UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 16 Partition of India: Result of British Policy

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 16
Chapter Name Partition of India:
Result of British Policy
(भारत विभाजन-
अंग्रेजी नीति का परिणाम)
Number of Questions Solved 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 16 Partition of India: Result of British Policy (भारत विभाजन- अंग्रेजी नीति का परिणाम)

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
क्या भारत विभाजन अनिवार्य था? अपने उत्तर के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उतर:
भारत विभाजन की अनिवार्यता के पक्ष में दो तर्क निम्नवत हैं

  1. अंग्रेजों ने सदैव उपनिवेशवादी नीति के क्रियान्वयन के लिए विभाजन करो एवं शासन करो’ का मार्ग अपनाया। इस नीति के तहत सरकार ने मुस्लिम लीग को कांग्रेस के विरुद्ध खड़ा रखा। जिन्ना की विभाजन सम्बन्धी हठधर्मिता में सरकार की नीतियों ने आग में घी का काम किया।
  2. कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग दोनों को सत्ता का लालच होने लगा। यद्यपि गाँधी जी जैसे नेता विभाजन को टालने हेतु जिन्ना को अखण्ड भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा ताकि दंगे रुकने के साथ ही जिन्ना की महत्वाकांक्षा पूर्ण हो जाए। लेकिन नेहरू व पटेल को यह अस्वीकार्य था, जिसका परिणाम भारत विभाजन था।

प्रश्न 2.
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी दो कारण लिखिए।
उतर:
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी दो कारण निम्नलिखित हैं

  • ब्रिटिश शासन की ‘फूट डालो और राजा करो नीति’
  • जिन्ना की हठधर्मिता।

प्रश्न 3.
मुस्लिम लीग ने भारत विभाजन में क्या भूमिका निभाई?
उतर:
मुस्लिम लीग ने अपने जन्म से ही पृथकतावादी नीति को अपनाया तथा भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विरोध किया। लीग की सीधी कार्यवाही में योजना के अन्तर्गत मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध अनेक दंगे किये गये। लीग के नेताओं ने हिन्दुओं के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। ऐसी भयावह परिस्थिति के समाधान के लिए भारत विभाजन का जन्म हुआ।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत विभाजन के क्या कारण थे?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता भारत की एकता तथा अखण्डता के लिए प्रयास कर रहे थे तथा भारत के विभाजन का विरोध कर रहे थे। गाँधी जी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि पाकिस्तान का निर्माण उनकी लाश पर होगा। गाँधी जी ने पाकिस्तान के निर्माण अथवा भारत के विभाजन का सदैव विरोध किया था, परन्तु कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण भारत का विभाजन उनको भी स्वीकार करना पड़ा। भारत विभाजन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
(i) ब्रिटिश शासन की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति- ब्रिटिश शासन ने अपनी सुरक्षा के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई तथा इसका व्यापक प्रसार किया। ब्रिटिश शासकों ने हिन्दू और मुसलमानों के पारस्परिक सम्बन्धों को बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वस्तुत: देश का विभाजन ब्रिटिश सरकार की मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन प्रदान करने की नीति के कारण हुआ। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में- “पाकिस्तान के निर्माता कवि इकबाल तथा मि० जिन्ना नहीं, वरन् लॉर्ड माउण्टबेटन थे।” इसके अतिरिक्त ब्रिटिश भारत की नौकरशाही, मुसलमानों की पक्षधर थी।

(ii) पारस्परिक अविश्वास तथा अपमानजनक रवैया- हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के लोग एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते थे। सल्तनतकाल तथा मुगलकाल में मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं पर घोर अत्याचार एवं अनाचार किया, अतः इन दोनों धर्मों में विद्वेष की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। इसका यह परिणाम हुआ कि मुसलमानों को अपने प्रति ईसाइयों का व्यवहार हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक अच्छा प्रतीत हुआ और इस प्रकार से दोनों समुदायों (हिन्दू एवं मुस्लिम) के बीच घृणा निरन्तर बढ़ती रही।

(iii) हिन्दुत्व को साम्प्रदायिकता के रूप में प्रस्तुत करना- हिन्दुओं की भावनाओं को शासक वर्ग तथा जनता के प्रतिनिधियों ने सदैव साम्प्रदायिकता के रूप में देखा। वीर सावरकर जैसे राष्ट्रवादी महापुरुषों को हिन्दू साम्प्रदायिकता से ओत-प्रोत बताया गया तथा मुस्लिम तुष्टीकरण को सदैव बढ़ावा दिया गया। इसी तुष्टीकरण की नीति की परिणति भारत विभाजन के रूप में हमारे सामने आई।

(iv) लीग के प्रति कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति- कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई तथा व्यवहार में अनेक भूलें कीं, उदाहरणार्थ-
(क) 1916 ई० में लखनऊ पैक्ट में साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार कर लेना,
(ख) सिन्ध को बम्बई से पृथक् करना,
(ग) सी०आर० फार्मूले में पाकिस्तान की माँग को कुछ सीमा तक स्वीकार कर लेना,
(घ) 1919 ई० के खिलाफत आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित करना तथा
(ङ) 1937 ई० में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल में मुस्लिम लीग को सम्मिलित करने के प्रश्न पर कठोर रवैया अपनाना, इसी प्रकार की भूलें थीं। स्वयं गाँधी जी ने मि० जिन्ना को कायदेआजम’ की उपाधि से विभूषित कर भयंकर भूल की।

(v) जिन्ना की हठधर्मिता- जिन्ना अपने द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के प्रति दृढ़ रहे और पाकिस्तान की माँग के प्रति भी उनकी हठधर्मिता बढ़ती चली गई। 1940 ई० के पश्चात् संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए अनेक योजनाएँ प्रस्तुत की गईं, परन्तु जिन्ना की हठधर्मी के कारण कोई भी योजना स्वीकार न की जा सकी। यहाँ तक कि गाँधी जी ने जिन्ना के लिए अखण्ड भारत के प्रधानमन्त्री के पद का अवसर भी प्रदान किया, परन्तु जिन्ना ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। अन्तरिम सरकार की असफलता- 2 सितम्बर, 1946 ई० को अन्तरिम सरकार’ का गठन हुआ। इस सरकार में भाग लेने वाले मुस्लिम लीग के मन्त्रियों ने कांग्रेस के मन्त्रियों से शासन-कार्य में सहयोग नहीं किया और इस प्रकार यह सरकार पूरी तरह असफल हो गई। लियाकत अली खाँ के पास वित्त विभाग था। उसने कांग्रेसी सरकार की प्रत्येक योजना में बाधाएँ उत्पन्न करके सरकार का कार्य करना असम्भव कर दिया। सरदार पटेल के अनुसार, “ एक वर्ष के मेरे प्रशासनिक अनुभव ने मुझे यह विश्वास दिला दिया कि हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं।”

(vii) कांग्रेस की भारत को शक्तिशाली बनाने की इच्छा- मुस्लिम लीग की गतिविधियों से यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो गया था कि मुस्लिम लीग कांग्रेस से किसी भी प्रकार से सहयोग नहीं करेगी तथा प्रत्येक कार्य में व्यवधान उपस्थित करेगी। ऐसी स्थिति में विभाजन न होने पर भारत सदैव एक कमजोर राष्ट्र रहता। मुस्लिम लीग केन्द्र को कभी-भी शक्तिशाली नहीं बनने देती। इसीलिए सरदार पटेल ने कहा था, “बंटवारे के बाद हम कम-से-कम 75 या 80 प्रतिशत भाग को शक्तिशाली बना सकते हैं, शेष को मुस्लिम लीग बना सकती है। इन परिस्थितियों में कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया।

(viii) मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही तथा साम्प्रदायिक दंगे- जब मुस्लिम लीग को संवैधानिक साधनों से सफलता प्राप्त नहीं हुई तो उसने मुसलमानों को साम्प्रदायिक उपद्रव करने के लिए प्रेरित किया तथा लीग की सीधी कार्यवाही की योजना के अन्तर्गत नोआखाली और त्रिपुरा में मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध अनेक दंगे किए गए। अकेले नोआखाली में ही लगभग सात हजार व्यक्ति मारे गए थे। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं के विवरण के अनुसार पहली बार इस प्रकार सुनियोजित ढंग से मुस्लिमों ने हिन्दुओं के विरुद्ध सीधी कार्यवाही की थी। मौलाना आजाद के अनुसार, “16 अगस्त भारत में काला दिन है, क्योंकि इस दिन सामूहिक हिंसा ने कलकत्ता जैसी महानगरी को हत्या, रक्तपात और बलात्कारों की बाढ़ में डुबो दिया था।’

(ix) बाह्य एकता का निष्फल प्रयास- मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही के आधार पर जो जन-धन की हानि हुई, उससे कांग्रेसी नेताओं को यह एहसास हो गया कि मुसलमानों को हिन्दुओं के साथ बाह्य एकता में बाँधने का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है। नेहरू जी के शब्दों में- “यदि उन्हें भारत में रहने के लिए बाध्य किया गया तो प्रगति व नियोजन पूरी तरह से असफल हो जाएगा।” अंग्रेजों ने 30 जून, 1948 ई० तक भारत छोड़ने का निर्णय किया था। ऐसी स्थिति में दो विकल्प थे- भारत का विभाजन या गृह-युद्ध। गृह-युद्ध के स्थान पर भारत विभाजन को स्वीकार करने में कांग्रेसी नेताओं ने बुद्धिमत्ता समझी।

(x) पाकिस्तान के गठन में सन्देह- अनेक कांग्रेसी नेताओं को पाकिस्तान के गठन में सन्देह था और उनका विचार था कि भारत का विभाजन अस्थायी होगा। उनका यह भी विचार था कि पाकिस्तान राजनीतिक, भौगोलिक, आर्थिक तथा सैनिक दृष्टि से स्थायी राज्य नहीं हो सकता और यह कभी-न-कभी भारत संघ में अवश्य ही सम्मिलित हो जाएगा। अत: विभाजन को स्वीकार करने पर भी भविष्य में पाकिस्तान के भारत में विलय की आशा कांग्रेसियों में व्याप्त थी। सत्ता-हस्तान्तरण के सम्बन्ध में ब्रिटिश दृष्टिकोण- भारत विभाजन के सम्बन्ध में ब्रिटिश शासन का दृष्टिकोण यह था कि इससे भारत एक निर्बल देश हो जाएगा तथा भारत और पाकिस्तान सदैव ही एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ते रहेंगे। वस्तुतः ब्रिटेन की यह इच्छा विभाजन के पश्चात् पूरी हो गई, जो आज भी हमें दोनों राष्ट्रों के मध्य शत्रुतापूर्ण आचरण में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

(xii) लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभाव- भारत विभाजन में लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभावशाली व्यक्तित्व भी काफी सीमा तक उत्तरदायी था। उन्होंने अपने शिष्ट व्यवहार, राजनीतिक चातुर्य तथा व्यक्तित्व के प्रभाव से कांग्रेसी नेताओं को भारत विभाजन के लिए सहमत कर लिया था।

प्रश्न 2.
भारत विभाजन कितना अनिवार्य था? समझाइए।
उतर:
भारत का विभाजन आधुनिक भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है। अब प्रश्न है कि क्या भारत विभाजन अपरिहार्य था? ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ थीं, जिनके कारण यह अपरिहार्य था? आधुनिक इतिहासकारों के लिए यह वाद-विवाद का विषय है। किन्तु यह सत्य है कि भारत-विभाजन किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं था अपितु कई परिस्थितियाँ किसी-न-किसी रूप में दीर्घकाल से इसके लिए उत्तरदायी थी। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार, मुस्लिम लीग, कांग्रेस, हिन्दू महासभा तथा कम्युनिस्ट दल की स्वार्थपरक नीतियाँ सम्भवतः इस योजना में सम्मिलित थीं।।

अंग्रेजों ने सदैव उपनिवेशवादी नीति के क्रियान्वयन के लिए विभाजन करो एवं शासन करो’ का मार्ग अपनाया। अंग्रेज इस विचार का पोषण करते रहे कि भारत एक राष्ट नहीं है, यह विविध धर्मों एवं सम्प्रदायों का देश है। इस नीति के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार ने लीग को बढ़ावा दिया, जिसकी परिणति 1919 ई० के ऐक्ट के अन्तर्गत साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली के अन्तर्गत देखी गई। मार्ले ने कहा था, “हम नाग के दाँत के बीज बो रहे हैं, जिसकी फसल कड़वी होगी।” सरकार ने लीग को सहारा देकर कांग्रेस के विरोध में खड़े रखा।

जिन्ना यद्यपि एक सुसंस्कृत व्यक्ति थे किन्तु व्यक्तित्व के संकट के कारण इन्होंने विभाजन सम्बन्धी हठधर्मिता को अपना लिया। ब्रिटिश सरकार की नीतियों ने आग में घी का काम किया। 1940 ई० में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित होने के उपरान्त लीग को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रोत्साहन दिया गया। भारत सचिव एमरी सहित कई ऐसे उच्च अधिकारी थे जो पाकिस्तान की माँग से गहरी सहानुभूति रखते थे। पं० नेहरू व मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रवादी नेताओं का तो ख्याल था कि ब्रिटिश शासन ने कभी भी साम्प्रदायिक उपद्रवों को दबाने में तत्परता नहीं दिखाई।।

दूसरी तरफ मुस्लिम लीग ने अपने जन्म से ही पृथकतावादी नीति अपनाई तथा भारत में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के विकास का विरोध किया। साम्प्रदायिकता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दी गई। इतना ही नहीं, लीग के फिरोज खाँ जैसे नेताओं ने हिन्दुओं के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। ऐसी भयावह परिस्थिति का समाधान जितनी जल्दी हो सके, होना आवश्यक था।

यद्यपि कांग्रेस का स्वरूप प्रारम्भ से ही धर्मनिरपेक्ष रहा। लेकिन न चाहते हुए भी लखनऊ समझौता (1916 ई०) से शुरू हुई कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति ने आगे चलकर लीग के भारत-विभाजन के बढ़ते दावे को अधिक प्रोत्साहित किया। जैसे ही कांग्रेस ने 1937 ई० के चुनाव परिणाम के उपरान्त कठोर तथा वैधानिक दृष्टिकोण अपनाया, कांग्रेस एवं लीग के बीच कट्टर दुश्मनी प्रारम्भ हो गई। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की ऐसी भ्रामक धारणा थी कि पाकिस्तान कभी-भी पृथक् रूप से स्थायी देश नहीं बन सकता, अन्तत: वह भारत में सम्मिलित ही होगा। सम्भवत: इसी सन्देह के कारण उन्होंने भारतीय समस्या के अस्थायी समाधान के लिए पाकिस्तान की माँग को स्वीकार कर लिया।

लेकिन इस स्वीकारोक्ति के पीछे एक ठोस तर्क यह भी दिया जाता है कि मुहम्मद अली जिन्ना की भाँति ही कांग्रेस के नेताओं में भी सत्ता के प्रति आकर्षण होने लगा था। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 1959 ई० में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इण्डिया विन्स फ्रीडम’ में भारत-विभाजन के लिए नेहरू तथा पटेल को अधिक उत्तरदायी ठहराया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार दोनों को सत्ता का लालच होने लगा था। यद्यपि कांग्रेस के गाँधी जी जैसे नेताओं ने विभाजन को टालने हेतु जिन्ना को अखण्ड भारत का प्रधानमन्त्री बनाने का प्रस्ताव रखा ताकि दंगे रुकने के साथ ही जिन्ना की महत्वाकाँक्षा भी पूर्ण हो जाती। लेकिन नेहरू तथा पटेल को यह अस्वीकार्य था। इसके विपरीत गाँधी जी पर यह आरोप लगा कि ‘मुसलमानों का अधिक पक्ष ले रहे हैं। इस प्रकार वरिष्ठ नेताओं के आपसी मतभेदों ने भी विभाजन को अपरिहार्य बना दिया।

20 वीं शताब्दी में मुस्लिम साम्प्रदायिकता के साथ-साथ हिन्दू साम्प्रदायिकता का भी प्रादुर्भाव होने लगा। मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपतराय आदि नेताओं द्वारा हिन्दू महासभा को एक सशक्त दल के रूप में तैयार किया गया। उल्लेखनीय है कि हिन्दुओं का दृष्टिकोण भी मुसलमानों के प्रति अनेक बार प्रतिक्रियावादी होता था। 1937 ई० के हिन्दू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में वीर सावरकर द्वारा कहा गया था, “भारत एक सूत्र में बँधा राष्ट्र नहीं माना जा सकता अपितु यहाँ मुख्यतः हिन्दू तथा मुसलमान दो राष्ट्र हैं।

” दंगों को भड़काने में हिन्दू महासभा तथा अन्य कट्टरपंथी हिन्दू नेताओं की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण न रही। इसी प्रकार अकालियों ने भी पृथक् “खालिस्तान की माँग प्रारम्भ कर दी। कम्युनिस्ट भी पीछे नहीं थे। वे भारत को 11 से अधिक भागों में बाँटना चाहते थे। इस प्रकार समूचे भारत की राजनीतिक तथा अन्य परिस्थितियाँ विकास के समय जटिल व भयावह बन चुकी थीं। यद्यपि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि विभाजन टाला जा सकता था यदि ……… किन्तु इतिहास में, यदि के लिए स्थान नहीं होता। परिस्थितियाँ इतनी भयावह थीं कि यदि, यदि’ से सम्बन्धित परिस्थितियों को आदर्श रूप में स्वीकार भी कर लिया जाता तब भी विभाजन को कुछ समय के लिए तो टाला जा सकता था, किन्तु स्थायी रूप से समाधान तो भारत-विभाजन ही था, क्योंकि जिन्ना व लीग की राजनीतिक आकांक्षाएँ अखण्ड स्वतन्त्र भारत में फलीभूत नहीं हो सकती थीं।”

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UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 9 Rent: Definition and Theory

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 9 Rent: Definition and Theory (लगान : परिभाषा एवं सिद्धान्त) are part of UP Board Solutions for Class 12 Economics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 9 Rent: Definition and Theory (लगान : परिभाषा एवं सिद्धान्त).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 9
Chapter Name Rent: Definition and Theory (लगान : परिभाषा एवं सिद्धान्त)
Number of Questions Solved 50
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 9 Rent: Definition and Theory (लगान : परिभाषा एवं सिद्धान्त)

विस्तृत उतरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
आभास लगान की व्याख्या कीजिए। [2007]
या
आभास लगान की संकल्पना को समझाइए। [2015]
उत्तर:
आभास लगान – आभास लगान का विचार सर्वप्रथम प्रो० मार्शल ने प्रस्तुत किया। प्रो० मार्शल के अनुसार, “कुछ ऐसे साधन हो सकते हैं जिनकी पूर्ति अल्पकाल में निश्चित होती है और जिनके कारण उन्हें लगान के प्रकार का भुगतान प्राप्त होता है। मनुष्य के द्वारा निर्मित मशीनों तथा अन्य , यन्त्रों की पूर्ति अल्पकाल में तो निश्चित होती है किन्तु दीर्घकाल में उसमें परिवर्तन किये जा सकते हैं, क्योंकि उनकी पूर्ति भूमि की भाँति दीर्घकाल में निश्चित नहीं होती, इसलिए इनकी आय को लगान नहीं कहा जा सकता; परन्तु इनकी पूर्ति अल्पकाल में निश्चित होती है. इसलिए अल्पकाल में इनकी आय लगान की भाँति होती है, जिसे आभास लगान कहा जाता है।” आभास लगान, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह आय वास्तव में लगान न होकर लगान की प्रकार आभासित होती है। मनुष्य द्वारा निर्मित पूँजीगत वस्तुओं की पूर्ति अल्पकाल में निश्चित होती है, इस कारण उन्हें लगान मिलता है।

जिस प्रकार भूमि की पूर्ति सीमित होती है, उसी प्रकार अन्य साधनों की पूर्ति भी अल्पकाल में सीमित हो सकती है। भूमि में सीमितता का गुण स्थायी रूप से विद्यमान है, इसी कारण इसकी आय को लगान कहा जाता है। भूमि तथा अल्पकाल में सीमित साधनों में सीमितता का गुण समान होने के कारण अन्य साधन जो अस्थायी रूप से सीमित हैं, उनकी आय को आभास लगान कहते हैं। इस प्रकार अल्पकाल में मनुष्य द्वारा निर्मित पूँजीगत वस्तुओं, अधिक योग्यता वाले श्रमिकों और साहसियों की आय में भी आभास लगान सम्मिलित होता है।

प्रो० मार्शल के अनुसार, “उत्पत्ति के उपकरणों (मशीन अर्थात् पूँजीगत वस्तुओं) से प्राप्त होने वाली शुद्ध आय को उनका आभास लगान इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि बहुत अधिक अल्पकाल में उन उपकरणों की पूर्ति अस्थायी रूप से स्थिर होती है और उसे माँग के अनुसार घटाना-बढ़ाना सम्भव नहीं होता। कुछ समय तक वे उन वस्तुओं के मूल्य के साथ, जिनके पैदा करने में उन्हें प्रयोग किया जाता है, वही सम्बन्ध रखते हैं जो भूमि अथवा सीमित पूर्ति वाले किसी अन्य प्राकृतिक उपहार का होता है और जिनकी आय शुद्ध लगान होती है।” इस प्रकार प्रो० मार्शल ने पूँजीगत वस्तुओं, जिनकी पूर्ति अल्पकाल में बेलोचदार तथा दीर्घकाल में लोचदार होती है, की अल्पकालीन आयों के लिए आभास लगान शब्द का प्रयोग किया है।

मार्शल के अनुसार, “मशीन (अर्थात् पूँजीगत वस्तुओं) की अल्पकालीन आय में से उसको चलाने की अल्पकालीन लागत को घटाने से जो बचत प्राप्त होती है, उसे आभास लगान कहते हैं। आभास लगान यह बताता है कि मशीन की अल्पकालीन आय उसके चलाने की अल्पकालीन लागत से कितनी अधिक है। इस प्रकार आभास लगान अल्पकालीन लागत के ऊपर एक प्रकार की अल्पकालीन बचत है।’

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आभास लगान केवल अल्पकाल में प्राप्त होता है। यह एक अस्थायी आधिक्य है जो पूँजीगत वस्तुओं पर केवल अल्पकाल में प्राप्त होता है और दीर्घकाल में उसकी पूर्ति बढ़ जाने के कारण समाप्त हो जाता है।

प्रो० स्टोनियर व हेग के शब्दों में – “मशीनों की पूर्ति अल्पकाल में निश्चित होती है, भले ही उससे प्राप्त आय अधिक हो अथवा कम, फिर भी वे एक प्रकार का लगान अर्जित करती हैं। हाँ, दीर्घकाल में यह आभास लगान समाप्त हो जाता है, क्योकि यह पूर्ण लगान न होकर समाप्त हो जाने वाला अर्द्ध-लगान ही होता है।”

मार्शल के अनुसार, “आभास लगान पूँजीगत साधनों की अल्पकालीन लागत के ऊपर अल्पकालीन बचत है, जिसको अल्पकालीन आय में से अल्पकालीन लागत को घटाकर प्राप्त किया जाता है।”

सिल्वरमैन
के अनुसार, “आभास लगान तकनीकी रूप में उत्पत्ति के उन साधनों को किया गया अतिरिक्त भुगतान है जिनकी पूर्ति अल्पकाल में स्थिर तथा दीर्घकाल में परिवर्तनशील होती है।” संक्षेप में, आभास लगान कुल आगम तथा कुल परिवर्तनशील लागत को अन्तर है। सूत्र रूप में, आभास लगान = कुल आगम – परिवर्तनशील लागते
QR = TR – TVC

प्रश्न 2
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की व्याख्या विस्तृत एवं सघन खेती के अन्तर्गत कीजिए। [2009]
या
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। [2007,09,10,12,14]
या
लगान को परिभाषित कीजिए। विस्तृत खेती के अन्तर्गत लगान के निर्धारण को समझाइए। [2007, 09]
या
लगान भूमि की उपज का वह भाग है जो भूमि के स्वामी को भूमि की मौलिक व अविनाशी शक्तियों के प्रयोग के लिए दिया जाता है।” व्याख्या कीजिए। [2010]
या
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। [2012, 13, 14, 15, 16]
या
विस्तृत खेती के अन्तर्गत रिकार्डों के लगान सिद्धान्त को समझाइए। [2013]
या
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या केवल विस्तृत खेती के अन्तर्गत कीजिए। [2015]
या
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की उपयुक्त चित्र की सहायता से व्याख्या कीजिए। [2016]
या
गहन खेती के अन्तर्गत रिकार्डों के लगान सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए। [2016]
उत्तर:
रिकार्डों का लगान सिद्धान्त – लगान के विचार को सर्वप्रथम रिकाडों ने एक निश्चित सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया था। इसलिए इसे ‘रिका का लगान सिद्धान्त के नाम से सम्बोधित किया जाता है। रिकार्डों के अनुसार, केवल भूमि ही लगाने प्राप्त कर सकती है, क्योंकि भूमि में कुछ ऐसी विशेषताएँ विद्यमान हैं जो अन्य साधनों में नहीं होती; जैसे-भूमि प्रकृति का नि:शुल्क उपहार है, भूमि सीमित होती है आदि। इस कारण रिकाडों ने इस सिद्धान्त की व्याख्या भूमि के आधार पर की है।

रिकार्डों के अनुसार, “लगाने भूमि की उपज का वह भाग है जो भूमि के स्वामी को भूमि की मौलिक तथा अविनाशी शक्तियों के प्रयोग के लिए दिया जाता है।”
रिकार्डों के अनुसार, सभी भूमियाँ एकसमान नहीं होतीं और उनमें उपजाऊ शक्ति तथा स्थिति में अन्तर पाया जाता है। कुछ भूमियाँ अधिक उपजाऊ तथा अच्छी स्थिति वाली होती हैं तथा कुछ अपेक्षाकृत घटिया होती हैं। जो भूमि स्थिति एवं उर्वरता दोनों ही दृष्टिकोण से सबसे घटिया भूमि हो तथा जिससे उत्पादन व्यय के बराबर ही उपज मिलती हो, अधिक नहीं; उस भूमि को रिकाडों ने सीमान्त भूमि कहा है। सीमान्त भूमि से अच्छी भूमि को रिकाडों ने अधिसीमान्त भूमि बताया है। अतः रिकार्डों के अनुसार, “लगान अधिसीमान्त (Supermarginal) और सीमान्त भूमि (Marginal Land) से उत्पन्न होने वाली उपज का अन्तर होता है। चूंकि सीमान्त भूमि से केवल उत्पादन व्यय के बराबर उपज मिलती है और कुछ अतिरेक (Surplus) नहीं मिलता। इसलिए रिकार्डों के अनुसार, ऐसी भूमि पर कुछ अधिशेष (लगान) भी नहीं होता अर्थात् सीमान्त भूमि लगानरहित भूमि (No Rent Land) होती है।

सिद्धान्त की व्याख्या
विस्तृत खेती के अन्तर्गत लगान–रिकाडों ने भू-प्रधान खेती (Extensive Cultivation) के आधार पर इस सिद्धान्त को समझाने के लिए एक नये देश का उदाहरण लिया जिसमें थोड़े-से लोग बसे हों। आरम्भ में ऐसे देश की जनसंख्या कम होती है तथा भूमि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। अत: सर्वप्रथम सर्वोत्तम कोटि की भूमि पर खेती की जाती है। जनसंख्या कम होने के कारण अनाज की समस्त आवश्यकताएँ केवल प्रथम श्रेणी की भूमि पर खेती करने से ही पूरी हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में कोई लगान पैदा नहीं होता है, क्योंकि भूमि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। भूमि के लिए किसी प्रकार की कोई प्रतियोगिता नहीं है, किन्तु यदि जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है तो अनाज की बढ़ती हुई माँग को पूरा करने के लिए दूसरी श्रेणी की भूमि पर खेती करना आवश्यक हो जाता है और पहली श्रेणी की।

भूमि लगान देने लगती है, क्योंकि श्रम व पूँजी की समान मात्रा लगाने पर दूसरी श्रेणी की भूमि पर पहली श्रेणी की भूमि की अपेक्षा कम उत्पत्ति होगी। दूसरी श्रेणी की भूमि सीमान्त भूमि कहलाएगी। यह । लगानरहित भूमि होगी तथा पहली श्रेणी की भूमि अधिसीमान्त भूमि कहलाएगी। इसी प्रकार जब तीसरी श्रेणी की भूमि भी कृषि के अन्तर्गत आ जाती है तो दूसरी श्रेणी की भूमि लगान देने लगती है तथा प्रथम श्रेणी की भूमि पर लगान बढ़ जाता है। इस प्रकार किसी समय पर सबसे घटिया भूमि, जिस पर खेती की जाती है, को रिकाडों ने सीमान्त भूमि कहा है। यह भूमि लगानरहित भूमि (No Rent Land) होती है। इससे प्राप्त उपज केवल उत्पादन लागत के बराबर होती है, किसी प्रकार का अतिरेक नहीं देती है।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – रिका के लगान सिद्धान्त को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिए, किसी स्थान पर A, B, C, D, E श्रेणी की समान क्षेत्रफल की भूमियों पर समान लागत लगाकर खेती की जाती है। A श्रेणी की भूमि पर 100 क्विटल, B श्रेणी की भूमि पर 80 किंवटल, c श्रेणी की भूमि पर 50 क्विटल, D श्रेणी की भूमि पर 30 क्विटल तथा E श्रेणी की भूमि पर 20 क्विटल अनाज उत्पन्न किया जाता है। यदि प्रत्येक प्रकार की भूमि पर अनाज उत्पन्न करने की लागत ३ 3300 हो और अनाज का मूल्य ₹165 प्रति क्विटल हो तो E श्रेणी की भूमि । सीमान्त भूमि होगी, क्योंकि उस पर उत्पन्न होने वाली उपज या लगान 20 क्विटल को बेचकर केवल उत्पादन लागत अर्थात् ₹3,300 ही प्राप्त किये जा सकते हैं। अत: E श्रेणी की भूमि लगानरहित भूमि होगी तथा A, B, C, D श्रेणी की भूमि पर तालिका के अनुसार लगान हो
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 9 Rent Definition and Theory 1
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 9 Rent Definition and Theory 2
संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर भूमि की विभिन्न श्रेणियाँ तथा OY-अक्ष पर उत्पादन की मात्रा किंवटल में दिखाई गयी है। विभिन्न श्रेणियों की भूमि पर उनकी उपज के आधार पर आयत बनाये गये हैं। E सीमान्त भूमि है; अतः उस पर कुछ अधिशेष नहीं है। शेष चारों प्रकार की भूमि पर जितना अधिशेष है उसे प्रत्येक आयत में रेखांकित किया गया है। आयत A, B, C को देखने से पता चलता है। कि रेखांकित भाग भी कई उप-विभागों में बँटा हुआ है। यह इस ओर संकेत करता है कि जब भी घटिया श्रेणी की भूमि का उपयोग किया जाता है तभी अतिरिक्त अधिशेष (लगान) में परिवर्तन हो जाता है।

गहन खेती के अन्तर्गत लगान – यद्यपि रिकार्डो ने लगान सिद्धान्त की व्याख्या भू-प्रधान खेती (Extensive Cultivation) के आधार पर की है, परन्तु रिकाडों के अनुसार, लगान विस्तृत और गहन दोनों ही प्रकार की खेती से प्राप्त होता है। जब भूमि की मात्रा (क्षेत्रफल) को स्थिर रखकर, श्रम व पूँजी की इकाइयों में वृद्धि करके कृषि उत्पादन को बढ़ाया जाता है, उसे श्रम प्रधान या गहन खेती कहते हैं।” रिकार्डों का विचार है कि गहन खेती से भी लगान प्राप्त होता है, क्योंकि गहन खेती या श्रम-प्रधान खेती में उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील रहता है। इस कारण श्रम व पूँजी की प्रत्येक अगली इकाई के लगाने से भूमि से जो उपज प्राप्त होती है वह क्रमशः घटती जाती है।

इस प्रकार अन्त में एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जब श्रम व पूँजी की एक और अतिरिक्त इकाई लगाने पर, जो उसे भूमि पर कुल उपज में जो वृद्धि होती है वह उस इकाई की उत्पादन लागत के बराबर होती है। श्रम व पूँजी की इस अतिरिक्त इकाई को सीमान्त इकाई कहते हैं। सीमान्त इकाई से प्राप्त उत्पादन, सीमान्त इकाई के उत्पादन लागत के बराबर होता है, इसलिए उससे कोई अतिरेक अथवा लगान प्राप्त नहीं होता। अधिसीमान्त इकाइयों की उपज सीमान्त इकाई की उपज़ से अधिक होती है। इसलिए उस पर अतिरेक अथवा आर्थिक लगान होता है। इस प्रकार गहन खेती में लगान श्रम और पूँजी की अधिसीमान्त इकाई और सीमान्त इकाई की उपज के अन्तर के बराबर होता है।

उदाहरण – माना कोई उत्पादक अपनी भूमि पर श्रम व पूँजी की चार इकाइयाँ लगाता है, जिससे उसे क्रमशः 40, 30, 20 लगानरहित व 10 क्विटल गेहूँ की उपज प्राप्त होती है। इस प्रकार चौथी इकाई सीमान्त इकाई है। सीमान्त इकाई की अपेक्षा पहली, दूसरी और तीसरी इकाइयों से क्रमशः 40 – 10 = 30, 30 – 10 = 20 तथा 20 – 10 = 10 क्विटल अधिक उपज प्राप्त होती है। यही इन इकाइयों का आर्थिक लगान है।
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चित्र में Ox-अक्ष पर श्रम व पूँजी की इकाइयाँ तथा श्रम व पूँजी की इकाइयाँ OY-अक्ष पर उपज क्विटलों में प्रदर्शित की गयी है। चित्र में रेखांकित आयत भाग लगान की ओर इंगित करता है। चौथी इकाई सीमान्त इकाई है; अत: यह लगानरहित है।

सिद्धान्त की आलोचनाएँ
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने रिकाडों के लगान (अधिशेष) सिद्धान्त की कटु आलोचनाएँ की हैं। प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं

1. भूमि में मौलिक एवं अविनाशी शक्तियाँ नहीं होतीं – रिकोड़ों के अनुसार, लगान भूमि की मौलिक एवं अविनाशी शक्तियों के प्रयोग के लिए दिया जाने वाला प्रतिफल है। आलोचकों का मत है। कि भूमि में मौलिक एवं अविनाशी शक्तियाँ नहीं होती। भूमि की उपजाऊ शक्ति प्राकृतिक होती है। उसमें सिंचाई, खाद व अन्य प्रकार के भूमि सुधारों से भूमि की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि की जा सकती है; अत: भूमि की उपजाऊ शक्ति मौलिक नहीं है। भूमि की शक्ति को अविनाशी भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि भूमि के निरन्तर प्रयोग से उसकी उपजाऊ शक्ति का ह्रास होता है। इस प्रकार रिका का मते उचित प्रतीत नहीं होता।

2. खेती करने का क्रम ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक नहीं – रिकार्डों के अनुसार, सबसे पहले खेती अधिक उपजाऊ तथा अच्छी स्थिति वाली भूमि पर की जाती है तथा उसके बाद घटिया भूमि पर, परन्तु कैरे और रोशर आदि अर्थशास्त्रियों के अनुसार खेती का यह क्रम ठीक नहीं है। लोग सबसे पहले उन भूमियों पर खेती करते हैं जो सबसे अधिक सुविधापूर्ण होती हैं चाहे वह कम उपजाऊ ही क्यों न हों।।

3. अपूर्ण एवं अस्पष्ट सिद्धान्त – यह सिद्धान्त लगान उत्पन्न होने के कारणों पर उचित प्रकाश नहीं डालता। यह सिद्धान्त केवल यह बताता है कि श्रेष्ठ भूमि का लगान निम्न श्रेणी की भूमि की तुलना में अधिक क्यों होता है। यह इस बात को स्पष्ट नहीं करता कि लगान क्यों उत्पन्न होता है और न ही लगान को उत्पन्न करने वाले कारणों का विश्लेषण करता है।

4. यह सिद्धान्त काल्पनिक है – यह सिद्धान्त अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित है। वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पायी जाती है। अत: यह सिद्धान्त व्यावहारिक दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता। इसलिए कहा जा सकता है कि यह सिद्धान्त काल्पनिक है।

5. कोई भी भूमि लगानरहित नहीं होती – रिकाडों की यह मान्यता कि सीमान्त भूमि लगानरहित भूमि होती है, उचित नहीं है। विकसित देशों में ऐसी कोई भूमि नहीं होती जिस पर लगाने न दिया जाता हो। अतः सीमान्त भूमि तथा लगानरहित भूमि की मान्यता केवल कल्पना मात्र है।

6. लगान केवल भूमि को प्राप्त होता है – रिकाडों की यह धारणा गलत है कि लगान केवल भूमि को ही प्राप्त होता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, लगान अवसर लागत पर अतिरेक है जो उत्पत्ति के किसी भी साधन को प्राप्त हो सकता है।

7. लगान कीमत को प्रभावित करता है – रिकाडों का यह विचार कि लगान कीमत को प्रभावित नहीं करता, ठीक नहीं है। केवल कुछ दशाओं में अधिशेष कीमत में सम्मिलित रहता है और कीमत का निर्धारण भी करता है। व्यक्तिगत किसान की दृष्टि से लागत एक लगान होती है, इसलिए वह अनाज की कीमत को प्रभावित करता है।

8. कृषि पर सदैव ही उत्पत्ति ह्रास नियम लागू नहीं होता – लगान का यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि कृषि में केवल उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होता है, जबकि वास्तविकता यह है कि कृषि में उत्पत्ति वृद्धि नियम तथा उत्पत्ति समता नियम भी लागू हो सकते हैं।

9. लगान कीमत में सम्मिलित होता है – रिकाड तथा प्राचीन अर्थशास्त्रियों के अनुसार अधिशेष (लगान) खेती की उपज की कीमत में सम्मिलित नहीं रहता अर्थात् खेती की उपज की कीमत के निर्धारण में लगान का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि लगान और कीमत एक-दूसरे से भिन्न या असम्बन्धित नहीं हैं। यद्यपि अधिशेष ( लगान) कीमत का निर्धारण नहीं करता, परन्तु स्वयं अधिशेष का निर्धारण भूमि की कीमत द्वारा होता है।

प्रश्न 3
लगान के आधुनिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। यह रिकार्डों के लगान सिद्धान्त से किस प्रकार श्रेष्ठ है ?
उत्तर:
लगान का आधुनिक सिद्धान्त – लगान का आधुनिक सिद्धान्त माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का ही एक संशोधित रूप है। इस सिद्धान्त के अनुसार लगान दुर्लभता के कारण प्राप्त होता है। लगान केवल भूमि की ही विशेषता नहीं, बल्कि वह अन्य उत्पत्ति के साधनों को भी मिल सकता है; क्योंकि आधुनिक अर्थशास्त्रियों का मत है कि उत्पत्ति के अन्य साधन भी भूमि की भाँति सीमितता अथवा भूमि तत्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार लगान का भी एक सामान्य सिद्धान्त होना चाहिए; अत: इन अर्थशास्त्रियों ने माँग और पूर्ति के सिद्धान्त को लगान के निर्धारण के सम्बन्ध में लागू करने का प्रयत्न किया है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने लगान के दुर्लभता सिद्धान्त’ को विकसित किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार, भूमि की दुर्लभता के कारण लगान उत्पन्न होता है। यदि भूमि असीमित होती तो कीमत या लगान देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

लगान के आधुनिक सिद्धान्त का आधार – लगान के आधुनिक सिद्धान्त का आधार साधनों की विशिष्टता का होना है। वॉन वीजर (Von wieser) ने विशिष्टता के आधार पर उत्पत्ति के साधनों को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा है

  1. पूर्णतया विशिष्ट साधन – पूर्णतया विशिष्ट साधन वे साधन होते हैं जिनका उपयोग केवल एक विशिष्ट कार्य में ही किया जा सकता है। इस प्रकार के साधनों को किसी अन्य उपयोग में नहीं लाया जा सकता, इसलिए इनकी अवसर लागत शून्य होती है।
  2. पूर्णतया अविशिष्ट साधन – पूर्णतया अविशिष्ट साधन वे साधन होते हैं जिन्हें किसी भी उपयोग में लाया जा सकता है अर्थात् जिनमें गतिशीलता पायी जाती है।

परन्तु कोई भी साधन न तो पूर्णतया विशिष्ट होता है और न पूर्णतया अविशिष्ट। प्रायः साधन आंशिक रूप से विशिष्ट और आंशिक रूप से अविशिष्ट होते हैं।

आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, लगान साधनों की विशिष्टता का परिणाम है। ‘विशिष्टता एवं ‘भूमि तत्त्व’ एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं, अर्थात् विशिष्टता शब्द के लिए भूमि तत्त्व’ शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है।

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार, “लगान के विचार का सार वह बचत है जो कि एक साधन की इकाई को उस न्यूनतम आय के ऊपर प्राप्त होती है जो कि साधन को अपने कार्य करते रहने के लिए आवश्यक है।”

प्रो० बोल्डिग के शब्दों में, “आर्थिक बचत अथवा आर्थिक लागत उत्पत्ति के किसी साधन की एक इकाई का वह भुगतान है जो कि कुल पूर्ति मूल्य के ऊपर आधिक्य है अर्थात् साधन को वर्तमान व्यवसाय में बनाये रखने के लिए आवश्यक न्यूनतम धनराशि के ऊपर आधिक्य है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लगान एक बचत है जो किसी साधन को उसके न्यूनतम पूर्ति मूल्य अर्थात् अवसर लागत के ऊपर प्राप्त होती है। अर्थात्
लगान = वास्तविक आय – अवसर लागत

स्पष्ट है कि लगाने प्रत्येक साधन को विशिष्टता के गुण के कारण प्राप्त होता है।
लगान के आधुनिक सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ

  1.  इस सिद्धान्त के अनुसार उत्पत्ति का प्रत्येक साधन लगान प्राप्त कर सकता है।
  2.  साधने की वास्तविक आय में से अवसर लागत को घटाकर लगान ज्ञात किया जा सकता है।
  3.  लगान की उत्पत्ति का कारण साधन की विशिष्टता या सीमितता का होना है।
  4.  लगान का सिद्धान्त माँग और पूर्ति का ही सिद्धान्त है।

रिकार्डों के सिद्धान्त से आधुनिक सिद्धान्त की भिन्नता – आधुनिक लगान सिद्धान्त व रिकार्डों के लगान सिद्धान्त में निम्नलिखित भिन्नताएँ पायी जाती हैं

(1) प्राचीन अर्थशास्त्री यह समझते थे कि लगान केवल भूमि के सम्बन्ध में ही प्राप्त होता है। रिकाडों ने भी केवल लगान की व्याख्या भूमि के सन्दर्भ में ही की, परन्तु आधुनिक लगान सिद्धान्त के अनुसार उत्पत्ति के अन्य साधनों को भी लगान प्राप्त हो सकता है। उदाहरण के लिए—‘योग्यता के लगान का विचार’ यह बताता है कि मनुष्य की प्राकृतिक योग्यता एक प्रकार की भूमि ही है। इससे यह स्पष्ट होता है कि केवल भूमिपति ही अतिरिक्त आय प्राप्त नहीं करता, बल्कि उत्पत्ति के अन्य साधनों को भी इसी प्रकार की आय प्राप्त हो सकती है।

(2) रिकार्डों का लगाने सिद्धान्त एक संकुचित धारणा है, जबकि आधुनिक लगान सिद्धान्त का दृष्टिकोण व्यापक है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों की यह धारणा है कि लगान उत्पादन के सभी साधनों को प्राप्त हो सकता है, अपेक्षाकृत व्यापक धारणा है।

(3) रिकाडों के लगान सिद्धान्त के अनुसार भूमि प्रकृति का उपहार है, इसकी पूर्ति सीमित है। भूमि की सीमितता के गुण अन्य साधनों में नहीं पाये जाते, इसलिए उन्हें लगान प्राप्त नहीं होता है। आधुनिक लगान सिद्धान्त के अनुसार अल्पकाल में सभी साधनों की पूर्ति सीमित होती है तथा लगान सिद्धान्त भी माँग और पूर्ति का सामान्य सिद्धान्त ही है। इसके लिए किसी पृथक् सिद्धान्त की आवश्यकता नहीं थी।

रिकार्डों का लगान सिद्धान्त लगान उत्पन्न होने के कारणों पर उचित प्रकाश नहीं डालता। यह केवल यह बताता है कि श्रेष्ठ भूमि का लगान निम्नकोटि की भूमि की तुलना में अधिक क्यों होता है ? यह इस बात को स्पष्ट नहीं करता कि लगान क्यों उत्पन्न होता है। इसके विपरीत आधुनिक लगाने सिद्धान्त यह बताता है कि लगाने की उत्पत्ति किसी साधन की विशिष्टता या सीमितता के कारण होती है;
अत: यह तर्क उचित व न्यायसंगत है।
उपर्युक्त कारणों से रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की अपेक्षा, लगान के आधुनिक सिद्धान्त को श्रेष्ठ माना जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
“अनाज का मूल्य इसलिए ऊँचा नहीं होता है, क्योंकि लगान दिया जाता है, बल्कि लगान इसलिए दिया जाता है, क्योंकि अनाज महँगा है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
लगान तथा कीमत के सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लगान तथा कीमतों में सम्बन्ध
लगान कीमत का निर्धारण नहीं करता, परन्तु स्वयं अधिशेष का निर्धारण भूमि की कीमत द्वारा होता है। इस विचार को रिकार्डो ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-“अनाज इसलिए महँगा नहीं है, क्योंकि अधिशेष दिया जाता है; बल्कि अधिशेष इसलिए दिया जाता है, क्योंकि अनाज महँगा है।”
रिकार्डों के इस कथन की व्याख्या दो भागों में बाँटकर की जा सकती है

1. लगान मूल्य को प्रभावित नहीं करता या अधिशेष कीमत का निर्धारण नहीं करता – अधिशेष न तो कीमत में सम्मिलित होता है और न उसका निर्धारण ही करता है। रिकाडों के लगाने सिद्धान्त से यह तथ्य पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है। रिकार्डों के अनुसार, अनाज की कीमत सीमान्त भूमि पर होने वाले उत्पादन व्यय द्वारा निश्चित होती है। चूंकि रिकार्डों के अधिशेष सिद्धान्त के अनुसार सीमान्त भूमि लगानहीन भूमि होती है। अतः अधिशेष (लगान) न तो सीमान्त भूमि की उत्पादन लागत का अंश ही होता है और न कीमत का निर्धारण ही करता है। इस प्रकार अनाज के मूल्य में जो सीमान्त भूमि के उत्पादन व्यय द्वारा निश्चित होता है, लगान सम्मिलित नहीं होता है। अत: यदि लगान कम कर दिया जाए अथवा भूमि को लगाने-मुक्त कर दिया जाए तो भी अनाज के मूल्य पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

2. मूल्य लगान को प्रभावित करता है या लगान का निर्धारण कीमत द्वारा होता है – अधिशेष कीमत का निर्धारण नहीं करता, परन्तु स्वयं अधिशेष का निर्धारण खेती की उपज की कीमत के अनुसार होता है। कृषि पदार्थों का मूल्य बढ़ जाने पर खेती की सीमा या क्षेत्र विस्तृत हो जाता है अर्थात् घटिया भूमि पर भी खेती की जाने लगती है। जैसे-जैसे घटिया भूमि का उपयोग खेती में किया जाता है वैसे-वैसे अच्छी भूमि का लगान बढ़ता जाता है। मूल्य बढ़ जाने से सीमान्त भूमि अधिसीमान्त हो जाती है, जिसके कारण लगानहीन भूमि पर भी लगान उत्पन्न हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो भूमि पहले से ही अधिसीमान्त थी उस पर अधिशेष (लगान) की मात्रा बढ़ जाती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कृषि वस्तुओं के मूल्यों में होने वाली वृद्धि भूमि के लगान को बढ़ाती है। इनका मूल्य गिरने पर लगान भी कम हो जाता है। इसलिए रिकार्डो का यह कथन सत्य है कि “अनाज का मूल्य इसलिए ऊँचा नहीं है कि लगान दिया जाता है, वरन् लगान इसलिए दिया जाता है, क्योंकि अनाज की कीमत ऊँची है।”

प्रश्न 2
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त तथा आधुनिक लगान सिद्धान्त में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त तथा आधुनिक लगान सिद्धान्त में अन्तर
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प्रश्न 3
क्या लगान केवल भूमि को ही प्राप्त होता है ?
उत्तर:
रिकार्डों के अनुसार, केवल भूमि ही लगान प्राप्त कर सकती है, क्योंकि भूमि में कुछ ऐसी विशेषताएँ पायी जाती हैं जो अन्य साधनों में नहीं होतीं; जैसे-भूमि प्रकृति का नि:शुल्क उपहार है। अर्थात् समाज के लिए भूमि की उत्पादन लागत शून्य होती है। भूमि सीमित होती है और समाज की दृष्टि से उसकी कुल मात्रा को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता। सीमितता केवल भूमि की ही विशेषता है जो उसे उत्पत्ति के अन्य साधनों से अलग कर देती है।

आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार लगान अवसर लागत (Opportunity cost) पर अतिरेक है जो उत्पत्ति के किसी भी साधन को प्राप्त हो सकता है। जिस साधन की पूर्ति बेलोचदार हो जाती है। वही साधन लगान प्राप्त करने लगता है।
लगान के आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार किसी साधन को लगान उसकी दुर्लभता के कारण प्राप्त होता है। लगान केवल भूमि की विशेषता नहीं है, बल्कि वह अन्य उत्पत्ति के साधनों को मिल सकता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, अन्य साधन भूमि की भाँति सीमितता (Limitedness) अथवा भूमि तत्त्व (Land element) को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए लगान उन्हें भी प्राप्त हो सकता है।

प्रो० मार्शल ने योग्यता के लगान का विश्लेषण करके लगान के विचार को विस्तृत कर दिया है। प्राचीन अर्थशास्त्री यह समझते थे कि लगान केवल भूमि के सम्बन्ध में ही उत्पन्न होता है, किन्तु मार्शल के अनुसार, लगान कई प्रकार के हो सकते हैं और भूमि का लगान उसका एक विशेष उदाहरण है। इस प्रकार, प्रो० मार्शल ने योग्यता के लगान का विचार देकर लगान के आधुनिक सिद्धान्त की नींव डाली। योग्यता का लगान का विचार हमें यह बताता है कि मनुष्य में भी भूमि (Land) का कुछ अंश पाया जाता है। मनुष्य की प्राकृतिक योग्यता एक प्रकार से भूमि ही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल भूमिपति ही अतिरेक आय प्राप्त नहीं करता, बल्कि उत्पत्ति के अन्य साधनों को भी इस प्रकार की आय प्राप्त हो सकती है। अत: लगान केवल भूमि को ही प्राप्त नहीं होता है, बल्कि उत्पादन के अन्य उपादानों श्रमिकों, पूंजीपतियों तथा उद्यमियों आदि को भी प्राप्त होता है।

प्रश्न 4
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त व आभास लगान की तुलना कीजिए।
उत्तर:
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त तथा आभास लगान में तुलना

समानताएँ (Similarities)

  1. दोनों के उत्पन्न होने के कारण समान हैं। लगान कृषि उपज की माँग बढ़ने के कारण उत्पन्न होता है और आभास लगान मानव द्वारा निर्मित पूँजीगत वस्तुओं की माँगे बढ़ने के कारण उत्पन्न होता है।
  2. लगान भूमि की पूर्ति निश्चित होने के कारण उत्पन्न होता है। इसी प्रकार आभास लगान अल्पकाल में पूँजीगत वस्तुओं की पूर्ति निश्चित होने के कारण उत्पन्न होता है।
  3. लगान कीमत को प्रभावित नहीं करता, अपितु कीमत द्वारा प्रभावित होता है। इसी प्रकार आभास लगान भी कीमत को प्रभावित नहीं करता, अपितु कीमत द्वारा प्रभावित होता है।

असमानताएँ (Dissimilarities)

  1. रिकार्डों के अनुसार, “लगान प्राकृतिक उपहारों (भूमि) पर प्राप्त होता है, जबकि आभास लगान मनुष्य द्वारा निर्मित वस्तुओं पर प्राप्त होता है।”
  2. आभास लगान केवल अल्पकाल में प्राप्त होता है, जबकि रिकार्डों के अनुसार लगान अल्पकाल व दीर्घकाल दोनों में प्राप्त होता है।
  3. रिकाडों के अनुसार, लगान एक स्थायी आधिक्य हैं, जबकि आभास लगन एक अस्थायी आधिक्य है।

प्रश्न 5
आर्थिक लगान तथा ठेका लगान में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
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प्रश्न 6
जनसंख्या की वृद्धि का लगान पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
जनसंख्या में वृद्धि होने पर लगान में वृद्धि हो जाती है। जनसंख्या की वृद्धि से खाद्य-पदार्थों की माँग बढ़ती है। इस माँग की पूर्ति हेतु खाद्य-पदार्थों का उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। उत्पादन बढ़ाने के लिए या तो भू-प्रधान खेती की जाएगी या श्रम-प्रधान खेती। इन दोनों प्रकार की खेती में लगान बढ़ेगा।

भू-प्रधान खेती में लगान पर प्रभाव –  मान लीजिए खाद्य-पदार्थों की माँग की पूर्ति हेतु विस्तृत खेती का प्रयोग किया जाता है। तब हम कम अच्छी अर्थात् ‘घटिया’ प्रकार की भूमि पर भी खेती करना आरम्भ कर देंगे। इससे खेती की सीमा (क्षेत्रफल) में वृद्धि होगी, जिससे सीमान्त भूमि अब अधिसीमान्त भूमि हो जाएगी तथा सीमान्त भूमि और अधिसीमान्त भूमि की उपज का अन्तर बढ़ जाएगा, परिणामस्वरूप अधिशेष (लगान) में वृद्धि होगी।

श्रम-प्रधान खेती में लगान पर प्रभाव – यदि उपज बढ़ाने के लिए श्रम-प्रधान खेती की जाती है अर्थात् उसी भूमि पर श्रम तथा पूँजी की मात्रा बढ़ाकर उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया जाता है तब भी अधिशेष में वृद्धि होगी, क्योंकि श्रम और पूँजी से सीमान्त इकाई तथा अधिसीमान्त इकाई की उपज का अन्तर अधिक हो जाएगा। इस प्रकार लगान में वृद्धि होगी।

भूमि का अधिशेष या लगान इस कारण भी बढ़ जाता है, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ रहने के लिए आवास, पार्क, क्रीड़ास्थल, कारखाने, विद्यालय, चिकित्सालय आदि के लिए भी भूमि की आवश्यकता पड़ती है। अतः अतिरिक्त भूमि की माँग बढ़ जाती है या उपयोग में आने लगती है, परिणामस्वरूप लगान में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 7
परिवहन के साधनों के विकास का लगान पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
परिवहन के साधनों के विकास का लगाने पर प्रभाव–यदि यातायात के साधनों की उन्नति हो जाती है तो यातायात के साधन उत्तम, सस्ते एवं सुविधापूर्वक उपलब्ध होने लगते हैं। ऐसी स्थिति में लगान पर दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। लगान की मात्रा में वृद्धि भी हो जाती है तथा कमी भी।
यातायात के उत्तम और सस्ते साधन उपलब्ध होने से दूर-दूर से कृषि उत्पादन को बाजार व मण्डियों में भेजकर फसल की उचित कीमत प्राप्त की जा सकती है, जिसका परिणाम यह होता है कि घटिया श्रेणी की भूमि पर भी कृषि कार्य प्रारम्भ हो जाता है, जिसके कारण सीमान्त भूमि अधिसीमान्त हो जाती है तथा लगान उत्पन्न हो जाता है।

परिवहन के साधन विकसित हो जाने से सुदूर स्थानों से जनसंख्या आकर बसने लगती है, जिसके कारण भूमि व अनाज की माँग बढ़ती है और लगाने में भी वृद्धि हो जाती है। यातायात के साधनों में विकास हो जाने से कभी-कभी लगाने की मात्रा पर विपरीत प्रभाव भी पड़ता है, क्योंकि यदि अनाज का विदेशों से कम मूल्य पर आयात कर लिया जाता है तब वहाँ पर घटिया भूमि अर्थात् सीमान्त भूमि पर खेती होनी बन्द हो जाएगी, जिससे लगान की मात्रा कम हो जाएगी।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
लगान और लाभ में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
लगान और लाभ में अन्तर
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प्रश्न 2
कुल लगान किसे कहते हैं ? कुल लगान के तत्त्व बताइए।
उत्तर:
कुल लगान – कुल लगान के अन्तर्गत आर्थिक लगान के अतिरिक्त कुछ अन्य तत्त्व भी सम्मिलित होते हैं, जो इस प्रकार हैं

  1. केवल भूमि के प्रयोग के लिए भुगतान अर्थात् आर्थिक लगान।
  2. भूमि सुधार पर व्यय की गयी पूँजी पर ब्याज।
  3.  भूस्वामी के द्वारा उठाई गयी जोखिम का प्रतिफल।
  4. भूमि की देख-रेख अथवा उसके प्रबन्ध के लिए पुरस्कार।

प्रश्न 3
रिकार्डों के अनुसार भूमि को ही लगान क्यों प्राप्त होता है ?
उत्तर:
रिकाडों के अनुसार, भूमि ही लगान प्राप्त कर सकती है, क्योंकि भूमि में ही कुछ ऐसी विशेषताएँ पायी जाती हैं जो अन्य साधनों में नहीं होती। ये विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1.  भूमि प्रकृति का नि:शुल्क उपहार है अर्थात् समाज के लिए भूमि की उत्पादन लागत शून्य होती है।
  2. भूमि सीमित होती है और समाज की हानि से उसकी कुल मात्रा को घटाया-बढ़ाया नहीं जा सकता। सीमितता का यह गुण केवल भूमि की ही विशेषता है जो उसे उत्पत्ति के अन्य साधनों से अलग कर देती है। भूमि की पूर्ति बेलोचदार होने के कारण ही उस पर लगान प्राप्त होता है।

प्रश्न 4
रिकार्डों के अनुसार ‘सीमान्त भूमि’ क्यों लगानरहित भूमि होती है ?
उत्तर:
रिकाडों ने लगान को एक अन्तरीय अतिरेक (Differential surplus) माना है। उनके अनुसार सभी भूमियाँ एकसमान नहीं होतीं और उनमें उपजाऊ शक्ति तथा स्थिति का अन्तर पाया जाता है। कुछ भूमियाँ अधिक उपजाऊ तथा अच्छी स्थिति वाली होती हैं तथा कुछ उनकी तुलना में घटिया होती हैं। सीमान्त भूमि पर उपज कम होती है, ऐसी स्थिति में अच्छी भूमि (उपसीमान्त भूमि) अतिरेक देती है सीमान्त भूमि नहीं। इस कारण सीमान्त भूमि लगानरहित भूमि होती है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
ठेके का लगान क्या है? [2011]
उत्तर:
किसान द्वारा भूमिपति को भूमि के उपयोग के बदले में जो धनराशि देने का वादा किया जाता है, उसे ‘ठेके का लगान’ कहा जाता है।

प्रश्न 2
आर्थिक लगान किसे कहते हैं ?
उत्तर:
आर्थिक लगान को शुद्ध लगान भी कहते हैं। केवल भूमि के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को आर्थिक लगान कहा जाता है। रिकार्डों के अनुसार, “श्रेष्ठ भूमि की उपज और सीमान्त भूमि की उपज में जो अन्तर होता है, उसे आर्थिक लगान कहते हैं।”

प्रश्न 3
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार लगान किसे कहते हैं ?
उत्तर:
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक लगान एक साधन को उसकी अवसर लागत से प्राप्त होने वाला अतिरेक है। यह लगान केवल भूमि पर ही प्राप्त नहीं होता बल्कि उत्पत्ति के किसी भी उस साधन को आर्थिक लगान प्राप्त हो सकता है जिसकी पूर्ति बेलोचदार हो।

प्रश्न 4
रिकार्डों के अनुसार सीमान्त भूमि लगानरहित भूमि होती है, क्यों ?
उत्तर:
क्योंकि सीमान्त भूमि से केवल उत्पादन व्यय के बराबर उपज मिलती है और कुछ अतिरेक नहीं मिलता है। इसलिए रिकार्डों के अनुसार, ऐसी भूमि पर कुछ अधिशेष (लगान) भी नहीं होता अर्थात् सीमान्त भूमि लगानरहित भूमि होती है।

प्रश्न 5
‘लगान का दुर्लभता सिद्धान्त’ से क्या आशय है ?
उत्तर:
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने माँग एवं पूर्ति के सिद्धान्त को लगान के निर्धारण के सम्बन्ध में लागू करने का प्रयत्न किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार भूमि की दुर्लभता के कारण लगान उत्पन्न होता है क्योकि यदि भूमि असीमित होती तो भूमि की कीमत या लगान देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

प्रश्न 6
लगान के परम्परागत सिद्धान्त के जन्मदाता कौन हैं? [2008]
उत्तर:
जे०बी० क्लार्क।

प्रश्न 7
रिका द्वारा दी गई लगान की परिभाषा लिखिए। [2013, 15]
या
लगान का अर्थ लिखिए। [2015]
उत्तर:
रिकार्डों के अनुसार, “लगान भूमि की उपज का वह भाग है जो भूमि के स्वामी को भूमि की मौलिक तथा अविनाशी शक्तियों के प्रयोग के लिए दिया जाता है।

प्रश्न 8
रिकाड़ों के लगान सिद्धान्त एवं आधुनिक लगान सिद्धान्त का एक अन्तर लिखिए।
उत्तर:
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त के अनुसार केवल भूमि ही लगान प्राप्त कर सकती है, जबकि आधुनिक लगान सिद्धान्त के अनुसार लगान केवल भूमि को ही नहीं, बल्कि उत्पादन के अन्य साधनों को भी मिल सकता है।

प्रश्न 9
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की दो आलोचनाएँ लिखिए।
उत्तर:
रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की दो आलोचनाएँ इस प्रकार हैं

  1.  आलोचकों का मत है कि भूमि में मौलिक एवं अविनाशी शक्तियाँ नहीं होती हैं।
  2. खेती करने का क्रम ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक नहीं है।

प्रश्न 10
रिकार्डों के अनुसार लगान किसे प्राप्त होता है ?
या
रिकाडों के अनुसार, लगान उत्पादन के मात्र एक साधन को मिलता है। उस उत्पादन के साधन का नाम बताइए। [2007]
उत्तर:
रिकार्डों के अनुसार केवल भूमि ही लगान प्राप्त कर सकती है।

प्रश्न 11
आभास लगान से क्या तात्पर्य है ? [2006, 07, 09]
उत्तर:
प्रो० मार्शल ने पूँजीगत वस्तुओं, जिनकी पूर्ति अल्पकाल में बेलोचदार तथा दीर्घकाल में लोचदार होती है, की अल्पकालीन आयों के लिए आभास लगान शब्द का प्रयोग किया है।

प्रश्न 12
रिकार्डो ने सीमान्त भूमि किसे कहा है ?
उत्तर:
रिकार्डों के अनुसार, जो भूमि स्थिति एवं उर्वरता दोनों ही दृष्टिकोण से सबसे घटिया हो तथा जिससे उत्पादन व्यय के बराबर ही उपज मिलती हो अधिक नहीं, उसे रिकाडों ने सीमान्त भूमि कहा है।

प्रश्न 13
रिकार्डों के अनुसार अधिसीमान्त भूमि किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सीमान्त भूमि से कुछ अच्छी भूमि को रिकाड ने अधिसीमान्त भूमि कहा है।

प्रश्न 14
क्या सीमान्त भूमि अथवा लगानरहित भूमि एक कल्पनामात्र है ?
उत्तर:
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के मतानुसार विकसित देशों में ऐसी कोई भूमि नहीं होती जिस पर लगान न दिया जाता हो। अतः रिकाडों की यह मान्यता कि सीमान्त भूमि लगानरहित भूमि होती है, एक कोरी कल्पना है।

प्रश्न 15
“लगान मूल्य को प्रभावित नहीं करता है।” यह किस अर्थशास्त्री का विचार है ?
उत्तर:
रिकाडों का।

प्रश्न 16
आर्थिक लगान की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
आर्थिक लगान को शुद्ध लगान भी कहते हैं। केवल भूमि के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले भुगतान को आर्थिक लगान कहा जाता है। रिकाडों के अनुसार श्रेष्ठ भूमि की उपज और सीमान्त भूमि की उपज में जो अन्तर होता है उसे आर्थिक लगान कहते हैं।

प्रश्न 17
अर्थशास्त्र में ‘आभास लगान’ का विचार किसने प्रस्तुत किया ? [2009, 12, 13]
या
आभास लगान की अवधारणा किसने प्रतिपादित की है ? [2015, 15]
उत्तर:
आभास लगाने का विचार सर्वप्रथम मार्शल के द्वारा प्रस्तुत किया गया।

प्रश्न 18
रिकार्डो ने भूमि की उपजाऊ शक्ति को किस प्रकार की शक्ति माना है ?
उत्तर:
रिकाडों ने भूमि की उपजाऊ शक्ति को उसकी मूल तथा अविनाशी शक्ति माना है।

प्रश्न 19
लगान के सिद्धान्त के प्रवर्तक का नाम लिखिए।
या
लगान सिद्धान्त की विधिवत व्याख्या सर्वप्रथम किसने की?
उत्तर:
रिका।

प्रश्न 20
लगान के किन्हीं दो प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2006, 07]
उत्तर:
(1) आर्थिक लगान तथा
(2) ठेका लगान।

प्रश्न 21
लगान उत्पत्ति के किस साधन को प्राप्त होता है? [2014]
उत्तर:
भूमि को।

प्रश्न 22
लगान किसे दिया जाता है? [2014]
उत्तर:
लगान भूमि के स्वामी को दिया जाता है।

प्रश्न 23
आभासी लगान प्राप्त होता है-अल्पकाल में अथवा दीर्घकाल में? [2014, 15]
उत्तर:
अल्पकाल में।

प्रश्न 24
‘लगान निर्धारण के किन्हीं दो सिद्धान्तों के नाम लिखिए। [2016]
उत्तर:
(1) विस्तृत खेती के अन्तर्गत लगान
(2) गहन खेती के अन्तर्गत लगान।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
लगान सिद्धान्त के जन्मदाता थे [2009]
(क) एडम स्मिथ
(ख) रिकाड
(ग) प्रो० मार्शल
(घ) जे० बी० से
उत्तर:
(ख) रिका।

प्रश्न 2
आभास लगान की अवधारणा के प्रतिपादक हैं [2006, 14]
(क) रिका
(ख) माल्थस
(ग) प्रो० मार्शल
(घ) इनमें से किसी ने नहीं
उत्तर:
(ग) प्रो० मार्शल।

प्रश्न 3
रिकार्डों के अनुसार लगान प्रभावित नहीं करता
(क) माँग को
(ख) कीमत को
(ग) विनिमय को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) कीमत को।

प्रश्न 4
लगान सिद्धान्त का यथाक्रम व्यवस्थित विकास सबसे पहले किसने किया ?
(क) मार्शल
(ख) माल्थस
(ग) रिकाड
(घ) एडम स्मिथ
उत्तर:
(ग) रिका।

प्रश्न 5
सही उत्तर चुनें
(क) लगान मूल्य को प्रभावित करता है।
(ख) मूल्य लगान को प्रभावित करता है।
(ग) मूल्य और लगाने में कोई सम्बन्ध नहीं होता है
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) मूल्य लगान को प्रभावित करता है।

प्रश्न 6
आभासी लगान प्राप्त होता है ?
(क) भूमि को
(ख) पूँजी को
(ग) श्रम को
(घ) पूँजीगत वस्तुओं को
उत्तर:
(घ) पूँजीगत वस्तुओं को।

प्रश्न 7
ठेके का लगान आर्थिक लगान से हो सकता है
(क) अधिक
(ख) कम
(ग) अधिक या कम
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) अधिक या कम।

प्रश्न 8
“ऊँचे लगान प्रकृति की उदारता के कारण उत्पन्न नहीं होते बल्कि उसकी कंजूसी के कारण उत्पन्न होते हैं।” यह कथन है
(क) प्रो० मार्शल का
(ख) रिकाडों का
(ग) माल्थस का
(घ) रॉबिन्स का।
उत्तर:
(ख) रिकाडों का

प्रश्न 9
लगान की सर्वप्रथम एक स्पष्ट व सन्तोषजनक व्याख्या दी
(क) एडम स्मिथ ने
(ख) मार्शल ने
(ग) रिकाड ने
(घ) जे० एस० मिल ने
उत्तर:
(ग) रिकाडों ने।

प्रश्न 10
विस्तृत खेती में सीमान्त भूमि के आधार पर लगाने का विचार किसका है ?
(क) प्रो० मार्शल का
(ख) रिकाडों का
(ग) कीन्स का
(घ) माल्थस का
उत्तर:
(ख) रिकाडों का।

प्रश्न 11
निम्नलिखित में से कौन-सा एक अल्पकाल से सम्बन्धित है ?
(क) आर्थिक लगान
(ख) दुर्लभता लगान
(ग) आभासी लगान
(घ) वास्तविक लगान
उत्तर:
(ग) आभासी लगान।

प्रश्न 12
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, ‘लगान’ प्राप्त होता है [2015]
(क) भूमि को
(ख) श्रम को
(ग) पूँजी को।
(घ) ये सभी
उत्तर:
(क) भूमि को।

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 15 Indian Government Act of 1919 and 1935

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 15 Indian Government Act of 1919 and 1935 (1919 तथा 1935 का भारत सरकार अधिनियम) are the part of UP Board Solutions for Class 12 History. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 15 Indian Government Act of 1919 and 1935 (1919 तथा 1935 का भारत सरकार अधिनियम).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 15
Chapter Name Chapter 15 Indian Government
Act of 1919 and 1935
(1919 तथा 1935 का
भारत सरकार अधिनियम)
Number of Questions Solved 13
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 15 Indian Government Act of 1919 and 1935 (1919 तथा 1935 का भारत सरकार अधिनियम)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1919 ई० के अधिनियम की चार प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उतर:
1919 ई० के अधिनियम की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • 1919 ई० के ऐक्ट की मुख्य विशेषता प्रान्तों में द्वैध-शासन की स्थापना थी। इसके लिए केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों को अलग किया गया।
  • इस अधिनियम के तहत गर्वनर जनरल व गर्वनर के अधिकारों में वृद्धि की गई जिसका उपयोग वे स्वेच्छा से कर सकते थे।
  • गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में भारतीय सदस्यों की संख्या को बढ़ाया गया।
  • केन्द्रीय विधान मण्डल को विस्तृत अधिकार दिए गए जिनमें प्रमुख कानून बनाने, कानून परिवर्तन करने तथा बजट पर बहस आदि प्रमुख थे।

प्रश्न 2.
1935 ई० के गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट की दो प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
उतर:
1935 ई० के गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) केन्द्र में द्वैध-
शासन प्रणाली की स्थापना- 1919 ई० के अधिनियम में प्रान्तों में द्वैध-शासन पद्धति की स्थापना लागू की गई थी, जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके पश्चात् 1935 ई० के अधिनियम के द्वारा केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली की स्थापना की गई। केन्द्रीय विषयों को दो भागों-आरक्षित एवं हस्तान्तरित में विभक्त किया गया। आरक्षित भाग में प्रतिरक्षा, वैदेशिक और धार्मिक मामले थे, जो गवर्नर जनरल की अधिकारिता में थे। हस्तान्तरित विषयों के अन्तर्गत शेष सभी विषय थे। मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से गवर्नर जनरल इन विषयों की प्रशासनिक व्यवस्था कर सकता था। मन्त्रिपरिषद् व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होती थी और गवर्नर जनरल मन्त्रिपरिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य न था। अत: वास्तविक शासन गवर्नर जनरल के हाथों में केन्द्रित था।

(ii) विधायी शक्तियों का वितरण-
सम्पूर्ण विधायी विषयों को केन्द्रीय सूची, प्रान्तीय सूची और समवर्ती सूची में विभाजित किया गया था। केन्द्रीय अथवा संघ सूची में 59 विषय, प्रान्तीय सूची में 54 और समवर्ती सूची में 36 विषय निर्धारित किए गए। समवर्ती सूची पर गवर्नर जनरल का अधिकार निहित था जो स्वविवेक से केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय विधानमण्डलों को हस्तगत कर सकता था।

प्रश्न 3.
1935 ई० के अधिनियम के चार प्रमुख दोष लिखिए।
उतर:
1935 ई० के अधिनियम के चार प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं

  • इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता को बरकरार रखा गया। भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान नहीं किया गया।
  • प्रान्तों में स्थापित द्वैध-शासन प्रणाली को हटाकर अब नए रूप में केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली लागू कर दी। इसका स्पष्ट मतलब था कि अंग्रेज भारतीयों को किसी प्रकार की सुविधा देने के पक्ष में न थे।
  • भारतीयों द्वारा साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति का विरोध करने के बावजूद इस अधिनियम में इसे समाप्त नहीं किया गया।
  • इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल व गवर्नरों के अधिकारों में वृद्धि की गई। इस प्रकार भारतीय प्रशासन पर इंग्लैण्ड का पर्ण नियन्त्रण था।

प्रश्न 4.
1919 ई० के अधिनियम में प्रान्तीय कार्यपालिका में क्या परिवर्तन किए गए?
उतर:
1919 ई० के अधिनियम में प्रान्त में द्वैध-शासन प्रणाली की स्थापना की गई। इसके लिए केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों को पृथक कर दिया गया। इसके पश्चात् प्रान्तीय विषयों को दो भागों में विभक्त कर दिया गया-

  • सुरक्षित विषय; जैसे- अर्थव्यवस्था, शान्ति व्यवस्था, पुलिस आदि।
  • हस्तान्तरित विषय; जैसे- स्थानीय स्वशासन, शिक्षा आदि।

प्रश्न 5.
1935 ई० के अधिनियम के प्रति राष्ट्रीय दलों का दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।
उतर:
1935 ई० के अधिनियम के सम्बन्ध में जवाहरलाल नेहरू ने कहा “यइ इतना प्रतिक्रियावादी था कि इसमें स्वविकास का कोई भी बीज नहीं था।” उन्होंने और आगे कहा कि 1935 ई० का विधान, दासता का एक नवीन राजपत्र था। वह दृढ़ आरोपों से युक्त ऐसा यंत्र था जिसमें इंजन नहीं था। मदनमोहन मालवीय ने इसे ‘बाह्य रूप से जनतंत्रवादी और अंदर से खोखला कहा। चक्रवती राजगोपालचारी ने इसे द्वैध शासन पद्धति से भी बुरा एवं बिलकुल अस्वीकृत बताया।

प्रश्न 6.
1919 ई० के भारत शासन अधिनियम की क्या उल्लेखनीय विशेषता थी?
उतर:
प्रान्तों में द्वैध-शासन की स्थापना 1919 ई० के ऐक्ट की मुख्य विशेषता थी। इसके लिए केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों को पृथक् किया गया था। इसके पश्चात् प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया

  • सुरक्षित विषय; जैसे- अर्थव्यवस्था, शान्ति-व्यवस्था, पुलिस आदि और
  • हस्तान्तरित विषय; जैसे- स्थानीय स्वशासन, शिक्षा आदि।

सुरक्षित विषयों का शासन गवर्नर अपनी परिषद् के सदस्यों की सलाह से करता था और हस्तान्तरित विषयों का शासन गवर्नर भारतीय मन्त्रियों की सलाह से करता था। इस व्यवस्था से गवर्नर की कार्यकारिणी भी दो भागों में बँट गई- गवर्नर और उसकी परिषद् तथा गवर्नर और भारत मन्त्री। इससे प्रान्तीय शासन के दो भाग हो गए- पहला शासन का वह भाग, जिसके अधिकार में सुरक्षित विषय थे अर्थात् गर्वनर और उसकी परिषद् जो शासन का उत्तरदायित्वहीन भाग था और दूसरा शासन का वह भाग, जिसके अधिकार में हस्तान्तरित विषय थे अर्थात् गवर्नर और भारत मन्त्री जो शासन का उत्तरदायित्वपूर्ण भाग माना जा सकता था। शासन के इसी विभाजन के कारण इस व्यवस्था को द्वैध-शासन कहा जाता है।

प्रश्न 7.
1935 ई० के भारत शासन अधिनियम द्वारा देशी रियासतों के सम्बन्ध में क्या व्यवस्था थी?
उतर:
1935 ई० के भारत शासन अधिनियम द्वारा सभी रियासतों का एक संघ बनाने की व्यवस्था थी। किन्तु संघ के निर्माण की प्रक्रिया को अत्यन्त जटिल बना दिया गया था। संघों में प्रान्तों को आवश्यक रूप से सम्मिलित होना था; किन्तु देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था। अधिकांश रियासतों के शासक ऐसी केन्द्रीय सरकार के अन्तर्गत संगठित होने को तैयार न थे।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1919 ई० के मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार कानून के प्रमुख प्रावधानों का वर्णन करते हुए उनकी कमियों पर प्रकाश डालिए।
उतर:
सन् 1918 ई० में मॉण्टेग्यू और चेम्सफोर्ड ने संयुक्त हस्ताक्षरों से भारत में सुधारों के लिए एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसके आधार पर 1919 ई० का भारत सरकार कानून बनाया गया। इसे भारत सरकार अधिनियम-1919 या मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम के नाम से जाना जाता है। मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम के प्रावधान

(i) भारत सचिव व इंग्लैण्ड की संसद द्वारा भारतीय शासन पर नियन्त्रण में कमी की गई। भारत सचिव के कार्यालयों का सम्पूर्ण खर्चा भी ब्रिटिश राजस्व से ही लिया जाना था। इससे पहले यह खर्चा भारतीय राजस्व से लिया जाता था, जिसका भारतीय विरोध कर रहे थे।

(ii) इंग्लैण्ड में भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में एक नवीन पद का सृजन किया गया। इस नए पदाधिकारी को भारतीय उच्चायुक्त’ कहा गया। भारतीय उच्चायुक्त को भारत सचिव से अनेक अधिकार लेकर दे दिए गए। भारतीय उच्चायुक्त की नियुक्ति भारत सरकार द्वारा की जानी थी तथा उसका खर्च भी भारत को ही वहन करना था।

(iii) गवर्नर जनरल व गवर्नरों के अधिकारों में वृद्धि की गई, जिनका उपयोग वे स्वेच्छा से कर सकते थे।

(iv) भारतीयों की यह माँग कि साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति को समाप्त कर दिया जाए, को स्वीकार नहीं किया गया। इसके विपरीत इस प्रणाली को और बढ़ावा दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार सिक्खों, एंग्लो-इण्डियन्स, ईसाइयों और यूरोपियनों को भी पृथक् प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया।

(v) केन्द्रीय- 
शासन व्यवस्था में उत्तरदायी शासन लागू नहीं किया गया। अत: केन्द्रीय शासन पूर्ववत् स्वेच्छाचारी तथा नौकरशाही के नियन्त्रण में ही रहा।

(vi) गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद् में भारतीय सदस्यों की संख्या को बढ़ाया गया।

(vii) एक सदन वाले केन्द्रीय विधानमण्डल का पुनसँगठन किया गया। अब दो सदन वाले विधानमण्डल की व्यवस्था की गई। उच्च सदन को राज्य परिषद् तथा निचले सदन को केन्द्रीय विधानसभा कहा गया।

(viii) केन्द्र में पहली बार द्विसदनात्मक व्यवस्था की गई। पहले सदन को विधानसभा कहा गया। विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या 145 थी, जिनमें 41 नामजद सदस्य थे और 104 चुने हुए सदस्य होते थे। दूसरे सदन को राज्यसभा कहा गया। राज्यसभा के कुल 60 सदस्य थे। उनमें 33 चुने हुए तथा 27 नामजद सदस्य होते थे।

(ix) गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों की संख्या निश्चित की गई, जिनमें से 3 सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था।

(x) भारत परिषद्
के कार्यकारिणी सदस्यों की संख्या न्यूनतम 8 व अधिकतम 12 निश्चित कर दी गई। इनमें से आधे सदस्य वे होंगे जो दीर्घकाल से भारत में रहते आए हों। इनका कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया।

(xi) केन्द्रीय विधान
मण्डल को विस्तृत अधिकार दिए गए जिनमें कानून बनाने, कानून परिवर्तन करने तथा बजट पर बहस करने के अधिकार आदि प्रमुख थे।

(xii) इस अधिनियम
के अनुसार केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों का पहली बार बँटवारा किया गया। 47 विषयों को केन्द्रीय विषय बनाया गया। उदाहरणस्वरूप- प्रतिरक्षा, विदेशों से सम्बन्ध, विदेशियों को भारत की नागरिकता प्रदान करना, आवागमन के साधन, सीमा शुल्क, नमक, आयकर, डाकखाने, सिक्के तथा नोट, सार्वजनिक ऋण, वाणिज्य जिसमें बैंक तथा बीमा इत्यादि शामिल थे, केन्द्र को दिए गए। प्रान्तीय सूची में 50 विषय रखे गए। स्थानीय स्वशासन, स्वास्थ्य, सफाई, चिकित्सा, शिक्षा, पुलिस तथा जेल, न्याय, जंगल, कृषि, भू-कर इत्यादि विषय प्रान्तीय सरकारों को दिए गए। जो विषय सूची में शामिल नहीं किए गए उन पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र को होगा।

(xiii) प्रान्तों में द्वैध- 
शासन की स्थापना 1919 ई० के ऐक्ट की मुख्य विशेषता थी। इसके लिए केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों को पृथक् किया गया था। इसके पश्चात् प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया- (क) सुरक्षित विषय; जैसेअर्थव्यवस्था, शान्ति-व्यवस्था, पुलिस आदि और (ख) हस्तान्तरित विषय; जैसे- स्थानीय स्वशासन, शिक्षा आदि। सुरक्षित विषयों का शासन गवर्नर अपनी परिषद् के सदस्यों की सलाह से करता था और हस्तान्तरित विषयों का शासन गवर्नर भारतीय मन्त्रियों की सलाह से करता था। इस व्यवस्था से गवर्नर की कार्यकारिणी भी दो भागों में बंट गईं- गवर्नर और उसकी परिषद् तथा गवर्नर और भारत मन्त्री। इससे प्रान्तीय शासन के दो भाग हो गए- पहला शासन का वह भाग, जिसके अधिकार में सुरक्षित विषय थे अर्थात् गर्वनर और उसकी परिषद् जो शासन का उत्तरदायित्वहीन भाग था और दूसरा शासन का वह भाग, जिसके अधिकार में हस्तान्तरित विषय थे अर्थात् गवर्नर और भारत मन्त्री जो शासन का उत्तरदायित्वपूर्ण भाग माना जा सकता था। शासन के इसी विभाजन के कारण इस व्यवस्था को द्वैध-शासन कहा जाता है।

(xiv) इस अधिनियम
द्वारा एक लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई। भारत सचिव को इस आयोग की नियुक्ति का कार्य सौंपा गया।

(xv) 1919 ई० का
अधिनियम भी केन्द्रीय विधानसभा को ब्रिटिश संसद से मुक्त नहीं कर सका। भारत की केन्द्रीय विधानसभा ब्रिटिश संसद के किसी कानून के विरुद्ध विधेयक पास नहीं कर सकती थी।

(xvi) इस अधिनियम
के लागू होने के 10 वर्षों के अन्दर एक आयोग की नियुक्ति की जानी थी, जिसका कार्य इस अधिनियम के प्रति प्रतिक्रियाओं की रिपोर्ट इंग्लैण्ड की संसद को देना था।

अधिनियम की कमियाँ- मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड अधिनियम में निम्नलिखित कमियाँ थीं
(क) केन्द्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना नहीं की गई थी।
(ख) द्वैध-शासन प्रणाली सिद्धान्ततः दोषपूर्ण थी। एक ही प्रान्त में दो शासन करने वाली संस्थाएँ कैसे कार्य कर सकती हैं?
(ग) द्वैध-शासन प्रणाली के अन्तर्गत विषयों का विभाजन भी अत्यन्त अतार्किक एवं अव्यवहारिक था। ऐसे विभाग जो एक-दूसरे से सम्बन्धित थे, अलग-अलग संस्थाओं के अधीन कर दिए गए थे। उदाहरण के लिए- सिंचाई व कृषि का घनिष्ठ सम्बन्ध है, किन्तु दोनों को अलग-अलग कर दिया गया था। मद्रास (चेन्नई) के तत्कालीन मन्त्री श्री के०वी० रेड्डी ने लिखा है, “मैं विकास मन्त्री था, किन्तु वन विभाग हमारे अधिकार में नहीं था। मैं कृषि मन्त्री था, किन्तु सिंचाई विभाग पृथक् था।”
(घ) गवर्नर को अत्यधिक शक्ति प्रदान की गई थी। गवर्नर किसी भी मन्त्री के प्रस्ताव को अस्वीकार कर सकता था।
(ङ) इस अधिनियम में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया था।

प्रश्न 2.
1919 ई० के अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित द्वैध-शासन से आप क्या समझते हैं? यह क्यों असफल रहा?
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
1919 ई० के भारत सरकार अधिनियम की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
1919 ई० के अधिनियम के अन्तर्गत केन्द्र एवं प्रान्तीय विधान सभाओं के अधिकारों की समीक्षा कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 5.
1935 ई० के अधिनियम के अन्तर्गत स्वायत्तता, गर्वनरों के लिए स्वायत्तता थी, न कि प्रान्तीय विधान मण्डल और मन्त्रियों के लिए।” व्याख्या कीजिए।
उतर:
सर सैमुअल होर द्वारा संयुक्त समिति की रिपोर्ट के आधार पर, ब्रिटिश संसद में 19 दिसम्बर, 1934 को भारत सरकार विधेयक प्रस्तुत किया गया। ब्रिटिश संसद ने इस विधेयक को बहुमत से पारित कर 3 अगस्त, 1935 को अपनी सहमति प्रदान की। यह अधिनियम भारत शासन अधिनियम, 1935 ई० (गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट 1935 ई०) के नाम से जाना जाता है। सर्वप्रथम प्रान्तों में द्वैध-शासन प्रणाली की स्थापना 1919 ई० के अधिनियम में की गई थी जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके बाद 1935 ई० के अधिनियम द्वारा केन्द्र में जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके बाद 1935 ई० के अधिनियम द्वारा केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली को लागू किया गया।

केन्द्रीय विषयों को आरक्षित एवं हस्तान्तरित नामक दो भागों में विभाजित किया गया। आरक्षित भाग में प्रतिरक्षा, धार्मिक एवं वैदेशिक मामले थे जो गवर्नर जनरल की अधिकारिता में थे। हस्तान्तरित विषयों के अन्तर्गत शेष सभी विषय थे। मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से गवर्नर जनरल इन विषयों की प्रशासनिक व्यवस्था कर सकता था। मन्त्रिपरिषद् व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होती थी और गवर्नर जनरल मन्त्रिपरिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था। अत: वास्तविक शासन गवर्नर जनरल के हाथों में था।

1935 ई० के अधिनियम में 1919 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में स्थापित द्वैध-शासन प्रणाली को समाप्त करके स्वायत शासन प्रणाली को स्थापित कर दिया गया और प्रान्तों को नवीन संवैधानिक अधिकार दिये गये थे। प्रशासन का कार्य गवर्नर मन्त्रिपरिषद् के परामर्श पर करता था। मन्त्रिपरिषद् विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी थी। गवर्नरों से मन्त्रिपरिषद् के सुझावों के आधार पर कार्य करने की अपेक्षा की गई थी। गवर्नरों को इतनी शक्ति प्रदान की गई थी कि प्रान्तीय स्वायतता के बावजूद प्रान्तीय स्वायता नाम मात्र की रह गई थी।

प्रश्न 6.
1935 ई० के अधिनियम के प्रमुख प्रावधानों की व्याख्या और उसकी संक्षिप्त आलोचना कीजिए।
या
भारत के प्रजातांत्रिकरण में 1935 ई० के अधिनियम ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं?
उतर:
1935 ई० के अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं
(i) केन्द्र में द्वैध- शासन प्रणाली की स्थापना- 1919 ई० के अधिनियम में प्रान्तों में द्वैध-शासन पद्धति की स्थापना लागू की गई थी, जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके पश्चात् 1935 ई० के अधिनियम के द्वारा केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली की स्थापना की गई। केन्द्रीय विषयों को दो भागों-आरक्षित एवं हस्तान्तरित में विभक्त किया गया। आरक्षित भाग में प्रतिरक्षा, वैदेशिक और धार्मिक मामले थे, जो गवर्नर जनरल की अधिकारिता में थे। हस्तान्तरित विषयों के अन्तर्गत शेष सभी विषय थे। मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से गवर्नर जनरल इन विषयों की प्रशासनिक व्यवस्था कर सकता था। मन्त्रिपरिषद् व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होती थी और गवर्नर जनरल मन्त्रिपरिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य न था। अत: वास्तविक शासन गवर्नर जनरल के हाथों में केन्द्रित था।

(ii) विधायी शक्तियों का वितरण-
सम्पूर्ण विधायी विषयों को केन्द्रीय सूची, प्रान्तीय सूची और समवर्ती सूची में विभाजित किया गया था। केन्द्रीय अथवा संघ सूची में 59 विषय, प्रान्तीय सूची में 54 और समवर्ती सूची में 36 विषय निर्धारित किए गए। समवर्ती सूची पर गवर्नर जनरल का अधिकार निहित था जो स्वविवेक से केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय विधानमण्डलों को हस्तगत कर सकता था।

(iii) व्यापक विधान-
भारत सरकार अधिनियम -1935 अत्यन्त लम्बा और जटिल विधान था। इसमें 451 धाराएँ और 15 अनुसूचियाँ थीं। कुछ विशेष कारणों से इसका विशाल होना स्वाभाविक भी था। एक तो यह जटिल परिसंघीय संविधान की व्यवस्था करता था जो परिसंघात्मक संविधानवाद के इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलता। दूसरे, यह भारतीय मन्त्रियों और विधायकों द्वारा कदाचार के विरुद्ध विधिक सुरक्षाओं का उल्लेख करता था।

(iv) उद्देशिका का न होना-
1935 ई० के अधिनियम की अपनी कोई उद्देशिका नहीं थी। स्मरणीय है कि, 1919 ई० के अधिनियम के अधीन सरकार की घोषित नीति, ब्रिटिश भारत में उत्तरदायी शासन का क्रमिक विकास था। 1935 ई० के अधिनियम के पश्चात् 1919 ई० के अधिनियम को उद्देशिका के अलावा निरस्त कर दिया गया।

(v) अखिल भारतीय संघ का प्रस्ताव-
इस अधिनियम की सर्वप्रमुख विशेषता थी- पहली बार भारत में संघात्मक शासन प्रणाली को लागू किया जाना। सभी भारतीय प्रान्तों व देशी रियासतों का एक संघ बनाने का प्रस्ताव था। संघ के दोनों सदनों में राज्यों को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया। संघीय असेम्बली में 375 में से 125 व कौंसिल ऑफ स्टेट में 260 में से 104 सदस्य नियुक्त करने का उन्हें अधिकार दिया गया, किन्तु संघ के निर्माण की प्रक्रिया को अत्यन्त जटिल बना दिया गया था। संघों में प्रान्तों को आवश्यक रूप से सम्मिलित होना था, किन्तु देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था। अधिकांश रियासतों के शासक ऐसी केन्द्रीय सरकार के अन्तर्गत संगठित होने के लिए तैयार न थे। अतः यह क्रियान्वित नहीं हो सका।

(vi) भारतीय परिषद् का विघटन-
भारत में भारतीय कौंसिल के विरोध को देखते हुए भारतीय कौंसिल को समाप्त कर दिया गया। इसका स्थान भारत सचिव के सलाहकारों ने ले लिया। भारत सचिव की सलाहकार समिति में अधिकतम 6 सदस्य हो सकते थे। इनमें से आधे ऐसे होते थे जो कम-से-कम 10 वर्ष तक भारत सरकार की सेवा में ही रहे हों। इस प्रकार भारत सचिव का नियन्त्रण उन क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया जिनमें गवर्नर जनरल संघीय मन्त्रिमण्डल की सलाह नहीं मानता था, अथवा, अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करता था।

(vii) विधानमण्डलों का विस्तार-
1935 ई० के अधिनियम के अनुसार संघीय विधानमण्डल का स्वरूप दो सदन वाला था। उच्च सदन को राज्य परिषद् और निचले सदन को संघीय विधानसभा कहते थे। राज्य परिषद् के सदस्यों को चुनने का अधिकार सीमित लोगों को ही था। संघीय विधान सभा में 375 सदस्य होते थे, जिनमें से 125 भारतीय नरेशों के प्रतिनिधि और मुसलमानों के 80 सदस्य होते थे। संघीय विधान सभा के अधिकार सीमित थे।

(viii) प्रान्तीय स्वायत्तता-
1919 ई० के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में स्थापित द्वैध-शासन को समाप्त करके 1935 ई० के अधिनियम में स्वायत्त शासन की स्थापना की गई तथा प्रान्तों को नवीन संवैधानिक अधिकार प्रदान किए गए। प्रशासन का कार्य गवर्नर मन्त्रिपरिषद् के परामर्श पर करता था। मन्त्रिपरिषद् विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी थी। गवर्नरों से यह अपेक्षा की गई थी कि वे मन्त्रिपरिषद् के सुझावों के अनुसार ही कार्य करें, किन्तु प्रान्तीय स्वायत्तता के बावजूद भी गवर्नरों को इतनी शक्तियाँ प्रदान कर दी गई कि स्वायत्तता नाममात्र की रह गई।

1935 ई० के अधिनियम की आलोचना- इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता को बनाए रखा गया तथा भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान नहीं किया गया। प्रान्तों में से द्वैध-शासन प्रणाली को हटाना तथा केन्द्र में द्वैध-शासन प्रणाली को लागू करने का मतलब था कि अंग्रेज भारतीयों को कोई सुविधा देने के पक्ष में नहीं थे। पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में यह नियम इतना प्रतिक्रियावादी था कि इसमें स्वविकास का कोई भी बीज नहीं था।” उन्होंने आगे कहा कि 1935 ई० का विधान दासता का एक नवीन राजपत्र था। वास्तव में इस अधिनियम में एक ओर भारतीयों को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया गया कि उन्हें सब कुछ दे दिया गया है कि उन्होंने कुछ भी नहीं खोया है। इस प्रकार यह अधिनियम भारतीयों की आकांक्षाओं को सन्तुष्ट नहीं कर सका। विश्व के प्रत्येक संघ में निचले सदन के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति को अपनाया गया था। इस प्रकार 1935 ई० के अधिनियम में जनतान्त्रिक शक्तियों की उपेक्षा की गई थी।

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UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1

UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 are part of UP Board Class 12 Physics Model Papers. Here we have given UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1.

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Physics
Model Paper Paper 1
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1

समय 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक 70

निर्देश
प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्नपत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं।
नोट

  1. इस प्रश्न-पत्र में कुल पाँच प्रश्न हैं।
  2. सभी प्रश्न अनिवार्य हैं।
  3. प्रत्येक प्रश्न के जितने खण्ड हल करने हैं, उनकी संख्या प्रश्न के प्रारम्भ में लिखी है।
  4. प्रश्नों के अंक उनके सम्मुख लिखे हैं।
  5. प्रश्न-पत्र में प्रयुक्त प्रतीकों के सामान्य अर्थ हैं।

प्रश्न 1.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये।
(i) दो चालकीय गोले जिनकी त्रिज्यायें r1 तथा r2 ; हैं, समान आवेश घनत्व द्वारा आवेशित हैं। इनके पृष्ठों के निकट वैद्युत क्षेत्रों का अनुपात हैं।
(a) [latex]\cfrac { { r }_{ 1 }^{ 2 } }{ { r }_{ 2 }^{ 2 } } [/latex]
(b) [latex]\cfrac { { r }_{ 2 }^{ 2 } }{ { r }_{ 1 }^{ 2 } } [/latex]
(c) [latex]\cfrac { { r }_{ 1 }^{ } }{ { r }_{ 2 }^{ } } [/latex]
(d) 1:1

(ii) एक धात्विक प्रतिरोधक एक बैटरी से जुड़ा है। मुक्त इलेक्ट्रॉनों की प्रतिरोधक में धातु के धनायनों से टक्करों की संख्या कम होती हैं, तो धारा
(a) नियत रहेगी।
(b) बढ़ेगी।
(c) घटेगी
(d) शून्य हो जाएगी

(iii) डोमेन किस पदार्थ में बनते हैं?
(a) प्रतिचुम्बकीय ।
(b) लौहचुम्बकीय
(c) अनुचुम्बकीय
(d) इन सभी में

(iv) किसी कैथोड पृष्ठ का कार्यफलन 3.3 eV है। इस पृष्ठ से प्रकाश इलेक्ट्रॉनों के उत्सर्जन के लिए आपतित प्रकाश की न्यूनतम आवृत्ति होगी (h = 6.6 x 1034जूल-से)
(a) 6.6 x 10-34 हर्ट्ज
(b) 0.5 x 1034 हर्ट्ज
(c) 8 x 1014 हर्ट्ज
(d) 3.2 x 1015 हज़

(v) दूर दृष्टि दोष का निवारण होता है।
(a) उचित फोकस दूरी के अवतल लेन्स के प्रयोग से
(b) उचित फोकस दूरी के उत्तल लेन्स के प्रयोग से
(c) किसी भी अवतल लेन्स के प्रयोग से
(d) किसी भी उत्तल लेन्स के प्रयोग से

(vi) एक अर्द्ध-तरंगीय डायोड दिष्टकारक, जिसका भरण ज्यावक्रीय सिग्नल द्वारा किया गया है, के निर्गत् में बिना फिल्टर के शिखर वोल्टता का मान 10 V है। निर्गत् वोल्टता का DC अंश होगा
(a) [latex]\cfrac { 10 }{ \sqrt { 2 } } V [/latex]
(b) [latex]\cfrac { 10 }{ \pi } V[/latex]
(c) 10v
(d) [latex]\cfrac { 20 }{ \pi } V[/latex]

प्रश्न 2.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (1 x 6= 6) 
(i) परावैद्युत सामर्थ्य से क्या अभिप्राय है?
(ii) अनुनाद परिपथ में L-C-R परिपथ के शक्ति गुणांक का मान बताइये।
(iii) 600 नैनोमीटर तरंगदैर्ध्य का प्रकाश विद्युत चुम्बकीय वर्णक्रम के किस 
भाग में होगा?
(iv) प्रकाश का वह अभिलक्षण बताइये, जो अपवर्तन की घटना में अपरिवर्तित 
रहता है।
(v) प्रकाश की तरंगदैर्घ्य बढ़ाने पर किसी माध्यम के अपवर्तनांक पर क्या 
प्रभाव पड़ता है?
(vi) आयाम मॉडुलन क्या है?

प्रश्न 3.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (2 x 4= 8)
(i) एक आवेश qको दो भागों में किस प्रकार विभाजित करें कि उन्हें एकदूसरे से कुछ 
दूरी पर रखने पर उनके बीच अधिकतम प्रतिकर्षण बल लगे?
(ii) प्रत्यावर्ती परिपथ के लिये औसत शक्ति का व्यंजक प्राप्त कीजिये।
(iii) हाइगेन्स के तरंग संचरण सम्बन्धी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिये।
(iv) चित्र में दिये गये गेटो P तथा ५ के नाम बताइये तथा निर्गत् सिग्नल Y की सत्यता 
सारणी बनाइये।
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प्रश्न 4.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (3 x 10 = 30)
(i) विभवमापी की सुग्राहिता किस प्रकार बढ़ाई जाती है? वोल्टमीटर की तुलना में इसे 
श्रेष्ठ क्यों समझा जाता है?
(ii) किसी धारामापी की कुण्डली का प्रतिरोध 15 ओम है। 4 मिली ऐम्पियर की वैद्यत 
धारा प्रवाहित होने पर यह पूर्ण स्केल विक्षेप दर्शाता है। आप इस धारामापी को से 6 ऐम्पियर परास वाले अमीटर में कैसे रूपान्तरित करेंगे?
(iii) एक धात्विक चालक का प्रतिरोध ताप बढ़ने पर बढ़ता है, जबकि अर्सचालक का 
प्रतिरोध ताप बढ़ने के साथ घटता है। कारण स्पष्ट कीजिये।
(iv) संलग्न चित्र में जुड़े तीन प्रतिरोध वाटों में प्रत्येक 22 है तथा प्रत्येक को अधिकतम 
18 वाट तक विद्युत शक्ति दी जा सकती है (अन्यथा वह पिघल जायेगा)। पूर्ण परिपथ कितनी अधिकतम शक्ति ले सकता है?
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 2

(v) आयाम मॉडुलित e का मान ? = 150[1+ 0.5 cos 32501] cos 5 x 105 t से व्यक्त किया जाता है। गणना कीजिये।
(a) मॉडुलन सूचकांक
(b) मॉडुलन आवृत्ति
(c) वाहक आवृत्ति
(d) वाहक आयाम।
(vi) पतले लेन्स की फोकस दूरी के लिये न्यूटन के सूत्र का व्यंजक स्थापित कीजिये।
(vii) 25 वाट के एकवर्षीय प्रकाश स्रोत से उत्सर्जित तरंगदैर्ध्य 6000 A वाले फोटॉनों 
की प्रति सेकण्ड संख्या ज्ञात कीजिये। 5% प्रकाश वैद्युत प्रभाव दक्षता मानने पर, प्रकाश वैद्युत धारा क्या होगी?
(h = 6.6 x 10-34 जूल-सेकण्ड, c= 3.0 x 108 मी/से, e = 1.6 x 1019 कूलॉम)
(viii)
(a) हाइड्रोजन परमाणु में इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर प्रति 
 सेकण्ड 6 x 1015  चक्कर लगाता हैं। वृत्तीय पथ में धारा का मान क्या होगा?
(b) बोहर का परमाणु मॉडल रदरफोर्ड के परमाणु मॉडल से कैसे 
श्रेष्ठ है?
(ix)
(a) नाभिकीय श्रृंखला अभिक्रिया में क्रान्तिक द्रव्यमान से क्या ।
अभिप्राय है?
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 3
(x) एक समतल वैद्युत चुम्बकीय तरंग में वैद्युत क्षेत्र 2.0×100 हर्ट्ज की आवृत्ति से ज्यावक्रीय रूप से दोलन करता है। इसका आयाम 48 वोल्ट/मी है। ज्ञात कीजिये।
(a) दोलित्र चुम्बकीय क्षेत्र का आयाम
(b) औसत वैद्युत ऊर्जा घनत्व
(c) औसत चुम्बकीय ऊर्जा घनत्व

प्रश्न 5.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (5 x 4= 20)
(i) गाँस की प्रमेय का उल्लेख कीजिए। एकसमान आवेशित गोलीय कोश के कारण वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता का व्यंजक ज्ञात कीजिए, जबकि बिन्दु कोश के
(a) बाहर
(b) पृष्ठ पर
(c) अन्दर स्थित हो।
(ii) प्रत्यावर्ती धारा जनित्र की रचना एवं कार्यविधि समझाइए। दिष्ट धारा की तुलना में | प्रत्यावर्ती धारा के क्या लाभ हैं? जिनके कारण अब समान्यतः प्रत्यावर्ती धारा ही प्रयोग 
की जाती है।
(iii) प्रकाश के व्यतिकरण सम्बन्धी प्रयोग में दो स्लिटों के बीच अन्तराल 0.2 मिमी है। इनसे निर्गत् प्रकाश के व्यतिकरण से 1 मी दूरी पर स्थित पर्दे पर 3 मिमी चौड़ी फ्रिजें बनती हैं। गणना कीजिए
(a) स्लिटों पर आपतित प्रकाश की तरंगदैर्ध्य ।
(b) केन्द्रीय दीप्त फ्रिन्ज से तृतीय अदीप्त फ्रिज की दूरी
(iv)
(a) जेनर डायोड क्या होता है? इसके उपयोग समझाइये।
(b) दर्शाइये कि चित्र में दिया गया परिपथ OR गेट की भाँति व्यवहार करता है।
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Answers

उत्तर 1(i).
(b)
 [latex]\cfrac { { r }_{ 2 }^{ 2 } }{ { r }_{ 1 }^{ 2 } } [/latex]
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उत्तर 1(ii).
(b) बढ़ेगी।
यदि मुक्त इलेक्ट्रॉनों की धातु के धनायनों के साथ टक्करों की संख्या 
घटती है, तो इलेक्ट्रॉनों का अनुगमन वेग बढ़ जाता है, इसलिए धारा बढ़ जाएगी।

उत्तर (iii).
(b) लौहचुम्बकीय
डोमेन की रचना केवल लौहचुम्बकीय पदार्थों में होती है। डोमेन के कारण इनका चुम्बकत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है।

उत्तर 5.
(b) उचित फोकस दूरी के उत्तल लेन्स के प्रयोग से
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 6
उत्तर 6.
(b) [latex]\cfrac { 10 }{ \pi } V[/latex]
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 7

उत्तर 2
(i) किसी परावैद्युत पदार्थ के लिये महत्तम अथवा अधिकतम वैद्युत क्षेत्र लिये 
बिना वैद्युत भंजन के सहन कर सकता है, परावैद्युत सामर्थ्य कहलाता है।

UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 8
(vi) आयाम मॉडुलन वह क्रिया है, जिसमें उच्च आवृत्ति की वाहक तरंगों के आयाम मॉडुलक तरंग के तात्कालिक मान के अनुसार बढ़ता है।

उत्तर 3.
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 9

(ii) जब किसी वैद्युत परिपथ में प्रतिरोध (R) तथा प्रेरकत्व (L) दोनों हो, तो धारा । वोल्टेज V से φ कलान्तर पश्चगामी होती है, इस प्रकार के परिपथ में वोल्टेज एवं धारा के मान निम्न समीकरण से व्यक्त किए जाते हैं।
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 10

(iii) हाइगेन्स के तरंग संचरण सम्बन्धी सिद्धान्त के अनुसार,
(a) जब किसी माध्यम में स्थित तरंग स्रोत से तरंगें निकलती हैं, तो स्रोत 
के चारों ओर स्थित माध्यम के कण कम्पन करने लगते हैं। माध्यम में वह पृष्ठ जिसमें स्थित सभी कण कम्पन की समान कला में हों, तरंगाग्र कहलाता है।
(b) तरंगाग्र पर स्थित प्रत्येक कण एक नये तरंग स्रोत का कार्य करता है,
जिससे नई तरंगें सभी दिशाओं में निकलती हैं। इन तरंगों को द्वितीयक तरंगिकाएँ कहते हैं।
(c) यदि किसी क्षण आगे बढ़ती हुई इन द्वितीयक तरंगिकाओं का 
आवरण (Envelope) उन्हें स्पर्श करते हुए पृष्ठ खींचे, तो यह आवरण उस क्षण तरंगाग्र की नई स्थिति प्रदर्शित करेगा।

(iv) P.NAND गेट तथा Q-OR गेट है।
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 11
उत्तर 4.
(i) विभवमापी की सुग्राहिता इसके तार की विभव प्रवणता के व्युत्क्रमानुपाती होती है। तार की विभव प्रवणता K =V/L जहाँ L तार की लम्बाई है। अतः स्पष्ट है कि L का मान जितना अधिक होगा अर्थात् विभवमापी के तार की लम्बाई जितनी अधिक होगी, उसकी विभव प्रवणता उतनी ही कम होगी, जिससे उसकी सुग्राहिता उतनी ही अधिक होगी। इस प्रकार विभवमापी के तार की लम्बाई बढ़ाने पर सुग्राहिता को बढ़ाया जा सकता है।
विभवमापी की वोल्टमीटर से श्रेष्ठता ।

(a) जब विभवमापी से सेल का वैद्युत वाहक बल नापते हैं, तो शुन्य 
विक्षेप की स्थिति में सेल के परिपथ में कोई धारा प्रवाहित नहीं। होती है अर्थात् सेल खुले परिपथ में होते हैं। अतः इस स्थिति में सेल के वैद्युत वाहक बल का वास्तविक मान प्राप्त होता है। इस प्रकार विभवमापी अनन्त प्रतिरोध के वोल्टमीटर के समतुल्य होता है।

(b) वोल्टमीटर द्वारा सेल का वैद्युत वाहक बल नापते समय विक्षेप पढ़ना होता है। विक्षेप के पढ़ने में त्रुटि हो सकती है, जबकि विभवमापी में । शुन्य विक्षेप की स्थिति पढ़नी होती है तथा तार की लम्बाई अधिक होती है। अतः इसमें प्रतिशत त्रुटि बहुत कम होती है।

(ii) यदि शन्ट का प्रतिरोध S तथा धारामापी का प्रतिरोध G हो, तो धारामापी में पूर्ण स्केल विक्षेप के लिए आवश्यक धारा ।
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(iv)
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(vi) न्यूटन का सूत्र माना कि परिमित आकार की कोई वस्तु 00′ एक पतले उत्तल लेन्स की मुख्य अक्ष के प्रथम फोकस F’ के बायीं ओर अक्ष के लम्बवत् रखी है। 2′ से मुख्य अक्ष के समान्तर चलने वाली प्रकाश किरण लेन्स से अपवर्तन के बाद द्वितीय फोकस से जाएगी तथा प्रथम फोकस F” से जाने वाली किरण लेन्स से अपवर्तन के बाद मुख्य अक्ष के समान्तर हो जाती है। इस प्रकार 00′ का प्रतिबिम्ब II’ बनता है।
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 (b) रदरफोर्ड के परमाणु मॉडल के अनुसार, इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर किन्हीं भी कक्षाओं में घूम सकते हैं जबकि बोहर मॉडल के अनुसार, इलेक्ट्रॉन केवल कुछ निश्चित त्रिज्याओं वाली कक्षाओं में ही घूम सकते हैं। रदरफोर्ड मॉडल के अनुसार, इलेक्ट्रॉन सभी आवृत्तियों की तरंगें उत्सर्जित करते हैं अर्थात् स्पेक्ट्रम सतत् होता है। बोहर मॉडल के अनुसार, इलेक्ट्रॉन केवल कुछ निश्चित आवृत्तियों की ही तरंगें उत्सर्जित करते है, जिनके कारण रैखिक स्पेक्ट्रम प्राप्त होता है।

(ix)
(a) किसी विखण्डनीय पदार्थ में श्रृंखला अभिक्रिया बनाये रखने के लिए, पदार्थ का द्रव्यमान एक विशेष मान से अधिक होना चाहिए अन्यथा विखण्डन से उत्पन्न अधिकांश न्यूट्रॉन आगे विखण्डन करने से पहले ही पदार्थ से बाहर निकल जायेंगे तथा अभिक्रिया बन्द हो जायेगी। अतः वह न्यूनतम द्रव्यमान जिससे कम पर श्रृंखला अभिक्रिया सम्भव नहीं है, क्रान्तिक द्रव्यमान कहलाता है।
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उत्तर 5
(i) गॉस प्रमेय किसी बन्द पृष्ठ से गुजरने वाले वैद्युत फ्लक्स  φEहै, उस पृष्ठ । द्वारा परिबद्ध कुल आवेश q का 1/ε0 गुना होता है।अर्थात् φE= q / ε0

माना R त्रिज्या के गोलीय कोश की सतह पर q आवेश समान रूप से वितरित है। इस गोले के केन्द्र 0 से  दूरी पर बिन्दु P पर वैद्युत क्षेत्र का । मान ज्ञात करना है।
(a) जब बिन्दु गोलीय कोश से बाहर स्थित हो (r >R) 
अब, चित्र के अनुसार O को केन्द्र मानकर त्रिज्या r के एक गॉसीय पृष्ठ की कल्पना करते हैं। इस गोलाकार। पृष्ठ को गाँसियन पृष्ठ भी कहते हैं। समान दूरी पर होने के कारण, इस 0 पृष्ठ के प्रत्येक बिन्दु पर वैद्युत क्षेत्र E का परिमाण तो समान होता है। परन्तु उसकी दिशा अलग-अलग एवं उस बिन्दु पर त्रिज्यीय होती हैं। बिन्दु P पर गॉसीय पृष्ठ की सतह पर एक अल्पांश क्षेत्रफल dA लेते हैं, जिसके सदिश क्षेत्रफल की दिशा भी त्रिज्य होती है।
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समी (iii) से स्पष्ट होता है कि बाह्य बिन्दु के लिए गोलीय कोश पर वितरित आवेश इस प्रकारे व्यवहार करता है जैसे कि सम्पूर्ण आवेश गोलीय कोश के केन्द्र पर स्थित हो।

(b) जब बिन्दु गोलीय कोश की सतह पर हो (r = R) जब बिन्दु गोलीय कोश की सतह पर होता है, तब उसके लिए केन्द्र से दूरी r = R होती है। अतः समी (ii) में r का मान । रखने पर
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अतः स्पष्ट है कि आवेशित गोलीय कोश के कारण वैद्युत क्षेत्रका मान उसकी सतह पर अधिकतम होता है।

(c) जब बिन्दु गोलीय कोश के अन्दर स्थित हो (r<R) माना गोलीय कोश के अन्दर उसके केन्द्र 0 से r दूरी पर । एक बिन्दु P है, जिस पर । वैद्युत क्षेत्र E का मान ज्ञात करना है। चित्र के अनुसार, 0 को केन्द्र मानकर । त्रिज्या के एक गॉ सीय पृष्ठ की कल्पना करते हैं। चूँकि इस पृष्ठ के। अन्दर आवेश का मान शून्य। होता है, अत: इस पृष्ठ के लिए गॉस के नियम से,
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UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 1 image 22
अतः आवेशित गोलीय कोश के अन्दर वैद्युत क्षेत्र का मान शून्य 
होता है।

(ii) प्रत्यावर्ती धारा जनित्र अथवा डायनेमो एक ऐसी वैद्युत चुम्बकीय मशीन है, जिसके द्वारा यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदला जाता है। प्रत्यावर्ती धारा को उत्पन्न करने के लिए प्रत्यावर्ती धारा डायनेमो तथा दिष्ट धारा को उत्पन्न करने के लिए दिष्ट्र धारा डायनेमो का उपयोग होता है। सिद्धान्त जब किसी बन्द कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में तेजी से घूर्णन कराया जाता है, तो उसमें से गुजरने वाली फ्लक्स रेखाओं की संख्या ‘ में लगातार परिवर्तन होता रहता है, जिसके कारण कुण्डली में वैद्युत धारा उत्पन्न हो जाती है। कुण्डली को घुमाने में जो कार्य करना पड़ता है अर्थात् जो यान्त्रिक ऊर्जा व्यय होती है। वही कुण्डली में वैद्युत ऊर्जा के रूप में प्राप्त होती है। रचना प्रत्यावर्ती धारा जनित्र के मुख्यतः तीन भाग होते हैं।
(a) क्षेत्र चुम्बक यह एक शक्तिशाली चुम्बक N-S होता है। इसके द्वारा । 
उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल रेखाएँ चुम्बक के ध्रुव N से S की ओर होती है। |
(b) आर्मेचर चुम्बक के ध्रुवों के बीच में पृथक्कृत ताँबे के तारों की एक 
कुण्डली ABCD होती है, जिसे आमेचर कुण्डली कहते हैं। कुण्डली कई फेरों की होती है तथा ध्रुवों के बीच क्षैतिज अक्ष पर पानी के टरबाईन से घुमाई जाती है।
(c) सप-वलय तथा ब्रश कुण्डली के सिरों को सम्बन्ध अलग-अलग दो 
ताँबे के छल्लों से होता है, जो आपस में एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते। हैं और कुण्डली के साथ उसकी अक्ष पर घूमते हैं, इन्हें सर्दी-वलय । कहते हैं। इन छल्लों को दो कार्बन के ब्रुश X तथा Y स्पर्श करते रहते । हैं। ये ब्रुश स्थिर रहते हैं तथा इन छल्लों के नीचे फिसलते हुए घूमते हैं। इन ब्रुशों का सम्बन्ध उस बाह्य परिपथ से कर देते हैं, जिसमें वैद्युत धारा भेजनी होती है।
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कार्यविधि जब आमेचर कुण्डली ABCD घूमती है, तो कुण्डली में से होकर जाने वाली फ्लक्स रेखाओं की संख्या में परिवर्तन होता है। अत: कुण्डली में धारा प्रेरित हो जाती है। माना कुण्डली दक्षिणावर्त दिशा में घूम रही है तथा | किसी क्षण क्षैतिज अवस्था में है। इस क्षण कुण्डली की भुजा AB ऊपर उठ रही है तथा भुजा CD नीचे जा रही है। फ्लेमिंग के दाएँ हाथ के नियम के अनुसार, इन भुजाओं में प्रेरित धारा की दिशा वही है जो चित्र में प्रदर्शित है।
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अतः धारा ब्रश x से बाहर जा रही है अर्थात् यह धन ध्रुव है तथा बुश Y पर वापस आ रही है अर्थात् यह ब्रुश ऋण ध्रुव है। जैसे ही कुण्डली अपनी ऊध्र्वाधर स्थिति से गुजरेगी भुजा AB की ओर आने लगेगी तथा CD ऊपर की ओर जाने लगेगी। अतः अब, धारा ब्रुश Y से बाहर जायेगी तथा बुश X पर वापस आयेगी। इस प्रकार आधे चक्कर के बाद बाह्य परिपथ में धारा की दिशा बदल जायेगी। अतः परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा उत्पन्न होगी। प्रत्यावर्ती धारा की दिष्ट धारा की तुलना में उपयोगिता वर्तमान में घरेलू व औद्योगिक कार्यों में प्रत्यावर्ती धारा का ही उपयोग होता है, क्योकि दिष्ट धारा की तुलना में इसके निम्न लाभ हैं। |

(a) प्रत्यावर्ती धारा के पावर प्लांट से किसी स्थान पर ट्रान्सफॉर्मर की। सहायता से उच्च वोल्टेज पर भेजा जा सकता है तथा वहाँ इसे पुनः निम्न वोल्टेज पर लाया जा सकता है। इस प्रकार भेजने में लागत भी कम आती है तथा ऊर्जा ह्रास भी बहुत घट जाता है। ट्रान्सफॉर्मर का उपयोग दिष्ट धारा के लिए नहीं किया जा सकता। अतः दिष्ट धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में ऊर्जा हास भी । होता है तथा कीमत भी अधिक आती है। 

(b) प्रत्यावर्ती धारा को चोक कुण्डली द्वारा बहुत कम ऊर्जा हास परनियन्त्रित किया जा सकता है, जबकि दिष्ट धारा ओमीय प्रतिरोध द्वारा ही नियन्त्रित की जा सकती है, जिसमें अत्यधिक ऊर्जा ह्रास होता है।

(c) प्रत्यावर्ती धारा वाले यन्त्र, जैसे-वैद्युत मोटर दिष्ट धारा वाले यन्त्रों की तुलना में सुदृढ़ व सुविधाजनक होते हैं।

(d) जहाँ दिष्ट धारा की आवश्यकता होती है, वहाँ दिष्टकारी द्वारा प्रत्यावर्ती धारा को सुगमता से दिष्ट धारा में बदल दिया जाता है।
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जेनर डायोड के श्रेणीक्रम में एक प्रतिरोध है, को इस प्रकार संयोजित करते हैं कि जेनर डायोड उत्क्रम अभिनत हो जाए, क्योंकि भंजन क्षेत्र में जेनर वोल्टेज नियत बनी रहती है। अतः निवेशी वोल्टता में कमी । अथवा वृद्धि होने पर जेनर वोल्टता में बिना कोई परिवर्तन हुए प्रतिरोध R, के सिरों पर संगत परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार जेनर डायोड । एक वोल्टेज नियन्त्रक की तरह कार्य करता है। निर्गत् वोल्टता को । नियन्त्रित रखने के लिए तथा निवेशी वोल्टता को नियन्त्रित रखने के लिए तथा निवेशी वोल्टता को दी गई परास के लिए प्रतिरोध R, का मान इस प्रकार निर्धारित करते हैं कि जेनर डायोड भंजक क्षेत्र में प्रचलित हो तथा • जेनर डायोड में बहने वाली धारा का मान एक निश्चित मान से अधिक न हो, अन्यथा डायोड जल जाएगा।

(b) परिपथ में पहला गेट NOR गेट है। इसके निर्गत् को NOT गेट की निवेशी बनाया गया है, जिसका निर्गत Y है।
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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 12 National Renaissance and Foundation of Indian National Congress

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 12
Chapter Name National Renaissance and
Foundation of
Indian National Congress
(राष्ट्रीय जनजागरण व
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना)
Number of Questions Solved 6
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 12 National Renaissance and Foundation of Indian National Congress (राष्ट्रीय जनजागरण व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसने की थी? उसके प्रारम्भिक उद्देश्य क्या थे?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ऐलेन ऑक्ट्रेनियन ह्यूम (ए०ओ० ह्यूम) ने सन् 1885 ई० में की थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारम्भिक उद्देश्य निम्नलिखित थे

  • साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में देश-हित के लिए लगन से काम करने वालों की आपस में घनिष्ठता तथा मित्रता बढ़ाना।
  • राष्ट्रीय एकता की भावना बढ़ाना और जाति, धर्म या प्रादेशिकता के आधार पर उपजे भेदभाव को दूर करना।
  • महत्वपूर्ण एवं आवश्यक सामाजिक प्रश्नों पर भारत के शिक्षित लोगों में चर्चा करने के बाद परिपक्व समितियाँ तथा प्रामाणिक तथ्य स्वीकार करना।
  • उन उपायों और दिशाओं का निर्णय करना, जिनके द्वारा भारत के राजनीतिज्ञ देश-हित के लिए कार्य करें। कांग्रेस का अपने प्रथम काल में प्रमुख उद्देश्य प्रशासनिक सुधारों की मांग करना था, जिसकी प्राप्ति वे संवैधानिक साधनों से करना चाहते थे।

प्रश्न 2.
कांग्रेस के संघर्ष के इतिहास को कितने कालों में विभक्त किया जाता है?
उतर:
कांग्रेस के संघर्ष के इतिहास को तीन कालों में विभक्त किया जाता है

  • प्रथम काल (उदारवादी काल) सन् 1885 से 1905 ई० तक।
  • द्वितीय काल (गरम विचारधारावादी तथा क्रान्तिकारी काल) सन् 1906 से 1919 तक।
  • तृतीय काल (राष्ट्रीयता का गाँधीवादी युग) सन् 1920 से 1947 तक।

प्रश्न 3.
शिक्षा के प्रसार ने राष्ट्रीय जनजागरण में क्या भूमिका निभाई?
उतर:
भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में अंग्रेजी शिक्षा ने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने तथा अंग्रेजों का शासन होने के कारण भारत के प्रत्येक कोने में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हुआ। इससे देश में भाषा की एकता स्थापित हो गई तथा इसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रान्तों के प्रबुद्ध लोगों को आपस में (अंग्रेजी भाषा के माध्यम से) विचारविमर्श करने में सहायता मिली। इस प्रकार अनजाने में अंग्रेजी शासन की शिक्षा नीति से भारतीयों को भाषायी बन्धनों से मुक्त होकर एकता की भावना को प्रचारित व प्रसारित करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्हें इस कटु सत्य का आभास हुआ कि उनके आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक शोषण का जिम्मेदार ब्रिटिश शासन ही है। इस राष्ट्रीय चेतना के फलस्वरूप ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ।

अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार ने राष्ट्रीय जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, विपिनचन्द्र पाल, चितरंजन दास, लाला लाजपतराय आदि ने पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण कर उनकी सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान अर्जित किया और राष्ट्रीय आन्दोलन में अहम योगदान दिया।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में राष्ट्रीय जनजागरण व उसके कारणों को सविस्तार उल्लेख कीजिए।
उतर:
भारत में राष्ट्रीय जनजागरण- भारत में अंग्रेजी राज्य के दौरान देशी शिक्षा, संस्कृति पर हुए प्रहार के कारण अनेक धार्मिक व सामाजिक सुधार आन्दोलन हुए। परम्परागत रूढ़िवादी संकीर्ण विचारों वाले वर्ग के अतिरिक्त अंग्रेजी शिक्षक के फलस्वरूप एक नए प्रबुद्ध वर्ग का भी उदय हुआ, जिसने सदियों से चलती आ रही रूढ़िवादी विचारधारा को बदलने का प्रयास किया।

नए शिक्षित समाज और उसके पश्चिमी प्रभाव वाले विचारों के फलस्वरूप भारत में राष्ट्रीय जागरण का सूत्रपात हुआ और भारतीयों में एक नवचेतना ने जन्म ले लिया। इस राष्ट्रीय जागरण ने राष्ट्र में एकता का संचार किया। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में हुए धार्मिक व सामाजिक आन्दोलन ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में नई राजनीतिक चेतना का प्रसार कर दिया। पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीयों में एक नई चेतना को पल्लवित कर दिया। अतः भारतीय अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने हेतु संघर्षरत हो गए। भारत में राष्ट्रीय जागरण की शुरूआत कुछ हद तक उपनिवेशवादी नीतियों के कारण ही हुई।

अंग्रेजी गवर्नर जनरलों के राष्ट्र में सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक सुधारों ने भारतीयों में एक बौद्धिक चेतना की नींव रख दी। उन्होंने अंग्रेजों के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण न अपनाते हुए उन्हें देश से बाहर करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया। इन सब गतिविधियों के कारण भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1885 ई० तक यह राष्ट्रीय आन्दोलन उग्र हो गया और भारतीयों ने अपनी माँगों को स्वीकृत कराने हेतु ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपनी गतिविधियों को तीव्र कर दिया। दिन-प्रतिदिन इस आन्दोलन ने एक नया रूप लेना आरम्भ कर दिया और एक राजनीतिक संगठन की उत्पत्ति हुई।

इस राष्ट्रीय जागरण का प्रथम श्रेय राजा राममोहन राय को जाता है, जिन्होंने युवा पीढ़ी को एकत्र किया तथा उन्हें एक नवीन भावना से भर दिया। उन्होंने उन्हें बताया कि हम पाश्चात्य शिक्षा का अनुसरण करके भी अपने देश, धर्म व समाज की रक्षा कर सकते हैं। राजा राममोहन राय के बाद तो अनेक समाज सुधारकों ने देश में नवीन विचारधाराओं की बाढ़-सी ला दी। भारतीयों का पुनरुत्थान हुआ तथा राष्ट्रीयता की भावना जागृत हो गई। उन्होंने समाज में फैली रूढ़िवादी परम्पराओं को विनष्ट कर दिया तथा व्याप्त कुरीतियों को काफी हद तक दूर करने का प्रयास किया। उनका अनुगमन करके नई पीढ़ी उत्साह से परिपूर्ण हो गई और उन्होंने स्वाधीनता के आन्दोलनों में अपना महत्वपूर्ण योगदान देना आरम्भ कर दिया।

राष्ट्रीय जनजागरण के कारण- भारतीय राष्ट्रीय जागरण एक ऐतिहासिक परम्परा का पुनरागमन तथा जनता की आत्मा की जागृति का प्रतिबिम्ब था। भारतीयों में यह नवीन चेतना अनेक कारणों से उत्पन्न हुई। इनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

(i) धार्मिक व सामाजिक पुनर्जागरण- 19वीं शताब्दी में हुए धर्म एवं समाज सुधार आन्दोलनों ने राष्ट्रीय जागरण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सुधार आन्दोलन के प्रणेताओं में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द आदि ने भारतीयों के हृदय में देशभक्ति तथा स्वतन्त्रता की भावना का संचार किया। राजा राममोहन राय ने भारतीयों को तत्कालीन समाज में फैली कुरीतियों से अवगत कराया तथा उन्हें त्यागने के लिए प्रेरित किया। राजा राममोहन राय ने विलियम बैंटिंक के सहयोग से 1829 ई० में सती प्रथा के विरुद्ध कानून पारित करवाया। दयानन्द सरस्वती ने कहा है कि ‘जो स्वदेशी राज्य होता है यह सर्वोपरि उत्तम होता है’, ‘भारत भारतीयों के लिए है। विवेकानन्द के अनुसार, “हमारे देश को दृढ़ इच्छा वाले ऐसे लौह-पुरुषों की आवश्यकता है, जिनका प्रतिरोध नहीं किया जा सके।” एनी बेसेण्ट ने “स्वतन्त्र व्यक्ति द्वारा ही स्वतन्त्र देश का निर्माण किया जा सकता है’ आदि नारों का उद्घोष कर लोगों में राष्ट्रीय जागरण की भावना का विकास किया।

(ii) राजनीतिक एकता की स्थापना- ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। अतः भारतीयों में राष्ट्रीय एकता का अभाव था। अंग्रेजों ने साम्राज्यवाद की नीति का अनुसरण कर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया। इस नीति से सम्पूर्ण भारत एक शासन-सूत्र में आबद्ध हो गया। एक राज्य की जनता दूसरे राज्य की जनता के निकट आई व उनमें राष्ट्रीयता का भाव जागृत हुआ। अंग्रेजों को जब तक यह ज्ञात हुआ कि उनकी साम्राज्यवादी नीति उनका ही अहित कर रही है तब तक भारतीय संगठित हो चुके थे तथा उनमें राष्ट्रीय जागरण की भावना का संचार हो चुका था।

(iii) साहित्यिक प्रभाव- साहित्य व समाचार-पत्रों ने भी राष्ट्रीय जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रारम्भ में सभी समाचार-पत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होते थे परन्तु कुछ तत्कालीन बुद्धिजीवियों के कठिन प्रयत्न से समाचार-पत्रों का प्रकाशन हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में भी होना प्रारम्भ हो गया। इन समाचार-पत्रों में पायनिर, पेट्रीयाट, इंडियन मिरर, बंगदूत, दि पंजाबी, दि केसरी व अमृत बाजार पत्रिका आदि प्रमुख थे। इन समाचार-पत्रों में राष्ट्रीय प्रेम, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की भावना से ओत-प्रोत लेख, कविताएँ और भावोत्पादक भाषण व उपदेश प्रकाशित होते थे। इन समाचार-पत्रों का मूल्य बहुत कम रखा जाता था, जिससे अधिक से अधिक लोग उसे पढ़ सकें। इन समाचार-पत्रों ने साधारण जनता को जागृत करने में विशेष सहयोग किया।

(iv) लॉर्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ- लॉर्ड लिटन की तात्कालिक नीतियों ने भी राष्ट्रभावना जगाने का कार्य किया। भारतीय नागरिक सेवा की उम्र घटाने का कार्य भारतीय युवाओं को ठेस पहुँचाने का कार्य था। 1877 ई० में भीषण अकाल के समय दिल्ली में एक भव्यशाली दरबार लगाकर लाखों रुपया नष्ट करना एक ऐसा कार्य था जिस पर एक कलकत्ता (कोलकाता) के समाचार-पत्र ने कहा था, “नीरों बंशी बजा रहा था। उसने दो अन्य अधिनियम, भारतीय भाषा समाचार-पत्र अधिनियम तथा भारतीय शस्त्र अधिनियम भी पारित किए जिससे कटुता और भी बढ़ गई। फलस्वरूप भारत में अनेक राजनीतिक संस्थाएँ बनीं ताकि सरकार विरोधी आन्दोलन चला सकें।

(v) आर्थिक असन्तोष- अंग्रेजों ने भारतीयों के प्रति आर्थिक शोषण की नीति का अनुसरण किया। उन्होंने भारतीयों के उद्योग-धन्धों को प्रायः नष्ट कर दिया। लॉर्ड लिटन के शासनकाल में आयात कर समाप्त कर मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई। इस नीति के पीछे अंग्रेजों का एकमात्र उद्देश्य ब्रिटिश आयात को बढ़ावा देना तथा भारतीय व्यापार को नष्ट करना था। अंग्रेजों को अपने इस उद्देश्य में सफलता मिली तथा भारतीय व्यापार नष्ट होने लगा। अनेक उद्योग-धन्धे नष्ट हो गए। ऐसी स्थिति में बेरोजगार व्यक्तियों ने कृषि को उद्योगों के रूप में अपनाना चाहा लेकिन अंग्रेजों ने कृषि की उन्नति की ओर भी ध्यान नहीं दिया, जिससे भारतीय कृषक और कृषि, दोनों की दशा शोचनीय हो गई। भारतीय जनता में दरिद्रता बढ़ने लगी। भारतीयों में फैले इस आर्थिक असन्तोष ने उनमें राष्ट्रीय जागरण की भावना का संचार किया।

(vi) विभिन्न देशों से प्रेरणा- भारतीय शिक्षित वर्ग पर विश्व के अन्य देशों में हुए स्वतन्त्रता आन्दोलनों का भी व्यापक प्रभाव हुआ। भारतीयों ने देखा व पढ़ा कि किस प्रकार जर्मनी व इटली जैसे देशों की जनता ने अथक प्रयत्नों से अपने-अपने देश का एकीकरण किया। इसके साथ ही अमेरिका ने जिन परिस्थितियों में स्वतन्त्रता प्राप्त की थी, उससे भारतीयों को भी अपने अधिकारों व देश के प्रति जागृत होने की प्रेरणा मिली। फ्रांस की क्रान्तियों ने भी भारतीयों को प्रभावित किया तथा धीरे-धीरे भारत में भी राष्ट्रवाद की भावना पनपने लगी। इस सम्बन्ध में डॉ० मजूमदार ने ठीक ही लिखा है, “विदेशों में स्वतन्त्रता प्राप्ति की घटनाओं ने भारतीय राष्ट्रवादी धारा को स्वाभाविक रूप से प्रभावित किया।”

(vii) शिक्षित भारतीयों में असन्तोष की भावना- अंग्रेजों की विभिन्न पक्षपाती एवं दोषयुक्त नीतियों के कारण शिक्षित भारतीयों में असन्तोष की भावना व्याप्त हो गई थी। भारतीय नागरिक सेवा की परीक्षा केवल इंग्लैण्ड में ही आयोजित की जाती थी। बिना किसी ठोस कारण के भारतीयों को भारतीय नागरिक सेवा की नौकरी से निकाल दिया जाता था। अंग्रेजों ने भारतीय नागरिक सेवा में प्रवेश की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी थी। अंग्रेजों की इन नीतियों से भारतीयों में असन्तोष की भावना फैल गई। क्योंकि इसका स्पष्ट उद्देश्य भारतीयों को नागरिक सेवा से दूर रखना था। इस सम्बन्ध में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कथन है कि अंग्रेजों का यह कार्य भारतीय विद्यार्थियों को भारतीय नागरिक सेवा से वंचित रखने की एक चाल है।

सुरेन्द्रनाथ के इस वक्तव्य का भारतीयों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। अत: जब 1877 ई० में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने भारत के विभिन्न स्थानों-आगरा, दिल्ली, अलीगढ़, मेरठ, कानपुर, लखनऊ, लाहौर, इलाहाबाद, वाराणसी, अमृतसर, पूना, मद्रास (चेन्नई) आदि का भ्रमण किया और शिक्षित भारतीयों को अंग्रेजों के षड्यन्त्रकारी उद्देश्य से अवगत कराया तो विभिन्न जाति एवं धर्म के लोग अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित होने लगे। अब शिक्षित भारतीयों में राष्ट्रीय जागरण की भावना का व्यापक संचार हुआ।

(viii) तीव्र परिवहन तथा संचार साधनों का विकास- अंग्रेजों ने परिवहन एवं संचार साधनों का व्यापक पैमाने पर विकास किया। भारत के विशाल भाग में रेल लाइनें बिछाई गईं। यद्यपि अंग्रेजों ने यह सब अपने लाभ के लिए किया था, किन्तु इन साधनों ने भारतीयों को एक-दूसरे के काफी नजदीक ला दिया, परिणामस्वरूप राष्ट्रीय जागरण की भावना में द्रुतगति से विकास हुआ।

(ix) अंग्रेजों की जाति-सम्बन्धी भेदभाव की नीति- अंग्रेजों ने जाति के सम्बन्ध में भेदभाव की नीति अपनाई। उन्होंने महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति की तथा भारतीयों को इन पदों से दूर रखा। रेल में प्रथम श्रेणी के डिब्बों में भारतीयों की यात्रा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। प्रथम श्रेणी के डिब्बे में केवल अंग्रेज ही यात्रा कर सकते थे। अगर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में कोई भारतीय चढ़ भी जाता था, तो अंग्रेज यात्रियों द्वारा उसके साथ बेहद अपमानजनक व्यवहार किया जाता था। साथ ही उसे रेल के डिब्बे से उतार दिया जाता था। दरबार तथा उत्सवों में एक निश्चित सीमा तक ही भारतीय जूते पहन सकते थे, जबकि अंग्रेज जूते पहनकर कहीं भी आ-जा सकते थे। अंग्रेजों की इस भेदभावपूर्ण नीति से भारतीयों के आत्मसम्मान को काफी ठेस पहुंची थी। अत: वे अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए और उनमें राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई जिसने एक राष्ट्रीय जनजागरण को जन्म दिया।

(x) धर्म तथा समाज सुधार आन्दोलन- उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के फलस्वरूप भारत में नवजागरण हुआ। इस नवजागरण के अग्रदूतों राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द आदि ने भारतीय समाज व हिन्दू धर्म की कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया। भारतीय समाज और हिन्दू धर्म के दोष (जाति प्रथा, छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा, अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा, रूढ़िवादिता आदि), ब्रिटिश शासन का प्रभाव (लॉर्ड विलियम बैंटिंक द्वारा सती प्रथा का उन्मूलन), अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव, पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रभाव, ईसाई धर्म के प्रचार का प्रभाव, वैज्ञानिक तथा परिवहन के साधनों के आविष्कारों (रेल, तार, टेलीफोन, डाक आदि का प्रभाव) तथा राष्ट्रीय चेतना के विकास ने देश में धर्म व सुधार आन्दोलनों का वातावरण तैयार कर दिया।

(xi) पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार- ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित होने के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत में अपनी शिक्षा का प्रसार करना प्रारम्भ कर दिया। लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पीछे यह तर्क दिया था कि पाश्चात्य शिक्षा व संस्कृति के प्रचार से भारतीयों को गुलाम बनाया जा सकता है, शारीरिक बल प्रयोग से नहीं। मैकाले ने इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार किया। उसे अपने उद्देश्य में सफलता भी मिली, परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार ने राष्ट्रीय जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, विपिनचन्द्र पाल, चितरंजन दास, लाला लाजपतराय आदि ने पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण कर उनकी सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान अर्जित किया और राष्ट्रीय आन्दोलन में अहम योगदान दिया। भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में अंग्रेजी शिक्षा ने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया।

शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने तथा अंग्रेजों का शासन होने के कारण भारत के प्रत्येक कोने में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हुआ। इससे देश में भाषा की एकता स्थापित हो गई तथा इसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रान्तों के प्रबुद्ध लोगों को आपस में (अंग्रेजी भाषा के माध्यम से) विचार-विमर्श करने में सहायता मिली। इस प्रकार अनजाने में अंग्रेजी शासन की शिक्षा नीति से भारतीयों को भाषायी बन्धनों से मुक्त होकर एकता की भावना को प्रचारित व प्रसारित करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्हें इस कटु सत्य का आभास हुआ कि उनके आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक शोषण का जिम्मेदार ब्रिटिश शासन ही है। इस राष्ट्रीय चेतना के फलस्वरूप ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ।

प्रश्न 2.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 ई० में हुई थी। इसने 1885 ई० से 1947 ई० तक भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया। समय और परिस्थितियों के अनुसार इसके लक्ष्यों अथवा उद्देश्यों तथा साधनों में अन्तर होता चला गया। इसी के आधार पर कांग्रेस के इतिहास को निम्नलिखित तीन कालों में विभक्त किया जा सकता है

  • प्रथम काल (उदारवादी काल) सन् 1885 से 1905 ई० तक।
  • द्वितीय काल (गरम विचारधारावादी तथा क्रान्तिकारी काल) सन् 1906 से 1919 ई० तक।
  • तृतीय काल (राष्ट्रीयता का गाँधीवादी युग) सन् 1920 से 1947 ई० तक।

कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 28 दिसम्बर, 1885 ई० के दिन 11 बजे गोकुलदास तेजपाल संस्कृत पाठशाला’ बम्बई में हुआ। इस अधिवेशन में 72 प्रतिनिधि थे। इस प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष कलकत्ता के प्रसिद्ध बैरिस्टर व्योमेशचन्द्र बनर्जी थे। इन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस के निम्नलिखित उद्देश्यों का उल्लेख किया था

  1. साम्राज्य के विभिन्न भागों में देश-हित के लिए लगन से काम करने वालों में आपस में घनिष्ठता एवं मित्रता को बढ़ाना।
  2. सभी देश-प्रेमियों के हृदय में प्रत्यक्ष मैत्रीपूर्ण व्यवहार के द्वारा वंश, धर्म और प्रान्त सम्बन्धी सभी पहले के संस्कारों को मिटाना और राष्ट्रीय एकता की सभी भावनाओं का पोषण एवं परिवर्द्धन करना।
  3. महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक सामाजिक प्रश्नों के सम्बन्ध में भारत में शिक्षित लोगों में अच्छी तरह चर्चा के पश्चात् परिपक्व सम्मतियों का प्रामाणिक संग्रह करना।
  4. उन तरीकों और दिशाओं का निर्णय करना, जिनके द्वारा भारत के राजनीतिज्ञ देशहित में कार्य करें। कांग्रेस का अपने प्रथम काल में प्रमुख प्रशासनिक सुधारों की माँग करना था तथा इस उद्देश्य की प्राप्ति वे संवैधानिक साधनों द्वारा करना चाहते थे। इस काल में कांग्रेस के सभी नेताओं का विश्वास ब्रिटिश सरकार की ईमानदारी तथा न्यायप्रियता में था।

प्रश्न 3.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रारम्भिक स्वरूप कैसा था?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सरकार के अवकाश प्राप्त अधिकारी ए०ओ० ह्यूम ने की थी। ह्यूम ने इसकी स्थापना का स्पष्टीकरण देते हुए बताया था कि पश्चिमी विचारों, शिक्षा, आविष्कारों और यन्त्रों से उत्पन्न हुई उत्तेजना को यहाँ-वहाँ फैलने की बजाय संवैधानिक ढंग से प्रचार करने के लिए यह कदम आवश्यक था। छूम महोदय जानते थे कि भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध घोर असन्तोष है और इस असन्तोष का भयंकर विस्फोट हो सकता है। अत: ह्यूम भारतीयों की क्रान्तिकारी भावनाओं को वैधानिक प्रवाह में परिणित करने के लिए अखिल भारतीय संगठन की स्थापना करना चाहता था। किन्तु लाला लाजपतराय ने कांग्रेस की स्थापना के बारे में लिखा है, “कांग्रेस की स्थापना का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को खतरे से बचाना था, भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करना नहीं, ब्रिटिश साम्राज्य का हित प्रमुख था और भारत का गौण।”

आधुनिक अनुसन्धानों ने यह सिद्ध कर दिया कि ह्यूम एक जागरूक साम्राज्यवादी था। वह शासक और शासित वर्ग के बीच बढ़ती हुई खाई से चिन्तित था। कांग्रेस की स्थापना का दूसरा पहलू यह भी है कि उस समय की राष्ट्रव्यापी हलचलें, देशभक्ति की भावना, विभिन्न वर्गों में व्याप्त बेचैनी, ब्रिटेन की लिबरल पार्टी से भारतीयों को निराशा और विभिन्न राजनीतिक संगठनों ने इसकी भूमिका तैयार करने में योगदान दिया। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य गुप्त योजना था, किन्तु कांग्रेस की पृष्ठभूमि के आधार पर यह तर्कपूर्ण मत नहीं है।

कांग्रेस की स्थापना में ह्यूम को लॉर्ड रिपन और लॉर्ड डफरिन का भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त था। डफरिन अथवा रिपन के उद्देश्य जो भी कुछ रहे हों, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि छूम महोदय एक सच्चे उदारवादी थे और वे एक राजनीतिक संगठन की आवश्यकता तथा वांछनीयता अनुभव करते थे। उन्होंने एक खुला पत्र कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय के स्नातकों को लिखा। इसमें उन्होंने लिखा था, “बिखरे हुए व्यक्ति कितने ही बुद्धिमान तथा अच्छे आशय वाले क्यों न हों, अकेले तो शक्तिहीन ही होते हैं। आवश्यकता है संघ की, संगठन की और कार्यवाही के लिए एक निश्चित और स्पष्ट प्रणाली की।” ह्यूम ने इण्डियन नेशनल कांग्रेस के लिए सरकारी तथा गैर-सरकारी व्यक्तियों की सहानुभूति तथा सहायता प्राप्त कर ली। इस प्रकार यह इंग्लैण्ड तथा भारत के सम्मिलित मस्तिष्क की उपज थी।

प्रथम अधिवेशन में देश के विभिन्न भागों से आए हुए 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिसमें सभी जातियों, सम्प्रदायों और वर्गों का प्रतिनिधित्व था। कुछ समय पश्चात् ही सरकार से कांग्रेस का टकराव हो गया और लॉर्ड डफरिन ने कांग्रेस को ‘पागलों की सभा’, ‘बाबुओं की संसद’, ‘बचकाना’ कहना प्रारम्भ किया। कर्जन (1899-1905 ई०) ने कांग्रेस की आलोचना करते हुए लिखा है कि “मेरा यह अपना विश्वास है कि कांग्रेस लड़खड़ाती हुई पतन की ओर जा रही है और एक महान् आकांक्षा यह है। कि भारत में रहते समय उसकी शान्तिमय मौत में मैं सहायता दे सकें।” हालाँकि कांग्रेस की स्थापना साम्राज्य के लिए रक्षा नली (Safety valve) के रूप में हुई थी, किन्तु जल्दी ही इसकी राजभक्ति राजद्रोह में बदल गई। समाज सुधार के नाम पर यह राजनीति माँगों को लेकर आगे बढ़ी और इसका परिणाम देश की आजादी के रूप में हुआ।

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