UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 23
Chapter Name Foreign Trade of India (भारत का विदेशी व्यापार)
Number of Questions Solved 48
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India (भारत का विदेशी व्यापार)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
विदेशी व्यापार से आप क्या समझते हैं ? विदेशी व्यापार के गुण एवं दोषों का विवेचन कीजिए।
या
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए विदेशी व्यापार का महत्त्व समझाइए। [2013, 14]
उत्तर:
विदेशी व्यापार का अर्थ – विदेशी व्यापार का तात्पर्य किसी देश द्वारा विदेशों को किये गये निर्यात और विदेशों से किये गये आयात से होता है। विदेशी व्यापार के दो प्रमुख पहलू होते हैं

आयात – आयात का अर्थ किसी देश द्वारा विदेशों से वस्तुओं और सेवाओं के मँगाने से है; उदाहरण के लिए यदि भारत ईरान, इराक से पेट्रोल मँगाता है तब यह भारत के लिए आयात कहा जाता है।

निर्यात – निर्यात का अर्थ किसी देश द्वारा वस्तुओं और सेवाओं को अन्य देशों को भेजने से है; उदाहरण के लिए–यदि भारत से जूट का सामान अमेरिका या इंग्लैण्ड जाता है, तब यह भारत के लिए निर्यात कहलाएगा।

विदेशी व्यापार के गुण (लाभ) या भारत के आर्थिक विकास में इसका महत्त्व
विदेशी व्यापार किसी देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक उन्नति का आधार होता है। विदेशी व्यापार से अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक सहयोग एवं सम्पर्क बढ़ता है तथा देश-विदेश के लोगों के बीच भाई-चारे की भावना बढ़ती है। विदेशी व्यापार से भारत को निम्नलिखित लाभ हैं

1. प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन – विदेशी व्यापार के कारण एक देश अपने प्राकृतिक संसाधनों को पूर्ण दोहन कर सकता है, क्योंकि उसे अति उत्पादन को भय नहीं रहता। वह अतिरिक्त उत्पादित सामग्री का निर्यात करके विदेशी मुद्रा प्राप्त कर सकती है, जिसके द्वारा देश का आर्थिक विकास किया जा सकता है।

2. कृषि व उद्योगों का विकास – एक देश दूसरे देश से आधुनिक मशीनों व यन्त्रों आदि का आयात करके देश में उद्योगों का विकास कर सकता है। कृषि के क्षेत्र में भी कृषि के उपकरण, उर्वरक तथा उन्नत बीजों का आयात कर कृषि का विकास किया जा सकता है।

3. आवश्यकता की वस्तुओं की प्राप्ति – विदेशी व्यापार के माध्यम से उपभोक्ताओं को अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ उचित कीमत पर प्राप्त हो जाती हैं और उपभोक्ताओं को उन वस्तुओं के उपभोग का अवसर मिलता है, जो देश में दुर्लभ या अल्प मात्रा में हैं।

4. उत्पादकों को लाभ – विदेशी व्यापार से उत्पादकों को लाभ के अवसर प्राप्त होते हैं। उत्पादक श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन द्वारा विदेशों को निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकता है।

5. रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने में सहायक – विदेशी व्यापार द्वारा नागरिकों को आवश्यकता की वस्तुएँ सरलतापूर्वक सस्ती कीमत पर उपलब्ध हो जाती हैं। इससे जीवन-स्तर ऊँचा उठता है, राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ती है।

6. यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का विकास – विदेशी व्यापार से यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी कारण आज यातायात व सन्देशवाहन के साधनों का तीव्र गति से विकास हुआ है।

7. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि – विदेशी व्यापार से एक देश का दूसरे देश से पारस्परिक सम्पर्क बढ़ता है, वस्तुओं एवं विचारों का पारस्परिक आदान-प्रदान होता है तथा सभ्यता और संस्कृति का विकास होता है। प्राकृतिक संकट, बाढ़ व सूखे की स्थिति में विदेशी व्यापार के माध्यम से ही एक देश दूसरे देश की सहायता करता है।

8. सरकार को राजस्व की प्राप्ति – विदेशी व्यापार के कारण ही सरकार वस्तुओं पर आयात-निर्यात कर लगाकर राजस्व की प्राप्ति करती है।

9. एकाधिकार के दोषों से मुक्ति – विदेशी व्यापार के कारण एकाधिकार की प्रवृत्ति पर रोक लगती है तथा उपभोक्ताओं को सस्ती कीमत पर वस्तुएँ उपलब्ध करायी जाती हैं।

10. श्रम-विभाजन व विशिष्टीकरण के लाभ – आज प्रत्येक देश उन वस्तुओं को अधिक उत्पादन करना चाहता है जिनके लिए उसके पास पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन, श्रम व पूँजी उपलब्ध है। इससे उसे उस वस्तु के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त होती है और श्रम – विभाजन के सभी लाभ प्राप्त होते हैं। यह विदेशी व्यापार से ही सम्भव हुआ है।

11. विदेशी मुद्रा की प्राप्ति – विदेशी व्यापार के कारण ही एक देश अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन का, अन्य देशों को निर्यात कर विदेशी मुद्रा प्राप्त करता है। यह विदेशी मुद्रा विकास कार्यों में सहायक सिद्ध होती है।

12. देश का आर्थिक विकास – किसी देश का बढ़ता हुआ विदेशी व्यापार उसकी प्रगति का सूचक होता है। इस प्रक्रिया में प्रत्येक देश अपने निर्यात में वृद्धि करने का प्रयास करता है। इसलिए उत्पादन बढ़ाने हेतु पूँजी का निवेश किया जाता है। पूँजी के विनियोग से रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है, राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है और देश का तीव्र आर्थिक विकास सम्भव होता है।

विदेशी व्यापार के दोष या हानियाँ
विदेशी व्यापार में उपर्युक्त लाभों के साथ-साथ निम्नलिखित दोष भी पाये जाते हैं

1. आत्मनिर्भरता में कमी – विदेशी व्यापार के कारण राष्ट्र परस्पर आश्रित हो गये हैं। यदि एक देश में किसी वस्तु की कमी है तो वह उसे अन्य देशों से आयात कर लेता है। वह आत्मनिर्भर नहीं होना चाहता, क्योंकि वस्तुएँ उसे विदेशों से सरलता से मिल जाती हैं।

2. प्राकृतिक संसाधनों की शीघ्र समाप्ति – विदेशी व्यापार के कारण ही राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है, जिससे प्राकृतिक स्रोत दिन-प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं।

3. राष्ट्रीय सुरक्षा में कमी – युद्ध काल में प्रायः विदेशी व्यापार में बाधा उत्पन्न हो जाती है; क्योंकि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को अपनी वस्तुएँ देना बन्द कर देता है। ऐसे समय में राष्ट्र के सम्मुख संकट उत्पन्न हो जाता है।

4. देश के औद्योगिक विकास में बाधा – विदेशी व्यापार के कारण देश के उद्योगों को विदेशी उद्योगों से प्रतियोगिता करनी पड़ती है। देश में निर्मित वस्तुएँ महँगी होने पर उन वस्तुओं का आयात कर लिया जाता है, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव स्वदेशी उद्योगों पर पड़ता है। इससे देश के औद्योगिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।

5. प्रतियोगिता के कारण हानि – विदेशी व्यापार में वस्तुओं का उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता, क्योंकि वस्तुओं को विदेशी बाजार में प्रतियोगिता करनी पड़ती है। इसी कारण आज भारत जैसे देश को चाय, जूट व चीनी आदि के निर्यात में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है।

6. राजनीतिक परतन्त्रता – विदेशी व्यापार के कारण ही कभी-कभी योग्य शक्तिशाली राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को पराधीन कर लेते हैं। अंग्रेजों ने व्यापार के माध्यम से ही भारत को अपने अधीन कर लिया था।

7. अन्तर्राष्ट्रीय वैमनस्य – प्रत्येक विकसित देश, विकासशील देशों में अपनी वस्तुओं का बाजार विस्तृत करना चाहता है। इस प्रयास में सफल होने पर अन्य देश उस देश से वैमनस्य की भावना रखना प्रारम्भ कर देते हैं। इससे कभी-कभी विश्व-शान्ति का खतरा उत्पन्न हो जाता है।

8. देश की आर्थिक स्थिरता एवं नियोजन को हानि – विदेशी व्यापार के कारण कभी-कभी आयातकर्ता देश को आयातित माल के भुगतान करने में कठिनाई हो जाती है, जिसको हल करने के लिए निर्यातकर्ता देश आयातकर्ता देश को ऋण देता है। परिणामस्वरूप निर्यातकर्ता देश आयातकर्ता देश की आर्थिक व प्रशासनिक नीतियों में हस्तक्षेप करने लगता है, जिसका प्रभाव देश की आर्थिक स्थिरता व नियोजन पर पड़ता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि विदेशी व्यापार से देश की सुरक्षा, आर्थिक नियोजन तथा उद्योगों के संरक्षण को हानि होती है तथा देश परावलम्बी हो जाता है। परन्तु यह कहना कि विदेशी व्यापार में हानियाँ अधिक हैं, उचित नहीं है; क्योंकि यह सत्य है कि व्यापार किसी भी देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक उन्नति का कारण है। व्यापार के माध्यम से ही अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ता है, एकता की भावना बढ़ती है तथा वैज्ञानिक शोधों का लाभ प्राप्त होता है।

प्रश्न 2
भारत के विदेश व्यापार की मुख्य प्रवृत्तियाँ बताइए। [2008, 10, 15]
या
भारत के विदेश व्यापार के आकार, संरचना एवं दिशा पर एक लेख लिखिए।
या
गत वर्षों में भारत के विदेश व्यापार की संरचना में क्या प्रमुख परिवर्तन हुए हैं?
या
विदेशी व्यापार से आप क्या समझते हैं? भारत के आयात व निर्यात की प्रमुख मदें बताइए। [2008]
या
भारत के विदेशी व्यापार पर एक निबन्ध लिखिए। [2016]
या
हाल के वर्षों में भारत के निर्यातों की मुख्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए। [2011, 12]
या
भारत के निर्यातों तथा आयातों की संरचना की मुख्य प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिए। [2012]
उत्तर:
विदेश व्यापार का अर्थ
जब दो या दो से अधिक राष्ट्र आपस में एक-दूसरे से वस्तुओं का लेन-देन करते हैं तो इसे विदेश व्यापार कहते हैं। किसी देश के विदेश व्यापार की स्थिति उसके आयात एवं निर्यात के अध्ययन से ज्ञात की जा सकती है। इसी प्रकार किसी देश की आर्थिक स्थिति का आकलन उसके विदेश व्यापार (निर्यात) की मात्रा से किया जा सकता है। कोई भी देश किसी वस्तु का आयात इसलिए करता है कि या तो उस देश में अमुक वस्तु का उत्पादन ही नहीं होता अथवा उसका उत्पादन लागत मूल्य आयात मूल्य से अधिक बैठता है। इसी प्रकार किसी वस्तु का निर्यात इसलिए किया जाता है कि उस देश में उत्पन्न की गई अतिरिक्त वस्तु की माँग विदेशों में अधिक है तथा उसे निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।

व्यापार परिदृश्य – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत के विदेश व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। फिर भी यह वृद्धि सन्तोषजनक नहीं हैं क्योंकि विश्व के कुल विदेश व्यापार में भारत को अंश वर्ष 2000 तक लगभग 0.5% ही था। विश्व व्यापार संगठन (WTO) की विश्व व्यापार रिपोर्ट 2006 के अनुसार सन् 2009 तक विश्व के वस्तुओं और सेवाओं के कुल विदेश व्यापार में भारत का अंश 2% हो जाने का अनुमान था। सन् 2004 में यह 1.1% तथा 2010 में 1.5% था। भारत का विदेश व्यापार विश्व के लगभग सभी देशों के साथ है। भारत, 7,500 से भी अधिक वस्तुएँ लगभग 190 देशों को निर्यात करता है तथा 6,000 से अधिक वस्तुएँ 140 देशों से आयात की जाती हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत की विदेश व्यापार की उत्तरोत्तर प्रगति
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व्यापार परिदृश्य
भारत का कुल विदेश व्यापार 1991-92 में ₹ 91,893 करोड़ (आयात और निर्यात को मिलाकर जिसमें पुनर्निर्यात भी शामिल) था। इसके बाद कभी-कभार छोड़कर निरन्तर वृद्धि देखी गई है। वर्ष 2012-13 में भारत का विदेश व्यापार बढ़कर ₹ 43,03,481 करोड़ तक पहुंच गया। तालिका 1 में 1991-92 से 2013-14 के आयात-निर्यात, विदेश व्यापार का कुल मूल्य और व्यापार सन्तुलन के पूरे आँकड़े दिये गये हैं।

भारत का निर्यात 2012-13 में ₹16,34,319 करोड़ के स्तर तक 11.48 प्रतिशत तक पहुँच गया जो रुपये के सम्बन्ध में 11.48 प्रतिशत की वृद्धि थी। अमेरिकी डॉलर के रूप में निर्यात 300 बिलियन डॉलर के स्तर तक पहुँच गया, जिसमें पिछले साल की तुलना में 1.82% की गिरावट दर्ज की गई। 2013-14 में भारत का निर्यात ₹ 18,94, 182 करोड़ के स्तर पर पहुँच गया जो रुपये के सम्बन्ध में 15.90 प्रतिशत वृद्धि के साथ है।

2012-13 के दौरान, आयात का स्तर ₹ 26,69,162 करोड़ की बढ़ोतरी तक पहुँच गया जो कि पिछले वर्ष की तलुना में 13.80%, सकारात्मक वृद्धि के साथ है। तात्कालिक वर्ष 2013-14 में भारत का आयात ₹ 27,14,182 करोड़ के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है, जिसमें पिछले वर्ष की तुलना में 1.69 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अमेरिकी डॉलर के रूप में 2012-13 में 490.7 अरब के स्तर पर पहुँच गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 0.29 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ है। 2013-14 में 450.1 अरब के स्तर पर गिरने से पहले 2012-13 ( अनंतिम) में यह 490.9 के अरव के स्तर पर पहुँच गया। 2013-14 के दौरान व्यापार घाटा कम होकर ₹8,20,000 करोड़ पर गया, जो 2012-13 में ३१ 10,34,843 करोड़ था।

अमेरिकी डॉलर के रूप में व्यापार घाटा 2013-14 में कम होकर 1375 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया, जो इससे पिछले वर्ष 190.3 अरब अमेरिकी डॉलर था। व्यापार के व्यापारिक सम्बन्ध सभी बड़े व्यापारिक ब्लॉकों और दुनिया के सभी भौगोलिक क्षेत्रों से हैं। 2013-14 की अवधि के दौरान पूर्व एशिया, आसियान, पश्चिम एशिया, अन्य पश्चिम एशिया, पूर्वोत्तर एशिया और दक्षिण एशिया–जीसीसी को मिलाकर एशिया क्षेत्र का हिस्सा भारत के कुल निर्यात का 49.95 प्रतिशत रहा। भारत से यूरोप को 18.57 प्रतिशत निर्यात किया गया जो यूरोपियन यूनियन देशों (27) को 16.44 प्रतिशत निर्यात किया गया। उत्तर और लैटिन अमेरिका दोनों भारत के कुल निर्यात का 17.23 प्रतिशत हिस्से के साथ तीसरे स्थान पर हैं। इसी अवधि के दौरान शीर्ष लक्ष्य (तालिका-2) में 12.42 प्रतिशत के साथ अमेरिका निर्यात स्थल के रूप में सबसे महत्त्वपूर्ण है, जिसके बाद संयुक्त अरब अमीरात (9.7 प्रतिशत), चीन (4.77 प्रतिशत), हांगकांग्र (4.05 प्रतिशत) तथा सिंगापुर (3.94 प्रतिशत) हैं।

तालिका 2: पाँच शीर्ष निर्यातकर्ता देश (लागत ‘करोड़ में)
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तालिका 3: पाँच शीर्ष आयातक देश (लागत ‘करोड़ में) श्रेणी देश
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भारत के प्रमुख आयात
भारत के प्रमुख आयात निम्नलिखित हैं

1. मशीनरी तथा परिवहन-उपकरण – भारत आर्थिक विकास योजनाओं में गति लाने के लिए सुधरी हुई एवं उन्नत किस्म की मशीनों का भारी मात्रा में आयात करता है। इनमें विभिन्न प्रकार की औद्योगिक मशीनें, विद्युत मशीनें, उत्खनन मशीनें तथा परिवहन-उपकरणों का आयात किया जाता है। इसमें विद्युत मशीनों का आयात सबसे अधिक किया जाता है। यह आयात मुख्यत: संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, पोलैण्ड, फ्रांस, जापान, इटली, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया तथा रूस से होता है। यद्यपि देश में मशीनों का निर्माण पर्याप्त मात्रा में प्रारम्भ हो गया है तथापि विभिन्न प्रकार की मशीनरी वस्तुओं का आयात किया जाता है।

2. लोहा तथा इस्पात – विगत वर्षों से भारत के औद्योगीकरण में तीव्र गति से विकास हुआ है। इसी कारण लोहा तथा इस्पात की माँग में वृद्धि हुई है परन्तु अभी तक इस क्षेत्र में भारत पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। यह आयात अमेरिका, ब्रिटेन तथा जर्मनी से किया जाता है।

3. पेट्रोलियम – भारत में पेट्रोलियम तथा उससे सम्बन्धित वस्तुओं का उत्पादन बहुत कम होता है। पेट्रोल का घरेलू उत्पादन देश की अधिकांशत: 70-75% आवश्यकता की पूर्ति ही कर पाता है, शेष 25-30% आवश्यकता के लिए हमें विदेशों पर आश्रित रहना पड़ता है। भारत कच्चा तेल अधिक मात्रा में आयात करता है, जिसका शोधन देश के तेलशोधक कारखानों में किया जाता है। तेल का आयात मुख्यतः ईरान, कुवैत, म्यांमार, इराक, सऊदी अरब, बहरीन द्वीप, मैक्सिको, अल्जीरिया, इण्डोनेशिया, रूस आदि देशों से किया जाता है। तेल व पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर भारत का व्यय लगातार बढ़ता जा रहा है।

4. अन्य आयात – उपर्युक्त वस्तुओं के अतिरिक्त भारत और भी विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का आयात करता है, जिनमें विद्युत उपकरण एवं अन्य मशीनें, रासायनिक पदार्थ, कागज, उर्वरक, प्लास्टिक सामग्री, कागज की लुगदी, कृत्रिम रेशे, रबड़, मोती एवं बहुमूल्य पत्थर, ऊन, कपास, दवाइयाँ आदि वस्तुएँ प्रमुख हैं।

भारत के प्रमुख निर्यात
भारत की प्रमुख निर्यातक निम्नलिखित हैं

1. चाय – चाय भारत के तीन प्रमुख निर्यातों में से एक है। विगत वर्षों से इसके निर्यात व्यापार में चार-गुने से भी अधिक वृद्धि हुई है। ब्रिटेन भारतीय चाय का सबसे बड़ा ग्राहक है। इसके अतिरिक्त कनाडा, अमेरिका, ईरान, संयुक्त अरब गणराज्य, रूस, जर्मनी, सूडान तथा अन्य देशों को भी भारत चाय का निर्यात करता है। भारत को चाय के निर्यात व्यापार में श्रीलंका, इण्डोनेशिया व कीनिया से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है।

2. सूती वस्त्र – सूती वस्त्र भारत के निर्यात व्यापार में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। भारत से सूती वस्त्रों विशेष रूप से सिले-सिलाए परिधानों का निर्यात मुख्यत: अमेरिका, रूस, न्यूजीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका, मलयेशिया, सूडान, अदन, अफगानिस्तान आदि देशों को किया जाता है।

3. जूट का सामान – जूट भारत का परम्परागत निर्यात है। विभाजन से पूर्व भारतको जूट पर एकाधिकार प्राप्त था परन्तु अब यह अधिकार समाप्त हो गया है क्योंकि भारत को बांग्लादेश तथा अन्य देशों के रेशों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। महँगा होने के कारण जूट के कुल निर्यात में भारत का प्रतिशत धीरे-धीरे घटता जा रहा है। भारतीय जूट का सबसे बड़ा ग्राहक अमेरिका है। आज आयातक देशों में क्यूबा, संयुक्त अरब गणराज्य, हांगकांग, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अर्जेण्टीना आदि मुख्य हैं। भारत से पटसन तथा नारियल रेशे से निर्मित गलीचे आदि सामान का प्रतिवर्ष निर्यात किया जाती है।

4. अयस्क एवं खनिज – भारत विश्व का महत्त्वपूर्ण अभ्रक उत्पादक देश है तथा विश्व उत्पादन का 80% अभ्रक भारत में उत्पन्न होता है। अभ्रक का निर्यात अमेरिका, जापान तथा ग्रेट ब्रिटेन को किया जाता है।

5. चमड़ा तथा चमड़े का सामान – भारत चमड़ा तथा चमड़े से निर्मित वस्तुएँ मुख्यतः ब्रिटेन, रूस, अमेरिका, फ्रांस तथा जर्मनी को निर्यात करती है।

6. गर्म मसाले – भारत से मसालों का निर्यात प्रमुख रूप से यूरोपीय देशों तथा अमेरिका को किया जाता है। आज भारत विश्व के मसाला बाजार में 27% से 30% तक योगदान कर लगभग 800 करोड़ की विदेशी मुद्रा कमाता है। भारत मसालों का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और निर्यातक है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 16 लाख टन मसाले पैदा किये जाते हैं जिसमें से लगभग 2 लाख टन मसालों का विदेशों को निर्यात किया जाता है। मसालों में मुख्यतः इलायची, कालीमिर्च, सुपारी, लौंग, हल्दी, अदरक, अजवायन आदि वस्तुओं का निर्यात किया जाता है। विश्व में मसालों का व्यापार के आकार लगभग 4.5 लाख मीट्रिक टन है, जिसमें अकेले भारत की हिस्सेदारी 46% है।।

7. समुद्री उत्पाद – भारत से समुद्री उत्पाद भी निर्यात किये जाते हैं। इनमें जमी हुई झींगा मछली का विशेष स्थान है। हमारे समुद्री उत्पादों के प्रमुख ग्राहक जापान और श्रीलंका हैं।

8. कहवा – भारत कहवा के निर्यात से विदेशी मुद्रा कमाने में बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ है। कहवा विश्व के अनेक देशों को निर्यात किया जाता है।

9. इन्जीनियरिंग का सामान – भारत से इन्जीनियरिंग का सामान प्रमुख रूप से पूर्वी एशिया, अफ्रीकी, पूर्वी तथा पश्चिमी यूरोपीय देशों को निर्यात किया जाता है। इन्जीनियरिंग सामान के निर्यात मूल्य में तेजी से वृद्धि हो रही है।

10. दस्तकारी का सामान – भारत के निर्यात में दस्तकारी उद्योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें रत्न, जवाहरात एवं अन्य हस्तर्निमत वस्तुएँ सम्मिलित हैं। रत्न और आभूषण के निर्यात में 90% रत्न
और 10% आभूषण होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, बेल्जियम हांगकांग, फ्रांस, जापान, सिंगापुर, रूस, बैंकाक, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात और न्यूजीलैण्ड भारतीय माल के प्रमुख आयातक देश हैं।

11. अन्य निर्यात – उपर्युक्त वस्तुओं के अतिरिक्त भारत अन्य वस्तुओं; जैसे-काजू, कालीमिर्च, चीनी, कपास, चावल, रसायन, कच्चा लोहा, खली, फल आदि का भी निर्यात करता है। कुछ वर्षों से बिजली के पंखों, कपड़ों, सिलाई की मशीनों, साइकिलों, इन्जीनियरिंग वस्तुओं, खेल का सामान तथा पेट्रोलियम उत्पाद के निर्यात में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है।

भारत के विदेश व्यापार की विशेषताएँ
अथवा
भारत के विदेश व्यापार की अभिनव (नूतन) प्रवृत्तियाँ

भारत के विदेश व्यापार में सामान्यत: निम्नलिखित विशेषताएँ या अभिनव (नूतन) प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं।

  1. भारत का 90% विदेश व्यापार समुद्री मार्गों द्वारा सम्पन्न होता है। वायु-परिवहन एवं सड़क परिवहन का योगदान केवल 10% है।।
  2. भारत स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व आयात अधिक करता था, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद आयात में वृद्धि के साथ-साथ निर्यात में भी वृद्धि हुई है।
  3. भारत के आयात में मशीनें, खाद्य तेल, खनिज तेल एवं सम्बन्धित उत्पाद, इस्पात का बना सामान, उत्तम एवं लम्बे रेशे की कपास, रासायनिक सामान एवं उर्वरक, कच्चा जूट, कागज एवं लुगदी और अखबारी कागज, रबड़, कल-पुर्जे तथा विद्युत उपकरणों एवं मशीनरी का प्रमुख स्थान होता है।
  4. भारत से सूती वस्त्र व सिले-सिलाए परिधान, जूट का सामान, चाय, चीनी, चमड़ा एवं चमड़े की वस्तुएँ, कीमती मोती एवं जवाहरात, कोयला, कोक एवं ब्रिकेट, औषधियाँ, कृत्रिम रेशे, वनस्पति तेल, तिलहन, खनिज पदार्थ, खेल का सामान, रत्न एवं आभूषण, इलेक्ट्रिॉनिक्स और कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर, हस्तशिल्प, कालीन, पेट्रोलियम उत्पाद, इन्जीनियरिंग का सामान, मशीनें एवं उपकरण, भारी संयन्त्र, परिवहन उपकरण, उर्वरक, रबड़ की वस्तुएँ, मछली एवं मछली से निर्मित पदार्थ, नारियल, काजू तथा गर्म मसाले आदि पदार्थ निर्यात किये जाते हैं।
  5. स्वतन्त्रता-पूर्व भारत कच्चे मालों का निर्यात अधिक करता था, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् औद्योगिक विकास औद्योगीकरण में प्रगति होने के कारण अब तैयार माल विदेशों को अधिक भेजा जाने लगा है।
  6. भारत में खनिज तेल की माँग निरन्तर बढ़ने के कारण आयातित खनिज तेल की मात्रा भी निरन्तर बढ़ रही है। भारत में सम्पूर्ण आयात का लगभग 28% भाग खनिज तेल का ही होता है।
  7. भारत के आयात में खाद्यान्नों में निरन्तर कमी आई है, बल्कि अब आयात बन्द ही कर दिया गया है क्योंकि खाद्यान्न उत्पादन में पर्याप्त प्रगति हुई है।
  8. हाल के वर्षों में भारत के निर्यात व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है और इनका आधार ज्यादा व्यापक बना है, जो एक शुभ संकेत माना जा रहा है। विगत वर्षों में जिन वस्तुओं का निर्यात लगातार बढ़ा है उनमें समुद्री उत्पाद, अयस्क और खनिज, रेडीमेड गारमेण्ट्स, इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पाद, जवाहरात और आभूषण, रसायन, इन्जीनियरिंग सामान और दस्तकारी का सामान आदि प्रमुख हैं।
  9. उदारीकरण के दौर में आयात-निर्यात नीति में उदारवादी एवं मित्रवत् परिवर्तन लाकर जहाँ एक ओर भारतीय निर्यातकों के लिए विस्तृत परिक्षेत्र तैयार किया गया है वहीं विश्व व्यापार संगठन (WTO) को किये गये वादे के अनुरूप परिमाणात्मक नियन्त्रणों को भी समाप्त करने का दौर भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से लागू कर दिया गया है।
  10. 2000-01 की आयात-निर्यात नीति में चीनी मॉडल का अनुसरण करते हुए भारत सरकार ने देश के निर्यातों में वृद्धि के उद्देश्य से सात परम्परागत निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों (EPZs) को विशेष आर्थिक परिक्षेत्र (SEZs) में रूपान्तरित कर दिया है। कांडला (गुजरात), सान्ताक्रुज (महाराष्ट्र), कोच्चि (केरल), फाल्टा (प० बंगाल), नोएडा (उत्तर प्रदेश), चेन्नई (तमिलनाडु) तथा विशाखापट्टनम (आन्ध्र प्रदेश) विशेष आर्थिक परिक्षेत्र में सम्मिलित हैं।
  11. भारत का विदेश व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है। भारत का अधिकांश विदेश व्यापार लगभग 200 देशों के साथ होता है।
  12. भारत के अधिकांश आयात-निर्यात (व्यापार) देश के पूर्वी तथा पश्चिमी तट पर स्थित बड़े पत्तनों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं।
  13.  भारत का विदेश व्यापार सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा संचालित किया जाता है। इस कार्य के लिए सरकार आयात-निर्यात लाइसेंस प्रदान करती है तथा कुछ वस्तुओं के व्यापार को लाइसेंस से मुक्त कर दिया गया है। सरकार ने निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए जिंस बोर्ड, निर्यात निरीक्षण परिषद्, भारतीय विदेश व्यापार संस्थान, सुमद्री उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण, कृषि एवं संसाधित खाद्य सामग्री निर्यात विकास अभिकरण तथा निर्यात एवं संवर्द्धन परिषद् की स्थापना की है। अन्य संगठनों में भारतीय निर्यात संगठन परिसंघ, भारतीय मध्यस्थता परिषद् तथा भारतीय हीरा संस्थान प्रमुख हैं।
  14. विदेश व्यापार में वृद्धि के लिए भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेलों में भाग लेता है तथा उनका आयोजन अपने देश में भी करता रहता है।
  15. सरकार निर्यात पर अधिक बल दे रही है; अत: उन्हीं कम्पनियों को आयात की छूट दी जा रही है जो निर्यात करने में सक्षम हैं। भारत सरकार ने निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए करों में अनेक रियायतों का प्रावधान किया है तथा निजी क्षेत्र को प्राथमिकता प्रदान कर रही है।

प्रश्न 3
भारत का निर्यात-व्यापार कम होने के कारण बताइए। सरकार द्वारा निर्यात-वृद्धि के लिए किये गये प्रयासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत के निर्यात-व्यापार में मन्द (कम) वृद्धि होने के निम्नलिखित कारण हैं

1. निर्यातकर्ताओं को सुविधाओं का अभाव – भारत में निर्यातकर्ताओं को निर्यात के सम्बन्ध में अनेक कठिनाइयों का सामना करना होता है; जैसे–निर्यात सम्बन्धी कानून कड़े होना, साख-सुविधाओं की कमी, जहाजी लदान की कठिनाइयाँ, निर्यात कर अधिक होना आदि। इससे निर्यात में बाधा आती है।

2. औद्योगिक प्रगति धीमी – औद्योगिक प्रगति धीमी होने के कारण भी औद्योगिक उत्पादन तेजी से नहीं बढ़ पा रहा है। इसी कारण जुलाई, 1991 ई० में घोषित नयी उदारवादी औद्योगिक नीति के अन्तर्गत सरकार ने उद्योगों को लाइसेन्स मुक्त कर दिया है।

3. उन्नत देशों की व्यापार नीति – विश्व के उन्नत एवं विकसित देश भारतीय निर्यात के विरुद्ध भारी आयात-कर तथा अन्य व्यापारिक बाधाएँ खड़ी करते रहते हैं, जिनका भारतीय निर्यात पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

4. विज्ञापन एवं प्रचार की कमी – विदेशों में यथेष्ट मात्रा में विज्ञापन तथा प्रचार हेतु बनी संस्थाएँ प्रभावी ढंग से कार्य नहीं करती हैं। फलत: भारतीय माल की माँग कम रहती है।

5. ऊँची कीमत – माल की उत्पादन लागत अधिक होने के कारण तथा आयात किये जाने वाले कच्चे माल की ऊँची कीमतों के कारण भारत द्वारा निर्मित माल की कीमतें भी ऊँची रहती हैं। परिणामस्वरूप वे विदेशी प्रतियोगिता में पिट जाती हैं।

6. विदेशी प्रतियोगिता – भारत को जूट के सामान के निर्यात में बांग्लादेश से, चाय के निर्यात में श्रीलंका व चीन से, चीनी के मामले में क्यूबा व जावा से और सूती वस्त्र के निर्यात में जापान, चीन व इंग्लैण्ड से कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है, जिससे इन मुख्य वस्तुओ के निर्यात में वृद्धि नहीं हो पा रही है।

7. घटिया माल का निर्यात – भारतीय निर्यातक कई बार घटिया माल विदेशों को निर्यात कर देते हैं, जिससे विदेशों में भारतीय माल की प्रतिष्ठा गिर जाती है।

विगत वर्षों में निर्यात बढ़ाने के लिए भारत सरकार द्वारा किये गये प्रयास निम्नलिखित हैं

1. अग्रिम लाइसेन्स व लाइसेन्स से मुक्ति – सरकार ने कुछ उद्योगों को अग्रिम लाइसेन्स देने की व्यवस्था की है। इन लाइसेन्सों के आधार पर निर्यातकों द्वारा निर्यात के लिए बनने वाले सामान हेतु कच्चे माल का क्रय किया जाता है। अब सरकार ने अनेक उद्योगों को लाइसेन्स मुक्त भी कर दिया है।

2. ऋण सुविधाएँ – निर्यातकर्ताओं की सुविधाओं के लिए बैंकों द्वारा 6 मास की अवधि या इससे अधिक अवधि के लिए ऋणों की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक निर्यात साख एवं गारण्टी निगम की भी स्थापना की गयी है।

3. व्यापारिक समझौते – सभी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों से उन देशों को विशिष्ट वस्तुओं का निर्यात करने तथा उनसे निश्चित वस्तुएँ आयात करने के लिए व्यापारिक समझौते किये गये हैं।

4. राज्य व्यापार निगम की परिषदें – निर्यात बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा राज्य व्यापार निगम की तथा विभिन्न वस्तुओं के लिए निर्यात संवर्द्धन परिषदें स्थापित की गयी हैं।

5. भाड़े तथा करों में रियायत – निर्यात किये जाने वाले माल को बन्दरगाह तक पहुँचाने के लिए भाड़े में रियायत तथा लदान सम्बन्धी सुविधाएँ भी दी जाती हैं। चाय, पटसन के सामान इत्यादि परम्परागत वस्तुओं के निर्यात पर निर्यात शुल्क में कमी भी की गयी है।

6. प्रदर्शनियों का आयोजन – संसार के सभी देशों की होने वाली औद्योगिक प्रदर्शनियों में भारत भाग लेता है तथा अपने देश में भी इस प्रकार की प्रदर्शनियों का आयोजन करता है।

7. पर्यटकों को सुविधाएँ – भारत के प्राय: सभी भागों में विदेशी पर्यटक केन्द्र खोले गये हैं। इन केन्द्रों द्वारा पर्यटक स्थलों पर भारतीय माले बेचने का प्रबन्ध किया गया है। इस प्रकार पर्यटक भारतीय माल को अपने देश ले जाते हैं और फिर वहाँ से ऑर्डर लेने की चेष्टा की जाती है।

8. लचीले रुख की नीति – निर्यात वायदों को पूरा करने के लिए औद्योगिक सुविधाएँ प्रदान करने की घोषणा की गयी है। इससे लाल फीताशाही सम्बन्धी औपचारिकताओं की आवश्यकता नहीं रहेगी।

9. शत-प्रतिशत निर्यातोन्मुखी उद्योग – निर्यात के लिए गैर-परम्परागत वस्तुओं का उत्पादन करने वाले उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए पूँजीगत वस्तुओं व कच्चे माल तथा उपकरणों के शुल्क-मुक्त आयात, केन्द्रीय उत्पादन शुल्क व अन्य केन्द्रीय करों की उगाही आदि में रियायत तथा विदेशी सहयोग की शर्तों में अधिक उदारता जैसी सुविधाएँ दी जाती हैं।

10. बिजली करघों का नियमितीकरण – वस्त्रों का निर्यात बढ़ाने के लिये अनधिकृत बिजली करघों को नियमित कर दिया गया है।

11. खनिज तेल का आयात – भारत की आयात मदों में सबसे बड़ी मद पेट्रोलियम पदार्थों की है। इस मद का आयात घटाने के लिए भारत ने मुम्बई हाई के समुद्र में तथा अन्य भागों में तेल के उत्पादन में वृद्धि के लिए ठोस प्रयास किये हैं और इनमें उसे पर्याप्त सफलता भी मिली है। भारत में खनिज तेल के उत्पादन में वृद्धि होने के कारण वर्ष 1988-89 में इस मद की आयात राशि घट गयी थी, किन्तु माँग बढ़ने के कारण वर्ष 1993-94 के बाद यह राशि फिर बढ़ गयी।

12. भारतीय विदेशी व्यापार संस्थान – यह सरकारी संस्थान उद्योगों व निर्यात संस्थाओं के ” कर्मचारियों को निर्यात प्रबन्ध का प्रशिक्षण देता है, निर्यात की गुंजाइश वाले देशों का पता लगाता हैं। तथा विदेशों में बाजारों का सर्वेक्षण करता है।

13. निर्यात-आयात बैंक – निर्यात-आयात सम्बन्धी विविध समस्याओं के समाधान के लिए जनवरी, 1982 ई० में भारत में निर्यात-आयात बैंक की स्थापना की गयी है।

प्रश्न 4
व्यापार सन्तुलन से आप क्या समझते हैं ? भारत सरकार ने व्यापार सन्तुलन को अनुकूल बनाने के लिए कौन-कौन-से कदम उठाये हैं ? कारण सहित व्याख्या कीजिए। [2010]
उत्तर:
किसी देश का व्यापार सन्तुलन’ उस देश के आयातों तथा निर्यातों के सम्बन्ध को बताता है। व्यापार सन्तुलन एक ऐसा विवरण होता है जिसमें वस्तुओं के आयात तथा निर्यातों का विस्तृत ब्यौरा दिया जाता है। व्यापार सन्तुलन में केवल दृष्ट निर्यातों तथा आयातों को ही सम्मिलित किया जाता है, अदृष्ट निर्यातों तथा आयातों का उसमें कोई हिसाब नहीं रखा जाता, किसी देश का व्यापार सन्तुलन उसके अनुकूल अथवा प्रतिकूल दोनों हो सकता है। जब दो देशों के बीच आयात-निर्यात बराबर होते हैं, तो व्यापार सन्तुलन की स्थिति होती है। यदि देश ने निर्यात अधिक किया है तथा आयात कम तो व्यापार सन्तुलन अनुकूल कहा जाएगा। इसके विपरीत, यदि आयात अधिक तथा निर्यात कम किया गया है तो प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन की स्थिति होगी।

भारत सरकार द्वारा व्यापार सन्तुलन को अनुकूल बनाने के लिए उठाये गये कदम
द्वितीय विश्व युद्ध से पहले व्यापार सन्तुलन प्रायः भारत के अनुकूल ही रहता था, परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् से भारत का व्यापार सन्तुलन निरन्तर प्रतिकूल होता गया। भारत सरकार ने व्यापार सन्तुलन को अनुकूल बनाने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाये हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है|

1. निर्यात प्रोत्साहन द्वारा  – निर्यातों को प्रोत्साहन देकर व्यापार सन्तुलन को अनुकूल करने का उपाय सबसे उत्तम है। निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं, जो निम्नवत् हैं

  • देश के निर्यात व्यापार को सुनियोजित और संगठित ढंग से बढ़ाने के लिए उद्योग और वाणिज्य मन्त्रालय में एक संगठन बनाया गया। इसी मन्त्रालय के अन्तर्गत चाय, कॉफी, रबड़ और इलायची के लिए चार अलग बोर्ड हैं।
  • विभिन्न वस्तुओं के लिए निर्यात प्रोत्साहन परिषदें बनायी गयीं, जो अपनी-अपनी वस्तुओं के लिए विदेशी मण्डियों की जाँच करती थीं, वस्तुओं के स्तर निर्धारित करती थीं, शिकायतें दूर करती थीं तथा उनको प्रचार करती थीं।
  • विभिन्न निर्यात प्रोत्साहन परिषदों, बोर्डों और अन्य निर्यात संस्थाओं के काम में तालमेल स्थापित करने के लिए इन संगठनों की शीर्ष संस्था के रूप में भारतीय निर्यात संगठनों का संघ’ बनाया गया है।
  • बोर्ड ऑफ ट्रेड या व्यापार मण्डल (स्थापना मई, 1962 ई०) देश के विदेशी व्यापार से सम्बन्धित समस्याओं और नीतियों के बारे में सलाह देता है।
  • व्यापार सलाहकार परिषद् की भी स्थापना की गयी है, जो अर्थव्यवस्था के वाणिज्यिक पहलुओं की सफलताओं-असफलताओं का विवेचन करने के साथ-साथ व्यापार के विस्तार तथा आयात के नियमों से सम्बद्ध समस्याओं पर भी विचार-विमर्श करती है।
  • निर्यात वस्तुओं की किस्म पर नियन्त्रण रखने के लिए और जहाज पर लादने से पहले माल का सुनियोजित ढंग से नियन्त्रण करने के लिए एक निर्यात निरीक्षण संस्था बनायी गयी है। इसके कारण विदेशी मण्डियों में भारतीय माल की प्रतिष्ठा बढ़ी है।
  • व्यापार विकास प्राधिकरण’ नामक एक विशेष संगठन भी बनाया गया है, जो निर्यात उत्पादन और बिक्री के क्षेत्र में विशिष्ट सेवाएँ प्रदान करता है।
  •  इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए मुम्बई में निर्यात विधायन (प्रॉसेसिंग) जोन बनाया गया है। निर्यात-व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कांदला में एक मुक्त व्यापार क्षेत्र भी बनाया गया है।
  • भारत का राजकीय व्यापार निगम अब एक प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक संस्था माना जाता है। यह लगभग 140 वस्तुओं का निर्यात करता है। इसके तीन सहायक संगठन भी हैं –  (क) परियोजना और उपकरण निगम, (ख) हथकरघा और दस्तकारी विकास निगम और (ग) भारतीय काजू निगम।।
  • उद्योग और वाणिज्य मन्त्रालय के अधीन अन्य निगम हैं–निर्यात-साख़ और गारण्टी निगम, भारतीय कपास निगम, भारतीय पटसन निगम और भारतीय चाय निगम।
  • आयात-निर्यात बैंक (EXIM) की स्थापना की गयी है।
  • निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने निर्यात जोखिम बीमा निगम की स्थापना की है। सरकार की वर्तमान निर्यात-नीति द्वारा निर्यात में वृद्धि की पर्याप्त सम्भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं।

2. आयातों पर प्रतिबन्ध लगाना – व्यापार सन्तुलन को ठीक करने के लिए एक दूसरा प्रभावशाली उपाय देश के आयातों को कम करना है। आयातों की मात्रा को कम करने के लिए आयातों पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध अथवा कर लगाये जाते हैं। भारत सरकार ने आयात-नीति में आयातों को कम करने का प्रयास किया है।

3. अवमूल्यन द्वारा – मुद्रा के अवमूल्यन के द्वारा भी एक देश अपने प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन को ठीक कर सकता है। अवमूल्यन से अभिप्राय देश की मुद्रा के विदेशी मूल्य को कम करने से होता है। अवमूल्यन के द्वारा देश के निर्यातों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है तथा आयातों की मात्रा को कम किया जा सकता है। भारत सरकार ने 1949 ई० में सबसे पहले भारतीय रुपये का अवमूल्यन किया। इसके पश्चात् 6 जून, 1966 ई० को और पुन: जुलाई, 1991 ई० में रुपये का अवमूल्यन किया गया है। रुपये का अवमूल्यन होने से निर्यातों में वृद्धि हुई है तथा व्यापार सन्तुलन कुछ अनुकूल हुआ, परन्तु कुछ समय पश्चात् व्यापार सन्तुलन पुनः प्रतिकूल ही होता गया है।

4. मुद्रा-प्रसार पर नियन्त्रण करके – मुद्रा-प्रसार को कम करने के लिए भारत सरकार ने अनेक कदम उठाये हैं, जिनके परिणामस्वरूप 1993 ई० में मुद्रा-प्रसार की दर, जो 17% तक पहुँच गयी थी, घटकर 7% तक आ गयी। लेकिन मई, 1994 ई० में यह दर पुन: बढ़ने लगी और 11.8% हो गयी। मुद्रा-प्रसार पर नियन्त्रण करने से व्यापार सन्तुलन को अनुकूल बनाया जा सकता है।

5. जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण द्वारा – व्यापार सन्तुलन को अनुकूल करने के लिए तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या को नियन्त्रित करने के प्रयास किये जाने चाहिए, जिससे आन्तरिक माँग में वृद्धि न हो। भारत सरकार ने परिवार कल्याण कार्यक्रम के द्वारा जनसंख्या-वृद्धि को कम करने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं।

6. कृषि-उत्पादन में वृद्धि द्वारा –
भारत जैसे विकासशील देश में व्यापार सन्तुलन को अनुकूल करने के लिए कृषि-उत्पादन में वृद्धि के प्रयास अनवरत रूप से किये जाने चाहिए। कृषि-उत्पादकता में वृद्धि करके आयातों में कमी की जा सकती है।

प्रश्न 5
भुगतान सन्तुलन व व्यापार सन्तुलन में अन्तर कीजिए। इन दोनों में किसके अध्ययन का अधिक महत्त्व है? [2010, 13, 14]
उत्तर:
भुगतान सन्तुलन व व्यापार सन्तुलन में निम्नलिखित अन्तर हैं
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India 4
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 Foreign Trade of India 5
व्यापार सन्तुलन एवं भुगतान सन्तुलन का तुलनात्मक महत्त्व
किसी देश के लिए व्यापार सन्तुलन की अपेक्षा उसका भुगतान सन्तुलन अधिक महत्त्वपूर्ण होता । है। व्यापार सन्तुलन के अध्ययन से देश की आर्थिक स्थिति का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। केवल भुगतान सन्तुलन ही देश की अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन की स्थिति का ज्ञान सही-सही अनुकूल तथा प्रतिकूल हो सकता है, किन्तु दीर्घकाल में व्यापार सन्तुलन का अनुकूल अथवा प्रतिकूल होना हमें देश की आर्थिक स्थिति के विषय में कुछ नहीं बताता है। देश की आर्थिक समृद्धि का प्रमाण समझा जाता था किन्तु आजकल यह विचार अधिक उपयुक्त नहीं है।

व्यापार सन्तुलन का पक्ष में होना देश की आर्थिक समृद्धि का संकेत नहीं है किन्तु किसी देश की आर्थिक समृद्धि उस देश के भुगतान सन्तुलन की स्थिति पर निर्भर होती है। भुगतान सन्तुलन के पक्ष में होने से देश के ऋण दूसरे देशों पर होते हैं और वह देश ऋणदाता होता है। इसके विपरीत भुगतान सन्तुलन का विपक्ष में होना देश को ऋणी बनाता है। अतः। किसी देश की आर्थिक स्थिति का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें उसके भुगतान सन्तुलन का अध्ययन करना चाहिये।

प्रश्न 6
भारत की आयात-निर्यात नीति (विदेशी व्यापार नीति) 2001-02 पर एक लेख लिखिए।
या
भारतीय व्यापार नीति में हाल में हुए परिवर्तनों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
या
आर्थिक सुधारों की अवधि में भारत की व्यापार नीति में हुए मुख्य परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से भारत ने समय-समय पर अपनी आयात-निर्यात नीति घोषित की है और आवश्यकता के अनुसार इन नीतियों में उचित समायोजन भी किया है। विगत शताब्दी के अन्तिम दशक में उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण की नीतियाँ अपनायी गयीं और आयात-निर्यात नीति को भी इन उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ जोड़ा गया।
आठवीं तथा नवीं पंचवर्षीय योजना के लिए उदारवादी आयात-निर्यात नीतियाँ घोषित की गयी थीं, जिनके उद्देश्य निम्नवत् थे।

  • भारत को भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था की ओर ले जाना जिससे कि बढ़ते हुए भूमण्डलीय बाजार का लाभ उठाया जा सके।
  • देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना जिसके लिए आवश्यक कच्चा माल, साज-सज्जा व पूँजीगत माल उपलब्ध कराना।
  • भारतीय कृषि, उद्योग एवं सेवा की तकनीकी मजबूती को बढ़ावा देना।
  • उपभोक्ताओं को अच्छी क्वालिटी की वस्तुएँ उचित मूल्यों पर उपलब्ध कराना।।

भारत में आयात-निर्यात नीति, 2001-02 की घोषणा तत्कालीन केन्द्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मन्त्री श्री मुरासोली मारन ने 31 मार्च, 2001 ई० को की। भारतीय विदेशी व्यापार के इतिहास में यह नीति ऐतिहासिक है। इस नीति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. इस नीति द्वारा 1 अप्रैल, 2001 ई० से 1429 में से शेष बचे सभी 715 उत्पादों के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा लिये गये। यह स्मरण रखना चाहिए कि विश्व व्यापार संगठन के नियमों के प्रति प्रतिबद्धता के चलते इसके अतिरिक्त अन्य 714 उत्पादों के आयात पर से यह प्रतिबन्ध 1 अप्रैल, 2000 ई० से हटा लिये गये थे। अब सुरक्षा की दृष्टि से अति संवेदनशील उत्पादों को छोड़कर लगभग सभी उत्पादों का आयात देश में किया जा सकेगा। इन उत्पादों में से 147 उत्पाद कृषि-क्षेत्र से तथा 342 उत्पाद टेक्सटाइल क्षेत्र से सम्बन्धित हैं। अन्य 226 उत्पादों में ऑटोमोबाइल्स सहित दूसरे उपभोक्ता उत्पाद सम्मिलित हैं।
  2. जिन 715 उत्पादों के आयात परे 1 अप्रैल, 2001 से प्रतिबन्ध समाप्त किये गये उनमें ये पदार्थ हैं—चाय, कॉफी, चावल व अन्य कृषिगत उत्पाद, प्रसंस्करित खाद्य-पदार्थ, शराब, ग्रीटिंग कार्ड, ब्रीफकेस, सूती व सिन्थेटिक वस्त्र, टाइयाँ, जैकेट, जूते, प्रेशर कुकर, बर्तन, टोस्टर, रेडियो, कैसेट प्लेयर, टेलीविजन, मोपेड, मोटरसाइकिलें, कारें, घड़ियाँ, खिलौने, ब्रश, कंघे, पेन, पेंसिलें, दूध, पनीर, डेयरी उत्पाद, हीटर, इलेक्ट्रिक चूल्हे, बल्ब, वीडियो गेम्स, अण्डे, पोल्ट्री उत्पाद व फल आदि।
  3. 300 अति संवेदनशील उत्पादों के आयात पर निगरानी हेतु वाणिज्य सचिव की अध्यक्षता में ‘वाच रूम का गठन किया गया है।
  4. भारत में अपना माल बेचने के लिए विदेशी उत्पादकों द्वारा अनुसूचित तरीके अपनाये जाने पर आयातों पर अंकुश हेतु ‘ऐण्टी डम्पिंग ड्यूटी’ (प्रतिपाटन कर) लगायी जाएगी।
  5. गेहूं, चावल, मक्का, पेट्रोल, डीजल व यूरिया का आयात केवल अधिकृत एजेन्सियों द्वारा ही किया जाएगा।
  6. निर्यातों में 18% वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य प्राप्त किया जाएगा।
  7. निर्यात वृद्धि के लिए नये कदम उठाये जाएँगे।
  8. विशेष आर्थिक परिक्षेत्रों की स्थापना के साथ ही उनकी सुविधाओं में भी वृद्धि की जाएगी।
  9. सस्ते आयातों से स्वदेशी उद्योग व कृषि-क्षेत्र को बचाने के लिए आवश्यक उपाय किये जाएँगे। उनकी गुणवत्ता में सुधार कर उनकी कीमतों को भी प्रतिस्पर्धी बनाया जाएगा।

इस नीति के अन्तर्गत की गयी कार्यवाहियाँ निम्नलिखित हैं

  1. भारत सरकार ने 7 मई, 2001 से 300 अति संवेदनशील उपभोक्ता वस्तुओं के आयात पर निगरानी के लिए इनके आयात के 200 रास्ते बन्द कर दिये हैं। पहले 211 प्रवेश मार्गों में से कहीं से भी माल का आयात किया जा सकता था, किन्तु अब केवल 11 बन्दरगाहों व हवाई अड्डों के रास्ते ही आयात किया जा सकता है।
  2. खुली बाजार व्यवस्था व आयात व्यवस्था के कारण यदि कोई देश अनुचित तरीके अपनाकर अपने माल से भारत के बाजार को पाट देता है अर्थात् अपने माल की भारत के बाजार में भरमार कर देता है तो ऐसी दशा में भारत सरकार ऐसी वस्तुओं पर ‘ऐण्टी डम्पिंग ड्यूटी’ (प्रतिपाटन कर) लगाकर उन पर नियन्त्रण करेगी। भारत ने मई, 2001 ई० तक डम्पिग के 89 मामले दर्ज किये हैं, जिनमें से आधे मामले चीन से होने वाली आयातित वस्तुओं के खिलाफ हैं।

इस प्रकार सरकार का निगरानी कक्ष स्थिति पर बराबर निगाह रखेगा और किसी वस्तु के अनुचित आयात की भरमार पर तत्काल कार्यवाही करेगा तथा देश की कृषि, उद्योग व अर्थव्यवस्था पर : खुले आयात का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ने देगा।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताओं को बताइए।
उत्तर:
भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. अधिकांश भारतीय विदेशी व्यापार लगभग (90%) समुद्री मार्गों द्वारा किया जाता है। हिमालय पर्वतीय अवरोध के कारण समीपवर्ती देशों एवं भारत के मध्य धरातलीय आवागमन की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसी कारण देश का अधिकांश व्यापार पत्तनों द्वारा अर्थात् समुद्री मार्गों द्वारा ही किया जाता है।
  2. भारत के निर्यात व्यापार का 27% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 20% उत्तर अमेरिकी देशों, 51% एशियाई एवं ऑस्ट्रेलियाई देशों तथा 2% अफ्रीकी देशों एवं दक्षिण अमेरिकी देशों में किया जाता है। कुल निर्यात का लगभग 40% भाग विकसित देशों को किया जाता है। इसी प्रकार आयात व्यापार में 26% पश्चिमी यूरोपीय देशों, 39% एशियाई एवं ऑस्ट्रेलियाई देशों, 13% उत्तरी अमेरिकी देशों तथा 7% अफ्रीकी देशों का स्थान है।
  3. यद्यपि भारत में विश्व की 17.5% जनसंख्या निवास करती है, परन्तु विश्व व्यापार में भारत का भाग 0.67% है, जबकि अन्य विकसित एवं विकासशील देशों की भाग इससे कहीं अधिक है।
  4. भारत का व्यापार सन्तुलन सदैव भारत के विपक्ष में रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि भारत के आयात की मात्रा निर्यात से सदैव अधिक रहती है। परिणामस्वरूप विदेशी व्यापार का सन्तुलन प्रायः भारत के विपक्ष में रहती है।
  5. देश का अधिकांश विदेशी व्यापार मात्र 35 देशों (कुल 190 देश) के मध्य होता है जो विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर किया जाता है। भारत का सर्वाधिक विदेशी व्यापार संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ है।
  6. भारत के विदेशी व्यापार में खाद्यान्नों के आयात में निरन्तर कमी आयी है, जिसका प्रमुख कारण खाद्यान्न उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि का होना है। वर्ष 1989-90 से देश खाद्यान्नों को निर्यात करने की स्थिति में आ गया था, परन्तु वर्ष 1993-94 से पुनः देश को खाद्य-पदार्थ-गेहूं और चीनी-विदेशों से आयात करने पड़ रहे हैं।
  7. भारत अपनी विदेशी मुद्रा के संकट का हल अधिकाधिक निर्यात व्यापार से ही कर सकता है; अतः उन्हीं कम्पनियों को आयात की छूट दी जाती है, जो निर्यात करने की स्थिति में हैं।
  8. भारत के आयातों में मशीनरी, खनिज तेल, उर्वरक, रसायन तथा कपास की अधिकता रहती है और निर्यातों में हीरे-जवाहरात, चमड़ा, सूती वस्त्र व खनिज पदार्थों का मुख्य स्थान है।
  9. स्वतन्त्रता के पूर्व भारत अधिकतर कच्चे माल का निर्यात और पक्के माल (अधिकतर उपभोग वस्तुओं) का आयात करता था। स्वतन्त्रता के बाद उद्योग-धन्धों का विकास होने के कारण भारत द्वारा अब पक्के माल का भी पर्याप्त निर्यात किया जा रहा है। इसके आयात किये गये पक्के माल में अब अधिकतर मशीनें होती हैं। इसके साथ ही भारत में औद्योगिक विकास में वृद्धि होते रहने के कारण कच्चे माल का आयात भी बढ़ रहा है।

प्रश्न 2
भारत के आयात-निर्यात व्यापार (विदेशी व्यापार) की वर्तमान प्रवृत्तियाँ बताइए। [2010, 11]
या
हाल के वर्षों में भारत के निर्यातों की मुख्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए। [2011]
या
भारत के विदेशी व्यापार की आधुनिक प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए। [2015]
उत्तर:
अंग्रेजी राज्य की स्थापना से पूर्व भारत विश्व के प्रमुख निर्यातकों में से था। भारत सूती-वस्त्र, रेशमी वस्त्र, बर्तन, इत्र, मसाले आदि रोम, मिस्र, यूनान, चीन, अफगानिस्तान, ईरान आदि देशों को भेजता था तथा शराब, घोड़े, बहुमूल्य जवाहरात आदि का आयात करता था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व भारत का विदेशी व्यापार एक उपनिवेश एवं कृषि-पदार्थों तक ही सीमित था। इसका अधिकांश व्यापार ग्रेट-ब्रिटेन तथा राष्ट्रमण्डलीय देशों से ही होता था। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् से भारत के विदेशी व्यापार में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। भारत के विदेशी व्यापार की प्रवृत्ति निम्नवत् रही है

(1) व्यापार की दिशा और स्वभाव में परिवर्तन – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश से चाय व जूट के निर्यात में कमी हुई है तथा मशीनों, औजारों, इंजीनियरिंग वस्तुओं, चमड़ा तथा चमड़े से बनी वस्तुओं, हस्तशिल्प तथा जवाहरात आदि के निर्यात में वृद्धि हुई है। सबसे अधिक मात्रा में पेट्रोलियम और क्रूड उत्पादों का आयात होता है। मशीनों व उपकरणों का आयात भी अधिक मात्रा में किया जा रहा है। अनाज का आयात कम हुआ है। अब हम विदेशों से तैयार माल के स्थान पर कच्चा माल अधिक मॅगाते हैं। निर्यात के मामले में भारत अब केवल प्राथमिक एवं कृषिगत वस्तुओं का ही निर्यातक नहीं रह गया है, बल्कि इसके निर्यात में विनिर्मित (मैन्युफैक्चर्ड) वस्तुओं का प्रतिशत भी बढ़ता जा रहा है।

(2) विदेशी व्यापार के आकार एवं परिमाण में परिवर्तन – स्वतन्त्रता के उपरान्त भारत के विदेशी व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। यद्यपि यह वृद्धि व्यापार की मात्रा एवं मूल्य दोनों में ही हुई है, फिर भी इस वृद्धि को सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता; क्योंकि विश्व के कुल विदेशी व्यापार में भारत का अंश पिछले वर्षों में लगभग स्थिर ही रहा है। भारत का विदेशी व्यापार विश्व के लगभग सभी देशों के साथ है। 7,500 से भी अधिक वस्तुएँ लगभग 190 देशों को निर्यात की जाती हैं, जब कि 6,000 से अधिक वस्तुएँ 140 देशों से आयात की जाती हैं।

(3) व्यापार घाटा – भारत का व्यापार घाटा भी निरन्तर बढ़ता जा रहा है। वित्त वर्ष 2001-02 के प्रथम 9 महीनों में देश का व्यापार घाटा 5.79 अरब डॉलर पर पहुँच गया था, परन्तु अप्रैल-सितम्बर, 2011-12 ई० की अवधि में देश का व्यापार घाटा लगभग 8 अरब आ गया है।

वर्तमान समय में भारत में विदेशी व्यापार की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ स्पष्ट होती हैं

  • भारत के विदेशी व्यापार में तीव्रता से वृद्धि हो रही है।
  • भारत के विदेशी व्यापार के क्षेत्र में विकास हो रहा है और नये व्यापार सम्बन्ध स्थापित हो रहे हैं।
  • तेल उत्पादक राष्ट्रों के आयात की राशि में असाधारण वृद्धि हुई है।
  • समाजवादी देशों के साथ विशेष रूप से रूस के साथ व्यापार सम्बन्ध सुदृढ़ हो रहे हैं।
  • विदेशी व्यापार के निर्यात में अपरम्परागत क्षेत्र का अनुपात तेजी से बढ़ रहा है।
  • भारत के विदेशी व्यापार में निर्यात का अंशदान बढ़ता जा रहा है।
  • भारत के विदेशी व्यापार में प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन की अवस्था बनी हुई है।

प्रश्न 3
भारत के निर्यातों एवं आयातों की प्रमुख मदे बताइए। [2012]
या
भारत की आयात व निर्यात प्रत्येक की किन्हीं दो प्रमुख मदों का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर:
भारत के निर्यात की प्रमुख मदें

(क) कृषि और सम्बद्ध उत्पाद

  1. काजू की गिरी,
  2. कॉफी,
  3. समुद्री उत्पाद,
  4. कपास,
  5. चावल,
  6. मसाले,
  7. चीनी,
  8. चाय,
  9. तम्बाकू।

(ख) अयस्क और खनिज – (1) लौह-अयस्क।

(ग) विनिर्मित वस्तुएँ

  1. इंजीनियरी वस्तुएँ,
  2. रसायन,
  3. टैक्सटाइल्स सिलेसिलाए परिधान,
  4. जूट व जूट से निर्मित सामान,
  5. चमड़ा और चमड़ा उत्पाद,
  6. हस्त शिल्प,
  7. हीरे और जवाहरात।

(घ) खनिज ईंधन और लुब्रीकेण्ट कोयले सहित।
भारत के आयात की प्रमुख मदें

  1. अनाज और अनाज के उत्पाद,
  2. काजू की गिरी,
  3. कच्चा रबर,
  4. ऊनी, कपास तथा जुट के रेशे,
  5. पेट्रोलियम तेल और लुब्रीकेण्ट,
  6. खाद्य तेल,
  7. उर्वरक,
  8. रसायन,
  9. रँगाई व रँगाई की सामग्री,
  10. प्लास्टिक सामग्री,
  11. चिकित्सीय एवं औषध उत्पाद,
  12. कागज, गत्ता,
  13. मोती एवं रत्न,
  14. लौह-इस्पात,
  15. अलौह धातुएँ।।

प्रश्न 4
भारत में निर्यात में वृद्धि हेतु अपने सुझाव दीजिए। [2009, 12, 14]
उत्तर:
निर्यात-वृद्धि के लिए सुझाव
र्यात में वृद्धि हेतु निम्नलिखित सुझाव हैं

  1. प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति बढ़ाने के लिए उत्पादन लागत घटाई जाए।
  2. उत्पादन पद्धति में सुधार किया जाए तथा श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ाई जाए।
  3. कृषि उत्पादन तथा व्यापार सुविधाओं में वृद्धि की जाए।
  4. निर्यात वस्तुओं की किस्म में सुधार किया जाए।
  5. निर्यात प्रोत्साहन के लिए सकारात्मक प्रेरणाएँ दी जाएँ।
  6. निर्यात वस्तुओं के उत्पादकों व निर्यातकों को वित्तीय सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।
  7. व्यापार समझौते के लाभों को प्राप्त करने के लिए भरपूर प्रयत्न किए जाएँ।
  8. पर्याप्त मात्रा में विदेशों में प्रचार एवं प्रसार किया जाए।
  9. विदेशी बाजारों का गहन एवं व्यापक सर्वेक्षण किया जाए।
  10. भारतीय माल की कीमतों को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धात्मक स्तरों के समरूप रखा जाए।
  11. केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा स्थापित विभागों में उचित एवं प्रभावपूर्ण समन्वय स्थापित किया जाए।
  12. देश में निर्यात विकास कोष की स्थापना की जाए।
  13. निर्यातगृहों तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक केन्द्रों की स्थापना में सहायता दी जाए।
  14. बन्दरगाहों का सुधार एवं अभिनवीकरण किया जाए।
  15. व्यापार विपणन हेतु प्रशिक्षण दिया जाए।

प्रश्न 5:
भारत में भुगतान-शेष में असन्तुलन के क्या कारण हैं? [2010]
उत्तर:
भारत के भुगतान-शेष में असन्तुलन के अनेक कारण हैं, जिनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  1. तेल उत्पादक देश अपने पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य पिछले कुछ वर्षों से प्रति वर्ष बढ़ाते रहे हैं। इसके साथ ही देश में पेट्रोलियम पदार्थों की खपत भी बढ़ी है, जिससे पर्याप्त मात्रा में इनका आयात किया गया है।
  2. आर्थिक योजना के कारण देश में औद्योगीकरण व कृषि विकास की गति तेज हो गयी, जिसके फलस्वरूप मशीनों का पर्याप्त आयात करना पड़ा।
  3. भारत के भुगतान-असन्तुलन का एक कारण निर्यातों का आशा के अनुरूप न बढ़ना है। वर्ष 1950-51 में भारत के निर्यात १ 606 करोड़ के थे, जो वर्ष 2011-12 में बढ़कर १ 14,59,28,050 करोड़ के हो गये हैं, जबकि आयात इसी काल में 608 करोड़ से बढ़कर है 23,44,772.04 करोड़ के हो गये हैं।
  4. भारत ने विकास-कार्य के लिए पर्याप्त मात्रा में ऋण लिये हैं, जिसमें ब्याज व मूलधन वापसी के लिए भी विदेशी विनिमय का व्यय करना पड़ता है। इससे भी भुगतान-शेष में असन्तुलन पैदा हो गया है।
  5. भारत की जनसंख्या बराबर बढ़ रही है, जिससे आयातों में वृद्धि हो रही है तथा घरेलू उपभोग बढ़ने से निर्यात-क्षमता में कमी आयी है। इससे भी भुगतान-शेष में असन्तुलन की स्थिति बन गयी है।
  6. देश का अपने विदेशी दूतावासों, यात्रियों, विद्यार्थियों आदि पर सरकारी व्यये बराबर बढ़ रहा है। इससे भी भुगतान-शेष का असन्तुलन बढ़ा है।

प्रश्न 6
भुगतान सन्तुलन को परिभाषित करते हुए इसे अनुकूल बनाने हेतु सुझाव दीजिए। [2010]
या
प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को सुधारने के लिए कोई चार सुझाव दीजिए। [2013, 16]
या
प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन का अर्थ लिखिए। भारत के प्रतिकूल भगतान सन्तुलन के सुधार के लिए कोई दो उपाय सुझाइए। [2016]
उत्तर:
भुगतान सन्तुलन किसी देश के आर्थिक लेन-देन का एक व्यवस्थित लेखा-जोखा है, जो किसी देश के निवासियों द्वारा विश्व के अन्य देशों के निवासियों के साथ किया जाता है। भुगतान सन्तुलन के विवरण में प्राय: लेन-देन की मदों में चालू खाता और पूँजी खाता की मदों का उल्लेख होता है। जब किसी देश का चालू खाती, पूँजी खाता के अन्तर्गत कुल लेनदारियों तथा देनदारियों की तुलना में अधिक होता है, तो उस देश का भुगतान सन्तुलन अनुकूल कहा जाएगा। वर्तमान समय में अनुकूल भुगतान सन्तुलन आर्थिक विकास और आर्थिक समृद्धि का सूचक माना जाता है।

भारत एक विकासशील देश है। भारत जैसे विकासशील देशों में प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन एक विकट समस्या बनी हुई है। इसे अनुकूल बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

1. आयातों को कम करना – यदि भुगतान सन्तुलन को भारत के अनुकूल करना है तब यह आवश्यक है कि हमें अपने आयातों में कमी करनी होगी, क्योंकि आयातों में कमी से देनदारियाँ कम होंगी और भुगतान सन्तुलन अनुकूल हो सकेगा। सरकार आयात की वस्तुओं पर अधिक आयात कर. लगाकर, देश में आयातित वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाकर, व्यापारियों को आयात लाइसेन्स देकर तथा आयात कोटा निश्चित कर, आयातों को कम कर सकती है।

2. निर्यातों में वृद्धि – निर्यातों में वृद्धि करके विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है और भुगतान सन्तुलन को अपने पक्ष में किया जा सकता है। निर्यातों में वृद्धि के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं

  • वस्तुओं के गुण और मात्रा में वृद्धि तथा उत्पादन लागत में कमी द्वारा।
  • वस्तुओं से सम्बद्ध उद्योगों को संरक्षण प्रदान कर।
  • निर्यात कर में कमी करना।
  • बन्दरगाहों तक तैयार उत्पादों को ले जाने की उचित व्यवस्था करना।
  • बन्दरगाहों से जहाज में लदान की कारगर व्यवस्था करना।

3. मुद्रा का अवमूल्यनं – मुद्रा का अवमूल्यन करके निर्यात बढ़ाने के प्रयास किये जा सकते हैं। मुद्रा के मूल्य में कमी कर देने से विदेशी व्यापारियों को अपेक्षाकृत कम मुद्रा देकर वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। मुद्रा के अवमूल्यन से निर्यातों के बढ़ने की सम्भावना होती है।

4. विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करके – विदेशी पर्यटकों को अपने देश में दर्शनीय स्थलों की ओर आकर्षित करके विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।

5. विनिमय-नियन्त्रण द्वारा विनिमय – नियन्त्रण के द्वारा भी भुगतान सन्तुलन को पक्ष में लाया जा सकता है। सरकार आयात पर प्रतिबन्ध लगाकर भुगतान सन्तुलन को अपने पक्ष में कर सकती है।

6. विदेशी विनियोजकों को आकर्षित करके – भुगतान सन्तुलन को नियन्त्रित करने हेतु विदेशी विनियोजकों को पूँजी विनियोग के लिए अपने देश में आकर्षित करना चाहिए, जिसके द्वारा उत्पादन की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है।

7. विदेशी ऋण प्राप्त करके – विदेशी ऋण प्राप्त करके भी भुगतान सन्तुलन को अपने अनुकूल किया जा सकता है, परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि विदेशी ऋण उत्पादक-कार्यों के लिए ही लिये जाएँ।

8. जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण द्वारा – देश की जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए अधिक प्रयास होना चाहिए, जिससे आन्तरिक माँग में वृद्धि न हो। इस सम्बन्ध में सरकार द्वारा परिवार नियोजन के कार्यक्रम को व्यापक और अनिवार्य कर देना चाहिए।

प्रश्न 7
दसवीं पंचवर्षीय योजना के लिए घोषित नयी आयात-निर्यात नीति पर टिप्पणी लिखिए। [2009]
उत्तर:
दसवीं योजना के लिए नयी आयात-निर्यात नीति की घोषणा केन्द्र सरकार द्वारा 31 मार्च, 2002 ई० को की गयी, जिसमें पूर्व दशक में अपनाये गये उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण के दृष्टिकोण को यथावत् जारी रखा गया और निर्यात की प्रक्रिया के अन्तर्गत आने वाली जटिलताओं को कम करते हुए नीति को निर्यातकों के हितों का संरक्षक बनाया गया। नवीन आयात-निर्यात के अन्तर्गत निम्नलिखित उद्देश्यों को समाहित किया गया है

  1. विश्व बाजार के बढ़ते अवसरों से फायदा उठाने के उद्देश्य से देश को विश्व-अभिमुख अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ाना।।
  2. देश में उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक कच्चे माल, तकनीक, मशीनी उपकरण आदि को आसानी से उपलब्ध करवाकर सतत आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना।
  3. भारतीय कृषि उद्योग एवं सेवाओं की तकनीकी क्षमता और कुशलता को बढ़ावा देना।
  4. रोजगार के नये अवसर सृजित करना।
  5. उत्पादों की तैयारी गुणवत्ता के अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप करना।
  6. उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर अच्छे उत्पाद उपलब्ध कराना।

नयी आयात-निर्यात नीति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. दसवीं योजना की अवधि के अन्त तक (अर्थात् 31 मार्च, 2007 ई० तक) देश के कुल निर्यात को 80 अरब डॉलर वार्षिक के स्तर पर पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है।
  2. मार्च, 2007 ई० के अन्त तक भारत की विदेशी व्यापार में हिस्सेदारी मौजूदा 0.67% से बढ़ाकर 1.0% करने का लक्ष्य रखा गया है।
  3. कुछ संवेदनशील उत्पादों को छोड़कर शेष सभी उत्पादों के निर्यात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा लिये गये हैं।
  4. कृषिगत निर्यातों को विशेष प्रोत्साहन देने की योजना बनायी गयी है।
  5. देश के निर्यातों को बढ़ाने के लिए बनाये गये विशेष आर्थिक क्षेत्रों में सुविधाएँ बढ़ायी गयी हैं।
  6. इलेक्ट्रॉनिक, हार्डवेयर तथा रत्नों एवं आभूषणों के निर्यातों को बढ़ाने के लिए विशेष योजना तैयार की गयी है।
  7. कुटीर एवं हथकरघा उद्योग पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है।
  8. निर्यात बाजार के विस्तार हेतु अफ्रीका पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया है, जिसके पहले चरण में सात देशों-नाइजीरिया, दक्षिणी अफ्रीका, मॉरीशस, केन्या. इथोपिया, तंजानिया एवं घाना को सम्मिलित किया गया है। इन देशों के लिए निर्यात वस्तुओं में कपास एवं धागा, कपड़ा, सिले-सिलाए वस्त्र, दवाएँ, मशीनी उपकरण तथा दूरसंचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी उपकरण सम्मिलित हैं।

प्रश्न 8
सरकार की वर्तमान आयात-नीति के प्रमुख तत्त्वों को बताइए।
उत्तर:
सरकार की वर्तमान आयात-नीति के प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं

वित्तीय वर्ष 2001-02 के लिए नयी आयात नीति की घोषणा तत्कालीन केन्द्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मन्त्री मुरासोली मारन ने 31 मार्च, 2001 ई० को की। भारतीय विदेशी व्यापार के इतिहास में यह नीति ऐतिहासिक है, क्योंकि इस नीति से शेष बचे सभी 715 उत्पादों के आयात पर से परिमाणात्मक प्रतिबन्ध हटा लिये गये हैं। अब सुरक्षा की दृष्टि से अति संवेदनशील उत्पादों को छोड़कर सभी उत्पादों का आयात देश में किया जा सकेगा। विश्व-व्यापार संगठन के नियमों के प्रति प्रतिबद्धता के चलते 714 उत्पादों के आयात पर से यह प्रतिबन्ध 1 अप्रैल, 2000 ई० से ही हटा लिये गये थे; परन्तु आयातों पर नियन्त्रण रखने के लिए निम्नलिखित उपाय किये गये हैं

  1. आयात आवश्यक पूँजीगत साधनों के अभाव की पूर्ति के लिए हो।
  2. विकास आवश्यकताओं की प्राथमिकता के अनुसार, कच्चा माल तथा खनिज तेल का आयात किया जाए।
  3. कम आवश्यक आयातों को या तो प्रतिबन्धित किया जाए या अनुज्ञापन प्रणाली के द्वारा न्यूनतम आयात किया जाए।
  4. ऊँचे सीमा शुल्क द्वारा आयातों को हतोत्साहित भी किया जाए।
  5. आवश्यक वस्तुओं के आयातों को ध्यान में रखकर अनावश्यक या विलासिता की वस्तुओं के आयात पर नियन्त्रण लगाया जाए।

प्रश्न 9
आयात-निर्यात बैंक (Import-Export Bank) पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के पश्चात् से ही भारत के विदेशी व्यापार का सन्तुलन प्रतिकूल ही रहा है, क्योंकि भारत का आयात अधिक और निर्यात कम रहता है। आयात-निर्यात में समन्वय लाने के लिए भारत सरकार ने देश में एक निर्यात-आयात बैंक स्थापित करने का निश्चय किया। 14 सितम्बर, 1981 ई० को इस बैंक की स्थापना से सम्बन्धित एक बिल संसद के दोनों सदनों ने पास किया और जनवरी, 1982 ई० से इस बैंक ने कार्य करना आरम्भ कर दिया।

निर्यात-आयात बैंक के प्रबन्ध के लिए 17 व्यक्तियों का एक निदेशक मण्डल बनाया गया है, जिसमें रिजर्व बैंक का एक प्रतिनिधि भी है। 3 निदेशक अनुसूचित बैंकों के हैं। 4 निदेशक विशिष्ट विद्वान व्यक्तियों में से मनोनीत किये गये हैं। इसका एक चेयरमैन भी होता है।
इस बैंक द्वारा 1998-99 में कुल ₹2,832 करोड़ ऋण की सहायता राशि मंजूर की गयी। निर्यात-आयात बैंक के मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य हैं

  1. निर्यात के लिए ऋण उपलब्ध कराना।
  2. व्यापार सम्बन्धी विश्व बाजार की सूचनाएँ देना।
  3. आयात-निर्यात सम्बन्धी सलाह देना।
  4. निर्यात विकास निधि का निर्माण करना।
  5. विश्व को बाजार सम्बन्धी सूचनाएँ देना।
  6. निर्यात बढ़ाने के लिए विभिन्न उपाय अपनाना।
  7. इस सम्बन्ध में सलाह देना कि आयात में कहाँ-कहाँ और कैसे कमी की जा सकती है और कहाँ पर आयात प्रतिस्थापना सम्भव है।
  8. आयातकों व निर्यातकों को विनिमय-दर के परिवर्तनों से परिचित रखना।

यह आशा की जाती है कि निर्यात-आयात बैंक की स्थापना से विदेशी व्यापार के समक्ष उत्पन्न समस्याओं का समाधान होगा तथा विदेशी व्यापार की स्थिति सुधरेगी।

प्रश्न 10
नयी आयात-निर्यात (एक्जिम) नीति की विशेषताएँ लिखिए। उत्तर नयी आयात-निर्यात नीति (एक्जिम नीति) की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. शेष बचे सभी 715 उत्पादों के आयात पर से परिमाणात्मक प्रतिबन्धों की समाप्ति। मुख्यतः कृषिगत उत्पाद व उपभोक्ता वस्तुएँ सम्मिलित।
  2. 300 अति संवेदनशील उत्पादों के आयात पर निगरानी हेतु वाणिज्य सचिव की अध्यक्षता में ‘वार रूम’ (War Room) का गठन।
  3. भारत में अपना माल बेचने के लिए विदेशी उत्पादकों द्वारा अनुचित तौर-तरीके अपनाये जाने की स्थिति में आयातों पर अंकुश हेतु काउण्टरवेलिंग ड्यूटी व एण्टी डम्पिंग ड्यूटी आदि प्रशुल्कों का ही सहारा।
  4. पुराने वाहनों का आयात कतिपय शर्तों के आधीन ही सम्भव।
  5. गेहूं, चावल, मक्का, पेट्रोल, डीजल व यूरिया का आयात केवल अधिकृत एजेन्सियों के द्वारा ही।
  6. निर्यातों में 18 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य तथा निर्यात संवर्धन हेतु अनेक नये कदम।
  7. विशेष आर्थिक परिक्षेत्रों में इकाइयों की सुविधाओं में वृद्धि।
  8. कृषिगत आर्थिक परिक्षेत्रों की स्थापना की योजना।
  9. निर्यातकों को उपलब्ध ‘ड्यूटी एक्जैक्शन स्कीम’ व निर्यात संवर्धन पूँजीगत सामान योजना का कृषि-क्षेत्र में विस्तार।
  10. विश्व में भारतीय उत्पादों के बाजार के विस्तार के लिए मार्केट एक्सेस इनीशिएटिव योजना।
  11. आयातकों व निर्यातकों को विश्व बाजार की अद्यतन जानकारियाँ उपलब्ध कराने के लिए भारतीय व्यापार संवर्धन संगठन परिसर में बिजनेस कम ट्रेड फैसिलिटेशन सेण्टर’ तथा ट्रेड पोर्टल’ की स्थापना की योजना।

प्रश्न 11
भारत के प्रतिकूल व्यापार शेष के आधारभूत कारण क्या हैं? [2013, 14, 16]
या
भारत के प्रतिकूल भुगतान संतुलन के कोई चार कारण लिखिए। [2015]
उत्तर:
भारत योजनाकाल में असन्तुलित व्यापार की समस्या से ग्रसित रहा है। इस असन्तुलन के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

  1. स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद खाद्यान्नों एवं अन्य कृषि-पदार्थों की कमी आमतौर पर बनी रही है, जिसकी पूर्ति के लिए अत्यधिक मात्रा में आयात करना पड़ा है।
  2. आर्थिक नियोजन के कारण देश के औद्योगीकरण एवं कृषि के विकास की गति तेज हो गयी, फलतः मशीनों व पूँजीगत वस्तुओं को पर्याप्त मात्रा में आयात करना पड़ा।
  3. अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए भारत को आधुनिकतम युद्ध-सामग्री का पर्याप्त आयात करना पड़ा।
  4. भारत का विदेशी व्यापार के असन्तुलित होने का कारण तेल उत्पादक देशों द्वारा अपने तेल का मूल्य बढ़ा देना भी है।
  5. विदेशी व्यापार के असन्तुलित होने के कारणों में एक कारण निर्यात व्यापार की आशा के अनुरूप वृद्धि न होना भी रहा है। पिछले कुछ वर्षों से निर्यात तेजी से बढ़े हैं और आशा है कि निकट भविष्य में व्यापार सन्तुलित हो जाएगा।
  6. देश के विभाजन ने भी विदेशी व्यापार को असन्तुलित किया है। विभाजन के फलस्वरूप देश का अधिकांश उपजाऊ क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया जिसकी पूर्ति हेतु भारत को पर्याप्त मात्रा में आयात करना पड़ा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
विदेशी व्यापार से होने वाले प्रमुख चार लाभ बताइए।
उत्तर:
विदेशी व्यापार से होने वाले लाभ निम्नलिखित हैं

  1. प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण रूप से दोहन सम्भव होता है।
  2. कृषि व उद्योगों का पर्याप्त विकास होता है।
  3. रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने में और यातायात व सन्देशवाहन के साधनों के विकास में सहायक होता है।
  4. विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है और देश का आर्थिक विकास होता है।

प्रश्न 2
विदेशी व्यापार से होने वाली चार प्रमुख हानियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विदेशी व्यापार से होने वाली चार हानियाँ निम्नलिखित हैं

  1. देश की आत्म-निर्भरता और राष्ट्रीय सुरक्षा में कमी आती है।
  2. देश के औद्योगिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।
  3. राजनीतिक परतन्त्रता और अन्तर्राष्ट्रीय वैमनस्य की भावना में वृद्धि होती है।
  4. प्राकृतिक संसाधनों के शीघ्र समाप्ति की सम्भावना प्रबल होती है।

प्रश्न 3
भुगतान-सन्तुलन की समस्या को दूर करने के लिए सरकार द्वारा किये गये चार उपाय बताइए।
उत्तर:
भारत में भुगतान-सन्तुलन की समस्या को दूर करने के लिए सरकार द्वारा किये गये चार उपाय निम्नलिखित हैं

  1. यहाँ निर्यातों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों से अनेक ऐसी इकाइयाँ स्थापित की गयी हैं जो अपना शत-प्रतिशत उत्पादन निर्यात करती हैं।
  2. आयातों पर यहाँ प्रतिबन्ध है, लेकिन देश में आर्थिक नियोजन के कारण आयात बढ़ रहे हैं, परन्तु आयात-निर्यात नीति घोषित कर इस पर नियन्त्रण लगाया जा रहा है।
  3. देश में आयात प्रतिस्थापन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है।
  4. मूल रूप से भारत के निवासियों को भारत में धन भेजने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।

प्रश्न 4
भारत में व्यापार को सन्तुलित करने के लिए चार उपाय सुझाइए। [2009]
उत्तर:
व्यापार को सन्तुलित करने के लिए निम्नलिखित चार उपाय सुझाए जा सकते हैं

  1. सरकार को कृषि विकास पर विशेष जोर देना चाहिए, जिससे कि खाद्यान्न व अन्य कृषि-पदार्थों का उत्पादन बढ़े व आयातों में कमी हो।
  2. प्राकृतिक तेल व गैस आयोग को तेल के कुओं की खोज के लिए और अधिक प्रयत्नशील होना चाहिए जिससे पेट्रोलियम पदार्थों के आयात में कमी हो सके।
  3. निर्यात संवर्धन के प्रयासों को भी प्रभावी बनाया जाना चाहिए।
  4. नये बाजारों का पता लगाना चाहिए।

प्रश्न 5
भारत के विदेशी मुद्रा-भण्डार में वृद्धि होने के कारण बताइए।
उत्तर:
भारत के विदेशी मुद्रा-भण्डार में वृद्धि के निम्नलिखित कारण हैं

  1. रुपये का अवमूल्यन।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से ऋण प्राप्ति।
  3. अनिवासी भारतीयों के लिए चलाई गयी योजनाओं से प्राप्त विदेशी मुद्रा।
  4. भारत में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष विदेशी निवेश में वृद्धि।
  5. रुपये की चालू खाते में पूर्ण परिवर्तनीयता।।

प्रश्न 6
भुगतान संतुलन और व्यापार सन्तुलन में भेद कीजिए। [2009, 10]
उत्तर:
भुगतान सन्तुलन किसी देश की अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन की स्थिति का सही ज्ञान करा सकता है। क्योंकि इसमें सभी मदों से प्राप्त लेनदारियों व देनदारियों का स्पष्ट विवरण होता है।
व्यापार सन्तुलन किसी देश की आर्थिक स्थिति का पूर्ण चित्र प्रस्तुत नहीं करता क्योंकि इसमें आयात-निर्यात के अतिरिक्त अन्य मदें सम्मिलित नहीं होतीं।

प्रश्न 7
विशेष आर्थिक क्षेत्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2014]
उत्तर:
आमतौर पर किसी को आधुनिक आर्थिक क्षेत्र का उल्लेख करने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र एक सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह क्षेत्र किसी भी देश की राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर स्थित होता है लेकिन ये विशेष क्षेत्र के नियमों का प्रयोग करके व्यापार करते हैं। इस क्षेत्र को प्रमुख उद्देश्य व्यापार बढ़ाना, निवेश बढ़ाना, रोजगार देना और प्रभारी प्रशंसा है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
विदेशी व्यापार का अर्थ स्पष्ट कीजिए। [2011, 12, 15]
उत्तर:
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 का आरम्भिक भाग देखें।

प्रश्न 2
भारत के आयातों में किस देश का हिस्सा सर्वाधिक है? [2011]
उत्तर:
एशिया व ओसीनिया का।

प्रश्न 3
व्यापार शेष क्या है? [2012, 12]
उत्तर:
किसी देश के निर्यात और आयात अथवा आयात और निर्यात के अन्तर को व्यापार शेष कहते हैं।

प्रश्न 4
‘WTO’ पद को विस्तृत कीजिए। [2009]
उत्तर:
‘WTO’ = World Trade Organization (विश्व व्यापार संगठन)।

प्रश्न 5
भारत में प्रतिकूल भुगतान शेष के सुधार के लिए कोई दो सुझाव दीजिए। [2009]
उत्तर:
(1) निर्यातों को प्रोत्साहन दिया जाए।
(2) आयातों पर प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक है।
(3) विदेशों से ऋण प्राप्त करना।
(4) मूलरूप से अनिवासियों को धन भेजने के लिए प्रेरित करना।

प्रश्न 6
भारत में वर्ष 2008 में तेल और गैस के स्रोत की खोज करने में किस भारतीय कम्पनी ने सफलता प्राप्त की है? [2009]
उत्तर:
रिलायन्स इण्डस्ट्रीज लिमिटेड कम्पनी ने।

प्रश्न 7
नयी आयात-निर्यात नीति की घोषणा कब की गई?
उत्तर:
31 अगस्त, 2004 को नयी आयात-निर्यात नीति 2004-2009 की घोषणा की गई थी।

प्रश्न 8
भारत में आयात की जाने वाली प्रमुख दो वस्तुएँ कौन-सी हैं? [2008, 09, 10, 11, 12]
उत्तर:
(1) पेट्रोलियम व उसके उत्पाद,
(2) रासायनिक उर्वरक।

प्रश्न 9
भारत में निर्यात की जाने वाली चार प्रमुख वस्तुओं के नाम लिखिए। [2007, 09, 10, 11, 12, 14]
उत्तर:
जूट, चाय, सूती वस्त्र तथा समुद्री उत्पाद।

प्रश्न 10
भारत के विदेशी व्यापार में किस देश का अंश सर्वाधिक है? [2007, 13]
उत्तर:
भारत के विदेशी व्यापार में संयुक्त राज्य अमेरिका का अंश सर्वाधिक है।

प्रश्न 11
भारत के विदेशी व्यापार में अदृश्य निर्यात का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
अदृश्य स्थिति की मदों में (बीमा, परिवहन, पर्यटन उपहार आदि) आते हैं। अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता की स्थिति जानने के लिए भुगतान सन्तुलन के चालू खाते का सन्तुलन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है, जिसके अन्तर्गत अदृश्य निर्यात सम्मिलित रहते हैं।

प्रश्न 12
देश के भुगतान सन्तुलन के प्रतिकूल होने के दो कारण लिखिए। [2012]
उत्तर:
(1) भारत के विदेशी व्यापार के असन्तुलित होने का करण तेल उत्पादक देशों द्वारा अपने तेल का मूल्य बढ़ा देना है।
(2) देश की सुरक्षा के लिए भारत को आधुनिकता युद्ध-सामग्री का पर्याप्त मात्रा में आयात करना है।

प्रश्न 13
भुगतान शेष को परिभाषित कीजिए। [2007, 12]
उत्तर:
भुगतान शेष अथवा भुगतान सन्तुलन किसी देश के आर्थिक लेन-देन का एक व्यवस्थित लेखा-जोखा है जो किसी देश के निवासियों द्वारा अन्य देश के निवासियों के साथ किया जाता है।

प्रश्न 14
व्यापार सन्तुलन का अर्थ लिखिए। [2014]
उत्तर:
किसी देश का व्यापार सन्तुलन’ उस देश के आयातों तथा निर्यातों के सम्बन्ध को बताता है। व्यापार सन्तुलन एक ऐसा विवरण होता है जिसमें वस्तुओं के आयात तथा निर्यातों का विस्तृत ब्यौरा दिया जाता है। व्यापार सन्तुलन में केवल दृष्ट निर्यातों तथा आयातों को ही सम्मिलित किया जाता है, अदृष्ट निर्यातों तथा आयातों का उसमें कोई हिसाब नहीं रखा जाता, किसी देश का व्यापार सन्तुलन उसके अनुकूल अथवा प्रतिकूल दोनों हो सकता है। जब दो देशों के बीच आयात-निर्यात बराबर होते हैं, तो व्यापार सन्तुलन की स्थिति होती है। यदि देश ने निर्यात अधिक किया है तथा आयात कम तो व्यापार सन्तुलन अनुकूल कहा जाएगा। इसके विपरीत, यदि आयात अधिक तथा निर्यात कम किया गया है तो प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन की स्थिति होगी।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
निम्नलिखित में से किन दो वर्षों के दौरान भारत का विदेशी व्यापार शेष अनुकूल था? [2012]
(क) 1972 – 73, 1976 – 77
(ख) 1972 – 73, 1973 – 74
(ग) 1975 – 76, 1977 – 78
(घ) 1975 – 76, 1976 – 77
उत्तर:
(क) 1972 – 73, 1976 – 77

प्रश्न 2
भारत का कितने प्रतिशत विदेशी व्यापार समुद्र मार्ग से किया जाता है? [2011]
(क) 60%
(ख) 70%
(ग) 80%
(घ) 90%
उत्तर:
(घ) 90%.

प्रश्न 3
भारत के निर्यात का सर्वाधिक प्रतिशत भाग जाता है [2010]
(क) यूरोपीय संघ में
(ख) अरब देशों में
(ग) पूर्वी यूरोपीय देशों में
(घ) विकासशील देशों में
उत्तर:
(क) यूरोपीय संघ में।

प्रश्न 4
वर्तमान में भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार हैया भारत का सबसे बड़ा विदेशी व्यापार भागीदार है [2014]
(क) अमेरिका
(ख) रूस
(ग) ब्रिटेन
(घ) जापान
उत्तर:
(क) अमेरिका।

प्रश्न 5
भारत के भुगतान सन्तुलन नियोजन काल में रहे हैं
(क) सन्तुलन में
(ख) घाटे में
(ग) आधिक्य में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) घाटे में।

प्रश्न 6
विशेष आर्थिक क्षेत्रों का सम्बन्ध किससे है?
(क) निर्यातों से
(ख) सूखाग्रस्त क्षेत्रों से
(ग) बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों से
(घ) पिछड़े क्षेत्रों से
उत्तर:
(क) निर्यातों से।

प्रश्न 7
निम्नलिखित में से कौन-सा समूह भारत की निर्यात वस्तुओं को प्रदर्शित करता है?
(क) पेट्रोलियम, स्वर्ण एवं चाँदी
(ख) खाद, तेल, उर्वरक
(ग) मोती एवं बहुमूल्य पत्थर, पूँजीगत वस्तुएँ
(घ) सिले-सिलाए वस्त्र, समुद्री उत्पाद
उत्तर:
(घ) सिले-सिलाए वस्त्र, समुद्री उत्पाद।

प्रश्न 8
निम्नलिखित में से भारत किसका निर्यात नहीं करता है?
(क) चीनी
(ख) चाय
(ग) उर्वरक
(घ) जूट की वस्तुएँ
उत्तर:
(ग) उर्वरक।

प्रश्न 9
निम्नलिखित में से भारत की प्रमुखतया आयात वस्तु है? [2016]
(क) पेट्रोलियम उत्पाद
(ख) मशीनरी
(ग) रसायन
(घ) कम्प्यू टर
उत्तर:
(क) पेट्रोलियम उत्पाद।

प्रश्न 10
निम्नलिखित वस्तुओं में से भारत किसका आयात नहीं करता है? [2016]
(क) उर्वरक
(ख) पेट्रोलियम पदार्थ
(ग) चाय
(घ) मशीनें
उत्तर:
(ग) चाय।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights (मानवाधिकार) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights (मानवाधिकार).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 13
Chapter Name Human Rights
(मानवाधिकार)
Number of Questions Solved 24
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights (मानवाधिकार)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
मानवाधिकार का अर्थ एवं प्रकृति स्पष्ट करते हुए मानवाधिकारों के वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानवाधिकार का अर्थ एवं प्रकृति

मानवाधिकारों के उदय तथा विकास क्रम को बताना तो सरल है, परन्तु मानव अधिकारों जैसे जटिल विषय को परिभाषित करना एक चुनौती है। मानवाधिकार व्यक्ति में निहित अधिकारों का एक सामान्य समझौता है, जिन अधिकारों के बिना कोई भी व्यक्ति सभ्य जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। आरजे० विन्सेट के अनुसार, “मानवाधिकार ऐसे अधिकार हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत गुणों के कारण प्राप्त होते हैं। वह मानवीय प्रकृति के आधार पर मानव अधिकारों की व्याख्या करते हैं, जबकि डेविड सेल्बी इस प्रकार की परिभाषाओं के विपरीत कहते हैं कि मानव अधिकार का सम्बन्ध प्रत्येक व्यक्ति से है। विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को ये अधिकार प्राप्त हैं और प्रत्येक व्यक्ति इन अधिकारों को प्राप्त करने का अधिकारी है; क्योंकि वह मानवीय प्रकृति से सम्बन्धित है। ये अर्जित नहीं किये जाते, उधार नहीं लिए जाते और न ही विरासत में मिलते हैं और न ही इन अधिकारों की स्थापना करने वाले किसी समझौते को ऐसे अधिकारों के रूप में परिभाषित करते हैं। “मानव अधिकार ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्तिगत गरिमा से सम्बन्धित हैं और आत्म-सम्मान के स्तर हैं जो मानव समुदाय की पहचान को बढ़ावा देकर संरक्षित करते हैं।’

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि ये सभी विद्वान कुछ विशिष्ट परिस्थितियों को स्वीकार करते हैं; जैसे-व्यक्तिगत प्रकृति, मानवीय गरिमा और अच्छे जीवन की प्राप्ति की आवश्यकता। इन तीनों तत्त्वों का समावेश करते हुए आल्टेन तथा प्लेनो ने इस प्रकार स्पष्टीकरण दिया है, मानव अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्तिगत जीवन, व्यक्तिगत विकास और अस्तित्व के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।’ डेविडसन की परिभाषा अधिक संक्षिप्त और स्वीकृत है, मानवाधिकार की अवधारणा व्यक्तिगत क्षेत्रों में सत्ता और सरकार से, राज्य की शक्ति प्रयोग से तथा व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करने से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। यह राज्य को उन सामाजिक परिस्थितियों के निर्माण का भी निर्देश देती है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का सर्वोच्च विकास कर सके।

संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग ने मानवाधिकारों को ऐसे अधिकार माना है जो हमारी प्रकृति में निहित हैं और जिनके अभाव में हमें एक व्यक्ति के रूप में जीवन व्यतीत नहीं कर सकते। ये मानवाधिकार न्याय, समानता और राज्य के मनमाने व्यवहार और भेदभाव से संरक्षण प्रदान करते हैं। ये अधिकार व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक हैं और इनकी गारंटी बिना किसी भेदभाव के दी जाती है। मानवाधिकारों के वृहद् रूप को निम्न चार प्रकार की श्रेणियों में रखा जा सकता है।

  1. ऐसे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन में निहित हैं। उदाहरणार्थ, जीवन का अधिकार।
  2. ऐसे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन और विकास के लिए आवश्यक हैं। उदाहरणार्थ, शिक्षा का अधिकार।
  3. ऐसे अधिकार जिनका लाभ उचित सामाजिक स्थितियों में ही उठाया जा सकता हैं। उदाहरणार्थ, सम्पत्ति का अधिकार।
  4. ऐसे अधिकार जिनको व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता के रूप में प्रत्येक देश के संविधान में समावेश करना चाहिए। उदाहरणार्थ, भारत के संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार।

मानवाधिकारों का वर्गीकरण

कुछ ऐसे विचारक भी हैं जिन्होंने मानव-अधिकारों के सभी पहलुओं का विभाजन करने का प्रयास किया है। सन् 1979 में चेक न्यायाधीश कारेक वासक द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरण को सर्वाधिक समर्थन प्राप्त हुआ। उन्होंने मानव अधिकारों का वर्गीकरण इन तीनों चरणों में किया। पहले चरण में मानव अधिकारों को सम्बन्ध स्वतंत्रता से था। ये अधिकार प्राकृतिक रूप से मौलिक, नागरिक और राजनीतिक थे और व्यक्ति की राज्य के मनमाने व्यवहार से रक्षा के लिए प्रदान किए गए थे। पहले चरण के अधिकारों में विचार की स्वतंत्रता, उचित न्यायिक प्रक्रिया और धर्म की स्वतंत्रता आदि सम्मिलित हैं। अत: पहले चरण के अधिकार नकारात्मक अधिकार थे। इनको सर्वप्रथम वैश्विक स्तर पर सन् 1948 में मानवाधिकारों के घोषणा-पत्र में शामिल किया गया।

दूसरे चरण के मानवाधिकार समानता से सम्बन्धित हैं। ये मूल रूप से अपनी प्रकृति से सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार हैं। सामाजिक सम्बन्धों में ये अधिकार सभी के लिए समान व्यवहार और परिस्थितियों को सुनिश्चित करते हैं। ये लोगों को कार्य का अधिकार प्रदान करके उसके परिवार का भरण-पोषण करने की योग्यता को संरक्षण करते हैं। ये सकारात्मक अधिकार हैं। ये अधिकार लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए राज्य की आवश्यकता की अगुवाई करते हैं।

तीसरे चरण के अधिकारों को मुख्य रूप से सामाजिक सुदृढ़ता के रूप में देखा जा सकता है। ये अधिकार समूह और सामूहिक अधिकार-आर्थिक और सामाजिक विकास, प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभुसत्ता, संचार और मानवता की सामान्य विरासत के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार की विवेचना करते हैं। इन अधिकारों का संक्षिप्त विवेचन नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा में किया गया है। यह प्रावधान दस्तावेज में एक असाधारण सम्मिश्रण है। समाज पर वैयक्तिक दावों के रूप में अधिकारों की सामान्य कल्पना है। परन्तु तीसरे चरण के अधिकार अन्य अधिकारों के समान कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं।

तीनों चरणों का वैकल्पिक स्पष्टीकरण शीत युद्ध के राजनीतिक वर्गीकरण पर निर्भर है। पहले चरण के अधिकारों का पश्चिमी देशों ने समर्थन किया, दूसरे चरण के अधिकारों को पूर्वी देशों ने प्रोत्साहित किया तथा तीसरे चरण के सामाजिक सुदृढ़ता के अधिकारों का समर्थन विश्व के सभी देशों ने किया। यह वर्गीकरण अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों की रूपरेखा निर्माण को भी प्रकट करता है।

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर और मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा-पत्र पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा
मानवाधिकारों की प्रगति को सुनिश्चित करने तथा पालन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक ‘मानवाधिकार आयोग’ (Commission of Human Rights) की नियुक्ति की और उसे मानवाधिकारों के मूलभूत सिद्धान्तों का प्रारूप तैयार करने का दायित्व सौंप दिया। यह प्रारूप तीन वर्षों में तैयार हुआ। इस प्रारूप को महासभा ने कुछ संशोधनों के साथ 10 दिसम्बर, 1948 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया। मानवाधिकार घोषणा-पत्र में नागरिकों के राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक अधिकारों; जैसे-काम के पश्चात् समान पारिश्रमिक पाने का अधिकार, मजदूर संगठनों (Trade Unions) के गठन करने का अधिकार, विश्राम तथा सामाजिक भरण-पोषण का अधिकार, शिक्षा तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, विचार, धर्म, शान्तिपूर्वक सभाएँ करने तथा संगठन बनाने की स्वतन्त्रता को अधिकार आदि के विषय में विस्तृत उल्लेख किया गया है।

विश्व के सभी राष्ट्रों को मालूम है कि 30 अनुच्छेदों की यह घोषणा लोकतान्त्रिक तथा समाजवादी शक्तियों के बढ़ते हुए प्रभाव के अन्तर्गत एवं मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए जनसाधारण की शक्तिशाली कार्यवाहियों के परिणामस्वरूप की गई थी।

संयुक्त राष्ट्र के 30 अनुच्छेदों में मानवाधिकार को किसी-न-किसी रूप में उल्लेख है–सभी मनुष्य जन्म से स्वतन्त्र हैं तथा अधिकार व मर्यादा में समान हैं। उनमें विवेक व बुद्धि हैं, अत: मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ भाई-चारे का व्यवहार करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति बिना जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या सामाजिक उत्पत्ति, जन्म या किसी दूसरे प्रकार के भेदभाव के बिना सभी प्रकार के अधिकारों तथा स्वतन्त्रता का पात्र है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वाधीनता तथा सुरक्षा का अधिकार है। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को दासता के बन्धन में नहीं बाँधेगा। दासता और दास-व्यवहार सभी क्षेत्रों में सर्वथा निषिद्ध होगा।

किसी भी व्यक्ति को क्रूर दण्ड नहीं दिया जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त होगा कि वह संविधान या कानून के द्वारा प्राप्त मौलिक अधिकारों को समाप्त करने वाले कार्य नहीं करेगा। किसी व्यक्ति की गैर-कानूनी गिरफ्तारी, कैद या निष्कासन न हो सकेगा। प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायालय द्वारा अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों के लिए और अपने विरुद्ध आरोपित किसी अपराध के निर्णय के लिए उचित तथा स्वतन्त्र रूप से सुने जाने का समान अधिकार है।

किसी की भी कौटुम्बिक, गार्हस्थिक तथा पत्र-व्यवहार की गोपनीयता में मनमाना हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा और न ही उसके सम्मान तथा प्रसिद्धि को आघात पहुँचाया जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपने राज्य की सीमा के अन्दर आवागमन और विकास की स्वतन्त्रता का अधिकार होगा। प्रत्येक व्यक्ति को प्रताड़ना से बचने के लिए किसी भी देश में आश्रय लेने और सुख से रहने का अधिकार है। कोई व्यक्ति अपनी नागरिकता से मनमाने ढंग से वंचित नहीं किया जा सकेगा और न ही उसको नागरिकता परिवर्तन करने के मान्य अधिकार से ही वंचित किया जाएगा।

वयस्क अवस्था वाले पुरुषों और स्त्रियों की जाति, राष्ट्रीयता या धर्म की सीमा के बिना विवाह करने तथा परिवार का निर्माण करने का अधिकार प्राप्त है। उन्हें विवाह करने और वैवाहिक सम्बन्ध विच्छेद करने के समान अधिकार हैं। प्रत्येक व्यक्ति को सम्पत्ति रखने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अभिव्यक्ति, अनुभूति तथा धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार है। इस अधिकार के अन्तर्गत अपने धर्म या मत को परिवर्तित करने की स्वतन्त्रता और अपने धर्म तथा मत का उपदेश, प्रयोग, पूजा और परिपालन सर्वसाधारण के सामने या एकान्त में करने की स्वतन्त्रता सम्मिलित है।

प्रत्येक व्यक्ति को शान्तिपूर्ण ढंग से सभा करने की स्वतन्त्रता है। साथ ही किसी भी व्यक्ति को किसी भी संस्था में सम्मिलित होने के लिए विवश नहीं किया जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को काम करने, आजीविका के लिए व्यवसाय चुनने, काम की उचित एवं अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त करने और बेकारी से बचने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को विश्राम व अवकाश का अधिकार है, साथ ही कार्य के घण्टों का समुचित निर्धारण तथा अवधि के अनुसार वेतन सहित अवकाश का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को एक ऐसे जीवन-स्तर की व्यवस्था करने का अधिकार है जो उसके और उसके परिवार के स्वास्थ्य और सुख के लिए अपरिहार्य हो। इसमें भोजन, वस्त्र, निवासस्थान, चिकित्सा की सुविधा तथा आवश्यक समाज-सेवाओं की उपलब्धि और बेकारी, बीमारी, शारीरिक असमर्थता, वैधव्य, वृद्धावस्था के कारण आजीविका के साथ-साथ हास आदि सम्मिलित हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। शिक्षा कम-से-कम प्रारम्भिक अवस्था में नि:शुल्क होगी। प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य होगी। तकनीकी, व्यावसायिक या अन्य प्रकार की शिक्षा की सामान्य उपलब्धि की व्यवस्था की जाएगी और योग्यता के आधार पर उच्च शिक्षा सभी समान रूप से प्राप्त कर सकेंगे। शिक्षा को लक्ष्य मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास और मानवाधिकारों एवं मौलिक स्वतन्त्रताओं की प्रतिष्ठा बढ़ाना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को समाज के सांस्कृतिक जीवन में स्वतन्त्रतापूर्वक भाग लेने व कलाओं का आनन्द लेने तथा वैधानिक विकास से लाभान्वित होने का अधिकार प्राप्त है।

उपर्युक्त अधिकारों के सम्बन्ध में कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र का घोषणा-पत्र ‘मानवता का पत्र’ है।

प्रश्न 3.
मानवाधिकार के घोषणा-पत्र में वर्णित नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार घोषणा-पत्र में वर्णित नागरिक और राजनीतिक अधिकार

मानवाधिकारों की उद्घोषणा के अधिकारों को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम अधिकार नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से सम्बन्धित है जिसमें जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता, दासता और दमन से स्वतंत्रता, व्यक्ति की सुरक्षा, मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध संरक्षण, नजरबंदी और निर्वासन, मुकदमे की उचित प्रक्रिया, निजी सम्पत्ति का अधिकार, राजनीतिक सहभागिता, विवाह का अधिकार, विचार, चेतना तथा धर्म की स्वतंत्रता, मत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के सभा और सम्मेलन करने का अधिकार, अपने देश की सरकार में स्वतंत्र रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा भाग लेने का अधिकार सम्मिलित हैं। द्वितीय अधिकार, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार हैं जो दूसरों के साथ व्यवहार से सम्बन्धित हैं, काम का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन, व्यावसायिक संघ बनाने या उनका सदस्य बनने का अधिकार तथा सांस्कृतिक जीवन में स्वतंत्र रूप से हिस्सा लेने का अधिकार।

मानवाधिकार सार्वभौमिक घोषणा-पत्र (UDHR) में 30 अनुच्छेद हैं। अनुच्छेद 3 से 21 में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों का वर्णन किया गया है –

जीवन, स्वतंत्रता और संरक्षण का अधिकार

  • दासता और गुलामी से स्वतंत्रता
  • पाश्विक और अमानवीय सजा से स्वतंत्रता
  • कानून के समक्ष कहीं भी व्यक्ति के रूप में मान्यता का अधिकार; प्रभावी न्यायिक सहायता पाने का अधिकार; मनमानी गिरफ्तारी से स्वतंत्रता, नजरबंदी और निर्वासन, निष्पक्ष अधिकरण द्वारा उचित मुकदमे और सार्वजनिक सुनवाई का अधिकार, अपराधी सिद्ध होने से पहले निर्दोष माने जाने का अधिकार।
  • निजी जीवन, परिवार, घर और पत्राचार में मनमाने हस्तक्षेप से स्वतंत्रता, सम्मान और ख्याति पर प्रतिकूल आलोचना से सुरक्षा, इस प्रकार के हमलों से, कानून से सुरक्षा अधिकार।
  • आन्दोलन की स्वतंत्रता, कहीं भी बस जाने की स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता का अधिकार।
  • मत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
  • शांतिपूर्ण सभा और सम्मेलन का अधिकार।
  • सरकार में हिस्सा लेने और सरकारी नौकरी पाने का समान अधिकार। घोषणा-पत्र के अनुच्छेद 22-27 में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का वर्णन भी किया गया है।
  • सामाजिक संरक्षण का अधिकार।
  • काम करने का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार, व्यावसायिक संघ बनाने की सदस्यता ग्रहण करने का अधिकार।
  • आराम और अवकाश का अधिकार।
  • उचित स्वास्थ्य और जीवन-स्तर का अधिकार।
  • शिक्षा का अधिकार।
  • समुदाय के प्राकृतिक जीवन में हिस्सा लेने का अधिकार।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में मानवाधिकारों की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
या
मौलिक अधिकार तथा मानवाधिकार के सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान तथा मानवाधिकार
नागरिक स्वतंत्रता अपने आधुनिक अभिप्राय और विशेषताओं के साथ मौलिक अधिकार, संसदीय संस्थाएँ और संवैधानिक सरकार का विकास ब्रिटिश शासन के समय से ही न्यूनाधिक रूप से समांतर रहे हैं, परंतु इन्हें स्पष्ट प्रोत्साहन विदेशी शासन के रूप में तब मिला जब अंग्रेजों ने मनमाने कानूनों; जैसे-शस्त्रहीन भारतीयों पर पाश्विक आक्रमण जैसा दमनकारी व्यवहार भारतीयों के साथ किया। इसका प्रत्यक्ष परिणाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म था। राष्ट्रीय आन्दोलन किसी भी प्रकार के दमन के विरुद्ध था और रंग, जाति, लिंग, जन्मस्थान, सरकारी नौकरियों की प्राप्ति में बिना भेदभाव के मानवीय अधिकारों को सुरक्षित करता था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में आधारभूत मानवाधिकारों के इतिहास को देखा जा सकता है। भारत में पहला औपचारिक दस्तावेज सन् 1928 में मोतीलाल नेहरू की रिपोर्ट के रूप में अस्तित्व में आया। इसमें मोतीलाल नेहरू की रिपोर्ट में निशुल्क प्रारम्भिक शिक्षा, जीवन निर्वाह योग्य भत्ता, मातृत्व सहायता तथा बच्चों के कल्याण से सम्बन्धित अधिकारों को सूचीबद्ध किया गया तथा नेहरू रिपोर्ट के ये अधिकार मौलिक अधिकार तथा नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के अग्रदूत थे और इन्हें 22 साल बाद भारतीय संविधान में सम्मिलित किया गया। सन् 1946 में जवाहरलाल नेहरू ने मानवाधिकारों के वैकल्पिक अधिकारों की उद्घोषणा की।

इस वैकल्पिक प्रस्ताव में पूरे देश के लिए एक ऐसा कानून बनाने की प्रतिबद्धता थी, जिसमें सब लोगों को पर्याप्त संरक्षण, अल्पसंख्यक, जनजाति, पिछड़े, वंचित और अन्य वर्गों की गारंटी तथा संरक्षण प्रदान किया जाएगा। यह प्रस्ताव संविधान निर्माताओं के आधारभूत सिद्धान्तों के सम्मिलित तथा कार्यान्वयन को प्रकट करता है जो अधिकार सार्वभौमिक घोषणा-पत्र में निरूपित किए गए थे। भारत की संविधान सभा ने इनमें से अधिकतर अधिकारों को भारतीय संविधान में समावेश किया। भारतीय संविधान के दो भाग–मौलिक अधिकार तथा नीति-निर्देशक सिद्धान्त, मानवाधिकारों की सार्वभौमिक उद्घोषणा के लगभग सम्पूर्ण भाग को अपने में समाविष्ट करते हैं। संक्षेप में, वैकल्पिक प्रस्ताव ने संविधान के विशेष प्रावधानों के संयोजन के लिए आधार प्रदान किया है।

प्रस्तावना और मानवाधिकार
संविधान की प्रस्तावना का भारतीय संविधान में एक अद्वितीय स्थान है। भारतीय संविधान की अन्तरात्मा न्याय, समता, अधिकार और बन्धुत्व की भावना से अभिसिंचित है। संविधान की प्रस्तावना में इन गुणों के साथ-साथ विश्वशान्ति तथा मानव कल्याण भी, अन्तरात्मा के रूप में विद्यमान है। भारत की प्रस्तावना इस प्रकार है –

हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की स्वतन्त्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता
और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए

दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई० को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मर्पित करते हैं।’
(इसमें समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 42वें संशोधन के माध्यम से जोड़े गए।)

संक्षिप्त रूप से भारतीय संविधान की प्रस्तावना मानवाधिकारों को निर्धारित करती है और संविधान निर्माताओं की आकांक्षाओं को प्रकट करती है।

मौलिक अधिकार तथा मानवाधिकार

भारतीय संविधान का एक अद्वितीय लक्षण यह है कि इसमें व्यापक मानवाधिकारों को मौलिक अधिकारों का नाम दिया गया है और मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के अधिकार को भी एक मौलिक अधिकार बनाया गया है। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार वैयक्तिक स्वतंत्रता तथा मानवाधिकारों के मैग्नाकार्टा को स्थापित करता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14-31 वैयक्तिक अधिकार प्रदान करते हैं जिसमें स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार सम्मिलित हैं।

ये नकारात्मक अधिकार हैं और इनके न होने की स्थिति में राज्य द्वारा इनका प्रवर्तन कराया जा सकता है। इन अधिकारों को सारांश रूप में विभिन्न श्रेणियों में निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता हैं –

समानता का अधिकार (अनु० 14-18)
भारतीय संविधान में मानव अधिकारों में समानता का अधिकार एक आवश्यक अंग है। संविधान की धारा 14 के अनुसार, “भारत के राज्य क्षेत्र में राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। धारा 15 अधिक विस्तृत रूप से विवरण करती है-“राज्य किसी नागरिक के साथ उसके धर्म, नस्ल, जाति, लिंग अथवा जन्मस्थान आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा और इनमें से किसी आधार पर किसी व्यक्ति को दुकानों, होटलों, कुओं, तालाबों, स्नानगृहों तथा मनोरंजन के अन्य स्थानों पर प्रवेश की किसी प्रकार की मनाही नहीं होगी। जबकि धारा 16 में कहा गया है, “सभी नागरिकों को सरकारी नौकरी पाने के समान अवसर होंगे और किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सरकारी नौकरी या पद प्राप्त करने में भेदभाव नहीं किया जाएगा। धारा 17 और 18 में “राज्य को छुआछूत तथा पदवियों के उन्मूलन का निर्देश दिया गया है।”

स्वतंत्रता का अधिकार (अनु० 19-22)
स्वतंत्रता का अधिकार भारत में मानवाधिकारों की आत्मा है। धारा 19 के अनुसार, “सभी व्यक्तियों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के इकट्ठा होने की स्वतंत्रता, संघ बनाने का अधिकार, भारत राज्य क्षेत्र में घूमने-फिरने का अधिकार, भारत के किसी भाग में रहने या निवास करने की स्वतंत्रता, कोई भी व्यवसाय करने, पेशा अपनाने या व्यापार करने का अधिकार है।” जबकि धारा 20 के अनुसार, “किसी व्यक्ति को उस समय प्रचलित कानून के अनुसार दण्ड दिया जा सकता है, कोई भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए दो बार दण्डित नहीं किया जा सकता, किसी व्यक्ति को अपने विरुद्ध गवाही के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता तथा व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित उचित प्रक्रिया के बिना जीवन तथा निजी स्वतंत्रता के वंचित नहीं किया जाएगा।

शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनु० 23-24)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23-24 शोषण, मानव व्यापार तथा इसी प्रकार के अन्य शोषणों की सूची की गणना करते हैं। अनुच्छेद 23 व्यक्तियों के व्यापार, भीख और बलात् श्रम के अन्य प्रकारों का निषेध करता है। भारतीय संविधान में ‘दासता’ शब्द के स्थान पर अधिक विस्तृत अभिव्यक्ति मानव के व्यापार’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसमें केवल दासता का निषेध नहीं किया गया है, बल्कि महिलाओं, बच्चों तथा बच्चों के अनैतिक और अन्य उद्देश्यों के लिए व्यापार का निषेध करता है। अनुच्छेद 24, 14 वर्ष की आयु के बच्चे को किसी प्रकार के खतरनाक व्यवसाय; जैसे-खान या कारखाने में काम का निषेध करता है। इस प्रकार से बालश्रम को निषेध किया गया है और मौलिक अधिकार के रूप में बच्चों को संरक्षित किया जा रहा है।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनु० 25-28)
भारतीय संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 25-28 में नागरिकों के लिए विभिन्न धार्मिक स्वतंत्रताओं का वर्णन किया गया है। इसके अंतर्गत सार्वजनिक नैतिकता, अनुशासन तथा स्वास्थ्य के नियमों को ध्यान में रखते हुए सभी व्यक्तियों को अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी धर्म को मानने, उसका पालने करने तथा प्रचार करने का अधिकार है तथा प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय अथवा उसके किसी भाग को धर्म अथवा दान सम्बन्धी उद्देश्य के लिए संस्थाएँ स्थापित करने, उन्हें चलाने, धर्म के मामलों में प्रबंध करने का अधिकार होगी। किसी भी व्यक्ति को किसी विशेष धर्म की अभिवृद्धि या पोषण में किए गए खर्च के लिए कोई कर (टैक्स) देने के लिए विवश नहीं किया जाएगा। ये ही नहीं राजकीय निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। इसके अलावा, राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्था में किसी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष की शिक्षा ग्रहण करने के लिए विवश नहीं किया जाएगा।

सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनु० 29-30)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 द्वारा अल्पसंख्यक वर्गों को विशेष सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार दिए गए हैं। अनुच्छेद 29 के अनुसार, भारत में निवास करने वाले प्रत्येक समूह को अपनी निश्चित भाषा, लिपि तथा संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार है और संरक्षित रखने का पूर्ण अधिकार है। अनुच्छेद 30 में कहा गया है कि सभी अल्पसंख्यकों के वर्गों को अपनी इच्छा के अनुसार शिक्षा संस्थाएँ स्थापित करने और उन्हें चलाने का अधिकार है। संक्षेप में, भारत जैसे बहुसंख्यक समाज में अल्पसंख्यकों के मानव अधिकार सुरक्षित करने के लिए ये अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

भारतीय संविधान के भाग 3 की धारा 32 के अधिकतर मौलिक अधिकारों के न्यायिक संरक्षण और इन अधिकारों के कार्यान्वयन की पवित्रता से सम्बन्धित हैं। अनुच्छेद 32 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को इन अधिकारों को लागू करने का अधिकार है।

इस अनुच्छेद का परिच्छेद 2 न्यायपालिका को निर्देश, रिट जिसमें बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेक्षण, अधिकारपृच्छा शामिल हैं, जारी करने की शक्ति प्राप्त है। इन अधिकारों को आपातकाल के सिवाय किसी अन्य परिस्थिति में निलंबित नहीं किया जा सकता।

राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त

भारतीय संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 36-51 को प्रायः नीति-निदेशक सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। नीति-निदेशक सिद्धांत भारत के लोगों के लिए मानवीय नागरिक और आर्थिक अधिकारों की एक वृहद् सूची है। इस भाग के सकारात्मक प्रावधानों को प्रदान करने का उद्देश्य शासन के आधारभूत सिद्धांतों द्वारा सबके लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय निर्धारित करना है। इन सिद्धांतों का विधान बनाते और कार्यान्वयन करते समय कार्यकारी सत्ता को ध्यान में रखना आवश्यक है। हालाँकि इनका प्रवर्तन न्यायालय द्वारा नहीं कराया जा सकता, परन्तु यह फिर भी भारत के शासन में मौलिक है और राज्य का यह कर्तव्य है कि कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को स्त्री, पुरुष तथा बच्चों के सामान्य कल्याण को कानून में सम्मिलित करने का प्रयास करे। ये सिद्धांत हैं-जीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराना (अनु० 39 (a)], स्त्री-पुरुष को समान कार्य के लिए समान वेतन [अनु० 39 (d)], स्त्री-पुरुष तथा श्रमिकों के स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त संरक्षण प्रदान करना [अनु० 39 (e)]। समाने न्याय और निशुल्क कानूनी सहायता (अनु० 39 (d)], प्रत्येक श्रेणी के मजदूरों के लिए अच्छा वेतन, अच्छा जीवन-स्तर तथा आवश्यक छुट्टियों का प्रबंध करना [अनु० 43], बच्चों के लिए अनिवार्य तथा निशुल्क शिक्षा (अनु० 45), राज्य लोगों के जीवन स्तर, पोषण के स्तर को ऊँचा उठाने तथा जनस्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयास करेगा (अनु. 47)। गौहत्या का निषेध तथा अन्य दूध देने वाले पशुओं को मारने पर रोक लगायी जाएगी। (अनु० 48)।

मौलिक अधिकारों तथा नीति-निदेशक सिद्धांतों का सूक्ष्म अध्ययन करने के बाद यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सार्वभौमिक अधिकारों के लगभग सम्पूर्ण क्षेत्र को यह दोनों अपने में सम्मिलित किए हुए हैं।

प्रश्न 5.
मानवाधिकार के आधार पर महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार और महिलाएँ
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव न करने के सिद्धान्त की अभिपुष्टि की थी और यह घोषणा की थी कि सभी मानव स्वतन्त्र पैदा हुए हैं और गरिमा एवं अधिकारों में समान हैं तथा सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव भी शामिल है, सभी अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं के हकदार हैं। फिर भी महिलाओं के विरुद्ध अत्यधिक भेदभाव होता रहा है।

सर्वप्रथम, सन् 1946 में महिलाओं के मुद्दों का निपटारा करने के लिए महिलाओं की प्रस्थिति पर आयोग की स्थापना की गयी थी। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव की अग्राह्यता के सिद्धान्त को अभिपूष्ट कर दिया था और यह उद्घोषणा की थी कि सभी मानव गरिमा एवं अधिकारों की दृष्टि से स्वतंत्र एवं समान पैदा हुए हैं और हर व्यक्ति उसमें उपवर्णित सभी अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं का, लिंग पर आधारित भेदभाव सहित किसी भी प्रकार के अधिकारों का बिना किसी भेदभाव के हकदार हैं। फिर भी महिलाओं के विरुद्ध व्यापक भेदभाव विद्यमान है, मुख्यतः इसलिए है, क्योंकि महिलाओं एवं लड़कियों को समाज द्वारा अधिरोपित अनेक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है, न कि विधि द्वारा अधिरोपित प्रतिबंधों का। इससे अधिकारों की समानता तथा मानव अधिकारों के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है।

महासभा ने 7 जनवरी, 1967 को महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की समाप्ति की घोषणा को अंगीकार किया और घोषणा में प्रस्तावित सिद्धान्तों के कार्यान्वयन के लिए महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अधिनियम 18 दिसम्बर, 1979 को महासभा द्वारा अंगीकार किया गया। यह अधिनियम 1981 को प्रवृत्त हुआ।

महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की अवधारणा
‘महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव’ शब्द से आशय लिंग के आधार पर किया गया ऐसा कोई भेद, अपवर्जन या प्रतिबंध है जिसका प्रभाव अथवा उद्देश्य महिलाओं द्वारा उनकी वैवाहिक प्रस्थिति पर बिना विचार किए हुए राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सिविल अथवा किसी अन्य क्षेत्र में पुरुष एवं स्त्री की समानता के आधार पर महिलाओं द्वारा समान स्तर पर उपभोग अथवा प्रयोग करने से वंचित करती है।

अभिसमय द्वारा अनुच्छेद 1 के अन्तर्गत महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव शब्द की परिभाषा लिंग के आधार पर किये गये किसी भी ऐसे भेदभाव अपवर्जन (Exclution) अथवा प्रतिबंध के रूप में की गयी है जिसका प्रभाव अथवा उद्देश्य महिलाओं द्वारा अपनी वैवाहिक प्रस्थिति से बिना कोई सम्बन्ध रखे हुए पुरुष एवं महिलाओं की समानता, मानव अधिकारों एवं राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सिविल (नागरिक) अथवा किसी अन्य क्षेत्र में मूलभूत स्वतंत्रताओं के आधार पर मान्यता उपभोग अथवा प्रयोग का ह्रास अथवा अकृत करना है।

भाग 3 के अन्तर्गत अभिसमय ने कई क्षेत्रों का प्रतिपादन किया है जहाँ राज्य पक्षकारों के लिए महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर करने के लिए कहा गया है, जिसमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं –

1. शिक्षा – अनुच्छेद 10 के अन्तर्गत अभिसमय उपबन्ध करता है कि अपने कैरियर और शैक्षिक पथ-प्रदर्शन में महिलाओं के लिए वे ही शर्ते उपबन्धित की जाएँगी जो पुरुषों के लिए उपबन्धित हैं। वे ग्रामीण तथा नगर क्षेत्रों में सभी प्रकार के शैक्षिक स्थापनों में उपाधियाँ प्राप्त करने के लिए अध्ययन की एक-सी सुविधा प्राप्त करेंगी। यह समानता विद्यालय के पहले सामान्य, तकनीकी, व्यावसायिक तथा उच्चतर तकनीकी शिक्षा तथा सभी प्रकार के शैक्षिक प्रशिक्षण में प्राप्त करेंगी। महिलाओं का पाठ्यक्रम समान होगा, वही परीक्षा होगी और समान स्तर की योग्यताओं से युक्त शैक्षणिक कर्मचारीवृन्द होंगे, विद्यालय परिसर होगा तथा एक प्रकार की सामग्री होगी जैसी कि पुरुषों की है। छात्रवृत्ति और अन्य अध्ययन अनुदान से सम्बन्धित मामलों में पुरुषों के समान महिलाओं को सुविधा दी जाएगी। अनवरत शिक्षा कार्यक्रम में पहुँच के समान अवसर उन्हें प्राप्त होंगे। खेल तथा व्यायाम शिक्षा (physical education) में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए उन्हें समान अवसर प्राप्त होंगे।

2. नियोजन – अभिसमय ने अनुच्छेद 11 के अन्तर्गत उपबन्ध किया है कि राज्य पक्षकार महिलाओं के विरुद्ध भेदभावे दूर करने के लिए सभी प्रकार की उचित व्यवस्था करेंगे। नियोजन के क्षेत्र में महिलाओं के अधिकार पुरुषों के समान होंगे – (क) विशेष रूप से काम करने का अधिकार; (ख) समान नियोजन के अवसर के अधिकार; (ग) व्यवसाय तथा नियोजन चुनने का स्वतन्त्र अधिकार; (घ) समान पारिश्रमिक पाने का अधिकार जिसमें समान मूल्य के कार्य के सम्बन्ध में समान लाभ और व्यवहार सम्मिलित हैं और कार्य की विशेषता का मूल्यांकन करने में समानता का व्यवहार है; (ङ) सामाजिक सुरक्षा का अधिकार विशेष रूप से सेवा निवृत्ति, बेरोजगारी, बीमारी, अवैधता वृद्धावस्था तथा कार्य करने की अन्य असमर्थता तथा भुगतान की गयी छुट्टी का अधिकार तथा (च) कार्यकारी दशाओं में स्वास्थ्य और सुरक्षा की रक्षा का अधिकार; यहाँ विवाह अथवा प्रसव के आधार पर महिलाओं के विरुद्ध कोई भेदभाव न होगा।

3. स्वास्थ्य-सुरक्षा – अभिसमय का अनुच्छेद 12 उपबन्ध करता है कि राज्य पक्षकार स्वास्थ्य सुरक्षा सेवाओं की प्राप्ति में जिसमें परिवार नियोजन भी सम्मिलित है, महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर करने की कार्यवाही करेंगे।

4. आर्थिक तथा सामाजिक जीवन – अभिसमय का अनुच्छेद 13 यह उपबन्ध करता है। कि आर्थिक तथा सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर किया जायेगा। उन्हें वही अधिकार मिलेंगे जो पुरुषों को प्राप्त हैं विशेष रूप से निम्नलिखित मामलों में प्राप्त होंगे – (क) पारिवारिक लाभ के अधिकार में, (ख) बैंक ऋण बन्धक और वित्तीय जमा के अन्य रूप में तथा (ग) मनोरंजन कार्यवाही, खेल तथा सांस्कृतिक जीवन के अन्य पहलुओं में।

5. ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ – अनुच्छेद 14 ने यह उपबन्ध किया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर करें। राज्य पक्षकारों से अपेक्षित है कि वे ऐसी महिलाओं को अधिकार सुनिश्चित करें –

(क) सभी स्तरों पर विकास योजना और उसके अनुपालन में भागीदारी करना
(ख) पर्याप्त स्वास्थ्य सुरक्षा सुविधा प्राप्त करना तथा परिवार नियोजन की सूचना प्राप्त करना; राय प्राप्त करना तथा सेवा प्राप्त करना
(ग) सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम से सीधे लाभ प्राप्त करना
(घ) औपचारिक तथा अनौपचारिक प्रशिक्षण तथा शिक्षा प्राप्त करना जिसमें साक्षरता अभियान तथा अन्य बातों के साथ सभी सामुदायिक लाभ तथा विस्तार की सेवाएँ जो उनकी तकनीकी प्रवीणता को बढ़ाने के लिए हों (ङ) स्वयं-सहायता समूहों तथा सहकारिताओं का गठन करना जो नियोजन तथा स्वत: नियोजन द्वारा समान पहुँच प्राप्त करते हों
(च) सभी सामुदायिक कार्यवाहियों में भाग लेना
(छ) कृषिक जमी और ऋणों में पहुँच प्राप्त करना, बाजारी सुविधाएँ, उचित प्रौद्योगिकी तथा भूमि तथा कृषि-सुधार में तथा भूमि पुनर्वास योजनाओं में समान उपचार तथा
(ज) आजीविका-दशाओं का उपभोग करना।

6. विधि के समक्ष समानता – अधिनियम का अनुच्छेद 15 उपबन्ध करता है कि राज्य पक्षकार विधि के समक्ष पुरुषों के साथ महिलाओं को समानता प्रदान करेंगे। महिलाएँ संविदाएँ पूर्ण करने में और सम्पत्ति का प्रशासन करने में समान अधिकार रखेंगी और राज्य पक्षकार न्यायालयों तथा न्यायाधिकरणों में तथा प्रक्रिया की समान अवस्थाओं में उनसे समान व्यवहार करेंगी। राज्य पक्षकार सहमत होंगे कि सभी संविदाएँ तथा सभी अन्य प्रकार की व्यक्तिगत लिखतें जो विधिक प्रभाव रखती हैं जो महिलाओं की विधिक क्षमता को नियंत्रित करने के लिए निर्देशित हैं, शून्य समझी जाएँगी। राज्य पक्षकार महिलाओं और पुरुषों को गतिमान होने के लिए समान अधिकार प्रदान करेंगे और वे अपना निवास और अधिवास चुनने की स्वतंत्रता रखेंगे।

7. विवाह तथा परिवार सम्बन्ध – अनुच्छेद 16 उपबन्ध करता है कि राज्य पक्षकार विवाह तथा परिवार सम्बन्धी सभी मामलों में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव दूर करने के सभी उपाय करेंगे। महिलाओं को निम्नलिखित अधिकार प्रदान किये जाएँगे –

(क) विवाह करने का समान अधिकार
(ख) विवाह तथा विवाह के विघटन में समान अधिकार तथा दायित्व
(ग) अपने बच्चों सम्बन्धी मामलों में माता-पिता के रूप में समान अधिकार तथा दायित्व। सभी मामलों में बच्चों का हित सर्वोपरि होगा
(घ) अपने बच्चों की संख्या और बीच की अवधि निश्चित करने में स्त्री एवं पुरुष का स्वतन्त्र तथा समान दायित्व होगा तथा सूचना शिक्षा तथा अपने अधिकारों का प्रयोग करने के लिए समर्थ बनाने के साधन उन्हें समान रूप से प्राप्त होंगे
(ङ) बच्चों की संरक्षकता, प्रतिपाल्यता, न्यासधारिता तथा दत्तकग्रहण के सम्बन्ध में समान अधिकार तथा दायित्व;
(च) पति तथा पत्नी के रूप में समान व्यक्तिगत अधिकार जिसमें पारिवारिक नाम चुनने का अधिकार, व्यवसाय तथा आजीविका चुनने का समान अधिकार सम्मिलित हैं। तथा
(छ) स्वामित्व, अर्जन, प्रबन्ध, प्रशासन, उपभोग तथा सम्पत्ति का व्ययं चाहे निःशुल्क हो या मूल्यवान प्रतिफल के लिए हो, में दम्पतियों का समान अधिकार होगा।

अभिसमय के राज्य पक्षकारों ने महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव की सभी रूपों में भर्त्सना की है। और हर संभव साधन द्वारा महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने के लिए सहमत हुए हैं। तथा इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि –

  1. पुरुष एवं महिलाओं की समानता के सिद्धान्त को अपने राष्ट्रीय संविधानों अथवा अन्य उपयुक्त विधायनों में शामिल करेंगे, यदि यह सिद्धान्त उनमें पहले से शामिल न हो
  2. महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव का प्रतिषेध करते हुए उपयुक्त विधायी एवं अन्य उपायों को अंगीकार करेंगे
  3. पुरुषों के साथ समान आधार पर महिलाओं के अधिकारों के विधिक संरक्षक की स्थापना करेंगे
  4. महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव के किसी कार्य अथवा अभ्यास में संलग्न होने से विरत रहेंगे
  5. किसी व्यक्ति, संगठन अथवा उद्यम महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने के लिए. सभी उपयुक्त उपाय अपनाएँगे।
  6. ऐसे सभी राष्ट्रीय दण्ड प्रावधानों का निरसन (Repeal) करेंगे जो महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव किये जाने में सहायक होते हैं।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights

प्रश्न 6.
मानवाधिकार के आधार पर बालकों को प्राप्त अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार तथा बाल-अधिकार

मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 25 के परिच्छेद 2 के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया था कि शैशवावस्था में विशेष देखभाल एवं सहायता की आवश्यकता होती है। शिशु के सम्बन्ध में सार्वभौमिक घोषणा के अन्य सिद्धान्तों के साथ उपर्युक्त सिद्धान्त महासभा द्वारी दिनांक 20 नवम्बर, 1959 को अंगीकार किये गये शिशुओं के अधिकारों की घोषणा (Declaration on the Rights of the Child) में शामिल किये गये थे। सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा के अनुच्छेद 23 एवं 24 तथा आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा के अनुच्छेद 10 के अन्तर्गत शिशुओं की देखभाल के लिए प्रावधान किए गए हैं। कई अन्य अन्तर्राष्ट्रीय दस्तावेजों में भी कहा गया है कि किसी शिशु की देखभाल पारिवारिक स्नेह और प्रसन्नता के वातावरण तथा प्यार एवं समझ में होनी चाहिए। यद्यपि शिशुओं की देखभाल एवं विकास के लिए सिद्धान्त की उद्घोषणा की गयी, किन्तु ये सिद्धान्त राज्यों पर बाध्यकारी नहीं थे। अत: यह महसूस किया गया था कि एक ऐसा अभिसमय तैयार किया जाये जो राज्यों पर विधिक रूप से बाध्यकारी हो।

शिशुओं के अधिकार को अभिसमय (Convention of Rights of the Child) महासभा द्वारा दिनांक 20 नवम्बर, 1989 को शिशुओं की घोषणा की 30वीं वर्षगाँठ पर सर्वसम्मति से अंगीकार किया गया; जो दिनांक 2 सितम्बर, 1990 को लागू हुआ। 5 दिसम्बर, 2013 तक अभिसमय के 193 राज्य पक्षकार बन चुके हैं। अभिसमय में 54 अनुच्छेद हैं और यह तीन खण्डों में विभाजित हैं। अभिसमय शिशुओं के सिविल, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए विश्व की पहली सन्धि है। अभिसूचना को सही मायने में शिशुओं के अधिकारों का बिल कहा जा सकता है। अभिसमय के अनुच्छेद 1 के अन्तर्गत यह कहा गया है कि शिशु ऐसे प्रत्येक मानव को कहा जायेगा जिसकी आयु 18 वर्ष से कम हो, यदि शिशुओं पर लागू किसी विधि के अन्तर्गत वयस्कता इससे पूर्व नहीं प्राप्त हो जाती।

शिशु के अधिकार – अभिसमय में शिशुओं के बहुत से अधिकार निर्दिष्ट किये गये हैं, जिनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं –

  1. प्राण का अधिकार (अनुच्छेद 6, परिच्छेद 1,)
  2. राष्ट्रीयता अर्जित करने का अधिकार (अनुच्छेद 7)
  3. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 13, परिच्छेद 1)
  4. विचार, अंत:करण एवं धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 14, परिच्छेद 1)
  5. संगम की स्वतन्त्रता एवं शांतिपूर्ण सभा करने का अधिकार (अनुच्छेद 15, परिच्छेद 1)
  6. शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 28, परिच्छेद 1)
  7. सामाजिक सुरक्षा से लाभ का अधिकार (अनुच्छेद 26, परिच्छेद 1)
  8. शिशु के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक विकास हेतु पर्याप्त जीवन-स्तर का अधिकार (अनुच्छेद 27, परिच्छेद 1)
  9. स्वास्थ्य के उच्चतम प्राप्य-स्तर के उपभोग तथा बीमारी के उपचार एवं स्वास्थ्य की पुनस्र्थापना हेतु सुविधाओं का अधिकार (अनुच्छेद 24, परिच्छेद 1)
  10. शिशु की एकान्तता, परिवार, गृह या पत्राचार में मनमाना एवं विधिविरुद्ध हस्तक्षेप के विरुद्ध विधिक संरक्षण का अधिकार (अनुच्छेद 16, परिच्छेद 1)

दिसम्बर, 2000 में शिशु अधिकार अभिसमय द्वारा निर्धारित न्यूनतम मामलों को प्रभावी बनाने के लिए और शिशुओं के हितों एवं कल्याण के संरक्षण एवं अनुरक्षण के लिए किशोर न्याय (शिशुओं की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2000 (Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2000] पारित किया है। अधिनियम के द्वारा दोनों लिंगों के किशोरों की आयु 18 वर्ष निर्धारित की गयी है। भारतीय विधि को अभिसमय से अभिपुष्टि प्रदान करने के लिए अधिनियम में विभिन्न प्रकार के अनुकल्पों का प्रावधान किया गया है जो किसी शिशु को उसके पुनर्वास एवं पुनर्रकीकरण के लिए उपलब्ध करवाये गये हैं तथा दत्तकग्रहण, पालन सम्बन्धी देखभाल का प्रावधान किया गया है। अनाथ-परित्यक्त, उपेक्षित एवं शोषित बच्चों के पुनर्वास के लिए पद्धतियों में से किसी एक के प्रायोजित किए जाने का भी प्रावधान किया गया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
मानवाधिकार घोषणा-पत्र के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानवाधिकार घोषणा-पत्र का महत्त्व

मानवाधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा-पत्र अन्तर्राष्ट्रीय इतिहास में इस प्रकार को प्रथम घोषणा-पत्र है। इसमें समस्त विश्व के व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक मानवाधिकारों का विवेचन किया गया है। हालाँकि घोषणा-पत्र सदस्य राष्ट्रों पर बाध्यपूर्ण नहीं है फिर भी यह ऐसे मानक का निर्धारण करता है जिसके आधार पर राज्य तथा व्यक्तियों का विश्लेषण मानवाधिकारों के अन्तर्गत किया जा सकता है।

राष्ट्रों के कानून के विकास में घोषणा-पत्र ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यह एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरा है जो न केवल कानून का एक स्रोत है, बल्कि कानूनों को बाध्यकारी भी बनाता है।

समाज के सभी हिस्सों से जिस प्रकार की नैतिक तथा राजनीतिक स्वीकृति घोषणा-पत्र को प्राप्त है इस प्रकार की अन्तर्राष्ट्रीय स्वीकृति किसी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को कभी प्राप्त नहीं हुई है। इस घोषणा-पत्र का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में घोषणा-पत्र ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रायः मानवाधिकारों का समर्थन किया जाता रहा है; उदाहरणार्थ-दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति का विरोध मानवाधिकारों के हनन के आधार पर किया गया। रंगभेद की नीति से घोषणापत्र की आत्मा का हनन होता है। इसी प्रकार शीत युद्ध के दौरान हंगरी, रूमानिया, बुल्गारिया की आलोचना की गई, क्योंकि वह शांति संधियों और मानवाधिकारों के घोषणा-पत्र की वचनबद्धता को पूरा करने में असमर्थ रहे थे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों के हनन को रोकने के लिए कई देशों को बाध्य भी किया है क्योंकि मानवाधिकारों का हनन देश के मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों में बाधक है।

मानवाधिकारों की घोषणा से नवस्वतंत्र देशों के संविधान तथा क्षेत्रीय अनुबन्ध बहुत प्रभावित हुए जिसके कारण इंडोनेशिया, सीरिया, अल-साल्वाडोर, हैती, लिबिया, जॉर्डन तथा अन्य कई देशों के संविधानों में काफी कुछ घोषणा-पत्र से ग्रहण किया गया है। संधियों तथा क्षेत्रीय अनुबंधों में घोषणा-पत्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।

अत: संक्षेप में कहा जा सकता है कि घोषणा-पत्र कानूनी रूप से प्रवर्तनीय नहीं है परन्तु फिर भी बहुसंख्यक देशों की सहमति के लिए मानवाधिकार आदर्श रूप में एक महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुए हैं।

प्रश्न 2.
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम-2005 के मुख्य बिन्दुओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005

बीजिंग उद्घोषणा एवं कार्य-योजना में घरेलू हिंसा को एक मानवाधिकार वाद बिन्दु के रूप में स्वीकार किया गया था तथा महिलाओं के विकास के लिए चिन्ता व्यक्त की गयी थी। महिलाओं के अधिकारों को प्रभावशाली संरक्षण उपलब्ध कराने के लिए, जो कि परिवार में किसी भी प्रकार की हिंसा का शिकार हैं, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 संसद द्वारा अधिनियमित किया गया। घरेलू हिंसा को अधिनियम की धारा 3 के अन्तर्गत परिभाषित किया गया। है जिसके अनुसार कोई कार्य लोप या कुछ करना या आचरण, घरेलू हिंसा को गठित करेगा यदि वह –

(a) पीड़ित व्यक्ति के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग की या चाहे उसके मानसिक या शारीरिक लाभ की अपहानि करता है, या उसे कोई क्षति कारित करता है, या उसके लिए संकट उत्पन्न करता है या उसके ऐसा करने का स्वभाव है और जिसके अन्तर्गत शारीरिक यौगिक, मौखिक, भावनात्मक एवं आर्थिक दुरुपयोग कारित करना भी है; या

(b) कोई सम्पत्ति या दहेज या मूल्यवान प्रतिभूति के लिए किसी गैर-कानूनी माँग को पूरा करने के लिए इसे या उससे सम्बन्धित किसी अन्य व्यक्ति को प्रपीड़ित करने के आशय से पीड़ित व्यक्ति का उत्पीड़न करता है, या उसे अपहानि कारित करता है या उसे क्षति कारित करता है या उसके लिए संकट उत्पन्न करता है; या

(c) खण्ड (a) (b) में उल्लिखित किसी आचरण द्वारा पीड़ित व्यक्ति या उससे सम्बन्धित किसी व्यक्ति पर धमकी का प्रभाव बनाए रखती है; या

(d) पीड़ित व्यक्ति को, अन्य तरीके से क्षति कारित करता है या उत्पीड़ित करता है, चाहे ऐसा उत्पीड़न शारीरिक हो या मानसिक।

कोई ऐसा व्यक्ति, जिसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि घरेलू हिंसा का कोई कार्य हो चुका है, या किया जा रहा है, या किए जाने की सम्भावना है तो वह तत्सम्बन्धित संरक्षणाधिकारी (Protection Officer) को इस सम्बन्ध में जानकारी दे सकेगा। कोई पुलिस अधिकारी संरक्षणाधिकारी, सेवा प्रदाता या मजिस्ट्रेट, जिसको घरेलू हिंसा के किए जाने की शिकायत प्राप्त हुई है या जो घरेलू हिंसा की घटना के घटित होने के स्थान पर उपस्थित है या जब घरेलू हिंसा की उसे रिपोर्ट दी जाती है तब वह उसे पीड़ित व्यक्ति को –

(क) इस अधिनियम के अन्तर्गत, किसी संरक्षण आदेश आर्थिक राहत हेतु कोई आदेश, २ ई आवास आदेश, कोई प्रतिकर आदेश, या ऐसे एक से अधिक आदेश के रूप में किसी प्रकार की राहत अभिप्राप्त करने हेतु आवेदन देने की उसके अधिकार की
(ख) सेवा प्रदाताओं द्वारा सेवाओं की उपलब्धता की
(ग) संरक्षण प्रदाताओं द्वारा सेवाओं की उपलब्धता की;
(घ) विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अन्तर्गत नि:शुल्क विधिक सहायता प्राप्त करने के अधिकार की
(ङ) जहाँ पर भी सुसंगत हो, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 (क) के अन्तर्गत किसी परिवाद के दाखिल करने के उसके अधिकार की, समस्त जानकारी उपलब्ध करवायेगा।

प्रश्न 3.
मानवाधिकार के सन्दर्भ में चुनौतियों और संभावनाओं की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार : चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। मानवाधिकारों की रक्षा करने में भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। हाल के वर्षों में समाज के हाशिये के वर्गों के दावों के प्रति न्यायपालिका ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसके परिणामस्वरूप आज समाज के दुर्बल वर्ग; जैसे-महिलाएँ, बच्चे, पिछड़ी जातियाँ, जनजातियाँ और अन्य पिछड़े वर्ग अपने अधिकारों के प्रति अधिक सचेत हो गए हैं। प्राचीन भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था में हाशिये के वर्गों; जैसे-महिलाएँ और बच्चों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे परन्तु आज यह वर्ग अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए आंदोलनों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्र में शक्ति के बँटवारे के प्रति दृढ़-संकल्प हैं। भारतीय संविधान के समानता के अधिकार से सम्बन्धित अनुच्छेद ने सामाजिक व्यवस्था को एक गहरी चोट पहुंचाकर इस घटना में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण और उनके अधिकारों के हनन सम्बन्धी शिकायतों को देखता है, यह एक विधायी संस्था है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस दिशा के कार्यक्षेत्र में यौन उत्पीड़न के विरुद्ध संरक्षण के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश दिये हैं और अब अधीनस्थ न्यायालय लिंग सम्बन्धी भेदभाव को मानव अधिकारों के हनन के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार बाल-अधिकारों के संरक्षण के लिए “बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ बालकों के प्रति होने वाले अपराधों को नियन्त्रित करने के लिए प्रतिबद्ध है।

मानव अधिकारों के सकारात्मक पहलू के साथ ही मानवाधिकारों का एक नकारात्मक पहलू भी है और हम इसकी अवहेलना नहीं कर सकते। आज सरकारों की यह प्रवृत्ति बन गई है कि वह प्रायः मुकदमों या याचिकाओं की आड़ में मानवाधिकारों की अवहेलना करती है। राज्य ने भारतीय पुलिस को अत्यधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। लोगों को मात्र संदेह के आधार पर हिरासत में लेना उन पर दमन की कठोर थर्ड डिग्री का प्रयोग करना, झूठी मुठभेड़, कारावास में मृत्यु इत्यादि कानून को लागू करवाने वाली संस्थाओं द्वारा मानव अधिकारों के हनन के गंभीर उदाहरण हैं। कानून की सीमा के अन्तर्गत आतंकवादी गतिविधियों पर रोक लगाने तथा उनसे निपटने के लिए पुलिस को आवश्यक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। परन्तु TADA और POTA जैसे विध्वंसक कानूनों की आड़ में मानवाधिकारों का हनन किया जाता है जो एक अपूर्णीय क्षति है। अन्याय के माध्यम से यह निरंकुश कानून बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का स्रोत भी बन चुके हैं। कारावासीय हिंसा-जिसमें कारावास में मौत और महिलाओं का कारावासीय बलात्कार भी शामिल हैं-एक अन्य अमानवीय क्रूर और गैर-मानवीय व्यवहार है जो मानव अधिकारों के लिए गंभीर चुनौती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
मानवाधिकार के महत्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार का महत्त्व

अधिकार, मानव के सामाजिक जीवन की ऐसी आवश्यकताएँ हैं जिनके अभाव में मानव न तो अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज के लिए उपयोगी कार्य ही कर सकता है। बिना अधिकारों के मानव का जीवन पशु तुल्य है। अत: अधिकार मानव-जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जो उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं। राज्य का भी यह प्रयास रहता है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो, अतः वह व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करता है। राज्य द्वारा व्यक्तियों को दी जाने वाली सुविधाओं का नाम ही अधिकार है।

मानवाधिकारों की घोषणा सर्वप्रथम अमेरिकी तथा फ्रांसीसी क्रान्तियों के पश्चात् हुई। उसके पश्चात् मानव के महत्त्वपूर्ण अधिकारों को विश्व समुदाय के द्वारा स्वीकार किया गया। सन् 1941 में अमेरिकी कांग्रेस में अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने मानव को निम्न चार स्वतंत्र अधिकारों को प्रदान करने का समर्थन किया

  1. भाषण तथा विचार अभिव्यक्ति का अधिकार
  2. धर्म तथा विश्वास का अधिकार
  3. अभाव से स्वतन्त्रता का अधिकार
  4. भय से स्वतन्त्रता का अधिकार।

ये चारों अधिकार मानव के व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास के लिए आवश्यक हैं तथा विश्व के सभी व्यक्तियों को प्रत्येक दशा में प्राप्त होने चाहिए। अटलाण्टिक चार्टर से लेकर द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के पूर्व अनेक सम्मेलनों में मित्र राष्ट्रों के द्वारा मानव के विभिन्न अधिकारों तथा आधारभूत स्वतन्त्रताओं पर बल दिया गया।

प्रश्न 2.
मानवाधिकारों की अवधारणा क्या है?
उत्तर :
मानवीय या मानवाधिकारों की भावना का प्रादुर्भाव विश्वयुद्ध के बाद हुआ। इस भावना का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक राष्ट्र को ऐसे अधिकार प्रदान करना, जिनके माध्यम से वह अपना समुचित विकास करने में सफल हो सकें। अत: एक प्रकार से मानवाधिकारों की भावना, विश्वबन्धुत्व की भावना पर आधारित है। इस भावना के आधार पर यह जाना जाता है कि विश्व के सभी मनुष्य एक-दूसरे के भाई और सभी को अपने विकास के समान अवसर मिलने चाहिए।

प्रश्न 3.
भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए क्या प्रयत्न किए गए?
उत्तर :
भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार करने हेतु निम्नलिखित प्रावधानों को लागू किया गया –

  1. अनुच्छेद 15 (3), अनुच्छेद 15 (1) और अनुच्छेद 15 (2) के अनुसार राज्य महिलाओं और बालकों के लिए विशेष उपबन्ध की व्यवस्था कर सकता है।
  2. अनुच्छेद-39 (छ) पुरुषों और स्त्रियों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान करता है।
  3. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1998 पारित किया गया।
  4. अनु० 42-महिलाओं के लिए प्रसूति सहायता की व्यवस्था करता है।
  5. प्रसूति सुविधा अधिनियम, 1961 पारित किया गया।
  6. दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 पारित किया गया।
  7. अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 पारित किया गया।
  8. स्त्रियों का अशिष्ट प्रस्तुतीकरण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986
  9. सती (निवारण) अधिनियम, 1987
  10. बाल विवाह अवषेध अधिनियम, 1929
  11. गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971
  12. राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990.

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
आल्टेन तथा प्लेनो द्वारा दी गई मानवाधिकार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर :
मानवाधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्तिगत जीवन, व्यक्तिगत विकास और अस्तित्व के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।

प्रश्न 2.
मानवाधिकारों की भावना का जन्म कब हुआ?
उत्तर :
मानवाधिकारों की भावना का प्रादुर्भाव द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ।

प्रश्न 3.
संयुक्त राष्ट्र का घोषणा-पत्र किस वर्ष तैयार हुआ?
उत्तर :
सन् 1945 में।

प्रश्न 4.
भारत में दहेज प्रतिषेध अधिनियम कब बना?
उत्तर :
सन् 1961 में।

प्रश्न 5.
बच्चों के अधिकार एवं कल्याण किस संगठन का उद्देश्य है?
उत्तर :
यूनिसेफ।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 13 Human Rights

प्रश्न 6.
मानवाधिकारों की भावना किस पर आधारित है?
उत्तर :
मानवाधिकारों की भावना विश्व-बन्धुत्व की भावना पर आधारित है।

प्रश्न 7.
भारत में किस वर्ष की महिला शक्ति वर्ष के रूप में मनाया गया था?
उत्तर :
वर्ष 2001 को।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
मानवाधिकार की भावना का प्रादुर्भाव हुआ।
(क) द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्
(ख) प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात्
(ग) सन् 1295 में
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 2.
व्यक्ति के अधिकारों की प्रथम घोषणा किस वर्ष हुई?
(क) सन् 1214 में
(ख) सन् 1215 में
(ग) सन् 1216 में
(घ) सन् 1220 में

प्रश्न 3.
भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम कब बना?
(क) सन् 1990 में
(ख) सन् 1971 में
(ग) सन् 1992 में
(घ) सन् 1947 में

प्रश्न 4.
महिलाओं के लिए प्रसूति सहायता की व्यवस्था किस अनुच्छेद में की गई है।
(क) अनु० 42.
(ख) अनु० 47
(ग) अनु० 51
(घ) अनु० 48

प्रश्न 5.
बालश्रम उन्मूलन हेतु भारत में कानून कब पास किया गया था?
(क) सन् 1980 में
(ख) सन् 1982 में
(ग) सन् 1984 में
(घ) सन् 1986 में

उत्तर :

  1. (क) द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्
  2. (ख) सन् 1215
  3. (क) सन् 1990 में
  4. (क) अनु० 42
  5. (घ) सन् 1986 में

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UP Board Class 12 English Model Papers Paper 2

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject English
Model Paper Paper 2
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 English Model Papers Paper 2

Time : 3 hrs 15 min
Maximum Marks: 100

Instruction:
First 15 Minutes are allotted to the candidates for reading the question paper.
Note:

  • This paper is divided in Section-A and Section-B. Both the sections are compulsory.
  • Question No. 11 has three parts: I, II, and III. Attempt only one part of Question No. 11.
  • All other questions are compulsory

Section A

Question 1.
Explain with reference to the context any one of the following passages: (8)
(a) I was a prisoner, completely surrounded, unable to move. The most diligent, aggressive vendor was a beautiful girl of nine right in front of me. She had a lovely basket with handle; and she wanted a rupee and a half for it or about thirty cents. She was an earnest pleader. There were tears in her eyes. She pleaded and begged in tones that would wring any heart.

(b) He only is fitted to command and control who has succeeded in commanding and controlling himself. The hysterical, the fearful, the thoughtless and frivolous, let such seek company, or they will fall for lack of support; but the calm, the fearless, the thoughtful and grave, let such seek the solitude of the forest, the desert and the mountain-top, and more power will be added to their power, and they will more and more successfully stem the psychic currents and whirlpools which engulf mankind.

Question 2.
Answer any one of the following questions in not more than 30 words: (4)
(a) Why was Phatik excited to go to Calcutta?
(b) How is smoking injurious to health?
(c) What are the three important qualities of a valuable life?

Question 3.
Fill in the blanks in the following sentences with the most suitable words given within the brackets: (1 x 4 = 4)
(a) I flicked him again, (with, into, in, off)
(b) The charm and of the Indian way of life will continue, (pace; graciousness, tales, hierarchy)
(c) Makhan only moved to a more position, (comfortable, unbearable, easy, critical)
(d) Just the same I he would give me a few breaks, (wish, want, like, beg)

Question 4.
Answer any one of the following questions in about 75 words: (8)
(a) How does Portia save Antonio?
(b) Write a character sketch of Shylock.

Question 5.
Answer any two of the following questions in about 30 words each: (4 + 4 = 8)
(a) Why did Sanku want to steal the gold watch?
(b) Why did the astrologer run away from his village?
(c) What was the plight of the child after he had lost his parents?

Question 6.
Explain with reference to the context any one of the following extracts: (8)
(a) The breezy call of incense – breathing mom, The swallow twittering from the straw-built shed, The cock’s shrill clarion, or the echoing horn, No more shall rouse them from their lowly bed.

(b) My little horse must think it queer To stop without a farm house near between the woods and frozen lake The darkest evening of the year.

Question 7.
Write the central idea of any one of the following poems: (6)
(a) Character of a Happy Life.
(b) A Lament
(c) My Heaven

Question 8.
Write the definition of any one of the following figures of speech with two examples: (2 + 2 = 4)
(a) Metaphor
(b) Personification
(c) Hyperbole

Section B

Question 9.
(a) Change any one of the following sentences into indirect form of speech: (2)
(i) The teacher said to the student, “My Son! Work hard if you want to make your career.”
(ii) The old lady said, “Peacocks dance with joy when it is abb tltttf rain.”

(b) Change any one of the following sentences as directed within the brackets: (2)
(i) He is very poor. He cannot purchase a Car. (Simple Sentence)
(ii) The picture was interesting. We enjoyed it very much. (Compound sentence)

(c) Transform any one of the following sentences as directed within the brackets: (2)
(i) Have you not stolen the bag? (Passive voice)
(ii) No other boy is so intelligent as Shyam. (Superlative degree)

(d) Correct any two of the following sentences: (1 x 2 = 2)
(i) One should do his duty.
(ii) Physics are an interesting subject.
(iii) Either he should eat mango or apple.
(iv) Please give me a ten rupees note.

Question 10.
(a) Use any three of the following idioms/phrases in your own sentences so as to bring out their meanings clearly: (1 x 3 = 3)
(i) a bone of contention
(ii) a feather in one’s cap
(iii) an axe to grind Arts.
(iv) a Herculean task
(v) in a fool’s paradise

(b) Write antonyms of the following words: (1 x 3=3)
(i) barren
(ii) flexible
(iii) voluntary

(c) Write synonyms of the following words: (1 x 3 =3)
(i) confess
(ii) enormous
(iii) splendid

(d) Substitute one word for the following expressions: (1 x 3 = 3)
(i) that which is fit to be eaten
(ii) one who believes in fate
(iii) absence of governance

(e) Use the following words in sentences of your own so as to bring out the differences in their meanings clearly: (1 + 1 = 2)
(i) cell
(ii) sell

Question 11.
Translate the following into English: (10)
पहले लड़ाई कुछ मनुष्यों के बची होती थी। फिर कबीलों में होने लगी। फिर राज्यों में हुई। परन्तु अब लड़ाई देशों के बीच लड़ी जाती है। फिर भी परिणाम हर हालत में वही होता है। मनुष्य के रक्त की नदियाँ बहती हैं। लोग मरते हैं, स्त्रियाँ विधवा और बच्चे अनाथ होते हैं। कहने में तो किसी एक देश की जीत होती है, परन्तु असल में आजकल की लड़ाई में किसी की भी जीत नहीं होती। किसी ने ठीक ही कहा है कि भविष्य में लड़ाई में जीवित रहने वाला मरने वाले को अच्छा समझेगा।

Question 12.
Write an essay on any one of the following topics in about 200 words: (12)
(a) Safety of women in India
(b) Mobile Phones-Boon or Bane
(c) Importance of Books in our life
(d) Need to Save Trees
(e) My Favourite Author

Question 13.
Read the following passage carefully and answer the questions that follow:-
The real object of education at which every true teacher is aiming and for which every true student is working, is to draw out, train and discipline, the faculties of the mind, those faculties that the boy will want to use when he comes to be a man. And right education is not cramming of the boy’s memory, but the evolution and training of his powers of observing, reasoning and judging. You are not here only to pass examination or to observe your teacher’s knowledge, you are here to develop your faculties of the mind – spiritual, intellectual, moral, physical – so that hereafter you may use them in the service of God and men, to the credit and honour of your country, your families and yourselves.
(a) What is the real object of education? (2)
(b) What should the students aim at? (2)
(c) (i) Explain the underlined word. (1)
(ii) Write a suitable title for the passage. (1)

Answers

Answer 1.
(b) Reference: These lines have been taken from the lesson ‘Secret of Health, Success and Power’ written by James Allen.

Context: In these lines, the author says that a person with selfcontrol. He is capable to control others because of calm-and fearless attitude, became liberate the problems of life.

Explanation: The author says that one who has controlled and commanded his desires with his will power can control and command others who are over excited, fearful, thoughtless and also have a narrow mindedness. Such people always need support to do something while a calm, fearless, thoughtful and grave person always gives support to others. If he is sent in forest, in the desert or on the mountain top, he will enhance or improve his skills. He will be more powerful and successful and he can stop the evils and problems of the society which affect the human beings.

Answer 2.
(a) Phatik was excited to go to Calcutta because he thought that going to a new place would be good for him and he would enjoy the city life. He thought so because there was no love between him and his mother and younger brother.

Answer 3.
(a) off
(b) graciousness
(c) comfortable
(d) wish

Section B

Answer 9.
(a) (i) The teacher advised the student to work hard if he wanted to make his carrer.
(ii) The old lady said that peacocks dance with joy when it is about to rain.

(b) (i) The old lady said that peacocks dance with joy when it is about to rain.
(ii) The picture was interesting so we enjoyed it very much.

(c) (i) Has the bag not stolen by you?
(ii) Shyam is the most intelligent boy.

(d)(i) One should do one’s duty.
(ii) Physics is an interesting subject.
(iii) He should eat either mango or apple.
(iv) Please give me a ten rupee note.

Answer 10.
(a) (i) The house located near the lake is a bone of contention between two families.
(ii) Hima das won gold medal in Junior athleltics. It is a feather in her cap.
(iii) He calls me only when he has an axe to grind.
(iv) Solving hundred questions in an hour is a herculean task for me
(v) We should not go for a fool’s paradise but for an eternal happiness.

(b) (i) fertile
(ii) rigid
(iii) compulsory

(c) (i) acknowledge
(ii) vast
(iii) magnificient

(d) (i) edible
(ii) fatalist
(iii) anarchy

(e) (i) The prisoners had been transferred to a different cell block.
(ii) It is illegal to sell tobacco to someone under 16 years.

Answer 11.
In past, the battle took place between some humans. Then it started in the tribes then in the states. But now the battle is fought between countries. Anyhow, the result is always same in every condition. Rivers of human blood flow. People die, women are widowed and become childrens orphans. There is a victory of a single country in saying but in reality no one wins the battle in taday’s life. Someone rightly said that in future, a person who survive in the battle will consider the person fortunate who die.

Answer 13.
(a) The real object of education is to draw out, train and discipline, the faculties of mind ie, spiritual, intellectual, moral and physical.

(b) The students should aim at developing their faculties to use them in the service of God, honour of their country, their families and themselves.

(c) (i) Here ‘faculties’ mean inherent mental or physical powers.
(ii) Aim of Education is a suitable title for the passage.

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 12 Tribals in India: Problems and Solution

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 12 Tribals in India: Problems and Solution (भारत में जनजातियाँ-समस्याएँ एवं समाधान) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 12 Tribals in India: Problems and Solution (भारत में जनजातियाँ-समस्याएँ एवं समाधान).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 12
Chapter Name Tribals in India: Problems and Solution
(भारत में जनजातियाँ-समस्याएँ एवं समाधान)
Number of Questions Solved 22
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 12 Tribals in India: Problems and Solution (भारत में जनजातियाँ-समस्याएँ एवं समाधान)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
अनुसूचित जनजातियों से आप क्या समझते हैं? भारत की अनुसूचित जनजातियों की प्रमुख समस्याओं की विवेचना कीजिए। [2007, 12, 13, 14, 16]
या
भारत में जनजातियों की प्रमुख समस्याओं की विवेचना कीजिए। उनकी दशा में सुधार लाने के लिए दो उपाय लिखिए। [2014]
या
भारत में जनजातियों की प्रमुख समस्याओं की विवेचना कीजिए तथा उनके समाधान हेतु आवश्यक उपाय सुझाइए। [2014, 15]
उत्तर :
आदिवासी अथवा जनजाति का अर्थ
आदिवासी को जिन अन्य नामों से जाना जाता है, उनमें वन जाति, वनवासी पहाड़ी, आदिम जाति तथा अनुसूचित जनजाति प्रमुख हैं। अनुसूचित जनजातियों में केवल उन जनजातियों को सम्मिलित किया जाता है, जिनको संविधान की अनुसूची में सम्मिलित किया गया है। आदिवासी शब्द को मानवशास्त्र की भाषा में एक सामाजिक समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो उसे अन्य जातियों से अलग करती है। इस समूह को एक विशिष्ट नाम होता है तथा इसमें रहने वाले आदिवासियों में सामान्य संस्कृति पायी जाती है। यह समूह एक पृथक् भौगोलिक क्षेत्र (सामान्यतः जंगलों, पहाड़ों या बीहड़ क्षेत्रों) में निवास करता है। प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया है

  1. गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, “स्थानीय आदिवासियों के किसी भी ऐसे संग्रह को हम जनजाति कहते हैं, जो एक सामान्य क्षेत्र में निवास करता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो तथा सामान्य संस्कृति के अनुसार व्यवहार करता हो।”
  2. बो आस के अनुसार, “जनजाति से हमारा तात्पर्य आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर व्यक्तियों के ऐसे समूह से है, जो सामान्य भाषा बोलता हो तथा बाह्य आक्रमणों से अपनी रक्षा करने के लिए संगठित हो।’
  3. जैकब्स तथा स्टर्न के अनुसार, “एक ऐसा ग्रामीण समुदाय या ग्रामीण समुदायों का ऐसा समूह, जिसकी सामान्य भूमि हो, सामान्य संस्कृति हो, सामान्य भाषा हो और जिस समुदाय के व्यक्तियों का जीवन आर्थिक दृष्टि से एक-दूसरे के साथ ओत-प्रोत हो, जनजाति कहलाता है।”

जनजातियों अथवा आदिवासियों की प्रमुख समस्याएँ
अधिकांश जनजातियों की मूलभूत समस्याएँ अन्य पिछड़ी जातियों के समान ही हैं, परन्तु कुछ की अपनी विशिष्ट समस्याएँ भी हैं, क्योंकि अधिकांश जनजातियाँ सुदूर, ग्रामीण, दुर्गम पहाड़ी या जंगलों (वनों) में रहती हैं। अनुसूचित जनजातियों की समस्याएँ भी सामान्य जनजातियों से मिलतीजुलती हैं। वर्तमान समय में भी उन्हें यातायात, आधुनिक सुख-सुविधा, संचार, आर्थिक विकास, शिक्षा आदि अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जनजातियों में पायी जाने वाली प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

(1) सामाजिक समस्याएँ
भारतीय जनजातीय समाज में निम्नलिखित समस्याएँ प्रमुख रूप से पायी जाती हैं –

  1. जनजातीय लोगों में मद्यपान का प्रचलन दीर्घकाल से विद्यमान है। अत: मद्यपान से न केवल उनमें स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं, वरन् आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण पारिवारिक कलह भी बढ़ गये हैं।
  2. सामाजिक संगठन की समरूपता, श्रम-विभाजन से समाप्त हो चुकी है, जिसके कारण जनजातियों का सामाजिक संगठन कमजोर हुआ है।
  3. जनजातियों में गोत्रीय विवादों जैसी जटिलता पायी जाती है।
  4. जनजातियों में बाल-विवाह पाये जाते हैं।
  5. जनजातियों में भौतिकवादी विश्व की चमक से वेश्यावृत्ति एवं विवाहेत्तर यौन सम्बन्ध की समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं।
  6. जनजातियों में पाये जाने वाले युवागृहों में शिथिलता आ गयी है और उनकी उपादेयता कम हो गयी है।
  7. वधू-मूल्य के कारण मौद्रिक अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक वृद्धि हुई है, जिससे जनजातियों में विवाहों में धन का अत्यन्त महत्त्व हो गया है।

(2) आर्थिक समस्याएँ
वर्तमान समय में भूमि तथा वन कानून भारतीय जनजातियों के लिए बहुत कठोर है। उन्हें आजीविका के लिए वनों के प्रयोग की स्वतन्त्रता नहीं है। ठेकेदार, वन अधिकारी तथा साहूकार आदि इनका शोषण करते हैं। इस कारण जनजातियों की परम्परागत अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी है तथा आर्थिक रूप से ये बहुत पिछड़ गये हैं। अधिकांश आदिवासी आधुनिक समय में भी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं। आदिवासी उपयोजना, बीस सूत्री कार्यक्रम, केन्द्रीय सहायता तथा विशेष योजनाओं के बावजूद भी आदिवासियों की आय में गिरावट आ रही है। गरीबी दूर करने की आई० आर० डी० पी० योजना में छोटे तथा सीमान्त आदिवासी किसानों को सरकार तराजू पकड़ा रही है। अशिक्षा तथा शहरी सभ्यता से दूर, जंगलों में निवास करने वाले आदिवासियों का आर्थिक शोषण कोई नयी बात नहीं है। वनों से प्राप्त नैसर्गिक सम्पदा के लिए व्यापारी, ठेकेदार तथा बिचौलियों द्वारा भारी शोषण किया जाता है। वनोत्पन्न पदार्थों; जैसे- चिरौंजी, घी, शहद तथा महँगी वस्तुओं; का उचित मूल्य आदिवासियों को नहीं मिल पाता।

(3) औद्योगीकरण के कारण उत्पन्न समस्याएँ
औद्योगीकरण के नाम पर जो ढाँचा खड़ा किया जा रहा है, उससे सम्पूर्ण देश में बेदखल लोगों की एक लम्बी माँग खड़ी हो गयी है। चाहे कोयले की खाने हों या पन-बिजली, बाँध या अन्य भारी कारखाने तथा उद्योग हों; कुल मिलाकर उनका लाभ कुछ वर्ग विशेष के लोगों को ही प्राप्त होता है। जिस गरीब आदिवासी की जमीन से कोयला निकाला जाता है तथा विकास के लिए जिस निर्माण की बुनियाद रखी जाती है, उसमें आदिवासियों की भूमिका केवल ढाँचे के निर्माण तक ही सीमित रहती है। उसके बाद वे सड़कों पर आ जाते हैं। आदिवासी परिवार की महिलाएँ नवनिर्मित तथा अन्य कॉलोनियों में नौकरानियों के रूप में अपने आपको प्रतिस्थापित करती हैं। औद्योगीकरण का अभिशाप इनके जीवन को बहुत दयनीय बनाता जा रहा है। औद्योगीकरण के कारण इन क्षेत्रों ‘ में अग्रलिखित समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं –

  1. जल प्रदूषण
  2. अनैतिक कार्यों में वृद्धि
  3. बेरोजगारी तथा गरीबी
  4. भारी संयन्त्र के आसपास के आदिवासियों के साथ सामाजिक तथा व्यावसायिक भेदभावपूर्ण व्यवहार
  5. आदिवासियों के जीवन में हस्तक्षेप
  6. भविष्य में पुन: बेदखली
  7. भूमि से वंचित होना
  8. शहरी अपराध; जैसे-डकैती, जुए की प्रवृत्ति में वृद्धि आदि।

(4) धार्मिक समस्याएँ
जनजातियों में धर्म, जादू-टोने आदि का विशेष महत्त्व है। प्रायः बीमार व्यक्ति का इलाज टोनेटोटके से किया जाता है। परन्तु बाह्य प्रभावों एवं सामाजिक संगठनों की सक्रियता के कारण अब जादू-टोने का महत्त्व कम हो गया है। आदिवासियों में धर्मान्तरण की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा आदि अनेक पूर्वोत्तर राज्यों की 70% आदिवासी जनसंख्या धर्मान्तरण करके ईसाई धर्म स्वीकार कर चुकी है। आदिवासियों के आर्थिक एवं सामाजिक विकास की भूमिका के सन्दर्भ में संसद को धर्मान्तर जैसे विषयों से जूझना पड़ता है।

(5) राजनीतिक समस्याएँ
आदिवासियों में राजनीतिक जागरूकता प्रायः शून्य के बराबर थी परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् विभिन्न स्तरों पर आरक्षण, प्राथमिकता, प्रजातान्त्रिक अधिकारों के अन्तर्गत चुनने एवं चुने जाने के अधिकार मिलने से वे भी शासन के भागीदार बन गये हैं। परिणामस्वरूप वे अपनी सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के प्रति जागरूक हो गये हैं। परन्तु इसके साथ ही अनेक जनजातियों में विद्रोह, संघर्ष एवं अलगाववादी विचारधारा का जन्म हुआ है। अनेक आदिवासी क्षेत्रों में आर्थिक, औद्योगिक तथा सामाजिक विकास के लिए अलग राज्यों की माँग होने लगी है। बिहार में नवनिर्मित झारखण्ड तथा मध्य प्रदेश में नवनिर्मित छत्तीसगढ़ राजनीतिक अलगाववादी प्रवृत्तियों के ही परिणाम कहे जा सकते हैं।

(6) अशिक्षा एवं निरक्षरता की समस्याएँ
जनजातियों की प्रमुख समस्याएँ अशिक्षा तथा निरक्षरता से सम्बन्धित हैं। इनमें निरक्षरता का प्रतिशत आज भी अन्य जातियों की तुलना में काफी अधिक है। अशिक्षा के कारण ही जनजातीय समाज अनेक कुरीतियों, अन्धविश्वासों एवं गलत परम्पराओं में फंसे हुए हैं। अशिक्षा के कारण ही आदिवासी लोग राष्ट्रीय धारा तथा वैज्ञानिक उन्नति से अलग पड़े हुए हैं।

(7) विस्थापन की समस्या
आदिवासी क्षेत्रों में भारी संयन्त्रों की स्थापना आदिवासियों के समक्ष विस्थापित होने की समस्या उत्पन्न कर देती है। उपलब्ध स्रोतों के अनुसार विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान भारत में 199 कल-कारखानों की स्थापना से 17 लाख ग्रामीण जनता को अपनी भूमि से विस्थापित होना पड़ा है, जिनमें आदिवासियों की जनसंख्या लगभग 8 लाख 10 हजार थी। अनुसूचित जनजाति आयोग, भारत सरकार की छठी रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के विभिन्न राज्यों में स्थापित 17 परियोजनाओं के कारण 43,328 आदिवासी परिवार अपनी जमीन से बेदखल किये जा चुके हैं।

(8) हत्या एवं यौन शोषण की समस्याएँ
तेंदूपत्ता उद्योग के लिए ठेकेदार, बिचौलियों तथा दलालों द्वारा गरीब तथा असहाय युवतियों का यौन शोषण करने के मामले प्रकाश में आये हैं।

(9) आवागमन तथा संचार की समस्याएँ
अधिकांश जनजातियाँ दुर्गम भौगोलिक स्थानों में रहती हैं; अत: उनका सम्पर्क आधुनिक समाज से बहुत कम हो पाता है। आधुनिक संचार एवं यातायात के साधनों का विकास बहुत कम हुआ है। इस प्रकार की वातावरण न होने के कारण जनजातियाँ विकसित नहीं हो पाती हैं।

(10) स्वास्थ्य तथा जनसंख्या की समस्याएँ
अधिकांश जनजातियों को स्वास्थ्य-सेवाएँ उपलब्ध नहीं हैं, जब कि तराई, जंगलों आदि में अनेक प्रकार की बीमारियाँ पायी जाती हैं। सरकार ने कुछ प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोले भी हैं, परन्तु वहाँ पर्याप्त चिकित्सकीय सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। सफाई की कमी के कारण मलेरिया, पोलिये, चेचक, हैजा आदि बीमारियाँ बढ़ती रहती हैं। स्वास्थ्य की समुचित सुविधाएँ न होने से मृत्यु-दर बहुत अधिक है। इसके साथ ही कुछ जनजातियों; जैसे–भील, गोंड में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है और कोरवा एवं टोडा जनजातियों की जनसंख्या कम होती जा रही है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि आदिवासी अनेक प्रकार की समस्याओं से ग्रसित हैं। स्वतन्त्रता- प्राप्ति के 70 वर्षों के पश्चात् भी इनकी समस्याओं का कोई ठोस हल नहीं निकाला जा सका है। वर्तमान समय में भी ये अनेक प्रकार के शोषण, अत्याचार तथा उत्पीड़न के शिकार हैं।

[नोट – सरकार द्वारा सुधार के लिए किये उपायों के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 का उत्तर देखें।

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प्रश्न 2.
भारत में जनजातियाँ मुख्यतः किन भागों में पाई जाती हैं? इनकी समस्याओं के समाधान के लिए सरकार की ओर से क्या उपाय किए जा रहे हैं ? (2007)
उत्तर :
जनजातीय जनसंख्या निवास

आज जनजातियाँ भारत की समस्त जनसंख्या का लगभग 8 प्रतिशत हैं। भारतीय संविधान में 560 जनजातियों का उल्लेख है, जो विभिन्न राज्यों के ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में रहती हैं।

भारतीय संघ के कुछ राज्यों में जनजाति जनसंख्या अधिक है और कुछ राज्यों में कम। झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में जनजातीय जनसंख्या सर्वाधिक है। इसके बाद ओडिशा, बिहार, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, पं० बंगाल, आन्ध्र प्रदेश तथा असम राज्य आते हैं। उत्तराखण्ड, केरल एवं तमिलनाडु में जनजाति जनसंख्या अपेक्षाकृत कम है।

प्रतिशत की दृष्टि से मणिपुर, मेघालय, नागालैण्डे, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम ऐसे राज्य हैं, जिनकी समस्त जनसंख्या में जनजाति जनसंख्या अनुपात 20 प्रतिशत से अधिक है।

सरकार की ओर से किए जा रहे उपाय

आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान के कुछ क्षेत्र अनुच्छेद 244 और संविधान की पाँचवीं अनुसूची के अन्तर्गत ‘अनुसूचित क्षेत्र (Scheduled Areas) घोषित किये गये हैं। इन राज्यों के राज्यपाल अनुसूचित क्षेत्रों की रिपोर्ट प्रतिवर्ष राष्ट्रपति को देते हैं। असम, मेघालय और मिजोरम का प्रशासन संविधान की छठी अनुसूची के उपबन्धों के आधार पर किया जाता है। इसे अनुसूची के अनुसार उन्हें स्वायत्तशासी’ (Autonomous) जिलों में बाँटा गया है। इस प्रकार के 8 जिले हैं-असम के उत्तरी कछार, पहाड़ी जिले तथा मिकिर पहाड़ी जिले, मेघालय के संयुक्त खासी जयन्तिया, जोवाई और गारो पहाड़ी जिले तथा मिजोरम के चकमा, लाखेर और पावी जिले। प्रत्येक स्वायत्तशासी जिले में एक जिला परिषद् होती है जिसमें अधिकतम 30 सदस्य होते हैं। इनमें चार मनोनीत हो सकते हैं और शेष का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाता है। इस परिषद् को कुछ प्रशासनिक, विधायी और न्यायिक अधिकार प्रदान किये गये हैं।

जनजातियों के कल्याण हेतु दो राज्यों की स्थापना – वर्ष 2000 ई० में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों का विभाजन कर क्रमश: छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड और झारखण्ड की स्थापना की गई है। इनमें से छत्तीसगढ़ और झारखण्ड राज्य की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य इन क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों का विकास ही रहा है।

पृथक जनजाति राष्ट्रीय आयोग की स्थापना – अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के विकास हेतु 65वें संवैधानिक संशोधन (1990) के द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की गयी थी, लेकिन कुछ ही वर्ष बाद यह अनुभव किया गया कि भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से जनजातियाँ अनुसूचित जातियों से भिन्न हैं तथा उनकी समस्याएँ भी भिन्न हैं। अतः 85वें संवैधानिक संशोधन (2003) ई० के आधार पर वर्ष 1990 में स्थापित आयोग के स्थान पर पृथक् ‘जनजाति राष्ट्रीय आयोग’ स्थापित किया गया है। इस प्रकार के आयोग की स्थापना सही दिशा में एक कदम है।

प्रश्न 3.
सरकार द्वारा आदिवासियों की समस्याओं के समाधान के लिए उठाए गए कदमों की व्याख्या कीजिए। [2012, 16]
उत्तर :
आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं का समाधान

आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) की समस्याओं के समाधान हेतु सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। इन्हें संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ इनकी समस्याओं के समाधान हेतु निम्नलिखित उपाय भी किए गए हैं –

  1. लोकसभा तथा राज्य विधानमण्डलों में इनके लिए स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
  2. शासकीय सेवाओं में आरक्षण की सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
  3. जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन हेतु कल्याण व सलाहकार अभिकरणों की स्थापना की गई है।
  4. संवैधानिक संरक्षणों के क्रियान्वयन की जाँच हेतु संसदीय समिति का गठन किया गया है।
  5. सभी राज्यों में कल्याण विभागों की स्थापना की गई है, जो कि जनजातीय कल्याण कार्यों की देख-रेख करते हैं।
  6. अनुसूचित जनजातियों के बीच कार्य कर रहे गैर-सरकारी स्वैच्छिक संगठनों को अनुदान प्रदान किया जाता है।
  7. अनुसूचित जनजातियों को शिक्षण व प्रशिक्षण हेतु विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं। सरकार ने शिक्षा का विकास करने के उद्देश्य से आदिवासियों को निःशुल्क शिक्षा, छात्रवृत्ति तथा छात्रावास की सुविधाएँ प्रदान की हैं।
  8. पंचवर्षीय योजनाओं में अनुसूचित जनजातियों के विकास हेतु विशेष प्रावधान किए गए हैं।
  9. कुछ राज्यों में भारतीय जनजातीय विपणन विकास संघ की स्थापना भी की गई है जिससे उनका आर्थिक शोषण कम किया जा सके।
  10. अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं और बच्चों के हित सुरक्षित करने के लिए। केन्द्रीय कल्याण राज्यमंत्री की अध्यक्षता में सलाहकार बोर्ड की स्थापना की गई है।
  11. संविधान की पाँचवीं अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्र वाले तथा राष्ट्रपति के निर्देश पर अनुसूचित आदिम जातियों वाले राज्यों में आदिम जाति के लिए सलाहकार परिषदों की स्थापना की व्यवस्था है। आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, गुजरात, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा राजस्थान में ऐसी परिषदों की स्थापना की जा चुकी है। ये परिषदें आदिवासियों के कल्याण सम्बन्धी विषयों पर राज्यपालों को परामर्श देती हैं।
  12. वन से प्राप्त उत्पादों के विपणन के सम्बन्ध में सहकारी समितियों की स्थापना की गई है। मध्य प्रदेश में नई तेंदू पत्ता नीति के चलते ठेकेदारों के आदमी आदिवासियों का शोषण नहीं कर पाएँगे क्योंकि तेंदू पत्ता एकत्र कराने का कार्य सहकारिता के अन्तर्गत आ गया है।
  13. राष्ट्रीय आदिवासी नीति 2006-21 जुलाई, 2006 को केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय आदिवासी नीति का मसौदा जारी किया गया जिसके अन्तर्गत आदिवासियों से सम्बन्धित 23 मुद्दे प्रमुख हैं-आदिवासियों की जमीन छीनने, उनके विस्थापन व पुनर्वास, शिक्षा, सफाई, राज्यों के पेशा कानून को केन्द्रीय कानून के समान बनाना, लैंगिक भेदभाव को दूर करना, उनकी संस्कृति की सुरक्षा करने आदि पर बल तथा जंगल की जमीन पर आदिवासियों के अधिकार को भी शामिल किया गया है।
  14. विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में आदिवासियों के विकास तथा कल्याण से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रमों तथा योजनाओं को स्थान दिया गया है। आदिवासी उपयोजना कार्यक्रम का लक्ष्य है-गरीबी को दूर करना। बीस सूत्री कार्यक्रमों में सर्वोच्च स्थान ‘गरीबी के विरुद्ध संघर्ष को दिया गया था। छठी योजनाकाल में पूरे देश में 27,59,379 आदिवासियों को गरीबी की। रेखा से ऊपर उठाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था।
  15. केन्द्र तथा राज्य सरकारों के द्वारा अनुसूचित जनजातियों के लिए बनाए गए संवैधानिक तथा कानूनी सुरक्षा उपायों को लागू किया जा रहा है तथा इसके प्रभावशाली क्रियान्वयन पर भी अधिक जोर दिया जा रहा है।
  16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की दृष्टि से सरकार द्वारा समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम आदि को आदिवासी क्षेत्रों में लागू किया गया है।

आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) की समस्याओं के उपर्युक्त उपाय कारगर सिद्ध हुए हैं, परन्तु इस दिशा में अभी बहुत कार्य किया जाना शेष है। इन्हें देश की मुख्य धारा में जोड़ने हेतु इनका सामाजिक-आर्थिक उत्थान किया जाना आवश्यक है। सरकार और जनसामान्य के मिश्रित प्रयासों से ही हमें आदिवासियों को उनकी समस्याओं से मुक्ति दिला सकते हैं और उनके अच्छे जीवनयापन के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर सकते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द)

प्रश्न 1.
भारत में जनजातियों की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए। [2016]
या
अनुसूचित जनजातियों की विशेषताएँ लिखिए। [2010, 14]
या
भारत में निवास करने वाली जनजातियों के चार प्रमुख लक्षण बताइए। [2016]
उत्तर :
जनजाति के लक्षण (विशेषताएँ)
जनजाति के प्रमुख लक्षण (विशेषताएँ) इस प्रकार हैं

  1. सामान्य भू-भाग – एक जनजाति एक निश्चित भू-भाग में ही निवास करती है।
  2. विस्तृत आकार – एक जनजाति में कई परिवारों, वंश और गोत्र का संकलन होता है।
  3. एक नाम – प्रत्येक जनजाति का कोई नाम अवश्य होता है जिसके द्वारा वह पहचानी जाती है। मुंडा, कोल, भील, भोटिया, गारो, सन्थाल, मीणा, मुरिया, गोंड, खासी, कोरवा, बैगा, नागा और गरासिया लोहार; हमारे प्रदेश भारतीय संघ के विविध राज्यों के क्षेत्रों से जुड़ी कुछ प्रमुख जनजातियों के नाम हैं।
  4. सामान्य भाषा – एक जनजाति के लोग अपने विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए जनजाति की अपनी एक सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं। वर्तमान समय में बाहरी जगत् के साथ सम्पर्क के कारण कई जनजातियाँ द्वि-भाषी हो गयी हैं।
  5. अन्तर्विवाह – एक जनजाति के सदस्य अपनी ही जनजाति में विवाह करते हैं।
  6. सामान्य संस्कृति – एक जनजाति के सभी सदस्यों की एक सामान्य संस्कृति होती है, उनके रीति-रिवाजों, प्रथाओं, लोकाचारों, नियमों, कला, धर्म, जादू, संगीत, नृत्य, खान-पान, भाषा, रहन-सहन, विचारों, विश्वासों और मूल्यों आदि में समानता पायी जाती है। सामान्य संस्कृति या एकसमान संस्कृति जनजाति का सबसे प्रमुख लक्षण है।
  7. सामान्य निषेध – सामान्य संस्कृति से ही जुड़ी हुई बात यह है कि एक जनजाति खान-पान, विवाह, परिवार और व्यवसाय आदि से सम्बन्धित कुछ समान निषेधों का पालन करती है।
  8. सामाजिक संगठन – सामान्यत: प्रत्येक जनजाति का अपना एक निजी सामाजिक संगठन होता है। संगठन का प्रमुख अधिकांशतया एक वंशानुगत मुखिया होता है, कहीं-कहीं मुखिया की सहायता के लिए वयोवृद्ध लोगों की एक परिषद्’ भी होती है। यह संगठन परम्पराओं का पालन कराने, नियन्त्रण बनाये रखने और नियमों का उल्लंघन करने वालों को दण्डित करने का कार्य करता है। इस दृष्टि से कुछ अध्ययनकर्ता इसे राजनीतिक संगठन का नाम देते हैं।

प्रश्न 2.
भारत में अनुसूचित जनजातियों की चार समस्याओं का वर्णन कीजिए। [2011]
या
भारत में अनुसूचित जनजातियों की कोई दो समस्याएँ तथा उनके समाधान के निवारण हेतु सुझाव भी दीजिए। [2016]
या
अनुसूचित जातियों के आरक्षण के दो आधार बताइए। [2012]
या
भारत में आदिवासियों की दो मुख्य समस्याएँ लिखिए तथा उनके समाधान के उपाय भी बताइए। [2014]
उत्तर :
जनजातियों की दो प्रमुख समस्याएँ तथा सुझाव निम्नलिखित हैं –

1. आर्थिक शोषण – आधुनिक समय में जनजाति के लोगों को जमींदारों, व्यापारियों, साहूकारों, सरकारी कर्मचारियों के सम्पर्क में आना पड़ता है। वनों की कटाई की जा चुकी है। शहरीकरण ने इन पर सीधा प्रभाव डाला है। सभी लोग इनका आर्थिक शोषण करते रहे हैं। इनकी पैदावार को कम दामों में खरीदा जाता है। इन्हें मजदूरी भी सही प्राप्त नहीं हो पाती है। आर्थिक शोषण से बचाव के लिए कानूनों का सख्ती से पालन कराया जाना चाहिए तथा जनजातीय लोगों को न्यूनतम मजदूरी हर हालत में दिलाई जानी चाहिए। श्रम संघों का विकास अनिवार्य रूप से होना चाहिए।

2. शिक्षा की समस्या – अब भी जनजातीय लोगों में शिक्षा के प्रति कोई लगाव पैदा नहीं हो पाया है और उनके बच्चे शिक्षा की उपादेयता से पूर्णतः अनभिज्ञ हैं। शिक्षा उनके लिए बेमानी। हो जाती है। गरीबी के कारण वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। अतः शिक्षा के प्रति जागरूक न होना उनकी अनेक समस्याओं का मूल कारण है। जनजातियों में शिक्षा के प्रसार के लिए सरकार को विभिन्न प्रकार की सरकारी सहायता की घोषणा करनी चाहिए। शिक्षा को उनकी सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से जोड़ना चाहिए तथा शिक्षा का स्वरूप ऐसा हो जो उनकी सांस्कृतिक धरोहर को बचा सके। जनजाति के लोगों को आर्थिक सहायता सभी स्तरों पर करके उनके जीवन के स्तर को सुधारने की आवश्यकता है। अनुसूचित जनजातियों (आदिवासियों) की दो अन्य समस्या निम्नवत् हैं

3. धार्मिक समस्या – जनजातियों में धर्म, जादू-टोने आदि का विशेष महत्त्व है। प्रायः बीमार व्यक्ति का इलाज टोने-टोटके से किया जाता है, परन्तु बाह्य प्रभावों एवं सामाजिक संगठनों की सक्रियता के कारण अब जादू-टोने का महत्त्व कम हो गया है। हालांकि, आदिवासियों में धर्मान्तरण की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। देश के पूर्वोत्तर राज्यों मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा आदि में 70% अदिवासी जनसंख्या ईसाई धर्म अपना चुकी है।

4. आवागमन तथा संचार की समस्या  अधिकांश जनजातियों के दुर्गम भौगोलिक स्थानों में रहने के कारण उनका सम्पर्क आधुनिक समाज से बहुत कम हो जाता है। वहीं, ऐसे स्थानों पर आधुनिक संचार एवं यातायात के साधनों का विकास बहुत कम हो हुआ है।। अत: वातावरण न होने के कारण जनजातियाँ विकसित नहीं हो पाती हैं।

[नोट – समाधान के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न (150 शब्द) संख्या 1 का उत्तर देखें।]

प्रश्न 3
अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं के चार कारण बताइए।
उत्तर :
भारतीय जनजातियों में व्याप्त समस्याओं में से चार मूल कारण निम्नवत् हैं

1. निर्धनता, अज्ञानता तथा विकास से वंचित रहना – जनजातीय लोगों की निर्धनता और अज्ञानता के कारण समाज के सम्पन्न वर्ग, व्यापारी वर्ग, नौकरशाह और राजनीतिज्ञ उनका मनमाना शोषण करते हैं। भारत सरकार और राज्य सरकारों ने जनजातियों के विकास के लिए करोड़ों रुपये की धनराशि स्वीकृत की है, लेकिन इस धनराशि का उपयोग उनके विकास कार्यों के लिए नहीं किया जाता। अज्ञानता ने जनजातियों में विभिन्न अन्धविश्वासों को जन्म दिया तथा इसका लाभ उठाकर समाज के अन्य वर्गों ने उनका शोषण किया।

2. पृथक और दूर-दराज क्षेत्रों में निवास – भारत की लगभग सभी जनजातियाँ पहाड़ों, जंगलों और दूर-दराज क्षेत्रों में निवास करती हैं, जहाँ उनका अन्य लोगों से सम्पर्क नहीं हो पाता। पृथक् एवं दुर्गम निवास के कारण वे अधिकतर प्रकृति पर ही निर्भर करती हैं। साधनों के अभाव के कारण वे ज्ञान-विज्ञान और भौतिक विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाये।

3. स्थानान्तरित खेती और वन उपज के उपयोग और उपभोग पर रोक – ब्रिटिश शासन से पूर्व सभी जनजातियाँ राजनीतिक दृष्टि से स्वायत्त इकाइयाँ थीं। वे अपनी भूमि तथा जंगलों की स्वामी थीं। किन्तु अंग्रेजों ने सम्पूर्ण देश पर एकसमान राजनीतिक व्यवस्था लागू की, जिससे जनजातियों के अधिकार सीमित कर दिये गये तथा उनके द्वारा की जाने वाली स्थानान्तरित खेती एवं वन उपयोग और उपभोग पर रोक लगा दी गयी। स्वतन्त्रता-प्राप्ति और लोकतन्त्रीय व्यवस्था के बाद भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नजर नहीं आया। जनजातियाँ अपने आपको नयी व्यवस्था के अनुरूप ढालने में असफल रहीं।

4. ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्म-परिवर्तन – ब्रिटिश शासन काल में ही ईसाई मिशनरियों ने आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश कर लिया था तथा उनकी निर्धनता एवं अज्ञानता का लाभ उठाते हुए कल्याण के नाम पर उनको ईसाई बनाना आरम्भ कर दिया। यह नया वर्ग अपने परम्परागत समाज से कट गया तथा इन दोनों के बीच टकराव की स्थिति जन्म लेने लगी। यह सांस्कृतिक विघटन की स्थिति थी।

प्रश्न 4.
जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु किये गये संवैधानिक प्रावधानों का विवरण दीजिए।
उत्तर :
जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 335 के अनुसार, सार्वजनिक सेवाओं और सरकारी नौकरियों में देश की जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित रखने का आश्वासन दिया गया है। अनुच्छेद 325 में कहा गया है कि किसी को भी धर्म, प्रजाति, जाति एवं लिंग के आधार पर मताधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा। आदिवासियों के जन-प्रतिनिधियों के लिए लोकसभा व राज्य विधानसभाओं में अनुच्छेद 330 व 332 के अनुसार स्थान सुरक्षित कर दिये गये हैं। इन आरक्षित स्थानों पर जनजातियों एवं अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त अन्य कोई चुनाव नहीं लड़ सकता। अनुच्छेद 338 में राष्ट्रपति द्वारा इनके लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति की  व्यवस्था की गयी है। अनुच्छेद 342 व 344 में राज्यपालों को भारतीयों के सन्दर्भ में विशेष अधिकार प्रदान किये गये हैं। इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 47 में राज्य का यह दायित्व माना गया है कि वह जनजातियों की शिक्षा की उन्नति और आर्थिक हितों की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान दे। इसी प्रकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 164 में असम के अतिरिक्त ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में जनजातियों के कल्याण हेतु पृथक् मन्त्रालय स्थापित करने का प्रावधान किया गया है। इसी तरह से अनुच्छेद 224 (2) के अन्तर्गत असम की जनजातियों के लिए जिला और प्रादेशिक परिषदें स्थापित करने का प्रावधान किया गया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
भारत की अनुसूचित जनजातियों के उत्थान के लिए कोई चार सुझाव बताइए। [2015]
उत्तर :
अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं के समाधान हेतु सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। इन्हें संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ इनकी समस्याओं के समाधान हेतु निम्नलिखित उपाय भी किए गए हैं।

  1. लोकसभा तथा राज्य विधानमण्डलों में इनके लिए स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
  2. शासकीय सेवाओं में आरक्षण की सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
  3. जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन हेतु कल्याण व सलाहकार अभिकरणों की स्थापना की गई है।
  4. संवैधानिक संरक्षणों के क्रियान्वयन की जाँच हेतु संसदीय समिति का गठन किया गया है।

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प्रश्न 2.
भारत की जनजातियों की चार प्रमुख समस्याओं का उल्लेख कीजिए। [2009, 12]
उत्तर :
भारत की जनजातियों की चार प्रमुख समस्याएँ हैं –

  1. विकास को लाभ जनजातियों तक न पहुँच पाना।
  2. ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रलोभन देकर धर्मान्तरण कराना।
  3. प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा दखलंदाजी।
  4. दूर-दराज और दुर्गम वे पहाड़ी क्षेत्रों में निवास का होना।

प्रश्न 3.
भारत की आदिवासी जातियों की किन्हीं दो आर्थिक समस्याओं का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
भारत की आदिवासियों जातियों की दो आर्थिक समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

  1. बैंकों तथा गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों से कर्ज का न मिल जाना।
  2. खेती की पैदावार तथा वनोत्पादों का इन जातियों को बाजार में सही मूल्य की प्राप्ति न हो पाना।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
जनजाति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
भारत के दुर्गम स्थानों व जंगलों में निवास करने वाले विभिन्न आदिवासी समूहों को ही जनजाति कहा जाता है।

प्रश्न 2.
जनजातियों के उत्थान के लिए प्रयास करने वाले तीन प्रमुख व्यक्तियों के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर

  1. महात्मा गाँधी
  2. ज्योतिबा फुले तथा
  3. ठक्कर बापा।

प्रश्न 3.
जनजाति के पाँच प्रमुख लक्षण (विशेषताएँ) क्या हैं? [2007, 10]
या
जनजातियों की कोई दो विशेषताएँ बताइए। [2014]
उत्तर :

  1. सामान्य भू-भाग
  2. विस्तृत आकार
  3. एक नाम
  4. सामान्य भाषा तथा
  5. सामान्य संस्कृति।

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प्रश्न 4.
जनजातियों के हितार्थ कार्य करने वाली तीन प्रमुख संस्थाओं के नाम बताइए।
उत्तर :

  1. रामकृष्ण मिशन
  2. भारतीय आदिम संघ, नयी दिल्ली तथा
  3. आन्ध्र प्रदेश आदिम जाति सेवक संघ, हैदराबाद।

प्रश्न 5.
अनुसूचित जनजाति की किन्हीं दो समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :

  1. अशिक्षा तथा निरक्षरता की समस्या तथा
  2. आर्थिक विकास की समस्या।

प्रश्न 6.
भारत में कौन-से राज्य में सर्वाधिक आदिवासी पाये जाते हैं? या भारत के एक आदिवासी बहुल राज्य का नाम बताइए।
उत्तर :
छत्तीसगढ़ राज्य में सर्वाधिक आदिवासी पाये जाते हैं।

प्रश्न 7.
उत्तराखण्ड में पायी जाने वाली दो प्रमुख जनजातियों के नाम बताइए। [2007, 10, 12]
या
भारत की किसी एक जनजाति का नाम बताइए। [2007]
उत्तर :

  1. थारु तथा
  2. भोटिया।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
भील जनजाति प्रमुख रूप से कौन-से राज्य में पायी जाती है?
(क) राजस्थान में
(ख) मध्य प्रदेश में
(ग) बिहार में
(घ) असम में

प्रश्न 2.
आदिम जातियों के लिए सलाहकार परिषदों की स्थापना कौन करता है?
(क) राज्यपाल
(ख) राष्ट्रपति
(ग) प्रधानमन्त्री
(घ) मुख्यमन्त्री

प्रश्न 3.
अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं का व्यापक अध्ययन किया है –
(क) अमर्त्यसेन ने।
(ख) मार्शल ने
(ग) एस० सी० दूबे ने।
(घ) प्रधानमन्त्री ने

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सी जाति अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आती है? [2015]
(क) जाटव
(ख) मीणा
(ग) कुर्मी
(घ) डोम

प्रश्न 5.
भारत में निम्नलिखित में से किस राज्य में जनजातीय जनसंख्या का प्रतिशत सबसे अधिक [2016]
(क) उत्तर प्रदेश
(ख) केरल
(ग) मिजोरम
(घ) तमिलनाडु

उत्तर :

  1. (क) राजस्थान में
  2. (ख) राष्ट्रपति
  3. (ग) एस० सी० दूबे ने
  4. (ख) मीणा
  5. (ग) मिजोरम

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 23 Intelligence and Intelligence Tests

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 23 Intelligence and Intelligence Tests (बुद्धि तथा बुद्धि परीक्षण) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 23 Intelligence and Intelligence Tests (बुद्धि तथा बुद्धि परीक्षण).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 23
Chapter Name Intelligence and Intelligence Tests
(बुद्धि तथा बुद्धि परीक्षण)
Number of Questions Solved 57
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 23 Intelligence and Intelligence Tests (बुद्धि तथा बुद्धि परीक्षण)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बुद्धि से आप क्या समझते हैं ? बुद्धि की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2007, 11, 14]
उत्तर :
बुद्धि का स्वरूप एवं परिभाषा बुद्धि के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं। प्रत्येक विद्वान ने अपनी धारणा के अनुसार ही बुद्धि को परिभाषित किया है। यहाँ पर हम कुछ विद्वानों द्वारा प्रतिपादित परिभाषाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं

  1. वुडवर्थ Woodworth) के अनुसार, “बुद्धि कार्य करने की एक विधि है।”
  2. टरमन (Turman) के अनुसार, “बुद्धि, अमूर्त विचारों के विषय में सोचने की योग्यता है।”
  3. बकिंघम (Buckingham) के अनुसार, “बुद्धि सीखने की योग्यता है।’
  4. रायबर्न (Ryhurm) के अनुसार, “बुद्धि वह शक्ति है, जो हमको समस्याओं का समाधान करने और अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने की योग्यता प्रदान करती है।”
  5. क्रूज (Cruz) के अनुसार, “बुद्धि नवीन और विभिन्न परिस्थितियों में भली प्रकार से समायोजन की योग्यता है।”
  6. रेक्स नाइट (Rex Knight) के अनुसार, “बुद्धि वह मानसिक योग्यता है, जिसके द्वारा हम किसी उद्देश्य की पूर्ति या किसी समस्या का समाधान करने के लिए सम्बन्धित वस्तुओं एवं विचारों को सीखते हैं।”

बुद्धि की विशेषताएँ
बुद्धि की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  1. बुद्धि व्यक्ति में जन्मजात होती है।
  2. बुद्धि द्वारा व्यक्ति अतीत के अनुभवों से लाभ उठाता है।
  3. बुद्धि द्वारा व्यक्ति परिस्थिति को समझता है।
  4. बुद्धि व्यक्ति के नवीन परिस्थितियों से समायोजन करने में सहायक होती है।
  5. बुद्धि व्यक्ति को अमूर्त चिन्तन करने की योग्यता प्रदान करती है।
  6. बुद्धि व्यक्ति को विभिन्न क्रियाएँ सीखने में सहायता देती है।
  7. बुद्धि व्यक्ति के आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकास करती है।
  8. बुद्धि जटिल समस्याओं को हल करने तथा उन्हें सरल बनाने में सहायक होती है।
  9. बुद्धि ही सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक कार्यों में अन्तर करने की योग्यता देती है।
  10. बुद्धि का विकास जन्म से किशोरावस्था के मध्यकाल तक होता है।
  11. बालक तथा बालिकाओं की बुद्धि में कोई विशेष अन्तर नहीं होता है।

प्रश्न 2
बुद्धि-परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? बुद्धि-परीक्षणों के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
या
बुद्धि-परीक्षण क्या है ? बुद्धि का परीक्षण कैसे होता है ? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। [2008]
या
बुद्धि-परीक्षण से क्या तात्पर्य है? इसकी कोई एक परिभाषा दीजिए। [2010]
या
बुद्धि-परीक्षण के प्रकार बताइए तथा किसी एक बुद्धि-परीक्षण का वर्णन कीजिए। [2011]
उत्तर :
बुद्धि-परीक्षण का अर्थ
बुद्धि के वास्तविक स्वरूप को निर्धारित करने का प्रयास बुद्धि सम्बन्धी परीक्षण के आधार पर किया जाता है। प्राचीनकाल में बुद्धि और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, किन्तु बाद में लोग इस भिन्नता से परिचित हुए और परीक्षा के माध्यम से बुद्धि का मापन करने लगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं। कि जिन व्यवस्थित परीक्षणों के माध्यम से बुद्धि की परीक्षा एवं मापन का कार्य किया जाता है, उन्हें बुद्धि-परीक्षण कहा जाता है। बुद्धि-परीक्षण द्वारा मापी जाने वाली बौद्धिक योग्यताओं के अन्तर्गत तर्क, कल्पना, स्मृति, विश्लेषण एवं संश्लेषण की क्षमता आदि को सम्मिलित किया जाता है। बुद्धि-परीक्षण को निम्न प्रकार परिभाषित कर सकते हैं

“बुद्धि-परीक्षण, वे मनोवैज्ञानिक परीक्षण हैं जो मानव-व्यक्तित्व के सर्वप्रमुख तत्त्व एवं उसकी प्रधान मानसिक योग्यता ‘बुद्धि का अध्ययन तथा मापन करते हैं।”

बुद्धि-परीक्षणों के प्रकार
बुद्धि के मापन हेतु जितनी भी बुद्धि-परीक्षाओं का प्रयोग किया जाता है, उनमें निहित क्रियाओं के आधार पर बुद्धि-परीभणों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है
(A) शाब्दिक परीक्षण
(B) अशाब्दिक परीक्षण

(A) शाब्दिक परीक्षण

ये बुद्धि-परीक्षण शब्द अथवा भाषायुक्त होते हैं। इस प्रकार के परीक्षणों में प्रश्नों के उत्तर भाषा के माध्यम से लिखित रूप में दिये जाते हैं। इन परीक्षणों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक दो उपवर्गों में बाँटा जा सकता है। इस भाँति शाब्दिक बुद्धि-परीक्षण दो प्रकार के होते हैं

1. शाब्दिक व्यक्ति बुद्धि-परीक्षण :
शाब्दिक व्यक्ति बुद्धि-परीक्षणों के प्रकार बुद्धि-परीक्षण ऐसे बुद्धि परीक्षण हैं जिनमें भाषा का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करके किसी एक व्यक्ति की बुद्धि-परीक्षा ली जाती है।
उदाहरणार्थ :
बिने-साइमन बुद्धि परीक्षण।

2. शाब्दिक समूह बुद्धि-परीक्षण :
इस परीक्षण में किसी एक व्यक्ति की नहीं, अपितु समूह की बुद्धि-परीक्षा ली जाती है। इस प्रकार के परीक्षणों के अन्तर्गत भी भाषागत प्रश्न-उत्तर होते हैं।
उदाहरणार्थ :
आर्मी एल्फा और बीटा परीक्षण।

(B) अशाब्दिक परीक्षण
इन बुद्धि-परीक्षणों के पदों में भाषा का कम-से-कम प्रयोग किया जाता है तथा चित्रों, गुटकों या रेखाओं के द्वारा काम कराया जाता है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक आधार पर ये परीक्षण भी दो उपवर्गों में बाँटे जा सकते हैं

1. अशाब्दिक व्यक्ति बुद्धि-परीक्षण :
अशाब्दिक व्यक्ति बुद्धि-परीक्षण में भाषा सम्बन्धी योग्यता की कम-से-कम आवश्यकता पड़ती है। ये परीक्षण प्रायः अशिक्षित (बे-पढ़े-लिखे) लोगों पर लागू किये जाते हैं, जिनके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के क्रियात्मक परीक्षण आयोजित किये जाते हैं और भाँति-भाँति के यान्त्रिक कार्य कराये जाते हैं। उदाहरणार्थ-घड़ी के पुर्जे खोलना-बाँधना।

2. अशाब्दिक समूह बुद्धि-परीक्षण :
अशाब्दिक समूह बुद्धि-परीक्षण, ऊपर वर्णित व्यक्ति परीक्षण से मिलते-जुलते हैं। समय, धन एवं शक्ति के अपव्यय को रोकने के लिए एक समूह को एक
साथ परीक्षण दे दिया जाता है।

प्रश्न 3
व्यक्तिगत तथा सामूहिक बुद्धि-परीक्षणों का सामान्य परिचय दीजिए तथा इनके गुण-दोषों का भी उल्लेख कीजिए।
या
बुद्धि के व्यक्तिगत और सामूहिक परीक्षणों की तुलनात्मक विवेचना कीजिए। [2014]
या
व्यक्तिगत तथा सामूहिक बुद्धि-परीक्षण से आप क्या समझते हैं? [2011]
उत्तर :
व्यक्तिगत तथा सामूहिक बुद्धि-परीक्षण
यदि मनोवैज्ञानिक परीक्षण को प्रशासन की विधि के आधार पर देखा जाए तो बुद्धि – परीक्षणों को प्रशासन दो प्रकार से सम्भव है – प्रथम, व्यक्तिगत रूप से परीक्षा लेकर; एवं द्वितीय, सामूहिक रूप से परीक्षा संचालित करके। इसी दृष्टि से बुद्धि-परीक्षणों के दो भाग किये जा सकते हैं

(A) व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण तथा
(B) सामूहिक बुद्धि-परीक्षण। अब हम बारी-बारी से इन दोनों के परिचय एवं गुण-दोषों का वर्णन करेंगे।

(A)  व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण
व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण उन परीक्षणों को कहा जाता है जिनमें एक बार में एक ही व्यक्ति अपनी बुद्धि की परीक्षा दे सकता है। ये परीक्षण लम्बे तथा गहन अध्ययन के लिए प्रयोग किये जाते हैं। व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण दो प्रकार के होते हैं

1. शाब्दिक रीक्षण :
शाब्दिक व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण में भाषा का प्रयोग किया जाता है तथा परीक्षार्थी को लिखकर कुछ प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते हैं।

2. क्रियात्मक परीक्षण :
इने बुद्धि-परीक्षणों में परीक्षार्थी को कुछ स्थूल वस्तुएँ या उपकरण प्रदान किये जाते हैं तथा उससे कुछ सुनिश्चित एवं विशेष प्रकार की क्रियाएँ करने को कहा जाता है। उन्हीं क्रियाओं के आधार पर उनकी बुद्धि का मापन होता है।

व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण के गुण-दोष
व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण के गुण-दोष निम्न प्रकार वर्णित हैं

गुण :

  1. व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण छोटे बालकों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त हैं। छोटे बालकों की चंचल प्रवृत्ति के कारण उनका ध्यान जल्दी भंग होने लगता है। परीक्षण की ओर ध्यान केन्द्रित करने के लिए व्यक्तिगत परीक्षा लाभकारी है।
  2. इन परीक्षणों में परीक्षार्थी परीक्षक के व्यक्तिगत सम्पर्क में रहता है। उसकी बुद्धि का मूल्यांकन करने में उसके व्यवहार से भी सहायता ली जा सकती है और अधिक विश्वसनीय सूचनाएँ प्राप्त हो सकती हैं।
  3. परीक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व परीक्षार्थी से भाव सम्बन्ध स्थापित करके उसकी मनोदशा को परीक्षण के प्रति केन्द्रित किया जा सकता है। इससे वह उत्साहित होकर परीक्षा देता है।
  4. आदेश/निर्देश सम्बन्धी कठिनाई का तत्काल निराकरण किया जाना सम्भव है।
  5. इन परीक्षणों का निदानात्मक महत्त्व अधिक होता है; अत: इसके माध्यम से व्यक्तिगत निर्देशन कार्य को सुगम बनाया जा सकता है।

दोष :

  1. व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षा केवल विशेषज्ञ परीक्षणकर्ता द्वारा सम्भव होती है।
  2. इसके माध्यम से सामूहिक बुद्धि का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
  3. समय तथा धन दोनों की अधिक आवश्यकता पड़ती है।
  4. प्रयोग की जाने वाली सामग्री अपेक्षाकृत काफी महँगी पड़ती है। अतः ये परीक्षण बहुत खर्चीले हैं।
  5. विभिन्न परीक्षार्थियों की परीक्षा भिन्न-भिन्न समय पर लेने के कारण परिस्थितियों में बदलाव आ जाता है। सभी परीक्षार्थियों की परीक्षा के प्रति एकसमान रुचि नहीं रहतीजिसकी वजह से परीक्षण की वस्तुनिष्ठता कम हो जाती है।

(B) सामूहिक बुद्धि-परीक्षण
व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण की परिसीमाओं के कारण कुछ समय बाद एक ऐसी पद्धति की माँग की जाने लगी जिसमें कम समय में ही अधिक व्यक्तियों की बुद्धि-परीक्षा सम्पन्न हो सके। जब द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने युद्ध में प्रवेश किया तो लाखों की संख्या में कुशल सैनिकों तथा सैन्य अधिकारियों की आवश्यकता पड़ी। इस स्थिति में टरमन तथा थॉर्नडाइक आदि मनोवैज्ञानिकों ने प्रयास करके दो प्रकार के सामूहिक परीक्षण तैयार किये-आर्मी एल्फा तथा आर्मी बीटा। इन परीक्षणों की मदद से बहुत कम समय में बड़ी संख्या में सैनिकों तथा सैन्य अधिकारियों का चयन सम्भव हो सका। इस प्रकार, सामूहिक बुद्धि-परीक्षण वे परीक्षण हैं, जिनकी सहायता से एक साथ एक समय में बड़े समूह की बुद्धि-परीक्षा ली जा सके। ये भी दो प्रकार के हैं

1. शाब्दिक परीक्षण :
शाब्दिक सामूहिक परीक्षणों में भाषा का प्रयोग होता है; अतः ये शिक्षित व्यक्तियों पर ही लागू हो सकते हैं।

2. अशाब्दिक परीक्षण :
अशाब्दिक सामूहिक परीक्षणों में आकृतियों तथा चित्रों का प्रयोग किया जाता है। ये अनपढ़, अर्द्ध-शिक्षित या विदेशी लोगों के लिए होते हैं।

सामूहिक बुद्धि-परीक्षण के गुण-दोष
सामूहिक बुद्धि-परीक्षण के गुण-दोष निम्न प्रकार हैं

गुण :

  1. सामूहिक बुद्धि-परीक्षण में यह जरूरी नहीं होता कि परीक्षक विशेषज्ञ या विशेष रूप से प्रशिक्षित व्यक्ति हो।
  2. समय तथा धन दोनों की काफी बचत होती है।
  3. जाँचे का कार्य तो आजकल मशीनों द्वारा होने लगा है।
  4. विभिन्न स्थानों पर एक साथ एक ही प्रकार की परीक्षा का संचालन सम्भव है। परीक्षार्थियों का तुलनात्मक मूल्यांकने भी सुविधापूर्वक किया जा सकता है।
  5. ये परीक्षण अधिक वस्तुनिष्ठ हैं, क्योंकि एक ही परीक्षक पूरे समूह को एकसमान आदेश देता है, जिसके परिणामतः भाव सम्बन्ध की स्थापना तथा परीक्षार्थियों की परीक्षा में रुचि सम्बन्धी भेद उत्पन्न नहीं होता।
  6. शैक्षणिक तथा व्यावसायिक निर्देशन में सामूहिक परीक्षणों से बड़ा लाभ पहुँचा है।

दोष :

  1. सामूहिका बुद्धि-परीक्षण में परीक्षक परीक्षार्थी की मनोदशा से परिचित नहीं हो पाता। अतः व्यक्तिगत सम्पर्क व भाव सम्बन्ध की स्थापना का अभाव रहता है।
  2. परीक्षार्थी आदेश भली प्रकार नहीं समझ पाते जिसकी वजह से अधिक गलतियाँ होती हैं।
  3. यह ज्ञात नहीं हो पाता कि परीक्षार्थी अभ्यास से, रटकर या सोच-समझकर, कैसे परीक्षण पदों को हल कर रहे हैं।
  4. इन परीक्षणों का निदान तथा उपचार में सापेक्षिक दृष्टि से कम महत्त्व होता है।
  5. परीक्षण अपेक्षाकृत कम विश्वसनीय, कम प्रामाणिक तथा बालक के लिए बहुत कम उपयोगी सिद्ध होते हैं।

प्रश्न 4
बुद्धि-लब्धि से आप क्या समझते हैं? इसे कैसे ज्ञात करेंगे ?
या
मानसिक आयु’ और ‘बुद्धि-लब्धि किसे कहते हैं ? मानसिक आयु और बुद्धि-लब्धि ज्ञात करने के उदाहरण दीजिए।
या
बुद्धि-लब्धि क्या है? इसे कैसे निकाला जाता है। शिक्षा में इसकी क्या उपयोगिता है? [2016]
उत्तर :
बुद्धि-लब्धि
बालक की वास्तविक आयु और मानसिक आयु के आनुपातिक स्वरूप को ‘बुद्धि-लब्धि’ कहा जाता है। बुद्धि-लब्धि की यह अवधारणा सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक एम० एल० टरमन (M. L.Turman) द्वारा प्रस्तुत की गयी थी, जिसकी गणना के अन्तर्गत व्यक्ति की मानसिक आयु में वास्तविक आयु से भाग देकर उसे 100 से गुणा कर दिया जाता है। इसके लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है।
बुद्धि-लब्धि = मानसिक आयु / वास्तविक आयु  x 100
उदाहरणस्वरूप, यदि किसी बालक की वास्तविक आयु 5 वर्ष है और उसकी मानसिक आयु 7 वर्ष है तो उसकी बुद्धि-लब्धि इस प्रकार निकाली जाएगी।I.Q. = [latex]\frac { M.A }{ C.A } [/latex] x 100
= [latex]\frac { 7 }{ 5 } [/latex] x 100 = 140
बालक की बुद्धि-लब्धि 140 होगी।

बुद्धि-लब्धि का मापन
बुद्धि-परीक्षण के माध्यम से ‘बुद्धि-लब्धि’ (Intelligence Quotient Or I.O.) का मापन किया जाता है। अपने संशोधित स्केल (1908) में बिने ने बुद्धि-मापन के लिए मानसिक आयु की अवधारणा प्रस्तुत की थी, जिसके आधार पर टरमन ने 1916 ई० में बुद्धि-लब्धि का विचार प्रस्तुत किया। आजकल मनोवैज्ञानिक लोग बुद्धि मापन के लिए बुद्धि-लब्धि का प्रयोग करते हैं। बुद्धि-लब्धि वास्तविक आयु और मानसिक आयु का पारस्परिक अनुपात है। अतः सर्वप्रथम वास्तविक आयु और मानसिक आयु के निर्धारण का तरीका समझना आवश्यक है।

वास्तविक आयु :
वास्तविक आयु से अभिप्राय व्यक्ति की यथार्थ आयु से है, जिसका निर्धारण जन्मतिथि के आधार पर किया जाता है।

मानसिक आयु :
मानसिक आयु निर्धारित करने के लिए पहले व्यक्ति की वास्तविक आयु पर ध्यान देना होगा। माना किसी बालक की वास्तविक आयु 9वर्ष है और वह 9 वर्ष के लिए निर्धारित प्रश्नों को सही-सही हल कर देता है तो उसकी मानसिक आयु 9 वर्ष ही मानी जाएगी और इस दृष्टि से वह बालक सामान्य बुद्धि का बालक कहा जाएगा। किन्तु यदि वह 9वर्ष तथा 10 वर्ष के लिए निर्धारित प्रश्नों को सही-सही हल कर देता है तो उसकी मानसिक आयु 10 वर्ष समझी जाएगी और इस दृष्टि से बालक तीव्र बुद्धि का कहा जाएगा।

इस भाँति, यदि वही बालक 8 वर्ष के लिए निर्धारित सभी प्रश्नों को तो हल कर दे, किन्तु 9व के लिए निर्धारित किसी प्रश्न को हल न कर पाये तो उसकी मानसिक आयु 8 वर्ष होगी और इस आधार पर उसे मन्दबुद्धि कां बालक कहा जाएगा। व्यावहारिक रूप में आमतौर पर यह देखा जाता है कि कोई बालक किसी आयु-स्तर के सभी प्रश्नों का तो उत्तर सही-सही दे देता है। इसके अलावा कुछ दूसरे आयु-स्तर के कुछ प्रश्नों को भी हल कर लेता है। ऐसे मामलों में गणना हेतु बिने-साइमन स्केल में 2 वर्ष से 5 वर्ष तक के प्रत्येक परीक्षण-पद के लिए 1 महीना, 5 वर्ष से औसत प्रौढ़ तक के प्रत्येक परीक्षण-पद के लिए 2 माह और प्रौढ़ 1, 2 और 3 के हर एक परीक्षण-पद हेतु क्रमशः 4, 5 और 6 महीने की मानसिक आयु प्रदान करने का निर्देश दिया गया है।

बुद्धि-लब्धि के आधार पर वर्गीकरण
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निष्कर्षत :
बुद्धि-लब्धि मानसिक योग्यता का मात्रात्मक व तुलनात्मक रूप प्रस्तुत करती है। 5 वर्ष, की आयु से लेकर 14 वर्ष की आयु तक बुद्धि-लब्धि ज्यादातर स्थिर रहती है। वस्तुत: मानसिक आयु में वास्तविक आयु के साथ-साथ वृद्धि होती है, किन्तु 14 वर्ष के आसपास यह प्राय: रुक जाती है। परिवेश में परिवर्तन लेकर बुद्धि-लब्धि में परिवर्तन करना सम्भव है। गैरेट का मत है कि अच्छा या बुरा परिवेश होने से बुद्धि-लब्धि में 20 पाइण्ट तक वृद्धि या कमी पायी जाती है। यह सामाजिक अथवा आर्थिक स्तर के साथ-साथ घट-बढ़ सकती है। यह भी उल्लेखनीय है कि बुद्धि-लब्धि कभी शून्य नहीं होती, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पूर्णरूप से बुद्धिहीन नहीं होता।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बुद्धि एवं ज्ञान में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2007, 12, 14, 15)
उत्तर :
बुद्धि और ज्ञान में निम्नलिखित अन्तर हैं।

  1. बुद्धि जन्मजात और वंश-परम्परा से प्राप्त शक्ति है, जबकि ज्ञान वातावरण के द्वारा अर्जित शक्ति
  2. बेलार्ड के अनुसार, “बुद्धि वह मानसिक योग्यता है, जिसका मापन ज्ञान, रुचि और आदतरूपी साधनों के द्वारा किया जा सकता है।
  3. बुद्धि प्राप्त ज्ञान का जीवन में प्रयोग करना है, जब कि ज्ञान किसी तथ्य की जानकारी प्राप्त करना
  4. तीव्र बुद्धिज्ञान के विकास में अधिक योग देती है, परन्तु अधिक ज्ञान बुद्धि के विकास में अधिक योग नहीं देता।
  5. ज्ञान का विकास सरलता से किया जा सकता है, परन्तु बुद्धि का नहीं।
  6. रॉस के अनुसार, “बुद्धि लक्ष्य है और ज्ञान उस तक पहुँचने का केवल साधन है।”
  7. एडम्स (Adams) के अनुसार, व्यावहारिक जीवन में उपयोग में लाने योग्य ज्ञान अथवा विचार ही बुद्धि है।”
  8. विभिन्न समस्याओं को हल करने में बुद्धि का योग ज्ञान की तुलना में अधिक रहता है।
  9. एक व्यक्ति श्रम में विद्वान् या ज्ञानवान हो सकता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि वह बुद्धिमान भी हो। इसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह ज्ञानवान भी हो।
  10. ज्ञान का बुद्धि से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, तो ज्ञान भी नष्ट हो जाता है।

प्रश्न 2
बुद्धि के एक खण्डीय सिद्धान्त तथा दो खण्डों के सिद्धान्त का सामान्य परिचय दीजिए।
या
बुद्धि के द्वि-कारक सिद्धान्त की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
या
बुद्धि के द्वि-खण्ड (तत्त्व) सिद्धान्त के बारे में लिखिए। [2008, 13]
उत्तर :
1.एक-खण्डीय सिद्धान्त :
एक-खण्डीय सिद्धान्त के प्रमुख प्रतिपादक, बिने (Binet), टरमन (Turman) तथा स्टर्न (Stern) हैं। इनके अनुसार बुद्धि एक अखण्ड और अविभाज्य है। हमारी विभिन्न मानसिक योग्यताएँ एक इकाई के रूप में कार्य करती हैं, परन्तु यह सिद्धान्त अब अमान्य हो चुका है।

2. दो खण्डों का सिद्धान्त :
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन (Spearman) हैं, उनके अनुसार बुद्धि के दो तत्त्व हैं – सामान्य योग्यता और विशिष्ट योग्यता। स्पीयरमैन सामान्य योग्यता को विशिष्ट योग्यता से अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। उसके अनुसार इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं।

  1. सामान्य योग्यता जन्मजात होती है।
  2. सामान्य योग्यता एक मानसिक शक्ति है।
  3. इसका उपयोग मानसिक कार्यों में होता है।
  4. सामान्य योग्यता प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न मात्रा में पायी जाती है।
  5. सामान्य योग्यता किस व्यक्ति में कितनी है, इसका पता अन्तर्दृष्टि (Insight) द्वारा किये जाने वाले कार्यों में किया जा सकता है।
  6. सामान्य योग्यता का तत्त्व शक्ति में सर्वदा एकसमान है।
  7. जिन व्यक्तियों में जितनी सामान्य योग्यता पायी जाती है, उतना ही वह व्यक्ति सफल माना जाता

विशिष्ट योग्यता का सम्बन्ध व्यक्ति के विशिष्ट कार्यों से होता है। विशिष्ट योग्यता की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं।

  1. विशिष्ट योग्यता भी व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पायी जाती है।
  2. विशिष्ट योग्यता को प्रयास द्वारा अर्जित किया जा सकता है।
  3. विशिष्ट योग्यता परस्पर एक-दूसरे से भिन्न होती है।
  4. विशिष्ट योग्यताएँ अनेक होती हैं।
  5. जिस व्यक्ति में जिस विशेष योग्यता की प्रधानता होती है, वह उसी में निपुणता प्राप्त करता है।

प्रश्न 3
बुद्धि की व्याख्या करने वाले बहुखण्ड सिद्धान्त का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
बुद्धि के बहुखण्ड सिद्धान्त के प्रतिपादक कैली (Kelley) और थर्स्टन (Thurstone) हैं। कैली के अनुसार बुद्धि निम्नलिखित खण्डों या योग्यताओं का समूह होती है।

  1. सामाजिक योग्यता (Social ability)
  2. गामक योग्यता (Motor ability)
  3. सांख्यिकीय योग्यता (Numerical ability)
  4. रुचि (Interest)
  5. सर्जनात्मक योग्यता (Productive ability)
  6. शाब्दिक योग्यता (Verbal ability)
  7. स्थान सम्बन्धी विचार की योग्यता (Ability deal with spatial relations)
  8. यान्त्रिक योग्यता (Mechanical ability)
  9. शारीरिक योग्यता (Physical ability)।

थस्टन ने भी बुद्धि को 13 मानसिक योग्यताओं का समूह माना है, जिसमें प्रमुख योग्यताएँ निम्नलिखित हैं

  1. आगमनात्मक योग्यता (Inductive ability)
  2. निगमनात्मक योग्यता (Deductive ability)
  3. प्रत्यक्षीकरण की योग्यता (Perceptical ability)
  4. सांख्यिकी योग्यता (Numerical ability)
  5. स्थान सम्बन्धी योग्यता (Spatial ability)
  6. शाब्दिक योग्यता (Verbal ability)
  7. समस्या समाधान योग्यता (Problem solving ability)
  8. स्मृति (Memory)।

वर्तमान में बुद्धि का बहुखण्ड सिद्धान्त अमान्य हो चुका है।

प्रश्न 4
शिक्षा में बुद्धि-परीक्षणों की उपयोगिता पर प्रकाश डालिए। [2015]
उत्तर :
बुद्धि-परीक्षण मानव जीवन के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुए हैं। शाब्दिक एवं अशाब्दिक सभी प्रकार के बुद्धि परीक्षणों के लाभों या उपयोगिता के कुछ मुख्य बिन्दुओं पर अग्र प्रकार से प्रकाश डाला जा सकता है।

1. बुद्धि-परीक्षण एवं शैक्षिक निर्देशन :
बालकों की शैक्षिक निर्देशन प्रदान करने में बुद्धि-परीक्षण अपनी विशिष्ट भूमिका निभाता है। बुद्धि-परीक्षण की सहायता से शिक्षार्थी की बुद्धि-लब्धि का मापन किया जाता है, जिसके आधार पर सामान्य, मन्द बुद्धि, पिछड़े तथा प्रतिभाशाली बालकों के मध्य विभेदीकरण हो जाता है। परीक्षण के परिणामों के आधार पर निर्देशन प्रदान किया जाता है। इसी से उनकी समस्याओं का निदान व उपचार करना सम्भव हो पाता है।

2. बुद्धि-परीक्षण एवं व्यावसायिक निर्देशन :
व्यक्ति के बौद्धिक स्तर तथा उसकी मानसिक योग्यताओं के अनुकूल व्यवसाय तलाश करने तथा नियुक्ति के सम्बन्ध में बुद्धि-परीक्षण सहायक सिद्ध होता है। व्यावसायिक निर्देशन से जुड़े दो पहलुओं–प्रथम, व्यक्ति विश्लेषण जिसमें व्यक्ति की बुद्धि, योग्यता, रुचि तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी जानकारियाँ आती हैं; तथा द्वितीय, व्यवसाय विश्लेषण जिसमें विशेष व्यवसाय के लिए विशेष गुणों की आवश्यकता का ज्ञान आवश्यक है–में बुद्धि-परीक्षण उपयोगी है।

3. नियुक्ति :
विभिन्न सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थान व्यक्ति को रोजगार प्रदान करने में बौद्धिक स्तर का मूल्यांकन करते हैं। आजकल विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित नियुक्ति से पूर्व की प्रायः सभी प्रतियोगिताओं में बुद्धि-परीक्षण लागू होते हैं।

4. वर्गीकरण :
शिक्षक अपने शिक्षण को अधिक उपयोगी एवं प्रभावशाली बनाने के लिए कक्षा के छात्रों को विभिन्न वर्गों; यथा-प्रखर बुद्धि, मन्द बुद्धि तथा औसत बुद्धि में विभाजित कर पढ़ाना चाहता । है। अलग वर्ग के लिए अलग एवं विशिष्ट शिक्षण विधि आवश्यक होती है। इन वर्गीकरणों के आधार बुद्धि-परीक्षण होते हैं।

5. शोध :
आजकल मनोवैज्ञानिक तथा शैक्षिक शोध-कार्यों में विषय-पात्रों के बौद्धिक स्तर तथा मानसिक योग्यता का सापन करना एक आम बात है। इसके लिए बुद्धि-परीक्षण काम में आते हैं।

प्रश्न 5
शाब्दिक एवं अशाब्दिक बुद्धि-परीक्षणों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शाब्दिक एवं अशाब्दिक बुद्धि-परीक्षणों में अन्तर
शाब्दिक एवं अशाब्दिक बुद्धि-परीक्षणों में मुख्य अन्तर निम्नलिखित तालिका में वर्णित हैं।
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प्रश्न 6
व्यक्तिगत एवं सामूहिक बुद्धि-परीक्षणों में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2009, 10, 11,13]
उत्तर :
व्यक्तिगत एवं सामूहिक बुद्धि-परीक्षणों में मुख्य अन्तर निम्नलिखित तालिका में वर्णित हैं।
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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बुद्धि के मुख्य प्रकारों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
गैरेट (Garret) तथा थॉर्नडाइक (Thorndike) के अनुसार बुद्धि तीन प्रकार की होती हैं।

1. मूर्त बुद्धि :
विभिन्न वस्तुओं को समझने तथा अनुकूल क्रिया करने में मूर्त (Concrete) बुद्धि का प्रयोग होता है। जिनमें यह बुद्धि होती है, वे यन्त्रों तथा मशीनों में विशेष रुचि लेते हैं। यह बुद्धि गामक (Motor) बुद्धि भी कहलाती है।

2. अमूर्त बुद्धि :
अमूर्त (Abstract) बुद्धि का कार्य सूक्ष्म तथा अमूर्त प्रश्नों को चिन्तन तथा मनन के द्वारा हल करना होता है। इस बुद्धि का सम्बन्ध पुस्तकीय ज्ञान से होता है। दार्शनिकों, कवियों तथा साहित्यकारों में यह बुद्धि विशेष रूप से पायी जाती है।

3. सामाजिक बुद्धि :
सामाजिक बुद्धि का तात्पर्य व्यक्ति की उस योग्यता से है, जो उसमें सामाजिक समायोजन की क्षमता उत्पन्न करती है। जिस व्यक्ति में यह बुद्धि होती है, वह मिलनसार तथा सामाजिक कार्यों में विशेष रुचि लेता है। राजनीतिज्ञों, कूटनीतिज्ञों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं में यह बुद्धि विशेष रूप से पायी जाती है।

प्रश्न 2
बुद्धि-परीक्षणों की विश्वसनीयता से क्या आशय है ?
उत्तर :
यदि बुद्धि-परीक्षण किसी व्यक्ति-विशेष की बुद्धि का एकरूपता से मापन करता है तो उसे विश्वसनीय (Reliable) कहा जाएगा। अनास्टेसी का कथन है कि “विश्वसनीयता से तात्पर्य स्थायित्व अथवा स्थिरता से है। उदाहरण के लिए, माना ‘स्टेनफोर्ड बिने बुद्धि परीक्षण द्वारा एक बालक ‘राजन’ की बुद्धि का मापन किया गया, जिसके परिणामस्वरूप उसकी बुद्धि-लब्धि 108 आती है। कुछ समय के पश्चात् साधारण परिस्थितियों में स्टेनफोर्ड बिने बुद्धि-परीक्षण’ द्वारा राजन की बुद्धि को पुनः मापन किया गया, जिसका परिणाम वही बुद्धि-लब्धि 108 निकला।

तीन-चार-पाँच बार जब परीक्षण द्वारा राजन की बुद्धि मापी गयी तो उसकी बुद्धि-लब्धि 108 ही प्राप्त हुई। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि ‘स्टेनफोर्ड बिने बुद्धि-परीक्षण पूर्णरूप से विश्वसनीय बुद्धि-परीक्षण है। एक विश्वसनीय बुद्धि-परीक्षण में वस्तुनिष्ठता तथा व्यापकता का गुण अनिवार्य रूप से होना चाहिए। एक बुद्धि-परीक्षण उस समय वस्तुनिष्ठ कहा जाएगा, जब कि वह परीक्षक के व्यक्तिगत विचारों से प्रभावित न हो और उसकी व्यापकता से अभिप्राय है कि वह बुद्धि के सभी पक्षों का मूल्यांकन करेगा। एक बुद्धि-परीक्षण में विश्वसनीयता का गुण उसे प्रामाणिक बनाने में सहायता देता है।

प्रश्न 3
आकृति-फलक परीक्षण को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
आकृति-फलक परीक्षण एक अशाब्दिक बुद्धि :
परीक्षण है। इस परीक्षण को सामान्य रूप से मन्द बुद्धि बालकों के बुद्धि-परीक्षण के लिए अपनाया जाता है। ऐसा ही एक परीक्षण सेग्युइन ने तैयार किया था। इस परीक्षण में लकड़ी का एक पटल होता है, जिसमें कि विभिन्न आकार के दस टुकड़े काटकर अलग कर दिये जाते हैं। परीक्षार्थी के सम्मुख छिद्रमुक्त पटल तथा ये दस टुकड़े रख दिये जाते हैं। अब परीक्षार्थी से इन टुकड़ों को बोर्ड में कटे हुए उपयुक्त स्थानों में फिट करने के लिए कहा जाता है। इस प्रकार के तीन प्रशास किये जाते हैं। जिस प्रयास में परीक्षार्थी को सबसे कम समय लगता है, उसी को आंधार मानकर फलॉक प्रदान कर बुद्धि का निर्धारण किया जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बुद्धि की एक संक्षिप्त परिभाषा लिखिए। [2012]
उत्तर :
“बुद्धि अमूर्त विचारों के विषय में सोचने की योग्यता है।” [टरमन]

प्रश्न 2
बुद्धि के मुख्य प्रकार कौन-कौन-से हैं ? या : थॉर्नडाइक ने बुद्धि के तीन भाग किये हैं, वे कौन-से हैं? [2015]
उत्तर :
गैरेट तथा थॉर्नडाइक ने बुद्धि के तीन प्रकार निर्धारित किये हैं

  1. मूर्त बुद्धि
  2. अमूर्त बुद्धि तथा
  3. सामाजिक बुद्धि

प्रश्न 3
बुद्धि की व्याख्या के लिए कौन-कौन-से सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं ?
उत्तर :

  1. एक खण्डीय सिद्धान्त
  2. दो खण्डों का सिद्धान्त
  3. बहुखण्ड को सिद्धान्त तथा
  4. त्रा सिद्धान्त।

प्रश्न 4
सामान्य एवं विशिष्ट कारक बुद्धि सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया है?
उत्तर :
सामान्य एवं विशिष्ट कारक बुद्धि सिद्धान्त (दो खण्ड का सिद्धान्त) स्पीयरमैन ने प्रस्तुत किया हैं।

प्रश्न 5
विश्वसनीयता और वैधता किस प्रकार के परीक्षण की मुख्य विशेषताएँ हैं?
उत्तर :
विश्वसनीयता और वैधता मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की मुख्य विशेषताएँ हैं।

प्रश्न 6
बुद्धि-परीक्षण से क्या आशय है ?
उत्तर :
बुद्धि परीक्षण, वे मनोवैज्ञानिक परीक्षण हैं जो मानव-व्यक्तित्व के सर्वप्रमुख तत्त्व एवं उसकी प्रधान मानसिक योग्यता बुद्धि का अध्ययन तथा मापन करते हैं।

प्रश्न 7
प्रथम विश्व युद्ध के समय किस प्रकार के बुद्धि-परीक्षण का जन्म हुआ?
उत्तर :
प्रथम विश्व युद्ध के समय मुख्य रूप से शाब्दिक समूह-बुद्धि-परीक्षणों का जन्म हुआ। इनके उदाहरण हैं – आर्मी एल्फा और बीटा परीक्षण।

प्रश्न 8
बुद्धि-परीक्षणों में निहित क्रियाओं के आधार पर उनके मुख्य वर्ग कौन-से हैं?
उत्तर :
बुद्धि-परीक्षणों में निहित क्रियाओं के आधार पर उनके मुख्य वर्ग हैं

  1. शाब्दिक परीक्षण तथा अशाब्दिक या क्रियात्मक परीक्षण।

प्रश्न 9
बुद्धि-लब्धि को ज्ञात करने का सूत्र क्या है? [2007, 08, 11, 14]
या
बुद्धि-लब्धि का सूत्र लिखिए। [2008, 11, 13]
उत्तर :
बुद्धि-लब्धि को ज्ञात करने का सूत्र
बुद्धि-लब्धि = मानसिक आयु / मानसिक आयु x 100

प्रश्न 10
“बुद्धि चार तत्त्वों का समूह है।” किसने कहा है? [2014]
उत्तर :
वुडवर्थ ने।

प्रश्न 11
बुद्धि-लब्धि सूत्र के निर्माता कौन हैं। [2015]
उत्तर :
बुद्धि-लब्धि सूत्र के निर्माता टरमन हैं।

प्रश्न 12
बुद्धि की प्रमुख विशेषता क्या होती है? [2014]
उत्तर :
बुद्धि से व्यक्ति अतीत के अनुभवों से लाभ उठाता है। वर्तमान परिस्थिति को समझता है तथा नवीन परिस्थितियों से समायोजन करता है।

प्रष्टग 13
मन्दबुद्धि बालक की बुद्धि-लब्धि लिखिए। [2016]
उत्तर :
अत्यन्त मन्द बालक की बुद्धिलब्धि 70 से 79 होती है तथा मन्द सामान्य बालक की बुद्धिलब्धि 80 से 85 होती है।

प्रश्न 14
बुद्धि क्या है? [2016]
उत्तर :
बुद्धि व्यक्ति की सम्पूर्ण शक्तियों का योग या सार्वभौमिक योग्यता है, जिसके द्वारा वह उद्देश्यपूर्ण कार्य करता है, तर्कपूर्ण ढंग से सोचता है तथा प्रभावी ढंग से वातावरण के साथ सम्पर्क स्थापित करता है।

प्रश्न 15
किसने कहा है कि बुद्धि सात प्राथमिक योग्यताओं का समूह है? [2016]
उत्तर :
लुईस थर्स्टन।

प्रश्न 16
बुद्धि-लब्धि क्या है? [2008, 13]
उत्तर :
बालक की वास्तविक आयु और मानसिक आयु के आनुपातिक स्वरूप को बुद्धि-लब्धि कहा जाता है।

प्रश्न 17
“अमूर्त चिन्तन की योग्यता ही बुद्धि हैं।” यह परिभाषा किस मनोवैज्ञानिक द्वारा परिपादित है?
उत्तर :
यह परिभाषा टरमन द्वारा प्रतिपादित है।

प्रश्न 18
मानसिक आयु कैसे ज्ञात की जाती है?
उत्तर :
मानसिक आयु विभिन्न परीक्षणों द्वारा ज्ञात की जाती है।

प्रश्न 19
भारतीय शिक्षाशास्त्री भाटिया द्वारा तैयार किए गए बुद्धि परीक्षण किस वर्ग के बुद्धि परीक्षण है?
उत्तर :
अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण।

प्रश्न 20
आर्मी एल्फा और बीटा परीक्षण किस वर्ग का परीक्षण है?
उत्तर :
आर्मी एल्फा और बीटा परीक्षण सामूहिक शाब्दिक बुद्धि परीक्षण है।

प्रश्न 21
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. प्रत्येक व्यक्ति में जन्मजात रूप में बुद्धि विद्यमान होती है।
  2. बुद्धि और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है।
  3. बुद्धि के बहुखण्ड सिद्धान्त का प्रतिपादन स्पीयरमैन ने किया है।
  4. मानसिक आयु और बुद्धि-लब्धि पर्यायवाची हैं।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. असत्य
  4. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
“बुद्धि पहचानने तथा सीखने की शक्ति है।” यह किसका कथन है ?
(क) स्टर्न का
(ख) बिनेट का
(ग) माल्टने का
(घ) टरमन का
उत्तर :
(ग) माल्टन का

प्रश्न 2
“बुद्धि अमूर्त वस्तुओं के विषय में सोचने की योग्यता है।” यह परिभाषा किसकी है?
(क) थॉर्नडाइक की
(ख) मैक्डूगल की
(ग) बकिंघम की
(घ) टरमन की
उत्तर :
(घ) टरमन की

प्रश्न 3
बुद्धि की प्रमुख विशेषता
(क) बुद्ध जन्मजात होती है
(ख) बुद्धि अर्जित होती है
(ग) बुद्धि सामाजिक होती है
(घ) बुद्धि व्यक्तिगत होती है
उत्तर :
(क) बुद्धि जन्मजात होती है

प्रश्न 4
वुडवर्थ के अनुसार बुद्धि में कितने तत्त्व होते हैं ?
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर :
(ग) चार

प्रग 5
किस मनोवैज्ञानिक ने बुद्धि को सात प्रमुख योग्यताओं का समूह बताया है ?
(क) स्पीयरमैन ने
(ख) थर्स्टन ने
(ग) थॉर्नडाइक ने
(घ) टरमन ने
उत्तर :
(ख) थर्स्टन ने

प्रश्न 6
“बुद्धि-परीक्षा, किस प्रकार का कार्य अथवा समस्या होती है, जिसकी सहायता से एक व्यक्ति की मानसिक योग्यता का मापन किया जाता है।” यह कथन किसका है ?
(क) टरमन का
(ख) ड्रेवर का
(ग) बिने का
(घ) रोर्शा का
उत्तर :
(ख) ड्रेवर का

प्रश्न 7
एक समय में एक ही व्यक्ति को दिया जाने वाला बुद्धि परीक्षण कहलाता है।
(क) सामूहिक बुद्धि परीक्षण
(ख) क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण
(ग) सामाजिक बुद्धि परीक्षण
(घ) वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण
उत्तर :
(घ) वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण

प्रश्न 8
सन 1910 में किसने गणित की बुद्धि-परीक्षा सम्पादित की ?
(क) बिने ने
(ख) टरमन ने
(ग) कैटेल ने
(घ) कोर्टिस ने
उत्तर :
(घ) कोर्टिस ने

प्रश्न 9
सामूहिक बुद्धि-परीक्षा का आरम्भ सर्वप्रथम किस देश में हुआ ?
(क) भारत में
(ख) अमेरिका में
(ग) जर्मनी में
(घ) ब्रिटेन में
उत्तर :
(ख) अमेरिका में

प्रश्न 10
प्रथम बिने-साइमन बुद्धि-परीक्षण की शुरुआत हुई थी, सन्
(क) 1906 ई० में
(ख) 1904 ई० में
(ग) 1907 ई० में
(घ) 1905 ई० में
उत्तर :
(घ) 1905 ई० में

प्रश्न 11
बुद्धि लब्धि (I.Q.) =
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 23 Intelligence and Intelligence Tests image 4
उत्तर :
UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 23 Intelligence and Intelligence Tests image 5

प्रश्न 12
70-80 बुद्धि-लब्धि वाला व्यक्ति कहलाता है [2007]
(क)।प्रखर
(ख) प्रतिभाशाली
(ग) सामान्य
(घ) दुर्बल बुद्धि
उत्तर :
(घ) दुर्बल बुद्धि

प्रश्न 13
सामान्य बुद्धि के बालक की बुद्धि-लब्धि होती है [2007, 13]
(क) 80 से 90
(ख) 90 से 110
(ग) 70 से 80
(घ) 110 से 120
उत्तर :
(ख) 90 से 110

प्रश्न 14
“बुद्धि कार्य करने की एक विधि है” यह किसकी परिभाषा है ? [2014]
(क) वुडवर्थ
(ख) टरमन
(ग) थॉर्नडाइक
(घ) बिने
उत्तर :
(क) वुडवर्थ

प्रश्न 15
उत्कृष्ट बुद्धि के बालक की बुद्धि-लब्धि होती है [2009]
(क) 80 से 90
(ख) 90 से 110
(ग) 70 से 80
(घ) 110 से 120
उत्तर :
(घ) 110 से 120

प्रश्न 16
प्रतिभाशाली (Genius) बालक की बुद्धि-लब्धि होती है [2014]
(क) 90 से 110
(ख) 110 से 120
(ग) 120 से 140
(घ) 140 से अधिक
उत्तर :
(घ) 140 से अधिक

प्रश्न 17
एक बालक की मानसिक आयु (M.A.) 12 वर्ष है तथा उसकी शारीरिक आयु (C.A.) 16 वर्ष है, तो उसकी बुद्धि-लब्धि (I.d.) होगी (2009)
(क) 80
(ख) 75
(ग) 100
(घ) 133
उत्तर :
(ख) 75

प्रश्न 18
एक बालक की मानसिक आयु (M.A.) 15 वर्ष है तथा उसकी वास्तविक आयु (C.T:) 12 वर्ष है, तो उसकी बुद्धि-लब्धि (1.0.) होगी [2011]
(क) 100
(ख) 125
(ग) 150
(घ) 175
उत्तर :
(ख) 125

प्रश्न 19
आर्मी एल्फा और बीटा परीक्षा किस प्रकार के परीक्षण थे?
(क) शाब्दिक व्यक्ति बुद्धि परीक्षण
(ख) शाब्दिक समूह बुद्धि परीक्षण
(ग) क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(ख) शाब्दिक समूह बुद्धि परीक्षण

प्रश्न 20
अशाब्दिक समूह बुद्धि परीक्षण उपयोगी होते हैं
(क) अनपढ़ व्यक्तियों के लिए
(ख) बच्चों के परीक्षण के लिए
(ग) मानसिक रूप से पिछड़े बच्चों के लिए
(घ) इन सभी के लिए
उत्तर :
(घ) इन सभी के लिए

प्रश्न 21
जिन परीक्षणों में लकड़ी के गुटकों, कार्ड बोर्ड या ठोस वस्तुओं को हाथों से बर्ताव करना पड़ता है, उन्हें कहते हैं
(क) सामूहिक परीक्षण
(ख) मिश्रित परीक्षण
(ग) कार्यात्मक परीक्षण
(घ) व्यक्तिगत परीक्षण
उत्तर :
(ग) कार्यात्मक परीक्षण

प्रश्न 23
बुद्धि-लब्धि के विषय में सत्य कथन है
(क) यह मानसिक आयु तथा वास्तविक आयु के बीच अनुपात है।
(ख) यह बुद्धि की मात्रा नहीं है।
(ग) यह बुद्धि की क्षमता है, जो समय-समय पर परिवर्तित हो सकती है।
(घ) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी कथन सत्य हैं।

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