UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography (Practical Work)
Chapter Chapter 2
Chapter Name Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन)
Number of Questions Solved 14
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
उच्चावच प्रदर्शन की विभिन्न विधियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर
धरातल सभी स्थानों पर एक-समान नहीं है। कहीं पर पर्वत, कहीं पर पठार तथा कहीं पर मैदान दिखाई पड़ते हैं। यदि धरातल ग्लोब पर सर्वत्र एक-समान होता तो उसे मानचित्र पर आसानी से प्रदर्शित किया जा सकता था, परन्तु धरातल के उच्चावचों से बहुत-सी विभिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। मानचित्र में उच्चावचों का चित्रण बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है जिससे सामान्य व्यक्ति भी पृथ्वी की। स्थलाकृतियों अथवा उसकी ऊँचाई-निचाई का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। मानचित्र पर पर्वत, घाटियाँ, दरें आदि के प्रदर्शन से क्षेत्र-विशेष की जानकारी सुगम हो जाती है।

धरातलीय विषमता को मानचित्र पर प्रदर्शित करना मानचित्र चित्रण की एक प्रमुख समस्या है। ऊपरी धरातल को प्रदर्शित करने के लिए स्थलाकृतिक मानचित्र (Topographical Maps) उपयोग में लाये जाते हैं। इन स्थलाकृतिक मानचित्रों में धरातल की ऊँचाई-निचाई प्रदर्शित की जाती है। इस प्रकार उच्चावचों के प्रदर्शन में अनके विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं। समय-समय पर इन विधियों की स्पष्टता का ध्यान रखकर इनमें बहुत से परिवर्तन किये जा रहे हैं। मानचित्रों पर उच्चावच प्रदर्शन के लिए कभी-कभी अनेक विधियों का मिश्रण भी प्रयुक्त कर लिया जाता है, क्योंकि कई विधियों के मिश्रण मिलकर मानचित्र की स्पष्टता में वृद्धि कर देते हैं। इस प्रकार मानचित्रों में उच्चावच प्रदर्शन के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है –
(1) चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods),
(2) गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) तथा
(3) मिश्रित विधियाँ (Mixed Methods)।

(1) चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods) – चित्र विधियों द्वारा उच्चावच के स्वरूपों का ज्ञान भर हो पाता है। इनके द्वारा उस स्थल-विशेष की ऊँचाई-निचाई एवं ढाल की सामान्य जानकारी प्राप्त हो जाती है। इन विधियों का मुख्य उद्देश्य धरातलीय स्वरूपों को अधिकाधिक दृष्टिगत बनाना है, परन्तु इन विधियों के द्वारा उस क्षेत्र की वास्तविक ऊँचाई का ज्ञान नहीं हो पाता है। चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन की निम्नलिखित प्रविधियाँ प्रमुख हैं –

(i) हैच्यूर या रेखीय छाया (Hachures) – इस विधि का आविष्कार सेना सम्बन्धी उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मेजर लेहमान द्वारा किया गया था। हैच्यूर वे रेखाएँ होती हैं जो अधिक से कम ढाल की ओर ऊँचाई दिखाने के लिए बनायी जाती हैं। तेज ढाल पर हैच्यूर रेखाएँ सघन बनायी जाती हैं, जबकि मन्द ढाल पर दूर-दूर या छिटकी हुई बनायी जाती हैं। ढाल जितना अधिक होगा, हैच्यूर रेखाएँ उतनी ही पास-पास होंगी। यदि भूपृष्ठ. के ढाल का कोण 45° से अधिक होगा तो वह स्थान पूर्णतया काला कर दिया जाता है। हैच्यूर रेखाएँ ढाल की दिशा में खींची जाती हैं। अतः ये रेखाएँ.समोच्च रेखाओं पर समकोण बनाती हैं। इन रेखाओं को देखकर एक सामान्य व्यक्ति भी स्थलाकृतियों की स्थिति एवं ढाल का ज्ञान आसानी से कर सकता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 1
इन रेखाओं के कई दोष भी हैं; जैसे- समुद्र-तल से ऊँचाई ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हो सकती है। दूसरे, ये रेखाएँ काले रंग से बनायी जाती हैं जिसके फलस्वरूप अन्य विवरण प्रदर्शित करना कठिन होता है। इसी कारण इन रेखाओं को भूरे रंग की विभिन्न आभाओं द्वारा दिखाया जाने लगा है। तीसरे लघु मापक मानचित्रों में हैच्यूर रेखाएँ बनाना अधिक कठिन होता है।

(ii) पर्वतीय छायाकरण विधि (Hili Shading Methods) – पर्वतीय छायाकरण विधि में ढाल जितना अधिक होगा, उतनी ही गहरी छाया होगी। जो भाग छाया में पड़ते हैं, उन्हें रंगों द्वारा हल्का या गाढ़ा रंग दिया जाता है। प्रकाशीय स्थिति के अनुसार इस विधि को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है –

(अ) ऊर्ध्वाधर प्रकाश विधि (Vertical Illumination) – इस विधि में ढाल जितना खड़ा होगा, छाया भी उतनी ही सघन होगी। पर्वत-शिखर, पठार, घाटियाँ एवं मैदान प्रकाश में रहते हैं; अतः इन्हें खाली छोड़ दिया जाता है। पहाड़ों के ढाल छाया में रहते हैं; अतः इन्हें काले रंग से ढाल की तीव्रता के अनुसार अधिक गहरे अथवा हल्की छाया में दिखाया जाता है।
(ब) तिर्यक प्रकाश विधि (Oblique Illumination)-इस स्थिति में प्रकाश उत्तरी-पश्चिमी सिरे से आता हुआ मान लिया जाता है। इसके प्रभाव से पूर्वी तथा दक्षिणी-पूर्वी ढाल छाया में रहते हैं तथा इन्हें ढाल की तीव्रता के अनुसार गहरा रँगा जाता है। पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी सिरे प्रकाश में रहने के कारण इन्हें खाली छोड़ दिया जाता है।
इस विधि का सबसे बड़ा दोष यह है कि हैच्यूर रेखाओं की भाँति इसमें ऊँचाई का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है।

(2) गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) – ये विधियाँ गणित के नियमों पर आधारित हैं। नवीन तकनीकी विकास के साथ-साथ पश्चिमी यूरोप एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में समुद्र-तल को आधार मानकर विभिन्न स्थलाकृतियों की ऊँचाइयाँ निश्चित की जाती हैं। फ्रांस में 18वीं शताब्दी में कैसिनी प्रथम के संरक्षण में यह प्रक्रिया व्यवस्थित रूप से प्रारम्भ हुई। वर्तमान समय में सर्वेक्षण द्वारा विभिन्न धरातलीय ऊँचाइयों को मानचित्र में अंकित किया जाता है। प्रमुख गणितीय विधियाँ निम्नवत् हैं –

(i) स्थानांकित ऊँचाइयाँ (Spot-heights) – जब विभिन्न स्थानों की ऊँचाई प्रकट की जाती है, तो इस विधि का प्रयोग किया जाता है। यह विधि सर्वेक्षण पर आधारित है। विभिन्न बिन्दुओं के निकट ही उनकी ऊँचाइयाँ अंकित कर दी जाती हैं। प्रायः बिन्दु पर्वत-शिखरों पर अंकित किये जाते हैं, अतएव घाटी वाले भागों की ऊँचाई ज्ञात करना कठिन हो जाता है। शिखर वाले भाग पर एक छोटे त्रिभुज का निर्माण कर उस स्थान की ऊँचाई लिख दी जाती है। यह विधि अधिक सन्तोषजनक नहीं है।

(ii) तल-चिह्न विधि (Bench-mark Method) – औसत समुद्र-तल से ऊँचाई ज्ञात कर जब किसी दीवार या स्तम्भ पर एक धातु की प्लेट या पट्ट लगाकर उस पर ऊँचाई अंकित कर दी जाती है तो इसे तल-चिह्न विधि कहते हैं। धातु की प्लेट के नीचे तीर लगा रहता है तथा तीर के नुकीले भाग के ऊपर उस स्थान की ऊँचाई अंकित कर दी जाती है। इस प्रकार तल-चिह्न किसी धरातलीय बिन्दु की ऊँचाई न बताकर दीवार आदि की ऊँचाई बताता है, जब कि स्थानांकित ऊँचाई में धरातल के उस भाग की ऊँचाई – अंकित रहती है, जहाँ वह बिन्दु अंकित है। तल-चिह्न बताने के लिए मानचित्र में B.M. शब्द का प्रयोग किया जाता है। रेलवे स्टेशन पर भी स्टेशन के नाम के नीचे तल-चिह्न की ऊँचाई मीटर में अंकित रहती है।

(iii) त्रिकोणमितीय अवस्थान विधि (Trig-point Method) – त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण करते समय क्षेत्र में दूर-दूर कुछ प्रारम्भिक स्टेशन स्थापित किये जाते हैं। ऐसे बिन्दुओं या स्टेशनों की समुद्र-तल से औसत ऊँचाई ज्ञात कर एक छोटी त्रिभुज में यह ऊँचाई लिख दी जाती है। ये स्टेशन प्रायः कई किमी दूर होते हैं और इनकी स्थिति निश्चित करते समय भू-वक्रता पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है।

(iv) समोच्च रेखा विधि (Contour Line Method) – समोच्च रेखाएँ वे रेखाएँ होती हैं जो मानचित्र पर स्थित समुद्र-तल से समान ऊँचाई मिलाने वाले भागों (बिन्दुओं) से होकर खींची जाती हैं। सामान्यतया पूर्व निश्चित तल समुद्र-तल ही माना जाता है। आवश्यकता पड़ने पर किसी अन्य तल को भी इसके स्थान पर सन्दर्भ तल माना जा सकता है। ऐसे तल को मिलाने वाली रेखा को ही आधार तलरेखा (Datum Plane) कहते हैं। प्रायः सभी देशों में औसत समुद्र-तल एक निश्चित स्थान की निश्चित समय पर अंकित समुद्र-तल की स्थिति बताने वाली सतह या रेखा होती है। भारत में यह रेखा चेन्नई में ज्वार के समय की औसत ऊँचाई वाली सतह या रेखा होती है। मानचित्र पर समोच्च रेखाओं के एक कोने में उसकी ऊँचाई अंकित कर दी जाती है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 2

समोच्च रेखाओं की विशेषताएँ
Characteristics of Contour Lines

समोच्च रेखाओं की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं –

  1. समोच्च रेखाएँ समान ऊँचाई वाले स्थानों को प्रदर्शित करने वाली रेखाएँ होती हैं, अर्थात् एक रेखा के सहारे-सहारे सर्वत्र एक-सी ऊँचाई होती है।
  2. जब ये रेखाएँ पास-पास होती हैं तो इनसे तीव्र ढाल एवं दूर-दूर होने पर मन्द ढाल का पता चलता है। इसी कारण पर्वतीय क्षेत्रों में समोच्च रेखाएँ जटिल तथा मैदानी क्षेत्रों में सरल होती हैं। सीधे खड़े ढाल (90°) पर समोच्च रेखाएँ एक-दूसरे से मिल जाती हैं।
  3. कमल के असमतल होने के कारण समोच्च, रेखाएँ वक्राकार होती हैं।
  4. शकाल के भौतिक स्वरूपों का आकार स्थान-स्थान पर परिवर्तनशील है। अत: इनकी सोच विशेष प्रकार की होंगी। ऐसे स्थल स्वरूपों को देखकर आसानी से धरातल की वास्तविक आकृतियों को समझा जा सकता है।
  5. मानचित्रों में समोच्च रेखाओं को भूरे रंग से प्रदर्शित किया जाता है।
  6. अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं की भाँति समोच्च रेखाएँ भी धरातलीय सन्दर्भ में काल्पनिक हैं, परन्तु भू-सर्वेक्षण द्वारा मानचित्र पर इन्हें निश्चित धरातलीय बिन्दुओं द्वारा खींचा जाता है। इसी कारण मानचित्रों में ये रेखाएँ बास्तविक लेती हैं।
  7. जल-प्रवाह प्रणाली, ढाल के अनुरूप होती है तथा समोच्च रेखाएँ ढाल के अनुप्रस्थ दिशा में खींची जाती हैं। अतः संमोच्च रेखाएँ सरिता एवं अन्य प्रवाह प्रणालियों को उनकी घाटी के आकार के अनुसार उन्हें काटती हुई खींची जाती हैं।
  8. समोच्च रेखा मानचित्र के किसी भाग के अनुप्रस्थ काट (Cross section) द्वारा धरातल का पार्श्व चित्र खींचा जा सकता है। ऐसे मानचित्रों की सहायता से अन्तर्दृश्यता (Intervisibility) ज्ञात की जा सकती है।
  9. किसी भी मानचित्र में समोच्च रेखाएँ न तो एक-दूसरे को काटती हैं एवं न ही बीच में समाप्त हो सकती हैं। ये रेखाएँ या तो एक भाग से प्रारम्भ होकर दूसरे भाग तक जाएँगी अथवा मानचित्र में ही पूर्ण आकृति बनाती हुई आपस में मिल जाएँगी।
  10. किसी मानचित्र में समोच्च अन्तर घटाकर उसमें अधिक धरातलीय लक्षण अंकित किये जा सकते हैं।
  11. आधुनिक स्थलाकृतिक एवं अन्य दीर्घकालीन मानचित्रों में समोच्च रेखाओं के साथ-साथ स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न अथवा पर्वतीय छायाकरण का प्रयोग कर मानचित्र को और अधिक स्पष्ट एवं प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
  12. भू-आकृतियों को प्रदर्शित करने वाली सभी विधियों में समोच्च रेखा विधि आज भी सबसे अधिक उपयोगी एवं प्रचलित विधि है जिसके द्वारा किसी भी प्रकार के भू-स्वरूप को सही-सही चित्रित किया जा सकता है।
  13. समोच्च रेखाओं द्वारा समतल प्रदेशों का स्वरूप, दो समोच्च रेखाओं के बीच के ढाल की प्रकृति एवं ढाल की दिशा का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है। इसी प्रकार मानचित्र में किसी भी बिन्दु की सही-सही ऊँचाई का ज्ञान नहीं हो पाता है।

समोच्च रेखा मानचित्र के इन दोषों को दूर करने के लिए धरातल के विभिन्न पहलुओं को और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक से अधिक विधियों का प्रयोग उसी मानचित्र में किया जाता है। इस विधि को मिश्रित अथवा संयुक्त विधि के नाम से पुकारा जाता है।

(3) मिश्रित विधियाँ (Mixed Methods) – वर्तमान समय में अधिकांश नवीन मानचित्रों में भू-आकृतियों को और अधिक स्पष्ट चित्रित करने के लिए एक ही विधि का प्रयोग नही किया जाता है। किसी एक विधि जैसे समोच्च रेखा, रंग, विधि आदि को आधार मानकर अन्य विधियों को प्रमुख भू-आकृतियों को स्पष्ट करने तथा छोटे-छोटे धरातलीय लक्षणों को समझाने हेतु उसे मानचित्र में अंकित किया जाता है। स्थलाकृतिक मानचित्र के नवीन रंगीन संस्करणों में समोच्च रेखाओं के साथ-साथ प्लास्टिक आभा, स्थानांकित ऊँचाइयाँ, तलचिह्न, हैच्यूर आदि विधियों का भी अंकन किया जाता है। इससे भू-आकृतिक लक्षण और अधिक स्पष्ट हो जाते हैं। इसी कारण ऐसे मानचित्र मात्रा-प्रधान एवं गुण-प्रधान दोनों ही विधियों को मिला-जुला स्वरूप है। सभी प्रकार की महत्त्वपूर्ण मानचित्रावलियों या भित्ति मानचित्रों में भी संयुक्त विधियों का खुलकर प्रयोग किया जाता है। प्रमुख मिश्रित विधियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. समोच्च रेखा एवं पहाड़ी छायाकरण अथवा प्लास्टिक छाया विधि;
  2. समोच्च रेखा एवं रंग विधि;
  3. समोच्च रेखा एवं स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न एवं छाया विधि;
  4. समोच्च रेखा एवं हैच्यूर या खण्ड रेखाएँ;
  5. पहाड़ी छायाकरण एवं रंग आभा विधि;
  6. हैच्यूर, स्थानांकित ऊँचाई, तलचिह्न एवं आभा विधि;
  7. हैच्यूर एवं भू-आकृति विधि;
  8. भू-आकृति एवं स्थानांकित ऊँचाई तथा तलचिह्न आदि।

प्रश्न 2
समोच्च रेखाओं द्वारा निम्नलिखित भू-आकृतियों का प्रदर्शन उनकी पाश्र्वाकृतियों सहित प्रदर्शित कीजिए –
(1) मन्द ढाल, (2) तीव्र ढाल, (3) नतोदर ढाल, (4) उन्नतोदर ढाल, (5) सम ढाल, (6) विषम ढाल, (7) सीढ़ीनुमा ढाल, (8) खड़ा ढाल या भृगु, (9) शंक्वाकार पहाड़ी, (10) काठी एवं दर्रा, (11) जलप्रपात (झरना) तथा नदी सोपान, (12) खड्ड, गॉर्ज एवं केनियन, (13) गोखुरनुमा झील, (14) ‘यू-आकार की घाटी, (15) ‘वी’ -आकार की घाटी, (16) ज्वालामुखी शंकु।
उत्तर
(1) मन्द ढाल (Gentle Slope) – जो प्रदेश प्रायः समतल होते हैं तथा जिनकी औसत प्रवणता 1/10 या उससे कम होती है, वहाँ समोच्च रेखा एक-दूसरे से काफी दूरी पर खींची हुई होती है, वहाँ मन्द ढाल होता है। दूसरे शब्दों में, यहाँ धरातल पर चढ़ाई नाममात्र को ही होती है।।
(2) तीव्र ढाल (Steep Slope) – जिन प्रदेशों में ढाल की तीव्रता अथवा प्रवणता 1/10 से अधिक होती है अर्थात् ढाल का कोण 6° से अधिक होता है, उसे तीव्र ढाल के नाम से पुकारा जाता है। इस स्थलाकृति की समोच्च रेखाएँ पास-पास होती हैं। यहाँ पर ढलान प्रपाती होता है, अर्थात् थोड़ी दूर चलने पर अधिक चढ़ाई चढ़नी पड़ती है।

(3) नतोदर ढाल (Concave Slope) – इसे अवतल ढाल के नाम से भी पुकारते हैं। इस ढाल में समोच्च रेखाएँ पहले ऊँचाई पर पास-पास तथा आगे चलकर समोच्च रेखाएँ दूर-दूर स्थित होती हैं। इस ढाल को नतोदर ढाल कहते हैं। इसमें समोच्च रेखाएँ उन्नतोदर ढाल के विपरीत अवस्था में होती हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 3
(4) उन्नतोदर ढाल (Convex Slope) – जब ढाल का क्रम नतोदर ढाल के विपरीत होता है, अर्थात् पहले समोच्च रेखाओं की स्थिति ऊँचाई पर दूर-दूर तथा आगे चलकर समोच्च रेखाएँ पास-पास अपनी स्थिति रखती हैं तो ऐसे ढाल को उन्नतोदर या उत्तल ढाल कहते हैं।
(5) सम ढाल (Even or Uniform Slope) – सम ढाल में समोच्च रेखाएँ समान दूरी पर स्थित होती हैं। इसमें ढाल प्राय: एक-सा रहता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 4
(6) विषम ढाल (Uneven Slope) – विषम ढाल में ढाल की स्थिति धीमी या तेज कोई भी हो सकती है। इसमें समोच्च रेखाओं का क्रम असमान रहता है। इस ढाल में एक साथ तेज एवं धीमा दोनों ही ढाल बिना किसी क्रम में प्रदर्शित किये जा सकते हैं।
(7) सीढ़ीनुमा ढाल (Terraced Slope) – इस प्रकार के ढाल में समोच्च रेखाएँ पहले पास-पास तथा फिर दूर-दूर होती हैं। यह क्रम कई बार दोहराया जाता है तथा सीढ़ीदार ढाल निर्मित हो जाता है। नदी एवं हिमानी की घाटियों में प्रायः ऐसे ही ढाल दिखाई पड़ते हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 5
(8) खड़ा ढाल या भृगु (Vertical Slope or Cliff) – इसे लम्बवत् ढाल भी कहा जा सकता है। भृगु ढाल एकदम प्रपाती होता है। यह पूर्णतया एक दीवार की भाँति होता है। इसमें समोच्च रेखाएँ एक स्थान पर एक-दूसरी से मिल जाती हैं। कभी-कभी कई समोच्च रेखाएँ आपस में मिल जाती हैं। प्राकृतिक रूप से ऐसी प्रवणता वाले ढाल कम ही देखने को मिलते हैं। समोच्च रेखाओं के एक-दूसरे से छू जाने पर भृगु की रचना होती है।

(9) शंक्वाकार पहाड़ी (Conical Hill) – समुद्र तल से 900 मीटर से कम ऊँचे त्रिकोणात्मक स्थल खण्ड को पहाड़ी कहा जाता है। पहाड़ी के लिए खींची गयी समोच्च रेखाएँ सदैव बन्द होती हैं। यदि पहाड़ी शंक्वाकार होती है तो इसमें समोच्च रेखाएँ सदैव गोलाकार होती हैं तथा समान दूरी पर खींची जाती। हैं। शंक्वाकार पहाड़ी का ढाल सभी दिशाओं में प्राय: समान होता है। अतः समोच्च रेखाएँ भी समदूरस्थ होंगी। पहाड़ी की ऊँचाई चूंकि निरन्तर बढ़ती जाती है। अत: समोच्च रेखाओं का नामांकन करते समय केन्द्र की ओर ऊँचाई सदैव अधिक नामांकित की जाती है। पहाड़ी के सबसे ऊँचे भाग को चोटी या शिखर (Summit) कहते हैं, जिसे मध्य में बिन्दु अथवा त्रिकोण बनाकर अंकित कर दिया जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 6
(10) काठी एवं दर्रा (Saddle and Pass) – दो पर्वत-शिखरों के मध्य ऐसी स्थलाकृति को दर्रा कहते हैं, जो यातायात हेतु मार्ग का काम देता है। इसमें दोनों पर्वत-शिखरों की समोच्च रेखाएँ स्वतन्त्र एवं बन्द होती हैं तथा बीच का मार्ग सँकरा होता है। उच्च पर्वतीय प्रदेशों में इन दरों को देखा जा सकता है। इस प्रकार दर्रा दो पर्वत-शिखरों के मध्य निचला तुंग मार्ग होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 7
काठी भी दरें से मिलता-जुलता भू-स्वरूप है, परन्तु काठी की चौड़ाई अधिक होती है तथा तुलनात्मक ऊँचाई कम होती है। दरें की अपेक्षा काठी का क्षेत्र दुर्गम नहीं होता है।

(11) जलप्रपात या झरना तथा द्रुत प्रवाह (Water Fall and Rapids) – नदी की लम्बवत् घाटी में ढाल सम्बन्धी कई अनियमितताएँ पायी जाती हैं। जलप्रपात भी एक ऐसी ही भू-रचना है। नदियों के प्रवाह मार्ग में कभी-कभी आकस्मिक रूप से खड़ा ढाल उपस्थित हो जाता है तो नदी का जल ऊँचाई से गिरने लगता है। इस स्थलाकृति को प्रदर्शित करने के लिए कई समोच्च रेखाएँ आपस में मिला दी जाती हैं। जिससे इनके आपस में मिलने से उस स्थान पर ढाल बहुत अधिक तीव्र हो जाता है तथा नदी का जल ऊँचाई से तीव्र गति के साथ नीचे की ओर गिरने लगता है, जिसे जलप्रपात या झरने के नाम से पुकारा जाता है। पर जब नदी का जल अनेक स्थानों पर ऊँचाई से निचाई की ओर गिरता है तो द्रुत प्रवाहों का निर्माण होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 8
(12) खड्डू (गॉर्ज) या केनियन (Gorge or Canyon) – उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ पर नदियों का प्रवाह अत्यधिक तीव्र होता है, वहाँ कठोर चट्टानों के कारण विखण्डन की क्रिया बहुत ही कम होती है। अत: नदी की धारा अपने तलीय भाग को गहरा काटती है। इस प्रकार सँकरी परन्तु गहरी घाटी का विकास होता है। इसे संकुचित घाटी (खड्डु) या गॉर्ज अथवा केनियन कहते हैं। कई बार ऊपरी सतह से घाटी की तली दिखाई नहीं पड़ती है। इस प्रकार की घाटी के दोनों पाश्र्वो का ढाल एकदम खड़ा प्रदर्शित किया जाता है, जिसके लिए समोच्च रेखाओं का पारस्परिक अन्तर बहुत कम रखा जाता है, अर्थात् समोच्च रेखाएँ एकदम निकट आ जाती हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 9
(13) गोखुरनुमा या छाड़न झील (Ox Bow Lake) – इस प्रकार की झीलों का निर्माण नदी के प्रवाह मार्ग में मैदानी भागों में निर्मित होता है। अत्यधिक समतल भागों में नदी घुमावदार मार्गों से प्रवाहित होने लगती है। बाढ़ के समय बहाव की तीव्रता के कारण जब नदी नये मार्ग का अनुसरण करती है, तब इस घुमाव के मुहाने पर मिट्टी जमा हो जाती है। इनके उत्तरोत्तर विकास में गोखुरनुमा या छाड़न झील का विकास होता है। नदी एवं झील का तल प्रायः एक-समान होता है। अतः नदी की धारा और झील को घेरने वाली समोच्च रेखाओं की ऊँचाई एक-सी रहती है। ऐसी झील की आकृति धनुषाकार अथवा अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में निर्मित हो जाती है।

(14) ‘यू’ -आकार की घाटी (‘U’ Shaped Valley) – इन घाटियों का निर्माण हिमानियों द्वारा होता है। इस घाटी का तल कुछ चौड़ा और सपाट होता है तथा किनारे को ढाल खड़ा होता है जिससे इस घाटी की आकृति अंग्रेजी भाषा के अक्षर ‘U’ की भाँति हो जाती है। इस घाटी की समोच्च रेखाएँ तल के समीप पास-पास एवं समानान्तर होती हैं। पाश्र्वो का ढाल उत्तल होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 10
‘यू’ -आकार की सहायक घाटियों को लटकती घाटी (Hanging Valley) कहते हैं, जो मुख्य नदी की घाटी में अन्य दिशा से आकर मिलती हैं। ‘यू’ आकार की घाटी के समान होने के कारण इनकी समोच्च रेखाओं का प्रदर्शन भी प्रधान घाटी की ही भाँति होता है।

(15) ‘वी’ -आकार की घाटी (‘V’ Shaped Valley) – नदी अपनी युवावस्था में लम्बी एवं सँकरी घाटी का निर्माण करती है जिसका आकार अंग्रेजी के अक्षर ‘V’ की भाँति हो जाता है। इसे घाटी की समोच्च रेखाएँ सदैव अंग्रेजी के अक्षर की भाँति मुड़ी रहती हैं। इस प्रकार की घाटी में, घाटी रेखा से भूमि दोनों ओर धीरे-धीरे ऊँची होती चली जाती है। पर्वतीय क्षेत्रों में इस प्रकार की घाटियाँ अधिक देखी जा सकती हैं।

(16) ज्वालामुखी शंकु (Volcanic Cone) – ज्वालामुखी के चारों ओर लावा आदि के एकत्रण से शंक्वाकार आकृति का निर्माण हो जाता है। इसका ऊपरी मुंह प्याले की भाँति हो जाता है, जिसे क्रेटर (Crater) कहते हैं। इसे काल्डेरा (Caldera) भी कहते हैं। शान्त ज्वालामुखी शंकु के विवर में जल भर जाने से कभी-कभी झील का भी निर्माण हो जाता है। कभी-कभी इसी ज्वालामुखी क्षेत्र में इसके सहायक शंकु का भी विकास हो जाता है। इसकी समोच्च रेखाएँ गोलाकार होती हैं जो ऊपर की ओर बढ़ती जाती हैं, परन्तु शंकु के समीप पुनः कम हो जाती हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 11

मौखिक परिक्षा: सम्भावित प्रश्न

प्रश्न 1
उच्चावच का क्या अर्थ है?
उत्तर
वे धरातलीय स्थलाकृतियाँ जिनकी रचना ऊँचाई एवं ढाल के द्वारा प्रदर्शित की जाती है, उच्चावच कहलाती हैं।

प्रश्न 2
उच्चावच प्रदर्शन की कौन-कौन-सी प्रमुख विधियाँ हैं?
उत्तर
उच्चावच प्रदर्शन की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. चित्र विधि द्वारा प्रदर्शन (Pictorial Methods)
  2. गणितीय विधियाँ (Mathematical Methods) तथा
  3. मिश्रित या संयुक्त विधियाँ (MixedorComposite Methods)।

प्रश्न 3
हैच्यूर किसे कहते हैं?
उत्तर
हैच्यूर वे छोटी-छोटी रेखाएँ हैं जो अधिक से कम ढाल की ओर ऊँचाई दिखाने के लिए खींची जाती हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps

प्रश्न 4
पर्वतीय छायाकरण विधि से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
उच्चावच प्रदर्शन की यह चित्रीय विधि है। इसकी रचना प्रकाश को आधार मानकर की जाती है।

प्रश्न 5
स्थानांकित ऊँचाई विधि क्या होती है?
उत्तर
यह विधि किसी स्थान की धरातल पर अंकित ऊँचाई को प्रकट करती है। मानचित्र में उस स्थान की ऊँचाई मीटर अथवा फीट में नापी जाती है।

प्रश्न 6
निर्देश चिह्न (Bench Mark) किसे कहा जाता है?
उत्तर
सर्वेक्षण में समुद्र-तल से विभिन्न स्थानों की ऊँचाई को अंकित किया जाता है। इसके समीप में निर्देश चिह्न बना दिया जाता है। इस संकेत के द्वारा उस स्थान की ऊँचाई का ज्ञान हो जाता है अथवा इस स्थान के सन्दर्भ में अन्य स्थानों की अपेक्षाकृत ऊँचाई का पता चल जाता है, जिसे निर्देश चिह्न का नाम दिया गया है।

प्रश्न 7
समोच्च रेखा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
मानचित्र में समान ऊँचाई वाले स्थानों को मिलाकर प्रदर्शित की जाने वाली रेखा को समोच्च रेखा कहते हैं।

प्रश्न 8
किन्हीं चार मिश्रित विधियों के नाम बताइए।
उत्तर

  1. समोच्च रेखा एवं रंग विधि
  2. समोच्च रेखा, स्थानांकित ऊँचाई, तल-चिह्न तथा छाया विधि
  3. समोच्च रेखा एवं हैच्यूर या खण्ड रेखा विधि तथा
  4. समोच्च रेखा एवं पहाड़ी छायाकरण विधि। प्रश्न

प्रश्न 9
प्रवणता (Gradient) क्या होती है?
उत्तर
धरातलीय दूरी एवं लम्बवत् दूरी में जो अनुपात होता है, उसे प्रवणता कहते हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps

प्रश्न 10
समोच्च रेखा अन्तराल निकालने का क्या सूत्र है?
उत्तर
समोच्च रेखा अन्तराल =
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps 12

प्रश्न 11
‘यू’-आकार की घाटी तथा ‘वी’ -आकार की घाटी में अन्तर बताइए।
उत्तर
‘यू’-आकार की घाटी हिमानी द्वारा निर्मित होती है। इसका प्रवाह मार्ग चौड़ा तथा चौरस होता है। आकार में यह अंग्रेजी के अक्षर ‘यू’ (U) जैसी होती है।
परन्तु ‘वीं-आकार की घाटी नदियों द्वारा निर्मित होती है जो नदियों द्वारा अपने दोनों किनारे काटने के कारण ये किनारे आधार तल पर मिल जाते हैं तथा उसका आकार अंग्रेजी के अक्षर ‘वी’ (v) जैसा हो जाता है। इसे ‘वी’-आकार की घाटी कहा जाता है।

प्रश्न 12
जल विभाजक (Water Divider) किसे कहते हैं?
उत्तर
दो जलधाराओं को पृथक् करने वाले स्थलखण्ड को जल-विभाजक कहते हैं।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 2 Representation of Relief on Maps (मानचित्रों पर उच्चावच का प्रदर्शन), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 11
Chapter Name White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
भारत में श्वेतवसन अपराध पर एक लेख लिखिए। [2011, 12]
या
श्वेतवसन अपराध से आप क्या समझते हैं ? इसके कारणों का वर्णन कीजिए। [2009, 11, 16]
या
श्वेतवसन अपराध क्या है ? श्वेतवसन अपराध के कुछ उदाहरण दीजिए। [2011]
या
याश्वेतवसन अपराध से आप क्या समझते हैं ? भारत में श्वेतवसन अपराध के उत्तरदायी कारकों को समझाइए। [2012, 14, 15]
या
श्वेतवसन अपराध से आप क्या समझते हैं ? भारतीय समाज में यह किन-किन रूपों में प्रचलित है? [2009]
या
भ्रष्टाचार श्वेतवसन अपराध का स्रोत है।” स्पष्ट कीजिए। [2016]
या
श्वेतवसन अपराध किसे कहते हैं ? किन-किन क्षेत्रों को यह अधिक प्रभावित करता है ? [2010]
या
श्वेतवसन अपराध की विशेषताएँ बताइए। [2016]
या
भारत में श्वेतवसन अपराध की समस्याओं पर प्रकाश डालिए। [2008]
या
श्वेतवसन अपराध को परिभाषित करते हुए भारत में श्वेतवसन अपराध पर निबन्ध लिखिए। [2012, 14]
या
श्वेतवसन (सफेदपोश) अपराध का क्या अर्थ है? भारत में इसके लिए उत्तरदायी मुख्य कारकों की विवेचना कीजिए। [2015]
या
श्वेतवसन अपराध के कारणों की विवेचना कीजिए। [2017]
या
श्वेतवसन (सफेदपोश) अपराध की प्रकृति को व्यक्त कीजिए और इसके प्रमुख स्वरूपों का विवेचन कीजिए। [2016]
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध वह अपराध होता है जो उच्च वर्ग के व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, क्योंकि इन व्यक्तियों के पास धन की कोई कमी नहीं होती; अतः ये व्यक्ति अपराध करके धन की आड़ में बच निकलते हैं। अधिकांशतः बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों, राजनेताओं तथा पुलिस का इन्हें सहयोग भी मिलता रहता है। बड़े-बड़े उद्योगपति, उच्च राजकीय पदाधिकारी, वकील तथा डॉक्टर इस श्रेणी में आते हैं।

श्वेतवसन अपराध का अर्थ तथा परिभाषा

श्वेतवसन अपराध प्रतिष्ठित एवं उच्च सामाजिक पद वाले व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला अपराध है। इस संकल्पना का प्रयोग सर्वप्रथम सदरलैण्ड द्वारा किया गया। प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है

  • सदरलैण्ड के अनुसार, “प्रतिष्ठित एवं उच्च सामाजिक पद के व्यक्ति के द्वारा अपने व्यवसाय के समय में किया गया अपराध ही श्वेतवसन अपराध है।”
  • हारटुंग के अनुसार, “श्वेतवसन अपराध वह अपराध है जो समाज के उच्च आर्थिक वर्ग से सम्बन्धित होता है और साधारणतया शिक्षित व्यक्ति द्वारा किया जाता है।”
  • क्लीनार्ड के अनुसार, “श्वेतवसन अपराध प्राथमिक रूप से उस कानून का उल्लंघन है, जो व्यवसायी, पेशेवर लोग और राजनीतिज्ञों आदि जैसे समूहों द्वारा अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में किया जाता है।”
  • टैफ्ट के अनुसार, “श्वेतवसन अपराध का तात्पर्य उन सभी संगठित अपराधों से है, जो कानून भंग करने वाले विशेषज्ञ व्यक्ति अथवा समूह द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किये जाते

श्वेतवसन अपराध के लक्षण (विशेषताएँ)
सदरलैण्ड ने श्वेतवसन अपराध की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है

  1. श्वेतवसन अपराध उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त सामाजिक-आर्थिक वर्ग के व्यक्तियों के द्वारा किया गया अपराध है।
  2.  श्वेतवसन अपराध में कानून का उल्लंघन बड़ी चतुरता के साथ किया जाता है।
  3. श्वेतवसन अपराधी अपनी प्रतिष्ठा के कारण कानूनी दण्ड से बच जाता है तथा उसकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आती।
  4.  श्वेतवसन अपराध जनता के विश्वास की आड़ में किये जाते हैं। अतः यह विश्वासघात पर आधारित अपराध है। निर्धन किसानों का साहूकार लोग इसी प्रकार शोषण करते हैं।
  5.  अप्रत्यक्ष रूप से किये जाने के कारण श्वेतवसन अपराध का जनता द्वारा विरोध नहीं किया जाता है।
  6.  श्वेतवसन अपराध धनी वर्ग, उच्च सामाजिक व राजनीतिक पद प्राप्त व्यक्ति द्वारा ही सम्भव है।
  7.  श्वेतवसन अपराध समाज के लिए अधिक अहितकारी होते हैं।
  8.  श्वेतवसन अपराधियों का सरकार और शासन के संचालन में भी हाथ रहता है, जिसके कारण उन्हें पकड़ना तथा सजा दिलवाना सम्भव नहीं होता।
  9. श्वेतवसन अपराध आर्थिक क्षेत्र में अधिक होते हैं, जिनका उद्देश्य धन एकत्र करके विलासी जीवन बिताना होता है।
  10.  श्वेतवसन अपराध सामान्य समाज और उपसमूहों में पाये जाते हैं।
  11. यह अपराध नेताओं, चिकित्सकों, न्यायाधीशों, शिक्षाविदों, व्यापारियों तथा इन्जीनियरों द्वारा अधिक किया जाता है।
  12. श्वेतवसन अपराध सोच-समझकर यत्नपूर्वक किये जाते हैं। अतः इनका पता लगाना कठिन होता है।

श्वेतवसन अपराध के विभिन्न स्वरूप
समाज में आज श्वेतवसन अपराध के निम्नलिखित स्वरूप देखने को मिल रहे हैं

1. व्यापारिक क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – आज व्यापारिक जगत् में श्वेतवसन अपराध का बोलबाला है। लुभावने तथा झूठे विज्ञापन, पेटेण्ट, ट्रेडमार्क और कॉपीराइट का उल्लंघन, आर्थिक ठगी, सेल्स-टैक्स तथा आयकर की चोरी व श्रमिकों के साथ विश्वासघात व्यापारिक क्षेत्र में पनपने वाले श्वेतवसन अपराध हैं। भारत में व्यापारिक क्षेत्र में श्वेत अपराधों का बोलबाला है। शेयर निर्गत करने वाली कम्पनियाँ अपने शेयरों का मूल्य बढ़वाकर इसी प्रकार के अपराध में संलिप्त रहती हैं।

2. प्रशासनिक क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – प्रशासनिक क्षेत्र में सर्वाधिक श्वेतवसन अपराध होते हैं। उच्च अधिकार प्राप्त प्रशासनिक अधिकारी घूस लेकर, उपहार ग्रहण करके, ठेका छोड़कर, ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कराकर, लाइसेन्स तथा परमिट देकर श्वेतवसन अपराधों में लिप्त रहते हैं। उत्तर प्रदेश में जनवरी 1987 ई० में आई० ए० एस० अधिकारियों के घरों पर लगे सी० बी० आई० के छापे इसका प्रत्यक्ष प्रेमोर्ण हैं। भारत में गैस एजेन्सी देने, शराब के ठेके छोड़ने, परम्परागत पत्र बनाने तथा निर्यात लाइसेन्स देने में अधिकारी भारी सुविधा शुल्क लेकर श्वेतवसन अपराध करते हैं।

3. न्याय के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – आज श्वेतवसन अपराध से न्यायिक क्षेत्र भी अछूता नहीं रह गया है। वकील, न्यायाधीश तथा एटार्नी न्याय-क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध करते हैं। झूठी गवाही, दुर्घटना करने वाले दोषी व्यक्तियों का बचाव व हत्या करने वालों को जमानत देकर न्यायाधीश श्वेतवसन अपराध को क्रियात्मक रूप देते हैं। अनेक प्रभावशाली व्यक्ति धन देकर मुकदमों का निर्णय अपने पक्ष में करा लेते हैं। वर्तमान समय में भारत में न्याय के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध का बोलबाला बढ़ गया है।

4. चिकित्सा के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – श्वेतवसन अपराध से चिकित्सा जैसा पवित्र व्यवसाय भी वंचित नहीं है। डॉक्टर का प्रतिष्ठापूर्ण व्यवसाय रोगियों को नवजीवन प्रदान करने वाला माना जाता है। डॉक्टर द्वारा झूठा प्रमाण-पत्र, झूठी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट, भ्रूणहत्या तथा उल्टे-सीधे ऑपरेशन करके फीस वसूलने के कार्य भारत में चिकित्सा के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध हैं।

5. शिक्षा के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध – भारत में शिक्षा जैसा आदर्श क्षेत्र भी श्वेतवसन अपराध से नहीं बचा है। झूठी डिग्रियाँ, डॉक्टर की उपाधियाँ, उत्तर-पुस्तिकाओं में अंकों की हेरा-फेरी, परीक्षा के प्रश्न-पत्र लीक कराना, फेल छात्रों को उत्तीर्ण करना तथा परीक्षा भवन में ठेके पर नकल कराना आदि शिक्षा के क्षेत्र में श्वेतवसन अपराध हैं।

श्वेतवसन अपराध के कारण
श्वेतवसन अपराध को जन्म देने वाले किसी एक कारण की ओर ही संकेत नहीं किया जा सकता, श्वेतवसन अपराध को अनेक कारण प्रोत्साहित करते हैं। श्वेतवसन अपराध के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. अत्यधिक वर्ग चेतना – सदरलैण्ड के अनुसार, अत्यधिक वर्ग चेतना और सामाजिक स्थिति के बारे में जागरूकता सफेदपोश अपराध का मुख्य कारण है। पहले से ही उच्च वर्ग के व्यक्ति अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए अपने व्यवसाय की आड़ में अधिकाधिक धनोपार्जन करने के लिए प्रेरित होते हैं।

2. सामाजिक विभेदीकरण व आर्थिक असमानता – टैफ्ट तथा हारटुंग जैसे विद्वानों के अनुसार, श्वेतवसन अपराध सामाजिक विभेदीकरण वाले समाजों में ही अधिकतर होते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक असमानता वाले समाजों में उच्च वर्ग के साथ-साथ मध्य स्तरीय व्यक्ति भी श्वेतवसन अपराध द्वारा लोगों को ठगने लगते हैं। जालसाजी, झूठा विज्ञापन, धोखाधड़ी, चोर-बाजारी आदि अपराध ऐसे समाजों में इसीलिए अधिक पनपते हैं।

3. पूँजीवादी व्यवस्था –  पूँजीवादी व्यवस्था भी श्वेतवसन अपराध को बढ़ावा देती है। सदरलैण्ड के अनुसार, पूँजीवादी समाजों में सम्पत्ति इने-गिने व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित होती है। धनी व पूँजीपति वर्ग धन के लालच में समाज, श्रम व सम्पत्ति का शोषण करता है। इस प्रकार चोर-बाजारी तथा अवैधानिक रूप से वस्तुओं का निर्माण पूँजीवादी व्यवस्था में श्वेतवसन
अपराध के ही उदाहरण हैं।

4. भौतिकवादी मनोवृत्तियाँ – आज तकनीकी के साथ-साथ व्यक्ति का जीवन उत्तरोत्तर विलासिता की ओर बढ़ता जा रहा है। भौतिकवादी मनोवृत्तियों के कारण धन का महत्त्व निरन्तर बढ़ गया है, क्योंकि धन ही प्रतिष्ठा, मर्यादा व शक्ति का स्रोत बन गया है। अतः . समृद्ध वर्ग श्वेतवसन अपराध करके भौतिक सुख-समृद्धि और विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत ‘, करना चाहता है।

5. राजनीतिक कारण – बहुत-से देशों में राजनीतिक भ्रष्टाचार भी श्वेतवसन अपराध का एक : कारण है। राजनीतिक नेता व सरकारी क्षेत्र के प्रतिनिधि व मन्त्री पूँजीपतियों व अन्तर्राष्ट्रीय – अपराधियों के साथ गठबन्धन करके श्वेतवसन अपराध को बढ़ावा देते हैं। अनेक राजनेता, मन्त्रीगण एवं जन-प्रतिनिधि अपने स्वार्थ के लिए चोरों, डाकुओं, तस्करों आदि का सहारा – लेते हैं। इनका सम्बन्ध पूँजीपतियों एवं अपराधी गिरोहों से होता है। पकड़े जाने पर राजनेता -अपराधियों को छुड़ाने में उनकी सहायता करते हैं। भारत में सांसदों की खरीद, यूरिया घोटाला, रंगीन टी० वी० घोटाला, हवाला काण्ड, चारा काण्ड, दवाई काण्ड, जमीन घोटाला राजनीतिक क्षेत्र के ऐसे ही श्वेतवसन अपराध हैं। अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था वाले समाजों में अर्थव्यवस्था बड़ी ढीली हो जाती है, जो कि श्वेतवसन अपराधों को प्रोत्साहन देती है। भारत में श्वेतवसन अपराध का एक प्रमुख कारण यही है।

6. कानूनों के प्रति अनभिज्ञता व कानूनी निष्क्रियता – साधारण जनता कानूनों के प्रति अनभिज्ञ होती है, जिसका लाभ पूँजीपति तथा अन्य वर्ग व पदों पर आसीन व्यक्ति उठाते हैं। वे कानून से अनभिज्ञ व्यक्तियों का सरलता से शोषण कर लेते हैं। साथ ही कई समाजों में बाजार-वाणिज्य व उद्योग नियन्त्रण सम्बन्धी कानून इतने दोषपूर्ण व निष्क्रिय होते हैं कि बड़े-बड़े अपराधियों को पकड़े जाने का भय नहीं रहता। ये कानून श्वेतवसन अपराधियों को दण्डमुक्त रखने में सहायता देते हैं और इस प्रकार ऐसे अपराधों को बढ़ावा देते हैं।

7. सामाजिक मूल्य व संस्कृति – अनेक विद्वानों (जैसे–क्लीनार्ड) का मत है कि श्वेतवसन अपराधी का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों व संस्कृति से भी होता है। प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे मूल्य व परम्पराएँ होती हैं जो व्यक्तियों को अपनी सत्ता व स्थिति कायम रखने के लिए प्रेरित करती हैं, जिनके कारण उच्च पदों के व्यक्ति गलत हथकण्डे अपनाकर तथा लोगों का शोषण करके अपने को आर्थिक दृष्टि से मजबूत करने का प्रयास करते हैं।

8. नैतिकता का अभाव – सामाजिक व धार्मिक जीवन में नैतिकता का अभाव भी श्वेतवसन अपराध का एक कारण है। आज धार्मिक विश्वासों व नैतिक नियमों के कारण उच्च स्थिति, वाले व्यक्ति उन कार्यों को करना भी बुरा नहीं समझते जिनका सम्बन्ध भ्रष्टाचार व बेईमानी से है। अतः व्यक्ति अपने-अपने पदों का दुरुपयोग करके श्वेतवसन अपराध करने लगते हैं।

9. गोपनीय प्रकृति – अधिकतर श्वेतवसन अपराध की प्रकृति गोपनीय होती है तथा एक सीमा तक करने पर ऐसे अपराध जनसाधारण के सामने आते ही नहीं हैं। गुप्त कार्य-प्रणाली के कारण बड़े-बड़े अधिकारी व कर्मचारी, व्यापारी वर्ग तथा पूँजीपति श्वेतवसन अपराध करते हैं और पकड़े जाने पर भी उनके विरुद्ध कोई सबूत नहीं मिलता है।

10: सामाजिक विघटन – सामाजिक विघटन भी श्वेतवसन अपराध को जन्म देता है। इसीलिए संक्रमण काल से गुजरने वाले समाजों में श्वेतवसन अपराध भी अधिक होते हैं। टूटे हुए सामाजिक ढाँचे का सबसे अधिक लाभ बड़े-बड़े व्यापारियों को ही मिलता है, जो चोरबाजारी, धोखाधड़ी, गबन, घूसखोरी व कालाबाजारी करके पैसा कमाने लगते हैं।

भ्रष्टाचार श्वेतवसन अपराध का स्रोत – वर्तमान समय में श्वेतवसन अपराध की वृद्धि का मुख्य कारण भ्रष्टाचार में वृद्धि के साथ-साथ व्यक्तियों में अलगाव की मनोवृत्ति प्रबल होने लगती है तथा स्वयं को अधिक असहाय, कमजोर तथा सार्वजनिक जीवन से कटा हुआ अनुभव करने लगते हैं।

भ्रष्टाचार के कारण आज हमारे देश में राजनीति को राष्ट्रसेवा या समाज सेवा के स्थान पर एक व्यवसाय के रूप में माना जाने लगा है। भ्रष्टाचार के कारण ही अधिकांश नेता बहुत अधिक धन खर्च करके चुनाव जीव जाते हैं और सत्ता प्राप्त करने के बाद हर प्रकार की अपराधिक एवं समाज विरोधी गतिविधियों से अधिक-से-अधिक धन कमाने में लिप्त हो जाते हैं। अतः कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार श्वेतवसन अपराध का स्रोत है।

प्रश्न 2
भारत में श्वेतवसन अपराधों में वृद्धि के क्या कारण हैं ?
उत्तर:
भारत में श्वेतवसन अपराधों में वृद्धि के कारण
भारत में श्वेतवसन अपराध आज चरम सीमा पर है, परन्तु दुर्भाग्यवश इस क्षेत्र में अधिक अध्ययन नहीं किये गये हैं। हम अनेक प्रकार के श्वेतवसन अपराध अपने समाज में देख सकते हैं। उदाहरणार्थ-बड़े-बड़े व्यापारियों द्वारा टैक्स की चोरी करना, वस्तुओं में मिलावट करना, चोरबाजारी करना, अवैध व्यापार करना, प्रशासनिक अधिकारियों में फैला हुआ भ्रष्टाचार, न्यायालयों, सरकारी दफ्तरों, पुलिस विभाग, चिकित्सा विभाग, परिवहन व संचार आदि कोई भी विभाग श्वेतवसन अपराध के प्रभाव से अछूता नहीं है।

आज श्वेतवसन अपराधी भारतीय समाज को जितना खोखला कर रहे हैं तथा हानि पहुँचा रहे हैं उतनी हानि अन्य अपराधों से नहीं हो रही है।
विश्व के अन्य राष्ट्रों के समान भारत में भी श्वेतवसन अपराध निरन्तर बढ़ रहे हैं। यहाँ श्वेतवसन अपराधों में सतत वृद्धि होने के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. अशिक्षा – भारत के अधिकांश व्यक्ति अशिक्षित हैं। अशिक्षा के कारण वे कानूनों से अनभिज्ञ हैं। इस कारण श्वेतवसन अपराधी साधारण लोगों को धोखा देकर उनसे धन हड़प लेते हैं तथा अपने उद्देश्य में सफल हो जाते हैं।

2. भ्रष्टाचार – भारत में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। भारत के किसी भी सरकारी विभाग में तब तक कार्य नहीं होता है जब तक उन्हें रिश्वत नहीं मिल जाती है। अतः भारत की ग्रामीण साधारण जनता का कार्यालयों में कोई भी कार्य नहीं हो पाता है, वे कार्यालयों के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। ऐसी परिस्थितियों में श्वेतवसन अपराधी ग्रामीण साधारण जनता को कार्य कराने का लालच देकर उनसे रुपये हड़प लेते हैं तथा श्वेतवसन अपराध में लिप्त रहते हैं।

3. बेरोजगारी – भारत में बेरोजगारी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। भारत का बेरोजगार नवयुवक रोजगार की खोज में जब सड़कों पर घूमता है तब श्वेतवसन अपराधी उन्हें नौकरी का लालच देकर उनसे धन ऐंठ लेते हैं। अनेक धोखेबाज अधिकारी खाड़ी देशों में नौकरी दिलवाने के नाम पर धन वसूल कर साफ बच जाते हैं।

4. नैतिक मूल्यों का ह्रास – भारत में आज सामाजिक व धार्मिक जीवन में नैतिकता का अभाव होता जा रहा है, जिसके अभाव में श्वेतवसन अपराध बढ़ता जा रहा है। आज नैतिक मूल्यों में ह्रास के कारण उच्च स्थिति वाले व्यक्ति उन कार्यों को करना भी बुरी नहीं समझते जिनका सम्बन्ध भ्रष्टाचार व बेईमानी से है। अत: व्यक्ति अपने-अपने पदों का दुरुपयोग करके श्वेतवसन अपराध करने लगते हैं।

5. राजनीतिक कारण – भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार भी श्वेतवसन अपराध का कारण है। राजनीतिक नेता व सरकारी क्षेत्र के प्रतिनिधि व मन्त्री पूँजीपतियों व अन्तर्राष्ट्रीय अपराधियों के सौथ गठबन्धन करके श्वेतवसन अपराध को बढ़ा रहे हैं। भारत की भ्रष्ट राजनीति श्वेतवसन अपराध को बढ़ावा देने में सक्षम है। संचारमन्त्री सुखराम, मुख्यमन्त्री जयललिता, कैप्टन सतीश शर्मा व श्रीमती शीला कौल ने अपने पदों का दुरुपयोग कर श्वेतवसन अपराध को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री पी० वी० नरसिंम्हा राव का नाम भी इन्हीं अपराधों के लिए खूब उछलता रहा है। चन्द्रास्वामी इस क्षेत्र के प्रमुख सूत्राधार होने के कारण जेल की सजा भी काट चुके हैं। भारत में राजनीतिक अस्थिरता के कारण भी समाज में श्वेतवसन अपराध बढ़ते जा रहे हैं। चुनाव के बाद सत्ता में आने के लिए विधायकों की खरीद तथा सांसदों की सौदेबाजी श्वेतवसन अपराध का मूल है।

6. भौतिकवादी मनोवृत्तियाँ – आज भारत के व्यक्तियों में भौतिकवादी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जिसके कारण उनके लिए धन का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। आज उनके लिए धन ही प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा व शक्ति का स्रोत बन गया है। अतः आज़ श्वेतवसनधारी येन-केनप्रकारेण धन प्राप्त करके समाज में अपनी झूठी शान व प्रतिष्ठा को दिखाकर भौतिक सुख और ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करना चाहता है, जिसके कारण श्वेतवसन अपराधों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।

7. अत्यधिक वर्ग चेतना – भारत के श्वेतवसन अपराध करने वाले व्यक्तियों में अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अत्यधिक वर्ग चेतना होती है। श्वेतवसन अपराध का यह भी एक कारण है कि श्वेतवसन वर्ग के व्यक्ति अपनी स्थिति को सक्रिय और समृद्ध बनाये रखने के लिए अपने व्यवसाय की आड़ में अधिकाधिक धनोपार्जन करते रहते हैं।

8. सामाजिक विभेदीकरण व आर्थिक असमानता – सामाजिक व आर्थिक असमानता भी श्वेतवसन अपराध वृद्धि का एक कारण है। भारत में आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से अधिकांश व्यक्ति पिछड़ी व दयनीय स्थिति में हैं, जब कि कुछ लोग ही सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं। सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति व कुछ मध्यमवर्गीय व्यक्ति भी उनके साथ लगकर श्वेतवसन अपराध द्वारा लोगों को ठगने में लगे रहते हैं। वे अनेक प्रकार की जालसाजी, गलत विज्ञापन, फरेब, चोर-बाजारी आदि के कार्यों में लगे रहते हैं तथा समाज में श्वेतवसन अपराध करते हैं।

9. कानून के प्रति अनभिज्ञता व कानूनी निष्क्रियता – भारत में अधिकांश साधारण जनता कानूनों के प्रति अनभिज्ञ है, जिसका लाभ पूँजीपति तथा अन्य वर्ग व पदों पर आसीन सफेदपोश व्यक्ति उठाते हैं। वे कानून से अनभिज्ञ व्यक्तियों का सरलता से शोषण कर लेते हैं। भारत में कानूनों को शान्तिपूर्वक लागू नहीं किया जाता है। अतः श्वेतवसन धारण करने वाले व्यक्ति कर चोरी व अन्य भ्रष्टाचार का कार्य खुले रूप से करते रहते हैं; क्योंकि उन्हें यह मालूम है कि कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है और यदि वे कहीं पर कानून की पकड़ में आ भी जाते हैं तो रिश्वत व शक्ति का उपयोग करके सरलतापूर्वक बच निकलते हैं। इस कारण भी भारत में श्वेतवसन अपराध तेजी के साथ बढ़ रहा है।

10. गोपनीय प्रकृति – अधिकतर श्वेतवसन अपराध की प्रकृति गोपनीय होती है, क्योंकि अधिकतर अपराध जनसाधारण के सामने आते ही नहीं हैं। गुप्त कार्य-प्रणाली के कारण बड़े-बड़े अधिकारी व कर्मचारी, व्यापारी वर्ग तथा पूँजीपति श्वेतवसन अपराध करते हैं और पकड़े जाने पर उनके विरुद्ध किसी प्रकार का प्रमाण नहीं मिल पाता है, जिससे वे दण्ड के चंगुल से बच जाते हैं। इसीलिए भारत में श्वेतवसन अपराध बढ़ता जा रहा है।

प्रश्न 3
उपयुक्त उदाहरण देते हुए ‘अपराध और ‘श्वेतवसन अपराध की अवधारणाओं में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2007]
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध तथा अपराध के बीच का अन्तर मुख्यतया दृष्टिकोण का अन्तर है, ज़िसे निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है

1. अपराधी वर्ग – साधारण अपराध का सम्बन्ध किसी वर्ग-विशेष से नहीं होता। उदाहरण के लिए, हत्या तथा बलात्कार का अपराध सभी वर्गों के व्यक्ति करते हैं। परन्तु श्वेतवसन अपराध सम्भ्रान्त तथा प्रतिष्ठित पद पर आसीन वर्ग के व्यक्तियों द्वारा ही किये जाते हैं।

2. अपराध का कारण – अपराध का कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक आदि कोई भी हो सकता है। दूसरी ओर श्वेतवसन अपराध मुख्यतः आर्थिक प्रकृति के होते हैं। सम्भ्रान्त वर्ग के व्यक्ति श्वेतवसन अपराध अधिक-से-अधिक धन संचय करने के लिए करते हैं।

3. जनता का दृष्टिकोण – जनता का दृष्टिकोण दोनों अपराधों के प्रति अलग है। चोरी, डकैती, राहजनी, हत्या अथवा बलात्कार जैसे अपराध के दोषी को लोग तिरस्कार करते हैं तथा उसके प्रति घृणा व आक्रोश का भाव रखते हैं। दूसरी ओर यदि कोई व्यक्ति जालसाजी, रिश्वतखोरी अथवा झूठे विज्ञापन देकर कोई लाभ प्राप्त कर रहा हो तो उसका कोई तिरस्कार नहीं करता। यह कहना गलत नहीं होगा कि श्वेतवसन अपराध से व्यक्ति की प्रतिष्ठा को कोई धक्का नहीं पहुंचता।।

4. अपराध की प्रकृति – अपराध की तुलना में श्वेतवसन अपराध की प्रकृति अप्रत्यक्ष होती है। उदाहरण के लिए, किसी महिला का बलात्कार कर देना जघन्य अपराध माना जाता है, लेकिन बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ जब नियोजित तरीके से हत्या करवाते हैं तब इसे श्वेतवसन अपराध कहा जाता है। अपराध की तुलना में श्वेतवसन अपराध गोपनीय तथा अमूर्त होते हैं। ये अपराध जनसाधारण की निगाह से छिपाकर किये जाते हैं। इनकी गोपनीयता भंग होने पर ही, ये अपराध बन जाते हैं।

5. दण्ड – किसी अपराध के लिए अपराधी को दण्ड देना राज्य के लिए सरल होता है, लेकिन श्वेतवसन अपराध को प्रमाणित कर सकना बहुत कठिन होता है। श्वेतवसन अपराध से सम्बन्धित लोग अपनी प्रतिष्ठा और आर्थिक शक्ति के बल पर अपने विरुद्ध साक्ष्य को तोड़ मोड़ देते हैं। उनको दण्डित करना प्रायः असम्भव होता है।

प्रश्न 4
“भ्रष्टाचार एक सार्वभौमिक बुराई है।” इसे हम अपने देश से कैसे मिटा सकते हैं? [2016]
उत्तर:
भ्रष्टाचार का अर्थ
भ्रष्टाचार का अभिप्राय उन सभी अवैध गतिविधियों से है जिससे निजी स्वार्थ के लिए धनोपार्जन व शक्तियों का दुरुपयोग कर बेइमानी की जाए। रिश्वत लेना, धन उगाही, धोखाधड़ी, मनी लॉन्ड्रिंग धन के लिए बल का प्रयोग, काला धन व अन्य सभी प्रकार के कृत्य जिससे अवैध रूप से लाभ उठाया जा रहा हो, वे सभी भ्रष्टाचार हैं। सरकारी विभागों या निजी क्षेत्रों द्वारा अनैतिक व्यवहार, लाभ के लिए सत्ता का दुरुपैयोग, इत्यादि सभी गतिविधियाँ भ्रष्टाचार के कुछ रूप हैं। आम जनता के अधिकारों को अनदेख कर सरकारी कर्तव्य को पूर्ण न कर धोखाधड़ी करना भ्रष्टाचार ही है। सरकारी व्यक्ति द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर अपने या किसी और के हित को सर्वोपरि रखना भी भ्रष्टाचार है।

भ्रष्टाचार एवं घूसखोरी कोई नई अवधारणा नहीं है। सदियों पूर्व हिन्दू विधि के प्रवर्तक महर्षि मनु ने ‘मनु संहिता’ में तत्कालीन समाज में व्याप्त घूसखोरी का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है। अन्य अनेक ग्रन्थों तथा यात्रा वृत्तान्तों में भी भ्रष्टाचार का उल्लेख देखा जा सकता है।
आचार्य कौटिल्य (चाणक्य, 350-275 ई.पू.) ने ‘अर्थशास्त्र में लिखा है कि जिस प्रकार तालाब में तैरती मछली कब पानी गटक जाती है कोई देख नहीं सकता, उसी प्रकार नौकरशाही में अधिकारी वर्ग कब भ्रष्ट आचरण करे यहें पता लगाना मुश्किल है।”
भारत में भ्रष्टाचार की जड़े अत्यन्त गरी हो चुकी हैं। मर्यादाएँ धीरे-धीरे नष्ट हो रही हैं। नैतिक मूल्यों के पतन के कारण सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार दीमक की तरह व्याप्त होकर व्यवस्था को खोखला. किए जा रहा है।

भ्रष्टाचार या रिश्वतखोरी वह है जब अधिकार सम्पन्न व्यक्ति अपने पद/प्रभाव का उपयोग अनुचित लाभ प्राप्ति हेतु स्वार्थपूर्ण तरीके से करता है। भारत में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार प्रत्येक क्षेत्र-सामाजिक, वैधानिक, आर्थिक, राजनीतिक, राजनयिक, प्रशासनिक क्षेत्रों में देखा जा सकता है। भ्रष्टाचार सभी प्रकार के अपराधों में वृद्धि करने के लिए जिम्मेदार है।

भारत में भ्रष्टाचार मूलतः°1950 के दशक की एक अनहोनी शुरुआत है। 1957 के मूंदड़ा कांड को भारतीय गणतंत्र का पहला घोटाला माना जाता है, जिसमें राजनीतिक और किसी पूंजीपति के बीच अपवित्र गठजोड़ बना था। इसका भंडाफोड़ फिरोज गांधी ने किया था। लम्बी बहस के बाद त्किालीन वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी को इस्तीफा दिलाकर सारा मामला रफा-दफा दिया गया। पंडित नेहरू के समय में ऐसे करीब चार मामले प्रकाश में आए। 1949 में 216 करोड़ रुपए का जीप घोटाला ऐसा पहला मामला था, जिसमें ब्रिटेन स्थित तत्कालीन उच्चायुक्त कृष्ण मेनन का नाम उछला था। दूसरा मामला 1956 का सिराजुद्दीन प्रकरण था, जिसमें नेहरू मंत्रिमण्डल के खान एवं ऊर्जा मंत्री के.डी. मालवीय पर गम्भीर आरोप लगे थे। तीसरा प्रकरण जहाजरानी उद्योगपति धरमतेजा का था जिन्हें 1960 में पंडित नेहरू ने बिना किसी जाँच पड़ताल के १ 20 करोड़ का ऋण दिलवाया था। इस प्रकार यह सिलसिला बोफोर्स एवं टूजी घोटाले तक चलता गया। अतः ‘भ्रष्टाचार एक सार्वभौमिक बुराई है।”

भ्रष्टाचार के कारणों को आर्थिक, सामाजिक, वैधानिक, न्यायिक और राजनीतिक श्रेणियों में भी रखा जा सकता है। आर्थिक कारणों में उच्च जीवन शैली की आकांक्षा मुद्रा प्रसार, लाइसेंसिंग प्राणाली तथा ज्यादा लाभ लेने की प्रवृत्ति है। सामाजिक कारणों में जीवन के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण, ईमानदारी की कमी, सामाजिक मूल्यों में गिरावट, अशिक्षा, सामंती प्रवृत्तियाँ, शोषणवादी सामाजिक संरचना आदि हैं। वैधानिक कारणों में अपर्याप्त कानून पालन कराने में ढील आदि हैं। न्यायिक कारणों में महंगी न्याय व्यवस्था, विलम्ब न्याय न्यायिक उदासीनता, न्यायाधीशों की प्रतिबद्धता की कमी तथा तकनीकी कारणों से अपराधियों का छूट जाना है। राजनीतिक कारणों में राजनीतिक संरक्षण, अप्रभावी राजनीतिक नेतृत्व राजनीतिक तटस्थता, राजनीतिक अनैतिकता, राजनीति एवं अपराधियों की सांठ-गांठ आदि हैं।

भ्रष्टाचार को रोकने के उपाय
देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए अनेक आयोग बने। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा श्री कस्तूरीरंगा संथानम (1895-1980) की अध्यक्षता में एक भ्रष्टाचार निरोधक समिति का गठन 1962 में किया गया था। इस समिति ने निम्नलिखित उपाय सुझाए थे।

  1.  सतर्कता अधिकारियों को भ्रष्टाचार की शिकायतों की जाँच करने की स्वतंत्रता देना। जाँच प्रक्रिया में राजनीतिक एवं प्रशासनिक दखल को नियंत्रित करना आवश्यक है।
  2. सतर्कता अधिकारियों को कुशल कार्य के लिए प्रोन्नति का आश्वासन देना।।
  3. उच्च अधिकारियों के मामलों की जाँच-पड़ताल के लिए सतर्कता अधिकारियों को उनके मूल कैडर में वापस भेजने से सुरक्षा का आश्वासन देना।
  4.  केन्द्रीय सतर्कता आयोग में केन्द्रीय लोक सेवाओं और तकनीकी सेवाओं को प्रतिनिधित्व देना।
  5.  सतर्कता विभाग के अराजपत्रित कर्मचारियों को विभाग के नियमों और कार्यप्रणाली के विषय में गहन प्रशिक्षण देना, क्योंकि सतर्कता के 80 प्रतिशत मामलों की छानबीन निचले स्तर पर ही होती है।

इस समिति की सिफारिशों के आधार पर ही केन्द्रीय सरकार और अन्य कर्मचारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों को देखने के लिए 1964 में केन्द्रीय सतर्कता आयोग (CvC-Central Vigilance Commission) की स्थापना की गई थी। केन्द्र सरकार ने निम्नलिखित चार विभागों की स्थापना भ्रष्टाचार विरोधी उपायों के अन्तर्गत की है।

  1.  कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग में प्रशासनिक सतर्कता विभाग
  2.  केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (CBI- Central Buearnu of Investigation)
  3. राष्ट्रीकृत बैंकों/सार्वजनिक उपक्रमों/मंत्रालयों/विभागों में घरेलू सतर्कता इकाइयाँ और
  4.  केन्द्रीय सतर्कता आयोग।

केन्द्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं।

  1.  किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायत आने पर उसकी जाँच-पड़ताल करना।
  2.  भ्रष्टाचार में लिप्त आरोपी व्यक्ति के विरुद्ध की जाने वाली कार्यवाही के प्रकार के विषय मेंअनुशासनात्मक अधिकारी को परामर्श देना।
  3. नियमित मामला पंजीकृत करने के लिए सी.बी.आई. को निर्देशित करना और मंत्रालयों या विभागों या बैंकों या सार्वजनिक उपक्रमों में सतर्कता और भ्रष्टाचार विरोधी कार्यों का निरीक्षण और उन पर रोक लगाना। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम-1988 इस दिशा में एक कारगर कदम है।

भ्रष्टाचार से निपटने के उपाय

  1. लोगों को विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सब्सिडी और सरकारी अमूदानों के बारे में उनके हक की पूरी जानकारी दी जाए। सूचना का अधिकार ईमानदारी से लागू हो।
  2. नीतियों और फाइलों में किए गए विभिन्न निर्णयों को पारदर्शी बनाया जाए। हर आवेदक को जानने का अधिकार होना चाहिए कि उसका आवेदन-पत्र कहाँ रुका पंड़ा है।
  3. विलम्ब ही भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत है। प्रत्येक विभागीय अध्यक्ष या प्रत्येक कार्यालय के प्रमुख को किसी आवेदन या फाइल पर निर्णय करने के लिए समयावधि निर्धारित कर देनी चाहिए, जिससे कि किसी भी स्तर पर कार्यवाही में देरी न हो। अगर फाइलों पर कार्यवाही में देरी होती है तो उसके लिए जो कारण हो वह ऐसा हो, जिससे प्रमुख या अध्यक्ष संतुष्ट हो। फाइलों पर कार्यवाही में देर इसलिए न की जाए ताकि लाभार्थी उस पर कार्यवाही तेज करवाने के लिए रकम देने के लिए हाजिर हो।
  4.  जब कभी भी पता चले कि कोई कर्मचारी भ्रष्ट तरीके अपना रहा है, तो उसे तुरन्त निलम्बित . कर देना चाहिए। मुकदमा और विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही साथ-साथ शुरू कर दी जाए और जल्द-से-जल्द पूरी की जाए।
  5. जिन भ्रष्ट व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी या अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जाती है, उनकी सम्पत्तियों को सील कर दिया जाना चाहिए और उनके दोषी साबित होने पर सरकार को उन सम्पत्तियों को जब्त कर लेना चाहिए।
  6.  अधिकारी ऐसे होने चाहिए जो केवल प्रतिभावान और योग्य ही न हों, अपितु ईमानदार और साहसी भी हों।
  7.  लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, लेकिन उन्हें अपने नजदीकी अधिकारियों को लाभ पहुँचाने के लिए नियमों की अवहेलना करते हुए तबादलों और पदोन्नतियों जैसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
  8.  विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों का चयन करते समय यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वे ईमानदार हों और उस कार्य के लिए योग्य हों, जो उन्हें सौंपा जा रहा है।
  9.  देश ने पंचायत राज और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए सत्ता का यथासम्भव विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए और पंचायतों को अधिकतम अधिकार दिए जाने चाहिए।
  10.  नियमों को सरल बनाना चाहिए। अनेक कानून ऐसे हैं जिन्हें जनसाधारण समझ नहीं पाता। अनावश्यक कानून खत्म कर दिए जाने चाहिए। कानून और नियमों का यथासंभव सरलीकरण किया जाना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
पूँजीवादी वर्ग संरचना श्वेतवसन अपराध का प्रमुख कारण है। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
सदरलैण्ड ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि जिस समाज के लोगों में वर्ग-चेतना एवं सामाजिक स्थिति के प्रति जागरूकता पायी जाती है, वहाँ लोग अधिकाधिक अपने व्यवसाय के द्वारा धनोपार्जन में लगे होते हैं, जिससे वे अपनी सामाजिक स्थिति एवं प्रतिष्ठा को बनाये रख सकें। पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति एवं उद्योगपति श्रमिक वर्ग का शोषण करते हैं और अधिकाधिक धन कमाते हैं। ये वैध और अवैध तरीकों से अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाये रखना चाहते हैं। उच्च वर्ग निम्न वर्ग को प्रतियोगिता में परास्त करना चाहता है। दोनों ही वर्ग आर्थिक प्रतिस्पर्धा में अनैतिक साधनों, झूठे विज्ञापनों, घूस, चोरबाजारी, जालसाजी आदि का सहारा लेते हैं। इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था में पायी जाने वाली वर्ग-प्रतिस्पर्धा भी श्वेतवसन अपराध को बढ़ावा देती है। सदरलैण्ड कहते हैं कि “यही कारण है कि अमेरिका में श्वेतवसन अपराध अधिक होते हैं।”

प्रश्न 2
श्वेतवसन अपराध के जालसाजी एवं रिश्वत के स्वरूपों का वर्णन कीजिए। या श्वेतवसन अपराध के किन्हीं दो स्वरूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
1. जालसाजी – सदरलैण्ड ने इसे श्वेतवसन अपराध में प्रमुख माना है। बैंकों में चेक पर दूसरों के गलत हस्ताक्षर करके रुपये ले लेना, बीमा कम्पनियों से गलत क्लेम द्वारा रुपया लेना, नकली दस्तावेज बनाकर रुपये कमाना, जाली खाते तैयार करना, जाली पासपोर्ट तैयार करना, नकली दवाइयाँ बनाना, जाली फर्मों के नाम परमिट एवं कोटा आवण्टित करवाना, अनाथालयों, मन्दिरों एवं मठों के निर्माण के नाम पर चन्दा एकत्रित करना, बाढ़-पीड़ितों के लिए सहायता प्राप्त करना और उसका दुरुपयोग करना आदि जालसाजी एवं फरेब के ही उदाहरण हैं।
2. रिश्वत – वर्तमान में सभी सरकारी विभागों में रिश्वत का बोलबाला है। पटवारी, ट्रैफिक ‘इन्स्पेक्टर, ओवरसियर, इन्जीनियर, डॉक्टर, पुलिस अधिकारी, सरकारी कर्मचारी, रेलवे कर्मचारी, – कर विभाग के कर्मचारियों आदि के द्वारा रिश्वत ली जाती है। कई बार रिश्वत पैसों के रूप में न दी जाकर वस्तुओं के रूप में भी दी जाती है, जिसे ‘भेट’ कहकर पुकारा जाता है।

प्रश्न 3
समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता की श्वेतवसन अपराध को बढ़ाने में क्या भूमिका है ?
उत्तर:
औद्योगीकरण एवं मशीनीकरण ने समाज में आर्थिक विषमता पैदा की है। एक तरफ उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण रखने वाले पूँजीपति हैं, तो दूसरी तरफ श्रम बेचकर जीवन-यापन करने वाले गरीब श्रमिक और इन दोनों के बीच में है – मध्यम वर्ग। उच्च वर्ग वाले अन्य वर्ग के लोगों को आगे बढ़ने से रोकते हैं, क्योंकि इसमें उनका आर्थिक हित छिपा हुआ है। ऐसा करने के लिए वे मनमाने एवं कानून-विरोधी तरीके अपनाते हैं। सदरलैण्ड का मत है कि ये लोग इतने सक्षम होते हैं कि दण्ड से बच जाते हैं। टैफ्ट तथा हारटुंगे का मत है कि जिन समाजों में आर्थिक एवं सामाजिक भिन्नता अधिक होती है वहाँ मध्यम वर्ग द्वारा श्वेतवसन अपराध अधिक किये जाते हैं। लोग समाज के आर्थिक हितों को ध्यान में नहीं रखते और स्वार्थसिद्धि के लिए जालसाजी, झूठी विज्ञापनबाजी, फरेब, चोरबाजारी आदि के द्वारा उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न करते है।

प्रश्न 4
क्या श्वेतवसन अपराध का सम्बन्ध सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से भी है ?
उत्तर:
जॉर्ज कैटोन तथा क्लीनार्ड आदि की मान्यता है कि श्वेतवसन अपराध का सम्बन्ध सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से भी है। प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य-व्यवस्था को बनाये रखना चाहता है और उसमें परिवर्तन नहीं चाहता। लोग सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि के भय से परम्परागत मूल्यों को बनाये रखने के लिए गलत तरीकों का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए, दहेज देना परम्परागत सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से अच्छा माना गया है, इसे जुटाने के लिए व्यक्ति गलत साधनों द्वारा धन कमाता है और अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखता है। इसी प्रकार से भारत में धर्म का अधिक महत्त्व है। पूँजीपति लोग एक तरफ कालाबाजारी एवं मुनाफाखोरी के द्वारा धन कमाते हैं और दूसरी तरफ दान देकर एवं मन्दिर बनाकर समाज में प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर लेते हैं। धर्मभीरु लोग ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करना चाहते।

प्रश्न 5
श्वेतवसन अपराध से उत्पन्न प्रमुख सामाजिक दुष्परिणामों का उल्लेख कीजिए, जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी हैं।
या
श्वेतवसन अपरांधों के दुष्परिणामों की विवेचना कीजिए। [2009]
उत्तर:
सदरलैण्ड कहते हैं कि श्वेतवसन अपराध के कारण आर्थिक हानि की तुलना में समाज को सामाजिक हानि अधिक होती है और सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिलता है। श्वेतवसन अपराध से उत्पन्न प्रमुख सामाजिक दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं, जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी हैं

  1. समाज में अनैतिकता, विश्वासहीनता एवं भ्रष्टाचार में वृद्धि होती है।
  2.  समाज में नियमहीनता बढ़ती है और प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक नियमों एवं आदर्शों की मनमाने ढंग से व्याख्या करता है और अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उल्टे-सीधे तर्क भी प्रस्तुत करता है।
  3. श्वेतवसन अपराध समाज में असन्तोष को बढ़ावा देता है। फलस्वरूप लोग अनुशासनहीन एवं संघर्षशील हो जाते हैं।
  4. श्वेतवसन अपराध के कारण लोगों में मानसिक असन्तोष, निराशा एवं तनाव पैदा होते हैं।
  5.  लोगों में कर्त्तव्यहीनता एवं दायित्वहीनता की भावना में वृद्धि होती है।
  6. चूँकि श्वेतवसन अपराधी कानून को तोड़-मरोड़ कर अपने पक्ष में प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं; अतः उन्हें दण्ड नहीं भुगतना पड़ता। फलस्वरूप दण्ड, कानून एवं न्याय से लोगों को विश्वास उठ जाता है और कानूनी अव्यवस्था फैलती है।
  7. श्वेतवसन अपराध के कारण सामाजिक असुरक्षा पनपती है। जब समाज के नेता एवं संरक्षक ‘ कहे जाने वाले व्यक्ति ही अपराधी कार्यों में लगे होते हैं तो अन्य लोगों में असुरक्षा के भाव
    पैदा होते हैं।
  8. श्वेतवसन अपराध के कारण अर्थव्यवस्था विघटित हो जाती है। बेईमान एवं अपराधी लोग सुखी एवं समृद्ध जीवन व्यतीत करते हैं, जब कि ईमानदार व्यक्तियों का भरण-पोषण भी कठिन होता है। ऐसे अपराधी सारे देश को आर्थिक हानि पहुँचाते हैं और देश की अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त हो जाती है।
  9. श्वेतवसन अपराध के कारण नयी पीढ़ी में अपराध की ओर झुकाव बढ़ता है।
  10. श्वेतवसन अपराध के कारण समाज व्यवस्था, सुरक्षा, प्रगति एवं विकास खतरे में पड़ जाते
  11.  श्वेतवसन अपराध सामाजिक संस्थाओं के मूलभूत मूल्यों पर आक्रमण है। स्पष्ट है कि श्वेतवसन अपराध सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है।

प्रश्न 6
बाल-अपराध व श्वेतवसन अपराध में अन्तर बताइए।
उत्तर:
बाल-अपराध व श्वेतवसन अपराध में अन्तर नीचे दी गयी तालिका में स्पष्ट किया गया है।

क्र०सं० बाल-अपराध श्वेतवसन अपराध
1. बाल-अपराधं कानून द्वारा निर्धारित 18 वर्ष से कम आयु में किया जाने वाला अपराध हैं। श्वेतवसन अपराध उच्च वर्ग अथवा प्रतिष्ठित पद पर आसीन व्यक्तियों द्वारा किये जाते हैं।
2. बाल-अपराध में कुछ ऐसे व्यवहार भी सम्मिलित हैं जो वास्तव में अपराध की श्रेणी में नहीं आते; जैसे-स्कूल से भागना, घर से बिना बताये गायब हो जाना, निरुद्देश्य रात्रि को घूमते रहना इत्यादि। श्वेतवसन अपराधों में करों की चोरी, रिश्वत, पदों का दुरुपयोग करके आर्थिक लाभ कमाना, नियोजित रूप से हत्या कराना आदि अपराध आते हैं।
3. बाल-अपराध सामान्यतः कम गम्भीर होते है। श्वेतवसन अपराधों की प्रकृति अप्रत्यक्ष, गोपनीय, परन्तु आर्थिक दृष्टि से गम्भीर होती है।
4. बाल-अपराधी अधिकांशतः संवेगता के कारण अपराध करते हैं। श्वेतवसन अपराध नियोजित और सामूहिक होते हैं।
5. बाल-अपराधी का अपराध करते समय अनिवार्य रूप से आर्थिक लक्ष्य नहीं होता है। श्वेतवसन अपराध मुख्यतः आर्थिक प्रकृति के ही होते हैं। सम्भ्रान्त वर्ग के व्यक्ति श्वेतवसन अपराध इसलिए करते हैं जिससे वे अधिक से-अधिक धन का संचय करके भौतिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त कर सकें।
6. बाल-अपराधी बनने में मनोवैज्ञानिक व पारिवारिक कारणों को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। श्वेतवसन अपराधों का कारण समृद्धता तथा भौतिक सुख प्रा करना होता है।
7. बाल-अपराध के लिए विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना होती है। श्वेतवसन अपराध के मामले सामान्य अदालतों और कभी-कभी विशेष अदालतों में सुने जाते हैं।
8. बाल-अपराधी को कठोर दण्ड से बचाने का प्रयास किया जाता है। श्वेतवसन अपराध से सम्बन्धित लोग अपनी प्रतिष्ठा और आर्थिक शक्ति की सहायता से न तो अपने विरुद्ध गवाहियाँ होने देते हैं और न ही कोई ऐसा ठोस प्रमाण छोड़ते हैं जिसके आधार पर उन्हें दण्डित किया जा सके।

प्रश्न 7
अपराध तथा श्वेतवसन अपराध में अन्तर बताइए। [2007, 11, 16]
या
‘सफेदपोश अपराध व अपराध में चार अन्तर बताइए। [2016]
उत्तर:
अपराध, अपराध ही है चाहे वह निम्न वर्ग के लोगों द्वारा किया जाए अथवा समाज के प्रतिष्ठित एवं उच्च वर्ग के लोगों द्वारा। फिर भी सामान्य अपराध और श्वेतवसने अपराध की प्रकृति, मनोवृत्ति एवं आधारों में अन्तर पाया जाता है। यह अन्तर निम्नलिखित है

  1. अपराध का सम्बन्ध समाज के सभी वर्गों से है, जब कि श्वेतवसन अपराध का केवल समाज के उच्च वर्ग से है।।
  2. श्वेतवसन अपराध आर्थिक प्रकृति के होते हैं, जब कि सामान्य अपराध आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं मानसिक किसी भी कारण से किये जा सकते हैं।
  3. श्वेतवसन अपराध में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस नहीं पहुँचती है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से उसमें सम्मिलित नहीं होता है, जब कि अपराध में व्यक्ति को हीन एवं घृणा की दृष्टि से । देखा जाता है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से अपराध में सम्मिलित होता है।
  4. अपराध की अपेक्षा श्वेतवसन अपराध योजनाबद्ध रूप से किये जाते हैं।
  5. अपराध की तुलना में श्वेतवसन अपराध अधिक गोपनीय ढंग से किये जाते हैं।
  6.  श्वेतवसन अपराध आधुनिक औद्योगिक एवं नगरीकृत समाजों की विशेषता है, जब कि अपराध आदिम और आधुनिक सभी समाजों में किये जाते हैं।
  7.  सामान्यत: अपराध में अपराधी को दण्ड मिलता है, किन्तु श्वेतवसन अपराध में अपराधी अपनी आर्थिक स्थिति एवं जटिल कानूनी प्रक्रिया के कारण दण्ड से बच जाता है।
  8. श्वेतवसन अपराध व्यक्ति अपने व्यवसाय के दौरान करता है, जब कि अपराध व्यवसाय से बाहर भी।
  9. अपराध के प्रति जनता की सामूहिक प्रतिक्रिया पायी जाती है, जब कि श्वेतवसन अपराध के प्रति नहीं।

प्रश्न 8
श्वेतवसन अपराध और सामाजिक विघटन के सम्बन्ध की विवेचना कीजिए.
उत्तर:
सदरलैण्ड श्वेतवसन अपराध एवं सामाजिक विघटन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध बताते हैं। उनकी मान्यता है कि श्वेतवसन अपराध के कारण आर्थिक हानि की तुलना में समाज को सामाजिक हानि अधिक होती है और सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिलता है। श्वेतवसन अपराध से उत्पन्न प्रमुख सामाजिक दुष्परिणाम निम्न प्रकार हैं, जो सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी हैं

  1.  समाज में अनैतिकता, विश्वासहीनता एवं भ्रष्टाचार में वृद्धि होती है।
  2.  समाज में नियमहीनता बढ़ती है और प्रत्येक व्यक्ति नियमों एवं आदर्शों की मनमाने ढंग से व्याख्या करता है और अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उल्टे-सीधे तर्क भी प्रस्तुत करता है।
  3.  श्वेतवसन अपराध के कारण मानसिक असन्तोष, निराशा एवं तनाव पैदा होते हैं। लोगों में कर्तव्यहीनता एवं दाविहीनता की भावना में वृद्धि होती है।
  4.  श्वेतवसन अपराध समाज में असन्तोष को बढ़ावा देने के साथ-साथ लोगों में अनुशासनहीनता को बढ़ाता है। उनमें कानून एवं न्याय के प्रति कम विश्वास रह जाता है। इससे कानूनी अव्यवस्था फैलती है।
  5. श्वेतवसन अपराध के कारण सामाजिक असुरक्षा पनपती है। जब समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति तथा संरक्षक कहे जाने वाले लोग अपराधी कार्यों में लिप्त होते हैं तो अन्य लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा होती है।
  6. श्वेतवसन अपराध के कारण अर्थव्यवस्था विघटित हो जाती है। बेईमान एवं अपराधी लोग सुखी एवं समृद्ध जीवन व्यतीत करते हैं, जब कि ईमानदार व्यक्तियों के लिए भरण-पोषण भी कठिन होता है।
  7.  श्वेतवसन अपराध के कारण नयी पीढ़ी में अपराध की ओर झुकाव बढ़ता है। समाज व्यवस्था, सुरक्षा, प्रगति एवं विकास खतरे में पड़ जाते हैं। श्वेतवसन अपराध सामाजिक संस्थाओं के मूलभूत मूल्यों पर आक्रमण है। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि श्वेतवसन अपराध सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
भौतिकवादी मनोवृत्ति श्वेतवसन अपराध का एक प्रभावी कारण है। कैसे ?
उत्तर:
वर्तमान समय में लोगों में भौतिकवादी मनोवृत्ति बढ़ी है। प्रत्येक व्यक्ति येन-केनप्रकारेण धन कमाकर अधिकाधिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना चाहती है। आज व्यक्ति का मूल्यांकन भी इसी आधार पर किया जाता है कि उसके पास कितनी सम्पत्ति है? प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य शारीरिक एवं इन्द्रिय सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना ही रह गया है, जिन्हें जुटाने के लिए समाज-विरोधी विधियों तक का भी सहारा लिया जाता है।

प्रश्न 2
वर्तमान समय में श्वेतवसन अपराध ने संगठित रूप धारण कर लिया है। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में अपराध से सम्बन्धित अनेक संगठन पाये जाते हैं, जिनमें कई राजनेता, व्यापारी, उच्चाधिकारी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति हँसे होते हैं। एक अकेला व्यक्ति जब इनके जाल में फंस जाता है तो वह निरुपाय होता है और इनके विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता। जब सभी उच्च अधिकारी घूस लेते हों, तो ईमानदार व्यक्ति उनमें टिक नहीं सकता। जब भी बेईमान व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही की जाती है, तो श्वेतवसन अपराधी लोग संगठित होकर उसका विरोध करते हैं। इस प्रकार के कार्यों से श्वेतवसन अपराधियों को और अधिक अपराध करने का प्रोत्साहन मिलता है।

प्रश्न 3
पद का दुरुपयोग श्वेतवसन अपराध का एक कारण है। समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
कई राजकीय एवं गैर-राजकीय अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग करते हैं। वे पैसा लेकर सरकार के गुप्त भेदों को बता देते हैं या रिश्वत देने वाले के पक्ष में निर्णय कर देते हैं। चुनाव के समय भ्रष्ट तरीके अपनाना, इच्छानुसार लोगों को कोटा या परमिट वितरित करना, झूठे प्रमाण-पत्र देना, किसी पद पर नियुक्ति करवाना आदि श्वेतवसन अपराध के ही उदाहरण हैं।

प्रश्न 4
श्वेतवसन अपराध को रोकने के कोई चार उपाय बताइए।
उत्तर:
अब तक श्वेतवसने अपराधों की रोकथाम के लिए कानूनी एवं अन्य प्रकार के प्रयत्न नहीं हुए हैं। इन अपराधों से उत्पन्न दोषों की गम्भीरता को देखते हुए इनके निराकरण के लिए। निम्नलिखित उपाय अपनाये जाने चाहिए

  1. राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार के अपराधों की छानबीन के लिए जाँच आयोग की स्थापना की। जानी चाहिए।
  2. संरकार द्वारा भ्रष्टाचार निरोध समिति की स्थापना की जाए।
  3.  इस प्रकार की समितियों से सम्बन्धित कर्मचारियों एवं अधिकारियों को जनता अपना सहयोग एवं समर्थन दे और वे श्वेतवसन अपराधियों के काले कारनामे सरकार के समक्ष लाएँ।
  4. सरकार द्वारा शक्तिशाली गुप्तचर विभाग की स्थापना की जाए।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सदरलैण्ड ने श्वेतवसन अपराध की क्या परिभाषा दी है ?
उत्तर:
सदरलैण्ड के अनुसार, “श्वेतवसन अपराध उच्च सामाजिक-आर्थिक वर्ग के व्यक्ति द्वारा अपने पेशे या धंन्धे के क्रिया-कलापों के दौरान अपराधिक कानून का उल्लंघन है।”

प्रश्न 2
श्वेतवसन अपराध की अवधारणा किसने दी ? [2011, 12, 13]
या
श्वेतवसन अपराध की अवधारणा किस समाजशास्त्री से सम्बन्धित है ? [2007]
या
श्वेतवसन अपराध के प्रणेता कौन हैं? [2013]
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध की अवधारणा सदरलैण्ड ने दी।

प्रश्न 3
“श्वेतवसन अपराध आधुनिक संस्कृति की उपज है।” सत्य/असत्य [2013]
उत्तर:
सत्य।

प्रश्न 4
सदरलैण्ड द्वारा व्यक्त अपराध को किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध।

प्रश्न 5
श्वेतवसन अपराध किस प्रकार के व्यक्तियों द्वारा किये जाते हैं ?
उत्तर:
इस प्रकार के अपराध मुख्यतः चिकित्सकों, कानूनवेत्ताओं, शिक्षा-अधिकारियों, व्यापारियों, संसद सदस्यों, राजनेताओं एवं उद्योगपतियों द्वारा किये जाते हैं।

प्रश्न 6
श्वेतवसन अपराधों का पता लगाना क्यों कठिन है ?
उत्तर:
श्वेतवसन अपराध परोक्ष रूप से बुद्धिमानीपूर्वक किये जाते हैं। अत: इनका पता लगाना कठिन होता है।

प्रश्न 7
क्राइम एण्ड बिज़नेस कृति किसकी है?
उत्तर:
‘क्राइम एण्ड बिज़नेसं’ कृति सदरलैण्ड की है।

प्रश्न 8
श्वेतवसन अपराध के दो उदाहरण दीजिए। (2013)
उत्तर:
वकीलों द्वारा झूठी गवाही दिलवाना तथा पैसों के लालच हेतु डॉक्टरों द्वारा ऑपरेशन करना, श्वेतवसन अपराध के उदाहरण हैं।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
‘श्वेलवसन अपराध की अवधारणा किसने दी है? [2014, 15, 16]
(क) सदरलैण्ड ने
(ख) सोरोकिन ने
(ग) टैफ्ट ने
(घ) सेथना ने

प्रश्न 2
श्वेतवसन अपराध का कारण है
(क) जातिवाद
(ख) संयुक्त परिवार का विघटन
(ग) भौतिकवादी मनोवृत्ति
(घ) निरक्षरता

प्रश्न 3
हाइट कॉलर क्रिमिनैलिटी’ शोध लेख किसने प्रकाशित किया ? [2015]
या
सफेदपोश अपराध की अवधारणा किसने दी है?
(क) टैफ्ट ने
(ख) मार्शल क्लीनार्ड ने
(ग) सदरलैण्ड ने
(घ) फ्रेंक हारटुंग ने

प्रश्न 4
सदरलैण्ड किस पुस्तक के लेखक हैं ?
(क) प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी
(ख) फॉकवेज
(ग) पर्सनल डिसऑर्गेनाइजेशन
(घ) कल्चरल सोशियोलॉजी

उत्तर:
1. (क) सदरलैण्ड ने,
2. (ग) भौतिकवादी मनोवृत्ति,
3. (ग) सदरलैण्ड ने,
4. (क) प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी।

 

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 11 White Collar Crime (श्वेतवसन अपराध), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 8
Chapter Name Social Disorganization
(सामाजिक विघटन)
Number of Questions Solved 39
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक विघटन (परिवर्तन) से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक विघटन के लक्षणों एवं कारणों (कारकों) की विवेचना कीजिए। [2007, 08, 09, 11]
या
सामाजिक विघटन से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक संगठन और सामाजिक विघटन में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2010, 11]
या
सामाजिक विघटन से क्या आशय है? इसके प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिए। [2015, 16, 17]
या
सामाजिक विघटन सामाजिक जीवन को कैसे प्रभावित करता है? [2015, 16]
या
भारत में सामाजिक विघटन के कारणों पर प्रकाश डालिए। [2008, 10, 11]
या
विघटन को परिभाषित करते हुए इसके कुप्रभावों की चर्चा कीजिए। [2008]
या
सामाजिक विघटन को परिभाषित कीजिए तथा इसके प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए। [2013, 17]
या
सामाजिक विघटन के चार लक्षणों का उल्लेख कीजिए। [2007, 08, 11, 14]
या
सामाजिक विघटन के आर्थिक कारकों की व्याख्या कीजिए।
या
सामाजिक विघटन, विखण्डित परिवार के साथ एक सापेक्षिक अवधारणा है। व्याख्या करें। [2017]
उत्तर:

सामाजिक विघटन का अर्थ

समाज के दो पहलू हैं-संगठन और विघटन। समाज की व्यवस्था और एकरूपता को संगठन कहा जाता है। संगठन के अभाव में समाज का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। जब समाज के सदस्य सामाजिक नियमों का पालन करते हुए अपनी भूमिका ठीक से निभाते हैं, तो सामाजिक नियन्त्रण बना रहता है। विघटन शब्द टूटने का बोधक है। जैसे ही समाज की संस्थाओं और समूहों के बीच सम्बन्ध टूटते हैं, वैसे ही संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसी अपघटन को विघटन कहा जाता है।

समाज परिवर्तनशील है। नये-नये परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही समाज की एकरूपता नष्ट हो जाती है। समाज में तनाव और संघर्ष बढ़ जाने से उसमें अस्थिरता और विकृतियाँ पनपने लगती हैं, जिसके परिणामस्वरूप समाज की सामूहिकता नष्ट हो जाती है। इसी स्थिति को सामाजिक विघटन कहा जाता है। वास्तव में, संगठन और विघटन एक-दूसरे के विलोमार्थक शब्द हैं। जब सदस्य व्यक्तिगत स्वार्थों में लिप्त होकर समाज-विरोधी कार्य करने लगते हैं और सामाजिक नियम उन्हें नियन्त्रित करने में सक्षम नहीं रहते तब ऐसी स्थिति को सामाजिक विघटन’ कहा जाता है।

सामाजिक विघटन की परिभाषा

सामाजिक विघटन का सही-सही अर्थ समझने के लिए हमें उसकी परिभाषाओं पर दृष्टि निक्षेप करनी होगी। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक विघटन को निम्नवत् परिभाषित किया है इलियट एवं मैरिल के अनुसार, “सामाजिक विघटन वह प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप एक समूह के सदस्यों के बीच स्थापित सम्बन्ध टूट जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं।” कोनिंग के अनुसार, “सामाजिक विघटन से तात्पर्य संस्थाओं में उत्पन्न उस गम्भीर असमन्वयता से है जिससे कि वे व्यक्ति भी आवश्यकताओं की सन्तोषजनक पूर्ति में असफल हो जाएँ।”

जोन्स के अनुसार, “स्थापित समूह व्यवहार-प्रतिमानों, संस्थाओं या नियन्त्रण की अव्यवस्था या अव्यवस्थित कार्यों को सामाजिक विघटन कहते हैं।”

फेयरचाइल्ड के अनुसार, “सामान्यतः विघटन से तात्पर्य व्यवस्थित सम्बन्धों और कार्यों की प्रणाली को नष्ट होना है।” आँगबर्न और निमकॉफ के अनुसार, “सामाजिक विघटन का तात्पर्य किसी सामाजिक इकाई; जैसे-समूह, संस्था अथवा समुदाय के कार्यों का भंग होना है।”

सामाजिक विघटन की उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सामाजिक संगठन की विरोधी अवस्था है जिसमें अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है और सामाजिक नियन्त्रण भंग हो जाता है। इस अवस्था में सामाजिक संरचना प्रकार्यात्मक सन्तुलन खो देती है और समाज के विभिन्न समूहों एवं संस्थाओं में असन्तुलन विकसित हो जाता है।

सामाजिक विघटन के लक्षण अथवा दशाएँ

सामाजिक विघटन के मुख्य लक्षण या दशाएँ निम्नलिखित हैं|
1. रूढ़ियों और संस्थाओं में संघर्ष-रूढ़ियाँ और संस्थाएँ समाज के संगठन को बनाये रखने में सक्षम होती हैं। जैसे ही रूढ़ियों और संस्थाओं में संघर्ष प्रारम्भ होता है वैसे ही समाज का ढाँचा छिन्न-भिन्न होने लगता है। यही प्रक्रिया सामाजिक विघटन को जन्म देती है। भारत में परिवार, विवाह, धर्म और संस्थाओं के स्वरूप में होने वाला परिवर्तन सामाजिक विघटन का प्रमाण है।

2. प्राचीन और नवीन पीढियों में संघर्ष-
सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूपं सामाजिक मूल्य, नैतिक आदर्श और धर्म की मान्यताएँ बदलने लगती हैं। प्राचीन पीढ़ी परम्परावादी तथा नयी पीढ़ी प्रगतिवादी होने के कारण इनमें संघर्ष हो जाता है। पीढ़ियों का यह संघर्ष सामाजिक विघटन को जन्म देता है। भारतीय समाज में प्रेम-विवाह, दूसरी जातियों में विवाह वे जाति पंचायतों का घटता महत्त्व सामाजिक विघटन के प्रतीक हैं।

3. समितियों के कार्यों का पारस्परिक हस्तान्तरण-
समाज में समितियों के कार्य एवं कर्तव्य निर्धारित थे, परन्तु परिवर्तन के कारण समितियों के कार्य दूसरी समितियों को हस्तान्तरित हो गये हैं। परिवार के गौण कार्य विद्यालय, मन्दिर व अस्पतालों को हस्तान्तरित होने से सामाजिक विघटन प्रारम्भ हो गया है।

4. व्यक्तिवाद का बोलबाला-
समाज में जब ‘हम’ के स्थान पर ‘मैं’ की भावना बलवती हो जाती है तब व्यक्तिवाद का नाग फन उठा लेता है, जो सामूहिक हित और कल्याण की भावना को डस लेता है। भौतिकवाद की चकाचौंध ने व्यक्तिवाद को जन्म देकर सामाजिक विघटन को बढ़ावा दिया है।

5. अपराधों में वृद्धि-
सामाजिक विघटन को ज्वलन्त प्रमाण है समाज में अपराधों का बढ़ जाना। बाल-विवाह, हत्या, यौन शोषण, वेश्यावृत्ति, बलात्कार, आत्महत्या, तलाक, भ्रष्टाचार, नशाखोरी आदि अपराध सामाजिक विघटन के कारण जन्म लेते हैं।

6. सामाजिक समस्याओं का उदय-सामाजिक विघटन सामाजिक समस्याओं के उदय का द्योतक है। जिस समाज में दहेज-प्रथा, बाल-विवाह, परदा-प्रथा, निर्धनता, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति तथा अत्यधिक जनसंख्या जैसी समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हों, वहाँ समझ लेना चाहिए कि समाज सामाजिक विघटन की प्रक्रिया से गुजर रहा है।

7. परिस्थिति और भूमिका में अस्पष्टता-सामाजिक विघटन की प्रक्रिया के फलस्वरूप सदस्यों की परिस्थिति तथा भूमिका अस्पष्ट हो जाती है। इस प्रकार सदस्यों और संस्थाओं के मध्य सामंजस्य स्थापित न हो पाने के कारण सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिलता है।

8. एकमत का अभाव-समाज के सदस्यों के मत में जब सार्वजनिक प्रश्नों पर एकमत का अभाव हो जाए तभी सामाजिक विघटन होने को सत्य मान लेना चाहिए। मार्टिन न्यूमेयर के शब्दों में, “जब एकमत व उद्देश्यों की एकता समाप्त हो जाती है, तब समाज में सामाजिक विघटन प्रारम्भ हो जाता है। ऐसी स्थिति में सामाजिक समस्याओं का हल एकमत होकर नहीं खोजा जा सकता।

यदि किसी समाज में उपर्युक्त लक्षण विद्यमान हैं तो स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि वह समाज विघटित हो रहा है। उसमें विघटन की प्रक्रिया निरन्तर कार्यशील है अन्यथा वह संगठित है।

सामाजिक विघटन के कारण

सामाजिक विघटन के लिए निम्नलिखित कारण उत्तर:दायी हैं
1. सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन-समाज में होने वाले सामाजिक परिवर्तन भी सामाजिक विघटन का स्रोत हो सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन के कारण व्यक्ति नये सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाता है। इन मूल्यों को अपनाने से उसकी आदतें, रहन-सहन व जीवन-पद्धति बदलने लगती है। कई बार इससे समाज के प्राचीन व नवीन मूल्यों में संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है, जिसके कारण सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है।

2. सामाजिक मनोवृत्तियाँ-सामाजिक मनोवृत्तियाँ या दृष्टिकोण भी सामाजिक विघटन का कारण होते हैं। इलियट तथा मैरिल के अनुसार, समाज के सदस्यों में सामाजिक घटनाओं के प्रति अलग-अलग दृष्टिकोण भी सामाजिक विघटन लाते हैं। सामाजिक दृष्टिकोण व्यक्तिगत चेतना की वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति की सामाजिक संसार में वास्तविक या सम्भावित क्रिया को निश्चित करती है। प्राचीन और नवीन पीढ़ी में संघर्ष कई बार दृष्टिकोण में भिन्नता के कारण ही होता है, जो सामाजिक विघटन लाता है। अत: नवीन व प्राचीन दृष्टिकोणों में संघर्ष की स्थिति सामाजिक विघटन लाती है।

3. सामाजिक मूल्य-सामाजिक मूल्यों का हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। जब व्यक्तिगत दृष्टिकोण व सामाजिक मूल्यों में अनुरूपता नहीं रहती अथवा इनमें सामंजस्य समाप्त हो जाता है, तो विघटन की स्थिति पैदा हो जाती है। मूल्य वे सामाजिक तथ्य होते हैं जो हमारे लिए कुछ अर्थ रखते हैं और जिन्हें जीवन की योजना के लिए हम महत्त्वपूर्ण समझते हैं। इन मूल्यों के बिना हम सामाजिक संगठन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

4. सामाजिक संकट-सामाजिक संकट भी समाज के सामान्य कार्यों में बाधा उत्पन्न करता है और इस प्रकार विघटन को प्रोत्साहन मिलता है। संकट से रीति-रिवाजों द्वारा संचालन में बाधा उत्पन्न हो जाती है और संघर्ष व विघटन की स्थिति विकसित हो जाती है। सामाजिक संकट के दो प्रमुख रूप हैं-आकस्मिक संकट तथा संचयी संकट। आकस्मिक संकट समाज में अचानक उत्पन्न होने वाला संकट है। प्राकृतिक प्रकोप (जैसे-अकाल, महामारी, बीमारी इत्यादि), आकस्मिक दुर्घटनाएँ (जैसे-रेल दुर्घटना, बाढ़ इत्यादि) तथा किसी महान् नेता की मृत्यु आदि ऐसे संकटों को प्रोत्साहन देते हैं। आकस्मिक संकट ऐसा परिवर्तन लाता है जिसके साथ व्यक्ति सामंजस्य स्थापित नहीं रख पाते और इस प्रकार इससे विघटन को प्रोत्साहन मिलता है। संचयी संकट समाज में धीरे-धीरे उत्पन्न होने वाला संकट है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता, धार्मिकता इत्यादि संचयी संकट के उदाहरण हैं, जो पारिवारिक तनाव व विघटन को प्रोत्साहन देते हैं।

5. युद्ध-सामाजिक विघटन लाने में युद्ध का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इलियट तथा मैरिल ने युद्ध को सामाजिक विघटन का तीव्रतम स्वरूप बताया है। युद्ध में सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है तथा अनेक सामाजिक बुराइयों में समस्याओं का जन्म होता है जिनसे सामाजिक विघटन पैदा हो जाता है।

6. आर्थिक कारण-सामाजिक विघटन लाने में आर्थिक कारकों का भी महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। निम्नलिखित प्रमुख आर्थिक कारण सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देते हैं

(अ) औद्योगीकरण-औद्योगीकरण उद्योगों के विकास की एक प्रक्रिया है, जिसके परिणामस्वरूप यान्त्रिकी, यातायात व संचार साधनों तथा कृषि की तकनीक में बड़ी तीव्रता से परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन भी कई बार व्यक्तिगत तथा पारिवारिक विघटन को प्रोत्साहन देकर सामाजिक विघटन लाते हैं।
(ब) बेरोजगारी-बेरोजगारी भी सामाजिक विघटन का एक प्रमुख आर्थिक कारण है। बेरोजगार व्यक्ति जब वैधानिक ढंग से रोजगार की सुविधाएँ प्राप्त नहीं कर पाते तो वे मनमाना व्यवहार करने लगते हैं और समाज की प्रथाओं से उनकी सहानुभूति समाप्त होने लगती है। उनमें मानसिक तनाव अधिक हो जाता है। ये सभी परिस्थितियाँ बेकार लोगों को विघटन के द्वार पर पहुँचा देती हैं।
(स) औद्योगिक बीमारियाँ एवं श्रम-समस्याएँ-औद्योगीकरण अनेक प्रकार की समस्याओं एवं बीमारियों में भी वृद्धि कर देता है। इनसे पहले व्यक्तिगत विघटने होता है, फिर पारिवारिक विघटन होता है और बाद में सामाजिक विघटन की स्थिति आ जाती है। श्रम-समस्याएँ भी सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देती हैं।
(द) निर्धनता-निर्धनता भी सामाजिक विघटन का एक कारण है। जब निर्धन व्यक्तियों की आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पातीं तो बहुत-से लोग मानसिक असन्तुलन का शिकार हो जाते हैं या गैर-कानूनी तरीकों से अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने का प्रयास करते हैं। इससे भी सामाजिक विघटन की स्थिति को प्रोत्साहन मिलता है।

7. धार्मिक कारण-धार्मिक कारणों से भी सामाजिक विघटन होता है। धार्मिक मान्यताएँ नवीन परिवर्तनों के अनुकूल नहीं रह पातीं तो तनावपूर्ण स्थिति हो जाती है, जो संघर्ष तथा विघटन को उत्पन्न करती है। अनेक बार धर्म सामाजिक परिवर्तनों को प्रोत्साहन देने लगता है अथवा इसका विरोध करने लगता है, तो भी संघर्षपूर्ण स्थिति पैदा हो जाती है और सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है।

8. राजनीतिक कारण-राजनीतिक अस्थिरता, गुटबन्दी, सत्ता का कुछ व्यक्तियों या समूहों
के हाथों में केन्द्रित हो जाना, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा राजनीति में नैतिकता का ह्रास भी ऐसी परिस्थितियाँ विकसित कर देते हैं जो सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देती हैं। जब | किसी समाज में राजनेता ही भ्रष्टाचार में लिप्त हों तो ऐसे समाज में विघटनकारी शक्तियों को प्रोत्साहन मिलना स्वाभाविक है। भारत में बोफोर्स काण्ड, यूरिया काण्ड, चारा-घोटाला तथा दवाई काण्ड इसके उदाहरण हैं।

सामाजिक विघटन का सामाजिक जीवन पर प्रभाव

सामाजिक विघटन सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित करता है। सामाजिक विघटन से प्रभावित होने वाले प्रमुख पक्ष निम्नलिखित हैं

1. मानव के आचरण पर प्रभाव-सामाजिक विघटन मानव के आचरण पर पर्याप्त प्रभाव डालता है। विघटन के समय एक ओर, व्यक्ति अपने उत्तर:दायित्व को नहीं निभाते और अपने दायित्वों को दूसरे पर डालने लगते हैं तथा दूसरी ओर, अपने अधिकारों .. की अधिक-से-अधिक माँग करते हैं। सहयोग और सद्भावना के स्थान पर कलह का बोलबाला हो जाता है। आत्महत्या, अपराध, व्यभिचार, मद्यपान आदि सामाजिक विघटन के व्यक्तिगत परिणाम हैं।

2. नैतिक स्तर पर प्रभाव-सामाजिक विघटन का समाज के नैतिक स्तर पर भी प्रभाव पड़ता है। जिसे समाज में विघटन प्रारम्भ हो जाता है, उसके सदस्य अपने स्वार्थ के लिए नैतिकता की बलि दे डालते हैं। समाज में चोरी करना, रिश्वत लेना, अपहरण तथा डकैती एक आम बात हो गयी है। समाज के प्राचीन रीति-रिवाज भी लुप्त होने लगते हैं। व्यक्ति को उचित व अनुचित का ध्यान नहीं रहता और उनकी वृत्ति पापमयी हो जाती है।

3. धार्मिक व्यवस्था पर प्रभाव-धर्म समाज में व्यक्तियों को एक सूत्र में बाँधने का काम करता है, परन्तु धार्मिक परिवर्तनों ने व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्धों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “धर्म के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन व्यक्ति और धार्मिक समस्याओं में पाये जाने वाले मान्यता प्राप्त सम्बन्ध को प्रभावित करते हैं।”

4. राजनीतिक संस्थाओं पर प्रभाव-राजनीतिक संस्थाओं के विघटित हो जाने पर व्यक्तियों को अपने अधिकार प्राप्त नहीं होते और उनका जीवन भी सुरक्षित नहीं रह पाता है। राजनीतिक संस्थाओं पर अधिकार रखने वाले व्यक्ति समाज-हित की उपेक्षा कर अपने लाभ के कार्यों में लग जाते हैं। प्रत्येक राजनीतिक संस्था में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो जाता है और जनसाधारण की स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। सामाजिक विघटन के परिणामस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता भी आ जाती है।

5. शिक्षा-व्यवस्था पर प्रभाव-सामाजिक विघटन होने पर शिक्षा-व्यवस्था भी भ्रष्ट हो जाती है और उसका स्वरूप उद्देश्यहीन हो जाता है। अध्यापक अपने पवित्र कर्तव्य को भूल जाते हैं और अध्यापन की अपेक्षा व्यक्तिगत स्वार्थ को महत्त्व देने लग जाते हैं। छात्र भी अध्ययन में रुचि न लेकर कर्तव्यहीन हो जाते हैं तथा हर स्थान पर अनुशासनहीनता का वातावरण बन जाता है।

6. राजनीतिक व्यवस्था पर प्रभाव-जब सामाजिक विघटन चरम सीमा तक पहुँच जाता है। तो इसका परिणाम क्रान्ति होता है। सरकार द्वारा जब जनता के अधिकारों की उपेक्षा की जाने लगती है तथा उसकी सुविधाओं का ख्याल न कर उस पर आवश्यकता से अधिक कर लगा दिये जाते हैं, तब जनता सरकार के विरुद्ध आन्दोलन या क्रान्ति करती है।

7. बेकारी का प्रसार-सामाजिक विघटन के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में विकार आ जाता है, जिसके कारण समाज में बेकारी का प्रसार होता है, व्यक्तियों में असन्तोष बढ़ता है तथा अलगावपूर्ण प्रवृत्तियाँ विकसित होने लगती हैं।

सामाजिक संगठन तथा विघटन में अन्तर

1. सामाजिक संगठन की धारणा एक ऐसे परिवर्तनशील सामाजिक सन्तुलन का बोध कराती है जिसके अन्तर्गत सभी समूह तथा संस्थाएँ अपने पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों के अनुसार व्यवहार करके सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने में योगदान करते रहते हैं। सामाजिक विघटन का तात्पर्य किसी भी ऐसी स्थिति से है, जिसमें एक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध टूट जाते हैं और इस प्रकार सामाजिक जीवन अव्यवस्थित हो जाता है। इस दृष्टिकोण से संगठन तथा विघटन की दशाएँ एक प्रक्रिया के रूप में क्रियाशील होने के बाद भी एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न हैं।

2. सामाजिक संगठन की एक अनिवार्य विशेषता किसी समूह के सदस्यों में एकमत होना, अर्थात्अ धिकतर विषयों के प्रति समान दृष्टिकोण प्रदर्शित करना है। विघटन की दशा में यह एकमत अनेक छोटे-छोटे तथा स्वार्थपूर्ण समूहों में विभाजित हो जाता है।

3. सामाजिक संगठन में नियोजन का गुण निहित है। समाज मनुष्यों के सक्रिय प्रयासों के बिना संगठित नहीं रह सकता। इसके विपरीत; विघटन के लिए व्यक्ति पृथक् अथवा नियोजित रूप से कोई प्रयत्न नहीं करते, बल्कि अज्ञात रूप से अनेक घटनाएँ समाज को विघटित करती रहती हैं।

4. उपर्युक्त अन्तर से यह भी स्पष्ट होता है कि सामाजिक संगठन की स्थापना विकास की एक लम्बी प्रक्रिया के बाद ही सम्भव हो पाती है। तुलनात्मक रूप से विघटन की दशा उत्पन्न होने में बहुत कम समय लगता है।

5. सामाजिक संगठन की दशा में सभी सदस्यों की स्थिति तथा भूमिका सुनिश्चित रहती है। और अधिकांश व्यक्ति समूह की आशाओं के अनुसार अपनी भूमिका का निर्वाह करते रहते हैं। दूसरी ओर, विघटन की दशा में व्यक्ति की भूमिका तथा स्थिति के बीच एक सामान्य असन्तुलन स्पष्ट होने लगता है।

6. सामाजिक संगठन का अभिप्राय सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था का प्रभावपूर्ण बने रहना है। इसके विपरीत, नियन्त्रण के साधनों में जब दिखावा (Formalism) उत्पन्न हो जाता है, तब इसी दशा को हम विघटन कहते हैं।

7. सामाजिक संगठन तार्किक है, जब कि सामाजिक विघटन अतार्किक और भावनात्मक है। इसका तात्पर्य यह है कि संगठन के अन्तर्गत व्यक्ति के व्यवहार सामाजिक मूल्यों के अनुरूप होते हैं तथा व्यक्ति के व्यवहारों को सरलता से समझा जा सकता है। विघटन की दशा में अनिश्चितता, भ्रम तथा विवेकशून्यता इतनी बढ़ जाती है कि किसी भी व्यक्ति के व्यवहारों | का पूर्वानुमान कर सकना अत्यधिक कठिन हो जाता है।

8. संगठन वांछित है और विघटन अवांछित। इसके पश्चात् भी ये दोनों दशाएँ कम या अधिक मात्रा में प्रत्येक समाज में साथ-साथ क्रियाशील रहती हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें संगठन के प्रति सचेत रहते हैं, जब कि परिवर्तन की प्रक्रिया विघटनकारी दशाओं को भी उत्पन्न करती रहती है।

प्रश्न 2
भारत में सामाजिक विघटन से सम्बन्धित कुछ प्रमुख समस्याओं की विवेचना कीजिए।
या
भारत में सामाजिक अपराध की समस्याओं पर प्रकाश डालिए। [2010]
उत्तर:
भारत में सामाजिक विघटन से सम्बन्धित समस्याओं को वैयक्तिक विघटन, पारिवारिक विघटन तथा सामुदायिक विघटन के आधार पर निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है–
1. वैयक्तिक विघटन से सम्बन्धित समस्याएँ-इन समस्याओं में प्रमुख हैं

  1. समायोजन की समस्या–देश में भौतिक स्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं। घर-घर में फ्रिज, कारें, टेलीविजन आदि देखने को मिलते हैं। परन्तु अभौतिक परिस्थितियों में बहुत कम परिवर्तन हुए हैं। अधिकांश लोग पुरानी रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा धार्मिक मान्यताओं में जकड़े पड़े हैं। साधारण व्यक्ति भौतिक तथा अभौतिक स्थितियों में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पा रहा। परिणामस्वरूप व्यक्ति चिन्ता, निराशा, अभाव व असुरक्षा से ग्रस्त हो गया है।
  2. आर्थिक विषमता की समस्या-भारत में एक ओर राजनीतिज्ञ, प्रशासनिक अधिकारी एवं अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भोग-विलासमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तो दूसरी ओर सामान्य व्यक्ति आर्थिक अभाव से ग्रस्त हैं। वह कुण्ठावश अपनी आवश्यकताओं में वृद्धि करता है और उनकी पूर्ति हेतु भ्रष्ट या समाज-विरोधी तरीके अपनाने से नहीं चूकता। परिणामस्वरूप वह पारिवारिक कलह, भ्रष्टाचार, ऋणग्रस्तता की पकड़ में आकर विघटित होता है।
  3. भौतिकवाद की समस्या-भारत में भी पश्चिमी देशों की तरह भौतिकवाद समाज पर हावी होता जा रहा है। व्यक्ति के चारों ओर भौतिक सामग्री, सुखमय व विलासी जीवन बिखरा पड़ा है। उससे लालायित होकर व्यक्ति अपराध के रास्ते पर जाकर भौतिक सुख भोगने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती। परिणामस्वरूप बाल-अपराध, वेश्यावृत्ति, मद्यपान, मादक द्रव्य व्यसन, पागलपन, आत्महत्या, भिक्षावृत्ति, विवाह-विच्छेद के रूप में व्यक्ति का विघटन हो रहा है।

2. पारिवारिक विघटन सम्बन्धी समस्याएँ-हमारे देश में भौतिकवाद के प्रति झुकाव तथा संयुक्त परिवार के बिखराव के परिणामस्वरूप पारिवारिक विघटन सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। परिवार में स्नेह, प्रेम, सहयोग, सद्भाव जैसे गुणों का अभाव होता जा रहा है, जो पारिवारिक विघटन का रूप ले रहा है। पारिवारिक विघटन निम्नलिखित समस्याओं को जन्म दे रहा है

  • सदस्यों में हितों की एकता का अभाव,
  • पारिवारिक उद्देश्यों की एकता का अभाव,
  • यौन-इच्छाओं की पूर्ति परिवार के बाहर,
  • विरोधी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ।

3. सामुदायिक विघटन सम्बन्धी समस्याएँ-सामुदायिक विघटन वह स्थिति है जिसमें उसका स्वाभाविक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, उसमें असन्तुलन आ जाता है। सामुदायिक विघटन के कारक हैं-सामाजिक परिवर्तन, संघर्ष, व्यक्तिवाद, संस्थागत रूढ़िवादिता, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा गतिशीलता। सामुदायिक विघटन जो समस्याएँ उत्पन्न करता है, वे हैं-युद्ध व हिंसा, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, क्षेत्रवाद आदि।

प्रश्न 3
वैयक्तिक विघटन से क्या अभिप्राय है? इसके प्रमुख स्वरूपों की विवेचना कीजिए।
या
वैयक्तिक विघटन किसे कहते हैं? इसका प्रभाव लिखिए। [2016]
उत्तर:

वैयक्तिक विघटन

व्यक्ति के जीवन संगठन का अव्यवस्थित होना ही वैयक्तिक विघटन है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति के व्यक्तित्व का समाज की मान्यताओं के अनुरूप विकास नहीं हो पाता है। इस प्रकार का असन्तुलित व्यक्तित्व ही वैयक्तिक विघटन के लिए उत्तर:दायी है। वैयक्तिक विघटन वह स्थिति है जिसमें असन्तुलित व्यक्तित्व के कारण व्यक्ति समाज द्वारा मान्य व्यवहार-प्रतिमानों के विपरीत आचरण करता है। वैयक्तिक विघटन को परिभाषित करते हुए इलियट और मैरिल ने लिखा है, “समाज के नियमों एवं समाज के साथ तादात्मीकरण न होना ही वैयक्तिक विघटन है।”

माउरर के अनुसार, “सभी वैयक्तिक विघटन व्यक्ति के उन आचरणों का प्रतिनिधित्व करता है, जो संस्कृति द्वारा स्वीकृत आदर्श प्रतिमान से इतना अधिक विचलित होते हैं कि उन्हें सामाजिक दृष्टि से अमान्य माना जाता है।”

लेमर्ट ने बताया कि वैयक्तिक विघटन वह दशा या प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपनी मुख्य भूमिका के चारों ओर अपने व्यवहार को सुस्थिर नहीं कर पाता है। उसकी भूमिका के चुनाव की प्रक्रिया में संघर्ष या भ्रम बना रहता है। ऐसा विघटन कुछ समय के लिए भी हो सकता है और निरन्तर भी बना रह सकता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि

  1. वैयक्तिक विघटन व्यक्ति के व्यक्तित्व की असन्तुलित अवस्था है,
  2. इसमें व्यक्ति समाज एवं संस्कृति द्वारा स्वीकृत आदर्श-प्रतिमानों के प्रतिकूल आचरण करता है,
  3. सामाजिक दृष्टि से इसमें व्यक्ति अपने जीवन-संगठन में व्यवधान उत्पन्न करके उसे भंग कर लेता है,
  4. वैयक्तिक विघटन की स्थिति में व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों, परिवार मित्रों, साथियों एवं समाज के साथ सम्बन्ध ढीले पड़ जाते हैं। विघटित व्यक्तित्व वाला व्यक्ति समाज की अपेक्षाओं के अनुकूल भूमिका नहीं निभा पाता है,
  5. ऐसा व्यक्ति समूह से कट जाता है, अपने को अकेला महसूस करता है, भावनात्मक दृष्टि से अपने को असुरक्षित पाता है।

वैयक्तिक विघटन सम्बन्धित स्वरूप-यहाँ हम वैयक्तिक विघटन के उन स्वरूपों पर ही विचार करेंगे जो प्रमुखतः सामाजिक कारकों के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। जब व्यक्ति के जीवनसंगठन का विघटन होता है तो उसका प्रकटीकरण बाल-अपराध, अपराध, यौन-अपराध, मद्यपान, पागलपन और आत्महत्या के रूप में होता है। इलियट और मैरिल ने बताया है कि वैयक्तिक विघटने के स्वरूप, एक अथवा दूसरे प्रकार से, व्यक्तियों के सन्तोषप्रद जीवन-संगठन को प्राप्त करने की असमर्थता को व्यक्त करते हैं। ऐसे व्यक्ति अनेक कारणों से समूह की अपेक्षाओं के अनुरूप भूमिकाएँ अदा करने में असमर्थ रहते हैं। परिणामस्वरूप उनका जीवन-संगठन असन्तुलित हो जाता है और वैयक्तिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है। जब परिस्थितियाँ व्यक्तियों को उन कार्यों को करने को बाध्य कर देती हैं जिनके लिए वे शारीरिक एवं स्वभावगत रूप से अयोग्य हैं। तो ऐसी स्थिति में उनके व्यक्तित्व विघटित हो जाते हैं।

माउरर ने वैयक्तिक विघटन के आधार पर व्यक्तित्व के दो प्रकार बताये हैं
1. सृजनात्मक व्यक्तित्व-प्रायः व्यक्ति की अति-संवेदनशीलता उसे ऐसे कार्य करने को प्रोत्साहित करती है, जो सामान्य लोगों को स्वीकार नहीं होते। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की सृजनात्मकता उसके वैयक्तिक विघटन का कारण बन जाती है। जब इस प्रकार के व्यक्तियों को समाज द्वारा किसी प्रकार की मान्यता प्राप्त नहीं होती तो अति संवेदनशीलता के कारण इनके अहम् को चोट लगती है, गहरा मानसिक आघात लगता है तथा ये अपने आप को अकेला, उदासीन व निराश पाते हैं। इनमें अलगाव की भावना उत्पन्न हो जाती है। परिणामस्वरूप ऐसे व्यक्तियों को वैयक्तिक जीवन विघटित हो जाता है। इन लोगों में शिक्षाशास्त्री, साहित्यकार, संगीतकार, कलाकार, लेखक और समाज-सुधारक प्रमुख हैं। इनको तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-

  • सुधारक,
  • विद्रोही और क्रान्तिकारी तथा
  • असहयोगी व्यक्ति।

2. व्याधिकीय व्यक्तित्व-व्याधिकीय व्यक्तित्व के अन्तर्गत उन लोगों को सम्मिलित किया जाता है जो शारीरिक दुर्बलताओं, मानसिक कमियों या दोषों अथवा स्नायविक विचार के कारण वैयक्तिक विघटने का शिकार बनते हैं। शारीरिक दोषों; जैसे-अंग-भंग, अन्धेपन, बहरेपन, लंगड़ेपन के कारण कई बार व्यक्ति अन्य लोगों के साथ सहजभाव से अनुकूलन नहीं कर पाता। इस दशा में उसे अन्य लोगों से प्रेम और स्नेह नहीं मिल पाता तथा वह मानसिक असुरक्षा अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में उसके व्यक्तित्व का सामान्य विकास रुक जाता है तथा वह हीन-भावना से ग्रसित हो जाता है। इस दशा में वह समाज के आदर्श-प्रतिमानों के विपरीत आचरण करने लगता है तथा वह समाज-विरोधी कार्य करने से भी नहीं चूकता। परिणामस्वरूप उसका वैयक्तिक विघटन हो जाता है।

प्रश्न 4
सामाजिक विघटन की परिभाषा दीजिए। भारत में पारिवारिक विघटन के कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
सामाजिक विघटन की परिभाषा दीजिए।
सामाजिक विघटन से पारिवारिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है भारत में पारिवारिक विघटन के प्रमुख कारण भी बताइए।
या
सामाजिक विघटन का पारिवारिक जीवन पर प्रभाव स्पष्ट कीजिए। [2007]
उत्तर:

सामाजिक विघटन की परिभाषाएँ

विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक विघटन को निम्न शब्दों में स्पष्ट करने का प्रयास किया है–
फैरिस के अनुसार, “सामाजिक विघटन व्यक्तियों के बीच प्रकार्यात्मक सम्बन्धों के उस मात्रा में टूट जाने को कहते हैं जिससे समूह के स्वीकृत कार्यों को पूरा करने में बाधा पड़ती है।”

थॉमस एवं नैनिकी के अनुसार, “सामाजिक विघटन समूह के सदस्यों पर से मौजूदा नियमों के प्रभाव का कम होना है।”

लेमर्ट के अनुसार, “सामाजिक संस्थाओं एवं समूहों के बीच असन्तुलन तथा व्यापक संघर्ष पैदा हो जाने का नाम सामाजिक विघटन है।”

पी० एच० लैंडिस के अनुसार, “सामाजिक विघटन में मुख्यतया सामाजिक नियन्त्रण का भंग होना होता है, जिससे अव्यवस्था और विभ्रम पैदा होता है।”

लेपियर और फार्क्सवर्ग के अनुसार, “विघटन विशेष रूप से सामाजिक संरचना के अन्दर उत्पन्न हुए असन्तुलन की ओर संकेत करता है।”

गिलिन और गिलिन के अनुसार, “सामाजिक विघटन से हमारा तात्पर्य सम्पूर्ण सांस्कृतिक ढाँचे के विभिन्न तत्त्वों के बीच ऐसा असन्तुलन उत्पन्न होना है जो समूह के अस्तित्व को ही खतरे में डाल देता है या समूह के सदस्यों की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने में इतनी गम्भीर बाधाएँ उत्पन्न करता है कि उससे सामाजिक एकता नष्ट हो जाती है।”

सामाजिक विघटन की उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सामाजिक संगठन की विरोधी अवस्था है जिसमें अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है और सामाजिक नियन्त्रण भंग हो जाता है। इस अवस्था में सामाजिक संरचना प्रकार्यात्मक सन्तुलन खो देती है और समाज के विभिन्न समूहों एवं संस्थाओं में असन्तुलन विकसित हो जाता है।

भारत में पारिवारिक विघटन के कारण

पारिवारिक विघटन के चार मुख्य कारण निम्नलिखित हैं।

  1. औद्योगीकरण एवं नगरीकरण-औद्योगीकरण के कारण लोग रोजगार की तलाश में औद्योगिक नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। साथ-साथ नगरीय जीवन की चमक-दमक तथा आरामदायक जिन्दगी भी मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। ये दोनों ही पारिवारिक विघटन के मुख्य कारक हैं।
  2. आर्थिक आत्मनिर्भरता के प्रति झुकाव-आज का नवयुवक वर्ग संयुक्त परिवार की आर्थिक व्यवस्था सहन नहीं कर पाता है। उसके विचारों की आर्थिक आत्मनिर्भरता तथा आर्थिक स्वतन्त्रता ने प्रमुख स्थान धारण कर लिया है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन को बेल मिल रहा है।
  3. द्वेष एवं कलह से मुक्ति-आज संयुक्त परिवारों का वातावरण बड़ा बोझिल हो गया है। सदस्यों के सम्बन्ध औपचारिक होते जा रहे हैं तथा आत्मीयता कम होती जा रही है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन बढ़ रहा है।
  4. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रति आकर्षण-अधिक सदस्य होने के कारण संयुक्त परिवार में नवविवाहित दम्पती को भी कई बार स्वतन्त्र रूप से मिलना कठिन होता है। फिर यहाँ कर्ता का स्थान इतना अधिक प्रमुख होता है कि प्रत्येक सदस्य अपने को पराधीन अनुभव करता है तथा स्वतन्त्रता के लिए लालायित रहता है। इस कारण भी पारिवारिक विघटन हो रहा है।

सामाजिक विघटन का पारिवारिक जीवन पर प्रभाव

सामाजिक विघटन पारिवारिक जीवन को भी नष्ट एवं अस्त-व्यस्त कर देता है। एक तरफ पारिवारिक विघटन सामाजिक विघटन को जन्म देता है तो दूसरी तरफ, सामाजिक विघटन पारिवारिक विघटन भी पैदा करता है। सामाजिक विघटन परिवार पर निम्नांकित प्रभाव डालता है-

  1. तलाक-सामाजिक विघटन के कारण पति अपनी पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण नहीं कर पाता, गरीबी तथा बेकारी के कारण उनमें मनमुटाव एवं संघर्ष पैदा होता है और वे परस्पर तलाक ले लेते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों का समुचित रूप से पालन नहीं हो पाता और वे बिगड़ जाते हैं।
  2. अवैध सन्ताने-सामाजिक विघटन के कारण व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व यौन-स्वच्छन्दता बढ़ जाती है, गरीबी एवं बेकारी के कारण स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति अपनाने लगती हैं, इससे अवैध सन्ताने पैदा होने लगती हैं।
  3. पॉरिवारिक तनाव एवं संघर्ष-सामाजिक विघटन के कारण पारिवारिक मूल्यों एवं आदर्शों को ह्रास हो जाता है, नियन्त्रण शिथिल हो जाता है; अतः परिवार में तनाव वे संघर्ष बढ़ जाता है। परिवार में पिता की सत्ता की अवहेलना होने लगती है, स्त्रियों में स्वच्छन्दता आ जाती है, बच्चे उद्दण्ड हो जाते हैं और आवारागर्दी करने लगते हैं। ये सभी स्थितियाँ परिवार में तनाव और संघर्ष पैदा करती हैं।

प्रश्न 5
सामाजिक विघटन की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए इसके प्रमुख प्रकार बताइए। [2007, 16]
या
सामाजिक विघटन क्या है? इसके प्रमुख स्वरूपों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:

सामाजिक विघटन की अवधारणा

प्रत्येक समाज की संरचना में बहुत-से छोटे-बड़े समूहों, संस्थाओं तथा सदस्यों की अन्तक्रियाओं का योगदान रहता है। इनमें से प्रत्येक समूह तथा संस्था के अपने-अपने कुछ पूर्व-निर्धारित प्रकार्य होते हैं। यह प्रकार्य व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुरूप भूमिका निभाने की प्रेरणा ही नहीं देते बल्कि सामाजिक व्यवस्था की उपयोगिता को भी बनाये रखते हैं। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में जब सामाजिक संरचना इस तरह टूट जाती है कि इसकी एक इकाई दूसरी की पूरक नहीं रह जाती, अथवा उसके कार्यों में बाधा डालने लगती है तो सामाजिक व्यवस्था में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। यही स्थिति सामाजिक विघटन की स्थिति होती है। अध्ययन की सरलता के लिए इस स्थिति को एक उदाहरण की सहायता से समझा जा सकता है। प्राणी की शरीर-रचना सावयवी व्यवस्था का एक सुन्दर उदाहरण है। इस व्यवस्था का निर्माण अनेक छोटे-बड़े अंगों, नाड़ी-व्यवस्था, रक्त संचालन तथा चयापचय की प्रक्रिया के द्वारा होता है। सावयवी व्यवस्था के अन्तर्गत इनमें से कोई भी इकाई यदि अपना कार्य करना बन्द कर दे अथवा दूसरे अंगों की क्रियाशीलता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने लगे तो सम्पूर्ण शरीर अस्वस्थ हो जाता है। इस स्थिति को हम सावयवी विघटन कहते हैं।

सामाजिक विघटन क्या है?

प्रत्येक समाज में व्यवस्था एवं संगठन पाया जाता है। सभी समाजों में व्यक्ति अपने पूर्व-निश्चित पदों के अनुरूप भूमिका निभाते हैं, नियन्त्रण की व्यवस्था का पालन करते हैं और उद्देश्यों में साम्यता एवं एकमत्य पाया जाता है, किन्तु नवीन परिवर्तनों एवं अन्य कारणों से जब समाज की एकता नष्ट होने लगती है, नियन्त्रण व्यवस्था शिथिल होने लगती है, समाज में तनाव और संघर्ष बढ़ जाता है, लोगों में निराशा बढ़ जाती है और पारस्परिक अविश्वास पैदा हो जाता है, समाज में अस्थिरता और विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, तब सामूहिक जीवन नष्ट होने लगता है, तो इस स्थिति को हम सामाजिक विघटन कहते हैं। सामाजिक विघटन सामाजिक संगठन की विपरीत स्थिति है। अन्य शब्दों में, सामाजिक विघटन का तात्पर्य व्यवस्था के टूट जाने अथवा सामाजिक संरचना के विभिन्न भागों में एकता के अभाव से है।

सामाजिक विघटन के प्रकार अथवा स्वरूप

सामाजिक विघटन के प्रकार या स्वरूप निम्नलिखित होते हैं
1. वैयक्तिक विघटन-वैयक्तिक विघटन में व्यक्ति विशेष का विघटन होता है। इसके अन्तर्गत बाल-अपराध, युवा अपराध, पागलपन, मद्यपान, वेश्यावृत्ति, आत्महत्या आदि की समस्याओं को सम्मिलित किया जाता है। यदि किसी समाज में वैयक्तिक विघटन की दर बढ़ जाती है तो वह समाज भी विघटित होने लगता है।
2. पारिवारिक विघटन-जब पति-पत्नी और परिवार के अन्य लोगों के सम्बन्धों में तनाव चरम सीमा पर पहुँच जाता है तो पारिवारिक विघटन आरम्भ हो जाता है। पारिवारिक विघटन में तलाक, अनुशासनहीनता, गृहकलह, पृथक्करण आदि समस्याओं का समावेश होता है। ये समस्याएँ परिवार के स्वरूप एवं विघटन को ही बल देती हैं।
3. सामुदायिक विघटन-जब सम्पूर्ण समुदाय में विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है तो वह सामुदायिक विघटन कहलाता है। सामुदायिक विघटन में बेकारी, निर्धनता, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा अत्याचार जैसी समस्याओं का समावेश रहता है।
4. अन्तर्राष्ट्रीय विघटन-जब अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के विरुद्ध राष्ट्र आचरण करने लगते हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय विघटन प्रारम्भ हो जाता है। बड़े एवं शक्तिशाली राष्ट्र, छोटे एवं कमजोर राष्ट्रों को हड़पने का प्रयास करने लगते हैं। साम्राज्यवाद, क्रान्ति, आक्रमण, युद्ध तथा सर्वाधिकारवाद इसके उदाहरण हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक मनोवृत्तियों में आ रहे परिवर्तन, सामाजिक विघटन को कैसे प्रभावित कर
उत्तर:
सामाजिक मनोवृत्ति का तात्पर्य समाज की किसी विशेष परिस्थिति के प्रति व्यक्ति की मनोदशा से है। किसी वस्तु, घटना, समस्या आदि के बारे में व्यक्ति के विचार या दृष्टिकोण ही उसकी मनोवृत्ति कहलाती है। सामाजिक मनोवृत्ति का सम्बन्ध सामाजिक जागरूकता से है। ये सामाजिक मनोवृत्तियाँ समाज के नियमों, कानूनों के आदर्शों के आधार पर ही विकसित होती हैं। थॉमस एवं नैनिकी का मत है कि जब सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है, क्योंकि मनोवृत्तियों में परिवर्तन होने पर नियमों, कानूनों और आदर्शों का प्रभाव भी समाप्त होने लगता है, अर्थात् पुराने आदर्श व नियम परिवर्तित होने लगते हैं, इससे मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन आता है जिससे विघटन पैदा होता है। उदाहरण के लिए, भारत में विवाह, जाति, स्त्रियों की स्थिति, संयुक्त परिवार आदि के बारे में परम्परागत मनोवृत्तियों में परिवर्तन आया है। अब अन्तर्जातीय विवाह को बुरा नहीं माना जाता, लोग छोटे परिवारों को पसन्द करते हैं, स्त्रियों को आज अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त है। इन सभी के परिणामस्वरूप समाज में तनाव एवं विघटन की स्थिति उत्पन्न हो रही है।

प्रश्न 2
सामाजिक विघटन के कारक के रूप में औद्योगीकरण की क्या भूमिका है ?
या
औद्योगीकरण सामाजिक विघटन को कैसे बढ़ावा देता है? [2015]
उत्तर:
उत्पादन के क्षेत्र में मशीनों के प्रयोग ने औद्योगीकरण को जन्म दिया और औद्योगीकरण ने पूँजीवाद, साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद को। औद्योगीकरण के कारण उत्पादन बड़ी-बड़ी मशीनों से होने लगता है, कुटीर उद्योग नष्ट हो जाते हैं, छोटे उत्पादक श्रमिक बन जाते हैं, औद्योगिक केन्द्रों में हजारों की संख्या में मजदूर रहने लगते हैं, जिससे गन्दी बस्तियों का निर्माण होता है। मजदूर अपनी मांगों को मनवाने के लिए हड़ताल, तोड़फोड़ व घेराव करते हैं। पूँजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं, इससे गरीबी बढ़ती है। मशीनों की सहायता से बड़ी मात्रा में तीव्र गति से उत्पादन होने से बाजारों में माल भर जाता है। गरीबी के कारण उसे खरीदने वाले ग्राहक नहीं मिलते; अतः पूँजीपतियों को कारखानों को बन्द कर देना पड़ता है। इससे आर्थिक संकट और तनाव बढ़ता है। इस प्रकार की स्थिति समाज में विघटन उत्पन्न करती है।

प्रश्न 3
क्या भारतीय समाज (भारतीय सामाजिक जीवन) विघटित है ?
उत्तर:
किसी भी समाज को विघटित कहें या नहीं, इसका मूल्यांकन उन तत्त्वों या लक्षणों की उपस्थिति और अनुपस्थिति के आधार पर किया जाना चाहिए जो विघटन को प्रकट करते हैं। वैसे तो संगठन और विघटन की थोड़ी-बहुत मात्रा सभी समाजों में मौजूद होती है। कोई भी समाज ने तो पूरी तरह संगठित ही होता है और न पूर्णतः विघटित ही। भारतीय समाज में भी विघटन की तीव्र गति अंग्रेजों के काल से प्रारम्भ हुई मानी जा सकती है। अंग्रेजों ने भारतीयों का आर्थिक शोषण किया, यहाँ के कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया तथा भारतीय समाज व संस्कृति में अनेक पश्चिमी प्रथाओं, मूल्यों और विश्वासों को स्थापित किया। परिणामस्वरूप भारतीय अपनी मूल संस्कृति को त्यागने लगे। यदि हम गरीबी, बेकारी, वेश्यावृत्ति, मद्यपान, जुआ, डकैती, अपराध, बाल-अपराध, हड़ताल, प्रदर्शन, घेराव, तालाबन्दी, आतंकवादी गतिविधियाँ, तोड़फोड़, हत्या आदि के आँकड़ों पर एक नजर डालें तो पाएँगे कि इनमें दिनोंदिन वृद्धि हुई है। तलाक एवं विघटित परिवारों की संख्या बढ़ी है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रवाद व भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है; नैतिकता और राष्ट्रीय चरित्र में गिरावट आयी है। राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में ह्रास हुआ है और हम अध्यात्मवाद से परे हटकर दिनोंदिन भौतिकवादी होते जा रहे हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक विघटन क्या है? परिभाषित कीजिए।
उत्तर:

सामाजिक विघटन क्या है?

प्रत्येक समाज में व्यवस्था एवं संगठन पाया जाता है। सभी समाजों में व्यक्ति अपने पूर्व-निश्चित पदों के अनुरूप भूमिका निभाते हैं, नियन्त्रण की व्यवस्था का पालन करते हैं और उद्देश्यों में साम्यता एवं एकमत्य पाया जाता है, किन्तु नवीन परिवर्तनों एवं अन्य कारणों से जब समाज की एकता नष्ट होने लगती है, नियन्त्रण व्यवस्था शिथिल होने लगती है, समाज में तनाव और संघर्ष बढ़ जाता है, लोगों में निराशा बढ़ जाती है और पारस्परिक अविश्वास पैदा हो जाता है, समाज में अस्थिरता और विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, तब सामूहिक जीवन नष्ट होने लगता है, तो इस स्थिति को हम सामाजिक विघटन कहते हैं। सामाजिक विघटन सामाजिक संगठन की विपरीत स्थिति है। अन्य शब्दों में, सामाजिक विघटन का तात्पर्य व्यवस्था के टूट जाने अथवा सामाजिक संरचना के विभिन्न भागों में एकता के अभाव से है। इलियट एवं मैरिल के अनुसार, “सामाजिक विघटन वह प्रक्रिया है, जिसमें एक समूह के सदस्यों के बीच सामाजिक सम्बन्ध टूटते अथवा नष्ट हो जाते हैं।”

प्रश्न 2
पारसन्स के अनुसार सामाजिक विघटन का प्रमुख लक्षण क्या है ?
उत्तर:
पारसन्स ने प्रस्थिति तथा भूमिका की अनिश्चितता को सामाजिक विघटन का एक प्रमुख लक्षण माना है। उनका मानना है कि जहाँ समाज के अधिकतर व्यक्तियों की प्रस्थितियों और भूमिकाओं के बीच असन्तुलन पाया जाता है, वहाँ सामाजिक विघटन की दशा पायी जाती है। इस असन्तुलन के कारण सामाजिक संस्थाओं और उसके सदस्यों के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता।

प्रश्न 3
सामाजिक विघटन के कारण लिखिए। [2013]
या
सामाजिक विघटन के दो प्रमुख कारक बताइए।
उत्तर:
सामाजिक विघटन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन,
  2. सामाजिक मनोवृत्तियाँ (नवीन व प्राचीन दृष्टिकोणों में संघर्ष),
  3. सामाजिक मूल्य,
  4. सामाजिक संकट,
  5. युद्ध,
  6. आर्थिक कारण,
  7. धार्मिक कारण,
  8. राजनीतिक कारण।

प्रश्न 4
सामाजिक विघटन के कारक के रूप में युद्ध की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन के लिए युद्ध प्रमुख रूप से उत्तर दायी है। युद्धकाल में जन-धन की हानि होती है, वस्तुओं की कमी के कारण महँगाई बढ़ने लगती है, उत्पादन एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बन्द हो जाता है, बेकारी और गरीबी फैलती है, वेश्यावृत्ति पनपती है तथा बाल-अपराध और बढ़ जाते हैं, स्त्रियाँ विधवा और बच्चे अनाथ हो जाते हैं, परिवार एवं विवाह-सम्बन्ध टूट जाते हैं, नियमहीनता पैदा हो जाती है और समाज अनेक सामाजिक व आर्थिक समस्याओं से ग्रसित हो जाता है। दो विश्व युद्धों से यूरोप में ऐसी ही स्थिति हो गयी थी, जिसे हम सामाजिक विघटन के रूप में चित्रित कर सकते हैं।

प्रश्न 5
सामाजिक विघटन का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन के कारण पारिवारिक मूल्यों एवं आदर्शों का ह्रास हो जाता है, नियन्त्रण शिथिल हो जाता है; अतः परिवार में तनाव व संघर्ष बढ़ जाता है। परिवार में पिता की सत्ता की अवहेलना होने लगती है, स्त्रियों में स्वच्छन्दता आ जाती है, बच्चे उद्दण्ड हो जाते हैं और आवारागर्दी करने लगते हैं। ये सभी स्थितियाँ परिवार में तनाव और संघर्ष पैदा करती हैं।

प्रश्न 6
सामाजिक विघटन अपराधों को कैसे जन्म देता है ?
या
“सामाजिक विघटन अपराध वृद्धि का प्रधान कारण है।” स्पष्ट कीजिए। [2013]
उत्तर:
अपराध सामाजिक विघटन का प्रधान कारण व परिणाम दोनों है। सामाजिक विघटन मनुष्य के आचरण पर पर्याप्त प्रभाव डालता है। विघटन के समय व्यक्ति अपने उत्तर:दायित्व को नहीं निभा पाते और अपने दायित्वों को दूसरे पर डालते रहते हैं। परिवार में सहयोग और सद्भावना के स्थान पर कलह का बोलबाला हो जाता है। परिणामस्वरूप बच्चों पर माता-पिता का नियन्त्रण शिथिल हो जाता है और उन्हें कम उम्र में ही कमाने के लिए भेज दिया जाता है। बच्चे बाहर रहकर बीड़ी, सिगरेट व शराब पीने, चोरी करने, जुआ खेलने आदि की बुरी आदतों को सीख लेते हैं और अपराध करने लगते हैं।

प्रश्न 7
आत्महत्या किस प्रकार का विघटन है ?
या
वैयक्तिक विघटन क्या है ? इसकी पराकाष्ठा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक विघटन न केवल समुदाय तथा पारिवारिक जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि व्यक्तिगत जीवन को भी प्रभावित करता है। सामाजिक विघटन अपराधों को जन्म देता है। जब समाज में बेकारी, निर्धनता, महँगाई और अपराधों में वृद्धि हो जाती है तो व्यक्ति के विघटन की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। व्यक्ति के विघटन की अभिव्यक्ति अपराध, मद्यपान, वेश्यावृत्ति व भ्रष्टाचार के रूप में होती है। आत्महत्या व्यक्तिगत विघटन की चरम सीमा होती है।

प्रश्न 8
सामाजिक विघटन के कारक के रूप में सामाजिक संकट की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
समूह तथा समाज के सहज रूप में संचालन में बाधा उपस्थित होना ही सामाजिक संकट कहलाता है। संकट दो प्रकार के हो सकते हैं-आकस्मिक संकट तथा संचयी संकट। आकस्मिक संकट वे संकट हैं, जो समाज में अचानक उत्पन्न होते हैं। जैसे-बाढ़, भूचाल, अकाल, महामारी, युद्ध, महत्त्वपूर्ण नेता की मृत्यु आदि। ये आकस्मिक संकट को जन्म देते हैं। दूसरी ओर संचयी संकट धीरे-धीरे एकत्रित होते रहते हैं और एक समय ऐसा भी आता है कि वे समाज के संचालन में बाधा पैदा करने लगते हैं। संकट चाहे किसी भी प्रकार का हो, समाज में विघटन उत्पन्न करने के लिए उत्तर:दायी है।

प्रश्न 9
सामाजिक विघटन के कारक के रूप में सांस्कृतिक सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर:
सांस्कृतिक सिद्धान्त के मानने वालों में अमेरिकी समाजशास्त्री ऑगबर्न प्रमुख हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों का मत है कि जब संस्कृति के विभिन्न अंगों में असन्तुलन पैदा होता है। तो समाज में भी विघटन उत्पन्न होता है। जब भौतिक संस्कृति में तीव्र गति से परिवर्तन होते हैं।
और उसकी तुलना में अभौतिक संस्कृति पीछे रह जाती है तो इस दशा को ऑगबर्न ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ (Cultural Lag) कहकर पुकारते हैं। यह दशा प्राचीन एवं नवीन पीढ़ियों के विचारों, विश्वासों, मूल्यों तथा आदर्शों में खाई पैदा करती है और सामाजिक विघटन उत्पन्न करती है।

निश्चित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक विघटन क्या है ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन का तात्पर्य सामाजिक व्यवस्था के टूट जाने अथवा सामाजिक संरचना के विभिन्न भागों में एकता के अभाव से है।

प्रश्न 2
सामाजिक विघटन के सांस्कृतिक सिद्धान्त को मानने वाले प्रमुख समाजशास्त्री कौन हैं ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन के सांस्कृतिक सिद्धान्त को मानने वाले प्रमुख समाजशास्त्री ऑगबर्न हैं।

प्रश्न 3
सामाजिक विघटन के प्रजातीय सिद्धान्त के प्रमुख प्रतिपादक कौन हैं ?
उत्तर:
सामाजिक विघटन के प्रजातीय सिद्धान्त के प्रमुख प्रतिपादक गोबिन्यू हैं।

प्रश्न 4
सामाजिक विघटन के सामान्य कारक ‘सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्तन के विषय में थॉमस एवं नैनिकी का क्या मत है?
उत्तर:
थॉमस एवं नैनिकी का मत है कि जब सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है।

प्रश्न 5
सामाजिक मूल्यों में ह्रास’ किस प्रकार सामाजिक विघटन का मुख्य लक्षण है ?
उत्तर:
क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, भ्रष्टाचार आदि सामाजिक हास की दशाएँ हैं, जो कि सामाजिक विघटन का मुख्य लक्षण हैं।

प्रश्न 6
“सामाजिक विघटन एक प्रक्रिया है।” हाँ या नहीं में लिखिए। [2008, 09]
उत्तर:
हाँ

प्रश्न 7
निरन्तर एक ही दिशा में आगे की ओर हो रहे परिवर्तन को क्या कहते हैं ? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
एक ही दिशा में आगे की ओर होने वाले परिवर्तन को रेखीय परिवर्तन कहते हैं। उदाहरणार्थ-अधिकांश प्रौद्योगिकी व शिक्षा क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन रेखीय परिवर्तन होते हैं।

प्रश्न 8
‘वर्ग-संघर्ष सिद्धान्त का प्रवर्तक कौन है ?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 9
‘अहं आत्महत्या सिद्धान्त किसने दिया था ? [2010, 15]
या
समाजशास्त्री का नाम लिखें जिसने आत्महत्या का अध्ययन किया? [2015]
उत्तर:
इमाइल दुर्चीम ने।

प्रश्न 10
‘हिन्दू सोशल ऑर्गेनाइजेशन नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए। [2009]
उत्तर:
‘हिन्दू सोशल ऑर्गेनाइजेशन’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम पी० एच० प्रभु है।

प्रश्न 11
‘धर्म और समाज’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए।
उत्तर:
‘धर्म और समाज’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम डॉ० एस० राधाकृष्णन् है।

प्रश्न 12
इलियट और मैरिल की पुस्तक का नाम बताइए। [2010, 13]
उत्तर:
इलियट और मैरिल की पुस्तक का नाम ‘सोशल डिसऑर्गेनाइजेशन’ (सामाजिक विघटन) है।

प्रश्न 13
‘कास्ट एण्ड क्लास इन इण्डिया’ नामक पुस्तक की रचना किसने की थी ?
उत्तर:
कास्ट एण्ड क्लास इन इण्डिया’ नामक पुस्तक की रचना जी० एस० घुरिये ने की थी।

प्रश्न 14
‘इण्डियाज चेंजिंग विलेजेज पुस्तक के लेखक कौन हैं ?
उत्तर:
एस० सी० दुबे।।

प्रश्न 15
‘कास्ट क्लास एण्ड अकूपेशन’ पुस्तक के लेखक कौन हैं? [2012, 13]
उत्तर:
जी०एस० घुरिए। प्रश्न16 ‘सोशल ऑर्गेनाइजेशन’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम बताइए। उत्तर: सोशल ऑर्गेनाइजेशन’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम चार्ल्स एच० कूले है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में कौन-सा सामाजिक विघटन का लक्षण है ? [2011, 15]
(क) दो मित्रों में संघर्ष
(ख) परिवार का बिगड़ता स्वरूप
(ग) देश में बाढ़ आना
(घ) देश में गरीबी
उत्तर:
(ख) परिवार का बिगड़ता स्वरूप

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा सामाजिक विघटन का लक्षण नहीं है ?
(क) सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन
(ख) व्यक्तिवादिता
(ग) पति-पत्नी में तनाव
(घ) सामाजिक परिवर्तन की तीव्र गति
उत्तर:
(ग) पति-पत्नी में तनाव

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा सामाजिक विघटन का लक्षण है ? [2011]
(क) एकमत्य का ह्रास
(ख) जनसंख्या में वृद्धि
(ग) संस्कृतियों का आत्मसात होना
(घ) लोगों की प्रवासी प्रवृत्ति
उत्तर:
(क) एकमत्य का ह्रास

प्रश्न 4.
व्यक्तिगत विघटन की चरम सीमा है
(क) अपराध
(ख) आत्महत्या
(ग) पागलपन
(घ) निर्धनता
उत्तर:
(ख) आत्महत्या

प्रश्न 5.
सी० एच० कूले किस पुस्तक के लेखक हैं ?
(क) सोसाइटी
(ख) सोशल ऑर्गेनाइजेशन
(ग) फॉकवेज़
(घ) प्रिंसिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी
उत्तर:
(ख) सोशल ऑर्गेनाइजेशन

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किस पुस्तक के लेखक डार्विन हैं ?
(क) ह्यूमन सोसाइटी
(ख) सोसाइटी
(ग) ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़।
(घ) द प्रिमिटिव मैन
उत्तर:
(ग) ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 Social Disorganization (सामाजिक विघटन), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 13
Chapter Name Problem of Expansion of Education
(शिक्षा के प्रसार की समस्या)
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शिक्षा के प्रसार के एक महत्त्वपूर्ण उपाय के रूप में दूरगामी शिक्षा का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिए। साथ ही दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था के उद्देश्य व विशेषताओं का भी वर्णन कीजिए।
उत्तर :
दूरगामी शिक्षा-शिक्षा के प्रसार का एक उपाय
यह सत्य है कि गत कुछ दशाब्दियों से हमारे देश में शिक्षा के प्रसार की दर सराहनीय रही है, परन्तु आज भी देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग विभिन्न कारणों से शिक्षा प्राप्त करने से वंचित ही है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के प्रसार के लिए विभिन्न प्रयास किये जा रहे हैं। इन प्रयासों में ही एक प्रभावकारी प्रयास है-दूरगामी शिक्षा (Distance Education) की व्यवस्था। दूरगामी शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य तथा महत्त्व आदि का सामान्य परिचय निम्नलिखित है।

दूरगामी शिक्षा का अर्थ
सामान्य शिक्षाप्रत्यक्ष-शिक्षा होती है, जिसके अन्तर्गत शिक्षक तथा शिक्षार्थी आमने-सामने बैठकर शिक्षा की प्रक्रिया को सम्पन्न करते हैं। दूरगामी शिक्षा आमने-सामने की प्रत्यक्ष शिक्षा नहीं है। दूरगामी शिक्षा वह शिक्षा है जिसके अन्तर्गत देश के किसी भी भाग में रहने वाले और किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक शिक्षार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने का उपयुक्त अवसर प्राप्त हो जाती है। इस शिक्षा-प्रक्रिया के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के सम्प्रेषण-साधनों का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया जाता है तथा खुले अधिगम की परिस्थितियों के सृजन को प्राथमिकता दी जाती है।

दूरगामी शिक्षा के अर्थ एवं प्रक्रिया को प्रो० होमबर्ग ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “दूरगामी शिक्षा की प्रक्रिया में छात्रों की शिक्षण संस्थानों में जाकर शिक्षकों के सामने कक्ष में बैठकर व्याख्यान सुनने की आवश्यकता नहीं है और न ही शिक्षण संगठनों की शिक्षा-व्यवस्था के समान नियमित रूप से सम्मिलित होना पड़ता है अपितु दूरगामी शिक्षा में खुले अधिगम को सम्प्रेषण माध्यमों अथवा शिक्षा तकनीकी द्वारा सम्पादित किया जाता है।” शिक्षक का व्याख्यान छात्रों के घरों तक सम्प्रेषण माध्यमों द्वारा पहुँचाया जाता है।

दूरदर्शन की सहायता से शिक्षक ही छात्रों के पास पहुँचकर शिक्षण-प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत शिक्षक-शिक्षार्थी के अन्त:क्रिया एकपक्षीय ही होती है। दूरगामी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य खुले अधिगम के लिए परिस्थिति उत्पन्न करना है। इस कथन द्वारा स्पष्ट है कि दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था, शिक्षा ग्रहण करने की एक सुविधाजनक व्यवस्था है तथा निश्चित रूप से शिक्षा के प्रसार में सहायक है। हमारे देश में शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता को ध्यान में रखकर तथा दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था को सफल बनाने के लिए सन् 1979 ई० में राष्ट्रीय ओपन स्कूल की स्थापना की गई थी। इससे शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान प्राप्त हुआ है।

दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था के उद्देश्य
विश्व के प्रायः सभी देशों में दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था को लागू किया जा रहा है। दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था को लागू करने के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था का एक प्रमुख उद्देश्य समाज के उन व्यक्तियों को शिक्षा ग्रहण करने के अवसर सुलभ करना है जो किन्हीं कारणों से पहले उपयुक्त शिक्षा प्राप्त न कर पाये हों।
  2. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराना।
  3. किसी भी व्यवसाय में संलग्न व्यक्तियों को उनकी रुचि तथा आवश्यकता के अनुसार शिक्षा अर्जित करने का अवसर उपलब्ध कराना।
  4. सीखने तथा ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों के ज्ञान में अधिक – से – अधिक विस्तार करना।
  5. किसी भी शिक्षार्थी को उसकी रुचि के अनुरूप नूतन ज्ञान उपलब्ध कराना।
  6. समाज के पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों को समाज का उपयोगी एवं योग्य नागरिक बनने में सहायता प्रदान करना।
  7. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था का एक अन्य उद्देश्य शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को उन भाषाओं और विषयों में दक्षता प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना है, जिनमें नियमित संस्थागत शिक्षा के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाली समस्याओं के कारण दक्षता प्राप्त करने का अवसर प्राप्त न हो सकता हो।

दूरगामी शिक्षा की विशेषताएँ
दूरगामी शिक्षा – व्यवस्था के अर्थ एवं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए इस शिक्षा-व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है

  1. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था को व्यावहारिक रूप में लागू करने में दूरदर्शन, आकाशवाणी तथा अन्य जन-संचार माध्यमों को इस्तेमाल करने पर विशेष बल दिया जाता है।
  2. इस शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत सम्प्रेषण के माध्यमों तथा अधिगम की प्रक्रिया में आपसी समन्वय स्थापित करके विभिन्न शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।
  3. इस शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से वांछित अधिगम स्वरूपों के लिए विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं।
  4. इस शिक्षा-व्यवस्था में शैक्षिक नियोजन, मूल्यांकन तथा अधिगम सम्बन्धी परिस्थितियों की व्यवस्था प्रणाली उपागम के आधार पर की जाती है।
  5. इस शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ निर्धारित बहुमाध्यमों की सहायता से शिक्षक ही शिक्षार्थियों से सम्पर्क स्थापित करता है।
  6. इस शैक्षिक व्यवस्था के अन्र्तगत खुले अधिगम की परिस्थितियाँ विकसित की जाती हैं तथा शिक्षार्थियों को स्वतन्त्रतापूर्वक अध्ययन की सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।
  7. इस शैक्षिक व्यवस्था के माध्यम से शिक्षक की भूमिका को अधिक प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाता है।
  8. दूरगामी शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत खुले विद्यालय, खुले विश्वविद्यालय तथा पत्राचार प्रणाली आदि को अपनाया जाता है तथा उन्हें अधिक उपयोगी बनाया जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1
दूरगामी शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
विभिन्न दृष्टिकोणों से दूरगामी शिक्षा को आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। दूरगामी शिक्षा निम्नलिखित रूप से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

  1. दूरगामी शिक्षा की समुचित व्यवस्था देश में शिक्षा के अधिक-से-अधिक प्रसार में सहायक सिद्ध हो रही है।
  2. शिक्षा के क्षेत्र में नवीन प्रवर्तनों को प्रयुक्त करने में भी दूरगामी शिक्षा सहायक सिद्ध होती है।
  3. देश की जनसंख्या की वृद्धि तथा शिक्षा के प्रति बढ़ते रुझान के परिणामस्वरूप देश में विद्यमान औपचारिक शिक्षण संस्थाओं ( विद्यालय तथा कॉलेज आदि ) के प्रवेश के इच्छुक छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में छात्रों के प्रवेश की गम्भीर समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इस समस्या का मुकाबला करने में भी दूरगामी शिक्षा से विश्लेष सहायता प्राप्त हो रही है।
  4. छात्रों में विद्यमान वैयक्तिक भिन्नता से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान में भी दूरगामी शिक्षा से विशेष सहायता मिलती है।
  5. दूरगामी शिक्षा का एक मुख्य महत्त्व एवं लाभ उन व्यक्तियों के लिए है जो किसी निजी कार्य या व्यवसाय में संलग्न हैं। दूरगामी शिक्षा की सुविधा उपलब्ध होने पर ऐसे व्यक्ति भी अपनी इच्छानुसार शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। इस व्यवस्था से शिक्षा के प्रसार में भी वृद्धि होती है।
  6. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था उने व्यक्तियों के लिए भी लाभदायक तथा महत्त्वपूर्ण है जो अपनी शैक्षिक योग्यता को बढ़ाने के इच्छुक होते हैं।
  7. दूरगामी शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करना विशेष रूप से सरल तथा सुविधाजनक है क्योंकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षार्थी को उसके अपने स्थान पर ही शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध होते हैं। शिक्षार्थी को आने-जाने तथा यातायात की असुविधाओं का सामना नहीं करना पड़ता।
  8. दूरगामी शिक्षा की सुचारु व्यवस्था से लोगों में विभिन्न प्रकार की व्यावसायिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक योग्यताओं, क्षमताओं तथा गुणों के विकास में विशेष सहायता प्राप्त होती है।
  9. दूरगामी शिक्षा की व्यवस्था सुलभ हो जाने से समाज के अनेक व्यक्तियों को आत्म-विकास के अवसर उपलब्ध हुए हैं।
  10. दूरगामी शिक्षा का एक उल्लेखनीय महत्त्व एवं लाभ यह है कि इस व्यवस्था ने शिक्षा के जनतन्त्रीकरण में विशेष योगदान दिया है अर्थात् इस शिक्षा ने सभी को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

प्रश्न 2
शिक्षा के प्रसार के लिए राज्य द्वारा क्या-क्या प्रयास किये जा रहे हैं?
उत्तर :
देश की बहुपक्षीय प्रगति के लिए शिक्षा का अधिक-से-अधिक प्रसार होना अति आवश्यक है। इस तथ्य को ध्यान में रख़ते हुए राज्य द्वारा अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। सर्वप्रथम हम कह सकते हैं। कि राज्य द्वारा शिक्षा के महत्त्व एवं आवश्यकता से सम्बन्धित व्यापक प्रचार किया जा रहा है। जन-संचार के सभी माध्यमों द्वारा साक्षरता एवं शिक्षा के महत्त्व का व्यापक प्रचार किया जा रहा है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अलग से ‘राष्ट्रीय साक्षरता मिशन’ की स्थापना की गयी है। शिक्षा के व्यापक प्रसार के लिए भारतीय संविधान में 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया।

शिक्षा के प्रसार के लिए राज्य द्वारा ग्रामीण एवं दूर-दराज के क्षेत्रों में शिक्षण-संस्थाएँ स्थापित की जा रही हैं। शिक्षा के प्रति बच्चों को आकृष्ट करने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के प्रलोभन एवं सुविधाएँ भी प्रदान की जा रही हैं; जैसे कि दिन का भोजन देना, मुफ्त पुस्तकें एवं वर्दी देना तथा विभिन्न छात्रवृत्तियाँ प्रदान करना। राज्य द्वारा अनुसूचित एवं पिछ्ड़ी जातियों के बालक-बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए अतिरिक्त प्रयास किये जा रहे हैं। तकनीकी शिक्षा के प्रसार के क्षेत्र में भी राज्य द्वारा अनेक प्रयास किये जा रहे हैं। समय – समय पर राज्य सरकारों एवं केन्द्र सरकार द्वारा शिक्षा के प्रसार के लिए व्यापक अभियान चलाये जा रहे है; जैसे कि ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड तथा ‘चलो स्कूल चलें’ आदि।

प्रश्न 3
शैक्षिक स्तर के उन्नयन व सुधार के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? [2007, 08, 10, 11]
उत्तर :
शैक्षिक स्तर के उन्नयन व सुधार के उपाय
भारत में शिक्षा के स्तर; विशेष रूप से प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने व उसमें सुधार लाने के लिए अग्रलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं

  1. पूर्व-प्राथमिक व प्राथमिक कक्षाओं से ही शिक्षा के स्तर में सुधार के प्रयत्न किए जाएँ। अगर इस स्तर पर शिक्षार्थी अनुशासित हो जाए और शिक्षा के महत्व को समझ ले तो अगले स्तरों पर शिक्षा का स्तर अपने आप ही अच्छा हो जाएगा।
  2. शिक्षा की दिशा एवं व्यवस्था पहले से ही निश्चित की जाए।
  3. पाठ्यक्रम सुसंगठित एवं छात्र/छात्राओं के लिए उपयोगी हो।
  4. विद्यालयों में छात्रों की बढ़ती हुई संख्या पर नियन्त्रण रखा जाए तथा आवश्यकतानुसार नए विद्यालय खोले जाएँ।
  5. अध्यापकों को उचित वेतन तथा सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। उनकी सभी उचित माँगों पर सहानुभूति से विचार किया जाना चाहिए।
  6. परीक्षा या मूल्यांकन प्रणाली में सुधार हो। प्रश्न-पत्रों में वस्तुनिष्ठ ढंग के प्रश्न सम्मिलित किए जाएँ, विद्यालय में ही परीक्षा ली जाए तथा शिक्षार्थियों के सामूहिक अभिलेख रखे जाएँ।
  7. पर्याप्त संख्या में निर्देशन एवं परामर्श केन्द्र खोले जाएँ, जहाँ छात्रों की योग्यता एवं अभिरुचि की जाँच हो और तदनुकूल उन्हें शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाए।
  8. समाज के लोगों तथा छात्रों की धारणा शिक्षा के प्रति अच्छी हो।
  9. राज्य एवं समाज के द्वारा शिक्षा के अच्छे अवसर प्रदान किए जाएँ।
  10. समय-समय पर गोष्ठियों, सेमिनार आदि का आयोजन किया जाए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1
शिक्षा के प्रसार से क्या आशय है?
उत्तर :
शिक्षा के प्रसार से आशय है :
देश के नागरिकों को शिक्षित होना। विकासशील देशों में शिक्षा के प्रसार की प्रक्रिया चल रही है, कहीं तेज तथा कहीं धीमी। केवल साक्षरता ही शिक्षा के प्रसार का मानदण्ड नहीं है। इससे भिन्न यदि हम कहें कि स्नातक स्तर की शिक्षा या इससे भी उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को ही शिक्षित व्यक्ति माना जाये तो यह भी उचित नहीं है। वास्तव में शिक्षित होने का मानदण्ड सापेक्ष है।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि जो व्यक्ति अपनी दैनिक जीवन की सामान्य गतिविधियों, व्यावसायिक अपेक्षाओं तथा सम्बन्धित कार्यों को करने की समुचित योग्यता प्राप्त कर लेता है, उसे शिक्षित माना जा सकता है। निःसन्देह शिक्षित होने के लिए साक्षरता एक अनिवार्य शर्त है। हमारे देश में शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करना अभी शेष है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा के प्रसार की प्रक्रिया चल रही है तथा इसकी दर भी पूर्ण रूप से सन्तोषजनक नहीं है। शिक्षा के प्रसार की गति एवं दर में वृद्धि करना आवश्यक है।

प्रश्न 2
शिक्षा में अपव्यय से क्या आशय है?
उत्तर :
शिक्षा में अपव्यय शिक्षा में अपव्यय की समस्या को अर्थ यह है कि किसी भी स्तर की शिक्षा को पूर्ण करने से पूर्व ही उसे छोड़ देना। उदाहरण के लिए, प्राथमिक शिक्षा की निर्धारित अवधि 4-5 वर्ष होती है। यदि ऐसे में कोई छात्र कक्षा 2 तक ही शिक्षा ग्रहण करने पर विद्यालय छोड़ दे तो इसे शिक्षा में अपव्यय ही कहा जाएगा। इसी प्रकार स्नातक स्तर की शिक्षा के लिए, तीन वर्ष की अवधि निर्धारित है। यदि कोई छात्र/छात्रा केवल एक या दो वर्ष की शिक्षा ग्रहण करने के बाद कॉलेज को छोड़ दे तो यह भी शिक्षा में अपव्यय ही है।

अपव्यय का तात्पर्य उन छात्रों पर व्यय किए हुए समय, धन एवं शक्ति से है जो किसी स्तर की शिक्षा पूर्ण किए बगैर अपना अध्ययन समाप्त कर देते हैं। शिक्षा में अपव्यय की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप शिक्षा के प्रसार की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हमारे देश में शिक्षा के प्रायः सभी स्तरों पर अपव्यय की समस्या देखी जा सकती है। विभिन्न कारणों से अधूरी शिक्षा छोड़ देने की प्रवृत्ति लड़कों की तुलना में लड़कियों में अधिक पायी जाती है। यह प्रवृत्ति नगरीय क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक पायी जाती है।

प्रश्न 3
शिक्षा के अवरोधन के कारण बताइए।
उत्तर :
शिक्षा के अवरोधन के कारण निम्नलिखित हैं

  1. दोषपूर्ण शिक्षण विधि एवं परीक्षा प्रणाली का होना।
  2. विद्यालयों में छात्रों का नियमित उपस्थित न होना।
  3. कक्षा में संख्या से अधिक छात्रों का होना।
  4. रुचि के अनुरूप विषयों का न होना।
  5. अनुपयुक्त पाठ्यक्रम होना।
  6. विद्यालयी व्यवस्था का ठीक न होना।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1
हमारे देश में शिक्षा के प्रसार की दर किस काल में सर्वाधिक हुई है?
उत्तर :
हमारे देश में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त के काल में शिक्षा के प्रसार की दर सर्वाधिक हुई

प्रश्न 2
वर्तमान भारत में शिक्षा-प्रसार का स्वरूप गुणात्मक/परिमाणात्मक है। [2015]
उत्तर :
वर्तमान भारत में शिक्षा-प्रसार का स्वरूप परिमाणात्मक है।

प्रश्न 3
शिक्षा के असन्तोषजनक प्रसार के लिए जिम्मेदार दो मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
शिक्षा के असन्तोषजनक प्रसार के लिए दो मुख्य कारण जिम्मेदार हैं

  1. शिक्षा में अपव्यय तथा
  2. शिक्षा में अवरोधन।

प्रश्न 4
शिक्षा में अपव्यय से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
शिक्षा में अपव्यय का तात्पर्य उन छात्रों पर व्यय किए हुए समय, धन एवं शक्ति से है जो किसी स्तर की शिक्षा पूर्ण किये बिना अपना अध्ययन समाप्त कर देते हैं?

प्रश्न 5
शिक्षा में अवरोधन से क्या आशय है?
उत्तर :
शिक्षा में अवरोधन का अर्थ है-छात्र को शिक्षा के क्षेत्र में नियमित रूप से प्रगति न करना अर्थात् निर्धारित अवधि में किसी कक्षा में परीक्षा पास करके अगली कक्षा में न पहुँच पाना।

प्रश्न 6
प्राथमिक शिक्षा के प्रसार में प्रमुख बाधा दोषपूर्ण शिक्षा प्रशासन/धन की प्रचुरता है। [2015]
उत्तर :
प्राथमिक शिक्षा के प्रसार में प्रमुख बाधा दोषपूर्ण शिक्षा-प्रशासन है।

प्रश्न 7
राष्ट्रीय ओपन स्कूल की स्थापना कब की गयी थी? [2009]
उत्तर :
राष्ट्रीय ओपन स्कूल की स्थापना सन् 1979 में की गयी थी।

प्रश्न 8
‘दूरगामी शिक्षा से क्या आशय है?
उत्तर :
दूरगामी शिक्षा वह शिक्षा है जिसके अन्तर्गत देश के किसी भी भाग में रहने वाले और किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक शिक्षार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने का उपयुक्त अवसर प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 9
शिक्षा के महत्त्व के व्यापक प्रचार के लिए सरकार द्वारा किये गये एक प्रयास का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
राष्ट्रीय साक्षरता मिशन’ की स्थापना।

प्रश्न 10
राष्ट्रीय शिक्षा दिवस कब मनाया जाता है? [2015, 16]
उत्तर :
भारत में राष्ट्रीय शिक्षा दिवस 11 नवम्बर को मनाया जाता है।

प्रश्न 11
राष्ट्रीय साक्षरता मिशन किस आयु-वर्ग के निरक्षरों के लिए चलाया गया? [2016]
उत्तर :
15 से 35 वर्ष के निरक्षरों के लिए।

प्रश्न 12
भारतीय संविधान में शिक्षा के प्रसार के लिए क्या मुख्य प्रावधान किया गया है?
या
भारतीय संविधान की धारा – 45 में शिक्षा सम्बन्धी किस तथ्य का उल्लेख है? [2012, 14]
उत्तर :
भारतीय संविधान में शिक्षा के प्रसार के लिए 6 से 14 वर्ष के बालकों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

प्रश्न 13
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. हमारे देश में निरन्तर शिक्षा का प्रसार हो रहा है।
  2. राज्य सरकार द्वारा बालिका शिक्षा को अधिक प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
शिक्षा के प्रसार को विशेष महत्त्व दिया गया है-
(क) मध्य काल में
(ख) ब्रिटिश शासनकाल में
(ग) स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त काल में
(घ) प्रत्येक काल में
उत्तर :
(ग) स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त काल में

प्रश्न 2
शिक्षा के क्षेत्र में अपव्यय की समस्या का कारण है
(क) सामान्य निर्धनता
(ख) शीघ्र जीविकोपार्जन की आवश्यकता
(ग) शिक्षा के पाठ्यक्रम का उपयुक्त न होना
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 3
शिक्षा के प्रसार के लिए ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड आरम्भ हुआ था
(क) सन् 1987-88 में
(ख) सन् 1988-89 में
(ग) सन् 1990-91 में
(घ) सन् 1991-92 में
उत्तर :
(ग) सन् 1990-91 में

प्रश्न 4
भारत में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की स्थापना हुई (2014)
(क) सन् 1948 में
(ख) सन् 1953 में
(ग) सन् 1966 में
(घ) सन् 1986-88 में
उत्तर :
(घ) सन् 1986-88 में

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 13 Problem of Expansion of Education (शिक्षा के प्रसार की समस्या), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार are part of UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 2
Chapter Name अलंकार
Number of Questions 12
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार

काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं-काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते। अलंकार Alankar के दो भेद होते हैं—(क) शब्दालंकार तथा (ख) अर्थालंकार।

जहाँ काव्य की शोभा का कारण शब्द है, वहाँ शब्दालंकार और जहाँ शोभा का कारण उसका अर्थ है, वहाँ अर्थालंकार होता है। जहाँ काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का चमत्कार एक साथ विद्यमान हो, वहाँ ‘उभयालंकार’ (उभय = दोनों) होता है। | काव्य में स्थान-मनुष्य स्वभाव से ही सौन्दर्य-प्रेमी है। वह अपनी प्रत्येक वस्तु को सुन्दर और सुसज्जित देखना चाहता है। अपनी बात को भी वह इस प्रकार कहना चाहता है कि जिससे सुनने वाले पर स्थायी प्रभाव पड़े। वह अपने विचारों को इस रीति से व्यक्त करना चाहता है कि श्रोता चमत्कृत हो जाए। इसके साधन हैं उपर्युक्त दोनों अलंकार। शब्द और अर्थ द्वारा काव्य की शोभा-वृद्धि करने वाले इन अलंकारों का काव्य में वही स्थान है, जो मनुष्य (विशेष रूप से नारी) शरीर में आभूषणों का।।

शब्दालंकार और अर्थालंकार में अन्तर-शब्दालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द-विशेष को बदल दिया जाए तो अलंकार समाप्त हो जाता है, किन्तु अर्थालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची दूसरा शब्द रख दिया जाए तो भी अलंकार बना रहता है; जैसे-‘कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय’ में कनक शब्द की सार्थक आवृत्ति के कारण यमक अलंकार है। पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘स्वर्ण’ और दूसरे का ‘ धतूरा’ है। यदि ‘कनक’ के स्थान पर उसका कोई पर्यायवाची शब्द रख दिया जाए तो यह अलंकार समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार अलंकार शब्द-विशेष पर निर्भर होने से यहाँ शब्दालंकार है।

अर्थालंकार में शब्द का नहीं, अर्थ का महत्त्व होता है; जैसे—सुना यह मनु ने मधु गुंजार, मधुकरी का-सा जब सानन्द।

इसमें ‘मधुकरी का-सा’ में उपमा अलंकार है। यदि ‘मधुकरी’ के स्थान पर उसका ‘भ्रमरी’ या अन्य कोई पर्याय रख दिया जाए तो भी यह अलंकार बना रहेगा; क्योंकि यहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित है, शब्द पर नहीं। यही अर्थालंकार की विशेषता है।

प्रश्न 1
शब्दालंकार से आप क्या समझते हैं ? इसके भेदों का उदाहरणसहित वर्णन कीजिए।
उत्तर
शब्दालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण शब्द होता है, वहाँ शब्दालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. अनुप्रास [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)—बार-बार एक ही वर्ण की आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं; जैसे-
तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।( काव्यांजलि: यमुना-छवि) स्पष्टीकरण-यहाँ पर ‘त’ वर्ण की आवृत्ति हुई है। अत: अनुप्रास अलंकार है।
भेद-अनुप्रास के पाँच भेद हैं–(1) छेकानुप्रास, (2) वृत्यनुप्रास, (3) श्रुत्यनुप्रास, (4) लाटानुप्रास और (5) अन्त्यानुप्रास।
(1) छेकानुप्रास–जहाँ एक वर्ण की आवृत्ति एक बार होती है अर्थात् एक वर्ण दो बार आता है, वहाँ छेकानुप्रास होता है; जैसे-इस करुणा-कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती। (काव्यांजलि: आँसू)
स्पष्टीकरण-उपर्युक्त पंक्ति में ‘क’ की एक बार आवृत्ति हुई है। अत: छेकानुप्रास है।

(2) वृत्यनुप्रास–जहाँ एक अथवा अनेक वर्षों की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है; जैसे-

चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल थल में ।।

स्पष्टीकरण–यहाँ ‘च’ और ‘ल’ दो से अधिक बार (तीन बार) आया है। अत: वृत्यनुप्रास है।
छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास में अन्तर–एक वर्ण की एक बार आवृत्ति होने पर छेकानुप्रास होता है, जब कि वृत्यनुप्रास में एक अथवा अनेक वर्षों की दो अथवा दो से अधिक बार आवृत्ति होती है; जैसे–‘हे जग- जीवन के कर्णधार!’ में ‘ज’ वर्ण की एक बार आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है और ‘फैल फूले जल में फेनिल’ में ‘फ’ वर्ण की दो बार तथा ‘ल’ वर्ण की तीन बार आवृत्ति होने से वृत्यनुप्रास है।

(3) श्रुत्यनुप्रास-जहाँ कण्ठ, तालु आदि एक ही स्थान से उच्चरित वर्गों की आवृत्ति हो, वहाँ श्रुत्यनुप्रास होता है; जैसे—
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं । (काव्यांजलि: विनयपत्रिका)
स्पष्टीकरण–इस पंक्ति में ‘स्’ और ‘न्’ जैसे दन्त्य वर्णो (अर्थात् जिह्वा द्वारा दन्तपंक्ति के स्पर्श से उच्चरित वर्षों) की आवृत्ति के कारण श्रुत्यनुप्रास है।
(4) लाटानुप्रास–जहाँ एक ही अर्थ वाले शब्दों की आवृत्ति होती है, किन्तु अन्वय की भिन्नता से अर्थ बदल जाता है, वहाँ लाटानुप्रास होता है; जैसे-

पूत सपूत तो क्यों धन संचै ?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै ?

स्पष्टीकरण–यहाँ उन्हीं शब्दों की आवृत्ति होने पर भी पहली पंक्ति के शब्दों का अन्वय ‘सपूत’ के साथ और दूसरी का ‘कपूत के साथ लगता है, जिससे अर्थ बदल जाता है। (पद्य का भाव यह है कि यदि तुम्हारा पुत्र सुपुत्र है तो धन-संचय की आवश्यकता नहीं; क्योंकि वह स्वयं कमाकर धन का ढेर लगा देगा। यदि वह कुपुत्र है तो भी धन-संचय निरर्थक है; क्योंकि वह सारा धन व्यसनों में उड़ा देगा।) इस प्रकार यहाँ लाटानुप्रास है।।
(5) अन्त्यानुप्रास-यह अलंकार केवल तुकान्त छन्दों में ही होता है। जहाँ कविता के पद या अन्तिम चरण में समान वर्ण आने से तुक मिलती है, वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है; जैसे-

बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाई।
सौंह करै भौहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ ॥( काव्यांजलि: भक्ति एवं श्रृंगार)

स्पष्टीकरण-यहाँ दोनों पंक्तियों के अन्त में ‘आइ’ की आवृत्ति से अन्त्यानुप्रास है।

2. यमक [2010, 11, 12, 13, 14, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब कोई शब्द या शब्दांश अनेक बार आता है और प्रत्येक बार भिन्न-भिन्न अर्थ प्रकट करता है, तब यमक अलंकार होता है; जैसे-

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।
वा खाये बौराय जग, या पाये बौराय ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार आया है और दोनों बार उसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘धतूरा है और दूसरे का ‘सोना’। अतः यहाँ यमक अलंकार है।
भेद-यमक अलंकार के दो मुख्य भेद होते हैं—
(1) अभंगपद यमक–जहाँ दो पूर्ण शब्दों की समानता हो। इसमें शब्द पूर्ण होने के कारण दोनों शब्द सार्थक होते हैं; जैसे-‘कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।’
(2) सभंगपद यमक–यहाँ शब्दों को भंग करके (तोड़कर) अक्षर-समूह की समता बनती है। इसमें एक या दोनों अक्षर समूह निरर्थक होते हैं; जैसे-

पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के ।। (काव्यांजलिः छत्रसाल प्रशस्ति)

3. श्लेष [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)–-जब एक ही शब्द बिना आवृत्ति के दो या दो से अधिक अर्थ प्रकट करे, तब श्लेष अलंकार होता है; जैसे-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गैंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ शब्दों के दो-दो अर्थ हैं-
वृषभानुजा = वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री (राधा)।
वृषभ + अनुजा = बैल की बहन (गाय)।
हलधर = (1) बलराम, (2) बैल। इस प्रकार यहाँ ‘वृषभानुजा’ में श्लेष अलंकार है।
यमक और श्लेष में अन्तर-जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आकर भिन्न-भिन्न अर्थ देता है तो यमक कहलाता है और जब एक शब्द बिना आवृत्ति के ही कई अर्थ देता है तो श्लेष कहलाता है। यमक में एक शब्द की आवृत्ति होती है और श्लेष में बिना आवृत्ति के ही शब्द एकाधिक अर्थ देता है।

प्रश्न 2
अर्थालंकार किसे कहते हैं ? इसके भेदों का उदाहरणसहित वर्णन कीजिए।
उत्तर
अर्थालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण अर्थ होता है; वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. उपमा [2010, 11, 12, 13, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)—उपमेय और उपमान के समान धर्मकथन को उपमा अलंकार कहते हैं; जैसे
(1) मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
(2) तापसबाला-सी गंगा कले।
उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं-
(1) उपमेय–जिसके लिए उपमा दी जाती है; जैसे-उपर्युक्त उदाहरणों में मुख, गंगा ।।
(2) उपमान-उपमेय की जिसके साथ तुलना (उपमा) की जाती है; जैसे-चन्द्रमा, तापसबाला।
(3) साधारण धर्म-जिस गुण या विषय में उपमेय और उपमान की तुलना की जाती है; जैसे–सुन्दर (सुन्दरता), कलता (सुहावनी)।।
(4) वाचक शब्द–जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है; जैसे—समान, सी, तुल्य, सदृश, इव, सरिस, जिमि, जैसा आदि।
ये चारों अंग जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ पूर्णोपमालंकार होता है; जैसा उपर्युक्त उदाहरणों में है।
भेद-उपमा अलंकार के चार भेद होते हैं—(क) पूर्णोपमा, (ख) लुप्तोपमा, (ग) रसनोपमा और (घ) मालोपमा।
(क) पूर्णोपमा-[ संकेत-ऊपर बताया जा चुका है।

(ख) लुप्तोपमा–जहाँ उपमा के चारों अंगों (उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और वाचक शब्द) में से किसी एक, दो या तीन अंगों का लोप होता है, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है। लुप्तोपमा अलंकार निम्नलिखित चार प्रकार का होता है-

  1. धर्म-लुप्तोपमा–जिसमें साधारण धर्म का लोप हो; जैसे-तापसबाला-सी गंगा ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ धर्म-लुप्तोपमा है; क्योंकि यहाँ ‘सुन्दरता रूपी गुण का लोप है।
  2. उपमान-लुप्तोपमा–जिसमें उपमान का लोप हो; जैसे-
    जिहिं तुलना तोहिं दीजिए, सुवरन सौरभ माहिं।।
    कुसुम तिलक चम्पक अहो, हौं नहिं जानौं ताहिं ॥
    सुन्दर वर्ण और सुगन्ध में तेरी तुलना किस पदार्थ से की जाए, उसे मैं नहीं जानता; क्योंकि तिलक, चम्पा आदि पुष्प तेरे समकक्ष नहीं ठहरते।।
    स्पष्टीकरण–यहाँ उपमान लुप्त है; क्योंकि जिससे तुलना की जाए, वह उपमान ज्ञात नहीं है।
  3. उपमेय-लुप्तोपमा–जिसमें उपमेय का लोप हो; जैसे–
    कल्पलता-सी अतिशय कोमल ।।
    स्पष्टीकरण-यहाँ उपमेय-लुप्तोपमा है; क्योंकि कौन है कल्पलता-सी कोमल-यह नहीं बताया गया है।।
  4. वाचक-लुप्तोपमा–जिसमें वाचक शब्द का लोप हो; जैसे-
    नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज-नयन ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ वाचक शब्द ‘समान’ या उसके पर्यायवाची अन्य किसी शब्द का लोप है; अत: इसमें वाचक-लुप्तोपमा अलंकार है।

(ग) रसनोपमा–रसनोपमा अलंकार में उपमेय और उपमान एक-दूसरे से उसी प्रकार जुड़े रहते हैं, जिस प्रकार किसी श्रृंखला की एक कड़ी दूसरी कड़ी से; जैसे-

सगुन ज्ञान सम उद्यम, उद्यम सम फल जान ।
फल समान पुनि दान है, दान सरिस सनमान ॥

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ शृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किये गये हैं; अतः इसमें रसनोपमा अलंकार है।
(घ) मालोपमा–जहाँ उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) का उत्कर्ष दिखाने के लिए अनेक उपमान एकत्र किये जाएँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है; जैसे-

हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु ।
अमल कमल-से विलोचन तुम्हारे हैं ।।।

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में आँखों की तुलना अनेक उपमानों (हिरनी से, मीन से, सुखंजन समान, कमल से) की गयी है। अत: यहाँ पर मालोपमा अलंकार है।।

2. रूपक [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]

लक्षण (परिभाषा)–जहाँ उपमेय और उपमान में अभिन्नता प्रकट की जाए, अर्थात् उन्हें एक ही रूप में प्रकट किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-

अरुन सरोरुह कर चरन, दृग-खंजन मुख-चंद।
समै आइ सुंदरि-सरद, काहि न करति अनंद ॥

स्पष्टीकरण-इस उदाहरण में शरद् ऋतु में सुन्दरी को, कमल में हाथ-पैरों का, खंजन में आँखों का और चन्द्रमा में मुख का भेदरहित आरोप होने से रूपक अलंकार है। | भेद-रूपक अलंकार निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है ।
(i) सांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ ‘सांगरूपक’ होता है; जैसे-

उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुबर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरखे लोचन-भंग ॥

स्पष्टीकरण–यहाँ रघुबर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य, उदयगिरि, सरोज, मूंग आदि उपमानों का आरोप किया गया है; अतः यहाँ सांगरूपक है।
(ii) निरंगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सर्वांग न हो, वहाँ निरंगरूपक होता है; जैसे–
कौन तुम संसृति-जलनिधि तीर, तरंगों से फेंकी मणि एक।
स्पष्टीकरण-इसमें संसृति (संसार) पर जलनिधि (सागर) का आरोप है, लेकिन अंगों का उल्लेख न होने से यह निरंगरूपक है।
(iii) परम्परितरूपक-जहाँ एक रूपक दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो, वहाँ परम्परितरूपक होता है; जैसे-
बन्दी पवनकुमार खल-बन-पावक ज्ञान-घन।
स्पष्टीकरण–यहाँ पवनकुमार (उपमेय) पर अग्नि (उपमान) का आरोप इसलिए सम्भव हुआ कि खलों (दुष्टों) को घना वन (जंगल) बताया गया है; अत: एक रूपक (खल-वन) पर दूसरा रूपक (पवनकुमाररूपी पावक) निर्भर होने से यहाँ परम्परितरूपक है।
उपमा और रूपक अलंकार में अन्तर–उपमा में उपमेय और उपमान में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक में दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान है’ में उपमा है, किन्तु ‘मुख चन्द्रमा है’ में रूपक है।

उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में अन्तर–जहाँ पर उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) में उपमान (उपमेय की जिसके साथ तुलना की जाती है) की सम्भावना प्रकट की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-‘मुख मानो चन्द्रमा है। जहाँ उपमेय और उपमान में ऐसा आरोप हो कि दोनों में किसी प्रकार का भेद ही न रह जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा है।

4. उत्प्रेक्षा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-

सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलौने गात ।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ पीताम्बर ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) की प्रात:कालीन सूर्य की प्रभा से सुशोभित नीलमणि पर्वत (उपमान) के रूप में सम्भावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। ‘मनौ’ यहाँ पर वाचक शब्द है। इस अलंकार में जनु, जनहुँ, मनु, मनहुँ, मानो, इव आदि वाचक शब्द अवश्य आते हैं।
भेद-उत्प्रेक्षा अलंकार के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं
(क) वस्तूत्प्रेक्षा–जब उपमेय (प्रस्तुत वस्तु) में उपमान (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

वहीं शुभ्र सरिता के तट पर, कुटिया का कंकाल खड़ा है।
मानो बाँसों में घुन बनकर शत शत हाहाकार खड़ा है।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर घुन (प्रस्तुत वस्तु) में हाहाकार (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना की गयी है। अत: वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।
(ख) हेतूत्प्रेक्षा–जहाँ पर काव्य में अहेतु में हेतु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है–

विनय शुक-नासा का धर ध्यान
बन गये पुष्प पलास अराल।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर ढाक के फूलों का वक्र आकार होना स्वाभाविक है। नायिका की नुकीली नाक की उससे सम्भावना की जाए यह हेतु नहीं है; परन्तु यहाँ उसे हेतु माना गया है, अतएव अहेतु की सम्भावना होने से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।।

(ग) फलोत्प्रेक्षा–जब अफल में फल की सम्भावना की जाए वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

नित्य ही नहाती क्षर सिन्धु में कलाधर है
सुन्दरि ! तवानन की समता की इच्छा से ।

यहाँ पर चन्द्रमा का प्रतिदिन क्षीरसागर में स्नान करने का उद्देश्य सुन्दरी के मुख की समता प्राप्त करने में निहित है। वास्तव में ऐसा नहीं है, परन्तु इस प्रकार की सम्भावना की गयी है। अत: यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।।

5. भ्रान्तिमान [2009, 10, 14, 15, 16, 18] |

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ समानता के कारण भ्रमवश उपमेय में उपमान का निश्चयात्मक ज्ञान हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है; जैसे—रस्सी (उपमेय) को साँप (उपमान) समझ लेना।

कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब ।।
जानि अशोक अँगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।

स्पष्टीकरण-यहाँ सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अँगूठी (उपमेय) में उन्हें अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने से यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

6. सन्देह [2009, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब किसी वस्तु में उसी के समान दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाए और कोई निश्चयात्मक ज्ञान न हो, तब सन्देह अलंकार होता है; जैसे—

परिपूरन सिन्दूर पूर कैधौं मंगल घट।
किधौं सक्र को छत्र मढ्यो मानिक मयूख पट ।।

स्पष्टीकरण-यहाँ लाल वर्ण वाले सूर्य में सिन्दूर भरे हुए घट’ तथा ‘लाल रंग वाले माणिक्य में जड़े हुए छत्र’ का सन्देह होने से सन्देह अलंकार है।
सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर–सन्देह अलंकार में उपमेय में उपमान का सन्देहमात्र होता है, निश्चयात्मक ज्ञान नहीं; जैसे-‘यह रस्सी है या साँप’। इसमें रस्सी (उपमेय) में साँप (उपमान) का सन्देह होता है, निश्चय नहीं; किन्तु भ्रान्तिमान में उपमेय में उपमान का निश्चय हो जाता है; जैसे—रस्सी को साँप समझकर कहना कि ‘यह साँप है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए
प्रश्न (क)
मनो चली आँगन कठिन तातें राते पाय ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा

प्रश्न (ख)
मकराकृति गोपाल के, सोहत कुंडल कान ।
धरयो मनौ हिय धर समरु, यौढ़ी लसत निसान ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा।

प्रश्न (ग)
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये ।
उत्तर
अनुप्रास।

प्रश्न (घ)
उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न (इ)
घनानंद प्यारे सुजान सुनौ, यहाँ एक से दूसरो ऑक नहीं ।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं ।।
उत्तर
श्लेष।

प्रश्न (च)
का पूँघट मुख मूंदहु अबला नारि ।
चंद सरग पर सोहत यहि अनुहारि ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न (छ)
पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के ।।
उत्तर
यमक।

प्रश्न (ज)
अनियारे दीरघ दृगनि, किती न तरुनि समान ।
वह चितवनि औरै कछु, जिहिं बस होत सुजान ।।
उत्तर
अनुप्रास।

प्रश्न (झ)
चरण कमल बंद हरिराई ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न 2
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(क) उत्प्रेक्षा और उपमा अलंकार में मूलभूत अन्तर बताइए और उत्प्रेक्षा अलंकार का एक उदाहरण अपनी पाठ्य-पुस्तक से लिखिए।
(ख) श्लेष अलंकार का लक्षण लिखकर उदाहरण दीजिए।
(ग) सन्देह और भ्रान्तिमान अलंकारों में अन्तर स्पष्ट करते हुए उदाहरण दीजिए।
(घ) सन्देह और भ्रान्तिमान अलंकारों का अन्तर स्पष्ट कीजिए और दोनों में से किसी एक का उदाहरण लिखिए।
(ङ) उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में मूलभूत अन्तर स्पष्ट कीजिए और अपनी पाठ्य-पुस्तक से उत्प्रेक्षा अलंकार का एक उदाहरण लिखिए।
(च) रूपक अलंकार के भेद लिखिए और किसी एक भेद का लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
(छ) सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर बताइए। अपनी पाठ्य-पुस्तक से भ्रान्तिमान अलंकार का एक उदाहरण लिखिए।
(ज) ‘यमक’ अथवा ‘श्लेष अलंकार का लक्षण लिखिए और एक उदाहरण दीजिए।
(झ) ‘रूपक’ तथा ‘उपमा अलंकारों में मूलभूत अन्तर बताइए और दोनों में से किसी एक अलंकार का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
(ञ) ‘उपमा’ अथवा ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार का लक्षण लिखकर एक उदाहरण दीजिए।
(ट) ‘अनुप्रास’ अथवा ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार का लक्षण लिखिए तथा उस अलंकार को एक उदाहरण दीजिए।
(ठ) ‘श्लेष’, ‘उपमा’ तथा ‘सन्देह अलंकारों में से किसी एक अलंकार की परिभाषा देते हुए उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर

श्लेष [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)–-जब एक ही शब्द बिना आवृत्ति के दो या दो से अधिक अर्थ प्रकट करे, तब श्लेष अलंकार होता है; जैसे-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गैंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ शब्दों के दो-दो अर्थ हैं-
वृषभानुजा = वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री (राधा)।
वृषभ + अनुजा = बैल की बहन (गाय)।
हलधर = (1) बलराम, (2) बैल। इस प्रकार यहाँ ‘वृषभानुजा’ में श्लेष अलंकार है।
यमक और श्लेष में अन्तर-जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आकर भिन्न-भिन्न अर्थ देता है तो यमक कहलाता है और जब एक शब्द बिना आवृत्ति के ही कई अर्थ देता है तो श्लेष कहलाता है। यमक में एक शब्द की आवृत्ति होती है और श्लेष में बिना आवृत्ति के ही शब्द एकाधिक अर्थ देता है।

अर्थालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण अर्थ होता है; वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. उपमा [2010, 11, 12, 13, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)—उपमेय और उपमान के समान धर्मकथन को उपमा अलंकार कहते हैं; जैसे
(1) मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
(2) तापसबाला-सी गंगा कले।
उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं-
(1) उपमेय–जिसके लिए उपमा दी जाती है; जैसे-उपर्युक्त उदाहरणों में मुख, गंगा ।।
(2) उपमान-उपमेय की जिसके साथ तुलना (उपमा) की जाती है; जैसे-चन्द्रमा, तापसबाला।
(3) साधारण धर्म-जिस गुण या विषय में उपमेय और उपमान की तुलना की जाती है; जैसे–सुन्दर (सुन्दरता), कलता (सुहावनी)।।
(4) वाचक शब्द–जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है; जैसे—समान, सी, तुल्य, सदृश, इव, सरिस, जिमि, जैसा आदि।
ये चारों अंग जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ पूर्णोपमालंकार होता है; जैसा उपर्युक्त उदाहरणों में है।
भेद-उपमा अलंकार के चार भेद होते हैं—(क) पूर्णोपमा, (ख) लुप्तोपमा, (ग) रसनोपमा और (घ) मालोपमा।
(क) पूर्णोपमा-[ संकेत-ऊपर बताया जा चुका है।

(ख) लुप्तोपमा–जहाँ उपमा के चारों अंगों (उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और वाचक शब्द) में से किसी एक, दो या तीन अंगों का लोप होता है, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है। लुप्तोपमा अलंकार निम्नलिखित चार प्रकार का होता है-

  1. धर्म-लुप्तोपमा–जिसमें साधारण धर्म का लोप हो; जैसे-तापसबाला-सी गंगा ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ धर्म-लुप्तोपमा है; क्योंकि यहाँ ‘सुन्दरता रूपी गुण का लोप है।
  2. उपमान-लुप्तोपमा–जिसमें उपमान का लोप हो; जैसे-
    जिहिं तुलना तोहिं दीजिए, सुवरन सौरभ माहिं।।
    कुसुम तिलक चम्पक अहो, हौं नहिं जानौं ताहिं ॥
    सुन्दर वर्ण और सुगन्ध में तेरी तुलना किस पदार्थ से की जाए, उसे मैं नहीं जानता; क्योंकि तिलक, चम्पा आदि पुष्प तेरे समकक्ष नहीं ठहरते।।
    स्पष्टीकरण–यहाँ उपमान लुप्त है; क्योंकि जिससे तुलना की जाए, वह उपमान ज्ञात नहीं है।
  3. उपमेय-लुप्तोपमा–जिसमें उपमेय का लोप हो; जैसे–
    कल्पलता-सी अतिशय कोमल ।।
    स्पष्टीकरण-यहाँ उपमेय-लुप्तोपमा है; क्योंकि कौन है कल्पलता-सी कोमल-यह नहीं बताया गया है।।
  4. वाचक-लुप्तोपमा–जिसमें वाचक शब्द का लोप हो; जैसे-
    नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज-नयन ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ वाचक शब्द ‘समान’ या उसके पर्यायवाची अन्य किसी शब्द का लोप है; अत: इसमें वाचक-लुप्तोपमा अलंकार है।

(ग) रसनोपमा–रसनोपमा अलंकार में उपमेय और उपमान एक-दूसरे से उसी प्रकार जुड़े रहते हैं, जिस प्रकार किसी श्रृंखला की एक कड़ी दूसरी कड़ी से; जैसे-

सगुन ज्ञान सम उद्यम, उद्यम सम फल जान ।
फल समान पुनि दान है, दान सरिस सनमान ॥

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ शृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किये गये हैं; अतः इसमें रसनोपमा अलंकार है।
(घ) मालोपमा–जहाँ उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) का उत्कर्ष दिखाने के लिए अनेक उपमान एकत्र किये जाएँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है; जैसे-

हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु ।
अमल कमल-से विलोचन तुम्हारे हैं ।।।

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में आँखों की तुलना अनेक उपमानों (हिरनी से, मीन से, सुखंजन समान, कमल से) की गयी है। अत: यहाँ पर मालोपमा अलंकार है।।

2. रूपक [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]

लक्षण (परिभाषा)–जहाँ उपमेय और उपमान में अभिन्नता प्रकट की जाए, अर्थात् उन्हें एक ही रूप में प्रकट किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-

अरुन सरोरुह कर चरन, दृग-खंजन मुख-चंद।
समै आइ सुंदरि-सरद, काहि न करति अनंद ॥

स्पष्टीकरण-इस उदाहरण में शरद् ऋतु में सुन्दरी को, कमल में हाथ-पैरों का, खंजन में आँखों का और चन्द्रमा में मुख का भेदरहित आरोप होने से रूपक अलंकार है। | भेद-रूपक अलंकार निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है ।
(i) सांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ ‘सांगरूपक’ होता है; जैसे-

उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुबर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरखे लोचन-भंग ॥

स्पष्टीकरण–यहाँ रघुबर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य, उदयगिरि, सरोज, मूंग आदि उपमानों का आरोप किया गया है; अतः यहाँ सांगरूपक है।
(ii) निरंगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सर्वांग न हो, वहाँ निरंगरूपक होता है; जैसे–
कौन तुम संसृति-जलनिधि तीर, तरंगों से फेंकी मणि एक।
स्पष्टीकरण-इसमें संसृति (संसार) पर जलनिधि (सागर) का आरोप है, लेकिन अंगों का उल्लेख न होने से यह निरंगरूपक है।
(iii) परम्परितरूपक-जहाँ एक रूपक दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो, वहाँ परम्परितरूपक होता है; जैसे-
बन्दी पवनकुमार खल-बन-पावक ज्ञान-घन।
स्पष्टीकरण–यहाँ पवनकुमार (उपमेय) पर अग्नि (उपमान) का आरोप इसलिए सम्भव हुआ कि खलों (दुष्टों) को घना वन (जंगल) बताया गया है; अत: एक रूपक (खल-वन) पर दूसरा रूपक (पवनकुमाररूपी पावक) निर्भर होने से यहाँ परम्परितरूपक है।
उपमा और रूपक अलंकार में अन्तर–उपमा में उपमेय और उपमान में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक में दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान है’ में उपमा है, किन्तु ‘मुख चन्द्रमा है’ में रूपक है।

उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में अन्तर–जहाँ पर उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) में उपमान (उपमेय की जिसके साथ तुलना की जाती है) की सम्भावना प्रकट की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-‘मुख मानो चन्द्रमा है। जहाँ उपमेय और उपमान में ऐसा आरोप हो कि दोनों में किसी प्रकार का भेद ही न रह जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा है।

4. उत्प्रेक्षा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-

सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलौने गात ।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ पीताम्बर ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) की प्रात:कालीन सूर्य की प्रभा से सुशोभित नीलमणि पर्वत (उपमान) के रूप में सम्भावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। ‘मनौ’ यहाँ पर वाचक शब्द है। इस अलंकार में जनु, जनहुँ, मनु, मनहुँ, मानो, इव आदि वाचक शब्द अवश्य आते हैं।
भेद-उत्प्रेक्षा अलंकार के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं
(क) वस्तूत्प्रेक्षा–जब उपमेय (प्रस्तुत वस्तु) में उपमान (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

वहीं शुभ्र सरिता के तट पर, कुटिया का कंकाल खड़ा है।
मानो बाँसों में घुन बनकर शत शत हाहाकार खड़ा है।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर घुन (प्रस्तुत वस्तु) में हाहाकार (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना की गयी है। अत: वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।
(ख) हेतूत्प्रेक्षा–जहाँ पर काव्य में अहेतु में हेतु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है–

विनय शुक-नासा का धर ध्यान
बन गये पुष्प पलास अराल।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर ढाक के फूलों का वक्र आकार होना स्वाभाविक है। नायिका की नुकीली नाक की उससे सम्भावना की जाए यह हेतु नहीं है; परन्तु यहाँ उसे हेतु माना गया है, अतएव अहेतु की सम्भावना होने से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।।

(ग) फलोत्प्रेक्षा–जब अफल में फल की सम्भावना की जाए वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

नित्य ही नहाती क्षर सिन्धु में कलाधर है
सुन्दरि ! तवानन की समता की इच्छा से ।

यहाँ पर चन्द्रमा का प्रतिदिन क्षीरसागर में स्नान करने का उद्देश्य सुन्दरी के मुख की समता प्राप्त करने में निहित है। वास्तव में ऐसा नहीं है, परन्तु इस प्रकार की सम्भावना की गयी है। अत: यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।।

5. भ्रान्तिमान [2009, 10, 14, 15, 16, 18] |

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ समानता के कारण भ्रमवश उपमेय में उपमान का निश्चयात्मक ज्ञान हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है; जैसे—रस्सी (उपमेय) को साँप (उपमान) समझ लेना।

कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब ।।
जानि अशोक अँगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।

स्पष्टीकरण-यहाँ सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अँगूठी (उपमेय) में उन्हें अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने से यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

6. सन्देह [2009, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब किसी वस्तु में उसी के समान दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाए और कोई निश्चयात्मक ज्ञान न हो, तब सन्देह अलंकार होता है; जैसे—

परिपूरन सिन्दूर पूर कैधौं मंगल घट।
किधौं सक्र को छत्र मढ्यो मानिक मयूख पट ।।

स्पष्टीकरण-यहाँ लाल वर्ण वाले सूर्य में सिन्दूर भरे हुए घट’ तथा ‘लाल रंग वाले माणिक्य में जड़े हुए छत्र’ का सन्देह होने से सन्देह अलंकार है।
सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर–सन्देह अलंकार में उपमेय में उपमान का सन्देहमात्र होता है, निश्चयात्मक ज्ञान नहीं; जैसे-‘यह रस्सी है या साँप’। इसमें रस्सी (उपमेय) में साँप (उपमान) का सन्देह होता है, निश्चय नहीं; किन्तु भ्रान्तिमान में उपमेय में उपमान का निश्चय हो जाता है; जैसे—रस्सी को साँप समझकर कहना कि ‘यह साँप है।

We hope the UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार, drop a comment below and we will get back to you at the earliest.