UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर चुनिए
(i) चन्दन वन किस तरह के वन के उदाहरण हैं?
(क) सदाबहार वन
(ख) डेल्टाई वन
(ग) पर्णपाती वन
(घ) कॉटेदार वन
उत्तर-(ग) पर्णपाती वन।।

(ii) प्रोजेक्ट टाइगर निम्नलिखित में से किस उद्देश्य से शुरू किया गया है?
(क) बाघ मारने के लिए।
(ख) बाघ को शिकार से बचाने के लिए ।
(ग) बाघ को चिड़ियाघर में डालने के लिए
(घ) बाघ पर फिल्म बनाने के लिए
उत्तर-(ख) बाघ को शिकार से बचाने के लिए।

(iii) नन्दादेवी जीवमंण्डल निचय निम्नलिखित में से किस प्रान्त में स्थित है?
(क) बिहार ।
(ख) उत्तरांचल
(ग) उत्तर प्रदेश
(घ) उड़ीसा
उत्तर-(ख) उत्तरांचल (उत्तराखण्ड)।

(iv) निम्नलिखित में से कितने जीवमण्डल निचय आई०यू०सी०एन० द्वारा मान्यता प्राप्त हैं?
(क) एक
(ख) तीन ।
(ग) दो
(घ) चार
उत्तर-(घ) चार।

(v) वन नीति के अनुसार वर्तमान में निम्नलिखित में से कितना प्रतिशत क्षेत्र वनों के अधीन होना चाहिए?
(क) 33
(ख) 55
(ग) 44
(घ) 22
उत्तर—(क) 33.

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दें–
(i) प्राकृतिक वनस्पति क्या है? जलवायु की किन परिस्थितियों में उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन उगते हैं?
उत्तर–जो पौधे जंगल में प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार स्वयं फलते-फूलते हैं या विकसित होते हैं, प्राकृतिक वनस्पति कहलाते हैं। उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन आंद्रे प्रदेशों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 200 सेमी से अधिक होती है और औसत वार्षिक तापमान 22° सेल्सियस से अधिक रहता है। भारत में इन वनों का विस्तार लगभग 46 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मिलता है।

(ii) जलवायु की कौन-सी परिस्थितियाँ सदाबहार वन उगने के लिए अनुकूल हैं?
उत्तर-20° सेग्रे से अधिक तापमान तथा 150 से 200 सेमी वर्षा वाले उष्ण आर्द्र जलवायु प्रदेशों की परिस्थितियाँ सदाबहार वनों के लिए अनुकूल मानी जाती हैं।

(iii) सामाजिक वानिकी से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर–सामाजिक वानिकी, पर्यावरणीय सुरक्षा तथा ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक विकास से सम्बन्धित है। इसके द्वारा ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों की बंजर एवं ऊसर भूमि पर वनारोपण करके उसके द्वारा आर्थिक आय और सामाजिक विकास का प्रयास किया जाता है।

(iv) जीवमण्डल निचय को परिभाषित करें। वन क्षेत्र और वन आवरण में क्या अन्तर है?
उत्तर–जीवमण्डल निचय विशेष प्रकार के भौतिक (स्थलीय) और तटीय पारिस्थितिक क्षेत्र हैं। इनको यूनेस्को के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय पहचान का मानक प्राप्त है। ये आरक्षित क्षेत्र वन्य-जीव और वनों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए बनाए गए हैं। वन क्षेत्र वह क्षेत्र है जो राजस्व विभाग के द्वारा वनों के लिए निर्धारित होता है, जबकि वास्तविक वन आवरण वह क्षेत्र है जो वास्तव में वनों से ढका हुआ है।

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 शब्दों में दें
(i) वन संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए गए हैं?
उत्तर-वनों का मानवीय विकास एवं जीव जगत के पोषण में महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसलिए वनों के संरक्षण को महत्त्वपूर्ण माना जाता है, फलस्वरूप भारत सरकार ने पूरे देश के लिए वन संरक्षण नीति, 1952 में लागू की जिसे 1988 में संशोधित किया, अब नई वन्य-जीवन कार्ययोजना (2002-2016) स्वीकृत की गई है। अत: वन नीति द्वारा देश की सरकार ने वनों के संरक्षण हेतु निम्नलिखित कदम उठाए हैं

  1. नई वन नीति के अनुसार सरकार सतत पोषणीय वन प्रबन्धन पर बल देती है जिससे एक ओर वन । संसाधनों का संरक्षण व विकास किया जाए और दूसरी ओर वनों से स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
  2. देश में 33 प्रतिशत भाग पर वन लगाना, जो वर्तमान राष्ट्रीय स्तर से 6 प्रतिशत अधिक है।
  3. पर्यावरण असन्तुलन समाप्त करने के लिए वन लगाने पर बल देना।
  4. देश की प्राकृतिक धरोहर जैवविविधता तथा आनुवंशिक पुल का संरक्षण करना।
  5. पेड़ लगाने को बढ़ावा देना तथा पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन-आन्दोलन चलाना, जिसमें महिलाएँ भी शामिल हों।
  6. सामाजिक वानिकी कार्यक्रम चलाना, जिससे ऊसर भूमि का उपयोग वनों को उगाने के लिए किया जा सके।

(ii) वन और वन्य-जीव संरक्षण में लोगों की भागेदारी कैसे महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर-वन और वन्य-जीव संरक्षण केवल सरकारी प्रयासों द्वारा ही सम्भव नहीं है। स्वयंसेवी संस्थाएँ और जनसमुदाय का सहयोग इसके लिए अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। भारत में वन्य प्राणियों के बचाव की परम्परा बहुत पुरानी है। हमारे धर्मग्रन्थों में इसका व्यापक उल्लेख मिलता है। इतना ही नहीं, पंचतन्त्र, जंगल बुक इत्यादि की कहानियाँ हमारे वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

सरकार द्वारा वैधानिक प्रयासों के अन्तर्गत बनाए गए विभिन्न अधिनियम तथा परियोजनाएँ (बाघ परियोजना, हाथी परियोजना आदि) वन्य-जीव एवं वन संरक्षण के लिए मुख्य प्रयास हैं। फिर भी वन्य प्राणी संरक्षण का दायरा अत्यन्त व्यापक है और इसमें मानव-कल्याण की असीम सम्भावनाएँ निहित हैं। फलस्वरूप इस लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब हर व्यक्ति इसका महत्त्व समझे और अपना योगदान दे। अतः लोगों की सहभागिता द्वारा ही वनों और जीवों का संरक्षण हो सकता है और तभी यह प्राकृतिक धरोहर सुरक्षित रह सकती है।

उत्तराखण्ड का चिपको आन्दोलने वन और वन्य-जीवों के संरक्षण का विश्वप्रसिद्ध आन्दोलन है, जो जनसमुदाय की इस क्षेत्र में भागीदारी का उत्तम उदाहरण भी प्रस्तुत करता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. जलवायु, मिट्टी आदि तत्त्वों के आधार पर वनों को विभाजित किया गया है
(क) चार भागों में
(ख) पाँच भागों में
(ग) तीन भागों में
(घ) दो भागों में
उत्तर-(ख) पाँच भागों में।

प्रश्न 2. भारत में ‘वन-महोत्सव के जन्मदाता माने जाते हैं
(क) सुन्दरलाल बहुगुणा ।
(ख) आचार्य विनोबा भावे :
(ग) मेधा पाटेकर ।
(घ) डॉ० कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी
उत्तर-(घ) डॉ० कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी।

प्रश्न 3. वन सहायक हैं
(क) वायु एवं जल-प्रदूषण रोकने में
(ख) भूमि का क्षरण रोकने में
(ग) (क) और (ख) दोनों में |
(घ) इनमें से किसी में नहीं ।
उत्तर-(ग) (क) और (ख) दोनों में।

प्रश्न 4. निम्नलिखित वनों में से कौन-सा भारत में सर्वाधिक विस्तार में फैला है?
(क) उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वाले वन
(ख) उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन
(ग) ज्वारीय वन
(घ) काँटेदार वन
उत्तर-(ख) उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन।

प्रश्न 5. आर्थिक दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण वन कौन-से हैं?
(क) मानसूनी
(ख) पर्वतीय
(ग) उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती
(घ) ज्वारीय
उत्तर-(ग) उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती।

प्रश्न 6. डेल्टाई वनों का मुख्य वृक्ष है
(क) चन्दने
(ख) पाइन
(ग) सुन्दरी
(घ) सिल्वर फर
उत्तर-(ग) सुन्दरी।

प्रश्न 7. ‘सुन्दरवन कहाँ पाया जाता है? |
(क) गंगा डेल्टा में
(ख) गोदावरी डेल्टा में
(ग) महानदी डेल्टा में
(घ) कावेरी डेल्टा में
उत्तर-(क) गंगा डेल्टा में।।

प्रश्न 8. ‘सुन्दरवन स्थित है
(क) जम्मू एवं कश्मीर में
(ख) केरल में
(ग) अरुणाचल प्रदेश में
(घ) पश्चिम बंगाल में
उत्तर-(घ) पश्चिम बंगाल में। ||

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के कितने भू-भाग पर वन होने चाहिए?
उत्तर-एक-तिहाई।

प्रश्न 2, सुरक्षित वनों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर–वे वन जिन्हें इमारती लकड़ी अथवा वन उत्पादों को प्राप्त करने के लिए सुरक्षित किया गया है।

प्रश्न 3. संरक्षित वन किन्हें कहते हैं?
उत्तर–जिन वनों में सामान्य प्रतिबन्धों के साथ पशुचारण एवं खेती करने की अनुमति दे दी जाती है, उन्हें संरक्षित वन कहते हैं।

प्रश्न 4. वर्तमान में वनों की क्या महत्ता है?
उत्तर–वन पर्यावरणीय स्थिरता और पारिस्थितिक सन्तुलन को बनाए रखने में सहायक हैं।

प्रश्न 5. भारत में सबसे अधिक और सबसे कम वन क्षेत्र कहाँ है?
उत्तर-भारत में सबसे अधिक वन क्षेत्र अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में (86.93%) और सबसे कम हरियाणा में (3.8%) हैं।

प्रश्न 6. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वनों के मुख्य वृक्षों के नाम तथा प्रमुख क्षेत्र बताइए।
उत्तर-इन वनों में रोजवुड, एबोनी और आयरन वुड आदि वृक्ष पाए जाते हैं। भारत में उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन पश्चिमी घाट के पर्वतीय क्षेत्रों पर 450 से 1,370 मीटर की ऊँचाई के मध्य उगते हैं। असम और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों की पहाड़ियों, पूर्वी हिमालय के तराई क्षेत्र तथा अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह में भी इसी प्रकार के वन उगते हैं।

प्रश्न 7. प्राकृतिक वनस्पति का क्या अर्थ है?
उत्तर–प्राकृतिक वनस्पति से आशय उन पेड़-पौधों, झाड़ियों एवं घासों से है, जो प्राकृतिक रूप से बिना भूमि जोते व बीज बोए स्वयं ही उग आती हैं।

प्रश्न 8. वनों के दो प्रत्यक्ष लाभ बताइए।
उत्तर-(1) ईंधन एवं इमारती लकड़ियों की प्राप्ति तथा (2) कागज, रबड़, कत्था, बीड़ी, दियासलाई, लुगदी, प्लाई पैकिंग आदि उद्योगों के लिए कच्चे माल की प्राप्ति।

प्रश्न 9. भारत में प्राकृतिक वनस्पति की भिन्नता के क्या कारण हैं?
उत्तर-भारत में उच्चावच, जलवायु, वर्षा तथा मिट्टियों में पर्याप्त विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। अत: इसी कारण यहाँ प्राकृतिक वनस्पति में भी पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है।

प्रश्न 10. पारितन्त्र का क्या अर्थ है?
उत्तर-वनस्पति, जीव-जन्तु तथा अन्य सूक्ष्म जीवाणु और भौतिक पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों से बना तन्त्र पारितन्त्र कहलाता है।

प्रश्न 11. प्राकृतिक संसाधनों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-प्रकृति-प्रदत्त उपहार; जैसे—स्थलाकृतियाँ, मृदा, जल, वायु, प्राकृतिक वनस्पति, सूर्य का प्रकाश, खजिन पदार्थ, जंगली जीव-जन्तु आदि जो मानव की अनेक आवश्यकताएँ पूर्ण करते हैं या उसके लिए उपयोगी अथवा उपयोगिता में किसी प्रकार सहायक होते हैं, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं।

प्रश्न 12. सदाबहार तथा पर्णपाती वनों में कोई एक अन्तर बताइए।
उत्तर-सदाबहार तथा पर्णपाती (पतझड़ी) वनों में अन्तर
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प्रश्न 13. भारत के उन राज्यों के नाम बताइए जिनके दो-तिहाई भौगोलिक क्षेत्र वनों से ढके हैं?
उत्तर–जहाँ दो-तिहाई भौगोलिक क्षेत्र वनों से ढके हैं, उन राज्यों के नाम हैं–(1) मणिपुर, (2) मेघालय, (3),त्रिपुरा, (4) सिक्किम।।

प्रश्न 14. उन चार राज्यों के नाम बताइए जिनके भौगोलिक क्षेत्रफल में 10 प्रतिशत से भी कम भाग पर वन हैं।
उत्तर–राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र)।

प्रश्न 15. उष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वनों के वृक्षों के नाम लिखिए।
उत्तर–रोजवुड, एबोनी और गुरजन आदि उष्ण कटिबन्धीय सदाहरित वनों के वृक्ष हैं।

प्रश्न 16. भारत की वनस्पति में विविधता क्यों है?
उत्तर-प्राकृतिक वनस्पति और जलवायु दशाओं एवं मृदा में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। भारत में तापमान, वर्षा और मृदा में पर्याप्त विभिन्नताएँ मिलती हैं, इसलिए यहाँ वनस्पति में भी इतनी विभिन्नताएँ पाई जाती हैं।

प्रश्न 17. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार क्न भारत में कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर-उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन भारत में पश्चिमी, घाट उत्तर-पूर्वी भारत तथा अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं।

प्रश्न 18. देवदार के वृक्ष भारत में कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर–देवदार के वृक्ष भारत में हिमालय पर्वतीय वनों में मिलते हैं।

प्रश्न 19. बिना फूल वाले पौधों के नाम लिखिए।
उत्तर-बिना फूल वाले पौधों के नाम हैं-फर्न, शैवाल तथा कवक।

प्रश्न 20. पौधों की किस पादप जात को बंगाल का आतंक कहा जाता है?
उत्तर-जलहायसिन्ध’ को बंगाल का आतंक कहा जाता है, क्योंकि यह नदियों-नालों के मुंह पर रुककर जल प्रवाह को अवरुद्ध कर देता है। के

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जनजातीय समुदायों के लिए वनों की महत्ता का वर्णन कीजिए।
उत्तर–जनजातीय समुदायों के लिए वनों का विशेष महत्त्व है। वन इस समुदाय के लिए आवास, रोजी-रोटी और अस्तित्व हैं। ये उन्हें भोजन, फल, खाने लायक वनस्पति, शहद, पौष्टिक जड़े और शिकार के लिए वन्य शिकार प्रदान करते हैं। वन उन्हें घर बनाने का सामान और कला की वस्तुएँ भी देते हैं। इस प्रकार वन जनजातीय समुदाय के लिए जीवन और आर्थिक क्रियाओं के आधार हैं। सामान्यत: यह माना जाता है कि 2001 में भारत के 593 जिलों में से 187 जनजातीय जिले हैं। इनमें देश का 59.8 प्रतिशत वन आवरण पाया जाता है। इससे पता चलता है कि भारत के जनजातीय जिले वन सम्पदा में धनी हैं।

प्रश्न 2. बाघ परियोजना का क्या महत्त्व है? भारत में कितने बाघ संरक्षण क्षेत्र हैं?
उत्तर-भारत में बाघों की घटती संख्या को बढ़ाने के लिए बाघ संरक्षण परियोजना 1973 में प्रारम्भ की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में बाघों की जनसंख्या का स्तर बनाए रखना है जिससे वैज्ञानिक, सौन्दर्यात्मक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक मूल्य बनाए रखे जा सकें। प्रारम्भ में यह परियोजना नौ बाघ निचयों (आरक्षित क्षेत्रों) में शुरू की गई थी और इसमें 16,339 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र शामिल था। अब यह योजना 27 बाघ निचयों में चल रही है और इनका क्षेत्रफल 37.761 वर्ग किलोमीटर है और 17 राज्यों में व्याप्त है।

प्रश्न 3. ऊँचाई के आधार पर हिमालय के वनस्पति कटिबन्धों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-ऊँचाई के आधार पर हिमालय क्षेत्र में वनस्पति की निम्नलिखित पेटियाँ पाई जाती हैं

1. उष्ण कटिबन्धीय आर्दै पर्णपाती वन-शिवालिक हिमालय की श्रेणियों में उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र पर्णपाती वन उगते हैं। साल यहाँ का मुख्य वृक्ष है। आर्थिक दृष्टिकोण से इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी होती है। बाँस भी यहाँ बहुतायत में उगता है।

2. शीतोष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वन-इन्हें ‘आर्द्र पर्वतीय वन’ भी कहते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में ये वन 1,000 से 2,000 मीटर की ऊँचाई तक मिलते हैं। इन वनों में चेस्टनट, चीड़, ओक, देवदार, बर्च, एल्डर, पोपलर, एल्म, मैपिल तथा सेब के वृक्ष उगते हैं। उत्तर-पूर्वी भागों में जहाँ भारी वर्षा होती है, उपोष्ण कटिबन्धीय चीड़ के वन पाए जाते हैं।

3. शंकुल या कोणधारी वन-हिमालय-पर्वतीय प्रदेश में 1,600 से 3,300 मीटर की ऊँचाई के मध्य चीड़, सीडर, सिल्वर, फर, स्पूस, सनोवर, ओक, मैपिल, बर्च, एल्डर तथा ब्लू पाइन के वृक्षों की प्रधानता है। ये कोमल लकड़ी के वृक्ष हैं, जिनसे कागज, लुगदी, दियासलाई आदि का | निर्माण किया जाता है।

4. अल्पाइन वन–हिमालैय-पर्वतीय प्रदेश में 3,600 मीटर से अधिक ऊँचाई पर अल्पाइन वन शंकुल वनों का स्थान ले लेते हैं। इस प्रदेश में निम्न भागों में सिल्वर; फर, बर्च तथा जूनीपर के वृक्ष उगते हैं। इससे अधिक ऊँचाई पर काई एवं लाइकेन ही उगती हैं।

प्रश्न 4. भारत में उष्ण कटिबन्धीय वर्षा का वितरण एवं विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-जिन प्रदेशों में उष्णार्द्र जलवायु पाई जाती है, वहाँ वर्षा का औसत 200 सेमी या उससे अधिक रहता है। ऐसी जलवायु में किसी ऋतु विशेष में वृक्ष अपनी पत्तियाँ नहीं गिराते, बल्कि वे सदैव हरे-भरे (सदाबहार) रहते हैं। विषुवरेखीय वनों की भाँति ये वन बहुत सघन होते हैं। इनमें वृक्षों की ऊँचाई 60 मीटर या इससे भी अधिक हो जाती है। भारत में ये वन 4.5 लाख हेक्टेयर भूमि पर उगे हैं। असम, मेघालय, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, त्रिपुरा, मणिपुर, पश्चिमी घाट, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल के मैदानी भागों तथा अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में इन वनों का विस्तार पाया जाता है। इन वनों में ताड़, महोगनी बाँस, सिनकोना, बेंत, रबड़, रोजवुड, आबनूस आदि वृक्ष उगते हैं।

प्रश्न 5. भारतीय वनों की किन्हीं चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-भारतीय वनों की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. भारत में जलवायु की विभिन्नता के कारण विविध प्रकार के वन पाये जाते हैं। यहाँ विषुवत्रेखीय सदाबहार वनों से लेकर शुष्क, कॅटीले वन व अल्पाइन (कोमल लकड़ी वाले) वन तक मिलते हैं।
  2. भारत में कोमल लकड़ी वाले वनों का क्षेत्र कम पाया जाता है। यहाँ कोमल लकड़ी वाले वन हिमालय के अधिक ऊँचे ढालों पर मिलते हैं, जिन्हें काटकर उपयोग में लाना अत्यन्त कठिन है।
  3. भारत के मानसूनी वनों में ग्रीष्म ऋतु से पूर्व वृक्षों की पत्तियाँ नीचे गिर जाती हैं, जिसे पतझड़ कहते हैं।
  4. भारत के वनों में विविध प्रकार के वृक्ष मिलते हैं। अतः उनकी कटाई के सम्बन्ध में विशेषीकरण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 6. वन्य जीवन के संरक्षण की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-वन्य जीवन संरक्षण की आवश्यकता निम्नलिखित दो कारणों से होती है
1. प्राकृतिक सन्तुलन में सहायक-वन्य जीवन वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार हैं, किन्तु वर्तमान समय में अत्यधिक वन दोहन तथा अनियन्त्रित और गैर-कानूनी आखेट के कारण भारत की वन्य जीव-सम्पदा का तेजी से ह्रास हो रहा है। अनेक महत्त्वपूर्ण पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलोप के कगार पर हैं। प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए
वन्य-जीव संरक्षण की बहुत आवश्यकता है।

2. पर्यावरण प्रदूषण–पर्यावरण प्रदूषण पर प्रभावी रोक लगाने के लिए भी पशुओं एवं वन्य-जीवों का संरक्षण आवश्यक है, क्योंकि इनके द्वारा पर्यावरण में उपस्थित बहुत-से प्रदूषित पदार्थों को नष्ट कर दिया जाता है। इसके साथ ही वन्य-जीव पर्यावरण को स्वच्छ बनाये रखने में अपना अमूल्य योगदान देते हैं।

प्रश्न 7. राष्ट्रीय उद्यान तथा वन्य-जीव अभयारण्य को परिभाषित करते हुए इनमें किसी एक अन्तर का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-राष्ट्रीय उद्यान एक या एक से अधिक पारितन्त्रों वाला वृहत् क्षेत्र होता है। विशिष्ट वैज्ञानिक शिक्षा तथा मनोरंजन के लिए इसमें पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की प्रजातियों, भू-आकृतिक स्थलों और आवासों को संरक्षित किया गया है। राष्ट्रीय उद्यान की ही भाँति, वन्यजीव अभयारण्य भी वन्य-जीवों की सुरक्षा के लिए स्थापित किये गये हैं।

अभयारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यानों में सूक्ष्म अन्तर हैं। अभयारण्य में बिना अनुमति शिकार करना वर्जित है,परन्तु चराई एवं गो-पशुओं का आवागमन नियमित होता है। राष्ट्रीय उद्यानों में शिकार एवं चराई पूर्णतया वर्जित होते हैं। अभयारण्यों में मानवीय क्रियाकलापों की अनुमति होती है, जबकि राष्ट्रीय उद्यानों में मानवीय हस्तक्षेप पूर्णतया वर्जित होता है।

प्रश्न 8. भारत में सामाजिक वानिकी के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर-सामाजिक वानिकी ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक-आर्थिक विकास का कार्यक्रम ही नहीं है, बल्कि यह पारितन्त्र के सन्तुलन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। भारत में सामाजिक वानिकी द्वारा ग्रामीण।जनसंख्या जलावन लकड़ी, छोटी-छोटी वनोत्पाद और इमारती लकड़ी प्राप्त करके आर्थिक विकास को बढ़ाती है। भारत में यह कार्यक्रम 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग द्वारा शुरू किया गया था। इसके अन्तर्गत कई प्रकार के महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम चलाए गए हैं।

सामाजिक वानिकी किसानों को अपनी भूमि पर वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित करता है। इस कार्यक्रम द्वारा सड़कों व नहरों के किनारे खाली का वनों के लिए उपयोग होता है तथा बंजर और ऊपर भूमि में सुधार का प्रयास भी किया जाता है।

प्रश्न 9. भारत में वन्य प्राणियो की संख्या कम होने के मुख्य कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- भारत में वन्य प्राणियों की संख्या कम होने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

  • औद्योगिकी और तकनीकी विकास के कारण वनों का अत्यधिक दोहन।
  • कृषि, मानवीय बस्ती, सड़कों, खदानों, जलाशयों इत्यादि के लिए भूमि से वनों का सफाया किया जाना।
  • स्थानीय लोगों का चारे व इमारती लकड़ी की आपूर्ति हेतु वनों पर दबाव।
  • पालतू पशुओं के लिए नए चरागाहों की खोज में मानव द्वारा वन्य जीवों और उनके आवासों को नष्ट किया जाना।
  • रजवाड़ों और सम्भ्रांत वर्ग द्वारा जंगली जानवरों का शिकार क्रीड़ा या मनोरंजन के लिए किया जाना।
  •  वनों में आग लगने से वन्य-जीवों की मृत्यु होना।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत में सदाबहार वनों का वितरण एवं उनके आर्थिक महत्त्व का विवरण दीजिए।
या भारत के विभिन्न प्रकार के वनों का वर्णन कीजिए।
या भारत में वनों के विकास का सकारात्मक विवरण दीजिए।
या उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
या भारत में प्राकृतिक वनस्पति का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए
(क) प्रकार, (ख) क्षेत्र।
उत्तर – भारत में वनों का वितरण
वन राष्ट्र की बहुमूल्य निधि होते हैं, परन्तु मानव इनके महत्त्व को पूरी तरह नहीं समझ पाया है। भारत के विशाल मैदान में तो शायद ही वन देखने को मिलते हैं, किन्तु पर्वतीय क्षेत्रों, समुद्रतटीय मैदानों तथा नदीतटीय भू-भागों में प्राकृतिक वनस्पति अवश्य विकसित हुई है।

भारत में 657.6 लाख हेक्टेयर भूमि (22%) पर वन पाये जाते हैं, जबकि भारतीय सुदूर संवेदन द्वारा लगाये गये नवीनतम अनुमानों के आधार पर देश में केवल 14% क्षेत्रफल पर ही वनों का विस्तार बताया गया है। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान समय में देश के भौगोलिक क्षेत्रफल के 19.39% भाग पर वनों का विस्तार पाया जाता है। 1952 ई० में निर्धारित ‘राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के 33.3% क्षेत्र पर वन होने चाहिए। वर्तमान समय में वृक्षारोपण एवं वन-महोत्सव आदि कार्यक्रम इसी दिशा में किये गये प्रयास हैं। देश में वनों का भौगोलिक वितरण बड़ा ही असमान है। भारत के पर्वतीय राज्यों एवं दक्षिणी पठारी राज्यों में वन-क्षेत्र अधिक पाये जाते हैं।

भारतीय वनों का वर्गीकरण

वनों के प्रकार प्राकृतिक पर्यावरण के तत्त्वों पर निर्भर करते हैं। वर्षा की मात्रा, मिट्टी के प्रकार, भूगर्भीय संरचना तथा भूमि की बनावट के आधार पर भारतीय वनों का विभाजन प्रस्तुत किया जा सकता है। भौगोलिक आधार पर वनों के प्रथम चार प्रकार वर्षा की मात्रा के आधार पर तथा शेष पाँच प्रकार वर्षा की मात्रा (जलवायु) के अतिरिक्त मिट्टी आदि अन्य तत्त्वों के आधार पर निर्धारित किये जा सकते हैं। इन वनों के वर्गीकरण का विवरण अग्रलिखित है–

1. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन (Tropical Evergreen Forests)-ईस प्रकार के वन उन भागों में पाये जाते हैं जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 200 सेमी तथा औसत तापमान 24° सेग्रे के लगभग रहता है। उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्वी हिमालय के उप-प्रदेश, दक्षिण में पश्चिमी घाट के ढालों पर महाराष्ट्र से लेकर उत्तरी एवं दक्षिणी ढाल, नीलगिरि, अन्नामलाई, कर्नाटक, केरल तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह तक इस प्रकार के वनों का विस्तार है। पश्चिमी घाट पर 457 से 1,360 मीटर की ऊँचाई के मध्य तथा असोम में 1,067 मीटर की ऊँचाई तक इन वन का विस्तार मिलता है।

अत्यधिक वर्षा के कारण ये वन सदैव हरे-भरे रहते हैं, परन्तु वर्षा की कमी के कारण ये कभी-कभी अहरित भी हो जाते हैं। इनके वृक्षों की ऊँचाई 30 से 50 मीटर तक होती है। इनमें कठोर लकड़ी के वृक्ष अत्यधिक होते हैं तथा इन्हें काटना भी कठिन होता है। विभिन्न प्रकार की लताओं, झाड़ियों तथा छोटे-छोटे पौधों की अधिकता के कारणं ये वन दुर्गम हो गये हैं। इन वनों में अधिकांशत: रबड़, महोगनी, एबोनी, जंगली आम, नाहर, गुरजन, तुलसर, अमलतास, तून, ताड़, बाँस, सिनकोना, बेंत, रोजवुड आदि के वृक्ष महत्त्वपूर्ण होते हैं। असोम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, पूर्वी घाट, अण्डमान निकोबार द्वीप समूह आदि पर इस प्रकार के वनों का विस्तार पाया जाता है। ये वन आर्थिक दृष्टि से अनुपयोगी हैं।

2. उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती (पतझड़) वन या मानसूनी वन-ये वन अधिकतर उन भागों में उगते हैं जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 100 से 200 सेमी के मध्य रहता है। इन्हें मानसूनी वन भी कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में इन वनों के वृक्ष अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं जिससे उनकी नमी नष्ट न हो सके। इन वनों के नीचे सघन झाड़-झंखाड़ आदि नहीं पाये जाते हैं, जिस कारण यहाँ बाँस अधिक पैदा होता है; परन्तु बेंत, ताड़ तथा लताओं का अभाव रहता है। ये वन भारत के चार क्षेत्रों में मिलते हैं(i) उप-हिमालय प्रदेश में पंजाब से लेकर असोम हिमालय तक बाह्य एवं निचले ढालों पर; (ii) पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में; (iii) दक्षिणी भारत में पश्चिमी घाट के पूर्व से लेकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल राज्यों में तथा (iv) दक्षिणी-पूर्वी घाट के ढालों पर।

ये वन व्यापारिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्व रखते हैं। इन वनों का क्षेत्रफल 7 लाख वर्ग किमी है। इन्हें सुरक्षित वनों की श्रेणी में रखा गया है। इन वनों में साल एवं सागौन के वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं जो महाराष्ट्र एवं कर्नाटक राज्यों में अधिक मिलते हैं। शीशम, चन्दन, पलास, हल्दू, आँवला, शहतूत, बाँस, कत्था आदि अन्य प्रमुख वृक्ष हैं। वार्निश, चमड़ा रँगने आदि के उपयोगी पदार्थ भी इन्हीं वनों से प्राप्त होते हैं।

3. उष्ण कटिबन्धीय शुष्क वन-इस प्रकार के वन उन भागों में उगते हैं जिन भागों में वर्षा का औसत 50 से 100 सेमी तक रहता है। जल के अभाव के कारण ये वृक्ष न तो अधिक ऊँचे ही हो पाते हैं एवं न ही हरे-भरे रहते हैं। इन वृक्षों की ऊँचाई केवल 6 से 9 मीटर तक होती है। इन वृक्षों की जड़े लम्बी एवं मोटी होती हैं ताकि वे भूगर्भ में अधिक गहराई से जल खींच सकें तथा अपने अन्दर संचित रख सकें। इन वनों में अधिकतर नागफनी, रामबॉस, खेजड़ी, बबूल, कीकर, खैर, रीठा, कुमटा, खजूर आदि वृक्ष मुख्य हैं।

उत्तरी भारत में ये वन पूर्वी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कम उपजाऊ भूमि पर उगते हैं। दक्षिणी भारत के शुष्क भागों में आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात,
महाराष्ट्र में भी ऐसे ही वन मिलते हैं।

4. मरुस्थलीय एवं अर्द्ध-मरुस्थलीय वन-ये वन उन भागों में उगते हैं जहाँ वार्षिक वर्षा 50 सेमी से कम होती है। इनके वृक्ष छोटी-छोटी झाड़ियों के रूप में होते हैं जिनकी जड़े लम्बी होती हैं। बबूल यहाँ का प्रमुख वृक्ष है। खेजड़ी, खैर, खजूर, रामबाँस, नागफनी आदि प्रमुख वृक्ष हैं। दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात तथा कर्नाटक के वृष्टिछाया प्रदेश में इन वनों का विस्तार है।

5. पर्वतीय वन-ऊँचाई एवं वर्षा के अनुसार ये वन भिन्नता लिये होते हैं। पश्चिमी हिमालय क्षेत्र की अपेक्षा पूर्वी हिमालय प्रदेश में वर्षा अधिक होती है। अतः यहाँ वनों में भी भिन्नता पाया जाना स्वाभाविक है। इस प्रदेश के वनों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
(i) पूर्वी हिमालय प्रदेश के वन-भारत के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में पहाड़ी ढालों पर इन वनों का विस्तार मिलता है। इन क्षेत्रों में वर्षा का औसत 200 सेमी तक रहता है। ऊँचाई के अनुसार वनस्पति में भी भिन्नता मिलती है, परन्तु यह वनस्पति सदाबहार वनों की होती है। इस प्रदेश में 1,200 से 2,400 मीटर ऊँचाई पर उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार के वन मिलते हैं। इन वनों में साल, ओक, लॉरेल, दालचीनी, चन्दन, शीशम, खैर एवं सेमल के वृक्ष मिलते हैं। कहीं-कहीं बाँस भी उग आता है। शीतोष्ण सदाबहार की वनस्पति 2,400 से 3,600 मीटर की ऊंचाई पर मिलती है। यहाँ पर कम ऊँचाई वाले कोणधारी वृक्ष उगते हैं। प्रमुख वृक्षों में ओक, मैपिल, बर्च, एल्डर, लॉरेल, सिल्वर-फर, पाइन, स्पूस, जूनीपर प्रमुख हैं।

(ii) पश्चिमी हिमालय प्रदेश के वन-पश्चिमी हिमालय प्रदेश में वर्षा का प्रभाव वृक्षों के प्रकार पर पड़ता है। यहाँ ऊँचाई के साथ-साथ प्राकृतिक वनस्पति में भी भिन्नता पायी जाती है। इस प्रदेश में 900 मीटर की ऊँचाई तक अर्द्ध-मरुस्थलीय वनस्पति पायी जाती है, जो छोटे-छोटे वृक्ष एवं झाड़ियों के रूप में होती है। 900 से 1,800 मीटर की ऊँचाई तक चीड़, साल, सेमल, ढाक, शीशम, जामुन एवं बेर के वृक्ष उगते हैं। इन वृक्षों पर कम वर्षा एवं निम्नः तापमान का प्रभाव पड़ता है। 1,800 से 3,000 मीटर की ऊँचाई तक सम-शीतोष्ण कोणधारी वन पाये जाते हैं। 2,500 मीटर की ऊँचाई तक चौड़ी पत्ती वाले मिश्रित वन मिलते हैं। इनमें चीड़, देवदार, नीला-पोइन, एल्डर, पोपलर, बर्च, एल्म आदि के वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं। 2,500 मीटर से अधिक ऊँचाई पर सिल्वर-फर एवं येलो-पाइन मुख्य वृक्ष हैं।

हिमालय पर्वतीय प्रदेश में 2,400 मीटर से अधिक ऊँचाई पर अल्पाइन वन मिलते हैं। इन्हें कोणधारी वन कहा जा सकता है। ये वन 3,600 मीटर की ऊँचाई तक अधिक मिलते हैं। ओक, मैपिल, सिल्वर-फर, पाइन, जूनीपर आदि इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं। पश्चिमी हिमालय प्रदेश की अपेक्षा पूर्वी हिमालय प्रदेश में इन वनों का विस्तार अधिक है। 3,600 से 4,800 मीटर की ऊँचाई तक टुण्ड्रा वनस्पति, छोटी-छोटी झाड़ियाँ एवं काई उगती है। इससे अधिक ऊँचाई पर सदैव हिमावरण रहता है अर्थात् 4,800 मीटर की ऊँचाई पर हिमालय प्रदेश में स्थायी हिम रेखा है।

6. ज्वारीय वन-नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में एक विशेष प्रकार की वनस्पति उगती है जिनमें मैनग्रोव एवं सुन्दरी वृक्षों की प्रधानता होती है। ये वन सदाबहारी होते हैं। सागरीय जल की लवणता का प्रभाव इन वनों पर अधिक पड़ता है, क्योंकि इनकी छाल नमकीन एवं लकड़ी कठोर होती है। जिसकी नावें बनाई जाती हैं तथा छाल का उपयोग चमड़ा रँगने में किया जाता है। ताड़, नारियल, फोनिक्स, गोरेन, नीपा एवं केसूरिना (झाऊ) अन्य प्रमुख वृक्ष हैं। भारत में ये वन गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा आदि नदियों के डेल्टाओं में उगते हैं।

वनों का राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्व

वन राष्ट्र की अमूल्य निधि होते हैं। प्रकृति द्वारा प्रदत्त नि:शुल्क प्राकृतिक उपहारों में वन सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “उगता हुआ वृक्ष प्रगतिशील राष्ट्र का जीवन प्रतीक है।” वन महोत्सव के जन्मदाता डॉ० के० एम० मुन्शी ने वृक्षों की उपयोगिता को इन शब्दों में व्यक्त किया है-“वृक्षों का अर्थ है जल, जल का अर्थ है रोटी और रोटी ही जीवन है।” वृक्षों के महत्त्व को देखते हुए ही भारत सरकार ने 1950 ई० में वन-महोत्सव कार्यक्रम लागू किया था। वनों के आर्थिक महत्त्व को अग्रलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है

(अ) वनों से प्रत्यक्ष लाभ-वनों के प्रत्यक्ष लाभों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है
1. प्रधान उपजे–वनों की मुख्य उपज लकड़ी है। वनों से प्राप्त होने वाली आय का लगभग 75%
भाग लकड़ी से ही प्राप्त होता है। भारतीय वनों से प्रति वर्ष लगभग 25 करोड़ की लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं। देवदार, सागौन, शीशम, चीड़, पाइन तथा साल के वृक्षों से उत्तम, कोमल तथा टिकाऊ लकड़ियाँ मिलती हैं, जिनसे विविध प्रकार को फर्नीचर बनाया जाता है। चन्दन वृक्ष की लकड़ी से सुगन्धित तेल निकाला जाता है। गंगा डेल्टा में सुन्दरी वृक्षों की लकड़ी से टिकाऊ एवं मजबूत नावें बनाई जाती हैं। भारत में प्रति वर्ष 108 लाख घन मीटर औद्योगिक लकड़ी (15 लाख घन मीटर शंकु वृक्षी और 93 लाख घन मीटर चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों की) प्राप्त की जाती है। भारतीय वनों से प्रति वर्ष 490 लाख टन ईंधन की लकड़ी का उत्पादन होता है, जबकि माँग 1,330 लाख घन मीटर लकड़ी की रहती है।

2. गौण उपों-लकड़ी के अतिरिक्त वनों से अन्य अनेक ऐसे पदार्थ भी प्राप्त होते हैं जो आर्थिक दृष्टि से बहुत उपयोगी होते हैं तथा जिनका उपयोग उद्योग-धन्धों के कच्चे माल के रूप में किया जाता है। वनों से निम्नलिखित गौण उपजे प्राप्त होती हैं|
(i) लाख-लाख वनों की महत्त्वपूर्ण उपज है। लाख के उत्पादन में भारत का विश्व में प्रथम – स्थान है। यहाँ विश्व का लगभग 75% लाख उत्पन्न किया जाता है। भारत में प्रति वर्ष १ 11 करोड़ मूल्य के लाख उत्पादन में से लगभग 90 प्रतिशत का निर्यात कर दिया जाता है, जिससे प्रति वर्ष १ 10 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। बिहार राज्य भारत का 50
प्रतिशत लाख उत्पन्न करता है। लाख उत्पादन में दूसरा स्थान मध्य प्रदेश का है।

(ii) गोंद-अनेक वृक्षों के तने चिपचिपा रस छोड़ते हैं, जो सूखकर गोंद बन जाता है। यह मुख्यतः बबूल, चीड़, नीम, पीपल, खेजड़ा, कीकर तथा साल के वृक्षों से प्राप्त होता है।

(iii) कत्था-खैर वृक्षों की लकड़ी को पानी में उबालकर तथा सुखाकर कत्था प्राप्त किया जाता है। खैर के वृक्ष उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में अधिक पाये जाते हैं।

(iv) चमड़ा रँगने तथा पकाने के पदार्थ-वनों के अनेक वृक्षों की छालें चमड़ा पकाने तथा रँगने में प्रयुक्त की जाती हैं। बबूल, सुन्दरी, खैर, हरड़, बहेड़ा, आँवला आदि वृक्षों की छालें तथा पत्तियाँ चमड़ा कमाने एवं रँगने में प्रयुक्त की जाती हैं।

(v) अन्य पदार्थ-वनों से प्राप्त अन्य गौण उपजों में रबड़, रीठा, तेल, ओषधियाँ, घास, सिनकोना आदि महत्त्वपूर्ण हैं, जिनका उपयोग विभिन्न उद्योग-धन्धों में किया जाता है। वनों में रहने वाले पशु-पक्षियों से मांस, चमड़ा, हड्डी तथा पंख भी प्राप्त होते हैं। वनों में उगी हुई हरी घास पशुओं के लिए उत्तम चरागाह का काम देती है। वनों से सरकार को राष्ट्रीय आय प्राप्त होती है तथा अनेक लोगों की जीविका भी चलती है।

(ब) वनों से अप्रत्यक्ष लाभ-वनों से निम्नलिखित अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त होते हैं

  1. वन जलवायु को सम रखने में सहायक होते हैं तथा वर्षा कराने में भी योगदान देते हैं, क्योंकि इनसे । वायुमण्डल को नमी प्राप्त होती है।
  2. वृक्ष पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। ये वायुमण्डल की कार्बन डाइऑक्साइड गैस को ऑक्सीजन में बदल देते हैं। इस प्रकार वनों से वायु प्रदूषण कम हो जाता है।
  3. वन बाढ़ों के प्रकोप को रोकने में सहायक होते हैं, क्योंकि वृक्षों की जड़ों से जल का प्रवाह मन्द पड़ जाता है।
  4. वन मरुस्थल के प्रसार को रोकते हैं। वृक्षों से वायु की गति मन्द हो जाती है तथा तीव्र आँधियों से | होने वाली हानि भी कम हो जाती है।
  5. वनों से भूमि-क्षरण तथा कटाव रुकता है, क्योंकि वृक्षों की जड़े वर्षा के जल की गति को मन्द करे | देती हैं तथा मिट्टी को पकड़कर रखती हैं।
  6. वनों में रेशम के कीड़े तथा मधुमक्खी पालने का कार्य सुविधापूर्वक किया जाता है।
  7. वन देश के प्राकृतिक सौन्दर्य में भी वृद्धि करते हैं। वृक्षों की हरियाली नेत्रों को बहुत भली प्रतीत | होती है।
  8. वनों के वृक्षों से गिरी हुई पत्तियाँ भूमि में मिलकर उसकी उर्वरा शक्ति को बढ़ा देती हैं। इससे मिट्टी में जीवांशों की मात्रा में भी वृद्धि होती है।
  9. वन पशु-पक्षियों के लिए शरणस्थली होते हैं, जिनसे हमें अनेक लाभ प्राप्त होते हैं।
  10. वन मिट्टी में दब जाने पर कालान्तर में कोयले तथा खनिज तेल का निर्माण करते हैं।
  11. वनों की जड़ों द्वारा भूमि में जल का रिसाव अधिक होता है। इससे भूमिगत जल का भण्डार बढ़ता है।

भारत में प्राचीन काल से वनों का विस्तार पर्याप्त मात्रा में था, परन्तु जनसंख्या के दबाव के बढ़ने के फलस्वरूप आवास, कृषि तथा उद्योगों की स्थापना के लिए वनों को बुरी तरह काट डाला गया। वन-क्षेत्रों का अभाव हो जाने से पर्यावरण असन्तुलन के अनेक दुष्प्रभाव प्रकट होने लगे हैं। वर्तमान में हमारी सरकार ने इस ओर ध्यान दिया है तथा राष्ट्रीय वन नीति घोषित की है, जिसके अनुसार भूमि के 33% भाग पर वन होने चाहिए। वन महोत्सव तथा सामाजिक वानिकी इसी दिशा में हमारे कदम हैं। वस्तुत: वन-सम्पदा हमारी धरोहर है, हमें इसे नष्ट नहीं करना चाहिए। हमारा कर्तव्य होना चाहिए कि हम इसे बढ़ाकर आगे आने वाली पीढ़ियों को दें। हमें इस सम्पत्ति का ब्याज ही काम में लेना चाहिए, इसके मूल को कम नहीं करना चाहिए, तभी हम आज के भयावह पर्यावरण असन्तुलन से राहत पा सकते हैं।

वन-संरक्षण के उपाय।

पर्यावरण के संरक्षणार्थ वनों को संरक्षण अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। वन-संरक्षण हेतु देश में संशोधित राष्ट्रीय वन नीति 1988 में लागू की गई है। इस वन नीति के मुख्य लक्ष्य पारिस्थितिकीय सन्तुलन के संरक्षण और पुन:स्थापन द्वारा पर्यावरण स्थायित्व को बनाए रखना है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु वन-संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं–

  1. व्यापक वृक्षारोपण और सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों के द्वारा वन और वृक्ष के आच्छादन में महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी की जाए।
  2. वन उत्पादनों के उचित उपयोग को बढ़ावा देना और लकड़ी के अनुकूलन विकल्पों की खोज की जाए।
  3. वनों पर पड़ रहे दबाव को न्यूनतम करने के लिए जन-साधारण; विशेषकर महिलाओं को अधिकतम सहयोग प्रदान करने के लिए प्रेरित करना।
  4. नदियों, झीलों और जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्रों में भूमि-कटाव और वनों के क्षरण पर नियन्त्रण किया जाए।
  5. वन संरक्षण और प्रबन्धन हेतु ग्रामीण समितियों का गठन किया जाए।
  6. आदिवासी बहुल क्षेत्रों में नष्ट हो चुके वनों को पुनः हरा-भरा करने के लिए विशेष प्रायोजित रोजगार योजना के माध्यम से वनों को पुनर्जीवित किया जाए।
  7. प्राकृतिक और मानव द्वारा लगी वनों की आग (दावानल) पर नियन्त्रण करना तथा वनों में आग | लगने की घटनाओं में कमी लाकर वनों की उत्पादन क्षमता में वृद्धि करना।
  8. रेगिस्तानी, बंजर और अनुपयुक्त अन्य प्रकार की भूमि पर उसकी प्रकृति के अनुरूप प्रजातियों की वनस्पति का विस्तार करना भी वन-संरक्षण में सहायक कदम होगा।

वास्तव में वन-सम्पदा हमारे लिए प्रकृति का अमूल्य वरदान है, अतः हमें झ्स सम्पत्ति का ब्याज ही काम में लेना चाहिए, इसके मूल को कभी भी कम नहीं करना चाहिए, तभी हम आज के भयावह पर्यावरण, असन्तुलन से राहत पा सकते है।

प्रश्न 2. जीवमण्डल निचय (आरक्षित क्षेत्र) क्या हैं? इसके उद्देश्य बताइए तथा यूनेस्को द्वारा भारत के मान्यता प्राप्त जीवमण्डल निचय का वर्णन कीजिए।
उत्तर-जीवमण्डल निचय
देश में जैव विविधता की सुरक्षा और संरक्षण के लिए विभिन्न उपाय किए जा रहे हैं। जीवमण्डल निचय भी इनमें एक है। ये विशेष प्रकार के भौमिक और तटीय पारिस्थितिक तन्त्र हैं, जिन्हें यूनेस्को के मानव और जीवमण्डल प्रोग्राम (MAB) के अन्तर्गत मान्यता प्राप्त है।
जीवमण्डल निचय के तीन मुख्य उद्देश्य हैं, जो निम्नांकित चित्र द्वारा स्पष्ट होते हैं
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति) img 2
भारत में 14 जीवमण्डल निचय हैं। इनमें से 4 जीवमण्डल निचय (नीलगिरि, नन्दादेवी, सुन्दरवन और मन्नार की खाड़ी) को यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त है।

1. नीलगिरि जीवमण्डल निचय-इस आरक्षित क्षेत्र की स्थापना 1986 की गई थी। यह भारत का पहला जीवमण्डल निचय है। इस निचय में वायनाड वन्य जीवन सुरक्षित क्षेत्र नगरहोल, बाँदीपुर
और मुदुमलाई, लिम्बूर का सारा वन से ढका ढाल, ऊपरी नीलगिरि पठार, सायलेण्ट वैली और सिद्वानी पहाड़ियाँ सम्मिलित हैं। इस जीवमण्डल निचय का कुल क्षेत्र 5,520 वर्ग किलोमीटर है।

2. नन्दादेवी जीवमण्डल निचय-जय जीवमण्डल निचय उत्तराखण्ड में स्थित है। इसमें चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों के भाग सम्मिलित हैं। इस निचय में शीतोष्ण कटिबन्धीय वन तथा कई प्रकार के वन्य-जीव; जैसे-हिम तेन्दुआ, काला भालू, भूरा भालू, कस्तूरी मृग, हिममुर्गा, बाज और काला बाज आदि पाए जाते हैं।

3. सुन्दरवन जीवमण्डल निचय-यह पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के दलदली डेल्टा पर स्थित है। | यह विशाल क्षेत्र 9,630 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यहाँ मैंग्रोव वृक्ष, लवणीय और ताजा जल प्राप्त है। सबको पर्यावरण के अनुरूप ढालते हुए बाघ पानी में तैरते हैं और चीतल, भौंकने वाला मृग, जंगली सूअर जैसे दुर्लभ जीव भी पाए जाते हैं।

4. मन्नार की खाड़ी का जीवमण्डल निचय-यह निचय लगभग एक लाख पाँच हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है और भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित है। समुद्री जीव विविधता के मामले में यह क्षेत्र विश्व के सबसे धनी क्षेत्रों में से एक है। इस जीवमण्डल निचय में 21 द्वीप हैं और इन पर अनेक ज्वारनदमुख पुलिन, तटीय पर्यावरण के जंगल, समुद्री घासे, प्रवालद्वीप, लवणीय अनूप
और मैंग्रोव पाए जाते हैं।

प्रश्न 3. भारत के जीवरिजर्व क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति, विस्तार और क्षेत्रफल का विवरण दीजिए।
उत्तर-भारत में 14 जीव रिजर्व क्षेत्र या जीवमण्डल निचय हैं। इनका नाम, कुल भौगोलिक क्षेत्रफल,. स्थिति और विस्तार अग्रांकित तालिका में दिया गया है
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 5 Natural Vegetation (प्राकृतिक वनस्पति) img 3

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UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure

UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure (रासायनिक आबन्धन एवं आण्विक संरचना )

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Chemistry. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure (रासायनिक आबन्धन एवं आण्विक संरचना ).

पाठ के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
रासायनिक ओबन्ध के बनने की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
द्रव्य’ एक या विभिन्न प्रकार के तत्वों से मिलकर बना होता है। सामान्य स्थितियों में उत्कृष्ट गैसों के अतिरिक्त कोई अन्य तत्व एक स्वतन्त्र परमाणु के रूप में विद्यमान नहीं होता है। परमाणुओं के समूह विशिष्ट गुणों वाली स्पीशीज के रूप में विद्यमान होते हैं। परमाणुओं के ऐसे समूह को ‘अणु’ कहते हैं। प्रत्यक्ष रूप में कोई बल अणुओं के घटक परमाणुओं को आपस में पकड़े रहता है। वस्तुतः रासायनिक आबन्ध को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता हैविभिन्न रासायनिक स्पीशीज में उनके अनेक घटकों (परमाणुओं, आयनों इत्यादि) को संलग्न रखने वाले आकर्षण बल को ‘रासायनिक आबन्ध’ कहते हैं।”

कॉसेल-लूइस अवधारणा के अनुसार, परमाणुओं का संयोजन अर्थात् रासायनिक आबन्ध बनना संयोजी इलेक्ट्रॉनों के एक परमाणु से दूसरे परमाणु पर स्थानान्तरण के द्वारा अथवा संयोजी इलेक्ट्रॉनों के सहभाजन के द्वारा होता है। इस प्रक्रिया में परमाणु अपने संयोजकता कोश में अष्टक प्राप्त करते हैं। जैसे सोडियम क्लोराइड अणु में सोडियम परमाणु अपना एक संयोजी इलेक्ट्रॉन त्याग देता है तथा इस इलेक्ट्रॉन को क्लोरीन परमाणु ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार इलेक्ट्रॉनों के स्थानान्तरण के द्वारा दोनों परमाणु अपने-अपने संयोजकता कोश में अष्टेक प्राप्त कर लेते हैं तथा दोनों के मध्य एक रासायनिक आबन्ध (विद्युत-संयोजी आबन्ध) स्थापित हो जाता है।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित तत्वों के परमाणुओं के लूइस बिन्दु प्रतीक लिखिए- Mg, Na, B, 0, N, Br.
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-1

प्रश्न 3.
निम्नलिखित परमाणुओं तथा आयनों के लूइस बिन्दु प्रतीक लिखिए-
S और S2-, AI तथा Al3+, H और H
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-2

प्रश्न 4.
निम्नलिखित अणुओं तथा आयनों की लूइस संरचनाएँ लिखिए-
H2S, SiCl4, BeF2,CO2-3-, HCOOH
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-3

प्रश्न 5.
अष्टक नियम को परिभाषित कीजिए तथा इस नियम के महत्त्व और सीमाओं को लिखिए।
उत्तर
अष्टक नियम (Octet Rule)-वर्ग 18 में उपस्थित अक्रिय गैसों अथवा उत्कृष्ट गैस तत्वों • को शून्य वर्ग के तत्व भी कहा जाता है। इसका अर्थ है कि इनकी संयोजकता शून्य है अर्थात् इनके परमाणु स्वतन्त्र अवस्था में पाए जा सकते हैं। उत्कृष्ट गैस तत्वों के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास निम्नांकित सारणी में दिए गए हैं-
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-4
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-5
प्रथम सदस्य हीलियम, जिसके संयोजी कोश में केवल दो इलेक्ट्रॉन हैं, के अतिरिक्त शेष सदस्यों के संयोजी कोश में आठ इलेक्ट्रॉन हैं। सन् 1916 में जी०एन० लूइस तथा कॉसेल ने ज्ञात किया कि उत्कृष्ट गैस तत्वों का स्थायित्व इनके संयोजी कोशों में आठ इलेक्ट्रॉनों (हीलियम को छोड़कर) अथवा पूर्ण अष्टक की उपस्थिति के कारण होता है। इनके अनुसार अन्य तत्वों के परमाणुओं के बाह्य कोश में आठ से कम इलेक्ट्रॉन होते हैं; अतः ये तत्व अपना आदर्श स्थायी रूप प्राप्त करने के प्रयत्न में रासायनिक संयोजनों में भाग लेते हैं जिससे वे इलेक्ट्रॉनों के आदान-प्रदान द्वारा अपने समीपवर्ती अक्रिय गैस के समान इलेक्ट्रॉनिक विन्यास ग्रहण कर सकें। इसे अष्टक नियम कहते हैं। वास्तव में इलेक्ट्रॉनों द्वारा रासायनिक आबन्धों के बनने की व्याख्या के लिए कई प्रयास किए गए, परन्तु कॉसेल तथा लुइस स्वतन्त्र रूप से सन्तोषजनक व्याख्या देने में सफल हुए। उन्होंने सर्वप्रथम संयोजकता की तर्क-संगत व्याख्या की। यह व्याख्या उपर्युक्त दी गई उत्कृष्ट गैसों की अक्रियता पर आधारित थी।

लूइस परमाणुओं को एक धन-आवेशित अष्टि (नाभिक तथा आन्तरिक इलेक्ट्रॉन युक्त) तथा बाह्य कक्षकों के रूप में निरूपित किया गया। बाह्य कक्षकों में अधिकतम आठ इलेक्ट्रॉन समाहित हो सकते हैं। उसने यह माना कि ये आठों इलेक्ट्रॉन घन के आठ कोनों पर उपस्थित हैं, जो केन्द्रीय अष्टि को चारों ओर से घेरे रहते हैं। इस प्रकार सोडियम के बाह्य कोश में उपस्थित एकल इलेक्ट्रॉन घन के एक कोने पर स्थित रहता है, जबकि उत्कृष्ट गैसों में घन के आठों कोनों पर एक-एक इलेक्ट्रॉन उपस्थित रहते हैं। लूइस ने यह अभिगृहीत दिया कि परमाणु परस्पर रासायनिक आबन्ध द्वारा संयुक्त होकर अपने स्थायी अष्टक को प्राप्त करते हैं। उदाहरण के लिए सोडियम एवं क्लोरीन में सोडियम अपने एक इलेक्ट्रॉन को क्लोरीन को सरलतापूर्वक देकर अपना स्थायी अष्टक प्राप्त करता है तथा क्लोरीन एक इलेक्ट्रॉन प्राप्त कर अपना स्थायी अष्टक निर्मित करता है, अर्थात् सोडियम (Na+) तथा क्लोरीन (Cl) आयन बनते हैं।

Na → Na+ +e
Cl + e → Cl
Na+ +Cl → NaCl या Na+ Cl

इस प्रकार कॉसेल तथा लूइस ने परमाणुओं के बीच रासायनिक संयोजन के एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त को विकसित किया। इसे ‘रासायनिक आबन्धन का इलेक्ट्रॉनिकी सिद्धान्त’ कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार-

परमाणुओं का संयोजन संयोजक इलेक्ट्रॉनों के एक परमाणु से दूसरे परमाणु पर स्थानान्तरण के द्वारा अथवा संयोजक इलेक्ट्रॉनों के सहभाजन (sharing) के द्वारा होता है।”
इस प्रक्रिया में परमाणु अपने संयोजकता कोश में अष्टक प्राप्त करते हैं।
अष्टक नियम का महत्त्व (Significance of Octet Rule)
अष्टक नियम अत्यन्त उपयोगी है। इसका महत्त्व निम्नवर्णित है-

  1. अधिकांश अणु अष्टक नियम का अनुसरण करके ही निर्मित होते हैं; जैसे—O2, N2, Cl2, Br2, आदि।
  2. अधिकांश कार्बनिक यौगिकों की संरचनाओं को समझने में अष्टक नियम का अत्यधिक महत्त्व है।
  3. इसे मुख्य रूप से आवर्त सारणी के द्वितीय आवर्त के तत्वों पर लागू किया जा सकता है।

अष्टक नियम की सीमाएँ (Limitations of Octet Rule) यद्यपि अष्टक नियम अत्यन्त उपयोगी है, परन्तु यह सदैव लागू नहीं किया जा सकता अर्थात् यह सार्वत्रिक (universal) नहीं है। अष्टक नियम के तीन प्रमुख अपवाद निम्नलिखित हैं-

(1) केन्द्रीय परमाणु का अपूर्ण अष्टक (Incomplete octet of central atom)-कुछ यौगिकों में केन्द्रीय परमाणु के चारों ओर उपस्थित इलेक्ट्रॉनों की संख्या आठ से कम होती है। यह मुख्यत: उन तत्वों के यौगिकों में होता है जिनमें संयोजकता इलेक्ट्रॉनों की संख्या चार से कम होती है। उदाहरण के लिए-LiCl2BeH2 तथा BCl3 के बनने में,
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Li, Be तथा B के संयोजकता इलेक्ट्रॉनों की संख्या क्रमशः 1, 2 तथा 3 हैं। इस प्रकार के अन्य उदाहरण AICl3 तथा BF; हैं।
(2) विषम इलेक्ट्रॉन अणु (Odd electron molecule)–उन अणुओं, जिनमें इलेक्ट्रॉनों की कुल संख्या विषम (odd) होती है; जैसे-नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) तथा नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2) में सभी परमाणु अष्टक नियम का पालन नहीं कर पाते।
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(3) प्रसारित अष्टक (Expanded octet):-आवर्त सारणी के तीसरे तथा इससे आगे के आवर्ती के तत्वों में आबन्धन के लिए 35 तथा 3p-कक्षकों के अतिरिक्त 3d-कक्षक भी उपलब्ध होते हैं। इन तत्वों के अनेक यौगिकों में केन्द्रीय परमाणु के चारों ओर आठ से अधिक इलेक्ट्रॉन होते हैं। इसे प्रसन्नरत अष्टक (expanded octet) कहते हैं। स्पष्ट है कि इन यौगिकों पर अष्टक नियम लागू नहीं होता है। ऐसे यौगिकों के कुछ उदाहरण हैं-PFs, SF 6, H2SO4 तथा कई उपसहसंयोजक यौगिक।
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प्रश्न 6.
आयनिक आबन्ध बनाने के लिए अनुकूल कारकों को लिखिए।
उत्तर
आयनिक आबन्ध बनाने के लिए अनुकूल कारक (Favourable Factors for lonic Bond formation) आयनिक आबन्ध बनाने के लिए निम्नलिखित कारक अनुकूल होते हैं

(1) आयनन एन्थैल्पी (Ionization enthalpy)–धनात्मक आयन या धनायन के बनने में किसी एक परमाणु को इलेक्ट्रॉनों का त्याग करना पड़ता है जिसके लिए आयनन एन्थैल्पी की आवश्यकता होती है। हम जानते हैं कि आयनन एन्थैल्पी ऊर्जा की वह मात्रा है जो किसी विलगित गैसीय परमाणु से बाह्यतम इलेक्ट्रॉन निकालने के लिए आवश्यक होती है; अत: आयनन एन्थैल्पी की जितनी कम आवश्यकता होगी, धनायन का निर्माण उतना ही सरल होगा। 5-ब्लॉक में उपस्थित क्षार धातुएँ एवं क्षारीय मृदा धातुएँ सामान्यत: धनायन बनाती हैं; क्योंकि इनकी आयनन एन्थैल्पी अपेक्षाकृत कम होती

(2) इलेक्ट्रॉन लब्धि एन्थैल्पी (Electron gain enthalpy)–धनायनों के निर्माण में मुक्त हुए। इलेक्ट्रॉन, आयनिक बन्ध के निर्माण में भाग ले रहे अन्य परमाणु द्वारा ग्रहण कर लिए जाते हैं। परमाणुओं की इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने की प्रवृत्ति इलेक्ट्रॉन लब्धि एन्थैल्पी पर निर्भर करती है। किसी विलगित गैसीय परमाणु द्वारा एक इलेक्ट्रॉन ग्रहण करके ऋणायन बनने में जितनी ऊर्जा विमुक्त होती है, इलेक्ट्रॉन लब्धि एन्थैल्पी कहलाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि इलेक्ट्रॉन लब्धि एन्थैल्पी के अधिक ऋणात्मक होने पर ऋणायन का निर्माण सरल होगा। वर्ग 17 में उपस्थित हैलोजेनों की ऋणायन बनाने की प्रवृत्ति सर्वाधिक होती है, क्योंकि इनकी इलेक्ट्रॉन लब्धि एन्थैल्पी अत्यन्त उच्च ऋणात्मक होती है। ऑक्सीजन परिवार (वर्ग 16) के सदस्यों में भी ऋणायन बनाने की प्रवृत्ति होती है, परन्तु अधिक सरलता से यह सम्भव नहीं होता; क्योंकि ऊर्जा की आवश्यकता द्विसंयोजी ऋणायन (O2-) बनाने के लिए होती है।

(3) जालक ऊर्जा या एन्थैल्पी (Lattice energy or enthalpy)–आयनिक यौगिक क्रिस्टलीय ठोसों के रूप में होते हैं तथा आयनिक यौगिकों के क्रिस्टलों में धनायन तथा ऋणायन त्रिविमीय रूप में नियमित रूप से व्यवस्थित रहते हैं। चूंकि आयन आवेशित स्पीशीज हैं; अत: आयनों के आकर्षण में विमुक्त ऊर्जा जालक ऊर्जा या एन्थैल्पी कहलाती है। इसे इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है– विपरीत, आवेश वाले आयनों के संयोजन द्वारा जब क्रिस्टलीय ठोस का एक मोल प्राप्त होता है, तब विमुक्त ऊर्जा जालक ऊर्जा या एन्थैल्पी कहलाती है।”
इसे ‘U’ द्वारा व्यक्त किया जाता है।

A+(g)+ B (g) A+B (s)+ जालक ऊर्जा (U)

इस प्रकार स्पष्ट है कि जालक ऊर्जा का परिमाण अक्कि होने पर आयनिक बन्ध अथवा आयनिक यौगिक का स्थायित्व अधिक होगा।
निष्कर्षत: यदि जालक ऊर्जा का परिमाण तथा ऋणात्मक इलेक्ट्रॉन लब्धि एन्थैल्पी आवश्यक आयनन एन्थैल्पी की तुलना में अधिक होंगे, तब एक स्थायी रासायनिक बन्ध प्राप्त होगा। इनके कम होने पर बन्ध का विरचन नहीं होगा।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित अणुओं की आकृति की व्याख्या ‘वी०एसईपी०आर० सिद्धान्त के अनुरूप कीजिए-
BeCl2, BCl3, SiCl4, AsF5, H2S, PH3
उत्तर
BeCl2 : केन्द्रीय Be परमाणु में केवल 2 आबन्धः युग्म हैं तथा कोई एकाकी युग्म नहीं (Cl: Be :C) है। अत: इसकी आकृति रेखीय (linear) होगी।
BCl3 : केन्द्रीय बोरोन परमाणु में केवल 3 बन्ध युग्म हैं तथा कोई एकाकी युग्म नहीं
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SiCl4 : केन्द्रीय सिलिकॉन परमाणु में 4 आबन्ध युग्म हैं तथा कोई एकाकी युग्म नहीं
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AsF5 : केन्द्रीय ऑसेनिक परमाणु में 5 आबन्ध युग्म हैं तथा कोई एकाकी युग्म नहीं
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-11 है। अत: इसकी आकृति त्रिभुजाकार द्विपिरामिडीय है।
H2S: केन्द्रीय सल्फर परमाणु में 2 आबन्ध युग्म हैं तथा कोई एकाकी युग्म नहीं UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-12 है। अतः इसकी आकृति बंकित (bent) होगी।
PH3 : केन्द्रीय फॉस्फोरस परमाणु में 3 आबन्ध युग्म हैं और एक एकाकी युग्म UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-13 है। अत: इसकी आकृति त्रिकोणीय समतलीय (trigonal planar) होगी।

प्रश्न 8.
यद्यपि NH3 तथा H2O दोनों अणुओं की ज्यामिति विकृत चतुष्फलकीय होती है, तथापि जल में आबन्ध कोण अमोनिया की अपेक्षा कम होता है। विवेचना कीजिए।
उत्तर
NH3 अणु में नाइट्रोजन परमाणु पर एक एकाकी इलेक्ट्रॉन युग्म, जबकि H2O अणु में ऑक्सीजन परमाणु पर दो एकाकी इलेक्ट्रॉन युग्म उपस्थित हैं। VSEPR सिद्धान्त के अनुसार, हम जानते हैं कि इलेक्ट्रॉन युग्मों के बीच प्रतिकर्षण अन्योन्यक्रियाएँ निम्नलिखित क्रम में घटती हैं-
एकाकी युग्म-एकाकी युग्म > एकाकी युग्म-आबन्धी युग्म > आबन्धी युग्म-आबन्धी युग्म

या               lp-lp> lp-bp> bp – bp

ऑक्सीजन परमाणु के पास अधिकं एकाकी इलेक्ट्रॉन युग्म होने के कारण H2O में O—H आबन्ध-युग्म, NH3 में N—H आबन्ध युग्मों की अपेक्षा अधिक निकट होते हैं; अत: NH3 में आबन्ध कोण (107°) H2O के आबन्ध कोण (104:5°) से अधिक होता है।

प्रश्न 9.
आबन्ध प्रबलता को आबन्ध कोटि के रूप में आप किस प्रकार व्यक्त करेंगे?
उत्तर
यदि आबन्ध विघटन एन्थैल्पी (bond dissociation enthalpy) अधिक है तो आबन्ध अधिक प्रबल होगा तथा आबन्ध कोटि बढ़ने पर आबन्ध एन्थैल्पी बढ़ती है। इस तथ्य से स्पष्ट हैं कि आबन्ध प्रबलता तथा आबन्ध कोटि परस्पर समानुपाती होते हैं। अत: आबन्ध कोटि बढ़ने पर, आबन्ध प्रबलता भी अधिक होगी। उदाहरणार्थ-N2 की आबन्ध कोटि 3 है तथा इसकी आबन्ध एन्थैल्पी 945 kJ mol-1 है। इसी प्रकार O2 की आबन्ध कोटि 2 है तथा इसकी आबन्ध एन्थैल्पी 498kJmol-1 है। इनमें N, आबन्ध अधिक प्रबल होगा।

प्रश्न 10.
आबन्ध-लम्बाई की परिभाषा दीजिए।
उत्तर
किसी अणु में आबन्धित परमाणुओं के नाभिकों के बीच साम्यावस्था दूरी आबन्ध-लम्बाई कहलाती है। आबन्ध-लम्बाई के मान सामान्यत: पिकोमीटर (1 pm= 10-12 m) में व्यक्त किए जाते है।

आयनिक यौगिकों में दो आबन्धित परमाणुओं के मध्य आबन्ध-लम्बाई उनकी आयनिक त्रिज्याओं को जोड़कर प्राप्त की जाती है। इसी प्रकार सहसंयोजी यौगिकों में दो आबन्धित परमाणुओं के मध्य आबन्ध-लम्बाई उनकी सहसंयोजी (परमाणु) त्रिज्या जोड़कर प्राप्त की जाती है।

प्रश्न 11.
Co2-3 आयन के सन्दर्भ में अनुनाद के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
कार्बन तथा ऑक्सीजन परमाणुओं के मध्य दो एकल आबन्ध तथा एक द्वि-आबन्ध वाली लूइस संरचना कार्बोनेट आयन की वास्तविक संरचना को निरूपित करने के लिए अपर्याप्त है; क्योंकि इसके अनुसार तीन कार्बन-ऑक्सीजन आबन्धों की लम्बाई भिन्न होनी चाहिए। परन्तु प्रायोगिक परिणामों के अनुसार कार्बोनेट आयन के तीनों कार्बन-ऑक्सीजन आबन्धों की लम्बाई समान होती है। अत: कार्बोनेट आयन की वास्तविक संरचना को निम्नलिखित तीन विहित संरचनाओं (I, II तथा III) के अनुनाद संकर के रूप में दर्शाया जा सकता है-
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प्रश्न 12.
नीचे दी गई संरचनाओं (1 तथा 2) द्वारा H3PO3 को प्रदर्शित किया जा सकता है। क्या ये दो संरचनाएँ H3PO3 के अनुनाद संकर के विहित (केनॉनीकल) रूप माने जा सकते हैं? यदि नहीं तो उसका कारण बताइए।
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उत्तर
दी गई संरचनाओं (1) तथा (2) में हाइड्रोजन परमाणु की स्थिति समान नहीं है। परमाणुओं की स्थिति में परिवर्तन होने के कारण, ये H3PO3 के अनुनाद संकर के विदित (केनॉनीकल) रूप नहीं माने जा सकते हैं।

प्रश्न 13.
SO3, NO2, तथा NO3s की अनुनाद संरचनाएँ लिखिए।
उत्तर
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प्रश्न 14.
निम्नलिखित परमाणुओं से इलेक्ट्रॉन स्थानान्तरण द्वारा धनायनों तथा ऋणायनों में विरचन को लूइस बिन्दु-प्रतीकों की सहायता से दर्शाइए-
(क) K तथा S
(ख) Ca तथा O
(ग) Al तथा N
उत्तर
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प्रश्न 15.
हालाँकि CO2 तथा H2O दोनों त्रिपरमाणुक अणु हैं, परन्तु H2O अणु की आकृति बंकित होती है, जबकि CO2की रैखिक आकृति होती है। द्विध्रुव आघूर्ण के आधार पर इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर
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H2O अणु-H2O अणु का द्विध्रुव आघूर्ण 1.84D होता है। H2O अणु में दो OH आबन्ध होते हैं। ये O—H आबन्ध ध्रुवी होते हैं तथा इनका द्विध्रुव आघूर्ण 1.5 D होता है। चूंकि जल-अणु में परिणामी द्विध्रुव होता है; अत: दोनों OH-द्विध्रुव एक सरल रेखा में नहीं होंगे तथा एक-दूसरे को समाप्त नहीं करेंगे। इस प्रकार H2O अणु की रैखिक संरचना नहीं होती। H2O अणु में O—H आबन्ध परस्पर एक निश्चित कोण पर स्थित होते हैं अर्थात् H,0 अणु की कोणीय संरचना होती है।
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CO2 अणु-CO2 अणु का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य होता है। CO2 अणु में दो C=O आबन्ध होते हैं। प्रत्येक C=O आबन्ध एक ध्रुवी आबन्ध है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक आबन्ध में द्विध्रुव आघूर्ण होता है। चूंकि CO2 अणु का परिणामी द्विध्रुव आघूर्ण शून्य होता है; अतः दोनों आबन्ध द्विध्रुव अर्थात् दोनों आबन्ध एक-दूसरे के विपरीत होने चाहिए अर्थात् दोनों आबन्ध :एक-दूसरे से 180° पर स्थित होने चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि CO2 अणु की संरचना रैखिके होती है।

प्रश्न 16.
द्विध्रुव आघूर्ण के महत्त्वपूर्ण अनुप्रयोग बताइए।
उत्तर
द्विध्रुव आघूर्ण के महत्त्वपूर्ण अनुप्रयोग (Important Applications of Dipole Moment) द्विध्रुव-आघूर्ण के कुछ महत्त्वपूर्ण अनुप्रयोग निम्नलिखित हैं-
(1) अणुओं की प्रकृति ज्ञात करना (Predicting the nature of the molecules)–एक निश्चित द्विध्रुव आघूर्ण वाले अणु प्रकृति में ध्रुवी होते हैं, जबकि शून्य द्विध्रुव आघूर्ण वाले अणु अध्रुवी होते हैं। अत: BeF2 (μ = 0 D) अध्रुवी है, जबकि H2O (μ = 1.84 D) ध्रुवी होता है।

(2) अणुओं की आण्विक संरचना ज्ञात करना (Predicting the molecular structure of the molecules)-हम जानते हैं कि परमाणुक गैसें; जैसे–अक्रिय गैसों आदि का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य होता है, अर्थात् ये अधूवी हैं, परन्तु द्वि-परमाणुक अणु ध्रुवीय तथा अध्रुवीय होते हैं; जैसे-H2O2 आदि अध्रुवी हैं (u = 0) तथा CO ध्रुवीय है। इन अणुओं की संरचना भी रैखिक होती है।
त्रिपरमाणुक अणु भी ध्रुवीय तथा अध्रुवीय होते हैं। CO2, CS2, आदि अध्रुवी होते हैं; क्योंकि इनके लिए μ = 0 होते हैं; अत: इन अणुओं की संरचना रैखिक होती है जिनको निम्नांकित प्रकार से प्रदर्शित कर सकते हैं-
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जल अणु ध्रुवी है, क्योंकि μ = 184 D होता है; अत: इसकी संरचना रैखिक नहीं हो सकती है। इसकी कोणीय संरचना होती है तथा प्रत्येक O—H बन्ध के मध्य 104°5′ का कोण होता है। इसी प्रकार H2S व SO2 की भी कोणीय संरचनाएँ हैं; क्योंकि इनके लिए के मान क्रमशः 0.90 D व 1.71 D हैं।।
चार परमाणुकता वाले अणु भी ध्रुवीय तथा अध्रुवीय होते हैं। BCl3 अणु के लिए μ = 0 होता है अर्थात् अध्रुवीय होता है। अतः इसकी संरचना समद्विबाहु त्रिभुज के समान होती है।

(3) आबन्धों की धुवणता ज्ञात करना (Determining the polarity of the bonds)– सहसंयोजी आबन्धयुक्त यौगिक में आयनिक गुण या ध्रुवणता उस बन्ध के निर्माण में प्रयुक्त तत्वों के परमाणुओं की विद्युत-ऋणात्मकता पर निर्भर करता है। इस प्रकार, आबन्ध की ध्रुवणता ∝ आबन्ध के परमाणुओं की विद्युत-ऋणात्मकता में अन्तर तथा द्विध्रुव आघूर्ण ∝ आबन्ध के परमाणुओं की विद्युत-ऋणात्मकता में अन्तर
∴ आबन्ध की ध्रुवणता ∝ द्विध्रुव आघूर्ण (μ)
उदाहरणार्थ-HE, HCI, HBr व HI के द्विध्रुव आघूर्ण क्रमशः 1.94D, 1.03 D, 0.68D व 0.34D हैं; क्योंकि इनमें हैलोजेन की विद्युत-ऋणात्मकता का क्रम F > Cl> Br> I है। अतः आबन्धों में विद्युत-ऋणात्मकता अन्तर H—F > H-Cl> H-Br> H-I है। इससे प्रकट होता है कि इन आबन्धों की ध्रुवणता फ्लुओरीन से आयोडीन की ओर चलने से घटती है।

(4) आबन्धों में आयनिक प्रतिशतता ज्ञात करना (Determining the ionic percentage of the bonds)–द्विध्रुव आघूर्ण मान, ध्रुवी आबन्धों की आयनिक प्रतिशतता ज्ञात करने में सहायता प्रदान करते हैं। यह प्रेक्षित द्विध्रुव आघूर्ण अथवा प्रायोगिक रूप से निर्धारित द्विध्रुव आघूर्ण से सम्पूर्ण इलेक्ट्रॉन-स्थानान्तरण के द्विध्रुव आघूर्ण (सैद्धान्तिक) का अनुपात होता है। उदाहरणार्थ-HCl अणु का प्रेक्षित द्विध्रुव आघूर्ण 1.04 D है। यदि H—Cl आबन्ध में इलेक्ट्रॉन युग्म एक ओर हो तो इसका द्विध्रुव आघूर्ण (सैद्धान्तिक) q x d के सूत्र से ज्ञात किया जा सकता है। q का मान 4.808×10-10esu तथा H व Cl के मध्य बन्ध-लम्बाई 1.266 x 10-8 cm पाई गई है।
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अतः H व Ci के बीच सहसंयोजक आबन्ध 17.1% विद्युत संयोजक है अर्थात् आयनिक है।

प्रश्न 17.
विद्युत-ऋणात्मकता की परिभाषित कीजिए। यह इलेक्ट्रॉन बन्धुता से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर
विद्युत-ऋणात्मकता (Electronegativity)-किसी तत्व की विद्युत-ऋणात्मकता को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि इसके परमाणु की सहसंयोजक आबन्ध में साझे के इलेक्ट्रॉन-युग्म को अपनी ओर आकर्षित करने की प्रवृत्ति की माप, तत्व की विद्युत-ऋणात्मकता कहलाती है।
विद्युत-ऋणात्मकता तथा इलेक्ट्रॉन-लब्धि एन्थैल्पी या इलेक्ट्रॉन बन्धुता में अन्तर निम्नलिखित हैं-
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प्रश्न 18.
ध्रुवीय सहसंयोजी आंबन्ध से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर
ध्रुवीय सहसंयोजी यौगिक (Polar covalent compound)—बहुत-से अणुओं में एक परमाणु दूसरे परमाणु से अधिक ऋण-विद्युतीय होता है तो इसकी प्रवृत्ति सहसंयोजी बन्ध के इलेक्ट्रॉन युग्म को अपनी ओर खींचने की होती है, इसलिए वह इलेक्ट्रॉन युग्म सही रूप से अणु के केन्द्र में नहीं रहता है, बल्कि अधिक ऋण विद्युती तत्व के परमाणु की ओर आकर्षित रहता है। इस कारण एक . परमाणु पर धन आवेश (जिसकी ऋण-विद्युतीयता कम है) तथा दूसरे परमाणु पर ऋण आवेश (जिसकी ऋण-विद्युतीयता अधिक होती है) उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार प्राप्त अणु ध्रुवीय सहसंयोजी यौगिक कहलाता है और उसमें उत्पन्न बन्ध ध्रुवीय सहसंयोजी आबन्ध कहलाता है।
उदाहरण-HCl अणु का बनना—क्लोरीन की विद्युत-ऋणात्मकता हाइड्रोजन की अपेक्षा अधिक है; अत: साझे का इलेक्ट्रॉन युग्म CI परमाणु के अत्यन्त निकट होता है। फलस्वरूप H पर धन आवेश तथा Cl पर ऋण आवेश आ जाता है तथा HCl ध्रुवीय यौगिक की भाँति कार्य करने लगता है; अत: यह ध्रुवीय सहसंयोजी यौगिक का उदाहरण है।
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प्रश्न 19.
निम्नलिखित अणुओं को आबन्धों की बढ़ती आयनिक प्रकृति के क्रम में लिखिए-
LiF, K20, N2, SO2) तथा ClF2.
उत्तर
सामान्यतः, संयोग करने वाले परमाणुओं की विद्युत ऋणात्मकताओं में जितना अधिक अन्तर होगा, अणु में उतने ही अधिक आयनिक लक्षण होंगे। अणु की आकृति भी इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण है। दिये गये अणुओं का आयनिक प्रकृति के आधार पर क्रम निम्न है-

N2 <SO2 <ClF2 <F2O

ClF3 का SO2 की तुलना में अधिक आयनिक होना इसकी T-आकृति के कारण है।

प्रश्न 20.
CH3COOH की नीचे दी गई ढाँचा-संरचना सही है, परन्तु कुछ आबन्ध त्रुटिपूर्ण दर्शाए गए हैं। ऐसीटिक अम्ल की सही लूइस-संरचना लिखिए-
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उत्तर
सही लुइस संरचना निम्न है-
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प्रश्न 21.
चतुष्फलकीय ज्यामिति के अलावा CH4 अणु की एक और सम्भव ज्यामिति वर्ग-समतली है जिसमें हाइड्रोजन के चार परमाणु एक वर्ग के चार कोनों पर होते हैं। व्याख्या कीजिए कि CH4 का अणु वर्ग-समतली नहीं होता है।
उत्तर
वर्ग-समतली ज्यामिति के लिए, dsp2 संकरण आवश्यक है। कार्बन परमाणु को उत्तेजित अवस्था में विन्यास 1s2 2s2 2p1x 2p1y, 2p1z है। इसके पास 4-कक्षक नहीं है। अत: यह dsp2 संकरण में भाग नहीं ले सकता। इस कारण CH4 की वर्ग–समतली आकृति सम्भव नहीं है। CH4 में, कार्बन परमाणु sp3 संकरित अवस्था में होता है जो CH4 के अणु को आकृति में चतुष्फलकीय (tetrahedral) बनाता है।

प्रश्न 22.
यद्यपि Be-H आबन्ध ध्रुवीय है, तथापि BeH, अणु का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
sp संकरण के कारण BeH2 अणु की ज्यामिति रेखीय होती है। इस कारण इसमें उपस्थित दोनों BeH आबन्धों के आबन्ध आघूर्ण (bond moments) एक-दूसरे के विपरीत दिशा में कार्य करते हैं। परिणाम में समान होने के कारण तथा विपरीत दिशा में कार्य करने के कारण ये एक-दूसरे का निराकरण कर देते हैं। फलस्वरूप BeH2 का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य प्राप्त होता है।
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प्रश्न 23.
NH3 तथा NF3 में किस अणु का द्विध्रुव आघूर्ण अधिक है और क्यों?
उत्तर
NH3 तथा NF3, दोनों अणुओं की पिरामिडी आकृति होती है तथा दोनों NH3 (3.0-2.1 = (0.9) तथा NF3 (4.0-3.0 = 1.0) अणुओं में विद्युत-ऋणात्मकता अन्तर भी लगभग समान होता है, परन्तु NH3 का द्विध्रुव आघूर्ण (1.46 D), NF3 (0.24 D) की तुलना में अधिक होता है।

इसकी व्याख्या द्विध्रुव आघूर्णो की दिशा में अन्तर के आधार पर की जा सकती है। NH3 में नाइट्रोजन परमाणु पर उपस्थित एकाकी इलेक्ट्रॉन-युग्म का कक्षक द्विध्रुव आघूर्ण तीन N—F आबन्धों के द्विध्रुव आघूर्गों के परिणामी द्विध्रुव आघूर्ण की विपरीत दिशा में होता है। कक्षक द्विध्रुव आघूर्ण एकाकी इलेक्ट्रॉन-युग्मं के कारण N—F आबन्ध-आघूर्गों के परिणामी द्विध्रुव आधूर्ण के प्रभाव को कम करता है। इसके फलस्वरूप NF3 के अणु का द्विध्रुव आघूर्ण कम होता है।
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प्रश्न 24.
परमाणु कक्षकों के संकरण से आप क्या समझते हैं। sp, sp2 तथा sp3 संकर कक्षकों की आकृति का वर्णन कीजिए।
उत्तर
संकरण (Hybridisation)-CH4, NH5, H2O जैसे बहुपरमाणुक अणुओं की विशिष्ट ज्यामितीय आकृतियों को स्पष्ट करने के लिए पॉलिंग ने परमाणु कक्षकों के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। पॉलिंग के अनुसार परमाणु कक्षक संयोजित होकर समतुल्य कक्षकों का समूह बनाते हैं। इन कक्षकों को संकर कक्षक कहते हैं। आबन्ध विरचन में परमाणु शुद्ध कक्षकों के स्थान पर संकरित कक्षकों का प्रयोग करते हैं। इस परिघटना को हम संकरण कहते हैं। इसे निम्नवत् परिभाषित किया जा सकता है

“लगभग समान ऊर्जा वाले कक्षकों के आपस में मिलकर ऊर्जा के पुनर्वितरण द्वारा समान ऊर्जा तथा आकार वाले कक्षकों को बनाने की प्रक्रिया को संकरण कहते हैं।”

उदाहरणार्थ-कार्बन का एक 2s कक्षक तथा तीन 2p कक्षक संकरण द्वारा चार नए sp3 संकर कक्षक बनाते हैं।
sp, sp2 तथा sp3 संकर कक्षकों की आकृति (Shapes of sp, sp2 and sp3 hybrid orbitals)
sp, sp2 तथा sp3 संकर कक्षकों की आकृति का वर्णन निम्नलिखित है–

(i) sp संकर कक्षक (sp-hybridised orbitals)-sp संकरण में परमाणु की संयोजकता कोश के -उपकोश का एक कक्षक तथा p-उपकोश का एक कक्षक मिलकर समान आकृति एवं तुल्य ऊर्जा के sp संकरित कक्षक बनाते हैं। ये कक्षक आकृति में 180° के कोण पर अभिविन्यसित होते हैं।
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(ii) sp2 संकरे कक्षक (sp2-hybridised orbitals)-sp2 संकरण में परमाणु की संयोजकता कोश के 5-उपकोश का एक कक्षक तथा p-उपकोश के दो कक्षक संयोजित होकर समान आकृति एवं तुल्य ऊर्जा के sp2 संकर कक्षक बनाते हैं। ये sp2 संकर कक्षक एक तल में स्थित होते हैं तथा एक समबाहु त्रिभुज के कोनों पर एवं 120° कोण पर निर्देशित रहते हैं।
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(iii) sp3 संकर कक्षक (sp3-hybridised orbitals)-sp3 संकरण में परमाणु की संयोजकता कोश के -उपकोश, का एक कक्षक तथा p-उपकोश के तीन कक्षक संयोजित होकर समान आकृति एवं तुल्य ऊर्जा के चार sp3 संकर कक्षक बनाते हैं। ये चारों sp3 संकर कक्षक एक चतुष्फलक के चारों कोनों पर निर्देशित रहते हैं।
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प्रश्न 25.
निम्नलिखित अभिक्रिया में Al परमाणु की संकरण अवस्था में परिवर्तन (यदि होता है तो) को समझाइए-

AlCl3 + Cl > AlCl4

उत्तर
AlCl3, का निर्माण, केन्द्रीय Al परमाणु के sp2 संकरण के द्वारा होता है। (Al: 1s2 2s2 2p6 3s1 3p1x 3p1) AlCl4 निर्माण sp3 संकरण के द्वारा होता है (क्योंकि AlCl4में, Al की रिक्त 3pz, कक्षक भी संकरण में सम्मलित है) इसलिए दी गई अभिक्रिया में Al की संकरण अवस्था sp2 से sp3 में परिवर्तित होती है।।

प्रश्न 26.
क्या निम्नलिखित अभिक्रिया के फलस्वरूप B तथा N परमाणुओं की संकरण-अवस्था में परिवर्तन होता है?

BF3 + NH2 → F3 B.NH3

उत्तर
NH3 में N की संकरण अवस्था अर्थात् sp3 अपरिवर्तित रहती है।
BF3 में बोरोन परमाणु sp2 संकरित है, जबकि F3 B.NH3 में यह sp3 संकरित है। इसलिए, दी गई अभिक्रिया में B की संकरण अवस्था sp2 से sp3 में परिवर्तित होती है।

प्रश्न 27.
C2H4 तथा C2H2 अणुओं में कार्बन परमाणुओं के बीच क्रमशः द्वि-आबन्ध तथा त्रि-आबन्ध के निर्माण को चित्र द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
(i) C2H4
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-32
(ii) C2H2
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-33

प्रश्न 28.
निम्नलिखित अणुओं में सिग्मा (σ) तथा पाई (π) आबन्धों की कुल संख्या कितनी है?
(क) C2H2
(ख) C2H4
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-34

प्रश्न 29.
X-अक्ष को अन्तर्नाभिकीय अक्ष मानते हुए बताइए कि निम्नलिखित में कौन-से कक्षक सिग्मा (σ) आबन्ध नहीं बनाएँगे और क्यों?
(क) 1s तथा 1s,
(ख) 1s तथा 2px;
(ग) 2py तथा 2py,
(घ) 1s तथा 25
उत्तर
(क), (ख) तथा (घ) सिग्मा (σ) आबन्ध बनायेंगे क्योंकि कक्षक गोलीय सममित (spherically symmetric) हैं।
(घ) अर्थात् 2py , तथा 2py, सिग्मा आबन्ध नहीं बना सकते, क्योंकि ये ऑर्बिटल y-अक्ष के अनुतटीय होने के कारण अक्षीय अतिव्यापन नहीं कर सकते और इस प्रकार o-आबन्ध का निर्माण नहीं कर सकते। ये केवल पार्श्ववत अतिव्यापन कर 7 आबन्धु बना सकते हैं, यदि -अक्ष अन्तरानाभिकीय अक्ष हैं।

प्रश्न 30.
निम्नलिखित अणुओं में कार्बन परमाणु कौन-से संकर कक्षक प्रयुक्त करते हैं?
(क) CH3–CH3
(ख) CH3—CH=CH2
(ग) CH3—CH2—OH
(घ) CH3CHO
(ङ) CH3COOH
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-35
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-36

प्रश्न 31.
इलेक्ट्रॉनों के आबन्धी युग्म तथा एकाकी युग्म से आप क्या समझते हैं? प्रत्येक को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
दो आबन्धी सहसंयोजी परमाणुओं के बीच उपस्थित इलेक्ट्रॉन्स के सहभागी युग्म, आबन्धी युग्म कहलाते हैं। वे इलेक्ट्रॉन्स युग्म जो परमाणु पर उपस्थित होते हैं परन्तु सहसंयोजी आबन्ध निर्माण में भाग नहीं लेते हैं, एकाकी युग्म कहलाते हैं। उदाहरणार्थ-
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-37

प्रश्न 32.
सिग्मा तथा पाई आबन्ध में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
सिग्मा व पाई आबन्धों में अन्तर (Differences between Sigma and pi Bonds)
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-38

प्रश्न 33.
संयोजकता आबन्ध सिद्धान्त के आधार पर H2 अणु के विरचन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
संयोजक्ता आबन्ध सिद्धान्त को सर्वप्रथम हाइटलर तथा लंडन (Heitler and London) ने सन् 1927 में प्रस्तुत किया था जिसका विकास पॉलिंग (Pauling) तथा अन्य वैज्ञानिकों ने बाद में किया। इस सिद्धान्त का विवेचन परमाणु कक्षकों, तत्वों के इलेक्ट्रॉनिक विन्यासों, परमाणु कक्षकों के अतिव्यापन और संकरण तथा विचरण (variation) एवं अध्यारोपण (superposition) के सिद्धान्तों के ज्ञान पर आधारित है। इस सिद्धान्त के आधार पर H2 अणु के विरचन की व्याख्या निम्नवत् की जा सकती है–

H(g)+H(g) → H2(g)+433 kJ mol-1

यह प्रदर्शित करता है कि हाइड्रोजन अंणु की ऊर्जा हाइड्रोजन परमाणुओं की तुलना में कम है। सामान्यत: जब कभी परमाणु संयोजित होकर अणु बनाते हैं, तब ऊर्जा में अवश्य ही कमी आती है जो स्थायित्व को बढ़ा देती है।
मानो हाइड्रोजन के दो परमाणु A व B, जिनके नाभिक क्रमशः NA व NB हैं तथा उनमें उपस्थित इलेक्ट्रॉनों को eA और eB द्वारा दर्शाया गया है, एक-दूसरे की ओर बढ़ते हैं। जब ये दो परमाणु एक-दूसरे से अत्यधिक दूरी पर होते हैं, तब उनके बीच कोई अन्योन्यक्रिया नहीं होती। ज्यों-ज्यों दोनों परमाणु एक-दूसरे के समीप आते-जाते हैं, त्यों-त्यों उनके बीच आकर्षण तथा प्रतिकर्षण बल उत्पन्न होते जाते हैं।
आकर्षण बल निम्नलिखित में उत्पन्न होते हैं-

  1. एक परमाणु के नाभिक तथा उसके इलेक्ट्रॉनों के बीच NA – eANB – eB
  2. एक परमाणु के नाभिक तथा दूसरे परमाणु के इलेक्ट्रॉनों के बीच NA – eB, NB – eA

इसी प्रकार प्रतिकर्षण बल निम्नलिखित में उत्पन्न होते हैं-

  1. दो परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनों के बीच eA – eB तथा
  2. दो परमाणुओं के नाभिकों के बीच NA – NB

UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-39
आकर्षण बल दोनों परमाणुओं को एक-दूसरे के पास लाते हैं, जबकि प्रतिकर्षण बल उन्हें दूर करने का प्रयास करते हैं (चित्र-8)।
प्रायोगिक तौर पर यह पाया गया है कि नए आकर्षण बलों का मान नए प्रतिकर्षण बलों के मान से अधिक होता है। इसके परिणामस्वरूप दोनों परमाणु एक-दूसरे के समीप आते हैं तथा उनकी स्थितिज ऊर्जा कम हो जाती है। अन्ततः ऐसी स्थिति आ जाती है कि नेट आकर्षण बल, प्रतिकर्षण बल के बराबर हो जाता है और निकाय की ऊर्जा न्यून स्तर पर पहुँच जाती है। इस अवस्था में हाइड्रोजन के. परमाणु ‘आबन्धित’ कहलाते हैं और एक स्थायी अणु बनाते हैं जिसकी आबन्ध-लम्बाई 74 pm होती है।
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-40
चूंकि हाइड्रोजन के दो परमाणुओं के बीच आबन्ध बनने पर ऊर्जा मुक्त होती है, इसलिए हाइड्रोजन अणु दो पृथक् परमाणुओं की अपेक्षा अधिक स्थायी होता है। इस प्रकार मुक्त ऊर्जा ‘आबन्ध एन्थैल्पी’ कहलाती है।
यह चित्र-9 में दिए गए आरेख के संगत होती है। विलोमत: H2 के एक मोल अणुओं के वियोजन के लिए 433 kJ ऊर्जा की आवश्यकता होती है, इसे आबन्ध वियोजन ऊर्जा कहा जाता है।

H2(g) 433 kJ mol-1 → H(g)+H(g)

प्रश्न 34.
परमाणु कक्षकों के रैखिक संयोग से आण्विक कक्षक बनने के लिए आवश्यक शर्तों को लिखिए।
उत्तर
परमाणु कक्षकों के रैखिक संयोग से आण्विक कक्षकों के निर्माण के लिए निम्नलिखित शर्ते अनिवार्य हैं-

  1. संयोग करने वाले परमाणु कक्षकों की ऊर्जा समान या लगभग समान होनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि एक ls कक्षक दूसरे ls कक्षक से संयोग कर सकता है, परन्तु 2s कक्षक से नहीं; क्योकि 2s कक्षक की ऊर्जा ls कक्षक की ऊर्जा से कहीं अधिक होती है। यह सत्य नहीं है, यदि परमाणु भिन्न प्रकार के हैं।
  2. संयोग करने वाले परमाणु कक्षकों की आण्विक अक्ष के परितः समान सममिति होनी चाहिए। परिपाटी के अनुसार, z-अक्ष को आण्विक अक्ष मानते हैं। यहाँ यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि समान या लगभग समान ऊर्जा वाले परमाणु कक्षक केवल तभी संयोग करेंगे, जब उनकी सममिति समान है, अन्यथा नहीं। उदाहरणार्थ-2p, परमाणु केक्षक दूसरे परमाणु के 2p, कक्षक से संयोग करेगा, परन्तु 2p, या 22, कक्षकों से नहीं; क्योंकि उनकी सममितियाँ समान नहीं हैं।
  3. संयोग करने वाले परमाणु कक्षकों को अधिकतम अतिव्यापन करना चाहिए। जितना अधिक अतिव्यापन होगा, आण्विक कक्षकों के नाभिकों के बीच इलेक्ट्रॉन घनत्व उतना ही अधिक होगा।

प्रश्न 35.
आण्विक कक्षक सिद्धान्त के आधार पर समझाइए कि Bey अणु का अस्तित्व क्यों नहीं होता?
उत्तर
Be का परमाणु क्रमांक 4 है। इसका अर्थ है कि Be2 के आण्विक कक्षक में 8 इलेक्ट्रॉन भरे जाएँगे। इसका आण्विक कक्षक विन्यास है-

KK (σ2s)2 (σ*2s)2

UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-41

चूँकि आबन्ध कोटि शून्य प्राप्त होती है; अत: Be2 अणु का अस्तित्व नहीं होता।

प्रश्न 36.
निम्नलिखित स्पीशीज के आपेक्षिक स्थायित्व की तुलना कीजिए तथा उनके चुम्बकीय गुण इंगित कीजिए-
O2,0+2, 02 (सुपर ऑक्साइड) तथा O2-2 (परऑक्साइड)
उत्तर
दी गई स्पीशीज की आबन्ध कोटि इस प्रकार हैं-

O2 (2.0), O+2 (2.5), O2 (1.5), O2-2 (1.0)

इनके स्थायित्व का क्रम इस प्रकार होगा-

O+2 > O2 > O2 > O2-2

इनके चुम्बकीय गुण निम्नलिखित हैं-

  1. O2 अनुचुम्बकीय है।
  2. O+2 अनुचुम्बकीय है।
  3. O2 अनुचुम्बकीय है।
  4. O2-2 प्रतिचुम्बकीय है।

प्रश्न 37.
कक्षकों के निरूपण में उपयुक्त धन (+) तथा ऋण (-) चिह्नों का क्या महत्त्व होता है?
उत्तर
जब संयोजित होने वाले परमाणु कक्षकों की पालियों (lobes) के चिह्न समान (अर्थात् + तथा + या – तथा:-) होते हैं, तब आबन्धी आण्विक कक्षक बनते हैं। जब संयोजित होने वाले परमाणु कक्षकों की पालियों के चिह्न असमान (अर्थात् + तथा -) होते हैं, तब प्रतिआबन्धी आण्विक कक्षक बनते हैं।

प्रश्न 38.
PCl5 अणु में संकरण का वर्णन कीजिए। इसमें अक्षीय आबन्ध विषुवतीय आबन्धों की अपेक्षा अधिक लम्बे क्यों होते हैं?
उत्तर
PCl5 अणु में sp3d-संकरण (sp3d -hybridisation in PCl5 molecule)-फॉस्फोरस परमाणु (Z=15) की तलस्थ अवस्था इलेक्ट्रॉनिक विन्यास को नीचे दर्शाया गया है। फॉस्फोरस की आबन्ध निर्माण परिस्थितियों में 3s कक्षक से एक इलेक्ट्रॉन अयुग्मित होकर रिक्त 3s2z कक्षक में प्रोन्नत हो जाता है। इस प्रकार फॉस्फोरस की उत्तेजित अवस्था के विन्यास को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है-
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-42
इस प्रकार पाँच कक्षक (एक s, तीन p तथा एक d कक्षक) संकरण के लिए उपलब्ध होते हैं। इनके संकरण द्वारा पाँच sp3d संकर कक्षक प्राप्त होते हैं, जो त्रिकोणीय द्वि-पिरामिड के पाँच कोनों की ओर उन्मुख होते हैं, जैसा चित्र-10 में दर्शाया गया है।
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-43
यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि त्रिकोणीय द्वि-पिरामिडी ज्यामिति में सभी आबन्ध कोण बराबर नहीं होते हैं। PCl5 में फॉस्फोरस के पाँच sp3 संकर कक्षक क्लोरीन परमाणुओं के अर्द्ध-पूरित कक्षकों में अतिव्यापन द्वारा पाँच PCl5 सिग्मा-आबन्ध बनाते हैं। इनमें से तीन P—Cl आबन्ध एक तल में होते हैं तथा परस्पर 120° का कोण बनाते हैं। इन्हें ‘विषुवतीय आबन्ध, (equatorial) कहते हैं। अन्य दो P—CI आबन्ध क्रमशः विषुवतीय तल के ऊपर और नीचे होते हैं तथा तल से 90° का कोण बनाते हैं। इन्हें अक्षीय आबन्ध (axial) कहते हैं। चूंकि अक्षीय आबन्ध इलेक्ट्रॉन युग्मों में विषुवतीय आबन्धी-युग्मों से अधिक प्रतिकर्षण अन्योन्यक्रियाएँ होती हैं; अतः ये आबन्ध विषुवतीय आबन्धों से लम्बाई में कुछ अधिक तथा प्रबलता में कुछ कम होते हैं। इसके परिणामस्वरूप PCl5 अत्यधिक क्रियाशील होता है।

प्रश्न 39.
हाइड्रोजन आबन्ध की परिभाषा दीजिए। यह वाण्डरवाल्स बलों की अपेक्षा प्रबल होते हैं या दुर्बल?
उत्तर
हाइड्रोजन आबन्ध को उस आकर्षण बल के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो एक अणु के हाइड्रोजन परमाणु को दूसरे अणु के विद्युत-ऋणात्मक परमाणु (F,0 या N) से बॉधता है। यह वाण्डरवाल्स बलों की अपेक्षा दुर्बल होते हैं।

प्रश्न 40.
“आबन्ध कोटि से आप क्या समझते हैं? निम्नलिखित में आबन्ध कोटि का परिकलन कीजिए-
N2, O2, O+2 तथा O2
उत्तर
किसी अणु यो आयन में दो परमाणुओं के बीच आबन्धों की संख्या ‘आबन्ध कोटि कहलाती है। गणितीय रूप में, यह आबन्धी तथा अनाबन्धी कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों की संख्या में अन्तर के आधे के बराबर होती है। अर्थात्
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-44

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दो समान या असमान परमाणुओं के मध्य परस्पर समान इलेक्ट्रॉनों के साझे के द्वारा बनने वाला आबन्ध कहलाता है।
(i) उपसहसंयोजक आबन्ध
(ii) आयनिक आबन्ध
(iii) सहसंयोजक आबन्ध
(iv) धात्विक आबन्ध
उत्तर
(iii) सहसंयोजक आबन्ध

प्रश्न 2.
अधातु परमाणुओं के मध्य प्रायः बनता है।
(i) सहसंयोजक आबन्ध
(ii) धात्विक आबन्ध
(iii) आयनिक आबन्ध
(iv) आयनिक तथा धात्विक आबन्ध
उत्तर
(i) सहसंयोजक ऑबन्ध

प्रश्न 3.
K4[Fe(CN)6] में किस प्रकार के बन्ध उपस्थित हैं?
(i) आयनिक बन्ध और सहसंयोजक बन्ध
(ii) आयनिक बन्ध और उपसहसंयोजक बन्ध
(iii) सहसंयोजक बन्ध और उपसहसंयोजक बन्ध ।
(iv) आयनिक बन्ध, सहसंयोजक बन्ध और उपसहसंयोजक बन्ध
उत्तर
(iv) आयनिक बन्ध, सहसंयोजक बन्ध तथा उपसहसंयोजक बन्ध।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा:आबन्ध दिशात्मक नहीं है?
(i) ध्रुवीय सहसंयोजक आबन्ध’
(ii) उपसहसंयोजक आबन्ध
(iii) आयनिक आबन्थे
(iv) अध्रुवीय सहसंयोजक आबन्ध
उत्तर
(iii) आयनिक आबन्ध

प्रश्न 5.
निम्न अणुओं में से कार्वनकार्बन अन्ध लम्वाईकिस अणु में सबसे कम है।
(i) एथेन
(ii) एथीन
(iii) एथाइने
(iv) बेन्जीन
उत्तर
(iii) एथाइन

प्रश्न 6.
निम्न में किसाबन्दोण सबसे कम है?
(i) H2S
(ii) NH3
(iii) SO2
(iv) H2O
उत्तर
(i) H2S

प्रश्न 7.
O2 H2O तथा O3 में O—O आबश्य लम्बास क्रम है।
(i) O2 >O3 > H2O2
(ii) O3 >H2O2 > O2
(iii) H2O2 > O3 > O2
(iv) O2 > H2O2 > O3
उत्तर
(iii) H2O2> O3 > O2

प्रश्न 8.
BF3 में F—B—F आबन्ध कोण है
(i) 180°
(ii) 90°
(iii) 120°
(iv) 1085०
उत्तर
(iii) 120°

प्रश्न 9.
NH3 व H2O में क्रमशः आबन्ध कोण होगा
(i) 109°28 व 107°
(ii) 111° वे 109°
(iii) 107° व 104.5°
(iv) 104.5° व 107°
उत्तर
(iii) 107° व 104.5°

प्रश्न 10.
निम्नलिखित स्पीशीज में किसकी सबसे उच्च आबन्ध कोटि होगी?
(i) O2
(ii) O2-2
(iii) O2
(iv) O+2
उत्तर
(iv) O+2

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किसमें ध्रुवीय तथा अध्रुवीय आबन्ध दोनों हैं?
(i) NH4Cl
(ii) HCN
(iii) CH4
(iv) H2O2
उत्तर
(iv) H2O2

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किस अणु में सर्वाधिक ध्रुवीय सहसंयोजी बन्ध हैं?
(i) HI
(ii) HBr
(iii) H2
(iv) HCl
उत्तर
(iv) परमाणुओं की विद्युत ऋणात्मकता का अन्तर बढ़ने के साथ सहसंयोजी बन्ध का ध्रुवीय लक्षण बढ़ता है। अत: H—CI में सर्वाधिक ध्रुवीय सहसंयोजी बन्ध उपस्थित हैं।
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-45

प्रश्न 13.
H2S की ज्यामिति तथा द्विध्रुव आघूर्ण है।
(i) कोणीय तथा अशून्य
(ii) कोणीय तथा शून्य
(iii) रैखिक तथा अशून्य
(iv) रैखिक तथा शून्य
उत्तर
(i) कोणीय तथा अशून्य

प्रश्न 14.
बेन्जीन में तथा र बन्धों का अनुपात है।
(i) 2
(ii) 4
(iii) 8
(iv) 6
उत्तर
(ii) 4

प्रश्न 15.
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-46
(i) sp3 – sp3
(ii) sp – sp2
(iii) sp3 – sp
(iv) sp2 – sp2
उत्तर
(ii) sp – sp2

प्रश्न 16.
SO2और SO3 में s परमाणु के संकरण क्रमशः हैं।
(i) sp, sp2
(ii) sp2, sp2
(iii) sp2, sp3
(iv) sp, sp3
उत्तर
(ii) sp2,sp2

प्रश्न 17.
पिरैमिडीय संरचना वाला अणु है।
(i) PCl3
(ii) CO2-2
(iii) NO3
(iv) SO3
उत्तर
(i) PCl3

प्रश्न 18.
समइलेक्ट्रॉनिक हैं।
1.CH+3
2. H3O+
3. CO
4. CH3
(i) 1 तथा 2
(ii) 2 तथा 3
(iii) 3 तथा 4
(iv) 2 तथा 4
उत्तर
(i) 1 तथा 2

प्रश्न 19.
निम्नलिखित हाइड्रोजन आबन्धों में से कौन प्रबलतम है?
(i) O—H……0
(ii) O—H……F
(iii) O—H……N
(iv) F—H……F
उत्तर
(iv) F—H……F

प्रश्न 20.
H2S गैस है जबकि H2O द्रव है। इसका कारण है।
(i) H2O की ध्रुवता
(ii) H2O की तुलना में H2S का अधिक अणुभार
(iii) H2O में हाइड्रोजन बन्धन
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(iii) H2O में हाइड्रोजन बन्धन

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सहसंयोजक आबन्ध की परिभाषा आबन्ध युग्म और एकाकी युग्म को समझाते हुए दीजिए।
उत्तर
परमाणुओं द्वारा इलेक्ट्रॉनों की बराबर की साझेदारी द्वारा जो आबन्ध बनता है उसे सहसंयोजक आबंन्ध कहते हैं।
आबन्ध युग्म–जिन साझे के इलेक्ट्रॉन युग्मों द्वारा सहसंयोजक आबन्ध का निर्माण होता है उन्हें इलेक्ट्रॉनों का आबन्ध युग्म कहते हैं। एकाकी युग्म–जो संयोजी इलेक्ट्रॉन आबन्धन अथवा साझे में भाग नहीं लेते हैं उन्हें इलेक्ट्रॉनों का एकाकी युग्म कहते हैं।

प्रश्न 2.
सहसंयोजकता को उदाहरण देते हुए स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
किसी तत्त्व के एक परमाणु द्वारा दूसरे परमाणुओं के साथ बनाए गये सहसंयोजक आबन्धों की कुल संख्या उस तत्त्वे की संयोजकता अथवा सहसंयोजकता कहलाती है। उदाहरणार्थ–एथिलीन (C2H4) में कार्बन की सहसंयोजकूता चार है।

प्रश्न 3.
संयोजकता इलेक्ट्रॉन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
तत्वों के बाह्यतम कोश को संयोजकता कोश कहते हैं तथा इन कोश में उपस्थित इलेक्ट्रॉन को संयोजकता इलेक्ट्रॉन कहते हैं।

प्रश्न 4.
उपसहसंयोजक आबन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
वह आबन्ध जिसमें दो परमाणु परस्पर साझे के इलेक्ट्रॉन युग्म द्वारा बँधे रहते हैं परन्तु साझे का इलेक्ट्रॉन युग्म केवल एक परमाणु द्वारा दिया जाता है, उपसहसंयोजक अथवा दाता आबन्ध कहलाता है।

प्रश्न 5.
HNO3 अणु में आबन्धों की प्रकृति की विवेचना कीजिए।
उत्तर
HNO3 की संरचना निम्नवत् है
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-47
उपर्युक्त संरचना से स्पष्ट है कि HNO3 अणु में एक उपसहसंयोजी तथा शेष सहसंयोजी आबन्ध हैं।

प्रश्न 6.
वैद्युत संयोजी आबन्ध या आयनिक आबन्ध की परिभाषा लिखिए।
उत्तर
परमाणुओं के मध्य इलेक्ट्रॉनों के स्थानान्तरण से जो आबन्ध बनते हैं, उन्हें वैद्युत संयोजी आबन्ध या आयनिक आबन्ध कहते हैं।
उदाहरणार्थ-सोडियम क्लोराइड (NaCl) में Na परमाणु अपने बाह्यतम कोश का एक इलेक्ट्रॉन Cl परमाणु को देकर अक्रिय गैस की स्थायी संरचना प्राप्त करके सोडियम आयन में परिवर्तित हो जाता है। इसी प्रकार C1 परमाणु अपने बाह्यतम कोश के Na परमाणु से एक इलेक्ट्रॉन लेकर अक्रिय गैस की स्थायी संरचना प्राप्त कर लेता है और क्लोराइड आयन बनाता है।

प्रश्न 7.
आयनिक यौगिक क्या हैं? एक उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर
वे रासायनिक यौगिक जिनमें आयन आयनिक आबन्धों के द्वारा जुड़कर एक जालक संरचना का निर्माण करते हैं, आयनिक यौगिक कहलाते हैं। उदाहरणार्थ-सोडियम क्लोराइड (NaCl) एक आयनिक यौगिक है।

प्रश्न 8.
‘कार्बन सहसंयोजी यौगिक बनाता है, जबकि सोडियम वैद्युत संयोजी।’ कारण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
कार्बन के संयोजी कोश में चार इलेक्ट्रॉन होते हैं जिन्हें त्यागना अथवा किसी अन्य परमाणु से चार अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन ग्रहण करके अष्टक पूर्ण करना असम्भव है; अत: कार्बन इलेक्ट्रॉनों के साझे से सहसंयोजी बन्ध बनाता है जिसके परिणामस्वरूप सहसंयोजी यौगिक बनते हैं जबकि सोडियम के संयोजी कोश में केवल एक इलेक्ट्रॉन होता है जिसे यह आसानी से त्यागकर किसी अन्य परमाणु के साथ वैद्युत संयोजी बन्ध बना लेता है जिसके फलस्वरूप वैद्युत संयोजी बन्ध बनते हैं।

प्रश्न 9.
H3O+ तथा Na2S की इलेक्ट्रॉनिक संरचना लिखिए। इसमें उपस्थित बन्धों के प्रकार भी लिखिए।
उत्तर
H3O+ की इलेक्ट्रॉन बिन्दु संरचना
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-48
अतः इसमें दो सहसंयोजक तथा एक उपसहसंयोजक बन्ध उपस्थित हैं।
Na2S की इलेक्ट्रॉन बिन्दु संरचना
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-49
अतः इसमें केवल विद्युत संयोजक बन्ध उपस्थित हैं।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित यौगिकों को उनके आयनिक लक्षण के बढ़ते हुए क्रम में लिखिए
MgCl2, AlCl3, BeCl2, CCl4
उत्तर
CCl4 < BeCl2 < AlCl3 < MgCl2

प्रश्न 11.
समझाइए की HF का क्वथनांक HCI के क्वथनांक से ऊँचा क्यों है?
उत्तर
HF अणुओं के मध्य हाइड्रोजन आबन्ध उपस्थित होता है जिसके कारण यह एक विशाल अणु का आकार ग्रहण कर लेता है। इस अवस्था परिवर्तन के लिए अधिक ऊर्जा व्यय होती है। इसके विपरीत, HCl अणुओं के मध्य हाइड्रोजन आबन्ध अनुपस्थित होता है। इसीलिए HF का क्वथनांक HCI से अधिक होता है।

प्रश्न 12.
कक्षक अतिव्यापन कितने प्रकार के होते हैं? प्रत्येक को एक उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर
कक्षक अतिव्यापन निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-

  1. अक्षों पर अतिव्यापन-इस अतिव्यापन से सिग्मा (G)आबन्ध बनता है। उदाहरणार्थ-HCI अणु में H के -कक्षक CI के p-कक्षक से उसके अक्ष पर ठ-आबन्ध का निर्माण करते हैं।
  2. पाश्र्व रूप में अतिव्यापन-इस अतिव्यापन में पाई (π) आबन्ध बनता है। उदाहरणार्थ-एथिलीन के अणु में।

प्रश्न 13.
परमाणु कक्षकों के अतिव्यापन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
हाइड्रोजन अणु के विरचन में जब H-परमाणु न्यूनतम ऊर्जा अवस्था में होते हैं तो ऐसे में वे एक-दूसरे के इतने पास पहुँच जाते हैं कि उनके कक्षक एक-दूसरे में प्रवेश कर जाते हैं। इस परिघटना को परमाणु कक्षकों का अतिव्यापन कहते हैं।

प्रश्न 14.
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-50
या
एकल आबन्ध यौगिक की तुलना में द्वि-आबन्ध यौगिक अधिक क्रियाशील क्यों होते हैं?
उत्तर
एकल आबन्ध यौगिक की तुलना में द्वि-आबन्ध यौगिक अधिक क्रियाशील होते हैं: क्योकि एक द्वि-आबन्ध में एक सिग्मा-आबन्ध तथा एक पाई-आबन्ध होते हैं जिसे तोड़ने के लिए लगभग 143 किलोकैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जबकि एकल आबन्ध में केवल एक सिग्मा-आबन्ध होता है। जिसे तोड़ने के लिए मात्र 83 किलोकैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित यौगिक में प्रत्येक कार्बन परमाणु की संकरण अवस्था बताइए
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-51
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-52

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में प्रत्येक कार्बन का संकरण बताइए
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-53
उत्तर
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-54

प्रश्न 17.
नीचे दी गई संरचनाओं (i) तथा (ii) द्वारा H3PO3 को प्रदर्शित किया जा सकता है। क्या ये दो संरचनाएँ H3PO3 के अनुनाद संकर के विहित (केनॉनीकाल) रूप माने जा सकते , हैं? यदि नहीं, तो उसका कारण बताइए।
UP Board Solutions for Class 11 Chemistry Chapter 4 Chemical Bonding and Molecular Structure img-55
उत्तर
दी गई संरचनाओं (i) तथा (i) में हाइड्रोजन परमाणु की स्थिति समान नहीं है। परमाणुओं की स्थिति में परिवर्तन होने के कारण, ये H3PO3 के अनुनाद संकर के विहित (केनॉनीकल) रूप नहीं माने जा सकते हैं।

प्रश्न 18.
अनुनाद संकर तथा अनुनाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
जब किसी अणु के लिए एक से अधिक लूईस संरचनाएँ लिखी जा सकती हों जिनमें से। प्रत्येक संरचना अणु के अधिकांश गुणों की व्याख्या कर सकती हो परन्तु कोई भी अणु के सभी गुणों की व्याख्या न कर पाए तो ऐसी स्थिति में अणु की वास्तविक संरचना इन सभी संरचनाओं की मध्यवर्ती होती है तथा इसे अनुनाद संकर कहते हैं और इस प्रक्रम को अनुनाद कहते हैं।

प्रश्न 19.
HF द्रव है जबकि HCI गैस। कारण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
HCl की तुलना में HF के अणुओं के मध्य अन्तरा-आणविक आकर्षण बल अधिक पाया जाता है जिसके कारण उनके अणु आपस में बंधे रहते हैं। इसलिए HF द्रव है जबकि HCl गैस।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अमोनिया एक सहसंयोजी यौगिक है। इसे जल में घोलने पर प्राप्त विलयन विद्युत का सुचालक होता है, क्यों? समझाइए।
उत्तर
हाइड्रोजन क्लोराइड और अमोनिया दोनों ही सहसंयोजी यौगिक हैं। इनमें ध्रुवीय सहसंयोजक आबन्ध होते हैं जिनके कारण इन दोनों यौगिकों में उपस्थित विषम परमाणुओं; जैसे—HCI में H तथा CI एवं NH3 में H तथा N पर क्रमशः आंशिक धनावेश (δ+) एवं आंशिक ऋणावेश (δ) आ जाते
उच्च डाइइलेक्ट्रिक स्थिरांक वाले जल में इन्हें घोलने पर इनमें ध्रुवीय आबन्ध टूट जाते हैं तथा इन यौगिकों में क्रमशः उपस्थित हाइड्रोजन एवं क्लोराइड तथा हाइड्रोजन एवं नाइट्रोजन आयनों के रूप में पृथक् हो जाते हैं जिसे जलीय विलयन में हाइड्रोजन क्लोराइड तथा अमोनिया का आयनन कहते हैं। इस प्रकार जलीय विलयन में मुक्त आयनों की उपस्थिति के कारण हाइड्रोजन क्लोराइड तथा अमोनिया विद्युत के सुचालक होते हैं।
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प्रश्न 2.
इलेक्ट्रॉन युग्म दाता से आप क्या समझते हैं? एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
जब किसी अणु के परसाणु का अष्टक पूर्ण हो जाता है तथा उस पर एक, दो या तीन इलेक्ट्रॉन युग्म मुक्त होते हैं (जो सहसंयोजक ओबन्ध के निर्माण के साझे में प्रयुक्त ने हुए हों) तो इनमें से एक इलेक्ट्रॉन युग्म किसी ऐसे परमाणु का जिसका अष्टक पूर्ण न हो, दान करके या साझा करते हैं, फलस्वरूप उपसहसंयोजक आबन्ध का निर्माण होता है। इस इलेक्ट्रॉन युग्म को दान करने वाले अणु को इलेक्ट्रॉन युग्म दाता कहते हैं। उदाहरणार्थ-NH3 के अणु से नाइट्रोजन एक इलेक्ट्रॉन युग्म BF3 के अणु को दान करके साझा करते हैं जिससे उपसहसंयोजक आबन्ध का निर्माण होता है।
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प्रश्न 3.
आयनिक यौगिक ठोस एवं कठोर क्यों होते हैं? समझाइए।
उत्तर
सामान्यतः आयनिक यौगिक क्रिस्टलीय ठोसों (crystalline solids) के रूप में पाए जाते हैं। आयनिक यौगिकों में अणु (molecules) नहीं बल्कि आयन होते हैं। हम किसी आयनिक यौगिक के किसी आयन युग्म को चुनकर उसे अणु नहीं कह सकते। आयनिक यौगिकों में आयन त्रिविमीय स्थान में एक निश्चित ज्यामितीय प्रतिरूप (geometric pattern) में व्यवस्थित रहते हैं। उदाहरणार्थ-सोडियम क्लोराइड क्रिस्टल में प्रत्येक सोडियम आयन (Na+) छः क्लोराइड आयनों (Cl) तथा प्रत्येक क्लोराइड आयन (Cl) छ: सोडियम आयनों (Na+) से घिरा रहता है। आयनों के आकार तथा उन पर उपस्थित आवेश के आधार पर आयनों का क्रम विभिन्न यौगिकों में अलग-अलग होता है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित के इलेक्ट्रॉन बिन्दु सूत्र (इलेक्ट्रॉनिक सूत्र, इलेक्ट्रॉनिक संरचना या लूईस बिन्दु सूत्र) लिखिए।
(i) CHCl3,
(ii) C2H4,
(ii) PCl5,
(iv) SO2,
(v) SO3,
(vi) HNO3,
(vii) H2SO4,
(viii) H3PO3,
(ix) H3PO4,
(x) NH+4,
(xi) NO3,
(xii) SO2-4,
(xiii) NH4Cl,
(xiv) NH4Br,
(xv) CaCl2,
(xvi) K4[Fe(CN)6,
(xvii) MgO
उत्तर
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प्रश्न 5.
स्पष्ट करते हुए लिखिए कि किस प्रकार का आबन्ध बनता है जब परमाणुओं की
(i) विद्युल ऋणात्मकता का अन्तर शून्य है?
(ii) विद्युत ऋणात्मकता को अन्तर कम है?
उत्तर
(i) जब परमाणुओं की विद्युत ऋणात्मकता का अन्तर शून्य होता है, तब अध्रुवीय सहसंयोजक आबन्ध बनता है क्योंकि विद्युत ऋणात्मकता का अन्तर शून्य होने पर साझी किया गया इलेक्ट्रॉन युग्म दोनों परमाणुओं के नाभिकों के ठीकं मध्य में स्थित होता है। इस यौगिक में अणु के धनात्मक तथा ऋणात्मक आवेश के केन्द्र एक-दूसरे के सम्पाती हो जाते हैं। ऐसे अणु उदासीन होते हैं अर्थात् इनमें नेट द्विध्रुव आघूर्ण शून्य होता है।
(ii) जब परमाणुओं की विद्युत ऋणात्मकता का अन्तर कम होता है, तब ध्रुवीय सहसंयोजक आबन्ध बनता है। क्योंकि विद्युत ऋणात्मकता में अन्तर होने पर एक परमाणु जो अधिक ऋणविद्युती होता है। की प्रवृत्ति सहसंयोजी आबन्ध के इलेक्ट्रॉन युग्म को अपनी ओर खींचने की होती है। इसलिए वह इलेक्ट्रॉन युग्म सही रूप से अणु के केन्द्र में नहीं होता है। इस कारण एक परमाणु पर ऋणावेश (जिसकी विद्युत ऋणात्मकता अधिक है) तथा दूसरे परमाणु पर धनावेश (जिसकी विद्युत ऋणात्मकता कम है) उत्पन्न हो जाता है। इनके बीच नेट द्विध्रुव आघूर्ण शून्य नहीं होता है।

प्रश्न 6.
HCI, H2O, NH3 तथा H2S में H2O का क्वथनांक सबसे अधिक होता है, क्यों? समझाइए।
उत्तर
ऐसा H20 में प्रबल होइड्रोजन आबन्ध की उपस्थिति के कारण होता है। HCI में हाइड्रोजन आबन्ध नहीं होता। यद्यपि NH, में अन्तरा-अणुक हाइड्रोजन आबन्ध विद्यमान होता है, परन्तु नाइट्रोजन की तुलना में ऑक्सीजन की अधिक विद्युत ऋणात्मकता के कारण H…0 आबन्ध N…H आबन्ध से अधिक प्रबल होता है; अत: H2O का क्वथनांक उच्च होता है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वैद्युत संयोजी (आयनिक), सहसंयोजी तथा उपसहसंयोजी यौगिकों के मुख्य लक्षण लिखिए।
उत्तर
वैद्युत संयोजी (आयनिक) यौगिकों के मुख्य लक्षण वैद्युत संयोजी यौगिकों के मुख्य लक्षण निम्नवत् हैं-

  1. इन यौगिकों के क्रिस्टल धनावेशित और ऋणावेशित आयनों से बने होते हैं अर्थात् ये यौगिक अणुओं से न बनकर आयनों से बने होते हैं; अत: इन्हें आयनिक यौगिक भी कहा जाता है।
  2. वैद्युत संयोजी यौगिक क्योकि धन तथा ऋण आयनों से बने होते हैं; अत: इनके अणुओं के मध्य विपरीत आवेशित आयनों के बीच वैद्युत आकर्षण बल उत्पन्न हो जाता है, फलस्वरूप स्थिर क्रिस्टल जालक होता है जिसको तोड़ने में अधिक ऊर्जा लगती है, क्योंकि व्यय ऊर्जा तापक्रम के समानुपाती होती है; इसलिए इन यौगिकों के अवस्था परिवर्तन के ताप अर्थात् क्वथनांक और गलनांक अधिक ऊँचे होते हैं।
  3. वैद्युत संयोजी यौगिक जल तथा अन्य ध्रुवीय विलायकों में तथा कार्बनिक विलायकों में अविलेय होते हैं। जल तथा अन्य ध्रुवीय विलायकों में घोलने पर इन यौगिकों के आयनन के फलस्वरूप वैद्युत आकर्षण बल कमजोर हो जाता है, क्योंकि ध्रुवीय विलायकों का परावैद्युत स्थिरांक उच्च होता है [latex]\left( \because \quad F\propto \frac { 1 }{ D } \right) [/latex] इसलिए वे आयनित हो जाते हैं, फलस्वरूप वे विलेय हो जाते हैं, जबकि • कार्बनिक विलायकों में इनका आयनन नहीं होता, क्योंकि उनका परावैद्युत स्थिरांक कम होता है; अतः इनमें वे अविलेय रहते हैं।
  4. आयनिक यौगिक गलित अवस्था तथा जलीय विलयन में आयनों में विभक्त रहते हैं, इसीलिए इस | अवस्था में ये विद्युत के सुचालक होते हैं, जबकि ठोस अवस्था में विद्युत के कुचालक होते हैं।
  5. ये यौगिक जलीय विलयन में आयनों के रूप में रहते हैं, इसीलिए इनकी अभिक्रियाएँ तात्कालिक होती हैं।
  6. इन यौगिकों के बन्ध अदिशात्मक होते हैं जिसके कारण ये समावयवता व्यक्त नहीं करते हैं।
  7. वैद्युत संयोजक यौगिकों की रासायनिक अभिक्रियाओं में इनके आयन भाग लेते हैं तथा इनसे सम्बन्धित अभिक्रियाओं को आयनिक अभिक्रियाएँ कहते हैं।

सहसंयोजी यौगिकों के मुख्य लक्षण
सहसंयोजी यौगिकों के मुख्य लक्षण निम्नवत् हैं।

  1. सामान्यत: ये यौगिक ताप्न तथा दाब की साधारण परिस्थितियों में गैस या द्रव हैं। अणुभार अधिक होने पर ये ठोस होते हैं। क्योकि इनके अणुओं के मध्य दुर्बल वाण्डरवाल्स बल होता है।
  2. इने यौगिकों के अणु परस्पर दुर्बल वाण्डरवाल्स बन्ध से जुड़े होते हैं और इनमें आकर्षण बल | बहुत कम होता है; अतः अणुओं के मुक्त होने में अधिक ऊर्जा नहीं लगती है। इस कारण इनमें कम ताप पर अवस्था परिवर्तन हो जाता है और ये वाष्पित हो जाते हैं जिसके कारण इनका गलनांक तथा क्वथनांक कम होता है।
  3. ये यौगिक आयनित नहीं होते हैं; अत: गलित अवस्था या विलयन में ये विद्युत के कुचालक होते हैं।
  4. आयनित न होने के कारण ये यौगिक जल तथा ध्रुवीय विलायकों में अविलेय हैं, किन्तु अध्रुवीय कार्बनिक विलायकों में प्रायः विलेय होते हैं।
  5. इनकी अभिक्रियाएँ प्रायः धीरे-धीरे होती हैं; क्योंकि ये आण्विक अभिक्रियाएँ देते हैं।
  6. इन यौगिकों के बन्ध दिशात्मक होते हैं; इस कारण ये समावयवता के गुण व्यक्त करते हैं।

उपसहसंयोजी यौगिकों के मुख्य लक्षण
उपसहसंयोजी यौगिकों के मुख्य लक्षण निम्नवत् हैं।

  1. ये यौगिक आयनित नहीं होते हैं; अत: जल में अविलेय होते हैं, परन्तु कार्बनिक विलायकों में विलेय होते हैं।
  2. इन यौगिकों की प्रकृति आयनिक यौगिकों और सहसंयोजी यौगिकों के बीच की होती है; अत: इनका गलनांक तथा क्वथनांक आयनिक यौगिकों की अपेक्षा कम और सहसंयोजी यौगिकों की अपेक्षा अधिक होता है।
  3. ये यौगिक साधारणत: जल में वियोजित नहीं होते, इसलिए इनके विलयन में आयन नहीं होते हैं।
  4. ये यौगिक आयनित नहीं होते; अतः विद्युत के कुचालक होते हैं।
  5. सहसंयोजक यौगिकों की रासायनिक अभिक्रियाओं में इनके अणु भाग लेते हैं। इस प्रकार की अभिक्रियाओं को आणविक अभिक्रियाएँ कहते हैं।
  6. इनके बन्ध दिशात्मक तथा सुदृढ़ होते हैं; अतः इनमें स्थान समावयवता पाई जाती है।

प्रश्न 2.
निम्न गुणों के आधार पर वैद्युत संयोजक तथा सहसंयोजक यौगिकों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
(i) वैद्युत चालकता,
(ii) गलनांक तथा क्वथनांक,
(iii) ध्रुवीय तथा अध्रुवीय विलायकों में विलेयता।
उत्तर
(i) वैद्युत चालकता—वैद्युत संयोजक यौगिक आयनों द्वारा बने होते हैं चूंकि शुष्क एवं ठोस अवस्था में आयन मुक्त नहीं होते हैं। इसलिए वैद्युत संयोजी यौगिक ठोस अवस्था में वैद्युत के कुचालक होते हैं। गलित अवस्था या विलयन में मुक्त आयन उपस्थित होते हैं। इसलिए वैद्युत संयोजी यौगिक जलीय विलयन में या गलित अवस्था में विद्युत के चालक होते हैं। सामान्यतः सहसंयोजी यौगिक वैद्युत के कुंचालक होते हैं क्योंकि इनमें मुक्त आयन नहीं पाये जाते हैं।
(ii) गलनांक तथा क्वथनांक-वैद्युत संयोजी यौगिक धनावेशित एवं ऋणावेशित आयनों से बने होते हैं जो एक-दूसरे को वैद्युत आकर्षण बल द्वारा बांधे रखते हैं जिससे इनके क्रिस्टल जालक को तोड़ने में अधिक ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है। इसलिए वैद्युत संयोजी यौगिक के गलनांक व क्वथनांक उच्च होते हैं। सहसंयोजी यौगिकों के अणुओं के मध्य कार्यरत् बल क्षीण होता है। इसलिए इनके गलनांक व क्वथनांक वैद्युत संयोजी यौगिकों की तुलना में कम होते हैं।
(iii) ध्रुवीय तथा अध्रुवीय विलायकों में विलेयता–वैद्युत संयोजी यौगिक प्रायः ध्रुवीय विलायकों में विलेय होते हैं परन्तु अध्रुवीय विलायकों में अविलेय होते हैं जबकि सहसंयोजी यौगिक अध्रुवीय विलायकों में विलेय परन्तु ध्रुवीय विलायकों में अविलेय होते हैं।

प्रश्न 3.
फजान के नियम की व्याख्या कीजिए। फजान्स नियम के आधार पर निम्न युग्मों में स्पष्ट कीजिए कि कौन-सा यौगिक अधिक आयनिक है
(i) LiCl, CSCl
(ii) BeCl2, BCl3
(iii) SnC2, SnCl4
उत्तर
आयनिक यौगिक में सहसंयोजक लक्षण का अध्ययन फजान्स के नियम की सहायता से किया जाता है। इस नियम के अनुसार आयन के ध्रुवण के लिए अनुकूलतम परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं।

  1. धनायन के छोटे साइज और उच्च आवेश द्वारा ऋणायन का ध्रुवण अधिक होता है अर्थात् सहसंयोजी लक्षण अधिक होता है।
  2. ऋणायन का साइज जितना बड़ा होता है उसका उतना ही अधिक ध्रुवण होता है अर्थात् सहसंयोजी लक्षण बढ़ता है।
  3. धनायन पर जितना अधिक आवेश होगा उसकी ध्रुवण क्षमता उतनी ही अधिक होगी अर्थात् सहसंयोजी लक्षण उतना ही अधिक होगा।
    उदाहरणार्थ-FeCl2 की तुलना में FeCl3 अधिक सहसंयोजी लक्षण प्रदर्शित करता है। क्योंकि FeCl3 में Fe पर +3 आवेश है।
  4.  वे धनायन जिनके बाह्य कोश में 18 इलेक्ट्रॉन होते हैं उनमें अधिक सहसंयोजी लक्षण होता है।
    • CsCl> LiCl चूंकि Cst का आकार Li+ से बड़ा है इसलिए CSCI, LiCI की तुलना में अधिक आयनिक है।
    • BCl3, BeCl2 की तुलना में अधिक आयनिक है।
    • SnCl4, SnCl2 की तुलना में अधिक आयनिक है क्योकि SnCl2 में Sn2+ तथा SnCl4 में Sn4+ है।

प्रश्न 4.
VSEPR (संयोजकता कोश इलेक्ट्रॉन युग्म प्रतिकर्षण) सिद्धान्त के आधार पर निम्नलिखित अणुओं की ज्यामितियों एवं आकृतियों की विवेचना कीजिए।
(i) PF5,
(ii) CH4 तथा
(iii) BeF2
उत्तर
(i) फॉस्फोरस पेण्टाफ्लुओराइड (PF5)-फॉस्फोरस परमाणु का परमाणु क्रमांक 15 है। तथा इसका इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 2, 8, 5 है। फॉस्फोरस के संयोजकता कोश में उपस्थित पाँच इलेक्ट्रॉन, पाँच फ्लुओरीन परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनों के साथ आबन्धी युग्म बनाते हैं। चूँकि केन्द्रीय . परमाणु समान ‘परमाणुओं के साथ सभी आबन्धी युग्मों द्वारा घिरा रहता है; अतः अणु की ज्यामिती नियमित होगी। इलेक्ट्रॉनों के सभी साझे युग्मों में प्रतिकर्षण बल न्यूनतम करने के लिए PF5 की वास्तविक आकृति त्रिकोणीय द्विपिरैमिडी होगी। P परमाणु, एक समबाहु त्रिभुज के केन्द्र पर स्थित है। तथा तीन P-F(∝) आबन्ध (इन्हें विषुवतीय आबन्ध कहा जाता है), 120° आबन्ध कोण के साथ त्रिभुज के तीनों कोनों पर निर्देशित हैं। शेष दो P-F(∝) आबन्ध (इन्हें अक्षीय बन्ध कहा जाता है) त्रिकोण के तल के ऊपर तथा नीचे तल के समकोण पर स्थित होते हैं।
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(ii) मेथेन (CH4)-मेथेन में केन्द्रीय कार्बन परमाणु को इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 2, 4 है। संयोजकता कोश में उपस्थित चार इलेक्ट्रॉन हाइड्रोजन परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनों के साथ साझे युग्म बनाते हैं। कार्बन परमाणु के समीप सभी साझे युग्मों की उपस्थिति के कारण मेथेन की ज्यामिति नियमित होती है। इलेक्ट्रॉन-युग्मों में प्रतिकर्षण बल न्यूनतम करने के लिए अणु की आकृति आबन्ध कोण 109.5° के साथ चतुष्फलकीय होती है।
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(iii) बेरीलियम फ्लुओराइड (BeF2)-BeF2 परमाणु का परमाणु क्रमांक 4 है तथा इसका इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 2, 2 है। संयोजकता कोश में उपस्थित दो इलेक्ट्रॉन, दो फ्लुओरीन परमाणुओं के अयुग्मित । इलेक्ट्रॉन के साथ दो साझे युग्म बनाते हैं। चूंकि Be समान परमाणुओं के साथ इलेक्ट्रॉनों के दोनों साझे ‘ युग्मों द्वारा घिरा रहता है, इसलिए अणु की ज्यामिति नियमित है। इन इलेक्ट्रॉन युग्मों में प्रतिकर्षण बल न्यूनतम करने हेतु अणु की रैखिक आकृति है।
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प्रश्न 5.
कक्षक अतिव्यापन अवधारणा के आधार पर निम्नलिखित सहसंयोजी अणुओं के विरचन की व्याख्या कीजिए
(i) H2O
(ii) O2
(iii) HF
(iv) F2
उत्तर
(i) जल अणु (H2O)-H2O अणु के बनने में ऑक्सीजन परमाणु के दो अर्द्धपूरित कक्षक, हाइड्रोजन परमाणुओं के अर्द्धपूरित कक्षक (1s) के साथ संयोजित होते हैं; अत: ऑक्सीजन परमाणु दो हाइड्रोजन परमाणुओं के साथ एकल सहसंयोजी बन्ध द्वारा जुड़ता है।
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(ii) ऑक्सीजन अणु (O2)-ऑक्सीजन का परमाणु क्रमांक 8 है तथा इसका इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2,2s2 2p2x 2p1y, 2p1z है। इसका अर्थ है कि ऑक्सीजन में दो अर्द्धपूरित कक्षक हैं। विपरीत चक्रण वाले इलेक्ट्रॉनों के अर्द्धपूरित कक्षकों के अतिव्यापन के परिणामस्वरूप दो ऑक्सीजन परमाणु संयोजित होकर ऑक्सीजन अणु बनाते हैं।
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(iii) हाइड्रोजन फ्लुओराइड अणु (HF)-फ्लुओरीन परमाणु में एक अर्द्धपूरित परमाणु कक्षक होता है। हाइड्रोजन परमाणु (Z= 1) के 1s कक्षक में केवल एक इलेक्ट्रॉन होता है। अत: आबन्ध बनने में भाग ले रहे परमाणुओं से सम्बन्धित अर्द्धपूरित कक्षकों के अतिव्यापन के परिणामस्वरूप HF अणु बनता है।
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(iv) फ्लुओरीन अणु (F2)-फ्लुओरीन का परमाणु क्रमांक 9 है तथा इसका कक्षक इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2,2s2 2p2x 2p2y, 2p1z है; अतः फ्लुओरीन परमाणु में एक अर्द्धपूरित परमाणु कक्षक है। इन अर्द्धपूरित परमाणु कक्षकों के अतिव्यापन के फलस्वरूप फ्लुओरीन परमाणु संयोजित होकर फ्लुओरीन अणु बनाते हैं। इसे संलग्न चित्र में दर्शाया गया है। दोनों परमाणु एकल सहसंयोजी आबन्ध द्वारा जुड़े हुए हैं।
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प्रश्न 6.
निम्न को समझाइए
(i) BF3 की ज्यामितीय समतल त्रिकोणीय है।
(ii) LiCI कार्बनिक विलायकों में घुलनशील है।
(iii) बर्फ का आयतन पानी के आयतन से अधिक होता है।
उत्तर

  1. मूल अवस्था में B की इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2 2s2 2p1 होता है। उत्तेजित अवस्था में इसका एक 2s इलेक्ट्रॉन 2p कक्षक में चला जाता है जिससे इसमें तीन अयुग्मित इलेक्ट्रॉन हो जाते हैं। इसके 2s, px अथवा , एवं 2pz कक्षक संकरित होकर समान ऊर्जा के तीन sp2 कक्षक बनाते हैं। 120° कोण पर व्यवस्थित ये तीनों sp2 कक्षक F परमाणु के 2p कक्षकों के साथ संयोग करके तीन σ बन्ध बनाते हैं इसलिए BF3, की ज्यामितीय समतल त्रिकोणीय है।
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  2. LiCI अणु में अधिक सहसंयोजी लक्षण होने के कारण यह कार्बनिक विलायकों में घुलनशील है। फजान्स के नियमानुसार, छोटे धनायन तथा बड़े ऋणायन में सहसंयोजी लक्षण अधिक होते हैं।
  3. H2O के अणुओं के मध्य हाइड्रोजन बन्ध होने के कारण H2O के अणुओं का संगुणन हो जाता है। इसलिए समान भार की बर्फ का आयतन, पानी से अधिक होता है।

प्रश्न 7.
हाइड्रोजन बन्ध क्या है? उसके कितने प्रकार हैं? हाइड्रोजन बन्ध की प्रकृति तथा उसके कारण पदार्थ के गुणों पर प्रभाव को लिखिए।
उत्तर
जब किसी अणु में हाइड्रोजन तथा कोई अत्यधिक विद्युत ऋणात्मक परमाणु सहसंयोजक आबन्ध द्वारा जुड़े होते हैं, तो उसमें साझे के इलेक्ट्रॉन युग्म अधिक ऋणात्मक परमाणु द्वारा अधिक आकर्षित होते हैं। इससे हाइड्रोजन परमाणु पर आंशिक धनावेश तथा दूसरे ऋणात्मक परमाणु पर आंशिक ऋणावेश आ जाता है। ऐसा धनावेशित हाइड्रोजन परमाणु दूसरे अणु के ऋणावेशित परमाणु के साथ एक क्षीण आबन्ध बनाता है। इस आबन्ध को ही हाइड्रोजन आबन्ध कहते हैं।
हाइड्रोजन बन्ध के प्रकार-हाइड्रोजन बन्ध दो प्रकार के होते हैं।

  1. अन्तरा-अणुक हाइड्रोजन बन्ध।
  2. अन्त:अणुक हाइड्रोजन बन्ध

हाइड्रोजन बन्ध की प्रकृति-हाइड्रोजन बन्ध की प्रकृति स्थिर विद्युत की तरह होती है। हाइड्रोजन बन्ध केवल वही तत्त्व बनाते हैं जिनकी परमाणु त्रिज्या छोटी तथा विद्युत ऋणात्मकता उच्च होती है। N, O, F ही केवल हाइड्रोजन बन्ध बनाते हैं क्योंकि इनकी विद्युत ऋणात्मकता ऊँची और परमाणु त्रिज्या छोटी होती है।
पदार्थों के भौतिक गुणों पर हाइड्रोजन बन्ध का प्रभाव

  1. अन्तरा-अणुक हाइड्रोजन बन्ध होने पर पदार्थ के गलनांक तथा क्वथनांक असामान्य रूप से बढ़ते हैं परन्तु अन्त:अणुक हाइड्रोजन बन्ध होने पर घटते हैं।
  2. अन्तरा-अणुक हाइड्रोजन बन्ध होने पर पदार्थ की विलेयता बढ़ती है परन्तु अन्त:अणुक होने पर विलेयता घटती है। (नोट-हाइड्रोजन बन्ध से किसी पदार्थ के केवल भौतिक गुण ही प्रभावित होते हैं रासायनिक गुण नहीं।)

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UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 4 Climate

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु)

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पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न 1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर चुनिए
(i) जाड़े के आरम्भ में तमिलनाडु के तटीय प्रदेशों में वर्षा किस कारण होती है?
(क) दक्षिण-पश्चिमी मानसून
(ख) उत्तर-पूर्वी मानसून
(ग) शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात
(घ) स्थानीय वायु परिसंचरण ।
उत्तर-(ख) उत्तर-पूर्वी मानसून।।।

(ii) भारत के कितने भू-भाग पर 75 सेंटीमीटर से कम औसत वार्षिक वर्षा होती है?
(क) आधा ।
(ख) दो-तिहाई
(ग) एक-तिहाई
(घ) तीन-चौथाई
उत्तर-(ग) एक-तिहाई। ।

(iii) दक्षिण भारत के सन्दर्भ में कौन-सा तथ्य ठीक नहीं है?
(क) यहाँ दैनिक तापान्तर कम होता है,
(ख) यहाँ वार्षिक तापान्तर कम होता है।
(ग) यहाँ तापमान वर्षभर ऊँचा रहता है।
(घ) यहाँ जलवायु विषम पाई जाती है ।
उत्तर-(घ) यहाँ जलवायु विषम पाई जाती है।

(iv) जब सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा पर सीधा चमकता है, तब निम्नलिखित में से क्या होता है?
(क) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान कम होने के कारण उच्च वायुदाब विकसित हो जाता है।
(ख) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान बढ़ने के कारण निम्न वायुदाब विकसित हो जाता है।
(ग) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान व वायुदाब में कोई परिवर्तन नहीं आता।
(घ) उत्तरी-पश्चिमी भारत में झुलसा देने वाली तेज लू चलती है।
उत्तर-(क) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान कम होने के कारण उच्च वायुदाब विकसित हो जाता है। |

(v) कोपेन के वर्गीकरण के अनुसार भारत में ‘As’ प्रकार की जलवायु कहाँ पाई जाती है?
(क) केरल और तटीय कर्नाटक में
(ख) अण्डमान और निकोबार द्वीप-समूह में
(ग) कोरोमण्डल तट पर
(घ) असम व अरुणाचल प्रदेश में
उत्तर-(ग) कोरोमण्डल तट पर।

प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दो में दीजिए
(i) भारतीय मौसम तन्त्र को प्रभावित करने वाले तीन महत्त्वपूर्ण कारक कौन-से हैं? ।
उत्तर- भारतीय मौसम तन्त्र को प्रभावित करने वाले तीन महत्त्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं
(क) वायुदाब तथा पवने,
(ख) जेट वायुधाराएँ ।
(ग) उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात।

(ii) अन्तःउष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र क्या है?
उत्तर—विषुवत् वृत्त या उसके पास निम्न वायुदाब तथा आरोही वायु का क्षेत्र अन्त:उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में व्यापारिक पवनें मिलती हैं; अतः इस क्षेत्र में वायु ऊपर उठने लगती है। इसे कभी-कभी मानसूनी गर्त भी कहते हैं। |

(iii) मानसून प्रस्फोट से आपका क्या अभिप्राय है?’भारत में सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करने वाले| स्थान का नाम लिखिए।
उत्तर-वर्षा ऋतु अर्थात् दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु में जब अचानक वर्षा होती है तो बिजली तथा बादलों की गरजना भी होती है और तीव्रता के साथ वर्षा होने लगती है। अत: प्रचण्ड गर्जन और बिजली की कड़क के साथ आर्द्रता भरी पवनों का चलना तथा वर्षा होना मानसून प्रस्फोट कहलाता है। भारत में मेघालय राज्य में स्थित मॉसिनराम सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करने वाला स्थान है।

(iv) जलवायु प्रदेश क्या होता है? कोपेन की पद्धति के प्रमुख आधार कौन-से हैं?
उत्तर-वह क्षेत्र जिसमें समान जलवायु दशाएँ (तापमान एवं वर्षा) पाई जाती हैं, जलवायु प्रदेश कहा जाता है। अत: एक जलवायु प्रदेश में जलवायु दशाओं की समरूपता होती है तो वास्तव में जलवायु कारकों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होती है। कोपेन ने जलवायु प्रदेशों के निर्धारण में तापमान तथा वर्षण के मासिक मानों को आधार माना है।

(v) उत्तर-पश्चिमी भारत में रबी की फसलें बोने वाले किसानों को किस प्रकार के चक्रवातों से वर्षा प्राप्त होती है? वे चक्रवात कहाँ उत्पन्न होते हैं?
उत्तर-उत्तर-पश्चिमी भारत में रबी की फसलें बोने के समय शीतोष्ण चक्रवात से वर्षा प्राप्त होती है। ये चक्रवात पूर्वी भूमध्य सागर से आते हैं। इनको पश्चिमी विक्षोभ भी कहा जाता है। ये चक्रवात पूर्वी भागों में पहुँचते हैं तथा सर्दियों में भारत में वर्षा करते हैं जो रबी फसल की बुवाई में उपयोगी होती है।

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 शब्दों में लिखिए|
(i) जलवायु में एक प्रकार का ऐक्य होते हुए भी भारत की जलवायु में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। उपयुक्त उदाहरण देते हुए इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-भारत में मानसून की जलवायविक प्रवृत्ति देश की जलवायु में एक प्रकार का ऐक्य प्रकट करती है। यद्यपि भारत में बहुत-सी जलवायु सम्बन्धी प्रादेशिक विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए–केरल और तमिलनाडु की जलवायु उत्तरी भारत के उत्तर प्रदेश तथा बिहार से भिन्न है, जबकि सारे देश में मानसूनी जलवायु कही जाती है।
जलवायु तत्त्वों में तापमान एवं वर्षा के वितरण में इसी प्रकार की जलवायु सम्बन्धी विभिन्नताएँ मिलती हैं। उदहारण के लिए राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र में तापमान ग्रीष्म ऋतु में 55C तक पहुँच जाता है, जबकि इसी समय अरुणाचल प्रदेश में तवांग का तापमान केवल 19°C रहता है। वर्षा के वितरण में भी इसी प्रकार की विभिन्नताएँ देखी जाती हैं। मेघालय के चेरापूंजी और मॉसिनराम में वार्षिक वर्षा 1,080 सेमी होती है जबकि राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र में केवल 10 सेमी वर्षा होती है। अतः जलवायु तत्त्वों के आधार पर यह देखा जाता है कि भारत में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ विद्यमान हैं, किन्तु मानसून के आधार पर देश के विभिन्न सामाजिक और आर्थिक कार्यों एवं सांस्कृतिक विशेषताओं में पर्याप्त समानताएँ व्याप्त हैं। |

(ii) भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार भारत में कितने स्पष्ट मौसम पाए जाते हैं? किसी एक मौसम की दशाओं की सविस्तार व्याख्या कीजिए।
उत्तर-भारत में मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार वर्ष में अनुसार वर्ष में निम्नलिखित चार प्रकार के मौसम होते हैं
(1) शीत ऋतु ।
(2) ग्रीष्म ऋतु
(3) दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु और
(4) मानसून के निवर्तन की ऋतु।

शीत ऋतु।

भारत में शीत ऋतु का प्रारम्भ मध्य नवम्बर से हो जाता है। इस समय उत्तरी भारत में तापमान में गिरावट आरम्भ हो जाती है तथा उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में औसत तापमान 21°C से कम रहता है। (जनवरी-फरवरी) रात्रि का तापमान काफी कम हो जाता है, जो पंजाब और राजस्थान में हिमांक से भी नीचे चला जाता है।

दक्षिणी भारत में सर्दी की ऋतु नहीं के बराबर होती है। यहाँ तापान्तर बहुत कम रहता हैं। तटीय प्रदेशों में तो यह बहुत कम रहता है। त्रिवेन्द्रम का तापमान जनवरी में 31C तथा जून में 29.5C तक रहता है। शीत ऋतु में पवनें उत्तर-पश्चिम से दक्षिण को चलती हैं जहाँ वायुदाब कम होता है।

शीत ऋतु में वर्षा अल्पतम होती है। इस समय उत्तरी भारत में वर्षा शीतोष्ण चक्रवात, जिन्हें पश्चिमी विक्षोभ कहते हैं, से होती है। यह वर्षा रबी की फसल के लिए लाभदायक रहती है। इसी समय भारत के पूर्वी तटीय भाग में भी विशेषकर तमिलनाडु में वर्षा होती है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. भारत में न्यूनतम तापमान कहाँ पाया जाता है?
(क) लेह में
(ख) शिमला में
(ग) चेरापूंजी में
(घ) श्रीनगर में
उत्तर-(क) लेह में।

प्रश्न 2. भारत में अधिकतम तापमान कहाँ पाया जाता है?
(क) तिरुवनन्तपुरम् में
(ख) भोपाल में ।
(ग) जैसलमेर में।
(घ) अहमदाबाद में
उत्तर-(ग) जैसलमेर में।

प्रश्न 3. भारत में अधिकतम वर्षा वाला स्थान है
(क) शिलांग
(ख) मॉसिनराम
(ग) गुवाहाटी
(घ) पंजाब
उत्तर-(ख) मॉसिनराम।

प्रश्न 4. भारत का नगर जो वृष्टिछाया प्रदेश में पड़ता है
(क) मुम्बई ।
(ख) जोधपुर
(ग) पुणे
(घ) चेन्नई
उत्तर-(ग) पुणे।।

प्रश्न 5. आम्रवृष्टि कहाँ होती है?
(क) केरल में
(ख) आन्ध्र प्रदेश में
(ग) तमिलनाडु में
(घ) असोम में
उत्तर-(क) केरल में।

प्रश्न 6. ‘काल-बैसाखी कहाँ प्रचलित है? ।
(क) केरल में
(ख) असोम में
(ग) उत्तर प्रदेश में
(घ) पंजाब में
उत्तर-(ख) असोम में।

प्रश्न 7. जेट धाराएँ हैं
(क) हिन्द महासागरों में चलने वाली
(ख) बंगाल की खाड़ी के चक्रवात
(ग) उपरितन वायु
(घ) मानसूनी पवनें
उत्तर-(ग) उपरितन वायु।।

प्रश्न 8. उत्तर भारत में शीतकालीन वर्षा का कारण है
(क) लौटते हुए मानसून ,
(ख) आगे बढ़ते हुए मानसून
(ग) शीतकालीन मानसून
(घ) पश्चिमी विक्षोभ ।
उत्तर-(घ) पश्चिमी विक्षोभ।

प्रश्न 9. सम्पूर्ण भारत में सर्वाधिक वर्षा वाला महीना है
(क) जून ।
(ख) जुलाई
(ग) अगस्त
(घ) ये सभी
उत्तर-(ख) जुलाई।

प्रश्न 10. चेरापूंजी किस राज्य में स्थित है?
(क) असोम में
(ख) मेघालय में
(ग) मिजोरम में
(घ) मणिपुर में
उत्तर-(ख) मेघालय में।

प्रश्न 11. भारत में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र कौन-सा है?
(क) उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र
(ख) उत्तर-पूर्वी क्षेत्र
(ग) दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र ।
(घ) दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र
उत्तर-(ख) उत्तर-पूर्वी क्षेत्र।

प्रश्न 12. दैनिक तापान्तर निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में सर्वाधिक पाया जाता है?
(क) दक्षिणी पठारी क्षेत्र ।
(ख) पूर्वी तटवर्ती क्षेत्र
(ग) थार मरुस्थल
(घ) पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र
उत्तर-(ग) थार मरुस्थल।

प्रश्न 13. निम्नलिखित में से कौन राज्य भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र में सम्मिलित है?
(क) मेघालय
(ख) मध्य प्रदेश
(ग) ओडिशा
(घ) गुजरात
उत्तर-(क) मेघालय।

प्रश्न 14. भारत के किस राज्य में शीत ऋतु में वर्षा होती है?
(क) गुजरात
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) कर्नाटक
(घ) तमिलनाडु
उत्तर-(घ) तमिलनाडु। ||

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. मानसून से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-मानसून उन पवनों को कहते हैं जो वर्ष में छ: महीने (ग्रीष्म ऋतु) सागरों से स्थल की ओर तथा शेष छः महीने (शीत ऋतु) स्थल से सागरों की ओर चलती हैं।

प्रश्न 2. भारत में अधिकांश वर्षा किस ऋतु में होती है ?
उत्तर-भारत में अधिकांश अर्थात् 75% से 90% तक वर्षा आगे बढ़ते हुए मानसूनों द्वारा (जून से सितम्बर माह में) वर्षा ऋतु में होती है।

प्रश्न 3. थार मरुस्थल में अल्प वर्षा क्यों होती है ? दो कारण लिखिए।
उत्तर-थार मरुस्थल में अल्प वर्षा होने के दो कारण निम्नलिखित हैं

  • थार मरुस्थल अरबसागरीय मानसूनों के मार्ग में पड़ता है, किन्तु यहाँ मानसून पवनों को रोकने के लिए कोई ऊँची पर्वत-श्रेणी स्थित नहीं है।
  • अरावली की पहाड़ियाँ नीची हैं तथा पवनों की दिशा के समानान्तर हैं।

प्रश्न 4. दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति का प्रमुख क्या कारण है ?
उत्तर-दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति के दो प्रमुख कारण हैं

  • ग्रीष्म काल में देश के उत्तर-पश्चिमी (स्थलीय) भू-भागों में निम्न वायुदाब तथा समीपवर्ती समुद्री | भागों (हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी) में उच्च वायुदाब का होना।
  • क्षोभमण्डल की ऊपरी परतों में तीव्रगामी पुरवा जेट पवनों का चलना।

प्रश्न 5. जेट वायुधाराएँ किन्हें कहते हैं ?
उत्तर–वायुमण्डल की क्षोभमण्डल नामक परत के ऊपरी भाग में तेज गति से चलने वाली पवनों को जेट वायुधाराएँ कहते हैं। ये बहुत सँकरी पट्टी में चलती हैं।

प्रश्न 6. भारत में पायी जाने वाली ऋतुओं के नाम लिखिए।
उत्तर-(1) शीत ऋतु, (2) ग्रीष्म ऋतु, (3) वर्षा ऋतु (आगे बढ़ते मानसून की ऋतु) तथा (4) शरद ऋतु (पीछे हटते हुए मानसून की ऋतु।)

प्रश्न 7. भारत में सर्वाधिक वर्षा किस राज्य में होती है ?
उत्तर- भारत में सर्वाधिक वर्षा मेघालय (मॉसिनराम) राज्य में होती है।

प्रश्न 8. ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों की दिशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर-ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों की दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम होती है।

प्रश्न 9. भारत में अधिकांश वर्षा किस प्रकार की होती है?
उत्तर- भारत की लगभग 95% अधिकांश वर्षा पर्वतीय है।

प्रश्न 10. लौटते हुए मानसून से भारत के किन दो राज्यों में वर्षा होती है ?
उत्तर-लौटते हुए मानसून से भारत में तमिलनाडु एवं पॉण्डिचेरी (अब पुदुचेरी) राज्यों में वर्षा होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. वर्षा और वर्षण में अन्तर लिखिए।
उत्तर- (i) वर्षा–यह वर्षण का एक विशिष्ट रूप है, जिसमें बादलों के जल-वाष्प कण संघनित होकर जल की बूंदों या हिमकणों के रूप में भू-पृष्ठ पर गिरते हैं। जलवर्षा तथा हिमवर्षा इसके दो रूप हैं।

(ii) वर्षण—यह एक व्यापक प्रक्रिया है, जिसमें वायुमण्डल की आर्द्रता संघनित होकर वर्षा, हिम, ओला, पाला आदि रूपों में धरातल पर गिरती है। जल-वर्षा, वर्षण का एक साधारण रूप है। हिमवृष्टि, ओलावृष्टि, हिमपात आदि इसके अनेक रूप हैं।

प्रश्न 2. ‘आम्रवृष्टि’ और ‘काल-बैसाखी में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-(i) आम्रवृष्टि-ग्रीष्म ऋतु के अन्त में केरल तथा कर्नाटक के तटीय भागों में मानसून से पूर्व की वर्षा का यह स्थानीय नाम इसलिए पड़ा है, क्योकि यह वर्षा आम के फलों को शीघ्र पकाने में सहायता करती है।

(ii) काल-बैसाखी-ग्रीष्म ऋतु में बंगाल तथा असोम में भी उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी पवनों द्वारा, वर्षा की तेज बौछारें पड़ती हैं। यह वर्षा प्रायः सायंकाल में होती है। इसी वर्षा को ‘काल-बैसाखी’ कहते हैं। इसका अर्थ है-बैसाख मास का काल।।

प्रश्न 3. भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु की तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

  • भारत में आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु जून से सितम्बर तक रहती है। इस ऋतु में समस्त भारत में वर्षा होती है।
  • वर्षा ऋतु की अवधि दक्षिण से उत्तर की ओर तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। देश के सबसे उत्तर-पश्चिमी भागों में यह अवधि केवल दो महीने की होती है।
  • देश की 75 से 90% वर्षा इसी ऋतु में होती है।

प्रश्न 4. भारत में कम वर्षा वाले तीन क्षेत्र कौन-कौन-से हैं?
उत्तर–कम वर्षा वाले क्षेत्रों से अभिप्राय ऐसे क्षेत्रों से है जहाँ 50 सेमी से भी कम वार्षिक वर्षा होती है। ये क्षेत्र हैं-

  • पश्चिमी राजस्थान तथा इसके निकटवर्ती पंजाब, हरियाणा व गुजरात के क्षेत्र।
  • सह्याद्रि के पूर्व में फैले दकन के पठार के आन्तरिक भाग।
  • कश्मीर में लेह के आस-पास का प्रदेश।

प्रश्न 5. जाड़ों में वर्षा वाले भारत के दो’क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-शीत ऋतु में स्थलीय पवनें शुष्क होती हैं; अतः प्रायः सम्पूर्ण देश में मौसम शुष्क रहता है, परन्तु निम्नलिखित दो क्षेत्रों में जाड़ों में भी वर्षा होती है

1. देश के उत्तर-पश्चिमी भाग-भूमध्य सागर की ओर से आने वाले पश्चिमी विक्षोभों से कुछ वर्षा । देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में होती है।

2. तमिलनाडु तट-तमिलनाडु तट पर भी शीतकाल में वर्षा होती है। उत्तर-पूरब की ओर से चलने वाली स्थलीय मानसून पवनें जब बंगाल की खाड़ी को पार कर तमिलनाडु तट पर पहुँचती हैं तो ये कुछ आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं तथा तटों पर वर्षा करती हैं।

प्रश्न 6. जलवायु का प्राकृतिक वनस्पति व जीव-जन्तुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-पर्यावरण के सभी अंगों में जलवायु मानव-जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करती है। भारत में कृषि राष्ट्र के अर्थतन्त्र की धुरी है, जो वर्षा की विषमता से सबसे अधिक प्रभावित होती है। मानसूनी वर्षा बड़ी ही अनियमित एवं अनिश्चित है। जिस वर्ष वर्षा अधिक एवं मूसलाधार रूप में होती है तो अतिवृष्टि के परिणामस्वरूप बाढ़े आ जाती हैं तथा भारी संख्या में धन-जन का विनाश करती हैं। इसके विपरीत जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है या अनिश्चितता की स्थिति होती है तो अनावृष्टि के कारण सूखा पड़ जाता है, जिससे फसलें सूख जाती हैं तथा पशुधन को भी पर्याप्त हानि उठानी पड़ती है। जलवायु का प्राकृतिक वनस्पति व जीव-जन्तुओं पर प्रभाव निम्नलिखित है

1. प्राकृतिक वनस्पति पर प्रभाव-किसी देश की प्राकृतिक वनस्पति न केवल धरातल और मिट्टी के गुणों पर निर्भर करती है, वरन् वहाँ के तापमान और वर्षा को भी उस पर प्रभाव पड़ता है, क्योंकि पौधे के विकास के लिए वर्षा, तापमान, प्रकाश और वायु की आवश्यकता पड़ती है; उदाहरणार्थ- भूमध्यरेखीय प्रदेशों में निरन्तर तेज धूप, कड़ी गर्मी और अधिक वर्षा के कारण ऐसे वृक्ष उगते हैं; जिनकी पत्तियाँ घनी, ऊँचाई बहुत और लकड़ी अत्यन्त कठोर होती है। इसके विपरीत मरुस्थलों में काँटेदार झाड़ियाँ भी बड़ी कठिनाई से उग पाती हैं; क्योंकि यहाँ वर्षा का
अभाव होता है। वास्तव में जलवायु वनस्पति का प्राणाधार है।

2. जीव-जन्तुओं पर प्रभाव-जलवायु की विविधता ने प्राणियों में भी विविधता स्थापित की है। जिस प्रकार विभिन्न जलवायु में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ पायी जाती हैं, वैसे ही विभिन्न जलवायु प्रदेशों में अनेक प्रकार के जीव-जन्तु पाये जाते हैं; उदाहरणार्थ-कुछ जीव-जन्तु वृक्षों की शाखाओं पर रहकर सूर्य की गर्मी और प्रकाश प्राप्त करते हैं; जैसे- नाना प्रकार के बन्दर, चमगादड़ आदि। इसके विपरीत कुछ जीव-जन्तु जल में निवास करते हैं; जैसे—मगरमच्छ, दरियाई घोड़े आदि। ठीक इससे भिन्न प्रकार के प्राणी टुण्ड्री प्रदेश में पाये जाते हैं जिनके शरीर पर
लम्बे और मुलायम बाल होते हैं, जिनके कारण वे कठोर शीत से अपनी रक्षा करते हैं।

प्रश्न 7. अल्पवृष्टि तथा अतिवृष्टि का वर्णन कीजिए।
उत्तर 1. अल्पवृष्टि ।
अल्पवृष्टि का तात्पर्य वर्षा न होने से है जिसके कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जलाभाव के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं। नदी, तालाब, कुएँ सूखने लगते हैं। पानी का घोर संकट उत्पन्न हो जाता है जिससे सभी प्रकार के जीवों का जीवन संकटग्रस्त हो जाता है। पशुओं के लिए पानी तथा चारे की समस्या पैदा हो जाती है।

2. अतिवृष्टि
अतिवृष्टि का तात्पर्य ऐसी अत्यधिक वर्षा से है जो लाभ की अपेक्षा हानि पहुँचाती है। अतिवृष्टि से नदी, जलाशय, तालाब सभी जल से भर जाते हैं। नदियों में बाढ़ आ जाती है जिससे उनके किनारे बसे गाँव, नगर तथा फसलें प्रभावित हो जाती हैं। अतिवृष्टि से बहुत-से लोग घर-विहीन हो जाते हैं। बाढ़ के बाद अनेक प्रकार के संक्रामक रोग फैलने लगते हैं। अतिवृष्टि का सर्वाधिक प्रभाव फसलों पर पड़ता है। इससे सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।

प्रश्न 8. भारत की चार प्रमुख ऋतुओं के नाम लिखकर उनका संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर–भारत की चार ऋतुओं के नाम तथा उनका संक्षिप्त विवेचन निम्नवत् है-
1. शीत ऋतु-लगभग पूरे भारत में दिसम्बर, जनवरी तथा फरवरी के महीनों में शीत ऋतु होती है।
इस ऋतु में उत्तर-पश्चिमी मैदानी भागों में उच्च वायुदाब रहता है तथा देश के ऊपरी भागों में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवने स्थल से सागरों की ओर चलती हैं। पवनों के स्थल भागों से चलने के कारण यह ऋतु शुष्क होती है। इस ऋतु में दक्षिण से उत्तर की ओर जाने में तापमान घटता जाता है। यहाँ दिन सामान्यत: अल्प उष्ण एवं रातें ठण्डी होती हैं। ऊँचे स्थानों पर पाला भी पड़ जाता है।

2. ग्रीष्म ऋतु-21 मार्च के बाद सूर्य की स्थिति उत्तरायण हो जाती है। अब मार्च, अप्रैल और मई के बीच अधिक तापमान की पेटी दक्षिण से उत्तर की ओर खिसक जाती है। इस समय देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में तापमान 48° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। फलस्वरूप अत्यधिक गर्मी पड़ने के कारण इस भाग में निम्न वायुदाब के क्षेत्र बन जाते हैं। इसे ‘मानसून का निम्न वायुदाब गर्त कहते हैं। इस ऋतु में शुष्क एवं गर्म पवनें चलने लगती हैं, जिन्हें ‘लू’ कहा जाता है। इन दिनों पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में धूलभरी आँधियाँ भी चलती हैं।

3. आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु-सम्पूर्ण देश में जून, जुलाई, अगस्त और सितम्बर के महीनों में ही अधिकांश वर्षा होती है। वर्षा की अवधि एवं मात्रा उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में यह अवधि केवल दो महीनों की होती है। तथा वर्षा का 75% से 90% भाग इसी अवधि में प्राप्त हो जाता है।

4. पीछे लौटते हुए मानसून की ऋतु-अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में मानसूने पीछे लौटने लगता है। अक्टूबर माह के अन्त तक मानसून मैदान से पूर्णतः पीछे हट जाता है। इस समय शुष्क ऋतु का आगमन होता है तथा आकाश स्वच्छ हो जाता है। तापमान में कुछ वृद्धि होती है। उच्च तापमान और आर्द्रता के कारण मौसम कष्टदायी हो जाता है। निम्न वायुदाब के क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में स्थानान्तरित हो जाते हैं। इस अवधि में पूर्वी तट पर व्यापक वर्षा होती है। सम्पूर्ण कोरोमण्डल तट पर अधिकांश वर्षा इन्हीं चक्रवातों और अवदाबों के कारण होती है।

प्रश्न 9. मानसून से क्या अभिप्राय है? ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा की चार विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-मानसून’ शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है। इनका शाब्दिक अर्थ ऋतु है। इस प्रकार मानसून का अर्थ एक ऐसी ऋतु से है, जिसमें पवनों की दिशा पूरी तरह से उलट जाती है। मानसूनी पवनें हिन्द महासागर में विषुवत् वृत्त पार करने के बाद दक्षिण-पश्चिमी व्यापारिक पवनों के रूप में बहने लगती हैं। इस प्रकार शुष्क तथा गर्म स्थलीय व्यापारिक पवनों का स्थान आर्द्रता से परिपूर्ण समुद्री पवनें ले लेती हैं। मानसूनी पवनों के अध्ययन से पता चला है कि इन पवनों का प्रसार 20° उत्तर तथा 20° दक्षिण अक्षांशों के बीच उष्ण कटिबन्धीय भू-भागों पर होता है। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून हिमालय की पर्वत-श्रेणी से बहुत अधिक प्रभावित होता है। इन पर्वत-श्रेणियों के कारण पूरा भारतीय उपमहाद्वीप दो से पाँच महीनों तक आर्द्र विषुवतीय पवनों के प्रभाव में आ जाता है। अत: जून से लेकर सितम्बर तक ही 75-90% के बीच वार्षिक वर्षा होती है।

ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा की चार विशेषताएँ
1. ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा की अवधि दक्षिण से उत्तर तथा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। देश के सबसे उत्तर-पश्चिमी भाग में यह अवधि केवल दो महीने की होती है। इस अवधि में 75% से 90% तक वर्षा हो जाती है।

2. ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षावाहिनी पवनें बड़ी तेजी से चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। उत्तर-पश्चिमी भागों को छोड़कर ये एक महीने में सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से भरी इन पवनों के आने के साथ ही बादलों का प्रचण्ड ग़र्जन तथा बिजली चमकनी शुरू हो जाती है। इसे मानसून का फटना’ या टूटना’ कहते हैं।

3. ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा लगातार नहीं होती। कुछ दिनों तक वर्षा होने के बाद मौसम सूखा रह्ता | है। मानसून के इस घटते-बढ़ते स्वरूप का कारण चक्रवातीय अवदाब हैं, जो मुख्य रूप से बंगाल की खाड़ी के शीर्ष भाग में उत्पन्न होते हैं और भारत-भूमि के ऊपर से गुजरते हैं।

4. ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा अपनी स्वेच्छाचारिता के लिए विख्यात है। इससे एक ओर तो कुहीं | भारी वर्षा से भयंकर बाढ़ आ सकती है तो दूसरे स्थान पर सूखा पड़ सकता है। इससे करोड़ों
किसानों के खेती के काम प्रभावित होते हैं।

प्रश्न 10. भारत की जलवायु पर हिमालय पर्वत के प्रभावों को स्पष्ट कीजिए।
या यदि भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत न होता तो उसका भारत की जलवायु पर क्या प्रभाव पड़ता?
उत्तर-हिमालय पर्वत की स्थिति का भारत की जलवायु पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है
1. हिमालय पर्वत उत्तर में साइबेरिया तथा उत्तरी ध्रुव की ओर से आने वाली शीतल तथा बर्फीली पवनों के मार्ग में बाधक बनकर उन्हें भारत में आने से रोक देता है। यदि ये पवनें भारत में प्रवेश कर जातीं तो सम्पूर्ण उत्तरी भारत हिम से जम जाता।।

2. हिमालय पर्वत दक्षिण की ओर से आने वाली ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों को रोककर उन्हें भारत में वर्षा करने को विवश कर देता है। यदि भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत न होता तो उत्तर का विशाल मैदान शुष्क मरुस्थल में परिणत हो गया होता।

3. हिमालय पर्वत के उच्च शिखरों पर जमी हुई हिम, ग्रीष्म ऋतु में भी नदियों को सतत रूप से जल प्रदान करती रहती है तथा उन्हें सदानीरा बनाए रखती है। इससे समस्त उत्तरी भारत को ग्रीष्म ऋतु | में भी कृषि फसलों की सिंचाई के लिए जल उपलब्ध होता रहता है।

प्रश्न 11. शीतकालीन वर्षा का भारतीय कृषि पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-भारत में शीतकालीन वर्षा बहुत-ही कम होती है। इसकी मात्रा कुल वर्षा का केवल 2% भाग ही है। इतनी कम वर्षा होते हुए भी फसलोत्पादन पर इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। शीत ऋतु के आरम्भ में मानसून लौटने लगते हैं; अत: इनकी दिशा बदलकर स्थल से समुद्र की ओर हो जाती है। स्थल भागों से आने के कारण लौटते मानसून आर्द्रता-शून्य होते हैं; अत: वर्षा नहीं कर पाते, परन्तु पूर्वी भूमध्य सागर में उत्पन्न चक्रवाते अर्थात् पश्चिमी विक्षोभों द्वारा उत्तरी भारत में तथा बंगाल की खाड़ी में उठने वाले चक्रवातों से : तमिलनाडु में शीतकालीन वर्षा होती है, जिसका औसत 65 सेमी रहता है।
तमिलनाडु राज्य शीत ऋतु में वर्षा प्राप्त करने वाला प्रधान राज्य है। इस राज्य में मार्च से मई तक वर्षा की कमी के कारण कृषि कार्य स्थगित रखना पड़ता है, परन्तु अक्टूबर-नवम्बर माह में वर्षा होने पर नई फसलें बोई जाती हैं। अत: शीत ऋतु यहाँ कृषि उत्पादन के लिए सर्वोत्तम समय है। यहाँ शीत ऋतु में वर्षा होते ही चावल की दूसरी फसल बोई जाती है। शीत ऋतु में होने वाली वर्षा के कारण ही यह क्षेत्र भारत का महत्त्वपूर्ण चावल उत्पादक प्रदेश बन गया है।

प्रश्न 12. दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति के क्या कारण हैं?
उत्तर-21 मार्च को सूर्य विषुवत रेखा पर लम्बवत् चमकता है तथा इसके पश्चात् वह कर्क रेखा की ओर बढ़ने लगता है। 21 जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकती हैं, फलस्वरूप समस्त उत्तरी भारत में तापमाने अत्यधिक बढ़ जाता है। भारत का पाकिस्तान-सीमावर्ती क्षेत्र मरुस्थलीय होने के कारण
और भी अधिक गर्म हो जाता है। इस अत्यधिक गर्मी के परिणामस्वरूप भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में निम्न वायुदाब के क्षेत्र उत्पन्न हो जाते हैं तथा पवनें हल्की होकर ऊपर उठ जाती हैं, फलस्वरूप इस भाग में पवनों का दबाव अत्यन्त कम हो जाता है।
इसके विपरीत हिन्द महासागर में तापमान निम्न होने के कारण वायुदाब उच्च हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि निम्न वायुदाब, उच्च वायुदाब को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। अर्थात् पवने महासागरों की ओर से स्थल-खण्डों की ओर चलने लगती हैं। सागर के ऊपर से चलने के कारण ये पवनें आर्द्रता से परिपूर्ण हो जाती हैं और दक्षिण से उत्तर की ओर चलना आरम्भ कर देती हैं,परन्तु जैसे ही ये पवने विषुवत् रेखा को पार करती हैं, पृथ्वी की दैनिक गति के कारण इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है, जो दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहलाता है। इस प्रकार विपरीत वायुदाबों की उत्पत्ति ही दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति का प्रमुख कारण है।

प्रश्न 13. पश्चिमी विक्षोभ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-शीत ऋतु में भूमध्य सागर की ओर से भारत की ओर चलने वाली तूफानी पवनों को पश्चिमी । विक्षोभ (Western Disturbances) के नाम से जाना जाता है। भारत में शीत ऋतु बड़ी सुहावनी एवं आनन्ददायक होती है। स्वच्छ आकाश, निम्न तापमान एवं आर्द्रता, शीतल मन्द समीर तथा वर्षारहित दिन इस ऋतु की प्रमुख विशेषताएँ हैं, परन्तु इस सुहावने मौसम में कभी-कभी पश्चिमी अवदाबों (Depressions) के आ जाने के कारण भी मौसत बदल जाता है। ये अवदाब जब पूर्व की ओर बढ़ते हैं तो मार्ग में पड़ने वाले कैस्पियन सागर एवं फारस की खाड़ी से कुछ आर्द्रता ग्रहण कर लेते हैं, जिस कारण उत्तरी भारत में हल्की वर्षा हो जाती है। यद्यपि इस वर्षा की मात्रा बहुत कम होती है, परन्तु रबी की फसल, विशेष रूप से गेहूं की कृषि के लिए यह वर्षा बहुत लाभप्रद होती है।

प्रश्न 14. पर्वतीय वर्षा एवं वृष्टि-छाया प्रदेश किसे कहते हैं?
उत्तर–निम्न वायुभार उच्च वायुभार को अपनी ओर आकर्षित करता है। यदि उच्च वायुभार राशि किसी जल आप्लावित क्षेत्र से होकर गुजरे तो वह आर्द्रतायुक्त हो जाती है। जब इसके मार्ग में कोई पर्वत शिखर या पठार अवरोधस्वरूप उपस्थित होता है तो वायुराशि द्रवीभूत होकर वर्षा करती है। इस प्रकार होने वाली वर्षा को पर्वतीय वर्षा या उच्चावचीय वर्षा कहते हैं। मध्यवर्ती अक्षांशों में शरद् ऋतु एवं शीत ऋतु के आरम्भ में तथा मानसूनी प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु में इसी प्रकार की वर्षा होती है।

वायुराशियों द्वारा अवरोध के सम्मुख वाले भाग में अत्यधिक वर्षा होती है, जबकि विमुख भागों तक पहुँचते-पहुँचते वायुराशियों की आर्द्रता समाप्त हो जाती है। इन प्रदेशों को वृष्टि-छाया प्रदेश के नाम से पुकारा जाता है। उदाहरण के लिए भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनों की अरब सागरीय शाखा द्वारा पश्चिमी घाट के वायु अभिमुख ढाल पर 640 सेमी (महाबलेश्वर में) वर्षा हो जाती है, जबकि इसके विमुख ढाल पर पुणे में मात्रा 50 सेमी या उससे भी कम वर्षा होती है। अत: दक्षिण भारत का यह क्षेत्र वृष्टि-छाया प्रदेश कहलाता है।

प्रश्न 15. उत्तरी भारत के किन राज्यों में बाढ़ (Flood) का प्रकोप रहता है और क्यों?
उत्तर-उत्तरी भारत के असम, पश्चिम बंगाल, बिहार तथा उत्तर प्रदेश राज्यों में बाढ़ का प्रकोप सर्वाधिक रहता है। इन प्रदेशों में एक ओर तो मूसलाधार वर्षा होती है, दूसरे जल के साथ पर्याप्त मिट्टी बहकर नदियों की तली में एकत्र हो जाती है, जिस कारण अवसादों के जमा होने से नदियों की तलहटी ऊँची हो जाती है, फलस्वरूप नदियों का जल अपनी घाटी के दोनों ओर फैलकर बाढ़ का रूप ले लेता है। इसके अतिरिक्त उत्तरी भारत में धरातल का ढाल भी अत्यन्त कम है, जो बाढ़ को प्रोत्साहित करता है। इन्हीं कारणों से उत्तरी भारत में वर्षा ऋतु में बाढ़ का प्रकोप अधिक रहता है।

प्रश्न 16. क्या कारण है कि चेरापूँजी में अत्यधिक वर्षा होती है?
उत्तर-चेरापूंजी, मेघालय राज्य में एक ऐसी घाटी की तलहटी में स्थित है जो तीन ओर से गारो, खासी तथा जयन्तिया की पहाड़ियों से घिरा है। बंगाल की खाड़ी के मानसून की एक शाखा उत्तर तथा उत्तर-पूर्व दिशा में ब्रह्मपुत्र की घाटी की ओर बढ़ जाती है। इससे उत्तर-पूर्वी भारत में अत्यधिक वर्षा होती है। इसकी एक उपशाखा मेघालय स्थित गारो, खासी और जयन्तिया की पहाड़ियों से टकराती है। इन पहाड़ियों के दक्षिण भाग में चेरापूंजी स्थिति है। अतः स्थलाकृति की दृष्टि से विशिष्ट स्थिति तथा पवनों की दिशा के कारण चेरापूँजी संसार का अत्यधिक वर्षा वाला स्थान बन गया है। यहाँ की वार्षिक वर्षा का औसत 1,200 सेमी से भी अधिक है। यहाँ 2,250 सेमी तक वर्षा हो चुकी है। अब चेरापूंजी के समीप (मात्र 16 किमी की दूरी पर) मॉसिनराम गाँव में सर्वाधिक वर्षा (1,354 सेमी) होती है।

प्रश्न 17. ‘क्वार मास की उमस’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-अक्टूबर एवं नवम्बर के महीनों में भारत की मुख्य भूमि से मानसून लौटने लगता है, क्योंकि इस ऋतु में मानसून का निम्न वायुदाब गर्त क्षीण पड़ जाता है तथा उसका स्थान उच्च वायुदाब लेने लगता है। वायुभार बढ़ने तथा मानसूनी पवनों की शक्ति क्षीण हो जाने के कारण मानसूनी पवनें लौटने लगती हैं, फलस्वरूप भारतीय क्षेत्र से इसका प्रभाव क्षेत्र सिकुड़ने लगता है। धरातलीय पवनों की दिशा विपरीत होनी आरम्भ हो जाती है। अक्टूबर माह के अन्त तक मानसून विशाल मैदानों से पूर्णत: पीछे हट जाता है। ये दोनों महीने संक्रमणीय जलवायु दशाएँ रखते हैं। इनमें उष्णार्द्र वर्षा ऋतु का स्थान शुष्क ऋतु ले लेती है। मानसून के प्रत्यावेदन से आकाश साफ हो जाता है और तापमान पुन: बढ़ने लगता है। भूमि अभी भी आर्द्रता से युक्त होती है। अत: उच्च तापमान एवं आर्द्रता के कारण मौसम बड़ा ही कष्टदायक हो जाता है, जिसे क्वार की उमस के नाम से पुकारा जाता है।

प्रश्न 18. जेट पवनें किन्हें कहते हैं?
उत्तर-ऊपरी वायुमण्डल के अध्ययन से मौसम वैज्ञानिकों ने मानसूनों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया है। वास्तव में ऊपरी वायुमण्डल में तीव्र गति से चलने वाली पवनो को जेट पवनें कहते हैं?

जेट पवनों का नामकरण अमेरिकी बमवर्षक विमान बी-29 के नाम पर हुआ है। द्वितीय महायुद्ध में इन बमवर्षकों को जापान की उड़ान भरने पर प्रबल वेग वाली वायु का सामना करना पड़ता था, जिससे विमानों की गति मन्द पड़ जाती थी तथा कभी-कभी इनका आगे बढ़ना भी कठिन हो जाता था। परन्तु जब यही विमान अमेरिका की ओर वापस आते थे, तब इनके वेग में अपार वृद्धि हो जाती थी। इसी कारण इनका नामकरण जेट पवनों (जेट स्ट्रीम्स) के नाम पर हुआ। ये जेट धाराएँ पूर्व से पश्चिम की ओर 62 किमी की ऊँचाई पर चलती हैं। शीत ऋतु में ये विषुवत् रेखा के अधिक निकट परन्तु 20° अक्षांशों तक प्रवाहित होती हैं। ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु में इनका वेग दोगुना हो जाता है। सामान्य रूप से इनका वेग 480 किमी प्रति घण्टा होता है।

प्रश्न 19, चेन्नई का तट शुष्क रहता है जबकि मालाबारं का तट जुलाई के महीने में वर्षा प्राप्त करता | है। कारण बताइए।
उत्तर-मालाबार तट भारत के पश्चिमी तटीय क्षेत्र में स्थित है, जबकि चेन्नई तट पूर्वी तटीय प्रदेश में है। जुलाई माह में अरब सागर से आने वाली वर्षावाही मानसून पवनें पश्चिमी घाट से टकराकर भारी वर्षा करती हैं। इन्हीं पवनों से मालाबार तट पर जुलाई मास में पर्याप्त वर्षा होती है, किन्तु तब ये पवनें पूर्व की ओर आगे बढ़ती हैं तब ये जलविहीन हो जाती हैं। अत: इन पवनों से चेन्नई तट पर वर्षा नहीं होती है। यही कारण है कि जुलाई में जब मालाबार तट पर भारी वर्षा होती है तब चेन्नई तट शुष्क रहता है।

प्रश्न 20. भारत में मानसून को ‘किसान के लिए जुआ क्यों कहा जाता है?
उत्तर-भारत में कृषि मानसूनी वर्षा पर अधिक निर्भर है। जिस वर्ष वर्षा पर्याप्त नियमित एवं समय पर हो जाती है उस वर्ष किसान की फसल की पैदावार भी अच्छी होती है, किन्तु जब वर्षा कम होती है या समय पर *नहीं होती तो किसान की फसल नष्ट हो जाती है। इसी दृष्टि से भारत में मानसून को किसान का जुआ कहते हैं। वास्तव में मानसूनी वर्षा की प्रकृति इस प्रकार की है जिसे देखकर इससे होने वाले लाभ-हानि को निश्चित नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से वर्षा के असमान वितरण, अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा अल्प अवधि में ही अधिक वर्षा आदि लक्षणों के कारण इसे किसान की फसल की दृष्टि से एक जुआ माना जाता

प्रश्न 21. भारत के मानसून रचना तन्त्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर-मानसूनों के विषय में प्राचीन मत यही था कि इसका सम्बन्ध केवल धरातलीय पवनों से ही है, परन्तु आधुनिक अनुसन्धानों से ज्ञात हुआ है कि ऊपरी जेट पवनें मानसून के रचना तन्त्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मौसम वैज्ञानिकों को प्रशान्त महासागर तथा हिन्द महासागर के ऊपर होने वाले मौसम सम्बन्धी परिवर्तनों के पारस्परिक सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त हुई है। उत्तरी गोलार्द्ध में प्रशान्त महासागर के उपोष्ण कटिबन्धीय प्रदेश में जिस समय कयुभार अधिक होता है उसी समय हिन्द महासागर. के दक्षिणी भाग में वायुभार कम रहता है। ऋतुओं में विषुवत् वृत्त के आर-पार पवनों की स्थिति भी बदलती रहती है। विषुवत् । वृत्त के आर-पार पवन-पेटियों के खिसकने तथा इनकी तीव्रता से मानसून प्रभावित होता है। 20° दक्षिणी अक्षांशों से लेकर 20° उत्तरी अक्षांशों के मध्य में स्थित उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों पर मानसून का प्रसार रहता है, परन्तु भारतीय उपमहाद्वीप में इन पर हिमालय पर्वतश्रेणियों का बहुत प्रभाव पड़ता है। इनके प्रभाव से पूरा भारतीय उपमहाद्वीप विषुवतीय आर्द्र पवनों के प्रभाव में आ जाता है। मानसूनों का यह प्रभाव 2 से 5 माह तक बना रहता है। यहाँ जून से सितम्बर तक 75% से 90% तक वर्षा इसी मानसून तन्त्र के कारण होती है।

प्रश्न 22. मानसून के ‘फटने या ‘टूटने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-आर्द्रता से भरी दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनें बड़ी तेज चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किलोमीटर प्रति घण्टा है। उत्तर-पश्चिमी भागों को छोड़कर ये एक महीने की अवधि में सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से भरी इन पवनों के आने के साथ ही बादलों का प्रचण्ड गर्जन तथा बिजली का चमकना । शुरू हो जाता है। इसे ही मानसून का ‘फटना’ या ‘टूटना’ कहा जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जलवायु से आप क्या समझते हैं ? जलवायु को प्रभावित करने वाले कारकों (परिघटनाओं) का वर्णन कीजिए।
या भारत की स्थिति का उसकी जलवायु पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
या भारत की जलवायु पर हिमालय पर्वत का क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर- जलवायु
लम्बी अवधि (30 से 50 वर्षों) के दौरान मौसम सम्बन्धी दशाओं के साधारणीकरण को जलवायु कहते हैं अर्थात् भू-पृष्ठ के विस्तृत क्षेत्र में मौसम की दशाओं की समग्र जटिलता, उसके औसत लक्षण और परिवर्तन का परिसर जलवायु कहलाता है। सामान्यतः ये दशाएँ अनेक वर्षों की दशाओं का परिणाम होती हैं और ताप, वायुमण्डलीय दाब, वायु आर्द्रता, मेघ, वर्षण तथा अन्य मौसम तत्त्वों के कारण उत्पन्न होती हैं।

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक
विभिन्न स्थानों पर भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं
1. अवस्थिति-भारत भूमध्य रेखा के उत्तर में 8°4 तथा 37°6′ उत्तर अक्षांश तथा 687′ से 97°25′ पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है। कर्क वृत्त रेखा देश के लगभग मध्य से होकर गुजरती है। इसीलिए देश का उत्तरी भाग उपोष्ण कटिबन्ध में तथा दक्षिणी भाग उष्ण कटिबन्ध में पड़ता है। इस कटिबन्धीय स्थिति के कारण दक्षिणी भाग में ऊँचे तापमान तथा उत्तरी भाग में विषम तापमान पाये जाते हैं।
भारत हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी से घिरा एक प्रायद्वीपीय देश है। इस प्रायद्वीपीय स्थिति का प्रभाव तापमानों तथा वर्षा पर पड़ता है। समुद्रतटीय भागों की जलवायु सम रहती है, जब कि आन्तरिक भागों में विषम जलवायु पायी जाती है। वर्षा की मात्रा भी तटीय भागों से आन्तरिक भागों की ओर घटती है।

2. पृष्ठीय पवनें-उपोष्ण कटिबन्धीय स्थिति के कारण भारत शुष्क व्यापारिक पवनों के क्षेत्र में पड़ता है, किन्तु भारत की विशिष्ट प्रायद्वीपीय स्थिति, तापमानों-वायुदाब की भिन्नता आदि कारणों से भारत में मानसूनी पवनें सक्रिय रहती हैं। ये पवनें ऋतु-क्रम से अपनी दिशा बदलती रहती हैं। तदनुसार भारत में ग्रीष्मकालीन (दक्षिण-पश्चिमी) मानसून तथा शीतकालीन (उत्तर-पूर्वी) मानसून सक्रिय होते हैं। इन्हीं मानसूनों से भारत को अधिकांश वर्षा प्राप्त होती है। अत: भारतीय मानसून के अध्ययन के बिना उसकी जलवायु के विषय में नहीं जाना जा सकता।

3. उच्चावच (हिमाचल)–भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत-श्रेणी एक प्रभावशाली जलवायु विभाजक का कार्य करती है। यह उत्तरी बर्फीली पवनों को भारत में प्रवेश करने से रोकती है तथा
दक्षिण की ओर से आने वाली मानसूनी पवनों को रोककर देश में व्यापक वर्षा कराती है। इसी प्रकार पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ भी अरबसागरीय मानसूनों को रोककर पश्चिमी ढालों पर भारी वर्षा कराती हैं। हिमालय रूपी पर्वत-श्रृंखला के कारण ही उत्तरी भारत में उष्ण-कटिबन्धीय जलवायु पायी जाती है। इस जलवायु की दो विशेषताएँ हैं-(i) पूरे वर्ष में अपेक्षाकृत उच्च तापमान तथा (ii) शुष्क शीत ऋतु। कुछ क्षेत्रों को छोड़कर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ये दोनों ही विशेषताएँ पायी जाती हैं।

4. उपरितन वायु-उपरितन वायु से अभिप्राय ऊपरी वायुमण्डल में चलने वाली वायुधाराओं से है। ये भूपृष्ठ से बहुत ऊँचाई पर (9 किमी से 12 किमी तक) तीव्र गति से चलती हैं। इन्हें जेट वायुधाराएँ भी कहते हैं। ये बहुत सँकरी पट्टी में चलती हैं। शीत ऋतु में हिमालय के दक्षिणी भाग के ऊपर स्थित समताप मण्डल में पश्चिमी जेट वायुधारा चलती है। जून में यह उत्तर की ओर खिसक जाती है तथा 15° उत्तरी अक्षांश के ऊपर चलने लगती है। उत्तरी भारत में मानसून के . अचानक विस्फोट के लिए यही वायुधारा उत्तरदायी मानी जाती है। इसके शीतल प्रभाव से बादल उमड़ने लगते हैं, फिर बरसते हैं। आठ-दस दिनों में ही पूरे देश में मानसून का प्रसार हो जाता है। . ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु में इनका वेग दोगुना हो जाता है। साधारणतः इनका वेग लगभग 500 किमी प्रति घण्टा होता है तथा ध्रुवीं की ओर बढ़ने पर इनके वेग में कमी आ जाती है।

5. अलनिनो-यह एक ऐसी मौसमी परिघटना है, जिसका प्रभाव समूचे विश्व पर पड़ता है। भारत की मानसूनी जलवायु भी इस परिघटना से प्रभावित होती है। इस तन्त्र में पूर्वी प्रशान्त महासागर के पीरू तट पर गर्म धारा प्रकट होने पर हिन्द महासागर में स्थित भारत में अकाल या वर्षा की कमी की स्थिति हो जाती है। अलनिनो के समाप्त होने पर प्रशान्त महासागर की सतह पर तापमान तथा वायुदाब की स्थिति पहले जैसी हो जाती है। इन उतार-चढ़ावों को दक्षिणी दोलन’ (Southern Oscillation) कहा जाता है। मानसूनों के प्रबल या दुर्बल होने में ‘दक्षिणी दोलन’ का बहुत प्रणव पड़ता है।

प्रश्न 2. उत्तर-पूर्वी मानसून तथा लौटते हुए मानसून में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–उत्तर-पूर्वी मानसून तथा लौटते हुए मानसून में निम्नवत् अन्तर हैं
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु) img 1
UP Board Solutions for Class 11 Geography Indian Physical Environment Chapter 4 Climate (जलवायु) img 2

प्रश्न 3. भारत की ग्रीष्मकालीन एवं शीतकालीन जलवायु का वर्णन कीजिए।
या भारतीय जलवायु का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए
(क) शीत ऋतु तथा (ख) ग्रीष्म ऋतु।
या शीत ऋतु में दक्षिण भारत में वर्षा क्यों होती है ?
उत्तर-भारत की ग्रीष्मकालीन जलवायु
भारत में ग्रीष्मकालीन जलवायु मार्च से मध्य जून तक रहती है। इस ऋतु में देश में मौसम की सामान्य दशाएँ निम्नलिखित होती हैं-
1. तापमान–सूर्य के उत्तरायण होने के कारण ऊष्मा की पेटी दक्षिण से उत्तर की ओर खिसकने लगती है। सम्पूर्ण देश में तापमान बढ़ने लगता है। अप्रैल में गुजरात तथा मध्य प्रदेश में तापमान 42° से 43° सेल्सियस तक पहुँच जाता है। मई में तापमान की वृद्धि 48° सेल्सियस तक हो जाती है। तथा मरुस्थलीय क्षेत्र में 50° सेल्सियस तक तापमान पहुँच जाता है।

2. वायुदाब तथा पवनें-उत्तरी भारत में तापमानों की वृद्धि होने से वायुदाब घट जाता है। मई के अन्त तक एक लम्बा सँकरो निम्न वायुदाब गर्त थार मरुस्थल से लेकर बिहार में छोटा नागपुर के पठार तक विस्तृत हो जाता है। इस निम्न वायुदाब गर्त के चारों ओर वायु का संचरण होने लगता है। दोपहर के बाद शुष्क और गर्म ‘लू’ (पवने) चलने लगती हैं। पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में सायंकाल को धूलभरी आँधियाँ आती हैं। यदा-कदा आँधियों के बाद हल्की वर्षा हो जाती है तथा मौसम सुहाना हो जाता है।

3. वर्षण–यदा-कदा आर्द्रता से लदी पवनें मानसून के निम्न दाब गर्त की ओर खिंच आती हैं। तब शुष्क और आर्द्र वायु-राशियों के मिलने से स्थानीय तूफान आते हैं। तेज पवनें, मूसलाधार वर्षा
और कभी-कभी ओले भी पड़ते हैं।
केरल तथा कर्नाटक के तटीय भागों में ग्रीष्म ऋतु के अन्त में तथा मानसून से पूर्व कुछ वर्षा होती है, जिसे स्थानीय रूप से ‘आम्रवर्षा’ कहते हैं। यह वर्षा आम के फल को शीघ्र पकाने में सहायक होती है, इसीलिए इसे ‘आम्रवृष्टि’ नाम दिया गया है। अप्रैल में, बंगाल और असोम में उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी पवनों द्वारा मेघ गर्जन, तड़ित-झंझा के साथ तेज बौछारें पड़ती हैं। इन्हें ‘काल-बैसाखी’ कहते हैं। कभी-कभी इन पवनों के द्वारा इन क्षेत्रों को भारी हानि भी उठानी पड़ जाती है।

भारत की शीतकालीन जलवायु

भारत में शीतकालीन जलवायु दिसम्बर से फरवरी तक रहती है। इस जलवायु की सामान्य दशाएँ निम्नलिखित हैं

1. तापमान-सामान्यतः देश में तापमान दक्षिण से उत्तर की ओर तथा समुद्र तट से आन्तरिक भागों की ओर घटते हैं। तिरुवनन्तपुरम् तथा चेन्नई में दिसम्बर में औसत तापमान 25° से 27°C के लगभग रहते हैं। दिल्ली और जोधपुर में तापमान 15° से 16°C तक रहते हैं। लेह में औसत तापमान -6°C तक गिर जाते हैं। उत्तरी मैदान में व्यापक रूप से पाला पड़ता है। इस ऋतु में दिन सामान्यतः कोष्ण (कम उष्ण) एवं रातें ठण्डी होती हैं।

2. वायुदाब-देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में उच्च वायुदाब क्षेत्र स्थापित होता है। यहाँ से पवनें बाहर की ओर 3 किमी से 5 किमी प्रति घण्टा के वेग से चलने लगती हैं। इस क्षेत्र की स्थलाकृति
।का प्रभाव भी इन पवनों पर पड़ता है। समुद्रवर्ती भागों में कम वायुदाब रहता है; अत: पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। गंगा घाटी में इन पवनों की दिशा पश्चिमी या उत्तर-पश्चिमी होती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में इनकी दिशा उत्तरी हो जाती है। स्थलाकृति के प्रभाव से मुक्त होकर बंगाल की खाड़ी के ऊपर इनकी दिशा उत्तर-पूर्वी हो जाती है।

3. वर्षा-स्थलीय पवनें शुष्क होती हैं; अत: प्रायः सम्पूर्ण देश में मौसम शुष्क रहता है। भूमध्य सागर की ओर से आने वाले पश्चिमी विक्षोभों से कुछ वर्षा देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में होती है। हिमालय श्रेणी में हिमपात होता है। तमिलनाडु तट पर भी शीतकाल में वर्षा होती है। उत्तर-पूरब की ओर से चलने वाली स्थलीय मानसूनी पवनें जब बंगाल की खाड़ी को पार कर तमिलनाडु तट
पर पहुँचती हैं, तो ये कुछ आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं तथा तटों पर वर्षा करती हैं।

प्रश्न 4. भारतीय मानसूनी वर्षा की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-भारतीय वर्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. मानसूनी वर्षा–भारतीय वर्षा को लगभग 75% भाग दक्षिण-पश्चिमी मानसूनों द्वारा प्राप्त होता है, अर्थात् कुल वार्षिक वर्षा का 75% वर्षा ऋतु में, 13% शीत ऋतु में, 10% वसन्त ऋतु में तथा 2% ग्रीष्म ऋतु में प्राप्त होता है।

2. वर्षा की अनिश्चितता—भारतीय मानसूनी वर्षा का प्रारम्भ अनिश्चित है। मानसून कभी शीघ्र | आते हैं तो कभी देर से। कभी-कभी वर्षा ऋतु में सूखा पड़ जाता है तथा कभी अत्यधिक वर्षा से बाढ़े तक आ जाती हैं। किसी वर्ष वर्षा नियत समय से पूर्व ही आरम्भ हो जाती है एवं निश्चित समय से पूर्व ही समाप्त हो जाती है।

3. वितरण की असमानता-भारतीय वर्षा का वितरण बड़ा ही असमान है। कुछ भागों में वर्षा 490 सेमी या उससे अधिक हो जाती है, जबकि कुछ भाग ऐसे हैं जहाँ वर्षा का औसत 12 सेमी से भी कम रहता है।

4. मूसलाधार वर्षा–भारत में वर्षा अनवरत गति से नहीं होती, वरन् कुछ दिनों के अन्तराल से होती है। कभी-कभी वर्षा मूसलाधार रूप में होती है और एक ही दिन में 50 सेमी तक हो जाती है। यह मिट्टी का अपरदन करती है, जिससे मिट्टी के उत्पादक तत्त्व बह जाते हैं।

5. असमान वर्षा–कुछ भागों में वर्षा बड़ी तीव्र गति से होती है तथा कुछ भागों में केवल बौछारों के रूप में। एक ओर मॉसिनराम गाँव (चेरापूँजी) में 1,354 सेमी से भी अधिक वर्षा होती है, तो वहीं राजस्थान में केवल 10 सेमी से भी कम। कुछ स्थानों पर वर्षा की प्राप्ति असन्दिग्ध रहती है। वर्षा हो भी सकती है और नहीं भी। भारत के उत्तरी मैदान में तथा दक्षिणी भागों में ऐसी ही स्थिति पायी जाती है।

6. वर्षा की अल्पावधि-भारत में वर्षा के दिन बहुत ही कम होते हैं। उदाहरण के लिए–चेन्नई में | 50 दिन, मुम्बई में 75 दिन, कोलकाता में 118 दिन तथा अजमेर में केवल 30 दिन।

7. वर्षा की निश्चित अवधि–कुल वर्षा का लगभग 80% जून से सितम्बर तक प्राप्त हो जाता है, फलत: वर्ष का दो-तिहाई भाग सूखा ही रह जाता है, जिससे फसलों की सिंचाई करनी पड़ती है।

8. पर्वतीय वर्षा–भारत की लगभग 95% वर्षा पर्वतीय है, जबकि मात्र 5% वर्षा ही चक्रवातों द्वारा होती है।

9. वर्षा की निरन्तरता—भारत में प्रत्येक मास में किसी-न-किसी क्षेत्र में वर्षा होती रहती है। शीतकालीन चक्रवातों द्वारा जनवरी एवं फरवरी महीनों में उत्तरी भारत में वर्षा होती है। मार्च में चक्रवात असोम एवं पश्चिम बंगाल राज्यों में सक्रिय रहते हैं। इनसे तब तक वर्षा होती है जब तक दक्षिण-पश्चिमी मानसून पुनः चलना न आरम्भ कर दें।

प्रश्न 6. भारत में वर्षा के वार्षिक वितरण को स्पष्ट कीजिए तथा अपने उत्तर की पुष्टि रेखाचित्र से | कीजिए।
या भारतीय वर्षा के वितरण पर एक लेख लिखिए।
उत्तर-भारत में वर्षा का वार्षिक वितरण |
भारत में वर्षा का वितरण बहुत विषम है। देश में कुल वर्षा का औसत लगभग 110 सेमी (40 इंच) है। किन्तु इस सामान्य से वर्षा का विचलन 10% से 40% तक हो जाता है। सामान्यत: 85% वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसूनों (जुलाई-सितम्बर) से प्राप्त होती है, लगभग 10% ग्रीष्मकालीन मानसूनों से, 5% लौटते हुए मानसूनों से (अक्टूबर-दिसम्बर) तथा 5% शीतकाल में होती है। देश में वर्षा का प्रादेशिक वितरण भी बहुत असमान रहता है। सामान्य रूप से भारत में वर्षों की निश्चितता तथा अनिश्चितता के आधार पर उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

1. निश्चित वर्षा के प्रदेश–इस प्रदेश के अन्तर्गत हिमालय का तराई प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, असोम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैण्ड, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल, ऊपरी नर्मदा घाटी तथा मालाबार तट सम्मिलित किये जाते हैं।
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2. अनिश्चित वर्षा के प्रदेश–अनिश्चित वर्षा के प्रदेश में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात के मध्यवर्ती भाग, पूर्वी घाट, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश के दक्षिणी और पश्चिमी भाग, कर्नाटक, बिहार तथा ओडिशा सम्मिलित हैं। अनिश्चित वर्षा वाले प्रदेशों को अग्रलिखित । भागों में बाँटा गया है

(i) अधिक वर्षा वाले क्षेत्र–इसके अन्तर्गत पश्चिमी तट के कोंकण, मालाबार, दक्षिणी
कनारा तथा उत्तर में हिमालय के दक्षिणी क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मेघालय, असोम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर तथा त्रिपुरा राज्य सम्मिलित हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा का औसत 200 सेमी से अधिक रहता है।

(ii) साधारण वर्षा वाले क्षेत्र-इन क्षेत्रों में बिहार, ओडिशा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी घाट के पूर्वोत्तर ढाल, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश सम्मिलित हैं। यहाँ वर्षा का औसत 100 से 200 सेमी के मध्य रहता है। इन क्षेत्रों में वर्षा की विषमता 15 से 20% तक पायी जाती है। कभी-कभी इन क्षेत्रों में अधिक वर्षा होने से बाढ़ आ जाती है, जबकि कभी वर्षा की कमी से अकाल पड़ जाते हैं। इस प्रकार इन क्षेत्रों में वर्षा की अधिकता एवं कमी में मानसूनों का प्रमुख योगदान होता है। इसी कारण यहाँ बड़ी-बड़ी बहुउद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाएँ क्रियान्वित की गयी हैं।

(ii) न्यून वर्षा वाले क्षेत्र–इन क्षेत्रों में वर्षा की कमी अनुभव की जाती है। यहाँ पर वर्षा का वार्षिक औसत 50 से 100 सेमी तक रहता है। इस प्रदेश के अन्तर्गत दक्षिण की प्रायद्वीप, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तरी एवं दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब तथा दक्षिणी उत्तर प्रदेश राज्यों के भाग सम्मिलित हैं। वर्षा की विषमता 20 से 25 सेमी तक तथा अपर्याप्त व अनिश्चित रहती है। इन प्रदेशों में अकाल की सम्भावना बनी रहती है। अतः यहाँ सिंचाई के सहारे गेहूँ, कपास, ज्वार, बाजरा, तिलहन आदि फसलें उत्पन्न की जाती हैं।

(iv) अपर्याप्त वर्षा के क्षेत्र अथवा मरुस्थलीय क्षेत्र-ये भारत के शुष्क क्षेत्र हैं, जहाँ पर 50 सेमी से भी कम वर्षा होती है। वर्षा की कमी के कारण यहाँ सदैव सूखे की समस्या बनी रहती है। बिना सिंचाई के कृषि-कार्य इन क्षेत्रों में बिल्कुल असम्भव है। पश्चिमी राजस्थान के सम्पूर्ण क्षेत्र इसके अन्तर्गत आते हैं। तमिलनाडु का रायलसीमा क्षेत्र भी इसके अन्तर्गत आता है।

प्रश्न 7.भारतीय जलवायु पर चक्रवातीय एवं प्रतिचक्रवातीय तूफानों को क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-चक्रवातों एवं प्रतिचक्रवातों का मौसम व जलवायु पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इनका ऊपरी वायु संचरण से भी गहरा सम्बन्ध होता है। ये कभी-कभी इतने प्रबल हो जाते हैं कि वायु के सामान्य परिसंचरण को अस्पष्ट कर देते हैं। चक्रवात अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी में चलते हैं तथा तटीय क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। बंगाल की खाड़ी में चलने वाले चक्रवातों से कभी-कभी भारी धन-जन की हानि होती है। वास्तव में चक्रवात में वायुदाब बाहर से अन्दर की ओर कम होता जाता है। समदाब रेखाएँ वृत्ताकारे या अण्डकार होती हैं। अल्पतम वायुदाब केन्द्र दो गर्त-रेखाओं का प्रतिच्छेदन बिन्दु होती है। इसी कारण इनमें वायु बाहर से अन्दर की ओर चलती है। चक्रवात बहुत बड़े क्षेत्र पर फैले होते हैं जिनका व्यास छोटे क्षेत्रों में कई सौ किमी जबकि बड़े चक्रवातों को कई हजार किमी में होता है। इस प्रकार चक्रवात से प्रभावित क्षेत्र का मौसम बड़ा ही खराब होता है।

प्रतिचक्रवात सामान्यत: साफ मौसम का प्रतीक समझा जाता है, परन्तु इसमें सदैव मौसम साफ नहीं रहता। इसका मौसम इसकी वायुराशि के गुणों और ग्रीष्म एवं शीत ऋतु पर निर्भर रहता है। ग्रीष्म ऋतु में प्रतिचक्रवात में शुष्क, गरम मौसम एवं स्वच्छ आकाश होता है जिसमें उच्च दैनिक ताप परिसर पाए जाते हैं। शीत ऋतु में जिन प्रतिचक्रवातों में ध्रुवीय ठण्डी एवं शुष्क वायु होती है, उनमें निम्न ताप और स्वच्छ आकाश के साथ रात्रि में पाला पड़ता है। परन्तु जिन प्रतिचक्रवातों में ध्रुवीय समुद्री वायु होती है, उनमें आकाश स्तरी मेघों से ढक जाता है, जिसे प्रतिचक्रवाती अंधकार कहते हैं। ऐसी दशा में बड़े नगरों के उद्योगों द्वारा प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो जाती है और कुहरा छाया रहता है।

प्रश्न 8. भारत की जलवायु दशाओं की क्षेत्रीय विषमताओं को उपयुक्त उदाहरण देते हुए समझाइए।
उत्तर-भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु दशाएँ पाई जाती हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान और एक ऋत से दूसरी ऋतु में तापमान एवं वर्षा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। भारतीय जलवायु में निम्नलिखित विषमताएँ उल्लेखनीय हैं

1. तापन्तर–तापमान का जलवायु पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। भारत में राजस्थान और दक्षिण-पश्चिमी पंजाब जैसे ऐसे भी स्थान हैं जहाँ तापमान 55° सेल्सियस तक पहुँच जाता है, जबकि दूसरी ओर जम्मू और कश्मीर में कारगिल के समीप ऐसे स्थान हैं जहाँ तापमान -45° सेल्सियस तक नीचे चला जाता है।

2. वर्षा की निश्चित अवधि–सामान्यतया भारत में मानसूनी वर्षा की अवधि 15 जून से 15 सितम्बर तक होती है। इस समय देश में 75% से 90% तक वर्षा हो जाती है। इस अवधि को वर्षा ऋतु कहा जाता है। इस प्रकार वर्षा का अधिकांश भाग वर्षारहित रहता है, केवल कुछ छिट-पुट क्षेत्रों में ही सामान्य वर्षा हो पाती है।

3. मूसलाधार वर्षा-भारत में वर्षा बहुत ही तीव्र गति से (मूसलाधार) होती है। कभी-कभी एक ही दिन में 50 सेमी तक वर्षा हो जाना सामान्य-सी बात है। वर्षा की तीव्रता के कारण अधिकांश जल
अनावश्यक ही बह जाता है। इस कारण मृदा का अपरदन होता है तथा वह अनुत्पादक हो जाती है।

4. अनिश्चित वर्षा–भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून की सबसे बड़ी विषमता उसकी अनिश्चितता है। कभी-कभी वर्षा अत्यधिक हो जाती है जिससे बाढ़ आ जाती है या कभी-कभी वर्षा बिल्कुल ही नहीं हो पाती है जिससे सूखा पड़ जाता है। इसी कारण भारतीय कृषि मानसून का जुआ कहलाती है।

5. वर्षा की अनियमितता–भारत में वर्षा पूर्णतया मानसून पर निर्भर करती है। यदि मानसून शीघ्र आ जाता है तो वर्षा भी शीघ्र ही आरम्भ हो जाती है। इसके विपरीत मानसून के देर.से आने पर वर्षा भी देर से ही आरम्भ होती है।

6. वर्षा का असमान वितरण–देश में वर्षा का वितरण बड़ा ही असमान है। एक ओर माँसिनराम गाँव (चेरापूंजी के निकट) में वार्षिक वर्षा का औसत 1,354 सेमी रहता है, तो दूसरी ओर राजस्थान में यह औसत केवल 5 सेमी से 10 सेमी के मध्य ही रहता है।

प्रश्नं 9. भारत की अधिकांश वर्षा गर्मियों में होती है-कारणों का उल्लेख करते हुए भारत में वर्षा का वितरण लिखिए।
या भारत की मानसून ऋतु का वर्णन कीजिए।
या भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून द्वारा होने वाली वर्षा का वर्णन कीजिए।
या ‘आगे बढ़ता हुआ मानसून-भारत की इस ऋतु का वर्णन कीजिए।
उत्तर-भारत की वैषी ऋतु (मानसून ऋतु)
वर्षा ऋतु (आगे बढ़ते हुए मानसून की ऋतु)–जून से सितम्बर के मध्य सम्पूर्ण देश में व्यापक रूप से वर्षा होती है। वर्षा का 75% से 90% भाग इसी अवधि में प्राप्त हो जाता है।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति-ग्रीष्म ऋतु में देश के उत्तर-पश्चिमी मैदानी भागों में निम्न वायुदाब का क्षेत्र विकसित हो जाता है। जून के प्रारम्भ तक निम्न वायुदाब का यह क्षेत्र इतना प्रबल हो जाता है कि दक्षिण गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें भी इस ओर खिंचे आती हैं। इन दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनों की उत्पत्ति समुद्र से होती है। हिन्द महासागर में विषुवत् वृत्त को पार करके ये पवनें बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर में पहुँच जाती हैं । इसके बाद ये भारत के वायु-संचरण का अंग बन जाती हैं। विषुवतीय गर्म धाराओं के ऊपर से गुजरने के कारण ये भारी मात्रा में आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं। विषुवत् । वृत्त पार करते ही इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है। इसीलिए इन्हें दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहा जाता है।

मानसून का फटना–वर्षावाहिनी पवनें बड़ी तेज चलती हैं। इनकी औसत गति 30 किमी प्रति घण्टा होती है। उत्तर-पश्चिम के दूरस्थ भागों को छोड़कर ये पवनें एक महीने के अन्दर-अन्दर सारे भारत में फैल जाती हैं। आर्द्रता से लदी इन पवनों के साथ ही बादलों का प्रचण्ड गर्जन तथा बिजली का चमकना शुरू हो जाता है। इसे मानसून का ‘फटना’ अथवा ‘टूटना’ कहते हैं।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की शाखाएँ–भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति के कारण मानसून की दो शाखाएँ हो जाती हैं

(क) अरब सागर की शाखा-अरब सागर की शाखा सबसे पहले पश्चिमी घाट के पर्वतों से
टकराकर सह्याद्रि के पवनाभिमुख ढालों पर भारी वर्षा करती है। पश्चिमी घाट को पार करके यह शाखा दकन के पठार और मध्य प्रदेश में पहुँच जाती है। वहाँ भी इससे पर्याप्त मात्रा में वर्षा होती है। तत्पश्चात् इसका प्रवेश गंगा के मैदानों में होता है, जहाँ बंगाल की खाड़ी की शाखा भी आकर इसमें मिल जाती है। अरब सागर के मानसून की शाखा का दूसरा भाग सौराष्ट्र के प्रायद्वीप तथा कच्छ में पहुँच जाता है। इसके बाद यह पश्चिमी राजस्थान और अरावली पर्वत-श्रेणियों के ऊपर से गुजरता है। वहाँ इसके द्वारा बहुत हल्की वर्षा होती है। पंजाब और हरियाणा में पहुँचकर यह शाखा भी बंगाल की खाड़ी की शाखा में मिलकर हिमालय के पश्चिमी भाग में भारी वर्षा करती है।

(ख) बंगाल की खाड़ी की शाखा-बंगाल की खाड़ी की मानसून शाखा म्यांमार (बर्मा) तट की ओर तथा बांग्लादेश के दक्षिण-पूर्वी भागों की ओर बढ़ती है। परन्तु म्यांमार के तट के साथ-साथ फैली अराकान पहाड़ियाँ इस शाखा के बहुत बड़े भाग को भारतीय उपमहाद्वीप की दिशा में मोड़ देती हैं। इस प्रकार यह पश्चिमी दिशा से न आकर दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वी दिशाओं से आती है। विशाल हिमालय तथा उत्तर-पश्चिमी भारत के निम्न वायुदाब के प्रभाव से यह शाखा दो भागों में बँट जारी है। एक शाखा पश्चिम की ओर बढ़ती है तथा गंगा के मैदानों को पार करती हुई पंजाब के मैदानों तक पहुँचती है। इसकी दूसरी शाखा ब्रह्मपुत्र की घाटी की ओर बढ़ती है। यह उत्तर-पूर्वी भारत में भारी वर्षा करती है। इसकी एक उपशाखा मेघालय में गारो और खासी की पहाड़ियों से टकराती है और वहाँ खूब वर्षा करती है। सबसे अधिक वर्षा मॉसिनराम (Mausinram) (मेघालय) में होती है। यहाँ वार्षिक वर्षा का औसत 1,354 सेण्टीमीटर है।

वर्षा का वितरण–दक्षिण-पश्चिमी मानसून से होने वाली वर्षा के वितरण पर उच्चावच का बहुत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए-पश्चिमी घाट के पवनविमुख ढालों पर 250 सेमी से अधिक वर्षा होती है। इसके विपरीत पश्चिमी घाट के पवनाभिमुख ढालों पर 50 सेमी से भी कम वर्षा होती है। इसी प्रकार उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी भारी वर्षा होती है, परन्तु उत्तरी मैदानों में वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। इस विशिष्ट ऋतु में कोलकाता में लगभग 120 सेमी, पटना में 102 सेमी, इलाहाबाद में 91 सेमी तथा दिल्ली में 56 सेमी वर्षा होती है।

प्रश्न 10. भारत की जलवायु का कृषि तथा उद्योग-धन्धों/आर्थिक जीवन पर प्रभाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-(क) कृषि

जलवायु का प्रभाव कृषि कार्य और उत्पादन भारत को उद्योग/आर्थिक जीवन पर भी पड़ता है, जो निम्नवत् है
1. भारत में खरीफ फसलों की बुवाई वर्षा के आरम्भ होने के साथ शुरू हो जाती है। जब वर्षा समयसे प्रारम्भ हो जाती है और नियमित अन्तराल पर होती रहती है तब कृषि उत्पादन यथेष्ठ मात्रा में प्राप्त होता है।

2. जिन भागों में कम वर्षा होती है अथवा सूखा पड़ता है वहाँ कृषि फसलें सिंचाई के बिना पैदा नहीं की जा सकती हैं।

3. मूसलाधार वर्षा होते रहने से बाढ़ आ जाती है और बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों में कृषि फसलें नष्ट हो ।जाती हैं तथा भारी धन-जन की हानि होती है।

4. समय से पूर्व वर्षा आरम्भ होने तथा समय से पहले वर्षा समाप्त होने से भी आर्थिक क्रियाकलाप प्रभावित होते हैं।

5. ग्रीष्म ऋतु में उत्तरी भारत में तापमान बहुत ऊँचे हो जाते हैं और गर्म लू चलने लगती है जिससे | खेतों में काम करना कठिन हो जाता है अर्थात् आर्थिक क्षमता घट जाती है।

6. भारत में किसी वर्ष जलवृष्टि बहुत कम हो पाती है, जिससे फसलें नष्ट हो जाती हैं और देश में अकाल पड़ जाता है। इसके विपरीत कभी-कभी वर्षा इतनी अधिक हो जाती है, जिसके कारण नदियों में बाढ़ आ जाती है। इससे भी फसलें नष्ट हो जाती हैं। इस कारण भारत की कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है।

7. भारत की जलवायु के कृषकों को भाग्यवादी एवं निराशावादी बना दिया है।

8. चक्रवाती वर्षा के कारण पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में गेहूं व गन्ने की फसलों को लाभ | मिलता है।

9. भारत में ग्रीष्मऋतु में हरे चारे की कमी हो जाती है जिससे पशुओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

(ख) उद्योग धन्ये/आर्थिक जीवन

दक्षिणी भारत की जलवायु उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक सम है, समुद्री तट निकट होने के कारण यहाँ उष्णार्द्र जलवायु पाई जाती है। यही कारण है कि भारत में अधिकांश सूती वस्त्र की मिलें दक्षिणी भारत के महाराष्ट्र, गुजरात राज्यों के तटीय भागों में स्थित हैं। इसके विपरीत उत्तरी पर्वतीय भाग अधिक ठण्डा जलवायु प्रदेश है, इसीलिए वहाँ ऊनी वस्त्रों को कुटीर व लघु उद्योगों के रूप में विकसित किया गया है। इसी प्रकार मैदानी भाग में गन्ना उत्पादन की अनुकूल दशाओं के कारण चीनी उद्योग का पर्याप्त विकास हुआ है।

अत: भारत की जलवायु का कृषि प्रतिरूप एवं औद्योगिक विकास पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है जिससे देश की अर्थव्यवस्था का जलवायु से व्यापक सम्बन्ध सिद्ध होता है।

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UP Board Solutions for Class 11 Bio logy Chapter 4 Animal Kingdom 

UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 4 Animal Kingdom (प्राणि जगत)

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अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
यदि मूलभूत लक्षण ज्ञात न हों तो प्राणियों के वर्गीकरण में आप क्या परेशानियाँ महसूस करेंगे?
उत्तर :

  1. यदि मूलभूत लक्षण ज्ञात नहीं हैं तब सभी जीवों का पृथक रूप से अध्ययन करना सम्भव नहीं होगा।
  2. जीवों के मध्य परस्पर सम्बन्ध स्थापित करना कठिन होगा।
  3. एक वर्ग के सभी जन्तुओं की केवल एक या दो (UPBoardSolutions.com) जीवों के अध्ययन से जानकारी प्राप्त करना सम्भव नहीं होगा।
  4. अन्य जन्तु जातियों का विकास नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2.
यदि आपको एक नमूना (specimen) दे दिया जाये तो वर्गीकरण हेतु आप क्या कदम अपनाएँगे?
उत्तर :

  1. संगठन के स्तर (levels or grades of organisation)
  2.  संगठन का पैटर्न (patterns in organisation)
  3. सममिति (symmetry)
  4. द्विकोरिक तथा त्रिकोरिक संगठन (diploblastic and triploblastic organisation)
  5. देहगुहा (body cavity) तथा प्रगुहा (coelom) 6. खण्डीभवन (segmentation)

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प्रश्न 3.
देहगुहा एवं प्रगुहा का अध्ययन प्राणियों के वर्गीकरण में किस प्रकार सहायक होता है?
उत्तर :
देहभित्ति एवं कूटगुहा (pseudocoelom) के बीच प्रगुहा की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति वर्गीकरण के लिए विशेष प्रयोजनीय है। देहगुहा जब मीसोडर्म से स्तरित रहता है तब इसे सीलोम (coelom) कहते हैं। जिन जन्तुओं में सीलोम उपस्थित रहता है उन्हें सीलोमेटा (coelomata) कहते हैं, जैसे एनेलिडा, मोलस्का, आर्थोपोडा, इकाइनोडर्मेटा , हेमीकॉडेंटा तथा कॉडेंटा। कुछ जन्तुओं में देहगुहा मीसोडर्म द्वारा स्तरित नहीं होती, लेकिन एक्टोडर्म एवं एण्डोडर्म के (UPBoardSolutions.com) बीच छोटी-छोटी गोलाकार आकृति में छितरा रहता है। इस तरह की देहगुहा को आहारनाल कहते हैं एवं उन जन्तुओं को स्यूडोसीलोमेटा (pseudocoelomata) कहते हैं, जैसे-एस्केल्मिंथीज (Aschelminthes)। जिन जन्तुओं में देहगुहा अनुपस्थित रहती है उन्हें एसीलोमेट्स (acoelomates) कहते हैं, जैसे-प्लेटीहेल्मिंथीज (Platyhelminthes)।

प्रश्न 4.
अन्तः कोशिकीय एवं बाह्य कोशिकीय पाचन में विभेद करें।
उत्तर :
अन्तः कोशिकीय एवं बाह्य कोशिकीय पाचन में निम्नलिखित अन्तर है
UP Board Solutions for Class 11 Bio logy Chapter 4 Animal Kingdom image 1 UP Board Solutions for Class 11 Bio logy Chapter 4 Animal Kingdom image 2

प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष परिवर्धन में क्या अन्तर है?
उत्तर :
प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष परिवर्धन में निम्नलिखित अन्तर हैं

UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 4 Animal Kingdom image 3

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प्रश्न 6.
परजीवी प्लेटीहेल्मिंथीज के विशेष लक्षण बताइए।
उत्तर :

  1. टेगुमेन्ट (tegument) का मोटा स्तर उपस्थित।
  2. पोषक (host) के शरीर में ऊतकों से चिपकने के लिये चूषक (suckers) और प्रायः कंटक या अंकुश (spines or hooks) उपस्थित।
  3. चलन अंग (locomotory organs) अनुपस्थित।
  4.  कुछ चपटे कृमि खाद्य पदार्थ को परपोषी से सीधे अपने शरीर (UPBoardSolutions.com) की सतह से अवशोषित करते हैं।
  5. जनन तन्त्र (reproductive system) पूर्ण विकसित होता है।
  6. प्रायः अवायवीय श्वसन (anaerobic respiration) पाया जाता है।

प्रश्न 7.
आर्थोपोडा प्राणी समूह का सबसे बड़ा वर्ग है। इस कथन के प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर :

  1. सुरक्षा के लिए क्युटिकल (cuticle) की उपस्थिति।
  2. विकसित पेशी तन्त्र गमन में सहायक।
  3. कीटों में श्वसनलियों द्वारा श्वसन (tracheal respiration) से सीधे ऑक्सीजन प्राप्त होती है।
  4. संधियुक्त उपांगों (jointed appendages) द्वारा विभिन्न कार्य सम्भव होते हैं।
  5. तन्त्रिका तन्त्र (nervous system) तथा संवेदी अंग (sense organs) विकसित होते हैं।
  6.  संचार हेतु फेरोमोन्स (pheromones) पाये जाते हैं।

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प्रश्न 8.
जल संवहन तन्त्र किस वर्ग का मुख्य लक्षण है
(a) पोरीफेरा
(b) टीनोफोरा
(e) इकाइनोडर्मेटा
(d) कॉडेंटा
उत्तर :
(c) इकाइनोडर्मेटा

प्रश्न 9.
सभी कशेरुकी (vertebrates) रज्जुकी (chordates) हैं लेकिन सभी रज्जुकी कशेरुकी नहीं हैं इस कथन को सिद्ध कीजिए।
उत्तर :
सभी कॉडेंट्स (chordates) में पृष्ठ रज्जु (notochord) पायी जाती है। कॉडेंट्स के अन्तर्गत यूरोकॉडेंटा तथा सेफैलोकॉडेंटा (दोनों को प्रोटोकॉडेंटा कहा जाता है) तथा वर्टीब्रेटा सम्मिलित हैं। कशेरुकियों (vertebrates) में पृष्ठ रज्जु (notochord) भ्रूणीय अवस्था में (UPBoardSolutions.com) पायी जाती है। वयस्क अवस्था में पृष्ठ रज्जु अस्थिल अथवा उपास्थिल मेरुदंड (backbone) में परिवर्तित हो जाती है। यद्यपि प्रोटोकॉडेंटस में वर्टिब्रल कॉलम (vertibral column) नहीं पायी जाती है। अतः कशेरुकी (vertebrates) रज्जुकी (chordates) भी हैं, परन्तु सभी रज्जुकी, कशेरुकी नहीं हैं।

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प्रश्न 10.
मछलियों में वायु-आशय (air bladders) की उपस्थिति का क्या महत्त्व है?
उत्तर :
मछलियों में वायु कोष/आशय (air bladders) उत्प्लावन (buoyancy) में सहायक होते हैं। इनकी सहायता से मछलियाँ जल में तैरती हैं। वायु कोष इन्हें जेल में डूबने से बचाते हैं। वायु कोष वर्ग ओस्टिक्थीज (osteichthyes) में पाये जाते हैं जबकि वर्ग कॉन्ड्रीक्थीज (chondrichthyes) में अनुपस्थित होते हैं। जिन मछलियों में वायु कोष नहीं होते हैं उन्हें जल में डूबने से बचने के लिये लगातार तैरना पड़ता है।

प्रश्न 11.
पक्षियों में उड़ने हेतु क्या-क्या रूपान्तरण हैं?
उत्तर :

  1. अग्रपाद (forelimbs) रूपान्तरित होकर पंख बनाते हैं।
  2. अन्त: कंकाल की लम्बी अस्थियाँ खोखली तथा वायुकोष युक्त होती हैं, जिससे शरीर हल्का रहता है।
  3.  मूत्राशय (urinary bladder) अनुपस्थित होता है।
  4.  उड़ने में सहायक पेशियाँ (flight muscles) विकसित होती हैं।

प्रश्न 12.
क्या अण्डजनक तथा जरायुज द्वारा उत्पन्न अण्डे या बच्चे संख्या में बराबर होते हैं? यदि हाँ तो क्यों? यदि नहीं तो क्यों?
उत्तर :
नहीं, अण्डजनक (oviparous) जन्तुओं में अण्डे से बच्चा मादा शरीर के बाहर अर्थात् बाह्य वातावरण में विकसित होता है। अत: बहुत से अण्डों के नष्ट होने की संभावना होती है। इसलिए ये जन्तु अधिक संख्या में अण्डे देते हैं। जरायुज (viviparous) जन्तुओं में भ्रूण का विकास मादा शरीर के अन्दर होता है। अतः केवल 1 या कुछ बच्चे ही उत्पन्न होते हैं।

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प्रश्न 13.
निम्नलिखित में से शारीरिक खण्डीभवन किसमें पहले देखा गया?
(a) प्लेटीहेल्मिंथीज
(b) एस्केल्मिंथीज
(c) एनेलिडा
(d) आर्थोपोडा
उत्तर :
(c) एनेलिडा

प्रश्न 14.
निम्न का मिलान कीजिए
(a) प्रच्छद (Operculum)  –  (I) टीनोफोरा (Ctenophora)
(b) पाश्र्वपाद (Parapodia)   – (II) मोलस्का (Mollusca)
(c) शल्क (Scales)  – (III) पोरीफेरा (Porifera)
(d) कंकत पट्टिका(Comb plates)  – (IV) रेप्टीलिया (Reptillia)
(e) रेडूला (Radula)  – (V) एनेलिडा (Annelida)
(f) बाल (Hairs)  – (VI) साइक्लोस्टोमेटा एवं कॉन्ड्रीक्थीज (Cyclostomata and Chondrichthyes)
(g) कीपकोशिका (Choanocytes)  – (VII) मैमेलिया (Mammalia)
(h) क्लोम छिद्र (Gill slits)  –  (VIII) ऑस्टिक्थीज (Osteichthyes)
उत्तर :
(a) (VIII)
(b) (V)
(c) (IV)
(d) (I)
(e) (II)
(f) (VII)
(g) (III)
(h) (VI)

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प्रश्न 15.
मनुष्यों पर पाये जाने वाले कुछ परजीवियों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  1. टीनिया (फीताकृमि)
  2. एस्केरिस (गोलकृमि)
  3. वुचेरेरिया (फाइलेरिया कृमि)
  4. एनसाइकोस्टोमा (अंकुश कृमि)
  5. ट्राइचुरिस (व्हीप कृमि)
  6. ड्रेकुनकुलस (गुइनिया कृमि)
  7. पेडीकूलस (जू)

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऐसे जीव जो पानी की सतह पर उतराते रहते हैं, वे क्या कहलाते हैं?
(क) नितलस्थ
(ख) पिलैजिक
(ग) प्लवकीय
(घ) उभयचरी
उत्तर :
(ग) प्लवकीय

प्रश्न 2.
संघ पोरीफेरा का वर्गीकरण किस पर आधारित है ?
(क) नालतंत्र
(ख) कंटिकाएँ
(ग) कोएनोसाइट्स का आकार
(घ) एस्कोसाइट्स
उत्तर :
(ख) कंटिकाएँ

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प्रश्न 3.
स्पंजों में ‘टोटीपोटेन्ट’ कोशिकाएँ होती हैं।
(क) थीजोसाइट्स
(ख) ट्रोफोसाइट्स
(ग) आर्किओसाइट्स
(घ) कोएनोसाइट्स
उत्तर :
(ग) आर्किओसाइट्स

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन स्वतंत्रजीवी है?
(क) फैसिओला
(ख) टीनिया
(ग) प्लैनेरिया
(घ) सिस्टोसोमा
उत्तर :
(ग) प्लैनेरिया

प्रश्न 5.
क्लाइटेलम केंचुए के किन खण्डों में होता है?
(क) 19, 20 तथा 21
(ख) 14, 15 तथा 16
(ग) प्रथम तीन खण्ड
(घ) अन्तिम तीन खण्ड
उत्तर :
(ख) 14, 15 तथा 16

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही नहीं है?
(क) दोमुँहा सर्प (इरिक्स जोनाई) में मुँह आगे तथा पीछे दोनों ओर होते हैं।
(ख) बड़ों की अपेक्षा छोटे स्तनधारी प्राणियों की आधारी उपापचय दर (बी०एम०आर०) प्रायः अधिक होती है
(ग) फैसिओला हिपेटिका में गुदा द्वार तथा वास्तविक सीलोम नहीं पाया जाता
(घ) एड्रीनल ग्रन्थि से स्रावित हॉर्मोन्स को ‘जीवन-रक्षक’ हॉर्मोन्स भी कहते हैं।
उत्तर :
(क) दोमुँहा सर्प (इरिक्स जोनाई) में मुँह आगे तथा पीछे दोनों ओर होते हैं।

प्रश्न 7.
पक्षियों के वायु-कोष सहायक होते हैं।
(क) रुधिर परिसंचरण में
(ख) ताप नियन्त्रण में
(ग) शरीर भार को कम करने में
(घ) शरीर को गर्म रखने में
उत्तर :
(ग) शरीर भार को कम करने में

प्रश्न 8.
निम्न में से किसकी अनुपस्थिति में चिड़िया चमगादड़ से भिन्न होती है ?
(क) समशीतोष्णता (समतापता)
(ख) चतुर्वेश्मी हृदय
(ग) श्वासनली
(घ) डायफ्राम
उत्तर :
(घ) डायफ्राम

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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्पंज के व्यक्तित्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
यह बहुकोशिकीय जन्तु होता है जिसका शरीर ऊतकों में विभाजित नहीं होता है। यह जन्तु जलीय होता है तथा अधिकांशतः समुद्रों में, पत्थरों पर, शिलाओं पर, लकड़ी के लट्ठों, अन्य जन्तुओं के खोलों आदि पर चिपका रहता है। इसके शरीर की रचना अति (UPBoardSolutions.com) सरल होती है। इसकी देहभित्ति में असंख्य सूक्ष्मछिद्र होते हैं जिससे बाहरी जल से लगातार इसका सम्पर्क रहता है। यह जल छिद्रों से अन्दर स्पंजगुहा में आता है तथा ऑस्कुलम से बाहर निकल जाता है।

प्रश्न 2.
प्रोटोस्टोमिया तथा ड्यूटेरोस्टोमिया में दो अन्तर बताइए।
उत्तर :

  1. प्रोटोस्टोमिया जन्तुओं का एक समूह है जिसके अन्तर्गत आर्थोपोडा, मोलस्का,ऐनेलिडा तथा अन्य समूह आते हैं। ड्यूटेरोस्टोमिया भी जन्तुओं का एक समूह है, परन्तु इसके अन्तर्गत इकाइनोडर्मेटा, कॉडेंटा, एग्नेथा तथा बैंकिओपोडा समूह आते हैं।
  2. प्रोटोस्टोमिया में पहले मुख को निर्माण होता  है जबकि ड्यूटेरोस्टोमिया में पहले गुदा का निर्माण होता है।

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प्रश्न 3.
केंचुआ तथा तिलचट्टे के उत्सर्जन अंगों के नाम लिखिए।
उत्तर :

  1. केंचुआ के उत्सर्जी अंग – वृक्कक
  2. तिलचट्टे के उत्सर्जी अंग – मैल्पीघियन नलिकाएँ

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित जन्तुओं का वर्गीकरण कीजिए
(i) मकड़ी
(ii) टिड्डी
(iii) तारामीन या सितारा मछली
(iv) घोंघा (पाइला)/सेब घोंघा
(V) कटल फिश
(vi) केंचुआ
(vii) हाइड्रा
(viii) घरेलू मक्खी
(ix) फीताकृमि
(x) लिवर फ्लूक
(xi) यूग्लीना
(xii) पैरामीशियम
(xiii) जोंक
(xiv) समुद्री अर्चिन
(xv) पुर्तगीज मैन ऑफ वार

उत्तर :
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प्रश्न 2.
हाइड्रा में श्रम विभाजन पर टिप्पणी लिखिए। या ऊतकीय विभेदीकरण की परिभाषा दीजिए। हाइड्रा के शरीर की संरचना के सन्दर्भ में इसे संक्षेप में समझाइए।
उत्तर :
ऊतकीय विभेदन तथा शरीर क्रियात्मक श्रम विभाजन प्रत्येक जीवधारी गमन, श्वसन, पोषण, उत्सर्जन, वृद्धि, जनन आदि जैविक क्रियाएँ करने में सक्षम होता है। प्रोटोजोआ संघ के सदस्य एककोशिकीय (unicellular) होने पर भी उपर्युक्त क्रियाएँ सम्पन्न कर पाते हैं, जबकि उच्च श्रेणी के जन्तु बहुकोशिकीय होते हैं तथा विभिन्न महत्त्वपूर्ण क्रियाओं के लिए उनके अनुसार विशिष्ट ऊतक तन्त्रों एवं अंगों का निर्माण कर लेते हैं। हेनरी मिल्नी एडवर्ड (Henry Milne Edward,1800-1885) के अनुसार, जिस प्रकार मानव समाज में कार्यों का विभाजन (जैसे—अध्यापक, चिकित्सक, इन्जीनियर, कृषक, बढ़ई, लुहार, अन्य मजदूर आदि) होता है, उसी प्रकार प्राणियों के शरीर में जैविक क्रियाओं के लिए कोशिकाओं के बीच क्रियात्मक श्रम विभाजन होता है। प्राणी जगत् में हाइड्रा से ही वास्तविक संरचनात्मक विभेदीकरण तथा इससे सम्बन्धित क्रियात्मक श्रम विभाजन प्रारम्भ हुआ है। हाइड्रो एक द्विस्तरीय (diploblastic) प्राणी है और इसकी देहभित्ति के एक्टोडर्म व एण्डोडर्म स्तर विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं से बने होते हैं। ये कोशिकाएँ विभिन्न कार्यों के लिए उपयोजित होती हैं।

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एक्टोडर्म की उपकला-पेशी कोशिकाएँ मुख्यत: रक्षात्मक होती हैं तथा शरीर के फैलने व सिकुड़ने में सहायता प्रदान करती हैं। अन्तराली कोशिकाएँ रूपान्तरित होकर अन्य प्रकार की कोशिकाओं को जन्म देती हैं। जनन कोशिकाएँ केवल जनन में योगदान देती हैं। दंश कोशिकाएँ सुरक्षा, आक्रमण, चिपकने एवं शिकार पकड़ने का कार्य करती हैं। ग्रन्थिम-पेशी कोशिकाएँ हाइड्रा को आधार से चिपकने एवं गमन में सहायता करती हैं। एण्डोडर्म की पोषक-पेशी कोशिकाएँ अमीबा के समान हाइड्रा को भोजन के प्राणिसम अन्तर्ग्रहण (holozoic ingestion) में सहायता करती हैं। हाइड्रा में कोई विशिष्ट संवहन व उत्सर्जन तन्त्र नहीं पाया जाता है। इस प्रकार, हाइड्रा एक सरल द्विस्तरीय प्राणी है, जिसमें संरचनात्मक विभेदीकरण के क्रियात्मक श्रम विभाजन से सम्बन्धित होने के कारण जैविक क्रियाएँ सुविधापूर्वक सम्पन्न होती हैं।

प्रश्न 3.
पोरीफेरा संघ में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के नाल तन्त्रों का उल्लेख कीजिए। या नाल तन्त्र क्या है ? साइकॉननाल तन्त्र का सचित्र वर्णन कीजिए तथा ल संवहन पथ को  तीरों द्वारा प्रदर्शित कीजिए। नाल तन्त्र के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए। या निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए-स्पंज में नाल तन्त्र।
उत्तर :
संघ-पोरीफेरा (स्पंजों) में नाल तन्त्र स्पंजों के शरीर की भित्ति में अनेक छिद्रों एवं नलियों का जाल बना होता है, जिसके माध्यम से कीप कोशिकाओं (choanocytes) के कशाभिकों (flagella) की निरन्तर गति होते रहने से स्पंज गुहा (Spongocoel) में जल प्रवाह की धारा अविरल बनी रहती है। इसे नाल तन्त्र या नाल प्रणाली (canal system) कहते हैं। नाल तन्त्र स्पंजों के शरीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तन्त्र होता है। स्पंजों की सम्पूर्ण कार्यिकी; जैसे-श्वसन, उत्सर्जन, पोषण आदि नाल तन्त्र में प्रवाहित होने वाले जल द्वारा ही पूरी होती है।

नाल तन्त्रों के प्रकार

स्पंजों में शारीरिक संगठन की जटिलता के आधार पर निम्नलिखित प्रकार के नाल तन्त्र पाये जाते हैं।

1. एस्कॉन प्रकार का नाल तन्त्र :
स्पंजों में पाया जाने वाला यह सबसे सरल प्रकार का नाल तन्त्र है। इस प्रकार के नाल तन्त्र में स्पंज गुहा (spongoceal) के अन्दर उपस्थित कीप कोशिकाओं की कशाभिकाओं की निरन्तर गति के कारण बाहरी जल की अविरल धारा असंख्य ऑस्टिया (रन्ध्रों) से होकर सीधे स्पंज गुहा में प्रवेश करती है और ऑस्कुलम से होकर बाहर निकलती है। इस प्रकार स्पंज का पूरा शरीर एक नाले तन्त्र का कार्य करता है। ल्यूकोसोलेनिया Leucosolenia) नामक सरल स्पंज में इसी प्रकार का नाल तन्त्र पाया जाता है।
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2. साइकॉन प्रकार की नाल तन्त्र :
इस प्रकार का नाल तन्त्र साइकॉन (स्काइफा) एवं कुछ अन्य स्पंजों में पाया जाता है। यह मूलतः एस्कॉन प्रकार के नाल तन्त्र की भित्ति में अनुप्रस्थ वलन (transverse folds) हो जाने से बनता है। इससे स्पंज की देहभित्ति, पास-पास सटी व शरीर के अक्ष के समकोण पर स्थित अनेक महीन नलिकाओं का रूप ले लेती है, जिन्हें अरीय नाल (radial canals) कहते हैं। प्रत्येक अरीय नाल बाहर की ओर बन्द होती है और भीतर की ओर एक बड़े छिद्र द्वारा स्पंज गुहा (UPBoardSolutions.com) में खुलती है जिसे निर्गम छिद्र या अपद्वार या एपोपाइल (apopyle) कहते हैं। इस प्रकार के नाल तन्त्र में ऑस्टिया अरीय नलिकाओं की भित्ति में होते हैं जिन्हें आगामी द्वार या प्रोसोपाइल (prosopyle) कहते हैं।

कीप कोशिकाएँ केवल अरीय नालों को स्तरित करती हैं। स्पंज गुहा का भीतरी स्तर पिनैकोसाइट कोशिकाओं का होता है। अरीय नालों की भित्ति के बीच के स्थान अन्तर्वाही नालों (incurrent canals) का रूप ले लेते हैं। ये स्पंज गुहा की ओर बन्द किन्तु शरीर की बाहरी सतह पर खुलती हैं। बाहरी जल पहले अन्तर्वाही नालों में आता है और आगामी द्वार या प्रोसोपाइल (prosopyle) में होकर अरीय नलिकाओं (जिन्हें कशाभीनलिकाएँ भी कहते हैं) में और फिर एपोपाइल्स द्वारा स्पंज गुहा में आता है। स्पंज गुहा में आया हुआ ल ऑस्कुलम से होकर बाहर निकल जाता है।

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3. ल्यूकॉन प्रकार का नाल तन्त्र :
यह सबसे जटिल प्रकार का नाल तन्त्र है। इस प्रकार का नालतन्त्र स्पॉन्जिला (Spongilla) आदि स्पंजों में पाया जाता है। इसका निर्माण कशाभिकी लिकाओं की दीवार के वलन से होता है। वलन के कारण इन नलिकाओं की दीवार में छोटे-छोटे गोले कक्ष बन जाते हैं। इन कक्षों को कशाभिकी कक्ष flagellated chambers) कहते हैं। कीप कोशिकाएँ इन कक्षों की दीवार पर ही सीमित रह जाती हैं। अरीय नलिकाओं की गुहाओं के चारों ओर पिनैकोसाइट्स का स्तर होता है। इन्हें अपवाही नलिकाएँ (excurrent canals) कहते हैं। इसमें बाहरी जल पहले अन्तर्वाही नलिकाओं (incurrent canals) में, फिर प्रोसोपाइल्स से कशाभी कक्षों में और एपोपाइल्स से अपवाही नलिकाओं में से होता हुआ स्पंज गुहा में आकर ऑस्कुलम से बाहर निकल जाता है।

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प्रश्न 4.
दंश कोशिकाओं की संरचना एवं कार्य समझाइए। या हाइड्रा में पायी जाने वाली दो प्रकार की दंश कोशिकाओं का सचित्र वर्णन कीजिए। , या हाइड्रा की दंश कोशिका की स्खलित अवस्था का एक नामांकित चित्र बनाइए (वर्णन की । आवश्यकता नहीं है)। या हाइड्रा में पायी जाने वाली पेनीट्रैण्ट प्रकार की दंश कोशिकाओं का सचित्र वर्णन कीजिए। या टिप्पणी लिखिए-दंश कोशिका।
उत्तर :

दंशिका की संरचना

दंश कोशिका की इस थैलीनुमा रचना का मुख्य भाग सम्पुट (capsule) कहलाता है। सम्पुट के अग्र सिरे पर भित्ति अन्दर की ओर धंसकर एक गड्डा बनाती है, जो झिल्ली द्वारा ढका रहता है। इस गड्ढे में पायी जाने वाली सूक्ष्म कणिकाओं में एक विशिष्ट पदार्थ भरा रहता है। यह सम्पुट (UPBoardSolutions.com) के ढक्कन (lid of operculum) का कार्य करता है। भीतर की ओर धंसने वाली भित्ति एक लम्बे, कुण्डलित वे काँटेदार सूत्र (thread) में रूपान्तरित होती है।
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दंशिकाओं के प्रकार

संध निडेरिया के विभिन्न सदस्यों में पायी जाने वाली दंश कोशिकाओं में लगभग 30 प्रकार की दंशिकाएँ होती हैं। हाइड्रा में कुल चार प्रकार की दंशिकाएँ पायी जाती हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।

1. स्टीनोटील्स अथवा पेनीटैण्ट्स (Stenoteles or Penetrants) :
ये सबसे बड़ी व जटिल रचना वाली दंशिका हैं। इनके बड़े कुन्दे पर स्टाइलेट्स व शूल (stylets and spines) पाये जाते हैं। इनके सूत्रों पर भी शूलों (spines) की तीन सर्पिल पंक्तियाँ होती हैं।

2. होलोट्राइकस आइसोराइजाज (Holotrichous Isorhizas) :
ये कुछ लम्बी, अण्डाकार तथा कुन्दविहीन होती हैं। इनका सूत्र लम्बा व सिरे पर खुला होता है। इन पर स्पाइन्स की केवल एक ही सर्पिल पंक्ति होती है।
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3. एट्राइकस आइसोराइजाज (Atrichous Isorhizas) :
ये कुछ छोटी होती हैं तथा इनके सूत्रों पर स्पाइन्स नहीं पाये जाते हैं।

4. डेस्मोनीम या वॉलवेण्ट (Desmoneme Or Volvent) :
सबसे छोटी, 9 μ व्यास की, नाशपाती के आकार की, गोल व अण्डाकार इन दंशिकाओं को सूत्र छोटा, मोटा, सिरे पर बन्द व कुन्दविहीन होता है। ये एक ही बार कुण्डलित होती हैं तथा इन पर केवल कुछ ही स्पाइन्स पाये जाते हैं।

5.दंशिकाओं का दगना या स्खलन (Dscharge of Nematocysts)
उत्तेजित होने पर दंश कोशिकाओं के सूत्र तुरन्त झटके के साथ ऑपरकुलम को धकेल कर बाहर निकल आते हैं। इस प्रकार भीतरी पदार्थ एवं काँटे सूत्र के साथ दंशिका की बाहरी सतह पर आ जाते हैं। इवान्जोफ (Iwanzoff, 1895) के मतानुसार दंशिका में जब भी द्रव्य का दबाव बढ़ता है तो यह स्खलित हो जाती है।

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दंशिकाओं के कार्य

  1.  स्टीनोटील्स या पेनीट्रैण्ट्रेस का सूत्रे भोजन योग्य शिकार के सम्पर्क में आने पर तेजी से दगकर  शिकार के शरीर में चुभ जाता है। यह हिप्नोटॉक्सिन (hypnotoxin) नामक विषैले पदार्थ द्वारा शिकार को अचेत कर मार देता है।
  2.  डेस्मोनीम्स जब शिकार के सम्पर्क में आती हैं तो इनके सूत्र शिकार को चारों ओर से लपेटकर (UPBoardSolutions.com) जकड़ लेते हैं।
  3. होलोट्राइकस आइसोराइजाज के सूत्रों के स्पाइन्स शत्रु के शरीर में घुसकर हाइड्रा को उससे बचाने में सहायता करते हैं।
  4. एट्राइकस आइसोराइजाज के सूत्र चिपचिपे होते हैं। ये उपयुक्त आधार पर स्पर्शकों को चिपकने में सहायता करते हैं। इस प्रकार ये हाइड्रा को गमन में सहयोग देते हैं।

प्रश्न 5.
ज्वाला कोशिका किसे कहते हैं? यह किस जन्तु में पायी जाती हैं? इसके कार्य लिखिए। या ज्वाला कोशिकाओं की संरचना एवं कार्य समझाइए।
उत्तर :
ज्वाला कोशिकाएँ या शिखा कोशिकाएँ ये विशेष प्रकार की उत्सर्जी (excretory) कोशिकाएँ हैं जिनमें प्रमुखतः दो भाग होते हैं।

  1.  कोशिका का प्रमुख अण्डाकार भाग कोशिका काय (cell body) कहलाता है। इसको शिखा कन्द (flame bulb) भी कहते हैं। इसी भाग में केन्द्रक (nucleus) होता है। इसकी सतह से लगभग सभी ओर शाखित प्रवर्द्ध (cytoplasmic processes) निकले रहते हैं जो पैरेन्काइमा में इधर-उधर फैले रहते हैं।
  2. शिखा कन्द से एक ओर एक लम्बा सँकरा तथा नाल के समान भाग होता है जिसका अन्दर का खोखला भाग कन्द के अन्दर उपस्थित गुहा से सम्बन्धित होता है। यह गुहा काफी चौड़ी होती है। इसके चौरस भाग के जीवद्रव्य में छोटे-छोटे कई आधार कण (basal granules) होते हैं। जिनसे कशाभिकाएँ (flagella) निकलकर गुहा में लटकी रहती हैं तथा एक लौ के समान हर समय काँपती रहती हैं। ये आपस में गुच्छा बनाती हैं। यह गुहा सँकरी होकर एक महीने नलिका के रूप में अन्य नलिकाओं से सम्बन्धित रहती है।
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ज्वाला कोशिकाएँ प्लेटीहेल्मिन्थीज समूह की उत्सर्जन इकाइयाँ होती हैं। टीनिया जैसे अन्त:परजीवी जन्तुओं में इनका कार्य स्पष्ट नहीं है।

प्रश्न 6.
नर तथा मादा ऐस्कैरिस में अन्तर स्पष्ट कीजिए। या मनुष्य के शरीर में पाये जाने वाले गोलकृमि का वैज्ञानिक नाम व वासस्थान (अंग) लिखिए तथा उनके नर व मादा के एक-एक पहचान के लक्षण बताइए।
उत्तर :
मनुष्य में पाया जाने वाला गोलकृमि-ऐस्कैरिस लम्ब्रीकॉयडिस (Ascaris lumbricoides)। इसका वासस्थान (अंग)-मनुष्य की आँत।

नर तथा मादा ऐस्कैरिस में अन्तर

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प्रश्न 7.
निम्नलिखित के नामांकित चित्र बनाइए

(क) मादा ऐस्कैरिस के मध्य भाग की अनुप्रस्थ काट।
(ख) नर ऐस्कैरिस के मध्य भाग की अनुप्रस्थ काट।

उत्तर :

(क)
मादा ऐस्कैरिस के मध्य भाग की अनुप्रस्थ काट

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(ख)
नर ऐस्कैरिस के मध्य भाग की अनुप्रस्थ काट

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प्रश्न 8.
केंचुए के आर्थिक महत्त्व का वर्णन कीजिए या “केंचुए किसानों के परम मित्र हैं?” संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। या केंचुए की जैव पारिस्थितिकी एवं आर्थिक महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
केंचुए का आर्थिक महत्त्व केंचुए ‘किसान के मित्र’ कहे जाते हैं, क्योंकि वे खेतों की मिट्टी को सुरंगें बनाकर पोली कर देते हैं तथा नीचे की मिट्टी को ऊपर पलट देते हैं, जिससे भूमि अधिक उपजाऊ बनती है। इसके साथ ही केंचुए कार्बनिक पदार्थों को सुरंगों में ले (UPBoardSolutions.com) जाते हैं जो खाद के रूप में सहायक होते हैं तथा केंचुए स्वयं भी मरकर सुरंगों के अन्दर खाद के रूप में बदल जाते हैं। केंचुए से मनुष्य को खेती के लिए उपजाऊ भूमि प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य लाभ भी हैं; जैसे

  1. ऑस्ट्रेलिया की आदिम जातियाँ केंचुए को भोजन के रूप में ग्रहण करती हैं।
  2.  काँटों में लगाकर मछलियों को पकड़ने हेतु इसे चारे के रूप में प्रयोग करते हैं।
  3. अपने देश में गठिया रोग के लिए यह औषधि बनाने के काम में आता है।
  4. प्रयोगशाला में अध्ययन सामग्री के रूप में प्रयोग किया जाता है। केंचुओं से होने वाली हानियाँ कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती हैं। कई बार वर्षा ऋतु में इनके द्वारा बनायी गयी सुरंगों के ढेर मृदा अपरदन का कारण बन जाते हैं। केंचुओं की कुछ जातियाँ पान, इलायची, धान आदि के पौधों के लिए हानिकारक होती हैं।

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प्रश्नु 9.
किन्हीं दो ऐसे लक्षणों को लिखिए जो नॉन-कॉडेंट्स को कॉडेंट्स से पूर्णतः विभेदित करते हैं?
उत्तर :
कॉडेंट एवं नॉन-कॉडेंट में अन्तर
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प्रश्न 10.
निम्नलिखित के संघ सहित जन्तु वैज्ञानिक नाम लिखिए

(क) जेली फिश (jelly fish)
(ख) सिल्वर फिश (silver fish)
(ग) स्टार फिश (star fish)
(घ) डॉग फिश (dog fish)
(ङ) कबूतर (pigeon)
(च) खरगोश (rabbit)
(छ) जोंक (leech)

उत्तर :
सामान्य नाम :
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प्रश्न 11.
चमगादड़ का वर्गीकरण वर्ग तक कीजिए तथा इसके दो लक्षण लिखिए।या चमगादड़ चिड़ियों के समान उड़ता है फिर भी इसे स्तनी वर्ग में क्यों रखा गया है ?
उत्तर :
लक्षण :

  1. शरीर पर बाल (hair) तथा बाह्य कर्ण (pinna) होते हैं।
  2.  मादा बच्चे उत्पन्न करती है तथा अपनी स्तन ग्रन्थियों से बच्चों को दूध पिलाती है। उपर्युक्त (UPBoardSolutions.com) दोनों ही लक्षण स्तनियों के मूल लक्षण हैं। इनके शरीर पर अथवा विकास में पक्षियों के कोई लक्षण; जैसे शरीर पर परों (feathers) की उपस्थिति आदि नहीं होते हैं अतः इन्हें स्तनी वर्ग में ही रखा जाता है।

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प्रश्न 12.
कारण बताइए

(अ) हेल मछली नहीं, स्तनधारी है। क्यों?
(ब) एकिडना अण्डे देता है, फिर भी स्तनधारी वर्ग का सदस्य है। क्यों?
उत्तर :
ह्वेल मछली तथा एकिडना दोनों को ही संघ कॉडेंटा वर्ग-स्तनधारी में रखा गया है, क्योंकि इनमें बाल तथा स्तन ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। दाँत, विषमदन्ती एवं गर्तदन्ती होते हैं। ग्रीवा कशेरुकाओं की संख्या सात होती है। मध्य कर्ण में तीन छोटी अस्थियाँ पाई जाती हैं।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित जन्तुओं का वर्गीकरण कीजिए

(i) जेली फिश (jelly fish)
(ii) मेंढक (frog)
(iii) गौरेया (sparrow)
(iv) कुत्ता मछली (स्कोलिओडॉन) (dog fish)
(v) समुद्री घोड़ा (sea horse)
(vi) घरेलू छिपकली (wall lizard)
(vii) नाग(cobra)
(viii) कबूतर (pigeon)
(ix) आधुनिक मनुष्य (modern man)
(x) झींगा मछली (prawn)
(xi) तिलचट्टा (cockroach)
(xii) टोड  (toad)
(xiii) ड्रैको (Draco)
(xiv) खरगोश (rabbit)

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प्रश्न 2.
कॉडेटा संघ के प्राणियों के मूल लक्षणों का सविस्तार वर्णन कीजिए। स्तनी वर्ग के प्राणियों को उपवर्ग तक प्रमुख लक्षणों एवं उदाहरण सहित वर्गीकृत कीजिए। या स्तनी वर्ग के प्राणियों के प्रमुख लक्षणों का उल्लेख कीजिए तथा प्रोटोथेरिया, मेटाथेरिया एवं यूथेरिया में उदाहरणों सहित अन्तर बताइए। या पृष्ठवंशी के चार मूल लक्षणों को लिखिए।
उत्तर :

संघ-कॉडेंटा के प्रमुख लक्षण

  1. कॉडेटा संघ के प्राणियों का शरीर द्विपार्श्व सममित (bilaterally symmetrical), देहगुहीय (coelomate) तथा त्रिजनस्तरीय (triploblastic) होता है।
  2.  इनके जीवन में किसी-न-किसी अवस्था में शरीर के मध्य पृष्ठ भाग में मेरुदण्ड अथवा नोटोकॉर्ड (notochord) अवश्य ही पाया जाता है।
  3.  इनमें जीवन की किसी-न-किसी अवस्था में ग्रसनी (pharynx) की (UPBoardSolutions.com) दीवार में एक जोड़ा गिल दरारों (gills clefts) को अवश्य बनती है।
  4.  इनमें शरीर के पृष्ठ मध्य तल में मस्तिष्क से लेकर शरीर के पिछले सिरे तक विस्तृत एक खोखली केन्द्रीय तन्त्रिका नाल (central neural tube) पायी जाती है।
  5.  इनमें हृदय देहगुहा में अधर तल पर स्थित होता है तथा रुधिर परिसंचारी तन्त्र बन्द (closed) प्रकार का होता है।
  6. इनमें रुधिर में लाल रुधिर कणिकाएँ (red blood corpuscles) पायी जाती हैं जिनमें ऑक्सीजन ग्राही हीमोग्लोबिन (haemoglobin) नामक लाल वर्णक पाया जाता है

स्तनधारियों (मैमेलिया) के प्रमुख लक्षण

  1.  इस वर्ग के जन्तु नियततापी होते हैं अर्थात् इनका ताप सदैव एक-सा रहता है।
  2.  इन जन्तुओं की त्वचा रोमयुक्त होती है। अधिकतर जन्तुओं का शरीर बालों (hair) से ढका रहता है।
  3.  इनमें बाह्य कर्ण (external ears) पाये जाते हैं।
  4. मादी में स्तन ग्रन्थियाँ (mammary glands) होती हैं, जिनसे ये नवजात शिशु को दूध पिलाती है।
  5.  गर्दन में केवल सात ग्रीवा कशेरुकाएँ (cervical vertebrae) होती हैं।
  6. त्वचा में तेल ग्रन्थियाँ (oil glands) तथा स्वेद ग्रन्थियाँ (sweat glands) होती हैं।
  7. देहगुहा एक पेशीय मध्यछद या डायफ्राम (diaphragm) द्वारा वक्षीय गुहा तथा उदरगुहा (thoracic and abdominal cavity) में बँटी रहती है।
  8. हृदय में चार कोष्ठ (four chambers) होते हैं तथा यह पूर्ण विकसित होता है। केवल बायाँ दैहिक चाप (left systemic arch) ही उपस्थित होता है।
  9.  मुख गुहिका (buccal cavity) नासामार्ग (nasal passage) से एक उपास्थि-अस्थि की प्लेट से अलग रहती है।
  10. श्वसन केवल फेफड़ों (lungs) के द्वारा होता है।
  11.  कपाल तन्त्रिकाएँ (cranial nerves) बारह जोड़े होती हैं।
  12.  नर स्तनधारियों में शिश्न (penis) के रूप में मैथुन अंग होता है तथा वृषण (testes) उदरगुहा के बाहर वृषण कोषों (scrotal sacs) में पाये जाते हैं।
  13.  योनि एकल (vagina single) होती है तथा दोनों गर्भाशय परस्पर पूर्णतः मिले रहते हैं।
  14. निषेचन मादा के शरीर के अन्दर अण्डवाहिनी (fallopian tube) में होता है।
  15.  बच्चों को जन्म देते हैं जिनका परिवर्द्धन गर्भाशय (uterus) में होता है। (कुछ स्तनधारी; जैसे-एकिडना (echidna) तथा डकबिल प्लेटीपस या ऑर्निथोरिंकस (Ornithorhynchus) अण्डे देते हैं।

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स्तनधारियों का वर्गीकरण

पुराने वर्गीकरण में वर्ग मैमेलिया को सीधे तीन उपवर्गों (subclasses) में बाँट दिया करते थे-प्रोटोथेरिया, मेटाथेरिया तथा यूथेरिया किन्तु वर्तमान में वर्ग मैमेलिया को दो उपवर्गो-प्रोटोथेरिया (prototheria) तथा थेरिया (theria) में वर्गीकृत करते हैं।

उपवर्ग 1.
प्रोटोथेरिया :

  1.  चुचुक स्पष्ट नहीं होते, स्तन ग्रन्थियाँ सक्रिय।
  2. अण्डे देते हैं शिशु बाहर ही अण्डे से निकलता है।
  3.  जरायु (placenta) उपस्थित नहीं।
  4.  एक ही छिद्र अवस्कर द्वार (Cloacal aperture) के रूप में।
  5.  मस्तिष्क में कॉर्पस कैलोसम अनुपस्थित।

उदाहरण :

(i) डकबिल प्लेटोपस (Duckbill platypus) या ऑर्निथोरिंकस (Ornithorhynchus),
(ii) एकिडना (echidna) आदि।

उपवर्ग 2.
थेरिया

अधिवर्ग 1 :

पैण्टोथेरिया (Pantotheria) :
सभी जन्तु विलुप्त हो चुके हैं।

अधिवर्ग 2 :

मेटाथेरिया (Metatheria) :
कुछ ही जन्तु जीवित हैं। इनके निम्नलिखित लक्षण हैं।

  1.  मादा के उदर पर चूचुकों को ढके हुए त्वचा की थैली होती है, इसे शिशुधानी या मार्क्सपियम (marsupium) कहते हैं। जन्म के समय शिशु अपरिपक्व होते हैं। ये रेंगकर, शिशुधानी में पहुँचकर, अपने मुख द्वारा चूचुकों (UPBoardSolutions.com) से चिपक जाते हैं तथा दुग्धपान करते हैं।
  2.  कपाल गुहा छोटी होती है।
  3. दाँत जीवन में केवल एक ही बार निकलते हैं (monophyodont)
  4.  जरायु (placenta) अल्प विकसित अथवा अनुपस्थित होता है।
  5. गर्भाशय तथा योनि जोड़े में (paired) होते हैं।

उदाहरण :

(i) ऑस्ट्रेलिया का कंगारू (Macropus)
(ii) तस्मानिया का डैसीयूरस (Dasyurus)
(iii) अमेरिका : का ओपोसम (Opossum or Didelphis)

अधिवर्ग 3.

यूथेरिया (Eutheria) :
पूर्ण विकसित स्तनी हैं। इनके निम्नलिखित लक्षण हैं।

  1. मादा के गर्भाशय में भ्रूण एवं शिशु का जरायु (placenta) द्वारा पूर्ण पोषण होने से शिशु जन्म के समय पूर्ण परिपक्व।
  2. मार्क्सपियम अनुपस्थित, चूचुक भली-भाँति विकसित।
  3. कॉर्पस कैलोसम (corpus callosum) तथा मस्तिष्क भली-भाँति विकसित।
  4. गर्भाशय एवं योनि केवल एक-एक (uterus and vagina single) होते हैं।

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उदाहरण :

(i) चूहा
(ii) खरगोश
(iii) चमगादड़
(iv) ह्वेल
(v) हाथी
(vi) मनुष्य आदि।

प्रश्न 3.
उभयचर वर्ग के प्राणियों के प्रमुख लक्षणों का उल्लेख कीजिए। इस वर्ग को गण तक उनके लक्षणों एवं उदाहरणों सहित वर्गीकृत कीजिए। या उभयचर वर्ग (क्लास एम्फिबिया) के दो प्राणियों के जन्तु-वैज्ञानिक नाम लिखिए तथा उनके चार प्रमुख लक्षण बताइए।
उत्तर :

उभयचरों के प्रमुख लक्षण

  1.  ये जीवन चक्र का अधिकांश भाग जल व थल दोनों स्थानों पर पूरा करते हैं। इनके शरीर असमतापी (cold blooded) होते हैं। शरीर सिर, धड़ व पुच्छ में विभाज्य होता है।
  2. त्वचा शल्कविहीन होती है तथा इसमें अनेक श्लेष्म ग्रन्थियाँ (mucous glands) व विष ग्रन्थियाँ (poison glands) होती हैं। इस पर बाल या फर भी नहीं होते। त्वचा अधिकांशतः चिकनी तथा नम होती है। सभी ग्रन्थियाँ बहुकोशिकीय होती हैं।
  3. सभी में कायान्तरण (metamorphosis) पाया जाता है।
  4. अवस्कर वेश्म (cloacal chamber) उपस्थित होता है।
  5. करोटि (skull) में रीढ़ की अस्थि की प्रथम कशेरुका के (UPBoardSolutions.com) साथ सन्धियोजन (articulation) के लिए दो पश्चकपाल मुण्डिकाएँ (occipital condyles) होती हैं।
  6. उँगलियों में नख या नखर (claws) आदि नहीं होते हैं।
  7. हृदय त्रिवेश्मी (three-chambered) होता है, दो अलिन्द (auricles) व एक निलय। इनकी लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCS) केन्द्रकयुक्त (nucleated) होती हैं।
  8. उत्सर्जन वृक्कों (nephridia) द्वारा। ये यूरिया उत्सर्गी (ureotelic) होते हैं।
  9. ये अंडायुज (oviparous) होते हैं। अण्डे जल में या नम जगहों में दिये जाते हैं। इनके चारों ओर जेली की तरह लसलसे पदार्थ का सुरक्षात्मक आवरण होता है।
  10. एकलिंगी (unisexual) अर्थात् नर तथा मादा अलग-अलग होते हैं। निषेचन आन्तरिक या पानी में होता है।
  11.  लारवा पूर्ण रूप से जलचारी होता है। इनमें श्वसन क्लोमों (gils) द्वारा होता है, जबकि वयस्क अवस्था में (केवल कुछ अपवादों को छोड़कर) फेफड़ों द्वारा तथा नम और रुधिर वाहिनियों के घने जाल से युक्त त्वचा द्वारा होता है।

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उदाहरण :

1. सामान्य मेंढक  :
राना टिग्रीना तथा
2. टोड :
ब्यूफो मिलेनोस्टिक्टस

उभयचरों का वर्गीकरण

विलुप्त तथा जीवित सभी उभयचरों को पाँच उपवर्गों तथा 10 गणों में वर्गीकृत किया गया है।

A.
उपवर्ग लेबरिन्थोडोन्शिया (Labrinthodontia) :

विकास में पहले उभयचर। केवल विलुप्त जातियाँ। तीन गणों (orders) में वर्गीकृत; जैसे – सेमूरिया (Seymouria)

B.
उपवर्ग लीपोस्पोन्डाइली (Lepospondyli) :

सभी विलुप्त पुरातन उभयचर। तीन गंणों में वर्गीकृत; जैसे-डिप्लोकॉलस (Diplocaulus)।

C.
उपवर्ग सैलेन्शिया (Salientia) :

दो गण

  1. प्रोएन्यूरा (proanura) सभी विलुप्त
  2.  एन्यूरा (anura) कुछ विलुप्त और अन्य विद्यमान जातियाँ; जैसे-मेंढक तथा टोड (frogs and toads)

लक्षण :

  1.  वयस्क में पूंछ व क्लोम अनुपस्थित।
  2. धड़ छोटा, करोटि छोटी।
  3.  कशेरुकाएँ कम, अन्तिम कशेरुका छड़नुमा यूरोस्टाइल (urostyle)
  4.  पश्चपाद अग्रपादों से लम्बे, अँगुलियाँ जालयुक्त (webbed)
  5.  अन्त:कंकाल का काफी भाग उपास्थीय।
  6. अण्डनिक्षेपण, संसेचन एवं भ्रूणीय परिवर्धन जल में जीवन-वृत्त में मछली-सदृश भेकशिशु (tadpole) प्रावस्था। अतः कायान्तरण (metamorphosis) महत्त्वपूर्ण; जैसे-टोड (Bufo), हायला (Hyla), मेंढक (Rana)

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D.
उपवर्ग यूरोडेला (Urodela) :

विलुप्त एवं विद्यमान जातियाँ, एक ही गण, कॉडेटा (Caudata)

लक्षण :

  1. शरीर सिर, धड़ एवं पूँछ में विभेदित धड़ लम्बा।
  2. दोनों जोड़ी पाद लगभग समान लम्बाई के।
  3.  मेखलाएँ उपास्थीय।
  4. जातियाँ कुछ पूर्णरूपेण जलीय, कुछ मुख्यत: स्थलीय; श्वसनांग जलीय जातियों में क्लोम, स्थलीय में फेफड़े।
  5. भेकशिशु वयस्क के समान अतः कायान्तरण स्पष्ट नहीं। उदाहरण-सैलामैण्डर (Salamender), नेक्ट्यू रस (Necturus) आदि।

E.
उपवर्ग ऐपोडा (Apoda) :

एक गण जिम्नोफियोना (Gymnophiona)

लक्षण :

  1. बिलों में रहने वाले पादविहीन उभयचर।
  2. शरीर लम्बा व सँकरा, देखने में केंचुए जैसा।
  3. पादों की मेखलाएँ नहीं।
  4. सिर सुरंग खोदने के लिए मजबूत, नेत्र अर्धविकसित, पलकरहित व प्रायः त्वचा से ढके।
  5.  त्वचा चिकनी, इस पर अनुप्रस्थ झुर्रियाँ।
  6. पूँछ छोटी या अनुपस्थित।
  7.  क्लोम (gills) केवल शिशु में। वयस्क में श्वसन फेफड़ों द्वारा; जैसे-इक्थियोफिस (Ichithyophis)

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प्रश्न 4.
सरीसृप वर्ग के प्राणियों के प्रमुख लक्षणों का उल्लेख कीजिए तथा गण तक उदाहरण सहित वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर :

वर्ग रेप्टीलिया (सरीसृप) के प्रमुख
लक्षण :

  1. ये साधारणतः स्थलवासी होते हैं, लेकिन कुछ जलवासी भी होते हैं।
  2. इनमें बाह्य कर्ण छिद्र अनुपस्थित, लेकिन टिम्पैनम कर्ण उपस्थित हैं।
  3.  ये थल पर रेंगकर (repere = crawl) चलते हैं इसलिए, इस वर्ग को रेप्टीलिया कहा जाता है।
  4.  ये असमतापी जन्तु हैं।
  5. त्वचा में एपिडर्मल शृंगी शल्क (epidermal horny scales) पाए जाते हैं।
  6. त्वचा रुखी होती है। इसमें ग्रन्थियाँ (glands) नहीं होती हैं।
  7. अन्त:कंकाल अस्थि (bony) का बना होता है।
  8. खोपड़ी में केवल एक ऑक्सिपिटल कॉण्डाइल, (Occipital condyle) होता है।
  9.  क्लोम (gills) विकास की प्रारम्भिक अवस्था में पाए जाते हैं। (UPBoardSolutions.com) वयस्क में श्वसन-क्रिया फेफड़े। (lungs) द्वारा होती है।
  10.  हृदय में दो अलिंद तथा आंशिक रूप से विभाजित एक निलय (ventricle) होता है।
  11. लाल रुधिर कणिकाएँ पाई जाती हैं।
  12. आहारनाल, जनन तथा मूत्रवाहिनियाँ क्लोएका में खुलती हैं, इसलिए पृथक्-पृथक् गुदा एवं जनन छिद्र नहीं होते हैं।
  13. साधारणतः अन्त:निषेचन (internal fertilization) होता है। अण्डे बड़े और चूनेदार (calcareous) कवच (shell) द्वारा आच्छादित रहते हैं।
  14.  इनमें कोई लार्वा अवस्था नहीं होती।

सरीसृपों का वर्गीकरण

सरीसृप वर्ग को निम्नलिखित 6 उपवर्गों में बाँटा गया है।

(क)
उपवर्ग ऎनेप्सिडा (Subclass Anapsida) :

करोटि का पृष्ठ भाग पूर्ण अर्थात् इसके टेम्पोरल क्षेत्र में कोई छिद्र (fossa) नहीं, क्वाड्रेट अस्थि कर्ण अस्थि से समेकित। तीन गण (orders), दो में केवल विलुप्त जातियाँ, केवल एक (किलोनिया) में विलुप्त एवं विद्यमान जातियाँ। गण किलोनिया (Order Chelonia)-विभिन्न प्रकार के कछुए (turtles, tortoises and terrapins)।

  1. जल में, कभी-कभी किनारे की नम भूमि पर आ जाते हैं।
  2.  शरीर चौड़ा, हॉर्न (horm) एवं अस्थि के बने कठोर खोल (shell) में बन्द। खोल का पृष्ठभाग पृष्ठवर्म अर्थात् कैरापेस (carapace) तथा अधर भाग प्लास्ट्रोन (plastron)} खोल पर चिम्मड़ त्वचा ढकी, त्वचा सपाट या षट्भुजीय प्रशल्कों (scutes) द्वारा ढकी।
  3.  सिर, पाद एवं पूँछ शल्कों से ढके। इन्हें खोल में समेटकर जन्तु शत्रुओं से रक्षा करता है।
  4. जबड़े हॉर्न के बने, दन्तविहीन।
  5. क्वाड्रेट हड्डी अचल।
  6.  अवस्कर छिद्र अनुलम्ब दरार के रूप में।
  7. नर में उत्तेजित होकर तनने वाला मैथुन अंग (copulatory organ) अर्थात् शिश्न (penis)
  8. मादा भूमि में गड्ढा बनाकर अण्डे देती और रेत से इन्हें ढक देती है।

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उदाहरण :

ट्रायोनिक्स (Trionyx) :

भारतीय नदियों का कछुआ

  1. कीलोन (Chelone)
  2. टेस्टुडो (Testudo)

(ख)
उपवर्ग यूरेऐप्सिडा (Subclass Euryapsida) :

विलुप्त जातियाँ, दो गण।

(ग)
उपवर्ग सिनेप्सिडा (Subclass Synapsida) :

विलुप्त जातियाँ, दो गण।

(घ)
उपवर्ग इथिओप्टेरीजिया (Subclass Ichthyopterygia) :

विलुप्त जातियाँ, एक गण।

(ङ)
उपवर्ग लेपिडोसॉरिया (Subclass Lepidosauria) :

एक विलुप्त तथा दो विलुप्त एवं विद्यमान जातियों के गण।करोटि (skull) के टेम्पोरल क्षेत्र में दो जोड़ी टेम्पोरल छिद्र (temporal fossae)

विलुप्त एवं विद्यमान जातियों के दो गण निम्नलिखित हैं

1.
गण रिकोसिफैलिया (Order Rhynchocephalia) :

इसकी अब एक ही जाति स्फीनोडॉन पंक्टेटस (Sphenodon punctatus)-न्यूजीलैण्ड के निकट छोटे-छोटे द्वीपों में पाई जाती है। इसे स्थानीय लोग टुआटरा (Tuatara) कहते हैं। इसके लक्षण विलुप्त सरीसृपों जैसे हैं। अतः ये “जिन्दा जीवाश्म (living fossils)’ कहलाते हैं। लगभग 55 सेमी लम्बा शरीर छिपकली-जैसा और बहुत सुस्त। बिलों से रात्रि में निकलकर (nocturnal) केंचुओं, घोंघों, कीड़ों आदि को खाते हैं। उपापचय (metabolism) की दर बहुत कम, परन्तु आयु लगभग 100 वर्ष मध्यवर्ती तीसरा नेत्र तथा त्वचा की शल्कें दानों के रूप में। नर में मैथुन अंग नहीं। अण्डे छोटे। अवस्कर छिद्र दरार जैसा।

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2.
गण स्क्वै मैटा (Order Squamata) :

छिपकलियाँ (lizards) एवं सर्प (snakes)

  1.  कुछ जलीय; शेष जंगलों, खेतों, घरों, बगीचों आदि में; कुछ बिलों में रहने वाले।
  2. तेजी से रेंगकर शत्रुओं से बचने की क्षमता।
  3.  त्वचा के हॉर्नी शल्कों के आवरण का समय-समय पर टुकड़ों या केंचुल के रूप में त्याग (moulting)
  4.  पूँछ लम्बी।
  5. जबड़े करोटि से दोनों ओर एक-एक चल क्वाड्रेट हड्डी द्वारा इस प्रकार जुड़े कि मुख-ग्रासने गुहिका बहुत चौड़ी खुल सकती है। दाँत जबड़ों की हड्डियों से समेकित (fused)
  6.  कशेरुकाएँ अग्रगर्ती (procoelous)
  7.  नर में दोहरा मैथुन अंग।
  8.  अवस्कर छिद्र अनुप्रस्थ दरार जैसा। दो उपगण

(अ)
उपगण लैसरटिलिया या सॉरिया (Suborder Lacertilia or Sauria) छिपकलियाँ।

  1. पाद प्रायः विकसित और पंजेदार।
  2.  नेत्रों की पलकें प्रायः चल।
  3. अंसमेखला प्रायः विकसित।
  4. निचले जबड़े के अर्धाश आगे परस्पर समेकित।
  5.  स्टर्नम, टिम्पैनम एवं मूत्राशय उपस्थित।
  6.  मस्तिष्क खोल आगे से खुला। उदाहरण-घरेलू छिपकली अर्थात् हेमोडेक्टाइलस (Hemidactylus), गोह अर्थात् वैरेनस (Varunus), साँडा अर्थात् यूरोमेस्टिक्स (Uromastix), विषैली छिपकली-हीलोडर्मा अर्थात् गिला मोन्स्टर (Heloderma-Gila monster) आदि।

(ब)
उपगण ओफीडिया या सर्पेन्टीज (Suborder Ophidia or Serpentes) सर्प।

  1. पाद स्टर्नम, टिम्पैनम, अंसमेखला तथा मूत्राशय प्रायः अनुपस्थित।
  2.  निचले जबड़े के अर्धांश आगे एक लचीले स्नायु (ligament) द्वारा जुड़े। अतः मुख शिकार को समूचा निगलने के लिए काफी फैल सकता है।
  3.  मस्तिष्क खोल आगे से बन्द।
  4. चल पलकों तथा बाह्य कर्णछिद्रों का अभाव।
  5. प्रायः लम्बी और आगे से कटी हुई जीभ संवेदांग का काम करती है।
  6. बायां फेफड़ा छोटा या अनुपस्थित।
  7.  दाँत पतले व नुकीले।
  8. मूत्राशय अनुपस्थित।

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उदाहरण :

(i) अजगर (Python)
(ii) काला नाग या कोबरा (Cobra-Ngja)
(iii) करैत (Bungarus)
(iv) वाइपर (Viper)

(च)
उपवर्ग आर्कोसॉरिया (Subclass Archosauria) :

चार विलुप्त जातियों के गण। केवल एक गण, क्रोकोडिलिया, में विद्यमान जातियाँ।

गण क्रोकोडिलिया या लोरीकैटा (Order Crocodilia or Loricata) :

    1. गहरी नदियों, बड़ी झीलों आदि के वासी।
    2. शरीर छिपकलियों जैसा, परन्तु बड़ा व भारी। सबसे बड़े वर्तमान रेप्टाइल्स।
  1. सिर लम्बा एवं तुण्डाकार। इसके सिरे पर नासाद्वार (nostrils)।
  2. नेत्र बड़े व उभरे हुए। नासाद्वार, नेत्र तथा कर्ण एक सीध में।
  3. त्वचा मोटी व चिम्मड़। इस पर मोटी शल्कें (scales)शल्कों (UPBoardSolutions.com) के नीचे, दृढ़ता के लिए, हड्डी की प्लेटें।
  4. पूँछ लम्बी, पाश्र्वो में चपटी।
  5.  पाद छोटे। अग्रपादों में 5-5 तथा पश्चपादों में 4-4 पंजेदार अँगुलियाँ। अँगुलियों के बीच जाल (web)। जालयुक्त पाद तथा चपटी पूँछ तैरने में सहायक।
  6. कशेरुकाएँ उभयगर्ती या अग्रवर्ती।
  7. क्वाड्रेट स्थिर।
  8.  मुखद्वार चौड़ा। जबड़े मजबूत। दाँत मजबूत, भीतर की ओर मुड़े और नुकीले। अवस्कर छिद्र अनुलम्बे दरारनुमा।
  9. मादा भूमि पर गड्ढे खोदकर इनमें अण्डे देती है।
  10. श्वसन फेफड़ों द्वारा।
  11.  मूत्राशय अनुपस्थित। इनका चमड़ा कीमती होता है। उदाहरण-भारतीय घड़ियाल या गैवियेलिस (Guvialis), ऐलीगेटर (Alligator), क्रोकोडाइलस (Crocodilus-मगरमच्छ)

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UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 3 Drainage System

UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 3 Drainage System (अपवाह तंत्र)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Indian Physical Environment Chapter 3 Drainage System (अपवाह तंत्र)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर |

प्रश्न 1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए.
(i) निम्नलिखित में से कौन-सी नदी बंगाल का शोक के नाम से जानी जाती थी?
(क) गंडक
(ख) कोसी
(ग) सोन
(घ) दामोदर
उत्तर-(घ) दामोदर।।

(ii) निम्नलिखित में से किस नदी की द्रोणी भारत में सबसे बड़ी है?
(क) सिन्धु
(ख) ब्रह्मपुत्र
(ग) गंगा
(घ) कृष्णा
उत्तर-(ग) गंगा।

(iii) निम्नलिखित में से कौन-सी नदी पंचनद में शामिल नहीं है?
(क) रावी |
(ख) सिन्धु
(ग) चेनाब
(घ) झेलम
उत्तर-(ख) सिन्धु।

(iv) निम्नलिखित में से कौन-सी नदी पंचनद भ्रंश घाटी में बहती है?
(क) सोन
(ख) यमुना ।
(ग) नर्मदा
(घ) लूनी
उत्तर-(ग) गर्मदा।।

(v) निम्नलिखित में से कौन-सा स्थान अलकनन्दा व भागीरथी का संगम स्थल है?
(क) विष्णुप्रयाग
(ख) रुद्रप्रयाग
(ग) कर्णप्रयाग
(घ) देवप्रयाग
उत्तर-(घ) देवप्रयाग।

प्रश्न 2. निम्न में अन्तर स्पष्ट करें
(i) नदी द्रोणी और जल-संभर,
(ii) वृक्षाकार और जालीनुमा अपवाह प्रारूप,
(iii) अपकेन्द्रीय और अभिकेन्द्रीय अपवाह प्रारूप,
(iv) डेल्टा और ज्वारनदमुख।
उत्तर-
(i) नदी द्रोणी और जल-संभर में अन्तर-बड़ी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को नदी द्रोणी कहते हैं, जबकि छोटी नदियों व नालों द्वारा अपवाहित क्षेत्र जल-संभर कहलाता है। वास्तव में नदी द्रोणी का आकार बड़ा होता है तथा जल-संभर का आकार छोटा।

(ii) वृक्षाकार और जालीनुमा अपवाह प्रारूप में अन्तर–वृक्षाकार अपवाह क्षेत्र में नदी अपवाह प्रतिरूप वृक्षाकार आकृति में होता है। इस प्रकार के नदी अपवाह में एक मुख्य नदी धारा से विभिन्न शाखाओं में उपधाराएँ प्रवाहित होती हैं। जालीनुमा अपवाह प्रारूप में प्राथमिक सहायक नदियाँ समानान्तर एवं गौण शाखाएँ समकोण पर काटती हुई प्रवाहित होती हैं।

(iii) अपकेन्द्रीय और अभिकेन्द्रीय अपवाह प्रारूप में अन्तर-जब किसी उच्च भाग से नदियों का प्रवाह चारों ओर हो तो उसे अपकेन्द्रीय या अरीय अपवाह प्रारूप कहते हैं। ऐसी प्रणालियाँ किसी ज्वालामुखी पर्वत पर गुम्बद पर या उच्च टीले पर विकसित होती हैं।

जब किसी भू-भाग में ऐसा क्षेत्र पाया जाए जो चारों ओर से ऊँचा हो किम्तु बीच में निचला हो तो नदियाँ चारों ओर से बहकर मध्य भाग की ओर आती हैं अर्थात् नदियाँ किसी झील या दलदल में समाप्त हो जाती हैं। इस प्रकार की नदी प्रणाली को अभिकेन्द्रीय अपवाह कहा जाता है। रेगिस्तानी क्षेत्रों में जहाँ अन्त:स्थानीय अपवाह मिलता है, ऐसी अपवाह प्रणाली देखने को मिलती है। तिब्बत का पठार की तथा लद्दाख में भी ऐसी प्रणालियाँ दृष्टिगोचर होती हैं।

(iv) डेल्टा और ज्वारनदमुख में अन्तर–डेल्टा काँप मिट्टी का विशाल निक्षेप है। इसकी आकृतित्रिभुजाकार, पंजाकार या पंखाकार होती है। इसका निर्माण नदी के निचले मार्ग में वहाँ होता है जहाँ दाब नाममात्र का होता है। यह नदी की वृद्धावस्था में बनता है। अतः नदी अपने साथ बहाकर लाई गई अवसाद को ढोने में असमर्थ रहती है तथा विभिन्न शाखाओं में विभक्त होकर अवसाद का निक्षेप करने लगती है। इस प्रकार समुद्री मुहाने पर मिट्टी तथा बालू के महीन कणों से त्रिभुजाकार रूप में निर्मित अवसाद डेल्टा कहलाता है। ज्वारनदमुख के निर्माण में नदियाँ अपने साथ लाए हुए अवसाद को मुहाने पर जमा नहीं करतीं, बल्कि अवसाद को समुद्र में अन्दर तक ले जाती हैं। नदी में इस प्रकार बना मुहाना ज्वारनदमुख या एस्च्युरी कहलाता है। नर्मदा नदी इसी प्रकार की मुहाने का निर्माण करती है।

प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दें
(i) भारत में नदियों को आपस में जोड़ने के सामाजिक-आर्थिक लाभ क्या हैं?
उत्तर-भारत में नदियाँ प्रतिक्र्ष जल की विशाल मात्रा का वहन करती हैं, किन्तु समय वे स्थान की दृष्टि से इसका वितरण समान नहीं है। इसी कारण वर्षा ऋतु में अधिकांश जल व्यर्थ बह जाता है अथवा बाढ़ की समस्या उत्पन्न करता है। जब देश के एक भाग में बाढ़ आती है तो दूसरे भाग में सूखा उत्पन्न हो जाता है। वास्तव में जले प्रबन्धन द्वारा इस समस्या को समाप्त किया जा सकता है। यह तभी सम्भव है जब जल आधिक्य क्षमता वाली नदियों को अल्प जल क्षमता वाली नदियों से जोड़ दिया जाए। उदाहरण के लिए-हिमालय नदियों को प्रायद्वीपीय नदियों से जोड़ने की योजना बनाई जा सकती है; जैसे–गंगा-कावेरी योजना। इस योजना से आर्थिक क्षति समाप्त होगी तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि होकर आर्थिक-सामाजिक समृद्धि आएगी।

(ii) प्रायद्वीपीय नदी के तीन लक्षण लिखें।
उत्तर–प्रायद्वीपीय नदियों के तीन लक्षण निम्नलिखित हैं
(i) प्रायद्वीपीय नदियाँ वर्षा जल पर आश्रित रहती हैं। |
(ii) ये नदियाँ सदानीरा नहीं हैं।
(iii) प्रायद्वीपीय नदियाँ प्रौढ़ हैं तथा इनकी घाटियाँ सन्तुलित एवं उथली हैं।

प्रश्न 4. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 125 शब्दों से अधिक में न दें
(i) उत्तर भारतीय नदियों की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ क्या हैं? ये प्रायद्वीपीय नदियों से किस प्रकार भिन्न हैं?
उत्तर- उत्तर भारतीय नदियों की प्रायद्वीपीय नदियों से भिन्नता
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(ii) मान लीजिए आप हिमालय के गिरिपद के साथ-साथ हरिद्वार से सिलीगुड़ी तक यात्रा कर रहे हैं। इस मार्ग में आने वाली मुख्य नदियों के नाम बताएँ। इनमें से किसी एक नदी की विशेषताओं का भी वर्णन करें।
उत्तर-हरिद्वार उत्तरी भारत में गंगा नदी के किनारे स्थित है, जबकि सिलीगुड़ी पश्चिम बंगाल में स्थित है। हिमालय के गिरिपद के साथ हरिद्वार से सिलीगुड़ी तक की यात्रा करने पर हमें उत्तरी भारत की अधिकांश सभी नदियों तथा उन नदियों को भी पार करना होगा जो हिमालय से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। इन नदियों के नाम हैं-गंगा, यमुना, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, कोसी एवं महानदी।

गंगा नदी की विशेषताएँ

गंगा नदी उत्तरी भारत ही नहीं, विश्व की सर्वप्रमुख नदी मानी जाती है। इस पवित्र मानी जाने वाली नदी की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. गंगा अपनी द्रोणी और सांस्कृतिक महत्त्व दोनों के दृष्टिकोण से भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है।
  2. यह नदी उत्तराखण्ड राज्य में उत्तरकाशी जिले में गोमुख के निकट गंगोत्री हिमनद से 3,900 मीटर | की ऊँचाई से निकलती है। यहाँ इसे भागीरथी कहते हैं।
  3. देव प्रयाग में भागीरथी में अलकनन्दा नदी मिलती है, इसके बाद यह गंगा कहलाती है।
  4. गंगा नदी हरिद्वार से मैदान में प्रवेश करते हुए उत्तराखण्ड में 110 किमी उत्तर प्रदेश में 1,450 किमी, बिहार में 445 किमी और पश्चिम बंगाल में 520 किमी की दूरी तय कर अन्त में बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
  5. गंगा द्रोणी केवल भारत में लगभग 8.6 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैली हुई है। यह भारत का सबसे बड़ा अपवाह तन्त्र बनाती है जिसमें उत्तर में हिमालय से निकलने वाली नदियाँ तथा दक्षिण प्रायद्वीप से निकलने वाली अनित्यवाही नदियाँ भी सम्मिलित हैं।
  6. यमुना, सोना, रामगंगा, घाघरा, गोमती, गंडक, कोसी, महानन्दा, चम्बल आदि इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर ॥

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. बड़ी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को क्या कहते हैं?
(क) जल-संभर
(ख) नदी द्रोणी
(ग) जल-संकर
(घ) ये सभी
उत्तर-(ख) नदी द्रोणी।।

प्रश्न 2. डेल्टा नदी की ……….: में बनता है। |
(क) वृद्धावस्था
(ख) प्रौढ़ावस्था ।
(ग) यौवनावस्था
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(क) वृद्धावस्था।

प्रश्न 3. प्रायद्वीपीय नदियाँ…… जल पर आश्रित रहती हैं।
(क) नलकूप
(ख) वर्षा
(ग) कुएँ
(घ) ये सभी
उत्तर-(ख) वर्षा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. नदी अपवाह प्रतिरूप किसे कहते हैं?
उत्तर–नदी एवं उसकी सहायक नदियों के विन्यास से विकसित प्राकृतिक अपवाह नदी उपवाह तन्त्र या प्रतिरूप कहा जाता है।

प्रश्न 2. अपवाह द्रोणी किसे कहते हैं?
उत्तर—विशाल नदियों के जल संभर (Water Shed) को नदी द्रोणी या अपवाह द्रोणी कहा जाता है।

प्रश्न 3. सिन्धु नदी का उद्गम स्थल कहाँ है? इसकी पाँच सहायक नदियों के नाम बताइए।
उत्तर–सिन्धु नदी हिमालय पर तिब्बत के क्षेत्र में मानसरोवर झील के निकट निकलती है। सतलुज, रावी, व्यास, चेनाब तथा झेलम इसकी पाँच प्रमुख सहायक नदियाँ हैं।

प्रश्न 4. डेल्टा किसे कहते हैं?
उत्तर-समुद्री मुहाने पर नदी की निक्षेपण क्रिया द्वारा मिट्टी एवं बालू के महीन कणों से निर्मित अवसाद की त्रिभुजाकार आकृति ‘डेल्टा’ कहलाती है।

प्रश्न 5. ज्वारनदमुख से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिन नदियों के मुहानों पर ज्वार-भाटा अधिक सक्रिय रहते हैं, वे नदियों द्वारा निक्षेपित पदार्थों को अपने साथ बहाकर ले जाते हैं जिससे नदियाँ डेलटाओं की रचना नहीं कर पातीं। ऐसी नदियों के मुहाने ‘ज्वारनदमुख’ (एस्चुअरी) कहलाते हैं।

प्रश्न 6. नदियाँ प्रदूषित क्यों हैं?
उत्तर-नदियाँ औद्योगिक कूड़ा-करकट, शमशान घाट की राख एवं त्योहारों पर फूल एवं अन्य सामग्री के जल में विसर्जन, बड़े पैमाने पर स्नान और कपड़े धोने तथा नगरीय बस्तियों की गन्दगी को नदी में डालने से प्रदूषित होती हैं।

प्रश्न 7. गंगा नदी कहाँ से निकलती है?
उत्तर-गंगा नदी उत्तराखण्ड राज्य में हिमालय के गंगोत्री नाम की हिमानी से निकलती है।

प्रश्न 8. बंगाल की खाड़ी में गिरते समय ब्रह्मपुत्र किस नाम से पुकारी जाती है?
उत्तर-मेघना।।

प्रश्न 9. सिन्धु नदी का कितना भाग भारत में स्थित है?
उत्तर-33 प्रतिशत भाग (जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब)।

प्रश्न 10. गंगा नदी की कुल लम्बाई किलनी है?
उत्तर-2,830 किमी से अधिक।

प्रश्न11. सिन्धु नदी की कुल लम्बाई कितनी है?
उत्तर-2,900 किमी।।

प्रश्न 12. गंगा कार्य योजना क्यों बनाई गई?
उत्तर-गंगा का प्रदूषण कम करने के लिए।

प्रश्न 13. जल प्रवृत्ति किसे कहते हैं?
उत्तर–किसी नदी में जल के वस्तुनिष्ठ प्रवाह के प्रतिरूप को इसकी प्रवृत्ति कहते हैं।

प्रश्न 14. पश्चिम की ओर प्रवाहित छोटी नदियों के नाम लिखिए।
उत्तर-माही, साबरमती, कालिंदी, भरतपूझा, पेरियार, शरावती तथा ढाढर।

प्रश्न 15. घाघरा नदी का उद्गम एवं सहायक नदियों के नाम लिखिए।
उत्तर–घाघरा नदी मापचाचूँगों हिमनद से निकलती है। इसकी सहायक नदियों में तिला, सेती व बेरी मुख्य हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सहायक नदी तथा जल वितरिका में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-सहायक नदी तथा जल वितरिका में निम्नलिखित अन्तर हैं
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प्रश्न 2. डेल्टा तथा ज्वारनदमुख में चार अन्तर बताइए।
उत्तर-डेल्टा तथा ज्वारनदमुख में निम्नलिखित अन्तर हैं
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प्रश्न 3. राजस्थान में प्रवाहित नदी क्रम का वर्णन कीजिए।
उत्तर-राजस्थान शुष्क प्रदेश है। यहाँ पर लूनी नदी तन्त्र ही महत्त्वपूर्ण है। अरावली के पश्चिम में लूनी राजस्थान का सबसे बड़ा नदी तन्त्र है। यह पुष्कर के समीप दो धाराओं (सरस्वती और साबरमती) के रूप में उत्पन्न होती है, जो गोविन्दगढ़ के निकट परस्पर मिल जाती है और लूनी कहलाती है। तलवाड़ा तक यह पश्चिम दिशा में बहती है और तत्पश्चात् दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती हुई कच्छ के रन में जा मिलती है। यह सम्पूर्ण नदी तन्त्र अल्पकालिक है।

प्रश्न 4. भारत के दक्षिण-पश्चिम की ओर प्रवाहित छोटी नदी प्रणाली का वर्णन कीजिए।
उत्तर-भारत के दक्षिण-पश्चिम की ओर प्रवाहित नदियों में अरब सागर की ओर बहने वाली नदियों का जलमार्ग छोटा है। शेतरूनीजी एक ऐसी ही नदी है जो अमरावती जिले में डलकाहवा से निकलती है। भद्रा नदी राजकोट जिले के अनियाली गाँव के निकट से निकलती है। ढाढर नदी पंचमहल जिले के घंटार गाँव से निकलती है। साबरमती और माही गुजरात की दो प्रसिद्ध नदियाँ हैं। महाराष्ट्र में नासिक जिले में त्रिबंक पहाड़ियों से वैतरणा नदी निकलती है। कालिंदी नदी बेलगाँव जिले से निकलकर करवाड़ की खाड़ी में गिरती है। शरावती पश्चिम की ओर बहने वाली कर्नाटक की एक अन्य महत्त्वपूर्ण नदी है। यह नदी कर्नाटक के शिमोगा जिले से निकलती है। इसका जलग्रहण क्षेत्र 2,209 वर्ग किमी है। गोवा में ऐसी ही दो नदियाँ हैं। इनमें एक का नाम मांडवी और दूसरी जुआरी है। केरल में सबसे बड़ी नदी भरतपूझा अन्नामलाई पहाड़ियों से निकलती है। पेरियार केरल की दूसरी बड़ी नदी है। केरल की अन्य महत्त्वपूर्ण नदी पांबा है जो वेबनाद झील में गिरती है।

प्रश्न 5. नदियों की बहाव प्रवृत्ति से आप क्या समझते हैं? गंगा नदी की बहाव प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
उत्तर-नदी में बहने वाले जल की मात्रा को सामान्य नदी की बहाव प्रवृत्ति कहते हैं, किन्तु वास्तव में एक नदी के चैनल में वर्षपर्यन्त जल प्रवाह का प्रारूप नदी बहाव प्रवृत्ति (River regime) कहलाता है। गंगा नदी में न्यूनतम जल प्रवाह जनवरी से जून की अवधि में होता है, जबकि अधिकतम प्रवाह अगस्त या सितम्बर में होता है। सितम्बर के बाद प्रवाह में लगातार कमी होती जाती है। इस प्रकार गंगा नदी का जल प्रवाह वर्षा ऋतु या मानसून पर निर्भर है। गंगा द्रोणी के पूर्वी या पश्चिमी भागों की जल बहाव प्रवृत्ति में चौंकाने वाले अन्तर नजर आते हैं। बर्फ पिघलने के कारण गंगा नदी का प्रवाह मानसून आने से पहले भी काफी बड़ा होता है। फरक्का में गंगा नदी का औसत अधिकतम जल प्रवाह लगभग 55,000 क्यूसेक्स है, जबकि न्यूनतम औसत केवल 1,300 क्यूसेक्स है।

प्रश्न 6. भारत की नदियाँ किस प्रकार देश के लिए वरदान हैं?
उत्तर-नदियाँ जल का स्थायी स्रोत मानी जाती हैं, इसलिए नदियों को जीवन रेखा कहा गया है। भारत की नदियाँ वास्तव में जीवन रेखा ही हैं। इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तर्क निम्नलिखित हैं
1. नदियाँ देश का आधारभूत आर्थिक संसाधन एवं सामाजिक व सांस्कृतिक विकास को आधार हैं।
सभी प्रकार की आर्थिक क्रियाएँ और सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराएँ नदियों या जल से सम्बद्ध | होती हैं।
2. नदियाँ पेयजल, कृषि की सिंचाई के लिए जल, उद्योगों में उत्पादन के लिए जल और परिवहन के लिए जलमार्ग उपलब्ध कराती हैं।
3. नदियों के जल को बाँध के रूप में बदलकर जल विद्युत का उत्पादन किया जाता है जो वर्तमान आर्थिक विकास का आधार है।

प्रश्न 7. कावेरी नदी द्रोणी की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-कावेरी नदी कर्नाटक के कुर्ग जिले की 1,341 मीटर ऊँची ब्रह्मगिरि पहाड़ियों से निकलती है। इस नदी में वर्ष भर जल प्रवाह बना रहता है क्योंकि इसके प्रवाह क्षेत्र में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से वर्षा होती रहती है। कावेरी नदी द्रोणी का 3 प्रतिशत क्षेत्र केरल, 41 प्रतिशत कर्नाटक तथा 56 प्रतिशत तमिलनाडु में स्थित है। इस नदी की लम्बाई 800 किलोमीटर है और यह 81,155 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अपवाहित करती है। कावेरी नदी की सहायक नदियों में काबीनी, भवानी और अमरावती मुख्य हैं।

प्रश्न 8. गोदावरी दक्षिणी भारत की गंगा कहलाती है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–गंगा भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह नदी भारत में धार्मिक आस्था का आधार मानी जाती है। इसके समरूप दक्षिण भारत में भी गोदावरी नदी को गंगा के समतुल्य माना जाता है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. उत्तरी भारत में गंगा के समान ही गोदावरी नदी भी दक्षिणी भारत की सबसे लम्बी नदी है और इस नदी के प्रति भी पवित्र गंगा के समान ही जनसामान्य में श्रद्धा पाई जाती है।
  2. दक्षिणी भारत में गोदावरी नदी पर भी गंगा के समान धार्मिक आयोजन होते हैं।
  3. गोदावरी नदी की लम्बाई 1,456 किलोमीटर है जो दक्षिणी भारत की अन्य नदियों से अधिक है। | इसीलिए इसे दक्षिणी भारत की गंगा कहा जाता है।
  4. वेनगंगा, पूर्णा, प्रवरा तथा ईन्द्रावती गोदावरी की सहायक नदियाँ हैं। इसका अपवाह क्षेत्र 3,12,812 वर्ग किमी है। अत: इसके विशाल आकार, विस्तार व पवित्रता आदि के कारण इसे दक्षिणी भारत की गंगा कहा जाना उपयुक्त है।

प्रश्न 9. क्या कारण है कि पश्चिमी तट की नदियाँ भारी मात्रा में अवसाद बहाकर लाती हैं, किन्तु डेल्टा का निर्माण नहीं करतीं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-पश्चिमी तट पर बहने वाली प्रमुख नदियाँ नर्मदा तथा ताप्ती हैं। इसके अतिरिक्त अनेक छोटी-छोटी नदियाँ भी पश्चिमी घाट से निकलकर पश्चिमी तटीय मैदान में बहती हुई अरब सागर में गिरती हैं। यद्यपि ये नदियाँ पश्चिमी घाट से पर्याप्त मात्रा में तलछट बहाकर लाती हैं, परन्तु ये डेल्टा नहीं बनाती हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं–

  1. ये नदियाँ संकीर्ण मैदान में प्रवाहित होती हैं, अत: इनका वेग अधिक होता है। इसलिए अवसाद निक्षेप की आदर्श दशाएँ नहीं बनती हैं।
  2. इन नदियों के मार्ग की ढाल प्रवणता अधिक होने के कारण ये तीव्र वेग से बहती हैं जिससे इनके मुहाने पर तलछट का निक्षेप नहीं हो पाता है।

प्रश्न 10. हिमालय के तीन प्रमुख नदी तन्त्रों के नाम, इनके स्रोत तथा प्रमुख सहायक नदियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर–हिमालय के तीन प्रमुख नदी तन्त्र निम्नलिखित हैं|

  1. गंगा नदी तन्त्र–इसका उद्गम गंगोत्री हिमानी है। गंगा की सहायक नदियों में–यमुना, सोना, घाघरा, गंडक, कोसी, रामगंगा आदि हैं।
  2. ब्रह्मपुत्र नदी तन्त्र—यह नदी मानसरोवर झील (तिब्बत हिमालय) से निकलती है। इसकी सहायक नदियों में लोहित तथा दिहांग प्रमुख हैं।
  3. सिन्धु नदी तन्त्र–सिन्धु नदी भी मानसरोवर झील के निकट से निकलती है। सतलुज, जास्करे, झेलम, चेनाब, रावी, व्यास तथा गिलगित आदि इस नदी तन्त्र की प्रमुख नदियाँ हैं।

प्रश्न 11. प्रायद्वीपीय अपवाह तन्त्र की विवेचना कीजिए तथा इसके उदविकास की मुख्य घटनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-प्रायद्वीपीय अपवाह-तन्त्र
प्रायद्वीपीय अपवाह-तन्त्र हिमालयी अपवाह तन्त्र से पुराना है। यह तथ्य नदियों की प्रौढ़ावस्था और नदी घाटियों के चौड़ा व उथला होने से प्रमाणित होता है। नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर अधिकतर प्रायद्वीप नदियाँ पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं। प्रायद्वीपीय नदियों की विशेषता है कि ये एक सुनिश्चित मार्ग पर चलती हैं, विसर्प नहीं बनातीं और ये बारहमासी नहीं हैं। यद्यपि भ्रंश घाटियों में बहने वाली नर्मदा और ताप्ती इसका अपवाद हैं।

प्रायद्वीपीय अपवाह-तन्त्र का उदविकास

प्रायद्वीपीय अपवाह-तन्त्र के उविकास एवं स्वरूप निर्धारण में निम्नलिखित तीन भूगर्भिक घटनाएँ। महत्त्वपूर्ण हैं
1. आरम्भिक टर्शियरी काल की अवधि में प्रायद्वीपीय पश्चिमी पार्श्व का अवतलन या धंसाव जिससे यह समुद्र तल से नीचे चला गया। इससे मूल जल-संभर के दोनों ओर नदियों की सामान्यत
सममित योजना में असन्तुलन उत्पन्न हो गया।

2. हिमालय में होने वाले प्रोत्थान के कारण प्रायद्वीप खण्ड के उत्तरी भाग का अवतलन हुआ और परिणामस्वरूप भ्रंश द्रोणियों का निर्माण हुआ। नर्मदा और ताप्ती इन्हीं भ्रंश घाटियों में बह रही हैं। इसलिए इन नदियों में जलोढ़ व डेल्टा निक्षेप की कमी पाई जाती है।

3. इसी काल में प्रायद्वीपीय खण्ड उत्तर-पश्चिम दिशा से दक्षिण-पूर्व दिशा में झुक गया। परिणामस्वरूप इसका अपवाह बंगाल की खाड़ी की ओर उन्मुख हो गया।

प्रश्न 12. प्रायद्वीपीय नदी तन्त्र की मुख्य नदी द्रोणियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर–प्रायद्वीपीय अपवाह में अनेक नदी द्रोणी हैं। इनमें प्रमुख नदी तन्त्रों का विवरण इस प्रकार है
1. गोदावरी नदी तन्त्र–प्रायद्वीपीय खण्ड में गोदावरी सबसे बड़ी नदी तन्त्र है। इसे दक्षिण की गंगा कहते हैं। गोदावरी नदी महाराष्ट्र में नासिक जिले से निकलती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह 1,465 किमी लम्बी नदी है। इसका जलग्रहण क्षेत्र 3.13 लाख वर्ग किमी है। इसकी सहायक नदियों में पेनगंगा, इन्द्रावती, प्राणहिता और मंजरा हैं।

2. महानदी नदी तन्त्र-महानदी छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में सिहावा के निकट निकलती है और उड़ीसा में प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह नदी 851 किलोमीटर लम्बी है और
इसका जलग्रहण क्षेत्र लगभग 1.42 लाख वर्ग किमी है।

3. कृष्णा नदी तन्त्र-कृष्णा पूर्व दिशा में बहने वाली दूसरी बड़ी प्रायद्वीपीय नदी है, जो सह्याद्रि में महाबलेश्वर के निकट निकलती है। इसकी लम्बाई 1,401 किमी है। कोयना, तुंगभद्रा और भीमा
इसकी प्रमुख सहायक नदिया हैं।

4. कावेरी नदी तन्त्र-कावेरी नदी कर्नाटक के कोगाड़ जिले में ब्रह्मगिरि पहाड़ियों से निकलती है। इसकी लम्बाई 800 किमी है। यह 81,155 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अपवाहित करती है।
काबीनी, भावानी और अमरावती इसकी मुख्य सहायक नदियाँ हैं।

5. नर्मदा नदी तन्त्र—यह नदी कर्नाटक पठार के पश्चिमी पार्श्व से लगभग 1,057 मीटर की ऊँचाई से निकलती है। लगभग 1,312 किमी की दूरी में बहने के बाद यह भड़ौच के दक्षिण में अरब
सागर में मिलती है और 27 किमी लम्बी ज्वारनदमुख बनाती है।

6. ताप्ती नदी तन्त्र-ताप्ती पश्चिमी दिशा में बहने वाली प्रायद्वीप की एक अन्य महत्त्वपूर्ण नदी है। यह मध्य प्रदेश में बेतूल जिले में मुलताई से निकलती है। यह 724 किमी लम्बी है और 65,145 वर्ग किमी क्षेत्र को अपवाहित करती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारत के अपवाहं-तन्त्र के स्वरूप का विवरण दीजिए तथा उत्तरी भारत के पश्चिमी नदी तन्त्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर–किसी भी देश अथवा प्रदेश की छोटी-बड़ी सभी नदियों, नालों एवं सरिताओं आदि की समग्र अपवाह प्रणाली को अपवाह-तन्त्र की संज्ञा दी जाती है। किसी भी क्षेत्र का अपवाह-तन्त्र उस क्षेत्र की भौतिक संरचना, भू-भाग के ढाल, जल-प्रवाह का वेग एवं आकार आदि तथ्यों पर निर्भर करता है। भारत एक विशाल देश है जिसकी धरातलीय संरचना एवं भूस्वरूप में सर्वत्र अनेक विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। इसका प्रभाव यहाँ के अपवाह-तन्त्र पर भी पड़ा है। यही कारण है कि भारत में अपवाह-तन्त्र के अनेक स्वरूप देखने को मिलते हैं।

भारत के अपवाह-तन्त्र

उद्गम के आधार पर भारत की नदियों के अपवाह-तन्त्र को दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता हैं-
1. उत्तरी भारत या बृहत् मैदान का अपवाह-तन्त्र
(i) सिन्धु नदी अपवाह-तन्त्र, |
(ii) गंगा नदी अपवाह-तन्त्र तथा हि-तन्त्र तथा
(iii) ब्रह्मपुत्र नदी अपवाह-तन्त्र।

2. प्रायद्वीपीय भारत का अपवाह-तन्त्र–
(क) पश्चिमोगामी अपवाह-तन्त्र
(i) नर्मदा नदी अपवाह-तन्त्र,
(ii) ताप्ती नदी अपवाह-तन्त्र,
(ख) पूर्वगामी अपवाह तन्त्र
(iii) महानदी अपवाह-तन्त्र,
(iv) दामोदर नदी अपवाह-तन्त्र,
(v) गोदावरी नदी अपवाह-तन्त्र,
(vi) कृष्णा नदी अपवाह-तन्त्र,
(vii) कावेरी नदी अपवाह-तन्त्र।
उत्तरी भारत के पश्चिमी नदी तन्त्र में सिन्धु एवं सतलज नदियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। इनका विवरण अग्र प्रकार है–

सिन्धु नदी–सिन्धु नदी तिब्बत के पठार के निकलकर 2,880 किमी की दूरी तक प्रवाहित होती हुई अरब सागर से मिल जाती है। हमारे देश में यह नदी मात्र 709 किमी की दूरी तय करती है। इसकी मुख्य सहायक नदियाँ सतलुज, व्यास, झेलम, चिनाब तथा रावी हैं। भारत-विभाजन के फलस्वरूप सिन्धु नदी तन्त्र के मुख्य भाग पाकिस्तान में चले गए। सिन्धु की सहायक नदियों में सतलुज नदी भारत में सबसे अधिक जल प्रदान करती है।

सतलुज नदी–नदी कैलास पर्वत से निकलकर लगभग 1,440 किमी की दूरी में प्रवाहित होती हुई सिन्धु नदी में मिल जाती है। झेलम कश्मीर राज्य की प्रमुख नदी है। पर्वतीय प्रदेश से मैदान की ओर मुड़ने पर इसका जल प्रवाह मन्द हो जाता है। कश्मीर की प्रसिद्ध हरी-भरी सुखद घाटी झेलम नदी के मोड़ के समीप स्थित है। नदियों ने इस मैदान को बहुत ही उपजाऊ बना दिया है। इस भाग में नहरी सिंचाई की सघनतम जाल पाया जाता है।

प्रश्न 2. भारत के पूर्वी नदी तन्त्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर-भारत के पूर्वी विशाल नदी-तन्त्र को निम्नलिखित उप-तन्त्रों में विभाजित किया जा सकता है
1. गंगा नदी तन्त्र-गंगा भारत की प्रसिद्ध एवं धार्मिक महत्त्व वाली नदी है जो हिमालय के गंगोत्री
या गोमुख हिमानी से निकलती है। हरिद्वार से गंगा नदी की मैदानी यात्रा आरम्भ होती है तथा इसकी गति भी मन्द पड़ जाती है। मैदानी भाग में इसकी चौड़ाई अधिक है। प्रयाग (इलाहाबाद) में यमुना व अदृश्य सरस्वती नदियाँ इसमें आकर मिलती हैं तथा इससे आगे इसके ढाल में कमी आनी
आरम्भ हो जाती है। डेल्टा के समीप गंगा नदी का ढाल बहुत ही मन्द हो जाता है। गंगा नदी का डेल्टा विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा है। गंगा भारत की सबसे पवित्र नदी मानी जाती है जिसकी लम्बाई 2,510 किमी है। इसके तट पर हरिद्वार, कानपुर, प्रयाग (इलाहाबाद), वाराणसी, पटना एवं कोलकाता जैसे बड़े नगर स्थित हैं। गंगा नदी का अपवाह क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा अपवाह
क्षेत्र है। गोमती, सोन, घाघरा, गंडक एवं कोसी इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं।

2. यमुना नदी तन्त्र-यमुना नदी हिमालय पर्वत के यमुनोत्री हिमानी से निकलकर गंगा नदी के समानान्तर प्रवाहित होती हुई प्रयाग में गंगा नदी से मिल जाती है। प्रयाग तक इसकी लम्बाई 1,375 किमी है। दिल्ली, मथुरा एवं आगरा यमुना नदी के किनारे स्थित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नगर हैं। सिन्धु, बेतवा, केन एवं चम्बल इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। ये सभी दक्षिण के उत्तर
की ओर प्रवाहित होती हुई यमुना नदी से मिल जाती हैं।

3. ब्रह्मपुत्र नदी तन्त्र-ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत में स्थित मानसरोवर झील के निकट कैलास पर्वत श्रेणी से निकलती है। यह नदी दक्षिणी तिब्बत में बढ़ती हुई पूर्वी हिमालय के नामचबरवा शिखर के समीप अचानक दक्षिणे की ओर मुड़कर भारत में प्रवेश करती है। तिब्बत में इसे सांगपो नदी के नाम से जाना जाता है। असम में इसे दिहांग कहा जाता है। दिहांग तथा लोहित इसकी सहायक नदियाँ हैं जो विपरीत दिशाओं से आकर इसमें मिल जाती हैं। ब्रह्मपुत्र नदी असम राज्य में प्रवाहित होती हुई गंगा नदी से मिल जाती है। बंगाल की खाड़ी से लेकर डिब्रूगढ़ तक इसमें नावें एवं जलयान चल सकते हैं। गोहाटी एवं डिब्रूगढ़ ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर स्थित प्रमुख नगर हैं। यह नदी अपनी बाढ़ों तथा प्रवाह मार्ग में परिवर्तन के लिए विख्यात है। इसकी बाढ़ों से प्रतिवर्ष धन-जन की बहुत अधिक हानि होती है। ब्रह्मपुत्र नदी की कुल लम्बाई 2,880 किमी है।

प्रश्न 3. हिमालय से निकलने वाली नदियों की तुलना प्रायद्वीपीय भारत की नदियों से कीजिए।
उत्तर-हिमालय से निकलने वाली नदियों की प्रायद्वीपीय
भारत की नदियों से तुलना
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