UP Board Solutions for Class 8 Agricultural Science Chapter 2 जलवायु

UP Board Solutions for Class 8 Agricultural Science Chapter 2 जलवायु

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इकाई 2  जलवायु
अभ्यास

प्रश्न 1.
सही उत्तर पर सही (✔) का निशान लगाइये (निशान लगाकर)
उत्तर :

(क) जलवायु किसे कहते हैं?

  1. तापमान को
  2. वर्षा को
  3. सर्दी एवं गर्मी को
  4. मौसम की दशाओं के औसत को     (✔)

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(ख) निम्नलिखित में कौन जलवायु का कारक है?

  1. तापमान
  2. वर्षा
  3. पवन
  4. उपरोक्त सभी      (✔)

(ग) जलवायु का अध्ययन किस विज्ञान के अन्तर्गत आता है?

  1. जीव विज्ञान
  2. सस्य विज्ञान
  3. जलवायु विज्ञान    (✔)
  4. वनस्पति विज्ञान

(घ) तापमान मापते हैं

  1. वर्षामापी से ।
  2. वायुदाबमापी से
  3. तापमापी से     (✔)
  4.  उक्त में से कोई नहीं

प्रश्न 2.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए (पूर्ति करके)
उत्तर :

  1. तापमान मापने के लिए तापमापी का प्रयोग करते हैं।
  2. वर्षा मापने के लिए वर्षामापी का प्रयोग करते हैं।
  3. वायुदाब मापने के लिए वायुदाबमापी का प्रयोग करते हैं।
  4. जिन स्थानों पर वर्षा अधिक होती है, वहाँ की जलवायु गर्म व आर्द्र होती है।
  5. जलवायु कारकों के क्रमबद्ध अध्ययन.को जलवायु विज्ञान कहते हैं।

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प्रश्न 3.
उत्तर :
निम्नलिखित में सही के सामने (✔) तथा गलत के सामने (✘) का चिह्न लगाइए (चिह्न लगाकर)

  1. जलवायु के कारकों के क्रमबद्ध अध्ययन को जलवायु विज्ञान कहते हैं। (✔)
  2. जिन स्थानों पर वर्षा अधिक होती है, वहाँ की जलवायु नम व आर्द्र होती है। (✔)
  3. तापमान वायुदाबमापी (UPBoardSolutions.com) से नापा जाता है। (✘)
  4. वर्षा मापने के यन्त्र को तापमापी कहते हैं। (✘)
  5. किसी निश्चित क्षेत्र में वहाँ की जलवायु के अनुसार फसल उगाई जाती है। (✔)

प्रश्न 4.
मौसम के आधार पर फसलें कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर :
मौसम के अनुसार फसलें तीन प्रकार की होती हैं- खरीफ, रबी और जायद।

प्रश्न 5.
जलवायु को प्रभावित करने वाले कौन-कौन से कारक हैं?
उत्तर :
तापमान, वर्षा तथा पवन जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक हैं।

प्रश्न 6.
वायुदाब मापने के लिए किस यन्त्र का प्रयोग करते हैं?
उत्तर :
वायुदाबमापी यन्त्र।

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प्रश्न 7.
वर्षा मापने वाले यन्त्र का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर :
वर्षामापी यन्त्र की सहायता से किसी स्थान की निश्चित समय में होने वाली वर्षा की माप की जाती है। एक बेलनाकार खोल में एक शीशे की बोतल होती है। बोतल के व्यास के बराबरे व्यास वाली (UPBoardSolutions.com) एक कीप इस पर रखी होती है। वर्षा में इसे खुला रख देते हैं। वर्षा की बूंदें । बोतल में एकत्र हो जाती हैं। उसे नाप लिया जाता है, जिससे वर्षा की मात्रा ज्ञात हो जाती है।
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प्रश्न 8.
जलवायु के आधार पर उत्तर प्रदेश में कृषि क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
जलवायु के आधार पर उत्तर प्रदेश को आठ क्षेत्रों में बाँटा गया है
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UP Board Solutions for Class 6 Hindi Chapter 23 अहिल्याबाई (महान व्यक्तिव)

UP Board Solutions for Class 6 Hindi Chapter 23 अहिल्याबाई (महान व्यक्तिव)

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पाठ का सारांश

अहिल्याबाई का जन्म सन 1725 ई० में औरंगाबाद जिले के चौड़ी ग्राम में हुआ। इनके पिता मानकाजी शिंदे सरल स्वभाव के थे। माता सुशीलाबाई धार्मिक प्रवृति की थीं; जिन्होंने अहिल्याबाई को धार्मिक संस्कार दिए। इनकी एकाग्रता व भक्ति से प्रभावित होकर मल्हार राव होल्कर ने इन्हें अपनी पुत्रवधू बनाया। इनके पति खाण्डेराव राजकाज में रुचि नहीं लेते थे। अहिल्याबाई राजकाज में दक्ष थी। इनकी प्रेरणा से खांडेराव अस्त्र-शस्त्र चलाना सीख गए और राजकाज में रुचि लेने लगे; (UPBoardSolutions.com) लेकिन एक युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई। अहिल्याबाई ने प्रजा की देखभाल शुरू कर दी। श्वसुर की मृत्यु के बाद इनका पुत्र मालेराव गद्दी पर बैठा; परन्तु उसकी भी मृत्यु हो गई। अहिल्याबाई ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

राज्य में चोरों व डाकुओं ने आतंक मचाना शुरू कर दिया। उनका सफाया करने वाले एक वीर युवक यशवंत राव के साथ अहिल्याबाई ने अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह कर दिया, लेकिन यशवंत राव की भी मृत्यु हो गई। फिर भी उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा।

अहिल्याबाई कुशल प्रशासिका थीं। इनकी उदारता और स्नेहपूर्ण व्यवहार के कारण प्रजा इन्हें ‘माँ साहब’ कहती थी। इन्होंने अनेक तीर्थ स्थानों पर मन्दिर, घाट और धर्मशालाएँ बनवाईं; गरीबों और (UPBoardSolutions.com) अनाथों के लिए भोजन का प्रबन्ध किया। नाना फड़नवीस के अनुसार, अहिल्याबाई पुरुषार्थ, दूरदर्शिता और महानता में अद्वितीय थीं।

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अभ्यास

प्रश्न 1.
अहिल्याबाई का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर :
अहिल्याबाई का जन्म सन 1725 ई० में (वर्तमान महाराष्ट्र के) औरंगाबाद जिले के चौड़ी ग्राम में हुआ था।

प्रश्न 2.
अहिल्याबाई में धार्मिक संस्कार कैसे पड़े?
उत्तर :
अहिल्याबाई की माता सुशीलाबाई अपनी बेटी को नित्य मन्दिर ले जाती, पूजा-अर्चना कराती और भागवत कथा तथा पुराण सुनाती थीं। इन्हीं क्रियाकलापों से अहिल्याबाई में धार्मिक संस्कार पड़े।

प्रश्न 3.
अहिल्याबाई को प्रजा ‘माँ साहब’ क्यों कहती थी? उत्तर- अहिल्याबाई की उदारता और स्नेहपूर्ण व्यवहार के कारण प्रजा उन्हें ‘माँ साहब’ कहती थी।

प्रश्न 4.
प्रजाहित के लिए अहिल्याबाई ने क्या-क्या कार्य किए?
उत्तर :
अहिल्याबाई ने प्रजाहित के लिए अनेक कार्य किए। उन्होंने तीर्थस्थानों पर मन्दिर, घाट और धर्मशालाएँ बनवाई। प्रजा की सुरक्षा के लिए चोरों एवं डाकुओं का दमन किया। वे स्वयं प्रजा से उनकी कुशलता पूछती थीं। उन्होंने गरीबों के लिए भोजन का प्रबन्ध किया।

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प्रश्न 5.
अहिल्याबाई को किन-किन द:खद परिस्थितियों का सामना करना पड़ा?
उत्तर :
अहिल्याबाई को अपने जीवन काल में कई दुखद परिस्थितियों को सामना करना पड़ा। शादी के कुछ दिनों बाद उनके पति खांडेराव युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए। इसके कुछ दिनों बाद उनके ससुर (UPBoardSolutions.com) मल्हारराव की मृत्यु हो गई। इसके बाद उनके पुत्र मालेराव होल्कर की मृत्यु हो गई। और फिर कुछ दिनों के बाद उनके दामाद यशवंत राव की भी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 6.
सही (✓) अथवा गलत (✗) का निशान लगाइए (निशान लगाकर) –

(अ) अहिल्याबाई ने अपनी पुत्री का विवाह यशवन्त राव के साथ किया।
(ब) अहिल्याबाई ने महिलाओं की सेना तैयार की।
(स) अहिल्याबाई सदैव प्रजा के हित में तत्पर रहीं।
(द) अहिल्याबाई कुशल शासक ने थीं।

प्रश्न 7.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

(क) अहिल्याबाई की सेना की जोरदार तैयारी देखकर राघोवा के हौसले पस्त हो गए।
(ख) अहिल्याबाई ने पुत्र को समझाते हुए कहा – राजा प्रजा का पालक होता है। वह प्रजा के दुख तथा कठिनाइयों को दूर करता है।
(ग) मल्हारराव की मृत्यु के बाद मालेराव होल्कर गद्दी पर बैठा।
(घ) अहिल्याबाई ने अनेक तीर्थ स्थानों पर मंदिरों, घाटों और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया।

प्रश्न 8.
नीचे लिखे प्रश्न के दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर चुनकर लिखिए –
अहिल्याबाई ने अपनी पुत्री का विवाह यशवन्त राव के साथ इसलिए किया –

(क) क्योंकि वह बहुत सुंदर था।
(ख) क्योंकि वह कुशल प्रशासक था।
(ग) क्योंकि वह राजकुमार था।
(घ) क्योंकि वह वीर था।

उत्तर :
(घ) क्योंकि वह वीर था।

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योग्यता विस्तार –
नोट – विद्यार्थी स्वयं करें।

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UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 19 गृह-परिचर्या और गृह-परिचारिका

UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 19 गृह-परिचर्या और गृह-परिचारिका

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
गृह-परिचर्या की परिभाषा देते हुए उसका महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
या
गृह-परिचर्या का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
गृह-परिचर्या का अर्थ एवं परिभाषा

सामान्य स्वस्थ व्यक्ति अपने सभी दैनिक कार्य स्वयं ही किया करते हैं अर्थात् प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति नहाना-धोना, शौच, कपड़े बदलना तथा भोजन ग्रहण करना आदि कार्य स्वयं ही करता है, परन्तु अस्वस्थ अथवा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति अनेक बार अपने इंन व्यक्तिगत कार्यों को स्वयं करने में असमर्थ हो जाता है। इन परिस्थितियों में व्यक्ति के ये सभी साधारण कार्य भी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा ही किए जाते हैं। रोगी अथवा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के इन कार्यों तथा कुछ अन्य सहायक कार्यों को ही सम्मिलित रूप से रोगी की परिचर्या कहते (UPBoardSolutions.com) हैं। रोगी की परिचर्या के अन्तर्गत रोगी व्यक्ति को आवश्यक औषधि देना, उसकी मरहम-पट्टी करना, उठने-बैठने आदि में सहायता प्रदान करना आदि सभी कुछ सम्मिलित होता है। रोगी के इन सेवा-सुश्रूषा सम्बन्धी समस्त कार्यों को रोगी की परिचर्या कहते हैं। यदि रोगी अथवा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति अस्पताल में भर्ती हो, तो उसकी परिचर्या का कार्य वहाँ के कर्मचारी ही करते हैं। सामान्य रूप से यह कार्य नस द्वारा किया जाता है। जब रोगी घर पर होता है, उस समय रोगी की परिचर्या या सेवा-सुश्रूषा का कार्य घर पर ही किया जाता है। इस स्थिति में होने वाली परिचर्या को . ‘गृह-परिचय’ कहते हैं। इस प्रकार गृह-परिचय को इन शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है, “घर पर रहने वाले रोगी व्यक्ति की चिकित्सक के निर्देशानुसार की जाने वाली सेवा-सुश्रूषा अथवा परिचर्या को ही गृह-परिचर्या कहते हैं।” रोगी के रोग-काल में गृह-परिचर्या का विशेष महत्व होता है। गृह-परिचर्या के माध्यम से ही रोगी का सफल उपचार सम्भव हो पाता है। उत्तम गृह-परिचर्या के अभाव में चिकित्सक द्वारा रोगी का सफल उपचार कर पाना प्रायः कठिन ही होता है।

गृह-परिचर्या का महत्त्व

रोगी की स्नेहपूर्वक देख-रेख औषधीय चिकित्सा. के समान ही महत्त्वपूर्ण है, बल्कि कई बार (मानसिक रोग आदि में) तो यह औषधियों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती है। औषधियाँ यदि रोग का निवारण करती हैं, तो रोगी से किया जाने वाला प्रेमपूर्ण व्यवहार रोगी को साहस एवं धैर्य बँधाता है। गृह-परिचर्या एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है जिसका निर्वाह करने के लिए विनम्र, हँसमुख, बुद्धिमान एवं कार्यकुशल (UPBoardSolutions.com) परिचारिका की आवश्यकता होती है। परिचारिका को स्वास्थ्य के नियमों एवं उनके पालन के महत्त्व को भली-भाँति समझना चाहिए। उसे चिकित्सक से रोगी के लिए देख-रेख एवं औषधि सम्बन्धी आवश्यक निर्देश प्राप्त कर लेने चाहिए, क्योंकि तब ही वह रोगी की नियमित परिचर्या कर सकती है। औषधियों का उचित प्रयोग, विनम्र एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार रोगी की रोग की अवधि में अत्यधिक सहायता करता है।
रुग्ण होने की दशा में यदि, उपयुक्त चिकित्सा उपलब्ध हो, तो रोगी को सर्वोत्तम परिचर्या घर पर ही मिलती है। घर पर परिवार के सदस्यों को प्रेमपूर्ण व्यवहार, आस-पास का परिचित वातावरण एवं अन्य सुख-सुविधाएँ रोगी में असुरक्षा की भावनाओं को दूर करती हैं तथा उसकी दशा में सुधार शीघ्रतापूर्वक होता है।
रोग की गम्भीर अवस्था में रोगी डर एवं सदमे का शिकार हो सकता है। इस खतरनाक एवं गम्भीर परिस्थिति में अस्पताल अथवा नर्सिंग होम की परिचारिका की अपेक्षा गृहिणी (गृह-परिचारिका) अधिक प्रभावी ढंग से रोगी को धैर्य बँधा सकती है तथा रोगमुक्त होने के लिए आशान्वित कर सकती है। (UPBoardSolutions.com) गृह-परिचारिका को चिकित्सक के निर्देशों का नियमपूर्वक पालन करना चाहिए अन्यथा हानि होने की सम्भावना भी हो सकती है। उसमें पर्याप्त आत्मविश्वास होना चाहिए। रोगी की गम्भीर अवस्था में भी उसे उत्तेजित अथवा घबराना नहीं चाहिए। इस प्रकार के गुणों से युक्त गृह-परिचारिका रोगी की अस्पताल से भी अच्छी परिचर्या कर सकती है।

आधुनिक काल में रोग एवं दुर्घटनाएँ प्रत्येक घर एवं परिवार के लिए सामान्य घटनाओं के समान बन चुकी हैं। अत: गृह-परिचर्या के महत्त्व को भली-भाँति समझा जा सकता है। प्रत्येक गृहिणी एवं परिवार के अन्य सदस्यों को परिचर्या के आवश्यक नियमों का ज्ञान अनिवार्य रूप से प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि गृह-परिचर्या में दक्ष गृहिणी किसी भी प्रकार की आपात स्थिति में घर में अस्पताल की सभी सुविधाएँ सुलभ कर परिवार के पीड़ित सदस्य अथवा सदस्यों की उपयुक्त देख-रेख कर सकती है।

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प्रश्न 2:
अच्छी परिचारिका में क्या गुण होने चाहिए? विस्तार से वर्णन कीजिए।
या
परिचारिका के मुख्य गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परिचारिका के गुण

रोगी अथवा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के उपचार के लिए जितनी अच्छी चिकित्सा सहायता की आवश्यकता होती है उतनी ही आवश्यकता अच्छी परिचर्या की भी होती है, इसके लिए एक कुशल एवं बुद्धिमान परिचारिका का होना अत्यन्त आवश्यक है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह (UPBoardSolutions.com) अनिवार्य नहीं कि गृह-परिचर्या को कार्य किसी महिला (परिचारिका) द्वारा ही किया जाए। सुविधा एवं परिस्थितियों के अनुसार गृह-परिचर्या का कार्य परिवार का कोई पुरुष सदस्य भी कर सकता है। ऐसे पुरुष को ‘गृह-परिचारक’ कहा जाता है। गृह-परिचर्या का कार्य करने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक गुणों का विवरण निम्नवर्णित है

(1) उत्तम स्वास्थ्य:
परिचारिका को एक लम्बी अवधि तक निरन्तर रोगी की देखभाल करनी होती है; अत: उसका पूर्णतः स्वस्थ होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त पूर्ण रूप से स्वस्थ परिचारिका के रोगी के पास में रहने पर रोग से संक्रमित होने की सम्भावना भी कम रहती है। इसके साथ-साथ (UPBoardSolutions.com) यह भी सत्य है कि यदि परिचारिका स्वयं भी रोग से ग्रस्त हो तो उस स्थिति में सम्बन्धित रोग का संक्रमण रोगी अथवा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को भी हो सकता है।

(2) कार्य-कुशल एवं दूरदर्शी होना:
परिचारिका का परिचर्या के कार्यों में दक्ष होना आवश्यक है। उसका दूरदर्शी होना भी अत्यन्त अनिवार्य है ताकि वह रोगी की अवस्था एवं आवश्यकताओं का अनुमान कर आवश्यक प्रबन्ध कर सके।

(3) विनम्र एवं हँसमुख होना:
स्वभाव से कोमल तथा हँसमुख परिचारिका रोगी के चिड़चिड़ेपन को दूर कर मानसिक सन्तोष प्रदान कर सकती है, जिसकी रोगी को अत्यधिक आवश्यकता होती है। सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से रोगी परिचारिका की सभी बातें मानता है तथा शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है।

(4) सहानुभूति के गुण से परिपूर्ण:
रोगग्रस्त व्यक्ति की सच्चे मन से तथा पूरी लगन से सेवा एवं देखभाल का कार्य वही व्यक्ति कर सकता है जिसके मन में सहानुभूति की भावना प्रबल हो। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही परिचारिका का एक आवश्यक गुण सहानुभूति से परिपूर्ण होना माना गया है।

(5) सहनशीलता:
अधिक समय तक अस्वस्थ रहने पर रोगी प्रायः क्रोधी व चिड़चिड़ा हो जाता है। औषधियों के प्रति उसमें विरक्ति उत्पन्न हो जाती है तथा वह ऊट-पटांग बातें एवं कार्य करने लगता है। उसकी देख-रेख के लिए एक ऐसी सहनशील परिचारिका की आवश्यकता होती है जो कि उसकी उपर्युक्त बातों का बुरा न माने तथा पूर्णरूप से सहज एवं विनम्र रहकर उसकी परिचर्या करती रहे।

(6) अच्छी स्मरण:
शक्ति-रोगी को निश्चित समय पर औषधि सेवन कराना, भोजन एवं फल आदि देना तथा उसकी अन्य दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना परिचारिका के महत्त्वपूर्ण दायित्व हैं। इनका नियमित पालन करने के लिए उसमें अच्छी स्मरण शक्ति का होना अनिवार्य है।

(7) तीव्र निरीक्षणशक्ति एवं निर्णय लेने की क्षमता:
परिचारिका की निरीक्षण शक्ति तीव्र होनी चाहिए ताकि वह रोगी की बिगड़ती अवस्था का तुरन्त अनुमान लगा सके। ऐसी अवस्था में चिकित्सक को अविलम्ब बुलाना, चिकित्सक के उपलब्ध न होने पर चिकित्सक के पूर्व निर्देशों के अनुसार औषधि की मात्रा या प्रकार में परिवर्तन, कृत्रिम श्वसन आदि उपायों को अपनाने के उपयुक्त निर्णय लेने की क्षमता का होना भी एक अच्छी परिचारिका का गुण है।

(8) कर्त्तव्यपरायण एवं आज्ञाकारी:
परिचारिका को रोगी की देख रेख को अपना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य समझना चाहिए। उसे एक आज्ञाकारी व्यक्ति की भाँति चिकित्सक द्वारा दिए गए सभी निर्देशों का पालन करना चाहिए। यदि रोगी किसी औषधि को लेना नहीं चाहता अथवी अपनी भोजन व्यवस्था में परिवर्तन (UPBoardSolutions.com) चाहता है अथवा अन्य किसी प्रकार की इच्छा रखता है तो एक अच्छी परिचारिका स्वयं कोई निर्णय न लेकर चिकित्सक से ही उपयुक्त निर्देश प्राप्त करती है। एक अच्छी परिचारिका अपने कर्तव्य से भली प्रकार परिचित होती है तथा स्वयं चिकित्सक बनने का प्रयास नहीं करती।

(9) स्वच्छता का ध्यान रखना:
परिचारिका को सफाई के प्रति पूर्णतः सचेत रहना चाहिए। रोगी के शरीर की सफाई,बिस्तर व उसके आसपास की सफाई तथा साथ ही रोगी के वस्त्र व भोजन (UPBoardSolutions.com) आदि की स्वच्छता का उसे सदैव ध्यान रखना चाहिए। परिचारिका को रोगी के वस्त्र एवं बर्तन आदि को . समय-समय पर नि:संक्रमित करना चाहिए। इसके साथ-साथ परिचारिका को स्वयं अपने हाथों आदि की सफाई का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि यदि उसके हाथ साफ नहीं हैं, तो उस स्थिति में रोगी का अहित हो सकता है।

(10) प्राथमिक चिकित्सा का ज्ञान होना:
अनेक बार रोगों या दुर्घटनाओं से पीड़ित व्यक्तियों को तत्काल चिकित्सा सहायता की आवश्यकता होती है। ऐसे गम्भीर समय में एक दक्ष परिचारिका पीड़ित व्यक्तियों को आपातकाल चिकित्सा उपलब्ध करा सकती है। अतः परिचारिका को प्राथमिक चिकित्सा का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।

(11) पाक-कला में निपुण होना:
परिचारिका को रुग्णावस्था में दिए जाने वाले सभी आहारों के तैयार करने की विधियाँ आनी चाहिए। रुग्णावस्था में प्रायः रोगियों का स्वाद बिगड़ जाता है तथा वह भिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों की माँग करते हैं। अतः परिचारिका को पाक-कला में निपुण होना चहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
गृह-परिचारिका का रोगी के लिए क्या महत्त्व है?
उत्तर:
रोगी को पूर्ण स्वास्थ्य लाभ कराने में परिचारिका का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। वह रोगी एवं चिकित्सक के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी है, जो कि

  1. रोगी की देखभाल करती है।
  2.  रोगी व उसके आस-पास की सफाई की व्यवस्था करती है।
  3.  चिकित्सक के निर्देशानुसार रोगी को औषधि देती है।
  4.  घावों की आवश्यक मरहम-पट्टी करती है।
  5.  रोगी को स्नान व स्पंज कराती है।
  6. रोगी को मल-मूत्र विसर्जन में सहायता करती है।
  7. रोगी के आहार की व्यवस्था करती है।
  8.  रोगी के ताप आदि का चार्ट बनाती है।
  9.  रोगी की निराशा दूर कर उसे धैर्य बँधाती है।
  10.  रोगी से मित्रतापूर्ण व्यवहार करती है तथा उसकी सभी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखती है।

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प्रश्न 2:
रोगी की रिपोर्ट लिखना क्यों आवश्यक है? रिपोर्ट में परिचारिका को क्या-क्या बातें लिखनी चाहिए?
उत्तर:
रोगी की रिपोर्ट लिखने की आवश्यकता:

परिचारिका को नियमित रूप से रोगी की रिपोर्ट तैयार करते रहना चाहिए। इससे निम्नलिखित लाभ होते हैं

  1. रुग्णावस्था में रोगी की सही दंशा का अनुमान लगाने में सुविधा रहती है।
  2.  रिपोर्ट के आधार पर चिकित्सक उपयुक्त चिकित्सा सम्बन्धी निर्देश दे सकता है।

रोगी की रिपोर्ट का अभिलेखन:
इसके लिए परिचारिका को निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए

(i)  रोगी की नाड़ी, श्वास गति एवं ताप का चार्ट तैयार करना:
यह एक नियन्त्रित चार्ट होता है, जिसमें समय-समय पर रोगी की नाड़ी की गति, श्वास गति तथा तापक्रम को अंकित किया जाता है। इन तथ्यों को ग्राफ के माध्यम से भी दर्शाया जा सकता है।

(ii) रोगी के मल-मूत्र विसर्जन का चार्ट बनाना:
इसमें रोगी कितनी बार मल-मूत्र विसर्जित करता है, मल-मूत्र की बनावट, रंग व गन्ध तथा इस क्रिया में होने वाले कष्ट आदि का विवरण अंकित किया जाता है।

(iii)  निद्रा एवं भूख की स्थिति का अंकन:
इसमें रोगी सही नींद लेता है अथवा नहीं तथा उसे आवश्यक भूख लगती है अथवा नहीं आदि का अभिलेखन किया जाता है।

 (iv) अन्य बातें:
इसमें औषधियों के प्रति रोगी की प्रतिक्रिया, औषधियों का प्रभाव, रोगी की मानसिक दशा तथा रोगी की जिह्वा का रंग आदि का अभिलेखन किया जाता है।
उपर्युक्त बातों को प्रायः निम्नलिखित तालिका द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है
UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 19 गृह-परिचर्या और गृह-परिचारिका

प्रश्न 3:
परिचारिका के रोगी के प्रति मुख्य रूप से क्या कर्तव्य होते हैं?
उत्तर:
परिचारिका के रोगी के प्रति मुख्य रूप से निम्नलिखित कर्तव्य होते हैं।

  1. परिचारिका का कर्तव्य है कि वह रोगी को हर प्रकार से आराम पहुँचाए।
  2. परिचारिका का कर्तव्य है कि वह रोगी के शरीर की स्वच्छता एवं अनिवार्य प्रसाधन को ध्यान रखे। रोगी के बालों में कंघा करके उसे साफ-सुथरे वस्त्र पहनाने का कार्य भी परिचारिका द्वारा ही किया जाता है।
  3.  परिचारिका को रोगी के भोजन की भी व्यवस्था करनी होती है; अतः रोगी के भोजन को पकाना भी उसे आना चाहिए।
  4.  रोगी यदि स्वयं मल-मूत्र का त्याग न कर सकता हो, तो बिस्तर पर ही मल-त्याग कराने की सुविधा होनी चाहिए। यह कार्य भी परिचारिका द्वारा ही किया जाता है।
  5.  रोगी के कमरे एवं आवश्यक सामान को साफ एवं सही ढंग से रखना भी परिचारिका का ही कार्य है।
  6.  परिचारिका का कार्य है कि वह अपने व्यवहार से रोगी को मानसिक रूप से प्रसन्न रखे।
  7. परिचारिका को रोगी के प्रति मित्रता का व्यवहार करना चाहिए।
  8.  यदि रोगी के लिए आराम आवश्यक हो, तो परिचारिका का कर्तव्य है कि वह रोगी से मिलने वाले व्यक्तियों को रोके तथा रोगी को हर प्रकार से आराम पहुँचाए।

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प्रश्न 4:
गृह-परिचारिका का चिकित्सक के प्रति क्या कर्तव्य है?
उत्तर:
परिचारिका रोगी और चिकित्सक के बीच की कड़ी है, अतः जहाँ उसका रोगी के प्रति देखभाल का कर्तव्य है, वहाँ चिकित्सक को उसके कार्यों में सहायता प्रदान (UPBoardSolutions.com) करना भी उसका दायित्व है। ” वह चिकित्सक के निर्देशों के अनुसार रोगी की देख-रेख करते हुए चिकित्सक को निम्नलिखित सूचनाएँ उपलब्ध कराती है

  1. रोगी के दर्द, बेचैनी, वमन, खाँसी आदि के विषय में जानकारी देना।
  2.  रोगी के मल-मूत्र विसर्जन की स्थिति की सूचना देना।
  3.  रोगी की भूख-प्यास सम्बन्धी सूचना देना।
  4.  रोगी का ताप, नाड़ी श्वास इत्यादि का उपयुक्त चार्ट तैयार कर चिकित्सक को दिखाना।
  5.  रोगी पर औषधि के प्रभाव की सूचना देना।
  6.  रोगी की निद्रा तथा अन्य शारीरिक परिवर्तनों के विषय में चिकित्सक को सूचित करना।

प्रश्न 5:
गृह-परिचारिका के अपने स्वयं के प्रति क्या कर्त्तव्य होते हैं?
उत्तर:
परिचारिका के कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य भी हैं जो प्रत्यक्ष रूप से तो स्वयं उसके अपने ही प्रति होते हैं, परन्तु इनका अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव रोगी पर पड़ता है। सर्वप्रथम परिचारिका को अपने शरीर की स्वच्छता का अधिक-से-अधिक ध्यान रखना चाहिए। उसे अपने हाथ आदि सदैव साफ एवं धुले हुए रखने चाहिए। परिचारिका को साफ एवं सफेद रंग के धुले हुए वस्त्र धारण करने चाहिए। परिचारिका को सदैव प्रसन्नचित्त, चुस्त एवं हँसते हुए रहना चाहिए। उसे अपने मनोरंजन एवं स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना चाहिए।

प्रश्न 6:
परिचारिका का दूरदर्शी होना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
परिचारिका को अपने कार्यों में चतुर एवं विवेकशील होना आवश्यक है। उसका दूरदर्शी होना अति अनिवार्य है, क्योंकि

  1. रोगी की आवश्यकताओं का पूर्वानुमान कर एक दूरदर्शी परिचारिका समय पर ही उनकी पूर्ति कर देती है।
  2. रोगी पर औषधियों का विपरीत प्रभाव पड़ने पर वह उन्हें तत्काल देना बन्द कर चिकित्सक से परामर्श प्राप्त करती है।
  3. रोगी की हालत बिगड़ने पर उसे परिस्थिति के अनसार कृत्रिम श्वसन, हृदय स्पन्दन अथवा ऑक्सीजन देने जैसी आपातकाल सहायता के विषय में तत्काल निर्णय लेकर उनके क्रियान्वयन की अविलम्ब व्यवस्था एक दूरदर्शी परिचारिका ही कर सकती है।

प्रश्न 7:
रोगी को औषधि देते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
रोगी को औषधि देते समय एक अच्छी परिचारिका निम्नलिखित बातों का सदैव ध्यान रखती है

  1. चिकित्सक के निर्देशों का सावधानीपूर्वक पालन करना।
  2.  निश्चित समय पर ही औषधि देना।
  3.  औषधि देते समय रोगी से मधुर व्यवहार करना तथा उसे धैर्य बँधाना।
  4.  रोगी पर औषधि के प्रभाव की सूचना चिकित्सक को उपलब्ध कराना।
  5.  रोगी पर औषधि का विपरीत प्रभाव होने पर उसकी सूचना अविलम्ब चिकित्सक तक पहुँचाना तथा आवश्यकता पड़ने पर रोगी को आपातकाल सहायता देना।

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प्रश्न 8:
परिचारिका को रोगी व चिकित्सक के मध्य की कड़ी क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
परिचारिका रोगी की देख-रेख करती है। वह रोगी के उपचार में चिकित्सक की सहायता करती है। चिकित्सक के निर्देशानुसार रोगी की देख-रेख करती है तथा रोगी की रोग सम्बन्धी स्थिति की जानकारी चिकित्सक को देती है। इस भूमिका के कारण ही परिचारिका को रोगी एवं चिकित्सक के मध्य की कड़ी कहा जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
गृह-परिचर्या से क्या आशय है?
उत्तर:
घर पर रहने वाले रोगी व्यक्ति की चिकित्सक के निर्देशानुसार की जाने वाली सेवा-सुश्रूषा अथवा परिचर्या को ही गृह-परिचर्या कहते हैं।

प्रश्न 2:
गृह-परिचारिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
घर पर रहकर रोगी अथवा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की परिचर्या करने वाली स्त्री को गृह-परिचारिका कहते हैं।

प्रश्न 3:
क्या गृह-परिचर्या का कार्य केवल महिलाएँ ही कर सकती हैं?
उत्तर:
नहीं, यह अनिवार्य नहीं है। गृह-परिचर्या का कार्य पुरुष भी कर सकते हैं। गृह-परिचर्या के कार्य को करने वाले पुरुष को ‘गृह-परिचारक’ कहते हैं।

प्रश्न 4:
अच्छी परिचारिका के चार मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
अच्छी परिचारिका के चार मुख्य गुण हैं

  1.  उत्तम स्वास्थ्य,
  2. विनम्र एवं हँसमुख स्वभाव,
  3.  प्राथमिक चिकित्सा का ज्ञान होना तथा
  4.  हर प्रकार की स्वच्छता का ध्यान रखना।

प्रश्न 5:
परिचारिका को प्राथमिक चिकित्सा का पूर्ण ज्ञान होना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
रोगी अथवा दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को, चिकित्सक के उपलब्ध न होने पर, तत्काल चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए परिचारिका को प्राथमिक चिकित्सा का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है।

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प्रश्न 6:
गृह-परिचारिका का प्रमुख कर्त्तव्य क्या है?
उत्त:
रोगी को उचित समय पर उचित वस्तु उपलब्ध कराना तथा चिकित्सक के परामर्श के अनुसार कार्य करना गृह-परिचारिका के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य हैं।

प्रश्न 7:
अस्पतालों में परिचर्या का कार्य कौन करता है?
उत्तर:
अस्पतालों में परिचर्या का कार्य नर्स करती हैं।

प्रश्न 8:
रोगी के जीवन में परिचारिका का महत्त्व बताइए।
उत्तर:
परिचारिका रोगी की शारीरिक व मानसिक क्रियाओं को ध्यान में रखकर उसके कल्याण हेतु कार्य करती है।

प्रश्न 9:
रोगी तथा चिकित्सक के सन्दर्भ में परिचारिका की क्या भूमिका है?
उत्तर:
रोगी तथा चिकित्सक के सन्दर्भ में परिचारिका द्वारा एक सम्पर्क सूत्र या बीच की कड़ी की भूमिका निभाई जाती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न:
प्रत्येक प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। इनमें से सही विकल्प चुनकर लिखिए

(1) परिचर्या के अन्तर्गत किया जाता है
(क) रोगी व्यक्ति की देख-भाल करना,
(ख) चिकित्सक के निर्देशानुसार औषधि देना,
(ग) समय पर आहार देना तथा अन्य सभी कार्यों में सहायता प्रदान करना,
(घ) ये सभी।

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(2) परिचारिका को नहीं करना चाहिए
(क) रोगी से विनम्र व्यवहार,
(ख) औषधि निर्धारण,
(ग) रोगी की देख-रेख,
(घ) चिकित्सक से परामर्श।

(3) परिचारिका को नहीं होना चाहिए
(क) स्वस्थ,
(ख) हँसमुख,
(ग) दूरदर्शी,
(घ) चिड़चिड़ा।

(4) गृह-परिचर्या से अभिप्राय है
(क) गृहिणी द्वारा रोगी की देख-रेख,
(ख) नर्स द्वारा रोगी की देख-रेख,
(ग) चिकित्सक द्वारा रोगी का उपचार,
(घ) रोगी द्वारा स्वयं की देख-रेख।

(5) परिचारिका को आज्ञापालन करनी चाहिए
(क) रोगी की,
(ख) गृह-स्वामी की,
(ग) चिकित्सक की,
(घ) इन सभी का।

(6) गृह-परिचर्या को कार्य भली-भाँति किया जा सकता है
(क) बच्चों द्वारा,
(ख) गृह-स्वामी द्वारा,
(ग) गृहिणी द्वारा,
(घ) किसी के भी द्वारा।

(7) गृह-परिचारिका को समुचित ज्ञान होना चाहिए
(क) विभिन्न रोगों का,
(ख) विभिन्न रोगों की निर्धारित औषधियों का,
(ग) सामान्य प्राथमिक चिकित्सा का,
(घ) इन सभी का।

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(8) यदि रोगी के स्वास्थ्य में कोई असामान्य लक्षण प्रकट होने लगे तो गृह-परिचारिका को तुरन्त सूचित करना चाहिए
(क) घर के मुखिया को,
(ख) पड़ोसियों को,
(ग) ज्योतिषी को,
(घ) सम्बन्धित चिकित्सक को।

उत्तर:
(1) (घ) ये सभी,
(2) (ख) औषधि निर्धारण,
(3) (घ) चिड़चिड़ा,
(4) (क) गृहिणी द्वारा रोगी की देख-रेख,
(5) (ग) चिकित्सक की,
(6) (ग) गृहिणी द्वारा,
(7) (ग) सामान्य प्राथमिक चिकित्सा का,
(8) (घ) सम्बन्धित चिकित्सक को।

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UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 3 आदिकविः वाल्मीकिः (गद्य – भारती)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 5
Chapter Name आदिकविः वाल्मीकिः (गद्य – भारती)
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 3 आदिकविः वाल्मीकिः  (गद्य – भारती)

पाठ-सारांशु

पूर्व जीवन-संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि हैं। इन्होंने भगवान् राम का लोक-कल्याणकारी चरित्र काव्य रूप में लिखा। राम का जीवन-चरित्र हमारे देश और संस्कृति का प्राण है। वाल्मीकि द्वारा लिखित ‘रामायण’ को संस्कृत का आदिकाव्य माना जाता है।

‘स्कन्दपुराण’ और ‘अध्यात्मरामायण के अनुसार, इनका नाम अग्निशर्मा था तथा ये जाति के ब्राह्मण थे। पूर्व जन्म के कर्मफल स्वरूप ये वन में पथिकों का धन लूटकर जीविका चलाते थे और धन न मिलने पर हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे।

एक बार इन्होंने वन-पथ पर आते हुए एक मुनि को देखा और कड़े स्वर में उससे कहा-“जो कुछ तुम्हारे पास है, सब मुझे दे दो।’ मुनि ने कहा-“मेरे पास कुछ नहीं है, परन्तु तुम इस पापकर्म को क्यों करते हो? इस लूटे गये धन से तुम जिन परिवार वालों का पालन करते हो, क्या वे तुम्हारे (UPBoardSolutions.com) पापकर्म के फल में भी सहभागी होंगे?’ वाल्मीकि ने मुनि के इस प्रश्न का उत्तर परिवार वालों से पूछकर देने के लिए कहा और मुनि को रस्सियों से बाँधकर परिवारजनों से पूछने के लिए चले गये। .
उनके कुटुम्बी उनके प्रश्न को सुनकर क्रुद्ध हुए और बोले-“हमने तुम्हें पापकर्म करने के लिए : नहीं कहा; अत: हम तुम्हारे पाप के फल के भागीदार नहीं होंगे।”

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हृदय-परिवर्तन-परिवारजनों को उत्तर सुनकर वाल्मीकि बहुत दु:खी हुए। उनके शोक को दूर करने के लिए मुनि ने इन्हें ‘राम’ का नाम जपने का उपदेश दिया, परन्तु अपने हिंसक स्वभाव के कारण वे ‘मरा-मरा’ जपने लगे। इस प्रकार वर्षों तक इन्होंने इतना कठोर तप किया कि इनके शरीर के आसपास दीमकों की बॉबी बेने गयी और उसकी मिट्टी से इनका सारा शरीर ढक गया। एक समय वरुणदेव के द्वारा निरन्तर वर्षा (UPBoardSolutions.com) से इनके शरीर से वह मिट्टी बह गयी और ये आँखें खोलकर छठ खड़े हुए। दीमकों की मिट्टी अर्थात् ‘वल्मीक’ से प्रकट होने के कारण ये ‘वाल्मीकि’ नाम से प्रसिद्ध हुए। वरुण का एक अन्य नाम प्रचेता भी है। “प्रचेतसा उत्थापितः इति प्राचेतसः’ इस कारण वरुणदेव के द्वारा मिट्टी बहाये जाने के कारण ये ‘प्रचेतस्‘ कहलाये।

आदिकविता–एक बार वाल्मीकि ने ब्रह्मर्षि नारद से भगवान् राम का कल्याणकारी चरित्र सुना और उसे काव्यबद्ध करने की इच्छा की। इसके बाद किसी दिन ये मध्याह्न-स्नान के लिए तमसा नदी के तट पर गये हुए थे। वहाँ इन्होंने एक क्रौञ्च युगल को प्रेम-क्रीड़ा करते हुए देखा। उनके देखते-ही-देखते एक शिकारी ने उसमें से नरक्रौञ्चे को बाण से घायल कर दिया। खून से लथपथ, पृथ्वी पर धूल-धूसरित होते क्रौञ्च को (UPBoardSolutions.com) देखकर क्रौञ्ची करुण विलाप करने लगी। क्रौञ्ची के करुण विलाप को सुनकर मुनि का हृदय शोक से द्रवित हो गया और उनके हृदय से शिकारी के प्रति श्राप रूप में ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः’ छन्द फूट पड़ा। यही छन्द संस्कृत की पहली कविता अथवा पहला
छन्द बना।।

रामायण की रचना-श्राप रूप में श्लोक के निकलते ही महामुनि के हृदय में महती चिन्ता हुई। तब ब्रह्माजी ने इनके पास आकर कहा-“श्लोक बोलते हुए आपने दुःखियों पर दया करने के धर्म का पालन किया है। अब सरस्वती की आप पर कृपा हुई है। अब आप नारदजी से सुने अनुसार भगवान् राम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करें। मेरी कृपा से आपको सम्पूर्ण रामचरित स्मरण हो जाएगा।” ऐसा कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये। तब वाल्मीकि ने सात काण्डों में आदिकाव्य रामायण की रचना की। इनके दो आश्रम थे-एक चित्रकूट में और दूसरा ब्रह्मावर्त (बिठूर) में। यहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ था।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) संस्कृतवाङ्मयस्यादिकविः महामुनिः वाल्मीकिरिति सर्वैः विद्वद्भिः स्वीक्रियते। महामुनिना रम्यारामायणी-कथा स्वरचिते काव्यग्रन्थे निबद्धा। भगवतो रामस्य चरितमस्माकं देशस्य (UPBoardSolutions.com) संस्कृतेश्च प्राणभूतं तिष्ठति। वस्तुतस्तु, महामुनेः वाल्मीकेरेवैतन्माहात्म्यमस्ति। यत्तेन रामस्य लोककल्याणकारकं रम्यादर्शभूतं रूपं जनानां समक्षमुपस्थापितम्। वयं च तेन रामं ज्ञातुं अभूम।।

शाब्दार्थ-
वाङ्मय = साहित्य स्वीक्रियते = स्वीकार किया जाता है।
रम्या = सुन्दर।
निबद्धा = गुंथी हुई है।
प्राणभूतम् = प्राणस्वरूप।
वस्तुतस्तु = वास्तव में।
वाल्मीकेरेवैतन्माहात्म्यमस्ति (वाल्मीकेः + एव + एतत् + माहात्म्यम् + अस्ति) = वाल्मीकि का ही यह माहात्म्य है।
आदर्शभूतम् = आदर्शस्वरूप।
उपस्थापितम् = उपस्थित किया गया।
ज्ञातुं अभूम = जानने में समर्थ हुए।

सन्दर्थ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘आदिकविः वाल्मीकिः’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में आदिकवि वाल्मीकि की यशः कीर्ति पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
सभी विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि महामुनि वाल्मीकि संस्कृत-साहित्य के आदिकवि हैं। महामुनि ने रामायण की सुन्दर कथा को अपने द्वारा रचित काव्यग्रन्थ मे गुँथा है। भगवान् राम का चरित हमारे देश की संस्कृति का प्राणस्वरूप है। वास्तव में महामुनि वाल्मीकि का ही यह माहात्म्य है कि उन्होंने राम का लोक कल्याणकारी, सुन्दर, आदर्शभूत स्वरूप लोगों के सामने उपस्थित किया (रखा) और उससे हम राम को जानने में समर्थ हुए। .

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(2) स्कन्दपुराणाध्यात्मपरामायणयोरनुसारात् अयं ब्राह्मणजातीयः अग्निशर्मा- भिधश्चासीत्। पूर्वजन्मनः विपाकात् परधनलुण्ठनमेवास्य कर्माभूत्। वनान्तरे पथिकानां धनलुण्ठनमेव तस्य जीविकासाधनमासीत्। लुण्ठनव्यापारे, संशयश्चेत् प्राणघातेऽपि स सङ्कोचं नाऽकरोत्। इत्थं हिंसाकर्मणि लिप्तः एकदा वनपथे पथिकमाकुलतया प्रतीक्षमाणोऽसौ । मुनिवरमेकमागच्छन्तमपश्यत्, दृष्ट्वा च हर्षेण प्रफुल्लो जातः। समीपमागते मुनिवरे रक्ते । अक्षिणी श्रीमयन् भीमेन रवेण तमवोचत् यत्किञ्चित्तवास्ति तत्सर्वं मह्यं देहि नो चेत्तव (UPBoardSolutions.com) प्राणसंशयों भविष्यति। मुनिना प्रत्युक्तं, लुण्ठक! मत्पाश्र्वे तु किञ्चिदपि नास्ति, परं त्वां पृच्छामि किं करोषि लुण्ठितेन धनेन? इदं पापकर्म किमिति न जानासि? जानामि, तथापि करोमि। लुण्ठितेन धनेन परिवारजनस्य पोषणरूपं महत्कार्यं करोमीति तेनोक्तम्। मुनिः पुनरपृच्छत्-. पापकर्मणार्जितेन वित्तेन पोषितास्तव परिवारसदस्याः किं तव पापकर्मण्यपि सहभागिनः। स्युरिति। सोऽवोचत् वक्तुं न शक्नोमि परं तान् पृष्ट्वा वदिष्यामि। त्वं तावदत्रैव विरम यावदहं तान् सम्पृच्छ्यागच्छामि। इत्युक्त्वा तं मुनिवरं रज्जुभिः दृढं बद्ध्वा स्वकुटुम्बिनः प्रष्टुं जगाम।

शाब्दार्थ-
अनुसारोत् = अनुसार।
अभिधः = नाम वाला।
विपाकात् = फल या परिपाक, दुष्परिणाम से।
लुण्ठनम् = लूटना।
प्राणघातेऽपि = प्राणनाश में भी।
लिप्तः = लगा हुआ।
प्रतीक्षमाणः = प्रतीक्षा करता हुआ।
मुनिवरमेकमागच्छन्तमपश्यत् (मुनिवरम् + एकम् + आगच्छन्तम् + अपश्यत्) = एक श्रेष्ठ मुनि को आता हुआ देखा।
प्रफुल्लः = प्रसन्न।
रक्ते अक्षिणी = लाल-लाल आँखें।
भ्रामयन् = घुमाता हुआ।
भीमेन रवेण = भयंकर आवाज से।
प्रत्युक्तम् (प्रति + उक्तम्) = उत्तर दिया। लुण्ठक = हे लुटेरे!
सहभागिनः = साथ में भाग लेने वाले अर्थात् हिस्सेदार।
विरम = ठहर। सम्पृच्छ्यागच्छामि (सम्पृच्छ्य + आगच्छामि) = पूछकर आता हूँ।
रज्जुभिः = रस्सियों से।
प्रष्टुम् = पूछने के लिए।
जगाम = चला गया।

प्रसंग
इस गद्यांश में वाल्मीकि के आपराधिक जीवन पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
ये वाल्मीकि स्कन्द पुराण और अध्यात्म रामायण के अनुसार ब्राह्मण जाति के थे और इनका नाम अग्निशर्मा था। पूर्व जन्म के परिपाक (फल) से दूसरों के धन को लूटना ही इनका कर्म था। वन के मध्य में पथिकों का धन लूटना ही उनकी जीविका का साधन था। यदि लूटने के काम में सन्देह हो तो वे हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे। इस प्रकार हिंसा के काम में लगे हुए एक बार वन के पथ पर राहगीर की बेचैनी से प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने एक मुनिवर को आते हुए देखा और देखकर हर्ष से खिल उठे। मुनिवर के पास आने पर लाल-लाल नेत्रों को घुमाते हुए भयंकर स्वर में उनसे बोले—“जो कुछ तुम्हारे पास है वह सब मुझे दो, नहीं तो तुम्हारे प्राणों का संकट होगा।” मुनि ने उत्तर दिया-“लुटेरे! मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, परन्तु तुमसे पूछता हूँ-“लूटे हुए धन से तुम क्या करते हो? (UPBoardSolutions.com) यह पाप का कर्म है, क्या तुम यह नहीं जानते हो?” “ज्ञानता हूँ तो भी करता हूँ। लूटे हुए धन से मैं परिवार वालों का पालन रूप महान् कार्य करता हूँ।” ऐसा उससे (मुनि से) कहा। मुनि ने फिर पूछा-‘पापकर्म से कमाये गये धन से पाले हुए तुम्हारे परिवार के सदस्य क्या तुम्हारे पापकर्म में भी हिस्सेदार होंगे?” वह बोला-“कह नहीं सकता, परन्तु उनसे पूछकर बताऊँगा। तुम तब तक यहीं रुको, जब तक मै उनसे पूछकर आता हूँ।” यह कहकर उस मुनिवर को रस्सियों से कसकर बाँधकर अपने कुंटुम्बियों से पूछने चले गये।

(3) अथ तस्य कुटुम्बिनः तस्य प्रश्नं श्रुत्वा भृशं चुकुपुरूचुश्च कथं वयं तव पापकर्माणि | सहभागिनो भवेम? वयं किं जानीमहे त्वं किं करोषि कया वा रीत्या धनार्जनं विदधासि? नास्माभिः तवं पापकर्म कर्तुमादिष्टः।

तेषां स्वपरिवारजनानामुत्तरमाकर्त्य सोऽतीव विषण्णोऽभवत्। द्रुतं मुनिवरमुपगम्य सर्वं च तत्परिवारजनोख्यातमसावभाषत। परं निर्विण्णं तं मुनिः तस्य हृदयशोकशमनाय ‘राम’ इति जप्तुमुपादिशत्। ‘राम’ इति समुच्चारेणऽक्षमः स्ववृत्त्यनुसारं ‘मरा’ इत्येव जप्तुमारभत। इत्थमसौ बहुवर्षाणि यावत् समाधौ लीनः तीव्र तपश्चचार। तपसि रतस्य तस्य शरीरं वल्मीकमृत्तिकाभिः आवृत्तं जातम्। अथ कदाचित् प्रचेतसा निरन्तरजलधारया तस्य शरीरात् वल्मीकमृत्तिक परिस्राविता अभवन्। (UPBoardSolutions.com) मृत्तिकाभिः तिरोहितं तस्य शरीरं पुनः प्रकटितम्। ततो मुनिभिः स संस्तुतोऽभ्यर्थितश्च चक्षुषी उन्मील्योदतिष्ठत्। वल्मीकात् प्रोद्भूतत्वाद् वाल्मीकिरिति, प्रचेतसा जलधारया मृत्तिकायाः परित्रुतत्वाद् प्रचेतस इति तस्य नामद्वयं जातम्।रामायणे मुनिना स्वपितुः
नाम प्रचेताः तस्य दशमः पुत्रोऽहमित्त्थमुल्लिलेखे। यथा च–’प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो.. राघवनन्दन।’

शब्दार्थ-
भृशम् = बहुत। चुकुपुरूचुश्च (चुकुपः + ऊचुः + च). = क्रोधित हुए और बोले।
विदधासि = करते हो।
आदिष्टः = आदेश दिया, कहा।
विषण्णः = उदास, दु:खी।
द्रुतं = शीघ्र।
शोकशमनाय = दु:ख की शान्ति के लिए।
निर्विण्णं = दु:खी।
अक्षमः = असमर्थ स्ववृत्त्यनुसारम् = अपने स्वभाव के अनुसार।
जप्तुमारभत = जपना आरम्भ कर दिया।
इत्थं = इस प्रकार।
तपश्चचारः (तपः + चचारः) = तप करता रहा।
आवृत्तं जातम् = ढक गया।
प्रचेतसा = वरुण देव के द्वारा।
परिस्राविता अभवन् = धुल गयी, गीली होकर बह गयी।
तिरोहितम् = छिपा हुआ।
उन्मल्योदतिष्ठत (उन्मील्य + उत् + अतिष्ठत्) = खोलकर उठ बैठे।
प्रोद्भूतत्वात् = प्रकट होने के कारण।
परिवृतत्वाद = बहाये जाने के कारण से।
स्वपितुः = अपने पिता का।
वल्मीकमृत्तिकाभिः = दीमक की मिट्टी से।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में अग्निशर्मा के तपस्या करने एवं वाल्मीकि तथा प्राचेतस ये दो नाम धारण करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
इसके बाद उनके कुटुम्बी उनके प्रश्न को सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए और बोले-“हम तुम्हारे पाप कर्म में क्यों हिस्सेदार होंगे? हम क्या जानें, तुम क्या करते हो अथवा किसी रीति से धन कमाते हो? हमने तुम्हें पाप कर्म करने को नहीं कहा था।” .. उन अपने परिवार के लोगों के उत्तर को सुनकर वह अत्यन्त दुःखी हुआ। शीघ्र ही मुनिवर के पास आकर उसने परिवारजनों का कहा हुआ वह सब बता दिया। अत्यन्त दु:खी हुए उससे (अग्निशर्मा से) मुनि ने उसके हृदय के शोक को शान्त करने के लिए ‘राम’ जपने का उपदेश दिया। ‘राम’ शब्द के उच्चारण में असमर्थ उसने अपने स्वभाव के अनुसार ‘मरा’ जपना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने बहुत वर्षों तक समाधि में लीन होकर कठोर तप किया। तप में लीन उनका शरीर दीमकों की मिट्टी से ढक गया। इसके बाद किसी (UPBoardSolutions.com) समय वरुण के द्वारा लगातार जल की धारा से उनके शरीर से दीमकों की मिट्टी धूल गयी (बह गयी) और मिट्टी से छिपा हुआ उनका शरीर पुनः प्रकट हो गया। तब मुनियों ने उनकी स्तुति और पूजा की तथा वे आँखें खोलकर उठ बैठे। दीमकों की मिट्टी से निकलने के कारण ‘वाल्मीकि’, प्रचेता (वरुण) के द्वारा जलधारा से मिट्टी के धुल जाने के कारण ‘प्रचेतस’ इसे प्रकार उनके दो नाम हो गये। रामायण (उत्तरकाण्ड) में मुनि (वाल्मीकि) ने अपने पिता का नाम ‘प्रचेता “मैं उसका दसवाँ पुत्र” ऐसा लिखा है। जैसे-“हे राघव पुत्र! मैं प्रचेता का दसवाँ पुत्र हूँ।”

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(4) अथ कदाचित् सः ब्रह्मर्षेः नारदात् भगवतो रामस्य लोककल्याणकरं वृत्तं शुश्राव। तदाप्रभृत्येव रामचरितं काव्यबद्धं कर्तुमाकाङ्क्षते स्म। अथैकदा महर्षिः माध्यन्दिनसंवनाय प्रयागमण्डलान्तर्गतां तमसानदीं गच्छन्नासीत्। तत्र वनश्रियं निरीक्षमाणो महामुनिः स्वच्छन्दं विरचत् कौञ्चमिथुनमेकमपश्यत्। पश्यत एव तस्य कश्चित् पापनिश्चयो व्याधः तस्मान् मिथुनादेकं बाणेन विजघानां बाणेन विद्धं महीतले लुण्ठन्तं (UPBoardSolutions.com) शोणितपरीताङ्गं तं विलोक्य क्रौञ्ची करुणया गिरा रुराव। क्रौञ्च्याः करुणारावं आवं आवं मुनिहृदयालीनः शोकानलपरिद्रुतः करुणरसः श्लोकच्छलाद् हृदयादेवं निर्गतोऽभवत्

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

शब्दार्थ-
लोककल्याणकरम् = संसार का कल्याण करने वाला।
वृत्तम् = चरित्र।
आकाङ्क्षते स्म = इच्छा की।
माध्यन्दिनसवनाय = दोपहर के स्नान के लिए।
विचरत् = विचरण करते हुए।
मिथुनं = जोड़े को।
पापनिश्चयः = पापी।
व्याधः = शिकारी।
विजेघान = मार दिया।
लुण्ठन्तम् = लेटते हुए।
शोणितपरीताङ्गम् = खून से लथपथ शरीर वाले।
गिरा = वाणी से।
रुराव = रोने लगी।
करुणरवं = दु:खपूर्ण रुदन को।
श्रावं आवम् = सुन-सुनकर।
शोकानलः= शोक रूपी अग्नि।
परिद्रुतः = भड़क उठी।
निषाद = शिकारी।
शाश्वतीः समाः = चिरकाल तक।
अवधीः = मार, डाला।
काममोहितम् = काम से मुग्ध होने वाले को।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में क्रौञ्च के जोड़े में से नर क्रौञ्च को शिकारी के द्वारा मारे जाते देखकर वाल्मीकि के हृदय से छन्द फूट पड़ने का वर्णन है। यही छन्द आदि कविता कहलाया।

अनुवाद
इसके बाद कभी उन्होंने (वाल्मीकि ने) ब्रह्मर्षि नारद से भगवान् राम का लोक-कल्याणकारी चरित्र सुना। तब से ही उन्होंने राम के चरित्र को काव्यबद्ध करने की इच्छा की थी।
इसके बाद एक दिन महर्षि दोपहर के स्नान के लिए प्रयागमण्डल के अन्तर्गत तमसा नदी पर गये हुए। थे। वहाँ वन की शोभा को देखते हुए महामुनि ने स्वच्छन्द घूमते हुए एक कौञ्च पक्षी-युगल को देखा। उनके देखते हुए ही किसी पापपूर्ण निश्चय वाले शिकारी ने उस जोड़े में से एक को बाण (UPBoardSolutions.com) से मार दिया। बाण से बिंधे, भूमि पर गिरे हुए, खून से लथपथ शरीर वाले उसे देखकर क्रौञ्ची (चकवी) ने करुण वाणी से रुदन किया। क्रौञ्ची के करुण-विलाप को सुन-सुनकर मुनि के हृदय में छिपी शोकाग्नि से पिघला हुआ करुण रस श्लोक के बहाने से हृदय से इस प्रकार निकल पड़ा

“हे निषाद! तू चिरकाल तक रहने वाली स्थिति (सुख) को मत प्राप्त कर; क्योंकि तूने क्रौञ्च के जोड़े में से काम से मुग्ध अर्थात् काम-क्रीड़ा में रत एक(नर क्रौञ्च ) को मार डाला।”

(5) श्लोकोऽयमाम्नायादन्यत्र छन्दसां नूतनोऽवतार आसीत्। एवं बुवतस्तस्य हृदि महती चिन्ता बभूव-अहो! शकुनिशोकपीडितेन मया किमिदं व्याहृतम्। अत्रान्तरे, वेदमूर्तिश्चतुर्मुखो भगवान् ब्रह्मा महामुनिमुपगम्य सस्मितमुवाच महामुने, आपन्नानुकम्पनं हि महतां सहजो धर्मः। श्लोकं ब्रुवता त्वया त्वेष एवं धर्मः पालितः। तन्नात्र विचारणा कार्या। सरस्वती मच्छन्दादेव त्वयि प्रवृत्ता। साम्प्रतं यथा नारदाच्छूतं तथा त्वं श्रीमद्भगवतो रामचन्द्रस्य कृत्स्नं चरितं वर्णय। मत्प्रसादात् निखिलं च रामचरितं तव विदितं भविष्यति। किं बहुना, यावन्महीतले गिरिसरित्समुद्राः स्थास्यन्ति तावल्लोके रामायणकथा ‘प्रचलिष्यतीत्यादिश्य (UPBoardSolutions.com) भगवानब्जयोनिरन्तर्हितोऽभवत्। ततो योगबलेन नारदोक्तं समग्रं रामचरितमधिगम्य गङ्गातमसयोरन्तराले तटे, सप्तकाण्डात्मकं रामायणाख्यमादिमहाकाव्यं रचयामास, तदनन्तरं मुनेः विश्रामार्थं द्वौ अपराश्रमौ अभूताम्। एकश्चित्रकूटे अपरश्च कानपुरमण्डलान्तर्गत ब्रह्मावर्तान्तः आधुनिके बिठूरनाम्नि स्थाने आसीत् अत्रैव लवकुशयोः ज़नुरभूत्। एवमादिकविर्यशसा ख्यातोऽभवल्लोके महामुनिः ब्रह्मर्षिः।

शब्दार्थ-
आम्नायात् = वेद से।
बुवतस्तस्य = कहते हुए उनके।
शकुनिशोकपीडितेन = पक्षी के शोक से दुःखित हुए।
महामुनिमुपगम्य = महामुनि के पास जाकर।
व्याहृतम् = कह दिया।
सस्मितम् = मुस्कराते हुए।
आपन्नानुकम्पनं = पीड़ितों पर दया या कृपा।
सहजः = स्वाभाविक।
बुवता = बोलते हुए।
साम्प्रतं = अब (इस समय)।
नारदाच्छुतम् (नारदात् + श्रुतम्) = नारद से सुने हुए। कृत्स्नम् = सम्पूर्ण।
निखिलम् = पूरा। यावत् = जब तक।
स्थास्यन्ति = स्थित रहेंगे।
तावत् = तब तक।
प्रचलिष्यतीत्यादिश्य (प्रचलिष्यति + इति + आदिश्य) = प्रचलित रहेगी, ऐसी आदेश देकर।
अब्जयोनिः = कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी।
अन्तर्हितः = अन्तर्धान।
अधिगम्य = जानकर।
अन्तराले = बीच में।
अपराश्रमौ (अपर + आश्रमौ) = अन्य आश्रम।
ब्रह्मावर्तान्तः = ब्रह्मावर्त में।
अत्रैव (अत्र + एव) = यहाँ ही।
जनुरभूत् (जनु: + अभूत्) = जन्म हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में श्राप देने से दु:खीं वाल्मीकि को ब्रह्माजी द्वारा सान्त्वना देने तथा रामचरित का वर्णन करने की प्रेरणा दी गयी है।

अनुवाद
यह श्लोक वेद से पृथक्-लोक में छन्दों का नया जन्म था। इस प्रकार कहते हुए उनके हृदय में महान् चिन्ता हो गयी। “ओह! पक्षी के शोक से पीड़ित मैंने यह क्या कह दिया।” इसी बीच वेदमूर्ति चतुर्मुख ब्रह्मा ने महामुनि के पास जाकर मुस्कराते हुए कहा-“हे महामुने! पीड़ितों पर दया करेंना महापुरुषों का स्वाभाविक धर्म है। श्लोक बोलते हुए तुमने इसी धर्म का पालन किया है। तो इस विषय में सोच नहीं करना चाहिए। सरस्वती मेरी इच्छा से ही तुममें प्रवृत्त हुई हैं। अब जैसा तुमने नारद जी से सुना है, वैसा तुम भगवान् रामचन्द्रजी के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करो। मेरी कृपा से तुम्हें सम्पूर्ण रामचरित ज्ञात हो जाएगा। अधिक क्या? जब तक पृथ्वी (UPBoardSolutions.com) पर पर्वत, नदी और समुद्र रहेंगे, तब तक संसार में राम की कथा चलती रहेगी।’ ऐसा आदेश देकर भगवान् ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये। तब योगबल से नारद जी के द्वारा बताये गये सम्पूर्ण रामचरित को जानकर गंगा और तमसा के मध्य स्थित तट पर सात काण्डों वाले ‘रामायण’ नाम के इस महाकाव्य की रचना की। इसके अतिरिक्त मुनि के विश्राम के लिए दो दूसरे आश्रम थे। एक चित्रकूट पर, दूसरा कानपुर मण्डल के अन्तर्गत ब्रह्मावर्तान्त (ब्रह्मावर्त्त) आधुनिक नाम बिठूर के स्थान पर था। यहीं पर लव-कुश का जन्म हुआ था। इस प्रकार महामुनि ब्रह्मर्षि (वाल्मीकि) संसार में आदिकवि के यश से प्रसिद्ध हो गये।

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UP Board Solutions for Class 6 Hindi Chapter 22 महाराणा प्रताप (महान व्यक्तिव)

UP Board Solutions for Class 6 Hindi Chapter 22 महाराणा प्रताप (महान व्यक्तिव)

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पाठ का सारांश

त्याग, बलिदान, निरन्तर संघर्ष और स्वाधीनता के रक्षक के रूप में देशवासी महाराणा प्रताप को याद करते हैं। इनका जन्म उदयपुर नगर में हुआ। ये राणा सांगा के पुत्र महाराणा उदयसिंह के सुपुत्र थे। गौरव, सम्मान, स्वाभिमान व स्वतंत्रता के संस्कार इन्हें विरासत में मिले थे। सन 1572 ई० में प्रताप के शासक बनने के समय संकट की स्थिति थी। प्रताप को अकबर की सम्पन्न मुगल सेना व मानसिंह की राजपूत सेना से लोहा लेना पड़ा। अकबर की कूटनीति के कारण प्रताप का भाई शक्तिसिंह भी मुगल सेना के साथ था; फिर भी, अपनी छोटी-सी सेना से प्रताप ने हल्दी घाटी में मोर्चा जमाया और मुगल सेना को नाकों चने चबाने पड़े। मुगल सेना की भारी क्षति हुई, परन्तु विशाल सैन्य शक्ति के दबाव को देखकर राणा प्रताप को युद्ध से हटना पड़ा। इस घटना में सरदार झाला, राणा के घोड़े चेतक और अनुज शक्ति को प्रसिद्धि मिली। झाला ने ताज पहनकर अपने आत्मबलिदान से प्रताप को बचाया, चेतक ने प्रताप को युद्ध-भूमि से निकालकर प्राण त्यागे और अनुज शक्तिसिंह ने भी पश्चात्ताप करके क्षमा माँगी।

महाराणा प्रताप ने छापामार युद्धनीति अपनाकर बीस वर्ष तक मुगलों से संघर्ष किया। इन्हें परिवार सहित जंगलों में भटककर घास की रोटी तक खानी पड़ी। इन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक : चितौड़ पर अधिकार नहीं हो जाएगा; तब तक मैं जमीन पर सोऊंगा और पत्तलों पर भोजन करूंगा। इसका जनता पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इनके मंत्री भामाशाह ने सारी (UPBoardSolutions.com) सम्पत्ति राणा को सौंप दी। मेवाड़ की प्रभुसत्ता की रक्षा और स्वाधीनता के लिए राणा प्रताप जिए और मरे। इनके अदम्य साहस और शौर्य की सराहना करते हुए कर्नल टाड ने लिखा है, “अरावली की पर्वतमाला में एक भी घाटी ऐसी नहीं, जो प्रताप के पुण्य से पवित्र न हुई हो, चाहे वहाँ उनकी विजय हुई या यशस्वी पराजय!”

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अभ्यास

प्रश्न 1.
महाराणा प्रताप का जन्म कहाँ हुआ था तथा इनके पिता का क्या नाम था?
उत्तर :
महाराणा प्रताप का जन्म उदयपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम महाराणा उदयसिंह था।

प्रश्न 2.
छापामार युद्ध नीति किसने और क्यों अपनाई?
उत्तर :
छापामार युद्ध नीति महाराणा प्रताप ने अपनाई। परिस्थितियों के अनुसार मुगल सेना को पछाड़ने के लिए यह नीति अपनाई गई, जिसके कारण मेवाड़ का बड़ा भाग मुगलों से छीना गया।

प्रश्न 3.
राणा प्रताप ने कौन-सी प्रतिज्ञा की थी?
उत्तर :
राणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि “मैं मुगलों की अधीनता कदापि स्वीकार नहीं करूंगा। जब तब चित्तौड़ पर अधिकार न कर लूंगा, पत्तलों पर भोजन करूंगा और जमीन पर सोऊँगा!

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प्रश्न 4.
राणा प्रताप को किन गुणों के कारण लोग श्रद्धा से याद करते हैं?
उत्तर :
प्रताप को लोग उनके त्याग, बलिदान, निरन्तर संघर्ष, (UPBoardSolutions.com) अपराजेय पौरुष, अदम्य साहस, स्वाधीनता-प्रेम और स्वदेशानुराग के कारण याद करते हैं।

प्रश्न 5.
मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए महाराणा प्रताप ने कौन-कौन से कष्ट सहे?
उत्तर :
मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए बीस वर्षों से भी अधिक समय तक राजा प्रताप ने मुगलों से संघर्ष किया। इस अवधि में उन्हें अनेक कठिनाइयों तथा विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़। सारे किले उनके हाथ से निकल गए थे। उन्हें परिवार के साथ एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी पर भटकना पड़ा। कई बार उनके परिवार को जंगली फलों तथा घास की रोटी से भूख शांत करनी पड़ी, फिर भी राजा प्रताप का दृढ़ संकल्प हिमालय के समान अडिग रहा।

प्रश्न 6.
सही (✓) अथवा गलत (✗) का निशान लगाइए (निशान लगाकर) –

(क) महाराणा प्रताप का संघर्ष आर्यों से हुआ। (✗)
(ख) राणा प्रताप के जीवन का आदर्श मेवाड़ की सत्ता को बनाए रखना था। (✓)
(ग) राणा प्रताप का नाम हमारे इतिहास में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में अमर है। (✓)
(घ) हल्दी घाटी का युद्ध हल्दी के लिए हुआ। (✗)

प्रश्न 7.
नीचे लिखे प्रश्न के दिये गये विकल्पों में से सही उत्तर छाँटकर लिखिए (सही उत्तर लिखकर) –
सरदार झाला ने स्वयं राणा का मुकुट पहन लिया; क्योंकि –
उत्तर :
(ग) वह शत्रु को भ्रमित करना चाहता था।

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प्रश्न 8.
उपयुक्त शब्द चुनकर रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए (पूर्ति करके) –

(क) राणा प्रताप ने आदर्शों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया।
(ख) सरदार झाला ने राणा को बचाने के लिए स्वयं का बलिदान कर दिया।
(ग) राणा प्रताप का संकल्प हिमालय के समान अडिग था।
(घ) जन्मभूमि की रक्षा के लिए राणा प्रताप मृत्युपर्यंत संघर्ष करते रहे।

प्रश्न 9.
महाराणा प्रताप के जीवन की किस घटना ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया और क्यों? साथियों के साथ चर्चा कीजिए और अपनी कॉपी में लिखिए।
नोट – विद्यार्थी अपने शिक्षक/ शिक्षिका की सहायता से स्वयं करें।

प्रश्न 10.
आपकी नजर में महाराणा प्रताप के व्यक्तित्व के कुछ खास गुण कौन-कौन से हैं ?

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नोट विद्यार्थी इस प्रश्न के उत्तर हेतु प्रश्न 4 का उत्तर देखें।

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