UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. नीचे दिए गए प्रश्नों के सही उत्तर का चयन करें
(i) इनमें से भारत के किस राज्य में बाढ़ अधिक आती है?
(क) बिहार
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) असम
(घ) उत्तर प्रदेश
उत्तर-(ग) असम।

(ii) उत्तराखण्ड के किस जिले में मालपा भू-स्खलन आपदा घटित हुई थी?
(क) बागेश्वर
(ख) चम्पावत
(ग) अल्मोड़ा
(घ) पिथौरागढ़
उत्तर-(घ) पिथौरागढ़।

(iii) इनमें से कौन-से राज्य में सर्दी के महीनों में बाढ़ आती है?
(क) असम
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) केरल
(घ) तमिलनाडु
उत्तर-(घ) तमिलनाडु।।

(iv) इनमें से किस नदी में मजौली नदीय दीप स्थित है?
(क) गंगा
(ख) ब्रह्मपुत्र
(ग) गोदावरी
(घ) सिन्धु
उत्तर-(ख) ब्रह्मपुत्र।

(v) बर्फानी तूफान किस तरह की प्राकृतिक आपदा है?
(क) वायुमण्डलीय
(ख) जलीय ।
(ख) जलीय
(ग) भौमिकी
(घ) जीवमण्डलीय
उत्तर-(क) वायुमण्डलीय।।

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30 से कम शब्दों में दें
(i) संकट किस दशा में आपदा बन जाता है?
उत्तर-संकट उस दशा में आपदा बन जाता है जब वह आकस्मिक उत्पन्न होता है। ऐसी दशा में मनुष्य उसका सामना करने के लिए तैयार नहीं होता तथा इसके नियन्त्रण हेतु भी पूर्व प्रबन्धीय तैयारी नहीं की जाती है।

(ii) हिमालय और भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अधिक भूकम्प क्यों आते हैं?
उत्तर–हिमालय और भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में भूकम्प अधिक आते हैं, क्योंकि भारतीय भू-प्लेट उत्तर तथा पूर्व की ओर खिसक रही है तथा यूरेशियन भू-प्लेट से टकराकर इसमें अधिक ऊर्जा एकत्र हो जाती है। यही ऊर्जा इस क्षेत्र से विवर्तनिकता (हलचल) उत्पन्न कर भूकम्प का कारण बनती है। |

(iii) उष्ण कटिबन्धीय तूफान की उत्पत्ति के लिए कौन-सी परिस्थितियाँ अनुकूल हैं?
उत्तर-उष्ण कटिबन्धीय तूफान की उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों को अनुकूल माना जाता है

  • पर्याप्त एवं सतत उष्ण व आर्द्र वायु की उपलब्धता जिससे बड़ी मात्रा में गुप्त ऊष्मा निर्मुक्त हो।
  • तीव्र कोरियोलिस बल जो केन्द्र के निम्न वायुदाब को भरने न दे।’
  • क्षोभमण्डल में अस्थिरता जिससे स्थानीय स्तर पर निम्न वायुदाब क्षेत्र बन जाते हैं।
  • शक्तिशाली उच्च दाबवेज (Wedge) की अनुपस्थिति, जो आई व गुप्त ऊष्मायुक्त वायु के ऊध्र्वाधर बहाव को अवरुद्ध करे।

(iv) पूर्वी भारत की बाढ़ पश्चिमी भारत की बाढ़ से अलग कैसे होती है?
उत्तर-पूर्वी भारत में बाढ़ प्रतिवर्ष आती है तथा भारी नुकसान पहुँचाती है। पश्चिमी भारत में बाढ़ कभी-कभी और अचानक आती है। पश्चिमी भारत में पंजाब, हरियाणा, गुजरात राज्यों में प्रवाहित होने वाली नदियों के जलस्तर में जब वृद्धि हो जाती है तो बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। राजस्थान में कभी आकस्मिक तीव्र वर्षा के फलस्वरूप बाढ़ आ जाती है।

(v) पश्चिमी और मध्य भारत में सूखे ज्यादा क्यों पड़ते हैं?
उत्तर-पश्चिमी और मध्य भारत जिसमें मुख्यत: राजस्थान का पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश का अधिकांश भाग तथा महाराष्ट्र के पूर्वी भाग आते हैं जो सूखे से अधिक प्रभावित रहते हैं। इस भाग में अत्यधिक कम वर्षा एवं मानसून के समय पर न आने के कारण सूखे की विपत्ति बार-बार उत्पन्न होती रहती है।

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 125 शब्दो में दें
(i) भारत में भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्रों की पहचान करें और इस आपदा के निवारण के कुछ उपाय बताएँ।
उत्तर-भारत में भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्र
भारत में अस्थिर युवा हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएँ, जिसमें उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर तथा असम राज्य, अण्डमान और निकोबार, पश्चिमी घाट, नीलगिरि में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, भूकम्प प्रभावी क्षेत्र और इन भागों में अत्यधिक मानव क्रियाकलापों वाले वे क्षेत्र जहाँ सड़क और बाँध निर्माण अधिक किए गए हैं, भू-स्खलन से अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में सम्मिलित हैं।

आपदा निवारण के उपाय-भू-स्खलन से निपटने के लिए निम्नलिखित उपाय उपयोगी होते हैं-

  1. पर्वतीय क्षेत्रों में तीव्र ढाल वाले भागों को काटकर सड़क निर्माण नहीं किया जाना चाहिए।
  2. इन क्षेत्रों में कृषि कार्य नदी घाटी तथा कम ढाल वाले भागों तक सीमित होना चाहिए तथा बड़ी विकास योजना पर प्रतिबन्ध होना चाहिए।
  3. सकारात्मक कार्य जैसे बृहत् स्तर पर वनीकरण को बढ़ावा और जल प्रवाह को नियन्त्रित करने के | लिए बाँध आदि का निर्माण भू-स्खलन के उपायों के पूरक हैं।
  4. स्थानान्तरी कृषि वाले उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि की जानी चाहिए।

(ii) सुभेद्यता क्या है? सूखे के आधार पर भारत को प्राकृतिक आपदा भेवता क्षेत्रों में विभाजित करें और इसके निवारण के उपाय बताएँ।
उत्तर-सुभेद्यता
सुभेद्यता (Vulnerability) अथवा असुरक्षा किसी व्यक्ति, समुदाय अथवा क्षेत्र को हानि पहुँचाने की वह दशा या स्थिति है जो मानव के नियन्त्रण में नहीं होती है। दूसरे शब्दो में, यह जोखिम की वह सीमा है जिस पर एक व्यक्ति या समुदाय अथवा क्षेत्र प्रभावित होता है। भारत को सूखा के आधार पर निम्नलिखित भेद्यता (प्रभावित क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है|

1. अत्यधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र—इसमें राजस्थान में अरावली के पश्चिम में स्थित मरुस्थली और गुजरात का कच्छ क्षेत्र सम्मिलित है।
2. अधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र-राजस्थान का पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश का अधिकांश क्षेत्र, महाराष्ट्र | के पूर्वी भाग, तेलंगाना तथा आन्ध्र प्रदेश के आन्तरिक भाग, कर्नाटक का पठार, तमिलनाडु के उत्तरी-पूर्वी भाग, झारखण्ड का दक्षिणी भाग और ओडिशा को आन्तरिक भाग अधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र हैं।
3. मध्यम सूखा प्रभावित क्षेत्र-इस वर्ग में राजस्थान के उत्तरी भाग, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के दक्षिणी जिले, गुजरात के शेष भाग, झारखण्ड तथा कोयम्बटूर पठार सम्मिलित हैं (मानचित्र 7.1)।

निवारण के उपाय
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सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण पर सूखे का प्रभावित तात्कालिक एवं दीर्घकालिक होता है। अतः इसके निवारण के उपाय भी तात्कालिक व दीर्घकालिक होते हैं|

1. तात्कालिक उपाय-सुरक्षित पेयजल वितरण, दवाइयाँ, पशुओं के लिए चारे और जल की | उपलब्धता तथा मानव और पशुओं को सुरक्षित स्थान पर पहुँचानी सम्मिलित है। .

2. दीर्घकालिक उपाय–अनेक ऐसी योजनाएँ बनाई जाती हैं जो सूखे की विपत्ति में उपयोगी हों; जैसे—भूमिगत जल भण्डारण का पता लगाना, जल आधिक्य क्षेत्रों से अल्प जल क्षेत्रों में जल पहुँचाना, नदियों को जोड़ना, बाँध व जलाशयों को निर्माण करना, वर्षा जल का संग्रह करना, वनस्पति आवरण का विस्तार करना तथा शुष्क कृषि फसलों के क्षेत्र में विस्तार करना आदि योजनागत उपाय महत्त्वपूर्ण हैं।

(iii) किस स्थिति में विकास कार्य आपदा का कारण बन सकता है?
उत्तर-भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में ही नहीं वरन् अन्य स्थितियों में भी सामाजिक प्रगति और आर्थिक विकास हेतु विभिन्न विकास कार्य अत्यन्त आवश्यक हैं, किन्तु संकटं या आपदाओं की अनदेखी करके विकास कार्यों को करते रहना अत्यन्त घातक एवं मूर्खतापूर्ण निर्णय कहलाता है। इस परिप्रेक्ष्य में कभी-कभी विभिन्न विकास कार्य आपदा का कारण बन जाते हैं। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय हैं

1. मानव द्वारा बाँध आदि का निर्माण जो सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन के लिए किया जाता है। यदि बाँध की ऊँचाई बढ़ाई जाती है तो इसके टूटने से बाढ़ आपदा का संकट उत्पन्न हो सकता है।
2. पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण यद्यपि आवश्यक है, किन्तु तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों को काटकर सड़कें बनाई जाती हैं तथा ढाल के किनारे भूस्खलने अवरोधी दीवारों का निर्माण नहीं किया जाता है तो भू-स्खलन की विपत्ति का सामना करना पड़ सकता है।
3. बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्य आपूर्ति के लिए जंगलों का बेरहमी से विनाश करना तथा अनियोजित तरीके से लगातार भूमि उपयोग करते रहना वन, जल, वन्य-जीव आदि प्राकृतिक
संसाधनों के ह्रास का कारण बन सकता है।
4. तीव्र औद्योगिकीकरण आर्थिक विकास के लिए अविश्यक है, परन्तु इनसे निकलने वाली गैसें; जैसे–CFCs आदि को यदि इसी प्रकार वायुमण्डल में छोड़ा जाता रहा तो वायु-प्रदूषण की
समस्या में वृद्धि होती रहेगी।
5. परमाणु ऊर्जा, जिसे वर्तमान में विकास के लिए आवश्यक समझा जाता है, के उत्पादन में मानवीय | असावधानी के करिणं रूस की वाणु संयन्त्र में दुर्घटनाओं के समान होने वाली घटनाओं में वृद्धि होती रहेगी।

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सामाजिक प्रगति और आर्थिक विकास के लिए विकास कार्य आवश्यक हैं, पर इन्हें प्रारम्भ करने से पूर्व पर्यावरण असन्तुलन का मूल्यांकन तथा आपदा जैसे संकटों को न्यूनतम करने और इनमें वृद्धि न होने के उपायों के लिए योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन करना भी अत्यन्त आवश्यक है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्प प्रलं
प्रश्न 1. प्राकृतिक आपदाएँ होती हैं
(क) जन्तुजनित
(ख) मानवजनित
(ग) वनस्पतिजनित
(घ) प्रकृतिजनित
उत्तर-(घ) प्रकृतिजनित ।

प्रश्न 2. निम्नलिखित में कौन-सी प्राकृतिक आपदा नहीं है?
(क) ज्वालामुखी विस्फोट
(ख) जनसंख्या विस्फोट
(ग) बादल विस्फोट
(घ) चक्रवात
उत्तर-(क) ज्वालामुखी विस्फोट

प्रश्न 3. भू-प्लेटों के खिसकने से क्या होता है।
(क) ज्वालामुखी विस्फोट
(ख) चक्रवात
(ग) बाढ़
(घ) सूखा
उत्तर-(क) ज्वालामुखी विस्फोट

प्रश्न 4. विश्व में सर्वाधिक भूकम्प कहाँ आते हैं?
(क) जापान
(ख) भारत
(ग) इटली
(घ) सिंगापुर
उत्तर-(क) जापान

प्रश्न 5. भू-स्खलन से सबसे अधिक प्रभावित कौन-सा क्षेत्र है?
(क) पहाड़ी प्रदेश
(ख) मैदानी भाग
(ग) पठारी प्रदेश
(घ) ये सभी
उत्तर-(क) पहाड़ी प्रदेश ।

प्रश्न 6. सागरों में भूकम्प के समय उठने वाली लहरों को क्या कहते हैं?
(क) सुनामी
(ख) चक्रवात
(ग) भूस्खलन ।
(घ) ज्वार-भाटा
उत्तर-(क) सुनामी

प्रश्न 7. निम्नलिखित में से कौन-सी प्राकृतिक आपदा नहीं है?
(क) सूखा
(ख) चक्रवात
(ग) रेल दुर्घटना
(घ) सूनामी
उत्तर-(ग) रेल दुर्घटना

प्रश्न 8. निम्नलिखित में से कौन-सी आपदा मानव-निर्मित है?
(क) भू-स्खलन
(ख) भूकम्प
(ग) हरितगृह प्रभाव
(घ) सूनामी लहरें
उत्तर-(ग) हरितगृह प्रभाव

प्रश्न 9. सूनामी है
(क) एक नदी
(ख) एक पवन
(ग) एक पर्वत चोटी।
(घ) एक प्राकृतिक आपदा ।।।
उत्तर-(घ) एक प्राकृतिक अपदा ।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. आपदाओं को ‘सभ्यता का शत्रु क्यों कहा जाता है?
उत्तर–आपदाएँ प्राकृति एवं मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न वह स्थिति है जिससे मनुष्य एवं जीव-जन्तुओं की सामान्य जीवनचर्या में भारी व्यवधान ही उत्पन्न नहीं होता, बल्कि इसके कारण अनेक लोगों की मृत्यु और सम्पत्ति का विनाश भी होता है। कई सभ्यताएँ; जैसे-हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो, बेबीलोन तथा नील नदी घाटी आदि इसी के कारण नष्ट हुई हैं। इसीलिए आपदाओं को सभ्यता का शत्रु कहा जाता है।

प्रश्न 2. आपदाओं की तीव्रता एवं आवृत्ति किन बातों पर निर्भर करती है?
उत्तर–आपदाओं की तीव्रता एवं आवृत्ति वृद्धि की दर पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन पर निर्भर करती है। वर्तमान भोगवादी अर्थव्यवस्था और जनसंख्या तीव्रता के कारण प्राकृतिक संसाधनों के कुप्रबन्धन एवं ह्रास में वृद्धि हुई है, जिसके कारण प्राकृतिक प्रक्रिया तन्त्र में व्यवधान उत्पन्न होने के कारण आपदाओं की तीव्रता एवं आवृत्ति में वृद्धि हुई है।

प्रश्न 3. प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर–प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं के नाम निम्नलिखित हैं(1) भूकम्प, (2) ज्वालामुखी विस्फोट, (3) भू-स्खलन, (4) चक्रवाती तूफान, (5) बादल फटना, (6) बाढ़, (7) सूखा, (8) सुनामी आदि। इन सभी आपदाओं को रोकना असम्भव है किन्तु इनसे होने वाले जान-माल के नुकसान को विशेष , सुरक्षात्मक उपायों द्वारा न्यूनतम अवश्य किया जा सकता है।

प्रश्न 4. चरम घटनाओं से क्या तात्पर्य है।
उत्तर-प्राकृतिक एवं मानवीय कारकों द्वारा जनित सभी दुर्घटनाएँ चरम घटनाएँ कहलाती हैं। चरम घटनाएँ कभी-कभी ही घटित होती हैं। अतः जब प्राकृतिक प्रक्रम या मानवीय अनुक्रियाएँ इतनी त्वरित हों जिसका अनुमान लगाना कठिन हो और मानव समाज पर इसके प्रतिकूल प्रभाव से संकट या विनाश की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो उनको चरम घटनाएँ या आपदा कहा जाता है।

प्रश्न 5. बहिर्जात आपदाएँ कौन-सी होती है? उनके नाम बताइए।
उत्तर–बहिर्जात आपदाओं का सम्बन्ध वायुमण्डल से होता है, इसीलिए इन्हें ‘वायुमण्डलीय आपदाएँ भी कहते हैं। प्रमुख बहिर्जात आपदाओं के नाम इस प्रकार हैं-चक्रवाती तूफान, बादल का फटना, आकाशीय विद्युत का गिरना, तड़ित झंझा, ओलावृष्टि, सूखा, बाढ़, ताप एवं शीत लहर आदि।

प्रश्न 6. मानवजनित आपदाओं को कौन-कौन से वर्गों में विभाजित किया जाता है?
उतर-मानवजनित आपदाओं को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जाता है(1) मानवजनित भौतिक आपदाएँ, (2) मानवजनित रासायनिक आपदाएँ, (3) मानवजनित सामाजिक आपदाएँ, (4) मानवजनित जीवीय आपदाएँ।

प्रश्न 7. विश्व बैंक ने आपदा को किस प्रकार परिभाषित किया है?
उत्तर–विश्व बैंक ने आपदा को निम्नलिखित प्रकार परिभाषित किया है –
“आपदा अल्पावधि की एक असाधारण घटना है, जो देश की अर्थव्यवस्था को गम्भीर रूप से अस्त-व्यस्त कर देती है।”

प्रश्न 8. भू-स्खलन के लिए उत्तरदायी कारक बताइए।
उत्तर-भू-स्खलन के लिए कई प्राकृतिक एवं मानवीय कारक उत्तरदायी होते हैं
प्राकृतिक कारक-भूकम्प, वर्षा की अधिकता, ढालयुक्त कमजोर चट्टानें, पर्वतीय चट्टानों में भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय की अधिकता तथा जलप्रवाह में अवरोध उत्पन्न होना।
मानवीय कारक-वनों का अत्यधिक विनाश, अनियोजित भूमि उपयोग, अकुशल विधियों द्वारा उत्खनन, निर्माण कार्यों हेतु पर्वतों का कटान एवं दोषपूर्ण स्थान का चयन।।

प्रश्न 9. भारत में भू-स्खलन से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर-भू-स्खलन भीषणता के आधार पर भारत के उत्तर-पश्चिमी एवं पूर्वोत्तर पर्वतीय राज्य सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। इन राज्यों में जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखण्ड राज्यों में प्रतिवर्ष भू-स्खलन से सर्वाधिक हानि होती है।

प्रश्न 10. प्रतिरोधक दीवारों का निर्माण किस प्रकार भू-स्खलन रोकने में उपयोगी है?
उत्तर-भू-स्खलन रोकने एवं क्षति को न्यूनतम करने के लिए भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्रों में प्रतिरोधक दीवारों का निर्माण उपयुक्त युक्ति है। इस प्रकार की दीवारें सड़कों के किनारे तीव्र ढाल को रोकने में सहायक होती हैं। इन दीवारों के बनने पर पत्थर एवं मलबा गिरने से रुक जाता है तथा भू-स्खलन से क्षति न्यूनतम हो जाती है और कुछ समय बाद भू-स्खलन की सम्भावना भी नगण्य रह जाती है।

प्रश्न 11. बाढ़ एवं त्वरित बाढ़ में क्या अन्तर है?
उत्तर-बाढ़ को सामान्य अर्थ स्थलीय भाग को निरन्तर कई दिनों तक जलमग्न होना है। वास्तव में बाढ़ प्राकृतिक पर्यावरण की एक विशेषता है, जिसे जलीय चक्र का संघटक माना जाता है; जबकि त्वरित बाढ़ या फ्लैश फ्लड तब उत्पन्न होती है जब तटबन्ध टूट जाते हैं या बैराज से अधिक मात्रा में जल छोड़ दिया जाता है।

प्रश्न 12. बाढ़ आपदा के लिए उत्तरदायी कारक बताइए।
उत्तर-बाढ़ प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों कारकों का परिणाम है। प्राकृतिक कारकों में लम्बी अवधि तक उच्च तीव्रता वाली जलवर्षा, नदियों के घुमावदार मोड़, नदियों की जलधारा में अचानक परिवर्तन, भू-स्खलन आदि उत्तरदायी हैं; जबकि मानवीय कारकों में वनों का विनाश, नगरीकरण एवं अनियोजित भूमि उपयोग महत्त्वपूर्ण कारक हैं।

प्रश्न 13. भारत में बाढ़ से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों के नाम लिखिए।
उत्तर-भारत में पश्चिम बंगाल, असम, बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश सर्वाधिक बाढ़ प्रभावित राज्य हैं। वास्तव में देश की गंगा द्रोणी में बाढ़ का प्रकोप अधिक रहता है। ऐसा अनुमान है कि देश की कुल आपदा की लगभग 60 प्रतिशत हानि केवल गंगा के प्रवाह क्षेत्रों में होती है।

प्रश्न 14. भारत के भीषण सूखा प्रभावित राज्यों के नाम बताइए।
उत्तर-भारत में राजस्थान एवं गुजरात भीषण सूखा प्रभावित राज्यों की श्रेणियों में आते हैं। यहाँ लगभग प्रतिवर्ष कम वर्षा के कारण कहीं-न-कहीं भीषण सूखे का सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 15. भारत में अत्यधिक भूकम्प सम्भावित क्षेत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर-भारत में अत्यधिक भूकम्प सम्भावित क्षेत्र जोन-V के अन्तर्गत आता है। इस क्षेत्र में भारत की हिमालय पर्वतश्रेणी, बिहार में नेपाल का सीमावर्ती क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी उत्तराखण्ड, भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य, कच्छ प्रायद्वीप तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह सम्मिलित हैं।

प्रश्न 16. भूकम्प के दौरान प्रबन्ध की विधियाँ बताइए।
उत्तर-भूकम्प के दौरान निम्नलिखित कार्यविधि अपनाना उचित रहता है(1) भूकम्प आने पर घबराएँ नहीं बल्कि साहस बनाए रखें। (2) आप जहाँ हैं, वहीं रहें, परन्तु दीवारों, छतों और दरवाजों से दूरी बनाए रखें। (3) दरारों, पलस्तर झड़ने आदि पर नजर रखें। यदि ऐसा हो तो सुरक्षित स्थान पर जाने का प्रयास करें। (4) यदि चलती कार में हों तो कार को सड़क के किनारे रोक लें, पुल या सुरंग पार न करें। (5) बिजली का मेनस्विच बन्द कर दें, गैस सिलेण्डर का रेगुलेटर बन्द करके सिलेण्डर को सील कर दें।

प्रश्न 17. सुनामी उत्पन्न होने के तीन महत्त्वपूर्ण कारण बताइए।
उत्तर–सुनामी उत्पन्न होने के तीन महत्त्वपूर्ण कारण हैं-(1) भूकम्प, (2) ज्वालामुखी विस्फोट, (3) भू-स्खलन। जब समुद्र या उनके निकटवर्ती क्षेत्रों में इनमें से किसी भी एक आपदा की आवृत्ति होती है। तो सागरों में सुनामी उत्पन्न हो जाती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. आपदाओं का क्या अर्थ है? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-आपदा प्राकृतिक एवं मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न वह स्थिति है जो व्यापक रूप से मनुष्य एवं अन्य जीव-जन्तुओं की सामान्य जीवनचर्या में भारी व्यवधान डालती है। इसके कारण सम्पत्ति की भारी क्षति ही नहीं होती बल्कि अनेक लोग काल-कवलित भी हो जाते हैं।

प्राचीनकाल में विनाशकारी आपदाओं को प्रकृति के साथ की गई छेड़छाड़ के लिए प्रकृति द्वारा दिया गया दण्ड माना जाता था, किन्तु वर्तमान में इसे एक घटना के रूप में देखा जाता है। यह घटना प्राकृतिक या मानवीय दोनों में से किसी भी कारक द्वारा उत्पन्न हो सकती है। आपदाओं और घटनाओं का निकट का सम्बन्ध है। कभी-कभी इन्हें एक-दूसरे के विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाता है। घटना एक आशंका है तो आपदा दु:खद घटना का एक परिणाम है। विश्व बैंक ने आपदा को इस प्रकार परिभाषित किया है-“आपदा अल्पावधि की एक असाधारण घटना है जो देश की अर्थव्यवस्था को गम्भीर रूप से अस्त-व्यस्त कर देती है।”

प्रश्न 2. आपदाएँ कितने प्रकार की होती हैं। किसी एक प्रकार की आपदा का वर्णन कीजिए।
उत्तर–सामान्यतः आपदाएँ दो प्रकार की होती हैं
(i) प्राकृतिक आपदाएँ तथा (ii) मानवकृत आपदाएँ।
प्राकृतिक आपदाएँ-प्राकृतिक रूप से घटित वे सभी आकस्मिक घटनाएँ जो प्रलयकारी रूप धारण का मानवसहित सम्पूर्ण जैव जगत् के लिए विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर देती हैं, प्राकृतिक आपदाएँ कहलाती हैं। प्राकृतिक आपदाओं को सीधा सम्बन्ध पर्यावरण से है। पर्यावरण की समस्त प्रक्रिया पृथ्वी की अन्तर्जात एवं बहिर्जात शक्तियों द्वारा संचालित होती है। यही वे शक्तियाँ हैं जो पर्यावरण को गतिशील रखती हैं तथा विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक संकट और आपदाओं के लिए उत्तरदायी हैं।

प्रश्न 3. सुनामी लहरों से सुरक्षा के क्या उपाय हैं?
उत्तर–सुनामी लहरों से सुरक्षा के उपाय निम्नलिखित हैं

  1. चेतावनी दिए जाने के बाद क्षेत्र को खाली कर देना चाहिए तथा जोखिम और खतरे से बचने के लिए विशेषज्ञों की सलाह लेना उपयुक्त रहता है।
  2. कमजोर एवं क्षतिग्रस्त मकानों का निरीक्षण करते रहना चाहिए तथा दीवारों और छतों को अवलम्ब देना चाहिए।
  3. वास्तव में, भूकम्प एवं समुद्री लहरों जैसी प्राकृतिक आपदा से बचने का कोई विकल्प नहीं है। सावधानी, जागरूकता और समय-समय पर दी गई चेतावनी ही इसके ब्रचाव का सबसे उपयुक्त उपाय है।
  4. समुद्रतटवर्ती क्षेत्रों में मकान तटों से अधिक दूर और ऊँचे स्थानों पर बनाने चाहिए। मकान बनाने से पूर्व विशेषज्ञों की राय अवश्य लेनी चाहिए।
  5. यदि आप समुद्री लहरों से प्रभावित क्षेत्रों में रहते हैं तो सुनामी लहरों की चेतावनी सुनने पर मकान खाली करके किसी सुरक्षित समुद्र तट से दूर ऊँचे स्थान पर चले जाएँ। यदि आप स्थान छोड़कर जा रहे हैं तो अपने पालतू पशुओं को भी साथ ले जाएँ।
  6. बहुत-सी ऊँची इमारतें यदि मजबूत कंक्रीट से बनी हैं तो खतरे के समय इन इमारतों की ऊपरी मंजिलों को सुरक्षित स्थान के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
  7. खुले समुद्र में सुनामी लहरों की हलचल को पता नहीं चलता। अत: यदि आप समुद्र में किसी नौका या जलयान पर हों और आपने चेतावनी सुनी हो, तब आप बन्दरगाह पर न लौटें क्योंकि इन समुद्री लहरों का सर्वाधिक कहर बन्दरगाहों पर ही होता है। अच्छा रहेगा कि आप समय रहते जलयान को गहरे समुद्र की ओर ले जाएँ।
  8. सुनामी आने के बाद घायल अथवा फँसे हुए लोगों की सहायता से पहले स्वयं को सुरक्षित करते हुए पेशेवर लोगों की सहायता लें और उन्हें आवश्यक सामग्री लाने के लिए कहें।

प्रश्न 4. भूस्खलन के लिए महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर–सामान्यतः भूस्खलन का मुख्य कारण पर्वेतीय ढालों या चट्टानों का कमजोर होना है। चट्टानों के कमजोर होने पर उनमें प्रविष्ट जल चट्टानों को बाँध रखने वाली मिट्टी को ढीला कर देता है। यही ढीली हुई मिट्टी ढाल की ओर भारी दबाव डालती है। इस कारण मलबे के तल के नीचे सूखी चट्टानें ऊपर के भारी और गीले मलबे एवं चट्टानों का भार नहीं सँभाल पातीं, इसलिए वे नीचे की ओर खिसक जाती हैं और भूस्खलन हो जाता है। पहाड़ी ढीलों और चट्टानों के कमजोर होने तथा भूस्खलन को उत्प्रेरित करने वाले मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

  1. भूस्खलन भूकम्पों या अचानक शैलों के खिसकने के कारण होते हैं।
  2. खुदाई या नदी-अपरदन के परिणामस्वरूप ढाल के आधार की ओर भी तेज भूस्खलन हो जाते हैं।
  3. भारी वर्षा या हिमपात के दौरान तीव्र पर्यतीय ढालों पर चट्टानों का बहुत बड़ा भाग जल तत्त्व की अधिकता एवं आधार के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तेजी के साथ विखण्डित होकर गिर जाता है, क्योंकि जल भार के कारण चट्टानें स्थिर नहीं रह सकती हैं; अत: चट्टानों पर दबाव की वृद्धि भूस्खलन का मुख्य कारण होती है।
  4. कभी-कभी भूस्खलन का कारण त्वरित भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी विस्फोट, अनियमित वन कटाई तथा सड़कों का अनियोजित ढंग से निर्माण करना भी होता है।
  5. सड़क एवं भवन बनाने के लिए लोग प्राकृतिक ढलानों को सपाट स्थितियों में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार के परिवर्तनों के परिणामस्वरूप भी पहाड़ी ढालों पर भूस्खलन होने लगते हैं।

प्रश्न 5. भारत के मुख्य भू-स्खलन क्षेत्र बताइए।
उत्तर-भारत के मुख्य भू-स्खलन क्षेत्र निम्नलिखित हैं

1. उत्तरी-पश्चिमी हिमालय क्षेत्र–इस क्षेत्र में भूस्खलन आपदा से सर्वाधिक हानि होती है, अत: इसे उच्च से अति उच्च भूस्खलन क्षेत्र कहा जाता है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड इसी क्षेत्र में सम्मिलित हैं।

2. पूर्वोत्तर पर्वतीय क्षेत्र-भारत के समस्त उत्तर-पूर्वी राज्य इस क्षेत्र में सम्मिलित हैं। यहाँ वर्षा ऋतु में उच्च भीषणता वाले भूस्खलन से जान-माल की अधिक हानि होती है।

3. पश्चिमी घाट तथा नीलगिरि की पहाड़ियाँ-भारत के प्रायद्वीप के पश्चिमी घाट के राज्यों का समुद्रतटीय क्षेत्र जिसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल राज्य तथा तमिलनाडु की नीलगिरि पहाड़ियों का क्षेत्र सम्मिलित है। यहाँ मध्यम से उच्च भीषणता वाला भूस्खलन होता रहता है।

4. पूर्वी घाट–पूर्वी घाट के राज्यों के तटवर्ती क्षेत्र में कभी-कभी सामान्य भूस्खलन की घटनाएँ होती | रहती हैं, जो वर्षा ऋतु में अधिक हानिकारक हो जाती हैं। भीषणता की दृष्टि से यह भारत का निम्न | भूस्खलन क्षेत्र माना जाता है।

5. विन्ध्याचल–यहाँ प्राचीन पहाड़ियों और पठारी भू-भाग वाले क्षेत्र में निम्न भीषणता वाले भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं।

प्रश्न 6. चक्रवात के न्यूनीकरण की मुख्य युक्तियाँ समझाइए।
उत्तर–चक्रवात यद्यपि अत्यन्त विनाशकारी विपत्ति है, किन्तु वर्तमान में भौतिक विकास के साथ-साथ भवन रचनाओं में तकनीकी परिवर्तनों और अन्य शमनकारी रणनीतियों द्वारा इस पर नियन्त्रण तथा क्षति न्यूनीकरण सम्भव है। चक्रवात न्यूनीकरण से सम्बन्धित मुख्य युक्तियाँ निम्नलिखित हैं–

  • चक्रवात सम्भावित क्षेत्रों में समुद्र से निकली भूमि पर नुकीली पत्तियों वाले पेड़ों की हरित पट्टी का विस्तार करनी चाहिए।
  • समुद्रतटीय भाग में विस्तृत भू-भाग पर ऊँचे चबूतरे, तटबन्ध आदि का निर्माण करना चाहिए।
  • तटीय क्षेत्रों में घास-फूस की छतों वाले कच्चे घर बनाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए, बल्कि इनके स्थान पर निश्चित विशेषताओं वाले मकान ही बनाए जाएँ।
  • चक्रवात सम्भावित क्षेत्रों में सरकार को मकान बनाने के लिए समुचित मार्गदर्शन तथा ऋण सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए।
  • सम्भावित क्षेत्रों में विशेष प्रकार के शरैण-स्थल बनवाए जाने चाहिए जिनसे राहत एवं बचाव दल को सुविधा प्राप्त होगी।

प्रश्न 7. 1999 के ओडिशा के भीषण चक्रवात के प्रभाव का एक स्थिति-विषयक अध्ययन कीजिए।
उत्तर–भारत का पूर्वी तटीय क्षेत्र चक्रवाती तूफानों की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील है। यहाँ ओडिशा में चक्रवाती तूफानों द्वारा कई बार भारी क्षति हो चुकी है। ऐसा ही एक भयंकर चक्रवाती तूफान 29 अक्टूबर, 1999 ई० को आया जिसकी गति 260-300 किमी प्रति घण्टा थी। इस तूफाने का प्रभाव केवल समुद्र तटों तक ही सीमित न रहा, बल्कि 250 किमी अन्दर तक इसने क्षति पहुँचाई। 36 घण्टे की अवधि में इस तूफान ने लगभग 200 लाख हेक्टेयर भूमि नष्ट कर दी और अपने पीछे बरबादी के भयावह नजारे छोड़ गया। यह महाचक्रवाती तूफान इतना विस्तृत और विनाशकारी था कि इसने हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया तथा लाखों मकानों को नष्ट कर दिया।

प्रश्न 8. सूखा निवारण के दो महत्त्वपूर्ण उपाय बताइए।
उत्तर-सूखा निवारण के दो महत्त्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैं

1. सूखा प्रभावित क्षेत्रों में वर्षाजल का संग्रह और जल संरक्षण सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है। भारत में वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती है परन्तु वर्षाजल का समुचित उपयोग नहीं किया जाता। जल के अकुशल प्रबन्धन के कारण वर्षा का समस्त जल नदियों में बह जाता है या बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है। अतः वर्षाजल का समुचित संग्रह और प्रबन्धन कर उस जल का उपयोग सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए किया जाना चाहिए।

2. सूखाग्रस्त क्षेत्रों में हरित पट्टी को विस्तार किया जाना चाहिए। हरा-भरा पर्यावरण वातावरण-आर्द्रता के संरक्षण और जलवायु सन्तुलन का सबसे उत्तम माध्यम होता है, जिससे सूखे की समस्या पर नियन्त्रण किया जा सकता है।

प्रश्न 9. आधुनिक काल में प्राकृतिक आपदाओं के स्वरूप में आपको किस प्रकार के परिवर्तन का अनुभव होता है?
उत्तर–आपदाएँ आदि-अनादिकाल से प्रकृति के घटनाक्रम के रूप में प्रकट होती रही हैं। प्राचीनकाल में जनसंख्या अत्यन्त कम थी। दूसरे, प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा के उपायों का ज्ञान भी मनुष्य को नहीं था। आधुनिक काल में जनसंख्या वृद्धि के कारण मनुष्य के प्रकृति-विपरीत कार्यों में वृद्धि हुई है। इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति में भी वृद्धि का अनुभव किया जाता है। इसके अतिरिक्त अंब मनुष्य ने अपने तकनीकी ज्ञान का विकास भी पूर्व की अपेक्षा अधिक कर लिया है। अत: यदि इन उपायों का ठीक से पालन किया जाए तो आपदाओं से होने वाली क्षति को पूर्वकाल की अपेक्षा कम किया जा सकता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. आपदाओं से क्या तात्पर्य है? इनका वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर-आपदा का अर्थ
आपदा प्राकृतिक एवं मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न वह स्थिति है जो व्यापक रूप से मनुष्य एवं अन्य जीव-जन्तुओं की सामान्य जीवनचर्या में भारी व्यवधाम डालती है। इसके कारण सम्पत्ति की भारी क्षति ही नहीं होती, बल्कि अनेक लोग काल-कवलित भी हो जाते हैं। इसीलिए आपदाओं को ‘सभ्यता का शत्रु’ कहा जाता है। कई सभ्यताएँ; जैसे-हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो, बेबोलोन तथा नील नदी घाटी आदि आपदाओं के कारण ही आज इतिहास की विषय-वस्तु बन गई हैं। प्राकृतिक आपदाएँ कभी-कभी इतनी त्वरित या आकस्मिक होती हैं कि इनसे सँभल पाना कठिन हो जाता है। जब इनका प्रभाव विस्तृत या क्षेत्रीय होता है तो समूचा राष्ट्र आक्रान्त हो जाता है। विश्व बैंक के अनुसार, आपदाएँ अल्पावधि की एक असाधारण घटना हैं जो देश की अर्थव्यवस्था को गम्भीर रूप से अस्त-व्यस्त कर देती हैं। अत: आपदाएँ देश की अर्थव्यवस्था को ही नहीं, सामाजिक एवं जैविक विकास की दृष्टि से भी विनाशकारी होती हैं।

आपदा एक अनैच्छिक घटना है जो बाह्य शक्तियों के कारण मनुष्य के नियन्त्रण में नहीं है। आपदा की चेतावनी तुरन्त नहीं मिलती; यह थोड़े समय के बाद मिलती है, तब तक आपदा आ चुकी होती है, बेचाव को समय कम मिलता है जिससे जान एवं सम्पत्ति की व्यापक हानि होती है तथा संकटकालीन परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।

आपदाओं का वर्गीकरण

आपदाओं से शक्ति से निपटने के लिए उनकी पहचान एवं वर्गीकरण को एक प्रभावशाली कदम समझा जाता है। आपदाओं को सामान्यत: दो बृहत् वर्गों-(i) प्राकृतिक एवं (ii) मानवकृत आपदाओं में विभाजित किया जाता है। प्राकृतिक आपदाएँ निम्नलिखित चार प्रकारों में वर्गीकृत की जाती हैं|
1. वायुमण्डलीय-इनके अन्तर्गत बर्फानी तूफान, तड़ित झंझा, टॉरनेडो, उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात, सूखा, पाला, लू तथा शीतलहर को सम्मिलित किया जाता है।
2. भौमिक–इनमें स्थलमण्डलीय आपदाएँ शामिल हैं; जैसे—भूकम्प, भू-स्खलन, ज्वालामुखी, मृदा अपरदन तथा अवतलन आदि।
3. जलीय-जल के कारण उत्पन्न आपदाएँ जलीय प्राकृतिक आपदाएँ कहलाती हैं। इनके अन्तर्गत बाढ़, ज्वार, महासागरीय घटनाएँ तथा सुनामी सम्मिलित हैं।
4. जैविक-पौधों के कीट-पतंगे, फफूद, बैक्टीरिया और वायरल संक्रमण, बर्ड फ्लू, डेंगू, मलेरिया, प्लेग आदि जैविक आपदाएँ हैं।

मानवकृत आपदाओं में वे सभी आपदाएँ आती हैं जो मानव की असावधानी या जानकारी होते हुए लापरवाही भी बरतने के कारण घटित होती हैं। इस प्रकार की आपदाएँ आकस्मिक या दीर्घ अवधि दोनों समयान्तरालों में घटित हो सकती हैं। दुर्घटना, जहरीली गैसों का रिसाव, विभिन्न प्रकार के प्रदूषण, परमाणु विस्फोट, बम विस्फोट, आन्तरिक गृह युद्ध, साम्प्रदायिक दंगे, आतंकवादी वारदात आदि मानवकृत आपदाओं के उदाहरण हैं।

प्रश्न 2. क्या प्राकृतिक आपदाएँ विश्वव्यापी होती हैं? यदि हाँ, तो विश्व स्तर पर इन्हें रोकने के क्या प्रयास हैं?
उत्तर- सामान्यत: प्राकृतिक आपदाएँ विश्वव्यापी होती हैं। ये कहीं भी, कभी भी अपने आगोश में जीवजगत को लेकर क्षतिग्रस्त कर सकती हैं। जिस ढंग से प्रत्येक सामाजिक वर्ग इनसे निपटता है वह अद्वितीय होता है, क्योंकि दो आपदाएँ न तो समान होती हैं और न ही उनमें आपस में तुलना की जा सकती है। अत: विश्व समुदाय आपदाओं से आज भी उतना ही भयभीत एवं आक्रान्त है जितना वह प्राचीन काल में था। वर्तमान में प्राकृतिक आपदाओं के परिणाम, गहनता एवं बारम्बारता और इसके द्वारा किए गए नुकसान बढ़ते जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण मानव जनसंख्या में वृद्धि तो है ही, साथ ही उसका प्रकृति के प्रति शत्रुरूप में व्यवहार एवं पर्यावरण सिद्धान्त के प्रति उदासीन होना भी है। इन विचारों की पुष्टि निम्नांकित सारणी से भी होती है जो गत 60 वर्षों में 12 गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं से विभिन्न देशो में मरने वालों की संख्या को दर्शाती है।

तालिका : विश्व के विभिन्न देशों में गत 60 वर्षों (1948 से 2005)
में प्राकृतिक आपदाओं से हुई मौतें

UP Board Solutions for Class 11Geography Indian Physical Environment Chapter 7 Natural Hazards and Disasters  (प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ) img 2
स्रोत: *यूनाइटेड नेशन्स इन्वारनमेण्टल प्रोग्राम (यू०एन०ई०सी०) 1991.
**राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान की न्यूज़ रिपोर्ट, भारत सरकार, नई दिल्ली। वास्तव में आपदा द्वारा पहुँचाई गई क्षति के परिणाम भू-मण्डलीय प्रतिघाते हैं और अकेले किसी राष्ट्र में इतनी क्षमता नहीं है कि वह इन्हें सहन कर सके। इसलिए 1989 में संयुक्त राष्ट्र सामान्य असेम्बली में इस मुद्दे को उठाया गया था और मई 1994 में जापान के याकोहामा नगर में आपदा प्रबन्ध की विश्व कॉन्फ्रेंस में इसे औपचारिकता प्रदान कर दी गई थी। बाद में इसी प्रयास को योकोहामा रणनीति तथा अधिक सुरक्षित संसार के लिए कार्ययोजना कहा गया।

इसी प्रयास के अन्तर्गत 1990-2000 को आपदा न्यूनीकरण का अन्तर्राष्ट्रीय दशक भी घोषित किया गया।

प्रश्न 3. आपदाओं के न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन के उपायों की एक योजना प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर—यद्यपि आपदाएँ जीव-जन्तुओं के लिए सामान्य रूप से तथा मानव समुदाय के लिए मुख्य रूप से संकटापन्न होती हैं, परन्तु प्राकृतिक संरचनाओं की दृष्टि से प्राकृतिक आपदाएँ कतिपय लाभदायक भी होती हैं; जैसे—बाढ़ द्वारा बाढ़कृत मैदान का निर्माण जिसकी मिट्टी पोषक तत्वों से युक्त होने के कारण अत्यन्त उपजाऊ होती है। ज्वालामुखी विस्फोट से निकलने वाली राख और लावा काली मिट्टी का निर्माण करता है। जो कपास की कृषि के लिए आवश्यक होती है। इसी प्रकार, भू-स्खलन से क्षेत्र में झील का निर्माण तथा भूकम्प के कारण भूमिगत जल के प्रवाह अवरोध से जलभर (Aquifer) (पारगम्य शैल की परत जिसमें जल भरा रहता हो) का निर्माण हो जाता है जो उन क्षेत्रों की जलापूर्ति में सहायक है। इस प्रकार, प्राकृतिक आपदाएँ एक ओर प्रकृति का वरदान हैं तो दूसरी ओर मानव की असावधानी और प्रकृति-विरुद्ध कार्यों में वृद्धि के कारण मानव समुदाय के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप हैं। इसलिए प्राकृतिक और मानवजनित । दोनों ही प्रकार की आपदाएँ जन-धन की क्षति की दृष्टि से अत्यन्त कष्टकारी स्थिति उत्पन्न कर देती हैं। अत: मानव हित में आपदाओं के न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन महत्त्वपूर्ण हैं। प्रबन्ध के लिए निम्नलिखित तीन स्थितियों पर योजना बनाने की आवश्यकता है

1. आपदापूर्व प्रबन्धन योजना-आपदापूर्व प्रबन्धन का अर्थ किसी आपदा या विपत्ति से होने वाले जोखिम को न्यूनतम करने का पूर्व प्रयास है। इसके अन्तर्गत विपत्ति का सामना करने की पूर्ण तैयारी, जनजागरूकता और आपदा न्यूनीकरण के उपायों हेतु योजना बनाई जाती है। पूर्ण तैयारी में आपदा प्रभावित क्षेत्रों की पहचान एवं जोखिम का मूल्यांकन और प्रभाव का पूर्वानुमान लगाया जाता है, फिर इसके आधार पर अन्य तैयारी की रूपरेखा बनाई जाती है। इसमें पूर्व सूचना प्रणाली को विकसित करना, संसाधन प्रबन्धन पर ध्यान देते रहना और सहायता के लिए अभ्यास करते, रहना आवश्यक है।

2. आपदा के समय प्रबन्धन योजना-आपदा के समय प्रबन्धन से यह अभिप्राय है कि आपदा के दौरान प्रभावित क्षेत्रों में पहुँचकर बचाव कार्यों को तत्काल शुरू किया जाए और प्रभावित मानव समुदाय की विभिन्न प्रकार से सहायता की जाए। इस अवधि में मुख्य ध्यान खोज और बचाव तथा राहत सामग्री के उचित रूप से प्रबन्ध एवं वितरण पर दिया जाना आवश्यक है।

3. आपदा के पश्चात् प्रबन्धन योजना-आपदा के पश्चात् पुनर्वास, पुनर्लाभ और विकास कार्यों से सम्बन्धित बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस समय नीति निर्धारकों की अहम् भूमिका होती है। उन्हें वर्तमान में हुई आपदा से क्षतिपूर्ति को पूरा करने के लिए उचित वितरण प्रणाली के साथ-साथ मानक तकनीकों के अनुसार ही विकास कार्यों को पूरा करना चाहिए। इसी अवसर पर आपदापूर्व, प्रबन्धन के अन्तर्गत स्थापित आपात कोष तथा जोखिम स्थानान्तरण संस्थाओं (बीमा कम्पनी) के कार्यों का पूरा उपयोग करते हुए राहत एवं पुनर्वास कार्यों में सहयोग प्रदान करना होता है। अत: आपदा निवारण हेतु आपदा न्यूनीकरण प्रबन्धन को न केवल जीवन के अंग के रूप में बल्कि आवश्यक जीवन रक्षा कौशल के रूप में अपनाकर अपनी और प्रियजनों की सुरक्षा के लिए तत्पर रहना और जनसामान्य को तैयार करना ही सर्वोत्तम उपाय है।।

प्रश्न 4. भूकम्प क्यों आते हैं? भारत में इसके गहनता क्षेत्र बताइए। इस आपदा से होने वाली क्षति | को किस प्रकार न्यूनतम किया जा सकता है?
उत्तर-हमारी पृथ्वी गतिशील सक्रिय ग्रह है। इसकी सबसे ऊपरी सतह क्रस्ट का निर्माण विशाल प्रस्तरीय प्लेटों से हुआ है। विशाल प्रस्तरीय प्लेटें अति प्रत्यास्थ एवं सान्द्र प्रकृति की भीतरी सतह, मैंटिल में उत्पन्न संवहन तरंगों के कारण निरन्तर गतिशल, संघनित एवं प्रसारित होती रहती हैं। इन भू-विवर्तनिकी गतियों के कारण भू-भाग कहीं संकुचित हो जाते हैं तो कहीं परस्पर टकराते हैं और प्रसारित होते हैं, जिससे पृथ्वी पर . कम्पन उत्पन्न होने से भूकम्प आते हैं। अतः भूकम्प का प्रमुख कारण पृथ्वी की प्लेटों का गतिशील होना है। इस गतिशीलता के परिणामस्वरूप भूगर्भीय ऊर्जा का निष्कासन होता है, तभी भूकम्प का अनुभव किया जाता है।

भारत के भूकम्पीय कटिबन्धीय क्षेत्र या वितरण

राष्ट्रीय भू-भौतिकी प्रयोगशाल, भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण, मौसम विज्ञान विभाग तथा कुछ समय पूर्व बने राष्ट्रीय प्रबन्धन संस्थान ने भारत में आए 1,200 भूकम्पों के गहन विश्लेषण के आधार पर देश को निम्नलिखित 5 भूकम्पीय क्षेत्रों (Zones) में बाँटा है

1. अत्यधिक क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-V)-इसमें हिमालय पर्वतश्रेणी, नेपाल, बिहार सीमावर्ती क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी उत्तराखण्ड, देश के उत्तर-पूर्वी राज्य तथा कच्छ प्रायद्वीप और अण्डमान निकोबार द्वीप समूह सम्मिलित हैं।
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2. अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-IV)-इसके अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, . उत्तराखण्ड (उत्तर-पश्चिमी एवं दक्षिणी भाग), उत्तर प्रदेश.एवं बिहार के उत्तरी मैदानी भाग तथा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश सम्मिलित हैं।

3. मध्य क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-II)—इस क्षेत्र का विस्तार उत्तरी प्रायद्वीपीय पठार पर अधिक है।

4. निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-1)-इसमें उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, मध्य प्रदेश का उत्तरी | भाग, पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी ओडिशा तथा प्रायद्वीप के आन्तरिक भाग सम्मिलित हैं।

5. अति निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र (जोन-I)-इसके अन्तर्गत जोन II के अन्तर्गत सम्मिलित क्षेत्र के आन्तरिक भाग सम्मिलित हैं।

भूकम्प आपदा से सुरक्षा के उपाय – भूकम्प आपदा से सुरक्षा के मुख्य उपाय निम्नलिखित हैं

  1. भूकम्परोधी भवनों का निर्माण किया जाए।
  2. जनसामान्य को भूकम्प आपदा की जानकारी प्रदान की जाए तथा सुरक्षात्मक प्रशिक्षण दिया जाए।
  3. भूकम्प के दौरान घर की छत, दीवार, दरवाजे और खिड़कियों से दूर रहा जाए।
  4. यदि आप घर से बाहर हैं तो खुले मैदान में रहने का प्रयास करें।
  5. ऐसे समय पर घबराएँ नहीं, साहस रखें और बिजली के खम्भों एवं ज्वलनशील पदार्थों से दूर रहें।

प्रश्न 5. सुनामी लहरें क्या हैं? सुनामी लहरों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर–प्राकृतिक आपदाओं में समुद्री लहरें अर्थात् सुनामी सबसे अधिक विनाशकारी आपदा है। सुनामी जापानी मूल का शब्द है जो दो शब्दों सु (बन्दरगाह) और ‘नामी’ (लहर) से बना है अर्थात् सुनामी का अर्थ है—बन्दरगाह की ओर आने वाली समुद्री लहरें। इन लहरों की ऊँचाई 15 मीटर या उससे अधिक होती है । और ये तट के आस-पास की बस्तियों को तबाह कर देती हैं। सुनामी लहरों के कहर से पूरे विश्व में हजारों लोगों के काल-कवलित होने की घटनाएँ इतिहास में दर्ज हैं। भारत तथा उसके निकट समुद्री द्वीपीय देश श्रीलंका, थाईलैण्ड, मलेशिया, बांग्लादेश, मालदीव, म्यांमार आदि में 26 दिसम्बर, 2004 को इसी प्रलयकारी सुनामी ने करोड़ों की सम्पत्ति का विनाश कर लाखों लोगों को काल का ग्रास बनाया था।

समुद्री लहरों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य

  1.  सुनामी लहरें अत्यधिक शक्तिशाली होती हैं। इनकी भयावह शक्ति से कई टन वजन की विशाल चट्टान, नौका तथा अन्य प्रकार का मलबा मुख्य भूमि में कई मीटर अन्दर पॅस जाता है।
  2. तटवर्ती मैदानी इलाकों में सुनामी की गति 50 किमी प्रति घण्टा हो सकती है।
  3. कुछ सुनामी लहरों की गति वृहदाकार होती है। तटीय क्षेत्रों में इनकी ऊँचाई 10 से 30 मीटर तक हो सकती है।
  4. समुद्री लहरें एक के बाद एक आती रहती हैं। प्रायः पहली लहर इतनी विशाल नहीं होती। पहली लहर आने के बाद कई घण्टों तक आने वाली लहरों का खतरा बना रहता है। कभी-कभी समुद्री लहरों के कारण समुद्र तट का पानी घट जाता है और समुद्र तल नजर आने लगता है। इसे प्रकृति | की ओर से सुनामी आने की चेतावनी समझना चाहिए।
  5. ये लहरें दिन या रात में कभी भी आ सकती हैं। जलधाराओं या समुद्रों में मिलने वाली नदियों में प्रवेश करने पर सुनामी लहरें उफान पैदा कर देती हैं।
  6. भूकम्प के कारण उत्पन्न समुद्री लहरें कई सौ किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से तट की ओर दौड़ती हैं और भूकम्प आने के कई घण्टों बाद ही तट तक पहुँचती हैं।
  7. गहरे समुद्र में सुनामी लहरों की उत्पत्ति के समय समुद्र में कोई हलचल न होने के कारण ये दिखाई नहीं देतीं। उत्पत्ति के समय इन लहरों की लम्बाई 100 किमी तक होने के बावजूद बीच समुद्र में ये लहरें बहुत ऊँची नहीं उठतीं और कई सौ किमी की रफ्तार से दौड़ती हैं।

सुनामी लहरें अपनी इसी विशाल ऊर्जा के कारण बड़ी तेज रफ्तार से सागर तक पहुँचने में सक्षम होती हैं। इनकी रफ्तार समुद्र की गहराई के साथ बढ़ती जाती है, जबकि उथले सागर में रफ्तार कम होती है। यही कारण है कि समुद्र तट के पास पहुँचने पर सागर की गहराई अचानक कम होने पर लहरों की रफ्तार कम हो जाती है, परन्तु पीछे से तेजी से आती लहरें एक के ऊपर एक सवार होकर लहरों की ऊँची दीवार बना देती हैं। इसी ऊँचाई और ऊर्जा का घातक मेल सागर तटों पर तबाही का कारण बनता है।

प्रश्न 6. सुनामी लहरों की उत्पत्ति क्यों होती है? इनसे प्रभावित क्षेत्र बताइए।
उत्तर-सुनामी लहरों की उत्पत्ति के कारण
विनाशकारी समुद्री लहरों (सुनामी) की उत्पत्ति भूकम्प, भू-स्खलन तथा ज्वालामुखी विस्फोटों का परिणाम है। हाल के वर्षों के किसी बड़े क्षुद्रग्रह (उल्कापात) के समुद्र में गिरने को भी समुद्री लहरों का कारण माना जाता है। वास्तव में, समुद्री लहरें इसी तरह उत्पन्न होती हैं, जैसे तालाब में कंकड़ फेंकने से गोलाकार लहरें किनारों की ओर बढ़ती हैं। मूल रूप से इन लहरों की उत्पत्ति में सागरीय जल का बड़े पैमाने पर विस्थापन ही प्रमुख कारण है। भूकम्प या भू-स्खलन के कारण जब कभी भी सागर की तलहटी में कोई बड़ा परिवर्तन आता है या हलचल होती है तो उसे स्थान देने के लिए उतना ही ज्यादा समुद्री जल अपने स्थान से हट जाता है (विस्थापित हो जाता है) और लहरों के रूप में किनारों की ओर चला जाता है। यही जल ऊर्जा के कारण लहरों में परिवर्तित होकर ‘सुनामी लहरें” कहलाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि समुद्री लहरें सागर में आए बदलाव को सन्तुलित करने का प्राकृतिक प्रयास मात्र हैं।

पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक इन समुद्री लहरों को ‘भूगर्भिक बम’ कहते हैं। सन् 1949 में ला–पाल्का आइलैण्ड के उत्तरी तटीय भाग में एक ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था। यह विस्फोट इतनी तीव्र था कि ज्वालामुखी बीच से ही आधा चिटक गया था, किन्तु यह चिटका हुआ भागे समुद्री में नहीं गिरा था अन्यथा वहाँ भी अकल्पनीय विनाशकारी समुद्री लहरें उत्पन्न हो सकती थीं। अब वैज्ञानिकों का मानना है। कि जब भी यह ज्वालामुखी जाग्रत होगा तब 50 अरब टन का ज्वालामुखी का चिटका हुआ आधा हिस्सा अटलाण्टिक महासागर में गिरकर विनाशकारी समुद्री लहरें उत्पन्न कर देगा। समुद्री लहरों से यद्यपि प्रशान्त महासागर के तटीय भाग सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र हैं, परन्तु अटलाण्टिक एवं हिन्द महासागर में भी तटवर्ती भूकम्प एवं ज्वालामुखी मेखलाओं में सुनामी लहरों को कहर होता रहता है।

सुनामी प्रभावित क्षेत्र ।

यद्यपि विश्व के सभी समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों को सुनामी प्रभावित क्षेत्रों के अन्तर्गत रखा जा सकता है, किन्तु भूकम्प संवेदनशील क्षेत्र सुनामी की दृष्टि से अधिक प्रभावशाली होते हैं। विश्व में प्रशान्त महासागर तटवर्ती क्षेत्र, जहाँ भूकम्प आने की सम्भावनाएँ अधिक विद्यमान हैं, में सुनामी का सर्वाधिक जोर रहता है। यह भाग भूकम्प और ज्वालामुखियों की सर्वप्रमुख मेखलाओं से घिरा है। यहाँ प्रतिवर्ष लगभग दो बार सुनामी का प्रकोप हो जाता है। अत: प्रशान्त महासागरीय तट पर, जिसमें अलास्का, जापान, फिलिपीन्स, दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे द्वीप इण्डोनेशिया और मलेशिया तथा हिन्द महासागर में म्यांमार, श्रीलंका और भारत के तटीय भाग सुनामी प्रभावित मुख्य क्षेत्र हैं।

प्रश्न 7. भू-स्खलन क्या है? इसके लिए उत्तरदायी कारक कौन-कौन से हैं? भारत में इसके प्रभाव
एवं प्रभावित क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-भू-स्खलन का अर्थ, प्रभाव एवं प्रभावित क्षेत्र ।
पर्वतीय ढालों का कोई भाग जब जल तत्त्व भार की अधिकता एवं आधार चट्टानों के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तीव्रता के साथ सम्पूर्ण अथवा विच्छेदित खण्डों के रूप में गिरने लगता है तो यह घटना भू-स्खलन कहलाती है। भू-स्खलन प्रायः तीव्र गति से आकस्मिक उत्पन्न होने वाली प्राकृतिक आपदा है। भौतिक क्षति और जन-हानि इसके दो प्रमुख दुष्प्रभाव हैं। भू-स्खलन अपने मार्ग में आने वाले प्रत्येक पदार्थ-मानव बस्तियों, खेत-खलियान, सड़क आदि सभी को नष्ट कर देता है। भू-स्खलन से नदी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं जिससे नदी के ऊपरी भाग में बाढ़ आ जाती है। कभी-कभी किसी क्षेत्र में बड़ी झील बन जाती है जिसके टूटने पर त्वरित बाढ़ से भारी तबाही होती है। भू-स्खलन मानव समुदाय पर कहर बरसाने वाली प्रकृतिक आपदा है। भारत में इस आपदा का रौद्र रूप हिमालय पर्वतीय प्रदेश एवं पश्चिमी घाट में बरसात के दिनों में अधिक देखा जाता है। वस्तुतः हिमालय प्रदेश युवावलित पर्वतों से बना है, जो विवर्तनिक दृष्टि से अत्यन्त अस्थिर एवं संवेदनशील भू-भाग है। यहाँ की भूगर्भिक संरचना भूकम्पीय तरंगों से प्रभावित होती रहती है। इसलिए यहाँ भू-स्खलन की घटनाएँ अधिक होती रहती हैं।
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भू-स्खलन के लिए उत्तरदायी कारक

भू-स्खलन के लिए कई प्राकृतिक एवं मानवीय कारक उत्तरदायी होते हैं। इन कारकों की गहनता ही भू-स्खलन की तीव्र उत्पत्ति के कारणों को प्रभावी बनाती है। सामान्यतः भू-स्खलन के लिए निम्नलिखित कारक अधिक उत्तरदायी माने जाते हैं—
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प्रश्न 8. उत्तराखण्ड राज्य के भूस्खलन सुभेद्य क्षेत्रों का वर्णन कीजिए तथा इसकी क्षति के न्यूनीकरण की युक्तियाँ बताइए।
उत्तर-उत्तराखण्ड के भूस्खलन सुभेद्य क्षेत्र
उत्तराखण्ड राज्य का भू-स्खलन प्रभावशाली की दृष्टि से विश्व में चौथा स्थान है। यहाँ लगभग 1200 से अधिक गाँवों को भू-स्खलन सुभेद्य क्षेत्र में सम्मिलित किया गया है। हैदराबाद स्थित सुदूर संवेदन संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार इनमें से अधिकांश गाँव ऋषिकेश-बद्रीनाथ-गंगोत्री-केदारनाथ मार्ग पर स्थिति हैं। एन०आर०एस० के लैण्ड हेजार्ड जोनेशन मानचित्र के आधार पर अलकनन्दा घाटी में 137, गंगा-अलकनन्दा घाटी में 24, गंगा-चन्द्रप्रभा घाटी में 25, गंगा घाटी में 21 तथा बेतसुथी नदी के निकट 23 गाँव संवेदनशील हैं। रुद्रप्रयाग-ऊखीमठ-केदारनाथ क्षेत्र के 60 तथा पिथौरागढ़-मालपा मार्ग के 13 गाँव अति संवेदनशील बताए गए हैं। राज्य के आपदा प्रबन्धन एवं न्यूनीकरण केन्द्र के अनुसार भी ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर लगभग 600, रुद्रप्रयाग-ऊखीमठ-केदारनाथ मार्ग पर 200, पिथौरागढ़-मालपा मार्ग पर 150 तथा उत्तरकाशी-गंगोत्री मार्ग पर 275 गाँव भू-स्खलन सुभेद्य क्षेत्र में सम्मिलित हैं।

न्यूनीकरण की युक्तियाँ
भूस्खलन के न्यूनीकरण हेतु निम्नलिखित युक्तियाँ महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती हैं।

1. नियोजित भूमि उपयोग–नियोजित भूमि उपयोग भू-स्खलन न्यूनीकरण की महत्त्वपूर्ण युक्ति है। इसके अन्तर्गत विभिन्न कार्यों के लिए उपयुक्त भूमि का चुनाव सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। यदि मकानों का निर्माण सुरक्षित स्थानों पर किया जाए तथा वनस्पति के लिए निर्धारित अनुपात में भूमि का उपयोग हो तो भू-स्खलन का जोखिम कम हो जाता है।

2. प्रतिधारण दीवारों का निर्माण-भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्रों में सड़कों के किनारे तीव्र ढाल को रोकने के लिए विशेष प्रकार की प्रतिधारण दीवारों का निर्माण किया जाता है। रेल लाइनों के लिए बनाई गई सुरंग तथा मार्ग के किनारे काफी दूर तक इन दीवारों को बनाने से पर्वतीय ढाल से आने वाले मलबे को रोका जा सकता है।

3. स्थलीय जल प्रवाह को नियन्त्रित करना-वर्षा तथा अन्य स्रोतों से बहने वाले जल के निकास की उचित व्यवस्था करने से जल तत्त्व चट्टानों पर अपना दबाव नहीं बनाता है। इसीलिए आधार चट्टानें सुरक्षित रहती हैं, जिससे भू-स्खलन की सम्भावनाओं में कमी आती है।

4. इन्जीनियरी संरचना–कुशल अभियन्ताओं द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर भवनों की संरचनाएँ अधिक टिकाऊ होती हैं। अतः भू-स्खलन सम्भावित क्षेत्रों में कुशल इंजीनियरों के मार्गदर्शन में ही भवनों का निर्माण किया जाना उपयुक्त है।

5. वनस्पति आवरण-भू-स्खलन को नियन्त्रित एवं न्यूनतम करने में वनस्पति आवरण सबसे सरल और सस्ता उपाय है। इसके द्वारा चट्टानों को सुरक्षा कवच प्राप्त होता है तथा चट्टानें जल तत्त्व के प्रभाव से मुक्त रहकर भू-स्खलन से प्रेरित नहीं होती हैं।

प्रश्न 9. बाढ़ तबाही से आप क्या समझते हैं। इसके उत्पन्न होने के क्या कारण हैं? भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-बाढ़ का सामान्य अर्थ स्थलीय भाग का कई दिनों तक जलमग्न होना है। सामान्य तौर पर बाढ़ की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब जल नदी के किनारों के ऊपर प्रवाहित होते हुए विस्तृत क्षेत्र में फैल जाता है। वास्तव में, बाढ़ प्राकृतिक पर्यावरण की एक विशेषता है जिसे जलीय-चक्र का संघटक माना जाता है, किन्तु जब वह लगातार तीव्र गति से कई दिनों तक बनी रहती है तो इसी प्रक्रिया को बाढ़ तबाही या बाढ़ आपदा कहा जाता है।

बाढ़ प्रकोप के कारण

यद्यपि बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है जिसके लिए कई प्राकृतिक कारण उत्तरदायी हैं, किन्तु वर्तमान में उन कारकों को उत्तेजित करने में मानवीय कारकों का विशेष योगदान है। अतः बाढ़ प्राकृतिक एवं मानवजनित कारकों का सम्मिलित परिणाम है। संक्षेप में इन कारणों का वर्णन निम्नांकित है

1. अत्यर्थिक वर्षा-लम्बी अवधि तक घनघोर वर्षा का होना नदियों की बाढ़ के लिए सर्वप्रथम कारक है। नदियों के ऊपरी जल-ग्रहण क्षेत्रों में घनघोर वर्षा के कारण निचले भागों में जल के आयतन में आकस्मिक वृद्धि हो जाती है, जिस कारण नदियों में अपार जलराशि प्रवाहित होकर आस-पास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देती है।

2. पर्यावरण हास-मानव द्वारा प्रकृति के कार्यों में अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण पर्यावरण ह्रास या विनाश की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है, जो बाढ़ का प्रमुख कारण बनता जा रहा है। नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों तथा अन्य सभी भागों में तेजी से वन-विनाश हो रहा है। इसलिए भूमि कटाव अधिक होता है। जो नदियों के तल को ऊँचा कर देता है। अत: वर्षा के समय जल नदी के किनारों से बाहर आकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न कर देता है।

3. भू-स्खलन-पर्वतीय क्षेत्रों में भू-स्खलन होने से नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है तथा बड़े-बड़े जलाशय बन जाते हैं। जब कभी अनाचक जलाशय टूटते हैं या नदी का मार्ग खुलता है तो • प्रलयकारी बाढ़ आ जाती है। इस प्रकार की बाढ़ का वेग इतना तीव्र होता है कि वह बड़ी-से-बड़ी बस्ती का अस्तित्व समाप्त कर देती है। उत्तराखण्ड की गंगा घाटी में 1978 में डबरानी तथा 1992 में गंगवाड़ी में इसी कारण बाढ़ आई थी।

4. बाँध या तटबन्ध का टूटना-कभी-कभी अचानक बाँध या नदी के तटबन्ध टूट जाते हैं जिससे प्रचण्ड बाढ़ आ जाती है। 1984 में पूर्वी कोसी नदी का तटबन्ध टूटने के कारण ही बाढ़ की भयावह स्थिति उत्पन्न हुई थी।

5. नगरीकरण-बढ़ता अनियोजित नगरीकरण मानवजनित बाढ़ आपदा का प्रमुख कारण है। नगरीकरण के परिणामस्वरूप भूमि अभाव के कारण निम्न भूमि क्षेत्रों के उपयोग से बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र

विश्व में बांग्लादेश के बाद भारत सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित देश है। भारत में बिहार, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा असम को प्रतिवर्ष बाढ़ का सामना करना पड़ता है। ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश एवं तेलंगाना, राजस्थान व पंजाब को भी कभी-कभी बाढ़ का सामना करना पड़ता है। पर्यावरण में आए परिवर्तनों के कारण तो राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्रों को विगत कुछ वर्षों से बाढ़ का सामना करना पड़ रहा है। देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

1. प्रमुख बाढ़ प्रभावित क्षेत्र—भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा की द्रोणी, असम में ब्रह्मपुत्र की द्रोणी तथा ओडिशा में वैतरणी, ब्राह्मणी और स्वर्ण रेखा नदियों की द्रोणियाँ भारत के सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्र हैं (चित्र में देखें)। देश की कुल बाढ़ आपदा की लगभग 60% हानि केवल गंगा के जल-प्रवाह क्षेत्रों में होती है। पश्चिम बंगाल, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रतिवर्ष बाढ़ आपदा से सर्वाधिक हानि होती है।
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2. गौण बाढ़ प्रभावित क्षेत्र देश के सामान्य बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और राजस्थान राज्य आते हैं। इन राज्यों में 1976-77 के बीच बाढ़ आपदा में देश की कुल बाढ़ क्षति का आधा हिस्सा थी। 1993 की बाढ़ द्वारा पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में 423 व्यक्तियों की मृत्यु तथा लगभग 20 हजार पशु-सम्पदा क्षतिग्रस्त हो गई थी।

प्रश्न 10. भारत में चक्रवात प्रभावित क्षेत्रों मुंख्य वाओं का उल्लेख कीजिए तथा इस आपदा से सुरक्षा के उपाय बताइए।
उत्तर-भारत में, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश एवं तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्यों के तटीय क्षेत्र चक्रवात प्रभावित क्षेत्र हैं (चित्र)।

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भारत विश्व के उन 6 प्रमुख क्षेत्रों में सम्मिलित है जहाँ प्रतिवर्ष उष्ण कटिबंधीय चक्रवात आते हैं। यद्यपि 1999 के चक्रवात को सुपर साइक्लोन कहा जाता है। इस चक्रवात की गति 250 किमी प्रति घण्टा थी। ओडिशा राज्य में करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हो गई थी तथा हजारों की संख्या में लोग काल के ग्रास बन गए थे, किन्तु भारत के आपदा इतिहास के इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेक विनाशकारी चक्रवाती तूफानों का आगमन होता रहा है। आन्ध्र प्रदेश के समुद्रतटीय भाग पर 9 मई, 1990 को आया चक्रवात, सन् 1977 के विनाशंकारी चक्रवाते की अपेक्षा लगभग 25 गुना अधिक शक्तिशाली था। इसमें 1000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई थी तथा लगभग 30 लाख लोग बेघर हो गए थे। भारत में चक्रवाती तूफानों के कारण मृत व्यक्तियों का ऐतिहासिक परिदृश्य तालिका से स्पष्ट होता है जिसमें 1737 से 1999 तक मानवे क्षति को दर्शाया गया है

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चक्रवाती आपदा से सुरक्षा के महत्त्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैं
1. मजबूत एवं ऊँचे मकानों का निर्माण-चक्रवाती तूफानों से प्रभावित समुद्रतटीय क्षेत्रों में फूस की | छतों वाले या कमजोर मकान बनाने पर प्रतिबन्ध होना चाहिए। इसके स्थान पर निर्धारित मानक वाले तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा सुझाई विधियों के आधार पर ही मकान बनाने की अनुमति होनी चाहिए। इन क्षेत्रों में ऊँचे टीलों या बल्लियों (मचान) पर घर बनानी अधिक सुरक्षित होता है। चक्रवाती तूफानों से तेज गतिं वाली हवाएँ और समुद्री लहरें उठती रहती हैं जिससे तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। अतः आवास-स्थल का चयन अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना अत्यन्त
आवश्यक है। चक्रवात सम्भावित क्षेत्रों में नक्शे के आधार पर ठोस आधार वाली सन्तुलित इमारतें | सर्वाधिक सुरक्षित रहती हैं।

2. चक्रवातरोधी ढाँचों का निर्माण-हवाओं और मूसलाधार वर्षा के वेग को झेल सकने के लिए समुद्रतटीय भागों में चक्रवातरोधी ढाँचों का निर्माण किया जाना चाहिए। ये ढाँचे निर्धन जनता द्वारा नहीं बनाए जा सकते। इसलिए सरकार द्वारा इन्हें बनाने में विशेष आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए।

3. शरणस्थलों का विकास-चक्रवाते सम्भावित क्षेत्रों में सरकार को चक्रवात शरणस्थलों की | व्यवस्था करनी चाहिए। ओडिशा तथा आन्ध्र प्रदेश राज्यों को इस प्रकार के शरणस्थलों के विकास | पर पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता है।

4. विशेष प्रकार के वृक्षों की हरित पटेर्यों का विस्तार-चक्रवातों और पवनों के वेग को कम | करने की सबसे कारगर रणनीति ऐसे विशेष पेड़ लगाए जाना है, जिनकी जड़े मजबूत तथा पत्तियाँ सुई जैसी हों। इन पेड़ों को उखड़ने से बचाने के लिए उनके चारों ओर बाड़े लगाई जानी चाहिए। वृक्षों की ऐसी हरित पट्टियाँ पूरे तटीय क्षेत्र में बनाई जानी चाहिए।

मानचित्र कार्य

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UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 5 Morphology of Flowering Plants 

UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 5 Morphology of Flowering Plants (पुष्पी पादपों की आकारिकी)

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अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
मूल के रूपान्तरण से आप क्या समझते हैं? निम्नलिखित में किस प्रकार का रूपान्तरण पाया जाता है?
(अ) बरगद
(ब) शलजम
(स) मैंग्रोव वृक्ष।
उत्तर :
मूल के रूपान्तरण मूल अथवा जड़ का सामान्य कार्य पौधे को स्थिर रखना और जल एवं खनिज पदार्थों का अवशोषण करना है। इसके अतिरिक्त जड़े कुछ विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के लिए रूपान्तरित हो जाती हैं।

(अ)
बरगद (Banyan Tree) :

इसकी शाखाओं से जड़े निकलकर मिट्टी में धंस जाती हैं। (UPBoardSolutions.com) इन्हें स्तम्भ मूल (prop roots) कहते हैं। ये शाखाओं को सहारा प्रदान करने के अतिरिक्त जल
एवं खनिजों का अवशोषण भी करती हैं। ये अपस्थानिक होती हैं।

(ब)
शलजम (Turnip) :

इसकी मूसला जड़ भोजन संचय के कारण फूलकर कुम्भ रूपी हो जाती है। इसे कुम्भीरूप जड़ (napiform root) कहते हैं।

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(स)
मैंग्रोव वृक्ष (Mangrove Tree) :

ये पौधे लवणोभिद् होते हैं। इनकी कुछ जड़ों के अन्तिम छोर बूंटी की तरह मिट्टी से बाहर निकल आते हैं। इन पर श्वास रन्ध्र पाए जाते हैं। ये जड़े श्वसन में सहायक होती हैं। अतः इन्हें श्वसन मूल कहते हैं; जैसे-राइजोफोरा
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प्रश्न 2.
बाह्य लक्षणों के आधार पर निम्नलिखित कथनों की पुष्टि करें
(i) “पौधे के सभी भूमिगत भाग सदैव मूल नहीं होते हैं।”
(ii) फूल एक रूपान्तरित प्ररोह है।
उत्तर :

(i) पौधे के सभी भूमिगत भाग सदैव मूल नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए
आलू, अरबी आदि। ये तने के रूपान्तरण हैं। ये भूमिगत तना हैं। इन्हें कन्द कहते हैं तथा ये भोजन संचयन का कार्य करते है। ये तना हैं इसकी पुष्टि अग्रवत् की जा सकती है

  1. इन पर आँख (eye) मिलती है जो वस्तुत: कक्षस्थ कलिका की सुरक्षा करती है।
  2.  यदि इसे अंकुरण के लिए रखा जाए तो इस कक्षस्थ कलिका से शाखा निकलती है।
  3. जड़ में कोई पर्व अथवा पर्व सन्धि नहीं होती है; अत: किसी प्रकार का अंकुरण होने के लिए। कक्षस्थ कलिका भी नहीं होती है।

(ii) फूल एक रूपान्तरित प्ररोह है (Flower is a modified shoot) :
पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह (modified shoot) है। पुष्प का पुष्पासन अत्यन्त संघनित अक्षीय तना है। इसमें पर्वसन्धियाँ अत्यधिक पास-पास होती हैं। पर्व स्पष्ट नहीं होते। झुमकलता (Passiflord suberosa) में बाह्यदले तथा दल पुष्पासन के समीप लगे होते हैं, लेकिन पुंकेसर वे अण्डप कुछ ऊपर एक सीधी अक्ष पर होते हैं। इसे पुमंगधर (androphore) कहते हैं। हुरहुर (Gynandropsis) में पुष्प दलपुंज व पुमंग के मध्य पुमंगधर तथा पुमंग एवं जायांग के मध्य जायांगधर (gynophore) पर्व स्पष्ट होता है। कभी-कभी गुलाब के पुष्पासन की वृद्धि नहीं रुकती और पुष्प के ऊपर पत्तियों सहित अक्ष दिखाई देती है।

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बाह्यदल, दल, पुंकेसर, अण्डप, पत्तियों के रूपान्तरण हैं। मुसेन्डा (Mussgenda) में एक बाह्यदल पत्ती सदृश रचना बनाता है। गुलाब में बाह्यदल कभी-कभी पत्ती सदृश रचना प्रदर्शित करते हैं। लिली (UPBoardSolutions.com) (निम्फिया) बाह्यदल एवं दल के मध्य की पत्ती जैसी रचना है। गुलाब, कमल, केना आदि में अनेक पुंकेसर दलों में बदले दिखाई देते हैं। आदिपादपों के पुंकेसर पत्ती समान थे; जैसे-ऑस्ट्रोबेलिया (Austrobaileya) में प्रदर्शित होता है।
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प्रश्न 3. एक पिच्छाकार संयुक्त पत्ती हस्ताकार संयुक्त पत्ती से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर :
पिच्छाकार संयुक्त तथा हस्ताकार संयुक्त पत्ती में अन्तर
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प्रश्न 4.
विभिन्न प्रकार के पर्णविन्यास का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर :
पर्णविन्यास तने या शाखा की पर्वसन्धियों पर पत्तियाँ एक विशिष्ट क्रम में लगी होती हैं। इसे पर्णविन्यास कहते हैं। पर्वसन्धि पर पत्तियों की संख्या एक, दो अथवा दो से अधिक होती है। पर्ण विन्यास निम्नलिखित प्रकार को होता है
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1. एकान्तर (Alternate) :
जब एक पर्वसन्धि पर एक पत्ती होती है तथा अगली और पिछली पर्वसन्धि पर लगी पत्ती से इसकी दिशा विपरीत होती है; जैसे-गुड़हल, सरसों आदि।

2. अभिमुख (Opposite) :
जब एक पर्वसन्धि पर दो पत्तियाँ होती हैं, तब दो प्रकार की स्थिति हो सकती हैं

क) अध्यारोपित (Superposed) :
जब पत्तियों की दिशा प्रत्येक पर्वसन्धि पर एक ही होती है; जैसे—अमरूद।

(ख) क्रॉसित (Decussate) :
जब दो पत्तियों की दिशा प्रत्येक पर्वसन्धि पर पिछली तथा अगली पर्वसन्धि की अपेक्षा समकोण पर होती है; जैसे-आक।

3. चक्रिक (Whorled) :
जब एक पर्वसन्धि पर दो से अधिक पत्तियाँ होती हैं; जैसे—कनेर।
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प्रश्न 5.
निम्नलिखित की परिभाषा लिखिए
(अ) पुष्पदल विन्यास
(ब) बीजाण्डन्यास
(स) त्रिज्यासममिति
(द) एकव्याससममिति
(य) ऊर्ध्ववर्ती
(र) परिजायांगी पुष्प
(ल) दललग्न पुंकेसर।
उत्तर :

(अ) पुष्पदल विन्यास (Aestivation) :
कलिका अवस्था में बाह्यदलों या दलों (sepals or petals) की परस्पर सापेक्ष व्यवस्था को पुष्पदल विन्यास कहते हैं। यह कोरस्पर्शी, व्यावर्तित, कोरछादी या वैक्जीलरी प्रकार का होता है।

(ब) बीजाण्डन्यास (Placentation) :
अण्डाशय में जरायु (placenta) पर बीजाण्डों की व्यवस्था को बीजाण्डन्यास कहते हैं। (UPBoardSolutions.com) बीजाण्डन्यास सीमान्त, स्तम्भीय, भित्तीय, मुक्त स्तम्भीय, आधार-लग्न या धरातलीय प्रकार का होता है।

(स) त्रिज्यासममिति (Actinomorphy) :
जब पुष्प को किसी भी मध्य लम्ब अक्ष से काटने पर दो सम अर्द्ध-भागों में विभक्त किया जा सके तो इसे त्रिज्यासममिति (actinomorphy) कहते

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(द) एकव्याससममिति (Zygomorphy) :
जब पुष्प केवल एक ही मध्य लम्ब अक्ष से दो सम अर्द्ध-भागों में विभक्त किया जा सके तो इसे एकव्याससममिति कहते हैं।
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(य) ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय (Superior Ovary) :
जब पुष्प के अन्य भाग अण्डाशय के नीचे से निकलते हैं तो पुष्प को अधोजाय तथा अण्डाशय को ऊर्ध्ववर्ती (superior) कहते हैं।

(२) परिजायांगी पुष्प (Perigynous Flower) :
यदि पुष्पीय भाग पुष्पासन से अण्डाशय के समान ऊँचाई से निकलते हैं तो इस प्रकार के पुष्प परिजायांगी (perigynous) कहलाते हैं। इसमें अण्डाशय आधा ऊर्ध्ववर्ती (half superior) होता है।

(ल) दललग्न पुंकेसर (Epipetalous Stamens) :
जब पुंकेसर दल से लगे होते हैं तो इन्हें दललग्न (epipetalous) कहते हैं।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में अन्तर लिखिए
(अ) असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम
(ब) झकड़ा जड़ (मूल) तथा अपस्थानिक मूल
(स) वियुक्ताण्डपी तथा युक्ताण्डपी अण्डाशय।
उत्तर :

(अ)
असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम में अन्तर

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(ब)
झकड़ा तथा अपस्थानिक जड़ में अन्तर

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(स)
वियुक्ताण्डपी तथा युक्ताण्डपी अण्डाशय में अन्तर

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प्रश्न 7.
निम्नलिखित के चिह्नित चित्र बनाइए

(अ) चने के बीज तथा
(ब) मक्का के बीज की अनुदैर्घ्य काट
उत्तर :
(अ)
चने के बीज की अनुदैर्ध्य काट

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(ब)
मक्का के बीज की अनुदैर्घ्य काट

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प्रश्न 8.
उचित उदाहरण सहित तने के रूपान्तरणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
तने के रूपान्तरण तने का मुख्य कार्य पत्तियों, पुष्पों एवं फलों को धारण करना; जल एवं खनिज तथा कार्बनिक भोज्य पदार्थों का संवहन करना है। हरा होने पर तना भोजन निर्माण का कार्य भी करता है। तने में थोड़ी मात्रा में भोजन भी संचित रहता है। विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के लिए तने रूपान्तरित हो जाते हैं। कभी-कभी तो रूपान्तरण के पश्चात् तने को पहचानने में भी कठिनाई होती है। सामान्यतया तनों में भोजन संचय, कायिक जनन, बहुवर्षीयता प्राप्त करने हेतु, (UPBoardSolutions.com) आरोहण एवं सुरक्षा हेतु रूपान्तरण होता है।

भूमिगत रूपान्तरित तने भूमिगत तने चार प्रकार के पाए जाते हैं

  1. प्रकन्द
  2. घनकन्द
  3. तना कन्द तथा
  4. शल्क कन्द।

1. प्रकन्द (Rhizome) :
भूमि के अन्दर भूमि के क्षैतिज तल के समानान्तर बढ़ने वाले ये तने भोजन संग्रह करते हैं। इनमें पर्वसन्धि तथा पर्व स्पष्ट देखे जा सकते हैं। अग्रस्थ कलिकाओं के द्वारा इनकी लम्बाई बढ़ती है तथा शाखाएँ कक्षस्थ कलिकाओं के द्वारा। कुछ कलिकाएँ। आवश्यकता पड़ने पर वायवीय प्ररोह का निर्माण करती हैं; जैसे-अदरक, केला, केली, फर्न, हल्दी आदि।
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2. घनकन्द (Corm) :
इनके लक्षण प्रकन्द की तरह होते हैं, किन्तु ये ऊर्ध्वाधर रूप में बढ़ने वाले भूमिगत तने होते हैं। इस प्रकार के तनों में भी पर्वसन्धियाँ तथा पर्व होते हैं। यह भोजन संगृहीत रहता है। कलिकाएँ होती हैं। कक्षस्थ कलिकाएँ विरोहक बनाती हैं। उदाहरण-अरवी, बण्डा, जिमीकन्द इत्यादि।

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3. तना कन्द (Stem Tuber) :
ये भूमिगत शाखाओं के अन्तिम सिरों पर फूल जाने के कारण बनते हैं। इनका आकार अनियमित होता है। कन्द पर पर्व या पर्वसन्धियाँ होती हैं जो अधिक मात्रा में भोजन संग्रह होने के कारण स्पष्ट नहीं होतीं। आलू की सतह पर अनेक आँखें (eyes) होती हैं, जिनमें कलिकाएँ तथा इन्हें ढकने के लिए (UPBoardSolutions.com) शल्क पत्र होते हैं। कलिकाएँ वृद्धि करके नए वायवीय प्ररोह बनाती हैं।
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4. शल्क कन्द (Bulbs) :
इस प्रकार के रूपान्तर में तना छोटा (संक्षिप्त शंक्वाकार या चपटा) होता है। इसके आधारीय भाग से अपस्थानिक जड़े निकलती हैं। इस तने पर उपस्थित अनेक शल्क पत्रों में भोजन संगृहीत हो जाता है। तने के अग्रस्थ सिरे पर उपस्थित कलिका से अनुकूल परिस्थितियों में वायवीय प्ररोह का निर्माण होता है। शल्क पत्रों के कक्ष में कक्षस्थ कलिकाएँ भी बनती हैं। उदाहरण-प्याज (Onion), लहसुन (garlic), लिली (lily) आदि के शल्क कन्द।

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II. अर्द्धवायवीय रूपान्तरित तने
कुछ पौधों के तने कमजोर तथा मुलायम होते हैं। ये पृथ्वी की सतह के ऊपर या आंशिक रूप से मिट्टी के नीचे रेंगकर वृद्धि करते हैं। ये तने कायिक प्रजनन में भाग लेते हैं। इनकी पर्वसन्धियों से अपस्थानिक जड़े निकलकर मिट्टी में फँस जाती हैं। पर्व के नष्ट होने या कट जाने पर नए पौधे बन जाते हैं। ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

  1.  उपरिभूस्तारी (Runner)
  2. भूस्तारी (Stolon)
  3. अन्त:भूस्तारी (Sucker)
  4.  भूस्तारिका (Offset)

1. उपरिभूस्तारी (Runner) :
इसका LEAF तना कमजोर तथा पतला होता है। यह भूमि की सतह पर फैला रहता है है। पर्वसन्धियों से पत्तियाँ, शाखाएँ । तथा अपस्थानिक जड़े निकलती हैं। STEM शाखाओं के शिखर पर शीर्षस्थ कलिका होती है। पत्तियों के कक्ष में कक्षस्थ कलिका होती है; जैसे-दुबघास (Cynodon), खट्टी-बूटी (Oxalis), ब्राह्मी (Centella asiatica) आदि।
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2. भूस्तारी (Stolon) :
इसमें भूमिगत तने की पर्वसन्धि से कक्षस्थ कलिका विकसित होकर शाखा बनाती है। यह शाखा प्रारम्भ में सीधे । ऊपर की ओर वृद्धि करती है, परन्तु बाद में – झुककर क्षैतिज के समानान्तर हो जाती है। इस BUD शाखा की पर्वसन्धि से कक्षस्थ कलिकाएँ तथा अपस्थानिक जड़े निकलती हैं; जैसे—स्ट्रॉबेरी, अरवी (घुइयाँ)।
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3. अन्त:भूस्तारी (Sucker) :
इनमें पौधे के भूमिगत तने की आधारीय पर्वसन्धियों पर स्थित कक्षस्थ कलिकाएँ वृद्धि करके नए वायवीय भाग बनाती हैं। ये प्रारम्भ में क्षैतिज दिशा में वृद्धि करते हैं, फिर तिरछे होकर भूमि से बाहर आ जाते हैं और वायवीय शाखाओं की तरह वृद्धि करने लगते हैं। इनकी पर्व सन्धियों से अपस्थानिक जड़े निकलती हैं; जैसे—पोदीना (Mentha grvensis), गुलदाउदी (Chrysanthemum) आदि।

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4. भूस्तारिका (Offset) :
जलीय पौधों में पाया जाने वाला उपरिभूस्तारी की तरह का रूपान्तरित तना है। मुख्य तने से पाश्र्व शाखाएँ निकलती हैं। पर्वसन्धि पर पत्तियाँ तथा अपस्थानिक जड़े निकल आती हैं। इनके पर्व छोटे होते हैं। गलने या । टूटने से नए पौधे स्वतन्त्र हो जाते हैं। उदाहरण समुद्र सोख (water hyacinth = Etchhornia sp.), जलकुम्भी (Pistic sp.) आदि।
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III. वायवीय रूपान्तरित तने
कुछ पौधों में तने का वायवीय भाग विभिन्न कार्यों के लिए रूपान्तरित हो जाता है। रूपान्तरण के फलस्वरूप (UPBoardSolutions.com) इन्हें तना कहना आसान नहीं होता है। इनकी स्थिति एवं उद्भव के आधार पर ही इनकी पहचान होती है। ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

  1. पर्णाभ स्तम्भ और पर्णाभ-पर्व (Phylloclade and Cladode)
  2.  स्तम्भ-प्रतान (Stem tendril)
  3. स्तम्भ कंटक (Stem thorns)
  4. पत्र प्रकलिकाएँ (Bulbils)

1. पर्णाभ स्तम्भ और पर्णाभ-पर्व (Phylloclade and Cladode) :
शुष्क स्थानों में उगने वाले पौधों में जल के वाष्पोत्सर्जन को कम करने के लिए पत्तियाँ प्रायः कंटकों में रूपान्तरित हो जाती हैं। पौधे का तना चपटा, हरा व मांसल हो जाता है, ताकि पौधे के लिए खाद्य पदार्थों का निर्माण प्रकाश संश्लेषण के द्वारा होता रहे। तने पर प्रायः मोटी उपचर्म (cuticle) होती है
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जो वाष्पोत्सर्जन को रोकने में सहायक होती है। पत्तियों का कार्य करने के कारण इन रूपान्तरित तनों को पर्णाभि या पर्णायित स्तम्भ कहते हैं। प्रत्येक पर्णाभ में पर्वसन्धियाँ तथा पर्व पाए जाते हैं। प्रत्येक पर्वसन्धि से पत्तियाँ निकलती हैं जो शीघ्र ही गिर जाती हैं (शीघ्रपाती) या काँटों में बदल जाती हैं। पत्तियों के कक्ष से पुष्प निकलते हैं। उदाहरण-नागफनी (Opuntia) तथा अन्य अनेक कैक्टाई (cactii), अनेक यूफोर्बिया (Euphorbia sp.), कोकोलोबा (Cocoloba), कैजुएराइना (UPBoardSolutions.com) (Casuarina) आदि। पर्णाभ-पर्व केवल एक ही पर्व के पर्णाभ स्तम्भ हैं। इनके कार्य भी पर्णाभ स्तम्भ की तरह ही होते हैं। उदाहरण—सतावर (Asparagus) में ये सुई की तरह होते हैं। यहाँ पत्ती एक कुश में बदल जाती है। कोकोलोबा की कुछ जातियों में भी इस प्रकार के पर्णाभ-पर्व दिखाई  पड़ते हैं।

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2. स्तम्भ प्रतान (Stem Tendril) :
प्रतान लम्बे, पतले आधार के चारों ओर लिपटने वाली संरचनाएँ हैं। तने के रूपान्तर से बनने वाले प्रतानों को स्तम्भ प्रतान कहते हैं। स्तम्भ प्रतान आधार पर मोटे होते हैं। इन पर पर्व वे पर्वसन्धियाँ हो सकती हैं, कभी-कभी पुष्प भी लगते हैं। ये सामान्यतयः कक्षस्थ कलिका से और कभी-कभी अग्रस्थ कलिकाओं से बनते हैं; जैसे–झुमकलता (Passiflora) में कक्षस्थ कलिका से, किन्तु अंगूर की जातियों (Vitis sp.) में अग्रस्थ कलिका से रूपान्तरित होते हैं। काशीफल (Cucurbita) और इस कुल के अनेक पौधों के प्रतान अतिरिक्त कक्षस्थ कलिकाओं के रूपान्तर से बनते हैं। एण्टीगोनॉन (Antigonon) में तो पुष्पावली वृन्त ही प्रतान बनाता है।
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3. स्तम्भ कंटक (Stem thorns) :
कक्षस्थ या अग्रस्थ कलिकाओं से बने हुए काँटे स्तम्भ कंटक कहलाते हैं। स्तम्भ कंटक सुरक्षा, जल की हानि को रोकने अथवा कभी-कभी आरोहण में सहायता करने हेतु रूपान्तरित संरचनाएँ हैं। कंटक प्रमुखतः मरुद्भिदी पौधों का लक्षण है।
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उदाहरण :

  1. करोंदा, बोगेनविलिया (Bougainvillea)
  2. ड्यूरेण्टा (Durantd)
  3. आडू (Prunus) आदि।

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4. पत्र प्रकलिकाएँ (Bulbils) :
ये कलिकाओं में । भोजन संगृहीत होने से बनती हैं। इनका प्रमुख कार्य कायिक प्रवर्धन है। ये पौधे से अलग होकर अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने पर नया पौधा बना लेती हैं; जैसे—लहसुन, केतकी (Agave), रतालू (Dioscoria), खट्टी-बूटी (Oxalis), अनन्नास आदि।
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प्रश्न 9. 
फेबेसी तथा सोलेनेसी कुल के एक-एक पुष्प को उदाहरण के रूप में लीजिए तथा उनका अर्द्ध तकनीकी विवरण प्रस्तुत कीजिए। अध्ययन के पश्चात् उनके पुष्पीय चित्र भी बनाइए।

उत्तर :

कुल फेबेसी

फेबेसी (Fabaceae) या पैपिलियोनेटी (Papilionatae) लेग्यूमिनोसी कुल का उपकुल है। मटर (पाइसम सेटाइवम-Pisum sativum) इस उपकुल का एक प्रारूपिक उदाहरण है।

आवास एवं स्वभाव (Habit and Habitat) 
यह एकवर्षीय शाक (herb) एवं आरोही, समोभिद् पादप है।

(i) मूल (Root) :
मूसला जड़, ग्रन्थिल (nodulated) जड़े ग्रन्थियों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरम रहते हैं।

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(ii) स्तम्भ (Stem) :
शाकीय, वायवीय, दुर्बल, आरोही, बेलनाकार, शाखामय, चिकना तथा हरा।।

(iii) पत्ती (Leaves) :
स्तम्भिक और शाखीय, एकान्तर, अनुपर्णी (stipulate) अनुपर्ण पर्णाकार, पत्ती के अग्र पर्णक (UPBoardSolutions.com) प्रतान (tendril) में रूपान्तरित।

(iv) पुष्पक्रम (Inflorescence) :
एकल कक्षस्थ (solitary axillary) या असीमाक्षी (racemose)।

(v) पुष्प (Flower) :
सहपत्री (bracteate), सवृन्त, पूर्ण, एकव्याससममित (zygomorphic), उभयलिंगी, पंचतयी, परिजायांगी (perigynous), चक्रिक।

(vi) बाह्यदलपुंज (Calyx) :
बाह्यदल 5, संयुक्त बाह्यदली (gamosepalous), कोरस्पर्शी (valvate) अथवा कोरछादी विन्यास (imbricate aestivation)।
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(vii) दलपुंज (Corolla)  :
दल 5, पृथक्दली, वैज़ीलरी (vexillary) बिन्यास, एक ध्वज (standard) पश्च तथा बाहरी, दो पंख (wings), दो जुड़े छोटे दल नाव के आकार के नौतल (keel), आगस्तिक (papilionaceous) आकृति।
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(viii) पुमंग (Androecium) :
पुंकेसर 10, द्विसंघी (diadelphous), 9 पुंकेसरों के पुंतन्तु संयुक्त वे एक पुंकेसर स्वतन्त्र, द्विकोष्ठी परागकोश, आधारलग्न (basifixed), अन्तर्मुखी (introrse)।

(ix) जायांग (Gynoecium) :
एकअण्डपी’ (monocarpellary), अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती य अर्द्ध-अधोवर्ती, एककोष्ठीये, सीमान्त (marginal) बीजाण्डन्यास, वर्तिका लम्बी तथा मुड़ी हुई, वर्तिकाग्र समुण्ड (capitate)

(x) फल (Fruit) :
शिम्ब या फली (legume)।

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कुल सोलेनेसी

कुल सोलेनेसी (Family solanacea) का सामान्य पौधा सोलेनम नाइग्रम (Solanum nigrum, मकोय) है। (UPBoardSolutions.com) यह एक जंगली शाकीय पौधा है जो स्वत: आलू, टमाटर के खेतों में उग आता है।

आवास एवं स्वभाव (Habit and Habitat) 
जंगली, वार्षिक शाकीय पादप।

(i) मूल (Roots) :
शाखामय मूसला:जड़ तन्त्र।

(ii) स्तम्भ (Stem) :
वायवीय, शाकीय, बेलनाकार, शाखामय, चिकना, हरा।
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(iii) पत्ती (Leaves) :
स्तम्भिक और शाखीय, एकान्तर, सरल, अननुपर्णी (exstipulate) एकशिरीय जालिकावत् (unicostate reticulate)।

(iv) पुष्पक्रम (Inflorescence) :
एकलशाखी कुण्डलिनीय (uniparous helicoid), ससीमाक्षी।

(v) पुष्प (Flower) :
असहपत्री (ebracteate), सवृन्त, पूर्ण, द्विलिंगी, त्रिज्यासममित, पंचतयी (pentamerous), अधोजाय (hypogynous), छोटे एवं सफेद।

(vi) बाह्यदलपुंज (Calyx) :
5 संयुक्त बाह्यदल (gamopetalous), कोरस्पर्शी (valvate), हरे, चिरलग्न (persistent)।

(vii) दलपुंज (Corolla) :
5 संयुक्त दल (gamopetalous), चक्राकार (rotate), या व्यावर्तित (twisted) दलविन्यास।

(viii) पुमंग (Androecium) :
5 दललग्न पुंकेसर, दल के एकान्तर में व्यवस्थित, अन्तर्मुखी, परागकोश लम्बे एवं द्विपालित, पुंतन्तु छोटे। परागवेश्म में स्फुटन अग्र छिद्रों (apical pores) द्वारा।

(ix) जायांग (Gynoecium)  :
द्विअण्डपी (bicarpellary), युक्ताण्डपी (syncarpous), अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior ovary), स्तम्भीय बीजाण्डन्यास (axile placentation), जरायु तिरछा तथा फूला हुआ। वर्तिका एक, वर्तिकाग्र द्विपालित।

(x) फल (Fruit) :
सरस, बेरी।
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प्रश्न 10.
पुष्पी पादपों में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के बीजाण्डन्यासों का वर्णन करो।
उत्तर :
बीजाण्डन्यास अण्डाशय में मृदूतकीय जरायु (placenta) पर बीजाण्डों के लगने के क्रम को बीजाण्डन्यास (placentation) कहते हैं। यह निम्नलिखित प्रकार का होता है

1. सीमान्त (Marginal) :
यह एकअण्डपी अण्डाशय में पाया जाता है। अण्डाशय एककोष्ठीय होता है, बीजाण्ड अक्षीय सन्धि पर विकसित होते हैं; जैसे–चना, मटर, सेम आदि के शिम्बे फलों में।
2. स्तम्भीय (Axile) :
यह द्विअण्डपी, त्रिअण्डपी या बेहुअण्डपी, युक्ताण्डपी अण्डाशय में पाया जाता है। अण्डाशय में जितने (UPBoardSolutions.com) अण्डप होते हैं, उतने ही कोष्ठकों का निर्माण होता है। बीजाण्ड अक्षवर्ती जरायु से लगे रहते हैं; जैसे—आलू, टमाटर, मकोय, गुड़हल आदि में।
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3. भित्तीय (Parietal) :
यह बहअण्ड्यी , एककोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है। इसमें जहाँ अण्डपों के तट मिलते हैं, वहाँ जरायु विकसित हो जाता है। जरायु (बीजाण्डासन) पर बीजाण्ड लगे होते हैं, अर्थात् बीजाण्ड अण्डाशय की भीतरी सतह पर लगे रहते हैं; जैसे—पपीता, सरसों, मूली आदि में।

4. मुक्त स्तम्भीय (Free central) :
यह बहुअण्डपी, एककोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है। इसमें बीजाण्ड केन्द्रीय अक्ष के चारों ओर लगे होते हैं। केन्द्रीय अक्ष का सम्बन्ध अण्डाशय  भित्ति से नहीं होता; जैसे-डायएन्थस, प्रिमरोज आदि।

5. आधारलग्न (Basifixed) :
यह द्विअण्डपी, एककोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है जिसमें केवल एक बीजाण्ड पुष्पाक्ष से लगा रहता है; जैसे-कम्पोजिटी कुल के सदस्यों में।

6. धरातलीय (Superficial) :
यह बहुअण्डपी, बहुकोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है। इसमें बीजाण्डासन या जरायु कोष्ठकों की भीतरी सतह पर विकसित होते हैं, अर्थात् बीजाण्ड कोष्ठकों की भीतरी सतह पर व्यवस्थित रहते हैं; जैसे—कुमुदिनी (water lily) में।

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प्रश्न 11.
पुष्प क्या है? एक प्ररूपी एन्जियोस्पर्म पुष्प के भागों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

पुष्प

एन्जियोस्पर्स में जनन हेतु बनने वाली संरचना वास्तव में रूपान्तरित प्ररोह (modified shoot) है। इसका पुष्पासन संघनित तना है जिसमें पर्व का अभाव होता है, केवल पर्वसन्धियाँ होती हैं। पर्वसन्धियों पर पाई जाने वाली पत्तियाँ रूपान्तरित होकर विभिन्न पुष्पीय भाग बनाती हैं। पुष्प विभिन्न आकार, आकृति, रंग के होते हैं। सरसों के पुष्प के निम्नलिखित भाग होते हैं

  1. बाह्यदलपुंज
  2. दलपुंज
  3. पुमंग
  4. जायांग

बाह्यदलपुंज तथा दलपुंज सहायक अंग और पुमंग तथा जायांग जनन अंग कहलाते हैं। पुष्पीय भाग पुष्पवृन्त के शिखर पर स्थित पुष्पासन पर लगे रहते हैं।

1. बाह्यदलपुंज (Calyx) :
यह पुष्प का सबसे बाहरी चक्र है। इसकी इकाई को बाह्यदल (sepal) कहते हैं। ये प्रायः हरे होते हैं। सरसों के बाह्यदल हरे-पीले रंग के होते हैं। बाह्यदल अन्य पुष्पीय भागों की सुरक्षा करते हैं। भोजन का निर्माण करते हैं। रंगीन होने पर परागण में सहायक होते हैं। चिरलग्न बाह्यदल प्रकीर्णन में सहायता करते हैं।

2. दलपुंज (Corolla) :
यह पुष्प का दूसरा चक्र है। इसका निर्माण रंगीन दलों (petals) से होता है। सरसों में चार पीले रंग के दल होते हैं। इनका ऊपरी सिरा चौड़ा तथा निचला सिरा पतला होता है। ये परस्पर क्रॉस ‘X’ रूपी आकृति बनाते हैं; अत: इनको क्रॉसरूपी (cruciform) कहते हैं। ये एक-दूसरे से स्वतन्त्र अर्थात् (UPBoardSolutions.com) पृथक्दली (polypetalous) होते हैं। दल परागण में सहायक होते हैं।

3. पुमंग (Androecium) :
यह पुष्प का नर जनन अंग है। इसका निर्माण पुंकेसरों (stamens) से होता है। प्रत्येक पुंकेसर के तीन भाग होते हैं-पुंतन्तु, योजि तथा परागकोश (anther)
परागकोश में परागकण या लघुबीजाणु (pollen grains or microspores) बनते हैं। सरसों में 6 पुंकेसर होते हैं। ये 4+2 के चक्रों में व्यवस्थित होते हैं। भीतरी चक्र में 4 लम्बे पुंतन्तु वाले तथा बाहरी चक्र में 2 छोटे पुतन्तु वाले पुंकेसर होते हैं। पुंकेसरों के आधार पर मकरन्द ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।

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4. जायांग (Gynoecium) :
यह पुष्प का मादा जनन अंग है। इसका निर्माण अण्डपों से होता है। प्रत्येक अण्डप (carpel) के तीन भाग होते हैं—अण्डाशय (ovary), वर्तिका (style) तथा वर्तिकाग्र (stigma)। सरसों का जायांग द्विअण्डपी (bicarpellary), युक्ताण्डपी (syncarpous) तथा ऊर्ध्ववर्ती (superior) अण्डाशय युक्त होता है। अण्डाशय में बीजाण्ड भित्तिलग्न बीजाण्डन्यास में लगे होते हैं। अण्डाशय पहले एक कोष्ठीय होता है, बाद में
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कूटपट (replum)
बनने के कारण द्विकोष्ठीय हो जाता है। वर्तिका एक तथा वर्तिकाग्र द्विपालित होता है।
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निषेचन के पश्चात् बीजाण्ड से बीज तथा अण्डाशय से फल का निर्माण होता है। सरसों के फल सरल, शुष्क, सिलिकुआ (siliqua) होते हैं।

प्रश्न 12.
पत्तियों के विभिन्न रूपान्तरण’पौधे की कैसे सहायता करते हैं?
उत्तर :
पत्तियों के रूपान्तरण पत्तियों का प्रमुख कार्य प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन निर्माण करना है। इसके अतिरिक्त वाष्पोत्सर्जन, श्वसन आदि सामान्य कार्य भी पत्तियाँ करती हैं, किन्तु कभी-कभी विशेष कार्य करने के लिए इनका स्वरूप ही बदल जाता है। ये रूपान्तरण सम्पूर्ण पत्ती या पत्ती के किसी भाग या फलक के किसी भाग में होते हैं। उदाहरण के लिए

1. प्रतान (Tendril) :
सम्पूर्ण पत्ती या उसका कोई भाग, लम्बे, कुण्डलित तन्तु की तरह की रचना में बदल जाता है। इसे प्रतान (tendril) कहते हैं। प्रतान दुर्बल पौधों की आरोहण में सहायता करते हैं। जैसे

(क) जंगली मटर (Lathyrus qphaca) में सम्पूर्ण पत्ती प्रतान में बदल जाती है।
(ख) मटर (Pisum sativum) में अगले कुछ पर्णक प्रतान में बदल जाते हैं।
(ग) ग्लोरी लिली (Gloriosa superba) में पर्णफलक का शीर्ष (apex) प्रतान में बदल जाता है।

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इसके अतिरिक्त क्लीमेटिस (Clematis) में पर्णवृन्त तथा चोभचीनी (Smilax) में अनुपर्ण आदि प्रतान में बदल जाते हैं।
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2. कंटक या शूल (Spines) :
वाष्पोत्सर्जन को कम करने और पौधे की सुरक्षा के लिए पत्तियों अथवा उनके कुछ भाग कॉटों में बदल जाते हैं। जैसे

(क)
नागफनी (Opuntia) :

इसमें प्राथमिक पत्तियाँ छोटी तथा शीघ्र गिरने वाली (आशुपाती) होती हैं। कक्षस्थ कलिका से (UPBoardSolutions.com) विकसित होने वाली अविकसित शाखाओं की पत्तियाँ काँटों में बदल जाती हैं।
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(ख)

बारबेरी (barberry) में पर्वसन्धि पर स्थित पत्तियाँ स्पष्टत: काँटों में बदल जाती हैं। इनके कक्ष से निकली शाखाओं पर उपस्थित पत्तियाँ सामान्य होती हैं।
(ग)
बिगनोनिया की एक जाति (Bignonia unguiscati) में पत्तियाँ संयुक्त होती हैं। इनके ऊपरी कुछ पर्णक अंकुश (hooks) में बदल जाते हैं और आरोहण में सहायता करते हैं।

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3. पर्ण घट (Leaf Pitcher) :
कुछ कीटाहारी पौधों में कीटों को पकड़ने के लिए सम्पूर्ण पत्ती प्रमुखतः पर्णफलक एक घट (pitcher) में बदल जाता है; जैसे-नेपेन्थीज (Nepenthes)।
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डिस्कोडिया (Dischidia rufflesigng)
एक उपरिरोही पादप है। इसकी कुछ पत्तियाँ घटों (pitchers) में बदल जाती हैं। इसमें वर्षा का जल तथा अन्य कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ एकत्रित होते रहते हैं। पर्वसन्धि से जड़े निकलकर घट के अन्दर घुस जाती हैं तथा विभिन्न पदार्थों को अवशोषित करती हैं।

4. पर्ण थैली (Leaf bladders) :
कुछ पौधों में पत्तियाँ या इनके कुछ भाग रूपान्तरित होकर थैलियों में बदल जाते हैं। इस प्रकार का अच्छा उदाहरण ब्लैड़रवर्ट या यूट्रीकुलेरिया (Utricularia) है। यह पौधा इन थैलियों के द्वारा कीटों को पकड़ता है। अन्य कीटाहारी पौधों में पत्तियाँ विभिन्न प्रकार से रूपान्तरित होकर कीट को पकड़ती हैं। उदाहरण-ड्रॉसेरा (Drosera), डायोनिया (Dioned), बटरवर्ट या पिन्यूयीक्यूला (Pinguicula) आदि।
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5. पर्णाभ वृन्त (Phyllode) :
इसमें पर्णवृन्त हरा, चपटा तथा पर्णफलक के समान हो जाता है; और पत्ती की तरह भोजन निर्माण का कार्य करता है; जैसे-ऑस्ट्रेलियन बबूल में।

6. शल्कपत्र (Scale Leaves) :
ये शुष्क भूरे रंग की, पर्णहरितरहित, अवृन्त छोटी-छोटी पत्तियाँ होती हैं। ये कक्षस्थ कलिकाओं की सुरक्षा करती हैं; जैसे—अदरक, हल्दी आदि में।

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प्रश्न 13.
पुष्पक्रम की परिभाषा दीजिए। पुष्पी पादपों में विभिन्न प्रकार के पुष्पक्रमों के आधार का वर्णन कीजिए।
उत्तर :

पुष्पक्रम

पुष्पी अक्ष (peduncle) पर पुष्पों के लगने के क्रम को पुष्पक्रम कहते हैं। अनेक पौधों में शाखाओं (UPBoardSolutions.com) पर अकेले पुष्प लगे होते हैं, इन्हें एकल (solitary) पुष्प कहते हैं। ये एकल शीर्षस्थ (solitary terminal) या एकल कक्षस्थ (solitary axillary) होते हैं। पुष्क्क्रम मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं
(क) असीमाक्षी पुष्पक्रम
(ख) ससीमाक्षी पुष्पक्रम

(क)
असीमाक्षी पुष्पक्रम (Racemose Inflorescence) :

इसमें पुष्पी अक्ष (peduncle) की लम्बाई निरन्तर बढ़ती रहती है। पुष्प अग्राभिसारी क्रम (acropetal succession) में निकलते हैं। नीचे के पुष्प बड़े तथा ऊपर के पुष्प क्रमशः छोटे होते हैं। असीमाक्षी पुष्पक्रम निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

(i) असीमाक्ष (Raceme) :
इसमें मुख्य पुष्पी अक्ष पर सवृन्त तथा सहपत्री या असहपत्री पुष्प लगे होते हैं; जैसे—मूली, सरसों, लार्कस्पर आदि में।’

(ii) स्पाइक (Spike) :
इसमें पुष्पी अक्ष पर अवृन्त पुष्प लगते हैं; जैसे–चौलाई. (Amaranthus), चिरचिटा (Achyranthus) आदि में।

(iii) मंजरी (Catkin) :
इसमें पुष्पी अक्ष लम्बा एवं कमजोर होता है। इस पर एकलिंगी तथा पंखुडीविहीन पुष्प लगे होते हैं; जैसे—शहतूत, सेलिक्स आदि में।
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(iv) स्पाइकलेट (Spikelet) :
ये वास्तव में छोटे-छोटे स्पाइक होते हैं। इनमें प्रायः एक से तीन पुष्प लगे होते हैं। आधार पर पुष्प तुष-निपत्रों (glume) से घिरे रहते हैं; जैसे-गेहूँ, जौ, जई आदि में।

(v) स्थूल मंजरी (Spadix) :
इसमें पुष्पी अक्ष गूदेदार होती है इस पर अवृन्त, एकलिंगी पुष्प लगे होते हैं। पुष्पी अक्ष का शिखर बन्ध्य भाग अपेन्डिक्स (appendix) कहलाता है। पुष्पी अक्ष पर नीचे की ओर मादा पुष्प, मध्य में बन्ध्य पुष्प तथा ऊपर की ओर नर पुष्प लगे होते हैं। पुष्प रंगीन निपुत्र (spathe) से ढके रहते हैं; जैसे—केला, ताड़, अरवी आदि में।

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(vi) समशिख (Corymb) :
इसमें मुख्य अक्ष छोटा होता है। नीचे वाले पुष्पों के पुष्पवृन्त लम्बे तथा ऊपर वाले पुष्पों के पुष्पवृन्त क्रमशः छोटे होते हैं। इससे सभी पुष्प लगभग एकसमान ऊँचाई पर स्थित होते हैं; जैसे-कैण्डीटफ्ट, कैसिया आदि में।

(vii) पुष्प छत्र (Umbel) :
इसमें पुष्पी अक्ष बहुत छोटी होती हैं। सभी पुष्प एक ही बिन्द से निकलते प्रतीत होते हैं तथा छत्रकरूपी रचना बनाते हैं। इसमें परिधि की ओर बड़े तथा केन्द्र
की ओर छोटे पुष्प होते हैं; जैसे-धनिया, जीरा, सौंफ, पूनस आदि में।

(viii) मुण्डक (Capitulium) :
इसमें पुष्पी अक्ष एक चपटा आशय होता है। इस पर दो प्रकार के पुष्पक (florets) लगे होते हैं। परिधि की ओर रश्मि पुष्पक (ray florets) तथा केन्द्रक में बिम्ब पुष्पक (disc florets)। सम्पूर्ण पुष्पक्रम एक पुष्प के समान दिखाई देता है; जैसे—सूरजमुखी, गेंदा, जीनिया, डहेलिया आदि।

(ख)
ससीमाक्षी पुष्पक्रम (Cymose Inflorescence) 

इसमें पुष्पी अक्ष की अग्रस्थ कलिका के पुष्प में परिवर्धित हो जाने से वृद्धि रुक जाती है। इससे नीचे स्थित पर्वसन्धियों से पार्श्व शाखाएँ निकलकर पुष्प बनाती हैं। इस कारण पुष्पों के लगने का क्रम तलाभिसारी (basipetal) होता है। इसमें केन्द्रीय पुष्प बड़ा और (UPBoardSolutions.com) पुराना तथा नीचे के पुष्प छोटे और नए होते हैं। ससीमाक्षी पुष्पक्रम अग्रलिखित प्रकार के होते हैं

(i) एकलशाखी ससीमाक्ष (Monochasial Cyme) :
इसमें पुष्पी अक्ष एक पुष्प में समाप्त होती है। पर्वसन्धि से एक बार में केवल एक ही पाश्र्वशाखा उत्पन्न होती है, जिस पर पुष्प बनता है। पार्श्वशाखाएँ दो प्रकार से निकलती हैं

(अ)
जब सभी पार्श्व शाखाएँ एक ही ओर निकलती हैं तो इसे कुण्डलिनी रूप एकलशाखी ससीमाक्ष (helicoid uniparous cyme) कहते हैं; जैसे—मकोय, बिगोनिया आदि में।
(ब)
जब पार्श्व शाखाएँ एकान्तर क्रम में निकलती हैं तो इसे वृश्चिकी एकलशाखी ससीमाक्ष (scorpioid uniparous cyme) कहते हैं। जैसे-हीलियोट्रोपियम, रेननकुलस आदि।

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(ii) युग्मशाखी ससीमाक्ष (Dichasial Cyme) :
इसमें पुष्पी अक्ष के पुष्प में समाप्त होने पर नीचे की पर्वसन्धि से दो पाश्र्वीय शाखाएँ विकसित होकर पुष्प का निर्माण करती हैं; जैसे-डायएन्थस, स्टीलेरिया आदि में।

(iii) बहुशाखी ससीमाक्ष (Polychasial Cyme) :
इसमें पुष्पी अक्ष के पुष्प में समाप्त होने पर नीचे स्थित पर्वसन्धि से एकसाथ अनेक शाखाएँ निकलकर पुष्प का निर्माण करती हैं जैसेहेमीलिया, आक आदि में। (यह छत्रक की भाँति प्रतीत होता है, लेकिन इसका केन्द्रीय पुष्प बड़ा होता है और परिधीय पुष्प छोटे होते हैं)।
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प्रश्न 14.
ऐसे फूल का सूत्र लिखिए जो त्रिज्यासममित, उभयलिंगी, अधोजायांगी, 5 संयुक्त बाह्यदली, 5 मुक्तदली, पाँच मुक्त पुंकेसरी, द्रियुक्ताण्डपी तथा ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय हो।
उत्तर :
उपर्युक्त विशेषताएँ सोलेनेसी कुल के पुष्प की हैं। इसका पुष्पसूत्र निम्नवत् है
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प्रश्न 15.
पुष्पासन पर स्थिति के अनुसार लगे पुष्पी भागों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
पुष्पासन पर पुष्पी भागों का निवेशन पुष्पासन पर बाह्यदल, दल, पुंकेसर तथा अण्डप की स्थिति के आधार पर पुष्प निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं

1. अधोजाय (Hypogynous) :
इसमें जायांग पुष्पासन पर सर्वोच्च स्थान पर स्थित होते हैं, और अन्य अंग नीचे होते हैं। इस प्रकार के पुष्पों में अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior) होते हैं; जैसे-सरसों, गुड़हल, टमाटर आदि।

2. परिजाय (Perigynous) :
इसमें पुष्पासन पर जायांग तथा अन्य पुष्पीय भाग लगभग समान ऊँचाई पर स्थित होते हैं। इसमें अण्डाशय आधा अधोवर्ती या आधी उर्ध्ववर्ती होता है; जैसे-गुलाब, आडू आदि में। इसमें पुष्पासन तथा अण्डाशय संयुक्त नहीं होते।

3. उपरिजाय या अधिजाय (Epigynous) :
इसमें पुष्पासन के किनारे वृद्धि करके अण्डाशय को घेर लेते हैं और अण्डाशय से संलग्न हो जाते हैं। अन्य पुष्पीय भाग अण्डाशय के ऊपर स्थित होते हैं। जैसे-अमरूद, अनार, लौकी आदि में।
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परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फिल्लोक्लेड रूपान्तरण है।
(क) जड़ का
(ख) तने का
(ग) पत्ती का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) तने का

प्रश्न 2.
बहुसंघी दशा सम्बन्धित है।
(क) बाह्य दलपुंज से
(ख) जायांग से
(ग) पुमंग से
(घ) दलपुंज से
उत्तर :
(ग) पुमंग से

प्रश्न 3.
एक पुष्प में विकसित होने वाले फल की प्रकृति में निम्न में से किसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है?
(क) पुमंग
(ख) परागकण
(ग) जायांग
(घ) निषेचन
उत्तर :
(घ) निषेचन

प्रश्न 4.
वर्ग क्लोरोफाइसी का मुख्य संचित खाद्य पदार्थ है।
(क) वसा
(ख) मण्ड
(ग) ग्लाइकोजन
(घ) वोल्युटिन
उत्तर :
(ख) मण्ड

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प्रश्न 5.
मूंगफली किस कुल का पौधा है?
(क) फेबेसी
(ख) क्रूसीफेरी
(ग) मालवेसी
(घ) प्रैमिनी
उत्तर :
(क) फेबेसी

प्रश्न 6.
किस कुल में चतुर्थी पुंकेसर होते हैं?
(क) बैसिकेसी (क्रूसीफेरी)
(ख) मालवेसी
(ग) कम्पोजिटी
(घ) लिलिएसी
उत्तर :
(क) बैसिकेसी (क्रूसीफेरी)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
श्वसन मूल (ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्ती श्वसन मूल तथा पितृस्थ अंकुरण) किन पौधों में पायी जाती है? या उस पादप का नाम लिखिए जिसमें श्वसन मूल पाये जाते हैं।
उत्तर :
श्वसन मूल (pneumatophores) तथा पितृस्थ अंकुरण (viyiparous germination) लवणोभिद् पौधों; जैसे-राइजोफोरा (Rhizophora) में पायी जाती है।

प्रश्न 2.
प्रकन्द तथा घनकन्द में अन्तर बताइए।
उत्तर :
(i) प्रकन्द :
इस प्रकार के तने भूमि के भीतर क्षैतिक दिशा में वृद्धि करते हैं। इसमें भोजन का संचय होता है। इन पर पर्व, पर्वसन्धियाँ तथा शल्कपत्र उपस्थित हो

उदाहरणार्थ :
अदरक

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(ii) घनकन्द :
इनका विकास मिट्टी में उर्ध्वाधर वृद्धि होने से होता है। इनमें मुख्य तने का भाग भोजन संचय के कारण फूल जाता है।

उदाहरणार्थ :
जिमीकन्द।

प्रश्न 3.
पर्णाभवृत (पर्णकाय स्तम्भ) तथा पर्णाभ पर्व में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पर्णकाय स्तम्भ (Phylloclade) एवं पर्णाभ पर्व (Cladode) :
कभी-कभी तना चौड़ा व मांसल हो जाता है और पत्तियों का कार्य करता है, जिसे पर्णकायस्तम्भ (phylloclade) कहते हैं। पर्णकाय स्तम्भ में एक से अधिक पर्व (internodes) तथा पर्वसन्धियाँ (nodes) होती हैं, उदाहरण नागफनी (Opuntia) तथा रसकस (Ruscus) कुछ पौधों

उदाहरण :
ऐस्पैरागस (Asparagus) के तने में केवल एक पर्व होता है इसे पर्णाभि पर्व (cladode) कहते हैं।

प्रश्न 4.
तुलसी के पौधे में किस प्रकार का पुष्पक्रम पाया जाता है?
उत्तर :
कूटचक्रकं (verticellaster)।

प्रश्न 5.
हाइपेन्थोडियम पुष्पक्रम किस पौधे में पाया जाता है?
उत्तर :
गूलर, बरगद, पीपल आदि पौधों में हाइपेन्थोडियम पुष्पक्रम पाया जाता है।

प्रश्न 6.
एकसंघीय तथा एककोष्ठकीय पुंकेसर किस कुल का गुण है ?
उत्तर :
मालवेसी (Mahvaceae) कुल में पुंकेसर एकसंघीय तथा एककोष्ठकीय (monothecous) होते

प्रश्न 7.
हेस्पीरिडियम फल के दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर :
सन्तरा, नींबू आदि।

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प्रश्न 8.
पुंजफल पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
ये फल दो या दो से अधिक अण्डप वाले वियुक्ताण्डपी (apocarpous) अण्डाशय से विकसित होते हैं। इस प्रकार एक पुष्प के स्थान समूह में एक से अधिक फल होते हैं। ये फल कई प्रकार के हो सकते हैं; जैसे

  1.  एकीनों का पुंज (etaerio of achenes)-क्लीमेटिस आदि।
  2.  फॉलिकल का पुंज (etaero of follicles) (UPBoardSolutions.com) -चम्पा आदि।
  3. अष्ठिफलों का पुंज (etaerio of drupes)-रैस्पबेरी आदि।
  4.  भरियों का पुंज (etaerio of beries)-शरीफा आदि।

प्रश्न 9.
लीची के फल का कौन-सा भाग खाने योग्य है?
उत्तर :
एरिल (aril)।

प्रश्न 10.
सबसे छोटे बीज पैदा करने वाले पौधे का नाम बताइए।
उत्तर :
ऑर्किड (orchids)।

प्रश्न 11.
उस कुल का नाम लिखिए जिसमें एकलिंगी, अपूर्ण पुष्प तथा पीपो प्रकार के फल पाये जाते हैं।
उत्तर :
कुकुरबिटेसी।

प्रश्न 12.
उस पौधे का वानस्पतिक नाम तथा कुल लिखिए जिससे लाल मिर्च प्राप्त होती है।
उत्तर :
लाल मिर्च-कैप्सिकम एनम (Capsicum annum) कुल–सोलेनेसी (Solanaceae)।

प्रश्न 13.
तिरछे अण्डप किस कुल में पाये जाते हैं?
उत्तर :
तिरछे अण्डप सोलेनेसी कुल में पाये जाते हैं।

प्रश्न 14.
सोलेनेसी कुल का पुष्पसूत्र एवं पुष्प आरेख दीजिए। 
उत्तर :
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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘विलगन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
विलगन (abscission) एक जैविक क्रिया है। यह पत्ती के आधारीय भाग अर्थात् पर्णवृन्त (petiole) के आधार की कुछ कोशिकाओं में विशेष परिवर्तन के फलस्वरूप होती है। संयुक्त पत्तियों में यह क्रिया प्रत्येक पर्णक के आधार पर भी हो सकती है। इन क्षेत्रों में निश्चित स्थान की कोशिकाओं की मध्य पटलिकाएँ और बाहरी भित्तियाँ, श्लेष्मक (mucilage) बना लेती हैं, क्योंकि इनका कैल्सियम पेक्टेट, पेक्टिन (pectin) में बदल जाता है। इस परिवर्तन के कारण (UPBoardSolutions.com) ये कोशिकाएँ एक-दूसरे से अलग होने लगती हैं। ऐसी कोशिकाओं का क्षेत्र दो-तीन कोशिका मोटा ही होता है और विलगन परत (abscission layer) कहलाता है। ऐसी अवस्था में इस क्षेत्र की जाइलम वाहिका आदि में, टाइलोसेस (tyloses) आदि बन जाने से वे सँध जाती हैं। इनमें अन्य पदार्थ; जैसे-रेजिन (resin) आदि भीं एकत्र हो जाते हैं। विलगन परत से कुछ नीचे की कोशिकाएँ विभज्योतकी होकर कॉर्क कोशिकाओं का निर्माण करती हैं जो बहुधा पत्ती के गिर जाने के कुछ पहले ही बनना प्रारम्भ हो जाती हैं। यह स्तर रक्षात्मक स्तर का कार्य करता है।

इस प्रकार पूरे क्षेत्र को विलगन क्षेत्र (abscission zone) कहते हैं। पत्ती विलगन परत के बन जाने के बाद केवल संवहन ऊतक, शिरा (vein) इत्यादि से ही लगी रह जाती है और अपने भार अथवा हवा के झोंके से गिर जाती है। पत्ती के गिर जाने के बाद अधिक कॉर्क कोशिकाएँ बनती हैं जो बाद में तने के इसी स्तर के साथ सम्बन्धित हो जाती हैं। तने पर पत्ती के गिरने के स्थान पर जो कॉर्क आदि की परत बनती है वह एक दाग के रूप में दिखायी देती है। इसे पर्ण दाग (leaf scar) कहते हैं।

प्रश्न 2.
द्विबीजपत्री पत्ती की अनुप्रस्थ काट का नामांकित चित्र बनाइए। 
उत्तर :
द्विबीजपत्री पत्ती की अनुप्रस्थ काट
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प्रश्न 3.
निम्नलिखित फलों के खाने योग्य भागों की आकारिकीय प्रकृति बताइए सेब, अमरूद, काजू, कटहल, आम, शहतूत, नारियल, लीची, टमाटर, खीरा।
उत्तर :
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प्रश्न 4.
औषधीय पौधों का मानव जीवन में क्या महत्त्व है? संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्राचीनकाल से ही मानव रोगों का इलाज पौधों से करता आ रहा है। वर्तमान में भी अनेक रोग ऐसे हैं जिनका इलाज सफलतापूर्वक पौधों से किया जा रहा है। कुछ औषधीय पौधों और उनकी उपयोगिता का वर्णन निम्नवत् है

  1. सर्पगंधा—इसका उपयोग उच्च रक्तचाप, साँप के काटने तथा मानसिक रोगों में दवाई के रूप में किया जाता है।
  2. अफीम—इसका उपयोग दर्द-निवारक के रूप में किया जाता है।
  3. कुनैन–इसका उपयोग मलेरिया रोग के रूप में किया जाता है।
  4. बैलाडोना-इसका उपयोग दर्द-निवारक के रूप में किया जाता है।
  5. धतूरा—इसका उपयोग बालों को साफ रखने व गले के रोगों में किया जाता है।
  6. आँवला-इसका उपयोग मूत्रे अधिक लाने के लिए, पेट साफ करने के लिए, रक्तस्राव में तथा खून के दस्त में किया जाता है। यह विटामिन ‘सी’ का भी अच्छा स्रोत है।
  7.  कुचला—इसका उपयोग लकवा व मस्तिष्क के रोगों के निवारण में किया जाता है।
  8. आर्टिमिसिया–इसका उपयोग आँत में उपस्थित परजीवी को मारने में किया जाता है।
  9. इफेड़ा-इसका उपयोग खाँसी के उपचार में किया जाता है। उपर्युक्त के अतिरिक्त और भी अनेक (UPBoardSolutions.com) औषधीय पौधे हैं जिनका उपयोग उपचार के लिए किया जाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि औषधीय पौधों का मानव जीवन में बहुत महत्त्व है।

प्रश्न 5.
लिलिएसी कुल के विभेदीय लक्षणों का उल्लेख कीजिए। इस कुल के पुष्प आरेख, पुष्प सूत्र तथा दो आर्थिक महत्त्व के पौधों के वानस्पतिक नाम लिखिए। या लिलिएसी कुल का पुष्प सूत्र तथा पुष्प आरेख दीजिए।
उत्तर :

कुल लिलिएसी

विभेदीय लक्षण

  1. भूण (embryo) में एक बीजपत्र यो वकथिका (scutellum), तने में संवहन पूल वलय में । नहीं, एधा (cambium) अनुपस्थित, अर्थात् संवहन पूल बन्द (closed), पुष्प त्रितयी (trimerous)। -एकबीजपत्री (monocotyledonae)
  2. अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior), त्रिकोष्ठीय (trilocular), बीज में भ्रूणपोष स्पष्ट। -कॉरोनैरी (coronarieae)
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3. परिदलपुंज दो आवर्ती में (in two whorls), पुंकेसर छह, दो आवत में, अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior)। -लिलिएसी (Liliaceae) 

पुष्प आरेख तथा पुष्प सूत्र
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कुल का आर्थिक महत्त्व
कुल के कुछ पौधे अत्यन्त उपयोगी हैं। निम्नलिखित उदाहरण अति महत्त्वपूर्ण हैं

1. भोजन के लिए :
(i) प्याज (onion = Allium cepa)
(ii) लहसुन (garlic = Allium sativum)

2. सजावटी पौधे :
(i) लिली (lily = Lilium bulbiferum)
(ii) यक्का (drager plant = Yucca alotifolia)

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फलों और बीजों के प्रकीर्णन की विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए और प्रकृति में इसके महत्त्व को समझाइए। या बीजों एवं फलों के प्रकीर्णन के विभिन्न उपायों का वर्णन कीजिए। इस प्रक्रिया से सम्बन्धित विभिन्न अनुकूलनों का संक्षेप में विवरण दीजिए। या फलों एवं बीजों के प्रकीर्णन में जन्तुओं की भूमिका का उल्लेख कीजिए। या टिप्पणी लिखिए-वायु तथा जल द्वारा फलों एवं बीजों का प्रकीर्णन या टिप्पणी लिखिए-फलों एवं बीजों के प्रकीर्णन का महत्त्व
उत्तर :
फल एवं बीजों के प्रकीर्णन के उपाय तथा अनुकूलन पौधे पर बनने वाले बीज व फल को उचित स्थान, उचित परिस्थिति प्राप्त करने के लिए पौधे से दूर जाने के लिए अनेक प्रकार के साधन अपनाने होते हैं जिनके लिए वे विशेष रूप से अनुकूलित हो जाते हैं। ये उपाय निम्नलिखित हैं

(क) वायु द्वारा प्रकीर्णन
(ख) जन्तुओं द्वारा प्रकीर्णन
(ग) जल द्वारा प्रकीर्णन
(घ) स्वयं स्फुटन।

(क)
वायु द्वारा फलों व बीजों के प्रकीर्णन के लिए अनुकूलन 

वायु द्वारा प्रकीर्णन प्राकृतिक क्रिया है तथा वायु प्राकृतिक रूप से गतिशील रहती है। पौधे इस प्राकृतिक साधन का लाभ उठाने के लिए अर्थात् वायु की गति में उड़ने के लिए प्लवनशीलता (buoyancy) बढ़ाते, प्राप्त करते हैं। इसके लिए आवश्यकतानुसार, फल व बीज अनेक प्रकार से अनुकूलित हो जाते हैं

1. सूक्ष्म व हल्के बीज (Minute and light seeds) :
कुछ पौधों के अत्यन्त छोटे तथा हल्के बीज वायु में धूल के कणों के समान उड़ते हैं तथा तेज पवन के साथ (UPBoardSolutions.com) तो सैकड़ों किलोमीटर तक उड़ते चले जाते हैं; जैसे-अनेक ऑर्किड्स (orchids) में एक बीज का भार 0.004 मिग्रा अर्थात् 2,50,000 बीज प्रति ग्राम होता है। ये वायु अनुकूलित होते हैं।

2. सपक्ष फल एवं बीज (Winged fruits and seeds) :
फलों या बीजों की भित्तिया अथवा कभी-कभी पुष्प के अंग फैलकर चपटे व पंख की तरह आकार बना लेते हैं, इससे बीज तथा फल वायु में आसानी से प्लवन कर दूर-दूर तक पहुँच सकते हैं

(i) पंख जैसी फलभित्ति :
फलभित्ति के फैल जाने से पंख जैसी संरचना बन जाती है। ऐसे फल प्रायः एकबीजी होते हैं; जैसे-अनेक समारा (samara)–चिलबिल (Indian elm), माधवीलता (Hiptage), मैपल (Maple) आदि इसी प्रकार के फल हैं।

(ii) चुपटी फलियाँ व बीज :
अनेक लेग्यूम (legumes) चपटे, पतले तथा अत्यन्त हल्के होने के कारण वायु में आसानी से प्लवन कर सकते हैं; जैसे—सिरस, शीशम आदि के फल।

(iii) फलों में अपाती पुष्पीय अवयव (Persistent flowering parts in fruits) :
फल को हल्का करने के लिए कुछ पुष्पीय अंग विशेषकर बाह्यदलपुंज (calyx) पतले, बड़े पंख की तरह की संरचना बना लेते हैं; जैसे—साल (Shored sp.) में बाह्यदलपुंज तथा फाइसैलिस (Physalis) में फूला हुआ भाग अपाती बाह्यदलपुंज से बनता है।

(iv) पंखयुक्त बीज-कुछ पौधों के बीज ही पंखयुक्त होते हैं; जैसे :
सहजन (Moringa sp.), सोना या अलु (Oroxylon), चीड़ (Pinus), सिनकोना (Cinchona), लैजरस्ट्रोमिया (Lagerstroemia) आदि।

(v) फलभित्ति का फूला हुआ होना :
अनेक पौधों के फलों की फलभित्ति गुब्बारे की तरह फूलकर इनको अत्यन्त हल्का कर देती है; जैसे-कॉलूटिया (Coluted), कार्डियोस्पर्मम (Cardiospermum) आदि में कभी-कभी इस प्रकार की संरचना किसी अन्य अंग से बनती है; जैसे-फाइसैलिस आदि में।
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3. पैराशूट प्रक्रिया (Parachute mechanism) :
कुछ पौधों के फल अथवा बीजों से लगे हुए विशेष प्रकार के रोम जैसे उपांग रह जाते हैं। ये प्रायः पुष्प के विभिन्न भागों के रूपान्तर से बनते हैं।
उदाहरण के लिए

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उदाहरण :

(i) रोमगुच्छ (Pappus) :
कुल कम्पोजिटी के अनेक पौधों के फल अधोवर्ती (inferior) अण्डाशय से बनते हैं तथा इनके ऊपर अपाती बाह्यदलपुंज (persistent calyx) रोम के समान रोमर्गुच्छ (pappus) बनाते हैं; जैसे-ट्राइडेक्स (Tridax), टैरेक्सेकम (Taraxacum), सूरजमुखी (sunflower) आदि में मिलते हैं। इन रोमों की लम्बाई भिन्न-भिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न होती है।

(ii) स्थाई रोमिल वर्तिकाएँ (Persistent hairystyles) :
कुछ पौधों के फलों के साथ रोमल व अपाती वर्तिकाएँ पैराशूट की तरह लगी रहती हैं; जैसे—क्लीमैटिस (Clematis), नार्वेलिया (Narvelia) आदि में।

(iii) कॉमा (Comma)–अनेक पौधों के बीज रोमयुक्त होते हैं और ये रोम जब समूह में बीज
के एक ओर लगे होते हैं तो इसे कॉमा कहते हैं; जैसे- आक (Calotropis) (UPBoardSolutions.com) में। कुछ | बीजों पर यह दो स्थानों पर होता है; जैसे-एल्सटोनिया (Alstonia) में।

(iv) रोमल अतिवृद्धि (Hairy outgrowths) :
कभी-कभी सम्पूर्ण बीजावरण पर रोम होते हैं। इससे बीज अत्यधिक हल्का हो जाता है; जैसे–कपास (cotton) आदि में।

(ख)
जन्तुओं द्वारा फलों एवं बीजों के प्रकीर्णन के लिए अनुकूलन

कुछ फल या बीज, पौधे से, अनायास या जान-बूझकर, जन्तुओं द्वारा ले जाये जाते हैं और इस प्रकार दूर-दूर तक फैलाये जाते हैं। इस प्रकार के फल या बीजों पर जन्तु के साथ चिपकने, उलझने या आकर्षण के कुछ अंग होते हैं जिनसे ये उनके साथ जा सकें। निम्नलिखित उदाहरण देखिए

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1. उलझने वाले फल या बीज :
बहुत-से फल या बीज जन्तुओं या मनुष्यों के शरीर के साथ उनके खुरों, पैरों, बालों तथा शरीर के अन्य भागों अथवा कपड़ों के साथ उलझ या अटक जाते हैं। इनको लेकर ये जन्तु या मनुष्य दूर-दूर तक पहुँचकर अनायास ही इन फल या बीजों को परिक्षेपित करते हैं। इस कार्य के लिए फल या बीजों में अनेक प्रकार के अंग बन जाते हैं; जैसे–हुक (hooks), कण्टक (spines and thorns), कठोर रोम, प्रिकिल्स (prickles) आदि। जैन्थियम (Xanthium) तथा यूरीना लोबेटा (Urena lobata) में अनेक मुड़े हुए काँटे, बघनखी (Martynig diundra) में दो नुकीले हुक (hook), एण्ड्रोपोगॉन (Andropogon), स्पियर घास (Aristidia) आदि में तीखे तथा हुकदार बाल। गोखरू (Tribulus) में तीन तेज काँटे, लटजीरा  (Archyranthus) में तीखे व कठोर रोम आदि इस प्रकार के उपांग हैं जो आसानी से जन्तुओं के : साथ उलझ जाते हैं।
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2. चिपकने वाले बीज या फल :
अनेक फल तथा उनके बीजों में चिपचिपे अंग होते हैं। यह चिपचिपाहट उन पर उपस्थित ग्रन्थियों द्वारा स्रावित रस या फल के सरस भाग के कारण हो सकती है। इस प्रकार के चिपचिपे बीज क्लीओम (Cleome viscosa), बेल (Aegle Thurtelos), मिसलेटो (Mistletoe), बोरहाविया (Boerhavia rapans) आदि में मिलते हैं। इन फलों के छोटे-छोटे बीज पक्षियों की चोंच (beak), अन्य जन्तुओं के मुंह आदि भागों पर चिपक जाते हैं और इन्हें ये जन्तु अनायास ही दूर-दूर तक पहुँचा देते हैं।

3. खाने योग्य फल या बीज :
सरस (succulent) अथवा कुछ शुष्क फलों में भी कुछ अंग खाने योग्य होते हैं। इस प्रकार के फलों को खाकर जन्तु बीजों को इधर-उधर छोड़ देते हैं। कभी-कभी इन फलों को सम्पूर्ण रूप में जन्तु खा जाते हैं किन्तु अन्य भागों की अपेक्षा इनके बीज पचाये नहीं जा सकते(कठोर आवरण के कारण) और मल  के साथ जन्तु के शरीर से बाहर आ जाते हैं, तब तक जन्तु मीलों दूर भी जा सकता है। काशीफल, ककड़ी आदि की बेलें कूड़े के ढेर आदि पर उग जाती हैं। (UPBoardSolutions.com) अमरूद, शरीफा, करोंदा आदि के बीज भी इसी प्रकार परिक्षेपित होते हैं। टमाटर, मिर्च, इमली आदि के फल सम्पूर्ण रूप में खा लिये जाते हैं। और उनके बीज अपच भोजन के साथ बाहर आ जाते हैं। बहुत से शाकाहारी जन्तु; जैसे–चूहे, बन्दर, गिलहरी, चमगादड़, मनुष्य आदि तथा चिड़ियाँ; जैसे तोते, कौवे, गौरैया आदि फलों को दूर-दूर तक ले जाते हैं और उन्हें खाकर गुठली आदि वहीं छोड़ देते हैं। चीटियाँ भी कुछ बीजों को घसीट कर दूर-दूर तक ले जाती हैं।

(ग)
जलु द्वारा प्रकीर्णन

जल के अन्दर या आस-पास उगने वाले पौधों में से अनेक पौधों में, फल या बीजों का परिक्षेपण जल के माध्यम से होता है। इन फल या बीजों की भित्तियों इत्यादि में वायुकोष (air cavities) होते हैं जो इनको हल्का बना देते हैं। अत: जल पर तैरते हुए ये फल या बीज दूर-दूर तक चले जाते हैं। इनके अतिरिक्त इन फलों या बीजों की भित्तियाँ कठोर, चिमड़ी (leathery) आदि भी होती हैं जिससे जल के सम्पर्क में निरन्तर रहने पर भी ये सड़े नहीं। नारियल (coconut), कमल (lotus) आदि फलों का प्रकीर्णन इसी विधि से होता है। नारियल एक रेशेदार अष्ठिफल (fibrous drupe) है जिसमें फल की मध्यभित्ति (mesocarp) रेशों में बदलकर वायुकोषों तथा साथ ही एक आवश्यक आवरण का भी निर्माण करती है। इसके वृक्ष जल के किनारे होते हैं। फल वृक्ष से टूटकर पानी में गिर जाते हैं और तैरती हुई अवस्था में सैकड़ों मील दूर चले जाते हैं।

कमल में पुष्पासन स्पंजी (spongy) होता है। यह एक एकीनों का पूँजफल है तथा परिपक्वन पर, पौधे से अलग होकर जल पर तैरता रहता है। जब मांसल, स्पंजी पुष्पासन सड़ जाता है, तो फल जल में नीचे बैठ जाते हैं तथा अंकुरित होकर नये पौधे बना लेते हैं।

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(घ)
स्वयं स्फुटन द्वारा प्रकीर्णन

अनेक स्फोटी फल किसी विशेष कारण; जैसे-तेज वायु, शुष्कता, जल, स्पर्श इत्यादि के कारण झटके और तेजी से फटते हैं। इस प्रक्रिया में बीज दूर-दूर तक छिटक जाते हैं। एक्वैलियम (Ecballium elatirium) में स्फुटन अत्यन्त रोचक ढंग से होता है। परिपक्व अवस्था में फल के अन्दर उपस्थित रस और उसमें डूबे बीजों का अत्यधिक दबाव होता है। हल्के से स्पर्श से अथवा स्वयं ही फल, डण्ठल (वृन्त) से अलग हो जाता है और एक पिचकारी की तरह रस की धार फल से निकल पड़ती है।

यह धार कई फीट दूर तक गिरती है। अत: इस फल को फुहार खीरा (squiring cucumber) कहा जाता है। चुटपुटिया (Ruetliu tuberosa) जैसे अनेक पौधों में (Acanthaceae family) जेकुलेटर (jaculator) या मुड़े हुए अंकुश जैसी रचनाएँ होती हैं। ये रचनाएँ फल के स्फुटन पर सीधी होकर बीजों को इधर-उधर बिखेर देती हैं। जल, लार इत्यादि के सम्पर्क में आते ही फल तेजी से झटके के साथ दो कपाटों में फट जाता है और जेकुलेटर विधि से बीजों को चारों दिशाओं में फेंक देता है। विभिन्न शिम्ब (legumes), गुलमेंहदी (balsam), जिरेनियम (Geranium), क्लिटोरिया (Clitoria), ऐण्टेण्डा (Entanda) आदि में स्वयं स्फुटन की तेजी से ही बीज काफी दूर तक बिखर जाते हैं।

फल तथा बीजों के प्रकीर्णन का महत्त्व

फल तथा बीजों का प्रकीर्णन या परिक्षेपण निम्नलिखित कारणों से पौधों के लिए अत्यधिक महत्त्व रखता है

1. अंकुरण की उचित दशायें :
एक पौधे से उत्पन्न सभी बीजों के उचित अंकुरण के लिए उन्हें उचित परिस्थितियों; जैसे—उचित भूमि, जल, वायु, प्रकाश इत्यादि आवश्यक मात्रा तथा अवस्था में प्राप्त होना आवश्यक है, अन्यथा अंकुरण ठीक से नहीं होगा। अतः फल व बीजों का प्रकीर्णन के द्वारा दूर-दूर तक जाना महत्त्वपूर्ण है।

2. प्रतिस्पर्धा :
अंकुरण के बाद प्रत्येक अंकुर, नवोद्भिद तथा उससे बढ़ने वाले पादप को उचित जल, खनिज लवण तथा प्रकाश की आवश्यकता होगी। अन्य साथियों के साथ जो उसके आस-पास उग रहे हैं, परस्पर स्पर्धा (competition) उत्पन्न होगी। वैसे भी समान जाति के पौधों में तो यह (UPBoardSolutions.com) प्रतिस्पर्धा अत्यधिक होगी क्योंकि उनकी तो आवश्यकतायें भी एक जैसी होती हैं, अतः सभी पौधे दुर्बल होंगे और शीघ्र ही नष्ट हो जायेंगे। इसके लिए आवश्यक है कि बीजों व फलों को दूर-दूर तक पहुँचाया जाये।

3. जाति का विस्तार :
पौधे की जाति के दूर-दूर तक प्रसार के लिए प्रकीर्णन आवश्यक है। वैसे भी वंश तथा जाति को प्राकृतिक तथा अन्य विपदाओं से बचाए रखने के लिये उनका विस्तार-प्रसार केवल बीजों व फलों के दूर-दूर तक परिक्षेपण से ही सम्भव है।

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प्रश्न 2.
स्वच्छ चित्रों की सहायता से ब्रेसीकेसी (कूसीफेरी) कुल के विभेदक लक्षणों का वर्णन कीजिए। इस कुल का पुष्प सूत्र एवं पुष्प चित्र दीजिए। इस कुल के आर्थिक महत्त्व वाले दो पौधों के वानस्पतिक नाम लिखिए एवं उनके उपयोग का उल्लेख कीजिए। या क्रूसीफेरी कुल को उचित उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर :

कुल क्रूसीफेरी या ब्रेसीकेसी

विभेदक लक्षण

  1. भ्रूण में दो बीजपत्र (cotyledons), तने में संवहन पूल एक चक्र में, वर्धा (open) अर्थात् एधा उपस्थित, पत्तियों में जालिकावत् शिराविन्यास, पुष्प चतुष्टयी (tetramerous) या पंचतयी (pentamerous) -द्विबीजपत्री (dicotyledonae)
  2. दलपुंज पृथक्दली (polypetalous) -पॉलीपिटेली (polypetalae)
  3. पुष्प जायांगाधर (hypogynous) -थैलैमीफ्लोरी (thalamiflorae)
  4. अण्डाशय संयुक्त (syncarpous), वेश्म एक (unilocular), बीजाण्डन्यास भित्तिलग्न (parietal) -पैराइटेल्स (parietales)
  5. पुंकेसर छह, चतुर्थी (tetradynamous), दल चार क्रूसीफॉर्म (cruciform) -क्रूसीफेरी (Cruciferae or Brassicaceae)

पुष्पीय लक्षण

(i). पुष्प (Flower) :
असहपत्री (ebracteate), संवृन्त (pedicellate), पूर्ण (complete), उभयलिंगी (hermaphrodite), त्रिज्यासममित (actinomorphic) कभी-कभी एकव्याससममित (zygomorphic), जायांगाधर (hypogynous), द्वितयी तथा चतुष्टयी (bimerous or tetramerous), नियमित व चक्रिक (cyclic)।

(ii). बाह्यदलपुंज (Calyx) :
4 बाह्यदल (sepals), दो चक्रों (whorls) में (2 + 2) में, पृथक् बाह्यदली (polysepalous), आशुपाती (caducous), आंशिक रूप से दलाभ (partially petaloid), कोरछादी (imbricate)।

(iii). दलपुंज (Corolla) :
4 दल (petals), पृथक्दली (polypetalous), एक चक्र में, नखरयुक्त (clawed), एक क्रॉस में विन्यसित अर्थात् क्रूसीफॉर्म (cruciform), कोरस्पर्शी (valvate)।

(iv). पुमंग (Androecium) :
6 पुंकेसर (stamens) दो चक्रों में पृथक्पुं केसरी (polyandrous), चतुर्थी (tetradynamous) अर्थात् बाहर के दो छोटे भीतरी चार बड़े। परागकोष अधःबद्ध (basifixed), द्विपालिक (dithecous), अन्तर्मुखी (introrse)।

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(v). जायांग (Gynoecium) :
द्विअण्डपी (bicarpellary), युक्ताण्डपी (syncarpous), अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (ovary superior), एककोष्ठीय (unilocular), बीजाण्डन्यास भित्तिलग्न (placentation parietal),
बाद में अण्डाशय एक कूटपट (replum) के बनने से द्विकोष्ठीय (bilocular) हो जाता है। वर्तिका (UPBoardSolutions.com) (style) एक व छोटी, वर्तिकाग्र द्विपालिक (stigma bilobed)।

पुष्प सूत्र व पुष्प आरेख :
सरसों
UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 5 Morphology of Flowering Plants image 48

कुल का आर्थिक महत्त्व
आर्थिक दृष्टि से इस कुल के पौधे विभिन्न प्रकार से उपयोगी हैं। कुछ उदाहरण अग्रलिखित हैं

1. भोजन के लिए :
मूली = रैफैनस सैटाइवस (Ruphanus sativus)—इसकी मांसल जड़े व फल (सेंगरी) तथा गोभी = ब्रेसिका ऑलीरेसिया (Brassica oleraced) की उपजातियाँ अपने पुष्पक्रम, मांसल तने तथा पत्तियों के लिए खायी जाती हैं।

2. तिलहन के रूप में :
सरसों = ब्रेसिका कैम्पेस्टिस (Brassica campestris) से प्राप्त तेल भोजन पकाने, मालिश करने वे औषधियों में प्रयोग किया जाता है।

3. औषधि के लिए :
हालिमा (Lepidium sativum) के बीजों का प्रयोग यकृत के रोगों में किया जाता है।

4. बगीचों में सजावट के लिए :
चाँदनी (candytuft = Iberis amarg) आदि।

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5. तारामीन :
(Eruca sativa) के तेल का प्रयोग जलने या अन्य प्रकार के घावों में किया जाता है।

प्रश्न 3.
मालवेसी कुल के विभेदीय लक्षणों तथा पुष्पीय लक्षणों का उल्लेख कीजिए। इस कुल के पुष्प सूत्र, पुष्प आरेख तथा आर्थिक महत्त्व के दो पौधों के वानस्पतिक नाम लिखिए। या मालवेसी कुल का पुष्प आरेख बनाकर उसका पुष्प सूत्र लिखिए।
उत्तर :

कुल मालवेसी

विभेदीय लक्षण

  1. भ्रूण में दो बीजपत्र (cotyledons), तने में संवहन पूल एक चक्र में, वर्धा (open) अर्थात् एधा उपस्थित, पत्तियों में जालिकावत् (reticulate) शिराविन्यास, पुष्प पंचतयी (pentamerous) -द्विबीजपत्री (dicotyledonae)
  2. दलपुंज पृथक्दली (polypetalous) -पॉलीपिटेली (polypetalae)
  3. पुष्प जायांगाधर (hypogynous) -थैलेमीफ्लोरी (thalamiflorae)
  4. अण्डाशय संयुक्त (syncarpous), वेश्म कई (multilocular), बीजाण्डन्यास स्तम्भिक (axile) -मालवेल्स (malvales)
  5. पुंकेसर अनेक, एकसंलाग या बहुसंलाग (monoadelphous or polyadelphous), परागकोष एकपालिक (monothecous), पत्ती अनुपण (stipulate) -मालवेसी (Malvaceae)

पुष्पीय लक्षण

(i). पुष्पक्रम (Inflorescence) :
प्रायः एकल (solitary) पुष्प, कक्षस्थ या शीर्षस्थ, कभी-कभी ससीमाक्षी (cymose)।

(ii). पुष्प (IFlower) :
सवृन्त (pedicillate) कभी-कभी अवृन्त, सहपत्री या सहपत्ररहित (bracteate or ebracteate), पूर्ण complete), उभयलिंगी (hermaphrodite), त्रिज्यासममित (actinomorphic), पंचतयी (pentamerous), जायांगाधर (hypogynous) तथा चक्रिक (cyclic)।

(iii). अनुबाह्यदलपुंज (Epicalyx) :
प्राय: 2-7 बाह्यदलपुंज के बाहर हरे रंग के।

(iv). बाह्यदलपुंज (Calyx) :
5 बाह्यदल, प्रायः संयुक्त (gamosepalous), हरे तथा कोरस्पर्शी (valvate)।

(v). दलपुंज (Corolla) :
5 दल (petals), पृथक्दली (polypetalous), बड़े नखरयुक्त (clawed)

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(vi). व्यावर्तित (twisted) :
पुंकेसरीय नाल के साथ आधार पर जुड़े हुए, बड़े व आकर्षक।

(vii). पुमंग (Androecium) :
पुंकेसर अनगिनत, संलागी (adelphous) बहुधा एकसंलागी (monoadelphous), पुंतंतु (filaments) आपस में मिलकर अण्डाशय तथा वर्तिकाग्र के चारों
ओर एक नली के आकार की संरचना बना लेते हैं जिसे पुंकेसरीय नलिका (staminal tube) कहते हैं जो आधार पर दलों के साथ दललग्न (epipetalous), परागकोष (anthers) एकपालिक (monothecous), प्रायः वृक्काकार (reniform), अधः बद्ध (basifixed), बहिर्मुखी (extrorse)।

(viii). जायांग (Gynoecium):
अधिकतर पंचअण्डपी (pentacarpellary), युक्ताण्डपी (Syncarpous), अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior), बहुकोष्ठकी, बीजाण्डासन स्तम्भिक (axile), वर्तिकाएँ संयुक्त (styles fused), पुंकेसरीय नाल में स्थित, वर्तिकाग्र (stigma) अण्डपों की संख्या के बराबर।

पुष्प सूत्र एवं पुष्प आरेख
एक प्रारूपिक पुष्प गुड़हल (china rose = Hibiscus rosa-sinensis) का पुष्प सूत्र (floral formula)
UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 5 Morphology of Flowering Plants image 49
पुष्प आरेख–चित्र देखिए।

आर्थिक महत्त्व के पौधे

1. भोजन के लिए (For food) :
भिण्डी (lady’s finger = Hibiscus esculentus) का फल सब्जी के रूप में खाया जाता है।

2. रेशों के लिए (For fibres) :
कपास (cotton), गॉसीपियम हिरसूटम (Gossypium hirsutum) तथा गॉसीपियम की अन्य अनेक जातियाँ तथा पटसन (hemp = Hibiscus cannabinus) का मोटा रेशा भी महत्त्वपूर्ण है।

3. यूरिना (Urene rependa) :
इसकी जड़ों तथा छाल से निकाले गये रस से रेबीज (hydrophobia) रोग (UPBoardSolutions.com) का उपचार किया जाता है।
UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 5 Morphology of Flowering Plants image 50

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4. बगीचों की सजावट के लिए गुड़हल :
(Hibiscus rosa-sinensis), गुलखेरा (Althea rosed)
आदि पौधों का प्रयोग किया जाता है।

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UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics

UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics (ऊष्मागतिकी)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Chemistry. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics (ऊष्मागतिकी).

पाठ के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

सही उत्तर चुनिए-

प्रश्न 1.
ऊष्मागतिकी अवस्था फलन एक राशि है
(i) जो ऊष्मा परिवर्तन के लिए प्रयुक्त होती है।
(ii) जिसका मान पथ पर निर्भर नहीं करता है।
(iii) जो दाब-आयतन कार्य की गणना करने में प्रयुक्त होती है।
(iv) जिसका मान केवल ताप पर निर्भर करता है।
उत्तर
(ii) जिसका मान पथ पर निर्भर नहीं करता है।

प्रश्न 2.
एक प्रक्रम के रुद्रोष्म परिस्थितियों में होने के लिए-
(i) ∆T = 0
(ii) ∆p = 0
(iii) q = 0
(iv) w = 0
उत्तर
(iii) q= 0

प्रश्न 3.
सभी तत्वों की एन्चैल्पी उनकी सन्दर्भ-अवस्था में होती है-
(i) इकाई
(ii) शून्य
(iii) <0
(iv) सभी तत्त्वों के लिए भिन्न होती है।
उत्तर
(ii) शून्य।

प्रश्न 4.
मेथेन के दहन के लिए AU° का मान -X kJ mol-1 है। इसके लिए ∆H का मान होगा
(i) = ∆U
(ii) >∆U
(iii) <∆U
(iv) = 0
उत्तर
मेथेन के दहन के लिए सन्तुलित समीकरण होगी-
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-1

प्रश्न 5.
मेथेन, ग्रेफाइट एवं डाइहाइड्रोजन के लिए 298 K पर दहन एन्थैल्पी के मान क्रमशः -890.3 kJ mol-1,-393.5 kJ mol-1 एवं -285.8 kJ mol-1 हैं। CH4(g) की विरचन एन्थैल्पी क्या होगी?
(i) -74.8 kJ mol-1
(ii)-52.27 kJ mol-1
(iii) +74.8 kJ mol-1
(iv) +52.26 kJ mol-1
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-2
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-31

प्रश्न 6.
एक अभिक्रिया A+ B → C +D+q के लिए एन्ट्रॉपी परिवर्तन धनात्मक पाया गया। यह अभिक्रिया सम्भव होगी-
(i) उच्च ताप पर
(ii) निम्न ताप पर
(iii) किसी भी ताप पर नहीं
(iv) किसी भी ताप पर
उत्तर
यहाँ ∆H =-ve तथा ∆S = +ve. ∆G=∆H – T∆S; अभिक्रिया के स्वतः प्रवर्तित होने के लिए ∆G=-ve होनी चाहिए जोकि किसी भी ताप पर हो सकती है अर्थात् विकल्प (iv) सही है।

प्रश्न 7.
एक प्रक्रम में निकाय द्वारा 701 J ऊष्मा अवशोषित होती है एवं 394J कार्य किया जाता है। इस प्रक्रम में आन्तरिक ऊर्जा में कितना परिवर्तन होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-4

प्रश्न 8.
एक बम कैलोरीमीटर में NH2CN (s) की अभिक्रिया डाइऑक्सीजन के साथ की गई एवं ∆U का मान-742.7 kJ mol-1 पाया गया (298K पर)। इस अभिक्रिया के लिए 298K पर एन्थैल्पी परिवर्तन ज्ञात कीजिए:-
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-5

प्रश्न 9.
60.0 g ऐलुमिनियम का ताप 35°C से 55°C करने के लिए कितने kJ ऊष्मा की आवश्यकता होगी? Al की मोलर ऊष्माधारिता 24Jmol-1 K-1 है।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-6

प्रश्न 10.
10.0°C पर 1 मोल जल की बर्फ – 10°C पर जमाने पर एन्थैल्पी-परिवर्तन की गणना कीजिए।
fus H = 6.03 kJ mol-10°C पर,
Cp[H2O(l)] = 75.3Jmol-1 K-1
Cp[H2O(s)] = 36.8 Jmol-1K-1
उत्तर
∆Htotal=(10°C पर 1 मोल जल → 0°C पर 1 मोल जल)
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-7

प्रश्न 11.
CO2 की दहन एन्थैल्पी – 393.5 kJ mol-1 है। कार्बन एवं ऑक्सीजन से 35.2 g CO2 बनने पर उत्सर्जित ऊष्मा की गणना कीजिए।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-8

प्रश्न 12.
CO(g), CO2(g), N2O(g) एवं N2O4(g) की विरचन एन्थैल्पी क्रमशः-110,393, 81 एवं 9.7 kmol-1 हैं। अभिक्रिया N2O4 (g) +3C0(g) →N2O(g)+3CO2(g) के लिए ∆rH का मान ज्ञात कीजिए।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-9

प्रश्न 13.
N2(g)+3H2(g) → 2NH3(g); ∆rH = -92-4kJ mol-1 NH3 गैस की मानक विरचन एन्थैल्पी क्या है?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-10

प्रश्न 14.
निम्नलिखित आँकड़ों से CH3OH(l) की मानक विरचन एन्थैल्पी ज्ञात कीजिए-
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-11
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-12
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-13

प्रश्न 15.
CCl3(g) → C(g) + 4CI(g) अभिक्रिया के लिए एन्थैल्पी-परिवर्तन ज्ञात कीजिए एवं CCl3 में C-Cl की आबन्ध एन्थैल्पी की गणना कीजिए-
vapH (CCl4) = 30.5 kJ mol-1
fH (CCl4) = -1355 kJ mol-1
aH (C) = 715.0 kJ mol-1,
aH(Cl2) = 242 kJ mol-1
यहाँ ∆aH परमाण्वीकरण एन्थैल्पी है।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-14

प्रश्न 16.
एक विलगित निकाय के लिए ∆U = 0, इसके लिए AS क्या होगा?
उत्तर
यहाँ ∆U का मान शून्य है जिसका तात्पर्य है कि यहाँ ऊर्जा कारक की कोई भूमिका नहीं है। ∆U = 0 दोनों पर प्रक्रम तभी स्वत: प्रवर्तित हो सकता है जब एंट्रॉपी कारक प्रक्रम कराने में सहायक हो अर्थात् AS का मान धनात्मक (+ ve) होगा।

प्रश्न 17.
298 K पर अभिक्रिया 2A+ B → c के लिए।
∆H = 400 kJ mol-1 एवं ∆S = 0.2 kJ K-1mol-1
∆H एवं ∆S को ताप-विस्तार में स्थिर मानते हुए बताइए कि किस ताप पर अभिक्रिया स्वतः होगी?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-15

प्रश्न 18.
अभिक्रिया 2Cl(g) → Cl2(g) के लिए ∆H एवं ∆S के चिह्न क्या होंगे?
उत्तर
दी गयी अभिक्रिया में आबन्ध निर्माण होता है, अतः ऊर्जा निर्मुक्त होती है अर्थात् ∆H
ऋणात्मक होता है। पुनः 2 मोल परमाणुओं की यादृच्छिकता (randomness) 1 मोल अणुओं से अधिक होती है, अतः यादृच्छिकता घटती है अर्थात् ∆S ऋणात्मक होगा।

प्रश्न 19.
अभिक्रिया 2A(g) + B (g) → 2D (g) के लिए ∆U = -10.5 kJ एवं ∆S =-44.1JK-1 अभिक्रिया के लिए ∆G की गणना कीजिए और बताइए कि क्या अभिक्रिया स्वत:प्रवर्तित हो सकती है?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-16

प्रश्न 20.
300 K पर एक अभिक्रिया के लिए साम्य स्थिरांक 10 है। ∆G का मान क्या होगा? (R = 8.314 JK-1mol-1)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-17

प्रश्न 21.
निम्नलिखित अभिक्रियाओं के आधार पर NO(g) तथा NO2(g) के ऊष्मागतिकी स्थायित्व पर टिप्पणी कीजिए-
[latex]\frac { 1 }{ 2 } [/latex]N2(g) + [latex]\frac { 1 }{ 2 } [/latex]O2(g) → NO(g); ∆rH = 90 kJ mol-1
NO(g) + [latex]\frac { 1 }{ 2 } [/latex]O2(g) → NO2(g); ∆rH =-74 kJ mol-1
उत्तर
NO(g) के निर्माण में ऊर्जा अवशोषित होती है, अत: NO(g) अस्थायी है। चूंकि दूसरी अभिक्रिया में ऊर्जा निर्मुक्त होती है, अत: NO2(g) स्थायी है। अत: अस्थायी NO(g) स्थायी NO2(g) में परिवर्तित होती है।

प्रश्न 22.
जब 1.00 mol H2O(l) को मानक परिस्थितियों में विरचित किया जाता है, तब परिवेश के एन्ट्रॉपी-परिवर्तन की गणना कीजिए। (∆fH = -286 kJ mol-1 )
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-18

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जब निकाय को ऊष्मा (q) दी जाए तथा निकाय के द्वारा » कार्य किया जाए तो ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का गणितीय रूप होता है-
(i) ∆E =q+w
(ii) ∆E =q-W
(iii) ∆E =-q+w
(iv) ∆E =-q-W
उत्तर
(ii) ∆E =q-w

प्रश्न 2.
किसी आदर्श गैस के समतापी प्रसार में
(i) आन्तरिक ऊर्जा घटती है।
(ii) आन्तरिक ऊर्जा बढ़ती है।
(iii) संपूर्ण ऊर्जा घटती है
(iv) आन्तरिक ऊर्जा स्थिर रहती है।
उत्तर
(iv) आन्तरिक ऊर्जा स्थिर रहती है।

प्रश्न 3.
एन्थैल्पी ∆H और आन्तरिक ऊर्जा ∆E में सम्बन्ध है|
(i) ∆E = ∆H + P∆V
(ii) ∆E+∆V = ∆H
(iii) ∆H = ∆U+ P∆V
(iv) ∆H = ∆E-P∆V
उत्तर
(iii) ∆H = ∆U+ P∆V

प्रश्न 4.
निकाय के एन्थैल्पी परिवर्तन ∆H और आन्तरिक ऊर्जा परिवर्तन ∆E में सम्बन्ध है-
(i) ∆E = ∆H + P∆U
(ii) ∆E = ∆H+∆nRT
(iii) ∆H = ∆U+∆nRT
(iv) ∆H = ∆E – P∆U
उत्तर
(iii) ∆H = ∆U+∆nRT

प्रश्न 5.
हाइड्रोजन गैस की 25°C पर दहन ऊष्मा -68.4 kcal है। जल की 25°C पर सम्भवन ऊष्मा होगी-
(i) – 34.2 kcal
(ii) -68.4kcal
(iii) – 136.8 kcal
(iv) + 68.4 kcal
उत्तर
(ii) – 68.4 kcal

प्रश्न 6.
समीकरण H2(g)+Cl2(g) 2HCl(g)+ 44.0 kcal से निष्कर्ष निकलता है कि HCI(g) की सम्भवन ऊष्मा है|
(i) – 44.0 kcal
(ii) + 22.0 kcal
(iii) – 22.0 kcal
(iv) +44.0 kcal
उत्तर
(iii)-22.0 kcal

प्रश्न 7.
1 मोल H2O2 का प्लेटिनमें ब्लैक द्वारा अपघटन होता है, 96.6 kJ ऊष्मा उत्पन्न होती है। 1 मोल H2O की सम्भवन ऊष्मा है-
(i) 193.2 kJ
(ii) 48.3 kJ
(iii) 96.6 kJ
(iv) 386.4kJ
उत्तर
(iii) 96.6 kJ

प्रश्न 8.
CO2 की सम्भवन ऊष्मा –90.4 किलोकैलोरी है। यह दर्शाता है कि-
(i) CO2 ऊष्माक्षेपी यौगिक है।
(ii) CO2 ऊष्माशोषी यौगिक है।
(iii) CO2 समतापीय यौगिक है।
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(i) CO2 ऊष्माक्षेपी यौगिक है

प्रश्न 9.
सही सम्बन्ध चुनिए|
(i) Qp =-∆H
(ii) Qv = ∆H
(iii) Qp = ∆E
(iv) Qv = ∆E
उत्तर
(ii) Qv = ∆H

प्रश्न 10.
अभिक्रिया H2(g) + Cl2(g) → 2HCl(g) के एन्थैल्पी परिवर्तन, ∆H का मान – 68.4 Kcal है। इसका ऋण चिह्न प्रदर्शित करता है-
(i) अभिकारकों की एन्थैल्पी से उत्पादों की एन्थैल्पी अधिक है।
(ii) अभिकारकों की एन्थैल्पी से उत्पादों की एन्थैल्पी कम है।
(iii) अभिक्रिया ऊष्माशोषी है।
(iv) अभिक्रिया अग्र दिशा में नहीं होती है।
उत्तर
(ii) अभिकारकों की एन्थैल्पी से उत्पादों की एन्थैल्पी कम है।

प्रश्न 11.
मेथेन, ऐसीटिलीन, एथिलीन तथा बेंजीन की दहन ऊष्माएँ क्रमशः – 213, -310, – 337 तथा – 410 kcal हैं। सबसे अच्छा ईंधन है|
(i) मेथेन
(ii) ऐसीटिलीन
(iii) एथिलीन
(iv) बेंजीन
उत्तर
(iv) बेंजीन

प्रश्न 12.
मानक अवस्थाओं की स्थितियाँ हैं-
(i) 25 K तथा 1 atm
(ii) 0°C तथा 1 atm
(iii) 20°C तथा 1 atm
(iv) 25°C तथा 1 atm
उत्तर
(iv) 25°C तथा 1 atm

प्रश्न 13.
अभिक्रिया की स्वतः प्रवर्तित होने की कसौटी है
(i) AG का ऋणात्मक होना
(ii) AG का धनात्मक होना
(iii) AG का मान शून्य होना
(iv) AG धनात्मक तथा AS ऋणात्मक होना
उत्तर
(i) AG का ऋणात्मक होना

प्रश्न 14.
जब बर्फ पिघलती है, तो इसकी एंटॉपी|
(i) घटती है
(ii) बढ़ती है
(iii) शून्य हो जाती है
(iv) स्थिर रहती है
उत्तर
(ii) बढ़ती है।

प्रश्न 15.
कपूर को वाष्पीकृत करने पर इसकी एंट्रॉपी-
(i) घटती है
(ii) बढ़ती है।
(iii) स्थिर रहती है।
(iv) शून्य हो जाती है।
उत्तर
(ii) बढ़ती है।

प्रश्न 16.
CH3COOH तथा NaOH की उदासीनीकरण ऊष्मा होती है-
(i) -13.6 Kcal/mol
(ii) -13.6 Kcal/mol से अधिक ऋणात्मक
(iii) -13.6 Kcal/mol से कम ऋणात्मक
(iv) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर
(iv) उपर्युक्त में से कोई नहीं

प्रश्न 17.
36.5 ग्राम HCI और 40 ग्राम NaOH के द्वारा उत्पन्न होने वाली उदासीनीकरण ऊष्मा का मान होगा-
(i) 76.5 किलोकैलोरी
(ii) 12.7 किलोकैलोरी
(iii) शून्य
(iv) 13.7 किलोकैलोरी
उत्तर
(iv) 13.7 किलोकैलोरी

प्रश्न 18.
अभिक्रिया H2+Cl2 → 2HCl में ∆H = -194 kJ HCI की उत्पादन ऊष्मा है-
(i) + 19 kJ
(ii) + 194 kJ
(iii) – 194 kJ
(iv) – 97 kJ
उत्तर
(iv)-97 kJ

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऊष्मागतिकी से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं के मध्य सम्बन्धों तथा उनके अन्तरापरिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है, ऊष्मागतिकी कहलाती है।

प्रश्न 2.
आन्तरिक ऊर्जा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
निश्चित परिस्थितियों में किसी निकाय में ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा उपस्थित होती है जो उसके पदार्थ की प्रकृति एवं मात्री तथा उसके ताप, दाब और आयतन पर निर्भर करती है। निश्चित परिस्थितियों में किसी निकाय में उपस्थित ऊर्जा की कुल मात्रा उसकी आन्तरिक ऊर्जा E कहलाती है। किसी पदार्थ या निकाय की आन्तरिक ऊर्जा का वास्तविक मान ज्ञात नहीं है, परन्तु किसी भौतिक या रासायनिक प्रक्रम में होने वाले ऊर्जा ,परिवर्तन को ज्ञात किया जा सकता है। माना किसी तन्त्र की प्रारम्भिक तथा अन्तिम अवस्थाओं में ऊर्जा क्रमशः E1 व E2 हों तथा ऊर्जा में परिवर्तन ∆E हो, तो

∆E = E2 – E1

यदि ∆E का मान धनात्मक है तो अभिक्रिया ऊष्माशोषी होगी और यदि ∆E का मान ऋणात्मक है तो अभिक्रिया ऊष्माक्षेपी होगी।

प्रश्न 3.
किसी निकाय को 40 जूल ऊष्मा देने पर निकाय द्वारा 8 जूल कार्य किया गया। निकाय की आन्तरिक ऊर्जा में वृद्धि ज्ञात कीजिए।
उत्तर
आन्तरिक ऊर्जा में वृद्धि = दी गयी ऊष्मा – किया गया कार्य = 40- 8= 32 जूल।

प्रश्न 4.
अभिक्रिया ऊष्मा को समझाइए। या अभिक्रिया की ऊष्मा अथवा अभिक्रिया की एन्थैल्पी पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
अभिक्रिया ऊष्मा, कैलोरी में ऊष्मा की वह मात्रा है जो किसी रासायनिक समीकरण द्वारा प्रकट पदार्थों की ग्राम-अणु मात्राओं की पूर्ण अभिक्रिया होने पर शोषित या उत्पन्न होती है।
उदाहरणार्थ-

C+ O2 → CO2 + 94,300 कैलोरी

इस क्रिया की अभिक्रिया ऊष्मा 94300 कैलोरी है।

प्रश्न 5.
एन्थैल्पी किसे कहते हैं? आन्तरिक ऊर्जा से इसका सम्बन्ध लिखिए।
उत्तर
निश्चित दशाओं में निकांय की आन्तरिक ऊर्जा तथा PV ऊर्जा का योग एन्थैल्पी कहलाता है। निकाय की एन्थैल्पी को अन्तर्निहित ऊष्मा अथवा पूर्ण ऊष्मा भी कहते हैं। इसे H से प्रदर्शित करते हैं।

H =U+ PV

जहाँ, H = निकाय की एन्थैल्पी, U = निकाय की आन्तरिक ऊर्जा, P = दाब तथा V = आयतन

प्रश्न 6.
ऊष्माक्षेपी तथा ऊष्माशोषी अभिक्रियाओं को उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर
ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया–जिन रासायनिक अभिक्रियाओं में ऊष्मा उत्सर्जित होती है, उन्हें ऊष्माक्षेपी अभिक्रियाएँ कहते हैं।
उदाहरणार्थ-

C(s) + O2(g) → CO2(g); ∆H =- 94.3kcal (25°C)

यह एक ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया है जिसमें 25°C और 1 वायुमण्डल दाब पर 94.3 kcal ऊष्मा उत्सर्जित होती है।
ऊष्माशोषी अभिक्रिया-जिन रासायनिक अभिक्रियाओं में ऊष्मा अवशोषित होती है, उन्हें ऊष्माशोषी अभिक्रियाएँ कहते हैं।
उदाहरणार्थ-

N2(g)+O2(g)–> 2NO(g); ∆H = + 43.2kcal (25°C)

यह एक ऊष्माशोषी अभिक्रिया है जिसमें 25°C और 1 वायुमण्डल दाब पर 43.2 kcal ऊष्मा अवशोषित होती है।

प्रश्न 7.
प्रावस्था रूपान्तरण में एंट्रॉपी किस प्रकार प्रभावित होती है? एक उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर
किसी पदार्थ की एंट्रॉपी ठोस अवस्था में न्यूनतम तथा गैस अवस्था में अधिकतम होती है।

Sठोस <Sद्रव <Sगैस

पानी की तीनों अवस्थाओं में एंट्रॉपी का क्रम इस प्रकार है

Sबर्फ <Sजल <Sभाप

प्रश्न 8.
ऊर्ध्वपातन ऊष्मा अथवा उर्ध्वपातन एन्थैल्पी क्या है?
उत्तर
किसी ठोस पदार्थ के 1 मोल को उसके गलनांक से नीचे ताप पर सीधे वाष्प अवस्था में परिवर्तित होने पर होने वाले एन्थैल्पी परिवर्तन को पदार्थ की ऊर्ध्वपातन ऊष्मा अथवा ऊर्ध्वपातन एन्थैल्पी कहते हैं।

प्रश्न 9.
जलयोजन ऊष्मा अथवा जलयोजन एन्थैल्पी से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
एक मोल अनार्दै लवण के उपयुक्त संख्या में जल के मोलों में संयोजित होकर जलयोजित लवण बनाने में होने वाला एन्थैल्पी परिवर्तन जलयोजन ऊष्मा अथवा जलयोजन एन्थैल्पी कहलाता है।

प्रश्न 10.
संक्रमण ऊष्मा अथवा संक्रमण एन्थैल्पी को परिभाषित कीजिए।
उत्तर
किसी तत्त्व के 1 मोल के एक अपररूप से दूसरे में परिवर्तित होने पर होने वाला एन्थैल्पी परिवर्तन संक्रमण ऊष्मा अथवा संक्रमण एन्थैल्पी कहलाता है।

प्रश्न 11.
किसी प्रबल क्षार तथा प्रबल अम्ल की उदासीनीकरण की ऊष्मा स्थिर क्यों होती है?
उत्तर
प्रबल क्षार तथा प्रबल अम्लों की उदासीनीकरण ऊष्मा लगभग 13.7 किलोकैलोरी होती है। उदासीनीकरण ऊष्मा का स्थिर मान होना उनके तनु विलयनों में पूर्ण आयनन के कारण है। यदि प्रबल अम्ल HA तथा प्रबल क्षार BOH के ग्राम तुल्यांकी मात्राओं के तेनु विलयनों को मिलाया जाए, तो आयनिक सिद्धान्त के अनुसार,
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-19
उपर्युक्त समीकरणों से स्पष्ट है कि उदासीनीकरण ऊष्मा किसी अम्ल से उत्पन्न H+ आयनों तथा क्षार से उत्पन्न OH आयनों के संयोग से बने जल की उत्पन्न ऊष्मा है; अत: उदासीनीकरण ऊष्मा जल की हाइड्रोजन तथा हाइड्रॉक्सिल आयनों से उत्पादन ऊष्मा के बराबर होती है। इस प्रकार, जल की उत्पादन ऊष्मा का मान सदैव लंगभग 13.7 किलोकैलोरी होता है; अत: उदासीनीकरण ऊष्मा का मान प्रबल अम्ल तथा प्रबल क्षार के लिए स्थिर रहता है।

प्रश्न 12.
CH4(g), C(s) और H2(g) की 25°C पर दहन ऊष्माएँ क्रमशः -212.8 kcal, 940 kcal और – 68.4 kcal हैं। मेथेन गैस की संभवन ऊष्मा ∆fH की गणना
कीजिए।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-20

प्रश्न 13.
निम्नलिखित आँकड़ों के आधार पर मेथेन की दहन ऊष्मा की गणना कीजिए-
C2 + 2H2 → CH4;∆H = x kJ …………(i)
C + O2→ CO2; ∆H = y kJ …….(ii)
H2 +[latex]\frac { 1 }{ 2 } [/latex]O2 → H2O; ∆H= kJ ……(iii)
मेथेन की दहन ऊष्मा का समीकरण है
CH4+ 2O2 + CO2 + 2H2O
उत्तर
समीकरण (iii) को 2 से गुणा करके, समीकरण (ii) में जोड़कर फिर उसमें समीकरण (i) को उल्टा करके जोड़ने पर,
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-21

प्रश्न 14.
स्थिर दाब एवं 17°C पर एथिलीन की उत्पादन ऊष्मा – 2.71 किलोकैलोरी है। स्थिर आयतन पर इसकी उत्पादन ऊष्मा ज्ञात कीजिए। R = 0.002 Kcal तथा
2C(s) + 2H2(g) → C2H4(g)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-22

प्रश्न 15.
CO (g), CO2 (g) और H2O(g) की संभवन ऊष्माएँ क्रमशः -25.7,-93.2 तथा –56.4 kcal हैं। निम्नलिखित अभिक्रिया की अभिक्रिया ऊष्मा की गणना कीजिए-
CO2 (g)+H2(g) → CO(g) + H2O (g)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-23

प्रश्न 16.
हेस का स्थिर ऊष्मा संकलन का नियम क्या है? उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर
हेस का स्थिर ऊष्मा योग नियम-यदि एक ही रासायनिक परिवर्तन एक या अधिक विधियों से, एक या अधिक पदों में पूर्ण किया जाये, तो पूर्ण परिवर्तन में उत्पन्न या शोषित ऊष्मा समान होती है। चाहे परिवर्तन किसी भी विधि से पूर्ण किया गया हो।
उदाहरणार्थ-

C(s) + O2(g) → CO2(g) + 94 kcal

इस अभिक्रिया को दो पदों में करने पर-

C(s) +[latex]\frac { 1 }{ 2 } [/latex] O2 (g) → CO(g)+ 264 kcal
CO(g) +[latex]\frac { 1 }{ 2 } [/latex]O2(g) → CO2(g) + 67.6 kcal

इन दोनों समीकरणों को जोड़ने पर-

C(s) +O2(g) → CO2(g)+ 94 kcal

इस प्रकार प्रत्येक दशा में एक मोल कार्बन के दहन से 94kcal ऊष्मा उत्सर्जित होती है। यह तथ्य हेस के नियम की पुष्टि करता है।

प्रश्न 17.
हेस के नियम का उघ्रयोग’ अपररूपों की रूपान्तरण ऊष्माओं की गणना करने में किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर
किसी तत्त्व के एक अपरखप से दूसरे अपररूप में स्थानान्तरण होने में उत्सर्जित या अवशोषित ऊष्मा की मात्रा का निर्धारण प्रयोग द्वारा नहीं किया जा सकता है क्योंकि सामान्यत: केवल ताप बदलने से एक अपररूप दूसरे अपररूप में परिवर्तित नहीं होता है। अपररूपों की दहन ऊष्माओं का मान प्रयोग द्वारा प्राप्त कर लेते हैं। माना कार्बन के दोनों अपररूपों Caiamond एवं Canhite की दहन ऊष्माएँ a तथा b हैं-

Cdiamond +O2 → CO2(g); ∆H = akcal …(i)
Cgraphite +O2 → CO2(g); ∆H = b kcal…(ii)

समी० (i) – समी० (i) करने पर
Cdiamond – Cgraphite ∆H =a-b kcal

प्रश्न 18.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए
(i) उत्पादन यो सम्भवन ऊष्मा,
(ii) दहन ऊष्मा
उत्तर
(i) उत्पादन या सम्भवन ऊष्मा—किसी यौगिक के अपने तत्त्वों से एक ग्राम-अणु बनाने में जितनी ऊष्मा की मात्रा उत्पन्न या अवशोषित होती है, वह उस यौगिक की उत्पादन यो सम्भवन ऊष्मा कहलाती है;
जैसे-

C+O2 → CO2 + 94,300 cal
C+ 2S → CS2 -19,800 cal

CO2 तथा CS2 की उत्पादन ऊष्माएँ क्रमश: 94,300 कैलोरी और -19,800 कैलोरी हैं।

(ii) दहन ऊष्मा–किसी यौगिक या तत्त्व के एक ग्राम-अणु के पूर्ण दहन पर जो ऊष्मा उत्पन्न होती है, वह उसकी दहन ऊष्मा कहलाती है; जैसे

CH4 + 2O2 → CO2 + 2H2O+ 21,000 कैलोरी
C+O2 → CO2 +94,300 कैलोरी

अतः मेथेन तथा कार्बन की दहन ऊष्माएँ क्रमशः 21,000 तथा 94,300 कैलोरी हैं।

प्रश्न 19.
स्वतः प्रवर्तित व स्वतः अप्रवर्तित प्रक्रम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
स्वतः प्रवर्तित प्रक्रम–ऐसे प्रक्रम जो कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अपने आप या एक बार प्रारम्भ करने के पश्चात् अपने आप होते रहते हैं, स्वत: प्रवर्तित प्रक्रम कहलाते हैं।
स्वतः अप्रवर्तित प्रक्रम-ऐसे प्रक्रम जो न तो अपने आप और न ही एक बार प्रारम्भ करने के पश्चात् हो सकते हैं, स्वतः अप्रवर्तित प्रक्रम कहलाते हैं।

प्रश्न 20.
एंट्रॉपी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
किसी निकाय की एंट्रॉपी उस निकाय की अव्यवस्था या यादृच्छिकता की मात्रा की माप है। इसे S से प्रदर्शित करते हैं। निकाय की अव्यवस्था बढ़ने पर एंट्रॉपी बढ़ जाती है। एक निश्चित ताप पर निकाय की एंट्रॉपी परिवर्तित होती है। अवस्था परिवर्तन पर एंट्रॉपी परिवर्तित होती है। एंट्रॉपी परिवर्तन को ∆S से प्रदर्शित करते हैं।
∆S = S2 – S1 (जहाँ S2 तथा S1 अन्तिम तथा प्रारम्भिक अवस्था की एंट्रॉपी हैं।)

प्रश्न 21.
एंट्रॉपी पर ताप का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर
निकाय का ताप बढ़ने पर एंट्रॉपी बढ़ जाती है। एक निश्चित ताप पर एंट्रॉपी निश्चित होती है। तथा ताप परिवर्तन पर एंट्रॉपी परिवर्तित होती है।

प्रश्न 22.
रासायनिक परिवर्तनों में एंट्रॉपी परिवर्तन के चिह्न का अनुमान किस प्रकार लगाया जाता है? एक उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
वे प्रक्रम जिनमें AS एंट्रॉपी परिवर्तन का मान धनात्मक होता है अर्थात् जिनमें एंट्रॉपी बढ़ती है । वे स्वतः प्रवर्तित प्रक्रम हैं, जैसे- बर्फ का पिघलना, लवणों की ऊष्माशोषी इत्यादि।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निकाय, परिवेश तथा परिसीमा को परिभाषित कीजिए। उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर
निकाय–ब्रह्माण्ड का वह भाग जो ऊष्मागतिक अध्ययन के लिए चुना जाता है अर्थात् जिस पर प्रेक्षण होते हैं, निकाय कहलाता है।
परिवेश–निकाय को छोड़कर ब्रह्माण्ड का शेष भाग परिवेश कहलाता है।
परिसीमा–निकाय तथा परिवेश के मध्य एक वास्तविक या काल्पनिक परिसीमा होती है जो दोनों को एक-दूसरे से पृथक् करती है।
उदाहरणार्थ-जब हम बीकर में NaOH तथा HCl की अभिक्रिया का अध्ययन करते हैं तो अभिक्रिया मिश्रण निकाय, बीकर परिसीमा तथा बीकर के बाहर का सम्पूर्ण भाग निकाय को परिवेश होता है।

प्रश्न 2.
निकाय तथा परिवेश के मध्य द्रव्य एवं ऊर्जा के विनिमय के आधार पर निकाय को वर्गीकृत कीजिए।
उत्तर
निकाय तथा परिवेश के मध्य द्रव्य एवं ऊर्जा के विनिमय के आधार पर निकाय को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है–

  1. विवृत निकाय या खुला निकाय—जो निकाय अपने परिवेश के साथ द्रव्य तथा ऊर्जा दोनों का विनिमय कर सकता है, विवृत निकाय या खुला निकाय कहलाता है। उदाहरणार्थ-खुले बीकर में लिया गया जल। यह परिवेश से द्रव्य (वाष्प) तथा ऊर्जा (ऊष्मा) दोनों का ही विनिमय कर सकता है।
  2. संवृत भिकाय या बन्द निकाय—जो निकाय अपने परिवेश के साथ ऊर्जा का तो विनिमय कर सकता है परन्तु द्रव्य का नहीं कर सकता, संवृत निकाय या बन्द निकाय कहलाता है। उदाहरणार्थ-किसी बन्द धात्विक पात्र में लिया गया जल। पात्र की दीवारों के माध्यम से निकाय तथा परिवेश के मध्य ऊर्जा (ऊष्मा) का तो विनिमय हो सकता है परन्तु चूंकि पात्र बन्द है इसलिए निकाय तथा परिवेश के मध्य द्रव्य का विनिमय नहीं हो सकता।
  3. विमुक्त निकाय या विलगित निकाय—जो निकाय अपने परिवेश के साथ न तो ऊर्जा का विनिमय कर सकता है और न ही द्रव्य का, विमुक्त निकाय या विलगित निकाय कहलाता है। उदाहरणार्थ–एक ऊष्मारोधी तथा बन्द पात्र में लिया गया जल। यह अपने परिवेश में न तो ऊर्जा का विनिमय कर सकता है और न ही द्रव्य का।

प्रश्न 3.
संघटन के आधार पर निकाय कितने प्रकार के होते हैं? प्रत्येक का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर
संघटन के आधार पर निकाय निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं

  1. समांगी निकाय—वह निकाय जिसकी प्रकृति सर्वत्र समान होती है, समांगी निकाय कहलाता है। यह केवल एक प्रावस्था का बना होता है। उदाहरणार्थ-शुद्ध ठोस; जैसे–सोडियम क्लोराइड, शुद्ध गैस; जैसे–ऑक्सीजन, वास्तविक विलयन; जैसे–चीनी का जल में विलयन आदि।
  2. विषमांगी निकाय—वह निकाय जिसकी प्रकृति सर्वत्र समान नहीं होती है, विषमांगी निकाय कहलाता है। इसमें एक से अधिक प्रावस्थाएँ होती हैं। उदाहरणार्थ-जल तथा वाष्प, बर्फ तथा जल, जल तथा तेल आदि।

प्रश्न 4.
विस्तीर्ण गुण तथा गहन गुण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
विस्तीर्ण गुण तथा गहन; गुण का वर्णन निम्नवत् है-

  1. विस्तीर्ण गुणवे गुण जो निकाय में उपस्थित पदार्थ (पदार्थों) की मात्रा पर निर्भर करते हैं। , विस्तीर्ण गुण कहलाते हैं। उदाहरणार्थ-द्रव्यमान, आयतन, ऊष्मा धारिता, आन्तरिक ऊर्जा, एन्ट्रॉपी, गिब्ज़ मुक्त ऊर्जा, पृष्ठ क्षेत्रफल आदि। ये गुण निकाय में उपस्थित पदार्थ की मात्रा के साथ बदलते रहते हैं। यदि हम अपनी सुविधानुसार निकाय को विभिन्न भागों में बाँट दें तो पदार्थ के विस्तीर्ण गुण का कुल मान उन भागों के विस्तीर्ण गुण के योग के बराबर होता है।
  2. गहन गुण-वे गुण जो निकाय में उपस्थित पदार्थ (पदार्थों) की मात्रा पर निर्भर नहीं करते हैं। गहन गुण कहलाते हैं। ये केवल पदार्थ (पदार्थों) की प्रकृति पर निर्भर करते हैं। ताप, दाब, घनत्व, श्यानता, पृष्ठ तनाव, गलनांक, क्वथनांक आदि ऐसे गुणों के उदाहरण हैं। दो विस्तीर्ण गुणों का अनुपात गहन होता हैं। इसलिए जब हम किसी पदार्थ की इकाई मात्रा के लिए किसी विस्तीर्ण गुण की बात करते हैं तो वह गहन गुण बन जाता है।
    उदाहरणार्थ-द्रव्यमान द्रव्यं की मात्रा पर निर्भर करता है अर्थात् यह एक विस्तीर्ण गुण है। परन्तु द्रव्यमान प्रति इकाई आयतन अर्थात् घनत्व एक गहन गुण है जो पदार्थ की मात्रा पर निर्भर नहीं करता है।

प्रश्न 5.
ऊष्मागतिक साम्य का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। या ऊष्मागतिकी का शून्य नियम क्या है?
उत्तर
जब किसी निकाय के स्थूल गुणों; जैसे–ताप, दाब आदि में समय के साथ कोई परिवर्तन नहीं होता है तो निकाय ऊष्मागतिक साम्य में कहलाता है। वास्तव में यह साम्य तभी प्राप्त होता है जब तीन साम्य एक साथ प्राप्त होते हैं। ये तीन साम्य निम्नवत् हैं-

  1. यांत्रिक साम्य-जब निकाय के अन्दर कोई स्थूल गति न हो या निकाय की परिवेश के सापेक्ष – कोई गति न हो तो निकाय यांत्रिक साम्य की स्थिति में कहलाता है। इसके लिए निकाय के यांत्रिक गुण एक समान तथा स्थिर होने चाहिए।
  2. रासायनिक साम्य-एक से अधिक पदार्थों वाला ऐसा निकाय जिसका संघटन समय के साथ परिवर्तित नहीं होता है, रासायनिक साम्य की अवस्था में कहलाता है।
  3. तापीय साम्य-जब किसी निकाय का ताप एक समान होता है तथा वह परिवेश के ताप के भी। समान होता है तो निकाय तापीय साम्य की अवस्था में कहलाता है। माना हमारे पास तीन निकाय A, B तथा C इस प्रकार हैं—A तथा B और B तथा C तापीय साम्य में हैं तब निकाय A तथा C भी तापीय साम्य में होंगे। यही ऊष्मागतिकी का शून्य नियम कहलाता है। इस नियम के अनुसार, “दो निकाय जो किसी तीसरे निकाय से तापीय साम्य में होते हैं उनमें आपस में भी तापीय साम्य होता है।”

प्रश्न 6.
ऊष्मा क्या है? इसके मात्रक तथा इसके लिए चिह्न परिपाटी के नियम लिखिए।
उत्तर
ऊष्मा–निकाय तथा परिवेश के मध्य ऊष्मा के रूप में ऊर्जा तब स्थानान्तरित होती है जब निकाय तथा परिवेश में तापान्तर होता है। यदि निकाय का ताप अधिक होता है तो निकाय परिवेश को ऊष्मा के रूप में ऊर्जा स्थानान्तरित करता है जिससे निकाय का ताप कम हो जाता है तथा परिवेश का ताप बढ़ जाता है। यह ऊर्जा ्थानान्तरण तब तक होता है जब तक कि निकाय और परिवेश का ताप समान नहीं हो जाता। यदि निकाय को ताप परिवेश के ताप से कम होता है तो ऊष्मा के रूप में ऊर्जा परिवेश से निकाय में स्थानान्तरित होती है जिससे निकाय का ताप बढ़ जाता है तथा परिवेश का ताप कम हो जाती है। ऊर्जा का यह स्थानान्तरण तब तक होता है जब तक परिवेश तथा निकाय का ताप समान नहीं हो जाता। ऊष्मा को q द्वारा निरूपित करते हैं।
मात्रक-ऊष्मा को सामान्यतः कैलोरी में मापा जाता है। S.I. पद्धति में ऊष्मा का मात्रक जूल होता है।
चिह्न परिपाटी–निकाय द्वारा अवशोषित ऊष्मा धनात्मक होती है जबकि निकाय द्वारा निष्कासित ऊष्मा ऋणात्मक होती है।

प्रश्न 7.
ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का गणितीय निगमन कीजिए। या ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम क्या है? इसके गणितीय रूप का व्यंजक लिखिए। एन्थैल्पी तथा ऊर्जा परिवर्तन में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर
ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम के व्यंजक को प्राप्त करने के लिए एक ऐसे निकाय पर विचार करते हैं जिसकी आन्तरिक ऊर्जा U, है। इस निकाय की आन्तरिक ऊर्जा में वृद्धि दो विधियों द्वारा की जा सकती है—

  1. निकाय को ऊष्मा देकर तथा
  2. निकाय पर कार्य करके। यदि निकाय ‘g’ ऊष्मा अवशोषित करता है तो,

UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-24

प्रश्न 8.
एन्थैल्पी परिवर्तन तथा एन्थैल्पी परिवर्तन की चिह्न परिपाटी को समझाइए।
उत्तर
एन्थैल्पी परिवर्तन-स्थिर दाब पर किसी निकाय द्वारा अवशोषित अथवा उत्सर्जित ऊष्मा निकाय का एन्थैल्पी परिवर्तन कहलाता है। इसे ∆H से प्रदर्शित करते हैं।
एन्थैल्पी परिवर्तन की चिह्न परिपाटी-ऊष्माक्षेपी प्रक्रमों के लिए एन्थैल्पी परिवर्तन ऋणात्मक जबकि ऊष्माशोषी प्रक्रमों के लिए एन्थैल्पी परिवर्तन धनात्मक होता है।

प्रश्न 9.
अभिक्रिया की एन्थैल्पी को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
अभिक्रिया की एन्थैल्पी निम्न कारकों द्वारा प्रभावित होती है-

  1. अभिकारकों की मात्रा–अभिक्रिया की एन्थैल्पी अभिकारकों की मात्रा पर निर्भर करती है। यदि अभिकारकों की मात्रा दोगुनी कर दी जाए तो अभिक्रिया की एन्थैल्पी भी दोगुनी हो जाती है। इसी प्रकार यदि अभिकारकों की मात्रा दस गुनी कर दी जाए तो अभिक्रिया की एन्थैल्पी भी दस गुनी हो जाती है।
  2. अभिकारकों तथा उत्पादों की भौतिक अवस्थाएँ–अभिकारकों तथा उत्पादों की भौतिक | अवस्था में परिवर्तन के साथ ही अभिक्रिया की एन्थैल्पी का मान भी बदल जाता है।
  3. ताप–अभिक्रिया की एन्थैल्पी का मान अभिकारकों और उत्पादों के ताप पर भी निर्भर करता है।
  4. अपररूप-विभिन्न अपररूपों (allotropes) के लिए भी A,H के मान भिन्न-भिन्न होते हैं।
    उदाहरणार्थ-
    S(रॉम्बिक) +O2 (g) → SO2(g); ∆rH = -297.0 kJ mol-1 S (मोनोक्लीनिक) +0, (g) -> SO, (g); A H =-297.3 kJmol
    C (ग्रेफाइट) +O2 (g) →CO2 (g); ∆rH =-393.5kJmol-1
    C (डायमंड) +O2 (g) → CO2 (g); ∆rH = -395.4kJmol-1
  5.  विलयनों की सन्द्रिती-यदि अभिक्रिया में विलयन भी भाग लेते हैं तो उनकी सान्द्रता भी अभिक्रिया की एन्थैल्पी को प्रभावित करती है।।
  6.  स्थिर दाब अथवा स्थिर आयतम की दशाएँ–अभिक्रिया की एन्थैल्पी इससे भी प्रभावित होती है कि अभिक्रिया स्थिर दाब पर होती है अथवा स्थिर आयतन पर।

प्रश्न 10.
निम्न को परिभाषित कीजिए-
1. आयनन ऊष्मा अथवा आयनन एन्थैल्पी
2. विलयन ऊष्मा अथवा विलयन एन्थैल्पी
3. आबन्ध ऊर्जा (एन्थैल्पी)
4. कणीकरण एन्थैल्पी
5. आबन्ध वियोजन एन्थैल्पी
उत्तर

  1. आयनन ऊष्मा अथवा आर्यनेने एन्थैल्पी—किसी पदार्थ के 1 मील के पूर्ण आयनेन में होने वाला एन्थैल्पी परिवर्तन आयनेन ऊष्मा अथवा आयनन एन्थैल्पी कहलाता है।
  2. विलयन ऊष्मा अथवा विलयन एन्यल्पीकिंसी पदार्थ की विलयन एन्थैल्पी वह एन्थैल्पी परिवर्तन है जो इसके 1 मोल को विलायक की निर्दिष्ट मात्रा में घोलने पर होता है। यदि विलायक की मात्रा इतनी अधिक हो किं और अधिक विलायक मिलाने पर कोई ऊष्मा परिवर्तन न हो तब इसे अनन्त तर्नुता पर विलयन एन्थैल्पी कहा जाता है।
  3. ओबन्ध एन्थैल्पी–र्किसी पदार्थ केक ग्रीम अणु की गैसीय अवस्था में विद्यमान सभी बन्धों को तोड़ने के लिए आवश्यक ऊर्जा उसकी आबन्ध एन्थैल्पी कहलाती है।
  4. कंणीकरण एन्थैल्पी–गैसीय अवस्था में किसी पदार्थ के 1 मोल में उपेंस्थित आबन्धों को | पूर्णतया तोड़कर परमाणुओं में बदलने में होने वाला एन्थैल्पी परिवर्तन कैणीकरण एन्थैल्पी कहलाता है। इसे ∆H से प्रदर्शित करते हैं।
  5. आबन्ध वियोजन एन्पी द्विपरमाणुक अणुओं के एक मोल में उपस्थित सभी आबन्धों को तोड़ने में हुआ एन्थैल्पी परिवर्तन आबन्ध वियोजन एन्थैल्पी कहलाती है। इसे:AH से व्यक्त करते हैं। उदाहरणार्थ—N2(g) → 2N(g); ∆H = + 945.6 किलोजूल/मौल अर्थात् N2(g) के एक मौले में उँपस्थितबन्धों को तोड़ने के लिए 945.6 किलोजूल ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 11.
हेस के नियम के अनुप्रयोग लिखिए।
उत्तर
हेस के नियम से पता चलता है कि ऊष्मरासायनिक समीकरणों को बीजीय समीकरणों के समान ही घटाया, जोड़ा, गुणा अथवा भाग किया जा सकता है। अत: हेस के नियम की सहायता से उन अभिक्रियाओं की ऊष्मा की गणना की जा सकती है जिनकी ऊष्मा सीधे प्रयोगों द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकती। हेस के नियम के कुछ मुख्य अनुप्रयोग निम्नवत् हैं-

  1. विरचन एन्थैल्पी (अथवा सम्भवन एन्थैल्पी) की गणना–जिन यौगिकों को उनके तत्त्वों से सीधे नहीं बनाया जा सकता उनकी विरचन एंथैल्पियाँ कैलोरीमितीय विधियों (calorimetric methods) द्वारा ज्ञात नहीं की जा सकतीं। ऐसे यौगिकों की विरचन एन्थैल्पियाँ हेस के नियम | द्वारा ज्ञात की जा सकती हैं।
  2. संक्रमण एन्थैल्पी की गणना–संक्रमण (किसी पदार्थ के अपररूप का दूसरे में परिवर्तन) बहुत ही धीमी प्रक्रिया है; अतः विभिन्न पदार्थों के एक अपररूप से दूसरे में परिवर्तन (जैसे-डायमंड का ग्रेफाइट, पीले फॉस्फोरस का लाल फॉस्फोरस, रॉम्बिक सल्फर का मोनोक्लीनिक सल्फर में) के साथ होने वाले एन्थैल्पी परिवर्तन को सीधे नहीं मापा जा सकता। हेस के नियम की सहायता से विभिन्न पदार्थों की संक्रमण एन्थैल्पी की गणना की जा सकती
  3.  जलंयोजन एन्थैल्पी की गणना-जलयोजन एन्थैल्पी को प्रयोगों द्वारा सीधे ज्ञात नहीं किया जा सकता परन्तु हेस के नियम द्वारा इसे आसानी से ज्ञात किया जा सकता है।
  4. हाइड्रोजनीकरण एन्थैल्पी की गणना--हेस के नियम की सहायता से हाइड्रोजनीकरण एन्थैल्पी भी ज्ञात की जा सकती है।
  5. अभिक्रियाओं की मानक एन्थैल्पी की मणना-यौगिकों की दहन एन्थैल्पियों और विरचन एन्थैल्पियों की जानकारी से हेस के नियम द्वारा अभिक्रियाओं की मानक एन्थैल्पियों की गणना की जा सकती है। विरचन एल्थैल्पियों की सहायता से ऊष्मरासायनिक गणनाएँ करने में यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी अभिक्रिया की एन्थैल्पी ∆rH अभिक्रिया के उत्पादों की कुल एन्थैल्पी [Σ∆fH (Products)] तथा अभिकारकों की कुल एन्थैल्पी [Σ∆fH (Reactants)] का अन्तर होती है।
    अर्थात् ∆rH = Σ∆fH (Products) – Σ∆fH (Reactants)
  6. आबन्ध ऊर्जा की गणना-गैसीय अणुओं के क्रमाणुओं के मध्य उपस्थित एक मोल रासायनिक आबन्धों को तोड़ने के लिए आवश्यक ऊर्जा को आबन्धं ऊर्जा (bond energy) कहते हैं। इसे AH द्वारा प्रदर्शित करते हैं। यौगिकों की विरचन ऊष्माओं की जानकारी से उनकी आबन्ध ऊर्जाओं की गणना की जा सकती है तथा आबन्ध ऊर्जाओं की जानकारी से यौर्मिकों की विरचन ऊष्माओं की गणना की जा सकती है।
  7. अनुनाद ऊर्जा की गणना–हेस के नियम का प्रयोग ऊष्मरासायनिक आँकड़ों की सहायता से अनुनाद ऊर्जा की गणना करने में भी किया जाता है। किसी संरचना के लिए अभिक्रिया ” एन्थैल्पी परिकलित (सैद्धान्तिक रूप से) तथा प्रेक्षित (प्रयोगों द्वारा) मानों के अन्तर को अनुनाद ऊर्जा कहते हैं।

प्रश्न 12.
निम्न को परिभाषित कीजिए
1. गलन एंट्रॉपी,
2. वाष्पन एंट्रॉपी तथा
3. ऊर्ध्वपातन ऐट्रॉपी
उत्तर

1. गलन एंट्रॉपी-किसी ठोस पदार्थ के 1 मोल के उसके गलनांक पर द्रव में परिवर्तित होने पर होने वाला एंट्रॉपी परिवर्तन गलन एंट्रॉपी कहलाती है। इसका मान सदैवन्धनात्मक होता है क्योंकि सुव्यवस्थित क्रिस्टलीय ठोस में द्रव की अव्यवस्थित संरचना में संक्रमी में अव्यवस्था में वृद्धि होती है। इसे ∆fusS द्वारा प्रदर्शित करते हैं।
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2. वाष्पन एंट्रॉपी-किसी द्रव पदार्थ के 1 मोल के उसके क्वथनांक पर वाष्प में परिवर्तित होने पर होने वाला एंट्रॉपी परिवर्तन वाष्पन एंट्रॉपी कहलाता है। इसे ∆vapS द्वारा प्रदर्शित करते हैं। वाष्पन एंट्रॉपी का मान सदैव धनात्मक होता है क्योंकि कम अव्यवस्थित द्रव से अत्यधिक अव्यवस्थित गैस में परिवर्तन पर अव्यवस्था में वृद्धि होती है। गणितीय रूप में,
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-26

3. ऊर्ध्वपातन एंट्रॉपी-किसी ठोस पदार्थ के 1 मोल के उसके सीधे वाष्प में परिवर्तित होने पर होने वाला एंट्रॉपी परिवर्तन ऊर्ध्वपातन एंट्रॉपी कहलाता है। इसे ∆subS द्वारा प्रदर्शित करते हैं। गणितीय रूप में,
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प्रश्न 13.
ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम क्या है? स्थिर आयतन तथा 27°C पर CO की दहन ऊष्मा -66.7 किलोकैलोरी है। स्थिर दाब पर इसकी दहन ऊष्मा ज्ञात कीजिए।
उत्तर
इस नियम के अनुसार, स्वत: प्रवर्तित प्रक्रम ऊष्मागतिकीय रूप से अनुत्क्रमणीय होते हैं।” या “बाह्य साधनों का प्रयोग किये बिना स्वत: प्रवर्तित प्रक्रमों को उत्क्रमित नहीं किया जा सकता है।” या “किसी स्वत: प्रवर्तित प्रक्रम के लिए कुल एंट्रॉपी परिवर्तन धनात्मक होता है।” या “ब्रह्माण्ड की एंट्रॉपी में निरन्तर वृद्धि हो रही है।”
CO की दहन ऊष्मा का समीकरण
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प्रश्न 14.
ऊष्मागतिकी का तृतीय नियम लिखिए। इसका एक अनुप्रयोग भी बताइए।
या
ऊष्मागतिकी के तृतीय नियम का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
इस नियम के अनुसार, “परम शून्य ताप पर किसी पूर्ण क्रिस्टलीय पदार्थ की एंट्रॉपी शून्य मानी जा सकती है।”
यह नियम वाल्थर नर्स्ट ने सन् 1906 में दिया था। परम शून्य ताप पर शुद्ध क्रिस्टल के कणों में कोई गति नहीं होती है और वे पूर्ण रूप से व्यवस्थित होते हैं।
ऊष्मागतिकी के तृतीय नियम का प्रयोग शुद्ध पदार्थों की विभिन्न तापों पर निरपेक्ष एंट्रॉपियों की गणना करने में किया जाता है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
∆U तथा ∆H का मापन (कैलोरीमिति) किस प्रकार किया जाता है? विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर
∆U तथा ∆H का मापन-कैलोरीमिति रासायनिक एवं भौतिक प्रक्रमों से सम्बन्धित ऊर्जा परिवर्तन को जिस प्रायोगिक तकनीक द्वारा ज्ञात करते हैं उसे कैलोरीमिति (calorimetry) कहते हैं। कैलोरीमिति में प्रक्रम एक पात्र में किया जाता है। जिसे कैलोरीमीटर (calorimeter) कहते हैं। कैलोरीमीटर की सहायता से ऊष्मा परिवर्तन का मापन दो स्थितियों में—

  1. स्थिर आयतन पर (q,, अथवा AU) तथा
  2. स्थिर दाब पर (q, अथवा AH) किया जा सकता है।

∆U का मापन–रासायनिक अभिक्रियाओं के लिए स्थिर आयतन पर ऊर्जा परिवर्तन का मापन बम कैलोरीमीटर में किया जाता है जिसमें एक स्टील का पात्र होता है जिसे बम (bomb) कहते हैं। बम भारी स्टील का बना होता है तथा काफी मजबूत होता है क्योंकि इसे काफी उच्च दाब सहन करना होता है। बम एक वायुरुद्ध ढक्कन द्वारा ढका रहता है। बम में एक प्लेटिनम का कप होता है जिसमें पदार्थ लिया जाता है। बम में दो इलेक्ट्रोड भी होते हैं जो कप में फिलामेंट (filament) से जुड़े होते हैं। बम में ऑक्सीजन के प्रवेश की भी व्यवस्था होती है। बम को एक बड़े पात्र में रखा जाता है जिसमें जल भरा रहता है। साथ ही इस पात्र में एक थर्मामीटर तथा विलोडक भी रहते हैं। इस पूरी व्यवस्था को एक ऊष्मारोधी जैकेट में बन्द किया जाता है।
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-29
विधि-प्रतिदर्श की निश्चित (तोली गयी) मात्रा को प्लेटिनम कप में लिया जाता है। बम में उच्च दाब पर ऑक्सीजन को भी प्रवेश कराया जाता है। फिर फिलामेंट में विद्युत धारा प्रवाहित करके प्रतिदर्श को जलाया जाता है। अभिक्रिया में उत्पन्न ऊष्मा जले को स्थानान्तरित हो जाती है। उसके पश्चात् थर्मामीटर की सहायता से ताप ज्ञात कर लेते हैं। चूँकि अभिक्रिया एक बन्द पात्र में होती है अतः आयतन में कोई परिवर्तन नहीं होता है और कोई कार्य भी नहीं किया जाता है। यहाँ तक कि गैसों से सम्बन्धित रासायनिक अभिक्रियाओं में कोई भी कार्य नहीं होता है क्योंकि ∆V = 0 कैलोरीमीटर की ऊष्माधारिता ज्ञात होने पर निम्न सूत्रे की सहायता से ताप परिवर्तन (∆T) को ∆U(qv) में परिवर्तित कर लिया जाता है-

∆U=qv =C∆T

जहाँ, C = कैलोरीमीटर की ऊष्माधारिता, ∆T = जल के ताप में परिवर्तन
प्रतिदर्श की मात्रा ज्ञात होने पर निम्न सूत्र की सहायता से प्रति मोल आन्तरिक ऊर्जा परिवर्तन ज्ञात कर लिया जाता है-

[latex]\triangle U=\frac { C\triangle TM }{ m } [/latex]

जहाँ, C = कैलोरीमीटर की ऊष्माधारिता, AT = ताप परिवर्तन
M = प्रतिदर्श का मोलर द्रव्यमान, m= लिए गए प्रतिदर्श का द्रव्यमान
∆H का मापन–स्थिर दाब (सामान्यतः वायुमण्डलीय दाब) पर ऊष्मा परिवर्तन (q, अथवा AH) कॉफी कप कैलोरीमीटर (coffee cup calorimeter) की सहायता से ज्ञात किया जा सकता है। कॉफी कप कैलोरीमीटर में एक पॉलीस्टाइरीन का कप (ढक्कन सहित) होता है। जब किन्हीं दो विलयनों के मध्य होने वाली अभिक्रिया (माना की अभिक्रिया ऊष्माक्षेपी है) में एन्थैल्पी परिवर्तन ज्ञात करना होता है तो उनमें से एक विलयन की निश्चित मात्रा को कॉफी-कप कैलोरीमीटर में लेकर उसका थर्मामीटर की सहायता से तापे ज्ञात कर लेते हैं। इसके पश्चात् दूसरे विलयन (ज्ञात मात्रा) का भी ताप ज्ञात कर लेते हैं। फिर दूसरे विलयन की निश्चित मात्रा को कैलोरीमीटर में डालकर अभिक्रिया मिश्रण को विलोडक की सहायता से चलाकर मिश्रण के ताप में हुई वृद्धि ज्ञात कर लेते हैं। मिश्रण के ताप में हुई वृद्धि की सहायता से अभिक्रिया में उत्पन्न ऊष्मा निम्न प्रकार ज्ञात कर सकते हैं-
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 6 Thermodynamics img-30
माना विलयनों का ताप = t1°C,
मिश्रण का अधिकतम ताप = t2°C
दोनों विलयनों का कुल द्रव्यमान = m
विलयन की विशिष्ट ऊष्मा = s,

तब अभिक्रिया में उत्पन्न ऊष्मा, q= mxsx(t2-t1) = mxsx∆t विलयनों के ताप भिन्न होने की दशा में उन्हें वाटर बाथ (water bath) में रखकर उनके ताप समान कर लिए जाते हैं। स्थिर दाब पर उत्सर्जित अथवा अवशोषित ऊष्मा qp अभिक्रिया की ऊष्मा अथवा अभिक्रिया की एन्थैल्पी ∆rH कहलाती है। ऊष्मारोधी अभिक्रियाओं में ऊष्मा निर्मुक्त होती है तथा निकाय से परिवेश में ऊष्मा का प्रवाह होता है। इसलिए qp ऋणात्मक होता है तथा ∆r भी ऋणात्मक होता है। इसी तरह ऊष्माक्षेपी अभिक्रियाओं में ऊष्मा अवशोषित होती है अतः qp और ∆r दोनों धनात्मक होते हैं। कॉफी कप कैलोरीमीटर के स्थान पर ∆H के मापन के लिए हम एक अन्य कैलोरीमीटर का प्रयोग भी कर सकते हैं जिसमें अभिक्रिया एक ऐसे पात्र में करायी जाती है जिसकी दीवारें ऊष्मा की सुचालक होती हैं। यह पात्र एक अन्य बड़े ऊष्मारोधी दीवारों वाले पात्र में स्थित रहता है जिसमें जल होता है। जल में थर्मामीटर तथा विलोडक भी रहते हैं। अभिक्रिया में उत्पन्न/अवशोषित ऊष्मा के कारण जल के ताप में परिवर्तन होता है। इसी ताप परिवर्तन को उपर्युक्त सूत्रे द्वारा qp अथवा ∆H में परिवर्तित कर लिया जाता है।

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UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter

UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter (द्रव्य की अवस्थाएँ)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Chemistry. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter (द्रव्य की अवस्थाएँ).

पाठ के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
30°C तथा 1 bar दाब पर वायु के 50 dm आयतन को 200 dm तक संपीडित करने के लिए कितने न्यूनतम दाब की आवश्यकता होगी?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-1

प्रश्न 2.
35°C ताप तथा 1.2 bar दाब पर 120 mL धारिता वाले पात्र में गैस की निश्चित मात्रा भरी है। यदि 35°C पर गैस को 180 mL धारिता वाले फ्लास्क में स्थानान्तरित किया जाता है तो गैस का दाब क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-2

प्रश्न 3.
अवस्था-समीकरण का उफ्योग करते हुए स्पष्ट कीजिए कि दिए गए ताप पर गैस का घनत्व गैस के दाब के समानुपाती होता है।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-3

प्रश्न 4.
0°C पर तथा 2 bar दाब पर किसी गैस के ऑक्साइड का घनत्व 5 bar दाब पर डाइनाइट्रोजन के घनत्व के समान है तो ऑक्साइड का अणुभार क्या है?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-4
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-5

प्रश्न 5.
27°C पर एक ग्राम आदर्श गैस का दाब 2 bar है। जब समान ताप एवं दाब पर इसमें दो ग्राम आदर्श गैस मिलाई जाती है तो दाब 3 bar हो जाता है। इन गैसों के अणुभार में सम्बन्ध स्थापित कीजिए।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-6

प्रश्न 6.
नाली साफ करने वाले ड्रेनेक्स में सूक्ष्म मात्रा में ऐलुमिनियम होता है। यह कॉस्टिक सोडा से क्रिया पर डाइहाइड्रोजन गैस देता है। यदि 1 bar तथा 20°C ताप पर 0.15 g ऐलुमिनियम अभिक्रिया करेगा तो निर्गमित डाइहाइड्रोजन का आयतन क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-7
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-8

प्रश्न 7.
यदि 27°C पर 9 dm धारिता वाले फ्लास्क में 3.2 ग्राम मेथेन तथा 4.4 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड का मिश्रण हो तो इसका दाब क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-9

प्रश्न 8.
27°C ताप पर जब 1L के फ्लास्क में 0.7 bar पर 2.0L डाइऑक्सीजन तथा 0.8 bar पर 0-5 L डाइहाइड्रोजन को भरा जाता है तो गैसीय मिश्रण का दाब क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-20

प्रश्न 9.
यदि 27°C ताप तथा 2 bar दाब पर एक गैस का घनत्व 5.46 g/dm’ है तो STP पर इसका घनत्व क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-21

प्रश्न 10.
यदि 546°C तथा 0.1 bar दाब पर 34.05 mL फॉस्फोरस वाष्प का भार 0.0625 g है तो फॉस्फोरस का मोलर द्रव्यमान क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-22
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-23

प्रश्न 11.
एक विद्यार्थी 27°C पर गोल पेंदे के फ्लास्क में अभिक्रिया-मिश्रण डालना भूल गया तथा उस फ्लास्क को ज्वाला पर रख दिया। कुछ समय पश्चात उसे अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने उत्तापमापी की सहायता से फ्लास्क का ताप 477°C पाया। आप बताइए कि वायु का कितना भाग फ्लास्क से बाहर निकला?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-24

प्रश्न 12.
3.32 bar पर 5 dm आयतन घेरने वाली 4.0 mol गैस के ताप की गणना कीजिए। (R = 0.083 bar dm3 K-1mol-1)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-25

प्रश्न 13.
1.4g डाइनाइट्रोजन गैस में उपस्थित कुल इलेक्ट्रॉनों की संख्या की गणना कीजिए।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-26

प्रश्न 14.
यदि एक सेकण्ड में 100 गेहूँ के दाने वितरित किए जाएँ तो आवोगाद्रो संख्या के बराबर दाने वितरित करने में कितना समय लगेगा?
उत्तर
आवोगाद्रो की संख्या = 6.022×1023। चूँकि 1010 दाने प्रति सेकण्ड वितरित होते हैं,
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-27

प्रश्न 15.
27°C ताप पर 1 dm3 आयतन वाले फ्लास्क में 8 ग्राम डाइऑक्सीजन तथा 4 ग्राम डाइहाइड्रोजन के मिश्रण का कुल दाब कितना होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-28

प्रश्न 16.
गुब्बारे के भार तथा विस्थापित वायु के भार के अन्तर को ‘पेलोड कहते हैं। यदि27°C पर 10 m त्रिज्या वाले गुब्बारे में 1.66 bar पर 100 kg हीलियम भरी जाए तो पेलोड की गणना कीजिए। (वायु का घनत्व = 1.2 kg m3 तथा R = 0.083 bar dm3 K-1mol-1)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-29

प्रश्न 17.
31.1°C तथा 1 bar दाब पर 8.8 ग्राम CO2) द्वारा घेरे गए आयतन की गणना कीजिए। (R = 0.083 bar LK-1mol-1)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-30

प्रश्न 18.
समान दाब पर किसी गैस के 2.9 ग्राम द्रव्यमान का 95°C तथा 0.184 ग्राम डाइहाइड्रोजन का 17°C पर आयतन समान है। बताइए कि गैस का मोलर द्रव्यमान क्या
होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-31

प्रश्न 19.
1 bar दाब पर डाइहाइड्रोजन तथा डाइऑक्सीजन के मिश्रण में 20% डाइहाइड्रोजन (भार से) रखा जाता है तो डाइहाइड्रोजन का आंशिक दाब क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-32

प्रश्न 20.
PV2T2/n राशि के लिए S.I. इकाई क्या होगी?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-33

प्रश्न 21.
चार्ल्स के नियम के आधार पर समझाइए कि न्यूनतम सम्भव ताप -273°C होता है।
उत्तर
जिस प्रकार गैस को गर्म करने पर उसका आयतन बढ़ता है ठीक उसी प्रकार उसे ठण्डा करने पर अर्थात् उसका ताप घटाने पर उसका आयतन घटता भी है। ऐसी स्थिति में,
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-34
अतः -273°C पर गैस का आयतन शून्य हो जाना चाहिए।
इससे कम ताप पर आयतन ऋणात्मक हो जाएगा जो कि अर्थहीन है। वास्तव में सभी गैसें इस ताप पर पहुँचने से पउत्तरे ही द्रवित हो जाती हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि -273°C (0K) ही न्यूनतम सम्भव ताप है।

प्रश्न 22.
कार्बन डाइऑक्साइड तथा मेथेन का क्रान्तिक ताप क्रमशः 31.1°C एवं -81.9°C है। इनमें से किसमें प्रबल अन्तर-आण्विक बल है तथा क्यों?
उत्तर
क्रान्तिक ताप जितना अधिक होगा, गैस को उतनी ही सरलता से द्रवीभूत किया जा सकता है। यह केवल तब सम्भव है जब अन्तर आणविक बल मजबूत हो। अत: CO2में, CH4 की तुलना में प्रबल अन्तराणविक बल है।

प्रश्न 23.
वाण्डरवाल्स प्राचल की भौतिक सार्थकता को समझाइए।
उत्तर

  1. वाण्डरवाल्स प्राचल ‘a’-इसका मान गैस के अणुओं में विद्यमान आकर्षण बलों के परिमाण की माप होता है। अत: a का मान अधिक होने का तात्पर्य, अन्तर-आण्विक आकर्षण बलों का अधिक होना है।
  2.  वाण्डरवाल्स प्राचल ‘b’-इसका मान गैस-अणुओं के प्रभावी आकार की माप है। इसका मान गैस-अणुओं के वास्तविक आयतन का चार गुना होता है। यह अपवर्जित आयतन कउत्तराता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गैस के किसी निश्चित भार के लिए यदि दाब को आधा तथा ताप को दोगुना कर दिया जाए, तो गैस का आयतन होगा ।
(i) V/4 ,
(ii) 2V2
(iii) 6V
(iv) 4V
उत्तर
(iv) 4V

प्रश्न 2.
स्थिर दाब पर ऐक लीटर धारिता वाले पात्र को 27°C से 37°C तक गर्म किया जाता है। बाहर निकलने वाली वायु का आयतन है।
(i) 22.2 लीटर
(ii) 0.333 लीटर
(iii) 0.222 लीटर
(iv) 33.3 लीटर
उत्तर
(iv) 33.3 लीटर

प्रश्न 3.
27°C पर एक गैस का दाब 90 सेमी है। स्थिर आयतन पर -173°C ताप पर गैस का दाब होगा
(i) 30 सेमी
(ii) 40 सेमी
(iii) 60 सेमी
(iv) 68 सेमी
उत्तर
(i) 30 सेमी

प्रश्न 4.
एक बर्तन में 25°C पर मेथेन तथा हाइड्रोजन के समान भार भरे गए हैं। हाइड्रोजन का दाब होगा, कुल दाबे का
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-35
उत्तर
(ii) [latex]\frac { 8 }{ 9 } [/latex]

प्रश्न 5.
किसी गैस के 0.1 ग्राम का सा० ता० दा० पर आयतन 20 मिली है। इस गैस का अणुभार है।
(i) 56
(ii) 40
(iii) 80
(iv) 60
उत्तर
(iii) 80

प्रश्न 6.
ऑक्सीजन के 16 ग्राम तथा हाइड्रोजन के 3 ग्राम को मिलाया गया और 760 मिमी दाब तथा 273 K ताप पर एक बर्तन में रखा गया। मिश्रण द्वारा घेरा गया कुल आयतन होगा
(i) 22.4 लीटर
(ii) 33.6 लीटर
(iii) 11.2 लीटर
(iv) 44.8 लीटर
उत्तर
(iv) 44.8 लीटर

प्रश्न 7.
एक मिश्रण का कुल दाब ‘P’ है। इस मिश्रण में 5.6 ग्राम नाइट्रोजन और 6.4 ग्राम ऑक्सीजन है। मिश्रण में नाइट्रोजन का आंशिक दाब है।
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-36
उत्तर
(ii) [latex]\frac { P }{ 2 } [/latex]

प्रश्न 8.
समान धारिता वाले दो फ्लास्कों में 500 मिमी दाब पर नाइट्रोजन एवं 250 मिमी दाब पर हाइड्रोजन भरी है। दोनों पात्रों को जोड़ देने पर सम्पूर्ण मिश्रण का दाब होगा
(i) 500 मिमी
(ii) 375 मिमी
(iii) 250 मिमी
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ii) 375 मिमी

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में किस गैस का द्रवीकरण आसानी से होता है?
(i) NH3
(ii) SO2
(iii) H2
(iv) CO2
उत्तर
(i) NH3

प्रश्न 10.
जिस ताप पर द्रव का वाष्प दाब वायुमण्डलीय दाब के बराबर हो जाता है, उसे कहा जाता
(i) हिमांक
(ii) क्वथनांक
(iii) गलनांक
(iv) क्रान्तिक ताप
उत्तर
(ii) क्वथनांक

प्रश्न 11.
किसी द्रव की पृष्ठ तनाव
(i) ताप वृद्धि से बढ़ता है।
(ii) ताप वृद्धि से घटता है।
(iii) ताप का कोई प्रभाव नहीं होता है
(iv) कोई उत्तर सही नहीं है।
उत्तर
(ii) ताप वृद्धि से घटती है।

प्रश्न 12.
एक द्रव और जल के समान आयतन द्वारा एक बिन्दुमापी से क्रमशः 40 और 20 बूंदें बनाईं गईं। द्रव और जल के घनत्वों का अनुपात 2:1 है। यदि जल का पृष्ठ तनाव 7.2 x10-2न्यूटन/मीटर है, तो द्रव का पृष्ठ तनाव होगा।
(i) 14.4×10-2 न्यूटन/मीटर।
(ii) 28.8 x 10-2 न्यूटन/मीटर
(iii) 7.2×10-2 न्यूटन/मीटर
(iv) 0.36×10-2 न्यूटन/मीटर
उत्तर
(iii) 7.2 x 10-2 न्यूटन/मीटर

प्रश्न 13.
श्यानता की S.I. इकाई है।
(i) पॉइज
(ii) पास्कल
(iii) डाइन सेमी-2
(iv) न्यूटन सेमी-2
उत्तर
(ii) पास्कल

प्रश्न 14.
श्यानता गुणांक के C.G.S. और S.I. मात्रक में सम्बन्ध है।
(i) 1 पॉइज = 10 पास्कल-सेकण्ड
(ii) 1 पॉइज = 10-1 पास्कल-सेकण्ड
(iii) 1 पॉइज = 10-2 पास्कल-सेकण्ड
(iv) 1 पॉइज = 102 पास्कल-सेकण्ड
उत्तर
(ii) 1 पॉइज = 10-1 पास्कल-सेकण्ड

प्रश्न 15.
किसकी श्यानता अधिकतम है?
(i) ऐल्कोहॉल
(ii) ईथर
(iii) ग्लाइकॉल
(iv) ग्लिसरॉल
उत्तर
(iv) ग्लिसरॉल

प्रश्न 16.
श्यानता के सन्दर्भ में कौन-सा कथन असत्य है?
(i) दाब बढ़ाने पर श्यानता घटती है।
(ii) जल में सुक्रोस मिलाने पर श्यानता बढ़ती है।
(iii) जल में KCI मिलाने पर श्यानता घटती है।
(iv) ताप बढ़ाने पर श्यानता घटती है।
उत्तर
(i) दाब बढ़ाने पर श्यानता घटती है।

प्रश्न 17.
किसकी श्यानता अधिकतम होगी?
(i) (C2H5)2O
(ii) C2H5OH
(iii) C4H9OH
(iv) (CH3)2O
उत्तर
(iii) C4H9OH

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
15°C पर एक गैस का आयतन 360 मिली है। यदि दाब स्थिर है, तो किस ताप पर उसका आयतन 400 मिली हो जाएगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-37

प्रश्न 2.
स्थिर दाब तथा 127°C ताप पर एक गैस का आयतन किस ताप पर दोगुना हो जायेगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-38

प्रश्न 3.
गैस समीकरण PV = nRT में n क्या है? इसका मान कैसे निकालते हैं?
उत्तर
गैस समीकरण PV=nRT में n गैस के मोलों की संख्या है। यदि गैस समीकरण PV = nRT में P,V, R तथा T के मान ज्ञात हों, तो n का मान निम्न सूत्र से ज्ञात कर लेते हैं।
[latex]n=\frac { PV }{ RT } [/latex]

प्रश्न 4.
किसी विशेष ताप पर किसी गैस का दाब, घनत्व से किस प्रकार सम्बन्धित होता है?
उत्तर
ताप और दाब की स्थिर दशाओं में विभिन्न गैसों के घनत्व उनके मोलर द्रव्यमानों के समानुपाती होते हैं।
अर्थात्
[latex]M=\frac { dRT }{ P } [/latex]

प्रश्न 5.
गैस स्थिरांक के मान को S.I. मात्रकों में लिखिए।
उत्तर
गैस स्थिरांक R का मान S.I. मात्रकों में 8314 JK-1mol-1 है।

प्रश्न 6.
1 ग्राम H2 का S.T.P. पर आयतन क्या होगा?
उत्तर
1 ग्राम H2 में मोलों की संख्या = [latex]\frac { 1 }{ 2 } [/latex]
∵ 1 मोल H2 का S.T.P. पर आयतन = 22.4 ली।
∴ 1 मोल H2 का S.T.P. पर आयतन = [latex]22.4\times \frac { 1 }{ 2 } =11.2[/latex] ली

प्रश्न 7.
किसी गैस को इतना गर्म किया जाता है कि उसका दाब और आयतन दोनों दोगुना हो जाते हैं। गैस का नया परमताप क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-39

प्रश्न 8.
– 73°C ताप पर किसी गैस का दाब 1 वायुमण्डल है। यदि आयतन स्थिर रखा जाये, तो उसे किस ताप तक गर्म करें कि दाब दोगुना हो जाए?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-40

प्रश्न 9.
17°C ताप तथा 870 मिली दाब पर किसी गैस के निश्चित द्रव्यमान का आयतन 76 मिली है। मानक ताप तथा दाब पर उस गैस का आयतन क्या होगा?
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-41

प्रश्न 10.
आदर्श गैस से आप क्या समझते हैं? गैस के किसी एक मोल के लिए आदर्श गैस समीकरण लिखिए।
उत्तर
जो गैस ताप व दाब की सभी परिस्थितियों में बॉयल एवं चार्ल्स के नियम का तथा आदर्श गैस समीकरण का पालन करती है, उसे आदर्श गैस कहते हैं।
1 मोल गैस के लिए आदर्श गैस समीकरण इस प्रकार होगी
PV =nRT
यदि n = 1 मोल हो, तो
PV = RT
जहाँ, P = दाब, V = आयतन, R = सार्वत्रिक गैस स्थिरांक, T = परमताप

प्रश्न 11.
परमताप को समझाइए।
उत्तर
273°C का वह न्यूनतम सम्भव परिकल्पित ताप जिस पर सभी गैसों को आयतन शून्य माना जाता है परमताप कउत्तराता है। वास्तव में प्रयोगों द्वारा परमताप का मान -27315°C ज्ञात हुआ है परन्तु सुविधा की दृष्टि से इसके सन्निकट मान -273°C का ही प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 12.
किन परिस्थितियों में आदर्श गैस आदर्श व्यवहार प्रदर्शित करती है?
उत्तर
वह गैस जो सभी तापों और दाबों पर गैस के नियमों और आदर्श गैस समीकरण (PV = nRT) का पालन करती है आदर्श गैस कउत्तराती है परन्तु यह पाया गया है कि कोई भी गैस सभी तपों और दाबों पर गैस के नियमों तथा गैस समीकरण का पालन नहीं करती है अतः कोई भी गैस आदर्श नहीं है।

प्रश्न 13.
क्रान्तिक ताप की परिभाषा दीजिए।
उत्तर
वह ताप जिसके नीचे दाब की वृद्धि करने से गैस द्रवित हो जाती है और जिसके ऊपर वह किसी भी दाब पर द्रवित नहीं होती है उसे क्रान्तिक ताप कहा जाता है। क्रान्तिक ताप को 7 से प्रदर्शित किया जाता है।

प्रश्न 14.
जलीय तनाव को परिभाषित कीजिए।
उत्तर
किसी निश्चित ताप पर जल वाष्प द्वारा आरोपित दाब एक नियतांक होता है तथा इसे जलीय तनाव कहते हैं।

प्रश्न 15.
श्यानता गुणांक को परिभाषित कीजिए।
उत्तर
किसी द्रव की श्यानता की परिमाणात्मक मापे उसका श्यानता गुणांक n (ईटा) होता है जिसे सामान्यतः द्रव की श्यानता कहते हैं।
द्रव की श्यानता (η) ताप पर निर्भर करती है। ताप वृद्धि के साथ श्यानता घटती है। इसकी इकाई पॉइज तथा S.I. मात्रक किलोग्राम प्रति मी/से या पास्कल-सेकण्ड है।

प्रश्न 16.
द्रव की श्यानता पर ताप तथा दाब के प्रभाव को समझाइए।
उत्तर

1. द्रव की श्यानता पर ताप परिवर्तन का प्रभाव–ताप बढ़ाने पर द्रव की श्यानता का मान घटता है क्योंकि ताप बढ़ाने पर द्रव के अणुओं की औसत गतिज ऊर्जा बढ़ती है जिससे अन्तराणविक आकर्षण बल का मान कम हो जाता है।
2. द्रव की श्यानता पर दाब परिवर्तन का प्रभाव-दाब बढ़ाने पर द्रव के अणु निकट आ जाते हैं। ” जिसके कारण अन्तराणविक आकर्षण बल का मान बढ़ जाता है जिससे श्यानता बढ़ जाती है।

प्रश्न 17.
जल की तुलना में ग्लिसरीन धीरे-धीरे बहती है, क्यों?
उत्तर
किसी द्रव के बहने का गुण द्रव की प्रकृति पर निर्भर करता है, क्योंकि द्रव के अणुओं के मध्य अन्तराणविक आकर्षण बलों का मान उच्च होने पर श्यानता का मान भी उच्च होता है जिससे बहने की दर कम हो जाती है। ग्लिसरीन के अणुओं के मध्य अन्तराणविक आकर्षण बल का मान जल के अणुओं के मध्य अन्तराणविक आकर्षण बल के मान से उच्च होता है अर्थात् ग्लिसरीन की श्यानता जल की श्यानता की तुलना में अधिक होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सम्बन्ध PV = nRT को निगमित कीजिए जहाँ R सार्वत्रिक गैस नियतांक है।
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 5 States of Matter img-42

प्रश्न 2.
आदर्श गैस और वास्तविक गैस में अंतर लिखिए।
उत्तर
वह गैस जो सभी तापों और दाबों पर गैस के नियमों और आदर्श गैस समीकरण (PV =nRT) का पालन करती है आदर्श गैस कउत्तराती है जबकि ऐसी गैसें जो सभी तापों और दाबों पर आदर्श व्यवहार नहीं दर्शाती हैं वास्तविक गैसें कउत्तराती हैं।
वास्तव में कोई भी गैस आदर्श गैस नहीं है जबकि सभी गैसें वास्तविक गैसें हैं।

प्रश्न 3.
गतिज गैस समीकरण के प्रयोग से प्रदर्शित कीजिए कि गैस की प्रति मोल औसत गतिज ऊर्जा [latex]\frac { 3 }{ 2 } [/latex]RT से दी जाती है।
उत्तर
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प्रश्न 4.
क्रान्तिक दाब तथा क्रान्तिक आयतन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
क्रान्तिक दाब–किसी गैस को क्रान्तिक ताप पर द्रवित करने के लिए जिस न्यूनतम दाब की आवश्यकता होती है वह उस गैस का क्रान्तिक दाब कउत्तराता है। इसे Pe से प्रदर्शित करते हैं। क्रान्तिक ताप जितना कम होता है क्रान्तिक दाब भी उतना ही कम होता है।

क्रान्तिक आयतन–क्रान्तिक दाब तथा क्रान्तिक ताप पर किसी गैस के 1 मोल का आयतन उसका ” क्रान्तिक आयतन कउत्तराता है। इसे Vc द्वारा प्रदर्शित करते हैं।

प्रश्न 5.
वाष्पन तथा क्वथन में अन्तर बताइए।
उत्तर
वाष्पन तथा क्वथन में निम्नलिखित अन्तर हैं-
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प्रश्न 6.
ताप का निम्न पर क्या प्रभाव पड़ता है।
(1) द्रव का घनत्व,
(2) द्रव का पृष्ठ तनाव,
(3) द्रव का वाष्प दाब।
उत्तर

  1. ताप बढ़ने पर अणुओं की गतिज ऊर्जा बढ़ जाती है जो अणुओं के मध्य अन्तराणविक आकर्षण बलों के विरुद्ध कार्य करके द्रव के आयतन में वृद्धि कर देती है। आयतन में वृद्धि के कारण द्रव का घनत्व घट जाता है। अतः ताप बढ़ाने पर द्रव का घनत्व घटता है। ताप घटाने पर इसका विपरीत होता है।
  2. ताप के बढ़ने पर अणुओं की औसत गतिज ऊर्जा बढ़ जाती है और उनके मध्य अन्तराणविक आकर्षण बल घट जाता है। इसलिए द्रव की सतह पर उपस्थित अणुओं को द्रव के अन्दर स्थित अणु कम आकर्षित करते हैं जिससे पृष्ठ तनाव घट जाता है। इसके ठीक विपरीत, ताप के घटने पर पृष्ठ तनाव बढ़ जाता है।
  3. अधिक ताप पर द्रव के अधिकं अणुओं के पास द्रव से बाहर निकलने के लिए पर्याप्त ऊर्जा होती है। जबकि कम ताप पर ऐसे अणु बहुत कम होते हैं इसलिए ताप बढ़ने पर द्रव का वाष्प दाब बढ़ जाता है। इसके ठीक विपरीत ताप घटने पर द्रव का वाष्प दाब घट जाता है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बॉयल का नियम क्या है? यह नियम ग्राफीय रूप से किस प्रकार सत्यापित होता है। इस नियम का क्या महत्त्व है?
उत्तर
बॉयल का नियम (आयतन-दाब सम्बन्ध)-सन् 1962 में आयरिश भौतिक विज्ञानी राबर्ट बॉयल ने सर्वप्रथम गैस के आयतन और दाब में मात्रात्मक सम्बन्ध का अध्ययन किया। इस सम्बन्ध को बॉयल का नियम (Boyle’s law) कहते हैं। इस नियम के अनुसार, स्थिर ताप पर किसी गैस की निश्चित मात्रा का आयतन उसके दाब के व्युत्क्रमानुपाती होता है। यदि स्थिर ताप T पर किसी गैस की निश्चित मात्रा का आयतन V तथा उसको दाब P है तो बॉयल के नियमानुसार,
[latex]P\propto \frac { 1 }{ V } [/latex] (जब ताप और द्रव्यमान स्थिर हैं)
अथवा [latex]P=k\frac { 1 }{ V } [/latex] अथवा PV=k (नियतांक)
जहाँ, k एक स्थिरांक (constant) है जिसका मान गैस की मात्रा, गैस के ताप और उन मात्रकों पर निर्भर करता है जिनके द्वारा P तथा V व्यक्त किए गए हैं।
उपर्युक्त समीकरण के आधार पर बॉयल नियम के अनुसार, स्थिर ताप पर गैस की निश्चित मात्रा के आयतन तथा दाब का गुणनफल स्थिर (constant) होता है।
माना किसी गैस की निश्चित मात्रा का ताप T पर आयतन , तथा दाब P2 है। अब यदि ताप T पर ही गैस का दाब , कर दिया जाए तथा इससे उसका आयतन V2 हो जाए तब बॉयल के नियम के अनुसार,
P1V1 = P2V2 = स्थिरांक (जब द्रव्यमान और ताप स्थिर हैं)
अथवा [latex]\frac { { P }_{ 1 } }{ { P }_{ 2 } } =\frac { { V }_{ 2 } }{ { V }_{ 1 } } [/latex]
यदि इस स्थिति में हमें इन चार चरों (variables) में से तीन के मान ज्ञात हों, तो चौथे का मान ज्ञात किया जा सकता है। बॉयल के नियम का ग्राफीय निरूपण बॉयल के नियम का ग्राफीय निरूपण निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
1.V तथा P के मध्य ग्राफ–नियत ताप पर किसी गैस की निश्चित मात्रा के आयतन (V) तथा दाब (P) के मध्य ग्राफ एक परवलय (hyperbola) होता है। यह दर्शाता है कि गैस का आयतन गैस के दाब का व्युत्क्रमानुपाती होता है।
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2. PV तथा P के मध्य ग्राफ—यह ग्राफ़ X-अक्ष के समानान्तर एक सीधी रेखा होता है। यह ग्राफ दर्शाता है कि नियते ताप पर किसी गैस की निश्चित मात्रा के आयतन तथा दाब का गुणनफल स्थिरांक होता है।
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3.P तथा [latex]\frac { 1 }{ V } [/latex] के मध्य ग्राफ—यह ग्राफ मूल बिन्दु से गुजरती हुई एक सीधी रेखा होता है। यह दर्शाता है कि नियत ताप पर गैस की निश्चित मात्रा के आयतन का व्युत्क्रम उसके दाब के अनुक्रमानुपाती होता है। अर्थात् गैस का आयतन उसके दाब के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
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जैसा कि आप जानते हैं बॉयल नियम के अनुसार,
PV=k
तथा k का मान गैस के द्रव्यमान तथा ताप दोनों पर निर्भर करता है। इसलिए किसी गैस की निश्चित मात्रा के लिए भिन्न-भिन्न तापों पर P-V वक्र, [latex]P-\frac { 1 }{ V } [/latex] वक्र तथा P-PV वक्र भिन्न-भिन्न आते हैं। एक ही ताप से सम्बन्धित वक्र समतापी (isothermal) कउत्तराता है। विभिन्न ग्राफों के वक्र नीचे दर्शाए गए हैं।
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बॉयल के नियम का महत्त्व
बॉयल का नियम दर्शाता है कि गैसों को सम्पीडित किया जा सकता है। जब किसी गैस की निश्चित मात्रा को सम्पीडित किया जाता है तो उसके अणु कम स्थान घेरते हैं अर्थात् गैस अधिक सघन हो जाती है।
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अतः कहा जा सकता है कि नियते ताप’ पर गैस की निश्चित मात्रा के लिए, गैस का घनत्व उसके दाब के समानुपाती होता है।
समुद्र-तल के पास की वायु पर उसके ऊपर स्थिर वायु का दाब होता है जबकि पर्वतों की वायु पर यह दाब कम होता है इसलिए समुद्र-तल के पास की वायु अधिक सघन तथा पर्वतों की वायु कम सघन होती है। यही कारण है कि पर्वतों पर कम ऑक्सीजन उपलब्ध होती है जिसके कारण वहाँ पर सिरदर्द, बेचैनी आदि होने लगती है। इससे बचने के लिए ही पर्वतारोही अपने साथ पर्वतों पर ऑक्सीजन के सिलेण्डर ले जाते हैं। इसी कारण से ऊँचाई पर उड़ने वाले वायुयानों में सामान्य दाब रखा जाता है। दाब के कम होने पर इनमें ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था होती है।
हीलियम के गुब्बारों को केवल आधा भरा जाता है। यदि इन्हें पूरा भर दिया जाए तो ऊपर जाकर दाब कम होने के कारण इनमें भरी गैस का आयतन बढ़ जाता है जिससे वे फट जाते हैं।

प्रश्न 2.
चार्ल्स का नियम क्या है? यह नियम ग्राफीय रूप से किस प्रकार सत्यापित होता है? इस नियम का क्या महत्त्व है?
उत्तर
चार्ल्स का नियम (ताप-आयतन सम्बन्ध)-स्थिर दाब पर किसी गैस के आयतन में ताप के साथ परिवर्तन का अध्ययन सर्वप्रथम फ्रांसीसी रसायनज्ञ जैक्स चार्ल्स (Jacques Charles) ने सन् 1787 में किया। बाद में इस सम्बन्ध का अध्ययन जोसफ गै-लुसैक ने भी किया। इनके प्रेक्षणों के आधार पर प्रतिपादित नियम को चार्ल्स का नियम कहते हैं जिसके अनुसार, स्थिर दाब पर किसी गैस की निश्चित मात्रा का आयतन ताप के प्रत्येक 1°C बढ़ने या घटने पर उसके 0°C ताप के आयतन का 1/273 वाँ भाग बढ़ या घट जाता है।
यदि किसी गैस का 0°C पर आयतन , तथा १°C पर आयतन है, तब चार्ल्स के नियमानुसार,
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इस प्रकार यदि गैस की निश्चित मात्रा का 0°C पर आयतन ज्ञात हो, तो किसी अन्य ताप पर उसका आयतन ज्ञात किया जा सकता है।
चार्ल्स के नियम का ग्राफीय निरूपण
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जब स्थिर दाब पर किसी गैस की निश्चित मात्रा के आयतन तथा ताप के मध्य ग्राफ खींचा जाता है, तो एक सीधी रेखा (straight line) प्राप्त होती है।
जब इस सीधी रेखा को नीचे की ओर बढ़ाते हैं, तो यह रेखा X-अक्ष अर्थात् ताप के अक्ष को -273°C पर काटती है। यह दर्शाता है कि एक गैस का आयतन -273°C पर शून्य होता है। इससे कम ताप पर गैस का आयतन ऋणात्मक होता है जो कि असम्भव है। गैस की निश्चित मात्रा के लिए, प्रत्येक दाब पर V-t वक्र अलग होता है। जब दाब कम होता है, तो रेखा का ढाल अधिक होता है तथा जब दाब अधिक होता है, तो रेखा को ढाल कम होता है। स्थिर दाब पर खींची गई प्रत्येक V- t रेखा को समदाबी रेखा (isobar) कहते हैं। ऊपर दिए गए ग्राफ में प्रत्येक रेखा समदाबी है।
चाल्र्स के नियम का महत्त्व
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गुब्बारों में गर्म वायु का प्रयोग चार्ल्स के नियम पर ही आधारित है। चार्ल्स के नियम के अनुसार, ताप बढ़ने पर गैस का आयतन बढ़ता है। चूंकि गैस का द्रव्यमान वही रहता है इसलिए गैस का घनत्व कम हो जाता है। इसलिए गर्म वायु ठंडी वायु से कम सघन होती है। इसी कारण से गर्म वायु वाले गुब्बारे वायुमण्डल को ठण्डी वायु को विस्थापित करके ऊपर उठ पाते है।

प्रश्न 3.
गै-लुसैक का नियम क्या है? विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर
गै-लुसैक का नियम (दाब-ताप सम्बन्ध)-स्थिर आयतन पर किसी गैस की निश्चित मात्रा का दाब ताप के प्रत्येक 1°C बढ़ने या घटने पर उसके 0°C वाले दाब का [latex]\frac { 1 }{ 273 } [/latex] भाग बढ़ या घट जाता है।
यदि किसी गैस की निश्चित मात्रा के ताप 0°C और t°C पर दाब क्रमशः P0तथा Pt हैं तब
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जहाँ, k एक स्थिरांक है जिसका मान गैस की मात्रा, उसके आयतन और उस मात्रक पर निर्भर करता है। जिसमें दाब व्यक्त किया गया है।
अत: स्थिर आयतन पर किसी निश्चित मात्रा वाली गैस का दाब उसके परमताप के समानुपाती होता है। इस सम्बन्ध को गै-लुसैक का नियम (Gay-Lussac’s law) कहते हैं।
P= kT से, [latex]\frac { P }{ T } =k[/latex] (जबकि गैस की मात्रा और आयतन स्थिर हैं)
यदि स्थिर आयतन पर गैस के एक नमूने के प्रारम्भिक दाब, प्रारम्भिक परमताप, अन्तिम दाब तथा अन्तिम परमताप क्रमशः P1,T1,P2, तथा T2, हैं तब गै-लुसैक के नियमानुसार, [latex]\frac { { P }_{ 1 } }{ { T }_{ 1 } } =\frac { { P }_{ 2 } }{ { T2 }_{ } } =k[/latex]
गै-लुसैक के नियम का प्रायोगिक सत्यापन
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गै-लुसैक के नियम को संलग्न चित्र में दर्शाए गए उपकरण द्वारा सत्यापित किया जा सकता है। फ्लास्क में ली गई गैस का ताप तापस्थायी (thermostat) द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है। तापमापी से गैस का ताप तथा दाबमापी से गैस का दाब ज्ञात करते हैं। प्रत्येक स्थिति में [latex]\frac { P }{ T } [/latex] का मान स्थिर (constant) आता है जो गै-लुसैक के नियम का सत्यापन करता है।
गै-लुसैक के नियम का ग्राफीय निरूपण
नियत आयतन वाली किसी गैस की निश्चित मात्रा के दाब तथा परमताप (केल्विन पैमाने पर। ताप) के मध्य ग्राफ एक सीधी रेखा होता है। नीचे की ओर बढ़ाने पर यह सीधी रेखा मूल बिन्दु पर मिलती है जो यह दर्शाता है कि किसी गैस का परम शून्य ताप पर दाब शून्य हो जाता है। दूसरे शब्दों में, परम शून्य ताप पर गैस के अणु गति नहीं करते हैं।
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आरेख की प्रत्येक रेखा स्थिर आयतन पर प्राप्त की गयी है अतः इसकी प्रत्येक रेखा सम आयतनी. (isochore) कउत्तराती है।

प्रश्न 4.
द्रव के वाष्प दाब से आप क्या समझते हैं? यह किन-किन कारकों पर निर्भर करता है?
उत्तर
वाष्प दाब “निश्चित ताप पर यदि कोई द्रव एवं उसकी वाष्प साम्यावस्था में हो, तो वाष्प द्वारा द्रव पर डाला गया दाब, उस द्रव का वाष्प दाब कउत्तराता है।
द्रव ⇌ वाष्प
दिए गए ताप पर द्रव का वाष्प दाब उसका अभिलाक्षणिक गुण है।
द्रव के वाष्प दाब को प्रभावित करने वाले कारक
(1) द्रव की प्रकृति-द्रव का वाष्प दाब उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है। द्रव के अणुओं के मध्य अन्तरा-अणुक आकर्षण बल का मान उच्च होने पर वाष्प दाब का मान कम होता है क्योंकि द्रव की सतह के अणु शीघ्रता से सतह नही छोड़ते हैं, जबकि अधिक वाष्पशील द्रवों के वाष्प दाब उच्च होते हैं। कार्बन टेट्राक्लोराइड (CCl4), एथिल ऐल्कोहॉल (C2H5OH) तथा जल (H2O) में अन्तराअणुक आकर्षण बल का क्रम कार्बन टेट्राक्लोराइड (CCl4) < एथिल ऐल्कोहॉल (C2H5OH) < जल (H2O) होता है, जबकि इनके वाष्प दाबों के मान का क्रम कार्बन टेट्राक्लोराइड > एथिल ऐल्कोहॉल. > जल होता है।
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(2) द्रव का ताप-द्रव को ताप बढ़ाने पर वाष्प दाब के मान में वृद्धि होती है क्योंकि ताप बढ़ाने पर द्रव के अणुओं की गतिज ऊर्जा बढ़ जाती है, फलस्वरूप वाष्पन की दर भी बढ़ जाती है। अतः द्रव का वाष्पीकरण बढ़ जाता है, अर्थात् सतह के अणुओं की द्रव की सतह छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। इस कारण वाष्प दाब बढ़ जाता है। वाष्पदाब में ताप के साथ होने वाले परिवर्तन की गणना निम्नलिखित समीकरण द्वारा की जाती है
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जहाँ, P1 तथा P2 क्रमशः परम ताप T1 व T2 पर द्रव के वाष्पदाब हैं तथा ∆Hvapan वाष्पीकरण की ऊष्मा है।
(3) अवाष्पशील विलेय का मिलाना-जब विलायक में कोई अवाष्पशील विलेय मिलाते हैं, तो उसका वाष्प दाब घट जाता है क्योंकि द्रव की सतह के कुछ क्षेत्र विलेय के अणु घेर लेते हैं। जिसके कारण द्रव की सतह का क्षेत्रफल कुछ कम हो जाता है, फलस्वरूप वाष्पन कम होता है। वाष्प दाब में होने वाली कमी की गणना राउल्ट के नियम की सहायता से की जाती है। वाष्प दाब का मापन स्थैतिक विधि, गतिक विधि तथा गैस चूंतप्त विधि द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 5.
पृष्ठ तनाव से आप क्या समझते हैं। इसे प्रभावित करने वाले कारकै लिखिए?
उत्तर
पृष्ठ तनाव-द्रव के अणुओं के मध्य आकर्षण बल होते हैं। द्रव के तले में उपस्थित अणुओं पर लगे शुद्ध आकर्षण बल के कारण ही पृष्ठ तनाव उत्पन्न होता है। माना किं एक बर्तन में द्रव भरा है। इसमें दो द्रव के अणुओं पर विचार करते हैं, अंणु A द्रव के अन्दर है। इसे अणु पर चारों ओर उपस्थित अणुओं के आकर्षण बल लेगेंगे, अतः इस पर लगने वाला शुद्ध आकर्षण बल शून्य हो जाएगा। अणु B द्रव के तल पर स्थित है, अतः इस पर नीचे की ओर एक शुद्ध आकर्षण बल लगेगा, परिणामस्वरूप तल पर एक बल नीचे की ओर लगता है और द्रव के तल का क्षेत्र न्यूनतम होने की कोशिश करेगा द्रव के तल पर लगने वाला वह बल जो उस द्रव के तल का क्षेत्र न्यूनतम रखने की प्रवृत्ति रखता हो, पृष्ठ तनाव कउत्तराता है। माना कि किसी एक द्रव के मुक्त पृष्ठ तल पर रेखा CD खींची जाती हैं जिसकी लम्बाई । तथा उस पृष्ठ के तल में बल F कार्यरत है तो पृष्ठ तनाव ( γ) = F/l होगा। C.G.S. इकाई में यह डाइने प्रति सेमी dyme cm-1) या अर्ग प्रति सेमी (erg cm-1) तथा S.I. इकाई में न्यूटन प्रति मीटर (Nm-1) में व्यक्त किया जाता है। द्रव की बूंद की गोलाकार आकृति, केशनलिका में द्रव्र का चढ़ना या गिरना, द्रव के तल का गोलाकार (उत्तल अथवा अवतल होना) आदि द्रव के पृष्ठ तनाव द्वारा ही समझाए जा सकते हैं; जैसे–ब्यूरेट के जल की सतह अवतल होती है। क्योंकि संसंजक बल का मान आसंजक बल से कम होता है। परन्तु नली में पारे की सतह उत्तल होती है क्योंकि संसंजक बल का मान आसंजक बल से अधिक होता है।
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माना कि दो द्रवों के पृष्ठ तनाव γ1 तथा γ2 हैं और एक ही केशनली में दोनों द्रवों के समान आयतन V उपस्थित हैं। केशनली में गिरने वाली द्रव की बूंदों की संख्या n1 और n2 तथा द्रवों के घनत्व d1 और d2 हैं, तो
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पृष्ठ तनाव को प्रभावित करने वाले कारक
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(1) द्रव का ताप-ताप बढ़ाने पर द्रवों के पृष्ठ तनाव का मान घटता है। क्योकि ताप वृद्धि पर द्रवों के अणुओं की गतिज ऊर्जा के मान में वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप अन्तर-आण्विक आकर्षण बलों के मान घटते हैं। इस कारण पृष्ठ तनाव का मान भी घट जाता है। क्रान्तिक ताप पर जहाँ द्रव एवं वाष्प में विभेद करने वाला तल समा हो जाता है, पृष्ठ तनाव का मान घटकर शून्य हो जाता है।
आटवोस (Eotvos) ने पृष्ठ तनाव को ताप का एक रेखीय फलन (linear function) बताया तथा निम्नलिखित समीकरण दी
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जहाँ M→ द्रव पदार्थ का आण्विक द्रव्यमान, D→ द्रव का घनत्व, Tc → क्रान्तिक ताप, T → परम ताप तथा k→ नियतांक है।
(2) द्रव की प्रकृति-पृष्ठ तनाव द्रव की प्रकृति पर निर्भर करता है। द्रवों में अणुओं के मध्य अन्तर-आण्विक बलों के मान बढ़ने पर, पृष्ठ तनाव के मान में वृद्धि होती है। उदाहरणार्थ-ईथर, एथिल ऐल्कोहॉल तथा जल के अणुओं के मध्य अन्तर आण्विक आकर्षण बलों के मान का क्रम ईथर < एथिल ऐल्कोहॉल < जल होता है। इस कारण इनके पृष्ठ तनाव (20°C) के मानों का क्रम ईथर (17.0 डाइन/सेमी) < एथिल ऐल्कोहॉल (22.27 डाइन/सेमी) < जल (72.75 डाइन/सेमी) है। इनके अतिरिक्त ग्लिसरीन, ग्लाइकॉल तथा एथेनॉल में पृष्ठ तनाव का बढ़ता क्रम एथेनॉल < ग्लाइकॉल < ग्लिसरीन होता है।
(3) बाह्य पदार्थों की उपस्थिति–किसी द्रव में पृष्ठ सक्रिय पदार्थ (साबुन/अपमार्जक) मिलाने पर उसका पृष्ठ तनाव कम हो जाता है जबकि आयनिक पदार्थों की उपस्थिति से द्रव का पृष्ठ तनाव बढ़ जाता है। उदाहरणार्थ-जल में साबुन मिलाने पर उसका पृष्ठ तनाव घट जाता है जबकि नमक मिलाने पर जल का पृष्ठ तनाव बढ़ जाता है।

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UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 6 Soils

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 6 Soils (मृदा)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न 1. नीचे दिए गए प्रश्नो के सही उत्तर का चयन करें
(i) मृदा का सर्वाधिक व्यापक और सर्वाधिक उपजाऊ प्रकार कौन-सा है?
(क) जलोढ़ मृदा
(ख) काली मृदा
(ग) लैटेराइट मृदा
(घ) वन मृदा
उत्तर-(क) जलोढ़ मृदा।

(ii) रेगुर मृदा का दूसरा नाम है
(क) लवण मृदा
(ख) शुष्क मृदा
(ग) काली मृदा
(घ) लैटेराइट मृदा
उत्तर-(ग) काली मृदा।।

(iii) भारत में मृदा के ऊपरी पर्त हास का मुख्य कारण है
(क) वायु अपरदन ।
(ख) अत्यधिक निक्षालन
(ग) जल अपरदने ,
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(ग) जल अपरदन।

(iv) भारत में सिंचित क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि निम्नलिखित में से किस कारण से लवणीय हो रही हैं?
(क) जिप्सम की बढ़ोतरी
(ख) अति सिंचाई
(ग) अति चारण
(घ) रासायनिक खादों का उपयोग
उत्तर-(ख) अति सिंचाई।

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
(i) मृदा क्या है?
उत्तर–पृथ्वी के धरातल पर अपक्षय और विघटन के कारकों के माध्यम से चट्टानों और जैव पदार्थों के संयोग से बनी असंघनित पदार्थों की ऊपरी परत मृदा कहलाती है।

(ii) मृदा-निर्माण के प्रमुख उत्तरदायी कारक कौन-से हैं?
उत्तर-मृदा-निर्माण एक दीर्घ अवधि की प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसके निर्माण में सहयोगी कारक निम्नलिखित हैं(i) मूल जनक चट्टानें, (ii) उच्चावच, (iii) जलवायु, (iv) वनस्पति एवं जैव अवशेष, (v) अपवाह तन्त्र, (vi) समय या अवधि।।

(iii) मृदा परिच्छेदिका के तीन संस्तरों के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-मृदा परिच्छेदिका के तीन संस्तरों के नाम निम्नलिखित हैं
1. ‘क’ संस्तर या सबसे ऊपरी जलोढ़ संस्तर–यह सबसे ऊपरी खण्ड होता है, जहाँ पौधों की | वृद्धि के लिए अनिवार्य जैव पदार्थों का खनिज पदार्थ, पोषक तत्त्वों का जल से संयोग होता है।

2. ‘ख’ संस्तर या अत्यधिक निक्षालित स्तर—यह संस्तर ‘क’ संस्तर एवं ‘ग’ संस्तर के मध्य संक्रमण खण्ड होता है, जिसे नीचे व ऊपर दोनों से पदार्थ प्राप्त होते हैं।

3. ‘ग’ संस्तर या अपेक्षाकृत कम निक्षालित संस्तर—इस संस्तर की रचना ढीली जनक सामग्री से होती है। यह परत मृदा निर्माण की प्रक्रिया में प्रथम अवस्था होती है और अन्ततः ऊपर की दो परतें इसी से बनती हैं।

(iv) मृदा अवकर्षण क्या होता है?
उत्तर-सामान्यतः मृदा अवकर्षण को मृदा की उर्वरता के ह्रास के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस दशा में मिट्टी का पोषण स्तर गिर जाता है तथा अपरदन और दुरुपयोग के कारण मृदा की गहराई कम हो। जाती है। मृदा अवकर्षण की दर भू-आकृति, पवनों की गति तथा वर्षा की मात्रा के अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न होती है।

(v) खादर और बांगर में क्या अन्तर है?
उत्तर-खादर और बांगर में अन्तर खादर
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प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 125 शब्दों में दीजिए
(i) काली मृदाएँ किन्हें कहते हैं? इनके निर्माण तथा विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-गाढ़े काले और स्लेटी रंग की वह मृदा जिसमें चूने, लौह, मैग्नीशिया तथा ऐलुमिना के तत्त्व की प्रधानता होती है, काली मिट्टी कहलाती है। इस मृदा को रेगुरे या कपास मृदा भी कहते हैं। काली मृदा का निर्माण ज्वालामुखी प्रक्रिया के दौरान होता है। भारत में दकन पठार के निर्माण के समय ज्वालामुखी द्वारा निस्सृत लावा पदार्थ पर अपक्षय एवं विघटन के फलस्वरूप काली मृदा का निर्माण हुआ है।।

आमतौर पर काली मृदाएँ मृण्मय, गहरी और अपारगम्य होती हैं। ये गीली होने पर फूल जाती हैं और चिपचिपी हो जाती हैं। सूखने पर ये सिकुड़ जाती हैं। इस प्रकार शुष्क ऋतु में काली मृदा में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। नमी के धीमे अवशोषण और नमी के क्षय की विशेषता के कारण काली मृदा में दीर्घकाल तक नमी बनी रहती है। इसी कारण काली मृदा में वर्षाधीन फसलों को शुष्क ऋतु में भी नमी मिलती रहती है और वे फलती-फूलती रहती हैं।

(ii) मृदा संरक्षण क्या होता है? मृदा संरक्षण के कुछ उपाय सुझाइए।
उत्तर-मृदा संरक्षण ।

मृदा संरक्षण एक विधि है, जिसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखी जाती है। इसमें मिट्टी के अपरदन और क्षय रोका जाता है और मिट्टी की निम्नीकृत दशाओं में सुधार लाया जाता है।

मृदा संरक्षण के उपाय

मृदा अपरदन और मृदा क्षरण प्रकृति के अतिरिक्त मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा अधिक होता है; अंतः मानव द्वारा इसे रोकना सम्भव है। मृदा संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं

1. ढालयुक्त भूमि पर कृषि कार्य नहीं किया जाना चाहिए। प्राय: 15 से 25 प्रतिशत ढाल प्रवणता वाली भूमि का उपयोग कृषि कार्य में करने से मिट्टी के कटाव में वृद्धि होती है। अतः ऐसी भूमि पर यदि कृषि कार्य आवश्यक हो तो केवल सीढ़ीदार खेतों में ही कृषि कार्य करना चाहिए।

2. भारत के विभिन्न भागों में अति चराई और स्थानान्तरी कृषि से भूमि का प्राकृतिक आवरण दुष्प्रभावित होता है जिससे विस्तृत क्षेत्र अपरदन की चपेट में आ जाता है। अत: ग्रामवासियों को
इसके दुष्परिणामों से अवगत कराना चाहिए तथा इन्हें चराई और स्थानान्तरी कृषि को रोकने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

3. समोच्च रेखाओ के अनुसार खेतों की मेड़बन्दी, जुताई, सीढ़ीदार खेतों में कृषि नियमित वानिकी, नियन्त्रित चराई, मिश्रित खेती तथा शस्यावर्तन आदि उपाय भी मृदा संरक्षण के लिए उपयोगी हैं।

4. बड़ी अवनालिकाओं में जल की अपरदनात्मक तीव्रता को कम करने के लिए रोक बाँधों की श्रृंखला बनानी चाहिए।

5. शुष्क कृषि योग्य भूमि पर बालू के टीलों के प्रसार को वृक्षों की रक्षक मेखला बनाकर तथा वन्य कृषि करके रोकने का प्रयास किया जाना चाहिए।

6. मृदा संरक्षण का सर्वोत्तम उपाय भूमि उपयोग की समन्वित योजनाएँ ही हो सकती हैं। भूमि का उसकी क्षमता के आधार पर वर्गीकरण और उपयोग मृदा संरक्षण में महत्त्वपूर्ण उपाय है।

(iii) आप यह कैसे जानेंगे कि कोई मृदा उर्वर है या नहीं? प्राकृतिक रूप से निर्धारित उर्वरता और मानवकृत उर्वरता में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–उर्वरता मिट्टी का विशेष गुण है। ऐसी मिट्टी जिसमें नमी और जीवांश उपलब्ध होते हैं, उर्वर होती है। इसका पता मृदा में खेती की पैदावार से होता है। जिस मृदा में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध तत्त्वों के होते हुए बिना किसी मानवीय प्रयास के अच्छी कृषि पैदावार प्राप्त होती है उस मिट्टी को उर्वर मृदा माना जाता है, किन्तु यदि पैदावार प्राप्त नहीं होती तो उस मृदा को अनुर्वर मृदा कहा जाता है।

प्राकृतिक रूप से निर्धारित उर्वरता में रासायनिक खाद या कम्पोस्ट खाद डालने की आवश्यकता नहीं होती, जबकि मानवकृत उर्वरता के अन्तर्गत तब तक अच्छी कृषि पैदावार सम्भव नहीं है जब तक उस मृदा का रासायनिक परीक्षण करके उसमें पर्याप्त मात्रा में व निश्चित अनुपात में रासांयनिक उर्वरकों का प्रयोग न किया जाए। अतः प्राकृतिक उर्वरता और मानवकृत उर्वरता में यही अन्तर है कि प्राकृतिक उर्वरक मृदा बिना किसी रासायनिक उपचार के अच्छी कृषि पैदावार देती है, जबकि मानवकृत उर्वरता को मृदा में रासायनिक उपचार के उपरान्त कुछ समय तक स्थायी रखकर कृषि पैदावार प्राप्त की जाती है। इस प्रकार प्राकृतिक उर्वरता स्थायी होती है, जबकि मानवकृत उर्वरता स्थायी नहीं होती है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर ||

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. कपास, चावल, गन्ना, ज्वार, बाजरा, मूंगफली, तम्बाकू के लिए सबसे उपयुक्त मिट्टी है
(क) काली मिट्टी
(ख) लैटेराइट मिट्टी
(ग) काँप मिट्टी
(घ) लाल व पीली मिट्टी
उत्तर-(क) काली मिट्टी।

प्रश्न 2. कौन-सी मिट्टी सूखने पर चटकती है?
(क) लाल मिट्टी
(ख) काली मिट्टी
(ग) लैटेराइट मिट्टी
(घ) काँप मिट्टी
उत्तर-(ख) काली मिट्टी।

प्रश्न 3. निम्नलिखित में किस घाटी में काली मिट्टी पायी जाती है?
(क) तापी घाटी
(ख) गंगा घाटी
(ग) नर्मदा घाटी
(घ) गोदावरी घाटी
उत्तर-(ग) नर्मदा घांटी।

प्रश्न 4. कपास की मिट्टी किसे कहा जाता है?
(क) जलोढ़ मिट्टी को
(ख) लैटेराइट मिट्टी को
(ग) लाल मिट्टी को
(घ) काली मिट्टी को ।
उत्तर-(घ) काली मिट्टी को।

प्रश्न 5. लैटेराइट मिट्टी में कौन-सी फसल पैदा होती है?
(क) चावल
(ख) गेहूँ
(ग) कपास
(घ) बागानी
उत्तर-(घ) बागानी।

प्रश्न 6. भारत में किस मिट्टी का सर्वाधिक विस्तार है?
या कौन-सी मिट्टी सबसे अधिक उपजाऊ है?
(क) जलोढ़
(ख) लाल
(ग) काली
(घ) लैटेराइट
उत्तर-(क) जलोढ़।

प्रश्न 7. भारत में काली मिट्टी का अधिकांश क्षेत्र स्थित है
(क) उत्तर प्रदेश में
(ख) राजस्थान में
(ग) बिहार में
(घ) महाराष्ट्र में
उत्तर-(घ) महाराष्ट्र में।

प्रश्न 8. किस मिट्टी के लिए दकन का पठार प्रमुख स्रोत है?
(क) लाल
(ख) जलोढ़
(ग) रेगर
(घ) लैटेराइट
उत्तर-(क) लाल।।

प्रश्न 9. निम्नलिखित में से किस राज्य में लैटेराइट मिट्टियाँ पायी जाती हैं?
(क) पंजाब
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) हिमाचल प्रदेश
(घ) मध्य प्रदेश
उत्तर-(घ) मध्य प्रदेश।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत में पायी जाने वाली सबसे उत्तम मिट्टी का नाम बताइए।
उत्तर-नदियों द्वारा लायी जाने वाली जलोढ़, कछारी, दोमट भारत की सर्वोत्तम मिट्टियाँ हैं।।

प्रश्न 2. मरुस्थलीय या बलुई मिट्टी का क्षेत्र बताइए।
उत्तर-यह मिट्टी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा के दक्षिणी भाग तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पायी जाती है।

प्रश्न 3. कौन-सी मिट्टी खेती के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है?
उत्तर-लाल या पीली मिट्टी।।

प्रश्न 4. चाय की कृषि के लिए किस प्रकार की मिट्टी चाहिए?
उत्तर-जिस मिट्टी में लोहांश की मात्रा अधिक एवं चूने का अंश कम होता है वह चाय-उत्पादन के लिए सर्वोत्तम होती है।

प्रश्न 5. बांगर मिट्टी को और किस नाम से जानते हैं?
उत्तर–पुरातन काँप मिट्टी।

प्रश्न 6. विशाल मैदान के दक्षिण-पश्चिम में कैसी मिट्टी पायी जाती है?
उत्तर-मरुस्थलीय अथवा रेतीली मिट्टी।

प्रश्न 7. लाल या पीले रंग वाली मिट्टी का नाम बताइए।
उत्तर-लाल या पीले रंग वाली मिट्टी को लैटेराइट मिट्टी कहते हैं।

प्रश्न 8. लैटेराइट मिट्टी में किस प्रकार की कृषि होती है?
उत्तर-लैटेराइट मिट्टी में मोटे अनाज; जैसे-बाजरा, ज्वार, कपास, दालें आदि की कृषि होती है।

प्रश्न 9. काली मिट्टी की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-(1) काली मिट्टी में जल धारण करने की अधिक क्षमता होती है; अतः अधिक सिंचाई या वर्षा के कारण यह चिपचिपी हो जाती है तथा सूखने पर चटकती है।
(2) काली मिट्टी बहुत उर्वर होती है। इसमें कपास तथा गन्ने की खेती अच्छी होती है।

प्रश्न 10. काली मिट्टी पाये जाने वाले दो राज्यों के नाम बताइए।
उत्तर-(1) गुजरात तथा (2) महाराष्ट्र।

प्रश्न11. खादर मिट्टियाँ क्या हैं?
उत्तर–बाढ़ वाले क्षेत्रों में नदियों द्वारा वहाँ काँप मिट्टी बिछती रहती है जिसे खादर मिट्टी कहते हैं। यह मिट्टी रेतीली एवं कम कंकरीली होती है। इस मिट्टी में नमी धारण करने की शक्ति अधिक होती है।

प्रश्न 12. भारत में लैटेराइट मिट्टी के क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-लैटेराइट मिट्टी कर्नाटक, केरल, राजमहल की पहाड़ियों, महाराष्ट्र के दक्षिणी भागों, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, असोम तथा मेघालय के कुछ भागों में पायी जाती है।..

प्रश्न 13. भारत में काली मिट्टी के क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- भारत में काली मिट्टी के क्षेत्र हैं-गुना मध्य प्रदेश) से दक्षिण में बेलगाम (कर्नाटक) तक और पश्चिम में काठियावाड़ (गुजरात) से अमरकण्टक (मध्य प्रदेश) तक।

प्रश्न 14. प्रायद्वीपीय पठार की दो मिट्टियों के नाम लिखिए।
उतर-(1) काली मिट्टी तथा (2) लैटेराइट मिट्टी

प्रश्न 15. मिट्टी-निर्माण की प्रक्रिया बताइए।
उत्तर-मिट्टी का निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें प्राकृतिक वातावरण का प्रत्येक तत्त्व अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। अपक्षय एवं अपरदन के कारक भू-पृष्ठ की चट्टानों को चट्टानी चूर्ण बना देते हैं। इस चूर्ण में लम्बे समय तक वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के गले-सड़े अवशेष मिश्रित चट्टानी चूर्ण को उपजाऊ मिट्टी का रूप प्रदान करते हैं। यही तत्त्वं पेड़-पौधों को जीवन प्रदान करते हैं।

प्रश्न 16. मिट्टी के आवरण में भिन्नता उत्पन्न करने वाले प्रमुख घटकों के नाम लिखिए।
उत्तर-मिट्टी आवरण में भिन्नता उत्पन्न करने वाले प्रमुख घटक हैं-(i) मूल चट्टान या जनक पदार्थ, (ii) उच्चावच एवं जलप्रवाह, (iii) जलवायु, (iv) समय यो अवधि, (v) प्राकृतिक वनस्पति एवं जीव-जन्तु।

प्रश्न 17. मिट्टी अपक्षरण या मिट्टी अपरदन क्या है? इसके तीन प्रमुख साधन कौन-से हैं?
उत्तर-मिट्टी की ऊपरी परत या आवरण के नष्ट होने को ही मिट्टी (भूमि) अपक्षरण या अपरदन कहते हैं। भूमि अपक्षरण के तीन प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं-(1) जल द्वारा मिट्टी अपरदन, (2) पवन द्वारा मिट्टी अपरदन तथा (3) हिम द्वारा मिट्टी अपरदन।।

प्रश्न 18. भूमि कटाव के दो कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–भारत की एक-चौथाई भूमि कटाव की समस्या से ग्रस्त है। राजस्थान राज्य इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित है। भूमि कटाव के दो कारण हैं—(1) मूसलाधार वर्षा तथा (2) वनों को तेजी से विनाश।

प्रश्न 19. बीहड़ किसे कहते हैं?
उत्तर-नदी द्रोणियों में अत्यधिक अपरदन से भूमि-क्षरण होता है। इस प्रकार की भूमि को बीहड़ कहते हैं। चम्बल नदी का बीहड़ इसका प्रसिद्ध उदाहरण है। यहाँ अवनालिका अपरदन के कारण भूमि-क्षरण अधिक होता है।

प्रश्न 20. थार मरुस्थल में अनुपजाऊ मिट्टी क्यों पाई जाती है?
उत्तर-थार मरुस्थल में वर्षा की कमी, शुष्कता, असंगठित शैल संरचना तथा लवणता की अधिकता के कारण मिट्टी अनुपजाऊ होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत में मिट्टी के अपरदन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।”
या टिप्पणी लिखिए–भारत में मिट्टी का कटाव।
उत्तर- भारत की एक-चौथाई भूमि अपरदन की समस्या से ग्रस्त है। वर्षा, नदी, जल, पवन आदि साधनों द्वारा जब भूमि की ऊपरी परत (मिट्टी) नष्ट हो जाती है तो उसे भूमि अपरदन कहते हैं। भूमि की ऊपरी परत में ही वनस्पतियाँ तथा फसलों के उगने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व उपस्थित रहते हैं। इस सतह के नष्ट हो जाने से भूमि की उर्वरा शक्ति भी नष्ट हो जाती है। इसलिए विद्वानों ने मिट्टी के अपरदन (कटाव) को ‘रेंगती हुई मृत्यु’ कहा है।

मिट्टी के कटाव के अनेक कारण हैं; जैसे—मूसलाधार वर्षा, बाढ़, अत्यधिक पशुचारण करना, वनों का विनाश तथा स्थानान्तरी खेती। वनों के विनाश से मिट्टी के कटाव की समस्या प्रतिदिन बढ़ रही है। स्थानान्तरी खेती से भी मिट्टी का कटाव बहुत होता है।

मिट्टी का कटाव दो प्रकार से होता है-जल द्वारा तथा वायु द्वारा। जब पहाड़ी ढालों या अन्य भूमि पर मूसलाधार वर्षा से मिट्टी की ऊपरी परत बह जाती है तब इसे ‘आवरण क्षय’ कहते हैं। वर्षाकाल में नदियों में बाढ़ आने से मिट्टी के किनारों की भूमि पर गहरी नालियाँ बन जाती हैं जिसे ‘अवनालिका अपरदन’ कहते हैं। मरुस्थलों तथा अर्द्ध-मरुस्थलों में वनस्पति का अभाव होने के कारण वायु निर्बाध रूप से चलती है। ग्रीष्म काल में विशेष रूप से रेत की आँधियाँ चलती हैं जो ढीली रेत या मिट्टी को उड़ाकर ले जाती हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं द्वारा भारत की लाखों हेक्टेयर भूमि अपरदन का शिकार हो गयी है।

मिट्टी के अपरदन से प्रभावित प्रमुख क्षेत्र हिमालय के दक्षिणी ढाल (शिवालिक), उत्तर प्रदेश में गंगा, चम्बल तथा यमुना नदी के कछारी भाग, मध्य प्रदेश के चम्बल के कछारे, असोम में ब्रह्मपुत्र घाटी, दकन के पठार की लावी मिट्टी का क्षेत्र, तमिलनाडु के पहाड़ी क्षेत्र, राजस्थान के मरुस्थली जिले दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा आदि हैं।

प्रश्न 2. मिट्टी के कटाव के मुख्य कारण बताइए।
उत्तर-मिट्टी के कटाव के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. मूसलाधार वर्षा–अत्यन्त तीव्र गति से वर्षा होने पर भूमि जल को सोखने में असमर्थ रहती है, इस कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी कटकर जल के साथ बह जाती है।
  2. भूमि का तीव्र ढाल–अधिक ढालू भूमि पर मिट्टी का कटाव तेजी से होता है, इसी कारण मैदानों की अपेक्षा पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव की समस्या अधिक रहती है।
  3. वनों का तेजी से विनाश-वृक्षों की जड़े मिट्टी के कणों को बाँधकर रखती हैं। अतः अत्यधिक वन विनाश के कारण वनस्पतिविहीन भूमि कटावकारी शक्तियों से प्रभावित होती है।
  4. अनियन्त्रित पशुचारण-पशु चराई के कारण मिट्टी के. कण बिखर जाते हैं। पशुओं के खरं (पैर) भी मिट्टी के कणों को ढीला कर देते हैं। अत: पर्वतीय क्षेत्रों में ढाल वाली भूमि पर पशुचारण के कारण मिट्टी के कटाव में वृद्धि होती है।
  5. स्थानान्तरणशील कृषि–पर्वतीय क्षेत्रों में झूमिंग या स्थानान्तरणशील कृषि से वनों के विनाश में | तेजी से वृद्धि के कारण मिट्टी के कटाव में तीव्रता आई है।
  6. अनियन्त्रित जुताई-भूमि के ढाल के अनुरूप जुताई के कारण भी मिट्टी के कटाव में वृद्धि होती है।

प्रश्न 3. मिट्टी के कटाव को रोकने हेतु कृषिगत प्रमुख उपाय बताइए।
उत्तर-मिट्टी के कटाव को रोकने की प्रचलित विधियों में कृषिगत उपाय निम्नलिखित हैं

  •  हरी खादों का प्रयोग-भूमि की उर्वरता बढ़ाने से मिट्टी का कटाव कम होता है, क्योंकि हरी तथा कम्पोस्ट खाद से मिट्टी के कणों में संगठन शक्ति की वृद्धि होती है।
  • शस्यावर्तन-यदि एक खेत में एक फसल की खेती लगातार की जाए तो उसमें किसी विशेष तत्त्व की अत्यधिक कमी हो जाती है। अतः खेतों में फसलों को अदल-बदलकर बोना चाहिए, | इससे मिट्टी संरचना सन्तुलित रहती है तथा मिट्टी के कटाव की सम्भावना न्यूनतम रहती है।
  • समोच्च जुताई-यह विधि ढालूदार स्थानों में अपनाई जाती है। इसमें किसी ढलान के समकोण पर जुताई करके फसलें उगाई जाती हैं। इससे वर्षा के जल के बहाव में अवरोध उत्पन्न होता है । और मिट्टी का कटाव कम होता है।
  • वेदिकाकरण-यह विधि भी ढोलू क्षेत्र में अपनाई जाती है। इसमें किसी ढालू सतह पर सीढ़ीनुमा खेत बनाए जाते हैं। इससे वर्षा के जल के बहाव में रुकावट आ जाती है।
  • गहरी जुताई-मरुस्थलीय भागों में अधिक गहरी जुताई करनी चाहिए। इससे अपक्षालन क्रिया द्वारा जो आवश्यक तत्त्व नीचे चले जाते हैं, वे पुनः ऊपर आ जाते हैं।..
  • संरक्षी पेटियाँ लगाना-स्थान-स्थान पर ऐसे पौधों को उगाना चाहिए जो तेज हवा को रोककर मिट्टी के कटाव को कम कर सकें।
  • पट्टीदार कृषि-इस विधि में किसी पहाड़ी ढलान के किनारे सदावर्षी पौधे, बीच में वार्षिक तथा | द्विवर्षीय पौधे लगाए जाने चाहिए।

प्रश्न 4. मिट्टी का कटाव रोकने के लिए पशु चराई पर नियन्त्रण एवं वन क्षेत्र में विस्तार महत्त्वपूर्ण | उपाय हैं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- मिट्टी कटाव रोकने हेतु पशु सम्बन्धी उपाय
1. चराई पर नियन्त्रण–पशुओं के अनियमित रूप से चरने पर प्रतिबन्ध होना चाहिए। पशुओं द्वारा घास के चरने से किसी भी स्थान की मिट्टी कठोर हो जाती है; अत: बीज अंकुरण के योग्य नहीं रहती। इसके अतिरिक्त जानवर छोटे-छोटे पौधों को रौंद डालते हैं, उनकी शाखाएँ तोड़ते हैं तथा अनेक पौधों को जड़ से उखाड़ देते हैं। नहरों के किनारे पर पशुओं के चरने पर प्रतिबन्ध हों। चाहिए, क्योंकि पशुओं के खुरों से उखड़ने वाली मिट्टी का तेजी से अपरदन हो जाता है।

2. चरागाहों का प्रबन्ध–पशुओं को चरने के लिए अलग से चरागाहों की व्यवस्था होनी चाहिए। ग्राम-समाज की खाली भूमि को चरागाहों में बदलकर उसमें उन्नत किस्म की घास बोनी चाहिए।

मिट्टी के कटाव रोकने हेतु वन सम्बन्धी उपाय,

1. वनों के कटान पर प्रतिबन्ध-मनुष्य अपनी दैनिक आवश्यकताओं (जैसे-रहने के लिए स्थान, फर्नीचर, ईंधन, कागज, दवाइयाँ आदि) की पूर्ति हेतु वनों को काटता जा रहा है। वनों के कटाव से किसी भी क्षेत्र की मिट्टी ढीली हो जाती है। मूसलाधार वर्षा बाढ़ लाती है और भूस्खलन भी होता है। वनों को काटने से समय पर वर्षा नहीं होती; अत: वनों के अनियमित रूप से कटान
पर प्रतिबन्ध होना चाहिए।

2. वृक्षारोपण तथा पुनः वनरोपण-वनों के काटने से पहले नए वनों की स्थापना करनी चाहिए, जिससे मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। खाली स्थानों पर वृक्ष लगाए जाने चाहिए।
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर ‘वन महोत्सव मनाया जाता है।

3. बालू के बन्धकों को उगाना-पौधों की जड़ों में किसी भी स्थान की मिट्टी को जकड़े रखने की क्षमता होती है। कुछ पौधों में यह क्षमता बहुत अधिक होती है; जैसे-सैकरम मुंजा (Saccharum Munja), सैकरम स्पॉण्टेनियम (S. Spontaneum), साइनोडर्न डेक्टाइलोन (Cymodon Dactylon), इण्डिगोफेरा कॉर्डिफोलिया (Indigofera Cordifolia) आदि। अत: ऐसी प्रजातियों के वृक्षो को नहरों के किनारों पर लगाना चाहिए।

प्रश्न 5. दक्षिण भारत के अधिकांश भागो में लाल मिट्टी पाई जाती है। क्यों?
उत्तर-दक्षिण भारत के अधिकांश भागों में लाल मिट्टी पाई जाती है, इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  • दक्षिणी भारत में दकन के पठार पर प्राचीन कठोर, रवेदार एवं आग्नेयं शैलें पाई जाती हैं। इन शैलों में लोहांश की प्रधानता होती है, इसीलिए मिट्टी का रंग लाल होता है।
  • दक्षिणी भारत की अधिकांश मिट्टी इन्हीं शैलों के विखण्डन से बनी है।
  • इस मिट्टी में लोहे के अंशों की अधिकता के कारण ऑक्सीकरण की क्रिया अधिक होती है, फलतः यह लाल रंग की हो जाती है।
  • ऑक्सीकरण की क्रिया के फलस्वरूप लोहे के अंश वर्षा ऋतु में नमी पाकर आयरन ऑक्साङ्ड में बदल जाते हैं, जिससे इस मिट्टी का रंग लाल हो जाता है।

प्रश्न 6. ऐसा कहा जाता है कि पश्चिमी उत्तर भारत की ओर रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है, क्यों? इसे रोकने के लिए क्या किया जा रहा है?
उत्तर-राजस्थान के पश्चिमी जिलों जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, बाड़मेर, नागौर आदि में मरुस्थलीय दशाएँ पाई जाती हैं। यहाँ से उत्तर-पूर्व की ओर चलने वाली आँधियाँ अपने साथ बड़ी मात्रा में बालू के कणों को उड़ा ले जाती हैं। सघन प्राकृतिक वनस्पति के अभाव में ये आँधियाँ अविरल गति से आगे बढ़ती हैं तथा राजस्थान की सीमा को पार कर हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आगरा एवं मथुरा जिलों में प्रवेश कर वहाँ बालू का जमाव करती हैं। इस प्रकार रेगिस्तान का विस्तार धीरे-धीरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ओर बढ़ रही है।

इसको रोकने के लिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब की सीमा पर रक्षात्मक वृक्षों की हरित पट्टी लगाने का प्रयास किया गया है तथा जोधपुर में एक मरुस्थल वृक्षारोपण तथा अनुसन्धान केन्द्र खोला गया है।

प्रश्न 7. भारत में मिट्टी के कटाव से क्या समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं?
उत्तर-मिट्टी के ह्रास से अधिक गम्भीर समस्या मिट्टी के कटाव या अपरदन की होती है। हास की दशा में मिट्टी की उपयोगी क्षमता घट जाती है तथा यदि उसे कुछ दिन तक अछूती छोड़ दिया जाए तो मिट्टी की प्राण-शक्ति (उत्पादन क्षर्मता) लौट सकती है, परन्तु मिट्टी का कटाव हो जाने पर उक्त मिट्टी उस स्थान से सदा के लिए समाप्त हो जाती है। अत: प्राकृतिक कारकों (जल, पवन आदि) एवं मानव द्वारा वन विनाश आदि के कारण जब भूमि की ऊपरी परत या आवरण नष्ट हो जाता है तो उसे मिट्टी का कटाव अथवा अपरदन कहते हैं।

भारत की एक-चौथाई भूमि मिट्टी के कटाव की समस्या से ग्रस्त है। उपग्रहों द्वारा लिए गए छवि चित्रों से पता चलता है कि भारत में राजस्थान के 14 में से 13 जिलों में विगत दशक में 53,370 वर्ग किमी क्षेत्र में वायु के कटाव के कारण भूमि बंजर हो गई है। मरुस्थलीय क्षेत्रों की बालू अजमेर, नागोर, सीकर तथा जयपुर जिलों में तेजी से फैल रही है। मिट्टी के कटाव के कारण एक ओर जहाँ मूल क्षेत्र की उपयुक्त मिट्टी नष्ट होती है, वहीं दूसरी ओर यह मिट्टी जिस क्षेत्र में भी पहुँचती है, वहाँ भी समस्या उत्पन्न करती है। मरुस्थलीय मिट्टी के विस्तार से अनेक उपजाऊ क्षेत्र नष्ट हो रहे हैं, इसी प्रकार उपजाऊ मिट्टी के कटाव से नदी क्षेत्रों में अत्यधिक निक्षेप की समस्या उत्पन्न हो रही है। अतः मिट्टी के कटाव प्रत्येक दशा में कुप्रभाव (अनुर्वरता) उत्पन्न करता है। मिट्टी कटाव को वैज्ञानिकों ने रंगती हुई मृत्यु’ की संज्ञा प्रदान की है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत में मिट्टियों के वितरण एवं महत्त्व की विवेचना कीजिए।
या भारत की मिट्टियों का वर्गीकरण कीजिए और उनमें से किसी एक की विशेषताओं, विस्तार और कृषि के लिए उसकी उपयुक्तता पर प्रकाश डालिए।
या भारत में मिट्टी के प्रकारों का उल्लेख कीजिए तथा काली मिट्टी के वितरण तथा विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या भारत में पायी जाने वाली प्रमुख मिट्टियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-मिट्टी भारतीय कृषक की अमूल्य सम्पदा है जिस पर सम्पूर्ण कृषि-उत्पादन निर्भर करता है। डॉ० बैनेट के अनुसार, “मिट्टी भू-पृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है जो मूल चट्टानों अथवा वनस्पति के योग से बनती है।” मिट्टियों की रचना चट्टानों के विखण्डन के फलस्वरूप होती है जिसमें अनेक रासायनिक तत्त्व एवं जीवांश मिले होते हैं। तापमान, वर्षा, वायु एवं वनस्पति का चट्टानों पर प्रभाव पड़ता है। जिससे स्थानीय मिट्टियों का निर्माण होता है। अपरदन के कारकों द्वारा मिट्टी एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचा दी जाती है। मिट्टी की उर्वरता तथा समृद्ध कृषि अर्थव्यवस्था सघन जनसंख्या के पोषण में सक्षम होती है। भारत के विशाल मैदान तथा तटीय क्षेत्रों की उपजाऊ मिट्टी उन्नतशील कृषि को प्रोत्साहन देती है।

भारत में मिट्टियों का वर्गीकरण एवं वितरण

मिट्टियों का वर्गीकरण अनेक भारतीय तथा विदेशी विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। परम्परागत दृष्टिकोण से भारतीय मिट्टियों का विभाजन कछारी, लाल, काली (रेगड़), लैटेराइट आदि में किया जाता है। भौगोलिक दृष्टिकोण से मिट्टियों को विभाजन प्राकृतिक रचना तथा उनकी विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। इस आधार पर भारतीय मिट्टियों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है(1) हिमालय पर्वतीय प्रदेश की मिट्टियाँ, (2) विशाल मैदान की मिट्टियाँ, (3) प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियाँ एवं (4) अन्य मिट्टियाँ।

(1) हिमालय पर्वतीय प्रदेश की मिट्टियाँ
हिमालय पर्वतीय प्रदेश में अनेक प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। पर्वतीय मिट्टियाँ नदियों की घाटियों तथा पहाड़ी ढालों पर अधिक गहरी हैं। ढालों पर हल्की बलुई, छिद्रमय मिट्टियाँ पायी जाती हैं जिसमें जीवांश कम मात्रा में पाये जाते हैं। पर्वतीय मिट्टियों की रचना, कणों के आकार एवं कृषि-उत्पादन के दृष्टिकोण से इन्हें निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है–

(i) चूना एवं डोलोमाइट से निर्मित मिट्टियाँ–हिमालय पर्वतीय प्रदेश में चूना एवं डोलोमाइट पाये जाने वाले क्षेत्रों में इस प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। वर्षा की अधिकता के कारण चूने का अधिकांश भाग इस मिट्टी के साथ बह जाता है। चूने का थोड़ा-सा अंश भूमि पर रह जाने के कारण भूमि अनुत्पादक हो जाती है। इसमें चीड़ एवं साल के वृक्ष बहुतायत में उगते हैं।

(ii) चाय की मिट्टी-मध्य हिमालय के पर्वतीय ढालों पर मिट्टी में वनस्पति अंशों की अधिकता होती है। इसमें लोहांश की मात्रा अधिक तथा चूने का अंश कम होता है; अतः यह मिट्टी चाय-उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है। काँगड़ा, देहरादून, दार्जिलिंग तथा असोम के पहाड़ी ढालों पर चाय की मिट्टी अधिक पायी जाती है।

(iii) पथरीली मिट्टी-हिमालय के दक्षिणी भागों में पथरीली मिट्टी अधिक पायी जाती है। नदियों ने इस मिट्टी को निचले ढालों पर जमा कर दिया है। इसके कण मोटे होते हैं तथा इसमें बालू एवं कंकड़-पत्थर के टुकड़े भी मिले होते हैं।

(iv) टर्शियरी मिट्टी-इस मिट्टी की गहराई कम होती है, परन्तु यह काफी उपजाऊ होती है। यह मिट्टी घाटियों में एकत्रित होती रहती है, जो दून एवं कश्मीर घाटियों में पायी जाती है। इसमें चाय, चावल एवं आलू उगाया जाता है।।

(2) विशाल मैदान की मिट्टियाँ
विशाल मैदान में सर्वत्र कांप (जलोढ़) मिट्टी का विस्तार है। यह मिट्टी कृषि-उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिसका विस्तार 7.5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर है। इसी कारण इस क्षेत्र में सघन जनसंख्या निवास करती है। काँप मिट्टियाँ हिमालय पर्वत से निकलने वाली सिन्धु, गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियों द्वारा लाई गयी अवसाद से निर्मित हुई हैं। यह मिट्टी हल्के भूरे रंग की होती है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और वनस्पति के अंशों की कमी होती है तथा सिलिका एवं चूने के अंशों की प्रधानता होती है। यह मिट्टी पीली दोमट है। कुछ स्थानों पर यह चिकनी एवं बलुई होती है। विशाल मैदान की मिट्टियों को वर्षा की भिन्नता, क्षारीय गुणों, बालू एवं चीका की भिन्नता के आधार पर निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता। है

(i) पुरातन काँप-इसे बाँगर मिट्टी के नाम से भी पुकारा जाता है। इस मिट्टी का विस्तार उन क्षेत्रों में है जहाँ नदियों की बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता है। इसमें कहीं-कहीं कंकड़ भी पाये जाते हैं। खुरदरे एवं बड़े कणों वाली मिट्टी को भूड़ कहते हैं। इस मिट्टी में गन्ना एवं गेहूँ अधिक उगाया जाता है।

(ii) नवीन काँप-इसे खादर मिट्टी भी कहा जाता है। यह मिट्टी रेतीली एवं कम कंकरीली होती है। इस मिट्टी के क्षेत्रों में प्रति वर्ष बाढ़े आती हैं तथा उनके द्वारा नवीन काँप मिट्टी बिछती रहती है। इस मिट्टी में नमी धारण करने की शक्ति अधिक होती है। कहीं-कहीं पर दलदल भी होती हैं। इसमें पोटाश, फॉस्फोरस, चूना एवं जीवांशों की मात्रा अधिक होती है।।

(iii) डेल्टाई काँप-यह मिट्टी नदियों के डेल्टा में पायी जाती है। यहाँ नदियाँ नवीन काँप मिट्टी का जमाव करती रहती हैं; अतः यह मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ होती है। इस मिट्टी के कण बहुत ही बारीक होते हैं। जिन फसलों को अधिक जल की आवश्यकता होती है, उनमें सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। चावल, जूट, तम्बाकू, गेहूँ, तिलहन आदि इस मिट्टी की प्रमुख फसलें हैं। विशाल मैदान के दक्षिण-पश्चिम में मरुस्थलीय अथवा रेतीली मिट्टी पायी जाती है। वर्षा की कमी के कारण इसमें नमी की मात्रा कम होती है। जल की कमी के कारण यह मिट्टी अनुपजाऊ होती है।

(3) प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियाँ
प्रायद्वीपीय पठार प्राचीन एवं रवेदार चट्टानों से निर्मित हैं। प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियों को निम्नलिखित समूहों में बाँटा जा सकता है

(i) काली मिट्टी–इस मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी चट्टानों के अपरदन से हुआ है; अतः इसका रंग काला है। इस मिट्टी में लोहा, मैग्नीशियम, चूना, ऐलुमिनियम तथा जीवांशों की मात्रा अधिक होती है। यह काली, चिकनी तथा बारीक कणों से युक्त मिट्टी है, जिसमें नमी धारण करने की क्षमता अधिक है। वर्षा होने पर यह चिपचिपी-सी हो जाती है तथा सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इन दरारों के द्वारा ऑक्सीजन पर्याप्त गहराई तक प्रवेश कर जाती है। भारत में काली मिट्टी का विस्तार प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में लगभग 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर पाया जाता है। इस मिट्टी का विस्तार उत्तर में गुना (मध्य प्रदेश) से दक्षिण में बेलगाम (कर्नाटक) तक और पश्चिम में काठियावाड़ (गुजरात) से पूरब में अमरकण्टक (मध्य प्रदेश) तक है। अत: गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश और उत्तरी कर्नाटक की ये प्रमुख कृषि मिट्टियाँ हैं। राजस्थान में बूंदी एवं टोंक जिलों में तथा उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड के भाग में भी ये मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

इस सम्पूर्ण प्रदेश की नदी-घाटियों में गहरी और उपजाऊ मिट्टियाँ पायी जाती हैं तथा पहाड़ी ढालों पर मिट्टियाँ छिछली और कम उपजाऊ हैं। काली मिट्टी का कृषि के लिए विशेष महत्त्व है। इस मिट्टी की प्रमुख फसल कपास है। इसी कारण इसे कपास की काली मिट्टी कहा जाता है। कपास के अतिरिक्त इस मिट्टी में चावल, गन्ना, सब्जियाँ, फल, ज्वार-बाजरा, मूंगफली, तम्बाकू और सोयाबीन भी पैदा किया जाता है। इन मिट्टियों को सिंचाई की पूर्ण सुविधा उपलब्ध नहीं है; अतः फसलों की प्रति हेक्टेयर उपज अपेक्षाकृत कम है।
विशेषताएँ-(क) यह मिट्टी काले रंग की होती है।
(ख) इस मिट्टी में जल धारण करने की क्षमता अधिक होती है। वर्षा होने पर यह चिपचिपी हो जाती
(ग) सूखने पर इस मिट्टी में 10 से 15 सेमी तक चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं।
(घ) इस मिट्टी में कैल्सियम कार्बोनेट और मैग्नीशियम तत्त्वों की मात्रा अधिक होती है।
(ङ) यह मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है। इसमें जुताई भी कम करनी पड़ती है तथा यह शीघ्र ही भुरभुरी हो जाती है।

(ii) लाल व पीली मिट्टियाँ–यह मिट्टी लाल, पीले या भूरे रंग की होती है, परन्तु इसमें लाल रंग की अधिकता होती है। इस मिट्टी में लोहे का अंश अधिक होने के कारण इसका रंग लाल होता है। इस मिट्टी का निर्माण ग्रेनाइट, नीस व शिस्ट जैसी प्राचीन आग्नेय शैलों के टूटने से हुआ है। दक्षिण भारत में यह मिट्टी लगभग 2 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैली है। यह मिट्टी चिकने कणों से युक्त होती है। इसमें फॉस्फोरस, पोटाश, नाइट्रोजन, चूना तथा ह्यूमस की कमी पायी जाती है, किन्तु लोहा, ऐलुमिनियम व चूना यथेष्ट मात्रा में होता है। इस मिट्टी में मोटे अनाज अधिक उगाये जाते हैं, जिसमें बाजरे का स्थान सर्वोपरि है। ऊँचे ढालों पर इन मिट्टियों में मूंगफली व आलू तथा घाटियों में गन्ना भी पैदा किया जाता है। भारत में इस प्रकार की मिट्टी का विस्तार कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के दक्षिण-पूर्वी भागों, तमिलनाडु, मेघालय, ओडिशा, पश्चिम बंगाल राज्यों एवं छोटा नागपुर के पठार पर है। उत्तर प्रदेश राज्य के बाँदा, झाँसी, ललितपुर, मिर्जापुर एवं हमीरपुर जिलों में भी यह मिट्टी पायी जाती है।
विशेषताएँ-(क) यह मिट्टी लाल से चॉकलेटी रंग की शुष्क तथा कुछ अनुपजाऊ होती है।
(ख) निम्न भू-भागों में ये मिट्टियाँ दोमटी होती हैं और ऊँची भूमि पर बिखरी हुई कंकड़ों के समान होती हैं।
(ग) ढीले गठन की होने के कारण इस मिट्टी में जलधारण शक्ति कम होती है, अतः इसमें बिना सिंचाई के अच्छी खेती नहीं की जा सकती।
(घ) इस मिट्टी में लोहे की मात्रा अधिक होती है; अत: वर्षा ऋतु में लोहा ऑक्साइड के रूप में • मिट्टी के ऊपर आ जाता है।
(ङ) इस मिट्टी में मोटे कण तथा अघुलनशील तत्त्व अधिक मिले होते हैं।

(iii) लैटेराइट मिट्टी-इस मिट्टी का रंग लाल या पीला होता है। मानसूनी जलवायु की विशिष्टता के कारण ये मिट्टियाँ 200 सेमी से अधिक वार्षिक वर्षा वाले ऊँचे पर्वतीय ढालों पर उत्पन्न होती हैं। यह मिट्टी सिलिका तथा लवण कणों से युक्त होती है। इसमें मोटे-मोटे कण तथा कंकड़-पत्थरों को बाहुल्य होता है। इस मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस एवं पोटाश कम पाया जाता है, किन्तु वनस्पति का अंश यथेष्ट मात्रा में होता है। भारत में लैटेराइट मिट्टी 1.5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर फैली हुई है। वर्षा होने पर यह मिट्टी मुलायम हो जाती है, परन्तु सूखने पर कठोर हो जाती है। उर्वरकों की सहायता से इसमें चावल, गन्ना, काजू, चाय, रागी, कहवा तथा रबड़ की कृषि की जाती है। लैटेराइट मिट्टी कर्नाटक, केरल, राजमहल की पहाड़ियों, महाराष्ट्र के दक्षिणी भागों, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, असोम तथा मेघालय के कुछ भागों में पायी जाती है। वास्तव में ये मिट्टियाँ पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट, राजमहल की पहाड़ियों, मेघालय और असोम की पहाड़ियों के ढालों पर विस्तृत हैं।
विशेषताएँ—(क) यह मिट्टी ईंट के रंग जैसी लाल या गहरे भूरे रंग की होती है।
(ख) इसमें मोटे कण तथा कंकड़-पत्थर अधिक पाये जाते हैं।
(ग) यह मिट्टी अधिक उपजाऊ नहीं है।
(घ) इस मिट्टी में नाइट्रोजन, चूना तथा फॉस्फोरस की मात्रा बहुत कम होती है। .

(4) अन्य मिट्टियाँ
(i) पीट मिट्टियाँ–आर्दै प्रदेशों में सड़ी हुई वनस्पति से पीट मिट्टी का निर्माण होता है। इनका निर्माण जैविक पदार्थों के एकत्रण से हुआ है। केरल एवं तमिलनाडु के कुछ भागों में यह मिट्टी पायी जाती है। यह मिट्टी काली, भारी एवं अम्लीय होती है। इसमें धान उगाया जाता है।

(ii) दलदली मिट्टियाँ–समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों में नदियों एवं झीलों के सूखने से तथा प्राकृतिक वनस्पति के सड़ने से इन मिट्टियों का निर्माण हुआ है। इसमें लोहे एवं जीवांशों की अधिक मात्रा होने के कारण इसका रंग कुछ नीला होता है। ओडिशा एवं तमिलनाडु के दक्षिणी-पूर्वी समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों, पश्चिम बंगाल के सुन्दरवन डेल्टा तथा उत्तरी बिहार के मध्यवर्ती क्षेत्रों में इस मिट्टी का
विस्तार पाया जाता है।

(iii) मरुस्थलीय मिट्टियाँ-मरुस्थलीय क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होने के कारण यहाँ ऊसर, थूर तथा कल्लर जैसी मिट्टियाँ पायी जाती हैं। यह मिट्टी लवण एवं क्षारीय गुणों से युक्त होती है। इस मिट्टी में सोडियम, कैल्सियम व मैग्नीशियम तत्त्वों की प्रधानता होती है, जिससे यह अनुपजाऊ हो गयी। है। इसमें नमी एवं वनस्पति के अंश नहीं पाये जाते। इसमें सिंचाई करके केवल मोटे अनाज ही उगाये जाते हैं। यह मिट्टी सरन्ध्र होती है। इस मिट्टी में बालू के ढेर दिखलाई पड़ते हैं। मरुस्थलीय मिट्टी पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा दक्षिणी पंजाब एवं हरियाणा राज्यों में पायी जाती है।
विशेषताएँ—(क) इस मिट्टी में बालू के मोटे कणों की प्रधानता होती है।
(ख) इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक कम होती है।।
(ग) यह मिट्टी बहुत अधिक अनुपजाऊ है।
(घ) इस मिट्टी में जल गहराई तक प्रवेश कर जाता है।
(ङ) इस मिट्टी में जल की अधिक आवश्यकता होती है।
(च) आर्थिक दृष्टि से मरुस्थलीय मिट्टियाँ उपयोगी नहीं होतीं, परन्तु इनमें सिंचाई द्वारा मोटे अनाज उगाये जा सकते हैं।

(iv) नमकीन या खारी मिट्टियाँ–विशाल मैदान के बहुत से भागों में मिट्टी की ऊपरी परत पर सफेद रंग की परत-सी जम जाती है जिससे भूमि अनुपजाऊ हो जाती है। इसे ‘ऊसर’ या ‘कल्लर’ के नाम से पुकारा जाता है। इस मिट्टी में कैल्सियम, मैग्नीशियम तथा सोडियम लवणों की मात्रा अधिक होती है। इन लवणों की तह मिट्टी की ऊपरी परत पर जम जाती है जिसे रह’ कहते हैं।

(v) वन मिट्टियाँ–वन मिट्टियों की रचना वन प्रदेश में जैविक तत्त्वों के एकत्रण से होती है। सामान्यतया ये मिट्टियाँ दो प्रकार की होती हैं–(अ) प्रथम प्रकार की मिट्टियों का निर्माण जीवांशों को अम्लीय रूप में बदलने से होता है, जिनमें मूल सामग्री की कमी होती है। (ब) इन मिट्टियों का निर्माण हल्की अम्लीय स्थिति में होता है। इनमें मूल सामग्री की अधिकता होती है जिससे भूरी
मिट्टियों का निर्माण होता है। देश के वन प्रदेशों में इस प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

प्रश्न 2. निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए
(क) शुष्क मृदा, (ख) लवण मृदा, (ग) पीटमय मृदा, (घ) वन मृदा।
उत्तर-(क) शुष्क मृदा
शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है। यह मिट्टी संरचना की दृष्टि से बलुई और प्रकृति से लवणीय होती है। कुछ क्षेत्रों में इसमें नमक की मात्रा बहुत अधिक होती है, इसलिए मिट्टी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है। शुष्क जलवायु, उच्च तापमान और तीव्र गति से वाष्पीकरण के कारण इस मृदा में नमी और ह्यूमस कम होते हैं। इसमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फॉस्फेट सामान्य मात्रा में होता है। नीचे की ओर चूने की मात्रा के बढ़ते जाने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ों की परतें पाई जाती हैं। मृदा के निम्न संस्तर में कंकड़ों की परत बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित हो जाता है। यह मृदा विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में अभिलाक्षणिक रूप से विकसित हुई है। यह मृदा अनुर्वर है, क्योंकि इनमें ह्यूमस और जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं।

(ख) लवण मृदा ।
मरुस्थलीय क्षेत्रों में वर्षा की कमी के कारण ऊसर, रॉकड, थुर तथा कल्लर जैसी अनुर्वर मिट्टियाँ पाई जाती हैं। ये मिट्टियाँ लवण एवं क्षारीय गुणों से युक्त होती हैं। इसलिए इनको लवण मृदा कहते हैं। इस मिट्टी में सोडियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम तत्त्वों की प्रधानता होती है, जिससे यह अनुपजाऊ हो गई है। इसमें नमी एवं वनस्पति के अंश नहीं पाए जाते हैं। इनमें सिंचाई कर केवल मोटे अनाज, मूंगफली व दलहन ही उगाए जाते हैं। यह मिट्टी सरन्ध्र होती है। यह मिट्टी कोमल एवं प्रवेश्य होती है। इसमें बालू के ढेर दिखाई पड़ते हैं। इस मिट्टी का विस्तार 1.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर मिलता है। मरुस्थलीय मिट्टी पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा दक्षिणी पंजाब एवं दक्षिण-पश्चिमी हरियाणा राज्यों में पाई जाती है। इस मृदा में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

  • इस मिट्टी में बालू के मोटे कणों की प्रधानता होती है।
  • इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक कम होती है।
  • यह मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है।
  • इस मिट्टी में जल गहराई तक प्रवेश कर जाता है।
  • इस मिट्टी को जल की अधिक आवश्यकता होती है।
  • आर्थिक दृष्टि से मरुस्थलीय मिट्टी उपयोगी नहीं होती, परन्तु इसमें सिंचाई द्वारा मोटे अनाज ऋगाए जा सकते हैं।

(ग) पीटमय मृदा
यह मृदा भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता से युक्त उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी हो। अत: इन क्षेत्रों में मृत जैव पदार्थ बड़ी मात्रा में इकट्ठे हो जाते हैं, जो मृदा को ह्युमस और जैव तत्त्व पर्याप्त मात्रा में प्रदान करते हैं। इस मृदा में जैव तत्त्व 40 से 50 प्रतिशत तक होते हैं। यह मृदा सामान्यत: गाढे काले रंग की होती है। अनेक स्थानों पर यह क्षारीय भी है। यह मृदा मुख्यतः बिहार के उत्तरी भाग, उत्तराखण्ड के दक्षिणी भाग, पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों, ओडिशा और तमिलनाडु में पाई जाती है।

(घ) वन मृदा
वन मृदा पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में बनती है। इसके लिए पर्वतीय पर्यावरण अनुकूल क्षेत्र है। इस पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन और संरचना बदलती रहती है। घाटियों में यह दुमटी और पांशु होती है तथा ऊपरी ढालों पर यह मोटे कणों वाली होती है। अपने प्राकृतिक गुणों व गठन के कारण फसलों, पौधों और वनस्पति की वृद्धि के लिए यह मिट्टी सर्वोत्तम होती है।

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