी (De Quincey) के अनुसार साहित्य का दृष्टिकोण उपयोगितावादी न होकर मानवतावादी है। “ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का लक्ष्य मानव को ज्ञानवर्द्धन करना है, उसे शिक्षा देना है। इसके विपरीत साहित्य मानव का अन्त:विकास करता है, उसे जीवन जीने की कला सिखाता है, चित्तप्रसादन द्वारा उसमें नूतन प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संचार करता है।”

समाज क्या है ?--एक ऐसा मानव-समुदाय, जो किसी निश्चित भू-भाग पर रहता हो, समान परम्पराओं, इतिहास, धर्म एवं संस्कृति से आपस में जुड़ा हो तथा एक भाषा बोलता हो, समाज कहलाता है।

साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध: साहित्य समाज का दर्पण–समाज और साहित्य परस्पर घनिष्ठ रूप से आबद्ध हैं। साहित्य का जन्म वस्तुत: समाज से ही होता है। साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही घटक होता है। वह अपने समाज की परम्पराओं, इतिहास, धर्म, संस्कृति आदि से ही अनुप्राणित होकर साहित्य-रचना करता है और अपनी कृति में इनका चित्रण करता है। इस प्रकार साहित्यकारे अपनी रचना की सामग्री किसी समाज विशेष से ही चुनता है तथा अपने समाज की शाओं-आकांक्षाओं, सुख-दु:खों, संघर्षों, अभावों और उपलब्धियों को वाणी देता है तथा उसका प्रामाणिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। उसकी समर्थ वाणी का सहारा पाकर समाज अपने स्वरूप को पहचानता है और अपने रोग का सही निदान पाकर उसके उपचार को तत्पर होता है। इसी कारण किसी साहित्य विशेष को पढ़कर उस काल के समाज का एक समग्र-चित्र मानसपटल पर अंकित हो सकता है। इसी अर्थ में साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है।

साहित्य की रचना-प्रक्रिया-समर्थ साहित्यकार अपनी अतलस्पर्शिनी प्रतिभा द्वारा सबसे पहले अपने समकालीन सामाजिक जीवन का बारीकी से पर्यवेक्षण करता है, उसकी सफलताओं-असफलताओं, उपलब्धियों-अभावों, क्षमताओं-दुर्बलताओं तथा संगतियों-विसंगतियों की गहराई तक थाह लेता है। इसके पश्चात् विकृतियों और समस्याओं के मूल कारणों का निदान कर अपनी रचना के लिए उपयुक्त सामग्री का चयन करता है और फिर इस समस्त बिखरी हुई, परस्पर असम्बद्ध एवं अति साधारण-सी दीख पड़ने वाली सामग्री को सुसंयोजित कर उसे अपनी ‘नवनवोन्मेषशालिनी कल्पना के साँचे में ढालकर ऐसा कलात्मक रूप एवं सौष्ठव प्रदान करता है कि सहदय अध्येता रस-विभोर हो नूतन प्रेरणा से अनुप्राणित हो उठता है। कलाकार का वैशिष्ट्य इसी में है कि उसकी रचना की अनुभूति एकाकी होते हुए भी सार्वदेशिक-सार्वकालिक बन जाए तथा अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए चिरन्तन मानव-मूल्यों से मण्डित भी हो। उसकी रचना न केवल अपने युग, अपितु आने वाले युगों के लिए भी नवस्फूर्ति का अजस्र स्रोत बन जाए और अपने देश-काल की उपेक्षा न करते हुए देश-कालातीत होकर मानवमात्र की अक्षय निधि बन जाए। यही कारण है कि महान् साहित्यकार किसी विशेष देश, जाति, धर्म एवं भाषा-शैली के समुदाय में जन्म लेकर भी सारे विश्व का अपना बन जाता है; उदाहरणार्थ-वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, होमर, शेक्सपियर आदि किसी देश विशेष के नहीं मानवमात्र के अपने हैं, जो युगों से मानव को नवचेतना प्रदान करते आ रहे हैं और करते रहेंगे।

साहित्य का समाज पर प्रभाव-साहित्यकार अपने समकालीन समाज से ही अपनी रचना के लिए आवश्यक सामग्री का चयन करता है; अत: समाज पर साहित्य का प्रभाव भी स्वाभाविक है।

जैसा कि ऊपर संकेतित किया गया है कि महान् साहित्यकार में एक ऐसी नैसर्गिक या ईश्वरदत्त प्रतिभा होती है, एक ऐसी अतलस्पर्शिनी अन्तर्दृष्टि होती है कि वह विभिन्न दृश्यों, घटनाओं, व्यापारों या समस्याओं के मूल तक तत्क्षण पहुँच जाता है, जब कि राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री या अर्थशास्त्री उसका कारण बाहर टटोलते रह जाते हैं। इतना ही नहीं, साहित्यकार रोग का जो निदान करता और उपचार सुझाता है, वही वास्तविक समाधान होता है। इसी कारण प्रेमचन्द जी ने कहा है कि “साहित्य राजनीति के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है, राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं।’ अंग्रेज कवि शेली ने कवियों को ‘विश्व के अघोषित विधायक’ (un-acknowledgedlegislators of the world) कहा है।

प्राचीन ऋषियों ने कवि को विधाता और द्रष्टा कहा है-‘कविर्मनीषी धाता स्वयम्भूः।’ साहित्यकार कितना बड़ा द्रष्टा होता है, इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। आज से लगभग 70-75 वर्ष पूर्व श्री देवकीनन्दन खत्री ने अपने तिलिस्मी उपन्यास ‘रोहतासमठ’ में यन्त्रमानव (robot) के कार्यों को विस्मयकारी चित्रण किया था। उस समय यह सर्वथा कपोल-कल्पित लगा; क्योंकि उस काल में यन्त्रमानव की बात किसी ने सोची तक न थी, किन्तु आज विज्ञान ने उस दिशा में बहुत प्रगति कर ली है, यह देख श्री खत्री की नवनवोन्मेष-शालिनी प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। इसी प्रकार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व पुष्पक विमान के विषय में पढ़ना कल्पनामात्र लगता होगा, परन्तु आज उससे कहीं अधिक प्रगति वैमानिकी ने की है।

साहित्य द्वारा सामाजिक और राजनीतिक क्रान्तियों के उल्लेखों से तो विश्व का इतिहास भरा पड़ा है। सम्पूर्ण यूरोप को गम्भीर रूप से आलोड़ित कर डालने वाली फ्रांस की राज्य क्रान्ति (1789 ई०), रूसो की ‘सोसियल कॉन्ट्रेक्ट’ (The Social Contract–सामाजिक-अनुबन्ध) नामक पुस्तक के प्रकाशन का ही परिणाम थी। आधुनिक काल में चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यासों ने इंग्लैण्ड से कितनी ही घातक सामाजिक एवं शैक्षिक रूढ़ियों का उन्मूलन कराकर नूतन स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात कराया।

आधुनिक युग में प्रेमचन्द के उपन्यासों में कृषकों पर जमींदारों के बर्बर अत्याचारों एवं महाजनों द्वारा उनके क्रूर शोषण के चित्रों ने समाज को जमींदारी-उन्मूलन एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना को प्रेरित किया। उधर बंगाल में शरत् चन्द्र ने अपने उपन्यासों में कन्याओं के बाल-विवाह की अमानवीयता एवं विधवा-विवाह-निषेध की नृशंसता को ऐसी सशक्तता से उजागर किया कि अन्तत: बाल-विवाह को कानून द्वारा निषिद्ध घोषित किया गया एवं विधवा-विवाह का प्रचलन हुआ।

उपसंहार-निष्कर्ष यह है कि समाज और साहित्य का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। साहित्य समाज से ही उद्भूत होता है; क्योंकि साहित्यकार किसी समाज विशेष का ही अंग होता है। वह इसी से प्रेरणा ग्रहणकर साहित्य-रचना करता है एवं अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता हुआ समकालीन समाज का मार्गदर्शन करता है, किन्तु साहित्यकार की महत्ता इसमें है कि वह अपने युग की उपज होने पर भी उसी से बँधकर नहीं रह जाये, अपितु अपनी रचनाओं से चिरन्तन मानवीय आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना द्वारा देशकालातीत बनकर सम्पूर्ण मानवता को नयी ऊर्जा एवं प्रेरणा से स्पन्दित करे।

इसी कारण साहित्य को विश्व-मानव की सर्वोत्तम उपलब्धि माना गया है, जिसकी समकक्षता संसार की मूल्यवान्-से-मूल्यवान् वस्तु भी नहीं कर सकती; क्योंकि संसार का सारा ज्ञान-विज्ञान मानवता के शरीर का ही पोषण करता है, जब कि एकमात्र साहित्य ही उसकी आत्मा को पोषक है। एक अंग्रेज विद्वान् ने कहा है कि “यदि कभी सम्पूर्ण अंग्रेज जाति नष्ट भी हो जाए, किन्तु केवल शेक्सपियर बचा रहे तो अंग्रेज जाति नष्ट नहीं हुई मानी जाएगी।” ऐसे युगस्रष्टा और युगद्रष्टा कलाकारों के सम्मुख सम्पूर्ण मानवता कृतज्ञतापूर्वक नतमस्तक होकर उन्हें अपने हृदय-सिंहासन पर प्रतिष्ठित करती है एवं उनके यश को दिग्दिगन्तव्यापी बना देती है। अपने पार्थिव शरीर से तिरोहित हो जाने पर भी वे अपने यशरूपी शरीर से इस धराधाम पर सदा अजर-अमर बने रहते हैं|

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ॥

मेरा प्रिय ग्रन्थ: श्रीरामचरितमानस [2015]

सम्बद्ध शीर्षक

  • मेरी प्रिय पुस्तक
  • हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय, अमर साहित्यिक कृति

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना : पुस्तकों का महत्त्व,
  2. श्रीरामचरितमानस की महत्ता,
  3. कथा-संगठन,
  4. चरित्र-चित्रण,
  5. भक्ति-भावना,
  6. भाव-व्यंजना,
  7. भाषा-शैली,
  8. आदर्श की स्थापना,
  9. भारत पर तुलसी का ऋण,
  10. उपसंहार

प्रस्तावना : पुस्तकों का महत्त्व-किसी विद्वान् ने लिखा है कि व्यक्ति को अपने यौवन में ही किसी लेखक या पुस्तक को अपना प्रिय अवश्य बना लेना चाहिए, जिससे वह उससे आजीवन सोत्साह जीने का सम्बल प्राप्त कर सके। पुस्तकों से अच्छा साथी दूसरा नहीं। वे व्यक्ति को सहारा देती हैं, उससे सहारा नहीं माँगतीं। हर समय व्यक्ति के पास उपस्थित रहती हैं, किन्तु अपनी उपस्थिति से उसका ध्यान नहीं बँटातीं। एक सन्मित्र की भाँति सदा परामर्श को तत्पर रहती हैं, फिर भी अपनी राय उस पर नहीं थोपतीं।

पुस्तक की इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित होकर मैंने उनमें विशेष रुचि ली और ग्रन्थों का अध्ययन किया, जिसके स्वरूप मैंने अनुभव किया कि गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘श्रीरामचरितमानस’ एक सर्वांगपूर्ण रन हैं, जो हर दृष्टि से असाधारण है एवं महत्तम मानवीय मूल्यों तथा आदर्शों से स्पन्दित है।।

श्रीरामचरितमानस की महत्ता-वाल्मीकि रामायण के काल से लेकर आज तक समस्त रामकाव्यों की यदि तुलसीकृत ‘श्रीरामचरितमानस’ से तुलना की जाए, तो यह स्पष्टत: दीख पड़ेगा कि आदिकाव्य से उद्भूत रामकाव्य-परम्परा ‘मानस’ में आकर पूर्ण परिणति को प्राप्त हुई है। चाहे वस्तु संघटन कौशल की दृष्टि से देखें, चाहे पात्रों के चरित्र-चित्रण के चरमोत्कर्ष की दृष्टि से और चाहे महाकाव्य एवं नाटकीयता के अद्भुत सामंजस्य द्वारा प्राप्त शैली की विमुग्धकारिणी प्रौढ़ता की दृष्टि से; यह निष्कर्ष तर्कसंगत और साधार प्रतीत होगा, न कि मात्र भावुकताप्रेरित। फलत: क्या आश्चर्य, यदि ‘मानस’ संसार के कला-पारखियों का हृदयहार रहा है, जिसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि किसी भी रामचरित-विषयक काव्य के विश्व की विभिन्न भाषाओं में इतने अनुवाद उपलब्ध नहीं होते, जितने ‘श्रीरामचरितमानस’ के। एक ओर यदि अमेरिकी पादरी ऐटकिन्स ने अपनी आयु के श्रेष्ठ आठ वर्ष लगाकरे मानस का अंग्रेजी में पद्यानुवाद किया (जबकि इससे पूर्व उस भाषा में इसके कई अनुवाद विद्यमान थे), तो दूसरी ओर अनीश्वरवादी रूस के मूर्धन्य विद्वान् प्रोफेसर वरान्नीकोव ने अपने अमूल्य जीवन का एक बड़ा भाग लगाकर तथा द्वितीय विश्वयुद्ध की भीषण परिस्थिति में कजाकिस्तान में शरणार्थी के रूप में रहकर भी रूसी भाषा में इसका पद्यानुवाद किया। उपर्युक्त मनीषियों के अतिरिक्त गार्सा दे तासी (फ्रेंच); ग्राउज़, ग्रियर्सन, ग्रीव्ज, कारपेण्टर, हिल (आंग्लभाषी विद्वान्) आदि न जाने कितने काव्यमर्मज्ञ तुलसी की प्रतिभा पर मुग्ध हैं।

कथा-संगठन--यदि मानस पर कथावस्तु की दृष्टि से विचार करें तो हम पाएँगे कि इसमें गोस्वामी जी ने पुराने प्रसंगों को नया रूप देकर, कई को अधिक उपयुक्त स्थल पर रखकर, कुछ को संक्षिप्त और कुछ को विस्तृत कर तथा कुछ नये प्रसंगों की उद्भावना कर कथावस्तु को सर्वथा मौलिक बना दिया है। उनके बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड का अधिकांश तो मौलिक है ही, पर अयोध्याकाण्ड में तो उनकी कुशलता देखते ही बनती है। इसके पूर्वार्द्ध के संघर्षमय वातावरण की उन्होंने जिस कलानिपुणता से सृष्टि की है, उस पर उनकी मौलिकता की छाप है और उत्तरार्द्ध का भरत-चरित्र तो उनकी सर्वथा अनूठी रचना है। भरत के माध्यम से उन्होने अपनी भक्ति-भावना को साकार रूप प्रदान किया है। आरम्भ से अन्त तक ‘मानस’ की कथावस्तु में असाधारण प्रवाह है।

चरित्र-चित्रण-श्रीरामचरितमानस में प्रस्तुत चरित्र-चित्रण अपनी मौलिकता में वाल्मीकीय ‘रामायण’ और ‘अध्यात्म’ को बहुत पीछे छोड़ जाता है। सामान्यत: इसके सभी चरित्र नये साँचे में ढलकर नयी गरिमा से मण्डित हुए हैं, पर राम के चरित्र को इस ग्रन्थ में जिन मौलिक उपादानों से गढ़ा गया है, वे सर्वथा अभूतपूर्व हैं। इस ग्रन्थ में पहली बार राम में नरत्व के साथ परब्रह्म का सामंजस्य स्थापित किया गया है। राम में शक्ति, शील तथा सौन्दर्य की पराकाष्ठा दिखाकर राम के शील का जैसा दिव्य-चित्रण किया गया है, वह सर्वथा अभूतपूर्व और अतुलनीय है।

भक्ति-भावना–‘श्रीरामचरितमानस’ में तुलसी की भक्ति सेवक-सेव्य भाव की होते हुए भी परम्परागत भक्ति से भिन्न है। गोस्वामी जी की भक्ति साधन नहीं, स्वयं साध्य है और ज्ञानादि उसके चाकरमात्र हैं। इस ग्रन्थ में गोस्वामी जी ने भरत के रूप में अपनी भक्ति का आदर्श खड़ा किया है और भरत अपनी तन्मयता में राधाभाव के समीप पहुँच जाते हैं; अतः उनके विषय में यह नि:संकोच कहा जा सकता है। कि “माधुर्य भाव की उपासना में जो स्थान राधा का है, दास्य भाव की उपासना में वही स्थान भरत का है।” इस प्रकार तुलसी की भक्ति का स्वरूप सर्वथा मौलिक बन पड़ा है जिसमें छुटपन-बड़प्पन या ऊँच-नीच जैसा कोई भेदभाव नहीं। इस भक्तिरूपी रसायन द्वारा श्रीरामचरितमानस के माध्यम से गोस्वामी जी ने मृतप्रायः हिन्दू जाति को नवजीवन प्रदान किया।

भाव-व्यंजना-गोस्वामी जी रससिद्ध कवीश्वर थे, भाव और भाषा के अप्रतिम सम्राट् थे। उन्होंने ‘मानस’ में शास्त्रोक्त नवं रसों को तो साकार किया ही, अपनी अलौकिक प्रतिभा से भक्ति-रस नामक एक नूतन रस की भी सृष्टि कर डाली। गोस्वामी जी ने रस-परिपाक के अतिरिक्त संचारी भावों एवं अनुभावों की अलग से भी ऐसी कुशल योजना की है कि उनकी काव्य-प्रतिभा पर दंग रह जाना पड़ता है। ‘श्रीरामचरितमानस’ से संचारियों एवं अनुभावों का लिग्वित, योजनाबद्ध समग्र चित्र खड़ा करने का कौशल द्रष्टव्य है-

उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहँ पट कहँ निषंग धनु तीरा।।

भरत के आगमन पर प्रेमजन्य अधीरता एवं हर्षजन्य आवेग के कारण राम जो अति वेगपूर्वक उठते हैं, उससे जहाँ एक ओर उनका भरत के प्रति अनुराग साकार हो उठा है, वहीं उनकी मानव सुलभ अधीरता भी चित्रित हो जाती है।

‘श्रीरामचरितमानस में उपमाओं की सादगी एवं मार्मिकता पर सारा सहदय समाज मुग्ध है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा–सम्पूर्ण लंका में एकमात्र विभीषण ही सन्त स्वभाव के थे। शेष सारा समाज दुर्जन और परपीड़क था। ऐसों के बीच में रहकर जीने के लिए विवश विभीषण अपनी दशा का वर्णन करते हुए हनुमान जी से कहते हैं—

सुनह पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्ह महँ जीभ बिचारी॥

अर्थात् हे पवनपुत्र! लंका में मैं वैसा ही विवश जीवन जी रहा हूँ, जैसा बत्तीस दाँतों के बीच में रहकर जीने को विवश बेचारी जीभ न दाँतों का संग छोड़ सकती है, न उनसे निश्चिन्त हो सकती है।
इसी प्रकार काव्य के समस्त अंगों-उपांगों कर ‘श्रीरामचरितमानस’ में चित्रण इसे एक नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है।

भाषा-शैली—मानस में महाकवि तुलसी ने संस्कृत की महत्ता एवं एकछत्र साम्राज्य के उस युग में अनगढ़ लोकभाषा को अपनाकर उसे बड़े मनोयोग से सजाया-सँवारा। इस ग्रन्थ में इन्होंने अपनी असामान्य प्रतिभा के बल पर रस को रसात्मकता, अलंकार को अलंकरण तथा छन्द को नयी गति-भंगिमा और संगीतात्मकता प्रदान की तथा हमारे आस-पास के सुपरिचित जीवन से उपमानों का चयनकर उनमें नयी अर्थवत्ता ओर व्यंजकता भर दी। काव्य में नाटकीयता के मणिकांचन योग द्वारा नयी शैली को जन्म दिया, जिसने एक ही ग्रन्थ को श्रव्य-काव्य और दृश्य-काव्य दोनों बना दिया।

आदर्श की स्थापना-मानस की रामकथा—एक आदर्श मानव की, एक आदर्श परिवार की, एक आदर्श एवं पूर्ण जीवन की कथा है। तुलसी ने वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक–प्रत्येक क्षेत्र में जिन आदर्शों की स्थापना की, वे व्यक्ति के इहलौकिक और पारलौकिक-दोनों ही जीवनों को सँवारने वाले हैं। इसी कारण ‘मानस’ पारिवारिक जीवन का महाकाव्य कहलाता है; क्योंकि परिवार ही व्यक्ति की प्रथम पाठशाला है और पारिवारिक जीवन की सुदृढ़ता शेष समस्त क्षेत्रों को भी सुदृढ़ बनाती है। आदर्श राज्य के रूप में तुलसी के रामराज्य की कल्पना आरम्भ से ही भारतीय जन-मानस को प्रेरणा देती रही है और देती रहेगी।

भारत पर तुलसी का ऋण—इस सम्बन्ध में डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी लिखते हैं कि “अपनी भक्ति के साथ-साथ समाज की रक्षा के लिए उनका अपरिसीम आग्रह था और इसी भक्ति और समाज-रक्षा की चेष्टा के फलस्वरूप ‘श्रीरामचरितमानस’ नामक महाग्रन्थ रचित हुआ, जिसकी पूतधारा ने आज तक उत्तर भारत की हिन्दू जनता के चित्त को सरस और शक्तिमान बनाये रखा है और उसके चरित्र को सामाजिक सद्गुणों के आदर्श की ज्योति से सदा आलोकित कर रखा है।”

उपसंहार-अस्तु, मौलिकता का श्रेष्ठतम सम्बल पाकर ही तुलसी का ‘श्रीरामचरितमानस लोक-मानस बन सका है, यह तुलसी की कवि-प्रतिभा और उनकी जागरूक कलाकारिता का प्रमाण है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-“तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, समाज-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने सब ओर से समता (balance) की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि की, जो अब तक उत्तर भारत का मार्गदर्शक रहा है और उस दिन भी रहेगा, जिस दिन नवीन भारत का जन्म हो गया होगा।”

तुलसी कृत ‘श्रीरामचरितमानस’ का मूल्यांकन करते हुए डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं। कि, “श्रीरामचरितमानस विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी का सबसे अधिक प्रभावशाली ग्रन्थ है।” भारतीय वाङमय के समुद्र से अनेक विचार-मेघ उठे और बरसे। उनके अमृत-तुल्य जल की जिस मात्रा में जनता को आवश्यकता थी, उसे समेटकर मानो गोसाईं जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में भर दिया है। जो अन्यत्र था, वह साररूप से यहाँ आ गया है। तुलसी का ‘श्रीरामचरितमानस’ विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी के साहित्याकाश का खुला नेत्र है, उसे ही तत्कालीन लोक की दर्शनक्षमता या आँख कह सकते हैं।

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