UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 4
Chapter Name Mughal Period:
Jahangeer to Aurangzeb
(मुगलकाल- जहाँगीर से
औरंगजेब तक)
Number of
Questions Solved
15
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1605 ई०
2. 1627 ई०
3. 1628 ई०
4. 1657 ई०
5. 1707 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-87 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 87 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 88 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 88 व 89 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“जहाँगीर में विरोधी गुणों का सम्मिश्रण था” विवेचना कीजिए।
उतर:
जहाँगीर का चरित्र एवं व्यक्तित्व अत्यन्त विवादास्पद था। कुछ इतिहासकार उसे लोकप्रिय तथा उदार शासक मानते हैं तो कुछ आलसी, निकम्मा, विलासी, धर्म-असहिष्णु तथा क्रूर व्यक्तित्व वाला। अनेक इतिहासकार उसे विरोधी गुणों का सम्मिश्रण मानते हैं। स्मिथ के अनुसार “जहाँगीर कोमलता और क्रुरता, न्याय तथा चंचलता, शिष्टता एवं बर्बरता, बुद्धिमत्ता एवं लड़कपन का अद्वितीय सम्मिश्रण था।” वस्तुत: व्यक्तित्व और शासक के रूप में जहाँगीर में अनेक गुण और दुर्बलताएँ थीं।

प्रश्न 2.
“जहाँगीर की दक्षिणी नीति का मूल्याकंन कीजिए।
उतर:
दक्षिण अभियानों में जहाँगीर पूर्णतया असफल रहा। नए दुर्गों के जीतने की बात तो दूर रही, पिता द्वारा विजित भू-भाग भी वह अपने अधीन न रख सका। जहाँगीर के समय में दक्षिण भारत की राजनीति पर मलिक अम्बर छाया हुआ था। उसकी मृत्यु के बाद ही अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो सका।

प्रश्न 3.
नूरजहाँ के विषय में आप क्या जानते हैं?
उतर:
नूरजहाँ तेहरान के निवासी मिर्जा ग्यासबेग की पुत्री थी। उसका वास्तविक नाम महरुन्निसा था। महरुन्निसा का विवाह फारस के साहसी युवक अलीकुल बेग इस्तजलू के साथ हुआ। अलीकुल की हत्या के बाद महरुन्निसा ने जहाँगीर से विवाह कर लिया और उसे नूरमहल और नूरजहाँ की उपाधि मिली। नूरजहाँ ने मुगल राजनीति को प्रभावित ही नहीं किया था, अपितु स्वयं शासिका के रूप में प्रभावित हुई थी।

प्रश्न 4.
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति का परीक्षण कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति पूर्णत: विफल रहीं। शाहजहाँ का बल्ख व बदख्शाँ को विजित करने का सपना पूरा न हो सका अपितु मुगल साम्राज्य पर इसके प्रतिकूल प्रभाव पड़े। शाहजहाँ की मध्य एशियाई विजय-योजना में अपार धन की हानि हुई। इन युद्धों में मुगल सेना का विनाश तथा असफलता के कारण मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचा साथ ही मुगलों तथा मध्य एशिया में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अन्त हो गया।

प्रश्न 5.
शाहजहाँ के काल में साहित्य और कला की क्या प्रगति हुई?
उतर:
शाहजहाँ के काल में साहित्य और कला उन्नति के उच्च शिखर पर थे। साहित्य और ललितकलाओं के दृष्टिकोण से शाहजहाँ का काल स्वर्णयुग कहलाने का अधिकारी है। ‘गंगाधर’ और ‘गंगालहरी’ के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पण्डित, शाहजहाँ के राजकवि थे। संस्कृत ग्रन्थों, भगवद्गीता, उपनिषद्, रामायण आदि का अनुवाद भी इसी काल में हुआ। शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली का लालकिला, जामा मस्जिद, आगरा की मोती मस्जिद तथा आगरा की ही सर्वोत्कृष्ट कृति ताजमहल, शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। शाहजहाँ का ‘मयूर सिंहासन’ जो बहुमूल्य पत्थरों से जड़ित था तथा जिसके बीचों-बीच विश्वप्रसिद्ध हीरा कोहिनूर जगमगाता था, उसके गौरव में चार चाँद लगाने के लिए पर्याप्त था।

प्रश्न 6.
शाहजहाँ द्वारा निर्मित चार प्रमुख इमारतों के बारे में लिखिए।
उतर:
शाहजहाँ द्वारा निर्मित चार प्रमुख इमारतें निम्नवत् हैं

  1. दिल्ली का लाल किला-शाहजहाँ ने आगरा और फतेहपुर सीकरी को छोड़कर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और यहाँ लाल पत्थरों से एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसे लाल किला के नाम से जाना जाता है। इसके अन्दर की इमारतों में दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास प्रमुख हैं।
  2. जामा मस्जिद-लाल किले के सामने शाहजहाँ ने भारत की सबसे बड़ी मस्जिद का निर्माण कराया। इसमें दस हजार व्यक्ति सामुहिक रूप से नमाज अदा कर सकते हैं।
  3. मोती मस्जिद-आगरा के दुर्ग में शाहजहाँ ने शुद्ध संगमरमर से मस्जिद का निर्माण करवाया जो मोती मस्जिद के नाम से विख्यात है। यह संसार का सर्वोत्तम पूजा स्थल मानी जाती है।
  4. ताजमहल-शाहजहाँ की अमूल्य और सुन्दरतम कृति ताजमहल है। जो आगरा से यमुना नदी के तट पर संगमरमर से निर्मित है। ताजमहल का निर्माण उसने अपनी पत्नी मुमताज महल की स्मृति में बनवाया।

प्रश्न 7.
औरंगजेब ने हिन्दुओं के विरुद्ध कौन से कार्य किए?
उतर:
औरंगजेब ने हिन्दुओं को सरकारी नौकरियों से वंचित किया। हिन्दुओं के मंदिर और शिवालियों को तुड़वाकर मस्जिदें बनवा दी गई। सम्राट ने अनेक बार हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया। सिक्ख गुरु तेगबहादुर सिंह का इस्लाम स्वीकार न करने पर सिर कटवा दिया गया। दीपावली पर बाजारों में रोशनी करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। होली खेलने, मेलों तथा धार्मिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हिन्दुओं को धर्म-यात्रा पर भी कर देना पड़ता था।

प्रश्न 8.
औरंगजेब की असफलता के चार कारणों का उल्लेख कीजिए।
उतर:
औरंगजेब की असफलता के चार कारण निम्नवत हैं

  • धर्मान्धता एवं असहिष्णुतापूर्ण नीति
  • पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प
  • शासन का केन्द्रीकरण ।
  • राजपूत विरोधी नीति

प्रश्न 9.
मुगलों के पतन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
मुगलों के पतन के प्रमुख कारण निम्नवत हैं

  1. औरंगजेब का उत्तरदायित्व
  2. औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी
  3. मुगलों में उत्तराधिकार के नियम का अभाव
  4. मुगल सामन्तों का नैतिक पतन
  5. जागीरदारी संकट
  6. मुगलों की सैन्य दुर्बलताएँ
  7. बौद्धिक पतन
  8. मुगल साम्राज्य का आर्थिक दिवालियापन
  9. नौसेना का अभाव
  10. मुगल साम्राज्य की विशालता और मराठों का उत्कर्ष
  11. दरबार में गुटबाजी
  12. नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण
  13. यूरोपवासियों का आगमन

प्रश्न 10.
औरंगजेब राष्ट्रीय एकता में कहाँ तक बाधक था?
उतर:
औरंगजेब के कट्टरपन, शंकालु प्रवृत्ति, गैर-मुस्लिम नीति ने देश में राजनीतिक, गैर-वफादारी और वैमनस्य को हवा दी, इससे राष्ट्रीय एकता को गहरा आघात पहुँचा। औरंगजेब ने हिन्दू मन्दिरों, मठों को तुड़वाकर हिन्दू जाति से शत्रुता मोल ली। यह नीति उसके साम्राज्य निर्माण में बाधक थी। गैर-मुस्लिम नीति से वह भारत जैसे देश में कभी भी सफल संचालनकर्ता नहीं बन सकता था और ऐसा हुआ भी। उसकी इन नीतियों ने राष्ट्रीय एकता को खण्डित कर दिया और सम्पूर्ण राष्ट्र में अराजकता, अव्यवस्था फैल गई।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख करते हुए उसकी प्रमुख उपलब्धियों का विवेचन कीजिए।
उतर:
जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित थीं
1. खुसरो का विद्रोह-जहाँगीर के बादशाह बनने के उपरान्त सबसे पहली महत्वपूर्ण घटना उसके पुत्र खुसरो का विद्रोह थी। उदारतापर्वक आरम्भ किए हए साम्राज्य पर यह प्रथम आघात था। खुसरो दरबार में बड़ा लोकप्रिय था शक्तिशाली, मधुर-भाषी तथा चरित्रवान राजकुमार था। अकबर का खुसरो पर विशेष प्रेम था तथा विलासी और मद्यप जहाँगीर से असन्तुष्ट उसके अनेक दरबारी भी खुसरो को ही उसका उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। खुसरो की महत्वाकांक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी और वह सिंहासन प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। जहाँगीर भी खुसरो से असन्तुष्ट था तथा उसे विश्वासपात्र नहीं समझता था। जहाँगीर ने खुसरो को आगरा के दुर्ग में रहने दिया किन्तु उस पर कड़ा पहरा लगा दिया। खुसरो इस अपमान को सहन नहीं कर सका और 6 अप्रैल, 1606 ई० को अकबर के मकबरे के दर्शन करने के बहाने वह दुर्ग से बाहर निकल पड़ा तथा मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को लूटता हुआ, पानीपत जा पहुँचा। उधर शाही सेनाएँ शेख फरीद के नेतृत्व में खुसरो को पराजित करने के लिए चल पड़ी।

पानीपत में लाहौर का दीवान अब्दुर्रहीम; खुसरो से आकर मिल गया। खुसरो ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया और लाहौर की ओर बढ़ा। मार्ग में वह अमृतसर से कुछ किलोमीटर दूर तरनतारन में सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव की सेवा में उपस्थित हुआ। गुरु अर्जुनदेव ने उसे दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी और अपना आशीर्वाद भी दिया। खुसरो लाहौर जा पहुँचा किन्तु वहाँ के सूबेदार दिलावर खाँ ने किले के फाटक बन्द कर लिए। इस पर खुसरो ने लाहौर दुर्ग का घेरा डाल दिया, किन्तु इसी समय उसे सूचना मिली कि बादशाह स्वयं लाहौर के निकट आ पहुँचा है। इस पर भयभीत होकर खुसरो उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की ओर भागा। भैरोवल नामक स्थान पर पिता-पुत्र की सेनाओं में संघर्ष हुआ, जिसमें खुसरो की बुरी तरह पराजय हुई। सेना ने उसे पकड़ लिया तथा बन्दी बनाकर जहाँगीर के सम्मुख उपस्थित किया। जहाँगीर ने उसे कारावास में डलवा दिया तथा उसके सभी पक्षपातियों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी।

सिक्खों के गुरु अर्जुनदेव को भी सम्राट ने दरबार में बुलवाया तथा उनसे खुसरो की सहायता करने का कारण पूछा। गुरु अर्जुनदेव ने उत्तर दिया- “सम्राट अकबर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए ही मैंने राजकुमार की सहायता की थी, इसलिए नहीं कि वह तेरा सामना कर रहा था। किन्तु जहाँगीर ने उनकी सारी जागीर छीनकर उन्हें जेल में डाल दिया, जहाँ अनेक यातनाएँ देने के उपरान्त उसने उन्हें मरवा डाला। गुरु के इस कार्य से जहाँगीर अत्यन्त कुपित हुआ। उसने गुरु को दो लाख रुपया जुर्माना देने तथा गुरुग्रन्थसाहिब में से कुछ गीतों को निकालने की आज्ञा दी, जिसे गुरु ने ठुकरा दिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया। सम्राट का यह कार्य विवेकशून्य था। सिक्ख विचार परम्परा के अनुसार जहाँगीर ने अपने हठधर्म के आवेश में आकर ही यह दुष्कृत्य किया। सम्भवत: यह आरोप निराधार है परन्तु यह बात सत्य है कि गुरु के वध से सिक्खों और मुगलों के बीच भेदभाव उत्पन्न हो गए, जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब के समय में विद्रोह की आग भड़क उठी।

2. प्लेग का प्रकोप-1616 ई० में जहाँगीर के काल में भयंकर प्लेग का प्रकोप हुआ और उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक फैल गया। आगरा, लाहौर तथा कश्मीर में इसका विशेष प्रकोप था। जहाँगीर ने लिखा है कि यह बीमारी चूहों के द्वारा फैली थी। रोग का इलाज न हो सकने के कारण गाँव-के-गाँव तबाह हो गए। आठ वर्ष तक यह रोग चलता रहा तथा इससे भीषण जन-क्षति हुई। जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख उपलब्धियाँ- यद्यपि जहाँगीर में अकबर जैसी सैनिक प्रतिभा नहीं थी तथापि उसने कुछ सैनिक अभियान भी किए। उसके समय की सबसे प्रमुख घटना थी- मेवाड़ पर विजय एवं दक्षिण में सैनिक अभियान। जहाँगीर के समय में मुगलों को सैनिक क्षति भी उठानी पड़ी। कंधार उनके हाथों से निकल गया। जहाँगीर के प्रमुख विजय अभियान निम्नलिखित थे
(i) मेवाड़ विजय-अकबर ने अपने समय में मेवाड़ को जीतने का निरन्तर प्रयत्न किया था, परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। महाराणा प्रताप के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी महाराणा अमर सिंह ने भी अपने पिता की नीति को ही जारी रखा। अकबर के पश्चात् सलीम जब जहाँगीर के नाम से सम्राट बना तो वह मेवाड़ को जीतने के लिए लालायित हो उठा। 1605 ई० में ही जहाँगीर ने अपने द्वितीय पुत्र परवेज और आसफ खॉ जफरबेग के नेतृत्व में 20,000 अश्वारोहियों की एक सेना मेवाड़ विजय हेतु भेजी। देबारी की घाटी में युद्ध हुआ जो अनिर्णायक रहा। इसी बची खुसरो के विद्रोह के कारण परवेज को सेना सहित वापस बुला लिया। दो वर्ष पश्चात् 1608 ई० में महावत खाँ के नेतृत्व में एक सेना फिर मेवाड़ के लिए भेजी गई। लेकिन वह भी विशेष सफलता हासिल न कर सकी। जहाँगीर ने 1609 ई० में मेवाड़ का नेतृत्व अब्दुल्ला खाँ के सुपुर्द किया।

अब्दुल्ला खाँ अभियान भी मुगलों को सफलता नहीं दिला सका। 1611 ई० में मऊ का राजा बसु भी मेवाड़ में विफल रहा। अत: 7 सितम्बर, 1613 में जहाँगीर स्वयं शत्रु पर दबाव डालने के उद्देश्य से अजमेर पहुँचा। मेवाड़ के युद्ध के संचालन का भार अजीज कोका और शाहजादा खुर्रम को सौंपा गया। इन दोनों के आपसी सम्बन्ध कटु थे। अतः अजीज कोका को वापस बुला लिया गया। अब केवल खुर्रम पर आक्रमण का पूर्ण उत्तरदायित्व था। खुर्रम ने मेवाड़ में बर्बादी मचा दी। राणा का रसद पहुँचाना भी कठिन हो गया। बाध्य होकर अमर सिंह ने संधि करने का निर्णय लिया। राणा ने अपने मामा शुभकर्ण एवं विश्वासपात्र हरदास झाला को सन्धि के लिए भेजा। जहाँगीर ने भी राजपूतों से संधि करना स्वीकार किया और 1615 ई० में निम्नलिखित शर्तों पर मुगल व मेवाड़ में संधि हो गई

  • राणा ने सम्राट जहाँगीर की अधीनता स्वीकार की।
  • बदले में जहाँगीर ने चित्तौड़ के किले सहित मेवाड़ का समस्त भू-प्रदेश राणा को लौटा दिया। शर्त यह रखी कि चित्तौड़ के किले की मरम्मत व किलेबन्दी न की जाएगी।
  • राणा को सम्राट के दरबार में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया गया। यह निश्चय हुआ कि राणा का युवराज कर्ण अपनी एक हजार सेना के साथ मुगल सम्राट की सेवा में रहेगा।
  • अन्य राजपूत नरेशों की भाँति राणा को मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए भी बाध्य नहीं किया गया।

इस प्रकार मेवाड़ और मुगलों का दीर्घकालीन संघर्ष समाप्त हुआ। कुछ लेखकों ने राणा अमरसिंह को अपने वंशानुगत शत्रु के समक्ष अपनी स्वाधीनता खो देने का दोषी ठहराया है। परन्तु यह आरोप सर्वथा निराधार है। मेवाड़ जैसी एक छोटी-सी रियासत के लिए साधन-सम्पन्न मुगल साम्राज्य से टक्कर लेना कहाँ तक सम्भव होता, उसे एक-न-एक दिन तो झुकना ही था। जैसा कि डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव ने लिखा है कि “मेवाड़ परिस्थिति में शांति अपेक्षित थी और 1615 ई० की संधि में उसे वह शांति, सम्मान और गौरव के साथ मिली….. इस प्रकार संकटग्रस्त देश के लिए इतनी अपेक्षित शांति संग्रह के इस सुवर्ण अवसर को राणा अमरसिंह यदि उपयोग में न लाते तो यह अविवेकपूर्ण कार्य होता।’

(ii) बंगाल के विद्रोह का दमन-अकबर ने यद्यपि बंगाल विजय कर लिया था किन्तु अफगान शक्ति का वह पूर्णतया दमन नहीं कर सका था। अकबर की मृत्यु के उपरान्त 1612 ई० में अपने नेता उस्मान खाँ के नेतृत्व में उन्होंने पुन: विद्रोह किया। बंगाल के सूबेदार इस्लाम खाँ ने बड़ी वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना किया, फलस्वरूप युद्ध-भूमि में लड़ते-लड़ते उस्मान खाँ मारा गया। जहाँगीर ने पराजित अफगानों के साथ उदारता का व्यवहार किया तथा उन्हें अपनी सेना के उच्च पदों पर आसीन किया।

(iii) काँगड़ा विजय-उत्तर-पूर्व पंजाब में काँगड़ा की सुन्दर घाटी है जिस पर एक सुदृढ़ किला बना हुआ था। अकबर के समय में पंजाब के सूबेदार हसन कुली खाँ ने इसे जीतने का प्रयास किया था परन्तु वह असफल हुआ था। 1620 ई० में शाहजादा खुर्रम के नेतृत्व में राजा विक्रमाजीत ने इस किले का घेरा डाला और लगभग चार माह के घेरे के पश्चात् इस पर अधिकार कर लिया।

(iv) किश्तवार विजय (1622 ई०)- कश्मीर में किश्तवार एक छोटी-सी रियासत थी। यद्यपि कश्मीर मुगल साम्राज्य का अंग था, किन्तु किश्तवार में स्वतन्त्र हिन्दू राजा राज्य कर रहा था। जहाँगीर ने कश्मीर के सूबेदार दिलावर खाँ को किश्तवार विजय करने का आदेश दिया। यद्यपि हिन्दू वीरतापूर्वक लड़े किन्तु अन्त में उन्हें पराजित होना पड़ा और 1622 ई० में किश्तवार मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

(v) कंधार विजय-भारत के इतिहास में उत्तर-पश्चिमी सीमा का विशेष महत्त्व रहा है, क्योंकि प्राचीन काल से ही विदेशियों के आक्रमण सदैव इसी ओर से होते रहे। साथ ही कंधार प्राचीनकाल से व्यवसाय तथा व्यापार के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। मुगल सम्राट कंधार के प्रति विशेष रूप से सजग थे। बाबर ने सर्वप्रथम 1522 ई० में कंधार पर विजय प्राप्त की थी। उसकी मृत्यु तक कंधार मुगल साम्राज्य में था। हुमायूं के समय में कंधार पर उसके भाई कामरान का अधिकार रहा, जिसके दुष्परिणाम हुमायूँ को जीवनभर भुगतने पड़े।

ईरान के शाह ने हुमायूं की सहायता करने का वचन इस शर्त पर दिया था कि वह कंधार ईरान के हवाले कर देगा, किन्तु कंधार विजय करके हुमायूँ ने उसे ईरान के शाह को लौटाने में टालमटोल की और उसे अपने अधीन ही रखा। उसकी मृत्यु के पश्चात् 1558 ई० में कंधार पर ईरान ने अधिकार कर लिया। अकबर से भयभीत होकर 1564 ई० में कंधार अकबर को सौंप दिया गया था। अकबर की मृत्यु के उपरान्त ईरान के सम्राट शाह अब्बास ने 1606 ई० में कुछ ईरानियों को कंधार पर आक्रमण करने के लिए भेजा किन्तु मुगल सेनापति शाहबेग खाँ ने उन्हें भगा दिया। टर्की से युद्ध में फंसे रहने के कारण इस समय शाह अब्बास पूरी शक्ति के साथ मुगलों से युद्ध करने में असमर्थ था।

1622 ई० में सुअवसर देखकर शाह ने कंधार का घेरा डाल दिया। कंधार का मुगल सेनापति 45 दिन घेरे में रहने के बाद परास्त हुआ। जहाँगीर ने शहजादा परवेज को कंधार पर आक्रमण करने का आदेश दिया, किन्तु आसफ खाँ के हस्तक्षेप से यह स्थगित कर दिया गया। नूरजहाँ खुर्रम को राजधानी से दूर रखना चाहती थी इसलिए उसने जहाँगीर द्वारा खुर्रम को कंधार जाने की आज्ञा दिलवा दी। परन्तु खुर्रम इस समय राजधानी से दूर नहीं रहना चाहता था अतः उसने सम्राट की आज्ञा का पालन करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। दरबार के पड्यन्त्रों का लाभ ईरान के शाह अब्बास ने उठाया तथा कंधार पर अधिकार कर लिया। इससे मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा पर गहरा आघात पहुँचा। जहाँगीर कंधार को पुन: प्राप्त नहीं कर सका।

(vi) अहमदनगर विजय-जहाँगीर के समय में दक्षिण भारत की राजनीति पर मलिक अम्बर छाया हुआ था। मलिक अम्बर बुहत फुर्तीला, संगठनशील और सैनिक योग्यता प्राप्त सरदार था। वह अहमदनगर के उन समस्त प्रदेशों पर पुनः अधिकार करने का प्रयास कर रहा था, जिन्हें अकबर के समय में मुगलों ने अधिगृहित कर लिया था। अत: 1608 ई० में जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम खानखाना के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी, परन्तु अब्दुर्रहीम खानखाना मलिक अम्बर के विरुद्ध कोई सफलता प्राप्त न कर सका। इसके पश्चात् खान-ए-जहाँ लोदी तथा अब्दुल्ला खाँ को मलिक अम्बर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा, लेकिन इन दोनों को भी मलिक अम्बर ने पराजित कर दिया।

अत: निराश होकर जहाँगीर ने एक बार पुनः अब्दुर्रहीम खानखाना को भेजा। इस दूसरे अभियान में बहुत सीमा तक खानखाना ने अपने सम्मान की सफलतापूर्वक रक्षा की, लेकिन उस पर विरोधी पक्ष से घूस लेने का आरोप लगाया गया, जिसके कारण नूरजहाँ के परामर्श के अनुसार 1616 ई० के प्रारम्भ में अहमदनगर अभियान हेतु खानखाना की जगह खुर्रम को नियुक्त किया गया। खुर्रम की शक्ति से भयभीत होकर मलिक अम्बर ने सन्धि कर ली। जहाँगीर ने खुर्रम की सफलता से खुश होकर उसे शाहजहाँ’ की उपाधि प्रदान की। खुर्रम (शाहजहाँ) और मलिक अम्बर की सन्धि अधिक दिन तक नहीं चली। 1620 ई० में मलिक अम्बर ने सन्धि का उल्लंघन कर खोए हुए प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया। जहाँगीर को जब यह समाचार मिला तो उसने पुनः शाहजहाँ को अहमदनगर भेजा। शाहजहाँ ने मलिक अम्बर को सन्धि के लिए बाध्य किया। अन्त में 1626 ई० में मलिक अम्बर की मृत्यु के पश्चात् अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो गया।

2. नूरजहाँ के मुगल राजनीति पर प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उतर:
नूरजहाँका मुगल राजनीति पर प्रभाव
1. राजनीति में नूरजहाँ का प्रवेश – मई 1611 ई० में जहाँगीर से नूरजहाँ ने विवाह कर लिया। विवाह के बाद जहाँगीर, जो
आरम्भ से ही विलासी प्रवृत्ति का था, और भी विलासिता में डूब गया तथा राज्य की सम्पूर्ण बागडोर उसने इस महत्वाकांक्षी महिला के हाथ में छोड़ दी। राज्य जहाँगीर के नाम पर चलता था किन्तु वास्तविक शासक नूरजहाँ थी। नूरजहाँ के शासनकाल को, डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम काल-1611 से 1622 ई० तक तथा द्वितीय काल-1622 से 1627 ई० तक।

(क) प्रथम काल (1611 से 1622 ई० तक) – नूरजहाँ के प्रभुत्व का प्रथम काल मुगल साम्राज्य के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ। इस समय नूरजहाँ के गुट में दरबार के प्रभावशाली व्यक्ति सम्मिलित थे। स्त्री स्वभाव के अनुसार नूरजहाँ पक्षपात एवं गुटबन्दी की नीति की अनुयायी थी। इस काल में उसके गुट में उसका पिता ऐतमादुद्दौला, उसका भाई आसफ खाँ तथा शहजादा खुर्रम (आसफ खाँ का दामाद) सम्मिलित थे। यह गुट दरबार में सबसे प्रभावशाली था तथा 1611 से 1622 ई० तक राज्य की सम्पूर्ण बागडोर इस गुट के हाथ में रही थी।

(ख) द्वितीय काल (1622 से 1627 ई० तक) – नूरजहाँ के प्रभुत्व के प्रथम काल के समान, उसका द्वितीय काल गौरवपूर्ण व लाभकारी सिद्ध न हो सका। इसके विपरीत, यह काल षड्यन्त्रों, विद्रोहों तथा उपद्रवों का काल बन गया। इसका प्रमुख कारण नूरजहाँ की महत्वाकांक्षा थी। खुर्रम के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर नूरजहाँ उससे ईर्ष्या करने लगी थी तथा खुर्रम के विरुद्ध जहाँगीर के कान भरने लगी, परिणामस्वरूप खुर्रम ने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। नूरजहाँ को स्वामिभक्त सेवकों के प्रति भी संदेह रहता था तथा वह उनके उत्थान को भी सहन नहीं कर सकती थी। उसकी इस प्रवृत्ति के कारण ही महावत खाँ जैसे योग्य एवं स्वामिभक्त सेनापति को भी विद्रोह करने के लिए विवश होना पड़ा। इन दोनों विद्रोहों का परिणाम मुगल साम्राज्य के लिए बड़ा भयंकर तथा हानिकारक सिद्ध हुआ। अतः मुगल साम्राज्य षड्यन्त्रों, कुचक्रों तथा विद्रोहों का अड्डा बन गया। कंधार का मुगल हाथों से निकल जाना नूरजहाँ का सबसे हानिकारक परिणाम था।

2. राजनीतिक प्रभाव – राजनीतिक तथा शासन सम्बन्धी दृष्टिकोण से नूरजहाँ का मुगल साम्राज्य पर घातक प्रभाव पड़ा। 1611 से 1622 ई० तक वह अपने गुट का नेतृत्व करती रही। उसने अपने पक्षपातियों को उच्च-से-उच्च पद प्रदान किए तथा विरोधियों का विनाश किया। उसने योग्यता से अधिक रक्त-सम्बन्ध का ध्यान रखा तथा अपने पिता के परिवार को एक संगठित दल बना दिया। जब तक उसका पिता जीवित रहा, नूरजहाँ को सदैव उचित परामर्श देता रहता था। वह उसकी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ने नहीं देता था, परन्तु 1622 ई० में अपने पिता एतमादुद्दौला की मृत्यु के उपरान्त नूरजहाँ पूर्णत: निरंकुश हो गई तथा उसने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना आरम्भ कर दिया।

नूरजहाँ अभी तक खुर्रम का पक्षपात करती आई थी, परन्तु जब नुरजहाँ ने शेर अफगन से उत्पन्न अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरयार के साथ कर दिया तब खुर्रम के अनेक बार हिसार-फिरोजा की जागीर के लिए प्रार्थना-पत्र भेजने पर भी उसने यह जागीर शहरयार को दे दी। वास्तव में, नूरजहाँ शहरयार को जहाँगीर का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी, जिसका परिणाम खुर्रम के विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित हुआ।

(क) खुर्रम का विद्रोह- जहाँगीर के चार पुत्र थे – खुसरो, परवेज, खुर्रम तथा शहरयार। खुसरो की मृत्यु के उपरान्त खुर्रम ही सबसे योग्य शहजादा था। शहरयार बिल्कुल अयोग्य तथा निकम्मा था तथा परवेज मद्यप एवं विलासी था। अतः सिंहासन के दो दावेदार थे- खुर्रम तथा शहरयार। खुर्रम ने अभी तक मुगल साम्राज्य की बड़ी सेवाएँ की थी। वह जहाँगीर का सबसे वीर तथा कुशल पुत्र था, किन्तु नूरजहाँ खुर्रम को अपने मार्ग का काँटा मानकर उसे मार्ग से हटाने के लिए उत्सुक थी। इसी समय ईरान के शाह ने कंधार पर अधिकार कर लिया। नुरजहाँ ने जहाँगीर से कहा कि कंधार विजय के अभियान का दायित्व खुर्रम को सौंप देना चाहिए परन्तु खुर्रम जानता था कि नूरजहाँ कंधार विजय के बहाने

उसे राजधानी से दूर हटा देना चाहती है, अत: उसने कंधार जाने से इनकार कर दिया। नूरजहाँ ने इसे सुअवसर मानकर जहाँगीर के कान भरने आरम्भ कर दिए कि खुर्रम विद्रोही है तथा उसने सम्राट की आज्ञा की अवहेलना की है। खुर्रम ने नूरजहाँ की इस नीति से कुपित होकर विद्रोह कर दिया। खुर्रम का यह सन्देह ठीक ही था कि उसकी अनुपस्थिति में शहरयार को उच्च पद दे दिए जाएंगे और उसे युद्ध-क्षेत्र में मरवा डाला जाएगा। डॉ० बेनी प्रसाद ने स्वीकार किया है कि शहजादा खुर्रम की अनुपस्थिति में, नूरजहाँ अवश्य अपने पशुतुल्य दामाद शहरयार को उन्नति देकर राजकुमार (शाहजहाँ) की स्थिति को नीचा कर देती। इसी डर के कारण खुर्रम को फारस वालों के विरुद्ध युद्ध न करके अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करना पड़ा। इस प्रकार कंधार मुगल सम्राज्य से हमेशा के लिए निकल गया। इस हानि के लिए नूरजहाँ ही सबसे अधिक उत्तरदायी थी।

(ख) महावत खाँ का विद्रोह – खुर्रम के विद्रोह का दमन करके नूरजहाँ ने महावत खाँ की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने का प्रयास किया। खुर्रम के विद्रोह करने के पश्चात् स्वामिभक्त महावत खाँ, परवेज का पक्षपाती बन गया था। नूरजहाँ ने महावत खाँ को काबुल का सूबेदार नियुक्त करके काबुल भिजवा दिया और उसके स्थान पर खाने जहाँ लोदी को परवेज का वकील नियुक्त कर दिया। यद्यपि परवेज इस आज्ञा का उल्लंघन करने को तेयार था लेकिन महावत खाँ तुरन्त काबुल की ओर रवाना हो गया। यह पूर्णत: सत्य है कि महावत खाँ को विद्रोही बनाने के लिए नूरजहाँ उत्तरदायी थी। इस प्रकार जिस व्यक्ति को साम्राज्य के शत्रुओं के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता था, वह स्वयं शत्रु बन गया। इस विद्रोह ने मुगल साम्राज्य की जड़े हिला दीं।

3. जहाँगीर की मृत्यु – 1620 ई० से जहाँगीर का स्वास्थ्य निरन्तर खराब होता जा रहा था। निरन्तर कश्मीर की यात्राएँ और वहाँ की जलवायु भी उसके स्वास्थ्य को ठीक नहीं कर सकी थी। मार्च, 1627 में वह स्वास्थ्य लाभ के लिए फिर कश्मीर गया, लेकिन उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। अत: वह पुनः लाहौर की तरफ गया, किन्तु रास्ते में ही उसकी तबीयत खराब हो गई और 7 नवम्बर, 1627 को 58 वर्ष की आयु में भीमवार नामक स्थान पर जहाँगीर की मृत्यु हो गई। लाहौर के निकट शाहदरे के सुन्दर बाग में उसे दफना दिया गया, जहाँ नूरजहाँ ने एक सुन्दर मकबरा बनवाया।

प्रश्न 3.
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल स्थापत्य कला पर क्या प्रभाव पड़ा?
उतर:
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल स्थापत्य कला पर प्रभाव- शाहजहाँ एक ‘शानदार’ सम्राट था तथा उसे भवन निर्माण कला से विशेष अनुराग था। यद्यपि उसके काल में सभी ललित कलाओं तथा साहित्य का पोषण हुआ किन्तु भारत में भवननिर्माण-कला का जितना विकास उसके काल में हुआ उतना और कभी नहीं हुआ। यद्यपि अकबर के समय में भी अनेक कलाकतियों का निर्माण हुआ किन्त सौन्दर्य के दष्टिकोण से शाहजहाँ के समय की कला ने उसके महान पितामह के समय की कला को भी पीछे छोड़ दिया।

अकबर द्वारा परिश्रमपूर्वक स्थापित साम्राज्य का वास्तविक उपभोग शाहजहाँ ने ही किया। यद्यपि स्वर्ण-युग का आरम्भ जहाँगीर के काल में ही हो गया था किन्तु कला-क्षेत्र में जहाँगीर नहीं वरन् शाहजहाँ का काल स्वर्ण युग माना गया है। परन्तु अनेक विद्वानों में इसमें मतभेद भी हैं। उसके काल की कलाकृतियाँ आज भी उसके समय के गौरव का गान कर रही हैं। विद्वानों के मत में शाहजहाँ यदि और कुछ निर्मित न करवाकर केवल ताजमहल ही निर्मित करवा देता तब भी उसका काल कला का स्वर्ण-युग ही माना जाता। शाहजहाँ के शासन काल में मुगल स्थापत्य कला में योगदान निम्नलिखित है

1. ताजमहल – ताजमहल शाहजहाँ की अमूल्य तथा सुन्दरतम कृति है, जिसे आगरा में यमुना के तट पर सफेद संगमरमर से निर्मित किया गया। ताजमहल का निर्माण उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में करवाया था तथा इसी सुन्दर मकबरे में मुमताजमहल को दफनाया गया था। अन्त में शाहजहाँ की कब्र भी यहीं (मुमताजमहल की कब्र के समीप) बनाई गई। तत्कालीन इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार- “ताजमहल 50 लाख रुपये से 12 वर्ष में बनकर तैयार हुआ था। 1631 ई० में मुमताज की मृत्यु हुई तथा उसके एक वर्ष पश्चात् ही उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया था। ट्रेवेनियर के अनुसार- “इस इमारत (ताजमहल) पर तीन करोड़ रुपया व्यय हुआ तथा 1653 ई० में 22 वर्ष पश्चात यह बनकर तैयार हुई। 20,000 श्रमिकों ने प्रतिदिन इस भवन के निर्माण में योगदान दिया। आज भी ताजमहल संसार की आश्चर्यजनक कलाकृतियों में अपना उच्च स्थान रखता है।

2. मुसम्मन बुर्ज – आगरा के दुर्ग में बादशाह ने कई संगमरमर के भवन बनवाए, जो उसके हरम की स्त्रियों के लिए थे। जहाँआरा तथा रोशनआरा के निवास के लिए भी उसने भवन बनवाए। इन्हीं भवनों के पास उसने मुसम्मन बुर्ज का निर्माण कराया, जो शुद्ध संगमरमर द्वारा निर्मित है तथा बहुमूल्य पत्थरों से अलंकृत है। यहीं पर ताजमहल को देखते-देखते सम्राट ने अपने प्राण त्यागे थे। इसके अतिरिक्त झरोखा-दर्शन, दौलतखाना-ए-खास उसकी अन्य इमारतें हैं, जो उसने आगरा के दुर्ग में निर्मित करवाई। जहाँआरा के कहने पर उसने एक बड़ा चौक तथा उसमें लाल पत्थरों की जामा मस्जिद निर्मित करवाई, जो 1648 ई० में, पाँच वर्ष में निर्मित हुई।

3. मोती मस्जिद – आगरा के दुर्ग में बादशाह ने एक छोटी-सी मस्जिद का निर्माण करवाया, जो शुद्ध संगमरमर की बनी है। तथा मोती मस्जिद के नाम से विख्यात है, क्योंकि मोती के समान सफेद पत्थरों द्वारा इसका निर्माण हुआ था। यह मस्जिद अपनी सादगी एवं सौन्दर्य के लिए विख्यात है तथा विद्वानों के मत में यह संसार का सर्वोत्तम पूजा-स्थल मानी जाती है।

4. जामा मस्जिद – लाल किले के सामने शाहजहाँ ने जामा मस्जिद का निर्माण करवाया, जो भारत की सबसे बड़ी मस्जिद मानी जाती है। यह लाल पत्थर की बनी है तथा 6 वर्ष में इसका निर्माण किया गया था। मस्जिद के चारों ओर सीढ़ियाँ बनी हैं तथा इसमें दस हजार व्यक्ति सामूहिक रूप से नमाज पढ़ सकते हैं।

5. शाहजहाँनाबाद – शाहजहाँ ने आगरा तथा फतेहपुर सीकरी को छोड़कर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया तथा यमुना के किनारे उसने एक नवीन दिल्ली नगर का निर्माण कराया, जिसे उसने शाहजहाँनाबाद नाम दिया। यहाँ का किला लाल पत्थर द्वारा निर्मित है। इसके अन्दर की इमारतों में दीवान-ए-आम (जो लाल पत्थर द्वारा निर्मित है) तथा दीवान-ए-खास प्रमुख हैं। दीवान-ए-खास शुद्ध संगमरमर का बना है, जिसकी छतों पर सोने का बहुमूल्य तथा सुन्दर काम किया गया है। दीवान-ए-खास को वास्तव में पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें संगमरमर की बनी एक ऊँची चौकी पर ‘मयूर सिंहासन’ रखा रहता था, जिसे ‘तख्त-ए-ताउस’ कहा जाता था। यह बादशाह की एक अनुपम कृति थी। दिल्ली के लाल किले की अन्य इमारतों में रंगमहल, मुमताजमहल तथा सावन-भादों प्रमुख हैं। सावन-भादों में सम्राट सावन व भादों के महीनों में विहार करता था।

6. जहाँगीर का मकबरा – लाहौर से चार मील दूर शाहदरा में शाहजहाँ ने अपने पिता का छोटा किन्तु भव्य मकबरा निर्मित करवाया।

7. मयूर सिंहासन – सुन्दरतम कलाकृतियों में, जिनका निर्माण शाहजहाँ के काल में हुआ, मयूर सिंहासन का उच्च स्थान है। इस सिंहासन के निर्माण में 14 लाख रुपये का सोना खर्च हुआ। इसकी लम्बाई सवा-तीन गज, चौड़ाई दो गज तथा ऊँचाई 5 गज थी। इस सिंहासन में 12 स्तम्भ तथा जवाहरातों से निर्मित दो मोर थे। सात वर्ष में यह बनकर तैयार हुआ।

1739 ई० में नादिरशाह ने जब भारत पर आक्रमण किया तो वह इस बहुमूल्य सिंहासन को अपने साथ ले गया। उपर्युक्त महत्वपूर्ण भवनों के अतिरिक्त शाहजहाँ ने कुछ अन्य कलाकृतियों का भी निर्माण करवाया। दिल्ली मे उसने निजामुद्दीन औलिया का मकबरा बनवाया, जिसमें संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। अजमेर में उसने एक मस्जिद तथा एक सुन्दर मकबरे का निर्माण कराया, जो शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के पश्चिम की ओर स्थित है। शाहजहाँ को सुन्दर उद्यानों से भी विशेष प्रेम था। उसने अपनी सभी इमारतों में सुन्दर उद्यान बनवाए। कश्मीर के शालीमार बाग तथा चश्मेशाही और लाहौर के शालीमार बाग उसी की देन हैं।

प्रश्न 4.
शाहजहाँ का शासनकाल मुगल शासन का स्वर्ण-युग था, पर उसमें पतन के चिह्नन भी थे।” इस कथन की विस्तार पूर्वक व्याख्या कीजिए।
या
शाहजहाँ के शासनकाल के पक्ष व विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ का राज्यकाल स्वर्ण-युग था अथवा नहीं, इस पर सब विद्वान एकमत नहीं हैं। बादशाह के समकालीन इतिहासकारों तथा विदेशी यात्रियों ने इस युग को स्वर्ण-युग कहकर सम्बोधित किया है। अब्दुल हमीद लाहौरी, खाफी खाँ, ट्रेवेनियर, वूल्जले हेग, हण्टर, लेनपूल तथा एलपिन्सटन आदि इतिहासकार इस युग को शान्ति, समृद्धि तथा साहित्य एवं कला का स्वर्ण-युग मानते हैं। दूसरी ओर पीटरमण्डी, बर्नियर और स्मिथ ने शाहजहाँ के युग का दूसरा पक्ष लिया है, जो अन्धकारपूर्ण है तथा उस पक्ष को ध्यान में रखकर शाहजहाँ के काल को स्वर्ण-युग नहीं कहा जा सकता। इन इतिहासकारों का कथन है कि यद्यपि शाहजहाँ का दरबार, उसकी कलाकृतियों तथा साहित्य की उन्नति की चकाचौंध में कोई भी व्यक्ति उस काल को स्वर्ण-युग मान सकता है। किन्तु यदि उस चकाचौंध से हटकर साधारण जनता की स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह युग स्वर्ण-युग के स्थान पर अन्धकार का युग कहलाने योग्य है।

इस प्रकार शाहजहाँ के काल के विषय में विद्वानों के दो विरोधी मत हैं
शाहजहाँ का युग स्वर्ण-युग था – अधिकांश विद्वानों ने शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग की संज्ञा दी है। इनका मत है कि अकबर द्वारा स्थापित सुदृढ़, शक्तिशाली तथा सुव्यवस्थित विशाल साम्राज्य में शान्तिकालीन समृद्धि तथा गौरव के फूल शाहजहाँ के काल में ही विकसित हुए। इस मत के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं
1. शान्ति और सुव्यवस्था का युग – शाहजहाँ के काल में अन्य सभी मुगल सम्राटों की अपेक्षा शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित रही। उसके आरम्भिक काल के दो-तीन विद्रोहों के अतिरिक्त उसका सम्पूर्ण राज्यकाल शान्तिपूर्ण था। राजपूत अभी तक मुगलों की अधीनता स्वीकार करते थे तथा मुगल सम्राटों के स्वामिभक्त थे। दक्षिण के शिया राज्यों ने मुगल सम्राट का संरक्षण स्वीकार कर लिया था। शाहजहाँ का साम्राज्य काफी विशाल था। सिन्ध से असम तक तथा अफगानिस्तान से गोआ तक उसका राज्य विस्तृत था। शाहजहां के काल में 30 वर्ष तक भीषण युद्धों से देश सुरक्षित रहा। शाहजहाँ अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था। चोर तथा डाकुओं से सड़कें सुरक्षित थीं। यात्रियों की सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखा जाता था। व्यापार उन्नत अवस्था में था तथा देश में चारों ओर सुख तथा शान्ति स्थापित थी। लेनपूल का मत है- “शाहजहाँ अपनी उदारता और कृपा के लिए प्रसिद्ध था और इसी कारण वह अपनी प्रजा का बड़ा प्रिय था।”

2. सड़कों की व्यवस्था- मुगल राजधानी को सड़कों द्वारा प्रान्तों से जोड़ दिया गया था। एक सड़क पूर्व दिशा की ओर बंगाल को तथा पश्चिम की ओर पेशावर तक जाती थी, एक अन्य सड़क राजपूताना होकर अहमदाबाद तक और वहाँ से दक्षिण को पहुँचती थी। एक अन्य सड़क मालवा से बुरहानपुर तक और वहाँ से दक्षिण को पहुँचती थी। इन सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्षों के अतिरिक्त सरायें बनवाई गई थी, जिससे यात्रियों को आवागमन की सुविधा प्राप्त हो गई थी। सड़कों की सुरक्षा की ओर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया गया था, जिससे व्यापारी और यात्री निडर होकर अपना-अपना कार्य करते रहें। चोर-डाकुओं से इन सड़कों की सुरक्षा-व्यवस्था के लिए ‘फौजदार’ नियुक्त होते थे।

शाहजहाँ ने मार्गों को सुरक्षित करने का यथासम्भव प्रयत्न किया। इसके लिए उसने जगह-जगह सरायें बनवा दीं और यात्रियों की सुविधा के लिए उन सरायों में उचित व्यवस्था कराई गई। मनूची लिखता है- “सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में प्रत्येक मार्ग पर यात्रियों के लिए बहुत-सी-सरायें बनी हुई हैं। प्रत्येक सराय एक दुर्ग मालूम होती है क्योंकि प्रत्येक सराय के चारों ओर ऊंची-ऊँची दीवारें और बुर्ज हैं तथा बड़े-बड़े दरवाजे हैं। प्रत्येक सराय में हाकिम नियुक्त हैं, जो यात्रियों के सामान की सुरक्षा करवाते हैं और सामान सँभालने की चेतावनी देते हैं।”

3. समान न्याय का युग – शाहजहाँ न्यायप्रिय सम्राट था तथा न्याय के क्षेत्र में उसने अपने पूर्वजों की नीति का ही अनुसरण किया। वह अन्यायियों तथा अपराधियों को कठोर दण्ड देने में तथा निष्पक्ष न्याय करने में बिल्कुल नहीं हिचकता था। मनूची ने भी सम्राट की न्यायप्रियता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है। सर्वप्रधान न्यायाधीश स्वयं सम्राट होता था। सम्राट प्रारम्भिक मुकदमों तथा अपीलों दोनों को सुनता था। प्रान्तीय अदालतों के निर्णय की अपीलें भी सम्राट सुनता था। केन्द्र में न्याय हेतु सम्राट को सलाह देने के लिए ‘काजी-उल-कुजात’ और प्रान्तों में ‘काजी’ तथा ‘मीरअदल’ होते थे। शाहजहाँ राजद्रोहियों को बन्दी बनाकर ग्वालियर, रणथम्भौर और रोहतास इत्यादि दुर्गों में भेज देता था।

4. समृद्धि का युग – समृद्धि तथा गौरव के दृष्टिकोण से शाहजहाँ का काल, मुगलकाल के चरमोत्कर्ष का काल था। देश में शान्ति एवं सुव्यवस्था के कारण समृद्धि स्थापित हो चुकी थी। सूबों से केन्द्र सरकार को अत्यधिक आय होती थी। भूमि उपजाऊ होने के कारण भूमि-कर 45 करोड़ रुपये वार्षिक राजकोष में एकत्रित होता था। भूमि-कर के अतिरिक्त अन्य कर भी थे तथा आय, व्यय से कहीं अधिक होने के कारण राजकोष धन से भरा रहता था। नकद रुपयों के अतिरिक्त, बहुमूल्य पत्थर, हीरे, जवाहरात, मोती असंख्य संख्या में कोष में एकत्रित थे। मुर्शिद कुली खाँ के भूमि-सुधारों ने शाहजहाँ की भूमि-कर की आय, अकबर की आय से डेढ़ गुनी कर दी थी।

शाहजहाँ ने किसानों और कृषि की ओर ध्यान दिया था। उसने कश्मीर में बहुत-से अनुचित करों को समाप्त कर दिया। सिंचाई की समुचित व्यवस्था के लिए उसने नहरों के निर्माण कार्य को प्रोत्साहन प्रदान किया। जागीर-प्रथा को, जो अकबर के समय में हटा दी गई थी, शाहजहाँ ने पुनः आरम्भ किया। साम्राज्य का 7/10 भाग जागीरदारों के सुपुर्द कर दिया गया था और सरकारी लगान एक-तिहाई से बढ़ाकर उपज का आधा कर दिया गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकारी आय तो बढ़ गई परन्तु किसानों को बहुत कष्ट हुआ।

खाफी खाँ लिखता है- “यद्यपि अकबर एक महान विजेता तथा नियम-निर्धारक था किन्तु राज्य की सीमाओं के सुप्रबन्ध तथा आर्थिक स्थिति और राज्य के विविध विभागों के सुशासन की दृष्टि से भारतवर्ष में शाहजहाँ के समकक्ष रखा जाने वाला अन्य कोई शासक नहीं हुआ।

5. व्यापार की उन्नति का युग – शाहजहाँ के काल में व्यापार की भारी उन्नति हुई। भारत तथा एशिया के विभिन्न भागों में व्यापारिक सम्पर्क स्थापित थे, जिससे भारत को अत्यधिक लाभ होता था। इस समय सुसंस्कृत अभिरुचि की वस्तुओं का निर्माण भारत में बहुतायत से होता था। कलमदान, शमादान, रेशमी वस्त्र, सती-ऊनी वस्त्र, कालीन, अफीम, लाख आदि अनेक वस्तुएँ बाहर जाती थीं, जिनके बदले में सोना भारत में आता था। बंगाल और बिहार में सूती कपड़े बनाने का इतना अधिक कार्य होता था कि ये प्रदेश ‘कपड़ों का देश के समान दृष्टिगोचर होते थे। कपड़े की रँगाई तथा छपाई का कार्य बहुतायत से होता था तथा भारत के बने कपड़े यूरोप में विलास की सामग्री समझे जाते थे।

6. प्रजा के साथ पितृ तुल्य व्यवहार – तत्कालीन विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों का मत है कि शाहजहाँ अपनी प्रजा का पालन इस प्रकार करता था जैसे कोई पिता अपनी सन्तान का। शाहजहाँ यद्यपि ‘शानदार’ सम्राट था परन्तु वह कठोर परिश्रमी भी था तथा राज्य के कार्यो की वह स्वयं देखभाल करता था, जिसके कारण उसकी प्रजा सुख, शान्ति तथा समृद्धि का अनुभव करती थी। दुर्भिक्ष पीड़ितों की रक्षा के लिए किए गए बादशाह के प्रयत्न उसकी प्रजावत्सलता के ज्वलन्त प्रमाण हैं।

अब्दुल हमीद लाहौरी के कथनानुसार- “उसने सत्तर लाख रुपये का लगान माफ कर दिया तथा भोजनालयों में भूखों को मुफ्त भोजन की व्यवस्था की। बादशाह ने 50,000 रुपये अहमदाबाद में दुर्भिक्ष पीड़ित जनता में बाँटने की आज्ञा प्रदान की। उसने प्रजा के हित के लिए एक नहर का निर्माण करवाया तथा सिंचाई के लिए अन्य नहरें बनवाई।” लेनपूल ने लिखा है- “शाहजहाँ अपनी उदारता और दया के लिए विख्यात था और इसीलिए वह अपनी प्रजा का इतना अधिक प्रिय बन गया था।”

7. साहित्य तथा भवन-निर्माण कला – कला तथा अन्य ललितकलाओं की उन्नति का युग- शाहजहाँ का काल साहित्य तथा ललितकलाओं के दृष्टिकोण से पूर्णतया स्वर्ण-युग कहलाने का अधिकारी है। उसके विपक्षी भी उसके काल की कलाकृतियों को देखकर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली (शाहजहानाबाद) का लाल किला तथा उसमें दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास, दिल्ली की जामा मस्जिद, आगरा की मोती मस्जिद तथा आगरा की ही सर्वोत्कृष्ट कृति ताजमहल, शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। दिल्ली, लाहौर और कश्मीर के बगीचे, उसके पौधों, फूलों और नहरों के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करते हैं। इसके साथ ही अलीमर्दन खाँ 98 मील लम्बी रावी नहर काटकर लाहौर लाया और नहर-ए-शाहाब या पुरानी फिरोज नहर, जो मिट्टी से भर गई थी, को न केवल साफ किया गया, बल्कि नहर-ए-बहिश्त के नाम से इसे 60 मील से भी अधिक लम्बा कर दिया गया।

शाहजहाँ की सर्वश्रेष्ठ कृति आगरा में यमुना के तट पर बनी हुई ताजमहल नाम की इमारत है, जिसे उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में बनवाया था, जिसकी मृत्यु 7 जून, 1631 ई० को बुरहानपुर में हुई थी। यह उसके दाम्पत्य-प्रेम कथा का अमर प्रतीक है। ताजमहल के अतिरिक्त उसके द्वारा निर्मित आगरा की अनेक इमारतें उसके अलंकृत स्वभाव एवं श्रेष्ठ अभिरुचि का परिचय देती हैं, जिनमें मोती मस्जिद, मुसम्मन बुर्ज आदि इमारतें अपना अद्वितीय स्थान रखती हैं। शाहजहाँ ने अपने कला-प्रेम के लिए अत्यधिक धन व्यय किया, जो उसकी समृद्धि, गौरव तथा शासन का सजीव प्रमाण है। जनता पर कर वृद्धि किए बिना ही सम्राट ने इतनी गौरवपूर्ण इमारतों का निर्माण करवाया।

(क) लेखन-कला – इस काल में चित्रकला की प्रगति के साथ-साथ लेखन-कला का भी काफी विकास हुआ। तत्कालीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के अवलोकन से यह प्रमाणित होता है कि शाहजहाँ के शासनकाल में लोग लेखन कला में कितने सिद्धहस्त थे। मुहम्मद मुराद शिरीन इस समय का कुशल हस्त-लेखक था।

(ख) चित्रकला – शाहजहाँ को स्थापत्य-कला के साथ-साथ चित्रकला का भी शौक था। सम्राट के अतिरिक्त आसफ खाँ व शहजादे दाराशिकोह को भी चित्रकला से बहुत प्रेम था। इस काल के प्रमुख चित्रकारों में मीर हाशिम, अनूपमित्र तथा चित्रमणि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल के चित्रों में हस्तकौशल अधिक तथा शैली एवं भावों की विविधता कम पाई जाती है। इसके साथ ही इन चित्रों में स्वाभाविकता तथा मौलिकता का अभाव पाया जाता है।

(ग) कला की उन्नति – शाहजहाँ का ‘मयूर सिंहासन’ अथवा ‘तख्त-ए-ताऊस’ जो बहूमूल्य पत्थरों से जड़ित था तथा जिसके बीचों-बीच विश्वप्रसिद्ध हीरा कोहिनूर जगमगाता था उसके गौरव को चार चाँद लगा देने के लिए पर्याप्त था। मयूर सिंहासन इस काल की सुन्दर कृति थी।

(घ) संगीत कला – शाहजहाँ की संगीत में अत्यधिक अभिरुचि थी। वह स्वयं एक अच्छा संगीतज्ञ था और उसने अपने
दरबार में अनेक संगीतज्ञों को संरक्षण प्रदान किया था। उसके समय में वाद्य-कला के क्षेत्र में उन्नति हुई थी। सुखसेन, एयाज और सूरसेन बीन बजाने में पारंगत थे। शाहजहाँ का ध्रुपद राग के प्रति विशेष अनुराग था। लाल खाँ नामक संगीतकार ध्रुपद राग का विशेष गायक था। हिन्दू गायकों में जगन्नाथ को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। वह एक उच्चकोटि का गायक था, जिसे सम्राट का कृपापात्र होने का सौभाग्य प्राप्त था।

(ङ) साहित्य – शाहजहाँ के शासन में साहित्य की भी बहुत उन्नति हुई थी। फारसी इस युग में राष्ट्रभाषा का स्थान रखती थी। इस समय फारसी दो शाखाओं में बंटी हुई थी। पहली शाखा विशुद्ध फारसी की थी और दूसरी शाखा भारतीय फारसी से सम्बन्धित थी। भारतीय फारसी भाषा के जन्मदाता अबुल फजल थे। इतिहास के अलावा काव्य-रचना भी इस काल में प्रमुख रूप से हुई। दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी लिखता है कि गंगाधर तथा ‘गंगालहरी’ के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पण्डित, शाहजहाँ के राजकवि थे। कसीदों के लिखने का भी बहुत प्रचलन था। इस काल का एक महान शायर मिर्जा मुहम्मद अली था, जिसको ‘साहब’ का तखल्लुस प्राप्त था। गद्य साहित्य की भी उन्नति इस काल में बहुत हुई थी।

अनेक सुन्दर पत्र भी इस काल में लिखे गए थे। संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद शहजादा दारा के प्रोत्साहन से हुआ था। भगवद्गीता, उपनिषद् तथा रामायण आदि का अनुवाद भी इसी काल में हुआ। औषधिशास्त्र, खगोल विद्या तथा गणित की भी बहुत प्रगति हुई थी। अताउल्ला इस काल का बहुत बड़ा गणितज्ञ था और मुल्ला फरीद विख्यात खगोल विद्या विज्ञानी था। हिन्दी काव्य एवं साहित्य के विकास के प्रति शाहजहाँ उदासीन न रहा। सुन्दर श्रृंगार, सिंहासन बत्तीसी, और बारहमासा के रचयिता प्रसिद्ध कवि सुन्दरदास उपनाम के महाकवि ‘राय’ थे। हिन्दी के सामयिक सर्वश्रेष्ठ कवि चिन्तामणि भी सम्राट के विशेष कृपापात्र थे। संस्कृत और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान कवीन्द्र आचार्य सरस्वती तथा उन्हीं की कोटि के अन्य संस्कृत
विद्वानों से शाहजहाँ का दरबार अलंकृत था।

स्वर्ण युग के विपक्ष में तर्क – जब हम शाहजहाँ के काल के दूसरे पक्ष का अध्ययन करते हैं तो स्वर्ण की यह जगमगाहट फीकी पड़ जाती है तथा यह सन्देह होने लगता है कि क्या वास्तव में शाहजहाँ का काल स्वर्णकाल कहलाने का अधिकारी है। शाहजहाँ के काल के अन्धकारपूर्ण पक्ष का समर्थन अनेक इतिहासकारों ने किया है, जिनमें स्मिथ प्रमुख हैं। इन इतिहासकारों के मत में यह युग कदापि स्वर्ण युग कहलाने का अधिकारी नहीं है। अपने मत की पुष्टि में इन विद्वानों ने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं

1. भारी करों का भार – शाहजहाँ को भवन निर्माण में अत्यधिक रुचि थी। उसने बहुमूल्य भवनों का निर्माण करवाया। उसका शानदार दरबार भी बहुमूल्य वस्तुओं से सुसज्जित रहता था। उसकी इन अभिरुचियों पर अपार धन व्यय हुआ। इसके अतिरिक्त उसकी विजय योजनाएँ; विशेषकर मध्य एशियाई नीति भी भारी अपव्यय का कारण बनी। इतना धन व्यय करने के लिए उसे जनता पर कर अधिक बढ़ाने पड़े तथा उसके अपव्यय का अधिकांश भार दरिद्र जनता को वहन करना पड़ा। एलफिन्स्टन तथा लेनपूल के मत में जनता को शाहजहाँ की मूल्यवान अभिरुचि की पूर्ति के लिए अपने परिश्रम से अर्जित धन का त्याग करना पड़ा होगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि शाहजहाँ का युग दरिद्र जनता के लिए स्वर्ण युग के विपरित अन्धकार युग था उसका दमन किया जाता था, सरकारी कर्मचारी उसे लूटते थे तथा जबरन कठोर परिश्रम करने पर विवश करते थे। गाढ़े खून की कमाई उन्हें राजकर के रूप में दे देनी पड़ती थी तथा गरीब व्यक्ति अधिकांशतः भूखों मरते थे। ऐसे युग को स्वर्ण युग कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता है।

2. शाहजहाँ की धार्मिक नीति- यद्यपि शाहजहाँ ने औरंगजेब के समान धार्मिक अत्याचार तो नहीं किए तथापि उसके काल में धार्मिक पक्षपात का युग आरम्भ हो गया था। अनेक हिन्दुओं को लालच देकर बलात् मुसलमान बनाया गया था। हिन्दुओं के अतिरिक्त ईसाई भी उसकी असहिष्णुता के शिकार बन गए थे। कट्टर सुन्नी होने के कारण शियाओं के साथ उसका व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण न था। विधर्मियों के प्रति उसकी असहिष्णुता इस बात से प्रकट होती है कि शियाओं को उसके दरबार में उच्च स्थान प्राप्त न था।

3. शिया राज्यों का विरोध- बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्यों को वह इसलिए नष्ट कर देना चाहता था कि वे शिया राज्य थे। यदि शाहजहाँ तथा औरंगजेब ने इन राज्यों को जीतने का प्रयास न किया होता तो ये राज्य मराठों के विरुद्ध मुगल सम्राटों के सहायक होते तथा मराठों का उत्कर्ष असम्भव हो गया होता। इस प्रकार शिया राज्यों के पतन तथा मराठों के उत्कर्ष में भी शाहजहाँ का योगदान रहा और कालान्तर में यह कारक मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना।

4. शासन-व्यवस्था में शिथिलता- यद्यपि शाहजहाँ के काल में अधिकांशतः शान्ति विद्यमान थी किन्तु कुछ सूबों में सूबेदारों के अत्याचारों के कारण जनता की स्थिति शोचनीय थी। कर्मचारी रिश्वत लेते थे तथा प्रजा पर अत्याचार करके अधिक धन वसूल करते थे क्योंकि उन्हें अपने अधिकारियों को उपहार और भेंट देने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती थी और वह धन जनता से ही प्राप्त किया जा सकता था। सम्राट शाहजहाँ स्वयं प्रजावत्सल तथा न्यायी सम्राट था।

परन्तु उसके काल में केन्द्र का अनुशासन ढीला पड़ने लगा था और प्रजा पर उसके कर्मचारियों द्वारा अत्याचार होते थे। शाहजहाँ के समय में बड़े-बड़े अमीरों का नैतिक एवं चारित्रिक पतन आरम्भ हो गया था जिससे उसकी सैन्य व्यवस्था का पतन हो गया था। उसके पास एक विशाल किन्तु अनुशासनहीन सेना थी जिसके कारण सेना पर अत्यधिक धन व्यय करके भी बादशाह अपनी विजय नीति में सर्वथा असफल रहा। उसके विलासी सैनिक तथा सेनापति मध्य एशिया एवं कंधार के दुर्गम प्रदेशों में रहने को प्रस्तुत नहीं थे। इसलिए सम्राट की मध्य एशियायी नीति असफल रही।

5. सामाजिक भेद-भाव – शाहजहाँ के काल में समाज के दो वर्गों- धनी वर्ग तथा निर्धन वर्ग- के मध्य एक भयंकर खाई उत्पन्न हो चुकी थी। कुछ लोग इतने धनी थे कि अपनी विलासिता पर वे मनमना धन व्यय कर सकते थे। दूसरी ओर, अधिकांश जनता भूख से व्याकुल थी। उनके पास न शरीर ढ़कने के लिए वस्त्र थे और न खाने के लिए अनाज। मिट्टी अथवा घास-फूस के झोंपड़े में निवास करने वाले ये दु:खी जन अथक परिश्रम करके भी अपने परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ रहते थे। अमीरों की विलासिता को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी आय का अधिकांश भाग कर के रूप में देना पड़ता था। सम्राट तथा उसके कर्मचारियों के अत्याचारों के कारण उनमें असन्तोष जाग्रत होने लगा था जिसका परिणाम औरंगजेब के काल में अनेक विद्रोहों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शाहजहाँ के काल में समाज का पतन आरम्भ हो चुका था तथा सामाजिक दशा को ध्यान में रखते हुए इस युग को स्वर्ण युग कदापि नहीं कहा जा सकता।

6. आर्थिक पतन – शाहजहाँ के युग में बाह्य जगमगाहट तथा वैभव ही देखने को मिलता है। इस काल मे यद्यपि बाह्य देशों से (विशेषकर मध्य एशिया, पश्चिम तथा यूरोप) व्यापारिक सम्पर्क स्थापित थे जिनसे भारत को आर्थिक लाभ होता था तथा राजकोष धन से भरा हुआ था तथापित मुगलकाल की आर्थिक दशा का पतन शाहजहाँ के काल में आरम्भ हो जाता है।

7. शाहजहाँ का दुर्बल चरित्र – शाहजहाँ के चरित्र पर अनेक शंकाएँ प्रकट की गई हैं। बर्नियर तथा मनूची इत्यादि विद्वानों ने उसे अत्यन्त कामातुर, विलासी और पाशविक वृत्ति का मनुष्य सिद्ध किया है। शाहजहाँ के चरित्र में निम्नलिखित दोष थे

(क) अपव्ययी – शाहजहाँ ने अपने दाम्पत्य प्रेम की स्मृति में ताजमहल बनवाया था। विद्वानों का मत है कि इतना धन दूसरों की भलाई के कार्यों में भी खर्च किया जा सकता था। इसी प्रकार मयूर सिंहासन के निर्माण में भी बहुत-सा धन व्यय हुआ था। लेनपूल का विचार है कि उसके शौक पूरे करने के लिए बहुत अधिक धन असहाय जनता से वसूल किया गया था।

(ख) अत्याचारी-  शाहजहाँ के चरित्र पर अत्याचारी होने का आरोप भी लगाया जाता है। उसने अपने सिंहासनारोहण हेतु अपने भाइयों का निर्ममतापूर्ण वध भी कराया था। शाहजहाँ ने ईसाइयों तथा सिक्खों पर भी अत्याचार किए थे।

(ग) व्यभिचारी – शाहजहाँ के चरित्र का यह भी एक गम्भीर दोष था, जिसके कारण उस युग को स्वर्णयुग मानने में संशय होता है। उस पर परनारी गमन का दोष लगाया गया है। यद्यपि यह दोष तत्कालीन समाज के राजवंशों के अधिकांश पुरुषों में दृष्टिगोचर होता है।

शाहजहाँ के अपव्ययी स्वभाव, उसकी महत्त्वाकांक्षी विजय-योजनाएँ, ऐश्वर्याशाली भवन तथा गौरवपूर्ण दरबार ने उसके पूर्वजों द्वारा संचित धन का सफाया कर दिया तथा निम्न एवं मध्यम वर्ग को करों के भार से लाद दिया। बर्नियर लिखता है- “गरीबों को इतने अधिक कर देने पड़ते थे कि उनके पास बहुधा जीवन की अनिवार्य आवश्यताएँ पूरी करने योग्य भी धन नहीं बच पाता था।” इस आर्थिक पतन का आरम्भ शाहजहाँ के काल में हुआ तथा औरंगजेब के काल में पूर्ण आर्थिक पतन के कारण मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।

उपर्युक्त दो विरोधी विचारधाराएँ शाहजहाँ के युग के दो विरोधी पक्षों का प्रदर्शन करती हैं। कुछ विद्वानों के मत में शाहजहाँ का युग स्वर्णयुग था तथा कुछ विद्वान उसकी शासन-व्यवस्था के दोषों की ओर संकेत करते हैं। वास्तव में शाहजहाँ का काल मुगलकाल का स्वर्ण युग था। परन्तु चरमोत्कर्ष के उपरान्त पतन प्रकृति का शाश्वत नियम है; अतः उत्थान की अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचकर शाहजहाँ के काल में ही मुगलकाल के पतन का बीजारोपण हो गया।

प्रश्न 5.
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति के परिणामों की विवेचना कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति की सभी विद्वानों ने कटु आलोचना की है। कुछ के विचार में यह शाहजहाँ की महान भूल थी तथा कुछ इसे उसकी महत्त्वाकांक्षा का स्वप्नमात्र समझते हैं। यह नीति निरर्थक तथा असफल रही तथा मुगल साम्राज्य पर इसके घातक प्रभाव पड़े। शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति के परिणाम निम्नलिखित हैं

1. अपार धन और जन की क्षति – शाहजहाँ की मध्य एशियाई विजय-योजना में अपार धन की क्षति हुई। केवल 2 वर्ष में 12 करोड़ रुपया व्यय हुआ, जिसका कारण राजकोष पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त 500 सैनिक युद्धभूमि में खेत रहे तथा इसके दस गुने सैनिक बर्फ से ढके हुए कठिन मार्गों में खप गए। बल्ख के दुर्ग में एकत्रित पाँच लाख रुपये का अनाज तथा रसद का अन्य सामान शत्रुओं के हाथ चला गया। 50,000 रुपये नकद नजर मुहम्मद को तथा साढ़े बाईस हजार रुपये उसके राजदूत को भेंट में प्रदान किए गए। इसके बदले में एक इंच भूमि भी मुगलों को प्राप्त न हो सकी और न बल्ख की गद्दी पर शत्रु के स्थान पर कोई मित्र ही बिठाया जा सका।

2. मुगल प्रतिष्ठा को आघात- मध्य – एशियाई नीति की असफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचा। मुगलों का विजेता के रूप में डींग मारना बन्द हो गया और ईरानी वीरता, साहस तथा सैनिक शक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ गई। परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी भागों में वर्षों तक ईरानियों का भय बना रहा तथा 18वीं शताब्दी में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के पतन को और भी अधिक निकट ला दिया।

3. मुगल सेना का विनाश तथा पतन – इन युद्धों में मुगलों की सर्वोत्तम सेनाओं का विनाश हो गया। सैनिक दृष्टिकोण से इस नीति द्वारा मुगलों को अपार क्षति पहुँची। उनकी सैनिक दुर्बलता का लाभ उठाकर भारत में नई-नई शक्तियों का उत्थान तथा उपद्रव आरम्भ हुए, जिनके दमन में औरंगजेब को आजीवन संलग्न रहना पड़ा। शाहजहाँ को उत्तर-पश्चिम में व्यस्त देखकर दक्षिण में मराठों ने अपनी शक्ति का विकास आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे उनकी शक्ति बढ़ गई कि वह मुगल साम्राज्य का पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण बनी।

4. मुगलों तथा मध्य – एशिया के सम्राटों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अन्त- शाहजहाँ की मध्य एशिया सम्बन्धी नीति से उजबेग मुगलों से नाराज हो गए तथा सदैव के लिए उनके शत्रु बन गए। मुगलों ने आक्सस नदी के तटीय प्रदेशों को अपने अधीन बनाना चाहा किन्तु उजबेगों में उत्पन्न राष्ट्रीय भावना के कारण मुगल अपने प्रयत्नों में सर्वथा असफल रहे। फलस्वरूप शाहजहाँ के जीवनकाल के बचे हुए दिनों में भारत और फारस के सम्बन्ध सदैव कटु बने रहे और मुगलों के आत्मबल को अपार क्षति पहुंची।

प्रश्न 6.
शाहजहाँ के काल में हुए उत्तराधिकार के युद्ध पर प्रकाश डालिए। इस युद्ध में औरंगजेब की सफलता के कारणों की भी विवेचना कीजिए।
उतर:
उत्तराधिकार के लिए युद्ध- शाहजहाँ के जीवनकाल में ही उत्तराधिकार के लिए उसके पुत्रों में युद्ध आरम्भ हो गए थे। शाहजहाँ भयंकर बीमारी से ग्रस्त हो गया। अत: दारा ने शाहजहाँ के बीमार पड़ने के उपरान्त राज्य कार्य का भार संभाला तथा वह चाहता था कि बादशाह की बीमारी का समाचार भाइयों को ज्ञात न हो। परन्तु बादशाह की बीमारी का समाचार छुप न सका तथा सर्वप्रथम बंगाल में स्थित शाहशजा ने अपने को सम्राट घोषित किया, क्योंकि सभी को बादशाह की मृत्यु का विश्वास हो चुका था। इसी प्रकार गुजरात में मुराद ने अपने नाम से खुतबा पढ़वाया तथा अपने नाम के सिक्के ढलवाए। दारा को इन दोनों भाइयों का इतना भय नहीं था जितना कि औरंगजेब का।

औरंगजेब को दरबार में घटित होने वाली घटनाओं की सम्पूर्ण सूचना रोशनआरा से मिलती रहती थी। उसने आगरा जाने वाले मार्ग को बन्द कर दिया, जिससे उसकी तैयारियों की सूचना किसी को प्राप्त न हो सके तथा मीर जुमला के साथ मिलकर उसने सैनिक शक्ति बढ़ानी आरम्भ कर दी। उसने सम्पूर्ण तैयारियों के उपरान्त बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों से मैत्री स्थापित कर ली। शुजा अथवा मुराद के समान उसने स्वयं को बादशाह घोषित नहीं किया वरन् उसने घोषणा की कि वह तो पाक मुसलमान है तथा मक्का में एक दरवेश का जीवन व्यतीत करना चाहता है और मक्का जाने से पूर्व अपने पिता के दर्शन करने दिल्ली जा रहा है।

1. मुराद के साथ गठबन्धन – औरंगजेब अपने भाइयों में सबसे बुद्धिमान था। वह जानता था कि मुराद व्यसनी तथा मूर्ख है। और उसकी सहायता सरलता से प्राप्त की जा सकती है। सर्वप्रथम उसने मुराद के इस कार्य की निन्दा की कि उसने स्वयं को बादशाह घोषित करके सूरत पर अधिकार कर लिया है। औरंगजेब ने मुराद को पत्र लिखा कि जब तक शाहजहाँ की मृत्यु की सूचना नहीं मिलती, उसका यह कार्य सर्वथा निन्दनीय है। तदुपरान्त गुप्त रूप से दोनों भाइयों ने समझौता किया कि दारा को मार्ग से हटाने के उपरान्त ये दोनों परस्पर राज्य का विभाजन कर लेंगे, जिसके अनुसार कश्मीर, अफगानिस्तान, सिन्ध तथा पंजाब मुराद को मिलेगा तथा शेष साम्राज्य पर औरंगजेब का अधिकार होगा।

औरंगजेब ने तो यहाँ तक कहा कि उसे राज्य की कोई इच्छा नहीं, वह तो फकीर बनना चाहता है, किन्तु दारा के समान काफिर के हाथ में राज्य की बागड़ोर छोड़ने से इस्लाम के प्रति गद्दारी होगी इसलिए वह दारा से युद्ध करना अपना कर्तव्य समझता है। इन चापलूसी-भरी बातों में मुराद फँस गया तथा उज्जैन के निकट दीपालपुर में दोनों भाइयों ने मिलकर शपथ ली कि साम्राज्य को विभाजित कर लिया जाएगा और धरमत नामक स्थान पर दारा की सेनाओं का सामना करने का निश्चय करके उन्होंने सैन्यबल के साथ धरमत के लिए प्रस्थान किया।

2. बहादुरपुर का युद्ध (24फरवरी, 1658 ई०) – जिस समय मुराद तथा औरंगजेब दारा के विरुद्ध युद्ध की योजनाएँ बना रहे थे, शाहशुजा ने स्वयं को बादशाह घोषित किया तथा एक विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा। मार्ग में बिहार के अनेक प्रदेशों को रौंदता हुआ 24 जनवरी, 1658 ई० को वह बनारस पहुँच गया। दारा चाहता था कि औरंगजेब का सामना करने से पूर्व ही वह शाहशुजा का अन्त कर दे; अतः उसने सर्वप्रथम अपने पुत्र सुलेमान शिकोह तथा राजा जयसिंह के नेतृत्व में एक सेना भेजी। दोनों सेनाओं में 24 फरवरी को बनारस से लगभग पाँच मील दूर बहादुरपुर नामक स्थान पर भीषण संग्राम हुआ, जिसमें शुजा बुरी तरह पराजित हुआ तथा अपनी जान बचाने के लिए बंगाल की ओर भाग गया।

3. धरमत का युद्ध (15 अप्रैल, 1658 ई०) – शाहशुजा की ओर सेनाएँ भेजकर ही दारा चुप नहीं बैठा, उसने कासिम खाँ तथा राजा जसवन्त सिंह के नेतृत्व में दूसरी विशाल सेना मुराद तथा औरंगजेब से युद्ध करने के लिए भेज दी। दारा ने राजा जसवंत सिंह को आज्ञा देकर भेजा था कि वह प्रयत्न करके युद्ध के बिना ही दोनों शहजादों को उनके प्रान्तों में वापस भेज दे, किन्तु यह प्रयास विफल रहा। अन्त में धरमत नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भयंकर संग्राम हुआ, किन्तु अन्त में राजा जसवन्त सिंह पराजित हो रणक्षेत्र छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

दारा ने सुलेमान शिकोह को बिहार से बुला भेजा, किन्तु वह देर से पहुँचा। तब तक मुगलों की सेनाएँ पराजित हो चुकी थीं। औरंगजेब को इस विजय से बहुत प्रोत्साहन मिला तथा उसे बड़ी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र एवं अपार धन प्राप्त हुआ। इस विजय से औरंगजेब के सम्मान और शक्ति में काफी वृद्धि हो गई। यहाँ पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने एक छोटे-से-नगर फहेताबाद का निर्माण करवाया तथा चम्बल पार करके ग्वालियर की ओर बढ़ा। ग्वालियर के निकट सामूगढ़ के मैदान में उसने पुनः शाही फौजों से टक्कर लेने का निश्चय करके पड़ाव डाल दिया।

4. सामूगढ़ का युद्ध (29 मई, 1658 ई०) – इसी समय शाहजहाँ, जिसने आगरा से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया था, यह समाचार सुनकर वापस लौट आया। दारा औरंगजेब का पूर्ण विनाश करने की तैयारियों में संलग्न था। शाहजहाँ यह युद्ध नहीं चाहता था परन्तु वह दारा को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहा। दारा 50,000 सैनिकों के साथ सामूगढ़ पहुँचा। दारा ने एक बड़ी भूल यह की कि अपने पुत्र सुलेमान शिकोह की प्रतीक्षा किए बिना ही वह आगरा से चल पड़ा। सुलेमान योग्य सेनापति था तथा शुजा को पराजित करके आगरा लौट रहा था।

दोनों भाइयों की सेनाओं में भीषण संघर्ष हुआ तथा औरंगजेब और मुराद बड़ी वीरतापूर्वक लड़े और शाही सेना का विनाश करने लगे। निराश होकर दारा अपना हाथी छोड़कर घोड़े पर सवार होकर लड़ने लगा। परन्तु उसके हाथी का हौदा खाली देखकर सैनिकों ने समझा कि दारा की मृत्यु हो गई और उसकी सेना में भगदड़ मच गई। औरंगजेब की पूर्ण विजय हुई तथा दारा की सेनाएँ भाग गई। अपनी इस पराजय से निराश होकर दारा तथा उसका पुत्र सुलेमान शिकोह आगरा की ओर बढ़े और रात्रि तक आगरा जा पहुँचे। औरंगजेब ने दारा के शिविर को लूटा तथा वहाँ से उसे काफी सम्पत्ति और बारूद प्राप्त हुई। मुराद इस युद्ध में घायल हो गया था। उसकी परिचर्या के लिए औरंगजेब ने कुशल जर्राह नियुक्त किए तथा उसे गद्दी प्राप्त करने की बधाई दी।

सामूगढ़ के युद्ध का अत्यधिक महत्त्व है। स्मिथ के अनुसार- “सामूगढ़ के युद्ध ने उत्तराधिकार के युद्ध का निर्णय कर दिया। इस युद्ध से लेकर शुजा की मृत्यु तक की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि औरंगजेब शाहजहाँ का सबसे योग्य पुत्र तथा सिंहासन का वास्तविक अधिकारी है।”

5. औरंगजेब तथा मुराद का आगरा आगमन- सामूगढ़ के युद्ध में विजय प्राप्त करके साहस तथा उत्साह से भरे हुए। औरंगजेब और मुराद आगरा की ओर चल पड़े तथा नूर-ए-बाग नामक उद्यान में, जो आगरा के निकट ही था, उन्होंने पड़ाव डाल दिया। इस समय तक पराजित दारा के अधिकांश पक्षपातियों ने उसका साथ छोड़कर विजेता औरंगजेब का साथ देना आरम्भ कर दिया था तथा उससे क्षमा माँग ली थी। औरंगजेब ने उन्हें अपनी ओर मिलाकर शाहजहाँ से इस भीषण युद्ध के लिए क्षमा माँगी तथा साथ-ही-साथ दारा पर इस युद्ध का उत्तरदायित्व डाल दिया। शाहजहाँ ने आलमगीर नामक एक तलवार औरंगजेब के पास भेजी तथा उससे मिलने की इच्छा प्रकट की परन्तु औरंगजेब के मित्रों ने उसे परामर्श दिया कि वह शाहजहाँ को बन्दी बना ले। औरंगजेब को यह सलाह पसन्द आई।

6. शाहजहाँ का बन्दी बनाया जाना – औरंगजेब ने मुराद को आगरा के दुर्ग पर अधिकार करने के लिए भेजा। मुराद ने यमुना का पानी दुर्ग में जाने का मार्ग बन्द कर दिया। दुर्ग में स्थित सैनिकों ने थोड़ा-बहुत युद्ध किया परन्तु पानी के अभाव के कारण उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली। औरंगजेब के हाथों शाहजहाँ द्वारा दारा को लिखा एक पत्र पड़ गया, जिसमें लिखा था कि वह दिल्ली के दुर्ग की सुरक्षा का पूर्ण प्रबन्ध रखे।

यह पत्र पढ़कर औरंगजेब का सन्देह पक्का हो गया कि बादशाह उसे धोखा देना चाहता है; अतः उसने बादशाह को बन्दी बनाकर आगरा के दुर्ग में स्थित मोती मस्जिद की एक छोटी-सी कोठरी में भेज दिया, जहाँ हिन्दुस्तान के शानदार बादशाह ने अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्ष बड़े दु:ख एवं कष्ट में व्यतीत किए। अन्त में 22 जनवरी, 1666 ई० को उसकी मृत्यु के साथ ही उसके कष्टों का अन्त हो गया। मृत्यु के उपरान्त ताजमहल में मुमताजमहल की कब्र के निकट ही शाहजहाँ को भी दफना दिया गया।

7. मुराद का अन्त – शाहजहाँ को बन्दी बनाने के उपरान्त औरंगजेब राज्य का वास्तविक शासक बन बैठा था। वह दरबार में सिंहासन पर बैठता था तथा समस्त अमीर उसे अपना बादशाह मानते थे। जब मुराद को औरंगजेब की वास्तविक इच्छा का पता लगा तो उसने गड़बड़ करने का प्रयास किया, परन्तु औरंगजेब के सम्मुख मुराद जैसे मूर्ख को सफलता मिलनी असम्भव थी। औरंगजेब ने उसे मथुरा में भोजन के लिए आमन्त्रित किया तथा बढ़िया खाने और शराब के अत्यधिक सेवन से मुराद संज्ञाहीन होकर अपने भाई के हाथों बन्दी बना लिया गया। मुराद ने विरोध किया तथा औरंगजेब को उसकी शपथ याद दिलवाई, परन्तु औरंगजेब पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। यहाँ से मुराद को ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया गया तथा अपने दीवान अली नकी की हत्या के आरोप में उसे प्राणदण्ड दे दिया गया। 4 दिसम्बर, 1661 ई० को इस अभागे शहजादे ने बन्दीगृह में दम तोड़ दिया। वहीं दुर्ग में उसके शव को दफना दिया गया। इस प्रकार अपने विरोधियों का औरंगजेब ने एक-एक करके सफाया करना आरम्भ कर दिया।

8. दारा का अन्तिम प्रयास – देवराई का युद्ध तथा दारा का अन्त- सामूगढ़ के युद्ध के पश्चात दारा आगरा से दिल्ली की ओर चला गया था, जहाँ का राजकोष तथा दुर्ग उसके हाथ में था। परन्तु आगरा विजय से औरंगजेब की शक्ति अत्यधिक बढ़ गई तथा उसके पास धन और सेना का भी अभाव नही था; अत: उससे भयभीत दारा दिल्ली छोड़कर अपनी प्राणरक्षा के लिए पंजाब की ओर भाग गया। परन्तु औरंगजेब की सेना निरन्तर दारा का पीछा करती रही। इस समय दारा के मित्र भी उसके शत्रु हो गए थे तथा उन्होंने औरंगजेब का साथ देना आरम्भ कर दिया था। औरंगजेब ने राजा जसवन्त सिंह को भी प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया तथा अपनी प्रतिज्ञा भूलकर जसवन्त सिंह ने दारा को अकेला छोड़ दिया। अहमदाबाद के सूबेदार ने 20,000 सैनिकों से दारा की सहायता की तथा एक बार पुन: अपना भाग्य आजमाने के लिए दारा ने प्रयास किया। देवराई के दरें के ऊपर दारा तथा औरंगजेब की सेनाओं में अन्तिम मुठभेड़ हुई जिसमें दारा पुनः पराजित हुआ।

औरंगजेब दारा को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था; अतः उसने दारा का पीछा किया। वहाँ से भागकर दारा मुल्तान होता हुआ मक्कर की ओर भाग गया और अन्त में वह दादर पहुँचा तथा वहाँ के बलूची सरदार मलिक जीवन खाँ से शरण माँगी, जिसे एक बार उसने प्राणदण्ड से बचाया था। परन्तु दारा के दुर्भाग्य ने उसका पीछा न छोड़ा। यहीं पर उसकी प्रिय पत्नी नादिरा बेगम की मृत्यु हो गई। उसकी अन्तिम इच्छा के अनुसार लाहौर में उसका शव दफना दिया गया। बलूची सरदार ने दारा की सहायता करने के बजाए उससे विश्वासघात किया तथा उसे औरंगजेब के सेनापति के हाथों सौंप दिया।

इस प्रकार 23 अगस्त, 1659 ई० को दारा और उसका पुत्र बन्दी के रूप में औरंगजेब के सम्मुख उपस्थित किए गए। दारा की यह दशा देखकर निर्दयी-से-निर्दयी व्यक्ति की आँखों में भी पानी भर आया। शाहजहाँ का सबसे प्रिय तथा विद्वान पुत्र धूल-धूसरित दशा में दरबार में उपस्थित था। दारा पर औरंगजेब ने काफिर होने का आरोप लगाया तथा उसके इशारे पर यह आरोप दरबार में सिद्ध कर दिया गया। औरंगजेब ने उसे तथा उसके पुत्र को एक हाथी पर बैठाकर सारे नगर में घुमाया और फिर उनकी हत्या करवा दी।

9. सुलेमान शिकोह का अन्त – दारा का पुत्र सुलेमान शिकोह शुजा से युद्ध करने गया हुआ था। इसी बीच दारा को औरंगजेब के साथ युद्ध करने के लिए जाना पड़ा। धरमत के युद्ध का समाचार सुनकर ही वह दिल्ली के लिए रवाना हो गया था, परन्तु मार्ग में कड़ा में उसे सामूगढ़ की पराजय का समाचार मिला। सुलेमान शिकोह ने अपने सेनापतियों को अपने पिता की सहायता करने के लिए कहा, किन्तु राजा जयसिंह ने स्पष्ट इन्कार कर दिया कि वह पराजित शहजादे की सहायता नहीं कर सकता; अत: सुलेमान इलाहाबाद से लखनऊ होता हुआ हरिद्वार तथा फिर पंजाब में अपने पिता की सहायता के लिए गया, किन्तु शाइस्ता खाँ उसका पीछा कर रहा था,

जिसने सुलेमान को गढ़वाल की ओर जाने के लिए बाध्य किया, जहाँ उसने एक हिन्दू सरदार के यहाँ शरण प्राप्त की। औरंगजेब ने, जो इस समय तक अन्य शत्रुओं का सफाया कर चुका था, सुलेमान शिकोह को समाप्त करने का प्रयास किया। सुलेमान ने लद्दाख की ओर भागने का प्रयास किया परन्तु शाही सेनाओं ने उसे पकड़कर बन्दी बना लिया और दिल्ली के सम्राट के सम्मुख उपस्थित किया। उसे ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया गया तथा उसको भोजन में पोस्ता मिलाकर दिया जाने लगा, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

10. शुजा का अन्त – अब औरंगजेब का एकमात्र शत्रु शुजा ही रह गया था। औरंगजेब ने अपने अभिषेक के उपरान्त शुजा को एक पत्र लिखा कि वह दारा से निपट ले, उसके बाद शुजा जो माँगेगा उसे वही मिलेगा। परन्तु शुजा अपने भाई को अच्छी तरह जानता था; अतः उसने युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी और जनवरी 1659 ई० में खजवा नामक स्थान पर दोनों पक्षों की सेनाओं में भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें शुजा बुरी तरह पराजित हुआ तथा उसकी सेना का विनाश हो गया। शुजा निराश होकर पहले बंगाल और फिर अराकान की पहाड़ियों की ओर भागा। वहाँ पर उसने यहाँ के शासक को गद्दी से उतारने का पड्यन्त्र रचा, जिससे क्रुद्ध होकर अराकानवासियों ने उसकी हत्या कर डाली। इस प्रकार औरंगजेब के इस अन्तिम शत्रु का भी अन्त हो गया तथा उसने निष्कण्टक राज्य आरम्भ किया। जीवन के अन्तिम समय 1707 ई० तक औरंगजेब भारत का सम्राट बना रहा।

औरंगजेब की सफलता के कारण – लगभग दो वर्षों तक चले इस उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब को विजयश्री मिली। सामूगढ़ के युद्ध ने ही यह सिद्ध कर दिया था कि औरंगजेब ही मुगल साम्राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी है। कुछ विशेष कारण जो औरंगजेब की सफलता के आधार बने, निम्नलिखित हैं

1. शाहजहाँ का कमजोर प्रवृत्ति का होना – हालाँकि शाहजहाँ एक वीर व साहसी बादशाह था परन्तु उत्तराधिकारी चुनने के मामले में वह दुर्बल शासक सिद्ध हुआ। उसकी यह कमजोर प्रवृत्ति उसके वीर, विद्वान व साहसी पुत्रों की मृत्यु का कारण बनी। औरंगजेब ने अपनी राह के काँटे अपने सभी भाइयों का एक-एक करके सफाया कर दिया। रोगग्रस्त बादशाह ने दारा को समस्त राज्य-कार्यों का कार्यभार सौंपकर एक बड़ी भूल की थी। इससे उसके अन्य पुत्र नाराज हो गए। बादशाह ने अपनी समस्त शक्ति का उपयोग नहीं किया और उसके पुत्र आपस में लड़ते रहे।

2. औरंगजेब की सैन्य क्षमता – औरंगजेब महत्वाकांक्षी युवक था। वह सैन्य कुशलता में अपने सभी भाइयों की अपेक्षा श्रेष्ठ था। उसने अपने पिता के शासनकाल में अनेक बार अपनी सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया था। उसने कूटनीति से अपने वीर परन्तु मूर्ख भाई मुराद को अपनी ओर मिला लिया और अपने अन्य भाईयों के विरुद्ध उसकी वीरता का फायदा उठाया। औरंगजेब योग्य सेनापति व कुशल राजनीतिज्ञ था। उसने दारा के विरुद्ध अपनी मुस्लिम सेना को भड़का दिया कि दारा एक काफिर है, वह इस्लाम को नहीं मानता। उसकी इस नीति से मुगल सेना के साथ-साथ अन्य मुस्लिम दरबारी भी दारा के विरुद्ध हो गए। औरंगजेब का सैन्य संचालन भी दारा के विपरीत अत्यन्त कुशल था। उसके तोपखाने की गोलीबारी ने दारा को भयभीत कर दिया। अन्तत: दारा पराजित हो गया।

3. दारा की भयंकर भूलें – दारा ने कुछ भयंकर भूलें भी कीं, जिसका परिणाम उसकी पराजय के रूप में परिणत हुआ। धरमत के युद्ध के पश्चात उसने अपने पुत्र सुलेमान शिकोह, जो एक कुशल सेना नायक था, की प्रतीक्षा नहीं की और अकेला युद्ध के लिए निकल पड़ा। उसकी दूसरी भूल सामूगढ़ के युद्ध में औरंगजेब की सेना को विश्राम करने का अवसर देना थी। यद्धभूमि में घायल हाथी के हौदे को छोड़कर घोड़े पर सवार होना भी उसकी एक अन्य भल थी, जिससे उसकी सेना उसे मृत मानकर भाग खड़ी हुई। ये सभी भूलें दारा की सैनिक क्षमता की कमजोरियों को सिद्ध करती हैं, जिसका भरपूर लाभ औरंगजेब ने उठाया।

4. औरंगजेब का कट्टरपन व दारा की उदारता – औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उस समय अधिकांश देशों में धर्मान्धता की अधिकता थी। भारत के अधिकतर मुसलमान भी धर्मान्ध थे। अत: औरंगजेब ने इस धर्मान्धता का लाभ उठाया और धर्म-सहिष्णु दारा के विरुद्ध सभी मुसलमानों को भड़का दिया। अत: औरंगजेब समस्त मुस्लिम वर्ग का पक्षपाती बन गया। वे उसे ही अपना बादशाह मानने लगे और दारा, जो कि सभी धर्मों का आदर करता था, को काफिर मानने लगे तथा उससे घृणा करने लगे, जिसका औरंगजेब ने भरपूर फायदा उठाया।

प्रश्न 7.
औरंगजेब के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। मुगल साम्राज्य के पतन के लिए वह किस प्रकार उत्तरदायी था?
उतर:
औरंगजेब के चरित्र का मूल्यांकन
लेनपूल के अनुसार – “औरंगजेब को अपने जीवन में भयंकर असफलता देखनी पड़ी, परन्तु उसकी असफलता बड़ी शानदार थी। उसने अपनी आत्मा को समस्त संसार के विरुद्ध खड़ा कर दिया और अन्त में संसार को विजय प्राप्त हुई। उसने अपने लिए कर्तव्य का एक मार्ग निश्चित किया और यह मार्ग व्यावहारिक था अथवा नहीं इसकी चिन्ता किए बिना वह उस पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर होता गया।”

खाफी खाँ ने औरंगजेब का मूल्यांकन करते हुए लिखा है – “तैमूर के वंशजों में ही नहीं वरन् सिकन्दर लोदी के पश्चात् दिल्ली के सभी शासकों में ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसमें इतनी भक्ति, तपस्या तथा न्याय की भावना हो। साहस, सहनशीलता तथा ठोस निर्णयात्मक बुद्धि में कोई औरंगजेब की समता नहीं कर सकता था। किन्तु उसे शरा (नियम, कानून) में अत्यधिक श्रद्धा थी इसलिए वह दण्ड का प्रयोग नहीं करता था और बिना दण्ड के किसी देश की प्रशासन-व्यवस्था कायम नहीं रखी जा सकती। प्रत्येक योजना जो वह बनाता, निरर्थक सिद्ध होती और जो भी साहसिक कार्य वह अपने हाथों में लेता, उसके कार्यान्वित होने में बड़ी देर लगती और अन्त में उसका उद्देश्य पूरा न होता।”

प्रो० जे०एन० सरकार तथा के०के० दत्त के अनुसार – “औरंगजेब में बहुत-से उत्तम गुण थे, परन्तु वह एक सफल शासक न था। वह एक चतुर कूटनीतिज्ञ था, परन्तु कुशल राजनीतिज्ञ न था। सारांश यह है कि उसमें वह राजनीतिक प्रतिभा न थी, जो मुगल सम्राटों में केवल अकबर में पाई जाती है, जिसमें नई नीति को चलाने तथा ऐसे कानून बनाने की क्षमता थी, जो उस काम के तथा भावी पीढ़ी के जीवन तथा विचारों को बदल सकते थे।

राय चौधरी और आर०सी० मजूमदार के अनुसार – “अपनी शक्ति तथा चरित्र-बल के बावजूद औरंगजेब भारत के शासक के रूप में असफल सिद्ध हुआ। उसने यह नहीं समझा कि किसी साम्राज्य की महत्ता उसके अधिकाधिक जनसाधारण की प्रगति पर निर्भर है। अपनी धार्मिक उमंग की प्रबलता के कारण उसने जनता के महत्वपूर्ण वर्गों की उपेक्षा की और इस प्रकार अपने साम्राज्य की विरोधी शक्तियों को उभारा।।

बर्नियर के अनुसार – “औरंगजेब एक राजनीतिज्ञ, एक महान् सम्राट तथा अद्भुत प्रतिभा का धनी व्यक्ति था।” औरंगजेब को निश्चय ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। यद्यपि पूर्ण रूप से नहीं तथापि मुगल वंश का पतन अधिकतर उसकी नीतियों का ही परिणाम था, क्योंकि वह किसी का भी हृदय जीतने में असफल रहा। औरंगजेब की निम्नलिखित नीतियाँ मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी हैं

1. राजपूत विरोधी नीति- केवल राजपूतों को ही नहीं वरन् अन्य सहायकों को भी अपनी अनुदार तथा संकीर्ण नीति के कारण औरंगजेब ने अपना विरोधी बना लिया। सिक्ख, जाट, बुन्देले, मराठे सभी उसकी नीति से असन्तुष्ट होकर मुगल साम्राज्य के विनाश के लिए प्रयासरत रहने लगे। मराठों ने दक्षिण में लूटमार मचा दी, जाटों ने मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को उजाड़ा तथा गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख उसे जीवनभर परेशान करते रहे। इन विद्रोहों ने मुगल वंश का पतन निकट ला दिया।

2. दक्षिण – नीति की विफलता- औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने राजकोष पर बुरा प्रभाव डाला। विशाल सेना होने के कारण आय का अधिकांश भाग केवल सेना पर व्यय होने लगा, जिससे अन्य दिशाओं में प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसी कारण सम्राट शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखने में असफल रहा। दक्षिण में शिया राज्यों को जीत लेने के साथ ही विकासोन्मुख मराठा शक्ति का सामना करने के लिए मुगलों को संघर्षरत होना पड़ा। मराठों की छापामार रण-पद्धति के सम्मुख मुगलों की विशाल सेना कुछ भी नहीं कर सकती थी। मराठों की सेना मुगल सेना एवं उनके प्रदेशों को अवसर पाते ही लूट लेती थी। इस प्रकार मराठों ने मुगलों का पतन और भी सन्निकट ला दिया।

3. पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प – यद्यपि औरंगजेब धर्मान्ध तथा अनुदार था तथापि उसमें योग्यता का अभाव नहीं था। उसके पिता ने उसे उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान की थी तथा सम्राट बनने से पूर्व उसने शासन-प्रबन्ध का पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर लिया था। इसलिए विद्रोहों तथा संकटों के उपरान्त भी उसने राज्य को अपने हाथ से नहीं जाने दिया। वह शंकालु प्रकृति का था तथा उसे भय था कि उसके पुत्र योग्य बनकर कहीं उसके विरुद्ध विद्रोह न कर दें, जैसा कि उसने स्वयं अपने पिता के विरुद्ध किया था। उसने केवल शहजादे अकबर को व्यवहारिक शिक्षा देने का प्रयास किया था। शहजादे अकबर के विद्रोह के पश्चात् अपने अन्य शहजादों के प्रति सम्राट और भी सतर्क हो गया तथा उसने उन्हें कभी भी कोई महत्वपूर्ण प्रशासनिक भार सँभालने का अवसर नहीं दिया। उसने अपने पुत्रों पर भी कभी विश्वास नहीं किया तथा 90 वर्ष की वृद्धावस्था में भी लकड़ी के सहारे चलकर वह स्वयं सैन्य संचालन करता था। उसकी इसी नीति के कारण अनुभव से वंचित उसके उत्तराधिकारी विशाल साम्राज्य को सँभाल पाने में असमर्थ रहे।

4. शासन का केन्द्रीकरण – शंकालु प्रकृति के कारण औरंगजेब ने शासन की बागडोर पूर्णतया अपने हाथ में रखी। दक्षिण की विजयों के कारण मुगल साम्राज्य काफी विशाल हो गया था तथा एक व्यक्ति और एक केन्द्र से उसका समुचित संचालन असम्भव हो गया था। सम्राट के स्वभाव के कारण सूबेदार अनुत्तरदायी हो गए तथा प्रजा पर अत्याचार करने लगे। उनके अधिकारों को छीनकर सम्राट ने शासन-व्यवस्था को दोषपूर्ण बना दिया। जब तक सम्राट शक्तिशाली रहा तब तक तो शासन सुचारु रूप से चलता रहा, परन्तु जैसे-जैसे वह वृद्ध होता गया उसकी कार्य करने की शक्ति क्षीण होने लगी तथा प्रान्तों पर से उसका अंकुश ढीला पड़ने लगा। दूरस्थ प्रान्तों के सूबेदार उसके नियन्त्रण से बाहर होने लगे तथा विद्रोह करने को तत्पर हो गए।

5. शासन-व्यवस्था की शिथिलता – यद्यपि औरंगजेब साम्राज्य के छोटे-छोटे कार्यों का निरीक्षण भी स्वयं करता था परन्तु वह देश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में असफल रहा। यद्यपि वह कुशल शासक था परन्तु उसकी यह धारणा बन गई थी कि वह स्वयं सबसे अधिक योग्य है। वह अपने बड़े-से-बड़े पदाधिकारी पर भी सन्देह करता था। ईर्ष्या और सन्देह की मात्रा उसमें इतनी प्रबल थी कि उसने सभी पर सन्देहपूर्ण दृष्टि रखनी आरम्भ कर दी थी। शासन-व्यवस्था में योग्य-से-योग्य व्यक्तियों के परामर्श की भी वह अवहेलना करने लगा था। इस सन्देहपूर्ण नीति का दुष्प्रभाव जनता पर पड़ा, जिससे शान्ति एवं समृद्धि का युग समाप्त हो गया।

6. धर्मान्धता एवं असहिष्णुता की नीति – सम्राट के रूप में औरंगजेब का आदर्श संकीर्ण एवं अनुदार था। वह मुसलमानों की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझता था जबकि हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति अत्याचारपूर्ण थी। वह बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार करना अपना कर्तव्य समझता था। इस्लाम स्वीकार न करने पर वह हिन्दुओं को प्राणदण्ड तक दे देता था। भारत जैसे देश के लिए, जहाँ 80 प्रतिशत जनता हिन्दू थी, इस प्रकार की नीति अहितकर तथा घातक सिद्ध हुई। हिन्दुओं ने सम्राट के कठोर अत्याचार सहन किए,

परन्तु धर्म परिवर्तन के लिए वे तैयार नहीं हुए। सम्राट ने जितने अधिक अत्याचार किए, उतनी ही अधिक विद्रोह की प्रवृत्ति हिन्दुओं में उत्पन्न हुई। इस प्रकार औरंगजेब की नीति मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। औरंगजेब ने हिन्दुओं के प्रति ही नहीं, शियाओं के प्रति भी अनुदारतापूर्ण नीति अपनाई तथा योग्य एवं प्रतिभाशाली शियाओं की सेवाओं से साम्राज्य को वंचित कर दिया। उसकी इस धार्मिक नीति का परिणाम यह हुआ कि उसकी मृत्यु के 10-15 वर्ष पश्चात् ही मुगल साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। औरंगजेब की इस धर्मान्धता का मुगल साम्राज्य पर अत्यन्त घातक प्रभाव पड़ा।

7. आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास का अन्त – औरंगजेब धर्म का अन्धा अनुयायी था तथा कुरान के अनुसार चलने के कारण ललित कलाओं का पोषण नहीं कर सकता था। उसे न संगीत में अभिरुचि थी, न चित्रकला में और न भवननिर्माण-कला में। फलतः इन सभी ललित कलाओं का पतन उसके काल में हो गया। विद्वान होने पर भी साहित्यकारों को आश्रय देने में उसकी रुचि नहीं थी। फलतः सांस्कृतिक विकास के क्षेत्र में अरुचि के कारण औरंगजेब का युग संस्कृति के पूर्ण पतन का युग था।

प्रश्न 8.
औरंगजेब की धार्मिक नीति की समीक्षा कीजिए।
उतर:
औरंगजेब की धार्मिक नीति के विषय में इतिहासकारों में गहरा मतभेद है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति को उलटकर साम्राज्य को हिन्दुओं की वफादारी से वंचित कर दिया। उनके अनुसार इसके फलस्वरूप जन-विद्रोह भड़क उठे, जिससे साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो गई। लेकिन कुछ दूसरे इतिहासकारों का विचार है कि औरंगजेब पर नाहक दोषारोपण किया गया है। उनके अनुसार हिन्दू औरंगजेब के पूर्ववर्ती शहंशाहों की शिथिलता के कारण गैर-वफादार हो गए थे,

जिससे मजबूर होकर आखिरकार उसे कड़े कदम उठाने पड़े और मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करने की खास कोशिश करनी पड़ी, क्योंकि साम्राज्य अंततः टिका हुआ तो उन्हीं के समर्थन पर था। परन्तु औरंगजेब के सम्बन्ध में लिखी गई हाल की कृतियों में एक नई दृष्टि उभरी है जिसमें कोशिश यह की गई है कि औरंगजेब की राजनीतिक एवं धार्मिक नीतियों का मूल्यांकन उस काल की सामाजिक, आर्थिक एवं संस्थागत घटनाक्रम के सन्दर्भ में किया जाए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि औरंगजेब के धार्मिक विचार रूढ़िवादी थे।

औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसका राजत्व सिद्धान्त इस्लाम का राजत्व सिद्धान्त था। औरंगजेब का प्रमुख लक्ष्य भारत को काफिरों के देश से इस्लाम देश बनाना था। औरंगजेब जीवनपर्यन्त इस उद्देश्य को न भूल सका और न कभी शासन नीति को इससे पृथक् रख सका। औरंगजेब का विश्वास था कि उससे पहले के सभी मुगलों ने सबसे गम्भीर भूल यह की थी कि उन्होंने भारत में इस्लाम की श्रेष्ठता को स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया था। उसके अनुसार यह इस्लाम को मानने वाले बादशाह का एक प्रमुख कर्तव्य था। इस व्यक्तिगत धारणा के अतिरिक्त परिस्थितियों ने भी औरंगजेब को धार्मिक कट्टरता की नीति अपनाने के लिए बाध्य किया था। परन्तु तब भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की नीति का मुख्य आधार उसकी धार्मिक कट्टरता की स्वयं की धारणा थी।

औरंगजेब की धार्मिक नीति का विश्लेषण करते हुए हम सबसे पहले नैतिक और धार्मिक नियमों का जायजा ले सकते हैं-

  1. गायन पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने दरबार में गायन बन्द करवा दिया और गायकों को पेंशन दे दी। लेकिन वाद्य-संगीत तथा नौबत (शाही बैण्ड) को जारी रखा गया। हरम में महिलाओं ने गायन जारी रखा और सरदार लोग भी गायन को प्रश्रय देते थे।
  2. सिक्कों पर कलमाखुदाई का निषेध- अपने शासनकाल के आरम्भ में औरंगजेब ने सिक्कों पर कलमा की खुदाई करने का निषेध कर दिया। उसका कहना था कि सिक्कों पर कोई पैर रख दे या एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुँचने के क्रम में वह नापाक हो जाए, तो वह कलमा का अपमान है।
  3. झरोखा दर्शन पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने झरोखा दर्शन की प्रथा भी बन्द कर दी क्योंकि इसे वह एक अन्धविश्वासपूर्ण रिवाज और इस्लाम के विरुद्ध मानता था।
  4. नौरोज पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने नौरोज के त्योहार की मनाही कर दी क्योंकि वह जरथुस्त्री रिवाज था, जिसका पालन ईरान के सफावी शासक करते थे।
  5. मादक वस्तुओं पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने भाँग का उत्पादन बन्द कर दिया। शराब पीने और जुआ खेलने को भी प्रतिबन्धित कर दिया।
  6. मुहतसिबों की नियुक्ति- औरंगजेब ने बड़े-बड़े नगरो में मुहतसिबों (धर्म निरीक्षकों) की नियुक्ति की। मुहतसिबों का कर्तव्य था कि वह देखें कि मुसलमान ठीक प्रकार से अपने धर्म का पालन करते हैं या नहीं। मुहतसिबों की नियुक्ति के पीछे औरंगजेब का यह आग्रह काम कर रहा था कि राज्य नागरिकों के नैतिक कल्याण के लिए भी जिम्मेदार है।
  7. तुलादान की समाप्ति- उसने शहंशाह के जन्मदिन पर उसे सोने या चॉदी अथवा अन्य कीमती वस्तुओं से तोलने का रिवाज भी बन्द करवा दिया। यह प्रथा छोटे सरदारों के लिए सिर का बोझ बन गई थी।

इसी प्रकार औरंगजेब ने सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया, वेश्याओं को शादी करने अथवा देश छोड़ देने के आदेश दिए। सादगी और मितव्ययिता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सिंहासन कक्ष को सस्ते और सादे ढंग से सजाने का हुक्म दिया। रेशमी कपड़ों को अस्वीकृत की दृष्टि से देखा जाता था। इसी प्रकार उसने पेशकारों और करोरियों के पद मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की कोशिश की, लेकिन सरदारों के विरोध और योग्य मुसलमानों की कमी के कारण शीघ्र ही उसने इस नियम में संशोधन कर दिया। अब हम औरंगजेब की उन नीतियों का अवलोकन करेंगे, जिनसे दूसरे धर्मों के अनुयायियों के प्रति औरंगजेब के धर्माध व्यवहार का पता चलता है

1. सरकारी नौकरियों से हिन्दुओं को वंचित करना- औरंगजेब ने सरकारी नौकरियों में भी भेदभावपूर्ण नीति अपनाई। उसने एक आदेश जारी कर कहा कि खालसा में लगान वसूल करने वाले सभी मुसलमान हों तथा वायसराय और तालुकेदार अपने हिन्दू पेशकार और दीवानों को निकाल दें। प्रो० जदुनाथ सरकार का मत है कि औरंगजेब के शासनकाल में कानूनगो बनने के लिए मुसलमान बनना एक लोक-प्रसिद्ध कहावत हो गई थी।

2. मन्दिरों का विध्वंस- प्रो० जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि औरंगजेब ने हिन्दू धर्म पर बड़े विषैले ढंग से आक्रमण किया। पहले तो उसने एक फरमान (1659 ई०) में यह जारी किया कि “पुराने मन्दिरों को नहीं तोड़ना चाहिए लेकिन कोई नया मन्दिर नहीं बनने देना चाहिए। किन्तु अप्रैल, 1669 में औरंगजेब का अन्तिम आदेश हुआ, जिसमें हुक्म दिया गया कि काफिरों के सब शिवालय और मन्दिर गिरा दिए जाएँ और उनकी धार्मिक प्रथाओं को दबाया जाए। इस कट्टरता के तूफान में काठियावाड़ का सोमनाथ मन्दिर, बनारस का विश्वनाथ मन्दिर, मथुरा का केशवराय मन्दिर तोड़ दिए गए और उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी गईं। आमेर राज्य जो उसका व उसके पूर्वजों का मित्र रहा था, वहाँ के भी सब मन्दिर तोड़ दिए गए, उनकी मूर्तियों को मस्जिद की सीढ़ियों पर डलवा दिया ताकि पैरों तले रौंदी जा सकें।

3. जजिया कर का पुनः प्रचलन- बादशाह औरंगजेब ने 2 अप्रैल, 1679 को आदेश दिया कि कुरान के नियमों के अनुसार जिम्मी (गैर-मुसलमान) लोगों पर जजिया कर लगाया जाए। हिन्दुओं ने दिल्ली में इस कर का विरोध किया, परन्तु सुल्तान ने कोई ध्यान नहीं दिया। गौरतलब है कि 1564 ई० में अकबर ने इस घृणित कर को हटा दिया था और तब से एक शताब्दी से अधिक समय तक इसे किसी ने लागू नहीं किया था।

4. चुंगीसम्बन्धीभेदभावपूर्ण नीति – जजिया कर के अतिरिक्त हिन्दुओं से अन्य करों में भी भेदभाव किया जाता था। व्यापारिक माल पर मुस्लिमों के लिए 2.5% और हिन्दुओं के लिए 5% कर था। हिन्दुओं को धर्म-यात्रा पर भी कर देना पड़ता था।

5. बलात् धर्म परिवर्तन- सम्राट ने अनेक बार हिन्दुओं को बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन करने के लिए भी बाध्य किया, अन्यथा उनको प्राणदण्ड देने की धमकी दी। जाट नेता गोकुल के परिवार को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया। सिक्ख गुरु तेगबहादुर सिंह को इस्लाम स्वीकार करने के लिए अनेक यातनाएँ दी गई और अन्त में बादशाह के हुक्म से उनका सिर काट दिया गया।

6. हिन्दुओं के विरुद्ध नियम- औरंगजेब ने दीपावली पर बाजारों में रोशनी करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। होली खेलने, हिन्दू मेलों तथा धार्मिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। राजपूतों के अतिरिक्त अन्य जाति के हिन्दुओं के लिए हथियार लेकर अच्छी नस्ल के घोड़ों एवं पालकी पर चलने की प्रथा को बन्द कर दिया।

7. इस्लाम ग्रहण करने के लिए प्रलोभन- औरंगजेब ने मुसलमान बन जाने की शर्त पर हिन्दुओं को ऊँचे पद दिए जाने और कैद से छुटकारा पाने का प्रलोभन दिया। डॉ० एस० आर० शर्मा ने लिखा है कि “चाहे जो भी अपराध होता था, इस्लाम स्वीकार कर उसका प्रायश्चित हो सकता था।”

प्रश्न 9.
औरंगजेब मुगल साम्राज्य का अन्तिम शासक था, जिसकी मृत्यु से पहले ही विशाल साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया था।”मुगल साम्राज्य के विघटन के लिए प्राप्त औरंगजेब को कहाँ तक उत्तरदायी मानते हैं।
उतर:
मुगल साम्राज्य के पतन मे औरंगजेब का उत्तरदायित्व- औरंगजेब को निश्चय ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। यद्यपि पूर्ण रूप से नहीं तथापि मुगल वंश का पतन अधिकतर उसकी नीतियों का ही परिणाम था, क्योंकि वह किसी का भी हृदय जीतने में असफल रहा।

औरंगजेब की निम्नलिखित नीतियाँ मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी हैं–

1. राजपूत विरोधी नीति- केवल राजपूतों को ही नहीं वरन् अन्य सहायकों को भी अपनी अनुदार तथा संकीर्ण नीति के कारण औरंगजेब ने अपना विरोधी बना लिया। सिक्ख, जाट, बुन्देले, मराठे सभी उसकी नीति से असन्तुष्ट होकर मुगल साम्राज्य के विनाश के लिए प्रयासरत रहने लगे। मराठों ने दक्षिण में लूटमार मचा दी, जाटों ने मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को उजाड़ा तथा गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख उसे जीवनभर परेशान करते रहे। इन विद्रोहों ने मुगल वंश का पतन निकट ला दिया।

2. दक्षिण-नीति की विफलता- औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने राजकोष पर बुरा प्रभाव डाला। विशाल सेना होने के कारण आय का अधिकांश भाग केवल सेना पर व्यय होने लगा, जिससे अन्य दिशाओं में प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसी कारण सम्राट शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखने में असफल रहा। दक्षिण में शिया राज्यों को जीत लेने के साथ ही विकासोन्मुख मराठा शक्ति का सामना करने के लिए मुगलों को संघर्षरत होना पड़ा। मराठों की छापामार रण-पद्धति के सम्मुख मुगलों की विशाल सेना कुछ भी नहीं कर सकती थी। मराठों की सेना मुगल सेना एवं उनके प्रदेशों को अवसर पाते ही लूट लेती थी। इस प्रकार मराठों ने मुगलों का पतन और भी सन्निकट ला दिया।

3. पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प- यद्यपि औरंगजेब धर्मान्ध तथा अनुदार था तथापि उसमें योग्यता का अभाव नहीं था। उसके पिता ने उसे उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान की थी तथा सम्राट बनने से पूर्व उसने शासन-प्रबन्ध का पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर लिया था। इसलिए विद्रोहों तथा संकटों के उपरान्त भी उसने राज्य को अपने हाथ से नहीं जाने दिया। वह शंकालु प्रकृति का था तथा उसे भय था कि उसके पुत्र योग्य बनकर कहीं उसके विरुद्ध विद्रोह न कर दें, जैसा कि उसने स्वयं अपने पिता के विरुद्ध किया था। उसने केवल शहजादे अकबर को व्यवहारिक शिक्षा देने का प्रयास किया था। शहजादे अकबर के विद्रोह के पश्चात् अपने अन्य शहजादों के प्रति सम्राट और भी सतर्क हो गया तथा उसने उन्हें कभी भी कोई महत्वपूर्ण प्रशासनिक भार सँभालने का अवसर नहीं दिया। उसने अपने पुत्रों पर भी कभी विश्वास नहीं किया तथा 90 वर्ष की वृद्धावस्था में भी लकड़ी के सहारे चलकर वह स्वयं सैन्य संचालन करता था। उसकी इसी नीति के कारण अनुभव से वंचित उसके उत्तराधिकारी विशाल साम्राज्य को सँभाल पाने में असमर्थ रहे।

4. शासन का केन्द्रीकरण- शंकालु प्रकृति के कारण औरंगजेब ने शासन की बागडोर पूर्णतया अपने हाथ में रखी। दक्षिण की विजयों के कारण मुगल साम्राज्य काफी विशाल हो गया था तथा एक व्यक्ति और एक केन्द्र से उसका समुचित संचालन असम्भव हो गया था। सम्राट के स्वभाव के कारण सूबेदार अनुत्तरदायी हो गए तथा प्रजा पर अत्याचार करने लगे। उनके अधिकारों को छीनकर सम्राट ने शासन-व्यवस्था को दोषपूर्ण बना दिया। जब तक सम्राट शक्तिशाली रहा तब तक तो शासन सुचारु रूप से चलता रहा, परन्तु जैसे-जैसे वह वृद्ध होता गया उसकी कार्य करने की शक्ति क्षीण होने लगी तथा प्रान्तों पर से उसका अंकुश ढीला पड़ने लगा। दूरस्थ प्रान्तों के सूबेदार उसके नियन्त्रण से बाहर होने लगे तथा विद्रोह करने को तत्पर हो गए।

5. शासन-व्यवस्था की शिथिलता- यद्यपि औरंगजेब साम्राज्य के छोटे-छोटे कार्यों का निरीक्षण भी स्वयं करता था परन्तु वह देश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में असफल रहा। यद्यपि वह कुशल शासक था परन्तु उसकी यह धारणा बन गई थी कि वह स्वयं सबसे अधिक योग्य है। वह अपने बड़े-से-बड़े पदाधिकारी पर भी सन्देह करता था। ईष्र्या और सन्देह की मात्रा उसमें इतनी प्रबल थी कि उसने सभी पर सन्देहपूर्ण दृष्टि रखनी आरम्भ कर दी थी। शासन-व्यवस्था में योग्य-से-योग्य व्यक्तियों के परामर्श की भी वह अवहेलना करने लगा था। इस सन्देहपूर्ण नीति का दुष्प्रभाव जनता पर पड़ा, जिससे शान्ति एवं समृद्धि का युग समाप्त हो गया।

6. धर्मान्धता एवं असहिष्णुता की नीति- सम्राट के रूप में औरंगजेब का आदर्श संकीर्ण एवं अनुदार था। वह मुसलमानों की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था जबकि हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति अत्याचारपूर्ण थी। वह बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार करना अपना कर्त्तव्य समझता था। इस्लाम स्वीकार न करने पर वह हिन्दुओं को प्राणदण्ड तक दे देता था। भारत जैसे देश के लिए, जहाँ 80 प्रतिशत जनता हिन्दू थी, इस प्रकार की नीति अहितकर तथा घातक सिद्ध हुई। हिन्दुओं ने सम्राट के कठोर अत्याचार सहन किए, परन्तु धर्म परिवर्तन के लिए वे तैयार नहीं हुए। सम्राट ने जितने अधिक अत्याचार किए, उतनी ही अधिक विद्रोह की प्रवृत्ति हिन्दुओं में उत्पन्न हुई। इस प्रकार औरंगजेब की नीति मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। औरंगजेब ने हिन्दुओं के प्रति ही नहीं, शियाओं के प्रति भी अनुदारतापूर्ण नीति अपनाई तथा योग्य एवं प्रतिभाशाली शियाओं की सेवाओं से साम्राज्य को वंचित कर दिया। उसकी इस धार्मिक नीति का परिणाम यह हुआ कि उसकी मृत्यु के 10-15 वर्ष पश्चात् ही मुगल साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। औरंगजेब की इस धर्मान्धता का मुगल साम्राज्य पर अत्यन्त घातक प्रभाव पड़ा।

7. आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास का अन्त- औरंगजेब धर्म का अन्धा अनुयायी था तथा कुरान के अनुसार चलने के कारण ललित कलाओं का पोषण नहीं कर सकता था। उसे न संगीत में अभिरुचि थी, न चित्रकला में और न भवननिर्माण-कला में। फलतः इन सभी ललित कलाओं का पतन उसके काल में हो गया। विद्वान होने पर भी साहित्यकारों को आश्रय देने में उसकी रुचि नहीं थी। फलतः सांस्कृतिक विकास के क्षेत्र में अरुचि के कारण औरंगजेब का युग संस्कृति के पूर्ण पतन का युग था।

प्रश्न 10.
मुगल साम्राज्य के पतन के कारणों की समीक्षा कीजिए।
उतर:
मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे

1. औरंगजेब का उत्तरदायित्व- औरंगजेब को एक राजा और राजनीतिज्ञ के रूप में असफल व्यक्ति कहा जा सकता है। चाहे-अनचाहे उसकी नीतियों ने मुगल साम्राज्य के विघटन और पतन की प्रक्रिया आरम्भ कर दी। उसकी धार्मिक नीति ने, जिसे उसने राजनीतिक और आर्थिक कारणों से प्रभावित होकर लागू किया था, बहुसंख्यक हिन्दुओं के मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न कर दी। उसने अपनी धर्मान्धता का परिचय देते हुए हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया, जिससे वे उसे केवल मुसलमानों का ही सम्राट मानने लगे और उसका विरोध करने की प्रवृत्ति उनमें तीव्र हो गई।

धर्म को ही आधार बनाकर जाटों, सतनामियों, सिक्खों, राजपूतों, मराठों, यहाँ तक कि दक्कन की शिया रियासतों ने भी क्षेत्रीय स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न आरम्भ कर दिए और मुगलों को परेशान करने लगे। इन शक्तियों को दबाने में औरंगजेब की शक्ति एवं प्रतिष्ठा नष्ट हो गई, फिर भी इन पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित नहीं किया जा सका। इस प्रकार हिन्दुओं का समर्थन और सहयोग खोना औरंगजेब की एक बहुत बड़ी राजनीतिक भूल थी। औरंगजेब की दूसरी बड़ी भूल राजपूतों का सहयोग खोना था। भारत में मुगल सत्ता के स्थाई स्तम्भ राजपूत ही थे।

किन्तु इस स्तम्भ को औरंगजेब ने अपनी राजनीतिक अदूरदर्शिता एवं धार्मिक कट्टरपन से खो दिया। इसी प्रकार औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का वध करवाकर सिक्खों को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा कर दिया। औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने भी मुगल साम्राज्य के पतन में योगदान दिया। उसने बीजापुर और गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में मिलाने की बड़ी राजनीतिक भूल की। इन दोनों राज्यों की समाप्ति के बाद दक्षिण में मराठों पर से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थानीय नियन्त्रण समाप्त हो गया। इस प्रकार मराठों को संगठित एवं शक्तिशाली होने का एक और अवसर मिल गया। औरंगजेब की दक्षिण की यह मूर्खतापूर्ण नीति करीब 25 वर्ष तक चलती रही। इस लम्बी अवधि के दौरान अपार धन, जन एवं सेना का ह्रास हुआ, साथ ही उत्तर भारत की शासन-व्यवस्था भी कमजोर पड़ गई। इस अवसर का लाभ उठाकर अनेक प्रान्तीय सुल्तानों ने अपने आप को स्वतन्त्र घोषित कर दिया।

2. औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी- मध्ययुगीन साम्राज्य मात्र सम्राटों की योग्यता पर टिका रहता था, किन्तु दुर्भाग्य से औरंगजेब के बाद के मुगल सम्राट न तो योग्य थे और न चरित्रवान। वे अब तलवार से अधिक स्त्री और शराब को प्यार करने लगे थे। औरंगजेब का उत्तराधिकारी बहादुरशाह शाह-ए-बेखबर’ कहलाता था। डॉ० श्रीराम शर्मा के मतानुसार, “कामबख्श ने बन्दीगृह में मृत्यु-शैय्या पर इस बात का तो पश्चाताप किया कि तैमूर का वंशज जीवित ही पकड़ा गया। किन्तु जहाँदारशाह और अहमदशाह को अपनी रखैलों के बाहु-बन्धनों में फंसे हुए कर्तव्य-विमुख अवस्था में बन्दी बनाए जाने पर तनिक भी लज्जा नहीं आई।” इस प्रकार बहादुरशाह प्रथम से लेकर बहादुरशाह जफर तक के सभी शासकों में चारित्रिक, राजनीतिक, सैनिक अथवा प्रशासनिक क्षमता नहीं थी। ऐसी स्थिति में मुगल साम्राज्य का पतन होना स्वाभाविक था।।

3. मुगलों में उत्तराधिकार के नियम का अभाव- मुगलों में राजगद्दी के लिए उत्तराधिकार का कोई नियम न था। प्रसिद्ध लेखक अस्कीन के अनुसार, “तलवार ही उत्तराधिकार की एक मात्र निर्णायक थी। प्रत्येक राजकुमार अपने भाइयों के विरुद्ध अपना भाग्य आजमाने को उद्यत रहता था। औरंगजेब द्वारा किया गया उत्तराधिकार का युद्ध इसका उदाहरण है। वस्तुतः मुगलों में बादशाह के जीवनकाल में ही अथवा उसकी मृत्यु के पश्चात् गद्दी के महत्वाकांक्षी दावेदारों में संघर्ष हो जाता था। इस संघर्ष में मुगल अमीर, दरबारी, सूबेदार, जागीरदार, मनसूबदार यहाँ तक की महल की स्त्रियाँ तक भाग लेती थीं। इन संघर्षों से धीरे-धीरे मुगलों की प्रतिष्ठा, शक्ति, धन एवं जन की अपार क्षति हुई। इन संघर्षों ने मुगल साम्राज्य के पतन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

4. मुगल सामन्तों का नैतिक पतन- मुगल सम्राट ही नहीं अपितु उनके सामन्तों का भी नैतिक पतन हो गया था। मुगल सामन्तों के जीवन में शराब, स्त्री, षड्यन्त्र, स्वार्थ, पद-लोलुपता का ही स्थान रह गया था। जदुनाथ सरकार के मतानुसार, कोई भी मुगल सामन्त एक या दो पीढ़ियों से अधिक समय तक अपना महत्व बनाए नहीं रख सका। यदि किसी सामन्त की वीरता के विषय में इतिहासकार ने तीन पृष्ठ लिखे तो उसके पुत्र के कार्यों का वर्णन केवल एक ही पृष्ठ में हुआ और उसके पौत्र का वर्णन केवल इस प्रकार के शब्दों में कि ‘उसने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया’ समाप्त हो जाता।” अत: सामन्तों के उत्तरोत्तर नैतिक पतन ने मुगल साम्राज्य को काफी क्षति पहुँचाई।

5. जागीरदारी संकट- डॉ० सतीशचन्द ने मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मनसबदारी और जागीरदारी प्रथाओं की असफलता को जिम्मेदार बताया है। उनके अनुसार औरंगजेब के समय से ही युद्धों, प्रशासन-व्ययों और बादशाह तथा अमीर वर्ग की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति किया जाना कठिन हो गया था। आय का प्रमुख साधन भूमि थी, जो व्यय में वृद्धि के अनुपात में कम थी। अतः राज्य और प्रशासक वर्ग की आय और उनके व्यय के बीच अन्तर बढ़ता गया और जागीरदारी या मनसबदारी व्यवस्था के दोष सामने आने लगे। औरंगजेब की दक्षिण विजय ने इस संकट में और वृद्धि की। अब स्थिति यह हो गई कि जागीरे कम हो गईं और उनके माँगने वाले अधिक, जिससे जागीरदारी पाने वाले वर्ग में अच्छी जागीर प्राप्त करने की प्रतिद्वन्द्विता बढ़ गई। इस प्रतिद्वन्द्विता और संकट को एक अन्य प्रकार से भी बढ़ावा मिला।

कागजों में जागीरों से प्राप्त होने वाली आय को बहुत पहले से वास्तविक आय से अधिक दिखाया जाता रहा था। ऐसी स्थिति में जागीर प्राप्त वर्ग ने अच्छी आय वाली जागीरों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इससे दरबार में दलबन्दी बढ़ने लगी। जागीरदारों ने भूमि को ठेकेदारों को देना शुरू कर दिया। ठेकेदार किसानों से अधिकतम लगान वसूलते थे। इससे किसानों ने लगान देना बन्द कर दिया और स्थानीय जमींदारों के माध्यम से विद्रोह कर दिया। अब मुगलों की आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक-शक्ति टूटती चली गई क्योंकि यह सब भूमि से प्राप्त आय पर ही निर्भर था। प्रो० इरफान हबीब ने भी आर्थिक संकट को ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरादायी माना है।

6. मुगलों की सैन्य दुर्बलताएँ- सैन्य दुर्बलताओं ने भी मुगलों के पतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मुगल सेना मनसबदारी व्यवस्था पर आधारित थी, परन्तु कालान्तर में यही व्यवस्था मुगल सेना की दुर्बलता का आधार बनी। उनकी सेना की स्वामिभक्ति सम्राट के प्रति नहीं रही। मुगल सेना में राष्ट्रीयता का भी सर्वथा अभाव था। मुगल सेना में अनुशासनहीनता एवं विलासिता भी प्रवेश कर गई थी। इसके अतिरिक्त गलत रणनीतियाँ, नौ सेना का अभाव, केवल मैदानी युद्धों में पारंगत होना, छापामार युद्ध से अनभिज्ञ होना इत्यादि कारणों ने मुगल सेना की क्षमता को नष्ट कर दिया। सर वूल्जले हेग ने लिखा है, “सेना की चरित्रहीनता ही साम्राज्य के पतन के मुख्य कारणों में से एक थी।’

7. बौद्धिक पतन- बौद्धिक पतन को भी मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना गया है। निश्चय ही मुगलों के अधिकांश शासनकाल में शिक्षा की व्यवस्था समुचित नहीं थी और जो थी भी वह समय के अनुकूल न रही। उसमें तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा का पूर्णतः अभाव था और उदार मानवीय भावना के विकास में सहयोग देने में बहुत कमी थी। इस कारण प्रशासन में योग्य व्यक्तियों का अकाल सा पड़ गया। परिणामस्वरूप मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो गया।

8. मुगल साम्राज्य का आर्थिक दिवालियापन- कोई भी साम्राज्य सम्राट की योग्यता, सेना की सुदृढ़ता और राजकोष में पर्याप्त धन पर निर्भर करता है। मुगल साम्राज्य के पास इन तीनों का ही अभाव हो गया था। शाहजहाँ ने भवन निर्माण आदि कार्यों में प्रचुर मात्रा में धन व्यय किया। औरंगजेब ने दक्षिण के दीर्घकालीन युद्धों में न केवल राजकोष को ही खाली किया बल्कि देश के व्यापार एवं उद्योगों को भी नष्ट किया। सर जदुनाथ सरकार के अनुसार, “एक बार तो मुगल जनानखाने में तीन दिन तक चूल्हे में आग नहीं जली। शहजादियाँ अधिक समय तक भूख सहन नहीं कर सकीं और पर्दे की परवाह न करते हुए महल से निकलकर शहर की ओर दौड़ पड़ीं।” जिस शासन की हालत इतनी गिर जाए, फिर वह अधिक समय तक किस प्रकार चल सकता था।

9. नौसेना का अभाव- नौसेना का अभाव अप्रत्यक्ष रूप से मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी कारण माना जाता है। नौसेना के अभाव से उत्पन्न दुर्बलता उस समय प्रकट हुई जब 16 वीं सदी में यूरोप के निवासी भारत आए और समुद्र पर अधिकार स्थापित करके उन्होंने भारत के विदेशी व्यापार पर नियन्त्रण स्थापित किया। व्यापारिक दृष्टि से यूरोपियनों पर निर्भरता ने भारतीय शासकों को उन्हें व्यापारिक सुविधाएँ देने के लिए बाध्य किया, जिससे अन्त में उनमें से एक को। (अंग्रेजों को ) भारत में राज्य स्थापित करने का अवसर मिला।

10. मुगल साम्राज्य की विशालता और मराठों का उत्कर्ष- औरंगजेब के काल में मुगल साम्राज्य का विस्तार बहुत विस्तृत हो गया था। एक व्यक्ति के लिए एक केन्द्र से इस विशाल साम्राज्य को सम्भालना मुश्किल था। औरंगजेब दक्षिण में मराठों से उलझकर असफल हो गया। मराठों के उत्कर्ष ने मुगल साम्राज्य को बौना और असहाय कर दिया और इसकी प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। इस विशाल साम्राज्य में कुछ समय पश्चात् ही विभिन्न शक्तियाँ मुगल साम्राज्य से अलग हो गई और मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया।

11. दरबार में गुटबाजी- औरंगजेब के पश्चात् मुगल दरबार आपसी गुटबन्दी का अड्डा बन गया। आसफजहाँ निजामुलमुल्क, कमरूद्दीन, जकरिया खाँ, अमीर खाँ और सआदत खाँ प्रमुख गुटों के नेता थे। इन गुटों में अक्सर युद्ध होते रहते थे। इस प्रकार जहाँ औरंगजेब के पूर्व दरबारियों और सरदारों जैसे महावत खाँ, अब्दुर्रहीम खानखाना, बीरबल, सादुल्ला खाँ, मीर जुमला आदि ने साम्राज्य के हितों की सुरक्षा की थी, वहीं बाद के सरदारों ने अपने स्वार्थ में अन्धा होकर बादशाह और साम्राज्य दोनों को क्षति पहुँचाई।

12. नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण- मुगल साम्राज्य की रही-सही प्रतिष्ठा को इन दोनों विदेशी आक्रमणकारियों ने समाप्त कर दिया। नादिरशाह ने 1739 ई० में मुगल सम्राट को दिल्ली में कैद कर लिया और दिल्ली को जमकर लूटा तथा राजकोष में जितना भी धन, हीरे-जवाहरात व वस्तुएँ थीं सब अपने साथ ले गया। बची-खुची इज्जत को अहमदशाह अब्दाली ने 1761 ई० में समाप्त कर दिया और पानीपत के तीसरे युद्ध में उसने मुगल साम्राज्य के साथ मराठों की प्रतिष्ठा को भी धूल में मिला दिया।

13. यूरोपवासियोंका आगमन- 1600 ई० में स्थापित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में व्यापार के नाम पर धीरे-धीरे अपने राजनीतिक पैर पसारने शुरू कर दिए। 18 वीं शताब्दी के मध्य तक कम्पनी ने यूरोप से आने वाली दूसरी शक्तियों को भारत से निकाल दिया। 1757 और 1761 ई० के क्रमश: प्लासी और बक्सर के युद्धों के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा (ओडिशा) की स्वामी बन गई। इस प्रकार अंग्रेजों के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव ने मुगल शक्ति और प्रतिष्ठा को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया और अन्तत: 1857 ई० में अंग्रेजों ने ही मुगलों के शासन का हमेशा के लिए अन्त कर दिया।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 3 Medieval Indian Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 3
Chapter Name Medieval Indian Education (मध्यकालीन भारतीय शिक्षा)
Number of Questions Solved 43
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 3 Medieval Indian Education (मध्यकालीन भारतीय शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मध्यकालीन शिक्षा से आप क्या समझते हैं? इस काल की शिक्षा की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
मध्यकालीन शिक्षा का अर्थ भारतीय इतिहास में शैक्षिक दृष्टिकोण से मध्यकाल नितान्त भिन्न काल था। इस काल में भारत में मुख्य रूप से विदेशी मुस्लिम शासकों का शासन था। इस शासन के ही कारण भारत में एक भिन्न शिक्षा प्रणाली को लागू किया गया जो पारम्परिक भारतीय शिक्षा-प्रणाली से नितान्त भिन्न प्रकार की थी। इस शिक्षा-प्रणाली को मुस्लिम शिक्षा-प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है। वास्तव में इस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रसार एवं प्रचार करना भी था। मध्यकालीन अथवा मुस्लिम शिक्षा का सामान्य परिचय डॉ० केई ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर, अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।”

मध्यकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं–
1. शिक्षा का संरक्षण-मध्यकाल में शिक्षा-व्यवस्था राज्य के संरक्षण या नियन्त्रण में थी। मुस्लिम शासकों ने भी शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रुचि ली थी। उनके राज्य के विभिन्न भागों में मकतबों, मदरसों एवं पुस्तकालयों की स्थापना की गई। राज्य की ओर से छात्रों को छात्रवृत्तियाँ और शिष्यवृत्तियाँ भी दी गयी। इन सब सुविधाओं के कारण इस युग में शिक्षा का पर्याप्त प्रसार हुआ।

2. शिक्षा में व्यापकता का अभाव-
यद्यपि मध्यकाल में शिक्षा का प्रसार बहुत तेजी से हुआ, लेकिन उसमें व्यापकता का सर्वथा अभाव था। शिक्षा पर धार्मिक कट्टरता की छाप लगी हुई थी और शिक्षा की जो भी व्यवस्था थी, वह केवले नगरों में उच्च तथा मध्यम वर्गों के बालकों के लिए ही थी। फलतः जनसाधारण के बालकों के ज्ञानार्जन का कोई सुलभ साधन नहीं था।

3. शिक्षा के लौकिक पक्ष पर बल-
मुस्लिम शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य लौकिक यश, सुख तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति माना गया था। मुसलमानों को ध्यान लौकिक जीवन की ओर अधिक आकृष्ट था। अतः मुस्लिम शिक्षा में लौकिक पक्ष पर बहुत अधिक बल दिया गया और इसमें भारतीय आध्यात्मिकता का अभाव रखा गया।

4. प्रान्तीय भाषाओं की उपेक्षा–
मध्यकाल में अरबी और फारसी भाषा के माध्यम से शिक्षा दी। जाती थी। इस कारण प्रान्तीय भाषाओं की पूर्णत: उपेक्षा हो गई। उच्च पद के इच्छुक व्यक्तियों ने भी मातृभाषा की उपेक्षा करके अरबी और फारसी भाषा का अध्ययन किया।

5. निःशुल्क शिक्षा—इस काल में बालकों की शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क थी। विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था। उनकी पढ़ाई का पूरा व्यय धनी व्यक्तियों और शासकों को वहन करना पड़ता था।

6. परीक्षाएँ-
मुस्लिम काल में आजकल के समान सार्वजनिक परीक्षाओं का प्रचार नहीं था। शिक्षक वाद-विवाद और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्यार्थियों को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में भेजता था।

7. उपाधियाँ-मुस्लिम काल में छात्रों की शिक्षा समाप्ति के बाद उपाधियाँ प्रदान करने की व्यवस्था थी। धर्म की शिक्षा प्राप्त करने पर आलिम’ की उपाधि, तर्कशास्त्र और दर्शनशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने पर फाजिल की उपाधि और साहित्य का अध्ययन करने वाले छात्र को ‘कामिल’ की उपाधि दी जाती थी।

8. गुरु-शिष्य सम्बन्ध–
इस काल में भी गुरु को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त होता था। शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर करते थे, और गुरु अपने शिष्य को पुत्रवत् मानते थे। छात्रावासों में गुरु और शिष्य एक साथ रहते थे, जिसके फलस्वरूप दोनों में निकट सम्पर्क स्थापित रहता था।

9. अनुशासन और दण्ड–
इस काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध । शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ मधुर होने के कारण शिक्षकों के सामने अनुशासनहीनता की समस्या न थी, लेकिन अनुशासनहीन छात्रों को बेंत, कोड़े और चूंसे मारकर शारीरिक दण्ड दिया जाता था। इनका प्रयोग करने के लिए शिक्षकों को स्वतन्त्र छोड़ दिया गया था। कठोर दण्ड का प्रावधान होने के शिक्षा के लौकिक पक्ष पर बल कारण सामान्य रूप से अनुशासनहीनता की समस्या प्रबल नहीं थी।

10. छात्रावास-
मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए। छात्रावासों की व्यवस्था थी, जिनका व्यय भार धनी व्यक्ति उठाते इन छात्रावासों में शिक्षकों और विद्यार्थियों के सुख तथा आनन्द उपाधियाँ की अनेक सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं।

11. स्त्री-शिक्षा-
परदा-प्रथा के कारण इस काल में स्त्री-शिक्षा की प्रगति प्राचीनकाल की अपेक्षा कम थी। निम्न वर्ग की बालिकाओं को शिक्षा का अवसर प्राप्त नहीं होता था, जब कि धनी तथा उच्च घराने में उत्पन्न हुई बालिकाओं की शिक्षा के लिए अनेक साधन थे। छोटी आंयु में मोहल्ले की बालिकाएँ एकत्र होकर मकतब जाती थीं और लिखना-पढ़ना सीख लेती थीं। सम्पन्न परिवार की बालिकाओं को घर पर व्यक्तिगत शिक्षकों द्वारा शिक्षा दी जाती थी। कुछ स्त्रियाँ साहित्य, धर्मशास्त्र, गृहशास्त्र, संगीत इत्यादि में निपुण थीं, जिनमें नूरजहाँ, रजिया बेगम, जहाँआरा, गुलबदन बेगम आदि प्रमुख हैं।

12. व्यावसायिक शिक्षा–
मध्यकाल में व्यावसायिक शिक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया था। जीविका उपार्जन सम्बन्धी शिक्षा के लिए मुहम्मद तुगलक ने अनेक कारखानों की स्थापना की थी, जो अकबर के समय दीवाने वयूतात के अधीन थे। इन कारखानों में चित्रकला, सुनारगिरी, वस्त्र बनाना, दरी और परदे बनाना, अस्त्र-शस्त्र बनाना, दर्जी का काम, जूते बनाना, मलमल तैयार करना आदि काम सिखाए जाते थे।

13. सैन्य शिक्षा-
राज्य के सैनिकों द्वारा बालकों को सैन्य शिक्षा दी जाती थी। इसके द्वारा वे देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। इस युग में सैनिक विद्यालयों की स्थापना नहीं हो पाई थी। बालकों को गोली चलाने और हाथियों पर बैठकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी। |

14. ओषधिशास्त्र की शिक्षा–
मध्यकाल में ओषधिशास्त्र की शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन दिया गया था। ओषधिशास्त्र की संस्कृत की पुस्तकों का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। अनेक मुस्लिम संस्थाओं में इस प्रकार की शिक्षा दी जाती थी।

15. ललित कलाओं की शिक्षा-
मध्यकाल में भवन-निर्माण कला, चित्रकला, नृत्यकला और संगीत के प्रशिक्षण के लिए अनेक सुविधाएँ प्राप्त थीं। इन सभी कलाओं को राजाओं एवं अमीरों का संरक्षण प्राप्त था। शाहजहाँ भवन-निर्माण कला में विख्यात था। जहाँगीर चित्रों का पारखी था और अकबर कुशल संगीतज्ञ था।

प्रश्न 2
मध्यकालीन शिक्षा के मुख्य गुणों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
मध्यकालीन शिक्षा के गुण
मध्यकालीन शिक्षा में निम्नांकित गुण थे
1. अनिवार्य शिक्षा-इस्लाम धर्म के अनुसार शिक्षा ईश्वर की प्राप्ति में सहायता करती थी, इसलिए शिक्षा को अनिवार्य स्वीकार किया गया था। बालिकाओं के लिए शिक्षा अनिवार्य नहीं थी।

2. धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा को समेस्वय-इस युग की शिक्षा की प्रमुख विशेषता धार्मिक और लौकिक शिक्षा में समन्वय की स्थापना थी। शिक्षा के द्वारा बालकों को धार्मिक आचरण के लिए प्रेरित किया जाता था। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना था। मुसलमान धर्म को केवल स्वर्ग-प्राप्ति का साधन नहीं मानते थे, लेकिन हिन्दू इसे सांसारिक सुख तथा समृद्धि-प्राप्ति का साधन मानते थे। इसीलिए धार्मिक भावना के साथ-साथ विद्यार्थियों के रहन-सहन और जीवन में भौतिक सुख-सुविधाओं को भी ध्यान में रखा जाता था। इस प्रकार ईश्वर की प्राप्ति का लक्ष्य रखते हुए भी विद्यार्थियों में सांसारिक भावना प्रधान रहती थी।

3. निःशुल्क शिक्षा-मध्यकाल में छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था, वरन् पूर्णतया नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी।
4. शिक्षा संस्थाओं का उपयुक्त वातावरण- शिक्षा | मध्यकालीन शिक्षा के गुण संस्थाओं में छात्रों को अध्ययन के लिए उपयुक्त वातावरण मिलता अनिवार्य शिक्षा था। उन्हें शान्त, कोलाहलहीन व मनोरम स्थानों में बनवाया जाता था। धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा का

5. व्यापक पापक्रम-मध्यकाल में बहुत विस्तृत व व्यापक समन्वय पाठ्यक्रम लागू किया गया था। छात्रों को साहित्य, भाषा, व्याकरण, निःशुल्क शिक्षा गणित, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, कानून, दर्शन, तर्कशास्त्र, कृषि, शिक्षा संस्थाओं का उपयुक्त चिकित्सा, अर्थशास्त्र इत्यादि विषय पढ़ाए जाते थे। वातावरण

6. व्यावहारिक शिक्षा-मध्यकाल में व्यावहारिक शिक्षा पर में व्यापक पाठ्यक्रम बहुत अधिक बल दिया गया था। बालकों को ऐसे विषयों का ज्ञान व्यावहारिक शिक्षा दिया जाता था, जो जीवन में उपयोगी होते थे।
पुरस्कार और छात्रवृत्तियों ।

7. पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ-इस युग में छात्रों के लिए हुचरित्र-निर्माण पुरस्कार और छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाती थी, जिससे छात्र अविगत सके। पढ़ने के लिए अधिक-से-अधिक प्रोत्साहित हो सकें। सरस साहित्य को विकास

8. चरित्र-निर्माण-बालकों को ऐसी शिक्षा दी जाती थी, के इतिहास रचना : जिससे बालकों में नैतिकता का विकास होता था और उनका चरित्र आदर्श बनता था।
9. व्यक्तिगत सम्पर्क- मध्यकाल में शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच बहुत मधुर सम्बन्ध रहते थे, क्योंकि एक ही छात्रावास में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों रहा करते थे।
10.सरस साहित्य का विकास-मध्यकाल में श्रृंगार रस को प्रधानता दी जाती थी। इस काल में इसी कारण सरस साहित्य और कलाओं को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला।
11. इतिहास रचना-मुस्लिम शासकों में अपने समय का इतिहास स्वयं लिखने की प्रवृत्ति थी। अतः तत्कालीन बातों की जानकारी उनके विवरण से प्राप्त होती है।
12. विशिष्ट शिक्षाओं को प्रोत्साहन-मध्यकाल में सैनिक शिक्षा, संगीत, वास्तुकला, शिल्पकला जैसी विशिष्ट शिक्षाओं को विशेष प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।

प्रश्न 3
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा के मुख्य दोष बताइए।
उत्तर
मध्यकालीन शिक्षा के दोष
मध्यकालीन शिक्षा में निम्नलिखित दोष थे-
1. सांसारिकता की प्रधानत-मध्यकाल में विलासिता, मध्यकालीन शिक्षा के दोष ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं पर अधिक बल दिया गया था, सांसारिकता की प्रधानता। इसलिए विद्यार्थियों का ध्यान भी आध्यात्मिकता से हटकर सांसारिक भोग-विलास में लग जाता था।

2. धार्मिक कट्टरता-मध्यकाल में शिक्षा के द्वारा इस्लाम धर्म जनसाधारण की शिक्षा का अभाव के प्रचार पर ही बल दिया जाता था, इसलिए व्यक्तियों में धार्मिक अमनोवैज्ञानिकता कट्टरता फैलने लगी। इससे समाज में साम्प्रदायिक सौहार्द पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

3. शिक्षा-केन्द्रों का अस्थायित्व-विद्यालयों की स्थापना लेखन व पाठन में समन्वय का और संचालन का उत्तरदायित्व धनी व्यक्तियों के ऊपर निर्भर था। अभाव इस कारण धनी व्यक्तियों की मृत्यु के साथ ही प्राय: विद्यालय भी बन्द हो जाता था। इस कारण बालकों की शिक्षा व्यवस्थित रूप से नहीं चल पाती थी।

4. जनसाधारण की शिक्षा का अभाव-मध्य युग में धनी व्यक्ति ही विद्यालयों की स्थापना करते थे। इसलिए पर्याप्त संख्या में विद्यालयों का अभाव था। इस कारण जनसाधारण के बालकों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं मिलती थी।

5. अमनोवैज्ञानिकता-इस युग में बालकों को मनोवैज्ञानिक ढंग से शिक्षा नहीं दी जाती थी, क्योंकि शिक्षा देते समय बालकों की व्यक्तिगत विशेषताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता था।

6. नारी शिक्षा की उपेक्षा-मध्य युग में स्त्री की शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था, जिससे समाज का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग एवं भाग अविकसित रह जाता था। |
7. शारीरिक दण्ड की प्रधानता-इस युग में शिक्षक छात्रों को बड़ी निर्दयता के साथ शारीरिक दण्ड देते थे, जिससे उनकी रुचि अध्ययन की ओर नहीं हो पाती थी।

8. लेखन व पाठन में समन्वय का अभाव-इस युग में पहले बालकों को पढ़ना सिखाया जाता था और उसके पश्चात् उन्हें लिखने की शिक्षा दी जाती थी। इस प्रकार लेखन और पाठन में समन्वय का अभाव था।
9. अरबी-फारसी की प्रधानता-मध्यकाल में अरबी और फारसी भाषा को अधिक महत्त्व दिया जाता था और हिन्दी एवं अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा की गई थी।

10. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम-पाठ्यक्रम में धार्मिकता की प्रधानता और वैधानिकता का अभाव था। इस कारण असन्तुलित पाठ्यक्रम द्वारा बालकों को शिक्षा दी जाती थी। निष्कर्ष–उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मध्यकालीन शिक्षा सामाजिक जीवन की वास्तविकताओं के अनुकूल नहीं थी। धर्म प्रधान शिक्षा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का समुचित विकास करने में सक्षम नहीं थी। डॉ० युसूफ हुसैन ने ठीक ही लिखा है-“मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली का मुख्य दोष यह था कि उसमें छात्रों के परिशुद्ध निरीक्षण तथा व्यावहारिक निर्णय प्रदान करने की क्षमता नहीं थी। यह बड़ी असभ्य, निर्जीव और पुस्तकीय थी।”

प्रश्न 4
प्राचीन व मध्यकालीन शैक्षिक विशेषताओं की तुलना निम्न बिन्दुओं के आधार पर कीजिए-
(i) शिक्षा का उद्देश्य,
(i) पाठ्यक्रम,
(ii) शिक्षा के केन्द्र।
उत्तर
(i) शिक्षा का उद्देश्य
1. प्राचीन काल में भारतीय समाज आदर्शवादी था जिसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान तथा अनुभव को अर्जित करना था, जबकि इसके विपरीत मध्यकाल में भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों की निर्धारण इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार होने के कारण ज्ञान का अधिक-से-अधिक प्रसार करना था।
2. प्राचीन काल में भारतीय समाज धर्मप्रधान था जिस कारण भारतीय शिक्षा भी धार्मिकता की और उन्मुख थी। शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वर-भक्ति को विकसित करना था। इसके विपरीत मध्य काल में भारतीय शासृक मुसलमान थे और अधिकांश भारतीय जनता हिन्दू थी। अत: मुस्लिम शासकों ने भारत में इस्लाम धर्म के प्रचार व प्रसार हेतु शिक्षा को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया तथा इस्लाम धर्म के नियमों के अनुसार ही छात्रों में इस्लाम धर्म की प्रवृत्ति को गति देने हेतु शैक्षणिक गतिविधियों को प्रचलित किया।

(ii)पाठ्यक्रम
प्राचीन तथा मध्यकाल में पाठ्यक्रम को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था—
1. प्राथमिक स्तर का पाठ्यक्रम
प्राचीन काल में प्राथमिक शिक्षा की समयावधि 6 वर्ष की होती थी तथा 6 से 11 वर्ष के आयु वर्ग के बालकों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा हेतु सुयोग्य माना जाता था। प्राथमिक शिक्षा मौखिक होती थी जिसमें बालकों को वैदिक मन्त्रों के उच्चारण का अभ्यास कराया जाता था। इसके उपरान्त छात्र पढ़ना-लिखना व व्याकरण सीखते थे। प्राथमिक स्तर की शिक्षा में सामान्य या प्रारम्भिक भाषा विज्ञान, प्रारम्भिक व्याकरण, प्रारम्भिक छन्द शास्त्र तथा प्रारम्भिक गणित आदि विषय सम्मिलित थे।

मध्ये काल में प्राश्चमिक शिक्षा की आयु 4 वर्ष,4 माह तथा 4 दिन निर्धारित की गई थी। बालकों को इस आयु सीमा को प्राप्त करने के अवसर पर एक संस्कार या धार्मिक रस्म पूर्ण करनी होती थी; जिसे ‘बिस्मिल्लाह-खानी’ केहा जाता था। इस काल में प्राथमिक स्तर की शिक्षा मौखिक विधि द्वारा ही प्रदान की जाती थी। मौलवियों द्वारा सम्बन्धित विषय को निरन्तर अभ्यास द्वारा कंठस्थ करवा दिया जाता था। इसके साथ ही लकड़ी की तख्तीपर लेखन का अभ्यास भी करवाया जाता था। साधारण वर्ग के परिवारों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मुख्य रूप से पढ़ने-लिखने तथा प्रारम्भिक अंकगणित की ही शिक्षा दी जाती थी। मौखिक रूप से कुरान शरीफ की आयतों को सही उच्चारण में कंठस्थ करवाया जाता था। इसके उपरान्त लेखन, व्याकरण तथा फारसी भाषा का ज्ञान प्रदान किया जाता था।

बच्चों के चरित्र-निर्माण तथा साहित्यिक बोध के विकास का भी समुचित ध्यान रखा जाता था। प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए महापुरुषों की कथाएँ तथा शेख सादी की ‘बोस्ताँ एवं गुलिस्ताँ’ जैसी पुस्तकों को पढ़ाया जाता था। इनके साथ-ही-साथ कुछ प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय प्रेमकाव्यों को भी रुचिपूर्वक पढ़ाया जाता था। इसे वर्ग के मुख्य काव्य-संग्रह थे-लैला-मजनू, युसूफ-जुलेखा तथा सिकन्दरनामा आदि। जहाँ तक शाही-परिवारों तथा कुछ सम्पन्न परिवारों के बच्चों की शिक्षा का प्रश्न है, उसकी अलग से व्यवस्था होती थी तथा उन्हें व्यक्तिगत रूप से महत्त्वपूर्ण विषयों का ज्ञान प्रदान किया जाता था।

2. उच्च स्तर का पाठ्यक्रम 
प्राचीनकालीन उच्चस्तरीय शिक्षा-प्राचीनकालीन भारतीय शैक्षिक-व्यवस्था में उच्चस्तरीय शिक्षा की अलग से व्यवस्था थी। इस शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता था। वर्ण-व्यवस्था की मान्यताओं के अनुसार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग के बालकों को ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में विविधता तथा विकल्प उपलब्ध थे। आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए छात्रों द्वारा वेद, वेदांग, पुराण, दर्शन, उपनिषद् आदि का अध्ययन किया जाता था। लेकिन ज्ञान अर्जित करने के लिए छात्रों द्वारा मुख्य रूप से भौतिकशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास आदि विषयों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता था। उच्चस्तरीय शिक्षा का स्वरूप भी मौखिक ही था। गुरु द्वारा दिए गए व्याख्यान के साथ ही चिन्तन, मनन, स्वाध्याय तथा पुनरावृत्ति के माध्यम से अर्जित ज्ञान को आत्मसात् किया जाता था। मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च-स्तरीय शिक्षा की अवधि सामान्य रूप से 10-12 वर्ष हुआ करती थी। इस काल में भी उच्च-स्तरीय शिक्षा के दो प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था थी। एक वर्ग के पाठ्यक्रम में धार्मिक विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती थी तथा दूसरे वर्ग के पाठ्यक्रम में लौकिक विषयों की शिक्षा का प्रावधान था।

इसके साथ-ही-साथ इस्लाम धर्म के इतिहास, इस्लामी-कानून तथा इस्लामी सामाजिक मूल्यों एवं परम्पराओं का भी व्यवस्थित अध्ययन किया । जाता था। धार्मिक पाठ्यक्रम के अतिरिक्त लौकिक पाठ्यक्रम में सर्वप्रथम अरबी-फारसी भाषा साहित्य तथा व्याकरण का व्यापक अध्ययन किया जाता था। मध्यकाल के उच्च स्तर के मुख्य विषय थे-भूगोल, गणित, कृषि, अर्थशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन घेवं नीतिशास्त्र, कानून तथा यूनानी-चिकित्सा पद्धति कहा जा सकता है। कि मध्यकालीन उच्च शिक्षा भी मौख़िक ही थी। सभी शिक्षक अपने विषय को व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत करते थे तथा छात्र उसे सुनकर संमझ लेते थे। इसके अतिरिक्त संगीत, चित्रकला तथा चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों की शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रयोगात्मक विधि को भी अपनाया जाता था।

3. व्यावसायिक स्तर का पाठ्यक्रम
शिक्षा का एक पक्ष व्यावसायिक शिक्षा भी होता था। व्यावसायिक शिक्षा के आधार पर ही प्राचीन भारत अपने आर्थिक जीवन और वैभव का निर्माण करने में सफल हुआ था। अतः प्राचीनकालीन व्यावसायिक शिक्षा को मुख्य रूप से चार भागों में बाँटा था-सैन्य शिक्षा, वाणिज्य सम्बन्धी शिक्षा, चिकित्साशास्त्र सम्बन्धी शिक्षा, कला-कौशल सम्बन्धी शिक्षा तथा पुरोहित शिक्षा।

मध्यकालीन भारतीय शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य लौकिक उन्नति एवं प्रगति को निर्धारित करना था। अतः इस काल की शिक्षा-व्यवस्था में व्यावसायिक शिक्षा को भी समुचित महत्त्व दिया गया था। मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में व्यावसायिक शिक्षा के रूप में मुख्य रूप से हस्तकलाओं की शिक्षा, चिकित्सा सम्बन्धी शिक्षा, सैन्य शिक्षा तथा ललित-कलाओं की शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी।

(iii) शिक्षा केन्द्र
प्राचीन काल में शिक्षा के केन्द्र–टोल, चारण, घटिका, परिषद्, गुरुकुल, विद्यापीठ, विशिष्ट विद्यालय, मन्दिर, महाविद्यालय, ब्राह्मणीय महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय आदि थे। इसके विपरीत मध्य काल में शिक्षा के केन्द्र-मकतब, मदरसा, दरगाहें, खानकाहें, कुरान स्कूल, फारसी स्कूल, फारसी व कुरान स्कूल तथा अरबी भाषा के स्कूल आदि थे।

लघु उत्तेरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मध्यकालीन शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारतीय शिक्षा के मध्यकाल को मुस्लिम अथवा इस्लामी शिक्षा का काल कहते हैं। 712 ई० से भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए और प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने का प्रयत्न आरम्भ हो गया। 1206 ई० में भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो गई। इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक व औरंगजेब जैसे शासकों ने भारतीय शिक्षा-प्रणाली को समूल नष्ट करने का भरसक प्रयास किया। परिणामस्वरूप शिक्षा-प्रणाली का स्वरूप बिल्कुल बदल गया और भारत में एक नई शिक्षा-प्रणाली का विकास हुआ। इसे मध्यकालीन शिक्षा के नाम से जाना जाता है। मध्यकालीन शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे

  1. इस्लाम धर्म का प्रचार करना।
  2. ज्ञानार्जन करना।
  3. नैतिकता का विकास करना, यद्यपि इस काल की नैतिकता प्राचीनकाल से भिन्न थी।
  4. शिक्षा के द्वारा ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करना, जिससे इस्लामी शासन भारत में स्थायी रूप ले सके और उसके विरोधियों का शासन न हो सके।
  5. व्यक्ति का चरित्र-निर्माण करना।
  6. भौतिक उन्नति करना और सांसारिक वैभव प्राप्त करना।
  7. मुस्लिम सिद्धान्तों, कानूनों एवं सामाजिक प्रथाओं का विकास

प्रश्न 2
मध्यकालीन शिक्षा के सन्दर्भ में प्राथमिक शिक्षा तथा मकतब का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
मध्य युग की प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं
1. मकतब का अर्थ-इस युग में प्राथमिक शिक्षा मकतबों में दी जाती थी, जो अधिकतर मस्जिदों के साथ जुड़े होते थे। मकतब शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा के कुतुब’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है, ‘उसने लिखा। अतः मकतब लिखना-पढ़ना सीखने वाले स्थान को कहा जाता है। धनी लोग अपने बालकों की प्राथमिक शिक्षा का प्रबन्ध मौलवियों द्वारा घर पर ही करते थे।

2. प्रवेश-मकतब में बालकों को इस्लामी ढंग से एक प्रकार की रस्म पूरी कराकर प्रविष्ट किया जाता था। इस रस्म को ‘बिस्मिल्लाह’ कहते थे। बालक की चार वर्ष, चार माह और चार दिन की आयु पूरी करने पर बिस्मिल्लाह की रस्म पूरी की जाती थी। इस अवसर पर उसे कुरान की भूमिका, 55वां तथा 87वाँ अध्याय पढ़ाया जाता था। यदि बालक कुरान की आयतों को दोहराने में सफल नहीं होता था तो उसका बिस्मिल्लाह कहना ही पर्याप्त समझा जाता था।

3. पाठ्यक्रम-मकतबों के पाठ्यक्रम में विभिन्नता पाई जाती है। उन्हें लिपि का ज्ञान कराया जाता था और वर्णमाला कण्ठस्थ कराई जाती थी। बालकों को कुरान का तीसवाँ अध्याय पढ़ाया जाता था। सुन्दर लेख और उच्चारण की शुद्धता को विशेष महत्त्व दिया जाता था। पाठ्यक्रम में साधारण गणित, फारसी एवं व्याकरण की शिक्षा सम्मिलित थी। इसके अतिरिक्त बालकों को पैगम्बरों की कहानियाँ, मुस्लिम फकीरों की कथाएँ एवं फारसी कवियों की कुछ कविताओं का ज्ञान कराया जाता था। उन्हें लेखन, बातचीत का ढंग आदि व्यावहारिक बातों की भी शिक्षा दी जाती थी।

4. शिक्षण विधि-मकतबों में मौखिक शिक्षण विधि के प्रयोग से बालकों को शिक्षा दी जाती थी। बालकों को कलमा एवं कुरान की आयतें रटनी पड़ती थीं। कक्षा के सभी छात्र एक साथ पहाड़े बोलकर कण्ठस्थ करते थे। प्रेरम्भ में सरकण्डे की कलम से तख्ती पर लिखना सिखाया जाता था और बाद में कलम से कागज पर लिखना सिखाया जाता था।

प्रश्न 3
मध्यकालीन शिक्षा के सन्दर्भ में मदरसा तथा उच्च शिक्षा का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
मदरसा तथा उच्च शिक्षा का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है|
1. मदरसा का अर्थ-मध्य युग में बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों में दी जाती थी। मदरसा शब्द का निर्माण अरबी भाषा में ‘दरस शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है ‘भाषण देना। अत: मदरसा वह स्थान था, जहाँ भाषण दिए जाते हैं। मदरसे भी दो प्रकार के होते थे—प्रथम, वे जहाँ धार्मिक, साहित्यिक तथा सामाजिक शिक्षा दी जाती थी और द्वितीय, वे जहाँ चिकित्साशास्त्र और अन्यान्य प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। मदरसों में छात्रों के रहने की भी व्यवस्था होती थी तथा वहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध होती थीं। मदरसों का शैक्षिक वातावरण सराहनीय होता था क्योंकि शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध घनिष्ठ तथा मधुर होते थे।

2. पाठ्यक्रम-मदरसों के पाठ्यक्रम को दो भागों में बाँटा जा सकता है

  • लौकिक शिक्षा-इसके अन्तर्गत अरबी साहित्य, व्याकरण एवं गद्य, इतिहास, गणित, दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, यूनानी शिक्षा, ज्योतिष, कानून आदि विषय सम्मिलित थे। |
  • धार्मिक शिक्षा-इसके अन्तर्गत कुरान, मुहम्मद साहब की परम्परा, इस्लामी कानून (शरीयत) तथा इस्लामी इतिहास की शिक्षा दी जाती थी।

3. शिक्षण विधि-मदरसों में भाषण की प्रधानता थी। छात्रों को स्वाध्याय की ओर प्रेरित करके ग्रन्थावलोकन का अभ्यास कराया जाता था। विद्यार्थियों को प्रयोगात्मक और सैद्धान्तिक दोनों प्रकार की शिक्षा दी जाती थी।

प्रश्न 4
भारतीय शैक्षिक विकास के सन्दर्भ में प्राचीन तथा मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था में अन्तर स्पष्ट कीजिए। प्राचीनकाल और मध्यकाल की शैक्षिक विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
भारतीय शैक्षिक विकास के इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए प्राचीन तथा मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के निम्नलिखित अन्तरों का उल्लेख किया जा सकता है

  1. प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का आधार हिन्दू वैदिक) धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्त ही थे। इससे भिन्न मध्यकालीन शिक्षा का विकास शुद्ध रूप से इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों के आधार पर हुआ था।
  2. प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति तथा आध्यात्मिक विकासे स्वीकार किया गया था। इससे भिन्न मध्यकालीन शिक्षा के अन्तर्गत भले ही ज्ञान प्राप्ति को समुचित महत्त्व प्रदान किया गया था परन्तु इस काल में शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य लौकिक जीवन को अधिक-से-अधिक सम्पन्न, समृद्ध एवं सुखी बनाना भी था।
  3. प्राचीन वैदिक परम्परा के अनुसार बालक की शिक्षा को आरम्भ करते समय उपनयन नामक संस्कार सम्पन्न किया जाता था। इससे भिन्न मध्यकाल में शिक्षा-आरम्भ के अवसर पर ‘बिस्मिल्लाह’ या ‘बिस्मिल्लाहखानी रस्म को सम्पन्न किया जाता था।
  4. प्राचीनकाल अथवा वैदिककाल में गुरुकुल ही मुख्य शिक्षण संस्थाएँ थी। इससे भिन्न मध्यकाल की मुख्य शिक्षण-संस्थाएँ मकतब तथा मदरसे थीं।
  5. प्राचीन भारतीय शैक्षिक मान्यताओं के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने के काल में छात्रों के लिए सादा एवं सरल जीवन व्यतीत करना अनिवार्य था। उन्हें सामान्य रूप से जीवन की समस्त सुख-सुविधाओं से दूर रहना पड़ता था। इससे भिन्न मध्यकालीन प्रचलन के अनुसार मदरसों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को जीवन की समस्त सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हुआ करती थीं जिससे वे ऐश एवं आराम का जीवन व्यतीत करते थे।
  6. प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा शुद्ध रूप से हिन्दू धर्म-संस्कृति की समर्थक एवं पोषक थी। इनसे भिन्न मध्यकालीन शिक्षा की घनिष्ठ सम्बन्ध इस्लामिक धर्म-संस्कृति से था।
  7. प्राचीन भारतीय शिक्षा (वैदिक शिक्षा) का माध्यम संस्कृत भाषा थी, बौद्ध काल में यह स्थान पालि भाषा ने ले लिया था परन्तु मध्यकाल में फारसी भाषा को ही शिक्षा का मुख्य माध्यम बना लिया गया
    था।
  8. प्राचीनकालीन शैक्षिक व्यवस्था में कठोर एवं दण्ड पर आधारित अनुशासन का कोई प्रावधान नहीं था परन्तु मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुशासन बनाए रखने के लिए शारीरिक दण्ड का भी प्रावधान था।

प्रश्न 5
बौद्धकालीन शिक्षा (बौद्ध शिक्षा) तथा मुस्लिम शिक्षा (मध्यकालीन शिक्षा) में अन्तर बताइए।
उत्तर
बौद्ध-शिक्षा तथा मुस्लिम अर्थात् मध्यकालीन भारतीय शिक्षा में मुख्य अन्तर इस प्रकार थे|

  1. बौद्ध-शिक्षा बौद्ध धर्म एवं दर्शन पर आधारित थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा इस्लाम धर्म की पोषक थी।
  2. बौद्ध-शिक्षा का माध्यम पालि भाषा थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा का माध्यम अरबी-फारसी भाषा थी।
  3. बौद्ध-शिक्षा में अनुशासन की कठोर व्यवस्था नहीं थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा में कठोर अनुशासन-व्यवस्था को लागू किया गया था। इसके लिए दण्ड का भी प्रावधान था।
  4. बौद्धकालीन शिक्षा बौद्ध मठों तथा कुछ अन्य संस्थानों के माध्यम से प्रदान की जाती थी, जबकि मध्यकालीन शिक्षा मकतबों, मदरसों तथा खागाहों के माध्यम से दी जाती थी।
  5. बौद्धकालीन शिक्षा प्रारम्भ करते समय प्रव्रज्या संस्कार सम्पन्न किया जाता था, जबकि मध्यकालीन शिक्षा ‘बिस्मिल्लाह-खानी’ नामक रस्में से प्रारम्भ होती थी।
  6. बौद्ध-शिक्षा का परम उद्देश्य निर्माण प्राप्ति था, जबकि मध्यकालीन शिक्षा में लौकिक उन्नति का अधिक महत्त्व दिया जाता था।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मध्यकालीन भारतीय समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक का क्या स्थान था ?
उत्तर
मध्यकालीन भारतीय समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक की स्थिति को स्पष्ट करते हुए जाफर ने लिखा है, “शिक्षकों को समाज में उच्च स्थान था, यद्यपि उनका वेतन अल्प था, तथापि उनको सार्वजनिक सम्मान और विश्वास प्राप्त था।” भारतीय समाज में सदैव ही शिक्षक को समुचित सम्मान दिया जाता रहा है। मध्यकाल भी इसका अपवाद नहीं था। वास्तव में शिक्षा प्रदान करना एक महान् कार्य माना जाता था तथा यह सार्वजनिक धारणा थी कि शिक्षक चरित्रवान व्यक्ति होते हैं। डॉ० केई ने भी मध्यकालीन समाज में शिक्षक की स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा है, “शिक्षकों की सामाजिक स्थिति उच्च थी और वे साधारण तथा चरित्रवान मनुष्य थे, जिनको व्यक्तियों का विश्वास और सम्मान प्राप्त था।”

प्रश्न 2
मध्यकालीन शिक्षा व्यवस्था में अनुशासन एवं दण्ड की क्या स्थिति थी ?
उत्तर
शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुशासन का विशेष महत्त्व है। अनुशासन बनाए रखने का एक प्रचलित उपायु दण्ड का प्रावधान भी है। मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुशासन बनाए रखने के लिए कठोर शारीरिक दण्ड का प्रावधान था। इस काल की दण्ड-व्यवस्था को स्पष्ट करते हुए एडम ने लिखा है,“छात्र को मुर्गा बनाना, उसकी पीठ या गर्दन पर निश्चित समय के लिए ईंट या लकड़ी को भारी टुकड़ा रखना, उसे पैरों के बल वृक्ष की शाखा से लटकाना, उसे बन्द करना, उसे भूमि पर पेट के बल लिटाकर शरीर को निश्चित दूरी तक घसीटना शारीरिक दण्ड के कुछ उदाहरण थे। इस प्रकार के कठोर दण्डों के प्रावधान के कारण मध्यकाल में शैक्षिक अनुशासनहीनता की समस्या प्रायः गम्भीर नहीं थी।

प्रश्न 3
मध्यकालीन शिक्षा के केन्द्रों के बारे में लिखिए।
मध्यकालीन शिक्षण संस्थाओं के रूप में मकतब तथा ‘मदरसों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर
मकतबों में मौखिक शिक्षण विधि के प्रयोग से बालकों को शिक्षा दी जाती थी। बालकों को कलमा एवं कुरान की आयतें रटनी पड़ती थीं। कक्षा के सभी छात्र एक साथ पहाड़े बोलकर कण्ठस्थ’ करते थे। प्रारम्भ में सरकण्डे की कलम से तख्ती पर लिखना सिखाया जाता था और बाद में कलम से कागज पर लिखना सिखाया जाता था। मध्य युग में बालकों को उच्च शिक्षा मदरसों में दी जाती थी। मदरसे भी दो प्रकार के होते थे—प्रथम, वे जहाँ धार्मिक, साहित्यिक तथा सामाजिक शिक्षा दी जाती थी और द्वितीय, वे जहाँ चिकित्साशास्त्र और अन्यान्य प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। मदरसों में छात्रों के रहने की भी व्यवस्था होती थी और अन्य आवश्यक सुविधाएँ भी।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मध्यकाल में भारत में किनका शासन था ?
उत्तर
मध्यकाल में भारत में मुख्य रूप से मुस्लिम शासकों का शासन था।

प्रश्न 2
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली को ‘मुस्लिम शिक्षा के नाम से भी जाना जाता है।

प्रश्न 3
मुस्लिम काल में शिक्षा का प्रारम्भ किस संस्कार से होता था?
उत्तर
मुस्लिम काल में शिक्षा का प्रारम्भ बिस्मिल्लाह संस्कार से होता था।

प्रश्न 4
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली किस धर्म पर आधारित थी?
उत्तर
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली इस्लाम धर्म पर आधारित थी।

प्रश्न 5
मुस्लिम शिक्षा कितने स्तरों में विभाजित थी ?
उत्तर
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा के मुख्य रूप से दो स्तर थे—

  1. प्राथमिक शिक्षा तथा
  2. उच्च शिक्षा।

प्रश्न 6
मध्यकाल में किन संस्थाओं में प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती थी ?
उत्तर
मध्यकाल में प्राथमिक शिक्षा मकतबों में प्रदान की जाती थी।

प्रश्न 7
मकतब क्या है?
उत्तर
मकतब प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्थाएँ हैं।

प्रश्न 8
मध्यकाल में उच्च शिक्षा की व्यवस्था किन शिक्षण संस्थाओं में होती थी ?
उत्तर
मध्यकाल में उच्च शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में होती थी।

प्रश्न 9
मध्यकालीन शिक्षा-प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा के लिए मुख्य रूप से किस विधि को अपनाया जाता था ?
उत्तर
मध्यक़ालीन शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा के लिए मौखिक विधि को अपनाया जाता था।

प्रश्न 10
मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी ?
उत्तर
मध्यकाल में भारतीय समाज में स्त्री-शिक्षा की स्थिति दयनीय थी।

प्रश्न11
मध्यकालीन शैक्षिक-व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध किस प्रकार के होते – थे?
उत्तर
मध्यकालीन शैक्षिक-व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध मधुर तथा घनिष्ठ होते थे।
पारस्परिक स्नेह, सम्मान तथा कर्तव्यों का ध्यान रखा जाता था।

प्रश्न 12
भारत में मध्यकाल में शिक्षा के मुख्य केन्द्र कौन-कौन-से थे ?
या मुगलकालीन शिक्षा के प्रमुख चार केन्द्रों के नाम लिखिए।
उत्तर
भारत में मध्यकाल में शिक्षा के मुख्य केन्द्र-आगरा, दिल्ली, लाहौर, अजमेर, मुल्तान, मालवा, गुजरात तथा जौनपुर में थे।

प्रश्न 13
मध्यकालीन शिक्षा-व्यवस्था में उच्च शिक्षा के छात्रों को कौन-कौन-सी मुख्य उपाधियाँ दी जाती थीं?
उत्तर
मध्यकाल में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को कामिल फाजिल तथा आलिम नामक उपाधियाँ दी जाती थीं।

प्रश्न 14
मध्यकाल में व्यावसायिक शिक्षा के कौन-कौन-से रूप प्रचलित थे ?
उत्तर
मध्यकाल में व्यावसायिक शिक्षा के प्रचलित मुख्य रूप थे—

  1. हस्तकलाओं की शिक्षा,
  2. चिकित्साशास्त्र की शिक्षा,
  3. सैन्य शिक्षा तथा
  4. विभिन्न ललित कलाओं की शिक्षा।

प्रश्न 15
मुस्लिम काल में प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ करने की क्या आयु थी?
उत्तर
मुस्लिम काल (मध्य काल) में बालक की प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु 4 वर्ष, 4 माह, 4 दिन थी।

प्रश्न 16
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य-

  1. मध्यकाल में शिक्षा का नितान्तै अभाव था।
  2. मध्यकाल में शिक्षा का आधार इस्लाम धर्म था।
  3. मध्यकाल में स्त्री-शिक्षा के लिए अलग से व्यापक व्यवस्था थी।
  4. मध्यकालीन शिक्षा का ऍकृ मुख्य उद्देश्य, लौकिक प्रगति एवं सुख-समृद्धि प्राप्त करना भी था।
  5. मध्यकालीन शिक्षा का मुख्य माध्यम फारसी भाषा ही थी।

उत्तर

  1. असत्य,
  2. सत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1
मध्यकालीन शिक्षा किस धर्म से प्रभावित थी ?
(क) इस्लाम धर्म
(ख) पारसी धर्म
(ग) यहूदी धर्म
(घ) अरबी धर्म
उत्तर
(क) इस्लाम धर्म

प्रश्न 2
मध्यकालीन शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा थी ?
(क) तुर्की
(ख) अरबी
(ग) फ़ारसी
(घ) उर्दू
उत्तर
(ग) फारसी

प्रश्न 3
मध्यकालीन शिक्षा का आरम्भ किस संस्कार से होता है ?
(क) प्रव्रज्या
(ख) उपसम्पदा
(ग) उपर्नयन
(घ) बिस्मिल्लाह
उत्तर
(घ) बिस्मिल्लाह

प्रश्न 4
मुस्लिम काल में बिस्मिल्लाह रस्म अदा की जाती थी जब बालक हो जाता था
(क) 3 वर्ष, 3 माह, 3 दिने का
(ख) 4 वर्ष, 4 माहे, 4 दिन का
(ग) 5 वर्ष, 5 माह, 5 दिन का
(घ) 6 वर्ष, 6 माह, 6 दिन का
उत्तर
(ख) 4 वर्ष, 4 माह, 4 दिन का

प्रश्न 5
4 वर्ष, 4 माह, 4 दिन की आयु पर कौन-सा शिक्षा संस्कार होता है?
(क) उपनयन
(ख) प्रव्रज्या
(ग) बिस्मिल्लाह
(घ) उपसम्पदा
उत्तर
(ग) बिस्मिल्लाह

प्रश्न 6
मध्यकाल में प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र थे ?
(क) मदरसा
(ख) मकतब
(ग) खानकाह
(घ) दरगाह
उतर
(ख) मकतब

प्रश्न 7
मध्यकालीन भारत में उच्च मुस्लिम शिक्षा के केन्द्रों को कहा जाता था?
(क) मकतब
(ख) मदरसा
(ग) खानकाह
(घ) दरगाह
उत्तर
(ख) मदरसा

प्रश्न 8
मध्यकाल में शिक्षा का प्रबन्ध व संरक्षण का दायित्व किस पर था?
(क) राज्य पर ,
(ख) मन्त्रिपरिषद् पुर
(ग) सुल्तान पर,
(घ) स्थानीय लोगों पर
उत्तर
(क) राज्य पर

प्रश्न 9
मध्यकाल में शिक्षा की प्रगति किस बादशाह के काल में सर्वाधिक हुई?
(क) फिरोज तुगलक
(ख) हुमायूं
(ग) शेरशाह
(घ) अकबर
उत्तर
(घ) अकबर

प्रश्न 10
मध्य युग में साहित्य में निष्णात छात्र को कहा जाता था
(क) आलिम
(ख) फाजिल
(ग) कामिल
(घ) स्नातक
उत्तर
(ग) कामिल

प्रश्न 11
तर्क और दर्शनशास्त्र में प्रबुद्ध छात्रों को क्या उपाधि दी जाती थी ?
(क) फाजिले
(ख) आलिम
(ग) मनसबदार
(घ) कामिल
उत्तर
(क) फाजिल

प्रश्न 12
“मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर, अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।” यह कथन किसका है?
(क) डॉ० केई का
(ख) डॉ० जाकिर हुसैन का
(ग) डॉ० यूसुफ हुसैन का
(घ) इनमें से किसी को नहीं
उत्तर
(क) डॉ० केई का

प्रश्न 13
‘बिस्मिल्लाह संस्कार का सम्बन्ध है-
(क) वैदिक काल से
(ख) बौद्ध काल से
(ग) मुस्लिम काल से
(घ) ब्रिटिश काल से
उत्तर
(ग) मुस्लिम काल से

प्रश्न 14
मध्यकालीन (मुगलकालीन) शिक्षा के समय में महिला इतिहासकार कौन थीं?
(क) नूरजहाँ
(ख) रजिया बेगम
(ग) अब्बासी
(घ) गुलबदन बेगम
उत्तर
(घ) गुलबदन बेगम

प्रश्न 15
निम्नलिखित में से मध्यकालीन समय में कौन-सा शिक्षा का केन्द्र नहीं था ?
(क) आगरा
(ख) जौनपुर
(ग) मालवा
(घ) तक्षशिला
उत्तर
(घ) तक्षशिला

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सफाई हेतु सम्बन्धित अधिकारी को प्रार्थना-पत्र

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सफाई हेतु सम्बन्धित अधिकारी को प्रार्थना-पत्र are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सफाई हेतु सम्बन्धित अधिकारी को प्रार्थना-पत्र.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name सफाई हेतु सम्बन्धित अधिकारी को प्रार्थना-पत्र
Number of Questions 14
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi सफाई हेतु सम्बन्धित अधिकारी को प्रार्थना-पत्र

सफाई हेतु सम्बन्धित अधिकारी को प्रार्थना-पत्र

प्रश्न 1.
अपने क्षेत्र में मच्छरों के प्रकोप का वर्णन करते हुए उचित कार्यवाही के लिए स्वास्थ्य अधिकारी को पत्र लिखिए।
या
अपने क्षेत्र में मलेरिया फैलने की सम्भावना को देखते हुए स्वास्थ्य अधिकारी को एक पत्र लिखिए।
या
अपने मुहल्ले में वर्षा के कारण उत्पन्न हुई जल-भराव की समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट कराने के लिए नगरपालिका अधिकारी/जिलाधिकारी को पत्र लिखिए। [2011, 12]
या
नगर निगम के स्वास्थ्य अधिकारी को अपने मुहल्ले में विद्यमान गन्दगी के विषय में एक पत्र लिखिए। [2012]
या
नगर की स्वच्छता हेतु नगरपालिका अध्यक्ष को आवेदन देते हुए उनका ध्यान गन्दगी से होने वाली बीमारियों की ओर आकृष्ट कीजिए। [2015]
या
ग्राम प्रधान की ओर से अपने जनपद के जिलाधिकारी को एक पत्र लिखिए, जिसमें गाँव की सफाई व्यवस्था हेतु अनुरोध किया गया हो। [2013, 15, 18]
या
अपने ग्राम प्रधान को एक पत्र लिखकर गाँव की सफाई हेतु अनुरोध कीजिए। [2013]
या
अपने नगर में बाढ़ एवं घनघोर वर्षा के बाद गन्दगी के कारण फैलने वाले संक्रामक रोगों की आशंका को दृष्टिगत करते हुए रोकथाम के उपायों हेतु जिलाधिकारी को एक पत्र लिखिए। [2014,16]
या
अपने क्षेत्र में प्रदूषण से उत्पन्न स्थिति का वर्णन करते हुए किसी दैनिक समाचार-पत्र के सम्पादक को एक पत्र लिखिए। [2017]
या
अपने मुहल्ले में फैली गन्दगी की सफाई कराने हेतु नगरपालिका अध्यक्ष को एक शिकायती पत्र लिखिए। (2017)
या
बरसात में बढ़ रहे संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए अपने नगर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को पत्र लिखिए। (2017)
उत्तर
सेवा में,
स्वास्थ्य अधिकारी,
…………….. नगर निगम।
………………… नगर।

विषय-मच्छरों का बढ़ता हुआ प्रकोप

महोदय,
मैं आपका ध्यान बढ़ते हुए मच्छरों के प्रकोप की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। मैं सुभाष नगर क्षेत्र का निवासी हूँ। पूरे सुभाष नगर क्षेत्र में आजकल मच्छरों का भयंकर आतंक छाया हुआ है। दिन हो यो रात, मच्छरों के झुंड सदा घूमते नज़र आ जाते हैं। रात को तो वे सोना दूभर कर देते हैं। जब सुबह उठते हैं। तो बच्चों के मुंह लाल-लाल दानों से भरे होते हैं। मच्छरों के कारण घर-घर में मलेरिया फैला हुआ है। प्रायः सभी घरों में कोई-न-कोई मलेरिया का रोगी मिल जाएगा। इन मच्छरों के कारण स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा है।

हमारे क्षेत्र में मच्छरों की अधिकता का बड़ा कारण है–पानी के जमे हुए तालाब और गली-मुहल्लों में फैली चौड़ी-चौड़ी खुली नालियाँ। उन कच्ची नालियों को व्यवस्थित करने की कोई व्यवस्था नहीं हुई है। मुहल्ले के जमादार सफाई की ओर ध्यान नहीं देते, इसलिए नालियों में सदा मल जमा पड़ा रहता है। लोग अपने घरों के गन्दे जल को बाहर यूं ही बिखरा देते हैं, जिससे मार्गों के गड्ढे भर जाते हैं। हमने कई बार निवेदन किया है कि हमारे क्षेत्र के तालाब को भरवा दिया जाए, जिससे मच्छरों का मुख्य अड्डा समाप्त हो जाए, किन्तु इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया।

इस बार अत्यधिक वर्षा के कारण जगह-जगह जल का जमाव हो गया है। सभी जगह कीचड़, मल और बदबूदार जल का प्रकोप है। अत: मैं पुनः सुभाष नगर के निवासियों की ओर से आपसे अनुरोध करता हूँ कि मच्छरों को समाप्त करने के लिए सार्वजनिक रूप से क्षेत्र में मच्छरनाशक दवाई छिड़कवाने की व्यवस्था की जाए। मलेरिया से बचने के लिए कुनीन बाँटने तथा पूरे क्षेत्र की सफाई के व्यापक प्रबन्ध किये जाएँ। आशा है आप शीघ्र कार्यवाही करेंगे।
धन्यवाद सहित।

भवदीय
क ख ग
मंत्री, मुहल्ला सुधार समिति
……………………. सुभाष नगर।

दिनांक : 19 जुलाई, 2017

प्रश्न 2.
दिल्ली नगर निगम के स्वास्थ्य अधिकारी को एक पत्र लिखकर उनसे अपने मुहल्ले की सफाई कराने का अनुरोध कीजिए। [2013, 14]
या
अपने क्षेत्र की गन्दगी की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए स्वास्थ्य अधिकारी/ उपजिलाधिकारी को एक पत्र लिखिए। [2012, 13]
या
अपने गली-मुहल्ले की नालियों की समुचित सफाई के लिए नगरपालिका के अध्यक्ष को एक पत्र लिखिए। [2011, 13, 18]
या
नगर की सफाई हेतु नगरपालिका को एक पत्र लिखिए। [2015]
या
अपने घर के आस-पास फैली गन्दगी के कारण संक्रामक रोग फैलने की आशा व्यक्त करते हुए उप-जिलाधिकारी को सम्बोधित कर एक शिकायती-पत्र लिखिए। [2018]
उत्तर
सेवा में,
स्वास्थ्य अधिकारी,
दिल्ली नगर निगम, दिल्ली।

विषय-मुहल्ले की सफाई कराने हेतु प्रार्थना-पत्र

श्रीमान,
हम आपका ध्यान मुहल्ले की सफाई सम्बन्धी दुरवस्था की ओर खींचना चाहते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे मुहल्ले की सफाई हेतु नगर निगम का कोई सफाई-कर्मचारी गत दस दिनों से काम पर नहीं आ रहा है। घरों की सफाई करने वाले कर्मचारियों ने भी मुहल्ले में स्थान-स्थान पर गन्दगी और कूड़े-कर्कट के ढेर लगा दिये हैं। इसका कारण सम्भवत: यह भी है कि आसपास कूड़ा-करकट तथा गन्दगी डालने के लिए कोई निश्चित स्थान नहीं है।

आज स्थिति यह है कि मुहल्ले का वातावरण अत्यन्त दूषित तथा दुर्गन्धमय हो गया है। मुहल्ले से गुजरते हुए नाक बन्द कर लेनी पड़ती है। चारों ओर मक्खियों की भिनभिनाहट है। रोगों के कीटाणु प्रतिदिन बढ़ रहे हैं। नालियों की सफाई न होने के कारण मच्छरों का प्रकोप इस सीमा तक बढ़ गया है कि दिन का चैन और रात की नींद हराम हो गयी है।

वर्षा पाँच-सात दिनों में प्रारम्भ होनी सम्भावित है। यथासमय मुहल्ले की सफाई न होने पर मुहल्ले की दुरवस्था का अनुमान लगाना कठिन है। अतः आपसे हम मुहल्ले वालों का निवेदन है कि आप यथाशीघ्र मुहल्ले का निरीक्षण करें तथा सफाई का नियमित प्रबन्ध करवाएँ, अन्यथा मुहल्ला निवासियों के स्वास्थ्य पर उसका कुप्रभाव पड़ने की आशंका है।
आपकी ओर से उचित कार्यवाही के लिए हम प्रतीक्षारत हैं।
दिनांक : 5 जून, 2014

प्रार्थी
………………… नगर
ब्लॉक-डी के निवासी।

प्रश्न 3.
आपके नगर में प्रदूषित पानी पीने से दस्त व हैजे के रोगी बढ़ रहे हैं। नगरपालिका के स्वास्थ्य अधिकारी को पत्र लिखकर स्थिति से अवगत कराएँ। [2009]
उत्तर
सेवा में,
स्वास्थ्य अधिकारी,
कटनी नगरपालिका,
कटनी।

विषय-प्रदूषित पानी से महामारी की आशंका

महोदय,
पिछले कुछ समय से हमारे क्षेत्र में पीने का शुद्ध पानी नहीं आ रहा है। पानी का स्वाद भी कुछ बदला हुआ-सा है। इस पानी को पीने से लोगों को कई तरह के रोगों का सामना करना पड़ रहा है तथा दस्त व हैजे की आम शिकायत बनी हुई है। पानी को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसका रंग कुछ मटमैला-सा है। हमारे क्षेत्र से एक सीवरेज पाइप भी गुज़रती है। इस बात की सम्भावना है कि पानी की पाइप में सीवरेज का गन्दा पानी मिल रहा हो। लोगों को पीने के पानी के लिए इसी पाइप लाइन का सहारा लेना पड़ता है। अगर इसी तरह प्रदूषित जल की आपूर्ति होती रही तो किसी महामारी की समस्या खड़ी हो सकती है। बीमारों की निरन्तर बढ़ती संख्या चिन्ता का कारण है। आपसे अनुरोध है कि हमारे क्षेत्र की पानी के पाइप लाइन की जाँच करवाएँ तथा. उसे अति शीघ्र ठीक करवाएँ।।

आशा है, आप हमारी समस्या को गम्भीरता से लेंगे।
धन्यवाद !
दिनांक : 10 जून, 2014

भवदीय
असलम, रहीम, रहमान,
कादिर, मनीष, कल्पना

प्रश्न 4.
अपने क्षेत्र में व्याप्त गन्दगी के कारण उत्पन्न डेंगू व मलेरिया जैसी भयंकर बीमारियों की जानकारी किसी दैनिक पत्र के सम्पादक को देते हुए पत्र लिखिए।
या
स्वास्थ्य विभाग द्वारा आपके क्षेत्र की गन्दगी की ओर कोई ध्यान न दिये जाने पर किसी दैनिक पत्र के सम्पादक को पत्र लिखिए।
उत्तर

राकेश शुक्ला
प्रधान
‘मेरा मेरठ : स्वच्छ मेरठ
जागृति विहार, मेरठ
दिनांक : 19 सितम्बर, 2017

श्रीमान सम्पादक महोदय,
दैनिक जागरण,
मोहकमपुर, दिल्ली रोड
मेरठ-250 002

विषय-क्षेत्र की गन्दगी से उत्पन्न समस्याओं तथा स्वास्थ्य विभाग की उपेक्षा के सम्बन्ध में

महोदय,
आपके लोकप्रिय समाचार-पत्र के माध्यम से मैं मेरठ प्रशासन तथा उसके वरिष्ठ अधिकारियों का ध्यान मेरठ के नगरीय क्षेत्र मलियाना, कासमपुर, तारापुरी, ब्रह्मपुरी में व्याप्त गन्दगी तथा इसके दुष्प्रभाव की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ। आपसे अनुरोध है कि मेरे इस पत्र को ‘जनवाणी’ शीर्षक स्तम्भ में प्रकाशित करने का कष्ट करें। ये सभी ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ मध्यम तथा निम्न आय वर्ग एवं गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग रहते हैं। ये चारों ही क्षेत्र प्रत्येक स्तर पर उपेक्षित रहे हैं। इस बार वर्षा की अधिकता के कारण इन क्षेत्रों में स्थान-स्थान पर पानी भर गया है तथा इनके पास बहने वाला नाला भी पानी से भर गया है। पानी के इस भराव के कारण चारों ओर गन्दगी तथा दुर्गन्ध व्याप्त हो गयी है तथा मच्छरों के पनपने के कारण मलेरिया और डेंगू फैल रहा है। आये दिन इन रोगों से ग्रस्त रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। खेद का विषय है कि अधिकारियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराये जाने पर भी उनकी ओर से इस समस्या के समाधान के लिए गम्भीरतापूर्वक कोई प्रयास नहीं किये गये। प्रशासन की इस उपेक्षा के कारण इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों को अपने स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित होना स्वाभाविक है।

अपनी संस्था की ओर से मेरा नगर के उच्च पदाधिकारियों तथा नगर निगम के वरिष्ठ अधिकारियों से आग्रह है कि इससे पूर्व कि स्थिति अत्यन्त भयावह होकर अनियन्त्रित हो जाए, इस समस्या को अत्यन्त गम्भीरता से लेते हुए तत्काल इसके समाधान के लिए आवश्यक कदम उठाये जाएँ।
सधन्यवाद!
दिनांक : ……………..

भवदीय
राकेश शुक्ला

प्रश्न 5.
शुल्क मुक्ति हेतु अपने विद्यालय के प्रधानाचार्य को एक आवेदन-पत्र लिखिए। (2015)
उत्तर
सेवा में,
श्रीयुत् प्रधानाचार्य,
जवाहर पब्लिक स्कूल,
जनकपुरी, दिल्ली-18
मान्यवर महोदय,
सविनय निवेदन यह है कि मैं आपके विद्यालय की कक्षा 12 (B) का विद्यार्थी हूँ। मेरे पिताजी अपने छोटे से व्यवसाय द्वारा बड़ी कठिनाई से परिवार का पालन-पोषण करते हैं। कमरतोड़ महँगाई के कारण काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। घर में प्राय: आवश्यक वस्तुओं का अभाव रहता है। मेरे 4 भाई-बहन विभिन्न स्कूलों में पढ़ रहे हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई आदि के खर्चे का मानसिक बोझ पिताजी के सिर पर सदा रहता है।

मैं अपनी कक्षा का परिश्रमी छात्र हूँ और कक्षा में सदा प्रथम स्थान प्राप्त करता रहा हूँ। खेलकूद में भी मेरी अच्छी रुचि है। मैं सीनयर ग्रुप फुटबॉल का कप्तान भी हूँ।
अतः आपसे निवेदन है कि मुझे विद्यालय शुल्क से पूर्ण मुक्ति प्रदान करें, जिससे मैं अध्ययनरत रहकर अपने भविष्य को सँवार सकें। मेरे अभिभावक आपके अत्यन्त आभारी रहेंगे।

आपका आज्ञाकारी शिष्य
सतीश शर्मा
कक्षा-12 (B)

दिनांक : …………………….

प्रश्न 6.
बिजली-समस्या के निराकरण हेतु अपने जिले के बिजली विभाग को एक शिकायती पत्र लिखिए। [2015]
उत्तर
सेवा में,
बिजली विभाग,
मेरठ।

विषय-बिजली की अनियमित आपूर्ति

मान्यवर,
हम ‘जैन नगर कालोनी के निवासी आपका ध्यान बिजली समस्या की ओर आकर्षित कराना चाहते हैं। पानी तथा अन्य कार्यों के लिए बिजली की सर्वाधिक आवश्यकता ग्रीष्म काल में ही होती है और हम सब अप्रैल के प्रारम्भ से ही अनुभव कर रहे हैं कि भरपूर गर्मी प्रारम्भ होने से पूर्व ही बिजली की आपूर्ति कम हो गई है। बिजली जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। कोई भी लोकप्रिय सरकार इसकी उपेक्षा नहीं करती।

हमारी कालोनी में बिजली आपूर्ति प्रारम्भ और बन्द होने का कोई समय भी निर्धारित नहीं है। हमारी कालोनी से एक प्रतिनिधि मण्डल इस सम्बन्ध में बिजली आपूर्ति अधिकारी से भी मिला था और उन्होंने एक सप्ताह में बिजली आपूर्ति बढ़ाने का वचन दिया था। खेद है कि आज तीन सप्ताह व्यतीत हो जाने पर भी कोई कार्यवाही इस सम्बन्ध में नहीं हुई है।

इस स्थिति में आपसे हमारा निवेदन है कि कृपया हमारी समस्या की ओर ध्यान दें और इसका शीघ्र समाधान करायें। यदि बिजली-आपूर्ति तुरन्त बढ़ाना सम्भव नहीं हो तो कम से कम उसका समय तो निर्धारित किया जा सकता है।
शीघ्र कार्यवाही की आशा में।

हम हैं आपके जैन नगर निवासी

(1) ……………….
(2) ……………….
(3) ……………….
(4) ……………….

दिनांक : …………..

प्रश्न 7.
किसी समाचार-पत्र के सम्पादक को अपने मुहल्ले में लाउडस्पीकर के कारण पढ़ाई में आने | वाले व्यवधान की ओर अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करते हुए पत्र लिखिए।
[2015]
उत्तर
सेवा में,
सम्पादक महोदय,
दैनिक जागरण, मेरठ।

विषय-परीक्षा के समय लाउडस्पीकर आदि पर रोक

मान्यवर,
निवेदन यह है कि प्रायः सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं का आयोजन मार्च और अप्रैल माह में होता है। विद्यार्थी अपने भविष्य को दाँव पर लगाने के लिए बड़ी लगन वे उत्साह से अध्ययनरत रहते हैं। थोड़ी-सी अशान्ति और शोरगुल से वे अधीर और आतुर हो उठते हैं। परीक्षा की तैयारी के समय वे एकान्त, शान्त व एकाग्रचित रहना चाहते हैं।

देखा गया है कि उक्त दोनों महीनों में वातावरण बड़ा अस्थिर व अशान्त रहता है। विवाह-लग्नों की धूम के कारण लाउडस्पीकर और वाद्य-यन्त्रों का शोर मच जाता है। बैण्ड-बाजों की कर्कश ध्वनि मानो पागल-सा बना देती है। विद्यार्थी अपना सिर थाम लेते हैं। फलस्वरूप झगड़े और फसाद खड़े हो जाते हैं।

इस वर्ष भी मार्च और अप्रैल महीनों में बहुत शादियाँ हैं। अत: प्रशासन को शीर्घ सतर्क और सावधान होकर लाउडस्पीकर और वाद्ययन्त्रों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए, अन्यथा गत वर्ष की तरह हिंसा की वारदातें पुनर्जीवित हो सकती हैं।

जिला प्रशासन से हमारा अनुरोध है कि परीक्षा की इन अमूल्य घड़ियों में शोरगुल व बैण्ड-बाजों की कर्कश कटु ध्वनि पर प्रतिबन्ध लगा दें और विवाह-लग्न के अवसर पर धीमा संगीत रखने के आदेश जारी किये जाएँ।

मोहन लाल गुप्त
अध्यक्ष,
भारतीय विद्यार्थी परिषद्
मेरठ।

दिनांक : ………….

प्रश्न 8.
छात्रवृत्ति प्राप्त करने हेतु अपने विद्यालय के प्रधानाचार्य को एक आवेदन-पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान प्रधानाचार्य,
आदर्श माध्यमिक विद्यालय
सिद्धार्थ नगर, झाँसी।

विषय-छात्रवृत्ति प्राप्त करने के लिए प्रार्थना-पत्र

मान्यवर,
सविनय निवेदन यह है कि मैं बारहवीं कक्षा का छात्र हूँ। मैं सदा विद्यालय में अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण होता रहा हूँ। पिछले कई वर्षों से मैं लगातार प्रथम आ रहा हूँ। इसके अलावा मैं भाषण-प्रतियोगिताओं, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में कई बार विद्यालय के लिए जोनल एवं राष्ट्रीय स्तर पर इनाम जीतकर लाया हूँ। खेल-कूद में भी मेरी गहन रुचि है। मैं स्कूल की कबड्डी टीम का कप्तान भी हूँ। सभी अध्यापक मेरी प्रशंसा करते हैं।

अत्यन्त दु:ख के साथ आपको बताना पड़ रहा है कि पिताजी को एक असाध्य रोग ने आ घेरा है। जिसके कारण घर की आर्थिक दशा डगमगा गई है। पिताजी स्कूल से मेरा नाम कटवाना चाहते हैं। वे मेरा मासिक-शुल्क देने में असमर्थ हैं। मैंने अपनी पाठ्य-पुस्तकें तो जैसे-तैसे खरीद ली हैं, लेकिन शेष व्यय के लिए आपसे नम्र निवेदन है कि मुझे तीन सौ रुपये मासिक की छात्रवृत्ति देने की कृपा करें, ताकि मैं अपनी पढ़ाई सूचारु रूप से चला सकें। यह छात्रवृत्ति आपकी मेरे प्रति विशेष कृपा होगी। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं खूब मेहनत से पढ़ेगा और इस स्कूल का नाम रोशन करूंगा।

आपका आज्ञाकारी शिष्य
हस्ताक्षर

दिनांक :…………………
कक्षा-12
रोल नं०-20

प्रश्न 9.
अपने विद्यालय में कम्प्यूटरों के अभाव की ओर विद्यालय के प्रधानाचार्य का ध्यान आकृष्ट कराते हुए कम्प्यूटर की पूर्ति हेतु उन्हें एक प्रार्थना-पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान प्रधानाचार्य,
रा०उ०मा० बाल विद्यालय,
बेगमपुल, मेरठ।

विषय-कम्प्यूटर पूर्ति की व्यवस्था हेतु प्रार्थना-पत्र

महोदय,
सविनय निवेदन है कि हम बाहरवीं कक्षा के छात्र यह अनुभव करते हैं कि आज के कम्प्यूटर युग में प्रत्येक व्यक्ति को कम्प्यूटर की जानकारी होनी चाहिए। क्योंकि दिनोंदिन कम्प्यूटर शिक्षा की माँग बढ़ती जा रही है। ऐसे में हमारे उज्ज्वल भविष्य के लिए भी कम्प्यूटर को ज्ञान होना अपरिहार्य है। हालाँकि, विद्यालय में कम्प्यूटर विषय बढ़ाया जाता है और प्रयोगशाला कम्प्यूटर भी उपलब्ध है। लेकिन कम्प्यूटरों की संख्या सीमित होने के कारण हम छात्र निरन्तर अभ्यास नहीं कर पाते हैं। कभी-कभी तो अभ्यास किए बिना दो-दो हफ्ते बीत जाते हैं जिस कारण कक्षा में पढ़ाया गया अध्याय हम भली-भाँति नहीं समझ पाते हैं।

अतः आपसे प्रार्थाना है कि विद्यालय की प्रयोगशाला में कम्प्यूटरों की संख्या को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाने की कृपा करें। हम आपके प्रति कृतज्ञ होंगे। आशा है, आप हमारे अनुरोध को स्वीकार करेंगे।
धन्यवाद!

प्रार्थी
क.ख.ग.
कक्षा-बारह ‘सी’।

दिनांक …………

प्रश्न 10.
पेयजल अधिकारी को पत्र लिखिए, जिसमें अनिवार्य रूप से जल प्राप्त होने की शिकायत की गई हो। (2016)
या
पानी की समस्या का निराकरण के लिए नगरपालिका के अध्यक्ष को एक आवेदन पत्र लिखिए। [2016]
या
अपने नगर में युद्ध पेयजल आपूर्ति कराने हेतु जल स्थान के प्रबन्धक को पत्र लिखिए। [2017]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान निदेशक,
मेरठ जल बोर्ड,
मेरठ।

विषय-पेयजल अधिकारी को जलापूर्ति हेतु प्रार्थना-पत्र

संजय नगर,
पांडव नगर
10 मई, 2016

महोदय,
मैं आपका ध्यान संजय नगर, पांडव नगर, मेरठ में पेयजल की अनियमित जल-आपूर्ति की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। इस क्षेत्र में प्रात: केवल 35 मिनट ही नलों में पानी आता है। पानी का दबाव बहुत कम होता है, मोटर का प्रयोग करने पर भी ऊपर की मन्जिलों में पानी चढ़ नहीं पाता। सायंकाल भी पेयजल की आपूर्ति अनियमित है। कई बार शाम को दो-दो दिन पानी की आपूर्ति नहीं होती। पानी की इस अनियमित आपूर्ति से क्षेत्र के नागरिकों में रोष है। इससे पूर्व भी अनेक बार स्थानीय अधिकारियों को मैं इस समस्या से अवगत करा चुका हूँ, परन्तु स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है।

अतः आपसे प्रार्थना है कि इस क्षेत्र में पेयजल की समुचित व्यवस्था कराने हेतु उचित कदम उठाने की कृपा करें।
मैं और मेरा पूरा क्षेत्र सदैव आपके आभारी रहेंगे।
धन्यवाद!

भवदीय
हस्ताक्षर ……………
संजय नगर, पांडव नगर

प्रश्न 11.
अपने नगर की सार्वजनिक भूमि पर हुए अवैध कब्जे को हटाने के लिए नगरपालिका अध्यक्ष को एक शिकायती पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर
सेवा में,
नगरपालिका अध्यक्ष,
मेरठ।

विषय–अवैध कब्जे को हटाना।

मान्यवर,
हम ‘लोहिया नगर कॉलोनी के निवासी आपका ध्यान कॉलोनी और उसके आसपास हो रहे अवैध कब्जों की तरफ आकर्षित कराना चाहते हैं। यहाँ सावर्जनिक भूमि पर कुछ शरारती तत्वों ने कब्जा कर लिया है और वो वहाँ पर गैर-कानूनी कार्यों को बढ़ावा दे रहे हैं। इन गैर-कानूनी कार्यों में जुआ, नशाखोरी, शराब का अवैध व्यापार और कुछ हद तक वैश्यावृत्ति भी शामिल हैं। इन शरारती तत्त्वों और इनके द्वारा किए जा रहे कार्यों के कारण कालोनी की शान्ति और सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न लगने लगा है। आए दिन यहाँ पर लड़ाई-झगड़ा, मारपीट व कॉलोनीवासियों के साथ गाली-गलौज की स्थिति उत्पन्न होती रहती है। इस कारण बच्चों और महिलाओं का घर से निकलना मुश्किल होता जा रहा है। इन शरारती तत्वों को कुछ राजनीतिक संरक्षण मिला होने के कारण हममें से कोई भी इनके खिलाफ ज्यादा नहीं बोल पाते हैं। अत: आपसे हमारा निवेदन है कि हमारी समस्या पर ध्यान देते हुए इसका अतिशीघ्र समाधान कराएँ।
शीघ्र कार्यवाही की आशा में
दिनांक : …………..

समस्त लोहिया नगर निवासी
(1) ……………….
(2) ……………….
(3) ……………….
(4) ……………….
(5) ……………….

प्रश्न 12.
प्राथमिक स्वास्थ्य-केन्द्र पर संक्रामक बीमारियों की रोक-थाम के लिए समुचित दवाइयों की उपलब्यता हेतु जिले के मुख्य चिकित्साधिकारी को एक पत्र लिखिए। [2016]
उत्तर
सेवा में,
मुख्य चिकित्साधिकारी,
मेरठ।

विषय-प्राथमिक स्वास्थ्य-केन्द्र पर संक्रामक बीमारियों की दवाइयों को अभाव

महोदय,
मैं आपका ध्यान क्षेत्र के प्राथमिक स्वास्थ्य-केन्द्र पर संक्रामक बीमारियों से बचाव के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जरूरी दवाइयों की कमी की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। पूरे क्षेत्र में हैजा, डेंगू ज्वर, मलेरिया, टी०बी० (क्षय रोग) तथा पीत ज्वर जैसे संक्रामक रोग अपने चरम-बिन्दु पर हैं। इस कारण प्राथमिक स्वास्थ्य-केन्द्र पर पीड़ितों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। लेकिन आवश्यक दवाइयों के अभाव में डॉक्टर उचित इलाज नहीं कर पा रहे हैं। वहीं, डॉक्टरों द्वारा पीड़ितों को इलाज हेतु बाहर से लिखी जा रही दवाइयाँ इतने ऊँचे मूल्य पर मिल रही हैं जो आम जन की पहुँच से बाहर है। इस कारण पीड़ितों की संख्या में कमी नहीं आ पा रही है।

अतः आपसे अनुरोध है कि इस मामले को संज्ञान में लेते हुए यथाशीघ्र समुचित दवाइयों को उपलब्ध कराने का कष्ट करें ताकि पीड़ितों को जरूरी इलाज समय पर मिल सके और समय रहते स्वास्थ्य लाभ ले सकें।
धन्यवाद सहित।
दिनांक : …………..

भवदीय
मदनगोपाल
खैरनगर, मेरठ

प्रश्न 13.
नेपाल-भूकम्प पीड़ितों की सहायतार्थ अपने गाँव द्वारा संचित धनराशि को यथात्यान पहुँचाने हेतु अपने जिलाधिकारी को एक पत्र लिखिए। (2016)
या
उज्जैन में बाढ़ पीड़ितों की सहायतार्थ अपने ग्राम द्वारा संचित धनराशि को पहुँचाने हेतु जिलाधिकारी को एक पत्र लिखिए। [2016, 17]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान जिलाधिकारी महोदय,
मेरठ।।

विषय-भूकम्प पीड़ितों की सहायता हेतु धनराशि का संचय

मान्यवर,
मैं आपको ध्यान विगत माह हमारे पड़ोसी देश नेपाल में आए विनाशकारी भूकम्प की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। इस विनाशकारी भूकम्प में नेपाल को अत्यधिक जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा है। एक ओर जहाँ इसके कारण हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी, वहीं दूसरी ओर इसने लाखों लोगों को बेघर कर दिया। इस आपदा के कारण नेपाल की आर्थिक स्थिति डॉवाँडोल हो गई है। साथ-ही, कुछ ऐतिहासिक इमारतों सहित बहुत-से पर्यटन स्थल भी तहस-नहस हो गए हैं। पीड़ितों को देनिक जरूरतों के सामान के साथ खाने-पीने की चीजों की कमी का भी सामना करना पड़ रहा है। इस भयावह आपदा ने मुझे और मेरे पूरे गाँववासियों (लावड़) को झकझोर दिया। इस हादसे के पीड़ित लोगो को मानवीय सहायता के तौर पर समस्त गाँववासियों ने जितना सम्भव हो सका उतनी दैनिक जरूरतों का सामान, कपड़े व दवाइयों के साथ ₹50,000/- का इंतजाम किया है।

अतः आपसे अनुरोध है कि इस सहायता राशि और सामान को स्वीकार कर नेपाल पहुँचाने का यथाशीघ्र प्रबन्ध करें। आपदा की घड़ी से निकलने व पुन:निर्माण के क्रम में हम सम्पूर्ण देश सहित समस्त गाँववासी नेपाल के साथ हैं।

धन्यवाद सहित।
दिनांक ……………….

भावदीय
समस्त ग्रामवासी

प्रश्न 14.
अपने गाँव में सूखा पीडित राहत योजना के अन्तर्गत किसानों को भुगतान में की जा रही अनियमितताओं के सम्बन्ध में एक शिकायती पत्र अपने जिलाधिकारी को लिखिए।
[2016]
उत्तर
सेवा में,
श्रीमान जिलाधिकारी महोदय,
मेरठ।

विषय-सूखा पीड़ित राहत योजना’ के अन्तर्गत भुगतान में की जा रही अनियमितता

मान्यवर,
मैं आपका ध्यान अपने गाँव चौबला में ‘सूखा पीड़ित राहत योजना के अन्तर्गत किसानों को भुगतान में की जा रही अनियमितताओं की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ। फसली वर्ष 2014-15 में पर्याप्त बारिश न होने तथा नहर द्वारा समय पर पानी न उपलब्ध हो पाने के कारण गाँव की करीब अस्सी फीसदी फसल सूखे की चपेट में आ गई थी। कुछ किसानों की तो सौ फीसदी फसल नष्ट हो गई थी। सूखे की चपेट में आने के कारण किसानों के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया था। हालाँकि, राज्य सरकार द्वारा समय रहते शुरू की गई ‘सूखा पीड़ित राहत योजना’ ने किसानों को एक नई आशा की किरण दिखाई और मायूस चेहरों पर मुस्कान लाने का कार्य किया, परन्तु यह मुस्कान खिलने से पहले ही मुरझाने लगी। किसानों को इस योजना के नाम पर जो धनराशि चैक प्रदान किए गए वो अधिकांश किसानों का मजाक उड़ा रहे हैं। धनराशि के वितरण में बड़े स्तर पर अनियमितता बरती गई। उदाहरणार्थ, एक किसान जिसकी बीस बीघा फसल पूर्ण रूप से सूखे की चपेट में आ गई, उसे मात्र ₹5,000/- को चैक प्रदान किया गया, वहीं दूसरे किसान, जिसकी मात्र पाँच बीघा फसल बरबाद हुई, को ₹7,000/- का चैक मिला। बड़े स्तर पर पहुँच रखने वाले कुछ बड़े किसानों ने अधिकारियों के साथ साँठगाँठ कर इस पूरे खेल को अंजाम दिया है। इन लोगों ने अधिकारियों को स्वेच्छानुसार आँकड़े उपलब्ध कराए और अधिकारीगण भी बिना निरीक्षण किए ही नाममात्र की कागजी खानापूर्ति कर चले गए।

अतः आपसे अनुरोध है कि इस मामले को अपने संज्ञान में लेकर यथासमय उचित कार्यवाही करें ताकि पीड़ित किसानों को उनका वाजिब मुआवजा मिल सके और वे अपना जीवन सुचारू रूप से यापन कर सकें।

धन्यवाद सहित।
दिनांक ……………..

भावदीय
मनोज चौधरी
गाँव : चौबला

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 Rights and Duties of Citizens

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 Rights and Duties of Citizens (नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 Rights and Duties of Citizens (नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 4
Chapter Name Rights and Duties of Citizens (नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य)
Number of Questions Solved 47
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 Rights and Duties of Citizens (नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
अधिकार से क्या तात्पर्य है? लोकतन्त्र में उपलब्ध नागरिकों के अधिकारों का वर्णन कीजिए।
या
अधिकारों का वर्गीकरण कीजिए।
या
अधिकारों के विभिन्न प्रकार बताइए और सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकारों में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2015]
या
किन्हीं चार राजनीतिक अधिकारों का वर्णन कीजिए। [2008, 11, 12, 13, 14]
उत्तर
प्रजातान्त्रिक राज्यों में अधिकार को मानव-जीवन का आधार माना जाता है, क्योंकि व्यक्ति के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन का विकास अधिकारों पर ही निर्भर करता है। सामान्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि “अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत तथा राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त व्यक्ति को दी जाने वाली वे सुविधाएँ हैं जो उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होती हैं।

अधिकार की परिभाषा
विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण के आधार पर अधिकार की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं-

  1. लॉस्की के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना सामान्यतः कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता।”
  2. वाइल्ड के अनुसार, “अधिकार कुछ विशेष कार्यों को करने की स्वाधीनता की उचित माँग है।”
  3. बोसांके के शब्दों में, “अधिकार वे माँग हैं जिन्हें समाज स्वीकार तथा राज्य लागू करता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर अधिकार के निम्नलिखित तत्त्व अथवा लक्षण स्पष्ट होते हैं-

  • व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक सुविधाएँ,
  • समाज की स्वीकृति,
  • राज्य द्वारा मान्यता एवं संरक्षण,
  • सार्वभौमिकता तथा
  • लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित।

अधिकारों का वर्गीकरण
अधिकार सामान्य रूप में दो प्रकार के होते हैं-

  1. नैतिक अधिकार तथा
  2. कानूनी या वैधानिक अधिकार।

1. नैतिक अधिकार
नैतिक अधिकार वे अधिकार होते हैं जिनका सम्बन्ध मनुष्य के नैतिक आचरण से होता है। उनके पीछे राज्य की कानूनी शक्ति नहीं होती है। अतएव इनको मानना या न मानना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। इन्हें प्राप्त करने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। इन अधिकारों में शिष्ट व्यवहार, नैतिक मान्यताएँ और चारित्रिक नियम सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि नैतिक अधिकारों का राज्य अथवा कानून से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। उदाहरण के लिए, वृद्ध और असहाय माता-पिता अपनी सन्तान से जीवन-यापन के लिए सहायता पाने के नैतिक रूप से अधिकारी हैं, परन्तु यदि सन्तान उनकी सहायता नहीं करती तो वह दण्ड की भागी नहीं हो सकती।

2. कानूनी या वैधानिक अधिकार
कानूनी अधिकार वे अधिकार हैं जिनकी व्यवस्था राज्य द्वारा कानून के अनुसार की जाती है। इन अधिकारों में बाधा डालने वाले दण्ड के भागी होते हैं।
कानूनी या वैधानिक अधिकार दो प्रकार के होते हैं-
(क) सामाजिक अधिकार तथा (ख) राजनीतिक अधिकार।

(क) सामाजिक अधिकार – सामाजिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मानवीय आधार पर प्रायः राज्य के नागरिक तथा विदेशी सभी को प्राप्त होते हैं। प्रमुख सामाजिक अधिकार निम्नलिखित हैं-

  1. जीवन का अधिकार – प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का अधिकार प्राप्त होता है। यह अधिकार मनुष्य के अस्तित्व से सम्बन्धित होता है। जीवन के अधिकार में यह बात भी उल्लेखनीय है कि कोई व्यक्ति स्वयं अपना जीवन समाप्त नहीं कर सकता। आत्महत्या करना दण्डनीय अपराध है।
  2. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार – इस अधिकार का अर्थ है कि मनुष्य को किसी भी धर्म को मानने व उसका प्रचार करने का अधिकार है। राज्य द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके ऊपर कोई धर्म थोपा नहीं जा सकता।
  3. शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार – शिक्षा राष्ट्रीय जीवन की आधारशिला है। व्यक्ति के व्यक्तित्व, समाज और राष्ट्र का विकास सब कुछ शिक्षा पर निर्भर करता है। शिक्षा के अभाव में कोई भी मनुष्य उत्तम नागरिक नहीं बन सकता। अरस्तू का तो यह कहना था कि “नागरिक बनने के लिए शिक्षित होना अनिवार्य है। आज के लोकतन्त्रात्मक युग में तो यह अधिकार अत्यन्त अनिवार्य है। संस्कृति के अधिकार का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी भाषा, लिपि, साहित्य, कला एवं परम्पराओं को अपनाने तथा उन्हें सुरक्षित रखने की सुविधा प्राप्त होनी चाहिए।
  4. सम्पत्ति का अधिकार – सम्पत्ति के अधिकार का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन-यापन के लिए वैध उपायों द्वारा धन अर्जित करने, एकंत्रं करने एवं खर्च करने का अधिकार होना चाहिए। उसके इस अधिकार में किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि राज्य सार्वजनिक हित के लिए क्षतिपूर्ति देकर किसी व्यक्ति की सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकता है। साम्यवादी राज्य इस अधिकार के विरुद्ध हैं।
  5. विचार व्यक्त करने का अधिकार – प्रत्येक व्यक्ति को लेखन, भाषण आदि के द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का अधिकार होना चाहिए। परन्तु व्यक्ति को अपने विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार उसी सीमा तक होना चाहिए जहाँ तक कि उससे सामाजिक अहित न होता हो। लोकतन्त्र में इस अधिकार का बहुत अधिक महत्त्व है।
  6. समुदाय बनाने का अधिकार – इस अधिकार के अन्तर्गत व्यक्ति को समुदाय बनाने और उसका सदस्य बनाने का अधिकार दिया जाता है। विभिन्न राजनीतिक दलों, विविध प्रकार के समुदाय इसी अधिकार के आधार पर जन्म लेते हैं।
  7. परिवार का अधिकार – परिवार सामाजिक जीवन की प्रथम इकाई तथा नागरिकता का प्रथम विद्यालय है। इस अधिकार के अन्तर्गत विवाह करने, यौन–सम्बन्धों की शुद्धता बनाये रखने, सन्तान व माता-पिता के पारस्परिक सम्बन्ध, उत्तराधिकार आदि के अधिकार सम्मिलित हैं। प्रत्येक व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह बिना किसी हस्तक्षेप या प्रतिबन्ध के अपने पारिवारिक जीवन का सुख भोग सके।
  8. न्याय का अधिकार – न्याय के अधिकार से आशय यह है कि न्यायालयों में धनी, निर्धन, साधारण नागरिक और उच्च अधिकारी में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। कानून के सामने छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं होना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब देश में विधि-विहित शासन हो।
  9. रोजगार का अधिकार – प्रत्येक नागरिक को राज्य की ओर से उसकी योग्यता और शक्ति के अनुसार काम दिया जाए और उसे उसके परिश्रम के अनुरूप वेतन मिले। समाजवादी देशों में इस अधिकार का विशेष महत्त्व है।
    इस अधिकार के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के कोई भी वैध व्यवसाय करने तथा योग्यतानुसार सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार होता है।
  10. समानता का अधिकार – इस अधिकार के अन्तर्गत राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समानता के अधिकार प्रमुख हैं। ये लोकतन्त्र के प्राण हैं। इनके अभाव में लोकतन्त्र की कल्पना ही अधूरी रह जाती है।

(ख) राजनीतिक अधिकार – राजनीतिक अधिकार नागरिक को देश के शासन में भाग लेने का अवसर प्रदान करते हैं। ये निम्नलिखित हैं-

  1. मतदान का अधिकार – लोकतन्त्र में यह अधिकार राज्य के समस्त वयस्क नागरिकों को प्रतिनिधि संस्थाओं के लिए सदस्यों को चुनने का अधिकार देता है। नागरिकों का यह अधिकार देश के भाग्य का निर्णय करता है।
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार – मतदान के साथ ही लोकतन्त्र में प्रत्येक नागरिक को यह भी अधिकार होता है कि वह स्वयं भी प्रतिनिधि संस्थाओं की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ सके। किसी व्यक्ति को रंग, जाति, लिंग अथवा सम्पत्ति के आधार पर इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
  3. सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार – इस अधिकार के अन्तर्गत सभी नागरिकों को योग्यता के अनुरूप सरकारी पदों पर नियुक्त होने का अधिकार प्राप्त रहता है। कोई भी नागरिक धर्म, जाति, लिंग अथवा सम्पत्ति के आधार पर सरकारी पद पाने से वंचित नहीं होना चाहिए।
  4. सरकार की आलोचना करने का अधिकार – सभी लोकतान्त्रिक राज्यों के नागरिकों को सरकार की दोषपूर्ण नीतियों की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि लोग सरकार के कार्यों व नीतियों से सन्तुष्ट नहीं हैं तो वे उसकी खुलकर आलोचना कर सकते हैं, परन्तु सरकार का विरोध शान्तिपूर्ण ढंग से एक संवैधानिक प्रक्रिया के द्वारा ही किया जा सकता है।
  5. आवेदन-पत्र देने का अधिकार – प्रायः प्रत्येक सभ्य एवं लोकतन्त्रात्मक राज्य में नागरिकों को आवेदन-पत्र देने का अधिकार प्राप्त होता है। इस आवेदन-पत्र के द्वारा लोग सरकार का ध्यान अपने कष्टों की ओर आकृष्ट करते हैं। यह अधिकार सरकार पर अंकुश रखता है और इसके कारण सरकार जनता के कष्टों की उपेक्षा नहीं कर सकती।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 4 Rights and Duties of Citizens

प्रश्न 2.
कर्तव्य का अर्थ बताइए तथा उसका वर्गीकरण कीजिए। [2007]
या
नागरिकों के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कीजिए कि लोकतन्त्र में किन कर्तव्यों पर अधिक बल देना चाहिए ? [2007]
या
एक आदर्श नागरिक के अधिकार तथा कर्तव्यों का विवेचन कीजिए। [2008, 10]
या
नागरिकों के अधिकारों एवं कर्तव्य का संक्षेप में उल्लेख कीजिए। [2010, 12, 14]
[संकेत- अधिकार’ हेतु विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 में अधिकारों सम्बन्धी शीर्षक का अध्ययन करें।]
उत्तर
कर्तव्य – भारतीय प्राचीन विचारकों ने अधिकार की अपेक्षा कर्तव्यपालन पर अधिक जोर दिया है। कौटिल्य ने कर्तव्य को स्वधर्म कहा है। कर्त्तव्य अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘ड्यूटी’ (Duty) का हिन्दी अनुवाद है। ‘ड्यूटी’ शब्द की उत्पत्ति ‘Due’ से हुई है, जिसका अर्थ ‘उचित होता है। अतः कर्त्तव्य से तात्पर्य ऐसे कार्य से है जिसे कोई व्यक्ति स्वाभाविक, नैतिक तथा कानूनी दृष्टि से करने हेतु बाध्य हो। लैड के शब्दों में, “करना चाहिए की भावना ही कर्तव्य है।” राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के शब्दों में, “कर्त्तव्य अधिकार का सच्चा स्रोत है। यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन करते रहें तो अधिकार हमसे दूर न रहेंगे।”
डॉ० जाकिर हुसैन के मतानुसार, “अपने दायित्वों एवं सेवाओं का सक्रिय इच्छा द्वारा निर्वाह करना ही कर्तव्य है।”

संक्षेप में, किसी विशेष कार्य के करने अथवा न करने के सम्बन्ध में व्यक्ति के उत्तरदायित्व को ही कर्तव्य कहा जा सकता है। अन्य शब्दों में, जिन कार्यों के सम्बन्ध में समाज एवं राज्य सामान्य रूप से व्यक्ति से यह आशा करते हैं कि उसे वे कार्य करने चाहिए, उन्हीं को व्यक्ति के कर्तव्य की संज्ञा दी जा सकती है।

कर्तव्यों का वर्गीकरण अथवा प्रकार
नागरिकों के कर्तव्यों का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है, क्योंकि उसको एक साथ अनेक प्रकार के कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। एक नागरिक के प्रमुख कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

1. नैतिक कर्तव्य – नैतिक कर्तव्य उसे कहते हैं जिसका सम्बन्ध व्यक्ति की नैतिक भावना, अन्त:करण तथा उचित कार्य की प्रवृत्ति से होता है। वस्तुतः नैतिक कर्तव्य का सम्बन्ध व्यक्ति के अन्त:करण से होता है। इन कर्तव्यों को राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं होती। नागरिक के नैतिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं

(i) परिवार के प्रति कर्तव्य – व्यक्ति, राज्य और समाज के विकास में कुटुम्ब का प्रमुख स्थान है। परिवार में ही मनुष्य को सर्वप्रथम शिक्षा मिलती है और उसमें नागरिक गुणों का बीजारोपण होता है। श्रेष्ठ नागरिक और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ परिवार का होना भी आवश्यक है। यह तभी सम्भव है जब नागरिक परिवार के अनुशासन और आचरण का पालन करे।

(ii) अपने प्रति कर्त्तव्य – राज्य या समाज अन्ततः नागरिकों को संगठन है। नागरिकों की उन्नति पर ही उसकी उन्नति निर्भर है। स्वस्थ, चरित्रवान, परिश्रमी तथा स्वावलम्बी नागरिक एक स्वस्थ समाज और राज्य का निर्माण कर सकते हैं। अत: प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने विकास पर पूर्ण ध्यान दे। इसके लिए उसे स्वस्थ, संयमी, अनुशासनप्रिय, शिक्षित और परोपकारी होना चाहिए। यदि कोई नागरिक अपने शारीरिक और मानसिक विकास के प्रति उदास रहता है तो वह अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता।

(iii) ग्राम, नगर, जाति तथा समाज के प्रति कर्तव्य – परिवार के अतिरिक्त नागरिक को भी अपने ग्राम, नगर, जाति एवं समाज से भी सहायता मिलती है; अतः इन संगठनों के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य हैं। उसका कर्तव्य है कि इन संगठनों की उन्नति में सहायता पहुँचाये।

2. कानूनी कर्तव्य अथवा राज्य के प्रति कर्तव्य – ये नागरिक के वे कर्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य निर्धारित करता है। नागरिक को इनका पालन अनिवार्य रूप से करना होता है। इनके उल्लंघन करने पर राज्य द्वारा दण्ड दिया जाता है। नागरिक के प्रमुख कानूनी कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

(i) राज्य के प्रति निष्ठा – राज्य के प्रति निष्ठा और भक्ति की भावना नागरिक का प्रथम कर्तव्य होता है। उसे शत्रुओं से देश को बचाने के लिए देश के अन्दर शान्ति और सुव्यवस्था बनाये रखने में राज्य की सहायता करनी चाहिए। आपातकाल में अनिवार्य सैनिक सेवा इसी प्रकार के कर्तव्य का फल है।

(ii) कानूनों का पालन – कानून का निर्माण समाज के कल्याण के लिए होता है। अत: प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह राज्य-निर्मित नियमों का पालन करे। ऐसा करके वह राज्य के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होगा।

(iii) करों का भुगतान – शासन-संचालन और नागरिकों की उन्नति के लिए प्रत्येक राज्य को आर्थिक शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आर्थिक शक्ति को प्राप्त करने के लिए राज्य विविध प्रकार के कर लगाता है। अतः प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह समय से सभी प्रकार के करों का भुगतान करे।

(iv) मत का उचित प्रयोग – लोकतन्त्र को चलाने के लिए जनता के प्रतिनिधियों की आवश्यकता होती है और उन प्रतिनिधियों पर ही देश का भविष्य निर्भर करता है। इसलिए नागरिकों का कर्तव्य है कि वे जनता के प्रतिनिधियों का चुनाव पर्याप्त सोच-समझकर करें। जाति, धर्म अथवा धन को मत का अधिकार नहीं बनाना चाहिए।

(v) सार्वजनिक पद ग्रहण करना – प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह सार्वजनिक पद ग्रहण करने के लिए सदैव तत्पर रहे, साथ ही समाज द्वारा सौंपे गये उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करे।

प्रश्न 3.
अधिकारों से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
अधिकार सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्त
अधिकारों के सम्बन्ध में विभिन्न सिद्धान्त प्रचलित हैं, जिनका विवेचन निम्नलिखित है-

1. अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धान्त – हॉब्स, लॉक, रूसो आदि विद्वानों ने अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। यह सिद्धान्त अति प्राचीन है। इसके अनुसार अधिकार प्रकृति-प्रदत्त हैं और वे व्यक्ति को जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाते हैं। व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का प्रयोग राज्य के उदय के पूर्व से ही करता आ रहा है। राज्य इन अधिकारों को न तो छीन सकता है और न ही वह इनका जन्मदाता है। टॉमस पेन के अनुसार, “प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य के अस्तित्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आवश्यक हैं।’ इस दृष्टिकोण से अधिकार असीमित, निरपेक्ष तथा स्वयंसिद्ध हैं। राज्य इन अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
आलोचना- इस सिद्धान्त में कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-

  • यह सिद्धान्त अनैतिहासिक है, क्योंकि जिस प्राकृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत इन अधिकारों के प्राप्त होने का उल्लेख किया गया है, वह काल्पनिक है।
  • ग्रीन का मत है कि समाज से पृथक् कोई भी अधिकार सम्भव नहीं है।
  • यह सिद्धान्त राज्य को कृत्रिम संस्था मानता है, जो अनुचित है।
  • प्राकृतिक अधिकारों में परस्पर विरोधाभास पाया जाता है।
  • यह सिद्धान्त कर्तव्यों के प्रति मौन है, जबकि कर्तव्य के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है।

2. अधिकारों का कानूनी या वैधानिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के प्रवर्तक बेन्थम, हॉलैण्ड, आँ स्टिन आदि विचारक हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, अधिकार राज्य की इच्छा के परिणाम हैं और राज्य ही अधिकारों का जन्मदाता है। यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के विपरीत है। व्यक्ति राज्य के संरक्षण में रहकर ही अधिकारों का प्रयोग कर सकता है। राज्य ही कानून द्वारा ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करता है, जहाँ व्यक्ति अपने अधिकारों का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग कर सके। राज्य ही अधिकारों को वैधता प्रदान करता है। यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि अधिकारों का अस्तित्व केवल राज्य के अन्तर्गत ही सम्भव है।
आलोचना- इस सिद्धान्त में कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-

  • इस सिद्धान्त से राज्य की निरंकुशता का समर्थन होता है।
  • राज्य नैतिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
  • अधिकारों में स्थायित्व नहीं रहता है।

3. अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों की उत्पत्ति प्राचीन रीति-रिवाजों के परिणामस्वरूप होती है। जिन रीति-रिवाजों को समाज स्वीकृति दे देता है, वे अधिकार का रूप धारण कर लेते हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार, अधिकार परम्परागते हैं तथा सतत विकास के परिणाम हैं। इसके अतिरिक्त इनका आधार ऐतिहासिक है। इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में परम्परागत अधिकारों को बहुत अधिक महत्त्व रहा है।
आलोचना- इस सिद्धान्त के आलोचकों का मत है कि अधिकारों का आधार केवल रीतिरिवाज तथा परम्पराएँ नहीं हो सकतीं, क्योंकि कुछ परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज समाज के कल्याण में बाधक होते हैं। अतः इस दृष्टि से यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है।

4. अधिकारों का समाज – कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्त-जे०एस० मिल, जेरमी बेन्थम, पाउण्ड, लॉस्की आदि ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। इस सिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य उपयोगिता या समाज-कल्याण है। प्रो० लॉस्की के अनुसार-“अधिकारों का औचित्य उनकी उपयोगिता के आधार पर ऑकना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार वे साधन हैं, जिनसे समाज का कल्याण होता है। लॉस्की का मत है-“लोक-कल्याण के विरुद्ध मेरे अधिकार नहीं हो सकते क्योंकि ऐसा करना मुझे उस कल्याण के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है जिसमें मेरा कल्याण घनिष्ठ तथा अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।”
इस सिद्धान्त की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं-

  • अधिकार समाज की देन हैं, प्रकृति की नहीं।
  • अधिकारों का अस्तित्व समाज-कल्याण पर आधारित है।
  • व्यक्ति केवल उन्हीं अधिकारों का प्रयोग कर सकता है, जो समाज के हित में हों।
  • कानून, रीति-रिवाज तथा अधिकार सभी का उद्देश्य समाज-कल्याण है।

आलोचना- यह सिद्धान्त तर्कसंगत और उपयोगी तो है, किन्तु इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि यह सिद्धान्त समाज-कल्याण की ओट में राज्य को व्यक्तियों की स्वतन्त्रता का हनन करने का अवसर प्रदान करता है, लेकिन समीक्षात्मक दृष्टि से यह दोष महत्त्वहीन है।

5. अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त – इस सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार वे बाह्य साधन तथा दशाएँ हैं, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इस सिद्धान्त का समर्थन थॉमस हिल ग्रीन, हीगल, बैडले, बोसांके आदि विचारकों ने किया है।
आलोचना- इस सिद्धान्त के कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-

  • यह सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है क्योंकि व्यक्तित्व का विकास व्यक्तिगत पहलू है तथा राज्य एवं समाज जैसी संस्थाओं के लिए यह जानना बहुत कठिन है कि किसके विकास के लिए क्या अनावश्यक है?
  • यह व्यक्ति के हितों पर अधिक बल देता है तथा समाज का स्थान गौण रखता है। अतः व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए समाज के हितों के विरुद्ध कार्य कर सकता है।
  • मानव-जीवन के विकास की आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी हैं, इनका निर्णय कौन करेगा तथा किस-किस प्रकार उपलब्ध होंगी-इन बातों को स्पष्टीकरण नहीं होता है। अतः इस सिद्धान्त का आधार ही अवैधानिक है।

समीक्षा – उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों में आदर्शवादी सिद्धान्त सर्वमान्य और तर्कसंगत है, क्योंकि इसके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि-

  • अधिकार व्यक्ति की माँग है।
  • अधिकारों की माँग समाज द्वारा स्वीकृत होती है।
  • अधिकारों का स्वरूप नैतिक होता है।
  • अधिकारों का उद्देश्य समाज का वास्तविक हित है।
  • अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक साधन हैं।

निष्कर्ष- अधिकारों के उपर्युक्त सिद्धान्तों के अध्ययन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त ही सर्वोपयुक्त है क्योंकि यह इस अवधारणा पर आधारित है कि अधिकारों की उत्पत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए है। राज्य तथा समाज तो केवल व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा तथा व्यवस्था करने के साधन मात्र हैं। व्यक्ति समाज के कल्याण में ही अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
“अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।” इस कथन को सिद्ध कीजिए। (2007, 15)
या
अधिकार और कर्तव्यों के बीच सम्बन्ध स्थापित कीजिए। [2007, 09, 11]
या
अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए। [2011, 13, 15]
उत्तर
अधिकार और कर्तव्यों का सम्बन्ध
अधिकार और कर्तव्य दोनों ही सार्वजनिक जीवन के प्रमुख पक्ष हैं। अधिकारों का महत्त्व कर्तव्य के संसार में ही है। अधिकार और कर्तव्य पर बल देते हुए कहा गया है कि दोनों ही सामाजिक हैं और दोनों ही सफल जीवन की शर्ते हैं, जो समाज के सभी व्यक्तियों को प्राप्त होनी चाहिए। अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।”
एक के समाप्त होते ही दूसरा स्वयं समाप्त हो जाता है, दोनों एक साथ चलते हैं। इसमें से कोई भी एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकता। अधिकार और कर्तव्यों के सम्बन्ध का विवरण निम्नलिखित है-

1. अधिकारों के अस्तित्व के लिए कर्तव्यों का होना अनिवार्य है- अधिकारों का अस्तित्व कर्तव्यों पर निर्भर होता है। अधिकार वे माँगें हैं, जिन्हें समाज ने कर्तव्य के रूप में स्वीकार कर लिया है। किसी व्यक्ति का अधिकार तब तक अधिकार नहीं कहला सकता जब तक कि समाज उसे कर्तव्य मानकर अपनी स्वीकृति न दे दे। उदाहरणार्थ-एक व्यक्ति को यह अधिकार है कि उसका जीवन सुरक्षित रहे, तो अन्य मनुष्यों का यह कर्तव्य बन जाता है कि वे उसके जीवन पर आघात न करें। इसलिए एक विद्वान् ने कहा है कि “कर्तव्यों के संसारे में ही अधिकारों का जन्म होता है।”

2. कर्तव्य अधिकार पर अवलम्बित हैं- जिस प्रकार अपने अस्तित्व के लिए अधिकार सदैव कर्तव्यों पर निर्भर है, उसी प्रकार कर्तव्य भी अधिकारों पर निर्भर है। कर्तव्यपालने के लिए यह परमावश्यक है कि मनुष्य कर्तव्यपालने की आवश्यक क्षमता रखता हो। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को ऐसे अधिकार प्राप्त हों जिनके द्वारा वह अपना शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास कर सके। इस विकास के द्वारा ही वह कर्तव्यपालन के योग्य बन सकता है। यदि उसे ऐसे अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जिनके द्वारा वह अपने को सभी दृष्टियों से योग्य बना ले तो उसमें कर्तव्यपालन की क्षमता नहीं आएगी।

3. एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य है- समाज में एक वर्ग का जो अधिकार है वही दूसरे को कर्तव्य है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति को जीवित रहने का अधिकार है तो दूसरे लोगों का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे उन कार्यों को करें जिनसे वह व्यक्ति अपने जीवित रहने के अधिकार का उपयोग कर सके। इसलिए कहा गया है कि ‘मेरा अधिकार तुम्हारा कर्तव्य है।

4. सुखी सामाजिक जीवन के लिए दोनों आवश्यक हैं- अधिकार और कर्तव्यों का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य के सामाजिक जीवन को सुखी बनाना है। ये दोनों व्यक्ति के बहुमुखी विकास के लिए आवश्यक हैं। दोनों के बिना व्यक्ति को शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास रुक जाएगा।

5. कर्तव्य अधिकार का सदुपयोग है- अधिकारों के सदुपयोग का दूसरा नाम कर्तव्य है। यदि एक व्यक्ति अपने अधिकारों का समुचित ढंग से पालन कर रहा है तो दूसरे रूप में वह अपने कर्तव्य की पूर्ति कर रहा है। उदाहरण के लिए, सम्पत्ति की सुरक्षा और जीविकोपार्जन हमारा अधिकार है, परन्तु हमारा यह कर्त्तव्य भी है कि हम ऐसा कोई कार्य न करें जिससे दूसरों के इस अधिकार पर कोई आघात हो।

6. अधिकार और कर्तव्य जीवन के दो पक्ष हैं- यदि अधिकार जीवन के भौतिक पक्ष का प्रतीक है तो कर्तव्य जीवन के नैतिक पक्ष का। यदि अधिकार का सम्बन्ध मनुष्य के शरीर से है। तो कर्तव्य का सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से। यदि अधिकार मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं; यथा–भोजन, वस्त्र इत्यादि की पूर्ति करता है तो कर्त्तव्य आत्मा का परिष्कार कर उसे अलौकिक आनन्द प्रदान करता है। इस प्रकार अधिकार और कर्तव्य जीवन के दो पक्ष हैं।

प्रश्न 2.
अधिकारों के प्रमुख लक्षण लिखिए।
उत्तर
अधिकार के प्रमुख लक्षण
लॉस्की, वाइल्ड और श्रीनिवास शास्त्री ने अधिकार की जो परिभाषाएँ दी हैं उन परिभाषाओं और अधिकार की सामान्य धारणा के आधार पर अधिकार के निम्नलिखित प्रमुख लक्षण कहे जा सकते हैं

1. सामाजिक स्वरूप – अधिकार का सर्वप्रथम लक्षण यह है कि अधिकार के लिए सामाजिक स्वीकृति आवश्यक है, सामाजिक स्वीकृति के अभाव में व्यक्ति जिन शक्तियों का उपभोग करता है वे उसके अधिकार न होकर प्राकृतिक शक्तियाँ हैं। अधिकार तो राज्य द्वारा नागरिकों को प्रदान की गयी स्वतन्त्रता और सुविधा का नाम है और इस स्वतन्त्रता एवं सुविधा की आवश्यकता तथा उपभोग समाज में ही सम्भव है। इसके अतिरिक्त, राज्य के द्वारा व्यक्ति को जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अधिकार प्रदान किये जाते हैं, उसकी सिद्धि समाज में ही सम्भव है। इस दृष्टि से भी अधिकार समाजगत ही होते हैं।
2. कल्याणकारी स्वरूप – अधिकारों का सम्बन्ध आवश्यक रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से होता है। इस कारण अधिकार के रूप में केवल वे ही स्वतन्त्रताएँ और सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जो व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक या सहायक हों। व्यक्ति को कभी भी वे अधिकार नहीं मिलते हैं जो व्यक्ति के विकास में बाधक हों। इसी कारण मद्यपान, जुआ खेलना या आत्महत्या अधिकार के अन्तर्गत नहीं आते हैं।

3. लोकहित में प्रयोग – व्यक्ति को अधिकार उसके स्वयं के व्यक्तित्व के विकास और सम्पूर्ण समाज के सामूहिक हित के लिए प्रदान किये जाते हैं। अतः यह आवश्यक होता है कि अधिकारों का प्रयोग इस प्रकार किया जाए कि व्यक्ति की स्वयं की उन्नति के साथ-साथ सम्पूर्ण समाज की भी उन्नति हो। यदि कोई व्यक्ति अधिकार का इस प्रकार से उपयोग करता है कि अन्य व्यक्तियों या सम्पूर्ण समाज के हित साधन में बाधा पहुँचती है तो व्यक्ति के अधिकारों को सीमित किया जा सकता है।

4. राज्य का संरक्षण – अधिकार का एक आवश्यक लक्षण यह भी है कि उसकी रक्षा का दायित्व राज्य अपने ऊपर लेता है और इस सम्बन्ध में राज्य आवश्यक व्यवस्था भी करता है। उदाहरणार्थ, व्यक्ति को रोजगार प्राप्त होना चाहिए, यह बात व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है और समाज भी इंसे स्वीकार करता है, लेकिन राज्य जब तक आवश्यक संरक्षण की व्यवस्था न करे, उस समय तक परिभाषित अर्थ में इसे अधिकार नहीं कहा जा सकता है।

5. सार्वभौमिकता या सर्वव्यापकता – अधिकार का एक अन्य लक्षण यह भी है कि अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्रदान किये जाते हैं और इस सम्बन्ध में जाति, धर्म, लिंग और वर्ण के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता है। अधिकार के उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर सामान्य शब्दों में अधिकार की परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व के उच्चतम विकास हेतु आवश्यक वे सामान्य सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जिन्हें समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करने की व्यवस्था करता है।’

प्रश्न 3.
नागरिकों के दो राजनीतिक अधिकार लिखिए। [2016]
उत्तर
राजनीतिक अधिकार नागरिकों के दो राजनीतिक अधिकार निम्नवत् हैं-

  1. मतदान का अधिकार – किसी भी प्रजातान्त्रिक या लोकतान्त्रिक राष्ट्र में राज्य के सभी वयस्क (भारत में 18 वर्ष) नागरिकों को प्रतिनिधित्वमूलक संस्थाओं के लिए अपना मत देने का अधिकार होता है, जिसके माध्यम से जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है।
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार – यह अधिकार एक प्रमुख राजनीतिक अधिकार है, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह स्वयं प्रतिनिधि संस्थाओं की सदस्यता के लिए चुनाव में खड़ा हो सके। इसके लिए उसको किसी भी रंग, जाति, लिंग अथवा सम्पत्ति के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 4.
राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार
राज्य के प्रति भक्ति और राज्य की आज्ञाओं का पालन व्यक्ति का कानूनी कर्तव्य होता है। और इसलिए व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का कानूनी अधिकार तो प्राप्त हो ही नहीं सकता, लेकिन व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार अवश्य ही प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि शासन के अस्तित्व का उद्देश्य जन-इच्छा को कार्यरूप में परिणत करते हुए सामान्य कल्याण होता है और यदि शासन सामान्य कल्याण की साधना में असफल हो जाता है। या शासन जन-इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करता तो उस शासन को अस्तित्व में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार शेष नहीं रह जाता है। नागरिकों को इस प्रकार की सरकार को पदच्युत करने का अधिकार होता है और यदि संवैधानिक मार्ग से इच्छित परिवर्तन न किया जा सके तो व्यक्ति को अधिकार है कि वह शक्ति के आधार पर वांछित परिवर्तन करने का प्रयत्न करे।

लॉस्की ने कहा है कि “नागरिकता व्यक्ति के विवेकपूर्ण निर्णय का जनकल्याण में प्रयोग है।” ऐसी परिस्थितियों में यदि व्यक्ति को इस बात का विश्वास हो जाए कि विद्यमान शासन-व्यवस्था सामान्य जनता के हित में कार्य नहीं कर सकती तो राज्य के विरुद्ध विद्रोह व्यक्ति का एक नैतिक अधिकार ही नहीं वरन् एक नैतिक कर्तव्य भी हो जाता है। महात्मा गांधी ने कहा है कि व्यक्ति का सर्वोच्च कर्त्तव्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति होता है। अतः अन्तरात्मा की पुकार पर सरकार का विरोध किया जा सकता है।

ग्रीन, महात्मा गांधी, लॉस्की आदि विद्वानों द्वारा व्यक्त किये गये विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि निम्नलिखित शर्तों के पूरा होने पर ही विद्रोह के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है-

  1. स्थिति को सुधारने और वांछित परिवर्तन लाने के लिए विद्रोह के पूर्व सभी संवैधानिक साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए और संवैधानिक साधनों की असफलता के बाद ही विद्रोह के सम्बन्ध में सोचा जाना चाहिए।
  2. विद्रोह की भावना वैयक्तिक न होकर सामाजिक होनी चाहिए। विद्रोह की बात तभी सोची जा सकती है जबकि सरकार के द्वारा किये जाने वाले अन्याय साधारण प्रकृति के न होकर गम्भीर प्रकृति के हों और विद्रोह करने वाली जनता विद्रोह के उद्देश्यों से पूर्ण परिचित हो।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
सम्पत्ति के अधिकार पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
आधुनिक काल में सम्पत्ति का अधिकार बड़े वाद-विवाद वाला अधिकार बन गया है। अरस्तू तथा लॉक इसे प्राकृतिक अधिकार मानते हैं। इसके विपरीत, प्लेटो सम्पत्ति के अधिकार का विरोध करते हैं। कार्ल मार्क्स ने सम्पत्ति को ‘लूट के माल’ की संज्ञा दी है। इसी कारण समाजवादी राष्ट्र रूस, चीन इत्यादि सम्पत्ति के अधिकार के विरोधी हैं।

राज्य अथवा सरकार को किसी व्यक्ति की निजी सम्पत्ति को समुचित मुआवजा दिये बिना छीनने का अधिकार नहीं है, क्योंकि सम्पत्ति ही वह प्रेरणा-स्रोत है जो मानव को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।

वर्तमान समय में सम्पत्ति के अधिकार को अनियमित एवं अनियन्त्रित रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि जहाँ एक ओर सम्पत्ति व्यक्ति की प्रेरणा-स्रोत है वहीं दूसरी ओर सम्पत्ति घमण्ड, शोषण, उत्पीड़न एवं अकर्मण्यता को प्रोत्साहित करती है। लॉस्की ने उचित ही लिखा है, धनवान तथा निर्धन में विभाजित समाज रेत की नींव पर टिका होता है।”

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प्रश्न 2.
अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
हॉब्स, लॉक तथा रूसो आदि विद्वानों ने अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। यह सिद्धान्त अति प्राचीन है। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार प्रकृति-प्रदत्त हैं। तथा व्यक्ति को जन्म लेते ही प्राप्त हो जाते हैं। राज्य इन अधिकारों को नहीं छीन सकता, क्योंकि एक तो वह इनका जन्मदाता नहीं है और दूसरे व्यक्ति राज्य के उदय से पूर्व से ही इन अधिकारों का प्रयोग करता आ रहा है।
इस सिद्धान्त में निम्नलिखित दोष पाये गये हैं-

  • यह सिद्धान्त काल्पनिक है न कि ऐतिहासिक।
  • ग्रीस का मत है कि समाज से पृथक् किसी अधिकार की कल्पना नहीं की जा सकती।
  • यह सिद्धान्त राज्य को अनुचित रूप से कृत्रिम संस्था मानता है।
  • यह सिद्धान्त कर्तव्यों के प्रति मौन है, जब कि कर्तव्य के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है।

प्रश्न 3.
अधिकारों के वैधानिक सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
इस सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार राज्य की इच्छा के परिणाम हैं और राज्य ही अधिकारों का स्रोत है। यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के एकदम विपरीत है। इस सिद्धान्त को मानने वालों में बेन्थम, हॉलैण्ड, ऑस्टिन आदि विद्वान् हैं। इन विद्वानों के अनुसार व्यक्ति राज्य के संरक्षण में रहकर भी अधिकारों का प्रयोग करता है और राज्य ही अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है।
इस सिद्धान्त में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं-

  • यह सिद्धान्त राज्य की निरंकुशता का समर्थक है।
  • राज्य नैतिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
  • अधिकारों में स्थायित्व नहीं रहता है।

प्रश्न 4.
‘अधिकार केवल समाज में ही सम्भव है, परन्तु असीमित नहीं।’ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
अधिकार सिर्फ समाज में ही सम्भव–अधिकार की प्रथम विशेषता यह है कि इन्हें व्यक्ति सिर्फ समाज में ही प्राप्त कर सकता है। यदि समाज नहीं है तो व्यक्ति अधिकारों को प्राप्त नहीं कर सकता। एकाकी व्यक्ति को अधिकारों की आवश्यकता नहीं होती है।

अधिकार असीमित नहीं – समाज में एक व्यक्ति के अधिकार दूसरे व्यक्ति के अधिकारों से सीमित हो जाते हैं। एक व्यक्ति अपने अधिकारों का उपभोग तभी कर सकता है जब कि वह दूसरे के अधिकारों को मान्यता प्रदान करे। ऐसा न होने पर समाज में अराजकता फैल सकती है।

प्रश्न 5.
मौलिक अधिकार से क्या आशय है?
उतर
वे अधिकार जो मानव-जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं, मौलिक अधिकार कहे जाते हैं। इन अधिकारों का राज्यों के संविधान में वर्णन कर दिया जाता है। न्यायपालिका इन अधिकारों की रक्षा करती है। सर्वप्रथम मौलिक अधिकार अमेरिकी संविधान में सम्मिलित किये गये। भारतीय संविधान द्वारा भी मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं।

प्रश्न 6.
कानूनी अधिकार से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
ये वे अधिकार हैं जिन्हें राज्य मान्यता प्रदान करता है तथा जिनकी रक्षा राज्य के कानूनों द्वारा होती है। कानूनी अधिकारों का उल्लंघन करने वाले को राज्य द्वारा दण्डित किया जाता है। लीकॉक के शब्दों में, “कानूनी अधिकार वे विशेषाधिकार हैं जो एक नागरिक को अन्य नागरिकों के विरुद्ध प्राप्त होते हैं तथा जो राज्य की सर्वोच्च शक्ति द्वारा प्रदान किये जाते हैं तथा रक्षित होते हैं।”

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
लॉक द्वारा बताये गये कोई दो प्राकृतिक अधिकार बताइए।
उत्तर

  1. जीवन का अधिकार तथा
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार।

प्रश्न 2.
नागरिकों के कोई दो सामाजिक अधिकार लिखिए। [2014]
उत्तर

  1. जीवन का अधिकार तथा
  2. समानता का अधिकार

प्रश्न 3
नागरिक के दो नैतिक कर्तव्य लिखिए।
उत्तर

  1. अपने प्रति कर्त्तव्य (चरित्र-निर्माण) तथा
  2. समाज के प्रति कर्तव्य (कुरीतियों का उन्मूलन)।

प्रश्न 4.
नागरिकों के दो कानूनी कर्तव्य लिखिए।
उत्तर

  1. राज्य के कानूनों का पालन करना तथा
  2. राज्य के प्रति भक्ति।

प्रश्न 5.
कानूनी अधिकार के सिद्धान्त के दो समर्थकों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. बेन्थम तथा
  2. ऑस्टिन।

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प्रश्न 6.
अधिकार के किन्हीं दो सिद्धान्तों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. प्राकृतिक सिद्धान्त तथा
  2. आदर्शवादी सिद्धान्त।

प्रश्न 7.
अधिकारों के दो प्रमुख प्रकार बताइए।
उत्तर

  1. सामाजिक या नागरिक अधिकार तथा
  2. राजनीतिक अधिकार।

प्रश्न 8.
नागरिक के कोई दो प्राकृतिक अधिकार बताइए।
उत्तर

  1. जीवन का अधिकार तथा
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार।

प्रश्न 9.
विदेशियों को राज्य में प्राप्त होने वाले कोई दो अधिकार लिखिए।
उत्तर

  1. जीवन-रक्षा का अधिकार तथा
  2. पारिवारिक जीवन व्यतीत करने का अधिकार।

प्रश्न 10.
अधिकारों के आदर्शवादी सिद्धान्त के किन्हीं दो समर्थकों के नाम बताइए।
उत्तर

  1. थॉमस हिल ग्रीन एवं
  2. बोसांके।

प्रश्न 11.
दो मानव अधिकार बताइए।
उत्तर

  1. जीवन का अधिकार तथा
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार।

प्रश्न 12.
कर्तव्यों के दो प्रमुख भेद बताइए।
उत्तर
कर्तव्यों के दो प्रमुख भेद हैं-

  1. नैतिक कर्तव्य तथा
  2. कानूनी कर्तव्य।

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प्रश्न 13.
नागरिक के दो प्रमुख कर्तव्य बताइए।
उत्तर

  1. समाज के प्रति कर्त्तव्य तथा
  2. राज्य के प्रति कर्तव्य।

प्रश्न 14.
मूल कर्तव्य की धारणा भारत के परिप्रेक्ष्य में किस देश की संवैधानिक व्यवस्था से प्रेरित है?
उत्तर
मूल कर्त्तव्य की धारणा भारत के परिप्रेक्ष्य में रूस की संवैधानिक व्यवस्था से प्रेरित तथा गृहीत है।

प्रश्न 15.
राज्य के प्रति नागरिक के दो कर्तव्य बताइए।
उत्तर

  1. राज्य के कानूनों का पालन करना तथा
  2. लगाये गये करों का भुगतान करना।

प्रश्न 16.
“यदि हम कर्तव्यपालन करें तो अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाएँगे।” यह कथन किसका है?
उत्तर
यह कथन गाँधी जी का है।

प्रश्न 17.
अधिकार के किन्हीं दो तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. सार्वभौमिकता तथा
  2. राज्य का संरक्षण।

प्रश्न 18.
अधिकारों का कौन-सा सिद्धान्त सबसे अधिक मान्य है?
उत्तर
अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त सबसे अधिक मान्य है।

प्रश्न 19.
वयस्क मताधिकार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर
सामान्यतया 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके नागरिक को जो मताधिकार प्राप्त होता है, उसे वयस्क मताधिकार कहते हैं।

प्रश्न 20.
नैतिक और कानूनी अधिकारों में क्या अन्तर है? [2007]
उत्तर
नैतिक अधिकारों के पीछे राज्य की कानूनी शक्ति नहीं होती। कानूनी अधिकारों की व्यवस्था राज्य द्वारा कानून के अनुसार की जाती है।

प्रश्न 21.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त किया गया है? (2007)
उत्तर
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त किया गया है।

प्रश्न 22.
नागरिकों के दो राजनीतिक अधिकार लिखिए। [2013, 16]
उत्तर

  1. मतदान का अधिकार तथा
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. निम्नलिखित में से कौन-सा अधिकार का तत्त्व है?
(क) सार्वभौमिकता
(ख) मानवता
(ग) स्वतन्त्रता
(घ) निष्पक्षता

2. निम्नलिखित में कौन-सा सामाजिक अधिकार नहीं है?
(क) शिक्षा का अधिकार
(ख) सम्पत्ति रखने का अधिकार
(ग) समानता का अधिकार
(घ) मताधिकार

3. निम्नलिखित में से कौन-सा राजनीतिक अधिकार है?
(क) शिक्षा का अधिकार
(ख) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
(ग) मतदान का अधिकार
(घ) जीवन-रक्षा का अधिकार

4. निम्नांकित में से कौन कानूनी अधिकार का समर्थक है?
(क) प्रो० बार्कर
(ख) प्रो० लॉस्की
(ग) गाँधी जी
(घ) ऑस्टिन

5. निम्नलिखित में से कौन-सा नागरिक का कर्तव्य है?
(क) कानून का पालन करना
(ख) करों का भुगतान करना
(ग) राज्य के प्रति भक्ति
(घ) ये सभी

6. अधिकारों के समाज-कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्तों का समर्थक था-
(क) लॉस्की
(ख) प्लेटो
(ग) रूसो
(घ) मॉण्टेस्क्यू

7. “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके अभाव में सामान्यतया कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाता है।” यह कथन किस विचारक का है? [2008, 16]
(क) लॉस्की
(ख) प्लेटो
(ग) बेन्थम
(घ) जे० एस० मिल

8. प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का समर्थन किसने किया था? [2008, 13]
(क) हीगल ने
(ख) बर्क ने।
(ग) लॉक ने
(घ) बेन्थम ने

9. निम्नलिखित में से कौन एक राजनीतिक अधिकार की श्रेणी में नहीं आता है? (2012, 14)
(क) मत देने का अधिकार
(ख) काम का अधिकार
(ग) निर्वाचित होने का अधिकार
(घ) सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार

10. निम्नलिखित में से कौन-सा कानूनी कर्तव्य नहीं है? (2015)
(क) कानूनों का पालन करना
(ख) सत्य बोलना
(ग) राज्य के प्रति कर्तव्य
(घ) कर अदा करना

11.“अधिकार वह माँग है जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है।” यह कथन निम्न में से किस विचारक का है? (2016)
(क) टी०एच० ग्रीन
(ख) अरस्तू
(ग) बोसांके
(घ) रूसो

12. भारतीय संविधान में नागरिकों को कितने मौलिक कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं? [2016]
(क) 10
(ख) 11
(ग) 9
(घ) 15

उत्तर

  1. (क) सार्वभौमिकता,
  2. (घ) मताधिकार,
  3. (ग) मतदान का अधिकार,
  4. (घ) ऑस्टिन,
  5. (घ) ये सभी,
  6. (घ) मॉण्टेस्क्यू,
  7. (क) लॉस्की
  8. (ग) लॉक ने,
  9. (ख) काम का अधिकार,
  10. (ख) सत्य बोलना,
  11. (ग) बोसांके,
  12. (ख) 11

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 5 Surveying

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography (Practical Work)
Chapter Chapter 5
Chapter Name Surveying (सर्वेक्षण)
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 5 Surveying (सर्वेक्षण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
सर्वेक्षण से क्या अभिप्राय है? जरीब एवं फीते (Chain and Tape) द्वारा सर्वेक्षण किन-किन परिस्थितियों में किया जाता है तथा इसमें कौन-कौन से उपकरण प्रयोग में लाये जाते हैं?
उत्तर

सर्वेक्षण का अर्थ
Meaning of Surveying

सामान्य बोलचाल की भाषा में सर्वेक्षण का अर्थ धरातल का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना होता है। जिससे आवश्यक तथ्यों की जानकारी प्राप्त कर उन्हें मानचित्र पर निरूपित किया जा सके। सर्वेक्षण को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता है –
“सर्वेक्षण एक ऐसी कला है जिससे विभिन्न बिन्दुओं की आनुपातिक स्थिति का ज्ञान होता है। बिन्दुओं की स्थिति, दूरी व कोण नापकर तथा कई बार ऊँचाई नापकर भी ज्ञात की जाती है।”
सर्वेक्षण क्षैतिज धरातल के बिन्दुओं की स्थिति के निर्धारण करने की क्रिया है।”
“सर्वेक्षण वह कला है जिसके द्वारा धरातल के बिन्दुओं की सापेक्षिक स्थिति मानचित्र पर ठीक-ठीक प्रदर्शित की जाती है।”
इस प्रकार सामान्य रूप से सर्वेक्षण द्वारा किसी क्षेत्र-विशेष में पायी जाने वाली प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों का मापन करते हैं। इन मापों के आधार पर एक निश्चित मापक द्वारा समतल कागज पर मानचित्र की रचना करते हैं। सर्वेक्षण करने से पूर्व निर्धारित क्षेत्र को ध्यानपूर्वक देख लेना चाहिए जिससे सर्वेक्षण के समय कोई बाधा उपस्थित न हो तथा क्षेत्र को एक रेखाचित्र तैयार कर लेना चाहिए।

जरीब (चेन) एवं फीता सर्वेक्षण
Chain and Tape Surveying

चेन व टेप द्वारा सर्वेक्षण सरल तथा कम व्यय वाला है। यह सर्वेक्षण की प्राचीन विधि है। इससे धरातल पर क्षैतिज दूरियाँ नापी जाती हैं। इस विधि का उपयोग प्रमुख रूप से क्षेत्रफल ज्ञात करने के लिए किया जाता है। क्षेत्रों की सीमा निर्धारित करने में भी इस विधि को अपनाया जाता है। उदाहरण के लिए, जब भूमि का बँटवारा करना होता है तो यही विधि प्रयुक्त की जाती है।

चेन-टेप सर्वेक्षण के उपयोग के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ
Favourable Conditions for Chain and Tape Surveying

चेन-टेप द्वारा सर्वेक्षण निम्नलिखित परिस्थितियों में अधिक उपयोगी रहता है –

  1. क्षेत्रीय सीमा निर्धारण में।
  2. भूमि के विभाजन में।
  3. जब अधिक शुद्धता की आवश्यकता हो।
  4. विकास योजनाओं हेतु आँकड़ों के संग्रहण में।
  5. जब समय की अधिकता हो।
  6. अन्य सर्वेक्षण यन्त्र एवं उपकरण उपलब्ध न हों।
  7. जब मानचित्र में कुछ ही विवरण प्रदर्शित किये जाने हों।
  8. जब विस्तृत भू-भागों का शीघ्र सर्वेक्षण करना हो।

चेन-टेप सर्वेक्षण में प्रयुक्त किये जाने वाले उपकरण
Equipments Used in Chain and Tape Surveying

(1) चेन या जरीब (Chain) – जरीब इस्पात की बनी होती है जो विभिन्न लम्बाई की होती है। यह छोटे-छोटे भागों में विभक्त होती है। सबसे छोटे भाग को कड़ी कहते हैं। ये कड़ियाँ एक-दूसरे से छल्लों द्वारा जुड़ी होती हैं। जरीब के दोनों किनारों पर पीतल की मुठियाँ लगी होती हैं, जिन्हें पकड़कर जरीब को खींचते हैं। जरीब में विभिन्न दूरियों पर विभिन्न प्रकार के सूचक लगे होते हैं जिससे दूरियाँ पढ़ने में आसानी रहती है। जरीब निम्नलिखित प्रकार की होती है –

(i) इन्जीनियर्स जरीब (Engineer’s Chain) – यह जरीब 100 फीट लम्बी होती है जिसमें 100 ही कड़ियाँ होती हैं जिसमें प्रत्येक कड़ी की लम्बाई 1 फुट होती है। प्रत्येक 10 कड़ी के बाद पीतल का एक सूचक लगा होता है जिससे कड़ियाँ गिनने में आसानी रहती है।
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(ii) गण्टर्स जरीब (Gunter’s Chain) – यह जरीब 66 फीट लम्बी होती है। जिसमें 100 कड़ियाँ होती हैं। प्रत्येक कड़ी की लम्बाई 0.66 फुट या 7.92 इंच होती है। प्रत्येक 10वीं कड़ी पर पीतल का एक सूचक लगा होता है। इस जरीब द्वारा खेतों का क्षेत्रफल सुगमता से नापा जा सकता है, क्योंकि 10 वर्ग जरीब एक एकड़ के बराबर होती है। हमारे देश में लेखपाल भूमि की नाप के लिए इसी जरीब को उपयोग में लाते हैं।

(iii) रेवेन्यू जरीब (Revenue Chain) – यह जरीब 33 फीट लम्बी होती है जिसमें केवल 16 कड़ियाँ होती हैं तथा प्रत्येक कड़ी 21 फीट के बराबर होती है। पहले लेखपालों द्वारा इसी जरीब का प्रयोग खेतों की नाप के लिए किया जाता था, परन्तु छोटी होने के कारण इसका प्रयोग बन्द कर दिया गया है।

(iv) मीट्रिक जरीब (Metric Chain) – मीट्रिक प्रणाली के प्रचलन के कारण इस जरीब का प्रयोग किया जाने लगा है। यह 30 मीटर लम्बी होती है जिसमें प्रत्येक कड़ी 0.3 मीटर अथवा 30 सेमी की होती है। प्रत्येक 10 कड़ियों के बाद पीतल का एक सूचक लगा होता है।

(2) फीता (Tape) – इस सर्वेक्षण में फीता एक आवश्यक उपकरण है। यह कपड़े, प्लास्टिक, धातु आदि के बने होते हैं। फीतों की लम्बाई भिन्न-भिन्न होती है; जैसे—25 फीट, 50 फीट, 100 फीट अथवा 15 मीटर, 30 मीटर आदि। भार में हल्का होने के कारण जरीब के स्थान पर फीते का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। यह चमड़े के एक गोल डिब्बे में लिपटा होता है। इसके एक सिरे पर पीतल की एक घुण्डी लगी होती है जिसकी सहायता से इसे दूर तक फैलाया जा सकता है।
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(3) लक्ष्य दण्ड (Ranging Rod) – लक्ष्य दण्ड का उपयोग धरातलीय बिन्दुओं की ओर अधिक दृष्टिगोचर करने के लिए किया जाता है। इनकी लम्बाई 6 से 10 फीट तक होती है। इसके प्रत्येक फीट के भाग को विरोधी रंग से रँग दिया जाता है जिससे दूरी स्पष्ट दिखलाई पड़े। इन्हें रंगने में लाल, हरे, काले तथा सफेद रंग का प्रयोग किया जाता है। यह लकड़ी अथवा लोहे के बने होते हैं। कभी-कभी इनके ऊपरी सिरे पर लाल रंग की झण्डियाँ भी लगा दी जाती हैं।

(4) तीर (Arrows) – यह लोहे के बने होते हैं जिनका एक सिरा मुड़ा हुआ तथा दूसरा सिरा नुकीला होता है जिससे इसे भूमि में आसानी से गाड़ा जा सके। इनकी लम्बाई 1 फीट से 1.5 फीट तक होती है। यह जरीब की दूरियों को गिनने में सहायक होते हैं। जरीबों की संख्या अथवा धरातल की लम्बाई तीर गिनकर करते हैं।

(5) चुम्बकीय दिक्सूचक (Magnetic Compass) – इसे कुतुबनुमा भी कहा जाता है। इसकी सहायता से सर्वेक्षण करते समय उत्तर दिशा निर्धारित की जाती है। जरीब रेखा के सहारे उत्तर दिशा ज्ञात कर ली जाती है। इस यन्त्र में एक सुई लगी होती है जिसके एक सिरे पर N अंकित रहता है जो उत्तर दिशा का संकेतक है।
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(6) समकोणात्मक दर्पण (Optical Square) – यह धातु का बना एक डिब्बेनुमा यन्त्र होता है। इसकी दोनों भुजाओं पर दो शीशे 45° के कोण पर लगे होते हैं। इसका उपयोग जरीब रेखा के ऊपर खड़े होकर लक्ष्य बिन्दु से समकोणात्मक स्थिति ज्ञात करने में होता है।

(7) समकोणमापदण्ड (Cross Staff) – इस यन्त्र का उपयोग भी जरीब रेखा से लक्ष्य बिन्दुओं की संमकोणात्मक स्थिति ज्ञात करने के लिए किया जाता है। इस यन्त्र में एक-दूसरे से समकोण बनाते हुए दो दर्श रेखक दण्ड लगे होते हैं। यह शुद्ध स्थिति का बोध नहीं कर पाता; अत: इसका उपयोग सीमित है।
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(8) क्षेत्र-पुस्तिका (Field-Book) – इसे सर्वेक्षण पुस्तिका भी कहा जाता है। इसमें सर्वेक्षण की गयी सभी मापें अंकित की जाती हैं जिससे प्रयोगशाला में उस क्षेत्र का शुद्ध मानचित्र बनाया जा सके। क्षेत्र-पुस्तिका में जितनी शुद्ध माप अंकित की जाएगी, उतना ही शुद्ध उस क्षेत्र का मानचित्र होगा।
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(9) अन्य उपकरण (Other Instruments) – उपर्युक्त यन्त्रों के अतिरिक्त पेन्सिल, रबड़, मापक, चॉदा आदि की भी जरीब एवं फीते द्वारा सर्वेक्षण में आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 2
जरीब-फीते (Chain-Tape) द्वारा सर्वेक्षण प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए तथा इस विधि के गुण-दोषों का भी वर्णन कीजिए।
उत्तर

चेन-टेप द्वारा सर्वेक्षण प्रक्रिया
Surveying Process by Chain and Tape

चेन-टेप सर्वेक्षण प्रक्रिया निम्नलिखित विधियों द्वारा की जाती है –
(1) उपकरणों की जाँच तथा पर्याप्त सर्वेक्षक दल – सर्वेक्षण प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व सभी यन्त्रों एवं उपकरणों की जाँच कर लेनी चाहिए तथा समस्त आवश्यक उपकरण लेकर ही क्षेत्र में पहुँचना। चाहिए। साथ ही सर्वेक्षण के लिए तीन व्यक्तियों का दल अवश्य होना चाहिए। एक, जरीब को खींचकर आगे-आगे चलने वाला नायक (Leader); दूसरा, उसके पीछे चलने वाला अनुगामी (Follower) और तीसरा, क्षेत्र-पुस्तिका पर नाप लिखने वाला क्षेत्र-पुस्तिका लेखक (Field Book Writer)।

(2) क्षेत्र का निरीक्षण – सर्वप्रथम जिस क्षेत्र का सर्वेक्षण करना होता है, उसका भली-भाँति निरीक्षण कर लेना चाहिए। इसके साथ ही क्षेत्र की बाह्य सीमा पर झण्डियाँ आदि गाड़ देनी चाहिए। सर्वेक्षण क्षेत्र की सीमा को ध्यान में रखते हुए कुछ मुख्य एवं गौण बिन्दुओं का निर्धारण धरातल पर लेते हैं तथा इसी आधार पर क्षेत्र का एक अनुमानित रेखाचित्र बना लेते हैं। यह अनुमानित रेखाचित्र क्षेत्रीय निरीक्षण के आधार पर तैयार किया जाता है।

(3) दिशा निर्धारण – सर्वेक्षण आरम्भ करने से पहले चुम्बकीय दिक्सूचक की सहायता से उत्तर दिशा ज्ञात कर लेनी चाहिए तथा उत्तर की ओर तीर का निशान (↑) बनाकर उस पर उत्तर अथवाN लिख देना चाहिए।

(4) दूरियाँ ज्ञात करना – जरीब पर अवस्थानों की प्रलम्ब दूरियाँ लेनी चाहिए। फीता जब शरीर पर 90° का कोण बनाता है तो वह दूरी प्रलम्बे दूरी (off-sets) कहलाती है। फीते को जरीब पर चापवत् घुमाकर एक दूरी ज्ञात की जा सकती है।

(5) बन्ध रेखा तथा जाँच रेखा (Tie Line and Check Line) – दो जरीब रेखाओं पर निश्चित बिन्दुओं को बन्ध स्टेशन कहते हैं। इन दोनों बिन्दुओं को मिलाने वाली रेखा ही टाइ रेखा या बन्ध रेखा कहलाती है। जब दूरी अधिक होती है तब लम्बवत् दूरी न लेकर प्रमुख बिन्दुओं की दूरी बन्ध रेखा की। सहायता से नापते हैं। इन रेखाओं की आवश्यकता जरीब द्वारा खुले तथा बन्द, दोनों ही प्रकार के सर्वेक्षण में पड़ती है।
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जाँच रेखाएँ कभी-कभी चेन द्वारा सर्वेक्षण का अंकन कागज पर पूर्ण हो जाने के पश्चात् अशुद्धि आदि की जाँच करती है। इसमें त्रिभुज की दो भुजाओं पर दो बिन्दुओं को मिला देते हैं तथा इस रेखा की दूरी मापक द्वारा नाप लेते हैं तथा उसे फीट में परिवर्तित करने के बाद क्षेत्र में नापी गयी दूरी से मिलान करते हैं। यदि दोनों दूरियाँ समान हैं तो सर्वेक्षण कार्य शुद्ध है। भू-मापन की शुद्धि इससे ज्ञात होती जाती है। इसी कारण जाँच रेखाओं को पूफ रेखा (Proof lines) भी कहा जाता है।

(6) क्षेत्र-पुस्तिका लिखना – जरीब द्वारा ज्ञात की हुई भू-मापन की माप को क्षेत्र-पुस्तिका में अंकित करते जाते हैं ताकि प्रयोगशाला में उन आँकड़ों से सर्वेक्षित क्षेत्र का मानचित्र बना सकें। क्षेत्र-पुस्तिका में निम्नलिखित दो प्रकार की मापें लिखी जाती हैं –
(i) नीचे से ऊपर को अर्थात् मध्य में जरीब की क्षैतिज दूरियाँ तथा
(ii) दायें-बायें दोनों ओर लक्ष्य बिन्दुओं की लम्बवत् दूरियाँ।
ऊपर दूरियाँ फीट या मीटर में लिखी जाती हैं। सबसे ऊपर जरीब की कुल दूरी का योग लिखा जाता है। दूरियाँ जरीब फैलाने की दिशा में खड़े होकर तुरन्त एवं शुद्ध लिखनी चाहिए। जितनी सही क्षेत्र-पुस्तिका होगी, मानचित्र उतना ही सही बनेगा।

(7) आलेखन करना (Plotting) – भू-सर्वेक्षण से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर एक उचित मापक लेकर समतल कागज पर अंकित करने की प्रक्रिया आलेखन (Plotting) कहलाती है। यह प्रक्रिया सर्वेक्षण की अन्तिम तथा महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसे प्रयोगशाला में सम्पन्न किया जाता है।

सर्वेक्षण की विधियाँ
Methods of Surveying

जरीब-फीते द्वारा सर्वेक्षण की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं –
(I) त्रिभुजीकरण विधि (Triangulation Method) – इस विधि में क्षेत्र को त्रिभुजों में विभाजित करके सर्वेक्षण किया जाता है।
(II) चक्रमण-विधि (Traversing Method) – इस विधि के अन्तर्गत सर्वेक्षण करते हुए धीरेधीरे आगे बढ़ते हैं। इसमें आधार रेखा पर लक्ष्यों की कोणात्मक लम्ब दूरियाँ ली जाती हैं। दिशा और मोड़ को बन्ध रेखाओं की सहायता से निर्धारित करना पड़ता है। यह निम्नलिखित दो प्रकार का होता है

(1) खुला चलन सर्वेक्षण (Open Traverse Survey) – इस विधि में एक स्थान से सर्वेक्षण प्रारम्भ कर उस स्थान पर ही वापस नहीं आते हैं, बल्कि दूसरे बिन्दु पर समाप्त कर देते हैं। इससे जरीब पर लम्बवत् दूरियाँ ज्ञात की जाती हैं। यह विधि लम्बाई में फैले क्षेत्रों-रेलमार्ग, सड़क, नदी अथवा सँकरे क्षेत्रों के लिए प्रयुक्त की जाती है।
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(2) बन्द चलन सर्वेक्षण (Closed Traverse Survey) – इस विधि में जिस स्थान से सर्वेक्षण आरम्भ करते हैं, उसी स्थान पर आकर समाप्त करते हैं। विस्तृत क्षेत्रों के सर्वेक्षण में इस विधि का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक आधार रेखा के लिए पृथक् क्षेत्र-पुस्तिका लिखी जाती है। ऐसी स्थिति का निर्धारण बन्ध रेखा तथा जाँच रेखा द्वारा किया जाता है।
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जरीब-फीते द्वारा सर्वेक्षण में आने वाली बाधाओं का निराकरण
Solution of Problems in Chain and Tapes Surveying

जरीब-फीते द्वारा भू-मापन करते समय अनेक बाधाएँ आ जाती हैं। उनका समुचित निराकरण बहुत आवश्यक होता है। सर्वेक्षण में निम्नलिखित बाधाएँ आती हैं –
(1) ढालू भूमि – ढालू भूमि का सर्वेक्षण करते समय भूमि की क्षैतिज दूरियाँ नापने में कठिनाई होती है। इस कठिनाई का निराकरण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है –

  1. ढालू भूमि पर सुविधानुसार तीन या । चार लम्बदण्ड गाड़ देने चाहिए।
  2. सबसे आगे वाले लम्बदण्ड के ठीक नीचे जरीब का एक सिरा तीर की सहायता । से स्थिर कर देना चाहिए।
  3. जरीब का सिरा ढालू भूमि पर गडे हुए लम्बदण्ड के साथ ऐसे सटाकर रखना चाहिए कि जरीब लम्बदण्ड के साथ समकोण बनाये।
  4. दोनों लम्बदण्डों की क्षैतिज दूरी ज्ञात कर लेनी चाहिए।
  5. यह प्रक्रिया शेष लम्बदण्डों के साथ करके प्राप्त आँकड़ों को संयुक्त कर लेना चाहिए। ढालू भूमि की यह क्षैतिज दूरी होगी।

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(2) तालाब या भवन – यदि सर्वेक्षण करते समय क्षेत्र के बीच कोई तालाब या भवन की बाधा आ खड़ी हो तो उसका निराकरण निम्नलिखित प्रकार से करना चाहिए –

  1. तालाब या भवन के दो छोरों पर दो अवस्थान अर्थात् स्टेशन निर्धारित कर लेने चाहिए।
  2. समकोण दण्ड की सहायता से उन दोनों अवस्थानों को मिलाने वाली रेखा पर समान दूरी से लम्ब डालने चाहिए।
  3. दोनों समकोणों के बीच की दूरी ज्ञात कर लेनी चाहिए। यही तालाब या भवन की वास्तविक क्षैतिज दूरी होगी।

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(3) नदी या नाला – सर्वेक्षण करते समय किसी नदी या नाले की भी बाधा उत्पन्न हो सकती है। इसकी चौड़ाई को निम्नलिखित प्रकार से ज्ञात करके तालाब या नदी की बाधा का निराकरण हो सकता है –

  1. नदी या नाले के किनारे खड़े होकर समतल स्थान पर एक लम्बदण्ड ‘क’ गाड़ देना चाहिए।
  2. इसके ठीक सामने नदी के दूसरे किनारे पर कोई वृक्ष या टीला ‘ख’ निर्धारित कर लेना चाहिए।
  3. इस ओर लम्बदण्ड से लगभग 20 फीट आगे चलकर दूसरा दण्ड ‘ग’ गाड़ देना चाहिए।
  4. इन दोनों लम्बदण्डों के मध्य में अन्य लम्बदण्ड ‘भ’ गाड़ देना चाहिए।
  5. 20 फीट वाले लम्बदण्ड की सीध में एक अन्य लम्बदण्ड ‘घ’ इस प्रकार गाड़ देना चाहिए कि ‘ख’, ‘भ’ तथा ‘घ’ तीनों एक ही सीध में हो जाएँ।
  6. ग तथा ‘घ के मध्य की दूरी नदी या नाले की चौड़ाई को प्रकट करेगी।

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जरीब-फीते द्वारा सर्वेक्षण के गुण-दोष
Merits and Demerits of Chain and Tape Surveying

गुण – जरीब-फीते द्वारा सर्वेक्षण विधि में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं –

  1. छोटे एवं समतल क्षेत्रों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ विधि है।
  2. जरीब-फीते द्वारा सर्वेक्षण करना सरल और सुगम है। इसके लिए अधिक अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है।
  3. जरीब-फीते द्वारा सर्वेक्षण कम खर्चीला होता है, क्योंकि इसमें साधारण उपकरण ही प्रयुक्त किये जाते हैं।
  4. इसमें अन्य उपकरणों की अपेक्षा त्रुटि की सम्भावना बहुत कम है।
  5. इस विधि से क्षेत्र-पुस्तिका के विवरण के आधार पर मानचित्र सरलता से बना लिया जाता
  6. इस विधि में मानचित्र की सहायता से क्षेत्रफल सुगमता से ज्ञात हो सकता है, जबकि अन्य विधियों में ऐसा होना असम्भव है।

दोष – इस विधि द्वारा सर्वेक्षण में निम्नलिखित दोष हैं –

  1. जरीब लोहे की बनी होने के कारण बार-बार खींचने तथा पटकने से टेढ़ी हो जाती है, जिससे माप अर्थात् लम्बाई में कमी आ सकती है।
  2. ऊँचे-नीचे तथा ढालू क्षेत्रों में जरीब द्वारा शुद्ध भू-मापन में कठिनाई आती है।
  3. जरीब-फीते द्वारा भू-मापन में समय अधिक लगता है जिससे यह कार्य थका देने वाला होता है।
  4. बड़े-बड़े क्षेत्रों के लिए यह विधि अनुपयोगी एवं कठिन होती है।
  5. कभी-कभी जरीब की दूरियाँ पढ़ने में त्रुटि भी हो सकती है।
  6. इस विधि द्वारा सर्वेक्षण करने के बाद प्रयोगशाला में मानचित्र बनाने का कार्य अलग से करना पड़ता है।
  7. जरीब की लम्बाई पर तापमान का प्रभाव भी पड़ता है जिससे भू-मापन में त्रुटि आ सकती है।

प्रश्न 3
समतल मेज (Plane Table) सर्वेक्षण में कौन-कौन से उपकरण आवश्यक होते हैं? इस यन्त्र द्वारा सर्वेक्षण विधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर

समतल मेज सर्वेक्षण
Plane Table Surveying

सर्वेक्षण की यह एक लेखाचित्रीय विधि (Graphical Method) है। इस विधि में क्षेत्र मापन एवं आलेखन (Plotting) साथ-साथ सर्वेक्षण क्षेत्र में ही हो जाता है।
समतल मेज सर्वेक्षण विधि के निम्नलिखित गुण होते हैं –

  1. यह विधि अधिक शुद्ध एवं सरल होती है।
  2. इस विधि में मानचित्र सर्वेक्षण के साथ-साथ क्षेत्र में ही तैयार हो जाता है। इसी कारण इसमें त्रुटियों की सम्भावना कम रहती है। यदि त्रुटि हो भी जाए तो उसे क्षेत्र में ही दूर कर लिया जाता है।
  3. इसमें सर्वेक्षण कार्य शीघ्रता से सम्पन्न हो जाता है, क्योंकि इसमें केवल आधार रेखा को ही मापना होता है। अन्य क्षैतिज रेखाओं को मापने की आवश्यकता नहीं होती है तथा न ही क्षेत्र-पुस्तिका बनाने की आवश्यकता पड़ती है।
  4. सर्वेक्षण की इस विधि में पूरा कार्य क्षेत्र में ही पूर्ण कर लिया जाता है। अतः सर्वेक्षणकर्ता क्षेत्र में ही तथ्यों की तुलना कर सकता है तथा भूल का सुधार भी क्षेत्र में ही खड़े-खड़े कर लिया जाता है।
  5. इस सर्वेक्षण में आवश्यकतानुसार सर्वेक्षण कार्य कभी भी रोका जा सकता है तथा पुन: प्रारम्भ किया जा सकती है।

समतल मेज सर्वेक्षण में आवश्यक उपकरण
Required Equipments in Plane Table Surveying

समतल मेज सर्वेक्षण में निम्नलिखित उपकरणों की आवश्यकता होती है –
(1) समतल मेज तथा त्रिपाद (Plane Table and Tripod) – समतल मेज लकड़ी से निर्मित एक प्रकार का समतल ड्राइंगबोर्ड होता है जिसे त्रिपाद पर एक पेंच की सहायता से कसा जा सकता है। तथा अलग किया जा सकता है। यह पट्ट 40×25 सेमी या 50×40 सेमी या 75×55 सेमी आदि नाप का होता है। त्रिपाद की तीन समान टाँगें होती हैं जिन्हें आवश्यकतानुसार इधर-उधर हटाया जा सकता है।
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(2) दर्शरेखक (Alidade) – यह एक उपयोगी उपकरण है जो लकड़ी या धातु का बना होता है। इसकी लम्बाई 30 से 45 सेमी तक होती है। इसके एक छोर पर मापक बना होता है। दर्श रेखक के दोनों सिरों पर 8 सेमी लम्बे दो फलक लगे होते हैं जो एक कब्जे द्वारा इससे जुड़े होते हैं, जिन्हें आवश्यकतानुसार ऊपर-नीचे किया जा सकता है। एक फलक में एक लम्बवत् खिड़की बनी होती है, जिसे दृष्टक फलक (Eye vane) कहते हैं तथा दूसरे फलक की खिड़की में एक तार या धागा लगा होता है, जिसे दृश्य फलक (Object vane) कहते हैं। दर्श रेखक का प्रयोग करते समय उसे समतल मेज पर गाड़ी हुई आलपिन से सटाकर रखते हैं तथा दृष्टक फलक, दृश्य फलक के तार एवं धरातल के बिन्दु को। एक सीध में मिलाकर किरणें खींचते हैं।

(3) स्प्रिट लेविल (Spirit Level) – इस यन्त्र का प्रयोग मेज को समतल करने में किया जाता है। यह लकड़ी के एक आयताकार डिब्बे में एक ट्यूब के रूप में होता है जिसमें स्प्रिट भरी होती है। इसमें वायु का एक बुलबुला होता है अर्थात् ट्यूब में कुछ स्थान रिक्त छोड़ दिया जाता है। ट्यूब के ऊपर एक समतलन प्रक्रिया के लिए संकेत बना रहता है। जब बुलबुला इस संकेतक के बीच में आ जाता है, तब मेज समतल हो जाती है।
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(4) दिक्सूचक (Compass) – विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 देखें।

(5) साहुल एवं चिमटा (Plumb Bob with Fork) – यह एक सामान्य-सा उपकरण होता है जिसका प्रयोग समतल मेज को किसी स्थान पर केन्द्रित करने के लिए किया जाता है। साहुल लोहे का बना होता है जो शंक्वाकार होता है जिसमें ऊपर की ओर धागा बँधा होता है। यह धागा चिमटे से बँधा होता है। इसके द्वारा धरातलीय बिन्दु समतल मेज पर स्थापित ड्राइंगशीट पर निश्चित किया जाता है।
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(6) फीता (Tape) – विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 देखें।
(7) लक्ष्य दण्ड (Ranging Rod) – विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 देखें।
(8) तीर (Arrows) – विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 1 देखें।
(9) अन्य सामग्री (Other Materials) – उपर्युक्त उपकरणों के अतिरिक्त ड्राइंगशीट, पेन्सिल, रबड़, आलपिन, बोर्ड पिन आदि उपकरण आवश्यक होते हैं।

समतल मेज द्वारा सर्वेक्षण प्रक्रिया
Surveying Process by Plane Table

समतल मेज द्वारा सर्वेक्षण करते समय निम्नलिखित प्रक्रियाएँ करनी आवश्यक होती हैं –

  1. आधार-रेखा का चयन
  2. समतल मेज पर ड्राइंगशीट चढ़ाना
  3. सर्वेक्षण मेज की स्थापना –
    • त्रिपाद पर समतल मेज को स्थिर करना,
    • संकेद्रण (Centering) करना तथा
    • समतलन (Levelling) करना
  4. समतल पट्ट का अभिस्थापन (Orientation)
  5. धरातल के विभिन्न बिन्दुओं के लिए किरणें खींचना

समतल मेज का स्थापन
Setup of Plane Table

समतल मेज का स्थापन सर्वेक्षण क्षेत्र में किसी सुविधाजनक स्थान पर त्रिपाद की सहायता से इस प्रकार किया जाता है कि मेज से सभी धरातलीय बिन्दु स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हों। तत्पश्चात् मेज पर बोर्ड पिन की सहायता से ड्राइंगशीट लगायी जाती है। अब स्प्रिट लेविल की सहायता से मेज के त्रिपाद की टाँगों को खिसकाकर समतलन की क्रिया कर लेते हैं। समतल मेज के एक कोने में दिक्सूचक की सहायता से उत्तर दिशा अंकित कर दी जाती है। समतल मेज पर एक बिन्दु ‘क’ लेकर उसका धरातल से। केन्द्रीयकरण साहुल एवं चिमटे की सहायता से कर लेना चाहिए जिससे कागज के ‘क’ बिन्दु की स्थिति धरातल पर ज्ञात हो जाये। इसके बाद धरातल के इस ‘क’ बिन्दु से आधार-रेखा का चुनाव करते हैं। आधार-रेखा का चुनाव करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘क’ ‘ख’ बिन्दुओं से सम्पूर्ण क्षेत्र भली- भाँति दिखाई पड़ता हो। आधार रेखा की लम्बाई सर्वेक्षण किये जाने वाले क्षेत्र के अनुरूप ही होनी चाहिए। आधार-रेखा का स्थापन समतल क्षेत्र में किया जाना चाहिए जिससे दूरियाँ अधिक शुद्ध रूप में नापी जा सकें। अब ‘क’ बिन्दु से दर्श रेखक की सहायता से धरातल के बिन्दुओं की स्थिति देखकर किरणें डाल दी जाती हैं।

समतल मेज का अभिस्थापन
Re-setup of Plane Table

समतल मेज का अभिस्थापन निम्नलिखित दो प्रकार से किया जाता है –
(1) दिक्सूचक की सहायता द्वारा – जब मेज को प्रथम स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर रखा जाता है तो दिक्सूचक की सहायता से पुनः उत्तर दिशा प्राप्त कर ली जाती है।
(2) पश्चावलोकन द्वारा – जब मेज को पहले स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर रखा जाता है तो प्रथम स्थान पर लक्ष्य दण्ड गाड़ देते हैं तथा आधार रेखा के सहारे दर्श रेखक की सहायता से समतल मेज़ को घुमाकर एक सीध में कर लिया जाता है। इस दूसरे स्थान पर समतलीकरण एवं केन्द्रीकरण भी करना आवश्यक होता है।

समतल मेज के अभिस्थापन के बाद निम्नलिखित विधियों द्वारा सर्वेक्षण किया जा सकता है –
(1) विकिरण विधि (Radiation Method) – इस विधि का प्रयोग एक ही बिन्दु से सर्वेक्षण करने में किया जाता है। इसके लिए सर्वेक्षण क्षेत्र छोटा होना चाहिए। सर्वप्रथम क्षेत्र के मध्य में समतल मेज का स्थापन कर लिया जाता है तथा दर्श रेखक की सहायता से सर्वेक्षण बिन्दु से प्रमुख बिन्दुओं की ओर इंगित करते हुए किरणें खींच देते हैं। इसके साथ ही केन्द्रीयकरण बिन्दु से धरातलीय दूरियाँ फीते की सहायता से नाप लेते हैं। एक निश्चित मापक को मानकर ड्राइंगशीट पर इन दूरियों को काट लेते हैं, जो धरातल के बिन्दुओं का मानचित्र पर प्रदर्शन होता है। इन सभी बिन्दुओं को मिलाने से क्षेत्र का मानचित्र तैयार कर लिया जाता है।
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(2) प्रतिच्छेदन विधि (Inter-section Method) – इस विधि द्वारा किरणों के पारस्परिक प्रतिच्छेदन द्वारा विभिन्न धरातलीय स्थानों को ड्राइंगशीट पर अंकित कर लिया जाता है। इसी कारण इसे प्रतिच्छेदन विधि कहा जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम एक आधार-रेखा का चुनाव किया जाता है। पुन: इस आधार-रेखा के दोनों बिन्दुओं से सर्वेक्षित क्षेत्र के विभिन्न बिन्दुओं को प्रकट करने वाली किरणों को खींच दिया जाता है। यही ड्राइंगशीट पर सर्वेक्षित बिन्दुओं की स्थिति होगी। यह विधि सर्वोत्तम है तथा सर्वाधिक प्रचलित है। यह ध्यान रखना होता है कि समतलीकरण, केन्द्रीकरण तथा उत्तर दिशा का निर्धारण समतल मेज के स्थापन तथा अभिस्थापन में कर लिया गया है, तत्पश्चात् ही किरणें खींची गयी हैं। इस आधार पर सर्वेक्षण क्रिया से प्राप्त मानचित्र शुद्ध होगा।
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इन विधियों के अतिरिक्त दो विधियाँ और हैं, जो निम्नलिखित हैं –
(3) रेखांकन या चलन विधि (Traverse Method) –
(अ) खुला चलन सर्वेक्षण (Opened Traverse Surveying) एवं
(ब) बन्द चलन सर्वेक्षण (Closed Traverse Surveying)।

(4) स्थिति निर्धारण अथवा परिच्छेदन विधि (Resection Method)
(अ) दो बिन्दु समस्या (Two Point Problem) एवं
(ब) तीन बिन्दु समस्या (Three Point ङ्ग Problem)।
इस समस्या के निदान के लिए स्थिति का निर्धारण तीन प्रकार से किया जा सकता है –

  • लेखाचित्रीय विधि (Graphical Method)
  • यान्त्रिक विधि (Mechanical Method)
  • त्रुटि-त्रिभुज अथवा पुन: परीक्षा की विधि (Triangle of Error Method)

स्थिति निर्धारण अथवा परिच्छेदन विधि-का विस्तृत विवरण पाठ्यक्रम में नहीं दिया गया है।
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मौखिक परिक्षा : सम्भावित प्रश्न

प्रश्न 1
सर्वेक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
सर्वेक्षण वह कला है जिसके द्वारा धरातल के विभिन्न बिन्दुओं की सापेक्षिक दूरी को मापक के अनुसार समतल कागज पर प्रदर्शित किया जाता है।

प्रश्न 2
सर्वेक्षण कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर
सर्वेक्षण दो प्रकार के होते हैं – (अ) भू-पृष्ठीय सर्वेक्षण (Geodetic Survey) तथा
(ब) समतल सर्वेक्षण (Plane Survey)।

प्रश्न 3
सर्वेक्षण का उद्देश्य क्या है?
उत्तर
सर्वेक्षण का प्रमुख उद्देश्य किसी भूभाग का मानचित्र अथवा फोटो तैयार करना है।

प्रश्न 4
जरीब कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर
जरीब चार प्रकार की होती हैं –

  1. इन्जीनियर्स जरीब-100 फीट लम्बी
  2. गण्टर्स जरीब-66 फीट लम्बी
  3. रेवेन्यू जरीब-33 फीट लम्बी तथा
  4. मीटर जरीब-30 मीटर लम्बी।

प्रश्न 5
जरीब एवं फीता सर्वेक्षण से क्या तात्पर्य है? उत्तर जरीब एवं फीते की सहायता से किसी क्षेत्र का भू-मापन जरीब एवं फीता सर्वेक्षण कहलाता है।

प्रश्न 6
सर्वेक्षण में अधिकांशतः किस जरीब का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर
सर्वेक्षण में अधिकांशत: इन्जीनियर्स जरीब का प्रयोग किया जाता है।

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प्रश्न 7
लक्ष्य दण्ड को विभिन्न रंगों से क्यों रँगा जाता है?
उत्तर
जिससे कि दूरवर्ती स्थान भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो सके।

प्रश्न 8
चुम्बकीय कम्पास की क्या उपयोगिता है?
उत्तर
इसका उपयोग मानचित्र में उत्तर दिशा का निर्धारण करने में किया जाता है।

प्रश्न 9
जरीब-फीता सर्वेक्षण में चैक लाइन का क्या उपयोग है?
उत्तर
चैक लाइन इस सर्वेक्षण की शुद्धता की जाँच के लिए खींची जाती है।

प्रश्न 10
टाइ लाइन का क्या अर्थ है?
उत्तर
दो जरीब रेखाओं द्वारा निर्मित कोण को सही निर्धारण करने के लिए पहली जरीब रेखा पर दूसरी जरीब रेखा के झुकावे को निश्चित करने वाली रेखा टाइ रेखा कहलाती है।

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प्रश्न 11
समतल मेज सर्वेक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
समतल मेज सर्वेक्षण, सर्वेक्षण की वह आरेखीय विधि है जिसमें सर्वेक्षण तथा आलेखन दोनों कार्य सर्वेक्षण क्षेत्र में ही एक साथ हो जाते हैं।

प्रश्न 12
समतल मेज सर्वेक्षण में स्प्रिट लेविल का क्या उपयोग है?
उत्तर
समतल मेज सर्वेक्षण में स्प्रिट लेविल मेज की समतलीकरण क्रिया करने में उपयोग में लाया जाता है।

प्रश्न 13
समतल मेज द्वारा सर्वेक्षण करने की कौन-कौन-सी विधियाँ हैं?
उत्तर
समतल मेज सर्वेक्षण करने की चार विधियाँ निम्नवत् हैं –

  1. विकिरण विधि (Radiation Method)
  2. प्रतिच्छेदन विधि (Intersection Method)
  3. रेखांकन या चलन विधि (Traverse Method) तथा
  4. स्थिति निर्धारण अथवा परिच्छेदन विधि (Resection Method)।

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प्रश्न 14
किरण किसे कहते हैं?
उत्तर
समतल मेज पर दर्श रेखक की सहायता से किसी लक्ष्य बिन्दु के लिए खींची जाने वाली सरल रेखा को किरणें (Rays) कहते हैं।

प्रश्न 15
केन्द्रीकरण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
साहुल तथा चिमटे की सहायता से धरातल के निर्धारण बिन्दु को ड्राइंगशीट पर अंकित करने की प्रक्रिया केन्द्रीकरण कही जाती है।

प्रश्न 16
समतल मेज के अभिस्थापन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
समतल मेज को क्षेत्र में स्थापित कर समतल करना तथा चुम्बकीय उत्तर को निर्धारित करने की क्रिया स्थापन कहलाती है।

प्रश्न 17
समतल मेज का पुनस्र्थापन किसे कहा जाता है?
उत्तर
समतल मेज को प्रथम स्थान से उठाकरे दूसरे अभिस्थापन पर समतलीकरण एवं केन्द्रीकरण क्रिया द्वारा स्थापित करना पुनस्र्थापन कहा जाता है।

प्रश्न 18
समतल मेज सर्वेक्षण विधि की क्या विशेषताएँ हैं?
उत्तर
समतल मेज सर्वेक्षण विधि की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

  1. यह विधि अधिक सरल एवं शुद्ध होती है।
  2. इस विधि द्वारा सर्वेक्षण करने में कम समय लगता है।
  3. इसमें केवल आधार-रेखा ही मापी जाती है।
  4. क्षेत्र-पुस्तिका तथा अन्य लक्ष्य स्थानों के कोण आदि बनाने की आवश्यकता नहीं होती है।
  5. इस विधि द्वारा सर्वेक्षण करने में केवल दो व्यक्तियों की ही आवश्यकता होती है।।
  6. इसमें आलेखन का कार्य सर्वेक्षण क्षेत्र में सर्वेक्षण के साथ ही पूरा हो जाता है; अत: त्रुटियाँ कम होने की सम्भावना रहती है।
  7. यह विधि कम थकाने वाली होती है।

प्रश्न 19
समतल मेज सर्वेक्षण विधि के प्रमुख दोष क्या हैं?
उत्तर
समतल मेज सर्वेक्षण विधि के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं –

  1. इस सर्वेक्षण को तेज वायु, धूप एवं वर्षा ऋतु में करना कठिन होता है।
  2. इसका प्रयोग केवल समतल तथा खुले क्षेत्रों में ही ठीक रहता है।
  3. समतल मेज को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाने-ले जाने में कठिनाई होती है।
  4. बड़े क्षेत्रों का सर्वेक्षण करने में यह विधि अनुपयुक्त है।
  5. इस सर्वेक्षण में अनेक उपकरण होने से उनके क्षेत्र में खो जाने का भय रहता है।

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