UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 2 वर्षवैभवम् (पद्य – पीयूषम्)

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परिचय

प्रस्तुत पाठ महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के किष्किन्धाकाण्ड से संगृहीत है। रामायण में राम-कथा के प्रसंग में स्थान-स्थान पर बड़े ही सरस, स्वाभाविक प्रकृति-वर्णन उपलब्ध होते हैं। सीता-हरण के बाद उनको खोजते हुए राम और (UPBoardSolutions.com) लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचते हैं। वहाँ उनकी भेंट सुग्रीव से होती है, जो अपने अग्रज बालि के भय से उस पर्वत पर रहता है। राम उसे अपना मित्र मानते हुए उसके अग्रज बालि को मारकर उसको किष्किन्धा का राजा बना देते हैं। तदनन्तर वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है। राम-लक्ष्मण भी माल्यवान् पर्वत पर वर्षा ऋतु का समय व्यतीत करने लगते हैं। यहीं राम ने लक्ष्मण से वर्षा के आगमन के दृश्यों का मनोहारी वर्णन किया है। किष्किन्धाकाण्ड का यह वर्षा-वर्णन अपने आप में अनुपम है।

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पाठ-सारांश

राम ने बालि को मारकर, सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य देकर माल्यवान् पर्वत के ऊपर रहते हुए वर्षा के आगमन को देखकर लक्ष्मण से कहा-हे लक्ष्मण! वर्षा का समय आ गया है। अब आकाश पर्वत के समान आकार वाले बादलों से ढक गया है। नीले मेघों के मध्य चमकती हुई बिजली रावण के पाश में छटपटाती हुई तपस्विनी सीता के समान मालूम पड़ रही है। धूल शान्त हो गयी है, वायु बर्फीली है, गर्मी की तेज धूप और चलती हुई गर्म हवाएँ नष्ट हो गयी हैं। राजाओं ने अपनी विजय-यात्राएँ स्थगित कर दी हैं और प्रवासी लोग। वापस घर लौट रहे हैं। बादलों से ढक जाने के कारण आकाश कहीं स्पष्ट और कहीं अस्पष्ट-सा दिखाई पड़ रहा है। जामुन के फल जो रस से भरे हुए हैं, खाये जा रहे हैं। अनेक अधपके आम हवा के तीव्र झोंकों से हिलकर पृथ्वी पर गिर रहे हैं। जामुन के वृक्षों की शाखाएँ फलों से लदी हुई भौंरों के द्वारा रस-पान की जाती हुई प्रतीत हो रही हैं। प्यासे पक्षी मोतियों के समान स्वच्छ जल की बूंदों को अपनी चोंच फैलाकर प्रसन्न होकर पी रहे हैं। प्रसन्न भौरे वर्षा की धारा से नष्ट हुई केसर वाले कमलों को (UPBoardSolutions.com) छोड़कर केसरयुक्त कदम्ब के

फूलों के रस का पान कर रहे हैं। वर्षा की बड़ी-बड़ी धाराएँ गिर रही हैं और तेज वायु चल रही है। नदियाँ मार्गों में फैलकर आकार में विस्तृत हो तेज गति से बह रही हैं। वर्षा की धारा से धुलकर पर्वतों की चोटियाँ बड़े-बड़े आकार वाले निर्झरों से लटकती हुई मोतियों की झालरों के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही हैं।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
स तदा बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषिच्य च।।
वसन् माल्यवतः पृष्ठे समो लक्ष्मणमब्रवीत् ॥ [2007, 11]

शब्दार्थ तदा = तब। हत्वा = मारकर अभिषिच्य = राजपद पर अभिषेक करके वसन् = रहते हुए।

माल्यवतः = माल्यवान् पर्वत। यह दक्षिण भारत में एक पर्वत है। पृष्ठे = पीठ पर, ऊपरी भाग पर। अब्रवीत् = बोले, कहा।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वर्षावैभवम् शीर्षक पाठ से उधृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

अन्वय सः रामः तदा बालिनं हत्वा सुग्रीवम् (राज्ये) अभिषिच्य च माल्यवतः पृष्ठे वसन् लक्ष्मणम् अब्रवीत्।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में राम अपने मनोभावों को लक्ष्मण से व्यक्त कर रहे हैं।

व्याख्या राम ने उस समय अर्थात् सीता-हरण के पश्चात्; बालि को मारकर (UPBoardSolutions.com) और सुग्रीव को राज्य का अभिषेक करके अर्थात् राजतिलक करके माल्यवान् पर्वत के ऊपरी भाग पर निवास करते हुए लक्ष्मण से कहा।

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(2)
अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः
सम्पश्य त्वं नभो मेघैः संवृत्तं गिरिसन्निभैः [2007, 10, 11, 14, 15]

शब्दार्थ सम्प्राप्तः = आ गया है। जलागमः = वर्षा ऋतु का आगमन सम्पश्य = अच्छी तरह देखो। नभः = आकाश को। मेधैः = बादलों से। संवृत्तम् = घिरे हुए। गिरिसन्निभैः = पर्वतों के समान।

अन्वय अद्य अयं सः कालः सम्प्राप्तः (य:) समय: जलागमः। त्वं गिरिसन्निभैः मेघैः संवृत्तं नभः सम्पश्य।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में राम लक्ष्मण से वर्षा ऋतु के आगमन की बात कह रहे हैं।

व्याख्या आज यह वह समय आ पहुँचा है, जो समय वर्षा ऋतु के आगमन का होता है। तुम पर्वतों के समान; अर्थात् विशालकाय आकार वाले बादलों से घिरे हुए आकाश को भली-भाँति देखो।

(3)
नीलमेघाश्रिता विद्युत् स्फुरन्ती प्रतिभाति मे।
स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी ॥ [2007,08, 10, 13]

शब्दार्थ नीलमेघाश्रिता = काले बादलों का आश्रय लेने वाली। विद्युत् = बिजली। (UPBoardSolutions.com) स्फुरन्ती = चमकती हुई। प्रतिभाति मे = मुझे प्रतीत होती है। स्फुरन्ती = छटपटाती हुई। रावणस्याङ्के= रावण की गोद में। वैदेही = सीता। तपस्विनी असहाय, बेचारी।

अन्वय नीलमेघाश्रिता स्फुरन्ती विद्युत् मे रावणस्य अङ्के स्फुरन्ती तपस्विनी वैदेही इव प्रतिभाति।

प्रसंग प्रस्तुते श्लोक में बादलों के मध्य चमकती बिजली की तुलना सीता से की गयी है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि काले बादलों का आश्रय लेकर चमचमाती हुई बिजली मुझे ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे रावण की गोद में छटपटाती हुई असहाय सीता हो।

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(4)
रजः प्रशान्तं सहिमोऽद्य वायुः, निदाघदोषप्रसराः प्रशान्ताः।
स्थिता हि यात्रा वसुधाधिपानां, प्रवासिनो यान्ति नराः स्वदेशान् ॥ [2006, 09, 11, 15]

शब्दार्थ रजः = धूल। प्रशान्तम् = पूर्णतया शान्त हो गयी है। सहिमः = बर्फ के कणों से युक्त, अत्यन्त शीतल। निदाघदोषप्रसराः = गर्मी के तेज धूप, लू आदि दोषों का विस्तार स्थिता = रुक गयी है। वसुधाधिपानाम् (वसुधा + अधिपानाम्) = राजाओं की। प्रवासिनः = जीविका आदि के लिए विदेश में गये हुए। यान्ति = जा रहे हैं। स्वदेशान् = अपने देशों को।

अन्वय अद्य रज: प्रशान्तं, वायुः सहिमः (अस्ति), निदाघदोषप्रसरा: प्रशान्ताः (अभवन्), वसुधाधिपानां यात्रा हि स्थिता, प्रवासिनः नराः स्वदेशान् यान्ति।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकालीन वातावरण का वर्णन किया गया है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि आज धूल पूर्णतया शान्त हो गयी है। वायु बर्फ के कणों से युक्त अर्थात् अत्यन्त शीतल है। गर्मी के तेज धूप, लू आदि दोषों का विस्तार पूर्णतया शान्त हो गया है। राजाओं की (विजय) यात्राएँ रुक गयी हैं। प्रवासी अर्थात् जीविका (UPBoardSolutions.com) के लिए दूसरे स्थानों में जाकर बसने वाले लोग अपने स्थानों को अर्थात् घरों को (लौटकर) जा रहे हैं।

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(5)
क्वचित् प्रकाशं क्वचिदप्रकाश, नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति
क्वचित् क्वचित् पर्वतसन्निरुद्धं, रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य॥ [2008]

शब्दार्थ क्वचित् = कहीं पर प्रकाशम् = स्पष्ट, स्वच्छ। अप्रकाशम् = अप्रकट, मलिन, अस्पष्ट नभः = आकाश। प्रकीर्णाम्बुधरं = बिखरे हुए बादलों को धारण करने वाला। विभाति = शोभित हो रहा है। पर्वत-सन्निरुद्धम् = पर्वतों से आच्छादित। रूपं = स्वरूप। यथा = जैसे। शान्तमहार्णवस्य = शान्त लहरों वाले महासागर के समान।

अन्वय प्रकीर्णाम्बुधरं नभः क्वचित् प्रकाशं क्वचित् (च) अप्रकाशं विभाति। क्वचित् क्वचित् । पर्वतसन्निरुद्धं शान्तमहार्णवस्य रूपं यथा विभाति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकालीन आकाश की शोभा का चित्रण हुआ है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि बिखरे हुए बादलों वाला आकाश कहीं स्पष्ट दिखाई पड़ (UPBoardSolutions.com) रहा है। और कहीं अस्पष्ट सुशोभित हो रहा है। कहीं-कहीं यह पर्वतों से आच्छादित शान्त लहरों वाले महासागर के स्वरूप जैसा सुशोभित हो रहा है।

(6)
रसाकुलं षट्पदसन्निकाशं प्रभुज्यते जम्बुफलं प्रकामम्।
अनेकवर्णं पवनावधूतं भूमौ पतत्याम्नफलं विपक्वम्॥ [2006, 09, 11, 13]

शब्दार्थ रसाकुलम् = रस से पूर्णतया भरा हुआ। षट्पदसन्निकाशम् = भौंरे के समान आकार और रंग वाले; अर्थात् काले-काले)। प्रभुज्यते = खाया जा रहा है। जम्बुफलम् = जामुन का फल। प्रकामम् = अधिक मात्रा में। अनेकवर्णं = अनेक रंगों वाले। पवनावधूतम् = हवा के द्वारा हिलाये गये। भूमौ = पृथ्वी पर। पतति = गिरता है। आम्रफलं = आम का फल। विपक्वम् = विशेष रूप से पका हुआ।

अन्वय रसाकुलं षट्पद सन्निकाशं जम्बुफलं प्रकामं प्रभुज्यते। अनेकवर्णं पवनावधूतं विपक्वम् आम्रफलं भूमौ पतति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षाकाल में जामुन के फल की मनोहारी छटा का वर्णन किया गया है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि रस से पूर्णतया भरे हुए भौंरों के समान काले रंग के जामुन के फल अत्यधिक मात्रा में खाये जा रहे हैं। अनेक रंगों वाले, वायु के झोंकों के द्वारा हिलाये गये, विशेष रूप से पके हुए आम के फल जमीन पर गिर रहे हैं।

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(7)
अङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः फलैः सुपर्याप्तरसैः समृद्धाः ।
 जम्बुद्वमाणां प्रविभान्ति शाखाः निपीयमाना इव षट्पदीर्घः ॥

शब्दार्थअङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः = कोयले के चूरे के समूह के समान; अर्थात् (UPBoardSolutions.com) काली कान्ति वाले। सुपर्याप्तरसैः = खूब अधिक रस वाले। समृद्धाः = सम्पन्न, युक्त। जम्बुद्माणां = जामुन के वृक्षों की। प्रविभान्ति = लग रही हैं। शाखाः = शाखाएँ। निपीयमाना इव = मानो पी जाती हुई। षट्पदीधैः = भौंरों के समूहों से।

अन्वय अङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः सुपर्याप्तरसैः फलैः समृद्धयः जम्बुद्रुमाणां शाखाः षट्पदौघैः निपीयमाना इव प्रविभान्ति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में फलों से लदे जामुन के वृक्ष की सुन्दरता का वर्णन किया गया है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि कोयलों के चूर्ण के ढेर के समान दीखने वाले; अर्थात् अत्यधिक काली कान्ति वाले, पर्याप्त रस से भरे हुए, फलों से लदी हुई जामुन के वृक्षों की शाखाएँ ऐसी लग रही हैं। मानो भौंरों के समूह जामुनों का रसपान कर रहे हों।

(8)
मुक्तासकाशं सलिलं पतलै, सुनिर्मलं पत्रपुटेषु लग्नम्।
आवर्त्य चञ्चु मुदिता विहङ्गाः, सुरेन्द्रदत्तं तृषिताः पिबन्ति ॥

शब्दार्थ मुक्तासकाशम् = मोती के समान कान्ति वाला। सलिलं = जल। पतत् = गिरते हुए। सुनिर्मलं = अत्यन्त स्वच्छ। पत्रपुटेषु लग्नम् = पत्तों के मध्य भागों में लगे हुए। आवज्यं = फैलाकर। चञ्चु = चोंच को। मुदिताः = प्रसन्न होते हुए। विहगाः = पक्षी। सुरेन्द्रदत्तम् = इन्द्र के द्वारा दिये गये। तृषिताः = प्यासे। पिबन्ति = पी रहे हैं।

अन्वय मुक्तासकाशं, सुनिर्मलं पतत् वै पत्रपुटेषु लग्नं सुरेन्द्रदत्तं सलिलं तृषिताः (UPBoardSolutions.com) विहङ्गाः चञ्चुम् आवर्थ्य मुदिता (सन्तः) पिबन्ति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में पत्तों पर स्थित जल-बिन्दुओं को पक्षियों द्वारा पीने का वर्णन है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि मोती के समान कान्ति वाले, अत्यधिक स्वच्छ, गिरते हुए और पत्तों के मध्य भाग में लगे हुए, इन्द्र देवता द्वारा दिये गये उस जल को प्यासे पक्षी अपनी चोंच फैलाकर प्रसन्न होते हुए पी रहे हैं।

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(9)
नवाम्बुधाराहतकेसराणि द्रुतं परित्यज्य सरोरुहाणि।।
कदम्बपुष्पाणि सकेसराणि नवानि हृष्टा भ्रमराः पिबन्ति ॥

शब्दार्थ नवाम्बुधाराहतकेसराणि = नये वर्षा के जल की धारा से नष्ट हुए केसर वाले। द्रुतम् = शीघ्र। परित्यज्य= त्यागकर सरोरुहाणि = कमल के फूलों को कदम्बपुष्पाणि= कदम्ब के फूलों का। सकेसराणि = केसरों से युक्त। नवानि = नवीन। हृष्टा भ्रमराः = आनन्दित भौंरे। पिबन्ति = पी रहे हैं।

अन्वय हृष्टाः भ्रमरा: नवाम्बुधाराहतकेसराणि सरोरुहाणि द्रुतं परित्यज्य सकेसराणि नवानि कदम्बपुष्पाणि पिबन्ति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में भौंरों द्वारा कमल-पुष्पों के स्थान पर कदम्ब-पुष्पों के रसपान का वर्णन हुआ है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि आनन्दित भौरे; नये वर्षा के जल की धारा से जिन (UPBoardSolutions.com) कमल पुष्पों का केसर नष्ट हो गया है, उन पुष्पों को छोड़कर केसरयुक्त नये कदम्ब के पुष्प का रसपान कर रहे हैं।

(10)
वर्षप्रवेगा विपुलाः पतन्ति प्रवान्ति वाताः समुदीर्णवेगाः।
प्रनष्टकूला प्रवहन्ति शीघ्रं नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः ॥ [2005,07]

शब्दार्थ वर्षप्रवेगा = अत्यन्त तेज वर्षा की धाराएँ। विपुलाः = अत्यधिक पतन्ति =गिर रही हैं। प्रवान्ति = चल रही हैं। वाताः = हवाएँ। समुदीर्णवेगाः = बढ़े हुए वेग वाली। प्रनष्टकुलाः = टूटे हुए किनारों वाली। प्रवहन्ति = बह रही हैं। शीघ्रं = तेजी से। जलम् = जल को। विप्रतिपन्नमार्गाः = मार्गों में इधर-उधर फैली हुई।

अन्वय विपुलाः वर्षप्रवेगाः पतन्ति। समुदीर्णवेगा: वाता: प्रवान्ति। प्रनष्टकूला: नद्यः जलं विप्रतिपन्नमार्गाः शीघ्रं प्रवहन्ति।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वर्षा की अधिकता और उससे प्रभावित वायु और नदियों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या श्री राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि बहुत अधिक तेज वर्षा की धाराएँ गिर रही हैं। तेज गति वाली हवाएँ चल रही हैं। नदियों में वर्षा का अधिक जल भर जाने के कारण टूटे हुए किनारों वाली नदियों का जल मार्गों में चारों ओर फैलकर तेजी से बह रहा है।

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(11)
“हान्ति कुटानि महीधराणां धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।
महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातैः मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः॥ [2005,09]

शब्दार्थ महान्ति = बड़े-बड़े। कुटानि = शिखर महीधराणां = पर्वतों के। धाराविधौतानि = वर्षा के जल की धारा से धुली हुई। अधिकं विभान्ति = अधिक शोभित हो रहे हैं। महाप्रमाणैः = महान् आकार वाले। विपुलैः = विशाल प्रपातैः = झरनों के द्वारा। मुक्ताकलापैः = मोतियों की लड़ियों से लम्बमानैः = लटकते हुए।

अन्वय धाराविधौतानि महीधराणां महान्ति कुटानि महाप्रमाणैः विपुलैः प्रपातैः लम्बमानैः मुक्ताकलापैः इव अधिकं विभान्ति।

प्रसंग प्रस्तुते श्लोक में वर्षाकाल के पर्वतों की शोभा वर्णित है।

व्याख्या राम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा की जलधारा से पर्वत धुल गये हैं। (UPBoardSolutions.com) पर्वतों के शिखरों से महान् आकार वाले झरने गिर रहे हैं। वे झरने मोती की लड़ियों के समान अत्यधिक शोभा को धारण कर रहे हैं।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः।
सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वर्षावैभवम्’ नामक पाठ से ली गयी है।

[ संकेत इस पाठ की शेष समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में राम अपने भाई लक्ष्मण से वर्षा ऋतु के आगमन के विषय में बता रहे हैं।

अर्थ आज वह समय आ पहुँचा है, जो वर्षा के आगमन का है।

व्याख्या माल्यवान् पर्वत पर निवास करते हुए भगवान् श्रीराम ने बालि-वध के उपरान्त एक दिन पर्वत पर उठते हुए विशालकाय बादलों को देखा। उन्हीं बादलों को अपने छोटे भाई लक्ष्मण को दिखाते हुए राम कहते हैं कि पर्वत पर उमड़ते हुए इन बादलों से यह जान पड़ता है कि अब वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है। यह इसलिए भी प्रतीत हो रहा है क्योंकि वातावरण में उड़ने वाली धूल शान्त हो गयी है, तेज और गर्म हवाओं (लू) का चलना बन्द हो गया है और बादलों के मध्य बिजली रह-रहकर चमक रही है।

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(2) स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी।। [2006,09, 14]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में राम वर्षा ऋतु में बादलों के बीच चमकती हुई बिजली की तुलना सीता से कर रहे हैं।

अर्थ जैसे रावण के अंक (पाश) में छटपटाती हुई सीता।

व्याख्या वर्षा ऋतु में आकाश में बादल छाये हुए हैं और बादलों के बीच बिजली रह-रहकर चमक रही है। श्रीराम उसको देखकर विचलित हो उठते हैं; क्योंकि वह बिजली उनको रावण की पाश (बन्धन) में तड़पती हुई सीता के समान दिखाई पड़ रही है। सीता (UPBoardSolutions.com) पतिव्रता नारी हैं, इसलिए वे परपुरुष का स्पर्श तक नहीं कर सकतीं। राम को भी उनकी पतिभक्ति-परायणता पर पूर्ण विश्वास है। इसीलिए वे कल्पना कर रहे हैं कि जिस प्रकार बादलों में चमकती बिजली मानो क्रोध, बेचैनी और आवेश में बादल के पाश से निकलकर भागना चाहती है, उसी प्रकार असहाय सीता भी रावण के पाश से छूटने का भरपूर प्रयास कर रही होंगी।

(3) रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य। [2015)

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वर्षाकालीन आकाश की तुलना शान्त समुद्र से की गयी है।

अर्थ
लहरों से रहित अर्थात् शान्त महासागर के समान स्वरूप।

व्याख्या
श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि जो बादल वर्षा के पूर्व समग्र आकाश को आच्छादित किये हुए थे, वे वर्षा के हो जाने पर बिखर गये हैं। बिखरे हुए बादल आकाश में प्रकट और अप्रकट रूप से दिखाई पड़ रहे हैं। इस कारण आकाश पर्वतों से युक्त शान्त महासागर के समान दिखाई पड़ रहा है। आशय यह है कि जहाँ पर आकाश में बादलों की विद्यमानता है वहाँ ये बादल ऐसे प्रतीत हो रहे हैं जैसे किसी शान्त अर्थात् लहरों से रहित समुद्र में कोई पर्वत उठ आया हो।

(4) भूमौ पतत्याग्रफलं विपक्वं

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में भूमि पर गिरे हुए आम के फलों का वर्णन किया गया है।

अर्थ विशेष रूप से पंके हुए आम के फल पृथ्वी पर गिर रहे हैं।

व्याख्या श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा के होने के कारण आम के फल; जो पहले वृक्षों पर ही लगे हुए थे; विशेष रूप से पक जाने के कारण अर्थात् पूर्णरूपेण सुस्वादु हो जाने पर भूमि पर गिर जा रहे हैं। यह सब कुछ वर्षा के आगमन के कारण ही हो रहा है।

(5) निपीयमाना इव षट्पदीधैः। [2010]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में फलों से लदे जामुन के वृक्षों का वर्णन किया गया है।

अर्थ जैसे भौंरों के समूह रसपान कर रहे हों।

व्याख्या प्रस्तुत पंक्ति में श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं कि वर्षा ऋतु में जामुन के वृक्षों की शाखाएँ जामुन के फलों से लदी हुई हैं; अर्थात् जामुन के फलों से वृक्ष भरे हुए हैं और इन फलों में रस भरे हुए हैं। रस से भरे ये काले रंग के जामुन के फल ऐसे लग रहे हैं, जैसे काले रंग (UPBoardSolutions.com) के भौंरों के समूह जामुन के वृक्ष से लगकर उसके रस का पान कर रहे हैं। इस सूक्ति में जामुन के फलों की उपमा भौरों से की गयी है।।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) स तदा बालिनं …………………………………………………….. लक्ष्मणं अब्रवीत् ॥ (श्लोक 1) [2012]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति यत् सः दशरथपुत्रः रामः बालिनं हत्वा तस्य भ्रातरं सुग्रीवं च राज्यशासने अभिषिच्य माल्यवत: पृष्ठे निवसन् स्व-भ्रातरं लक्ष्मणम् अब्रवीत्।

(2) अयं स कालः …………………………………………………….. संवृतं गिरिसन्तिभैः ॥ (श्लोक 2) [2006, 12, 13, 15]

संस्कृतार्थः
रामः लक्ष्मणं कथयति यत् अद्य अयं स समय: उपस्थितः, यदा वर्षर्तुः आगच्छति, यतः त्वं सम्पश्य नभः पर्वतसदृशैः मेघैः आच्छादितः।

(3) रजः प्रशान्तं …………………………………………………….. यान्ति नराः स्वदेशान्॥ (श्लोक 4)

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः वर्षायाः प्रभावः वर्णयति यत् अद्य रजः शान्तं वायुः शीतलः ग्रीष्मदोषाः समाप्ताः अभवन्। नृपाणां यात्रा स्थगिता। परदेशगता: नराः स्वदेशान् प्रत्यागच्छन्ति।

(4) क्वचित् प्रकाशं …………………………………………………….. यथा शान्तमहार्णवस्य ॥ (श्लोक 5) [2006]

संस्कृतार्थः रामः लक्ष्मणं दर्शयन् वदति, हे लक्ष्मण! गगने क्वचित् प्रकाशः क्वचित् अन्धकारः (UPBoardSolutions.com) च भवति। गगने मेघाः आच्छादिताः भवन्ति। क्वचित् शान्तसमुद्रस्य इव मेघाः सन्निरुद्धा: विभान्ति।

(5) रसाकुलं षट्पदसन्निकाशं …………………………………………………….. आम्रफलं विपक्वम्॥ (श्लोक 6)

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके प्रावृट्कालसुषमा वर्णयन् कविः कथयति यत् वर्षर्ती भ्रमरसमानानि कृष्णवर्णानि सरसानि सुस्वादूनि जम्बुफलानि यथेच्छम् आस्वादयन्ति। वायुवेगेन आलोडितानि पक्वानि सुमधुराणि विविधवर्णानि आम्रफलानि धरायां पतन्ति।

(6) मुक्तासकाशं सलिलं ……………………………………………………..तृषिताः पिबन्ति ॥ (श्लोक 8)

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संस्कृतार्थः सुरेन्द्रेण दत्तम्, आकाशात् पतितं, मुक्तानिर्मलं, पत्राणां पुटेषु संलग्नं, जलं तृषिताः खगाः प्रसन्नं भूत्वा चञ्चु प्रसार्य पिबन्ति।

(7) नवाम्बुधारा …………………………………………………….. भ्रमराः पिबन्ति ॥ (श्लोक 9) [2007]

संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके रामः लक्ष्मणं कथयति यत् वर्षाकाले वर्षाजलं कमलानां केसराणि अपनयति। अतः प्रसन्नाः भ्रमराः तानि पुष्पाणि परित्यज्य सकेसराणि नवानि कदम्बस्य पुष्पाणि पिबन्ति।

(8) वर्षप्रवेगा विपुलाः …………………………………………………….. जलं विप्रतिपन्नमार्गाः ॥ (श्लोक 10) [2007]

संस्कृतार्थः श्रीरामः लक्ष्मणं प्रति वर्षत: वर्णयन् कथयति यत् अत्यधिका: वर्षाधारा: आकाशात् पतन्ति समुदीर्णवेगा: पवना: प्रवहन्ति। नद्यः स्वानि कुलानि नष्टं कृत्वा मार्गेषु जलम् इतस्ततः प्रसारयित्वा शीघ्र प्रवहन्ति।

(9) महान्ति कुटानि …………………………………………………….. कलापैरिव लम्बमानैः ॥ (श्लोक 11)

संस्कृतार्थः
रामः लक्ष्मणं कथयति यत् वर्षाकाले वर्षायाः जलेन विधा एतानि पर्वताः अधिकं शोभन्ते। पर्वतानां शिखरैः यदा विपुला: प्रपाता: पतन्ति तदा ते लम्बमानैः मुक्ताकलापैः इव अधिकं शोभन्ते।

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UP Board Solutions for Class 7 Hindi Chapter 18 कर्तव्यपालन (मंजरी)

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महत्त्वपूर्ण गद्यांश की व्याख्या

नहीं, मेरे सच्चे बहादुर मित्र …………………………… रहेगा।

संदर्भ:
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘मंजरी’ के ‘कर्तव्यपालन’ नामक पाठ से अवतरित है। इसके लेखक रामनरेश त्रिपाठी हैं।

प्रसंग:
राजा वन में वनरक्षक से मिलता है। वनरक्षक ने उसके साथ ईमानदारी से अपने कर्तव्यपालन का ध्यान रखकर समुचित व्यवहार किया। उसे पहले राजा का परिचय न था, परन्तु बाद में एक दरबारी के कुशल पूछने पर राजा को पहचाना और क्षमा माँगी।

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व्याख्या:
राजा वनरक्षक पुंडरीक के कर्तव्यपालन का ध्यान रखने (UPBoardSolutions.com) के कारण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे बहादुर मित्र कहा और अपनी योग्य पदवी के लिए उसे तलवार प्रमाण के रूप में भेंट की। उसके लिए एक हजार रुपया सालाना पुरस्कार भी घोषित किया जो उसे जीवनपर्यंत अपनी अच्छी सेवा के कारण मिलता रहेगा। राजा ने पुंडरीक को राजरत्न कहा।

पाठ का सार (सारांश)

राजा अँधेरे में जंगल में खड़ा है। वनरक्षक आकर पूछता है कि वह कहाँ जाएगा। वह राजा को बाहर निकलने को कहता है। राजा पूछता है कि उसे इसका क्या अधिकार है। वनरक्षक बताता है कि वह राजा का वनरक्षक पुंडरीक है। राजा स्वयं को एक राजा का अधिकारी बताता है, लेकिन पुंडरीक उस पर विश्वास नहीं करता। राजा उसकी ओर एक रुपया बढ़ाता है। पुंडरीक कहता है कि तुम (राजा) सच में एक दरबारी ही हो, जो आज छोटी रिश्वत देता है और कल के लिए बड़ा वायदा करता है परन्तु यह दरबार नहीं है। राजा कहता है “तू नीच आदमी है। तेरे बारे में ज्यादा परिचय चाहता हूँ।” पुंडरीक ‘तू’ और ‘तेरे शब्दों के सम्बोधने से नाराज होकर कहता है, “मैं भी उतना ही भला आदमी हूँ जितने तुम हो।” राजा मित्र कहकर उससे क्षमा माँगता है। पुंडरीक को राजा पर परिचय न देने के कारण सन्देह है। फिर भी वह राजा को राजधानी का रास्ता बताने को तैयार है। यही नहीं वह राजा को रात अपने घर में बिताने का प्रस्ताव भी देता है जिसे राजा स्वीकार लेता है। (UPBoardSolutions.com) उसी समय घोड़े पर सवार सैनिक आता है और राजा से कुशल-क्षेम पूछता है। उसके द्वारा राजा को जब महाराज कहकर संबोधित किया जाता है तब पुंडरीक राजा को पहचानता है। वह राजा से क्षमा माँगता है। राजा उसे बहादुर और सच्चा मित्र कहकर अपनी तलवार, उसकी पदवी के प्रमाण के रूप में देता है तथा उसको एक हजार रुपया सालाना पुरस्कार भी जीवनभर देने की घोषणा करता है। पुंडरीक घुटने टेककर राजा को प्रणाम करता है। राजा पुंडरीक से उसे महल तक पहुंचाने के लिए कहता है। राजा उसे रात को अपने महल में मेहमान बनाकर रखता है।

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प्रश्न-अभ्यास

  • कुछ करने को
    नोट- विद्यार्थी स्वयं करें।
  • विचार और कल्पना
    नोट- विद्यार्थी स्वयं करें।
  • एकांकी से

प्रश्न 1:
राजा द्वारा ली गई परीक्षा में वनरक्षक किस प्रकार खरा उतरता है?
उत्तर:
जब राजा वनरक्षक पुंडरीक को झोपड़ी में रहने देने के बदले ह्र रुपया देना चाहता है, तब वह उसे रिश्वत बताता है और लेने से इनकार कर देता है। फिर इसके बाद जब राजा राजधानी तक चलने के लिए कहता है तो वह इनकार करता है और कहता है (UPBoardSolutions.com) कि अगर स्वयं राजा भी आ जाए, तो भी इस समय मैं राजधानी नहीं जाऊँगा। इस तरह वनरक्षक राजा की परीक्षा में खरा उतरता है।

प्रश्न 2:
नीचे लिखे वाक्य के तीन सम्भावित उत्तर दिए गए हैं, सही उत्तर पर सही (✓) का चिह्न लगाइए (चिह्न लगाकर )

राजा ने तलवार खींच ली क्योंकि
(क) वह वनरक्षक को दण्ड देना चाहता था।
(ख) वह वनरक्षक को क्षमा करना चाहता था।
(ग) वह वनरक्षक को सम्मान देना चाहता था। (✓)

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प्रश्न 3:
वनरक्षक द्वारा परिचय पूछे जाने पर राजा क्या उत्तर देते हैं?
उत्तर:
राजा कहते हैं कि इन प्रश्नों का उत्तर (UPBoardSolutions.com) देने का मुझे अभ्यास नहीं है।

प्रश्न 4:
वनरक्षक को राजा पर क्या सन्देह होता है?
उत्तर:
वनरक्षक को राजा पर बदमाश होने का सन्देह होता है।

प्रश्न 5:
राजा द्वारा यह कहने पर कि यदि एक रुपया कम हो तो सवेरे और भी दूंगा, वनरक्षक ने राजदरबार और दरबारी का कैसा चित्र खींचा?
उत्तर:
वनरक्षक की नजर में राजदरबार में काम करने वाले (UPBoardSolutions.com) दरबारी हर छोटे-बड़े काम के लिए रिश्वत देते हैं या लेते हैं या आश्वासन देते हैं।

प्रश्न 6:
वनरक्षक को उसकी नेकी और ईमानदारी का क्या फल मिला?
उत्तर:
वनरक्षक को उसकी नेकी और ईमानदारी के लिए एक तलवार और 1000 रुपये सालाना का पुरस्कार जीवन भर के लिए मिला।

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प्रश्न 7:
एकांकी में वनरक्षक के व्यक्तित्व की किन-किन विशेषताओं का पता चलता है?
उत्तर:
एकांकी में वनरक्षक के व्यक्तित्व की कर्तव्यपरायणता, (UPBoardSolutions.com) ईमानदारी, राजभक्ति बहादुरी और स्पष्टवादिता जैसे विशेषताओं का पता चलता है।

भाषा की बात

प्रश्न 1:
निम्नलिखित शब्दों में से उपसर्ग और प्रत्यय युक्त शब्दों को छाँटकर अलग-अलग लिखिए ( छाँटकर )
उत्तर:
उपसर्ग: अभिमान, विशेष, सम्मान

प्रत्यय:
चमकीला, सच्चाई, ईमानदारी, प्रसन्नता, पुरस्कार, निकलकर

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प्रश्न 2:
निम्नलिखित शब्दों के अर्थ लिखकर उनका वाक्यों (UPBoardSolutions.com) में प्रयोग कीजिए (प्रयोग करके
उत्तर:
तिरस्कार (अवहेलना)          –             राजा ने तिरस्कार से उसे नीच कहा।
यकीन (विश्वास)                    –            मुझे यकीन है कि वही लड़का चोर है।
मुनासिब (उचित)                 –            जो मुनासिब समझो वही करो।
रिश्वत (घूस)                          –            अधिकारी रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया।
ढिठाई (अकड़ के साथ)        –            बच्चों को बड़ों से ढिठाई के साथ बात नहीं करनी चाहिए।
फर्ज (कर्तव्य)                        –            भारतीय सैनिक अपने कार्य से कभी पीछे नहीं हटते।।

प्रश्न 3:
निम्नलिखित वाक्यांशों के लिए (UPBoardSolutions.com) एक-एक शब्द लिखिए (लिखकर )
क. किसी बात की परवाह न करने वाला।         –             लापरवाह
ख. वन की रक्षा करने वाला।                            –              वनरक्षक
ग. जो विश्वास करने योग्य हो।                          –              विश्वसनीय
घ. जो रिश्वत लेता हो।                                      –              रिश्वतखोर
ङ. जो क्षमा करने योग्य न हो।                        –               अक्षम्य

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प्रश्न 4:
नीचे दिये गये वाक्यों में से सरल वाक्य, (UPBoardSolutions.com) संयुक्त वाक्य और मिश्रित वाक्य अलग-अलग कीजिए ( अलग-अलग करके)
क. मुझे पता तो चल गया कि मैं मनुष्य भी हूँ ।।                       –    मिश्रित वाक्य
ख. आज मेरा सारा अभिमान मुझे झूठा जाने पड़ रहा है ।        –    सरल वाक्य
ग. तुम कहाँ रहते हो और करते क्या हो ?                               –     संयुक्त वाक्य
घ. मैंने माना कि तुम दरबारी हो, आज के लिए तो एक छोटी   –     सी रिश्वत
और कल के लिए एक बड़ा-सा वादा।।                                   –     मिश्रित वाक्य

प्रश्न 5:
नोट- विद्यार्थी स्वयं करें।

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UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 11 नागार्जुन (काव्य-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 11 नागार्जुन (काव्य-खण्ड)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए तथा काव्यगत सौन्दर्य भी स्पष्ट कीजिए :

(बादल को घिरते देखा है)

1. अमल धवल ………………………………………………………………………….. तिरते देखा है।

शब्दार्थ-अमल = निर्मल। धवल = सफेद शिखर = चोटी स्वर्णिम = सुनहले। तुंग = ऊँचा। ऊमस = गर्मी । पावस = वर्षा तिक्त = कसैला। बिसतन्तु = कमलनाल के अन्दर के कोमल रेशे। तिरते = तैरते हुए।

सन्दर्भ – प्रस्तुत काव्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में जनकवि नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ नामक कविता से अवतरित हैं। यह कविता उनके काव्य-संग्रह ‘प्यासी-पथराई आँखें’ में संकलित है।

प्रसंग – इस स्थल पर कवि ने हिमालय के वर्षाकालीन सौन्दर्य का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि का कथन है कि मैंने निर्मल, चाँदी के समान सफेद और बर्फ से मण्डित पर्वत की चोटियों पर घिरते हुए बादलों के मनोरम दृश्य को देखा है। मैंने मानसरोवर में खिलनेवाले स्वर्ण-जैसे सुन्दर कमल-पुष्पों पर मोती के समान चमकदार अत्यधिक शीतल जल की बूंदों को गिरते हुए देखा है।
कवि हिमालय की प्राकृतिक सुषमा का अंकन करते (UPBoardSolutions.com) हुए कहता है कि उस पर्वत-प्रदेश में हिमालय के ऊँचे शिखररूपी कन्धों पर छोटी-बड़ी अनेक झीलें फैली हुई हैं। मैंने उन झीलों के नीचे शीतल, स्वच्छ, निर्मल जल में ग्रीष्म के ताप के कारण व्याकुल और समतल क्षेत्रों से आये (अर्थात् मैदानों से आये हुए) हंसों को कसैले और मधुर कमलनाल के तन्तुओं को खोजते हुए और उन झीलों में तैरते हुए देखा है।

काव्यगत सौन्दर्य

  • कवि ने साहित्यिक और कलात्मक शब्दावली का प्रयोग करते हुए हिमालय की सुन्दरता का अंकन किया है, जहाँ पर सभी प्राणी आनन्द और उल्लास का अनुभव कर सकते हैं।
  • आलम्बने रूप में प्रकृति का चित्रण हुआ है।
  • सरल व प्रवाहपूर्ण भाषा का प्रयोग।
  • गुण–माधुर्य।
  • रस-श्रृंगार।
  • शब्द-शक्ति-लक्षणा।
  • अलंकार-अनुप्रास, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, रूपकातिशयोक्ति।

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2. एक दूसरे से ………………………………………………………………………….. चिढ़ते देखा है।
अथवा निशा काल ………………………………………………………………………….. के तीरे।
अथवा दुर्गम ………………………………………………………………………….. हो-होकर।

शब्दार्थ-वियुक्त = पृथक्, जुदा। तीरे = किनारे शैवाल = घास परिमल = सुगन्ध।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में कविवर नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ शीर्षक कविता से अवतरित हैं।

प्रसंग – इनमें कवि ने हिमालय के मोहक दृश्यों का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि चकवा-चकवी आपस में एक-दूसरे से अलग रहकर सारी रात बिता देते हैं। किसी शाप के कारण वे रात्रि में मिल नहीं पाते हैं। विरह में व्याकुल होकर वे क्रन्दन करने लगते हैं। प्रात: होने पर उनका क्रन्दन बन्द हो जाता है और वे मानसरोवर के किनारे मनोरम दृश्य में एक-दूसरे से मिलते हैं और हरी घास पर प्रेम-क्रीड़ा करते हैं। महाकवि कालिदास द्वारा मेघदूत महाकाव्य में वर्णित अपार धन के स्वामी कुबेर और उसकी सुन्दर अलका नगरी अब कहाँ है? आज आकाश मार्ग से जाती हुई पवित्र गंगा का जल कहाँ गया? बहुत हूँढ़ने पर भी मुझे मेघ के उस दूत के दर्शन नहीं हो सके। ऐसा भी हो सकता है कि इधर-उधर भटकते (UPBoardSolutions.com) रहनेवाला यह मेघ पर्वत पर यहीं कहीं बरस पड़ा हो। छोड़ो, रहने दो, यह तो कवि की कल्पना थी। मैंने तो गगनचुम्बी कैलाश पर्वत के शिखर पर भयंकर सर्दी में विशाल आकारवाले बादलों को तूफानी हवाओं से गरजे-बरस कर संघर्ष करते हुए देखा है। हजारों फुट ऊँचे पर्वत-शिखर पर स्थित बर्फानी घाटियों में जहाँ पहुँचना बहुत कठिन होता है, कस्तूरी मृग अपनी नाभि में स्थित अगोचर कस्तूरी की मनमोहक सुगन्ध से उन्मत्त होकर इधर-उधर दौड़ता रहता है। निरन्तर भाग-दौड़ करने पर भी जब वह उसे कस्तूरी को प्राप्त नहीं कर पाता तो अपने-आप पर झुंझला उठता है।

काव्यगत सौन्दर्य

  • यहाँ कवि ने विभिन्न मोहक दृश्यों को प्रस्तुत करके अपनी कुशल प्रकृति-चित्रण कला को दर्शाया है।
  • भाषा-तत्सम प्रधान खड़ीबोली।
  • रस-श्रृंगार।
  • गुण-माधुर्य।
  • अलंकार-अनुप्रास।

3. शत-शत ………………………………………………………………………….. फिरते देखा है।

शब्दार्थ-मुखरित = गुंजित कानन = वन शोणित = लाल धवल = सफेद कुन्तल = केश। सुघर = सुन्दर कुवलय = नीलकमल वेणी = चोटी। रजित = चाँदी के बने, मणियों से गढ़े। लोहित = लाल त्रिपदी = तिपाई । मदिरारुण = मद्यपान कर लेने के कारण हुई लाल, नशे में लाल। उन्मद = नशे में मस्त।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में कविवर नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ से लिया गया है।

प्रसंग – यहाँ कवि ने किन्नर-प्रदेश की शोभा का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि का कथन है कि आकाश में बादल छा जाने के बाद किन्नर-प्रदेश की शोभा अद्वितीय हो जाती है। सैकड़ों छोटे-बड़े झरने अपनी कल-कल ध्वनि से देवदार के वन को गुंजित कर देते हैं अर्थात् गिरते हुए झरनों का स्वर देवदार के वनों में गूंजता रहता है। इन वनों के बीच में लाल और श्वेत (UPBoardSolutions.com) भोजपत्रों से छाये हुए कुटीर के भीतर किन्नर और किन्नरियों के जोड़े विलासमय क्रीडाएँ करते रहते हैं। वे अपने केशों को विभिन्न रंगों के सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित किये रहते हैं। सुन्दर शंख जैसे गले में इन्द्र-नीलमणि की माला धारण करते हैं, कानों में नीलकमल के कर्णफूल पहनते हैं और उनकी वेणी में लाल कमल सजे रहते हैं।

कवि का कथन है कि किन्नर प्रदेश के नर-नारियों के मदिरापान करनेवाले बर्तन चाँदी के बने हुए हैं। वे मणिजड़ित तथा “कलात्मक ढंग से बने हुए हैं। वे अपने सम्मुख निर्मित तिपाई पर मदिरा के पात्रों को रख लेते हैं और स्वयं कस्तूरी मृग के नन्हें बच्चों की कोमल और दागरहित छाल पर आसन लगाकर बैठ जाते हैं । मदिरा पीने के कारण उनके नेत्र लाल रंग के हो जाते हैं। उनके नेत्रों में उन्माद छा जाता है। मदिरा पीने के (UPBoardSolutions.com) बाद वे लोग मस्ती को प्रकट करने के लिए अपनी कोमल और सुन्दर अँगुलियों से सुमधुर स्वरों में वंशी की तान छेड़ने लगते हैं। कवि कहता है कि इन सभी दृश्यों की मनोहरता को मैंने देखा है।

काव्यगत सौन्दर्य

  • यहाँ किन्नर प्रदेश के स्त्री-पुरुषों के विलासमय जीवन को यथार्थ चित्रण हुआ है।
  • प्रकारान्तर से कवि ने धनी वर्ग की विलासिता का वर्णन किया है।
  • भाषा–संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली।
  • रस-श्रृंगार।
  • अलंकार-उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश।
  • शब्द-शक्ति-लक्षणी।

प्रश्न 2.
नागार्जुन का जीवन-परिचय देते हुए उनकी भाषा-शैली का उल्लेख कीजिए।

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प्रश्न 3.
नागार्जुन का जीवन वृत्त लिखकर उनके साहित्यिक योगदान का उल्लेख कीजिए

प्रश्न 4.
नागार्जुन के साहित्यिक अवदान एवं रचनाओं पर प्रकाश डालिए।

प्रश्न 5.
नागार्जुन का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए तथा उनके काव्य-सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।

(नागार्जुन)
स्मरणीय तथ्य

जन्म – सन् 1910 ई०, तरौनी (जिला दरभंगा (बिहार)।
मृत्यु – सन् 1998 ई०।
शिक्षा – स्थानीय संस्कृत पाठशाला में, श्रीलंका में बौद्ध धर्म की दीक्षा।
वास्तविक नाम-वैद्यनाथ मिश्र।
रचनाएँ – युगधारा, प्यासी-पथराई आँखें, सतरंगे पंखोंवाली, तुमने कहा था, तालाब की मछलियाँ, हजार-हजार बाँहोंवाली, पुरानी जूतियों का कोरस, भस्मांकुर (खण्डकाव्य), बलचनमा, रतिनाथ की चाची, नयी पौध, कुम्भीपाक, उग्रतारा (उपन्यास), दीपक, विश्वबन्धु (सम्पादन)।
काव्यगत विशेषताएँ
वर्य-विषय – सम-सामयिक, राजनीतिक तथा सामाजिक समस्याओं का चित्रण, दलित वर्ग के प्रति संवेदना, अत्याचारपीड़ित एवं त्रस्त व्यक्तियों के प्रति (UPBoardSolutions.com) सहानुभूति।
भाषा – शैली-तत्सम शब्दावली प्रधान शुद्ध खड़ीबोली। ग्रामीण और देशज शब्दों का प्रयोग। प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग।
अलंकार व छन्द-उपमा, रूपक, अनुप्रास। मुक्तक छन्द।।

जीवन-परिचय – श्री नागार्जुन का जन्म दरभंगा जिले के तरौनी ग्राम में सन् 1910 ई० में हुआ था। आपका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र है। आपका आरम्भिक जीवन अभावों का जीवन था। जीवन के अभावों ने ही आगे चलकर आपके संघर्षशील व्यक्तित्व का निर्माण किया व्यक्तिगत दुःख ने आपको मानवता के दु:ख को समझने की क्षमता प्रदान की है। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई। सन् 1936 ई० में आप श्रीलंका गये और वहाँ पर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। सन् 1938 ई० में आप स्वदेश लौट आये। (UPBoardSolutions.com) राजनीतिक कार्यकलापों के कारण आपको कई बार जेल-यात्रा भी करनी पड़ी। आप बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा घुमक्कड़ एवं फक्कड़ किस्म के व्यक्ति हैं। आप निरन्तर भ्रमण करते रहे। सन् 1998 ई० में आपका निधन हो गया।

रचनाएँ – युगधारा, प्यासी-पथराई आँखें, सतरंगे पंखोंवाली, तुमने कहा था, तालाब की मछलियाँ, हजार-हजार बाँहोंवाली, पुरानी जूतियों का कोरस, भस्मांकुर (खण्डकाव्य) आदि।

उपन्यास – बलचनमा, रतिनाथ की चाची, नयी पौध, कुम्भीपाक, उग्रतारा आदि। सम्पादन-दीपक, विश्व-बन्धु पत्रिका।

मैथिली के ‘पत्र – हीन नग्न-गाछ’ काव्य-संकलन पर आपको साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिल चुका है।

काव्यगत विशेषताएँ

नागार्जुन के काव्य में जन भावनाओं की अभिव्यक्ति, देश-प्रेम, श्रमिकों के प्रति सहानुभूति, संवेदनशीलता तथा व्यंग्य की प्रधानता आदि प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं। अपनी कविताओं में आप अत्याचार-पीड़ित, त्रस्त व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति

प्रदर्शित करके ही सन्तुष्ट नहीं होते हैं, बल्कि उनको अनीति और अन्याय का विरोध करने की प्रेरणा भी देते हैं। व्यंग्य करने में आपको संकोच नहीं होता। तीखी और सीधी चोट (UPBoardSolutions.com) करनेवाले आप वर्तमान युग के प्रमुख व्यंग्यकार हैं। नागार्जुन जीवन के, धरती के, जनता के तथा श्रम के गीत गानेवाले कवि हैं, जिनकी रचनाएँ किसी वाद की सीमा में नहीं बँधी हैं।

भाषा – शैली–नागार्जुन जी की भाषा-शैली सरल, स्पष्ट तथा मार्मिक प्रभाव डालनेवाली है। काव्य-विषय आपके प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट उभरकर सामने आते हैं। आपके गीतों में जन- जीवन का संगीत है। आपकी भाषा तत्सम प्रधान शुद्ध खड़ीबोली है, जिसमें अरबी व फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।

अलंकार एवं छन्द – आपकी कविता में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग है। उपमा, रूपक, अनुप्रास आदि अलंकार ही देखने को मिलते हैं। प्रतीक विधान और बिम्ब-योजना भी श्रेष्ठ है।
साहित्य में स्थान-निस्सन्देह नागार्जुन जी का काव्य भाव-पक्ष तथा कला पक्ष की दृष्टि से हिन्दी साहित्य का अमूल्य कोष है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नागार्जुन ने अपनी कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ में प्रकृति के किस रूप के सौन्दर्य का वर्णन किया
उत्तर:
इस कविता में कवि ने हिमालय पर्वत पर स्थित कैलाश पर्वत की चोटी पर घिरते बादलों के सौन्दर्य का वर्णन किया है।

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प्रश्न 2.
‘महामेघ को झंझानिल से गरज-गरज भिड़ते देखा है’ पंक्ति में प्राकृतिक वर्णन के अतिरिक्त मुख्य भाव क्या है?
उत्तर:
कवि कहता है कि इस संसार में निरन्तर संघर्ष चल रहा है। मैंने असहाय जाड़ों में आकाश को छूने वाले कैलाश पर्वत की चोटी पर बहुत बड़े बादल-समूह को बर्फानी और तूफानी (UPBoardSolutions.com) हवाओं से गर्जना करके क्रोध प्रकट करते हुए युद्धरत देखा है। यद्यपि हवा बादल को उड़ा ले जाती है। बादल वायु के समक्ष शक्तिहीन है फिर भी उसको हवा के प्रति संघर्ष उसके अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।

कहने का भाव यह है कि सफलता की सम्पूर्ण सामर्थ्य व्यक्ति के अन्दर निहित रहती है, किन्तु अज्ञानतावश उस सामर्थ्य को न जानने के कारण और सफलता से वंचित रहने के कारण वह अपने ऊपर ही झुंझलाता है।

प्रश्न 3.
कवि ने नरेत्तर (मनुष्य से इतर) दम्पतियों का किस प्रकार वर्णन किया है?
उत्तर:
कवि नरेत्तर दम्पतियों का वर्णन करते हुए कहता है कि सुगन्धित फूलों को अपने बालों में लगाये हुए, अपने शंख जैसे गलों में, मणि की माला तथा कानों में नीलकमल के कर्णफूल पहने हुए, अंगूरी शराब पीकर हिरण की खाल पर पालथी मारकर बैठे हुए किन्नर युगल दर्शकों के हृदय को गद्गद करते हैं।

प्रश्न 4.
‘बादल को घिरते देखा है’ शीर्षक कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर:
‘बादल को घिरते देखा है’ कविता में हिमालय पर्वत पर स्थित कैलास पर्वत की चोटी पर घिरते बादलों के सौन्दर्य को वर्णन किया गया है। कवि के अनुसार निर्मल, चाँदी के समान सफेद और बर्फ से मण्डित पर्वत-चोटियों पर घिरते हुए बादलों से सम्पूर्ण वातावरण अत्यन्त मनोहारी दिखायी देने लगता है। कैलाश पर्वत पर छाये बड़े-बड़े बादल; तूफानी हवाओं से गरज-गरजकर दो-दो हाथ करते हैं। यद्यपि तूफानी हवाएँ (UPBoardSolutions.com) अन्ततः बादलों को उड़ा ले जाती हैं, फिर भी बादल अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहता है। आकाश में बादल छा जाने से किन्नर प्रदेश की शोभा अद्वितीय हो जाती है। सैकड़ों छोटे-बड़े झरने अपनी कल-कल ध्वनि से देवदार के वन को गुंजित कर देते हैं। इन वनों में किन्नर और किन्नरियाँ विलासितापूर्ण क्रीड़ाएँ करने लगती हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नागार्जुन किस युग के कवि हैं?
उत्तर:
आधुनिक (प्रगतिवाद) युग के कवि हैं।

प्रश्न 2.
नागार्जुन की दो रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
युगधारा, खून और शोले।

प्रश्न 3.
नागार्जुन की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
नागार्जुन की भाषा सहज, सरल, बोधगम्य, स्पष्ट, स्वाभाविक और मार्मिक प्रभाव डालने वाली है। उनकी शैली स्वाभाविक और पाठकों के हृदय में तत्सम्बन्धी भावनाओं को उदीप्त करनेवाली होती है।

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प्रश्न 4.
बादल को घिरते देखा है? शीर्षक कविता का सारांश लिखिए।
नोट-इस प्रश्न के उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या 4 देखें।

प्रश्न 5.
‘बादल को घिरते देखा है’ शीर्षक कविता का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
प्रस्तुत कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ के माध्यम से कवि ने हिमालय पर्वत पर स्थित कैलाश पर्वत की चोटी के सौन्दर्य को वर्णित करने की चेष्टा की है।

प्रश्न 6.
‘बादल को घिरते देखा है’ कविता का प्रतिपाद्य बताइए।
उत्तर:
‘बादल को घिरते देखा है’ कविता का प्रतिपाद्य हिमालय पर्वत पर स्थित कैलाश पर्वत की चोटी का सौन्दर्य वर्णन है।

काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध
1.
निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
(अ) श्यामल शीतल अमल सलिल में।
समतल देशों के आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त मधुर बिस तंतु खोजते, हंसों को तिरते देखा है।

(ब) मृदुल मनोरम अँगुलियों को वंशी पर फिरते देखा है।
उत्तर:
(अ) काव्य-सौन्दर्य-

  • कैलाश पर्वत अत्यन्त रमणीक स्थान है। गर्मी की उमस से व्याकुल होकर यहाँ दूर देश के पक्षी आते हैं और विचरण करते हैं।
  • शैली-गेय है।
  • भाषा-सहज, स्वाभाविक एवं बोधगम्य है।
  • अलंकार-अनुप्रास।

(ब) काव्य-सौन्दर्य-

  • कवि कह रहा है कि कोमल अँगुलियों द्वारा वंशीवादन से लोग थिरक उठते हैं। जैसे गोपिकाएँ भगवान् श्रीकृष्ण की मुरली पर मोहित हो जाती थीं।
  • शैली-गेय है।
  • भाषा-सहज, स्वाभाविक एवं बोधगम्य है।

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2.
निम्नलिखित शब्द युग्मों से विशेषण-विशेष्य अलग कीजिएअतिशय शीतल, स्वर्णिम कमलों, प्रणय कलह, रजत-रचित।
उत्तर:
विशेषण                                   विशेष्य 

अतिशय                    –                शीतल
प्रणय                         –               कलह
स्वर्णिम                      –               कमलों
रजत                          –               रचित

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UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 2 उद्भिज्ज परिषद् (गद्य – भारती)

UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 2 उद्भिज्ज परिषद् (गद्य – भारती)

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परिचय

वृक्ष मनुष्य के सबसे बड़े हितैषी हैं और मनुष्य ने सबसे अधिक अत्याचार भी वृक्षों पर ही किया है। प्रस्तुत पाठ में यह कल्पना की गयी है कि यदि मनुष्यों द्वारा किये जा रहे अत्याचार के विरोध में वृक्ष सभा करें तो उनके सभापति का भाषण कैसा होगा? वह मनुष्यों की भाषा में वृक्षों को किस रूप में सम्बोधित करेगा? प्रस्तुत पाठ में अश्वत्थ (पीपल) को वृक्षों और लताओं की सभा का सभापति बनाया गया है, जिसने मनुष्यों की हिंसा-वृत्ति और लालची स्वभाव के (UPBoardSolutions.com) कारण मनुष्य को पशुओं से ही नहीं तिनकों से भी निकृष्ट सिद्ध किया है और अपनी बात की पुष्टि में तर्क और प्रमाण भी दिये हैं।

पाठ-सारांश [2007, 10, 11, 14]

उद्भिज्जों की सभा में अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष वृक्षों और लताओं को सम्बोधित करते हुए मानवों की निकृष्टता बता रहा है –

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मानव की हिंसा-वृत्ति जीवों की सृष्टि में मनुष्य के समान धोखेबाज, स्वार्थी, मायावी, कपटी और हिंसक प्राणी कोई नहीं है; क्योंकि जंगली पशु तो मात्र पेट भरने के लिए हिंसाकर्म करते हैं। पेट भर जाने पर वे वन-वन घूमकर दुर्बल पशुओं को नहीं मारते, जब कि मानव की हिंसावृत्ति की सीमा का अन्त नहीं है। वह अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अपनी स्त्री, पुत्र, मित्र, स्वामी और बन्धु को भी खेल-खेल में मार डालता है। वह मन बहलाने के लिए जंगल में जाकर निरीह पशुओं को मारता है। उसकी पशु-हिंसा को देखकर तो जड़ वृक्षों का भी हृदय फट जाता है। दूसरे पशुओं की भक्ष्य वस्तुएँ नियमित हैं। मांसभक्षी पशु मांस ही खाते हैं, तृणभक्षी तृण (UPBoardSolutions.com) खाकर ही जीवन-निर्वाह करते हैं, परन्तु मनुष्यों में इस प्रकार के भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों के सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं हैं।

मानव का असन्तोष अपनी अवस्था में सन्तोष न प्राप्त करके मनुष्य-जाति स्वार्थ साधन में निरत है। वह धर्म, सत्य, सरलता आदि मनुष्योचित व्यवहार को त्यागकर झूठ, पापाचार और परपीड़न में लगी हुई है। उनकी विषय-लालसा बढ़ती ही रहती है, जिससे उन्हें शान्ति एवं सुख नहीं मिल पाता है। अपनी अवस्था में सन्तुष्ट रहने वाले पशुओं से मानव भला कैसे श्रेष्ठ हो सकता है; क्योंकि वह घोर-से-घोर पापकर्म करने में भी नहीं हिचकिचाता।

पशु से निकृष्ट और तृणों से भी निस्सार मानव मनुष्य केवल पशुओं से निकृष्ट ही नहीं है, वरन् वह तृणों से भी निस्सार है। तृण आँधी-तूफान के साथ निरन्तर संघर्ष करते हुए वीर पुरुषों की तरह शक्ति क्षीण होने पर ही भूमि पर गिरते हैं। वे कायर पुरुषों की तरह अपना स्थान छोड़कर नहीं भागते। लेकिन मनुष्य मन में भावी विपत्ति की आशंका करके कष्टपूर्वक जीते हैं और प्रतिकार का उपाय सोचते रहते हैं। निश्चित ही मनुष्ये पशुओं से भी निकृष्ट और (UPBoardSolutions.com) तृणों से भी निस्सार है। विधाता ने उसे बनाकर अपनी बुद्धि की कैसी श्रेष्ठता दिखायी है? तात्पर्य यह है कि मनुष्य को बनाकर विधाता ने कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीं किया है।

इस प्रकार अश्वत्थ (सभापति) ने हेतु और प्रमाणों द्वारा विशद् व्याख्यान देकर वृक्षों की सभा को विसर्जित कर दिया।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) अथ सर्वविधविटपिनां मध्ये स्थितः सुमहान् अश्वत्थदेवः वदति-भो भो वनस्पतिकुलप्रदीपा महापादपाः, कुसुमाकोमलदन्तरुचः लताकुलललनाश्च। सावहिताः शृण्वन्तु भवन्तः। अद्य मानववार्तव अस्माकं समालोच्यविषयः। सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतमा मानवा सृष्टिः, जीवसृष्टिप्रवाहेषु मानवा इव परप्रतारका, स्वार्थसाधनापरा, मायाविनः, कपटव्यवहारकुशला, हिंसानिरता जीवा न विद्यन्ते। भवन्तो नित्यमेवारण्यचारिणः सिंहव्याघ्रप्रमुखान् हिंस्रत्वभावनया प्रसिद्धान् श्वापदान् अवलोकयन्ति प्रत्यक्षम्। ततो भवन्त एव सानुनयं पृच्छ्यन्ते, कथयन्तु भवन्तो यथातथ्येन किमेते हिंसादिक्रियासु मनुष्येभ्यो भृशं गरिष्ठाः? श्वापदानां हिंसाकर्म जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजनकम्। प्रशान्ते तु जठारानले, सकृद् उपजातायां स्वोदरपूर्ती, न हि ते करतलगतानपि हरिणशशकादीन् उपघ्नन्ति। न वा तथाविध दुर्बलजीवघातार्थम् (UPBoardSolutions.com) अटवीतोऽटवीं परिभ्रमन्ति। [2007]

अथ सर्वविध ………………………… भृशं गरिष्ठाः [2008]
सर्वासु सृष्टिधारासु …………………….. भृशं गरिष्ठाः [2007]

शब्दार्थ अथ = इसके बाद विटपिनाम् = वृक्षों के अश्वत्थदेवः = पीपल देवता। कुसुमकोमलदन्तरुचः = फूलों के समान कोमल दाँतों की कान्ति वाली। लताकुलललनाश्च = और बेलों के वंश की नारियों। सावहिताः = सावधानी से। मानववातैव = मनुष्य की बात ही। समालोच्यविषयः = आलोचना करने योग्य विषय। निकृष्टतमाः = निकृष्टतम, सर्वाधिक निम्न। परप्रतारकाः = दूसरों को ठगने वाले। मायाविनः = कपट (माया) से भरे हुए। हिंसानिरताः = हत्या करने में लगे हुए। नित्यमेवारण्यचारिणः (नित्यम् + एव + अरण्यचारिणः) = नित्य ही वन में घूमने वालों को। श्वापदान् = हिंसक पशुओं को। अवलोकयन्ति = देखते हैं। सानुनयम् = विनयपूर्वका पृच्छ्य न्ते = पूछे जा रहे हैं। यथातथ्येन = वास्तविक रूप में। भृशम् = अत्यधिक गरिष्ठाः = कठोर। जठरानलनिर्वाणमात्रप्रयोजनकम् = पेट की क्षुधा शान्त करने (UPBoardSolutions.com) मात्र के प्रयोजन वाला। सकृत् = एक बार। करतलगतानपि = हाथ में आये हुओं को भी। उपघ्नन्ति = मारते हैं। अटवीतः अटवीम् = जंगल से जंगल में। परिभ्रमन्ति = घूमते हैं।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘उदिभज्ज-परिषद्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में पीपल के वृक्ष द्वारा मनुष्यों की निकृष्टता का वर्णन किया जा रहा है।

अनुवाद इसके बाद सभी प्रकार के वृक्षों के मध्य में स्थित अत्यन्त विशाल पीपल देवता कहता है कि हे वनस्पतियों के कुल के दीपकस्वरूप बड़े वृक्षो! फूलों के समान कोमल दाँतों की कान्ति वाली लतारूपी कुलांगनाओ! आप सावधान होकर सुनें। आज मानवों की बात ही हमारी आलोचना का विषय है। सृष्टि की सम्पूर्ण धाराओं में मानवों की सृष्टि सर्वाधिक निकृष्ट है। जीवों के सृष्टि प्रवाह में मानवों के समान दूसरों को धोखा देने वाले, स्वार्थ की पूर्ति में लगे हुए, मायाचारी, कपट-व्यवहार में चतुर और हिंसा में लीन जीव नहीं हैं। आप सदैव ही जंगल में घूमने वाले सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक भावना से प्रसिद्ध हिंसक जीवों को प्रत्यक्ष देखते हैं। इसलिए आपसे ही विनयपूर्वक पूछते हैं कि वास्तविक रूप में आप ही बताएँ, क्या हिंसा आदि कार्यों में ये मनुष्यों से अधिक कठोर हैं? हिंसक जीवों का हिंसा-कर्म पेट की भूख मिटानेमात्र के प्रयोजन वाला है। पेट की क्षुधाग्नि के (UPBoardSolutions.com) शान्त हो जाने पर, एक बार अपने पेट के भर जाने पर, वे हाथ में आये हुए हिरन व खरगोश आदि को भी नहीं मारते हैं और न ही उस प्रकार के कमजोर जीवों को मारने के लिए एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमते रहते हैं।

(2) मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः निरवसाना च। यतोयत आत्मनोऽपकर्षः समाशङ्कयते तत्र-तत्रैव मानवानां हिंसावृत्तिः प्रवर्तते। स्वार्थसिद्धये मानवाः दारान् मित्रं, प्रभु, भृत्यं, स्वजनं, स्वपक्षं, चावलीलायें उपघ्नन्ति। पशुहत्या तु तेषामाक्रीडनं, केवलं चित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छ निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति। तेषां पशुप्रहारव्यापारम् आलोक्य जडानामपि अस्माकं विदीर्यते हृदयम्, अन्यच्च पशूनां भक्ष्यवस्तूनि प्रकृत्या नियमितान्येव न हि पशवो भोजनव्यापारे प्रकृतिनियममुल्लङ्घयन्ति। तेषु ये मांसभुजः ते मांसमपहाय नान्यत् आकाङ्क्षन्ति। ये पुनः फलमूलाशिनस्ते तैरेव जीवन्ति। मानवानां न दृश्यते तादृशः कश्चिन्निर्दिष्टो नियमः। [2007, 14, 15)

पशुहत्या तु ………………………………… नियममुल्लङ्घयन्ति। [2007]
मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु ………………………………….. प्रकृत्या नियमितान्येव। [2010]
स्वार्थसिद्धये मानवः …………………………………… निर्दिष्टो नियमः।

शब्दार्थ निरवधिः = सीमारहित निरवसाना = समाप्तिरहित। यतोयतः = जहाँ-जहाँ से। अपकर्षः = पतन। शङ्कयते = शंका करता है। तत्र-तत्रैव = वहाँ-वहाँ ही। प्रवर्तते = बढ़ती है। दारान् = पत्नियों को। प्रभुम् = स्वामी को भृत्यम् = सेवक को। लीलायै = मनोरंजन के लिए। उपघ्नन्ति = मार देते हैं। आक्रीडनम् = खेल। चित्तविनोदाय =मन के बहलाव के लिए। उपगम्य = पहुँचकर। पशु-धातम् = पशु-हत्या। आलोक्य = देखकर विदीर्यते = फटता है। अन्यच्च (अन्यत् + च) = और दूसरी ओर। मांसभुजः = मांस खाने वाले। अपहाय = छोड़कर। नान्यत् = अन्य नहीं। फलमूलाशिनस्ते (फल + मूल + अशिनः + ते) = फल और जड़ खाने वाले थे। तैरेव (तैः + एव) = उनसे ही।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मनुष्यों की हिंसावृत्ति की असीमता और अनियमितता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद मनुष्यों की हिंसावृत्ति तो सीमारहित और समाप्त न होने वाली है। मनुष्य जिस-जिससे अपने पतन की आशंका करता है, वहीं-वहीं मनुष्यों की हिंसावृत्ति प्रारम्भ हो जाती है। स्वार्थ पूरा करने के लिए मनुष्य स्त्री, मित्र, स्वामी, सेवक, अपने सम्बन्धी और अपने पक्ष वाले को अत्यधिक सरलता से मार देता है। पशुओं की हिंसा तो उनका खेल है। केवल मनोरंजन के लिए बड़े जंगल में जाकर वे इच्छानुसार निर्दयता से पशुओं को मारते हैं। उनके पशुओं को मारने के कार्य को देखकर हम जड़ पदार्थों का भी हृदय फट जाता है। दूसरे, पशुओं की खाद्य वस्तुएँ स्वभाव (प्रकृति) से नियमित ही हैं। निश्चय ही पशु भोजन के कार्य में प्रकृति के नियम का उल्लंघन नहीं करते हैं। (UPBoardSolutions.com) उनमें जो मांसभोजी हैं, वे मांस को छोड़कर दूसरी वस्तु नहीं चाहते हैं। और जो फल-मूल खाने वाले हैं, वे उन्हीं से जीवित रहते हैं। मनुष्यों का उस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं दिखाई पड़ता है।

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(3) स्वावस्थायां सन्तोषमलभमाना मनुजन्मानः प्रतिक्षणं स्वार्थसाधनाय सर्वात्मना प्रवर्तन्ते, न धर्ममनुधावन्ति, न सत्यमनुबध्नन्ति तृणवदुपेक्षन्ते स्नेहम्, अहितमिव परित्यजन्ति आर्जवम्, किञ्चिदपिलज्जन्ते अनृतव्यवहारात्, न स्वल्पमपि बिभ्यति पापाचरेभ्यं, न हि क्षणमपि विरमन्ति परपीडनात्। यथा यथैव स्वार्थसिद्धर्घटते परिवर्धते विषयपिपासा। निर्धनः शतं कामयते, शती दशशतान्यभिलषति, सहस्राधिपो लक्षमाकाङ्क्षति, इत्थं क्रमश एव मनुष्याणामाशा वर्धते। विचार्यतां तावत्, ये खलु स्वप्नेऽपि तृप्तिसुखं नाधिगच्छन्ति, सर्वदैव नवनवाशाचित्तवृत्तयो भवन्ति, सम्भाव्यते तेषु कदाचिदपि स्वल्पमात्रं शान्तिसुखम्? येषु क्षणमपि शान्तिसुखं नाविर्भवति ते खलु दुःखदुःखेनैव समयमतिवाहयन्ति इत्यपि किं वक्तव्यम्? कथं वा निजनिजावस्थायामेव तृप्तिमनुभवद्भ्यः पशुभ्यस्तेषां श्रेष्ठत्वम्? यद्धि विगर्हितं कर्म सम्पादयितुं पशवोऽपि लज्जन्ते तत्तु मानवानामीषत्करम् । नास्तीह किमपि अतिघोररूपं महापापकर्म यत्कामोपहतचित्तवृत्तिभिः मनुष्यैः नानुष्ठीयते। निपुणतरम् अवलोकयन्नपि अहं न तेषां पशुभ्यः कमपि उत्कर्षम् परमतिनिकृष्टत्वमेव अवलोकयामि।

स्वावस्थायां सन्तोषम् …………………………………. परपीडनात्। [2008]
स्वावस्थायां सन्तोषम् …………………………………. मनुष्याणाम् आशा वर्धते। [2011, 14]

शब्दार्थ अलभमाना = न प्राप्त करते हुए। मनुजन्मानः = मनुष्य योनि में जन्मे। सर्वात्मना = पूरी तौर से। प्रवर्तन्ते = लगे रहते हैं। अनुबध्नन्ति = अनुसरण करते हैं। तृणवदुपेक्षन्ते = तिनके के समान उपेक्षा करते हैं। आर्जवम् = सरलता को। अपलज्जन्ते = लज्जित होते हैं। अनृत = झूठे, असत्य। बिभ्यति = डरते हैं। विरमन्ति = रुकते हैं। घटते = पूरी होती है। परिवर्धते = बढ़ती है। कामयते = चाहता है। लक्षम् = लांख को। आकाङ्क्षति = चाहता है। विचार्यताम् = विचार कीजिए। नाधिगच्छन्ति (न + अधिगच्छन्ति) = नहीं प्राप्त करते हैं। कदाचिदपि (कदाचिद् + अपि) = कभी भी। आविर्भवति = उत्पन्न होता है। अतिवाहयन्ति = व्यतीत करते हैं। (UPBoardSolutions.com) विगर्हितम् = निन्दित। सम्पादयितुम् = पूरा करने के लिए। ईषत्करम् = तुच्छ कार्य। कामोपहतचित्तवृत्तिभिः = अभिलाषा से दूषित मनोवृत्ति वालों के द्वारा अनुष्ठीयते = किया जाता है। अवलोकयन् = देखते हुए। उत्कर्षम् = श्रेष्ठता को। परमतिनिकृष्टत्वमेव = अपितु अधिक नीचता को ही। अवलोकयामि = देखता हूँ।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में पीपल द्वारा मनुष्यों के जघन्य कृत्यों को बताया जा रहा है।

अनुवाद अपनी अवस्था में सन्तोष को न प्राप्त करने वाले मनुष्य प्रति क्षण स्वार्थसिद्धि के लिए पूरी तरह से लगे रहते हैं, धर्म के पीछे नहीं दौड़ते हैं, सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, स्नेह की तृण के समान उपेक्षा करते हैं, सरलता को अहित के समान त्याग देते हैं, झूठे व्यवहार से कुछ भी लज्जित नहीं होते हैं, पापाचारों से थोड़ा भी नहीं डरते हैं, दूसरों को पीड़ित करने से क्षणभर भी नहीं रुकते हैं। जैसे-जैसे स्वार्थसिद्धि पूर्ण होती जाती है, विषयों की प्यास बढ़ती जाती है। धनहीन सौ रुपये की इच्छा करता है, सौ रुपये वाला हजार रुपये चाहता है, हजार रुपये का स्वामी लाख रुपये चाहता है, इस प्रकार क्रमशः (UPBoardSolutions.com) मनुष्य की इच्छा बढ़ती जाती है। विचार तो कीजिए, जो निश्चित रूप से स्वप्न में भी तृप्ति के सुख को प्राप्त नहीं करते हैं, सदा ही नयी-नयी इच्छा से जिनका मन भरा रहता है, क्या उनमें कभी भी थोड़ी भी शान्ति के सुख की सम्भावना होती है? जिनमें क्षणभर भी शान्ति के सुख का उदय नहीं होता है, वे निश्चय ही महान् दु:खों में अपना समय बिताते हैं। इस विषय में भी क्या कहना चाहिए? अपनी-अपनी अवस्था में ही तृप्ति का अनुभव करने वाले पशुओं से उनकी श्रेष्ठता कैसे हो सकती है? जिस निन्दित कार्य को करने के लिए पशु भी लज्जित होते हैं, वह मनुष्यों के लिए तुच्छ काम है। इस संसार में अत्यन्त भयानक ऐसा कोई बड़ा पापकर्म नहीं है, जो लालसा से दूषित चित्तवृत्ति वाले मनुष्यों के द्वारा न किया जाता हो। अच्छी तरह देखता हुआ भी मैं पशुओं से उनके किसी उत्कर्ष को नहीं, अपितु अत्यन्त नीचता को ही देखता हूँ।

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(4) न केवलमेते पशुभ्यो निकृष्टास्तृणेभ्योऽपि निस्सारा इव। तृणानि खलु वात्यया सह स्वशक्तितः अभियुध्य वीरपुरुषा इव शक्तिक्षये क्षितितले पतन्ति, न तु कदाचित्, कापुरुषा इव स्वस्थानम् अपहाय प्रपलायन्ते। मनुष्याः पुनः स्वचेतसाग्रत एव भविष्यत्काले सङ्घटिष्यमाणं कमपि विपत्पातम् आकलय्य (UPBoardSolutions.com) दुःखेन समयमतिवाहयन्ति, परिकल्पयन्ति च पर्याकुला बहुविधान् प्रतीकारोपायान्, येन मनुष्यजीवने शान्तिसुखं मनोरथपथादपि क्रान्तमेव। अथ ये तृणेभ्योऽप्यसाराः पशुभ्योऽपि निकृष्टतराश्च, तथा च तृणादिसृष्टेरनन्तरं तथाविधं जीवनिर्माणं विश्वविधातुः कीदृशं बुद्धिप्रकर्षं प्रकटयति।

इत्येवं हेतुप्रमाणपुरस्सरं सुचिरं बहुविधं विशदं च व्याख्याय सभापतिरश्वत्थदेव उद्भिज्जपरिषदं विसर्जयामास।।

न केवलमेते। ……………………….. प्रपलायन्ते।
तृणानि खलु ……………………… पथादपि क्रान्तमेव। [2007]

शब्दार्थ निकृष्टतरास्तृणेभ्योऽपि =अधिक नीच हैं, तिनकों से भी। निस्साराः = सारहीन| वात्यया सह = आँधी के साथ। स्वशक्तितः = अपनी शक्ति से। अभियुध्य = युद्ध करके। शक्तिक्षये = शक्ति के नष्ट हो जाने पर। कापुरुषाः = कायर। अपहाय = छोड़कर। प्रपलायन्ते = भागते हैं। सङ्कटिष्यमाणम् = भविष्य में घटित होने वाले। विपत्पातम् = विपत्ति के आगमन को। आकलय्य = विचार करके। अतिवाहयन्ति = व्यतीत करते हैं। प्रतीकारोपायान् = रोकने के उपायों को। मनोरथपथादपि = इच्छा के मार्ग अर्थात् मन से भी। क्रान्तम् = हट गया। विश्वविधातुः = संसार की रचना करने वाले ब्रह्माजी के बुद्धिप्रकर्षम् = बुद्धि की श्रेष्ठता। प्रकटयति = प्रकट करता है। इत्येवम् = इस प्रकार हेतुप्रमाणपुरस्सरं = कारण के प्रमाणों को सामने रखकर। सुचिरं =अधिक समय तक विशदम् = विस्तृत, विस्तारपूर्वक व्याख्याय = व्याख्यायित करके विसर्जयामास = समाप्त कर दी।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मानव को पशुओं से ही नहीं, अपितु तृणों से भी निकृष्ट बताकर मनुष्य की निस्सारता का दिग्दर्शन कराया गया है।

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अनुवाद ये केवल पशुओं से ही निकृष्ट नहीं हैं, तृणों से भी सारहीन हैं। तिनके निश्चय ही आँधी के साथ अपनी शक्ति से युद्ध करके वीर पुरुषों की तरह शक्ति के नष्ट हो जाने पर ही पृथ्वी पर गिरते हैं, कभी भी कायर पुरुषों की तरह अपने स्थान को छोड़कर नहीं भागते हैं। मनुष्य अपने चित्त में पहले ही भविष्यकाल में घटित होने वाली किसी विपत्ति के आने (पड़ने) का विचार करके कष्ट से समय बिताते हैं और व्याकुल होकर अनेक प्रकार के उपायों को सोचते हैं, जिससे मनुष्य जीवन में शान्ति और सुख मनोरथ के रास्ते से भी हट जाता है। इस प्रकार जो तृणों से भी सारहीन हैं और पशुओं से भी नीच हैं तथा तृणादि की सृष्टि के बाद उस प्रकार के जीव का निर्माण करना, संसार के निर्माता की किस प्रकार की बुद्धि की श्रेष्ठता को प्रकट करता है? इस प्रकार हेतु और प्रमाण देकर बहुत देर तक अनेक प्रकार से विशद् व्याख्या करके सभापति पीपल ने वृक्षों की सभा को विसर्जित (समाप्त) कर दिया।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्यों की हिंसा-वृत्ति कैसी होती है?
उत्तर :
मनुष्यों की हिंसावृत्ति की सीमा का कोई अन्त नहीं है। मनुष्य स्वार्थसिद्धि के लिए स्त्री, पुत्र, स्वामी और बन्धु को भी अनायास मार डालता है और केवल मन बहलाने के लिए जंगल में जाकर पशुओं को मारता है। इनकी पशु-हिंसा को देखकर तो जड़ वृक्षों का हृदय भी फट जाता है।

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प्रश्न 2.
मनुष्य को किनसे निकृष्ट और किनसे निस्सार बताया गया है?
उत्तर :
मनुष्य केवल पशुओं से ही निकृष्ट नहीं है, वरन् वह तृणों से भी निस्सार है। तृण आँधी के साथ निरन्तर लड़ते हुए वीर पुरुषों की तरह शक्ति क्षीण होने पर ही भूमि पर गिरते हैं। वे कायर पुरुषों की तरह अपना स्थान छोड़कर नहीं भागते। लेकिन मनुष्य पहले ही मन में भावी विपत्ति की आशंका (UPBoardSolutions.com) करके कष्टपूर्वक जीते हैं और उसके प्रतिकार का उपाय सोचते रहते हैं।

प्रश्न 3.
‘उद्भिज्ज-परिषद्’ पाठ के आधार पर वृक्षों के महत्त्व पर आलेख लिखिए। [2012]
उत्तर :
[संकेत प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर ‘जीवनं निहितं वने” नामक पाठ के आधार पर लिखा जा सकता है, प्रस्तुते पाठ के आधार पर नहीं। इस प्रश्न का उत्तर ‘जीवनं निहितं वने’ नामक पाठ से ही पढ़े।]

प्रश्न 4.
मनुष्य पशुओं से निकृष्ट क्यों है?
उत्तर :
मनुष्य पशुओं से निकृष्ट इसलिए है, क्योंकि पशु तो मात्र अपना पेट भरने के लिए हिंसा-कर्म करते हैं। लेकिन मनुष्य तो पेट भर जाने पर मात्र मनोरंजन के लिए वन-वन घूमकर दुर्बल पशुओं को मारता रहता है।

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प्रश्न 5.
वृक्षों की सभा का सभापतित्व किसने किया? उसने मनुष्यों में क्या-क्या दोष गिनाये हैं?
या
वृक्षों की सभा में सभापति कौन था? [2010, 11, 12, 14]
उत्तर :
वृक्षों की सभा को सभापतित्व अश्वत्थ (पीपल) के एक विशाल वृक्ष ने किया। उसने कहा कि मनुष्य अपनी अवस्था से सन्तुष्ट न रहकर सदैव स्वार्थ-साधन में लगा रहता है। वह सत्य, धर्म, सरलता आदि व्यवहारों को छोड़कर झूठ, पापाचार, परपीड़न आदि में लगा रहता है। उसकी विषय-लालसा (UPBoardSolutions.com) निरन्तर बढ़ती ही रहती है, जिससे उसे शान्ति व सुख की प्राप्ति नहीं होती। वह घोर-से-घोर पापकर्म करने में भी नहीं हिचकिचाता। ये ही दोष वृक्षों की सभा में सभा के सभापति द्वारा गिनाये गये।

प्रश्न 6.
हिंसक जीवों की हिंसा और मनुष्य की हिंसा में क्याअन्तर है? भोजन के विषय में पशु-पक्षियों के नियम बताइए। [2007]
या
मनुष्यों एवं पशुओं के हिंसा-कर्म का क्या प्रयोजन है? [2012, 15]
उत्तर :
हिंसक जीवों की हिंसा केवल पेट की भूख शान्त करने के लिए ही होती है। भूख शान्त हो जाने पर वे हिंसा नहीं करते। लेकिन मनुष्य अपनी भूख शान्त करने के लिए तो हिंसा करता ही है अपितु उसके बाद वह मनोरंजन के लिए भी हिंसा करता है। हिंसा तो उसके लिए खेल के समान है। भोजन के विषय में पशु-पक्षियों के निश्चित नियम हैं। मांसाहारी पशु मांस को छोड़कर दूसरी वस्तु नहीं खाते और फल-मूल खाने वाले उसी को खाते हैं, वे मांस नहीं खाते।

प्रश्न 7.
वृक्षों की सभा का विषय क्या है? [2011,14]
उत्तर :
वृक्षों की सभा का विषय मनुष्यों की हिंसा-वृत्ति और उनका लालची स्वभाव है। इस कारण वृक्षों ने मनुष्यों को पशुओं से ही नहीं वरन् तिनकों से भी निकृष्ट सिद्ध किया है।

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प्रश्न 8.
उद्भिज्ज-परिषद् में निकृष्टतम जीव किसको माना गया है? [2010]
उत्तर :
‘उद्भिज्ज-परिषद्” पाठ में निकृष्टतम जीव मनुष्य को माना गया है।

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UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 अग्रपूजा (खण्डकाव्य)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 अग्रपूजा (खण्डकाव्य)

These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Hindi. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 अग्रपूजा (खण्डकाव्य).

प्रश्न 1
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का सारांश लिखिए। [2009, 12]
या
‘अग्रपूजा’ का कथा-सार अपने शब्दों में लिखिए। [2010, 11, 12, 14]
या
‘अग्रपूजा’ के कथानक का सारांश लिखिए। [2011, 12, 13, 17]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। [2010, 11, 12, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटना का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
श्री रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित ‘अग्रपूजा’ नामक खण्डकाव्य का कथानक श्रीमद्भागवत और महाभारत से लिया गया है। इसमें भारतीय जनजीवन को प्रभावित करने वाले महापुरुष श्रीकृष्ण के पावन चरित्र पर विविध दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला गया है। (UPBoardSolutions.com) युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा की थी, इसी आधार पर खण्डकाव्य का नामकरण हुआ है। सम्पूर्ण काव्य का कथानक छः सर्गों में विभक्त है। उनका सारांश इस प्रकार है

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‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का प्रथम सर्ग ‘पूर्वाभास है। इस सर्ग की कथा का प्रारम्भ दुर्योधन द्वारा समस्त पाण्डवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगवाने से होता है। दुर्योधन को पूर्ण विश्वास हो गया कि पाण्डव जलकर भस्म हो गये, परन्तु पाण्डवों ने उस स्थान से जीवित निकलकर दुर्योधन की चाल को विफल कर दिया। वे वेश बदलकर घूमते हुए द्रौपदी के स्वयंवर-मण्डप में पहुँचे और अर्जुन ने आसानी से मत्स्य-वेध करके स्वयंवर की शर्त पूर्ण की। कुन्ती की इच्छा और व्यास जी के अनुमोदन पर द्रौपदी का विवाह पाँचों भाइयों से कर दिया गया।

दुर्योधन पाण्डवों को जीवित देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगा। धृतराष्ट्र भीष्म, द्रोण और विदुर । से परामर्श करके सत्य-न्याय की रक्षा के लिए पाण्डवों को आधा राज्ये देने हेतु सहमत हो गये। दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन और शकुनि मिलकर सोचने लगे कि पाण्डवों से सदा-सदा के लिए कैसे मुक्ति मिले।

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का दूसरा सर्ग ‘सभारम्भ’ है। सर्ग का प्रारम्भ श्रीकृष्ण को साथ लेकर पाण्डवों के खाण्डव वन पहुँचने से होता है। वह विकराल वन था। श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से उस वन-प्रदेश में पाण्डवों के लिए इन्द्रपुरी जैसे भव्य नगर का निर्माण कराया। (UPBoardSolutions.com) इस क्षेत्र का नाम इन्द्रप्रस्थ रखा गया। हस्तिनापुर से आये हुए अनेक नागरिक और व्यापारी वहाँ बस गये। व्यास भी वहाँ आये। युधिष्ठिर को भली-भाँति प्रतिष्ठित करने के बाद व्यास और कृष्ण इन्द्रप्रस्थ से चले गये। |

युधिष्ठिर का राज्य समृद्धि की ओर बढ़ चला। उनके शासन की कीर्ति सर्वत्र (सुरलोक और पितृलोक तक) प्रसारित हो गयी।

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का तीसरा सर्ग ‘आयोजन’ है। सर्ग की आरम्भिक कथा के अनुसार पाण्डवों ने सोचा कि नारी (द्रौपदी) कहीं उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बने; अत: नारद जी की सलाह से उन्होंने द्रौपदी को एक-एक वर्ष तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय कर लिया गया कि जब द्रौपदी किसी अन्य पति के साथ हो और दूसरा कोई भाई वहाँ पहुँचकर उन्हें देख ले तो वह बारह वर्षों तक वन में रहेगा। इस नियम-भंग के कारण अर्जुन बारह वर्षों के लिए वन को चले गये।

अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अर्जुन द्वारको पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके वह इन्द्रप्रस्थ लौटे। युधिष्ठिर का राज्य सुख और शान्ति से चल रहा था। एक दिन देवर्षि नारद इन्द्रप्रस्थ नगरी में आये। उन्होंने पाण्डु का सन्देश देते हुए युधिष्ठिर को बताया कि यदि वे राजसूय यज्ञ करें तो उन्हें इन्द्रलोक में निवास मिल जाएगा। आयु पूर्ण हो जाने पर युधिष्ठिर भी वहाँ जाएँगे। युधिष्ठिर ने सलाह के लिए श्रीकृष्ण को द्वारका से बुलवाया और राजसूय यज्ञ की बात बतायी। श्रीकृष्ण ने सलाह दी कि जब तक जरासन्ध का वध न होगा, राजसूय यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता। जरासन्ध को सम्मुख युद्ध में जीत पाना सम्भव नहीं था। श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को तीनों का परिचय दिया और किसी से भी मल्लयुद्ध करने के लिए ललकारा। जरासन्ध ने भीम से मल्लयुद्ध करना स्वीकार कर लिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम ने उसकी एक टाँग को पैर से दबाकर दूसरी टाँग ऊपर को उठाते हुए बीच से चीर दिया। उसके पुत्र सहदेव को वहाँ का राजा बनाया। युधिष्ठिर ने चारों (UPBoardSolutions.com) भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशाओं में भेजा। इस प्रकार अब सम्पूर्ण भारत युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गया और युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की योजनाबद्ध तैयारी प्रारम्भ कर दी।

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‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का चतुर्थ सर्ग प्रस्थान है। इस सर्ग में राजसूय यज्ञ से पूर्व की तैयारियों का वर्णन किया गया है। राजसूय यज्ञ के लिए चारों ओर से राजागण आये। श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए अर्जुन स्वयं द्वारका गये। उन्होंने प्रार्थना की कि आप चलकर यज्ञ को पूर्ण कराइए और पाण्डवों के मान-सम्मान की रक्षा कीजिए। श्रीकृष्ण ने सोचा कि इन्द्रप्रस्थ में एकत्र राजाओं में कुछ ऐसे भी हैं, जो मिलकर गड़बड़ी कर सकते हैं; अतः वे अपनी विशाल सेना लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये। युधिष्ठिर ने नगर के बाहर ही बड़े सम्मान के साथ उनका स्वागत किया। श्रीकृष्ण के प्रभाव और स्वागत-समारोह को देखकर रुक्मी और शिशुपाल ईर्ष्या से तिलमिला उठे।

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का पञ्चम सर्ग ‘राजसूय यज्ञ’ है। राजसूय यज्ञ प्रारम्भ होने से पूर्व सभी राजाओं ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। युधिष्ठिर ने यज्ञ की सुचारु व्यवस्था के लिए पहले से ही स्वजनों को सभी काम बाँट दिये थे। श्रीकृष्ण ने स्वेच्छा से ही ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। जब भीष्म ने गम्भीर वाणी में सभासदों से पूछा, कृपया बताएँ कि अग्रपूजा का अधिकारी कौन है? सहदेव ने तुरन्त कहा कि यहाँ श्रीकृष्ण ही परम-पूज्य और प्रथम पूज्य हैं। भीष्म ने सहदेव का समर्थन किया। सभी लोगों ने उनका एक साथ अनुमोदन किया। केवल शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करते हुए इस बात का विरोध किया। अन्ततः सहदेव ने कहा कि मैं श्रीकृष्ण को सम्मानित करने जा रहा हूँ, जिसमें भी सामर्थ्य हो वह मुझे रोक ले। शिशुपाल तुरन्त क्रोधातुर होकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। श्रीकृष्ण मुस्कराते रहे और तब वह श्रीकृष्ण के प्रति नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा। श्रीकृष्ण ने उसे सावधान किया और कहा कि फूफी को वचन देने के कारण ही मैं तुझे क्षमा करता जा रहा हूँ। फिर भी शिशुपाल ने माना और उनकी कटु निन्दा करता रहा, अन्ततः श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।

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षष्ठ सर्ग ‘उपसंहार’ में उल्लिखित शिशुपाल और कृष्ण के विवाद का यज्ञ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यज्ञ निर्विघ्न चलता रहा। व्यास, धौम्य आदि सोलह तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने यज्ञ-कार्य सम्पन्न किया। युधिष्ठिर ने उन्हें दान-दक्षिणा देकर उनका यथोचित सत्कार किया। (UPBoardSolutions.com) तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने भी युधिष्ठिर को हार्दिक आशीर्वाद दिया, जिसे युधिष्ठिर ने विनम्र भाव से शिरोधार्य किया।

प्रश्न 2
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग ‘पूर्वाभास’ का सारांश लिखिए। [2013, 14, 15]
उत्तर
दुर्योधन ने समस्त पाण्डवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगवा दी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि पाण्डव जलकर भस्म हो गये, परन्तु पाण्डवों ने उस स्थान से जीवित निकलकर दुर्योधन की चाल को विफल कर दिया। वे वेश बदलकर घूमते हुए द्रौपदी के स्वयंवर-मण्डप में पहुँचे और अर्जुन ने आसानी से मत्स्य-वेध करके स्वयंवर की शर्त पूर्ण की। राजाओं ने ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन पर आक्रमण कर दिया, किन्तु अर्जुन और भीम ने अपने पराक्रम से उन्हें परास्त कर दिया। बलराम और श्रीकृष्ण भी उस स्वयंवर में उपस्थित थे। उन्होंने छिपे हुए वेश में भी पाण्डवों को पहचान लिया और रात में उनके निवास-स्थल पर उनसे मिलने हेतु गये। राजा द्रुपद को जब अपने पुत्र से पाण्डवों की वास्तविकतो ज्ञात हुई तो द्रुपद ने उन्हें राजभवन में आमन्त्रित किया और कुन्ती की इच्छा और (UPBoardSolutions.com) व्यास जी के अनुमोदन पर द्रौपदी का विवाह पाँचों भाइयों से कर दिया गया।

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इधर दुर्योधन पाण्डवों को जीवित देखकर ईष्र्या की अग्नि में जलने लगा। शकुनि उसे और भी उकसाने लगा। वह कर्ण को लेकर धृतराष्ट्र के पास पहुँचा और पाण्डवों के विनाश की अपनी इच्छा पर चर्चा की। धृतराष्ट्र ने उसे अपने भाई पाण्डवों के साथ प्रेमपूर्वक रहने की सलाह दी, लेकिन वह नहीं माना। कर्ण ने उसे पाण्डवों को युद्ध करके जीत लेने हेतु प्रेरित किया। लेकिन उसने कर्ण की सलाह भी नहीं मानी। अन्ततः धृतराष्ट्र चिन्तित होकर भीष्म, द्रोण और विदुर से परामर्श करके सत्य-न्याय की रक्षा के लिए पाण्डवों को आधा राज्य देने हेतु सहमत हो गये। विदुर कुन्ती, द्रौपदी सहित पाण्डवों को साथ लेकर हस्तिनापुर आये। जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर उनसे खाण्डव वन को पुनः बसाने के लिए कहा। श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से पाण्डवों को आशीर्वाद देने के लिए कहा। धृतराष्ट्र ने खेद प्रकट करते हुए प्रसन्न मन से उन्हें विदा कर दिया। दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन और शकुनि मिलकर सोचने लगे कि (UPBoardSolutions.com) पाण्डवों से सदा-सदा के लिए कैसे मुक्ति मिले।

प्रश्न 3
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के सभारम्भ सर्ग (द्वितीय सर्ग) का सारांश लिखिए। [2010, 12]
उत्तर
श्रीकृष्ण को साथ लेकर पाण्डव खाण्डव वन पहुँचे। वह विकराल वन था। श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से उस वन-प्रदेश में पाण्डवों के लिए इन्द्रपुरी जैसे भव्य नगर का निर्माण कराया। नगर रक्षा के लिए शतघ्नी शक्ति, शस्त्रागार, सैनिक गृह आदि निर्मित किये गये। सर्वत्र सुरम्य उद्यान और लम्बे-चौड़े भव्य मार्ग थे। वहाँ निर्मल जल से परिपूर्ण नदियाँ और कमल से सुशोभित सरोवर थे। इस क्षेत्र का नाम इन्द्रप्रस्थ रखा गया। हस्तिनापुर से आये हुए अनेक नागरिक और व्यापारी वहाँ बस गये। व्यास भी वहाँ आये। युधिष्ठिर को भली-भाँति प्रतिष्ठित करने के बाद व्यास और कृष्ण इन्द्रप्रस्थ से चले गये। श्रीकृष्ण जैसा हितैषी पाकर उनके उपकारों से पाण्डव अपने आपको धन्य मानते थे। युधिष्ठिर ने सत्य, न्याय और प्रेम के आधार पर आदर्श शासन किया। उन्होंने रामराज्य को आदर्श मानकर प्रजा के लिए पृथ्वी पर स्वर्ग उतार लाने जैसे कार्य किये। युधिष्ठिर का राज्य समृद्धि की ओर बढ़ चला। उनके शासन की कीर्ति सर्वत्र (सुरलोक और पितृलोक तक) प्रसारित हो गयी।

प्रश्न 4
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आयोजन सर्ग’ (तृतीय सर्ग) का कथासार (कथावस्तु, कथानक) अपने शब्दों में लिखिए। [2009, 10, 11, 13, 14, 17]
या
‘अग्रपूजा के आधार पर जरासन्ध वध को वर्णन कीजिए। [2017, 18]
उत्तर
संसार में धन, धरती और स्त्री के कारण संघर्ष होते आये हैं। कौरव धन और धरती के पीछे ही पागल थे। पाण्डवों ने सोचा कि नारी (द्रौपदी) कहीं उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बने; अत: नारद जी की सलाह से उन्होंने द्रौपदी को एक-एक वर्ष तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय कर लिया गया कि जब द्रौपदी किसी पति के साथ हो और कोई दूसरा भाई वहाँ पहुँचकर उन्हें देख ले तो वह बारह वर्षों तक वन में रहेगा।

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एक दिन चोरों ने एक ब्राह्मण की गायें चुरा लीं। वह राजभवन में न्याय और सहायता के लिए पहुँचा। अर्जुन उसकी रक्षा के लिए शस्त्रागार से शस्त्र लेने गये तो वहाँ उन्होंने द्रौपदी को युधिष्ठिर के साथ देख लिया। उन्होंने चोरों से गायें छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दीं और नियम-भंग के कारण बारह वर्षों के लिए वन को चले गये।

अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अर्जुन द्वारका पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके वह इन्द्रप्रस्थ लौटे। श्रीकृष्ण भी अपनी बहन के लिए बहुत सारा दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थ आये और बहुत दिनों तक रुके। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने मिलकर अग्निदेव के हित हेतु खाण्डव वन का दाह किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को कपिध्वज नामक रथ, करूण ने गाण्डीव धनुष और दो अक्षय तृणीर उपहार में दिये। (UPBoardSolutions.com) श्रीकृष्ण को अग्निदेव ने कौमोदकी गदा और सुदर्शन चक्र प्रदान किये। यहीं अग्नि की लपटों से व्याकुल मय नामक राक्षस ने सहायता के लिए आर्त पुकार की। अर्जुन ने उसे बचा लिया और उसने कृतज्ञतापूर्वक कृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर के लिए एक अलौकिक सभा-भवन का निर्माण किया। मय दानव ने अर्जुन को ‘देवदत्त शंख और भीम को एक भारी गदा भेंट की।

युधिष्ठिर का राज्य सुख और शान्ति से चल रहा था। एक दिन देवर्षि नारद इन्द्रप्रस्थ नगरी में आये। उन्होंने पाण्डु का सन्देश देते हुए युधिष्ठिर को बताया कि यदि वे राजसूय यज्ञ करें तो उन्हें इन्द्रलोक में निवास मिल जाएगा। आयु पूर्ण हो जाने पर युधिष्ठिर भी वहाँ जाएँगे। युधिष्ठिर ने नारद के द्वारा सद्धेश भेजकर सलाह के लिए श्रीकृष्ण को द्वारका से बुलवाया और राजसूय यज्ञ की बात बतायी। श्रीकृष्ण ने कह दी कि जब तक जरासन्ध का वध न होगा, राजसूय यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता। इसीलिए उन्होंने अर्जुन.और भीम को साथ लेकर मगध की राजधानी गिरिव्रज की ओर प्रस्थान किया और ब्रह्मचारी वेश में नगर में प्रवेश किया। जरासन्ध ने रुद्रयज्ञ में बलि देने के लिए दो हजार राजाओं को बन्दी बना रखा था। श्रीकृष्ण का विचार था कि जरासन्ध को मारने पर यज्ञ का मार्ग भी साफ हो जाएगा और राजाओं की मुक्ति भी हो जाएगी, किन्तु जरासन्ध को सम्मुख युद्ध में जीत पाना सम्भव नहीं था। श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को तीनों का परिचय दिया और किसी से भी मल्लयुद्ध करने के लिए ललकारा। जरासन्ध ने भीम को ही अपने जोड़ का समझकर उससे मल्लयुद्ध करना स्वीकार कर लिया। तेरह दिन के युद्ध के बाद जरासन्ध के थक जाने पर भीम ने टाँग पकड़कर घुमा-घुमाकर उसे पृथ्वी पर पटकना शुरू कर दिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम ने उसकी एक टाँग को पैर से दबाकर दूसरी टाँग ऊपर को उठाते हुए बीच से चीर दिया। इसके बाद उन्होंने समस्त बन्दी राजाओं को मुक्त कर दिया और जरासन्ध के पुत्र सहदेव को वहाँ का राजा बनाया, जिसने युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार कर ली। इन्द्रप्रस्थ लौटकर (UPBoardSolutions.com) श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से विदा लेकर द्वारका चले गये। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशाओं में भेजा। चारों भाइयों ने सभी राजाओं को जीतकर युधिष्ठिर के अधीन कर दिया। इस प्रकार अब सम्पूर्ण भारत युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गया।

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युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की योजनाबद्ध तैयारी प्रारम्भ कर दी। एक भव्य विशाल यज्ञशाला बनायी गयी। सभी दिशाओं में निमन्त्रण-पत्र भेजे गये। कौरवों सहित अनेकानेक राजा यज्ञ में भाग लेने के लिए इन्द्रप्रस्थ में एकत्र होने लगे। सबका यथोचित सत्कार करके उपयुक्त आवासों में ठहराया गया। वहाँ देव, मनुज और दानव सभी स्वभाव के लोग आमन्त्रित एवं एकत्रित हुए।

प्रश्न 5
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के प्रस्थान’ सर्ग (चतुर्थ सर्ग) का सारांश लिखिए। [2010]
उत्तर
राजसूय यज्ञ के लिए चारों ओर से राजागण आये। श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए अर्जुन स्वयं द्वारका गये। उन्होंने प्रार्थना की कि आप चलकर यज्ञ को पूर्ण कराइए और पाण्डवों के मान-सम्मान की रक्षा कीजिए। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विदा कर बलराम, उद्धव और दरबारी जनों से विचार-विमर्श किया। उन्होंने सोचा कि इन्द्रप्रस्थ में एकत्र राजाओं में कुछ ऐसे भी हैं, जो ऊपरी मन से तो अधीनता स्वीकार कर चुके हैं, पर मन से उनके विरोधी हैं। ये लोग मिलकर कुछ गड़बड़ी अवश्य कर सकते हैं; अत: निश्चय हुआ कि वे पूरी साज-सज्जा और सैन्य बल के साथ तैयार होकर जाएँगे। श्रीकृष्ण अपनी विशाल सेना लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये। युधिष्ठिर ने नगर के बाहर ही बड़े सम्मान के साथ उनका स्वागत किया और स्वयं श्रीकृष्ण का रथ हाँकते हुए उन्हें नगर में प्रवेश कराया। विशाल जन-समुदाय (UPBoardSolutions.com) श्रीकृष्ण की शोभा-यात्रा को देखने के लिए उमड़ पड़ा। नगरवासी अपार श्रद्धा और प्रेम से श्रीकृष्ण का गुणगान कर रहे थे। श्रीकृष्ण भव्य स्वागत के बाद युधिष्ठिर के महल में ठहराये गये। श्रीकृष्ण के प्रभाव और स्वागत-समारोह को देखकर रुक्मी और शिशुपाल ईष्र्या से तिलमिला उठे। वे पहले से ही श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे। वे रातभर इसी वैरभाव और द्वेष की आग में जलते रहे और क्षणभर भी सो न सके।

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प्रश्न 6
‘अग्रपूजा’ के आधार पर शिशुपाल वध का वर्णन संक्षेप में कीजिए। [2010, 12]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के ‘राजसूय यज्ञ’ सर्ग (पञ्चम सर्ग) का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। [2011, 13, 14]
या
सभा में शिशुपाल से भीष्म ने क्या कहा, इस पर विशेष प्रकाश डालिए।
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के पञ्चम सर्ग (राजसूय यज्ञ) का सारांश लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 18]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य में सबसे अधिक प्रभावित करने वाली घटना का सकारण उल्लेख कीजिए।
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल वध के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण की सहनशीलता का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर
यज्ञ प्रारम्भ होने से पूर्व सभी राजाओं ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। युधिष्ठिर ने यज्ञ की सुचारु व्यवस्था के लिए पहले से ही स्वजनों को सभी काम बाँट दिये थे। श्रीकृष्ण ने स्वेच्छा से ही ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। यज्ञ कार्य करने आये ब्राह्मणों के चरण श्रीकृष्ण ने धोये। जब यज्ञशाला में बलराम और सात्यकि के साथ श्रीकृष्ण पधारे तो सभी लोगों ने उठकर उनका सम्मान किया। केवल शिशुपाल ही उनके आगमन को अनदेखा-सा करते हुए जान-बूझकर बैठा रहा। सबकी आँखें श्रीकृष्ण पर टिकी रह गयीं। तभी भीष्म ने गम्भीर वाणी में सभासदों से पूछा, कृपया बताएँ कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति कौन है, जिसे सर्वप्रथम पूजा जाए; अर्थात् अग्रपूजा का अधिकारी कौन है? सहदेव ने तुरन्त कहा कि यहाँ श्रीकृष्ण ही परम-पूज्य और प्रथम पूज्य हैं। भीष्म ने सहदेव का समर्थन किया और सभी लोगों ने उनका एक साथ अनुमोदन किया। केवल शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करते हुए इस बात को विरोध किया। भीम को क्रोध आया, पर भीष्म ने भीम को रोक दिया। भीष्म बड़े संयम और शान्त भाव से शिशुपाल के तर्कों का उत्तर देते हुए बोले कि “स्वार्थ की हानि और ईष्र्या के वशीभूत होने पर मानव अन्धा हो जाता है। उसे गुण भी दोष और यश की सुगन्ध दुर्गन्ध प्रतीत होती है। उन्होंने कहा कि मनुष्यता की महिमा पूर्ण रूप में कृष्ण में ही दिखाई पड़ती है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ये पूर्णरूपेण (UPBoardSolutions.com) डूबे हुए हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन ही योग-भोग के जनक सदृश है। इनके समान रूप में जन्म लेने वाला ही इन्हें जान सकता है। सीमित दृष्टि और द्वेष बुद्धि रखने वाला व्यक्ति इन्हें नहीं जान सकता। ये पुष्प की पंखुड़ियों से भी कोमल हैं; दया, प्रेम, करुणा के भण्डार हैं तथा शील, सज्जनता, विनय और प्रेम के प्रत्यक्ष शरीर हैं। ये अनीति को मिटाते हैं। तथा धर्म-मर्यादा की स्थापना करते हैं। इस तरह से भीष्म ने श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन किया, फिर भी शिशुपाल अनर्गल ही बकता रहा। अन्ततः सहदेव ने कहा कि मैं श्रीकृष्ण को सम्मानित करने जा रहा हूँ, जिसमें भी सामर्थ्य हो वह मुझे रोक ले। यह कहकर सहदेव ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण के चरण धोये और फिर अन्य सभी पूज्यों के पाद-प्रक्षालन किये। शिशुपाल तुरन्त क्रोधातुर होकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। श्रीकृष्ण मुस्कराते रहे। शिशुपाल को चारों ओर कृष्ण-ही-कृष्ण दिखाई दे रहे थे। वह इधर-उधर दौड़कर घूसे मारने की चेष्टा करता हुआ हाँफने लगा और श्रीकृष्ण के प्रति नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा। श्रीकृष्ण ने उसे सावधान किया और कहा कि फूफी को वचन देने के कारण ही मैं तुझे क्षमा करता जा रहा हूँ। फिर भी शिशुपाल न माना और उनकी कटु निन्दा करता रहा, अन्तत: श्रीकृष्ण ने सुदर्शन-चक्र से उसका सिर काट दिया। युधिष्ठिर ने शिशुपाल के पुत्र को उसके बाद चेदि राज्य का राजा घोषित कर दिया।

प्रश्न 7
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के ‘उपसंहार’ सर्ग (षष्ठ सर्ग) का सारांश (कथासार) अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
पञ्चम सर्ग में उल्लिखित शिशुपाल और कृष्ण के विवाद का यज्ञ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा
और यज्ञ निर्विघ्न चलता रहा। व्यास, धौम्य आदि सोलह तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने यज्ञ-कार्य सम्पन्न किया। युधिष्ठिर ने उन्हें दान-दक्षिणा देकर उनका यथोचित सत्कार किया। उन्होंने बलराम और श्रीकृष्ण के प्रति अपना आभार प्रकट किया। सभी राजा उनके सौम्य स्वभाव और सत्कार से सन्तुष्ट हुए और उन्होंने युधिष्ठिर को अपना अधिपति मानते हुए उनकी आज्ञा-पालन करने का वचन दिया। तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने भी युधिष्ठिर को हार्दिक आशीर्वाद दिया, जिसे युधिष्ठिर ने विनम्र भाव से शिरोधार्य किया।

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प्रश्न 8
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर उसके नायक श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 17]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्यः का नायक कौन है ? उसकी चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 17]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के पात्रों में जिस पात्र ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया हो अथवा सर्वश्रेष्ठ पात्र के चरित्र की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2010]
या
‘अग्रपूजा के किसी प्रमुख पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2011, 12, 16, 17, 18]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए। [2015]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के नायक के गुणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2015]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के प्रधान पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2018]
उत्तर
श्री रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं। सम्पूर्ण काव्य में श्रीकृष्ण ही प्रमुख पात्र के रूप में उभरकर आये हैं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की ही पूजा होती है। वे ही समस्त घटनाओं के सूत्रधार भी हैं। हमें उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं

(1) लीलाधारी दिव्य पुरुष–कवि ने मंगलाचरण में श्रीकृष्ण के विष्णु-रूप का स्मरण किया है। विश्वकर्मा से भयानक खाण्डव वन में अलौकिक नगर का निर्माण करवा देने तथा शिशुपाल को अनेक रूपों में दिखाई देने के कारण वे पाठकों को अलौकिक पुरुष के रूप में प्रतीत होते हैं।

(2) शिष्ट एवं विनयी—श्रीकृष्ण सदा बड़ों के प्रति नम्र भाव रखते हैं। वे कुन्ती आदि पूज्यजनों के सम्मुख शिष्टाचार और नम्रता का व्यवहार करते हैं। स्वयं अलौकिक शक्तिसम्पन्न होते हुए भी वे विनम्रता से युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य स्वेच्छा से ग्रहण करते हैं।

(3) पाण्डवों के परम हितैषी-श्रीकृष्ण पाण्डवों के परम हितैषी हैं। वे उनके सभी कार्यों में पूर्ण सहयोग देते हैं। द्रौपदी के स्वयंवर में पाण्डवों को पहचानकर वे उनसे आत्मीयता से मिलने जाते हैं। वे पाण्डवों के लिए इन्द्रपुरी सदृश नगर का निर्माण करवाते हैं और उनके राजसूय यज्ञ की सफलता के लिए जरासन्ध को मारने की योजना बनाते हैं। राजसूय यज्ञ में किसी विरोधी राजा के विघ्न डालने की आशंका से वे ससैन्य यज्ञ में पहुंचते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण पाण्डवों के शुभचिन्तक हैं। |

(4) अनुपम सौन्दर्यशाली–श्रीकृष्ण अलौकिक महापुरुष और अनुपम सौन्दर्यशाली थे। इन्द्रप्रस्थ जाते समय सभी नगरवासी उनके सौन्दर्य को देखने के लिए दौड़ पड़े थे। इन्द्रप्रस्थ की नारियाँ उनकी मधुर मुस्कान पर मुग्ध होकर न्योछावर हो जाती हैं

देखा सुना न पढ़ा कहीं भी, ऐसा अनुपम रूप अमन्द।
ऐसी मधु मुस्कान न देखी, हैं गोविन्द सदृश गोविन्द ॥

(5) धैर्यवान् एवं शक्तिसम्पन्न–श्रीकृष्ण परमवीर थे, यही कारण है कि वे केवल अर्जुन और भीम को साथ लेकर जरासन्ध का वध करने पहुँच जाते हैं। शिशुपाल की अशिष्टता और नीचता को भी वे बहुत देर तक सहन करते हैं। भीष्म के समझाने (UPBoardSolutions.com) पर भी जब वह दुर्वचन कहने से नहीं माना तो उन्होंने उसे दण्ड देने का निश्चय कर लिया और सुदर्शन-चक्र से उसका वध कर दिया।

(6) धर्म एवं मर्यादापालक-श्रीकृष्ण राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोते हैं एवं यज्ञ में मर्यादा की रक्षा के कारण ही शिशुपाल के निन्दाजनक शब्दों को शान्त-भाव से क्षमा करते हैं। वे आदर्श मानव हैं। भीष्म के शब्दों में

शील, सुजनता, विनय, प्रेम के केशव हैं प्रत्यक्ष शरीर।
मिटा अनीति, धर्म मर्यादा स्थापन करते हैं यदुवीर॥

(7) अनासक्त योगी–श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में भोग और योग का सुन्दर समन्वय है। वे सांसारिक होते हुए भी संसार से निर्लिप्त हैं। जल में कमल-पत्र की भाँति वे मनुष्यों के सभी कार्यों को अनासक्त रहकर । पूर्ण करते हैं। सबके पूजनीय होने के कारण ही उन्हें अग्रपूजा के लिए चुना जाता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कृष्ण अत्यन्त शिष्ट और विनम्र हैं। वे पाण्डवों के परम हितचिन्तक और अनुपम सौन्दर्यवान् हैं। वे धर्म एवं मर्यादा के पालक और अलौकिक शक्तिसम्पन्न हैं। उनके बारे में स्वयं भीष्म कहते हैं-“श्रीकृष्ण महामानव हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे रहने वाले हैं। संसार में रहकर भी वे अनासक्त और कर्मयोगी हैं। उनमें रूप, शील एवं शक्ति का अनुपम भण्डार है। योग तथा भोग से पूर्ण इनका व्यक्तित्व अनूठा उदाहरण है। ये सज्जनता, विनम्रता, प्रेम तथा उदारता के पुंज हैं। इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अत्यन्त आदर्शपूर्ण एवं महान् है।”

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प्रश्न 9
‘अग्रपूजा के आधार पर युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2010,15]
या
‘अग्रपूजा’ के आधार पर युधिष्ठिर के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2010, 12, 14]
या
‘अग्रपूजा’ में जिस पात्र के चारित्रिक गुणों ने आपको प्रभावित किया है, उस पर संक्षेप में – प्रकाश डालिए। [2009, 10]
उत्तर
युधिष्ठिर पाण्डवों में सबसे बड़े थे। इन्द्रप्रस्थ में उनका ही राज्याभिषेक किया जाता है। सभी राजा उनकी अधीनता को स्वीकार करते हैं तथा वे ही राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराते हैं। इस प्रकार युधिष्ठिर ‘अग्रपूजा’ काव्य के प्रमुख पात्र हैं। उनका चरित्र मानव-आदर्शों की स्थापना करने वाला है, जिसकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–

(1) विनम्र स्वभाव-युधिष्ठिर विनम्र स्वभाव के हैं। इन्द्रप्रस्थ में गुरु द्रोणाचार्य (UPBoardSolutions.com) के प्रवेश करते ही वे विनय भाव से उनके चरणों में गिर पड़ते हैं। राजसूय यज्ञ के समय श्रीकृष्ण के आने पर वे उनका रथ स्वयं हाँककर उन्हें नगर में प्रवेश कराते हैं। यज्ञ के समाप्त होने पर वे तत्त्वज्ञानी ऋषियों को पर्याप्त दान-दक्षिणा देते हैं और उनके आशीर्वाद को विनय-भाव से स्वीकार करते हैं।

(2) आदर्श शासक-महाराज युधिष्ठिर एक आदर्श शासक के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे राम-राज्य को आदर्श मानकर प्रजा को सुखी-सम्पन्न बनाने का प्रयत्न करते हैं

था प्रयत्न उनकी यह निशदिन, लायें भू पर स्वर्ग उतार।।

वे भारत के सभी राजाओं को जीतकर शक्तिशाली भारत राष्ट्र का निर्माण करते हैं।

(3) धार्मिक तथा सत्य-प्रेमी-युधिष्ठिर धार्मिक और सत्यप्रेमी हैं। वे प्रत्येक कार्य को धर्म और न्याय के अनुसार करते हैं और सदैव सत्य के पथ पर चलते हैं। उनके सम्बन्ध में स्वयं नारद जी इस प्रकार कहते हैं—

बोल उठे गद्गद वाणी से—धर्मराज, जीवन तव धन्य।
धरणी में सत्कर्म-निरत जन नहीं दीखता तुम-सा अन्य।

राजसूय यज्ञ को सम्पन्न करके वे अपने पिता की इच्छा को पूर्ण करते हैं।

(4) उदारहृदय-युधिष्ठिर अत्यन्त उदार हैं। वे राज्य के लिए दुर्योधन से झगड़ा नहीं करते और खाण्डव वन के भाग को ही राज्य के रूप में प्रसन्नता से स्वीकार कर लेते हैं। वे किसी राजा के राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाते। उन्होंने शिशुपाल और जरासन्ध का वध होने पर भी उनके राज्य को उनके पुत्रों को सौंप दिया। वे राजसूय यज्ञ में उदारतापूर्वक ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते हैं।

इस प्रकार युधिष्ठिर परम विनीत, धर्मात्मा, सत्य-प्रेमी, उदारहदय एवं सुयोग्य शासक हैं।

प्रश्न 10
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2012, 15]
उत्तर
शिशुपाल भी ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य को एक प्रमुख चरित्र है। वह चेदि राज्य का स्वामी है। प्रस्तुत खण्डकाव्य में उसकी भूमिका खलनायक की है। वह हमें ईर्ष्यालु, क्रोधी, अविनीत और अशिष्ट व्यक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शिशुपाल का चरित्र-चित्रण इस प्रकार किया जा सकता है-

(1) श्रीकृष्ण का शत्रु-शिशुपाल और श्रीकृष्ण के बीच पुरानी शत्रुता है। शिशुपाल रुक्मी की बहन रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, किन्तु रुक्मिणी श्रीकृष्ण को हृदय से पति-रूप में वरण कर चुकी थी। इसलिए श्रीकृष्ण रुक्मिणी का हरण कर द्वारका ले आये और वहाँ उन्होंने उससे विवाह कर लिया। इस घटना से शिशुपाल श्रीकृष्ण को अपना शत्रु मानने लगा।

(2) ईष्र्यालु व्यक्ति–शिशुपाल स्वभाव से बहुत ईष्र्यालु व्यक्ति है। (UPBoardSolutions.com) इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण का अधिक सम्मान होना उसे काँटे की तरह चुभ रहा था। इसी कारण ईर्ष्या की आग में जलते हुए वह अकारण ही श्रीकृष्ण के प्रति जहर उगलता हुआ अपशब्दों का प्रयोग करता है-

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आज यहाँ हैं ज्ञानी योगी, पण्डित, ऋषि, नृप, अनुपम वीर।
फिर भी अग्र अर्चना होगी, उसकी जो गोपाल अहीर॥

शिशुपाल ईर्ष्यावश श्रीकृष्ण को नाचने-कूदने वाला, छलिया और अशिष्ट भी बतलाता है।

(3) क्रोधी और अभिमानी–शिशुपाल में क्रोध और अभिमान का भाव कूट-कूटकर भरा था। वह भरी सभा में सीना तानकर श्रीकृष्ण की ओर हाथापाई के लिए बढ़ता है और उन्हें भला-बुरा कहकर ललकारता है-

वह बोला मायावी, छलिया, इन्द्रजाल अब करके बन्द।।
आ सम्मुख तू बच न सकेगा, करके ये सारे छल छन्द ॥

उसके अभिमानी स्वभाव के कारण ही उस पर भीष्म के उपदेश और सहदेव की सूझ-बूझ का कोई प्रभाव नहीं होता।।

(4) अशिष्ट-शिशुपाल की वाणी में दूसरों के प्रति शिष्टता का अभाव है। वह जहाँ (UPBoardSolutions.com) एक ओर अग्रपूजा के लिए श्रीकृष्ण का नाम प्रस्तावित करने को सहदेव का लड़कपन बताता है, वहाँ दूसरी ओर भीष्म की बुद्धि को भी मारी गयी कहता है

लगता सठिया गये भीष्म हैं, मारी गयी बुद्धि भरपूर।।
तभी अनर्गल बातें करते, करो यहाँ से इनको दूर ॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शिशुपाल का चरित्र एक खलनायक के रूप में अनेक दोषों से भरा है।

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