UP Board Solutions for Class 5 EVS Hamara Parivesh Chapter 18 स्वतंत्र भारत में बदलता समाज

UP Board Solutions for Class 5 EVS Hamara Parivesh Chapter 18 स्वतंत्र भारत में बदलता समाज

स्वतंत्र भारत में बदलता समाज अभ्यास।

प्रश्न १.
यदि तुम ग्राम प्रधान बन जाओ तो विकास के क्या-क्या काम कराओगे? लिखो और उनका चित्र भी बनाओ।
उत्तर:
नोट – विद्यार्थी स्वयं लिखें और चित्र बनाएँ।

प्रश्न २.
जनसंख्या वृद्धि से क्या समस्याएँ पैदा होती हैं?
उत्तर:
नोट – जनसंख्या वृद्धि से आवास, शिक्षा, खाद्य, बिजली, प्रदूषण आदि समस्याएँ पैदा होती हैं।

UP Board Solutions for Class 5 EVS Hamara Parivesh Chapter 18 स्वतंत्र भारत में बदलता समाज

प्रश्न ३.
निम्नलिखित वाक्यों में सही बात पर (✓) का चिह्न तथा गलत बात पर (✗) का चिह्न लगाओ (सही-गलत का चिह्न लगाकर) –
(क) जनसंख्या वृद्धि से समस्याएँ बढ़ रही हैं।
(ख) नहरों से सिंचाई का काम आसान नहीं हुआ है।
(ग) सड़कें न होतीं तो भी हमारा आना-जाना आसान था।
(घ) जनसंख्या का देश के विकास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
(ङ) देश के विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनी हैं।

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प्रश्न ४.
दो परिवारों के पास जाओ और उनसे पूछकर निम्नलिखित चीजें नोट करो जैसे-
(क) परिवार में सदस्य
(ख) परिवार की आय
(ग) परिवार के व्यवसाय
(घ) मकान कच्चा/पक्का नोट – विद्यार्थी स्वयं नोट करें।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 3 राबर्ट नर्सिंग होम में

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 3
Chapter Name राबर्ट नर्सिंग होम में
Number of Questions Solved 2
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 3 राबर्ट नर्सिंग होम में

राबर्ट नर्सिंग होम में – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2018, 14, 13, 12, 11, 10)

प्रश्न-पत्र में पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठों में से लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछा जाता है। इस प्रश्न में किन्हीं 4 लेखकों के नाम दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक लेखक के बारे में लिखना होगा। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का जन्म वर्ष 1906 में देवबन्द (सहारनपुर) के एक । साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. मादत्त मिश्र था। वे कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। प्रभाकर जी की आरम्भिक शिक्षा ठीक प्रकार से नहीं हो पाई, क्योंकि इनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इन्होंने कुछ समय तक खुर्जा की संस्कृत पाठशाला में शिक्षा प्राप्त की। वहाँ पर राष्ट्रीय नेता आसफ अली का व्याख्यान सुनकर ये इतने अधिक प्रभावित हुए कि परीक्षा बीच में ही छोड़कर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े। तत्पश्चात् इन्होंने अपना शेष जीवन राष्ट्रसेवा के लिए अर्पित कर दिया। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद इन्होंने स्वयं को पत्रकारिता में लगा दिया।

लेखन के अतिरिक्त अपने वैयक्तिक स्नेह और सम्पर्क से भी इन्होंने हिन्दी के अनेक नए लेखकों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया। 9 मई, 1995 को इस महान् साहित्यकार का निधन हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ
हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रकारों, संस्मरणकारों और निबन्धकारों में प्रभाकर जी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनकी रचनाओं में कलागत आत्मपरकता, चित्रात्मकता और संस्मरणात्मकता को ही प्रमुखता प्राप्त हुई है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में इन्होंने स्वतन्त्रता सेनानियों के अनेक मार्मिक संस्मरण लिखे। इस प्रकार संस्मरण, रिपोर्ताज और पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रभाकर जी की सेवाएँ चिरस्मरणीय हैं।

कृतियाँ
प्रभाकर जी के कुल 9 ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं-

  1. रेखाचित्र नई पीढी के विचार, ज़िन्दगी मुस्कराई, माटी हो गई सोना, भूले-बिसरे चेहरे।
  2. लघु कथा आकाश के तारे, धरती के फूल
  3. संस्मरण दीप जले शंख बजे।।
  4. ललित निबन्ध क्षण बोले कण मुस्काए, बाजे पायलिया के धुंघरू।।
  5. सम्पादन प्रभाकर जी ने ‘नया जीवन’ और ‘विकास’ नामक दो समाचार-पत्रों का सम्पादन किया। इनमें इनके सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षिक समस्याओं पर आशावादी और निर्भीक विचारों का परिचय मिलता है। इनके अतिरिक्त, ‘महके आँगन चहके द्वार’ इनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है।

भाषा-शैली
प्रभाकर जी की भाषा सामान्य रूप से तत्सम प्रधान, शुद्ध और साहित्यिक खड़ी बोली है। उसमें सरलता, सुबोधता और स्पष्टता दिखाई देती हैं। इनकी भाषा भावों और विचारों को प्रकट करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग ने इनकी भाषा को और अधिक सजीव तथा व्यावहारिक बना दिया है। इनका शब्द संगठन तथा वाक्य-विन्यास अत्यन्त सुगठित हैं। इन्होंने प्रायः छोटे-छोटे व सरल वाक्यों की प्रयोग किया है। इनकी भाषा में स्वाभाविकता, व्यावहारिकता और भावाभिव्यक्ति की क्षमता है। प्रभाकर जी ने भावात्मक, वर्णनात्मक, चित्रात्मक तथा नाटकीय शैली का प्रयोग मुख्य रूप से किया है। इनके साहित्य में स्थान स्थान पर व्यंग्यात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं।

हिन्दी-साहित्य में स्थान
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ मौलिक प्रतिभा सम्पन्न गद्यकार थे। इन्होंने हिन्दी ग की अनेक नई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाकर उसे अमृद्ध किया है। हिन्दी भाषा के साहित्यकारों में अग्रणी और अनेक दृष्टियों से एक समर्थ गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित इस महान् साहित्यकार को मानव मूल्यों के सजग प्रहरी के रूप में भी सदैव स्मरण किया जाएगा।

राबर्ट नर्सिंग होम में – पाठ का सार

परीक्षा में ‘पाठ का सार’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता है। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया है।

प्रस्तुत लेख में लेखक ने इन्दौर के रॉबर्ट नर्सिंग होम की एक साधारण घटना को इतने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है कि वह घटना हमारे लिए सच्चे धर्म अर्थात् मानव सेवा और समता का पाठ पढ़ाने वाली घटना बन गई है।

लेखक का अतिथि से परिचारक बनना
लेखक कल तक जिनका अतिथि था, आज उनका परिचारक बन गया था, क्योंकि उसकी आतिथैया अचानक बीमार हो गईं और लेखक को उन्हें इन्दौर के रॉबर्ट नर्सिंग होम में भर्ती कराना पड़ा। नर्सिंग होम में लेखक की मुलाकात महिला नस से होती है, जो माँ के समान भावनाओं को अपने चेहरे एवं गतिविधियों में समाहित किए हुए हैं। माँ समान दिखने वाली एक नर्स ने लेखक के मरीज के होठों पर हँसी ला दी।

मदर टेरेसा और क्रिस्ट हैल्ड के मधुर सम्बन्ध
फ्रांस की रहने वाली मदर टेरेसा और जर्मनी की रहने वाली क्रिस्ट हैल्ड, दोनों के रूप, रस, ध्येय सब एक जैसे लग रहे थे। दोनों में कहीं से भी असमानता नजर नहीं आ रही थी। लेखक को यह जानने की अत्यधिक उत्सुकता हुई कि जर्मनी के हिटलर ने फ्रांस को तबाह कर दिया था। दोनों एक-दूसरे के शत्रु देश बन गए थे, लेकिन यहाँ तो शत्रु देश की नस के बीच मित्रता का अद्भुत संगम दिख रहा था। इसी दौरान लेखक को यह अहसास हुआ कि ये दोनों महिला नर्से विरोधी देशों की होने के बावजूद एक हैं। उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

भेदभाव की दीवारें मनुष्य द्वारा निर्मित
लेखक को मदर टेरेसा एवं क्रिस्ट हैल्ड के अनुभव से अनुभूत हुआ कि वास्तव में धर्म, जाति, राष्ट्र, वर्ग आदि को आधार बनाकर मनुष्य मनुष्य के बीच भेदभाव करने वाले वास्तव में मनुष्य ही हैं। मनुष्य ही अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए भेदभाव की भिन्न-भिन्न दीवारें खड़ी करता है।

परोपकार एवं मानवीयता की भावना को चरितार्थ करना
लेखक कहना चाहता है कि रॉबर्ट नर्सिंग होम की महिला नसें जिस आत्मीयता, ममता, स्नेह, सहानुभूति की भावना से रोगियों की सेवा कर रही हैं, वह सचमुच सभी के लिए अनुकरणीय हैं। हम भारतीय तो गीता को पढ़ते हैं, समझते हैं और याद रखते हैं। इतना करके ही हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं, लेकिन ये महिला नसें तो उस गीता के सार को अपने जीवन में उतारती हैं। सच में ये धन्य हैं, ये मानव जाति के उज्ज्वल पक्ष हैं।

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर:: देने होंगे।

प्रश्न 1.
नश्तर तेज था, चुभन गहरी पर मदर का कलेजा उससे अछूता रहा। बोलीं, “हिटलर बुरा था, उसने लड़ाई छेड़ी, पर उससे इस लड़की का भी घर ढह गया और मेरा भी; हम दोनों एक।’ ‘हम दोनों एक’ मदर । टेरेजा ने झूम में इतने गहरे डूब कर कहा कि जैसे मैं उनसे उनकी लड़की को छीन रहा था और उन्होंने पहले ही दाँव में मुझे चारों खाने दे मारा। मदर चली गई, मैं सोचता रहा, मनुष्य-मनुष्य के बीच मनुष्य ने ही कितनी दीवारें खड़ी की हैं-ऊँची दीवारे, मजबूत फौलादी दीवारें, भूगोल की दीवारें, जाति-वर्ग की दीवारें, कितनी मनहूस, कितनी नगण्य, पर कितनी अजेय। मैंने रूप से पाते देखा था, बहुतों को धन से और गुणों से भी पाते देखा था, पर मानवता के आँगन में समर्पण और प्राप्ति का यह अद्भुत सौम्य स्वरूप आज अपनी ही आँखों देखा कि कोई अपनी पीड़ा से किसी को पाए और किसी का उत्सर्ग । सदा किसी की पीड़ा के लिए ही सुरक्षित रहे।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश ‘रॉबर्ट नर्सिंग होम में’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं।

(ii) मनुष्य ने मनुष्य के बीच किस प्रकार की दीवारें खड़ी की हैं?
उत्तर:
मनुष्य ने मनुष्य को लड़ाने के लिए जाति, धर्म, वर्ग तथा भौगोलिक सीमा आदि की दीवारें खड़ी की हैं। ये दीवारें इतनी विशाल हैं कि इन पर विजय पाना अब मनुष्य की सामर्थ्य में भी नहीं है।

(iii) लेखक ने व्यक्तियों को किन कारणों से प्रसिद्धि प्राप्त करते हुए देखा है?
उत्तर:
लेखक ने अनेक व्यक्तियों को अपने रूप-सौन्दर्य, आर्थिक सम्पन्नता तथा सद्गुणों एवं सद्व्यवहार के कारण प्रसिद्धि प्राप्त करते हुए देखा है।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से हमें क्या सन्देश मिलता हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक ने मदर टेरेसा के मानवतावादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए हमें सन्देश दिया है कि हमें उदार मन, सद्भावना एवं नि:स्वार्थ भाव से मानव सेवा करनी चाहिए।

(v) ‘जिसे जीता न जा सके’ वाक्यांश के लिए एक शब्द लिखिए।
उत्तर:
‘जिसे जीता न जा सके’ वाक्यांश के लिए एक शब्द ‘अजेय’ है।

प्रश्न 2.
आदमियों को मक्खी बनाने वाला कामरूप का जादू नहीं, मक्खियों को आदमी बनाने वाला जीवन का जादू होम की सबसे बुढ़िया मदर मार्गरेट। कद इतना नाटा कि उन्हें गुड़िया कहा जा सके, पर उनकी चाल में गजब की चुस्ती, कदम में फुर्ती और व्यवहार में मस्ती, हँसी उनकी यों कि मोतियों की बोरी खुल पड़ी और काम यों कि मशीन मात माने। भारत में चालीस वर्षों से सेवा में रसलीन, जैसे और कुछ उन्हें जीवन में अब जानना भी तो नहीं।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) मदर मार्गरेट कौन थीं? लेखक ने उनके व्यक्तित्व का वर्णन किस रूप में किया?
उत्तर:
मदर मार्गरेट रॉबर्ट नर्सिंग होम की सबसे वृद्ध नर्स थीं। उनका कद एक गुडिया की भाँति छोटा था। वे व्यवहार में खुशमिजाज एवं फुर्तीली स्वभाव की थीं।

(ii) लेखक ने नर्सिंग होम की मदर मार्गरेट को जादूगरनी क्यों कहा है?
उत्तर:
मदर मार्गरेट अपनी ममता, सेवा भावना से एक दीन-हीन निराश रोगी के जीवन में आशा का संचार करके उन्हें स्वस्थ, हँसत-खेलता व्यक्ति बना । देती थीं, इसलिए लेखक ने मदर मार्गरेट को जादूगरनी कहा है।

(iii) “जैसे और कुछ उन्हें जीवन में अब जानना भी तो नहीं।” से लेखक को क्या आशय है?
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्तियों से लेखक का आशय यह है कि मदर मार्गरेट अपना कार्य इतना एकाग्रचित एवं मग्न होकर करती थीं कि उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि जीवन में वह अब किसी और वस्तु को प्राप्त करना ही नहीं चाहतीं। वे इस सेवा के अतिरिक्त किसी अन्य विषय में सोचना व जानना भी नहीं चाहतीं।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक ने क्या अभिव्यक्त किया हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक ने मदर मार्गरेट की सेवा-भावना तथा उनके चामत्कारिक व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए उनके परोपकारी चरित्र की अभिव्यक्ति की है। लेखक ने इसी के साथ उनके निःस्वार्थ भाव से मानव-सेवा के गुण को भी प्रकट करने का सफल प्रयास किया है।

(v) ‘जीवन’, व ‘फुर्ती शब्दों के विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
जीवन – मृत्युः
फुर्ती – सुस्ती।।

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UP Board Solutions for Class 10 Commerce Chapter 26 संगठन

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Board UP Board
Class Class 10
Subject Commerce
Chapter Chapter 26
Chapter Name संगठन
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 10 Commerce Chapter 26 संगठन

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
“उत्पादन के विभिन्न साधनों को एकत्र करना तथा उन्हें संगठित एवं नियन्त्रित करने को ही संगठन कहते हैं।” परिभाषा है।
(a) प्रो. हैने की
(b) प्रो. वाटसन की
(c) प्रो. मार्शल की।
(d) प्रो. चैपमैन की
उत्तर:
(b) प्रो. वाटसन की.

प्रश्न 2.
बड़े कारखानों में श्रमिकों का प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है,
(a) उद्यमी से।
(b) संगठनकर्ता से
(c) पूँजीपति से
(d) इन सभी से।
उत्तर:
(b) संगठनकर्ता से

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प्रश्न 3.
संगठनकर्ता उद्योग का ” कहलाता है।
(a) सैनिक
(b) सेनापति
(c) श्रमिक :
(d) ये सभी
उत्तर:
(b) सेनापति

प्रश्न 4.
संगठनकर्ता के गुण हैं।
(a) साहसी
(b) चरित्रवान
(c) शिक्षित
(d) ये सभी
उत्तर:
(d) ये सभी

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निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
संगठन उत्पादन का एक साधन है/साधन नहीं है।
उत्तर:
साधन है।

प्रश्न 2.
संगठन उत्पादन का एक गतिशील/अगतिशील उपादान है।
उत्तर:
गतिशील उपादान है।

प्रश्न 3.
संगठनकर्ता व्यवसाय का जोखिम उठाता है/नहीं उठाता है।
उत्तर:
नहीं उठाता है।

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प्रश्न 4.
तैयार माल की बिक्री का प्रबन्ध श्रमिक/संगठनकर्ता करता है।
उत्तर:
संगठनकर्ता करता है।

प्रश्न 5.
संगठनकर्ता का प्रतिफल ब्याज/वेतन होता है।
उत्तर:
वेतन होता है।

प्रश्न 6.
लघु स्तर के उद्योगों में संगठनकर्ता कम/अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
उत्तर:
कम महत्त्वपूर्ण होता है।

प्रश्न 7.
श्रमिकों के कार्य का निरीक्षण संगठनकर्ता द्वारा किया जाता है। (सत्य/असत्य) (2012, 10)
उत्तर:
सत्य

प्रश्न 8.
संगठनकर्ता का कार्य मुख्यतः मानसिक/शारीरिक होता है।
उत्तर:
मानसिक होता है।

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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1.
संगठन का अर्थ स्पष्ट कीजिए। (2012)
उत्तर:
संगठन उत्पादन का महत्त्वपूर्ण साधन है। संगठन का अभिप्राय उत्पादन के विभिन्न साधनों में अनुकूलतम संयोग स्थापित करके उन्हें उत्पादन कार्य में संलग्न करने की कला और विज्ञान से है। दूसरे शब्दों में, संगठन वह विशिष्ट श्रम है, (UPBoardSolutions.com) जो उत्पादन के विभिन्न साधनों; जैसे-श्रम, पूँजी एवं भूमि को एकत्रित करके उनमें आदर्शतम समन्वय स्थापित करता है, उनके कार्यों का निरीक्षण करता है तथा आवश्यक परिवर्तन करता है। इसके अभाव में कुशलता का अभाव रहता है।

प्रश्न 2.
संगठन की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
प्रो. वाटसन के अनुसार, “उत्पादन के विभिन्न साधनों को एकत्र करना तथा उन्हें संगठित एवं नियन्त्रित करने को ही संगठन कहते हैं।’ प्रो. होने के अनुसार, “संगठन उत्पादन का ऐसा साधन है, जो भूमि, श्रम और पूँजी को उचित मात्रा और अनुपात में एकत्रित करके उत्पादन कार्य करवाता है।”

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प्रश्न 3.
संगठन के कोई दो उद्देश्य बताइए। (2012)
उत्तर:
संगठन के दो उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1. उत्पादन के विभिन्न साधनों; जैसे-भूमि, श्रम व पूँजी, आदि की व्यवस्था करना।
  2. देश में उपलब्ध विभिन्न साधनों का सर्वोत्तम उपयोग करना।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1.
संगठन से क्या आशय है? उत्पादन में इसका क्या महत्त्व है? वर्णन कीजिए। (2009)
अथवा
संगठन के महत्त्व की विवेचना कीजिए। (2007)
अथवा
उत्पादन के साधन के रूप में संगठन की भूमिका बताइए।
उत्तर:
संगठन से आशय संगठन उत्पादन का महत्त्वपूर्ण साधन है। संगठन का अभिप्राय उत्पादन के विभिन्न साधनों में अनुकूलतम संयोग स्थापित करके उन्हें उत्पादन कार्य में संलग्न करने की कला और विज्ञान से है। दूसरे शब्दों में, संगठन वह विशिष्ट श्रम है, जो उत्पादन के विभिन्न साधनों; जैसे-श्रम, पूँजी एवं भूमि को एकत्रित करके उनमें आदर्शतम समन्वय स्थापित करता है, उनके कार्यों का निरीक्षण करता है तथा आवश्यक परिवर्तन (UPBoardSolutions.com) करता है। इसके अभाव में कुशलता का अभाव रहता है। संगठन का महत्त्व संगठन बड़े पैमाने पर किए जाने वाले उद्योगों के लिए विशेष महत्त्व रखता है। कम लागत पर अधिकतम उत्पादन करने के लिए उत्पादन के विभिन्न साधनों को एक उचित अनुपात में मिलाकर उत्पादन कार्य किया जाता है, जिससे उत्पादन के साधनों में सहयोग व सामंजस्य बना रहे। यह सब कार्य संगठनकर्ता द्वारा ही किया जाता है।

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आधुनिक उत्पादन व्यवस्था में संगठन के अत्यधिक महत्त्व को ध्यान में रखकर ही टॉमस ने संगठनकर्ता को ‘उद्योग का सेनापति’ कहा है। संगठन के महत्त्व को प्रसिद्ध प्रबन्ध विशेषज्ञ पी. एफ. डुकर ने बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है। उनके अनुसार, “प्रबन्धक प्रत्येक व्यवसाय का गतिशील एवं जीवनदायक तत्त्व होता है। उसके नेतृत्व के अभाव में उत्पादन के अन्य साधन केवल साधन ही रह
जाते हैं, कभी उत्पादक नहीं बन पाते।’

प्रश्न 2.
संगठनकर्ता की कार्यकुशलता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
संगठनकर्ता की कार्यकुशलता निम्नलिखित गुणों पर निर्भर करती है-

  1. संगठने योग्यता संगठनकर्ता में विभिन्न साधनों को एक आदर्श व उचित अनुपात में मिलाकर उनको परस्पर संगठित करने की योग्यता होनी चाहिए।
  2. व्यवसाय का विशिष्ट ज्ञान संगठनकर्ता को अपने व्यवसाय के बारे में विशेष ज्ञान होना चाहिए। इससे व्यवसाय में किसी प्रकार का धोखा होने की सम्भावना नहीं रहती है।
  3. उच्च शिक्षा प्रबन्धक को सभी विषयों; जैसे—अर्थशास्त्र, सांख्यिकी व वाणिज्य, आदि का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए।
  4. साहस और आत्मविश्वास संगठनकर्ता में साहस व आत्मविश्वास का गुण होना चाहिए, जिससे वह संकटों व अनिश्चितताओं का सामना सरलता से कर सके।
  5. चरित्रवान एक संगठनकर्ता में नैतिकता के सभी गुण होने चाहिए, जिससे वह (UPBoardSolutions.com) श्रमिकों में अपने प्रति विश्वास उत्पन्न कर सके।
  6. व्यवहारकुशलता संगठनकर्ता को सभी श्रमिकों व अधिकारियों के प्रति उचित व्यवहार करना चाहिए।
  7. दूरदर्शिता संगठनकर्ता में भविष्य में होने वाले गुणात्मक व संख्यात्मक परिवर्तनों का अनुमान लगाने की योग्यता होनी चाहिए।
  8. साख बनाए रखने की योग्यता आज का युग साख का युग है। बड़े पैमाने पर उत्पादन कार्य करने के लिए उधार लेन-देन की आवश्यकता होती है, इसलिए संगठनकर्ता में अपनी फर्म के प्रति साख बनाए रखने की योग्यता का होना अत्यन्त आवश्यक है।
  9. श्रम-विभाजन व श्रम संगठन की योग्यता श्रमिकों को उनके कार्य के अनुसार नियुक्ति प्रदान करके उनसे अधिकतम कार्य करवाना भी संगठनकर्ता का ही कार्य होता है।

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प्रश्न 3.
संगठनकर्ता की कार्यक्षमता किन-किन तत्त्वों से प्रभावित होती है? (2007)
उत्तर:
संगठनकर्ता की कार्यक्षमता को प्रभावित करने वाले घटक/तत्त्व एक संगठनकर्ता की कार्यक्षमता को निम्नलिखित दो घटक/तत्त्व प्रभावित करते हैं या एक संगठनकर्ता में निम्न गुणों का होना आवश्यक है

  1. संगठनकर्ता की व्यक्तिगत (निजी) कुशलता एक संगठनकर्ता के उपरोक्त वर्णित व्यक्तिगत गुण उसकी कार्यक्षमता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। यदि किसी संगठनकर्ता द्वारा उत्पादन के साधनों का प्रबन्ध ठीक प्रकार से नहीं किया जाता है, तो कम लागत पर अधिक उत्पादन सम्भव नहीं है।
  2. उत्पादन के अन्य साधनों (उपादानों) की कुशलता एक संगठनकर्ता की कार्यकशलता (UPBoardSolutions.com) उसके व्यक्तिगत गुणों के अतिरिक्त उत्पादन के अन्य साधनों पर भी निर्भर करती है, क्योकि यदि भूमि, श्रम व पूँजी अपर्याप्त या अकुशल होंगे, तो एक संगठनकर्ता योग्य होने के बाद भी कम लागत पर अधिक उत्पादन नहीं कर पाएगा।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (8 अंक)

प्रश्न 1. संगठनकर्ता या प्रबन्धक के कार्यों एवं आवश्यक गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संगठनकर्ता या प्रबन्धक के कार्य संगठनकर्ता या प्रबन्धक के कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. नई तकनीक का प्रयोग उत्पादन की नई तकनीक को खोजकर उसे प्रयोग में लाना संगठनकर्ता का ही कार्य होता है, जिससे उत्पादन की कुशलता में निरन्तर वृद्धि होती रहती है।
  2. मूल्य नीति का निर्धारण संगठनकर्ता माँग व पूर्ति के अनुसार तैयार माल का मूल्य निर्धारण करते हैं।
  3. उत्पादन की योजना तैयार करना संगठनकर्ता द्वारा ही यह निर्णय लिया जाता है कि किस प्रकार के उत्पादन से लाभ होगा व उत्पादन कितनी मात्रा में करना है। इस प्रकार के निर्णय संगठनकर्ता अपनी कुशलता एवं देश-विदेश की परिस्थितियों के आधार पर करता है।
  4. बिक्री की व्यवस्था करना संगठनकर्ता माल की बिक्री के लिए विज्ञापन, नए बाजार की खोज, आदि तकनीकें अपनाता है। उत्पादित माल की बिक्री की व्यवस्था करना भी संगठनकर्ता का ही दायित्व है। माल को मण्डियों तक भेजने हेतु सस्ते व शीघ्रगामी यातायात के साधनों की व्यवस्था करना भी संगठनकर्ता का ही कार्य होता है।
  5. कच्चे माल, यन्त्र व औजारों का प्रबन्ध करना संगठनकर्ता ही उत्पादन (UPBoardSolutions.com) के लिए कच्चे माल, यन्त्र, औजारों, आदि की व्यवस्था करता है। मशीनों को क्रय करते समय लागत, मॉडल व चलाने में श्रमिकों की योग्यता का ध्यान रखना भी संगठनकर्ता का ही कार्य होता है।
  6. श्रमिकों को उनकी योग्यतानुसार कार्य सौंपना संगठनकर्ता श्रमिकों को उनकी रुचि व योग्यता के अनुसार ही कार्य सौंपता है।
  7. निरीक्षण कार्य संगठनकर्ता उद्योग के सभी कार्यों का समय-समय पर निरीक्षण करता है। इससे अव्यवस्था व अनुशासनहीनता पर उचित रूप से नियन्त्रण किया जा सकता
  8. श्रमिकों को संगठित करने की योग्यता संगठनकर्ता ही श्रमिकों की योग्यता के अनुसार कार्य विभाजित करके उन्हें संगठित करता है।

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संगठनकर्ता या प्रबन्धक के गुण
संगठनकर्ता की कार्यकुशलता निम्नलिखित गुणों पर निर्भर करती है-

  1. संगठने योग्यता संगठनकर्ता में विभिन्न साधनों को एक आदर्श व उचित अनुपात में मिलाकर उनको परस्पर संगठित करने की योग्यता होनी चाहिए।
  2. व्यवसाय का विशिष्ट ज्ञान संगठनकर्ता को अपने व्यवसाय के बारे में विशेष ज्ञान होना चाहिए। इससे व्यवसाय में किसी प्रकार का धोखा होने की सम्भावना नहीं रहती है।
  3. उच्च शिक्षा प्रबन्धक को सभी विषयों; जैसे—अर्थशास्त्र, सांख्यिकी व वाणिज्य, आदि का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए।
  4. साहस और आत्मविश्वास संगठनकर्ता में साहस व आत्मविश्वास का गुण होना चाहिए, जिससे वह संकटों व अनिश्चितताओं का सामना सरलता से कर सके।
  5. चरित्रवान एक संगठनकर्ता में नैतिकता के सभी गुण होने चाहिए, जिससे वह श्रमिकों में अपने प्रति विश्वास उत्पन्न कर सके।
  6. व्यवहारकुशलता संगठनकर्ता को सभी श्रमिकों व अधिकारियों के प्रति उचित व्यवहार करना चाहिए।
  7. दूरदर्शिता संगठनकर्ता में भविष्य में होने वाले गुणात्मक व संख्यात्मक (UPBoardSolutions.com) परिवर्तनों का अनुमान लगाने की योग्यता होनी चाहिए।
  8. साख बनाए रखने की योग्यता आज का युग साख का युग है। बड़े पैमाने पर उत्पादन कार्य करने के लिए उधार लेन-देन की आवश्यकता होती है, इसलिए संगठनकर्ता में अपनी फर्म के प्रति साख बनाए रखने की योग्यता का होना अत्यन्त आवश्यक है।
  9. श्रम-विभाजन व श्रम संगठन की योग्यता श्रमिकों को उनके कार्य के अनुसार नियुक्ति प्रदान करके उनसे अधिकतम कार्य करवाना भी संगठनकर्ता का ही कार्य होता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 2 भाग्य और पुरुषार्थ

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Board UP Board
Textbook SCERT, UP
Class Class 12
Subject Sahityik Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name भाग्य और पुरुषार्थ
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 2 भाग्य और पुरुषार्थ

भाग्य और पुरुषार्थ – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2018, 17, 16, 14, 13, 12, 11)

प्रश्न-पत्र में पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठों में से लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछा जाता हैं। इस प्रश्न में किन्हीं 4 लेखकों के नाम दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक लेखक के बारे में लिखना होगा। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
प्रसिद्ध विचारक, उपन्यासकार, कथाकार और निबन्धकार श्री जैनेन्द्र कुमार का जन्म वर्ष 1905 में जिला अलीगढ़ के कौड़ियागंज नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम श्री प्यारेलाल और माता का नाम श्रीमती रामादेवी था। जैनेन्द्र जी के जन्म के दो वर्ष पश्चात् ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। माता एवं मामा ने इनका पालन-पोषण किया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा जैन गुरुकुल, हस्तिनापुर में हुई। इनका नामकरण भी इसी संस्था में हुआ।

आरम्भ में इनका नाम आनन्दीलाल था, किन्तु जब जैन गुरुकुल में अध्ययन के लिए इनका नाम लिखवाया गया, तब इनका नाम जैनेन्द्र कुमार रख दिया गया। वर्ष 1912 में इन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। वर्ष 1919 में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की। इनकी उच्च शिक्षा ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई। वर्ष 1921 में इन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और असहयोग’ आन्दोलन में सक्रिय हो गए।

वर्ष 1921 से वर्ष 1923 के बीच जैनेन्द्र जी ने अपनी माताजी की सहायता से व्यापार किया, जिसमें इन्हें सफलता भी मिली। वर्ष 1923 में ये नागपुर चले गए और यहाँ राजनैतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे। उसी वर्ष इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन माह के बाद छोड़ा गया।

दिल्ली लौटने पर इन्होंने व्यापार से स्वयं को अलग कर लिया और जीविकोपार्जन के लिए कलकत्ता (कोलकाता) चले गए। वहाँ से इन्हें निराश लौटना पड़ा। इसके बाद इन्होंने लेखन कार्य आरम्भ किया। इनकी पहली कहानी वर्ष 1928 में ‘खेल’ शीर्षक से “विशाल भारत में प्रकाशित हुई।

वर्ष 1929 में इनका पहला उपन्यास ‘परख’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिस पर अकादमी’ ने पांच सौ रुपये का पुरस्कार प्रदान किया। 24 दिसम्बर, 1988 को इस महान साहित्यकार का स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ
जैनेन्द्र कुमार जी की साहित्य सेवा का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत है। मौलिक कथाकार के रूप में ये जितने अधिक निखरे हैं, उतने ही निबन्धकार और विचारक के रूप में भी इन्होंने अपनी प्रतिभा का अद्भुत परिचय दिया है।
इनकी साहित्यिक सेवाओं का विवरण इस प्रकार है-

  1. उपन्यासकार के रूप में जैनेन्द्र जी ने अनेक उपन्यासों की रचना की है। वे हिन्दी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परम्परा के प्रवर्तक के रूप में मान्य है।
  2. कहानीकार के रूप में एक कहानीकार के रूप में भी जैनेन्द्र जी की उपलब्धियाँ महान् हैं। हिन्दी कहानी जगत में इनके द्वारा एक नवीन युग की स्थापना हुई।।
  3. निबन्धकार के रूप में जैनेन्द्र जी ने निबन्धकार के रूप में भी हिन्दी साहित्य की महत्ती सेवा की हैं। इनके कई निबन्ध संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इन निबन्ध संग्रहों के । माध्यम से जैनेन्द्र जी एक गम्भीर चिन्तक के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। उनके नियों के विषय साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति तथा दर्शन आदि से सम्बन्धित हैं।
  4. अनुवादक के रूप में मौलिक साहित्य सृजन के साथ-साथ जैनेन्द्र जी | नें अनुवाद का कार्य भी किया। व्यक्ति के रूप में वे महान् थे और साहित्य-साधक के रूप में और भी अधिक महान् थे।

भाग्य और पुरुषार्थ
जैनेन्द्र जी मुख्य रूप से कथाकार हैं, किन्तु इन्होंने निबन्ध के क्षेत्र में भी। यश अर्जित किया है। उपन्यास, कहानी और निबन्ध के क्षेत्रों में इन्होंने जिस साहित्य का निर्माण किया है, यह विचार, भाषा और शैली की दृष्टि से अनुपम है।
इनकी कृतियों का विवरण इस प्रकार हैं-

  1. उपन्यास परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, विवर्त, सुखदा, व्यतीत, जयवर्धन, मुक्तिबोध।
  2. हानी संकलन फाँसी, जयसन्धि, वातायन, नीलमदेश की राजकन्या, एक रात, दो चिड़ियाँ, पाजेब।
  3. निबन्ध संग्रह प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, मन्थन, सोच-विचार, काम, प्रेम और परिवार
  4. संस्मरण ये और वे।
  5. अनुवाद मन्दाकिनी (नाटक), पाप और प्रकाश (नाटक), प्रेम में भगवान (कहानी)।

भाषा-शैली
जैनेन्द्र जी की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा सीधी-सादी है, जो विषय के अनुरूप बदलती रहती हैं। इनके विचार जिस स्थान पर जैसा स्वरूप धारण करते हैं, इनकी भाषा भी उसी प्रकार का स्वरूप धारण कर लेती है। यही कारण है कि गम्भीर स्थलों पर इनकी भाषा गम्भीर हो गई है। इनकी भाषा में संस्कृत शब्दों का प्रयोग अधिक नहीं हुआ है, किन्तु उर्दू, फारसी, अरबी, अंग्रेजी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग अधुर मात्रा में हुआ है। इन्होंने मुहावरों तथा कहावतों का प्रयोग यथास्थान किया है। इनके निबन्धों में विचारात्मक तथा वर्णनात्मक शैली के दर्शन होते हैं, साथ ही इनके कथा साहित्य में व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग भी हुआ है।

हिन्दी साहित्य में स्थानी
श्रेष्ठ उपन्यासकार, कहानीकार एवं निबन्धकार जैनेन्द्र कुमार अपनी चिन्तनशील विचारधारा तथा आध्यात्मिक एवं सामाजिक विश्लेषणों पर | आधारित रचनाओं के लिए सदैव स्मरणीय रहेंगे। हिन्दी कथा साहित्य के क्षेत्र में जैनेन्द्र कुमार का विशिष्ट स्थान है। इन्हें हिन्दी के युग-प्रवर्तक मौलिक कथाकार के रूप में भी जाना जाता है। हिन्दी साहित्य जगत में ये एक श्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।

भाग्य और पुरुषार्थ – पाठ का सार

परीक्षा में पाठ का सार’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता है। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया है।

प्रस्तुत निबन्ध ‘भाग्य और पुरुषार्थ जैनेन्द्र कुमार द्वारा रचित है, जिसमें इन्होंने भाग्य और पुरुषार्थ के महत्त्व को व्याख्यायित करते हुए दोनों के बीच के सम्बन्ध को प्रकट करने का प्रयास किया है।

शाश्वत एवं सर्वव्यापी : विधाता
लेखक का मानना है कि भाग्य ईश्वर से पृथक् नहीं है। जिस प्रकार ईश्वर शाश्वत है, उसी प्रकार भाग्य भी शाश्वत हैं। माग्योदय भी सूर्योदय की भाँति होता है। लेखक का मानना है कि निरन्तर कर्म करते हुए हमें स्वयं को भाग्य के सम्मुख ले जाना चाहिए, क्योंकि भाग्योदय के लिए पुरुषार्थ आवश्यक हैं।

अतः भाग्य तो विधाता का दूसरा नाम है। विधाता की कृपा को पहचानना ही भाग्योदय है। मनुष्य का सारा पुरुषार्थ विधाता की कृपा प्राप्त करने तथा पहचानने में ही है। विधाता की कृपा प्राप्त होते ही मनुष्य के अन्दर जो अहंकार का भाव विद्यमान होता है, वह मिट जाता है और उसका भाग्योदय हो जाता है।

अहं से विमुक्त होकर, भाग्य से संयुक्त होना
लेखक का मानना है कि जो लोग व्यर्थ प्रयास करते हैं तथा निष्फल ह जाते हैं, वह भाग्य को दोष देते हैं। दूसरी ओर कर्म में एक नशा होता है। कर्म का नशा चढ़ते ही मनुष्य भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है।

लेखक का मानना है कि पुरुषार्थ का अर्थ-पशु चेष्टा से मिन्न एवं श्रेष्ठ है। पुरुषार्थ केवल हाथ-पैर चलाना नहीं है और न ही वह क्रिया का वेग एवं कौशल है। पुरुष का भाग्य देवताओं को भी पता नहीं होता है, क्योंकि पुरुष का भाग्य तो उसके पुरुषार्थ से निर्धारित होता है। लेखक का मानना है कि पुरुष अपने भाग्य से तभी जुड़ता है, जब वह अपने अहं को त्याग देता है। लेखक के अनुसार, अकर्म का आशय सही अर्थों में निम्न स्तर का कर्म है। अकर्म का अर्थ ‘कर्म नहीं’ से नहीं लेना चाहिए। इसे ‘कर्म के अभाव’ से न जोड़ते हुए कर्तव्य के क्षय यानी कर्तव्य की स्थिति में पतन, किए जाने वाले कर्म में गिरावट, उसमें क्षय या पतन से सम्बन्धित मानना चाहिए। वास्तव में व्यक्ति के अन्दर मौजूद अहं भाव ही इस अकर्म के लिए उत्तरदायी होता है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति अपने अहं को समाप्त करे, जिससे उसके कर्तव्य के स्तर में सकारात्मक परिवर्तन आए।

भाग्य की प्रवृत्ति व निवृत्ति का चक्र
लेखक का मानना है कि जब मनुष्य भाग्य के प्रति पूर्ण रूप से अर्पित होकर पुरुषार्थ करता है, तो उसका पुरुषार्थ फल प्राप्ति की इच्छा से रहित हो जाता है और तब वह दिन-प्रतिदिन अधिक शक्तिशाली एवं बन्धन-विहीन होता जाता है। लेखक का मानना है कि केवल पुरुषार्थ को मान्यता देकर भाग्य की अवहेलना करने का आशय अपनी शक्ति के अहंकार में डूबकर अपने अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण सृष्टि को नकारना है। मनुष्य का अस्तित्व इस सृष्टि में नगण्य है।।

वह कुछ वर्षों का जीवन व्यतीत कर काल का ग्रास बन जाता है, परन्तु सृष्टि तब भी चलती रहती है। मनुष्य प्रायः भाग्य की प्रतीक्षा में स्वयं कोसता है, क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि सामने आई स्थिति भी उसी (भाग्य) के प्रकाश से प्रकाशित होती है।

उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। वस्तुतः भाग्य एवं पुरुषार्थ दोनों का संयोग ही मनुष्य को सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँचाने में सहायक होता है।

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर: देने होंगे।

प्रश्न 1.
भाग्य को भी मैं इसी तरह मानता हूँ। वह तो विधाता को ही दूसरा नाम है। वे सर्वान्तर्यामी और सार्वकालिक रूप में हैं, उनका अस्त ही कब हुआ कि उदय हो। यानी भाग्य के उदय का प्रश्न सदा हमारी अपनी अपेक्षा से है। धरती का रुख सूरज की तरफ हो जाए, यही उसके लिए सूर्योदय है। ऐसे ही मैं मानता हूँ कि हमारा मुख सही भाग्य की तरफ हो जाए तो इसी को भाग्योदय कहना चाहिए। पुरुषार्थ को इसी जगह संगति है अर्थात् भाग्य को कहीं से खींचकर । उदय में लाना नहीं, न अपने साथ ही ज्यादा खींचतान करनी है। सिर्फ मुँह को मोड़ लेना है। मुख हम हमेशा अपनी तरफ रखा करते हैं। अपने से प्यार करते हैं, अपने ही को चाहते हैं। अपने को आराम देते हैं, अपनी सेवा करते हैं। दूसरों को अपने लिए मानते हैं, सब कुछ को अपने अनुकूल चाहते हैं। चाहते यह हैं कि हम पूजा और प्रशंसा के केन्द्र हों और दूसरे आस-पास हमारे इसी भाव में मँडराया करें। इस वासना से हमें छुट्टी नहीं मिल पाती।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक ने भाग्य को विधाता का दूसरा नाम क्यों बताया है?
उत्तर:
जिस प्रकार ईश्वर सबके हृदय की बात जानते हैं तथा प्रत्येक काल एवं | स्थान पर विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार भाग्य भी हर समय विद्यमान रहता। है। इसलिए लेखक ने भाग्य को विधाता का दूसरा नाम बताया है।

(ii) लेखक ने भाग्योदय की तुलना किससे की है और क्यों?
उत्तर:
लेखक ने भाग्योदय की तुलना सूर्योदय से की है, जिस प्रकार सूर्य का उदय नहीं होता है, वह तो अपने स्थान पर स्थिर रहता है। पृथ्वी का उसके आस-पास चक्कर लगाते हुए उसका मुँह सूर्य की ओर हो जाता है, तब हम उसे सूर्योदय कहते हैं। ठीक इसी प्रकार जिस समय निरन्तर कर्म करते हुए। मनुष्य का मुख भाग्य की ओर हो तो उसे भाग्योदय कहना चाहिए।

(iii) लेखक के अनुसार भाग्योदय के लिए क्या आवश्यक होता है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार भाग्योदय के लिए पुरुषार्थ अर्थात् अपने पौरुष के साथ संगति बैठाना आवश्यक होता है, क्योंकि भाग्योदय के लिए अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर स्वयं को कर्म क्षेत्र से जोड़ना होता है।

(iv) व्यक्ति कब अपने स्वार्थों के वशीभूत हो जाते हैं?
उत्तर:
व्यक्ति जब अपने नजरिए से जीवन को देखते हैं, स्वयं से प्रेम करते हैं, अपने लिए जीते हैं, अपनी ही सेवा में लगे रहते हैं तथा दूसरे व्यक्तियों को अपना सेवक मानते हुए सभी कुछ अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं। तब वे स्वार्थों के वशीभूत हो जाते हैं।

(v) ‘भाग्योदय’, ‘सूर्योदय’ में सन्धि-विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम भी लिखिए।
उत्तर:
भाग्योदय = भाग्य + उदय (सन्धि विच्छेद), गुण सन्धि।
सूर्योदय = सूर्य + उदय (सन्धि विच्छेद), गुण सन्धि।

प्रश्न 2.
इसलिए मैं मानता हूँ कि दुःख भगवान का वरदान है। अहं और किसी औषध से गलता नहीं, दु:ख ही भगवान का अमृत है। वह क्षण सचमुच ही भाग्योदय का हो जाता है, अगर हम उसमें भगवान की कृपा को पहचान लें। उस क्षण यह सरल होता है कि हम अपने से मुड़े और भाग्य के सम्मुख हों। बस इस सम्मुख़ता की देर है कि भाग्योदय हुआ रखा है। असल में उदय उसका क्या होना है, उसका आलोक तो कण-कण में व्याप्त सदा-सर्वदा है ही। उस आलोक के प्रति खुलना हमारी आँखों का हो जाए बस उसी की प्रतीक्षा है। साधना और प्रयत्न सब उतने मात्र के लिए हैं। प्रयत्न और पुरुषार्थ का कोई दूसरा लक्ष्य मानना बहुत बड़ी भूल करना होगा, ऐसी चेष्टा व्यर्थ सिद्ध होगी।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) लेखक ने दुःख को ईश्वर का वरदान क्यों माना है?
उत्तर:
लेखक दुःख को ईश्वर का वरदान मानते हैं, क्योंकि सफलता प्राप्त करने के पश्चात् मनुष्य के भीतर अहंकार का भाव उत्पन्न हो जाता है, जो किसी अन्य औषधि से समाप्त नहीं होता। इसके लिए दुःख ही सबसे बड़ी औषधि है, जो ईश्वर के अमृत के समान होती है।

(ii) लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय का क्षण कौन-सा होता है?
उत्तर:
जब किसी व्यक्ति के जीवन में दुःख आता है, तो वह अहंकार के भाव से मुक्त होकर, स्वार्थ भावों से ऊपर उठकर निरन्तर कर्म करते हुए ईश्वर के समीप आता है। लेखक के अनुसार यही व्यक्ति के भाग्योदय का क्षण होता है।

(iii) लेखक के अनुसार पुरुषार्थ का क्या उद्देश्य होता हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार मनुष्य के सभी तप एवं प्रयत्न, पराक्रम, पौरुष अपने भाग्योदय के लिए ही होते हैं, इसलिए मनुष्य को निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म की प्रवृत्ति ही भाग्योदय में सहायक है। अतः पुरुषार्थ का उद्देश्य भी यहीं है।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने दुःख के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए उसे मनुष्य के अहंकार को नष्ट करने वाली औषधि के रूप में प्रस्तुत करके मनुष्य की निरन्तर कर्म करने की प्रवृत्ति पर बल दिया है।

(v) ‘प्रयत्न’, ‘सम्मुखता’ शब्दों के क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय अँटकर लिखिए।
उत्तर:
प्रयत्न – प्र (उपसर्ग) सम्मुखता – ता (प्रत्यय)

प्रश्न 3.
सच ही अधिकांश यह होता है कि उनका और भाग्य का सम्बन्ध उल्टा होता है। भाग्य के स्वयं उल्टे-सीधे होने का तो प्रश्न ही क्या है? कारण, उसकी सत्ता सर्वत्र व्याप्त है। वहाँ दिशाएँ तक समाप्त हैं। विमुख और सम्मुख जैसा वहाँ कुछ सम्भव ही नहीं है। तब होता यह है कि ऐसे निष्फल प्रयत्नों वाले स्वयं उससे उल्टे बने रहते हैं अर्थात् अपने को ज्यादा गिनने लग जाते हैं, शेष दूसरों के प्रति अवज्ञा और उपेक्षाशील हो जाते हैं। कर्म में अधिकांश यह दोष रहता है, उसमें एक नशा होता है। नशा चढ़ने पर आदमी भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है और विनय की आवश्यकता को भी भूल जाता है। यूं कहिए कि जान-बूझकर भाग्य से अपना मुँह फेर लेता है। तब, उसे सहयोग न मिले तो उसमें विस्मय ही क्या है।

निम्नलिखित अद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर प्रकाश डाला है?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने निरर्थक प्रयत्न करने वाले मनुष्य एवं उसके भाग्य पर प्रकाश डाला है। ऐसे व्यक्तियों के सम्बन्ध में लेखक कहता कि जो व्यक्ति
व्यर्थ के प्रयास करते रहते हैं, वे कभी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते और अन्त में अपने भाग्य को दोष देने लगते हैं।

(ii) निरर्थक प्रयास करने वाले मनुष्य किस प्रकार भाग्य से उल्टे बने रहते हैं?
उत्तर:
निरर्थक प्रयास करने वाले मनुष्य अपने आप को अधिक महत्त्व देने लगते हैं, अपनी योग्यता को अधिक महत्व देते हुए दूसरों की अवहेलना करने लगते हैं। इस प्रकार वे सदैव अपने भाग्य के उल्टे बने रहते हैं।

(iii) लेखक के अनुसार मनुष्य कर्म के पश्चात् किस कारण अहंकार भाव से भर जाता है?
उत्तर:
कर्म में दोष के रूप में एक नशा विद्यमान होता है, जिसके कारण मनुष्य कर्म के पश्चात् अहंकार भाव से भर जाता है और यह अंहकार का भाव उसे भाग्य एवं ईश्वर से दूर कर देता है।

(iv) लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय में बाधक तत्त्व क्या है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय में उसका अहंकार भाव बाधक होता है, क्योंकि व्यक्ति में अहंकार भाव आने पर उसका विनय भाव समाप्त हो जाता है, जिसके कारण माग्य उससे मुँह फेर लेता है।

(v) उल्टे-सीधे’ शब्द का समास-विग्रह करके उसमें प्रयुक्त समास का भेद भी बताइए।
उत्तर:
‘उल्टे और सीधे’ (समास-विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।

प्रश्न 4.
पुरुषार्थ वह है, जो पुरुष को सप्रयास रखे, साथ ही सहयुक्त भी रखे। यह जो सहयोग है, सच में पुरुष और भाग्य का ही है। पुरुष अपने अहं से वियुक्त होता है, तभी भाग्य से संयुक्त होता है। लोग जब पुरुषार्थ को भाग्य से अलग और विपरीत करते हैं तो कहना चाहिए कि वे पुरुषार्थ को ही उसके अर्थ से विलग और विमुख कर देते हैं। पुरुष का अर्थ क्या पशु का ही अर्थ है? बल-विकास तो पशु में ज्यादा होता है। दौड़-धूप निश्चय ही पशु अधिक करता है, लेकिन यदि पुरुषार्थ पशु चेष्टा के अर्थ से कुछ भिन्न और श्रेष्ठ है। तो इस अर्थ में कि वह केवल हाथ-पैर चलाना नहीं है, न क्रिया का वेग और कौशल है, बल्कि वह स्नेह और सहयोग भावना है। सूक्ष्म भाषा में कहें तो उसकी अकर्तव्य-भावना है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रस्तुत मद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश ‘भाग्य और पुरुषार्थ’ पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक ‘जैनेन्द्र कुमार हैं।

(ii) पुरुषार्थ को भाग्य से अलग क्यों नहीं किया जा सकता है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार जहाँ पुरुष होता है वहाँ कर्मशीलता होती है और जहाँ कर्मशीलता है, वहीं भाग्य होता है, इसलिए पुरुषार्थ से भाग्य को अलग करने का अर्थ पुरुषार्थ को उसके अर्थ से अलग करना होता है। अतः पुरुषार्थ को भाग्य से अलग नहीं किया जा सकता।

(iii) पुरुषार्थ एवं बल में अन्तरे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पुरुषार्थ एवं बल में कोई सम्बन्ध नहीं होता है। बल क्रिया का वेग एवं कौशल होता है जो पशुओं में अधिक होता है, किन्तु पुरुषार्थ, स्नेह एवं सहयोग की भावना के साथ अन्य व्यक्तियों के साथ अन्तःक्रिया में संलग्न होता है।

(iv) पुरुषार्थ के लिए लेखक ने क्या आवश्यक माना हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार, पुरुषार्थ के लिए आवश्यक है- अहंकार का त्याग तथा स्नेह एवं सहयोग के साथ मिल-जुलकर कार्य करना।

(v) ‘हाथ-पैर’ का समास-विग्रह करके इसमें प्रयुक्त समास का भेद भी लिखिए।
उत्तर:
हाथ और पैर (समास-विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।

प्रश्न 5.
इच्छाएँ नाना हैं और नाना विधि हैं और उसे प्रवृत्त रखती हैं। उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। इस संसार को अभी राग-भाव से वह चाहता है कि अगले क्षण उतने ही विराग-भाव से वह उसका विनाश चाहता है। पर राग-द्वेष की वासनाओं से अन्त में झुंझलाहट और छटपटाहट ही उसे हाथ आती है। ऐसी अवस्था में उसका सच्चा भाग्योदय कहलाएगा अगर वह नत-नम्र होकर भाग्य को सिर आँखों लेगा और प्राप्त कर्तव्य में ही अपने पुरुषार्थ की इति मानेगा।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर: दीजिए।

(i) प्रवृत्ति-निवृत्ति के चक्र में फँसा मनुष्य क्यों थक जाता है?
उत्तर:
मनुष्य की विविध इच्छाएँ एवं आकांक्षाएँ होती हैं। वह अपनी इच्छा पूर्ति के लिए। आसक्त होकर कार्य करते हुए थक जाता है और तब वह सांसारिक सुखों को त्यागना चाहता है। इस तरह संघर्ष करते हुए प्रवृत्ति-निवृत्ति का चक्र मनुष्य को थका देता है।

(ii) प्रेम और ईष्र्या की वासनाओं में पड़कर व्यक्ति की स्थिति कैसी हो जाती हैं?
उत्तर:
मनुष्य इस संसार से प्रेम-भाव रखते हुए उसे चाहता है, किन्तु अगले ही क्षण ईष्र्या के वशीभूत होकर इस संसार को नष्ट करना चाहता है। इस प्रकार प्रेम और ईष्र्या की वासनाओं में पड़कर व्यक्ति झुंझलाहट एवं छटपटाहट की स्थिति में आ जाता है।

(iii) लेखक के अनुसार मनुष्य का सच्चा भाग्योदय कब सम्भव है?
उत्तर:
जब मनुष्य नम्रता से झुककर कर्तव्यों के निर्वाह में पुरुषार्थ को पूर्ण मानेगा, तभी लेखक के अनुसार मनुष्य का सच्चा भाग्योदय सम्भव है। जिससे मनुष्य सफलता की ऊँचाइयों को छू सकता है।

(iv) प्रवृत्ति’ व ‘राग’ शब्दों के क्रमशः विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर:
प्रवृत्ति – निवृत्ति। राग – विराग।

(v) ‘राग-द्वेष’ का समास-विग्रह करके समास का भेद भी लिखिए।
उत्तर:
राग और द्वेष (समास-विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।

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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 1 राष्ट्र का स्वरूप

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Chapter Chapter 1
Chapter Name राष्ट्र का स्वरूप
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UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 1 राष्ट्र का स्वरूप

राष्ट्र का स्वरूप – जीवन/साहित्यिक परिचय

(2018, 17, 16, 14, 13, 12, 11)

प्रश्न-पत्र में पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठों में से लेखकों के जीवन परिचय, कृतियाँ तथा भाषा-शैली से सम्बन्धित एक प्रश्न पूछा जाता हैं। इस प्रश्न में किन्हीं 4 लेखकों के नाम दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक लेखक के बारे में लिखना होगा। इस प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

जीवन-परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व के विद्वान वासुदेवशरण अग्रवाल का जन्म वर्ष 1904 में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के खेड़ा’ नामक ग्राम में हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद एम.ए. पी.एच.डी. तथा डी.लिट की उपाधि इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इन्होंने पालि, संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं एवं उनके साहित्य का गहन अध्ययन किया। ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में ‘पुरातत्त्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे। वासुदेवशरण अग्रवाल दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय के भी अध्यक्ष रहे। हिन्दी की इस महान् विभूति का वर्ष 1967 में स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ
इन्होंने कई ग्रन्थों का सम्पादन व पाठ शोधन भी किया जायसी के ‘पद्मावत’ की संजीवनी व्याख्या और बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत करके इन्होंने हिन्दी साहित्य को गौरवान्वित किया। इन्होंने प्राचीन महापुरुषों-श्रीकृष्ण, वाल्मीकि, मनु आदि का आधुनिक दृष्टिकोण से बुद्धिसंगत चरित्र-चित्रण प्रस्तुत किया।

कृतियाँ
डॉ. अग्रवाल ने निबन्ध-रचना, शोध और सम्पादन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. निबन्ध संग्रह पृथिवी पुत्र, कल्पलता, कला और संस्कृति, कल्पवृक्ष, भारत की एकता, माता भूमि, वाग्धारा आदि।
  2. शोध पाणिनिकालीन भारत।
  3. म्पादन जायसीकृत पद्मावत की संजीवनी व्याख्या, बाणभट्ट के हर्षचरित का सांस्कृतिक अध्ययन। इसके अतिरिक्त इन्होंने संस्कृत, पालि और प्राकृत के अनेक ग्रन्थों का भी सम्पादन किया।

भाषा-शैली।
डॉ. अग्रवाल की भाषा-शैली उत्कृष्ट एवं पाण्डित्यपूर्ण है। इनकी भाषा शुद्ध तथा परिष्कृत खड़ी बोली है। इन्होंने अपनी भाषा में अनेक प्रकार के देशज शब्दों का प्रयोग किया है, जिसके कारण इनकी भाषा सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक लगती है। इन्होंने प्रायः उर्दू, अंग्रेजी आदि की शब्दावली, मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग नहीं किया है। इनकी भाषा विषय के अनुकूल है। संस्कृतनिष्ठ होने के कारण भाषा में कहीं अवरोध आ गया है, किन्तु इससे भाव प्रवाह में कोई कमी नहीं आई है। अग्रवाल जी की शैली में उनके व्यक्तित्व तथा विद्वता की सहज अभिव्यक्ति हुई है, इसलिए इनकी शैली विचार प्रधान है। इन्होंने गवेषणात्मक, व्याख्यात्मक तथा उद्धरण शैलियों का प्रयोग भी किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान
पुरातत्त्व विशेषज्ञ डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल हिन्दी साहित्य में पाण्डित्यपूर्ण एवं सुललित निबन्धकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। पुरातत्चे व अनुसन्धान के क्षेत्र में, उनकी समता कर पाना अत्यन्त कठिन है। उन्हें एक विद्वान् टीकाकार एवं साहित्यिक ग्रन्थों के कुशल सम्पादक के रूप में भी जाना जाता है। अपनी विवेचना पद्धति की मौलिकता एवं विचारशीलता के कारण वे सदैव स्मरणीय रहेंगे।

राष्ट्र का स्वरूप – पाठ का सार

परीक्षा में ‘पाठ का सार’ से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता है। यह केवल विद्यार्थियों को पाठ समझाने के उद्देश्य से दिया गया है।

प्रस्तुत निबन्ध डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के निबन्ध संग्रह ‘पृथिवीपुत्र’ से लिया गया है। इसमें लेखक ने राष्ट्र के स्वरूप को तीन तत्वों के सम्मिश्रण से निर्मित माना है-पृथ्वी (भूमि), जन (मनुष्य) और संस्कृति।

पृथ्वी : हमारी धरती माता
लेखक का मानना है कि यह पृथ्वी, भूमि वास्तव में हमारे लिए माँ है, क्योंकि इसके द्वारा दिए गए अन्न-जल से ही हमारा भरण-पोषण होता है। इसी से हमारा जीवन अर्थात् अस्तित्व बना हुआ है। धरती माता की कोख में जो अमूल्य निधियाँ भरी पड़ी हैं, उनसे हमारा आर्थिक विकास सम्भव हुआ है और आगे भी होगा। पृथ्वी एवं आकाश के अन्तराल में जो सामग्री भरी हुई है, पृथ्वी के चारों ओर फैले गम्भीर सागर में जो जलघर एवं रत्नों की राशियाँ हैं, उन सबका हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव । अतः हमें इन सबके प्रति आत्मीय चेतना रखने की आवश्यकता है। इससे हमारी राष्ट्रीयता की भावना को विकसित होने में सहायता मिलती है।

राष्ट्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं सजीव अंग : जन (मनुष्य)
लेखक का मानना है कि पृथ्वी अर्थात् भूमि तब तक हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं हो सकती, जब तक इस भूमि पर निवास करने वाले जन को साथ में जोड़कर न देखा जाए। पृथ्वी माता है और इस पर रहने वाले जन अर्थात् मनुष्य इसकी सन्तान। जनों का विस्तार व्यापक है और इनकी विशेषताएँ भी विविध हैं। वस्तुतः जन का महत्त्व सर्वाधिक है। राष्ट्र जन से ही निर्मित होता है। जन के बिना राष्ट्र की कल्पना असम्भव है। ये जन अनेक उतार-चढ़ाव से जूझते हुए, कठिनाइयों का सामना करते हुए आगे बढ़ने के लिए कृत संकल्प रहते हैं। इन सबके प्रति आत्मीयता की भावना हमारे अन्दर राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ करती है।

संस्कृति : जन (मनुष्य) के जीवन की श्वास-प्रश्वास
लेखक का मानना है कि यह संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है और सरकृति के विकास एवं अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। अनेक संस्कृतियों के रहने के बावजूद सभी संस्कृतियों का मूल आधार पारस्परिक सहिष्णुता एवं समन्वय की भावना है। यही हमारे बीच पारस्परिक प्रेम एवं भाई-चारे का स्रोत है और इसी से राष्ट्रीयता की भावना को बल मिलता है।

लेखक का मानना है कि सहृदय व्यक्ति प्रत्येक संस्कृति के आनन्द पक्ष को स्वीकार करता है और उससे आनन्दित होता है। लेखक का मानना है कि अपने पूर्वजों से प्राप्त परम्पराओं, रीति-रिवाजों को बोझ न समझकर उन्हें सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। उन्हें भविष्य की उन्नति का आधार बनाकर ही राष्ट्र का स्वाभाविक विकास सम्भव है।

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएँगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।

प्रश्न 1.
भूमि का निर्माण देवों ने किया है, वह अनंत काल से है। उसके भौतिक रूप, सौन्दर्य और समृद्धि के प्रति सचेत होना हमारा आवश्यक कर्तव्य है। भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागरित होंगे उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती हो सकेगी। यह पृथ्वी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी है, जो राष्ट्रीय पृथ्वी के साथ नहीं जुड़ी, वह निर्मुल होती है। राष्ट्रीयता की जड़ें पृथ्वी में जितनी गहरी होंगी, उतना ही राष्ट्रीय भावों का अंकुर पल्लवित होगा। इसलिए पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की आद्योपान्त जानकारी प्राप्त करना, उसकी सुन्दरता, उपयोगिता और महिमा को पहचानना आवश्यक धर्म है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन हैं?
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश ‘राष्ट्र का स्वरूप’ पाठ से लिया गया है तथा इसके लेख ‘वासुदेवशरण अग्रवाल’ हैं।

(ii) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया हैं?
उत्तर:
प्ररतुत गद्यांश में लेखक ने राष्ट्र या देश के प्रथम महत्वपूर्ण तरच ‘भूमि’ या ‘धरती’ के रूप, उपयोगिता एवं महिमा के प्रति सर्तक रहने तथा उसे समृद्ध |” बनाने की बात पर बल दिया है।

(iii) लेखक ने हमारे कर्तव्य के प्रति क्या विचार प्रस्तुत किए हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार यह धरती या भूमि अनन्तकाल से है, जिसका निर्माण देवताओं ने किया है। इस भूमि के भौतिक स्वरूप, उसके सौन्दर्य एवं उसकी समृद्धि के
प्रति सतर्क एवं जागरूक रहना हमारा परम कर्तव्य है।

(iv) राष्ट्रीयता की भावना कब निर्मूल मानी जाती हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार हमारी समस्त राष्ट्रीय विचारधाराओं की जननी वस्तुतः पृथ्वी या धरती है। कोई भी राष्ट्रीयता यदि अपनी धरती से नहीं जुड़ी हो, तो उस राष्ट्रीयता की भावना को निर्मूल एवं निराधार माना जाता है।

(v) ‘निर्मूल’ और ‘पल्लवित’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग और प्रत्यय छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
निर्मूल – निर् (उपसर्ग)
पल्लवित – इत (प्रत्यय)

प्रश्न 2.
पृथ्वी और आकाश के अन्तराल में जो कुछ सामग्री भरी है, पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए गम्भीर सागर में जो जलचर एवं रत्नों की राशियाँ । हैं, उन सबके प्रति चेतना और स्वागत के नए भाव राष्ट्र में फैलने चाहिए। राष्ट्र के नवयुवकों के हृदय में उन सबके प्रति जिज्ञासा की नयी किरणें जब तक नहीं फूटतीं, तब तक हम सोये हुए के समान हैं। विज्ञान और उद्यम दोनों को मिलाकर राष्ट्र के भौतिक स्वरूप का एक नया ठाट खड़ा करना है। यह कार्य प्रसन्नता, उत्साह और अथक परिश्रम के द्वारा नित्य आगे बढ़ाना चाहिए। हमारा ध्येय हो कि राष्ट्र में जितने हाथ हैं, उनमें से कोई भी इस कार्य में भाग लिए बिना रीता न रहे।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) राष्ट्रीय चेतना में भौतिक ज्ञान-विज्ञान के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लेखक के अनुसार, राष्ट्रीयता की भावना केवल भावनात्मक स्तर तक ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि भौतिक ज्ञान-विज्ञान के प्रति जागृति के स्तर पर भी होनी चाहिए, क्योंकि पृथ्वी एवं आकाश के बीच विद्यमान नक्षत्र, समुद्र में स्थित जलचर, खनिजों एवं रत्नों का ज्ञान आदि भौतिक ज्ञान-विज्ञान राष्ट्रीय चेतना को सुदृढ बनाने हेतु आवश्यक होते हैं।

(ii) लेखक ने राष्ट्र की सुप्त अवस्था कब तक स्वीकार की है?
उत्तर:
लेखक ने राष्ट्र की सुप्त अवस्था तब तक स्वीकार की है, जब तक नवयुवकों में राष्ट्रीय चेतना और भौतिक ज्ञान-विज्ञान के प्रति जिज्ञासा विकसित न हो जाए। जब तक राष्ट्र के नवयुवक जिज्ञासु और जागरूक नहीं होंगे, तब तक राष्ट्र को सुप्तावस्था में ही माना जाना चाहिए।

(iii) विज्ञान और श्रम के संयोग से राष्ट्र प्रगति के पथ पर कैसे अग्रसर हो सकता है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार विज्ञान और परिश्रम दोनों को एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करना चाहिए, तभी किसी राष्ट्र का भौतिक स्वरूप उन्नत बन सकता है अर्थात् विज्ञान का विकास इस प्रकार हो कि उससे श्रमिकों को हानि न पहुँचे और उनके कार्य और कुशलता में वृद्धि हो। यह कार्य बिना किसी दबाव के हो तथा सर्वसम्मति में हो। इस प्रकार कोई भी राष्ट्र प्रगति कर सकता है।

(iv) लेखक के अनुसार, राष्ट्र समृद्धि का उद्देश्य कब पूर्ण नहीं हो पाएगा?
उत्तर:
लेखक के अनुसार, राष्ट्र समृद्धि का उद्देश्य तब तक पूर्ण नहीं हो पाएगा, जब तक देश का कोई भी नागरिक बेरोजगार होगा, क्योंकि राष्ट्र का निर्माण एक एक व्यक्ति से होता है। यदि एक भी व्यक्ति को रोजगार नहीं मिलेगा, तो राष्ट्र की प्रगति अवरुद्ध हो जाएगी।

(v) ‘स्वागत’ का सन्धि विच्छेद करते हुए उसका भेद बताइए।
उत्तर:
सु + आगत = स्वागत (यण् सन्धि)

प्रश्न 3.
माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथ्वी पर बसने वाले जन बराबर हैं। उनमें ऊँच और नीच का भाव नहीं है। जो मातृभूमि के उदय के साथ जुड़ा हुआ है, वह समान अधिकार का भागी हैं। पृथ्वी पर निवास करने वाले जनों का विस्तार अनन्त हे-नगर और जनपद, पैर और गाँव, जंगल और पर्वत नाना प्रकार के जनों से भरे हुए हैं। ये जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलने वाले और अनेक धमों के मानने वाले हैं, फिर भी ये मातृभूमि के पुत्र हैं और इस कारण उनका सौहार्द्र भाव अखण्ड है। सभ्यता और रहन-सहन की दृष्टि से जन एक दूसरे से आगे-पीछे हो सकते हैं, किन्तु इस कारण से मातृभूमि के साथ उनका जो सम्बन्ध है उसमें कोई भेद-भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। पृथ्वी के विशाल प्रांगण में सब जातियों के लिए समान क्षेत्र हैं। समन्वय के मार्ग से भरपूर प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) प्रस्तुत गद्यांश में माता और पृथ्वी की समानता किस आधार पर की गई
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में माता और पृथ्वी के मध्य समानता प्रकट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार प्रत्येक माता अपने सभी पुत्रों को समान भाव से स्नेह करती है तथा सबके दुःख और सुख में साथ रहती है, उसी प्रकार पृथ्वी भी अपने सभी पुत्रों अर्थात् पृथ्वीवासियों को जिसमें सभी छोटे-बड़े प्राणी शामिल हैं, प्यार देती है तथा उनकी जरूरतों को पूरा करने में सहयोग देती हैं।

(ii) “प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है-से लेखक का क्या आशय है?
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्ति से लेखक का आशय यह है कि व्यक्ति अमीर हों या गरीब, प्रगतिशील हो या पिछड़ा, सभी में मातृभूमि के लिए समान प्रेम-भाव होता है। संसार के समस्त प्राणियों को प्रगति व उन्नति करने के लिए मातृभूमि समान अवसर प्रदान करती है तथा इनकी समन्वय की भावना ही राष्ट्र की उन्नति च प्रगति का आधार होती हैं।

(iii) गद्यांश में मातृभूमि की सीमाओं को अनन्त क्यों कहा गया है?
उत्तर:
गोश में मातृभूमि की सीमाओं को अनन्त इसलिए कहा गया है, क्योंकि इसके निवासी अनेक नगरों, शहरों, जनपदों, गाँवों, जंगलों एवं पर्वतों में बसे हुए हैं। भिन्न-भिन्न स्थानों पर रहने वाले व्यक्ति अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं तथा विभिन्न धर्मों को मानने वाले हैं, परन्तु वे सभी एक ही धरती माता के पुत्र हैं।

(iv) प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से क्या सन्देश मिलता है
उत्तर:
प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने राष्ट्र के विभिन्न महत्वपूर्ण अंगों का विवेचन करते हुए हमें सन्देश दिया है कि समानता का व्यवहार करते हुए हमें अपनी धरती माता की निःस्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए।

(v) ‘मातृभूमि’ शब्द का समास विग्रह करते हुए उसका भेद लिखें।
उत्तर:
मातृभूमि – माता की भूमि (तत्पुरुष समास)।

प्रश्न 4.
राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युगों-युगों में जिस सभ्यता का निर्माण किया है वही उसके जीवन की श्वास-प्रश्वास है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबन्ध मात्र है; संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जाएँ तो राष्ट्र को लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है। भूमि पर बसने ‘ वाले जन ने ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा है और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, दोनों के रूप में हमें राष्ट्रीय संस्कृति के दर्शन मिलते हैं। जीवन के विकास की युक्ति ही संस्कृति के रूप में प्रकट होती है। प्रत्येक जाति अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ इस युक्ति को निश्चित करती है और उससे प्रेरित संस्कृति का विकास करती हैं। इस दृष्टि से प्रत्येक जन की अपनी-अपनी भावना के अनुसार पृथक्-पृथक् संस्कृतियाँ राष्ट्र में विकसित होती हैं, परन्तु उन सबका मूल-आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय पर निर्भर है।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) लेखक के अनुसार राष्ट्र का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग क्या है?
उत्तर:
लेखक ने भूमि एवं जन के बाद राष्ट्र का तीसरा महत्वपूर्ण अंग जन की ‘ संस्कृति को बताया है। मनुष्य ने युगों-युगों से जिस सभ्यता का निर्माण किया है, वह राष्ट्र के लोगों के लिए जीवन की श्वास के समान महत्वपूर्ण है, क्योंकि संस्कृति के अभाव में राष्ट्र के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग सकता है।

(ii) संस्कृति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
संस्कृति मनुष्य के मस्तिष्क से निर्मित वह व्यवस्था है, जिसके आधार पर परस्पर सह-अस्तित्व रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं, मूल्यों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं का एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान होता है। तथा सामूहिक जीवन सम्भव हो पाता है।

(iii) राष्ट्र की उन्नति में संस्कृति का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्र की उन्नति एवं विकास में संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि संस्कृति के विकास एवं अभ्युदय के फलस्वरूप राष्ट्र के लोगों के मस्तिष्क का विकास होता है, जिससे राष्ट्र की उन्नति एवं वृद्धि सम्भव हो पाती है।

(iv) जीवन के विटप का पुष्य संस्कृति है’ से लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
जिस प्रकार वृक्ष का सम्पूर्ण सौन्दर्य, महिमा उसके पुष्प में ही निहित होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य के जीवन रूपी वृक्ष का सम्पूर्ण सौन्दर्य, महिमा, सौरभ संस्कृति रूपी पुष्य में निहित होता है। जीवन के गौरव, चिन्तन, मनन और सौन्दर्य बोध में संस्कृति ही प्रतिबिम्बित होती है।

(v) ‘विटप’ तथा ‘पुष्प’ शब्दों के तीन-तीन पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर:
विटप – वृक्ष, पेड़, वट।।
पुष्प – फूल, कुसुम, सुमन।

प्रश्न 5.
गाँवों और जंगलों में स्वच्छन्द जन्म लेने वाले लोकगीतों में, तारों के नीचे विकसित लोक-कथाओं में संस्कृति का अमिट भण्डार भरा हुआ है, जहाँ से आनन्द की भरपूर मात्रा प्राप्त हो सकती है। राष्ट्रीय संस्कृति के परिचयकाल में उन सबका स्वागत करने की आवश्यकता है। पूर्वजों ने चरित्र और धर्म-विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो कुछ भी पराक्रम किया है, उस सारे विस्तार को हम गौरव के साथ धारण करते हैं और उसके तेज को अपने भावी जीवन में साक्षात् देखना चाहते हैं। यही राष्ट्र-संवर्धन का स्वाभाविक प्रकार हैं। जहाँ अतीत वर्तमान के लिए भार रूप नहीं है, जहाँ भूत वर्तमान को जकड़कर नहीं रखना चाहता वरन् अपने वरदान से पुष्ट करके उसे आगे बढ़ाना चाहता है, उस राष्ट्र का हम स्वागत करते हैं।

उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

(i) संस्कृति के वाहक एवं संरक्षक के रूप में लेखक ने किसे प्रस्तुत किया है?
उत्तर:
लोक गीतों और लोक कथाओं को लेखक ने संस्कृति के वाहक एवं संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया है, क्योंकि ये लोक गीत एवं लोक कथाएँ हमारे आचार-विचार, सभ्यता, रीति-रिवाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा यही हमारी संस्कृति का भण्डार होते हैं।

(ii) लेखक के अनुसार राष्ट्र की धरोहर क्या हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार हमारे पूर्वजों ने चरित्र, धर्म-विज्ञान, साहित्य, कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लगन, परिश्रम एवं बुद्धि के बल पर जो कुछ भी प्राप्त किया, वही राष्ट्र की धरोहर है।

(iii) एक राष्ट्र की उन्नति कब सम्भव हो सकती है?
उत्तर:
एक राष्ट्र की स्वाभाविक उन्नति तभी सम्भव है, जब राष्ट्र के लोग प्राचीन इतिहास से जुड़कर भावी उन्नति की दिशा में प्रयास करें। ऐसा राष्ट्र प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उनकी उन्नति की दिशा को प्रशस्त करता है।

(iv) हम किस भावना के माध्यम से अपने भविष्य को उज्ज्चल बना सकते हैं?
उत्तर:
हम अपनी प्राचीनता के प्रति गौरव की भावना के माध्यम से अपने भविष्य को उज्वल बना सकते हैं, क्योंकि यह भावना हमारे अन्तर्मन में प्रगति हेतु एक प्रबल आकांक्षा उत्पन्न करती है कि हम इस गौरव को अपने जीवन में उतारकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए प्रयासरत् रहें।

(v) ‘संवर्धन’ शब्द का सन्धि-विच्छेद करते हुए इसमें प्रयुक्त सन्धि का नाम भी लिखिए।’
उत्तर:
‘सम् + वर्धन’ = संवर्धन। यहाँ व्यंजन सन्धि प्रयुक्त हुई है।

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