UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 8 Indian Educationist: Mahatma Gandhi

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 8
Chapter Name Indian Educationist: Mahatma Gandhi (भारतीय शिक्षाशास्त्री-महात्मा गांधी)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 8 Indian Educationist: Mahatma Gandhi (भारतीय शिक्षाशास्त्री-महात्मा गांधी)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

 

प्रश्न  1
महात्मा गाँधी के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त क्या हैं? गाँधी जी के अनुसार शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
या
महात्मा गाँधी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
महात्मा गाँधी एक प्रमुख राजनीतिज्ञ, दार्शनिक एवं समाज-सुधारक होने के साथ-साथ महान् शिक्षाशास्त्री भी थे। डॉ० पटेल के अनुसार, “गाँधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों से यह स्पष्ट है, कि वे पूर्व में शिक्षा सिद्धान्त एवं व्यवहार के प्रारम्भिक बिन्दु हैं।” महात्मा गाँधी ने अपने लेखों एवं भाषणों में अपने शैक्षिक विचारों को व्यक्त किया है। वे शिक्षा को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक प्रगति का आधार मानते थे। गाँधी जी का शिक्षा दर्शन उनके जीवन दर्शन पर आधारित है। गाँधी जी का विचार है कि शिक्षा के द्वारा सत्य, अहिंसा, सेवा, आत्मनिर्भरता आदि को प्राप्त किया जा सकता है। डॉ० पटेल के अनुसार, “गाँधी जी ने उन महान् शिक्षकों एवं उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में अनोखा स्थान प्राप्त किया है, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र को नवज्योति दी है।”

गाँधी जी के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त

गाँधी जी ने जिन शिक्षा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, उनका विवेचन इस प्रकार है

  1. साक्षरता स्वयं में शिक्षा नहीं है।
  2. शिक्षा स्वावलम्बी होनी चाहिए।
  3. शिक्षा को बालकों की समस्त शक्तियों तथा उनमें निहित गुणों का विकास करना चाहिए।
  4. शिक्षा किसी दस्तकारी अथवा हस्तकार्य के द्वारा दी जानी चाहिए, जिससे बालकों को | व्यावहारिक बनाया जा सके।
  5. शिक्षा सह-सम्बन्ध के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिए।
  6. शिक्षा द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व-शरीर, मस्तिष्क तथा हृदय का सर्वांगीण विकास होना चाहिए।
  7. शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उत्तम एवं उपयोगी नागरिकों के निर्माण में सहायक हो।
  8. शिक्षा का जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से तथा मौलिक एवं सामाजिक वातावरण से सम्बन्ध होना चाहिए।
  9. सारे देश में सात वर्ष (7 से 14 वर्ष) तक शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिए।
  10. शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जानी चाहिए।
  11. शिक्षा में प्रयोग, कार्य तथा खोज का स्थान होना चाहिए।
  12. शिक्षा को बेरोजगारी से बालकों की सुरक्षा करनी चाहिए।

शिक्षा का अर्थ

गाँधी जी ने शिक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक एवं मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में निहित सर्वोत्तम गुणों के सर्वांगीण विकास से है।” गाँधी जी शिक्षा के द्वारा बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे। उनका मत था“सच्ची शिक्षा वही है जो बालकों की आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों को व्यक्त और प्रोत्साहित करे।” स्पष्ट है कि गाँधी जी ने शिक्षा के व्यापक अर्थ को स्वीकार किया है।

शिक्षा के उद्देश्य

गाँधी जी ने शिक्षा के दो प्रकार के उद्देश्यों का उल्लेख किया है। ये उद्देश्य हैं-शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य तथा शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य। शिक्षा के इन दोनों उद्देश्यों का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है
1. शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य
गाँधी जी ने शिक्षा के निम्नांकित तात्कालिक उद्देश्य बताये हैं

(i) जीविकोपार्जन का उद्देश्य-गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को जीविकोपार्जन के योग्य बनाना है, जिससे वह आत्मनिर्भर हो सके और समाज पर भार न रहे।
(ii) सामंजस्यपूर्ण व्यक्तित्व के विकास का उद्देश्य-गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा द्वारा बालक की समस्त शक्तियों का सामंजस्यपूर्ण विकास होना चाहिए।
(iii) सांस्कृतिक उद्देश्य-गाँधी जी ने सांस्कृतिक विकास को भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना है। उन्होंने संस्कृति को जीवन का आधार माना और इस बात पर बल दिया कि मानव के प्रत्येक व्यवहार पर संस्कृति की छाप होनी चाहिए।
(iv) चारित्रिक विकास का उद्देश्य-गाँधी जी चरित्र-निर्माण के उद्देश्य को बहुत ही महत्त्वपूर्ण मानते थे। चरित्र के अन्तर्गत उन्होंने साहस, बल, सविचार, नि:स्वार्थ, सहयोग, सहिष्णुता, सत्यता आदि गुणों को सम्मिलित किया है। शिक्षा द्वारा वे इन गुणों का विकास करना चाहते थे।
(v) मुक्ति का उद्देश्य-गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सांसारिक बन्धनों से मुक्त करना है और उसकी आत्मा को उत्तम जीवन की ओर उठाना है। वे शिक्षा द्वारा व्यक्ति कोआध्यात्मिक स्वतन्त्रता देना चाहते थे, जिससे कि आत्मा का विकास सम्भव हो सके।

2. शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य
गाँधी जी ने शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य आत्मानुभूति एवं ईश्वर की प्राप्ति बतलाया है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक स्वतन्त्रता आवश्यक है। अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो आत्मानुभूति की प्राप्ति अथवा अन्तिम वास्तविकता जानने में व्यक्ति की सहायता करे।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा के पाठ्यक्रम का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी का विचार था कि शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो केवल बौद्धिक विकास ही न करे, वरन् बालकों का सामाजिक एवं भौतिक वातावरण से सामंजस्य स्थापित करे, जिससे कि विद्यार्थी समाज के उपयोगी अंग बन सकें और आत्मनिर्भर रह सकें। इस दृष्टि से गाँधी जी ने किसी हस्तकार्य या दस्तकारी के माध्यम से शिक्षा देने का सुझाव रखा और क्रियाप्रधान पाठ्यक्रम की योजना बनायी। उन्होंने शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नांकित को सम्मिलित किया

  1. हस्तकौशल-बागवानी, कृषि कार्य, मिट्टी का काम, काष्ठ शिल्प, चर्म शिल्प और धातु शिल्प आदि।
  2. भाषाएँ-मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा, राष्ट्रभाषा।
  3. सामाजिक विषय-इतिहास, भूगोल और नागरिकशास्त्र आदि।
  4. सामान्य विज्ञान-विभिन्न वैज्ञानिक विषय, गृह विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान आदि।
  5. शारीरिक शिक्षा-खेलकूद, व्यायाम, ड्रिल आदि।
  6. गणित-अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, नाप-तौल आदि।
  7. कला-चित्रकला, प्रकृति चित्रण तथा संगीत आदि।
  8. चारित्रिक शिक्षा-नैतिक तथा समाज सेवा कार्य आदि।

प्रश्न 2
गाँधी जी के अनुसार मुख्य शिक्षण-विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
महात्मा गाँधी द्वारा बतायी गयी शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं-”

  1. मनोवैज्ञानिक विधि-इस विधि के अनुसार बालक को लिखने से पहले पढ़ना और अक्षर ज्ञान से पहले चित्रकला सिखानी चाहिए, जिससे उसका समुचित विकास हो सके।
  2. क्रिया विधि-गाँधी जी ने पुस्तकीय, शिक्षा का विरोध किया और क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया। वे बालकों के हाथों और मस्तिष्क दोनों की एक साथ सक्रिय बनाना चाहते थे। वह किसी हस्तकला के माध्यम से शिक्षा देना चाहते थे, क्योंकि इससे बालकों को क्रिया द्वारा सीखने के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं।
  3. सह-सम्बन्धविधि-गाँधी जी ने सह-सम्बन्ध विधि को स्वीकार करते हुए किसी हस्तकला को केन्द्र बनाकर उसी के माध्यम से सभी विषयों की शिक्षा देने का समर्थन किया है।
  4. अनुकरण विधि-गाँधी जी ने अनुकरण विधि का भी समर्थन किया है। उनका कहना है कि बालक अपने माता-पिता व शिक्षकों आदि के क्रिया-कलापों का अनुकरण करके भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।
  5. अनुभव विधि-गाँधी जी का मत था कि अपने अनुभव से प्राप्त किया हुआ ज्ञान अधिक स्थायी होता है। इस प्रकार प्राप्त किए हुए ज्ञान का बालक अपने व्यावहारिक जीवन में सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते हैं।
  6. मौखिक विधि-नये तथ्यों को प्रदान करने के लिए गाँधी जी ने मौखिक विधि के प्रयोग को आवश्यक बताया है। इसके अन्तर्गत प्रश्नोत्तर विधि, व्याख्यान, कहानी, वाद-विवाद, निर्देश आदि सम्मिलित
  7. संगीत विधि-गाँधी जी ने शारीरिक ड्रिल तथा हस्तकला कौशल की शिक्षा में अंगों के संचालन को लयबद्ध करने और क्रिया में बालकों की रुचि उत्पन्न करने के लिए संगीत का प्रयोग बहुत उपयोगी बताया है।

प्रश्न 3
शिक्षा के क्षेत्र में गाँधी जी के योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
शिक्षा के क्षेत्र में गाँधी जी के योगदान को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है|

  1. शिक्षा के नवीन सिद्धान्त व प्रयोग-गाँधी जी ने शिक्षा के सिद्धान्तों एवं प्रयोगों में नवीन विचारधारा का समावेश किया। उन्होंने बेसिक शिक्षा योजना में अपने शैक्षिक विचारों का प्रयोग किया और चरित्र, ज्ञान एवं क्रिया के विकास के सिद्धान्त खोज निकाले।
  2. भारतीय विचारकों पर प्रभाव-गाँधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों से न केवल जनसाधारण, अपितु बौद्धिक वर्ग भी प्रभावित हुए बिना न रह सका। परिणामस्वरूप भारतीय विचारक वर्ग यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने लगा, जिसका दिग्दर्शन भारतीय शिक्षा के बदलते हुए स्वरूप में किया जा सकता है।
  3. राष्ट्रीय शिक्षा में योगदान-गाँधी जी ने राष्ट्रीय शिक्षा का समर्थन किया और बेसिक शिक्षा योजना को राष्ट्रीय शिक्षा का आधार बनाया।
  4. जनसाधारण की शिक्षा-गाँधी जी ने प्रौढ़ शिक्षा, ग्रामीण शिक्षा, समाज-सुधार की शिक्षा आदि आन्दोलनों का सूत्रपात करके जनसाधारण की शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान किया।
    अन्त में हम कह सकते हैं कि महात्मा गाँधी एक उच्चकोटि के शिक्षाशास्त्री थे और उनके विचार मौलिक थे। हुमायूँ कबीर के शब्दों में, “गाँधी जी की राष्ट्र को बहुत-सी देनों में से नवीन शिक्षा के प्रयोग की देन सर्वोत्तम है।”

प्रश्न4
गाँधी जी की शैक्षिक विचारधारा वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में कितनी प्रासंगिक है?
उत्तर
गाँधी जी ने अपनी शैक्षिक विचारधारा उस समय प्रस्तुत की थी जब भारत में ब्रिटिशु-शासन था तथा ब्रिटिश शासन के कुछ निहित उद्देश्यों के लिए ही शिक्षा-व्यवस्था की गयी थी। आज देश की परिस्थितियाँ काफी बदल गयी हैं। इस स्थिति में गाँधी जी की शैक्षिक विचारधारा कुछ क्षेत्रों में तो आज भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, जब कि कुछ पक्षों का अब कोई व्यावहारिक महत्त्व नहीं है। सर्वप्रथम अनिवार्य एवं नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा की धारणा आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार स्त्री-शिक्षा तथा प्रौढ़ शिक्षा को प्रोत्साहन देने की बात भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण मानी जा रही है।

गाँधी जी के आत्मानुशासन की धारणा भी हर किसी को मान्य है। शिक्षा के माध्यम से बालक के सर्वांगीण विकास की मान्यता भी उचित है। इससे भिन्न गाँधी जी द्वारा हस्तकलाओं को दी जाने वाली अतिरिक्त मान्यता आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं मानी जाती। बेसिक शिक्षा प्रणाली में शिक्षा के खर्च के लिए बालकों द्वारा निर्मित वस्तुओं की बिक्री की बात कही गयी थी। यह अव्यावहारिक तथा अप्रासंगिक है। इसी प्रकार आज विज्ञान की शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है, जब कि गाँधी जी की विचारधारा में यह मान्यता नहीं थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में गाँधी जी की शैक्षिक विचारधारा एक सीमित रूप में ही प्रासंगिक है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
गाँधी जी की अनुशासन सम्बन्धी मान्यता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन को विशेष महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक मानते थे। शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों के लिए भी वे अनुशासन को अति आवश्यक मानते थे परन्तु वे अनुशासन स्थापित करने के लिए हर प्रकार के दण्ड के विरुद्ध थे, अर्थात् वे दमनात्मक अनुशासन के विरुद्ध थे। गाँधी जी आत्मानुशासन के समर्थक थे। अनुशासन को बनाये रखने के उपायों का उल्लेख करते हुए गाँधी जी कहते थे कि यदि विद्यार्थियों को क्रियाशील एवं व्यस्त रखा जाए तो अनुशासनहीनता की समस्या ही नहीं उठती। यही कारण था कि उन्होंने बेसिक शिक्षा-प्रणाली में क्रियाओं को अधिक महत्त्व दिया है।

प्रश्न 2
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक के आवश्यक गुणों एवं भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी का कथन था कि शिक्षा की बहुत कुछ सफलता शिक्षकों पर निर्भर है। अत: शिक्षक ऐसे होने चाहिए जो मानवीय गुणों से युक्त हों, बालकों की जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ाएँ और उनकी भावनाओं, रुचियों और आवश्यकताओं का मार्गदर्शन करें तथा उनकी चिन्ताओं व समस्याओं को सुलझाएँ। उन्हें स्थानीय परिस्थितियों का पूर्ण ज्ञान हो जिससे कि वे स्थानीय व्यवसायों, हस्तकार्यों एवं उद्योग-धन्धों की शिक्षा के लिए उनका सफलतापूर्वक उपयोग कर सकें। गाँधी जी के अनुसार शिक्षकों को बालकों का विश्वासपात्र बन जाना चाहिए और उन्हें अपने उत्तरदायित्वों को पूर्णरूप से निभाने का प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न 3
स्त्री-शिक्षा के विषय में गाँधी जी के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी का विचार था कि भारतीय समाज के उत्थान, विकास एवं प्रगति के लिए स्त्रियों की दशा को सुधारना आवश्यक है। इसके लिए स्त्रियों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जिससे स्त्रियाँ अपने कर्तव्यों और अधिकारों से परिचित हो जाएँ। इसके लिए वे स्त्रियों को गृह विज्ञान, पाक-शास्त्र, गृह परिचर्या, बाल मनोविज्ञान, स्वास्थ्य व सफाई के नियम आदि तथा सामान्य शिक्षा प्रदान करने के पक्ष में थे। वे स्त्रियों को सामाजिक कार्यों के लिए भी शिक्षा देना चाहते थे।

प्रश्न 4
प्रौढ़-शिक्षा के विषय में गाँधी जी के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी प्रौढ़-शिक्षा की व्यवस्था को आवश्यक मानते थे। वे प्रौढ़-शिक्षा के द्वारा भारतीयों को इसे योग्य बनाना चाहते थे, जिससे वे समाज के साथ अपना समायोजन कर सकें। गाँधी जी ने प्रौढ़-शिक्षा का एक विस्तृत कार्यक्रम बनाया, जिसके द्वारा उन्होंने प्रौढ़ों के ज्ञान, स्वास्थ्य, अर्थ, संस्कृति एवं सामाजिकता का विकास करने का प्रयास किया। प्रौढ़-शिक्षा के पाठ्यक्रम में उन्होंने साक्षरता प्रसार, सफाई, स्वास्थ्य-रक्षा, समाज-कल्याण, व्यवसाय, उद्योग, पारिवारिक बातें, संस्कृति, नैतिकता आदि को सम्मिलित किया।

प्रश्न 5
धार्मिक शिक्षा तथा राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में गाँधी जी के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी के अनुसार व्यक्ति के अन्दर सब गुणों एवं मूल्यों को विकास करना ही उसे धार्मिक शिक्षा देना है। धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत गाँधी जी ने सार्वभौमिक धर्म के सिद्धान्तों एवं उपदेशों का ज्ञान तथा सत्य, अहिंसा और प्रेम की शिक्षा को सम्मिलित किया था। गाँधी जी का मत था कि राष्ट्रीय शिक्षा के माध्यम से ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जो राष्ट्रीय भावना, देशप्रेम एवं जागरूकता की भावना का विकास करे। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा की एक योजना का भी निर्माण किया, जो बेसिक शिक्षा के नाम से विख्यात है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी के अनुसार व्यक्ति के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में निहित सर्वोत्तम गुणों का सर्वांगीण विकास ही शिक्षा है।

प्रश्न 2
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य क्या है?
या
गाँधी जी की शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य क्या है?
उत्तर
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य आत्मानुभूति तथा ईश्वर की प्राप्ति है।

प्रश्न 3
जन-शिक्षा के विषय के गाँधी जी का क्या विचार था?
उत्तर
गाँधी जी जन-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे, उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का शिक्षित होना | अनिवार्य है।

प्रश्न4
गाँधी जी के शिक्षा-दर्शन पर आधारित शिक्षा-प्रणाली किस नाम से जानी जाती है?
या
महात्मा गाँधी जी ने कौन-सी शिक्षा-पद्धति बनायी थी?
उत्तर
गाँधी जी के शिक्षा-दर्शन पर आधारित शिक्षा-प्रणाली है-बेसिक शिक्षा-प्रणाली।

प्रश्न 5
गाँधी जी किस प्रकार के अनुशासन के विरुद्ध थे तथा उन्होंने किस प्रकार के अनुशासन का समर्थन किया है?
उत्तर
गाँधी जी दमनात्मक अनुशासन के विरुद्ध थे तथा उन्होंने आत्मानुशासन का समर्थन किया

प्रश्न 6
गाँधी जी के अनुसार छात्रों को अनुशासित रखने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
उत्तर
गाँधी जी के अनुसार छात्रों को अनुशासित रखने का सर्वोत्तम उपाय है उन्हें क्रियाशील रखना।

प्रश्न 7
“महात्मा गाँधी की देश की बहुत-सी देनों में से बेसिक शिक्षा के प्रयोग की देन सर्वोत्तम है।” यह कथन किसका है?
उत्तर
प्रस्तुत कथन हुमायूँ कबीर का है।

प्रश्न8
किस भारतीय शिक्षाशास्त्री ने सत्य और ईश्वर की अनुभूति के लिए अहिंसा को ही एकमात्र साधन समझा?
उत्तर
मोहनदास करमचन्द गांधी ने।

प्रश्न 9
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. गाँधी जी के अनुसार साक्षरता स्वयं में शिक्षा नहीं है।
  2. गाँधी जी का शिक्षा-दर्शन उनके जीवन-दर्शन से सम्बन्धित है।
  3. गाँधी जी के शैक्षिक-विचार कोरे सैद्धान्तिक थे।
  4. गाँधी जी शिक्षा में शारीरिक श्रम को विशेष महत्त्व देते थे।
  5. गाँधी जी स्त्री-शिक्षा के समर्थक नहीं थे।

उत्तर

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
महात्मा गाँधी का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
(क) 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबन्दर में
(ख) 10 अक्टूबर, 1891 को बोरीबन्दर में
(ग) 20 अक्टूबर, 1902 को कटक में
(घ) 15 जनवरी, 1904 को पूना में
उत्तर
(क) 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबन्दर में

प्रश्न 2
महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित शिक्षा योजना का नाम था
(क) वर्धा योजना
(ख) स्त्री-शिक्षा योजना
(ग) बेसिक शिक्षा योजना
(घ) गुरुकुल योजना
उत्तर
(ग) बेसिक शिक्षा योजना

प्रश्न 3
गाँधी जी द्वारा प्रतिपादित शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है
(क) जीविकोपार्जन
(ख) व्यक्तित्व का विकास
(ग) अहिंसा-पालन
(घ) व्यावसायिक विकास
उत्तर
(ख) व्यक्तित्व का विकास

प्रश्न 4
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का माध्यम होना चाहिए
(क) हिन्दी .
(ख) अंग्रेजी
(ग) मातृभाषा
(घ) विदेशी भाषा
उत्तर
(ग) मातृभाषा

प्रश्न 5
गाँधी जी ने किस शिक्षा पर बहुत कम बल दिया?
(क) गणित
(ख) विज्ञान
(ग) हस्तकला
(घ) स्त्री-शिक्षा
उत्तर
(ख) विज्ञान

प्रश्न 6
गाँधी जी शिक्षा द्वारा कैसा समाज स्थापित करना चाहते थे?
(क) अहिंसक समाज
(ख) राज्यरहित समाज
(ग) सर्वोदयी समाज
(घ) रामराज्य
उत्तर
(ग) सर्वोदयी समाज

प्रश्न 7
“सच्ची शिक्षा वही है जो बालकों की आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों कये व्यक्त और प्रोत्साहित करे।” यह कथन किसका है?
(क) रवीन्द्रनाथ टैगोर का
(ख) महात्मा गाँधी का
(ग) एनी बेसेण्ट का
(घ) जवाहरलाल नेहरू का
उत्तर
(ख) महात्मा गाँधी का

प्रश्न 8
निम्न में से कौन एक गाँधी जी की शिक्षा योजना नहीं थी?
(क) बेसिक शिक्षा
(ख) वर्धा योजना
(ग) नई तालीम
(घ) हस्तशिल्प शिक्षा
उत्तर
(ग) नई तालीम

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 22 Mental Health and Mental Hygiene

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 22 Mental Health and Mental Hygiene (मानसिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 22 Mental Health and Mental Hygiene (मानसिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 22
Chapter Name  Mental Health and Mental Hygiene
(मानसिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान)
Number of Questions Solved 55
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 22 Mental Health and Mental Hygiene (मानसिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानसिक स्वास्थ्य से क्या आशय है? मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के मुख्य लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
या
मानसिक स्वास्थ्य से क्या तात्पर्य है? अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य की जानकारी क्यों होनी चाहिए? [2010, 11, 13]
या
मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? अच्छी शिक्षा के लिए मानसिक स्वास्थ्य की जानकारी क्यों आवश्यक है? [2011]
या
मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? मानसिक स्वास्थ्य के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। (2016)
या
मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? (2015)
या
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति की किन्हीं दो विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ
मानसिक स्वास्थ्य से तात्पर्य व्यक्ति की उस योग्यता से है जिसके माध्यम से वह अपनी कठिनाइयों को दूर कर हर परिस्थिति में अपने को समायोजित कर लेता है। सुखी जीवन के लिए जितना शारीरिक स्वास्थ्य आवश्यक है, उतना ही मानसिक स्वास्थ्य भी। चिकित्साशास्त्रियों के अनुसार, सामान्य शारीरिक व्याधियाँ; जैसे-रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग आदि मानसिक कारकों से उत्पन्न होती हैं।

मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति चिन्तारहित, पूर्णतः समायोजित, आत्मनियन्त्रित, आत्मविश्वासी तथा संवेगात्मक रूप से स्थिर होता है। उसके व्यवहार में सन्तुलन रहता है तथा वह अधिक समय तक मानसिक तनाव की स्थिति में नहीं रहता। वह प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं को शीघ्र ही समायोजित कर लेता है। वर्तमान परिस्थितियों में, सम्पूर्ण समाज में, उसके विभिन्न अंगों में तथा उसके नागरिकों के बीच अच्छे-से-अच्छा समायोजन व्यापक कल्याण का द्योतक है जिसके लिए मानसिक स्वास्थ्य एक पूर्ण आवश्यकता है।

मानसिक स्वास्थ्य की परिभाषा
विभिन्न विद्वानों ने मानसिक स्वास्थ्य की अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. हैडफील्ड के अनुसार, “साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण सामंजस्य के साथ कार्य करना है।”
  2. लैडेल के मतानुसार, “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है–वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से पर्याप्त सामंजस्य करने की योग्यता।”
  3. प्रो० भाटिया के शब्दों में, “मानसिक स्वास्थ्य यह बताता है कि कोई व्यक्ति जीवन की माँगों और अंवसरों के प्रति कितनी अच्छी तरह समायोजित है।”

मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण
जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य को कुछ विशिष्ट लक्षणों के आधार पर पहचाना जा सकता है, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य की भी कुछ लक्षणों के आधार पर पहचान सम्भव है। कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार पूर्ण मानसिक स्वास्थ्य एक कल्पना मात्र है और कोई भी व्यक्ति मानसिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ नहीं होता, तथापि मानसिक स्वास्थ्य से सम्पन्न व्यक्ति के कुछ विशिष्ट लक्षण अवश्य हैं। इनमें सर्वप्रथम हैडफील्ड के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य की नितान्त आवश्यकताओं का उल्लेख किया जाएगा और इसके बाद अन्य प्रमुख लक्षणों का विवेचन किया जाएगा। ये निम्न प्रकार हैं।

1.पूर्ण :
अभिव्यक्ति पर निर्भर है। इसके अवद्मन से वृत्तियाँ दमित वे कुण्ठित होकर व्यक्तित्व में मानसिक विकारों तथा कुसमायोजन का कारण बनती हैं, जिससे मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।

2. सन्तुलन :
व्यक्ति को भावना ग्रन्थियों के निर्माण, प्रतिरोध व मानसिक द्वन्द्व जैसे दोषों से बचाने के लिए आवश्यक है कि उसकी मूल-प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं तथा समस्त क्षमताओं के बीच आपसी सन्तुलन व वातावरण से समायोजन बना रहे। मानसिक स्वास्थ्य के लिए सन्तुलन और समायोजन परमावश्यक है।

3. सामान्य लक्षण :
विभिन्नताओं, क्षमताओं, इच्छाओं वे प्रवृत्तियों के बीच सन्तुलन व समन्वय तथा उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति सिर्फ तभी सम्भव है, जब वे एक सामान्य एवं
व्यापक लक्ष्य की ओर उन्मुख हों। ये लक्ष्य मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से निर्धारित किये जाने चाहिए।

मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व से सम्बन्धित है जिसके लिए व्यक्तित्व के गुणों की पूर्ण अभिव्यक्ति, उनकी सन्तुलित क्रियाशीलता तथा सामान्य एवं व्यापक लक्ष्य आवश्यक हैं।

I. अन्य प्रमुख लक्षण
मानसिक स्वास्थ्य को कुछ अन्य प्रमुख लक्षणों के आधार पर भी पहचाना जाता है, जो अग्र प्रकार वर्णित हैं।

1. अन्तर्दृष्टि एवं आत्म-मूल्यांकन :
जिस व्यक्ति में स्वयं के समायोजन सम्बन्धी समस्याओं की अन्तर्दृष्टि होती है, वह अपनी सामर्थ्य की अधिकतम और निम्नतम दोनों सीमाओं से भली-भाँति परिचित होता है। ऐसा व्यक्ति अपने दोषों को स्वीकार कर या तो उन्हें दूर करने की चेष्टा करता है या उनसे
समझौता कर लेता है। वह आत्म-दर्शन तथा आत्म-विश्लेषण की क्रिया द्वारा अपनी उलझनों, तनावों, पूर्वाग्रहों, अन्तर्द्वन्द्वों तथा विषमताओं का सहज समाधान खोजकर उन्हें समाप्त या कम करने की कोशिश करना है। वह अपनी इच्छाओं, क्षमताओं तथा शक्तियों का वास्तविक मूल्यांकन करके उन्हें सही दिशा प्रदान पर सकता है।

2. समायोजनशीलता :
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के लचीलेपन के गुण के कारण नवीन एवं परिवर्तित परिस्थितियों से शीघ्र एवं उचित समायोजन स्थापित करने में सफल रहता है। वह विषम परिस्थितियों से भय खाकर या घबराकर उनसे पलायन नहीं करता, अपितु उनको दृढ़ता से सामना करती है और उनके बीच से ही अपना मार्ग खोज लेता है। समायोजनशीलता के अन्तर्गत दोनों ही बातें सम्मिलित हैं

  • परिस्थितियों को अपने अनुसार ढाल लेना या
  • स्वयं परिस्थितियों के अनुसार ढल जाना। स्वस्थ व्यक्ति समाज के परिवर्तनशील नियमों तथा रीति-रिवाजों से परिचित होने के कारण उनसे उचित सामंजस्य स्थापित कर लेता है।

3. बौद्धिक तथा सांवेगिक परिपक्वता :
मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बौद्धिक एवं सांवेगिक परिपक्वता की नितान्त आवश्यकता है। बौद्धिक परिपक्वता से युक्त मनुष्य अपने ज्ञान का विस्तार करता है, उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है तथा अपना निर्माण स्वयं करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। प्रखर बुद्धि से अहम् भाव तथा मन्द बुद्धि से हीनमन्यता का जन्म हो सकता है। अतः बौद्धिक स्वास्थ्य की दृष्टि से इनके प्रति सतर्कता आवश्यक है। सांवेगिक रूप से परिपक्व व्यक्ति अपने संवेगों तथा भावों पर उचित नियन्त्रण रखता है। वह सांवेगिक ग्रन्थियों (यथा-ईष्र्या, उन्माद आदि) से पूर्णतया मुक्त होता है। स्पष्टतः मानसिक तौर पर स्वस्थ व्यक्ति में बौद्धिक एवं सांवेगिक परिपक्वता आवश्यक है।

4. यथार्थदृष्टिकोण एवं स्वस्थ अभिवृत्ति :
मानसिक स्वास्थ्य से युक्त व्यक्ति जीवन के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण तथा स्वस्थ अभिवृत्ति अपनाता है। ऐसे व्यक्ति के विचारों, वृत्तियों, आकांक्षाओं तथा कार्य-पद्धति के बीच उचित सन्तुलन रहने से वह कल्पना प्रधान, अतिशयवादी या कोरा स्वप्नदृष्टा नहीं – होता। वह उच्च एवं हीन भावना ग्रन्थियों के विकार से मुक्त होकर स्वविवेक के आधार पर कार्य करता है। उसकी प्रवृत्तियों तथा अभिवृत्तियों के बीच विरोधाभास दिखायी नहीं देता। वह जो कुछ है उसका यथार्थ मूल्यांकन कृरता है और तद्नुसार ही कार्य में रत हो जाता है। उसकी कथनी-करनी में भेद नहीं रहता। इस प्रकार वह अपने जीवन के विषय में वास्तविक दृष्टि एवं श्रेष्ठ अभिवृत्तियाँ अपनाकर सन्तुलित एवं संयमित जीवन व्यतीत करता है।

5. व्यावसायिक सन्तुष्टि :
मानसिक स्वास्थ्य की एक प्रमुख विशेषता अपने व्यवसाय अथवा कार्य के प्रति पूर्ण सन्तुष्टि की अनुभूति भी है। अपने कार्य से सन्तुष्ट व्यक्ति मन लगाकर कार्य करता है और श्रम से पीछे नहीं हटता। उसकी कार्यक्षमता में उत्तरोत्तर वृद्धि उसे अपने व्यावसायिक उद्देश्यों के प्रति सुनिश्चित एवं दृढ़ बनाती है। परिणामतः वह व्यावसायिक सफलता प्राप्त कर श्रीसम्पन्न जीवन बिताता है। इसके विरुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से असन्तुष्ट व्यक्ति आर्थिक विपन्नता, निराशा, चिन्ता तथा तनावों से ग्रस्त रहते हैं। वे मानसिक रोगी हो जाते हैं।

6. सामाजिक सामंजस्य :
व्यक्ति अपने समाज का एक अविभाज्य अंग है और उसकी एक इकाई है। उसकी अपूर्ण सत्ता समाज की पूर्णता में समाहित होकर परिपूर्ण होती है। अत: उसका समाज के साथ समायोजन, अनुकूलन तथा संमन्वय सर्वथा प्राकृतिक एवं अनिवार्य कहा जाएगा। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति समाज के साथ सामंजस्य बनाकर रखता है। वह हमेशा समाज की समस्याओं और मर्यादाओं का ध्यान रखता है।

वह केवल अपने सामाजिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए ही प्रचेष्ट नहीं रहता, अपितु समाज के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति भी करता है। वह स्व-हित और पर-हित के मध्य सन्तुलन बनाकर चलता है। समाज के साथ प्रतिकूल एवं तनावपूर्ण सम्बन्ध मानसिक अस्वस्थता के परिचायक हैं। उपर्युक्त लक्षणों के अतिरिक्त, मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति नियमित जीवन बिताने वाले आत्मविश्वासी, सहनशील, धैर्यवान एवं सन्तोषी मनुष्य होते हैं। उनकी इच्छाएँ तथा आवश्यकताएँ सामाजिक मान्यताओं की सीमाओं में और उसकी आदतें समाज के लिए हितकर होती हैं।

प्रश्न 2
मानसिक अस्वस्थता से आप क्या समझते हैं ? मानसिक अस्वस्थता के कुछ लक्षणों का वर्णन कीजिए।
या
दो प्रमुख लक्षणों का संक्षेप में विवरण दीजिए जिनके आधार पर यह कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है। [2017,2010]
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता का आशय
जब कोई मनुष्य अपने कार्य में आने वाली बाधाओं को दूर करने में असमर्थ रहता है, अथवा उने बाधाओं से उचित समायोजन स्थापित नहीं कर पाता तो उसका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और उसमें मानसिक-अस्वस्थता’ पैदा हो जाती है। मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति स्वयं को अपने वातावरण की परिस्थितियों के साथ समायोजित न करने के कारण सांवेगिक दृष्टि से अस्थिर हो जाता है, उसके आत्मविश्वास में कमी आ जाती है, मानसिक उलझनों, तनावों, हताशा व चिन्ताओं के कारण उसमें भाव-ग्रन्थियाँ बन जाती हैं तथा वह व्यक्तित्व सम्बन्धी अनेकानेक अव्यवस्थाओं का शिकार हो जाता है।

इस प्रकार से, मानसिक अस्वस्थता वह स्थिति है जिसमें जीवन की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में व्यक्ति स्वयं को असमर्थ पाता है तथा संवेगात्मक असन्तुलन का शिकार हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में बहुत-सी मानसिक विकृतियाँ या व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। और उसे मानसिक रूप से अस्वस्थ कहा जाता है।”

मानसिक अस्वस्थता के लक्षण
मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति में उन सभी लक्षणों का अभाव रहता है जिनका मानसिक स्वास्थ्य के लक्षणों के रूप में अध्ययन किया गया है। व्यक्ति के असामान्य व्यवहार से लेकर उसके पागलपन की स्थिति के बीच में अनेकानेक स्तर या सोपान दृष्टिगोचर होते हैं, तथापि मानसिक अस्वस्थता के प्रमुख लक्षणों का सोदाहरण, किन्तु संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है

1. साधारण समायोजन सम्बन्धी दोष :
साधारण समायोजन सम्बन्धी दोष के लक्षण प्राय: प्रत्येक व्यक्ति में पाये जाते हैं। इसे मानसिक अस्वस्थता का एक सामान्य रूप कहा जा सकता है। अक्सर देखने में आता है कि कोई बावा या अवरोध उत्पन्न होने के कारण अपने कार्य की सम्पन्नता में असफल रहने वाला व्यक्ति अति संवेदनशील, हठी, चिड़चिड़ा या आक्रामक हो जाता है। यह मानसिक अस्वस्थता की शुरुआत है।

2. मनोरुग्णता :
सामान्य जीवन वाले कुछ लोगों में भी मानसिक अस्वस्थता के संकेत दिखाई पड़ते हैं। लिखने-पढ़ने, बोलने या अन्य क्रियाकलापों में अक्सर लोगों से भूल होना स्वाभाविक ही है। और इसे मानसिक अस्वस्थता का नाम नहीं दिया जा सकता, किन्तु यदि इन भूलों की आवृत्ति बढ़ जाए और असामान्य-सी प्रतीत हो तो इसे मनोविकृति कहा जाएगा। तुतलाना, हकलाना, क्रम बिगाड़ कर वाक्य बोलना, बेढंगे तथा अप्रचलित वस्त्र धारण करना, चलने-फिरने में असामान्य लगना, अजीब-अजीब हरकतें करना, चोरी करना, धोखा देना आदि मानसिक अस्वस्थता के लक्षण हैं।

3. मनोदैहिक रोग :
मनोदैहिक रोगों का कारण व्यक्ति के शरीर में निहित होता है। उदाहरण के लिए-शरीर के किसी संवेदनशील भाग में चोट या आघात के कारण स्थायी दोष पैदा हो जाते हैं और व्यक्ति को जीवनभर कष्ट देते हैं। सिगरेट, तम्बाकू, अफीम, चरस, गाँजा या शराब आदि पीने से भी अनेक मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। दमा-खाँसी से चिड़चिड़ापन, निम्न या उच्च रक्तचाप के कारण मानसिक असन्तुलन तथा यकृत एवं पाचन सम्बन्धी व्याधियों से बहुत-से मानसिक विकारों का जन्म होता है। इसी के साथ-साथ किसी प्रवृत्ति का बलपूर्वक दमन करने से रक्त की संरचना, साँस की प्रक्रिया तथा हृदय की धड़कनों में परिवर्तन आता है, जिसके परिणामत: व्यक्ति का शरीर हमेशा के लिए रोगी हो जाता है। इस प्रकार शरीर और मन दोनों ही मानसिक अस्वस्थता से प्रभावित होते हैं।

4. मनस्ताप :
मनस्ताप (Psychoneuroses) का जन्म समायोजन-दोषों की गम्भीरता के परिणामस्वरूप होता है। ये व्यक्तित्व के ऐसे आंशिक दोष हैं जिनमें यथार्थता से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हो पाता। इसमें

  1. स्नायु दौर्बल्य तथा
  2. मनोदौर्बल्य रोग सम्मिलित हैं।

1. स्नायु दौर्बल्य
इसमें व्यक्ति अकारण ही थकावट अनुभव करता है। इससे उसमें अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, विभिन्न अंगों में दर्द, काम के प्रति अनिच्छा, मंदाग्नि, दिल धड़कना तथा हमेशा अपने स्वास्थ्य की चिन्ता के लक्षण दिखायी पड़ते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी एक डॉक्टर के पास नहीं टिकता और अपनी व्यथा कहने के लिए बेचैन रहता है।

2. मनोदौर्बल्य
मनोदौर्बल्य में निम्नलिखित मानसिक विकार आते हैं

  • कल्पना गृह या विश्वासबाध्यता के रोगी के मन में निराधार वे असंगत विचार, विश्वास और कल्पनाएँ आती रहती हैं।
  • हठप्रवृत्ति से पीड़ित व्यक्ति कामों की निरर्थकता से परिचित होते हुए भी उन्हें हठपूर्वक करता : रहता है और बाद में दु:ख भी पाता है।।
  • भीतियाँ के अन्तर्गत व्यक्ति विशेष प्रकार की चीजों, दृश्यों तथा विचारों से अकारण ही भयभीत रहता है; जैसे-खुली हवा से डरना, भीड़, पानी आदि से डरना।
  • शरीरोन्माद में व्यक्ति के अहम् द्वारा दमित कामवासनाओं को शारीरिक दोषों के रूप में प्रकटीकरण होना; जैसे-हँसना, रोना, हाथ-पैर पटकना, मांसपेशियों का जकड़ना, मूच्छ आदि।
  • चिन्ता रोग में अकारण ही भविष्य सम्बन्धी चिन्ताएँ लगी रहती हैं।
  • क्षति क्रमबाध्यता से ग्रस्त व्यक्ति अकारण ही ऐसे काम कर बैठता है जिससे अन्य व्यक्तियों को, हानि हो; जैसे—मारना-पीटना, हत्या या दूसरे के घर में आग लगा देना। इस रोग का सबसे अच्छा उदाहरण ‘कनपटीमार व्यक्ति का आतंक है जो कनपटी पर मारकर अकारण ही लोगों की हत्या कर देता था।

5. मनोविकृतिये :
गम्भीर मानसिक रोग हैं, जिनके उपचार हेतु मानसिक चिकित्सालय में दाखिल होना पड़ता है। मनोविकृति से पीड़ित व्यक्तियों का यथार्थ से पूरी तरह सम्बन्ध टूट जाता है। वे अनेक प्रकार के भ्रमों व भ्रान्तियों के शिकार हो जाते हैं और उन्हें सत्य समझने लगते हैं। मनोविकृति के अन्तर्गत ये रोग आते हैं—स्थिर भ्रम (Parangia) से ग्रसित किसी व्यक्ति को पीड़ा भ्रम (Delusions ofPersecution) रहने के कारण वह स्वयं को पीड़िते समझ बैठता है, तो किसी व्यक्ति में ऐश्वर्य भ्रम (Delusion of Prosperity) पैदा होने के कारण वह स्वयं को ऐश्वर्यशाली या महान् समझता है। उत्साह-विषाद चक्र, मनोदशा (Manic Depressive Psychosis) का रोगी कभी अत्यधिक प्रसन्न दिखाई पड़ता है तो कभी उदास।

6. यौन विकृतियाँ :
मानसिक रोगी का यौन सम्बन्धी या लैंगिक जीवन सामान्य नहीं होता। यौन विकृतियाँ मानसिक अस्वस्थता की परिचायक हैं और अस्वस्थता में वृद्धि करती हैं। इनके प्रमुख लक्षण ये हैं–विपरीत लिंग के वस्त्र पहनना, स्पर्श से यौन सुख प्राप्त करना, स्वयं को या दूसरे को पीड़ा पहुँचाकर काम सुख प्राप्त करना, बालकों, पशुओं, समलिगियों तथा शव से यौन क्रियाएँ करना, हस्तमैथुन तथा गुदामैथुन आदि।

उपर्युक्त वर्णित विभिन्न मनोरोगों का उनके सम्बन्धित लक्षणों के साथ वर्णन किया गया है। यह आवश्यक नहीं है कि किसी व्यक्ति में ये सभी लक्षण दिखायी पड़े, इनमें से कोई एक लक्षण भी मानसिक अस्वस्थता का संकेत देता है। व्यक्ति में इन लक्षणों के प्रकट होते ही उसका मानसिक उपचार किया जाना चाहिए।

प्रश्न 3
मानसिक अस्वस्थता के कारणों अथवा मानसिक स्वास्थ्य में बाधक कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? बालक के मानसिक स्वास्थ्य के विकास में बाधा डालने वाले तत्त्वों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य के अर्थ एवं परिभाषा के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 का उत्तर देखें। मानसिक अस्वस्थता के कारण
अथवा
मानसिक स्वास्थ्य में बाधक कारक मानसिक अस्वस्थता के कारण ही वास्तव में मानसिक स्वास्थ्य में बाधक कारक होते हैं। इस वर्ग के मुख्य कारकों का विवरण निम्नलिखित है

1. शारीरिक कारण :
कभी-कभी मानसिक अस्वस्थता के मूल में शारीरिक कारण निहित होते हैं। प्रायः क्षय, संग्रहणी, कैंसर आदि असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्तियों की शारीरिक शक्ति काफी घट जाती है, जिसकी वजह से उन्हें शीघ्र ही थकान का अनुभव होने लगता है। ऐसे व्यक्ति स्वभाव से चिड़चिड़े और दुःखी होते हैं, क्योंकि उनमें जीवन के प्रति निराशा छा जाती है।

2. वंशानुगत देन :
कुछ मनुष्य वंशानुक्रम से ऐसी विशेषताएं लेकर उत्पन्न होते हैं जिनकी वजह से वे सामान्य प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मानसिक विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं। वंशानुक्रमणीय विशेषताओं के कारण ही मनोविकृति का रोग एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रमित होता रहता है।

3. संवेगात्मक कारण :
मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि संवेग मानसिक रोगों के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। व्यक्ति की। विभिन्न मूल-प्रवृत्तियाँ किसी-न-किसी संवेग से सम्बन्धित हैं। इनमें से क्रोध, भय तथा कामवासना की प्रवृत्तियाँ और संवेग अत्यधिक प्रबल हैं, जिनके दमन से या केन्द्रीकरण से असन्तुलन पैदा होता है। वस्तुतः मानसिक स्वस्थ्य की समस्या मूल-प्रवृत्ति संवेग (Instinct emotion) की समस्या है। जब व्यक्ति में कोई प्रवृत्ति जाग्रत होती है। तो उससे सम्बन्धित संवेग भी जाग जाता है

उदाहरणार्थ :
आत्म-स्थापन के साथ गर्व का, पलायन के साथ भय का तथा कामवृत्ति के साथ वासना का संवेग जाग्रत होता है। जाग्रत संवेग की असन्तुष्टि ही मानसिक रोग को जन्म देती है।

4. पारिवारिक कारण :
कुछ घरों में माता या पिता अथवा दोनों के अभाव से अथवा विमाता या विपिता के होने से बच्चे को पूरा पालन-पोषण, सुरक्षापूर्ण बरताव या स्नेह नहीं मिलता। ऐसे बच्चों की आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पातीं और वे अभावग्रस्त बने रहते हैं। कहीं-कहीं माता-पिता के लड़ाई-झगड़े के कारण कलह का वातावरणं रहता है, जिसकी वजह से बालक को मानसिक घुटन अनुभव होती है और वह घर से दूर भागता है। इस प्रकार ‘भग्न परिवार (Broken House) मानसिक अस्वस्थता का मुख्य कारण बनता है।

5. विद्यालयी कारण :
बालकों का मानसिक स्वास्थ्य खराब रहने का एक प्रमुख कारण विद्यालय भी हैं। जिन विद्यालयों में बच्चों पर कठोरतम अनुशासन थोपा जाता है, बच्चों को अकारण डाँट-फटकार या कठोर दण्ड सहने पड़ते हैं, अध्यापकों का स्नेह नहीं मिल पाता, पाठ्य विषय अनुपयुक्त होते हैं तथा बालकों को अमनोवैज्ञानिक विधियों से पढ़ाया जाता है, अध्यापक यो प्रबन्धक बच्चों को अपनी स्वार्थसिद्धि में भड़काकर आपस में या अध्यापकों से लड़ा देते हैं। ऐसे विद्यालयों में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है।

6. सामाजिक कारण :
कभी-कभी कुछ समाज-विरोधी तत्त्व व्यक्ति के मन पर भारी आघात पहुँचाकर उसे मानसिक दृष्टि से असन्तुलित कर देते हैं। यदि व्यक्ति के कार्यों व विचारों का व्यर्थ ही विरोध किया जाए तो उसके मित्रों, पड़ोसियों तथा अन्य लोगों द्वारा उसे समाज में उचित मान्यता, स्थान या प्रतिष्ठान प्राप्त हो, तो उसमें प्रायः हीनता की ग्रन्थियाँ पड़ जाती हैं। उसका व्यक्तित्व कुण्ठा और तनाव का शिकार हो जाता है। आत्म-स्थापन की प्रवृत्ति के सन्तुष्ट न होने की वजह से भी व्यक्ति दुःखीं और खिन्न हो जाते हैं।

7. जीवन की विषम परिस्थितियाँ :
हूर एक व्यक्ति को अपने जीवन में कभी-न-कभी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। ये परिस्थितियाँ निराशा और असफलताओं के कारण जन्म ले सकती हैं। आर्थिक संकट, व्यवसाय या परीक्षा या प्रेम में असफलता तथा सामजिक स्थिति के प्रति असन्तोष—इनसे सम्बन्धित प्रतिकूल एवं विषम परिस्थितियाँ मानव मन पर बुरा असर छोड़ती हैं। विषम परिस्थितियों के कारण समायोजन के दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे मानसिक अस्वस्थता सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते हैं।

8. आर्थिक कारण :
“आर्थिक तंगी के कारण व्यक्ति की आवश्यकताएँ तथा इच्छाएँ अतृप्त रह जाती हैं और उसे अपनी इच्छाओं का दमन करना पड़ता है। दमित इच्छाएँ नाना प्रकार के अपराध तथा समाज-विरोधी व्यवहार को जन्म देती हैं। धन की कमी से बाध्य होकर व्यक्ति को अधिक एवं अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ता है, जिससे उसका मन दु:खी रहता है। दुःखी मन मानसिक विकारों को पैदा करते हैं। अत्यधिक धन के कारण भी जुआ, शराब तथा वेश्यागमन की लत पड़ जाती है, जिससे मानसिक असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।

9. भौगोलिक कारण :
भौगोलिक कारण अप्रत्यक्ष रूप से मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं। अधिक गर्मी या सर्दी के कारण लोगों का समायोजन बिगड़ जाता है, शारीरिक दशा गिरने लगती है, उनके स्वभाव में चिड़चिड़ापन या तनाव पैदा होता है, जिससे मानसिक असन्तुलन उत्पन्न होता है।

10. सांस्कृतिक कारण :
यदा-कदा सांस्कृतिक परम्पराएँ व्यक्ति की भावनाओं तथा इच्छाओं की पूर्ति के मार्ग में बाधक बनती हैं। प्रायः व्यक्ति को अपनी प्रवृत्तियों का दमन कर कुछ कार्य विवशतावश करने पड़ते हैं, जिससे मानसिक असन्तोष तथा कुण्ठा उत्पन्न होती है। एक संस्कृति में जन्मा तथा पलता। हुआ व्यक्ति जब किसी दूसरी संस्कृति में कदम रखता है तो उसे मानसिक संघर्ष का सामना करना पड़ता है, जिससे असमायोजन के दोष उत्पन्न होते हैं। अतः सांस्कृतिक कारणों से भी मनोविकार उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 4
मानसिके अस्वस्थता की रोकथाम के उपायों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता की रोकथाम
यदि तटस्थ भाव से देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य शारीरिक स्वास्थ्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतः बलिक के मानसिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाये रखने के सभी सम्भव उपाय किये जाने चाहिए। मानसिक अस्वस्थता से बचाव तथा मानसिक स्वास्थ्य बढ़ाने की दृष्टि से परिवार और पाठशाला की विशेष भूमिका है। इनका उल्लेख बारी-बारी से निम्न प्रकार किया गया है

(अ) परिवार और मानसिक स्वास्थ्य 
परिवार के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा और वृद्धि सर्वोत्तम ढंग से की जा सकती है। इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत अंकित किया गया।

1. प्रारम्भिक विकास और सुरक्षा :
मानव जीवन के प्रारम्भिक 5-6 वर्षों में बालक का सर्वाधिक विकास हो जाता है। यह बालक की कलिकावस्था है, जिसे उचित सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए। परिवार का इसमें विशेष दायित्व है, उसे शिशु की देख-रेख तथा रोगों से रक्षा करनी चाहिए। शिशु को सन्तुलित आहार दिया जाना चाहिए तथा उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जानी चाहिए। कुपोषण और असुरक्षा की भावना से बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

2. माता-पिता का स्नेह :
बालक के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए उसे माता-पिता का प्रेम, स्नेह तथा लगाव मिलना चाहिए। प्रायः देखा गया है कि जिन बच्चों को माता-पिता का भरपूर स्नेह नहीं मिलता, वे स्वयं को अकेला महसूस करते हैं तथा असुरक्षा की भावना से भय खाकर मानसिक ग्रन्थियों के शिकार हो जाते हैं। ये ग्रन्थियाँ स्थायी हो जाती हैं और उसे जीवन-पर्यन्त असन्तुलित रखती हैं।

3. परिवार के सदस्यों का व्यवहार :
परिवार के सदस्यों, खासतौर से माता-पिता का व्यवहार, सभी बालकों के साथ एकसमान होना चाहिए। उनके बीच पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाना अनुचित है। उनकी असफलताओं के लिए भी बार-बार दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ता है और वे कुसमायोजन के शिकार हो जाते हैं।

4. उत्तम वातावरण :
परिवार का उत्तम एवं मधुर वातावरण बालक के मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि करता है। परिवार के सदस्यों के बीच आपसी प्यार, सहयोग की भावना, सम्मान की भावना व प्रतिष्ठा, एकमत्य, माता-पिता के मधुर सम्बन्ध तथा परिवार को स्वतन्त्र वातावरण मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा रखने में योग देते हैं। इसके अलावा बालक की भावनाओं व विचारों को उचित आदर, मान्यता व स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए।

5. संवेगात्मक विकास :
बालक को संवेगात्मक विकास भी ठीक ढंग से होना चाहिए। परिवार में यथोचित सुरक्षा, स्वतन्त्रता, स्वीकृति, मान्यता तथा स्नेह रहने से संवेगात्मक विकास स्वस्थ रूप से होता है तथा नये विश्वासों और आशाओं का जन्म होता है। बालक के स्वस्थ सांवेगिक विकास के लिए परिवार में पाँच मुख्य बातों का होना आवश्यक बताया गया है—आनन्द, खिलौने, खेल, पशु-पक्षी और उदाहरण (Joy, Tby, Play, Pet and Example) अधिक नियन्त्रण से भी संवेग विकसित नहीं हो पाते।

6. खेलकूदं और घूमना :
मानसिक स्वास्थ्य को शारीरिक स्वास्थ्य के साथ गहरा सम्बन्ध है। परिवार को चाहिए कि बालकों के लिए खेलकूद का पर्याप्त प्रबन्ध किया जाए। उन्हें दर्शनीय स्थल दिखाने, पिकनिक सर ले जाने, ऐतिहासिक स्थलों पर घुमाने तथा भाँति-भाँति की वस्तुओं का निरीक्षण कराने का प्रयास भी किया जाना चाहिए।

7. अनुशासन और अनुकरण :
बालक अधिकांश बातें अनुकरण के माध्यम से सीखते हैं। अनुकरण आदर्श वस्तु या विचार का होता है। अत: माता-पिता का जीवन अनुशासित एवं आदर्श जीवन होना चाहिए। परिवार से आत्मानुशासन की शिक्षा प्रदान की जाए।

(ब) पाठशाला और मानसिक स्वास्थ्य 
बालक की दिनचर्या का अधिक समय परिवार में ही व्यतीत होता है। परिवार के बाद पाठशाला या विद्यालय की बारी है। बालक का मानसिक स्वास्थ्य बनाये रखने, मानसिक अस्वस्थता रोकने तथा मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए पाठशाला महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इसका निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है

1. पाठशाला का वातावरण :
पाठशाला को सम्पूर्ण वातावरण शान्ति, सहयोग और प्रेम पर आधारित होना चाहिए। अध्यापक का विद्यार्थी के प्रति प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, विद्यार्थी के मन में अध्यापक के प्रति रुचि और आदर उत्पन्न करता है। इससे बालक स्वतन्त्रता का अनुभव करते हैं जिससे उनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक बना रहता है। विद्यार्थियों के प्रति अध्यापक का भेदभावपूर्ण बरताव बालकों के मन में अनादर और खीझ को जन्म देता है, जिसके परिणामस्वरूप अध्यापक के निर्देशों की अवहेलना हो जाती है और परस्पर कुसमायोजन पैदा हो सकता है। इसके अतिरिक्त, पाठशाला में किसी प्रकार की राजनीति, गुटबाजी व साम्प्रदायिक भेदभाव नहीं रहना चाहिए। इनसे मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

2. श्रेष्ठ अनुशासन :
पाठशाला में अनुशासन को उद्देश्य बालकों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करना है न कि उनके मन और जीवन को पीड़ा देना। अनुशासन सम्बन्धी नियम कठोर ने हों, उनसे बालकों में विरोध की भावना उत्पन्न न हो तथा उनका पालन सुगमता से कराया जा सके। बालकों को आत्मानुशासन के महत्त्व से परिचित कराया जाए, उन्हें अनुशासन समिति में स्थान देकर कार्य सौंपे जाएँ ताकि उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके। इससे बालक का व्यक्तित्व विकसित व समायोजित होता है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य में योगदान मिलता है।

3. सन्तुलित पाठ्यक्रम :
बालकों के ज्ञान में अपेक्षित वृद्धि तथा उनके बौद्धिक उन्नयन के लिए पाठ्यक्रम का सन्तुलित होना आवश्यक है। पाठ्यक्रम लचीला और बच्चों की रुचि के अनुरूप होजा चाहिए। रुचिजन्य अध्ययन से विद्यार्थियों को मानसिक थकान नहीं होती और उनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। इसके विपरीत असन्तुलित पाठ्यक्रम के बोझ से बालक मानसिक थकान महसूस करते हैं, अध्ययन में कम रुचि लेते हैं तथा पढ़ने-लिखने से जी चुराते हैं। अतः सन्तुलित पाठ्यक्रम मानसिक सन्तुलन एवं स्वास्थ्य में सहायक है।

4. पाठ्य सहगामी क्रियाएँ :
पाठशाला में समय-समय पर पाठ्य सहगामी गतिविधियाँ आयोजित की जानी चाहिए। इनसे बालक के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा उसकी रुचियों का उचित अभिप्रकाशन होता है। खेलकूद और मनोरंजन द्वारा मस्तिष्क में दमित भावनाओं को मार्ग मिलता है तथा मानसिक स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

5. उपयुक्त शिक्षण विधियाँ :
पाठशाला में अध्यापक को चाहिए कि वह विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग करे। नीरस शिक्षण से बालकों में अरुचि तथा थकान पैदा होती है, जिससे उनमें कक्षा से पलायन की प्रवृत्ति उभरती है तथा अनुशासनहीनता के अंकुर विकसित होते हैं।

6. शैक्षिक, व्यावसायिक तथा व्यक्तिगत निर्देशन :
विद्यार्थियों की व्यक्तिगत भिन्नताओं को ध्यान में रखकर उनकी मानसिक योग्यता तथा रुचि के अनुसार ही विषय दिये जाने चाहिए। इसके लिए कुशल मनोवैज्ञानिक द्वारा शैक्षिक निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके अलावा उनके भावी जीवन को ध्यान में रखकर उन्हें उचित व्यवसाय चुनने हेतु भी परामर्श व दिशा-निर्देशन दिये जाएँ। व्यक्तिगत निर्देशन की सहायता से उनकी व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाया जा सकता है, जिससे मानसिक ग्रन्थियाँ समाप्त हो जाती हैं तथा मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। इस प्रकार परिवार और पाठशाला अपने उत्तरदायित्वों का समुचित निर्वाह करके बालक की मानसिक उलझनों व तनावों को समाप्त या कम कर सकते हैं। इससे मानसिक अस्वस्थता की रोकथाम सम्भव है। तथा मानसिक स्वास्थ्य का उचित संवर्धन सम्भव होता है।

प्रश्न 5
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के महत्त्व एवं उपयोगिता का भी उल्लेख कीजिए।
या
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के अर्थ और महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इसके विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए। [2008]
या
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से आप क्या समझते हैं? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2010]
या
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007, 13, 15]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ व परिभाषा
सामान्य रूप से शारीरिक स्वास्थ्य तथा शारीरिक स्वास्थ्य विज्ञान या चिकित्साशास्त्र की बात की। जाती है, परन्तु आधुनिक युग में मानसिक स्वास्थ्य तथा मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान को भी समान रूप से आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान को जन्म देने का श्रेय सी० डब्ल्यू० बीयर्स (C. W. Bears) को प्राप्त है। सन् 1908 में उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें मानसिक रोगों से ग्रस्त बस्तियों की दशा सुधारने के विषय में अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया था।

इसी वर्ष ‘मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान समिति (Association of Mental Hygiene) की स्थापना हुई। कुछ समय बाद इसी सम्बन्ध में एक राष्ट्रीय परिषद् स्थापित की गयी। धीरे-धीरे सम्पूर्ण यूरोप में मानसिक स्वास्थ्य का प्रचार हो गया। सन् 1930 में मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान सम्बन्धी प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन वाशिंगटन (अमेरिका) में हुआ। कालान्तर में विश्व के सभी प्रगतिशील देशों में मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का प्रचार व प्रसार होने लगा। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का शाब्दिक अर्थ है, मन के रोगों का निदान करने वाला विज्ञान, अर्थात् वह विज्ञान जो मस्तिष्क को स्वस्थ रखने में सहायता देता है।

शारीरिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध हमारे शारीरिक स्वास्थ्य से है, तो मानसिक वास्थ्य विज्ञान को सम्बन्ध मस्तिष्क से। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है, जो मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने तथा मानसिक रोगों का निदान और नियन्त्रण करने के उपाय बताता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है, जो व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करता है, उसे मानसिक रोगों से मुक्त रखता है तथा यदि व्यक्ति मानसिक रोग या समायोजन के दोषों से ग्रस्त हो जाता है, तो उसके कारणों का निदान करके समुचित उपचार की व्यवस्था का प्रयास करता है।”

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. ड्रेवर के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है–मानसिक स्वास्थ्य के नियमों का अनुसन्धान करना और उनकी सुरक्षा के उपाय करना।”
  2. क्रो एवं क्रो के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है, जो मानव कल्याण से सम्बन्धित है और मानव सम्बन्धों के समस्त क्षेत्रों को प्रभावित करता है।”
  3. रोजानक के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान व्यक्ति की मानसिक कठिनाइयों को दूर करने में सहायता देता है तथा कठिनाइयों के समाधान के लिए साधन प्रस्तुत करता है।”
  4. हैडफील्ड के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है-मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा और मानसिक रोगों की रोकथाम।”
  5. भाटिया के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मानसिक रोगों से बचने और मानसिक स्वास्थ्य को कायम रखने का विज्ञान तथा कला है। यह कुसमायोजनाओं के सुधारों से सम्बन्धित है। इस कार्य में यह आवश्यक खेप से कारणों के निर्धारण का कार्य भी करता है।

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का महत्त्व या उपयोगिता या कार्य
मानसिक स्वास्थ्य एक लक्ष्य है जिसकी पूर्ति के लिए मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है। यह विज्ञानं मानसिक रोगियों की समस्याओं का समाधान तथा उनका उपचार करने की दिशा में एक वैज्ञानिक प्रयास है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का आधुनिक दृष्टिकोण सहानुभूति, सहृदयतापूर्ण और सुधारवादी है। पेरिस (फ्रांस) के प्रसिद्ध कारागार चिकित्सक फिलिप पिने (Phillipe Pinel) ने सर्वप्रथम इन रोगियों को सुधारने के लिए सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार तथा नैतिक उपचार का मार्ग सुझाया। उसने मानसिक रोगियों की जंजीरें खुलवा दीं और उन्हें घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता प्रदान की। इसके परिणामस्वरूप बहुत-से रोगी अधिक सहयोगी व आज्ञाकारी बन गये और दूसरों के बेहतर उपचार का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसका समस्त श्रेय मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की विचारधारा को ही जाता है। वर्तमान समय में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का। महत्त्व निम्नलिखित है।

1. सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों-सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा सांवेगिक आदि–को सन्तुलित रूप से विकसित होने के स्वस्थ सामाजिक जीवन का अवसर प्रदान करता है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की मदद से मानसिक संघर्ष कम होता है तथा भावना ग्रन्थियाँ नहीं पनपने पातीं।

2. सुसमायोजित जीवन :
मनुष्य का सन्तुलित व्यक्तित्व उसे सन्तुलित जीवन जीने में मदद देता है। इससे व्यक्ति को सम-विषम परिस्थितियों को अनुकूलन स्थापित करने में सहायता मिलती है। सन्तुलित जीवन के अवसर मिलने का अर्थ है–सुखी और सुसमायोजित जीवन-यापन का सौभाग्य प्राप्त होना।

3. स्वस्थ सामाजिक जीवन :
व्यक्ति समाज की इकाई है। सामागको एक और व्यक्तियों के समूह से समाज बनता है। समाज के सभी व्यक्तियों का सन्तुलित व्यक्तित्व तथा समायोजित जीवन सामाजिक जन को सौम्य एवं स्वस्थ बनाता है। ऐसे सन्तुलित समाज में सामाजिक विषमता और संघर्ष नहीं होंगे। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान, सामाजिक जीवन को स्वस्थ और सुन्दर बनाता है।

4. स्वस्थ पारिवारिक वातावरण :
स्वस्थ व्यक्तित्व के निर्माण से पारिवारिक सन्तुलन सुसमायोजन, शान्ति-व्यवस्था और सुख में वृद्धि होती है। परिवार के सदस्यों में आपसी प्रेम और सौहार्दपूर्ण व्यवहार से हर प्रकार के आनन्द तथा स्वस्थ वातावरण का सृजन होता है।

5. शिशुओं का समुचित पालन :
पोषण-मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के माध्यम से शिशुओं के माता-पिता एवं परिवारजन भली प्रकार यह समझ सकते हैं कि नवजात शिशुओं की देखभाल किस प्रकार की जाए। इससे शिशुओं की उचित सेवा-सुश्रूषा हो सकेगी तथा उनका विकास भी सुचारु रूप से हो सकेगा। यह पारिवारिक सन्तुलन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।

6. शैक्षिक प्रगति :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के नियम और सिद्धान्त बालकों के स्वस्थ संवेगात्मक विकास में सहायक होते हैं। भावना ग्रन्थियों तथा मानसिक संघर्ष से मुक्त रहकर वे पास-पड़ोस तथा विद्यालय में समायोजन स्थापित कर सकते हैं। शिक्षा के मार्ग में बाधक मानसिक रोग ग्रन्थियाँ हटने से शैक्षिक प्रगति सम्भव होती है।

7. उपचारात्मक महत्त्व :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मात्र स्वस्थ रहने और समायोजित जीवन व्यतीत करने सम्बन्धी नियम और सिद्धान्त ही निर्धारित नहीं करता, अपितु उपचार लेकर मानव-समाज की सेवा में उपस्थित होता है। रोकथाम और बचाव के साधन प्रयोग में लाने पर भी यदि कोई व्यक्ति मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है तो मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान उसके प्रारम्भिक उपचार की व्यवस्था करता है।

8. व्यावसायिक सफलता :
व्यावसायिक सफलता के लिए व्यक्ति का जीवन सन्तुलित एवं समायोजित होना चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान सन्तुलित व्यक्तित्व का सृजन करके व्यक्ति की व्यावसायिक क्षमता में वृद्धि करता है।

9. राष्ट्रीयता की भावना एवं सांवेगिक एकता :
विषमता और विघटनकारी प्रवृत्तियों के प्रभाव से वर्तमान परिस्थितियों में हमारा राष्ट्र सम्प्रदायवाद, भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि दूषित विचारधाराओं से जूझ रहा है। इससे राष्ट्रीय एकता भंग होती है तथा देश की शक्ति कमजोर पड़ती जाती है। इससे बचाव के लिए देश के नागरिकों में संवेगात्मक एकता का संचार करना होगा। यह कार्य मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की सक्रियता के अभाव में नहीं हो सकता।

10. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सहयोग :
अन्तर्राष्ट्रीय (या विश्व शान्ति के लिए आवश्यक है कि दुनिया के सभी देशों के नेतागण, चिन्तक, विचारक, समाज-सुधारक तथा नागरिक सन्तुलित और समायोजित व्यक्तित्व वाले हों। यदि देश के कर्णधारों का मानसिक स्वास्थ्य खराब होगा तो विभिन्न देशों के बीच तनाव और संघर्ष निश्चित रूप से होगा। प्रायः एक ही व्यक्ति का असन्तुलित मस्तिष्क समूची मानव-संस्कृति को युद्ध एवं विनाश की अग्नि में झोंक देगा। उस असन्तुलिते मस्तिष्क के उपचार का दायित्व मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान पर है। इससे विश्व-स्तर पर उत्पन्न तनाव और संघर्ष समाप्त होगा और विरोधी विचारधारा वाले देश निकट आकर मित्रता में बँध जाएँगे।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानसिक स्वास्थ्य का क्या अर्थ है? इसका महत्त्व लिखिए। [2007, 08, 11, 12, 14]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य से आशय ‘मानव को अपने व्यवहार में सन्तुलन से है। यह सन्तुलन प्रत्येक अवस्था में बना रहना चाहिए। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति की एक दशा एवं लक्षण है। किसी भी व्यक्ति के स्वस्थ एवं सफल जीवन के लिए उसके मन का स्वस्थ होना अतिआवश्यक है, क्योंकि मन द्वारा ही शरीर की समस्त क्रियाओं को संचालन किया जाता है। मन ही हमारे शरीर की बाह्य एवं आन्तरिक क्रियाओं को संचालित एवं नियन्त्रित करता है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही परिवार, कार्यस्थल तथा अपने आस-पास के वातावरण से समायोजन स्थापित कर सुखी रहता है।

मानसिक स्वास्थ्य का महत्त्व
सामान्य रूप से माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक रूप से स्वस्थ होना चाहिए, परन्तु यह मान्यता केवल आंशिक रूप से सत्य है। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वस्थ होना चाहिए। सम्पूर्ण स्वास्थ्य का प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष महत्त्व है। हम उस व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वस्थ कह सकते हैं जो शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक रूप से स्वस्थ होता है। वास्तव में शारीरिक स्वास्थ्य भी बहुत अधिक हद तक मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करता है तथा उससे प्रभावित होता है।

यदि व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक न हो, तो वह शारीरिक रूप से भी स्वस्थ नहीं रह पाता। इसके अतिरिक्त जीवन में प्रगति करने तथा समुचित आनन्द प्राप्त करने के लिए भी व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक होना आवश्यक है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही भौतिक, दैहिक तथा आत्मिक रूप से सन्तुष्ट हो सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक होना। आवश्यक है। शैक्षिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य अति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में मानसिक स्वास्थ्य तथा सीखने में सफलता के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है।

वास्तव में सीखने की प्रक्रिया को सुचारू रूप से सम्पन्न करने के लिए शिक्षार्थी तथा शिक्षक दोनों का मानसिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति को दृष्टिकोण सामान्य तथा सकारात्मक होता है। वह सभी कार्यों को पूर्ण उत्साह एवं लगन से सीखने को तत्पर रहता है। ऐसी परिस्थितियों में नि:सन्देह सीखने की प्रक्रिया तीव्र तथा सुचारू होती है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपनी त्रुटियों के प्रति जागरूक होता है तथा उन्हें सुधारने का भी प्रयास करता है। इससे उसकी सीखने की प्रक्रिया अच्छे ढंग से चलती है। इन समस्त तथ्यों को ही ध्यान में रखते हुए क्रेन्डसन ने कहा है, “मानसिक स्वास्थ्य । और सीखने में सफलता का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है।”

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति भी समान रूप से जागरूक रहना चाहिए तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए हर सम्भव उपाय एवं प्रयास करना चाहिए। वास्तव में कोई भी व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की मौलिक मान्यताओं एवं नियमों तथा निर्देशों का पालन करके अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकता है तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि नियमित जीवन, समुचित व्यायाम तथा योगाभ्यास एवं जीवन के प्रति सर्वांगीण दृष्टिकोण अपनाकर व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकता है तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकता है।

प्रश्न 2
मानसिक अस्वस्थता के क्या कारण हैं?
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करने में विभिन्न कारकों का योगदान हो सकता है, जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है।

1. मानसिक दुर्बलता :
ऐसे व्यक्ति जो मानसिक रूप से दुर्बल होते हैं, उनमें पर्याप्त ज्ञानात्मक योग्यता का अभाव पाया जाता है, ये व्यक्ति अक्सर मानसिक रोगों का शिकार हो जाते हैं।

2. संवेगात्मक असन्तुलन :
संवेगात्मक असन्तुलन की स्थिति में व्यक्ति क्षुब्ध हो जाता है। यदि यह अवस्था निरन्तर बनी रहती है, तो व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है।

3. मानसिक संघर्ष :
स्थायी मानसिक संघर्ष अनेक बारे भयंकर रूप धारण कर लेते हैं तथा इनके कारण व्यक्ति असामान्य तथा गम्भीर मानसिक रोगी बन जाता है।

4. अत्यधिक थकान एवं काम का बोझ :
काम के अधिक बोझ एवं परिश्रम से व्यक्ति थक जाता है। निरन्तर बनी रहने वाली थकान मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करती है।

5. हीन भावना :
व्यक्ति में विभिन्न कारणों से उत्पन्न हीन भावनाएँ जब एक ग्रन्थि का रूप धारण कर लेती हैं, तो ये ग्रन्थियाँ अनेक मानसिक विकारों को उत्पन्न करती हैं।

6. यौन-हताशाएँ :
यौन इच्छा की तृप्ति न हो पाने पर व्यक्ति प्राय: हताश हो जाते हैं। यह हताशा व्यक्ति को असामान्य बना देती है तथा व्यक्ति मानसिक रोगी, बन जाता है।

7. भावनाओं का दमन :
भावनाओं का दमन भी मानसिक अस्वस्थता का एक प्रमुख कारण है। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर विभिन्न प्रकार की भावनाएँ होती हैं, अनेक बार हर प्रकार की भावना को प्रदर्शित कर पाना सम्भव नहीं होता। दमित भावनाएँ अन्दर-ही-अन्दर सक्रिय रहती हैं, तथा भयंकर मानसिक अस्वस्थता का कारण बनती हैं।

प्रश्न 3
मानसिक अस्वस्थता के निदान के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता के निदान के अन्तर्गत मानसिक अस्वस्थता के कारणों का पता लगाने के लिए रोगी के व्यक्तित्व सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाओं का प्राप्त करना आवश्यक है। ये सूचनाएँ इन बिन्दुओं से सम्बन्धित होती हैं।

  1. शारीरिक दशा
  2. पारिवारिक दशा
  3. शैक्षणिक दशा
  4. सामाजिक दशा
  5. आर्थिक दशा
  6. व्यावसायिक दशा
  7. व्यक्तित्व सम्बन्धी लक्षण तथा
  8. मानसिक तत्त्व।

इन सूचनाओं को निम्नलिखित विधियों की सहायता से उपलब्ध कराया जाता है

  1. प्रश्नावली
  2. साक्षात्कार
  3. निरीक्षण
  4. जीवनवृत्त
  5. व्यक्तित्व परिसूची
  6. डॉक्टरी जाँच
  7. विभिन्न मनोवैज्ञानिक (बुद्धि, रुचि, अभिरुचि तथा मानसिक योग्यता सम्बन्धी) परीक्षण
  8. विद्यालय का संचित आलेख
  9. प्रक्षेपण विधियाँ तथा
  10. प्रयोगात्मक एवं अन्वेषणात्मक विधियाँ।

प्रश्न 4
साधारण मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सामान्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सार्धारण मानसिक अस्वस्थता के उपचार में आवश्यकतानुसार निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है

1. सुझाव :
मानसिक रोगी को सीधे-सीधे सुझाव देकर समझाया जाए कि उसे अपनी अस्वस्थता के विषय में क्या सोचना व करना है। उसके भ्रम व भ्रान्तियों का भी निवारण किया जाए।

2. उन्नयन :
इस विधि में यह जाँच की जाती है कि मानसिक रोग का किस प्रवृत्ति या संवेग से सम्बन्ध है। फिर उसी प्रवृत्ति/संवेग का स्तर उन्नत करके उसे किसी उच्च लक्ष्य के साथ जोड़ दिया जाता

3. निद्रा :
अचानक आघात या दुर्घटना के कारण यदि कोई व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा है तो रोगी को ओषधि देकर कई दिनों तक निद्रा में रखा जाता है। शरीर की ताकत को बनाये रखने की दृष्टि से ताकत के इंजेक्शन दिये जाते हैं।

4. विश्राम :
अधिक कार्यभार, थकावट, तनाव तथा मानसिक उलझनों और कुपोषण के कारणं अक्सर मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। ऐसे रोगियों को शान्त वातावरण में विश्राम करने हेतु रखा जाता है और उन्हें पौष्टिक भोजनं खिलाया जाता है।

5. पुनर्शिक्षण :
इसके अन्तर्गत मानसिक रोगी में व्यावहारिक शिक्षा, संसूचन तथा उपदेश के माध्यम से आत्मविश्वास व आत्म-नियन्त्रण पैदा किया जाता है। इसके लिए अन्य व्यक्ति, समूह या दैवी-शक्तियों में विश्वास के लिए भी उसे प्रेरित किया जा सकता है। इस विधि की सफलता रोगी द्वारा दिये गये सहयोग पर निर्भर करती है। कमजोर तथा कोमल भावनाओं वाले व्यक्तियों की इस विधि से चिकित्सा की जा सकती है।

6. ग्रन्थ विधि :
पढ़े-लिखे विभिन्न प्रकार के मानसिक रोगियों के लिए ऐसे विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की गयी है जिनके पढ़ने से मानसिक तनावे व असन्तुलन घटता है। रोग के अनुसार सम्बन्धित ग्रन्थ पढ़ने के लिए दिया जाता है और इसके पश्चात् उचित निर्देशन प्रदान कर रोग का पूर्व उपचार कर दिया जाता है।

प्रश्न 5
गम्भीर मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
गम्भीर मानसिक अस्वस्थता का उपचार साधारण विधियों के माध्यम से सम्भव नहीं है। इसके लिए रोगी को दीर्घकाल तक मानसिक रोग चिकित्सालय में किसी अनुभवी चिकित्सक की देख-रेख में रहना पड़ सकता है। इसके लिए अग्रलिखित विधियाँ प्रयुक्त होती हैं

1. आघात विधि :
पहले कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऑक्सीजन के मिश्रण को सुंघाकर रोगी के मस्तिष्क को आघात (Shock) दिया जाता था, जिससे क्षणिक लाभ होता था। इसके बाद अधिक मात्रा में इन्सुलिन या कपूर या मेट्राजॉल के द्वारा आघात दिया जाने लगा। रोगी को 15 से 60 तक आघात पहुँचाये जाते हैं। आजकल रोगी के मस्तिष्क पर बिजली के हल्के आघात देकर मानसिक रोग ठीक किये जाते हैं।

2. रासायनिक विधि :
रासायनिक विधि (Chemo Therapy) में कुछ विशेष प्रकार की ओषधियों या रसायनों का प्रयोग करके रोगी की चिन्ता तथा बेचैनी कम की जाती है। भारत में आजकल सर्पगन्धा (Rauwolfia) नामक ओषधि काफी प्रचलित व लाभदायक सिद्ध हुई है।

3. मनोशल्य चिकित्सा :
मनोशल्य चिकित्सा (Psycho-Surgery) के अन्तर्गत मस्तिष्क का ऑपरेशन करके थैलेमस व फ्रण्टल लोब के सम्बन्ध का विच्छेद कर दिया जाता है। इससे मानसिक उन्माद और विकृतियाँ ठीक हो जाती हैं। यह देखा गया है कि ऑपरेशन के बाद दूसरी मानसिक असामान्यताएँ पैदा हो जाती हैं। यह विधि सुधारे की दृष्टि से उपयुक्त कही जा सकती है, किन्तु इससे पूर्ण उपचार नहीं हो सकता।

प्रश्न 6
“अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होगा तो वह अपने विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर सकता।” यदि आप इस कथन से सहमत हैं, तो क्यों ? मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर :
विद्यालय में अध्यापक की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका तथा दायित्व होता है। घर में बच्चों के लिए जो स्थान माता-पिता का होता है, विद्यालय में वही स्थान शिक्षक या अध्यापक का होता है। अध्यापक का दायित्व है कि वह अपने विद्यार्थियों को शिक्षित करने के साथ-ही-साथ उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के उत्तम विकास में भी भरपूर योगदान प्रदान करे। इस स्थिति में यह अनिवार्य है कि अध्यापक अपने विषय में पारंगत होने के साथ-ही-साथ मानसिक रूप से भी स्वस्थ हो।

यदि अध्यापक मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है तो उसका गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव उसके विद्यार्थियों के विकास एवं मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ सकता है। विद्यार्थी अध्यापक का अनुकरण करते हैं, उससे प्रेरित होते हैं तथा प्रभावित होते हैं। ऐसे में मानसिक रूप से अस्वस्थ अध्यापक के सम्पर्क में आने वाले विद्यार्थी भी मानसिक रूप से अस्वस्थ हो सकते हैं। यही कारण है कि कहा जाता है कि “अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होगा तो वह अपने विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर सकता।”

प्रश्न 7.
अध्यापक के मानसिक स्वास्थ्य में बाधा डालने वाले कारकों का वर्णन कीजिए। [2010]
उत्तर :
शिक्षा की प्रक्रिया को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा छात्रों के सामान्य एवं उत्तम विकास के लिए अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य सामान्य होना अति आवश्यक है, परन्तु व्यवहार में देखा गया है कि अनेक अध्यापकों का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होता। वास्तव में विभिन्न कारक अध्यापकों के मानसिक स्वास्थ्य पर निरन्तर प्रतिकूल प्रभाव डालते रहते हैं। इस प्रकार के मुख्य कारक हैं

  1. वेतन का कम होना
  2. सेवाओं को सुरक्षित न होना
  3. समाज में समुचित प्रतिष्ठा न होना
  4. विद्यालय में आवश्यक शैक्षिक उपकरणों को उपलब्ध न होना
  5. कार्य-भार को अधिक होना
  6. विद्यालय का वातावरण अच्छा न होना
  7. प्रधानाचार्य और प्रबन्धकों से विवाद
  8. स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध न होना
  9. पारिवारिक प्रतिकूल परिस्थितियाँ तथा
  10. आवासीय समस्याएँ।

प्रश्न 8
‘मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से आप क्या समझते हैं? विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने में अध्यापक (विद्यालय) की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2011]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान’ वह विज्ञान है, जो व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करता है, उसे मानसिक रोगों से मुक्त रखता है तथा यदि व्यक्ति मानसिक विकार, रोग अथवा समायोजन के दोषों से ग्रस्त हो जाता है तो उसके कारणों का निदान करके समुचित उपचार की व्यवस्था का प्रयास करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान एक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विज्ञान है। इस विज्ञान द्वारा मुख्य रूप से तीन प्रकार के कार्य किये जाते हैं। ये कार्य निम्नलिखित हैं

  1. मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा
  2. मानसिक रोगों की रोकथाम तथा
  3. मानसिक रोगों का प्रारम्भिक उपचार।

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा ड्रेवर ने इन शब्दों में प्रतिपादित की है, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है-मानसिक स्वास्थ्य के नियमों की खोज करना और उसको सुरक्षित रखने के उपाय करना।” बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक बनाये रखने तथा आवश्यकता पड़ने पर उसमें सुधार करने में विद्यालय एवं शिक्षक द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। सर्वप्रथम विद्यालय का वातावरण उत्तम, सौहार्दपूर्ण तथा हर प्रकार की राजनीति, गुटबाजी तथा साम्प्रदायिक भेदभाव से मुक्त होना चाहिए। शिक्षकों का दायित्व है कि विद्यालय में श्रेष्ठ अनुशासन बनाये रखें।

उन्हें मूल पाठ्यक्रम के साथ-साथ पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का भी आयोजन करना चाहिए। बालकों को मानसिक रूप से स्वस्थ बनाये रखने के लिए शिक्षकों को उपयुक्त शिक्षण विधियों को ही अपनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त बालकों के लिए शैक्षिक, व्यावसायिक तथा व्यक्तिगत निर्देशन की भी व्यवस्था होनी चाहिए। इससे बालकों की हर प्रकार की समस्याओं का समाधान होता रहेगा तथा वे मानसिक रूप से स्वस्थ रहेंगे।

प्रश्न 9
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान तथा मानसिक स्वास्थ्य में क्या अन्तर है? [2012, 15]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान और मानसिक स्वास्थ्य दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानसिक स्वास्थ्य एक मानसिक दशा है, जब कि मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान उस मानसिक दिशा का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। इन दोनों में अन्तर को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

  1. मानसिक स्वास्थ्य सम्पूर्ण व्यक्तित्व की पूर्ण एवं सन्तुलित क्रियाशीलता को कहते हैं। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान व्यक्तित्व की इस क्रियाशीलता का अध्ययन करता है।
  2. मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति की एक विशिष्ट स्थिति को बताता है। यह स्थिति दो प्रकार की हो सकती है-

मानसिक स्वस्थता तथा मानसिक अस्वस्थता। इन स्थितियों का अध्ययन करने वाला विषय ही मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान कहलाता है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मानसिक स्वास्थ्य के लक्षणों, मानसिक अस्वस्थता के लक्षणों, मानसिक रोग तथा उनके कारणों और मानसिक अस्वस्थता को दूर करने के उपायों का अध्ययन व विवेचन करता है। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का एक विशिष्ट स्थान है, क्योंकि विद्यार्थी और शिक्षक के मानसिक स्वास्थ्य पर ही शिक्षण प्रक्रिया की गतिशीलता निर्भर करती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानसिक स्वास्थ्य के तीन पक्ष कौन-से हैं?
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य के तीन पक्ष निम्नलिखित हैं

  1. प्रत्येक व्यक्ति को उसकी मानसिक प्रवृत्तियों, क्षमताओं, शक्तियों तथा अर्जित क्षमताओं को प्रकट करने का अवसर मिलना चाहिए।
  2. व्यक्ति की क्षमताओं में पारस्परिक समायोजन होना चाहिए।
  3. व्यक्ति की समस्त प्रवृत्तियाँ एवं कार्य किसी उद्देश्य की ओर सक्रिय होने चाहिए।

प्रश्न 2
मानसिक स्वास्थ्य का ठीक होना क्यों आवश्यक है?
या
मानसिक स्वास्थ्य के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2007, 15]
उत्तर :
स्वास्थ्य का प्रत्येक व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्त्व है। हम उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वस्थ कह सकते हैं जो शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक रूप से स्वस्थ होता है। वास्तव में शारीरिक स्वास्थ्य भी बहुत अधिक हद तक मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करता है तथा उससे प्रभावित होता है। यदि व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक न हो, तो वह शारीरिक रूप से भी स्वस्थ नहीं रह पाता। इसके अतिरिक्त जीवन में प्रगति करने तथा समुचित आनन्द प्राप्त करने के लिए भी व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक होना। आवश्यक है।

प्रश्न 3
मानसिक स्वास्थ्य और सीखने में सफलता का क्या सम्बन्ध है?
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य तथा सीखने में सफलता के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। वास्तव में सीखने की प्रक्रिया को सुचारु रूप से सम्पन्न करने के लिए शिक्षार्थी तथा शिक्षक दोनों का मानसिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का दृष्टिकोण सामान्य तथा सकारात्मक होता है। वह सभी कार्यों को पूर्ण उत्साह एवं लगन से सीखने को तत्पर रहता है। ऐसी परिस्थितियों में नि:संदेह सीखने की प्रक्रिया तीव्र तथा सुचारु होती है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपनी त्रुटियों के प्रति जागरूक होता है तथा उन्हें सुधारने का भी प्रयास करता है। इससे उसकी सीखने की प्रक्रिया अच्छे ढंग से चलती है। इन समस्त तथ्यों को ही ध्यान में रखते हुए क्रेन्डसन ने कहा है, “मानसिक स्वास्थ्य और सीखने में सफलता का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है।”

प्रश्न 4
मानसिक रोगों के उपचार की व्यावसायिक चिकित्सा का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
खाली मस्तिष्क शैतान का घर है, किन्तु कार्य में रत व्यक्ति में कई विशिष्ट गुण उत्पन्न होते हैं; जैसे—सहयोग, प्रेम, सहनशीलता, धैर्य और मैत्री। इन गुणों से मानसिक उलझन और तनाव में कमी आती है। इसी सिद्धान्त को आधार बनाकर रोगियों को उनके पसन्द के कार्यों (जैसे—चित्रकारी, चटाई-कपड़ा-निवाड़, बुनना, टोकरी बनाना आदि) में लगा दिया जाता है, जिससे धीरे-धीरे उनका मानसिक सन्तुलन सुधर जाता है।

प्रश्न 5
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सामूहिक चिकित्सा का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सामूहिक चिकित्सा विधि में दस से लेकर तीस तक समलिंगी रोगियों की एक साथ चिकित्सा की जाती है। चिकित्सक समूह के सभी रोगियों को इस प्रकार प्रेरित करता है कि वे एक-दूसरे से अपनी समस्याएँ कहें तथा दूसरों की समस्याएँ खुद सुनें। एक-दूसरे को समस्या कहने-सुनने से पारस्परिक सहानुभूति उत्पन्न होती है। रोगी जब अपने जैसे अन्य पीड़ित व्यक्तियों को अपने साथ पाता है तो उसे सन्तोष अनुभव होता है। धीरे-धीरे चिकित्सक के दिशा-निर्देशन में सभी रोगी मिलकर समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते हैं और मानसिक सन्तुलन की अवस्था प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 6
मानसिक रोगियों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली खेल एवं संगीत विधि का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
बालकों तथा दीर्घकाल तक दबाव महसूस क़रने वाले मानसिक रोगी व्यक्तियों के लिए खेल विधि उपयोगी है-रोगी को स्वेच्छा से स्वतन्त्रतापूर्वक नाना प्रकार के खेल खेलने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। खेल खेलने से उसकी विचार की दिशा बदलती है तथा खेल जीतने से उसमें आत्मविश्वास बढ़ता है। इसी प्रकार संगीत भी मानसिक उलझनों तथा तनावों को दूर करने की एक महत्त्वपूर्ण कुंजी है। रुचि का संगीत सुनने से उत्तेजित स्नायुओं को आराम मिलता है, संवेगात्मक उत्तेजनाओं का अन्त होता है, पाचन क्रिया तथा रक्तचाप सामान्य हो जाते हैं।

प्रश्न 7
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मनो-अभिनय नामक विधि का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली एक सफल एवं लोकप्रिय विधि है-मनो-अभिनय विधि। मनो-अभिनय विधि (Psychodrarma), सामूहिक विधि से मिलती-जुलती विधि है। इसमें समूह के रोगी आपस में समस्या की व्याख्या नहीं करते, बल्कि अभिनय के माध्यम से अपनी समस्या का स्वतन्त्र रूप से अभिप्रकाशन करते हैं। इससे समस्या का रेचन हो जाता है। मनो-अभिनय चिकित्सक के निर्देशन में किया जाना चाहिए।

प्रश्न 8
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सम्मोहन विधि का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
सम्मोहन, अल्पकालीन प्रभाव वाली एक मनोवैज्ञानिक विधि है, जिससे मनोरोग के लक्षण दूर होते हैं, रोग दूर नहीं होता। सम्मोहन क्रिया में चिकित्सक मानसिक रोगी को कुछ समय के लिए अचेत कर देता है और उसे एक आरामकुर्सी पर विश्रामपूर्वक बिठलाता है। अब उसे किसी ध्वन्यात्मक या दृष्टात्मक उत्तेजना पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कहा जाता है। संसूचनाओं के माध्यम से उसे अचेत ही रखा जाता है। रोगी को निर्देश दिया जाता है कि वह अपनी स्मृति से लुप्त हो चुकी अनुभूतियों को कहे। अनुभूति के स्मरण मात्र से ही रोगी का रोग दूर हो जाती है।

प्रश्न 9
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मनोविश्लेषण विधि का सामान्य वर्णन कीजिए।
उत्तर :
फ्रायड (Freud) नामक विख्यात मनोवैज्ञानिक ने सम्मोहन विधि की कमियों को ध्यानावस्थित रखते हुए ‘मनोविश्लेषण विधि (Psychoanalysis) की खोज की। रोगी को एक अर्द्ध-प्रकाशित कक्ष में आरामकुर्सी पर इस प्रकार विश्रामपूर्वक बिठलाया जाता है कि मनोविश्लेषक तो रोगी की क्रियाओं को पूर्णरूपेण अध्ययन व निरीक्षण कर पाये, लेकिन रोगी उसे न देख सके। अब मनोविश्लेषक के व्यवहार से प्रेरित व सन्तुष्ट व्यक्ति उस पर पूरी तरह विश्वास प्रदर्शित करता है। यद्यपि शुरू में प्रतिरोध की अवस्था के कारण रोगी कुछ व्यक्त करना नहीं चाहता, किन्तु उत्तेजके शब्दों के प्रयोग से उसे पूर्व-अनुभव दोहराने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसके बाद स्थानान्तरण की अवस्था के अन्तर्गत दो बातें हैं-

  1. रोगी चिकित्सक को भला-बुरा या गाली बकता है अथवा
  2. रोगी मनोविश्लेषक पर मुग्ध हो जाता है और उसकी हर बात मानता है।

शनैः – शनै: रोगी अपनी समस्त जानकारी मनोविश्लेषक को दे देता है, जिससे उसकी उलझनें समाप्त हो जाती हैं और वह सामान्य व समायोजित हो जाता है।

प्रश्न 10
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मुख्य उद्देश्य क्या हैं ? [2007, 13, 14, 15]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के निम्नलिखित उद्देश्य हैं

  1. क्रो एवं क्रो के अनुसार, मानसिक अव्यवस्था एवं अस्वस्थता को नियन्त्रित करना तथा मानसिक रोगों को दूर करने के उपायों की खोज करना।
  2. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का उद्देश्य ऐसे साधनों को एकत्र करना है, जिससे साधारण मानसिक रोगों को नियन्त्रित किया जा सके।
  3. प्रत्येक व्यक्ति को सामंजस्यपूर्ण और सुखी जीवन व्यतीत करने में सहायता देना।
  4. मानसिक तनाव और चिन्ताओं से मुक्ति दिलाने में सहायता देना।

प्रश्न 11
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मुख्य पक्षों का उल्लेख कीजिए।
या
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सकारात्मक पक्ष क्या है?
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के तीन प्रमुख पक्ष हैं

1. सकारात्मक पक्ष :
सकारात्मक पक्ष में उन नियमों तथा परिस्थितियों को उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है जिनके द्वारा मनुष्य व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करते हुए जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में सफल हो सके। इनमें मानसिक रोगों की खोज करना तथा उनकी रोकथाम करना आते हैं।

2. नकारात्मक पक्ष :
मानसिक रोगों की सहानुभूतिपूर्ण ढंग से तथा कुशलता से चिकित्सा करना, उन परिस्थितियों से बचने का प्रयास करना जिनके कारण मानसिक संघर्ष तथा भावना-ग्रन्थियों के उत्पन्न होने की सम्भावना होती रहती है।

3. संरक्षणात्मक पक्ष :
व्यक्ति को उन विधियों का ज्ञान कराना, जिनसे मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्ध को कायम रखा जा सकता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की एक उत्तम परिभाषा दीजिए।”
उत्तर :
“मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है – मानसिक स्वास्थ्य के नियमों का अनुसंधान करना और उनकी सुरक्षा के उपाय करना।” [ ड्रेवर ]

प्रटन 2
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मुख्य कार्य क्या हैं ? [2011]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मानसिक स्वास्थ्य के लक्षणों, मानसिक अस्वस्थता के लक्षणों, मानसिक रोग तथा उनके कारणों और मानसिक अस्वस्थता को दूर करने के उपायों का अध्ययन व विवेचन करता है।

प्रश्न 3
मानसिक स्वास्थ्य की एक संक्षिप्त परिभाषा लिखिए। [2008, 14]
उत्तर :
“मानसिक स्वास्थ्य यह बताता है कि कोई व्यक्ति जीवन की माँगों और अवसरों के प्रति कितनी अच्छी तरह से समायोजित है।” -भाटिया

प्रश्न 4
मानसिक स्वास्थ्य और सीखने के बीच कैसा सम्बन्ध है?
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य और सीखने के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। सामान्य मानसिक स्वास्थ्य की दशा में सीखने की प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती है तथा मानसिक स्वास्थ्य के असामान्य हो जाने की दशा में सीखने की प्रक्रिया को सुचारु रूप से चल पाना सम्भव नहीं होता।

5
किस प्रकार आदमी (व्यक्ति) अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकता है?
उत्तर :
कोई भी व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य के नियमों का भली-भाँति पालन करके अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकता है।

प्रश्न 6
मानसिक अस्वस्थता से क्या आशय है ?
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता वह स्थिति है जिसमें जीवन की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने में व्यक्ति स्वयं को असमर्थ पाता है तथा संवेगात्मक असन्तुलन का शिकार हो जाता है।

प्रश्न 7
मानसिक अस्वस्थता का प्रमुख लक्षण क्या है ?
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता का प्रमुख लक्षण है – जीवन में समायोजन का बिगड़ जाना।

इन 8
‘स्वप्न विश्लेषण विधि किस उपचार के लिए प्रयोग में लाई जाती है ?
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए स्वप्न विश्लेषण विधि’ को अपनाया जाता है।

प्रश्न 9
मानसिक रोगियों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मनोविश्लेषण विधि को किसने प्रारम्भ किया था ?
उत्तर :
मनोविश्लेषण विधि को फ्रॉयड (Freud) नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रारम्भ किया था।

प्रश्न 10
गम्भीर मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियाँ कौन-कौन-सी हैं ?
उत्तर :
गम्भीर मानसिक अस्वस्थता के उपचार हेतु अपनायी जाने वाली मुख्य विधियाँ हैं।

  1. आघात विधि
  2. रासायनिक विधि तथा
  3. मनोशल्य चिकित्सा।

प्रश्न 11
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक कौन-सा है? [2015]
उत्तर :
जीवन में सामंजस्य तथा सकारात्मक सोच, मानसिक सोच को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक हैं।

प्रश्न 12
हैडफील्ड के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध किससे है? [2013]
उत्तर :
हैडफील्ड के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध मुख्य रूप से मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा तथा मानसिक रोगों की रोकथाम है।

प्रश्न 13
मनोग्रन्थियों का निर्माण क्यों होता है? (2013)
उत्तर :
निरन्तर असफलताओं, हताशाओं, कुण्ठाओं तथा भावनाओं की अस्त-व्यस्तता के कारण मनोग्रन्थियों का निर्माण हो जाता है।

प्रश्न 14
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के चार पहलू हैं।
  2. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान केवल मानसिक रोगियों के लिए उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है।
  3. मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति जीवन में सुसमायोजित होता है।
  4. बालक के मानसिक स्वास्थ्य में परिवार का कोई योगदान नहीं होता।
  5. मानसिक अस्वस्थता का कोई उपचार सम्भव नहीं है।

उत्तर :

  1. असत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
“मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है – वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से पर्याप्त सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता।” यह परिभाषा दी है
(क) शेफर ने
(ख) लैण्डेल ने
(ग) मर्फी ने
(घ) ड्रेवर ने
उत्तर :
(ख) लैण्डेल ने

प्रश्न 2
“साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण सामंजस्य के साथ कार्य करता है। ऐसा कहा गया है
(क) ड्रेवर द्वारा
(ख) हैडफील्ड द्वारा
(ग) लैडेल द्वारा
(घ) कुप्पू स्वामी द्वारा
उत्तर :
(ख) हैडफील्ड द्वारा

प्रश्न 3
“मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है, जो मानव कल्याण के विषय में बताता है और मानव सम्बन्धों के सब क्षेत्रों को प्रभावित करता है। यह परिभाषा दी है
(क) क्री एवं क्रो ने
(ख) थॉमसन ने
(ग) शेफर ने
(घ) हैडफील्ड ने
उत्तर :
(क) क्रो एवं क्रो ने।

प्रश्न 4
“मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने और मानसिक असन्तुलन को रोकने से है।” ऐसा कहा गया है
(क) हैडफील्ड द्वारा
(ख) क्रो और क्रो द्वारा
(ग) कुल्हन द्वारा
(घ) शेफर द्वारा
उत्तर :
(क) हैडफील्ड द्वारा

प्रश्न 5
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के निम्नलिखित पहलू हैं, सिवाय (2009)
(क) संरक्षणात्मक पहलू
(ख) सांस्कृतिक पहलू
(ग) उपचारांत्मक पहलू
(घ) निरोधात्मक पहलू
उत्तर :
(ख) सांस्कृतिक पहलू

प्रश्न 6
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का निम्नलिखित कार्य नहीं है
(क) मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करना
(ख) संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
(ग) मानसिक रोगों की रोकथाम करना
(घ) मानसिक रोगों का उपचार करना
उत्तर :
(ख) संक्रामक रोगों की रोकथाम करना

प्रश्न 7
मानसिक अस्वस्थता का कारण नहीं है [2008, 12, 13]
(क) चिन्ता
(ख) निद्रा
(ग) तनाव
(घ) भग्नाशा
उत्तर :
(ख) निद्रा

प्रश्न 8
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का महत्व है
(क) जीवन के कुछ क्षेत्रों में
(ख) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
(ग) जीवन के असामान्य क्षेत्र में
(घ) जीवन के किसी भी क्षेत्र में नहीं
उत्तर :
(ख) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में

प्रश्न 9
व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है
(क) उसके सौन्दर्य का
(ख) उत्तम पोषण का
(ग) शारीरिक विकलांगता को
(घ) उच्च शिक्षा का
उत्तर :
(ग) शारीरिक विकलांगता का

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन-सा मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण नहीं है?
(क) स्व-मूल्यांकन की योग्यता
(ख) समायोजनशीलता
(ग) आत्मविश्वास
(घ) संवेगात्मक अस्थिरता
उत्तर :
(घ) संवेगात्मक अस्थिरता

प्रश्न 11
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का उद्देश्य है [2007, 09, 11, 18]
(क) सामाजिक विकास करना
(ख) सांस्कृतिक विकास करना
(ग) मानसिक रोगों का उपचार करना
(घ) भावात्मक विकास करना
उत्तर :
(ग) मानसिक रोगों का उपचार करना

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सा मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण हैं? [2008]
(क) स्व-मूल्यांकन की योग्यता
(ख) समायोजनशीलता
(ग) आत्मविश्वास
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 13
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के उद्देश्यों का एकमात्र पहलू है [2013]
(क) उपचारात्मक पहलू
(ख) निरोधात्मक पहलू
(ग) संरक्षणात्मक पहलू
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 14
निम्नलिखित में से कौन-सा उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का नहीं है? [2010, 13]
(क) अधिकतम प्रभावोत्पादक और सन्तुष्टि
(ख) जीवन की वास्तविकताओं को स्वीकार करना
(ग) व्यक्तियों का आपसी सामंजस्य
(घ) तेज गति से आर्थिक समृद्धि
उत्तर :
(घ) तेज गति से आर्थिक समृद्धि

प्रश्न 15
‘ए माइन्ड दैट फाउण्ड इटसेल्फ’ पुस्तक का सम्बन्ध है [2014]
(क) गणित से
(ख) मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से
(ग) दर्शनशास्त्र से
(घ) विज्ञान से
उत्तर :
(ख) मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से

प्रश्न 16
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में निम्न में से क्या पाया जाता है। [2016]
(क) आत्मविश्वास की अधिकता
(ख) तनाव की अधिकता
(ग) क्रोध की अधिकता
(घ) हर्ष की अधिकता
उत्तर :
(क) आत्मविश्वास की अधिकता

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 7 Indian Educationist: Mrs. Annie Besant

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 7 Indian Educationist: Mrs. Annie Besant (भारतीय शिक्षाशास्त्री-श्रीमती एनी बेसेण्ट) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 7 Indian Educationist: Mrs. Annie Besant (भारतीय शिक्षाशास्त्री-श्रीमती एनी बेसेण्ट).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 7
Chapter Name Indian Educationist: Mrs. Annie Besant (भारतीय शिक्षाशास्त्री-श्रीमती एनी बेसेण्ट)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 7 Indian Educationist: Mrs. Annie Besant (भारतीय शिक्षाशास्त्री-श्रीमती एनी बेसेण्ट)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
श्रीमती एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के अर्थ, उद्देश्यों तथा पाठ्यक्रम का उल्लेख कीजिए।
या
एनी बेसेण्ट के शैक्षिक विचारों का उल्लेख कीजिए।
या
डॉ० एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।
या
अधोलिखित प्रसंगों के ऊपर एनी बेसेण्ट के शैक्षिक विचारों को लिखिए

  1. शिक्षा का पाठ्यक्रम
  2. शिक्षण पद्धति
  3. शिक्षा के उद्देश्य या एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षण विधियाँ क्या हैं?

उत्तर
एनी बेसेण्ट भारत की तत्कालीन शिक्षा प्रणाली से बहुत असन्तुष्ट थीं और उन्होंने उसकी कटु आलोचना भी की। उन्होंने प्रचलित शिक्षा को एकांगी और अव्यावहारिक बताते हुए कहा-“आजकल भारत में शिक्षा का उद्देश्य उपाधि प्राप्त करना है। शिक्षा तब असफल होती है, जब कि बहुत से असंयुक्त तथ्यों के द्वारा बालक का मस्तिष्क भर दिया जाता है और इन तथ्यों को उसके मस्तिष्क में इस प्रकार डाला जाता है, मानो रद्दी की टोकरी में फालतू कागज फेंके जा रहे हों और फिर उन्हें परीक्षा के कमरे में उलटकर टोकरी खाली कर देनी है।”

शिक्षा का अर्थ

एनी बेसेण्ट ने शिक्षा की परिभाषा देते हुए कहा है-“शिक्षा का अर्थ है बालक की प्रकृति के प्रत्येक पक्ष में उसकी सभी आन्तरिक क्षमताओं को बाहर प्रकट करना, उसमें प्रत्येक बौद्धिक व नैतिक शक्ति का विकास करना, उसे शारीरिक, संवेगात्मक, मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली बनाना ताकि विद्यालय की अवधि के अन्त में वह एक उपयोगी देशभक्त और ऐसा पवित्र व्यक्ति बन सके जो अपना और अपने चारों ओर के लोगों का आदर करता है।”

एनी बेसेण्ट के अनुसार, शिक्षा और संस्कृति में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके अनुसार जन्मजात शक्तियों या क्षमताओं का बाह्य प्रकाशन एवं प्रशिक्षण ही शिक्षा है। ये शक्तियाँ बालक को पूर्व जन्म से प्राप्त होती हैं। एनी बेसेण्ट के अनुसार, “शिक्षा एक ऐसी सांस्कारिक विधि या क्रिया है, जिसका फल संस्कृति है। व्यक्ति पर शिक्षा का प्रभाव अनवरत रूप से पड़ता रहता है और जैसे-जैसे संस्कारों की ऊर्ध्वगति होती जाती है, वे संस्कृति में बदलते जाते हैं।”

शिक्षा के उद्देश्य

एनी बेसेण्ट ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताये हैं

  1. शारीरिक विकास–एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक विकास करना होना चाहिए, जिससे बालकों के स्वास्थ्य, शक्ति एवं सुन्दरता में वृद्धि हो सके।
  2. मानसिक विकास–शिक्षा व्यक्ति को इसलिए देनी चाहिए जिससे वह अपनी विभिन्न मानसिक शक्तियों—चिन्तन, मनन, विश्लेषण, निर्णय, कल्पना आदि-का उचित विकास और प्रयोग कर सके।
  3. संवेगों का प्रशिक्षण–एनी बेसेण्ट ने शिक्षा के द्वारा बालकों के संवेगात्मकें विकास पर बहुत बल दिया है। उन्होंने कहा है कि शिक्षा द्वारा व्यक्ति में उचित प्रकार के संवेग, अनुभूतियाँ और भाव उत्पन्न किये जाने चाहिए। शिक्षा के द्वारा सुन्दर और उत्तम के प्रति, दूसरों के सुख-दु:ख में सहानुभूति, माता-पिता एवं बड़ों का सम्मान, संमान अवस्था वालों के प्रति भाई-बहनों का-सा भाव और छोटों को बच्चों के समान तथा दूसरों के प्रति भुलाई का भाव उत्पन्न किया जाना चाहिए।
  4. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास-एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के द्वारा बालकों का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास भी होना चाहिए।
  5. आदर्श नागरिक का निर्माण करना-शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को आदर्श नागरिक के गुणों से अलंकृत करना है, जिससे वह अपने आगे के सामाजिक, राजनीतिक एवं नागरिक जीवन में सुखी हो सके।

शिक्षा का पाठ्यक्रम

  1. जन्म से 5 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-इस अवस्था में बालक शारीरिक एवं मानसिक रूप से बहुत कोमल होता है और उसका विकास इच्छित दिशा में आसानी से किया जा सकता है। इस अवस्था में बालक के इन्द्रिय विकास पर अधिक ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इसी समय वह चलना-फिरना, बैठना-उठना, बोलना आदि सीखता है। अतः इस अवस्था के पाठ्यक्रम में शारीरिक क्रिया, खेलकूद, गणित, भाषा, गीत, धार्मिक पुरुषों की कहानियों आदि को सम्मिलित करना चाहिए।
  2. 5 से 7 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-इस अवस्था के पाठ्यक्रम में गणित, भाषा, खेलकूद, सफाई और स्वास्थ्य की आदतों का निर्माण और प्रकृति निरीक्षण को शामिल किया जाए। इसके अतिरिक्त चित्रों एवं धार्मिक कहानियों की सहायता लेनी चाहिए, जिससे बालक का कलात्मक एवं धार्मिक विकास हो सके।
  3. 7 से 10 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-इस अवस्था में बालक की वास्तविक और औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ होती है। इसके अन्तर्गत मातृभाषा, संस्कृत, अरबी, फारसी, इतिहास, भूगोल, गणित, शारीरिक व्यायाम आदि विषयों को सम्मिलित करना चाहिए। इस स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए
  4. 10 से 14 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-इस अवस्था में बालक माध्यमिक स्तर पर प्रवेश करते हैं। इसके पाठ्यक्रम के अन्तर्गत मातृभाषा, संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, भूगोल, इतिहास, प्रकृति एवं कौशल आदि विषयों को सम्मिलित करना चाहिए।
  5.  14 वर्ष से 16 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-यह हाईस्कूल की शिक्षा की अवस्था होती है। इसके पाठ्यक्रम को एनी बेसेण्ट ने चार भागों में विभाजित किया है

(क) सामान्य हाईस्कूल-
(अ) साहित्यिकसंस्कृत, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, मातृभाषा।
(ब) रसायनशास्त्र-भौतिकशास्त्र, गणित, रेखागणित, बीजगणित आदि।
(स) प्रशिक्षण-मनोविज्ञान, शिक्षण कला, विद्यालय व्यवस्था, शिक्षण अभ्यास, गृह विज्ञान आदि।

(ख) तकनीकी हाईस्कूल-मातृभाषा, अंग्रेजी, भौतिक एवं रसायन विज्ञान, व्यावसायिक इतिहास, प्रारम्भिक इंजीनियरी, यन्त्र विद्या, विद्युत ज्ञान आदि।
(ग) वाणिज्य हाईस्कूल-विदेशी भाषाएँ, व्यापारिक व्यवहार, हिसाब-किताब, व्यापारिक कानून, टंकण,व्यापारिक इतिहास, भूगोल एवं शॉर्ट हैण्ड आदि।

(घ) कृषि हाईस्कूल-संस्कृत, अरबी, फारसी या पालि, मातृभाषा, ग्रामीण इतिहास, भूगोल, गणित हिसाब-किताब, कृषि सम्बन्धी प्रयोगात्मक, रासायनिक एवं भौतिक विज्ञान, भूमि की नाप आदि। इसके अतिरिक्त बालकों के शारीरिक विकास के लिए खेलकूद, व्यायाम हस्तकलाएँ, सामाजिक क्रियाएँ वे समाज सेवा के कार्य कराए जाएँ तथा साथ में भावात्मक विकास भी किया जाए।

6. 16 से 21 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-उच्च शिक्षा के इस पाठ्यक्रम को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

  • स्नातकीय पाठ्यक्रम-16 से 19 वर्ष तक की शिक्षा में बालकों को साहित्यिक, वैज्ञानिक, तकनीकी एवं कृषि की शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
  • स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम-19 से 21 वर्ष तक की शिक्षा में भी उपर्युक्त विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए

शिक्षण-पद्धतियाँ

एनी बेसेण्ट ने इन विधियों के द्वारा शिक्षा देने पर अधिक बल दिया है

  1. क्रियाविधि-एनी बेसेण्ट का कहना था कि बालक स्वभाव से क्रियाशील होते हैं और खेलों में उनकी रुचि होती है, इसलिए शिक्षा प्रदान करने के लिए खेल-कूद, कसरतें, कृषि, उद्योग व हस्तकार्यों की सहायता लेनी चाहिए। इससे बालकों का शारीरिक विकास होगा और उन्हें ज्ञानार्जन का अवसर भी प्राप्त होगी।
  2. निरीक्षण विधि-एनी बेसेण्ट का कहना था किं बालकों को उचित वातावरण में शिक्षा प्रदान करने के लिए घर के बाहर वास्तविक क्षेत्र में ले जाकर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निरीक्षण कराना चाहिए। इससे उनकी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों का विकास होगा।
  3. अनुकरण विधि-एनी बेसेण्ट का मत था कि बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। इसलिए माता-पिता एवं शिक्षकों को चाहिए कि वे बालकों के सामने ऐसे व्यवहार प्रस्तुत करें, जिससे वे उनका अनुकरण कर अच्छे नैतिक आचरण का विकास करें।
  4. स्वाध्याय विधि–उनका कहना था कि प्रत्येक विद्यार्थी को अध्ययन, चिन्तन एवं मनन में लीन रहना चाहिए। उच्च शिक्षा में इस विधि का बहुत महत्त्व है।
  5. निर्देशन विधि-एनी बेसेण्ट का विचार था कि विद्यार्थियों को समय-समय पर शिक्षकों से अच्छे एवं उपयोगी निर्देश मिलते रहने चाहिए, जिससे विद्यार्थियों का आध्यात्मिक और मानसिक विकास होगा।
  6. व्याख्यान विधि-एनी बेसेण्ट के अनुसार, उच्च शिक्षा के स्तर पर छात्रों को व्याख्यान विधि के द्वारा इतिहास, राजनीति, दर्शनशास्त्र, भूगोल, भाषा आदि की शिक्षा दी जानी चाहिए।
  7. प्रायोगिक विधि-इस विधि का प्रयोग सभी क्रियाप्रधान और वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन में किया जाना चाहिए; जैसे-भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान, कला-कौशल, पाक विज्ञान, गृह-विज्ञान आदि।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न1
एक महान शिक्षाशास्त्री के रूप में एनी बेसेण्ट के जीवन का सामान्य परिचय दीजिए।
उतर
विश्व की महान् महिला शिक्षाशास्त्री, समाज-सुधारक, हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की समर्थक एनी बेसेण्ट का जन्म 1847 ई० में लन्दन के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके माता-पिता मूलतः आयरलैण्ड के निवासी थे। एनी बेसेण्ट बाल्यावस्था से ही बड़ी कुशाग्र बुद्धि वाली, मननशील तथा अध्ययनरत थीं। 19 वर्ष की आयु में उनका विवाह एक पादरी के साथ हो गया। उनका पति संकुचित दृष्टिकोण वाला कट्टर, धार्मिक तथा अनुदार व्यक्ति था। इस कारण एनी बेसेण्ट अधिक समय तक वैवाहिक जीवन व्यतीत न कर सकीं और उन्होंने अपने पति से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। वैवाहिक जीवन से मुक्ति पाकर एनी बेसेण्ट समाज-सेवा के कार्य में जुट गईं। उन्होंने अपने व्याख्यानों तथा प्रभावशाली लेखों के कारण शीघ्र ही अपार ख्याति अर्जित कर ली। सन् 1887 ई० में वे इंग्लैण्ड की थियोसोफिकल सोसायटी के सम्पर्क में आई और उन्होंने इस संस्था के प्रचार एवं प्रसार में अपना तन, मन व धन सब कुछ लगा दिया।

1892 ई० में ये थियोसोफिकल सोसायटी के अधिवेशन में आमन्त्रित होकर ‘भारत आयीं और फिर वे भारत-भूमि को छोड़कर स्वदेश कभी नहीं गयीं। भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए उन्हें कई बार जेलयात्रा भी करनी पड़ी। भारतीय जन-जीवन को सुखी बनाने के लिए उन्होंने ‘होमरूल सोसायटी की स्थापना की। उन्होंने भारत में रहकर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का गहन अध्ययन किया और इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को पाश्चात्य धर्म एवं संस्कृति से श्रेष्ठ बताया। उन्होंने यहाँ रहकर भगवद्गीता का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया और वैदिक एवं उपनिषद् सिद्धान्तों का व्यापक प्रचार किया। उनका शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान बनारस में ‘सेन्ट्रल हाईस्कूल की स्थापना करना था। भारतीय समाज की सेवा करते हुए सन् 1933 ई० में भारत में ही उनकी मृत्यु हुई।

प्रश्न 2
एनी बेसेण्ट के शैक्षिक योगदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
शिक्षा के क्षेत्र में एनी बेसेण्ट के योगदान को निम्नवत् समझा जा सकता है|

  1. शिक्षा और धर्म में समन्वय-एनी बेसेण्ट ने धर्म और शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर धर्मप्रधान शिक्षा योजना का निर्माण करने पर बल दिया। भारतीय धर्मों ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया था, इसीलिए उन्होंने भारतीय धर्म-ग्रन्थों के आधार पर अपने शैक्षिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।
  2. शिक्षा एवं संस्कृति में सम्बन्ध-एनी बेसेण्ट ने शिक्षा और संस्कृति में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध बताया है। उनका कहना था कि शिक्षा के द्वारा संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार होना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा के द्वारा भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करना चाहिए, क्योंकि भारतीय संस्कृति सब संस्कृतियों में सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वश्रेष्ठ है।
  3. शिक्षा एवं यथार्थ जीवन में सम्बन्ध-एनी बेसेण्ट ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा एवं यथार्थ जीवन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि शिक्षा वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास का साधन है। अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो युवकों की जीविकोपार्जन की समस्याओं का समाधान करे और देश की समृद्धि एवं रचनात्मक विकास में योग दे।
  4. शिक्षा को सार्वजनिक बनाना-एनी बेसेण्ट की इच्छा थी कि देश के सभी नागरिकों को ये अवसर एवं सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे वे अपनी योग्यता एवं शक्ति के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सकें। उनका कहना था कि सभी को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा देनी चाहिए। शिक्षा को सार्वजनिक बनाने के लिए राज्य को अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
  5. सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना-एनी बेसेण्ट ने अपने शैक्षिक विचारों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। इससे पाश्चात्य एवं भारतीय शिक्षण विधियों का सुन्दर समन्वय किया गया है।
  6. राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास-एनी बेसेण्ट ने राष्ट्रीय शिक्षा पर बहुत बल दिया। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय विचारकों का पथ-प्रदर्शन किया। उनका विचार था कि जो शिक्षा अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा एवं उद्योग का संवर्धन नहीं करती, उसे वास्तविक अर्थों में शिक्षा नहीं कहा जा सकता और ऐसी शिक्षा से देश का कल्याण नहीं हो सकता।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
एनी बेसेण्ट के स्त्री-शिक्षा सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट ने स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल दिया, क्योंकि उनका विचार था कि यदि स्त्रियों को समुचित शिक्षा प्राप्त हो जाए तो वे आदर्श पत्नियाँ एवं माँ बनकर व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र का कल्याण करेंगी। एनी बेसेण्ट ने बालिकाओं के लिए नैतिक शिक्षा, शारीरिक शिक्षा, कलात्मक शिक्षा (सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, संगीत, कला), साहित्यिक शिक्षा और वैज्ञानिक शिक्षा का समर्थन किया है।

प्रश्न 2
ग्रामीण शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट के समय में भारत के गाँवों में अज्ञानता का अन्धकार फैला हुआ था। अंग्रेज़ों ने भारतीय ग्रामीणों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था, क्योंकि वे भारतीयों को अज्ञानी ही रखना चाहते थे। एनी बेसेण्ट ने अंग्रेजों की इस नीति की कटु आलोचना करते हुए इस बात पर बल दिया कि राष्ट्रीय-जागृति उत्पन्न करने के लिए गाँवों में शिक्षा का प्रसार होना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि ग्रामीण शिक्षा में कृषि, उद्योग और कला-कौशल को प्रधानता देनी चाहिए और इसके साथ-ही-साथ लिखने-पढ़ने की शिक्षा भी देनी चाहिए।

प्रश्न 3
पिछड़े वर्गों की शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट के विचार लिखिए।
उत्तर
भारतीय समाज में एक ऐसा भी वर्ग है, जो सदियों से उपेक्षित होता चला जा रहा है। इस वर्ग में घृणित मनोवृत्तियाँ, पिछड़ा रहन-सहन एवं खानपान तथा अभद्र रीति-रिवाजों का आधिक्य होता है। एनी बेसेण्ट के मतानुसार इस वर्ग के लिए कुछ अधिक सुविधाएँ एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। इनकी शिक्षा में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा को विशेष स्थान देना चाहिए।

प्रश्न 4
प्रौढ़-शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट के अनुसार भारत में प्रौढ़-शिक्षा की व्यवस्था भी अति आवश्यक थी। उनके अनुसार उन प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए जो विभिन्न कारणों से सामान्य विद्यालयी शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाये हों। उनके मतानुसार प्रौढ़ शिक्षा व्यवस्था के लिए रात्रि पाठशालाओं की स्थापना की जानी चाहिए। इन पाठशालाओं के माध्यम से प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को शिक्षा प्रदान की जा सकती है।

प्रश्न 5
एनी बेसेण्ट के अनुशासन सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट एक आदर्शवादी महिला थीं। इसलिए वह प्रेम, सहानुभूति, सद्व्यवहार, आत्म-प्रेरणा तक इच्छा-शक्ति के बल पर अनुशासन स्थापित करना चाहती थीं। वह चाहती थीं कि विद्यार्थियों में इस प्रकार के गुण उत्पन्न हों, जिससे उनमें आत्म-नियन्त्रण के द्वारा आत्म-अनुशासन की स्थापना हो सके। इसके लिए उन्होंने दमनात्मक अनुशासन का विरोध किया है। उनका कहना था कि विद्यर्थियों को अनुशासित करने के लिए उन पर शिक्षक के प्रभाव का भी प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 6
एनी बेसेण्ट के अनुसार विद्यालय का वातावरण तथा शिक्षक-विद्यार्थी सम्बन्ध कैसे होने चाहिए?
उत्तर
एनी बेसेण्ट का विचार था कि विद्यालय का वातावरण अत्यधिक शान्त एवं अध्ययन कार्य में सहायक होना चाहिए। उनके अनुसार विद्यालयों को तपोवन की तरह शान्त वातावरण में स्थापित किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थियों में समुचित गुणों का विकास हो सके। जहाँ तक शिक्षक-विद्यार्थी सम्बन्धों का प्रश्न है, एनी बेसेण्ट का दृष्टिकोण आदर्शवादी था। उनका मत था कि विद्यार्थियों को शिक्षकों को सम्मान करना चाहिए और शिक्षकों को भी अपने शिष्यों के प्रति पुत्रवत् व्यवहार करना चाहिए। इनसे दोनों के मध्य सौहार्द की भावना का विकास होगा।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री एनी बेसेण्ट का जन्म कब और किस देश में हुआ था?
उत्तर
एनी बेसेण्ट का जन्म सन् 1847 ई० में लन्दन में हुआ था।

प्रश्न 2
एनी बेसेण्ट मूल रूप से किस देश की नागरिक थीं?
उत्तर
एनी बेसेण्ट मूल रूप से आयरलैण्ड की नागरिक थीं।

प्रश्न 3
श्रीमती एनी बेसेण्ट किस महान संस्था की सक्रिय सदस्या थीं?
उत्तर
श्रीमती एनी बेसेण्ट महान् संस्था ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की सक्रिय सदस्या थीं।

प्रश्न 4
एनी बेसेण्ट ने किस सोसायटी की स्थापना की थी?
उत्तर
एनी बेसेण्ट ने ‘होमरूल सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की थी।

प्रश्न 5
एनी बेसेण्ट ने किस शिक्षा-संस्था की स्थापना की थी?
उत्तर
एनी बेसेण्ट ने बनारस में ‘सेण्ट्रल हाईस्कूल’ नामक शिक्षा-संस्था की स्थापना की थी।

प्रश्न 6
एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के मुख्य उद्देश्य हैं-

  1. शारीरिक विकास,
  2. मानसिक विकास
  3. संवेगों का प्रशिक्षण
  4. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास तथा
  5. आदर्श नागरिकों को निर्माण

प्रश्न 7
जनसाधारण की शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट की क्या धारणा थी ?
उत्तर
एनी बेसेण्ट जनसाधारण की शिक्षा को अनिवार्य मानती थीं। उनके अनुसार प्रत्येक बालक के लिए नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।

प्रश्न 8
धार्मिक शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट का क्या मत था?
उत्तर
एनी बेसेण्ट धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य मानती थीं।

प्रश्न 9
एनी बेसेण्ट के अनुसार ग्रामीणों के लिए किस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए?
उत्तर
एनी बेसेण्ट के अनुसार ग्रामीणों के लिए कृषि, उद्योग एवं कला-कौशल की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए, साथ ही उन्हें पढ़ने-लिखने की भी शिक्षा दी जानी चाहिए।

प्रश्न 10
डॉ० एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के माध्यम का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
डॉ० एनी बेसेण्ट का विचार था कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा के माध्यम से होनी चाहिए। उच्च शिक्षा के लिए सुविधानुसार अंग्रेजी भाषा को भी माध्यम के रूप में अपनाया जा सकता है।

प्रश्न 11
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य-

  1. श्रीमती एनी बेसेण्ट के माता-पिता आयरलैण्ड के मूल निवासी थे।
  2. सन् 1892 ई० में श्रीमती एनी बेसेण्ट थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा बनीं।
  3. श्रीमती एनी बेसेण्ट किसी राष्ट्रीय शिक्षा योजना के पक्ष में नहीं थीं।
  4. श्रीमती एनी बेसेण्ट आत्मानुशासन की समर्थक थीं।
  5. श्रीमती एनी बेसेण्ट स्त्री-शिक्षा के विरुद्ध थीं।

उत्तर

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. सत्य
  5. असत्या

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
श्रीमती एनी बेसेण्ट मूल रूप से भारतीय न होकर
(क) अंग्रेज थीं
(ख) आइरिश थीं
(ग) फ्रेंच थीं
(घ) जापानी थीं।
उत्तर
(ख) आइरिश थीं

प्रश्न 2
एनी बेसेण्ट का जन्म हुआ था-
(क) फ्रांस में
(ख) जर्मनी में
(ग) इटली में
(घ) लन्दन में
उत्तर
(घ) लन्दन में

प्रश्न 3
श्रीमती एनी बेसेण्ट किस संस्था से सम्बद्ध थीं?
(क) आर्य समाज
(ख) ब्रह्म समाज
(ग) थियोसोफिकल सोसायटी
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) थियोसोफिकल सोसायटी

प्रश्न 4
श्रीमती एनी बेसेण्ट को विशेष लगाव था
(क) पाश्चात्य संस्कृति से
(ख) भौतिक संस्कृति से।
(ग) प्राचीन भारतीय संस्कृति से
(घ) अंग्रेजी सभ्यता से
उत्तर
(ग) प्राचीन भारतीय संस्कृति से

प्रश्न 5
“जब तक भारत जीवित रहेगा, तब तक श्रीमती एनी बेसेण्ट की भव्य सेवाओं की स्मृति भी अमर रहेगी।” यह कथन किसका है?
(क) रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) डॉ० राधाकृष्णन्
(घ) जवाहरलाल नेहरू
उत्तर
(ख) महात्मा गाँधी

प्रश्न 6
एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा से आशय था
(क) विभिन्न विषयों का ज्ञान अर्जित करना
(ख) निर्धारित डिग्री प्राप्त करना
(ग) अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास की प्रक्रिया
(घ) विद्यालय में अध्ययन करना
उत्तर
(ग) अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास की प्रक्रिया

प्रश्न 7
बनारस में सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना किसने की ?
(क) रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) एनी बेसेण्ट
(घ) श्री अरविन्द
उत्तर
(ग) एनी बेसेण्ट

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 20
Chapter Name NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements
(नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ)
Number of Questions Solved 36
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements (नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग से क्या तात्पर्य है? इसके प्रमुख उद्देश्य क्या हैं?
या
नीति आयोग की संरचना एवं उद्देश्य या कार्य बताइए।
उत्तर :
नीति आयोग 1950 ई० के दशक में अस्तित्व में आया योजना आयोग अब अतीत की बात हो गया है। इसके स्थान पर 1 जनवरी, 2015 से एक नई संस्था ‘नीति आयोग’ (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान (National Institution for Transforming India)] अस्तित्व में आ गई है।

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाला यह आयोग सरकार के बौद्धिक संस्थान के रूप में कार्य करेगा तथा केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के लिए भी नीति निर्माण करने वाले संस्थान की भूमिका निभाएगा। यह आयोग केन्द्र व राज्य सरकारों को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर रणनीतिक व तकनीकी सलाह भी देगा। इसके अलावा यह सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं के भावी स्वरूप आदि के सम्बन्ध में सलाह भी देगा।

नीति आयोग की अधिशासी परिषद् (Goverming Council) में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा केन्द्रशासित क्षेत्रों के उपराज्यपालों को शामिल किया गया है। इस प्रकार नीति आयोग का स्वरूप योजना आयोग की तुलना में अधिक संघीय बनाया गया है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले इस आयोग में एक उपाध्यक्ष व एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Chief Executive Officer; CEO) का प्रावधान किया गया है। अमेरिका में स्थित कोलम्बिया विश्वविद्यालय में कार्यरत रहे। प्रो० अरविन्द पनगढ़िया को नवगठित आयोग का उपाध्यक्ष तथा योजना आयोग की सचिव रहीं सिंधुश्री खुल्लर को इसका प्रथम सीईओ (1 वर्ष के लिए) नियुक्त किया गया। इनके अलावा प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विवेक देवराय व डी०आर०डी०ओ० के पूर्व प्रमुख वी०के० सारस्वत नीति आयोग के पूर्णकालिक सदस्य बनाए गए हैं जबकि 4 केन्द्रीय मन्त्री राजनाथ सिंह (गृह मंत्री), अरुण जेटली (वित्त एवं कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री), सुरेश प्रभु (रेल मंत्री) तथा राधा मोहन सिंह (कृषि मंत्री) इस आयोग के पदेन सदस्य हैं। विशेष आमंत्रितों के रूप में तीन केन्द्रीय मन्त्रियों-नितिन गडकरी, स्मृति ईरानी व थावरचन्द गहलोत को इसमें शामिल किया गया है।

नीति आयोग के उद्देश्य अथवा कार्य

नीति आयोग के निम्नलिखित उद्देश्य हैं।

  1. राष्ट्रीय उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं, क्षेत्रों और रणनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करेगा। नीति आयोग का विजन विकास को बल प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को राष्ट्रीय एजेंडा’ का प्रारूप उपलब्ध कराना है।
  2. महत्त्वपूर्ण हितधारकों तथा समान विचारधारा वाले राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय थिंक टैंक और साथ-ही-साथ शैक्षिक और नीति अनुसंधान संस्थानों के बीच भागीदारी को परामर्श और प्रोत्साहन देगा।
  3. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों, प्रैक्टिसनरों तथा अन्य हितधारकों के सहयोगात्मक समुदाय के जरिए ज्ञान, नवाचार, उद्यमशीलता सहायक प्रणाली तैयार करेगा।
  4. विकास के एजेंडे के कार्यान्वयन में तेजी लाने के क्रम में अन्तर-क्षेत्रीय और अन्तर-विभागीय मुद्दों के समाधान के लिए एक मंच प्रदान करेगा।
  5. सशक्त राज्य ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। इस तथ्य की महत्ता को स्वीकार करते हुए राज्यों के साथ सतत आधार पर संरचनात्मक सहयोग की पहल और तन्त्र के माध्यम से सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देगा।
  6. ग्राम स्तर पर विश्वसनीय योजना तैयार करने के लिए तंत्र विकसित करेगा और इसे निरन्तर उच्च स्तर तक पहुँचाएगा।
  7. अत्याधुनिक कला संसाधन केन्द्र का निर्माण जो सुशासन तथा सतत और न्यायसंगत विकास की सर्वश्रेष्ठ कार्यप्रणाली पर अनुसंधान करने के साथ-साथ हितधारकों तक जानकारी पहुँचाने में भी सहायता करेगा।
  8. आवश्यक संसाधनों की पहचान करने सहित कार्यक्रमों और उपायों के कार्यान्वयन के सक्रिय मूल्यांकन और सक्रिय निगरानी की जाएगी ताकि सेवाएँ प्रदान करने में सफलता की सम्भावनाओं को प्रबल बनाया जा सके।
  9. कार्यक्रमों और नीतियों के क्रियान्वयन के लिए प्रौद्योगिकी उन्नयन और क्षमता निर्माण पर ध्यान देना।
  10. आयोग यह सुनिश्चित करेगा कि जो क्षेत्र विशेष रूप से उसे सौंपे गए हैं, उनकी आर्थिक कार्य-नीति और नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को शामिल किया गया है अथवा नहीं।
  11. भारतीय समाज के उन वर्गों पर विशेष रूप से ध्यान देगा, जिन तक आर्थिक प्रगति का लाभ न पहुँच पाने का जोखिम होगा।
  12. रणनीतिक और दीर्घावधि के लिए नीति तथा कार्यक्रम का ढाँचा तैयार करेगा और पहल करेगा। साथ ही उनकी प्रगति और क्षमता की निगरानी करेगा। निगरानी और प्रतिक्रिया के आधार पर समय-समय पर संशोधन सहित नवीन सुधार किए जाएँगे।
  13. राष्ट्रीय विकास के एजेंडा और उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य आवश्यक गतिविधियाँ संपादित करना।

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प्रश्न 2.
आर्थिक नियोजन का क्या आशय है? योजना आयोग को संगठन एवं कार्य बताइए।
या
आर्थिक नियोजन से क्या अभिप्राय है? भारत में योजनाबद्ध विकास के संगठन की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
आर्थिक नियोजन

आर्थिक नियोजन को तात्पर्य यह है कि आर्थिक विकास की निश्चित योजना बनाकर राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक सेवाओं के सन्तुलित विकास का प्रयत्न किया जाए और इस बात का भी प्रबन्ध किया जाए कि इस विकास के लाभ न केवल कुछ ही व्यक्तियों अथवा वर्गों को वरन् सभी व्यक्तियों और वर्गों को प्राप्त हों। इस प्रकार निश्चित योजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास का जो प्रयत्न किया जाता है उसे ही आर्थिक नियोजन कहते हैं। नियोजित विकास को लागू करने वाला सबसे पहला देश सोवियत संघ है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सोवियत संघ से प्रभावित होकर संशोधित रूप में भारत में नियोजित विकास की धारणा को लागू किया है।

भारत का योजना आयोग

दिसम्बर, 1946 में के०सी० नियोगी की अध्यक्षता में स्थापित एक बोर्ड की सलाह पर 15 मार्च, 1950 को भारत सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा योजना आयोग का गठन किया गया। योजना आयोग एक संवैधानिक या विधिक संस्था न होकर एक कार्यकारी संस्था है। योजना आयोग का प्रथम अध्यक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया। योजना आयोग की स्थापना के समय पाँच पूर्णकालिक सदस्य मनोनीत किए गए। देश का प्रधानमंत्री योजना आयोग का पदेन अध्यक्ष होता था। इसके उपाध्यक्ष एवं सदस्यों के लिए कोई निर्धारित योग्यता आधार नहीं था। साथ ही, उपाध्यक्ष एवं सदस्यों का कोई निश्चित न्यूनतम कार्यकाल नहीं होता। उल्लेखनीय है कि भारत द्वारा 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति को लागू किया गया है। इस नीति के अन्तर्गत आर्थिक विकास में सरकारी क्षेत्र की भूमिका सीमित होती है। इसी आलोक में 1991 के बाद भारत में योजना रणनीति में भी परिवर्तन किया गया है तथा विस्तृत योजना के स्थान पर सांकेतिक योजना (Indicative Planning) की धारणा को अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत दीर्घकालीन विकास लक्ष्यों के आलोक में सरकार द्वारा विकास को सुविधाजनक बनाने के प्रयास किये जाते हैं।

योजना आयोग के कार्य

  1. देश के भौतिक, अभौतिक, पूँजीगत एवं मानवीय संसाधनों का अनुमान लगाना।
  2. राष्ट्रीय संसाधनों का अधिकतम सम्भव विदोहन एवं प्रयोग के लिए रणनीति बनाना।
  3. प्राथमिकताओं का निर्धारण करना और इन प्राथमिकताओं के आधार पर योजना के उद्देश्य निर्धारित करके संसाधनों का आबंटन करना।
  4. योजना के सफल संचालन के लिए संभावित अवरोधों को दूर करने के उपाय सरकार को बताना।
  5. योजनावधि में विभिन्न चरणों पर योजना प्रगति का मूल्यांकन करना।
  6. समय-समय पर केन्द्रीय और राज्य सरकारों को आवश्यकता पड़ने पर परामर्श देना।

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प्रश्न 3.
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत के आर्थिक विकास में पंचवर्षीय योजनाओं के योगदान का परीक्षण कीजिए। [2016]
उत्तर :
भारत के आर्थिक विकास में पंचवर्षीय योजनाओं का योगदान
भारत के आर्थिक विकास में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के योगदान को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।

1. विकास दर आर्थिक प्रगति का महत्त्वपूर्ण मापदण्ड विकास की दर के लक्ष्य की प्राप्ति है। पहली योजना में आर्थिक विकास की दर 3.6% थी, जो बढ़कर दसवीं योजना में 7.80% हो गई, जबकि 12वीं योजना 2012-17 के लिए 9.0% का लक्ष्य रखा गया है।

2. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय – योजनाकाल में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। भारत में 1950-51 ई० में चालू मूल्यों के आधार पर शुद्ध राष्ट्रीय आय ₹ 9,142 करोड़ थी, जोकि 2009-10 ई० में बढ़कर ₹ 51,88,361 करोड़ तथा 2015-16 ई० में बढ़कर ₹ 119.62 करोड़ हो गई जबकि प्रति व्यक्ति आय ₹ 255 से बढ़कर ₹ 93,231 हो गई अर्थात् राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर वृद्धि हुई है।

3. कृषि उत्पाद – योजनाकाल में कृषि उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। सन् 1950-51 ई० में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन मात्र 50.8 मिलियन टन था, जो 2015-16 ई० में बढ़कर 253.16 मिलियन टन हो गया।

4. औद्योगिक उत्पादन – योजनाकाल में औद्योगिक उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई। 1950 51 ई० में, 1993-94 ई० की कीमतों पर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक 7.9 था जो बढ़कर 167 हो गया।

5. बचत एवं विनियोग – योजनाकाल में भारत में बचत एवं विनियोग की दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। चालू मूल्य पर सकल राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में 1950-51 ई० में सकल विनियोग और बचत की दरें क्रमशः 10.4% और 9.3% थी, जो कि 2009-10 ई० में क्रमशः 31.0% और 27.2% हो गई।

6. यातायात एवं संचार – यातायात एवं संचार क्षेत्रों में योजनाकाल में उल्लेखनीय प्रगति हुई। 1950-51 ई० में रेलवे लाइनों की लम्बाई 53,600 किमी से बढ़कर 67,312 किलोमीटर हो गई और रेलवे द्वारा ढोए जाने वाले माल की मात्रा 9.3 मि० टन से बढ़कर 887.89 मि० टन । हो गई। वर्ष 2015 में रेलवे द्वारा लगभग 914.8 मि०टन माल ढोया गया। सड़कों की लम्बाई 1,57,000 किमी से बढ़कर 38 लाख किमी हो गई। जहाजरानी की क्षमता 3.9 लाख G.R.T. से बढ़कर 31 लाख G.R.T. हो गई। हवाई परिवहन, बन्दरगाहों की स्थिति और अन्तर्देशीय जल परिवहन का भी विकास किया गया। संचार-व्यवस्था के अन्तर्गत विकास के क्षेत्रों में डाकखानों, टेलीफोन, टेलीग्राफ, रेडियो-स्टेशन एवं प्रसारण-केन्द्रों की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई।

7. शिक्षा – योजनाकाल में शिक्षा का भी व्यापक प्रसार हुआ है। इस अवधि में स्कूलों की संख्या 2,30,683 से बढ़कर 8,21,988 तथा विश्वविद्यालयों और विश्वविद्यालय स्तर की संस्थाओं की संख्या 27 से बढ़कर 306 हो गई है। भारत की साक्षरता की दर 1951 ई० में 16.7% थी जोकि 2011 ई० की जनगणनानुसार 73% हो गई। 11वीं पंचवर्षीय योजनाकाल के मध्य में शिक्षा को मूल अधिकारों में शामिल कर 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के बालक-बालिकाओं को अब निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य को संवैधानिक दायित्व हो गया है।

8. विद्युत उत्पादन क्षमता – योजनाकाल में विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। प्रथम योजना के आरम्भ में भारत में विद्युत उत्पादन क्षमता मात्र 2.3 हजार मेगावाट थी, जो 2011 में एक लाख मेगावाट से भी अधिक हो गई और हर वर्ष इसमें निरन्तर वृद्धि हो रही है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष 1950-51 में विद्युत सुविधा मात्र 3,000 गाँवों में उपलब्ध थी, जोकि वर्ष 2010 के अन्त में लगभग 7 लाख गाँवों में उपलब्ध हो गई।

9. बैंकिंग संरचना – प्रथम योजना के आरम्भ में देश में बैंकिंग क्षेत्र अपर्याप्त और असन्तुलित था, परन्तु योजनाकाल में और विशेष रूप से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् देश की बैंकिंग संरचना में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। 30 जून, 1969 को व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 8,262 थी, जो दिसम्बर, 2009 में बढ़कर 82,511 हो गई।

10. स्वास्थ्य सुविधाएँ – योजनाकाल में देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई। टी०बी० कुछ महामारियों आदि के उन्मूलन तथा परिवार कल्याण कार्यक्रमों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियों पर काफी अंकुश लगाना सम्भव हुआ है। राष्ट्रीय कैंसर नियन्त्रण कार्यक्रम में अच्छे नतीजे सामने आए हैं।

11. खाद्य अपमिश्रण रोकथाम – खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए 1954 ई० से कार्यक्रम हर पंचवर्षीय योजना में चलाया जा रहा है। आठवीं योजना के दौरान इस कार्यक्रम में बड़ी सफलता मिली लेकिन दसवीं व ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं के कालखण्ड में मिलावट करने के नए-नए तरीके ढूंढ़ लिए गए विशेष रूप से दूध व मावे के पदार्थों में मिलावट की समस्या गम्भीर व खतरनाक स्तर तक बढ़ चुकी है। खाद्य पदार्थों में मिलावटी अपमिश्रण को रोकने के लिए खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम (1954 का 37) में तीन बार संशोधन किया जा चुका है। मिलावट करने वाले और ऐसा सामान बेचने वालों के खिलफ कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में राज्य पुलिस बल को अधिक कारगर कानूनी अधिकारों से सुसज्जित किया गया।

प्रश्न 4.
भारत की नवीं पंचवर्षीय योजना की विवेचना कीजिए।
या
नवीं पंचवर्षीय योजना का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर :
नवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1997 से 31 मार्च, 2002)

भारत में आर्थिक नियोजन 1 अप्रैल, 1951 से प्रारम्भ हुआ। 1 अप्रैल, 1997 से नवीं पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ हुई थी। इस योजना का कार्यकाल 31 मार्च, 2002 को समाप्त हो गया है।

इस योजना का प्रारम्भिक प्रारूप तत्कालीन योजना आयोग उपाध्यक्ष मधु दण्डवते ने 1 मार्च, 1998 को जारी किया था, जिसे भाजपा सरकार ने संशोधित किया। संशोधित प्रारूप में निहित उद्देश्य, विभिन्न क्षेत्रों के सम्बन्ध में लक्ष्य आदि अग्रलिखित थे –

योजना के उद्देश्य

इस योजना के निम्नलिखित उद्देश्य स्वीकार किये गये थे –

  1. पर्याप्त उत्पादक रोजगार पैदा करना और गरीबी उन्मूलन की दृष्टि से कृषि और विकास को प्राथमिकता देना।
  2. मूल्यों में स्थायित्व लाना और आर्थिक विकास की गति को तेज करना।
  3. सभी लोगों को भागीदारी के विकास के माध्यम से विकास प्रक्रिया की पर्यावरणीय क्षमता सुनिश्चित करना।
  4. जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करना।
  5. सभी के लिए भोजन व पोषण एवं सुरक्षा सुनिश्चित करना, लेकिन समाज के कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देना।
  6. समाज को मूलभूत न्यूनतम सेवाएँ प्रदान करना तथा समयबद्ध तरीके से उनकी आपूर्ति सुनिश्चित करना; विशेष रूप से पेय जल, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा व आवास सुविधा के सम्बन्ध में।
  7. महिलाओं तथा सामाजिक रूप से कमजोर वर्गो-अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व अन्य पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यकों को शक्तियाँ प्रदान करना, जिससे कि सामाजिक परिवर्तन लाया जा सके।
  8. पंचायती राज संस्थाओं, सहकारी संस्थाओं को बढ़ावा देना और उनका विकास करना।
  9. आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के प्रयासों को मजबूत करना।

इस प्रकार नौवीं योजना का प्रमुख उद्देश्य ‘न्यायपूर्ण वितरण और समानता के साथ विकास (Growth with Equity and Distributive Justice) करना था। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित चार बातें चिह्नित की गयी थीं –

1. गुणवत्तायुक्त जीवन – इसके लिए गरीबी उन्मूलन व न्यूनतम प्राथमिक सेवाएँ (स्वच्छ पेय जल, प्राथमिक स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा व आवास) उपलब्ध कराने के प्रयास किये जाएँगे।

2. रोजगार संवर्द्धन – रोजगार के अवसर बढ़ाये जाएँगे। कार्य की दशाएँ सुधारी जाएँगी। श्रमिकों को कुल उत्पादन में न्यायोचित हिस्सा दिया जाएगा।

3. क्षेत्रीय सन्तुलन – नौवीं योजना में क्षेत्रीय सन्तुलन को कम किया जाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र में उन राज्यों में अधिक निवेश किया जाएगा, जो अपेक्षाकृत कम साधन वाले राज्य हैं। पिछड़े राज्यों या क्षेत्रों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तेज की जाएगी।

4. आत्मनिर्भरता – नौवीं योजना में निम्नलिखित क्षेत्रों को आत्मनिर्भरता के लिए चुना गया है

  1. भुगतान सन्तुलन सुनिश्चित करना।
  2. विदेशी ऋण-भार में कमी लाना।
  3. गैर-विदेशी आय को बढ़ावा देना।
  4. खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
  5. प्राकृतिक साधनों का समुचित उपयोग करना।
  6. प्रौद्योगिकीय आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।

प्रमुख विकास दरें
नौवीं योजना में विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में लक्ष्य निम्नलिखित रूप में निर्धारित किये गये थे –

विकास दर : सकल घरेलू उत्पादन (GDP) की 6.5 प्रतिशत
कृषि विकास दर : 3.9 प्रतिशत
खनन विकास दर : 7.2 प्रतिशत
विनिर्माण विकास दर : 8.2 प्रतिशत
विद्युत विकास दर : 9.3 प्रतिशत
सेवा क्षेत्र विकास दर : 6.5 प्रतिशत
घरेलू बचत दर : 26.1 प्रतिशत
उत्पादन निवेश दर : 28.2 प्रतिशत
निर्यात वृद्धि दर : 11.8 प्रतिशत
आयात वृद्धि दर : 10.8 प्रतिशत
चालू खाता घाटा : 2.1 प्रतिशत

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प्रश्न 5.
दसवीं पंचवर्षीय योजना का संक्षिप्त विवरण देते हुए इसकी प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :

दसवीं पंचवर्षीय योजना
राष्ट्रीय विकास परिषद् ने 21 दिसम्बर, 2002 को दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) को स्वीकृति दी। इस योजना में परिषद् के निर्देशों को और बेहतर करने का फैसला किया गया। परिषद् का निर्देश दस वर्ष में प्रति व्यक्ति आय को दोगुना करना तथा प्रतिवर्ष घरेलू उत्पाद की दर आठ प्रतिशत हासिल करने का था। चूंकि आर्थिक विकास ही एक मात्र लक्ष्य नहीं होता है, इसलिए इस योजना का लक्ष्य आर्थिक विकास के लाभ से आम लोगों की जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए ये उद्देश्य निश्चित किये गये हैं-2007 तक गरीबी का अनुपात 26 प्रतिशत से घटाकर 21 प्रतिशत करना, जनसंख्या विकास की दर को (प्रति दस वर्ष) 1991-2001 के 21 प्रतिशत से घटाकर 2001-2011 में 16.2 प्रतिशत करना, लाभप्रद रोजगार की व्यवस्था कम-से-कम श्रम-शक्ति में हो रही वृद्धि के अनुपात में करना, सभी बच्चों को 2003 ई० तक स्कूलों में दाखिल करना और 2007 ई० तक सभी बच्चों की स्कूली पढ़ाई के पाँच साल पूरा करना, साक्षरता और मजदूरी के मामले में फर्क 50 प्रतिशत तक घटाना, साक्षरता की दर वर्ष 1999-2000 के 60 प्रतिशत से बढ़ाकर 2007 ई० तक 75 प्रतिशत तक पहुँचाना, सभी गाँवों में पेयजल पहुँचाना, शिशु मृत्यु-दर वर्ष 1999-2000 के 72 से घटाकर 2007 ई० तक 45 तक पहुँचाना, प्रसूति मृत्यु-दर को वर्ष 1999-2000 के चार से घटाकर 2007 ई० तक दो तक पहुँचाना, वानिकीकरण में वर्ष 1999-2000 के 19 प्रतिशत से बढ़ाकर 2007 ई० में 25 प्रतिशत तक पहुँचाना और नदियों के प्रमुख प्रदूषण स्थलों की सफाई कराना। दसवीं योजना की कई नयी विशेषताएँ हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं –

सर्वप्रथम इस योजना में श्रम-शक्ति के तीव्र विकास को स्वीकार किया है। विकास की मौजूदा दर और उत्पादन के क्षेत्र में मजदूरों की बढ़ती संख्या को देखते हुए देश में बेरोजगारी की सम्भावना बढ़ती जा रही है, जिससे सामाजिक अस्थिरता पैदा हो सकती है। इसीलिए दसवीं योजना में रोजगार के पाँच करोड़ अवसर सृजित करने का लक्ष्य तय किया गया है। इसके लिए कृषि, सिंचाई, कृषिवानिकी, लघु एवं मध्यम उद्योग सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी तथा अन्य सेवाओं के रोजगारपरक क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

द्वितीयत: इस योजना में गरीबी और सामाजिक रूप से पिछड़ेपन के मुद्दों पर ध्यान दिया गया है। हालांकि पहले की योजनाओं में भी ये लक्ष्य रहे हैं, पर इस योजना में विशेष लक्ष्य रखे गये हैं। जिन पर विकास के लक्ष्यों के साथ ही निगरानी रखने की व्यवस्था है।

तृतीयतः चूँकि राष्ट्रीय लक्ष्य सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के स्तर पर अनिवार्यतः लागू नहीं हो पाते और हर साल की क्षमता और कमियाँ अलग-अलग होती हैं, इसलिए दसवीं योजना में विकास की अलग-अलग कार्यनीति अपनायी गयी हैं। पहली बार राज्यवार विकास के और अन्य लक्ष्य इस तरह तय किये गये हैं जिनकी निगरानी रखी जा सके और इसके लिए राज्यों से भी सलाह ली गयी है जिससे उनकी अपनी विकास योजनाओं को विशेष महत्त्व दिया जा सके।

इस योजना की एक और विशेषता इस बात को महत्त्व देना है कि योजना को ज्यों-का-त्यों लागू करने में प्रशासन एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। इसलिए इस योजना में प्रशासनिक सुधार की एक सूची तय की गयी है।

अन्ततः, मौजूदा बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था को देखते हुए दसवीं योजना में उन नीतियों और संस्थाओं के स्वरूप पर विस्तार से विचार किया गया है जो जरूरी होंगी। दसवीं योजना में न सिर्फ एक मध्यावधि व्यापक आर्थिक नीति केन्द्र और राज्य दोनों के लिए अत्यन्त सतर्कतापूर्वक तैयार की गयी है, बल्कि हर क्षेत्र के लिए जरूरी नीति और संस्थागत सुधारों को निर्धारित किया गया है।

अर्थव्यवस्था में विर्गत पूँजी के अनुपात में वृद्धि को नौवीं योजना में 4.5 से घटाकर 3.6 होने का अनुमान है। यह उपनिधि मौजूदा क्षमता के बेहतर उपयोग और पूंजी के क्षेत्रवार समुचित प्रावधान और इसके अधिकतम उपयोग के जरिए सम्भव होगी। इसलिए विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए सकल घरेलू उत्पादन के 28.4 प्रतिशत के निवेश दर की आवश्यकता होगी। यह आवश्यकता सकल घरेलू उत्पादन में 26.8 प्रतिशत की बचत और 1.6 प्रतिशत की बाहरी बचत से पूरी की जाएगी अतिरिक्त घरेलू बचत का अधिकतम सरकार में बचत घटे को वर्ष 2001-02 के 4.5 से वर्ष 2006-07 में 0.5 तक कम करके प्राप्त किया जा सकता है।

दसवीं योजना में क्षमता बढ़ाने, उद्यमी ऊर्जा को उन्मुक्त करने तथा तीव्र और सतत विकास को बढ़ावा देने के उपायों का भी प्रस्ताव दिया गया है। दसवीं योजना में कृषि को केन्द्रीय महत्त्व दिया गया है। कृषि क्षेत्र में किये जाने वाले मुख्य सुधार इस प्रकार हैं-वाणिज्य और व्यापार में अन्तर्राज्यीय बाधाओं को दूर करना, आवश्यक उपभोक्ता वस्तु अधिनियम में संशोधन करने, कृषि उत्पाद विपणन कानून में संशोधन, कृषि व्यापार, कृषि उद्योग और निर्यात का उदारीकरण होने पर खेती को प्रोत्साहित करना और कृषि भूमि का पट्टे पर देने और लेने की अनुमति देने, खाद्य क्षेत्र से सम्बन्धित विभिन्न कानूनों को एक व्यापक ‘खाद्य कानून में बदलना, सभी वस्तुओं में वायदा व्यापार को अनुमति तथा भण्डारण और व्यापार के पूँजी-निवेश पर प्रतिबन्धों को हटाना।

सुधार के कुछ अन्य प्रमुख उपायों में एसआईसीए को निरस्त करना और परिसम्पत्ति के हस्तान्तरण को सुगम बनाने के लिए दिवालिया घोषित करने और फोर क्लोजर के कानूनों को मजबूत करना, श्रम कानूनों में सुधार, ग्राम और लघु उद्योग क्षेत्रों की नीतियों में सुधार तांकि बेहतर ऋण प्रौद्योगिकी, विपणन और कुशल कारीगरों की उपलब्धता सम्भव हो, विद्युत विधेयक का शीघ्र कार्यान्वयन, कोयला राष्ट्रीयकरण संशोधन विधेयक और संचार समरूप विधेयक में संशोधन, निजी सड़क परिवहन यात्री सेवा को मुक्त करना तथा सड़क की मरम्मत आदि में निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित करना, नागरिक उड्डयन नीति को शीघ्र मंजूरी देना, इस क्षेत्र को शीघ्र विनियमित करना और प्रमुख हवाई अड्डों पर निजी भागीदारी के जरिए विकास शामिल है। बढ़ता क्षेत्रीय असन्तुलन भी चिन्ता का विषय है। दसवीं योजना में सन्तुलित और समान क्षेत्रीय विकास का लक्ष्य तय किया गया है। इस पर आवश्यक ध्यान देने के लिए योजनाओं में राज्यवार लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं। तत्काल नीतिगत और प्रशासनिक सुधारों की जरूरत को भी स्वीकृति दे दी गयी है।

शासन व्यवस्था योजनाओं को लागू करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। इस दिशा में कुछ आवश्यक उपाय इस प्रकार है–बेहतर जन भागीदारी, खासतौर पर पंचायती राज संस्थानों और शहरी स्थानीय निकायों को मजबूत बनाकर, नागरिक समाज को शामिल करना, खासतौर पर स्वैच्छिक संगठनों को विकास में भागीदारी की भावना बनाकर, सूचना के अधिकार सम्बन्धी कानून को लागू करना, पारदर्शिता, क्षमता और जिम्मेदारी की भावना को बढ़ावा देने के लिए लोक सेवाओं में सुधार, कार्यकाल को संरक्षण, पुरस्कृत और दण्डित करने की बेहतर और समान व्यवस्था, सरकार के आकार और उसकी भूमिका को ठीक करना, राजस्व और न्यायिक सुधार तथा अच्छे प्रशासन के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
नीति आयोग शब्द ‘नेशनल इन्स्टीट्यूट फॉर ट्रांस्फांर्मिंग इंडिया का संक्षिप्त रूप है। नीति आयोग का गठन योजना आयोग के स्थान पर किया गया है, जो 1 जनवरी, 2015 को गठित किया गया। योजना आयोग के समान ही नीति आयोग का अध्यक्ष भी प्रधानमंत्री ही होता है। नीति आयोग का गठन इस प्रकार होगा –

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नीति आयोग के थिंक टैंक के रूप में स्थापित किया गया है, जो राष्ट्रीय उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए उनकी सक्रिय भागीदारी के साथ विकास प्राथमिकताओं क्षेत्रों और राजनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करेगा।

प्रश्न 2.
योजना क्या है ? इसका क्या महत्त्व है ? [2012]
या
भारत के योजना आयोग पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने देश के सामाजिक विकास की भावी रूपरेखा तैयार करने के लिए, नवम्बर, 1947 ई० में पण्डित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में आर्थिक कार्यक्रम समिति गठित की थी। इस समिति ने 25 जनवरी, 1948 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें एक स्थायी योजना अयिोग की स्थापना की सिफारिश की गयी। इस सुझाव के अनुरूप भारत सरकार के 15 मार्च, 1950 के एक सुझाव के अनुसार योजना आयोग की स्थापना की गयी।

प्रस्ताव में समाजवादी ढाँचे पर नवीन आर्थिक व्यवस्था की स्थापना में सरकार की सहायता के लिए योजना आयोग के महत्त्व को स्वीकार किया गया। प्रस्ताव में यद्यपि ‘समाजवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, परन्तु निहितार्थ यही था। यह माना गया कि योजना आयोग की सरकार के लिए सलाहकारी भूमिका होगी। उक्त प्रस्ताव के अनुच्छेद 6 में स्पष्ट किया गया कि योजना आयोग अपनी संस्तुति केन्द्रीय मन्त्रालय को देगा। योजना बनाने और संस्तुतियाँ तैयार करने में यह केन्द्र सरकार के मन्त्रियों और राज्य सरकारों से निकट का सम्पर्क बनाये रखेगा। संस्तुतियों को लागू करने का दायित्व राज्य सरकारों का होगा। इन अपेक्षाओं के साथ सरकार ने देश के समस्त संसाधनों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विकास का एक ढाँचा तैयार करने के लिए 15 मार्च, 1950 को योजना आयोग की स्थापना की।

प्रश्न 3.
नीति आयोग तथा योजना आयोग में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
योजना आयोग और नीति आयोग में अन्तर

नीति आयोग राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के विभिन्न नीतिगत मुद्दों पर केन्द्र और राज्य सरकारों को जरूरी रणनीतिक व तकनीकी परामर्श देगा। साथ ही, इसमें मुख्यमन्त्रियों और निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को भी महत्त्व दिया जाएगा। इसके विपरीत योजना आयोग की प्रकृति केन्द्रीयकृत थी, साथ ही उसमें कभी मुख्यमन्त्रियों की सलाह नहीं ली जाती थी। मुख्यमन्त्रियों को यदि कभी सुझाव देना भी होता था, तो वे विकास समिति को देते थे और जिनकी समीक्षा के बाद योजना आयोग को उस बाबत जानकारी दी जाती थी। इसके अलावा, उसमें निजी क्षेत्र की कोई भागीदारी नहीं थी। नीति आयोग में देश भर के शोध संस्थानों और विश्वविद्यालय से व्यापक स्तर पर परामर्श लिए जाएँगे तथा विश्वविद्यालय और शोध संस्थानों के प्रतिनिधियों को भी इसमें शामिल किया जाएगा। योजना आयोग में ऐसा कुछ भी नहीं था। शायद इसलिए कभी दिवंगत प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने योजना आयोग को जोकरों का समूह कहा था। हालाँकि उन्होंने इसे भंग करने की कोई कोशिश नहीं की।

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प्रश्न 4.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012)

भारत की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दृष्टिकोण-पत्र को राष्ट्रीय विकास परिषद् ने 9 दिसम्बर, 2006 को स्वीकृति प्रदान की। योजना (2007-2012) के निर्धारित लक्ष्य निम्नलिखित हैं –

  • जीडीपी वृद्धि दर का लक्ष्य बढ़ाकर 9 प्रतिशत कर दिया गया।
  • वर्ष 2016-17 तक प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो जायेगी।
  • 7 करोड़ नए रोजगार का सृजन किया जायेगा।
  • शिक्षित बेरोजगार दर को घटाकर 5 प्रतिशत से कम कर दिया जायेगा।
  • वर्तमान में स्कूली बच्चों के पढ़ाई छोड़ने की दर 52 प्रतिशत है, इसे घटाकर 20 प्रतिशत किया जायेगा।
  • साक्षरता दर में वृद्धि कर 75 प्रतिशत तक पहुँचाना।
  • जन्म के समय नवजात शिशु मृत्यु दर को घटाकर 28 प्रति हजार किया जायेगा।
  • मातृ मृत्यु दर को घटाकर प्रति हजार जन्म पर 1 करने का लक्ष्य।
  • सभी के लिए वर्ष 2009 तक स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना।
  • लिंगानुपात दर को सुधारते हुए वर्ष 2011-12 तक प्रति हजार 935 और वर्ष 2016-17 तक 950 प्रति हजार करने का लक्ष्य।
  • वर्ष 2009 तक सभी गाँवों एवं गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों तक बिजली पहुँचाई जायेगी।
  • नवम्बर, 2007 तक प्रत्येक गाँव में दूरभाष की सुविधा उपलब्ध होगी।
  • वर्ष 2011-12 तक प्रत्येक गाँव को ब्रॉडबैंड से जोड़ दिया जायेगा।
  • वर्ष 2009 तक 1,000 की जनसंख्या वाले गाँवों को सड़क की सुविधा होगी।
  • वनीकरण की अवस्था में 5 प्रतिशत की वृद्धि की जायेगी।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित स्वच्छ वायु के मापदण्डों को लागू किया जायेगा।
  • नदियों की सफाई के क्रम में शहरों से प्रदूषित जल का उपचार किया जायेगा।
  • गरीबी अनुपात को 15 प्रतिशतांक तक घटाया जायेगा।
  • दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर को वर्ष 2001-2011 के बीच 16.2 प्रतिशत तक घटाकर लाना। 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार 2001-11 के मध्य जनसंख्या वृद्धि की
  • दर 17.64 रही है जो कि 11वीं योजना के लक्ष्य से पीछे है।

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प्रश्न 5.
बारहवीं पंचवर्षीय योजना के प्रस्तावित प्रारूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17)

राष्ट्रीय विकास परिषद् (एन०डी०सी०) ने 2012-17 तक चलने वाली 12वीं योजना को मंजूरी दे दी है। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में 27 दिसम्बर, 2012 को 57वीं एन०डी०सी० की बैठक में यह योजना दी गई। इस योजना में वृद्धि का लक्ष्य 8.2 फीसदी से घटाकर 8.0 फीसदी किया गया है। योजना के पाँच साल में पाँच करोड़ रोजगार के अवसर पैदा करने और बिजली, सड़क, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं में निवेश बढ़ाने पर जोर दिया गया है। योजना दस्तावेज में कृषि, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास के क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गई है। 12वीं योजना में केन्द्र का सकल योजना आकार ₹ 43,33,739 रहने का अनुमान है, जबकि राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को सफल योजना व्यय ₹ 37,16000 करोड़ प्रस्तावित है।

इससे पहले 12वीं योजना के दृष्टिकोण-पत्र में 9.0 फीसदी आर्थिक वृद्धि का लक्ष्य रखने का सुझाव था। लेकिन वैश्विक आर्थिक चिन्ताओं और घरेलू अर्थव्यवस्था में गहराती सुस्ती के चलते सितम्बर 2012 में इसे कम करके 8.2 फीसदी कर दिया गया था। चालू वित्त वर्ष 2012-13 के दौरान आर्थिक वृद्धि 5.7 से 5.9 फीसदी के दायरे में रहने का अनुमान लगाया गया है। पिछले एक दशक में यह सबसे कम आर्थिक वृद्धि होगी।

12 वीं योजना के लक्ष्य

  • सरकारी कामकाज के ढंग सुधारे जाएँगे इसके लिए सरकारी कार्यक्रम नए सिरे से तय किए जाएँगे।
  • शत-प्रतिशत वयस्क साक्षरता हासिल करने का लक्ष्य।
  • स्वास्थ्य और शिक्षा पर फोकस किया जाएगा, स्वास्थ्य पर खर्च को जीडीपी के 1.3 से
  • बढ़ाकर 2.0-2.5 फीसदी किया जाएगा। ० एफडीआई नीति को उदार बनाकर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को नई गति प्रदान करने पर जोर दिया जायेगा।

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प्रश्न 6.
राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
या
राष्ट्रीय विकास परिषद् के प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर :
राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC)

6 अगस्त, 1952 को नियोगी समिति की संस्तुति पर सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा राष्ट्रीय विकास परिषद् का गठन किया गया। यह एक गैर-सांविधिक निकाय है। प्रधानमंत्री इस परिषद् के पदेन अध्यक्ष होते हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना योजना आयोग की सलाह पर की गयी थी। राष्ट्रीय विकास परिषद् के अनुमोदन के उपरान्त ही कोई पंचवर्षीय योजना अन्तिम रूप प्राप्त करती है। यह एक गैर-सांविधिक निकाय है जिसका उद्देश्य राज्यों और योजना आयोग के बीच सहयोग का वातावरण बनाकर आर्थिक नियोजन को सफल बनाना है। वर्तमान समय में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् के सभी सदस्य, केन्द्रशासित प्रदेशों के प्रशासक तथा योजना आयोग के सभी सदस्य राष्ट्रीय विकास परिषद् के पदेन सदस्य होते हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) के प्रमुख कार्य हैं –

  1. योजना आयोग को प्राथमिकताएँ निर्धारण में परामर्श देना।
  2. योजना के लक्ष्यों के निर्धारण में योजना आयोग को सुझाव देना।
  3. योजना को प्रभावित करने वाले आर्थिक एवं सामाजिक घटकों की समीक्षा करना।
  4. योजना आयोग द्वारा तैयार की गई योजना का अध्ययन करके उसे अन्तिम रूप देना तथा स्वीकृति प्रदान करना।
  5. राष्ट्रीय योजना के संचालन का समय-समय पर मूल्यांकन करना।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
आर्थिक नियोजन का क्या अर्थ है?
उत्तर :
एक निश्चित समय में पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों व लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अपनाये गये कार्यक्रमों को आर्थिक नियोजन अथवा विकास योजनाएँ कहते हैं। विकास योजनाओं के अन्तर्गत भावी विकास के उद्देश्यों को निर्धारित किया जाता है और उनकी प्राप्ति के लिए आर्थिक क्रियाओं का एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा नियमन व संचालन होता है। अलग-अलग क्षेत्रों; जैसे-कृषि उद्योग, सेवा आदि के लिए लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। इन लक्ष्यों को एक निश्चित अवधि में पूरा करने के लिए राष्ट्र के दुर्लभ साधनों के प्रयोग की एक ‘व्यूह-रचना’ तैयार की जाती है। इस व्यूह-रचना के विभिन्न कार्यक्रमों को एक केन्द्रीय सत्ता की देख-रेख में इस प्रकार क्रियान्वित किया जाता है। कि दुर्लभ साधनों का सर्वोत्तम उपयोग हो और निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके।

संक्षेप में, “आर्थिक नियोजन से अभिप्राय, एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा देश में उपलब्ध प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का सन्तुलित ढंग से, एक निश्चित अवधि के अन्तर्गत निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति करना है जिससे देश का तीव्र आर्थिक विकास किया जा सके।

प्रश्न 2
योजना आयोग के चार कार्य बताइए। [2008, 14]
उत्तर :
विकास कार्यों की परामर्शदात्री संस्था के रूप में योजना आयोग एक शीर्षस्थ संस्था है। 15 मार्च, 1950 को किये गये प्रस्ताव के अनुसार देश के सामाजिक विकास के सन्दर्भ में योजना आयोग के चार कार्यों का उल्लेख निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है –

  1. संसाधनों का अनुमान करना – योजना आयोग का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य देश में उपलब्ध पदार्थगत, पूँजीगत और मानवीय संसाधनों का अनुमान करना है।
  2. संसाधनों का सन्तुलित उपयोग – योजना आयोग संसाधनों के प्रभावी और सन्तुलित उपयोग के लिए योजनाएँ बनाता है।
  3. प्राथमिकताओं का निर्धारण – योजना आयोग विभिन्न विकास/कार्यक्रमों की प्राथमिकता का निर्धारण करता है जिससे राष्ट्रीय आवश्यकता के अनुरूप विकास के लिए विभिन्न वरीयता प्राप्त क्षेत्रों का त्वरित विकास किया जा सके।
  4. विकास के बाधक तत्त्वों का आकलन – योजना आयोग आर्थिक विकास के विभिन्न बाधक तत्त्वों की जानकारी कराता है और उसके निराकरण के उपाय खोजता है।।

प्रश्न 3.
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर :
पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्य निम्नवत् हैं –

  1. कृषि, विद्युत एवं सिंचाई का विकास करना।
  2. औद्योगीकरण करके समाजवादी समाज की स्थापना करना।।
  3. लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना (विशेष रूप से कमजोर वर्ग में)।
  4. गरीबी उन्मूलन एवं ग्रामीण विकास करना।

प्रश्न 4.
आर्थिक नियोजन की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए
उत्तर :
आर्थिक नियोजन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. नियोजित अर्थव्यवस्था आर्थिक संगठन की एक पद्धति है।
  2. आर्थिक नियोजन की समस्त क्रियाविधि एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा सम्पन्न की जाती है।
  3. आर्थिक नियोजन सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में लागू होता है।
  4. नियोजन के अन्तर्गत साधनों का वितरण प्राथमिकताओं के अनुसार विवेकपूर्ण नीति से किया जाता है?
  5. नियोजन में पूर्ण, पूर्व निश्चित एवं निर्धारित उद्देश्य होते हैं।
  6. उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक निश्चित अवधि निर्धारित की जाती है।
  7. उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में नियन्त्रण स्थापित किए जाते हैं।
  8. आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए जन-सहयोग की आवश्यकता होती है।
  9. नियोजन सामान्यतया एक निरन्तर दीर्घकालीन प्रक्रिया है।

प्रश्न 5.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार लक्ष्यों का उल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर :
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं के चार लक्ष्य निम्नलिखित हैं –

  1. विकास दर के लक्ष्य को बढ़ाकर 10% कर दिया गया।
  2. निर्धनता अनुपात में 15% तक की कमी लाना
  3. उच्च गुणवत्ता युक्त रोजगारोन्मुखी योजनाओं को प्रारम्भ करना
  4. दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर को 16% के स्तर पर लाकर स्थिर करना।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग का गठन कब किया गया?
उत्तर :
नीति आयोग का गठन 1 जनवरी, 2015 को किया गया।

प्रश्न 2.
नीति आयोग का अध्यक्ष कौन होता है?
उत्तर :
नीति आयोग का अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होता है।

प्रश्न 3.
नीति आयोग का प्रथम उपाध्यक्ष किसे नियुक्त किया गया?
उत्तर :
नीति आयोग का प्रथम उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया को नियुक्त किया गया।

प्रश्न 4.
‘बम्बई योजना किसके द्वारा तैयार की गयी थी?
उत्तर :
‘बम्बई योजना’ बम्बई के आठ उद्योगपतियों द्वारा तैयार की गयी थी।

प्रश्न 5
प्रथम पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए। [2008]
या
भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना कब प्रारम्भ हुई? [2014]
उत्तर :
1 अप्रैल, 1951 से 31 मार्च, 1956 तक।

प्रश्न 6.
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
1 अप्रैल, 1969 से 31 मार्च, 1974 तक।

प्रश्न 7.
योजना आयोग का अध्यक्ष कौन होता था ?
उत्तर :
प्रधानमन्त्री।

प्रश्न 8.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
1 अप्रैल, 2007 से 31 मार्च, 2012 तक।

प्रश्न 9
राष्ट्रीय विकास परिषद् का अध्यक्ष कौन होता है? [2009, 11]
उत्तर :
राष्ट्रीय विकास परिषद् का अध्यक्ष भारत का प्रधानमन्त्री होता है।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements

प्रश्न 10
योजना आयोग की स्थापना कब हुई थी? [2009, 11]
उत्तर :
योजना आयोग की स्थापना 1950 ई० में हुई थी।

प्रश्न 11.
वित्त आयोग का गठन कौन करता है? उसका कार्यकाल कितना होता है? [2010]
उत्तर :
वित्त आयोग का गठन भारत का राष्ट्रपति करता है। इसका गठन हर पाँचवें वर्ष या आवश्यकतानुसार उससे पहले भी किया जा सकता है। व्यवहार में एक वित्त आयोग का कार्यकाल प्रायः एक वर्ष या दो वर्ष का रहा है।

प्रश्न 12.
12वीं पंचवर्षीय योजना कब आरम्भ हुई? [2013]
उत्तर :
12वीं पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 2012 को आरम्भ हुई।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
भारत में योजना आयोग की स्थापना हुई [2009, 11]
(क) 1947 ई० में
(ख) 1948 ई० में
(ग) 1950 ई० में
(घ) 1956 ई० में

प्रश्न 2.
देश में राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना हुई –
(क) 15 अगस्त, 1947 को।
(ख) 20 जनवरी, 1950 को
(ग) 22 अक्टूबर, 1956 को
(घ) 6 अगस्त, 1956 को

प्रश्न 3.
योजना आयोग का अध्यक्ष होता है [2010, 12, 13]
(क) वित्तमन्त्री
(ख) योजना मन्त्री
(ग) प्रधानमन्त्री
(घ) राष्ट्रपति

प्रश्न 4.
Planned Economy for India (प्लाण्ड इकोनॉमी फॉर इण्डिया) पुस्तक के लेखक हैं –
(क) के० सी० पन्त
(ख) मनमोहन सिंह
(ग) जवाहरलाल नेहरू
(घ) एम० विश्वेश्वरैया

प्रश्न 5.
योजना आयोग के प्रथम अध्यक्ष थे [2007]
(क) सरदार पटेल
(ख) पं० जवाहरलाल नेहरू
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) डॉ० सम्पूर्णानन्द

प्रश्न 6.
नीति आयोग के प्रथम अध्यक्ष कौन हैं [2016]
(क) नरेन्द्र मोदी
(ख) अरुण जेटली
(ग) अरविन्द पनगढ़िया
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 7.
भारत में नीति आयोग का पदेन अध्यक्ष कौन होता है? [2016]
(क) भारत का राष्ट्रपति
(ख) भारत का प्रधानमन्त्री
(ग) भारत का उपराष्ट्रपति
(घ) भारत का विदेशमन्त्री

प्रश्न 8.
नीति आयोग की स्थापना हुई –
(क) जनवरी, 2015 में
(ख) दिसम्बर, 2014 में
(ग) फरवरी, 2016 में
(घ) अप्रैल, 2015 में

उत्तर

  1. (ग) 1950 ई० में
  2. (घ) 6 अगस्त, 1956 ई० को
  3. (ग) प्रधानमन्त्री
  4. (घ) एम० विश्वेश्वरैया
  5. (ख) पं० जवाहरलाल नेहरू
  6. (क) नरेन्द्र मोदी
  7. (ख) भारत का प्रधानमन्त्री
  8. (क) जनवरी, 2015 में।

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System (भारतीय आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System (भारतीय आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 20
Chapter Name Indian Modern Banking System (भारतीय आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था)
Number of Questions Solved 70
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System (भारतीय आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
बैंक किसे कहते हैं ? बैंकों के कार्य एवं उनकी उपयोगिता समझाइए।
या
बैंक से आप क्या समझते हैं? बैंकों के किन्हीं दो प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2014]
उत्तर:
बैंक के कार्यों के आधार पर बैंक की विभिन्न परिभाषाएँ दी गयी हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1.  भारतीय बैंकिंग कम्पनी अधिनियम, 1949 के अनुसार, “बैंकिंग का अर्थ, है उधार देने अथवा विनियोग करने के उद्देश्य से जनता से ऐसी जमा स्वीकार करना जो माँग पर या किसी अन्य प्रकार से चेक, ड्राफ्ट, आदेश या अन्य किसी माध्यम से देय हो।’

  2.  फिण्डले शिराज के अनुसार, “बैंकर वह व्यक्ति, फर्म या कम्पनी है जिसके पास व्यापार के लिए ऐसा स्थान हो जहाँ वह जमा के खाते; जमा या मुद्रा संग्रह या सिक्कों द्वारा खोले। जिस खाते से रुपये का भुगतान या हस्तान्तरण, चेक, ड्राफ्ट या आदेश द्वारा होता है अथवा जहाँ स्टॉक, बॉण्ड, धातु, विनिमय-बिल, प्रतिज्ञा-पत्र को प्रतिभूति मानकर ऋण दिया जाता है अथवा जहाँ इसको भुनाने या विक्रय का कार्य होता है।”
  3. किनले के अनुसार, “बैंक एक ऐसी संस्था है जो सुरक्षा का ध्यान रखते हुए ऐसे व्यक्तियों को ऋण देती है जिन्हें इसकी आवश्यकता है और जिसके पास व्यक्ति अपना बचा हुआ धन सुरक्षित रखते हैं।”
    उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि बैंक वह संस्था है जो मुद्रा तथा साख का लेन-देन करती है।

बैंक के कार्य एवं उपयोगिता
वर्तमानकाल में बैंकों का सर्वाधिक महत्त्व है। बैंक के बहुमुखी कार्यों के कारण इनकी निरन्तर उपयोगिता बढ़ती जा रही है। इस उपयोगिता को निम्नलिखित शीर्षकों में व्यक्त किया जा सकता है

1. जमा प्राप्त करना – जनता से जमा प्राप्त करना समस्त बैंकिंग क्रिया का आधार है। बैंक ऐसे व्यक्तियों से, जिनके पास बचत है, उनका धन जमा करते हैं। उन व्यक्तियों को इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि बैंक में रुपया सुरक्षित रहता है। दूसरे, उस पर ब्याज मिलता है; तीसरे, चेक के द्वारा भुगतान की सुविधा रहती है।

2. साख सुविधाएँ प्रदान करना –
बैंक अपने ग्राहकों को उनको आवश्यकता पर साख या ऋण सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान करते हैं। यह बैंक का महत्त्वपूर्ण कार्य है।

3. धन व मूल्यवान वस्तुओं की सुरक्षा – बैंक जनता का धन बैंक में व मूल्यवान् वस्तुएँ लॉकर्स में रखने की सुविधा प्रदान करते हैं और इस सुविधा हेतु ये नाममात्र का शुल्क लेते हैं।

4. भुगतान की सुविधा – बैंक अपने ग्राहकों की जमाराशि के भुगतान की सुविधा प्रदान करते हैं। कोई ग्राहक स्वयं अथवा अपने प्रतिनिधि के माध्यम से अपनी जमा धनराशि चेक, विड्राल फार्म आदि के द्वारा निकाल सकता है।

5. धन का स्थानान्तरण – बैंक, चेक तथा बैंक ड्राफ्ट द्वारा धन का स्थानान्तरण करने में सहायता पहुँचाता है। इससे जनता को अत्यधिक सुविधा होती है।

6. साख-निर्माण का कार्य – बैंकों से साख का निर्माण होता है, जिससे देश की मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है। साख-निर्माण से औद्योगिक तथा व्यापारिक विकास में सहायता मिलती है।

7. पूँजी-निर्माण में सहायक – बैंक जनता के धन को विभिन्न खातों में जमा करने की सुविधा देते हैं तथा जमा पर ब्याज देकर जनता को बचत करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यह बचत उद्योगों तथा व्यापार में विनियोजित की जाती है। इससे पूँजी-निर्माण होता है।

8. विदेशी व्यापार में सहायता – विदेशी व्यापार में बैंकों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। बैंकों के द्वारा विदेशी भुगतान की व्यवस्था की जाती है। ये विदेशी व्यापार में धन भी लगाते हैं और बिलों के भुगतान में सहायता भी करते हैं।

9. उद्योगपतियों, व्यापारियों, कारीगरों और किसानों की सहायता – वर्तमान युग में व्यापारिक बैंक व्यापारियों की, औद्योगिक बैंक उद्योगपतियों की तथा भूमि विकास बैंक किसानों की अत्यधिक सहायता कर रहे हैं।

10. राजकीय अर्थ प्रबन्ध में सहायता – बैंक राजकीय अर्थ प्रबन्ध में योगदान देते हैं तथा बैंक नोटों का निर्गमन कर देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

11. आर्थिक मामलों में सलाह – बैंक एक अच्छा मित्र तथा आर्थिक सलाहकार होता है। आर्थिक मामलों में बैंक सरकार को भी परामर्श देते हैं।

12. मुद्रा-प्रणाली में लोच व मुद्रा-मूल्यों पर नियन्त्रण-बैंक, साख-निर्माण द्वारा मुद्रा की मात्रा में लोच उत्पन्न करते हैं तथा मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन कर मुद्रा-मूल्यों पर भी नियन्त्रण रखते हैं।
आज के युग में बैंक अनेक कार्य तथा सेवाएँ करते हैं। इसीलिए ये किसी भी देश की उन्नत व्यवस्था के प्रतीक माने जाते हैं।

प्रश्न 2
भारत में कितने प्रकार के बैंक कार्य कर रहे हैं? इनके कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बैंकों के कार्य के आधार पर भारत में निम्नलिखित बैंक कार्य कर रहे हैं

  1.  केन्द्रीय बैंक,
  2.  व्यापारिक बैंक,
  3.  औद्योगिक बैंक,
  4. कृषि बैंक व भूमि बन्धक बैंक,
  5. विदेशी विनिमय बैंक,
  6. देशी बैंकर,
  7. सहकारी बैंक तथा
  8. सेविंग्स बैंक।

1. केन्द्रीय बैंक – केन्द्रीय बैंक देश की सम्पूर्ण बैंकिंग व्यवस्था के शीर्ष पर स्थित होता है। हमारे देश में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया’ देश का केन्द्रीय बैंक है। केन्द्रीय बैंक देश का राष्ट्रीय बैंक होता है।
कार्य

  1.  पत्र-मुद्रा निर्गमित करने का एकाधिकार,
  2.  देश के सभी बैंकों पर नियन्त्रण,
  3.  साख पर नियन्त्रण,
  4.  सरकारी बैंक का कार्य,
  5.  देश की मौद्रिक तथा आर्थिक नीतियों को संचालित करना,
  6.  विदेशी मुद्रा को कोष रखना,
  7. सरकार का आर्थिक सलाहकार,
  8. बैंकों का बैंक तथा
  9. जनकल्याण के लिए विभिन्न कार्य।

2. व्यापारिक बैंक – व्यापारिक बैंक वे बैंक होते हैं, जिनका सम्बन्ध विशेष रूप से व्यापारियों से होता है। ये बैंक मुख्यत: व्यापारियों को ही ऋण देते हैं, इसलिए इन्हें व्यापारिक बैंक कहते हैं। इन। बैंकों की स्थापना संयुक्त पूँजी कम्पनी की भाँति की जाती है। भारत के अधिकांश संयुक्त पूँजी बैंक ही व्यापारिक बैंक हैं।

कार्य

  1. जनता से जमा स्वीकार करना,
  2.  रुपया उधार देना,
  3.  बिलों का भुगतान,
  4. एजेण्टों के रूप में कार्य करना,
  5. धन का हस्तान्तरण करना,
  6. मूल्यवान वस्तुओं व धातुओं को सुरक्षित रखना तथा
  7. अंशों व ऋण-पत्रों का क्रय-विक्रय करना।

3. औद्योगिक बैंक – उद्योगों को दीर्घकालीन ऋण सुविधाएँ देने वाले बैंकों को औद्योगिक बैंक कहा जाता है। भारत में औद्योगिक विकास बैंक, औद्योगिक वित्त निगम वे राज्य वित्त निगम औद्योगिक बैंक के रूप में कार्य कर रहे हैं।
कार्य

  1. लम्बी अवधि के लिए जमी स्वीकार करना,
  2.  दीर्घकालीन औद्योगिक ऋण देना,
  3. अंशों व ऋण-पत्रों का अभिगोपन करना,
  4. अन्य सेवाएँ प्रदान करना; जैसे-अंशों का क्रय-विक्रय करना, औद्योगिक फर्मों को विनियोग सम्बन्धी परामर्श देना आदि।

4. कृषि बैंक व भूमि बन्धक बैंक – ऐसे बैंक जो किसानों को कृषि कार्य हेतु दीर्घकालीन ऋण प्रदान करते हैं, भूमि विकास या भूमि बन्धक बैंक कहलाते हैं।

कार्य – भूमि विकास बैंकों का मुख्य कार्य किसानों को दीर्घकालीन ऋण देना है। ऋण निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए दिए जाते हैं

  1.  नयी भूमि खरीदने के लिए,
  2. भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए,
  3. सिंचाई की व्यवस्था करने, कुआँ, ट्यूबवेल आदि के लिए,
  4.  कृषि सम्बन्धी भारी औजार या मशीन; जैसे-ट्रैक्टर आदि क्रय हेतु,
  5. किसी अन्य उत्पादन कार्य के लिए,
  6. मकान आदि निर्माण के लिए,
  7. पुराने ऋणों के भुगतान हेतु तथा
  8.  भूमि में स्थायी सुधार के लिए।

5. विदेशी विनिमय बैंक – विदेशी विनिमय बैंक से अभिप्राय उन बैंकों से है जो विदेशी विनिमय का कार्य करते हैं अथवा विदेशी व्यापार में आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं। भारत में विनिमय बैंक दो प्रकार के हैं

  • भारतीय विनिमय बैंक – ये ऐसे बैंक हैं जिनका प्रधान कार्यालय भारत में है और जिन्होंने अपनी शाखाएँ विदेशी विनिमय कार्य हेतु विदेशों में खोली हुई हैं।
  •  विदेशी विनिमय बैंक – ऐसे बैंक जिनको प्रधान कार्यालय विदेशों में है और भारत में विनिमय कार्यों के लिए अपनी शाखाएँ खोले हुए हैं। ऐसे बैंकों को विदेशी विनिमय बैंक कहा जाता है।

कार्य – विदेशी विनिमय बैंकों का प्रमुख कार्य एक देश की मुद्रा को दूसरे देश की मुद्रा में बदलना तथा विदेशी विनिमय प्रपत्रों का क्रय-विक्रय करना होता है।

6. देशी बैंकर – “स्वदेशी बैंक वह असंगठित बैंक है, जो कि ऋण देने के साथ-साथ जमा स्वीकार करता है अथवा हुण्डियों का व्यापार करता है अथवा दोनों व्यवहार करता है।”
कार्य

  1. ऋण प्रदान करना,
  2.  जमा स्वीकार करना तथा
  3. हुण्डियों का व्यवसाय करना।

7. सहकारी बैंक – सहकारी बैंक या सहकारी साख समितियों से आशय ऐसे सहकारी संगठन से है, जो बैंकिंग व्यवसाय (धन जमा करना व धन उधार देना) करते हैं।

हेनरी वुल्फ के अनुसार, “सहकारी बैंकिंग एक ऐसी एजेन्सी है जो छोटे वर्ग के व्यक्तियों से व्यवहार करने की स्थिति में है तथा जो अपनी शर्तों के अनुसार उनकी जमा को स्वीकार करती है वे ऋण प्रदान करती है।”

कार्य

  1.  जमा स्वीकार करना,
  2.  ऋण प्रदान करना तथा
  3.  अपने सदस्यों के कल्याण हेतु अन्य बैंकिंग सुविधाएँ प्रदान करना।

8. सेविंग्स बैंक – जनता में बचत की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिए, भारत में सरकार ने डाकघर में रुपया जमा करने की सुविधा प्रदान की है। इसे डाकघर सेविंग्स बैंक कहते हैं।
कार्य

  1.  निर्धन एवं कम आय वाले व्यक्तियों में बचत की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना,
  2.  उनकी बचतों को जमा करना व सुरक्षित रखना तथा
  3. छोटी-छोटी बचतों से विशाल पूँजी-निर्माण करके उसे उत्पादक कार्यों में लगाना।

प्रश्न 3
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के कार्यों का वर्णन कीजिए। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के वर्जित कार्य भी बताइए।
या
भारतीय रिजर्व बैंक के प्रमुख कार्यों को समझाइए। [2000, 07, 08, 09 10, 11, 12, 14, 15]
उत्तर:
भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया केन्द्रीय बैंक है। केन्द्रीय बैंक होने के कारण उसे वे सभी कार्य करने पड़ते हैं जो एक केन्द्रीय बैंक द्वारा सम्पादित किये जाते हैं। डी० कॉक के अनुसार, एक केन्द्रीय बैंक के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं

  1. नोटों का निर्गमन,
  2. सरकार का बैंकर, एजेण्ट एवं परामर्शदाता,
  3. व्यापारिक बैंकों के नकद कोषों का संरक्षक,
  4. राष्ट्र की अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा के कोष का रक्षक,
  5.  बैंकों का बैंक एवं अन्तिम ऋणदाता,
  6. केन्द्रीय भुगतान एवं हस्तान्तरण का बैंकर तथा
  7. साख का नियन्त्रक।

भारत का रिजर्व बैंक इन सभी कार्यों को करता है; अतः वह देश का केन्द्रीय बैंक है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

  • केन्द्रीय बैंकिंग सम्बन्धी कार्य तथा
  • साधारण बैंकिंग कार्य।

(i) केन्द्रीय बैंकिंग सम्बन्धी कार्य
1. नोटों का निर्गमन – रिजर्व बैंक को भारत में नोट निर्गमन का एकाधिकार प्राप्त है। इस कार्य को बैंक का नोट निर्गमन विभाग करता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के ₹10, 20, 50, 100, 500 तथा ₹ 2,000 की मुद्रा का निर्गमन करता है। केवल एक रुपये का नोट भारत सरकार द्वारा निकाला जाता था। यह नोट एक रुपये के सिक्के की भाँति ही है। वर्तमान में भारतीय रिजर्व बैंक ने ₹ 2 तथा ₹ 5 के नये नोटों की छपाई भी बन्द कर दी है और ₹ 2, 5 तथा 10 का सिक्का प्रचलित किया गया है। नोट जारी करने के लिए बैंके न्यूनतम आरक्षण पद्धति का प्रयोग करता है। नोटों के निर्गमन के लिए ₹200 करोड़ की न्यूनतम निधि रखना आवश्यक होता है जिसमें ₹115 करोड़ का सोना और सोने की मुद्राएँ तथा १ 85 करोड़ की विदेशी प्रतिभूतियाँ रखी जाती हैं।

2. सरकार के बैंक के रूप में कार्य – रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया सरकार का बैंक है। सरकारी बैंकर के रूप में यह निम्नलिखित कार्य करता है

  • सरकार का रुपया जमा करता है और सरकार के आदेशानुसार रुपये का भुगतान करता है।
  •  सरकार को ऋण देता है, उसके लिए ऋण की व्यवस्था के साथ-साथ सरकारी ऋण-पत्रों को बेचने की भी व्यवस्था करता है।
  •  सरकारी कोषों का स्थानान्तरण करता है।
  • भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के लिए विदेशी विनिमय का प्रबन्ध करता है।
  • भारत सरकार एवं राज्य सरकारों को आर्थिक परामर्श देता है तथा आर्थिक नीतियों का निर्धारण भी करता है।
  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक में सरकार का प्रतिनिधित्व करता है।

3. बैंकों के बैंक के रूप में कार्य – रिजर्व बैंक देश के सभी अनुसूचित बैंकों का बैंक है। देश की बैंकिंग व्यवस्था को उचित प्रकार से चलाने तथा बैंकों पर नियन्त्रण रखने हेतु यह निम्नलिखित कार्य करता है

  • प्रत्येक बैंकिंग संस्था को चाहे वह भारतीय हो अथवा विदेशी, भारतवर्ष में बैंकिंग का व्यवसाय करने के लिए रिजर्व बैंक से लाइसेन्स लेना पड़ता है।
  •  समस्त अनुसूचित बैंकों को अपने कुल माँग जमा तथा मियादी जमा को 3% भाग रिजर्व बैंक के पास जमा करना पड़ता है। रिजर्व बैंक इसको 15% तक बढ़ा सकता है। इस धनराशि का रिजर्व बैंक इन्हीं बैंकों के आर्थिक संकट के समय अन्तिम ऋणदाता के रूप में आर्थिक सहायता देने के लिए उपयोग करता है।
  • रिजर्व बैंक, बैंक-दर में कमी अथवा वृद्धि करके तथा खुले बाजार की क्रियाओं के द्वारा बैंक की साख-नीति पर नियन्त्रण रखता है।
  •  रिजर्व बैंक किसी भी अनुसूचित बैंक का निरीक्षण कर सकता है
  • वह अनुसूचित बैंकों के लिए विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय करता है।
  • वह निकासी गृह की सुविधा प्रदान करता है।
  • बैंकों को रिजर्व बैंक के पास साप्ताहिक विवरण भेजने पड़ते हैं, जिससे उसे उसकी दशा का अप-टू-डेट ज्ञान रहता है और वह आवश्यकता पड़ने पर उचित कदम उठाता है।

4. विनिमय दर में स्थिरता बनाये रखना – रिजर्व बैंक का महत्त्वपूर्ण कार्य रुपये की विनिमय दर को स्थिर बनाये रखना है। इस कार्य के लिए रिजर्व बैंक निश्चित दरों पर विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय करता रहता है। रिजर्व बैंक विदेशी विनिमय के क्षेत्र में एक ओर तो रुपये का बाहरी मूल्य बनाये रखने का प्रयत्न करता है तो दूसरी ओर उपलब्ध विदेशी विनिमय का राष्ट्र-हित में प्रयोग करता है। भारत में विदेशी विनिमय का दुरुपयोग सोने की तस्करी के कारण होता था। इसको समाप्त करने के लिए भारत सरकार ने 9 जनवरी, 1963 को ‘स्वर्ण नियन्त्रण आदेश’ लागू किया। इस प्रकार रिजर्व बैंक विदेशी विनिमय पर नियन्त्रण रखता है।

5. साख नियन्त्रण का कार्य – केन्द्रीय बैंक के रूप में रिजर्व बैंक का प्रमुख कार्य साख नियन्त्रण है। साख नियन्त्रण से आशय देश के व्यापारिक बैंकों में संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले ऋणों पर नियन्त्रण करना है। रिजर्व बैंक देश की आर्थिक परिस्थितियों व आवश्यकताओं को देखते हुए बैंक ऋणों की मात्रा को नियमित करता है। रिजर्व बैंक साख नियन्त्रण हेतु बैंक-दर नीति, खुले बाजार की क्रियाएँ तथा परिवर्तनशील कोषानुपात की नीति को अपनाता है। बैंक:-दर में परिवर्तन करके वह साख की मात्रा को नियन्त्रित करता है।

6. कृषि-साख की व्यवस्था – रिजर्व बैंक अपने ‘कृषि-साख विभाग द्वारा कृषि से सम्बन्धित समस्याओं के बारे में विचार-विमर्श करता है। यह प्रादेशिक सरकारों, भारत सरकार तथा सहकारी बैंकों को समय-समय पर कृषि-साख पर परामर्श देता है। कृषि-साख के लिए यह 2% ब्याज दर पर सहकारी बैंकों को ऋण देता है।

7. समाशोधन  – गृह का कार्य-रिजर्व बैंक देश का केन्द्रीय बैंक होने के कारण समाशोधन का कार्य भी करता है। समस्त देशों के प्रतिनिधि एक पूर्वनिर्धारित दिनांक को एकत्रित होकर अपने-अपने लेन-देन का कुल विवरण प्रस्तुत करते हैं। रिजर्व बैंक प्रस्तुत विवरण के अनुसार प्रत्येक बैंक खाते में प्रविष्टियाँ कर देता है। इस प्रकार रिजर्व बैंक, सदस्य बैंकों में रुपये के स्थानान्तरण को सुविधाजनक बनाता है।

8. औद्योगिक वित्त की व्यवस्था – रिजर्व बैंक अप्रत्यक्ष रूप से औद्योगिक साख प्रदान करने में भी सहायता देता है। ‘इण्डस्ट्रियल फाइनेन्स कॉर्पोरेशन’ तथा राज्य वित्त निगम’ आदि संस्थाओं के शेयर खरीदकर रिजर्व बैंक उद्योगों को मध्यकालीन व दीर्घकालीन ऋण प्रदान करके औद्योगिक वित्त की व्यवस्था को सहायता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त ‘इण्डस्ट्रियल डेवलपमेण्ट बैंक रिजर्व बैंक की आश्रित संस्था है, जो औद्योगिक साख की शीर्ष संस्था के रूप में कार्य करती है। रिजर्व बैंक बड़े-बड़े उद्योगों की सहायता के लिए राष्ट्रीय औद्योगिक साख (दीर्घकालीन कोष) का निर्माण करता है।

9. आर्थिक शोध – कार्य और आँकड़े एकत्रित करना-रिजर्व बैंक का एक विशेष विभाग है। ‘रिसर्च तथा स्टैटिस्ट्रिक्स विभाग’। यह विभाग आर्थिक और मौद्रिक समस्याओं को अध्ययन करता है और इस सम्बन्ध में अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। रिजर्व बैंक प्रति वर्ष अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित कराता है तथा औद्योगिक उत्पादन आदि से सम्बन्धित आँकड़े एकत्रित करता है और प्रकाशित कराता है।

(ii) साधारण बैकिंग कार्य
उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त रिजर्व बैंक अन्य साधारण बैंकिंग सम्बन्धी कार्य भी करता है, जो निम्नलिखित हैं

  1. बिना ब्याज के जमा स्वीकार करना।
  2. 10 दिन की अवधि के बिलों का बट्टा करना और क्रय-विक्रय करना।
  3. भारत सरकार, राज्य सरकारों तथा अनुसूचित बैंकों को 90 दिन की अवधि के लिए जमानत पर ऋण देना।
  4.  कृषि-कार्यों में सहायता पहुंचाने के लिए 15 मास के बिलों का बट्टा करना अथवा क्रय-विक्रय करना।
  5. सदस्य बैंकों से कम-से-कम ₹ 1 लाख रुपये के विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय करना।
  6.  अपने कार्यों को उचित रूप से चलाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय बैंकों तथा अन्य विदेशी केन्द्रीय बैंकों में अपना खाता खोलना।
  7.  विविध कार्य; जैसे – सोने, चाँदी, हीरे-जवाहरात एवं प्रतिभूतियों को अपने अधीन रखना तथा सोने, चाँदी व सोने के सिक्कों को खरीदना व बेचना आदि।

रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के वर्जित कार्य
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट के अनुसार, कुछ ऐसे कार्य भी हैं जो रिजर्व बैंक द्वारा नहीं किये जा सकते। यह प्रतिबन्ध इसलिए लगाया गया है जिससे कि रिजर्व बैंक अन्य बैंकों से प्रतियोगिता न कर सके। ये कार्य निम्नलिखित हैं

  1.  रिजर्व बैंक अपनी जमाराशियों पर ब्याज नहीं दे सकता है।
  2.  यह अपने लिए कार्यालयों को छोड़कर किसी प्रकार की अचल सम्पत्ति का क्रय नहीं कर सकता और इसके आधार पर ऋण नहीं दे सकता है।
  3.  यह किसी बैंक अथवा कम्पनी के अंश नहीं खरीद सकता और ऐसे अंशों की आड़ पर ऋण भी नहीं दे सकता है।
  4.  यह बिना जमानत के ऋण नहीं दे सकता।
  5. यह किसी भी प्रकार की व्यापारिक, वाणिज्य एवं उद्योग क्रियाओं में भाग नहीं ले सकता है। और न ही किसी प्रकार की आर्थिक सहायता दे सकता हैं।

प्रश्न 4
भारत में स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना के उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के वर्जित कार्यों का वर्णन कीजिए। [2008]
या
भारतीय स्टेट बैंक के कार्यों का वर्णन करें। [2010]
उत्तर:
स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया
1 जुलाई, 1955 ई० को इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण करके स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की गयी।

सरकार के वित्तीय सहयोग से निजी अंशधारियों द्वारा 1806 ई० में बैंक ऑफ बंगाल, 1840 ई० में बैंक ऑफ बॉम्बे तथा 1843 ई० में बैंक ऑफ मद्रास की स्थापना की गयी। यह तीनों बैंक प्रेसिडेन्सी बैंक कहलाते थे। प्रेसिडेन्सी बैंकों को 1862 ई० तक कागजी नोट निर्गमन का अधिकार भी प्राप्त था। वर्ष 1921 में तीनों प्रेसिडेन्सी बैंकों को मिलाकर इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की गयी।

1 जुलाई, 1955 ई० को इम्पीरियल बैंक का आंशिक राष्ट्रीयकरण करके उसका नाम स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया कर दिया गया, वर्तमान में स्टेट बैंक देश की सबसे बड़ा व्यापारिक बैंक है। भारतीय स्टेट बैंक का केन्द्रीय कार्यालय मुम्बई में है। इसके चोदई अन्य क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं। जून, 2013 ई० के अन्त में भारतीय स्टेट बैंक समूह की कुल 15,003 शाखाएँ कार्य कर रही थीं। स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के कुल अंशों का 55% अंश रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के पास रहता है, शेष 45% अन्य व्यक्तियों के पास हो सकता है। इस समय 92 प्रतिशत अंश रिजर्व बैंक के पास हैं। स्टेट बैंक का प्रबन्ध एक केन्द्रीय संचालक बोर्ड करता है।

स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना के उद्देश्य
इसके उद्देश्य निम्नलिखित थे

  1. स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना का आधारभूत उद्देश्य यह था कि यह देश में ग्रामीण साख का विकास और बैंकिंग का प्रचार व प्रसार करेगा।
  2.  स्टेट बैंक की स्थापना का उद्देश्य बचतों को प्रोत्साहित करना था, जिससे देश के आर्थिक विकास में सहयोग मिल सके।
  3.  स्टेट बैंक की स्थापना का उद्देश्य धन के स्थानान्तरण की सस्ती सेवा प्रदान करना था, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग का विकास हो सके।
  4.  स्टेट बैंक की स्थापना के समय ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्योगों को प्रोत्साहित करने का दायित्व भी स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया को ही सौंपा गया था। अत: लघु उद्योगों को आर्थिक सहायता एवं परामर्श देने का उत्तरदायित्व भी स्टेट बैंक का ही है।
  5. स्टेट बैंक को एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह भी सौंपा गया कि वह सारे देश में शाखाओं का एक जाल बिछाकर बैंकिंग के विकास में सहायक बने। विशेष रूप से देश के उन भागों में साख व बैंकिंग का विकास करे जहाँ ये सुविधाएँ पहले से उपलब्ध नहीं हैं।
  6.  इसकी स्थापना के अन्य उद्देश्य थे
    •  धन के हस्तान्तरण की सुविधा प्रदान करना,
    • रिजर्व बैंक की साख-नियन्त्रण नीति में सहयोग करना,
    •  आर्थिक दृष्टि से दुर्बल व्यक्तियों की सहायता करना आदि।

स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के कार्य
भारतीय स्टेट बैंक के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया गया है
(i) रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि के रूप में तथा
(ii) व्यापारिक बैंक के रूप में।

(i) रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि के रूप में
देश के केन्द्रीय बैंक का एजेण्ट होने के कारण जिन स्थानों पर भारतीय रिजर्व बैंक के कार्यालये नहीं हैं वहाँ भारतीय स्टेट बैंक रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। ये कार्य निम्नलिखित हैं

  1. सरकार के बैंकर के रूप में – सरकार के बैंकर के रूप में यह जनता से सरकार की ओर से धन वसूल करता है और सरकार के आदेशानुसार इसका भुगतान भी करती है। यह सार्वजनिक ऋणों की व्यवस्था भी करता है।
  2. बैंकों के बैंक के रूप में – स्टेट बैंक अन्य बैंकों को ऋण देता है वे उनके बिलों को बट्टा करता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की ओर से समाशोधन-गृह का कार्य करता है। बैंकों के कोषों का स्थानान्तरण करता है तथा व्यापारिक बैंकों को सलाह भी देता है।

(ii) व्यापारिक बैंक के रूप में
व्यापारिक बैंक के रूप में स्टेट बैंक निम्नलिखित कार्य करता है

  1.  ग्राहकों के विभिन्न खातों में जमा स्वीकार करना।
  2.  अंशों, ऋण-पत्रों तथा विभिन्न प्रतिभूतियों के आधार पर ऋण प्रदान करना तथा नकद साख देना।
  3. जनता की बहुमूल्य वस्तुओं को सुरक्षित रखना अर्थात् लॉकर्स की सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
  4.  ग्राहकों के लिए रुपया भेजने की सुविधा प्रदान करना।
  5.  ग्रामीण क्षेत्रों में बचतों को प्रोत्साहित करना तथा उनको संग्रह करना।
  6. शाखाओं का जाल बिछाकर बैंकिंग का प्रचार व प्रसार करना।
  7. ग्रामीण साख की पूर्ति बढ़ाने के लिए एक शक्तिशाली एजेन्सी का कार्य करना।
  8.  लघु उद्योगों को आर्थिक सहायता एवं परामर्श देने का कार्य करना।
  9.  व्यापार तथा कृषि को वित्तीय एवं साख सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान करना।
  10. विनिमय बिलों को भुनाना तथा उनका क्रय-विक्रय करना।
  11.  बैंक की पूँजी का सरकारी ऋण-पत्रों, अंशों तथा अन्य प्रतिभूतियों में विनियोजन करना।
  12.  ट्रस्टों, एक्जीक्यूटर आदि के रूप में सम्पत्तियों का प्रबन्ध करना।
  13. पेन्शन कोषों का संचालन करना।
  14.  किसी सहकारी समिति या कम्पनी को उसकी सम्पत्तियों की प्रतिभूति पर, किसी भी अवधि का ऋण देना अथवा कैश क्रेडिट खोलना।
  15.  स्वर्ण तथा चाँदी का क्रय-विक्रय करना।
  16. रिजर्व बैंक की स्वीकृति से किसी भी बैंकिंग कम्पनी के अंशों को खरीदना व बेचना अथवा अपने संरक्षण में किसी बैंकिंग कम्पनी को स्थापित करना या उसका संचालन करना।
  17.  केन्द्रीय सरकार की अनुमति से अन्य कोई भी कार्य करना।

स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के वर्जित कार्य
भारतीय स्टेट बैंक के वर्जित कार्य निम्नलिखित हैं

  1. यह अपने अंशों पर या अचल सम्पत्ति की जमानत पर 6 माह से अधिक की अवधि के लिए ऋण या अग्रिम नहीं दे सकता।।
  2.  यह अपने कार्यालयों व कर्मचारियों के निवास के अतिरिक्त किसी प्रकार की अचल सम्पत्ति नहीं खरीद सकता।।
  3.  यह ऐसे बिलों की पुनः कटौती नहीं कर सकता जिनकी परिपक्वता 6 महीने से अधिक की होती है। कृषि-साख के सम्बन्ध में यह अवधि 15 माह रखी गयी है।
  4. यह किसी फर्म अथवा किसी व्यक्ति को निश्चित राशि से अधिक राशि बिना जमानत के नहीं दे सकता।
  5. यह ऐसे बिलों को नहीं भुना सकता जिन पर दो विश्वसनीय हस्ताक्षर नहीं हैं।
  6. यह विदेशी विनिमय व्यवसाय नहीं कर सकता।
  7. यह उद्योगों को उनकी सम्पत्ति की जमानत पर मध्यमकालीन ऋण 7 वर्ष की अवधि के लिए ही दे सकता है तथा अपने कर्मचारियों द्वारा बनायी गयी सहकारी भवन निर्माण समितियों को भी 6 माह से अधिक के लिए रुपया उधार दे सकती है।

प्रश्न 5
व्यापारिक बैंक की परिभाषा दीजिए और उसके कार्यों को समझाइए। [2009, 13, 15, 16]
या
भारत में व्यापारिक बैंकों के मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए तथा देश के आर्थिक विकास में इनकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। [2011]
या
व्यापारिक बैंकों का आर्थिक विकास में महत्त्व समझाइए। [2015]
या
व्यापारिक बैंकों के कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2009, 13, 15]
उत्तर:
भारत में व्यापारिक बैंक अथवा मिश्रित पूँजी वाले बैंक से अभिप्राय सामान्यतः उस बैंक से है जिसकी स्थापना भारतीय बैंकिंग कम्पनी अधिनियम के अनुसार की गयी है और जो व्यापारिक बैंक के कार्य करता है। ये बैंक व्यापारियों एवं अन्य व्यक्तियों से जमा प्राप्त करते हैं तथा ऋण देते हैं। ये बैंक मुख्यत: व्यापारियों को ऋण देते हैं। इस कारण से इन्हें व्यापारिक बैंक कहा जाता है।

प्रो० फिण्डले शिराज के अनुसार, “बैंक उस व्यक्ति, फर्म यो कम्पनी को कहते हैं, जिसके पास कोई व्यापारिक स्थान हो, जहाँ द्रव्य या करेन्सी को जमा करके साख का कार्य किया जाता हो और जिसकी जमा का ड्राफ्ट, चेक या ऑर्डर द्वारा भुगतान किया जाता हो या स्टॉक, बॉण्ड बुलियन पर द्रव्य उधार दिया हो या जहाँ ऋण-पत्रों को बट्टे पर या बेचने के वास्ते लिया जाता हो।’

आधुनिक बैंक अथवा व्यापारिक बैंक के कार्य
व्यापारिक बैंकों के कार्य निम्नलिखित हैं

1. रुपया जमा करना – बैंक जनता को बेचत के लिए प्रोत्साहित करके विभिन्न खातों में जमा प्राप्त करते हैं। ये जमा धनराशि पर ब्याज देते हैं तथा ग्राहकों द्वारा माँग करने पर इन्हें वापस करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। बैंक अपने ग्राहकों से धन चालू, सावधि एवं सेविंग्स बैंक खातों में जमा के रूप में स्वीकार करते हैं।

2. रुपया उधार देना – व्यापारिक बैंकों का दूसरा प्रमुख कार्य रुपया उधार देना है। बैंक अपने ग्राहकों को उनकी आवश्यकता पर ऋण देता है तथा इन ऋणों पर ब्याज भी प्राप्त करता है। ऋणों पर प्राप्त होने वाला ब्याज ही बैंक की आय का प्रमुख स्रोत होता है। बैंकों द्वारा केवल उत्पादक या व्यापारिक कार्यों के लिए ही प्रायः ऋण दिया जाता है। बैंक निम्नलिखित प्रकार से ऋण प्रदान करता है

  • माल तथा प्रतिभूतियों को गिरवी रखकर अग्रिम ऋण देना।
  •  नकद साख तथा अधिविकर्ष आदि सुविधाओं के द्वारा व्यापारियों को ऋण देना।
  •  विनिमय बिलों का भुनाना स्वीकार करना तथा क्रय-विक्रय करना।

3. साख पत्र जारी करना – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों की सुविधा के लिए उधारे प्रपत्र जारी करता है; जैसे-चेक, हुण्डी, ड्राफ्ट, विनिमय बिल आदि। बैंकों के कारण ही इनका चलन और विस्तार हुआ है।

4. बहुमूल्य वस्तुओं की सुरक्षा – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों को मूल्यवान् वस्तुओं; जैसेआभूषण (गहने, जेवर), हीरे-जवाहरात, बहुमूल्य कागज-पत्र आदि; को सुरक्षित रखने के लिए लॉकर्स की सुविधा भी प्रदान करते हैं। इस सेवा के लिए बैंक अपने ग्राहकों से कुछ धनराशि किराये के रूप में लेता है।

5. धन का हस्तान्तरण – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों के धन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बड़ी दक्षता व मितव्यीयता के साथ भेजने का कार्य भी करते हैं।

6. यात्री चेक की सुविधा – यात्रियों की सुविधा के लिए व्यापारिक बैंकों द्वारा चेक व साख-पत्रों का निर्गमन किया जाता है। ये कहीं भी भुनाये जा सकते हैं।

7. विदेशी विनिमय में सहायता या विदेशी मुद्रा का क्रय-विक्रय – अन्तर्राष्ट्रीय भुगतानों में व्यापारिक बैंकों को महत्त्वपूर्ण स्थान है। बैंक विदेशी बिलों का क्रय-विक्रय, बैंक ड्राफ्ट और टेलीग्राफिक ट्रांसफरों (TT) के द्वारा विदेशी विनिमय में सहायता पहुँचाता है वे एक देश की मुद्रा को दूसरे देश की मुद्रा में परिवर्तित करता है।

8. साख सम्बन्धी सूचना देना – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों की आर्थिक स्थिति व साख सम्बन्धी सूचनाएँ भी देते हैं। इसके आधार पर व्यवसायी उधार तथा क्रय-विक्रय सम्बन्धी निर्णय लेते हैं।

9. व्यापारिक सूचनाएँ तथा आँकड़े एकत्रित करना – व्यापारिक बैंक अपने कर्मचारियों द्वारा व्यापारिक सूचनाएँ तथा उपयोगी आँकड़े एकत्रित कराकर उन्हें प्रकाशित कराते हैं। इन सूचनाओं से बैंक के ग्राहकों को लाभ होता है।

10. ग्राहकों की ओर से विनिमय बिल स्वीकार करना – आजकल अधिकांश लेन-देन उधार या साख में किये जाते हैं। जब कोई क्रेता विनिमय बिल पर सहमति देकर उधार क्रय करना चाहता हो, परन्तु विक्रेता को उसकी साख पर विश्वास न हो तो क्रेता अपने बैंक से विनिमय बिल स्वीकृत कराकर माल खरीद सकता है। बैंक द्वारा बिले स्वीकार किये जाने पर ग्राहक इसके आधार पर सरलता से माल उधार प्राप्त कर सकता है।

11. साख-पत्रों का भुगतान करना – ग्राहक अपने प्राप्त विपत्रों; जैसे-चेक, हुण्डी, प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय बिल आदि को रुपया वसूल करने के लिए अपने खातों में जमा कर देते हैं। बैंक चेक, हुण्डी, बिल आदि का रुपया वसूल करके अपने ग्राहक के खाते में जमा करता है।

12. ग्राहकों की ओर से भुगतान – ग्राहकों के आदेशानुसार व्यापारिक बैंक उनकी ओर से विभिन्न व्ययों; जैसे-जीवन बीमा प्रीमियम, ऋण की किस्ते, ब्याज, आयकर तथा किराये आदि का समय-समय पर भुगतान करते हैं।

13. ट्रस्टी, कानूनी प्रतिनिधि व प्रबन्धक के कार्य – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों की सम्पत्तियों की सुरक्षा के लिए ट्रस्टी, कानूनी प्रतिनिधि व प्रबन्धक की तरह भी कार्य करता है तथा अपने ग्राहकों की ओर से पासपोर्ट तथा यात्रा सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए पत्र-व्यवहार भी करता है।

14. भुगतान प्राप्त करना – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों की ओर से अंश-पत्रों पर लाभांश, ऋण-पत्रों पर ब्याज व अन्य भुगतान एकत्रित करते हैं।

15. प्रतिभूतियों का क्रय – विक्रय-व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों के आदेशानुसार उनके लिए विभिन्न स्थानों से प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय करते हैं।

16. आर्थिक सलाह देना – व्यापारिक बैंक अपने ग्राहकों को आर्थिक मामलों में सलाह भी देते हैं। विनियोग की सुविधाओं तथा उचित विनियोग आदि के विषय में भी ऐसे बैंक सहायता करते हैं।

देश के आर्थिक विकास में व्यापारिक बैंकों की भूमिका–वर्तमान समय में देश के आर्थिक विकास में व्यापारिक बैंकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आज के युग में बैंक सेवाओं का उपयोग आवश्यक हो गया है। अधिकांश लेन-देन आजकल बैंकों के माध्यम से ही होने लगे हैं। बैंक बचत को प्रोत्साहन देते हैं, रुपये को सुरक्षित रखते हैं व पूँजी-निर्माण में सहायता पहुँचाते हैं। इस प्रकार देश में व्यर्थ पड़ी पूंजी का प्रयोग देश के आर्थिक विकास और निर्माण में लगाने में सहायता पहुँचाते हैं। रुपये का एक स्थान से दूसरे स्थान तक सस्ते में और सुरक्षित रूप से स्थानान्तरण करने में बैंकों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है। व्यापारिक बैंक न केवल व्यापारियों और उद्योगपतियों की सहायता करते हैं, वरन् किसानों और कारीगरों की भी सहायता करते हैं। इस प्रकार आज देश के आर्थिक विकास में बैंकों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 6
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से आप क्या समझते हैं ? भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रमुख उद्देश्य क्या रहा है? क्या राष्ट्रीयकरण से इन उद्देश्यों की पूर्ति हुई है ? [2009, 15, 16]
या
भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मुख्य उद्देश्य क्या रहे हैं? बैंकों के राष्ट्रीयकरण से भारत को क्या लाभ हुए हैं? मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
जब किसी देश की सरकार उस देश के किसी उद्योग, व्यवसाय अथवा किसी जन-उपयोगी संस्था को अपने हाथों में लेकर उसका संचालन व नियन्त्रण करती है, तब उसे राष्ट्रीयकरण कहते हैं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से अभिप्राय सरकार द्वारा बैंकों को अपने अधिकार में ले लेना है। राष्ट्रीयकरण हो जाने के पश्चात् बैंकों से निजी स्वामित्व ही समाप्त हो जाता है तथा बैंकिंग व्यवसाय सामाजिक नियन्त्रण में आ जाता है।

भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण – जुलाई, 1969 ई० में कांग्रेस के बंगलौर अधिवेशन में पारित किये गये आर्थिक प्रस्ताव को कार्यान्वित करने के लिए स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वयं वित्त मन्त्रालय का कार्यभार सँभाला और 19 जुलाई, 1969 ई० को 50 करोड़ से अधिक निक्षेप वाले 14 बड़े भारतीय वाणिज्य बैंकों का राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के द्वारा राष्ट्रीयकरण किया गया तथा बाद में संसद द्वारा अगस्त, 1969 ई० में बैंकिंग कम्पनी (कब्जा और हस्तान्तरण) विधेयक पारित किया गया। 15 अप्रैल, 1980 ई० को 6 और बड़े अनुसूचित बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता या उद्देश्य
भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया

1. एकाधिकारी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए –  बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूर्व बैंकिंग व्यवस्था पर कुछ पूँजीपतियों का प्रभुत्व था, जिससे बैंकों पर एकाधिकारी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी। एकाधिकारी प्रवृत्ति पर नियन्त्रण करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता थी।

2. देश में सुदृढ़ बैकिंग व्यवस्था स्थापित करने के लिए  – देश में बैंकों की कुल संख्या देश की कुल आवश्यकता से बहुत ही कम थी; अत: देश की बैंकिंग व्यवस्था को सुदृढ़ करने तथा शाखाओं का विस्तार करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता थी, जिससे जनता के लिए बैंकिंग सुविधाओं को अधिक उपयोगी बनाया जा सके।

3. बैंकों की अवांछनीय क्रियाओं पर नियन्त्रण के लिए –  बैंकों के संचालक थोड़ी-सी अंश पूँजी के आधार पर बैंकों के समस्त जमा धन को अपने निजी हितों में उपयोग करते थे तथा अपने से सम्बन्धित कम्पनियों में धन का विनियोग करके लाभ अर्जित करते थे। इन अवांछनीय क्रियाओं पर नियन्त्रण के उद्देश्य से बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

4. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं के विस्तार के लिए –  बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग का प्रचार एवं प्रसार करना था, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में कृषि तथा लघु उद्योगों के लिए साख की उचित व्यवस्था हो सके और ग्रामीण क्षेत्र में बैंक कम आय वाले व्यक्तियों, छोटे किसानों, व्यापारियों आदि को ऋण सुविधाएँ प्रदान कर सकें।

5. समाजवादी. समाज की स्थापना के लिए  – समाजवादी समाज की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था के खास मोर्चे पर सरकार का नियन्त्रण हो। इस उद्देश्य को बताते हुए बैंक राष्ट्रीयकरण के अवसर पर अपने रेडियो भाषण में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था, “हमारा समाज निर्धन है तथा पिछड़ा हुआ है। हमें विकास करना है। विभिन्न वर्गों-गरीब और अमीर में विषमता कम करनी है। इसके लिए आवश्यक है कि हमारी अर्थव्यवस्था के खास मोर्चे पर सरकार के द्वारा जनता का कब्जा हो और यह सब राष्ट्रीयकरण द्वारा ही सम्भव है।’

6. देश के सन्तुलित आर्थिक विकास के लिए –  बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य देश का सन्तुलित आर्थिक विकास करना था, जिससे बैंक अपने वित्तीय साधनों का अधिकांश भाग पिछड़े व अल्पविकसित क्षेत्रों में लगा सकें।

राष्ट्रीयकरण से लाभ
भारत में समाजवादी समाज के निर्माण के लिए तथा देश का तीव्र गति से आर्थिक विकास करने हेतु बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय 19 जुलाई, 1969 ई० को किया गया। राष्ट्रीयकरण के पश्चात् भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में पर्याप्त सुधार हुआ। राष्ट्रीयकरण करते समय बैंकों से यह आशा की गयी थी कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी शाखाओं का विस्तार करेंगे तथा देश की कृषि, कुटीर उद्योगों, छोटे-बड़े सभी उद्योगों एवं व्यवसायों को आर्थिक सहायता प्रदान करके उन्हें नवजीवन प्रदान करने में उपयोगी सिद्ध होंगे। इस दिशा में राष्ट्रीयकृत बैंकों ने निम्नलिखित कार्य किये हैं

1. राष्ट्रीयकरण के पश्चात् अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की संख्या में वृद्धि – जून, 1969 ई० में देश में बैंकों की कुल संख्या 89 ही थी, जिनमें से अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की संख्या 73 तथा गैर-अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की संख्या 16 थी। 30 जून, 2009 की स्थिति के अनुसार भारतीय वाणिज्यिक बैंकिंग व्यवस्था में 171 वाणिज्यिक बैंक हैं जिनमें से 81 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों सहित 113 बैंक सरकारी क्षेत्र में हैं, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर सरकारी क्षेत्र के शेष 27 बैंकों में से 19 राष्ट्रीकृत बैंक, एस०सी०आई० ग्रुप के 7 बैंक और आई०डी०वी०आई० बैंक लि० हैं।

2. बैकिंग शाखाओं का विस्तार – राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकिंग शाखाओं का विस्तार तीव्र गति से हुआ है। 19 जुलाई, 1969 ई० को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों व राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाओं की संख्या मात्र 8,321 थी, जो जून, 2011 ई० में बढ़कर 72,000 से भी ऊपर हो गयी।

3. बैंकों के सन्तुलित विकास के प्रयास – राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंक शहरी अथवा विकसित क्षेत्रों में ही अपनी शाखाएँ खोलते थे तथा देश के अनेक क्षेत्रों में कोई भी बैंक नहीं था। इसे असन्तुलन को दूर करने हेतु अधिकांश बैंकों द्वारा अपनी शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में भी खोली जा रही हैं। 1969 ई० के पश्चात् सभी अनुसूचित बैंकों द्वारा खोली गयी शाखाओं को 50 प्रतिशत शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित की गयी हैं।

4. समाज के अत्यधिक निर्धन व पिछड़े वर्ग को सुविधा – राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों द्वारा देश के सामान्य नागरिकों, विशेषकर गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों को कम ब्याज की दर पर ऋण वितरित किया जा रहा है। समाज के कमजोर वर्गों के लिए आवासीय योजनाएँ भी चलायी जा रही हैं। इस प्रकार के कार्यक्रम भी अपनाये गये हैं जिनसे बेरोजगारों को काम मिल सके तथा अर्द्ध-रोजगारों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके।

5. जमा धनराशि में वृद्धि – राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों की जमाराशि में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। जून, 1969 में अनुसूचित बैंकों की जमाराशि ₹4,646 करोड़ थी, जो वर्ष 2011 ई० में बढ़कर ₹ 14,67,909 करोड़ हो गयी।

6. कृषि साख – राष्ट्रीयकरण के उपरान्त कृषि विकास के लिए किसानों को कम ब्याज की दर पर तथा सरलतापूर्वक ऋण प्राप्त होने लगे हैं जिससे कृषि-क्षेत्र में स्थायी सुधार हुआ है, कृषि उत्पादन बढ़ा है और किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया है।

7. लघु एवं कुटीर उद्योगों की साख में वृद्धि – राष्ट्रीयकरण हो जाने से लघु एवं कुटीर उद्योगों को मिलने वाली साख-सुविधाओं में पर्याप्त वृद्धि हुई है। लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास के लिए सबसे बड़ी समस्या वित्त की थी। वित्त के अभाव में लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन होता जा रहा था। बैंकों का राष्ट्रीयकरण होने से लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए सस्ती ब्याज-दर पर ऋण मिलने लगे हैं।

8. बचतों को प्रोत्साहन – बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंक की शाखाओं का विस्तार विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है; अत: ग्रामीण व्यक्तियों में बैंकिंग के विषय में ज्ञान बढ़ा है। बचतों को बैंकों में जमा करने से बचतों को प्रोत्साहन मिला है तथा बैंक पूँजी संग्रह करने लगे हैं।

9. आर्थिक नियोजन में सहायक – भारत का आर्थिक विकास नियोजन के माध्यम से किया जा रहा है; अत: बैंक जनता से छोटी-छोटी बचतों का संग्रह करके सरकार के नियोजन पूर्ति के उद्देश्य हेतु ऋण प्रदान कर रहे हैं।

स्पष्ट है कि बैंको के राष्ट्रीयकरण द्वारा भारत में समाजवादी समाज की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण योगदान मिल रहा है। कृषक, भूमिहीन श्रमिक जो निर्धनता की रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे थे, बैंकों के करण के पश्चात् उनकी दशा में सुधार हुआ है; बैंकों का राष्ट्रीयकरण मात्र एक साधन है, साध्य आवश्यकता इस बात की है कि बैंकों को जनता का सहयोगी बनाया जाए।

प्रश्न 7
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। राष्ट्रीयकृत बैंकों के सुधार हेतु सुझाव दीजिए।
उत्तर:
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के सफल क्रियान्वयन में कुछ कठिनाइयाँ हुईं, जिनके कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं, जो निम्नलिखित हैं

1. कार्य में शिथिलता – राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों के कार्यों में शिथिलता आ गयी है। अब बैंक कर्मचारी उतने परिश्रम से कार्य नहीं करते जितने परिश्रम से वे पहले करते थे।

2. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन –
  राष्ट्रीयकृत बैंकों में भ्रष्टाचार अधिक पनप गया है। जनता को ऋण प्रदान करते समय कर्मचारी वर्ग या अन्य मध्यस्थों को रिश्वत या कमीशन देना पड़ता है।

3. नौकरशाही या अफसरशाही –
राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक कर्मचारियों में जनसेवा की भावना का ह्रास हुआ है। बैंक कर्मचारी ग्राहकों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते। इसलिए बैंकों द्वारा ग्राहकों को दी जाने वाली सेवाओं के स्तर में कमी आयी है।

4. योग्य व प्रशिक्षित कर्मचारियों की समस्या –
यद्यपि बैंक शाखाओं में विस्तार हुआ है, लेकिन नयी शाखाओं में काम करने के लिए कुशल एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों की व्यवस्था नहीं की जा सकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आवासीय सुविधाएँ उपलब्ध न होने के कारण योग्य व अनुभवी कर्मचारी वहाँ नहीं जाना चाहते हैं जिनके अभाव में बैंक का कार्य सुचारु रूप से नहीं चल पाता है।

5. जमा धनराशि में अपर्याप्त वृद्धि –
जिस तीव्र गति से बैंकों की शाखाओं में वृद्धि हुई है, उस गति से जमा राशियाँ नहीं बढ़ी हैं।

6. मूल्य-वृद्धि रोकने में असफल –
कुछ आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रीयकृत बैंक कीमत-वृद्धि को रोकने में असमर्थ रहे हैं। वे कीमत-वृद्धि के लिए बैंकों को ही दोषी मानते हैं, क्योंकि इन बैंकों ने साख-विस्तार किया है, जिसके परिणामस्वरूप कीमतों में वृद्धि हुई है।

7. ऋण की वसूली में कठिनाई –
छोटे व कमजोर वर्ग के लोगों से ऋण की वसूली करना एक कठिन समस्या हो गयी है। निम्न वर्ग को उत्पादक-कार्य हेतु दिया गया ऋण उपभोग कार्य में प्रयुक्त हो जाता है, जिससे बैंकों को हानि होती है।

8. अधिक व्यय –
बैंकिंग शाखाओं का विस्तार करने से बैंकों का व्यय-भार बढ़ता है। ग्रामीण शाखाओं में बैंकों को अधिक कार्य नहीं मिल पाता है, अर्थात् ऋण देने के अतिरिक्त जमा नाममात्र की प्राप्त होती है, जिसके कारण लाभ के स्थान पर हानि ही होती है।

9. ऋण लेने में असुविधा –
भारतीय कृषक, कारीगर एवं निर्धन वर्ग के लोगों के पास ऋण लेने के लिए जमानत के रूप में मूल्यवान् वस्तुएँ प्राय: नहीं होती हैं; अतः वे इन बैंकों से अधिक लाभ नहीं उठा पाते हैं। बैंक केवल उत्पादक-कार्यों हेतु ऋण देते हैं, जब कि निर्धन वर्ग को अनुत्पादक (उपभोग) कार्यों के लिए भी ऋण की आवश्यकता पड़ती है। ये बैंक इन्हें इस प्रकार की सहायता नहीं पहुँचा सके हैं।

10. राजनीतिज्ञों का प्रभाव –
बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने बैंकों में राजनीतिज्ञों के प्रभाव को बढ़ा दिया है। राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप के कारण बैंकों की डूबती हुई राशियों में वृद्धि हो रही है।

राष्ट्रीयकृत बैंकों के सुधार हेतु सुझाव
देश में समाजवादी समाज की स्थापना के लिए बैंकों को राष्ट्रीयकरण किया गया था। बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुए आज लगभग 36 वर्ष हो चुके हैं, फिर भी समाज के दुर्बल वर्गों का पर्याप्त आर्थिक विकास नहीं हो सका है और न ही जीवन-स्तर ऊँचा हो पाया है। अतः बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। बैंकों में सुधार लाने हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

  1. बैंकों को जनता का सहयोगी बनाया जाए।
  2. बैंकों के कर्मचारियों में जनसेवा की भावना जागृत की जाए।
  3.  देश के समन्वित आर्थिक विकास की योजना बनायी जाए।
  4.  कृषि एवं लघु उद्योगों को ऋण देने का एक निश्चित कार्यक्रम बनाया जाए।
  5. बैंकों का प्रशासन व प्रबन्ध कुशल बैंकरों के हाथों में रहे, न कि सरकारी प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में।
  6.  बैंक कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण सुविधाओं में वृद्धि की जानी चाहिए।
  7. बैंकों को नौकरशाही एवं राजनीतिक प्रभाव से दूर रखना चाहिए।
  8.  बैंकों को जनता में बचत की भावना प्रोत्साहित करके अपने निक्षेपों को बढ़ाना चाहिए।
  9. बैंकों को अपने व्यय घटाने चाहिए।
  10.  बैंकों के लिए उचित वातावरण बनाया जाए। बैंकों को ग्राहकों के साथ मधुर व सद्व्यवहार करना चाहिए।

प्रश्न 8
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना एवं उनके कार्यों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
भारत में 1904 ई० से सहकारी संस्थाओं द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए साख की व्यवस्था की जाती रही है, और प्रायः सभी ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक सहकारी बैंक कार्यशील हैं। इसके अतिरिक्त स्टेट बैंक समूह तथा 20 निजी व्यापारिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 31 हजार से अधिक बैंकिंग कार्यालय स्थापित किये जा चुके हैं। इन सुविधाओं के होते हुए भी भारत सरकार ने 1975 ई० में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित करने की घोषणा की, जिसके मुख्यतः दो कारण थे

(अ) छोटे किसानों की उपेक्षा होना – सहकारी तथा व्यापारिक बैंकों ने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों एवं छोटे किसानों की साख सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने में रुचि नहीं दिखायी।
(ब) ग्रामीण मनोवृत्ति वाले कार्यकर्ता – ग्रामीण साख-व्यवस्था व्यापारिक बैंकों में कार्यशील शहरी मनोवृत्ति वाले व्यक्तियों द्वारा नहीं की जा सकती। इन व्यक्तियों का मानक एवं वेतन-स्तर ग्रामीण साख-सुविधाओं के विस्तार एवं प्रबन्ध के अनुकूल नहीं था। अत: ग्रामीण क्षेत्रों के छोटे किसानों, सामान्य कारीगरों तथा भूमिहीन श्रमिकों की साख-सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ग्रामीण दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों द्वारा बैंक की स्थापना आवश्यक समझी गयी।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की स्थापना एवं वर्तमान स्थिति
भारत में ग्रामीण साख की कमी को दूर करने के उद्देश्य से सरकार ने 26 सितम्बर, 1975 ई० को एक अध्यादेश द्वारा देश भर में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की घोषणा की और 2 अक्टूबर, 1975 ई० को पाँच क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित किये गये

  1. मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) – सिण्डीकेट बैंक,
  2. गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) – स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया,
  3. भिवानी (हरियाणा) – पंजाब नेशनल बैंक,
  4. जयपुर (राजस्थान) – यूनाइटेड कॉमर्शियल बैंक,
  5.  माल्दा (पश्चिम बंगाल) – यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक वर्तमान में सिक्किम और गोवा के अतिरिक्त सभी राज्यों में कार्य कर रहे हैं। जून, 2005 ई० के अन्त में 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की 14,484 शाखाएँ देश के 25 राज्यों के 523 जिलों में कार्य कर रही थीं। केलकर समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखकर सरकार ने अप्रैल, 1987 ई० के बाद से कोई क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित नहीं किया है।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में विलय की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी है। इन बैंकों को एक करने तथा उन्हें सशक्त बनाने के विचार के साथ भारत सरकार ने सितम्बर, 2005 में चरणबद्ध तरीके से इन बैंकों को मिलाने की प्रक्रिया शुरू की। 31 अगस्त, 2005 को 42 नए बैंक गठित किये गये हैं। इन बैंकों को 16 राज्यों में 18 बैंकों ने प्रायोजित किया है। अब इनकी संख्या 196 से घटकर कुल 82 ही (46 विलयीकृत तथा 36 पृथक्) रह गई है।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की पूँजी एवं प्रबन्ध – इन बैंकों में से प्रत्येक की अधिकृत पूँजी ₹25 लाख है जिसमें से 50 प्रतिशत केन्द्रीय सरकार द्वारा, 15 प्रतिशत सम्बन्धित राज्य सरकार द्वारा तथा शेष 35 प्रतिशत प्रायोजन करने वाले सरकारी क्षेत्र के व्यापारिक बैंकों द्वारा खरीदी गयी है।
प्रत्येक बैंक का प्रबन्ध एक निदेशक मण्डल द्वारा किया जाता है, जिसमें 9 सदस्य होते हैं और पूँजी भागीदारों द्वारा मनोनीत किये जाते हैं।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का कार्य-विवरण
ग्रामीण बैंकों का कार्य-क्षेत्र प्राय: एक या दो जिलों तक ही सीमित होता है। ये बैंक छोटे किसानों, ग्रामीण कारीगरों तथा सामान्य वर्ग के व्यापारियों एवं उत्पादकों के लिए ऋण की व्यवस्था करते हैं। इन बैंकों द्वारा दिये गये ऋणों पर कम ब्याज लिया जाता है, जो सहकारी समितियों द्वारा वसूल किये गये ब्याज दर से अधिक नहीं होता।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना का मुख्य उद्देश्य छोटे एवं सीमान्त किसानों, कृषि-मजदूरों, कारीगरों तथा छोटे उद्यमियों को उधार एवं अन्य प्रकार की वित्तीय सुविधाएँ उपलब्ध कराना था। इन बैंकों को भी अनुसूचित व्यापारिक बैंक का संवैधानिक दर्जा प्राप्त है।
ग्रामीण बैंकों के कर्मचारियों की वेतन-दरें विभिन्न राज्यों में कार्यशील सरकारी कर्मचारियों के वेतनों के अनुरूप निर्धारित की गयी हैं। इन दरों का निर्धारण करते समय सम्बन्धित क्षेत्र के सरकारी तथा स्थानीय मण्डलों के कर्मचारियों की वेतन-दरों को आधार माना गया है।

इन बैंकों की कार्यप्रणाली बहुत सरल है और अधिकांश लेन-देन का लेखा-जोखा स्थानीय भाषा में किया जाता है। इन बैंकों के ग्राहकों को फार्म आदि भरने में बैंक कर्मचारियों द्वारा सहायता देने को प्रावधान किया गया है।
ग्रामीण बैंकों का प्रयोग सर्वथा नवीन प्रयोग है जिसका उद्देश्य भारत के निर्माण क्षेत्रों में उत्पादक क्रियाओं को गति प्रदान करना है। इस प्रयोग को सफल बनाने के लिए ग्रामीण भावना एवं ग्रामीण दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों को ही इसका संचालन भार दिया गया है जिससे वह ग्रामीण जनता के लिए ‘ग्रामीण दृष्टिकोण वाली साख की व्यवस्था कर सकें।

प्रश्न 9
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना एवं इसके कार्यों का वर्णन व प्रगति का मूल्यांकन कीजिए।
या
भारत में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए। [2014]
उत्तर:
देश की कृषि एवं ग्रामीण आवश्यकताओं की पूर्ति में वृद्धि करने एवं विभिन्न संस्थाओं के कार्यों में समन्वय करने के लिए एक राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक स्थापित करने का निर्णय दिसम्बर, 1979 ई० में तत्कालीन प्रधानमन्त्री चौधरी चरणसिंह के मन्त्रिमण्डल द्वारा लिया गया था, जिसको श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार द्वारा साकार रूप दिया गया।

1. स्थापना – राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक 12 जुलाई, 1982 ई० को स्थापित किया गया जिसने 15 जुलाई, 1982 ई० से कृषि एवं ग्रामीण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शीर्ष संस्था के रूप में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। नाबार्ड का भारतीय रिजर्व बैंक से सीधा सम्बन्ध है।

2. पूँजी – आरम्भ में नाबार्ड की चुकता पूँजी ₹ 100 करोड़ थी, जिसमें भारत सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक को बराबर-बराबर योगदान था। बाद में नाबार्ड की चुकता पूँजी बढ़ाकर ₹ 500 करोड़ कर दी गयी। इसमें भारतीय रिजर्व बैंक तथा केन्द्र सरकार का अंशदान क्रमशः ₹ 400 तथा ₹ 100 करोड़ था। दिसम्बर, 2000 ई० में नाबार्ड के कार्य-क्षेत्र का विस्तार करने के लिए इसे और अधिक स्वायत्तता प्रदान करने की आवश्यकता हुई। इसके लिए नाबार्ड के 1981 ई० के अधिनियम में संशोधन किया गया। इस संशोधन विधेयक-2000 ई० को राष्ट्रपति द्वारा जनवरी, 2001 ई० में स्वीकृति दिये जाने के बाद इस अधिनियम के तहत नाबार्ड की प्राधिकृत पूँजी ₹500 करोड़ से बढ़ाकर ₹5,000 करोड़ कर दी गयी ।

3. प्रबन्ध – इस बैंक का प्रबन्ध करने के लिए एक संचालक मण्डल बनाया गया है। इस संचालक मण्डल की नियुक्ति रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की सलाह से भारत सरकार करती है। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर को इस बैंक को सभापति (चेयरमैन) नियुक्त किया गया है। सभापति और प्रबन्ध संचालक के अतिरिक्त इस बैंक के दस संचालक होते थे। इस समय इस बैंक में 15 सदस्यों का संचालक मण्डल है, जिसमें

  1. 2 संचालक ग्रामीण अर्थशास्त्र व ग्रामीण विकास के विशेषज्ञों में से,
  2. 3 संचालक सहकारी व वाणिज्यिक बैंकों के अनुभवी व्यक्तियों में से,
  3. 3 संचालक रिजर्व बैंक के संचालकों में से,
  4. 3 संचालक केन्द्रीय सरकार के अधिकारियों में से,
  5. 2 संचालक राज्य सरकार के अधिकारियों में से,
  6.  एक या अधिक पूर्णकालिक संचालक केन्द्रीय सरकार द्वारा चयनित किये जाते हैं।

सभापति व प्रबन्ध संचालक का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, लेकिन अन्य संचालकों को कार्यकाल 3 वर्ष का। इस बैंक का संचालक मण्डल एक सलाहकार मण्डल बनाएगा जिसका कार्य समय-समय पर उन मामलों पर सलाह देना होगा जिसे बोर्ड द्वारा सौंपा जाएगा। वर्तमान में इस बैंक के 28 क्षेत्रीय कार्यालय व 336 से अधिक जिला-स्तरीय कार्यालय हैं।

4. कार्य – इस बैंक को वे सभी काम दिये गये हैं जो रिजर्व बैंक के कृषि साख विभाग द्वारा किये जाते थे। यह बैंक कृषि-साख को एक छत के नीचे लाने का कार्य कर रहा है और अल्पकालीन, मध्यकालीन व दीर्घकालीन ऋणों की व्यवस्था कर रहा है। जिस प्रकार औद्योगिक विकास के लिए औद्योगिक विकास बैंक हैं, उसी प्रकार कृषि विकास के लिए यह बैंक सर्वोच्च बैंक है, जो सभी एजेन्सियों के कार्य में समन्वय करते हुए कृषि-साख का विस्तार करता है।
इस बैंक को कृषि पुनर्वित्त विकास निगम के वे सभी कार्य भी सौंप दिये गये हैं, जो यह निगम करता था। इसी प्रकार राष्ट्रीय कृषि दीर्घकालीन कोष व राष्ट्रीय कृषि-साख (स्थायीकरण) कोष भी रिजर्व बैंक ने इस बैंक को हस्तान्तरित कर दिये हैं।

यह बैंक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बॉण्ड यो ऋण-पत्र जारी कर सकता है, जिसे पर केन्द्रीय सरकार की मूलधन व ब्याज की वापसी की गारण्टी होगी। यह बँक कृषि के सम्बन्ध में सभी प्रकार की साख की व्यवस्था करता है; जैसे-उत्पादन व विपणन ऋण, राज्य सरकारों को ऐसी ही संस्थाओं के पूँजी लाभ के लिए ऋण।

इस बैंक के कार्यों को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है

  1. कृषि साख-संस्थाओं को एक छत के नीचे लाकर अल्पकालीन, मध्यकालीन और दीर्घकालीन ऋणों की व्यवस्था करना।
  2.  समन्वित ग्रामीण विकास को प्रोन्नत करने तथा सभी प्रकार के उत्पादन और विनियोग के लिए एक पुनर्वित्त संस्थान के रूप में कार्य करना।
  3.  सहकारी ऋण-समितियों की हिस्सा पूँजी में योगदान देने के लिए राज्य सरकारों को 20 वर्ष की लम्बी अवधि तक के लिए दीर्घकालीन ऋण देना।
  4.  विकेन्द्रित क्षेत्रों के विकास के लिए केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, योजना आयोग एवं अन्य संस्थाओं की क्रियाओं का उचित समन्वय करना।
  5. प्राथमिक सहकारी बैंकों को छोड़कर अन्य सहकारी बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का निरीक्षण करना।
  6. अनुसन्धान एवं विकास निधि बनाकर कृषि एवं ग्रामीण विकास में शोध को प्रोत्साहित करना।

नाबार्ड की प्रगति एवं मूल्यांकन
नाबार्ड द्वारा वर्ष 1999-2000 में कृषि-विकास के लिए राज्य सहकारी बैंकों, व्यावसायिक बैंकों तथा ग्रामीण बैंकों को ₹ 6,080 करोड़ की सहायता उपलब्ध करायी गयी। इसमें से 88% सहायता अल्पकालीन थी तथा शेष मध्यम एवं दीर्घकालीन।

ग्रामीण ऋण के क्षेत्र का प्रबन्ध करने वाले शिखर-संस्थान के रूप में नाबार्ड ग्रामीण वित्तीय संस्थाओं को उनके संसाधनों को बढ़ाने के लिए तथा अतिरिक्त वित्त सुविधा देने में सक्षम बनाने के लिए; अपनी स्थापना के समय से ही एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अपनी स्थापना के समय से ही नाबार्ड राज्य सरकारी बैंक को, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को और राज्य सरकारों को अल्पावधि एवं मध्यावधि ऋण के लिए पुनर्वित्त सुविधाएँ प्रदान कर रहा है। नाबार्ड राज्य सरकारी बैंकों को और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को मुख्य रूप से अल्पावधि के ऋण प्रदान करता है; जबकि राज्य सरकारों को दीर्घावधि के लिए ऋण सुविधाएँ प्रदान करता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
भारतीय रिजर्व बैंक किस प्रकार व्यापारिक बैंकों द्वारा सृजित साख का नियन्त्रण करता है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
रिजर्व बैंक देश का केन्द्रीय बैंक होने के कारण साख-व्यवस्था के नियन्त्रण का कार्य करता है। साख-नियन्त्रण की विभिन्न विधियों के द्वारा रिजर्व बैंक देश में साख की मात्रा को नियन्त्रित करके अर्थव्यवस्था में स्थायित्व बनाये रखने का प्रयत्न करता है। यह साख-नियन्त्रण के लिए निम्नलिखित क्रियाएँ करता है

1. बैंक-दर में परिवर्तन के द्वारा – यदि केन्द्रीय बैंक देखता है कि समाज में साख की मात्रा तेजी के साथ बढ़ रही है और उसे कम करना आवश्यक है तो वह बैंक-दर को बढ़ा देता है। बैंक-दर में वृद्धि होने के कारण अन्य बैंकों को भी अपनी ब्याज की दर को बढ़ाना पड़ता है, क्योंकि वे ऋणों के लिए केन्द्रीय बैंक पर निर्भर होते हैं। इस प्रकार बैंक-दर के बढ़ने से बाजार में ब्याज की दर भी बढ़ जाती है। ब्याज की दर में वृद्धि हो जाने के कारण अब ऋण लेकर विनियोग करना उतना लाभपूर्ण नहीं रहता, जितना कि पहले था; अत: व्यवसायी कम मात्रा में ऋण लेते हैं। इस प्रकार साख का नियन्त्रण होता है।

2. खुले बाजार की क्रियाओं के द्वारा – साख-नियन्त्रण के उद्देश्य से केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों के क्रय-विक्रय करने को खुले बाजार की क्रियाएँ कहा जाता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया जब यह अनुभव करता है कि साख की मात्रा में वृद्धि हो रही है, तब वह सरकारी प्रतिभूतियों को बेचना प्रारम्भ कर देता है। सरकारी प्रतिभूतियों को बेचने से बाजार में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है और साख नियन्त्रित हो जाती है।

3. बैंकों के रक्षित-निधि के अनुपात में परिवर्तन द्वारा – रिजर्व बैंक अन्य बैंकों की रक्षित-निधि के अनुपात में परिवर्तन करके भी साख का नियन्त्रण कर सकता है। देश में प्रत्येक बैंक को अपनी जमा का एक निश्चित अनुपात रिजर्व बैंक के पास अनिवार्य रूप से रखना होता है। साख को नियन्त्रित करने के लिए रिजर्व बैंक व्यापारिक बैंकों के द्वारा रखी जाने वाली सुरक्षित निधि का अनुपात बढ़ा देता है।

4. अन्य उपाय – बैंकिंग कम्पनीज ऐक्ट ने रिजर्व बैंक को व्यापारिक बैंकों पर नियन्त्रण रखने के लिए अनेक अधिकार दिये हैं, जिनके द्वारा वह साख को नियन्त्रित करता हैं

  1. बैंकों को बैंकिंग कार्य के लिए लाइसेन्स देना।
  2.  बैंकों की संख्या एवं नयी शाखाओं पर नियन्त्रण करना।
  3. बैंकों का निरीक्षण करना।
  4. बैंकों की ऋण-नीति निर्धारित करना।
  5. बैंकों को प्रत्यक्ष आदेश देकर साख का नियन्त्रण करना।

प्रश्न 2
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना कब हुई ? इसका प्रबन्ध किसके द्वारा होता है। तथा इसके कितने विभाग हैं ?
उत्तर:
प्रत्येक देश में मुद्रा और साख-व्यवस्था का नियन्त्रण करने के लिए एक ऐसी संस्था की
आवश्यकता होती है, जो देश की मुद्रा-व्यवस्था को नियमित और संचालित कर सके। इस कार्य के लिए 1934 ई० में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया ऐक्ट’ पारित किया गया। 1 अप्रैल, 1935 ई० को भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के नाम से एक केन्द्रीय बैंक की स्थापना की गयी। अपनी स्थापना के समय से ही रिजर्व बैंक ने केन्द्रीय बैंक के रूप में कार्य करना आरम्भ कर दिया था। भारत सरकार ने 1 जनवरी, 1949 ई० को रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण कर दिया। आज भी रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, केन्द्रीय बैंक के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है।

प्रबन्ध-रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का प्रबन्ध भारत सरकार एक केन्द्रीय संचालक मण्डल द्वारा करती है। इस समय इस बोर्ड में 20 सदस्य हैं

  1. 1 गवर्नर भारत सरकार द्वारा नियुक्त।
  2.  4 उप-गवर्नर, भारत सरकार द्वारा नियुक्त।
  3. 10 मनोनीत संचालक, भारत सरकार द्वारा मनोनीत।
  4. 4 निर्वाचित संचालक, स्थानीय बोर्डों द्वारा निर्वाचित
  5. 1 मनोनीत सरकारी अधिकारी, भारत सरकार द्वारा मनोनीत।

कार्यालय – रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का मुख्य कार्यालय मुम्बई में स्थित है। इसके स्थानीय कार्यालय नई दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलुरु, कानपुर, अहमदाबाद, हैदराबाद, पटना तथा नागपुर में हैं।

विभाग – रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के सफल कार्य-संचालन हेतु बैंक ने निम्नलिखित विभाग बनाये हुए हैं

  1.  निर्गमन विभाग,
  2.  बैंकिंग विभाग,
  3. बॅकिंग विकास विभाग,
  4.  बैंकिंग क्रियाओं का विभाग,
  5.  कृषि साख विभाग,
  6. विनिमय नियन्त्रण विभाग,
  7.  औद्योगिक वित्त विभाग,
  8. गैर-बैंकिंग कम्पनीज विभाग,
  9. कानून-विभाग तथा
  10.  शोध एवं अंक विभाग।

प्रश्न 3
स्वदेशी (देशी) बैंक एवं आधुनिक बैंक में अन्तर बताइए।
उत्तर:
देशी बैंक व आधुनिक बैंक में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System 1
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 20 Indian Modern Banking System 2
प्रश्न 4
राष्ट्रीयकृत बैंकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रथम चरण के अन्तर्गत 19 जुलाई, 1969 ई० को निम्नलिखित 14 ऐसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिनकी जमाराशि ₹50 करोड़ या उससे अधिक थी

  1. सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया,
  2.  बैंक ऑफ इण्डिया,
  3.  पंजाब नेशनल बैंक,
  4. बैंक ऑफ बड़ौदा,
  5.  यूनाइटेड कॉमर्शियल बैंक,
  6. कैनरा बैंक,
  7.  यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया,
  8.  देना बैंक,
  9. यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया,
  10. इलाहाबाद बैंक,
  11. सिण्डीकेट बैंक,
  12.  इण्डियन ओवरसीज बैंक,
  13.  इण्डियन बैंक तथा
  14.  बैंक ऑफ महाराष्ट्र।

इन चौदह बैंकों की सम्पूर्ण सम्पत्ति, कोष, दायित्व आदि सरकारी अधिकार में आ गये। इनके अतिरिक्त राष्ट्रीयकरण के द्वितीय चरण में 15 अप्रैल, 1980 ई० को अन्य 6 बड़े अनुसूचित बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण किया गया। इस राष्ट्रीयकरण के निर्णय से ऐसे बैंक ही प्रभावित हुए जिनका कारोबार 14 मार्च, 1980 ई० को ₹ 200 करोड़ या उससे अधिक था। राष्ट्रीयकृत 6 बड़े अनुसूचित बैंकों के नाम निम्नलिखित हैं

  1.  आन्ध्र बैंक लिमिटेड,
  2. कॉर्पोरेशन बैंक लिमिटेड,
  3. न्यू बैंक ऑफ इण्डिया,
  4. ओरियण्टल बैंक ऑफ कॉमर्स,
  5.  पंजाब एण्ड सिन्ध बैंक तथा
  6. विजया बैंक।

इस प्रकार कुल राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या 20 हो गयी। विगत वर्षों से चली आ रही निरन्तर हानि के कारण 4 सितम्बर, 1993 ई० को न्यू बैंक ऑफ इण्डिया का पंजाब नेशनल बैंक में विलय कर दिया गया। परिणामस्वरूप अब राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या 19 ही रह गयी है।

प्रश्न 5
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कमजोरियों को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कमियों एवं समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में इन बैंकों की कार्य-प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, जिसके लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तावित हैं

  1. इन बैंकों की शाखाओं का विस्तार, जो कुछ ही क्षेत्रों अथवा प्रान्तों तक ही सीमित है, सम्पूर्ण देश में किया जाना चाहिए जिससे क्षेत्रीय असन्तुलन की स्थिति न उत्पन्न हो सके।
  2. स्वीकृत ऋणों के प्रयोग पर निगरानी रखी जानी चाहिए जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऋण का प्रयोग उसी कार्य में किया गया है जिस कार्य के लिए लिया गया है।
  3. वित्तीय समस्या के सम्बन्ध में इन बैंकों को रिजर्व बैंक अथवा अन्य प्रायोजक बैंकों से रियायती दरों पर आवश्यकतानुसार वित्त उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
  4. इस बैंक द्वारा केवल उत्पादक कार्यों के लिए ही ऋण उपलब्ध कराया जाना चाहिए। लाभार्थियों का चयन करते समय उनकी ऋण वापसी की क्षमता का भी आकलन कर लेना चाहिए।
  5. इन बैंकों को चाहिए कि वे अपने कार्य-क्षेत्र में अधिक-से-अधिक बचतों को अपनी ओर आकर्षित करें तथा लागत घटाकर एवं कार्यकुशलता बढ़ाकर हानियों को कम करने का प्रयास करें जिससे उनकी जीवन-क्षमता बनी रहे सके।
  6.  बैंक कर्मचारियों को लगन, निष्ठा एवं ईमानदारी से कार्य करने के लिए उनकी वेतन विसंगतियों, सुविधाओं एवं प्रोन्नति सम्बन्धी समस्याओं का निदान करना चाहिए जिससे वे सही दिशा में कार्य कर सकें।

प्रश्न 6
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में केलकर समिति के सुझावों को संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली का अध्ययन करने के लिए नियुक्त केलकर समिति का मूलभूत निष्कर्ष यह है कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का वृहत् शाखा विस्तार, कम लागत की। कार्य-प्रणाली, स्थानीय वातावरण से तादात्म्य और कमजोर वर्ग की सेवा का राष्ट्रीय दृष्टिकोण देखते । हुए ग्रामीण साख की इकाई के रूप में ये बैंक सर्वथा अनुकूल हैं तथा व्यापारिक बैंक एवं सहकारी संस्थाओं के साथ अस्तित्व में रहकर ये एक पूरक संस्था की भूमिका सफलता से निभा सकते हैं, किन्तु इनकी कार्यक्षमता को बढ़ाना आवश्यक है। इसके सम्बन्ध में कमेटी ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं

  1. इन बैंकों को केवल कमजोर वर्ग को ही ऋण देना चाहिए। हितग्राहियों के लाभ को दृष्टि में रखकर, बैंकों के लक्ष्य के अनुसार ही ऋण दिया जाना चाहिए।
  2. राष्ट्रीय ग्रामीण एवं विकास बैंक नाबार्ड को ग्रामीण बैंकों का अध्ययन कर, बेहतर प्रबन्ध एवं नियन्त्रण की दृष्टि से बैंकों को विभाजित कर देना चाहिए और दो या दो से अधिक लघु तथा अनार्थिक इकाइयों को एक इकाई में बदल लेना चाहिए।
  3. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के महत्त्व को देखते हुए नयी शाखाएँ उन्हीं स्थानों पर खोली जानी चाहिए जहाँ साख-सुविधाओं का अभाव हो और निर्धन एवं कमजोर वर्ग का बाहुल्य।
  4. ग्रामीण बैंकों को ऋण आवंटन की ऐसी प्रणाली अपनानी चाहिए कि बकाया राशि की समस्या उत्पन्न ही न हो।
  5.  प्रायोजित करने वाले व्यापारिक बैंकों को ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली एवं प्रगति पर नजर रखनी चाहिए तथा सम्बन्धित गतिविधियों पर उचित सलाह देनी चाहिए।
  6.  नाबार्ड को ग्रामीण बैंकों के कार्यों पर नजर रखनी चाहिए और इस सम्बन्ध में नीतियाँ एवं निर्देश जारी करने चाहिए।

केलकर समिति के उक्त सुझावों के पूर्व ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली का अध्ययन करने के लिए प्रो० एम० एल० दाँतवाला की अध्यक्षता में 1977-78 ई० में भी एक समिति गठित की गयी थी। इस समिति का निष्कर्ष था कि ग्रामीण बैंकों का बड़ा उत्तरदायित्व उन कमजोर वर्ग के ग्रामीणों में साख उपलब्ध कराना है, जो ग्रामीण साहूकारों की दया पर निर्भर हो जाते हैं। बैंक को रियायती दर पर मात्र ऋण ही नहीं देना है, बल्कि ऋण की उत्पादकता भी देखनी है तथा इस सम्बन्ध में गहन विस्तार योजना आवश्यक है।

प्रश्न 7
भारतीय स्टेट बैंक की सफलताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
स्थापना के समय भारतीय स्टेट बैंक को निम्नलिखित दायित्व सौंपे गये थे

  •  बैंकिंग विकास,
  •  ग्रामों में बैंकिंग सुविधाएँ तथा सस्ते ऋण की व्यवस्था, जिसमें कृषि के लिए ऋण-विशेष महत्त्वपूर्ण है,
  •  लघु उद्योगों के विकास के लिए सहायता, एक शक्तिशाली एवं साधन-सम्पन्न बैंक संगठन जो देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सके।

स्टेट बैंक की सफलताओं को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता है
1. बैकिंग विकास – स्टेट बैंक परिवार द्वारा देश में बैंकिंग सुविधाओं का तेजी से विस्तार किया गया है। 1969 ई० में स्टेट बैंक समूह की कुल शाखाएँ 2,462 थीं, जो 30 जून, 2013 ई० में बढ़कर 1,50,03 हो गयी हैं।

2. ग्रामीण बैकिंग –
स्टेट बैंक शाखा विस्तार कार्यक्रम से ग्रामों में बैंकिंग सुविधाओं का विशेष विकास हुआ है। स्टेट बैंक समूह की 42% शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में ही कार्यरत हैं।

3. ग्रामीण साख –
स्टेट बैंक द्वारा सहकारी बैंकों, लघु लद्योगों तथा कृषि योजनाओं के ऋण की अनेक सुविधाओं की व्यवस्था की गयी है। इनमें अल्पकालीन एवं मध्यकालीन आर्थिक सुविधाएँ प्रमुख हैं।

4. लघु उद्योग –
भारतीय स्टेट बैंक ने लघु उद्योगों के वित्त पोषण के लिए ‘साहसी योजना’, ‘उदार साख योजना’ आदि आरम्भ की हैं।

5. विदेशी विनिमय तथा वित्त –
स्टेट बैंक द्वारा विदेशों को माल निर्यात के लिए निर्यात सम्वर्द्धन योजना जारी की गयी है जिसके अन्तर्गत निर्यातकों को सुविधाजनक ऋण दिये जाते हैं।

6. मध्यकालीन ऋण –
स्टेट बैंक द्वारा उद्योगों के लिए दस वर्ष तक की अवधि के ऋण दिए जा सकते हैं। इन ऋणों के लिए औद्योगिक विकास बैंक पुनर्वित्त व्यवस्था कर देता है।

प्रश्न 8
व्यापारिक बैंकों के महत्त्व तथा लाभों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
व्यापारिक बैंकों के प्रमुख लाभ व महत्त्व निम्नलिखित हैं

  1. बैंक व्यक्तियों की निष्क्रिय बचतों को सक्रिय बनाकर उत्पादन क्षेत्रों तक पहुँचाते हैं।
  2.  बैंक बहुमूल्य धातुओं के प्रयोग में बचत करते हैं, क्योंकि अब धातुओं व नकदी का प्रयोग न होकर साख मुद्रा (चेक) का प्रयोग बढ़ता जा रहा है।
  3.  बैंक की आकर्षक ब्याज दरें जनता को बचत के लिए प्रोत्साहित करती हैं।
  4.  बैंक उद्योग-धन्धों के लिए अर्थ-प्रबन्ध करते हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि होकर देश के आर्थिक विकास में सहायता मिलती है।
  5.  द्रव्य को एक स्थान से दूसरे स्थान पर कम व्यय पर भेजने में बैंक सहायता प्रदान करते हैं। साथ ही यात्रियों को मुद्रा सम्बन्धी जोखिमों को दूर करने के लिए यात्री चेक की व्यवस्था भी करते हैं।
  6.  बैंक कीमतों में स्थिरता लाने में सहायक होते हैं।
  7.  बैंक विदेशी व्यापार के लिए अर्थ की व्यवस्था करते हैं तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को सफल बनाने का प्रयास करते हैं।
  8. कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए बैंक कृषकों को विभिन्न प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं।
  9. बैंक विनियम का सस्ता माध्यम प्रदान करते हैं।
  10. बैंक द्वारा साख का निर्माण किया जाता है।
  11. साख मुद्रा के परिमाण में परिवर्तन करके बैंक विनिमय माध्यम के परिमाण में घटा-बढ़ी कर सकते हैं और इस प्रकार देश की मुद्रा-प्रणाली में लोच बनी रहती है।
  12. बैंक राजकीय अर्थ-प्रबन्धन में भारी योगदान देते हैं। ये सरकारी ऋणों का प्रबन्ध करते हैं। तथा सरकार के आदेश पर उनको वापस करते हैं।
  13. बैंक अपने ग्राहकों द्वारा जमा किये गये चेक, बिल, हुण्डी, विनियम प्रपत्र आदि का संग्रह करते हैं तथा शेयर, डिबेन्चर आदि की बिक्री में सहायता करते हैं।

इस प्रकार, वर्तमान युग में बैंक वित्तीय सलाहकार एवं प्रतिनिधि व्यवस्थापक का कार्य करते हैं। व्यापार तथा उद्योग के लिए यथोचित मात्रा में पूँजी की व्यवस्था करने के साथ-साथ समाज की बचतों को एक स्थान पर संग्रह कर उन्हें उपयोगी क्षेत्रों में विनियोजित करते हैं तथा देश की आर्थिक योजना के लिए यथासमय धन की व्यवस्था कर देश की आर्थिक उन्नति में सक्रिय योगदान करते हैं।

प्रश्न 9
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के क्या उद्देश्य थे? संक्षेप में लिखिए। [2009]
उत्तर:
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे सरकार के निम्नलिखित उद्देश्य थे

1. आर्थिक केन्द्रीकरण को समाप्त करना – भारत में व्यापारिक बैंकों का स्वामित्व एवं नियन्त्रण कुछ ही अंशधारियों के हाथ में था, फलतः आर्य एवं सम्पत्ति का असमान वितरण होता था। अतः आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को समाप्त करने के लिए बैंकों को राष्ट्रीयकरण किया गया।

2. कृषि-क्षेत्र का विकास – यद्यपि कृषि भारत का सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण उद्योग है, किन्तु व्यापारिक बैंकों ने कृषि-विकास पर कभी ध्यान नहीं दिया। कृषि की इस उपेक्षा को दूर करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कदम उठाया गया।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की शाखाओं का विस्तार – व्यापारिक बैंकों ने नगरों तक ही अपने कार्य-क्षेत्र को सीमित रखा। पिछड़े एवं ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक विकास के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण को उपयुक्त समझा गया।

4. बैंकों के साधनों का बेहतर प्रयोग – बैंकों के साधनों का उपयोग संचालकों द्वारा अपने हित में किया गया तथा बैंकों की पूँजी का विनियोग उन क्षेत्रों में किया गया जहाँ संचालक चाहते थे। राष्ट्रीयकरण के माध्यम से साधनों के बेहतर प्रयोग का लक्ष्य रखा गया।

5. लघु एवं ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहित करने का उद्देश्य –  राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंक केवल बड़े औद्योगिक घरानों के वित्त-पोषक बने हुए थे और लघु एवं ग्रामीण उद्योगों का विकास वित्त के अभाव में सर्वथा उपेक्षित था।

6. सामाजिक नियन्त्रण की असफलता – यद्यपि राष्ट्रीयकरण के पहले बैंकों का सामाजिक नियन्त्रण किया गया, किन्तु यह नीति अधिक प्रभावपूर्ण सिद्ध नहीं हो सकी; अत: बैंकिंग व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए राष्ट्रीयकरण आवश्यक समझा गया।

7. पंचवर्षीय योजनाओं में व्यापारिक बैंकों की भूमिका – बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्रों की वित्तीय व्यवस्था करने में असफल रहे हैं। अर्थशास्त्रियों का मत था-“व्यापारिक बैंक पंचवर्षीय योजनाओं के सामाजिक उद्देश्य के अनुरूप अपने को ढालने में असफल रहे।” एक नियोजित अर्थव्यवस्था में व्यापारिक बैंकों का निजी नियन्त्रण सर्वथा अनुचित है। यह भारत में योजनाओं के उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक रहा है।

प्रश्न 10
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की असफलता के कारण बताइए।
उत्तर:
यद्यपि ग्रामीण बैंकों ने ग्रामीण साख की समस्या को हल करने का प्रयास किया है एवं स्थानीय स्तर पर लोगों की आय एवं रोजगार बढ़ाने में सहायता प्रदान की है, फिर भी इन बैंकों की कुछ कमियाँ हैं जिसके कारण ये पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाये हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की असफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित है।

  1. इन बैंकों के विस्तार में क्षेत्रीय असमानता है। इनकी अधिकांश शाखाएँ कुछ ही प्रान्तों में स्थित हैं जो उचित नहीं है।
  2.  अकुशल प्रबन्ध एवं प्रशासन तथा मितव्ययिता के अभाव में देश में कार्यरत अधिकांश क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक घाटे पर चल रहे हैं, जबकि यह आशा की गयी थी कि अपनी स्थापना के 5 वर्षों के भीतर ये अपना एक सशक्त आधार तैयार कर लेंगे।
  3.  क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा वितरित ऋणों की अदायगी समय से नहीं हो पाती है, जिससे इन्हें वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। भारतीय कृषक गरीब एवं ऋणग्रस्त होने के कारण इन बैंकों के ऋणों का भुगतान करने में अपने को असमर्थ पाता है।
  4. इन बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों को अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों की अपेक्षा कम सुविधाएँ तथा भावी प्रोन्नति के अवसर कम उपलब्ध हैं। ये कर्मचारी रुचि लेकर कार्य नहीं करते तथा ग्रामीण विकास की योजनाओं के प्रति उदासीन रहते हैं।

प्रश्न 11
केन्द्रीय बैंक द्वारा ग्रहीत साख-नियन्त्रण की दो प्रत्यक्ष विधियों के नाम लिखिए।
या
भारतीय रिजर्व बैंक में कारण-नियन्त्रण की परिणात्मक विधियों की संक्षेप में विवेचना कीजिए। [2014, 16]
उत्तर:
1. बैंक-दर में परिवर्तन के द्वारा – यदि केन्द्रीय बैंक देखता है कि समाज में साख की मात्रा तेजी के साथ बढ़ रही है और उसे कम करना आवश्यक है तो वह बैंक-दर को बढ़ा देता है। बैंक-दर में वृद्धि होने के कारण अन्य बैंकों को भी अपनी ब्याज की दर को बढ़ाना पड़ता है, क्योंकि वे ऋणों के लिए केन्द्रीय बैंक पर निर्भर होते हैं। इस प्रकार बैंक-दर के बढ़ने से बाजार में ब्याज की दर भी बढ़ जाती है। ब्याज की दर में वृद्धि हो जाने के कारण अब ऋण लेकर विनियोग करना उतना लाभपूर्ण नहीं रहता, जितना कि पहले था; अतः व्यवसायी कम मात्रा में ऋण लेते हैं। इस प्रकार साख का नियन्त्रण होता है।

2. खुले बाजार की क्रियाओं के द्वारा – साख-नियन्त्रण के उद्देश्य से केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों के क्रय-विक्रय करने को खुले बाजार की क्रियाएँ कहा जाता है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया जब यह अनुभव करता है कि साख की मात्रा में वृद्धि हो रही है, तब वह सरकारी प्रतिभूतियों को बेचना प्रारम्भ कर देता है। सरकारी प्रतिभूतियों को बेचने से बाजार में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है और साख नियन्त्रित हो जाती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
व्यापारिक बैंकों के दो प्रमुख कार्य लिखिए। [2011, 13]
उत्तर:
1. रुपया जमा करना – बैंक जनता को बचत के लिए प्रोत्साहित करके विभिन्न खातों में जमा प्राप्त करते हैं। ये जमा धनराशि पर ब्याज देते हैं तथा ग्राहकों द्वारा माँग करने पर इन्हें वापस करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। बैंक अपने ग्राहकों से धन चालू, सावधि एवं सेविंग्स बैंक खातों में जमा के रूप में स्वीकार करते हैं।

2. रुपया उधार देना – व्यापारिक बैंकों का दूसरा प्रमुख कार्य रुपया उधार देना है। बैंक अपने ग्राहकों को उनकी आवश्यकता पर ऋण देता है तथा इन ऋणों पर ब्याज भी प्राप्त करता है। ऋणों पर प्राप्त होने वाला ब्याज ही बैंक की आय को प्रमुख स्रोत होता है। बैंकों द्वारा केवल उत्पादक या व्यापारिक कार्यों के लिए ही प्रायः ऋण दिया जाता है। बैंक निम्नलिखित प्रकार से ऋण प्रदान करता है

  •  माल तथा प्रतिभूतियों को गिरवी रखकर अग्रिम ऋण देना।
  •  नकद साख तथा अधिविकर्ष आदि सुविधाओं के द्वारा व्यापारियों को ऋण देना।
  • विनिमय बिलों का भुनाना स्वीकार करना तथा क्रय-विक्रय करना।

प्रश्न 2
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना के क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे

  1.  मुद्रा एवं साख की नीति में समन्वय स्थापित करना।
  2. रुपये के आन्तरिक एवं बाह्य मूल्य में स्थिरता स्थापित करना।
  3.  बैंकों के नकद कोषों को केन्द्रीकरण करना।
  4. देश में बैंकिंग व्यवस्था का समुचित विकास करना।
  5.  मुद्रा बाजार में समन्वय एवं सहयोग स्थापित करना।
  6.  कृषि साख की उचित व्यवस्था करना।

प्रश्न 3
नाबार्ड के कोई चार कार्य लिखिए। [2013, 15]
उत्तर:
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 9 के अन्तर्गत शीर्षक 4 देखें।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
भारतीय रिजर्व बैंक के दो प्रमुख कार्यों तथा दो वर्जित कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2009, 10, 12, 14, 16]
उत्तर:
प्रमुख कार्य

  1.  नोटों का निर्गमन तथा
  2.  साख का नियन्त्रण।

वजित कार्य

  1. रिजर्व बैंक न तो अपने और न किसी अन्य बैंक के अंशों को खरीद सकता है।
  2. रिजर्व बैंक न तो किसी अचल सम्पत्ति को खरीद सकता है और न ही अचल सम्पत्ति पर ऋण दे सकता है।

प्रश्न 2
भारतीय रिजर्व बैंक का मुख्यालय कहाँ पर स्थित है? [2011, 16]
उत्तर:
भारतीय रिजर्व बैंक का मुख्यालय मुम्बई में स्थित है।

प्रश्न 3
भारतीय रिजर्व बैंक के स्थानीय प्रधान कार्यालय कहाँ-कहाँ पर स्थित हैं?
उत्तर:
भारतीय रिजर्व बैंक के चार स्थानीय प्रधान कार्यालय, नई दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई तथा चेन्नई में स्थापित किये गये हैं।

प्रश्न 4
भारतीय रिजर्व बैंकों की शाखाएँ कहाँ-कहाँ पर स्थित हैं?
उत्तर:
अहमदाबाद, बंगलुरु, भोपाल, भुवनेश्वर, मुम्बई, गुवाहाटी, हैदराबाद, जयपुर, कानपुर, नागपुर, पटना तथा तिरुवन्तपुरम में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की शाखाएँ कार्य कर रही हैं।

प्रश्न 5
इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण कब किया गया? [2009]
उत्तर:
1 जुलाई, 1955 ई० को इम्पीरियल बैंक का आंशिक राष्ट्रीयकरण किया गया।

प्रश्न 6
पूर्ण रूप से पहला भारतीय बैंक कौन-सा था और उसकी स्थापना कब की गयी थी?
उत्तर:
पूर्ण रूप से पहला भारतीय बैंक ‘पंजाब नेशनल बैंक’ था, इसकी स्थापना 1894 ई० में की गई थी।

प्रश्न 7
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के कोई दो प्रमुख उद्देश्य लिखिए। [2014]
उत्तर:

  1. छोटे विभागों को भरपूर महत्त्व देकर उनका विकास करना।
  2. ग्रामीण मनोवृत्ति वाले कार्यमन्त्रियों की नियुक्ति करना जो ग्रामीण क्षेत्र व वहाँ के निवासियों से भली-प्रकार परिचित हो।

प्रश्न 8
व्यापारिक बैंकों के दो प्रमुख कार्य लिखिए। [2011, 12, 16]
उत्तर:

  1.  रुपया जमा करना तथा
  2. रुपया उधार देना।

प्रश्न 9
19 जुलाई, 1969 ई० को किये गये दो राष्ट्रीयकृत बैंकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) पंजाब नेशनल बैंक तथा
(2) सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया।

प्रश्न 10
15 अप्रैल, 1980 ई० को किन व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया?
उत्तर:
15 अप्रैल, 1980 ई० को १ 200 करोड़ से अधिक की जमाराशि वाले बैंकों को राष्ट्रीयकरण किया गया।

प्रश्न 11
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना कब की गयी? [2008, 12, 15]
उत्तर:
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना 1975 ई० में की गयी।

प्रश्न 12
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक किन स्थानों पर कार्यरत नहीं हैं?
उत्तर:
सिक्किम और गोआ में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक कार्यरत नहीं हैं।

प्रश्न 13
भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की स्थापना कब की गयी थी?
उत्तर:
भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की स्थापना जुलाई, 1964 ई० में की गयी थी।

प्रश्न 14
भारतीय रिजर्व बैंक के मौद्रिक कार्य बताइए। [2008]
उत्तर:
(1) नोटों को निर्गमन।
(2) साख का नियन्त्रण।
(3) विदेशी विनिमय पर नियन्त्रण।
(4) बैंकों के बैंक के रूप में कार्य।

प्रश्न 15
बैंक दर क्या है?
उत्तर:
बैंक दर से अभिप्राय उस दर से हैं, जिस पर केन्द्रीय बैंक सदस्य बैंकों के प्रथम श्रेणी के बिलों की पुनर्कटोती करता है अथवा स्वीकार्य प्रतिभूतियों पर ऋण देता है, कुछ देशों में इसे कटौती-दर भी कहा जाता है। बैंक दर में परिवर्तन करके केन्द्रीय बैंक देश में साख की मात्रा को प्रभावित कर सकता है।

प्रश्न 16
‘राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक’ की स्थापना कब की गयी थी?
उत्तर:
‘राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना 12 जुलाई, 1982 ई० को की गयी थी।

प्रश्न 17
राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक का प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर:
नाबार्ड ग्रामीण ऋण ढाँचे में एक शीर्षस्थ संस्था के रूप में अनेक वित्तीय संस्थाओं (राज्य-भूमि विकास बैंक, राज्य सहकारी बैंक, अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक) को पुनर्वित्त सुविधाएँ प्रदान करता है।

प्रश्न 18
नाबार्ड अपनी ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति किन साधनों से प्राप्त करता है?
उत्तर:
नाबार्ड अपनी ऋण सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, भारत सरकार, विश्व बैंक तथा अन्य एजेन्सियों से राशियाँ प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त यह ‘राष्ट्रीय ग्रामीण साख (स्थिरीकरण) निधि के संसाधनों को भी प्रयोग करता है।

प्रश्न 19
नाबार्ड (NABARD) की स्थापना कब हुई थी? [2009, 13, 14, 15, 16]
उत्तर:
नाबार्ड की स्थापना 12 जुलाई, 1982 ई० को हुई थी।

प्रश्न 20
अनुसूचित व्यापरिक बैंक को आप कैसे परिभाषित करेंगे ? [2006, 07]
उत्तर:
वे बैंक जो रिजर्व बैंक अधिकतम की द्वितीय अनुसूची में सूचीबद्ध हैं, अनुसूचित व्यापारिक बैंक कहलाते हैं।

प्रश्न 21
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) की स्थाना 1990 ई० में हुई।

प्रश्न 22
नाबार्ड का पूरा नाम लिखिए। [2011]
उत्तर:
नाबार्ड – राष्ट्रीय कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक-हिन्दी में तथा NABARD–National Bank for Agriculture and Rural Development-अंग्रेजी में।

प्रश्न 23
भारत के किन्हीं दो राष्ट्रीयकृत व्यापारिक बैंकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) पंजाब नेशनल बैंक तथा
(2) सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
बैंकों का सर्वप्रथम राष्ट्रीयकरण कब हुआ था?
(क) 19 जुलाई, 1969 ई० में
(ख) 15 अप्रैल, 1980 ई० में
(ग) 31 मार्च, 1992 ई० में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) 19 जुलाई, 1969 ई० में।

प्रश्न 2
भारत में दूसरी बार 6 व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कब हुआ? [2003]
(क) 19 जुलाई, 1969 ई० में
(ख) 15 अप्रैल, 1980 ई० में
(ग) 31 मार्च, 1992 ई० में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) 15 अप्रैल, 1980 ई० में।

प्रश्न 3
भारतवर्ष का केन्द्रीय बैंक है
या
भारत के केन्द्रीय बैंक का नाम क्या है? [2010, 11, 14, 15]
(क) सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
(ख) भारतीय रिजर्व बैंक
(ग) भारतीय स्टेट बैंक
(घ) पंजाब नेशनल बैंक
उत्तर:
(ख) भारतीय रिजर्व बैंक।

प्रश्न 4
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (भारतीय रिजर्व बैंक) का राष्ट्रीयकरण किया गया था [2008, 11, 13, 16]
(क) 1 जनवरी, 1949 ई० को
(ख) 19 जुलाई, 1969 ई० को
(ग) 15 अप्रैल, 1980 ई० को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) 1 जनवरी, 1949 ई० को।

प्रश्न 5
भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना हुई थी [2009, 10, 11, 12, 14, 15, 16]
(क) 1 अप्रैल, 1935 ई० को
(ख) 1 जुलाई, 1955 ई० को
(ग) 19 जुलाई, 1969 ई० को
(घ) 15 अप्रैल, 1980 ई० को
उत्तर:
(क) 1 अप्रैल, 1935 ई० को।

प्रश्न 5
भारतीय स्टेट बैंक का केन्द्रीय कार्यालय स्थित है [2010, 11, 12, 13, 14, 15, 16]
(क) दिल्ली में
(ख) मुम्बई में
(ग) कोलकाता में
(घ) श्रीनगर में
उत्तर:
(ख) मुम्बई में।

प्रश्न 7
राष्ट्रीयकरण से पूर्व भारतीय स्टेट बैंक का नाम क्या था?
(क) इम्पीरियल बैंक
(ख) ग्रेट ब्रिटेन बैंक
(ग) ईस्ट इण्डिया कम्पनी बैंक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) इम्पीरियल बैंक।

प्रश्न 8
भारतीय स्टेट बैंक के कितने सहायक बैंक हैं?
(क) दस
(ख) आठ
(ग) सात
(घ) नौ
उत्तर:
(ग) सात।

प्रश्न 9
निम्नलिखित में कौन-सा बैंक सरकार के बैंक के रूप में कार्य करता है?
(क) सेण्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
(ख) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया
(ग) यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया
(घ) बैंक ऑफ इण्डिया
उत्तर:
(ख) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया।

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन व्यापारिक बैंकों का प्राथमिक कार्य है?
(क) आँकड़ों का संकलन
(ख) एजेन्सी कार्य
(ग) साख सृजन
(घ) जमा प्राप्त करना
उत्तर:
(घ) जमा प्राप्त करना।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य व्यावसायिक बैंकों का नहीं है? [2010]
(क) जमाओं को स्वीकार करना
(ख) अग्रिम ऋण
(ग) साख का सृजन
(घ) विदेशी विनिमय का संरक्षक
उत्तर:
(घ) विदेशी विनिमय का संरक्षक।

प्रश्न 12
निम्नलिखित में कौन-सा व्यापारिक बैंकों का कार्य है? [2012]
(क) साख नियन्त्रण
(ख) जमा स्वीकार करना
(ग) विदेशी विनिमय का संरक्षक
(घ) पत्र मुद्रा का निर्गमन
उत्तर:
(ख) जमा स्वीकार करना।

प्रश्न 13
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अपनाई गई नोट निर्गमन की कोष व्यवस्था है
(क) न्यूनतम
(ख) आनुपातिक
(ग) प्रगतिशील
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) न्यूनतम।

प्रश्न 14
भारतीय रिजर्व बैंक का वित्तीय वर्ष है
(क) जनवरी से दिसम्बर तक
(ख) मार्च से अप्रैल तक
(ग) जुलाई से अगस्त तक
(घ) अक्टूबर से नवम्बर तक
उत्तर:
(क) जनवरी से दिसम्बर तक।

प्रश्न 15
स्टेट ऑफ इण्डिया कब स्थापित हुआ था? [2010]
(क) 1951
(ख) 1955
(ग) 1969
(घ) 1971
उत्तर:
(ख) 1955.

प्रश्न 16
निम्नलिखित में से कौन-सा एक कार्य भारतीय रिजर्व बैंक का नहीं है? [2007, 09]
(क) साख नियन्त्रण
(ख) नोटों का निर्गमन
(ग) जनता को ऋण देना व उनसे जमा स्वीकार करना
(घ) सरकार के बैंक का कार्य करना
उत्तर:
(ग) जनता को ऋण देना व उनसे जमा स्वीकार करना।

प्रश्न 17
भारत में नोटों के निर्गमन पर किस बैंक का एकाधिकार है? [2014, 16]
या
भारत में नोटों के निर्माण का एकाधिकार निम्नलिखित में से किसे प्राप्त है? [2014]
(क) भारतीय रिजर्व बैंक का
(ख) भारतीय स्टेट बैंक का
(ग) बैंक ऑफ इण्डिया का
(घ) इनमें से किसी का नहीं
उत्तर:
(क) भारतीय रिजर्व बैंक का।

प्रश्न 18
भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीयकृत वाणिज्यिक बैंक कौन-सा है? [2011, 16]
(क) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया
(ख) रिजर्व ऑफ इण्डिया
(ग) सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
(घ) पंजाब नेशनल बैंक
उत्तर:
(क) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया।

प्रश्न 19
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना किस वर्ष में हुई थी? [2013, 14, 16]
(क) 1982
(ख) 1985
(ग) 1988
(घ) 1991
उत्तर:
(क) 1982

प्रश्न 20
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) का मुख्यालय कहाँ स्थित है? [2015]
(क) दिल्ली
(ख) चेन्नई
(ग) मुम्बई
(घ) कोलकाता
उत्तर:
(ग) मुम्बई।

प्रश्न 21
वर्ष 1969 में कितने व्यापारिक बैंकों को राष्ट्रीयकृत किया गया था ? [2011, 15]
(क) 10
(ख) 14
(ग) 18
(घ) 22
उत्तर:
(ख) 14.

प्रश्न 22
भारत में कृषि वित्त प्रदान करने वाली सर्वोच्च संस्था है
(क) भारतीय रिजर्व बैंक
(ख) भारतीय स्टेट बैंक
(ग) राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक
(घ) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
उत्तर:
(ग) राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक।

प्रश्न 23
निम्नलिखित में से कौन-सा बैंक राष्ट्रीयकृत बैंक नहीं है? [2016]
(क) पंजाब नेशनल बैंक
(ख) इलाहाबाद बैंक
(ग) एच०डी०एफ०सी० बैंक
(घ) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया
उत्तर:
(ग) एच०डी०एफ०सी० बैंक।

प्रश्न 24
भारत में, वर्तमान में स्टेट बैंक को छोड़कर कितने बैंक राष्ट्रीयकृत हैं [2016]
(क) 14
(ख) 19
(ग) 20
(घ) 25
उत्तर:
(ग) 19

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