UP Board Solutions for Class 10 Hindi तत्सम शब्द

UP Board Solutions for Class 10 Hindi तत्सम शब्द

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तत्सम शब्द

नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार प्रस्तुत प्रकरण से कुल 2 अंकों के प्रश्न पूछे जाएँगे।
ध्यातव्य – प्रस्तुत प्रकरण के अन्तर्गत शब्द-रचना/शब्द-भण्डार से सम्बन्धित सामग्री किंचित विस्तार से दी गयी है। विद्यार्थियों को ज्ञान-बोध के लिए सम्पूर्ण सामग्री का अध्ययन करना चाहिए।

शब्द–निश्चित अर्थ को प्रकट करने वाले स्वतन्त्र वर्ण-समूह को शब्द कहते हैं; जैसे–घर, मकानं, विद्यालय, सुन्दरता आदि। ये सभी शब्द वर्गों के मेल से बने हैं। इनका अपना निश्चित अर्थ है। ये स्वयं में स्वतन्त्र इकाइयाँ हैं।

शब्दों का महत्त्व—जिस प्रकार व्यक्ति के बिना समाज नहीं बन सकता, बूंद के बिना जल नहीं बन सकता, उसी प्रकार शब्द के बिना भाषा का निर्माण नहीं हो सकता। हमारे प्रत्येक भाव या विचार शब्दों के द्वारा प्रकट होते हैं। (UPBoardSolutions.com) शब्दों के बिना हम अपनी बात दूसरों तक नहीं पहुँचा सकते।।

शब्द-भण्डार–किसी भाषा में प्रयुक्त हो रहे या हो सकने वाले सभी शब्दों के समूह को उस भाषा का ‘शब्द-भण्डार’ कहते हैं। किसी भाषा के सभी शब्दों की गिनती करना सम्भव नहीं है। कारण यह है कि समय के साथ-साथ कुछ शब्दों का प्रयोग समाप्त होता रहता है तथा कुछ नये शब्द बढ़ते रहते हैं। उदाहरणार्थ-रत्ती, तोला, छटाँक, सेर आदि शब्द आजकल बाह्य (आउट ऑफ डेट) हो गये हैं। इसलिए इनका महत्त्व समाप्त होता जा रहा है। दूसरी ओर, (UPBoardSolutions.com) नयी सभ्यता के साथ-साथ टी०वी०, दूरदर्शन, वीडियो, पॉलीथिन, ऑडियो आदि शब्दों का प्रचलन बढ़ रहा है।

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शब्द-भण्डार का वर्गीकरण निम्नलिखित आधारों पर किया जाता है-

  1. इतिहास या स्रोत के आधार पर,
  2. चना के आधार पर,
  3. योग के आधार पर,
  4. करणिक प्रकार्य के आधार पर तथा
  5. अर्थ के आधार पर।

इतिहास या स्रोत की दृष्टि से वर्गीकरण

हिन्दी की शब्दावली मुख्यत: चार स्रोतों से आयी है। ये स्रोत हैं–तत्सम (संस्कृत), तद्भव, देशी भाषाएँ और विदेशी भाषाएँ। इन्हीं के आधार पर हिन्दी के शब्दों को भी चार भागों में बाँटा जाता है– तत्सम, तद्भव, देशी तथा विदेशी।

1. तत्सम शब्द-संस्कृत भाषा के ऐसे शब्द, जो हिन्दी में भी अपने मूल रूप में प्रचलित हैं, तत्सम कहलाते हैं; जैसे–पुष्प, पुस्तक, बालक, कन्या, विद्या, साधु, आत्मा, तपस्वी, विद्वान, राजा, पृथ्वी, नेता, माता, अहंकार, नवीन, सुन्दर, सहसा, नित्य, अकस्मात् आदि।।

इनके अतिरिक्त जिन संस्कृत शब्दों में संस्कृत के ही प्रत्यय लगाकर नवीन शब्दों का निर्माण किया गया है, वे भी तत्सम शब्द कहलाते हैं; जैसे-आकाशवाणी, दूरदर्शन, आयुक्त, उत्पादनशील, क्रयशक्ति, प्रौद्योगिकी आदि।

संस्कृत भाषा ने अपने समय में जिन शब्दों को अन्य भाषाओं से लिया था, उन्हें (UPBoardSolutions.com) भी हम तत्सम मानते हैं। ऐसे कुछ शब्द हैं-केन्द्र, यवन, असुर, पुष्प, नीर, गण, मर्कट, रात्रि, गंगा, कदली, ताम्बूल, दीनार, सिन्दूर, मुद्रा, तीर आदि।

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2. तद्भव शब्द-संस्कृत के जो शब्द प्राकृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी आदि सोपानों से गुजरने के कारण आज हिन्दी में परिवर्तित रूप में मिल रहे हैं, वे तद्भव कहलाते हैं। हिन्दी में प्रचलित कुछ तद्भव शब्द मूल संस्कृत रूपों के साथ नीचे दिये जा रहे हैं-
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3.देशी या देशज शब्द-देशी या देशज शब्द वे हैं, जिनका स्रोत संस्कृत नहीं है, बल्कि वे भारत के ग्राम्य क्षेत्रों और जनजातियों में बोली जाने वाली देशी बोलियों में से लिये गये हैं। इनका स्रोत अज्ञात है; जैसे—झाडू, टट्टी, ठोकर, भोंपू, अटकल, भोंदू, पगड़ी, लोटा, झोला, टाँग, ठेठ, पेट, खिड़की, झंझट, थप्पड़, थूकं, चीनी आदि।

4. आगत (विदेशी) शब्द-हिन्दी में अरबी, फ़ारसी, अंग्रेज़ी भाषा के शब्द (UPBoardSolutions.com) प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। इसका कारण यह है कि इन भाषाभाषियों ने भारत पर पर्याप्त समय तक राज्य किया। इनके अतिरिक्त ग्रीक, तुर्की, पुर्तगाली तथा फ्रांसीसी भाषा के शब्द भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं।

उपर्युक्त प्रमुख स्रोतों के अतिरिक्त शब्दों के निर्माण में निम्नलिखित विधियों का भी प्रयोग हुआ है-

अनुकरणात्मक शब्द-खटखटाना, फ़ड़फड़ाना, फुफकार, ठसक आदि।
संकर शब्द-दो विभिन्न स्रोतों से आये शब्दों को मिलाकर जो शब्द बनते हैं, उन्हें ‘संकर’ कहते हैं; जैसे-
हिन्दी और संस्कृत-वर्षगाँठ, माँगपत्र, कपड़ा-उद्योग, पूँजीपति आदि।
हिन्दी और विदेशी–किताबघर, घड़ीसाज, थानेदार, बैठकबाज, रेलगाड़ी, पानदान आदि।
संस्कृत और विदेशी–रेलयात्री, योजना कमीशन, कृषि, मजदूर, (UPBoardSolutions.com) रेडियोतरंग, छायादार आदि।
अरबी/फ़ारसी और अंग्रेज़ी-अफ़सरशाही, बीमापॉलिसी, पार्टीबाजी, सीलबंद आदि।

रचना के आधार पर वर्गीकरण

रचना की दृष्टि से शब्द दो प्रकार के होते हैं-

  1. मूल शब्द तथा
  2. व्युत्पन्न शब्द।

1. मूल शब्द–इन्हें रूढ़ भी कहते हैं। ये स्वतन्त्र और अपने में पूर्ण होते हैं। इनकी रचना अन्य किसी शब्द या शब्दांश की सहायता से नहीं होती। इसलिए इनके सार्थक खण्ड नहीं हो सकते; जैसे-सेना, फूल, कुत्ता, कुरसी, दिन, किताब, घर, मुँह, काला, घड़ा, (UPBoardSolutions.com) घोड़ा, जल, कमल, कपड़ी, घास आदि।

2. व्युत्पन्न शब्द-व्युत्पन्न का अर्थ है-उत्पन्न। दो या अधिक शब्दों अथवा शब्दांशों के योग से बने शब्द ‘व्युत्पन्न’ कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-यौगिक तथा योगरूढ़।

यौगिक शब्द-जो शब्द किसी शब्द में अन्य शब्द या शब्दांश (उपसर्ग, प्रत्यय) लगाने से उत्पन्न होते हैं, उन्हें यौगिक शब्द कहते हैं; जैसे–

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योगरूढ़ शब्द-जिन यौगिक शब्दों का एक रूढ़ अर्थ हो गया है और अपने विशिष्ट अर्थ में उनका प्रयोग होने लगा है, ऐसे शब्द योगरूढ़ कहे जाते हैं; उदाहरण के लिए-पंकज एक यौगिक शब्द है जिसमें एक शब्द पंक (कीचड़) और प्रत्यय-ज (से उत्पन्न) है। इस यौगिक का सामान्य अर्थ है-कीचड़ से उत्पन्न वस्तु। परन्तु यह शब्द केवल ‘कमल’ के लिए रूढ़ हो गया है। इसलिए यह योगरूढ़ है।
बहुव्रीहि समास के सभी शब्द योगरूढ़ के ही उदाहरण हैं; यथा–
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प्रयोग के आधार पर वर्गीकरण

प्रयोग की दृष्टि से शब्दों को निम्नलिखित दो वर्गों में बाँटा जा सकता है–

1. सामान्य शब्द-सामान्य शब्दावली वह शब्दावली है जिसका प्रयोग सामान्य जन अपने दैनिक कार्य-व्यवहार में करते हैं। ऐसी शब्दावली प्राय: अधिक प्रचलित होती है तथा लोक-व्यवहार से इसका ज्ञान होता है; उदाहरणार्थ
हाथ, नाक, पैर, रेडियो, स्कूल, कॉलेज, माता-पिता, ईश्वर, दुकान, नमक, चीनी, साइकिल, चाचा, मामा, मेज, कुर्सी, सुबह, शाम, घर, बाज़ार, दाल, भात आदि।

2. पारिभाषिक शब्द-इसे तकनीकी शब्दावली भी कहते हैं। पारिभाषिक (UPBoardSolutions.com) शब्द का अर्थ है- ऐसे शब्द, जिनकी परिभाषा सुनिश्चित हो। ये शब्द किसी एक शास्त्र से सम्बन्धित होते हैं तथा एक ही सुनिश्चित अर्थ का वहन करते हैं।

विज्ञान से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द निम्नवत् हैं-
बल, रेखा, अनुक्रिया, प्रदूषण, पर्यावरण।।
प्रशासन से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द निम्नवत् हैं
आयोग, कनिष्ठ, वरिष्ठ, पदोन्नति, बन्धपत्र, कार्यवृत्त, सीमा-शुल्क आदि।
राजनीतिशास्त्र से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द निम्नवत् हैं-
राज्य, राष्ट्रपति, राज्यपाल, संविधान, महान्यायवादी आदि।
साहित्य से सम्बन्धित पारिभाषिक (UPBoardSolutions.com) शब्द निम्नवत् हैं—
छायावाद, दोहा, रूपक, उपमा, समास, सन्धि, साधारणीकरण आदि।

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व्याकरणिक प्रकार्य के आधार पर वर्गीकरण

व्याकरणिक दृष्टि से शब्दों को उनके प्रकार्य के आधार पर दो वर्गों में बाँटा जाता है—

  1. विकारी तथा
  2. अविकारी।

(1) विकारी शब्द-जिन शब्दों के रूप में लिंग, वचन, कारक अथवा काल (UPBoardSolutions.com) आदि के अनुसार परिवर्तन या विकार होता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं। संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं। निम्नलिखित उदाहरण देखिए-

(क) संज्ञा-
लड़का-लड़के, लड़कों, लड़कपन।
लड़की-लड़कियाँ, लड़कियों।
माता-माताएँ, माताओं।

(ख) सर्वनाम-
मैं-मुझ (को); मुझे; मेरा।
यह–उस (को); उन्हें; ये—उन्होंने।

(ग) विशेषण-
अच्छा-अच्छे, अच्छी, अच्छों।

(घ) क्रिया-
जाना—जाऊँगा, जाता हूँ, जाएँ, जाओ, जाते आदि।

(2) अविकारी शब्द अथवा अव्यय-जिन शब्दों के रूप में लिंग, वचन, कारक अथवा काल आदि के अनुसार कोई परिवर्तन नहीं होता, वे अविकारी शब्द अथवा अव्यय कहलाते हैं। क्रिया-विशेषण, सम्बन्धसूचक, समुच्चयबोधक, विस्मयादिबोधक शब्द अविकारी शब्द अथवा अव्यय हैं। उदाहरणार्थ

  • क्रिया-विशेषण-जो शब्द क्रिया की विशेषता को प्रकट करें, उन्हें क्रिया-विशेषण कहते हैं; जैसे-धीरे, सहसा, इधर, कहाँ, अधिक आदि।
  • सम्बन्धसूचक-जो अव्यय शब्द संज्ञा या सर्वनाम का वाक्य के अन्य शब्दों के साथ सम्बन्ध प्रकट करें, उन्हें सम्बन्धसूचक कहते हैं; जैसे-तक, भर, यहाँ, साथ आदि।
  • समुच्चयबोधक-जो अव्यय शब्द दो या अधिक शब्दों और वाक्यों को जोड़ते हैं, (UPBoardSolutions.com) उन्हें समुच्चयबोधक कहते हैं; जैसे—तथा, और, किन्तु, अथवा आदि।
  • विस्मयादिबोधक-विस्मय, पीड़ा, हर्ष, शोक, घृणा आदि मानसिक भावों को प्रकट करने वाले शब्द विस्मयादिबोधक कहलाते हैं; जैसे–अहो ! ओहो ! छी-छी ! आदि।

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अर्थ के आधार पर वर्गीकरण

शब्द भाषा की लघुतम सार्थक इकाई है। इसका अर्थ से केवल एक ही निश्चित सम्बन्ध नहीं होता। किसी शब्द का एक निश्चित अर्थ होता है, किसी के एक से अधिक अर्थ होते हैं तथा किसी शब्द के समानार्थी शब्दों की उपलब्धता रहती है। कुछ शब्द अन्य शब्दों (UPBoardSolutions.com) के विरोधी भाव को प्रकट करते हैं। इस प्रकार शब्द के निम्नलिखित चार भेद हो जाते हैं-

  1. पर्यायवाची शब्द,
  2. विलोमार्थी शब्द,
  3. एकार्थी शब्द तथा
  4. अनेकार्थी शब्द।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi समास

UP Board Solutions for Class 10 Hindi समास

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समास

नवीनतम पाठ्यक्रम के अनुसार प्रस्तुत प्रकरण से कुल 2 अंकों के प्रश्न पूछे जाएँगे।

ध्यातव्य-पाठ्यक्रम में केवल द्वन्द्व, द्विगु, कर्मधारय तथा बहुव्रीहि समास ही निर्धारित हैं, अतः यहाँ केवल उन्हीं का विस्तृत वर्णन किया जा रहा है।

उपसर्ग तथा प्रत्यय की तरह समास भी यौगिक शब्द बनाते हैं। परस्पर सम्बन्ध रखने वाले दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर बनने वाले एक स्वतन्त्र शब्द को समास Samas कहते हैं; जैसे-दही-बड़ा, राजकुमार, पीताम्बर, धरोहर, दैनिक, गंगा-तट आदि। समास शब्द संस्कृत का है जो ‘अस्’ धातु में ‘सम्’ उपसर्ग तथा ‘घञ्’ प्रत्यय लगकर बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “संक्षिप्त करना। समास में किसी प्रकार का अर्थ (UPBoardSolutions.com) परिवर्तन नहीं होता। संक्षिप्त किये गये शब्दों को ‘समस्त पद’ या ‘सामासिक शब्द’ कहते हैं।

विशेषताएँ–समास की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

(1) हिन्दी में समास प्राय: दो शब्दों से बनते हैं। इसके विपरीत संस्कृत में समास अनेक शब्दों से बनते हैं और पर्याप्त लम्बे-लम्बे भी होते हैं। हिन्दी में सम्भवत: ‘सुत-बित-नारि-भवन-परिवारा’ ही सबसे लम्बा समास है।

(2) समास कुछ अपवादों को छोड़कर प्राय: दो सजातीय शब्दों में ही होता है; जैसे—रसोईघर एवं पाठशाला शब्द ही बन सकते हैं; रसोईशाला’ तथा ‘पाठघर’ नहीं बन सकते।

(3) सामासिक शब्द या तो मिलाकर लिखे जाते हैं या दोनों के बीच योजक-चिह्न लगाकर; जैसे–घरबार, दहीबड़ा अथवा घर-बार, दही-बड़ा आदि।

(4) किसी शब्द में समास ज्ञात करने के लिए समस्त पद के खण्डों को अलग-अलग करना पड़ता है, जिसे विग्रह कहते हैं; जैसे–माँ-बाप’ का विग्रह माँ और बाप तथा गंगा-तट’ का विग्रह गंगा की तट है।

(5) सामासिक शब्द बनाते समय दोनों शब्दों के बीच की विभक्तियाँ या योजक आदि अव्यय शब्दों का लोप हो जाता है।

(6) समास बहुधा वहीं होता है, जहाँ परस्पर सम्बन्ध रखने वाले दो या अधिक शब्द मिलकर एक तीसरा सार्थक शब्द बनाते हैं।

(7) समास के दोनों शब्दों (पदों) को क्रमशः पूर्व-पद अर्थात् (UPBoardSolutions.com) पहला पद तथा उत्तर-पद अर्थात् दूसरा । पद कहते हैं; जैसे-‘राम-लक्ष्मण’ शब्द में ‘राम’ पूर्व-पद है और लक्ष्मण उत्तरं-पद है।

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(8) हिन्दी में मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन प्रकार के सामासिक शब्द ही प्रयोग में आते हैं-

  • संस्कृत के-यथाशक्ति, पीताम्बर, मनसिज, पुरुषोत्तम आदि।
  • हिन्दी के–अनबन, नील-कमल, बैल-गाड़ी आदि।
  • उर्दू-फ़ारसी आदि के–खुशबू, सौदागर, बेशक, लाइलाज आदि।

इसके अतिरिक्त हिन्दी में रेलवे स्टेशन, बुकिंग ऑफिस, टिकट चेकर आदि इंग्लिश शब्द तथा कुछ संकर शब्द भी प्रयोग में आते हैं; जैसे—बस अड्डा, पुलिस चौकी, चकबन्दी, गुरुडम, पार्टीबाज आदि।

(9) सामासिक शब्दों में पुंल्लिग शब्द पहले और स्त्रीलिंग शब्द बाद में आते हैं; जैसे-लोटा-थाली, देखा-देखी, भाई-बहन, दूध-रोटी आदि।

(10) कभी-कभी विग्रह के आधार पर एक ही शब्द कई (UPBoardSolutions.com) समासों का उदाहरण हो जाता है। जैसे-पीताम्बर का विग्रह यदि “पीत है जो अम्बर’ करें तो कर्मधारय तथा “पीत हैं अम्बर (वस्त्र जिसके) अर्थात् कृष्ण’ करें तो बहुव्रीहि होगा।

भेद–पदों की प्रधानता के आधार पर समास के निम्नलिखित चार भेद किये जाते हैं.

  1. पहला पद प्रधान–अव्ययीभाव
  2. दूसरा पद प्रधान—तत्पुरुष
  3. दोनों पद प्रधान–द्वन्द्व
  4. कोई भी पद प्रधान नहीं-बहुव्रीहि

इन चारों प्रमुख भेदों के अतिरिक्त कर्मधारय और द्विगु दो समास और भी हैं, जिन्हें विद्वद्वर्ग तत्पुरुष के भेद बताता है। इनको मिलाकर समास के छ: भेद हो जाते हैं

  1. अव्ययीभाव
  2. तत्पुरुष
  3. कर्मधारय
  4. द्विगु
  5. द्वन्द्व
  6. बहुव्रीहि

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1. कर्मधारय समास

जिस तत्पुरुष में एक पद उपमेय या विशेषण हो तथा दूसरा पद उपमान या विशेष्य हो, उसे ‘कर्मधारय समास’ कहते हैं। कर्मधारय समास के दो भेद होते हैं–

  1. विशेषण-विशेष्य कर्मधारय तथा
  2.  उपमानउपमेय कर्मधारय।

उदाहरण-

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2. द्विगु समास

जिस समास में पहला पद संख्यावाचक (गिनती बताने वाला) हो, दोनों पदों के बीच विशेषणविशेष्य सम्बन्ध हो और समस्तपद समूह या समाहार का ज्ञान कराये, उसे द्विगु समास कहते हैं।
उदाहरण—

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3. बहुव्रीहि समास

जिस समास में न तो पूर्व पद प्रधान होता है, न उत्तर पद; वरन् समस्तपद किसी अन्य पद का विशेषण होता है, उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं; जैसे-पीताम्बर’। इसका विग्रह हुआ-पीत् + अम्बर = पीला है। वस्त्र जिसका (कृष्ण)। यहाँ न ‘पीत’ प्रधान है, न (UPBoardSolutions.com) ‘अम्बर’; वरन् पीले वस्त्र वाला कृष्ण प्रधान है, अतः यहाँ बहुव्रीहि समास है।
उदाहरण–

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4. द्वन्द्व समास

जिस समास में दोनों पद समान हों, वहाँ द्वन्द्व समास होता है। द्वन्द्व में दो शब्दों का मेल होता है। समास होने पर दोनों को मिलाने वाले ‘और’ या अन्य समुच्चयबोधक अव्यय का लोप हो जाता है।
उदाहरण-
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समास से सम्बन्धित अतिरिक्त सामग्री

प्रश्न 1
निम्नलिखित में विग्रहसहित समास बताइए-
दीनदयाल, मन-मयूर, श्रेय-प्रेय, नयनाभिराम, दृष्टिपात, तहखाना, स्वर्णकलश, महाशय, सायंकाल, जल-प्लावन, विद्यार्थी, पुनरावृत्ति, चिन्ताग्रस्त, पवनपुत्र।
उत्तर
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प्रश्न 2
निम्नलिखित में नामसहित समास-विग्रह कीजिए–
ताम्रपत्र, शौर्यपूर्ण, जीवन-दर्पण, राजमार्ग, रस-मग्न, देशकाल, तुलसीकृत, सत्याग्रह।
उत्तर
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प्रश्न 3
निम्नलिखित में समास-विग्रह कीजिए और बताइए कि इनमें कौन-सा समास है ? हिमालय, शीर्षासन, जलराशि, पर्वतमाला, तन्द्रालस, प्रसन्नक्दन।
उत्तर
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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 (Section 3)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 मानवीय संसाधन : सेवाएँ, परिवहन, दूरसंचार, व्यापार (अनुभाग – तीन)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में वायु परिवहन सेवा का वर्णन और परीक्षण कीजिए।
या
वायु परिवहन के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
वायु परिवहन आजकल अधिक उपयोगी क्यों है? कोई तीन बिन्दु लिखिए। [2017]
उत्तर :

भारत में वायु परिवहन

आधुनिक परिवहन साधनों में वायु परिवहन सबसे तीव्रगामी साधन है। दुर्गम क्षेत्रों; जैसे–पर्वत, सघन वन एवं मरुस्थलीय क्षेत्रों में रेल एवं सड़क-मार्गों का विकास करना असम्भव लगता है, परन्तु वायु परिवहन द्वारा इन क्षेत्रों को सरलता से जोड़ा जा सकता है। वर्तमान युग में किसी भी राष्ट्र के त्वरित आर्थिक विकास हेतु इसके महत्त्व को कम करके नहीं आँका जा सकता। भारत में वायु परिवहन का विकास सन् 1920 (UPBoardSolutions.com) से प्रारम्भ  हुआ, किन्तु स्वतन्त्रता से पूर्व इसका उपयोग अधिकतर सैनिक कार्यों के लिए ही किया जाता था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद सरकार ने वायु परिवहन के विकास हेतु एक समिति का गठन किया, जिसके सुझाव पर 1953 ई० में वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। वर्तमान में सभी विमान कम्पनियों को निम्नलिखित तीन निगमों में विभाजित कर दिया गया

1. इण्डियन ( इण्डियन एयरलाइन्स) – इसका प्रमुख कार्य देश के भीतरी भागों में वायु सेवाओं का संचालन करना है। इसे कुछ पड़ोसी देशों से भी वायु सेवा सम्पर्क का दायित्व सौंपा गया है। इसका प्रधान कार्यालय नयी दिल्ली में है। इस निगम की सेवाएँ दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता एवं चेन्नई वायु-पत्तनों से संचालित की जाती हैं। इसके विमान में हम देश के प्रमुख नगरों तथा पड़ोसी देशों के बीच उड़ान भरते हैं। ये सेवाएँ 16 विदेशी केन्द्रों तथा 79 राष्ट्रीय केन्द्रों को विमान सेवा प्रदान करती हैं। वर्तमान समय में प्राइवेट एयरलाइन्स भी अन्तर्देशीय विमान सेवाएँ उपलब्ध कराती हैं। वर्तमान में इस निगम के नियन्त्रण में 70 से अधिक विमानों का बेड़ा है तथा इसका नाम परिवर्तित (इण्डियन) कर दिया गया है।

वायुदूत – 20 जनवरी, 1981 ई० को वायुदूत नामक निगम उत्तर-पूर्वी राज्यों के पर्वतीय क्षेत्रों के विकास हेतु स्थापित किया गया। बाद में वर्ष 1992-93 में वायुदूत का विलय इण्डियन एयरलाइन्स में कर दिया।

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2. एयर इण्डिया – इस निगम को लम्बी दूरी के अन्तर्राष्ट्रीय मार्गों पर वायु सेवाओं के संचालन का दायित्व सौंपा गया है। भारत में आने वाली अन्य अन्तर्राष्ट्रीय एयरलाइन्स भी. अन्तर्राष्ट्रीय सेवाएँ उपलब्ध कराती हैं। एयर इण्डिया लि० द्वारा संचालित 4 वायुमार्ग निम्नलिखित हैं

  • मुम्बई-काहिरा-रोम-जेनेवा-पेरिस-लन्दन।
  • दिल्ली-अमृतसर-काबुल-मास्को।
  • कोलकाता-सिंगापुर-सिडनी-पर्थ।
  • मुम्बई-काहिरा-रोम-डसेलडर्फ-लन्दन-न्यूयॉर्क।

अन्तर्राष्ट्रीय उड़ान भरने के लिए एयर इण्डिया के पास 32 विमान हैं। वर्ष 2002-03 में इसने लगभग तेंतीस लाख यात्रियों को उनके गन्तव्य तक पहुँचाया है।

3. पवन हंस हेलीकॉप्टर्स लि० – इसकी स्थापना 15 अक्टूबर, 1985 ई० को की गयी थी। यह पेट्रोलियम क्षेत्र, जिनमें ओ०एन०जी०सी० और ऑयल इण्डिया लि० सम्मिलित हैं, को सहायतार्थ सेवाएँ उपलब्ध कराता है तथा देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के दूरस्थ और दुर्गम (UPBoardSolutions.com) क्षेत्रों को जोड़ता है। यह अन्य ग्राहकों; जैसे राज्य और संघ राज्य क्षेत्र सरकारें, सरकारी क्षेत्र के उपक्रम और निजी क्षेत्र की कम्पनियों को भी सेवाएँ उपलब्ध कराता है। वर्तमान में इस निगम के पास तीस से अधिक हेलीकॉप्टर

इसके अतिरिक्त देश में निजी वायु सेवाएँ भी संचालित हो रही हैं। निजी वायु सेवाओं में सहा एयरवेज, जेट एयरवेज आदि हैं। लगभग 41 निजी एयर लाइनें, एयर-टैक्सी और घरेलू वायुयानों से घरेलू हवाई यातायात के 42% भाग संचालित हो रहे हैं।

महत्त्व
वायु परिवहन वैज्ञानिक युग का एक आश्चर्यजनक आविष्कार है। परिवहन के इस तीव्रगामी साधन ने समय’ और ‘दूरी की समस्या के समाधान में अद्वितीय योगदान दिया है। वर्तमान समय में वायु परिवहन का महत्त्व निम्नलिखित बातों से भली-भाँति स्पष्ट हो जाएगा–

1. बहुमूल्य तथा हल्की वस्तुओं का स्थानान्तरण – वायु परिवहन द्वारा मूल्यवान, हल्की व शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं को कम समय में एक स्थान से दूसरे स्थान को भेजा जा सकता है।

2. न्यूनतम मार्ग व्यय – 
परिवहन के अन्य साधनों; जैसे–रेलों, सड़कों आदि की तरह वायु परिवहन के लिए मार्ग बनाने का कोई व्यय नहीं करना पड़ता। केवल हवाई अड्डे बनाने पड़ते हैं।

3. भौगोलिक बाधाओं से मुक्ति – 
वायुयानों के मार्ग में वनों, रेगिस्तानों, दलदली भूमि, बर्फीले प्रदेशों, पहाड़ों, नदियों, समुद्रों आदि से कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार परिवहन का यह साधन भौगोलिक बाधाओं से मुक्त है।

4. कृषि में सहायक – 
अमेरिका, ऑस्ट्रिया आदि विकसित राष्ट्रों में अनाज बोने तथा खेतों में खाद डालने में वायुयानों की सहायता ली जाती है। फसलों में बीमारियों के फैलने पर वायुयानों द्वारा कीटनाशक दवाइयाँ छिड़ककर फसलों की (UPBoardSolutions.com) रक्षा की जाती है।

5. व्यावसायिक लाभ – 
विमान दूरस्थ स्थानों पर मूल्यवान वस्तुओं को शीघ्रता से कम जोखिम तथा कम समय में पहुँचाकर उनके बाजार-क्षेत्र का विस्तार करने में सहायक होते हैं।

6. शान्ति और व्यवस्था की स्थापना – 
देश के किसी भी भाग में अशान्ति तथा अव्यवस्था (दंगे आदि) की स्थिति उत्पन्न हो जाने पर विमानों द्वारा सैनिक, हथियार आदि भेजकर स्थिति पर शीघ्रता से नियन्त्रण स्थापित किया जा सकता है।

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7. प्राकृतिक विपत्तियों में सहायक – 
बाढ़, अकाल, भूकम्प, अनावृष्टि आदि विपत्तियों के समय विमानों द्वारा शीघ्रता से जीवन-रक्षक सामग्री पहुँचाकर जनता की प्रार्णरक्षा की जा सकती है।

8. सैनिक दृष्टि से युद्ध स्थल तक गोला – 
बारूद, अस्त्र-शस्त्र व सैनिकों को पहुँचाने, सैनिकों को युद्ध क्षेत्र से बाहर निकालने, शत्रु-सेना पर बमबारी करने आदि में वायु परिवहन का अत्यधिक महत्त्व है।

9. डाक सेवा – 
‘वायु डाक सेवा’ द्वारा डाक को लाने व ले जाने में समय की बहुत अधिक बचत होती है।

10. पर्यटन का विकास – 
अधिकांश विदेशी पर्यटक (UPBoardSolutions.com) देश के दर्शनीय स्थानों को देखने के लिए विमानों द्वारा जाते हैं, जिससे देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।

प्रश्न 2.
भारत के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में अनेक परिवर्तन हुए हैं। भारत के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—

1. भारत का 90% अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समुद्री मार्गों द्वारा सम्पन्न होता है। वायु, सड़क एवं रेल परिवहन का योगदान मात्र 10% है।
2. भारत के कुल निर्यात का 51.04% निर्यात एशिया और ओशियाना को हुआ। इसके बाद यूरोप 23.8% और अमेरिका 16.05% का स्थान रहा। उसी अवधि में भारत का आयात भी एशिया एवं ओशियाना से | सर्वाधिक 61.7% रहा, उसके बाद यूरोप 18.7% और अमेरिका (9.5%) का स्थान रहा।
3. भारत स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व आयात अधिक करता था, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् आयात में वृद्धि के साथ-साथ निर्यात में भी वृद्धि हुई है।
4. भारत के आयात में मशीनें, खाद्य पदार्थ, खनिज तेल, इस्पात-निर्मित सामान, लम्बे रेशे की कपास, मोती एवं बहुमूल्य रत्न, सोना, चाँदी, रासायनिक पदार्थ एवं उर्वरक, कच्चा जूट, कागज व अखबारी कागज, रबड़, कल-पुर्जे तथा विद्युत उपकरण प्रमुख हैं।
5. भारत से सूती वस्त्र एवं सिले-सिलाए परिधान, जूट का सामान, चाय, चीनी, चमड़े की वस्तुएँ, वनस्पति तेल, खनिज पदार्थ, इंजीनियरिंग का सामान, मशीनी उपकरण, भारी संयन्त्र, परिवहन उपकरण, परियोजनागत सामान रत्न एवं आभूषण, खेल का सामान, उर्वरक, रबड़ की वस्तुएँ, मछली एवं उससे निर्मित वस्तुएँ, नारियल, काजू तथा गर्म मसाले आदि पदार्थ निर्यात किए जाते हैं।
6. स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व भारत कच्चे माल का निर्यात अधिक (UPBoardSolutions.com) मात्रा में करता था, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् औद्योगीकरण में प्रगति होने के कारण अब तैयार माल विदेशों को भेजा जाने लगा है।
7. भारत में खनिज तेल की माँग निरन्तर बढ़ती जा रही है, जिससे उसका आयात भी निरन्तर बढ़ती जा रहा है। देश में सम्पूर्ण आयात का लगभग 34% भाग खनिज तेल का ही होता है।
8. भारत में खाद्यान्न के आयात में निरन्तर कमी आई है, क्योंकि यहाँ खाद्यान्नों के उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है। अब देश से गेहूँ एवं चावल का निर्यात समीपवर्ती देशों को भी किया जाने लगा है।
9. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत की भागीदारी घटती जा रही है। निर्यात व्यापार में यह भागीदारी मात्र 0.8 प्रतिशत है।
10. भारत का विदेश व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है। देश का अधिकांश अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार केवल 35 देशों के मध्य होता है।
11. भारत का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार देश के पूर्वी तथा पश्चिमी तट पर स्थित 13 बड़े पत्तनों द्वारा सम्पन्न किया। जाता है। इनके अतिरिक्त 200 मध्यम एवं लघु आकार के पत्तन हैं जो अल्पमात्रा में विशिष्ट वस्तुओं का व्यापार करते हैं। मुम्बई सबसे बड़ा पत्तन है जो देश का लगभग 25% व्यापार सम्पन्न करता है। इसके भार को कम करने के लिए इसके समीप में ही न्हावाशेवा नामक एक नवीन पत्तन स्थापित किया गया है।
12. व्यापार में वृद्धि के लिए भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेलों में भाग लेता है तथा उनका आयोजन (UPBoardSolutions.com) अपने देश में भी करता रहता है।
13. भारत के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के आकार में तेजी से वृद्धि हो रही है।
14. सरकार निर्यात पर अधिक बल दे रही है, अतः उन्हीं कम्पनियों को आयात की छूट दी जा रही है जो निर्यात अधिक कर सकती हैं।
15. भारत विदेशी मुद्रा संकट का समाधान केवल निर्यात व्यापार को बढ़ाकर ही कर सकता है।
16. भारत अपने निर्यात व्यापार में वृद्धि करने के लिए प्रयत्नशील है।

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प्रश्न 3.
यातायात अथवा परिवहन के साधनों का उल्लेख कीजिए।
या
भारत में उपलब्ध परिवहन सेवाओं के नाम लिखिए तथा उनमें से किसी एक के विकास की विवेचना कीजिए। [2014]
या
परिवहन सेवाओं के तीनों भागों का वर्णन कीजिए। [2013]
उत्तर :

यातायात (परिवहन) के साधन

यातायात के साधनों से अभिप्राय उन साधनों से है जो लोगों, वस्तुओं, डाक आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। मोटे तौर पर यातायात के साधनों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है
1. थल यातायात – रेल यातायात तथा सड़क यातायात।
2. जल यातायात – आन्तरिक जलमार्ग तथा बाह्य जलमार्ग–नाव, जहाज, मोटर-बोट, स्टीमर आदि।
3. वायु यातायात – हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर आदि। तीनों (UPBoardSolutions.com) प्रकार के यातायात के साधनों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है
1. थल यातायात – इसके अन्तर्गत मुख्यतया दो प्रकार के यातायात के साधन आते हैं- (i) सड़क यातायात तथा (ii) रेल यातायात।

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(i) सड़क यातायात –
सड़क यातायात का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधन है। सड़कों पर कार, मोटर, टूक, रिक्शे, ताँगे, ठेले, पशु आदि के द्वारा लोगों तथा सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाया जाता है। सड़कें गाँवों, कस्बों तथा नगरों को एक-दूसरे से जोड़ती हैं। निर्माण की दृष्टि से सड़कें दो प्रकार की होती हैं-कच्ची सड़कें तथा पक्की सड़कें। प्रबन्ध की दृष्टि से पक्की सड़कों को भारत में पाँच वर्गों में बाँटा जाता है— (1) राष्ट्रीय राजमार्ग, (2) प्रान्तीय राजमार्ग, (3) जिला सड़कें, (4) ग्रामीण सड़कें तथा (5) सीमा सड़कें। देश में सड़कों की कुल लम्बाई लगभग 33 लाख किमी है।
(ii) रेल यातायात – आन्तरिक परिवहन की दृष्टि से भारतीय अर्थव्यवस्था में रेलों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत के रेल यातायात का एशिया महाद्वीप में प्रथम तथा विश्व में चौथा स्थान है। भारतीय रेलमार्गों की लम्बाई लगभग 63,221 किलोमीटर है। देश में प्रतिदिन लगभग 7,116 स्टेशनों के बीच 13 हजार गाड़ियाँ चलती हैं तथा लगभग 14.5 लाख किलोमीटर की दूरी तय . करती हैं। भारतीय रेल व्यवस्था में 16 लाख लोग लगे हुए हैं। कुशल प्रबन्ध हेतु भारत में रेल यातायात को 16 प्रशासनिक मण्डलों में विभाजित किया गया है। इस प्रतिष्ठान में सरकार की लगभग १ 9,000 करोड़ की पूंजी लगी हुई है।

2. जल यातायात – जलमार्गों के अनुसार जल यातायात को दो भागों में बाँटा जाता है—(i) आन्तरिक जल यातायात तथा (ii) समुद्री यातायात। देश के भीतरी भागों में नदियाँ तथा नहरें आन्तरिक जल परिवहन का मुख्य साधन हैं। गंगा, यमुना, घाघरा, (UPBoardSolutions.com) ब्रह्मपुत्र आदि समतल मैदानों में धीमी गति से बहने वाली नदियाँ नावें तथा स्टीमर चलाने के लिए उपयुक्त हैं। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल की नहरें तथा ओडिशा की तटीय नहरें आन्तरिक यातायात के लिए उपयोगी हैं। समुद्री यातायात का भारत में प्राचीन काल से ही महत्त्व रहा है। भारतीय जलयाने समुद्री मार्ग से दूर स्थित देशों को माल ले जाते हैं तथा वहाँ से ढोकर लाते हैं। समुद्री यातायात की सुविधा हेतु देश में बारह बड़े बन्दरगाह हैं, जिनमें छ: पूर्वी तट पर तथा छ: पश्चिमी तट पर हैं।

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3. वायु यातायात – इसे मुख्य रूप से निम्नलिखित भागों में विभाजित किया गया है–
(1) इण्डियन एयरलाइन्स निगम – यह निगम देश के आन्तरिक भागों तथा समीपवर्ती देशों पाकिस्तान, म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव एवं श्रीलंका के साथ वायुमार्गों की व्यवस्था करता है। इस निगम का प्रधान कार्यालय नयी दिल्ली में है। वायुदूत-20 जनवरी, 1981 ई० से वायुदूत नामक निगम स्थापित किया गया। बाद में 1992-93 ई० में वायुदूत का विलय इण्डियन एयरलाइन्स (वर्तमान में इंडियन) में कर दिया गया।
(ii) एयर इण्डिया निगम – यह निगम विदेशों के लिए वायुमार्गों की व्यवस्था करता है तथा लगभग 97 देशों के साथ भारत का सम्बन्ध स्थापित करता है। इस निगम द्वारा संचालित 4 प्रमुख वायुमार्ग हैं—(1) मुम्बई-काहिरा-रोम-जेनेवा-पेरिस-लन्दन। (2) दिल्ली-अमृतसर-काबुल-मास्को।(3) कोलकाता-सिंगापुर-सिडनी–पर्थ।(4) मुम्बई-काहिरा-रोम-डसेलडर्फ-लन्दन-न्यूयॉर्क।
(iii) इसके पश्चात् पवन हंस लिमिटेड की स्थापना 15 अक्टूबर, 1985 ई० में हुई, जो दुर्गम क्षेत्रों में हेलीकॉप्टरों की सेवाएँ उपलब्ध कराता है। इसके अतिरिक्त देश में निजी वायु सेवाएँ भी संचालित हो रही हैं। लगभग 41 निजी एयर लाइनें एयर टैक्सी (UPBoardSolutions.com) और घरेलू वायुयानों से घरेलू हवाई यातायात के 42 प्रतिशत भाग को संचालित कर रहे हैं। वर्तमान में भारत में पाँच अन्तर्राष्ट्रीय तथा बीस से अधिक राष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं।

प्रश्न 4.
संचार अथवा सन्देशवाहन के मुख्य साधनों का उल्लेख करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था पर इनके प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
या
आर्थिक विकास में संचार के प्रमुख साधनों का उल्लेख कीजिए तथा उनके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
भारत के मुख्य संचार साधनों का उल्लेख कीजिए।
या
संचार के माध्यमों में रेडियो तथा दूरदर्शन की उपयोगिता लिखिए।
या
भारतीय अर्थव्यवस्था पर परिवहन के साधनों के प्रभाव का उल्लेख कीजिए।
या
परिवहन तथा संचार के विभिन्न साधनों को किसी राष्ट्र तथा उसकी अर्थव्यवस्था की जीवन-रेखाएँ क्यों कहा जाता है ?
या
विश्व में भारत के बदलते स्तर का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए(i) परिवहन तथा (ii) दूरसंचार।
या
संचार सेवाओं का अर्थ, प्रकार तथा महत्त्व बताइए। [2018]

उत्तर :
भारत में संचार (सन्देशवाहन) के मुख्य साधन सन्देशवाहन के साधनों से अभिप्राय उन साधनों से है जिनके द्वारा हम कम समय में एक स्थान से दूसरे स्थान पर सूचना भेजते हैं। भारत के मुख्य सन्देशवाहन के साधन निम्नलिखित हैं|

1. डाक सेवा – 
भारत में डाक सेवा का संचालन (UPBoardSolutions.com) डाकघरों के माध्यम से भारत सरकार का केन्द्रीय संचार मन्त्रालय करता है। डाक-व्यवस्था के संचालन की सुविधा के लिए समस्त देश को 16 डाकसर्किलों में बाँटा गया है। डाक रेल, बस तथा वायुयान द्वारा ढोई जाती है। देश के लगभग सभी गाँवों में डाक सेवा की व्यवस्था कर दी गयी है। अब देश में लगभग 1.50 लाख से भी अधिक डाकघर हैं।

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2. तार सेवाएँ – 
भारत में तार सेवा लगभग 142 वर्ष पुरानी है। देश के लगभग सभी नगरों तथा कस्बों में तारघरों की व्यवस्था कर दी गयी है। भारत में तारघर डाक विभाग के अन्तर्गत आते हैं। इस समय देश में 62,000 तारघर हैं। अब अंग्रेजी के अतिरिक्त हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में भी तार भेजे जाने लगे हैं।

3. विदेशी तार (केबिलग्राम) – 
इसके अन्तर्गत तार की मोटी-मोटी लाइनें समुद्र के अन्दर बिछाई जाती हैं। फिर ऐसे बिछे हुए तारों द्वारा विदेशों को समाचार भेजे जाते हैं।

4. बेतार का तार – 
इस साधन द्वारा समाचार भेजने के लिए न तो भूमि पर तार के खम्भे गाड़ने पड़ते हैं। और ने समुद्र में तार बिछाने पड़ते हैं। इसके अन्तर्गत ट्रांजिस्टर जैसे वायरलेस यन्त्र की सहायता से वायु द्वारा ही समाचार भेज दिया जाता है।

5. टेलीफोन – 
टेलीफोन की सहायता से आप न केवल अपने देश के व्यक्तियों वरन् अन्य राष्ट्रों में रह . रहे व्यक्तियों से भी बातचीत कर सकते हैं। इस समय देश में लगभग 17 हजार टेलीफोन एक्सचेंज हैं। देश के 886 नगरों में एस०टी०डी० की सुविधा प्रदान की गयी है, जिसके अन्तर्गत सीधे डायल घुमाकर अन्य शहरों के व्यक्तियों से बातचीत की जा सकती है। विश्व के 178 देशों के साथ प्रत्यक्ष टेलीफोन सम्बन्ध स्थापित कर दिये गये हैं। वर्तमान में देश में फिक्स्ड लाइनें तथा सेल्युलर (मोबाइल) लाइनें एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगा रही हैं, जिसमें मोबाइल फोन सेवाएँ फिक्स्ड लाइन सेवाओं से बहुत आगे हैं।

6. रेडियो –
रेडियो व ट्रांजिस्टर की सहायता से घर बैठे ही विश्वव्यापी घटनाओं का पता लग जाता है। व्यावसायिक विज्ञापन, आवश्यक घोषणाएँ, मनोरंजन के साधन आदि के रूप में इसका प्रयोग किया जाता है। इसका केन्द्रीय कार्यालय नयी दिल्ली में है, जिसे ‘आकाशवाणी’ के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में देश की 99% जनसंख्या तक इसकी पहुँच हो गयी है। रेडियो मनोरंजन का सस्ता और उत्तम साधन भी है।

7. टेलीविजन या दूरदर्शन – 
भारत में टेलीविजन सेवा का प्रारम्भ 15 सितम्बर, 1959 ई० को नयी दिल्ली में किया गया था। अब देश में दूरदर्शन केन्द्रों का जाल बिछा दिया गया है। प्रमुख शहरों में दूरदर्शन प्रसारण केन्द्र स्थापित किये गये हैं। राष्ट्रीय महत्त्व के प्रसारण उपग्रह संचार व्यवस्था द्वारा समस्त देश में एक साथ प्रसारित किये जाते हैं। यह राष्ट्रीय एकीकरण का एक सशक्त माध्यम है। दूरदर्शन के देश में 900 से अधिक ट्रांसमीटर हैं तथा 90% जनसंख्या तक इसकी पहुँच भी हो चुकी है।

8. टेलेक्स सेवा – 
राष्ट्रीय टेलेक्स सेवा सन् 1963 में प्रारम्भ की गयी थी। अब देश में लगभग 332 टेलेक्स एक्सचेंज कार्य कर रहे हैं। इनके द्वारा टेलीप्रिंटर की सहायता से मुद्रित सन्देशों का आदान-प्रदान किया जाता है। इस व्यवस्था द्वारा विदेशों को भी सन्देशों का आदान-प्रदान सम्भव है।

9. विदेश संचार सेवा –
भारत की अन्य देशों के साथ दूर-संचार सेवाएँ, समुद्र पार संचार सेवा (O.C.S.) नामक कार्यालय द्वारा संचालित होती हैं, जिसके मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई तथा नयी दिल्ली में चार केन्द्र हैं। इसके अन्तर्गत उपग्रह के माध्यम से विदेशी तार, टेलेक्स, टेलीफोन, रेडियो, फोटो आदि की सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। सन् 1971 में पूना के निकट आर्वी तथा सन् 1976 में देहरादून में स्थापित दो उपग्रह भूकेन्द्रों की सहायता से (UPBoardSolutions.com) ओ०सी०एस० कार्यालय हिन्द महासागर में स्थित इण्टेलसेट के माध्यम से विदेश संचार सेवाएँ प्रदान करता है।

10. ई-मेल – 
इस साधन ने संचार-व्यवस्था को उन्नति की चरम सीमा पर पहुंचा दिया है। अब संसार के किसी भी कोने से, किसी भी कोने में सन्देश भेजा जा सकता है। आपकी अनुपस्थिति में भी आपको भेजा गया सन्देश स्वीकृत हो जाता है। इस समाचार को आप पढ़ सकते हैं और आवश्यक कार्यवाही कर सकते हैं।

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11. मुद्रण माध्यम – 
समाचार-पत्र तथा अन्य पत्र-पत्रिकाएँ जो दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक रूप से प्रकाशित की जाती हैं, प्रमुख मुद्रण-संचार माध्यम हैं। प्रेस रजिस्ट्रार द्वारा जारी सन् 2001 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में विभिन्न भाषाओं में 52,000 से भी अधिक समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जा रहा था। ये देश की जनता, सरकार, व्यापार व उद्योग के बीच विचारों व सन्देशों के आदान-प्रदान के प्रभावी माध्यम हैं।

महत्त्व
संचार के साधनों का महत्त्व निम्नलिखित है

  • संचार के साधनों में रेडियो व दूरदर्शन देशवासियों का मनोरंजन करने के साथ-साथ उन्हें शिक्षा भी प्रदान करते हैं।
  • संचार के साधन सामाजिक बुराइयों को दूर करने के साथ-साथ जनता को जागरूक बनाने के सबसे प्रभावी माध्यम हैं।
  • संचार के साधनों के माध्यम से मौसम सम्बन्धी भविष्यवाणी प्रसारित की जाती है, जिससे कृषि, यातायात व अन्य क्षेत्रों में होने वाली क्षति कम हो गयी है।
  • संचार के साधन व्यापार एवं वाणिज्य के विकास में सहायक तो हैं ही, इनके द्वारा पिछड़े क्षेत्रों के आर्थिक विकास में भी सहायता मिलती है।
  • संचार के माध्यमों द्वारा जन-सामान्य को आर्थिक व वैज्ञानिक प्रगति की जानकारी मिलती है तथा देश में वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान का प्रसार होता है।
  • संचार के साधन समाज के विभिन्न वर्गों को परस्पर जोड़ने का कार्य भी करते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता का वातावरण निर्मित होता है।
  • संचार के साधनों द्वारा विचारों का विनिमय होता है। (UPBoardSolutions.com) ये धन के स्थानान्तरण में भी सहायक हैं।
  • वर्तमान समय में संचार के साधनों द्वारा सर्वेक्षण, विज्ञापन, चेतावनी, परामर्श आदि दी जाने लगी हैं। इससे महामारियों पर नियन्त्रण पाने में भी सहायता मिली है।

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भारतीय अर्थव्यवस्था पर परिवहन तथा संचार-साधनों का प्रभाव

परिवहन के प्रमुख साधन सड़कें, रेलमार्ग, वायुमार्ग तथा जलमार्ग हैं। ये साधन किसी भी राष्ट्र की धमनियाँ होते हैं। देश का आर्थिक तथा सामाजिक विकास इन्हीं साधनों पर निर्भर करता है। परिवहन तथा संचार के साधन राष्ट्र में एक ऐसा संगठन खड़ा कर देते हैं, जो लोगों की गतिशीलता, माल का परिवहन तथा समाचारों के आदान-प्रदान में सहायक हों। यदि कृषि एवं उद्योग-धन्धे किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास में शरीर एवं हड्डियों की भाँति कार्य करते हैं तो परिवहन एवं संचार के साधन धमनियों तथा शिराओं की भाँति कार्य करते हैं। परिवहन एवं संचार-प्रणाली के ठप हो जाने से अर्थव्यवस्था मृतप्राय हो जाती है। इसीलिए इन्हें राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की जीवन-रेखाएँ कहा जाता है। राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में परिवहन तथा संचार के साधनों की भूमिका (प्रभाव) तथा महत्त्व निम्नलिखित हैं

1. आधुनिक औद्योगिक विकास के लिए परिवहन तथा संचार के साधन पहली आवश्यकता बन गये हैं। ये कच्चे माल को कारखानों तक तथा उनके द्वारा निर्मित माल को उपभोक्ताओं तक पहुँचाने का कार्य करते हैं।

2.
सड़कें, रेलें, जलमार्ग तथा वायुमार्ग परिवहन के विभिन्न साधन हैं, जब कि डाक-तार, रेडियो, टेलीविजन, दूरभाष, कृत्रिम उपग्रह आदि संचार के विभिन्न साधन हैं, जिन्होंने भावनात्मक एकता को बनाये रखकर देश में आर्थिक विकास की गति को बढ़ाया है।

3.
परिवहन तथा संचार के साधन वस्तुओं के उत्पादन एवं वितरण में सहायक हैं। इनसे लोगों की गतिशीलता में वृद्धि होती है, जिससे वे अधिक धनोपार्जन कर सकते हैं तथा उन्हें भावनात्मक सन्तोष प्राप्त होता है।

4.
परिवहन और संचार के द्रुतगामी एवं सूक्ष्म साधनों द्वारा आज पूरा संसार सिमटकर रह गया है। वह एक घर-परिवार की भाँति है, क्योंकि जब चाहें घर बैठे ही एक-दूसरे से बात कर सकते हैं अथवा कुछ ही घण्टों के अन्तराल में परस्पर मिल सकते हैं।

5.
इन साधनों के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में हुए (UPBoardSolutions.com) परिवर्तनों की जानकारी तुरन्त प्राप्त की जा सकती है। अत: लोगों की आपसी निर्भरता दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है।

6.
परिवहन एवं संचार के साधनों द्वारा देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हुई है, जिससे जीवन सुख-सुविधाओं से सम्पन्न और समृद्ध हो गया है।

7.
ये साधन देश के आर्थिक जीवन को एकता के सूत्र में बाँधे हुए हैं तथा युद्ध, अकाल व महामारियों के समय अपनी सेवाओं के द्वारा इन आपदाओं से छुटकारा दिलाने में सहायक सिद्ध हुए हैं।

8.
राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हुई है तथा आर्थिक विकास की गति में भी तीव्रता आयी है।। इस प्रकार उपर्युक्त आधार पर कहा जा सकता है कि परिवहन तथा संचार के विभिन्न साधने राष्ट्र एवं उसकी अर्थव्यवस्था की जीवन-रेखाएँ हैं।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
रेलों के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
रेल परिवहन के किन्हीं तीन आर्थिक लाभों का वर्णन कीजिए। [2014, 16]
या
देश के आर्थिक विकास में रेलों का क्या महत्त्व है ?
या
भारत के आर्थिक विकास में रेलमार्गों के तीन महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2012]
उत्तर :
देश में परिवहन के साधनों में रेलों का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होता है

  • सार्वजनिक क्षेत्र में रेलवे सबसे बड़ा प्रतिष्ठान है। इसमें १ 9,000 करोड़ से अधिक की पूँजी तथा 16 लाख कर्मचारी संलग्न हैं।
  • रेलों से प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये किराये व भाड़े के रूप में सरकार को प्राप्त होते हैं।
  • रेलों ने कृषि उपजों के विकास में बहुत योगदान दिया। अतिरिक्त कृषि उत्पादों को रेलों द्वारा दूरवर्ती भागों तक भेजना सम्भव हुआ है। कृषि उत्पादन में वृद्धि उर्वरकों, उत्तम बीज, नवीन यन्त्रों तथा कीटनाशकों के (UPBoardSolutions.com) अधिकाधिक उपयोग का फल है, जो रेलों द्वारा ही ढोये जाते हैं।
  • कृषि एवं खनिजों पर आधारित उद्योगों के विकास में रेलों ने प्रमुख भूमिका निभायी है, क्योंकि भारी पदार्थों का परिवहन करने में रेल परिवहन ही सफल हो सकता है। इसके साथ ही उद्योगों का विकेन्द्रीकरण भी रेल परिवहन द्वारा ही सम्भव हुआ है।
  • रेलें देश के सुदूर भागों के मध्य सम्पर्क स्थापित कराती हैं।
  • अकाल व बाढ़ के दौरान क्षतिग्रस्त क्षेत्रों में सामान पहुँचाने का उत्तम साधन रेले हैं।
  • कृषि उपजों को सुदूरवर्ती क्षेत्रों में पहुँचाने का कार्य रेलों द्वारा ही सम्पन्न होता है।
  • औद्योगिक उत्पादों को उपभोक्ताओं तक पहुँचाने में रेलों का योगदान है।
  • परिवहन के सभी साधनों में रेलें सबसे सस्ती हैं।
  • रेलों के कारण गतिशीलता बढ़ी है, जिससे भारतवासियों में एकता व सौहार्द की भावना बढ़ी है।
  • रेलों द्वारा पत्तनों व भीतरी नगरों के बीच आदान-प्रदान बढ़ा है, इससे आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन मिला है।
  • शीघ्र खराब होने वाली वस्तुओं का परिवहन (UPBoardSolutions.com) सुविधाजनक हो गया है।
  • रेलमार्गों के साथ ही अनेक बस्तियाँ विकसित हुई हैं, जिन्होंने बड़े नगरों का रूप ले लिया है।
  • संघन आबाद मैदानी भागों में रेले परिवहन का उत्तम साधन हैं, इसीलिए वहाँ रेलों का घना जाल मिलता है।

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प्रश्न 2.
गाँवों के आर्थिक विकास में सड़कों के चार योगदानों की विवेचना कीजिए।
या
भारत के किसी राज्य का उदाहरण देते हुए सड़कों के सामाजिक तथा सांस्कृतिक महत्त्व को बताइए।
उत्तर :
भारत के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास में पक्की सड़कों की भूमिका अग्रलिखित है

  • देश में पक्की सड़कों का जाल बिछा, हुआ है। बड़े-बड़े नगर और राज्यों को पक्की सड़कों द्वारा ही जोड़ा गया है; जैसे—दिल्ली-मुम्बई राजमार्ग, दिल्ली-चेन्नई राजमार्ग, दिल्ली-कोलकाता राजमार्ग, दिल्ली-जम्मू राजमार्ग आदि।
  • सड़कों को तीव्र ढलानों पर भी बनाया जा सकता है। इसी कारण पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कें ही बनायी गयी हैं। उदाहरण के लिए-जम्मू-कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र में मनाली-लेह सड़क मार्ग है।
  • पक्की सड़कों का हर मौसम में उपयोग किया जा सकता है तथा कम समय में अधिक दूरी भी तय की जा सकती है।
  • पक्की सड़कों का निर्माण किसी भी प्रकार के धरातल पर किया जा सकता है।
  • पक्की सड़कों की भार-वहन क्षमता बहुत अधिक (UPBoardSolutions.com) होती है।
  • आधुनिक जीवन-शैली और सुख-सुविधाएँ प्रदान करने वाली वस्तुएँ इन्हीं सड़कों से होकर देश के कोने-कोने में पहुँचती हैं; जैसे-पंजाब का गेहूँ असोम और केरल राज्यों में जाता है तथा असोम की चाय पूरे भारत में पी जाती है।
  • सड़क मार्गों ने देश को एकता के सूत्र में बाँध दिया है। सड़कों के द्वारा ही विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक गतिविधियाँ परस्पर प्रभावित होती हैं और देश में सांस्कृतिक एकता स्थापित करती हैं।

प्रश्न 3.
भारत के किन्हीं दो राजमार्गों के नाम बताइए तथा इनके महत्व को स्पष्ट कीजिए। उत्तर भारत के दो राजमार्ग हैं—(1) ग्राण्ड ट्रंक रोड तथा (2) मुम्बई-कोलकाता रोड या ग्रेट दकन रोड।
1. ग्राण्ड ट्रंक रोड – यह सड़क कोलकाता, वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, अलीगढ़, दिल्ली, करनाल,
अम्बाला होती हुई अमृतसर तक जाती है। यह सड़क मार्ग पूर्वी भारत को पश्चिमी भारत से जोड़ता है। पंजाब राज्य के कृषि उत्पादों को सम्पूर्ण भारत में पहुँचाने में यह सड़क मार्ग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसी प्रकार विभिन्न औद्योगिक उत्पादों तथा सैन्य-सामग्री को पश्चिमी सीमा तक पहुंचाने
में इस सड़क-मार्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

2. मुम्बई-कोलकाता रोड या ग्रेट दकन रोड – 
यह सड़क-मार्ग मुम्बई, नागपुर, रायपुर, सम्बलपुर होता हुआ कोलकाता तक जाता है। यह भारत के पश्चिमी तट पर विकसित पत्तनों को सड़क मार्ग द्वारा पूर्वी तट पर स्थित पत्तनों से जोड़ता है। कोलकाता तथा मुम्बई के औद्योगिक उत्पादों को लाने
और ले जाने, प्रशासनिक कार्यों के सम्पादन तथा आन्तरिक (UPBoardSolutions.com) प्रदेशों के विकास में इस सड़क का
महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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प्रश्न 4.
देश के आर्थिक विकास में जलमार्गों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
देश के आर्थिक विकास में जलमार्गों का महत्त्व निम्नलिखित कारणों से है—

  • जलमार्ग परिवहन का सबसे सस्ता साधन है। यह हमारे लिए प्राकृतिक उपहार है। इसके निर्माण व रख-रखाव पर कोई व्यय नहीं करना पड़ता। इसलिए रेलों व सड़कों की अपेक्षा जलमार्ग सस्ती यातायात सेवा प्रदान करते हैं।
  • भारी पदार्थों को दूरस्थ स्थानों या देशों में भेजने के लिए जलमार्ग विशेष रूप से उपयोगी है, क्योंकि जलयानों में भार खींचने की क्षमता अधिक होती है तथा जल-परिवहन का घर्षण भी कम होता है।
  • जलमार्ग देशों के बीच वाणिज्य तथा व्यापार का विकास करते हैं। भारत के आयात-निर्यात व्यापार का लगभग 92% भाग जलमार्गों द्वारा ही होता है।
  • राष्ट्रीय प्रतिरक्षा की दृष्टि से भी जलमार्गों का (UPBoardSolutions.com) बहुत अधिक महत्त्व है। पुलों को नष्ट करके शत्रु द्वारा रेल व सड़क-मार्ग को तो सेवा के अयोग्य बनाया जा सकता है; परन्तु जलमार्गों-नदी, नहर और समुद्र-का ऐसा विध्वंस सम्भव नहीं होता।
  • ये आपसी सहयोग तथा संस्कृति के आदान-प्रदान में भी सहायक होते हैं।

प्रश्न 5.
विदेशी व्यापार में आयात और निर्यात को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
आयात और निर्यात को निम्नवत् परिभाषित किया जाता है
आयात-जब कोई देश अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ अन्य देश से मँगाता है, तो इसे आयात कहा जाता है। इस प्रकार कोई भी देश किसी वस्तु का आयात इसलिए करता है कि या तो अमुक वस्तु का उत्पादन उस देश में नहीं किया जाता अथवा उसकी उत्पादन लागत उसके आयात-मूल्य से अधिक पड़ती है।

निर्यात-जब कोई देश अपने अधिकतम उत्पादन को अन्य देशों को भेजता है तो उसे निर्यात कहा जाता है। इस प्रकार किसी वस्तु का निर्यात इसलिए किया जाता है कि उस देश में उत्पन्न की गई उस अतिरिक्त उत्पादित वस्तु की माँग विदेशों में है तथा उसे निर्यात कर विदेशी मुद्रा प्राप्त की जा सकती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश्य से भी निर्यात किया जाता है।

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प्रश्न 6.
पाइप लाइन परिवहन की आवश्यकता तथा महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
या
भारत में पाइप लाइन परिवहन के दो महत्त्व बताइट।
उत्तर :
पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस के परिवहन के लिए भारत में पाइप लाइनों का विकास किया गया है। इसे विकसित करने की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है–

  • पाइप लाइनों के द्वारा तेल तथा प्राकृतिक गैस (UPBoardSolutions.com) को उत्पादन क्षेत्रों से शोधनशालाओं तथा बाजारों (उपभोग क्षेत्रों) तक पहुँचाना अधिक सरल और सुगम है। पहले यह कार्य रेलों तथा ट्रकों द्वारा किया जाता था।
  • पाइप लाइनों द्वारा पेट्रोलियम तथा इसके पदार्थों का देशभर में वितरण सुनिश्चित तथा आसान हो गया
  • पाइप लाइनों के निर्माण में आरम्भिक व्यय के बाद इससे पदार्थों के परिवहन में व्यय नहीं होता। इनकी देख-रेख पर भी बहुत कम व्यय होता है। अतः तेल और गैस के परिवहन में पाइप लाइनें बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं।
  • पाइप लाइनों से परिवहन के दौरान चोरी, क्षति या विलम्ब का भय नहीं रहता।

प्रश्न 7.
भारत के आयात की चार प्रमुख मदें लिखिए।
उत्तर :
भारत के आयात की चार प्रमुख मदें निम्नलिखित हैं
1. पेट्रोलियम – भारत में पेट्रोलियम तथा उससे सम्बन्धित उत्पादों द्वारा देश की लगभग 40% आवश्यकता ही पूर्ण हो पाती है, शेष आवश्यकता के लिए हमें विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है। भारत कच्चे तेल का आयात अधिक करता है, जिसका शुद्धिकरण देश की परिष्करणशालाओं में किया जाता है। तेल का आयात मुख्यतः ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब, बहरीन द्वीप म्यांकार (बर्मा), मैक्सिको, अल्जीरिया, इण्डोनेशिया एवं रूस से किया जाता है।

2. मशीनरी तथा परिवहन के उपकरण – 
भारत आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए सुधरी हुई एवं उन्नत किस्म की मशीनों का भारी मात्रा में आयात करता है। इनमें विभिन्न प्रकार के उद्योगों के लिए मशीनें, विद्युत मशीनें, खदान खोदने की मशीनें तथा परिवहन उपकरण प्रमुख हैं, जिनका आयात संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, पोलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, ऑस्ट्रेलिया व रूस आदि देशों से किया जाता है।

3. खाद्यान्न एवं खाद्य तेल – 
यद्यपि भारत भोजन के लिए अनाज पैदा करने में लगभग आत्मनिर्भर हो गया है, परन्तु तेजी से बढ़ती जनसंख्या की अनाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिए कभी-कभी अनाजों का आयात करना पड़ जाता है। अनाज एवं खाद्य (UPBoardSolutions.com) तेलों का आयात संयुक्त राज्य अमेरिका, म्यांमार (बर्मा), ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, श्रीलंका आदि देशों से किया जाता है।

4. लोहा एवं इस्पात – 
भारत में उद्योग के हो रहे तेजी से विकास के कारण लोहे एवं इस्पात की माँग में वृद्धि हुई है। इसका आयात संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन एवं जर्मनी से किया जाता है।

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प्रश्न 8.
स्वर्णिम चतुर्भुज राष्ट्रीय राजमार्ग योजना क्या है ?
या
स्वर्णिम चतुर्भुज राष्ट्रीय राजमार्ग योजना बनाने के प्रमुख दो उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
वर्ष 1999 के लगभग 13 हजार किमी इकहरे राजमार्ग को चार से छ: लेन में बदलने की एक वृहत् योजना का प्रारूप तैयार किया गया। राष्ट्रीय राजमार्ग gविकास परियोजना के तहत इस कार्यक्रम पर १ 54,000 करोड़ की लागत (वर्ष 1999 के मूल्य-स्तर पर) (UPBoardSolutions.com) अनुमानित की गयी। उपर्युक्त वृहत् योजना के अन्तर्गत दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई व कोलकाता प्रमुख शहरों को चार या छः लेन वाले द्रुतगामी सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए हैं 27 हजार करोड़ की जो योजना बनायी गयी, वह स्वर्णिम चतुर्भुज योजना कहलाती है। 5,846 किमी लम्बे इस सड़क-मार्ग को 2004 ई० तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन यह लक्ष्य अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। इस राजमार्ग को बनाने के दो प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  • महानगरों से नगरों तक देश के अन्य केन्द्रों को समृद्ध कर आर्थिक गतिविधियों में तीव्रता लाना।
  • लघुतम समयावधि में देश के चार महानगरों की यात्रा पूरी करना।

प्रश्न 9.
भारत से निर्यात की जाने वाली चार प्रमुख मदें लिखिए।
उत्तर :
भारत से निर्यात की जाने वाली चार प्रमुख मदों का विवरण निम्नलिखित है-

1. वस्त्र एवं सिले-सिलाए वस्त्र – भारत सूती वस्त्र, सूती धागा, जूट का रेशा व जूटनिर्मित सामान–गलीचे, दरियाँ आदि–तथा सिले-सिलाए वस्त्रों (Readymade Garments) भारी मात्रा में निर्यात करता है।
2. चमड़ा एवं चमड़े का सामान – भारत पशुधन की संख्या में विश्व में प्रथम स्थान रखता है। अत: देश में पर्याप्त मात्रा में चमड़े का उत्पादन होता है। चमड़े के साथ-साथ उससे बनी विभिन्न वस्तुओं; जूता, चप्पल, बेल्ट, अटैची आदि का भी निर्माण होता है, जिनका निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में प्रमुख स्थान है।
3. रत्न एवं आभूषण – रत्न एवं आभूषणों के निर्यात में (UPBoardSolutions.com) भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापर में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इनके निर्यात व्यापार में भी तेजी से वृद्धि ही होती जा रही है। इन वस्तुओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भारत रत्नों एवं बहुमूल्य धातुओं को विदेशों से कम मूल्य पर आयात करता है तथा पुनः उनके आभूषण एवं अन्य वस्तुएँ बनाकर विदेशों को निर्यात कर देता है।
4. रसायन एवं सहायक उत्पाद – इसके अन्तर्गत कार्बनिक और अकार्बनिक रसायनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिनमें औषधियाँ, कीटनाशक दवाइयाँ, प्लास्टिक एवं उससे बने सामान एवं रंग-रोगन आदि उल्लेखनीय हैं।

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प्रश्न 10.
भारत में सड़क परिवहन रेल परिवहन की अपेक्षा किस प्रकार महत्त्वपूर्ण है ?
उत्तर :
भारत में सड़क परिवहन रेल परिवहन की अपेक्षा अधिक उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध हुआ है, जिसे निम्नलिखित तथ्यों द्वारा समझा जा सकता है

1. सड़क-मार्गों का निर्माण रेलमार्गों की अपेक्षा सस्ता पड़ता है। सड़क मार्गों के रख-रखाव में भी ‘ बहुत कम व्यय होता है। इनके निर्माण में कम समय, कम श्रमिक, कम पूँजी तथा कम तकनीकी की आवश्यकता होती है।
2. किसी भी प्रकार की स्थालाकृति; यथा-पर्वतीय, पठारी, मैदानी, मरुस्थलीय, ऊँची-नीची, ढालू तथा बीहड़ में सड़क-मार्गों का निर्माण सम्भव है, जब कि रेलमार्गों को उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में विकसित नहीं किया जा सकता।
3. सड़कें व्यक्ति को उसके दरवाजे तक छोड़ सकती हैं, जबकि रेले निर्धारित स्टेशनों पर ही रुकती हैं।
4. सड़कों के माध्यम से निर्माण केन्द्रों में उत्पादित अनेक वस्तुएँ (UPBoardSolutions.com) उपभोक्ताओं तक प्रत्यक्ष रूप से पहुँचा दी जाती हैं। इसमें माल को बार-बार लादना-उतारना नहीं पड़ता। इसके विपरीत, रेलमार्गों द्वारा उपभोक्ताओं को विभिन्न वस्तुएँ उपलब्ध कराने के लिए निर्माण केन्द्रों से माल स्टेशन तक पहुँचाने तथा स्टेशन से गन्तव्य तक भेजने में बार-बार उतारना एवं लादना पड़ता है, जिससे वस्तुओं के टूटने-फूटने का खतरा बना रहता है तथा अधिक समय एवं धन नष्ट करना पड़ता है।
5. सड़क-मार्गों पर संचालित वाहनों का उपयोग किसी भी समय किया जा सकता है, अर्थात् इच्छित यात्रा सड़क-मार्गों द्वारा ही सम्भव है। इसके विपरीत रेलों का संचालन नियत समय पर ही होता है, जिससे यात्रियों को बड़ा सतर्क रहना पड़ता है।
6. सड़क-मार्गों द्वारा अल्प दूरी तय करना अथवा सामान भेजना सस्ता एवं सुविधाजनक तथा कम व्ययसाध्य होता है, जब कि रेलमार्गों से ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती है।
7. शीघ्र खराब होने वाले पदार्थों को गन्तव्य तक पहुँचाने में सड़क मार्ग, रेलमार्ग की तुलना में अधिक उपयोगी है। अण्डा, दूध, फल, सब्जी, मांस, पनीर आदि का परिवहन अधिकांशत: सड़क मार्गों द्वारा ही किया जाता है।
8. रेलों द्वारा ढोये गये माल को उच्च पर्वतीय, दुर्गम तथा सीमावर्ती क्षेत्रों तक पहुँचाने का कार्य सड़क मार्गों द्वारा ही किया जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में रेल इंजन कहाँ बनाये जाते हैं?
उत्तर :
भारत में रेल इंजन चित्तरंजन में बनाये जाते हैं।

प्रश्न 2.
भारत में रेलमार्गों को कितने गेज में बाँटा गया है?
उत्तर :
तीन गेज में।

प्रश्न 3.
भारत में दक्षिण रेलवे का मुख्यालय कहाँ स्थित है?
उत्तर :
भारत में दक्षिण रेलवे को मुख्यालय चेन्नई में स्थित है।

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प्रश्न 4.
भारत में मेट्रो रेल कहाँ पायी जाती है?
उत्तर :
भारत में मेट्रो रेल कोलकाता तथा दिल्ली में पायी जाती है।

प्रश्न 5.
भारत के प्रमुख राष्ट्रीय जलमार्गों के नाम लिखिए।
उत्तर :
कांडला, मुम्बई, मार्मागाओ, न्यू मंगलौर, (UPBoardSolutions.com) कोच्चि, तूतीकोरिन, चेन्नई, पारादीप, हल्दिया आदि प्रमुख जलमार्ग हैं।

प्रश्न 6.
भारत के आयात की सबसे प्रमुख वस्तु कौन-सी है?
उत्तर :
भारत के आयात की सबसे प्रमुख वस्तु खनिज तेल, कागज व अखबारी कागज, कलपुर्जे तथा विद्युत उपकरण प्रमुख हैं।

प्रश्न 7.
भारत में सबसे अधिक समाचार-पत्र किस भाषा में प्रकाशित होते हैं?
उत्तर :
भारत में सबसे अधिक समाचार-पत्र हिन्दी भाषा में प्रकाशित होते हैं।

प्रश्न 8.
भारत में परिवहन के प्रमुख साधन कौन-से हैं ?
उत्तर :
भारत में परिवहन के प्रमुख साधन सड़कें, रेलमार्ग, वायुमार्ग तथा जलमार्ग हैं।

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प्रश्न 9.
भारत में सबसे लम्बी सड़क का नाम लिखिए।
उत्तर :
‘ग्राण्ड ट्रंक रोड’ भारत की सबसे लम्बी सड़क है, जो (UPBoardSolutions.com) कोलकाता को अमृतसर से जोड़ती है। इसकी एक शाखा जालन्धर से श्रीनगर तक जाती है।

प्रश्न 10.
भारतीय रेलों के कितने गेज होते हैं ?
उत्तर :
भारतीय रेलों के तीन गेज होते हैं—(1) बड़ी गेज (1.69 मीटर), (2) मीटर गेज (1.00 मीटर) तथा (3) छोटी गेज (0.73 मीटर)।

प्रश्न 11.
भारतीय रेलों में कितने प्रकार के इंजन प्रयुक्त होते हैं ?
उत्तर :
भारतीय रेलों में अब मुख्य रूप से दो प्रकार के इंजन प्रयुक्त होते हैं—(1) डीजल इंजन तथा (2) विद्युत इंजन।

प्रश्न 12.
भारत की कौन-सी दो नदियाँ नौ-परिवहन के योग्य हैं ?
उत्तर :
भारत की (1) गंगा तथा (2) ब्रह्मपुत्र नदियाँ नौ-परिवहन के योग्य हैं।

प्रश्न 13.
भारत के पूर्वी तट पर स्थित उस प्राचीन पत्तन का नाम बताइए जो कृत्रिम है।
उत्तर : भारत के पूर्वी तट पर स्थित कृत्रिम और प्राचीन पत्तन है-चेन्नई।

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प्रश्न 14.
भारत के पश्चिमी तट पर स्थित दो पत्तनों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत के पश्चिमी तट पर स्थित दो पत्तन हैं—(1) मुम्बई तथा (2) कांडला।

प्रश्न 15.
भारत के किन दो पत्तनों से लौह-अयस्क का सर्वाधिक निर्यात किया जाता है ?
उत्तर :
भारत के दो पत्तनों-पारादीप (ओडिशा) तथा (UPBoardSolutions.com) विशाखापत्तनम् (आन्ध्र प्रदेश) से लौहअयस्क का सर्वाधिक निर्यात किया जाता है।

प्रश्न 16.
भारत के दो-दो प्रमुख आयात-निर्यात पदार्थों के नाम लिखिए
उत्तर :
दो प्रमुख आयात पदार्थ–

  • पेट्रोलियम अथवा कच्चा तेल तथा
  • लोहा एवं इस्पात।

दो प्रमुख निर्यात पदार्थ–

  • सूती सिले-सिलाए वस्त्र तथा जूट निर्मित सामान व
  • रत्न एवं आभूषण।

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प्रश्न 17.
भारत की दो सुपरफास्ट ट्रेनों के नाम बताइए।
उत्तर :
भारत की दो सुपरफास्ट ट्रेनों के नाम हैं—

  • राजधानी एक्सप्रेस तथा
  • शताब्दी एक्सप्रेस।

प्रश्न 18.
भारत का प्रथम रेलमार्ग कब बनाया गया था ?
उत्तर :
भारत का प्रथम रेलमार्ग 1853 ई० में बनाया गया था।

प्रश्न 19.
भारत के चार प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत के चार प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय (UPBoardSolutions.com) हवाई अड्डों के नाम हैं–

  • नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, दमदम (कोलकाता),
  • छत्रपति शिवाजी (मुम्बई),
  • इन्दिरा गांधी (नयी दिल्ली) तथा
  • चेन्नई, मीनाबक्कम (चेन्नई)।

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प्रश्न 20.
भारत की चार वायु सेवाओं के नाम लिखिए।
उत्तर :
भारत की चार वायु सेवाओं के नाम हैं–

  • एयर इण्डिया इण्टरनेशनल,
  • इण्डियन एयरलाइन्स (वर्तमान में इण्डियन),
  • पवन हंस लिमिटेड तथा
  • निजी वायु सेवाएँ–सहारा एयरवेज, जेट एयरवेज आदि।

प्रश्न 21.
संचार के विभिन्न साधन कौन-से हैं ?
उत्तर :
भारत में संचार के (UPBoardSolutions.com) विभिन्न साधन हैं–

  • डाक,
  • टेलीफोन,
  • टेलेक्स व टेलीप्रिण्टर,
  • टेलीविजन,
  • फैक्स,
  • मुद्रण माध्यम,
  • उपग्रह सेवाएँ आदि।

प्रश्न 22.
कांडला बन्दरगाह किस राज्य में स्थित है ?
उत्तर :
कांडला बन्दरगाह गुजरात राज्य में स्थित है।

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प्रश्न 23.
विचारों के आदान-प्रदान का प्रमुख माध्यम क्या है ?
उत्तर :
विचारों के आदान-प्रदान का प्रमुख माध्यम टेलीफोन है।

प्रश्न 24.
‘पेजिंग सेवा’ क्या है ?
उत्तर :
रेडियो पेजिंग’ दूरसंचार की एक (UPBoardSolutions.com) आधुनिक तकनीक है, जिसके द्वारा एक निश्चित दूरी (दायरे) में पेजर धारक को कहीं भी सन्देश दिया जा सकता है।

प्रश्न 25.
टेलीफोन उपयोग में भारत का एशिया में कौन-सा स्थान है ?
उत्तर :
टेलीफोन उपयोग में भारत का एशिया में प्रथम स्थान है।

प्रश्न 26.
भारत में वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण कब हुआ ?
उत्तर :
भारत में वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण सन् 1953 ई० में किया गया।

प्रश्न 27.
राष्ट्रीय राजमार्ग किसे कहते हैं ?
उत्तर :
वे सड़क मार्ग जो सभी प्रान्तीय राजधानियों को जोड़ते हैं, राष्ट्रीय राजमार्ग कहलाते हैं।

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प्रश्न 28.
दिल्ली किस रेलवे मण्डल में स्थित है ?
या
उत्तर रेलवे का मुख्यालय किस स्थान पर स्थित है ? [2009]
उत्तर :
दिल्ली उत्तरी रेलमण्डल में स्थित है तथा इसका मुख्यालय भी है।

प्रश्न 29.
भारत की किन्हीं दो समाचार एजेन्सियों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  • पी०टी०आई० तथा
  • आई०ए०एन०एस०।

प्रश्न 30.
पाइप लाइन परिवहन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
खनिज तेल तथा प्राकृतिक गैस का परिवहन करने के लिए भूमिगत या भूमि के ऊपर पाइप लाइनें बिछायी जाती हैं। इसे ही पाइप लाइन परिवहन कहते हैं।

प्रश्न 31.
पिन कोड से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
पिन कोड छ: अंकों की एक संख्या होती है, जो सम्पूर्ण देश के नगरों एवं कस्बों को आवण्टित की गयी है। इस कोड की सहायता से राज्य, जनपद, तहसील एवं डाकघर का सुगमता से पता चल जाता है। 406 VIDYA कम्पलीट कोर्स सामाजिक (UPBoardSolutions.com) विज्ञान कक्षा-10

प्रश्न 32.
न्हावा-शेवा बन्दरगाह कहाँ पर स्थित है ?
उत्तर :
न्हावा-शेवा बन्दरगाह महाराष्ट्र राज्य में मुम्बई के निकट स्थित है। यह सबसे आधुनिक, कम्प्यूटरीकृत तथा पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित है।

बहुविकल्पीय

प्रश्न 1. निम्नलिखित में से किसके निर्माण एवं रख-रखाव का उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार के अधीन है?

(क) राष्ट्रीय राजमार्ग
(ख) प्रादेशिक राजमार्ग
(ग) जिलामार्ग
(घ) ग्रामीण सड़कें

2. पूर्वी रेलवे का मुख्यालय है [2013]

(क) बरौनी
(ख) गोरखपुर
(ग) कोलकाता
(घ) मालेगाँव

3. न्हावा-शेवा का नया पत्तन किस नगर के पास है?

(क) कोलकाता
(ख) मुम्बई
(ग) कांडला
(घ) विशाखापत्तनम्।

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4. किस मार्ग के द्वारा भारत का अधिकांश विदेशी व्यापार किया जाता है?

(क) रेलमार्ग द्वारा।
(ख) वायुमार्ग द्वारा
(ग) समुद्री मार्ग द्वारा
(घ) सड़क मार्ग द्वारा

5. ग्राण्ड ट्रंक रोड जाती है [2015].

(क) कोलकाता से जयपुर
(ख) कोलकाता से लाहौर।
(ग) कोलकाता से अमृतसर
(घ) कोलकाता से मुम्बई

6. निम्नलिखित में से उस विकल्प को खोजिए जो जन-संचार का माध्यम नहीं है

(क) रेडियो
(ख) दूरदर्शन
(ग) वायु परिवहन
(घ) टेलेक्स।

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7. निम्नलिखित में से संचार का माध्यम कौन है? [2015, 18]

(क) वायु सेवा
(ख) रेल सेवा
(ग) दूरदर्शन
(घ) जल सेवा

8. भारत का सबसे लम्बा राष्ट्रीय राजमार्ग है [2014]

(क) एन० एच० 7
(ख) एन० एच० 1
(ग) एन० एच० 32
(घ) एन० एच० 8

उत्तरमाला

1. (क), 2. (ग), 3. (ख), 4. (ग), 5. (ग), 6. (ग), 7. (ग), 8. (क)

We hope the UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 मानवीय संसाधन : सेवाएँ, परिवहन, दूरसंचार, व्यापार (अनुभाग – तीन) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 12 मानवीय संसाधन : सेवाएँ, परिवहन, दूरसंचार, व्यापार (अनुभाग – तीन), drop a comment below and we will get back to you at the earliest

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 1 (Section 4)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 1 उत्पादन एवं उपभोक्ता में सम्बन्ध (अनुभाग – चार)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 1 उत्पादन एवं उपभोक्ता में सम्बन्ध (अनुभाग – चार)

विस्तृत उत्तरीय प्रत

प्रश्न 1.
विनिमय का अर्थ बताइए। इसकी प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ? [2013]
           या
विनिमय के चार लक्षण (विशेषताएँ) बताइए।
           या
विनिमय को परिभाषित कीजिए एवं इसके दो लक्षणों की विवेचना कीजिए। [2018]
उत्तर :

विनिमय

सभ्यता के प्रारम्भ में मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं कर लेता था। मनुष्य आत्मनिर्भर था। ज्ञान व सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि होती चली गयी। इस प्रकार मनुष्य (UPBoardSolutions.com) को दूसरे मनुष्यों के सहयोग की आवश्यकता अनुभव हुई और विनिमय का प्रारम्भ हुआ। विनिमय क्रिया के अन्तर्गत एक मनुष्य अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ, सेवाएँ या धन दूसरे व्यक्तियों से प्राप्त करता है तथा दूसरे व्यक्तियों को बदले में उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ, सेवाएँ या धन प्रदान करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि विनिमय क्रिया में दो पक्षों का पारस्परिक हित निहित होता

कुछ विद्वानों ने विनिमय की परिभाषा निम्नवत् दी है-
मार्शल के अनुसार, “दो पक्षों के बीच होने वाले धन के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण को ही विनिमय कहते हैं
ए०ई० वाघ के अनुसार, “हम एक-दूसरे के पक्ष में स्वामित्व के दो ऐच्छिक हस्तान्तरणों को विनिमय के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वस्तुओं के आदान-प्रदान को विनिमय कहते हैं, परन्तु वस्तुओं के सभी ।
आदान-प्रदान को विनिमय नहीं कहा जा सकता। अर्थशास्त्र में केवल वही आदान-प्रदान विनिमय कहलाता है जो पारस्परिक, ऐच्छिक एवं वैधानिक हो।

लक्षण या विशेषताएँ
विनिमय क्रिया में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं –

  1. दो पक्ष – विनिमय क्रिया के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों या पक्षों का होना आवश्यक है। केवल एक पक्ष या एक व्यक्ति विनिमय प्रक्रिया को सम्पन्न नहीं कर सकता।
  2. वस्तु, सेवा या धन का हस्तान्तरण – विनिमय क्रिया में दोनों पक्षों के बीच सदैव वस्तु, सेवा या धन का हस्तान्तरण किया जाता है।
  3. वैधानिक हस्तान्तरण – विनिमय क्रिया में धन का वैधानिक हस्तान्तरण होता है, धन का अवैधानिक | हस्तान्तरण विनिमय नहीं है।
  4. ऐच्छिक हस्तान्तरण – विनिमय क्रिया में वस्तुओं व सेवाओं अर्थात् धन का हस्तान्तरण ऐच्छिक होता है। किसी भी प्रकार के दबाव के अन्तर्गत किया गया हस्तान्तरण विनिमय नहीं कहा जाएगा।
    इन विशेषताओं के आधार पर “दो पक्षों के बीच होने वाले धन व वस्तुओं के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण की क्रिया ही विनिमय कहलाती है।”

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प्रश्न 2.
वस्तु-विनिमय प्रणाली की प्रमुख कठिनाइयाँ क्या हैं ? [2009]
           या
अदला-बदली विनिमय की एक व्यवस्था है।” स्पष्ट कीजिए और उसकी कठिनाइयों का वर्णन कीजिए।
           या
वस्तु विनिमय से आप क्या समझते हैं ? इस प्रणाली की किन्हीं तीन असुविधाओं (कठिनाइयों) का उल्लेख कीजिए। [2011, 17, 18]
           या
वस्तु-विनिमय क्या है ? वस्तु-विनिमय के कोई चार दोष लिखिए। [2011]
           या
वस्तु-विनिमय प्रणाली से आप क्या समझते हैं? इसके किन्हीं चार गुणों की विवेचना कीजिए। [2013]
           या
वस्तु-विनिमय प्रणाली से क्या अभिप्राय है? वस्तु-विनिमय प्रणाली की दो प्रमुख कठिनाइयाँ क्या हैं? [2016, 18]
उत्तर:
साधारण भाषा में वस्तुओं के आदान-प्रदान (अदला-बदली) को विनिमय कहते हैं। दूसरे शब्दों में, “जब दो पक्षों के मध्य किसी वस्तु अथवा सेवा का प्रत्यक्ष आदान-प्रदान होता है, तो उसे प्रत्यक्ष विनिमय अथवा वस्तु-विनिमय कहा जाता है।” (UPBoardSolutions.com) अर्थशास्त्र में विनिमय का आशय वस्तुओं और सेवाओं के पारस्परिक, ऐच्छिक तथा वैधानिक आदान-प्रदान से है। वस्तु-विनिमय की प्रमुख असुविधाएँ (कठिनाइयाँ अथवा दोष) निम्नलिखित हैं—

1. दोहरे संयोग का अभाव – वस्तु-विनिमय प्रणाली की सबसे बड़ी कठिनाई दोहरे संयोग का अभाव है। इस प्रणाली में व्यक्तियों को ऐसे व्यक्ति की खोज में भटकना पड़ता है, जिसके पास उसकी आवश्यकता की वस्तु हो और वह व्यक्ति अपनी वस्तु के बदले में स्वयं उस मनुष्य की वस्तु लेने को
तैयार हो। ऐसा संयोग मिलना कठिन होता है। ।

2. मूल्य के सर्वमान्य माप का अभाव-वस्तु – विनिमय प्रणाली में मूल्य का कोई सर्वमान्य माप नहीं होता, जिसके द्वारा प्रत्येक वस्तु के मूल्य को विभिन्न वस्तुओं के सापेक्ष निश्चित किया जा सके। दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी वस्तु का अधिक मूल्य ऑकते हैं, जिससे वस्तु-विनिमय में कठिनाई होती है।

3. वस्तु के विभाजन में कठिनाई – कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता; जैसे—गाय, बैल, भेड़, बकरी, कुर्सी, मेज आदि; क्योंकि इनका विभाजन करने से इनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। अत: वस्तु-विनिमय प्रणाली में वस्तुओं की अविभाज्यता भी बहुधा कठिनाई का कारण बन जाती है।

4. मूल्य संचय की असुविधा–वस्तु – विनिमय प्रणाली में वस्तुओं को अधिक समय तक संचित करके नहीं रखा जा सकता, क्योंकि बहुधा वे नाशवान होती हैं तथा उन्हें सुरक्षित रखने के लिए अधिक स्थान की आवश्यकता होती है।

5. मूल्य हस्तान्तरण की असुविधा – वस्तु-विनिमय प्रणाली में वस्तु के मूल्य को हस्तान्तरित करने में , कठिनाई होती है। उदाहरणत: यदि किसी व्यक्ति के पास नगर में कोई मकान है और वह गाँव में रहना चाहता है तो वह वस्तु-विनिमय प्रणाली द्वारा अपने मकान को बेचकर न तो धन प्राप्त कर सकता है। और न ही अपने मकान को साथ ले जा सकता है।

6. स्थगित भुगतानों में कठिनाई-वस्तु – विनिमय प्रणाली में वस्तु के मूल्य स्थिर नहीं होते तथा वस्तुएँ कुछ समय के पश्चात् नष्ट होनी प्रारम्भ हो जाती हैं। इस कारण उधार लेन-देन में असुविधा रहती है। यदि वस्तुओं के मूल्य का भुगतान कुछ समय बाद किया जाता है तो सर्वमान्य मूल्य मापक के अभाव के कारण समस्या पैदा हो जाती है। अतएव वस्तु-विनिमय प्रणाली आज के युग में पूर्णतः अव्यावहारिक तथा असफल है।
वस्तु-विनिमय प्रणाली के गुण-इसके लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न सं० 3 देखें।

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प्रश्न 3.
वस्तु-विनिमय प्रणाली के प्रमुख गुण (विशेषताएँ) बताइए। इसके माध्यम से दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ किस प्रकार प्राप्त होता है ?
           या
वस्तु-विनिमय की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2015)
उत्तर:
वस्तु-विनियम प्रणाली के गुण वस्तु-विनिमय प्रणाली के मुख्य गुण निम्नलिखित हैं

1. सरलता – वस्तु-विनिमय प्रणाली एक सरल प्रक्रिया है। अनपढ़ (UPBoardSolutions.com) लोग मुद्रा का ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगा पाते हैं। ऐसी स्थिति में वे वस्तुओं का परस्पर आदान-प्रदान करके अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करते हैं।

2. पारस्परिक सहयोग – वस्तु-विनिमय प्रणाली सीमित क्षेत्र तक ही वहाँ उपयोग में लायी जा सकती है, जहाँ के निवासी एक-दूसरे की आवश्यकताओं से परिचित रहते हैं। वे आपस में वस्तुओं एवं सेवाओं का आदान-प्रदान करके आवश्यकताओं की सन्तुष्टि सरलता से कर लेते हैं, जिससे उनमें पारस्परिक सहयोग की भावना बलवती होती है।

3. धन का विकेन्द्रीकरण – वस्तु-विनिमय प्रणाली सीमित क्षेत्र व न्यूनतम स्तर तक ही कार्य कर पाती है। व्यक्तियों को वस्तुओं के नष्ट होने का भय बना रहता है। इस कारण वे वस्तुओं का संग्रहण अधिक मात्रा में नहीं कर पाते। मुद्रा पद्धति के अभाव के कारण धन का केन्द्रीकरण कुछ ही हाथों में न होकर समाज के सीमित क्षेत्र के लोगों में बँट जाता है।

4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए उपयुक्त – विभिन्न देशों की मुद्राओं में भिन्नता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भुगतान की समस्या बनी रहती है, परन्तु वस्तु-विनिमय द्वारा इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है, क्योंकि वस्तुओं के माध्यम से भुगतान सरलता से हो जाता है।

5. मौद्रिक पद्धति के दोषों से मुक्ति – मौद्रिक पद्धति में मुद्रा-प्रसार व मुद्रा-संकुचन की स्थिति उत्पन्न होती रहती है, परन्तु वस्तु-विनिमय प्रणाली में इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार वस्तु विनिमय प्रणाली मौद्रिक अवगुणों से मुक्त व्यवस्था है।

6. कार्यकुशलता में वृद्धि – वस्तु-विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता एवं दक्षता के अनुसार अधिक-से-अधिक मात्रा में उत्पादन करता है, जिससे उसकी कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।

7. आय तथा सम्पत्ति का समान वितरण – वस्तु-विनिमय प्रणाली में मुट्ठीभर लोगों द्वारा आर्थिक शक्ति को संकेन्द्रण सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि वस्तुएँ अपेक्षाकृत शीघ्र नाशवान होती हैं, जिससे उनका दीर्घकाल तक संचय नहीं किया जा सकता। परिणामत: यह व्यवस्था पूँजीवाद के दोषों से सर्वथा मुक्त रहती है।

8. आर्थिक असन्तुलन से मुक्त – मुद्रा के अभाव में वस्तु-विनिमय व्यवस्था, (UPBoardSolutions.com) मुद्रा-प्रसार व मुद्रा-संकुचन जैसी असाम्य की दशाओं से भी मुक्त रहती है। | दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ

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दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ

विनिमय क्रिया में प्रत्येक पक्ष कम आवश्यक वस्तु देकर अधिक आवश्यक वस्तु प्राप्त करता है अर्थात् एक पक्ष उस वस्तु को दूसरे व्यक्ति को देता है जो उसके पास आवश्यकता से अधिक है तथा जिसकी कम उपयोगिता है और बदले में उस वस्तु को लेता है जिसकी उसे अधिक आवश्यकता या तुष्टिगुण होता है। अत: विनिमय से दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ होता है। यदि किसी भी पक्ष को हानि होगी तब विनिमय सम्पन्न नहीं होगा।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – माना प्रिया व अरुणा के पास क्रमशः आम व सेब की कुछ इकाइयाँ हैं। वे परस्पर विनिमय करना चाहती हैं। दोनों को एक-दूसरे की वस्तु की आवश्यकता है। क्रमागत तुष्टिगुण ह्रास नियम के अनुसार, प्रिया व अरुणा की आम व सेब की इकाइयों का तुष्ट्रिगुण क्रमश: घटता जाता है, परन्तु जब विनिमय प्रक्रिया दोनों के मध्य प्रारम्भ होती है तब दोनों के पास आने वाली इकाइयों का तुष्टिगुण अधिक होता है तथा बदले में दोनों अपनी अतिरिक्त इकाइयों का त्याग करती हैं जिनका तुष्टिगुण अपेक्षाकृत कम होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ मिलता रहता है।

उपर्युक्त तालिका के अनुसार प्रिया व अरुणा में विनिमय प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। प्रिया आम की एक इकाई देकर अरुणा से सेब की एक इकाई प्राप्त करती है। प्रिया को सेब की प्रथम इकाई से प्राप्त तुष्टिगुण अधिक होता है। उसे सेब की पहली इकाई से 25 इकाई तुष्टिगुण मिलता है। सेब के बदले में वह आम की अन्तिम इकाई, जिसको तुष्टिगुण 6 इकाई है, देती है। इस प्रकार उसे 25-6 = 19 तुष्टिगुण का लाभ होता है। इसी प्रकार अरुणा सेब की अन्तिम इकाई, जिसका तुष्टिगुण 4 है, को देकर आम की पहली इकाई जिससे उसे 20 तुष्टिगुण मिलता है, प्राप्त करती है। उसे 20-4 = 16 तुष्टिगुण के बराबर लाभ मिलता है। विनिमय की यह प्रक्रिया आम व सेब की तीसरी इकाई तक निरन्तर चलती रहती है, क्योंकि विनिमय प्रक्रिया से दोनों पक्षों को लाभ होता रहता है। परन्तु दोनों पक्ष चौथी इकाई के विनिमय हेतु तैयार नहीं होते हैं, क्योंकि अब विनिमय-प्रक्रिया से उन्हें हानि होती है। इस प्रकार दोनों पक्ष उस सीमा तक ही विनिमय करते हैं, जब तक दोनों पक्षों को लाभ प्राप्त होता है। अत: यह कथन कि विनिमय से दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ प्राप्त होता है, सत्य है।

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प्रश्न 4.

वस्तु का मूल्य-निर्धारण किस प्रकार होता है ? तालिका एवं रेखाचित्र से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
किसी भी वस्तु के मूल्य-निर्धारण के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में प्रायः मतभेद रहे हैं। एडम स्मिथ व रिकार्डो उत्पादन व्यय को मूल्य-निर्धारण का एकमात्र घटक मानते हैं, जब कि जेवेन्स व वालरस सीमान्त उपयोगिता को। प्रो० मार्शल ने इन दोनों विचारधाराओं में समन्वय स्थापित किया और बताया कि वस्तु का मूल्य न केवल उत्पादन लागत (पूर्ति पक्ष) द्वारा निर्धारित होता है और न सीमान्त उपयोगिता (माँग पक्ष) द्वारा ही, अपितु (UPBoardSolutions.com) दोनों ही शक्तियाँ (मॉग व पूर्ति) संयुक्त रूप से मूल्य का निर्धारण करती हैं। स्वयं प्रो० मार्शल के शब्दों में, “मूल्य उपयोगिता (माँग पक्ष) से तथा उत्पाद्न लागत (पूर्ति पक्ष) से निर्धारित होता है।

बाजार में किसी भी वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की माँग और पूर्ति एक-दूसरे के बराबर हो जाती हैं। यह बिन्दु ‘साम्य बिन्दु’ कहलाता है तथा यह मूल्य ‘साम्य मूल्य’।

1. माँग शक्ति – वस्तु की माँग क्रेता वर्ग द्वारा की जाती है, क्योंकि वस्तु में निहित उपयोगिता की प्राप्ति । के लिए वह मूल्य देता है। क्रेता किसी वस्तु का अधिक-से-अधिक कितना मूल्य दे सकता है, यह वस्तु से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता के द्वारा निर्धारित होता है। इस प्रकार माँग पक्ष की ओर से किसी वस्तु का जो मूल्य निर्धारित होता है, वह वस्तु की सीमान्त उपयोगिता से अधिक नहीं हो सकता। इस प्रकार वस्तु की सीमान्त उपयोगिता ही वस्तु के लिए दी जाने वाली कीमत की उच्चतम सीमा निर्धारित करती है।

2. पूर्ति शक्ति – वस्तु की पूर्ति उत्पादक अथवा विक्रेता वर्ग द्वारा की जाती है। प्रत्येक उत्पादक अथवा विक्रेता अपनी वस्तु का कुछ-न-कुछ मूल्य अवश्य लेता है, क्योंकि वस्तु को बनाने में कुछ-न-कुछ। लागत अवश्य आती है। उत्पादक वस्तु का कम-से-कम कितना मूल्य लेना चाहेगा, यह भी वस्तु की सीमान्त उत्पादन लागत द्वारा निर्धारित होता है। इस प्रकार वस्तु की सीमान्त उत्पादन लागत वह न्यूनतम मूल्य है, जो उत्पादक अथवा विक्रेता को अवश्य प्राप्त होनी चाहिए।

मूल्य-निर्धारण बिन्दु

मूल्य के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार, “वस्तु का मूल्य सीमान्त उपयोगिता तथा सीमान्त उत्पादन लागत के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है। (UPBoardSolutions.com) ” इस कथन का अभिप्राय यह है कि क्रेता की दृष्टि से मूल्य की अन्तिम सीमा वस्तु की सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है, जब कि विक्रेताओं की दृष्टि से सीमान्त लागत मूल्य की निम्नतम सीमा का निर्धारण करती है। प्रत्येक क्रेता वस्तु का कम-से-कम मूल्य देना चाहता है तथा विक्रेता वस्तु का अधिक-से-अधिक मूल्य प्राप्त करना चाहता है। अत: दोनों पक्ष सौदेबाजी करते हैं और अन्त में वस्तु का मूल्य उस बिन्दु (जिसे साम्य अथवा सन्तुलन बिन्दु कहते हैं) पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की माँग वस्तु की पूर्ति के ठीक बराबर होती है। इसी बिन्दु को सन्तुलन मूल्य (Equilibrium Price) कहा जाता है। नीचे दी गयी सारणी से मूल्य-निर्धारण की प्रक्रिया को आसानी से समझा जा सकेगा –

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उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि जब ‘क’ वस्तु का मूल्य क्रमशः ₹ 1 व ₹ 2 प्रति किग्रा है, तो ‘क’ वस्तु की कुल माँग क्रमशः 1,000 व 800 किग्रा है, जबकि ‘क’ वस्तु की पूर्ति 200 व 400 किग्रा है अर्थात् माँग और पूर्ति में क्रमशः 800 व 400 किग्रा का अन्तर है

इसी प्रकार जब ‘क’ वस्तु का मूल्य क्रमशः ₹ 4.00 व ₹ 5.00 प्रति किग्रा है, तो ‘क’ की पूर्ति क्रमशः 800 व 1,000 किग्रा है, जबकि माँग क्रमश: 300 व 200 किग्रा है; अर्थात् पूर्ति व माँग के बीच क्रमशः 500 व 800 किग्रा का अन्तर है।

ये सभी अवस्थाएँ माँग व पूर्ति में असाम्य की अवस्थाएँ हैं। अत: इने पर किसी में भी मूल्य-निर्धारण नहीं होगा। मूल्य-निर्धारण ₹ 3 प्रति किग्रा पर होगा, क्योंकि इस अवस्था में माँग और पूर्ति दोनों 600 किग्रा हैं और यह ‘सन्तुलन मूल्य’ बिन्दु है।

रेखाचित्र में DD ‘क- वस्तु की मॉग-रेखा है तथा SS-‘क’ वस्तु की पूर्ति-रेखा है। माँग व पूर्ति की ये रेखाएँ , एक-दूसरे को साम्य बिन्दुE पर काटती हैं और यह साम्य ₹ 3 प्रति किग्रा मूल्य निर्धारित करता है। यही वस्तु का सन्तुलन मुल्य है।

संक्षेप में, किसी वस्तु का मूल्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है। मूल्य का यह निर्धारण उस साम्य बिन्दु पर होता है, जहाँ माँग व पूर्ति एक-दूसरे के बराबर हो जाती हैं।

प्रश्न 5.
विनिमय के प्रकार बताइए तथा वस्तु-विनिमय एवं क्रय-विक्रय को स्पष्ट कीजिए।
           या
वस्तु-विनिमय से क्या-क्या लाभ तथा हानियाँ हैं ?
           या
विनिमय के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए। 
[2018]
उत्तर :
विनिमय दो प्रकार का होता है –

  1. प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय या अदल-बदले प्रणाली तथा
  2. अप्रत्यक्ष विनिमय अथवा द्रव्य द्वारा क्रय-विक्रय प्रणाली।

प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु-विनिमय प्रणाली – “जब दो व्यक्ति परस्पर अपनी वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार की क्रिया को हम अर्थशास्त्र में वस्तु-विनिमय (Barter) कहते हैं। उदाहरणार्थ- एक (UPBoardSolutions.com) समय भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज देकर सब्जी प्राप्त की जाती थी तथा नाई, धोबी, बढ़ई आदि को सेवाओं के बदले में अनाज दिया जाता था।

अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली – जब विनिमय प्रक्रिया में मुद्रा (द्रव्य) का लेन-देन भी किया जाता है तो इस प्रणाली को क्रय-विक्रय अथवा अप्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति मुद्रा लेकर किसी वस्तु या सेवा को क्रय करता है या किसी वस्तु या सेवा को देकर मुद्रा प्राप्त करता है, तब इस क्रिया को अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय विक्रय प्रणाली कहते हैं।

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वस्तु-विनिमय से लाभ

वस्तु-विनिमय से निम्नलिखित लाभ दृष्टिगोचर होते हैं –

1. विनिमय से दोनों पक्षों को लाभ होता है – दो व्यक्ति आपस में विनिमय तभी करते हैं जब दोनों को लाभ होता है। यदि इससे एक ही पक्ष लाभान्वित हो तो दूसरे पक्ष का मिलना असम्भव हो जाएगा, क्योकि दूसरा पक्ष बिना लाभ के ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होगा।

2. आवश्यक वस्तुओं का मिलना – विनिमय के द्वारा अतिरिक्त पदार्थों के बदले अधिक आवश्यक वस्तुओं का मिलना सुलभ होगा। विनिमय के कारण हम उन वस्तुओं का भी उपभोग कर सकते हैं जो हम स्वयं उत्पन्न नहीं कर सकते। इस प्रकार विनिमय के द्वारा आवश्यक वस्तु सरलता से उपलब्ध हो ” जाती है।

3. अधिकतम उत्पादन – विनिमय क्रिया के द्वारा सभी लोगों को अपनी-अपनी वस्तु के बदले में उनकी आवश्यकता की सभी वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति या राष्ट्र उसी वस्तु को पैदा करता है, जिसके उत्पादन में वह दूसरों से अधिक श्रेष्ठ है और जिनके उत्पादन की उसे अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं।

4. बाजारों का क्षेत्र विस्तृत होना – विनिमय के द्वारा ही बड़े पैमाने का उत्पादन सम्भव हुआ। इसके द्वारा उत्पादन लागत घट गयी। बड़े पैमाने पर वस्तुओं का उत्पादन होने से बढ़े हुए उत्पादन को निर्यात करके बाजार का क्षेत्र विस्तृत किया जा सकता है।

5. देश के प्राकृतिक साधनों का पूर्ण प्रयोग – विनिमय प्रणाली के कारण ही प्रत्येक राष्ट्र अपने देश में उपलब्ध सभी प्राकृतिक साधनों का पूरा प्रयोग कर लेता है, क्योंकि यदि उसे केवल अपनी आवश्यकता के लिए ही उत्पादन करना होता तो उसे उन साधनों का थोड़ा प्रयोग करना पड़ता और शेष साधन बेकार पड़े रहते। अब उसे अपनी आवश्यकता के अतिरिक्त भी उत्पादन करना पड़ता है, तो देश में प्राप्त सभी प्राकृतिक साधनों का भरपूर प्रयोग किया जाता है।

6. कार्य-कुशलता में वृद्धि – विनिमय द्वारा लोगों की कार्य-कुशलता में वृद्धि होती है। इसका मुख्य कारण आवश्यक वस्तुओं का सरलता से मिलना तथा उन वस्तुओं का उत्पादन करना है, जिनमें कोई व्यक्ति या राष्ट्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। एक कार्य को निरन्तर करने से कार्य की निपुणता में वृद्धि होती है।

7. ज्ञान में वृद्धि – विनिमय द्वारा मनुष्यों का परस्पर सम्पर्क बढ़ता है, फलस्वरूप व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के धर्म, रहन-सहन, भाषा, रीति-रिवाजों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार विनिमय द्वारा ज्ञान व सभ्यता में वृद्धि होती है।

8. राष्ट्रों में पारस्परिक मैत्री व सद्भावना – विनिमय के कारण ही वस्तुओं का आयात-निर्यात सम्भव हो सका है, फलस्वरूप विश्व के विभिन्न राष्ट्र परस्पर निकट आये हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर वस्तुओं की प्राप्ति हेतु निर्भर हो गया है। परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों में मित्रता व संभावना बलवती हुई है।

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वस्तु-विनिमय से हानियाँ

वस्तु-विनिमय से कुछ हानियाँ भी होती हैं, जो निम्नलिखित हैं –

1. आत्मनिर्भरता की समाप्ति – विनिमय की सुविधा हो जाने से एक राष्ट्र कुछ ही वस्तुओं का उत्पादन करता है और अपनी आवश्यकता की शेष वस्तुएँ वह दूसरे देशों से मँगाता है। इसलिए एक देश कुछ अंश तक दूसरे देशों पर निर्भर रहने लगता है और उसकी आत्मनिर्भरता समाप्त हो जाती है। इस स्थिति में युद्ध या संकट के समय उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

2. प्राकृतिक साधनों का अनुचित शोषण – विनिमय के कारण विभिन्न वस्तुओं के बाजार का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। फलस्वरूप देश अपने प्राकृतिक साधनों का बिना सोचे-समझे शोषण करने लगते हैं। अधिक उत्पादन के लालच में यदि किसी देश की खनिज सम्पत्ति समाप्त हो जाए तो उसका औद्योगिक भविष्य अन्धकारमय हो जाएगा।

3. देश का एकांगी विकास – विनिमय की सुविधा के कारण प्रत्येक देश केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करता है जिनमें वे अधिक दक्ष होते हैं। इसलिए देश में उन्हीं वस्तुओं से सम्बन्धित उद्योग-धन्धों का विकास होता है तथा अन्य उद्योग-धन्धों के विकास में वह देश शून्य हो जाता है। इससे देश का विकास एकांगी होता है।

4. राजनैतिक दासता – अत्यधिक उत्पादन के कारण शक्तिशाली (UPBoardSolutions.com) देश विनिमय के द्वारा दूसरे देशों के बाजारों पर नियन्त्रण कर लेते हैं तथा निर्बल देश को अपना दास बना लेते हैं।

5. पिछड़े राष्ट्रों को हानि – विनिमय प्रणाली में विकसित राष्ट्रों को तो अधिक लाभ प्राप्त होता है। लेकिन पिछड़े हुए राष्ट्रों को पर्याप्त हानि उठानी पड़ती है। पिछड़े राष्ट्रों का शोषण होता है और उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है।

6. युद्ध की आशंका – कभी-कभी कुछ देश बाजार पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए अनुचित प्रतियोगिता करने लगते हैं। वे अपनी वस्तुओं को बहुत ही कम मूल्य पर दूसरे देशों में बेचने लगते हैं। इससे दूसरे देशों के उद्योग-धन्धों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जब वह देश इस अनुचित प्रतियोगिता को रोकना चाहता है तो संघर्ष की स्थिति आ जाती है।

7. अनुचित प्रतियोगिता – विनिमय के कारण ही विभिन्न उत्पादकों एवं राष्ट्रों में अपनी-अपनी वस्तुएँ। बेचने के लिए ऐसी प्रतियोगिता होती है कि सामान्य उत्पादकों को हानि उठानी पड़ती है।

प्रश्न 6.
बाजार शब्द का अर्थशास्त्र में क्या अर्थ है ? इसके आवश्यक तत्त्व (विशेषताएँ) कौन-कौन से हैं ? [2009]
           या
बाजार की तीन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2014]
           या
बाजार की दो विशेषताएँ बताइए। [2010]
           या
बाजार की परिभाषा लिखिए तथा बाजार की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2011]
           या
बाजार को परिभाषित कीजिए। बाजार के वर्गीकरण के किन्हीं दो आधारों की विवेचना कीजिए। [2015]
           या
प्रतियोगिता के आधार पर बाजार का वर्गीकरण कीजिए। [2016]
           या
बाजार से आप क्या समझते हैं? इंसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए। [2018]
उत्तर :

बाजार का अर्थ एवं परिभाषाएँ

साधारण भाषा में ‘बाजार’ (Market) का अर्थ उस स्थान से लगाया जाता है, जहाँ भौतिक रूप से उपस्थित क्रेताओं और विक्रेताओं द्वारा वस्तुएँ खरीदीं और बेची जाती हैं; जैसे—सर्राफा बाजार, दालमण्डी आदि। किन्तु अर्थशास्त्र में बाजार शब्द का अर्थ अधिक व्यापक होता है। अर्थशास्त्र के अन्तर्गत बाजार शब्द से अभिप्राय उस समस्त क्षेत्र से लगाया जाता है, जहाँ किसी वस्तु के क्रेता-विक्रेता आपस में स्वतन्त्रतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करते हैं।

बाजार की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –

कूनो के शब्दों में, “बाजार से तात्पर्य किसी स्थान-विशेष से नहीं होता जहाँ वस्तुएँ खरीदीं और बेची जाती । हैं, वरन् उस समस्त क्षेत्र से होता है जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच ऐसी स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धा हो कि किसी वस्तु का मूल्य सहज ही समान होने की प्रवृत्ति रखता हो।”

प्रो० बेन्हम के शब्दों में, “बाजार वह क्षेत्र होता है जिसमें क्रेता (UPBoardSolutions.com) और विक्रेता एक-दूसरे के इतने निकट सम्पर्क में होते हैं कि एक भाग में प्रचलित कीमतों को प्रभाव दूसरे भाग में प्रचलित कीमतों पर पड़ता है।

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बाजार के आवश्यक तत्त्व अथवा विशेषताएँ

बाजार के आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं –

1. एक क्षेत्र – बाजार से अर्थ उस समस्त क्षेत्र से होता है जिसमें क्रेता व विक्रेता फैले रहते हैं तथा क्रय-विक्रय करते हैं।

2. एक वस्तु का होना – बाजार के लिए एक वस्तु का होना भी आवश्यक है; जिसका क्रय-विक्रय किया जा सकता है। अर्थशास्त्र में प्रत्येक वस्तु को बाजार अलग-अलग माना जाता है; जैसे-कपड़ा बाजार, नमक बाजार, सर्राफा बाजार, किराना बाजार, घी बाजार आदि।

3. क्रेताओं व विक्रेताओं का होना – विनिमय के सम्पन्न करने के लिए बाजार की आवश्यकता होती है। अत: बाजार में विनिमय के दोनों पक्षों (क्रेता व विक्रेता) का होना आवश्यक है। किसी एक भी पक्ष के न होने पर सम्बद्ध क्षेत्र बाजार नहीं कहलाएगा।

4. स्वतन्त्र व पूर्ण प्रतियोगिता – बाजार में क्रेता और विक्रेताओं में निकट का सम्पर्क होता है। इसका अर्थ है कि उनमें पूर्ण प्रतियोगिता रहती है तथा उन्हें बाजार का पूर्ण ज्ञान रहता है। इसके परिणामस्वरूप वस्तु की कीमत की प्रवृत्ति एक ही या एक समान होने की पायी जाती है। अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में कीमत-विभेद पाया जाता है।

5. क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार के सम्बन्ध में ज्ञान होता है।

बाजार का वर्गीकरण

बाजार का वर्गीकरण निम्नलिखित पाँच प्रकार से किया जाता है –

  1. क्षेत्र की दृष्टि से
  2. समय की दृष्टि से
  3. बिक्री की दृष्टि से
  4. प्रतियोगिता की दृष्टि से एवं
  5. वैधानिकता की दृष्टि से।

(i) क्षेत्र की दृष्टि से
क्षेत्र के आधार पर बाजार को निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा जा सकता है

  1. स्थानीय बाजार – जब किसी वस्तु की माँग स्थानीय होती है और उसके क्रेता तथा विक्रेता एक स्थान-विशेष तक ही अपनी क्रियाएँ सीमित रखते हैं, तो वस्तु का बाजार स्थानीय कहलाता है। स्थानीय बाजार प्रायः शीघ्र नाशवान वस्तुओं (जैसे—दूध, फल, मछली आदि) तथा उन वस्तुओं का होता है, जो अपने मौद्रिक मूल्य की तुलना में अधिक स्थान घेरने वाली (जैसे-ईंट, पत्थर, रेत आदि) होती हैं।
  2. क्षेत्रीय (प्रादेशिक ) बाजार – जब किसी वस्तु की माँग किसी क्षेत्र-विशेष तक ही सीमित रहती है तो उस वस्तु का बाजार क्षेत्रीय बाजार कहलाती है; जैसे–लाख और हाथीदाँत की चूड़ियों का बाजार, क्योंकि इनका प्रचलन केवल राजस्थान (UPBoardSolutions.com) व उसके आस-पास ही पाया जाता है।
  3. राष्ट्रीय बाजार – ऐसी वस्तुओं, जिनके क्रेता-विक्रेता सम्पूर्ण राष्ट्र में बिखरे होते हैं, अर्थात् जिन वस्तुओं की माँग एवं पूर्ति राष्ट्रव्यापी होती है, उस वस्तु का बाजारे राष्ट्रीय बाजार कहलाता है;  जैसे – भारत में साड़ियों तथा चूड़ियों का बाजार।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय बाजार – जिस वस्तु की माँग विश्वव्यापी होती है, अर्थात् जिस वस्तु के क्रेता एवं विक्रेता समस्त विश्व में फैले होते हैं, उस वस्तु का बाजार अन्तर्राष्ट्रीय बाजार कहलाता है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की प्रमुख वस्तुएँ हैं – सोना, चाँदी, गेहूं, चावल आदि।

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(ii) समय की दृष्टि से

समय के आधार पर बाजार को निम्नलिखित चार भागों में विभक्त किया जा सकता है –

  1. दैनिक बाजार – जब किसी वस्तु की माँग में वृद्धि या कमी होने पर उसकी पूर्ति में वृद्धि या कमी न की जा सके तो उसे दैनिक बाजार या अति-अल्पकालीन बाजार कहते हैं। हरी सब्जी, मछली, दूध, बर्फ आदि का बाजार दैनिक बाजार होता है। दैनिक बाजार में वस्तु के मूल्य में पूर्ति की अपेक्षा माँग को प्रभाव अधिक पड़ता है।
  2. अल्पकालीन बाजार – अल्पकालीन बाजार में दैनिक बाजार की अपेक्षा इतना अधिक समय मिल जाता है कि माँग के अनुसार पूर्ति में कुछ सीमा तक समायोजन किया जा सके। अतः कीमत-निर्धारण में पूर्ति की अपेक्षा माँग का प्रभाव ही अधिक रहता है।
  3. दीर्घकालीन बाजार – दीर्घकालीन बाजार में माँग के अनुसार पूर्ति को पूर्णतया समायोजित किया जा सकता है, अर्थात् माँग के बढ़ने पर पूर्ति बढ़ाई जा सकती है तथा माँग के घटने पर पूर्ति घटाई जा सकती है। अत: इसमें मूल्य-निर्धारण में माँग की तुलना में पूर्ति का प्रभाव अधिक होता है।
  4. अति-दीर्घकालीन बाजार – अति दीर्घकालीन बाजार में उत्पादकों को पूर्ति बढ़ाने के लिए इतना लम्बा समय मिल जाता है कि उत्पादन-विधि तथा व्यवसाय की आन्तरिक व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये जा सकते हैं। इसमें समयावधि इतनी अधिक होती है कि उत्पादक उपभोक्ताओं के स्वभाव, रुचि, फैशन आदि के अनुसार वस्तु का उत्पादन कर सकता है। ऐसे बाजारों को काल-निरपेक्ष बाजार भी कहते हैं। सोना, चाँदी, मशीन आदि का बाजार अति-दीर्घकालीन बाजार होता है।

(iii) बिक्री की दृष्टि से

बिक्री के आधार पर बाजार को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. मिश्रित बाजार – जिन बाजारों में एक से अधिक प्रकार की अर्थात् विविध वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया जाता है, वे मिश्रित बाजार कहलाते हैं। इन्हें सामान्य बाजार भी कहते हैं।
  2. विशिष्ट बाजार – विशिष्ट बाजारों में केवल एक ही वस्तु का क्रय-विक्रय होता है। ऐसे बाजार प्रायः बड़े-बड़े शहरों में पाये जाते हैं; जैसे—बजाजा, सर्राफा, दाल मण्डी, सब्जी मण्डी आदि।
  3. नमूने द्वारा बिक्री का बाजार – जिस बाजार में माल का क्रय-विक्रय केवल नमूने के आधार पर किया जाता है, उसे नमूने द्वारा बिक्री का बाजार कहते हैं; उदाहरण के लिए ऊनी वस्त्रों में पुस्तकों का विक्रय।
  4. ग्रेड द्वारा बिक्री का बाजार – इस बाजार से माल की बिक्री ग्रेडों द्वारा होती है। इसके अन्तर्गत वस्तु की विभिन्न किस्मों को कुछ ग्रेडों (वर्गों) में बाँट दिया जाता है और इन्हें अलग-अलग नाम दे दिया जाता है। उदाहरण के लिए-गेहूँ K-68, ऊषा मशीन, हमाम साबुन आदि।

(iv) प्रतियोगिता की दृष्टि से

प्रतियोगिता के आधार पर बाजार निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं –

  1. पूर्ण बाजार – पूर्ण बाजार उस बाजार को कहते हैं, जिसमें पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है। इस स्थिति में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है, कोई भी व्यक्तिगत रूप से वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता। क्रेता और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है, जिसके कारण वस्तु की बाजार में एक ही कीमत होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यह एक काल्पनिक बाजार होता है, जो व्यवहार में नहीं पाया जाता।
  2. अपूर्ण बाजार – जब किसी बाजार में प्रतियोगिता सीमित मात्रा में पायी जाती है, क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है, तब उसे अपूर्ण बाजार कहते हैं। इस बाजार में अपूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है, जिसके (UPBoardSolutions.com) परिणामस्वरूप बाजार कीमत में भिन्नता होती है। इनमें वस्तुओं का मूल्य भी एक समय पर एक नहीं होता है।
  3. एकाधिकारी बाजार – इस तरह के बाजार में प्रतियोगिता का अभाव होता है। बाजार में वस्तु का क्रेता या विक्रेता केवल एक ही होता है। एकाधिकारी का वस्तु की कीमत तथा पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। एकाधिकारी बाजार में वस्तु की भिन्न-भिन्न कीमतें निश्चित कर सकता है।

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(v) वैधानिकता की दृष्टि से
वैधानिकता की दृष्टि से बाजार निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं –

  1. अधिकृत या उचित बाजार – अधिकृत बाजार में सरकार द्वारा अधिकृत दुकानें होती हैं तथा वस्तुओं का क्रय-विक्रय नियन्त्रित मूल्यों पर होता है। युद्ध काल अथवा महँगाई के समय में सरकार आवश्यक वस्तुओं का मूल्य नियन्त्रित कर देती है और उनके उचित वितरण की व्यवस्था करती है।
  2. चोर बाजार – युद्ध काल अथवा महँगाई के समय में, वस्तुओं की कमी एवं अन्य कारणों से कुछ दुकानदार चोरी से सरकार द्वारा निश्चित मूल्य से अधिक मूल्य पर वस्तुएँ बेचते रहते हैं। अधिकांशतः ऐसा कार्य अनधिकृत दुकानदार ही करते हैं। ये बाजार अवैध होते हैं।
  3. खुला बाजार – जब बाजार में वस्तुओं के मूल्य पर सरकार द्वारा कोई नियन्त्रण नहीं होता तथा क्रेताओं और विक्रेताओं की परस्पर प्रतियोगिता के आधार पर वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण होता है। तब इस प्रकार के बाजार को खुला या स्वतन्त्र बाजार कहते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
क्रय-विक्रय प्रणाली के गुण-दोष लिखिए।
उत्तर:

क्रय-विक्रय प्रणाली के गुण

मुद्रा के प्रचलन से विनिमय की क्रिया अधिक सरल हो गयी। मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली की समस्याओं को दूर कर दिया है। क्रय-विक्रय प्रणाली के गुण निम्नवत् हैं –

  1. मुद्रा के माध्यम से मूल्य का मापन आसान हो गया है। वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य मुद्रा में आँका जाने लगा है; जैसे – ₹ 5 की एक कलम, ₹ 15 प्रति एक किलो चावल इत्यादि।
  2. क्रय-विक्रय प्रणाली में मुद्रा के प्रयोग से दोहरे संयोग की समस्या समाप्त हो गयी है।
  3. इस प्रणाली में वस्तु विभाजन की समस्या नहीं रही। मुद्रा (UPBoardSolutions.com) की इकाइयों के माध्यम से वस्तुओं की छोटी-से-छोटी इकाइयाँ क्रय की जा सकती हैं।
  4. मूल्य का संचय मुद्रा के माध्यम से आसान हो गया है। मुद्रा वस्तुओं की तरह तुरन्त नष्ट नहीं होती। मुद्रा के माध्यम से लम्बे समय तक क्रयशक्ति संचित रखी जा सकती है।

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क्रय-विक्रय प्रणाली के दोष

विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा के प्रचलन से जहाँ एक ओर क्रय-विक्रय की प्रक्रिया आसान हुई है, वहीं कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मुद्रा आज की लगभग सभी बुराइयों की जड़ है। मुद्रा के कारण ही अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की समस्या खड़ी होती है, मुद्रास्फीति में सामान्य मूल्य-स्तर बहुत तेजी से बढ़ता है। मुद्रास्फीति गरीबों को बुरी तरह प्रभावित करती है।

प्रश्न 2.
वस्तु-विनिमय से क्या तात्पर्य है ? सोदाहरण समझाइट। [2009]
उत्तर:
वस्तुओं या सेवाओं के प्रत्यक्ष आदान-प्रदान को वस्तु विनिमय कहते हैं। इसमें एक वस्तु का दूसरी वस्तु से बिना किसी माध्यम के प्रत्यक्ष विनिमय किया जाता है। दूसरे शब्दों में, मुद्रा के प्रयोग के बिना। कम उपयोगी वस्तु के बदले में अधिक उपयोगी वस्तु के आदान-प्रदान को वस्तु-विनिमय कहते हैं। टॉमस के अनुसार, “एक वस्तु से दूसरी वस्तु के प्रत्यक्ष विनिमय को ही वस्तु-विनिमय कहा जाता है।” डॉ० के०के० देवेट के अनुसार, “जब मुद्रा के हस्तक्षेप के बिना ही विनिमय कार्य किया जाता है, तब उसे हम वस्तु-विनिमय कहते हैं।”

उदाहरण – एक गाय देकर पाँच बकरियाँ लेना तथा एक किलो गेहूँ के बदले नाई से हजामत करवाना, वस्तु-विनिमय के उदाहरण हैं।

प्रश्न 3.

आधुनिक युग में वस्तु-विनिमय प्रणाली क्यों प्रचलित नहीं है ?
           या
वस्तु-विनियम क्यों समाप्त हो गया ?

उत्तर:
आधुनिक युग में वस्तु-विनिमय प्रणाली का चलना कठिन है। इसके निम्नलिखित कारण हैं –

  1. उत्पादन में निरन्तर वृद्धि।
  2. विश्व में आर्थिक विकास की तीव्र गति।
  3. परिवहन के साधनों का निरन्तर विकास।
  4. जीवन-स्तर को ऊँचा होना।।
  5. व्यापार का विस्तार।
  6. मुद्रा का प्रचलन।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आधुनिक युग में वस्तु-विनिमय प्रणाली का होना कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव है।

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प्रश्न 4.

वस्तु-विनिमय एवं मुद्रा विनिमय प्रणाली को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

वस्तु-विनिमय एवं मुद्रा विनिमय प्रणाली

  • वस्तु विनिमय प्रणाली – वस्तुओं एवं सेवाओं के प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान को वस्तु विनिमय प्रणाली कहते हैं। यह विनिमय का एक ऐसा रूप है जिसके अन्तर्गत बिना किसी माध्यम के दो पक्षों के बीच दो वस्तुओं/सेवाओं का आपस में (UPBoardSolutions.com) आदान-प्रदान न्याय की दृष्टि से किया जाता है।
  • मुद्रा विनिमय प्रणाली – मुद्रा विनिमय प्रणाली के विनिमय का कार्य अप्रत्यक्ष रूप से होता है। इसमें एक व्यक्ति अपनी वस्तु या सेवा को बेचकर मुद्रा प्राप्त करता है और फिर उस मुद्रा से अपनी आवश्यकता की अन्य वस्तुएँ। सेवाएँ प्राप्त करता है। इस प्रणाली में मुद्रा विनिमय के माध्यम’ का कार्य करती है।

प्रश्न 5.
वस्तु-विनिमय और क्रय-विक्रय प्रणाली में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
वस्तु-विनिमय और क्रय-विक्रय प्रणाली में निम्नलिखित अन्तर हैं –

प्रश्न 6.
विनिमय में विक्रेता और क्रेता की उपस्थिति के परिणामों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
विनिमय में विक्रेता और क्रेता की उपस्थिति से सर्वप्रथम उनमें परस्पर प्रतियोगिता होती है और एक मूल्य का निर्धारण होता है। इससे बाजार में अतिरेक उत्पादन बिकं जाता है और क्रेता अपनी आवश्यकता की सभी वस्तुएँ खरीद लेते हैं। विनिमय में विक्रेता और क्रेता की उपस्थिति के परिणाम , निम्नलिखित हैं –

  1. बाजार का अस्तित्व में आना – बाजार में विनिमय के दोनों पक्षों-क्रेता तथा विक्रेता-का होना आवश्यक है। एक भी पक्ष के न होने से बाजार अधूरा रहता है। अत: विनिमय में विक्रेता तथा क्रेता की उपस्थिति बाजार का निर्माण करती है।
  2. माँग-पूर्ति तथा मूल्य-निर्धारण पर प्रभाव – विनिमय में (UPBoardSolutions.com) विक्रेता तथा क्रेता की उपस्थिति बाजार में
    माँग-शक्ति तथा परिणामस्वरूप मूल्य-निर्धारण को प्रभावित करती है। यदि बाजार में क्रेता अधिक होंगे तथा विक्रेता कम, तो वस्तु की माँग पूर्ति की अपेक्षा अधिक हो जाने से उस वस्तु का बाजार मूल्य बढ़ जाएगा। इसकी विपरीत दशा में पूर्ति अधिक तथा माँग कम होने पर, वस्तु का मूल्य घट जाएगा।

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प्रश्न 7.
अर्थव्यवस्था की समस्याओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
अर्थव्यवस्था की प्रमुख समस्याएँ अग्रलिखित हैं –

  1. कैसे उत्पादन किया जाए? – इंस समस्या का सम्बन्ध उत्पादन के लिए श्रम गहन विधि अथवा पूँजी गहन विधि में से किसी एक का चुनाव करने से है। इनमें वह तकनीक सर्वोत्तम मानी जाती है, जो सीमित साधनों की कम-से-कम मात्रा का उपयोग करे।
  2. क्या उत्पादन किया जाए? – अर्थव्यवस्था की सर्वाधिक प्रमुख समस्या यह है कि वह अपने सीमित साधनों से किन-किन वस्तुओं का और कितनी-कितनी मात्रा में उत्पादन करे उसी आधार पर उसे यह निर्णय लेना होता है कि वह किस वस्तु के उत्पादन में अपने सीमित साधनों की कितनी मात्रा लगाए।
  3. किसके लिए उत्पादन किया जाए ? – इस समस्या का सम्बन्ध देश के कुल राष्ट्रीय उत्पाद में उत्पादन के विभिन्न साधनों के हिस्से के निर्धारण से है। इस प्रकार यह समस्या मुख्य रूप से राष्ट्रीय उत्पादन के विभिन्न व्यक्तियों एवं वर्गों के बीच वितरण से सम्बन्धित समस्या है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विनिमय को परिभाषित कीजिए। [2018]
उत्तर :
दो पक्षों के बीच होने वाले वस्तुओं व सेवाओं के पारस्परिक, ऐच्छिक व वैधानिक हस्तान्तरण को विनिमय कहते हैं।

प्रश्न 2.
विनिमय कितने प्रकार का होता है ? [2018]
उत्तर :
विनिमय दो प्रकार का होता है –

  1. वस्तु विनिमय या प्रत्यक्ष विनिमय तथा
  2. अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय।

प्रश्न 3.
विनिमय की दो प्रमुख शर्ते लिखिए।
उत्तर :
विनिमय के दो प्रमुख लक्षण हैं –

  1. दो पक्षों का होना तथा
  2. दोनों पक्षों को लाभ होना।

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प्रश्न 4.
विनिमय के दो प्रमुख लाभ लिखिए। [2009, 12, 14]
उत्तर :
विनिमय के दो प्रमुख लाभ हैं –

  1. आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति तथा
  2. बाजार का विस्तार।

प्रश्न 5.
वस्तु-विनिमय प्रणाली से आप क्या समझते हैं ? [2010]
उत्तर :
वस्तु-विनिमय प्रणाली को प्रत्यक्ष विनिमय भी (UPBoardSolutions.com) कहते हैं। इसके अन्तर्गत वस्तु का आदानप्रदान वस्तु के बदले किया जाता है।

प्रश्न 6

क्रय-विक्रय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
जब दो पक्षों में किसी वस्तु अथवा सेवा का आदान-प्रदान मुद्रा के माध्यम से होता है तो उसे क्रय-विक्रय कहते हैं।

प्रश्न 7.

अर्थशास्त्र में ‘बाजार’ से क्या तात्पर्य है ? [2010, 13]
उत्तर :
अर्थशास्त्र में बाजार से अभिप्राय उस समस्त क्षेत्र से है, जिसमें क्रेता और विक्रेता दोनों फैले हुए हों और उनके मध्य प्रतियोगिता विद्यमान हो।

प्रश्न 8.

समय की दृष्टि से बाजार को वर्गीकृत कीजिए।
उत्तर :
समय की दृष्टि से बाजार चार प्रकार के होते हैं –

  1. दैनिक बाजार
  2. अल्पकालीन बाजार
  3. दीर्घकालीन बाजार तथा
  4. अति-दीर्घकालीन बाजार।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

1. वस्तु-विनिमय प्रणाली को कहते हैं [2012]  

(क) प्रत्यक्ष विनिमय
(ख) अप्रत्यक्ष विनिमय
(ग) मौद्रिक विनिमय
(घ) क्रय-विक्रय

2. “वस्तुओं का आपस में अदल-बदल ही वस्तु-विनिमय है।” यह कथन किसका है?

(क) मार्शल का
(ख) ऐली का
(ग) जेवेन्स का
(घ) बेन्हम का

3. विनिमय की क्रिया के अन्तर्गत आता है|

(क) वस्तु-विनिमये ।
(ख) क्रय-विक्रय
(ग) (क) एवं
(ख) दोनों
(घ) दोनों गलत हैं।

4. वस्तुओं के अदल-बदल की प्रक्रिया कहलाती है –

(क) क्रय-विक्रय
(ख) वस्तु-विनिमय
(ग) मुद्रा विनिमय
(घ) इनमें से कोई नहीं

 

5. “दो पक्षों के मध्य होने वाले ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक धन का हस्तान्तरण ही विनिमय है।” यह परिभाषा किसने दी है?

(क) जेवेन्स ने
(ख) ऐली ने
(ग) मार्शल ने
(घ) कीन्स ने

6. विनिमय में कम-से-कम कितने लोगों की आवश्यकता होती है? [2015] 

(क) दो
(ख) एक
(ग) तीन
(घ) तीन से अधिक

7. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया उत्पादन और उपभोग के बीच की कड़ी है?

(क) उपभोग
(ख) वितरण
(ग) विनिमय ।
(घ) मुद्रा

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8. दूध, फल और सब्जी का बाजार होता है-

(क) स्थानीय
(ख) राष्ट्रीय .
(ग) प्रादेशिक
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय

9. विनिमय क्रिया में वस्तुओं का हस्तान्तरण

(क) ऐच्छिक, वैधानिक एवं पारस्परिक होता है ।
(ख) वैधानिक, पारस्परिक एवं बलपूर्वक होता है।
(ग) ऐच्छिक, गैर-कानूनी एवं पारस्परिक होता है
(घ) केवल ऐच्छिक होता है ।

10. वस्तुओं को वस्तुओं के माध्यम से किया जाने वाला आदान-प्रदान अर्थशास्त्र के अन्तर्गत कहलाता है

(क) क्रय-विक्रय
(ख) वस्तु-विनिमय
(ग) क्रय-विक्रय और वस्तु-विनिमय
(घ) व्यापार

11. अर्थशास्त्र की दृष्टि से किसे बाजार के वर्गीकरण का मान्यता प्राप्त आधार माना जाता है?

(क) वस्तु की कीमत
(ख) क्षेत्र जहाँ वस्तु बिक सके
(ग) वस्तु का टिकाऊपन
(घ) शान्ति व सुरक्षा

12. पूर्ण बाजार में पाई जाती है

(क) पूर्ण प्रतियोगिता
(ख) अपूर्ण प्रतियोगिता
(ग) ‘एकाधिकारी प्रतियोगिता
(घ) ये सभी

13. ईंट का बाजार होता है [2017]

(क) स्थानीय (ख) प्रादेशिक
(ग) राष्ट्रीय
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय

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14. वस्तु-विनिमय सम्बन्धित है [2010, 11, 14, 15]

(क) वस्तुओं के उत्पादन से
(ख) मुद्रा से
(ग) मजदूरी-निर्धारण से
(घ) वस्तुओं के आपसी लेन-देन से

15. खनिज तेल का बाजार है [2013, 17]

(क) स्थानीय बाजार
(ख) प्रादेशिक बाजार
(ग) राष्ट्रीय बाजार
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय बाजार

16. निम्नलिखित में से कौन तथ्य वस्तु-विनिमय से सम्बन्धित है? [2013]

(क) राष्ट्रीय बाजार
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय बाजार
(ग) वस्तुओं की अदला-बदली
(घ) मुद्रा का प्रयोग ।

17. निम्न में से कौन बाजार को प्रभावित करता है?[2014]

(क) शान्ति और सुरक्षा की स्थिति
(ख) बैंक की सुविधाएँ ।
(ग) व्यक्तियों की ईमानदारी ।
(घ) ये सभी

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18. निम्न में से कौन बाजार की विशेषता है? [2014] 

(क) एक वस्तु
(ख) क्रेता-विक्रेता
(ग) स्वतंत्र प्रतियोगिता
(घ) इनमें से सभी ।

19. चूड़ियों का बाजार है [2014, 18]

(क) प्रान्तीय
(ख) स्थानीय
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय
(घ) राष्ट्रीय

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 1 उत्पादन एवं उपभोक्ता में सम्बन्ध 1

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UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 (Section 1)

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 यूरोप में राष्ट्रवाद का विकास (अनुभाग – एक)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 यूरोप में राष्ट्रवाद का विकास (अनुभाग – एक).

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रांस की क्रान्ति का प्रभाव यूरोप के अन्य देशों पर किस प्रकार पड़ा?
उत्तर
फ्रांस की क्रान्ति का प्रभाव यूरोप के अन्य देशों पर निम्नलिखित रूप में पड़ा

  1. इस क्रान्ति ने सदियों से चली आ रही यूरोप की पुरातन व्यवस्था (Ancient Regime) का अन्त कर दिया।
  2. इस क्रान्ति की महत्त्वपूर्ण देन मध्यकालीन समाज की सामन्ती व्यवस्था का अन्त करना था।
  3. फ्रांस के क्रान्तिकारियों द्वारा की गई ‘मानव अधिकारों की घोषणा’ (27 अगस्त, 1989 ई०), मानव जाति की स्वाधीनता के लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण थी।
  4. इस क्रान्ति ने समस्त यूरोप में राष्ट्रीयता (UPBoardSolutions.com) की भावना का विकास और प्रसार किया। परिणामस्वरूप यूरोप के अनेक देशों में क्रान्तियों का सूत्रपात हुआ।
  5. फ्रांस की क्रान्ति ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा को जन्म दिया।
  6. इस क्रान्ति ने लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
  7. फ्रांसीसी क्रान्ति ने मानव जाति को स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व का नारा प्रदान किया।
  8. इस क्रान्ति ने इंग्लैंड, आयरलैंड तथा अन्य यूरोपीय देशों की विदेश नीति को प्रभावित किया।
  9. कुछ विद्वानों के अनुसार फ्रांस की क्रान्ति समाजवादी विचारधारा का स्रोत थी, क्योंकि इसने समानता का सिद्धान्त प्रतिपादित कर समाजवादी व्यवस्था का मार्ग भी खोल दिया था।
  10. इस क्रान्ति के फलस्वरूप फ्रांस ने कृषि, उद्योग, कला, साहित्य, राष्ट्रीय शिक्षा तथा सैनिक गौरव के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की।

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प्रश्न 2.
जर्मनी का एकीकरण कैसे हुआ ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
सन् 1848 ई० के यूरोप में राष्ट्रवाद का स्वरूप बदलने लगा था और यह जनतन्त्र एवं क्रान्ति के सैलाब से दूर हो गया था। राज्य की सत्ता को बढ़ाने और पूरे यूरोप पर राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए रूढ़िवादियों ने अकसर राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रयोग किया। उस समय जर्मनी तथा इटली के एकीकृत होने की प्रक्रिया जितनी कठिन थी उतनी ही भयावह भी थी। इस प्रक्रिया के बाद ही इटली तथा जर्मनी राष्ट्र-राज्य बन सके थे।

ज्ञातव्य है कि राष्ट्रवादी भावनाएँ मध्यमवर्गीय जर्मन लोगों में घर कर गयी थीं और उन्होंने सन् 1848 ई० में जर्मन महासंघ के विभिन्न भागों को जोड़कर एक निर्वाचित संसद द्वारा शासित राष्ट्र-राज्य बनाने का प्रयत्न किया था। मगर राष्ट्र-निर्माण की यह उदारवादी पहल राजशाही और फौज की शक्ति ने मिलकर दबा दी, जिनका प्रशा के बड़े भूस्वामियों (Junkers) ने भी समर्थन किया। उसके पश्चात् प्रशा ने राष्ट्रीय एकीकरण (UPBoardSolutions.com) के आन्दोलन की बागडोर सँभाली। उसका मन्त्री प्रमुख ऑटोवान बिस्मार्क इसे प्रक्रिया का जनक था, जिसने प्रशा की सेना और नौकरशाही की सहायता ली। सात वर्ष के दौरान ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और फ्रांस से तीन युद्धों में प्रशा को विजय प्राप्त हुई और एकीकरण की प्रक्रिया पूरी हुई। जनवरी, 1871 में, वर्साय में हुए एक समारोह में प्रशा के राजा विलियम प्रथम को जर्मनी का सम्राट घोषित किया गया।

जनवरी 18, 1871 ई० को प्रात: कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। ऐसे मौसम में; वर्साय का शीशमहल जो कि पहले से ही बेहद सर्द रहता था; जर्मन राजकुमारों, सेना के प्रतिनिधियों और मन्त्री प्रमुख ऑटोवान बिस्मार्क सहित प्रशा के महत्त्वपूर्ण मन्त्रियों ने एक सभा का आयोजन किया। सभा ने प्रशा के काइजर विलियम प्रथम के नेतृत्व में नये जर्मन साम्राज्य की घोषणा की। प्रशा राज्य की शक्ति के प्रभुत्व के दर्शन जर्मनी में उसके राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में हुए। नये राज्य ने जर्मनी की मुद्रा, बैंकिंग और कानूनी तथा न्यायिक व्यवस्थाओं के आधुनिकीकरण पर अधिक जोर दिया और प्रशा द्वारा उठाये गये कदम और उसकी कार्यवाहियाँ शेष जर्मनी के लिए एक मॉडल बने।

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प्रश्न 3.
इटली के एकीकरण हेतु क्या प्रयास किये गये ? विस्तार से लिखिए। या इटली के एकीकरण में मेत्सिनी, काबूर और गैरीबाल्डी के योगदान को वर्णन कीजिए। [2014]
           या
इटली के एकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले तीन नेताओं के नाम लिखिए। [2018]
उत्तर
उन्नीसवीं सदी के मध्य में इटली सात राज्यों में विभक्त था। इसके निर्माण में भी जर्मनी की तरह बहुत-सी मुसीबतें उठायी गयीं। इसे भी राजनीतिक विखण्डन का एक लम्बा इतिहास देखना पड़ा था, जैसा कि जर्मनी में हुआ था। इटली कई वंशानुगत तथा बहुराष्ट्रीय हैब्सबर्ग साम्राज्य में बिखरा पड़ा था। इनमें से केवल सार्डिनिया-पीडमॉण्ट में एक इतालवी राजघराने का शासक था। उत्तरी भाग ऑस्ट्रियाई हैब्सबर्गों के अधीन था, मध्य इलाकों पर पोप का शासन था और दक्षिणी क्षेत्र स्पेन के बूबू राजाओं के अधीन थे। इतालवी भाषा ने भी साझा रूप प्राप्त नहीं किया था और अभी तक उसके विविध क्षेत्रीय और स्थानीय रूप उपस्थित थे।

इटली को एकीकृत कर गणराज्य बनाने में ज्युसेप मेसिनी; जो एक महान् क्रान्तिकारी भी था; ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उसने सन् 1830 ई० के दशक में एक सुविचारित कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसके लिए उसने एक गुप्त संगठन यंग इटली नाम से बनाया था। वह अपने विचारों को उक्त संगठन के माध्यम से आम लोगों तक पहुँचाना चाहता था। सन् 1831 ई० और 1848 ई० में क्रान्तिकारी विद्रोह हुए जिनकी असफलता (UPBoardSolutions.com) के कारण इतालवी राज्यों को जोड़ने को उत्तरदायित्व सार्डिनिया-पीडमॉण्ट के शासक विक्टर इमैनुअल द्वितीय पर आ गया। इस क्षेत्र के अभिजात वर्ग की नजरों में एकीकृत इटली उनके लिए आर्थिक विकास और राजनीतिक प्रभुत्व की सम्भावनाएँ उत्पन्न करता था।

मन्त्री प्रमुख काबूर जिसने इटली को एकीकृत करने के लिए आन्दोलन का नेतृत्व किया था, वह न तो क्रान्तिकारी था और न ही जनतान्त्रिक। वह इटली के अन्य धनवान तथा शिक्षित लोगों की तरह फ्रेंच भाषी था। फ्रांस से सार्डिनिया-पीडमॉण्ट की एक चालाक कूटनीतिक सन्धि; जिसके पीछे काबूर का हाथ था; से सार्डिनिया-पीडमॉण्ट 1859 ई० में ऑस्ट्रियाई ताकतों को हरा पाने में कामयाब हुआ।

नियमित सैनिकों के अतिरिक्त ज्युसेपे गैरीबाल्डी के नेतृत्व में भारी संख्या में सशस्त्र स्वयंसेवकों ने इस युद्ध में भाग लिया। सन् 1860 ई० में वे दक्षिण इटली और दो सिसलियों के राज्य में प्रवेश कर गये और स्पेनी शासकों को हटाने के लिए स्थानीय कृषकों का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे।

सन् 1861 ई० में इमैनुअल द्वितीय को एकीकृत इटली का राजा घोषित किया गया। मगर इटली के अधिकतर निवासी जिनमें निरक्षरता की दर पर्याप्त ऊँची थी, अभी भी उदारवादी-राष्ट्रवादी विचारधारा से अनभिज्ञ थे।

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प्रश्न 4.
राष्ट्रवाद से क्या तात्पर्य है? यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय होने में कौन-सी परिस्थितियाँ सहायक हुईं? उनमें से किन्हीं दो को समझाकर लिखिए। [2018]
           या
राष्ट्रवाद ने राष्ट्रीय गौरव को किस प्रकार उत्तेजित किया ?
           या
यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय के क्या कारण थे ?
उत्तर
राष्ट्र की सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकती। राष्ट्र बहुत हद तक एक ऐसा समुदाय होता है जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, भावनाओं, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं (UPBoardSolutions.com) पर आधारित होता है जिन्हें लोग उस समुदाय के लिए गढ़ते हैं जिससे वे अपनी पहचान कायम करते हैं। राष्ट्र के प्रति यही भावना राष्ट्रवाद’ कहलाती है।
यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय ने जनता के हृदय में राष्ट्रीय भावनाएँ उत्पन्न कीं। वे भावनाएँ अग्रलिखित हैं –

1. पुनर्जागरण एवं धर्म-सुधार आन्दोलन – आधुनिक यूरोप के इतिहास में पुनर्जागरण एक युगान्तरकारी घटना थी। सोलहवीं शताब्दी तक समस्त यूरोप में सामन्ती व्यवस्था लागू होने से समस्त समाज त्राहि-त्राहि कर रहा था। रूढ़िवादियों का प्रबल जोर था। चर्च की अपनी राजनीतिक व्यवस्था अलग थी। इन सब दुष्प्रभावों से मानव-जीवन अभिशप्त हो गया था। मनुष्य एक विचारशील प्राणी होने के कारण सामन्तवाद तथा चर्च के बन्धनों से मुक्त होने के उपाय सोचने लगा। तुर्को की कुस्तुनतुनिया विजय ने दार्शनिकों एवं विचारकों को इटली में शरण लेने के लिए। बाध्य किया, जहाँ पर इन विद्वानों को भरपूर संरक्षण प्राप्त हुआ। इसी बौद्धिक वर्ग ने परलोकवाद तथा धर्मवाद के स्थान पर मानववाद का प्रचार किया, जिससे यूरोप में राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। यही परिवर्तन यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय का कारण बने।

2. व्यापारिक पुनरुत्थान एवं भौगोलिक खोजें – नाविकों द्वारा नये-नये समुद्री मार्गों की खोज ने समस्त यूरोप में एक अप्रत्याशित क्रान्ति ला दी। इन मार्गों के खोज लेने से लोगों को एक-दूसरे के देश में जाने, वहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति को समझने (UPBoardSolutions.com) के अवसर प्राप्त हुए। एक-दूसरे देश को आपस में व्यापार करने का अवसर प्राप्त हुआ। आर्थिक स्थिति में भी पर्याप्त सुधार हुआ। इस प्रकार नवीन भौगोलिक खोजों से यूरोपवासी अनेक उन्नत प्राचीन सभ्यताओं के सम्पर्क में आये, जिससे यूरोप में नवीन विचारों का उदय हुआ जो कि राष्ट्रवाद के उदय का एक प्रमुख कारण बना।

3. फ्रांस की क्रान्ति – सन् 1789 ई० में हुई फ्रांस की क्रान्ति विश्व की एक महानतम घटना है। इस क्रान्ति के समय फ्रांस की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा बड़ी दयनीय थी, जिस कारण देश में असन्तोष तथा अराजकता का वातावरण फैला हुआ था, जो शीघ्र ही क्रान्ति के रूप में फूट निकला। यह क्रान्ति एक ऐसी बाढ़ थी जो अपने साथ अनेक बुराइयों को बहाकर ले गयी। इस क्रान्ति ने यूरोप में राजनीतिक क्रान्ति के साथ-साथ सामाजिक एवं आर्थिक क्रान्ति को जन्म दिया। इस क्रान्ति ने पुरातन व्यवस्था का अन्त कर राष्ट्रीयता की भावना को विकसित किया। इसी से प्रेरित होकर जर्मनी, इटली एवं पोलैण्ड जैसे देशों में राष्ट्रवाद का विकास हुआ।

4. नेपोलियन के प्रशासनिक सुधार – हालाँकि नेपोलियन बाद में फ्रांस का तानाशाह बन गया था। लेकिन प्रारम्भ में उसने फ्रांस का नक्शा ही बदलकर रख दिया। उसने प्रशासनिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी सिद्धान्तों का समावेश किया, जिससे पूरी व्यवस्था अधिक तर्कसंगत एवं कुशल बन सके। सन् 1804 ई० की नागरिक संहिता; जिसे आमतौर पर नेपोलियन संहिता के नाम से जाना जाता था; ने जन्म पर आधारित विशेषाधिकार समाप्त कर दिये थे। उसने कानून के समक्ष समानता और सम्पत्ति के अधिकार को सुरक्षित बनाया। नेपोलियन ने सामन्ती व्यवस्था को समाप्त कर दिया, किसानों को भू-दासत्व और जागीरदारी शुल्कों से मुक्ति दिलायी। नेपोलियन के समय में ही कारीगरों पर श्रेणी-संघों के नियन्त्रणों को हटा दिया गया, यातायात और संचार-व्यवस्थाओं को सुधारा गया। इससे किसानों, कारीगरों, (UPBoardSolutions.com) मजदूरों और नये उद्योगपतियों ने नयी आजादी का आनन्द उठाया। नेपोलियन के प्रशासनिक सुधारों के कारण एकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। विदेशी शासन के विरुद्ध उसके राष्ट्रवादी एवं राष्ट्रव्यापी युद्धों का भी राष्ट्रवाद के उदय में विशेष योगदान है।

5. बौद्धिक क्रान्ति – अठारहवीं सदी की बौद्धिक क्रान्ति से भी राष्ट्रीयता की भावना को अत्यधिक बल मिला। इस काल में चिन्तन का केन्द्र मनुष्य था। मानववादी होने के कारण चिन्तनकर्ताओं ने मानव की गरिमा, उसके अधिकारों एवं आदर्शों को प्राथमिकता दी। बौद्धिक क्रान्ति की जागृति उत्पन्न करने वालों में रूसो, मॉण्टेस्क्यू तथा वाल्टेयर जैसे महान् दार्शनिक तथा दिदरो एवं क्वेसेन जैसे महान् लेखक थे। इनके विचारों का यूरोप की जनता पर भारी प्रभाव पड़ा जो कि राष्ट्रवाद के उदय का एक प्रमुख कारण था।

6. औद्योगिक क्रान्ति – उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में औद्योगिक क्रान्ति के कारण पूँजीवाद का आधार तैयार हुआ। पूँजीवाद के विकास से यूरोपीय साम्राज्यवाद में बदलाव आया और अन्तत: राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों का उद्भव हुआ।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रांसीसी क्रान्ति ने यूरोप में राष्ट्रवाद को किस प्रकार प्रभावित किया?
उत्तर
फ्रांसीसी क्रान्ति का यूरोप में राष्ट्रवाद पर प्रभाव

फ्रांस की क्रान्ति ने यूरोप में राजनीतिक क्रान्ति के साथ-साथ (UPBoardSolutions.com) सामाजिक एवं आर्थिक क्रान्ति को जन्म दिया। इस क्रान्ति ने प्राचीन व्यवस्था को समाप्त कर दिया और राष्ट्रीयता की भावना को विकसित किया। इसी से प्रेरित होकर जर्मनी, इटली और पोलैण्ड जैसे देशों में राष्ट्रवाद का विकास हुआ।

प्रश्न 2.
बौद्धिक क्रान्ति ने किस प्रकारे राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया?
उत्तर
बौद्धिक क्रान्ति से राष्ट्रवाद को बढ़ावा

18वीं सदी की बौद्धिक क्रान्ति से भी राष्ट्रवाद की भावना को अत्यधिक बल मिला। इस काल में चिन्तन का केन्द्र मनुष्य था। मानववादी होने के कारण चिन्तनकर्ताओं ने मानव की गरिमा, उसके अधिकारों एवं आदर्शों को प्राथमिकता दी।

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प्रश्न 3.
राष्ट्रवाद विश्व शान्ति के लिए किस प्रकार खतरा बन गया?
उत्तर
राष्ट्रवाद विश्व शान्ति के लिए खतरा

राष्ट्रवाद ने जर्मनी जैसे राष्ट्रों को अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी बना दिया। यह महत्त्वाकांक्षा विश्व शान्ति के लिए। खतरा बनती चली गई। प्रत्येक राष्ट्र के लोग अपनी सभ्यता, संस्कृति, आचार-विचार को दूसरे राष्ट्र से अति श्रेष्ठ समझने लगे। विश्व के बड़े-बड़े राष्ट्र (UPBoardSolutions.com) छोटे-छोटे राज्यों पर हावी होने लगे। राष्ट्रवाद ने जर्मन, फ्रांस आदि देशों के अलावा बाल्कन व प्रायद्वीप के यूनान, सर्बिया आदि छोटे-छोटे देशों को भी प्रभावित किया। राष्ट्रवाद की इस लहर में दूसरे देशों के हितों का ध्यान नहीं रखा गया। विश्व के प्रत्येक राष्ट्र ने सिर्फ अपनी सम्पन्नता और शक्ति के बारे में ही सोचना शुरू कर दिया। इससे औपनिवेशिक प्रतियोगिता शुरू हो गई और यह औपनिवेशिक प्रतियोगिता विश्व शान्ति के लिए एक खतरा बन गई।

प्रश्न 4
फ्रांस और प्रशा के मध्य युद्ध का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए। [2012]
उत्तर.
फ्रांस-प्रशा का युद्ध( 1870-71 ई०)-जर्मनी के एकीकरण का अन्तिम सोपान फ्रांस तथा प्रशा के मध्य युद्ध था। बिस्मार्क यह भली प्रकार समझ चुका था कि एक दिन प्रशो को फ्रांस के साथ अवश्य युद्ध करना पड़ेगा। इसीलिए उसने ऑस्ट्रिया के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार किया था। फ्रांस की प्रतिनिधि सभा ने 19 जुलाई, 1870 ई० को प्रशा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
युद्ध के परिणाम – इस युद्ध के निम्नलिखित परिणाम हुए

  1. इस युद्ध में फ्रांस की पराजय ने इटली के एकीकरण को पूर्ण कर दिया।
  2. इस युद्ध के परिणामस्वरूप नेपोलियन तृतीय के साम्राज्य का पतन हो गया और फ्रांस में तृतीय गणतन्त्र की स्थापना हुई।
  3. इस युद्ध का लाभ उठाकर रूस के जार ने काले सागर पर (UPBoardSolutions.com) अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
  4. प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण पूरा हो गया और जर्मन साम्राज्य का सम्राट कैसर विलियम प्रथम को बनाया गया।
  5. जर्मन साम्राज्य के लिए एक नवीन संविधान का निर्माण किया गया, जिसमें दो सदनों वाली व्यवस्थापिका सभा की व्यवस्था की गई। इसका पहला सदन बुन्देसराट और दूसरा सदन ‘राईखस्टैग कहलाता था।
  6. इस युद्ध ने यूरोप की दीर्घकालीन क्रान्ति को भंग कर दिया और इसी युद्ध के कारण भविष्य में अनेक युद्धों की भूमिका तैयार हो गई।

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प्रश्न 5.
यूरोपीयन राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं ? [2013]
उत्तर
राष्ट्रवाद एक सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक भावना है जो लोगों को एकता के सूत्र में बाँधती है। यह एक ऐसी सामूहिक भावना है जो एक भूभाग में रहने वाले विभिन्न लोगों को एक राजनीतिक संगठन का सदस्य बने रहने की प्रेरणा देती है और अपने देश से प्रेम करना भी सिखाती है।

फ्रांस में नेपोलियन के पश्चात् यूरोपीय राजनीतिज्ञों ने राष्ट्रवाद की उपेक्षा की, किन्तु इस भावना को वे पूर्णत: दबा नहीं सके। कालान्तर में राष्ट्रीयता के आधार पर ही यूरोप में इटली तथा जर्मनी जैसे राष्ट्रवादी राज्यों का विकास हुआ। नेपोलियन पहला व्यक्ति था जिसने इटली तथा जर्मनी के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त किया था।

इन दोनों देशों में एक ही राष्ट्रीयता के लोग राजनीतिक (UPBoardSolutions.com) सीमाओं द्वारा विभाजित थे। यूरोप में शुरू होने के कारण ही इसे यूरोपीयन राष्ट्रवाद कहते हैं।

अविलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जर्मनी के एकीकरण का नेतृत्व किसने किया ?
उत्तर
जर्मनी के एकीकरण का नेतृत्व ऑटोवान बिस्मार्क ने किया।

प्रश्न 2.
फ्रांसीसी क्रान्ति के प्रमुखतम सुधार कौन-कौन से थे ?
उतर
फ्रांसीसी क्रान्ति के मुख्य सुधार निम्नलिखित थे –

  1. यूरोपीय देशों में लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों का प्रसार हुआ।
  2. इस क्रान्ति ने सदियों से चली (UPBoardSolutions.com) आ रही यूरोप की पुरातन सामन्ती व्यवस्था का अन्त कर दिया।

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प्रश्न 3.
बिस्मार्क कौन था? उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या थी? [2017]
उत्तर
बिस्मार्क एक महान कूटनीतिज्ञ था। उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि जर्मनी का एकीकरण थी।

प्रश्न 4.
इटली के एकीकरण में किसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी ?
उत्तर
इटली के एकीकरण में ज्युसेपे मेत्सिनी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से अलग करने वाले प्रतीक हैं

(क) सीमा
(ख) भाषा
(ग) संस्कृति एवं सम्प्रभुता
(घ) ये सभी

2. राष्ट्रवादी भावना के विकास में सहायक तत्त्व थे

(क) औद्योगिक क्रान्ति
(ख) पुनर्जागरण
(ग) फ्रांस की क्रान्ति
(घ) ये सभी

3. जर्मनी के एकीकरण के बाद वहाँ का सम्राट बना,

(क) विलियम प्रथम
(ख) विलियम द्वितीय
(ग) विलियम तृतीय
(घ) विलियम चतुर्थ

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4. गैरीबाल्डी सम्बन्धित था? (2015, 16)

(क) इटली के एकीकरण से (UPBoardSolutions.com)
(ख) जर्मनी के एकीकरण से
(ग) अमेरिका के स्वतन्त्रता संग्राम से
(घ) रूस की राज्य क्रान्ति से

उत्तरमाला

UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 7 यूरोप में राष्ट्रवाद का विकास 1

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