UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 3 Human Reproduction

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 3
Chapter Name Human Reproduction
Number of Questions Solved 37
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 3 Human Reproduction (मानव जनन)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
(क) मानव …… उत्पत्ति वाला है। (अलैगिक/लैगिक)
उत्तर
लैंगिक।

(ख) मानव हैं। अण्डप्रजक, सजीवप्रजक, अण्डजरायुज)
उत्तर
सजीवप्रजक।

(ग) मानव में …….. निषेचन होता है। (बाह्य/आन्तरिक)
उत्तर
आन्तरिक।

(घ) नर एवं मादी ……. युग्मक होते हैं। (अगुणित/द्विगुणित)
उत्तर
अगुणित।

(ङ) युग्मनज ……. होता है। (अगुणित/द्विगुणित)
उत्तर
द्विगुणित।

(च) एक परिपक्व पुटक से अण्डाणु (ओवम) के मोचित होने की प्रक्रिया को …… कहते हैं।
उत्तर
अण्डोत्सर्ग (ovulation)

(छ) अण्डोत्सर्ग (ओव्यूलेशन) …… नामक हॉर्मोन द्वारा प्रेरित (इन्ड्यूस्ड) होता है।
उत्तर
ल्यूटीनाइजिंग हॉर्मोन (LH)

(ज) नर एवं मादा युग्मक के संलयन (फ्यूजन) ……. को हैं।
उत्तर
निषेचन।

(झ) निषेचन …….. में संपन्न होता है।
उत्तर
अण्डवाहिनी नली के संकीर्ण पथ व तुंबिका के संधिस्थल।

(ज) युग्मनज विभक्त होकर …….. की रचना करता है जो गर्भाशय में अंतरोपित (इंप्लांटेड) होता है।
उत्तर
ब्लास्टोसिस्ट (कोरकपुटी)।

(ट) भ्रूण और गर्भाशय के बीच संवहनी सम्पर्क बनाने वाली संरचना को …….. कहते हैं।
उत्तर
अपरा (placenta)।

प्रश्न 2.
पुरुष जनन तन्त्र का एक नामांकित आरेख बनाएँ।
उत्तर
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प्रश्न 3.
स्त्री जनन तन्त्र का एक नामांकित आरेख बनाएँ।
उत्तर
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प्रश्न 4.
वृषण तथा अण्डाशय के बारे में प्रत्येक के दो-दो प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
वृषण के कार्य

  1.  वृषण में जनन कोशिकाओं से शुक्रजनन (spermatogenesis) द्वारा शुक्राणुओं (sperms) का निर्माण होता है।
  2. वृषण की सर्टोली कोशिकाएँ (Sertoli cells) शुक्रजन कोशिकाओं तथा शुक्राणुओं का पोषण करती हैं।
  3. वृषण की अन्तराली कोशिकाओं से एन्ड्रोजन (androgens) हॉर्मोन्स स्रावित होते हैं, ये द्वितीयक लैंगिक लक्षणों (secondary sexual characters) के विकास को प्रभावित करते हैं।

अण्डाशय के कार्य

  1. अण्डाशय की जनन कोशिकाओं से अण्डजनन द्वारा अण्डाणुओं (ova) का निर्माण होता है।
  2. अण्डाशय की ग्राफियन पुटिका (Graafian follicle) से एस्ट्रोजन हॉर्मोन (estrogen hormone) स्रावित होता है, यह अण्डोत्सर्ग (ovulation) को प्रेरित करता है।
  3. अण्डाशय में बनी संरचना कॉर्पस ल्यूटियम (corpus luteum) से स्रावित प्रोजेस्टेरोन (progesterone) हॉर्मोन गर्भाशय में निषेचित अण्डाणु को स्थापित करने में सहायक होता है।

प्रश्न 5.
शुक्रजनक नलिका की संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर
शुक्रजनक नलिका
वृषण का निर्माण अनेक शुक्रजनक नलिकाओं (seminiferous tubules) से होता है। शुक्रजनक नलिकाओं के मध्य संयोजी ऊतक में स्थान-स्थान पर अन्तराली कोशिकाओं (interstitial cells) के समूह स्थित होते हैं। इन्हें लेडिग कोशिकाएँ (Leydig’s cells) भी कहते हैं। इनसे स्रावित नर हॉर्मोन्स (testosterone) के कारण द्वितीयक लैंगिक लक्षण विकसित होते हैं।

प्रत्येक शुक्रजनक नलिका पतली एवं कुण्डलित होती है। यह दो पर्यों से घिरी रहती है। बाहरी पर्त को बहिःकुंचक (tunica propria) तथा भीतरी पर्त को जनन एपिथीलियम (germinal epithelium) कहते हैं। जनन एपिथीलियम का निर्माण मुख्य रूप से जनन कोशिकाओं (gem cells) से होता है। इनके मध्य स्थान-स्थान पर सटली कोशिकाएँ (Sertoli cells or nurse cells) पायी जाती हैं। जनन कोशिकाओं से शुक्रजनन द्वारा शुक्राणुओं का निर्माण होता है। शुक्राणु सटली कोशिकाओं से पोषक पदार्थ एवं ऑक्सीजन प्राप्त करते हैं। वृषण की शुक्रजनक नलिकाएँ वृषण नलिकाओं के माध्यम से शुक्रवाहिकाओं में खुलती हैं। शुक्रवाहिकाएँ अधिवृषण (epididymis) में खुलती हैं। अधिवृषण से एक शुक्रवाहिनी निकलकर वंक्षण नाल (inguinal canal) से होती हुई उदर गुहा में प्रवेश करती है। शुक्रवाहिनी मूत्रवाहिनी के साथ फंदा बनाकर मूत्रमार्ग के अधर भाग में खुलती है।
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प्रश्न 6.
शुक्राणुजनन क्या है? संक्षेप में शुक्राणुजनन की प्रक्रिया का वर्णन करें।
उत्तर
नर युग्मक (शुक्राणुओं) की निर्माण प्रक्रिया, शुक्रजनन कहलाती है। वृषण की जनन उपकला के अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा शुक्राणु बनते हैं। यह क्रिया निम्न प्रकार होती है –
(अ) स्पर्मेटिड का निर्माण – यह क्रिया अग्रलिखित उप चरणों में पूरी होती है –

  1. गुणन प्रावस्था (Multiplication Phase) – प्राथमिक जनन कोशिकाएँ समसूत्री विभाजन के द्वारा विभाजित होती हैं तथा स्पर्मेटोगोनिया बनाती हैं। ये सभी कोशिकाएँ द्विगुणसूत्री (diploid) होती हैं।
  2. वृद्धि प्रावस्था (Growth Phase) – स्पर्मेटोगोनिया नर्सिंग कोशिकाओं से खाद्य पदार्थ ग्रहण करके आकार में बड़ी हो जाती हैं तथा इस अवस्था को प्राथमिक स्पर्मेटोसाइट कहते हैं। यह अवस्था भी द्विगुणसूत्री होती है।
  3. परिपक्वन प्रावस्था (Maturation Phase) – प्राथमिक स्पर्मेटोसाईट में एक अर्धसूत्री विभाजन होता है जिससे द्विगुणित कोशिकाएँ बनती हैं जिन्हें द्वितीयक स्पर्मेटोसाइट कहते हैं। प्रत्येक द्वितीयक स्पर्मेटोसाइट में समसूत्री विभाजन होता है। अतः प्रत्येक प्राथमिक स्पर्मेटोसाइट से 4 कोशिकाएँ बनती हैं, जिन्हें स्पर्मेटिड कहते हैं।

(ब) स्पर्मेटिड का कायान्तरण – स्पर्मेटिड में कुछ परिवर्तन होते हैं जिनके द्वारा शुक्राणु बनता है। ये परिवर्तन निम्न हैं –

  1. न्यूक्लिअस ठोस हो जाता है। स्पर्मेटिड से RNA निकलने के कारण केंद्रक आगे की तरफ नुकीला हो जाता है, न्यूक्लिओलस (nucleolus) तथा प्रोटीन खत्म हो जाती है।
  2. माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) दूरस्थ सेन्ट्रीओल के चारों तरफ एकत्रित होकर एक आवरण बना लेता है जो शुक्राणुओं को ऊर्जा देता है। गॉल्जीकाय केंद्रक के अग्र भाग पर
    एक्रोसोम में परिवर्तित हो जाता है।
  3. दूरस्थ सेन्ट्रीओल एक्सोनीमा बनाता है।
  4. अधिकतर कोशिकाद्रव्य नष्ट हो जाता है, लेकिन इसका कुछ भाग शुक्राणु की पूँछ के चारों तरफ एक पर्त बना लेता है।

उपर्युक्त सभी क्रियाएँ सटली कोशिकाओं के जीवद्रव्य में होती हैं। परिपक्व शुक्राणु शुक्रजनक नलिका की गुहा में छोड़ दिए जाते हैं तथा वहाँ से निकलकर लगभग 18-24 घण्टे एपीडाइडीमस (epididymus) में रहते हैं।

प्रश्न 7.
शुक्राणुजनन की प्रक्रिया के नियमन में शामिल हॉर्मोनों के नाम बताइए।
उत्तर
शुक्राणुजनन की प्रक्रिया के नियमन में निम्न हॉर्मोन शामिल होते हैं –

  1. गोनेडोट्रॉपिन रिलीजिंग हार्मोन (GRH)
  2. ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन (LH)
  3. फॉलिकल स्टीमुलेटिंग हार्मोन (FSH)
  4. एन्ड्रोजेन (Androgen)
  5. इनहिबिन

प्रश्न 8.
शुक्राणुजनन एवं वीर्यसेचन (स्परमिएशन) की परिभाषा लिखिए।
उत्तर
शुक्राणुजनन (Spermatogenesis) – वृषण में शुक्राणुजन कोशिकाओं से शुक्राणुओं (sperms) के बनने की क्रिया शुक्राणुजनन कहलाती है। शुक्राणुजन कोशिकाओं से अचल स्पर्मेटिड्स का निर्माण तीन अवस्थाओं में होता है, इन्हें क्रमशः गुणन प्रावस्था, वृद्धि प्रावस्था तथा परिपक्वन प्रावस्था कहते हैं। अचल स्पर्मेटिड्स (Spermatids) के चल शुक्राणुओं (motile sperms) में बदलने की प्रक्रिया को शुक्राणुजनन या शुक्राणु-कायान्तरण (spermiogenesis) कहते हैं।

वीर्यसेचन (Spermiation) – शुक्राणु कायान्तरण के पश्चात् मुक्त शुक्राणुओं के शीर्ष सली कोशिकाओं (sertoli cells) में अन्त:स्थापित (embedded) हो जाते हैं। शुक्रजनक नलिकाओं से शुक्राणुओं के मोचित (released) होने की प्रक्रिया को वीर्यसेचन (spermiation) कहते हैं।

प्रश्न 9.
शुक्राणु का एक नामांकित आरेख बनाइए।
उत्तर
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प्रश्न 10.
शुक्रीय प्रद्रव्य (सेमिनल प्लाज्मा) के प्रमुख संघटक क्या हैं?
उत्तर
अधिवृषण (epididymis), शुक्रवाहक (vas deferens), शुक्राशय (seminal vesicle), पुरःस्थ ग्रन्थियों (prostate gland) तथा बल्बोयूरेथल ग्रन्थियों के स्राव शुक्राणुओं को गतिशील बनाए रखने तथा इन्हें परिपक्व बनाने में सहायक होते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से शुक्रीय प्रद्रव्य (seminal plasma) कहते हैं। शुक्राणु तथा शुक्रीय प्रदव्य मिलकर वीर्य (semen) बनाते हैं। शुक्रीय प्रद्रव्य में मुख्यतः फ्रक्टोस, कैल्सियम तथा एन्जाइम होते हैं।

प्रश्न 11.
पुरुष की सहायक नलिकाओं एवं ग्रन्थियों के प्रमुख कार्य क्या हैं?
उत्तर
पुरुष की सहायक नलिकाओं के प्रमुख कार्य निम्न हैं –

  1. ये वृषण से शुक्राणुओं को मूत्र मार्ग द्वारा बाहर लाती हैं।
  2. ये शुक्राणुओं का संग्रह करती हैं।

पुरुष की सहायक ग्रन्थियों के प्रमुख कार्य निम्न हैं –

  1. पुरस्थ द्रव का स्राव करना जो शुक्राणुओं को सक्रिय करता है।
  2. काउपर्स ग्रन्थि चिपचिपा तरल स्रावित करती है जो योनि को चिकना बनाता है।
  3. नर हार्मोन उत्पन्न करना।

प्रश्न 12.
अण्डजनन क्या है? अण्डजनन की संक्षिप्त व्याख्या करें।
उत्तर
स्त्री के अण्डाशय के जनन एपीथिलियम की कोशिकाओं से अण्डाणुओं का निर्माण, अण्डजनन कहलाता है। अण्डजनन निम्नलिखित चरणों में पूर्ण होता है –
(i) प्रोलीफेरेशन प्रावस्था (Proliferation Phase) – इस अवस्था की शुरुआत उस समय से होती है जब मादा फीट्स (foetus) माँ के गर्भ में लगभग 7 माह की होती है। जनन कोशिकाएँ विभाजित होकर अण्डाशय की गुहा में कोशिका गुच्छ बना देती हैं जिसे पुटिका (follicle) कहते हैं। पुटिका की एक कोशिका आकार में बड़ी हो जाती है तथा इसे ऊगोनियम (ooagonium) कहते हैं।

(ii) वृद्धि प्रावस्था (Growth Phase) – यह अवस्था भी उस समय पूरी हो जाती है जब मादा माँ के गर्भ में होती है। इस अवस्था में ऊगोनियम पोषण कोशिकाओं से भोजन एकत्रित करते समय आकार में बड़ी हो जाती है। उसे प्राथमिक ऊसाइट (primary 0ocyte) कहते हैं।

(iii) परिपक्व प्रावस्था (Maturation Phase) – यह क्रिया पूरे जनन काल (11-45) वर्ष में लगातार होती रहती है। प्राथमिक ऊसाइट में पहला अर्द्धसूत्री विभाजन होता है तथा दो असमान कोशिकाएँ बन जाती हैं। बड़ी कोशिका द्वितीयक ऊसाइट (secondary 0ocyte) कहलाती है, जबकि छोटी कोशिका को प्रथम ध्रुवीकाय (first polar body) कहते हैं। यह विभाजन अण्डोत्सर्ग से पहले होता है। दूसरा समसूत्री विभाजन अण्डवाहिनी में, अण्डोत्सर्ग के बाद होता है जिसके फलस्वरूप एक अण्डाणु तथा एक द्वितीयक ध्रुवीकाय (second polar body) बनती है। सभी ध्रुवीकाय नष्ट हो जाती हैं तथा इस सम्पूर्ण क्रिया में एक अण्डाणु प्राप्त होता है। ध्रुवीकार्य का निर्माण अण्डाणुओं को पोषण प्रदान करने के लिए होता है।

प्रश्न 13.
अण्डाशय की अनुप्रस्थ काट (ट्रांसवर्स सेक्शन) का एक नामांकित आरेख बनाएँ।
उत्तर
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प्रश्न 14.
ग्राफी पुटिका (ग्राफियन फॉलिकिल) का एक नामांकित आरेख बनाएँ।
उत्तर
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प्रश्न 15.
निम्नलिखित के कार्य बताइए –

  1. पीत पिंड (कॉर्पस ल्यूटीयम)
  2. गर्भाशय अन्तः स्तर (एन्डोमेट्रियम)
  3. अग्र पिंडक (एक्रोसोम)
  4. शुक्राणु पुच्छ (स्पर्म टेल)
  5. झालर (फिम्ब्री)

उत्तर

  1. पीत पिंड (कॉर्पस ल्यूटीयम) – यह प्रोजेस्ट्रॉन, एस्ट्रोजेन, रिलेक्सिन नामक हार्मोन का स्राव करता है जो गर्भाशय के अन्तः स्तर को बनाए रखते हैं।
  2. गर्भाशय अन्तः स्तर (एन्डोमेट्रियम) – यह निषेचित अण्डे के प्रत्यारोपण तथा सगर्भता के लिए आवश्यक है। मासिक चक्र के दौरान इसमें परिवर्तन आता है। यह अपरा निर्माण में भी सहायक है।
  3. अग्र पिंडक (एक्रोसोम) – इसमें उपस्थित एन्जाइम, निषेचन में सहायक होते हैं।
  4. शुक्राणु पुच्छ (स्पर्म टेल) – यह शुक्राणु के गमन में सहायता करती है।
  5. झालर (फिम्ब्री) – यह अण्डोत्सर्ग के समय; अण्डाशय से निकले अण्डाणु के संग्रह में सहायता करती है।

प्रश्न 16.
सही अथवा गलत कथनों को पहचानें

  1. पुंजनों (एन्ड्रोजेन्स) का उत्पादन सटली कोशिकाओं द्वारा होता है। (सही/गलत)
  2. शुक्राणु को सटली कोशिकाओं से पोषण प्राप्त होता है। (सही/गलत)
  3. लीडिंग कोशिकाएँ, अण्डाशय में पायी जाती हैं। (सही/गलत)
  4. लीडिंग कोशिकाएँ पूंजनों (एन्ड्रोजेन्स) को संश्लेषित करती हैं। (सही/गलत)
  5. अण्डजनन पीत पिंड (कॉपर्स ल्यूटियम) में सम्पन्न होता है। (सही/गलत)
  6. सगर्भता (प्रेगनेंसी के दौरान आर्तव चक्र (मेन्सट्रअल साइकिल) बंद होता है। (सही/गलत)
  7. योनिच्छद (हाइमेन) की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति कौमार्य (वर्जिनिटी) या यौन अनुभव का विश्वसनीय संकेत नहीं है।(सही/गलत)

उत्तर

  1. गलत
  2. सही
  3. गलत
  4. सही
  5. गलत
  6. सही
  7. सही।

प्रश्न 17.
आर्तव चक्र क्या है? आर्तव चक्र (मेन्स्ट्रअल साइकिल) का कौन-से हार्मोन नियमन करते हैं?
उत्तर
मादाओं (प्राइमेट्स) में अण्डाणु निर्माण 28 दिन के चक्र में होती है जिसे आर्तव चक्र अथवा मासिक चक्र या ऋतु स्राव चक्र कहते हैं। प्रत्येक स्त्री में यह चक्र 12-13 वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो जाती है तथा 45-55 वर्ष की आयु में खत्म हो जाता है। यह चक्र अण्डाशय में अण्डाणु निर्माण को दर्शाता है तथा इसके प्रारम्भ होने के साथ ही मादा गर्भधारण में सक्षम हो जाती है। आर्तव चक्र (मेन्सट्रअल साइकिल) का नियमन निम्न दो हामोंन करते हैं-(i) LH हार्मोन (ii) FSH हॉर्मोन।

प्रश्न 18.
प्रसव (पारट्यूरिशन) क्या है? प्रसव को प्रेरित करने में कौन-से हॉर्मोन शामिल होते हैं?
उत्तर
गर्भकाल पूरा होने पर पूर्ण विकसित शिशु का माता के गर्भ से बाहर आना, प्रसव (पारट्यूरिशन) कहलाता है। इस दौरान गर्भाशयी तथा उदरीय संकुचन होते हैं व गर्भाशय फैल जाता है। जिससे गर्भस्थ शिशु बाहर आ जाता है। प्रसव का प्रेरण ऑक्सिटोसिन, एस्ट्रोजेन व कॉर्टिसोल नामक हार्मोन करते हैं।

प्रश्न 19.
हमारे समाज में पुत्रियों को जन्म देने का दोष महिलाओं को दिया जाता है। बताएँ कि यह क्यों सही नहीं है?
उत्तर
स्त्री में XX गुणसूत्र तथा पुरुष में XY गुणसूत्र पाये जाते हैं। जब स्त्री का X गुणसूत्र तथा पुरुष का Y गुणसूत्र मिलते हैं तो पुत्र (XY) उत्पन्न होता है। इसके विपरीत स्त्री का X गुणसूत्र तथा पुरुष का X गुणसूत्र मिलने पर पुत्री (XX) उत्पन्न होती है। अतः उत्पन्न संतान का लिंग निर्धारण पुरुष के गुणसूत्र द्वारा होता है न कि स्त्री के गुणसूत्र से। चूंकि पुरुष में 50% X तथा 50% Y गुणसूत्र होते हैं। अतः पुरुष के गुणसूत्र का X या Y होना ही सन्तान के लिंग के लिए उत्तरदायी है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि पुत्रियों को जन्म देने का दोष महिलाओं को देना सर्वदा गलत है।

प्रश्न 20.
एक माह में मानव अण्डाशय से कितने अण्डे मोचित होते हैं? यदि माता ने समरूप जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया हो तो आप क्या सोचते हैं कि कितने अण्डे मोचित हुए होंगे? क्या आपका उत्तर बदलेगा यदि जन्मे हुए जुड़वाँ बच्चे द्विअण्ड यमज थे?
उत्तर
एक माह में मानव अण्डाशय से सिर्फ एक अण्डा मोचित होता है। समरूप जुड़वाँ बच्चों का जन्म होने पर भी एक माह में एक ही अण्डा मोचित हुआ होगा। द्विअण्ड यमज के सन्दर्भ में एक माह में दो अण्डे मोचित हुए होंगे।

प्रश्न 21.
आप क्या सोचते हैं कि कुतिया जिसने 6 बच्चों को जन्म दिया है, के अण्डाशय से कितने अण्डे मोचित हुए थे?
उत्तर
6 अण्डे मोचित हुए थे।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
समरूप जुड़वाँ बच्चे पैदा होते हैं जब
(क) एक शुक्राणु दो अंडाणुओं का निषेचन करे
(ख) एक अण्डाणु का दो शुक्राणु निषेचन करें
(ग) दो अण्डाणु दो भिन्न शुक्राणुओं द्वारा निषेचित हों
(घ) एक निषेचित अण्डा दो कोरक खण्डों में विभक्त होकर पृथक्-पृथक् दो स्वतंत्र भ्रूण के रूप में विकसित हो
उत्तर
(घ) एक निषेचित अण्डा दो कोरक खण्डों में विभक्त होकर पृथक्-पृथक् दो स्वतंत्र भ्रूण के रूप में विकसित हो

प्रश्न 2.
ब्लास्टुला अवस्था में भ्रूण को सर्वप्रथम गर्भाशय से जोड़ने का कार्य निम्न में से कौन-सी झिल्ली करती है?
(क) एम्निओन
(ख) अपरा/कोरियोन
(ग) ऐलेन्टॉयस
(घ) योक सैक
उत्तर
(ख) अपरा/कोरियोन

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फर्टीलाइजिन तथा एण्टी-फर्टीलाइजिन प्रक्रिया पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
अण्डाणु से फर्टीलाइजिन तथा शुक्राणु से एण्टीफर्टीलाइजिन स्रावित होते हैं, इसलिए शुक्राणु अण्डाणु की ओर आकर्षित हो जाते हैं।

प्रश्न 2.
कृत्रिम शुक्रसंसेचन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
इसमें परिरक्षित शुक्राणु द्वारा स्त्री की फैलोपियन नलिका से लिए गए अण्डाणु का परखनली में निषेचन किया जाता है। इसके पश्चात् युग्मनज को स्त्री के गर्भाशय में रोपित कर दिया जाता है। इस प्रकार की सन्तान को परखनली शिशु कहते हैं।

प्रश्न 3.
ऐसे दो जन्तुओं के नाम लिखिए जिनमें रुधिर जरायु अपरा पाया जाता है।
उत्तर
यूथीरिया अधोवर्ग के प्राणियों में रुधिर जरायु अपरा पाया जाता है; जैसे-कपि तथा मनुष्य।

प्रश्न 4.
मॉरुला तथा ब्लास्टुला में एक अन्तर लिखिए।
उत्तर
मॉरुला कोशिकाओं से बनी ठोस गेंद सदृश रचना होती है, इसके विपरीत ब्लास्टुला में कोरक गुहा या ब्लास्टोसील नामक गुहा का निर्माण हो जाता है।

प्रश्न 5.
भ्रूण के मीजोडर्म स्तर द्वारा निर्मित किन्हीं चार अंगों के नाम लिखिए।
उत्तर
त्वचा की डर्मिस, संयोजी ऊतक, वृक्क, जनद, हृदय, रक्त वाहिनियाँ तथा लसीका वाहिनियाँ, नोटोकॉर्ड तथा अन्त:कंकाल।

प्रश्न 6.
आपातकालीन ग्रन्थि का नाम लिखिए।
उत्तर
ऐड्रीनल मेड्यूला को आपातकालीन ग्रन्थि कहते हैं।

प्रश्न 7.
शिशुजन्म के बाद कौन-सा हॉर्मोन दूध मुक्त करता है? उसका स्रोत बताइए।
उत्तर
शिशुजन्म के बाद प्रोलेक्टिन (prolactin) हॉर्मोन दूध मुक्त करता है तथा एक अन्य हॉर्मोन दूध को स्तन से बाहर निकलने को उद्दीपित करता है। इसका स्रोत पीयूष ग्रन्थि है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
यौवनारम्भ क्या है? इस अवस्था में बालक एवं बालिकाओं के शरीर में होने वाले परिवर्तन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
यौवनारम्भ भौतिक परिवर्तनों की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालकों का शरीर एक वयस्क शरीर के रूप में विकसित होता है तथा उनमें प्रजनन एवं निषेचन की क्षमता भी विकसित हो जाती है।

बालक के यौवनारम्भ पर उत्पन्न लक्षण
बालक के शरीर में यौवनावस्था (puberty) प्रारम्भ होने के समय (लगभग 15-18 वर्ष) से ही निम्नलिखित लक्षण विकसित होने लगते हैं –

  1. शरीर की सुडौलता – शरीर अधिक मजबूत, मांसपेशीयुक्त, सुडौल, अधिक शक्तिशाली होने लगता है; कन्धे अधिक चौड़े हो जाते हैं तथा वृद्धि के कारण लम्बाई बढ़ने लगती है।
  2. शरीर पर बाल – चेहरे पर मूंछ और बाद में दाढ़ी के बाल निकलने लगते हैं, वृषण कोषों आदि पर तथा उनके आस-पास बाल निकल आते हैं।
  3. आवाज का भारीपन – आवाज में काफी परिवर्तन आने लगता है। यह भारी होने लगती है तथा | इसकी दृढ़ता में भी बढ़ोतरी होती है।

उपर्युक्त परिवर्तन गौण लैंगिक लक्षण कहलाते हैं तथा वृषणों में बनने वाले नर हॉर्मोन, टेस्टोस्टेरोन के कारण सम्भव होते हैं जो प्रारम्भ में लगभग 20 वर्ष की आयु तक अधिक मात्रा में स्रावित होता है और अनेक शारीरिक लक्षणों में परिवर्तन लाता है।

बालिका के यौवनारम्भ पर उत्पन्न लक्षण
बालिकाओं में रजोधर्म प्रारम्भ होने से पूर्व होने वाले परिवर्तनों में अण्डाशयों तथा उनके सहायक अंगों का विकास सम्मिलित है। पीयूष ग्रन्थि से उत्पन्न जनद प्रेरक हॉर्मोन्स इन कार्यों को 11 से 13 वर्ष की उम्र में प्रेरित करने लगते हैं और अण्डाशये के अन्दर उपस्थित पुटिकाओं से एस्ट्रोजेन्स (हॉर्मोन्स) स्रावित होने लगते हैं, फलस्वरूप यौवनारम्भ (puberty) के लिए परिवर्तन होने लगते हैं। इन्हीं के प्रभाव से निम्नलिखित गौण लैंगिक लक्षण भी विकसित होते हैं –

  1. स्तनों की वृद्धि तथा सुडौल होना (इनमें दुग्ध ग्रन्थियों का बनना आदि भी)।
  2. बाह्य जननांगों; जैसे–योनि, लैबिया, भगशिश्न आदि का समुचित विकास।
  3. श्रोणि भाग का चौड़ा होना तथा नितम्बों का भारी होना।
  4. बगल तथा जननांगों (भगद्वार) आदि के आस-पास बालों का उगना।
  5. स्वभाव में शीतलता तथा आवाज का महीन होना।
  6. मासिक स्राव एवं आर्तव चक्र का प्रारम्भ होना।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए –
(क) मानव भ्रूण का रोपण,
(ख) स्तनियों में अपरा,
या
अपरा क्या है? इसके मुख्य कार्य लिखिए।
उत्तर
(क) मानव भ्रूण का रोपण
निषेचन के लगभग एक घण्टे के बाद युग्मनज (zygote) का विदलन शुरू हो जाता है और चौथे दिन तक चार बार मिटॉटिक विभाजनों द्वारा विभाजित होकर 16 कोरकखण्डों (blastomeres) की एक गोल ठोस संरचना बनती है, यह संरचना मॉरुला (morula) कहलाती है। इसका निर्माण होते-होते यह गर्भाशय में पहुँच जाता है।

मॉरुला के गर्भाशय में जाने के बाद गर्भाशय गुहा का ग्लाइकोजनयुक्त पोषक तरल मॉरुला (भ्रूण) में भीतर जाने लगता है, जिससे मॉरुला के अन्दर पोषक तरल से भरी हुई एक गुहा-सी बन जाती है। इस गुहा को ब्लास्टोसील (blastocoel) कहते हैं। भ्रूण की इस प्रावस्था को ब्लास्टोसिस्ट (blastocyst) कहते हैं। इसके बनते-बनते भ्रूण का पारभासी आवरण समाप्त हो जाता है। गुहा की दीवार की कोशिकाएँ चपटी हो जाती हैं। इन्हें अब ट्रोफोब्लास्ट (trophoblast) कहते हैं। ट्रोफोब्लास्ट गर्भाशय से पोषक रसों का अवशोषण करती है। ट्रोफोब्लास्ट आँवल (placenta) के निर्माण में भी भाग लेती हैं। ब्लास्टुला की भीतरी कोशिका पिण्ड को भ्रूणबीज (embryoblast) कहते हैं, क्योंकि इसी से भावी भ्रूण के विभिन्न भाग बनते हैं।

निषेचन के एक सप्ताह बाद ब्लास्टोसिस्ट गर्भाशय के ऊपरी भाग में इसकी भित्ति से चिपक जाता है। अर्थात् ब्लास्टोसिस्ट का गर्भाशय भित्ति में रोपण प्रारम्भ हो जाता है। ट्रोफोब्लास्ट की बाह्य सतह से कुछ अंगुली सदृश प्रवर्ध निकलकर गर्भाशय भित्ति के अन्तः स्तर में घुसकर निषेचन के लगभग 8 दिन बाद भ्रूण को गर्भाशयी भित्ति से जोड़ देते हैं, यही क्रिया भ्रूण का रोपण (implantation of embryo) है।

(ख) स्तनियों में अपरा, आँवल या जरायु
अपरा एक संयुक्त ऊतक है जो स्तनपोषियों में, मादा के गर्भ में, भ्रूण (embryo) का गर्भाशय भित्ति के साथ संरचनात्मक तथा क्रियात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है। निषेचन (fertilization) के बाद निषेचित अण्डाणु, विदलन (cleavage) करता हुआ एक परिवर्द्धनशील भ्रूण में परिवर्तित होकर जब गर्भाशय (uterus) में पहुँचता है तो गर्भाशय भित्ति के चिपचिपा हो जाने के कारण उसी से चिपक जाता है। यह क्रिया रोपण (implantation) है। इस समय तक कॉर्पस ल्यूटियम (corpus luteum) द्वारा स्रावित हॉर्मोन्स प्रोजेस्टेरॉन (progesterone) के प्रभाव से गर्भाशय भित्ति में अनेक परिवर्तन होते हैं।
गर्भाशय भित्ति से चिपके हुए भ्रूण की विशिष्ट कलाएँ तथा गर्भाशय भित्ति मिलकर अपरा (placenta) का निर्माण करते हैं। इस सम्पूर्ण क्रिया को गर्भाधान (conception) कहते हैं।

अपरा के कार्य (Functions of Placenta) – अपरा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ऊतक है, इसका भ्रूण की जीवन-क्रियाओं को चलाने के लिए मादा के शरीर से विशिष्ट सम्बन्ध है। अपरा के अग्रलिखित कार्य होते हैं –
1. भूण का पोषण – भ्रूण अपरा के द्वारा ही माता से समस्त पोषक पदार्थ प्राप्त करता है। माता की रुधिर वाहिनियों का सम्बन्ध भ्रूण की रुधिर वाहिनियों से होता है; अतः माता के रुधिर में आने वाले पचे हुए खाद्य पदार्थ, सरल रूप में भ्रूण को मिलते रहते हैं। अपरा में इन खाद्य पदार्थों का और भी सरलीकरण किया जाता है तथा यह भ्रूण की आवश्यकता के लिए कुछ खाद्य पदार्थों का संग्रह भी करता है।

2. भूण का श्वसन – माता के शरीर से रुधिर के द्वारा ही भ्रूण को ऑक्सीजन के अणु प्राप्त होते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड भी इसी रुधिर द्वारा वापस की जाती है। इस प्रकार श्वसन क्रिया के लिए वात विनिमय (gaseous exchange) का कार्य अपरा ही करता है।

3. भूण का उत्सर्जन – भ्रूण के उत्सर्जी पदार्थ भ्रूण के रुधिर से अपरा क्षेत्र में माता के रुधिर में विसरित होते रहते हैं। इनका निष्कासन भी माता के उत्सर्जी अंगों द्वारा किया जाता है।

4. हॉर्मोन्स का स्रावण – गर्भावस्था को उचित रूप में बनाये रखने आदि के लिए अपरा से एस्ट्रोजेन्स, प्रोजेस्टेरॉन, जरायु गोनैडोट्रॉपिन आदि हॉर्मोन्स का स्रावण होता है। इसी प्रकार प्रसव | को आसान करने के लिए अपरा द्वारा रिलैक्सिन हॉर्मोन का भी स्रावण होता है।

प्रश्न 3.
अपरा द्वारा स्रावित हॉर्मोन्स पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर
अपरा से दो स्टेरॉइड तथा दो प्रोटीन हॉर्मोन्स स्रावित होते हैं –

  1. कोरिओनिक गोनेडोट्रॉपिक हॉर्मोन (CGH) – यह प्रोटीन हॉमोंन गर्भधारण (pregnancy) को बनाये रखता है। यह कॉर्पस ल्यूटियम के विकास तथा इसके हॉर्मोन स्राव पर नियन्त्रण करता है।
  2. प्लेसैन्टस लैक्टोजन – यह प्रोटीन हॉमोंन दुग्ध ग्रन्थियों को प्रेरित करता है।
  3. ऐस्ट्रेडियॉल – यह स्टेरॉइड हॉर्मोन गर्भाशय की पेशियों के संकुचन का नियन्त्रण करता है।
  4. प्रोजेस्टेरॉन – यह स्टेरॉइड हॉर्मोन गर्भधारण में सहायता करता है।

प्रश्न 4.
गर्भ झिल्लियों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
या
एम्निऑन के चार महत्त्वपूर्ण कार्य लिखिए।
उत्तर
गर्भ झिल्लियाँ
भ्रूण की देह के बाहर विकसित होने वाली झिल्लियाँ अथवा कलाओं (membranes) को भ्रूण-बहिस्थ कलाएँ कहते हैं। ये भ्रूण के परिवर्द्धन एवं जीवन के लिए विशेष कार्य करती हैं, परन्तु भ्रूण के अंगोत्पादन में भाग नहीं लेतीं। जन्म अथवा डिम्बोद्गमन के समय इनका निष्कासन हो जाता है। मानव तथा अन्य सभी स्तनियों, सरीसृपों, पक्षियों में चार भ्रूण-बहिस्थ कलाएँ या गर्भ झिल्लियाँ निर्मित होती हैं। ये चार भ्रूणीय-बहिस्थ कलाएँ इस प्रकार हैं –
1. उल्व (Amnion) – यह कला भ्रूण को चारों ओर से घेरे रहती है। भ्रूण के चारों ओर की इस गुहा को उल्व गुहा (amniotic cavity) कहते हैं। इस गुहा में एक तरल भरा रहता है जिसे उल्व तरल या एम्निऑटिक तरल (amniotic fluid) कहते हैं। इस तरल में मन्द गति होती रहती है जिसके कारण भ्रूण के अंग परस्पर चिपकते नहीं। इस प्रकार, एम्निऑटिक तरल भ्रूण के अंगों में विकृतियाँ उत्पन्न होने से बचाता है। यह निम्नलिखित कार्य करता है –

  • एम्निऑटिक तरल भ्रूण की बाह्य आघातों से रक्षा करता है।
  • एम्निऑन भ्रूण को कवच एवं भ्रूण-बहिस्थ कलाओं से पृथक् रखकर इनसे चिपकने से रोकता है।
  • एम्निऑटिक तरल में डूबे रहने से भ्रूण के सूखने (desiccation) का भय नहीं होता।
  • एम्निऑटिक तरल में होने वाली मन्द गति के कारण अंग आपस में चिपकते नहीं।

2. चर्मिका (Chorion) – कॉरिऑन में वृद्धि तीव्र गति से होती है। यह एम्निऑन के बाहर की ओर निर्मित होती है। कॉरिऑन जरायु (placenta) का निर्माण करती है। एम्निऑन तथा कॉरिऑन के बीच की गुहा को कॉरिऑनिक गुहा (chorionic cavity) कहते हैं। कॉरिऑन की एक्टोडर्म या ट्रोफोब्लास्ट की बाह्य सतह पर दीर्घ अंकुर उत्पन्न होते हैं जिन्हें कॉरिऑनिक अंकुर (chorionic villi) कहते हैं। ये अंकुर गर्भाशय की भित्ति में धंस जाते हैं। ये रसांकुर भ्रूण के पोषण, श्वसन तथा उत्सर्जन में सहायक हैं।

कॉरिऑन से एक हॉर्मोन, कॉरिओनिक गोनैडोट्रॉपिन का स्रावण होता है, जो प्लैसेण्टा विकसित होने तक डिम्ब ग्रन्थि में कॉर्पस ल्यूटियम को सक्रिय रखता है।

3. पीतक कोष (Yolk Sac) – मानव का पीतक कोष छोटा होता है और यह भ्रूण-बहिस्थ गुहा द्वारा चर्मका से पृथक् रहता है। स्तनियों के भ्रूण में पीतक नहीं होता है। पीतक कोष में रुधिर निर्माण होता है। विकास की अन्तिम प्रावस्थाओं में जब अपरापोषिका विकसित हो जाती है, तब पीतक कोष छोटा होने लगता है और धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है।

4. अपरापोषक या एलैण्टोइस (Allantois) – मानव के भ्रूण में अपरापोषक एक अवशेषी अंग के रूप में होती है। अन्य स्तनियों में अपरापोषक स्प्लैंकनोप्ल्यूर (एण्डोडर्म एवं स्प्लैंकनिक मीसोडर्म) से निर्मित होती है। स्प्लैंकनिक मीसोडर्म कॉरिऑन के मीसोडर्म स्तर के सम्पर्क में आकर इससे समेकित (fuse) हो जाती है। इस प्रकार, एक मिश्रित भित्ति निर्मित होती है जिसे एलैण्टोकोरिऑन (allantochorion) कहते हैं। एलैण्टोकॉरिऑन, एलैण्टॉइक प्लैसेण्टा की उत्पत्ति में भाग लेती है।

पीतक कोष एवं एलैण्टोइस के वृन्त संयुक्त रूप से नाभि रज्जु (umbilical cord or belly stalk) निर्मित करते हैं।

स्तनधारियों में एलैण्टोइस मूत्राशय का कार्य नहीं करती, क्योंकि भ्रूण के उत्सर्जी पदार्थों का माँ के रुधिर परिवहन में विसरण हो जाता है एवं माँ के वृक्कों के द्वारा इनका उत्सर्जन होता है। एलैण्टोइस का रुधिर परिवहन तन्त्र भ्रूण को ऑक्सीजन एवं पोषण प्रदान कराता है।

प्रश्न 5.
प्राणियों में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष भ्रूणीय विकास में उदाहरण सहित अन्तर बताइए।
या
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष भ्रूणीय विकास क्या हैं ? इनके उदाहरण दीजिए।
उत्तर
जाइगोट से शिशु निर्माण तक जो भी परिवर्तन होते हैं, उन्हें भ्रूणीय विकास (embryonic development) कहते हैं। भ्रूणीय विकास दो प्रकार का होता है –

1. परोक्ष भूणीय विकास (Indirect Embryonic Development) – जब परिवर्द्धन (development) के बाद अण्डे से निकला जन्तु सामान्य शिशु से काफी भिन्न होता है और फिर यह रूपान्तरण (metamorphosis) के द्वारा सामान्य शिशु में परिवर्तित होता है, ऐसे परिवर्द्धन को परोक्ष या अप्रत्यक्ष विकास कहते हैं। अण्डे से निकले जन्तु को विकास की शिशु प्रावस्था (larval stage) कहते हैं। इस प्रकार का परिवर्द्धन मुख्यत: अकशेरुकी जन्तुओं तथा अन्य कुछ कशेरुकी, विशेषत: मेंढक तथा अन्य उभयचरों में पाया जाता है। इनमें भ्रूण के पोषण के लिए पीत (yolk) की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है।

2. प्रत्यक्ष भूणीय विकास (Direct Embryonic Development) – इस प्रकार के विकास में अण्डे से निकला जीव अथवा नवजात शिशु रचना में वयस्क प्राणि के समान ही होता है जिनमें जनन परिपक्वता (sexual maturity) नहीं होती। इनमें आयु के साथ-साथ शरीर की वृद्धि तथा जनन परिपक्वता आ जाती है तभी यह प्रौढ़ होता है। ऐसे भ्रूणीय विकास को प्रत्यक्ष भ्रूणीय विकास कहते हैं। इनमें भ्रूण के पोषण के लिए अधिक पीत (yolk) पाया जाता है। इस प्रकार का विकास घोंघों, पक्षियों, सरीसृपों तथा सभी स्तनियों में पाया जाता है। मानव में मादा आँवल (placenta) के द्वारा भ्रूण को पोषण देती है, यही कारण है कि इस प्रकार के जन्तुओं में एक बार में कम सन्ताने उत्पन्न होती हैं।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निषेचन क्रिया किसे कहते हैं? मनुष्य में निषेचन में होने वाली क्रियाओं का उल्लेख कीजिए तथा अण्डाणु में शुक्राणु के प्रवेश का नामांकित चित्र बनाइए।
उत्तर
निषेचन क्रिया
मनुष्य के जीवन चक्र में प्रत्यक्ष भ्रूणीय विकास होता है। यह भ्रूणीय विकास माता के गर्भाशय (uterus) में होता है।

मनुष्य के भ्रूणीय विकास का प्रारम्भ निषेचन से होता है। मनुष्य में निषेचन (fertilization) फैलोपियन नलिका (fallopian tube) में होता है। इस क्रिया में फैलोपियन नलिका में मैथुन (सम्भोग) के समय पुरुष द्वारा छोड़े हुए वीर्य में उपस्थित शुक्राणुओं (sperms) में से एक अगुणित शुक्राणु (haploid sperm) एक अगुणित अण्डाणु (haploid ovum) से समेकित (fuse) हो जाता है और एक द्विगुणित रचना युग्मनज (zygote) बनाता है। समेकन की इस क्रिया को निषेचन कहते हैं।

निषेचन क्रिया में मादा युग्मक या अण्डाणु सम्पूर्ण रूप में किन्तु नर युग्मक अर्थात् शुक्राणु का केवल केन्द्रक (nucleus = n) ही भाग लेता है। मैथुन से निषेचन तक की वास्तविक क्रिया के निम्नलिखित चरण होते हैं –
1. शुक्राणु का अण्डाणु की ओर पहुँचना – मादा की योनि में नर के द्वारा स्खलित वीर्य में से कुछ सफल शुक्राणु (sperms) अपनी पूँछ की सहायता से 1-4 मिमी प्रति मिनट की गति से फैलोपियन नलिका में पहुँचते हैं। इस कार्य में गर्भाशय की सीरिंज अवशोषण क्रिया तथा क्रमाकुंचन गति इन्हें ऊपर चढ़ने में सहायक होती है। फैलोपियन नलिका में संकुचन की उत्तेजना वीर्य में उपस्थित प्रोस्टाग्लाण्डिस तथा ऑक्सीटोसिन की उपस्थिति से प्रेरित होती है।

2. समूहन प्रक्रिया – मैथुन के पश्चात् जब अण्डाणु और शुक्राणु समीप आते हैं तब अण्डाणु फर्टीलाइजिन तथा शुक्राणु एण्टीफर्टीलाइजिन नामक पदार्थ का स्राव करता है। एण्टीफर्टीलाइजिन फर्टीलाइजिन की ओर आकर्षित होता है, जिसके फलस्वरूप अण्डाणु शुक्राणु की ओर आता है और इनका समूहन होता है। अब तक स्रावों की मात्रा कम हो जाने से अण्डे तक पहुँचने वाले शुक्राणुओं की संख्या कम होती जाती है।
स्त्री के जनन नाल में शुक्राणु 1-5 दिन तक जीवित रह सकते हैं किन्तु ये स्खलन के 12-24 घण्टों की अवधि में अण्डाणु का निषेचन कर सकते हैं।

3. संधारण – वीर्य योनि की अम्लीयता को समाप्त करके शुक्राणुओं को अण्डाणु का निषेचन करने में सहायक होते हैं। इस प्रक्रिया को संधारण कहते हैं। सामान्यत: केवल एक शुक्राणु ही अण्डाणु में प्रवेश कर पाता है। वह क्षेत्र जहाँ से ध्रुवकाय (polar body) के बाहर निकलने पर शुक्राणु इसमें प्रवेश करता है उसे सक्रिय ध्रुव (active pole) कहते हैं। अण्डाणु की सतह पर स्थित कुछ ग्राहियों की सहायता से शुक्राणु का शीर्ष अण्डाणु की सतह से चिपक जाता है।

4. शुक्राणु द्वारा अण्डाणु का बेधन – अण्डाणु की सतह से चिपकने के बाद शुक्राणु का एक्रोसोम (acrosome) स्पर्म लाइसिन (sperm lysin) नामक एन्जाइम का स्राव करता है। इसमें हाइल्यूरोनिडेज (hyaluronidase) तथा प्रोटियेज (protease) एन्जाइम्स होते हैं। ये । एन्जाइम अण्डाणु के कोरोना रेडिएटा तथा जोना पेलुसिडा को विघटित करके शुक्राणु को अण्डाणु में प्रवेश के लिये मार्ग बनाते हैं। जैसे ही शुक्राणु अण्डाणु में प्रवेश करता है अण्डाणु में कुछ ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं, जिससे दूसरा शुक्राणु इसमें प्रवेश नहीं कर सकता। शुक्राणु की पूँछ अण्डाणु में प्रवेश नहीं करती है। अण्डाणु के चारों ओर हाइल्यूरोनिक अम्ल द्वारा चिपकी फॉलिकल कोशिकाओं का अपघटन करने के लिए शुक्राणु हाइल्यूरोनिडेज (hyaluronidase) एन्जाइम स्रावित करता है। इससे सम्पर्क स्थल पर अण्डे के बाहरी आवरण कोरोना रेडियेटा (corona radiata) तथा जोना पेलुसिडा (zona pellucida) नष्ट हो जाते हैं।

शुक्राणु के सम्पर्क स्थल पर अण्डाणु की बाहरी दीवार (भित्ति) फूलकर एक निषेचन शंकु (fertilization cone) बनाती है। अण्डाणु की प्लाज्माकला से चिपकने के पश्चात् शुक्राणु का एक्रोसोम स्पर्म लाइसिन एन्जाइम स्रावित करता है। इसके द्वारा अण्डाणु की प्लाज्मा कला घुल जाती है और शुक्राणु धीरे-धीरे अण्डाणु में प्रवेश कर जाता है।

5. अण्डाणु का सक्रियण – शुक्राणु के प्रवेश करते ही अण्ड कोशिका से एक रासायनिक संकेत अण्डाणु की सतह की ओर प्रेषित होता है, जिसके कारण अण्डकोशिका के चारों ओर स्थित शुक्राणुओं में से कोई भी शुक्राणु अब अण्डाणु में प्रवेश नहीं करने पाता है। अण्डाणु की प्लाज्माकला के नीचे स्थित कॉर्टिकल कणिकाएँ निषेचन झिल्ली बनाती हैं। इसे अण्डाणु का सक्रियण कहते हैं। निषेचन झिल्ली अन्य शुक्राणुओं को अण्डाणु में प्रवेश करने से रोक देती है।

6. शुक्राणु तथा अण्डाणु के केन्द्रक का संलयन – शुक्राणु के अण्डे में प्रवेश करते ही उसके कोशिकाद्रव्य एवं कॉर्टेक्स में अनेक परिवर्तन होने लगते हैं। इन परिवर्तनों के कारण सक्रिय अण्डाणु में समसूत्री विभाजन (mitosis) की तैयारियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 3 Human Reproduction img-7

अण्डाणु के अन्दर शुक्राणु का नर पूर्व केन्द्रक (male pronucleus) एक निश्चित पथ पर अण्डाणु के मादा पूर्व केन्द्रक (female pronucleus) की ओर अग्रसर होता है। इस पथ को शुक्राणु प्रवेश पथ (sperm penetration path) कहते हैं। अब नर एवं मादा पूर्व केन्द्रकों का परस्पर स्थापित हो जाने से दोनों का संलयन (fusion) हो जाता है, जिसके फलस्वरूप युग्मनज (zygote) बनता है, जिसमें गुणसूत्रों की संख्या पुनः द्विगुणित (2n) हो जाती है। इसके साथ ही माता-पिता के गुणसूत्रों का परस्पर मिश्रण हो जाता है।

निषेचित अण्डे को अब युग्मनज (zygote) तथा इसके केन्द्रक को सिन्कैरिओन (synkaryon) कहते हैं। दोनों पूर्व केन्द्रकों के संलयन को उभय मिश्रण (amphimixis) कहते हैं। सेण्ट्रिओल सहित शुक्राणु केन्द्रक के प्रवेश से अण्डाणु के कोशिकाद्रव्य में तर्क निर्माण प्रारम्भ हो जाता है और युग्मनज प्रथम केन्द्रक विभाजन के लिए तैयार हो जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 3 Human Reproduction img-8

प्रश्न 2.
विदलन एवं समसूत्री विभाजन में अन्तर स्पष्ट कीजिए । मनुष्य के युग्मनज में विदलन को समझाइए एवं इसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर
विदलन तथा समसूत्री विभाजन में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 3 Human Reproduction img-9
मनुष्य के युग्मनज में विदलन
निषेचन के पश्चात् युग्मनज में तेजी से समसूत्री विभाजन होता है अत: यह अनेक कोशिकाओं के समूह में विभाजित होता है। इसके आकार में कोई परिवर्तन नहीं आता है व इसे क्रिया को विदलन (cleavage) कहते हैं। इससे कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है। विदलने द्वारा बनी कोशिकाएँ ब्लास्टोमीयर्स (blastomeres) कहलाती हैं। मानव में पूर्णभंजी विदलन (holoblastic cleavage) होता है। युग्मनज में प्रथम विदलन प्रायः निषेचन के तीस घण्टे बाद होता है तथा युग्मनज के अण्डवाहिनी के ऊपरी हिस्से में उपस्थित होने के दौरान यह विदलन होता है। पहले विदलन में युग्मनज मध्य अक्ष से पूर्ण रूप से दो ब्लास्टोमीयर्स में बँट जाता है।

दूसरा विदलन निषेचन के प्रायः 44 घण्टे बाद होता है व यह प्रथम विदलन के समकोण पर होता है। अतः युग्मनज चार समान ब्लास्टोमीयर्स में विभाजित हो जाता है। तृतीय विदलन प्रायः निषेचन के तीन दिन बाद होता है तथा ये पहले दो विभाजनों के 90° के कोण पर होता है। विदलन के दौरान भ्रूण अण्डवाहिनी में नीचे की ओर खिसकता जाता है। तृतीय विदलन के पश्चात् विदलन अनिश्चित रूप से होता है तथा चौथे दिन भ्रूण गर्भाशय में पहुंच जाता है। यह भ्रूण 32 कोशिकाओं (32 cells) का होता है व इसे मोरूला (morula) कहते हैं।

विदलन के लाभ
विदलन द्वारा होने वाले लाभ निम्नवत् हैं –

  1. युग्मनज का जीवद्रव्य ब्लास्टोमीयर्स में विभाजित हो जाता है।
  2. विदलन जीवद्रव्य को गति प्रदान करता है तथा जनन स्तर (germ layers) बनाने में सहायता | करता है।
  3. यह ऊतक तथा अंग बनाने में सहायता करता है।
  4. विदलन के कारण निश्चित केंद्रकी जीवद्रव्य अनुपात (ratio) बनता है।
  5. इसके फलस्वरूप एककोशिकीय युग्मनज बहुकोशिकीय भ्रूण में परिवर्तित हो जाता है।

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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants (पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Biology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Biology  Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants (पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 2
Chapter Name Sexual Reproduction in Flowering Plants
Number of Questions Solved 54
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants (पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
एक आवृतबीजी पुष्प के उन अंगों के नाम बताएँ, जहाँ नर एवं मादा युग्मकोभिद् का विकास होता है?
उत्तर
आवृतबीजी पादप (angiospermic plant) पुष्पीय पादप हैं। पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह (modified shoot) है जिसका कार्य प्रजनन होता है। पुष्प में निम्नलिखित चार चक्र होते हैं –
(क) बाह्यदलपुंज (Calyx) – इसका निर्माण बाह्यदल (sepals) से होता है।
(ख) दलपुंज (Corolla) – इसका निर्माण दल (petals) से होता है।
(ग) पुमंग (Androecium) – इसका निर्माण पुंकेसर (stamens) से होता है। यह पुष्प का नर जनन चक्र कहलाता है।
(घ) जायांग (Gynoecium) – इसका निर्माण अण्डप (carpels) से होता है। यह पुष्प का मादा जनन चक्र कहलाता है।

पुंकेसर के परागकोश (anther) में परागकण मातृ कोशिका (pollen mother cells) से अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा परागकण (pollen grains) का निर्माण होता है। परागकण नर युग्मकोभिद् (male gametophyte) कहलाता है।
अण्डप (carpel) के तीन भाग होते हैं – अण्डाशय (ovary), वर्तिका (style) तथा वर्तिकाग्र (stigma)। अण्डाशय में बीजाण्ड का निर्माण होता है। बीजाण्ड के बीजाण्डकाय की गुरुबीजाणु मातृ कोशिका (mega spore mother cell) से अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा अगुणित गुरुबीजाणु से मादा युग्मकोभिद् (female gametophyte) अथवा भ्रूणकोष (embryo sac) का विकास होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-1

प्रश्न 2.
लघुबीजाणुधानी तथा गुरुबीजाणुधानी के बीच अन्तर स्पष्ट करें। इन घटनाओं के दौरान किस प्रकार का कोशिका विभाजन सम्पन्न होता है ? इन दोनों घटनाओं के अंत में बनने वाली संरचनाओं के नाम बताइए।
उत्तर
लघुबीजाणुधानी तथा गुरुबीजाणुधानी के मध्य निम्न अन्तर हैं –
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-2
इन घटनाओं के दौरान अर्धसूत्री विभाजन होता है। लघुबीजाणुजनन के अन्त में लघुबीजाणु अथवा परागकण बनते हैं तथा गुरुबीजाणुजनन के अन्त में चार गुरूबीजाणु बनते हैं।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दावलियों को सही विकासीय क्रम में व्यवस्थित करें-परागकण, बीजाणुजन ऊतक, लघुबीजाणु चतुष्क, परागमातृ कोशिका, नर युग्मक।
उत्तर
उपरोक्त शब्दावलियों का सही विकासीय क्रम निम्नवत् है –
बीजाणुजन ऊतक → परागमातृ कोशिका → लघुबीजाणु चतुष्क → परागकण → नरयुग्मक

प्रश्न 4.
एक प्रारूपी आवृतबीजी बीजाण्ड के भागों का विवरण दिखाते हुए एक स्पष्ट एवं साफ-सुथरा नामांकित चित्र बनाइए। (2010, 15, 17)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-3

प्रश्न 5.
आप मादा युग्मकोभिद् के एकबीजाणुज विकास से क्या समझते हैं ?
उत्तर
गुरुबीजाणुजनन के फलस्वरूप बने गुरुबीजाणु चतुष्क (tetrad) में से तीन नष्ट हो जाते हैं। तथा केवल एक गुरुबीजाणु ही सक्रिय होता है जो मादा युग्मकोभिद् का विकास करता है। गुरुबीजाणु का केन्द्रक तीन, सूत्री विभाजनों द्वारा आठ केन्द्रक बनाता है। प्रत्येक ध्रुव पर चार-चार केन्द्रक व्यवस्थित हो जाते हैं। भ्रूणकोष के बीजाण्डद्वारी ध्रुव पर स्थित चारों केन्द्रक में से तीन केन्द्रक कोशिकाएँ अण्ड उपकरण (egg apparatus) बनाते हैं, जबकि निभागी सिरे के चार केन्द्रकों में से तीन केन्द्रक एन्टीपोडल कोशिकाएँ (antipodal cells) बनाते हैं। दोनों ध्रुवों से आये एक-एक केन्द्रक, केन्द्रीय कोशिका में संयोजन द्वारा ध्रुवीयकेन्द्रक (polar nucleus) बनाते हैं। चूंकि मादा युग्मकोद्भिद् सिर्फ एक ही गुरुबीजाणु से विकसित होता है, अत: इसे एक बीजाणुज विकास कहते हैं।

प्रश्न 6.
एक स्पष्ट एवं साफ-सुथरे चित्र के द्वारा परिपक्व मादा युग्मकोदभिद के 7-कोशिकीय, 8-न्यूक्लिएट (केन्द्रकीय) प्रकृति की व्याख्या करें।
उत्तर
आवृतबीजी पौधों को मादा युग्मकोभिद् 7-कोशिकीय व 8-केन्द्रकीय होता है जिसके परिवर्धन के समय क्रियाशील गुरुबीजाणु (functional megaspore), प्रथम केन्द्रीय विभाजन द्वारा दो केन्द्रक बनाता है। दोनों केन्द्रक गुरुबीजाणु के दोनों ध्रुवों (माइक्रोपाइल व निभागीय) पर पहुँच जाते हैं। द्वितीय विभाजन द्वारा दोनों सिरों पर दो-दो केन्द्रिकाएँ बन जाती हैं। तृतीय विभाजन द्वारा दोनों सिरों पर चार-चार केन्द्रक बन जाते हैं। माइक्रोपायलर शीर्ष पर चार केन्द्रकों में से तीन केन्द्रक अण्ड उपकरण (egg apparatus) बनाते हैं तथा चौथा केन्द्रक ऊपरी ध्रुव का चक्र बनाता है। निभागीय शीर्ष पर चार केन्द्रकों में से तीन एन्टीपोडल केन्द्रक तथा चौथा केन्द्रक निचला ध्रुव केन्द्रक का निर्माण करता है। ऊपरी तथा निचला ध्रुवीय केन्द्रक मध्य में आकर संयोजन द्वारा द्वितीयक केन्द्रक (secondary nucleus) बनाते हैं। अण्ड उपकरण के तीन केन्द्रकों से मध्य वाला केन्द्रक अण्ड (egg) बनाता है। शेष दोनों केन्द्रक सहायक कोशिकाएँ (synergid cells) बनाते हैं।
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प्रश्न 7.
उन्मील परागणी पुष्पों से क्या तात्पर्य है ? क्या अनुन्मीलिय पुष्पों में पर-परागण सम्पन्न होता है ? अपने उत्तर की सतर्क व्याख्या करें।
उत्तर
वे पुष्प जिनके परागकोश तथा वर्तिकाग्र अनावृत (exposed) होते हैं, उन्मील परागणी पुष्प कहलाते हैं। उदाहरण- वायोला, ऑक्जेलिस।
अनुन्मीलिय पुष्पों में पर-परागण नहीं होता है। अनुन्मीलिय पुष्प अनावृत नहीं होते हैं। अतः इनमें पर-परागण सम्भव नहीं होता है। इस प्रकार के पुष्पों के परागकोश तथा वर्तिकाग्र पास-पास स्थित होते हैं। परागकोश के स्फुटित होने पर परागकण वर्तिकाग्र के सम्पर्क में आकर परागण करते हैं। अतः अनुन्मीलिय पुष्प स्व-परागण ही करते हैं।

प्रश्न 8.
पुष्पों द्वारा स्व-परागण को रोकने के लिए विकसित की गयी दो कार्यनीतियों का विवरण दें।
उत्तर
पुष्पों में स्व-परागण को रोकने हेतु विकसित की गयी दो कार्यनीतियाँ निम्न हैं –

  1. स्व-बन्ध्यता (Self-fertility) – इस प्रकार की कार्यनीति में यदि किसी पुष्प के परागण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर गिरते हैं तो वे उसे निषेचित नहीं कर पाते हैं। उदाहरण-माल्वा के एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर अंकुरित नहीं होते हैं।
  2. भिन्न काल पक्वता (Dichogamy) – इसमें नर तथा मादा जननांग अलग-अलग समय में | परिपक्व होते हैं जिससे स्व-परागण नहीं हो पाता है। उदाहरण-सैक्सीफ्रेगा कुल के सदस्य।

प्रश्न 9.
स्व-अयोग्यता क्या है ? स्व-अयोग्यता वाली प्रजातियों में स्व-परागण प्रक्रिया बीज की रचना तक क्यों नहीं पहुँच पाती है ?
उत्तर
स्व-अयोग्यता पुष्पीय पौधों में पायी जाने वाली ऐसी प्रयुक्ति है जिसके फलस्वरूप पौधों में स्व-परागण (self-pollination) नहीं होता है। अतः इन पौधों में सिर्फ पर-परागण (cross pollination) ही हो पाता है। स्व-अयोग्यता दो प्रकार की होती है –

  1. विषमरूपी (Heteromorphic) – इस प्रकार की स्व-अयोग्यता में एक ही जाति के पौधों के वर्तिकाग्र तथा परागकोशों की स्थिति में भिन्नता होती है अतः परागनलिका की वृद्धि वर्तिकाग्र में रुक जाती है।
  2. समकारी (Homomorphic) – इस प्रकार की स्व-अयोग्यता विरोधी-S अलील्स (opposition-S-alleles) द्वारा होती है। उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप स्व-अयोग्यता वाली जातियों में स्व-परागण प्रक्रिया बीज की रचना तक नहीं पहुँच पाती है।

प्रश्न 10.
बैगिंग (बोरावस्त्रावरण) या थैली लगाना तकनीक क्या है ? पादप जनन कार्यक्रम में यह कैसे उपयोगी है ?
उत्तर
बैगिंग (बोरावस्त्रावरण) एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा परागण में ऐच्छिक परागकणों का उपयोग तथा वर्तिकाग्र को अनैच्छिक परागकणों से बचाना सुनिश्चित किया जाता है। बैगिंग के अन्तर्गत विपुंसित पुष्पों को थैली से ढ़ककर, इनके वर्तिकाग्र को अवांछित परागकणों से बचाया जाता है। पादप जनन में इस तकनीक द्वारा फसलों को उन्नतशील बनाया जाता है तथा सिर्फ ऐच्छिक गुणों वाले परागकण वे वर्तिकाग्र के मध्य परागण सुनिश्चित कराया जाता है।

प्रश्न 11.
त्रि-संलयन क्या है ? यह कहाँ और कैसे सम्पन्न होता है ? त्रि-संलयन में सम्मिलित न्यूक्लीआई का नाम बताएँ।
उत्तर
परागनलिका से मुक्त दोनों नर केन्द्रकों में से एक मादा केन्द्रक से संयोजन करता है। दूसरा नर केन्द्रक भ्रूणकोष में स्थित द्वितीयक केन्द्रक (2n) से संयोजन करता है। द्वितीयक केन्द्रक में दो केन्द्रक पहले से होते हैं तथा नर केन्द्रक से संलयन के पश्चात् केन्द्रकों की संख्या तीन हो जाती है। तीन केन्द्रकों का यह संलयन, त्रिसंलयन (triple fusion) कहलाता है। त्रिसंलयन की प्रक्रिया भ्रूणकोष में होती है तथा इसमें ध्रुवीय केन्द्रक अर्थात् द्वितीयक केन्द्रक व नर केन्द्रक सम्मिलित होते हैं।

प्रश्न 12.
एक निषेचित बीजाण्ड में, युग्मनज प्रसुप्ति के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
उत्तर
निषेचन के पश्चात् बीजाण्ड में युग्मनज (zygote) का विकास होता है। बीजाण्ड के अध्यावरण दृढ़ होकर बीजावरण (seed coat) बनाते हैं। बीजाण्ड के बाहरी अध्यावरण से बीजकवच तथा भीतरी अध्यावरण से अन्तः कवच बनता है। भ्रूणपोष में भोज्य पदार्थ एकत्रित होने लगते हैं। जल की मात्रा धीरे-धीरे कम हो जाती है, अतः कोमल बीजाण्डे कड़ा व शुष्क हो जाता है। धीरे-धीरे बीजाण्ड के अंदर की कार्यिकी क्रियाएँ रुक जाती हैं तथा युग्मनज से बना नया भ्रूण सुप्तावस्था में पहुँच जाता है। इसे युग्मनज प्रसुप्ति कहते हैं। बीजावरण से घिरा, एकत्रित भोजन युक्त तथा सुसुप्त भ्रूण युक्त यह रचना, बीज (seed) कहलाती है।

प्रश्न 13.
इनमें विभेद करें –
(क) बीजपत्राधार तथा बीजपत्रोपरिक
(ख) प्रांकुर चोल तथा मूलांकुर चोल
(ग) अध्यावरण तथा बीज चोल
(घ) परिभ्रूण पोष तथा फलभित्ति
उत्तर
(क) बीजपत्राधार तथा बीजपत्रोपरिक में अन्तर बीजपत्राधार
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-5

(ख) प्रांकुर चोल तथा मूलांकुर चोल में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-6

(ग) अध्यावरण तथा बीज चोल में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-7

(घ) परिभ्रूण पोष तथा फलभित्ति में अन्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-8

प्रश्न 14.
एक सेब को आभासी फल क्यों कहते हैं ? पुष्प का कौन-सा भाग फल की रचना करता है ?
उत्तर
सेब में फल का विकास पुष्पासन (thalamus) से होता है। इसी कारण इसे आभासी फल (false fruit) कहते हैं। फल की रचना, पुष्प के निषेचित अण्डाशय (ovary) से होती है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-9

प्रश्न 15.
विपुंसन से क्या तात्पर्य है ? एक पादप प्रजनक कब और क्यों इस तकनीक का प्रयोग करता है ?
उत्तर
एक द्विलिंगी पुष्प की कली अवस्था में, परागकोश को काटकर अलग करने की प्रक्रिया, विपुंसन (emasculation) कहलाती है। यह कृत्रिम परागण की एक तकनीक है तथा इसका प्रयोग पादप प्रजनक द्वारा आर्थिक महत्त्व के पौधों की अच्छी नस्ल बनाने में किया जाता है। विपुंसन द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि ऐच्छिक वर्तिकाग्र युक्त पौधे पर ही परागण हो।

प्रश्न 16.
यदि कोई व्यक्ति वृद्धि कारकों का प्रयोग करते हुए अनिषेकजनन को प्रेरित करता है तो आप प्रेरित अनिषेकजनन के लिए कौन-सा फल चुनते हैं और क्यों ?
उत्तर
वृद्धि कारकों के प्रयोग द्वारा अनिषेकजनन हेतु हम केले का चयन करेंगे क्योंकि यह बीज रहित होता है।

प्रश्न 17.
परागकण भित्ति रचना में टेपीटम की भूमिका की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
पुंकेसर के परागकोश (anther) में प्रायः चार लघुबीजाणुधानी (microsporangia) बनती हैं। प्रत्येक लघुबीजाणुधानी चार पर्वो वाली भित्ति से आवृत होती है। बाहर से भीतर की ओर इन्हें क्रमशः बाह्य त्वचा (epidermis), अंतस्थीसियम (endothecium), मध्यपर्त (middle layer) तथा टेपीटम (tapetum) कहते हैं। बाह्य तीन पर्ते लघुबीजाणुधानी को संरक्षण प्रदान करती हैं और स्फुटन में सहायता करती हैं। सबसे भीतरी टेपीटम पर्त की कोशिकाएँ विकासशील परागकणों को पोषण प्रदान करती हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-10

प्रश्न 18.
असंगजनन क्या है ? इसका क्या महत्त्व है ? (2014, 17)
उत्तर
अलैंगिक जनन की एक सामान्य विधि जिसमें नये पौधे का निर्माण युग्मकों के संलयन के बिना ही होता है, असंगजनन (apomixis) कहलाती है। असंगजनन में गुणसूत्रों का विसंयोजनपुनःसंयोजन (segregation and recombination) नहीं होता है। अतः इसमें पौधे के लाभदायक गुणों को अनिश्चित समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
आवरणविहीन तथा एककोशिकीय जनन अंग प्रमुख लक्षण हैं – (2015)
(क) ब्रायोफाइटा के
(ख) टेरिडोफाइटा के
(ग) अनावृतबीजियों के
(घ) थैलोफाइटा के
उत्तर
(घ) थैलोफाइटा के

प्रश्न 2.
एक आवृतबीजी में 400 परागकणों को उत्पन्न करने के लिए कितने अर्ध-सूत्री विभाजन आवश्यक होंगे? (2015)
(क) 400
(ख) 100
(ग) 200
(घ) 50
उत्तर
(ख) 100

प्रश्न 3.
परागकण मातृकोशिका में गुणसूत्रों की संख्या होती है (2016)
(क) अगुणित
(ख) द्विगुणित
(ग) त्रिगुणित
(घ) बहुगुणित
उत्तर
(ख) द्विगुणित

प्रश्न 4.
बीजाण्ड का वह स्थान जहाँ बीजाण्डवृत्त जुड़ा होता है उसे कहते हैं (2017)
(क) निभाग (चलाजा)
(ख) नाभिका (हाइलम)
(ग) केन्द्रक
(घ) माइक्रोपाइल
उत्तर
(ख) नाभिका (हाइलम)

प्रश्न 5.
परागनलिका का अध्यावरण द्वारा बीजाण्ड में प्रवेश कहलाता है (2017)
(क) निभागी युग्मन
(ख) अण्डद्वारी प्रवेश
(ग) इनमें से दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 6.
द्विनिषेचन का तात्पर्य है (2017)
(क) दो नर युग्मकों का अण्डकोशिका से संयोजन
(ख) एक नर युग्मक का अण्डकोशिका से तथा दूसरे का द्वितीयक केन्द्रक से संयोजन
(ग) इनमें से दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ख) एक नर युग्मक का अण्डकोशिका से तथा दूसरे का द्वितीयक केन्द्रक से संयोजन

प्रश्न 7.
द्विनिषेचन क्रिया होती है (2014)
(क) शैवालों में
(ख) ब्रायोफाइट्स में
(ग) अनावृतबीजी पौधों में
(घ) आवृतबीजी पौधों में
उत्तर
(घ) आवृतबीजी पौधों में

प्रश्न 8.
भारतीय भ्रूण-विज्ञान के जनक है – (2017)
(क) राम उदार
(ख) बी०एन० प्रसाद
(ग) पी०एन० मेहरा
(घ) पी० माहेश्वरी
उत्तर
(घ) पी० माहेश्वरी

प्रश्न 9.
नारियल का रेशे उत्पन्न करने वाला भाग है – (2016)
(क) बाह्य फलभित्ति
(ख) अन्तः फलभित्ति
(ग) मध्य फलभित्ति
(घ) तना तथा पत्ती
उत्तर
(ग) मध्य फलभित्ति

प्रश्न 10.
बहुभ्रूणता खोजी गई (2017)
(क) ल्यूवेनहॉक द्वारा
(ख) माहेश्वरी द्वारा
(ग) विन्कलर द्वारा
(घ) कूपर द्वारा
उत्तर
(क) ल्यूवेनहॉक द्वारा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
युक्तपुंकेसरी दशा किसे कहते हैं? (2017)
उत्तर
जब किसी पुष्प के सभी पुंकेसर परस्पर संलग्न होते हैं, तब इसे युक्तपुंकेसरी दशा कहते हैं। जैसे – Cucurbitaceae family के पौधों में।

प्रश्न 2.
चतुर्दी पुंकेसर किसे कहते हैं? (2017)
उत्तर
जब एक पुष्प के चार पुंकेसर लम्बे और दो पुंकेसर छोटे हों, तो इसे चतुर्थी अवस्था कहते हैं। जैसे – सरसों के पुष्प में।

प्रश्न 3.
जौ या गेहूँ के 100 दाने बनाने के लिए कितने अर्द्धसूत्री विभाजन की आवश्यकता होगी? (2017, 18)
उत्तर
जौ या गेहूँ के 100 दाने बनाने के लिए 125 अर्द्धसूत्री विभाजन की आवश्यकता होगी।

प्रश्न 4.
परिपक्व परागकोष की अनुप्रस्थ काट का चित्र बनाइए। (2015, 17)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-11

प्रश्न 5.
ऊर्ध्ववर्ती एवं अधोवर्ती अण्डाशयों की लम्ब काट का नामांकित चित्र बनाइए। (2015)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-12

प्रश्न 6.
पॉलीगोनम प्रकार के भ्रूणकोष में कितने केन्द्र उपस्थित होते हैं? (2017)
उत्तर
परिपक्व भ्रूणकोष 8 केन्द्रकीय एवं 7 कोशिकीय होता है।

प्रश्न 7.
भ्रूणपोष केन्द्रक का निर्माण कैसे होता है? इसमें उपस्थित गुणसूत्रों की संख्या कितनी होती (2015)
उत्तर
द्वितीयक केन्द्रक (2n) तथा एक नर केन्द्रक (n) के संलयन से भ्रूणपोष केन्द्रक का निर्माण होता है। इसमें उपस्थित गुणसूत्रों की संख्या 3n होती है।

प्रश्न 8.
निमीलिता को परिभाषित कीजिए तथा एक उदाहरण भी दीजिए। (2014)
उत्तर
कुछ द्विलिंगी पुष्प ऐसे होते हैं जो कभी नहीं खिलते। इन पुष्पों को निमीलित पुष्प कहते हैं। ऐसे पुष्पों में बन्द अवस्था में ही परागकोश फट जाते हैं जिससे परागकण पुष्प के वर्तिकाग्र पर बिखर जाते हैं और स्व-परागण हो जाता है। इस प्रक्रिया को ही निमीलिता कहते हैं। उदाहरणार्थ-कनकौआ (Commelina), गुलमेंहदी (Impatiens), बनफसा (Viola), मूंगफली (Arachis) आदि।

प्रश्न 9.
भ्रूणपोष का विकास आवृतबीजी पौधों में किस प्रक्रिया के फलस्वरूप होता है? (2017)
उत्तर
द्विनिषेचन के पश्चात् होता है।

प्रश्न 10.
प्रजनन की पाल्मेला स्टेज किस पादप में पाई जाती है? (2015)
उत्तर
प्रजनन की पाल्मेला स्टेज क्लेमाइडोमोनास में पाई जाती है।

प्रश्न 11.
पालीनिया का नामांकित चित्र बनाइये। (2017)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-13

प्रश्न 12.
निम्न में अन्तर कीजिए – (2017)

  1. उभयलिंगाश्रयी तथा एकलिंगाश्रयी।
  2. समकालपक्वता तथा पूर्वमुँपक्वता।
  3. भ्रूणपोषी तथा अभ्रूणपोषी बीज।

उत्तर
1. उभयलिंगाश्रयी (Monoecious) – जब नर तथा मादा पुष्प एक ही पौधे पर लगे होते हैं, तो ऐसे पौधे को एकक्षयक कहते हैं, जैसे-लौकी, कद्दू, खीरा, मक्का, अरण्डी आदि। एकक्षयक पौधों में बहुधा नर पुष्प शीर्ष की ओर तथा मादा पुष्प नीचे की ओर लगे रहते हैं। इन पौधों के पुष्पों में स्व-परागण भी हो सकता है।
एकलिंगाश्रयी (Dioecious) – जब नर तथा मादा पुष्प दो भिन्न पौधों पर लगे होते हैं, तो ऐसे पौधों को द्विक्षयक कहते हैं, जैसे – पपीता, शहतूत, भाँग, केवड़ा, डेटपाम (datepalm) आदि। द्विक्षयक पौधों में केवल पर-परागण ही सम्भव है।

2. समकालपक्वता (Homogamy) – इस प्रकार के स्वपरागण में पुष्प का परागकोष तथा वर्तिकाग्र एक ही समय में परिपक्व होते हैं; जैसे-गार्डेनिया (Gardenia); कॉनवालवुलस (Convolvulus); सदाबहार (Vinca rosed = Catharanthus roseus), गुलाबांस (Mirabilis) आदि।
पूर्वऍपक्वता (Protandry) – जब पुष्प में पुमंग (androecium), जायांग (gynoecium) से पहले परिपक्व हो जाते हैं तब इस अवस्था को पूर्वऍपक्व (protandrous) कहते हैं। इन पुष्पों के परागकोश से निकलकर परागकण उसी पौधे के पुष्पों का परागण नहीं कर पाते परन्तु दूसरे पुष्पों के वर्तिकाग्र पर पहुँचकर परागण करते हैं; जैसे-गुड़हल, कपास, क्लेरोडेन्ड्रान, सालवियो, सूर्यमुखी, गेंदा, धनिया, सौंफ, बेला आदि। यह दशा पूर्वस्त्रीपक्वता की अपेक्षा अधिक सामान्य है।

3. भ्रूणपोषी बीज (Endospermic Seeds) – ऐसे सभी बीज जिनमें भ्रूणपोष बीजों के अंकुरण तक पाया जाता है उन्हें भ्रूणपोषी बीज या एल्ब्यूमिनस बीज (albuminous seeds) कहते हैं। इन बीजों में बीजपत्र (cotyledons) बहुत पतले होते हैं क्योंकि इनमें भोजन भ्रूणपोष में संचित रहता है; जैसे-सुपारी (Areca), फाइटेलेप्स (Phyteleps), डेट (Phoenix), अरण्डी (Caster), गेहूँ (Wheat), मक्का (Maize) आदि।
अभ्रूणपोषी बीज (Non-endospermic Seeds) – कुछ पौधों, जैसे–चना, सेम, मटर में भ्रूणपोष, भ्रूण-परिवर्धन में पूर्णरूप से प्रयोग हो जाता है। ऐसे बीजों के बीजपत्रों (cotyledons) में भोजन संचित रहने के कारण ये मोटे होते हैं। इन्हें अभ्रूणपोषी (non-endospermic) या एक्सएल्ब्यूमिनस (exalbuminous) बीज कहते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आवृतबीजों में नर युग्मकोभिद का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (2009, 16)
या
एक आवृतबीजी पौधे के परागकण के अंकुरण की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन कीजिए। (2010, 12, 15, 16)
उत्तर
नर युग्मकोदभिदका विकास
परागकोश के स्फुटन के समय मध्य स्तर व टेपीटम स्तर नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार परागकोश भित्ति में केवल बाह्यत्वचा (epidermis) व अन्तःत्वचा (endothecium) रह जाती है। प्रायः परागकोश का स्फुटन अनुदैर्घ्य दरारें (longitudinal slits) बनने से होता है जो प्रायः दो परागधानियों के मिलने के स्थान पर (A) (B) होती हैं। कभी-कभी अग्र दरारों (terminal slits) अथवा छिद्रों (pores) से भी परागकोशों को स्फुटन होता है। स्फुटन के फलस्वरूप परागकण स्वतन्त्र हो जाते हैं। परागकोश से स्वतन्त्र होने के पूर्व ही परागकणों का अंकुरण हो जाता है। इस क्रिया में सर्वप्रथम परागकण का केन्द्रक परागकण-भित्ति की ओर जाकर समसूत्री विभाजन द्वारा दो केन्द्रकों में विभाजित हो जाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-14
इनमें बड़े केन्द्रक को वर्दी केन्द्रक या नली केन्द्रक (vegetative nucleus or tube nucleus) तथा छोटे केन्द्रक को जनन केन्द्रक (generative nucleus) कहते हैं। प्रायः इस अवस्था में परागकण, परागकोश को छोड़ देते हैं। अब परागकणों का आगे का विकास मादा पुष्प के स्त्रीकेसर (pistil) के वर्तिकाग्र पर होता है। परागण (pollination) की क्रिया द्वारा परागकण, स्त्रीकेसर (pistil) के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँच जाते हैं जहाँ इनका अंकुरण होता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-15
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-16

प्रश्न 2.
वायु परागण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2016)
या
वायु परागित पुष्पों की विशेषताएँ लिखिए। (2017)
उत्तर
पुष्पों में वायु द्वारा होने वाले पर-परागण को वायु परागण (anemophily) कहते हैं और ऐसे पुष्पों को वायु परागित पुष्प (anemophilous flowers) कहते हैं। वायु परागित पुष्पों में कुछ विशेषताएँ पायी जाती हैं जो निम्नलिखित हैं –

  1. वायु परागित पुष्प छोटे एवं आकर्षण रहित होते हैं। ये रंगहीन (colourless); गंधहीन (odourless) एवं मकरन्द रहित होते हैं।
  2. वायु परागित पुष्प प्रायः एकलिंगी (unisexual) होते हैं। ये पत्तियों वाले भाग के ऊपर निकलते हैं तथा इनमें नर पुष्पों की अधिकता होती है; जैसे – मक्का में अथवा फिर नई पत्तियों के निकलने से पहले ही खिल जाते हैं, जैसे-पोपलर में।
  3. पुष्प के अनावश्यक भाग; जैसे – बाह्यदल एवं दल बहुत छोटे होते हैं जिससे ये परागकणों और वर्तिकाग्र के बीच रुकावट न बन सकें।
  4. वायु परागण करने वाले पुष्पों द्वारा प्रचुर मात्रा में परागकण (pollen grains) उत्पन्न होते हैं। क्योंकि वायु के झोंकों के साथ परागकणों का अधिकांश भाग इधर-उधर गिरकर नष्ट हो जाता है और फिर थोड़े से परागकण ही वास्तविक परागण क्रिया में भाग ले पाते हैं। उदाहरणार्थमक्का (Zea) तथा रूमेक्स (Rumex) का एक पौधा क्रमशः लगभग 2 करोड़ तथा 40 करोड़ परागकण उत्पन्न करता है। इसी प्रकार केनाबिस (Cannabis) के एक पुष्प से लगभग 5 लाख परागकणों का निर्माण होता है।
  5. परागकण छोटे, शुष्क व हल्के होते हैं जिससे ये वायु में आसानी से इधर-उधर उड़ सकें। कुछ पुष्पों के परागकणों में विशेष संरचनाएँ भी पायी जाती हैं जो वायु परागण में सहायक होती हैं; जैसे-चीड़ (Pinus) के परागकण पंखयुक्त (winged) होते हैं जिससे ये आसानी से उड़ सकें।
  6. पुंकेसर के पुंतन्तु प्रायः लम्बे तथा पतले होते हैं और पुष्प के बाहर निकले रहते हैं जिससे वायु के झोंकों के साथ ये आसानी से पुंतन्तुओं पर झूल सकें, जैसे—पोपलर में। घास, ताड़ आदि में पुष्पों के परागकोश मुक्तदोली (versatile) प्रकार का होता है जिससे ये वायु में आसानी से झूल सकें।
  7. इन पुष्पों का वर्तिकाग्र लम्बा, रोमयुक्त एवं पुष्प के बाहर निकला होता है जिससे ये परागकणों को आसानी से पकड़ सकें; जैसे-रोमयुक्त (मक्का) या चिपचिपा (पोपलर)।

प्रश्न 3.
आवृतबीजी पौधों में द्विनिषेचन की क्रिया का सचित्र वर्णन कीजिए। (2011)
या
द्विनिषेचन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2009, 11, 12, 14, 15, 16)
या
दोहरा निषेचन को परिभाषित कीजिए। (2017)
उत्तर
द्विनिषेचन या दोहरा निषेचन
पराग नलिका (pollen tube) में उपस्थित दोनों नर केन्द्रक ही नर युग्मक (male gametes) की तरह कार्य करते हैं और भ्रूणकोष में पहुँचने के बाद इनमें से एक नर युग्मक वास्तविक मादा युग्मक (female gamete) अर्थात् अण्ड कोशिका (egg cell) के अन्दर प्रवेश करके उसके केन्द्रक के साथ संलयित (fuse) हो जाता है। यह क्रिया वास्तविक युग्मक संलयन (syngamy) है। इस प्रकार की क्रिया को निषेचन (fertilization) कहते हैं। दूसरा नर युग्मक, दो ध्रुवीय केन्द्रकों (polar nuclei) द्वारा बने द्वितीयक केन्द्रक (secondary nucleus) की ओर पहुँचकर उसे निषेचित करता है। यह क्रिया त्रिसंयोजन (triple fusion) कहलाती है। इस समय भ्रूणकोष के अन्दर निषेचित अण्डकोशिका तथा त्रिसंयोजित केन्द्रक के अतिरिक्त सभी केन्द्रक अथवा कोशिकाएँ धीरे-धीरे लुप्त हो जाती हैं। यहाँ, एक ही भ्रूणकोष में दो संलयन होते हैं; अतः यह क्रिया द्विनिषेचन (double fertilization) कहलाती है और इस क्रिया के फलस्वरूप भ्रूणकोष में प्रायः निम्नलिखित परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं –

1. बीजाण्ड के दोनों कवच तथा इनसे बनने वाली संरचनाओं में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता और ये नये बनने वाले बीज का बीजावरण (seed coat) बनाते हैं।
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2. बीजाण्डकाय में उपस्थित भ्रूणकोष (embryo sac) में, अब दो ही केन्द्रक तथा उनसे बनने वाली कोशिकाएँ रह जाती हैं, ये इस प्रकार हैं –

  • निषिक्ताण्ड (Oospore) – जो एक नर युग्मक (केन्द्रक) तथा अण्डकोशिका के संलयन (fusion) के फलस्वरूप बना है तथा आगे चलकर भ्रूण (embryo) का निर्माण करेगा।
  • भूणपोष केन्द्रक (Endospermic Nucleus) – जो द्वितीयक केन्द्रक (2n) तथा एक नर केन्द्रक (n) के संलयन से बना है अतः प्रायः त्रिगुणित (triploid) होता है और | सम्पूर्ण भ्रूणकोष के कोशिकाद्रव्य को अपनी कोशिका मानकर रहता है। यही कोशिका आगे चलकर भ्रूणपोष (endosperm) का निर्माण करती है।

प्रश्न 4.
द्विनिषेचन के पश्चात किसी आवृतबीजी पौधे के बीजाण्ड में होने वाले बहुत से परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए। (2017)
उत्तर
द्विनिषेचन के पश्चात बीजाण्ड में होने वाले परिवर्तन

1. बाह्य अध्यावरण (Outer Integurment) – बीज का बीजचोल (testa) बनाता है।
2. अन्तः अध्यावरण (Inner Integument) – बीज का अन्त:कवच या टेगमेन (tegmen) बनाता है।
3. बीजाण्ड वृन्त (Funiculus) – नष्ट हो जाता है। लीची में इससे एक मांसल ऊतक निकलता है, यह बीज के चारों ओर होता है, इसे बीजचोल या एरिल कहते हैं। यह खाने योग्य भाग है। इसे third integument भी कहते हैं।
4. बीजाण्डद्वार (Micropyle) – बीजाण्डद्वार के रूप में ही रहता है। अरण्डी (castor bean) में इससे एक अतिवृद्धि निकलती है, जिसे बीजचोलक (caruncle) कहते हैं।
5. बीजाण्डकाय (Nucellus) – प्रायः समाप्त हो जाता है, कभी-कभी पतली परत के रूप में बचा रहता है जिसे परिभ्रूणपोष (perisperm) कहते हैं; जैसे-कुमुदिनी, काली मिर्च आदि।

प्रश्न 5.
भ्रूणकोष तथा भ्रूणपोष की तुलना कीजिए। (2010, 14, 15, 17)
उत्तर
भ्रूणकोष तथा भ्रूणपोष की तुलना
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प्रश्न 6.
निम्न पर टिप्पणी लिखिए
(क) अनिषेकफलने (2014, 17)
(ख) बहुभ्रूणता (2010, 14, 15, 16)
या
अनिषेकफलन एवं बहुभ्रूणता में अन्तर लिखिए। (2017)
उत्तर
(क) अनिषेकफलन
यह शब्द नौल (Noll) ने दिया। अण्डाशय (ovary) से बिना निषेचन के फल निर्माण की क्रिया को अनिषेकफलन (parthenocarpy) कहते हैं तथा ऐसे फलों को अनिषेकफलनी फल (parthenocarpic fruits) कहते हैं। यह फल बीजरहित (seedless) होते हैं। अंगूर, केले तथा अनन्नास में प्राकृतिक अनिषेकफलन होता है। अनिषेकफलन को हॉर्मोन; जैसे-ऑक्सिन व जिबरेलिन के छिड़काव से भी प्रेरित किया जाता है। अनार (pomegranate), नारियल (coconut) या उन फलों में जिनमें खाने योग्य भाग बीच का है, अनिषेकफलनी फल बनाना बेकार होता है।

(ख) बहुभ्रूणता
एक बीजाण्ड या बीज में एक से अधिक भ्रूणों का उत्पन्न होना बहुभ्रूणता (polyembryony) कहलाता है। अनावृतबीजी पौधों में यह सामान्य घटना है परन्तु आवृतबीजी पौधों में काफी कम पायी जाती है। बहुभ्रूणता (polyembryony) की खोज एण्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक (A.V. Leeuwenhoek) ने 1791 में सन्तरे (orange) के बीजों में की थी। यद्यपि एक बीज में बहुत सारे भ्रूण (embryo) विकसित हो जाते हैं, परन्तु इनमें से एक ही भ्रूण सक्रिय होकर पौधों की अगली पीढ़ी को जन्म देता है।
बहुभ्रूणता निम्न प्रकार की होती है –

1. सरले बहुभ्रूणता (Simple Polyembryony) – इस प्रकार की बहुभ्रूणता में बीजाण्ड में एक-से-अधिक भ्रूणकोष (embryo sac) होते हैं। इनमें निषेचन के बाद अनेक निषिक्ताण्ड (oospore) बनते हैं। प्रत्येक से भ्रूण का निर्माण होता है, जैसे-ब्रेसिका (Brassica)

2. मिश्रित बहुभ्रूणता (Mixed Polyembryony) – इसमें एक से अधिक पराग नलिकाएँ बीजाण्ड में जाती हैं। अतिरिक्त युग्मक, सहायक कोशाओं अथवा प्रतिमुख कोशाओं से संयुक्त हो जाते हैं और इस प्रकार बनी द्विगुणित कोशी (2n) से भी भ्रूण बनता है, जैसे – सैजिटेरिया, पोआ अल्पीना, एलियम ओडोरम आदि।

3. विदलन बहुभ्रूणता (Cleavage Polyembryony) – यह युग्मनज (zygote) के दो अथवा अधिक भागों में विभाजन से होती है। प्रत्येक भाग से भ्रूण बनता है; जैसे – क्रोटेलेरिआ
(Crotalaria), FAT37 15C (Nymphaea advena)

4. अपस्थानिक बहुभ्रूणता (Adventive Polyembryony) – जब भ्रूण का विकास बिना निषेचन के ही बीजाण्डकाय (nucellus) अथवा अध्यावरण (integuments) की कोशाओं से होता है, तब ऐसी बहुभ्रूणता को अपस्थानिक बहुभ्रूणता कहते हैं; जैसे- नींबू, संतरा, आम आदि।

प्रश्न 7.
असंगजनन (apomixis) क्या है? उपयुक्त उदाहरण देकर इस प्रक्रिया को समझाइए। (2014, 17)
या
अपबीजाणुता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर
असंगजनन
कभी-कभी पौधे के जीवन-चक्र में युग्मक-संलयन (syngamy) अथवा अर्धसूत्री विभाजन (meiosis) नहीं होते तथा इनकी अनुपस्थिति में नये पौधे का निर्माण हो जाता है, इस क्रिया को असंगजनन (apomixis) कहते हैं। इसकी खोज विंकलर (Winkler, 1908) नामक वैज्ञानिक ने की। असंगजनन मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है –

1. कायिक जनन (Vegetative Reproduction) – इस प्रकार के प्रजनन में बीज नहीं बनता। किसी कलिका से, जो तने अथवा पत्ती के ऊपर उत्पन्न होती है, एक नया पौधा जन्म लेता है;
जैसे – गन्ना, आलू आदि।
2. अनिषेकबीजता (Agamospermy) – लैंगिक जनन की अनुपस्थिति में बीज का निर्माण-इस प्रकार का प्रजनन बीज द्वारा होता है, परन्तु बीज के बनने में संयुग्मन एवं अर्धसूत्री विभाजन नहीं होते। यह निम्न प्रकार का होता है –

  • अपस्थानिक भूणता (Adventive Embryony) – इस प्रकार के बीज के निर्माण में बीजाण्डकाय (nucellus) अथवा अध्यावरणों (integuments) की कुछ कोशिकाएँ विभाजन एवं वृद्धि करके भ्रूण का निर्माण करती हैं। इस प्रकार उत्पन्न भ्रूण में सभी कोशिकाएँ द्विगुणित (diploid) होती हैं। उदाहरण—नींबू (Citrus), आम (Mangifera indica), नागफनी (Opuntia dillenii)
  • द्विगुणित बीजाणुता (Diplospory) – इस प्रकार के बीज के निर्माण में दीर्घबीजाणु मातृकोशिका (megaspore mother cell) से भ्रूणकोष (embryo sac) बन जाता है। क्योंकि इस निर्माण में अर्धसूत्री विभाजन नहीं होता, सभी कोशिकाएँ द्विगुणित (diploid) होती हैं। यदि इस भ्रूणकोष के अण्ड (egg) से, नर युग्मक के संयोजन के बिना भ्रूण का विकास हो जाता है तो उसे अनिषेकजनन (parthenogenesis) कहा जाता है। उदाहरण-इक्सेरिस डेन्टाटा (Ixertis dentata), टेरेक्साकम एल्बाइडियम (Taraxacum albidium)
  • अपबीजाणुता (Apospory) – इसकी खोज रोजनबर्ग (Rosenberg, 1907) ने की। इसमें बीजाण्डकाय (nucellus) की कोई कोशिका एक ऐसे भ्रूणकोष का निर्माण करती है जिसकी प्रत्येक कोशिका में गुणसूत्र द्विगुणित (2n) होते हैं। यदि ऐसे भ्रूणकोष के अण्ड (egg) में नर युग्मक के संयोजन के बिना भ्रूण का विकास होता है तो इसे अनिषेकजनन (parthenogenesis) कहते हैं।
    उदाहरण – क्रेपिस (crepis), क्लिफ्टोनिआ (Cliftonia), पार्थिनियम (Parthenium)।

प्रश्न 8.
अपयुग्मन पर टिप्पणी लिखें। (2017)
उत्तर
अपयुग्मन (Apogamy; Greek, apo = without; gamos = marriage)-यदि अगुणित भ्रूणकोष (haploid embryosac) के अण्ड कोशा (egg cell) के अलावा अन्य किसी दूसरी कोशा; जैसे-सहायक कोशा (synergid) अथवा प्रतिमुख कोशा (antipodal) से भ्रूण का निर्माण होता है, तो इसे अपयुग्मन कहते हैं। अर्थात् युग्मकोभिद् (gametophyte) से सीधे बीजाणुद्भिद् (sporophyte) का निर्माण; जैसे-एरीश्रिया (Erythroea); लिलियम (Lilium) आदि।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पुष्पी पादपों में लघुबीजाणुजनन का सचित्र वर्णन कीजिए। (2011)
या
केवल नामांकित चित्रों की सहायता से आवृतबीजी पौधों में लघुबीजाणुजनन का वर्णन कीजिए। (2009, 11)
या
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए – ‘लघुबीजाणुजनन’। (2010, 11, 14, 16)
या
परागकोश के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रों की सहायता से वर्णन कीजिए। (2017)
उत्तर
लघुबीजाणुजनन
पुष्पी पादपों में एक परागकोश (anther) एक उभार के रूप में कुछ विभज्योतिकी कोशिकाओं का एक अण्डाकार समूह होता है। शीघ्र ही यह एक चार पालियों वाला आकार बना लेता है। अब, चारों पालियों में बाह्य त्वचा के अन्दर अलग-अलग अधःस्तरीय कोशिकाएँ (hypodermal cells) बड़े आकार की तथा अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं। प्रत्येक पालि (lobe) में इस प्रकार की
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-19
कोशिकाओं की प्राय: एक ऊर्ध्व पंक्ति होती है। इन्हें प्रप्रसू कोशिकाएँ (archesporial cells) कहा जाता है। कभी-कभी अनुप्रस्थ काट में इनकी संख्या अधिक भी हो सकती है। प्रत्येक प्रप्रसू कोशिका में एक बड़ा तथा स्पष्ट केन्द्रक एवं प्रचुर मात्रा में जीवद्रव्य होता है। यह कोशिका एक परिनत विभाजन (periclinal division) अर्थात् पालि की परिधि के समानान्तर विभाजन द्वारा विभाजित होकर निम्नांकित दो कोशिकाएँ बनाती है –
1. प्राथमिक भित्तीय कोशिका (Primary Parietal Cell) – बाहरी कोशिका जो बाह्य त्वचा की ओर होती है फिर से एक परिनत विभाजन (parietal division) करके दो कोशिकाओं-बाहरी अन्त:भित्तीय कोशिका (endothecial cell) तथा भित्तीय कोशिका (parietal cell) में बँट जाती है। अन्त:भित्तीय कोशिका केवल पालि की परिधि के साथ 90° का कोण बनाते हुए अर्थात् अपनत (anticlinal) विभाजन द्वारा विभाजित होती है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-20
साथ ही भित्तीय कोशिका कई परिनत तथा अनेक अपनत विभाजनों के द्वारा विभाजित होती है। इन विभाजनों से परागपुट (pollen chamber) की भित्ति का निर्माण होता है। सम्पूर्ण पालि में ऊर्ध्व पंक्ति में उपस्थित अन्त:भित्तीय कोशिकाएँ विभाजन के बाद अन्त:भित्ति (endothecium) बना लेती हैं। भित्ति कोशिकाओं में से दो-तीन स्तर, मध्य स्तर (middle layers) का निर्माण करते हैं। मध्य स्तर की सबसे भीतरी परत पोषक कोशिकाएँ बनाती हैं, जिसे टैपेटम (tapetum) कहते हैं।

2. प्राथमिक बीजाणुजनक कोशिका (Primary Sporogenous Cell) – यह भीतरी कोशिका होती है जो बिना किसी क्रम के, अनियमित रूप में विभाजित होकर परागपुट (pollen chamber) के अन्दर बीजाणुजनक कोशिकाओं का एक समूह बना लेती है। स्पष्ट है। चारों पालियों में अलग-अलग तथा ऊर्ध्व रूप में निर्मित ये संरचनाएँ परागपुट हैं। इस समय तक योजि (connective) के एक ओर की दो पालियाँ मिलकर एक बड़ी पालि बनाती हैं तथा दूसरी ओर की दूसरी बड़ी पालि। अब प्रत्येक परागपुट में उपस्थित बीजाणुजनक कोशिकाएँ गोल होने लगती हैं, कुछ कोशिकाएँ टूट-फूटकर बढ़ती हुई कोशिकाओं के पोषण के काम आ जाती हैं, साथ ही इन कोशिकाओं का पोषण टैपेटम की कोशिकाओं के द्वारा भी होता है। इस प्रकार विकसित प्रत्येक कोशिका वास्तव में लघुबीजाणु मातृ कोशिका (microspore mother cell) है। एक परागपुट में इनकी संख्या सहस्त्रों हो सकती है।

सभी लघुबीजाणु मातृ कोशिकाओं का केन्द्रक, अब अर्द्ध-सूत्री विभाजन (reduction division or meiosis) द्वारा विभाजित होता है और चार केन्द्रक बनते हैं। इस प्रकार प्रत्येक केन्द्रक में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिका के केन्द्रक (2n) से आधी अर्थात् अगुणित (n = haploid) रह जाती है। सामान्यत: चारों केन्द्रक बनने के बाद ही कोशिकाद्रव्य विभाजन होता है, किन्तु कुछ एकबीजपत्री पौधों में कोशिकाद्रव्य का विभाजन प्रथम अर्द्ध-सूत्री विभाजन के बाद ही आरम्भ हो जाता है।
प्रत्येक अगुणित कोशिका ही लघुबीजाणु (microspore) है। ये चार-चार के समूह अर्थात् चतुष्क (tetrad) में विन्यसित रहते हैं, जो अधिकतर द्विबीजपत्रियों में (i) चतुष्फलकीय (tetrahedral), किन्तु अधिकतर एकबीजपत्रियों में (ii) समद्विपाश्विक (isobilateral) होते हैं।

प्रश्न 2.
गुरुबीजाणुजनन क्या है? आवृतबीजीय पौधों में मादा युग्मकोभिद के परिवर्धन का वर्णन कीजिए। (2010, 11)
या
चित्रों की सहायता से एक सामान्य 8-केन्द्रकीय भ्रूणकोष के विकास का वर्णन कीजिए। (2009, 11, 12)
या
आवृतबीजी पौधों में भ्रूणकोष कैसे बनता है? चित्रों की सहायता से समझाइए। विभिन्न केन्द्रकों के कार्य की विवेचना कीजिए। (2010)
या
आवृतबीजी पौधों में गुरुबीजाणुजनन प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। (2014, 17)
या
‘आवृतबीजियों में मादा युग्मकोभिद्’ पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
या
भ्रूणकोष का नामांकित चित्र बनाइए। (2017)
उत्तर
गुरुबीजाणुजनन
पुष्पीय पौधे विषमबीजी (heterosporous) होते हैं अर्थात् इन पौधों में दो प्रकार के बीजाणु (spores) बनते हैं – लघुबीजाणु (microspores) जो नर युग्मकोभिद (male gametophyte) बनाने वाली कोशिकाएँ हैं तथा गुरुबीजाणु (megaspores) जो मादा युग्मकोभिद बनाने वाली कोशिकाएँ होती हैं। गुरुबीजाणुओं के बनने की क्रिया जिसमें मिओसिस (अर्द्ध-सूत्री विभाजन) होती है, गुरुबीजाणुजनन (megasporogenesis) कहलाती है।

आवृतबीजी पौधे में मादा युग्मकोभिद का परिवर्धन
1. गुरुबीजाणुओं का निर्माण या गुरुबीजाणुजनन (Development of Megaspores or Megasporogenesis) – बीजाण्ड (ovule) में बीजाण्डकाय (nucellus) के स्वतन्त्र सिरे के कुछ अन्दर अर्थात् अधःस्तरीय (hypodermal) क्षेत्र में एक या कई कोशिकाओं का एक समूह अपने स्पष्ट केन्द्रकों आदि से अधिक स्पष्ट होकर प्रप्रसू कोशिकाएँ (archesporial cells) बनाता है। यदि एक से अधिक प्रप्रसू कोशिकायें हैं तो भी प्राय: एक ही कोशिका बड़ी तथा स्पष्ट होकर एक परिनत विभाजन (periclinal division), जो कि एक सूत्री विभाजन (mitotic division) है, के द्वारा दो कोशिकाओं में बँट जाती है –

  • बाहरी कोशिका, प्राथमिक भित्तीय कोशिका (primary parietal cell) कहलाती है जो एक परिनत विभाजन के द्वारा विभाजित होकर दो कोशिकाएँ अथवा कुछ अपनत (anticlinal) विभाजनों के द्वारा भित्तीय कोशिकाओं (parietal cells) का एक समूह बना लेती है।
  • भीतरी कोशिका प्राथमिक बीजाणुजनक कोशिका (primary sporogenous cell) कहलाती है और प्रायः बिना विभाजित हुए सीधे ही गुरुबीजाणु मातृ कोशिका (megaspore mother cell) की तरह वृद्धि करने लगती है। यह कोशिका जब काफी बड़ी तथा स्पष्ट केन्द्रक वाली हो जाती है, तो इसमें अर्द्ध-सूत्री विभाजन (meiosis) होता है और चार अगुणित (haploid = n) कोशिकाएँ बनती हैं, जो प्रायः एक लम्बवत् चतुष्क (linear tetrad) में विन्यसित रहती हैं। ये कोशिकाएँ गुरुबीजाणु (megaspore) हैं। इस प्रकार एक सम्पूर्ण बीजाण्ड अर्थात् गुरुबीजाणुधानी (megasporangium) में केवल चार गुरुबीजाणु बनते हैं जिनमें से प्राय: केवल एक ही गुरुबीजाणु क्रियाशील (functional) होता है और बढ़कर मादा युग्मकोभिद (female gametophyte) अर्थात् भ्रूणकोष (embryo sac) में परिवर्द्धित होता है। शेष बचे तीन गुरुबीजाणु बाद में नष्ट हो जाते हैं।

2. आवृतबीजी पौधे के भ्रूणकोष का परिवर्द्धन (Development of an Angiospermic Embryosac) – एक आवृतबीजी बीजाण्ड के बीजाण्डकाय (nucellus) के बीजाण्डद्वारीय (micropylar), स्वतन्त्र सिरे की ओर एक गुरुबीजाणु मातृकोशिका में अर्द्ध-सूत्री विभाजन (meiosis) से चार गुरुबीजाणुओं (megaspores) का निर्माण प्रायः लम्बवत् चतुष्क (linear tetrad) के रूप में होता है। इनमें से एक प्राय: निभागीय (chalazal) सिरे की ओर वाला गुरुबीजाणु (megaspore) जो एक अगुणित (haploid) तथा मादा युग्मकोद्भिद (female gametophyte) की प्रथम कोशिका है, क्रियाशील हो जाता है। यह
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गुरुबीजाणु बीजाण्डकाय (nucellus) से अधिक मात्रा में पोषण प्राप्त करने लगता है तथा अब यह बड़ा होकर भ्रूणकोष मातृकोशिका (embryo sac mother cell) की तरह कार्य करने लगता है। यह बीजाण्डकाय का अधिकतम स्थान घेर लेता है। वृद्धि के समय इसका केन्द्रक जो लगभग मध्य में स्थित था, विभाजित होकर दो केन्द्रक बनाता है। बने हुए दोनों केन्द्रकों में से एक-एक दोनों विपरीत ध्रुवों पर (बीजाण्डद्वार वाला सिरा तथा दूसरा निभाग की ओर) स्थित हो जाते हैं। दोनों ध्रुवों पर स्थित ये केन्द्रक सूत्री विभाजन के द्वारा सामान्यत: दो-दो बार और विभाजित होते हैं। इस प्रकार, प्रत्येक ध्रुव पर चार-चार (कुल आठ) केन्द्रक बन जाते हैं। इस समय तक क्रियाशील गुरुबीजाणु जिसमें ये केन्द्रक स्थित हैं, बढ़कर एक थैले (sac) की तरह हो जाता है और अब इसे भ्रूणकोष (embryo sac) कहते हैं। भ्रूणकोष के प्रत्येक ध्रुवीय सिरे में उपस्थित चार-चार केन्द्रकों में से एक-एक केन्द्रक एक-दूसरे के साथ जुड़कर द्वितीयक केन्द्रक (secondary nucleus) का निर्माण करते हैं। उधर, दोनों ध्रुवों पर शेष तीन-तीन केन्द्रक अपने चारों ओर कोशिकाद्रव्य एकत्रित कर निम्नलिखित कोशिकाओं का निर्माण करते हैं –

  • बीजाण्डद्वार की ओर वाली तीन कोशिकाओं में से एक कोशिका अधिक बड़ी हो जाती है, यह अण्ड कोशिका (egg cell or oosphere) तथा शेष दोनों कोशिकाएँ सहायक कोशिकाएँ (synergid cells) कहलाती हैं। अण्ड कोशिका प्रायः मध्य में तथा सहायक कोशिकाएँ पाश्र्व में व्यवस्थित रहती हैं।
  • निभाग की ओर वाले ध्रुव की ओर बनी तीनों कोशिकाएँ, प्रतिधुवीय कोशिकाएँ (antipodal cells) कहलाती हैं।
    इस प्रकार, गुरुबीजाणुधानी के अन्दर ही एक गुरुबीजाणु मादा युग्मकोभिद अथवा भ्रूणकोष (female gametophyte or embryo sac) का निर्माण करता है।

प्रश्न 3.
परागण किसे कहते हैं? सैल्विया में होने वाले परागण की क्रिया का वर्णन कीजिए। (2012)
उत्तर
परागण
पुंकेसर (stamen) पुष्प का नर भाग होता है जबकि स्त्रीकेसर (pistil) मादा भाग होता है। पुंकेसरों में परागकणों (pollen grains) का निर्माण होता है जो नर युग्मक अथवा शुक्राणु (sperms) उत्पन्न करते हैं। स्त्रीकेसरों में अण्डाशय (ovaries) का निर्माण होता है जिसमें मादा युग्मक अथवा अण्डाणु (egg) बनता है। प्रजनन क्रिया के सम्पन्न होने हेतु नर तथा मादा युग्मकों का संयुग्मन (fusion) आवश्यक है। चूंकि अधिकांश पौधों में परागकणों (pollen grains) के संचालन (locomotion) का अभाव होता है, इस कारण परागकणों के जायांग (gynoecium) तक पहुँचने के लिए इन्हें विभिन्न ढंग अपनाने पड़ते हैं। परागकोश में बने परागकणों का मादा पुष्प के वर्तिकाग्र (stigma) तक पहुँचने की घटना को परागण (pollination) कहते हैं। परागण के पश्चात् पुंकेसर और दल गिर जाते हैं, बाह्यदल या तो गिर जाते हैं या फल में चिरलग्न रहते हैं।

परागण के प्रकार
परागण (pollination) निम्नलिखित दो प्रकार का होता है –

  1. स्व-परागण (self-pollination) तथा
  2. पर-परागण (cross-pollination)।

1. स्व – परागण
स्व-परागण (self pollination) में एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प अथवा उसी पौधे के किसी अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचते हैं।

2. पर-परागण
इस क्रिया में एक पुष्प के परागकण उसी जाति के दूसरे पौधों के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचते हैं। यहाँ पर दोनों पुष्प दो अलग-अलग पौधों पर स्थित होते हैं चाहे वे एकलिंगी हों या द्विलिंगी। पर-परागण क्रिया का मुख्य लक्षण यह है कि इसमें बीज उत्पन्न करने के लिये एक ही जाति के दो पौधे भाग लेते हैं। द्विक्षयक पौधों (dioecious plants) के पुष्पों में केवल पर-परागण ही सम्भव होता है। द्विलिंगी पुष्पों में यह सामान्यतया पाया जाता है।

सैल्विया में कीट परागण
सैल्विया का पुष्प द्वि-ओष्ठि (bilabiate) होता है, ऊपरी ओष्ठ प्रजनन अंगों की रक्षा करता है तथा निचला ओष्ठ मधुमक्खियों के बैठने के लिये एक मंच (stage) का कार्य करता है। पुष्प पूर्वऍपक्व (protandrous) होता है, अर्थात् पुंकेसर, स्त्री पुंकेसर से पहले पकता है। इसमें दो पुंकेसर होते हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-22
प्रत्येक पुंकेसर का पुंतन्तु छोटा होता है और इसके सिरे पर लीवर की भाँति मुड़ा तथा असामान्य रूप से लम्बा योजी (connective) होता है जो मध्य से कुछ हटकर पुंतन्तु से जुड़ा होता है। इस प्रकार योजी दो असमान खण्डों में बँट जाता है और इसके दोनों सिरों पर एक-एक परागकोश पालि लगी रहती है। ऊपरी खण्ड बड़ा होता है तथा इसके सिरे पर स्थित पालि अबन्ध्य (fertile) होती है। निचले छोटे खण्ड के सिरे पर बन्थ्य (sterile) पालि लगी रहती है। दोनों पुंकेसरों की बन्ध्य पालियाँ दलपुंज के मुख पर स्थित होती हैं। सल्विया में परागण क्रिया मधुमक्खी (honeybee) द्वारा सम्पन्न होती है।

जब मकरन्द की खोज में कोई मधुमक्खी दलपुंज की नली में प्रवेश करती है तो निचली बन्ध्य परागकोश पालियों को धक्का लगता है जिससे योजी का ऊपरी खण्ड लीवर की भाँति नीचे झुक जाता है। इसके फलस्वरूप दोनों अबन्ध्य परागकोश पालियाँ मधुमक्खी की पीठ से टकराकर अपना परागकण इसके ऊपर बिखेर देती हैं। जब यह मधुमक्खी परिपक्व अण्डप वाले किसी दूसरे पुष्प में प्रवेश करती है तो नीचे की ओर मुड़े हुए वर्तिकाग्र (stima) इसकी पीठ से रगड़ खाकर परागकणों को चिपका लेते हैं और इस प्रकार परागण क्रिया सम्पन्न होती है।

प्रश्न 4.
पर-परागण से होने वाले लाभ तथा हानि का उल्लेख कीजिए। (2016)
या
“स्व-परागण की अपेक्षा पर-परागण अधिक उपयोगी है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए। (2017)
उत्तर
पर-परागण से लाभ (Advantages of Cross-pollination)-पर-परागण से निम्नलिखित लाभ हैं –

  1. पर-परागित पुष्पों से बनने वाले फल बड़े, भारी एवं स्वादिष्ट होते हैं तथा इनमें बीजों की संख्या अधिक होती है।
  2. पर-परागण से उत्पन्न बीज भी बड़े, भारी, स्वस्थ एवं अच्छी नस्ल वाले होते हैं, जिससे उपज बढ़ जाती है।
  3. इन बीजों से उत्पन्न पौधे भी बड़े, भारी, स्वस्थ एवं सक्षम होते हैं तथा इनमें प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की अधिक क्षमता होती है।
  4. पर-परागण द्वारा रोग अवरोधक (disease resistant) नयी जातियाँ तैयार की जा सकती हैं।
  5. पर-परागण से आनुवंशिक पुनर्योजन द्वारा विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं।
  6. पर-परागण द्वारा प्रकृति में स्वत: ही पौधों की नई जातियाँ (new varieties) उत्पन्न होती रहती हैं। जिनमें नये गुणों का समावेश होता है तथा हाइब्रिड विगर (hybrid vigour) के कारण अच्छी संतति बनती है।

पर-परागण से हानियाँ (Disadvantages of Cross-pollination) – अनेक लाभ होते हुए भी पर-परागण से निम्नलिखित हानियाँ भी हैं –

  1. पर-परागण की क्रिया अनिश्चित (uncertain) होती है, क्योंकि परागण के लिए यह वायु, जल एवं जन्तु पर निर्भर होती है।
  2. परागित करने वाले साधनों की समय पर उपलब्धता न होने पर अधिकांश पुष्प परागित होने से रह जाते हैं।
  3. पर-परागण के लिए पुष्पों को दूसरे पुष्पों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  4. कीटों को आकर्षित करने के लिये पुष्पों को चटकीले रंग, बड़े दल, सुगन्ध तथा मकरन्द उत्पन्न करना पड़ता है जिन सबमें अधिक पदार्थ का अपव्यय होता है तथा अधिक ऊर्जा का ह्रास होता है।
  5. पर-परागित पुष्पों, विशेषकर वायु परागित पुष्पों में परागकण अधिक संख्या में नष्ट होते हैं।
  6. पर-परागित बीज सदैव संकर (hybrid) होते हैं।

प्रश्न 5.
द्विबीजपत्री भ्रूण के विकास का वर्णन कीजिए। (2015)
या
द्विबीजपत्री पौधों में भ्रूण विकास की विभिन्न अवस्थाओं का केवल नामांकित चित्र बनाइए। (2017)
उत्तर
द्विबीजपत्री भ्रूण का विकास
युग्मनज (zygote) एक द्विगुणित संरचना है। यह सूत्री विभाजनों (mitotic division or mitosis) द्वारा विभाजित होता है। आरम्भ में यह आकार में बढ़कर अपने चारों ओर सेलुलोस की एक भित्ति का निर्माण करता है। इसके पश्चात् यह एक अनुप्रस्थ विभाजन (transverse division) द्वारा दो कोशाओं में विभाजित हो जाता है। इसमें ऊपरी (बीजाण्डद्वार की ओर स्थित) कोशा को आधार कोशा (basal cell) तथा निचली (निभाग की ओर स्थित) कोशा को अन्तस्थ कोशा (terminal cell) कहते हैं। अन्तस्थ कोशा को भूणीय कोशा (embryonal cell) तथा आधार कोशा को निलम्बक कोशा (suspensor cell) कहते हैं। आधार कोशा एक अनुप्रस्थ विभाजन (transverse division) तथा अन्तस्थ कोशा एक उदग्र विभाजन (vertical division) द्वारा विभाजित होकर (T’) के आकार का चार-कोशीय बालभूण (pro embryo) बनाती है।
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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-24
निलम्बक कोशी कई अनुप्रस्थ विभाजनों द्वारा विभाजित होकर छः से दस कोशा लम्बी सूत्राकार रचना निलम्बेक (suspensor) बनाती है। इस निलम्बक की ऊपरी कोशा कुछ फूलकर एक पुटिका कोशा (vesicular cell or haustorial cell) बनाती है। निलम्बक भ्रूण कोशाओं को नीचे की ओर धकेलती है। इनकी ऊपरी कोशा चूषांग (haustoria) का कार्य करती है। निलम्बक की सबसे निचली कोशी अधःस्फीतिका (hypophysis) कहलाती है। यही कोशा आगे विभाजन करके मूलांकुर (radicle) के शीर्ष को जन्म देती है। निलम्बक का कार्य बीजाण्डकाय से भोजन खींचकर वृद्धि कर रहे भ्रूण को प्रदान करना है।

इसी बीच अन्तस्थ कोशा की दोनों कोशाएँ एक अनुप्रस्थ विभाजन द्वारा विभाजित होकर चार भ्रूणीय कोशाएँ (embryonal cells) बनाती हैं। ये चारों कोशाएँ पुनः विभाजन द्वारा एक आठ कोशाओं वाली। अष्टम अवस्था (octant stage) बनाती हैं। इसमें अधः स्फीतिका के नीचे की चार कोशाएँ अधराधार कोशाएँ (hypobasal cells) तथा इसके नीचे चार कोशाएँ अध्याधार कोशाएँ (epibasal cells) कहलाती हैं। अधराधार कोशाओं से मूलांकुर (radicle) व अधोबीजपत्र (hypocotyl) तथा अध्याधार कोशाओं से प्रांकुर (plumule) व बीजपत्र (cotyledons) बनते हैं। अष्टमावस्था की आठों कोशाएँ परिनत विभाजन (periclinal division) द्वारा विभाजित होकर बाह्यत्वचीय कोशाओं (epidermal cells) का एक स्तर बनाती हैं जो बाद में अपनत विभाजन (anticlinal division) द्वारा विभाजित होकर त्वचाजन (dermatogen) स्तर बनाता है।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 2 Sexual Reproduction in Flowering Plants img-25
अन्दर की कोशाएँ अनेक उदग्र (vertical) व अनुप्रस्थ (transverse) विभाजनों द्वारा विभाजित होकर केन्द्रीय रम्भजन (plerome) तथा मध्य में वल्कुटजन (periblem) बनाती हैं। वल्कुटजन कोशाएँ वल्कुट तथा रम्भजन कोशाएँ रम्भ (stele) बनाती हैं। पुनः वृद्धि एवं विभाजनों द्वारा भ्रूण कुछ हृदयाकार (cordate) हो जाता है। बाद में बीजपत्र बड़े होकर मुड़ जाते हैं। इस प्रकार परिपक्व द्विबीजपत्री भ्रूण में दो बीजपत्र (cotyledons) होते हैं जो एक अक्ष (axis) से जुड़े रहते हैं। अक्ष का एक भाग जो बीजपत्रों के बीच होता है प्रांकुर (plumule) कहलाती है और दूसरा भाग मूलांकुर (radicle) कहलाता है। उपरोक्त प्रकार के द्विबीजपत्री भ्रूण का परिवर्धन सामान्य प्रकार का है। इसका उदाहरण क्रूसीफेरी कुल के सदस्य कैप्सेला बुर्सा पेस्टोरिस (Capsella bursd pastoris) है।

प्रश्न 6.
भ्रूणपोष क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (2014, 16)
या
आवृतबीजी पौधों में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के भ्रूणपोषों का वर्णन कीजिए। (2011)
या
‘भ्रूणपोष’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2010, 12)
उत्तर
भ्रूणपोष तथा उसके प्रकार
सभी पुष्पीय पौधों में भ्रूण (embryo) के पोषण के लिए एक विशेष ऊतक होता है, इसे भ्रूणपोष कहते हैं। जिम्नोस्पर्स में यह ऊतक युग्मकोभिदी या अगुणित (haploid = n) होता है किन्तु आवृतबीजी पौधों (angiospermic plants) में यह त्रिसंयोजन (triple fusion) के फलस्वरूप बनता है और अधिकतर पौधों में त्रिगुणित (triploid = 3n) होता है। इसके बीज में बने रहने तथा बीजांकुरण में सहायता करने पर बीज भ्रूणपोषी (endospermic) कहलाता है। अनेक द्विबीजपत्री पौधों के बीजों में इसका भोजन बीज के बनते समय बीजपत्रों द्वारा सोख लिया जाता है और यह बीज अभ्रूणपोषी (non- endospermic) कहलाता है।
भ्रूणकोष (embryo sac) में होने वाले त्रिसंयोजन (triple fusion) के फलस्वरूप त्रिगुणित केन्द्रक (3n = triploid nucleus) बनता है। इसी के परिवर्द्धन से एक पोषक संरचना, भ्रूणपोष (endosperm) का निर्माण होता है। यह बढ़ते हुए भ्रूण (embryo) को पोषण देता है। कभी-कभी यह ऊतक; जैसे – अंकुरण के समय भ्रूण को पोषण प्रदान करने का कार्य करता है। आवृतबीजी पौधों में परिवर्धन (development) के आधार पर भ्रूणपोष अग्रलिखित तीन प्रकार के होते हैं –

1. केन्द्रकीय भ्रूणपोष (Nuclear Endosperm)-इस प्रकार के भ्रूणपोष विकास में भ्रूणपोष केन्द्रक (endosperm nucleus) बार-बार विभाजन द्वारा स्वतन्त्र रूप से बहुत-से केन्द्रक
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बनाता है (भित्ति-निर्माण नहीं होता) जो बाद में परिधि पर विन्यसित हो जाते हैं। भ्रूणपोष के मध्य में एक केन्द्रीय रिक्तिका (central vacuole) बन जाती है। बाद में यह रिक्तिका समाप्त हो जाती है और बहुत-से केन्द्रक व कोशीद्रव्य इसमें भर जाते हैं। बाद में इनमें अनेक कोशाएँ बन जाती हैं। इस प्रकार का भ्रूणपोष
प्रायः पोलीपेटेली (polypetalae) वर्ग में पाया जाता है, जैसे-कैप्सेला | (Capsella)।

2. कोशिकीय भ्रूणपोष (Cellular Endosperm) – इस प्रकार के भ्रूणपोष निर्माण में भ्रूणपोष केन्द्रक के प्रत्येक विभाजन के पश्चात् कोशा-भित्ति का निर्माण होता है। इस प्रकार का भ्रूणपोष प्रायः गैमोपेटेली वर्ग में पाया जाता है, haustorium जैसे – विल्लारसिया (Villarsia)।
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3. हिलोबियल भ्रूणपोष (Helobial Endosperm) – इस प्रकार का भ्रूणपोष लगभग 19% आवृतबीजी पौधों में पाया जाता है, विशेष रूप से यह एकबीजपत्री पौधों में पाया जाता है। यह ऊपर वर्णन किये गये दोनों प्रकार के भ्रूणपोषों के बीच की अवस्था है। इसमें भ्रूणपोष केन्द्रक के प्रथम विभाजन के बाद कोशा-भित्ति का निर्माण होता है। बाद में इन दोनों भागों में केन्द्रक विभाजन होता रहता है और भित्ति-निर्माण नहीं होता, जैसे-ऐरीमुरस (Eremurus)।
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प्रश्न 7.
पीढ़ियों का एकान्तरण क्या है? एक आवृतबीजी पौधे के जीवन इतिहास का केवल | रेखांकित चित्रों की सहायता से वर्णन कीजिए। (2017)
उत्तर
आवृतबीज़ी पौधों के जीवन-इतिहास में एक अत्यन्त विकसित एवं द्विगुणित (diploid; 2n) अवस्था बीजाणु-उभिद् (sporophyte) तथा अल्प विकसित, अगुणित (haploid; n) अवस्था युग्मकोभिद् (gametophyte) होती है।
ये दोनों अवस्थाएँ जीवन-चक्र में एक-दूसरे के बाद आती रहती हैं, जिसे पीढ़ी एकान्तरण (alternation of generation) कहते हैं। किन्तु बीजाणुभिद् अवस्था स्वतन्त्र जबकि युग्मकोद्भिद् अवस्था बीजाणुभि पर निर्भर (dependent) होती है।

बीजाणुद्भिद् अवस्था प्रायः जड़, तना एवं पत्तियों में विभक्त होती है। युग्मकोद्भिद् अवस्था में परागकण नर युग्मकोभिद् की प्रथम कोशा है जिसके विकास से नर युग्मकों (male gametes) का निर्माण होता है। इसी प्रकार से बीजाण्ड के अन्दर दीर्घबीजाणु (megaspore) मादा युग्मकोभिद् की प्रथम कोशा है, जिससे भ्रूणकोष को निर्माण होता है। भ्रूणकोष में अण्ड कोशा (egg) बनती है। नरे। युग्मक (male gamete) एवं अण्ड (egg) कोशा के संयुग्मन (fusion) से युग्मनज (zygote; 2n) का निर्माण होता है। चूंकि युग्मनज बीजाण्ड के अन्दर बनता है, अत: बीजाण्ड जिसे निषेचन के पश्चात् बीज कहते हैं; के अंकुरण से बीजाणुभिद् पौधे का पुनः विकास होता है।
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UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 1 Reproduction in Organisms

UP Board Solutions for Class 12 Biology  Chapter 1 Reproduction in Organisms (जीवों में जनन) are part of UP Board Solutions for Class 12 Biology. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Biology  Chapter 1 Reproduction in Organisms (जीवों में जनन).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Biology
Chapter Chapter 1
Chapter Name Reproduction in Organisms
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 1 Reproduction in Organisms (जीवों में जनन)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जीवों के लिए जनन क्यों अनिवार्य है?
उत्तर
जनन जीवों का एक अति महत्त्वपूर्ण लक्षण है। यह एक अति आवश्यक जैविक प्रक्रिया है। जिसके द्वारा न सिर्फ जीवों की उत्तरजीविता में मदद मिलती है बल्कि इससे जीव-जाति की निरन्तरता भी बनी रहती है। जनन जीवों के अमरत्व में भी सहायक होता है। प्राकृतिक मृत्यु, वयता वे जीर्णता के कारण होने वाले जीव ह्रास की आपूर्ति, जनन द्वारा ही होती है। जनने से जीवों की संख्या बढ़ती है। जनन एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा लाभदायक विभिन्नताएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानान्तरित होती हैं। अत: जनन जैव विकास में भी सहायक होता है। इन समस्त कारणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जनन जीवों के लिए अनिवार्य है।

प्रश्न 2.
जनन की अच्छी विधि कौन-सी है और क्यों ?
उत्तर
प्राय: लैंगिक जनन (sexual reproduction) को जनन की श्रेष्ठ विधि माना गया है। लैंगिक जनन के दौरान गुणसूत्रों की अदला-बदली होती है जिससे युग्मकों (gametes) में नये लक्षण विकसित होते हैं तथा नये जीव का विकास होता है जो अपने जनकों से भिन्न होता है। अतः लैंगिक जनन जैव विकास में सहायक होता है। लैगिक जनन द्वारा जीवों के जीवित रहने के अवसर अधिक होते हैं, क्योंकि आनुवंशिक विभिन्नताओं के कारण जीव अधिक क्षमतावान होता है। लैंगिक जनन से जीवों की संख्या भी बढ़ती है। अत: लैंगिक जनन ही, जनन की अच्छी विधि है।

प्रश्न 3.
अलैगिक जनन द्वारा उत्पन्न हुई सन्तति को क्लोन क्यों कहा गया है ?
उत्तर
आकारिकीय व आनुवंशिक रूप से एक समान जीव क्लोन (clone) कहलाते हैं। अलैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न सन्तति आनुवंशिक व आकारिकीय रूप से अपने जनक के एकदम समान होती है, अत: इसे क्लोन कहते हैं।

प्रश्न 4.
लैगिक जनन के परिणामस्वरूप बनी सन्तति के जीवित रहने के अच्छे अवसर होते हैं। क्यों ? क्या यह कथन हर समय सही होता है ?
उत्तर
लैंगिक जनन के दौरान गुणसूत्रों का विनिमय होने से आनुवंशिक विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं। जो जनक से सन्तति में स्थानान्तरित होती हैं। युग्मकों की उत्पत्ति व निषेचन के कारण नये तथा बेहतर गुणों युक्त सन्तति का जन्म होता है। अत: लैंगिक जनन के परिणामस्वरूप उत्पन्न सन्तति के जीवित रहने के अच्छे अवसर होते हैं।

यह कथन सदैव सही नहीं होता है। जनकों के रोगग्रस्त होने पर वह रोग आने वाली पीढ़ियों में स्थानान्तरित हो जाता है।

प्रश्न 5.
अलैगिक जनन द्वारा बनी सन्तति लैगिक जनन द्वारा बनी सन्तति से किस प्रकार से भिन्न है?
उत्तर
अलैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न सन्तान आनुवंशिक व संरचनात्मक रूप से जनक के समान होती है अर्थात् अपने जनक का क्लोन (clone) होती है। इसके विपरीत लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न सन्तान आनुवंशिक रूप से जनक से भिन्न होती है।

प्रश्न 6.
अलैगिक तथा लैगिक जनन के मध्य विभेद स्थापित करो। कायिक जनन को प्रारूपिक अलैगिक जनन क्यों माना गया है ?
उत्तर
अलैंगिक तथा लैंगिक जनन के मध्य विभेद निम्नलिखित हैं
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कायिक जनन (vegetative reproduction), अलैंगिक जनन की ऐसी विधि है जिसमें पौधे के कायिक भाग से नये पौधे का निर्माण होता है। अतः इसमें एक ही जनक भाग लेता है तथा इसके द्वारा उत्पन्न सन्तति आनुवंशिक व आकारिकी में अपने जनक के समान होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कायिक जनन वास्तव में प्रारूपिक अलैंगिक जनन है।

प्रश्न 7.
कायिक प्रवर्धन से आप क्या समझते हैं ? कोई दो उपयुक्त उदाहरण दो।
उत्तर
कायिक प्रवर्धन जनन की ऐसी विधि है जिसमें पौधे के शरीर का कोई भी कायिक भाग प्रवर्धक का कार्य करता है तथा नये पौधे में विकसित हो जाता है। मातृ पौधे के कायिक अंग; जैसे-जड़, तना, पत्ती, कलिका आदि से नये पौधे का पुनर्जनन, कायिक प्रवर्धन कहलाता है। कायिक प्रवर्धन के दो उदाहरण निम्न हैं –

  1. अजूबा (Bryophyllum) के पौधे में पत्तियों के किनारों से पादपकाय उत्पन्न होते हैं जो मातृ पौधे से अलग होकर नये पौधे को जन्म देते हैं।
  2. आलू के कन्द में उपस्थित पर्वसन्धियाँ (nodes) कायिक प्रवर्धन में सहायक होती हैं। पर्वसन्धियों में कलिकाएँ स्थित होती हैं तथा प्रत्येक कलिको नये पौधे को जन्म देती है।

प्रश्न 8.
व्याख्या कीजिए –
(क) किशोर चरण
(ख) प्रजनक चरण
(ग) जीर्णता चरण या जीर्णावस्था।
उत्तर
(क) किशोर चरण (Juvenile phase) – सभी जीवधारी लैंगिक रूप से परिपक्व होने से पूर्व एक निश्चित अवस्था से होकर गुजरते हैं, इसके पश्चात् ही वे लैंगिक जनन कर सकते हैं। इस अवस्था को प्राणियों में किशोर चरण यो अवस्था तथा पौधों में कायिक अवस्था (vegetative phase) कहते हैं। इसकी अवधि विभिन्न जीवों में भिन्न-भिन्न होती है।

(ख) प्रजनक चरण (Reproductive phase) – किशोरावस्था अथवा कायिक प्रावस्था के समाप्त होने पर प्रजनक चरण अथवा जनन प्रावस्था प्रारम्भ होती है। पौधों में इस अवस्था को स्पष्ट पहचाना जा सकता है। क्योंकि पौधों में पुष्पन (flowering) प्रारम्भ हो जाता है। प्राणियों में भी अनेक शारीरिकी एवं आकारिकी परिवर्तन आ जाते हैं। इस चरण में जीव संतति उत्पन्न करने
योग्य हो जाता है। यह अवस्था विभिन्न जीवों में अलग-अलग होती है।

(ग) जीर्णता चरण या जीर्णावस्था (Senescent phase) – यह जीवन चक्र की अन्तिम अवस्था अथवा तीसरी अवस्था होती है। प्रजनन आयु की समाप्ति को जीर्णता चरण या जीर्णावस्था की प्रारम्भिक अवस्था माना जा सकता है। इस चरण में उपापचय क्रियाएँ मन्द होने लगती हैं, ऊतकों का क्षय होने लगता है तथा शरीर के अंग धीरे-धीरे कार्य करना बन्द कर देते हैं और अन्ततः जीव की मृत्यु हो जाती है। इसे वृद्धावस्था भी कहते हैं।

प्रश्न 9.
अपनी जटिलता के बावजूद बड़े जीवों ने लैगिक प्रजनन को पाया है, क्यों ?
उत्तर
लैंगिक प्रजनन जटिल तथा धीमी गति से होने के बावजूद भी अनेक रूप से उत्तम है। इस प्रकार के जनन के दौरान गुणसूत्रों का विनिमय होने से नये लक्षण विकसित होते हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानान्तरित होते रहते हैं। गुणसूत्रों के आदान-प्रदान से विभिन्नताएँ भी उत्पन्न होती हैं, जो जैव विकास में सहायक होती हैं। अपने इन्हीं गुणों के कारण बड़े जीवों में लैंगिक जनन पाया जाता है।

प्रश्न 10.
व्याख्या करके बताएँ कि अर्द्धसूत्री विभाजन तथा युग्मकजनन सदैव अन्तर-सम्बन्धित (अन्तर्बद्ध) होते हैं।
उत्तर
लैंगिक जनन करने वाले जीवधारियों में प्रजनन के समय अर्द्धसूत्री विभाजन (meiosis) तथा युग्मकजनन (gametogenesis) प्रक्रियाएँ होती हैं। सामान्यतया लैंगिक जनन करने वाले जीव द्विगुणित (diploid) होते हैं। युग्मक निर्माण प्रक्रिया को युग्मकजनन (gametogenesis) कहते हैं। शुक्राणुओं के निर्माण को शुक्रजनन तथा अण्डाणुओं के निर्माण को अण्डजनन कहते हैं। इनका निर्माण क्रमशः नर तथा मादा जनदों (gonads) में होता है। युग्मकों में गुणसूत्रों की संख्या आधी रह जाती है, अर्थात् युग्मक अगुणित (haploid) होते हैं। युग्मकजनन प्रक्रिया अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा होती है। अतः युग्मकजनन तथा अर्द्धसूत्री विभाजन क्रियाएँ अन्तरसम्बन्धित (अन्तर्बद्ध) होती हैं। निषेचन के फलस्वरूप नर तथा मादा अगुणित युग्मक संयुग्मन द्वारा द्विगुणित युग्माणु (diploid zygote) बनाता है। द्विगुणित युग्माणु से भ्रूणीय परिवर्धन द्वारा नए जीव का विकास होता है।

प्रश्न 11.
प्रत्येक पुष्पीय पादप के भाग को पहचानिए तथा लिखिए कि वह अगुणित (n) है या द्विगुणित (2n)

  1. अण्डाशय
  2. परागकोश
  3. अण्डा या डिम्ब
  4. पराग
  5. नर युग्मक
  6. युग्मनज

UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 1 Reproduction in Organisms img-2
उत्तर
पुष्पीय भाग –

  1. अण्डाशय (Ovary) – द्विगुणित (2n)
  2. परागकोश (Anther) – द्विगुणित (2n)
  3. अण्डा या डिम्ब (Ova) – अगुणित (n)
  4. परागकण (Pollen grain) – अगुणित (n)
  5. नर युग्मक (Male gamete) – अगणित (n)
  6. युग्मनज (Zygote) – द्विगुणित (2n)

[युग्मनज (zygote) शुक्राणु तथा अण्ड के मिलने से बनी द्विगुणित संरचना (2n) होती है।

प्रश्न 12.
बाह्य निषेचन की व्याख्या कीजिए। इसके नुकसान बताइए।
उत्तर
बाह्य निषेचन (External Fertilization) – शुक्राणु (नरे युग्मक) तथा अण्ड (मादा युग्मक) के संयुग्मन या संलयन को निषेचन कहते हैं। इसके फलस्वरूप द्विगुणित युग्माणु (diploid zygote) का निर्माण होता है। अधिकांश शैवालों, मछलियों में और उभयचर प्राणियों में शुक्राणु (नर युग्मक) तथा अण्ड (मादा युग्मक) का संलयन शरीर से बाहर जल में होता है, इसे बाह्य निषेचन (external fertilization) कहते हैं।

बाह्य निषेचन से हानियाँ (Disadvantages of External Fertilization) –

  1. जीवधारियों को अत्यधिक संख्या में युग्मकों का निर्माण करना होता है जिससे निषेचन के अवसर बढ़ जाएँ अर्थात् इनमें युग्मक संलयन के अवसर कम होते हैं।
  2. संतति अत्यधिक संख्या में उत्पन्न होती हैं।
  3. संतति शिकारियों द्वारा शिकार होने की स्थिति से गुजरती है, इसके फलस्वरूप इनकी उत्तरजीविता जोखिमपूर्ण होती है अर्थात् सन्तानें कम संख्या में जीवित रह पाती हैं।

प्रश्न 13.
जूस्पोर (अलैगिक चल बीजाणु) तथा युग्मनज के बीच विभेद करें।
उत्तर
जूस्पोर (अलैंगिक चल बीजाणु) – यह नग्न, चल, कशाभिका युक्त संरचना है जो अलैंगिक जनन की इकाई है। इनका निर्माण जनक कोशिका के जीवद्रव्य से सूत्री विभाजन द्वारा होता है। इनके अग्र भाग पर स्थित कशाभिका जल में तैरने हेतु सहायक होती हैं। ये चलबीजाणु धानी में बनते हैं। उदाहरण – यूलोथ्रिक्स, क्लेमाइडोमोनास आदि।

युग्मनज (Zygote) – लैंगिक जनन के दौरान नर तथा मादा युग्मकों (gametes) के निषेचन से बनी रचना, युग्मनज कहलाती है। यह द्विगुणित (diploid = 2n) होता है तथा विकसित होकर भ्रूण अथवा लार्वा में परिवर्तित हो जाता है। लैंगिक जनन करने वाले जीवों का विकास युग्मनज से होता है। बाह्य निषेचन करने वाले जीवों में युग्मनज का निर्माण बाह्य माध्यम (जल) में होता है; जैसे – मेढ़क जबकि आन्तरिक निषेचन करने वाले जीवों में यह मादा के शरीर में विकसित होता है; जैसे – मनुष्य आदि।

प्रश्न 14.
युग्मकजनन एवं भ्रूणोद्भव के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
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प्रश्न 15.
एक पुष्प में निषेचन-पश्च परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
पुष्प में निषेचन-पश्च परिवर्तन (Post fertilization development in a flower)-पुष्पीय पौधों में दोहरा निषेचन तथा त्रिक संलयन (double fertilization and triple fusion) होता है। इसके फलस्वरूप भ्रूणकोष (embryo sac) में द्विगुणित युग्मनज (zygote) तथा त्रिगुणित प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक (primary endospermic nucleus) बनता है। इनसे क्रमशः भ्रूण (embryo) तथा भूणपोष (endosperm) बनता है। भ्रूणपोष विकासशील भ्रूण को पोषण प्रदान करता है। इसके साथ-साथ बीजाण्ड में निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं जिसके फलस्वरूप बीजाण्ड से बीज तथा अण्डाशय से फलावरण (pericap) का निर्माण होता है।

  1. बीजाण्डवृन्त – बीजवृन्त बनाता है।
  2. अध्यावरण – बीजावरण बनाता है।
  3. अण्डद्वार – बीजद्वार बनाता है।
  4. बीजाण्डकाय (nucellus) – प्रायः नष्ट हो जाता है, कभी-कभी भोजन संचित होने के कारण पेरिस्पर्म (perisperm) बनाता है।
  5. भ्रूणकोष (embryosac)
    • अण्ड कोशिका (egg cell) – भ्रूण (embryo) बनाती है।
    • सहायक कोशिकाएँ (synergids) – नष्ट हो जाती हैं।
    • प्रतिमुख कोशिकाएँ (antipodal cells) – नष्ट हो जाती हैं।
    • ध्रुवीय केन्द्रक (polar nuclei) – भ्रूणपोष बनाता है।
  6. अण्डाशय की भित्ति – फलभित्ति बनाती है। बीज में भ्रूण सुप्तावस्था में रहता है। बीज चारों ओर से बाह्यकवच तथा अन्त:कवच (testa & tegmen) से बने अध्यावरण से घिरा होता है। भ्रूण बीजपत्रों के मध्य स्थित होता है। फलभित्ति की संरचना के आधार पर फल सरस अथवा शुष्क होते हैं।

प्रश्न 16.
एक द्विलिंगी पुष्प क्या है? अपने आस-पास से पाँच द्विलिंगी पुष्पों को एकत्र कीजिए और अपने शिक्षक की सहायता से इनके सामान्य (स्थानीय) एवं वैज्ञानिक नाम पता कीजिए।
उत्तर
द्विलिंगी पुष्प (Bisexual flower) – जब पुष्प में पुमंग (androecium) तथा जायांग (gynoecium) दोनों होते हैं तो पुष्प द्विलिंगी (bisexual) कहलाता है। सामान्यतया समीपवर्ती क्षेत्रों में पाए जाने वाले द्विलिंगी पुष्प जैसे –

  1. सरसों – बेसिका कैम्पेस्ट्रिस (Brassica campestris)
  2. मूली – रेफेनस सैटाइवस (Raphanus sativus)
  3. मटर – पाइसम सटाइवम (Pisum sativum)
  4. सेम – डॉलीकोस लबलब (Dolichos tablab)
  5. अमलतास – केसिया फिस्टुला (Cassia fistula)
  6. गुड़हल – हिबिस्कस रोजा सिनेन्सिस (Hibiscus rosa sinensis)

प्रश्न 17.
किसी भी कुकुरबिट पादप के कुछ पुष्पों की जाँच कीजिए और पुंकेसरी व स्त्रीकेसरी पुष्पों को पहचानने की कोशिश कीजिए। क्या आप अन्य एकलिंगी पौधों के नाम जानते हैं?
उत्तर
कुकुरबिट पादप पुष्प एकलिंगी होते हैं। नर पुष्प में जायांग अनुपस्थित होता है। पुष्प में पाँच पुंकेसर होते हैं। ये प्राय: 2 + 2 + 1 के रूप में संयुक्त रहते हैं। इनके परागकोश व्यावृत (twisted) होते हैं।

मादा पुष्प में पुमंग (androecium) अनुपस्थित होता है। जायांग त्रिअण्डपी, युक्ताण्डपी, एककोष्ठीय तथा अधोवर्ती अण्डाशय से बना होता है। इसमें भित्तिलग्न बीजाण्डन्यास होता है। अण्डाशय से विकसित सरल सरस फल पेपो (pepo) कहलाता है।
अन्य एकलिंगी पौधे –

  1. मक्का – जिआ मेज (Zeq muys)
  2. खजूर – फीनिक्स सिल्वेस्ट्रिस (Phoenix sylvestris)
  3. पपीता – कैरिका पपाया (Carica papaya)
  4. नारियल – कोकोस न्यूसीफेरा (Cocos nucifera)

प्रश्न 18.
अण्डप्रजक प्राणियों की सन्तानों का उत्तरजीवन (सरवाइवल) सजीवप्रजक प्राणियों की तुलना में अधिक जोखिमयुक्त क्यों होता है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर
अण्डप्रजक (oviparous) प्राणियों में निषेचित अण्डे (युग्मनज) का विकास मादा प्राणी के शरीर से बाहर होता है। मादा कैल्सियमयुक्त कवच से ढके अण्डों को सुरक्षित स्थान पर निक्षेपित करती है। अण्डों में भ्रूणीय विकास के फलस्वरूप शिशु का विकास होता है। शिशु निश्चित अवधि के पश्चात अण्डे के स्फुटन के फलस्वरूप मुक्त हो जाता है। अण्डप्रजक में बाह्य परिवर्द्धन (external development) होता है। यह पर्यावरणीय प्रतिकूल परिस्थितियों तथा शिकारी प्राणियों से प्रभावित होता है। इसके फलस्वरूप इन प्राणियों की उत्तरजीविता अधिक जोखिमयुक्त होती है। अण्डप्रजक प्राणियों को विकास के लिए कम समय मिलता है। अत: इन जीवों में आन्तरिक परिपक्वता सजीवप्रजक की तुलना में कम होती है। जैसे – मत्स्य, उभयचर, सरीसृप तथा पक्षी वर्ग के प्राणी अण्डप्रजक होते हैं।

सजीवप्रजक (जरायुज – viviparous) में निषेचित अण्डे (युग्मनज) का परिवर्द्धन मादा प्राणी के शरीर में होता है। इसे आन्तरिक परिवर्द्धन (internal development) कहते हैं। शिशु का विकास पूरा होने के पश्चात् प्रसव द्वारा इनका जन्म होता है, शिशु का विकास आन्तरिक होने के कारण और परिवर्द्धन में अधिक समय लगने के कारण इनकी उत्तरजीविता अपेक्षाकृत कम जोखिमपूर्ण होती है। आन्तरिक परिवर्द्धन होने के कारण ये बाह्य वातावरण तथा बाह्य परभक्षी जीवों से सुरक्षित रहते हैं। यही कारण है कि सजीवप्रजक की उत्तरजीविता अण्डप्रजक की अपेक्षा अधिक होती है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
पौधों के निम्नलिखित अंगों में कौन-सा कायिक प्रजनन के लिए सर्वाधिक अनुकूल है?
(क) जड़
(ख) तना।
(ग) पत्ती
(घ) पत्र-प्रकलिका
उत्तर
(ख) तना

प्रश्न 2.
शकरकन्द एवं डहेलिया में कायिक जनन होता है
(क) पत्तियों द्वारा
(ख) पुष्पों द्वारा
(ग) जड़ों द्वारा
(घ) तनों द्वारा
उत्तर
(ख) पुष्पों द्वारा

प्रश्न 3.
निम्न में कृत्रिम कायिक प्रवर्धन सम्भव है
(क) आलू में
(ख) अजूबा में
(ग) आम में
(घ) प्याज में
उत्तर
(ग) आम में

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जनन किसे कहते हैं?
उत्तर
वह क्रिया जिसमें जीव अपने समान जीव को उत्पन्न करता है, जनन कहलाती है।

प्रश्न 2.
जनन कितने प्रकार का होता है?
उत्तर

  1. लैंगिक जनन तथा
  2. अलैंगिक जनन।

प्रश्न 3.
मुकुलन पर टिप्पणी लिखिए। (2017)
उत्तर
मुकुलन (Budding) – इस प्रकार का विभाजन यीस्ट (Yeast) एवं कुछ जीवाणुओं में पाया जाता है। इस प्रक्रिया में कोशिका में बाह्य वृद्धि होकर एक या एक-से-अधिक छोटी रचनाएँ बन जाती हैं तथा केन्द्रक सूत्री-विभाजन (mitosis) द्वारा (Lindgreen, 1949 के अनुसार) विभाजित होकर दो भागों में बँट जाता है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार केन्द्रक का यह विभाजन असूत्री विभाजन या अमाइटोसिस (amitosis) प्रकार का होता है। प्रत्येक मुकुल (bud) मातृ कोशिका से अलग होकर यीस्ट की नई कोशिका में परिवर्तित हो जाती है। इस क्रिया को मुकुलन (budding) कहते हैं। जब ये उर्द्ध रचनाएँ (outgrowths) अपनी मातृ-कोशिका से अलग नहीं होती तो श्रृंखला बनाती हैं, जिसे स्युडोमाइसीलियम कहते हैं। परन्तु अन्त में ये अलग हो जाती हैं।

प्रश्न 4.
कृत्रिम कायिक प्रवर्धन की दो विधियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. कलम लगाना
  2. दाब कलम

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पौधों में जनन की कितनी विधियाँ पायी जाती हैं? प्रत्येक का संक्षेप में वर्णन कीजिए। (2017)
उत्तर
पौधों में जनन की विधियाँ
पौधों में मुख्य रूप से जनन की निम्नलिखित दो विधियाँ पायी जाती हैं –
1. अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction) – यह जनन का एक सामान्य प्रकार है जिसमें केवल एक ही जीव या जनक (Parents) भाग लेता है। इस विधि में वयस्क बनने के बाद जीव अपनी हूबहू प्रतिलिपियों (identical copies) के रूप में सन्ततियाँ उत्पन्न करता है। अतः जनक तथा सन्ततियों के बीच आनुवंशिक पदार्थ एवं लक्षणों में कोई अन्तर नहीं होता है। इसीलिए अलैंगिक जनन के फलस्वरूप उत्पन्न सन्ततियों को क्लोन (clone) कहते हैं। ऐसा जनन अपेक्षाकृत तीव्र दर से होता है। इसके लिए शरीर में कोई विशिष्ट ऊतक या अंग नहीं होते।

2. लैंगिक जनन (Sexual Reproduction) – लैंगिक जनन की प्रक्रिया जटिल होती है। इसके लिए शरीर में विशेष प्रकार के जननांग (reproductive organs) होते हैं। शरीर की सामान्य दैहिक कोशिकाओं (somatic cells) से भिन्न प्रकार की दो अगुणित (haploid = n) कोशिकाओं का संयुग्मन लैंगिक जनन की आधारभूत प्रक्रिया होती है। इन अगुणित कोशिकाओं को लैंगिक कोशिकाएँ (sex cells) या युग्मक (gamets) कहते हैं। शरीर की दैहिक कोशिकाएँ द्विगुणित (diploid) होती हैं। लैंगिक कोशिकाएँ प्रमुख जननांगों अर्थात् जनदों (gonads) की जनन कोशिकाओं (germ cells) में विशेष प्रकार के अर्धसूत्री या मीयोटिक विभाजन (reductional or meiotic division) से बनती हैं। इनके बनने की इस प्रक्रिया को युग्मकजनन (gametogenesis) कहते हैं।

संयुग्मन में भाग लेने वाली दो लैंगिक कोशिकाएँ भिन्न प्रकार की होती हैं – एक नर युग्मक कोशिका तथा दूसरी मादा युग्मक कोशिका इनके संयुग्मन से बनी द्विगुणित कोशिका को युग्मनज अर्थात् जाइगोट (zygote) कहते हैं। इसी से नई सन्तान का प्रारम्भ होता है। जनन कोशिकाओं के अर्धसूत्री विभाजन द्वारा बनी युग्मक कोशिकाओं में जनन कोशिकाओं के जोड़ीदार अर्थात् समजात गुणसूत्रों (homologous chromosomes) का बँटवारा अनियमित एवं संयोगिक (random) होता है। फिर युग्मनजों (zygotes) के बनने में नर व मादा युग्मक का संयुग्मन भी संयोगिक होता है। इसके कारण युग्मनजों के जीन प्रारूप (genotypes) जनन कोशिकाओं के जीन प्रारूपों से कुछ भिन्न होते हैं। इसी कारण लैंगिक जनन के फलस्वरूप बनी सन्तति माता-पिता से थोड़ी भिन्न दिखाई देती है।

प्रश्न 2.
टिप्पणी लिखिए-ब्रायोफाइट्स में वर्षी प्रजनन। (2015)
उत्तर
ब्रायोफाइट्स के युग्मकोभिद् में अनेक प्रकार का वर्षी प्रजनन होता है। उदाहरणार्थ-विखण्डन, जेमा, कन्दे, पुंतन्तु, पत्र-प्रकलिका द्वारा। विखण्डन विधि में बहुकोशिकीय जनक पौधे का शरीर दो या दो से अधिक टुकड़ों में विखण्डित हो जाता है तथा प्रत्येक टुकड़ा पुनरुद्भवन द्वारा एक नई वयस्क सन्तति में विकसित हो जाता है। कभी-कभी पौधे की पत्ती व तने के अग्र भाग पर बहुकोशिकीय एवं हरे रंग की रचनाएँ निकलती हैं, जिन्हें जेम्यूल कहते हैं। ये अलग होकर अंकुरण द्वारा नये पौधे को जन्म देती हैं। पौधों के कन्द तथा पुंतन्तु भी नये पौधों को जन्म देते हैं। ब्रायोफाइट्स में पत्र-प्रकलिकाओं द्वारा भी वर्दी प्रजनन होता है। वे कलिकाएँ जिनमें खाद्य-पदार्थ संचित रहता है, पत्र-प्रकलिकाएँ कहलाती हैं। ये कलिकाएँ मातृ पौधे से टूटकर भूमि पर गिर जाती हैं। तथा अनुकूल मौसम में इनमें अपस्थानिक जड़े निकल आती हैं जो भूमि से जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करती हैं तथा प्रकलिकाएँ वृद्धि करके नवीन पौधे बनाती हैं।

प्रश्न 3.
सूक्ष्म प्रवर्धन (माइक्रो प्रोपेगेशन) पर एक टिप्पणी लिखिए। (2015)
या
ऊतक संवर्धन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2018)
उत्तर
यह कायिक प्रवर्धन की सबसे आधुनिक विधि है। इस विधि में मातृ पौधे के थोड़े से ऊतक से हजारों की संख्या में पादपों (plants) को प्राप्त किया जा सकता है। यह विधि ऊतक तथा कोशिका संवर्धन तकनीकी (tissue and cell culture technique) पर आधारित है।

इस विधि में जिस पौधे से प्रवर्धन करना होता है, उसके किसी भाग से ऊतक (tissue) का छोटा भाग अलग कर लिया जाता है। अब इस ऊतक की अजर्म परिस्थितियों (aseptic conditions) में किसी उचित संवर्धन माध्यम (culture medium) में वृद्धि कराते हैं। यह ऊतक पोषक पदार्थों का अवशोषण करके वृद्धि करता है जिससे कोशिकाओं के गुच्छे बन जाते हैं जिन्हें कैलस (callus) कहा जाता है। इस कैलस को लम्बे समय तक गुणन के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर कैलस का एक छोटा टुकड़ा दूसरे ऐसे माध्यम पर स्थानान्तरित कर दिया जाता है जहाँ यह वृद्धि करके नन्हे पौधे के रूप में विकसित होता है। इस पादप को निकालकर मृदा में लगा दिया जाता है। इस विधि में एक बार ऊतक संवर्धन करके लम्बे समय तक पौधे प्राप्त किए जाते हैं और ये अधिक संख्या में प्राप्त होते हैं। यह विधि आर्किड्स (Orchids), कार्नेशन्स (Carnations), गुलदाऊदी (Crysanthemum) एवं सतावर (Asparagus) में अधिक सफल है। इस विधि से मशरूमों (Mushrooms) का भी संवर्धन किया जाता है।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कायिक जनन किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार का होता है? प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन का विस्तृत वर्णन कीजिए। (2014, 15, 16, 17)
या
कायिक प्रवर्धन किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार का होता है? (2014, 16)
या
प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन पर टिप्पणी लिखिए। (2015)
या
पौधों में कायिक जनन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2018)
उत्तर
पौधों में कायिक जनन
कायिक जनन प्रजनन की अथवा नए पौधे के पुनर्निर्माण (regeneration) की क्रिया है। इस क्रिया में नया पौधा मातृ पौधे के किसी भी कायिक भाग से बनता है। इसके सभी लक्षण व गुण मातृ पौधे के समान ही होते हैं। कायिक जनन को कायिक प्रवर्धन (vegetative propagation) के नाम से भी जाना जाता है।

मातृ पौधे के कायिक अंगों द्वारा नये पादपों का बनना कायिक जनन या कायिक प्रवर्धन कहलाता है।
यह क्रिया निम्न पादपों (lower plants) में सामान्य रूप से देखने को मिलती है जबकि उच्च श्रेणी के पौधों (higher plants) में यह केवल निम्न दो प्रकार से होती है –

  1. प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन (Natural vegetative propagation)
  2. कृत्रिम कायिक प्रवर्धन (Artificial vegetative propagation)

प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन
यह क्रिया प्रकृति में मिलती है। इस क्रिया के अन्तर्गत पादप का कोई अंग अथवा रूपान्तरित भाग मातृ पौधे से अलग होकर नया पौधा बनाता है। यह क्रिया अनुकूल परिस्थितियों में होती है। पौधे का कायिक भाग; जैसे-जड़, तना व पत्ती इस क्रिया में भाग लेते हैं। ये भाग इस प्रकार से रूपान्तरित होते हैं कि वे अंकुरित होकर नया पौधा बना सकें। विभिन्न प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन की विधियाँ अग्रवत् हैं

(A) भूमिगत तना
तने का मुख्य भाग अथवा कुछ भाग भूमिगत वृद्धि करता है तथा एक प्रकार से भोजन संग्रह करने वाले अंग के रूप में रूपान्तरित हो जाता है। परन्तु इस पर कक्षस्थ कलिकाएँ मिलती हैं जिनसे नया पौधा विकसित होता है अथवा शाखाएँ निकलती हैं जो मृदा से बाहर आकर नया पौधा बना लेती हैं। उदाहरण के लिए –

(i) कन्द (Tuber) – वृद्धि असमान (diffuse) होती है; जैसे – आलू (potato)। इस पर आँख (eye) मिलती है, जिसमें कक्षस्थ कलिका (axillary bud) शल्क पत्रों से ढकी रहती है। यह कक्षस्थ कलिका अनुकूल समय में अंकुरित होकर नया पौधा बना लेती है। निश्चित पर्व सन्धियाँ नहीं मिलती हैं।
UP Board Solutions for Class 12 Biology Chapter 1 Reproduction in Organisms img-4

(ii) प्रकन्द (Rhizome) – यह भूमिगत तना मृदा के भीतर समानान्तर अथवा क्षैतिज (horizontal) वृद्धि करता है। इस पर पर्व (internode) व पर्वसन्धियाँ (nodes) मिलती हैं। पर्व संघनित (condensed) होते हैं। पर्वसन्धियाँ शल्कपत्रों से ढकी रहती हैं जिनमें कक्षस्थ कलिका मिलती है। इन कक्षस्थ कलिकाओं से नए पौधे निकलते हैं; जैसे—अदरक (ginger), हल्दी (Curcuma) आदि।

(iii) घनकन्द (Corm) – यह भूमिगत तना मृदा में ऊर्ध्व वृद्धि करता है। इसमें पर्वसन्धियों (node) पर शल्कपत्रों से कलिकाएँ ढकी रहती हैं जिनसे नया पोधा बनता है; जैसे – अरबी (Colocasia), केसर (Crocus), जिमीकन्द (Amorphophalus) आदि।

(iv) शल्ककन्द (Bulb) – यह प्ररोह का वह रूपान्तरण है जहाँ तना छोटा होता है तथा इसे समानीत तने के चारों ओर रसीले गूदेदार शल्क पत्र मिलते हैं। शल्क पत्रों के कक्ष में कक्षस्थ कलिकाएँ होती हैं जो नये पौधे को जन्म देती हैं; जैसे – प्याज (Allium cepa), ट्यूलिप (Tulip), रजनीगंधा (Narcissus) आदि।

(B) अर्धवायवीय तना
यह तना भूमि के समानान्तर क्षैतिज वृद्धि करता है। प्रत्येक पर्वसन्धि (node) से जड़े तथा प्ररोह (शाखा) निकलते हैं। कभी-कभी पर्वसन्धि का कुछ भाग मृदा में अथवा जल में मिलता है। उदाहरण के लिए –

(i) ऊपरी भूस्तारी (Runner) – यह तना विसर्गी होता है तथा मृदा के बाहर की ओर क्षैतिज रूप से मिलता है। प्रत्येक पर्वसन्धि (node) से जड़े फूटती हैं तथा प्ररोह (शाखा) निकलता है जो विपरीत दिशा में वायु में वृद्धि करता है। पर्वसन्धि से निकलती प्रत्येक शाखा एक नया पौधा बना लेती है; जैसे—दूब घास (Cyanodon), खट्टी बूटी (Oxalis), सेन्टेला (Centella) आदि।

(ii) भूस्तारी (Stolon) – इनमें पर्वसन्धियों से जड़े एवं वायवीय भाग निकलते हैं। भूस्तारी के टूटने पर प्रत्येक वायवीय शाखा स्वतन्त्र पौधा बन जाती है; उदाहरण–अरवी, केला आदि।
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(iii) भूस्तारिका (Offset) – जलोभिद होने के कारण इनकी पर्वसन्धियाँ जल निमग्न होती हैं। प्रत्येक पर्वसन्धि से पत्तियों का एक समूह (tuft) निकलता है, जिसमें नीचे जड़ों का गुच्छा होता है जो मातृ पादप से अलग होकर नया पादप बनाता है; जैसे–समुद्र सोख (Water hyacinth), पिस्टिया (Pistia) आदि।

(iv) अन्त:भूस्तारी (Sucker) – मुख्य तना (पर्व) मृदा के भीतर क्षैतिज रूप (horizontal) में बढ़ता है। शाखाएँ प्रत्येक पर्वसन्धि से मृदा के बाहर निकल आती हैं; जैसे-पोदीना (mint)

(C) मूल
कुछ पौधों के मूल (जड़) कायिक प्रवर्धन करते हैं; जैसे – शकरकन्द (Ipomoea batatas), सतावर, डेहलिया (Dahelia), याम (Dioscored) आदि में अपस्थानिक कलिकाएँ (adventitious buds) निकलती हैं जो नया पौधा बना लेती हैं। कुछ काष्ठीय पौधों की जड़ों; जैसे-मुराया (Muraya), एल्बीजिया (Albuzzia), शीशम (Dalbergia) आदि से भी प्ररोह (shoot) निकलते हैं। जिनकी वृद्धि नए पौधे के रूप में होती है।
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(D) पत्ती
पत्तियों द्वारा कायिक प्रवर्धन सामान्यतः कम ही मिलता है। कुछ पौधों; जैसे–ब्रायोफिल्लम (Bryophyllum) तथा केलेन्चो (Kalanchoe) में पत्ती के किनारों (leaf margins) पर पत्र कलिकाएँ बनती हैं जिनसे छोटे-छोटे पौधे विकसित होते हैं। बिगोनिया (Begonia) अथवा एलिफेन्ट इअर प्लान्ट में पत्र कलिकाएँ पर्णवृन्त तथा शिराओं आदि पर व पूर्ण सतह पर निकलती हैं।
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(E) बुलबिल
ये प्रकलिकाएँ कायिक प्रवर्धन करने वाले जनन अंग हैं। ग्लोबा बल्बीफेरा (Globba bulbifera) में पुष्पक्रम के निचले भाग के कुछ पुष्प बुलबिल अथवा प्रकलिकाएँ बनाते हैं जो रूपान्तरित बहुकोशिकीय संरचनाएँ हैं। प्याज (Allium cepg), अमेरिकन एलोइ (Agave) आदि में भी प्रकलिकाएँ मिलती हैं जो बहुत-से पुष्पों के परिवर्तन से बनती हैं। प्रकलिकाएँ मातृ पौधे से अलग होकर नए पौधे के रूप में विकसित होती हैं।

डायोस्कोरिया बल्बीफेरा (Dioscored butbiferg) की जंगली प्रजाति तथा लिलियम बल्बीफेरम (Lilium bulbiferum) आदि में प्रकलिका (bulbil) पत्ती के अक्ष से निकलती है। खट्टी बूटी (Oxalis) में प्रकलिकाएँ कन्दिल मूल (tuberous root) के फूले हुए भाग से निकलती हैं। ये सभी प्रकलिकाएँ मातृ पादप से अलग होकर नए पादप में विकसित होती हैं।
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields (वैद्युत आवेश तथा क्षेत्र) are part of UP Board Solutions for Class 12 Physics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields (वैद्युत आवेश तथा क्षेत्र).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Physics
Chapter Chapter 1
Chapter Name Electric Charges and Fields (वैद्युत आवेश तथा क्षेत्र)
Number of Questions Solved 103
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields (वैद्युत आवेश तथा क्षेत्र)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वायु में एक-दूसरे से 30 cm दूरी पर रखे दो छोटे आवेशित गोलों पर क्रमशः
2 x 10-7 C तथा 3 x 10-7 C आवेश हैं। उनके बीच कितना बल है ?
हल-
दिया है, q1 = 2 x 10-7 C, q2 = 3 x 10-7 C तथा
r = 30 सेमी = 0.3 मीटर, F = ?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q1

प्रश्न 2.
0.4 μC आवेश के किसी छोटे गोले पर किसी अन्य छोटे आवेशित गोले के कारण वायु में 0.2 N बल लगता है। यदि दूसरे गोले पर 0.8 μC आवेश हो तो
(a) दोनों गोलों के बीच कितनी दूरी है?
(b) दूसरे गोले पर पहले गोले के कारण कितना बल लगता है?
हल-
दिया है, q1 = 0.4 μC = 0.4 x 10-6 C
q2 = 0.8 μC = 0.8 x 10-6 C
तथा q2 के कारण q1 पर बल F = 0.2 N
(a) r = ?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q2
(b) q2 पर -q1 के कारण बल = ?
कूलॉम का बल न्यूटनीय बल है अर्थात् एक आवेश पर दूसरे आवेश के कारण बल, दूसरे आवेश पर पहले आवेश के कारण बले के बराबर तथा विपरीत होता है।
अतः q2 पर q1 के कारण बल भी 0.2 N ही होगा, तथा इसकी दिशा q1 की ओर होगी।

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प्रश्न 3.
जाँच द्वारा सुनिश्चित कीजिए कि [latex s=2]\frac { k{ e }^{ 2 } }{ G{ m }_{ e }{ m }_{ p } }[/latex] विमाहीन है। भौतिक नियतांकों की सारणी देखकर इस अनुपात का मान ज्ञात कीजिए। यह अनुपात क्या बताता है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q3
यह निश्चित दूरी पर रखे इलेक्ट्रॉन व प्रोटॉन के बीच वैद्युत बल तथा गुरुत्वीय बल का अनुपात है। यह बताता है कि गुरुत्वीय बल की तुलना में वैद्युत बल अत्यन्त प्रबल है।

प्रश्न 4.
(a) “किसी वस्तु का वैद्युत आवेश क्वाण्टीकृत है। इस प्रकथन से क्या तात्पर्य है?
(b) स्थूल अथवा बड़े पैमाने पर विद्युत आवेशों से व्यवहार करते समय हम विद्युत आवेश के क्वाण्टमीकरण की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं?
उत्तर-
(a) किसी वस्तु का आवेश क्वाण्टीकृत है, इस कथन का तात्पर्य यह है कि हम किसी वस्तु को जितना चाहें उतना आवेश नहीं दे सकते अपितु वस्तु को आवेश, आवेश की न्यूनतम इकाई (e, मूल आवेश) के पूर्ण गुणजों में ही दिया जा सकता है।
(b) स्थूल अथवा बड़े पैमाने पर आवेशों से (UPBoardSolutions.com) व्यवहार करते समय आवेश के क्वाण्टमीकरण का कोई महत्त्व नहीं होता और इसकी उपेक्षा की जा सकती है। इसका कारण यह है कि बड़े पैमाने पर व्यवहार में आने वाले आवेश मूल आवेश की तुलना में बहुत बड़े होते हैं। उदाहरण के लिए 1 μC आवेश में लगभग 1013 मूल आवेश सम्मिलित हैं। ऐसी अवस्था में आवेश को सतत मानकर व्यवहार किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
जब काँच की छड़ को रेशम के टुकड़े से रगड़ते हैं तो दोनों पर आवेश आ जाता है। इसी प्रकार की परिघटना का वस्तुओं के अन्य युग्मों में भी प्रेक्षण किया जाता है। स्पष्ट कीजिए कि यह प्रेक्षण आवेश संरक्षण नियम से किस प्रकार सामंजस्य रखता है?
उत्तर-
घर्षण द्वारा आवेशन की घटनाएँ आवेश संरक्षण नियम के साथ पूर्ण सामंजस्य रखती हैं। जब इस प्रकार की किसी घटना में दो उदासीन वस्तुओं को रगड़ा जाता है तो दोनों वस्तुएँ आवेशित हो जाती हैं। घर्षण से पूर्व दोनों वस्तुएँ उदासीन होती हैं अर्थात् उनका कुल आवेश शून्य होता है। (UPBoardSolutions.com) इस प्रकार के सभी प्रेक्षणों में सदैव यह पाया गया है कि एक वस्तु पर जितना धनावेश आता है, दूसरी वस्तु पर उतना ही ऋणावेश आता है। इस प्रकार घर्षण द्वारा आवेशन के बाद भी दोनों वस्तुओं का नेट आवेश शून्य ही बना रहता है।

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प्रश्न 6.
चार बिन्दु आवेश qA = 2 μC, qB = -5 μC, qC = 2 μC तथा qD = -5 μC, 10 cm भुजा के किसी वर्ग ABCD के शीर्षों पर अवस्थित हैं। वर्ग के केन्द्र पर रखे 1 μC आवेश पर लगने वाला बल कितना है ?
हल-
किसी आवेश पर कार्य करने वाले अन्य आवेशों के कारण कूलॉम बलों को सदिश विधि द्वारा जोड़ा जाता है। अत: वर्ग के केन्द्र पर रखे आवेश q0 = 1 μC पर बल चारों आवेशों qA, qB, qC व qD के कारण कूलॉम बलों के सदिश योग के बराबर होगा।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q6
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q6.1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q6.2

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प्रश्न 7.
(a) स्थिर विद्युत-क्षेत्र रेखा एक सतत वक्र होती है अर्थात कोई क्षेत्र रेखा एकाएक नहीं टूट सकती क्यों?
(b) स्पष्ट कीजिए कि दो क्षेत्र रेखाएँ कभी-भी एक-दूसरे का प्रतिच्छेदन क्यों नहीं करतीं?
उत्तर-
(a) विद्युत-क्षेत्र रेखा वह वक्र है जिसके प्रत्येक बिन्दु पर खींची गई स्पर्श रेखा उस बिन्दु पर विद्युत-क्षेत्र की दिशा को प्रदर्शित करती है। ये क्षेत्र रेखाएँ सतत वक्र होती हैं अर्थात् किसी बिन्दु पर एकाएक नहीं टूट सकतीं, अन्यथा उस बिन्दु परे विद्युत-क्षेत्र की कोई दिशा ही नहीं होगी, जो असम्भव है।
(b) दो विद्युत-क्षेत्र रेखाएँ एक-दूसरे को प्रतिच्छेदित नहीं कर सकतीं; क्योंकि इस स्थिति में कटान बिन्दु पर दो स्पर्श रेखाएँ खींची जाएँगी जो उस बिन्दु पर विद्युत-क्षेत्र की दो दिशाएँ प्रदर्शित करेंगी जो असम्भव है।

प्रश्न 8.
दो बिन्दु आवेश qA = 3 μC तथा qB = -3 μC निर्वात में एक-दूसरे से 20 cm दूरी पर स्थित हैं।
(a) दोनों आवेशों को मिलाने वाली रेखा AB के मध्य बिन्दु O पर विद्युत-क्षेत्र कितना है?
(b) यदि 1.5 x 10-9 C परिमाण का कोई ऋणात्मक परीक्षण आवेश इसे बिन्दु पर रखा जाए तो यह परीक्षण आवेश कितने बल का अनुभव करेगा?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q8
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q8.1

प्रश्न 9.
किसी निकाय में दो आवेश qA = 2.5 x 10-7 C तथा qB = – 2.5 x 10-7 C क्रमशः दो बिन्दुओं A : (0, 0, -15 cm) तथा B : (0, 0, +15 cm) पर अवस्थित हैं। निकाय का कुल आवेश तथा विद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण क्या है?
हल-
प्रश्नानुसार, qA = 2.5 x 10-7 C, qB = – 2.5 x 10-7 C,
2a = AB = 30 cm = 0.30 m
कुल आवेश, Q = qA + qB = 2.5 x 10-7 C – 2.5 x 10-7 C = 0
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q9

प्रश्न 10.
4 x 10-9 cm द्विध्रुव आघूर्ण को कोई विद्युत-द्विध्रुव 5 x 104 NC-1 परिमाण के किसी एकसमान विद्युत-क्षेत्र की दिशा से 30° पर संरेखित है। द्विध्रुव पर कार्यरत बल आघूर्ण का परिमाण परिकलित कीजिए।
हल-
दिया है,
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q10

प्रश्न 11.
ऊन से रगड़े जाने पर कोई पॉलीथीन का टुकड़ा 3 x 10-7 C के ऋणावेश से आवेशित पाया गया।
(a) स्थानान्तरित (किस पदार्थ से किस पदार्थ में) इलेक्ट्रॉनों की संख्या आकलित कीजिए।
(b) क्या ऊन से पॉलीथीन में संहति का स्थानान्तरण भी होता है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q11
(b) हाँ, ऊन से पॉलीथीन पर द्रव्यमान का स्थानान्तरण होता है क्योंकि इलेक्ट्रॉन, जो द्रव्य कण हैं, ऊन से पॉलीथीन पर विस्थापित होते हैं।
m = प्रत्येक इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान = 9.1 x 10-31 kg,
n = 1.875 x 1012
पॉलीथीन पर स्थानान्तरित कुल द्रव्यमान M = m x n = 91 x 10-31 kg x 1.875 x 1012 = 1.71 x 1018 kg

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प्रश्न 12.
(a) दो विद्युतरोधी आवेशित ताँबे के गोलों A तथा B के केन्द्रों के बीच की दूरी 50 cm है। यदि दोनों गोलों पर पृथक्-पृथक् आवेश 6.5 x 10-7 C हैं तो इनमें पारस्परिक स्थिर विद्युत प्रतिकर्षण बल कितना है? गोलों के बीच की दूरी की तुलना में गोलों A तथा B की त्रिज्याएँ नगण्य हैं।
(b) यदि प्रत्येक गोले पर आवेश की मात्रा दो गुनी तथा गोलों के बीच की दूरी आधी कर दी जाए तो प्रत्येक गोले पर कितना बल लगेगा?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q12

प्रश्न 13.
मान लीजिए प्रश्न 12 में गोले A तथा B साइज में सर्वसम हैं तथा इसी साइज का कोई तीसरा अनावेशित गोला पहले तो पहले गोले के सम्पर्क, तत्पश्चात दूसरे गोले के सम्पर्क में लाकर, अन्त में दोनों से ही हटा लिया जाता है। अब A तथा B के बीच नया प्रतिकर्षण बल कितना है?
हल-
माना प्रारम्भ में प्रत्येक गोले ‘A’ व ‘B’ पर अलग-अलग q आवेश है। (q = 6.5 x 10-7 C) माना तीसरा अनावेशित गोला C है।
गोले A व C समान आकार के हैं; अतः परस्पर स्पर्श कराने पर ये कुल आवेश (qA + qC = q + 0) को आधा-आधा बाँट लेंगे।
हटाने के तत्पश्चात् दोनों पर आवेश
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q13

प्रश्न 14.
चित्र 1.4 में किसी एकसमान स्थिर विद्युत-क्षेत्र में तीन आवेशित कणों के पथचिह्न (tracks) दर्शाए गए हैं। तीनों आवेशों के चिह्न लिखिए। इनमें से किस कण का आवेश-संहति अनुपात ([latex s=2]\frac { q }{ m }[/latex]) में अधिकतम है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q14
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q14.1

प्रश्न 15.
एकसमान विद्युत-क्षेत्र E = 3 x 103 iN/C पर विचार कीजिए।
(a) इस क्षेत्र का 10 cm भुजा के वर्ग के उस पाश्र्व से जिसका तल ya तल के समान्तर है, गुजरने वाला फ्लक्स क्या है?
(b) इसी वर्ग से गुजरने वाला फ्लक्स कितना है यदि इसके तल का अभिलम्ब x-अक्ष से 60° का कोण बनाता है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q15

प्रश्न 16.
प्रश्न 15 में दिए गए एकसमान विद्युत-क्षेत्र का 20 cm भुजा के किसी घन से (जो इस प्रकार अभिविन्यासित है कि उसके फलक निर्देशांक तलों के समान्तर हैं) कितना नेट फ्लक्स गुजरेगा?
उत्तर-
एक घन के 6 फलक होंगे। इनमें से दो फलक y-z समतल के, दो z-x समतल के तथा दो x-y समतल के समान्तर होंगे।
विद्युत-क्षेत्र E = 3 x 10 i N/C x-अक्ष के अनुदिश है; अत: यह z-x तथा x-y समतलों के समान्तर फलकों के समान्तर होगा।
इन चारों फलकों से गुजरने वाला फ्लक्स शून्य होगा।
विद्युत-क्षेत्र एकसमान है; अतः y-z समतल के (UPBoardSolutions.com) समान्तर फलकों में से जितना फ्लक्स एक फलक से अन्दर प्रविष्ट होगा उतनी ही फ्लक्स दूसरे फलक से बाहर आएगा। अतः घन से गुजरने वाला नेट फ्लक्स शून्य होगा।

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प्रश्न 17.
किसी काले बॉक्स के पृष्ठ पर विद्युत-क्षेत्र की सावधानीपूर्वक ली गई माप यह संकेत देती है। कि बॉक्स के पृष्ठ से गुजरने वाला नेट फ्लक्स 8.0 x 103 Nm2/C है।
(a) बॉक्स के भीतर नेट आवेश कितना है?
(b) यदि बॉक्स के पृष्ठ से नेट बहिर्मुखी फ्लक्स शून्य है तो क्या आप यह निष्कर्ष निकालेंगे कि बॉक्स के भीतर कोई आवेश नहीं है? क्यों, अथवा क्यों नहीं?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q17
(b) यदि बॉक्स के पृष्ठ से नेट बहिर्मुखी वैद्युत फ्लक्स शून्य है, तो इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि बॉक्स के अन्दर कोई आवेश नहीं है। हो सकता है कि बॉक्स के अन्दर समान मात्रा में धनावेश तथा ऋणावेश दोनों उपस्थित हों, जो एक-दूसरे के प्रभाव को निरस्त कर देंगे अर्थात् बॉक्स के अन्दर नेट आवेश शून्य हो जाएगा और हमें ऐसा प्रतीत होगा कि बॉक्स के अन्दर कोई आवेश नहीं है।

प्रश्न 18.
चित्र 1.6 में दर्शाए अनुसार 10 cm भुजा के किसी वर्ग के केन्द्र से ठीक 5 cm ऊँचाई पर कोई +10 µC आवेश रखा है। इस वर्ग से गुजरने वाले विद्युत फ्लक्स का। परिमाण क्या है? [संकेत : वर्ग को 10 cm किनारे के किसी घन का एक फलक मानिए]
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q18
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q18.1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q18.2

प्रश्न 19.
2.0 µC का कोई बिन्दु आवेश किसी किनारे पर 9.0 cm किनारे वाले किसी घनीय गाउसीय पृष्ठ के केन्द्र पर स्थित है। पृष्ठ से गुजरने वाला नेट फ्लक्स क्या है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q19

प्रश्न 20.
किसी बिन्द आवेश के कारण, उस बिन्दु को केन्द्र मानकर खींचे गए 10 cm त्रिज्या के गोलीय गाउसीय पृष्ठ पर विद्युत फ्लक्स- 1.0 x 103 Nm2/C
(a) यदि गाउसीय पृष्ठ की त्रिज्या दो गुनी कर दी जाए तो पृष्ठ से कितना फ्लक्स गुजरेगा?
(b) बिन्दु आवेश का मान क्या है?
हल-
(a) बिन्दु आवेश के चारों ओर खींचे गए गोलीय गाउसीय पृष्ठ से गुजरने वाला वैद्युत फ्लक्स उसकी त्रिज्या पर निर्भर नहीं करता, अत: त्रिज्या दो गुनी करने पर भी उससे गुजरने वाला वैद्युत फ्लक्स -1.0 x 108 न्यूटन-मी2/कूलॉम ही रहेगा।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q20

प्रश्न 21.
10 cm त्रिज्या के चालक गोले पर अज्ञात परिमाण का आवेश है। यदि गोले के केन्द्र से 20 cm दूरी पर विद्युत-क्षेत्र 1.5 x 103 N/C त्रिज्यतः अन्तर्मुखी (radially inward) है तो गोले पर नेट आवेश कितना है?
हल-
दिया है, चालक गोले की त्रिज्या R = 10 सेमी
गोले के केन्द्र से बिन्दु की दूरी r = 20 सेमी = 0.20 मी
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q21

प्रश्न 22.
2.4m व्यास के एकसमान आवेशित चालक गोले का पृष्ठीय आवेश घनत्व 80.0 µC/m2 है।
(a) गोले पर आवेश ज्ञात कीजिए।
(b) गोले के पृष्ठ से निर्गत कुल विद्युत फ्लक्स क्या है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q22

प्रश्न 23.
कोई अनन्त रैखिक आवेश 2 cm दूरी पर 9 x 104 NC-1 विद्युत-क्षेत्र उत्पन्न करता है। रैखिक आवेश घनत्व ज्ञात कीजिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q23

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प्रश्न 24.
दो बड़ी, पतली धातु की प्लेटें एक-दूसरे के समानान्तर एवं निकट हैं। इनके भीतरी फलकों पर, प्लेटों के पृष्ठीय आवेश घनत्वों के चिह्न विपरीत हैं तथा इनका परिमाण 17.0 x 10-23 C/mहै।
(a) पहली प्लेट के बाह्य क्षेत्र में,
(b) दूसरी प्लेट के बाह्य क्षेत्र में, तथा
(c) प्लेटों के बीच में विद्युत-क्षेत्र E का परिमाण परिकलित कीजिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q24
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q24.1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q24.2

अतिरिक्त अभ्यास

प्रश्न 25.
मिलिकन तेल बूंद प्रयोग में 2.55 x 104 NC-1 के नियत विद्युत-क्षेत्र के प्रभाव में 12 इलेक्ट्रॉन आधिक्य की कोई तेल बूंद स्थिर रखी जाती है। तेल का घनत्व 1.26 g cm3 है। बूंद की त्रिज्या का आकलन कीजिए। (g = 9.81 m s-2, e = 1.60 x 10-19 C)।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q25
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q25.1

प्रश्न 26.
चित्र 1.9 में दर्शाए गए वक्रों में से कौन सम्भावित स्थिर विद्युत-क्षेत्र रेखाएँ निरूपित नहीं करते?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q26
उत्तर-
केवल चित्र (c) सम्भावित स्थिर विद्युत-क्षेत्र रेखाएँ निरूपित करता है।
(a) विद्युत-क्षेत्र रेखाएँ सदैव चालक पृष्ठ के लम्बवत् होती हैं, इस चित्र में रेखाएँ चालक पृष्ठ के लम्बवत नहीं हैं।
(b) क्षेत्र रेखाओं को ऋणावेश से धनावेश की ओर जाते दिखाया गया है जो कि सही नहीं है।
(d) क्षेत्र रेखाएँ एक-दूसरे को काट रही हैं जो कि सही नहीं है।
(e) क्षेत्र रेखाएँ बन्द वक्रों के रूप में प्रदर्शित की गई हैं जो कि सही नहीं है।

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प्रश्न 27.
दिक्स्थान के किसी क्षेत्र में, विद्युत-क्षेत्र सभी जगह z-दिशा के अनुदिश है। परन्तु विद्युत क्षेत्र का परिमाण नियत नहीं है, इसमें एकसमान रूप से z-दिशा के अनुदिश 105 NC-1 प्रति मीटर की दर से वृद्धि होती है। वह निकाय जिसका ऋणात्मक z-दिशा में कुल द्विध्रुव आघूर्ण 10-7 cm के बराबर है, कितना बल तथा बल-आघूर्ण अनुभव करता है?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q27

प्रश्न 28.
(a) किसी चालक A, जिसमें चित्र 1.10 (a) में दर्शाए अनुसार कोई कोटर/गुहा (Cavity) है, को Q आवेश दिया गया है। यह दर्शाइए कि समस्त आवेश चालक के बाह्य पृष्ठ पर प्रतीत होना चाहिए।
(b) कोई अन्य चालक B जिस पर आवेश q है, को कोटर/गुहा (Cavity) में इस प्रकार सँसा दिया जाता है कि चालक Bचालक A से विद्युतरोधी रहे। यह दर्शाइए कि चालक A के बाह्य पृष्ठ पर कुल आवेश Q + q है [चित्र 1.10 (b)]]
(c) किसी सुग्राही उपकरण को उसके पर्यावरण के प्रबल स्थिर विद्युत-क्षेत्रों से परिरक्षित किया जाना है। सम्भावित उपाय लिखिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q28
उत्तर-
(a) एक ऐसी गाउसीय सतह की कल्पना कीजिए जो पूर्णतया चालक के भीतर स्थित है तथा . चालक के बाह्य पृष्ठ के अत्यन्त समीप है।
चालक के भीतर विद्युत-क्षेत्र शून्य होता है; अत: इस गाउसीय सतह से गुजरने वाला नेट विद्युत फ्लक्स शून्य होगा।
तब गाउस प्रमेय से, q = [latex s=2]{ \epsilon }_{ 0 }[/latex] Φ = [latex s=2]{ \epsilon }_{ 0 }[/latex] 0 = 0
अर्थात् सतह के भीतर आवेश शून्य होगा।
अत: चालक का सम्पूर्ण आवेश उसके बाह्य पृष्ठ पर होगा।

(b) दिया है, चालक ‘A’ पर कुल आवेश = Q
चालक ‘B’ पर कुल आवेश = q
माना चालक ‘A’ में बनी कोटर के पृष्ठ पर q1 आवेश है तथा चालक ‘A’ के बाह्य पृष्ठ पर Q1 आवेश है।
अब चालक ‘A’ पर कुल आवेश Q1 + q1 = Q …….(1)
पुन: एक ऐसे गाउसीय पृष्ठ की कल्पना कीजिए जो पूर्णत: चालक ‘A’ के भीतर स्थित है परन्तु इसके बाह्य पृष्ठ के अत्यन्त समीप है।
चालक के भीतर विद्युत-क्षेत्र शून्य होता है; अत: इस पृष्ठ से गुजरने वाला कुल फ्लक्स शून्य होगा।
अत: इस गाउसीय पृष्ठ के भीतर कुल आवेश = 0 अर्थात्
q1 + q = 0 ⇒ q1 = -q
समीकरण (1) से, Q1 – q = Q
चालक ‘A’ के बाह्य पृष्ठ पर कुल आवेश Q1 = Q + q होगा।

(c) खोखले बन्द चालक के भीतर विद्युत-क्षेत्र शून्य होता है; अत: किसी सुग्राही उपकरण को पर्यावरण के प्रबल स्थिर विद्युत-क्षेत्रों से परिरक्षित करने के लिए उसे खोखले बन्द चालक के भीतर रखना चाहिए।

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प्रश्न 29.
किसी खोखले आवेशित चालक में उसके पृष्ठ पर कोई छिद्र बनाया गया है। यह दर्शाइए कि छिद्र में विद्युत-क्षेत्र [latex s=2]\left( \frac { \sigma }{ 2{ \epsilon }_{ 0 } } \right) \overset { \wedge }{ n }[/latex] है, जहाँ । अभिलम्बवत् दिशा में बहिर्मुखी एकांक सदिश है तथा छिद्र के निकट पृष्ठीय आवेश घनत्व है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q29
उत्तर-
माना किसी खोखले चालक को कुछ धनावेश दिया गया है, जो तुरन्त ही उसके पृष्ठ पर समान रूप से वितरित हो जाता है। माना आवेश का पृष्ठ घनत्व [latex s=2]\sigma[/latex] है। चालक के पृष्ठ के किसी अवयव dA पर विचार कीजिए। स्पष्ट है कि इस क्षेत्रफल अवयव पर उपस्थित (UPBoardSolutions.com) आवेश की मात्रा q = [latex s=2]\sigma[/latex] dA होगी। माना इस क्षेत्रफल अवयव के अत्यन्त समीप चालक के पृष्ठ के बाहर तथा अन्दर दो बिन्दु क्रमश: P तथा Q हैं। चूँकि बिन्दु P पृष्ठ के समीप है; अतः चालक के कारण बिन्दु P पर विद्युत-क्षेत्र की तीव्रता E = [latex s=2]\frac { \sigma }{ { \epsilon }_{ 0 } }[/latex] पृष्ठ के लम्बवत् बाहर की ओर होगी। माना बिन्दु P पर अवयव dA तथा शेष चालक के कारण विद्युत-क्षेत्र की तीव्रताएँ क्रमश: E1 व E2 हैं, तब स्पष्टतया E1 व E2 दोनों पृष्ठ के लम्बवत् बाहर की ओर होंगी तथा परिणामी तीव्रता E, E1 व E2 के योग के बराबर होगी।

अतः E1 + E2 = [latex s=2]\frac { \sigma }{{ \epsilon }_{ 0 } }[/latex] …..(1)
चूँकि बिन्दु Q क्षेत्रफल अवयव dA के अत्यन्त समीप परन्तु P के विपरीत ओर है; अतः इस अवयव के कारण बिन्दु Q पर क्षेत्र की तीव्रता E1 के बराबर परन्तु दिशा में विपरीत होगी, जबकि शेष चालक के कारण Q पर विद्युत-क्षेत्र की तीव्रता E2 के बराबर तथा उसी की दिशा में होगी। चूँकि बिन्दु Q चालक के अन्दर है; अतः बिन्दु Q पर परिणामी तीव्रता शून्य होगी।

अतः बिन्दु Q पर परिणामी तीव्रता E2 – E1 = 0
अथवा E1 = E2 [बिन्दु Q पर E1 व E2 के विपरीत हैं।]
समीकरण (1) से, E1 = E2 = [latex s=2]\frac { \sigma }{ 2{ \epsilon }_{ 0 } }[/latex]
अतः शेष चालक के कारण बिन्दु P पर विद्युत-क्षेत्र की तीव्रता
E2 = [latex s=2]\frac { \sigma }{ 2{ \epsilon }_{ 0 } }[/latex]
अब यदि बिन्दु P पर एक छिद्र कर दिया जाए तो क्षेत्र अवयव dA तथा इसके कारण आन्तरिक बिन्दु Q पर विद्युत-क्षेत्र E1 दोनों समाप्त हो जाएँगे।
तब विद्युत-क्षेत्र E2 छिद्र के किसी बिन्दु पर केवल शेष चालक के कारण शेष रहेगा।
अतः छिद्र पर विद्युत-क्षेत्र की तीव्रता
[latex s=2]\overset { \rightarrow }{ E } =\frac { \sigma }{ 2{ \epsilon }_{ 0 } } \overset { \wedge }{ n }[/latex]
जहाँ n छिद्र पर बहिर्मुखी दिशा में एकांक सदिश है।

प्रश्न 30.
गाउस नियम का उपयोग किए बिना किसी एकसमान रैखिक आवेश घनत्व 2 के लम्बे पतले तार के कारण विद्युत-क्षेत्र के लिए सूत्र प्राप्त कीजिए।
[संकेत : सीधे ही कूलॉम नियम का उपयोग करके आवश्यक समाकलन का मान निकालिए।]
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q30
उत्तर-
एकसमान रैखिक आवेश घनत्व वाले लम्बे पतले तार के कारण विद्युत-क्षेत्र (Electric Field due to a Long Straight Wire having Uniform Linear Charge Density)- माना एक लम्बे सीधे धनावेशित तार को एकसमान रैखिक आवेशं घनत्व है। हमें इस तार के कारण किसी बिन्दु P पर विद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात करनी है। बिन्दु P से तार पर लम्ब PO खींचा। तार पर बिन्दु 0 से x दूरी पर एक सूक्ष्म अवयव AB = dx लिया।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q30.1
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q30.2

प्रश्न 31.
अब ऐसा विश्वास किया जाता है कि स्वयं प्रोटॉन एवं न्यूट्रॉन (जो सामान्य द्रव्य के नाभिकों का निर्माण करते हैं) और अधिक मूल इकाइयों जिन्हें क्वार्क कहते हैं, के बने हैं। प्रत्येक प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन तीन क्वार्को से मिलकर बनता है। दो प्रकार के क्वार्क होते हैं : ‘अप क्वार्क (u द्वारा निर्दिष्ट) जिन पर + (2/3)e आवेश तथा ‘डाउन क्वार्क (d द्वारा निर्दिष्ट) जिन पर (-1/3) e आवेश होता है, इलेक्ट्रॉन से मिलकर सामान्य द्रव्य बनाते हैं। (कुछ अन्य प्रकार के क्वार्क भी पाए गए हैं जो भिन्न असामान्य प्रकार का द्रव्य बनाते हैं।) प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन के सम्भावित क्वार्क संघटन सुझाइए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q31
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q31.1

प्रश्न 32.
(a) किसी यादृच्छिक स्थिर विद्युत-क्षेत्र विन्यास पर विचार कीजिए। इस विन्यास की किसी शून्य-विक्षेप स्थिति (null-point अर्थात् जहाँ E = 0) पर कोई छोटा परीक्षण आवेश रखा गया है। यह दर्शाइए कि परीक्षण आवेश का सन्तुलन आवश्यक रूप से अस्थायी है।
(b) इस परिणाम का समान परिमाण तथा चिह्नों के दो आवेशों (जो एक-दूसरे से किसी दूरी पर रखे हैं) के सरल विन्यास के लिए सत्यापन कीजिए।
उत्तर-
(a) माना शून्य विक्षेप स्थिति में रखे परीक्षण आवेश का सन्तुलन स्थायी है। अब यदि परीक्षण आवेश को सन्तुलन की स्थिति से थोड़ा-सा विस्थापित किया जाए तो आवेश पर एक प्रत्यानयन बल लगना चाहिए जो आवेश को वापस सन्तुलन की ओर ले जाए। इसका यह अर्थ हुआ कि (UPBoardSolutions.com) उस स्थान पर शून्य विक्षेप बिन्दु की ओर जाने वाली क्षेत्र रेखाएँ होनी चाहिए। जबकि स्थिर विद्युत-क्षेत्र रेखाएँ कभी भी शून्य विक्षेप बिन्दु तक नहीं पहुँचतीं। अत: हमारी यह परिकल्पना कि परीक्षण आवेश का सन्तुलन स्थायी है, गलत है। यह निश्चित रूप से अस्थायी सन्तुलन है।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q32

प्रश्न 33.
प्रारम्भ में 3-अक्ष के अनुदिश, चाल से गति करती हुई, दो आवेशित प्लेटों के मध्य क्षेत्र में m द्रव्यमान तथा -q आवेश का एक कण प्रवेश करता है (चित्र 1.14 में कण 1 के समान)। प्लेटों की लम्बाई L है। इन दोनों प्लेटों के बीच एकसमान विद्युत-क्षेत्र E बनाए रखा जाता है। दर्शाइए कि प्लेट के अन्तिम किनारे पर कण का ऊर्ध्वाधर विक्षेप [latex s=2]\frac { qE{ L }^{ 2 } }{ 2m{ v }_{ x }^{ 2 } }[/latex] है। (कक्षा 11 की पाठ्य पुस्तक के अनुभाग 4.10 में वर्णित गुरुत्वीय क्षेत्र में प्रक्षेप्य की गति के साथ इस कण की गति की तुलना कीजिए।)
उत्तर-
एकसमान विद्युत-क्षेत्र में आवेशित कण (इलेक्ट्रॉन) का गमन-पथ- (i) जब कण का प्रारम्भिक वेग विद्युत-क्षेत्र की दिशा के लम्बवत् है—माना धातु की दो समान्तर प्लेटें जिन पर विपरीत आवेश हैं, एक-दूसरे से कुछ दूरी पर स्थित हैं। इन प्लेटों के बीच के स्थान में विद्युत-क्षेत्र एकसमान है। माना ऊपरी प्लेट धनावेशित है, जबकि नीचे की प्लेट ऋणावेशित है। अत: विद्युत-क्षेत्र E कागज के तल में नीचे की ओर दिष्ट होगा [चित्र 1.14]।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q33
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q33.1

प्रश्न 34.
प्रश्न 33 में वर्णित कण की इलेक्ट्रॉन के रूप में कल्पना कीजिए जिसको vx = 2.0 x 106 ms-1 के साथ प्रक्षेपित किया गया है। यदि 0.5 cm की दूरी पर रखी प्लेटों के बीच विद्युत-क्षेत्र E का मान 9.1 x 102 N/C हो तो ऊपरी प्लेट पर इलेक्ट्रॉन कहाँ टकराएगा? (e = 1.6 x 10-19 C, me = 9.1 x 10-31 kg)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields Q34

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
इलेक्ट्रॉन के आवेश एवं संहति का अनुपात होगा (2016)
(i) 1.77 x 1011 कूलॉम/किग्रा।
(ii) 1.9 x 1012 कूलॉम/किग्रा
(iii) 1.6 x 10-19 कूलॉम/किग्रा
(iv) 3.2 x 1011 कूलॉम/किग्रा
उत्तर-
(i) 1.77 x 1011 कूलॉम/किग्रा

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प्रश्न 2.
दो बिन्दु आवेशों को पहले वायु में तथा फिर K परावैद्युतांक वाले माध्यम में समान दूरी पर रखने पर यदि उनके बीच लगने वाले वैद्युत बल F0 तथा Fm हों तो F0 : Fm का मान होगा
(i) K : 1
(ii) 1 : K
(iii) K2 : 1
(iv) 1 : K2
उत्तर-
(i) K : 1

प्रश्न 3.
वैद्युतशीलता (60) का एस०आई० मात्रक है (2009, 12, 14, 15)
(i) कूलॉम2/न्यूटन-मीटर2
(ii) न्यूटन-मीटर2/कूलॉम2
(iii) न्यूटन/कूलॉम
(iv) न्यूटन/वोल्ट/मीटर2
उत्तर-
(i) कूलॉम2/न्यूटन-मीटर2

प्रश्न 4.
एक निश्चित दूरी r पर स्थित दो समरूप धातु के गोलों पर आवेश +4q तथा -2q हैं। गोलों के बीच आकर्षण बल F है। यदि दोनों गोलों को स्पर्श कराकर पुनः उसी दूरी पर रख दिया जाए तो उनके बीच बल होगा (2015)
(i) F
(ii) [latex s=2]\frac { F }{ 2 }[/latex]
(iii) [latex s=2]\frac { F }{ 4 }[/latex]
(iv) [latex s=2]\frac { F }{ 8 }[/latex]
उत्तर-
(i) F

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प्रश्न 5.
दो समान आवेशों q, q को जोड़ने वाली रेखा के मध्य बिन्दु पर एक आवेश q’ रख दिया जाता है। यदि तीनों आवेशों का निकाय सन्तुलन में हो तो q’ का मान होगा- (2011, 18)
(i) -q/2
(ii) -q/4
(iii) +q/4
(iv) +q/2
उत्तर-
(ii) +q/4

प्रश्न 6.
+1 µC तंथा +4 µC के दो आवेश एक-दूसरे से कुछ दूरी पर वायु में स्थित हैं। उन पर लगने वाले बलों का अनुपात है (2014)
(i) 1 : 4
(ii) 4 : 1
(iii) 1 : 1
(iv) 1 : 16
उत्तर-
(iii) 1 : 1

प्रश्न 7.
8 कूलॉम ऋण आवेश में उपस्थित इलेक्ट्रॉनों की संख्या है (2015)
(i) 5 x 1049
(ii) 2.5 x 1019
(iii) 12.8 x 1019
(iv) 1.6 x 1019
उत्तर-
(i) 5 x 1049

प्रश्न 8.
एक वर्ग के दो विपरीत कोनों पर आवेश Q रखे हैं। दूसरे दो विपरीत कोनों पर आवेश q रखे हैं। यदि किसी Q पर नेट विद्युत बल शून्य हो, तो बराबर है
(i) [latex s=2]\frac { 1 }{ \surd 2 }[/latex]
(ii) -2√2
(iii) -1
(iv) 1
उत्तर-
(ii) -2√2

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प्रश्न 9.
वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता का मात्रक है (2011, 13, 15, 16, 17)
(i) कूलॉम/न्यूटन
(ii) जूल/न्यूटन
(iii) न्यूटन/कूलॉम
(iv) न्यूटन/मी
उत्तर-
(iii) न्यूटन/कूलॉम

प्रश्न 10.
निम्न में से कौन-सा वैद्युत-क्षेत्र का मात्रक नहीं है? (2009, 14)
(i) न्यूटन/कूलॉम
(ii) वोल्ट/मीटर
(iii) जूल/कूलॉम
(iv) जूल/कूलॉम/मीटर
उत्तर-
(iii) जूल/कूलॉम

प्रश्न 11.
किसी आवेशित गोलीय चालक में विभव
(i) गोले के भीतर शून्य होता है तथा गोले के बाहर भी शून्य होता है।
(ii) गोले के भीतर अधिकतम होता है तथा गोले के बाहर शून्य होता है।
(iii) गोले के भीतर शून्य होता है तथा गोले के बाहर दूरी बढ़ने के साथ कम होता जाता है।
(iv) गोले के भीतर अधिकतम होता है तथा गोले के बाहर दूरी बढ़ने के साथ कम होता जाता है।
उत्तर-
(iv) गोले के भीतर अधिकतम होता है तथा गोले के बाहर दूरी बढ़ने के साथ कम होता जाता है।

प्रश्न 12.
R1 व R2 त्रिज्याओं के दो चालक गोलों के पृष्ठों पर आवेशों के पृष्ठ घनत्व बराबर हैं। पृष्ठों पर वैद्यत-क्षेत्र की तीव्रताओं का अनुपात है। (2010, 17)
(i) [latex s=2]\frac { { R }_{ 1 }^{ 2 } }{ { R }_{ 2 }^{ 2 } }[/latex]
(ii) [latex s=2]\frac { { R }_{ 2 }^{ 2 } }{ { R }_{ 1 }^{ 2 } }[/latex]
(iii) [latex s=2]\frac { R1 }{ R2 }[/latex]
(iv) 1 : 1
उत्तर-
(iv) 1 : 1

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प्रश्न 13.
आवेश का खोखला गोला वैद्युत क्षेत्र उत्पन्न नहीं करता। (2017)
(i) किसी आन्तरिक बिन्दु पर
(ii) किसी बाहरी बिन्दु पर
(iii) 2 मी से अधिक दूरी पर
(iv) 5 मी से अधिक दूरी पर
उत्तर-
(i) किसी आन्तरिक बिन्दु पर

प्रश्न 14.
r मीटर त्रिज्या वाले खोखले गोले के केन्द्र पर q कूलॉम का आवेश रखा है। यदि गोले की त्रिज्या दोगुनी कर दी जाए तथा आवेश का मान आधा कर दें, तब गोले के पृष्ठ से निर्गत कुल वैद्युत फ्लक्स होगा (2012)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields

प्रश्न 15.
एक बन्द पृष्ठ के भीतर n वैद्युत द्विध्रुव स्थित हैं। बन्द पृष्ठ से निर्गत वैद्युत फ्लक्स होगा। (2013)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields 30

प्रश्न 16.
वैद्युत फ्लक्स को मात्रक है। (2017, 18)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields

प्रश्न 17.
5 कूलॉम आवेश के दो बराबर तथा विपरीत आवेशों के बीच की दूरी 5.0 सेमी है। इसका वैद्युत द्विध्रुव आघूर्ण है (2015)
(i) 25 x 10-2 कूलॉम-मीटर
(ii) 5 x 10-2 कूलॉम-मीटर
(iii) 1.0 कूलॉम-मीटर
(iv) शून्ये
उत्तर-
(i) 25 x 10-2 कूलॉम-मीटर

प्रश्न 18.
वैद्युत-क्षेत्र [latex s=2]\overset { \rightarrow }{ E }[/latex] में [latex s=2]\overset { \rightarrow }{ p }[/latex] आघूर्ण वाले द्विध्रुव पर लगने वाला बल-आघूर्ण है- (2011, 17, 18)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields MCQ 18

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वैद्युत आवेश के क्वाण्टीकरण (quantisation) का मूल कारण क्या है?
उत्तर-
इसका मूल कारण यह है कि एक वस्तु से दूसरी वस्तु में इलेक्ट्रॉनों का स्थानान्तरण केवल पूर्णांक संख्याओं में ही हो सकता है।

प्रश्न 2.
सिद्ध कीजिए कि कूलॉम2/न्यूटन-मीटर2 तथा फैरड/मीटर एक ही भौतिक राशि के मात्रक हैं। (2010)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields

प्रश्न 3.
बलों के अध्यारोपण का सिद्धान्त क्या है?
उत्तर-
“यदि किसी निकाय में अनेक आवेश हों, तो उनमें से किसी एक आवेश पर बल, अन्य आवेशों के कारण अलग-अलग बलों को सदिश योग होता है, यही बलों के अध्यारोपण का सिद्धान्त कहलाता है।”

प्रश्न 4.
आवेश के रेखीय घनत्व का अर्थ बताइए। (2013)
उत्तर-
किसी चालक अथवा अचालक पदार्थ की प्रति एकांक लम्बाई पर उपस्थित आवेश को उसका रेखीय घनत्व कहते हैं। यदि l लम्बाई के चालक पर एकसमान रूप से फैला हुआ आवेश q हो, तब आवेश का रेखीय घनत्व λ = ([latex s=2]\frac { q }{ l }[/latex]) कूलॉम/मीटर।

प्रश्न 5.
आवेश के पृष्ठ घनत्व से क्या तात्पर्य है? (2015)
उत्तर-
किसी चालक अथवा अचालक पदार्थ के प्रति एकांक क्षेत्रफल पर उपस्थित आवेश की मात्रा को आवेश का पृष्ठ घनत्व कहते हैं। आवेश का पृष्ठ घनत्व [latex]\sigma =\frac { q }{ A }[/latex] कॅम/मीटर2

प्रश्न 6.
दो आवेशों के बीच वैद्युत बल का सूत्र लिखिए। प्रयुक्त प्रतीकों के नाम भी लिखिए। (2011)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields

प्रश्न 7.
कूलॉम के नियम की क्या परिसीमाएँ हैं?
उत्तर-
कूलॉम का नियम दो स्थायी (stationary) वैद्युत आवेशों के लिए सत्य है तथा आवेशों के बीच दूरी r < 10-15 मी के लिए सत्य नहीं है।

प्रश्न 8.
जल का परावैद्युतांक 80 है। वैद्युतशीलता कितनी होगी?
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 8

प्रश्न 9.
एक कूलॉम में कितने इलेक्ट्रॉन होते हैं? (2010, 17)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 9

प्रश्न 10.
3.2 कूलॉम आवेश कितने इलेक्ट्रॉनों द्वारा निर्मित होगा ? (2011, 12)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 10

प्रश्न 11.
एक निश्चित दूरी पर स्थित दो इलेक्ट्रॉनों के बीच वैद्युत बल F न्यूटन है। इससे आधी दूरी पर स्थित दो प्रोटॉनों के बीच वैद्युत बल कितना होगा? (2011)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 11
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 11.1

प्रश्न 12.
दो बिन्दु आवेशों के बीच स्थिर वैद्युत बल F है। यदि इन आवेशों को उतनी ही दूरी पर जल (k = 80) में रख दिया जाये तब उनके बीच बल कितना रहेगा? (2014)
हल-
दो बिन्दु आवेशों के बीच स्थिर वैद्युत बल = F
माना जल में रखने पर दोनों बिन्दुओं के बीच स्थिर वैद्युत बल = Fm
Fm = [latex s=2]\frac { F }{ k }[/latex] = [latex s=2]\frac { F }{ 80 }[/latex]

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प्रश्न 13.
इलेक्ट्रॉन वोल्ट की परिभाषा दीजिए तथा इसका संख्यात्मक मान जूल में व्यक्त कीजिए। (2015)
उत्तर-
एक इलेक्ट्रॉन वोल्ट वह ऊर्जा है जो किसी इलेक्ट्रॉन से 1 वोल्ट विभवान्तर द्वारा त्वरित होने पर अर्जित होती है।
अर्थात् 1 इलेक्ट्रॉन वोल्ट = 1.6 x 10-19 जूल

प्रश्न 14.
कूलॉम के नियम का सदिश रूप बताइए। (2017)
उत्तर-
[latex s=2]\overset { \rightarrow }{ { F }_{ 12 } } ={ \overset { \rightarrow }{ -F } }_{ 21 }[/latex]
अत: बिन्दु आवेश q1 पर q2 के कारण कार्यरत वैद्युत बल बिन्दु आवेश q2 पर q1 के कारण कार्यरत वैद्युत बल के परिमाण में बराबर तथा दिशा में विपरीत होता है।

प्रश्न 15.
वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता की परिभाषा तथा इसका मात्रक लिखिए। (2015, 17)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 15

प्रश्न 16.
1.5 x 10-3 कूलॉम आवेश पर 2.25 न्यूटन का बल कार्य करता है। उस बिन्दु पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात कीजिए।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 16

प्रश्न 17.
5.0 x 10-8 कूलॉम बिन्दु आवेश से कितनी दूरी पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता 450 वोल्ट/मीटर होगी? (2012)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 17

प्रश्न 18.
एक इलेक्ट्रॉन तथा एक प्रोटॉन एक समान वैद्युत क्षेत्र में रखे गए हैं। किसका त्वरण अधिक होगा और क्यों? (2015)
उत्तर-
इलेक्ट्रॉन का त्वरण अधिक होगा, क्योंकि प्रोटॉन की अपेक्षा इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान कम होता है।

प्रश्न 19.
किसी आवेशित कण के भार को एक वैद्युत-क्षेत्र द्वारा किस प्रकार सन्तुलित किया जाता है? (2009)
उत्तर-
कण पर आवेश की प्रकृति के अनुसार उस पर वैद्युत-क्षेत्र ऐसी दिशा में लगाकर, ताकि उसके कारण कण पर लगने वाला वैद्युत बल ऊर्ध्वाधरत: ऊपर की ओर अर्थात् कण के भार की विपरीत दिशा में कार्य करे तथा परिमाण में इसके बराबर हो।

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प्रश्न 20.
आवेशित खोखले गोलाकार चालक के भीतर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता कितनी होती है?
उत्तर-
शून्य।

प्रश्न 21.
0.1 मीटर त्रिज्या के एक गोलीय चालक को कितना आदेश दिया जाए कि चालक के पृष्ठ पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता900 वोल्ट/मीटर हो जाए ? (2010)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 21

प्रश्न 22.
दो बड़ी पतली धातु की प्लेट एक-दूसरे के बहुत निकट और समान्तर हैं। प्लेटों पर विपरीत प्रकार के आवेश के पृष्ठ घनत्वों के परिमाण 17.7 x 10-22 कूलॉम/मी हैं। प्लेटों के बीच वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता क्या है? (2014, 16)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 22

प्रश्न 23.
वैद्युत-फ्लक्स तथा वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता में सम्बन्ध लिखिए। वैद्युत-फ्लक्स का मात्रक भी लिखिए।
या
वैद्युत-फ्लक्स का मात्रक लिखिए। (2018)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 23

प्रश्न 24.
किसी घन के केन्द्र पर 10 μC का एक आवेश रखा है। घन के एक फलक से निकलने वाले वैद्युत-फ्लक्स की गणना कीजिए। (2011)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 24

UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 25

प्रश्न 26.
यदि किसी 8 सेमी भुजा वाले एक घन के केन्द्र पर 1 कूलॉम आवेश रखा जाए तो घन के किसी फलक से बाहर आने वाले फ्लक्स की गणना कीजिए। (2017)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 26

प्रश्न 27.
एक वैद्युत द्विध्रुव 1.0 x 10-6 कूलॉम परिमाण तथा विपरीत प्रकृति के दो वैद्युत आवेशों से बना है। इन आवेशों के बीच की दूरी 2.0 सेमी है। इस द्विध्रुव को 1.0 x 105 न्यूटन/कूलॉम की बाह्य वैद्युत-क्षेत्र तीव्रता में रखा गया है। द्विध्रुव पर अधिकतम बल-आघूर्ण का मान निकालिए। (2011)
हल-
τmax = pE = (q x 2l) x E
= (1.0 x 10-6 x 2.0 x 10-2) (1.0 x 105)
= 2.0 x 10-3 न्यूटन-मीटर

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प्रश्न 28.
1.0 μC के दो बराबर एवं विपरीत प्रकार के आवेश 2.0 मिमी दूर रखे हैं। इस विद्युत द्विध्रुव का द्विध्रुव आघूर्ण ज्ञात कीजिए। (2017)
उत्तर-
दिया है, q = 1.0 μC =1.0 x 10-6 C,
l = 2.0 मिमी = 2 x 10-3 मी
विद्युत द्विध्रुव आघूर्ण, p = q . 2l = 1.0 x 10-6 x 2 x 2 x 10-3 = 4 x 10-9 कूलॉम-मी

प्रश्न 29.
स्थिर वैद्युतिकी में गौस की प्रमेय को गणितीय रूप में लिखिए तथा प्रयुक्त संकेतों के अर्थ बताइए। (2009, 10)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 29

प्रश्न 30.
एक R त्रिज्या वाले Q आवेश से आवेशित धातु के खोखले गोले के केन्द्र से r > R दूरी पर वैद्युत विभव का सूत्र लिखिए। (2013)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields VSAQ 30

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कूलॉम का वैद्युत बल सम्बन्धी नियम लिखिए।
या
दो बिन्दु आवेशों के बीच लगने वाले आकर्षण अथवा प्रतिकर्षण बल के लिए कूलॉम का सूत्र लिखिए।
उत्तर-
कूलॉम का नियम-1785 ई० में फ्रांसीसी वैज्ञानिक कूलॉम ने दो आवेशों के बीच कार्य करने वाले बल के सम्बन्ध में एक नियम दिया, जिसे कूलॉम का नियम कहते हैं। इस नियम के अनुसार-“दो स्थिर बिन्दु आवेशों के मध्य लगने वाला आकर्षण या प्रतिकर्षण बल, दोनों आवेशों की मात्राओं के गुणनफल के अनुक्रमानुपाती तथा उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है।” इस बल की दिशा दोनों आवेशों को मिलाने वाली रेखा के अनुदिश होती है। यदि दो बिन्दु आवेश q1 व q2 एक-दूसरे से । दूरी पर स्थित हों, तो कूलॉम के नियम से उनके बीच लगने वाला बल
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जहाँ K एक विमाहीन नियतांक है जिसे उस पदार्थ (परावैद्युत माध्यम) का परावैद्युतांक (dielectric constant) अथवा विशिष्ट परावैद्युतता कहते हैं। निर्वात् अथवा वायु के लिए K का मान 1 होता है। उपर्युक्त सूत्र में ε0K के स्थान पर केवल है भी लिखते हैं तथा ६ को परावैद्युत माध्यम की वैद्युतशीलता (permitivity) कहते हैं।

प्रश्न 2.
आसुत जल की 64 बूंदें, प्रत्येक की त्रिज्या 0.1 मिमी तथा आवेश (2/3) x 10-12 कूलॉम है, मिलकर एक बड़ी बूंद बनाती हैं। बड़ी बूंद को विभव ज्ञात कीजिए। (2013)
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प्रश्न 3.
दो बिन्दु आवेश +5 x 10-19 कूलॉम व +10 x 10-19 कूलॉम 1.0 मीटर की दूरी पर पृथकतः स्थित हैं। दोनों आवेशों को जोड़ने वाली रेखा के किस बिन्दु पर विद्युत क्षेत्र की तीव्रता शून्य होगी? (2017)
हल-
माना कि दिये गये बिन्दु आवेश (UPBoardSolutions.com) बिन्दुओं A व B पर स्थित हैं तथा उनके बीच बिन्दु O पर वैद्युत क्षेत्र शून्य है। माना कि बिन्दु0 की बिन्दु A से दूरी x मीटर है; अत: बिन्दु O की बिन्दु B से दूरी (1 – x) मीटर होगी। बिन्दु O पर, बिन्दु A पर स्थित आवेशे के कारण वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields SAQ 3.1

प्रश्न 4.
धातु के एक पतले गोलीय कोश की त्रिज्या 0.25 मीटर है तथा इस पर 0.2 μC आवेश है। इसके कारण एक बिन्दु पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात कीजिए जबकि बिन्दु
(i) कोश के भीतर,
(ii) कोश के ठीक बाहर तथा
(iii) कोश के केन्द्र से 3.0 मीटर की दूरी पर है। (2017)
हल-
(i) आवेशित कोश के भीतर किसी (UPBoardSolutions.com) भी बिन्दु पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता शून्य है।
(ii) बाह्य बिन्दुओं के लिए कोश इस प्रकार व्यवहार करता है जैसे कि सम्पूर्ण आवेश इसके केन्द्र पर रखा हो। अत: यदि कोश की त्रिज्या R है, तब कोश के ठीक बाहर किसी बिन्दु पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता
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प्रश्न 5.
वैद्युत-फ्लक्स से क्या तात्पर्य है? इसे आवश्यक सूत्र देते हुए समझाइए। (2009)
या
वैद्युत-फ्लक्स की परिभाषा तथा मात्रक लिखिए। (2012, 15)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields SAQ 5
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प्रश्न 6.
एक समरूप वैद्युत-क्षेत्र E = (5 x 103) i न्यूटन/कूलॉम में एक 10 सेमी भुजा वाला वर्गाकार समतल पृष्ठ yz- तल के समान्तर स्थित है। पृष्ठ से कितना वैद्युत फ्लक्स उत्पन्न होगा? यदि पृष्ठ का तल x-अक्ष की दिशा से 30° कोण बनाता है तब कितना वैद्युत फ्लक्स होगा? (2015)
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प्रश्न 7.
एक खोखले बेलन के भीतर q कूलॉम आवेश स्थित है। यदि बेलन के वक्रीय पृष्ठ से [latex]\oint { } [/latex] वोल्ट-मीटर वैद्युत फ्लक्स सम्बन्धित हो तब बेलन के किसी एक समतल पृष्ठ पर कितना वैद्युत फ्लक्स होगा? (2014)
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields SAQ 7

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
किसी वैद्युत-द्विध्रुव के कारण अक्षीय स्थिति में किसी बिन्दु पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता का व्यंजक प्राप्त कीजिए। (2012, 14)
या
वैद्युत द्विध्रुव के कारण अक्षीय स्थिति में किसी बिन्दु पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता के सूत्र का निगमन कीजिए। (2013, 16).
उत्तर-
अक्षीय स्थिति में वैद्युत- क्षेत्र की तीव्रता माना कि एक वैद्युत-द्विध्रुव AB, जिसमें (+q) व (-q) कूलॉम के आवेश एक-दूसरे से 2l मीटर की दूरी पर स्थित हैं, किसी ऐसे माध्यम में रखा है जिसका परावैद्युतांक K है। द्विध्रुव की अक्ष पर द्विध्रुव के मध्य बिन्दु O से r मीटर की दूरी पर स्थित (UPBoardSolutions.com) प्रेक्षण बिन्दु P है, जिस पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात करनी है (चित्र 1.17)। माना कि द्विध्रुव के आवेश +q व -q के कारण बिन्दु P पर उत्पन्न वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता क्रमशः E1 वे E2 हैं। चित्र 1.17 से स्पष्ट है कि आवेश (+q) से बिन्दु P की दूरी (r – l) है और आवेश (-q) से इसकी दूरी (r + l) है, अतः
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प्रश्न 2.
वैद्युत-द्विध्रुव के कारण निरक्षीय स्थिति (अनुप्रस्थ स्थिति) में किसी बिन्दु पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता का व्यंजक प्राप्त कीजिए। (2010, 16, 17)
या
वैद्युत-द्विध्रुव की परिभाषा दीजिए। (2014)
उत्तर-
वैद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण- वह वैद्युत निकाय (system) जिसमें दो बराबर, परन्तु विपरीत प्रकार के बिन्दु-आवेश एक-दूसरे से बहुत कम दूरी पर रखे हों, वैद्युत-द्विध्रुव’ कहलाता है। दोनों आवेशों में से किसी एक आवेश और दोनों आवेशों के बीच की दूरी के गुणनफल को ‘द्विध्रुव’ का ‘वैद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण (electric dipole moment) कहते हैं। इसे प्राय: p से प्रदर्शित करते हैं।
चित्र 1.18 में प्रदर्शित वैद्युत-द्विध्रुव का वैद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण p = q x 2l
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields LAQ 2.1
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प्रश्न 3.
वैद्युत-द्विध्रुव तथा वैद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण से आप क्या समझते हैं? (2017)
या
एकसमान तीव्रता वाले वैद्युत क्षेत्र में वैद्युत द्विध्रुव पर लगने वाले बल-युग्म के आघूर्ण का सूत्र प्राप्त कीजिए। (2012, 17)
या
एकसमान वैद्युत क्षेत्र में एक वैद्युत-द्विध्रुव पर लगने वाले बल-आघूर्ण का व्यंजक प्राप्त कीजिए। इसके आधार पर वैद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण की परिभाषा दीजिए। (2014)
उत्तर-
वैद्युत-द्विध्रुव तथा वैद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण- वह वैद्युत निकाय (system) जिसमें दो बराबर, परन्तु विपरीत प्रकार के बिन्दु-आवेश एक-दूसरे से बहुत कम दूरी पर रखे हों, “वैद्युत-द्विध्रुव’ कहलाता है। दोनों आवेशों में से किसी एक आवेश और दोनों आवेशों के बीच की दूरी के गुणनफल को ‘द्विध्रुव’ का वैद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण (electric dipole moment) कहते हैं। इसे प्रायः p से प्रदर्शित करते हैं।
(i) द्विध्रुव पर शुद्ध स्थानान्तर बल F = qE – qE = 0
(ii) एकसमान वैद्युत-क्षेत्र में रखे वैद्युत-द्विध्रुव पर बल-युग्म–यदि किसी वैद्युत-द्विध्रुव को एकसमान वैद्युत-क्षेत्र (E) में रखा जाए तो उसके आवेशों पर समान और विपरीत बल -qE तथा +qE (अर्थात् एक बल-युग्म) कार्य करने लगता है। यह बल-युग्म द्विध्रुव को क्षेत्र की दिशा में संरेखित (UPBoardSolutions.com) करने का प्रयत्न करता है। इसे प्रत्यानयन बल-युग्म’ कहते हैं। माना एक वैद्युत-द्विध्रुव एकसमान वैद्युत-क्षेत्र (E) में क्षेत्र से 8 कोण बनाते हुए रखा गया है। +q तथा – q पर लगने वाले बराबर एवं विपरीत बले (+qE व -qE) एक बल-युग्म बनाते हैं जो द्विध्रुव को घुमाकर क्षेत्र E की दिशा में लाने का प्रयत्न करता है। इस प्रत्यानयन बल-युग्म का आघूर्ण
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प्रश्न 4.
वैद्युत द्विध्रुव की स्थितिज ऊर्जा से आप क्या समझते हैं? एकसमान वैद्युत क्षेत्र में स्थित द्विध्रुव की स्थितिज ऊर्जा का व्यंजक प्राप्त कीजिए, जबकि द्विध्रुव के अक्ष क्षेत्र से 6 कोण बनाएँ।
उत्तर-
वैद्युत द्विध्रुव की स्थितिज ऊर्जा- वैद्युत क्षेत्र में किसी वैद्युत द्विध्रुव की स्थितिज ऊर्जा उस कार्य के बराबर होती है जो कि द्विध्रुव को अनन्त से क्षेत्र के भीतर लाने में करना पड़ता है। एकसमान वैद्युत क्षेत्र में वैद्युत द्विध्रुव की स्थितिज ऊर्जा के लिए व्यंजक- माना कि एक वैद्युत द्विध्रुव AB को अनन्त से किसी एकसमान वैद्युत क्षेत्र E में इस प्रकार लाया जाता है कि द्विध्रुव आघूर्ण p सदैव क्षेत्र B की (UPBoardSolutions.com) दिशा में रहे (चित्र 1.21)। क्षेत्र E के कारण द्विध्रुव के आवेश +q पर एक बल F (= qE) क्षेत्र की दिशा में तथा आवेश -q पर उतना ही बल F (= qE) विपरीत दिशा में कार्य करता है। अतः द्विध्रुव को क्षेत्र में लाने के लिए, आवेश +q पर बाहरी कर्ता द्वारा कार्य किया जाएगा जो धनात्मक होगा, जबकि -q आवेश पर स्वयं क्षेत्र कार्य करेगा, अर्थात् कार्य प्राप्त होगा जो ऋणात्मक होगा। परन्तु चित्र 1.21 से स्पष्ट है कि अनन्त से क्षेत्र के भीतर – q आवेश को लाने में प्राप्त कार्य +q को लाने में किए जाने वाले कार्य से अधिक होगा। बिन्दु A तक लाने में प्राप्त कार्य तथा किया गया कार्य बराबर होंगे। अत: वे एक-दूसरे को निरस्त कर देंगे। अतः द्विध्रुव को स्थिति AB तक लाने में नेट कार्य -q आवेश को A से B तक लाने में प्राप्त कार्य के बराबर होगा, जो ऋणात्मक होगी।
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields LAQ 4.1
प्रश्न 5.
+3.2 x 10-19 कूलॉम तथा -3.2 x 10-19 कूलॉम के दो बिन्दु आवेश एक-दूसरे से 2.4 x 10-10 मीटर की दूरी पर रखे हैं। यह द्विध्रुव 4 x 105 वोल्ट/मीटर तीव्रता के समांगी वैद्युत-क्षेत्र में स्थित है। ज्ञात कीजिए।
(i) वैद्युत-द्विध्रुव आघूर्ण,
(ii) द्विध्रुव को साम्यावस्था से 180° घुमाने में आवश्यक कार्य तथा
(iii) साम्यावस्था में वैद्युत-द्विध्रुव की स्थितिज ऊर्जा। (2012)
हल-
(i) p. = q x 2l = 3.2 x 10-19 कूलॉम x 2.4 x 10-10 मीटर = 7.68 x 10-29 कूलॉम-मीटर
(ii) वैद्युत-द्विध्रुव को साम्यावस्था अर्थात् वैद्युत-क्षेत्र E की दिशा से θ कोण घुमाने में आवश्यक कार्य
W = pE (1 – cos θ)
यहाँ θ = 180° एवं p = 7.68 x 10-29 कूलॉम-मीटर
E = 4.0 x 105 वोल्ट/मीटर।
W = (7.68 x 10-29) x (4.0 x 105) x (1 – cos 180°)
= (7.68 x 10-29) x (4.0 x 105) x 2 (∵ cos 180° = – 1)
= 6.144 x 10-28 जूल

(iii) वैद्युत-क्षेत्र E में द्विध्रुव को साम्यावस्था से से कोण पर रखे होने पर इसकी स्थितिज ऊर्जा
U = – pE cos θ
जहाँ θ = द्विध्रुव की अक्ष तथा इसकी साम्यावस्था अर्थात् वैद्युत-क्षेत्र की दिशा के बीच स्थित कोण साम्यावस्था में θ = 0°,
अत: U0 = – pE (cos 0° = 1)
यहाँ p = 7.68 x 10-29 कूलॉम-मीटर
E = 4.0 x 105 वोल्ट/मीटर
U0 = – (7.68 x 10-29) x (4.0 x 105) जूल = -3.072 x 10-23 जूल

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प्रश्न 6.
दो एक जैसे वैद्युत-द्विध्रुव AB तथा CD जिनके प्रत्येक के द्विध्रुव आघूर्ण P हैं तथा 120° कोण पर चित्रानुसार रखे हैं। इस संयोजन का परिणामी द्विध्रुव आघूर्ण ज्ञात कीजिए। यदि +x दिशा में एक समरूप वैद्युत क्षेत्र में आरोपित हो तब-संयोजन पर कार्य करने वाले बल-आघूर्ण का मान क्या होगा? (2014)
हल-
माना दोनों आवेशों के बीच की दूरी = 2a
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UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields LAQ 6.2

प्रश्न 7.
स्थिर वैद्युत में गौस की प्रमेय क्या है? (2010, 11, 14, 17, 18)
या
सिद्ध कीजिए कि किसी बन्द पृष्ठसे गुजरने वाला वैद्युत-फ्लक्स उस पृष्ठ द्वारा परिबद्ध कुल आवेश q का 1/ε0 गुना होता है, जहाँ ε0 मुक्त आकाश (free space) की वैद्युतशीलता है। (2009, 16)
या
गौस-प्रमेय लिखिए। सिद्ध कीजिए कि किसी बन्द पृष्ठ से गुजरने वाला नेट वैद्युत-फ्लक्स उस पृष्ठ द्वारा परिबद्ध कुल आवेश q का 1/ε0 गुना होता है, जहाँ ε0 मुक्त आकाश की वैद्युतशीलता है।
या
वैद्युत-स्थैतिकी में गौस की प्रमेय लिखिए तथा उसको सिद्ध कीजिए। (2014, 15, 18)
या
स्थिर-विद्युतिकी (वैद्युत-स्थैतिकी) में गौस के नियम का उल्लेख कीजिए। (2014)
उत्तर-
गौस की प्रमेय (Gauss Theorem)- गौस की प्रमेय वैद्युत-क्षेत्र के कारण किसी बन्द पृष्ठ से निर्गत वैद्युत-फ्लक्स तथा उस पृष्ठ से परिबद्ध कुल वैद्युत आवेश के बीच सम्बन्ध व्यक्त करती है। इसके अनुसार–“किसी वैद्युत-क्षेत्र में स्थित बन्द पृष्ठ से निर्गत सम्पूर्ण वैद्युत-फ्लक्स का मान उस पृष्ठ द्वारा परिबद्ध कुल आवेश का (1/ε0) गुना होता है।”
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields

प्रश्न 8.
गौस की प्रमेय से कूलॉम के नियम का निगमन कीजिए। (2018)
या
गौस-प्रमेय की सहायता से दो बिन्दु आवेशों के बीच कार्य करने वाले बल के लिए व्यंजक प्राप्त कीजिए। (2011)
उत्तर-
माना कोई विलगित बिन्दु आवेश +q, वायु या निर्वात् में बिन्दु O पर रखा है। इससे दूरी पर एक बिन्दु P है। इस बिन्दु से गुजरता हुआ q को परिबद्ध किये हुए एक गोलीय (UPBoardSolutions.com) गौसियन-पृष्ठ खींचा गया है। इस बिन्दु पर q के कारण वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता O से P की दिशा में पृष्ठ के लम्बवत् होगी। P के परित: किसी पृष्ठ अवयव के क्षेत्रफल dA का क्षेत्रफल सदिश dA भी E की दिशा में होगा (चित्र 1.24)।
UP Board Solutions for Class 12 Physics Chapter 1 Electric Charges and Fields LAQ 8.1
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यही कूलॉम का नियम है जो कि गौस-प्रमेय से व्युत्पन्न किया गया है। इस प्रकार, स्थिर विद्युतिकी में कूलॉम का नियम तथा गौस का नियम परस्पर तुल्य हैं। ये दो भौतिक नियम नहीं हैं, बल्कि एक ही नियम है जिसे विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया गया है।

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प्रश्न 9.
गौस के नियम का उपयोग करके एक अनन्त लम्बाई के पतले, सीधे एकसमान आवेशित तार द्वारा उत्पन्न वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता के लिए एक व्यंजक का निगमन कीजिए। (2012)
या
वैद्युत-स्थैतिकी में गौस की प्रमेय बताइए। इसका उपयोग करके एकसमान आवेशित लम्बे तार के निकट वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता के लिए व्यंजक व्युत्पन्न कीजिए। (2011, 13)
या
स्थिर-विद्युतिकी (वैद्युत-स्थैतिकी) का गौस प्रमेय लिंखिए। इसकी सहायता से एक समान रूप से आवेशित अनन्त लम्बाई के सीधे तार के निकट वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता के लिए व्यंजक प्राप्त कीजिए। (2015)
या
अनन्त लम्बाई के समान रूप से आवेशित सीधे तार के निकट वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता का व्यंजक गौस के प्रमेय की सहायता से प्राप्त कीजिए। (2017, 18)
उत्तर-
गौस की प्रमेय-दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 7 का उत्तर देखिए। अनन्त लम्बाई के आवेशित तार के निकट वैद्युत-क्षेत्र की Y ) , तीव्रता-चित्र 1.25 में एक अनन्त लम्बाई (UPBoardSolutions.com) का चालक तार प्रदर्शित है। जिसके आवेश का रेखीय घनत्व १ कूलॉम प्रति मीटर है। माना यह तार K परावैद्युतांक वाले माध्यम में रखा है। इसकी अक्ष से दूरी पर एक बिन्दु P है जहाँ इस चालक तार के कारण वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात करनी है।
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चित्र 1.25 में इस चालक तार के चारों ओर r त्रिज्या का एक ऐसा बेलन दर्शाया गया है जिसकी लम्बाई । है तथा प्रेक्षण बिन्दु P इसके वक्र-पृष्ठ पर है। इस बेलन की अक्ष तथा तार की अक्ष एक ही है। चूंकि तार समान रूप से आवेशित है, अत: इसकी अक्ष से समान दूरी पर स्थित प्रत्येक बिन्दु पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता के समान होगी तथा इसकी दिशा अक्ष के लम्बवत् बाहर की ओर होगी। अतः (UPBoardSolutions.com) वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता की दिशी इस बेलन के अनुप्रस्थ काट के चित्र 1.25 समान्तर है। अत: इस बेलन के समतल पृष्ठों से गुजरने वाला वैद्युत-फ्लक्स शून्य होगा क्योंकि इसका क्षेत्रफल वेक्टर A, वेक्टर E के लम्बवत् होगा, इसलिए वैद्युत-फ्लक्स

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प्रश्न 10.
गौस के नियम का उपयोग करके एक समान आवेशित अनन्त समतल चादर के कारण विद्युत क्षेत्र ज्ञात कीजिए। (2017)
या
गौस के नियम का प्रयोग करते हुए एक असीमित (अनन्त) विस्तार वाली आवेशित समतल चादर के निकट वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात कीजिए। (2015, 16)
या
वैद्युत स्थैतिकी में गौस-नियम का उल्लेख कीजिए। इस नियम का उपयोग करके अनन्त विस्तार की समतल आवेशित अचालक प्लेट के निकट वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात कीजिए। (2011)
या
वैद्यत स्थैतिकी में गौस की प्रमेय का उल्लेख कीजिए। इसकी सहायता से अनन्त विस्तार की समतल आवेशित प्लेट के निकट वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात कीजिए। (2013, 17)
उत्तर-
गौस की प्रमेय (Gauss’ Theorem)- दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 7 में देखिए।
अनन्त विस्तार की समतल आवेशित प्लेट के कारण किसी निकट बिन्दु पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता- चित्र 1.26 में BCDG एक अनन्त विस्तार की आवेशित समतल प्लेट है, जिसकी मोटाई नगण्य है। इस प्रकार की प्लेट के दोनों पृष्ठों पर समान आवेश होता है। माना इसके प्रत्येक पृष्ठ पर आवेश का पृष्ठ घनत्व 0 है।
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यदि प्लेट धनावेशित है तो इसके कारण वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता प्लेट के लम्बवत् बाहर की ओर होती है। और यदि प्लेट ऋणावेशित है तो तीव्रता प्लेट के लम्बवत् अन्दर की ओर होती है। चित्रे 1.26 में धनावेशित प्लेट दिखायी गयी है।

माना इस प्लेट के निकट बिन्दु P पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात करनी है। इसके लिए इसे प्लेट के आर-पार एक बेलनाकार गौसियन पृष्ठ की कल्पना करते हैं जिसकी अनुप्रस्थ काट P के परितः। क्षेत्रफल अवयव dA है जो सीट (प्लेट) के समान्तर है। बेलन के P तथा P’ सिरे प्लेट से (UPBoardSolutions.com) समान दूरी पर हैं। सिरे P पर dA के प्रत्येक बिन्दु पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता (E) समान होगी। यह वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता पृष्ठ के लम्बवत् बाहर की ओर होगी। क्षेत्रफल अवयव dA को क्षेत्रफल सदिश dA से प्रदर्शित किया गया है जो E की ही दिशा में होगा। अत: सिरे P पर इस पृष्ठ से गुजरने वाला वैद्युत-फ्लक्स-
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प्रश्न 11.
गौस प्रमेय की सहायता से अनन्त विस्तार की समतल आवेशित चालक प्लेट के कारण वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता के सूत्र का निगमन कीजिए। (2012)
उत्तर-
माना अनन्त विस्तार एवं परिमित लघु मोटाई की एक धन-आवेशित ‘समतल चालक प्लेट निर्वात् (अथवा वायु) में स्थित है (चित्र 1.27)। चूँकि प्लेट एक ‘समतल (UPBoardSolutions.com) चालक है, अत: प्लेट को दिया गया सम्पूर्ण आवेश प्लेट के बाह्य पृष्ठों 1 व 2 पर एकसमान रूप से वितरित हो जाता है। प्लेट के भीतर वैद्युत क्षेत्र सर्वत्र शून्य होता है तथा प्लेट के पृष्ठों पर एवं समीपवर्ती बाह्य बिन्दुओं पर वैद्युत क्षेत्र प्लेट के पृष्ठों के लम्बवत् होता है। माना कि प्लेट पर आवेश की पृष्ठ-घनत्व ० है।

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धन-आवेशित चालक प्लेट के कारण वैद्युत क्षेत्र की दिशा प्लेट के लम्बवत् तथा प्लेट से परे की ओर को दिष्ट है। यदि प्लेट ऋण-आवेशित हो तब क्षेत्र की दिशा प्लेट के लम्बवत् तथा प्लेट की ओर को दिष्ट होगी। हमने उपरोक्त सूत्र एक समतल आवेशित चालक के लिए प्राप्त किया है। वास्तव (UPBoardSolutions.com) में यह किसी भी आकृति’ के चालक के लिए सत्य है। इस सूत्र से स्पष्ट है कि अनन्त विस्तार के आवेशित चालक के ‘निकट’ किसी बिन्दु पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता चालक के क्षेत्रफल अथवा चालक से इस बिन्दु की दूरी पर निर्भर नहीं करती। इसका अर्थ है कि चालक के निकट’ सभी बिन्दुओं पर वैद्युत क्षेत्र की तीव्रता समान होती है।

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प्रश्न 12.
एकसमान आवेशित गोलीय कोश के कारण उसके पृष्ठ के किसी बिन्दु पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता का व्यंजक प्राप्त कीजिए। (2015)
या
एकसमान आवेशित गोलीय कोश के कारण उसके पृष्ठ पर, कोश के बाह्य बिन्दु पर तथा कोश के भीतर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता का व्यंजक ज्ञात कीजिए।
या
गौस प्रमेय की सहायता से किसी आवेशित गोलीय कोश के बाहर किसी बिन्दु पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात कीजिए। (2015, 16, 17)
या
एकसमान आवेशित गोलीय कोश के कारण विद्युत क्षेत्र की तीव्रता का व्यंजक गौस के नियम के आधार पर प्राप्त कीजिए जबकि बिन्दु कोश के
(i) बाहर,
(ii) पृष्ठ पर तथा
(iii) भीतर स्थित है। (2017)
उत्तर-
माना कि त्रिज्या R का एक विलगित (isolated) गोलीय कोश है जिस पर ओवश +qएकसमान रूप से वितरित है। हमें इस कोश के बाहर, कोश के पृष्ठ पर तथा कोश के भीतर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात करनी है।

बाह्य बिन्दु पर (At an External Point)- माना कि आवेशित कोश के केन्द्र O (चित्र 1.28) से दूरी r पर (r > R) एक बिन्दु P है जिस पर वैद्युत क्षेत्र की (UPBoardSolutions.com) तीव्रता ज्ञात करनी है। इसके लिये, हम बिन्दु P से गुजरने वाला, त्रिज्या F का संकेन्द्री गोलीय पृष्ठ खींचते हैं जिसे गौसियन पृष्ठ’ (Gaussian surface) कहते हैं। आवेश-वितरण की सममिति के कारण, गौसियन पृष्ठ के सभी बिन्दुओं पर वैद्युत-क्षेत्र का परिमाण E समान होगा तथा दिशा बाहर की ओर को त्रिज्यतः (radially outward) होगी।
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प्रश्न 13.
गौस की प्रमेय बताइए। एकसमान रूप से आवेशित अचालक गोले के कारण किसी बाह्य बिन्दु पर उत्पन्न वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता के लिए व्यंजक प्राप्त कीजिए। (2010, 12)
या
‘R’ त्रिज्या के एकसमान रूप से आवेशित अचालक गोले के केन्द्र से (r < R) दूरी पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता का व्यंजक ज्ञात कीजिए। (2012)
उत्तर-
गौस की प्रमेय- दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 7 में देखिए।
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माना R त्रिज्या का एक विलगित (isolated) अचालक (non-conducting) ठोस गोला है जिसके सम्पूर्ण आयतन में 2 आवेश एकसमान रूप से वितरित है। इसके केन्द्र O से r दूरी पर स्थित बिन्दु P पर इसके कारण उत्पन्न वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता ज्ञात करनी है, जबकि r < R.

यह बिन्दु P गोले के भीतर केन्द्र O से r दूरी पर है। P पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता प्राप्त करने के लिए बिन्दु P से गुजरने वाली गोलीय गौसियन पृष्ठ खींचते हैं। P के परित: (UPBoardSolutions.com) गौसियन पृष्ठ के अल्पांश क्षेत्रफल अवयव dA का क्षेत्रीय सदिश dA भी पृष्ठ के लम्बवत् अर्थात् है की दिशा में ही होगा अर्थात् उनके बीच कोण शून्य है। अत: क्षेत्रफल अवयव dA से होकर जाने वाला वैद्युत-फ्लक्स
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प्रश्न 14.
एकसमान आवेशित अचालक गोले के भीतर किसी बिन्दु पर गौस प्रमेय की सहायता से वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता का सूत्र स्थापित कीजिए। (2013)
उत्तर-
माना कि बिन्दु P गोले के भीतर केन्द्र0 से दूरी पर है। (चित्र 1.31)।
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P पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता प्राप्त करने के लिए। बिन्दु P से गुजरने वाला गोलीय गौसियन पृष्ठ खींचते हैं। माना आवेशित गोले के कारण P पर उत्पन्न वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता में है। आवेश वितरण की सममिति के कारण गौसियन पृष्ठ के प्रत्येक बिन्दु पर वैद्युत-क्षेत्र की तीव्रता का परिमाण E समान (UPBoardSolutions.com) होगा तथा दिशा पृष्ठ के लम्बवत् होगी। P के परित: गौसियन पृष्ठ के अल्पांश क्षेत्रफल अवयव dA को चित्र 1.31 क्षेत्रीय सदिश dA भी पृष्ठ के लम्बवत् अर्थात् है की दिशा में ही होगी अर्थात् उनके बीच कोण शून्य है। अत: क्षेत्रफल अवयव dA से होकर जाने वाला वैद्युत फ्लक्स
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UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 2 Social Change and Social Order in Rural and Urban Society

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 2 Social Change and Social Order in Rural and Urban Society (ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था) are part of UP Board Solutions for Class 11 Sociology. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 2 Social Change and Social Order in Rural and Urban Society (ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था)

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Sociology
Chapter Chapter 2
Chapter Name Social Change and Social Order in Rural and Urban Society
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 2 Social Change and Social Order in Rural and Urban Society (ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था)

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आप इस बात से सहमत हैं कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना है? अपने उत्तर के लिए कारण दें।
उत्तर
भारत जैसे परंपरागत समाज में भी सामाजिक परिवर्तन तुलनात्मक रूप से एक नवीन घटना है। अधिकांश सामाजिक परिवर्तनों का स्रोत अंग्रेजी शासनकाल को माना जाता है। इसी काल में परंपरागत भारतीय समाज के सभी प्रमुख पहलुओं, विशेष रूप से गाँव, जाति तथा संयुक्त परिवार, में दूरगामी एवं तीव्र परिवर्तन प्रारंभ हुए। नगरीकरण, औद्योगीकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण, लौकिकीकरण, जैसी प्रक्रियाएँ भारत में तीव्र सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी रही हैं। प्रजातंत्रीकरण एवं राजनीतिकरण ने भी समाज में हो रहे परिवर्तनों को तीव्र गति प्रदान करने में सहायता दी है।

सामाजिक परिवर्तन उन परिवर्तनों को इंगित करता है जो महत्त्वपूर्ण है अर्थात् जो किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की मूलाधार संरचना को समयावधि में बदल दें। परिवर्तन का ‘बड़ा होना इस बात से नहीं मापा जाता है कि वह कितना परिवर्तन लाता है, अपितु यह परिवर्तन के पैमाने में मापा जाता है अर्थात् परिवर्तन समाज के कितने बड़े भाग को परिवर्तित करता है। यदि वह समाज के अधिकांश भाग को प्रभावित करता है तो उसे हम तीव्र सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

यह सही है कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना भी है। समाजशास्त्र का उद्भव ही इस तीव्र सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप समाज में होने वाले बदलाव को समझने के प्रयास से हुआ है। तीन ऐसी प्रमुख घटनाएँ मानी जाती हैं जो तीव्र सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं-“औद्योगिक क्रांति, फ्रांसीसी क्रांति तथा ज्ञानोदय। इन घटनाओं ने न केवल पूरे यूरोप के सामजों को हिलाकर रख दिया अपितु गैर-यूरोपीय समाजों पर भी इनका दूरगामी प्रभाव पंड़ा। चूंकि इन घटनाओं का संबंध पिछली दो-तीन शताब्दियों से ही है, इसलिए सामाजिक परिवर्तन को नवीन घटना माना जाता है। इससे पहले समाज में इतने व्यापक स्तपर पर कभी भी परिवर्तन नहीं हुए थे।

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प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों से किस प्रकार अलग किया जा सकता है?
उत्तर
‘सामाजिक परिवर्तन’ समाजशास्त्र की एक विशिष्ट संकल्पना है। इस नाते समाजशास्त्र में इसका उपयोग भी विशिष्ट अर्थों में किया जाता है। गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन जीवन के स्वीकृत प्रकारों में परिवर्तन है। भले ही ये परिवर्तन भौगोलिक दशाओं से हुए हों, या सांस्कृतिक साधनों पर जनसंख्या की रचना अथवा सिद्धांतों के परिवर्तन से हुए हों, या प्रसार से या समूह के अंदर ही आविष्कार से हुए हों।” वस्तुत: सामाजिक परिवर्तन समाज के विभिन्न पक्षों में होने वाला परिवर्तन है जिससे सामाजिक संबंध और सामाजिक संस्थाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

‘सामाजिक परिवर्तन’ एक सामान्य संकल्पना है जिसका प्रयोग किसी भी ऐसे परिवर्तन के लिए किया जा सकता है जो अन्य संकल्पना द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से सामाजिक परिवर्तन अन्य परिवर्तनों से भिन्न है। उदाहरणार्थ-यह आर्थिक तथा राजनीतिक परिवर्तन से भिन्न है। इसी भाँति, यह भौगोलिक या संस्कृति में होने वाले परिवर्तन से भिन्न है। समाजशास्त्रियों को इसके व्यापक अर्थ को विशिष्ट बनाने के लिए काफी परिश्रम करना पड़ा है।

अन्य परिवर्तनों से भिन्न होने के बावजूद एक विस्तृत संकल्पना होने के नाते सामाजिक परिवर्तन को उनसे अलग कर पाना कठिन है। इतना ही नहीं, अनेक राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक कारण सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं। उदाहरणार्थ-श्रम-विभाजन का विकास एक आर्थिक परिवर्तन है परंतु इसका अध्ययन समाजशास्त्र में भी इसलिए किया जाता है क्योंकि इसके समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। मतदान व्यवहार राजनीतिक व्यवहार है परंतु समाजशास्त्र में इसका अध्ययन इसलिए किया जाता है क्योंकि यह व्यवहार अनेक सामाजिक कारकों से प्रभावित होता है।

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प्रश्न 3.
संरचनात्मक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? पुस्तक से अलग उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
संरचनात्मक परिवर्तन से अंभिप्राय सामाजिक संरचना में होने वाला परिवर्तन है। सामाजिक संरचना से अभिप्राय किसी इकाई के अंगों की क्रमबद्धता से है। समाज में व्यक्ति आपसी संबंधों में बँधकर उपसमूहों का निर्माण करते हैं तथा विभिन्न उपसमूह आपस में बँधकर समूहों का निर्माण करते। हैं। संरचनात्मक परिवर्तन समाज की संरचना, इसकी संस्थाओं अथवा नियमों, जिनसे संरचना अपना स्थायित्व बनाए रखती है, में होने वाले परिवर्तन को दर्शाता है। मूल्यों एवं मान्यताओं में परिवर्तन भी सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं। इनको हम संरचनातमक परिवर्तन नहीं कहते हैं। यदि मूल्यों एवं मान्यताओं में होने वाले परिवर्तन सामाजिक संरचना को परविर्तित कर दें तो इन्हें भी संरचनात्मक परिवर्तन कहा जा सकता है। भारत में जाति व्यवस्था, संयुक्त परिवार, हिंदू विवाह इत्यादि में होने वाले परिवर्तनों से संपूर्ण भारतीय सामाजिक संरचना परिवर्तित हुई है क्योंकि इनसे जुड़े मूल्यों एवं मान्यताओं के बदलते ही परंपरागत सामाजिक संरचना का स्वरूप भी परिवर्तित हो गया है।

इसी प्रकार, औद्योगीकरण, नगरीकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण, लौकिकीकरण जैसी प्रक्रियाओं की परंपरागत भारतीय सामाजिक संरचना के स्वरूप को बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इन प्रक्रियाओं ने भारतीय सामाजिक संरचना के लगभग सभी परंपरागत लक्षणों को परिवर्तित किया है। उदाहरणार्थ-जातीय श्रेणियों में पाए जाने वाले संस्तरण पर आधारित परंपरागत सामाजिक संरचना जातीय निषेधों में होने वाले परिवर्तनों के परिणामस्वरूप परिवर्तित हो गई हैं।

जिंसंबैर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “सामाजिक संरचना सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों, अर्थात् समितियों, समूह तथा संस्थाओं के प्रकार एवं इनकी संपूर्ण जटिलता जिनसे कि समाज का निर्माण होता है, से संबंधित है।”

प्रश्न 4.
पर्यावरण संबंधित कुछ सामाजिक परिवर्तनों के बारे में बताइए।
उत्तर
‘पर्यावरण’ शब्द दो शब्दों से बना होता है – ‘परि’ + ‘आवरण’। ‘परि’ शब्द का अर्थ होता है चारों ओर से’ एवं ‘आवरण’ शब्द का अर्थ होता है। ‘ढके या घेरे हुए’। अन्य शब्दों में, पर्यावरण शब्द का अर्थ वह वस्तु है, जो हमसे अलग होने पर भी हमें चारों ओर से ढके या घेरे रहती हैं। इस प्रकार, किसी जीव या वस्तु को जो-जो वस्तुएँ, विषय, जीव एवं व्यक्ति आदि प्रभावित करते हैं, वे सब उसका पर्यावरण हैं। जिसबर्ट (Gisbert) के अनुसार, “प्रत्येक वह वस्तु, जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरती एवं उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालती है, पर्यावरण है।” प्रकृति, पारिस्थितिकी तथा भौतिक पर्यावरण का समाज की संरचना तथा स्वरूप पर सदैव महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता रहा है। इसीलिए सामाजिक परिवर्तन लाने में पर्यावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भूकंप ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़ अथवा समुद्री लहरें (जैसे सुनामी लहरें) समाज को पूर्णरूपेण बदलकर रख देते हैं। यह बदलाव अपरिवर्तनीय होते हैं अर्थात् स्थायी होते हैं तथा चीजों को वापस अपनी पूर्वस्थिति में नहीं आने देते।

उदाहरणार्थ-दिसम्बर 2004 में सुनामी लहरों की चपेट में श्रीलंका, इंडोनेशिया, अंडमान द्वीप तथा तमिलनाडु के कुछ भाग आ गए जिससे हजारों लोग मारे गए और लाखों लोगों का व्यवसाय नष्ट हो गया। यह संभव है कि उनमें से कुछ लोग, पुन: उन व्यवसायों को नहीं पा सकेंगे तथा अधिकांश तटीय गाँवों में सामाजिक संरचना पूर्णत बदल जाएगा। प्राकृतिक विपदाओं के अनेकानेक उदाहरण इतिहास में देखने को मिलते हैं जिन्होंने समाज को पूर्ण रूप से परिवर्तित कर दिया। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण एशिया स्थित खाड़ी के देशों में तेल का मिलना है। जिस प्रकार 19वीं शताब्दी में कैलिफोर्निया में सोने की खोज हुई थी, ठीक उसी प्रकार तेल के भंडारों ने खाड़ी देशों के समाज की संरचना को बदलकर रख दिया है। सऊदी अरब, कुवैत अथवा संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों की स्थिति आज तेल सपंदा के बिना बिल्कुल अलग होती।

प्रश्न 5.
वे कौन-से परिवर्तन हैं जो तकनीक तथा अर्थव्यवस्था द्वारा लाए गए हैं?
उत्तर
तकनीक (प्रौद्योगिकी) तथा अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तन भी सामाजिक परिवर्तन का स्रोत रहे हैं। तकनीकी प्रकृति को विभिन्न तरीकों से नियंत्रित करने, उसके अनुरूप ढालने में अथवा दोहन करने में हमारी सहायता करती है। बाजार जैसी शक्तिशाली संस्था से जुड़कर तकनीकी परिवर्तन अपने सामाजिक प्रभाव की भाँति प्राकृतिक कारकों (जैसे सुनामी अथवा तेल की खोज) की तरह प्रभावी हो सकते हैं। औद्योगिक क्रांति एकं तकनीकी परिवर्तन ही था जिसने न केवल अर्थव्यवस्था को ही बदल दिया अपितु सामाजिक संरचना को भी हिला दिया। वाष्प शक्ति की खोज ने बड़े उद्योगों को उस ताकत से परिचित कराया जो न केवल पशुओं तथा मनुष्यों के मुकाबले कई गुना अधिक थी, अपितु बिना रुकावट के चलने वाली भी थी। इसी शक्ति से यातायात के साधनों का विकास हुआ जिसने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक भूगोल को बदल दिया। वेब्लन जैसे विद्वानों ने तो तकनीक को सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख स्रोत मानी है।

कई बार आर्थिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों जो कि प्रत्यक्षतः तकनीकी नहीं होते, का भी समाज को परिवर्तित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। नकदी फसलों (जैसे गन्ना, चाय अथवा कपास या सब्जियों की खेती) ने श्रम के लिए भारी माँग उत्पन्न की। इस माँग ने 17वी-19वीं शताब्दी के मध्य दासता जैसी संस्था को विकसित किया तथा अफ्रीका, यूरोप एवं अमेरिका के बीच दासों का व्यापार प्रारंभ हो गया। भारत में भी असम के चाय बागानों में काम करने वाले अधिकतर लोग पूर्वी भारत (विशेषकर झारखंड तथा छत्तीसगढ़ के आदिवासी) के थे, जिन्हें बाध्य होकर श्रम के लिए प्रवास करना पड़ा।

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प्रश्न 6.
सामाजिक व्यवस्था का क्या अर्थ है तथा इसे कैसे बनाए रखा जा सकता है?
उत्तर
सामाजिक व्यवस्था को परस्पर अंत:क्रियारत व्यक्तियों अथवा समूहों का कुलक (Set) कहा जा सकता है। यह एक ऐसा कुलक है जिसे सामाजिक इकाई के रूप में देखा जाता है एवं जिसका व्यक्तियों (जो इस कुलक का निर्माण करते हैं) से भिन्न अपना पृथक् अस्तित्व है। स्मेलसर (Smelser) के अनुसार, “सामाजिक व्यवस्था से अभिप्राय संरचनात्मक तत्त्वों से प्रतिमानित संबंधों का एक ऐसा कुलक है जिनमें एक तत्त्व में परिवर्तन इन्य इकाइयों पर अनुकूलन के लिए दबाव डालने अथवा इन्हें भी परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। सामाजिक व्यवस्था समाज में स्थायित्व बनाए। रखने का कार्य करती है। स्थायित्व के लिए यह आवश्यक है कि समाज के विभिन्न अंग कमोबेश वैसे ही बने रहें जैसे वे हैं अर्थात् व्यक्ति लगातार समान नियमों का पालन करता रहे, समान क्रियाएँ एक ही प्रकार के परिणाम दें तथा साधारणतः व्यक्ति तथा संस्थाएँ पूर्वानुमानित’ रूप में आचरण करें। सामाजिक व्यवस्था के सहज संकेंद्रण का स्रोत मूल्यों एवं मानदंडों की साझेदारी से निर्धारित होता है। इन मूल्यों एवं मानदंडों को समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा आने वाली पीढ़ी को हस्तांरित किया जाता है। इसी प्रक्रिया द्वारा सामाजिक व्यवस्था अपनी निरंतरता सुनिश्चित करती है।

सामाजिक व्यवस्था द्वारा सामाजिक परिवर्तन का भी विरोध इसलिए किया जाता है ताकि व्यवस्था में विघटन की परिस्थिति विकसित न हो पाए। इसलिए व्यवस्था की सुस्थापित सामाजिक प्रणालियाँ परिवर्तन का प्रतिरोध कती हैं तथा उसे विनियमित करने का प्रयास करती हैं। सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में सामाजिक संरचना एवं स्तरीकरण की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। समाज के शासक प्रभावशाली वर्ग अधिकतर उन सभी सामाजिक परिवर्तनों का प्रतिरोध करते हैं जो उनकी स्थिति को बदल सकते हैं। वे स्थायित्व में अपना हित समझते हैं। दूसरी ओर, अधीनस्थ अथवा शोषित वर्गों को हित परिवर्तन में होता है। सामान्य स्थितियाँ अधिकांशत: अमीर तथा शक्तिशाली वर्गों की तरफदारी करती है तथा वे परिवर्तन के प्रतिरोध में सफल होती हैं। इससे भी समाज में स्थिरता बनी रहती है।

सामाजिक व्यवस्था की सुस्थापित सामाजिक प्रणालियों का स्थायित्व बनाए रखने की दृष्टि से सदैव यह प्रयास रहता है कि व्यक्ति समाज के नियमों तथा मानदंडों का स्वतः पालन करें। यदि ऐसा संभव न हो तो सामाजिक व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि व्यक्तियों को इन्हें मानने के लिए बाध्य भी किया जा सके। इस प्रकार, सामाजिक व्यवस्था अपना अस्तित्व बनाए रखने हेतु अनेक प्रकार के साधनों का प्रयोग करती है।

प्रश्न 7.
सत्ता क्या है तथा यह प्रभुता एवं कानून से कैसे संबंधित है?
उत्तर
सत्ता का अर्थ वैध शक्ति से है। इसलिए वैधता को समाजशास्त्र की प्रमुख संकल्पना मानी जाता है। वैधता ही शक्ति संतुलन में अंतर्निहित होती है। समाज में ऐसी चीजें जो वैध हैं, वे उचित, सही तथा ठीक मानी जाती हैं। ‘वैधता’ अधिकार, संपत्ति तथा न्याय के प्रचलित मानदंडों की अनुरूपता में निहित है। यदि व्यक्ति के शक्ति प्रयोग करने के अधिकार के पीछे वैधता है तो इसे शक्ति न कहकर ‘सत्ता’ कहते हैं। मैक्स वेबर ने सत्ता को कानूनी शक्ति के रूप में परिभाषित किया है। उदाहरणार्थ-एक पुलिस अधिकारी, एक जज अथवा एक स्कूल शिक्षक आदि सभी व्यक्ति अपने कार्य में निहित सत्ता का प्रयोग करते हैं। कचहरी में जज की आज्ञा का पालन उनके पद में निहित सत्ता के कारण करना पड़ता है। कचहरी से बाहर जज किसी भी अन्य नागरिक की भाँति है। वेबर ने काननी सत्ता के अतिरिक्त परंपरागत एवं चमत्कारिक सत्ता का भी उल्लेख किया है। इसका अर्थ यह है कि शक्ति को वैधता प्रदान करने में कानून के साथ-साथ परंपराओं एवं चमत्कारों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

सत्ता एवं कानून में गहरा संबंध पाया जाता है। सत्ता को स्थायित्व बनाने में कानून की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कानून से डर से ही व्यक्ति सत्ता का अनुपालन करते हैं। यदि सत्ता से कानूनी वैधता वापस ले ली जाए तो वह सत्ता नहीं रहती तथा हो सकता है प्रभुत्व का रूप ग्रहण कर ले। प्रभुत्व में कानून की भूमिका नहीं होती अपितु इसमें ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का नियम लागू होता है। प्रभुता या प्रभुत्व के साथ कानूनी शक्ति अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई नहीं होती है। प्रभुत्व अवैध शक्ति के रूप में भी हो सकता है। उदाहरणार्थ-कालोनी में किसी गुंडे का प्रभुत्व कालोनी वालों को बहुत-सी ऐसी बातें मानने के लिए विवश कर देता है जिसे वे अन्यथा स्वीकार न करें। उस गुंडे के प्रभुत्व का कारण कानूनी सत्ता न होकर उसकी अपनी गुंडागुर्दी (मसस्ल पॉवर) है। कालोनी वाले जानते हैं कि यदि उसकी बात न मानी जाए तो वह लड़ाई-झगड़ा कर सकता है अथवा तोड़-फोड़ पर उतारू हो सकता है।

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प्रश्न 8.
गाँव, कस्बा तथा नगर एक-दूसरे से किस प्रकार भिन्न हैं?
उत्तर
गाँव का अर्थ परिवारों का वह समूह कहा जा सकता है जो एक निश्चित क्षेत्र में स्थापित होता है तथा जिसका एक विशिष्ट नाम होता है। गाँव की एक निश्चित सीमा होती है तथा गाँववासी इस सीमा
के प्रति सचेत होते हैं। उन्हें यह पूरी तरह से पता होता है कि उनके गाँव की सीमा ही उसे दूसरे गाँवो से पृथक् करती है। इसी सीमा में उस गाँव के व्यक्ति निवास करते हैं, कृषि तथा इससे संबंधित व्यवसाय करते हैं तथा अन्य कार्यों का संपादन करते हैं। सिम्स (Sims) के अनुसार, “गाँव वह नाम है, जो कि प्राचीन कृषकों की स्थापना को साधारणतः दर्शाता है।”

समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से गाँवों का उद्भव सामाज़िक संरचना में आए उन महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों से हुआ जहाँ खानाबदोशी जीवन की पद्धति, जो शिकार, भोजन संकलन तथा अस्थायी कृषि पर आधारित थी, का संक्रमण स्थायी जीवन में हुआ। आर्थिक तथा प्रशासनिक शब्दों में गाँव तथा नगर बसावट के दो प्रमुख आधार जनसंख्या का घनत्व तथा कृषि-आधारित आर्थिक क्रियाओं का अनुपात हैं। गाँव में जनसंख्या का घनत्व कम होता है तथा अधिकांश जनसंख्या कृषि एवं इससे संबंधित व्यवसायों पर आधारित होती है।

नगर से अभिप्राय एक ऐसी केंद्रीयकृत बस्तियों के समूह से है जिसमें सुव्यवस्थित केंद्रीय व्यापार क्षेत्र, प्रशासनिक इकाई, आवागमन के विकसित साधन तथा अन्य नगरीय सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं। नगर की परिभाषा देना भी एक कठिन कार्य है। अनेक विद्वानों ने नगर की परिभाषा जनसंख्या के आकार तथा घनत्व को सामने रखकर देने का प्रयास किया है। सोमबर्ट (Sombart) ने घनी जनसंख्या पर बल देते हुए कहा हुए इस संदर्भ में कहा है-“नगर वह स्थान है जो इतना बड़ा है कि उसके निवासी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। निश्चित रूप से नगर का विस्तार गाँव की तुलना में अधिक बड़े क्षेत्र पर होता है।

किंग्स्ले डेविस (Kingsley Davis) का कहना है कि सामाजिक दृष्टि से नगर परिस्थितियों की उपज होती है। उनके अनुसार नगर ऐसा समुदाय है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विषमता पायी जाती है। यह कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता, प्रतियोगिता एवं घनी जनसंख्या के कारण नियंत्रण के औपचारिक साधनों द्वारा संगठित होता है।

कस्बे तथा नगर में अंतर प्रशासनिक परिभाषा का विषय है। एक कस्बा और नगर मुख्यत: एक ही प्रकार के व्यवस्थापन होते हैं जहाँ अंतर उनके आकार के आधार पर होता है। कस्बों का आकार नगरों की तुलना में अपेक्षाकृत कम होता है। जनसंख्या के आकार की दृष्टि से जब बड़े गाँवों के लोगों की प्रवृत्तियाँ नगरीकृत हो जाती हैं तो उन्हें गाँव न कहकर ‘कस्बा’ कहा जाता है। इस प्रकार, कस्बा मानवीय स्थापना का वह स्वरूप है जो अपने जीवनक्रम एवं क्रियाओं में ग्रामीणता और नगरीयता दोनों प्रकार के तत्त्वों को अंतर्निहित करता है। बर्गल (Bergal) के शब्दों में, “कस्बा एक ऐसी नगरीय बस्ती के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो पर्याप्त आयामों के ग्रामीण क्षेत्र पर आधपित्य रखता है।

प्रश्न 9.
ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की कुछ विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर
ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं। इन विशेषताओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
1. प्राथमिक समूहों को महत्त्व – ग्रामीण क्षेत्र में परिवार का महत्त्व अधिक होता है। पारिवारिकता ग्रामीण क्षेत्र की एक प्रमुख विशेषता है। सामाजिक नियंत्रण का एकमात्र साधन परिवार ही है। परिवार के मुखिया का नियंत्रण सभी पर होता है। परिवार की परंपराओं का ध्यान रखकर प्रत्येक कार्य किया जाता है। व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़कर पारिवारिक हितों का ध्यान रखा जाता है।

2. कम जनसंख्या – ग्रामीण क्षेत्र में केवल कुछ सीमित परिवारों के ही सदस्य निवास करते हैं। और कृषि ही उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है। अन्य कोई उद्योग-धंधे न होने के कारण बाहर का कोई व्यक्ति वहाँ जाकर कम ही निवास करता है। अतएव ग्रामीण क्षेत्र में जनसंख्या कम होती है।

3. कृषि व्यवसाय – ग्रामीण क्षेत्र के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती करनी है अतः गाँव के लोग प्रकृति के पुजारी हैं और अपना गाँव छोड़कर दूसरे स्थानों पर जाना पसंद नहीं करते हैं अतएव
ग्रामीण क्षेत्र में प्रकृति पूजा पाई जाती है और गतिशीलता का प्रायः अभाव पाया जाता है।

4. प्रकृति से निकटता – ग्रामीण क्षेत्र के व्यक्ति प्रात:काल से संध्या तक अपने खेतों में काम करते हैं। इसलिए उनकी प्रकृति से निकटता बनी रहती है। प्रकृति से प्रत्यक्ष संबंध ग्रामीण क्षेत्र की एक प्रमुख विशेषता है। ग्रामवासी कृषि के लिए भी प्रकृति पर ही आश्रित होते हैं।

5. समान संस्कृति – ग्रामीण क्षेत्र के व्यक्ति एक-दूसरे को जानते हैं। उन सबका रहन-सहन, खान-पान, उठने-बैठने आदि का तरीका लगभग एक-सा ही होता है। वहाँ सभी रीति-रिवाजों, प्रथाओं आदि को एक ही तरीके से मनाया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में समान संस्कृति के लोग रहते हैं।

6. जाति व्यवस्था की प्रधानता – ग्रामीण क्षेत्र पर बाह्य संस्कृति का प्रभाव नहीं पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्र में गतिशीलता भी कम पायी जाती है, अतएव जाति की सभी विशेषताएँ ग्रामीण क्षेत्रों में पायी जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों को संगठन जाति पर निर्भर है। जाति पंचायतों का ही वहाँ पर महत्त्व है।

7. प्राचीन विश्वासों की मान्यता – ग्रामीण क्षेत्र में भारत की प्राचीनतम संस्कृति के दर्शन हाते हैं। जाँद-टोना, जंतर-मंतर, भूत-प्रेत, पूजा आदि को प्रचलने आज भी ग्रामीण क्षेत्र में देखने को मिलता है। ग्रामीण क्षेत्र में शारीरिक रोगों को भी भगवा की इच्छा समझा जाता है और इसलिए बहुत काल तक उनका इलाज नहीं किया जाता है। यह विश्वास किया जाता है कि रोग हमारे पूर्वजन्म के दुष्कर्मों का प्रतिफल है।

8. संयुक्त परिवार की व्यवस्था – ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि का भी महत्त्व है। कृषि एक ऐसा कार्य है। जिसमें अधिक-से-अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती है, अतएव ग्रामीण क्षेत्र में संयुक्त परिवार व्यवस्था पाई जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में आत्मीयता पायी जाती है। इसलिए भी ग्रामीण क्षेत्रों में संयुक्त परिवार व्यवस्था पायी जाती है। संयुक्त परिवारों में हो रहे विघटन का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्र में कृषि व्यवसाय के कारण ही बहुत कम है।

9. विवाह की पवित्रता – ग्रामीण क्षेत्र में विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता है और पति-पत्नी के संबंधों को पूर्वजन्म का संस्कार माना जाता है। इसलिए एकविवाही परिवारों को महत्त्व दिया जाता है। और स्त्री अपने पति को देवता मानती है। ग्रामीण क्षेत्रों में विवाह-विच्छेद नहीं होते अथवा बहुत ही कम होते हैं।

10. कर्मवाद तथा भाग्यवाद में विश्वास – ग्रामीण क्षेत्रों के व्यक्तियों का दृढ़ विश्वास रहता है कि | जैसे कर्म हम करेंगे वैसे ही हमको फल मिलेंगे और हमारे भाग्य में विद्याता ने जो लिख दिया है वह अवश्य ही होगा। इसलिए वे बहुत-सी बातों को भाग्य पर छोड़ देते हैं। कर्मवाद एवं भौग्यवाद में विश्वास के कारण ग्रामवासी अधिक रूढ़िवादी होते हैं।

11. सरल जीवन – ग्रामीण क्षेत्र के व्यक्तियों के जीवन में बनावट नहीं होती, उनका अंदर व बाहर से व्यवहार समान ही होता है। साधारणतया सरल एवं निष्कपट जीवन उनकी मुख्य विशेषता है।
गाँवों में नगरों की अपेक्षा परस्पर प्रेम और सहयोग की भावना अधिक देखने को मिलती है।

12. जजमानी प्रथा – ग्रामीण क्षेत्र में भूमिपति कृषक या जमींदार खेती करते हैं और भूमिहीन लोग उन जमींदारों की कृषि कार्य में सहायता करते हैं जिसके बदले भूमिपति उनको समय-समय पर अनाज तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करता है। उनके बच्चों के विवाह आदि के उत्सवों पर भी जजमान अपने परिजनों की सहायता करता है। वह कृषक ‘जजमान’ कहलाता है और अन्य उसके सहायक लौहार, बढ़ई, दर्जी, धोबी, नाई आदि ‘परिजन’ कहलाते हैं। इस व्यवस्था को जजमानी प्रथा कहते हैं।

13. अनौपचारिक संबंध – ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक समूहों का विशेष महत्व है। परिवार प्राथमिक समूह का रूप है। परिवार के सदस्यों में रक्त के संबंध पाए जाते हैं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति | को प्रत्यक्ष रूप से जानता है अतएव उनके संबंधों में अनौपचारिकता पायी जाती है।

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प्रश्न 10.
नगरीय क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था के सामने कौन-सी चुनौतियाँ हैं?
उत्तर
नगरीय क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था को अनेक प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इनमें से प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
1. बाल अपराध – नगरीय क्षेत्रों में आर्थिक असमानता, अपरिचय का वातावरण, अत्यधिक जनसंख्या, माता-पिता एवं विद्यालयों के नियंत्रण में शिथिलता आदि अनेक कारणों से बालक अपराधी प्रवृत्तियों की ओर आकृष्ट हो जाते हैं। इसलिए नगरीय क्षेत्रों में बाल अपराध एक प्रमुख समस्या है तथा इस पर प्रभावी नियंत्रण रखना प्रशासन के लिए एक प्रमुख चुनौती बन जाता है।

2. अपराध – बाल अपराध की भाँति नगरीय क्षेत्रों में अपराध एवं श्वेतवसन अपराध भी अधिक होते हैं। आए दिन नगरों में दिन-दहाड़े चोरी, डकैती, हत्या, अपहरण, चेन खींचने अत्यधिक की घटना अखबारों में देखी जा सकती है। अपराधी इन कार्यों को अंजाम देकर पुलिस प्रशासन को खुली चुनौती देते हैं तथा वह इस पर प्रभावी अंकुश नहीं रख पाता।

3. मद्यपान एवं मादक द्रव्य व्यसन – मद्यपान एवं मादक द्रव्ये व्यसन भी नगरीय क्षेत्रों की एक प्रमुख समस्या है। जगह-जगह पर शराब के ठेकों का खोला जाना तथा मादक द्रव्यों का गैर-कानूनी रूप से विक्रय नगरीय क्षेत्रों में इस समस्या का प्रमुख कारण है। स्कूलों तथा कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चों में मादक द्रव्य व्यसन के विस्तार से सभी चिंतित हैं। इसलिए इन पर नियंत्रण रखना भी एक चुनौती है।

4. भ्रष्टाचार – नगरीय क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का बोलबाला होता है। काम करने हेतु सभी दफ्तरों में सुविधा शुल्क के नाम से पैसे लिए जाते हैं। गैर-कानूनी एवं असामाजिक काम करने वाले लोग पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों को घूस देते हैं अथवा उनसे इन कार्यों को करने हेतु महीना बाँध लेते हैं इसीलिए नगरीय क्षेत्रों में भ्रष्टाचार कम होने की बजाय निरंतर बढ़ता जा रहा हैं यह भी एक ऐसी चुनौती है जिसका सामना करने हेतु न तो साधन उपलब्ध है और न ही कोई प्रभावशाली अभिकरण।

5. गन्दी बस्तियाँ – नगरीय क्षेत्रों में एक तो जनसंख्या अत्यधिक होती है तथा दूसरे अधिक सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण अधिकांश उद्योग भी इन्हीं क्षेत्रों में खोले जाते हैं। इससे आवास समस्या विकसित हो जाती है जो अनाधिकृत गन्दी बस्तियों के रूप में प्रतिफलित होती हैं। इन गन्दी बस्तियों का वातावरण ठीक नहीं होता है तथा इनमें अनैतिकता का बोलबाला होता है। इसका बच्चों एवं वहाँ रहने वाले लोगों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। गन्दी बस्तियों को हटाना अथवा इनका विनियमितीकरण करना प्रत्येक बड़े नगर के लिए एक प्रमुख समस्या है।

6. वेश्यावृत्ति – नगरीय क्षेत्रों की चुनौतियों एवं समस्याओं में वेश्यावृत्ति भी प्रमुख है। अधिकांश नगरों में ‘लाल बत्ती क्षेत्र है जहाँ पर संगठित रूप से वेश्याओं के अड्डों का संचालन किया जाता है। इतना ही नहीं, होटलों एवं मकानों में गैर-कानूनी रूप से चलने वाले कालगर्ल रैकेट भी पुलिस के लिए एक चुनौती है। इन पर भी अब तक पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारी नियंत्रण नहीं रख पाए हैं।

7. पारिवारिक विघटन – नगरीय क्षेत्रों में संयुक्त परिवार अनेक एकाकी परिवारों में विभाजित होते जा रहे हैं। पति-पत्नी दोनों को बाहर नौकरी करना, घर पर अधिकांश समय दोनों का न होना, दोनों में वैचारिक मतभेद होना आदि नगरीय क्षेत्रों के परिवारों के सामान्य लक्षण है। कामकाजी महिलाएँ भूमिका-संघर्ष की शिकार हो जाती है तथा पारिवारिक विघटन का सबसे अधिक बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। इतना ही नहीं, नगरीय क्षेत्रों में बुजुर्गों की समस्याएँ भी बढ़ रही हैं। परिवार वाले उन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहते तथा सरकार के पास इतने साधन नहीं है कि उनके लिए अलग वृद्धाश्रम खोले जाएँ यह भी नगरीय क्षेत्रों में प्रमुख चुनौती बन गया है।

8. पर्यावरणीय प्रदूषण – नगरीय क्षेत्रों में वाहन अधिक होते हैं जिनसे निकलने वाला धुआँ वायु प्रदूषण के लिए उत्तरदायी है। विकास के नाम पर बहुमंजिली इमारतों एवं उद्योगों के विकास पर अधिक बल दिया जाता है, जबकि पर्यावरणीय संतुलन हेतु पेड़ लगाने पर कम। उद्योगों से निकलने वाला धुआँ भी प्रदूषण का कारण है। नगरीय क्षेत्रों में पर्यावरणीय प्रदूषण को नियंत्रित करना भी एक चुनौती है जिसका सामना अधिकांश बड़े नगर नहीं कर पा रहे हैं।

क्रियाकलाप आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अपने बड़ों से बात कीजिए तथा अपने जीवन से संबंधित उन चीजों की सूची बनाइए जो उस समय नहीं थीं, जब आपके माता-पिता आपकी उम्र के थे अथवा तब अस्तित्व में नहीं थीं जब आपके नाना-नानी/दादा-दादी आपकी उम्र के थे? (क्रियाकलाप 1)
उत्तर
जब नाना-नानी/दादा-दादी आपकी उम्र के थे तब आधुनिक समय में उपलब्ध अनेक चीजें नहीं थी। उदाहरणार्थ-न तो बिजली थी और न ही बिजली से चलने वाले उपकरण। सारा काम हाथ से करना पड़ता था और उत्पादन हेतु मानवीय शक्ति के साथ-साथ पशु शक्ति को भी अधिकांशतः प्रयोग किया जाता था। आने-जाने के साधन नहीं थे तथा रिश्तेदारों से मिलने के लिए पैदल, घोड़ों पर अथवा ताँगों पर जाने का प्रचलन अधिक था। न अच्छी सड़कें थी, न घर पर पानी की उचित व्यवस्था थी और न ही स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध थीं। रेलगाड़ी, टी०वी०, फ्रिज इत्यादि तक का अधिकांश लोगों को ज्ञान नहीं था।

जब आपके माता-पिता आपकी उम्र के थे तब उस नाना-नानी/दादा-दादी के समय से तो अधिक सुविधाएँ उपलब्ध थीं, परंतु आज की तुलना में वे भी अपर्याप्त थीं। उदाहरणार्थ-नगरीय क्षेत्रों में बिजली थी तथा बिजली से चलने वाले उपकरण भी थे। श्याम-श्वेत टेलीविजन प्रचलित था तथा देखने हेतु चैनल एवं कार्यक्रम अत्यंत सीमित थे। न रंगीन टी०वी० का प्रचलन था, न दूध प्लास्टिक की थैलियों में मिलता था और न ही कपड़ों में जिप का प्रयोग होता था। प्लस्टिक की बाल्टी एवं मग इत्यादि का प्रचलन नहीं था। खाना बनाने के लिए गैस नहीं थी तथा लकड़ी एवं कोयले को ईंधन के रूप में प्रयोग में लाया जाता था। स्टील, ऐलुमिनियम आदि के बर्तनों के स्थान पर पीतल एवं मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग अधिक होता था। आप अपने माता-पिता अथवा दादा-दादी से बात करके वस्तुओं की इस सूची को और आगे बढ़ा सकते हैं।

प्रश्न 2.
फ्रांसीसी क्रांति अथवा औद्योगिक क्रांति किस प्रकार के परिवर्तन लेकर आई? क्या ये परिवर्तन इतने तीव्र अथवा दूरगामी थे कि ‘क्रांतिकारी परिवर्तन के योग्य हो सकें? (क्रियाकलाप 2)
उत्तर
पूरे विश्व की कायापलट करने वाली प्रक्रियाओं में फ्रांसीसी क्रांति तथा औद्योगिक क्रांति का प्रमुख स्थान है। इन दोनों के द्वारा होने वाले परिवर्तनों का संबंध समाज के किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था। सभी क्षेत्रों पर इनके दूरगामी प्रभावों के कारण ही इनसे होने वाले परिवर्तनों को ‘क्रांतिकारी परिवर्तन’ कहा जाता है।

अठारहवीं शताब्दी में फ्रांस में निरंकुश और स्वेच्छाचारी सम्राटों का शासन था। उस समय सामन्तों तथा उच्च पादरियों को विशेषाधिकार प्राप्त थे। वे लोग वैभवपूर्ण तथा ऐश्वर्य का जीवन व्यततीत करते थे, लेकिन जनसाधारण वर्ग की दशा बड़ी शोचनीय थी और उसका जीवन कष्टों से भरपूर था। इसके परिणामस्वरूप 1789 ई० में फ्रांस में एक खूनी क्रांति हुई, जिसने शीघ्र ही भीषण रूप धारण कर लिया। फ्रांस में निरंकुश राजतंत्र का अंत करके लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की गई। इस क्रांति में फ्रांस का सम्राट लुई सोलहवाँ, उसकी रानी मेरी अंतायनेत और उनके हजारों साथियों को गुलोटिन द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। इस क्रांति के कारण 25 वर्ष तक संपूर्ण यूरोप युद्ध की आग में जलता रहा। हजारों नगर बरबाद हो गए और लाखों व्यक्ति मारे गए। यह संपूर्ण रक्तपात, जो बास्तील के पतन (14 जुलाई, 1789 ई०) से आंरभ हुआ और वाटरलू के युद्ध (18 जून, 1815 ई०) के बाद समाप्त हुआ, फ्रांस की क्रांति का घटनाक्रम कहलाता है।

फ्रांस की क्रांति विश्व की एक महानतम घटना थी। इसके बड़े दूरगामी परिणाम हुए। इनमें सदियों से चली आ रही यूरोप की पुरातन व्यवस्था (Ancient Regime) का अंत, मध्यकालीन समाज की सामंती व्यवस्था का अंत, मानव जाति की स्वाधीनता के लिए ‘मानव और नागरिकों के जन्मजात अधिकारों की घोषणा’ (27 अगस्त, 1789 ई०), सारे यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास और प्रसार, धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा का विकास, लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत का प्रतिपादन, मानव जाति को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा प्रदान किया जाना, इंग्लैंड, आयरलैंड तथा अन्य यूरोपीय देशों की विदेशी नीति का प्रभावित होना, समाजवादी व्यवस्था का मार्ग खोलना तथा कृषि, उद्योग, कला, साहित्य, राष्ट्रीय शिक्षा तथा सैनिक गौरव के क्षेत्र में होने वाली अभूतपूर्व उपलब्धियाँ प्रमुख हैं।

फ्रांस की क्रांति की भाँति, इंग्लैंड में अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उत्पादन की तकनीक और संगठन में आश्चर्यजनक परिवर्तन से प्रारंभ हुई। औद्योगिक क्रांति ने भी बड़े पैमाने के उद्योगों का सूत्रपात किया। इसके परिणामस्वरूप हुए परिवर्तनों को क्रान्तिकारी परिवर्तन’ कहा जाता है। इस क्रांति से नए समाज का जन्म हुआ। समाज में प्रचलित रीति-रिवाज, रहन-सहन का स्तर, खान-पान, धार्मिक विश्वास, विज्ञान तथा साहित्य आदि के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए जिससे एक नए समाज का प्रादुर्भाव हुआ। न केवल मनुष्य को अपना जीवन बिताने में अधिक सुख तथा सुविधा प्राप्त हुई, अपितु संयुक्त परिवार समाप्त होने प्रारंभ हो गए तथा उनका स्थान पर छोटे-छोटे परिवारों ने ले लिया। महिलाओं को भी स्वतंत्र प्राप्त हुई। उन्हें समान अधिकार मिलने प्रारंभ हुए तथा वे स्वावलंबन की ओर आगे बढ़ने लगीं। मध्यम वर्ग का उदय भी औद्योगिक क्रांति का ही परिणाम माना जाता है। औद्योगिक क्रांति ने उद्योगों में कार्य करने वाले मजदूरों का जीवन बड़ा संकटमय बना दिया। उनको न केवल वेतन कम दिया जाता था अपितु उनके जीवन की सुरक्षा की चिंता पूँजीपतियों को नहीं थीं।

लोगों के रहन-सहन के स्तर में वृद्धि, वर्ग-संघर्ष को उदय, औद्योगिक नगरों का विकास, घरेलू उद्योग-धंधों का विनाश भी औद्योगिक क्रांति के दूरगामी प्रभाव रहे हैं। औद्योगिक क्रांति ने जहाँ एक ओर लोगों के लिए रोजगार के मार्ग खोले वहीं दूसरी ओर बेरोजगारों की संख्या में भी वृद्धि होने लगी। मशीनों के लग जाने के कारण कारखानों में कार्य करने वाले श्रमिको की संख्या घटने लगी। आर्थिक दृष्टि से संसार के सभी राष्ट्रों में परस्पर निर्भरता की ऐसी लहर दौड़ी कि वे औद्योगिक क्षेत्र में तेजी से दौड़ लगाने लगे। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप कारखानों में बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा; अत: यूरोप के देशों ने उत्पादित माल के खपाने तथा कच्चा माल प्राप्त करने के लिए उपनिवेश स्थापित करने शुरू कर दिए। इससे साम्राज्यवादी नीति को बढ़ावा मिला। इन सब परिवर्तनों के कारण ही औद्योगिक क्रांति के परिणामों को ‘क्रांतिकारी परिवर्तनों की संज्ञा दी गई है।

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प्रश्न 3.
अन्य किस प्रकार के सामाजिक परिवर्तनों के बारे में आपने अपनी पुस्तक में पढ़ा है, जो | क्रांतिकारी परिवर्तन के योग्य नहीं है? वे क्यों योग्य नहीं है? (क्रियाकलाप 2)
उत्तर
ऐसे परिवर्तन, जो अधिक विस्तृत नहीं होते तथा जिनका प्रभाव समाज के बड़े हिस्से पर नहीं पड़ता, ‘क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं कहलाते। उदाहरणार्थ-उविकासीय परिवर्तन को क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं कहा जाता। उविकास ऐसे परिवर्तन को कहते हैं जो काफी लंबे समय तक धीरे-धीरे होता है। चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रयुक्त यह शब्द जीवित प्राणियों के विकसित होने की प्रक्रिया को इंगित करता है। कई शताब्दियों अथवा कभी-कभी सहस्राब्दियों में धीरे-धीरे अपने आप को प्राकृतिक वातावरण में ढालकर बदलने की प्रक्रिया उविकास कहलाती है। इसमें डार्विन ने ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ के विचार पर बल दिया; अर्थात् केवल वही जीवधारी जीवित रहने में सफल होते हैं जो अपने पर्यावरण के अनुरूप अपने आपको ढाल लेते हैं अथवा ऐसी धीमी गति से करते हैं और लंबे समय में नष्ट हो जाते हैं। उदूविकासीय परिवर्तन न तो शीघ्र अथवा अचानक होते हैं और न ही इनका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है; अतः ये परिवर्तन फ्रांसीसी क्रांति, औद्योगिक क्रांति अथवा रूसी क्रांति के परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों की भाँति ‘क्रांतिकारी परिवर्तन’ कहलाने योग्य नहीं हैं।

प्रश्न 4.
क्या आपने ऐसे तकनीकी परिवर्तनों पर ध्यान दिया है जिनका आपके सामाजिक जीवन पर प्रभाव पड़ा हो? (क्रियाकलाप 3)
उत्तर
तकनीकी परिवर्तन को हमारे सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। तकनीकी परिवर्तनों ने हमारे जीवन को आरामदायक बना दिया है। आज गर्मी से बचने के लिए एक तरफ पंखे, कूलर एवं एयर कंडीशनर है तो दूसरी ओर सर्दी से बचने के लिए हीटर। एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन के लिए यातायात के विभिन्न साधन (बस, कार, रेल, हवाई जहाज, समुद्री जहाज इत्यादि) उपलब्ध है। पूरी दुनिया में हो रही घटनाओं की जानकारी घर बैठे अखबारों अथवा टेलीविजन के माध्यम से मिल जाती है। टेलीविजन के कार्यक्रम को रिमोट कंट्रोल द्वारा बदला जा सकता है तथा इसके चलाने एवं बंद होने को भी रिमोट द्वारा संचालित किया जा सकता है। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों एवं धारावाहिकों का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

पहनने के लिए कपड़ों की क्वालिटी में अत्यधिक परिवर्तन आया है तथा हम नित नए फैशनों को अपना रहे हैं। खान-पान पर तकनीकी परिवर्तनों का गहरा प्रभाव पड़ा है। जमीन पर बैठने के स्थान पर आज परिवार के सदस्य एक साथ खाने की मेज पर बैठकर खाना खाते देखे जा सकते हैं। घर पर कंप्यूटर पर बैठे-बैठे इंटरनेट के माध्यम से ई-मेल द्वारा पत्र-व्यवहार किया जा सकता है, रेलवे या हवाई जहाज के टिकट बुक कराए जा सकते हैं। बैंकों से कारोबार किया जा सकता है अथवा वस्तुओं की खरीद-फरोख्त की जा सकती है। इस प्रकार, तकनीकी परिवर्तनों का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है तथा इनसे हमारी संपूर्ण जीवन-शैली ही परिवर्तित हो गई है।

प्रश्न 5.
आप अपने जीवन के कुछ पक्षों के बारे में सोचिए जहाँ आप चीजों को जल्दी बदलना नहीं चाहेंगे? क्या ये आपके जीवन के वे क्षेत्र हैं जहाँ आप चीजों में जल्दी परिवर्तन चाहेंगे? कारण सोचने की कोशिश कीजिए कि क्यों आप कुछ विशेष परिस्थितियों में परिवर्तन चाहेंगे या नहीं? (क्रियाकलाप 4)
उत्तर
जीवन के अनेक पक्ष ऐसे हैं जिनमें प्रयोग होने वाली चीजों को हम जल्दी बदलना नहीं चाहते। उदाहरणार्थ-हम अपने परिवार को नहीं बदलना चाहते। हम नहीं चाहते कि स्कूल से घर आने के बाद हमें यह पता चले कि हमारे माता-पिता से भिन्न कोई और हमारे माता-पिता के रूप में या भाई-बहन के रूप में हमारे घर पर बैठा है। इसी भाँति, हम नहीं चाहते कि जो खेल हमें पसंद है उसके नियम रोज बदल जाएँ। हम नित्य प्रति खाने की चीजों को नहीं बदलते। हमारा प्रयास यह रहता है कि जो खाने की वस्तुएँ हमें पसंद हैं वे जल्दी-जल्दी हमें मिलती रहें। इसी भाँति, यदि हर रोज जीवन के विभिन्न पक्षों में परिवर्तन हो जाए अथवा जिन चीजों का हम प्रयोग करते हैं वह बदल जाएँ तो सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाएगी।

सामाजिक व्यवस्था में स्थायित्व रखने के कारण ही हम नहीं चाहते कि हमारी मान्यताएँ, आदर्श एवं रीति-रिवाजों में प्रतिदिन परिवर्तन हो जाए। ऐसा होने पर सामाजिक विरासत पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित नहीं हो पाएगी और समाज का स्थायित्व समाप्त होने लगेगा। समाज में स्थायित्व के लिए कुछ चीजों में निरंतरता होनी आवश्यक है और इसीलिए उनमें होने वाले परिवर्तनों का विरोध भी किया जाता है।

प्रश्न 6.
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के बारे में जानकारी हासिल कीजिए। इसका उद्देश्य क्या है? यह एक प्रमुख विकास योजना क्यों मानी जाती है? इसे कौन-कौन सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है? अगर यह सफल हो जाता है तो इसके क्या प्रभाव हो सकते हैं? (क्रियाकलाप 5)
उत्तर
2005 ई० का ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ निर्धन ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराने हेतु केंद्र सरकार द्वारा उठाया गया एक सराहनीय प्रयास माना जाता है। ग्रामीण निर्धनों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए, उनके लिए रोजगार को बढ़ावा देकर ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता. उन्मूलन भारत सरकार की विकास नीति का एक अभिन्न अंग रहा है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना’ 25 दिसम्बर, 2001 ई० को प्रारंभ की गई थी। दिहाड़ी रोजगार के अवसर बढ़ाने, कमजोर वर्गों और जोखिमपूर्ण व्यवसायों से हटाए गए बच्चों के अभिभावकों को विशेष सुरक्षा प्रदान करने तथा ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु प्रांरभ की गई यह योजना इसलिए प्रमुख विकास योजना मानी जाती है क्योंकि इसके अंतर्गत काम करने वाले मजदूरों को दिहाड़ी के रूप में न्यूनतम 5 किलोग्राम अनाज और कम-से-कम 25 प्रतिशत निर्धारित मजदूरी नकद दी जाती है।

यह कार्यक्रम निर्धन ग्रामीणों को रोजगार की गारंटी देकर न केवल ग्रामीण बेरोजगारी को समाप्त करने में सहायक हो रहा है अपितु इससे निर्धनता रेखा के नीचे जीवनयापन केरने वाले परिवारों को ऊपर उठाने में भी सहायता मिल रही है। इसीलिए इस कार्यक्रम में निर्धनता रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों को प्राथमिकता दी जाती है। यह कार्यक्रम महिलाओं, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के निर्धन लोगों का चयन कर उन्हें रोजगार हेतु अवसर उपलब्ध कराता है। यदि यह कार्यक्रम सफल हो जाता है तो ग्रामीण निर्धनता एवं बेरोजगारी काफी सीमा तक कम हो सकती है। इससे निर्धन ग्रामीणों को शोषण भी रूक जाएगा तथा उन्हें ससम्माने अपना जीवन व्यतीत करने का अवसर उपलब्ध हो पाएगा।

प्रश्न 7.
क्या आपने अपने कस्बे अथवा नगर में ‘गेटेड समुदाय को देखा/सुना है, अथवा कभी उनके घर गए हैं? बड़ों से इस समुदाय के बारे में पता कीजिए। चारदीवारी तथा गेट कब बने? क्या इसका विरोध किया गया, यदि हाँ तो किसके द्वारा? ऐसे स्थानों पर रहने के लिए लोगों के पास कौन-से कारण हैं? आपकी समझ से शहरी समाज तथा प्रतिवेशी पर इसका क्या असर पड़ेगा? (क्रियाकलाप 6)
उत्तर
‘गेटेड समुदाय’ एक नवीन संकल्पना है। इसका अर्थ एक ऐसे समृद्ध प्रतिवेशी समुदाय का निर्माण है जो अपने परिवेश से दीवारों तथा प्रवेश द्वारों से अलग होता है अर्थात् जहाँ प्रवेश तथा निकास नियंत्रित होता है। अधिकांश ऐसे समुदायों की अपनी समानांतर नागरिक सुविधाएँ (जैसे पानी और बिजली की सप्लाई, सुरक्षा व्यवस्था आदि) होती हैं। इस प्रकार के ‘गेटेड समुदाय’ सभी नगरों एवं महानगरों में देखे जा सकते हैं। ऐसे ‘गेटेड समुदाय’ अनके कारणों से विकसित हुए हैं जिनमें सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान प्रमुख है। पूरे विश्व में नगरीय आवासीय क्षेत्र प्रजाति, नृजातीयता, धर्म तथा अन्य कारकों द्वारा विभाजित होते हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक पहचानों के बीच तनाव के प्रमुख परिणाम पृथक्कीकरण की प्रक्रिया के रूप में भी उजागर होते हैं। पहले मध्य यूरोपीय शहरों में यहूदियों की बस्तियों में इस प्रकार की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई। आज के संदर्भ में यह विशिष्ट धर्म, नृजाति, जाति या सम्मान की पहचान वाले लोगों के एक साथ रहने को इंगित करता है। मिश्रित विशेषताओं वाले पड़ोस का समान लक्षणों वाले पड़ोस में बदल जाना ‘घैटोकरण’ कहलाता है।

भारत में अनेक नगरों में विभिन्न धर्मों के बीच सांप्रदायिक तनाव से मिश्रित प्रतिवेशी समुदाय एकल समुदायों में बदल गए हैं अर्थात् जिन क्षेत्रों में विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ निवास करते थे अब वे अपने ही धर्म के लोगों के बीच रहना अधिक पसंद करते हैं तथा धर्म के आधार पर आवासीय क्षेत्र एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। 2002 ई० के दंगों के दौरान गुजरात में इस प्रकार की प्रवृत्ति देखी गई है। जो लोग सांप्रदायिक सौहार्द, लौकिक विचारधारा, राष्ट्रीय संस्कृति तथा राष्ट्र-निर्माण के प्रबल समर्थक होते हैं वे इस प्रकार के गेटेड समुदायों का विरोध करते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्ति राष्ट्र के प्रति वफादारी कम करती है तथा मानव दृष्टिकोण को संकीर्ण बनाए रखने में सहायक होती है। यदि शहरी समाज में यह प्रवृत्ति बढ़ती है तो विभिन्न धर्मों, जातियों, राज्यों के लोगों में होने वाली अंत:क्रिया बाधित होगी और अंततः राष्ट्रीयता को ही आघात पहुँचेगा।

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प्रश्न 8.
क्या आपने अपने पड़ोस में ‘भद्रीकरण’ देखा है। क्या आप इस तरह की घटना से परिचित हैं। पहले उपबस्ती कैसी थी जब यह घटित हुआ? पता कीजिए। किस रूप में परिवर्तन आया है। विभिन्न सामाजिक समूहों को इसने कैसे प्रभावित किया है? किसे फायदा अथवा किसे नुकसान हुआ है? इस प्रकार के परिवर्तन का निर्णय कौन लेता है? (क्रियाकलाप 7)
उत्तर
‘भद्रीकरण’ (जैट्रीफिकेशन) शब्द का प्रयोग उस प्रक्रिया के लिए किया जाता है जिसके माध्यम से निम्नवर्गीय पड़ोस मध्यम अथवा उच्चवर्गीय पड़ोस में बदल जाता है। पूरे विश्व में नगरीय केंद्र अथवा मूल नगर के केंद्रीय क्षेत्र के जीवन में बहुत-से परिवर्तन हुए हैं। नगर के 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के प्रांरभ तक ‘शक्ति केंद्र बने रहने के पश्चात् 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक नगरीय केंद्र का पतन प्रांरभ हो गया। यहीं समय उपनगरों के विकास का भी था क्योंकि विभिन्न कारणों से संपन्न वर्ग ने नगरों के अंदरूनी भाग से पलायन कर उपनगरीय क्षेत्रों में सस्ती जमीन लेकर उसे पर आलीशान मकान बनाकर रहना प्रारंभ कर दिया। इससे पूर्व के निम्नवर्ग का उपनगरीय क्षेत्र मध्यम अथवा उच्च वर्ग के क्षेत्र में परिवर्तित हो गया।

इस प्रवृत्ति के प्रारंभ होते ही उपनगरीय क्षेत्र (उपबस्ती क्षेत्र) की कायापलट होने लगी। कीमतें आसमान छूने लगीं तथा क्षेत्र का विकास अत्यधिक तीव्र गति से होने लगा। जीवन की सभी सुविधाएँ इन क्षेत्रों में अधिक-से-अधिक उपलब्ध कराने की होड़ लग गई। इससे उन संपन्न लोगों को भी लाभ हुआ जिन्होंने नगर के अंदरूनी भाग से पलायन किया तथा उपनगरीय क्षेत्र में रहने वाले उस गरीब को भी जिसने अधिक कीमत पर अपनी जमीन का हिस्सा उस संपन्न व्यक्ति को बेच दिया। उसे भी अपनी शेष बची जमीन पर अच्छा मकान बनाने तथा अपने रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने का अवसर मिला। इस प्रकार के परिवर्तन का निर्णय अधिकांशतः संपन्न लोग ही लेते हैं। वे नगर के अंदरूनी हिस्से में सीमित आवास होने के कारण न तो अपनी उच्च जीवन-शैली को प्रदर्शित कर सकते हैं और न ही उस शानो-शौकत से रह सकते हैं जिससे कि वे रहना चाहते हैं।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा समुदाय है?
(क) विश्व समुदाय
(ख) क्लब
(ग) गाँव
(घ) कर्मचारी संघ
उत्तर
(ग) गाँव

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा समुदाय का उदाहरण नहीं है ?
(क) एक गाँव
(ख) एक परिवेश
(ग) एक नगर
(घ) एक संप्रदाय
उत्तर
(घ) एक संप्रदाय

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प्रश्न 3.
नगरीयवाद का अर्थ होता है१
(क) नगरीय जनसंख्या की वृद्धि
(ख) नगरीय जीवन पद्धति
(ग) नगरों को भौतिक विकास
(घ) ग्रामीण नगरीय प्रव्रजन
उत्तर
(ख) नगरीय जीवन पद्धति

प्रश्न 4.
भारतीय गाँवों में किस प्रकार के परिवार पाये जाते हैं ?
(क) एकाकी परिवार
(ख) संयुक्त परिवार
(ग) आधुनिक परिवार
(घ) मिश्रित परिवार
उत्तर
(ख) संयुक्त परिवार

प्रश्न 5.
ग्रामीण समाज की विशेषता नहीं है
(क) कृषि पर निर्भरता
(ख) जनाधिक्य
(ग) प्रकृति से घनिष्ठ संबंध
(घ) प्राथमिक संबंधों की बहुलता
उत्तर
(ख) जनाधिक्य

प्रश्न 6.
“सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिकी में परिवर्तन होने के कारण होता है।” यह कथन किसका है?
(क) वेबलन का
(ख) ऑगबर्न को
(ग) टॉयनबी का
(घ) सोरोकिन का
उत्तर
(क) वेबलने का

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प्रश्न 7.
कार्ल मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण है
(क) यांत्रिक प्रयोग
(ख) आर्थिक कारण
(ग) धार्मिक कारण
(घ) राजनीतिक कारण
उत्तर
(ख) आर्थिक कारण

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से किस विद्वान ने सामाजिक परिवर्तन को बौद्धिक विकास का परिणाम माना है ?
(क) जॉर्ज सी० होमंस ने
(ख) बीसेज एवं बीसेज ने
(ग) आगस्त कॉम्टे ने
(घ) रॉबर्ट बीरस्टीड ने
उत्तर
(ग) आगस्त कॉम्टे ने

प्रश्न 9.
भारत में सामाजिक परिवर्तन विषय पर किस विद्वान ने सबसे अधिक अध्ययन किया ?
(क) डॉ० नगेन्द्र ने
(ख) सच्चिदानंद ने
(ग) एम० एन० श्रीनिवास ने
(घ) डॉ० राधाकृष्णन ने
उत्तर
(ग) एम० एन० श्रीनिवास ने

प्रश्न 10.
ऑगबर्न तथा निमकॉफ ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या किस आधार पर की है ?
(क) सामाजिक असंतुलन
(ख) नैतिक पतन
(ग) सांस्कृतिक विलम्बना
(घ) प्रौद्योगिकीय कारक
उत्तर
(ग) सांस्कृतिक विलम्बना

प्रश्न 11.
संस्कृति की विशेषताओं में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन का सर्वप्रमुख कारण कौन मानता है ?
(क) सोरोकिन
(ख) मैक्स वेबर
(ग) सिमेल
(घ) मॉण्टेस्क्यू
उत्तर
(क) सोरोकिन

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प्रश्न 12.
सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक का समर्थक कौन है ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) वेबलन
(ग) जॉर्ज लुंडबर्ग
(घ) मैक्स वेबर
उत्तर
(घ) मैक्स वेबर

प्रश्न 13.
कौन-सी पुस्तक एफ० एच० गिडिंग्स द्वारा लिखी गयी है ?
(क) सोसायटी
(ख) पॉजिटिव पॉलिटी
(ग) इंडक्टिव सोशियोलॉजी
(घ) सोशियल कंट्रोल
उत्तर
(ग) इंडक्टिव सोशियोलॉजी

प्रश्न 14.
‘कल्चरल डिस ऑर्गेनाइजेशन’ पुस्तक के लेखक कौन हैं?
(क) के० डेविस
(ख) इलियट एंड मैरिल
(ग) कूले
(घ) स्पेन्सर
उत्तर
(ख) इलियट एंड मैरिल

प्रश्न 15.
श्वेतवसन अपराध अवधारणा से कौन समाजशास्त्री जुड़ा है ?
(क) सदरलैण्ड
(ख) लॉम्ब्रोसो
(ग) कार्ल मार्क्स
(घ) एंजिल्स
उत्तर
(क) सदरलैण्ड

प्रश्न 16.
अपराध के शास्त्रीय सिद्धांत से संबंधित हैं –
या
अपराध के शास्त्रीय सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं?
(क) बेन्थम
(ख) मॉण्टेस्क्यू
(ग) बकल
(घ) कार्ल मार्क्स
उत्तर
(क) बेन्थम

प्रश्न 17.
अच्छे आचरण के कारण बंदीगृह से अस्थायी मुक्ति को कहते हैं –
(क) प्रोबेशन
(ख) पैरोल
(ग) मुक्ति सहायता
(घ) आचरण मुक्ति
उत्तर
(ख) पैरोल

प्रश्न 18.
सदरलैण्ड किस पुस्तक के लेखक थे ?
(क) सोशल डिसऑर्गेनाइजेशन
(ख) सोशल चेंज
(ग) प्रिंसिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी
(घ) सोसायटी
उत्तर
(ग) प्रिंसिपल्स ऑफ क्रिमिनोलॉजी

निश्चित उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उदविकास क्या है?
उत्तर
काफी लंबे समय तक धीरे-धीरे वोली उस प्रक्रिया को, जिसने जीव सरलता से जटिलता की ओर बढ़ता है, उविकास कहा जाता है।

प्रश्न 2.
संरचना परिवर्तन किसे कहते हैं?
उत्तर
समाज की संरचना में होने वाले ऐसे परिवर्तनों को, जो उस पर दूरगामी प्रभाव डालता है, संरचनात्मक परिवर्तन कहते हैं।

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प्रश्न 3.
सत्ता का आधार क्या होता है?
उत्तर
सत्ता का आधार वैधता है। वेबर के अनुसार कानून, परंपरा तथा चमत्कार वैधता के प्रमुख आधार होते हैं।

प्रश्न 4.
कानून विरोधी उस व्यवहार को क्या कहा जाता है जिसके लिए संबंधित व्यक्ति को दंड दिया जा सकता है?
उत्तर
कानून विरोधी उस व्यवहार को, जिसके लिए संबंधित व्यक्ति को दंड दिया जा सकता है, अपराध कहा जाता है।

प्रश्न 5.
शक्ति, प्रभाव एवं सत्ता में किसे व्यापक माना जाता है?
उत्तर
प्रभाव को शक्ति एवं सत्ता की तुलना में अधिक व्यापक माना जाता है।

प्रश्न 6.
हिंसा का प्रमुख कारण क्या है?
उत्तर
हिंसा सामाजिक तनाव का प्रतिफल है तथा यह समाज में गंभीर समस्याओं की उपस्थिति को दर्शाती है।

प्रश्न 7.
‘दि प्रोटेस्टेंट इथिक एण्ड द स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर
‘दि प्रोटेस्टेंट इथिक एण्ड दि स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म’ नामक पुस्तक के लेखक मैक्स वेबर है।

प्रश्न 8.
संरक्षित समुदाय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
नगरीय क्षेत्रों में उच्च एवं संपन्न वर्गों द्वारा अपने मुहल्लों के चारों ओर एक घेराबंदी कर लेने तथा आने-जाने पर नियंत्रण रखने को संरक्षित समुदाय कहते हैं।

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प्रश्न 9.
भद्रीकरण किसे कहते हैं?
उत्तर
निम्नवर्ग परिवेश के मध्यम या उच्चवर्गीय परिवेश में बदल जाने को भद्रीकरण कहते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन से आप क्या समझते हो?
उत्तर
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ सामाजिक संगठन, समाज की विभिन्न इकाइयों, सामाजिक संबंधों संस्थाओं इत्यादि में होने वाला परिवर्तन है। संगठन का निर्माण संरचना तथा कार्य दोनों से मिलकर होता है। सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक अंत:क्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों को भी सामाजिक परिवर्तन ही कहा जाता है। गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन जीवन के स्वीकृत प्रकारों में परिवर्तन है। भले ही ये परिवर्तन भौगोलिक दशाओं से हुए हों, या सांस्कृतिक साधनों पर जनसंख्या की रचना तथा सिद्धांतों के परिवर्तन से हुए हों, या प्रसार से अथवा समूह के अंदर ही
आविष्कार से हुए हों।”

प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन के दो प्रमुख स्रोत बताइए।
उत्तर
सामाजिक परिवर्तन के दो प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं –
1. मानसिक विकास – जनता के मानसिक विकास का साधन शिक्षा है। शिक्षण संस्थाओं का प्रसार जिस स्थान पर प्रचुर मात्रा में होगा, उस स्थान के व्यक्ति प्रबद्ध एवं विचारशील होंगे और वे समाज में प्रचलित संकीर्णताओं व रूढ़ियों की अपेक्षा करने में संकोच नहीं करेंगे अपितु उनके स्थान पर नवीन विचारों को लाने का भरसक प्रयास करेंगें इस प्रकार, शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से जनता का जो मानसिक विकास होता है, उसी के परिणामस्वरूप प्राचीन रीति-रिवाजों में परिवर्तन की संभावना बढ़ जाती है।

2. ज्ञान प्रसार के साधन – वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण जिस समाज में समाचार-पत्रों, रेडियो, यातायात के साधनों तथा संचार-वाहन के साधनों की प्रचुरता होगी, वह समाज सामाजिक परिवर्तन का उतना ही शीघ्र स्वागत करेगा। वस्तुतः ये साधन ज्ञान-विज्ञान के विकास के साधन है। इन साधनों की प्रचुरता के कारण देश में नवीन विचारधाराओं को प्रसार सरलता से हो सकता है और सामाजिक परिवर्तन की संभावना अधिक होती है। भारत में प्राचीन मूल्यों एवं प्रतिमानों में परिवर्तन इन्हीं साधनों की देन है।

प्रश्न 3.
विलबर्ट ई० मूर द्वारा बताई गई सामाजिक परिवर्तन की चार विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
विलबर्ट ई० मूर ने सामाजिक परिवर्तन की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया है उनमें से चार निम्नलिखित हैं –

  1. सामाजिक परिवर्तन हमारी सांस्कृतिक भावनाओं पर धीमी गति से प्रभाव डालता है।
  2. सामाजिक परिवर्तन के संबंध में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
  3. सामाजिक परिवर्तन हमारे भौतिक जीवन को तीव्र गति से प्रभावित करता है। इसलिए आज  भोजन व वस्त्रों में पहले से अधिक अंतर आ गया है। हम आज आकर्षक तथा भोग-विलास की वस्तुओं से शीघ्र ही प्रभावित हो जाते हैं।
  4. जो परिवर्तन हमारे सामान्य जीवन को प्रभावित करता है उसकी गति अधिक तीव्र होती है।

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प्रश्न 4.
सामाजिक परिवर्तन को पर्यावरण किस प्रकार से प्रभावित करता है?
उत्तर
पर्यावरण अनेक प्रकार से सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करता है। प्राकृतिक विपदाओं, पर्यावरणीय प्रदूषण तथा पर्यावरणीय अवक्रमण का सामाजिक संरचना, व्यक्तियों के रहन-सहन, उनके व्यवसायों, उनके स्वास्थ्य इत्यादि पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सुनामी लहरों के कारण तटीय प्रदेशों में रहने वाले अनेक लोगों के व्यवसाय पूरी तरह से नष्ट हो गए। अनुकूल पर्यावरण सामाजिक विकास में सहायक होता है, जबकि प्रतिकूल पर्यावरण सामाजिक विकास को अवरुद्ध करती है।

प्रश्न 5.
सामाजिक परिवर्तन को संस्कृति किस प्रकार से प्रोत्साहन देती है?
उत्तर
संस्कृति का संबंध उन विचारों, मूल्यों एवं मान्यताओं से होता है जो मनुष्य के लिए आवश्यक माने जाते हैं तथा उनके जीवन को आकार देने में सहायता प्रदान करते हैं। धार्मिक मान्यताओं का समाज को व्यवस्थित करने में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मैक्स वेबर ने प्रोटेस्टेंट इथिक को यूरोप में पूँजीवाद के विकास से जोड़ा है तथा यह दर्शाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार धार्मिक मान्यताएँ दूरगामी आर्थिक परिवर्तन लाने में सहायक होती हैं। प्राचीन भारत के सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन पर बौद्ध धर्म के प्रभाव तथा मध्यकालीन सामाजिक संरचना में अंतर्निहित जाति व्यवस्था के संदर्भ में व्यापक प्रभाव भी भारत में सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख उदाहरण हैं। महिलाओं की स्थिति में होने वाले परिवर्तनों को सांस्कृतिक उदाहरण के रूप में देखा गया है।

प्रश्न 6.
क्रांतिकारी परिवर्तन किसे कहते हैं?
उत्तर
ऐसे परिवर्तन, जो शीघ्र अथवा अचानक होते हैं तथा समाज के बहुत बड़े भाग को प्रभावित करते हैं, क्रांतिकारी परिवर्तन कहलाते हैं। औद्योगिक क्रांति, फ्रांस की क्रांति, रूसी क्रांति तथा ज्ञानोदय से जो परिवर्तन हुए हैं उन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन कहा जाता है। इसका प्रमुख कारण इन परिवर्तनों द्वारा यूरोपीय एवं गैर-यूरोपीय समाजों की संरचना में होने वाले आमूल चूल परिवर्तन हैं। राजनीतिक क्रांतियों तथा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से भी बड़े पैमाने पर परिवर्तन होते हैं जिन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन की श्रेणी के अंतर्गत रखा जा सकता है। सामान्य रूप से क्रांतिकारी परिवर्तन’ शब्द का प्रयोग तेज, आकस्मिक तथा अन्य प्रकार के संपूर्ण परिवर्तनों के लिए किया जाता है।

प्रश्न 7.
अपराध के दो प्रमुख तत्व बताइए।
उत्तर
अपराध के दो प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं –
1. अपराध व्यावहारिक रूप में कोई ऐसा कार्य करना है जिसे समाज तथा कानून दंडनीय मानते हैं।
अन्य शब्दों में, कोई कार्य तब तक अपराध नहीं है जब तक उससे बाह्य परिणाम या नुकसान न हो। यदि कोई व्यक्ति अपने मन में किसी को नुकसान पहुँचाने का इरादा करता है या शब्दों में कह भी देता है तो यह सोचना या कहना-मात्र अपराध नहीं होगा। कई बार कोई आदमी किसी से क्रोध में यह कह देता है कि तुझे जान से मार देंगा; तो इसका यह आशय नहीं कि उस पर हत्या का मुकदमा चलाया जाए। वास्तव में अपराध एक स्पष्ट कृत्य है।

2. अपराध के कर्ता का इरादा अपराधमय (जिसे दोषी इरादा भी कहा जाता है) होना चाहिए। • उदाहरणार्थ-वह डॉक्टर, जो रोगी के प्राण बचाने के लिए ऑपरेशन करता है परंतु इससे रोगी की मृत्यु हो जाती है, अपराधी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उसका दोषी इरादा नहीं था।

प्रश्न 8.
सामाजिक व्यवस्था की संकल्पना सुनिश्चित कीजिए।
उत्तर
सामाजिक व्यवस्था से अभिप्राय समाज के विभिन्न अंगों में एकीकरण से है। मानव शरीर की भाँति समाज को एक व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। जिस प्रकार मानव शरीर के विभिन्न अंग अपना कार्य सुचारू रूप से करते हुए शरीर को बनाए रखते हैं ठीक उसी प्रकारे समाज के विभिन्न अंग अपना निर्धारित कार्य करते हुए एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करते हैं जिसमें स्थायित्व पाया जाता है। समाज के विभिन्न अंग परस्पर संबंधित होते हैं तथा एक अंग में होने वाला परिवर्तन अन्य अंगों को प्रभावित करता है। पेरेटो (Pareto) ने इस संदर्भ में कहा है-“समाज विभिन्न शक्तियों के साम्य की एक व्यवस्था है। सामाजिक व्यवस्था समाज की वह अवस्था है जो किसी दिए हुए समय तथा परिवर्तन की उत्तरोत्तर दशाओं से प्राप्त होती है।”

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प्रश्न 9.
नगरीय सामाजिक संरचना की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
नगरीय सामाजिक संरचना की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
1. सामाजिक विजातीयता – नगरीय समुदायों की जनसंख्या विविध प्रकार के व्यवसायों में लगी होती है तथा उनके रहन-सहन एवं खान-पान, सांस्कृतिक मूल्यों तथा रीति-रिवाजों में काफी भिन्नता पाई जाती है। व्यक्ति जितनी अधिक मात्रा में अंत:क्रियाओं में हिस्सा लेता है, उससे भिनता की मात्रा उतनी ही अधिक होती जाती है।

2. द्वितीयक समितियाँ – नगरीय समुदायों की दूसरी विशेषता द्वितीयक समितियाँ या साहचर्य है। द्वितीयक समितियों की प्रधानता के कारण नगरीय समुदाय के लोग परस्पर व्यक्तिगत रूप से परिचित नहीं होते। अप्रत्यक्ष व अवैयक्तिक संबंधों के कारण नगरवासियों के जीवन में द्वितीयक संबंधों की प्रधानता हो जाती है। मित्रों तथा परिचित व्यक्तियों से भी हमारे संबंध स्वयं में पूर्ण नहीं होते हैं।

प्रश्न 10.
संघर्ष किसे कहते हैं? समझाइए।
उत्तर
संघर्ष एक प्रक्रिया या परिस्थिति है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह एक-दूसरे के उद्देश्यों को क्षति पहुँचाते हैं, एक-दूसरे के हितों की संतुष्टि पर रोक लगाना चाहते है, भले ही इसके लिए दूसरों को चोट पहुँचानी पड़े या नष्ट करना पड़े।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन की उपयुक्त परिभाषा देते हुए इसकी दो मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
मैरिल एवं ऐल्ड्रिज के अनुसार, “अपने सर्वाधिक सही अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ है कि अधिक संख्या में व्यक्ति इस प्रकार के कार्यों में व्यस्त हों जो कि उनके पूर्वजों के अथवा उनके अपने कार्यों से भिन्न हो, जिन्हें वे कुछ समय पूर्व तक करते थे। समाज का निर्माण प्रतिमानित मानवीय संबंधों के एक विस्तृत एवं जटिल जाल से होता है जिसमें सब लोग भाग लेते हैं। जब मानव व्यवहार संशोधन की प्रक्रिया में होता है तो यह, यह कहने का ही दूसरा तरीका है कि सामाजिक परिवर्तन हो रहा है।”

सामाजिक परिवर्तन की दो मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं –
1. सामाजिक परिवर्तन स्वाभाविक और अवश्यम्भावी है – सामाजिक परिवर्तन स्वाभाविक है। तथा समयानुकूल होता रहता है। मानव स्वभाव प्रत्येक क्षण नवीनता चाहता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है तथा अवश्यंभावी है। यह किसी की इच्छा अथवा अनिच्छा पर निर्भर नहीं होता, यद्यपि आधुनिक युग में इसे नियोजित किया जा सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन स्वाभाविक और अवश्यंभावी है।

2. सामाजिक परिवर्तन समाज से संबंधित है – सामाजिक परिवर्तन का संबंध व्यक्ति विशेष अथवा समूह विशेष से न होकर पूर्ण समाज के जीवन से होता है। यह व्यक्तिवादी नहीं वरन् समष्टिवादी होता है। इसीलिए परिवर्तन का प्रभाव सामान्यत: संपूर्ण समाज पर पड़ता है।

प्रश्न 2.
“अपराध एक सामाजिक-कानूनी अवधारणा है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
अपराधको सामाजिक तथा कानूनी रूप से ऐसा कार्य करना बताया गया है जिसे समाज तथा कानून दोनों अनुचित मानते हैं। इसी श्रेणी की परिभाषाओं को कुछ विद्वान अधिक उचित मानते हैं, क्योंकि अपराध को न तो सिर्फ कानून की दृष्टि से ही समझा जा सकता है और न सिर्फ सामाजिक दृष्टिकोण से। अपराध के सही अर्थ को जानने के लिए कानूनी तथा सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों को महत्त्व देना अति आवश्यक है। इसीलिए संभवतः आज अपराध की व्यवहार संबंधी व्याख्या अधिक मानय होने लगी है जिसमें अपराध को भी एक असामान्य वैयक्तिक व्यवहार अथवा प्रतिमान में विचलन के रूप में देखा जाता है। वास्तव में, जब हम अपराध को अपराधी नियमों का उल्लंघन मानते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कानून अधिकतर सामाजिक आदर्शों को प्रतिबिंबित करता है। हत्या, बलात्कार, हमला व चोरी सब कानून के विरुद्ध हैं।

कानून कई बार ऐसे व्यवहार को भी अनदेखा कर देता है जिसे अधिकांश लोग गैर-सामाजिक मानते हैं; जैसे किसी लुटते या पिटाई होते व्यक्ति की सहायता न करना। अत: कोई समाज किस प्रकार के व्यवहार को कानूनी या सामाजिक रूप से निषिद्ध करेगा, यह सामाजिक आदर्शों पर आधारित होता है। लैंडिस तथा लैंडिस के अनुसार, “अपराध वह कार्य है जिसको राज्य ने समूह के कल्याण के लिए हानिकारक माना है और जिसके प्रति दंड देने की शक्ति राज्य के पास रहती है।”

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प्रश्न 3.
अपराध से आप क्या समझते हैं?
उत्तर
अपराध एक सार्वभौमिक समस्या है जो कि प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी रूप में पायी जाती है। प्रत्येक समाज में सदस्यों के हितों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कुछ नियम बनाए जाते है। समाज द्वारा निर्मित इन नियमों का पालन करना सभी के लिए आवश्यक होता है। जो इन नियमों का उल्लंघन करता है, उसको समाज द्वारा दंडित किया जाता है। इस प्रकार वह कार्य, जो कानून की दृष्टि से दंडनीय होते हैं, अपराध की श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। सरल शब्दों में, अपराध अपराधी-कानून का उल्लंघन हैं।

चाहे कोई कार्य कितना भी अनैतिक अथवा गलत क्यों न हो किंतु वह तब तक अपराध नहीं कहलाता जब तक अपराधी-कानून में उसे अपराध न माना गया हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कानून का उल्लंघन अपराध कहलाता है। कानूनी दृष्टि में अपराध वह कार्य है जो कि सार्वजनिक हित के लिए हानिकारक होता है। इलियट एवं मैरिल के अनुसार, “अपराध कानून द्वारा निषिद्ध (वर्जित) वह कार्य है, जिसके बदले में उसके कर्ता को मृत्यु, जुर्माने, कैद, काम-घर, सुधार-गृह या जेल के द्वारा दंडित किया जा सकता है। अपराध सामाजिक रूप में हमेशा हानिकारक होता है। इसलिए अपराध की अवहेलना करना दंडनीय है। क्लीनार्ड के अनुसार, “अपराध सामाजिक नियमों से विचलन है।”

प्रश्न 4.
नगर से आप क्या समझते हैं? नगर की परिभाषा किस आधार पर की जाती है?
उत्तर
सामाजिक जीवन के संगठन के रूप में गाँव तथा नगर दोनों का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। गाँव तथा नगर के मध्य कोई स्पष्ट सीमा-रेखा नहीं खींची जा सकती है। नगर की परिभाषा भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है तथा एक ही देश में भी विभिन्न जनगणना वर्षों में इसकी परिभाषा में अनेक परिवर्तन किए जाते हैं। उदाहरण के लिए ग्रीनलैंड में 300 निवासियों के क्षेत्र को; अजेंटाइना में 1,000; भारत में 5,000; इटली तथा स्पेन में 10,000; अमेरिका में 20,000 तथा कोरिया गणराज्य में 40,000 निवासियों के क्षेत्र को नगरीय क्षेत्र कहा जाता है। नगर के क्षेत्र के विषय में भी भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं; जैसे-हंगरी के नगरों में बहुत-सा कृषि क्षेत्र सम्मिलित होता है तथा लैटिन अमेरिका में म्यूनिसिपैलिटी को बहुधा नगर मान लिया है यद्यपि इसमें बहुत-सा ग्रामीण क्षेत्र भी सम्मिलित होता है।

अनेक विद्वानों ने नगर की परिभाषा जनसंख्या के आकार तथा घनत्व को सामने रखकर देने का प्रयास किया है परंतु किंग्स्ले डेविसे इससे बिलकुल सहमत नहीं हैं। इनका कहना है कि सामाजिक दृष्टि से नगर केवल जीवन की एक विधि है तथा यह एक अनुपम प्रकार के वातावरण, अर्थात् नगरीय परिस्थितियों की उपज होता है। उनके अनुसार नगर एक ऐसा समुदाय है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विषमता पायी जाती है तथा जो कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता, प्रतियोगिता एवं घनी जनसंख्या के कारण नियंत्रण के औपचारिक साधनों द्वारा संगठित होता है। लुईस विर्थ ने द्वितीयक संबंधों, भूमिकाओं के खंडीकरण तथा लोगों में गतिशीलता की तेजी इत्यादि विशेषताओं के आधार पर नगर को परिभाषित करने पर बल दिया है। विर्थ के अनुसार, नगर अपेक्षाकृते एक व्यापक, घना तथा सामाजिक दृष्टि से विजातीय व्यक्तियों का स्थायी निवास क्षेत्र होता है। विर्थ के अनुसार, जनसंख्या का आकार तथा घनत्व, विषमता तथा भिन्नता इत्यादि के आधार पर नगरीय समुदाय के लक्षण निश्चित किए जाने चाहिए।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्रोतों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्रोत
सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देने वाले तत्वों को सामाजिक परिवर्तन के स्रोत कहते हैं। सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देने वाले तत्त्व यो सामाजिक परिवर्तन के स्रोत अग्रलिखित हैं –
1. पारिवारिक पर्यावरण – परिवार सामाजिकता की प्रथम पाठशाला है। परिवार में यदि ,शिक्षित तथा प्रबुद्ध व्यक्तियों की संख्या अधिक हो तो परिवार में संकीर्ण विचारों का कोई भी स्थान नहीं रहेगा। प्रबुद्ध व्यक्ति प्राचीन परंपराओं में समयानुसार परिवर्तन करते रहते हैं। इसलिए जिसे समाज में प्रबुद्ध एवं शिक्षित परिवारों की संख्या अधिक होगी, उस समाज में परिवर्तन की गति भी तीव्र रहेगी। अन्य शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि पारिवारिक पर्यावरण सामाजिक परिवर्तन की गति को निर्धारित करता है।

2. मानसिक विकास – जनता के मानसिक विकास का साधने शिक्षा है। शिक्षण संस्थाओं का प्रसार जिस स्थान पर प्रचुर मात्रा में होगा, उस स्थान के व्यक्ति प्रबुद्ध एवं विचारशील होंगे और वे समाज में प्रचलित संकीर्णताओं व रूढ़ियों की उपेक्षा करने में संकोच नहीं करेंगे, अपितु उनके स्थान पर नवीन विचारों को लाने का भरसक प्रयास करेंगे। इस प्रकार, शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से जनता का जो मानसिक विकास होता है उसी के परिणामस्वरूप प्राचीन रीति-रिवाजों में परिवर्तन की संभावना बढ़ जाती है। फ्रांस जैसे देश में क्रांति को जन्म देने वाला वर्ग प्रबुद्ध वर्ग ही था। बुद्धिजीवी वर्ग ही अंसतुष्ट जनता का नेतृत्व करते हैं और प्राचीन पंरपराओं की संकीर्णता को उखाड़ फेंकते हैं।

3. समाज सुधारकों के प्रयास – प्रत्येक देश में प्राचीन परंपराओं तथा प्रथाओं में सुधार करने के लिए समाज सुधारकों के प्रयास सदैव ही जारी रहे हैं। समाज सुधारक सामाजिक कुरीतियों में परिवर्तन लाने के लिए जनमत का निर्माण करते हैं तथा जनता में सामाजिक बुराइयों के विरोध में जागृति लाने का प्रयास करते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गाँधी जैसे समाज सुधारकों ने अपने अथक प्रयासों से भारत के सामाजिक जीवन के स्वरूप को बदल डाला है। ये समाज सुधारक प्रत्येक युग में अपना कार्य करते रहे हैं, अतएव सभी देशों में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया समाज सुधारकों के प्रयासों द्वारा निरंतर अविरल गति से चलती रहती है।

4. ज्ञान प्रसार के साधन – वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण जिस समाज में समाचार-पत्रों, रेडियों, यातायात के साधनों तथा संचार-वाहने के साधनों की प्रचुरता होगी, वह समाज सामाजिक परिवर्तन का उतना ही शीघ्र स्वागत करेगा। वस्तुतः ये साधन ज्ञान-विज्ञान के विकास के साधन हैं। इन साधनों की प्रचुरता के कारण देश में नवीन विचारधाराओं को प्रसार सरलता से हो सकता है और सामाजिक परिवर्तन की संभावना अधिक होती है। भारत में प्राचीन मूल्यों एवं प्रतिमानों में परिवर्तन इन्हीं साधनों की देन है।

5. वैज्ञानिक आविष्कार – वैज्ञानिक आविष्कार परिवर्तन के मूल तत्त्व हैं। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण जनता का दृष्टिकोण तार्किक हो जाता है। तर्क के आधार पर प्राचीन मान्यताओं के खंडन किया जाने लगता है। इसीलिए प्राचीन रूढ़ियों व परंपराओं की मान्यता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण विभिन्न संस्कृतियों का आदान-प्रदान भी संभव हो गया है। आज भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव इन वैज्ञानिक आविष्कारों की ही देन है। । ये वैज्ञानिक आविष्कार जिस तीव्र गति से होंगे, सामाजिक परिवर्तन की गति भी उतनी ही तीव्र होगी।

6. भ्रमण की स्वतंत्रता – यातायात के साधनों का विकास वैज्ञानिक आविष्कारों की देन है। इन साधनों के विकास के कारण एक देश के नागरिक दूसरे देशों में भ्रमण करके वहाँ के सामाजिक जीवन एवं रीति-रिवाजों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। ये सामाजिक रीति-रिवाज यदि प्रगति की ओर है तो विदेशों का भ्रमण करके स्वदेश लौटे विद्वान अपने देश में विदेशी रीति-रिवाजों का प्रचार व प्रसार करते हैं और इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देते हैं। जिस समय में प्रवसन की प्रवृत्ति अधिक होगी उस समाज में सामाजिक परिवर्तन की मात्रा उतनी ही अधिक होगी। इसलिए प्रवसन यो भ्रमण की स्वतंत्रता भी सामाजिक परिवर्तन का एक मुख्य स्रोत है।

7. परिवर्तन की प्रवृत्ति – सामाजिक परिवर्तन सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तन का नाम है, साथ-ही-साथ यह संस्कृति के भौतिक तत्त्वों में भी परिवर्तन लाता है। किंतु यह सब परिवर्तन केवल उन्हीं समाजों में संभव है जिनमें नागरिक परिवर्तन को अच्छा मानते हैं या परिवर्तन की ओर नागरिकों की प्रवृत्ति है। जिस समाज में व्यक्ति परिवर्तन को ग्रहण करने के लिए उत्सुक होते हैं, उस समाज में सामाजिक परिवर्तन की गति तीव्र होती है। यदि समाज के व्यक्तियों में प्राचीन परंपराओं से चिपटे रहने की प्रवृत्ति पाई जाए तो सामाजिक परिवर्तन की गति मंद रहेगी। भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं गतिशीलता का अभाव इसलिए पाया जाता है कि भारतीय प्राचीन परंपराओं से चिपटने की प्रवृत्ति रखते हैं। आज भी प्राचीन परंपराओं और रूढ़ियों में उनको अटूट विश्वास है।

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8. जनता में तीव्र असंतोष – जनता में प्रशासन के अत्याचारी तथा शोषण के विरुद्ध असंतोष की भावना भी सामाजिक परिवर्तन का स्रोत है। जब यह असंतोष की भावना तीव्रता की चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो जनता क्रांति कर बैठती है या युद्ध आरंभ हो जाते हैं। क्रांति तथा युद्ध दोनों के परिणामस्वरूप सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन हो जाना स्वाभाविक हैं। नवीन एवं प्राचीन मान्यताओं में संघर्ष शुरू हो जाता है तथा प्राचीन मान्यताएँ धीरे-धीरे समाप्त होती रहती हैं और | समाज जीवन का नवीन मोड़ ले लेता है। पूँजीवाद तथा सामंतवाद के स्थान पर समाजवाद और | निरंकुशवाद के स्थान पर प्रजातंत्रवाद का जन्म जनता में तीव्र असंतोष की देन है।

9. साधनों की प्रचुरता – सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत साधनों की प्रचुरता है। जिस देश की आर्थिक दशा अच्छी हो और उसमें प्रकृति की अनुकम्पा से खनिज पदार्थों का भी बाहुल्य हो तो वह देश औद्योगिक क्षेत्र में विकसित होगी। उद्योग-धंधों का विकास हो जाने से जाति-पाँति के बंधन ढीले पड़ेंगे तथा संयुक्त परिवार टूटने लगेगे। इस प्रकार पारिवारिक प्रतिमानो में परिवर्तन होगा। संक्षेप में, साधनों की प्रचुरता सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देती है।

निष्कर्ष – उपर्युक्त विवेचन यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन तथा सांस्कृतिक परिवर्तन दो भिन्न परंतु परस्प संबंधित अवधारणाएँ हैं। सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन का ही एक भाग है। सामाजिक परिवर्तन इतनी जटिल प्रक्रिया है कि इसे अनेक कारक प्रोत्साहन देते हैं तथा इसके अनेक स्रोत हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन की संकल्पना स्पष्ट कीजिए।
या
सामाजिक परिवर्तन किसे कहते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
घटनाओं की निरंतरता ही जीवन की वास्तविकता है। एक के बाद एक घटना ही मिलकर जीवन का निर्माण करती है। मानवीय जीवन के ही समान समाज के जीवन में निरंतरता एवं गतिशीलता आवश्यक तत्त्व है। गति का अभाव जड़ता का प्रतीक है। गति, वास्तव में, परिवर्तन का माध्यम होती है। सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में होने वाली गति सामाजिक परिवर्तन लाती है। सामाजिक परिवर्तन इस रूप में मानव समाज के विषय में मूलभूत सत्यता है।

सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषाएँ
परिवर्तन प्रकृति का एक नियम है। संसार के इतिहास को उठाकर देखा जाए तो ज्ञात होता है कि जब से समाज का प्रादुर्भाव हुआ है, तब से समाज के रीति-रिवाज, परंपराएँ, रहन-सहन की विधियाँ, पारिवारिक और वैवाहिक व्यवस्थाओं आदि में निरंतर परिवर्तन होता आया है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप ही वैदिक काल के समाज में और वर्तमान समाज में आकाश-पाताल का अंतर पाया जाता है। परंतु यह बात ध्यान में रखने की है कि प्रत्येक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन नहीं होता वरन् केवल सामाजिक संबंधों, सामाजिक संस्थाओं तथा संस्थाओं के परस्पर संबंधों में होने वाला परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन की श्रेणी में आता है। प्रमुख विद्वानों ने इसे अग्र प्रकार से परिभाषित किया है –

1. जॉन्स (Jones) के अनुसार – “सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है जिसका प्रयोग सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक अंत:क्रिया या सामाजिक संगठन में होने वाले परिवर्तन को व्यक्त करने के लिए किया जाता है।”
2. मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार – “समाजशास्त्री होने के नाते हमारी । प्रत्यक्ष रुचि सामाजिक संबंधों में हैं। हम केवल उस परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन मानेंगे जो इनमें (अर्थात् सामाजिक संबंधों में) होते हैं।”
3. जॉनसन (Johnson) के अनुसार -“सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य सामाजिक संरचना में परिवर्तन से है।”
4. जेनसन (Jenson) के अनुसार – “सामाजिक परिवर्तन को व्यक्तियों के कार्य करने और विचार करने के तरीको में होने वाले परिवर्तन कहकर परिभाषित किया जा सकता है।”
5. डेविस (Davis) के अनुसार – “सामाजिक परिवर्तन में केवल वे ही परिवर्तन समझे जाते हैं जो सामाजिक संगठन अर्थात् समाज के ढाँचे और कार्यों में घटित होते हैं।”
6. डॉसन एवं गेटिस (Dawson and Gettys) के अनुसार – “सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन है क्योंकि समस्त संस्कृति अपनी उत्पत्ति, अर्थ तथा प्रयोग में सामाजिक है।”
7. फिचर (Fichter) के अनुसार – “संक्षेपत: पहले की अवस्था या रहन-सहन के ढंग में भिन्नता को ही परिवर्तन कहते हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का संबंध सामाजिक संबंधों तथा समाज की व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन से है। कालांतर में सामाजिक संबंधी तथा समाज की संरचना और प्रकायों में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है। इस प्रकार, सामाजिक परिवर्तन का संबंध समाज से है तथा प्राकृतिक या जैविक जगत् में होने वाले परिवर्तन इसमें सम्मिलित नहीं है।

सामाजिक परिवर्तन की प्रमुख विशेषताएँ
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाओं से इसकी निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं –
1. सर्वव्यापकता – सामाजिक परिवर्तन मानव समाज के इतिहास के आरंभ से अब तक सभी कालों में होता चला आ रहा है। इतिहास का कोई भी युग ऐसा नहीं रहा जिसने मानव समाज को कोई-न-कोई नई विचारधारा प्रदान न की हो। इससे यह सिद्ध होता है कि मानव समाज में सभी स्थानों पर किसी-न-किसी रूप में सामाजिक परिवर्तन अवश्य होता आ रहा है।

2. सापेक्ष गति – सामाजिक परिवर्तन की गति को हम एक समाज में होने वाले परिवर्तनों की दूसरे समाजों में होने वाले परिवर्तन से तुलना करके ही निश्चित कर सकते हैं। एक-सी परिस्थितियाँ उपस्थित होने पर भी सामाजिक परिवर्तन की गति प्रत्येक समाज में भिन्न-भिन्न होती है, क्योंकि सभी समाज परिवर्तन की दशाओं, से समान रूप से प्रभावित नहीं होते। ग्रामीण समाज में नगरीय समाज की अपेक्षा परिवर्तन की गति धीमी होती है। हम विभिन्न समाजों में होने वाले परिवर्तनों को देखकर यह कह सकते हैं कि किस समाज में कितना परिवर्तन हुआ है। इसलिए विद्वानों का मत है कि सामाजिक परिवर्तन की गति तुलनात्मक अथवा सापेक्ष होती है।

3. एक जटिल प्रक्रिया – सामाजिक परिवर्तन का संबंध सदैव गुणात्मक परिवर्तन से होता है। गुणात्मक परिवर्तन का कोई भी मापदंड निर्धारित नहीं किया जा सकता, अतएव सामाजिक परिवर्तन को एक जटिल तथ्य या प्रक्रिया के नाम से पुकारा जाता है। इसके अतिरिक्त सामाजिक परिवर्तन सदैव ही दो प्रकार के तत्त्वों को प्रभावित करता है। जब यह भौतिक तत्त्वों को प्रभावित करता है तो हम आसानी से समझ जाते हैं कि हमारे आविष्कारों में कितना परिवर्तनन हुआ है, किंतु जब हमारे सांस्कृतिक तत्त्वों में परिवर्तन होता है तो वह इतना धीमा होता है कि उसको समझना सरल नहीं होता और तब हम उस परिवर्तन को जटिल प्रक्रिया के. नाम से पुकारते हैं।

4. भविष्यवाणी का अभाव – सामाजिक परिवर्तन का अर्थ समाज में प्रचलित प्रथाओं और परंपराओं में परिवर्तन होता है, किंतु सामाजिक परिवर्तन के संबंध में यह कहना कठिन है कि कौन-से कारणों द्वारा कितना परिवर्तन किस समाज में होगा। हम किसी समाज में होने वाले परिवर्तनों के संबंध में कल्पना मात्र कर सकते हैं, यह नहीं कह सकते है कि समाज पर औद्योगीकरण, नगरीकरण आदि तत्त्वों का किस सीमा तक प्रभाव पड़ेगा और यह भी नहीं कह सकते कि समाज में प्रचलित परंपराओं तथा प्रथाओं का प्रभाव किस सीमा तक कम हो जाएगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि सामाजिक परिवर्तन से सामाजिक संबंधों के स्वरूप में क्या परिवर्तन होगा। साथ ही, सामाजिक घटनाओं की प्रकृति इतनी जटिल है कि इसके विषय में भविष्यवाणी करना एक कठिन कार्य है।

5. अनिवार्यता – सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य घटना है जो प्रत्येक समाज में होती रहती है। सभी व्यक्तियों के उद्देश्य एवं विचार समान नहीं होते। सभी व्यक्ति अपने-अपने उद्देश्यों की प्राप्ति करने के लिए प्रयास करते रहते हैं। इस प्रयास में वे अन्य व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं। और विचार-विर्मश के कारण नई बातों या नए विचारों को जन्म देते हैं। सामाजिक परिवर्तन की यह प्रक्रिया प्रत्येक समाज में अनिवार्य रूप से पाई जाती है। इसलिए ए० डब्ल्यू० ग्रीन (A. W. Green) ने भी कहा है-“परिवर्तन का उत्साहपूर्ण स्वागत अपने जीवन का प्रायः एक ढंगे-सा बन चुका है।”

6. अन्य विशेषताएँ – विल्बर्ट ई० मूर (Wilbert E. Moore) ने सामाजिक परिवर्तन की कुछ अन्य विशेषताओं का उल्लेख करते हुए निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान दिलाया है –

  1. सामाजिक परिवर्तन धीमी गति से होता है।
  2. सामाजिक परिवर्तन की गति आधुनिक युग में अपेक्षाकृत तीव्र है।
  3. सामाजिक परिवर्तन हमारे भौतिक जीवन को तीव्र गति से प्रभावित करता है। इसलिए | आज भोजन व वस्त्रों में पहले से अधिक अंतर आ गया है। हम आज आकर्षक तथा भोग-विलास की वस्तुओं से शीघ्र ही प्रभावित हो जाते हैं।
  4. सामाजिक परिवर्तन हमारी सांस्कृतिक भावनाओं पर धीमी गति से प्रभाव डालता है।
  5. जो परिवर्तन हमारे सामान्य जीवन को प्रभावित करता है उसकी गति अधिक तीव्र होती है।
  6. सामाजिक परिवर्तन के संबंध में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन एक विस्तृत अवधारणा है। इसका अभिप्राय सामाजिक संबंधों तथा समाज के विभिन्न पक्षों में होने वाले परिवर्तन से है। यह एक जटिल प्रक्रिया होने के साथ-साथ विभिन्न समाजों में असमान गति से निरंतर होता रहता है।

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प्रश्न 3.
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख प्रतिमानों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
सामाजिक परिवर्तन के विस्तृत प्रतिमान
सामाजिक परिवर्तन एक विस्तृत संप्रत्यय है जिसका कोई एक निश्चित प्रतिमान नहीं है। मुख्य प्रश्न हमारे सामने यह है कि सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने के लिए किस कारक को आधार माना जाए तो और व्याख्या करने में कौन-सी पद्धति को अपनाया जाए? विद्वानों ने इस समस्या को निमनलिखित दो प्रकार से समझाने का प्रयास किया है –
1. अन्योन्याश्रितता एवं कारकों की विविधता – जब हम समाज में होने वाले किसी भी परिवर्तन को देखते हैं तो यह ज्ञात होता है कि उसके एक नहीं बल्कि अनेक कारक हैं जो कि परस्पर भिन्न न होकर अन्योन्याश्रित है अर्थात् ये एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। किसी सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए मनोधारणाओं या मनोवृत्तियों में परिवर्तन तथा मानव मनोवृत्तियों पर उसके संपूर्ण पर्यावरण एवं दशाओं का प्रभाव पड़ता है। इस परिवर्तन को समझने के लिए आर्थिक दशाओं तथा प्रौद्योगिकीय एवं राजनीतिक पक्षों से भी परिचित होना । पड़ता है।

कुछ परिवर्तन इसलिए होते रहते हैं कि हम भौतिक पर्यावरण से सांमजस्य स्थापित कर सकें। उदाहरणार्थ-यदि हम गिरती हुई जन्म-दर का अध्ययन करें तो हमें धार्मिकता, महिलाओं की बढ़ती हुई आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि, देर से विवाह, व्यक्तिवाद आदि का अध्ययन करना ही होगा। इस संयुक्त योगदान को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता; अतः बाध्य होकर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या में हमें विविध कारकों का उत्तरदायित्व स्वीकार करना पड़ता है। ऐसा किए बिना हम सामाजिक परिवर्तन को नहीं समझ सकते। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने से हम किसी एक कारक को निर्णायक कारक मानकर नहीं चल सकते।

समाज में परिवर्तन लाने वाले विभिन्न कारक आपस में अंतसंबंधित हैं। यही कारण है कि वे स्वयं पूर्ण न होकर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। किसी सामाजिक घटना का वर्णन करते समय न केवल कारकों की बहुलता या विविधता ही ध्यान में रखती है वरन् उनकी अंतर्निर्भरता को भी उतनी ही महत्ता देनी होगी। विविध कारण एक-दूसरे से मिले और गुंथे रहते हैं। अपराधों में वृद्धि का कारण हम व्यक्तिवाद को मानते हैं जिसने व्यक्ति को संयुक्त परिवार से अलग किया और संयुक्त परिवार का ह्वास करके एकाकी परिवार बसाने को प्रोत्साहित किया। अपराधों में वृद्धि का दूसरा कारक नगरीकरण माना जाता हैं क्योंकि जीविकोपार्जन हेतु गाँवों के लोग नगरों की ओर आकर्षित होते हैं और वहाँ की गन्दी बस्तियो के वातावरण में अपराध करने के अधिक अवसर मिलने पर अपराधों में भाग लेने लगते हैं। यहाँ उन्हें जनसंख्या में विविधता मिलती है।

जिससे अपराध करके भीड़भाड़पूर्ण वातावरण में छिपने की सुविधा, औद्योगिक केंद्रों में अपराधी व्यक्ति को खोज पाने की कठिनाई तथा साथ ही तीव्रगामी आवागमन के साधनों में वृद्धि के कारण एक स्थान पर अपराध करके दूसरे स्थान पर आसानी से भाग जाने की सुविधा आदि संभव होने के कारण व्यक्ति अपराधी बन जाता है। अपराध का तीसरा कारक शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमजोरी है। ऐसे व्यक्ति अधिक अपराध करते हैं क्योंकि उनमें इतनी बुद्धि नहीं होती है कि वे अपराध एवं उससे समाज को होने वाली हानि तथा अपने पर इसके होने वाले दुष्प्रभावों के विषय के बारे में सोच सकें। यह भी हो सकता है कि व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता का शिकार होने के कारण निराश हो और इसी कारण अपराध करता हो।

अब यह प्रश्न उठता है कि क्या वे सब कारक एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं? क्या व्यक्तिवाद नगरीकरण का ही परिणाम है? क्या नगरीकरण औद्योगीकरण का ही शिशु नहीं है? क्या आवागमन के साधनों में वृद्धि, नगरीकरण, व्यक्तिवाद, द्वितीयक समूहों का विकास तथा अपराध वृद्धि आदि सभी कारक पारस्परिक निर्भरता की कड़ी में नहीं बँधे हैं? समाजशास्त्रीय अध्ययनों के आधार पर आज हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि ये कारक स्वतंत्र कारक नहीं बल्कि एक-दूसरे के साथ सहयोगी व्यवस्था में बँधकर किसी सामाजिक व्यवहार को जन्म देते हैं। सामाजिक कारक आपस में तार्किक रूप से कार्य-कारण संबंधों से भी जुड़े हुए होते हैं। इस प्रकार; यह प्रमाणित हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने में कारकों की | विविधता तथा उनकी अन्योन्याश्रितता को भी ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है।

2. परिमाणात्मक पद्धति की असमर्थता – कुछ विद्वान यह विश्वास करते हैं कि हर सामाजिक घटना का अध्ययन हम परिणात्मक सांख्यिकीय पद्धति के द्वारा कर सकते हैं। उदाहरणार्थअपराधों का अध्ययन करने के लिए हम संयुक्त परिवार के विघटन पर भी दृष्टिपात करते हैं। कितने संयुक्त परिवार विघटित हुए यह जानने के लिए हम संयुक्त परिवार के विघटने पर भी दृष्टिपात करते हैं। कितने संयुक्त परिवार विघटित हुए यह जानने के लिए हमें उनकी संख्या गिननी होगी जिसमें इस पद्धति का सहारा लेना होगा। परंतु सामाजिक संबंधों का एक परिमाणात्मक पहलू भी है जो अति न्यून है। भौतिक विज्ञानों के समान परिमाणात्मक पद्धति को यदि हम समाजशास्त्र में भी लागू करते हैं तो बड़ा भय उपस्थित हो जाता है। सामाजिक घटनाओं में प्राकृतिक घटनाओं के समान किसी परिस्थिति में से अलग किए जा सकने वाला।

कोई भाग नहीं होता है। विभिन्न भाग अपने संदर्भ में अलग होते ही अर्थहीन हो जाते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि सामाजिक संबंध अमूर्त होते हैं क्योंकि ने तो उनका कोई भौतिक स्वरूप होता है और न ही आकार। अतः उन्हें रेखागणितीय या परिमाणात्मक पैमाने से नहीं मापा जा सकता है। साथ ही, यदि एक घटना को पैदा करने में कई कारकों का योगदान रहता है। तो उनमें से प्रत्येक कारक का कितना अलग-अलग व्यक्तिगत योगदान है, यह ज्ञात करना अति कठिन है।

उपर्युक्त दोनों परिप्रेक्ष्यों के कारण सामाजिक परिवर्तन के विस्तृत प्रतिमान के निर्धारण की समस्या और अधिक उलझ जाती है। इन समस्याओं के बावजूद समाजशास्त्री सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख विस्तृत प्रतिमानों को समझने में काफी सीमा तक सफल रहे हैं।

सामाजिक परिवर्तन समस्त समाजों में एक-सा नहीं हो सकता; अत: हमें परिवर्तन के विभिन्न प्रतिमान दृष्टिगोचर होते हैं। यदि किंही दो समाजों में परिवर्तन के समान कारक कार्य कर रहे हों तो भी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि उन दोनों समाजों में परिवर्तन के प्रतिमान भी समान ही विकसित होंगे, क्योंकि परिवर्तन से कारकों का क्रमागत एकीकरण (Orderly integration) भी समान होगा यह आवश्यक नहीं है। इसी से दो भिन्न समाजों में परिवर्तन के एक से ही कारकों के कार्यरत रहने पर प्रतिमान भिन्न हो जाते हैं। यद्यपि सामाजिक परिवर्तन के अनेक प्रतिमान देखे जा . सकते हैं तथापि मैकाइवर एवं पेज ने निम्नलिखित तीन प्रतिमान हमारे सम्मुख प्रस्तुत किए हैं –

1. पहला प्रतिमान : रेखीय परिवर्तन – सामाजिक परिवर्तन के प्रथम प्रतिमान के अनुसार परिवर्तन यकायक होता है और फिर क्रमश: मंदगति से अनिश्चितकाल तक सदैव ऊपर की ओर होता रहता है। अतः यह परिवर्तन उत्तरोत्तर वृद्धि करता जाता है। परिवर्तन की यह रेखा सदैव ऊपर की ओर चलती रहती है। उदाहरणार्थ-हम आवागमन एवं संदेशवाहन के साधनों को ले सकते हैं। एक बार जब कोई आविष्कार हो जाता है तो उत्तरोत्तर ऊपर चला जाता है तथा अन्य अनेक नवीन आविष्कारों का मार्ग भी प्रशस्त कर देता है। प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तन भी इसी प्रकार के होते हैं। इसी प्रकार विज्ञान में होने वाले परिवर्तन भी इससे बहुत-कुछ साम्य रखते हैं। अतः निरंतर उन्नत होते प्रतिमान रेखीय प्रतिमान कहलाते हैं। इनकी उन्नति की गति तीव्र भी हो सकती है और मंद भी। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “वास्तव में, इस प्रकार के परिवर्तन की विशेषता उसकी यकायक में नहीं बल्कि एक उपयोगी व्यवस्था के निरंतर संचयी विकास के रूप में है जब तक कि इस व्यवस्था को उसी भाँति उत्पन्न कोई दूसरी नई व्यवस्था अचानक आकर जड़ से ही न उखाड़ फेंके।”

2. दूसरा प्रतिमान : उन्नति – अवनतिशील परिवर्तन – परिवर्तन के इस प्रतिमान के अनुसार परिवर्तन एवं विकास क्रमशः नहीं होता है वरन् एक ही स्थिति के बिलकुल विपरीत स्थिति भी तुरंत ही परिवर्तित हो जाती है। कुछ समय तक परिवर्तन का प्रवाह लगातार ऊपर की दिशा में जाता है, बाद में यह एकदम विपरीत दिशा में प्रवाहित हो जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विकास और अवनति के ये सोपान परिलक्षित होते रहते हैं। आर्थिक जगत तथा जनसंख्या में होने वाले परिवर्तन इसी प्रतिमान की अभिव्यक्ति करते हैं। आर्थिक जगत में सामान्यतः अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। जनसंख्या भी बढ़ती जाती है और फिर एकदम से घटनी शुरू हो जाती है। प्रथम प्रतिमान (रेखीय परिवर्तन) में यह निश्चित है कि परिवर्तन निश्चित दिशा में सदैव ऊर्ध्वगामी होता है, किंतु इस द्वितीय प्रतिमान में कुछ पता नहीं रहता कि परिवर्तन कब अपनी विपरीत दिशा में प्रवाहित हो जाएगा जो चरमोन्नत से निम्नतम और निम्नतम से चरमोन्नत कुछ भी हो सकता है।

3. तीसरा प्रतिमान : चक्रीय परिवर्तन – परिवर्तन का यह प्रतिमान दूसरे प्रतिमान से काफी मिलता-जुलता है। यह परिवर्तन पूरे जीवन अथवा उसके कई भागों में उसी प्रकार से देखने में आता है जैसे कि प्राकृतिक जगत में। इसकी तुलना साइकिल के पहिए की भाँति चलने वाले चक्र से की जा सकती है। प्राकृतिक जगत में इस प्रकार के परिवर्तन देखने में आते हैं। मौसमों में होने वाला क्रमशः चक्रीय परिवर्तन इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। जैसे समुद्र अथवा नदी में एक के पीछे दूसरी लहरें उठती रहती हैं और उस प्रक्रिया का कोई अंत नहीं होता, ठीक उसी प्रकार परिवर्तन आदि-अंत विहीन निरंतर होता रहता है। यह चक्र मानव जीवन में भी देखा जा सकता है। मनुष्य का जन्म होता है, वह युवा होता है, वृद्ध होता है तथा मर जाता है। ये अवस्थाएँ अवश्यम्भावी है। फैशन में होने वाले परिवर्तन तथा रूढ़ियों में होने वाले परिवर्तन इसी प्रतिमान के अंतर्गत आते हैं। सांस्कृतिक विकास में भी कई बार इसी प्रतिमान को देखा जा सकता है।

इस प्रकार यद्यपि हम उपर्युक्त प्रतिमानों को व्यक्त करते हैं तथापि सभी परिवर्तनों को इन तीन प्रतिमानों के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। कुछ परिवर्ततन ऐसे भी होते हैं जो इन तीनों में किसी भी प्रतिमान के अंतर्गत नहीं आते हैं अथवा तीनों में ही आते हैं। वस्तुतः मानव संबंधों को अधिकतर भाग गुणात्मक है; अतः जब किसी परिवर्तन में सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश होता है तो हमारे लिए उस परिवर्तन को किसी एक प्रतिमान के अंतर्गत रखना कठिन हो जाता है। इस कठिनाई के बावजूद अधिकांश समाजशास्त्री सैद्धांतिक रूप में सामाजिक परिवर्तन के उपर्युक्त तीनों प्रतिमानों को स्वीकार करते हैं।

प्रश्न 4.
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक कौन-से हैं?
या
सामाजित परिवर्तन के विभिन्न कारकों को संक्षेप में बताइए।
या
सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारकों का वर्णन कीजिए। आपकी दृष्टि से भारत में सामाजिक परिवर्तन के लिए कौन-सा कारक अधिक महत्त्वपूर्ण है और क्यों?
उत्तर
सामाजिक परिवर्तन के कारक
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ समाज के विभिन्न पहलुओं में होने वाला परिवर्तन है। इसे अनेक कारण या कारक प्रोत्साहन देते हैं। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने वाले मुख्य कारकों का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है –
1. जैविक कारक – मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन के दूसरे साधन, सामाजिक निरंतरता को जैविक दशा में, जनसंख्या के बढ़ाव व घटाव तथा प्राणियों व मनुष्यों की वंशानुगत दशा के ऊपर निर्भर हैं। जैविक कारकों से तात्पर्य जनसंख्या के गुणात्मक पक्ष से है जो कि वंशानुगत के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। हमारी शारीरिक व मानसिक क्षमताएँ, स्वास्थ्य व प्रजनन दर वंशानुक्रमण व जैविक कारकों से प्रभावित होते हैं। जैवकीय कारक अप्रत्यक्ष रूप से परिवर्तन को प्रभावित करते हैं। वंशगंत मिश्रण को रोका नहीं जा सकता। इस कारण ही प्रत्येक पीढ़ी में शारीरिक अंतर पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक प्रवरण और अस्तित्व के लिए संघर्ष के जैवकीय सिद्धांत भी समाज में बराबर परिवर्तन करते रहते हैं।

2. भौतिक या भौगोलिक कारक – सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न कारकों में भौतिक या भौगोलिक तत्त्वों या परिस्थितियों का विशेष योगदान रहा है। संसार की भौगोलिक परिस्थितियों में दिन-रांत परिवर्तन हो रहा है। तीव्र वर्षा, तूफान, भूकंप आदि पृथ्वी के स्वरूप में परिवर्तन करते आए हैं जिनका मनुष्य की सामाजिक दशाओं पर विशेष प्रभाव पड़ता आया है। हटिंगटन के मतानुसार, जलवायु का परिवर्तन ही सभ्यताओं और संस्कृति के उत्थान एवं पतन को एकमात्र कारण है। जिस स्थान पर लोहा और कोयला निकल आता है, वहाँ के समाज में तीव्रता से परिवर्तन होते हैं। भले ही इस कथन में पूर्ण सत्यता न हो परंतु पर्याप्त सीमा तक सत्यता अवश्य है।

3. मनोवैज्ञानिक कारक – सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न कारकों में मनोवैज्ञानिक कारकों का विशेष हाथ रहता हैं। मनुष्य का स्वभाव परिवर्तनशील है, वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सदा नवीन खोजे किया करता है और नवीन अनुभवों के प्रति इच्छित रहता है। मनुष्य की इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही मानव समाज की रूढ़ियों, परंपराओं तथा रीति-रिवाजों में परिवर्तन होते. रहते हैं। मानसिक असंतोष तथा मानसिक संघर्ष व तनाव सामाजिक संबंधों को अत्यधिक प्रभावित करते हैं तथा इनसे हत्या, आत्महत्या, अपराध, बाल अपराध, पारिवारिक विघटन आदि को प्रोत्साहन मिलता है।

4. प्रौद्योगिकीय कारक – सामाजिक परिवर्तन में प्रौद्योगिकीय कारक विशेष भूमिका रहती है; ऑगबर्न (Ogburn) के शब्दों में, “प्रौद्योगिकी हमारे वातावरण को परिवर्तित करके, जिससे कि हम अनुकूलन करते हैं, हमारे समाज को परिवर्तित करती है। यह परिवर्तन सामान्य रूप से भौतिक पर्यावरण में होता है और हम परिवर्तनों से जो अनुकूलन करते हैं उससे बहुधा प्रथाएँ और सामाजिक संस्थाएँ संशोधित हो जाती है। वास्तव में, विभिन्न आविष्कारों और औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। आज हमारे रहन-सहन, खान-पान तथा आपसी संबंधों में जो परिवर्तन दिखाई देते हैं उनका मूल कारण औद्योगिक विकास है। औद्योगिक विकास के कारण गृह उद्योग-धंधे बंद हो गए, समाज में बेकारी और भुखमरी का बोलबाला हो गया।

संक्षेप में, औद्योगिक विकास का प्रत्यक्ष प्रभाव नगरीकरण, श्रम संगठन, विशेषीकरण, बेकारी तथा प्रतियोगिता आदि के रूप में देखा जा सकता है कि प्राचीन मान्यताओं में परिवर्तन लाने में सहायक होते हैं तथा इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन लाते हैं। वैबलन (Vablen) ने सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रौद्योगिकी को एक प्रमुख कारक माना है। प्रौद्योगिकी श्रम संगठनों, नगरीकरण, गतिशीलता, विशेषीकरण तथा सामाजिक संबंधों को प्रत्यक्षतः प्रभावित करती है। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व पारिवारिक जीवन पर इसके अनगिनत अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पड़ते हैं। वैबलन के अनुसार, प्रौद्योगिकी का सर्वप्रमुख प्रभाव हमारी आदतों पर पड़ता है और आदतों से विचारों का निर्माण होता है। प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तन से आदतों व विचारों में परिवर्तन हो जाता है; अत: प्रौद्योगिकी ही यह निर्धारित करती है कि हमारा सामाजिक ढाँचा तथा हमारी संस्थाएँ कैसी होंगी।

5. जनसंख्यात्मक कारक – जनसंख्या में परिवर्तन का सामाजिक परिवर्तन पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या के घटने-बढ़ने का देश की आर्थिक स्थिति पर विशेष प्रभाव पड़ता हैं जिन देशों में प्राकृतिक स्रोत तो कम होते हैं, परंतु जनसंख्या अधिक होती है वहाँ निर्धनता और भुखमरी का बोलबाला रहता है। जहाँ अनुकूल व आदर्श जनसंख्या होती है वहाँ के लोगों का जीवन स्तर ऊँचा होता है। इसके साथ ही जन्म व मृत्यु दर भी परिवर्तन लाती हैं। अगर मृत्यु दर अधिक है तो जनसंख्या कम होती जाती है तथा अधिक बच्चों के जन्म को प्राथमिकता देने वाली प्रथाएँ विकसित होने लगती हैं। अगर जन्म दर अधिक है और मृत्यु दर कम है तो जनाधिक्य की समस्या पैदा हो जाती है जिससे निर्धनता, बेरोजगारी, भुखमरी आदि में वृद्धि हो जाती है। जनसंख्या में गतिशीलता (आप्रवासे तथा उत्प्रवास), जनसंख्या में औसत आयु तथा लिंग अनुपात:कुछ अन्य जनसंख्यात्मक कारक है जो कि सामाजिक परिवर्तन लाने में सहायक हैं। जनंसख्या के विकास के साथ-साथ सामाजिक मान्यताओं, प्रथाओं और रीति-रिवाजों में भी परिवर्तन आता है।

6. आर्थिक कारक – सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक कारक भी प्रभावित करते हैं। माक्र्स ने आर्थिक कारकों को निर्णायक कारक बताया है। वर्ग-संघर्ष आर्थिक कारणों के परिणामस्वरूप ही विकसित होता है। उत्पादन के स्वरूपों, संपत्ति के स्वरूपों, व्यवसायों की प्रकृति, वितरण प्रणाली, औद्योगीकरण, श्रम-विभाजन तथा आर्थिक प्रतिस्पर्धा इत्यादि व्यक्तियों के सामाजिक संबंधों पर गहरा प्रभाव डालते हैं। अतः इनमें परिवर्तन होने पर सामजिक परिवर्तन को . प्रोत्साहन मिलता है। माक्र्स के अनुसार उत्पादन की प्रक्रिया एक ऐसे वर्ग को विकसित करती है जो कि उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार प्राप्त कर लेता है। यह वर्ग पूँजीपति वर्ग कहलाता है। पूँजीपति वर्ग उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण करके श्रमिकों को उत्पादन कार्य में नियोजित करता है। श्रमिक वस्तुओं के उत्पादन में अपना श्रम लगाते हैं और उत्पादित वस्तुओं का अधिकांश लोभ (अतिरिक्त मूल्य) पूँजीपति वर्ग ही हड़प जाता है। श्रमिकों के इस शोषण से उनमें असंतोष पैदा होता है तथा वे संगठित होकर पूँजीपति वर्ग से संघर्ष करते हैं। इसी वर्ग-संघर्ष से सामाजिक परिवर्तन आता है। माक्र्स के अनुसार हमारी सामाजिक संरचना, राजनीतिक संरचा, विचार इत्यादि सभी आर्थिक कारकों से प्रभावित होते है।

7. सांस्कृतिक कारक – सांस्कृतिक कारक का सर्वाधिक पक्ष मैक्स वेबर (Max Weber), सोरोकिन (Sorokin) तथा ऑगबर्न (Ogburn) ने लिया है। मैक्स वेबर ने विभिन्न धर्मों और व्यवस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि सांस्कृतिक परिवर्तन होने के कारण समाज में परिवर्तन होते हैं। सोरोकिन ने सांस्कृतिक उतार-चढ़ाव के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या दी है। किस सीमा तक यह सत्य भी है कि भौतिक और अभौतिक संस्कृति के स्वरूप में परिवर्तन आने से सामाजिक संबंध भी प्रभावित होते हैं। हमारे देश में पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन किए हैं; जैसे–पर्दा प्रथा की समाप्ति, स्त्री-शिक्षा का प्रसार, स्त्रियों को नौकरी करना, संयुक्त परिवार का विघटन और जाति प्रथा का विरोध आदि।

निष्कर्ष – उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं है। इसे अनेक कारक प्रोत्साहन देते हैं तथा कई बार यह विविध प्रकार के कारकों का सामूहिक परिणाम होता है। यही कारक भारत में भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं।

प्रश्न 5.
सामाजिक व्यवस्था किसे कहते हैं? इस व्यवस्था को विस्तार से समझाइए।
या
सामाजिक व्यवस्था की परिभाषा को बताते हुये सामाजिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर
सामाजिक जीवन मानवों के मध्य होने वाली अंत:क्रियाओं का एक सतत एवं निरंतर प्रवाह है। मानवीय अंत:क्रियाएँ मनमाने ढंग से घटित नहीं होती अपितु अधिकांशतः वे सुनिश्चित व पूर्व-निर्धारित प्रतिमानों के अनुसार घटित होती हैं। इसी से समाज में स्थायित्व, निरंतरता और व्यवस्था बनी रहती है। ‘सामाजिक व्यवस्था’ का अर्थ समझने के लिए पहले व्यवस्था’ शब्द का अर्थ समझ लेना अनिवार्य है। ‘व्यवस्था’ शब्द से किसी वस्तु अथवा समग्र के विभिन्न धारकों या अंगों का तथा उनमें पाए जाने वाले संबंधों का बोध होता है।

व्यवस्था का अर्थ एवं परिभाषाएँ
कंसाइज ऑक्सफोर्ड शब्दकोश’ (Concise Oxford Dictionary) में व्यवस्था’ शब्द का प्रयोग दो भिन्न संदर्भो में किया गया है – प्रथम, व्यवस्था एवं जटिल समग्र या संबंधित वस्तुओं तथा घटकों का कुलक या भौतिक अथवा अभौतिक वस्तुओं का संगठित निकाय है तथा द्वितीय, व्यवस्था से प्रणाली, संगठन तथा कार्य-पद्धति और वर्गीकरण के निर्धारित सिद्धांत का बोध होता है।

उपर्युक्त दोनों अर्थों में संबंधित, संगठित तथा संगठन महत्त्वपूर्ण शब्द हैं जिनसे हमें यह पता चलता है कि व्यवस्था एक ऐसा कुलक है जो संगठित है अथवा जिसके विभिन्न घटक परस्पर संबद्ध हैं। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि व्यवस्था से अभिप्राय एक ऐसे समाकलित समग्र (Integrated whole) अथवा कुलक से हैं जिसके विभिन्न घटक परस्पर संबंधित तथा संगठित होते हैं।

‘व्यवस्था’ शब्द की परिभाषा करते हुए विलबर आम (Wilbur Schramm) ने लिखा है-“जब कभी हम एक व्यवस्था की बात करते हैं तो हमारा आशय अन्योन्याश्रित कणों के एक ऐसे समुच्चय या कुलक (सेट) से होता है जो सीमाओं को बनाए हुए हैं।”

इस परिभाषा में दो महत्त्वपूर्ण शब्दों का प्रयोग हुआ है – एक तो ‘अन्योन्याश्रितता’ तथा दूसरा ‘सीमाएँ। अन्योन्याश्रितता से आशय यह है कि किसी व्यवस्था की संघटक इकाइयों एक-दूसरे से इस प्रकार जुड़ी होती हैं कि इसके किसी भी हिस्से में होने वाली कोई भी घटना, चाहे वह कितनी भी सूक्ष्म हो, पूरी व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। जहाँ तक सीमाओं को बनाए रखने का प्रश्न है, इससे यह तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यवस्था की एक स्पष्ट सीमा रेखा भी दिखाई देती हैं यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि कहाँ इस व्यवस्था का कार्य-क्षेत्र प्रारंभ होता हैं और कहाँ यह समाप्त होता है। उदाहरण के लिए हम एक कॉलेज को लें। कॉलेज की एक व्यवस्था के रूप में कल्पना की जा सकती है और इस रूप में उसका विवेचन भी संभव है। कॉलेज में विभिन्न कक्षा-समूह, विषयानुसार शिक्षकों के अनेक विभाग, कार्यालय-कर्मचारी, प्रबंध-समिति आदि अनेक इकाइयाँ परस्पर प्रकार्यात्मक रूप से जुड़ी हुई कॉलेज की व्यवस्था का निर्माण करती हैं।

इनमें से किसी एक इकाई में घटित घटना कॉलेज में सभी हिस्सों को प्रभावित करेगी अर्थात् पूरी कॉलेज व्यवस्था उससे प्रभावित होगी। यह भी सच है कि कॉलेज शून्य में कोई कार्य नहीं करता। उसके चारों ओर विद्यमान समुदाय, नातेदारी व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, धार्मिक व्यवस्था आदि का भी उस पर प्रभाव पड़ता है। कॉलेज भी इन अन्य व्यवस्थाओं को प्रभावित करता है, परंतु वे अन्य सभी क्वस्थाएँ कॉलेज के सामाजिक पर्यावरण को प्रकट करती है। इस समस्त सामाजिक पर्यावरण में कॉलेज के पर्यावरण की सीमाएँ कहाँ से शुरू होती हैं और कहाँ समाप्त होती हैं – यह स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है, सीमांकित किया जा सकता है। इसी प्रकार हाल एवं फेगन (Hall and Fagen) ‘व्यवस्था की परिभाषा करते हुए लिखते हैं-“किन्हीं भी चीजों का एक समुच्य, जहाँ उन चीजों के बीच और उन चीजों के गुणों के बीच संबंध हो, व्यवस्था कहलाता है।”

इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न इकाइयों के बीच अंत:संबंध ही व्यवस्था का मूल आधार है। यहाँ एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है कि किन्हीं इकाइयों का योग मात्र या ढेर, व्यवस्था नहीं है। वे इकाइयाँ जब एक विशेष ढंग से अंत:संबंधित हो जाती हैं तो एक पृथक् अस्तित्व, एक समग्रता का प्रादुर्भाव होता है जो उन इकाइयों के योग से बिलकुल अलग है। यह समग्रता (Wholeness) ही व्यवस्था की परिचायक है। यही तथ्य इस सर्वविदित सिद्धांत के द्वारा स्पष्ट होता है। कि “समग्र इकाइयों के योग से बड़ा होता है।”

उदाहरण के लिए हम कॉलेज व्यवस्था को विद्यार्थियों की संख्या, कुर्मचारियों की संख्या, शिक्षकों की संख्या और प्रबंध समिति के सदस्यों की संख्या का योग मात्र नहीं कह सकते। वह तो इन सब इकाइयों के बीच संबंधों की व्यवस्था का नाम है। ठीक ऐसे ही जैसे-ईंट, पत्थर, गारा, चूने का योग या एक जगह ढेर मकान नहीं कहा जा सकता।

सामाजिक व्यवस्था का अर्थ तथा परिभाषाएँ
अनेक समाजशास्त्रियों ने समाज को एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया है। ऐसे विद्वानों का संप्रदाय संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक संप्रदाय कहलाता है। ऐसे विद्वानों का मत है कि समाज को एक व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है, उसका विश्लेषण किया जा सकता है और उसके जीवन की विभिन्न प्रक्रियाओं एवं घटनाओं का स्पष्टीकरण किया जा सकता है। अतः यद्यपि अधिकांश विद्वान व्यक्ति तथा व्यक्तियों में पाए जाने वाले संबंधों को सामाजिक संरचना की प्रमुख इकाई मानते है, फिर भी कुछ विद्वान समूह एवं समाज के स्तर पर सामाजिक वास्तविकता की बात करते हैं तथा सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा द्वारा हम वास्तविकता को व्यक्त करते हैं।

सरल शब्दों में, सामाजिक व्यवस्था को परस्पर अंत:क्रियारत व्यक्तियों अथवा समूहों का कुलक (Set) कहा जा सकता है। यह ऐसा कुक्क है जिसे सामाजिक इकाई के रूप में देखा जाता है एवं जिसका व्यक्तियों (जो इस कुलके का निर्माण करते हैं) से भिन्न अपना पृथक् अस्तित्व है। प्रमुख विद्वानों ने सामाजिक व्यवस्था की परिभाषाएँ निम्न प्रकार से देने का प्रयास किया है –

1. सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार – सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था की परिभाषा “अभिप्रायों | की एक ऐसी व्यवस्था के रूप में दे सकते हैं जिसमें शब्दों द्वारा संचारित होने की क्षमता है तथा
जो अंत:क्रियाओं के एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र के समान प्रतीत होती है।”
2. पेरेटो (Pareto) के अनुसार – समाज विभिन्न शक्तियों के साम्य की एक व्यवस्था है। सामाजिक व्यवस्था समाज की वह अवस्था है जो किसी दिए हुए समय तथा परिवर्तन की उत्तरोत्तर दशाओं से प्राप्त होती है।”
3. टालकट पारसंस (Talcott Parsons) के अनुसार – “सामाजिक व्यवस्था में वैयक्तिक कर्ताओं की बहुलता होती है, जो एक ऐसी स्थिति में एक-दूसरे से अंत:क्रियाएँ करते हैं जिनका कम-से-कम एक भौतिक अथवा पर्यावरण संबंधी पहलू होता है। इस व्यवस्था के कर्ता अत्यधिक आवश्यकताओं की संतुष्टि की भावना से प्रेरित होते हैं और अंत:क्रियाओं में लगे हुए व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध, जिनमें परिस्थितियों के साथ उनके संबंध भी सम्मिलित हैं, सांस्कृतिक रूप से संचारित तथा स्वीकृत प्रतीकों की एक व्यवस्था द्वारा परिभाषित एवं व्यवस्थित होते हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक व्यवस्था का निर्माण एक से अधिक वयैक्तिक कर्ताओं की पारस्परिक अंतक्रियाओं से होता है। यह अंत:क्रियारत व्यक्तियों अथवा समूहों की कुलक है जिसका सामाजिक इकाई के रूप में व्यक्तियों से भिन्न अपना पृथक् अस्तित्व होता है।

सामाजिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ
यद्यपि पेरेटो एवं सोरोकिन ने भी सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को स्पष्ट किया है फिर भी इस अवधारणा को विकसित करने में टालकट पारसंस को विशेष योगदान रहा। इन विद्वानों के विचारों से सामाजिक व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं –
1. अर्थपूर्ण तथा उद्देश्यपूर्ण क्रियाएँ – व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार की क्रियाएँ तथा अंतःक्रियाएँ सामाजिक व्यवस्था को विकसित नहीं करती अपितु केवल विभिन्न प्रस्थितियों वाले व्यक्तियों की अर्थपूर्ण एवं उद्देश्यपूर्ण क्रियाओं, जो कि उनमें पाए जाने वाले सामाजिक संबंधों के परिणामस्वरूप होती हैं, के संगठित रूप द्वारा ही सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है। सामाजिक जीवन एवं सामाजिक संबंधों पर आधारित क्रियाओं एवं अंत:क्रियाओं के संयोग एवं क्रमबद्ध रूप को ही सामाजिक व्यवस्था कहते हैं।

2. एकता एवं क्रम – सामाजिक व्यवस्था केवल व्यक्तियों के संयोग अथवा अंगों के संकलन को ही नहीं कहते, अपितु व्यक्तियों की अंत:क्रियाओं अथवा विभिन्न अंगों में एक निश्चित क्रम तथा एकता का होना सामाजिक व्यवस्था के लिए अनिवार्य दशा है।

3. व्यक्तिगत कर्ताओं की बहुलता – सामाजिक व्यवस्था का निर्माण अंत:क्रिया में लगे हुए व्यक्तियों अथवा समूहों द्वारा होता है। यह इसके निर्माण की प्रथम अनिवार्य विशेषता है। अनेक व्यक्तियों की क्रियाओं तथा अंतक्रियाओं द्वारा सामाजिक व्यवस्था विकसित होती है, न कि किसी एक व्यक्ति की क्रिया द्वारा।

4. समाकलित समग्र – सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने वाले विभिन्न अंग प्रकार्यात्मक संबंधों द्वारा एक-दूसरे से इस प्रकार जुड़े हुए होते हैं कि एक अंग में परिवर्तन अन्य अंगों को भी प्रभावित करता है तथा इसीलिए इसे समाकलित समग्र कहा गया है। इससे हमें यह भी पता | चलता है कि व्यवस्था स्थिर न होकर गतिशील होती है।

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5. सांस्कृतिक व्यवस्था से संबंधित – पारसंस ने तीन प्रकार की व्यवस्थाओं का उल्लेख किया है –
(i) व्यक्तित्व व्यवस्था
(ii) सामाजिक व्यवस्था तथा
(iii) सांस्कृतिक व्यवस्था।
सामाजिक व्यवस्था का स्तर व्यक्तित्व व्यवस्था से तो विस्तृत हैं परंतु सांस्कृतिक व्यवस्था से सीमित है। वास्तव में, सांस्कृतिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का निर्धारण करती है, जबकि सामाजिक व्यवस्था व्यक्तियों की क्रियाओं और अंत:क्रियाओं को निर्धारित करके व्यक्तित्व व्यवस्था को प्रभावित करती है। संस्कृति ही सामाजिक व्यवस्था के अंगों को प्रकार्यात्मक रूप से जोड़ने और सामाजिक व्यवस्था के तनाव को कम करने का कार्य करती है।

6. भौतिक तथा पर्यावरण संबंधी पहलू – सामाजिक व्यवस्था किसी शून्य में कार्य नहीं करती अपितु इसका एक भौतिक एवं पर्यावरण संबंधी पहलू होता है। सामाजिक व्यवस्था को किसी निश्चित क्षेत्र, समय तथा समाज के संदर्भ में ही समझा जा सकता है अर्थात् प्रत्येक समाज में तथा इतिहास के विभिन्न युगों में अथवा किन्हीं दो समाजों ने एक-सी सामाजिक व्यवस्था नहीं होती है। भौतिक परिस्थितियों एवं पर्यावरण में परिवर्तन होने के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था में भी परिवर्तन होते रहते हैं।

7. अनुकूलन – सामाजिक व्यवस्था में पर्यावरण के परिवर्तित होने अथवा अंगों के कार्यों में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के बावजूद अपना संतुलन बनाए रखने की क्षमता होती है अर्थात् यह परिवर्तित परिस्थिति से अनुकूलन कर लेती है। अंगों तथा इकाइयों में परिवर्तन के बावजूद अनुकूलन द्वारा समग्र में निरंतरता बनी रहती है तथा सामाजिक व्यवस्था एक गतिशील व्यवस्था के रूप में कार्यरत रहती है।

8. परिस्थितियाँ एवं लक्ष्य – सामाजिक व्यवस्था एक लक्ष्य-निर्देशित क्रिया होती है तथा लक्ष्य परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। अतः सामाजिक व्यवस्था विभिन्न परिस्थितियों से व्यक्तियों का अनुकूलन करने तथा उनकी आवश्यकता एवं सांस्कृतिक रूप से परिभाषित लक्ष्यों की पूर्ति करने में सहायता देती है।

9. सीमाएँ – सामाजिक व्यवस्था को किन्हीं निश्चित सीमाओं द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। सीमाओं के आधार पर ही इसे सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक तथा जैविक व्यवस्था से पृथक् किया जा सकता है।

10. संतुलन तथा व्यवस्था – सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने वाले अंगों में निश्चित क्रम अथवा व्यवस्था तथा संतुलन पाया जाता है। सामाजिक व्यवस्था में संतुलन की इसी विशेषता के
कारण यह एक गतिशीलता के रूप में कार्यरत है।

11. सामाजिक व्यवस्था की संपूर्णता – सामाजिक व्यवस्था का एक सामाजिक इकाई के रूप में , पृथक् अस्तित्व होता है। जब भी हम सामाजिक व्यवस्था की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय संपूर्णता या समग्रता से होता है। इसीलिए यह अंगों का योग मात्र नहीं है।

प्रश्न 6.
भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट कीजिए।
या
भारत में सामाजिक परिवर्तन के परिणामों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
भारतीय में सामाजिक परिवर्तन की दिशाएँ
भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन की प्रगति धीमी रही है किंतु फिर भी भारतीय समाज परिवर्तन की दिशा में सदैव आगे बढ़ रहा है। भारतीय समाज में इस प्रकार का परिवर्तन प्रत्येक क्षेत्र में देखा जाता है। इस परिवर्तन को समझने के लिए निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं –

(क) सामाजिक संस्थाओं में होने वाले परिवर्तन
भारतीय सामाजिक संस्थाओं में विवाह तथा परिवार दो प्रमुख संस्थाएँ हैं। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने इन दोनों सामाजिक संस्थाओं को भी प्रभावित किया है। इनमें होने वाले प्रमुख परिवर्तन निम्नलिखित हैं –
1. लघु परिवारों पर बल – परिवार के सदस्यों की संख्या को कम करने पर बल दिया जाता है। ‘छोटा परिवार सुखी परिवार के सिद्धांत में विश्वास किया जाने लगा है। आज संयुक्त परिवारों का स्थान एकाकी परिवार तो लेते ही जा रहे हैं साथ ही संयुक्त परिवारों का आकार भी छोटा होता जा रहा है।

2. परिवार नियोजन – परिवार में जनसंख्या की रोकथाम के लिए परिवार नियोजन लागू कर दिया गया है। आज बच्चों को भगवान की देन नहीं माना जाता है। इस प्रकार के विचारों में परिवर्तन
पश्चिमीकरण एवं लौकिकीकरण के परिणामस्वरूप ही संभव हो पाया है।

3. एकाकी परिवारों का जन्म – परिवार के आकार में परिवर्तन हो गया है। संयुक्त परिवारों का स्थान एकाकी परिवार लेते जा रहे हैं तथा इनकी संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही है।

4. पारिवारिक विघटन – स्त्रियों को स्वतंत्रता, घर के बाहर नौकरी करने की सुविधा तथा उत्तराधिकार अधिनियम् पारित हो जाने के कारण स्त्रियों की दशा में सुधार हुआ है, किंतु
पारिवारिक विघटन आरंभ हो गया है।

5. स्त्रियों की आत्मनिर्भरता – परिवार के कार्यों में भी परिवर्तन होने लगे हैं। स्त्रियों की शिक्षा तथा उनकी आत्मनिर्भरता के कारण स्त्रियों में संतोषजनक रूप से सुधार हुआ है तथा कुछ ‘ लोगों का कहना है कि इससे परिवार टूटने लगे हैं।

6. विवाह के रूप में परिवर्तन – विवाह की आयु में भी वृद्धि हो गई है। पहले बाल विवाहों का प्रचलन था। अब ‘शारदा एक्ट’ पारिक करके बाल विवाह के आदर्श को समाप्त कर दिया गया है। अब बड़ी आयु में विवाह होने लगे हैं तथा प्रेम विवाह, अंतर्जातीय विवाह आदि का प्रचलन हो गया है।

7. विवाह के आदर्शों में परिवर्तन – परंपरागत रूप में हिंदू विवाह को एक संस्कार माना जाता था किंतु आज विवाह एक समझौता बन गया है, जो कभी-कभी किन्हीं विशेष दशाओं में तोड़ा जा सकता है। साथ ही, आज हिंदू समाज में विवाह-विच्छेद की दर बढ़ती जा रही है।

8. विधवाओं की स्थिति में सुधार – विधवाओं को पुनर्विवाह करने की छूट मिल गई है। आज सभी को समानता के अधिकार प्राप्त हैं जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियाँ घर से बाहर जाकर नौकरियाँ कर सकती हैं।

(ख) दार्शनिक पहलुओं में परिवर्तन
सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारत में दार्शनिक क्षेत्र में काफी परिवर्तन हुआ है, जिसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है –
1. समाज में शक्ति का संचार – वेदान्त दर्शन द्वारा शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के भ्रष्टाचार को दूर करके समाज को पुनः शक्तिशाली बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी भाँति, अन्य धर्मों की कुरीतियों की समाप्ति हेतु चलाए गए समाज-सुधार आंदोलनों के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में एक नवीन शक्ति का संचार हुआ है।

2. सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन – भारत में जब कभी दार्शनिक विचार अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचकर समाज को दूषित करने लगे तभी उनके विरुद्ध आंदोलन हुआ है। वैदिक कर्मकांडों के दोषों का विरोध करने के लिए जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का जन्म हुआ जिनसे व्यक्तियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है।

3. अध्यात्मवाद पर प्रभाव – भारतीय दर्शन एवं परंपरागत चिंतन पर गाँधीवाद, माक्र्सवाद तथा महर्षि अरविंद के अध्यात्मवाद का गहरा प्रभाव पड़ा है।

4. भारतीय संस्कृति में नया मोड – अंग्रेजी शासनकाल में महर्षि दयानन्द, महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमंहस आदि महान् विभूतियों ने भारत के सोए हुए समाज को जगाकर भारतीय संस्कृति को एक नया मोड़ दे दिया। इसी का यह परिणाम है कि आज़ भारतीय संस्कृति पूर्णतया भौतिकवादी संस्कृति नहीं है। इसकी मौलिक दार्शनिक एवं संस्थागत धारणाएँ किसी-न-किसी रूप में आज भी यथावत् बनी हुई हैं।

(ग) सामाजिक संगठन पर प्रभाव
सामाजिक संगठन की आधारशिला जाति व्यवस्था है। भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने जाति व्यवस्था में परिवर्तन करके सामाजिक संगठन को निम्न प्रकार से प्रभावित किया है –
1. मशीनों पर कार्य करने के कारण छुआछूत, खान-पान आदि के प्रतिबंध शिथिल पड़ गए हैं तथा जातीय दूरी कम हो गई है।
2. उद्योग-धंधों के विकास के कारण आर्थिक आधार पर संगठन बने और इससे जातीय भेदभाव समाप्त होने लगा है।
3. पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव से भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचलन हुआ। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति पर आधारित विद्यालयों में सभी जातियों के छात्र एक साथ बैठकर पढ़ने लगे, जिससे छुआछूत का भाव समाप्त हो गया है।
4. भारतीय सरकार ने बाल विवाह, विवाह एवं विवाह-विच्छेद अधिनियमों को पारित करके जाति | प्रथा में घोर परिवर्तन किए हैं।
5. उद्योग-धंधों का विकास हो जाने से जजमानी प्रथा का महत्त्व कम हो गया है।
6. यातायात के साधनों के विकास से जनसंपर्क में वृद्धि हुई और संस्कृतियों का आदान-प्रदान हुआ इससे जाति प्रथा के बंधन ढीले पड़ गए हैं।
7. जातीय पंचायतों का महत्त्व कम हो रहा है। भारत में लौकिकीकरण, पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण के कारण जातिवाद का महत्त्व भी कम हो रहा है।
8. सरकार ने सभी को एक समान मौलिक अधिकार प्रदान करके अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया है।
उक्त बातों से पता चलता है कि भारत में सामाजिक संगठन के क्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन की गति काफी तीव्र रही है।

(घ) सामाजिक वर्गों में परिवर्तन
आज भारत में औद्योगीकरण हो जाने से सामाजिक वर्गों का आधार ही बदल गया है। आज समाज में आर्थिक आधार पर सामाजिक वर्गों का निर्माण हो रहा है। पूँजीपति वर्ग, श्रमिक वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, मध्यम वर्ग आदि ऐसे वर्गों के कुछ उदाहरण हैं। वर्ग निर्माण के साथ ही संघवाद की भावना भी भारतीय समाज में विकसित हो गई है तथा आज प्रत्येक वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए अधिक सचेत होते जा रहे हैं। इसीलिए कुछ विद्वानों का तो यहाँ तक कहना है कि भारतीय समाज में स्तरीकरण का रुख जाति से वर्ग व्यवस्था में परिवर्तित होता जा रहा है।

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(ङ) औद्योगिक क्षेत्र में परिवर्तन
भारत में कल-कारखानों का विकास हुआ है। इससे औद्योगिक क्षेत्र में भारी परिवर्तन हुए हैं प्राचीन उद्योग-धंधों (गुड़ बनाना, चरखा चलाना, कपड़ा बुनना आदि) में परिवर्तन हो गया है। अभी तक भारत में केवल कृषि ही मुख्य उद्यम था, किंतु आज भारत में उद्योग-धंधों का विकास हो जाने से आजीविका के अनेक साधन हो गए हैं। आज भारत विश्व के दस बड़े औद्योगिक देशों में से एक है। औद्योगिक क्षेत्र में परिवर्तन ने भारतीय समाज के सभी पक्षों में परिवर्तन की गति को अत्यंत तीव्र कर दिया है। उदाहरणार्थ-मशीनों का प्रयोग हो जाने से बेकारी बढ़नी शुरू हो गई है, पूँजीपतियों तथा । श्रमिकों को संघर्ष आरंभ हो गया है तथा सामाजिक संबंधों में जटिलता आ गई है।

औद्योगिक क्षेत्र में परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारतीय सामाजिक संगठन में भी अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इससे भारतीय समाज के तीनों प्रमुखों स्तंभों ग्रामीण समाज, जाति व्यवस्था तथा संयुक्त परिवार प्रणाली में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। ग्रामीण जीवन आज रूढ़िवादी नहीं रह गया है तथा इस पर नगरीय प्रभाव बढ़ता जा रहा है। जातीय दूरी निश्चित रूप से कम हुई है तथा ग्रामीण समाज में भी जाति एवं व्यवसाय का परंपरागत संबंध टूटता जा रहा है। संयुक्त परिवारों का स्थान एकाकी परिवार लेते जा रहे हैं तथा संयुक्त परिवार की परपंरागत संरचना एवं कार्यों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।

निष्कर्ष – उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारत में सामाजिक परिवर्तन को अनेक प्रक्रियाएँ (प्रथम सात कारण वस्तुतः परिवर्तन की प्रक्रियाएँ हैं) प्रोत्साहन दे रही हैं। इसकी गति एवं व्यापकता प्रत्येक्ष क्षेत्र में दिखलाई पड़ती है। लगभग सभी क्षेत्र सामाजिक परिवर्तन की इन प्रक्रियाओं से काफी प्रभावित हुए हैं।

प्रश्न 7.
अपराध, संघर्ष तथा हिंसा में संबंध विस्तार से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
संघर्ष (विवाद), अपराध एवं हिंसा में घनिष्ट संबंध पाया जाता है। इन तीनों में संबंध को जानने से पूर्व इनका अर्थ समझना अनिवार्य है।

संघर्ष का अर्थ तथा परिभाषाएँ
संघर्ष एक चेतन एवं असहयोगी प्रक्रिया है जिसमें दोनों पक्ष एक-दूसरे के हितों को नुकसान पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं तथा बलपूर्वक एक-दूसरे की इच्छा के विरुद्ध उनसे कोई काम लेना चाहते हैं। संघर्ष को प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित रूप से परिभाषित करने का प्रयास किया है –

1. फिचर (Fichter) के अनुसार – “संघर्ष पारस्परिक अंत:क्रिया का वह रूप है जिसमें दो या अधिक व्यक्ति एक-दूसरे को दूर रखने का प्रयास करते हैं।”
2. फेयरचाइल्ड (Fairchild) के अनुसार – “संघर्ष एक प्रक्रिया या परिस्थिति है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह एक-दूसरे के उद्देश्यों को क्षति पहुँचाते हैं, एक-दूसरे के हितों की संतुष्टि पर रोक लगाना चाहते हैं, भले ही इसके लिए दूसरों को चोट पहुँचानी पड़े या नष्ट करना पड़े।
3. गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार – “संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है। | जिसमें व्यक्ति या समूह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति विरोधी की हिंसा या हिंसा के भय के द्वारा करते हैं।’
4. ग्रीन (Green) के अनुसार – “संघर्ष दूसरे या दूसरों की इच्छा पर जानबूझकर विरोध करना, रोकना तथा उसे बलपूर्वक रोकने के प्रयास को कहते हैं।”
5. पार्क एवं बर्गेस (Park and Burgess)के अनुसार – “संघर्ष और प्रतियोगिता विरोध के दो रूप हैं जिनमें प्रतिस्पर्धा सतत एवं अवैयक्तिक होती है जबकि संघर्ष का रूप असतत व वैयक्तिक होता है।”
6. कोजर (Coser)के अनुसार – ‘स्थिति, शक्ति और सीमित साधनों के मूल्यों और अधिकारों के लिए होने वाले संघर्ष को ही सामाजिक संघर्ष कहा जाता है जिनमें विरोधी दलों का उद्देश्य
अपने प्रतिस्पर्धा को प्रभावहीन करना, हानि पहुँचाना अथवा समाप्त करना भी है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति या समूह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति अपने विरोधी को हिंसा का प्रयोग करके या हिंसा का भय देकर करते हैं। यह प्रत्यक्ष और चेतन प्रक्रिया है जिसमें सामान्यत: दूसरे पक्ष को किसी-न-किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का प्रयास किया जाता है।

अपराध का अर्थ तथा परिभाषाएँ
कानून की दृष्टि से वह प्रत्येक कार्य करना अपराध है, जो कानून द्वारा वर्जित किया गया है। सामाजिक दृष्टि से अपराध सामाजिक नियमों एवं आदर्शों के विरुद्ध कार्य करना है। इसकी प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –

1. सदरलैंड एवं जैसे (Sutherland and Cressy)के अनुसार – “अपराधी व्यवहार वह व्यवहार | है जिससे अपराधी कानून भंग करता है।”
2. मावरर (Mowrer) के अनुसार – “अपराध सामाजिक आदर्शों का उल्लंघन है।”
3. सेथना (Sethna) के अनुसार – “अपराध कोई ऐसा कार्य या दोष है, जो कि देश में उस समय प्रचलित कानून के अंतर्गत दंडनीय है।”
4. हाल्सबरी (Halsbury)के अनुसार – “अपराध एक ऐसा कार्य या दोष है जो जनता के विरुद्ध | असंतोष है और जो कार्य के कर्ता या दोषी को दंड का भागी बनाता है।’
5. इलियट एवं मैरिल (Eliott and Merrill) के अनुसार – (अपराध की परिभाषा उस कानुन विरोधी व्यवहार के रूप में की जा सकती है, जिसको समूह ने न माना हो और जिसके साथ
समाज ने दंड की व्यवस्था की हो।’
6. टैफ्ट (Taft) के अनुसार – “अपराध वे कार्य हैं, जिनका करना कानून द्वारा रोका गया है और जो विधि द्वारा दंडनीय माने गए हैं।”
7. लैडिंस एवं लैडिंस (Landis and Landis) के अनुसार – “अपराध वह कार्य है, जिसे राज्य ने सामूहिक कल्याण के लिए हानिप्रद घोषित किया है और जिसे दंड देने के लिए राज्य शक्ति
रखता है।”

इस प्रकार अपराध एक कानूनी एवं सामाजिक संकल्पना है। कानून की दृष्टि में राज्य के नियम या कानूनों का उल्लंघन करना ही अपराध है। कानून द्वारा ही यह निर्णय होता है कि कौन-सा कार्य अपराध है और कौन-सा नहीं, जबकि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से उन कार्यों को अपराध माना जाता है जो सामाजिक नियमों, आदर्शों व आचरणों के विरुद्ध होते हैं। अन्य शब्दों में सामाजिक आदर्शों को आघात पहुँचाना ही अपराध है और आघात पहुँचाने वाला व्यक्ति अपराधी है। समाजशास्त्रियों के मत से, किसी विशेष समय में संस्थागत रीति-रिवाजों या मान्य लोकमत के विरुद्ध कार्य करने को अपराध कहा जाता है। मैनहिम (Mannheim) के अनुसार, अपराध का कानून से संबंध नहीं है। कानून के न होते हुए भी कुछ समाज-विरोधी कार्य अपराध कहे जा सकते हैं। उनके अनुसार, समाज-विरोधी आचरण भी अपराध की कोटि में आते हैं। उन्हीं के शब्दों में, “अपराध कानून से संबंधित नहीं होते हैं।……..कानून के अभाव में भी कुछ समाज-विरोधी कार्य अपराध की कोटि में रखे जाते हैं और मानवीय आचरण का कोई भी रूप, जो समाज के आदर्शों के विरुद्ध नहीं है, अपराध नहीं माना जा सकता है। क्लीनार्ड (Clinard) के अनुसार, “अपराध सामाजिक आदर्शो से विचलन है।”

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हिंसा का अर्थ तथा परिभाषाएँ
अनेक व्यक्ति एवं समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु हिंसा को एक साधन के रूप में प्रयोग में लाते हैं। हिंसा का अर्थ खून-खराबे से है। विध्वंस, विनाश एवं क्षति के कार्यों को हिंसा की श्रेणी में रखा जाता है। मारपीट, अत्याचार, छेड़छाड़, बलात्कार, अपहरण, महिलाओं का विक्रय, चोरी, डाका, अंग-भंग करना, हत्या करना, घर जला देना, धोखा देना, दंगा करना, लूटमार करना, व्यक्तिगत व सरकारी संपत्ति को नष्ट करना, आँसू गैस व लाठी चार्ज, देखते ही गोली मार देना, झूठी मुठभेड़ करके किसी को मार गिराना, पुलिस हिरासत में यातना देना व निर्दोष लोगों को हिरासत में ले लेना, आतंकवाद, विद्रोह, शीतयुद्ध, सैनिकों द्वारा आकस्मिक शासन परिवर्तन आदि हिंसा के ही विभिन्न रूप हैं।

हिंसा को मुख्यतः आर्थिक एवं राजनीतिक विकास को संक्रमणकालीन पहलू माना जाता है क्योंकि विकास के साथ-साथ हिंसा भी कम होती जाती है। परंतु यह एक सहज प्राकल्पना है जिसका आनुभविक आँकड़ों के आधार पर सत्यापन करना कठिन है। हिंसा के कार्य असंवैधानिक अथवा व्याधिकीय होते हैं। कई बार राज्य भी नागरिकों से कानून का पालन कराने के लिए हिंसा का प्रयोग करता है या प्रयोग करने की धमकी देता है। हिंसा के कार्य नैतिक दृष्टि से अच्छे, बुरे अथवा उदासीन हो सकते हैं तथा यह इस बात पर निर्भर करता है कि इन कार्यों को कौन किसके विरुद्ध करता है तथा इसके प्रयोग का निर्णय लेने वाला कौन है। सी० राइट मिल्स (C. Wright Mills) के शब्दों में, शक्ति का अंतिम प्रकार हिंसा है।”

अपराध, संघर्ष तथा हिंसा में संबंध
संघर्ष को अपराध एवं हिंसा का कारण माना जाता है। सुविधासंपन्न समूह सुविधावंचित समूहों से भेदभावमूलक स्थिति बरतते हैं। इस स्थिति में ज्यादातर जबरदस्ती अथवा हिंसा का भी प्रयोग किया जाता है। इसी भाँति, सुविधावंचित समूह सुविधासंपन्न समूहों से अपनी माँगों को लेकर संघर्ष करते हैं तथा माँगे न माने जाने पर हिंसा का भी प्रयोग करते हैं हिंसा अपराध में अंतर्निहित तत्त्व है क्योंकि अधिकांश अपराधों में हिंसा का प्रयोग किया जाता है। ‘हिंसात्मक अपराध’ शब्द की उत्पत्ति इसी कारण हुई है। नैतिकता का ह्वास, राजनीति का अपराधीकरण तथा सभी स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार को संघर्ष, अपराध एवं हिंसा के लिए उत्तरदायी माना जाता है।

प्रश्न 8.
प्रभाव, सत्ता एवं कानून की संकल्पनाएँ स्पष्ट कीजिए। इनमें क्या संबंध पाया जाता है? समझाइए।
या
शक्ति एवं सत्ता में अंतर बताइए।
या
कानून तथा सत्ता में क्या संबंध पाया जाता है? सत्ता का क्या अर्थ है? सत्ता के अर्थ की विवेचना कीजिए।
उत्तर
प्रभाव का अर्थ
व्यक्ति समाज में अकेले नहीं रहते अपितु अन्य व्यक्तियों के साथ रहते हैं। व्यक्तियों के परस्पर संबंधों के जाल से ही समाज का निर्माण होता है। एक साथ रहने के कारण उनके संबंधों में एक-दूसरे का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। प्रत्येक समाज में कुछ व्यक्ति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होते हैं। लैसवेल एवं कांपलान (Lasswal and Kaplan) के अनुसार प्रभाव से अभिप्राय दूसरे व्यक्तियों की नीतियों को प्रभावित करना है। यह किसी व्यक्ति अथवा समूह की अपनी इच्छानुसार दूसरे व्यक्तियों अथवा समूहों को परिवर्तित करने की क्षमता है। इसमें एक कर्ता अन्य कर्ताओं को एक विशिष्ट प्रकार का कार्य करने के लिए प्रेरित करता है जिसे अन्यथा वे नहीं कर पाते। प्रभाव में दो तत्त्व प्रमुख माने जाते हैं-अंत:संबंध तथा आशय। प्रभाव में ‘अंत:संबंध’ पाए जाते हैं। अर्थात् प्रभाव स्वयं अपने पर न होकर अन्य व्यक्तियों पर होता है। इसका दूसरा तत्त्व प्रभावित करने वाले व्यक्ति का आशय है अर्थात् यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य से उसका आशय न होते हुए भी। स्वतः प्रभावित हो जाता है तो उसे प्रभाव नहीं कहा जाएगा। किस पर किसका कितना प्रभाव है, इसे मापना कठिन है। शक्ति, सम्मान, ईमानदारी, स्नेह, कुशल-क्षेम, धन-दौलत, प्रबोधन एवं कुशलता को प्रभाव से संबंधित मूल्य बताया गया है। प्रथम चार को सम्मान-मूल्य तथा अंतिम चार को कल्याण-मूल्य कहते हैं।

सत्ता का अर्थ
राजनीतिक शक्ति समाज में स्थायित्व बनाए रखने, उसका संचालन करने तथा समाज में निरंतरता बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि राजनीतिक शक्ति में बल प्रयोग किया जाता है अथवा प्रयोग करने की धमकी दी जाती है जिससे व्यक्तियों को अनुपालन करने के लिए बाध्य किया जाता है तथा इसी से समाज में स्थायित्व आता है, परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। समाज में स्थायित्व इसलिए नहीं आता कि राजनीतिक शक्ति में बल प्रयोग किया जाता है अपितु इसलिए आता है कि शक्ति को वैधता मजबूत करती है। जब राजनीतिक शक्ति के साथ वैधता को जोड़ दिया जाता है तो उसे सत्ता कहते हैं। वेबर के अनुसार सत्ता का संबंध शक्ति से है। वैध शक्ति (Legitimate power) को ही सत्ता कहा जाता है। सत्ता द्वारा ही सामाजिक क्रिया का परिसंचालन होता है तथा इसी के द्वारा समाज में स्थायित्व बना रहता है अथवा सामाजिक व्यवस्था का निर्धारण होता है।

वेबर की सत्ता संबंधों की चर्चा अर्थात् कुछ व्यक्तियों के पास शक्ति कहाँ से आती है तथा वे यह अनुमान क्यों लगाते हैं कि अन्य व्यक्तियों को उनको अनुपालन करना चाहिए, वास्तव में, उनके आदर्श प्रारूप का ही एक उदाहरण है जिसमें वह सत्ता को तीन श्रेणियों में वर्गीकरण प्रस्तुत करते हैं। सत्ता केवल राजनीतिक क्रियाओं अथवा परिस्थितियों तक ही सीमित नहीं है अपितु सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू में सत्ता क्रियाशील है तथा देखी जा सकती है। राजनीतिक तथा सामाजिक पहलुओं में अंतर केवल इतना है कि पहले में सत्ता इसके साथ जुड़ी हुई है, जबकि दूसरे में शक्ति तथा सत्ता का वितरण समान रूप से नहीं है।

सत्ता को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है –
ब्रीच (Beach)के अनुसार – “दूसरों के कार्यों अथवा कार्य निष्पादन को प्रभावित या निर्देशित करने के औचित्यपूर्ण अधिकार को सत्ता कहा जाता है।”
मैकाइवर (Maclver) के अनुसार – “सत्ता को प्रायः शक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है।’
दहल (Dahl)के अनुसार – “औचित्यपूर्ण शक्ति या प्रभाव को प्रायः सत्ता कहा जाता है।”
बीरस्टीड (Bierstedt) के अनुसार – “सत्ता शक्ति के प्रयोग का संस्ःत्मक अधिकार है, वह स्वयं शक्ति नहीं है।”

सत्ता को अधीनस्थों द्वारा इस कारण स्वीकार किया जाता है कि यह उनकी सहमति पर आधारित होती है। अधीनस्थ ही यह स्वीकार करते हैं कि आदेशों का स्रोत उचित है अथवा नहीं। अतएव सत्ता को इस कारण स्वीकार नहीं किया जाता है कि वह अधिकारियों द्वारा लागू की जाती है। आदेश देने वाले अधिकारी को अधिकारी उसी अवस्था में कहा जाता है जबकि उसके द्वारा दिए गए आदेशों का स्रोत सही व उचित हो। यह भी कहा जा सकता है कि सत्ता सामान्य स्वीकृति के साथ शक्ति का प्रयोग है। सत्ता उचित होने के कारण दूसरों के व्यवहार को अपने समान बनाकर प्रभावित करने का साधन है।

कानून का अर्थ
साधारण व्यक्ति के मन में ‘कानून’ शब्द का आशय नियमों के व्यवस्थित संग्रह से है, परंतु यह सामान्य अर्थ कानून की प्रकृति को स्पष्ट नहीं कर पाता। वस्तुत: कानून आचरण के वे नियम हैं। जिनके पीछे राज्य की शक्ति होती है। इन्हें व्यक्तियों के आचरणों को निर्देशित एवं नियंत्रित करने हेतु राज्य द्वारा सोच-विचारकर निर्मित किया जाता है।
‘कानून जर्मन भाषा के शब्द ‘लैग’ (lag) का हिंदी रूपांतर है। इसको शब्दिक अर्थ है-‘जो सर्वत्र एक-सा रहे। अंग्रेजी भाषा में भी इसी शब्द का यही अभिप्राय है। कानून का यही अर्थ वैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय नियमों पर भी लागू होता है। अतः आधुनिक काल में समाज को सुव्यवस्थित, स्थिर एवं शांतिपूर्ण बनाए रखने के लिए राज्य अथवा सरकार द्वारा जिन नियमों का निर्माण किया जाता है वे नियम ही कानून कहलाते हैं। प्रमुख विद्वानों ने इसे निम्नलिखित रूपों में परिभाषित किया है
कारडोजो (Cardozo) के अनुसार – “कानून आचरण का वह सारभूत नियम है जिसे हम निश्चितता से प्रपिादित किया जाता है कि यदि भविष्य में उसकी सत्ता को चुनौती दी गई तो उसे अदालतों द्वारा लागू किया जाएगा।’
मजूमदार एवं मदन (Majumdar and Madan) के अनुसार – “कानून सिद्धांतों का वह समूह है जो कि भू-भाग में राजनीतिक तथा सामाजिक संगठन को स्थापित रखने के लिए शक्ति के प्रयोग की आज्ञा । देता है।”
मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार – “कानून ऐसे नियमों का संग्रह है जो राज्य के न्यायालयों द्वारा विशेष परिस्थितियों के लिए स्वीकृत, प्रतिपादित एवं लागू किए जाते हैं।”
ग्रीन (Green) के अनुसार – “कानून परिवर्तन के तथ्य एवं निष्पादन की कल्पना के मध्य संतुलित सामान्यीकृत नियमों का न्यूनाधिक क्रमबद्ध समूह है जो विशिष्ट रूप से परिभाषित संबंधों एवं स्थितियों को शासित करता है तथा परिभाषित एवं सीमित ढंग से बल अथवा उसके भय को प्रयुक्त करता है।”

समाजशास्त्रीय साहित्य में कानून की व्याख्या निम्नलिखित चार अर्थों में की गई है –
1. सामाजिक नियंत्रण के अभिकरण के रूप में कानून – कानून को सामाजिक निंयत्रण के रूप में देखने संबंधी विचारधारा का सूत्रपात में मैलिनोव्स्की (Malinowski) ने किया था। यद्यपि उनके मूल विचारों में आज बहुत संशोधन हो गया है तो भी उनके अंश महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। आजकल रॉसको पाउंड (Roscoe Pound) की कानून की परिभाषा अधिक स्वीकृत की जा रही है जिन्होंने कानून को एक ऐसा सामाजिक नियंत्रण माना है जो राजनीतिक रूप से संगठित “समाज की शक्ति द्वारा संचालित होता है।

2. प्रक्रिया के रूप में कानून – कुछ विद्वानों ने ‘कानून’ शब्द का प्रयोग एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में किया है जो कानून के निर्माण, कानून को लागू करने एवं कानून के निर्वचन एवं निर्णयन से संबंधित है। इस अर्थ में कानून संबंधी तीनों प्रक्रियाओं को सम्मिलित किया गया है जिसमें कानून बनाना, लागू करना एवं मुकदमों का फैसला करना शामिल है।

3. व्यापक अवधारणा के रूप में कानून – इस अर्थ में कानून से आशय आचरण के उन सभी प्रतिमानों (Norms) से लगाया जाता है जो किसी निश्चित काल-बिंदु पर समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं और जिनके उल्लंघन पर समाज कड़ी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करता है। इस अर्थ में कानून का प्रयोग दुर्वीम, हॉब्स तथा लॉक ने किया है। इस दृष्टि से ‘कानून’ शब्द में दोनों ही प्रकार के व्यवहार-नियम आ जाते हैं—प्रथागत नियम एवं अधिनियम के रूप में पारित कानून।

4. संकुचित अवधारणा के रूप में कानून – इस अर्थ में कानून उन सभी अधिनियमों को कहते हैं जो किसी समाज में सर्वोच्च सत्ता द्वारा सोच-विचारकर बौद्धिक रूप में पारित किए जाते हैं। इस अर्थ में औपचारिक रूप से पारित अधिनियम ही इसमें सम्मिलित किए जाते हैं। प्रायः विधिशास्त्रियों द्वारा इसी अर्थ में ‘कानून’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।

प्रभाव, सत्ता एवं कानून में संबंध
प्रभाव, सत्ता एवं कानून की संकल्पनाएँ परस्पर जुड़ी हैं। जब शक्ति के साथ बाध्यता समाप्त हो जाती है तथा लोग स्वयं उस शक्ति को स्वीकार करने लगते हैं तो उसे प्रभाव कहा जाता है। यदि शक्ति के साथ वैधता जुड़ जाती है तो उसे सत्ता कहा जाता है। आधुनिक समाजों में शक्ति को वैधता प्रदान करने में कानून की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रभाव शक्ति के अंतर्गत कार्य करता है पंरतु अधिकांशतः शक्ति कानूनी शक्ति अथवा सत्ता होती है जिसका एक वृहत्तर भाग कानून द्वारा संहिताबद्ध होता है। प्रभाव, कानूनी सत्ता तथा कानून सामाजिक व्यवस्था की प्रकृति तथा उसकी गतिशीलता को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

शक्ति एवं सत्ता में अंतर
शक्ति एवं सत्ता ‘शक्ति शब्दावली’ की दो प्रमुख अवधारणाएँ हैं। वैध अनुमोदन या संस्थागत शक्ति को ही सत्ता कहा जाता है। दोनों में पायी जाने वाली प्रमुख असमानताएँ निम्नांकित हैं –

  1. समाज में सत्ता शक्ति की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली मानी जाती है।
  2. सत्ता की अपेक्षा शक्ति एक अधिक व्यापक अवधारणा है। अधिकांश विद्वान यह मानते हैं कि सत्ता शक्ति का एक विशेष प्रकार है।
  3. शक्ति वैध तथा अवैध दोनों प्रकार की होती है, जबकि सत्ता केवल वैध शक्ति को ही कहा जाता है।
  4. शक्ति दंडभय द्वारा व्यक्तियों से अनुपालन करवाने की क्षमता है, जबकि सत्ता का अनुपालन ऐच्छिक कार्य होता है।
  5. समाज के स्थायित्व एवं निरंतरता में सत्ता का योगदान शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  6. क्योंकि सत्ता वैध शक्ति है इसलिए इसके साथ वैधता सदैव जुड़ी रहती है। अन्य शब्दों में, शक्ति को वैधता प्रदान करके सत्ता में परिवर्तित किया जा सकता है।

अत: हम यह कह सकते हैं कि सत्ता शक्ति का वैध रूप है। यदि कोई पिता अपने बच्चों को किसी कार्य के लिए डाँटता है या मारता है तो उसे वैध माना जाएगा और सत्ता कहा जाएगा, क्योंकि बच्चों को समाज के अनुकूल व्यवहार करना सिखाना; पिता, माता व परिवार का मुख्य कार्य है। यदि कोई बदमाश मुहल्ले वालों को किसी कार्य के लिए तंग करता है तो उसे शक्ति कहा जाएगा क्योंकि बदमाश के पास मुहल्ले वालों से उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करवाने का कोई अधिकार नहीं है।

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प्रश्न 9.
नगर एवं कस्बे की अवधारणाएँ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
कस्बा, नगर एवं नगरीकरण तीन परस्पर संबंधित अवधारणाएँ हैं। कस्बा गाँव एवं नगर के बीच की श्रेणी है। कई बार कस्बे को ‘उप-नगर’ भी कहा जाता है। नगरीकरण किसी भी देश की कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि से संबंधित प्रकिया है। इन तीनों अवधारणाओं में नगरीकरण का अर्थ तो स्पष्ट है परंतु ‘कस्बा’ एवं ‘नगर’ शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न रूपों में किया जाता है।

नगर की अवधारणा
‘नगरीय समुदाय’, ‘नगरीय क्षेत्र तथा ‘नगर’ (शहर) पर्यायवाची शब्द है जिनकी कोई सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है। विभिन्न देशों में नगरीय शब्द का अर्थ एक जैसा नहीं है। भारत में नगरीय क्षेत्र का संबंध कस्बों तथा नगरों दोनों से है। इसीलिए भारत में नगर को कस्बे से भिन्न बताने के लिए कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है। नगरीय क्षेत्रों में मुख्य रूप से बस्तियों के उस समूह को सम्मिलित किया जाता है जिसके निवासी मुख्यत: गैर-कृषि व्यवसायों में संलग्न होते हैं। अत: ‘नगरीय’ शब्द का प्रयोग कस्बे, नगर, उप-नगर, महानगर, विश्व-नगर इत्यादि शब्दों के स्थान पर किया जाता है। नगर से अभिप्राय एक ऐसे केंद्रीयकृत बस्तियों के समूह से है जिसमें सुव्यवस्थित केंद्रीय व्यापार क्षेत्र, प्रशासनिक इकाई, आवागमन के विकसित साधन तथा अन्य नगरीय सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं। 1991 ई० की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 4,689 नगर थे जिनमें महानगर एवं विराट नगर भी सम्मिलित थे।

नगर की परिभाषा देना भी एक कठिन कार्य है। अनेक विद्वानों ने नगर की परिभाषा जनसंख्या के आकार तथा घनत्व को सामने रखकर देने का प्रयास किया है। किंग्स्ले डेविस (Kingsley Davis) इससे बिलकुल सहमत नहीं है। उनका कहना है कि सामाजिक दृष्टि से नगर परिस्थितियों की उपज होती है। उनके अनुसार नगर ऐसा समुदाय है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विषमता पायी जाती है। यह कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता, प्रतियोगिता एवं घनी जनसंख्या के कारण नियंत्रण के औपचारिक साधनों द्वारा संगठित होता है। सोमबंर्ट (Sombart) ने घनी जनसंख्या पर बल देते हुए इस संदर्भ में कहा है-“नगर एक वह स्थान है जो इतना बड़ा है कि उसके निवासी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं।’ लुईस विर्थ (Louis Wirth) ने द्वितीयक संबंधों, भूमिकाओं के खंडीकरण तथा लोगों में गतिशीलता की तेजी इत्यादि विशेषताओं के आधार पर नगर को परिभाषित करने पर बले दिया है।

विर्थ के अनुसार अपेक्षाकृत एक व्यापक, घना तथा सामाजिक दृष्टि से विजातीय व्यक्तियों
का स्थायी निवास क्षेत्र है। इन्हीं के आधार पर नगरीय समुदाय के लक्षण निश्चित किए जाने चाहिए। ‘नगर’ के साथ-साथ ‘महानगर’ (Metropolis), ‘विराट नगर’ (Mega City or Megalopolis), ‘विश्व-नगर’ (Cosmopolis or Cosmopolitan City or Ecumenopolis) तथा नगर-समूह (Conurbation) इत्यादि शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। इन सब शब्दों में जनंसख्या के आकार, जनसंख्या के घनत्वं, आवागमन एवं संचार साधनों की सुविधाओं इत्यादि के आधार पर अंतर किया जाता है।

भारत में 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों को महानगर कहा जाता है, जबकि 50 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों को ‘विराट नगर’ कहा जाता है। 1991 ई० की जनगणना के अनुसार केवल 4 विराट नगर थे—मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली और चेन्नई। ‘विश्व-नगर’ हेतु जनसंख्या के आकार को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता है। विश्व-नगर उसे कहा जाता है जहाँ विश्व के अधिकांश भागों के लोग रहते हों। भारत में पांडिचेरी को विश्व-नगर माना जाता है। वैसे चारों विराट नगर भी एक प्रकार से विश्व-नगर ही हैं। ‘नगर-समूह’ अथवा ‘कोनबेशन’ शब्द से अभिप्राय निरंतर विस्तारित होते हुए ऐसे नगरीय क्षेत्र से है जिसका रचना कई पूर्व पृथक् नगरों द्वारा हुई होती है। दिल्ली कोनर्देशन तथा कोलकाता कोनर्देशन ‘नगर-समूह’ के उदाहरण हैं।

कस्बे की अवधारणा
जनसंख्या के आकार की दृष्टि से जब बड़े गाँवों के लोगों की प्रवृत्तियाँ नगरीकृत हो जाती है तो उन्हें गाँव न कहकर ‘कस्बा’ कहा जाता है। इस प्रकार, कस्बा मानवीय स्थापना का वह स्वरूप है जो अपने
जीवनक्रम एवं क्रियाओं में ग्रामीणता और नगरीयता दोनों प्रकार के तत्वों को अंतर्निहित करता है। | बर्गल (Bergal) के शब्दों में, “कस्बा एक ऐसी नगरीय बस्ती के रूप में परिभाषित किया जा सकता
है जो पर्याप्त आयामों के ग्रामीण क्षेत्र पर आधिपत्य रखता है। किसी पिछड़े हुए अथवा ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोगों का जब किसी नगर के साथ संपर्क स्थापित होता है तो उनमें धीरे-धीरे नगरीय लक्षण आने प्रारंभ हो जाते हैं। इसी से गाँव का रूप एक कस्बे के रूप में बदल जाता है परंतु त – ध्यान देने योग्य है कि क़स्बे को केवल बड़े गाँव के रूप में ही परिभाषित नहीं किया जा सकता है। क्योंकि गाँव और कस्बे में काफी अंतर होता है। गाँव की तुलना में कस्बा बहुउद्देश्यीय होता है। कस्बों में बैंक, बीमा कंपनियों के दफ्तर, आवागमन के साधन और स्वास्थ्य सुविधाएँ गाँव की तुलना में अधिक होती है। कस्बा प्रशासनिक और राजनीतिक कार्यों को भी संपादित करता है।

किसी पिछड़े या ग्रामीण क्षेत्र पर जब मानवीय जनसंख्या स्थायी रूप से निवास करने लगती है और उस जनसंख्या का उद्देश्य धर्म, कला, साहित्य, व्यापार, संस्कृति, शिक्षा आदि का प्रसार होता है तो उसे हम ‘कस्बा’ कहते हैं। मेयर एवं कोहन (Mayer and Kohn) ने कस्बे को मानवीय प्रक्रिया का परिणाम माना है क्योंकि इसका विकास गाँव की संपन्नता एवं उसमें नगरीय लक्षणों के आ जाने से होता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि कस्बा बड़ा गाँव नहीं है। कस्बा अपनी संपूर्ण जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम होता है, जबकि गाँव के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु बाहरी जगत पर ही आश्रित होते हैं। कस्बे पर अनेक पड़ोसी गाँव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आश्रित होते हैं। यह इन गाँववासियों के लिए एक प्रकार से नगर का कार्य करता है।

भारत में कस्बे की परिभाषा विभिन्न जनगणना वर्षों में बदलती रही है। उदाहरणार्थ-1901 ई० की जनगणना में कस्बा उस निवास क्षेत्र को कहा गया जिसमें निम्नलिखित चार विशेषताएँ थीं–

  1. किसी भी आकार की नगरपालिका,
  2. सिविल लाइन का क्षेत्र जो नगरपालिका के अंतर्गत न हो.
  3. प्रत्येक प्रकार का छावनी क्षेत्र तथा
  4. वह स्थायी निवास स्थान जहाँ कम-से-कम 5,000 की जनसंख्या हो।

1921 ई० की जनगणना में कस्बा उस नगरीय लक्षणों वाली बस्ती को कहा गया है जहाँ 5,000 से अधिक लोग स्थायी रूप से निवास करते हों। तत्पश्चात् 1961 ई० एवं उसके पश्चात् होने वाली जनगणनाओं में कस्बे की अधिक विस्तृत परिभाषा दी गई। अब कस्बे के निर्धारण में निम्नलिखित कसौटियों को अपनाया जाता है।

(अ) वे सभी स्थान जहाँ नगर महापालिका, कैंट बोर्ड अथवा अधिसूचित नगर क्षेत्र समिति इत्यादि हैं; तथा
(ब) वे सभी स्थान, जहाँ

  1. कम-से-कम 5,000 की आबादी है,
  2. कार्यरत पुरुष जनसंख्या का तीन-चौथाई भाग गैर-कृषि व्यवसाय में लगे हुआ है तथा
  3. प्रति वर्गमील 400 व्यक्तियों का घनत्व है।

प्रश्न 10.
गाँव किसे कहते हैं? भारतीय गाँव की ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए।
या
गाँव को परिभाषित कीजिए तथा गाँवों के प्रमुख प्रकार बताइए।
या
भारत के संदर्भ में गाँवों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है? समझाइए।
उत्तर
गाँव, ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रयोगशाला है, जो कि समाजशास्त्र की प्रमुख शाखा है। ग्रामीण समाजशास्त्र की विषय-वस्तु और क्षेत्र; ग्रामीण जीवन और समुदाय से संबंधित हैं। इस दृष्टि से भारतीय गाँव का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है। प्रायः सभी भारतीय गाँवों में किसी-न-किसी मात्रा में समानता पायी जाती है। भारत में आदिकाल से गाँव पाए जाते रहे हैं और इन गाँवों में अपने युग की छाप को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। भारत में अनेक विदेशी शासक आए और उन्होंने भारत पर शासन किया। इन विदेशी शासकों का भारतीय ग्रामीण समुदाय पर प्रभाव अवश्य पड़ा, किंतु उनमें कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। भारत में गाँव विविधता में एकता के द्योतक माने जाते हैं। इस दृष्टि से गाँवों का अध्ययन आवश्यक है।

गाँव का अर्थ तथा परिभाषाएँ।
गाँव वैसे तो एक अत्यंत सरल शब्द लगता है परंतु इसकी कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है। इसे परिवारों का वह समूह कहा जा सकता है जो एक निश्चित क्षेत्र में स्थापित होता है तथा जिसका एक विशिष्ट नाम होता है। गाँव की एक निश्चिम सीमा होती है तथा गाँववासी इस सीमा के प्रति सचेत होते हैं। उन्हें यह पूरी तरह से पता होता है कि उनके गाँव की सीमा ही उसे दूसरे गाँवों से पृथक् करती है। इस सीमा में उस गाँव के व्यक्ति निवास करते हैं, कृषि तथा इससे संबंधित व्यवसाय करते हैं तथा अन्य कार्यों का संपादन करते हैं। भारतीय गाँवों के घरों की दीवारें अधिकांशतः मिट्टी की होती हैं। उनकी छत खपरैल की होती हैं। आवागमन के लिए कच्ची गलियाँ होती हैं। भारतीय गाँव अपेक्षाकृत एक परिपूर्ण इकाई होते थे, यद्यपि अब इनमें भी परिवर्तन की प्रक्रिया गतिशील है। इनमें जजमानी प्रथा का प्रचलन पाया जाता है। धर्म और परंपराओं का ग्रामीण जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।
विभिन्न विद्वानों ने गाँव की जो परिभाषाएँ की हैं, उनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं –

1. आर० के० पाटिल (R.K. Patil) के अनुसार – “ग्रामीण क्षेत्र में सामान्य ग्राम स्थान पर समीपस्थ गृहों में निवास करने वाले परिवारों के समूह को सामान्यतः ग्राम की अभिव्यक्ति के • रूप में समझा जा सकता है।”
2. ए० आर० देसाई (A.R. Desai) के अनुसार – “गाँव ग्राम्य समाज की इकाई है। यह रंगशाला के समान है, जहाँ ग्राम जीवन को प्रकट करता है और कार्य करता है।”
3. सिम्स (Sims) के अनुसार – “गाँव वह नाम है, जो कि प्राचीन कृषकों की स्थापना को । साधारणतयाः दर्शाता है।”

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि गाँव मानव निवास का वह नाम है, जिसका एक विशिष्ट क्षेत्र होता है और जहाँ सामुदायिक जीवन के सभी तत्त्व पाए जाते हैं। यहाँ निवास करने वाले सदस्य पारस्परिक आत्म-निर्भरता के द्वारा सामाजिक संबंधों का विकास करते हैं।

गाँव की ऐतिहासिक रूपरेखा
गाँव की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतैक्य का अभाव पाया जाता है। कुछ विचारकों का मत है कि गाँव की उत्पत्ति का प्रमुख आधार सभ्यता का विकास है। सभ्यता के विकास ने मनुष्य के ज्ञान को विकसित किया जिसके फलस्वरूप विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मनुष्य ने विभिन्न प्रयत्न प्रारंभ किए और विभिन्न अनुभवों एवं प्रयत्नों के उपरांत संतोष प्राप्त किया। यह प्रक्रिया कालांतर में निरंतर रही है और वर्तमान समय में गाँव संरचना से कस्बों, नगरों और शहरों की संरचना विकसित हुई है। अनेक उविकासवादियों का यह मत है कि कृषि के उदय के बाद गाँव का संगठन दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार गाँव के विकास के बारे में एक मत नहीं है। इसका कारण यह है कि गाँव के विकास के कारक इतने समीपवर्ती और अस्पष्ट हैं कि इनसे कोई स्थायी कल्पना निर्धारित नहीं की जा सकती। गाँव निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में रहता हैं। ये परिवर्तन प्रौद्योगिक-आर्थिक, सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक आदि शक्तियों के कारण प्रभावित होते रहे हैं।

इस समस्या के निवारण हेतु भी विभिन्न विचारकों ने अपने मत प्रकट किए हैं। ए० आर० देसाई (A.R. Desai) ने कहा है-“पर्यावरणीय एवं क्षेत्रीय प्रयत्न ग्राम्य प्रारूपों एवं ग्राम्य सामाजिक संरचना में विभेद करने में सहायता करेंगे। ये प्रयत्न प्रादेशीय, जिले संबंधी एवं क्षेत्रीय इकाइयों के वैज्ञानिक वर्गीकरण में भी सहायक होंगे। ये विशिष्ट सांस्कृतिक क्षेत्रों के निर्माण के आधारभूत तत्त्वों की स्थापना में भी सहायक होंगे और अंत में ये संपूर्ण रूप में भारतीय समाज के व्यवस्थित वर्णन को विकसित करने में सहायक होंगे। इस प्रकार विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रयास गाँव के विकास को निर्धारित करने के लिए किए। और इसी कारण गाँव के विकास के संबंध में विभिन्न विचार पारित हुए। देसाई ने लिखा है-“गाँव का उदय इतिहास में कृषि अर्थव्यवस्था के उदय के साथ संबंद्ध है। गाँव का उदय यह निर्देशित करता है कि मानव सामूहिक घुमक्कड़ जीवन से गुजरकर स्थायी जीवन में आया है। यह मूलरूप से उत्पादन के यंत्रों के सुधार के परिणामस्वरूप हुआ, जिसने कृषि का विकास किया और इस भाँति एक निश्चित सीमित क्षेत्र में स्थायी जीवन को संभव और आवश्यक बनाया। जो व्यक्ति स्थायी कृषि को ही ग्रामोदय का आधार मानते हैं उनको विश्वास है कि गाँवों का उदय सभ्यता के उदय के साथ-साथ स्थायी कृषि के परिणामस्वरूप हुआ है।

स्थायी कृषि के कारण गाँव सामूहिक स्थापना का प्रथम रूप है। और ग्रामीण कृषि इस व्यवस्था की उत्पत्ति में प्रथम कारक है। कृषि में उत्पादन बढ़ने के अतिरिक्त खाद्य सामग्री के बच जाने से व्यक्ति अन्य उद्योगों की ओर बढ़े और कस्बों व नगरों की स्थापना हुई। कुछ विद्वान कृषि के अतिरिक्त गाँवों का उदय मानवीय जीवन के उदय के साथ भी निर्धारित करते हैं। पंरतु उविकासवादी कृषि के कारक पर ही अधिक बल देते हैं। वास्तव में जब मानव की सामूहिक व घुमक्कड़ प्रवृत्ति को यांत्रिक व स्थायी खेती का साधन प्राप्त हुआ तो उसी समय से निवास व्यवस्था ने भी स्थायी रूप धारण किया। इसी के फलस्वरूप गाँवों का निर्माण व विकास प्रारंभ हुआ। दूसरे शब्दों में हम इस प्रकार कह सकते हैं कि शिकारी व घुमक्कड़ अर्थात् खाद्य संकलन की अवस्था को हो (लकड़ी को नुकीला कर कृषि हेतु प्रयोग करना) के आविष्कार ने स्थायी रूप में परिवर्तित किया है। इस परिवर्तन के उपरांत पशुपालन का महत्त्व बढ़ गया तथा गाँव का संगठन विकसित हुआ। इसीलिए ग्रामीण समाजशास्त्री सिम्स (Sims) ने भी लिखा है-“गाँव प्राचीन कृषकों की स्थापना को प्रदर्शित करने के लिए सामान्यत: प्रयोग किया जाने वाला नाम है।” भूगोलशास्त्रियों का यह मत है कि कृषि ने मानवीय जीवन में सुरक्षा तथा स्थायित्व प्रदान किया है। कृषि के उपरांत ही सभ्यता का विकास एवं गाँव संरचना में वृद्धि हुई है।

गाँव के विकास के बारे में जे० बी० रोज (J.B. Rose) का कहना है–“प्रथम अवस्था अग्रगामी काल की अवस्था थी जो प्रारंभिक स्थापनाओं के काल से पूर्व लगभग 1800 ई० 1835 ई० तक तथा बाद में मध्य-पश्चिम के विभिन्न भागों में प्रसारित हुई। दूसरी अवस्था, जो भूमि जोतने का काल कहलाती है, ने अग्रगामी काल का उत्तराधिकार लिया और साधारणतः 1890 ई० तक रही। यह काल ग्रामीण समाज का विशिष्ट काल कहलाता है, क्योंकि इसी समय निवास स्थानों की सुव्यवस्था, स्कूल व धर्म-स्थानों का आयोजन हुआ था। तीसरी अवस्था विनाश अथवा विध्वंस काल कहलाती है जो 1890 ई० में मध्य-पश्चिम से प्रारंभ हुई और 1920 ई० तक समस्त देशों में फैल गई। यह काल भूमि वरदान और विशेषीकरण के काल के नाम से परिभाषित किया जाता है। इस प्रकार जे०बी० रोज के विचारानुसार कृषि के पूर्व ही समाज स्थापना की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी और कृषि का कार्य बाद में अर्थात् दूसरी अवस्था में प्रारंभ हुआ था। विल्सन (Wilson), जिन्होंने कृषि के उदय के साथ ही गाँवों का उदय निर्धारित किया, के मत का विरोध करते हुए सिम्स (Sims) ने लिखा है।”

“ग्रामीण समुदाय की उत्पत्ति हमें पीछे सभ्यता के प्रांरभ की ओर, स्वयं स्थायी स्थापनों की ओर ले जाती है।” सभ्यता के उदय व स्थायित्व ने सामूहिक जीवन को कृषि के लिए बाध्य किया और तदुपरांत ही उपज का संकलन प्रारंभ हुआ। मानव अपनी क्षुधा तृप्ति हेतु ही इधर-उधर घूमता था। क्षुधा तृप्ति ही उसका तथा उसके जीवन का सर्वप्रथम लक्ष्य था। स्थायी जीवन के साथ ही उसे इस दिशा की ओर प्रयास करना अनिवार्य था। कृषि एक गाँव का एक सम्मिलित रूप इसीलिए ही आज हमें दृष्टिगोचर होता है। इसी दृष्टि से प्राचीन गाँव कृषि व कृषक के नाम से ही संबंधित किए जाते हैं।

गाँवों के प्रमुख प्रकार
गाँवों के प्रमुख प्रकारों के बारें में भी विद्वानों में मतैक्य का अभाव पाया जाता है। भारत के संदर्भ में विद्वानों ने गाँवों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया है –
1. कोल्ब (Kolb) ने ग्रामीण जीवन में उपलब्ध सुविधाओं को ग्रामीण वर्गीकरण का आधार माना। है। इसी दृष्टि से उन्होंने गाँवों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया है –

  1. सहज सुविधा वाले गाँव
  2.  सीमित सुविधा वाले गाँव,
  3. अपर्याप्त सुविधा वाले गाँव,
  4. पूर्ण/आंशिक सुविधा वाले गाँव तथा
  5. पूर्ण नगरीय सुविधायुक्त गाँव।

2. एस० सी० दुबे (S. C. Dube) के अनुसार भारतीय गाँवों या ग्रामीण समुदाय के वर्गीकरण के निम्नलिखित आधारों पर विभाजित किया है –

  1. आकार, जनसंख्या और भू-भाग के आधार पर,
  2. प्रजातीय संगठन और जाति संरचना,
  3. भूस्वामित्व के प्रतिमान,
  4. अधिकार संरचना और शक्ति का सोपान क्रम,
  5. सामुदायिक अलगाव की मात्रा तथा
  6. स्थानीय परंपराएँ।

3. सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार जिमरमैन और गाल्पिन ने भू-स्वामित्व को ग्रामीण वर्गीकरण का आधार माना है, जो निम्नलिखित हैं –

  1. संयुक्त भू-स्वामित्व वाले गाँव,
  2. पट्टीदारी व्यवस्था वाले गाँव,
  3. व्यक्तिगत भू-स्वामित्व वाले गाँव,
  4. वह गाँव जहाँ पट्टीदार रहते हैं,
  5. जहाँ जमींदारों के कारिंदे रहते हैं तथा
  6. जहाँ नौकरीपेशा लोग तथा श्रमिक निवास करते हैं।

4. ऐतिहासिक विकास-क्रम की दृष्टि से – ऐतिहासिक विकास-क्रम की दृष्टि से गाँवों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. कृषकों का सामूहिक स्वामित्व ग्राम,
  2. कृषकों के सामूहिक किराएदारी ग्राम,
  3. कृषकों का व्यक्तिगत स्वामित्व ग्राम,
  4. कृषकों के व्यक्तिगत किराएदारी ग्राम,
  5. व्यक्तिगत कृषक मजदूरों के ग्राम तथा
  6. राज्य व धर्म, कृषक मजदूरों के ग्राम।

5. संरचना के आधार पर – कर्वे (Karve) का विचार है कि संरचना ग्रामीण जीवन का मुख्य आधार है। अतः इन्होंने गाँव की संरचना को ध्यान में रखकर गाँवों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया है

  1. बिखरे हुए गाँव तथा
  2. समूह गाँव।

6. भूमि-व्यवस्था के आधार पर – बेडन पावेल (Baden Powell) ने भूमि व्यवस्था के आधार पर गाँवों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया है –

  1. रैयतवारी गाँव तथा
  2. सामूहिक गाँव।

7. भारतीय गाँवों का सामान्य वर्गीकरण – जनसंख्या और क्षेत्रफल दोनों ही दृष्टियों से भारत एक विशाल देश है। इस विशालता के कारण भारतीय गाँवों का वर्गीकरण एक समस्या है। भारतीय गाँवों का वर्गीकरण निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) जनसंख्या के आधार पर – जनसंख्या की दृष्टि से भारतीय गाँवों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  • बड़े गाँव,
  • मध्यम गाँव तथा
  • छोटे गाँव।

बड़े गाँवों की श्रेणी में 5,000 से अधिक जनसंख्या वाले गाँवों को सम्मिलित किया जा सकता है। छोटे गाँवों के अंतर्गत 500 से कम आबादी वाले गाँवों को सम्मिलित किया जाता है। जो गाँव 500 से अधिक तथा 5,000 से कम की आबादी के हैं, उनहें मध्यम श्रेणी के गाँवों में सम्मिलित किया जा सकता है।

(ii) क्षेत्रफल के आधार पर – क्षेत्रफल के आधार पर गाँवों को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  • सीमित गाँव तथा
  • विस्तृत गाँव।

विस्तृत गाँव वे हैं, जो विशाल क्षेत्रों में फैले होते हैं। इनका क्षेत्रफल काफी बड़ा होता है। इसके विपरीत सीमित क्षेत्रफल में फैले गाँव ‘सीमित गाँव’ के अंतर्गत रखे जा सकते हैं।

(iii) अर्थव्यवस्था के आधार पर – अर्थव्यवस्था के आधार पर गाँवों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  • कृषिप्रधान गाँव,
  • उद्योगप्रधान गाँव तथा
  • मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले गाँव।

कृषिप्रधान गाँव वे हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था खेती पर आधारित है। इन गाँवों में निवास करने वाले व्यक्तियों का प्रमुख व्यवसाय खेती करना है। इसके विपरीत उद्योगप्रधान गाँव वे हैं, जिनमें ग्रामीण आवश्यकताओं की पूर्ति तथा जीवन-यापन के लिए कुटीर उद्योग का संपादन किया जाता है। इन उद्योगों में लकड़ी, लोहा, मिट्टी, चमड़े आदि के उद्योग सम्मिलित हैं। मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले गाँव वे हैं, जहाँ कृषि तथा उद्योग दोनों का ही मिला-जुला स्वरूप पाया जाता है।

(iv) सुविधाओं के आधार पर – ग्रामीण जीवन में उपलब्ध सुविधाओं के आधार पर गाँवों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  • पूर्ण सुविधायुक्त गाँव,
  • आंशिक सुविधायुक्त गाँव तथा
  • सुविधाहीन गाँव।

पूर्ण सुविधायुक्त गाँवों की श्रेणी में उन गाँवों को रखा जाता है, जहाँ मानव जीवन की समस्त आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। इन सुविधाओं में आवागमन तथा संचार, स्वास्थ्य तथा चिकित्सा, शिक्षा, सुरक्षा, व्यवसाय तथा व्यापार आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। सुविधाहीन गाँव वे हैं, जहाँ उपर्युक्त सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है। आंशिक सुविधा युक्त गाँव इन दोनों के मध्य की स्थिति हैं, जहाँ कुछ सुविधाएँ भी हैं और कुछ असुविधाएँ भी।।

(v) परिस्थितिशास्त्रीय आधार पर – नगरीय और ग्रामीण परिस्थितियों के आधार पर गाँवों को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  • नगरीकृत गाँव,
  • अर्द्ध-नगरीकृत गाँव तथा
  • ग्रामीण गाँव।

नगरीकृत गाँवे वे हैं, जो विशाल नगरों के पास स्थित हैं। इन गाँवों की अर्थव्यवस्था तथा जीवन पूर्णतया नगरों पर आधारित होता है। इन गाँवों में कोलकाता, मुम्बई दिल्ली आदि के आस-पास स्थित गाँवों को सम्मिलित किया जा सकता है। ग्रामीण गाँव वे हैं, जो नगरीय सभ्यता से दूर स्थित हैं। वहाँ का वातावरण तथा जीवन ग्रामीण तत्त्वों पर आधारित है। अर्द्ध-नगरीय गाँव वे हैं, जो न तो पूर्णतया नगरीकृत हैं और न ही ग्रामीण।

(vi) अन्य वर्गीकरण – उपर्युक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त गाँवों को अन्य अनेक भागों में विभाजित किया जा सकता है। ऐसे प्रमुख वर्गीकरण निम्नलिखित हैं

  • धार्मिक आधार पर गाँवों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है –
    • धर्मप्रधान गाँव तथा
    • मिश्रित धर्मप्रधान गाँव।
  • शैक्षणिक आधार पर गाँवों को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है –
    • शिक्षित गाँव
    • अर्द्ध-शिक्षित गाँव तथा
    • अशिक्षित गाँव
  • धार्मिक व राजनीतिक आधार पर गाँवों को सत्ता पक्ष और सत्ता विरोधी इन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 2 Social Change and Social Order in Rural and Urban Society

प्रश्न 11.
ग्रामीण समाज में हो रहे परिवर्तनों की विवेचना कीजिए।
या
ग्रामीण समाज के परिवर्तित प्रतिमानों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर
आज ग्रामीण समाज में अनेक प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं। इन परिवर्तनों से ग्रामीण जीवन काफी परिवर्तित होता जा रहा है। यह परिवर्तन इतना अधिक हुआ है कि ग्रामीण समाज को नगरीय समुदाय से भिन्न करना कठिन हो गया है।

ग्रामीण समाज के परिवर्तित प्रतिमान
भारतीय ग्रामीण सम्गज में होने वाले परिवर्तनों को निम्नलिखित क्षेत्रों में स्पष्ट देखा जा सकता है –
1. धार्मिक जीवन में परिवर्तन – बाह्य जगत का धार्मिक जीवन पर सबसे महत्त्वपूर्ण प्रभाव यह पड़ा है कि विस्तृत जगत के संपर्क में आकर गाँवों से धर्म और प्राचीन संस्कृति की रक्षा करने की भावनाओं का ह्रास होना प्रारंभ हो गया है। ग्रामीण लोग आज बच्चों के जन्म के अवसर, कर्मकांडों, मृत्यु-भोज आदि पर पहले की अपेक्षा कम व्यय करने लगे हैं। धीरे-धीरे धार्मिक कृत्यों पर उनका विश्वास उठता चला जा रहा है। परिणामस्वरूप ग्रामीण नैतिक मूल्यों को ह्रास होना प्रारंभ हो गया है। धर्म को ग्रामीण समाज में आजकल कम महत्त्व प्रदान किया जा रहा है। अधिकांश ग्रामीण लोग लौकिकीकरण (Secularization) से प्रभावित हो रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके दृष्टिकोण में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो रहा है।

2. राजनीतिक संरचना में परिवर्तन – स्वतंत्रता के पश्चात् ग्रामीण लोगों ने इस क्षेत्र में विशेष रूप से प्रगति दिखाई है। ग्रामीण जनता ने राष्ट्र की राजनीति में सक्रिय भाग लेना प्रारंभ कर दिया है। अब ग्रामीण समुदाय केवल स्थानीय चुनावों तक ही सीमित नहीं रहता है, वरन् राज्य स्तर पर अपने प्रतिनिधि चुनने में रुचि लेता है। अब वह विचारों की स्वतंत्रता के दृष्टिकोण को समझ गया है। संचार के साधनों; जैसे—रेडियो, समाचार-पत्र इत्यादि ने ग्रामीण जगत के अंतर्गत राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने में कोई कमी नहीं रखी है। कुछ ग्रामीण लोग तो अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक गतिविधियों के संबंध में ज्ञान भी रखते हैं। राजनीतिक जागरूकता के साथ-साथ ग्रामीण समाज में राजनीतिक सहभागिता में भी वृद्धि हुई है, परंतु इतना सब-कुछ होते भी दुर्भाग्य की बात यह है कि गाँव आज दलबंदी के अखाड़े बन गए हैं, दलबंदी और दलबदलुओं को महत्त्व देने लगे हैं। फलस्वरूप कुछ ग्रामीण व्यवसायी राजनीतिज्ञ स्वयं तो राजनीति के शिकार होते ही हैं, साथ-ही-साथ अपने प्राचीन संगठन को भी खंडों में विभाजित कर बैठते हैं। वयस्क मताधिकार के कारण अब प्रभु-जातियों के परंपरागत प्रभुत्व को चुनौती दी जाने लगी है।

3. ग्रामीण आर्थिक संरचना में परिवर्तन – आज प्रत्येक किसान अपने परंपरागत कृषि-साधनों में परिवर्तन ले आया है। परंपरागत हल के स्थान पर ट्रैक्टर आ गए हैं। फलस्वरूप गाँवों में अन्न का उत्पादन बढ़ा है और अधिक आत्मनिर्भरता आ गई है। ग्रामीण समाज में अब वस्तुओं के विनिमय की प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। इसके साथ-ही-साथ जजमानी व्यवस्था भी समाप्त होती जा रही है। उसके स्थान पर पैसे से लेन-देन (Monetization) की भावनाएँ बढ़ रही हैं। छोटे-छोटे कुटीर उद्योग-धंधे अब फैक्ट्रियों की ओर बढ़ रहे हैं। भूमि संबंधी अधिनियमों ने कुछ परिवर्तन तो किया है, परंतु साथ-ही-साथ अधिकांश जनता में मुकदमों की प्रवृत्ति को बढ़ा दिया है। परिणामस्वरूप, ग्रामीण समुदाय अब अधिक मुकदमेबाज हो गया है, अतः निर्धनता की समस्या का समाधान नहीं हो पाया है।

4. संस्थागत सामाजिक संरचना में परिवर्तन – इसके अंतर्गत हम शिक्षा, पारस्परिक संबंध, जाति, परिवार, जजमानी व्यवस्था, ग्रामीण गतिशीलता, आवास इत्यादि को सम्मिलित करते हैं। पहले ग्रामीण लोग कम शिक्षित थे, परंतु अब शिक्षा की ओर उनकी रुचि बढ़ गई है और सब जाति और वर्ग के लोग कम-से-कम आगे आने वाली पीढ़ी को तो शिक्षा दिलाने के विचार से परिपूर्ण हैं। पारस्परिक संबंथों के क्षेत्र में ग्रामीण लोगों में स्वार्थ की भावनाएँ बढ़ रही हैं तथा व्यक्तिवादी भावना का विकास तीव्र गति से हो रहा है। जातिवाद की भावनाओं में भी लचीलापन आ गया है। स्वयं ग्रामीण लोगों की इस संबंध में यह धारणा बन गई है कि आजकल न तो कोई जाति है और न ही कोई धर्म। जजमानी व्यवस्था प्रायः अब टूट-सी गई है। परिजन लोग अब पैसा लेकर कार्य करते हैं। संयुक्त परिवार प्रणाली की प्रथा आंशिक रूप में ही रह गई है। एकाकी परिवार बन रहे हैं। आवागमन के साधनों में प्रगति हो जाने से ग्रामीण गतिशीलता के स्तर में वृद्धि हुई है। विशेष रूप से शिक्षित ग्रामीण तो अब नगर में ही अपनी जीविका कमाने में प्रतिष्ठा की बात समझता है और व्यवसाय के चल जाने पर या नौकरी मिल . जाने पर वहीं रहना पसंद करता है। ग्रामीण मकानों (आवास) के ढाँचों और बनावट में भी परिवर्तन हुआ है।

5. ग्रामीण पुनर्निर्माण पर प्रभाव – नल, सड़क, कुएँ, पंचायतघर, बीज-गोदाम और पशुओं के प्राकृतिक या कृत्रिम गर्भाधान केंद्र तो हमें आजकल लगभग प्रत्येक गाँव में देखने को मिल जाते हैं। गलियों की सफाई, श्रमदान तथा सड़के बनाना और परिवार नियोजन केंद्र की स्थापना भी होना प्रारंभ हो गया गया है। किसी-किसी स्थान पर तो समाज कल्याण केंद्र (Social Welfare Centres) की भी स्थापना हो चुकी है, यद्यपि उसका कार्य सीमित है; जैसे–बच्चों के खेल-कूद का प्रबंध आदि। श्रमदान, सर्वोदय और भूदान यज्ञ जैसे आंदोलनों ने ग्रामीण जनता में पुनर्निर्माण की भावनाओं को कुछ आंशिक रूप में परिवर्तित अवश्य किया है।

6. सौंदर्यात्मक और आदर्शात्मक संरचना में परिवर्तन – ग्रामीण समाज में सौंदर्यात्मक और आदर्शात्मक अनुभूतियों में भी परिवर्तन आया है। आज का ग्रामीण व्यक्ति फालतू समय में रामायण, महाभारत, गीता इत्यादि धार्मिक पुस्तकों को नहीं पढ़ता है। उपन्यास, मनोरंजक कहानियाँ तथा फिल्मी गानों की पुस्तक पढ़ता है और साथ-ही-साथ सिलाई व कढ़ाई-बुनाई की पुस्तकों को पढ़ने में भी अपना समय व्यतीत करता है। ग्रामीण पुरुष और स्त्रियाँ नगरीय पुरुषों और स्त्रियों की वेशभूषा और गहनों की नकल करने लगे हैं इतना ही नहीं, शिक्षित लोगों की ग्रामीण लड़कियाँ और नववधू सौंदर्य के लिए आधुनिक सौंदर्य साधनों का प्रयोग कस्ती हैं। गाँवों में भी लोग आधुनिक प्रकार का फर्नीचर खरीदते हैं। मेहमान के आदर-सत्कार के लिए चाय और कॉफी का प्रयोग करते हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि परंपरागत आभूषणों का मोह त्यागकर साइकिल, मोटर साइकिल, स्कूटर, टेलीविजन, टेपरिकॉर्डर, कैमरा, घड़ी, टार्च, फाउंटेन पैन इत्यादि को रखने में प्रतिष्ठा समझते हैं। घड़ी, फाउंटेन पैन और टेलीविजन तो ग्रामीण अशिक्षित मध्य वर्ग के परिवार में भी आज सामान्य वस्तुएँ समझी जाती है।

उपर्युक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय ग्रामीण जगत अब प्राचीन ग्रामीण जगत की भाँति नहीं रह गया है। आज का ग्रामीण कूपमंडूक नहीं रहा है तथा वह नगरीय लोगों से किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है।

प्रश्न 12.
गाँव किस प्रकार से नगरों से भिन्न हैं? विस्तार से समझाइए।
या
ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
चूंकि गाँव ऐक समुदाय है इसलिए इसे अधिकांशत: ग्रामीण सुमदाय ही कहा जाता है। इसी भाँति नगर भी एक समुदाय है तथा इसके लिए नगरीय समुदाय’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। दोनों में अंतर करना एक कठिन कार्य है क्योंकि गाँव की अनेक विशेषताएँ नगरों में पायी जाती हैं, जबकि नगरों की अनेक विशेषताएँ आज गाँव में पायी जाती हैं। फिर भी, दोनों एक नहीं हैं तथा अनेक आधारों पर इनमें अंतर किया जा सकता है।

ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय में अंतर
ग्रामीण तथा नगरीय समुदाय में निम्नलिखित प्रमुख अंतर पाये जाते हैं –
1. सांस्कृतिक आधार पर अंतर – ग्रामीण समुदाय में कृषि एवं समान उद्योग-धंधों के कारण सभी सदस्यों की संस्कृति समान होती है। नगरीय समुदायों में विभिन्न स्थलों से आकर व्यक्ति बसते हैं अतएव वहाँ सांस्कृतिक असमानता पायी जाती है। इसीलिए यह कहा जाता है कि ग्रामीण समुदायों में सजातीयता की भावना पायी जाती है, जबकि नगरीय समुदाय में विजातीयता की भावना।

2. सामुदायिक भावना में अंतर – ग्रामीण समुदाय में सामुदायिक भावना या मिलकर काम करने की भावना पायी जाती है। किंतु नगरीय समुदाय में द्वितीयक संबंधों की प्रधानता के कारण इसका अभाव है।

3. परिवार के आकार में अंतर – ग्रामीण समुदाय में कृषि व्यवस्था के कारण परिवार के आकार बड़े होते हैं और इसमें सामान्यतया संयुक्त परिवार ही पाए जाते हैं, किंतु नगरीय परिवार का आकार छोटा होता है और इसमें एकाकी परिवार पाए जाते हैं।

4. विस्तार में अंतर – ग्रामीण समुदाय की जनसंख्या कम होती है और नगरीय समुदाय बहुधंधीय होने के कारण जनसंख्या में विस्तृत हो जाता है। अधिक जनसंख्या के कारण नगरीय समुदाय का विस्तार क्षेत्र अधिक होता है।

5. प्रथाओं मे अंतर – बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, विधवा-पुनर्विवाह निषेध तथा अन्य अनेक प्रकार के विवाह संबंधी निषेध ग्रामीण परिवारों की प्रमुख विशेषताएँ हैं जिनका नगरीय समुदायों में सामान्यतः अभाव होता है।

6. स्त्रियों की स्थिति में अंतर – ग्रामीण समुदाय में स्त्रियों का सामाजिक स्तर नीचा होता है। उन लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं होती। घर की चहारदीवारी में रहकर उन्हें जीवन-यापन करना होता है। नगरीय समुदायों में स्त्रियों का सामाजिक स्तर पुरुषों के समान होता है। उन्हें शिक्षा के अनेक अवसर प्राप्त रहते हैं। पुरुषों के समान वे अनेक क्षेत्रों में भाग लेती हैं।

7. विवाह के आधार में अंतर – ग्रामीण समुदाय में विवाह एक धार्मिक संस्कार है, किंतु नगरीय समुदायों में आजकल प्रेम पर आधारित विवाह संबंध पाए जाते हैं जो अस्थायी होते हैं। नगरीय
समुदायों में विवाह-विच्छेद भी ग्रामीण समुदायों की अपेक्षा अधिक होता है।

8. संबंधों की प्रकृति में अंतर – ग्रामीण समुदाय के सदस्य एक-दूसरे से परिचित रहते हैं और उनमें अनौपचारिक संबंध पाए जाते हैं, किंतु नगरीय समुदाय में संबंधों की औपचारिकता पाई जाती है। नगरीय समुदायों में परिवार के सदस्यों में भी औपचारिक संबंध पाए जाते हैं। इन्हीं औपचारिक संबंधों के कारण नगरीय जीवन अलगावकृत होता जा रहा है।

9. पड़ोसीपन की भावना में अंतर – ग्रामीण समुदाय में पड़ोस व जाति का विशेष महत्त्व है। नगरों में प्रायः दोनों ही प्रभावहीन हैं। अवैयक्तिक तथा अनौपचारिक संबंधों के कारण नगरों में आज पड़ोसियों में भी अनजानापन देखा जा सकता है। महानगरों में तो कई बार पड़ोसी एक-दूसरे से पूरी तरह परिचित तक नहीं होते।

10. मनोरंजन के साधन में अंतर – ग्रामीण समुदायों में परिवार ही मनोरंजन के साधन हैं, किंतु नगरीय समुदाय में सिनेमाघर, क्लब आदि व्यावसायिक मनोरंजन के केंद्र हैं। नगरों में मनोरंजन
भी एक व्यवसायी बन गया है।

11. व्यक्तियों की सुविधाओं में अंतर – ग्रामीण समुदायों में व्यक्ति का विकास संभव नहीं है; किंतु नगरीय समुदायों में अनेक समितियों, सभाओं तथा संगठनों द्वारा मानव अपने व्यक्तित्व का विकास करने में सफल होता है। ग्रामीण समुदायों में सुविधाओं का अभाव पाया जाता है जिसके कारण ग्रामवासियों में संकीर्णता की भावना बनी रहती है। नगरीय समुदायों में अत्यधिक सुविधाओं के कारण जीवन का स्तर उच्च होता है तथा समाजिक गतिशीलता भी अधिक पायी जाती है।

12. विचारों में अंतर – ग्रामीण समुदाय के व्यक्तियों में विचारों में संकीर्णता पायी जाती हैं, किंतु नगरीय समुदाय में रेडियो, समाचार-पत्रों एवं विविध प्रकार की उपसंस्कृतियों के कारण विचारों में व्यापकता अधिक होती है। वस्तुत: नगरीय जीवन में इतनी अधिक विविधता पायी जाती है कि विचारों में मतभेद होना स्वाभाविक ही है।

13. सामाजिक नियंत्रण में अंतर – ग्रामीण समुदाय में परिवार, पड़ोस, प्रथाएँ, रीति-रिवाज, धर्म तथा जाति पंचायत सामाजिक नियंत्रण के प्रमुख अनौपचारिक साधन हैं, जबकि नगरों में पुलिस तथा कानून ही सामाजिक व्यवहार के नियंत्रण के औपचारिक साधन है। नगरों में अनौपचारिक साधन इतने अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होते जितने कि वे ग्रामीण समुदाय में होते हैं।

14. सामाजिक जीवन में अंतर – ग्रामीण समुदाय में व्यक्ति का जीवन सरल, पवित्र तथा परंपरावादी होता है। अतएव व्यक्ति बुराइयों से बचा रहता है। किंतु नगरीय समाज का व्यक्ति जुआ, शराब आदि का शिकार हो जाता है अतएव नगरीय समुदायों में अपराधों की संख्या बढ़ती है और वैयक्तिक तथा पारिवारिक अथवा सामाजिक विघटन अधिक होते हैं।

निष्कर्ष – उपर्युक्त विवचेन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय दो भिन्न अवधारणाएँ हैं। इनमें विविध आधारों पर अंतर किया जा सकता है। आज दोनों प्रकार के समुदायों में इतनी अधिक अंत:क्रिया हो गई है कि दोनों में अंतर करना कठिन होता जा रहा है।

UP Board Solutions for Class 11 Sociology Understanding Society Chapter 2 Social Change and Social Order in Rural and Urban Society

प्रश्न 13.
नगरीय समाज के परिवर्तित प्रतिमानों की व्याख्या कीजिए।
या
नगरीय समाज में हो रहे परिवर्तनों की स्पष्ट रूप से विवेचना कीजिए।
उत्तर
नगरीय समाज की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन हैं। नगरीय समाज की परिभाषा विद्वानों ने जनसंख्या के आकार तथा घनत्व को सामने रखकर देने का प्रयास किया है। हेलबर्ट (Helbert) के अनुसार, “स्वयं सभ्यता के जन्म के समान ही नगर का जन्म भी भूत के अँधेरे में सो गया है।” किंग्स्ले डेविस (Kingsley Davis) का कहना है कि सामाजिक दृष्टि से नगर केवल जीवन की एक विधि है तथा यह एक अनुपम प्रकार के वातावरण अर्थात् नगरीय परिस्थितियों की उपज होती है। इनके अनुसार, “नगर एक ऐसा समुदाय है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विषमता पायी जाती है तथा जो कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता, प्रतियोगिता एवं घनी जनसंख्या के कारण नियंत्रण के औपचारिक साधनों द्वारा संगठित होता है।”

नगरीय समाज में हो रहे प्रमुख परिवर्तन
नगरीय समाज में हो रहे प्रमुख परिवर्तन निम्नलिखित हैं –
1. सहिष्णुता – नगरीय समाज के लोगों में रीति-रिवाजों, रहन-सहन, खान-पान की विषमता पायी जाती है किंतु फिर भी लोग ऐसा जीवन बनाए रखते हैं कि वे एक-दूसरे की बातों को सहन
करते हैं। इससे सहिष्णुता को प्रोत्साहन मिलता है।

2. विषमता में वृद्धि – नगरीय समाज के लोगों के रहन-सहन और रीति-रिवाजों में समरूपता नहीं पायी जाती है। नगरों में विभिन्न रीति-रिवाज, विचारों, व्यवसायों तथा संस्कृतियों के लोग एकत्र होते हैं जिससे उनमें विषमता आती है। अत: नगरीय समाज अत्यधिक विजातीयता वाले समुदाय होते जा रहे हैं जिससे विभिन्न समूहों में संघर्ष की स्थिति भी विकसित हो रही है।

3. नियंत्रण में शिथिलता – नगरों में कानून जैसे औपचारिक साधनों व द्वितीयक समूहों द्वारा नियंत्रण स्थापित किया जाता है। इस प्रकार के नियंत्रण में सुव्यवस्था कम ही मात्रा में स्थापित हो सकती है। नगरों में नियंत्रण के अनौपचारिक साधनों का महत्त्व समाप्त हो जाता है जिससे नियंत्रण में शिथिलता आ जाती है।

4. अप्रत्यक्ष संपर्क में वृद्धि – नगरीय समाज में लोगों के संबंधों में घनिष्ठता नहीं होती तथा उनमें प्रायः अप्रत्यक्ष संबंध पाये जाते हैं। इसका मुख्य कारण नगरों की जनसंख्या है। वास्तव में, जनसंख्या ही इतनी अधिक होती है कि सभी में प्रत्यक्ष संबंध हो ही नहीं सकते हैं। अप्रत्यक्ष संबंधों के कारण ही प्रत्यक्ष सामाजिक नियंत्रण संभव नहीं रह पाता।

5. सामाजिक गतिशीलता – यातायात के साधनों में विकास होने के कारण नगर के निवासी एक | स्थान से दूसरे स्थान को आते-जाते रहते हैं। वे आजीविका या व्यवसाय की खोज में भी इधर-उधर घूमते रहते हैं। समाज की प्रथाओं में परिवर्तन करने में भी उन्हें संकोच नहीं होता है। अतएव नगरों में सामाजिक गतिशीलता का गुण पाया जाता है।

6. व्यक्तित्व का विकास – नगरों में व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार पद प्राप्त कर सकता है तथा अपना विकास कर सकता है। गतिशीलता के अधिक अवसर होने के कारण तथा अर्जित गुणों
की महत्ता के कारण व्यक्तित्व का विकास इच्छानुसार हो सकता है।

7. समस्याओं में वृद्धि – नगरों में विविध प्रकार की समस्याओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। इन समस्याओं में बाल अपराध, अपराध, श्वेतवसन, अपराध, भ्रष्टाचार, मद्यपान एवं मादक द्रव्य व्यसन, वेश्यावृत्ति, निर्धनता एवं बेरोजगारी इत्यादि प्रमुख हैं।

8. ऐच्छिक संपर्क – नगरों में व्यक्ति अपनी इच्छानुसार चाहे जिसके साथ संपर्क स्थापित करे या न करे। ऐच्छिक संपर्क के कारण ही नगरों में ऐच्छिक समितियों की संख्या बढ़ने लगी है।

9. व्यक्तिवादिता – नगरों में व्यक्ति स्वार्थ की ओर ही ध्यान देता है, अतएव नगरों में सामाजिकता के स्थान पर व्यक्तिवादिता पायी जाती है। नगरीय जीवन इतना व्यस्त है कि लोगों को दूसरों के सुख-दु:ख में हिस्सा लेने का समय ही नहीं मिलता। परिवार के सदस्यों तक में व्यक्तिवाद की भावना विकसित होने लगती है।

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