UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 9 Group Tension

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Psychology
Chapter Chapter 9
Chapter Name Group Tension
(समूह-तनाव)
Number of Questions Solved 50
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Psychology Chapter 9 Group Tension (समूह-तनाव)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समूह-तनाव (Group Tension) से आप क्या समझते हैं? समूह-तनाव की उत्पत्ति के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
समूह-तनाव से आप क्या समझते हैं? समूह तनाव के लिए उत्तरदायी कारकों को स्पष्ट कीजिए। (2008, 10, 15, 16)
या
समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी चार कारणों के बारे में लिखिए। (2012)
उत्तर.

भूमिका
(Introduction)

मनुष्य को समूह में रहने वाले एक सामाजिक प्राणी के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्रत्येक समाज में समूहों का निर्माण विभिन्न आधारों पर होता है; जैसे-धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, क्षेत्र, भाषा, व्यवसाय, आवास, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्तर आदि। ‘तनाव’ (Tension) एक प्रकार की मानसिक अवस्था है, जो व्यक्ति और समूह दोनों में पायी जाती है। कोलमैन के अनुसार, “मनोवैज्ञानिक अर्थों में तनाव, दबाव, बेचैनी तथा चिन्ता की अनुभूति है।” सामाजिक विघटन की क्रिया में भीतरी तनावों के कारण समाज के अंग टूटकर अलग होने लगते हैं। और उनकी प्रगति रुक जाती है। समूहों के बीच इस स्थिति को ‘समूह-तनाव (Group Tension) कहते हैं।

समूह-तनाव का अर्थ
(Meaning of Group Tension)

समूह-तनाव उस स्थिति का नाम है जिसमें समाज का कोई वर्ग, सम्प्रदाय, धर्म, जाति या राजनीतिक दल-दूसरे के प्रति भय, ईर्ष्या, घृणा तथा विरोध से भर जाता है। ऐसी दशा में उन दोनों समूहों में सामाजिक तनाव उत्पन्न हो जाता है। इन समूहों में यह तनाव अलगाव की भावना के कारण उत्पन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप कोई समाज या राष्ट्र छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाता है। आज दुनियाभर के समाज इस प्रकार के समूह-तनाव के शिकार हैं, जिनके कारण मानव सभ्यता मार-काट, विद्रोह और युद्ध की त्रासदी से गुजर रही है। अमेरिका में अमेरिकन तथा हब्शी, दक्षिणी अफ्रीका में श्वेत और अश्वेत प्रजातियाँ, हिटलर के समय में जर्मन और यहूदी-इन समूहों के बीच तनाव विश्वस्तरीय समूह-तनाव के उदाहरण हैं। हमारे देश भारत में हिन्दू-मुसलमानों के बीच, उत्तरी एवं दक्षिणी भारतीयों के बीच, ऊँची और नीची जातियों के बीच, विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच,
समूह-तनाव 177 राजनीतिक दलों के बीच तथा मालिकों व श्रमिकों के बीच अक्सर ही समूह-तनाव उत्पन्न हो जाता है। इन तनावे की परिस्थितियों से न केवल हमारी राष्ट्रीय एकता क्षीण होती है, अपितु राष्ट्रीय शक्ति का भी अपव्यय होता है।

समूह-तनाव के विभिन्न प्रकार अथवा रूप
(Different kinds of Group Tension)

भारत एक विशाल देश है जिसमें अनेक प्रकार की जातियाँ, सम्प्रदाय, वर्ग तथा विविध भाषा-भाषी लोग विभिन्न क्षेत्रों में निवास करते हैं। इन्हीं के आधार पर हमारे भारतीय समाज में समूह-तनाव के ये चार प्रमुख स्वरूप या प्रकार पाये जाते हैं-

  1. जातिगत समूह-तनाव,
  2. साम्प्रदायिक समूह-तनाव,
  3. क्षेत्रीय समूह-तनाव तथा
  4. भाषागत समूह-तनावे।

समूह-तनाव के कारण
(Causes of Group Tension)

समूह-तनाव के अनेक कारण हैं। जाति, वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा, संस्कृति तथा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति आदि विभिन्न आधारों को लेकर समूह निर्मित हो जाते हैं। इन समूहों के निहित स्वार्थ तथा क्षुद्र मानसिकता के कारण पारस्परिक द्वेष तथा विरोध पनपते हैं जिनसे समूह-तनाव उत्पन्न हो जाता है।
समूह-तनाव के विभिन्न कारणों को निम्नलिखित दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) वातावरणीय कारण
(2) मनोवैज्ञानिक कारण।

(1) वातावरणीय कारण (Environmental Causes)
समूह-तनाचे को जन्म देने वाले प्रमुख वातावरणीय कारण निम्नलिखित हैं –

(i) ऐतिहासिक कारण- अनेक ऐतिहासिक कारण समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी रहे हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर मुसलमान, ईसाई तथा अन्य सम्प्रदायों के लोग बाहर से हमारे देश में आये। मध्यकाल में मुसलमान आक्रान्ताओं ने शक्ति और हिंसा के बल पर यहाँ के निवासियों का धर्म-परिवर्तन किया स्थान-स्थान पर मन्दिर लूटे और गिराये तथा उनकी जगह मस्जिदें बनायी गयीं। समय के साथ-साथ घाव भरते गये और हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय हुआ। ये दोनों जातियाँ भारत की आजादी के लिए एकजुट होकर लड़ीं, आजादी तो मिली किन्तु ‘फूट डालो और राज्य करो की नीति का प्रयोग करके अंग्रेज शासक जाते-जाते हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का जहर सींच गये। अधिकांश राजनीतिक दल अपनी स्वार्थ-सिद्धि हेतु देश की अनपढ़, भोली तथा धार्मिक अन्धविश्वासों से ग्रस्त जनता को पूर्वाग्रहों तथा तनाव से भर देते हैं जिससे साम्प्रदायिक तनाव बढ़ता है और संवेदनशील इलाकों में दंगे भड़कते हैं। उत्तर प्रदेश में अयोध्या से सम्बन्धित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद, ऐतिहासिक कारण का एक प्रमुख उदाहरण है।

(ii) भौतिक कारण— किसी भी देश के प्राकृतिक भू-भाग, वहाँ के निवासियों की शरीर-रचना, वेशभूषा, खानपानं इत्यादि किसी विशेष क्षेत्र की ओर संकेत करते हैं। पूरा देश पर्वत, नदियों, वन, पठार तथा रेगिस्तान आदि भौतिक परिस्थितियों के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में बँटा है। एक क्षेत्र के निवासी स्वयं को दूसरे से अलग समझने लगते हैं। विभिन्नता से उत्पन्न यह पृथकता ही पूर्वाग्रहों का कारण बनती है जिसके फलस्वरूप सामूहिक तनाव पैदा होते हैं।

(iii) सामाजिक कारण- समूह-तनाव की पृष्ठभूमि में अनेक सामाजिक कारण क्रियाशील होते हैं। दो वर्गों या सम्प्रदायों के बीच सामाजिक दूरी उनमें ऊँच-नीच की भावना में वृद्धि करती है जिससे विरोध तथा तनाव का जन्म होता है। हिन्दू और मुसलमानों के रीति-रिवाज, प्रथाएँ, परम्पराएँ, खान-पान तथा पोशाक कई प्रकार से एक-दूसरे से भिन्न हैं। हिन्दू गाय को पवित्र तथा माँ के समान मानते हैं, किन्तु मुस्लिम समुदाय में ऐसा नहीं है। दोनों वर्गों की ये विभिन्नताएँ उनकी विचारधाराओं को विपरीत दिशाओं में मोड़ देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप समूह-तनाव पैदा होता है तथा साम्प्रदायिक उपद्रव होते हैं।

इसी प्रकार हिन्दू समाज में ब्राह्मण सर्वोच्च तथा शूद्र निम्नतम सामाजिक स्थिति रखते । हैं। क्षत्रिय की अपेक्षा ब्राह्मण शूद्र को अपने से बहुत हीन तथा नीचा समझते हैं। प्रत्येक ऊँची स्थिति वाला वर्ग अपने से नीची स्थिति वाले वर्ग का शोषण एवं उत्पीड़न करता है। इससे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक दूरी बढ़ती जाती है और पूर्वाग्रह उत्पन्न होते हैं। पूर्वाग्रहों के कारण विभिन्न समूहों में तनाव की दशाएँ पैदा होती हैं।

(iv) धार्मिक कारण- भारत विविध धर्मों का देश है। शायद यहाँ विश्व के सभी देशों से अधिक धार्मिक विभिन्नता देखने को मिलती है। धर्म को समझने का आधार वैज्ञानिक और विवेकपूर्ण न होने के कारण विभिन्न धर्मावलम्बियों में आपसी अविश्वास, द्वेष, भय, विरोध, सन्देह तथा घृणा का भाव उत्पन्न हो गया है। हर एक धर्मावलम्बी अपने धर्म-विशेष को सर्वश्रेष्ठ तथा दूसरों को निम्न कोटि का तथा व्यर्थ समझता है। एक धर्म के लोग दूसरे पर छींटाकशी तथा आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं। इससे पूर्वाग्रहों तथा अफवाहों को बल मिलता है जिससे उत्पन्न तनाव की परिस्थितियाँ साम्प्रदायिक संघर्षों में बदल जाती हैं।

(v) आर्थिक कारण- दुनियाभर में आर्थिक विषमता और शोषण के आधार पर दो सबसे बड़े वर्ग बने हैं-शोषक और शोषित। स्पष्टतः पूँजीपति लोग ‘शोषक वर्ग’ के अन्तर्गत आते हैं, जबकि श्रमिक या मजदूर लोग ‘शोषित वर्ग के अन्तर्गत। शोषक (पूँजीपति) वर्ग, शोषित (श्रमिक) वर्ग का हर प्रकार से शोषण करता है। श्रमिकों की खून-पसीने की कमाई का अधिकतम लाभांश पूँजीपति लोग चट कर जाते हैं। इससे दोनों वर्गों के मध्य मतभेद और तनाव पैदा होते हैं जिसकी चरमावस्था ही वर्ग-संघर्ष है।

(vi) राजनीतिक कारण– अनेक राजनीतिक समस्याओं तथा सत्ता हथियाने के उद्देश्य से विभिन्न राजनीतिक दल एक-दूसरे की कठोर-से-कठोर आलोचना किया करते हैं। प्रत्येक दल दूसरे दलों की प्रतिष्ठा गिराने तथा उन्हें असफल करने के इरादे से राजनीतिक षड्यन्त्र रचता है। इन सभी बातों को लेकर एक़ राजनीतिक विचारधारा वाला समूह दूसरे समूहों के खिलाफ आन्दोलन चलाता है। जिससे तनाव पैदा होता है। सरकार द्वारा जनता के किसी वर्ग विशेष को प्रश्रय, अतिरिक्त लाभ या सुविधाएँ देने से भी यह समूह-तनाव उत्पन्न होता है।

(vii) सांस्कृतिक कारण –  सांस्कृतिक अलगाव भी समूह-तनाव का एक विशेष कारण है। किसी समुदाय विशेष की संस्कृति के विभिन्न अवयव हैं-उसके रीति-रिवाज, प्रथाएँ, परम्पराएँ, कला, साहित्य, धर्म तथा भाषी इत्यादि। सांस्कृतिक भिन्नता के आधार पर एक वर्ग स्वयं को दूसरों से पृथक समझने लगता है जिसके परिणामस्वरूप समूह-तनाव उत्पन्न होता है जिसकी परिणति संघर्ष में होती है।

(2) मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Causes)

सामान्यतया लोगों की दृष्टि में धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, भाषा तथा संस्कृति आदि वातावरणीय कारण ही समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी हैं, किन्तु सत्यता यह है कि इन कारणों के अतिरिक्त कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों की भी विशिष्ट भूमिका समूह-तनाव बढ़ाने के लिए उत्तरदायी है। समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारणों का वर्णन निम्नलिखित है –

(i) पूर्वाग्रह– पूर्वाग्रह या पूर्वधारणा (Prejudice) से तात्पर्य किसी व्यक्ति, समूह, वस्तु या विचार के विषय में पूर्णतया जाने बिना, उसके अनुकूल या प्रतिकूल, अच्छा या बुरा निर्णय पहले से ही कर लेने से है। जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “निश्चित वस्तुओं, सिद्धान्तों, व्यक्तियों के प्रति अनुकूल या प्रतिकूल अभिवृत्ति को, जिनमें संवेग भी सम्मिलित रहते हैं, पूर्वाग्रह कहते हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि भले ही हमने किसी व्यक्ति, समूह, वर्ग या वस्तु की सत्यता जानने का प्रयास किया हो अथवा नहीं, लेकिन हम किन्हीं कारणों से उनके विषय में पहले ही एक धारणा बना लेते हैं। हमारी यह पूर्वधारणा या विचार किसी तर्क या विवेक पर आधारित नहीं होता और न ही हम उसके सम्बन्ध में तथ्यों की छानबीन ही करते हैं; हम तो उसके विषय में एक निर्णय धारण कर लेते हैं-यही पूर्वाग्रह या पूर्वधारणा है क्योकि सम्बन्धित व्यक्ति का समूचा व्यक्तित्व इन्हीं पूर्वधारणाओं या पूर्वाग्रहों से ओत-प्रोत रहता है। अतः वह इन्हीं से प्रेरित होकर व्यवहार प्रदर्शित करता है जो समूह-तनाव, साम्प्रदायिक दंगों, उपद्रवों तथा अन्तर्राष्ट्रीय अशान्ति को जन्म देती है। स्पष्टतः पूर्वाग्रह, समूह-तनांव का एक अति महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक कारण है।

(ii) अभ्यनुकूलन- अभ्यनुकूलन (Conditioning) का सिद्धान्त पूर्वाग्रहों के निर्माण में सहायक होता है और इस प्रकार समूह-तनाव का एक प्रमुख कारण बनता है। व्यक्ति जब शुरू में कुछ व्यक्तियों या वस्तुओं से विशेष प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है तो वह उन विशेषताओं का सामान्यीकरण कर लेता है और उसे जाति या वर्ग-विशेष की सभी वस्तुओं या व्यक्तियों पर लागू कर देता है। उदाहरणार्थ-किसी विशुद्ध आचरण वाले ब्राह्मण परिवार का एक बच्चा अण्डे के सेवन को निरन्तर एवं बार-बार अधार्मिक एवं पाप कहते सुनता है। लगातार एक ही प्रकार की बात सुनते-सुनते उसके मन पर अण्डे के बुरे होने की स्थायी छाप पड़ जाती है। अब वह प्रत्येक अण्डा खाने वाले को अधार्मिक या पापी समझेगा और उससे घृणा करेगा। इसी भाँति एक समूह-विशेष के लोग प्रायः अभ्यनुकूलित होकर दूसरे समूह के लोगों के प्रति द्वेष, घृणा या विद्रोह की भावना से भर उठते हैं, जिसके फलस्वरूप समूह-तनाव उत्पन्न होता है।

(iii) तादात्म्य एवं अन्तःक्षेपण- व्यक्ति जिस परिवेश के घनिष्ठ सम्पर्क में रहता है उससे सम्बन्धित वर्ग, जाति या समूह के अन्य लोगों से वह अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और उनसे आत्मीकरण कर लेता है। समनर (Sumner) ने इसे ‘अन्त:समूह’ (In-group) कहकर पुकारा है और अन्य समूहों को बाह्य-समूह (Out-group) का नाम दिया है। इन अन्त:समूहों तथा बाह्य-समूहों के मध्य संघर्ष, पूर्वधारणा को जन्म देता है। तादात्म्य एवं अन्तःक्षेपण की क्रिया से बनी यह पूर्वधारणा या पूर्वाग्रह ही समूह-तनाव का कारण बनती है।

(iv) सामाजिक दूरी- समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक दूरी का होना भी तनाव की उत्पत्ति का कारण है। जब एक समूह के किसी दूसरे समूह के साथ किसी प्रकार के सम्बन्ध नहीं होते और उसके साथ सामाजिक व्यवहार भी नहीं होते तो इसे सामाजिक दूरी का नाम दिया जाता है। जिन समूहों में सामाजिक दूरी कम होती है उनमें प्रेम, मित्रता तथा निकट के सम्बन्ध स्थापित होते हैं, किन्तु जिनमें यह दूरी अधिक होती है उनमें पारस्परिक वैमनस्य तथा तनाव बढ़ते हैं। सामाजिक दूरी के अधिक होने से विभिन्न समूहों में तनाव उत्पन्न होते हैं।

(v) भ्रामक विश्वास, रूढ़ियाँ और प्रचार– विभिन्न विरोधी सम्प्रदायों में एक-दूसरे के प्रति भ्रामक रूढ़ियाँ, विश्वास तथा प्रचार चलते रहते हैं। रूढ़ियों का आधार साधारण रूप से परम्पराएँ होती हैं जिनके माध्यम से भ्रान्तिपूर्ण पूर्वधारणाओं का निर्माण होता है और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती जाती हैं। सामाजिक सम्पर्क के अभाव में इन रूढ़ियों तथा विश्वासों को दूर करना भी सम्भव नहीं होता। इसी के फलस्वरूप ये शनैः-शनैः तनाव का कारण बन जाते हैं। इसी प्रकार भ्रामक प्रचार भी तनाव के कारण । भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान भारत के विषय में भ्रामक प्रचार करता है जिससे भारत में रहने वाले हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास एवं विद्वेष बढ़े और भारत में गृहयुद्ध छिड़ जाए।

(vi) मिथ्या-दोषारोपण- एक समूह द्वारा दूसरे समूह पर झूठे और मनगढ़न्त आरोप लगाना मिथ्या-दोषारोपण कहलाता है। इनका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं होता। एक समूह अपने प्रतिद्वन्द्वी समूह को नीचा दिखाने के लिए उस पर मिथ्या-दोषारोपण करता है। इसमें अफवाहें, कार्टून, व्यंग्य, आर्थिक भेदभाव, कानून द्वारा सामाजिक-आर्थिक-प्रतिबन्ध लगाना, सम्पत्ति का विनाश तथा बेगारी करना इत्यादि सम्मिलित हैं। मिथ्या-दोषारोपण की क्रियाएँ उस समय अधिक प्रभावकारी हो जाती हैं जब एक वर्ग को यह भय सताने लगता है कि दूसरा वर्ग उससे आगे बढ़ जाएगा या अधिक शक्तिशाली बन जाएगा। इस प्रकार के व्यवहारों में एक उच्च समूह के लोग अपनी चिन्ताओं, भग्नाशाओं, निराशाओं तथा मानसिक संघर्षों को प्रक्षेपण सुरक्षा प्रक्रिया द्वारा अभिव्यक्त करते हैं।

(vii) व्यक्तित्व एवं व्यक्तिगत विभिन्नताएँ– अध्ययनों से पता चलता है कि जिन लोगों में समायोजन दोष तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी असन्तुलन पाया जाता है उनमें पूर्वाग्रहों की मात्रा सामांन्यजनों की अपेक्षा अधिक होती है। कुण्ठिते, असहिष्णु, आतंकित, असुरक्षित और मानसिक अन्तर्द्वन्द्व एवं हीन-भावना ग्रन्थियों से युक्त व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं को पूर्वाग्रहों की सहायता से प्रकट करते हैं। यदि किसी समूह का नेता व्यक्तित्व के असन्तुलन एवं पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है तो उस स्मूह का अन्य समूहों से समूह-तनाव लगातार बना रहता है। स्पष्टतः व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक विभिन्नताओं के कारण जो समायोजन के दोष पैदा होते हैं, उनसे समूह-तनाव जन्म लेते हैं।
वस्तुत: समूह-तनाव के लिए हमेशा कोई एक कारण उत्तरदायी नहीं होता, अक्सर एक या एक से अधिक वातावरणीय या मनोवैज्ञानिक कारण मिलकर समूह-तनाव उत्पन्न करते हैं।

प्रश्न 2.
पूर्वाग्रह (Prejudice) से क्यो आशय है? पूर्वाग्रहों के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए इन्हें दूर करने के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
या
समाज में विभिन्न प्रकार के पूर्वाग्रहों का विकास क्यों होता है? उन्हें दूर करने के लिए क्या उपाय कर सकते हैं?
या
पूर्वाग्रह समूह-तनाव को किस प्रकार बढ़ाते हैं? पूर्वग्रह को दूर करने की विधियों का वर्णन कीजिए।(2010, 12)
या
पूर्वग्रहित निर्णय का अर्थ स्पष्ट कीजिए। पूर्वाग्रहित निर्णयों के विकास के कारणों का वर्णन कीजिए। (2015)
या
पूर्वग्रहित निर्णय का अर्थ स्पष्ट कीजिए। पूर्वग्रहित निर्णयों को कम करने की विधियाँ लिखिए। (2017)
उत्तर.

भूमिका
(Introduction)

प्रत्येक व्यक्ति समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत समाज के अन्य व्यक्तियों तथा समूहों के प्रति सम्बन्धात्मकं या द्वेषात्मक या घृणात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित करता है। व्यक्ति जिस समूह को सदस्य होता है, वह समूह उसे दूसरे समूहों के प्रति पूर्वाग्रही बना देता है। पूर्वाग्रह का प्रभाव इतना गहरा होता है कि व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वह किन्हीं व्यक्तियों या समूहों के प्रति पूर्वाग्रही भी है। पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्ति को प्रत्येक विचार, भावना अथवा क्रिया पूरी तरह से सहज एवं स्वाभाविक प्रतीत होती है और वह अपने पूर्वाग्रहयुक्त व्यवहार को सामान्य व्यवहार समझता है। पूर्वाग्रह समूह-तनाव के लिए आधारभूत मनोवैज्ञानिक कारण है। पूर्वाग्रहों के विकास के साथ-ही-साथ समूह-तनाव का भी विकास होता है।

पूर्वाग्रह का आशय
(Meaning of Prejudice)

लैटिन भाषा का एक शब्द है प्रीजूडिकम (prejudicum) जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘पूर्व निर्णयों पर आधारित निर्णय’। पूर्वाग्रह में किसी बात की जाँच या परीक्षा करने से पहले ही उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित विश्वास और अभिवृत्ति बना ली जाती है, अर्थात् पूर्वाग्रह एक ऐसा निर्णय होता है जो तथ्यों के समुचित परीक्षण के पूर्व ही ले लिया जाता है। इस भॉति, पूर्वाग्रह को शीघ्रतापूर्वक लिया गया या अपरिपक्व निर्णय कहा जा सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि पूर्वाग्रह अनुचित और अविवेकपूर्ण होते हैं। उदाहरण के तौर पर भारतीय समाज में प्रायः ऊँची जाति के लोग अनुसूचित जाति के लोगों को अस्पृश्य समझते हैं और उन्हें छूने से परहेज करते हैं। यह एक पूर्वाग्रह है। इसी प्रकार युद्धप्रिय कबीलों या समूहों में जन्म लेने वाले बालकों को इस भाँति पाला-पोसा और प्रशिक्षित किया जाता है कि उनमें शत्रु के प्रति द्वेषात्मक एवं घृणात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित हो जाती हैं। बालकों की ऐसी प्रवृत्तियाँ एवं व्यवहार के प्रतिमान सहज, सामान्य तथा सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत समझे जाते हैं। इतना ही नहीं बल्कि होता यह है कि जो बालक बड़े होकर इन प्रवृत्तियों/प्रतिमानों के अनुरूप व्यवहार नहीं करते, वे अपने समूह से बहिष्कृत और अपने समूह की सुरक्षा के प्रति खतरा समझे जाते हैं। समूह या कबीला इसके लिए उन्हें दण्ड भी दे सकती है। निष्कर्षतः व्यक्तिगत, समूहगत, पारस्परिक वृत्तियों एवं विश्वासों के आधार पर किसी समूह, समुदाय, सम्प्रदाय, वर्ग, क्षेत्र, मत-मजहब या भाषा के प्रतिकूल या अनुकूल जब कोई धारणा निर्मित कर ली जाती है तो उसे पूर्वाग्रह (Prejudice) कहते हैं।

पूर्वाग्रह की परिभाषा
(Definition of Prejudice)

पूर्वाग्रह को विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया गया है
(1) क्रेच और क्रचफील्ड के अनुसार, “पूर्वाग्रह उन अभिवृत्तियों तथा विश्वासों को कहा जाता है जो व्यक्तियों को अनुकूल तथा प्रतिकूल स्थिति में रखते हैं। …………….. जातीय पूर्वाग्रह किसी अल्पसंख्यक, जातीय, नैतिक और राष्ट्रीय समूह के प्रति उन मनोवृत्तियों तथा विश्वासों को कहते हैं जो उस समूह के सदस्यों के लिए प्रतिकूल होते हैं।”

(2) जेम्स ड्रेवर के मतानुसार, “निश्चित वस्तुओं, सिद्धान्तों, व्यक्तियों के प्रति अनुकूल या प्रतिकूल अभिवृत्ति को, जिसमें संवेग भी सम्मिलित रहते हैं, पूर्वाग्रह कहते हैं।”
क्रेच एवं क्रचफील्ड तथा जेम्स ड्रेवर की उपर्युक्त दोनों परिभाषाओं में दो शब्दों का प्रयोग मिलता है, ये हैं-‘अभिवृत्ति’ और ‘विश्वास’। पूर्वाग्रह को समझने के लिए इन दोनों शब्दों से परिचित होना आवश्यक है।

अभिवृत्ति एवं विश्वास (Attitudes and Believes)-अभिवृत्ति एक मानसिक एवं स्नायविक तत्परता है जिसका प्रभाव व्यक्ति के समस्त व्यवहारों पर पड़ता है। इसी भाँति, प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग एक संसार होता है जिसमें अपनी देखी हुई तथा जानी हुई बातों के आधार पर वह कुछ विश्वासं निर्मित कर लेता है। विश्वास अच्छे-बुरे अथवा सही-गलत कुछ भी हो सकते हैं। किन्तु ये विश्वास उस व्यक्ति को एक सुनिश्चित व्यवहार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

क्रेच तथा क्रचफील्ड ने अभिवृत्ति एवं विश्वास को इस प्रकार परिभाषित किया है-“व्यक्ति से सम्बन्धित समुदाय के कुछ पक्षों के प्रति प्रेरणात्मक, संवेगात्मक, प्रत्यक्षात्मक तथा ज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के स्थायी संगठन को अभिवृत्ति कहते हैं।” तथा “व्यक्ति से सम्बन्धित समुदाय के कुछ पक्षों के प्रति प्रत्यक्षीकरण तथा ज्ञान के स्थायी संगठन को विश्वास कहा जाता है।”

पूर्वाग्रहों का विकास (पूर्वाग्रहों के विकास के कार्यकारी कारक)
(Development of Prejudices)

पूर्वाग्रहों के विकास में अनेक तत्त्व कार्य करते हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है |

(1) अभ्यनुकूलन (Conditioning)- अभ्यनुकूलन पूर्वाग्रहों के विकास में एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। इसके द्वारा विकसित पूर्वाग्रह अत्यन्त सरल प्रकार के होते हैं तथा इनको जल्दी ही दूर कर लिया जा सकता है। गार्डनर मर्फी नामक मनोवैज्ञानिक ने पूर्वाग्रह के निर्माण तथा विकास की प्रक्रिया में अभ्यनुकूलन का योगदान स्पष्ट किया है। मर्फी के अनुसार हम किसी धार्मिक रीति-रिवाज, समुदाय, भाषा या वर्ग के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो जाते हैं और इस भॉति निर्मित पूर्वाग्रह विकसित होकर व्यक्ति के सामान्य अनुभवों का अंग बन जाते हैं। उदाहरण के लिए—माना कोई बालक लम्बी-चौड़ी कद-काठी, दाढ़ी-मूंछ वाले किसी कुरूप तथा डरावने व्यक्ति को लड़ते हुए देख लेता है तो वह उससे भयभीत हो जाता है तथा बचने का प्रयास करता है। इस प्रकार उसके मन में यह विश्वास उत्पन्न हो जाता है कि ऐसे व्यक्ति क्रूर, निर्दयी तथा आततायी होते हैं। भविष्य में उसका यह आग्रह समूचे समुदाय या जाति पर लागू हो जाता है। इस प्रकार का पूर्वाग्रह अभ्यनुकूलन के कारण से ही विकसित हुआ।

(2) आत्मीकरण तथा अन्तःक्षेपण (Identification and Interjection)– किम्बाल यंग के मतानुसार, “आन्तरिक समूह तथा बाह्य समूह के पारस्परिक संघर्ष पूर्वाग्रहों को जन्म देते हैं।” मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में अनेक प्रकार के समूहों की उपस्थिति-मात्र से ही पूर्वाग्रहों का जन्म नहीं होता, संघर्ष तो समूहों में भेदभाव के कारण उत्पन्न होता है। यदि सभी जातियों, सम्प्रदायों में आपसी भेदभाव नहीं है तो ऐसी दशा में पूर्वाग्रहों की उत्पत्ति नहीं होगी। वस्तुतः जब व्यक्ति अपने तथा बाहरी समाज के बीच अन्तर समझने लगता है तो यह अन्तर ही उस व्यक्ति में पूर्वाग्रहों को विकसित करता है ।

‘आत्मीकरण’ की प्रक्रिया के अन्तर्गत बालक स्वयं को अपने परिवार के अनुकूल ढालने का प्रयास करता है तथा परिवार के रीति-रिवाजों, प्रथाओं एवं परम्पराओं को आत्मीकृत कर लेना चाहता है जिसके परिणामस्वरूप उसके मस्तिष्क पर विभिन्न प्रकार के पूर्वाग्रहों का विकास समाज के विभिन्न समुदायों, वर्गों तथा जातियों के प्रति होने लगता है।

बड़ा होने पर बालक समाज की कई संस्थाओं; जैसे—स्कूल, धर्मस्थल, क्रीड़ास्थल तथा सामुदायिक क्लबोंके सम्पर्क में आता है और विविध अनुभव प्राप्त करता है। इसके फलस्वरूप उसके मन में विभिन्न धर्मों, वर्गों, जातियों, सम्प्रदायों, भाषाओं तथा क्षेत्रों के प्रति एक विशिष्ट पृष्ठभूमि और विचारधारा निर्मित हो जाती है। अब उसके सामने दो समाज होते हैं—एक अपना निजी समाज तथा दूसरा बाहरी समाज। दोनों समाजों के बीच वह एक अन्तर का बोध करने लगता है और इस प्रकार उसमें पूर्वाग्रह विकसित हो जाते हैं।

(3) व्यक्तिगत एवं सामाजिक सम्पर्क (Personal and Social Contact)- शुरू में बालक अपने माता-पिता तथा परिवारजनों के सम्पर्क में आता है। इस छोटे-से क्षेत्र में ही उसे प्राथमिक अनुभव होते हैं जो आयु वृद्धि के साथ-साथ पास-पड़ोस, गली-मुहल्ले, नगर और इस भाँति बाहरी समाज तक फैल जाते हैं। यहाँ बालक को दोनों ही प्रकार के अनुभव होते हैं कुछ खट्टे तो कुछ मीठे, कुछ प्रतिकूल तो कुछ अनुकूल। बाहरी समाज के व्यवहार से दुःख या पीड़ा महसूस होने पर बालक को कटु अनुभव होते हैं और वह उस समाज को अपने विरुद्ध समझकर उसके प्रति पूर्वाग्रह विकसित कर लेता है। सुखकारी अनुभव अनुकूल पूर्वाग्रहों की उत्पत्ति करते हैं तथा उन्हें विकसित करते हैं।

(4) सामाजिक दूरी (Social Distance)- सामाजिक दूरी का अभिप्राय है, एक समूह का दूसरे समूह से अलगाव अर्थात् उनमें पारस्परिक व्यवहार का अभाव और इस भॉति उनके बीच आपसी सम्बन्धों का न होना। सामाजिक दूरी रखने वाले समूहों के रीति-रिवाज, प्रथाएँ, परम्पराएँ, आस्थाएँ और सामाजिक व्यवहार भी पृथक् ही होते हैं। इससे आपसी तनाव बढ़ता है। प्रायः परस्पर विरोधी समूह एक-दूसरे को घृणा व सन्देह की दृष्टि से देखते हैं, एक-दूसरे को अपने से हीन मानते हैं, एक-दूसरे के विरुद्ध अफवाहें फैलाते हैं तथा घृणास्पद प्रचार करते हैं। इसके फलस्वरूप उनमें परस्पर तनाव उत्पन्न हो जाता है और संघर्ष प्रबल हो जाता है। भारतीय समाज में धार्मिक, साम्प्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय तथा भाषायी तनाव अक्सर दखने में आते हैं। इस प्रकार सामाजिक दूरी के आधार पर पूर्वाग्रहों का विकास होता है।

(5) व्यक्तित्व (Personality)- मनोवैज्ञानिक खोजों से ज्ञात हुआ है कि समाज में असन्तुलित व्यक्तित्व वाले तथा कुसमायोजित लोग, आम लोगों की अपेक्षा, पूर्वाग्रहों से अधिक ग्रस्त पाये जाते हैं। वस्तुत: ऐसे लोग अपनी मानसिक कुण्ठाओं, मनोविकारों, भय या असुरक्षा की भावना को पूर्वाग्रहों के मध्यम से प्रकट करते हैं और समाज में तनाव के बीज आरोपित कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति यदि किसी समूह, समुदाय, क्षेत्र या मजहब के नेता हों तो वह सामूहिक तनाव सतत प्रबल होता जाता है। कुछ स्वार्थी नेता तथाकथित निम्न तथा उच्च जातियों के बीच भेदभाव उत्पन्न करके जातीय तनाव बढ़ा देते हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व के कारण भी पूर्वाग्रहों का विकास होता है।

(6) मिथ्या-दोषारोपण (Scapegoating)– मिथ्या-दोषारोपण के माध्यम से एक समूह अपने विरोधी समूह के विरुद्ध झूठी तथा भ्रामक बातों को प्रचार करता है। इन आरोपों के पीछे कोई तर्क या वैज्ञानिक आधार नहीं होता। मिथ्या-दोषारोपण में एक समूह सम्भाषण, समाचार-पत्र, मंच, रेडियो तथा टी० वी० आदि के माध्यम से दूसरे समूह के विरुद्ध विरोधी प्रचार करता है। कभी-कभी तो यह आलोचना इतनी उत्तेजनापूर्ण एवं घृणित हो जाती है कि विरोधी समूहों में खुला व रक्तपातपूर्ण संघर्ष शुरू हो जाता है। स्पष्टतः मिथ्या-दोषारोपण पूर्वाग्रहों के विकसित होने का महत्त्वपूर्ण कारक हो जाता है।

(7) रूढ़ियाँ (Stereotypes)- प्रसिद्ध विद्वान् किम्बाल यंग के मतानुसार, “रूढ़ियाँ एक बेकार की धारणा हैं जो किसी समूह के ऐसे लक्षणों को व्यक्त करने के लिए बनायी जाती हैं, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता।” रूढ़ियाँ ऐसी प्रतिमाएँ हैं जो व्यक्ति विशेष के मन में किन्हीं समूहों के प्रति दुराग्रह, द्वेष या घृणा के कारण निर्मित हो जाती हैं। रूढ़ियाँ आधारहीन व परम्परागत होती हैं। तथा भाषा एवं संस्कारों के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली होती हैं। किस्से, कथा एवं कहानियाँ इन रूढ़ियों को पोषित करते हैं। रूढ़ियों का सम्बन्ध क्योंकि मानसिक क्रियाओं; यथा-संवेगों व प्रेरणाओं से होता है; अत: ये मानव-जीवन पर सदैव किसी-न-किसी रूप में असर डालती हैं। रूढ़ियों से परिचालित मानव-व्यवहार पूर्वाग्रहों में रूपान्तरित तथा विकसित हो जाता है और समूह-तनावों का कारण बनता है।

पूर्वाग्रह दूर करने के उपाय
(Remedies for the Removal of Prejudices)

आधुनिक भारतीय समाज एक बहुलवादी एवं प्रतियोगितावादी समाज है, जहाँ व्यक्ति को पूर्वाग्रह की ओर ले जाने वाले कई रास्ते हैं और इन रास्तों पर चलने में कोई कठिनाई भी नहीं होती है। साथ ही, यह पूर्वाग्रहों की सार्वभौमिकता भी सामान्य है, किन्तु अनेक पूर्वाग्रह मानव-समाज के लिए अत्यन्त घातक हैं जिनका डटकर मुकाबला किया जाना चाहिए तथा जिन्हें दूर करने के भरसक एवं तत्काल कदम उठाये जाने चाहिए। ऐसे ही कुछ उपाय निम्नलिखित रूप में उल्लिखित हैं –
(1) सम्पर्क – मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि विभिन्न समूहों के बीच पूर्वाग्रहों को कम करने के लिए उनमें परस्पर सम्पर्क वृद्धि अनिवार्य है। इसका सर्वोत्तम उपाय है कि सभी समूहों को एक-दूसरे के समीप लाया जाये और उन्हें ऐसी परिस्थतियों के अन्तर्गत रखा जाये कि सभी समूह परस्पर परिचित हों और उनमें मेल-मिलाप बढ़ सके। सम्पर्क वृद्धि के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है –

  1. पूर्वाग्रह को दूर करने के लिए समूह का प्रत्येक सदस्य विभिन्न परिस्थितियों (जैसे – कॉलेज या नौकरी) में बराबरी के स्तर पर प्रतिभागिता करे।
  2. सभी को यह ज्ञात हो कि वे एक समान लक्ष्य के लिए कार्य कर रहे हैं।
  3. इस प्रकार कार्य-समूह द्वारा सफलता प्राप्त करने पर पूर्वाग्रह समाप्त हो जाते हैं और घनिष्ठता विकसित होती है; अतः सफलता महत्त्वपूर्ण कारक है।
  4. समूह के सभी सदस्यों को विचाराभिव्यक्ति का पूरा अवसर मिलना चाहिए तथा उनकी निर्णय लेने में भागीदारी होनी चाहिए।

(2) शिक्षा- शिक्षा पूर्वाग्रहों को दूर करने का सशक्त साधन है। शिक्षित व्यक्ति बिना सोच-विचार किये किसी बात पर विश्वास नहीं करता, वह उसे पहले तर्क की कसौटी पर कसता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा दूसरे समूहों के बारे में सूचनाएँ प्रदान करती है, जिसके फलस्वरूप लोगों में दूसरों के प्रति स्वीकृत्यात्मक भावनाएँ विकसित होती हैं। शोध अध्ययनों के निष्कर्ष बताते हैं कि अशिक्षित लोगों की तुलना में कॉलेज स्तर के शिक्षित लोगों में बहुत कम पूर्वाग्रह देखने में आये हैं।

(3) सामाजिक-आर्थिक समानता– समाज के विभिन्न वर्गों, समूहों या समुदायों में पारस्परिक तनाव एवं संघर्ष का एक प्रमुख कारण समाज में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक विषमता है। सामाजिक संघर्ष का एक बड़ा कारण धनी एवं निर्धनों के बीच भारी विषमता है। अतः सामाजिक एवं आर्थिक सुधारों के द्वारा पूर्वाग्रहों को कम और दूर किया जा सकता है।

(4) भावात्मक एकता- भावात्मक एकता स्थापित कर भी पूर्वाग्रहों को एक बड़ी सीमा तक समाप्त किया जा सकता है। इसके लिए राष्ट्रीय उत्सवों तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। भावनात्मक एकता का पूर्वाग्रहों पर गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

(5) सन्तुलित व्यक्तित्व– असन्तुलित व्यक्तित्व के कारण भी पूर्वाग्रह पनपते हैं। असन्तुलित व्यक्तित्व तथा असमायोजन दोष के कारण अविश्वास उभरता है तथा दूषित अभिवृत्तियाँ जन्म लेती हैं। सन्तुलित व्यक्तित्व भग्नाशा, असहिष्णुता हीन-भावना तथा मानसिक संघर्ष को कम करता है और इस भाँति विरोधी समूहों पर दोषारोपण के अवसर कम होते जाते हैं।

(6) चेतना का स्तर- पूर्वाग्रह दूर करने का एक उत्तम उपाय है-चेतना जाग्रत करना। चेतना के जागरण से वैकल्पिक यथार्थों का निर्माण होता है तथा समूह के सदस्य अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों तथा उत्पीड़क प्रभावों के प्रति संवेदनशील बनते हैं। उनमें सामूहिक शक्ति, एकता की भावना तथा सामूहिक प्रतिरक्षा की भावना विकसित होती है।

प्रश्न 3.
समूह – तनाव को दूर करने के उपाय बताइए।
या
समूह-तनाव का निराकरण किस प्रकार किया जा सकता है? उदाहरण सहित विवरण दीजिए।
उत्तर.

समूह-तनाव के निवारण की विधियाँ
(Measures to Remove the Group Tension)

आज हमारे देश में समूह-तनाव की समस्या ने गम्भीर रूप धारण कर लिया है। इसे दूर करने के लिए उन सभी कारणों का निवारण करना होगा जो तनाव की उत्पत्ति एवं विकास के लिए उत्तरदायी हैं। समूह-तनाव की समाप्ति के लिए अभी तक कोई प्रभावशाली मनोवैज्ञानिक उपाय नहीं खोजे जा सके हैं, अत: सामान्य रूप से परम्परागत विधियों से समूह-तनाव को कम करने का प्रायस किया जाता है। समूह-तनाव पारिवारिक वातावरण में जन्म लेते हैं। पड़ोस, विद्यालय तथा खेल के मैदान में इन्हें शक्ति मिलती है तथा साम्प्रदायिक राजनीतिक दलों, पुस्तकों, समाचार-पत्रों तथा भाषणों द्वारा इनका पोषण किया जाता है।

विभिन्न प्रकार के समूह-तनावों के निवारण हेतु निम्नलिखित सामान्य उपाय काम में लाये जाते हैं –

(1) व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास (Harmonious Development of Personality)- समूह तनाव को दूर करने के लिए जीवन के प्रारम्भिक चरण से ही व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास आवश्यक है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, व्यक्तित्व का सन्तुलन बिगड़ने से मानसिक स्वास्थ्य खराब होता है जिससे संघर्ष और तनाव जन्म लेते हैं। व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास व्यक्ति को पूर्वाग्रहों या पूर्णधारणाओं से मुक्त रखता है और वह जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाने में सफल होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मानसिक स्वास्थ्य, विज्ञान के प्रचार-प्रसार, समायोजन दोषों के उपचार तथा निर्देशन-सेवाओं के विस्तार की अत्यधिक आवश्यकता है।

(2) उचित शिक्षा (Proper Education)– उपयुक्त शिक्षा समूह-तनावों को दूर करने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है। शिक्षा की कमी और बाह्य समूहों के प्रति अज्ञानता के कारण विभिन्न वर्गों के बीच तनाव बढ़ते हैं। शिक्षा की रूपरेखा इस प्रकार तैयार की जानी चाहिए कि विभिन्न क्षेत्रों या प्रान्तों के निवासी एक-दूसरे की भाषा, संस्कृति, बोल- चाल, रहन-सहन और भावनाओं को उचित सम्मान दे सकें; वे संकीर्णता के स्थान पर उदार दृष्टिकोण अपना सकें। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री के०जी० सैन्यदेन का मत है कि समूह-तनाव की रोकथाम के लिए बालकों के लिए विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों तथा सम्प्रदायों को मूल्यवान बातों की शिक्षा की व्यवस्था की जाए ताकि वे एक-दूसरे की संस्कृति, धर्म तथा सम्प्रदाय को भली-भाँति समझ सकें।

पाठ्यक्रम पुस्तकें तथा मनोरंजन सम्बन्धी साहित्य का चयन करते समय बालकों के संवेगात्मक तथा उचित विकास व अभिवृत्ति निर्माण का ध्यान रखा जाये। शिक्षक पूर्वाग्रहों से मुक्त हों तथा स्वस्थ-सन्तुलित व्यक्तित्व वाले हों। उन्हें चाहिए कि बालकों को आपसी घनिष्ठ मित्रता के लिए प्रोत्साहित करें। विद्यालयों में प्रजातान्त्रिक नियमों तथा विश्व-बन्धुत्व की भावना को समर्थन मिलना चाहिए। वस्तुत: एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता, सद्भाव, प्रेम एवं अच्छी सोच पैदा करने वाली शिक्षा ही समूह-तनाव को कम कर सकती है।

(3) सामाजिक सम्पर्क (Social Contact)— समूह-तनाव का एक प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण कारण सामाजिक दूरी है। सामाजिक दूरी को कम करने के लिए समाज में स्थित विभिन्न समूहों को एक-दूसरे के अधिकाधिक निकट सम्पर्क में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, वर्गों तथा जातियों के व्यक्तियों को परस्पर मिलजुलक्रः कार्य करने एवं सास्कृतिक अवसरों पर व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क साधने का अवसर प्रदान किया जाए। अध्ययन एवं अनुभव बताते हैं कि जिन नगरों में सामाजिक सम्पर्क बढ़ता है, वहाँ समूह-तनाव में निरन्तर कमी आती जाती है।

(4) व्यापक आदर्श एवं लक्ष्य (Wide Ideals and Goals)- समूह-तनाव का एक मुख्य कारण यह है कि सामान्यतया विभिन्न जातियों, वर्गों, सम्प्रदायों, अलग-अलग प्रान्तों में रहने वाले विभिन्न भाषा-भाषियों के परस्पर विरोधी आदर्श एवं लक्ष्य होते हैं। इनसमेहों की अभिवृत्ति, विश्वासों तथा संवेगों को किसी उच्च आदर्श तथा व्यापक लक्ष्य की ओर मोड देने से आपसी भेदभाव तथा संकीर्णता समाप्त होगी; अतः पूरे समाज में ऐसे व्यापक आदर्शों और लक्ष्यों की स्थापना की जानी चाहिए जो सर्वमान्य हों और जिन्हें प्राप्त करने में सभी लोग प्रयत्नशील हों।

(5) सामाजिक सुधार (Social Reformation)– सामाजिक सुधार समूह-तनावों को दूर करने में एक पर्याप्त सीमा तक सहायक होते हैं। इसके लिए समाज के विभिन्न समूहों के सामाजिक दोषों, कुरीतियों, गलत प्रथाओं व परम्पराओं और अन्धविश्वासों में सुधार लाना परम आवश्यक है। समाज सुधार कार्यक्रमों से सामाजिक जागृति आती है, आपसी भेदभाव दूर होते हैं तथा स्वस्थ समझ-बूझ पैदा होती है।

(6) आर्थिक सुधार (Economic Reformation)- प्रायः देखा गया है कि विभिन्न समूहों की आर्थिक समस्याओं से समूह-तनाव का जन्म होता है। अत: आर्थिक विषमता दूर करने की दृष्टि से सम्बन्धित वर्गों या समूहों की आर्थिक दशा में सुधार वांछित है। आर्थिक उन्नति के लिए कृषि तथा उद्योग-धन्धों को बढ़ावा मिलना चाहिए तथा उत्पादित सामग्री का विवेकपूर्ण तरीकों से वितरण किया जाना चाहिए। अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि आर्थिक दशा में सुधार से समूह-तनाव कम होंगे।

(7) वैधानिक सुधार (Legal Reformation)– समूह-तनाव को समाप्त करने के लिए विधि (कानून) की भी सहयता ली जा सकती है। ऐसे विचारों, कार्यक्रमों, प्रथाओं तथा परम्पराओं पर कानूनी रोक लगा देनी चाहिए जो जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रीयता तथा साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाते हों। इस प्रकार की भावनाओं को प्रोत्साहित करने वालों तथा अफवाहें फैलाने वालों को कठोर दण्ड दिया जाना एवं इनके विरुद्ध जनमत तैयार करना भी आवश्यक है। कानून का सहारा लेकर छुआछूत को कम किया जा सकता है; इससे सामाजिक सम्पर्को में वृद्धि होगी। भारतीय संविधान द्वारा पिछड़े लोगों, अछूतों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा आदिवासियों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान सुरक्षित किये गये हैं।

(8) युवकों का संगठन (Youth Organization)- राष्ट्रीय स्तर पर युवकों के ऐसे संगठन निर्मित किए जाएँ जिनमें विभिन्न जातियों, वर्गों, सम्प्रदायों, क्षेत्रों, भाषा-भाषियों तथा धर्मों के लोग एक साथ एकत्र होकर सामूहिक कार्यों में भाग ले सकें तथा एक-दूसरे से सद्भाव बढ़ा सकें। भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रत्येक वर्ष मनाए जाने वाला ‘युवक समारोह’ (Youth Festival) इसी आशय से निर्मितँ एक संगठन है।

(9) स्वस्थ साहित्य का निर्माण (Formation of Health Literature)– साहित्य एक प्रबल एवं प्रभावशाली माध्यम है। इसका उपयोग समूह तनाव कम करने हेतु किया जाना चाहिए। समूह-तनाव को रोकने के लिए दो कदम उठाने होंगे-एक, समूह-तनाव को प्रोत्साहित करने वाले साहित्य पर प्रतिबन्ध लगाने होंगे तथा दो, स्वस्थ साहित्य का सृजन किया जाना चाहिए ताकि लोगों में उदारता, सहयोग, मैत्री तथा विश्वबन्धुत्व की भावनाओं का उदय एवं विकास हो सके।

(10) सामाजिक समायोजन में वृद्धि (Increasing Social Adjustment)- समूह-तनाव में कमी लाने के लिए सामाजिक समायोजन में अधिक-से-अधिक वृद्धि आवश्यक है। विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं तथा सरकारी संस्थानों का कर्तव्य है कि वे सामाजिक कुसमायोजन (Social Mal-adjustment) को दूर करने के लिए अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करें तथा लोगों के संवेगात्मक विकास को सन्तुलित बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयास करें। एक समूह से दूसरे समूहों के प्रति भय, कुण्ठा, राग-द्वेष, क्रोध, घृणा, द्वेष, सन्देह तथा विरोध’को निकालने हेतु समाज में अनुकूल वातावरण तैयार किया जाना आवश्यक है।

(11) स्वस्थ प्रचार (Healthy Propaganda)- आधुनिक काल की जनतान्त्रिक शासन प्रणालियों में प्रचार का विशेष महत्त्व है। विभिन्न प्रचार साधनों तथा जनसंचार का उपयोग सकारात्मक अभिवृत्तियों, विश्वासों, पूर्वाग्रहों, मूल्यों, मतों तथा विचारों के निर्माण में किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ, भ्रामक एवं दूषित प्रचार पर पाबन्दी भी लगनी चाहिए। समूह-तनाव के विरुद्ध सफल प्रचार वह है जिसमें पहले से मौजूद विश्वासों तथा अभिवृत्तियों को सहारा लिया जाता है एवं उन्हें शनैः-शनैः बदलने की कोशिश की जाती है।

इसके विपरीत, नकारात्मक प्रचार से अन्धविश्वास, भ्रामक एवं गलत तथ्य जनता तक पहुँचते हैं, जिससे गलतफहमियाँ उत्पन्न होती हैं और समूहों में तनाव व संघर्ष का जन्म होता है; अतः भ्रामक एवं गलत प्रचार पर रोक लगाई जानी चाहिए तथा साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाने वाले प्रचारकों को कठोर दण्ड दिया जानी चाहिए। समूह-तनाव के निवारण के लिए राष्ट्रव्यापी स्वस्थ जनमत निर्माण आवश्यक एवं लाभकारी है। इसके लिए वांछित प्रचार-तन्त्र में पत्र-पत्रिकाओं, सम्पादकों, रेडियो, टी० वी०, सिनेमा, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक नेताओं तथा आदर्श शिक्षकों की सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं।

(12) समूह-तनाव पर अनुसन्धान (Research work on Group Tension)समूह- तनाव पर अंकुश लगाने के लिए विशेष अध्ययनों तथा अनुसन्धानों की आवश्यकता है। इसके लिए देश-विदेश के लिए मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों व विभिन्न विषयों के विद्वानों तथा विचारकों को अथक प्रयास करने होंगे। इस दृष्टि से समूह-तनावों के विविध स्वरूपों, कारणों तथा उन्हें दूर करने के उपायों पर अनुसन्धान कार्य की आवश्यकता है।

प्रश्न 4
जातिवाद से क्या आशय है? जातिवाद के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए। जातिवाद को कैसे समाप्त किया जा सकता है?
या
जातिवाद से आप क्या समझते हैं? जातिवाद के क्या कारण हैं? इन्हें दूर करने के आवश्यक उपाय क्या हैं?
या
जातिवाद के कारण लिखिए। जातिवाद से उत्पन्न तनाव को कैसे रोका जा सकता है?
उत्तर

जातिवाद का अर्थ
(Meaning of Casteism)

भारत में जातिवाद प्राचीनकाल की वर्ण-व्यवस्था के विचार से जुड़ा है। सर्वमान्य रूप से विभिन्न वर्गों में विभाजित प्राचीन भारतीय समाज में वर्गीकरण का आधार वर्णाश्रम व्यवस्था थी, जिसके अन्तर्गत समाज को चार वर्गों (वर्गों) में विभक्त किया गया था—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। तत्कालीन भारतीय मनीषियों ने इन चारों वर्षों के कार्य भी निर्धारित कर रखे थे-ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन का कार्य, क्षत्रिय शासन तथा राज्य की सुरक्षा सम्बन्धी कार्य, वैश्य व्यापार सम्बन्धी कार्य तथा शूद्र सेवा के कार्य करते थे। ये कार्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित होते चलते थे। शनैः-शनै: यह वर्ण-व्यवस्था ही जाति-प्रथा में बदल गयी। जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत समूची भारतीय समाज जातियों तथा उपजातियों में विभाजित हुआ। इस भाँति, भारत में जातिवाद की उत्पत्ति हुई जो धीरे-धीरे विकसित होकर ज्वलन्त प्रश्नचिह्न के रूप में उभरी है।

“जातिवाद किसी एक जाति या उपजाति के सदस्यों की वह भावना है जिसमें वे देश, अन्य जातियों या सम्पूर्ण समाज के हितों की अपेक्षा अपनी जाति या समूह के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक हितों या लाभों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।’ ब्राह्मणवाद, वणिकवाद, कायस्थवाद, जाटवाद और अहीरवाद आदि-आदि जातिवाद के विषवृक्ष के ही कडुए फल हैं। वस्तुतः यह एक जाति या उपजाति-विशेष के प्रति अन्धी सामूहिक निष्ठा है जो अपने हितों की रक्षा में अन्यों को बलिवेदी पर चढ़ा देती है।

जातिवाद के कारण।
(Causes of Casteism)

आजकल भारतीय समाज में जातिवाद अपनी गहरी और फैली हुई जड़ों के साथ स्थायित्व धारण कर चुका है। इसके दूषित परिणाम मानव जीवन के सभी पक्षों को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं जिससे समाज छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित होता जा रहा है। जातिवाद के विकास के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

(1) अपनी जाति की प्रतिष्ठा की एकांगी भावना- जातिवाद के विकास में एक जाति-विशेष की अपनी जाति के लिए प्रतिष्ठा की एकांगी भावना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण है। प्रायः अपनी जाति की प्रतिष्ठा के विचार से लोग उसे पूरे समाज से पृथक् मान लेते हैं तथा उसकी झूठी प्रतिष्ठा का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते हैं। किसी जाति-विशेष के सदस्य अपनी जाति के हितों को सुरक्षित रखने के लिए अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित, वैधानिक-अवैधानिक सभी तरह के प्रयास करते हैं। अपनी जाति के लिए अन्ध-भक्ति और झूठी प्रतिष्ठा की भावना से प्रेरित होकर लोग अन्य जातियों के प्रति गलत पूर्वाग्रह तथा घृणा के विचार से ग्रस्त हो जाते हैं। इन सभी बातों से समाज में जातिवाद बढ़ता है।

(2) व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान- लोग अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने के लिए भी जातिवाद का सहारा लेने लगे हैं। अपनी समस्याओं के समाधान हेतु एक जाति के लोग अपनी ही जाति के अन्य लोगों से सहायता लेने के लिए तत्पर और प्रयत्नशील हुए । इस प्रकार : जातिगत भावनाओं के माध्यम से लोग एक-दूसरे के अधिक निकट आने लगे तथा सम्पर्क साधने लगे। अपनी जाति का हवाला देकर भावप्रवणता (Sentiment) उत्पन्न करके लोगों ने जातिवाद को बढ़-चढ़कर फैलाया।

(3) विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध– विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्धों के कारण सामाजिक सम्बन्ध जाति के अन्तर्गत ही सीमित हो जाते हैं। हमारे देश में हिन्दू विवाह के नियमों के अनुसार जातिगत अन्तर्विवाह (Caste Endogamy) के कारण एक जाति के सभी सदस्य स्वयं को एक वैवाहिक समूह समझने लगे। इसमें अन्र्तर्जातीय विवाह को निषिद्ध माना गया था और प्रत्येक जाति का सदस्य इस बात के लिए बाध्य था कि वह अपनी ही जाति-समूह से जीवन-साथी का चुनाव करे। कुछ जातियों में तो सिर्फ उपजातियों के अन्तर्गत ही विवाह सम्भव है। इन सब बातों के फलस्वरूप लोगों में जातिवाद की प्रबल भावना का विकास हुआ।

(4) आजीविका में सहायता- आजीविका की समस्या समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ जुड़ी है। देश में बेकारी की समस्या अपनी चरम सीमा पर है। वर्तमान परिस्थितियों में योग्य से योग्य व्यक्ति भी उपयुक्त रोजगार की तलाश में भटक रहा है। नौकरी पाने के लिए ‘जुगाड़’ शब्द प्रचलित हो गया है, जिसके सहारे आसानी से काम हो जाता है। नौकरी पाने और देने में लोगों ने जुगाड़ की दृष्टि से जातिवाद का आश्रय प्राप्त किया और अपनी जाति के प्रभावशाली लोगों तथा उच्चाधिकारियों को जाति के नाम पर प्रभावित करके नौकरी पाने की चेष्टा करने लगे। इससे लोगों को सफलता भी मिली जिससे जातिवाद की भावना बढ़ती गयी।

(5) नगरीकरण तथा औद्योगीकरण– बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन नगरीकरण एवं औद्योगीकरण हैं। विशाल नगरों में या उनके आस-पास बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थान स्थापित हुए जिससे वहाँ का सामाजिक जीवन काफी जटिल हो गया है। महानगरों में एक-दूसरे से सहायता पाने और करने की दृष्टि से एक ही जाति के लोग एक-दूसरे के समीप आये और अधिकाधिक संगठित होने लगे। इस प्रकार सुरक्षा और उन्नति के विचार से नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की पृष्ठभूमि में जातिवाद की प्रक्रिया व्यापक हुई।

(6) यातायात तथा प्रचार के साधनों का विकास- यातायात तथा प्रचार के साधनों द्वारा नगरों में बिखरे हुए जातीय सदस्य पुनः परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने लगे और संगठित हो गये। अपनी जाति की उन्नति के लिए जाति-विशेष के सदस्यों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया, उन्हें पर्याप्त सहयोग मिला और अन्ततः जातीयता के नाम पर देश के विभिन्न भागों के लोग अपनी ही जाति के लोगों से सम्पर्क साधने लगे।

जातिवाद को समाप्त करने के उपाय
(Measures to Remove Casteism)

जातिवाद हमारी मानवता के नाम पर कलंक है और मानव समाज के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप है। प्रमुख समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक तथा विचारक इस बात पर एकमत हैं कि जातिवाद का अन्त किए बिना मानव सभ्यता को एक सूत्र में बाँधना कठिन है। जातिवाद को समाप्त करने के उपाय निम्नलिखित हैं –

(1) शिक्षा की समुचित व्यवस्था — जातिवाद की संकीर्ण विचारधारा को रोकने का सर्वशक्तिमान साधन और उपाय शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना है। विद्यार्थियों को इस प्रकार शिक्षित किया जाना चाहिए कि जातिवाद के विचार उनके मस्तिष्क को जरा भी न छू सकें और उनके मत छुआछूत तथा भेदभाव से सर्वथा दूर रहें। इसके लिए पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियाँ, पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि को इस प्रकार नियोजित किया जाए कि विद्यार्थियों में नवीन मनोवृत्तियाँ तथा आदर्श व्यवहार के प्रतिमान विकसित हो सकें। इसके अतिरिक्त शिक्षा के माध्यम से जातिवाद के विरुद्ध स्वस्थ जनमत भी विकसित करना होगा।

(2) साहित्य-सृजन- जातीयता की भावना एवं पूर्वाग्रहों के विरुद्ध गीत, कहानियाँ, नाटक, उपन्यास, निबन्ध तथा लेख लिखकर साहित्य का सृजन किया जाना चाहिए। इस साहित्य में जातिवाद के दुष्परिणामों को उजागर करते हुए मानव-समाज की एकता की भावना को समर्थन देना होगा। इससे शिक्षित वर्ग में जातिवाद का विकार कम किया जा सकता है।

(3) अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन– अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने से जातिवाद को समाप्त किया जा सकता है। अन्तर्जातीय विवाह के अन्तर्गत अलग-अलग जातियों के युवक और युवती जीवन-भर के लिए स्थायी वैवाहिक बन्धन में बंध जाते हैं जिससे सामाजिक दूरी रखने वाले दो परिवारों को भी एक-दूसरे के समीप आने का मौका मिलता है। यही नहीं, दोनों परिवारों के सम्बन्धीगण भी स्वयं को एक-दूसरे के नजदीक महसूस करने लगते हैं। इससे विविध जातियों के मध्य सामाजिक सम्बन्धों का एक जाल-सा निर्मित होने लगता है और विभिन्न जातियों में एक-दूसरे के प्रति समझ-बूझ और लगाव पैदा होने लगता है।

(4) सांस्कृतिक विनिमय– प्रत्येक जाति और उपजाति की संस्कृति न्यूनाधिक रूप से दूसरी जातियों और उपजातियों की संस्कृति से भिन्न अवश्य होती है। धर्म, साहित्य, कला, भाषा, विश्वास, आस्थाएँ तथा आचार-विचार की दृष्टि से एक जाति के लोग दूसरी जाति से अलगाव महसूस करने लगते हैं। स्पष्टतः सांस्कृतिक भिन्नता बढ़ने पर जातिगत भिन्नता को बढ़ना स्वाभाविक है; अतः विभिन्न जातियों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान द्वारा समान एवं अच्छे आचरण के बीज बोए जी सकते हैं। ये बीज प्रेम, सहानुभूति, भ्रातृत्व-भाव एवं सहयोग के रूप में पुष्पित-पल्लवित होंगे।

(5) सामाजिक-आर्थिक समानता– विभिन्न जातियों के मध्य सामाजिक-आर्थिक विषमता के कारण भी स्वार्थपूर्ण एवं एकांगी भाव पैदा हो जाते हैं जिससे समूह-तनाव और संघर्ष विकसित होते हैं। यदि अलग-अलग जातियों के सामाजिक रीति-रिवाजों, त्योहारों, प्रथाओं तथा आयोजनों को , एक-समान धरातल पर मिल-जुलकर मनाया जाए; सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध सभी जातियों के लोग एकजुट होकर संघर्ष करें तथा एक-दूसरे के प्रति सामाजिक सम्मान व प्रतिष्ठा व्यक्त करें तो लोगों के मन में जातीय आधार पर घुली कड़वाहट दूर हो सकती है। इसी प्रकार सामाजिक क्षेत्र के आर्थिक क्षेत्र से घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। आर्थिक विषमताएँ, प्रतिद्वन्द्विता, विद्वेष, प्रतिस्पर्धा, वैमनस्य, तनाव तथा वर्ग-संघर्ष को जन्म देती हैं। देश की सरकार को चाहिए कि वह आर्थिक समानता के सत्प्रयासों से जातिवाद की तीव्रता को प्रभावहीन बनाए।

(6) ‘जाति’ शब्द का कम-से- कम प्रयोग -किसी विचार को बार-बार सुनने से न चाहते हुए भी उसका प्रभाव पड़ता ही है। यदि आज की पीढ़ी के बच्चे ‘जाति’ शब्द का अधिक प्रयोग करेंगे तो वे जिज्ञासा एवं अभ्यास के द्वारा इसे आत्मसात् कर लेंगे। इस शब्द के अंकुर भविष्य में जातिवाद के घने
और विस्तृत वृक्ष के रूप में आकार लेंगे। अतः ‘जाति’ शब्द का कम-से-कम प्रयोग किया जाना चाहिए ताकि जातिवाद के विचार को कोई प्रोत्साहन ही न मिल सके और धीरे-धीरे इसका अस्तित्व ही मिट जाए।

(7) कानूनी सहायता – कानून की सहायता लेकर भी जातिवाद पर अंकुश लगाया जा सक्रा है। हमारे देश में प्रायः लोग अपने नाम के साथ जाति लिखते हैं, इस पर कानूभी रोक लगाकर जातिगत अभिव्यक्ति को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अलावा जातिवाद की संकीर्ण एवं तुच्छ मानसिकता को प्रश्रय देने वाले या इसका प्रचार करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।

(8) जातिवाद के विरुद्ध प्रचार–जन- सामान्य की मनोवृत्ति में परिवर्तन लाने की दृष्टि से प्रचार-तन्त्र का उपयोग किया जाना चाहिए। जातिवाद के अंकुर लोगों के मस्तिष्क में हैं। सिर्फ बाहरी दबाव से जातिवाद की समस्या समाप्त होने वाली नहीं है, इसके लिए लोगों की अभिवृत्ति और विश्वास पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने होंगे। यह स्वस्थ एवं उचित प्रकार के माध्यम से सम्भव है जिसके लिए समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, सिनेमा, टी० वी०, सभाओं तथा प्रदर्शनों आदि का सहारा लिया जा सकता है।

प्रश्न 5.
साम्प्रदायिकता से क्या अभिप्राय है? हमारे देश में साम्प्रदायिक तनाव के क्या कारण हैं? इन्हें दूर करने के लिए आप किन उपायों का सुझाव देंगे? [2015]
या
समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी सम्प्रदायवाद के कारणों की विवेचना कीजिए | (2009)
या
साम्प्रदायिकता से सामूहिक तनाव बढ़ता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
सम्प्रदायवाद के कारणों पर प्रकाश डालिए। (2018)
उत्तर.

साम्प्रदायिकता का आशय
(Meaning of Communalism)

साम्प्रदायिकता का दूसरा नाम ‘धार्मिक उन्माद या मजहबी जनून भी है। सम्प्रदायवाद का एक कलुषित कारनामा यह भी है कि इसने मजहब या सम्प्रदाय को ‘धर्म’(Religion) का एक पर्यायवाची बना दिया है। दुनिया के सभी मनुष्यों को एक ही धर्म है और वह है – मानवता (Humanity)। मजहब या सम्प्रदाय के सन्दर्भ में कहा गया है ‘मजहब में अक्ल का दखल नहीं है, किन्तु धर्म तो सद्ज्ञप्ति, सविवेक तथा सदाचरण पर आधारित होता है। इस प्रकार धर्म और सम्प्रदाय को अलग-अलग करके देखा जाना चाहिए। धर्म के प्रति आकर्षण एवं आस्था मानव-मात्र को प्रेम, बन्धुत्व एवं सहयोग के पथ पर आरूढ़ करते हैं, किन्तु साम्प्रदायिक सिद्धान्त उनमें मार-काट एवं पशु-प्रवृत्ति का बीजारोपण करते हैं।

साम्प्रदायिकता की भावना के प्रबल हो जाने की स्थिति में अपने सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी बातें अच्छी एवं महान प्रतीत होती हैं तथा अन्य सम्प्रदायों की सभी बातों को हीन एवं बुरा माना जाने लगता है। इस स्थिति में विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य प्राय: एक प्रकार की पृथकता या अलगाव की भावना का विकास होने लगता है तथा यही भावना अनेक बारं पारस्परिक विरोध का रूप भी ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार का विरोध बढ़ जाने पर शत्रुता एवं संषर्घ को रूप ग्रहण कर लेता है। यह दशा अन्ध-साम्प्रदायिकता की दशा होती है। इस प्रकार की दशाओं में ही साम्प्रदायिक दंगे हुआ करते हैं। वास्तव में साम्प्रदायिकता में अन्धविश्वासों, पूर्वाग्रहों एवं पक्षपात के तत्त्वों की बहुलता होती है। साम्प्रदायिकता व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के लिए हानिकारक एवं इनकी प्रगति में बाधक कारक है। राष्ट्र की प्रगति के लिए साम्प्रदायिकता का पूर्ण रूप से उन्मूलन होना अति आवश्यक है।

साम्प्रदायिक तनाव के कारण
(Causes of Communal Tension)

सम्प्रदायवाद एवं साम्प्रदायिकता के विशद् अध्ययन से साम्प्रदायिक तनाव के अनेक कारण ज्ञात होते हैं। सभी कारणों का तो यहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता, कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

(1) ऐतिहासिक कारण – भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष तथा तनाव कोई नयी बात नहीं है। इतिहास के झरोखे से देखने पर इसका सम्बन्ध शताब्दियों पूर्व मुगलों के आक्रमण से जुड़ता है। वस्तुतः मुसलमान लोग विदेशी आक्रान्ताओं के रूप में भारत आये और उन्होंने तत्कालीन आर्यों की सम्पत्ति लूटकर यहाँ भारी मार-काट मचाई। इस भाँति, साम्प्रदायिक तनाव की शुरुआत मुसलमानों के भारत पर आक्रमण के साथ ही हो गयी थी। भारत के मूल निवासी अर्थात् हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के प्रति विदेशीपन का भाव स्थायी रूप धारण कर गया और मुसलमान सदा के लिए अत्याचार और अन्याय के प्रतीक बन गये। स्पष्टतः वर्तमान साम्प्रदायिकता का विषे भारत में मुसलमानों के साथ आया। हिन्दू-मुसलमानों में पहले से ही एक-दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह बन चुके हैं, जिन्हें साम्प्रदायिक तनाव के लिए उत्तरदायी कहा जा सकता है।

(2) सांस्कृतिक कारण – विभिन्न सांस्कृतिक कारणों से भी साम्प्रदायिक तनाव उत्पन्न होते हैं। हिन्दू संस्कृति के अनेक प्रतीक, मुस्लिम संस्कृति के प्रतीकों से न केवल भिन्न हैं अपितु विरोधी भी हैं। गो-हत्या, सिर पर चोटी रखना, जनेऊ धारण करना तथा मूर्ति पूजा आदि को लेकर दोनों सम्प्रदायों में भारी मतभेद हैं। इसके अतिरिक्त रहन-सहन, खान-पान, उठना-बैठना, पूजा की पद्धति तथा अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी पर्याप्त अन्तर विद्यमाने हैं। इन विभिन्न सांस्कृतिक अन्तरों के कारण दोनों सम्प्रदायों के मध्य तनाव और संघर्ष पैदा होते रहते हैं।

(3) भौतिक कारण – सामाजिक-सांस्कृतिक समानता के आधार पर विभिन्न समुदायों के लोगों ने भारत में अपनी अलग-अलग बस्तियाँ बनाकर रहना पसन्द किया। सभी समुदायों का रहन-सहन तथा खान-पान का तरीका अलग-अलग होने से अनेक नगरों में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख तथा ईसाई लोग पृथक् बस्तियाँ या कॉलोनी बनाकर रहते हैं। इस अलगाववादी प्रवृत्ति से तनाव और संघर्ष का होना स्वाभाविक ही है।

(4) सामाजिक एवं आर्थिक कारण- हिन्दू तथा मुसलमान सम्प्रदायों के सामाजिक रीति-रिवाज, प्रथाएँ, पहनावा, रहन-सहन, धर्म, विचार तथा साहित्य में एक-दूसरे से पर्याप्त अन्तर हैं। इससे दोनों में पारस्परिक तनाव पैदा होना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त ये दोनों सम्प्रदाय आर्थिक आधार पर भी एक-दूसरे से अलग हैं। स्पष्टतः सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पृथकता के कारण साम्प्रदायिक विद्वेष, तनाव एवं संघर्ष जन्म ले लेते है।

(5) संजनीतिक कारण- कुछ राजनीतिक दल नियमों, सिद्धान्तों, कर्तव्यों तथा राष्ट्रीय हितों की परवाह किए बिना, अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए साम्प्रदायिक तनाव को प्रोत्साहन देते हैं। ये दल अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु अक्सर विभिन्न सम्प्रदायों के बीच नासमझी तथा अफवाहों के मध्याम से तनाव एवं संघर्ष को प्रेरित करते हैं, उन्हें आपस में लड़ाकर स्वयं वाहवाही लूटते हैं और अपना चुनावी उल्लू सीधा करते हैं। हाल ही में, रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को साम्प्रदायिक रंग देकर विभिन्न राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं।

(6) मनोवैज्ञानिक कारण विभिन्न सम्प्रदायों में एक- दूसरे के प्रति विरोधी पूर्वाग्रहों (अर्थात् एक-दूसरे के लिए घृणा व विद्वेष) के कारण अनबन तथा तनाव की स्थिति बनी रहती है। स्पष्टतः एक-दूसरे के प्रति पहले से बनी हुई पूर्वधारणाएँ ही तनाव का कारण बनती हैं। साम्प्रदायिक लोगों में बिना किसी स्पष्ट कारण या विवेक के ही अन्य सम्प्रदायों के प्रति घृणा के मनोभावे उत्पन्न हो जाया करते हैं। एक हिन्दू अकारण ही एक मुसलमान को देशद्रोही तथा एक मुसलमान अकारण ही एक हिन्दू को काफिर समझ बैठता है। स्पष्टतः साम्प्रदायिक तनावों की पृष्ठभूमि में मनोवैज्ञानिक कारण काफी सक्रिय तथा महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं।

साम्प्रदायिक तनावों को दूर करने के उपाय
(Measurse to Remove Communal Tensions)

साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय अखण्डता तथा एकता की जड़ में हलाहल (विष) के समान है। यह एक सम्प्रदाय के लोगों के मन में आतंक, असुरक्षा, सन्देह, घृणा तथा नकारात्मक मनोवृत्ति का बीजारोपण कर उसे अकारण ही अन्य सम्प्रदाय का आजन्म शत्रु बना देती है। मनुष्य; मानव-प्रेम और विश्व-बन्धुत्व पर आधारित अपने सर्वव्यापी एवं सार्वभौमिक धर्म ‘मनुष्यता का परित्याग कर, साम्प्रदायिकता की क्षुद्र एवं संकीर्ण भावधारा को अपना लेता है, जिससे उसकी बौद्धिक एवं आत्मिक मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इन सभी तथ्यों के आधार पर निर्विवाद कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिकता एवं उससे जन्मे तनावों को आमूल उखाड़ फेंकना होगा। साम्प्रदायिक तनावों को अग्रलिखित उपायों से दूर किया जा सकता है –

(1) इतिहास की नवीन व्याख्या तथा उसका प्रचार– राष्ट्रीय इतिहास के सृजन एवं प्रचार-प्रसार के लिए इतिहास को नयी दृष्टि एवं नयी व्याख्या देनी होगी। निस्सन्देह भारत का इतिहास मुगलकाल से ही साम्प्रदायिक तनावों के प्रमाण प्रस्तुत करता है, किन्तु यदि उन पुरानी बातों तथा दृष्टान्तों को ही बार-बार दोहराया जाएगा। तो इससे साम्प्रदायिक तनाव कम नहीं होंगे। इसके लिए इतिहास के ऐसे प्रसंगों पर बल दिया जाना चाहिए जिनसे एक-दूसरे के प्रति मैत्री भाव तथा सहयोग का परिचय मिले। उदाहरण के तौर पर, बच्चों को बताना होगा कि भारत की आजादी के लिए हिन्दू और मुसलमान दोनों कन्धे-से-कन्धा मिलाकर लड़े और दोनों ने भारत-माँ की रक्षा हेतु अपने प्राण उत्सर्ग किए। कांग्रेस और आजाद हिन्द फौज के सेनानी इसके साक्षात् प्रमाण । भारत की सेना का योद्धा वीर अब्दुल हमीद पाकिस्तान के खिलाफ लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुआ।

(2) सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना– साम्प्रदायिक तनावों में कमी लाने की दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सामाजिक दूरी को समाप्त कर सुमधुर एवं प्रगाढ़ सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना करनी होगी। इसके लिए आवश्यक है कि अल्पसंख्यकों के नाम पर चलने वाली समस्त शिक्षण संस्थाएँ बन्द हों तथा सभी सम्प्रदाय के बालकों की सम्मिलित शिक्षण संस्थाओं में एकसमान पढ़ाई-लिखाई हो। एक सम्प्रदाय के लोग अन्य सम्प्रदायों के शादी-विवाह, सहभोज तथा अन्य आयोजनों में सम्मिलित हों। सभी सम्प्रदाय एक-दूसरे की धार्मिक व सामाजिक भावनाओं का सम्मान करें तथा सभी के धार्मिक स्थलों की मर्यादा व प्रतिष्ठा का पूरा ध्यान रखा जाए।

(3) सांस्कृतिक विनिमय- सांस्कृतिक विनिमय के माध्यम से भी साम्प्रदायिक तनावों व संघर्षों का वेग कम किया जा सकता है। इसके लिए विभिन्न सम्प्रदायों के मिश्रित सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए। सम्मिलित पर्व व त्योहारों; जैसे-—ईद, दीपावली व होली आदि को उत्साह से मनाना चाहिए। इससे विभिन्न सम्प्रदायों की मिथ्या धारणाएँ, भ्रामक प्रचार तथा आपसी नासमझी समाप्त होती है और वे कटुता भूलकर एक-दूसरे के अधिक नजदीक आते हैं।

(4) राष्ट्रीयता का प्रचार- उल्लेखनीय रूप से भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है; अत: साम्प्रदायिक तनावों को समाप्त करने तथा साम्प्रदायिक सद्भाव उत्पन्न व विकसित करने के उद्देश्य से राष्ट्रीयता का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। इसके लिए विभिन्न राष्ट्रीय पर्वो को मिल-जुलकर धूमधाम से मनाना चाहिए। जब विभिन्न सम्प्रदायों के लोग अपने राष्ट्र के प्रति एक समान निष्ठा तथा आस्था के भाव रखेंगे, तभी साम्प्रदायिकता की क्षुद्र भावना का प्रभाव कम हो सकेगा।

(5) राजनीतिक उपाय– विभिन्न साम्प्रदायिक दलों पर कानूनी रोक लगा देनी चाहिए तथा उनके नेतृत्व को मनमानी करने से रोक देना चाहिए। जो लोग कानून की अवज्ञा करें, उन्हें कठोर दण्ड दिया जाए। चुनाव आदि राजनीतिक गतिविधियों में साम्प्रदायिकता को साधन के रूप में प्रयोग करने वाले दलों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की जाए। समस्त राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों से साम्प्रदायिकता के पक्ष में प्रकाशित उद्घोषणाओं को हटवा दिया जाए। साम्प्रदायिक तनाव एवं संघर्षों के समर्थन में प्रकाशित सामग्री, पत्र-पत्रिकाओं तथा जनसंचार के माध्यमों पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाया जाए। इन सभी राजनीतिक उपायों से साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनमत तैयार हो सकता है।

(6) भौगोलिक एवं आर्थिक प्रयास– विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य स्थित अलगाववादी प्रवृत्तियों को हताश करने के लिए सभी सम्प्रदायों के लोगों को एक ही कॉलोनी में बसने हेतु प्रोत्साहित किया जाए। एक ही सम्प्रदाय द्वारा बसाई गई बस्तियाँ मोहल्ले या कॉलोनियाँ समाप्त करने के प्रयास हों तथा सभी को एक साथ मिलकर रहने के सम्पर्क कार्यक्रम शुरू हों। इसी प्रकार आर्थिक विषमता के दोष को दूर करने की दृष्टि से श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक व लाभांश दिलाया जाए। उनके कार्य की दशाओं में सुधार हो, शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था के साथ-साथ ही उनके तथा परिवारजनों के जीवन की सुरक्षा का प्रबन्ध भी हो।

(7) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं उपाय— मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी कुछ आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण कदम उठाकर साम्प्रदायिक तनावों में कमी लाई जा सकती है। सर्वप्रथम, अल्संख्यकों को आश्वस्त करके उन्हें विश्वास में लेना होगा। उनके मन से भय, घृणी तथा असुरक्षा की भावनाओं को दूर करना होगा। स्वस्थ्य प्रचार के माध्यम से भ्रामक एवं निराधार विश्वासों को प्रभावहीन बनाना होगा। विभिन्न सम्प्रदायों की एक-दूसरे के प्रति मनोवृत्ति बदलने के लिए ठोस एवं सक्रिय कदम उठाने होंगे। तभी वे सब एक राष्ट्रीय धारा में सम्मिलित हो सकेंगे।

(8) शिक्षा– साम्प्रदायिक तनावों व संघर्षों का अन्त करने के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था करनी होगी। शिक्षा से उदारता व विनम्रता आती है, वैज्ञानिक चिन्तन विकसित होता है तथा अन्धविश्वास व रूढ़ियाँ मिट जाती हैं। शिक्षितजनों को धार्मिक कट्टरपंथी अपने चंगुल में नहीं फँसा सकते। शिक्षा समाज को सम्पन्नता तथा समृद्धि की राह पर ले जाती है। एक शिक्षित, सम्पन्न एवं समृद्ध समाज साम्प्रदायिक विनाश से कोसों दूर रहता है। वस्तुतः साम्प्रदायिकता के उन्मूलन का एक सहज एवं कारगर उपाय शिक्षा ही है।

प्रश्न 6.
भाषावाद से आप क्या समझते हैं? भाषागत तनाव के कारण बताइए तथा उसके निवारण के उपाय भी बताइए।
या
भाषागत तनाव को रोकने के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए?
या
भाषावाद के किन्हीं दो कारणों के बारे में लिखिए। (2014)
या
भाषावाद के निराकरण के कोई चार उपाय लिखिए। (2013)
उत्तर

भाषावाद
(Linguism)

भाषा मन के भावों के अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। भाषागत समानता विभिन्न व्यक्तियों को एक-दूसरे की ओर आकर्षित करती है, जबकि भाषागत भिन्नता के कारण लोग पृथकता या अलगाव महसूस करते हैं। यही कारण है कि एक ही भाषा बोलने वाले दो अपरिचित व्यक्ति भी शीघ्र ही एक-दूसरे से अपनी बात कह सकते हैं तथा पारस्परिक निकटता बना लेते हैं। इससे भिन्न दो भिन्न भाषा-भाषी अपनी बात न तो कह सकते हैं और न ही समझ सकते हैं–निकट होते हुए भी वे एक-दूसरे से अलग रहते हैं। वास्तव में, भाषा में एकीकरण की प्रबल क्षमताएँ पाई जाती हैं। हमारा देश एक बहुभाषायी देश है। इससे जहाँ एक ओर हमारे देश की सांस्कृतिक समृद्धि हुई, वही कुछ समस्याएँ। भी उम्पन्न हुई हैं। भाषाओं की विविधता के कारण उत्पन्न होने वाली मुख्यतम समस्या है–भाषावाद का प्रबल होना।

भाषावाद का अर्थ
(Meaning of Linguism)

कोई भी सिद्धान्त, मत, विचार या माध्यम समाज के लिए उस समय तक हानिकारक नहीं है जब तक कि वह ‘वाद’ (ism) की शक्ल नहीं ले लेता; ‘वाद’ बनते ही वह समस्या बनकर उभरता है। अत: भारत में भाषाओं की विविधता साहित्य एवं संस्कृति के बहुआयामी विकास की दृष्टि से एक अच्छी एवं प्रशंसनीय बात कही जा सकती है, किन्तु यदि भाषाओं की विविधता ‘वाद’ का रूप लेती है तो इसे एक गम्भीर समस्या कहा जाएगा भाषावाद के अन्तर्गत एक भाषा वाला अपनी भाषा को सर्वोत्कृष्ट मानकर अन्य भाषाभाषियों को हीन समझकर उनकी उपेक्षा करता है।

वह अपनी भाषा बोलने वालों का | ही पक्षपात करता है तथा अपनी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए उचित-अनुचित साधनों का प्रयोग भी करता है। ऐसी दशा में कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति भाषावाद से ग्रस्त है। जब एक भाषा बोलने वाले यह अनुभव करते हैं कि उन पर दूसरी भाषा जबरदस्ती लादी जा रही है तो इससे तनाव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार भाषावाद के कारण दो भाषाओं में विरोध उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ-हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने पर अहिन्दी भाषी वर्गों; विशेष रूप से दक्षिण के लोगों ने हिन्दी भाषा का प्रबल विरोध किया। दक्षिण भारतवासियों का विचार है कि हिन्दी उन पर लादी जा रही । है। वे हिन्दी भाषा के प्रयोग के विरुद्ध तनाव से भर उठते हैं और संघर्ष के लिए तत्पर हो उठते हैं। असम में बंगाली के खिलाफ आन्दोलन होते हैं। पंजाब प्राप्त के पंजाब एवं हरियाणा में विभाजन के समय पंजाबी व हिन्दी भाषा के समर्थकों तथा प्रचारकों में तनाव रहा। ये सभी भाषावाद से प्रेरित तनाव एवं संघर्षात्मक परिस्थितियों के उदाहरण हैं। भाषावाद की समस्या ने राष्ट्र की एकता और प्रतिष्ठा को खतरे में डाल दिया है।

भाषावाद के कारण
(Causes of Linguism)

भारत में भाषावाद की जटिल समस्या विभिन्न परिस्थितियों एवं कारकों का परिणाम है। ये बहुतायत में हो सकते हैं और उन सभी का यहाँ विवेचन सम्भव नहीं है। भाषावाद की उत्पत्ति एवं विकास सम्बन्धित प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

(1) ऐतिहासिक कारण – भारत में भाषावाद के कारण उत्पन्न तनाव एवं संघर्ष एक लम्बे और प्राचीन इतिहास से जुड़े हैं; अतः भाषावाद का ऐतिहासिक पक्ष भी एक महत्त्वपूर्ण कारक को जन्म देता है। हम जानते हैं कि किसी भी क्षेत्र में भाषा का उद्भव एवं विकास एक ही देन में या अल्पकाल में ही नहीं हो गया। प्रत्येक भाषा का हजारों-हजार वर्षों पुराना इतिहास है और आज वे अपने क्षेत्र के वातावरण के साथ इस प्रकार घुल-मिल गयी हैं जिस प्रकार फूल में उसकी सुगन्ध निहित होती है। स्वाभाविक रूप से किसी भी क्षेत्र के निवासियों को अपनी भाषा के साथ ऐसा भावनात्मक एवं सांवेगिक सम्बध बन जाता है कि वे उसकी उपेक्षा तथा दूसरी भाषा की मान्यता सहन नहीं कर पाते। ब्रिटिशकाल में शासन द्वारा भारतीयों पर अंग्रेजी एक अनिवार्य भाषा के रूप में लाद दी गयी, जिसे दक्षिणवासियों ने पर्याप्त रूप से अपना लिया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया। दुर्भाग्यवश दक्षिण में हिन्दी का प्रचलन बहुत कम था; अतः उन्हें सीखने के लिए एकदम नये सिरों से प्रयास करना पड़ा, जबकि वे अंग्रेजी को आत्मसात् कर उस भाषा को अच्छी प्रकार जान। चुके थे। न तो उन्होंने हिन्दी को ग्रहण करना चाहा और न अंग्रेजी को छोड़ना चाहा। अतः हिन्दी को लेकर भाषागत एवं सांस्कृतिक आधार पर विरोध, तनाव एवं संघर्ष ने जन्म लिया। इन्हीं दशाओं ने प्रबल रूप धारण कर भाषावाद को विकसित किया।

(2) भौगोलिक कारण- देश के विभिन्न क्षेत्र भौगोलिक सीमाओं द्वारा परिसीमित होकर एक-दूसरे से अलग हो गये। अलग-अलग क्षेत्रों की अलग-अलग भाषाएँ विकसित हुईं। प्रत्येक क्षेत्र के साहित्य तथा संस्कृति में वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों; यथा-नदियों, पर्वतों, वन, स्थानीय कृषि तथा पशुओं की अभीष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है; अतः क्षेत्र की स्थानीय भाषा के साहित्य के प्रति वहाँ के निवासियों में अपनत्व की भावना पैदा होना स्वाभाविक है। इन दशाओं में अन्य भाषाओं तथा भाषाभाषी समूहों के प्रति उदासीनता, विरोध तथा घृणा का भाव उत्पन्न होना भी स्वाभाविक हो।

(3) राजनीतिक कारण– अनेक राजनीतिक दल अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि हेतु भाषावाद को प्रेरित तथा ‘प्रोत्साहित करते हैं। विशेषकर चुनावों के समय कुछ राजनीतिक नेता लोग वोट प्राप्त करने की दृष्टि से अल्पसंख्यक भाषा-भाषियों की भावनाओं व संवेगों को उभारकर तनाव एवं संघर्ष उत्पन्न करा देते हैं जिससे जन-धन की हानि होती है। क्योंकि ये लोग भाषा को मुद्दा बनाकर उखाड़-पछाड़ कर राजनीतिक प्रपंच रचते हैं; अत: एक विशेष भाषा से प्रेम व लगाव रखने वालों का उन्हें समर्थन मिल जाता है जो उनके निर्वाचन काल हेतु सर्वाधिक उपयोगी कहा जा सकता है।

(4) सामाजिक कारण- भाषावाद के जन्म और विकास के कुछ सामाजिक कारण भी हैं। जिस समाज की मान्यताएँ जिस भाषा में स्थान पाती हैं, उस समाज में उस भाषा को भरपूर सम्मान मिलता है। उस समाज के सदस्य उस भाषा से तो विशेष लगाव रखते हैं, किन्तु अन्य भाषाओं से, जिनसे उनकी मान्यताओं का कोई सरोकार नहीं है, घृणा करने लगते हैं। भाषावाद इसी सामाजिक प्रक्रिया का एक दुष्परिणाम है।

(5) आर्थिक कारण- यदि किसी देश की सरकार खासतौर से एक भाषा-भाषी समूह को प्रोत्साहन देने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करती है तो अन्य भाषा-भाषी समूह उस भाषा से विद्वेष एवं घृणा का भाव रखने लगते हैं। ऐसी परिस्थितियों में भाषावाद को बल मिलता है।

(6) मनोवैज्ञानिक कारण- भाषावाद की पृष्ठभूमि में व्यक्ति की संकीर्ण आत्मसम्मान की भावना निहित होती है, जिसके परिणामस्वरूप लोग अपनी भाषा को अच्छा तथा अन्य भाषाओं को बुरा बताने लगते हैं। किसी भाषा के जानने तथा प्रयोग करने वालों की उस भाषा से भावनात्मक एवं संवेगात्मक सहानुभूति हो जाती है। भाषा व्यक्ति के अवधान को केन्द्रित करती है; अतः एक भाषा के ज्ञाता व प्रयोग करने वाले एक-दूसरे के जल्दी सम्पर्क में आते हैं, लेकिन उनमें दूसरी भाषा वालों के प्रति । वैसी भावनात्मक या सांवेगिक अनुरक्ति नहीं होती। इससे भाषावाद का उद्भव एवं विकास होता है।

भाषीवाद के निवारण के उपाय
(Measures to Remove Linguism)

भाषावाद के विभिन्न कारणों का विवेचन करने के उपरान्त भाषावाद को समाप्त करने के उपायों की खोज करनी होगी। इस तनाव से संघर्ष की परिस्थितियाँ देश की एकता व अखण्डता के लिए। विषाक्त एवं हानिकारक हैं। यदि भाषावाद का विष देश में इसी प्रकार संचरित होता रहा तो जल्दी ही देश हजारों भाषाओं के नाम पर टुकड़ों में बँट जाएगा; अतः भाषावाद का उन्मूलन अनिवार्य है। इसके प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं –

(1) राष्ट्रीय भाषा का विकास एवं राष्ट्रीय समर्थन- सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने की दृष्टि से एक राष्ट्रीय भाषा का विकास होना आवश्यक है। इसके लिए देश-भर के लोगों को एक राष्ट्रीय भाषा के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान करनी होगी। लोगा अनिवार्य रूप से एक राष्ट्रीय भाषा की आवश्यकता अनुभव करें तथा विदेशी भाषा के स्थान पर एक स्वदेशी भाषा को समर्थन देने के लिए प्रेरित व तत्पर हों। राष्ट्रीय भाषा के चुनाव की समस्या पर विचार करना यहाँ हमारा उद्देश्य नहीं है, किन्तु उल्लेखनीय रूप से यह भाषा समूचे देश की सम्पर्क भाषा हो जिसे अधिक-से-अधिक संख्या में लोग समझते, बोलते तथा प्रयोग करते हों। जनसमर्थित राष्ट्रीय भाषा का विकास एवं प्रयोग राष्ट्र को एकता एवं अखण्डता की ओर अग्रसर करेमा।

(2) क्षेत्रीय भावनाओं को सम्मान एवं प्रोत्साहन- हम जानते हैं कि विभिन्न भौगोलिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारणों से एक क्षेत्र-विशेष के निवासी अपनी भाषा को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं तथा उसके प्रति अथाह प्रेम एवं लगाव प्रदर्शित करते हैं; अतः क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती। विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय भाषाओं को मान्यता प्रदान करने के साथ-साथ उन्हें राजकीय कार्यों में भी प्रयोग करने की छूट दी जानी चाहिए। इससे क्षेत्रीय विकास प्रोत्साहित होगा तथा स्थानीय लोगों में आत्म-स्वाभिमान पैदा होगा। स्पष्टत: भाषावाद तथा भाषावाद तनावों का अन्त करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में प्रतिष्ठा का ध्यान रखना होगा।

(3) साम्प्रदायिकता एवं क्षेत्रवाद का विरोध- साम्प्रदायिकता एवं क्षेत्रवाद के बन्धन भाषावाद को उकसाकर इसे राष्ट्रीय एकता के पैरों की बेड़ियाँ बना देते हैं। भाषावाद की समस्या का अन्त करने के लिए साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रीय आधार पर उपजी विकृतियों तथा विषमताओं को नष्ट करना होगा। अत: साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रीय भावनाओं का एक साथ मिलकर पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए।

(4) सांस्कृतिक विनिमय- सांस्कृतिक विनिमय के माध्यम से भी भाषावाद का निवारण सम्भव है। इसके लिए विभिन्न भाषाओं के साहित्य का अन्य भाषाओं के अनुवाद करने कार्य के को। प्रोत्साहित किया जाए। बहू-भाषी कवि सम्मेलनों, दूरदर्शन के कार्यक्रमों, सिनेमा, नाटक आदि के माध्यम से विभिन्न भाषा-भाषी समूहों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की व्यवस्था करनी चाहिए। भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी समूहों के कलाकारों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों, पत्रकारों, लेखकों तथा कवियों को पारस्परिक सम्पर्क के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।

(5) राजनीतिक उपाय- भाषागत तनावों से बचने के लिए ऐसे राजनीतिक दलों पर कठोर नियन्त्रण की आवश्यकता है जो अपने स्वार्थों की सिद्धि हेतु विभिन्न भाषा-भाषी समूहों को शिकार बना लेते हैं। भाषायी तनाव व विद्रोह भड़काने वाले राजनीतिक एजेण्टों को पकड़कर दण्डित किया जाना चाहिए।

(6) सही सोच का प्रचार-प्रसार- देशवासियों में इस सोच का प्रचार किया जाना चाहिए कि भाषा तो अभिव्यक्ति का माध्यम है। स्वार्थ-सिद्धि का साधन बनाकर इसका दुरुपयोग करना अक्षम्य अपराध है। सभी भाषाएँ समान रूप से प्रतिष्ठित एवं मान्य हैं किसी भी भाषा का महत्त्व कम नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेजी हो या हिन्दी या किसी ग्रामीण अचंल में बोली जाने वाली ऐसी भाषा जिसे लिपिबद्ध भी नहीं किया जा सकता–सभी को बराबर महत्त्व है; अतः भाषा को लेकर विवाद नहीं है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जातिगत समूह-तनाव से क्या आशय है?
उत्तर
भारतीय समाज में अनेकानेक जातियों का उद्भव और विकास हुआ है तथा उनके अपने-अपने विचार एवं दृष्टिकोण निर्मित हुए हैं। विचारों और दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर की घाई ने उनके मध्य सामाजिक दूरी को अत्यधिक बढ़ा दिया। इसके परिणामस्वरूप जातियों में ऊँच-नीच को भेदभाव उभरने लगा। किसी जाति-विशेष के लोग पूर्वाग्रहों तथा अज्ञानता के कारण निज जाति के प्रति अन्ध-भक्ति तथा अन्य जातियों के प्रति संकुचित दृष्टिकोण से भर गये जिससे मानवता का व्यापक दृष्टिकोण आहत हुआ। काका कालेलकर ने उचित ही कहा है, “जातिवाद एक अबाधित, अन्ध समूह-भक्ति है जो कि न्याय, औचित्य, समानता और विश्वबन्धुत्व की उपेक्षा करती है।” जातिवाद की संकुचित विचारधारा ने सामाजिक सम्बन्धों में संकीर्णता, विरोध, पक्षपात, प्रतिद्वन्द्विता तथा पारस्परिक घृणा के बीज बो दिये, जिससे देश के प्रत्येक भाग में जातीय तनाव उत्पन्न हो गया। समय के साथ-साथ जातिगत भावना ने जातिगत सामूहिक तनाव को उग्र एवं स्थायी बनाया है।

प्रश्न 2
जातिवाद के दुष्परिणामों का उल्लेख कीजिए। (2017) 
या
जातिवाद के कोई दो दुष्परिणाम लिखिए। (2018)
उत्तर
जातिवाद के विस्तार से किसी जाति-विशेष के सदस्यों को तो लाभ होता है, किन्तु वहीं दूसरी ओर जातिवाद की उन्नति से समूचे देश और समाज की हानि भी होती है। यदि जातिवाद एक जाति की स्वार्थ-सिद्धि का प्रभावशाली यन्त्र है तो सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सबसे बड़ा अभिशाप भी है। जातिवाद के अनेक दुष्परिणामों में से कुछ निम्नलिखित रूप में हैं

(1) राष्ट्रीयता एकता में बाधा– जातिवाद फैलने से राष्ट्र विभिन्न स्वार्थी समूहों में बँट जाता है। जिनका एकमात्र लक्ष्य अपने-अपने हितों की पूर्ति तथा स्वार्थों की सिद्धि होता है। इसके परिणामस्वरूप भिन्न जातियों के मध्य समूह-तनाव एवं संघर्ष उत्पन्न होते हैं जिससे राष्ट्र की शक्ति कमजोर पड़ती है। स्पष्टत: जातीयता के आधार पर विभाजन के फलस्वरूप राष्ट्र की एकता को खतरा पैदा होता है तथा राष्ट्रीय विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।

(2) राष्ट्रीय क्षमता का ह्रास- जातिगत भावना पक्षपात को प्रोत्साहित करती है। पक्षपात राष्ट्र के मानवीय संसाधनों के उचित उपयोग में बाधक है। कम योग्य और कम क्षमता वाले व्यक्ति अधिक योग्य एवं अधिक क्षमतावान व्यक्तियों का स्थान ले लेते हैं जिससे राष्ट्र की सक्षम मानव ऊर्जा उचित अवसरों की तलाश में अपनी शक्ति और समय को व्यर्थ करती है। इस भाँति जातिवाद बढ़ने से राष्ट्रीय क्षमता और क्रियाशीलता को निरन्तर ह्यास होता है।

(3) प्रजातन्त्र के लिए खतरा– प्रजातन्त्र के मूलभूत सिद्धान्त हैं—स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व की भावना। इसके विपरीत जातिवाद असमानता, वर्ग-भावना, वैमनस्य, विद्वेष, पक्षपात तथा तनाव पर आधारित है। इससे प्रजातन्त्र को भारी खतरा पैदा हो गया है। के० एम० पणिक्करे ने उचित वही कहा है, “वास्तव में जब तक उपजाति तथा संयुक्त परिवार रहेंगे तब तक समाज का कोई भी संग्रठन समानता के आधार पर सम्भव नहीं है।”

(4) पक्षपात तथा भ्रष्टाचार को बढ़ावा- पक्षपात और भ्रष्टाचार ये दोनों विचार साथ-साथ चलते हैं। जातिवाद के कारण पक्षपात की भावना प्रोत्साहित होती है, उचित-अनुचित का विवेक समाप्त हो जाता है तथा अन्याय एवं अनैतिकता का बोलबाला हो जाता है। इससे निश्चय ही भ्रष्टाचार प्रेरित होता है जिससे समाज को हानि पहुँचती है।

प्रश्न 3.
साम्प्रदायिक समूह-तनाव से क्या आशय है? (2017)
उत्तर.
भारत विभिन्न सम्प्रदायों का देश है। यहाँ प्रमुख रूप से हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई–इन चार सम्प्रदायों के लोग रहते हैं, जिसकी वजह से इनसे सम्बन्धित साम्प्रदायिक विभिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है। विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य पाये जाने वाले विरोध एवं तनाव को साम्प्रदायिक तनाव कहते हैं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय 1947 ई० में हुए साम्प्रदायिक दंगों ने इस साम्प्रदायिक तनाव को स्थायी बना दिया। तभी से हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोग एक-दूसरे को सन्देह, घृणा तथा वैमनस्य की दृष्टि से देखने लगे। आज भी दोनों सम्प्रदायों में समूह-तनाव की स्थिति बनी हुई है। इसी प्रकार पंजाब समस्या ने हिन्दू और सिक्ख सम्प्रदायों के बीच सन्देह, विरोध एवं तनाव को वातावरण पैदा करने की कोशिश में है। ऐसा साम्प्रदायिक समूह-तनाव देश के विभिन्न नगरों; जैसे-मेरठ, अलीगढ़, आगरा आदि में साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाकर साम्प्रदायिक दंगों में बदल देता है।

प्रश्न 4.
टिप्पणी लिखिए-भारत में साम्प्रदायिकता।
उत्तर
भारत हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई तथा पारसी इत्यादि अनेक सम्प्रदायों के अनुयायियों का निवास स्थान है, किन्तु इनमें से मुख्य सम्प्रदाय सिर्फ दो हैं — हिन्दू सम्प्रदाय तथा मुस्लिम सम्प्रदाय। विदेशी आक्रान्ताओं के रूप में मुसलमान शासकों ने भारत में प्रवेश किया तथा यहाँ की हिन्दू प्रजा पर अमानुषिक अत्याचार किये। हिन्दूजन उस अत्याचार, दमन और त्रासदी भरे काल को आज भी भुला नहीं सके हैं। इसके परिणामस्वरूप, हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच लम्बे समय से चली आ रही विरोध एवं प्रतिशोध की भावना आज भी समूह-तनाव और संघर्ष पैदा कर देती है।

आधुनिक काल में इन दोनों सम्प्रदायों के बीच सबसे बड़ा संघर्ष तथा तनाव भारत की स्वतन्त्रता-प्राप्ति एवं विभाजन की प्रक्रिया के दौरान हुआ था। देश दो टुकड़ों में बँट गयो-भारत और पाकिस्तान। इस विभाजन के परिणामस्वरूप हिन्दू और मुसलमानों में शताब्दियों पूर्व के पूर्वाग्रह जाग । उठे और दोनों सम्प्रदाय साम्प्रदायिक दंगों की भयंकर विभीषिका के शिकार हुए। हजारों बच्चों, बूढ़ों, युवक-युवतियों और वयस्कों का कत्ल हुआ और लाखों-करोड़ों लोग बेघर हो गये। सच तो यह है कि आज भी भारत के मुसलमान और हिन्दूजन एक-दूसरे से समायोजित नहीं हो पाये हैं। दोनों ओर ।

पूर्वाग्रहों तथा विरोधी भावनाओं के पलीते में आग लगाने वाली समस्याओं, घटनाओं, उन्मादी लोगों तथा दलों की भरमार है। जरा-सी चिंगारी छूते ही साम्प्रदायिक दंगों की ज्वाला प्रज्वलित हो उठती है। मेरठ, अलीगढ़, इलाहाबाद, मुरादाबाद, दिल्ली तथा गुजरात के कुछ नगर आदि कई संवेदनशील नगरों में अनेक बार सोम्प्रदायिकता की भयानक विभीषिका अपना कहर ढा चुकी है।

प्रश्न 5.
साम्प्रदायिकता का व्यक्तित्व के विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर.
मनुष्य का व्यक्तित्व उसकी सभी शारीरिक, जन्मजात तथा अर्जित वृत्तियों का योग है। यह उनके परिवेश में स्थित विभिन्न कारकों के अन्त:कार्य से उत्पन्न व्यक्ति की आदतों, मनोवृत्तियों व गुणों का एक गतिशील संगठन है। मनुष्य का व्यक्तित्व उसके आरम्भिक काल से ही विकसित होने लगता बालक के मस्तिष्क की तुलना एक कोरी स्लेट से की गयी है जिस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। साम्प्रदायिक वातावरण में रहने वाले बालक में आरम्भ काल से ही विभिन्न प्रकार की पूर्वधारणाएँ।

विकसित होने लगती हैं। पूर्वधारणा में पूर्व-निर्णय, भ्रान्तिपूर्ण विश्वास तथा राग-द्वेष के संवेग निहित होते हैं। विवेकहीन मान्यताओं तथा अन्धविश्वासों के आधार पर बने पूर्वाग्रह या पूर्वधारणाएँ बालक के व्यक्तित्व पर बुरा प्रभाव डालती हैं। दो विरोधी समुदाय के बालकों में विकसित प्रतिकूल अभिवृत्तियाँ छनमें द्वेष, तनाव तथा शत्रुता के भाव पैदा करेंगी।

अभिवृत्ति के आधार पर ही सामाजिक शत्रुता या मित्रता निर्मित होती है; अतः प्रतिकूल अभिवृत्ति के आधार पर निर्मित सामाजिक शत्रुता; साम्प्रदायिक तनाव एवं दंगे के समय; अपना कुप्रभाव दिखाती है। व्यवहार और अभिवृत्तियाँ पर्याप्त सीमा तक विश्वासों से सम्बन्धित हैं। हिन्दुओं को पुनर्जन्म में विश्वास है लेकिन मुसलमानों का नहीं। यह विश्वास उत्पन्न होने पर कि अमुक हमारे विरोधी और शत्रु हैं, साम्प्रदायिक भावना को बल मिलता है। यही कारण है कि बालक में विविध सम्प्रदायों के प्रति पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण निर्मित हो जाता है। यह दृष्टिकोण उसके व्यक्तित्व के विकास को बाधित करता है।

साम्प्रदायिकता एक क्षुद्र एवं संकुचित मानसिकता के कारण पैदा होती है। यह एक ओर मानव की बुद्धि को अपने बन्धनों में जकड़ लेती है और उसे विकास नहीं करने देती तथा दूसरी ओर यह मानव को समाज और वातावरण के विभिन्न अवयवों से उचित सामयोजन नहीं करने देती, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व असन्तुलन को प्राप्त होता है और उसके व्यक्तित्व का विकास रुक जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि साम्प्रदायिकता हर दृष्टिकोण से बुरी है तथा इसका व्यक्तित्व के विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 6.
सम्प्रदायवाद की रोकथाम के किन्हीं दो उपायों के बारे में संक्षेप में लिखिए। (2017)
उत्तर.
सम्प्रदायवाद की रोकथाम के लिए उपयोगी उपाय इस प्रकार हैं –

  1. मिश्रित सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए। इन कार्यक्रमों के आयोजनों से विभिन्न सम्प्रदाय एक-दूसरे के निकट आते हैं, उनकी अच्छाइयों का पता चलता है तथा अनेक प्रकार की मिथ्या धारणाएँ समाप्त होती हैं।
  2. साम्प्रदायिकता को नियन्त्रित करने के लिए व्यापक स्तर पर इसके विरुद्ध प्रचार किया जाना चाहिए। जन-संचार के सभी माध्यमों द्वारा साम्प्रदायिकता से होने वाली हानियों तथा इसके बुरे परिणामों को जन-साधारण तक पहुँचाना चाहिए।

प्रश्न 7.
क्षेत्रीय समूह-तनाव से क्या आशय है?
उत्तर.
भारत एक उप-महाद्वीप तथा विशाल भौगोलिक-राजनीतिक इकाई है जो विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित है। प्रत्येक क्षेत्र की भौगोलिक सीमाओं, धर्म, संस्कृति एवं भाषा, रहन-सहन तथा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्वार्थों ने उस क्षेत्र-विशेष के निवासियों के मन में अपने क्षेत्र की सुख-समृद्धि एवं प्रगति तथा अन्य क्षेत्रों के प्रति अलगाव की भावना को जन्म दिया। परिणामतः एक क्षेत्र के लोग अपने क्षेत्र वालों के प्रति प्रेम तथा दूसरे क्षेत्र वालों के प्रति विद्वेष, घृणा और विरोध की भावना रखने लगे।

किसी क्षेत्र-विशेष के लिए पक्षपात, अन्धभक्ति, निहित स्वार्थ, संकुचित मानसिकता तथा अन्य क्षेत्रों के प्रति उपेक्षा क्षेत्रवाद’ (Regionalism) को जन्म देते हैं। एक क्षेत्र के लोग अपनी माँगों के समर्थन.तथा अन्य के विरोध में आन्दोलन इत्यादि करते हैं, जिनकी परिणति हिंसात्मक दंगों में होती है।

इससे एक-दूसरे के प्रति घृणा बढ़ती है और लोगों में क्षेत्रीय तनाव उत्पन्न होने लगता है। क्षेत्रीयता के आधार पर बढ़ती हुई घृणा और पूर्वाग्रह; क्षेत्रीय समूह-तनाव को स्थायी बना देते हैं। हमारे देश में क्षेत्रीय आर्धार पर मुम्बई राज्य को गुजरात एवं महाराष्ट्र में और पंजाब को पंजाब एवं हरियाणा में विभाजित किया मैया है। समय-समय पर कुछ अन्य क्षेत्र भी अलग राज्य की मांग करते रहते हैं; इससे क्षेत्रीय समूह-तुनाव बढ़ रहा है और राष्ट्र की एकता को आघात पहुँचा रहा है।

प्रश्न 8.
भाषागत समूह-तनाव से क्या आशय है?
उत्तर.
भाषागत समूह-तनाव
भाषा भावाभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। इसमें एकीकरण की प्रबल शक्ति होती है। क्योंकि इसी के माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे के सम्पर्क में आकर विचारों का आदान-प्रदान करता है। भारत में हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बंगाली, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, कश्मीरी, सिन्धी तथा असमिया अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। देश के संविधान में 22 भाषाओं को राष्ट्रीय महत्त्व देते हुए हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया गया है।

अहिन्दी भाषा वर्गों ने हिन्दी भाषा का जबरदस्त विरोध किया। उन्हें हिन्दी भाषा का प्रभुत्व स्वीकार नहीं है। इसके बदले वे अंग्रेजी भाषा के प्रति पक्षपात दिखाते हैं। असम में असमी तथा बंगाली भाषाओं के आधार पर असन्तोष व्याप्त है। विभिन्न भाष्य-भाषी लोगों में सम्पर्क तथा भाषायी आधार पर राज्यों की स्थापना को लेकर काफी तनाव पाया जाता है। इससे आन्दोलन, राजनीतिक षड्यन्त्र तथा हिंसात्मक उपद्रव होते हैं।

भाषायी तनाव; संघर्ष और रक्तपात में बदलकर सैकड़ों-हजारों लोगों की जान तथा करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति तबाह कर देते हैं। इससे उत्पन्न देश के बंटवारे के विचार से राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ती है। सर्वविदित है कि गुजरात और महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश की स्थापना भाषायी तनावों का ही दुष्परिणाम है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बांग्लादेश, बंगाली भाषा के आधार पर पाकिस्तान से अलग हुआ। भाषागत समूह-तनाव किसी भी देश की अखण्डता और प्रभुसत्ता के लिए खतरनाक सिद्ध होते हैं।

प्रश्न 9.
पूर्वाग्रहों की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.
पूर्वाग्रहों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. किसी भी वस्तु, व्यक्ति, समूह अथवा विचार के प्रति अनुकूल या प्रतिकूल अभिवृत्तियों तथा । विश्वासों के नाम पूर्वाग्रह है।
  2. किसी व्यक्ति, समुदाय, पदार्थ अथवा समाज के प्रति लिये गये पूर्व निर्णय या पहले से ही निर्मित आग्रह को पूर्वाग्रह रहते हैं।
  3. पूर्वाग्रहों का निर्माण व्यक्ति की मानसिक अभिवृत्तियों तथा संवेगों से होता है। इनके निर्माण में व्यक्तित्व के ज्ञानात्मक, प्रत्यक्षात्मक, प्रेरणात्मक तथा संवेगात्मक सभी पक्ष क्रियाशील होकर कार्य करती हैं।
  4. पूर्वाग्रह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी, अनुकूल भी हो सकते हैं और प्रतिकूल भी, सही भी हो सकते हैं और गलत भी; किन्तु इस बात का परीक्षण नहीं किया जा सकता कि ये पूर्वाग्रह किन तथ्यों या सत्य पर आधारित हैं।
  5. ज्यादातर पूर्वाग्रह भ्रम तथा आतंक उत्पन्न करने वाले होते हैं और सामुदायिक, धर्मगत, जातिगत या परम्परागत किसी भी प्रकार के हो सकते हैं।
  6. पूर्वाग्रह वंश परम्परागत तथा जन्मजात नहीं होते, अपितु ये अर्जित होते हैं। कोई भी व्यक्ति पूर्व निर्मित आग्रह को लेकर पैदा नहीं होता बल्कि उसमें अनुकूल या प्रतिकूल विश्वास एवं अभिवृत्तियाँ कट्टरवादियों द्वारा विकसित किये जाते हैं।
  7. पूर्वाग्रह लोगों के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं जिसके फलस्वरूप समूह में व्यवहार सम्बन्धी दोष पैदा होने लगते हैं जो समूह-तनाव उत्पन्न कर देते हैं।
  8. समूह-तनाव सामुदायिक, जातीय तथा वर्ग-संघर्ष, सामाजिक संघर्ष तथा युद्ध की विभीषिका को जन्म देते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतवर्ष में समूह-तनाव के विभिन्न रूप क्या हैं?
उत्तर
भारत एक विशाल देश है जिसमें अनेक जातियों, उपजातियों, सम्प्रदायों, वर्गों तथा भिन्न भाषा-भाषी लोग विभिन्न क्षेत्रों में निवास करते हैं। इस विविधता ने जहाँ एक ओर भारतीय समाज एवं संस्कृति को समृद्ध बनाया है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न समूह तनावों को भी बल दिया है। हमारे देश में मुख्य रूप से चार प्रकार के समूह-तनाव पाये जाते हैं–

  1. जातिगत समूह-तनाव,
  2. साम्प्रदायिक समूह-तनाव,
  3. क्षेत्रीय समूह-तनाव तथा
  4. भाषागत समूह-तनाव।

प्रश्न 2.
रुढियुक्तियों को परिभाषित कीजिए (2009, 13)
या
रूढ़ियुक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए। (2017)
उत्तर.
किम्बाल यंग ने रूढ़ियुक्ति को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “रूढ़ियुक्ति एक भ्रामक वर्गीकरण करने की धारणा है जिसके साथ पसन्द अथवा नापसन्द तथा स्वीकृति अथवा अस्वीकृति की प्रबल संवेगात्मक भावना जुड़ी होती है। इस प्रकार रूढ़ियुक्तियों काल्पनिक मत हैं, जो तर्क पर आधारित नहीं होते, बल्कि व्यक्ति की पसन्द अथवा नापसन्द पर आधारित होते हैं। रूढ़ियुक्तियों से सम्बन्धित कोई ठोस प्रमाण नहीं होता। रूढ़ियुक्तियाँ प्रायः पूर्वाग्रहों को जन्म देती हैं तथा इन्हीं पूर्वाग्रहों ले समाज में सामूहिक-तनाव उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 3.
समूह-तनाव-निवारण में शिक्षा की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर.
समूह-तनाव-निवारण के विभिन्न उपायों में से सर्वाधिक उपयोगी एवं विश्वसनीय उपाय है—शिक्षा का प्रसार। वास्तव में समूह-तनाव की उत्पत्ति संकीर्ण दृष्टिकोण, पूर्वाग्रहों तथा अन्धविश्वासों आदि के कारण ही होता है। शिक्षा इन कारकों को समाप्त करने में सहायक होती है, शिक्षित व्यक्ति का दृष्टिकोण उदार एवं व्यापक होता है, वह पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर तटस्थ रूप से चिन्तन करता है तथा अन्धविश्वासों से मुक्त होती है।

इस स्थिति में समूह-तनावों की उत्पत्ति की सम्भावना कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त शिक्षा ग्रहण करते समय भिन्न-भिन्न समूहों एवं वर्गों के बालक एक साथ रहते हैं तथा परस्पर निकट सम्पर्क में आते हैं। इससे भी विभिन्न समूहों में विद्यमान सामाजिक दूरी घटती है तथा समूह-तनाव की सम्भावना भी प्रायः नहीं रहती। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समूह-तनाव के निवारण में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।।

प्रश्न 4.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-भारत की भाषाएँ।
उत्तर.
भारत एक विस्तृत एवं विशाल देश है। यहाँ कश्मीर से कन्याकुमारी तथा कच्छ’ से अरुणाचल प्रदेश तक अनेकानेक भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ अनेक धर्म और सम्प्रदाय के लोगों के समान ही भिन्न-भिन्न भाषाएँ तथा उपभाषाएँ भी प्रचलित हैं। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न मुख्य भाषाएँ बोली तथा लिखी जाती हैं, इनके अतिरिक्त सिर्फ बोलचाल में प्रयोग की जाने वाली विविध स्थानीय बोलियाँ हैं जो प्रत्येक 50 किलोमीटर के अन्तर पर बदल जाती हैं। इनका क्षेत्र सीमित है तथा इनका कोई साहित्य भी विकसित नहीं हैं। हमारे देश की मुख्य भाषाएँ-हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बंगाली, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, असमी तथा कश्मीरी इत्यादि हैं। भारत के संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न I.निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए |
1. समाज के विभिन्न अंगों के मध्य विकसित होने वाली सामाजिक दूरी के परिणामस्वरूप प्रबल | होने वाले तनाव को ………. कहते हैं।
2. एक समूह के अधिकांश लोगों द्वारा दबाव, बेचैनी एवं चिन्ता की अनुभूति …………….. कहलाती है। (2017)
3. दक्षिण अफ्रीकी में श्वेतों तथा अश्वेतों के मध्य पाये जाने वाला तनाव ……..
4. निश्चित विषय-वस्तुओं, सिद्धान्तों, व्यक्तियों के प्रति बिना कारण के अनुकूल या प्रतिकूल अभिवृत्ति को ………….. कहते हैं।
5. ब्रिट के अनुसार ……….. का अर्थ अपरिपक्व अथवा पक्षपातपूर्ण मत है। (2015)
6. किसी परिस्थिति में पक्षपातपूर्ण एवं अपरिपक्व मत …………. कहलाते हैं। (2013)
7. पक्षपात या पूर्वाग्रह ………. का कारण बनता है।
8. पूर्वाग्रह समूह-तेनावों को ………….. देते हैं।
9. पूर्वाग्रहों के कारण व्यक्ति का दृष्टिकोण ………. हो जाता है।
10. अपनी जाति को महान् तथा अन्य जातियों को हीन मानने के परिणामस्वरूप विकसित होने वाले तनाव को ……… कहते हैं।
11. ……….. के कारण ‘जातीय दूरी’ में वृद्धि होती है।
12. अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देकर ………. को कम किया जा सकता है।
13. यातायात एवं प्रचार साधनों ने भी जातिवाद को ……….. दिया है।
14. हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी आदि समूहों के मध्य समय-समय पर उत्पन्न होने वाले तनाव को …….. कहा जाता है।
15. साम्प्रदायिक भावना की चरम परिणति प्रायः ………. के रूप में होती है।
16. सम्प्रदायवाद सामूहिक …………. का एक कारण हो सकता है। (2016)
17. सांस्कृतिक आदान-प्रदान से साम्प्रदायिक तनाव को ……………. किया जा सकता है।
18. क्षेत्रवाद ………. का एक रूप है।
19. भाषावाद ………. का एक रूप है।
20. नकारात्मक प्रभाव के रूप में भाषावाद ………. के लिए उत्तरदायी हो सकता है। (2018)
21. सभी प्रकार के समूह-तनाव को कम करने में ………… सहायक होता है। (2008)
22. किसी व्यक्ति या समुदाय पर गलत आरोप लगाकर तनाव उत्पन्न करने को ………….. कहा जाती है। (2008)
उत्तर
1. सामाजिक तनाव
2. समूह-तनाव
3. प्रजातीय तनाव
4 पूर्वाग्रह
5. पूर्वाग्रह
6, पूर्वाग्रह
7. समूह-तनाव
8. बढ़ावा
9. पक्षपातपूर्ण
10. जातिगत समूह-तनाव
11. जातिगत तनाव
12 जातिगत तनाव
13. बढ़ावा
14. साम्प्रदायिक तनाव
15 साम्प्रदायिक तनाव
16. तनाव
17, समाप्त
18. समूह तनाव,
19. समूह तनाव
20, क्षेत्रीय तनाव
21. शिक्षा को प्रसार
22 अफवाहें, दंगे फैलाना।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए –
प्रश्न 1.
समूह-तनाव से क्या आशय है?
उत्तर.
समूह-तनाव उस स्थिति का नाम है जिसमें समाज का कोई वर्ग, सम्प्रदाय, धर्म, जाति या राजनीतिक दल; दूसरे के प्रति भय, ईर्ष्या, घृणा तथा विरोध से भर जाता है।

प्रश्न 2.
भारतीय समाज में मुख्य रूप से किस-किस प्रकार के समूह-तनाव पाये जाते हैं?
उत्तर.
भारतीय समाज में पाये जाने वाले समूह-तनाव के मुख्य रूप हैं-जातिगत समूह-तनाव, भाषागत समूह-तनाव, क्षेत्रगत समूह-तनाव तथा साम्प्रदायिक समूह-तनाव।

प्रश्न 3.
समूह-तनाव के सामान्य वातावरणीय कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.
समूह-तनाव के सामान्य वातावरणीय कारण हैं-ऐतिहासिक कारण, भौतिक कारण, सामाजिक कारण, धार्मिक कारण, आर्थिक कारण, राजनीतिक कारण तथा सांस्कृतिक कारण।

प्रश्न 4.
समूह-तनाव के चार मुख्य मनोवैज्ञानिक कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.

  1.  पूर्वाग्रह,
  2. भ्रामक विश्वास, रूढ़ियाँ और प्रचार,
  3. मिथ्या दोषारोपण तथा
  4. व्यक्तित्व एवं व्यक्तिगत भिन्नताएँ।

प्रश्न 5.
पूर्वाग्रह से क्या आशय है?
उत्तर.
पूर्वाग्रह एक ऐसा निर्णय होता है जो तथ्यों के समुचित परीक्षण के पूर्व लिया जाता है।

प्रश्न 6.
पूर्वाग्रह से छुटकारा पाने के मुख्य उपाय क्या हैं?
उत्तर.

  1. पारस्परिक सम्पर्क,
  2. शिक्षा,
  3. सामाजिक-आर्थिक समानता,
  4. भावात्मक एकता,
  5. सन्तुलित व्यक्तित्व तथा
  6. चेतना जाग्रत करना।

प्रश्न 7.
जातिवाद से क्या आशय है?
उत्तर.
जातिवाद किसी जाति या उपजाति के सदस्यों की वह भावना है जिसमें वे देश, अन्य जातियों या सम्पूर्ण समाज के हितों की अपेक्षा अपनी जाति या समूह के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक हितों या लाभों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 8.
जातिवाद के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.

  1. अपनी जाति की प्रतिष्ठा की एकांगी भावना,
  2. व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान,
  3. विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध,
  4. आजीविका में सहायक,
  5. नगरीकरण तथा औद्योगीकरण,
  6.  यातायात तथा प्रचार के साधनों का विकास।

प्रश्न 9.
भारत में साम्प्रदायिक तनाव के चार मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.

  1. ऐतिहासिक कारण
  2. सांस्कृतिक कारण,
  3. राजनीतिक कारण तथा
  4. मनोवैज्ञानिक कारण।

प्रश्न 10.
भाषावाद के निवारण के मुख्य उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर.

  1. राष्ट्रीय भाषा का विकास एवं राष्ट्रीय समर्थन,
  2. क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान एवं प्रोत्साहन,
  3. साम्प्रदायिकता एवं क्षेत्रवाद का विरोध,
  4. सांस्कृतिक विनिमय,
  5. राजनीतिक उपाय तथा
  6. सही सोच का प्रचार-प्रसार।,

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए –
प्रश्न 1.
“मनोवैज्ञानिक अर्थों में तनाव, दबाव, बेचैनी तथा चिन्ता की अनुभूति है।” यह कथन किस मनोवैज्ञानिक का है?
(क) जेम्स ड्रेवर
(ख) कोलमैन
(ग) क्रेच तथा क्रचफील्ड
(घ) बेलार्ड
उत्तर
(ख) कोलमैन

प्रश्न 2.
समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों या समूहों के बीच सामाजिक दूरी के बढ़ जाने की स्थिति को कहते हैं –
(क) सामूहिक संघर्ष
(ख) पारस्परिक सहयोग
(ग) समूह-तनाव
(घ) सामूहिक सौहार्द
उत्तर
(ग) समूह-तनाव

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन समूह-तनाव का कारण है- (2012)
(क) शिक्षा
(ख) खेल
(ग) रूढ़ियुक्तियाँ
(घ) राष्ट्रीय पर्व
उत्तर
(ग) रूढ़ियुक्तियाँ

प्रश्न 4.
व्यक्तिगत, सामुदायिक, परम्परागत विश्वासों तथा वृत्तियों के आधार पर जब किसी सम्प्रदाय, धर्म, वर्ग, क्षेत्र या भाषा के प्रतिकूल या अनुकूल धारणा बना ली जाती है तो उसे क्या कहते हैं?
(क) सम्प्रदायवाद
(ख) समूह-तनाव
(ग) भ्रामक दृष्टिकोण
(घ) पूर्वाग्रह
उत्तर
(घ) पूर्वाग्रह

प्रश्न 5.
प्रबल जातिवाद की भावना के कारण विकसित होने वाले सामाजिक तनाव को कहते हैं –
(क) अनावश्यक तनावे
(ख) गम्भीर सामूहिक तनाव
(ग) जातिगर्त समूह-तनाव।
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) जातिगर्त समूह-तनाव।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सा सामूहिक तनाव है जो केवल भारतीय समाज में ही पाया जाता
(क) भाषागत समूह-तनाव
(ख) धर्मगत समूह-तनाव
(ग) क्षेत्रगत समूह-तनाव
(घ) जातिगत समूह-तनाव
उत्तर
(घ) जातिगत समूह-तनाव

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में कौन जातिवाद का दुष्परिणाम नहीं है – (2015)
(क) भ्रष्टाचार
(ख) पक्षपात
(ग) समूह-तनाव
(घ) अन्तर्जातीय विवाह
उत्तर
(घ) अन्तर्जातीय विवाह

प्रश्न 8.
अपनी भाषा को उच्च तथा अन्य भाषाओं को हीन मानने से उत्पन्न होने वाले सामाजिक तनाव को कहते हैं –
(क) गम्भीर सामाजिक तनावे
(ख) क्षेत्रीय तनाव
(ग) भाषागत तनाव
(घ) साम्प्रदायिक तनाव
उत्तर
(ग) भाषागत तनाव

प्रश्न 9.
किस प्रकार के समूह-तनाव को कम करने का उपाय है-अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन?
(क) भाषागत समूह-तनाव
(ख) धर्मगत समूह-तनाव
(ग) जातिगत समूह-तनाव
(घ) क्षेत्रगत समूह-तनाव
उत्तर
(ग) जातिगत समूह-तनाव

प्रश्न 10.
हमारे देश में समय-समय पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों के पीछे मुख्य कारण होता है –
(क) जातिगत भावना
(ख) क्षेत्रीय भावना
(ग) साम्प्रदायिकता की भावना
(घ) विद्रोह की भावना
उत्तर
(ग) साम्प्रदायिकता की भावना

प्रश्न 11.
धर्मान्धता अथवा धार्मिक कट्टरता की भावना के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है-
(क) सामाजिक तनाव
(ख) धर्मगत समूह-तनाव
(ग) वर्गवाद
(घ) अनावश्यक तनाव
उत्तर
(ख) धर्मगत समूह-तनाव

प्रश्न 12.
जातिवाद के उग्र रूप धारण कर लेने पर होता है
(क) राष्ट्र की प्रगति
(ख) आर्थिक उत्थान्
(ग) भ्रष्टाचार का बोलबाला
(घ) समाज में सहयोग
उत्तर
(ग) भ्रष्टाचार का बोलबाला

प्रश्न 13.
साम्प्रदायिक तनाव को कम करने के लिए किया जाना चाहिए –
(क) राष्ट्रीयता का प्रचार
(ख) साम्प्रदायिक राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध
(ग) मिश्रित कार्यक्रमों का आयोजन
(घ) ये सभी उपाय
उत्तर
(घ) ये सभी उपाय

प्रश्न 14.
मिश्रित सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन से कम किया जा सकता है –
(क) जातिगत समूह-तनाव
(ख) साम्प्रदायिक तनाव
(ग) भाषागत तनाव
(घ) हर प्रकार का समूह-तनाव
उत्तर
(घ) हर प्रकार का समूह-तनाव

प्रश्न 15.
अपने देश में भाषावाद को नियन्त्रित करने का उपाय है –
(क) व्यापक राजनीतिक प्रयास
(ख) राष्ट्रभाषा को सम्मान प्रदान करना
(ग) समस्त क्षेत्रीय भाषाओं को समान प्रोत्साहन
(घ) ये सभी उपाय
उत्तर
(घ) ये सभी उपाय

प्रश्न 16.
समूह-तनाव निवारण में सर्वाधिक सहायक कारक है –
(क) आर्थिक सुधार करना
(ख) शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार
(ग) आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार
(घ) कठोर कानून बनाना
उत्तर
(ख) शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार

प्रश्न 17.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अलग राज्य की माँग किस विचारधारा का परिणाम है?
(क) जातिवाद
(ख) धर्मवाद
(ग) क्षेत्रवाद
(घ) अन्धविश्वास
उत्तर
(ग) क्षेत्रवाद

प्रश्न 18.
निम्नलिखित में से कौन समूह-तनाव को कम करता है?
(क) रूढूयाँ
(ख) पूर्वाह्न
(ग) अशिक्षा
(घ) समाज के सदस्यों के समान आदर्श और लक्ष्य
उत्तर
(घ) समाज के सदस्यों के समान आदर्श और लक्ष्य

प्रश्न 19.
निम्नलिखित कथनों में से कौन सही है? (2011)
(क) पूर्वाग्रह सीखे नहीं जाते।
(ख) पूर्वाग्रह असन्तोष प्रदान करते हैं।
(ग) पूर्वाग्रह सत्य पर आधारित होते हैं।
(घ) पूर्वाग्रह समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी होते हैं।
उत्तर
(घ) पूर्वाग्रह समूह-तनाव के लिए उत्तरदायी होते हैं।

प्रश्न 20.
“सभी अश्वेत अच्छे बास्केटबॉल खिलाड़ी होते हैं।” यह कथन उदाहरण है- (2017)
(क) रूढ़ियुक्ति का
(ख) पूर्वाग्रह का
(ग) मिथ्यादोषारोपण का
(घ) संघर्ष का
उत्तर
(ख) पूर्वाग्रह का

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UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Geography (Practical Work)
Chapter Chapter 1
Chapter Name Map Projections (मानचित्र प्रक्षेप)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections (मानचित्र प्रक्षेप)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्रक्षेप से क्या अभिप्राय है? प्रक्षेप की विशेषताएँ बताइए तथा इनका वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर

मानचित्र प्रक्षेप का अर्थ एवं परिभाषा
Meaning and Definition of Map Projection

मानचित्रों के अध्ययन के बिना भौगोलिक ज्ञान अधूरा तथा अस्पष्ट रहता है। मानचित्रों की रचना समतले कागज पर की जाती है। प्रत्येक मानचित्र पृथ्वी के गोलाकार भाग अथवा उसके किसी अल्प भाग का प्रदर्शन करता है। अतः पृथ्वी के इसी गोलाकार भाग के प्रदर्शन के लिए प्रक्षेप की सहायता लेनी पड़ती है। प्रक्षेप की सहायता से ग्लोब के अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के क्रम को एक समतल कागज पर भिन्न-भिन्न रूपों में परिवर्तित कर दिया जाता है तथा मानचित्र तैयार कर लिया जाता है। प्रक्षेप’ का शाब्दिक अर्थ है, प्रक्षेपित करना जो ग्लोब की आकृति को अक्षांश, देशान्तर जैसी काल्पनिक रेखाओं का जाल बनाकर तैयार किया जाता है। पृथ्वी की गोलाकार आकृति को समतल कागज पर विशेष विधियों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार ग्लोब को प्रक्षेपित करने की क्रिया प्रक्षेप कहलाती है। प्रक्षेप को निम्नवत् परिभाषित किया जा सकता है –

“प्रक्षेप ग्लोब की अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं को एक समतल पत्रक पर चित्रित करने का एक साधन मात्र है।”
“अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं के क्रमबद्ध जाल को प्रक्षेप कहते हैं।”
“ग्लोब की अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं के जाल पर प्रकाश डालकर प्राप्त की गयी छाया को प्रक्षेप कहते हैं।”
“पृथ्वी के पूर्ण या किसी भाग को अक्षांश तथा देशान्तर काल्पनिक रेखाओं की सहायता से प्रसारित प्रक्रिया को प्रक्षेप कहते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से प्रक्षेप की एक उचित एवं स्पष्ट परिभाषा निम्नवत् दी जा सकती है –
“सम्पूर्ण पृथ्वी अथवा उसके किसी भाग के नियमित रूप से किसी समतले कागज पर निश्चित मापक के अनुसार खींचे गये अक्षांशीय एवं देशान्तरीय रेखाजोल को, जिसमें स्थित प्रत्येक बिन्दु अथवा स्थान अपनी धरातलीय स्थिति के अनुरूप हो, ‘मानचित्र प्रक्षेप’ कहलाता है।”

प्रक्षेप को सर्वोत्तम उदाहरण सिनेमा में चलने वाली फिल्म का दिया जा सकता है। जिस प्रकार प्रोजेक्टर की सहायता से फिल्म की रील पर प्रकाश की किरणें डालने से उसके सामने परदे पर जो चित्र उभरता है, वह पिक्चर कहलाती है। ठीक इसी भाँति यदि किसी पारदर्शक गोले अथवा ग्लोब के भीतर एक प्रकाश का साधन रखें अथवा सामने से प्रकाश की किरणें इस ग्लोब से गुजारें तो गोले अथवा ग्लोब पर बने चिह्नों (अक्षांशों एवं देशान्तरों) के प्रतिबिम्ब कागज पर स्पष्ट दिखाई देते हैं। इस प्रक्षेपण को ही प्रक्षेप कहा जाता है।
इस प्रकार प्रक्षेपों का निर्माण प्रकाश की छाया तथा गणित, दोनों ही आधार पर किया जाता है। इसके साथ ही मानचित्रकार को अपने उद्देश्यानुसार उचित प्रक्षेप का चुनाव करना पड़ता है।

मानचित्र प्रक्षेप की प्रमुख विशेषताएँ
Characteristics of Map Projection

  1. मानचित्र प्रक्षेपों में अक्षांश रेखाएँ विषुवत् रेखा के समानान्तर, सम दूरी पर खींची गयी काल्पनिक सरल रेखाएँ होती हैं।
  2. मानचित्र प्रक्षेपों में देशान्तर रेखाएँ अर्द्धवृत्तीय, सम लम्बाई तथा समान अन्तर पर खींची गयी काल्पनिक अर्द्धवृत्तीय रेखाएँ होती हैं।
  3. प्रक्षेपों के निर्माण में अक्षांश एवं देशान्तर रेखाएँ एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं।

मानचित्र प्रक्षेप से सम्बन्धित कुछ अन्य आवश्यक बातें
Some Other Statements Related to Map Projection

(1) जाल (Graticule) – अक्षांश तथा देशान्तर रेखाओं के समूह को जाल कहते हैं।
(2) कटिबन्ध (Zone) – दो अक्षांश रेखाओं के मध्य के भाग या दूरी को कटिबन्ध या पेटी के नाम से पुकारते हैं।
(3) प्रक्षेप का मापक (Scale of Projection) – पृथ्वी का अर्द्धव्यास 3,960 मील अथवा 25,09,05,600 इंच है, परन्तु प्रक्षेप की गणना करने के लिए अधिक गणितीय क्रियाओं से बचने के लिए इसे पूर्णांक संख्या 25,00,00,000 इंच अथवा 62,00,000 सेमी मान लेते हैं। निम्नलिखित सूत्र की सहायता से पृथ्वी के घटे अथवा बढ़े हुए गोले का अर्द्धव्यास (त्रिज्या) निकाल लेते हैं –
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 2
(4) प्रक्षेप का विस्तार – जब प्रक्षेप की रचना की जाती है तो उसका पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण विस्तार करना होता है। इसे अक्षांशों एवं देशान्तरों की सहायता से प्रकट किया जाता है।

उत्तम प्रक्षेप के लक्षण 

  1. प्रक्षेप की रचना सरल हो।
  2. प्रक्षेप की दिशा शुद्ध रहे।
  3. प्रक्षेप का मापक शुद्ध रहे।
  4. प्रक्षेप की आकृति शुद्ध हो, उसमें बिगाड़ न आये।
  5. प्रक्षेप में क्षेत्रफल की शुद्धता रहे।

प्रक्षेपों का वर्गीकरण
Classification of Projections

मानचित्रों के गहन अध्ययन से ज्ञात होता है कि सभी मानचित्रों में अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं का जाल (प्रक्षेप) एंक-समान नहीं है। इसका प्रमुख कारण मानचित्र का उद्देश्य, प्रदर्शित क्षेत्र का आधार तथा उसकी स्थिति से होता है। साधारणतया प्रक्षेपों के वर्गीकरण के निम्नलिखित आधार हैं –
(1) प्रकंशि की दृष्टि से प्रक्षेपों का वर्गीकरण – प्रकाश की दृष्टि से प्रक्षेपों के निम्नलिखित दो भेद किये जा सकते हैं

  1. सन्दर्श प्रक्षेप (Perspective Projection) – इन प्रक्षेपों का निर्माण शीशे के ग्लोब के भीतर प्रकाश की सहायता से विस्तारशील धरातल पर किया जाता है।
  2. असन्दर्श प्रक्षेप (Non-perspective Projection) – इन प्रक्षेपों की रचना शुद्ध गणितीय आधार पर की जाती है।

(2) रचना-विधि के आधार पर वर्गीकरण – रचना-विधि के अन्तर्गत प्रक्षेपों का दूसरा वर्गीकरण उस तल के आधार पर किया जा सकता है, जिस पर प्रक्षेप बनाना होता है। रचना-प्रक्रिया के अनुसार इन्हें निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है –

  1. शिरोबिन्दु प्रक्षेप (Zenithal Projection) – इने प्रक्षेपों में स्पर्श रेखा तल पर खींची जाती है।
  2. शंक्वाकार प्रक्षेप (Conical Projection)-इस प्रकार के प्रक्षेपों का निर्माण शंकु के धरातल पर खींची गयी स्पर्श रेखा द्वारा किया जाता है।
  3.  बेलनाकार प्रक्षेप (Cylindrical Projection) – इन प्रक्षेपों में स्पर्श रेखा बेलन के धरातल पर खींची जाती है।
  4. परम्परागत प्रक्षेप (Conventional Projection) – इन प्रक्षेपों की रचना गणितीय आधार पर की जाती है।

(3) उद्देश्य के आधार पर प्रक्षेपों का वर्गीकरण – उद्देश्य के आधार पर प्रक्षेपों को निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है
(i) शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप (Equal Area Projection) – इन प्रक्षेपों में क्षेत्रफल सदैव शुद्ध रहता है। क्षेत्रफल लम्बाई को चौड़ाई से गुणनफल कर प्राप्त किया जा सकता है। अत: अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं का जाल इस प्रकार बनाया जाता है कि मानचित्र पर बनाये गये भाग का क्षेत्रफल ग्लोब के अनुरूप रहता है। विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण को दर्शाने के लिए शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप उपयुक्त रहते हैं।

(ii) शुद्ध-आकृति प्रक्षेप (True-Shape Projection) – वास्तव में कोई भी प्रक्षेप एक बड़े क्षेत्र में शुद्ध आकार वाला नहीं हो सकता। शुद्ध-आकृति प्रक्षेप केवल एक आदर्श संकल्पना मात्र है। इसका प्रमुख कारण यह है कि गोलाकार पृथ्वी को समतल कागज पर प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है। इसी कारण शुद्ध-आकृति एक छोटे क्षेत्र के लिए ही सम्भव हो सकती है। शुद्ध-आकृति प्रक्षेप की रचना के लिए अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं की लम्बाई का अनुपात मानचित्र पर वही होना चाहिए जो कि ग्लोब में दिया गया है। जलधाराओं की प्रवाह दिशा, वायुमार्गों, जलमार्गों तथा पवन की प्रवाह दिशा दर्शाने के लिए शुद्ध आकृति प्रक्षेपों का प्रयोग किया जाता है।

(iii) शुद्ध दिशा प्रक्षेप (True Bearing Projection) – शुद्ध दिशा प्रक्षेप में दिशाओं का क्रम ग्लोब की भाँति होता है। मानचित्र में यह आवश्यक होना चाहिए कि मानचित्र के सभी बिन्दुओं पर दिशा का सामंजस्य हो, परन्तु सरल रेखाओं के माध्यम से सभी दिशाओं को शुद्ध प्रदर्शित करना असम्भव-सा है। शुद्ध दिशा प्रक्षेप से अभिप्राय यह है कि प्रक्षेप के केन्द्रबिन्दु से सभी दिशाएँ शुद्ध हों। ये प्रक्षेप नौका-चालन एवं जलयान-चालन के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं।

प्रश्न 2
एक प्रामाणिक (प्रधान) अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप के लक्षण, गुण, दोष एवं उपयोगिता को सोदाहरण बताइए।
उत्तर
शंक्वाकार प्रक्षेप में यह कल्पना की जाती है कि शंकु (Cone) ग्लोब के ऊपर रख दिया गया है। शंकु को ग्लोब पर इस प्रकार रखा जाता है कि उसका शीर्ष ग्लोब की धुरी की सीध में हो। ऐसी दशा में शंकु ग्लोब को किसी एक अक्षांश रेखा पर स्पर्श करेगा। इस स्पर्श की गयी अक्षांश रेखा को प्रधान अक्षांश रेखा या मानक अक्षांश रेखा या प्रामाणिक अक्षांश रेखा (Standard Parallel) कहा जाता है। अन्य अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं को शंक्वाकार कागज के भीतरी तल पर प्रकाश की किरणों द्वारा स्थानान्तरित कर लिया जाता है तथा शंकु को फैलाकर शंक्वाकार प्रक्षेप प्राप्त कर लिया जाता है। शंक्वाकार प्रक्षेप में प्रामाणिक अक्षांश ही एक ऐसा आदर्श वृत्त है जो कि प्रक्षेप पर शुद्ध रूप से प्रकट किया जाता है। इस प्रकार यह प्रक्षेप एक प्रतिबिम्बित प्रक्षेप है।

एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप के लक्षण एवं गुण -एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं-

  1. शंक्वाकार प्रक्षेप की रचना अत्यन्त सरल होती है।
  2. यह एक संशोधित अनुदृष्टि प्रक्षेप है।
  3. अक्षांश रेखाएँ एक केन्द्रीय वृत्तखण्ड होती हैं।
  4. अक्षांश रेखाओं के बीच की दूरी समान होती है।
  5. देशान्तर रेखाएँ सरल एवं सीधी रेखाएँ होती हैं जो ध्रुवों पर आपस में मिल जाती हैं।
  6. देशान्तर रेखाओं में विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर दूरी कम होती जाती है।
  7. देशान्तर रेखाओं के मध्य की पारस्परिक दूरी अक्षांश-विशेष पर बराबर होती है।
  8. प्रामाणिक अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं पर मापक शुद्ध होता है।
  9. प्रामाणिक अक्षांश एवं देशान्तर रेखाएँ एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं।
  10. प्रामाणिक अक्षांश एवं मध्यवर्ती देशान्तर पर ही सभी लक्षण शुद्ध रहते हैं। इनसे दूर जाने पर प्रदेश का विस्तार बढ़ने से उसमें दोष भी बढ़ते जाते हैं।
  11. ध्रुव अपनी वास्तविक स्थिति से उत्तर में दर्शाया जाता है।
  12. इस प्रक्षेप में कुछ सीमित क्षेत्र तक ही आकृति, दिशा एवं क्षेत्रफल तीनों ही शुद्ध रहते हैं; परन्तु दोष आने पर सीमित पैमाने पर वृद्धि होती है।
  13. इस प्रक्षेप की रचना टुकड़ों में बाँटकर भी की जा सकती है।
  14. मानचित्रावलियों एवं मानचित्रकारों के लिए यह प्रक्षेप अति उपयोगी होता है।
  15. इस प्रक्षेप द्वारा केवल एक ही गोलार्द्ध को प्रकट किया जा सकता है।

एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप के दोष -एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप में निम्नलिखित दोष भी पाये जाते हैं-

  1. यह प्रक्षेप न तो शुद्ध क्षेत्रफल है एवं न ही शुद्ध आकार।
  2. प्रामाणिक अक्षांश रेखा वाले भागों को छोड़कर आकृति शुद्ध नहीं रहती है।
  3. ध्रुव अपनी वास्तविक स्थिति से कुछ उत्तर अथवा दक्षिण की ओर दर्शाया जाता है।
  4. इस प्रक्षेप में केवल एक गोलार्द्ध को प्रकट किया जा सकता है, न कि सम्पूर्ण विश्व को।
  5. इस प्रक्षेप में क्षेत्रफल भी शुद्ध नहीं रहता है।

एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप की उपयोगिता – यह प्रक्षेप ऐसे देशों के लिए अधिक उपयोगी है जो कि कम विस्तार रखते हैं अथवा प्रामाणिक अक्षांश के सहारे पूर्व-पश्चिम में अथवा मध्य देशान्तर के सहारे उत्तर-दक्षिण में अधिक विस्तार रखते हैं। उत्तर-दक्षिण में कम विस्तार वाले देशों; जैसे-डेनमार्क, पोलैण्ड तथा नीदरलैण्ड्स आदि देशों को प्रदर्शित करने के लिए यह प्रक्षेप उपयोगी है। यह प्रक्षेप जावा, क्यूबा जैसे छोटे द्वीपों तथा चिली जैसे देश के लिए भी उपयोगी है।

उदाहरण – एक प्रामाणिक अक्षांश साधारण शंक्वाकार प्रक्षेप की रचना कीजिए जिसकी प्र० भि० 1: 12,50,00,000 हो तथा प्रामाणिक अक्षांश 45° उत्तर, प्रक्षेपान्तर 15° तथा विस्तार 60° पूर्व से 60° पश्चिमी देशान्तर एवं 0° से 75° उत्तरी अक्षांश हो।
रचना-विधि-पृथ्वी के घटाये गये गोले का अर्द्धव्यास =
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 5
कागज पर 5 सेमी की दूरी लेकर एक अ क ख अर्द्धवृत्त की रचना की। अ क लम्ब रेखा को ऊपर की ओर बढ़ाया। इस अर्द्धवृत्त पर 15° एवं 45° के कोण बनाकर 45° के कोण पर च छ स्पर्श रेखा खींची जो अ क रेखा को च बिन्दु पर काटती है। परकार में ख ग (15° कोण) के बराबर दूरी लेकर अ केन्द्र से एक चाप घुमाया। यह चाप अ छ रेखा को फ बिन्दु पर काटता है। अ ख के समानान्तर प फ रेखा खींची।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 1
अब कागज पर दूसरी ओर एक लम्बवत् सरल रेखा खींची। परकार में च छ के बराबर दूरी लेकर य केन्द्र से एक चाप घुमाया। यही प्रक्षेप की प्रामाणिक अक्षांश रेखा है। प्रामाणिक अक्षांश के दोनों ओर मध्य देशान्तर के सहारे ख ग की दूरी लेकर दोनों ओर चिह्न अंकित कर प्रत्येक बार य केन्द्र से चाप खींच दिये। ये सभी चाप अक्षांश रेखाओं को प्रकट करेंगे। देशान्तर रेखाओं की रचना करने के लिए प्रामाणिक अक्षांश पर अर्द्धवृत्त की प फ दूरी के बराबर दूरी लेकर उन्हें चिह्नित कर य केन्द्र की सहायता से एक केन्द्र से विकरित होने वाली रेखाएँ खींच दीं। तत्पश्चात् अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं को अंशांकित कर दिया।

प्रश्न 3
दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप की विशेषताएँ एवं उपयोगिता बताते हुए निम्नलिखित विवरणों की सहायता से प्रक्षेप की रचना कीजिए –
(i) प्र० भि० 1; 12,50,00,000;
(ii) प्रामाणिक अक्षांश 30°एवं 60° उत्तरी अक्षांश;
(iii) प्रक्षेपान्तर 10°;
(iv) प्रक्षेप का विस्तार 0°से 80°उत्तरी अक्षांश तथा 70° पश्चिम
से 70° पूर्वी देशान्तर।
उत्तर

दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप
Conical Projection with Two Standard Parallel

यह एक प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार का संशोधित रूप है। इसमें शंकु को एक पारदर्शक ग्लोब के भीतर प्रवेश करता हुआ कल्पित किया जाता है। इस प्रक्षेप में कागज ग्लोब के दो स्थानों पर स्पर्श करता हुआ कल्पित किया गया है। यही दोनों स्थान प्रामाणिक अक्षांश माने जाते हैं। वास्तव में समतल कागज ग्लोब को एक ही स्थान पर स्पर्श करता है। दो स्थानों पर स्पर्श केवल एक कल्पनामात्र है।

साधारण शंक्वाकार प्रक्षेप में केवल एक प्रामाणिक अक्षांश होता है जिससे उत्तर-दक्षिण की दूरियाँ शुद्ध रूप में प्रदर्शित नहीं की जाती हैं। इस प्रक्षेप में प्रामाणिक अक्षांश एक के स्थान पर दो होती हैं। जिससे उत्तर-दक्षिण की दूरियाँ अधिक शुद्ध रूप में प्रदर्शित की जा सकती हैं। इन दोनों प्रामाणिक अक्षांशों के सहारे क्षेत्रफल शुद्ध रहता है। अतः इन प्रामाणिक अक्षांशों का चुनाव सावधानीपूर्वक करना चाहिए।

इस प्रक्षेप में एक के स्थान पर दो प्रामाणिक अक्षांशों के सहारे मापक शुद्ध रहता है। इसी कारण इनके मध्य में फैले मानचित्रों में अशुद्धता सीमित हो जाती है। यदि दोनों प्रामाणिक अक्षांश दूर हुए तो इनके मध्यवर्ती भाग विकृत हो जाएँगे। अत: स्टीयर्स के अनुसार यूरोप महाद्वीप का मानचित्र बनाते समय 35° एवं 70° अक्षांशों की अपेक्षा 40° एवं 60° अक्षांशों को प्रामाणिक अक्षांश मानना अधिक उपयुक्त रहेगा। इसी प्रकार पूर्व-पश्चिम दिशा में फैले मध्य अक्षांशीय देशों, प्रदेशों को उनके विस्तार के अनुसार उनके प्रामाणिक अक्षांश उन स्थानों के विस्तार के अनुसार निश्चित किये जा सकते हैं।

रचना-विधि-घटाये गये पृथ्वी के गोले का अर्द्धव्यास = [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 12,50,00,000 } [/latex] = 5 सेमी
सर्वप्रथम कागज के बायीं ओर 5 सेमी अर्द्धव्यास से वृत्त का एक-चौथाई भाग अ ब से बनाकर उसमें क्रमश: 10°, 30° एवं 60° के कोण खींचे। अब ब क की दूरी लेकर अ बिन्दु से एक चाप लगाया। इस चाप पर अ ब के समानान्तर च छ एवं र ठ रेखाएँ क्रमश: 30° एवं 60° के कोण पर खींची। अब एक लम्बवत् सरल रेखा खींचकर उस पर कोई बिन्दु क लेकर च छ के बराबर क क लम्ब डाला। क बिन्दु को 30°अक्षांश की स्थिति पर माना गया है। क से उत्तर की ओर 60° अक्षांश की स्थिति निश्चित करने के लिए वृत्त की ब क दूरी लेकर तीन चिह्न लेकर ख की स्थिति निश्चित कर दी। ख बिन्दु पर र ठ के बराबर ख ख’ लम्ब डाल दिया। अब क’ तथा ख’ बिन्दुओं को मिलाते हुए एक रेखा खींची जो क ख रेखा को उ बिन्दु पर काटती है। इस प्रकार समकोण त्रिभुज जैसी एक आकृति का निर्माण होता है।

अब प्रक्षेप के रेखाजोल का निर्माण करने के लिए कागज के दायीं ओर एक सरल रेखा खींची तथा ऊपरी भाग को उ बिन्दु मानकर समकोण त्रिभुज से उ क एवं उ ख की दूरी लेकर उ बिन्दु से चाप लगाये। ये दोनों चाप क्रमश: 30° एवं 60° प्रामाणिक अक्षांश को प्रकट करते हैं। अब 30° अक्षांश पर क या च छ तथा 60° अक्षांश पर र ठ या ख ख’ दूरी लेकर मध्यवर्ती रेखा के क ख बिन्दओं से दोनों ओर 7-7 चिह्न अंकित किये। दोनों अक्षांश रेखाओं पर अंकित बिन्दुओं को मिलाते हुए रेखाएँ खींची जो देशान्तर रेखाओं को प्रकट करेंगी। उसके बाद अब स वृत्त से ब क की दूरी लेकर किसी एक प्रामाणिक अक्षांश से 0° से 80° तक का अक्षांशीय विस्तार बनाने के लिए चिह्न लगाकर उ बिन्दु से चाप लगाये। रेखाजाल का निर्माण करने के लिए प्रक्षेप को विस्तार के अनुसार चित्र के अनुरूप अंशांकित कर दिया। इस प्रकार दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप की रचना होगी।
UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections 3

दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Conical Projection with Two Standard Parallel

  1. यह एक संशोधित सन्दर्श प्रक्षेप है। इस प्रक्षेप में शंकु को दो स्थानों पर स्पर्श करते हुए। कल्पित किया गया है जिससे कि एक स्थान पर दो प्रामाणिक अक्षांश बन सकें।
  2. सभी अक्षांश रेखाएँ चापाकार होती हैं तथा उनके बीच की दूरी समान होती हैं।
  3. देशान्तर रेखाओं में केन्द्रीय देशान्तर ही सीधी रेखा होती है; अत: केवल इसी देशान्तर को अक्षांश रेखाएँ समकोण पर काटती हैं। शेष सभी देशान्तर रेखाएँ चापाकार होने से अक्षांश वृत्तों को तिरछा काटती हैं। बाहरी भागों में तिरछापन बढ़ता जाता है।
  4. इस प्रक्षेप में किसी भी अक्षांश को स्पर्श रेखा मानकर प्रामाणिक अक्षांश माना जा सकता है।
  5. देशान्तर रेखाओं के वक्राकार होने का प्रमुख कारण यह है कि इस प्रक्षेप में प्रत्येक अक्षांश को समान महत्त्व दिया गया है। देशान्तरों के बीच की दूरी छोटे वृत्त पर लम्ब डालकर निश्चित की जाती है।
  6. इस प्रक्षेप में अक्षांश रेखाओं की लम्बाई ग्लोब की समानुपाती होती है। केन्द्रीय देशान्तर पर अक्षांशों के बीच का अन्तर भी शुद्ध रहता है। इसी कारण यह एक समक्षेत्रफल प्रक्षेप बन गया है।
  7. प्रामाणिक अक्षांशों के निकटवर्ती भागों का क्षेत्रफल एवं आकृति प्रायः शुद्ध रहती है। इसलिए इसे प्रक्षेप में मध्ये देशान्तर एवं प्रामाणिक अक्षांश निश्चित कर एक गोलार्द्ध के अधिकांश देशों को प्रदर्शित किया जा सकता है।
  8. इस प्रक्षेप पर आकृति एवं दिशा सभी स्थानों पर शुद्ध नहीं रहती है। केन्द्रीय भाग से दूर जाने पर विकृति में वृद्धि होती जाती है।
  9. बाह्य देशान्तरों पर मापनी में अशुद्धियाँ बढ़ती जाती हैं, जबकि सभी अक्षांशों पर मापक शुद्ध
    रहता है।

उपयोगिता – एक गोलार्द्ध के मानचित्र को प्रदर्शित करने के लिए यह एक उपयोगी प्रक्षेप है। यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा एशिया महाद्वीप के अधिकांश भागों को इस प्रक्षेप पर प्रकट किया जा सकती है। मानचित्रावलियों में भी विभिन्न देशों के मानचित्र इस प्रक्षेप पर बनाये जा सकते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के मानचित्र के लिए यह एक बहुत-ही उपयोगी प्रक्षेप है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, मिस्र आदि देशों के मानचित्र बनाने में इस प्रक्षेप का उपयोग अधिक किया जाता है। परन्तु रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि देशों के लिए यह प्रक्षेप अधिक उपयोगी नहीं है। स्विट्जरलैण्ड, आयरलैण्ड, बेल्जियम, नीदरलैण्ड्स तथा स्वीडन आदि देशो में इस प्रक्षेप पर सर्वेक्षण मानचित्रों की रचना भी की गयी है।

प्रश्न 4
समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप की विशेषताएँ एवं उपयोगिता बताइए तथा निम्नलिखित विवरणों के आधार पर इसकी रचना-विधि समझाइए –
(i) प्र० भि० 1 : 37,50,00,000;
(ii) प्रक्षेपान्तर = 15°
उत्तर
समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप – जब कागज को ग्लोब की विषुवत रेखा पर स्पर्श कराते हुए लपेटा जाता है तो उससे बनने वाले बेलननुमा जाल को बेलनाकार प्रक्षेप अथवी आयताकार प्रक्षेप कहते हैं। इन प्रक्षेपों में विषुवत रेखा की लम्बाई शुद्ध रहती है। अन्य अक्षांशों की लम्बाई भी विषुवत् रेखा के बराबर कर दी जाती है। इसीलिए सभी बेलनाकार प्रक्षेपों में ध्रुव जो कि एक बिन्दुमात्र है, को भी विषुवत रेखा की लम्बाई के बराबर दर्शाया जाता है। इन प्रक्षेपों का मुख्य दोष यह है कि उच्च अक्षांशीय प्रदेशों के लिए इनका चुनाव अपवादस्वरूप ही होता है। इस प्रक्षेप में इन प्रदेशों को प्रदर्शित करने में विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

बेलनाकार समक्षेत्रफल प्रक्षेप की रचना सर्वप्रथम 1772 ई० में लैम्बर्ट नामक मानचित्रकार ने की थी जिस कारण इसे लैम्बर्ट का समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप भी कहते हैं। इसमें देशान्तर रेखाएँ अन्य बेलनाकार प्रक्षेप की भाँति विषुवत् रेखा को समविभाजित कर खींची जाती हैं। समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप में जैसा कि उसके नाम से विदित होता है, इस प्रक्षेप पर क्षेत्रफल शुद्ध प्रदर्शित किया जाता है। यह प्रक्षेप ज्यामितीय दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठ है। प्रक्षेप पर दो अक्षांश रेखाओं के मध्य का क्षेत्र ग्लोब की उन्हीं दो अक्षांश रेखाओं के क्षेत्रफल के बराबर होता है, क्योंकि पूरब-पश्चिम में जिस अनुपात में दूरी बढ़ायी जाती है, उत्तर-दक्षिण में उसी अनुपात में कम कर दी जाती है। अत: क्षेत्रफल शुद्ध रहता है, परन्तु ध्रुवों पर आकृति विकृत हो जाती है।

समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Equal Area Cylindrical Projection

  1. यह एक सन्दर्श प्रक्षेप है। इसमें प्रकाश की स्थिति अनन्त पर मानी जाती है।
  2. इस प्रक्षेप में सभी अक्षांश रेखाओं की लम्बाई विषुवत् रेखा के बराबर होती है। अक्षांश रेखाएँ समानान्तर होती हैं तथा विषुवत् रेखा से उत्तर-दक्षिण की ओर जाने पर इसके बीच की दूरी कम होती है।
  3. सभी देशान्तर रेखाएँ विषुवत् रेखा से लम्बवत् खींची जाती हैं। इनकी पारस्परिक दूरी समान होती है।
  4. देशान्तर रेखाओं की लम्बाई घटाये गये गोले के ध्रुवीय व्यास के बराबर रखी जाती है। इन रेखाओं द्वारा सही उत्तर-दक्षिण दिशा प्रकट होती है।
  5. इस प्रक्षेप को इसकी विशेष आकृति के कारण पहचानना बहुत ही सरल है।
  6. ध्रुवों की ओर जाने पर होने वाले अक्षांशीय विस्तार को न्यूनतम करने के लिए उनके बीच की दूरी उसी अनुपात में घटा दी जाती है। इस प्रकार देशान्तर रेखाएँ अपनी वास्तविक लम्बाई से छोटी होती जाती हैं तथा प्रक्षेप मे समक्षेत्रफल का गुण आ जाता है।
  7. इस प्रक्षेप में ध्रुवों को, जो कि एक बिन्दुमात्र होते हैं, एक रेखा द्वारा प्रदर्शित किया जाता है; अत: इनके निकटवर्ती अक्षांश बहुत ही पास-पास आ जाते हैं।
  8. विषुवत रेखा से दूर जाने पर अशुद्धियाँ बढ़ने से आकृति अधिकाधिक बिगड़ती चली जाती है। आइसलैण्ड, नॉर्वे, अलास्का जैसे देश अपने आकार से कहीं अधिक लम्बे या चपटे दिखायी देते हैं।
  9. इस प्रक्षेप में विषवुत् रेखा को छोड़कर मापक कहीं भी शुद्ध नहीं रहता है।
  10. यह शुद्ध दिशा प्रक्षेप नहीं है। ध्रुवों की ओर जाने पर अशुद्धियाँ उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं।

रचना-विधि-पृथ्वी के घटाये गये गोले का अर्द्धव्यास = [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 37,50,00,000 } [/latex] = [latex s=2]\frac { 5 }{ 3 } [/latex] सेमी= 1.7 सेमी
विषुवत रेखा की लम्बाई = 2πr = [latex s=2]\frac { 44 }{ 7 } [/latex] × [latex s=2]\frac { 5 }{ 3 } [/latex] = 10.5 सेमी

एक ड्राइंगशीट लेकर उसके बायीं ओर 1.7 सेमी का अर्द्धव्यास लेकर ट केन्द्र से एक अर्द्धवृत्त क . ख ग की रचना की। इस अर्द्धवृत्त पर विषुवत्रेखीय एवं ध्रुवीय रेखाएँ खींची। अर्द्धवृत्त के केन्द्र ट से क ख ग के मध्य 15° के अन्तर से 12 कोणों की रचना की। ध्रुवीय व्यास के ख के समानान्तर ग को स्पर्श करते हुए च छ रेखा खींची। ट ग रेखा की सीध में ग बिन्दु से म बिन्दु तक एक 10.5 सेमी लम्बी रेखा खींची जो विषुवत् रेखा को प्रकट करेगी। अन्य अक्षांश रेखाओं की रचना के लिए विषुवत् रेखा के समानान्तर और बराबर रेखाएँ ट केन्द्र से खींचे गये कोणों से स्पर्श करती हुई खींची। अक्षांश रेखाओं के बीच की दूरी विषुवत् रेखा ग म से उत्तर-दक्षिण की ओर जाने पर घटती जाती है। देशान्तर रेखाओं की रचना के लिए विषुवत् रेखा ग म को 15° प्रक्षेपान्तर होने से 24 सम-भागों में विभाजित कर च छ के समानान्तर रेखाएँ खींची। चित्रानुसार प्रक्षेप के रेखाजाल को अंशांकित कर दिया। इस प्रकार च छ प फ के बीच का अंशांकित रेखाजाल ही बेलनाकार समक्षेत्रफल प्रक्षेप है।
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एक गोलार्द्ध को भी समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। उसकी रचना उपर्युक्तानुसार प्रदर्शित की जा सकती है।
उपयोगिता – समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप विश्व के वितरण मानचित्रों के लिए एक उपयोगी प्रक्षेप है। उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों की उपजों को प्रदर्शित करने के लिए यह सर्वाधिक उपयोगी प्रक्षेप है। इस प्रक्षेप पर बने मानचित्रों में चाय, कहवा, कोको, गर्म-मसाले, केला, रबड़, ताड़, नारियल, चावल, मक्का आदि का वितरण तथा कभी-कभी खनिज तेल उत्पादन क्षेत्र भी प्रदर्शित किये। जा सकते हैं।

प्रश्न 5
त्रैज्य शिरोबिन्द ध्रुवीय प्रक्षेप की विशेषताएँ गुण, दोष एवं उपयोगिता बताइए तथा निम्नलिखित विवरण के आधार पर उत्तरी गोलार्द्ध के लिए एक उपयुक्त प्रक्षेप की रचना कीजिए –
(i) प्र० भि० 1: 20,00,00,000;
(ii) प्रक्षेपान्तर= 15°
उत्तर

त्रैज्य शिरोबिन्दु ध्रुवीय प्रक्षेप
Gnomonic Zenithal Projection Polar Case

यह एक सन्दर्श प्रक्षेप है जिसे केन्द्रीय शिरोबिन्दु प्रक्षेप भी कहा जाता है। इसमें प्रकाश पुंज की स्थिति ग्लोब के केन्द्र में मानी जाती है। कागज किसी एक ध्रुव को स्पर्श करता है। अतः ध्रुव को केन्द्र मानकर अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं की रचना की जाती है। अक्षांश रेखाएँ एक केन्द्र से प्रकाश की किरणों की स्थिति के अनुसार खींची जाने के कारण समकेन्द्रीय वृत्त होती हैं, जबकि देशान्तर रेखाएँ केन्द्र (ध्रुव) से बाहर की ओर विकिरत त्रिज्याकार सरल रेखाएँ होती हैं। इस प्रक्षेप में प्रकाश की किरणें ग्लोब पर समतल कागज को एक बिन्दु पर ही स्पर्श करती हैं। इसीलिए केन्द्र से बाहर की ओर जाने पर अक्षांशों के बीच का अन्तर तीव्रता से बढ़ने लगता है। इस प्रक्षेप पर विषुवत रेखा की स्थिति प्रदर्शित नहीं की जा सकती है, क्योंकि विषुवत्रेखीय प्रकाश रेखा की स्थिति ध्रुवीय प्रकाश रेखा से समकोण पर होती है।

रचना-विधि-घटाये गये ग्लोब का अर्द्धव्यास
= [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 20,00,00,000 } [/latex] = [latex s=2]\frac { 25 }{ 8 } [/latex] = 3.12 सेमी या 1.25 इंच

एक ड्राइंगशीट के बायीं ओर 3.12 सेमी या 1.25 इंच का अर्द्धव्यास लेकर वृत्त का एक-चौथाई भाग अ ब क की रचना की। इस पर क बिन्दु से अ ब के समानान्तर रेखा खींची। अ केन्द्र से 15° के अन्तराल पर 15 से 75° तक के कोण खींचकर उन्हें क च रेखा की ओर बढ़ा दिया। इस प्रक्रिया द्वारा ख ग घ एवं च बिन्दु प्राप्त होंगे।

अब ड्राइंगशीट के दायीं ओर एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई दो सरल रेखाएँ खींची जो कि ‘य बिन्दु पर मिलती हैं। अब वृत्त के बिन्दु क से सरल रेखा क ख, क ग, क घ एवं क च के बराबर दूरियों के अर्द्धव्यास लेकर य केन्द्र से चार वृत्तों की रचना की। ध्रुव की ओर से ये वृत्त क्रमश: 75, 60°, 45° एवं 30° उत्तरी अक्षांश रेखाएँ प्रकट करते हैं। य बिन्दु उत्तरी ध्रुव होगा। य बिन्दु से ही 15° के अन्तर पर चारों ओर सरल रेखाएँ खींच दीं। प्रश्नानुसार इस रेखाजाल को अंशांकित कर दिया। यह त्रैज्य शिरोबिन्दु ध्रुवीय प्रक्षेप की रचना होगी।
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त्रैज्य शिरोबिन्दु ध्रुवीय प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Gnomonic Polar Zenithal Projection

  1. यह एक सन्दर्श प्रक्षेप है जिसमें प्रकाश पुंज की स्थिति ग्लोब के मध्य में मानी गयी है।
  2. अक्षांश रेखाएँ समकेन्द्रीय वृत्त होती हैं।
  3. केन्द्र (ध्रुव) से दूर हटने पर अक्षांशों के मध्य की दूरी बढ़ती जाती है।
  4. देशान्तर रेखाएँ सरल रेखाओं द्वारा प्रदर्शित की जाती हैं। किरणे ध्रुव से बाहर की ओर विकिरित होती हैं।
  5. अक्षांश एवं देशान्तर रेखाएँ एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं।
  6. केन्द्र से सभी बिन्दुओं की दिशा शुद्ध रहती है।
  7. केन्द्र से दूर हटने पर अक्षांश एवं देशान्तर दोनों के सहारे मापंक में वृद्धि हो जाती है। अतः मापक के स्थान-स्थान पर परिवर्तन के कारण आकृति में विकृति आती जाती है।
  8. यह एक शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप नहीं है।
  9. ध्रुव एक बिन्दु द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

गुण

  • केन्द्र के सभी ओर दिशाएँ शुद्ध होती हैं।
  • केन्द्र अथवा ध्रुव पर मापक शुद्ध होता है।

अवगुण

  • इस प्रक्षेप पर प्रदर्शित क्षेत्रों की आकृति अशुद्ध होती है।
  • इस प्रक्षेप पर क्षेत्रफल अशुद्ध रहता है।
  • केन्द्र से बाहर की ओर मापक तेजी से बढ़ने लग जाता है।
  • इस प्रक्षेप पर विषुवत् रेखा को प्रदर्शित नहीं किया जा सकता।

उपयोगिता – यह प्रक्षेप केवल ध्रुवीय प्रदेशों के मानचित्रों के लिए अधिक उपयोगी है। इस पर अण्टार्कटिका महाद्वीप अथवा उत्तरी ध्रुवीय महासागर का मानचित्र बनाया जा सकता है। इसके बाहर की ओर जाने में इस प्रक्षेप में दोष बढ़ने लगते हैं।
इस प्रक्षेप पर बने मानचित्रों का उपयोग ध्रुवीय प्रदेशों के लिए होने लगा है। वृहत् वृत्त सरल रेखा प्रदर्शित हो जाने के कारण इस प्रक्षेप पर दो बिन्दुओं को जोड़ने वाली सरल रेखा पृथ्वी पर न्यूनतम दूरी वाली रेखा होगी।

प्रश्न 6
प्र० भि० 1: 20,00,00,000 पर उत्तरी गोलार्द्ध के लिए एक शिरोबिन्द गोलीय प्रक्षेप ध्रुवीय दशा की रचना कीजिए जिसमें प्रक्षेपान्तर 15° हो। इस प्रक्षेप की विशेषताएँ, गुण, अवगुण एवं उपयोगिता को भी बताइए।
उत्तर

शिरोबिन्दु गोलीय या समाकृति प्रक्षेप
Zenithal Stereographic Projection-Polar Case

यह भी एक सन्दर्श प्रक्षेप है। इस प्रक्षेप में प्रकाश की स्थिति ग्लोब के ध्रुव (केन्द्र) पर होती है। स्पर्श रेखा तल, विषुवत रेखा के किसी बिन्दु पर ग्लोब को छूती है। इस प्रक्षेप पर देशान्तर रेखाएँ सरल रेखाएँ होती हैं। अक्षेप में अक्षांशों के बीच की दूरी में केन्द्र (ध्रुव) से बाहर की ओर जाने पर केन्द्रीय प्रक्षेप से धीमी गति से बनती है। इसी कारण इस पर विषुवत् रेखा तथा सम्पूर्ण गोलार्द्ध का रेखा जाल बनाया जा सकता है। इस प्रक्षेपकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ध्रुवों के बाहर की ओर जाने पर किसी भी बिन्दु पर अक्षांश-देशान्तरों का आनुपातिक विस्तार समान रहने से यह एक सम-आकृति प्रक्षेप बन जाता है।

इस प्रकार पृथ्वी के ग्लोब पर खींचा गया वृत्त त्रिकोण या वर्ग इस प्रक्षेप की उसी आकृति द्वारा ही प्रदर्शित किया जाएगा। इस प्रक्षेप का यह गुण तीनों ही दशाओं (ध्रुवीय, विषुवत्खीय एवं तिर्यक) में बराबर बना रहता है। आवश्यकता के लिए प्रक्षेप से विपरीत ध्रुव को छोड़कर सम्पूर्ण ग्लोब का रेखा जाल बनाया जा सकता है। इन प्रक्षेपों में विषुवत रेखा के आगे के भाग में अक्षांशों के बीच के अन्तर में तेजी से वृद्धि होने लगती है जिससे उन प्रदेशों का आकार विकृत हो जाता है। इसी कारण ऐसे प्रदेशों का प्रदर्शन अनुपयोगी होता है।

रचना-विधि–पृथ्वी के घटाये गये गोले का अर्द्धव्यास
= [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 20,50,00,000 } [/latex] = 3.12 सेमी = 1.25

एक ड्राइंगशीट पर घटाये गये ग्लोब का अर्द्धव्यास 3.12 सेमी या 1.25” लेकर बायीं ओर एक अर्द्धवृत्त की रचना की। इस अर्द्धवृत्त पर समकोण बनाती हुई एक रेखा अ से खींची। अ बिन्दु से उत्तरी भाग में 15° के अन्तर पर कोण खींचे तथा अ स के समानान्तर द बिन्दु से द च रेखा खींची। दे च रेखा ग्लोब पर समतल कागज के प्रक्षेपण तले की स्थिति प्रदर्शित करती है। प्रकाश की किरणों को ब पर स्थित मानकर उससे 15° के कोणों की ओर प्रकाश की किरणें वितरित की जो कोणों को स्पर्श करती हुई प्रक्षेपण तल पर द च रेखा पर क्रमशः क ख ग घ च बिन्दुओं पर स्थिर होंगी।
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अब ड्राईंगशीट के दायीं ओर एक-दूसरे को काटती हुई दो सरल रेखाएँ खींचीं जो य बिन्दु पर मिलती हैं। अर्द्धवृत्त के द बिन्दु से द क, द ख, द ग, द घ तथा द च के बराबर अर्द्धव्यास लेकर य बिन्दु से पाँच वृत्त बना दिये। य बिन्दु से ये वृत्त क्रमशः 75°,60°, 45°, 30° एवं 15° को प्रदर्शित करेंगे। य बिन्दु केन्द्र अर्थात् उत्तरी ध्रुव को प्रकट करेगा। य केन्द्र से ही 15° के कोणीय अन्तर पर चारों ओर सरल रेखाएँ खींच दीं जो देशान्तर रेखाओं को प्रकट करेंगी। पिछले पृष्ठ पर दिए गए चित्रानुसार इस रेखाजाल को अंशांकित कर दिया। यही शिरोबिन्दु गोलीय या समाकृति प्रक्षेप होगा।

शिरोबिन्दु गोलीय प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Zenithal Stereographic Projection

  1. यह एक सन्दर्श प्रक्षेप है। इसमें प्रकाश-किरणों की स्थिति विपरीत ध्रुव पर मानी जाती हैं।
  2. सभी अक्षांश रेखाएँ समकेन्द्रित वृत्त होती हैं।
  3. सभी देशान्तर रेखाएँ घटाये गये ग्लोब के अर्द्धव्यास हैं। किरणें ध्रुव से बाहर की ओर विकिरित होती हैं।
  4. अक्षांश एवं देशान्तर रेखाएँ परस्पर समकोण पर काटती हैं।
  5. प्रक्षेप पर ध्रुवीय प्रदेशों के मानचित्रों में पूर्ण शुद्धता रहती है।
  6. प्रक्षेप पर ध्रुर्व से दूर हटने पर अक्षांशों के बीच की दूरी धीमी गति से बढ़ने लगती है। अत: इस प्रक्षेप पर विषुवतीय प्रदेशों तक को प्रदर्शित किया जा सकता है।
  7. इस प्रक्षेप पर अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के सहारे-सहारे किसी भी बिन्दु पर मापक में समान वृद्धि होती है। अत: यह एक सम आकृति प्रक्षेप है। यह गुण कुछ ही प्रदेशों तक सीमित रहता है, क्योंकि बाहर की ओर जाने पर मापक में वृद्धि होने से क्षेत्रफल में भी तीव्रता से वृद्धि होने लगती है।
  8. अन्य शिरोबिन्दु प्रक्षेपों की भाँति यह प्रक्षेप भी शुद्ध दिशा प्रक्षेप है। अतः सभी देशान्तर रेखाओं के सहारे-सहारे दिशा शुद्ध रहती है।
  9. प्रक्षेप पर ध्रुवों से 70° अक्षांशों के मध्य मापक एवं क्षेत्रफल में मन्द गति से वृद्धि होती है।
  10. यह समक्षेत्रफल या शुद्ध मापक प्रक्षेप नहीं है। ध्रुव अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर जाने में क्षेत्रफल एवं मापक में तेजी से वृद्धि होती जाती है। विषुवत रेखा के समीपवर्ती भागों में यह वृद्धि कई गुना हो जाती है। इस प्रकार विषुवत् रेखा के निकट स्थित देश-श्रीलंका, सेलेबीज, मलागैसी आदि अपने आकार से बहुत बड़े दिखलायी पड़ते हैं।

गुण

  • यह शुद्ध आकृति प्रक्षेप है अर्थात् इस पर आकृति समरूप रहती है।
  • यह शुद्ध दिशा प्रक्षेप है।
  • इस प्रक्षेप पर विषुवत् रेखा तक के क्षेत्रों को भली-भाँति दिखाया जा सकता है।

अवगुण

  • इस प्रक्षेप पर मापक गलत रहता है।
  • यह एक अशुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप है।
  • विषुवत् रेखा के निकटवर्ती भागों में प्रदेशों का आकार बड़ा हो जाता है।

उपयोगिता

  • यह ध्रुवीय प्रदेशों में यातायात मार्ग प्रदर्शित करने के लिए एक उपयोगी प्रक्षेप है।
  • 70° से ध्रुवों तक के मध्य दैनिक मौसम मानचित्रों के प्रदर्शन के लिए उत्तम प्रक्षेप है।

प्रश्न 7
प्र० भि० 1 : 12,50,00,000 पर एक बोन प्रक्षेप का रेखाजाल तैयार कीजिए जिसमें प्रक्षेपान्तर 15°, देशान्तरीय विस्तार 60° पश्चिम से 60° पूरब एवं प्रामाणिक अक्षांश 45° उत्तर हो। इस प्रक्षेप की विशेषताएँ, गुण, दोषों एवं उपयोगिता पर भी प्रकाश डालिए।
उत्तर

बोन प्रक्षेप
Bonne’s Projection

यह एक परिष्कृत शंक्वाकार प्रक्षेप है। इस प्रक्षेप में अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के मध्य की दूरी इस प्रकार निश्चित की जाती है कि यह एक समक्षेत्रफल प्रक्षेप बना रहे। इस प्रक्षेप की रचना फ्रांसीसी मानचित्रकार रिगोबर्ट बोन ने की थी जिनके नाम पर इसका नाम बोन प्रक्षेप पड़ा। इसे ‘बोन का समक्षेत्रफल प्रक्षेप’ भी कहते हैं। इस प्रक्षेप में अक्षांश रेखाएँ, एक प्रामाणिक अक्षांश वाले साधारण शंक्वाकार प्रक्षेप की भाँति एक केन्द्र से खींची गयी वृत्त के चाप की होती हैं, परन्तु इस प्रक्षेप में किसी विशिष्ट अक्षांश को ही प्रामाणिक अक्षांश नहीं माना जाता है, अपितु इसका चुनाव स्वेच्छा से कहीं भी किया जा सकता है। प्रत्येक अक्षांश पर देशान्तरों की दूरी इस प्रकार निश्चित की जाती है कि इसमें समक्षेत्रफलै’को गुण आ जाता है। किसी भी अक्षांश को प्रामाणिक अक्षांश मान लेने का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह मध्य अक्षांशों के साथ-साथ निम्न अक्षांशों के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो सकता है। इसमें देशान्तर रेखाएँ वक्र रेखाएँ होती हैं। इस पर क्षेत्रफल शुद्ध रहता है।

रचना-विधि – घटाये गये ग्लोब का अर्द्धव्यास
= [latex s=2]\frac { 62,50,00,000 }{ 12,50,00,000 } [/latex] = 5 सेमी या 2 इंच

एक ड्राइंगशीट के बायीं ओर 5 सेमी अर्द्धव्यास लेकर वृत्त का एक चौथाई भाग अ ब स बनाकर उस पर 15° के अन्तर पर कोण खींचे। अ स लम्ब को ऊपर की ओर बढ़ाया। प्रामाणिक अक्षांश 45° पर च छ स्पर्श रेखा खींची जो अ स लम्ब रेखा को छ बिन्दु पर काटती है। ब द की दूरी परकार में भरकर अ बिन्दु को केन्द्र मानकर वृत्त का एक चाप घुमाया तथा सभी कोणों को काटने वाले बिन्दुओं से अ ब के समानान्तर 5 रेखाएँ खींची।
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इस प्रक्रिया के पश्चात् ड्राइंगशीट के दायीं ओर एक सरल रेखा खींचकर उसके शीर्ष बिन्दु य से वृत्तांश की स्पर्श रेखा च छ के बराबर एक चाप खींचा। ब द की दूरी परकार में लेकर र बिन्दु से ऊपर दो। चिह्न तथा नीचे की ओर तीन चिह्न लगाये और य बिन्दु को ही केन्द्र मानकर इन पाँचों चिह्नों से चाप घुमाये। ये चाप क्रमशः 0° से 75° उत्तरी अक्षांशों को प्रकट करते हैं। प्रक्षेप की रचना में प्रत्येक अक्षांश पर भिन्न-भिन्न देशान्तरीय दूरी निश्चित करने के लिए प्रत्येक अक्षांश रेखा को प्रामाणिक अक्षांश मानकर दो प्रामाणिक अक्षांशों की भाँति वृत्तांश अ ब स के अन्दर अ ब के समानान्तर खींची गयी रेखाओं की सहायता से प्रत्येक अक्षांश की दूरी परकार में लेकर चार-चार चिह्न केन्द्रीय मध्याह्न रेखा के दोनों ओर अंकित किये तथा इन चिह्नों को मिलाते हुए वक्र रेखाएँ खींच दीं। इन वक्र रेखाओं को खींचने में फ्रेंच कर्व की सहायता ले लेनी चाहिए अथवा बाँस की सींक से भी यह कार्य किया जा सकता है। रेखाजाल को अंशांकित कर दिया। इस प्रकार बोन के समक्षेत्रफल शंक्वाकार प्रक्षेप की रचना पूर्ण हो जाती है।

बोन प्रक्षेप की विशेषताएँ
Characteristics of Bonne’s Projection

  1. यह एक संशोधित शंक्वाकार प्रक्षेप है जिसमें देशान्तरीय स्थिति भिन्न प्रकार से निश्चित की जाती है।
  2. सभी अक्षांश रेखाएँ समकेन्द्रीय वृत्त की चाप रेखाएँ होती हैं तथा इनके मध्य की दूरी समान होती है।
  3. देशान्तर रेखाओं में केन्द्रीय मध्याह्न रेखा ही सरल रेखा होती है; अत: इसे ही अक्षांश रेखाएँ समकोण पर काटती हैं। अन्य सभी देशान्तर रेखाएँ वक्राकार होने के कारण अक्षांशों को तिरछा काटती हैं। इसके बाह्य भागों में तिरछापन बढ़ता जाता है।
  4. प्रक्षेप का अर्द्धव्यास ज्ञात करने के लिए प्रामाणिक अक्षांश पर स्पर्श रेखा खींचनी पड़ती है। अत: किसी भी अक्षांश को प्रामाणिक अक्षांश माना जा सकता है।
  5. वक्राकार देशान्तर होने का महत्त्वपूर्ण कारण प्रत्येक अक्षांश को समान महत्त्व दिया जाना है। देशान्तरों के मध्य की दूरी लघु वृत्तांश पर लम्बे डालकर ज्ञात की जाती है।
  6. प्रक्षेप में अक्षांश रेखाओं की लम्बाई ग्लोब के समानुपाती रहती है। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय देशान्तर पर अक्षांश के बीच का अन्तर भी शुद्ध रहता है। इसी कारण यह एक समक्षेत्रफल प्रक्षेप है।
  7. प्रामाणिक अक्षांश के समीप स्थित देशों का क्षेत्रफल शुद्ध रहने के साथ-साथ इसमें आकृति भी शुद्ध रहती है। इसी कारण इस प्रक्षेप पर मध्य देशान्तर एवं प्रामाणिक अक्षांश निश्चित कर एक गोलार्द्ध के अधिकांश देशों को प्रदर्शित किया जा सकता है।
  8. इस प्रक्षेप में सर्वत्र आकृति एवं दिशा शुद्ध नहीं रहती है। केन्द्रीय भाग से दूर जाने पर विकृति आती जाती है।
  9. मध्य देशान्तर पर मापक शुद्ध रहता है। बाहर की ओर अशुद्धि आ जाती है। प्रक्षेप में सभी अक्षांशों पर मापक शुद्ध रहता है।

गुण

  • केन्द्रीय देशान्तर पर मापक शुद्ध होता है।
  • प्रक्षेप में अक्षांश रेखाओं की लम्बाई ग्लोब के समानुपाती होती है। अत: यह एक शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप है।
  • प्रामाणिक अक्षांश रेखा पर आकृति शुद्ध रहती है।

अवगुण 

  • यह शुद्ध दिशा प्रक्षेप नहीं है।
  • केवल मध्य देशान्तर पर ही मापक शुद्ध रहता है। पूरब तथा पश्चिम की ओर जाने पर उसमें अशुद्धियाँ बढ़ती जाती हैं।
  • प्रामाणिक अक्षांश रेखा से दूर जाने पर आकृति बिगड़ती जाती है।

उपयोगिता – समक्षेत्रफल; प्रक्षेप होने तथा अधिकांश भागों में मापक शुद्ध रहने के कारण लघु मापक पर बनाये गये। इस प्रक्षेप पर देशों एवं महाद्वीपों के मानचित्र बराबर बनाये जा रहे हैं। युरोप, एशिया के अधिकांश भाग, उत्तरी अमेरिका एवं उसके देशों के लिए या एक गोलार्द्ध के मानचित्र के लिए यह एक उपयोगी प्रक्षेप है।

एटलस में भी इस प्रक्षेप को विभिन्न मानचित्रों के लिए आधार प्रक्षेप माना जाता है। ध्रुवीय प्रदेशों को इस पर प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है।
भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, मिस्र जैसे देशों के मानचित्रों के लिए यह बहुत ही उपयोगी प्रक्षेप है। परन्तु रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि देशों के लिए यह उपयोगी प्रक्षेप नहीं है। मध्यम आकार के देशों के वितरण मानचित्रों के लिए यह बहुत ही उपयुक्त प्रक्षेप है।

मौखिक परिक्षा: सम्भावित प्रश्न

प्रश्न 1
प्रक्षेप से क्या अभिप्राय है?
उत्तर
ग्लोब की अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं को समतल कागज पर प्रदर्शित करने की विधि को प्रक्षेप कहते हैं।

प्रश्न 2
रेखाजाल किसे कहते हैं?
उत्तर
अक्षांश एवं देशान्तर रेखाओं के समतल कागज पर प्रक्षेपित करने से रेखाओं का जो जाल निर्मित होता है, रेखाजाल कहलाता है।

प्रश्न 3
प्रक्षेप का प्रयोग क्यों किया जाता है?
उत्तर
प्रक्षेप का प्रयोग वृत्ताकार पृथ्वी (Spheroid earth) को समतल कागज पर प्रदर्शित करने। हेतु किया जाता है।

प्रश्न 4
प्रकाश की दृष्टि से प्रक्षेप कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर
प्रकाश की दृष्टि से प्रक्षेप निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं –

  1. सन्दर्श प्रक्षेप (Perspective Projection)।
  2. असन्दर्श प्रक्षेप (Non-perspective Projection)।

प्रश्न 5
उपयोग की दृष्टि से प्रक्षेप कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर
उपयोग की दृष्टि से प्रक्षेप निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं –

  1. शुद्ध क्षेत्रफल प्रक्षेप (Equal Area Projection)।
  2. शुद्ध आकृति प्रक्षेप (True Shape Projection)।
  3. शुद्ध दिशा प्रक्षेप (True Bearing Projection)।

प्रश्न 6
अक्षांश रेखाएँ किन्हें कहते हैं?
उत्तर
विषुवत रेखा से उत्तर तथा दक्षिण की ओर ध्रुवों तक मापी जाने वाली काल्पनिक कोणात्मक दूरियों को अक्षांश रेखाएँ कहते हैं।

प्रश्न 7
देशान्तर रेखाएँ किन्हें कहते हैं?
उत्तर
देशान्तर रेखाएँ वे काल्पनिक रेखाएँ होती हैं जो उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से मिलाती हैं।

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प्रश्न 8
समक्षेत्रफल बेलनाकार प्रक्षेप का क्या उपयोग है?
उत्तर
इस प्रक्षेप का उपयोग विषुवतीय प्रदेशों तथा उनके समीपवर्ती भू-भागों के वितरण मानचित्रों के लिए किया जाता है। विश्व में गन्ना, चावल, चाय, रबड़, कहवा आदि का उत्पादन एवं वितरण इस प्रक्षेष पर प्रकट किया जाता है।

प्रश्न 9
प्रामाणिक अक्षांश रेखा किसे कहते हैं?
उत्तर
शंक्वाकार कागज ग्लोब को जिस अक्षांश पर स्पर्श करता है, उसे प्रामाणिक अक्षांश रेखा कहते हैं।

प्रश्न 10
बोन प्रक्षेप के आविष्कारक कौन थे?
उत्तर
बोन प्रक्षेप का आविष्कार फ्रांसीसी मानचित्रकार रिगोबर्ट बोन ने सन् 1772 ई० में किया था।

प्रश्न 11
ध्रुवीय शिरोबिन्दु प्रक्षेप को ध्रुवीय शिरोबिन्दु प्रक्षेप क्यों कहा जाता है?
उत्तर
समतल कागज का ग्लोब को ध्रुवों पर स्पर्श करने के कारण इसका नाम ध्रुवीय शिरोबिन्दु प्रक्षेप रखा गया है।

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 1 Map Projections

प्रश्न 12
शीतोष्ण कटिबन्धीय लघु आकार वाले देशों के मानचित्र किस प्रक्षेप पर बनाये जा सकते हैं?
उत्तर
दो प्रामाणिक अक्षांश शंक्वाकार प्रक्षेप तथा बोन प्रक्षेप पर शीतोष्ण कटिबन्धीय लघु आकार वाले देशों के मानचित्र बनाये जा सकते हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 12 Disasters Having Effect on Environment

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 12 Disasters Having Effect on Environment (पर्यावरण को प्रभावित करने वाली आपदाएँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 12 Disasters Having Effect on Environment (पर्यावरण को प्रभावित करने वाली आपदाएँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 12
Chapter Name Disasters Having Effect on Environment
(पर्यावरण को प्रभावित करने वाली आपदाएँ)
Number of Questions Solved 50
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 12 Disasters Having Effect on Environment (पर्यावरण को प्रभावित करने वाली आपदाएँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
आपदाओं से आप क्या समझते हैं? आपदाओं के विभिन्न प्रकारों का सामान्य परिचय दीजिए।  [2013]
या
मानव-जनित आपदा का अर्थ स्पष्ट कीजिए। [2013]
उत्तर :
इस जगत् में घटित होने वाली असंख्य घटनाओं की निरन्तरता ही जीवन है। घटनाएँ असंख्य प्रकार की होती हैं। कुछ घटनाएँ सामान्य जीवन की प्रेगति के मार्ग पर अग्रसर होने में सहायक होती हैं, जब कि कुछ अन्य घटनाएँ बाधक होती हैं। सामान्य जीवन की गति को अवरुद्ध करने वाली घटनाओं को हम दुर्घटना की श्रेणी में रखते हैं। जब कुछ दुर्घटनाएँ व्यापक तथा विकराल रूप में घटित होती हैं तो उन्हें हम आपदा’ या ‘विपत्ति’ कहते हैं। सामान्य रूप से जब गम्भीर आपदा या विपत्ति की बात की जाती है तो हमारा आशय मुख्य रूप से उन प्राकृतिक घटनाओं से होता है जो जनजीवन एवं सम्पत्ति आदि पर गम्भीर, प्रतिकूल या विनाशकारी प्रभाव डालती हैं।

प्राकृतिक आपदाओं के मुख्य रूप या प्रकार हैं- भूकम्प, बाढ़, सूखा, भूस्खलन, ज्वालामुखी का फटना, तूफान, समुद्री तूफान, ओलावृष्टि, बादल फटना, सूनामी या समुद्री लहरें, उल्कापात, महामारियाँ। इन सभी प्राकृतिक आपदाओं का यदि विश्लेषण किया जाए तो हम कह सकते हैं। कि उन विषम या  प्रतिकूल प्रभाव वाली दशाओं को आपदाएँ कहा जाता है जो मनुष्यों, जीव-जगत् तथा सामान्य जनजीवन को व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं तथा पहले से चली आ रही जीवन सम्बन्धी सामान्य गतिविधियों में बाधा डालती हैं। इस तथ्य को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है, “उन समस्त दशाओं को आपदा कहा जाता है, जिनमें मनुष्य तथा जैव समुदाय, प्राकृतिक, मानवीय, पर्यावरणीय या सामाजिक कारणों से गम्भीर जान-माल की क्षति सहन करने के लिए बाध्य हो जाता है।”

हिन्दी भाषा में प्रयोग होने वाला ‘आपदा’ शब्द का अंग्रेजी पर्याय Disaster है। अंग्रेजी भाषा का यह शब्द वास्तव में फ्रेंच भाषा के शब्द Desastre से लिया गया है, जिसका आशय गृह से है। प्राचीन विश्वासों के अनुसार प्राकृतिक आपदाएँ कुछ अनिष्टकारी तारों या ग्रहों के प्रतिकूल प्रभाव के कारण उत्पन्न होती हैं। वर्तमान वैज्ञानिक खोजों ने इस प्राचीन विश्वास को खण्डित कर दिया है। अब यह जान लिया गया है कि प्राय: सभी आपदाएँ अपने आप में प्राकृतिक घटनाएँ ही हैं तथा उनके कारण भी प्राकृतिक ही होते हैं।

प्राकृतिक आपदाएँ उन गम्भीर प्राकृतिक घटनाओं को कहा जाता है, जिनके प्रभाव से हमारे सामाजिक ढाँचे व विभिन्न व्यवस्थाओं को गम्भीर क्षति पहुँचती है। इनसे मनुष्यों एवं अन्य जीव-जन्तुओं को जीवन समाप्त हो जाता है तथा हर प्रकार की सम्पत्ति को भी नुकसान होता है। इस प्रकार की आपदाओं से मनुष्यों का सामाजिक-आर्थिक जीवन भी अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसे में। जनजीवन को पुन: सामान्य बनाने के लिए तथा पुनर्वास के लिए व्यापक स्तर पर बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में विश्व-मानव प्राकृतिक आपदाओं के प्रति पर्याप्त सचेत है तथा इन अवसरों पर विश्व के कोने-कोने से सहायता एवं सहानुभूति प्राप्त हो जाती है।

आपदाओं के प्रकार
यह सत्य है कि गम्भीर एवं व्यापक आपदाएँ मुख्य रूप से प्राकृतिक कारकों से ही उत्पन्न होती हैं। परन्तु कुछ आपदाएँ अन्य कारकों के परिणामस्वरूप भी उत्पन्न हो सकती हैं। इस स्थिति में आपदाओं के व्यवस्थित अध्ययन के लिए आपदाओं का समुचित वर्गीकरण करना भी आवश्यक माना जाता है।आपदाओं के मुख्य प्रकार या वर्ग निस्नलिखित हो सकते हैं|

1. आकस्मिक रूप से घटित होने वाली आपदाएँ :
कुछ आपदाओं के प्रकार आपदाएँ या प्राकृतिक घटनाएँ ऐसी हैं जो एकाएक या आकस्मिक रूप से घटित हो जाती हैं तथा अल्प समय में ही गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव डाल देती हैं। इनकी न तो कोई पक्की पूर्वसूचना होती है और न निश्चित भविष्यवाणी ही की जा सकती है। इस वर्ग की आपदाओं को आकस्मिक रूप से घटित होने वाली आपदाएँ कहा जाता है। इस वर्ग की मुख्य हैं-भूकम्प, ज्वालामुखी का विस्फोट, आपदाएँ सूनामी, बादल का फटना, चक्रवातीय तूफान, भूस्खलन तथा हिम की आँधी। इन आपदाओं के प्रति सचेत न होने के कारण जान-माल की भारी क्षति हो जाती है।

2. धीरे-धीरे अथवा क्रमश :
आने वाली आपदाएँ-दूसरे वर्ग में उन आपदाओं को सम्मिलित किया जाता है जो आकस्मिक रूप से नहीं बल्कि धीरे-धीरे आती हैं तथा उनकी गम्भीरता क्रमश: बढ़ती है। इस वर्ग की आपदाओं की समुचित पूर्व-सूचना होती है तथा उनकी भावी गम्भीरता की भी भविष्यवाणी की जा सकती है। इस वर्ग की आपदाओं के पीछे प्राय: प्राकृतिक कारकों के साथ-ही-साथ मनुष्य के कुप्रबन्धेन या पर्यावरण के साथ छेड़-छाड़ सम्बन्धी कारक भी निहित होते हैं। इस वर्ग की मुख्य आपदाएँ हैं सूखा, अकाल, किसी क्षेत्र का मरुस्थलीकरण, मौसम एवं जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन, कृषि पर कीड़ों का प्रभाव तथा पर्यावरण प्रदूषण। इन आपदाओं का मुकाबला किया जा सकता है तथा इन्हें नियन्त्रित करने के भी उपाय किये जा सकते हैं।

3. मानव-जनिता अथवा सामाजिक आपदाएँ :
तीसरे वर्ग की आपदाओं को हम मानव-जनित अथवा सामाजिक आपदाएँ कहते हैं। इस प्रकार की आपदाओं के लिए कोई भी प्राकृतिक कारक जिम्मेदार नहीं होता बल्कि ये आपदाएँ मानवीय लापरवाही, कुप्रबन्धन, षड्यन्त्र अथवा समाज-विरोधी तत्त्वों की गतिविधियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। इस वर्ग की आपदाओं में मुख्य हैं युद्ध, दंगा, आतंकवाद, अग्निकाण्ड, सड़क दुर्घटनाएँ, वातावरण को दूषित करना तथा जनसंख्या विस्फोट आदि। इस वर्ग की आपदाओं को विभिन्न प्रयासों एवं जागरूकता से नियन्त्रित किया जा सकता है।

4. जैविक आपदाएँ या महामारी :
चतुर्थ वर्ग की आपदाओं में उन आपदाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनका सम्बन्ध मनुष्यों के शरीर एवं स्वास्थ्य से होता है। साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि व्यापक स्तर पर फैलने वाले संक्रामक एवं घातक रोगों को इस वर्ग की आपदा माना जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक समय था जब प्लेग, हैजा, चेचक आदि संक्रामक रोग प्रायः गम्भीर आपदा के रूप में देखे जाते थे। इन रोगों के प्रकोप से प्रतिवर्ष लाखों व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती थी। वर्तमान समय में एड्स, तपेदिक तथा हेपेटाइटिस-बी जैसे रोगों को जैविक आपदा के रूप में देखा जा रहा है।

प्रश्न 2
आग लगना या अग्निकाण्ड किस प्रकार की आपदा है? इसके कारणों, बचाव तथा सम्बन्धित प्रबन्धन के उपायों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
सभ्य मानव-जीवन तथा आग का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सभ्यता के विकास से पूर्व मनुष्य आग से परिचित नहीं था। वह आग जलाना नहीं जानता था। इस ज्ञान के अभाव में वह जंगल के कन्द-मूल, फल तथा पशुओं का कच्चा मांस खाकर ही जीवन-यापन करता था। स्पष्ट है कि आग जलाने के ज्ञान के अभाव में व्यक्ति का जीवन पशु-तुल्य ही था। जैसे ही मनुष्य ने आग जलाना सीख लिया, वैसे ही उसने सभ्यता के मार्ग पर अग्रसर होना प्रारम्भ कर दिया। आज हमारे जीवन की असंख्य गतिविधियाँ आग पर। ही निर्भर हैं।

सर्वप्रथम हमारी आहार या भोजन पूर्ण रूप से आग (ताप) पर ही निर्भर है। पाक-क्रिया की चाहे जिस विधि को अपनाया जाए, प्रत्येक दशा में ताप अर्थात् आग एक अनिवार्य कारक है। इस प्रकार आग हमारे रसोईघर का अनिवार्य साधन है। आहार के अतिरिक्त जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में भी आग की महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य भूमिका है। औद्योगिक क्षेत्र में, परिवहन एवं यातायात के क्षेत्र में भी आग या ईंधन को अनिवार्य कारक माना जाता है। इस बँकार स्पष्ट है कि आगे एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल कारक है जो मानव-जीवन के लिए उपयोगी एवं सहायक है।

अग्नि का उपयोग मानव आदिकाल से कर रहा है। अग्नि यदि नियन्त्रण में रहे तो मानव की सबसे अच्छी सेवक व मित्र है। मानव के लिए यह ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। यदि मानव के नियन्त्रण से अग्नि निकल जाए, तो यह विनाशकारी रूप धारण कर लेती है। उस अवस्था में यह मानव की सबसे बड़ी शत्रु और संहारक बन जाती है। प्रत्येक वर्ष अग्नि लाखों लोगों के प्राण लेती है तथा लाखों को विकलांग बना देती है।

लाखों इमारतें तथा अनेक वन प्रतिवर्ष अग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं। एक बार अग्नि अपनी जकड़ बना ले तो इसको नियन्त्रित करना आसान नहीं होता। आग के अनियन्त्रित रूप को ‘आग लगना’ या अग्निकाण्ड कहा जाता है। आग लगना भी एक गम्भीर आपदा है। यह एक ऐसी आपदा है जो किसी-न-किसी रूप में मनुष्य द्वारा उत्पन्न की गयी आपदा है। आग लगना प्राकृतिक आपदा नहीं है। यह मानवकृत आपदा है। यह लापरवाही से, दुर्घटनावश अथवा दुर्भावनाजनित भी हो सकती है।

अग्निकाण्ड के कारण
आग लगने के लिए तीन बातों का एक स्थान पर होना। अग्निकाण्ड के कारण आवश्यक है। ये हैं

  1. ऑक्सीजन गैस।
  2. ईंधन; जैसे – पेट्रोल, कागज, लकड़ी आदि।
  3. ऊष्मा। ऊष्मा शेष दो वस्तुएँ एक साथ हों, तो अग्नि को फाटण जन्म देती हैं। आग लगने के मुख्य कारण हैं

1. मानवे लापरवाही

  1. घर पर हम आग का प्रयोग खाना पकाने के लिए करते हैं। खाना पकाते समय ढीले-ढाले तथा ज्वलनशील कपड़े पहनने पर बहुधा आग लग जाती है। महिलाएँ अक्सर साड़ी या चुनरी पहन कर खाना बनाती हैं और इसी कारण वे रसोईघर में आग पकड़ लेती हैं तथा इसका शिकार हो जाती हैं।
  2. हमें धूम्रपान करने के लिए अक्सर माचिस को जलाते हैं। सिगरेट-बीड़ी सुलगा लेने पर जलती हुई तिल्ली को बिना सोचे-समझे इधर-उधर फेंक देते हैं। इसके कारण भी आग लग जाती है।
  3. कभी-कभी हम घर पर कपड़ों पर बिजली की इस्तरी करते-करते, इस्तरी को बिना बन्द किये उसे खुला छोड़कर किसी और काम में लग जाते हैं। परिणामस्वरूप गर्म इस्तरी कपड़ों में आग लगा देती
  4. त्योहारों और खुशी के अन्य अवसरों पर नवयुवक व बच्चे आतिशबाजी चलाते हैं। यह आतिशबाजी भी आग लगने का कारण बन जाती है।
  5.  प्रायः झुग्गी-झोंपड़ियों में आग लग जाया करती है। यह भी लापरवाही के ही कारण लगती है।

2. बिजली के दोषपूर्ण उपकरण व फिटिंग

  1. बिजली सम्बन्धी दोषपूर्ण वायरिंग, शॉर्ट सर्किट व ओवरलोड आग लगने के कारण हैं। दुकानों व वर्कशॉपों में, जो रात को बन्द रहते हैं तथा कोई व्यक्ति उनकी देखभाल नहीं करता, अक्सर, शॉर्ट सर्किट से आग लगने की दुर्घटनाएँ होती हैं।
  2. दोषपूर्ण तथा अनाधिकृत विद्युत उपकरण भी आग लगने के कारण हैं। मल्टी प्वाइंट अडॉप्टर भी शीघ्र गर्म हो जाने के कारण आग पकड़ लेते हैं।

3. ज्वलनशील पदार्थों के प्रति लापरवाही
कुछ पदार्थ ऐसे हैं जो अत्यन्त ज्वलनशील हैं; जैसे–पेट्रोल, सरेस, ग्रीस तथा ज्वलनशील गैसें। इनके भण्डारण में लापरवाही के कारण प्रायः आग लग जाती है।

4. अन्य कारण
(i) आज के आतंकवादी समय में शरारती तत्त्व भी आगजनी करते हैं। वे बहुधा धार्मिक स्थलों, बाजारों व बस्तियों में आग लगा देते हैं।
(ii) वनों की आग का मुख्य कारण जैचिक अथवा मानव-जनित लापरवाही है। बाँस के वनों में आपसी घर्षण से उत्पन्न चिंगारी द्वारा अथवा थण्डरबोल्ट से भी दावाग्नि उत्पन्न हो जाती है।
(iii) वनाग्नि कभी-कभी निम्नलिखित व्यक्तियों द्वारा लगाई जाती है

(क) शहद निकालने वाले श्रमिक
(ख) शाक-बीज एकत्र करने वाले श्रमिक
(ग) अवैध कटान को छिपाने वाले व्यक्ति
(घ) अवैध शिकारी
(ङ) वन भूमि पर अतिक्रमण करने वाले व्यक्ति।

आग से बचाव

  1. हमें आग से बचाव के नियमों का सख्ती से पालन करना चाहिए।
  2. हमें अपने कार्यस्थल, घर (विशेषकर रसोई में), फैक्ट्री आदि में अग्निशमन उपकरण लगाने चाहिए।
  3. घर में ज्वलनशील पदार्थों का भण्डारण नहीं करना चाहिए। यदि यह अपरिहार्य हो, तो पूरी सावधानी बरतनी चाहिए।
  4. रसोई में खाना पकाते समय कृत्रिम रेशों के ज्वलनशील कपड़े व ढीले-ढाले कपड़े नहीं पहनने चाहिए।
  5. बिजली के I.S.I. मार्का उपकरण ही प्रयोग करने चाहिए तथा बिजली के तारों की फिटिंग भी निपुण व्यक्ति से करोनी चाहिए।
  6. जलती हुई बीड़ी, सिगरेट व माचिस की तीली इधर-उधर नहीं फेंकनी चाहिए। इन्हें बुझाकर फेंकने की ही आदत डालनी चाहिए।
  7. बिजली के उपकरणों को सावधानीपूर्वक प्रयोग करना चाहिए।
  8. आतिशबाजी खुले स्थान पर सावधानीपूर्वक की जानी चाहिए।
  9. घर से बाहर जाने से पहले बिजली तथा गैस के सभी उपकरण बन्द कर देने चाहिए।

आग लगने पर प्रबन्धन :
यदि आग लग जाए तो उसके कारण क्षति को कम करने तथा उसकी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. आग बुझाना एक खतरनाक काम है। इसके लिए तभी प्रयास करें जब आपका जीवन खतरे में न पड़े।
  2. सर्वप्रथम आग में फंसे व्यक्ति को वहाँ से निकालना चाहिए।
  3. 101 पर फोन करके फायर ब्रिगेड को बुलाना चाहिए तथा आग की सूचना आस-पास के व्यक्तियों को शोर मचाकर दे देनी चाहिए।
  4. यदि आग छोटी है तो अग्निशमन उपकरण का प्रयोग करना चाहिए।
  5. यदि आग फैल चुकी है तो उस स्थान से निकलकर सुरक्षित जगह आ जाना चाहिए।
  6. आग लगने के स्थान की बिजली आपूर्ति बन्द कर देनी चाहिए।
  7. आग के धुएँ से दूर रहना चाहिए अन्यथा आपका दम घुट सकता है।
  8. बिजली के जलते हुए उपकरणों पर पानी मत डालिए, बल्कि रेत व मिट्टी डालिए। आग बुझने के पश्चात् निम्नलिखित बातों का ध्यान रखिए
    • आग लगने के कारणों का पता लगाइए।
    • घायल व्यक्ति के उपचार का प्रबन्ध कीजिए।
    • भविष्य में आग से बचने के लिए आवश्यक उपाय कीजिए।
    • अग्निशमन उपकरण, पंखों और बिजली के तारों का पूरा निरीक्षण कीजिए। जहाँ कहीं कोई दोष मिले, उसे दूर कीजिए।

प्रश्न 3
सूखा नामक आपदा से आप क्या समझते हैं। इसके मुख्य कारणों तथा सूखा शमन की युक्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सूखा : एक आपदा
सूखा वह स्थिति है जिसमें किसी स्थाने पर अपेक्षित तथा सामान्य वर्षा से कहीं कम वर्षा पड़ती है। यह स्थिति एक लम्बी अवधि तक रहती है। सूखा गर्मियों में भयंकर रूप धारण कर लेता है जब सूखे के साथ-साथ ताप भी आक्रमण करता है। सूखा मानव, वनस्पति व पशु-पक्षियों को भूखा मार देता है। सूखे की स्थिति में कृषि, पशुपालन तथा मनुष्यों को सामान्य आवश्यकता से कम जल प्राप्त होता है।

शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क प्रदेशों में सूखा एक सामान्य समस्या है, किन्तु पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र भी इससे अछूते नहीं हैं। मानसूनी वर्षा के क्षेत्र सूखे से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। सूखी एक मौसम सम्बन्धी आपदा है तथा किसी अन्य विपत्ति की अपेक्षा अधिक धीमी गति से आती है।

सूखा के कारण
यूँ तो सूखा के अनेक कारण हैं, परन्तु प्रकृति तथा मानव दोनों ही इसके मूल में हैं। सूखा के कारण इस प्रकार हैं
1. अत्यधिक चराई तथा जंगलों की कटाई :
अत्यधिक । सूखा के कारण चराई तथा जंगलों की कटाई के कारण हरियाली की पट्टी धीरे-धीरे समाप्त हो रही है, परिणामस्वरूप वर्षा कम मात्रा में होती है। यदि होती भी है, तो जले भूतल पर तेजी से बह जाता है। इसके कारण मिट्टी का कटाव होता है तथा सतह से नीचे जल-स्तर कम हो जाता है, परिणामस्वरूप कुएँ, नदियाँ और जलाशय सूखने लगते हैं।

2. ग्लोबल वार्मिंग :
ग्लोबल वार्मिंग वर्षा की प्रवृत्ति में वर्षा का असमान वितरण बदलाव का कारण बन जाती है। परिणामस्वरूप वर्षा वाले क्षेत्र । सूखाग्रस्त हो जाते हैं।

3. कृषि योग्य समस्त भूमि का उपयोग :
बढ़ती हुई आबादी के लिए खाद्य-सामग्री उगाने के लिए लगभग समस्त कृषि योग्य भूमि पर जुताई व खेती की जाने लगी है। परिणामस्वरूप मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है तथा वह रेगिस्तान में परिवर्तित होती जा रही है। ऐसी स्थिति में वर्षा की थोड़ी कमी भी सूखे का कारण बन जाती है।

4. वर्षा का असमान वितरण :
दोनों तरीके से व्याप्त है। विभिन्न स्थानों पर न तो वर्षा की मात्रा समान है और न ही अवधि। हमारे देश में कुल जोती जाने वाली भूमि का लगभग 70 प्रतिशत भाग सूखा सम्भावित क्षेत्र है। इस क्षेत्र में यदि कुछ वर्षों तक लगातार वर्षा न हो तो सूखे की अत्यन्त दयनीय स्थिति पैदा हो जाती है।

सूखा शमन की प्रमुख युक्तियाँ (साधन)

1. हरित पट्टियाँ :
हरित पट्टी कालान्तर में वर्षा की मात्रा में सूखा शमन की प्रमुख युक्तियाँ वृद्धि तो करती ही है, साथ में ये वर्षा जल को रिसकर भूतल के (साधन) नीचे जाने में सहायक भी होती हैं। परिणामस्वरूप कुओं, तालाबों आदि में जल-स्तर बढ़ जाता है और मानव उपयोग के लिए अधिक जल उपलब्ध हो जाता है।
2. जल संचय :
वर्षा कम होने की स्थिति में जल आपूर्ति को बनाये रखने के लिए, जल को संचय करके रखना एक दूरदर्शी युक्ति है। जल का संचय बाँध बनाकर या तालाब बनाकर किया जा सकता है।

3. प्राकृतिक तालाबों का निर्माण :
यह भी सूखे की स्थिति से निबटने के लिए एक उत्तम उपाय है। प्राकृतिक तालाबों में जल संचय भू-जल के स्तर को भी बढ़ाता है।

4. विभिन्न नदियों को आपस में जोड़ना :
इससे उन क्षेत्रों में भी जल उपलब्ध किया जा सकता है जहाँ वर्षा का अभाव रहा हो। भारत सरकार नदियों को जोड़ने की एक महत्त्वाकांक्षी योजना अगस्त, 2005 ई० में प्रारम्भ कर चुकी है।

5. भूमि का उपयोग :
सूखा सम्भावित क्षेत्रों में भूमि उपयोग पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है, विशेषकर हरित पट्टी बनाने के लिए कम-से-कम 35 प्रतिशत भूमि को आरक्षित कर दिया जाना चाहिए। इस भूमि पर अधिकाधिक वृक्षारोपण कियेर जाना चाहिए।

प्रश्न 4
बाढ़ से आप क्या समझते हैं? बाढ़ के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए तथा बाढ़ शमन की प्रमुख युक्तियों का भी वर्णन कीजिए।
उत्तर :
बाढ़ : एक प्राकृतिक आपदा
बाढ़ को अर्थ किसी क्षेत्र में निरन्तर वर्षा होने या नदियों का जल फैल जाने से उस क्षेत्र का जलमग्न होना है। वर्षाकाल में अधिक वर्षा होने पर नदी प्राय: अपने सामान्य जल-स्तर से ऊपर बहने लगती है। उनका जल तटबन्धों को तोड़कर आस-पास के निम्न क्षेत्रों में फैल जाता है, जिससे वे क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। नदियों या धाराओं के मुहाने पर, तेज ढालों पर या जलमार्ग के अत्यन्त निकट बस्तियों को बाढ़ का खतरा बना रहता है।

बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है, किन्तु जब यह मानव-जीवन व सम्पत्ति को क्षति पहुँचाती है तो यह प्राकृतिक आपदा कहलाती है। बाढ़ों के कारण दामोदर नदी ‘बंगाल का शोक’, कोसी ‘बिहार का शोक तथा ब्रह्मपुत्र ‘अंसम का शोक’ कहलाती है। ह्वांग्हो नदी चीन का शोक’ कहलाती है।

बाढ़ के कारण

1. निरन्तर भारी वर्षा :
जब किसी क्षेत्र में निरन्तर भारी वर्षा होती है तो वर्षा का जल धाराओं के रूप में मुख्य नदी में मिल जाता है। यह जल नदी के तटबन्धों को तोड़कर आस-पास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देता है। भारी मानसूनी वर्षा तथा चक्रवातीय वर्षा बाढ़ों के प्रमुख बाढ़ के कारण कारण हैं।

2. भूस्खलन :
भूस्खलन भी कभी-कभी बाढ़ों का कारण बनते हैं। भूस्खलन के कारण नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। परिणामस्वरूप नदी का जल मार्ग बदल कर आस-पास के क्षेत्रों कोजलमग्न कर देता है।

3. वन-विनाश :
वन पानी के वेग को कम करते हैं। नदी के बर्फ की पिघलना ऊपरी भागों में बड़ी संख्या में वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई से भी। बाढ़े आती हैं। हिमालय में बड़े पैमाने पर वन विनाश ही हिमालय-नदियों में बाढ़ का मुख्य कारण है।

4. दोषपूर्ण जल निकास प्रणाली :
मैदानी क्षेत्रों में उद्योगों और बहुमंजिले मकानों की परियोजनाएँ बाढ़े की सम्भावना को बढ़ाती हैं। इसका कारण यह है कि पक्की सड़कें, नालियाँ, निर्मित क्षेत्र, पक्के पार्किंग स्थल आदि के कारण यहाँ जल रिसकर भू-सतह के नीचे नहीं जा पाता। यहाँ पर जल निकास की भी पूर्ण व्यवस्था नहीं होने के कारण, वर्षा का पानी नीचे स्थानों पर भरता चला जाता है तथा बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

5. बर्फ को पिघलना :
सामान्य से अधिक बर्फ का पिघलना भी बाढ़ का एक कारण है। बर्फ के अत्यधिक पिघलने से, नदियों में जल की मात्रा उसी अनुपात में अधिक हो जाती है तथा नदियों का जल तट-बन्ध तोड़कर आस-पास के इलाकों को जलमग्ने कर देता है। देश भर में केन्द्रीय जल आयोग के लगभग 132 पूर्वानुमान केन्द्र हैं। ये केन्द्र देश में लगभग सभी बाढ़-सम्भावी नदियों पर नजर रखते हैं। जल-स्तरों पर खतरे का निशान चिह्नित होता है। खतरे वाले जल-स्तर बढ़ने के विषय में टी०वी०, रेडियो तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चेतावनी प्रसारित की जाती है। समय रहते ही बाढ़ सम्भावित क्षेञ को लोगों से खाली करा लिया जाता है।

बाढ़ शमन की प्रमुख युक्तियाँ

1. सीधा जलमार्ग :
बाढ़ की स्थिति में जलमार्ग को सीधा रखना चाहिए जिससे वह तेजी से एक सीमित मार्ग से बह सके। टेढ़ी-मेढ़ी धारों में बाढ़ की सम्भावना अधिक होती है।

2. जल मार्ग परिवर्तन :
बाढ़ के उन क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए जहाँ प्रायः बाढ़े आती हैं। ऐसे स्थानों से जल के मार्ग को मोड़ने के लिए कृत्रिम ढाँचे बनाये जाते हैं। यह कार्य वहाँ किया सीधा जलमार्ग जाता है जहाँ कोई बड़ा जोखिम न हो।

3. कृत्रिम जलाशयों का निर्माण :
वर्षा के जल से 9 कृत्रिम जलाशयों का निर्माण आबादी-क्षेत्र को बचाने के लिए कृत्रिम जलाशयों का निर्माण किया जाना चाहिए। इन जलाशयों में भण्डारित जल को बाद में सिंचाई अथवा पीने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इन जलाशयों में बाढ़ के जल को मोड़ने के लिए जल कपाट लगे होते है।

4. बाँध निर्माण :
आबादी वाले क्षेत्रों को बाढ़ से बचाने के लिए तथा जल का प्रवाह उस ओर रोकने के लिए रेत के थैलों का बाँध बनाया जा सकता है।

5. कच्चे तालाबों का निर्माण :
अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में कच्चे तालाबों का अधिक-से-अधिक निर्माण कराया जाना चाहिए। ये तालाब वर्षा के जल को संचित कर सकते हैं तथा संचित जल आवश्यकता के समय उपयोग में लाया जा सकता है।

6. नदियों को आपस में जोड़ना :
विभिन्न क्षेत्रों में बहने वाली नदियों को आपस में जोड़कर बाढ़ के प्रकोप को कम किया जा सकता है। अधिक जल वाली नदियों का जल कम जल वाली नदियों में चले जाने से बाढ़ की स्थिति से बचा जा सकता है।

7. बस्तियों का बुद्धिमत्तापूर्ण निर्माण :
बस्तियों का निर्माण नदियों के मार्ग से हटकर किया जाना चाहिए। नदियों के आस-पास अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में, सुरक्षा के लिए मकान ऊँचे चबूतरों पर बनाये जाने चाहिए।

प्रश्न 5
भूकम्प से आप क्या समझते हैं? भूकम्प के मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए। भूकम्प से होने वाली क्षति से बचाव के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भूकम्प : एक प्राकृतिक आपदा
भूकम्प भूतल की आन्तरिक शक्तियों में से एक है। भूगर्भ में प्रतिदिन कम्पन होते हैं। जब ये कम्पन तीव्र होते हैं तो ये भूकम्प कहलाते हैं। साधारणतया भूकम्प एक प्राकृतिक एवं आकस्मिक घटना है जो भू-पटल में हलचल पैदा कर देती है। इन हलचलों के कारण पृथ्वी अनायास ही वेग से काँपने लगती है जिसे भूचाल या भूकम्प कहते हैं। यह एक विनाशकारी घटना है। 2011 में जापान में भूकम्प से 1,29,225 से ज्यादा इमारतों को भीषण नुकसान हुआ। इस भूकम्प की तीव्रता रिक्टर स्टेल पर 9 थी।।

1.भूकम्प मूल एवं भूकम्प केन्द्र :
भूगर्भ में भूकम्पीय लहरें चलती रहती हैं। जिस स्थान से इन लहरों का प्रारम्भ होता है, उसे भूकम्प मूल कहते हैं। जिस स्थान पर भूकम्पीय लहरों का अनुभव सर्वप्रथम किया जाता है, उसे अभिकेन्द्र या भूकम्प केन्द्र कहते हैं।

भूकम्प के कारण
भूगर्भशास्त्रियों ने भूकम्प के निम्नलिखित कारण बताये हैं
1. ज्वालामुखी उद्गार :
जब विवर्तनिक हलचलों के कारण भूगर्भ में गैसयुक्त द्रवित लावा भूपटल की ओर प्रवाहित होती है तो उसके दबाव से भू-पटल की शैलें हिल उठती हैं। यदि लावा के मार्ग में कोई भारी चट्टान की जाए तो प्रवाहशील लावा उस चट्टान को वेग से ढकेलता है, जिससे भूकम्प आ जाता है।

2. भू-असन्तुलन में अव्यवस्था :
भू-पटल पर विभिन्न बल समतल समायोजन में लगे रहते हैं। जिससे भूगर्भ की सियाल एवं सिमा की परतों में परिवर्तन होते रहते हैं। यदि ये परिवर्तन एकाएक तथा तीव्र हो जाएँ तो पृथ्वी का कम्पन प्रारम्भ हो जाता है तथा उस क्षेत्र में भूकम्प के झटके आने प्रारम्भ हो जाते हैं।

3. जलीय भार :
मानव द्वारा निर्मित जलाशय, झील अथवा तालाब के धरातल के नीचे की चट्टानों के भार एवं दबाव के कारण ज्वालापरवी मार अचानक परिवर्तन आ जाते हैं तथा इनके कारण ही भूकम्प आ जाता है। 1967 ई० में कोयना भूकम्प (महाराष्ट्र) कोयना जलाशय में जल भर जाने के कारण ही आया था।

4. भू-पटल में सिकुड़न :
विकिरण के माध्यम से भूगर्भ की गर्मी धीरे-धीरे कम होती रहती है जिसके कारण पृथ्वी की ऊपरी पपड़ी में सिकुड़न आती है। यह सिकुड़न पर्वत निर्माणकारी क्रिया को जन्म देती है। जब यह प्रक्रिया तीव्रता से होती है, तो भू-पटल पर कम्पन प्रारम्भ हो जाता है।

5. प्लेट विवर्तनिकी :
महाद्वीप तथा महासागरीय बेसिन विशालकाय दृढ़ भूखण्डों से बने हैं जिन्हें प्लेट कहते हैं। सभी प्लेटें विभिन्न गति से सरकती रहती हैं। कभी-कभी दो प्लेटें परस्पर टकराती हैं तब भूकम्प आते हैं। 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज क्षेत्र में उत्पन्न भूकम्प की उत्पत्ति का कारण प्लेटों का टकरा जाना ही था।

भूकम्प से भवन-सम्पत्ति की क्षति का बचाव
भूकम्प अपने आप में किसी प्रकार से नुकसान नहीं पहुँचाता, परन्तु भूकम्प के प्रभाव से हमारे भवन एवं इमारतें टूटने लगती हैं तथा उनके गिरने से जान-माल की अत्यधिक हानि होती है। अतः भूकम्प से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए भवन-निर्माण में ही कुछ सावधानियाँ अपनायी जानी चाहिए तथा आवश्यक उपाय किये जाने चाहिए।

1. भवनों की आकृति :
भवन का नक्शा साधारणतया आयताकार होना चाहिए। लम्बी दीवारों को सहारा देने के लिए। ईंट-पत्थर या कंक्रीट के कॉलम होने चाहिए। जहाँ तक हो सके T L,U और x आकार के नक्शों वाले बड़े भवनों को उपयुक्त स्थानों में नींव पर अलग-अलग खण्डों में बाँट कर आयताकार खण्ड बना लेना चाहिए। खण्डों के बीच खास अन्तर से चौड़ी जगह छोड़ दी जानी । चाहिए ताकि भूकम्प के समय भवन हिल-डुल सके और क्षति हो।

2. नींव :
जहाँ आधार भूमि में विभिन्न प्रकार की अथवा नरम मिट्टी हो वहीं नींव में कॉलमों को भिन्न-भिन्न व्यवस्था में स्थापित करना चाहिए। ठण्डे देशों में मिट्टी में आधार की गहराई जमाव-बिन्दु क्षेत्र के काफी नीचे तक होनी चाहिए, जब कि चिकनी मिट्टी में यह गहराई दरार के सिकुड़ने के स्तर से नीचे तक होनी चाहिए। ठोस मिट्टी वाली परिस्थितियों में किसी भी प्रकार के आधार का प्रयोग कर सकते हैं। चूने या सीमेण्ट के कंक्रीट से बना इसका ठोस आधार होना चाहिए।

3. दीवारों में खुले स्थान :
दीवारों में दरवाजों और खिड़कियों की बहुलता के कारण, उनकी भार-रोधक क्षमता कम हो जाती है। अत: ये कम संख्या में तथा दीवारों के बीचोंबीच स्थित होने चाहिए।

4. कंक्रीट से बने बैंडों का प्रयोग :
भूकम्प संवेदनशील क्षेत्रों में, दीवारों को मजबूती प्रदान करने तथा उनकी कमजोर जगहों पर समतल रूप से मुड़ने की क्षमता को बढ़ाने के लिए कंक्रीट के मजबूत बैंड बनाए जाने चाहिए जो स्थिर विभाजक दीवारों,सहित सभी बाह्य तथा आन्तरिक दीवारों पर लगातार काम करते रहते हैं। इन बैंडों में प्लिन्थ बैंड, लिटल बैंड, रूफ बैंड तथा गेबल बैंड आदि सम्मिलित हैं।

5. वर्टिकल रीइन्फोर्समेंट :
दीवारों के कोनों और जोड़ों में वर्टिकल स्टील लगाया जाना चाहिए। भूकम्पीय क्षेत्रों, खिड़कियों तथा दरवाजों की चौखट में भी वर्टिकल रीइन्फोर्समेंट की व्यवस्था की जानी चाहिए।

प्रश्न 6
एक प्राकृतिक आपदा के रूप में समुद्री लहरों का सामान्य परिचय दीजिए। इनके मुख्य कारण क्या होते हैं। समुद्री लहरों की चेतावनी तथा बचाव के लिए आवश्यक सावधानियों का भी उल्लेख कीजिए।
या
सूनामी क्या है? [2012]
उत्तर :
समुद्री लहरें : प्राकृतिक आपदा
समुद्री लहरें कभी-कभी विनाशकारी रूप धारण कर लेती हैं। इनकी ऊँचाई 15 और कभी-कभी इससे भी अधिक तक होती है। ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। ये लहरें मिनटों में ही तट तक पहुँच जाती हैं। जब ये लहरें उथले पानी में प्रवेश करती हैं, तो भयावह शक्ति के साथ तट से टकराकर कई मीटर ऊपर तक उठती हैं। तटवर्ती मैदानी इलाकों में इनकी रफ्तार 50 किमी प्रति घण्टा तक हो सकती है।

इन विनाशकारी समुद्री लहरों को ‘सूनामी’ कहा जाता है। ‘सूनामी’, जापानी भाषा का शब्द है, जो दो शब्दों ‘सू’ अर्थात् बन्दरगाह’ और ‘नामी’ अर्थात् लहर’ से बना है। सूनामी लहरें अपनी भयावह शक्ति के द्वारा विशाल चट्टानों, नौकाओं तथा अन्य प्रकार के मलबे को भूमि पर कई मीटर अन्दर तक धकेल देती हैं। ये तटवर्ती इमारतों, वृक्षों आदि को नष्ट कर देती हैं। 26 दिसम्बर, 2004 को दक्षिण – पूर्व एशिया के 11 देशों में ‘सूनामी’ द्वारा फैलाई गयी विनाशलीला से हम सब परिचित हैं।

समुद्री लहरों के कारण

1. ज्वालामुखी विस्फोट :
वर्ष 1993 में इण्डोनेशिया में क्रकटू नामक विख्यात ज्वालामुखी में भयानक विस्फोट हुआ और इसके कारण लगभग 40 मीटर ऊँची सूनामी लहरें उत्पन्न हुईं। इन लहरों ने जावा व सुमात्रा में जन-धन की अपार क्षति पहुँचायी।

2. भूकम्प :
समुद्रतल के पास या उसके नीचे भूकम्प आने पर समुद्र में हलचल पैदा होती है और यही हलचल विनाशकारी सूनामी का रूप धारण कर लेती है। 26 दिसम्बर, 2004 को दक्षिण-पूर्व एशिया में आई विनाशकारी सूनामी लहरें, भूकम्प का ही परिणाम थीं।

3. भूस्खलन :
समुद्र की तलहटी में भूकम्प व भूस्खलन के कारण ऊर्जा निर्गत होने से बड़ी-बड़ी लहरें उत्पन्न होती हैं जिनकी गति अत्यन्त तेज होती है। मिनटों में ही ये लहरें विकराल रूप धारण कर, तट की ओर दौड़ती हैं।

चेतावनी व अन्य युक्तियाँ
सूनामी लहरों की उत्पत्ति को रोकना मानव के वश में नहीं है। समय से इसकी चेतावनी देकर, लोगों की जान व सम्पत्ति की रक्षा की जा सकती है।
1. उपग्रह प्रौद्योगिकी :
उपग्रह प्रौद्योगिकी के प्रयोग से सूनामी सम्भावित भूकम्पों की तुरन्त चेतावनी देना सम्भव हो गया है। चेतावनी का समय तट रेखा से अभिकेन्द्र की दूरी पर निर्भर करता है। फिर भी उन तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को जहाँ सूनामी कुछ घण्टों में विनाश फैला सकती है, सूनामी के अनुमानित समय की सूचना दे दी जाती है।

2. तटीय ज्वार जाली :
तटीय ज्वार जाली का निर्माण करके सूनामियों को तट के निकट रोका जा सकता है। गहरे समुद्र में इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।

3. सूनामीटर :
सूनामीटर के द्वारा समुद्रतल में होने वाली हलचलों का पता लगाकर, उपग्रह के माध्यम से चेतावनी प्रसारित की जा सकती है। इसके लिए सूनामी सतर्कता यन्त्र समुद्री केबुलों के द्वारा भूमि से जोड़े जाते हैं और उन्हें समुद्र में 50 किमी तक आड़ा-तिरछा लगाया जाता है।

सूनामी की आशंका पर सावधानियाँ
यदि आप ऐसे तटवर्ती क्षेत्र में रहते हैं जहाँ सूनामी की आंशका है, तो आपको निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिए

  1. तट के समीप ने तो मकान बनवाएँ और न ही किसी तटवर्ती बस्ती में रहें।
  2. तट के समीप रहना आवश्यक हो, तो घर को ऊँचे स्थान पर बनवाएँ। ये स्थान 10 फुट से ऊँचे स्थान पर ही हों, क्योकि सूनामी लहरें अधिकांशतः इससे कम ऊंची होती हैं।
  3. अपने घरों को बनाते समय भवन-निर्माण विशेषज्ञ की राय लें तथा मकान को सूनामी निरोधक बनाएँ।
  4. सूनामी के विषय में प्राप्त चेतावनी के प्रति लापरवाही न बरतें तथा आने वाली बाढ़ को रोकने के लिए तैयारी रखें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
भवन या गृह के अग्नि-अवरोधन के मुख्य उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भवन एवं भवन में रहने वालों की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है कि भवन को अग्नि से बचाव के योग्य बनाया जाए। अग्नि एक ऐसा कारक है जो कभी भी दुर्घटनावश या लापरवाही के परिणामस्वरूप सक्रिय हो जाता है। भवन-निर्माण की प्रक्रिया में कोई ऐसा उपाय सम्भव नहीं है कि भवन में आग लगे ही नहीं। भवन में रखी हुई प्रायः सभी वस्तुएँ कम या अधिक ज्वलनशील होती हैं; अतः असावधानी, दुर्घटनावश अथवा किसी शरारत के परिणामस्वरूप मकान में आग लग सकती है।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए केवल इस प्रकार के उपाय किये जा सकते हैं जिनसे भवन में आग लग जाने पर उसका फैलाव तेजी से न हो तथा शीघ्र ही भवन गिर न जाए। इस उद्देश्य से भवन की संरचना को अधिक-से-अधिक अग्निसह (Fire Resisting) बनाना चाहिए।भवन के अग्नि-अवरोधन (Fire proofing of house) के लिए भवन-निर्माण में अधिक-सेअधिक अग्निसह पदार्थों को इस्तेमाल करना चाहिए।

भवन संरचना के सभी भाग कम-से-कम इतने अग्निसह तो अवश्य होने चाहिए कि इतने समय तक टूटकर न गिरें, जितने समय तक भवन में रहने वाले व्यक्ति सुरक्षापूर्वक उसमें से बाहर न निकल जाएँ। भवन को आग सम्बन्धी दुर्घटना के दृष्टिकोण से सुरक्षित बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं|

  1. भवन की समस्त भारवाही दीवारें तथा स्तम्भ पर्याप्त मोटे तथा सुदृढ़ होने चाहिए, क्योंकि मोटे स्तम्भ एवं दीवारें पर्याप्त अग्निसह होते हैं।
  2. जहाँ तक हो सके भवन के अन्दर की विभाजक दीवारें भी अग्निसह पदार्थों की बनानी चाहिए। लकड़ी या प्लाईबोर्ड की दीवारें शीघ्र आग पकड़ लेती हैं। ये विभाजक दीवारें R.C.C., R.B.C., धातु की जाली, ऐस्बेस्टस, सीमेण्ट, बोर्ड अथवा कंक्रीट में खोखले ब्लॉकों द्वारा बनाई जानी चाहिए।
  3. भवन की सभी दीवारों पर अग्नि अवरोधक प्लास्टर किया जाना चाहिए।
  4. भवन में यदि ढाँचेदार संरचनाएँ हों तो उनके फ्रेम ताप पाकर टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं।
  5. फर्श बनाने में अधिक-से-अधिक अग्निसह पदार्थों को ही इस्तेमाल करना चाहिए। यदि फर्श लकड़ी के हों तो मोटी लकड़ी की कड़ियाँ अधिक दूरी पर लगानी चाहिए। फर्श में स्थान-स्थान पर अग्नि-स्टॉप भी लगाये जाने चाहिए। यदि लोहे के हों तो उन्हें चिकनी मिट्टी की टाइलों, टेरा-कोटा या प्लास्ट से ढक देना चाहिए।
  6. भवन के बाहरी दरवाजे तथा खिड़कियाँ प्रवलित शीशे की होनी चाहिए तथा इनके फ्रेम धातु के बने होने चाहिए।
  7. भवन की छत चपटी बनाई जानी चाहिए। यदि छत ढालू हो तो उसमें लगाई जाने वाली सीलिंग अग्निसह पदार्थ की ही होनी चाहिए।

उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त सुरक्षा की दृष्टि से भवन में निकासी की अधिक-से-अधिक सुविधाएँ होनी चाहिए, क्योंकि यदि दुर्घटनावश आग लग ही जाए तो उसमें रहने वाले व्यक्ति शीघ्रातिशीघ्र जान बचाकर बाहर निकल जाएँ।

प्रश्न 2
जल जाने या झुलस जाने पर क्या प्राथमिक उपचार किया जाना चाहिए?
उत्तर :
आग से जल जाने पर तुरन्त निम्नलिखित प्राथमिक उपचार किया जाना चाहिए

  1. जलने अर्थात् आग लग जाने पर सर्वप्रथम आवश्यक उपाय है आग को बुझाना। इसके लिए पानी, मिट्टी या रेत तथा कम्बल आदि डाले जा सकते हैं। जिस व्यक्ति के कपड़ों में आग लग गयी हो वह जमीन पर लेटकर निरन्तर करवटें बदल-बदल कर एवं लुढ़ककर भी आग बुझाने का प्रयास कर सकता है। आग बुझ जाने पर आवश्यक प्राथमिक चिकित्सा के उपाय तुरन्त करने चाहिए।
  2. जल जाने वाले शरीर के भाग पर से वस्त्रों को सावधानीपूर्वक हटा देना चाहिए, किन्तु वस्त्र चिपकने की दशा में उसे चारों ओर से काट देना चाहिए और शरीर पर चिपक गये वस्त्र पर नारियल का तेल लगा देना चाहिए।
  3. अलसी के तेल तथा चूने के पानी को समान अनुपात में मिलाकर उसमें स्वच्छ कपड़ा या रुई का फोहा भिगोकर जले भाग पर रखना चाहिए।
  4. फफोलों को फोड़ना नहीं चाहिए, क्योंकि इस स्थिति में विभिन्न प्रकार के बाहरी संक्रमणों का भय बढ़ जाता है।
  5. जले भाग पर टैनिक एसिड, कोई अच्छा मरहम जैसे कि बरनॉल आदि धीरे-धीरे लगाना चाहिए।
  6. जले हुए स्थानों पर नारियल का तेल भी लगाने से आराम मिलता है।
  7. जले भाग को साफ कपड़े या रुई से ढक कर हल्की पट्टी बाँध देनी चाहिए।
  8. दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को लगे आघात का उपचार करना चाहिए।
  9. जले हुए व्यक्ति को साधारण प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करने के उपरान्त शीघ्रातिशीघ्र किसी योग्य चिकित्सक को अवश्य दिखाना चाहिए तथा समुचित उपचार करवाना चाहिए।

प्रश्न 3
सूखा पड़ने के प्रतिकूल प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सूखा एक ऐसी आपदा है जिसके परिणामस्वरूप सम्बन्धित क्षेत्र में जल की कमी या अभाव हो जाता है। यह एक गम्भीर आपदा है तथा इसके विभिन्न प्रतिकूल प्रभाव क्रमशः स्पष्ट होने लगते हैं। सर्व-प्रथम सूखे का प्रभाव कृषि-उत्पादनों पर पड़ता है। फसलें सूखने लगती हैं तथा क्षेत्र में खाद्य-पदार्थों की कमी होने लगती है। इस स्थिति में अनाज आदि के दाम बढ़ जाते हैं तथा गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति दयनीय हो जाती है। सूखे का प्रतिकूल प्रभाव क्षेत्र के पशुओं पर भी पड़ता है क्योंकि उनको मर्याप्त मात्रा में चारा तथा जल उपलब्ध नहीं हो पाता।

इससे क्षेत्र में दूध एवं मांस आदि की भी कमी होने लगती है। कृषि-कार्य घट जाने के कारण अनेक कृषि-श्रमिकों को रोजगार मिलना बन्द हो जाता है तथा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था बिगड़ने लगती है। सूखे की दशा में कृषि-उत्पादनों में कमी आ जाती है।इस स्थिति में कृषि आधारित कच्चे माल से सम्बन्धित औद्योगिक संस्थानों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

इस स्थिति में सम्बन्धित उत्पादनों की कमी हो जाती है तथा उनकी कीमत भी बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त किसी क्षेत्र में निरन्तर सूखे की स्थिति बने रहने से वहाँ के निवासी अन्य क्षेत्रों में चले जाते हैं। इससे सामाजिक ढाँचा प्रभावित होता है तथा जनसंख्या का क्षेत्रीय सन्तुलन बिगड़ने लगता है। सूखे की समस्या विकराल हो जाने की स्थिति में बेरोजगारी तथा भुखमरी की समस्याएँ भी प्रबल होने लगती हैं।

प्रश्न 4
आग लगने से बचाव के लिए अस्थायी पण्डालों में क्या उपाय किए जाने चाहिए?
उत्तर :
विभिन्न समारोहों के आयोजन के लिए प्रायः पण्डाले लगाये जाते हैं। इन घेण्डालों में आग लगने की कुछ अधिक आशंका रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आग से सुरक्षा के लिए कुछ उपायों को अपनाना आवश्यक माना जाता है। इस प्रकार के कुछ मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं

  1. पण्डाल बनाने में सिन्थेटिक कपड़ों, रस्सियों तथा अन्य सामग्री को इस्तेमाल न किया जाए।
  2. पण्डाल कभी भी बिजली की तारों के नीचे या बहुत निकट नहीं लगाया जाना चाहिए। |
  3. पण्डाल के चारों ओर पर्याप्त खुला स्थान होना चाहिए ताकि आपदा के समय सरलता से बाहर जा सकें।
  4. पण्डाल का द्वार कम-से-कम पाँच मीटर चौड़ा होना चाहिए तथा निकास द्वार अधिक-सेअधिक होने चाहिए।
  5. पण्डाल में लगी कुर्सियों की कतारों में कम-से-कम डेढ़ मीटर की दूरी अवश्य होनी चाहिए।
  6. बिजली का सर्किट तथा जैनरेटर आदि पण्डाल से कम-से-कम 15 मीटर दूर होने चाहिए।
  7. अग्नि-सुरक्षा के यथासम्भव अधिक-से-अधिक उपाय किये जाने चाहिए। पानी, रेत, आग बुझाने वाली गैस आदि की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
  8. पण्डाल के अन्दर ज्वलनशील पदार्थ नहीं रखे जाने चाहिए।
  9. पण्डाल में अमोनियम सल्फेट, अमोनियम कार्बोनेट, बोरेक्स, बोरिक एसिड, एलम तथा पानी का घोल बनाकर छिड़काव किया जाना चाहिए।

प्रश्न 5
‘जंगल की आग’ पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
आग लगने की दुर्घटना का एक रूप या प्रकार ‘जंगल की आग’ भी है। जंगल की आग को ‘दावानल’ कहते हैं। जंगल में आग प्रायः तीन कारणों से लग जाती है। जंगल में कुछ पेड़ ऐसे भी होते हैं। जो आपस में रगड़’या घर्षण के कारण आग उत्पन्न कर देते हैं। तेज गर्मी के मौसम में इस प्रकार की घर्षण से प्राय: जंगलों में आग लग जाती है। इसके अतिरिक्त लापरवाही से भी आग लग जाती है।

जंगल में विचरण करने वाले व्यक्ति द्वारा जलती हुई माचिस, बीड़ी-सिगरेट या उपले आदि से सूखे पत्तों में आग लग जाती है तथा हवा से फैलकर भयंकर रूप ग्रहण कर लेती है। इसके अतिरिक्त कुछ स्वार्थी एवं समाज-विरोधी व्यक्ति भी जंगल में आग लगा दिया करते हैं। ये लोग कृषि योग्य भूमि ग्रहण करने के लिए पेड़ों की कटाई या भूमि अधिग्रहण के निहित स्वार्थ से जंगल में आग लगा देते हैं।जंगल में लगने वाली आग अति भयंकर एवं व्यापक होती है। इसे नियन्त्रित करना या बुझाना प्रायः एक कठिन कार्य होता है।

यह आग या तो जंगल समाप्त होने पर बुझती है अथवा तेज वर्षा हो जाने पर ही बुझती है। जंगल की आग से अनेक हानियाँ हो जाती हैं। सर्वप्रथम वन सम्पदा की अत्यधिक हानि होती है। इसके साथ-ही-साथ वनों में रहने वाले पशु-पक्षियों को जीवन भी गम्भीर रूप से प्रभावित होता है। इसके अतिरिक्त जंगल की आग से पर्यावरण का तापमान अत्यधिक बढ़ जाता है तथा पर्यावरण-प्रदूषण में भी वृद्धि होती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्राकृतिक आपदा का अर्थ स्पष्ट कीजिए। [2015]
उत्तर :
प्राकृतिक आपदाएँ उन गम्भीर प्राकृतिक घटनाओं को कहा जाता है, जिनके प्रभाव से हमारे सामाजिक ढाँचे व विभिन्न व्यवस्थाओं को गम्भीर क्षति पहुँचती है। इनसे मनुष्यों एवं अन्य जीव-जन्तुओं का जीवन समाप्त हो जाता है तथा प्रत्येक प्रकार की सम्पत्ति को भी नुकसान होता है। मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ हैं-भूकम्प, ज्वालामुखी का विस्फोट, सूनामी, बादल का फटना, चक्रवातीय तूफान, बाढ़, हिम की आँधी आदि।

प्रश्न 2
समुद्र की आग पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
आग लगने की दुर्घटना का एक रूप या प्रकार ‘समुद्र की आग भी है। समुद्र की आग को बड़वानल भी कहते हैं। यह सत्य है कि समुद्र जल का अथाह भण्डार होता है। ऐसे में समुद्र में आग । लगना एक आश्चर्य की बात प्रतीत होती है परन्तु यथार्थ में समुद्र में प्राय: आग लगने की दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। समुद्र में आग लगने का कारण समुद्र में विद्यमान तेल के भण्डारों अथवा प्राकृतिक गैस में आग लगना हुआ करता है। तेल अर्थात् पेट्रोलियम दार्थ तथा प्राकृतिक गैस अत्यधिक ज्वलनशील पदार्थ होते हैं जो कि जल की उपस्थिति में भी जल उठते हैं।

समुद्र की आग भी अत्यधिक भयंकर तथा व्यापक होती है। इससे जहाँ एक ओर तेल अथवा गैस भण्डारों की व्यापक क्षति होती है, वहीं दूसरी ओर जलीय जीवों का जीवन भी संकट में आ जाता है। यही नहीं, पर्यावरण-प्रदूषण में भी वृद्धि होती है तथा कभी-कभी समुद्र में यात्रा करने वाले जलयान भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। समुद्र की आग को नियन्त्रित करने के लिए व्यापक उपाय करने पड़ते हैं।

प्रश्न 3
आग लगने के मुख्य प्रतिकूल प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
आग लगने से सबसे गम्भीर आशंका व्यक्तियों के जलने या झुलसने की होती है। आग की लपट लग जाने या कपड़ों में आग लग जाने पर व्यक्ति जल सकता है। आग से निकलने वाली गर्म हवा लग जाने से व्यक्ति झुलस सकता है। जलने तथा झुलसने से व्यक्ति के शरीर पर लगभग समान प्रभाव ही पड़ते हैं। इस स्थिति में शरीर की त्वचा लाल पड़ जाती है, फफोले पड़ जाते हैं, त्वचा के तन्तु नष्ट हो। जाते हैं और अत्यधिक पीड़ा होती है।

जब कोई अंग बहुत अधिक जल जाता है तो दिल की घबराहट अथवा आघात का भय रहता है। त्वचा के अधिक जल जाने पर अनेक प्रकार के संक्रमण की भी आशंका बढ़ जाती है। यह संक्रमण प्राय: घातक सिद्ध होता है। जलने के प्रभाव से व्यक्ति के गुर्दो, यकृत आदि

आन्तरिक अंगों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है जो गम्भीर समस्या उत्पन्न कर देता है। जलने से व्यक्ति को गहरा मानसिक आघात या सदमा भी पहुंचता है। इसका भी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 4
बाढ़ के समय मुख्य रूप से क्या सावधानियाँ आवश्यक होती हैं?
उत्तर :
बाढ़ के समयं सबसे अधिक आवश्यक कार्य है :
मनुष्य की जान बचाना। इसके लिए। आवश्यक है कि यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र बाढ़ग्रस्त क्षेत्र से निकल जाएँ तथा किसी ऊँचे सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाएँ। यदि मकान काफी मजबूत हो तो मकान की ऊपरी मंजिल पर चढ़ जाएँ। यदि मकान मजबूत न हो तो मकान से बाहर निकल जाएँ। बाढ़ के समय पेड़ों पर न चढ़े क्योंकि पेड़ भी जड़ से ही उखड़ सकते हैं। यदि घर में रबड़ की ट्यूब हो तो उनको हवा भरकर अपने साथ रखें।

प्रश्न 5
भूचाल और बाढ़ जैसी आपदाओं से होने वाले बोझ को कम करने के लिए आप क्या सुझाव देंगे? [2011]
उत्तर :
भूचाल तथा बाढ़ दोनों ही एकाएक आने वाली गम्भीर प्राकृतिक आपदाएँ हैं। भूचाल से सर्वाधिक हानि मकानों के गिरने से होती है। बाढ़ से मुख्य हानि सम्बन्धित क्षेत्र में जल व्याप्त हो जाने के कारण होती है। इससे जान-माल, पालतू पशुओं तथा खड़ी फसलों को हानि पहुँचती है। इन दोनों ही आपदाओं के बोझ को कम करने के लिए बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है।

तुरन्त आवश्यक सहायता चिकित्सा तथा भोजन सम्बन्धी होनी चाहिए। आपदाओं से घिरे लोगों के जीवन को बचाने के हर सम्भव उपाय किये जाने चाहिए। इसके बाद उनके पुनस्र्थापन की व्यवस्था की जानी चाहिए। यह कार्य सरकार एवं स्वयं-सेवी संगठनों के सहयोग से होता है। गम्भीर एवं व्यापक आपदा के समय यह कार्य विश्व – स्तरीय हो जाता है। विश्व के प्रायः सभी देश आवश्यक सहायता पहुँचाते हैं तथा आपदाओं से हुए नुकसान की भरपाई कर ली जाती है।

प्रश्न 6
बाढ़ के उपरान्त किये जाने वाले कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सामान्य रूप से बाढ़ का प्रकोप कुछ समय में घटने लगता है, परन्तु,बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में पानी, कीचड़, गन्दगी तथा सीलन बहुत अधिक हो जाती है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण कार्य अति आवश्यक होते हैं। घरों तथा गलियों में सफाई की व्यवस्था करें। पानी की निकासी के उपाय करें तथा कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करें। इससे संक्रामक रोगों से बचाव हो सकता है।

साफ सेय जल की व्यवस्था करें। जहाँ तक हो सके जल उबालकर ही पिएँ। चिकित्सकों से सम्पर्क बनाये रखें तथा संक्रामक रोगों से बचने के सभी सम्भव उपाय करें। बाढ़ग्रस्त लोगों को भारी नुकसान हो जाता है। अतः अन्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तथा सरकारी तन्त्र को बाढ़ग्रस्त लोगों की हरसम्भव सहायता करनी चाहिए। भोजन एवं कपड़ों आदि की तुरन्त पूर्ति होनी चाहिए।

प्रश्न 7
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-‘भूकम्प की भविष्यवाणी’।
उत्तर :
भूकम्प की भविष्यवाणी करने में निम्नलिखित बिन्दुओं का विशेष महत्त्व है

  1. किसी क्षेत्र में हो रही भूगर्भीय गतियों का उस क्षेत्र में हो रहे भू-आकृति परिवर्तनों से अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे क्षेत्र जहाँ भूमि ऊपर-नीचे होती रहती है, अत्यधिक भूस्खलन होते हैं, नदियों का असामान्य मार्ग परिवर्तन होता है, प्रायः भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील होते हैं।
  2. किसी क्षेत्र में सक्रिय भ्रंशों, जिन दरारों से भूखण्ड टूटकर विस्थापित भी हुए हों, की उपस्थिति को भूकम्प का संकेत माना जा सकता है। इस प्रकार के भ्रंशों की गतियों को समय के अनुसार तथा अन्य उपकरणों से नापा जा सकता है।
  3. भूकम्प संवेदनशील क्षेत्रों में भूकम्पमापी यन्त्र (Seismograph) लगाकर विभिन्न भूगर्भीय गतियों को रिकॉर्ड किया जाता है। इस अध्ययन से बड़े भूकम्प आने की पूर्व चेतावनी मिल जाती है।

प्रश्न 8
भूकम्प आपदा के समय आवश्यक सावधानियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
यह सत्य है कि भूकम्प आकस्मिक रूप से आता है। भूकम्प के आने पर मानसिक सन्तुलन बनाये रखें तथा अधिक घबराएँ नहीं। इस समय कुछ सावधानियाँ नितान्त आवश्यक होती हैं। सामान्य रूप से आप जहाँ हों, वहीं टिके रहें। यदि हो सके तो दीवारों, छतों और दरवाजों से दूर रहें। इसके साथ-ही-साथ दीवारों के टूटने तथा मलबा गिरने पर ध्यान रखें तथा बचाव के उपाय करें।

भूकम्प के समय यदि आप किसी वाहन में हों तो वाहन को सुरक्षित स्थान पर रोककर उसमें से बाहर खुले में आ जाएँ। भूकम्प के समय न तो किसी पुल को पार करें और न ही किसी सुरंग में प्रवेश करें। यदि घर पर हों तो बिजली का मेन स्विच बन्द कर दें, गैस सिलेण्डर को भी बन्द कर दें। इन उपायों द्वारा कुछ दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है।

प्रश्न 9
भूकम्प आपदा के पश्चात किए जाने वाले कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सामान्य रूप से भूकम्प की प्रबलता अल्प समय के लिए ही होती है, परन्तु अल्प समय में ही अनेक गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव हो जाते हैं। भूकम्प के पश्चात् भी बहुत सजग रहना आवश्यक होता है। इस समय परिवार के बच्चों तथा वृद्ध सदस्यों का विशेष ध्यान रखना आवश्यक होता है। इस समय घर में गैस के सिलेण्डर को बन्द रखें तथा आग न जलाएँ। रेडियो तथा दूरदर्शन को चलाए रखें, सभी आवश्यक घोषणाओं को ध्यानपूर्वक सुने तथा आवश्यक कार्य करें।

भूकम्प से क्षतिग्रस्त होने वाले मनों से दूर ही रहें। यदि भूकम्प के हल्के झटके आ रहे हों तो उनसे डरें नहीं। ऐसा कुछ समय तक होता रहता है। जहाँ जिस प्रकार की सहायता की आवश्यकता है, उस कार्य को अवश्य करें। तुरन्त सहायता उपलब्ध हो जाने पर अनेक व्यक्तियों की जान बचाई जा सकती है। अपने क्षेत्र में यथासम्भव सफाई व्यवस्था को बनाये रखें ताकि संक्रामक रोगों से बचा जा सके। कलाकारका

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
गम्भीर आपदाओं से क्या आशय है?
उत्तर :
उन समस्त प्राकृतिक घटनाओं को गम्भीर आपदाओं के रूप में जाना जाता है, जिनसे जनजीवन एवं सम्पत्ति आदि पर गम्भीर प्रतिकूल या विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 2
मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ कौन-कौन सी हैं? [2010]
उत्तर :
भूकम्प, बाढ़, सूखा, भूस्खलन, ज्वालामुखी का फटना, तूफान, समुद्री तूफान,ओलावृष्टि बादल फटना तथा सूनामी या समुद्री लहरें आदि मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

प्रश्न 3
आपदाओं के मुख्य वर्गों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
आपदाओं के मुख्य रूप से चार वर्ग निर्धारित किये गये हैं

  1. आकस्मिक रूप से घंटित होने वाली आपदाएँ
  2. धीरे-धीरे अथवो क्रमशः आने वाली आपदाएँ
  3. मानव जनित अथवा सामाजिक आपदाएँ तथा
  4. जैविक आपदाएँ या महामारी।

प्रश्न4
आकस्मिक रूप से घटित होने वाली मुख्य प्राकृतिक आपदाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भूकम्प, ज्वालामुखी का विस्फोट, सूनामी, बादल का फटना, चक्रवातीय तूफान, भू-स्खलन तथा हिम की आँधी आकस्मिक रूप से घटित होने वाली मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

प्रश्न 5
धीरे-धीरे अथवा क्रमशः आने वाली मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :
सूखा, अकाल, किसी क्षेत्र का मरुस्थलीकरण तथा मौसम एवं जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन धीरे-धीरे अथवा क्रमशः आने वाली मुख्य प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

न 6
हमारे जीवन में आग का क्या स्थान है?
उत्तर :
हमारे जीवन में आग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आग एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल कारक है, जो मानव-जीवन के लिए उपयोगी एवं सहायक है।

प्रश्न 7
‘आग लगने या ‘अग्निकाण्ड’ से क्या आशय है?
उत्तर :
आग का अनियन्त्रित होकर विनाशकारी रूप ग्रहण कर लेना ही ‘आग लगना’ या ‘अग्निकाण्ड’ कहलाता है।

प्रश्न 8
आग के शितान्त अभाव में हमारा कौन-सा महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता?
उत्तर :
आग के नितान्त अभाव में भोजन पकाने अर्थात् पाक-क्रिया का कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता।

प्रश्न 9
आग लगने पर सबसे गम्भीर आशंका क्या होती है?
उत्तर :
आग लगने पर,सबसे गम्भीर आशंका व्यक्तियों के जलने या झुलसने की होती है। इससे व्यक्तियों की मृत्यु भी हो सकती है।

प्रश्न 10
सूखे से क्या आशय है?
उत्तर :
किसी क्षेत्र में मनुष्यों, पशुओं तथा कृषि-कार्यों के लिए सामान्य आवश्यकता से काफी कम मात्रा में जल का उपलब्ध होना ‘सूखा पड़ना’ कहलाता है।

प्रश्न 11
सूखे का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव किस पर पड़ता है?
उत्तर :
सूखे का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव कृषि-कार्यों तथा कृषि उत्पादनों पर पड़ता है।

प्रश्न 12
अनावृष्टि के परिणामस्वरूप कौन-सी आपदा उत्पन्न हो सकती है?
उत्तर :
अनावृष्टि के परिणामस्वरूप सूखे की आपदा उत्पन्न हो सकती है।

प्रश्न13
बाढ़ से क्या आशय है?
उत्तर :
उन क्षेत्रों का जलमग्न हो जाना बाढ़ कहलाता है, जिन क्षेत्रों में सामान्य दशाओं में जल-भराव नहीं होता।

प्रश्न 14
किसी क्षेत्र में भयंकर बाढ़ आने के उपरान्त किस अन्य आपदा के आने की आशंका बढ़ जाती है?
उत्तर :
किसी क्षेत्र में भयंकर बाढ़ आने के उपरान्त संक्रामक रोगों के फैलने की आशंका बढ़ जाती

प्रश्न 15
भूकम्प के परिणामस्वरूप सर्वाधिक हानि किस कारण से होती है?
उत्तर :
भूकम्प के परिणामस्वरूप सर्वाधिक हानि मकानों के गिरने के कारण होती है।

प्रश्न 16
भूकम्प की तीव्रता के मापन,के पैमाने को क्या कहते हैं?
उत्तर :
भूकम्प की तीव्रता के मापन के पैमाने को ‘रिक्टर स्केल’ या ‘रिक्टर पैमाना’ कहते हैं।

प्रश्न 17
सूनामी से क्या आशय है? [2010, 12]
उत्तर :
जब समुद्री लहरें तेज गति से तट की ओर बढ़ती हैं तो उन्हें सूनामी कहते हैं। इन लहरों की ऊँचाई लगभग 15 मीटर तथा गति 50 किमी प्रति घण्टा तक हो सकती है।

प्रश्न 18
मानव – जनित आपदा आतंकवाद / भूस्खलन है। [2014]
उत्तर
मानवे – जनित आपदा आतंकवाद है।

प्रश्न 19
राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण की स्थापना क्यों की गई है ? [2009]
उत्तर :
राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण की स्थापना विभिन्न आपदाओं को नियन्त्रित करने तथा उनसे होने वाले नुकसान को कम करने के उपाय खोजने के लिए की गयी है।

प्रश्न 20
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. समस्त आपदाएँ दैवीप्रकोप के कारण होती हैं।
  2. आग लगना एक प्राकृतिक आपदा है।
  3. आग हमारे लिए अत्यधिक उपयोगी एवं अनिवार्य कारक है।
  4. सूखे की दशा में मनुष्यों एवं पशुओं को अपनी आवश्यकता के अनुसार जल उपलब्ध नहीं हो पाता।
  5. बाढ़ से जान-माल का भारी नुकसान होता है।
  6. भूकम्प का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव मकानों पर पड़ता है।
  7. समुद्री लहरों से तटीय क्षेत्रों में सर्वाधिक विनाश होता है।

उत्तर :

  1. असत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. सत्य
  5. सत्य
  6.  सत्य
  7. सत्य

प्रश्न 21
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उपयुक्त शब्दों द्वारा कीजिए

  1. भूकम्प, बाढ़ तथा तूफान ……….. से उत्पन्न होते हैं।
  2. आग लगना एक ……….. आपदा है।
  3. अतिवृष्टि तथा बर्फ के अधिक पिघलने से ……….. की आशंका बढ़ जाती है।
  4. किसी क्षेत्र में निरन्तर सूखा पड़ने से उस क्षेत्र की ……….. बिगड़ जाती है।
  5. समुद्री लहरों से सर्वाधिक विनाश .……….. में होता है।

उत्तर :

  1. प्राकृतिक कारणों
  2. मानवकृत
  3. बाढ़ आ जाने
  4. अर्थव्यवस्था
  5. तटीय क्षेत्रों

बहुविकल्पीय प्रश्न 

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1
बाढ़, भूकम्प, चक्रवात तथा सूखा आदि आपदाओं के पीछे निहित कारक होते हैं
(क) दैवी प्रकोप सम्बन्धी कारक
(ख) पाप में वृद्धि सम्बन्धी कारक
(ग) प्राकृतिक कारक
(घ) मानव द्वारा पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि
उत्तर :
(ग) प्राकृतिक कारक

प्रश्न 2
‘आग लगना’ या ‘अग्निकाण्ड’ किस प्रकार की आपदा है?
(क) प्राकृतिक आपदा
(ख) दैवी प्रकोप सम्बन्धी आपदा
(ग) मानवकृत आपदा
(घ) अज्ञात आपदा
उत्तर :
(घ) अज्ञात आपदा

प्रश्न 3
आग का मौलिक गुण है
(क) भयंकर लपटें उत्पन्न करना
(ख) ताप प्रदान करना है
(ग) जलाना
(घ) भोजन पकाना
उत्तर :
(ख) ताप प्रदान करना

प्रश्न 4
‘आग लगने या अग्निकाण्ड’ का कारण हो सकता है
(क) मानवीय लापरवाही
(ख) दुर्घटना के परिणामस्वरूप
(ग) व्यक्तिगत दुर्भावना या षड्यन्त्र
(घ) ये सभी कारण
उत्तर :
(घ) ये सभी कारण

प्रश्न 5
सूखा पड़ने का कारण है
(क) अधिक कृषि-कार्य
(ख) वर्षा का बहुत कम होना
(ग) अधिक संख्या में नलकूप लगाना
(घ) जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि
उत्तर :
(ख) वर्षा का बहुत कम होना

प्रश्न 6
बाढ़ नामक आपदा का स्रोत है
(क) तालाब
(ख) झीलें
(ग) नदियाँ
(घ) नहरें
उत्तर :
(ग) नदियाँ

प्रश्न 7
बाढ़ का कारण है [2013]
(क) अत्यधिक वर्षा
(ख) बाँध का टूटना
(ग) भूस्खलन
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 8
किसी भर्दन में आग लग जाने पर सर्वप्रथम क्या करना चाहिए?
(क) फायर ब्रिगेड को बुलाना
(ख) भवन के अन्दर उपस्थित व्यक्तियों को भवन से बाहर निकालना
(ग) प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था करना
(घ) आग-बुझाने के उपाय करना ।
उत्तर :
(ख) भवन के अन्दर उपस्थित व्यक्तियों को भवन से बाहर निकालना

प्रश्न 9
समुद्री लहरों के समय समुद्र में विद्यमान जलयानों का बचाव हो सकता है
(क) तट की ओर तेजी से बढ़ने पर
(ख) तट से दूर खुले समुद्र की ओर चले जाने पर
(ग) एक स्थान पर रुक जाने पर
(घ) बन्दरगाह पर लंगर डाल देने पर
उत्तर :
(ख) तट से दूर खुले समुद्र की ओर चले जाने पर

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Principles of Origin of State

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Principles of Origin of State (राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Principles of Origin of State (राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 1
Chapter Name Principles of Origin of State (राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त)
Number of Questions Solved 17
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 1 Principles of Origin of State (राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
उत्तर
राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धान्त
राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस सिद्धान्त का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसे सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त’ भी कहते हैं। आधुनिक काल में इस सिद्धान्त के प्रणेता हॉब्स, लॉक एवं रूसो हैं। जिन्होंने इस सिद्धान्त के अन्तर्गत यह कल्पना की है कि मानव-समाज के विकास के इतिहास में एक ऐसी अवस्था थी जब राज्य नहीं थे, वरन् कुछ प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही लोग अपना जीवन व्यतीत करते थे। इसलिए इस सिद्धान्त के प्रवर्तकों ने इस अवस्था को प्राकृतिक अवस्था’ का नाम दिया है।

हॉब्स के अनुसार, “प्राकृतिक अवस्था में लोग जंगली, असभ्य, झगड़ालू तथा स्वार्थी थे। इसलिए वे सभी आपस में हर समय झगड़ते रहते थे। इस कारण प्राकृतिक अवस्था असहनीय थी।”…..” इस काल में मानव-जीवन एकाकी, बर्बर, सम्पत्तिहीन, दु:खपूर्ण तथा अल्पकालिक था।” लॉक के अनुसार, “यह अवस्था असुविधाजनक थी।” रूसो के अनुसार, “प्रारम्भ में प्राकृतिक अवस्था आदर्श थी, परन्तु यह आदर्श अवस्था कुछ कारणों से दूषित हो गई। अतः यह अवस्था असहनीय हो गई। इस प्रकार, असहनीय अवस्था से छुटकारा पाने के लिए लोगों ने आपस में समझौता किया, जिसके फलस्वरूप राज्य का उदय हुआ। राज्य के निर्माण से प्राकृतिक नियमों के स्थान पर मानव-निर्मित कानून लागू हुए और प्राकृतिक अधिकारों के स्थान पर राज्य ने सबको समान नागरिक या राजनीतिक अधिकार प्रदान किए।

गैटिल के अनुसार, “राजभक्तों द्वारा प्रतिपादित दैवी सिद्धान्त के विरोध में 17वीं तथा 18वीं शताब्दी के क्रान्तिकारी विचारकों ने लोकप्रिय राजसत्ता, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं क्रान्ति के अधिकारों का प्रचार करने के लिए सामाजिक समझौते के सिद्धान्त की शरण ली।”

इस सिद्धान्त की इन तीन विद्वानों हॉब्स, लॉक और रूसो ने बड़ी विस्तृत एवं वैज्ञानिक व्याख्या की है, परन्तु अपने-अपने ढंग से। इसीलिए कहीं-कहीं तीनों में पर्याप्त मतभेद भी हैं। किन्तु तीनों ने निष्कर्ष एक ही निकाला है। तीनों का ही मत है कि प्राकृतिक अवस्था के कुछ दोषों तथा असुविधा के कारण ही राज्य का निर्माण हुआ। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य दैवी संस्था न होकर एक मानवीय संस्था है।

आलोचना- इस सिद्धान्त की अनेक विद्वानों ने कटु आलोचना की है। इस सिद्धान्त की आलोचना के निम्नलिखित आधार हैं।

  1. यह सिद्धान्त कल्पना पर आधारित है। इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है।
  2. यह सिद्धान्त तर्कसंगत भी नहीं है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में लोग जंगली एवं असभ्य थे। परन्तु जंगली एवं असभ्य लोगों के मन में अचानक राज्य-निर्माण की बात कैसे आई और उन्होंने कैसे कानून और अधिकार आदि का निर्माण किया? इन परस्पर विरोधी प्रश्नों का समुचित उत्तर इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सका है।
  3. कुछ विद्वानों ने इस सिद्धान्त को ‘भयानक’ कहकर कड़ी आलोचना की है। उनका मत है। कि यह सिद्धान्त लोगों को राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहित करता है। उनके मतानुसार यह सिद्धान्त न तो इतिहास से प्रमाणित किया जा सकता है और न उच्च राजनीतिक दर्शन के विषय में प्रकाश डालता है।
  4. राज्य एक कृत्रिम संस्था न होकर प्राकृतिक संस्था है और दीर्घकालीन विकास का परिणाम है।
  5. यह समझौता वर्तमान समय में मान्य नहीं है; क्योंकि कोई भी समझौता केवल उन्हीं लोगों पर लागू होता है जिनके मध्य वह किया जाता है।
  6. यह सिद्धान्त मानव-स्वभाव के सन्दर्भ में अशुद्ध दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।

महत्त्व- इस सिद्धान्त का महत्त्व निम्नलिखित दृष्टियों से है-

  1. यह सिद्धान्त व्यक्ति को विशेष महत्त्व देता है।
  2. यह सिद्धान्त निरंकुश एवं स्वेच्छाधारी शासन का विरोध करता है।
  3. इस सिद्धान्त ने लोकतन्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
  4. यह सिद्धान्त लोकतन्त्र और स्वतन्त्रता का पोषक है।

प्रश्न 2.
राज्य की उत्पत्ति के ऐतिहासिक अथवा विकासवादी सिद्धान्त का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर
राज्य की उत्पत्ति का ऐतिहासिक अथवा विकासवादी सिद्धान्त
राज्य की उत्पत्ति के सभी सिद्धान्तों में यह सिद्धान्त, राज्य की उत्पत्ति की वास्तविक तथा सही व्याख्या करता है। इस सिद्धान्त के प्रवर्तकों का मत है कि राज्य की उत्पत्ति किसी निश्चित समय में नहीं हुई, वरन् मानव-इतिहास के विकास के साथ-साथ इसका भी विकास होता गया और राज्य का वर्तमान रूप सामने आया। वास्तव में, इतिहास में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है कि पहले समाज में राज्य नहीं था तथा बाद में मनुष्यों ने राज्य का निर्माण किया। जब मनुष्य आखेट अवस्था में था, उस समय भी वह समाज में ही रहता था, परन्तु वह समाज की अविकसित अवस्था थी। फिर मनुष्य चरागाह युग में आया और फिर कृषि युग में। तत्पश्चात् औद्योगिक युग की सभ्यता में मनुष्य ने प्रवेश किया। मनुष्य के विकास के साथ-साथ उसके समाज एवं राज्य का स्वरूप भी बदलता गया। अतः राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यही सिद्धान्त अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। लीकॉक के शब्दों में, “राज्य एक आविष्कार नहीं है, अपितु वह एक विकासपूर्ण वस्तु है। मनुष्य की विकासपूर्ण प्रवृत्ति के कारण ही राज्य की उत्पत्ति हुई।”

विकासवादी सिद्धान्त के प्रवर्तकों का मत है कि राज्य की उत्पत्ति धीरे-धीरे क्रमिक विकास के परिणामस्वरूप हुई है। प्रो० बर्गेस का भी मानना है, “राज्य अत्यन्त अपूर्ण प्रारम्भिक अवस्थाओं में से धीरे-धीरे कुछ उन्नत अवस्थाओं में होकर मानवता के पूर्ण सार्वभौमिक संगठन की दशा में मानव-समाज का क्रमिक विकास है। ऐसा ही विचार गार्नर ने व्यक्त किया है, “राज्य न तो ईश्वर की कृति है और न किस उच्चतर शक्ति का परिणाम, न किसी समझौते की सृष्टि है और न ही परिवार का विस्तार-मात्र, वरन् यह ऐतिहासिक विकास का परिणाम है।”
राज्य के क्रमिक विकास में जिन तत्त्वों ने योगदान दिया है, उनका वर्णन निम्नलिखित है-

1. रक्त-सम्बन्ध – राज्य के विकास में सहायक प्रथम तत्त्व रक्त-सम्बन्ध है। मनुष्य का प्रारम्भिक संगठन, परिवार, रक्त के सम्बन्ध के आधार पर ही बना। धीरे-धीरे बहुत-से परिवारों ने मिलकर कबीलों और कबीलों ने कालान्तर में राज्य का रूप धारण कर लिया। मैकाइवर के अनुसार, “रक्त-सम्बन्ध से समाज की स्थापना हुई और समाज से राज्य की।”

2. मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्ति – मानव स्वभाव से एक सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है और समूह में रहने की प्रवृत्ति ने ही राज्य को जन्म दिया है। जॉन मार्ने के अनुसार, “राज्य के विकास का वास्तविक आधार मनुष्य के जीवन में विद्यमान अन्तर्जात प्रवृत्ति रही है।”

3. धर्म – धर्म ने भी मानव-अस्तित्व के प्रारम्भिक काल में लोगों को सामाजिक व राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य किया। इस प्रकार राज्य के विकास में धर्म ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। गैरेट के अनुसार, “राजनीतिक विकास के प्रारम्भिक एवं बड़े कठिन काल में धर्म में बर्बरतापूर्ण अराजकता का दमन कर सका और मानव को आदर भाव तथा आज्ञापालन
की शिक्षा प्रदान कर सका तथा जंगलों की अराजकता को नष्ट कर सका।”

4. आर्थिक आवश्यकताएँ – राज्य की उत्पत्ति के विकास में मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। मनुष्य ने अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सम्पत्ति संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया। सम्पत्ति के कारण ही संघर्ष हुए और इन संघर्षों को समाप्त करने के लिए कुछ नियमों का निर्माण किया गया। इन नियमों का पालन कराने के लिए यह एक सार्वभौमिक संस्था स्थापित हुई, जो राज्य कहलायी। मार्क्स के अनुसार, “राज्य आर्थिक परिस्थितियों की ही अभिव्यक्ति है।

5. राजनीतिक चेतना – राज्य के विकास में राजनीतिक चेतना का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है।
राजनीतिक चेतना से तात्पर्य यह है कि राज्य के लोगों में राजनीतिक संस्थाओं के माध्यम से किसी उद्देश्य की प्राप्ति की भावना होनी चाहिए। अत: राज्य की उत्पत्ति एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुई। गिलक्राइस्ट के अनुसार, “राज्य के निर्माण के सभी तत्त्वों की तह में, जिनमें रक्त-सम्बन्ध तथा धर्म भी शामिल है, राजनीतिक चेतना सबसे प्रमुख तत्त्व है।”

6. शक्ति – शक्ति तथा युद्ध ने भी राज्य के विकास में योग दिया है। प्राचीन समय में शक्तिशाली लोगों ने दुर्बलों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया और वे स्वयं शासक बन बैठे। अनेक कबीलों के शासकों ने सत्ता प्राप्त करके राज्य की स्थापना की। जैक्स के अनुसार, “जन समाज को राजनीतिक समाज में परिवर्तन शान्तिपूर्ण उपायों से नहीं वरन् युद्ध द्वारा हुआ।”

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त की विवेचना संक्षेप में कीजिए।
उत्तर
राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य का निर्माण ईश्वर ने किया है। राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और उसी की इच्छानुसार शासन करता है। उसे समस्त शक्तियाँ तथा अधिकार ईश्वर से ही प्राप्त होते हैं। वह प्रजा के प्रति नहीं, बल्कि ईश्वर के प्रति भी उत्तरदायी होता है। राजा की आज्ञा का उल्लंघन ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन है।

प्राचीन काल में भारत, मिस्र, यूनान तथा चीन आदि देशों में इस सिद्धान्त की विशेष मान्यता थी और राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। प्राचीन तथा मध्यकाल में राज्य पर धर्म का प्रभाव था। अतः धार्मिक दृष्टि से इस सिद्धान्त को मान्यता मिली। ईसाई धर्म के अनुसार, “राज्य की उत्पत्ति ईश्वर की इच्छा के अनुसार हुई है।’ यहूदियों के अनुसार, “ईश्वर ने स्वयं राज्य की स्थापना की है।” सेण्ट पॉल के शब्दों में, “राजा को ईश्वर ने बनाया है। अतः ईश्वर ने ही राज्य का निर्माण किया है।”

संक्षेप में इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य ईश्वरीकृत है, धरती पर ईश्वर का अवतार है, राज्य के पास दैवीय अधिकार हैं, राजा की आज्ञा का पालन करना जनता को कर्तव्य है और उसकी आलोचना करना महापाप है। ऑक्सबर्ग के अनुसार इस सिद्धान्त का मुख्य आधार है–संसार में समस्त सत्ता, सरकार तथा व्यवस्था ईश्वर ने उत्पन्न की है और स्थापित भी की है।

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प्रश्न 2.
राज्य की उत्पत्ति के मातृक तथा पैतृक सिद्धान्त का परीक्षण कीजिए।
उत्तर
राज्य की उत्पत्ति का मातृक तथा पैतृक सिद्धान्त
भूमि की उत्पत्ति के इन सिद्धान्तों के अनुसार राज्य परिवार का विकसित रूप है। इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार आदिकाल में परिवार पितृ-प्रधान नहीं, वरन् मातृ-प्रधान थे। इनके अनुसार वंशानुक्रम पुरुष के नाम से न चलकर स्त्री के नाम से चलता था। माता की मृत्यु के बाद सम्पत्ति भी उसकी सबसे बड़ी लड़की को ही मिलती थी। जे०जे० वेशोफैन के अनुसार, “प्रारम्भिक समाज में न केवल वंश परम्परा माता से होती थी और सम्पत्ति का अधिकार स्त्री को ही प्राप्त होता था, वरन् समाज की स्त्रियों की स्थिति भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थी।” मातृक सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक समाज में कबीले गोत्र में, गोत्र परिवार में, परिवार व्यक्तियों में और व्यक्ति समाज में बँट गए जिससे राज्य की उत्पत्ति हुई।

पैतृक सिद्धान्त के प्रमुख व्याख्याकार सर हेनरीमैन हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य परिवार में रहक़र जीवन व्यतीत करता था। परिवार के समस्त सदस्यों पर पिता का पूर्ण नियन्त्रण रहता था। इस प्रकार के परिवार पैतृक कहलाते थे। कालान्तर में ऐसे परिवार विकसित होकर गोत्र, कबीले और जन में परिवर्तित हो गए। कबीलों से मिलकर राज्य का निर्माण हुआ।

  1. इन सिद्धान्तों के पीछे ऐतिहासिक प्रमाणों का अभाव है।
  2. इन सिद्धान्तों में राज्य की उत्पत्ति की अपेक्षा परिवार की उत्पत्ति की व्याख्या की गई है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
क्या राज्य एक दीर्घ विकास का परिणाम है?
उत्तर
यह सही है कि राज्य एक दीर्घ विकास का परिणाम है। धीरे-धीरे उसका विकास हुआ है। अनेक तत्त्वों ने इसके विकास में सहयोग दिया है; जैसे–रक्त सम्बन्ध, धर्म, वर्ग-संघर्ष तथा युद्ध, राजनीतिक चेतना, आर्थिक आवश्यकताएँ आदि। मनुष्य का आदिम सामाजिक संगठन सरल ढंग का था। वातावरण के प्रभाव से बदली हुई परिस्थितियों के कारण वह जटिल हो गया। इसी से आगे चलकर राजनीतिक संगठन का उदय हुआ। इसी ने विकसित होकर आधुनिक राज्य का रूप धारण कर लिया।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य की उत्पत्ति के मुख्य सिद्धान्तों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. सामाजिक समझौता सिद्धान्त
  2. ऐतिहासिक तथा विकासवादी सिद्धान्त,
  3. दैवी सिद्धान्त तथा
  4. मातृ-सत्तात्मक तथा पितृसत्तात्मक सिद्धान्त।

प्रश्न 2.
समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए किसकी आवश्यकता होती है?
उत्तर
समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ नियमों की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 3.
राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त के अनुसार राज्य का निर्माण किसने किया है?
उत्तर
राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त के अनुसार राज्य का निर्माण ईश्वर ने किया है।

प्रश्न 4.
सामाजिक समझौते के सिद्धान्त का सार किन तीन तत्त्वों में निहित है?
उत्तर

  1. प्राकृतिक अवस्था,
  2. समझौता तथा
  3. नागरिकों का समाज।

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प्रश्न 5.
राज्य के विकास के तीन तत्त्वों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. रक्त सम्बन्ध,
  2. धर्म तथा
  3. राजनीतिक चेतना।

प्रश्न 6.
‘सामाजिक समझौता (सोशल कॉण्ट्रेक्ट) नामक पुस्तक का लेखक कौन था? (2016)
उत्तर
रूसो।

प्रश्न 7.
प्लेटो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए? (2016)
उत्तर
दस हजार (10000)।

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बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. प्राकृतिक अवस्था में मानव-जीवन था
(क) एकाकी
(ग) सम्पत्तिहीन
(ख) बर्बर
(घ) ये सभी

2. राज्य की उत्पत्ति का सबसे मान्य सिद्धान्त कौन-सा है?
(क) विकासवादी सिद्धान्त
(ख) सामाजिक समझौता सिद्धान्त
(ग) मातृक तथा पैतृक सिद्धान्त
(घ) दैवी सिद्धान्त

3. किसके मतानुसार ईश्वर ने स्वयं राज्य की स्थापना की है?
(क) यहूदियों के
(ख) हिन्दुओं के
(ग) मुस्लिमों के
(घ) सिक्खों के

4. पैतृक सिद्धान्त के प्रमुख व्याख्याकार कौन हैं?
(क) जे० जे० वेशोफैन
(ख) सर हेनरीमैन
(ग) स्मिथ
(घ) रूसो

5. सामाजिक समझौता सिद्धान्त के प्रणेता हैं-
(क) हॉब्स
(ख) लॉक
(ग) रूसो
(घ) ये सभी

उत्तर-

1. (घ) ये सभी,
2. (क) विकासवादी सिद्धान्त,
3. (क) यहूदियों के,
4. (ख) सर हेनरीमैन,
5. (घ) ये सभी।

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UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 12 Female Persecution

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 12 Female Persecution (महिला उत्पीड़न) are part of UP Board Solutions for Class 12 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 12 Female Persecution(महिला उत्पीड़न).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Sociology
Chapter Chapter 12
Chapter Name Female Persecution
(महिला उत्पीड़न)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Sociology Chapter 12 Female Persecution(महिला उत्पीड़न)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
महिला उत्पीड़न से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:

महिला उत्पीड़न

भारत पर ब्रिटिश शासन का लगभग 200 वर्ष तक प्रभुत्व रहा है। इससे पूर्व मुगलों का एक लम्बा शासनकाल भारत में रहा है। इन सैकड़ों वर्षों में भारतीय संस्कृति, मूल्य, आदर्श और मान्यताएँ एक के बाद एक लचर होती गईं।

सच्चिदानंद सिन्हा हिंसा की मूल प्रवृत्तियों को खंगालते हुए कहते हैं, “हिंसा मानव की एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसका निर्गुण में जितना निषेध होता है, सगुण में उसका उतना ही जबरदस्त आकर्षण भी है।” अहिंसा परम धर्म है, यह लगभग सभी प्राचीन भारतीय धर्मों-बौद्ध, जैन या सनातनियों द्वारा उद्घोषित होता है। ईसाई धर्म में तो एक गाल पर कोई चाँटी मारे तो दूसरा गाल भी मारने वाले के सामने कर देना ईसा मसीह के उपदेश का मूल-मंत्र है, लेकिन व्यवहार में धर्म का यह रूप कहीं नहीं दिखाई देता है।

मनुष्य में हिंसा की पाशविक प्रवृत्तियाँ सदैव रही हैं। उसने सभ्यता के विकास और शिक्षा की ओढ़नी ओढ़ रखी है। आज भी हम मुक्केबाजी में खून से लथपथ बॉक्सर को देखकर आनंदित होते हैं, बुल-फाइटिंग देखकर अपना मनोरंजन करते हैं और डब्ल्यू डब्ल्यू०एफ० में भारी-भरकम पहलवानों की धरपटक कुश्ती या फाइटिंग का मजा लेते हैं एवं मुर्गे को हलाल कर उसके तड़पने का मजा लेते हैं। इस प्रकार ऐसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं। डाकू आज भी सामूहिक कत्ल करने में संकोच नहीं करता, आतंकवादी और नक्सलवादी कत्लेआम करते रहते हैं। क्या ये 21वीं सदी के सभ्य-शिक्षित, वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील समाज के चिह्न हैं? ये सभी हिंसी की प्रवृत्तियों के उदाहरण हैं।

इस भौतिक और भोगवादी संस्कृति में रिश्तों के नाम गुम हो रहे हैं। उसका रिश्ता केवल स्वयं से है। वह सब कुछ मनमानी करने के लिए स्वतन्त्र है, उसे न समाज का भय है और न संबंधियों का, तभी तो रिश्तों, यहाँ तक कि खून के रिश्तों में भी बलात्कार जैसी निकृष्ट घटनाएँ घटने लगी हैं। यह कैसा उत्पीड़न है, जहाँ स्त्री जीवनपर्यंत घुट-घुटकर मरती है। यह कैसा समाज है, जो स्त्री को जिंदा ही मार देता है।

यह नव-जन्मा युवा वर्ग, स्थापित मर्यादाओं और मूल्यों के विरुद्ध खड़ा हुआ है जिसकी सोच में पाश्चात्य देशों की खुली-सेक्स संस्कृति का स्वप्न है, जो चलते-फिरते व्यंग्यों से युवतियों को अपमान करता रहता है। जंगल की आग की तरह भय लड़कियों में समाता जा रहा है कि वे कैसे स्कूल, कॉलेज, बाजार या नौकरी पर जाएँ; क्योकि जगह-जगह छेड़ने वाले खड़े हैं। ये नवयुवतियाँ कितनी अपमानित हों और किस सीमा तक, इसके अलावा प्रतिरोध करने पर ये अराजक तत्त्व लड़की पर सार्वजनिक स्थानों पर ही तेजाब तक फेंककर उसे बदसूरत बना देते हैं। यह सामाजिक-सामूहिक उत्पीड़न इस अनैतिक व अपराधी समाज में उत्पन्न हुआ है।

भारतीय समाज में सदियों से स्त्री की स्थिति कितनी दयनीय और सोचनीय रही है? वर्षों-वर्षों तक उसका स्वरूप स्त्री के रूप में दासी की तरह रहा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में स्त्रियों का तरह-तरह से शोषण और उत्पीड़न हो रहा है। विज्ञापनों और चलचित्रों में जिस रूप में स्त्री या युवती को प्रस्तुत किया जा रहा है, इसका प्रभाव खुले रूप में समाज में दिखाई पड़ता है। प्रेम और कामवासना की भावना जन्मजात होती है, किन्तु जिस रूप में यह पनप रहा है, वह परिवार, समाज और देश के तथा संस्कृति के लिए घातक हैं।

इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि दुनिया के हर क्षेत्र ने स्त्रियों के पैरों में बेड़ियाँ डाली हैं। हर जगह। उसे पुरुष के अधीन रहना है। इस दृष्टि से स्त्री का घर में भी भरपूर उत्पीड़न हो रहा है और वह घर के बाहर भी सुरक्षित नहीं है। आर्थिक-सामाजिक मूल्यों में जो गिरावट आई है, उसने पूरे समाज, देश व राष्ट्र को झकझोर कर रख दिया है। लोकतंत्र में स्त्री का अपमान, उत्पीड़न, अत्याचार आदि भयमुक्त समाज की देन हैं। हम लोकतंत्र के दोराहे पर खड़े अभी रास्ता ढूंढ़ रहे हैं कि देश को किस रास्ते पर ले जाएँ।

 

1947 से लेकर आज तक हम भटकाव की स्थिति में हैं। यही कारण है। कि लोकतंत्र अराजकता में बदलता जा रहा है और स्त्री का सार्वजनिक स्थानों पर अपमान हो रहा है। दुःख इस बात का है कि स्त्री हिंसा की प्रवृत्तियों में कमी आने के बजाय उसमें वृद्धि हो रही है। हम किसी-न-कि- 7 में स्त्री को अपमानित कर रहे हैं, उत्पीड़न और अत्याचार कर रहे हैं। दूसरे को किसी भी रूप में कष्ट पहुँचाना हिंसा है चाहे वह शब्दों से हो या व्यवहार से अथवा किसी के प्रति मन में बुरी भावना आना भी हिंसा है। इस दृष्टि से यदि देखा जाए तो समाज के चारों ओर का परिदृश्य कहीं-न-कहीं हमें हिंसात्मक दिखाई पड़ता है, भले ही उसका स्वरूप कुछ भी हो।

प्रश्न 2
सती प्रथा से क्या आशय है? भारत में इसका उन्मूलन किस प्रकार सम्भव हो सका?
उत्तर:
सती-प्रथा पी०वी० काणे लिखते हैं-“आजकल भारत में सती होना अपराध है, किन्तु लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व (सन् 1829 से पूर्व) इस देश में विधवाओं का सती हो जाना एक धर्म था। विधवाओं का सती अर्थात् पति की चिता पर जलकर भस्म हो जाना केवल ब्राह्मण धर्म में नहीं पाया गया है, प्रत्युत यह प्रथा मानव समाज की प्राचीनतम धार्मिक धारणाओं एवं अंधविश्वासपूर्ण कृत्यों में समाविष्ट रही है। सती होने की प्रथा प्राचीन यूनानियों, जर्मनों, स्लावों एवं अन्य जातियों में पाई गई है, किन्तु इसका प्रचलन बहुधा राजघरानों एवं भद्र लोगों में ही रहा है। पति की मृत्यु पर विधवा के जल जाने को सहमरण या सहगमन या अन्वारोहण कहा जाता है, किन्तु अनुसरण तब होता है। जब पति और कहीं मर जाता है तथा जला दिया जाता है और उसकी भस्म के साथ या पादुका के साथ या बिना किसी चिह्न के उसकी विधवा जलकर मर जाती है।

भारत में अनेक धर्मग्रंथों में सती-प्रथा का उल्लेख मिलता है। बहुत-से अभिलेखों में सती होने के उदाहरण प्राप्त होते हैं, इनमें सबसे प्राचीन गुप्त संवत् 191 (510 ई०) का है। कभी-कभी भारतीय धर्म पर तरस आता है कि उसने स्त्री के साथ इतना अन्याय और अत्याचार कैसे किया ? यदि स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं तो नियम और सिद्धान्त दोनों के लिए समान होने चाहिए। इस दृष्टि से पत्नी की मृत्यु के पश्चात् उसकी चिता पर पति क्यों नहीं जलकर भस्म होता है? स्त्री के साथ ही इतना अमानवीय और पाशविक व्यवहार क्यों? राजा राममोहन राय की अनुपस्थिति में उनकी भाभी सती हो गई थी, इस घटना ने उन्हें झकझोरकर रख दिया। सती-प्रथा के विरुद्ध उन्होंने आन्दोलन छेड़ा तथा इसके विरुद्ध कानून बनवाकर ही उन्होंने साँस ली। सती-प्रथा भारतीय समाज, हिन्दू धर्म पर कलंक थी, हालाँकि अभी भी भूले-भटके इस प्रकार की घटनाएँ प्रकाशित होती हैं।

प्रश्न 3
घरेलू हिंसा से क्या तात्पर्य है? महिलाएँ किस प्रकार घरेलू हिंसा से पीड़ित हैं?
या
महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के विभिन्न स्वरूपों की विवेचना कीजिए। [2017]
या
“महिलाओं के विरूद्ध अत्याचार एक ज्वलंत सामाजिक समस्या है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय समाज में महिलाओं को घरेलू हिंसा एवं उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। यह उत्पीड़न भी अत्यधिक व्यापक है। इसमें भी साधारण उत्पीड़न से लेकर हत्या तक के उदाहरण प्रायः मिलते रहते हैं। इस वर्ग के उत्पीड़न एवं हिंसा का विवरण निम्नवर्णित है

1. दहेज के कारण होने वाली हत्याएँ-भारतीय समाज में दहेज प्रथा भी एक प्रमुख समस्या मानी जाती है। यह भारतीय समाज में पाया जाने वाला एक ऐसा अभिशाप है जो आज भी अनेक सरकारी एवं गैर-सरकारी प्रयासों के बावजूद अपनी अस्तित्व बनाए हुए है। दहेज के कारण लड़की के माता-पिता को कई बार अनैतिक साधनों को अपनाकर उसके दहेज का प्रबन्ध करना पड़ता है। ज्यादा दहेज न ला पाने के कारण अनेक नवविवाहित वधुओं को सास-ससुर तथा ननद आदि के ताने सुनने पड़ते हैं।

कई बार तो उन्हें दहेज की बलि पर जिन्दा चढ़ा दिया जाता है। दहेज प्रथा के कारण बेमेल विवाहों को भी प्रोत्साहन मिलता है तथा वैवाहिक एवं पारिवारिक जीवन अत्यन्त संघर्षमय हो जाता है। दहेज न लाने वाली वधुओं को विविध प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक कष्ट सहन करना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप वे अनेक बीमारियों का शिकार हो जाती है। दुःख की बात तो यह है कि पढ़ी-लिखी लड़कियाँ तथा उनके पढ़े-लिखे माता-पिता भी इस बुराई का विरोध नहीं करते अपितु ज्यादा दहेज देना अपनी शान एवं प्रतिष्ठा समझते हैं।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में दहेज के कारण होने वाली स्त्रियों की हत्याओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। राम आहूजा के अनुसार दहेज हत्याओं की शिकार अधिकतर मध्यम वर्ग की महिलाएँ होती हैं। ये अधिकतर उच्च जातियों में होती हैं तथा पति पक्ष के लोगों द्वारा ही की जाती हैं। दहेज हत्याओं की शिकार स्त्रियों की आयु 21 से 24 वर्ष के बीच होती है। तथा परिवार की रचना की इन हत्याओं में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। दहेज हत्या से पहले स्त्रियों को अनेक प्रकार की यातनाएँ दी जाती हैं तथा उनका उत्पीड़न किया जाता है।

2. विधवाओं पर होने वाले अत्याचार-भारतीय समाज में विधवाओं की सामाजिक स्थिति अत्यन्त निम्न रही है। हिन्दू समाज में तो स्त्री का पति ही सब कुछ माना जाता है तथा उसे भगवान व देवता तक का पद प्रदान किया जाता है। पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा स्त्री की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो जाती है तथा परिवार और समाज के सदस्य उसे हीन दृष्टि से देखते हैं। उन्हें पुनर्विवाह करने की अनुमति भी प्रदान नहीं की जाती है जिसके कारण उन्हें पति के परिवार में ही अपमानजनक, उपेक्षित, नीरस एवं आर्थिक कठिनाइयों से भरा हुआ जीवन व्यतीत करना पड़ता है। विधवाओं का किसी भी शुभ अवसर पर जाना अपशगुन माना जाता रहा है। इसलिए उन्हें सामाजिक जीवन से अलग-थलग कर दिया जाता रहा है।

आज भी उनकी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। यद्यपि कानूनी रूप से विधवाओं के पुनर्विवाह को मान्यता प्रदान की गई है, तथापि आज भी इसका प्रचलन अधिक नहीं हो पाया है। राम आहूजा के अनुसार विधवाओं पर अत्याचार करने वाले व्यक्ति पति पक्ष के होते हैं जो उन्हें उनके पतियों की सम्पत्ति से वंचित रखना चाहते हैं। विधवाओं को अपने पतियों के व्यापार आदि के बारे में काफी कम जानकारी होती है। यही अज्ञानता उनके शोषण का प्रमुख कारण बन जाती है। इनका कहना है कि युवा विधवाओं को अधिक अपमान एवं शोषण सहन करना पड़ता है। यद्यपि विधवाओं पर होने वाले अत्याचारों के लिए सम्पत्ति की प्रमुख भूमिका होती है, तथापि विधवाओं की निष्क्रियता एवं बुजदिली भी इसमें सहायक कारक हैं।

3. तलाकशुदा स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार-विवाह-विच्छेद अथवा तलाक भारतीय स्त्रियों की एक प्रमुख समस्या है। परम्परागत रूप से पुरुषों को अपनी पत्नियों को तलाक देने का अधिकार प्राप्त था। मनुस्मृति में कहा गया है कि यदि कोई स्त्री शराब पीती है, हमेशा पीड़ित रहती है, अपने पति की आज्ञा का पालन नहीं करती है तथा धन का सर्वनाश करती है तो मनुष्य को उसके जीवित रहते हुए भी दूसरा विवाह कर लेना चाहिए। पुरुषों की ऐसी स्थिति होने पर स्त्री को उन्हें छोड़ने का अधिकार प्राप्त नहीं था। तलाकशुदा स्त्री को आज भी , समाज में एक कलंक माना जाता है तथा हर कोई व्यक्ति उसी को दोष देता है चाहे यह सब उसके शराबी, जुआरी व चरित्रहीन पति के कारण ही क्यों न हुआ हो।

उसे सब बुरी नजर से देखते हैं तथा आजीविका का कोई साधन न होने के कारण वह यौन शोषण का शिकार बन जाती है। तलाक के बाद उसके सामने तथा अपने बच्चों का पेट भरने की समस्या उठ खड़ी होती है। समाज के कुछ दलाल ऐसी स्त्रियों को बहका-फुसलाकर वेश्यावृत्ति जैसे अनैतिक कार्य करने पर विवश कर देते हैं। वे बेचारी न चाहती हुई भी अनेक समस्याओं का शिकार हो जाती हैं।

4. पत्नी की मार-पिटाई-घरेलू हिंसा का एक अन्य रूप पत्नी के साथ होने वाली मार-पिटाई है। अनेक स्त्रियाँ पति द्वारा किए जाने वाले इस प्रकार के अत्याचारों को चुपचाप सहन करती रहती हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस प्रकार की घटनाओं में काफी वृद्धि हुई है यद्यपि इसके बारे में किसी भी प्रकार के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। राम आहूजा के अनुसार मार-पिटाई की शिकार स्त्रियों की आयु अधिकतर 25 वर्ष से कम होती है। अधिकतर ऐसी घटनाएँ निम्न आय वाले परिवारों में अधिक होती हैं। इसके कारणों का उल्लेख करते हुए आहूजा ने बताया है कि इनमें यौनिक असामंजस्य, भावात्मक अशान्ति, पति का अत्यधिक घमण्डी होना, पति का शराबी होना तथा पत्नी की निष्क्रियता व बुजदिली प्रमुख हैं।

प्रश्न 4
महिला उत्पीड़न के कारण व उत्तर:दायी तत्वों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:

महिला उत्पीड़न के कारण एवं उत्तर:दायी तत्त्व

स्त्री-हिंसा, उत्पीड़न, अत्याचार, शोषण आदि इस बात पर निर्भर करता है कि समाज की व्यवस्था और संरचना कैसी है? स्त्री की आर्थिक-सामाजिक स्थिति कैसी है? परिवार में उसका मान कैसा है? स्त्री स्वावलंबी और शिक्षित है कि नहीं। शासन-व्यवस्था में कानून की भूमिका कैसी है? उपर्युक्त वे पहलू या कोण हैं जिनके आधार पर हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि स्त्री-हिंसा में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका किसकी है? पुरुषों के अतिरिक्त महिला उत्पीड़न में कुछ महिलाएँ भी अपने निहित स्वार्थों के कारण स्त्री-हिंसा में सहभागी बन जाती हैं।

लेकिन मुख्य रूप से पुरुष वर्ग ही स्त्री के साथ अत्याचार करता है, शोषण करता है तथा धोखा देकर उत्पीड़न करता है। इसके साथ-ही-साथ कुछ चीजें ऐसी हैं जो स्त्री के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए विवश करती हैं। ये वे लोग हैं जो समाज से उपेक्षित हैं, इन्हें मान-सम्मान कहीं नहीं मिला, ये निराशावादी और कुंठाग्रस्त होते हैं तथा इनमें हीनता की भावना इतनी अधिक होती है कि ये बात-बात पर अपना आक्रोश प्रकट करते हैं। इस प्रकार निराशा और हताशा की स्थिति में ये स्त्रियों के साथ किसी सीमा तक जा सकते हैं, इस श्रेणी में वे लोग भी आते हैं जो वैयक्तिक विघटन के शिकार हो गए हैं अथवा जिनकी स्थिति एवं भूमिका के साथ परिवार में द्वंद्व है, ऐसे लोग अच्छे और बुरे का अन्तर भी भूल जाते हैं।

इस प्रकार के व्यक्ति स्त्री के साथ परिवार और परिवार के बाहर कुछ भी कर सकते हैं; क्योकि ये मानसिक रूप से बीमार हैं। विकृत व्यक्तित्व का व्यक्ति, शक्की, ईष्र्यालु, झगड़ालू तथा बात-बात पर लड़ने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति अपनी पत्नी, बेटी या परिवार की स्त्री के साथ अत्याचार करते हैं तथा मार-पीट और गाली-गलौज की भी सीमाएँ लाँघ जाते हैं। इस तरह पुरुष चाहे स्वस्थ मस्तिष्क का हो या विकृत मानसिकता और सोच का अथवा हीन-भावना से ग्रस्त हो, इन सबका कहर स्त्री पर ही टूटता है। मूलतः पुरुषप्रधान समाज ही यौन-हिंसा के लिए भी उत्तर दायी है।

प्रश्न 5
समाज में स्त्री हिंसा के पोषक तत्त्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
स्त्री-हिंसा के पोषक तत्त्व व्यक्ति परिस्थितियों का दास है, पर स्त्री और पुरुष की परिस्थितियों में अन्तर है। क्षमता, शक्ति, योग्यता और संषर्घ करने की क्षमता में भी अन्तर है, संवेदनशीलता में भी काफी अन्तर है। ऐसा नहीं है कि महिलाएँ अपराधी नहीं हैं, वे भी डकैती से लेकर तस्करी तक के क्षेत्र में नामजद हैं। और उन पर भी मुकदमे दर्ज हैं। जेल में हजारों की संख्या में महिलाएँ भी हैं। हत्या जैसे जघन्य अपराध में भी महिलाएँ पीछे नहीं हैं, लेकिन इन सबके पीछे किसी-न-किसी व्यक्ति या अपराधी समूह या रैकेट का हाथ होता है। वर्तमान समय में न जाने कितने यौनकर्मियों के रैकेट हैं, जोकि पुरुषों के निर्देशन में महिलाएँ चला रही हैं।
महिला उत्पीड़न एवं स्त्री-हिंसा के पोषक तत्त्व निम्नलिखित हैं

  1. अराजक तत्त्व इनका कोई धर्म, जाति व संप्रदाय नहीं होता। जब भी लोकतंत्र कमजोर होता है, अराजक तत्त्वों का दबदबा समाज में बढ़ जाता है। इस प्रकार के लोग दिनदहाड़े लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बलात्कार, अपहरण आदि की दुर्घटनाएँ बढ़ जाती हैं।
  2. माफिया नगरों और महानगरों में तरह-तरह के माफियाओं के संगठन हैं। ये धन, बल, गुंडई, राजनीति आदि में शक्तिशाली हैं। इनकी पहुँच दूर-दूर तक है। ये नियोजित ढंग से लड़कियों और महिलाओं को अपने जाल में फंसाकर उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं।
  3. नशे की दुनिया और नशेबाज इनके चरित्र का अनुमान लगाना कठिन है। विशेषतौर से निम्न और निम्न मध्यम-वर्ग के नशेबाज चौराहों पर लड़कियों के स्कूल के पास खड़े होकर छेड़खानी करना, व्यंग्य मारना, भद्दे-भद्दे मजाक करना, जबरदस्ती प्यार दर्शाना आदि करते हैं। इस प्रकार के लोग अपनी निजी जिन्दगी में भी अपनी पत्नी और बच्चों को मारते-पीटते हैं और कभी-कभी ये इतने उत्तेजित हो जाते हैं कि पत्नी-बच्चों की हत्या तक कर देते हैं।
  4. विद्वेष की भावना लड़की जब प्रेमजाल में नहीं हँसती तो बदला लेने की भावना से उस पर तेजाब फेंका जाता है। अपहरण करके सामूहिक बलात्कार यहाँ तक कि उसकी हत्या तक कर दी जाती है।
  5. परिस्थितिवश परिवार में कभी-कभी अचानक ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जो अचानक विस्फोटक बन जाती हैं; जैसे-छोटी-छोटी बातों को लेकर बहस करना, बच्चों को डाँटना, घरेलू कार्यों को लेकर अथवा किसी और कारण से ऐसी गर्म और उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति तैयार हो जाती है कि गाली-गलौज और मारपीट तक की नौबत आ जाती है। इसी प्रकार की परिस्थितियों में घर-परिवार में भी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है जिसमें घर की अन्य महिला सदस्य भी सम्मिलित होती हैं। अतः इस प्रकार की घटनाएँ घरेलू हिंसा की श्रेणी में आती हैं।
  6. देह-व्यापार के रैकेट ये वे रैकेट हैं जो अपने व्यापार में चतुर, सक्षम और अनुभवी होते हैं। ये लड़की को अपनी चालों में फंसाकर उसके घर और परिवार से बाहर निकाल लाते हैं। इसके अलावा ये रैकेट लड़की का अपहरण करके भी उन्हें जबरदस्ती देह-व्यापार के धंधे में डालते हैं तथा ऐसा करने के लिए लड़की को विवश करते हैं, इसके लिए उसे तरह-तरह की यातनाएँ दी जाती हैं और यह तब तक चलता है जब तक वह देह-व्यापार का हिस्सा नहीं बन जाती।

समाज में यौन-उत्पीड़न, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार आदि को नियंत्रित करने हेतु उच्चस्तरीय कार्यवाही आवश्यक है जिसके तहत इस प्रकार की गतिविधियों और अभद्र व्यवहार को रोका जा सके।

प्रश्न 6
पंचवर्षीय योजनाओं में महिला कल्याण योजनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

नारी और पंचवर्षीय योजनाएँ।

प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56)-यह कल्याणकारी लक्ष्यों को लेकर बनाई गई थी। महिला कल्याण के मुद्दे इसमें समाहित थे। केन्द्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड (सी०एस०डब्ल्यू० बोर्ड) ने स्वैच्छिक संस्थाओं से मिलकर या इनके सहयोग से स्त्री कल्याण का बहुत कार्य किया।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61)-द्वितीय योजना की मुख्य बात यह है कि इनमें महिलामंडलों को प्रोत्साहित किया गया कि वे जमीनी स्तर पर कार्य करें जिससे कि कल्याणकारी लक्ष्यों की प्रगति हो सके, साथ ही बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसरों को उत्पन्न करना। आय और सम्पत्ति में असमानता घटाना था।

तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-62 से 1965-66)-इस योजना में महिला शिक्षा पर अत्यधिक जोर दिया गया और प्राथमिकता भी दी गई। माँ और बच्चों के स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया गया। गर्भवती स्त्रियों को सुविधाएँ प्रदान करने के लिए कार्यक्रम बनाए गए। समानता के बेहतर अवसरों का विकास करना और आय तथा सम्पत्ति के अन्तर को घटाना, साथ ही धन के समान वितरण की बेहतर व्यवस्था करना।

चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74)-इस योजना के तहत् समानता और सामाजिक न्याय को प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रमों को प्रेरित करना था जिससे जीवन स्तर अच्छा हो सके।

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79)-इस योजना में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव आया कि ‘कल्याण’ शब्द के स्थान पर विकास शब्द को रखा गया। इस दृष्टि से सामाजिक कल्याण का दायरा काफी बढ़ गया। परिवार की विभिन्न समस्याओं पर विचार किया जाने लगा। वहीं स्त्री की भूमिका पर भी ध्यान दिया गया कि वह देश के विकास में किस प्रकार उपयोगी होगी। यह कल्याण और विकास की अवधारणा के मध्य एक नवीन समन्वयात्मक उपागम था।

छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85)-इस योजना में महिला कल्याण व विकास को एक पहचान ही नहीं मिली, बल्कि उसको प्राथमिकता प्रदान की गई। महिला विकास हेतु एक पृथक् सेक्टर का प्रस्ताव रखा गया जिससे कि महिलाओं का विकास समुचित ढंग से हो सके। इसकी मुख्य बात स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार था। यह महसूस किया गया कि चीजें अति आवश्यक हैं, बुनियादी हैं।

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90)-महिला विकास का कार्यक्रम वैसा ही चलता रहेगा, परन्तु महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में इस तरह का बदलाव लाया जाए जिससे कि वे राष्ट्र की मुख्य विकास की धारा में शामिल हो सकें। इस दृष्टि से महिलाओं के लिए लाभप्रद कार्यक्रमों को प्रोत्साहित किया जाने लगा जिससे महिलाओं को आर्थिक लाभ प्राप्त हो सके और उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति बेहतर हो सके।

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97)-इस योजना में यह सुनिश्चित किया गया कि विकास लाभ स्त्रियों को प्राप्त हो रहा है अथवा नहीं। ऐसा तो नहीं है कि उनकी उपेक्षा की जा रही हो। कुछ विशेष कार्यक्रम भी चलाए गए जिससे स्त्रियों को अतिरिक्त लाभ प्राप्त हो सके। इन कार्यक्रमों पर निगाह रखी गई जिससे इनमें कोई गड़बड़ी न हो सके। विकास कार्यक्रम का लक्ष्य स्त्रियों को इस योग्य बनाया जाना था कि वे पुरुषों के समान विकास कार्य में भाग ले सकें। निश्चय ही सरकार का यह कदम सामाजिक-आर्थिक विकास से महिला सशक्तीकरण की ओर ले जाता है।

नौवी पंचवर्षीय योजना (1997-2002)-यह देश की आजादी के पचासवें वर्ष में शुरू हुई। योजना का लक्ष्य था–सभी स्तरों के लोगों को विकास कार्य से जोड़ा जाए। महिलाओं को. सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन और विकास के लिए अधिकार सम्पन्न बनाया जाए।

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007)-इस योजना के केन्द्र में लक्ष्य था कि विकास इस तरह हो कि नीचे के पिछड़े, दलित, निर्धन लोगों को लाभ प्राप्त हो सके। यह लाभ सभी स्त्री-पुरुष को समान रूप से प्राप्त हो तथा नौकरी के अवसर सभी को समान रूप से प्राप्त हों एवं इसमें संतुलित विकास का लक्ष्य रखा गया।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012)-इस योजना का लक्ष्य समावेशी विकास, था . जिसमें देश की प्रत्येक महिला को स्वयं विकसित करने में सक्षम बनाना प्रमुख है तथा यह आभास कराना कि वे देश की आर्थिक समृद्धि एवं विकास का प्रमुख घटक हैं।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017)-इस योजना में महिला सशक्तीकरण को मुख्य लक्ष्य के रूप में रखा गया है। इसके लिए, ‘स्वाधार’ नामक एक 24 × 7 महिला हेल्पलाइन, ‘उज्ज्वला’ नामक तस्करी रोधी योजना को कार्यान्वित किया जा रहा है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
पुनर्जागरण काल में महिलाओं की क्या स्थिति थी?
उत्तर:

पुनर्जागरण काल में महिलाओं की स्थिति

भारतीय समाज के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक ढाँचे में स्त्री की स्थिति दोयम पायदान पर रही है। उसे उसका अधिकार नहीं मिला। वह ऐसी स्थिति और परिस्थिति से घिरी रही है, जहाँ से बाहर निकलना कठिन रहा है। धार्मिक अंधविश्वासों और रूढ़ियों ने उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं। वे अभी भी कहीं-न-कहीं उन्हें कमजोर बनाए हुए हैं।

एक नई चेतना और सुधार का युग नवजागरण के साथ आरम्भ हुआ। 19वीं सदी के पूर्व नवजागरण का संदेश धर्म के विभिन्न संप्रदायों द्वारा दिया गया। जाति-पाति, छुआछूत, ऊँच-नीच आदि सामाजिक समस्याओं एवं कुरीतियों का विरोध धार्मिक संतों, सूफियों आदि के द्वारा किया गया। 19वीं शताब्दी के बाद मूलतः वे धार्मिक तत्व नष्ट तो नहीं हुए, किन्तु उनका स्वरूप परिवर्तित हो गया। कहीं पर यह यूरोपीय संस्कृति से प्रेरित होता प्रतीत होता है और कहीं पर विशुद्ध भारतीय धर्म की ओर अग्रसर होने के लिए आन्दोलन छेड़ता है।

18वीं शताब्दी के भारत का यदि अवलोकन किया जाए, तो यह युग संक्रमण काल का था। राजनीतिक दृष्टि से मुगल सिंहासन डाँवाडोल था। मुगल शासन नीति के तहत धार्मिक कट्टरता ने भारत में अनेक समस्याओं को जन्म दिया। यह वह युग था जिसमें स्त्री से जुड़ी अनेक समस्याओं ने अपनी मजबूत जगह बना ली; जैसे-बाल-विवाह, सती-प्रथा, विधवा-पुनर्विवाह निषेध आदि। नवजागरण के समाज सुधारकों ने स्त्री समस्याओं और उत्पीड़न के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा। पुनर्जागरण आन्दोलन के पिता कहे जाने वाले राजा राममोहन राय ने सती-प्रथा के विरुद्ध आवाज बुलंद की और अंततः अंग्रेजों को सन् 1829 में सती-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित करके कानून बनाना पड़ा।

इसी तरह उन्होंने बहुपत्नी प्रथा का विरोध किया। भारत में धर्म और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों के साथ अत्याचार होते रहे हैं, शोषण और उत्पीड़न होता रहा है। इसके साथ एक लम्बा इतिहास जुड़ा है, इसलिए स्त्री हिंसा की जड़े बहुत गहरी हैं। उसकी पृष्ठभूमि में धर्म और संस्कृति है तो कहीं पितृसत्तात्मक व्यवस्था का दबदबा।

प्रश्न 2
अंग्रेजी शासनकाल में महिलाओं से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सामाजिक अधिनियम कौन-कौन से थे?
उत्तर:
अंग्रेजी शासनकाल के महत्त्वपूर्ण सामाजिक अधिनियम –

  1. सती-प्रथा निषेध अधिनियम (1829)
  2. बाल-विवाह निरोधक अधिनियम (1929)
  3. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (1856)
  4. हिन्दू स्त्रियों का संम्पत्ति पर अधिकार अधिनियम (1937)
  5. विशेष विवाह अधिनियम (1872, 1923, 1954)
  6. पृथक् रहने पर भरण-पोषण हेतु हिन्दू-विवाहित स्त्रियों का अधिकार अधिनियम (1946)
  7. हिन्दू विवाह निर्योग्यता निवारण अधिनियम (1946)

प्रश्न 3
स्वतन्त्रता के पश्चात भारत में महिला उत्थान के लिए कौन-कौन से अधिनियम व कानून पारित किए गए?
उत्तर:

स्वतन्त्रता के पश्चात बने अधिनियम

स्वतंत्रता के पश्चात् सरकार का यह पुनीत कर्तव्य और दायित्व था कि वह हिन्दू कानूनों को संशोधित कर उनकी कमियों का निराकरण करे। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर सन् 1948 में हिन्दू कोड बिल प्रस्तुत किया गया, किन्तु इसका विरोध होने के कारण इसे आगामी चुनाव तक स्थगित क़र दिया गया। सन् 1950 में पुनः इसे लोकसभा में प्रस्तुत किया गया, फिर भी यह पास न हो सका। इसके पश्चात् सन् 1952 में चुनाव हुआ और जनता के चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा लोकसभा का गठन हुआ। नई लोकसभा में इसे छोटे-छोटे खंडों में प्रस्तुत किया गया और वे कानून के रूप में पारित कर दिए गए। स्वतंत्रता के पश्चात् बने अधिनियम निम्नलिखित हैं

  1. हिन्दू विवाह अधिनियम (1955)
  2. हिन्दू उत्तर:ाधिकार अधिनियम (1955)
  3. हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम (1956)
  4. स्त्रियों और कन्याओं का अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम (1956)
  5. दहेज निरोधक अधिनियम (1961)
  6. चिकित्सा गर्भ समापन अधिनियम (1971)
  7. कन्या-भ्रूण हत्या अधिनियम (1994, 1996, 2003)
  8. घरेलू हिंसा अधिनियम (संरक्षण) 2005

प्रश्न 4
मूल अधिकारों में महिला अधिकारों के सन्दर्भ में क्या उल्लेखित है।
उत्तर:
संविधान के भाग 3 में मूल अधिकारों की व्याख्या की गई है। प्रजातांत्रिक देश में मूल अधिकार मानव स्वतंत्रता और प्रजातंत्र के आधार स्तम्भ हैं। अतः प्रजातांत्रिक समाज के संविधान में व्यक्तियों के मूल अधिकारों को शामिल किया जाना अत्यन्त जरूरी है। एक स्वतंत्र प्रजातांत्रिक देश में मूल अधिकार सामाजिक, धार्मिक और नागरिक जीवन के पूर्ण उपभोग के एकमात्र साधन हैं, इसलिए लोकतंत्र के आदर्शों को प्राप्त करने तथा मानव के पूर्ण विकास के लिए मूल अधिकारों का होना अत्यन्त आवश्यक है। संविधान के भाग 3 में मूल अधिकारों और भाग 4 में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों की व्याख्या की गई है। इनमें स्पष्ट रूप से महिलाओं के अधिकार संबंधी बातें कही गई हैं।

प्रश्न 5
कन्या भ्रूण हत्या पर कानूनी प्रतिबन्ध कब से लगाया गया था?
उत्तर:
पितृसत्तात्मक परिवार में पुत्र का महत्त्व कन्या से कहीं अधिक है, इसीलिए अनादिकाल से परिवार पुत्र-प्राप्ति की कामना करता है। वह वंश का नाम चलाता है। सभी प्रकार के धार्मिक कार्यों को पूर्ण करता है। यदि परिवार में पहली-दूसरी लड़की का जन्म हो जाए और इसके पश्चात् पत्नी गर्भधारण करती है तो लिंग का पता लगाने हेतु भ्रूण का लिंग परीक्षण कराया जाता है और गर्भ में लड़की है तो गर्भपात करा दिया जाता है। इससे देश में स्त्री और पुरुष के अनुपात में असंतुलन पैदा हो रहा है, इसलिए इसे रोकने हेतु प्रसव पूर्व जाँच अधिनियम, 1994 में बनाया गया तथा यह 1 जनवरी, 1996 से पूरे देश में लागू कर दिया गया।

लिंग चयन एवं भ्रूण की लिंग जाँच पर निषेध के अतिरिक्त ऐसी सेवा देने वालों के विज्ञापनों तथा प्रसव पूर्व तकनीक का प्रयोग कर भ्रूण के लिंग की जानकारी देने पर भी निषेध है। किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करने पर 5 वर्ष की कैद और र 1,00,000 का जुर्माना किया जा सकता है। ऐसे केन्द्रों का पंजीयन/लाइसेंस भी रद्द किया जा सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
स्त्रियों के विरुद्ध हिंसक व्यवहार के स्वरूप बताइए।
उत्तर:
स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा के निम्नलिखित स्वरूप हो सकते हैं-

  1. सती-प्रथा,
  2. बलात्कार, अपहरण और हत्या,
  3. कन्या-भ्रूण हत्या,
  4. घरेलू हिंसा,
  5. दहेज प्रथा,
  6. देह-व्यापार,
  7. अन्य छेड़खानी, ताना मारना, मारना-पीटना, धोखे से विवाह आदि।

प्रश्न 2
महिला समाख्या योजना पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
महिला समाख्या योजना सन् 1989 में आरम्भ की गई। इस योजना के तहत् ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएँ जो आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की हैं, उन्हें शिक्षित करने/समानता प्राप्त करने हेतु इस योजना का अपना महत्त्व है; क्योकिं महिला को शिक्षित कर उन्हें शक्तिशाली बनाना है। महिला संघ ग्रामीण स्तर पर, महिलाओं को प्रश्न करने, अपने विचार रखने और अपनी आवश्यकताओं को व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती है। इस तरह महिलाओं के व्यक्तित्व निर्माण का भी कार्य करती है और महिला सशक्तीकरण का भी।।

प्रश्न 3
शिक्षा गारंटी योजना से महिला वर्ग किस प्रकार लाभान्वित हुआ है?
उत्तर:
किसी भी समाज, देश व राष्ट्र की प्रगति के लिए बुनियादी चीजों में से एक शिक्षा भी है। अशिक्षित समाज में न तो पुरुष उन्नति कर सकती है और न ही स्त्री, इसलिए सरकार ने सर्वप्रथम शिक्षा पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस शिक्षा योजना के तहत् उन बच्चों को स्कूल लाने का प्रयास किया जाता है, जो स्कूल नहीं जाते हैं। इस योजना की विशेषता है कि दुर्गम स्थानों पर जहाँ एक किलोमीटर में कोई औपचारिक स्कूल नहीं है और स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की आयु 6-14 वर्ष के बीच है और उस क्षेत्र में 15 से 25 बच्चे तक हैं तो एक ईजीपीएस (शिक्षा गारंटी योजना) के तहत् स्कूल खोल दिया जाएगा।

प्रश्न 4
किस पंचवर्षीय योजना में महिला कल्याण शब्द के स्थान पर महिला विकास शब्द का प्रयोग किया गया था?
उत्तर:
पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79)-महिला कल्याण शब्द के स्थान पर महिला विकास शब्द का प्रयोग किया गया इससे सामाजिक कल्याण का दायरा काफी बढ़ गया। परिवार की विभिन्न समस्याओं पर विचार किया जाने लगा वहीं स्त्री की भूमिका पर भी ध्यान दिया गया कि वह देश के विकास में किस प्रकार उपयोगी होगी। यह कल्याण और विकास की अवधारणा के मध्य एक नवीन समन्वयात्मक उपागम था।

निश्वित उत्तीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
“हिंसा मानव की एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसका निर्गुण में जितना निषेध होता है सगुण में उसका उतना ही जबरदस्त आकर्षण भी है।” यह कथन किसके द्वारा प्रतिपादित है।
उत्तर:
उपर्युक्त कथन सच्चिदानन्द सिन्हा द्वारा हिंसा की मूल प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हुए कहा गया है।

प्रश्न 2
सती प्रथा उन्मूलन का श्रेय किसको जाता है?
उत्तर:
सती प्रथा उन्मूलन का श्रेय राजा राममोहन राय को जाता है।

प्रश्न 3
भारत में बाल विवाह के उन्मूलन हेतु अंग्रेजी शासनकाल में बने अधिनियम का क्या नाम था और यह कब से प्रभाव में आया था?
उत्तर:
अंग्रेजी शासनकाल में बाल विवाह रूपी ज्वलंत समस्या के निराकरण के लिए “बाल विवाह निरोधक अधिनियम 1929 में प्रभाव में आया था।

प्रश्न 4
स्वाधार’ नामक महिला हेल्पलाइन किस पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत प्रारम्भ की गई थी?
उत्तर:
स्वाधार’ नामक महिला हेल्पलाइन बारहवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत प्रारम्भ की गई थी।

प्रश्न 5
महिला समाख्या योजना कब प्रारम्भ हुई थी?
उत्तर:
महिला समाख्या योजना सम् 1989 में प्रारम्भ हुई थी।

बहुविकल्पीय प्रा (1 अंक)

प्रश्न 1.
भारत के किस प्राचीन धर्म द्वारा “अहिंसा परम धर्म” का उदघोष किया जाता है?
(क) सनातन धर्म
(ख) जैन धर्म
(ग) बौद्ध धर्म
(घ) इन सभी धर्मों द्वारा
उत्तर:
(घ) इन सभी धर्मों द्वारा

प्रश्न 2.
इनमें से स्त्री-हिंसा के पोषक तत्त्व कौन-से हैं?
(क) अराजक तत्व
(ख) माफिया
(ग) विद्वेष की भावना
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी

प्रश्न 3.
केन्द्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड ने किस पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ मिलकर महिला कल्याण के क्षेत्र में कार्य किए थे?
(क) प्रथम पंचवर्षीय योजना
(ख) द्वितीय पंचवर्षीय योजना
(ग) तीसरी पंचवर्षीय योजना
(घ) चौथी पंचवर्षीय योजना
उत्तर:
(क) प्रथम पंचवर्षीय योजना

प्रश्न 4.
पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में महिला कल्याण’ के स्थान पर किस शब्द का प्रयोग किया गया?
(क) अभिवृद्धि
(ख) विकास
(ग) आयोजना
(घ) सामाजिक कल्याण
उत्तर:
(ख) विकास

प्रश्न 5.
कन्या भ्रूण हत्या पर कानूनी प्रतिबंध के लिए बनाया गया “प्रसव पूर्व जाँच अधिनियम-1994″
कब से लागू किया गया था?
(क) 1 जनवरी, 1994
(ख) 1 जनवरी, 1995
(ग) 1 जनवरी, 1996
(घ) 1 जनवरी, 1997
उत्तर:
(ग) 1 जनवरी, 1996

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