UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 25 प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल (3-6 वर्ष)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 25 प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल (3-6 वर्ष) (Care in Early Childhood (3-6 years))

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 25 प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल (3-6 वर्ष)

UP Board Class 11 Home Science Chapter 25 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था से क्या आशय है? इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
बाल-विकास की प्रक्रिया जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है तथा किसी-न-किसी रूप में यह जीवन-भर चलती रहती है। बाल-विकास के विभिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न विशेषताओं एवं लक्षणों का अविर्भाव होता है। विकास की प्रक्रिया के व्यवस्थित अध्ययन के लिए विभिन्न अवस्थाओं का व्यवस्थित अध्ययन करना आवश्यक होता है। बाल-विकास की अवस्थाओं का कोई स्पष्ट विभाजन सम्भव नहीं है, फिर भी विद्वानों में अपने-अपने दृष्टिकोण से बाल-विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। एक सामान्य वर्गीकरण के अन्तर्गत जन्म के उपरान्त इन अवस्थाओं को क्रमशः शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के रूप में स्वीकार किया गया है। विद्वानों ने बाल्यावस्था को पुनः दो उप-वर्गों में विभाजित किया है जिन्हें क्रमशः पूर्व या प्रारम्भिक बाल्यावस्था तथा उत्तर बाल्यावस्था के रूप में वर्णित किया जाता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था की विशेषताओं, समस्याओं तथा देखभाल का विवरण निम्नवर्णित है –

प्रारम्भिक बाल्यावस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ –
बाल-विकास क्रम में शैशवावस्था के उपरान्त आने वाली अवस्था को प्रारम्भिक बाल्यावस्था (Early childhood) के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था की आयु-अवधि 2-3 वर्ष से 5-6 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। इस अवस्था में बच्चे शैशवावस्था की तुलना में कुछ अधिक विकसित तथा सक्षम हो जाते हैं। उनकी अन्य व्यक्तियों पर निर्भरता कुछ कम हो जाती है। अब उन्हें पूर्ण रूप से असहाय मान कर दिया जाने वाला संरक्षण तथा देखभाल का रूप बदल जाता है। अब बच्चा स्वयं घूमने-फिरने लगता है तथा अपने कुछ साधारण कार्य भी स्वयं करने लगता है। कुछ बड़ा होने पर बच्चा प्ले स्कूल या नर्सरी स्कूल में भी जाने लगता है।

इस अवस्था में बच्चे के मित्र भी बनने लगते हैं तथा खेल-समूह के बच्चों से भी वह सम्पर्क बनाने लगता है। इन सब गतिविधियों का स्पष्ट प्रभाव बच्चे के विकास पर दिखाई देने लगता है। सामाजिक सम्पर्क का दायरा बढ़ जाने के कारण इस अवस्था को ‘सामाजिक अवस्था’ के रूप में भी जाना जाता है। स्पष्ट है कि इस अवस्था में बच्चे का तेजी से सामाजिक विकास होता है। विकास की इस प्रक्रिया के माध्यम से बच्चा अपने सामाजिक पर्यावरण के साथ समायोजन करना भी सीखने लगता है। इस स्थिति में उसमें जिज्ञासा प्रवृत्ति प्रबल होने लगती है तथा वह विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करने लगता है।

प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले विकास तथा सम्बन्धित समस्याओं एवं आवश्यक देखभाल के उपायों को जानने के लिए इस अवस्था की मुख्य विशेषताओं को जानना भी आवश्यक है। इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ निम्नवर्णित हैं –

1. आत्मनिर्भरता का विकास – इस अवस्था में बालक की दूसरों पर आश्रितता घट जाती है। वह अपनी शारीरिक तथा मानसिक क्षमता के द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करने का प्रयास करता है। वह अपने कपड़े, जूते स्वयं पहनता है। अपने खिलौने तथा अन्य वस्तुएँ स्वयं समेटना प्रारम्भ कर देता है।

2. प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति—इस अवस्था की एक मुख्य विशेषता जिज्ञासा प्रवृत्ति का प्रबल होना भी है। बच्चे के सम्पर्क में जो भी वस्तु आती है, उसके सम्बन्ध में वह उपयुक्त जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है। अब बालक यह नहीं पूछता कि-‘यह क्या है?’ बल्कि वह पूछता है कि-‘ऐसा क्यों हैं?’

3. संग्रह प्रवृत्ति का जाग्रत होना इस अवस्था में बालक की संग्रह प्रवृत्ति भी जाग्रत हो जाती है। वह खिलौने, वीडियो गेम्स, गोलियाँ आदि जो कुछ भी वातावरण से प्राप्त होता है, उनका संग्रह करने लगता है। बच्चे को वेशभूषा में लगी जेब का इस्तेमाल करना आ जाता है।

4.खेल-कूद का विकास-प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चा विभिन्न खेलों में रुचि लेने लगता है। वह अपने समान आयु के बच्चों के साथ खेलना चाहता है। वह सामाजिकता की ओर अग्रसर होने लगता है।

5. सामूहिक प्रवृत्ति की परिपक्वता-इस अवस्था में बालक की सामूहिक प्रवृत्ति में परिपक्वता आ जाती है। अब वह मण्डली बनाकर रहने के लिए नाना प्रकार के प्रयास करता है। वह सामूहिक खेलों में अधिक रुचि लेने लगता है।

6. पूर्व अनुभवों को पुनः स्मरण करना-प्रारम्भिक बाल्यावस्था के दौरान ही पूर्व अनुभवों का पुन:स्मरण करने लगता है। आवश्यकता पड़ने पर यह विचार करने लगता है कि पहले हमने यह कार्य किया था। हम इस वस्तु अथवा व्यक्ति को देख-चुके हैं आदि।

7.कल्पना में वास्तविकता का स्थान-जब बालक शैशवावस्था में होता है तब वह अवास्तविक काल्पनिक जगत में विचरण करता है, परन्तु जब वह थोड़ा बड़ा होता है तब वह उसकी अधिक कल्पना करता है जो उसके वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होता है।

8. बहिर्मुखी व्यक्तित्व-इस अवस्था में बालक का व्यक्तित्व बहिर्मुखी होता है। वह हमेशा वातावरण के प्रति सजग रहता है। वह प्रायः अन्य बालकों के साथ समायोजित होकर रहने का यथासम्भव प्रयास करता है।

9. अनुभव में वृद्धि–इस अवस्था में बालक को परिवार के बाहर स्कूल, पड़ोस तथा संगी-साथियों से नित नये अनुभव प्राप्त होते हैं, जिनसे न केवल उसके ज्ञान में वृद्धि होती है बल्कि वह जीवन की वास्तविकता से भी परिचित होने लगता है।

10. सामाजिक एवं नैतिक विकास-इस अवस्था में बालक का सामाजिक एवं नैतिक विकास भी प्रारम्भ हो जाता है। जो भी आज्ञाएँ या निर्देश उसे समूह के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हें वह मानने के लिए सदैव तैयार रहता है। उसमें आज्ञापालन, सहयोग, सहिष्णुता आदि गुणों का भी विकास होने लगता है।

प्रश्न 2.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले शारीरिक विकास तथा गामक या क्रियात्मक विकास का विवरण।
उत्तरः
पूर्व बाल्यावस्था में विकास के सभी पक्षों का समुचित विकास होता है। इस अवस्था में होने वाले शारीरिक तथा गामक या क्रियात्मक विकास का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है

1. शारीरिक विकास-पूर्व बाल्यावस्था शारीरिक रूप से पुष्ट होने की अवस्था है। इस अवस्था में शारीरिक विकास एवं वृद्धि की दर शैशवावस्था की दर से कम होती है। इस अवस्था में बालक के वजन तथा लम्बाई में वृद्धि होती है। शरीर के अंगों के अनुपात में परिवर्तन होने लगता है। पाँच वर्ष के बालक का सिर प्रौढ़ व्यक्ति के सिर से लगभग 10% छोटा होता है। इस अवस्था में सामान्य रूप से अस्थायी दाँत भी होते हैं। लड़कियों की तुलना में लड़कों का वजन एवं लम्बाई अधिक होती है।

इस अवस्था में बालक स्नायु तन्त्र तथा अन्य अंगों का भी समुचित विकास होता है। शरीर के पाचन तन्त्र का भी विकास होता है तथा परिणामस्वरूप बालक की भूख तथा आहार की आवश्यकता में भी वृद्धि होती है। शरीर के पाचन तन्त्र के साथ-साथ बालक के कंकाल तन्त्र तथा पेशी संस्थान में भी समुचित विकास होता है। शरीर की सभी अस्थियाँ तथा पेशियाँ विकसित एवं मजबूत होने लगती हैं। इस अवस्था में आकर बालक का अपने विसर्जन संस्थान पर भी समुचित नियन्त्रण हो जाता है। इस अवस्था में बालक की मुखाकृति तथा जबड़े की बनावट में भी परिवर्तन आने लगता है तथा सिर के बाल भी काले तथा चमकदार होने लगते हैं।

2. गामक या क्रियात्मक विकास—इस अवस्था में बालक का समुचित गामक या क्रियात्मक विकास (Motor Development) भी होता है। इस अवस्था में होने वाले गामक या क्रियात्मक विकास प्रारम्भिक बाल्यावस्था में देखभाल 253 की दर कुछ अधिक होती है। इसके लिए बालक द्वारा की जाने वाले शारीरिक गतिविधियों तथा अभ्यास की अधिकता जिम्मेदार होती है। शरीर के क्रमशः परिपक्व होने के कारण भी क्रियात्मक विकास में वृद्धि होती है। यदि बालक को समुचित प्रोत्साहन मिलता रहे तो उसके क्रियात्मक विकास में सराहनीय वृद्धि हो सकती है। इस अवस्था में होने वाले बालक के गामक विकास को दैनिक जीवन के प्रायः सभी क्रियाकलापों में देखा जा सकता है।

अब बालक अपने कपड़े-जूते स्वयं पहनने लगता है। शौच के लिए कमोड पर बैठने लगता है, तीन पहिये वाली साइकिल या अन्य गाड़ी आदि चलाने लगता है। बालक अपनी किताब कॉपी के पन्ने सुचारु रूप से पलटने लगता है। पेन-पेन्सिल को सही ढंग से पकड़ने लगता है तथा अपनी सभी वस्तुओं, खिलौनों तथा पुस्तकों आदि को समेटकर निर्धारित स्थान पर रखना सीख जाता है। वह स्वयं आहार ग्रहण करता है, चम्मच आदि का प्रयोग भी भली-भाँति सीख लेता है। इस अवस्था में बालक गतिशील खेलों तथा दौड़-भाग की गतिविधियों को भी सफलतापूर्वक करने लगता है। स्पष्ट है कि प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक का पर्याप्त गामक विकास हो जाता है तथा वह शारीरिक गतियों में समुचित समायोजन भी सीख लेता है।

प्रश्न 3.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास तथा सामाजिक विकास का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक के सामाजिक सम्पर्क का दायरा विस्तृत होता है तथा उसे परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के भी सम्पर्क में रहना पड़ता है। ऐसे में बालक में कुछ संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं तथा सामाजिक विकास की प्रक्रिया तेज हो जाती है। इस अवस्था में होने वाले संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास का विवरण निम्नवर्णित है

1. संवेगात्मक विकास–जहाँ तक संवेगात्मक विकास का प्रश्न है, इस अवस्था में संवेगात्मक अस्थिरता बनी रहती है। किसी भी समय कोई संवेग प्रबल हो जाता है। प्रायः बालक किसी भी कारण से शीघ्र ही क्रोधित या भयभीत हो जाता है। इस अवस्था में ईर्ष्या का संवेग भी प्रबल होने लगता है। इसका मुख्य रूप अपने ही भाई या बहन से ईर्ष्या के रूप में देखा जा सकता है। बच्चे क्रोध में प्रायः चीखते-चिल्लाते हैं, पैर पटकते, चुटकी काटते हैं, साँस रोक लेते हैं तथा शरीर को कड़ा कर लेते हैं।

इस अवस्था में क्रोध को प्यार एवं सहानुभूति से नियन्त्रित किया जा सकता है। बालक के भय संवेग को उसकी समझदारी बढ़ाकर नियन्त्रित किया जा सकता है। इस अवस्था में बालकों में द्वेष का भाव भी प्रबल हो जाया करता है। इनका विकास क्रोधपूर्ण विरोध के परिणामस्वरूप होता है। द्वेष के प्रबल होने पर बालक का व्यवहार काफी असामान्य हो जाता है तथा वह इसके अन्तर्गत बिस्तर पर पेशाब करना, अँगूठा चूसना या सिरदर्द व पेट दर्द का बहाना करने लगता है। इस अवस्था में बालक में जिज्ञासा तथा हर्ष के भाव भी पर्याप्त रूप से विकसित होने लगते हैं। इन भावों के समुचित विकास के लिए माता-पिता को विशेष रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए।

2. सामाजिक विकास-इस अवस्था में बालक का सामाजिक विकास भी तेजी से होता है। इसमें सर्वाधिक योगदान खेल-समूह तथा विद्यालय के वातावरण का होता है। यदि बालक का शारीरिक एवं संवेगात्मक विकास सामान्य हो तो निश्चित रूप से इस अवस्था में बालक का सामाजिक विकास भी सुचारु रूप में होता है। बालक के अच्छे सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है कि बच्चों के माता-पिता तथा अभिभावकों का स्नेहपूर्ण एवं सक्रिय व्यवहार हो। सुखद सामाजिक सम्पर्क से बालक के सामाजिक विकास की प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती है। इस अवस्था में बालक प्राय: समूह में खेलते हैं। सामूहिक गतिविधियों से बालक में सामूहिक भावना, सहयोग तथा स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के सामाजिक गुणों का यथा सम्भव विकास होता है।

इस अवस्था में बच्चों में यदि किसी बात से लड़ाई-झगड़ा भी हो जाता है तो शीघ्र ही मित्रता हो जाती है। इस अवस्था में बच्चे में अन्य बच्चों के साथ सहमति या असहमति, आज्ञा पालन या अवज्ञा, नेतृत्व या अनुसरण की प्रवृत्तियों का भी समुचित विकास देखा जाता है। यदि व्यवहार में देखा जाए तो इस अवस्था में बालक के व्यवहार में नकारात्मक प्रवृत्ति प्राय: अधिक पायी जाती है। उसके अधिकांश उत्तर नकारात्मक रूप में ही होते हैं। इसके लिए प्राय: कड़ा अनुशासन तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की कमी ही मुख्य कारण हुआ करते हैं। अतः बालक की इस प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने के लिए अभिभावकों को चाहिए कि सामान्य अनुशासन तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार को ही प्राथमिकता दें।

प्रश्न 4.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का सामान्य परिचय दें। इस अवस्था की एक मुख्य समस्या के रूप में अनावश्यक गुस्सा करने की समस्या’ के कारणों तथा निराकरण के उपायों एवं देखभाल का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
बाल-विकास के सुचारु अध्ययन के लिए विकास की प्रत्येक अवस्था में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को भी जानना आवश्यक होता है तथा उचित देखभाल के अन्तर्गत सम्बन्धित समस्याओं के निराकरण के उपाय किए जाते हैं ।

प्रारम्भिक बाल्यावस्था में उत्पन्न होने वाली अधिकांश समस्याएँ शारीरिक तथा व्यवहार सम्बन्धी होती हैं। यह काल व्यक्तित्व के निर्माण का काल होता है तथा व्यक्तित्व निर्माण के मार्ग में आने वाली विभिन्न बाधाओं के कारण विभिन्न समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं। इन समस्याओं के निराकरण के लिए माता-पिता तथा शिक्षकों को हर समय सचेत रहना चाहिए तथा प्रत्येक समस्या को प्रबल रूप ग्रहण करने से बचाना चाहिए।

यदि इस काल की समस्याओं का समुचित निराकरण न किया जाए तो बालक के व्यक्तित्व विकास पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था की अधिकांश समस्याओं को बालक के असामान्य व्यवहार से जाना जा सकता है। इस अवस्था की मुख्य समस्याएँ हैं-अनावश्यक गुस्सा करना, बिना कारण ही भयभीत हो जाना, बिस्तर गीला करना, दाँतो से नाखून काटना तथा प्रायः झूठ बोलना। इन समस्याओं के कारणों तथा निवारण के उपायों का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है –

अनावश्यक गुस्सा करना –
गुस्सा करना एक सामान्य प्रवृत्ति है जो कि प्रत्येक व्यक्ति में किसी-न-किसी रूप में जन्म से ही पायी जाती है। एक सीमा में गुस्सा करना तो स्वभाव की एक सामान्य प्रवृत्ति है। छोटे बच्चे की यदि कोई आवश्यकता पूरी नहीं होती या उसकी वस्तु छीन ली जाती है तो वह तुरन्त गुस्सा करता है। इसे समस्या नहीं माना जाता। जब कोई बालक सामान्य से अधिक तथा बार-बार गुस्सा या क्रोध करने लगता है तो उसके इस व्यवहार को एक समस्या माना जाने लगता है। इस प्रकार की समस्यात्मक व्यवहार में बालक प्रायः चिल्लाता है, हाथ-पैर पटकता है, वस्तुएँ फेंकता या तोड़ता है। अनावश्यक गुस्सा करने वाला बालक सामाजिक समायोजन स्थापित करने में असफल रहता है तथा उसके व्यक्तित्व पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनावश्यक गुस्सा करने की समस्या के मुख्य कारणों तथा समस्या निवारण के उपायों का विवरण निम्नवर्णित है-

समस्या के कारण – अनावश्यक गुस्सा करने के असामान्य व्यवहार के विकास के लिए विभिन्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। सर्वप्रथम यदि बच्चे भी अधिकांश इच्छाओं की पूर्ति न करके उनकी निरन्तर अवहेलना की जाती है तो बालक में गुस्से की आदत प्रबल हो जाती है। बच्चे द्वारा सामान्य रूप से किए जाने वाले कार्यों में अनावश्यक बाधाओं के बार-बार आने से भी बच्चा असामान्य रूप से गुस्सा करने लगता है। किसी भी कारण से बच्चे में यदि ईर्ष्या की भावना प्रबल हो जाए तो भी बच्चा गुस्सैल बन जाता है।

बच्चे की स्वतन्त्र गतिविधियों पर अनावश्यक रूप से प्रतिबन्ध लगने से भी गुस्से की प्रवृत्ति प्रबल होने लगती है। बच्चे के द्वारा किए जाने वाले कार्यों की यदि निरन्तर आलोचना की जाती रहे तो भी बच्चा खिन्न होकर गुस्सा या क्रोध करने लगता है। कुछ निरन्तर लम्बे समय तक चलने वाले रोग या बच्चे की शारीरिक असमर्थता भी बच्चे को गुस्सैल बना देती है। कुछ विद्वानों ने अनावश्यक गुस्से को आनुवंशिक भी माना है। यदि बच्चे के माता-पिता भी अत्यधिक गुस्सैल हों तो उस स्थिति में आनुवंशिकता के आधार पर बच्चे में यह प्रवृत्ति आ जाती है।

समस्या का निवारण एवं देखभाल – बच्चे के अनावश्यक रूप से गुस्सा करने की समस्या के निवारण के लिए समुचित रूप से ध्यान रखना तथा उपाय करना आवश्यक होता है। अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों की उचित इच्छाओं तथा आवश्यकताओं को पूरा करते रहें। कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे बच्चा चिड़ता हो। बच्चों के सामान्य कार्यों में बाधा नहीं डालनी चाहिए तथा कठोर नियन्त्रण से भी बचना चाहिए। बच्चों के सामान्य कार्यों एवं व्यवहार की अनावश्यक रूप से आलोचना नहीं करनी चाहिए तथा प्रत्येक अच्छे कार्य की खूब प्रशंसा करनी चाहिए।

यदि बच्चा ईर्ष्यावश क्रोध करता हो तो उसके ईर्ष्या भाव को शान्त करना चाहिए। इसके लिए स्नेहपूर्ण व्यवहार तथा सहयोग की प्रवृत्ति को प्रेरित करना चाहिए। ध्यान रहे जिस समय बच्चा अधिक गुस्से के आवेश में हो, उस समय बच्चे को डाँटना या पीटना नहीं चाहिए बल्कि प्यार एवं दुलार से नियन्त्रित करना चाहिए। यदि बच्चा किसी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या के कारण गुस्सैल बन गया हो तो उसकी सम्बन्धित समस्या के निवारण के उपाय करने चाहिए। इसके साथ ही बच्चे को अपने क्रोधी स्वभाव को छोड़ने के लिए सकारात्मक रूप से प्रेरित भी करते रहना चाहिए।

प्रश्न 5.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में प्रायः देखी जाने वाली एक समस्या है ‘बिना कारण के भयभीत होना’। इस समस्या के मुख्य कारणों तथा निराकरण के उपायों एवं देखभाल का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
वैसे तो भय या भयभीत होना मानव स्वभाव का एक गुण या लक्षण है। वयस्क व्यक्ति भी अनेक परिस्थितियों में भयभीत हो जाते हैं परन्तु उनके भयभीत होने के पीछे कोई स्पष्ट कारण या खतरा निहित होता है। इसे असामान्य व्यवहार नहीं माना जाता परन्तु बच्चों में अनेक बार बिना पर्याप्त कारणों के ही भयभीत होने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है। इस प्रवृत्ति को असामान्य व्यवहार तथा व्यवहारगत समस्या माना जाता है। बच्चे प्राय: काल्पनिक खतरों से डरते हैं। इस रूप में डरना अनेक बार व्यक्तित्व के विकास में बाधक बन जाता है। अनावश्यक रूप से डरने वाला बच्चा दब्बू बन जाता है तथा उसमें समुचित आत्मविश्वास का भी विकास नहीं हो पाता। बच्चों में बिना कारण के भयभीत होने की समस्या के कारणों तथा उसके निवारण के उपायों का विवरण निम्नवर्णित है –

समस्या के कारण – अनावश्यक रूप से भयभीत होने की प्रवृत्ति के लिए विभिन्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि यदि गर्भावस्था में माँ अनावश्यक भय से ग्रस्त रहती है तो जन्म लेने वाला शिशु भी बिना कारण के भयभीत होने लगता है। यदि बच्चों को प्राय: भय उत्पन्न करने वाली कहानियाँ-किस्से सुनाए जाते रहें तो भी बच्चे के मन में भय घर कर जाता है। यदि बच्चे में आत्मविश्वास की कमी हो तो भी इस बात की आशंका रहती है कि वह भयग्रस्त रहने लगे। प्रायः बच्चा असहाय तथा कमजोर होने के कारण भी भयग्रस्त रहने लगता है। यदि परिवार के सदस्य किन्हीं कारणों से डरकर रहने वाले बन गए हों तो उस परिवार में बच्चे भी भयग्रस्त रहने लगते हैं।

समस्या का निवारण एवं देखभाल – बच्चों में व्याप्त होने वाली अनावश्यक भय की समस्या को रोकने तथा निवारण के लिए समुचित उपाय किए जाने चाहिए। सर्वप्रथम प्रत्येक भावी माता को गर्भावस्था में अपने आप को हर प्रकार के अनावश्यक तथा काल्पनिक भय से मुक्त रहना चाहिए। उसे पूर्ण आत्म-विश्वास तथा उत्साह में रहना चाहिए। यदि बच्चा किसी वस्तु, घटना या पशु आदि से डरने लगे तो उसके इस भय को समाप्त करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से प्रयास करने चाहिए। उदाहरण के लिए अधिकांश बच्चे बिल्ली-कुत्ते तथा अँधेरे से डरते हैं।

ऐसे अभिभावकों को चाहिए कि वे किसी पालतू बिल्ली-कुत्ते को पुचकार कर अपने निकट लाएँ तथा बच्चे को बताएं कि इनसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं। इसी प्रकार अँधेरे स्थान पर प्रकाश करके दिखाना चाहिए कि वहाँ तो डरने वाला कोई कारक है ही नहीं। बच्चों को भयभीत होने से बचाने के लिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें डरावने कहानीकिस्से न सुनाए जाएँ तथा न ही टी०वी० पर प्रसारित होने वाले इस प्रकार के कार्यक्रम ही दिखाएँ। यदि बच्चा अनावश्यक रूप से डरने लगा ही तो उसकी इस आदत का उपहास न करें बल्कि उसे वीरता एवं साहस से कार्य करने के लिए प्रेरित करें।

प्रश्न 6.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चों की उचित देखभाल के लिए ध्यान रखने योग्य बातों का विवरण दीजिए।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था व्यक्तित्व विकास के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण होती है। इस अवस्था में सुचारु विकास तथा समस्याओं के नियन्त्रण के लिए अग्रलिखित बातों को ध्यान में रखना उपयोगी सिद्ध होता है –

  • माता-पिता तथा शिक्षकों का दायित्व है कि यदि बालक में स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई दोष या समस्या हो तो उसके निराकरण के लिए यथाशीघ्र प्रयास करने चाहिए।
  • शिक्षकों तथा अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों की जिज्ञासा प्रवृति को शान्त करने का हर सम्भव प्रयास करें। बच्चों को हर प्रकार की आवश्यक जानकारी सही ढंग से उपलब्ध कराएँ।
  • बच्चों की सामूहिक प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए आवश्यक साधन एवं अवसर उपलब्ध कराए जाएँ। बच्चों के लिए सामूहिक खेलों की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • विद्यालय में शिक्षकों को चाहिए कि वे नेतृत्व की क्षमता वाले बच्चों का विशेष प्रशिक्षण दें।
  • बच्चों को व्यक्तित्व विकास के लिए समय-समय पर सरस्वती यात्राओं का आयोजन किया जाना चाहिए।
  • विद्यालय में शिक्षकों को बालकों के समक्ष अच्छे-अच्छे सामूहिक खेलों का नमूना प्रस्तुत करना चाहिए।
  • बच्चों को स्वयं करके सीखने के अवसर प्रदान करने चाहिए, क्योंकि उनकी विविध प्रकार के कार्यों को करने की तीव्र प्रवृत्ति होती है।
  • अभिभावकों तथा शिक्षकों को चाहिए कि बालकों में आत्म संयम, स्वावलम्बन, आज्ञापालन, अनुशासन, विनयशीलता, उत्तरदायित्व आदि गुणों का विकास करें।
  • बालकों के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति का व्यवहार किया जाना चाहिए। उन्हें कठोर अनुशासन तथा दण्ड से मुक्त रखना चाहिए।
  • बालकों को विभिन्न प्रकार के अन्धविश्वासों, दूषित प्रथाओं एवं छल-कपट की बातों से दूर रखना चाहिए।
  • बालकों को व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित आवश्यक जानकारी दी जानी चाहिए। उन्हें यौन शोषण की समस्या के प्रति जागरूक बनाना चाहिए।
  • बच्चों की ‘संचय-प्रवृत्ति’ का सदुपयोग करने के लिए उन्हें अच्छी-अच्छी वस्तुओं को संचित करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
  • बच्चों के नैतिक एवं सामाजिक विकास के लिए समुचित प्रयास किए जाने चाहिए।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 25 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
टिप्पणी लिखिए-‘प्रारम्भिक बाल्यावस्था में भाषागत विकास’।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक का भाषागत विकास तेजी से होता है। इसके लिए बच्चे का खेल-समूह तथा विद्यालय का वातावरण जिम्मेदार होता है। इस अवस्था में पायी जाने वाली प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति के परिणास्वरूप भी बालक का भाषागत विकास तेजी से होता है। इस अवस्था में बालक की भाषा में क्रिया, सर्वनाम, संयोजक तथा विभक्ति सूचक शब्दों का भी पर्याप्त समावेश हो जाता है। सामान्य रूप से बालक सुबह, दोपहर, शाम, रात, सर्दी-गर्मी तथा बरसात आदि शब्दों का भी सही अर्थों में प्रयोग करने लगता है। यही नहीं वह सार्वजनिक रूप से ‘नमस्कार’, ‘धन्यवाद’, ‘क्षमा करें’, ‘सॉरी’ आदि शब्दों को भी बोलना सीख लेता है।

यह सत्य है कि इस अवस्था में बालक के भाषागत विकास में वृद्धि होती है परन्तु इस अवस्था में बालक की भाषा में अनेक त्रुटियाँ तथा उच्चारण सम्बन्धी दोष भी पाए जाते हैं। इसके लिए अभिभावकों तथा शिक्षकों को सुधारने के समुचित उपाय करने चाहिए। इस अवस्था में बच्चों के भाषागत विकास में पर्याप्त विविधता देखी जा सकती है। इसके लिए बच्चे की आर्थिक-सामाजिक स्थिति शैक्षिक वातावरण तथा आवासीय क्षेत्र आदि कारक जिम्मेदार होते हैं। वर्तमान समय में टी०वी० के विभिन्न कार्यक्रम भी बच्चों के भाषागत विकास को गम्भीरता से प्रभावित करते हैं। जहाँ तक हो सके बच्चों को वहीं कार्यक्रम दिखाने चाहिए जो बच्चों के लिए प्रसारित किए जाते हैं। नगरीय वातावरण तथा ग्रामीण वातावरण भी बच्चों के भाषागत विकास को भिन्न-भिन्न रूप में प्रभावित करते हैं।

प्रश्न 2.
टिप्पणी लिखिए–’प्रारम्भिक बाल्यावस्था में दाँतों से नाखून काटने की समस्या या असामान्य व्यवहार’।
उत्तर
दाँतों से नाखून काटना –
बाल्यावस्था में दाँतों से नाखून काटना भी एक व्यवहार सम्बन्धी असामान्यता या समस्या है। यह व्यवहार एक असामान्य व्यवहार है तथा इससे विभिन्न हानियाँ हो सकती हैं। सर्वप्रथम यह व्यवहार देखने में भद्दा तथा अशोभनीय प्रतीत होता है। इसके साथ ही यह कार्य स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। प्रायः नाखूनों में गन्दगी तथा कुछ कीटाणु होते हैं। ऐसे में दाँतों से नाखून काटने से किसी रोग के संक्रमण की बहुत अधिक आशंका रहती है।

समस्या के कारण – दाँतों से नाखून काटने की असामान्य आदत के लिए विभिन्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। इस असामान्य व्यवहार का एक मुख्य कारण बच्चे में संवेगात्मक तनाव का प्रबल होना है। बच्चा अपने संवेगात्मक तनाव को कम करने के लिए यह असामान्य व्यवहार करता है। इसके साथ ही परिवार एवं अपने समूह से तिरस्कृत या उपेक्षित बालक भी इस आदत का शिकार हो सकता है। यदि बच्चा स्वभाव से चिड़चिड़ा तथा बेचैन रहता हो तो यह आदत विकसित हो जाती है। हीनता की भावना का शिकार बालक भी ऐसा असामान्य व्यवहार कर सकता है। कभी-कभी बच्चे के पास करने के लिए कोई काम न हो तथा वह अपने आप को खाली महसूस करता हो तो भी इस आदत के बनने की आशंका रहती है।

समस्या का निराकरण – सामान्य स्वास्थ्य तथा व्यक्तित्व के सुचारु विकास के लिए बच्चे में दाँतों से नाखून काटने की आदत का निराकरण करना आवश्यक होता है। इसके लिए कुछ उपाय करने पड़ते हैं। सर्वप्रथम इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा कभी यह महसूस न करे कि उसका तिरस्कार किया जा रहा है। बच्चे के संवेगात्मक तनाव को समाप्त करने का हर सम्भव उपाय करना चाहिए। इस असामान्य व्यवहार को करने वाले बच्चे में यदि हीन भावना व्याप्त हो तो उसे समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

इसके लिए समय-समय पर बच्चे की प्रशंसा करनी चाहिए। इस आदत को छुड़ाने का एक अच्छा व्यावहारिक उपाय है-बच्चे को किसी-न-किसी कार्य में व्यस्त रखना। बच्चे को किसी खेल या ड्राइंग बनाने आदि के कार्य में व्यस्त रखना चाहिए। ऐसे में बच्चे के हाथ खाली नहीं रहेंगे तथा उसे दाँत से नाखून काटने का अवसर ही उपलब्ध नहीं होगा।

प्रश्न 3.
बिस्तर पर मूत्र-त्याग की समस्या से क्या आशय है? अथवा टिप्पणी लिखिए-बिस्तर गीला करना।
उत्तरः
बच्चे द्वारा बिस्तर पर मूत्र-त्याग –
जन्म के बाद प्रारम्भिक काल में बालक का शौच एवं मूत्र-त्याग पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होता तथा ये क्रियाएँ स्वतः ही चलती रहती हैं। इस काल में बच्चा बिस्तर पर या जहाँ भी होता है वहीं मूत्र-त्याग कर देता है। परन्तु धीरे-धीरे बच्चे को उचित स्थान पर ही मूत्र-त्याग के लिए प्रेरित किया जाता है तथा सामान्य रूप से तीन-चार वर्ष का बालक मूत्र-त्याग को नियन्त्रित कर लेता है। वह प्रायः उचित स्थान पर ही मूत्र-त्याग करता है, परन्तु यदा-कदा सोते समय बिस्तर पर ही मूत्र-त्याग कर दिया करता है।

यदि यह क्रिया यदा-कदा ही होती है तो उसे असामान्य नहीं माना जाता, परन्तु जब ऐसा नियमित रूप से होने लगता है तथा आयु बढ़ने के साथ भी यह आदत नहीं छूटती तब इसे एक असामान्य बात तथा समस्या के रूप में माना जाने लगता है। यह समस्या कई बार 10-12 वर्ष के बच्चों के साथ देखी जा सकती है। इस असामान्य व्यवहार के शिकार हुए बच्चे कभी-कभी जाग्रत अवस्था में भी कपड़ों में मूत्र-त्याग कर दिया करते हैं। ऐसा प्रायः किसी उत्तेजना या भय की स्थिति में हुआ करता है। इस असामान्य व्यवहार के शिकार बच्चों में हीन भावना घर कर जाती है तथा उसमें आत्मविश्वास कम होने लगता है। इस असामान्य व्यवहार के निवारण के लिए उचित प्रयास किए जाने चाहिए।

प्रश्न 4.
बच्चे द्वारा बिस्तर पर मूत्र-त्याग के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
बच्चे द्वारा बिस्तर पर मूत्र-त्याग के कारण –
बिस्तर अथवा कपड़ों में ही मूत्र-त्याग कर देने के असामान्य व्यवहार के सम्भावित कारणों का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है –

  • यदि प्रारम्भ से ही बच्चे को मल-मूत्र त्याग का उचित प्रशिक्षण दे दिया जाए तो इस असामान्य व्यवहार के विकसित होने की सम्भावना कम रहती है।
  • सोने के लिए उचित एवं आरामदायक बिस्तर न होना। सर्दियों के मौसम में बिस्तर का ठण्डा होना भी एक महत्त्वपूर्ण कारण हो सकता है।
  • यदि बालक का पर्याप्त बौद्धिक विकास न हो तो भी यह समस्या हो सकती है। मन्दबुद्धि बालकों का मांसपेशियों एवं अन्य संस्थानों पर नियन्त्रण नहीं होता; अत: वे प्रायः अनियमित रूप से मल-मूत्र त्याग दिया करते हैं।
  • बच्चे द्वारा सामान्य से अधिक मात्रा में तरल पदार्थ विशेष रूप से ठण्डे तरल पदार्थ (शर्बत आदि) ग्रहण करना भी बिस्तर गीला करने का कारण बन सकता है।
  • पाचन क्रिया के अनियमित होने पर भी कभी-कभी बच्चा सोते हुए मूत्र-त्याग कर देता है।
  • संवेगात्मक तनाव के परिणामस्वरूप भी यह असामान्य व्यवहार हो सकता है। यदि कभी बच्चों को भूत-प्रेत की भयानक कहानियाँ या बातें सोने से पहले सुनाई जाएँ तो भी रात को सोते हुए बिस्तर पर ही मूत्र-त्याग हो सकता है।
  • अधिक शर्मीले एवं संवेदनशील बच्चों को प्राय: यह शिकायत हो जाती है।
  • परिवार में बच्चे का किसी प्रकार का तिरस्कार होने पर भी यह समस्या उत्पन्न हो सकती है। कभी-कभी छोटे भाई-बहन को अभिभावकों द्वारा अधिक प्यार किए जाने पर भी यह समस्या खड़ी हो जाती है।
  • किसी भी कारण से बच्चों में हीनभावना जाग्रत होने पर या आत्मविश्वास में कमी आ जाने पर भी बिस्तर गीला करने की समस्या उठ सकती है।
  • बच्चों में असुरक्षा एवं भय की भावना प्रबल होने पर भी बिस्तर गीला करने की आदत पड़ सकती है।
  • किसी शारीरिक दोष के कारण भी यह असामान्य क्रिया हो सकती है। गुर्दो के दोष या नाड़ी संस्थान के समुचित नियन्त्रण के अभाव में भी यह समस्या उत्पन्न हो सकती है।

प्रश्न 5.
बच्चों द्वारा बिस्तर पर मूत्र-त्याग की समस्या के निवारण के उपाय बताइए।
उत्तरः
बिस्तर पर मूत्र-त्याग समस्या का निवारण –
बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करने की समस्या के निवारण के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं –

  • बच्चों को मल-मूत्र त्याग के लिए यथासम्भव उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
  • यदि बच्चा संवेगात्मक तनाव या अस्थिरता का शिकार हो तो उसके संवेगात्मक तनाव को समाप्त करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए। इसके लिए बच्चे को प्यार तथा धैर्य से समझाना एवं बहलाना चाहिए। ऐसे बच्चों को कभी भी डाँटना, फटकारना या पीटना नहीं चाहिए। बिस्तर गीला करने की बात को लेकर इनकी न तो हँसी उड़ानी चाहिए और न ही उन्हें शर्मिन्दा करना चाहिए।
  • बच्चे को यह अनुभव कराना चाहिए कि वह हर प्रकार से सुरक्षित है। उसमें आत्मविश्वास भी जाग्रत करना चाहिए।
  • बच्चे की पाचन क्रिया का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए तथा सोने से कम-से-कम दो घण्टे पूर्व ही भोजन करवा देना चाहिए।
  • सोने से पहले बच्चे को अधिक मात्रा में कोई भी तरल पदार्थ पीने के लिए नहीं देना चाहिए।
  • सोने से पहले बच्चे को मूत्र-त्याग करवा देना चाहिए तथा रात में भी एक-दो बार उठाकर बच्चे को मूत्र-त्याग करवा देना चाहिए।

प्रश्न 6.
टिप्पणी लिखिए–’बालक की जिज्ञासा की सन्तुष्टि’।
उत्तरः
बालक की जिज्ञासा की सन्तुष्टि –
बालकों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बड़ी प्रबल होती है। वे व्यापक जगत के विषय में अधिक-से-अधिक जानना चाहते हैं। इस उद्देश्य से वे माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों से तरह-तरह के प्रश्न पूछा करते हैं। बालकों के कुछ प्रश्न कभी-कभी अतार्किक तथा अटपटे भी होते हैं। इससे कभी-कभी माता-पिता खीज जाते हैं तथा बच्चे को डाँटकर चुप करा देते हैं। यह उचित नहीं है। बच्चे के सभी प्रश्नों का धैर्यपूर्वक उत्तर देना चाहिए तथा उसकी जिज्ञासा को जहाँ तक सम्भव हो सके अवश्य ही सन्तुष्ट करना चाहिए।

बच्चों की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने के लिए जहाँ तक हो सके सरल एवं स्पष्ट भाषा को अपनाना चाहिए। बच्चे की जिज्ञासा की सन्तुष्टि से उसका मानसिक एवं बौद्धिक विकास सुचारु रूप से होता है। यही नहीं इसका उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत यदि बालक की जिज्ञासा का दमन किया जाता है तो उसका प्रतिकूल प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है। ऐसे में बालक कुछ कुण्ठाओं का शिकार हो सकता है।

प्रश्न 7.
टिप्पणी लिखिए-बच्चों के विकास में खेल का महत्त्व।
उत्तरः
बच्चों के लिए खेल का महत्त्व –
बाल-विकास में खेल का अत्यधिक महत्त्व है। बाल-विकास के विभिन्न पक्षों को सुचारु बनाने में खेलों का विशेष योगदान होता है। सर्वप्रथम खेलों से बच्चों का शारीरिक विकास सुचारु होता है। खेल से शरीर सुदृढ़ होता है तथा उसकी वृद्धि एवं विकास को गति प्राप्त होती है। इसी प्रकार खेल के माध्यम से बच्चों का सामाजिक विकास भी सुचारु रूप से होता है।

खेल के माध्यम से बच्चे सहयोग, समानता, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा अनुशासन जैसे सामाजिक गुणों को सरलता से आत्मसात कर लेते हैं परिणामस्वरूप उनका उत्तम सामाजिक विकास हो जाता है। जहाँ तक संवेगात्मक विकास का प्रश्न है, उसमें भी खेल से समुचित योगदान प्राप्त होता है। खेलों से संवेगात्मक तनाव दूर होता है तथा संवेगात्मक स्थिरता एवं आवश्यक नियन्त्रण की क्षमता का विकास होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बाल-विकास में खेलों का बहुपक्षीय महत्त्व है।

प्रश्न 8.
बालकों द्वारा अंगूठा चूसने की समस्या का सामान्य परिचय दीजिए।
अथवा
बालक के अँगूठा चूसने की आदत पर दो बिन्दु लिखिए।
अथवा
बालक की अंगूठा चूसने की आदत आप कैसे छुड़ाएँगी?
उत्तरः
बालक का अंगूठा चूसना –
जब बालक बहुत छोटा होता है तो उसको केवल अपने शरीर से ही प्रेम होता है। उसका अँगूठा चूसना इसी प्रेम का प्रदर्शन है। अंगूठा चूसने से उसे कोई रस नहीं मिलता लेकिन उसे इसकी आदत पड़ जाती है और उसे छोड़ना मुश्किल पड़ जाता है। कुछ बच्चे जब काफी बड़े हो जाते हैं, तब भी इस आदत को नहीं छोड़ते हैं। उन्हें उनके माता-पिता और घर के सदस्य बहुत धमकाते हैं। धमकाने पर तो अँगूठा बाहर निकल आता है लेकिन थोड़ी देर बाद फिर वही आदत शुरू हो जाती है। इस आदत को छुड़ाने के लिए माता-पिता अँगूठे पर मिर्च या अन्य कोई कड़वी वस्तु लगा देते हैं तथा बच्चे को यह भी समझाते हैं कि अँगूठा चूसने से वह पतला पड़ जाएगा।

वास्तव में इस प्रकार के उपाय उचित नहीं हैं। इस समस्या के निदान के लिए विभिन्न उपाय किए जा सकते हैं। सर्वप्रथम बच्चे को सही समय पर आहार दिया जाना चाहिए ताकि वह भूखा न रहे। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे का हाथ खाली न रहे। हाथ में कोई खिलौना दे देना चाहिए। अनेक बार अंगूठा चूसने की आदत के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकता है। ऐसे में बच्चे का संवेगात्मक सन्तुलन बनाए रखना चाहिए। उसका किसी भी प्रकार से तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिए। बच्चे को हर प्रकार से सन्तुष्ट एवं प्रसन्न रखने का प्रयास किया जाना चाहिए।

प्रश्न 9.
टिप्पणी लिखिए – ‘बालक का हकलाना’।
उत्तरः
बालक का हकलाना –
बच्चों में कुछ रोग या दोष जन्म से ही विद्यमान होते हैं। इन पर विजय प्राप्त करना बहुत कठिन है इसी प्रकार का एक दोष हकलाना भी है। हकलाना एक भाषा सम्बन्धी दोष है। इस दोष में बालक शब्दों का उचित एवं स्पष्ट उच्चारण नहीं कर पाता। यदि बच्चा भय के कारण हकलाता है तो उसका भय दूर किया जा सकता है। हकलाने वाले बच्चों के साथ प्रेम तथा सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। कुछ बच्चे बड़े होने पर हकलाना स्वयं ही छोड़ देते हैं, कुछ हकलाना कम कर देते हैं लेकिन कुछ बच्चे जीवन भर हकले ही बने रहते हैं। यदि मुँह या जीभ में किसी प्रकार का दोष हो तो उसके निवारण से भी हकलाना ठीक हो जाता है, परन्तु मुख्य रूप से मनोवैज्ञानिक उपचार ही उपयोगी होता है।

प्रश्न 10.
भाई-बहनों में पायी जाने वाली ईर्ष्या का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
भाई-बहनों में ईर्ष्या भाई-बहनों में ईर्ष्या का पाया जाना एक मनोवैज्ञानिक दोष है। भाई-बहनों में ईर्ष्या, घर के वातावरण के कारण पैदा होती है। कुछ लोग लड़कों को अधिक प्यार करते हैं और लड़कियों को हीन भावना से देखते हैं। लड़कियों की उपेक्षा की जाती है। ऐसी स्थिति में भाई-बहनों में ईर्ष्या का होना स्वाभाविक है।

कभी-कभी ईर्ष्या दोनों के स्वभाव में अन्तर होने के कारण भी हो जाती है। ईर्ष्या को दूर करना माता-पिता का परम कर्तव्य है। प्रेम न होने से घर में वातावरण दूषित हो जाता है। घर का एक सदस्य दूसरे को बुरी भावना से देखता है जिससे मस्तिष्क में अशान्ति रहती है। संरक्षकों को चाहिए कि अपने पुत्र तथा पुत्री के साथ एक-सा व्यवहार करें जिससे ईर्ष्या होने का प्रश्न ही न उठे।

प्रश्न 11.
स्पष्ट कीजिए कि बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं?
उत्तरः
“बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं” –
बच्चों से जब कोई गलती हो जाती है तो वे समझते हैं कि गलती के कारण उन पर मार पड़ेगी। उदाहरण के लिए यदि बच्चे से गिलास टूट जाता है तो वह नहीं बताना चाहता कि गलती उससे हो गई है। ऐसी अवस्था में बच्चे को समझाना चाहिए कि गिलास टूट जाने दो, घबराने की कोई बात नहीं है लेकिन झूठ न बोलो। जब बच्चे के मस्तिष्क से भय निकल जाएगा तो वह झूठ नहीं बोलेगा।

कुछ बच्चे माता-पिता से झूठ बोलना सीख जाते हैं। वे झूठ बोलने में कोई बुराई नहीं समझते। झूठ बोलना साधारण बात समझते हैं।
बच्चों को झूठ बोलने से बचाने के लिए उनके हृदय से भय निकाल देना चाहिए। यदि बच्चे से गलती हो जाए तो उसे समझाना चाहिए तथा उसे माफ कर देना चाहिए। बच्चों को झूठ बोलने से रोकने के लिए ऐसी कहानी सुनानी चाहिए जिससे वे यह अनुभव करने लगें कि झूठ बोलने का परिणाम अच्छा नहीं होता। आजकल दूरदर्शन पर भी बच्चों के कुछ शिक्षाप्रद कार्यक्रम प्रसारित होते हैं जो सच बोलने तथा अन्य सद्गुणों को अपनाने की व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करते हैं।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 25 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
किस आयु-अवधि को प्रारम्भिक बाल्यावस्था के रूप में निर्धारित किया गया है?
उत्तरः
2-3 वर्ष से 5-6 वर्ष की आयु-अवधि को प्रारम्भिक बाल्यावस्था के रूप में निर्धारित किया गया है।

प्रश्न 2.
एक वाक्य में प्रारम्भिक बाल्यावस्था का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चे शैशवावस्था की तुलना में कुछ अधिक विकसित तथा सक्षम हो जाते हैं। उनकी अन्य व्यक्तियों पर निर्भरता कुछ कम हो जाती है।

प्रश्न 3.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था को अन्य किस रूप में जाना जाता है?
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था को ‘सामाजिक अवस्था’ के रूप में भी जाना जाता है।

प्रश्न 4.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की दो मुख्य विशेषताएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की दो मुख्य विशेषताएँ हैं – (i) आत्मनिर्भरता का विकास तथा (ii) सामूहिक प्रवृत्ति की परिपक्वता।

प्रश्न 5.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाली अनुभवों में वृद्धि को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
इस अवस्था में बालक को परिवार के बाहर स्कूल, पड़ोस तथा संगी-साथियों से नित नए अनुभव प्राप्त होते हैं, जिनसे न केवल उसके ज्ञान में वृद्धि होती है बल्कि वह जीवन की वास्तविकता से भी परिचित होने लगता है।

प्रश्न 6.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास में सर्वाधिक योगदान किसका होता है?
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास में सर्वाधिक योगदान खेल-समूह तथा विद्यालय के वातावरण का होता है।

प्रश्न 7.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की मुख्य समस्याएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की मुख्य समस्याएँ हैं-अनावश्यक गुस्सा करना, बिना कारण ही भयभीत हो जाना, बिस्तर गीला करना तथा दाँतों से नाखून काटना।

प्रश्न 8.
बालकों में अनावश्यक गुस्सा करने की आदत कैसे प्रबल हो जाती है?
उत्तरः
यदि बच्चे की अधिकांश इच्छाओं की पूर्ति न करके उनकी निरन्तर अवहेलना की जाती है तो बच्चे में गुस्से की आदत प्रबल हो जाती है।

प्रश्न 9.
अनावश्यक रूप से भयभीत रहने वाले बच्चे पर इस आदत का क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है?
उत्तरः
अनावश्यक रूप से भयभीत रहने वाले बच्चे दब्बू बन जाते हैं तथा उनमें समुचित आत्मविश्वास का भी विकास नहीं हो पाता।

प्रश्न 10.
बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करने की समस्या का मुख्य कारण क्या होता है?
उत्तरः
बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करने की समस्या का मुख्य कारण है प्रारम्भ में बच्चे को मलमूत्र त्याग का उचित प्रशिक्षण न देना।

प्रश्न 11.
बच्चों में दाँतों से नाखून काटने के असामान्य व्यवहार का मुख्य कारण क्या होता है?
उत्तरः
बच्चों में दाँतों से नाखून काटने के असामान्य व्यवहार का मुख्य कारण बच्चों में संवेगात्मक तनाव का प्रबल होना है।

प्रश्न 12.
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में ध्यान रखने योग्य एक मुख्य बात बताइए।
उत्तरः
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चों के माता-पिता तथा शिक्षकों का दायित्व है कि यदि बच्चे में स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई दोष या समस्या हो तो उसके निराकरण के लिए यथा शीघ्र प्रयास करने चाहिए।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 25 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. बाल-विकास की प्रक्रिया में शैशवावस्था के उपरान्त आने वाली अवस्था को कहा जाता है –
(क) असहाय अवस्था
(ख) प्रारम्भिक बाल्यावस्था
(ग) बाल्यावस्था
(घ) परिपक्वता की अवस्था।
उत्तरः
(ख) प्रारम्भिक बाल्यावस्था।

2. 2-3 से 5-6 वर्ष की आयु-अवधि को बाल-विकास की अवस्था माना जाता है –
(क) महत्त्वपूर्ण अवस्था
(ख) अस्पष्ट अवस्था
(ग) प्रारम्भिक बाल्यावस्था
(घ) असहाय अवस्था।
उत्तरः
(ग) प्रारम्भिक बाल्यावस्था।

3. प्रारम्भिक बाल्यावस्था की विशेषता है –
(क) आत्मनिर्भरता का विकास
(ख) प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति
(ग) खेल-कूद का विकास
(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ।

4. प्रारम्भिक बाल्यावस्था में किस विकास की दर अधिक होती है –
(क) शारीरिक विकास
(ख) सामाजिक विकास
(ग) सम्पूर्ण विकास
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तरः
(ख) सामाजिक विकास।

5. प्रारम्भिक बाल्यावस्था में समस्या प्रबल नहीं होती –
(क) अनावश्यक गुस्सा करना
(ख) बिना कारण के भयभीत होना
(ग) यौन समस्याएँ
(घ) दाँतों से नाखून काटना।
उत्तरः
(ग) यौन समस्याएँ।

6. बच्चे के भयभीत होने की समस्या का कारण हो सकता है –
(क) भय उत्पन्न करने वाली कहानियाँ सनाना
(ख) बच्चे में आत्मविश्वास की कमी होना ।
(ग) परिवार में डर या भय का वातावरण होना
(घ) उपर्युक्त में से कोई भी।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त में से कोई भी।

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UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 1 जीवित ऊतक : कोशिकीय संरचना

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 1 जीवित ऊतक : कोशिकीय संरचना (Living Tissues: Cellular Structure)

UP Board Class 11 Home Science Chapter 1 जीवित ऊतक : कोशिकीय संरचना

UP Board Class 11 Home Science Chapter 1 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जीवित कोशिका की रचना का चित्र बनाकर उसके प्रत्येक भाग के कार्य का वर्णन कीजिए।
अथवा “कोशिका मानव शरीर की इकाई है।” स्पष्ट कीजिए। एक जीवित कोशिका का चित्र बनाइए · तथा इसके भागों के नाम व कार्य बताइए। अथवा जीवित प्राणी कोशिका की बनावट को चित्र सहित समझाइए।
उत्तर:
“कोशिका मानव शरीर की इकाई है’ (Cell is a Unit of Human Body):

सभी जीवों का शरीर कोशिका (cell) या कोशिकाओं (cells) से मिलकर बना है। मनुष्य एक बहुकोशिकीय प्राणी है, जिसके शरीर में असंख्य कोशिकाएँ होती हैं। प्रत्येक कोशिका जीवद्रव्य (protoplasm) का एक पिण्ड है तथा सभी कोशिकाएँ अपने-अपने जैविक कार्य (vital activities) स्वयं करती हैं। अत: शरीर को बनाने वाली ये कोशिकाएँ जीवित संरचनाएँ कहलाती हैं। इस प्रकार, कोशिका शरीर की संरचनात्मक तथा कार्यात्मक इकाई है। कोशिकाओं का आकार सूक्ष्म होता है तथा इन्हें केवल सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देखा जा सकता है।

अनेक सूक्ष्म कोशिकाएँ मिलकर एक विशेष कार्य को करने के लिए समूह के रूप में व्यवस्थित रहती हैं। इन समूहों को ऊतक (tissue) कहते हैं। किसी अंग (organ) को बनाने में एक से अधिक प्रकार के ऊतक मिलकर (सम्मिलित रूप में) व्यवस्थित होते हैं तथा कोई कार्य करने में एक-दूसरे की सहायता करते हैं। दूसरी ओर, विभिन्न अंग मिलकर एक अंग-तन्त्र या संस्थान (organ system) तथा अनेक अंग-तन्त्र मिलकर शरीर (body) बनाते हैं।

एक-एक कोशिका की जैव सक्रियता से ही सम्पूर्ण अंग-तन्त्र एक विशेष कार्य को करने में सक्षम होता है। अतः स्पष्ट है कि कोशिका मानव शरीर की इकाई है।

प्राणी कोशिका (Animal Cell):

प्राणियों के शरीर में विद्यमान कोशिकाएँ आकार में अत्यन्त सूक्ष्म होती हैं; अतः ये केवल सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देखी जा सकती हैं। मनुष्यों के शरीर में विद्यमान कोशिकाओं का आकार 0 : 0001 मिमी से 0.0001 मिमी तक होता है। कार्य के अनुसार कोशिकाओं का आकार भिन्न-भिन्न हो सकता है, फिर भी ये प्रायः गोल होती हैं। अन्य कोशिकाओं की उपस्थिति तथा उनके दबाव के कारण वे बहुभुजी हो जाती हैं।

एक सामान्य जन्तु कोशिका, जैसा कि अब तक के अध्ययनों से ज्ञात है, सामान्यतः एक दोहरी कला से घिरे जीवद्रव्य (protoplasm) का एक पिण्ड है। जीवद्रव्य में अनेक घटक या कोशिकांग (organelle) होते हैं, जिनमें सबसे अधिक व्यवस्थित तथा स्पष्ट संरचना केन्द्रक (nucleus) है। केन्द्रक के अतिरिक्त शेष जीवद्रव्य को आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा साइटोसोम (cytosome) नाम दिया गया है तथा इसके तरल भाग को कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) कहा जाता है। कोशिकाद्रव्य के दो भाग किए जा सकते हैं-

एक्टोप्लास्ट या कोशिका कला (Ectoplast or Plasmalemma):
यह एक इकाई कला है, जो प्रोटीन तथा वसा की बनी होती है और विभिन्न पदार्थों के कोशिका के अन्दर आने-जाने का नियमन करती है। इसमें अनेक छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। अनेक पोषक पदार्थ कोशिका कला में बनी थैलियों में अन्दर धंसते रहते हैं। इन थैलियों को पिनोसाइटिक आशय (pinocytic vesicles) कहते हैं।

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 1 13
मीजोप्लास्ट (Mesoplast):
कोशिका कला के अन्दर शेष कोशिकाद्रव्य को मीजोप्लास्ट कहते हैं। इनके अनेक भाग हैं, जो एक समांगी व अविरत हायलोप्लाज्म (hyaloplasm) में रहते हैं। इस द्रव्य में पड़ी हुई वस्तुओं को ही कोशिकीय अन्तर्वस्तुएँ कहते हैं।

कोशिका की आन्तरिक संरचना तथा कार्य (Internal Structure and Functions of a Cell):

सक्ष्मदर्शी द्वारा देखने पर प्राणि कोशिका के जो भाग दिखाई देते हैं, उनकी संरचना तथा कार्यों का विवरण निम्नवर्णित है-

अन्तःप्रद्रव्यी जालिका (Endoplasmic reticulum):
यह अनेक झिल्लियों से बना विभिन्न प्रकार की संरचनाएँ बनाने वाला जाल है। इसमें तीन प्रकार की संरचनाएँ दिखाई पड़ती हैं

  • वेसिकल्स (vesicles): ये अण्डाकार थैलियाँ हैं।
  • सिस्टर्नी (cisternae): ये भी थैलियाँ ही होती हैं, किन्तु ये लम्बी, चपटी, शाखाविहीन तथा एक-दूसरे के समानान्तर होती हैं।
  • नलिकाएँ (tubules): ये नलिकाएँ वेसिकल्स एवं सिस्टर्नी इत्यादि को आपस में जोड़ती हैं और जालिका का निर्माण करती हैं।

कोशिका के इस भाग को कोशिका का परिवहन तन्त्र माना जा सकता है। यह कोशिका द्रव्य में कंकाल का निर्माण करता है। यह विभिन्न प्रकार के पदार्थों का कोशिकाद्रव्य में संवहन करता है। यही भाग विभिन्न प्रकार की रासायनिक अभिक्रियाओं के लिए आधार प्रदान करता है। प्रोटीन संश्लेषण का कार्य इसी आधार पर होता है।

माइटोकॉण्ड्यिा (Mitochondria):
ये जीवित कलाओं की दोहरी परत के द्वारा बने हुए अण्डाकार या शलाका के आकार के कोशिकांग हैं। इनके अन्दर विभिन्न प्रकार के पदार्थ, विशेषकर श्वसन सम्बन्धी एंजाइम्स आदि होते हैं। ये सूक्ष्म रचनाएँ हैं। माइटोकॉण्ड्रिया श्वसन केन्द्र है। ऊर्जा के सिक्के, ATP यहीं पर बनते हैं। इसीलिए इन्हें ऊर्जा केन्द्र कहते हैं।

गॉल्जीकाय (Golgi body):
यह कुछ झिल्लियों की एक सामूहिक संरचना है। अनेक झिल्लियों के बने थैले जैसे आकार, प्रमुखत: तीन प्रकार के होते हैं-

  • एक के ऊपर एक तहों के रूप में फँसे हुए चपटे आकार सिस्टर्नी (cisternae),
  •  सिस्टर्नी के किनारों पर टूटकर अलग होने वाली अनेक छोटी-छोटी पुटिकाएँ (vesicles) तथा
  • चौड़ी थैली के आकार की ही गोल रिक्तिकाएँ (vacuoles)

कोशिका के इस भाग का मुख्य कार्य कुछ पदार्थों का स्रावण (secretion) करना है। इसके अतिरिक्त इस भाग द्वारा ही कुछ सरल पदार्थों को जोड़कर जटिल पदार्थों का भी निर्माण किया जाता है।

तारककाय या सेण्ट्रोसोम (Centrosome):
केन्द्रक के निकट मिलने वाली यह संरचना एक या दो या अधिक स्थानों पर कुछ छड़ों के समान इकट्ठे हुए कणों से बनती है। ये तारककेन्द्र या सेण्ट्रिओल्स (centrioles) कहलाते हैं। इनको चारों ओर से घेरे हुए जीवद्रव्य की आकृति किरणों (rays) के रूप में पूरे तारककाय की रचना करती है। तारककाय कोशिका विभाजन के समय अधिक स्पष्ट दिखाई देता है तथा दो भागों में बँटकर तर्क के दोनों ध्रुवों पर चला जाता है। इनका कार्य कोशिका विभाजन से सम्बन्धित होता है।

राइबोसोम्स (Ribosomes):
ये अति सूक्ष्म कण की तरह की संरचनाएँ हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के आर०एन०ए० अणुओं (RNA mols.) का संग्रह होता है। ये मुख्य रूप से प्रोटीन्स के संश्लेषण का कार्य करते हैं।

माइक्रोसोम्स (Microsomes):
ये विभिन्न आकार की सूक्ष्म संरचनाएँ हैं, जो अन्तःप्रद्रव्यी जालिका के विभिन्न भागों (पुटिकाओं, सिस्टर्नी आदि) के अलग हो जाने से बनती हैं। इन अलग हुए भागों में अनेक राइबोसोम्स भी लगे रहते हैं। इस प्रकार ये हायलोप्लाज्म में स्वतन्त्र रूप में पड़े रहते हैं। इनका मुख्य कार्य अनेक प्रकार के पदार्थों का संग्रह करना तथा उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाना होता है।

लाइसोसोम्स (Lysosomes):
ये माइटोकॉण्ड्रिया से कुछ छोटी (0. 21 μ से 0 .80 μ), लगभग गोल, थैले जैसी रचनाएँ हैं, जो कुछ जन्तुओं में देखी गई हैं। इनकी कला एक इकाई कला होती है। इन संरचनाओं में विभिन्न प्रकार के पाचक एंजाइम्स भरे रहते हैं। ये एंजाइम्स प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा, DNA, RNA इत्यादि के बड़े अणुओं को तोड़कर छोटे अणुओं में बदल देते हैं।

रिक्तिकाएँ (Vacuoles): ये झिल्ली से ढकी हुई ऐसी संरचनाएँ हैं, जिनमें जल में घुले हुए अनेक पदार्थ जैसे लवण तथा शर्कराएँ आदि रहते हैं। इस घोल को सेल सैप (cell sap) कहा जाता है। ये जन्तु कोशिका में कम तथा छोटे आकार की पायी जाती हैं। इनकी उपस्थिति से जल का आदान-प्रदान होता रहता है और कोशिका में जल की मात्रा का नियमन होता है।

अन्य सूक्ष्म संरचनाएँ (Other micro structures): उपरिवर्णित आकारों के अतिरिक्त भी, अन्य अनेक प्रकार के छोटे-छोटे आकार कोशिकाओं में मिलते हैं। ये अन्त:प्रद्रव्यी जालिका आदि से पुटिकाओं के रूप में टूटकर अलग हो जाने से बनते हैं। इनके द्वारा विभिन्न प्रकार के विशिष्ट कार्य किए जाते हैं।

केन्द्रक (Nucleus): यह एक अधिक घना कोशिकांग है। इसमें क्रोमेटिन (chromatin) नामक पदार्थ के सूत्र होते हैं, जो सामान्य अवस्था में जाल के रूप में रहते हैं। इसके चारों ओर एक दोहरी झिल्ली होती है, जिसे केन्द्रक कला (nuclear membrane) कहते हैं। क्रोमेटिन जाल के अतिरिक्त केन्द्रक में केन्द्रक रस (nuclear sap) तथा एक या अधिक केन्द्रिक (nucleolus) होते हैं। प्राणी कोशिका में केन्द्रक प्राय: कोशिका के मध्य में स्थित होता है।

कोशिका का यह भाग पूरी कोशिका पर नियन्त्रण रखता है। कोशिका का यही भाग उसके विभिन्न भागों के कार्यों का नियमन करता है तथा सन्तति कोशिकाओं में लक्षणों की आनुवंशिकी भी इसके द्वारा ही होती है।

प्रश्न 2.
मानव शरीर में पायी जाने वाली विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं का सामान्य परिचय दीजिए। अथवा हमारे शरीर में कितने प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं? प्रत्येक प्रकार की कोशिका का चित्र सहित सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
प्राणि शरीर की समस्त कोशिकाओं की आन्तरिक रचना समान होती है, परन्तु इन कोशिकाओं की बाहरी आकृति अथवा स्वरूप में पर्याप्त अन्तर एवं विविधता देखी जा सकती है। शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों एवं भागों में विद्यमान कोशिकाओं का आकार एवं बाहरी रूप भिन्न-भिन्न होता है। यही कारण है कि हमारे शरीर में गोल, चपटी, लम्बी तथा बेलनाकार कोशिकाएँ देखी जा सकती हैं। वास्तव में प्राणि-शरीर में विद्यमान कोशिकाओं में न केवल आकार की भिन्नता पायी जाती है बल्कि उनके द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्य भी भिन्न-भिन्न होते हैं। शरीर की कोशिकाओं की आकृति की भिन्नता तथा इनके द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्यों की भिन्नता को ध्यान में रखते हुए शरीरशास्त्र के अन्तर्गत मुख्य रूप से छह प्रकार की कोशिकाओं का उल्लेख किया जाता है।
कोशिकाओं के इन विभिन्न प्रकारों का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है-

आच्छादक कोशिकाएँ या उपकला कोशिकाएँ (Epithelium cells):
शरीर के प्रायः सभी भागों में पायी जाने वाली एक प्रकार की कोशिकाओं को आच्छादक या उपकला कोशिका (epithelial cells) कहते हैं। इन कोशिकाओं का आकार चपटा होता है तथा सामान्य रूप से इन कोशिकाओं द्वारा कुछ महीन झिल्लियाँ बनती हैं। इस प्रकार से बनने वाली झिल्लियाँ शरीर के आवरण का कार्य करती हैं। इन झिल्लियों से निर्मित आवरण शरीर के अंगों की रक्षा भी करते हैं। आच्छादक कोशिकाओं का एक विशिष्ट गुण यह होता है कि इन कोशिकाओं में रिक्त स्थान नहीं होता। रिक्त स्थान न होने के कारण आच्छादक कोशिकाओं में अन्तःकोशीय पदार्थ भी नहीं पाया जाता।

पेशी कोशिकाएँ (Muscular cells):
द्वितीय प्रकार की शरीर-कोशिकाओं को पेशी कोशिकाएँ (muscular cells) कहते हैं। इन कोशिकाओं से क्रमश: पेशी ऊतक तथा शरीर की सभी मांसपेशियों का निर्माण होता है। पेशी कोशिकाएँ लम्बे तथा पतले आकार की होती हैं। पेशी कोशिकाएँ मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं, जिन्हें क्रमशः ऐच्छिक पेशी कोशिकाएँ तथा अनैच्छिक पेशी कोशिकाएँ कहा जाता है। इनके अतिरिक्त हृदय में एक भिन्न प्रकार की पेशियाँ भी पायी जाती हैं और उन्हें हृद पेशी के नाम से जाना जाता है।

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रक्त कोशिकाएँ (Blood cells):
शरीर में रक्त का निर्माण करने वाली कोशिकाओं को रक्त कोशिकाएँ (blood cells) कहते हैं। प्राणी शरीर में ये कोशिकाएँ भी दो प्रकार की पायी जाती हैं। एक प्रकार की रक्त कोशिकाओं को श्वेत रक्त कोशिकाएँ तथा दूसरे प्रकार की रक्त कोशिकाओं को लाल रक्त कोशिकाएँ कहते हैं। दोनों प्रकार की रक्त कोशिकाओं का आकार भी भिन्न-भिन्न होता है तथा उनके कार्य भी भिन्न-भिन्न होते हैं। सामान्य रूप से श्वेत रक्त कोशिकाओं का कोई निश्चित आकार नहीं होता, ये अनियमित, गोल आकार की किन्तु लिजबिजी-सी होती हैं।

ये रक्त कोशिकाएँ मुख्य रूप से शरीर को सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करती हैं। जहाँ तक लाल रक्त कोशिकाओं का प्रश्न है, उनका आकार गोल टिकिया के समान होता है। इन कोशिकाओं का आकार उभयावतल (biconcave) होता है; अर्थात् ये कोशिकाएँ दोनों ओर मध्य से कुछ पिचकी हुई होती हैं। लाल रक्त कोशिकाओं का मुख्य कार्य शरीर में ऑक्सीजन का परिवहन करना है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि रक्त में श्वेत एवं लाल रक्त कोशिकाओं का अनुपात भिन्न होता है। सामान्य रूप से लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या, श्वेत कोशिकाओं की तुलना में बहुत अधिक होती है।

अस्थि कोशिकाएँ (Bone cells):
शरीर की अस्थियों का निर्माण करने वाली कोशिकाएँ, अस्थि कोशिकाएँ (bone cells) कहलाती हैं। इन कोशिकाओं का आकार अनियमित होता है। इन कोशिकाओं की रचना कुछ इस प्रकार होती है कि इन कोशिकाओं का केन्द्रक अन्य कोशिकाओं के केन्द्रक की तुलना में बड़ा होता है। इन कोशिकाओं के चारों ओर कुछ अत्यधिक सूक्ष्म रेशे भी पाए जाते हैं। ये सूक्ष्म रेशे वास्तव में रक्त कोशिकाओं तथा तन्त्रिकाओं द्वारा घिरे रहते हैं।

संयोजक कोशिकाएँ (Connective cells):
शरीर के किन्हीं दो भागों को आपस में जोड़ने का कार्य करने वाली कोशिकाओं को संयोजक कोशिकाएँ (connective cells) कहा जाता है। इन कोशिकाओं का आकार भी अनियमित ही होता है। इन कोशिकाओं की रचना कुछ इस प्रकार की होती है कि उनके बीच रिक्त स्थान अपेक्षाकृत रूप से अधिक होता है। इसी कारण इन कोशिकाओं में अन्त:कोशीय पदार्थ भी सामान्य से अधिक विद्यमान होता है। इस प्रकार की कोशिकाओं से बने ऊतकों में सामान्य रूप से कुछ महीन झिल्लियाँ बनती हैं।

तन्त्रिका कोशिकाएँ (Nerve cells):
तन्त्रिका या स्नायु कोशिकाएँ (nervous cells) सम्पूर्ण शरीर में पायी जाती हैं। ये कोशिकाएँ कुछ लम्बे तथा तिकोने आकार की होती हैं। इन्हीं कोशिकाओं से शरीर के सम्पूर्ण तन्त्रिका तन्त्र का निर्माण होता है। तन्त्रिका तन्त्र की सम्पूर्ण शरीर में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। तन्त्रिका तन्त्र द्वारा ही सम्पूर्ण शरीर की गतिविधियों का परिचालन एवं नियन्त्रण होता है। इन महत्त्वपूर्ण कार्यों के पीछे तन्त्रिका कोशिकाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका निहित रहती है।

प्रश्न 3.
‘ऊतक’ शब्द से क्या तात्पर्य है? ये कितने प्रकार के होते हैं? ऊतकों की संरचना तथा कार्य का विवरण दीजिए।
अथवा ऊतक से क्या तात्पर्य है? निम्नलिखित ऊतक शरीर में कहाँ पाए जाते हैं-
(क) उपकला ऊतक (एपीथीलियम),
(ख) तन्त्रिका ऊतक।
इन ऊतकों की रचना एवं कार्य लिखिए। अथवा ऊतक कितने प्रकार के होते हैं? ऊतक के कार्य लिखिए।
उत्तर:
ऊतक (Tissues):
जीवित प्राणियों के शरीर की इकाई को कोशिका कहते हैं। कोशिकाएँ शरीर की इकाई होते हुए भी शरीर के अंगों के निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से योगदान नहीं देतीं। अंगों के निर्माण के लिए शरीर में एक अन्य संरचना की आवश्यकता होती है। यह संरचना कोशिकाओं के समूहीकरण से बनती है तथा इसे ऊतक (tissue) कहते हैं। स्पष्ट है कि ऊतकों का निर्माण कोशिकाओं से होता है। इस प्रकार ऊतक अनेक कोशिकाओं के व्यवस्थित समूह का नाम है। सामान्य रूप से एक ही प्रकार की अनेक कोशिकाएँ परस्पर सम्बद्ध होकर एक विशिष्ट संरचना का निर्माण करती हैं तथा शरीर-रचना विज्ञान के अन्तर्गत इसी संरचना को ऊतक कहते हैं। सभी प्राणियों के शरीर में विभिन्न प्रकार के ऊतक पाए जाते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के ऊतकों की रचना तथा कार्यों में पर्याप्त अन्तर देखा जा सकता है। ऊतकों से शरीर के अंगों का निर्माण होता है। इस प्रकार शरीर में ऊतकों का विशेष महत्त्व है।

ऊतकों के प्रकार (Kinds of Tissues):
मानव शरीर में निम्नलिखित चार प्रकार के ऊतक पाए जाते हैं-

  • उपकला ऊतक (epithelial tissues);
  • संयोजी ऊतक (connective tissues);
  • पेशी ऊतक (muscular tissues);
  • तन्त्रिका ऊतक (nervous tissues)

1. उपकला ऊतक (Epithelial tissues):
उपकला ऊतक सदैव महीन परतों के रूप में पाए जाते हैं। ये परतें शरीर के अंगों पर बाहरी अथवा भीतरी रक्षक आवरण बनाती हैं। ये ऊतक दो प्रकार के होते हैं-
A. सामान्य उपकला (Simple epithelium): ये केवल एक स्तर के रूप में होते हैं। कोशिकाओं के आकार एवं कार्य के आधार पर ये कई प्रकार के हो सकते हैं; यथा

  • शल्की उपकला (squamous epithelium): इस प्रकार के ऊतकों की कोशिकाएँ चौड़ी, चपटी तथा परस्पर सटी रहती हैं। इनका प्रमुख कार्य रक्षात्मक होता है।
  • स्तम्भी उपकला (columnar epithelium): इस प्रकार के ऊतकों की कोशिकाएँ लम्बी तथा परस्पर सटी होती हैं। आहार नाल के अधिकांश भाग की दीवार का भीतरी स्तर इसी प्रकार के ऊतकों का बना होता है। ये पचे हुए तरल खाद्य पदार्थों का अवशोषण करते हैं।
  • घनाकार उपकला (cuboidal epithelium): इस प्रकार के ऊतकों की कोशिकाएँ घनाकार होती हैं। ये ऊतक मूत्र व जनन नलिकाओं, जनन ग्रन्थियों आदि में पाए जाते हैं। जनन ग्रन्थियों में ये ऊतक जनन उपकला कहलाते हैं।
  •  ग्रन्थिल उपकला (glandular epithelium): शरीर में स्थित विभिन्न प्रकार की ग्रन्थियाँ इस प्रकार के उपकला ऊतकों की बनी होती हैं। इनमें कोशिकाएँ किसी-न-किसी स्रावी पदार्थ का स्त्रावण करती हैं।
  • रोमाभि उपकला (ciliated epithelium): इस प्रकार के ऊतकों की प्रत्येक कोशिका के स्वतन्त्र किनारे पर अनेक रोमाभिकाएँ (cilia) लगी रहती हैं। ये ऊतक श्वास नली, अण्डवाहिनी, मूत्रवाहिनी आदि का भीतरी स्तर बनाते हैं।
  • तत्रिका-संवेदी उपकला (neuro-sensory epithelium): इनकी कोशिकाओं के स्वतन्त्र सिरे पर संवेदी रोम होते हैं। संवेदी रोम संवेदनाओं को ग्रहण करने का कार्य करते हैं। ये अन्त:कर्ण की उपकला, घ्राण अंगों की श्लेष्मिक कला तथा आँखों की रेटिना में पाए जाते हैं।

B. स्तरित उपकला (Stratified epithelium):
यह कई स्तरों की बनी होती है। सबसे भीतरी स्तर की कोशिकाएँ निरन्तर विभाजित होकर नए स्तर बनाती रहती हैं। इस स्तर को जनक स्तर
(germinative layer) कहते हैं। इससे बने स्तर बाहर की ओर खिसकते रहते हैं। सबसे बाहर का स्तर घर्षण के कारण मृत होकर अलग होता रहता है; जैसे-त्वचा की ऐपिडर्मिस, ग्रास नली, नासा गुहाओं, योनि आदि में।
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2. संयोजी ऊतक (Connective tissues):
इस प्रकार के ऊतक शरीर में सबसे अधिक होते हैं। ये सभी अंगों के भीतर तथा दो अंगों के बीच में पाए जाते हैं। इन ऊतकों का प्रमुख कार्य अंगों को सहारा प्रदान करना, अंगों को ढककर इनकी रक्षा करना तथा इन्हें परस्पर बाँधे रखना होता है। इन ऊतकों की कोशिकाएँ एक आधारभूत पदार्थ या मैट्रिक्स (matrix) स्रावित करती हैं और स्वयं भी इसी में धंसी रहती हैं। संयोजी ऊतक निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
A. सामान्य संयोजी ऊतक (General connective tissues):इस प्रकार के ऊतकों में मैट्रिक्स तरल या अर्द्ध-तरल जैली के रूप में होता है। ये ऊतक कई प्रकार के होते हैं; जैसे

वर्णक ऊतक (pigmented tissues): ये ऊतक त्वचा की डर्मिस में मिलते हैं। इनमें वर्णक कोशिकाएँ होती हैं, जिन्हें क्रोमेटोफोर्स (chromatophores) भी कहते हैं। इनके कोशिका द्रव्य में अनेक रंगीन कणिकाएँ होती हैं। इन ऊतकों में इलास्टिन तन्तु तथा लिम्फोसाइट्स भी पाए जाते हैं।

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वसामय ऊतक (adipose tissues): ये ऊतक त्वचा के नीचे पाए जाते हैं। ये पीत अस्थि मज्जा के चारों ओर तथा रक्त वाहिनियों के आस-पासभी पाए जाते हैं। इनमें बड़ी-बड़ी गोल वसा कोशिकाएँ होती हैं, जो वसा गोलकों से भरी होती हैं।

अन्तराली संयोजी ऊतक (interstitial connective tissues): ये ऊतक शरीर के सभी आन्तरिक अंगों के चारों ओर पाए जाते हैं। इनकामैट्रिक्स जैली के समान पारदर्शक तथा चिपचिपा होता है। इनमें दो प्रकार के तन्तु श्वेत कोलेजन तन्तु (white collagen fibres) तथा पीले इलास्टिनतन्तु (yellow elastin fibres) पाए जाते हैं। श्वेत कोलेजन तन्तु लहरदार गुच्छों में पाए जाते हैं जबकि पीले इलास्टिन तन्तु अकेले इधर-उधर बिखरेरहते हैं। मैट्रिक्स में तन्तुओं के अतिरिक्त कई प्रकार की कोशिकाएँ; जैसे फाइब्रोब्लास्ट, हिस्टियोसाइट्स, प्लाज्मा कोशिकाएँ, मास्ट कोशिकाएँआदि भी पायी जाती हैं।

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B. तन्तमय संयोजी ऊतक (Fibrous connective tissues): इनमें मैट्रिक्स की मात्रा कम तथा तन्तुओं की संख्या अधिक होती है। इनमें दो प्रकार के तन्तु होते हैं-एक श्वेत तथा लोचरहित होते हैं, जिनके ऊतक कड़े तथा मजबूत होते हैं तथा दूसरे पीले, शाखित एवं लचीले होते हैं। ये ऊतक कण्डरा (tendon), स्नायु (ligaments) तथा पेशियों के आवरण बनाते हैं।

C. कंकाल संयोजी ऊतक (Skeletal connective tissues): सभी कशेरुकी जन्तुओं में कंकाल का निर्माण कंकाल ऊतक करते है । ये दो प्रकार के होता है –
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उपास्थि (cartilage): उच्च श्रेणी के कशेरुकी जन्तुओं में उपास्थि की मात्रा अस्थि से कम होती है। इसमें मैट्रिक्स, कॉण्ड्रिन नामक अर्द्ध-ठोस प्रोटीन से बना होता है। इसमेंबहुत-से छोटे-छोटे गड्ढे या गर्तिकाएँ होती हैं, जिनमें एक तरल. पदार्थ भरा रहता है। प्रत्येक गर्तिका में कॉण्ड्रियोब्लास्ट नामक कोशिका होती है। उपास्थि पेरीकॉण्ड्रियम (perichondrium) नामक झिल्ली से ढकी रहती है। इसमें रक्त वाहिनियाँ प्रवेश कर उपास्थि को पोषक पदार्थ प्रदान करती हैं। नाक, कान के पिन्ना आदि को उपास्थि ही सहारा देती है।

अस्थि (bone): इन ऊतकों में मैट्रिक्स, ओसीन नामक प्रोटीन से बना होता है। इसमें कैल्सियम और मैग्नीशियम के कण जमा होने से यह कठोरहो जाती है। अस्थि की गुहा को मज्जा गुहा कहते हैं। इसमें वसामय ऊतक भरा रहता है, जिसे अस्थि मज्जा (bone marrow) कहते हैं। अस्थि केमध्य भाग में पीली अस्थि मज्जा तथा सिरों पर लाल अस्थि मज्जा होती है। लाल अस्थि मज्जा में लाल रुधिर कणिकाओं का निर्माण होता है। मज्जा गुहाको घेरे हुए अन्तराच्छद नामक स्तर होता है। इसकी कोशिकाएँ (osteoblasts), ओसीन (ossein) स्रावित करती हैं, जो संकेन्द्रीय धारियों के रूप मेंएकत्र होती रहती हैं और मैट्रिक्स बनाती हैं। इन धारियों को पटलिकाएँ कहते हैं। इनमें गर्तिकाएँ होती हैं। गर्तिका में अस्थि कोशिका होती है। अस्थि के आवरण को अस्थिच्छद कहते हैं, जिसमें अनेक महीन तन्त्रिकाएँ और रुधिर वाहिनियाँ होती हैं। मैट्रिक्स में रुधिर वाहिनियों के प्रवेश हेतु नलिकाएँ बन जाती हैं, जिन्हें हैवर्सियन नलिकाएँ (haversian canals) कहते हैं। प्रत्येक हैवर्सियन नलिका 8-15 संकेन्द्रीय पटलिकाओं द्वारा घिरी रहती है। इस पूरी रचना को हैवर्सियन तन्त्र कहते हैं।

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D. तरल संयोजी ऊतक (Fluid connective tissues): रुधिर तथा लसीका तरल ऊतकों के उदाहरण हैं। इनमें मैट्रिक्स तरल अवस्था में होता है और प्लाज्मा (plasma) कहलाता है। यह सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर वाहिनियों और केशिकाओं के अन्दर बहता है। इन ऊतकों में तन्तुओं का अभाव होता है; कोशिकाएँ प्लाज्मा का स्राव नहीं करती हैं। इनमें कई प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं।

3. पेशी ऊतक (Muscular tissues):
पेशी कोशिकाओं के समूहीकरण से पेशी ऊतकों का निर्माण होता है। शरीर की मांसपेशियों का निर्माण इन्हीं ऊतकों से होता है। पेशी ऊतक सम्पूर्ण शरीर में पाए जाते हैं। ये त्वचा के नीचे तथा अस्थियों के ऊपर पाए जाते हैं। पेशी ऊतक ही मांसपेशियों के माध्यम से विभिन्न शारीरिक क्रियाओं एवं गतियों को सम्पन्न कराते हैं। पेशी ऊतक भी तीन प्रकार के होते हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है-

A. रेखित या ऐच्छिक पेशी ऊतक (Striped or Voluntary muscular tissues): एक विशेष प्रकार की मांसपेशियों का निर्माण करने वाले ऊतक, रेखित या ऐच्छिक ऊतक (striped or voluntary tissues) कहलाते हैं। इस प्रकार के तन्तु लम्बे, अशाखित तथा बेलनाकार होते हैं। इस प्रकार के ऊतक शरीर के उन समस्त भागों में पाए जाते हैं, जो गति करते हैं।

B. अरेखित या अनैच्छिक पेशी ऊतक (Unstriped or Involuntary muscular tissues): द्वितीय प्रकार के पेशी ऊतकों को अरेखित या अनैच्छिक पेशी ऊतक (unstriped or involuntary muscular tissues) कहते हैं। इस प्रकार के पेशी ऊतक शरीर के उन भागों या अंगों में पाए जाते हैं, जिनकी गति या क्रिया स्वत: होती रहती है। इस प्रकार अनैच्छिक पेशी ऊतक मुख्य रूप से आहार नाल, रक्त वाहिनियों की भित्ति, मूत्राशय, पित्ताशय तथा जनन वाहिनियों में पाए जाते हैं।
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C. हृद-पेशी ऊतक (Cardiac muscular tissues): तृतीय प्रकार के पेशी ऊतकों को हृद-पेशी ऊतक (cardiac muscular tissues) कहते हैं। इस प्रकार के पेशी ऊतक केवल हृदय की मांसपेशियों का निर्माण करते हैं। इन ऊतकों में ऐच्छिक तथा अनैच्छिक दोनों प्रकार के ऊतकों के गुण समन्वित रहते हैं।

4. तन्त्रिका ऊतक (Nervous tissues):
ये ऊतक विभिन्न प्रकार के ऊतकों के मध्य स्थित होते हैं। इनकी कोशिकाएँ तन्त्रिका कोशिकाएँ या न्यूरॉन्स (neurons) कहलाती हैं। इन कोशिकाओं का निर्माण गर्भावस्था में ही हो जाता है तथा ये एक बार नष्ट होने पर दोबारा निर्मित नहीं होती हैं; अर्थात् इनका पुनरुद्भवन (regeneration) सम्भव नहीं है।

मस्तिष्क, सुषुम्ना, तन्त्रिकाएँ आदि इसी प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बने हुए हैं। ये कोशिकाएँ मिलकर तन्त्रिका तन्तुओं (nerve fibres) का निर्माण करती हैं। ये कोशिकाएँ विशेष आकार व संरचना की होती हैं—प्रत्येक तन्त्रिका कोशिका में एक मुख्य जीवद्रव्यी भाग होता है, इसी में केन्द्रक (nucleus) रहता है। कोशिका में अनेक छोटी-बड़ी शाखाएँ होती हैं। इनमें से एक बड़ी शाखा तन्त्रिकाक्ष (axon) बनाती है, जो वास्तव में तन्तु का निर्माण करती है। शेष छोटी शाखाएँ वृक्षिकाएँ (dendrons) कहलाती हैं; जो अन्य कोशिकाओं की ऐसी ही शाखाओं की और छोटी शाखाओं, जिन्हें वृक्षिकान्त (dendrites) कहते हैं, के साथ युग्मों (synapses) का निर्माण करती हैं। इस प्रकार ये कोशिकाएँ तन्त्रिका ऊतक का भाग हैं। ये ऊतक शरीर में संवेदनाओं को एक स्थान पर ग्रहण कर दूसरे स्थान तक लाने-ले जाने अर्थात् ग्रहण करने तथा संचालन का कार्य करते हैं।
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UP Board Class 11 Home Science Chapter 1 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जीवद्रव्य के भौतिक एवं जैविक गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जीवद्रव्य के गुण
कोशिकीय रचना के सन्दर्भ में जीवद्रव्य के गुणों का अध्ययन करना भी आवश्यक है। जीवद्रव्य कोशिका-झिल्ली द्वारा घिरा रहता है। यह अर्द्ध-पारदर्शक जैली के समान गाढ़ा, चिपचिपा तथा रंगहीन पदार्थ होता है। वास्तव में कोशिका का जीवन उसके इसी भाग पर निर्भर रहता है। जीवद्रव्य के भौतिक एवं जैविक गुणों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित है
(अ) भौतिक गुण:

  • जीवद्रव्य चिपचिपा, पारभासी तथा जैली की तरह अर्द्ध-तरल है। यह जल में अविलेय है, किन्तु इसकी अत्यधिक मात्रा को अवशोषित कर सकता है। यह जल से भारी है। अनेक प्रकार के ठोस, तरल (बूंदों के रूप में) तथा गैस इत्यादि इसमें तैरते रहते हैं।
  • जीवद्रव्य अत्यधिक प्रत्यास्थ होता है और अपने सामान्य स्वरूप से 25 गुना अधिक फैल सकता है। इसी कारण यह तुरन्त अपनी सामान्य स्थिति को लौट सकता है।
  • जीवद्रव्य की श्यानता बदलती रहती है; यहाँ तक कि यह एक ही कोशिका के अन्दर अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न तथा एक ही स्थान पर भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में अलग-अलग होती है।
  • यह तरल से जैल अवस्था या इसके विपरीत बदलता रहता है।
  • यह स्कन्दित होकर संकुचित हो सकता है। यह कार्य विभिन्न प्रकार के भौतिक परिवर्तनों के कारण हो सकता है, जैसे-ताप परिवर्तन, विद्युत प्रवाह, pH परिवर्तन आदि।
  • जीवद्रव्य पर प्रकाश पुंज डालने से इसके कण किरणों को इधर-उधर छितरा देते हैं (टिण्डल . घटना); अतः प्रकाश का मार्ग तथा ये कण हमें दिखाई दे जाते हैं।
  • जीवद्रव्य, कोशिका के अन्दर इधर-उधर घूमता रहता है (प्रवाही गति)। यदि यह गति एक ही बड़ी रिक्तिका (vacuole) के चारों ओर हो तो घूर्णन (rotation), किन्तु जब अनेक रिक्तिकाओं के चारों ओर हो तो परिसंचरण (circulation) कहलाती है।

(ब) जैविक गुण:
रासायनिक संरचना तथा इसकी भौतिक प्रकृति के कारण जीवद्रव्य में अनेक विशेष लक्षण होते हैं .. जो जीवन को प्रदर्शित करते हैं। ये प्रमुख लक्षण हैं-गति या चलन, पोषण, उपापचय, श्वसन, उत्सर्जन, उत्तेजनशीलता, वृद्धि, जनन आदि।

प्रश्न 2.
वनस्पति तथा जन्तु (प्राणी) कोशिकाओं में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वनस्पति तथा जन्तु (प्राणी) कोशिकाओं में अन्तर .
वनस्पति कोशिकाओं तथा जन्तु (प्राणी) कोशिकाओं में विद्यमान अन्तर का. विवरण चित्र सहित अग्रवत् है-
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 1 10

प्रश्न 3.
ऊतकों का शरीर में क्या महत्त्व है? अथवा ऊतक कितने प्रकार के होते हैं? ऊतकों के कार्य लिखिए। अथवा टिप्पणी लिखिए-ऊतक एवं उनकी उपयोगिता।
उत्तर:
ऊतकों के प्रकार एवं कार्य या महत्त्व
अनेक कोशिकाओं के व्यवस्थित समूह को ऊतक (tissues) कहते हैं। मानव शरीर में चार प्रकार के ऊतक पाए जाते हैं। ये प्रकार हैं क्रमश:
(i) उपकला ऊतक,
(ii) संयोजी ऊतक,
(iii) पेशी ऊतक तथा
(iv) तन्त्रिका ऊतक। शरीर में ऊतकों के महत्त्व अथवा कार्यों का विवरण निम्नलिखित है-

  • कोशिकाएँ अति सूक्ष्म आकार की होती हैं, वे शरीर की आवश्यकता के अनुसार कार्य नहीं कर पातीं। इन कार्यों को ऊतक ही सफलतापूर्वक करते हैं।
  • ऊतकों की उपस्थिति के कारण श्रम का विभाजन होता है; अर्थात् विभिन्न ऊतक अपने-अपने विशिष्ट कार्यों को सम्पादित करते हैं।
  • ऊतक ही मिलकर अंग बनाते हैं तथा उसको एक बड़े तथा विशिष्ट कार्य को करने में सहायता प्रदान करते हैं।
  • विभिन्न अंगों के मध्य कुछ ऊतक संयोजन का कार्य करते हैं। जैसे-रुधिर तथा लसीका विभिन्न प्रकार के पदार्थों को एक अंग से दूसरे अंग में पहुँचाने अथवा लाने-ले जाने का विशिष्ट कार्य करते हैं।
  • कुछ ऊतक शरीर की बाहरी वातावरण आदि से सुरक्षा करते हैं अथवा सुरक्षा करने में सहयोग देते हैं। जैसे—उपकला ऊतक शरीर पर विशिष्ट आवरण बनाते हैं; तन्त्रिका ऊतक बाह्य आघातों की सूचना मस्तिष्क को देते हैं तथा उसके नियमन कार्य के रूप में उन अंगों को कार्यवाही करने के लिए प्रेरित करते हैं, जो सुरक्षा करने के योग्य हैं।
  • अनेक ऊतक शरीर का विशिष्ट स्वरूप बनाने में सहायता करते हैं; जैसे-कंकालीय ऊतक (skeletal tissues), पेशी ऊतक (muscular tissues) आदि। स्पष्ट है कि ऊतकों द्वारा विभिन्न कार्य सम्पादित किए जाते हैं तथा शरीर में इनका विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 4.
शरीर-रचना के सन्दर्भ में अंग (organ) का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अंग का अर्थ
अंग शरीर के उन भागों को कहा जाता है, जो अपने आकार एवं गुणों के कारण स्पष्ट रूप से पहचाने जा सकते हैं। अंगों का निर्माण ऊतकों से होता है। हम कह सकते हैं कि जब किसी एक ही प्रकार के कुछ ऊतक परस्पर सम्बद्ध होकर शरीर के किसी ऐसे भाग की रचना करते हैं, जो अपने विशेष आकार तथा गुणों के कारण शरीर के अन्य भागों से अलग पहचाना जाता है, तो शरीर के उस भाग को शरीर के एक अंग (organ) के रूप में जाना जाता है। शरीर के सभी अंगों का अपना-अपना महत्त्व होता है तथा उनके द्वारा विशिष्ट कार्य किया जाता है। उदाहरणार्थ-आँख एक अंग है, जिसका अपना विशिष्ट आकार है तथा उसके द्वारा देखने का कार्य किया जाता है। इसी प्रकार हृदय, यकृत तथा गुर्दे आदि भी विभिन्न अंग हैं तथा ये अपने-अपने कार्य करते हैं। उँगली, हाथ, बाँह, पैर तथा टाँग आदि को भी विशेष अंग ही माना जाएगा।

प्रश्न 5.
शरीर-रचना के सन्दर्भ में तन्त्र या संस्थान (system) का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
तन्त्र अथवा संस्थान का अर्थ
हमारा शरीर विभिन्न व्यवस्थित कार्य सम्पन्न करता है। विशिष्ट कार्यों को व्यवस्थित ढंग से कोई एक अंग सम्पन्न नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए पाचन-क्रिया को केवल मुँह या आमाशय पूरा नहीं कर सकता है। इसी प्रकार श्वसन या रक्त परिसंचरण की क्रिया को शरीर का कोई एक अंग सम्पन्न नहीं कर सकता। इन व्यवस्थित क्रियाओं को पूरा करने के लिए शरीर के विभिन्न अंगों को परस्पर सहयोग से कार्य करना पड़ता है। इस प्रकार, किसी विशिष्ट प्रक्रिया को पूरा करने के लिए या शरीर के किसी विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शरीर के अनेक अंग परस्पर सम्बद्ध होकर कार्य करते हैं तथा इन सभी अंगों की व्यवस्था को ही शरीर-रचना विज्ञान में तन्त्र या संस्थान (system) कहते हैं।

उदाहरणार्थ- श्वसन क्रिया को सम्पन्न करने के लिए नासिका, श्वास नलिका, श्वसनी तथा फेफड़े आदि अंग परस्पर सम्बद्ध होकर श्वसन तन्त्र के रूप में कार्य करते हैं। इसी प्रकार पाचन क्रिया को सम्पन्न करने के लिए आहार नाल के विभिन्न अंग तथा कुछ अन्य ग्रन्थियाँ परस्पर सम्बद्ध होकर पाचन तन्त्र के रूप में कार्य करते हैं। इस प्रकार से परस्पर सम्बद्ध होकर कार्य करने वाले अंगों की व्यवस्था को ही तन्त्र या संस्थान कहते हैं। हमारे शरीर में विभिन्न तन्त्र हैं, जो अपने-अपने कार्यों को सफलतापूर्वक करते रहते हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि शरीर के विभिन्न तन्त्र आपस में सम्बद्ध रहते हैं तथा पारस्परिक सहयोग से सम्पूर्ण शरीर को चलाते हैं। हमारे शरीर के मुख्य तन्त्र या संस्थान निम्नलिखित हैं-

  • कंकाल या अस्थि तन्त्र (Skeletal system);
  • पेशी तन्त्र (Muscular system);
  • पाचन तन्त्र (Digestive system);
  • श्वसन तन्त्र (Respiratory system);
  • रुधिर-परिसंचरण तन्त्र (Circulatory system);
  • उत्सर्जन तन्त्र (Excretory system);
  • तन्त्रिका तन्त्र (Nervous system);
  • प्रजनन तन्त्र (Reproductive system);
  • अन्तःस्रावी तन्त्र (Endocrine system)।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 1 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कोशिका से क्या आशय है?
उत्तर:
कोशिका प्राणियों के शरीर की सबसे छोटी संरचनात्मक एवं कार्यात्मक इकाई को कहते हैं।

प्रश्न 2.
शरीर की सबसे छोटी संरचनात्मक एवं कार्यात्मक इकाई को क्या कहते हैं?
उत्तर:
शरीर की सबसे छोटी संरचनात्मक एवं कार्यात्मक इकाई को कोशिका (cell) कहते हैं।

प्रश्न 3.
प्राणियों के शरीर में पायी जाने वाली कोशिकाओं को हम कैसे देख सकते हैं?
उत्तर:
प्राणियों के शरीर में पायी जाने वाली कोशिकाओं को हम सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देख सकते हैं।

प्रश्न 4.
क्लोरोफिल नामक पदार्थ किस वर्ग की कोशिकाओं में पाया जाता है?
उत्तर:
क्लोरोफिल नामक पदार्थ वनस्पति कोशिकाओं में पाया जाता है। .

प्रश्न 5.
कोशिका के सन्दर्भ में जीवद्रव्य का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कोशिका का मुख्य भाग जीवद्रव्य कहलाता है। यह अर्द्ध-पारदर्शक जैली के समान गाढ़ा, चिपचिपा तथा रंगहीन पदार्थ होता है। .

प्रश्न 6.
हमारे शरीर में कितने प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं?
उत्तर:
हमारे शरीर में छह प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं-

  • आच्छादक कोशिकाएँ या उपकला कोशिकाएँ,
  • पेशी कोशिकाएँ,
  • रक्त कोशिकाएँ,
  • अस्थि कोशिकाएँ,
  • संयोजक कोशिकाएँ,
  • तन्त्रिका कोशिकाएँ।

प्रश्न 7.
स्नायु तन्त्र की कोशिका का नाम लिखिए।
उत्तर:
स्नायु तन्त्र की कोशिका का नाम है-तन्त्रिका कोशिका अथवा स्नायु कोशिका (nervous cell)

प्रश्न 8.
जन्तु तथा पादप कोशिका में क्या समानता होती है? ‘
उत्तर:
जन्तु तथा पादप कोशिकाओं में मुख्य समानता यह है कि इन दोनों में केन्द्रक तथा जीवद्रव्य पाए जाते हैं।

प्रश्न 9.
एक ही प्रकार की अनेक कोशिकाओं के समूहीकरण से बनने वाली संरचना को क्या कहते हैं?
उत्तर:
ऊतक या तन्तु (tissue)

प्रश्न 10.
मानव शरीर में कितने प्रकार के ऊतक पाए जाते हैं? अथवा कार्य के आधार पर मानव ऊतकों के प्रकार दीजिए।
उत्तर:
मानव शरीर में कार्यों के आधार पर चार प्रकार के ऊतक पाए जाते हैं-

  • उपकला ऊतक,
  • संयोजी ऊतक,
  • पेशी ऊतक,
  • तन्त्रिका ऊतक।

प्रश्न 11.
पेशी ऊतक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
पेशी ऊतक तीन प्रकार के होते हैं-

  • रेखित या ऐच्छिक पेशी ऊतक,
  • अरेखित या – अनैच्छिक पेशी ऊतक तथा
  • हृद-पेशी ऊतक।

प्रश्न 12.
अनेक ऊतकों के परस्पर सम्बद्ध होने से बनने वाली संरचना को क्या कहते हैं?
उत्तर:
अनेक ऊतकों के परस्पर सम्बद्ध होने से बनने वाली संरचना को अंग (organ) कहते हैं जैसे-हृदय, यकृत, गुर्दे, हाथ, पैर, बाँह आदि।

प्रश्न 13.
शरीर के तन्त्र अथवा संस्थान से क्या आशय है?
उत्तर:
शरीर के किसी विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, शरीर को परस्पर सहयोग प्रदान करने वाले अनेक अंगों की व्यवस्था को तन्त्र अथवा संस्थान कहते हैं जैसे कि पाचन तन्त्र अथवा श्वसन तन्त्र।

प्रश्न 14.
मानव शरीर के मुख्य तन्त्र या संस्थान बताएँ।
उत्तर:
मानव शरीर के मुख्य तन्त्र या संस्थान हैं—पाचन तन्त्र, कंकाल तन्त्र, रक्त परिसंचरण तन्त्र, उत्सर्जन तन्त्र तथा प्रजनन तन्त्र।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 1 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए

प्रश्न 1.
कोशिका के विषय में सत्य है-
(क) यह जीवित संरचना है
(ख) इन्हें केवल सूक्ष्मदर्शी यन्त्र द्वारा ही देखा जा सकता है
(ग) यह शरीर की संरचनात्मक तथा कार्यात्मक इकाई है
(घ) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।

प्रश्न 2.
मानव शरीर की संरचनात्मक एवं कार्यात्मक इकाई है –
(क) ऊतक
(ख) कोशिका
(ग) अंग
(घ) तन्त्र या संस्थान।
उत्तर:
(ख) कोशिका।

प्रश्न 3.
वनस्पति तथा जन्तु कोशिकाओं में समान रूप से पाए जाते हैं –
(क) क्लोरोफिल नामक पदार्थ
(ख) ग्लाइकोजन
(ग) स्टार्च
(घ) केन्द्रक तथा जीवद्रव्य।
उत्तर:
(घ) केन्द्रक तथा जीवद्रव्य।

प्रश्न 4.
जन्तु कोशिकाओं के अन्तर्गत नहीं पाया जाता
(क) जीवद्रव्य
(ख) कोशिका भित्ति
(ग) माइटोकॉण्ड्रिया
(घ) केन्द्रका
उत्तर:
(ख) कोशिका भित्ति।

प्रश्न 5.
आच्छादक कोशिकाएँ पायी जाती हैं(क) शरीर की हड्डियों में
(ख) शरीर की पेशियों में
(ग) शरीर के रक्त में
(घ) शरीर की झिल्लियों में।
उत्तर:
(घ) शरीर की झिल्लियों में।

प्रश्न 6.
अस्थि कोशिकाओं का आकार होता है –
(क) गोल
(ख) पतला-लम्बा
(ग) चपटा
(घ) अनियमित।
उत्तर:
(घ) अनियमित।

प्रश्न 7.
अनेक कोशिकाओं के मिलने से बनने वाली रचना है –
(क) शरीर
(ख) तन्त्र
(ग) ऊतक
(घ) अंग।
उत्तर:
(ग) ऊतक।

प्रश्न 8.
ऊतकों का निर्माण होता है- .
(क) अपने आप से
(ख) पोषण से
(ग) कोशिकाओं के मिलने से
(घ) आकस्मिक रूप से।
उत्तर:
(ग) कोशिकाओं के मिलने से।

प्रश्न 9.
ऊतकों के परस्पर सम्बद्ध होने से बनने वाली संरचना को कहते हैं –
(क) हाथ
(ख) पैर
(ग) तन्त्र
(घ) अंग।
उत्तर:
(घ) अंग।

प्रश्न 10.
कुछ अंगों के व्यवस्थित ढंग से कार्य करने के परिणामस्वरूप विकसित होने वाली संरचना
को कहते हैं
(क) शरीर
(ख) स्नायविक रचना
(ग) तन्त्र या संस्थान
(घ) जीवित प्राणी।
उत्तर:
(ग) तन्त्र या संस्थान।

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UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 20 बालक-बालिका सम्बन्ध

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 20 बालक-बालिका सम्बन्ध (Boys-Girls Relationship)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 20 बालक-बालिका सम्बन्ध

UP Board Class 11 Home Science Chapter 20 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
बालक-बालिका सम्बन्धों एवं मेल-मिलाप पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तरः
छह वर्ष की अवस्था के लगभग लड़के-लड़की बिना भेदभाव के एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। जब बालक तथा बालिकाएँ 7 से 12 वर्ष की आयु में आ जाते हैं तो बहुत कुछ आपस में समझने लगते हैं। उनको अपनी शारीरिक तथा सामाजिक स्थिति का ज्ञान होने लगता है। समाज में 12 वर्ष की अवस्था तक बालक तथा बालिकाएँ एक साथ खेल सकते हैं, पढ़ सकते हैं तथा घूम सकते हैं।

13 से 18 वर्ष की आयु में दोनों ही पक्ष एक-दूसरे को आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं। 18 वर्ष की अवस्था में यह काम-चेतना अपने प्रबलतम रूप में लड़के व लड़कियों में आ जाती है, सामाजिक बन्धन उन्हें बुरे लगने लगते हैं।

कक्षा 8 तक के लड़के और लड़कियाँ एक साथ पढ़ सकते हैं, लेकिन इण्टरमीडिएट कक्षाओं में एक साथ शिक्षा देना अधिक उचित नहीं है। इस अवस्था में उनका मानसिक एवं संवेगात्मक ज्ञान अपरिपक्व होता है। वे भावनाओं की तीव्रता से शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं और अनुचित कार्य कर बैठते हैं। वे अपना हित-अहित नहीं समझते हैं।

डिग्री कक्षाओं में पहुँचकर विद्यार्थियों के अनुभव परिपक्व होने लगते हैं। इस स्तर पर छात्र-छात्राओं का तार्किक पक्ष भी काफी विकसित हो जाता है। उनमें उत्तरदायित्व की भावना भी आ जाती है। इस कारण इस स्तर पर यदि लड़का-लड़की मैत्री सम्बन्ध स्थापित करें तो कोई हानि नहीं है।

सह-शिक्षा से वे एक-दूसरे को भली-भाँति समझ लेते हैं। परिचय प्राप्त कर लेने से लड़के-लड़की का वैवाहिक जीवन बहुत सुखपूर्वक बीतता है, क्योंकि वे एक-दूसरे के आदर्शों से परिचित हो जाते हैं। बहुत-से गरीब घराने की लड़कियों की शादी सम्पन्न घराने में हो जाती है क्योंकि लड़के सुन्दर एवं शिक्षित लड़कियों के इच्छुक होते हैं। इस प्रकार लड़कियों के माता-पिता दहेज के चक्रव्यूह से बच जाते हैं।

बालक-बालिका सम्बन्धों का उपर्युक्त विवरण एक पारम्परिक मान्यता से जुड़ा हुआ है। वर्तमान सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यावसायिक परिस्थितियाँ बड़ी तेजी से बदल रही हैं तथा इन परिवर्तित परिस्थितियों में बालक-बालिका सम्बन्धों के प्रारूप को भी पुनः निर्धारित करना अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय तथ्य है।

प्रश्न 2.
भारत में लड़के-लड़कियों के स्वतन्त्रतापूर्ण सम्बन्धों पर लगे प्रतिबन्धों के विषय में अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तरः
भारत में लड़के-लड़कियों के स्वतन्त्रतापूर्ण सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध –
भारतीय आदर्शों एवं परम्पराओं में आस्था रखने वाले विद्वानों के मतानुसार यदि लड़के और लड़कियाँ आपस में मिलते-जुलते हैं तो उनके विकास में बाधा उत्पन्न होती है। इसी कारण से बाल्यकाल में सह-शिक्षा के बाद अधिकतर लड़के-लड़कियों के विद्यालय अलग कर दिए जाते थे। परिवार के बाहर भी उनको मेल-मिलाप के अवसर बहुत कम दिए जाते थे। यद्यपि आजकल पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर भारतीय समाज में तरुणावस्था के लड़के-लड़कियों में स्वतन्त्रतापूर्ण सम्बन्धों का प्रचलन बढ़ रहा है, तथापि आदर्श भारतीय समाज में यह आलोचना का विषय बना हुआ है।

किशोरावस्था के लड़के-लड़कियों के विवाह आदि तय करने में माता-पिता का मुख्य हाथ होने से प्रायः सुविधा ही रहती है और किशोरों को अपनी अनुभवहीनता में की गई त्रुटियों से बचाव रहता है। किन्तु कभी-कभी कुछ अवस्थाओं में व्यक्ति के स्वभाव एवं इच्छाओं का सामाजिक बन्धनों के कारण अत्यधिक दमन करना पड़ता है, जिसका परिणाम अधिकतर हानिकारक सिद्ध होता है। वास्तव में किशोरों के मेल-मिलाप में पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा कठोर नियन्त्रण दोनों ही उनके विकास में बाधक होते हैं।

प्रश्न 3.
अपने समाज में लड़के-लड़कियों में पाए जाने वाले सामाजिक भेद के विषय में अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तरः
लड़के-लड़कियों में पाए जाने वाले सामाजिक भेद –
स्त्री तथा पुरुष में शारीरिक भेद के अतिरिक्त उनके आचरण, स्वभाव और व्यवहार में अन्तर पाया जाता है। यह सम्भव हो सकता है कि यह अन्तर शरीर रचना और पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों के अन्तर के कारण हो। यह भी देखने में आता है कि सामान्यत: बालिकाएँ स्वभाव की कोमल, विनम्र, सहनशील तथा करुणामयी होती हैं और दूसरी तरफ बालक स्वभाव के कठोर होते हैं।

मनोवैज्ञानिक इस बालक-बालिका के अन्तर को उनके पारिवारिक और सामाजिक पर्यावरण के कारण मानते हैं। परिवार में सभी सदस्यों की बालक-बालिका के प्रति एक-सी भावना नहीं होती। बालिकाओं के प्रति प्रारम्भ से ही कुछ भिन्न भावना रहती है, उनको पराया धन समझा जाता है, उनको घर में गृहस्थी का कार्य करना पड़ता है। इसलिए बालिकाएँ स्वभाव से ही सहनशील और विनम्र होती हैं। बालकों को बाबा-दादी तथा अन्य सदस्य सिर पर चढ़ाकर रखते हैं और उनकी प्रत्येक इच्छा को पूरा किया जाता है। इसलिए वे क्रोधी, जिद्दी तथा कठोर स्वभाव के होते हैं।

अत: अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहँचते हैं कि बालक-बालिका, एक ही सृष्टि की रचना होते हुए भी, भिन्न हैं। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं, जिनमें स्वाभाविक अन्तर होता है। यह अन्तर कुछ तो शारीरिक रचना के कारण होता है और कुछ पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण होता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि वर्तमान युग में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ बदल रही हैं। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप लड़कियों की शिक्षा एवं विकास को भी क्रमश: महत्त्व दिया जाने लगा है। वह दिन दूर नहीं जब हमारे समाज में लड़के-लड़कियों के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाया जाने लगेगा।

प्रश्न 4.
किशोरावस्था में बालक और बालिका की एक-दूसरे के प्रति कैसी भावना होती है?
उत्तरः
किशोरावस्था में बालक और बालिका की एक-दूसरे के प्रति भावना –
छह वर्ष तक के लड़के-लड़कियों के सम्बन्ध में लिंग-भेद का कोई आधार नहीं होता। वे अनजान रहकर एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, एक-दूसरे के मित्र बन जाते हैं। जब लड़के-लड़कियाँ 6 से 12 वर्ष के बीच की उम्र के होते हैं तो बहुत कुछ समझने लगते हैं। उनको यह ज्ञान हो जाता है कि उनकी शारीरिक रचना में क्या अन्तर है। हमारे समाज में लड़के को अधिक महत्त्व दिया जाता है, क्योंकि उससे यह आशा की जाती है कि वह बड़ा होकर कुटुम्ब की सेवा करेगा और लड़की कुछ दिनों बाद पराये घर की हो जाएगी। लड़कियाँ समझती हैं कि उनका स्थान लड़कों की अपेक्षा नीचा है। यह ऊँच-नीच की भावना 6-7 वर्ष की आयु के बाद बच्चों में आने लगती है; अत: वे एक-दूसरे से अलग रहने का प्रयत्न करते हैं।

यह विरोध की भावना उस समय तक चलती है, जब तक उनके शरीर में तरुणाई के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं। जब उनके शरीर में तरुणाई के लक्षण प्रकट होने लगते हैं तो उनका यह विरोध समाप्त हो जाता है। घृणा प्रेम में बदल जाती है। इस अवस्था (13 से 17 वर्ष) में लड़कियों के शरीर में कुछ परिवर्तन हो जाता है और सौन्दर्य बढ़ जाता है। लड़के भी अपने को अधिक आकर्षक बनाने का प्रयत्न करते हैं। इस समय वे एक-दूसरे के सम्पर्क में लज्जा अनुभव करते हैं। यह अवस्था करीब 16-17 वर्ष की उम्र तक रहती है।

17-18 वर्ष की अवस्था में लड़के-लड़कियों में काम-चेतना अत्यन्त प्रबल रूप धारण करती है। वे एक-दूसरे को अधिक-से-अधिक आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं और प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। इस समय वे सामाजिक बन्धनों की चिन्ता तक नहीं करते। वे समाज से घृणा करते हैं और समाज से पृथक होकर प्रेमी अथवा प्रेमिका के साथ निर्जन स्थान में अधिक-से-अधिक समय तक रहना पसन्द करते हैं। एक के अभाव में दूसरा प्राण तक दे देता है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री के शब्दों में, “जब दो भिन्न लिंगी एक-दूसरे को देखते हैं, संकेत करते हैं, छिपकर प्रेम करते हैं, भेंट देते हैं या परस्पर स्पर्श करते हैं तो उन्हें चामत्कारिक आनन्द प्राप्त होता है।”

लड़के और लड़कियों के सम्बन्ध की यह अवस्था बड़ी नाजुक होती है। वे कभी-कभी पथभ्रष्ट भी हो जाते हैं। वे पढ़ाई-लिखाई, माता-पिता, धन-सम्पत्ति और मान-मर्यादा की परवाह नहीं करते। प्रेमी-प्रेमिकाओं का घर से भाग जाना, इधर-उधर की ठोकरें खाना साधारण-सी बात है। इसके अतिरिक्त, वे भ्रूण हत्याओं, शारीरिक रोगों, नैतिक और चारित्रिक पतन आदि के लिए उत्तरदायी हो जाते हैं। अज्ञान और भावुकता में वे अपना और समाज दोनों का अहित करते हैं।

विभिन्न अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध हो गया है कि बालक और बालिका के परस्पर मिलने-जुलने में जितना बड़ा बन्धन होगा, ‘मिलन भावना’ उतनी ही तीव्र होगी। इसलिए बालक-बालिकाओं के सम्बन्धों को स्वाभाविक रूप से विकसित होने देने के लिए उन्हें परस्पर मिलने-जुलने की कुछ हद तक स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। सम्पर्क और स्वतन्त्रता को उच्छंखलता की सीमा तक पहुँचने से रोकने के लिए संयम का अंकुश बड़े-बुजुर्गों के हाथ में होना चाहिए।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 20 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
बालक-बालिका सम्बन्धों के अध्ययन का मूल आधार क्या है?
उत्तरः
बालक-बालिका सम्बन्धों के अध्ययन का मूल आधार लिंग-भेद है।

प्रश्न 2.
सामान्य रूप से किस अवस्था में लड़के-लड़कियाँ अपने अलग-अलग समूह बनाने लगते हैं?
उत्तरः
सामान्य रूप से किशोरावस्था प्रारम्भ होते ही लड़के-लड़कियाँ अपने अलग-अलग समूह बनाने लगते हैं।

प्रश्न 3.
बालिकाओं के लिए पढ़ाई क्यों जरूरी है?
अथवा
बालिकाओं को शिक्षित करना क्यों आवश्यक है?
उत्तरः
आज की बालिकाएँ ही भावी गृहिणियाँ एवं माताएँ हैं; अतः उत्तम गृह-व्यवस्था तथा बच्चों के उत्तम पालन-पोषण के लिए बालिकाओं की पढ़ाई जरूरी है। वैसे, जिस प्रकार लड़कों के लिए पढ़ाई आवश्यक है, वैसे ही लड़कियों के लिए भी पढ़ाई आवश्यक है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 20 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. किशोरावस्था में बालक-बालिका सम्बन्ध होने चाहिए –
(क) अत्यधिक घनिष्ठ
(ख) सीमित एवं स्वाभाविक
(ग) कोई सम्बन्ध नहीं होने चाहिए
(घ) विरोधपूर्ण सम्बन्ध।
उत्तरः
(ख) सीमित एवं स्वाभाविक।

2. मानसिक एवं संवेगात्मक ज्ञान किस अवस्था तक अपरिपक्व माना गया है –
(क) किशोरावस्था
(ख) युवावस्था
(ग) प्रौढ़ावस्था
(घ) वृद्धावस्था।
उत्तरः
(क) किशोरावस्था।

3. किशोरावस्था की मुख्य समस्या क्या है –
(क) मकान
(ख) नौकरी
(ग) अनुशासन
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तरः
(ग) अनुशासन।

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UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 21 गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 21 गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा (Budget of Family)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 21 गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा

UP Board Class 11 Home Science Chapter 21 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पारिवारिक आय-व्यय से क्या तात्पर्य है?
उत्तरः
पारिवारिक आवश्यकताओं की सुचारु पूर्ति ही गृह-अर्थव्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मुख्य रूप से दो कारक आवश्यक हैं जिन्हें क्रमश: “पारिवारिक आय’ तथा ‘पारिवारिक व्यय’ कहा जाता है। पारिवारिक आय-व्यय का सन्तुलन ही उत्तम गृह-अर्थव्यवस्था की मुख्य शर्त है। ‘पारिवारिक आय’ तथा ‘पारिवारिक व्यय’ का अर्थ एवं सामान्य परिचय निम्नवर्णित है –

पारिवारिक आय का अर्थ (Meaning of Family Income) –
गृह – अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक महत्त्व पारिवारिक आय का होता है। पारिवारिक आय से आशय उस धनराशि से है, जो किसी परिवार द्वारा एक निश्चित अवधि में अर्जित की जाती है। आय अर्जित करने के लिए कुछ-न-कुछ प्रयास करने पड़ते हैं। व्यापक अर्थ में पारिवारिक आय में आर्थिक प्रयासों के बदले में मिलने वाली धनराशि के अतिरिक्त उन सुविधाओं को भी सम्मिलित किया जाता है, जो इन प्रयासों के बदले में उपलब्ध होती हैं। उदाहरण के लिए किसी सरकारी कार्यालय में नौकरी करने वाले व्यक्ति को प्रतिमाह एक निश्चित वेतन मिलता है तथा इसके साथ-साथ नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा, आवास सुविधा तथा बच्चों की निःशुल्क शिक्षा की सुविधा भी उपलब्ध होती है। इस स्थिति में सम्बन्धित व्यक्ति को मिलने वाला वेतन तथा अन्य समस्त सुविधाएँ सम्मिलित रूप से व्यक्ति की आय मानी जाती हैं।

प्रो० ग्रास एवं केण्डाल ने पारिवारिक आय की परिभाषा इन शब्दों में प्रतिपादित की है – “पारिवारिक आय मुद्रा, वस्तुओं, सेवाओं तथा सन्तोष का वह प्रवाह है, जो परिवार के अधिकार में उसकी आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूर्ण करने तथा उत्तरदायित्वों के निर्वाह हेतु आता है।”

उपर्युक्त कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि परिवार के मुखिया एवं अन्य सदस्यों द्वारा अर्जित की जाने वाली धनराशि पारिवारिक आय का मुख्य रूप है। यह धनराशि भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयासों द्वारा अर्जित की जा सकती है; जैसे—नौकरी, व्यवसाय, उद्योग-धन्धे, कृषि, पशुपालन आदि। धनराशि के अतिरिक्त परिवार को उपलब्ध होने वाली विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ भी पारिवारिक आय का ही भाग मानी जाती हैं। इस प्रकार की सुविधाएँ अनेक हो सकती हैं; जैसे – फर्नीचरयुक्त निःशुल्क आवास सुविधा, वाहन सम्बन्धी सुविधा, नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा तथा बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा सुविधा।

पारिवारिक व्यय का अर्थ (Meaning of Family Expenses) –
अर्थव्यवस्था के दो मुख्य तत्त्व माने गए हैं-आय तथा व्यय। परिवार के सन्दर्भ में भी आय तथा व्यय का समान रूप से महत्त्व है। आय के रूप में धन अर्जित करने का मुख्य उद्देश्य भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यय का अधिकार प्राप्त करना ही है। पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिस धन को व्यय किया जाता है, उसे ही ‘पारिवारिक व्यय’ कहा जाता है।

आय के ही समान व्यय का भी निश्चित लेखा-जोखा रखने के लिए इसे एक निश्चित अवधि के सन्दर्भ में आँका जाता है। सामान्य रूप से, परिवार के लिए मासिक अथवा वार्षिक अवधि में होने वाले व्यय को ही पारिवारिक व्यय के रूप में स्वीकार किया जाता है। व्यय वास्तव में आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन है। आवश्यकताएँ असंख्य हो सकती हैं, किन्तु सभी आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं है क्योंकि प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिए कम या अधिक मात्रा में धन की आवश्यकता होती है, परन्तु धन एक सीमित साधन है। धन की उपलब्धता आय पर निर्भर करती है; अत: व्यय का निर्धारण आय के सन्दर्भ में ही होता है।

पारिवारिक व्यय को हम इस प्रकार भी परिभाषित कर सकते हैं – “किसी निश्चित अवधि में सम्बन्धित परिवार द्वारा अर्जित आय के उस अंश को पारिवारिक व्यय माना जा सकता है, जो परिवार के सदस्यों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यय हुआ है।”

पारिवारिक आवश्यकताएँ अनेक प्रकार की होती हैं; अत: उनकी पूर्ति के लिए किए जाने वाले व्यय को भी भिन्न-भिन्न वर्गों अथवा प्रकारों में बाँटा जा सकता है। पारिवारिक व्यय के मुख्य वर्ग या प्रकार हैं – निश्चित व्यय, अर्द्ध-निश्चित व्यय, अन्य व्यय तथा आकस्मिक व्यय। निश्चित व्यय प्रतिमाह समान रहते हैं; जैसे कि मकान का किराया। अर्द्ध-निश्चित व्यय ऐसे व्ययों को कहा जाता है, जिनमें प्रतिमाह एक निश्चित सीमा तक ही परिवर्तन होता है। जैसे कि परिवार के सदस्यों के वस्त्रों पर होने वाला व्यय। अन्य व्यय की श्रेणी में उन खर्चों को सम्मिलित किया जाता है जो व्यक्ति की आय एवं सुविधा पर निर्भर करते हैं। ये खर्चे अनिवार्य एवं निश्चित नहीं होते।

सुविधा न होने पर इस वर्ग के खर्चों को बिल्कुल घटाया जा सकता है तथा आय के बढ़ जाने तथा सुविधाओं के उपलब्ध हो जाने की स्थिति में जितना चाहे बढ़ाया जा सकता है। मनोरंजन तथा विलासिता सम्बन्धी आवश्यकताओं पर किए जाने वाले व्यय इसी श्रेणी के हैं। आकस्मिक व्यय में उन पारिवारिक खर्चों को सम्मिलित किया जाता है, जिनका कोई पूर्व-ज्ञान नहीं होता। ये खर्चे योजनाबद्ध नहीं हुआ करते। आकस्मिक व्यय साधारण भी हो सकते हैं तथा बहुत अधिक भी, जिससे सम्पूर्ण गृह-अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है। उदाहरण के लिए किसी निकट सम्बन्धी के विवाह के अवसर पर होने वाला आकस्मिक व्यय, साधारण व्यय कहला सकता है, परन्तु परिवार के किसी सदस्य के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर होने वाला आकस्मिक व्यय बहुत अधिक भी हो सकता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा पारिवारिक व्यय के अर्थ एवं विभिन्न प्रकारों का सामान्य परिचय प्राप्त हो जाता है। परिवार के प्रत्येक सदस्य, विशेष रूप से परिवार के मुखिया तथा गृहिणी को इन समस्त पारिवारिक खर्चों के प्रति सचेत रहना चाहिए तथा पर्याप्त सूझ-बूझपूर्वक सभी खर्चों का नियोजन करना चाहिए।

प्रश्न 2.
पारिवारिक बजट का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। पारिवारिक बजट के लाभ एवं उपयोगिता भी स्पष्ट कीजिए।
अथवा
पारिवारिक बजट से क्या तात्पर्य है?
अथवा
परिवार के सफलतापूर्वक संचालन के लिए बजट की क्या उपयोगिता है?
अथवा
पारिवारिक बजट को परिभाषित कीजिए। पारिवारिक बजट के लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तरः
परिवार एक ऐसा केन्द्र है, जहाँ जीवनयापन के समस्त उपाय किए जाते हैं। घर पर ही आहार, वस्त्र, मनोरंजन तथा आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सा आदि की व्यवस्था की जाती है। इन समस्त पारिवारिक गतिविधियों को पूरा करने के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए आय की व्यवस्था की जाती है। सामान्य रूप से आय सीमित होती है। इस स्थिति में आय तथा व्यय में सन्तुलन बनाए रखना आवश्यक होता है। आय तथा व्यय को नियोजित करने के उपाय को ही ‘बजट’ कहा जाता है। गृह-व्यवस्था के लिए ‘पारिवारिक बजट’ का विशेष महत्त्व होता है।

पारिवारिक बजट का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Family Budget) –
पारिवारिक अर्थव्यवस्था के दो मुख्य तत्त्व होते हैं – पारिवारिक आय तथा पारिवारिक व्यय। पारिवारिक अर्थव्यवस्था को सफल बनाने के लिए पारिवारिक आय तथा पारिवारिक व्यय को नियोजित करना आवश्यक होता है। इस नियोजन के लिए पारिवारिक आय तथा व्यय के विवरण को लिखित रूप दिया जाता है। आय-व्यय का यह लिखित रूप ही ‘पारिवारिक बजट’ कहलाता है। पारिवारिक बजट में परिवार की आय को ध्यान में रखते हुए समस्त सम्भावित खर्चों को नियोजित रूप से लिख लिया जाता है। पारिवारिक आय-व्यय का यह विवरण-प्रपत्र एक निश्चित अवधि के लिए होता है। यह अवधि सामान्य रूप से एक माह या एक वर्ष हुआ करती है।

पारिवारिक बजट को इन शब्दों में परिभाषित कर सकते हैं – “पारिवारिक बजट किसी परिवार का निश्चित अवधि में होने वाले आय-व्यय का प्रपत्र होता है।”
पारिवारिक बजट में आगामी माह या आगामी वर्ष में होने वाले आय-व्यय का अनुमानित प्रारूप भी होता है।

पारिवारिक बजट की उपयोगिता (Utility of Family Budget) –
पारिवारिक बजट से परिवार, अर्थशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों तथा समाज-सुधारकों सभी को लाभ पहुँचता है। पारिवारिक बजट के लाभों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित है –

1. परिवार के लिए बजट का महत्त्व एवं लाभ-परिवार की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रत्येक परिवार द्वारा बजट अवश्य बनाना चाहिए। बजट बनाकर व्यय करने से आय तथा व्यय में सन्तुलन बना रहता है। बजट बनाकर विभिन्न आवश्यक वस्तुओं पर होने वाले व्यय को निर्धारित कर सकते हैं। इससे ज्ञात होता रहता है कि किस वस्तु पर होने वाले व्यय को आवश्यकता पड़ने पर घटाया जा सकता है तथा किस प्रकार से सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है। यदि बिना बजट के ही व्यय करते रहते हैं तो कुछ अनावश्यक वस्तुओं पर अपेक्षाकृत अधिक व्यय हो सकता है। इससे कुछ अपेक्षाकृत आवश्यक कार्य करने के लिए धन नहीं बच पाता तथा समय आने पर कठिनाई उठानी पड़ती है; अत: बजट बनाकर ही व्यय करना चाहिए। पारिवारिक बजट बनाने तथा उसके अनुसार व्यय करने से परिवार को निम्नलिखित लाभ होते हैं –

  • बजट बनाने से विभिन्न मदों पर किया जाने वाला व्यय इन मदों की आवश्यकता तथा महत्त्व को ध्यान में रखकर हो सकता है।
  • बजट बनाने से योजनाबद्ध कार्य करने की क्षमता का विकास होता है। सामान्य से अलग, विशेष अवसरों पर इस क्षमता से सहायता मिलती है और अपव्यय से बचा जा सकता है।
  • बजट बनाने से गृहिणी भविष्य के लिए कुछ-न-कुछ बचत करने का तरीका निकाल लेती है। वैसे भी योजनाबद्ध कार्य करने से कुछ-न-कुछ बचाया जा सकता है।
  • अपनी आय के अनुसार परिवार की समस्त आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करते हुए बजट के अनुसार व्यय करने से उचित और अनुकूल जीवनयापन का अभ्यास हो जाता है। इस तरह अपव्यय नहीं होता और ऋण लेने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती है।।
  • पारिवारिक व्यय का उचित लेखा रखने में भी बजट से सहायता मिलती है तथा हिसाब-किताब की आदत पड़ जाती है।
  • बजट बनाने से फिजूलखर्ची पर आवश्यक तथा निश्चित नियन्त्रण हो जाता है।
  • पारिवारिक बजट बनाकर व्यय करने से परिवार में सुख-शान्ति एवं व्यवस्था बनी रहती है। इससे पारिवारिक समृद्धि में भी वृद्धि होती है।

2. अर्थशास्त्रियों को लाभ – अर्थशास्त्री पारिवारिक बजटों के अध्ययन से किसी समाज या राष्ट्र के जीवन-स्तर के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। यदि उनका आर्थिक एवं सामाजिक स्तर गिरता दिखाई देता है तो वे उसे सुधारने के लिए प्रयत्नशील हो सकते हैं। पारिवारिक बजट जनता की आय, मनुष्यों की कर देने की क्षमता तथा सरकार को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कर लगाने के सम्बन्ध में भी ज्ञान देता है। पारिवारिक बजट का अध्ययन महत्त्वपूर्ण आर्थिक नियमों के अनुसन्धान में भी सहायक होता है।

3. राजनीतिज्ञों को लाभ – पारिवारिक बजट समाज का आर्थिक नक्शा प्रदान करता है और इस आर्थिक नक्शे में देश का या समाज का राजनीतिक नक्शा खिंचा मिलता है। जिस प्रकार की लोगों की आर्थिक दशा होगी, उसी के आधार पर वे अपनी राजनीतिक विचारधारा का निर्माण करेंगे। राजनीतिज्ञ इस प्रकार से देश की राजनीतिक स्थिति का अध्ययन कर उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने की दिशा में प्रयत्नशील हो सकते हैं। राजनीतिज्ञ जन सामान्य की करदान क्षमता देखकर अपनी नीति निर्धारित करते हैं।

4. समाज-सुधारकों को लाभ – समाज-सुधारक इसके अध्ययन से यह जान सकते हैं कि जनता अपनी आय का सदुपयोग करती है अथवा दुरुपयोग। यदि जनता का धन बुरी आदतों की सन्तुष्टि में अधिक व्यय होता है तो समाज-सुधारक इसके विरुद्ध प्रचार करके जनता की बुरी आदतों पर नियन्त्रण कर सकते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि पारिवारिक बजट समाज के सभी वर्गों के लिए लाभप्रद एवं उपयोगी हो सकता है। इसका समुचित विवेचन परिवार, समाज और देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है। गृहिणियों के लिए ‘पारिवारिक बजट’ का सर्वाधिक महत्त्व एवं उपयोग है क्योंकि गृहिणियाँ ही गृह-अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

प्रश्न 3.
पारिवारिक बजट के विषय में ऐंजिल्स द्वारा प्रतिपादित नियम का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
पारिवारिक बजट के विषय में ऐंजिल्स का नियम (Engil’s Rule on Family Budget) –
पारिवारिक बजट अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण विषय है; अत: समय-समय पर विभिन्न समाज-वैज्ञानिकों एवं अर्थशास्त्रियों ने इस विषय में अपने-अपने विचार तथा नियम प्रस्तुत किए हैं। इन विद्वानों में जर्मनी के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ० अर्नेस्ट ऐंजिल्स का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ऐंजिल्स ने समाज के विभिन्न वर्गों से सम्बन्धित परिवारों की गृह-अर्थव्यवस्था का विस्तृत अध्ययन किया तथा 1857 ई० में निष्कर्षस्वरूप एक नियम प्रस्तुत किया, जिसे पारिवारिक बजट सम्बन्धी ‘ऐंजिल्स का नियम’ कहा जाता है।

अर्थशास्त्री ऐंजिल्स ने सामाजिक व्यवस्था को तीन वर्गों अर्थात् उच्च (धनी), मध्यम तथा निम्न वर्ग में विभाजित किया। इस वर्गीकरण का आधार केवल पारिवारिक आय को ही स्वीकार किया गया था। अपने अध्ययनों के आधार पर उन्होंने स्पष्ट किया कि पारिवारिक आय के बढ़ने के साथ-साथ परिवार द्वारा भोजन एवं खाद्य-सामग्री पर किए जाने वाले व्ययों का प्रतिशत घटता जाता है तथा शिक्षा, स्वास्थ्य एवं मनोरंजन या विलासिता की मदों पर होने वाले व्ययों का प्रतिशत बढ़ता जाता है। जहाँ तक वस्त्र, गृह, प्रकाश एवं ईंधन जैसी मदों का प्रश्न है, इन पर होने वाले व्ययों का प्रतिशत प्रायः स्थिर ही रहता है। ऐंजिल्स के इन निष्कर्षों को निम्नांकित तालिका के माध्यम से स्पष्ट किया गया है –
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 21 गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा 1

ऐंजिल्स ने पारिवारिक बजट सम्बन्धी अपने नियम के निष्कर्षों को निम्नांकित रेखाचित्र के माध्यम से भी दर्शाया है –
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 21 गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा 2
ऐंजिल्स ने पारिवारिक बजट के सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण के साथ-साथ उसके व्यावहारिक स्वरूप को भी प्रस्तुत किया। उसने समाज के तीनों वर्गों-उच्च, मध्यम और निम्न के प्रतिनिधियों के रूप में डॉक्टर, अध्यापक और श्रमिक को चुना और उनकी तत्कालीन मासिक आय क्रमशः ₹ 3200, ₹ 1600 और ₹ 400 स्वीकार की। आय के इन स्वरूपों को स्वीकार करके ऐंजिल्स ने समाज के मुख्य वर्गों के पारिवारिक बजट के प्रारूप को निम्नांकित तालिका में प्रस्तुत किया –
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 21 गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा 3

ऐंजिल्स के पारिवारिक बजट सम्बन्धी नियम की आलोचना –
एक समय था जब विश्व के सभी देशों में पारिवारिक बजट के विषय में ऐंजिल्स के नियम को विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता था, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में इस नियम को केवल ऐतिहासिक महत्त्व ही प्राप्त है। अब सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप में इस नियम को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता है। इस नियम की निम्नलिखित आलोचनाएँ प्रस्तुत की गई हैं –

  • भोजन व्यय के सन्दर्भ में-आलोचकों का मत है कि ऐंजिल्स द्वारा अपने बजट में अध्यापक तथा डॉक्टर के भोजन के लिए किए गए धन का प्रावधान बहुत अधिक है।
  • आवास व्यय के सन्दर्भ में-आधुनिक परिस्थितियों में आवास समस्या गम्भीर है। अध्यापक तथा डॉक्टर के लिए निर्धारित किया गया धन कम प्रतीत होता है। आय के 12% भाग को व्यय करके ये वर्ग अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल आवास प्राप्त नहीं कर सकते।
  • शिक्षा, स्वास्थ्य तथा मनोरंजन व्यय के सन्दर्भ में-ऐंजिल्स ने अपने नियम में मध्यम तथा उच्च वर्ग के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य एवं मनोरंजन के मद में जो व्यय का प्रावधान किया है, वह बहुत अधिक प्रतीत होता है।
  • ईंधन, जल तथा प्रकाश के व्यय के सन्दर्भ में ऐंजिल्स ने अपने नियम में स्वीकार किया है कि ईंधन, जल एवं प्रकाश आदि पर होने वाले व्यय का प्रतिशत भाग सदैव स्थिर रहता है। यह मान्यता उचित नहीं है। व्यवहार में देखा गया है कि आय के बढ़ने के साथ-साथ इन मदों पर होने वाले व्यय के प्रतिशत मान में भी कुछ-न-कुछ वृद्धि अवश्य ही होती है।
  • बचत की अवहेलना सम्बन्धी आलोचना-ऐंजिल्स द्वारा प्रतिपादित बजट सम्बन्धी नियम में कहीं भी पारिवारिक बचत का उल्लेख नहीं है। आधुनिक मान्यताओं के अनुसार समाज के प्रत्येक वर्ग के पारिवारिक बजट में अनिवार्य रूप से नियमित बचत का प्रावधान होना चाहिए। एंजिल्स द्वारा पारिवारिक बचत की अवहेलना की कटु आलोचना हुई है।

प्रश्न 4.
ऐंजिल्स के सिद्धान्त के आधार पर एक मध्यम वर्ग के परिवार के बजट की रूपरेखा बनाइए।
अथवा
एक ऐसे परिवार के लिए व्यावहारिक बजट का प्रारूप प्रस्तुत कीजिए, जिसकी मासिक आय ₹ 12000 प्रतिमाह है तथा परिवार में पति-पत्नी के अतिरिक्त दो छोटे बच्चे हैं।
उत्तरः
पारिवारिक बजट का व्यावहारिक प्रारूप (Practical Structure of Family Budget) –
पारिवारिक बजट का सैद्धान्तिक अध्ययन करने के साथ-साथ उसका व्यावहारिक पक्ष जानना भी आवश्यक है। यहाँ एक ऐसे परिवार के पारिवारिक बजट का प्रारूप प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसकी मासिक आय ₹ 12,000 है तथा परिवार में पति-पत्नी के अतिरिक्त दो छोटे बच्चे भी हैं

गृहस्वामी का नाम – सुभाष चन्द्र शर्मा
घर का पता – 2, तिलक रोड, मेरठ।
परिवार की सदस्य संख्या – 4 (पुरुष 1, स्त्री 1, बच्चे 2)
मासिक आय – ₹ 12000
बजट की अवधि – 1-4-2018 से 31-4-2018
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 21 गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा 4
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 21 गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा 5
नोट – उपर्युक्त बजट का प्रारूप एक प्रतिदर्श बजट है। इस आधार पर ₹ 15000, ₹ 18000 या ₹ 20,000 आदि आय वाले परिवारों के लिए भी बजट बनाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त परिवार की परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विभिन्न मदों पर होने वाले व्यय में भी अन्तर किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
मितव्ययिता का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसके आवश्यक तत्त्व बताइए।
अथवा
गृहिणी किन-किन उपायों से गृहस्थी के व्यय में मितव्ययिता कर सकती है?
अथवा
टिप्पणी लिखिए-मितव्ययिता।
उत्तरः
मितव्ययिता का अर्थ (Meaning of Economy) –
परिवार व्यय का केन्द्र है। इस कारण से यहाँ प्रतिदिन किसी-न-किसी प्रकार का व्यय करना पड़ता है। परिवार के सदस्य जो कमाते हैं उसके अधिकांश भाग को वे अपनी और अपने आश्रितों की विविध प्रकार की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करने के लिए व्यय करते हैं; किन्तु पैसा खर्च करने वाले के समक्ष यह लक्ष्य आवश्यक रूप से रहता है कि वह धन को किस प्रकार से व्यय करे कि उसकी अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाए। जो व्यक्ति धन को व्यय करने की उचित रीतियाँ जानते हैं, वे आर्थिक संकट का सामना नहीं करते; किन्तु इसके विपरीत जो धन को व्यय करने के उचित तरीकों से अनभिज्ञ हैं, वे सदैव आर्थिक संकट से ग्रस्त रहते हैं और धनाभाव से पीड़ित रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अनेक बार गम्भीर आर्थिक संकट का भी सामना करना पड़ जाता है तथा परिणामस्वरूप घर-परिवार कलह का केन्द्र बन जाता है।

पारिवारिक अर्थव्यवस्था को सुचारु बनाए रखने तथा पारिवारिक सुख-समृद्धि को बनाए रखने के लिए पारिवारिक व्यय को मितव्ययितापूर्ण बनाना आवश्यक होता है। मितव्ययिता से हमारा अभिप्राय यह है कि कोई व्यक्ति कम खर्च करके भी अधिकतम सन्तोष प्राप्त कर ले। मितव्ययिता का उद्देश्य अपव्यय या फिजूलखर्ची से बचना है। इसका अर्थ कंजूसी करना नहीं है क्योंकि कंजूसी की स्थिति तो दुःख प्रदान करने वाली होती है। किन्तु इसका यह अर्थ अवश्य है कि जिस वस्तु पर 5 रुपये खर्च करने से ही हम सुख-सन्तोष की प्राप्ति कर सकते हैं, उस पर अनावश्यक रूप से 6 रुपये खर्च न करें।

मितव्ययिता के तत्त्व (Elements of Economy) –
मितव्ययितापूर्वक व्यय करने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है –
1. वस्तुएँ खरीदने का उचित स्थानं-आजकल प्रत्येक वस्तु के खरीदने के अनेक स्थान होते हैं और उपभोक्ताओं को इनमें से किसी भी स्थान से इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति हो सकती है। कुशल तथा मर्मज्ञ उपभोक्ताओं को यह ज्ञात होता है कि कौन-सी वस्तु किस स्थान से प्राप्त हो सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति का एक निश्चित स्थान होता है और इसकी जानकारी समय तथा धन की बचत कराती है।

2. खरीदारी के सिद्धान्त-पैन्सन नामक अर्थशास्त्री ने धन को व्यय करने के सम्बन्ध में वस्तुओं के मूल्य के सम्बन्ध में कुछ सुझाव दिए हैं। ये सुझाव निम्नलिखित हैं

(i) अपनी आवश्यकताओं का पूर्ण ज्ञान-एक सफल खरीदार को अपनी आवश्यकताओं का पूर्ण ज्ञान अवश्य होना चाहिए। बाजार में पहुँचने पर जो भी वस्तु अच्छी लगे, उसे अपनी आवश्यकता के अभाव में भी खरीद लेना अपव्यय है। आवश्यकता न होने पर सस्ती वस्तु का खरीदना भी महँगा एवं अनुचित ही है क्योंकि वह घर में व्यर्थ पड़ी रहेगी। अत: केवल वे ही वस्तुएँ खरीदी जानी चाहिए, जिनकी हमें आवश्यकता है। ऐसा करने पर कम धन व्यय करके अधिकतम सन्तोष प्राप्त किया जा सकता है।

(ii) आवश्यकताओं की तीव्रता का ज्ञान-खरीदार को यह भी पता होना चाहिए कि उसे किस आवश्यकता की तत्काल पूर्ति करनी है तथा किसकी बाद में पूर्ति की जा सकती है। जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं का उचित रूप से क्रम निर्धारण कर लेते हैं, वे कम खर्च से ही अधिक सन्तोष प्राप्त कर सकते हैं।

(iii) वस्तु के गुणों का ज्ञान-खरीदार को माल के जाँचने की योग्यता भी होनी चाहिए। मोल-भाव तो कर लिया, किन्तु यह न देखा कि वस्तु अच्छी भी है या नहीं, तो खरीदार धोखा खा सकता है। क्योंकि कभी-कभी सस्ती वस्तु बिल्कुल बेकार सिद्ध हो सकती है; अत: वस्तु के गुणों को देखकर ही उसे खरीदना चाहिए।

(iv) सस्ती वस्तुओं के प्राप्ति स्थान का ज्ञान-खरीदार को यह भी पता होना चाहिए कि सस्ती वस्तु किस दुकान से या किस स्थान से प्राप्त हो सकती है। दूर जाने से बचने के लिए कुछ लोग अपने परिचितों की दुकानों से ही सौदा लेते हैं, भले ही वहाँ उनसे कुछ अधिक मूल्य ले लिया जाए। मोल-भाव करके तथा सस्ती वस्तु की प्राप्ति के स्थान का पता लगाने से भी बचत हो जाती है।

(v) मोल-भाव करने की योग्यता-कुशल खरीदार को सौदा करना भी आना चाहिए। कभी-कभी दुकानदार दो रुपये की वस्तु का मूल्य तीन-चार रुपये तक बता देता है और यदि उनसे ठीक प्रकार से मोल-भाव न किया जाए तो खरीदार को पर्याप्त नुकसान हो सकता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि छोटी-छोटी बातों पर दुकानदार से व्यर्थ का विवाद किया जाए। कुछ दुकानें ऐसी भी होती हैं, जहाँ वस्तुओं का गलत मूल्य नहीं बताया जाता और अनुभव से खरीदार यह बात जान सकता है।

3. अपव्यय से बचना-मितव्ययिता के लिए आवश्यक है कि हर प्रकार के अपव्यय या फिजूलखर्ची से बचा जाए। यह फिजूलखर्ची वस्तुओं के क्रय से सम्बन्धित भी हो सकती है तथा वस्तुओं या सुविधाओं के अनावश्यक उपभोग से सम्बन्धित भी। घर पर आवश्यकता न होने पर बिजली, पानी तथा ईंधन का प्रयोग नियन्त्रित करना चाहिए। इससे सम्बन्धित बिल कम आते हैं। इसी प्रकार खाद्य-सामग्री या पकवान उतने ही तैयार करने चाहिए जितने कि खाने के काम आ जाएँ। अधिक बनाने से बाद में वे फेंकने पड़ते हैं तथा उनकी लागत व्यर्थ जाती है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 21 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पारिवारिक बजट बनाने के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
पारिवारिक बजट बनाने के उद्देश्य पारिवारिक बजट बनाने के उद्देश्यों को हम निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं –

  • परिवार के सदस्यों की संख्या तथा आमदनी का ज्ञान प्राप्त करना।
  • परिवार के सभी प्रकार के खर्चों का क्रमिक ज्ञान प्राप्त करना।
  • परिवार की आवश्यकताओं और रहन-सहन के स्तर का ध्यान रखना।
  • बजट के खर्चे का इस प्रकार ध्यान रखना आवश्यक है कि आकस्मिक दुर्घटनाओं का सामना आसानी से किया जा सके।
  • गृह-अर्थव्यवस्था में नियमित बचत का प्रावधान रखना।

प्रश्न 2.
टिप्पणी लिखिए-पारिवारिक बजट के प्रकार।
उत्तरः
पारिवारिक बजट के प्रकार –
पारिवारिक बजट के तीन तत्त्व होते हैं-आय, व्यय तथा बचत। इन तत्त्वों के आधार पर पारिवारिक बजट के तीन प्रकार निर्धारित किए जाते हैं। प्रथम प्रकार है –

  • सन्तुलित बजट-इस बजट में पारिवारिक आय के बराबर ही पारिवारिक व्यय का प्रावधान होता है। दूसरा प्रकार है।
  • घाटे का बजट-इस बजट में आय की अपेक्षा अधिक व्यय का प्रावधान होता है तथा तीसरा प्रकार है।
  • बचत का बजट-इस बजट में पारिवारिक आय की तुलना में कम व्यय का प्रावधान होता है। गृह-अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में बचत के बजट को सर्वोत्तम बजट माना जाता है।

प्रश्न 3.
पारिवारिक बचत से क्या आशय है? पारिवारिक बचत के मुख्य लाभों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
बजट में बचत का प्रावधान करना क्यों आवश्यक है?
उत्तरः
पारिवारिक बचत का अर्थ तथा उसके लाभ –
वर्तमान पारिवारिक आय में से परिवार की वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यय करने के उपरान्त जो धनराशि बच जाती है, उसे ‘पारिवारिक बचत’ कहा जाता है। इस प्रकार से की गई बचत को उचित ढंग से विनियोजित कर देने से अधिक लाभ होता है। यही कारण है कि पारिवारिक बजट तैयार करते समय उसमें अनिवार्य रूप से बचत का प्रावधान रखा जाता है। .
नियमित पारिवारिक बचत से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं –

1. भविष्य की विपत्तियों को सहन करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है – मनुष्य को धन जीवन में बीमारी, बेरोजगारी, व्यापारिक हानि, भूचाल, बाढ़ आदि विपत्तियाँ सहन करने की सामर्थ्य प्रदान करता है। इसीलिए नियमित पारिवारिक बचत को आवश्यक माना जाता है।

2. पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाने की योग्यता उत्पन्न होती है – पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाने की योग्यता का आधार बचत ही है। मनुष्य को भविष्य में बच्चों की शिक्षा, विवाह तथा सामाजिक रीति-रिवाजों पर धन व्यय करना पड़ता है, जिनमें बचत विशेष रूप से सहायक होती है।

3. वृद्धावस्था के लिए सुरक्षा – बचत द्वारा एकत्र किया हुआ धन वृद्धावस्था में काम आता है, इसलिए बचत करने पर मनुष्य वृद्धावस्था में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है।

4. आश्रितों के पालन-पोषण की व्यवस्था – बचत करते रहने पर मृत्यु के बाद आश्रित परिवार का भरण-पोषण कुछ समय तक ठीक-ठीक होता रहता है, वे एकदम अनाथ होकर भटकते नहीं फिरते हैं।

5. आय वृद्धि – बचत द्वारा आय में वृद्धि होती है। बचाया हुआ धन किसी को उधार देकर या बैंक में जमा करके ब्याज कमाया जा सकता है, जिससे आय और पूँजी बढ़ती है। इसलिए बचत करना सभी प्रकार से लाभकारी है।

6. सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि – नियमित रूप से की गई बचत परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा की वृद्धि में सहायक होती है। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं, जब परिवार की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए अतिरिक्त व्यय करना पड़ता है। यह व्यय पारिवारिक बचत से ही सम्भव हो पाता है।

7. राष्ट्रीय योजनाओं के संचालन में सहायक – नियमित पारिवारिक बचत न केवल परिवार के लिए आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है वरन् यह राष्ट्रीय प्रगति एवं समृद्धि के दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है। देश के परिवारों द्वारा की गई नियमित अल्प बचतों को राष्ट्रीय बचत योजनाओं में विनियोजित किया जाता है, जिससे सरकार को पर्याप्त धन प्राप्त होता है और उसके द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय परियोजनाओं का संचालन किया जाता है।

प्रश्न 4.
स्पष्ट कीजिए कि स्त्री घर पर रहकर भीगृह-अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बना सकती है।
अथवा
गृह-अर्थव्यवस्था में गृहिणी के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
गृह-अर्थव्यवस्था में गृहिणी का योगदान
आधुनिक युग में विभिन्न परिस्थितियों तथा सुविधाओं के कारण नगरों में अनेक स्त्रियाँ घर के कार्यों के अतिरिक्त घर से बाहर भी अनेक प्रकार के कार्य करने लगी हैं, जिससे उन्हें अतिरिक्त आय प्राप्त होती है, परन्तु कुछ लोग इस बात के विरुद्ध भी हैं। उनका कहना है कि स्त्रियों को घर पर रहकर ही गृह-प्रबन्ध को सुचारु रूप से देखना चाहिए। इस वर्ग के लोगों का विचार है कि उत्तम गृह-प्रबन्ध करके भी स्त्रियाँ पारिवारिक आय को बढ़ाने में सहयोग दे सकती हैं। ऐसी स्थिति में स्त्रियाँ हर वस्तु को सँभालकर व्यय करती हैं तथा किसी वस्तु को नष्ट नहीं होने देतीं।

इसके अतिरिक्त, घर पर रहने वाली स्त्रियाँ घर के सभी कार्य स्वयं कर सकती हैं, जिससे अन्यथा लगाए जाने वाले नौकर या महरी का खर्च बच जाता है। घर से बाहर जाने वाली स्त्रियों को अपने छोटे बच्चों की देखभाल के लिए आया आदि की व्यवस्था करनी पड़ती है। यदि स्त्री घर पर ही है तो यह खर्च भी बच जाता है। यदि स्त्री स्वयं पढ़ी-लिखी है तो वह अपने छोटे बच्चों को स्वयं ही पढ़ा-लिखा सकती है। इससे बच्चों के ट्यूशन आदि पर होने वाला व्यय बच जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्त्री घर पर रहकर भी अच्छे ढंग से गृह-प्रबन्ध एवं व्यवस्था करके पारिवारिक आय को बढ़ाने में कुछ सीमा तक सहयोग दे सकती है। वैसे आज के युग में पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ नौकरी आदि करके ही पारिवारिक आय को बढ़ाने में सहयोग देना अधिक पसन्द करती हैं।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 21 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
गृह-अर्थव्यवस्था से क्या आशय है?
उत्तरः
गृह-अर्थव्यवस्था वह व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत घर-परिवार के आय-व्यय को अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के आधार पर सुनियोजित किया जाता है तथा इस नियोजन के द्वारा परिवार को अधिक-से-अधिक सन्तोष प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 2.
गृह-अर्थव्यवस्था के लिए सर्वाधिक आवश्यक कारक क्या है?
उत्तरः
गृह-अर्थव्यवस्था के लिए सर्वाधिक आवश्यक कारक धन अथवा आय है।

प्रश्न 3.
सुचारु गृह-अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक योगदान परिवार के किस सदस्य का होता है?
उत्तरः
सुचारु गृह-अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक योगदान गृहिणी का होता है।

प्रश्न 4.
उत्तम अथवा सफल गृह-अर्थव्यवस्था की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तरः
उत्तम अथवा सफल गृह-अर्थव्यवस्था की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं –

  1. परिवार के सदस्यों की आवश्यकताओं की प्राथमिकता का निर्धारण तथा
  2. नियमित बचत का प्रावधान।

प्रश्न 5.
स्वरोजगार एवं रोजगार में क्या अन्तर है?
उत्तरः
जब कोई व्यक्ति मुक्त रूप से अपनी योग्यता एवं कुशलता के आधार पर धन उपार्जन के उपाय करता है तो उसे स्वरोजगार कहा जाता है, जैसे प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाला चिकित्सक, लेखक, नक्शानवीस, कलाकार, गायक आदि। इससे भिन्न जब कोई व्यक्ति किसी संस्थान, कार्यालय या औद्योगिक व्यावसायिक केन्द्र के लिए निर्धारित वेतन तथा कार्य सम्बन्धी निर्धारित शर्तों पर कार्य करता है तो उसे रोजगार कहते हैं।

प्रश्न 6.
आय-व्यय को सन्तुलित रखने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तरः
आय-व्यय को सन्तुलित रखने के लिए पारिवारिक बजट बनाना चाहिए तथा उसका पालन करना चाहिए।

प्रश्न 7.
पारिवारिक बजट बनाने का प्रमुख उद्देश्य क्या है?
उत्तरः
पारिवारिक बजट बनाने का प्रमुख उद्देश्य गृह-अर्थव्यवस्था को सुचारु बनाना है।

प्रश्न 8.
परिवार में आय-व्यय का लेखा रखने का लाभ लिखिए।
उत्तरः
परिवार में आय-व्यय का लेखा रखने से परिवार का व्यय नियन्त्रित रहता है तथा गृह-अर्थव्यवस्था नहीं बिगड़ती।

प्रश्न 9.
पारिवारिक बजट की सर्वाधिक उपयोगिता किसके लिए है?
उत्तर
पारिवारिक बजट की सर्वाधिक उपयोगिता गृहिणियों के लिए है।

प्रश्न 10.
पारिवारिक बजट के मुख्य प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तरः
पारिवारिक बजट के मुख्य प्रकार हैं –

  • घाटे का बजट
  • सन्तुलित बजट तथा
  • बचत का बजट।

प्रश्न 11.
किस प्रकार के पारिवारिक बजट को सर्वोत्तम माना जाता है?
उत्तरः
बचत के पारिवारिक बजट को सर्वोत्तम माना जाता है।

प्रश्न 12.
पारिवारिक बजट बनाने में उत्पन्न होने वाली मुख्य बाधाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
पारिवारिक बजट बनाने में उत्पन्न होने वाली मुख्य बाधाएँ हैं –

  • ज्ञान की न्यूनता या अशिक्षा
  • बजट के प्रति उदासीनता तथा
  • विभिन्न सामाजिक प्रचलन एवं प्रथाएँ।

प्रश्न 13.
मितव्ययिता से क्या आशय है?
उत्तरः
मितव्ययिता का अर्थ है अपव्यय से बचना। यह कंजूसी नहीं है।

प्रश्न 14.
पारिवारिक बचत से क्या आशय है?
उत्तरः
वर्तमान पारिवारिक आय में से परिवार की वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यय करने के उपरान्त जो धनराशि बच जाती है, उसे ‘पारिवारिक बचत’ कहा जाता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 21 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए

1. अच्छी अर्थव्यवस्था निर्भर करती है –
(क) कम खर्च अधिक आय पर
(ख) आय के अनुसार बजट बनाकर बचत करते हुए खर्च करने पर
(ग) आय से अधिक खर्च करने पर
(घ) अधिक आय पर।
उत्तरः
(ख) आय के अनुसार बजट बनाकर बचत करते हुए खर्च करने पर।

2. आय का वह भाग, जिसका उपयोग आवश्यकताओं की पूर्ति में होता है, कहलाता है –
(क) आय
(ख) व्यय
(ग) बचत
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तरः
(ख) व्यय।

3. आय का वह भाग, जो वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात् शेष बचता है तथा जिसे –
भविष्य के लिए उत्पादक कार्यों में लगा दिया जाता है, कहलाता है –
(क) नि:संचय
(ख) बचत
(ग) आय
(घ) व्यय।
उत्तरः
(ख) बचत।

4. बचत का मुख्य प्रयोजन है –
(क) भविष्य के आवश्यक एवं आकस्मिक व्यय के लिए
(ख) मनोरंजन के लिए
(ग) विलासात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
(घ) सुख प्राप्ति के लिए।
उत्तरः
(क) भविष्य के आवश्यक एवं आकस्मिक व्यय के लिए।

5. बजट का अर्थ है –
(क) खर्चों की सूची
(ख) आय-व्यय का ब्योरा
(ग) खरीदारी
(घ) बचत।
उत्तरः
(ख) आय-व्यय का ब्योरा।

6. बजट उल्लेख करता है –
(क) परिवार की कुल आय का
(ख) परिवार के कुल व्यय का
(ग) परिवार की कुल बचत का
(घ) उपर्युक्त सभी का।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी का।

7. बजट में निम्नलिखित में से किसके लिए व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए –
(क) पुस्तकें
(ख) त्योहार
(ग) बचत
(घ) मनोरंजन।
उत्तरः
(ग) बचत।

8. पारिवारिक बजट अनावश्यक व्यय को –
(क) प्रोत्साहन देता है
(ख) नियन्त्रित करता है
(ग) सहायता प्रदान करता है
(घ) स्वीकृति प्रदान करता है।
उत्तरः
(ख) नियन्त्रित करता है।

9. आय-व्यय में सन्तुलन बनाए रखने के लिए निम्नलिखित बनाना जरूरी है –
(क) समय-सारणी
(ख) बजट
(ग) मीनू
(घ) चार्ट।
उत्तरः
(ख) बजट।

10. आय-व्यय में सन्तुलन हेतु निम्नलिखित में से कौन-सा साधन उपयुक्त होगा –
(क) वार्षिक बजट
(ख) मासिक बजट
(ग) साप्ताहिक बजट
(घ) दैनिक बजट।
उत्तरः
(ख) मासिक बजट।

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समाजशास्त्र

बाल कल्याण

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UP Board Class 11 Home Science Syllabus & Marking Scheme

सरकारी गजट, उ० प्र० में दिनांक 20 जनवरी, 2018 को प्रकाशित माध्यमिक शिक्षा परिषद्, उ० प्र० द्वारा निर्धारित नवीन संशोधित पाठ्यक्रम

इस विषय में 70 अंकों का एक प्रश्न-पत्र तथा 30 अंकों की प्रयोगात्मक परीक्षा होगी।

उत्तीर्ण होने के लिए लिखित और प्रयोगात्मक परीक्षा में कम-से-कम 23 तथा 10 एवं योग में 33 अंक पाना आवश्यक होगा।

खण्ड ‘क’ शरीर क्रिया विज्ञान तथा स्वास्थ्य रक्षा (35 अंक)

शरीर क्रिया विज्ञान

इकाई-1: जीवित ऊतकों की कोशिकीय बनावट। (2 अंक)

इकाई-2: अस्थिपंजर व पेशी तन्त्र का समरेखीय अध्ययन तथा उनकी सामान्य विकास की अवस्थाएँ। (5 अंक)

इकाई-3: पाचन तथा पोषण- (7 अंक)

  • भोजन प्रणाली का वितरण तथा कार्य, यकृत, तिल्ली तथा आमाशय
  • भोजन के विभिन्न तत्त्व
  • विभिन्न परिस्थितियों जैसे-व्यवसाय, आयु तथा जलवायु के अनुसार शरीर की भोजन सम्बन्धी आवश्यकताएँ
  • पोषण में दुग्ध का विशेष स्थान।

इकाई-4: उत्सर्जन तन्त्र-त्वचा, वृक्क तथा आँत और उनके सामान्य कार्य। (3 अंक)

स्वास्थ्य रक्षा

इकाई-1: स्वास्थ्य रक्षा- (10 अंक)

  • व्यक्तिगत स्वास्थ्य रक्षा; जैसे-त्वचा, दन्त, चक्षु आदि
  • घर की हाईजीन; जैसे—संवाहन व स्वच्छता
  • कूड़ा-करकट तथा व्यर्थ-जल के निकास की व्यवस्था, जल निकास, शौचालय
  • जल सम्भरण, खाद्य सम्भरण।

इकाई-2: व्यक्ति का उत्तरदायित्व। (3 अंक)

इकाई-3: उद्यान, खेल के मैदान, खुले स्थान। (2 अंक)

इकाई-4: विकास तथा क्रियात्मक क्षमता पर व्यायाम का प्रभाव। (3 अंक)

खण्ड ‘ख’ समाजशास्त्र तथा बाल कल्याण

समाजशास्त्र

इकाई-1: मानव आवश्यकताएँ तथा परिस्थितियाँ, जिससे भग्नाशा उत्पन्न होती है। (4 अंक)

इकाई-2: मानव आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के रूप में परिवार। (4 अंक)

इकाई-3: भारतीय परिवार तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य का कर्त्तव्य। (4 अंक)

इकाई-4: बालक/बालिका सम्बन्ध। (3 अंक)

इकाई-5: गृहस्थ परिवार का आय-व्यय लेखा, नित्य क्रय-विक्रय में मिव्ययिता के सिद्धान्त, परिवार सम्भरण के क्रय तथा गृह-खर्च। (3 अंक)

बाल कल्याण

इकाई-1: प्रत्याशित माता की देख-रेख। (3 अंक)

इकाई-2: प्रसवकालीन तैयारियाँ। (4 अंक)

इकाई-3: नवजात शिशु की देखभाल- 0-3 माह, 3-6 माह, 6-9 माह, 9-12 माह, 01-02 वर्ष सामान्य व्याधियाँ। (7 अंक)

इकाई-4: प्रारम्भिक बाल्यावस्था की देखभाल (3-6 वर्ष) चारित्रिक गुण। (3 अंक)

प्रयोगात्मक (30 अंक)

पाक कला- सूखी सब्जी, रसेदार सब्जी, तरकारी का सूप, तली तथा घोटी हुई (Mesh) सब्जी।
अचार- आम का अचार, प्याज, जंभीरी नीबू तथा मिश्रित तरकारी।
मुरब्बा- आँवला, आम, पेठा तथा गाजर।

सिलाई

1. सिलाई की मशीन तथा उसकी यान्त्रिकी की जानकारी जिसमें मशीन में धागा लगाना, तनाव तथा टाँके के नियम तथा मशीन की साधारण खराबियों को दूर करने का व्यावहारिक ज्ञान।
2. सिलाई, काज आदि के व्यावहारिक प्रयोग के मानक बनाकर सिले वस्त्रों की सूक्ष्मताओं तथा परिष्करण का ज्ञान देना।
3. नीचे दिए गए प्रत्येक वर्ग से एक वस्त्र

  • लेडीज कुर्ता या बुशर्ट।
  • सलवार या मर्दानी कमीज।
  • फ्रॉक या पेटीकोट।
  • सनसूट या ब्लाउज।

प्रत्येक छात्रा को फैन्सी टाँकों की कढ़ाई का एक सेट तैयार करना चाहिए जैसे लंच सेट पर अथवा बेड शीट (सिंगल या डबल सुविधानुसार) डचेस सेट टी सेट।

गृह विज्ञान

अधिकतम अंक-30
न्यूनतम अंक-10
समय : 5 घंटा

  1. पाक कला (4 अंक)
  2. सिलाई (4 अंक)
  3. सत्रीय कार्य (4 अंक)
  4. मौखिक कार्य (मौखिक सभी खण्डों से होना अनिवार्य) (3 अंक)
  5. सत्रीय कार्य (सिलाई एवं फाइल रिकॉर्ड) (6 अंक)
  6. पाक कला (सत्रीय पाठ्यक्रम पर आधारित सभी बिन्दु) (6 अंक)
  7. मौखिक कार्य (सभी खण्ड से) (3 अंक)

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