Class 9 Sanskrit Chapter 2 UP Board Solutions अस्माकं राष्ट्रियप्रतीकानि Question Answer

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 2
Chapter Name अस्माकं राष्ट्रियप्रतीकानि (गद्य – भारती)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 2 Asmakam Rastriypratikani Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 2 हिंदी अनुवाद अस्माकं राष्ट्रियप्रतीकानि के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ का साशंश

राष्ट्रीय प्रतीक-सभी राष्ट्रों में वहाँ के नागरिकों द्वारा उस राष्ट्र की विशेषता बताने वाली कुछ वस्तुएँ राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकार की जाती हैं। इन प्रतींकों में उस राष्ट्र का गौरव, चरित्र और गुण झलकता है, इन्हीं को राष्ट्रीय चिह्न कहा जाता है। भारत में भी हमारी संस्कृति, चरित्र और महत्त्व को बताने वाली (UPBoardSolutions.com) ये पाँच वस्तुएँ राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकार की गयी हैं- (1) मयूर, (2) चित्रव्याघ्र, (3) कमल, (4) राष्ट्रगान तथा (5) त्रिवर्ण ध्वज।।

(1) मयूर (मोर)–मयूर (मोर) भारत का राष्ट्रीय-पक्षी है। यह बहुत सुन्दर पक्षी है। इसके रंग-बिरंगे पंख और इसका नृत्य अत्यधिक चित्ताकर्षक होता है। यह मधुर ध्वनि करता हुआ भी विषधरों (सर्पो) को खाता है। उसकी इस प्रवृत्ति में हमारा राष्ट्रीय चरित्र झलकता है। हमें भी मोर की तरह मधुरभाषी होना चाहिए और सबके साथ मधुर व्यवहार करते हुए भी राष्ट्रद्रोहियों और राष्ट्रीय एकता के विघातक तत्त्वों को सर्प की तरह नष्ट कर देना चाहिए। |

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(2) चित्रव्याघ्र ( बाघ)–पशुओं में बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है। इनमें चित्रव्याघ्र ओजस्वी, पराक्रमी और स्फूर्ति-सम्पन्न होता है। वह संकट को दूर से ही जानकर उसे दूर करने में सचेष्ट रहता है। हमें , व्याघ्र की तरह देश की सुरक्षा में सावधान तथा संकट आने पर उसे दूर करने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। यह अपनी सीमा में घूमने वाले जंगली जानवर के रूप में संसार में प्रसिद्ध है।

(3) कमल–भारत में कमल को राष्ट्रीय पुष्प के रूप में स्वीकार किया गया है। इसकी कोमलता एवं पवित्रता को देखकर ही इसको काव्य में अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। जिस प्रकार से कीचड़ में उत्पन्न होने वाला पंकज (कमल) जल का संसर्ग तथा शरद् ऋतु को प्राप्त कर बढ़ता और शोभित होता है, (UPBoardSolutions.com) उसी प्रकार किसी भी कुल में उत्पन्न होकर व्यक्ति को सुविधा और उपयुक्त अवसर को पाकर उन्नति करते रहना चाहिए, यही कमल का सन्देश है।

(4) राष्ट्रगान–प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र का एक अपना राष्ट्रगाने होता है। भारत का भी अपना एक राष्ट्रगान है। इसे महान् अवसरों पर गाया जाता है। अन्य देश के राष्ट्राध्यक्षों के आगमन पर उनके सम्मान में, बड़ी सभाओं के समापन पर तथा विद्यालयों में प्रार्थना के उपरान्त इसे गाया जाता है। इसकी रचना विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने की थी। इस राष्ट्रगान में भारत के प्रान्तों, विन्ध्य-हिमालय पर्वतों, गंगादि नदियों के उल्लेख द्वारा देश की विशालता और अखण्डता का वर्णन है। इसको गाने के लिए 52 सेकण्ड का समय निर्धारित है। इसे सावधान मुद्रा में खड़े होकर बिना किसी अंग-संचालन के श्रद्धापूर्वक गाया जाना चाहिए। इसकी ध्वनि सुनकर भी सावधान हो जाने का विधान है।

(5) त्रिवर्ण ध्वज(राष्ट्रीय ध्वज)–प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र का अपना एक राष्ट्रध्वज होता है तथा देश के निवासी प्राणपण से इसके सम्मान की रक्षा करते हैं। हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा है। इसके मध्य में अशोक चक्र है। इसमें हरा रंग, सुख, समृद्धि और विकास का; श्वेत रंग ज्ञान, मैत्री सदाशयता आदि गुणों का तथा केसरिया रंग शौर्य और त्याग का प्रतीक है। ध्वज़ के मध्य में अशोक चक्र धर्म, सत्य और अहिंसा का बोध कराता है। (UPBoardSolutions.com) अशोक चक्र के मध्य में 24 शलाकाएँ पृथक् होती हुई चक्र के मूल में मिली हुई, भारत में विविध भाषा, धर्म, जाति और लिंग का भेद होने पर भी भारत के एक राष्ट्र होने का बोध कराती हैं। राष्ट्रध्वज सदा स्वच्छ, सुन्दर रंगों वाला और बिना कटा-फटी होना चाहिए। राष्ट्रीय शोक के समय इसे झुका दिया जाती है।
ये राष्ट्रीय प्रतीक हमें हमारी स्वतन्त्रता का बोध कराते हैं। हमें इनका आदर और सम्मान तो करना ही चाहिए, इनकी रक्षा भी प्राणपण से करनी चाहिए।

गघांशों का सासन्दर्भ अनुवाद

(1) सर्वेषु राष्ट्रेषु राष्ट्रियवैशिष्ट्ययुक्तानि वस्तूनि प्रतीकरूपेण स्वीक्रियन्ते तत्रत्यैः जनैः। तेषु प्रतीकेषु तद्राष्ट्रस्य गौरवं चारित्र्यं गुणाश्च प्रतिभासन्ते। तान्येव राष्ट्रियप्रतीकानि निगद्यन्ते।।

अस्माकं राष्ट्रे भारतेऽपि कतिपयानि प्रतीकानि स्वीकृतानि सन्ति। तान्यस्माकं चारित्र्यं संस्कृतिं महत्त्वं च व्यञ्जयन्ति। पक्षिषु कतमः पशुषु कतमः पुष्पेषुः कतमत् वाऽस्माकं राष्ट्रियमहिम्नः प्रातिनिध्यं विदधातीति विचार्यैव प्रतीकानि निर्धारितानि सन्ति।

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शब्दार्थ-
वैशिष्ट्ययुक्तानि = विशेषताओं से युक्त।
प्रतीकरूपेण = चिह्न के रूप में।
स्वीक्रियन्ते = स्वीकृत किये जाते हैं।
तत्रत्यैः जनैः = वहाँ के निवासियों के द्वारा।
प्रतिभासन्ते = झलकते हैं।
निगद्यन्ते = कहे जाते हैं।
कतिपयानि = कुछ।
तान्यस्माकम् (तानि + अस्माकम्) = वे हमारे।
व्यञ्जयन्ति = प्रकट करते हैं।
कतमः = कौन-सा।
राष्ट्रियमहिम्नः = राष्ट्रीय महत्त्व का।
विदधातीति (विदधाति + इति) = करता है, ऐसा।
विचार्यैव (विचार्य + एव) = विचार करके ही।
निर्धारितानि सन्ति = निर्धारित (निश्चित) किये गये हैं।

सन्दर्य प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ के ‘अस्माकं राष्ट्रियप्रतीकानि’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

संकेत
इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि प्रत्येक देश की भाँति हमारे देश में भी कुछ राष्ट्रीय प्रतीक निधार्रित किये गये हैं, जिनसे हमारे देश का गौरव और चरित्र झलकता है।।

अनुवाद
सभी राष्ट्रों में वहाँ के निवासियों के द्वारा राष्ट्र की विशेषताओं से युक्त वस्तुएँ प्रतीक रूप में स्वीकार की जाती हैं। उन प्रतीक-वस्तुओं में उस राष्ट्र का गौरव, चरित्र और गुण प्रतिबिम्बित होते हैं। उन्हें ही राष्ट्र के प्रतीक कहा जाता है। | हमारे राष्ट्र भारत में भी कुछ प्रतीक स्वीकार किये गये हैं। वे ही (UPBoardSolutions.com) हमारे देश के चरित्र, संस्कृति और महत्त्व को प्रकट करते हैं। पक्षियों में कौन-सा (पक्षी), पशुओं में कौन-सा (पशु) अथवा फूलों में कौन-सा (फूल) हमारे राष्ट्र की महिमा का प्रतिनिधित्व करता है, ऐसा विचार करके ही प्रतीक निर्धारित किये गये हैं।

(2) मयूरःपक्षिषु मयूरः राष्ट्रियपक्षिरूपेण स्वीकृतोऽस्ति। मयूरोऽतीव मनोहर: पक्षी वर्तते। चन्द्रकवलयसंवलितानि चित्रितानि तस्य पिच्छानि मनांसि हरन्ति। यदा गगनं श्यामलैर्मेधैरोच्छन्नं भवति तदा मयूरो नृत्यति। तस्य तदानीन्तनं नर्त्तनं नयनसुखकरमपि चेतश्चमत्कारकं भवति। मधुमधुरस्वरोऽपि मयूरो विषधरान् भुङ्क्ते। इदमेवास्माकं राष्ट्रियचारित्र्यं विद्यते। सर्वे सह मधुरं वाच्यं मधुरं व्यवहर्तितव्यं मधुरमाचरितव्यं किन्तु ये राष्ट्रद्रोहिणोऽत्याचारपरायणाः राष्ट्रियाखण्डतायाः राष्ट्रियैक्यस्य वा विघातकाः विषमुखाः सर्पतुल्याः मयूरेणैव राष्ट्रेण व्यापादयितव्याः।।

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शब्दार्थ-
मयूरोऽतीव (मयूरः + अति + इव), = मोर बहुत अधिक।
चन्द्रकवलयसंवलितानि = चन्द्रमा के आकार के वृत्त (गोलाकार चिह्न) से युक्त।
पिच्छानि = पूँछ के पंख।
श्यामलैमेघराच्छन्नं, (श्यामलैः + मेघेः + आच्छन्नम्) = काले बादलों से घिरे हुए।
तदानीन्तनम् = उस समय का।
नयनसुखकरम् = आँखों को सुख देने वाला, सुन्दर।
चेतः = मन।
विषधरान् = सर्पो को।
भुङ्क्ते = खाता है।
इदमेवास्माकं (इदं + एव + अस्माकं) = यह ही हमारा।
वाच्यं = बोलना चाहिए।
व्यवहर्तितव्यम् = व्यवहार करना चाहिए।
मधुरमाचरितव्यं (मधुरं + आचरितव्यम्) = मधुर आचरण करना चाहिए।
अत्याचारपरायणाः = अत्याचार में लगे हुए।
विघातकाः = नाशक।
विषमुखाः = विष से भरे मुख वाले।
मयूरेणेव (मयूरेण+ इव) = मोर के समान।
व्यापादयितव्याः = मारने योग्य।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रीय चिह्न के रूप में स्वीकृत राष्ट्रय पक्षी मोर का वर्णन किया बंया है।

अनुवाद
मोर-पक्षियों में मोर को राष्ट्रीय पक्षी के रूप में स्वीकार किया गया है। मोर अत्यन्त सुन्दर पक्षी है। चन्द्राकार वृत्त (गोलाकार चिह्नों) से चित्रित उसकी पूँछ के पंख मन को हरते हैं, अर्थात् उसके रंग-बिरंगे पंखों को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। जब आकाश काले बादलों से ढक जाता है, तब मोर नाचता है। उस समय का उसका नृत्य नेत्रों को सुख देने वाला और चित्त को आह्लादित करने वाला होता है। मधु के समान मीठे स्वर वाला होता हुआ भी मोर सर्पो को खाता है। यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। सबके साथ मधुर बोलना (UPBoardSolutions.com) चाहिए, सौहार्दपूर्ण व्यवहार करना चाहिए, शिष्ट आचरण करना चाहिए, किन्तु जो राष्ट्रद्रोही, अत्याचारी, राष्ट्र की अखण्डता या राष्ट्र की एकता के नाशक सर्प के समान विष से भरे हुए हैं, उन्हें उस राष्ट्र के नागरिकों द्वारा उसी प्रकार नष्ट कर देना चाहिए, जिस प्रकार मोर विषैले सर्यों को नष्ट कर देता है।

(3) व्याघ्रःपशुषु व्याघ्रः भारतस्य राष्ट्रियप्रतीकम्। व्याघ्षु चित्रव्याघ्रः बहुवैशिष्ट्य विशिष्टो विद्यते। को न जानाति चित्रव्याघ्रस्यौजः पराक्रमं स्फूर्तिञ्च? एतज्जातीयाः व्याघ्राः अस्मद्देशस्य वनेषुपलभ्यन्ते। एतेषां शरीरे स्थूलकृष्णरेखाः भवन्ति। व्याघोऽसावतीव तीव्रधावकः सततसा- वहितः सङ्कटं विदूरादेव जिघ्न् तदपनेतुं सचेष्टः स्वलक्ष्यमवाप्तुं कृतिरतः स्वसीम्नि एवं पर्यटन् वन्यो जन्तुर्विश्रुतो जगति।। |

शब्दार्थ-
चित्रव्याघ्रः = चितकबरा बाघ।
ओज = बल।
स्फूर्तिञ्च (स्फूर्तिम् + च) = और फूर्ती।
एताज्जातीयाः (एतद् + जातीयाः) = इस जाति के।
अस्मद्देशस्य (अस्मत् + देशस्य) = इस देश के।
वनेषुपलभ्यन्ते (वनेषु + उपलभ्यन्ते) = वनों में प्राप्त होते हैं।
व्याघ्रोऽसावतीव (व्याघ्रः + असौ + अति + इव) = यह बाघ बहुत अधिक।
सावहितः = सावधान।
विदूरादेव = अधिक दूर से ही।
जिघ्रन् = सँघता है।
अपनेतुम् = दूर करने के लिए।
अवाप्तुम् = प्राप्त करने के लिए।
कृतिरतः = कार्यशील।
स्वसीम्नि = अपनी सीमा में विश्रुतः = प्रसिद्ध।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रीय पशु के प्रतीक के रूप में स्वीकृत बाघ का वर्णन किया गया है।

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अनुवाद-बाघ
पशुओं में बाघ भारत का राष्ट्रीय प्रतीक है। बाघों में चितकबरा बाघ बहुत विशेषताओं से युक्त होता है। चितकबरे बाघ के बल, वीरता और स्फूर्ति को कौन नहीं जानता है; अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति जानता है। इस जाति के बाघ हमारे देश के वनों में मिलते हैं। इनके शरीर पर मोटी काली रेखाएँ होती हैं। यह बाघ अत्यधिक तेज दौड़ने वाला, सदा सावधान रहने वाला, संकट को दूर से ही सूंघने वाला और उसको दूर करने के (UPBoardSolutions.com) लिए प्रयत्नशील, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कार्यशील अपनी सीमा में ही घूमने वाला संसार में प्रसिद्ध जंगली जानवर है।

(4) कमलम्कमलं सरसिज पद्मं पङ्कजं शतदलमित्यादिनामभिः प्रथितं पुष्पमस्माकं राष्ट्रियप्रतीकत्वेन स्वीकृतं राष्ट्रियपुष्पस्य यशो विधते। तस्य कोमलत्वं मनोहरत्वं विकासशीलत्वं पवित्रत्वञ्चाभिलक्ष्यैव कविभिः तस्य बहुशः वर्णनं कृतम्। न कश्चिन्महाकविः संस्कृतभाषायां, हिन्दीभाषायां वा विद्यते येनैतस्य पुष्पस्य माहात्म्यं न गीतम्। देवानां स्तुतिप्रसङ्गे दिव्यकरचरणादीनामङ्गानां मानवहृदयस्य चोपमानीकृतं सत्सांस्कृतिकं महत्त्वं विभर्ति पुष्पमिदम्।

शब्दार्थ-
प्रथितम् = प्रसिद्ध।
पुष्पमस्माकम् (पुष्पम् + अस्माकम्) = हमारे फूल।
यशो विधत्ते = यश धारण करता है।
पवित्रत्वञ्चाभिलक्ष्यैव (पवित्रत्वं + च + अभिलक्षि + एव) = और पवित्रता का विचार करके ही।
बहुशः = अत्यधिक।
येनैतस्य (येन + एतस्य) = जिसने इसका।
चोपमानीकृतम् (च + उपमानीकृतम्) = और उपमान के रूप में प्रयुक्त किया गया।
बिभर्ति = धारण करता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रीय पुष्प के रूप में चयनित ‘कमल’ के फूल का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
कमले-कमल, सरसिज, पद्म, पंकज, शतदल इत्यादि नामों से प्रसिद्ध फूल हमारे राष्ट्र के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया, राष्ट्रीय पुष्प के यश को धारण करता है। उसकी कोमलता, सुन्दरता, विकासशीलता और पवित्रता को लक्ष्य करके ही कवियों ने उसका बहुत प्रकार से वर्णन किया है। संस्कृत भाषा या हिन्दी भाषा में ऐसा कोई महाकवि नहीं है, जिसने इस पुष्प के महत्त्व का गान न किया हो। देवताओं की स्तुति के (UPBoardSolutions.com) अवसर पर, सुन्दर हाथ-पैर आदि अंगों के और मानव हृदय के उपमान के रूप में प्रयोग किया गया यह फूल सुन्दर सांस्कृतिक महत्त्व को धारण करता है। |

(5) शरदत मनोहरं पुष्पमिदं यत्र तत्र जलसङ्कुलेषु तड़ागेषु सरसु चानायासेनोत्पद्यते वर्धते . रविकनिकरसंसर्गात् प्रस्फुटित। पङ्के जायते पङ्कजं जलसंयोगं शरत्कालञ्चावाप्य वर्धते शोभते । च तथैव कस्मिश्चित् कुले जातः जनः सौविध्यमुपयुक्तावसरञ्च लब्ध्वा वर्धितुं क्षमत इति तत्पुष्पस्य राष्ट्रकृते सन्देशः।।

शब्दार्थ-
शरद (शरद् + ऋर्ती) = शरद् ऋतु में।
चानायासेनोत्पद्यते (च + अनायासेन + उत्पद्यते) = और अनायास उत्पन्न होता है।
रविकरनिकरसंसर्गात् = सूर्य की किरणों के सम्पर्क से।
प्रस्फुटित = विकसित होता है।
सौविध्यमुपयुक्तोवसरञ्च (सौविध्यम् + उपयुक्त + अवसरं + च) = सुविधा और उपयुक्त अवसर को।

प्रसंग
पूर्ववत्।

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अनुवाद
शरद् ऋतु में यह सुन्दर फूल जहाँ-तहाँ जल से भरे तालाबों और पोखरों में सरलता से उत्पन्न होता है और बढ़ता है। सूर्य की किरणों के समूह के सम्पर्क से खिलता है। कीचड़ में (UPBoardSolutions.com) उत्पन्न होता है, उसी प्रकार किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ मनुष्य सुविधा और उपयुक्त (अनुकूल) अवसर पाकर बढ़ने में समर्थ होता है। यही इस पुष्प की राष्ट्र के लिए सन्देश है। |

(6) राष्ट्रगानम्-सर्वेषां स्वतन्त्रदेशानां स्वकीयमेकं गानं भवति तदैव राष्ट्रगानसंज्ञयाऽवबुध्यते। प्रत्येकं राष्ट्रं स्वराष्ट्रगानस्य सम्मानं करोति। महत्स्ववसरेषु तद्गानं गीयते। मंदि कश्चिदन्यराष्ट्राध्यक्षोऽस्माकं देशमागच्छति तदा तस्य सम्मानाय तस्य राष्ट्रगानमस्मद्राष्ट्रगानं च वादकैः वाद्येते। महतीनां सभानां समापने तस्य गानमावश्यकम्। विद्यालयेषु प्रार्थनानन्तरं प्रतिदिनं राष्ट्रगानं गीयते।।

शब्दार्थ-
अवबुध्यते = जाना जाता है।
वाद्येते = बजाये जाते हैं।
समापने = समाप्ति पर।
अनन्तरं = बाद में।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रगान का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
राष्ट्रगान–सभी स्वतन्त्र देशों का अपना एक गान होता है, वही राष्ट्रगान’ इसे नाम से जाना जाता है। प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रगान का सम्मान करता है। बड़े महत्त्वपूर्ण अवसरों पर उस गान। को गाया जाता है। यदि किसी दूसरे देश का राष्ट्राध्यक्ष (राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री) हमारे देश में आता है, तब (UPBoardSolutions.com) उसके सम्मान के लिए उसके देश का राष्ट्रगान और हमारा राष्ट्रगान वादकों के द्वारा बजाया जाता है। बड़ी सभाओं के समापन पर राष्ट्रगान का गायन ओवश्यक है। विद्यालयों में प्रार्थना के बाद प्रतिदिन राष्ट्रगान गाया जाता है।

(7) अस्माकं राष्ट्रगानं विश्वकविना कवीन्द्रेण रवीन्द्रेण रचितं ‘जनगणमन’ इति संज्ञया विश्वस्मिन् विश्वे विश्रुतं वर्तते। अस्माकं राष्ट्रगाने भारताङ्गभूतानामनेकप्रान्तानां विन्ध्यहिमालय-पर्वतयोः गङ्गायमुनाप्रभृतिनदी नाञ्चोल्लेखं कृत्वा देशस्य विशालत्वं राष्ट्रस्याखण्डत्वं संस्कृतेः गौरवञ्च विश्वकविना वर्णितम्।।

शब्दार्थ-
संज्ञया = नाम से विश्वस्मिन्
विश्वे = पूरे संसार में।
विश्रुतं = प्रसिद्ध।
प्रभृति = आदि।
अखण्डत्वं = अखण्डता।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रगान के स्वरूप का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
हमारा राष्ट्रगान विश्वकवि कवीन्द्र रवीन्द्र द्वारा रचा गया ‘जन-गण-मन’ इस नाम से सारे संसार में प्रसिद्ध है। हमारे राष्ट्रगान में भारत के अंगस्वरूप अनेक प्रान्तों का, विन्ध्याचल और हिमालय पर्वतों का, गंगा-यमुना आदि नदियों का उल्लेख करके विश्वकवि ने देश की विशालता, राष्ट्र की अखण्डता और संस्कृति के गौरव का वर्णन किया है। |

(8) राष्ट्रगानमिदं द्वापञ्चाशत्पलात्मकं भवति। तस्य गाने द्वापञ्चाशत्पलात्मकः-समयोऽपेक्ष्यते। न ततोऽधिको न वा ततो न्यूनः। तस्यारोहावरोहापि निश्चितौ। तत्र विपर्ययः कर्तुं न (UPBoardSolutions.com) शक्यते। राष्ट्रगाने सदोत्थितैः जनैः सावधानमुद्रया गेयम्। राष्ट्रगानावसरेऽङ्गसञ्चालनं निषिद्धम्। चलतोऽपि कस्यचित्कर्णकुहरे गीयमानस्य राष्ट्रगानस्य ध्वनिः दूरादप्यापतति चेत्तदा तत्रैव सावधानमुद्रया तेनाविचलं स्थातव्यम्।राष्ट्रगानं श्रद्धास्पदं भवति।श्रद्धयैवेदं गेयम्। |

शब्दार्थ-
द्वापञ्चाशत्पलात्मकं (द्वांपञ्चाशत् + पल + आत्मकम्) = बावन पल (52 सेकन्ड) वाला।
अपेक्ष्यते = अपेक्षा होती है।
तस्यारोहावरोहापि (तस्य + आरोह + अवरोहौ + अपि) = उसके चढ़ाव और उतार भी।
विपर्ययः = परिवर्तन, विपरीत।
सावधानमुद्रया = सावधान की मुद्रा में।
निषिद्धम् = निषिद्ध, विपरीत।
कर्णकुहरे = कर्ण-छिद्र में।
आपतति = गिरती है, पड़ती है।
चेत् = यदि।
स्थातव्यम् = स्थित होना चाहिए।
श्रद्धास्पदं = श्रद्धा के योग्य।
श्रद्धयैवेदम् (श्रद्धया + एवं+ इदम्) = श्रद्धा से ही इसे। ।

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प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रगान के गाने का समय, गाने की मुद्रा तथा इसके महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद
यह राष्ट्रगान बावन सेकण्ड का होता है। उसके गाने में बोवन सेकण्ड के समय की आवश्यकता होती है। न उससे अधिक की और न ही उससे कम की। उसके स्वरों का आरोह-अवरोह (चढ़ाव और उतार) भी निश्चित है। उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रगान को सदा खड़े हुए लोगों के द्वारा (UPBoardSolutions.com) सावधान मुद्रा में गाया जाना चाहिए। राष्ट्रगान के अवसर पर अंग हिलाना भी वर्जित । है। यदि चलते हुए भी किसी व्यक्ति के कान के छेद में गाये जाते हुए राष्ट्रगान की ध्वनि दूर से भी आ पड़ती है, तब वहीं पर सावधान मुद्रा में उसे स्थिर खड़े हो जाना चाहिए। राष्ट्रगान श्रद्धायोग्य होता है।. श्रद्धापूर्वक ही इसे गाना चाहिए।

(9) राष्ट्रध्वजः सर्वेषु राष्ट्रप्रतीकेषु राष्ट्रध्वजस्य सर्वाधिक महत्त्वं वर्तते। सर्वस्य स्वतन्त्रराष्ट्रस्य स्वकीयो ध्वजो भवति। तद्देशवासिनो जनाः नराः नार्यश्च स्वराष्ट्रध्वजस्य सम्मानं प्राणपणेन रक्षन्ति।।
त्रिवर्णात्मको मध्येऽशोकचक्राङ्कितोऽस्माकं राष्ट्रध्वजः ‘तिरङ्गा’ शब्देन विश्वे विश्रुतो विद्यते।।

शब्दार्थ
सर्वाधिकम् = सबसे अधिक।
वर्तते = है।
प्राणपणेन = प्राणों के मूल्य से अर्थात् प्राणों की बाजी लगाकर।
त्रिवर्णात्मकः = तीन रंगों वाला।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों में राष्ट्रध्वज के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद
राष्ट्रध्वज-सभी राष्ट्रीय-प्रतीकों में राष्ट्रध्वज का सबसे अधिक महत्त्व है। सभी स्वतन्त्र राष्ट्रों का अपना राष्ट्रध्वज होता है। उस देश के रहने वाले स्त्री और पुरुष अपने राष्ट्रध्वज के (UPBoardSolutions.com) सम्मान की रक्षा प्राणों की बाजी लगाकर करते हैं। तीन रंगों वाला, मध्य में अशोक चक्र से चिह्नित हमारा राष्ट्रध्वज तिरंगा’ शब्द से संसार में प्रसिद्ध है।

(10) ध्वजस्याधोभागः हरितवर्णात्मकः सुखसमृद्धिविकासानां सूचकः, मध्यभागे श्वेतवर्णः ज्ञान-सौहार्द-सदाशयादिसद्गुणानां द्योतकः, ऊर्श्वभागे च स्थितः गैरिकवर्णः त्यागस्य शौर्यस्य च बोधकः। ध्वजस्य मध्यभागस्थितश्वेतवर्णमध्येऽवस्थितमशोकचक्रं धर्मस्य सत्यस्याहिंसायाश्च प्रत्यायकम्। चक्रे चतु:विंशतिशलाकाः पृथगपि चक्रमूले एकत्र सम्बद्धाः भारते भाषाधर्मजातिवर्णालिङ्गभेदेषु सत्स्वपि भारतमेकं राष्ट्रमिति द्योतयन्ति। |

शब्दार्थ-
अधोभागः = निचला भाग।
सौहार्द = बन्धुत्व।
द्योतकः = बतलाने वाला।
गैरिकवर्णः = गेरुआ रंग।
प्रत्यायकम् = विश्वास दिलाने वाला।
चतुःविंशतिशलाकाः = चौबीस तीलियाँ।
सत्स्वपि (सत्सु + अपि) = होने पर भी।
द्योतयन्ति = सूचित करते हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रध्वज के रंगों के वास्तविक अर्थ का बोध कराया गया है। |

अनुवाद
ध्वज के हरे रंग का नीचे का भाग सुख, समृद्धि और विकास का सूचक है। बीच में सफेद रंग ज्ञान, मैत्री, सदाशयता आदि उत्तम गुणों का बोधक है। ध्वज के ऊपरी भाग पर स्थित केसरिया रंग त्याग और शौर्य (वीरता) को सूचक है। ध्वज के मध्य भाग में सफेद रंग के बीच में स्थित अशोक चक्र धर्म, सत्य (UPBoardSolutions.com) और अहिंसा का विश्वास दिलाने वाला है। चक्र में चौबीस रेखाएँ अलग होती हुई भी चक्र के मूल में एक जगह जुड़ी हुई भारत में भाषा, धर्म, जाति, वर्ण, लिंग के भेदों के होते हुए भी ‘भारत एक राष्ट्र है’ ऐसा सूचित करती हैं।

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(11) राष्ट्रध्वजो निर्धारितदीर्घविस्तारपरिमितो भवितव्यः। एषः सदा स्वच्छोऽविकृतवर्णः तिष्ठेत्। जीर्णः शीर्णो विदीर्णो वा ध्वजो नोपयोगयोग्यः। समुच्छ्यिमाणः ध्वजोऽस्तङ्गते सूर्ये समंवतार्य सुरक्षितः संरक्षितव्यः।राष्ट्रियशोकावसरेध्वजोऽर्धमुच्छ्रीयते।।
इत्येतानि राष्ट्रियप्रतीकान्यस्माकं स्वातन्त्र्यस्य प्रत्यायकानि समादृतव्यानि तु सन्त्येव प्राणपणैः रक्षितव्यानि च। |

शब्दार्थ-
परिमितः = निश्चित परिमाण वाला।.
अविकृतवर्णः = शुद्ध रंगों वाला; अर्थात् बिना बिगड़े रंग वाला।
जीर्णः = पुराना।
विदीर्णः = फटा हुआ।
नोपयोगयोग्यः (न + उपयोगयोग्यः) = उपयोग न करने योग्य।
समुच्छ्यिमाणः (सम् + उत् + श्रियमाण:) = ऊपर फहराता हुआ।
समवतार्य = ठीक से उतारकर।
संरक्षितव्य = सुरक्षित रख लेना चाहिए।
इत्येतानि = इस प्रकार ये।
समादृतव्यानि = अधिक आदर करने योग्य। सन्त्येव (सन्ति + एव) = हैं ही।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रध्वज के स्वरूप एवं उसके फहराये जाने के नियम का उल्लेख है।

अनुवाद
राष्ट्रध्वज निश्चित विस्तार वाला होना चहिए। यह सदा साफ, भद्दे न हुए रंगों वाला होना चाहिए। पुराना, कटा-फटा ध्वज उपयोग के योग्य नहीं है। फहराता हुआ ध्वज सूर्य के छिपने पर उतारकर सुरक्षित रख लेना चाहिए। राष्ट्रीय शोक के अवसर पर ध्वज आधा (UPBoardSolutions.com) फहराया जाता है।
ये राष्ट्रीय प्रतीक हमारी स्वतन्त्रता का विश्वास दिलाने वाले हैं। ये आदर के योग्य तो हैं ही, साथ ही प्राणपण से रक्षा के योग्य भी हैं।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
भारत के राष्ट्रीय प्रतीकों की गणना कीजिए।
उत्तर
भारत के पाँच राष्ट्रीय प्रतीक हैं, जिनमें ‘मोर’ राष्ट्रीय पक्षी, ‘बाघ’ राष्ट्रीय पशु, ‘कमल’ राष्ट्रीय पुष्प, ‘जन गण मन’ राष्ट्रीय गान और तिरंगा राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकृत हैं। |

प्ररन 2
राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकृत ‘मोर’ की विशेषता लिखिए। यह राष्ट्रवासियों को क्या सन्देश देता है?
उत्तर
मोर अत्यन्त सुन्दर पक्षी है और इसकी बोली भी अत्यधिक मधुर है। इसका भोजन विषैले सर्प हैं। यह हमें सन्देश देता है कि हमें भी सभी से मधुर वाणी में बोलना चाहिए, (UPBoardSolutions.com) अच्छा व्यवहार करना चाहिए और राष्ट्रीय एकता-अखण्डता को नष्ट करने वाले सर्प के समान दुष्ट व्यक्तियों को मार देना चाहिए।

प्ररन 3
राष्ट्रीय पुष्पकमल’ का राष्ट्र के लिए क्या सन्देश है? |
उत्तर
कमल’ कीचड़ में उत्पन्न होता है, शरद् ऋतु में बढ़ता है और खिलकर शोभा पाता है। यह राष्ट्रवासियों को सन्देश देता है कि प्रतिकूल परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर भी उन्हें अपना धैर्य बनाये रखना चाहिए और अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करते रहना चाहिए।

प्ररन4
राष्ट्रीय ध्वज में प्रयुक्त अशोक चक्र का क्या महत्त्व है?
उत्तर
राष्ट्रीय ध्वज में प्रयुक्त अशोक चक्र सत्य, धर्म और अहिंसा का बोध कराता है। जिस प्रकार चक्र की शलाकाएँ अलग-अलग होते हुए भी केन्द्र में मिली होती हैं, उसी प्रकार हमें भी भाषा, धर्म, जाति आदि की भिन्नताओं के बाद भी एकजुट होकर रहना चाहिए। यही भावना अशोक चक्र के द्वारा प्रकट होती है।

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प्ररन 5
अपने राष्ट्र-गान और राष्ट्रध्वज की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर
हमारा राष्ट्र-गान कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित है। इसमें कवि ने भारत के प्रान्तों, पर्वतों और नदियों का उल्लेख किया है, जो राष्ट्र की विशालता, अखण्डता, संस्कृति तथा गौरव को ध्वनित करता है। हमारा राष्ट्रध्वज तीन रंगों वाला है और ‘तिरंगा’ नाम से जाना जाता है। इसका हरा रंग सुख, (UPBoardSolutions.com) समृद्धि और विकास का सूचक है, सफेद रंग ज्ञान, भाईचारा, उच्च विचार जैसे सदगुणों का द्योतक है। और केसरिया रंग त्याग और शूरता का बोधक है। सफेद रंग के मध्य में स्थित चक्र ‘अनेकता में एकता’ को प्रकट करता है।

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Class 10 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions धैर्यधनाः हि साधवः Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 3 Dhairya Dhana hi Sadhava Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद धैर्यधनाः हि साधवः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ एक जातक-कथा है। जातक-कथाओं का सम्बन्ध सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) के पूर्वजन्म से है। बौद्ध विद्वानों का मानना है कि सिद्धार्थ को एक ही जन्म में बोधि प्राप्त नहीं हुई थी अनेक पूर्व जन्मों में दया, करुणा, परोपकार आदि का अभ्यास करके उन्होंने बोधि प्राप्त की। पिछले जन्मों में उनकी संज्ञा बोधिसत्त्व रूप में उल्लिखित है। जातक-कथाओं की रचना पालि-भाषा में हुई है, जिनका बाद में संस्कृत में अनुवाद किया गया। इनकी संख्या 500 (UPBoardSolutions.com) के लगभग है और ये चीनी भाषा में भी अनूदित हो चुकी हैं। प्रस्तुत कथा “जातकमाला’ से ली गयी है, जिसका संकलन आर्यशूर नामक विद्वान् द्वारा किया गया है। प्रस्तुत कथा के अन्तर्गत बोधित्त्व एक नाविक के रूप में जन्म लेते हैं, जिनकी विशेषताएँ धर्म-पालन और विपत्तियों में धैर्य धारण करना है।

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पाठ-सारांश

बोधिसत्त्व का जन्म – किसी समय बोधिसत्त्व (महात्मा बुद्ध का पूर्व जन्म) ने नाविक के रूप में जन्म लिया। वे इतने प्रतिभासम्पन्न थे कि जिन-जिन विषयों को जानना चाहते थे, उन्हें सहज ही जान लेते थे। वे तीक्ष्ण बुद्धि वाले, अनेक कलाओं के ज्ञाता, दिशा सम्बन्धी ज्ञान वाले, समुद्र-ज्ञाता और भावी संकटों के ज्ञाता थे। उनका नाम सुपारग और उनके नगर का नाम ‘सुपारगम्’ था। वृद्ध होते हुए भी व्यापारी उनका बहुत सम्मान करते थे तथा उन्हें अपने साथ लेकर समुद्री यात्रा करना शुभ मानते थे। उन्होंने अपने नाविक जीवन में समुद्री यात्राएँ करते-करते मछलियों और नाना रत्नों से परिपूर्ण अगाध जल वाले सागरों का अवगाहन कर उनके रहस्य को जान लिया था।

सुपारग का समुद्रयात्रा पर जाना – किसी समय भरुकच्छ से आये हुए कुछ व्यापारियों ने सुपारग से नाव पर बैठकर साथ चलने की प्रार्थना की। अत्यधिक वृद्ध होते हुए भी महात्मा सुपारग ने उनके साथ चलना स्वीकार कर लिया। व्यापारी प्रसन्न होकर अनेक समुद्रों को पार करते हुए उनके साथ यात्रा करते रहे।

मार्ग में बइवामुख समुद्र का आना – मार्ग में भयंकर तूफान आने के कारण वे कई दिन तक समुद्र में इधर-उधर भटकते रहे। उन्हें कहीं भी किनारा नहीं मिला। व्यापारी बहुत घबरा गये। सुपारग ने उन्हें समझाया कि घबराने से काम नहीं चलेगा। धीरज से काम लें। यह ‘खुरमाली’ नाम का समुद्र है। वायु के तीव्र झोंकों के कारण आप लोग इसे पार नहीं कर पा रहे हैं। येन-केन-प्रकारेण उसे समुद्र को पार करके वे ‘क्षीरसागर’ में पहुँचे और उसके बाद ‘अग्निमाली’ समुद्र में पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अनेक कष्टों को सहन करते हुए ‘कुशमाली’ और ‘नलमाली’ नामक भयंकर समुद्रों को पार किया। सुपारग बार-बार व्यापारियों को वापस चलने के लिए कहते रहे, लेकिन पर्याप्त प्रयास करने पर भी वे वापस न लौट सके और अत्यन्त भयानक, हृदयविदारक गर्जना करते हुए अन्ततः ‘बड़वामुख’ नामक समुद्र में (UPBoardSolutions.com) जा पहुँचे। सुपारग ने उस समुद्र का परिचय दिया कि यह वह समुद्र है जिसमें पहुँचकर कोई भी मृत्यु के मुख से नहीं बच पाया है। व्यापारियों ने जीवन से निराश होकर सुपारग से कोई उपाय बताने के लिए कहा, जिससे वे सुरक्षित लौट सकें।

सुपारग द्वारा प्रार्थना करना – जीवन का अन्त निकट जानकर सभी व्यापारी करुणा से रोने लगे। तब सुपारंग ने नाव पर बैठे हुए ही घुटने टेककर तथागतों को प्रणाम करके कहा-मेरे पुण्य और अहिंसा के बल से यह नाव कल्याण सहित लौट जाये।

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सुपारग द्वारा रत्नसहित व्यापारियों की कुशल वापसी – इसके बाद महात्मा सुपारग के पुण्य-बल से वह नाव अनुकूल वायु पाकर लौट पड़ी। नाव को लौटती देखकर सभी व्यापारियों को अत्यन्त प्रसन्नता और आश्चर्य हुआ। लौटते समय सुपारग ने व्यापारियों से कहा कि आप लोग नलमाली समुद्र से बालुका (रेत) और पत्थर नाव में भर लें। ये रेत और पत्थर निश्चय ही आपके लाभ के लिए होंगे। उन व्यापारियों ने सुपारग की बात मानते हुए समुद्री रेत और पत्थर को जहाज में भर लिया। इसके पश्चात् एक ही रात में वह नाव भरुकच्छ पहुँच गयी। प्रात: समय व्यापारियों ने नाव को चाँदी, इन्द्रनील, वैदूर्य, सुवर्ण आदि । (UPBoardSolutions.com) से भरी देखकर हर्षित होकर सुपारग की पूजा की। वास्तव में सत्य बोलना और धर्म का आश्रय लेना कभी दुःखदायी नहीं होता-‘तदेवं धर्माश्रयं सत्यवचनमपि आपदं नुदति।’

चरित्र-चित्रण

सुपारग (बोधिसत्त्व) [2006,07,08, 09, 10, 11, 12, 13, 15]

परिचय प्राचीनकाल में बोधिसत्त्व ने एक नाव के सह-संचालक के रूप में जन्म ग्रहण किया। वे अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि, कलाओं में निपुण, संकटों में धैर्य रखने वाले, दिशाओं के ज्ञाता और समुद्रविषयक रहस्यों के सूक्ष्म जानकार थे। समुद्रविषयक ज्ञान के कारण उनका नाम ‘सुपारग’ पड़ा। उनकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1.समुद्रयात्रा के ज्ञाता – सुपारग को समुद्रविषयक रहस्यों की सूक्ष्म जानकारी थी। वे कुशल नाविक थे और उन्होंने सुदूर देशों तक समुद्र की यात्रा की थी। उन्हें समुद्रयात्रा का गहन अनुभव, जानकारी तथा इस सम्बन्ध में दूर-दूर तक प्रसिद्धि भी थी। यही कारण था कि अशक्त और वृद्ध होते हुए भी वे व्यापारियों के द्वारा यात्रा पर ले जाये जाते थे और प्रत्येक विपत्ति में उनका साथ देते थे।

2. उदार हृदय – सुपारग उदार हृदय वाले व्यक्ति थे। वह प्रार्थना करने वालों की प्रार्थना अवश्य स्वीकार कर लेते थे। इसीलिए अशक्त और वृद्ध होते हुए भी वे भरुकच्छ से आये हुए व्यापारियों की प्रार्थना स्वीकार करके उनके साथ प्रस्थान करते हैं। इससे सुपारग की उदारता प्रकट होती है।

3. साहसी – सुपारग अत्यन्त साहसी व्यक्ति थे। वे भयंकर-से-भयंकर समुद्र की यात्रा करने में भी साहस को नहीं छोड़ते थे। व्यापारी जब अपने जीवन से पूर्णत: निराश हो चुके थे, तब भी वे साहस का परिचय देते हुए भगवान् से सबको सकुशल लौटाने की प्रार्थना करते हैं तथा अपने पुण्यबल व अहिंसाबल से जहाज को भरुकच्छ लौटा लाते हैं।

4. दयावान् – सुपारग उच्चकोटि के दयावान् हैं। वृद्ध होने पर भी वे व्यापारियों की प्रार्थना पर उनके साथ समुद्री यात्रा करना स्वीकार कर लेते हैं तथा उनको जीवन से निराश देखकर जहाज को सकुशल लौटाने की भगवान् से प्रार्थना करते हैं। यह उनकी दयालुता का परिचायक है।

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5. अहिंसावादी – सुपारगं अंहिंसा सिद्धान्त को मानने वाले थे। वे प्राणिमात्र की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते थे और उसके लिए प्रयत्नशील रहते थे। वे अपने अहिंसा-बल से ईश्वर से प्रार्थना करकें नाव को वापस ले आते हैं और व्यापारियों के प्राणों की रक्षा करते हैं। इस कथा में उनका यह रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

6. हितैषी और मित्र – ‘सुपारग व्यापारी वर्ग के सच्चे हितैषी और मित्र हैं। नलमाली समुद्र को पार करते समय उसके गुणों से परिचित होने के कारण वे उसकी मिट्टी, बालू एवं पत्थरों को व्यापारियों से नाव में भर लेने के लिए कहते हैं, क्योंकि वे यह जानते थे कि ये रेत और पत्थर अन्त में सुवर्ण और रत्न बन जाएँगे। उनका यह कार्य उनके व्यापारी वर्ग के हितैषी और मित्र होने का परिचायक है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सुपारग समुद्री यात्रा के ज्ञाता, उदार हृदय, साहसी, दयावान्, (UPBoardSolutions.com) अहिंसावादी आदि गुणों से युक्त तो थे ही, उनमें परोपकारपरायणता, जनहित-चिन्तन, कोमल-हृदयता, तपस्विता आदि अन्य बहुत-से गुण भी विद्यमान थे। निश्चय ही सुपारग का चरित्र एक आदर्श पुरुष का चरित्र है।

लघु उत्तटीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कोऽयं सुपारगः ? कस्मात् तस्यायं नाम ? [2009, 15]
उत्तर :
सुपारगः बोधिसत्त्वः एव आसीत्। सः समुद्रपारं गत्वा वणिजाम् ईप्सितं देशं प्रापयिता नाविकः आसीत्, अतः जनाः तं सुपारगनाम्ना कथयन्ति स्म।

प्रश्न 2.
सुपारगः वणिग्साहाय्ये कथमसमर्थो जातः ?
उत्तर :
सुपारगः जराशिथिलशरीरत्वात् वणिग्साहाय्ये असमर्थः जातः

प्रश्न 3.
वणिजः कीदृशं समुद्रम् अवजगाहिरे ? [2006]
उत्तर :
वणिज: विविधमीनकुलविचरितं, बहुविधरत्नैर्युतम् अप्रमेयतोयं, महासमुद्रम् अवजगाहिरे।

प्रश्न 4.
वणिज: कान्कान् समुद्रान् ददृशुः ?
उत्तर :
वणिजः खुरमालिनं, क्षीरार्णवम्, अग्निमालिनं, (UPBoardSolutions.com) कुशमालिनं, नलमालिनं, बडवामुखं च समुद्रान् ददृशुः।

प्रश्न 5.
सायाह्नसमये वणिजः कीदृशीं समुद्रध्वनिम् अश्रौषुः ?
उत्तर :
सायाह्नसमये वणिजः श्रुतिहृदयविदारणं समुद्रध्वनिम् अश्रौषुः।

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प्रश्न 6.
महत्या करुणया उपेतः सुपारगः वणिग्जनान् किमुवाच?
या
सुपारगः वणिग्जनान् किम् उवाच ?
उत्तर :
‘महत्या करुणया उपेतः सुपारगः वणिग्जनान् उवाच-अस्यापि नः कश्चित् प्रतीकारविधिः प्रतिभाति तत्तावत् प्रयोक्ष्ये इति।

प्रश्न 7.
नलमालिसमुद्रेभ्यः प्राप्तबालुकाः पाषाणाश्च प्रभाते कीदृशाः जातः ?
उत्तर :
नलमालिसमुद्रेभ्य: प्राप्तबालुका: पाषाणाश्च प्रभाते रजते, इन्द्रनील, वैदूर्य, हेमरूपाः जाताः।

प्रश्न 8.
धर्माश्रयं सत्यवचनम् आपदं कथं नुदति ?
उत्तर :
धर्माश्रयं सत्यवचनम् आपदम् ईश्वरस्मरणमात्रेणैव नुदति।

प्रश्न 9.
सुपारगः कः आसीत्? [2009,11]
उत्तर :
सुपारगः बोधिसत्त्वः आसीत्।

प्रश्न 10.
कस्य नाम सुपारगः आसीत्?
उत्तर :
बोधिसत्त्वस्य नाम सुपारगः आसीत्?

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प्रश्न 11. 
जातकमालायाः रचयिता कः? [2009, 10, 12, 13, 14, 15]
उत्तर :
जातकमालायाः रचयिता ‘आर्यशूर:’।

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये (UPBoardSolutions.com) गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘धैर्यधना: हि साधवः’ नामक पाठ किस ग्रन्थ से उधृत है ?

(क) नागानन्दम्’ से
(ख) ‘जातकमाला’ से
(ग) भोजप्रबन्ध’ से
(घ) ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ से

2. “धैर्यधनाः हि साधवः’ नामक पाठ किस महान् व्यक्तित्व से सम्बन्धित है ?

(क) ईसा मसीह से
(ख) महावीर स्वामी से
(ग) गौतम बुद्ध से
(घ) भगवान् कृष्ण से

3. ‘जातकमाला’ नामक ग्रन्थ के रचयिता कौन हैं? [2008, 11, 15]

(क) आर्यशूर
(ख) महर्षि वाल्मीकि
(ग) हर्षवर्द्धन
(घ) महर्षि व्यास

4. ‘धैर्यधनाः हि साधवः” नामक पाठ में बोधिसत्त्व का क्या नाम है ?

(क) कुपारग
(ख) अपारग
(ग) सपारग
(घ) सुपारग

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5. सुपारग वणिजों की सहायता करने में क्यों असमर्थ हो गये थे ?

(क) मूढ़ाधिक्य के कारण रिण
(ख) गर्वाधिक्य के कारण
(ग) जराधिक्य के कारण
(घ) धनाधिक्य के कारण

6. व्यापारियों ने सबसे पहले कौन-सा समुद्र देखा?

(क) खुरमाली
(ख) क्षीरार्णव
(ग) कुशमाली
(घ) नलमाली

7. भयानक, दुःखदायी और हृदयविदारक गर्जना करने वाला समुद्र कौन-सा था ?

(क) नलमाली
(ख) बड़वामुख
(ग) अग्निमाली
(घ) कुशमाली

8. बड़वामुख समुद्र से नौका को लौटाने के लिए सुपारग ने क्या उपाय किया?

(क) मन्त्रों का प्रयोग किया।
(ख) ईश्वर से प्रार्थना की
(ग) नौका को वापस मोड़ लिया
(घ) नौका को स्वतन्त्र छोड़ दिया

9. सुपारगनाव को किसके बल से लौटाने में समर्थ हुआ ?

(क) बाहुबल से
(ख) अहिंसा बल से
(ग) सत्याधिष्ठान बल से
(घ) सत्याधिष्ठान और अहिंसा के बल से

10. जल-प्रवाह के विपरीत लौटी नौका किस समुद्र में पहुँच गयी ?

(क) अग्निमाली
(ख) नलमाली
(ग) कुशमाली
(घ) क्षीरार्णव

11. किस समुद्र के रेत और पत्थरों को सुपारग ने व्यापारियों से अपनी नौका में भरने को कहा था?

(क) अग्निमाली के
(ख) नलमाली के
(ग) खुरमाली के
(घ) कुशमाली के

12. व्यापारियों ने नौका में भरे रेत और पत्थरों के स्थान पर क्या वस्तु पायी ?

(क) विभिन्न रत्न
(ख) विभिन्न मोती
(ग) विभिन्न मछलियाँ
(घ) विभिन्न ओषधियाँ

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13. “बोधिसत्त्वभूतः किल महासत्त्वः परमनिपुणमतिः ………………… बभूव।” में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) ‘पोतचालक:’ से
(ख) ‘नौसारथिः’ से
(ग) “सारथिः’ से
(घ) “सांयात्रिकः’ से

14. “यतो न भेतव्यमतः किं तु …………………… अयं समुद्रः तद्यतध्वं निवर्तितुम्।” में रिक्त-स्थान में आएगा –

(क) कुशमाली
(ख) खुरमाली
(ग) अग्निमाली
(घ) नलमाली

15. “अस्माकं काल इवायं नलमाली नाम सागरः।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) कुशमाली
(ख) सुपारग
(ग) श्रीमाली
(घ) वनमाली

16. …………………… समुपेतास्थ तदेतद् बडवामुखम्।” श्लोक की चरण-पूर्ति होगी –

(क) ‘शिवम्’ से
(ख) ‘सुन्दरम्’ से
(ग) “सत्यम्’ से
(घ)’अशिवम्’ से

17. “मम पुण्यबलेन अहिंसाबलेन चेयं नौः स्वस्तिविनिवर्त्तताम्।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) सुपारगः
(ख) कुशमाली
(ग) श्रीमाली
(घ) वणिकः

18. “तदेव ………………….. आश्रयं सत्यवचनमपि आपदं नुदतीति।” में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी –

(क) ‘सत्य’ से
(ख) “अहिंसा से
(ग)’धर्म’ से
(घ) “अधर्म’ से

19. सुपारगः ………………. आसीत्।

(क) व्यापारी
(ख) नाविकः
(ग) सैनिक:
(घ) कविः

20. पूर्वजन्मनि सुपारगः …………………… आसीत्। [2006, 10]

(क) ईन्द्रः
(ख) बोधिसत्वः
(ग) नृपः
(घ) अर्जुनः

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21. सुपारगः ……………………… ज्ञाता आसीत्। [2007]

(क) वेदानां शास्त्राणां
(ख) रत्नानाम् समुद्राणां
(ग) वनस्पतीनां फलानाम्
(घ) संगीतशास्त्राणाम्

22. सुपारगः ……………….. नाम बभूव। [2008, 10]

(क) वणिजः
(ख) पत्तनस्य
(ग) ग्रामस्य
(घ) नौसारथेः

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Class 9 Sanskrit Chapter 16 UP Board Solutions अन्तरिक्ष-विज्ञानम् Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 16 अन्तरिक्ष-विज्ञानम् (गद्य – भारती) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 16 अन्तरिक्ष-विज्ञानम् (गद्य – भारती).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 16
Chapter Name अन्तरिक्ष-विज्ञानम् (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 3
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 16 Antariksh – Vigyanam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 16 हिंदी अनुवाद अन्तरिक्ष-विज्ञानम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

अन्तरिक्ष–प्रकृति के विधान में बहुवर्णी शाटिका को पहने पृथ्वी जिस प्रकार मानवों को नदी-नद-पर्वत-रत्नरूपमयी अपनी विशाल सम्पत्ति से मोह लेती है, उसी प्रकार विशाल, अनन्त, नि:सीम और ब्रह्मस्वरूपात्मक अन्तरिक्ष भी मानवों को आकृष्ट करता है। अनन्त आकाश में असंख्य नक्षत्र, पुच्छल तारे, नीहारिकाएँ, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, चन्द्रमा, सप्तर्षि, 27 नक्षत्र और राशियाँ हैं, जो इसकी चकाचौंध को स्पष्ट करती हैं।

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सौर-साम्राज्य–आकाश में स्थित सौर-साम्राज्य में एक सूर्य, नौ ग्रह, 28 उपग्रह, अनेक ग्रहकणिकाएँ, हजारों धूमकेतु और अनेक उल्काएँ हैं। ये ग्रह-कणिकाएँ मंगल और बृहस्पति नक्षत्र के बीच बिखरी हुई हैं। धूमकेतु ग्रहों और उपग्रहों से भिन्न होते हैं। छोटे-छोटे टिमटिमाते हुए प्रकाशबिन्दु तारा हैं। भीषण गर्मी और जलाभाव के कारण प्राणियों का यहाँ रहना असम्भव है।

सूर्य-सूर्य थाली के आकार का दिखाई देता हुआ भी वैसा नहीं है। यह पृथ्वी से तेरह लाख गुना बड़ा है तथा पृथ्वी से इसकी दूरी नौ करोड़ तीस लाख मील है। चन्द्रमा भी सूर्य जैसा ही दिखाई पड़ता है किन्तु वह पृथ्वी से भी बहुत छोटा है। नक्षत्र सूर्य की अपेक्षा बड़े होते हैं, परन्तु छोटे-छोटे दिखाई देते हैं। इसका कारण यह है कि जो वस्तु जितनी दूर होती है वह उतनी ही छोटी दिखाई देती है। सूर्य यदि क्षणभर के (UPBoardSolutions.com) लिए भी अपने आकर्षण को रोक ले तो सभी ग्रह और उपग्रह आपस में टकराकर गिर पड़ेगे और पृथ्वी तो चूर्ण-चूर्ण हो जाएगी। यदि सूर्य अपना प्रकाश और ताप देना बन्द कर दे तो सभी जड़-चेतन का विनाश हो जाये। यही कारण है कि सूर्य हमारा महान् उपकारक है।

सप्तर्षि और ध्रुव की स्थिति-उत्तरी दिशा में सप्तर्षि तारे हल के आकार में चमकते हैं। तीन तारे ऊपर पूँछ के रूप में तथा शेष चार नीचे चमकते हैं। इन्हीं के पास ध्रुव तारा भी चमकता है।

धूमकेतु-1908 ई० में एक फुच्छल तारा (धूमकेतु) उत्तर की ओर देखा गया था। दूसरा धूमकेतु 1910 ई० में दिखाई दिया। धूमकेतु की पूँछ अत्यन्त विशाल और भाप से बनी होती है। यह सौर-साम्राज्यँ के परिवार का नहीं है। यदि यह कभी सौर-साम्राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाता है तो सूर्य इसे बलात् खींचकर घुमा देता है। इसे अपशकुन का द्योतक माना जाता है।

उल्काएँ–गहन रात्रि में जब आकाश स्वच्छ होता है, उस समय बाण के आकार का चकाचौंध करने वाला प्रकाश आकाश को चीरता हुआ वेग से दूर तक दौड़कर लुप्त हो जाता है। लोग इसे लूक टूटना’ कहते हैं और इसे देखने पर फूलों का नाम लेकर या थूककर सम्भावित अनिष्ट का निवारण करते हैं। वास्तव में उल्काएँ इकट्ठी होकर इधर-उधर घूमती हैं। जब ये पृथ्वी की सीमा में पहुँचती हैं। तब वायुमण्डल से घर्षण (UPBoardSolutions.com) करके जलती हुई फैलती हैं और फिर नष्ट हो जाती हैं। कुछ अधजली अवस्था में भूमि पर भी गिर जाती हैं। ऐसी उल्काएँ.कलकत्ता के संग्रहालय में रखी हुई हैं।

चन्द्रमा-चन्द्रमा सभी नक्षत्रों में पृथ्वी के अधिक समीप है। इसकी कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं। चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काटता रहता है और 28 दिन में पृथ्वी का एक चक्कर पूरा कर लेता है। चन्द्रमा की कलाओं से तिथियों और महीनों का निर्माण होता है। चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है। जब वह सूर्य और पृथ्वी के मध्य में आ जाता है, तब ग्रहण होता है। चन्द्रमा के जिस भाग पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है, वह कला रूप में दिखाई देता है और वही प्रकाश क्रम से घटता-बढ़ता रहता है। (UPBoardSolutions.com) अमावस्या के दिन चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी के मध्य में होता है। उसका जो भाग सूर्य के सामने होता है, वह प्रकाशमान होता है और वह भाग पृथ्वी पर दिखाई नहीं देता। पूर्णिमा के दिन पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के मध्य में होती है, उस समय सम्पूर्ण चन्द्रमा प्रकाशमान दिखाई देता है।

नीहारिकाएँ-आकाश में विशाल आकार के वाष्पीय पदार्थों के जो समूह दिखाई देते हैं, वे नीहारिकाएँ हैं। रात के समय आकाश के बीच से सड़क बनाता हुआ-सा प्रकाश दिखाई पड़ता है। आकाश में बहुत-सी नीहारिकाएँ हैं, ये ऊँची-नीची बड़े आकार की, गोल आकार की और कुण्डली के आकार की होती हैं। एक नीहारिका सूर्य से दस खरब गुनी बड़ी होती है। बड़ी नीहारिका स्वयं में एक बड़ा ब्रह्माण्ड होती है। नीहारिका में असंख्य तारे होते हैं। इसे आकाश-गंगा भी कहते हैं। |

नौ ग्रह-आधुनिक वैज्ञानिक सूर्य के बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, वरुण, वारुणी और यम ये नौ ग्रह बताते हैं। भारतीय ज्योतिषी सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु को नौ ग्रह कहते हैं।

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शोंगद्यां का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) प्रकृतेः विधाने यत्र इयं वसुन्धरा विभिन्नेषु रूपेषु बहुवर्णिकां शाटिकां परिधाय स्वकीयया विशालया नदी-वन-पर्वत-रत्न-रूपया सम्पत्तया मानवानां मनो मोहयति, तथैव विशालमिदमन्तरिक्षं नि:सीमकमनन्तं हिरण्यगर्भात्मकं चास्ति। अस्मिन्ननन्ते आकाशे अनन्तानि नक्षत्राणि, पुच्छलताराः, नीहारिकाः, ग्रहाः, उपग्रहाः, आदित्याः, चन्द्रमाः, सप्तर्षयः, सप्तविंशतिनक्षत्राणि संवत्सरप्रवर्तकाः राशयः विलीनाः चाकचिक्यं प्रकटयन्ति।

शब्दार्थ
बहुवर्णिकां = अनेक रंगों की।
शाटिकां = साड़ी।
परिधाय = पहनकर।
निः सीमकम् = सीमारहित।
हिरण्यगर्भात्मकम् = ब्रह्मस्वरूपात्मक।
आदित्याः = सूर्य।
सप्तविंशति = सत्ताइस।
विलीनाः = समायी हुई।
चाकचिक्यम् = चकाचौंधं।
प्रकटयन्ति = प्रकट करती है। |

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित। ‘अन्तरिक्ष-विज्ञानम्’ पाठ से उद्धृत किया गया है
[संकेत-इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] । प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में अन्तरिक्ष की विशालता एवं पृथ्वी की विचित्रता बतायी गयी है।

अनुवाद
प्रकृति के विधान में जहाँ यह पृथ्वी विभिन्न रूपों में बहुरंगी साड़ी पहनकर नदी, वन, पर्वत, रत्नरूप अपनी विशाल सम्पत्ति से मानवों के मन को मोह लेती है, उसी प्रकार यह विशाल अन्तरिक्ष असीम, अनन्त और ब्रह्मस्वरूप वाला है। इस अनन्त आकाश में असंख्य नक्षत्र, पुच्छल तारे, (UPBoardSolutions.com) आकाश-गंगाएँ, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, चन्द्रमा, सप्तर्षि, तारे, सत्ताइस नक्षत्र, संवत्सरों की प्रवर्तक राशियाँ विलीन होकर चकाचौंध प्रकट करती हैं।

(2) कैवले सौरसाम्राज्ये एकः आदित्यः, तस्य नवग्रहाः अष्टाविंशत्युपग्रहान सन्ति। अनेकाः ग्रहकणिकाः सहस्रं धूम्रकेतवः तथैव अनन्ता उल्काश्च समुपलभ्यन्ते। ग्रहकणिकाः, मङ्गलबृहस्पतिनक्षत्रयोरन्तरले विकीर्णाः सन्ति। ताः लघ्व्यः सन्ति, उल्काश्च ततोऽपि अतिलघ्व्यः। धूम्रकेतवः ग्रहेभ्यः उपग्रहेभ्यश्च भिन्नाः भवन्ति। ते परिमाणेन लघवः आकाशे इतस्ततः विकीर्णाः सन्ति। अल्पीयांसं प्रकाशबिन्दु ध्रियमाणाः टिमटिमायन्ते तास्तास्ताराः। तत्र भीषणमौष्ण्यं जलाभावश्चातः प्राणिनां निःश्वसनमसम्भवम्।

शाब्दार्थ
अष्टाविंशत्युपग्रहाः = अट्ठाइस उपग्रह।
ग्रहकणिकाः = छोटे-छोटे ग्रह के कण (टुकड़े)।
समुपलभ्यन्ते = प्राप्त होती हैं।
अन्तराले = मध्य में।
विकीर्णाः = फैली हुई।
लघ्व्यः = छोटी-छोटी।
इतस्ततः = इधर-उधर।
अल्पीयांसम् = थोड़ी-सी।
श्रियमाणाः = धारण करते हुए।
औष्ण्यम् = गर्मी।
निवसनम् = रहना।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में सौर-मण्डल का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
केवल सौर-मण्डल में एक सूर्य, उसके नौ ग्रह, अट्ठाइस उपग्रह हैं। अनेक छोटे-छोटे ग्रह, हजारों धूमकेतु और उसी प्रकार अनन्त उल्काएँ पायी जाती हैं। ग्रह-कणिकाएँ मंगल और बृहस्पति नक्षत्रों के मध्य में फैली हैं। वे बहुत छोटी हैं और उल्काएँ उनसे भी अधिक छोटी होती हैं। धूमकेतु ग्रहों और उपग्रहों से भिन्न होते हैं। वे परिमाण में छोटे, आकाश में इधर-उधर फैले हुए हैं।

थोड़े-से प्रकाश के बिन्दु को धारण करते हुए अनेक तारे टिमटिमाते रहते हैं। वहाँ भीषण गर्मी है एवं जल का अभाव है; अत: प्राणियों का वहाँ रहना असम्भव है।

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(3) सूर्यः स्थाल्याकारः प्रतीयते परम् एवं नास्ति। अयं पृथिव्याः त्रयोदशलक्षात्मको गुणितो अतीव महान् वेविद्यते। चन्द्रोऽपि प्रायः सूर्य इव वीक्षते। परन्तु पृथिव्या अपि लघुरस्ति। नक्षत्राणामाकारं आवं-श्रावं पाठे-पाठं मनोऽतीव विमुग्धतां भजते। तानि सूर्यापेक्षया अतीव महान्ति प्रतिभान्ति, परं लघूनि दृश्यन्ते। कारणमिदं यद्वस्तु यावदूरं भवति, तद्वस्तु लघु दृश्यते। सूर्यो यदि ऐक क्षणमपि नैजमाकर्षणमवरुन्धीत् तदा सर्वे (UPBoardSolutions.com) ग्रहाः उपग्रहाश्च परस्परं संघर्षणं, परिघट्टनञ्च कुर्वाणाः स्वस्थानात् च्यवीरन्। वराकी पृथिवी तु सर्वथैव चूर्णतां गच्छेत्। इत्थमेकमपि मुहूर्तं तापं प्रकाशञ्च यदि सूर्योऽवरुन्ध्यात् तदा अस्माकं समेषां जडचेतनानां सर्वनाशो जायेत। सौरसाम्राज्ये यानि पिण्डानि सन्ति तेषां गतिः सुनिश्चिता, तानि एकस्यामेव दिशि गतिं प्रकुर्वते, तस्यामेव धुरि परिचलन्ति। द्वौ त्रयो वा उपग्रहा एवंविधाः सन्ति ये विपरीत दिशं वहन्ति। ते सर्वे सौरसाम्राज्ये नियमं व्यवस्थामेवावलम्बन्ते। पृथिवीतः सूर्यः त्रिंशल्लक्षाधिकनवकोटिमीलापरिमिते दूरेऽस्ति। चन्द्रोऽपि पृथिवीतः लक्षद्वयात्मके दूरे वसति।

शब्दार्थ
स्थाल्याकारः = थाली के आकार वाला।
प्रतीयते = प्रतीत होता है।
वेविद्यते = विद्यमान है।
वीक्षते = दिखाई पड़ता है।
आवं-आवम् = सुन-सुनकर।
पाठे-पाठम् = पढ़-पढ़कर।
विमुग्धतां भजते = मुग्ध हो जाता है।
प्रतिभान्ति = प्रतीत होते हैं।
यावत् दूरं = जितनी दूर।
नैजम् = स्वयं से सम्बन्धित।
अवरुन्धीत = रोक ले।
च्यवीरन् = गिर पड़े।
वराकी = बेचारी।
चूर्णता गच्छेत् = चूर्ण हो जाये।
अवरुन्ध्यात् = रोक ले।
समेषाम् = सभी का।
प्रकुर्वते = करते हैं।
धुरि = धुरी पर।
वहन्ति = चलते हैं।
अवलम्बन्ते = सहारा लेते हैं।
त्रिंशल्लक्षाधिकनवकोटिमील = नौ करोड़ तीस लाख मील।।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में सौर-मण्डल में सूर्य के आकार, उसके पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव तथा उसकी स्थिति बतायी गयी है।

अनुवाद
सूर्य थाली के आकार को मालूम पड़ता है, परन्तु ऐसा नहीं है। यह पृथ्वी से तेरह लाख गुना अधिक बड़ा विद्यमान है। चन्द्रमा भी प्रायः सूर्य के समान दिखाई देता है, परन्तु यह पृथ्वी से भी छोटा है। नक्षत्रों के आकार को सुन-सुनकर, पढ़-पढ़कर मन अत्यन्त मुग्ध हो जाता है, वे सूर्य की अपेक्षा अत्यन्त विशाल होते हैं, परन्तु छोटे दिखाई देते हैं। इसका यह कारण है कि जो वस्तु जितनी दूर होती है, वह वस्तु उतनी छोटी दिखाई देती है। यदि सूर्य एक क्षण को भी अपना आकर्षण रोक दे, तब सब ग्रह और उपग्रह आपस में रगड़ते हुए और टकराते हुए अपने स्थान से गिर पड़े। बेचारी पृथ्वी तो पूरी तरह से चूर्ण-चूर्ण हो जाये। इसी प्रकार यदि सूर्य एक (UPBoardSolutions.com) मुहूर्त (थोड़े समय) को भी ताप और प्रकाश बन्द कर दे, तब हम सभी जड़-चेतन प्राणियों का सर्वनाश हो जाये। सौर-साम्राज्य में जो पिण्ड हैं, उनकी गति सुनिश्चित है और वे एक ही दिशा में गमन करते हैं और उसी धुरी पर घूमते हैं। दो या तीन उपग्रह इस तरह के हैं, जो विपरीत दिशा में चलते हैं। वे सब सौर-साम्राज्य में नियम और व्यवस्था का ही सहारा लेते हैं। सूर्य पृथ्वी से नौ करोड़ तीस लाख मील दूरी पर है। चन्द्रमा भी पृथ्वी से दो लाख मील दूरी पर रहता है।”

(4) सप्तर्षयः ध्रुवं च-उत्तरस्यां दिशि सप्तर्षयः हलाकारं प्रतिभासन्ते। तिस्राः ताराः उपरि एकस्यां पुङ्क्तौ पुच्छरूपेण, चतस्रः चतुरस्रतयाधः प्रतिभासन्ते। समीपे धुवं भं भासते।

शब्दार्थ
हलाकारम् = हल के आकार के
प्रतिभासन्ते = चमकते हैं।
पुच्छरूपेण = पूँछ के रूप में।
चतुरस्रतयाधः (चतुरस्रतया + अधः) = चौकोर तथा नीचे।
भम् = तारा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में सप्तर्षि तारों और ध्रुव के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
सप्तर्षि तारे और धुव-उत्तर दिशा में सप्तर्षि तारे हल के आकार में चमकते हैं। तीन तारे ऊपर एक पंक्ति में पूँछ रूप में, चार चौकोर होने से नीचे की ओर चमकते हैं। पास में ध्रुव तारा चमकता है। ”

(5) धूम्रकेतुः-अष्टाधिकैकोनविंशतिशततमेऽब्दे एको महान् धूम्रकेतुः रात्रेरन्तिमे प्रहरे गगने उत्तरस्यां दिशि दृष्टः। इत्थम् द्वितीयो धूम्रकेतुः दशाधिकैकोनविंशे शततमें ख्रीष्टाब्देऽपि वीक्षितो जनैः। धूम्रकेतोः पुच्छमतिविशालमल्पीयसा वाष्पेण निर्मितं भवति। एककिलोग्राम-भारात्मकं परिमाणं प्रायः भवति। धूम्रकेतुः सौरसाम्राज्धस्य परिवारो नास्ति। अयं सौरजगतः बहिरेव इतस्ततः परिभ्रमति। यदा सौरसाम्राज्यस्य (UPBoardSolutions.com) परिवारो नास्ति। अयं सौरजगतः बहिरेव इतस्ततः परिभ्रमति। यदा सौरसाम्राज्यस्य सीमानं प्रविशति तदा सूर्यः बलादार्कषति। यावत् न परिक्रमते | तावत् मुक्तो न भवति। अयम् अतिथिः दैवयोगात् सौरसाम्राज्यमाविशति। यः शक्तिहीनः धूम्रकेतुर्भवति च सततं परिभ्रमन्नेव तिष्ठति। कश्चन नश्यत्येव। एनमपशकुनस्यापि द्योतकं मन्यन्ते।।

शब्दार्थ
अष्टाधिकैकोनविंशतिशततमेऽब्दे = सन् 1908 में।
रात्रेः अन्तिमे = रात के अन्तिम में।
दशाधिकैकोनविंशे = 1910 में।
वीक्षितः = देखा गया।
अल्पीयसा वाष्पेण = थोड़ी-सी भाप से।
बहिरेव = बाहर ही।
इतस्ततः = इधर-उधर।
परिभ्रमति = चारों ओर घूमता है।
सीमानम् = सीमा को।
प्रविशति = प्रवेश करता है।
बलादाकर्षति = बल से खींचता है।
परिक्रमते = घूमता है।
आविशति = प्रवेश करता है।
परिभ्रमन्नेव तिष्ठति = घूमता ही रहता है।
कश्चन = कोई।
नश्यत्येव = नष्ट हो जाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में धूमकेतु (पुच्छल तारा) का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
धूम्रकेतु-सन् 1908 ईसवी में एक बड़ा धूमकेतु रात्रि के अन्तिम प्रहर में आकाश में उत्तर दिशा में दिखाई दिया था। इसी प्रकार दूसरा धूमकेतु सन् 1910 ईसवी में लोगों ने देखा। धूमकेतु की अत्यन्त विशाल पूँछ थोड़ी-सी भाप से बनी होती है। प्रायः इसका भार एक किलोग्राम के बराबर होता है। धूमकेतु सौर-साम्राज्य परिवार का नहीं है। यह सौर-जगत् के बाहर की इधर-उधर घूमता है। जब वह सौर-साम्राज्य की (UPBoardSolutions.com) सीमा में प्रवेश करता है, तब सूर्य इसे बलपूर्वक अपनी ओर खींचता है। यह जब तक नहीं घूमता है, तब तक मुक्त नहीं होता है। यह अतिथि दैवयोग से ही सौर-साम्राज्य में प्रवेश करता है। जो धूमकेतु बलहीन (कमजोर) होता है, वह निरन्तर घूमता ही रहता है। कोई नष्ट हो जाता है। इसे अपशकुन का भी सूचक मानते हैं। |

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(6) उल्काः–गहने निशीथे यदा गगनमतिस्वच्छं भवति। तदा एकः शराकारः विभ्राजिष्णुः चाकचिक्यं ध्रियमाणः पुञ्जीभूतः प्रकाशः सकलं नभः द्विधा विभजन् महता वेगेन धावन्दूरं गत्वा लुप्तोऽपि भवति।जनाः लूकः त्रुटित इति कथयन्ति। तं दृष्ट्वा पञ्चपुष्पाणां नामोच्चारणेन, केचन षष्ठीवनेन अशुभनिवारणं कुर्वते। साधारणाः जनाः यत् किमपि बुवन्तु किन्तु नक्षत्रपतने धारायाः विनाशः अवश्यम्भावी। वस्तुतः उल्काः पिण्डीभूताः इतस्तत: परिभ्रमन्ति। यदा पृथिव्याः सीमानमाश्रयन्ते, घनीभूतेन वायुमण्डलेन सङ्कर्षणं कृत्वा निष्क्रामन्ति तदा ज्वलन्तः अग्रे प्रसरन्ति पुनश्च नश्यन्ति। कदापि अर्धज्वलनावस्थायां पतित्वा भूमिमा-विशन्ति। एवंविधाः उल्काः कलिकातानगरस्य सङ्ग्रहालये संस्थापिताः सन्ति।

शब्दार्थ
गहने निशीथे = घनी रात में।
शराकारः = बाण के आकार वाला।
विभ्राजिष्णुः = विशेष चमकीला।
ध्रियमाणः = रहता हुआ।
पुञ्जीभूतः = एकत्र हुआ।
द्विधा = दो भागों में।
त्रुटितः = टूटा हुआ।
ष्ठीवनेन = थूकने से।
परिभ्रमन्ति = घूमती हैं।
सीमानमाश्रयन्ते = सीमा का आश्रय लेती हैं।
निष्क्रामन्ति = निकलती हैं।
भूमिमाविशन्ति = पृथ्वी में घुस जाती हैं।
अर्धज्वलनावस्थायां = आधी जली हुई अवस्था में।
संस्थापिताः सन्ति = रखी हैं।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में उल्काओं का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
उल्काएँ-घनी रात में जब आकाश अत्यन्त स्वच्छ होता है, तब एक बाण के आकार का, चमकता हुआ, चकाचौंध करता हुआ, पुंजीभूत (एकत्रित) प्रकाश सारे आकाश को दो भगों में विभाजित करता हुआ बड़े वेग से दूर जाकर लुप्त हो जाता है। इसे लोग ‘लूक टूट गया’ कहते हैं। उसे देखकर कुछ लोग पाँच फूलों के नाम के उच्चारण के द्वारा और कुछ थूककर अशुभ निवारण करते हैं। साधारण लोग जो कुछ भी कहें, किन्तु नक्षत्र के गिरने में पृथ्वी का विनाश अवश्य होता है। वास्तव में उल्काएँ एकत्रित होकर इधर-उधर घूमती हैं। (UPBoardSolutions.com) जब ये पृथ्वी की सीमा में पहुँचती हैं, घने वायुमण्डल से रगड़ (संघर्ष) करके निकल जाती हैं, तब (उल्काएँ) जलते हुए आगे फैल जाती हैं। और फिर नष्ट हो जाती हैं। कभी आधी जली अवस्था में गिरकर पृथ्वी में प्रवेश कर जाती हैं। इस प्रकार की उल्काएँ कलकत्ती नगर के संग्रहालय में रखी हुई हैं।

(7) चन्द्रमाः–चन्द्रमाः पृथिव्या एव निर्गत्य गतः एवं वैज्ञानिका अपि भाषन्ते। सर्वेष्वपि नक्षत्रेषु एकः चन्द्रमा एव धरायाः समीपवर्ती वर्तते। चन्द्रमसः कलाः क्षीणा भवन्ति, परिवर्धन्ते। चन्द्रे कलङ्कः अस्ति, राहुरेनं ग्रस्ते इत्यादिकाः वार्ताः प्राचीनकालतः प्रचलन्ति। अधुना सर्वा अपि गल्पीभूता जाताः। चन्द्रः पृथिवीं परितः अण्डाकारं भ्रमति। पृथिवी स्वयं सूर्यं परितः भ्रमति। चन्द्रमास्तु पृथिवीं परितः चलति। प्रायः अष्टाविंशतितमे दिवसे परिक्रमा पूरयति। गर्तिलान् पर्वतान् कलङ्कान् कथयन्ति वैज्ञानिकाः। चन्द्रस्य कलाभिः तिथीनां मासानाञ्च निर्माणं भवति। चन्द्रः सूर्यप्रकाशात् प्रकाशितो भवति। यदा चन्द्रः सूर्यपृथिव्योरन्तराले जायते, तदा ग्रहणं भवति एवं वदन्ति वैज्ञानिकाः। चन्द्रोपरि सूर्यस्य प्रकाशः यस्मिन् भागे पतति सः भागः प्रकाशितः कलारूपेण दृष्टिपथमायाति। स एव प्रकाशः तेनैव क्रमेण वर्धते, ह्रसति च।।

अमावस्यायां चन्द्रः सूर्यपृथिव्योः मध्ये भवति, चन्द्रस्य यः अर्धभागः सूर्याभिमुखं भवति स भागः प्रकाशमानो भवति। प्रकाशितः स भागः पृथिव्या न दृष्टो जायते। केवलः अप्रकाशितोऽर्धभागः पृथिवीस्थैः जनैः दृश्यते। प्रकाशाभावे चन्द्रस्य दर्शनं न जायते। अयं कालः अमानाम्नाभिधीयते।।

पूर्णिमायां पृथिवी सूर्यचन्द्रमसोः मध्ये भवति। सूर्येण प्रकाशितं सकलं चन्द्रमण्डलं दृष्टिगोचरं भवति।।

शब्दार्थ
निर्गत्य = निकलकर।
भाषन्ते = कहते हैं।
परिवर्धन्ते = बढ़ती हैं।
राहुः एनम् = राहु इसको।
ग्रसते = निगल लेता है।
गल्पीभूताः = गप बनकर, असत्य।
परितः = चारों ओर।
पूरयति = पूरी करता है।
गर्तिलान् = गड्डेदार।
सूर्यपृथिव्योः अन्तराले = सूर्य और पृथ्वी के मध्य में।
जायते = होता है।
दृष्टिपथम् आयाति = दिखाई देता है।
हसति = घटता है।
सूर्याभिमुखम् = सूर्य के सम्मुख।
पृथिवीस्थैः जनैः = धरती पर रहने वाले लोगों के द्वारा।
अमानाम्नाभिधीयते = अमा (अमावस्या) के नाम से कहा जाता है।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रमा की स्थिति का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
चन्द्रमा-चन्द्रमा पृथ्वी से निकलकर ही (आकाश में) गया है, ऐसा वैज्ञानिक भी कहते हैं। सभी नक्षत्रों में अकेला चन्द्रमा ही पृथ्वी के समीप स्थित है। चन्द्रमा की कलाएँ घटती और बढ़ती हैं। चन्द्रमा में कलंक होता है, राहु इसे ग्रसता है, इत्यादि बातें प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। अब ये सभी असत्य बनकर रह गयी हैं। चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर अण्डे के आकार में घूमता है। पृथ्वी स्वयं सूर्य के चारों ओर घूमती है। चन्द्रमा तो पृथ्वी के चारों ओर चलता है। प्रायः अट्ठाइसवें दिन चक्कर पूरा कर लेता है। गड्डेदार पर्वतों को वैज्ञानिक कलंक (UPBoardSolutions.com) कहते हैं। चन्द्रमा की कलाओं से तिथि और महीनों का निर्माण होता है। चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है। जब चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य में आ जाता है, तब ग्रहण होता है, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। चन्द्रमा के ऊपर जिस भाग पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है, वह प्रकाशित भाग कला के रूप में दृष्टि में आता है। वही प्रकाश उसी क्रम से बढ़ता और घटता है।

अमावस्या के दिन चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य में होता है। चन्द्रमा का जो आधा भाग सूर्य की ओर होता है, वह भाग प्रकाशमान होता है। वह प्रकाशित भाग पृथ्वी से नहीं दिखाई देता। केवल अप्रकाशित आधा भाग पृथ्वी पर स्थित लोगों को दिखाई देता है। प्रकाश के अभाव में चन्द्रमा का दर्शन नहीं होता है। यह समय ‘अमावस्या के नाम से पुकारा जाता है। । पूर्णिमा के दिन पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के मध्य में होती है। सूर्य से प्रकाशित सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल दिखाई पड़ता है।

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(8) नीहारिकाः—विशालतमानाकाराणां वाष्पीयपदार्थानां समूहो, नीहारिका।रात्रौ आकाशं द्विधा कुर्वन् विशालो राजमार्ग इव यः प्रकाशः मध्येऽवलोक्यते, सः नीहारिका नाम्ना घुष्यते। आकाशे बहव्यः नीहारिकाः भवन्ति। इमानतावनताः, बृहदाकाराः, दीर्घवृत्ताकाराः, कुण्डलिताः वा भवन्ति। नीहारिकायाः परिमाणं सूर्यतः दशखर्वगुणितं भवति। दीर्घा नीहारिका एकं पृथक् ब्रह्माण्डं भवति। नीहारिकामध्ये अगणिताः (UPBoardSolutions.com) ताराः, तारां परितः वाष्पीयपदार्थाः भवन्ति। रात्रौ निर्मला गङ्गा इवे दृष्टिपथमायाति। अतः आकाशगङ्गा नाम्नाभिधीयते। अस्यां दशसहस्रकोटयः गुम्फिताः परस्परमाकृष्टाः ताराः भवन्ति।

आधुनिका वैज्ञानिकाः (सूर्यग्रहेषु ) बुध-शुक्र-पृथ्वी-मङ्गल-बृहस्पति-शनि-यूरेनस (वरुण)-नेपच्यून (वारुणी )-प्लेटो ( यम) इति नवग्रहान् वर्णयन्ति। चन्द्रं पृथिवी-ग्रह कथयन्ति। भारतीयां ज्योतिर्विदः सूर्य-चन्द्र-मंगल-बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनि-राहु-केतून् नवग्रहान् निर्दिशन्ति।

एवमेन्तरिक्षं विभुः, अनन्तं नि:सीमात्मकं चास्ते। अत्रत्यमेकमपि नक्षत्रं वर्णनातीतमस्ति।

शब्दार्थ
विशालतमानाम् आकाराणाम् = अत्यन्त विशाल आकार का।
वाष्पीयपदार्थानाम् = भाप के पदार्थों का।
द्विधा = दो भागों में।
अवलोक्यते = देखा जाता है।
घुष्यंते = पुकारा जाता है।
नतावनता = ऊँची-नीची।
कुण्डलिताः = कुण्डली (गोल) के आकार की।
दशखर्वगुणितं = दसे खरब गुना।
दृष्टिपथमायाति = दिखाई देती है।
दशसहस्त्रकोटयः = दस हजार करोड़।
गुम्फिताः = गॅथी हुई।
ज्योतिर्विदः = ज्योतिषी।
निर्दिशन्ति = निर्दिष्ट करते हैं।
विभुः = व्यापक।
निः सीमात्मकम् = सीमारहित।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में नीहारिकाओं का वर्णन और नवग्रहों का नाम-निर्देश किया गया है।

अनुवाद
नीहारिकाएँ—अत्यन्त विशाल आकार का वाष्पीय पदार्थों का समूह नीहारिका है। रात्रि में आकाश को दो भागों में करता हुआ, विशाल राजमार्ग के समान जो प्रकाश मध्य में दिखाई देता है, वह नीहारिका’ के नाम से पुकारा जाता है। आकाश में बहुत-सी नीहारिकाएँ होती हैं। ये ऊँची-नीची, बड़े आकार की, बड़े घेरे के आकार की अथवा कुण्डली के आकार की होती हैं। नीहारिका का परिमाण (माप) सूर्य से दस खरब गुना होता है। एक बड़ी नीहारिका एक अलग ब्रह्माण्ड होती है। नीहारिका के मध्य में अगणित तारे और तारों के चारों ओर वाष्पीय पदार्थ होते हैं। रात्रि में स्वच्छ गंगा के समान दिखाई पड़ती हैं; अतः ‘आकाश गंगा’ के नाम से पुकारी जाती हैं। (UPBoardSolutions.com) इसमें दस हजार करोड़ परस्पर आकृष्ट हुए गुंथे हुए तारे होते हैं। | आधुनिक वैज्ञानिक (सूर्य के ग्रहों में) बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, वरुण, वारुणी और यम इन नौ ग्रहों का वर्णन करते हैं। चन्द्रमा को पृथ्वी का ग्रह कहते हैं। भारतीय ज्योतिषी सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु को नौ ग्रह कहते हैं। इस प्रकार अन्तरिक्ष सर्वशक्तिमान, अनन्त और नि:सीम है। इसका एक भी नक्षत्र वर्णन से परे है।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
‘अन्तरिक्ष-विज्ञानम्’ पाठ का सारांश लिखिए। या सौरमण्डल के सदस्यों का परिचय’ अन्तरिक्ष-विज्ञानम्’ पाठ के आधार पर दीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षकं की सामग्री को अपने शब्दों में लिखिए।]

प्ररन 2
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए(क) धूमकेतु,(ख) उल्का, (ग) चन्द्रमा,(घ) नीहारिका और (ङ) सूर्य।
उत्तर
(संकेत-“पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत सम्बद्ध शीर्षकों की सामग्री को अपने शब्दों में लिखें।

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प्ररन 3
अन्तरिक्ष के विस्तार और शोभा का वर्णन कीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत दिये गये शीर्षकों ‘सौर- साम्राज्य और ‘अन्तरिक्ष’ से सम्बद्ध सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखें]

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Class 9 Sanskrit Chapter 11 UP Board Solutions नीति-नवनीतम् Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 11 नीति-नवनीतम् (पद्य-पीयूषम्) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 11 नीति-नवनीतम् (पद्य-पीयूषम्).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 11
Chapter Name नीति-नवनीतम् (पद्य-पीयूषम्)
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 11 Neetinavneetam Question Answer (पद्य-पीयूषम्)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 11 हिंदी अनुवाद माङ्गलिकम्नीति-नवनीतम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत नामक विशाल ग्रन्थ विचारों का एक महान् कोश है। इसमें कौरव-पाण्डव-युद्ध की कथा के माध्यम से अनेक विषयों पर व्यापक महत्त्व के विचार व्यक्त किये गये हैं। महाभारत के प्रमुख पात्रों में विदुर का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये धृतराष्ट्र के भाई, सच्चे उपदेशक एवं नीति-शास्त्र के श्रेष्ठ ज्ञाता-पालनकर्ता थे। इसीलिए इन्हें महात्मा विदुर कहा जाता था। महाभारत की विस्तृत कथा में कई स्थलों पर धृतराष्ट्र को दिया गया उपदेश संस्कृत साहित्य में विदुर-नीति’ के नाम से प्रसिद्ध है। ‘विदुर-नीति’ के श्लोक अन्य (UPBoardSolutions.com) आचार्यों-शुक्र, शंख, भर्तृहरि के नीति-ग्रन्थों में भी पाठान्तर से प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत पाठ के नीति श्लोक महाभारत के पंचम पर्व ‘उद्योग-पर्व के अन्तर्गत ‘प्रजागर’ ‘नामक उपपर्व से संगृहीत किये गये हैं। इसमें मानसिक क्षोभ से ग्रस्त तथा भविष्य की भयावह स्थिति से त्रस्त धृतराष्ट्र को महात्मा विदुर के द्वारा नीति के उपदेश दिये – जाने का वर्णन है। प्रस्तुत पाठ में व्यावहारिक अनुभव के एकादश श्लोकों का संग्रह है।

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पाठ-सारांश

प्रत्येक श्लोक को संक्षिप्त भाव इस प्रकार है

  1. प्रिय बोलने वाले पुरुष तो मिलते हैं, परन्तु अप्रिय हितकर बात कहने वाले दुर्लभ हैं।
  2. मनुष्य को बहुजन हिताय एक के हित का त्याग करना चाहिए।
  3. समस्त धर्मों का सार यही है कि अन्यों के साथ ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए, जो स्वयं को बुरा लगे।
  4. किसी पर भी अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए।
  5. शान्ति से क्रोधी, सदाचार से दुराचारी, दान से कृपण तथा सत्य से झूठे व्यक्ति को जीता जा सकता है।
  6. चरित्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। चरित्रहीन व्यक्ति का नाश अवश्यम्भावी है। धन तो आता-जाता रहता है।
  7. मनुष्य में चरित्र की प्रधानता होती है। उसके न होने पर धन, मित्र एवं जीवन की कोई उपयोगिता नहीं होती है।
  8. प्रत्येक कार्य को दूरदर्शिता से करना चाहिए।
  9. मनुष्य को ऐसा कर्म करना चाहिए, जिससे अन्त में सुख मिले।
  10. वीर, विद्वान् तथा कुशल सेवक, ये तीन ही पृथ्वी के अन्दर सुखों को प्राप्त करते हैं।
  11. इस भूलोक के छः सुख हैं-प्रतिदिन धन की प्राप्ति, आरोग्य, प्यारी तथा प्रिय बोलने वाली स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र तथा धन देने वाली विद्या।।

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
सुलभाःपुरुषाः राजन् सततं प्रियवादिनः।।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥

शब्दार्थ
सुलभाः = सरलता से प्राप्त हो जाने वाले।
सततं = संदा।
प्रियवादिनः = प्रिय वचन बोलने वाले।
पथ्यस्य = हितकर वचन को।
वक्ता = कहने चोला।
श्रोता = सुनने वाला।
दुर्लभः = कठिनाई से प्राप्त होने वाला।

सन्दर्भ
प्रस्तुत नीति-श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के नीतिनवनीतम्’ पाठ से उधृते है।

[संकेत-इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में सुलभ और दुर्लभ व्यक्तियों के विषय में बताया गया है।

अन्वय
हे राजन्! सततं प्रियवादिनः पुरुषाः सुलभाः (सन्ति); अप्रियस्य पथ्यस्य (वचनस्य) तु वक्ता श्रोता च दुर्लभः (अस्ति)।

व्याख्या
हे राजन्! निरन्तर प्रियवचन बोलने वाले पुरुष तो सरलता से प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु कटु और हितकारी वचनों को कहने वाले और सुनकर सहन करने वाले श्रोता कठिनाई से ही मिलते

(2)
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्येजत् ॥

राख्दार्थ
त्यजेत् = छोड़ देना चाहिए।
कुलस्यर्थे = कुल की भलाई के लिए।
ग्रामस्या= ग्राम की भलाई के लिए।
जनपदस्यार्थे = जनपद की भलाई के लिए
आत्मार्थे= अपने कल्याण के लिए।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि व्यक्ति को अपने हित के लिए सब कुछ छोड़ देना चाहिए। |

अन्वय
कुलस्यार्थे एकं त्यजेत्, ग्रामस्यायें कुलं त्यजेत्, जनपदस्यार्थे ग्रामं (त्यजेत्), आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।।

व्याख्या
मनुष्य को परिवार की भलाई के लिए एक व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए, गाँव के हित के लिए अपने परिवार को त्याग देना चाहिए, जनपद की भलाई के लिए गाँव को छोड़ देना चाहिए और अपने कल्याण के लिए पृथ्वी को त्याग देना चाहिए।

(3)
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥

शब्दार्थ
श्रूयताम् = सुनिए।
सर्वस्वं = सब कुछ, प्रत्येक वस्तु।
श्रुत्वा = सुनकर।
अवधार्यताम् = धारण कीजिए।
आत्मनः = अपने।
प्रतिकूलानि = विरुद्ध आचरण।
परेषां = दूसरों । के लिए।
समाचरेत् = करना चाहिए।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यक्ति के सर्वश्रेष्ठ धर्म को बताया गया है। |

अन्वय
धर्मसर्वस्वं श्रूयतां, श्रुत्वा च अपि अवधार्यताम् (यत्) आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। |

व्याख्या
धर्म का सब कुछ अर्थात् सार सुनिए और सुनकर उसको धारण कीजिए। वह सारे यह है कि जो भी आचरण आप अपने लिए अनुकूल नहीं समझते हों, वैसा आचरण आपको दूसरों के प्रति भी नहीं करना चाहिए।

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(4)
न चिश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नीतिविश्वसेत् ।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ।

शब्दार्थ
न विश्वसेत् = विश्वास नहीं करना चाहिए।
अविश्वस्ते = विश्वास न करने योग्य पर।
न अतिविश्वसेत् = अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए।
मूलानि अपि = जड़ों को भी।
निकृन्तति = काट डालता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि व्यक्ति को किसी पर भी अत्यधिक विश्वास नहीं करना चाहिए। |

अन्वय
अविश्वस्ते न विश्वसेत्, विश्व न अतिविश्वसेत्। विश्वासात् उत्पन्न भयं मूलानि अपि निकृन्तति।

व्याख्या
जो विश्वास के योग्य नहीं है, उस पर विश्वास नहीं करनी चाहिए। जो विश्वसनीय हो, उसके ऊपर भी अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए। विश्वास से इतना भय उत्पन्न हो जाता है कि

वह जड़ों को भी काट देता है। तात्पर्य यह है कि किसी भी व्यक्ति पर अत्यधिक विश्वास करने से .. उसके द्वारा समूल नाश किये जाने की सम्भावना बन जाती है।

(5)
अक्रोधेन जयेत् क्रोधमसाधु साधुना जयेत् ।।
जयेत् कदर्यं दानेन जयेत् सत्येन चानृतम् ॥

शब्दार्थ
अक्रोधेन = क्रोध के अभाव से, शान्ति से।
जयेत् = जीतना चाहिए।
असाधं = असाधु को, दुष्ट को।
साधुना = सदाचार से।
कदर्यम् = कंजूसी को।
अनृतम् = असत्य को या असत्यवादी को।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में क्रोधी को, दुष्ट व्यक्ति को तथा कंजूस को कैसे जीता जाए, इसके विषय में बताया गया है।

अन्वय
अक्रोधेन क्रोधं जयेत्। साधुना असाधुम् जयेत्। दानेन कदर्यम् जयेत्। सत्येन च अनृतम् जयेत्।।

व्याख्या
क्रोधी व्यक्ति को अक्रोध (क्षमाशीलता) से जीतना चाहिए। सद्व्यवहार से दुर्जन पुरुष को जीतना चाहिए। दान देने से कंजूस को जीतना चाहिए और सत्य बोलने से असत्य (बोलने वाले व्यक्ति) को जीतना चाहिए।

(6)
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद वित्तमायाति मति च। ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥

शब्दार्थ
वृत्तम् = चरित्र की।
यत्नेन = प्रयत्नपूर्वक।
संरक्षेद् = रक्षा करनी चाहिए।
आयाति याति = आता-जाता है।
अक्षीणः = जो क्षीण नहीं है, वह।
क्षीणः = दुर्बल।
वृत्ततः = चरित्र से।
हतः = भ्रष्ट हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में चरित्र की प्रधानता पर विशेष बल दिया गया है। ।

अन्य
वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्। वित्तम् आयाति याति च। वित्ततः क्षीणः अक्षीणः भवति। वृत्ततः हत: तु हत(एव भवति)।

व्याख्या
(मनुष्य को अपने) चरित्र की प्रयत्न से रक्षा करनी चाहिए। धन तो आता है और चला जाता है। धन की दृष्टि से दुर्बल व्यक्ति निर्धन नहीं होता है, लेकिन चरित्र से भ्रष्ट (गिरा) हुआ व्यक्ति तो मर ही जाता है अर्थात् समाज में उसे जाना ही नहीं जाता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अपने चरित्र की रक्षा करनी चाहिए।

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(7)
शीलं प्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति ।
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः ॥

शब्दार्थ
शीलं = चरित्र।
प्रधानम् = मुख्य।
इह = इस लोक में।
प्रणश्यति = नष्ट हो जाता है।
तस्य = उसका।
जीवितेनार्थः = जीवित रहने का प्रयोजन।
धनेन = धन के द्वारा।
बन्धुभिः = बन्धुओं ‘(भाइयों) द्वारा।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्यक्ति के लिए चरित्र का महत्त्व बताया गया है।

अन्वय
इह पुरुषे शीलं प्रधानं (अस्ति) यस्य तद् प्रणश्यति, तस्य न जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः।

व्याख्या
इस संसार में पुरुष में चरित्र ही मुख्य गुण होता है। जिसका यह गुण नष्ट हो जाता है, उसके न जीवित रहने का कोई मतलब है, न धनु का। ऐसे व्यक्ति की उसके बन्धु भी कामना नहीं करते। तात्पर्य यह है कि चरित्रहीन व्यक्ति का जीवन ही व्यर्थ हो जाता है।

(8)
दिवसेनैव तत्कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।।
अष्टमासेन तत् कुर्याद् येन वर्षाः सुखं वसेत् ॥

शब्दार्थ
दिवसेन = दिनभर में।
कुर्यात् = करना चाहिए।
रात्रौ = रात्रि में।
वसेत् = रहे।
अष्टमासेन = आठ महीनों में।
वर्षाः = वर्षा ऋतु तक। |

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में दिनभर किये गये और आठ महीने किये गये श्रम के लाभ का वर्णन किया गया है।

अन्वय
दिवसेन एव तत् कुर्यात्, ग्रेन रात्रौ सुखं वसेत्। अष्टमासेन तत् कुर्यात्, येन वर्षाः सुखं । वसेत्।

व्याख्या
दिनभर में ही वह कार्य कर लेना चाहिए, जिससे रात्रि में सुखपूर्वक रह सकें। आठ . महीने तक वह कर लेना चाहिए, जिससे वर्षपर्यन्त सुखपूर्वकै रह सकें। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक कार्य । को दूरदर्शिता और श्रमपूर्वक करना चाहिए। |

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(9)
पूर्वे वयसि तत्कुर्याद् येन वृद्धः सुखं वसेत् ।।
यावज्जीवेन तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥

शब्दार्थ
पूर्वे वयसि = पहली अवस्था में, यौवन में।
वृद्धः = बूढ़ा।
यावज्जीवेन = जीवनभर में।
प्रेत्य = मरकर, परलोक में।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में मनुष्य द्वारा सत्कार्य किये जाने को वर्णन किया गया है।

अन्वय
(मनुष्य:) पूर्वे वयसि तत् कुर्यात्, येन वृद्धः (सन्) सुखं वसेत्। यावज्जीवेन तत् कुर्यात् येन प्रेत्य सुखं वसेत्।

व्याख्या
मनुष्य को पहली अवस्था अर्थात् जवानी में उस कार्य को कर लेना चाहिए अर्थात् युवावस्था में मनुष्य को सन्तानादि के प्रति कर्तव्य-निर्वाह को ध्यानपूर्वक करना चाहिए, जिससे वृद्ध होने पर वह सुखपूर्वक रह सके। जीवनभर में वह कार्य करना चाहिए, जिससे मरकर परलोक में सुखपूर्वक रह सके। मृत्यु के पश्चात् सुखपूर्वक रहने का अर्थ कीर्ति रूप से संसार में रहने तथा आत्मा की शान्ति से है।

(10)
सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः।
शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम्॥

शब्दार्थ
सुवर्णपुष्पाम् = सोने के फूलों वाली धनधान्य से पूर्ण।
चिन्वन्ति = चुनते हैं।
पुरुषास्त्रयः = तीन प्रकार के पुरुष।
शूरः = वीर।
कृतविद्यः = विद्या प्राप्त किया हुआ।
सेवितुं जानाति = सेवा करना जानता है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में पृथ्वी को भोगने की क्षमता रखने वाले व्यक्तियों का वर्णन किया गया

अन्वय
यः शूरः च, कृतविद्यः च, (यः) च सेवितुं जानाति (एते) त्रयः पुरुषाः सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति।

व्याख्या
जो शूरवीर हैं, विद्या प्राप्त किये हुए हैं और दूसरों की सेवा करना जानते हैं, ये तीन प्रकार के पुरुष पृथ्वी से स्वर्णपुष्पों को चुनते हैं। तात्पर्य यह है कि इस पृथ्वी पर सभी प्रकार की सम्पत्तियाँ उपलब्ध हैं। इन सम्पत्तियों को शूरवीर, विद्वान् और परोपकारी ही प्राप्त करते हैं।

(11)
अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रियाश्च भार्या प्रियवादिनी च ।।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥

शब्दार्थ
अर्थागमः = धन का आना।
अरोगिता = रोगरहित होना।
प्रिया = प्रिय।
भार्या = पत्नी।
प्रियवादिनी = मधुर बोलने वाली।
वश्यः = वश में रहने वाला, आज्ञाकारी।
अर्थकरी = धन कमाने वाली।
षड् = छः।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में जीवलोक के छ: सुखों के नाम गिनाये गये हैं।

अन्वय
राजन्! नित्यम् अर्थागमः अरोगिता च, प्रिया भार्या प्रियवादिनी च, वश्यः पुत्रः च, अर्थकरी विद्या च, (एतानि) षट् जीवलोकस्य सुखानि (सन्ति)।

व्याख्या
हे राजन्! सदा धन का आगमन (प्राप्ति) होना, रोगरहित होना, प्रिय और मधुरभाषिणी पत्नी, वश में रहने वाला आज्ञाकारी पुत्र और धन कमाने वाली विद्या-ये छः जीवलोक (संसार) के सुख हैं। तात्पर्य यह है कि जिनके पास उपर्युक्त छः की उपलब्धता है, उन्हें ही सुखी मानना चाहिए।

सूक्तिपरक वाक्य की व्याख्या

(1)
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।
सन्दर्य
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के नीति-नवनीतम्’ एर से उद्धृत है।

संकेत

इस पाठ की शेष समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

प्रसंगर
प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि सत्य और हितकारी बात को सुनने और कहने वाले मुश्किल से मिलते हैं।

अर्थ
अप्रिय तथा हितकारी बात को कहने वाला और सुनने वाला दोनों ही दुर्लभ होते हैं।

व्याख्या
संसार में प्रियवचन बोलने वालों की संख्या अधिक होती है; क्योंकि प्रियवचन बोलने में सुनने वाले के हित का ध्यान रखना अनिवार्य नहीं है। हितकारी वचन प्रायः कटु होते हैं; जैसे—गुणकारी औषध। यदि औषध में मिठास का ध्यान रखा जाएगा तो उसके गुणकारी होने की ओर ध्यान कम हो जाता है। इसीलिए पहले तो हितकारी बात कहने वाले ही कम होते हैं; क्योंकि वह सुनने वाले को कड़वी लगती है। अधिकांश श्रोता हितकारी होने पर भी कड़वी बात सुनना पसन्द नहीं करते। यदि कोई कड़वी और हितकारी बात को कहने का साहस भी करे तो सुनने वाला उसको सुनना नहीं चाहेगा। ऐसा व्यक्ति, जो कड़वी तथा हित की बात कहने का साहसी हो और ऐसा व्यक्ति, जो उस कटु तथा हित की बात को सुनकर सहन कर ले तथा भाराज न हो, दोनों ही प्रकार के लोग मुश्किल से मिलते हैं।

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(2)
आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में कल्याण के लिए त्याग करने की बात को समझाया गया है।

अर्थ
अपने कल्याण के लिए पृथ्वी को त्याग देना चाहिए।

व्याख्या
प्रस्तुत सूक्ति में व्यक्ति की त्यागवृत्ति के आदर्श को निरूपित किया गया है। यदि एक को त्यागने से कुल का, कुल को त्यागने से गाँव का, गाँव को त्यागने से जनपद का कल्याण होता हो तो व्यक्ति को इन्हें नि:संकोच त्याग देना चाहिए। इसी प्रकार से यदि व्यक्ति को अपना कल्याण किसी वस्तु को त्यागने से होता हो तो उसे त्याग देना चाहिए, भले ही वह वस्तु कितनी ही बहुमूल्य

क्यों न हो। यहाँ तक कि यदि अपने प्राणों को त्यागने से व्यक्ति का कल्याण हो तो उसे उन्हें भी त्याग देना चाहिए। यहाँ पर अपने कल्याण से तात्पर्य यश, कीर्ति से है; अर्थात् यदि प्राणों को त्यागने से सदैव के लिए व्यक्ति को यश और कीर्ति की प्राप्ति होती हो तो उसे प्राणों को त्यागने में भी संकोच नहीं करना चाहिए।

(3)
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में धर्म के सार को बताया गया है। अर्थ-जो आचरण अपने लिए ठीक न हो, उसे दूसरों के लिए नहीं करनी चाहिए।

व्याख्या
व्यक्ति जिस आचरण को अपने लिए उचित नहीं समझता, उसे स्वयं वैसा आचरण दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए। यही सब धर्मों का सार है, यही शाश्वत धर्म है, यही सबके कल्याण का मूलमन्त्र है।

(4)
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।।
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में व्यक्ति के जीवन में चरित्र की महत्ता को बताया गया है।

अर्थ
धन का नाश, नाश नहीं होता, किन्तु चरित्र से मरा हुआ तो मर ही जाता है।

व्याख्या
इस संसार में धन का आना-जाना तो लगा ही रहता है। धन का होना या न होना व्यक्ति के जीवन में कोई महत्त्व नहीं रखता। यदि व्यक्ति धनवान् है, किन्तु उसका व्यवहार, आचार-विचार और चरित्र ठीक नहीं है, तो सभी लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। ऐसे लोग जनसामान्य के सम्मान का पात्र नहीं बन पाते। ऐसे घृणास्पद जीवन से तो मर जाना ही श्रेयस्कर होता है। | इसके विपरीत यदि व्यक्ति के पास धन नहीं है अथवा उसका धन किन्हीं कारणों से नष्ट हो गया है। और उस व्यक्ति का व्यवहार मृदु तथा चरित्र उत्तम बना रहता है, मन-वचन तथा कर्म से वह सदाचरण करता है तो सम्पूर्ण समाज उसे सम्मानपूर्ण दृष्टि से देखता है। उसका आचरण और वचन प्रामाणिक माने जाते हैं। भला ऐसे व्यक्ति के लिए धन का क्या महत्त्व है, उसने तो बिना धन के ही सब कुछ पा लिया है। इसीलिए तो कहा गया है कि धन के नष्ट होने से व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु यदि व्यक्ति का चरित्र नष्ट हो गया तो समझो वह व्यक्ति ही मर गया। अंग्रेजी में ऐसी ही एक कहावत है

If wealth is lost, nothing is lost.
If health is lost, something is lost.
If character is lost, everything is lost.

अत: व्यक्ति को अपने चरित्र को अक्षुण्ण रखना चाहिए।

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(5)
यावज्जीवेन तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत्।।
प्रसंग
प्रस्तुत सूक्ति में बुरे कार्यों को न करने की बात पर बल दिया गया है।

अर्थ
व्यक्ति को जीवनभरं उन कार्यों को करना चाहिए, जिससे (वह) मरकर परलोक में सुखपूर्वक रह सके।

व्याख्या
भारतीय दर्शनशास्त्र का मत है कि जो व्यक्ति अच्छे कार्य करके अपने जीवन में पुण्यों का संचय करता है, वह मरकर परलोक में सुखपूर्वक रहता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने जीवन में बुरे कर्म करके पापों का संचय करता है, वह मरकर परलोक में महान् दुःखों को भोगता है। इसलिए व्यक्ति को जीवनभर अच्छे कार्य करके पुण्यों का संचय कर लेना चाहिए, जिससे परलोक में उसे कोई कष्ट न हो।

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) सुलभाः पुरुषाः ••••••••• ओता च दुर्लभः॥  (श्लोक 1)
संस्कृतार्थः-
महात्मा विदुरः धृतराष्ट्रम् उपदिशति यत् हे नृप! हितकराणि वचनानि अप्रियाणि कटूनि च भवन्ति। संसारे अस्मिन् एतादृशाः पुरूषाः तु बाहुल्येन प्राप्यन्ते ये अनवरतं प्रियं वदन्ति। परम् एतादृशाः जनाः न प्राप्यन्ते ये हितकारकाणि वचनानि वदन्ति, यतः तानि श्रोतुः अप्रियाणि भवन्ति। यदि भाग्येन एतादृशाः पुरुषः प्राप्यते यः अप्रियं कटु हितवचं कथयति, कश्चित् तस्य वचनं श्रोतुं समर्थः न भवति। अप्रियं कटु हितवचनानि श्रोतापि दुर्लभो भवति।।

(2) त्येजेदेकं कुलस्यार्थे ••••••••••••••••••••••••••••••••पृथिवीं त्यजेत्॥ (श्लोक 2) 
संस्कृतार्थः-
विदुरः धृतराष्ट्रं कथयति यत् यदि एकस्य पुरुषस्य परित्यागेन कुलस्य रक्षा भवति तदा एकं त्यजेत्। यदि कुलस्य परित्यागेन ग्रामस्य रक्षा भवति तर्हि स्वकीयं परिवारं त्यजेत्। यदि ग्रामस्य परित्यागेन जनपदस्य रक्षा भवति, तर्हि ग्रामं त्यजेत्। यदि पृथिव्याः परित्यागेन आत्मनः एव कल्याणं भवति, तर्हि पृथिवीं त्यजेत्।

(3) अक्रोधेन जयेत् •••••••••••• चानृतम्॥(श्लोक 5 )
संस्कृतार्थः-
क्रोधस्वभावं पुरुषं शान्त्या स्ववशं कुर्यात्, दुर्जनं पुरुषं सद्व्यवहारेण जयेत्, धनादिकं दत्त्वा कृपणं जयेत्, सत्यवचनेन मिथ्याभाषिणं स्ववशं कुर्यात्।।

(4) वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् •••••••••••••••••••••• हतो हतः॥ (श्लोक 7) 
संस्कृतार्थः-
महाभारते महाराजः विदुरः कथयति यत् नरः स्वचरित्रस्य रक्षां प्रयत्नपूर्वकं कुर्यात्। धन॑स्य रक्षायै विशेष प्रयत्नं न कुर्यात्, धनं तु कदाचित् आगच्छति, कदाचित् च गच्छति। चरित्रे . धने च महदन्तरम् अस्ति। यदि कदाचित् धनं नश्यति तर्हि धनहीनः पुरुषः क्षीणः न मन्यते, किन्तु चरित्रस्य दृष्ट्या पतितः पुरुषः चिराय नष्टः भवति।

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(5) अर्थागमो नित्यमरोगिता •••••••••••••••••••••• सुखानि राजन्॥ (श्लोक 11)
संस्कृतार्थः-
महाराजः विदुरः धृतराष्ट्रं प्रति कथयति यत् हे राजन्! प्राणिनां षट् सुखानि भवन्ति-धनस्य प्राप्तिः, अनवरतं स्वस्थं शरीरं, मधुर

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Class 10 Sanskrit Chapter 3 UP Board Solutions वृक्षाणां चेतनत्वम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 3 Vrikshanam Chetnatvam Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 3 हिंदी अनुवाद वृक्षाणां चेतनत्वम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ महाभारत से संकलित है। ‘महाभारत’ एक वृहद्काय ग्रन्थ है। इसे पंचम वेद भी माना जाता है। इसकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। इस पाठ में दर्शाया गया है कि वृक्ष भी अन्य प्राणियों
के समान सचेतन हैं और वे भी सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। इस तथ्य को; (UPBoardSolutions.com) पौधों में भी हमारे समान जीवन है; हमारा विज्ञान भी आज प्रमाणित कर चुका है, जब कि हमारे ऋषि-मुनियों ने यह बात सहस्राधिक
वर्ष पहले ही प्रमाणित कर दी थी। प्रस्तुत पाठ में यह सन्देश भी दिया गया है कि मनुष्य को वृक्षों-पादपों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। वार्तालाप शैली में संकलित प्रस्तुत सामग्री में प्रश्नकर्ता महर्षि भारद्वाज हैं और समाधानकर्ता महर्षि भृगु।

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पाठ-सारांश

अपरिमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द का प्रयोग होता है; अतः अपरिमित प्राणियों के लिए ‘महाभूत’ शब्द उपयुक्त है। वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी ये पंचमहाभूत हैं और यह शरीर पाँचभौतिक। सभी स्थावर और जंगम इन पंच महाभूतों से युक्त हैं।

वृक्षों के शरीर में ये पाँच महाभूत दिखाई नहीं पड़ते; क्योंकि वे देखते और सुनते नहीं, स्पर्श का अनुभव, गन्ध और रस का सेवन नहीं करते हैं। ऐसी शंका निर्मूल है। वृक्ष यद्यपि ठोस होते हैं, फिर भी फूलों और फलों की उत्पत्ति होने के कारण इनमें आकाश तत्त्व की विद्यमानता है। गर्मी से उनके पत्ते, फल और फूल कुम्हला जाते हैं; अतः उनमें स्पर्श गुण होने के कारण वायु तत्त्व विद्यमान हैं। वायु, अग्नि और बिजली की कड़क से वृक्षों के फल और फूल बिखर जाते हैं; अतः ‘वृक्ष शब्द सुनते हैं, यह सिद्ध होता है। बेलें वृक्ष को लपेट लेती हैं और चारों ओर फैल जाती हैं; अतः इससे सिद्ध होता है कि ‘वृक्ष देखते भी हैं। अनेक प्रकार की गन्धों और धूपों से वृक्ष नीरोग रहते हैं और पुष्पित हो जाते हैं; अत: निश्चित ही उनमें गन्ध को ग्रहण करने की शक्ति विद्यमान है। अपनी जड़ों से जल पीने और रोगों को दूर करने की क्षमता होने से वृक्षों में (UPBoardSolutions.com) आस्वादन की सामर्थ्य है। सुख और दु:ख का अनुभव करने, काटे जाने पर पुनः अंकुरित होने के कारण वृक्षों में जीव होता है। भोजन पचाने के कारण वृक्षों की वृद्धि देखी जाती है। वृक्षों के सचेतन होने के कारण यज्ञादि विशेष कारणों के बिना उन्हें नहीं काटना चाहिए। पुष्पित और सुगन्धित एक वृक्ष से सम्पूर्ण वन महक उठता है।

पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
अमितानां महाशब्दो यान्ति भूतानि सम्भवम्।
ततस्तेषां महाभूतशब्दोऽयमुपपद्यते ॥ [2007]

शब्दार्थ अमितानां = असीमित पदार्थों के लिए। महाशब्दः =’महा’ शब्द का (प्रयोग होता है)। भूतानि = प्राणी। सम्भवं यान्ति = उत्पत्ति को प्राप्त करते हैं। ततः = उस कारण से। तेषाम् = उन (पंचमहाभूतों) के लिए। महाभूतशब्दः = असीमित के लिए वाचक शब्द। अयम् = यह, पंचमहाभूत शब्द उपपद्यते = उपयुक्त होता है।

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सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वृक्षाणां चेतनत्वम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में महर्षि भृगु पंचभूतों की महत्ता का प्रतिपादन कर रहे हैं।

अन्वय अमितानी (कृते) महाशब्दः (प्रयुज्यते तेभ्यः) भूतानि सम्भवं यान्ति। ततः तेषां (कृते) अयं महाभूतशब्दः उपपद्यते।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि असीमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द का प्रयोग होता है। इन (असीमित पदार्थों) से भौतिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इन (असीमित पदार्थों) के लिए ‘महाभूत’ शब्द का प्रयोग उपयुक्त ही है।

(2)
चेष्टा वायुः खमाकाशमूष्माग्निः सलिलं द्रवः।
पृथिवी चात्र सङ्कातः शरीरं पाञ्चभौतिकम्॥

शब्दार्थ चेष्टा = गतिशीलता। खम् = खोखलापन। आकाशम् = आकाश। ऊष्मा = गर्मी। अग्निः = अग्नि सलिलं = जला द्रवः = तरल पदार्थ पृथिवी = पृथ्वी। चात्र = और यहाँ। सङ्कतिः = ठोसपन। शरीरं पाञ्चभौतिकम् = शरीर पाँच महाभूतों से बना है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में शरीर की पाँच भौतिकताएँ बतायी गयी हैं और स्पष्ट किया गया है कि शरीर पाँच महाभूतों से निर्मित है।

अन्वय अत्रे चेष्टा वायुः (अस्ति), खम् आकाशम् (अस्ति), ऊष्मा अग्निः (अस्ति), द्रवः सलिलम् (अस्ति), सङ्गातः पृथ्वी च (अस्ति)। (एवं) शरीरं पाञ्चभौतिकम् (अस्ति)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि इन वृक्षों के शरीर में चेष्टा अर्थात् गतिशीलता वायु का रूप है, खोखलापन आकाश का रूप है, गर्मी अग्नि का रूप है, तरल पदार्थ सलिल का रूप है, ठोसपन पृथ्वी का रूप है। इस प्रकार (इन वृक्षों का यह) शरीर पाँच महाभूतों (UPBoardSolutions.com) (वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्त्वों) से बना है।

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(3)
इत्येतैः पञ्चभिर्भूतैर्युक्तं स्थावर-जङ्गमम्।
श्रोत्रं घ्राणं रसः स्पर्शो दृष्टिश्चेन्द्रियसंज्ञिता ॥

शब्दार्थ इति = इस प्रकार। एतैः पञ्चभिः भूतैः = इन पाँच महाभूतों से युक्तं = युक्त है। स्थावर-जङ्गमम् = जड़ और चेतन रूप संसार। श्रोत्रम् = कर्णेन्द्रिय, कान। घ्राणम् = नासिका, नाका रसः = रसना, जीभा स्पर्शः = त्वगिन्द्रिय, त्वचा। दृष्टिः = चक्षु, आँख। इन्द्रियसंज्ञिता = इन्द्रिय नाम वाली।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में पंचमहाभूतों से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियों का वर्णन किया गया है। अन्वय इति एतैः पञ्चभिः भूतैः स्थावर-जङ्गमं युक्तं (अस्ति)। श्रोत्रं, घ्राणं, रसः, स्पर्शः, दृष्टिः च इन्द्रिय संज्ञिता (अस्ति)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि यह सारा संसार इन पाँच महाभूतों (वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी) से ही निर्मित है, चाहे वह वृक्षादि जड़-पदार्थ हों अथवा चेतन। कान, नासिका, रसना, स्पर्श और दृष्टि; ये पाँचों ‘इन्द्रिय’ नाम वाले; श्रवणेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय और दर्शनेन्द्रिय; हैं।

(4)
पञ्चभिर्यदि भूतैस्तु युक्ताः स्थावरजङ्गमाः
स्थावराणां न दृश्यन्ते शरीरे पञ्चधातवः ॥ [2007, 11]

शब्दार्थ पञ्चभिः = पाँच। भूतैः =महाभूतों से। तु = तो। युक्ताः = युक्त हैं। स्थावरजङ्गमाः = जड़ और चेतन पदार्थ। स्थावराणां = स्थिर प्राणियों के न दृश्यन्ते = दिखाई नहीं देते हैं। शरीरे = शरीर में। पञ्चधातवः = पञ्चमहाभूत तत्त्व।

प्रसंग महर्षि भरद्वाज स्थावर (जड़) पदार्थों में पंच महाभूतों की सत्ता में सन्देह प्रकट कर रहे हैं।

अन्वय यदि स्थावर-जङ्गमाः पञ्चभिः भूतैः युक्ताः (सन्ति), (तर्हि) तु स्थावराणां शरीरे पञ्चधातवः (कथं) न दृश्यन्ते।

व्याख्या महर्षि भरद्वाज कहते हैं कि यदि जड़ और चेतन पदार्थ पाँच महाभूतों से युक्त हैं तो स्थावर पदार्थों के शरीर में पाँचों महाभूत तत्त्व क्यों नहीं दिखाई पड़ते?

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(5)
अनूष्माणामचेष्टानां घनानां चैव तत्त्वतः।
वृक्षाणां नोपलभ्यन्ते शरीरे पञ्चधातवः ॥ [2009]

शब्दार्थ अनूष्माणाम् = ऊष्मारहित। अचेष्टानाम् = गतिशीलता से रहिता घनानाम् = ठोस रूप। तत्त्वतः = वास्तविक रूप में वृक्षाणां = वृक्षों में। न उपलभ्यन्ते = नहीं पाये जाते हैं।

प्रसंग महर्षि भरद्वाज वृक्षों के शरीर में पाँच महाभूतों की सत्ता में सन्देह कर रहे हैं।

अन्वय अनूष्माणाम् अचेष्टानां घनानां च वृक्षाणां शरीरे तत्त्वतः पञ्चधातवः न एव उपलभ्यन्ते।

व्याख्या महर्षि भरद्वाज कहते हैं कि ऊष्मारहित, चेष्टाहीन और ठोस रूप वृक्षों के शरीर (UPBoardSolutions.com) में वास्तविक रूप से पाँच भूत तत्त्व नहीं पाये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि गर्मी न होने से वृक्षों में अग्नि-तत्त्व का अभाव है, चेष्टा न होने से उनमें वायु तत्त्व भी नहीं है और ठोस होने के कारण वे आकाश-तत्त्व से भी रहित हैं।

(6)
न शृण्वन्ति न पश्यन्ति न गन्धरससेविनः।
न च स्पर्श विजानन्ति ते कथं पाञ्चभौतिकाः ॥

शब्दार्थ गन्धरससेविनः = गन्ध और रस का सेवन करते हैं; अर्थात् न सँघते हैं न स्वाद लेते हैं। विजानन्ति = जानते हैं, अनुभव करते हैं। कथं = कैसे? पाञ्चभौतिकाः = पाँच महाभूतों से युक्त।

प्रसंग महर्षि भरद्वाज वृक्षों के पाँचभौतिक होने में शंका प्रकट कर रहे हैं।

अन्वय (वृक्षाः) न शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, न गन्ध रससेविन: (सन्ति), न च स्पर्श विजानन्ति, ते पाञ्चभौतिकाः कथं (भवितुमर्हन्ति)?

व्याख्या महर्षि भरद्वाज कहते हैं कि ये वृक्ष न तो जंगमों की तरह सुनते हैं, न,देखते हैं, गन्ध और रस का सेवन भी नहीं करते हैं, फिर वे पाँच महाभूतों से बने कैसे हो सकते हैं?

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(7)
अद्रवत्वादनग्नित्वादभूमित्वादवायुतः ।।
आकाशस्याप्रमेयत्वाद् वृक्षाणां नास्ति भौतिकम् ॥

शब्दार्थ अद्रवत्वात् = द्रव रूप न होने के कारण। अनग्नित्वात् = अग्नि रूप न होने के कारण। अभूमित्वात् = भूमि का अंश न होने के कारण। अवायुतः = वायु रूप न होने के कारण। आकाशस्य अप्रमेयत्वात् = आकाश के ज्ञेयत्व न होने के कारण। भौतिकम् = पंचभूतों से सम्बन्धित।

प्रसंग वृक्षों में पाँच भूतों का अभाव होने के कारण वे कैसे पाञ्चभौतिक हो सकते हैं, इस प्रकार महर्षि भरद्वाज शंका प्रकट कर रहे हैं।

अन्वये वृक्षाणाम् अद्रवत्वात्, अनग्नित्वात्, अभूमित्वात्, अवायुत: आकाशस्य अप्रमेयत्वात् (च तेषां) भौतिकम् न अस्ति।

व्याख्या महर्षि भरद्वाज कहते हैं कि वृक्षों में द्रव (जल) तत्त्व न होने के कारण, अग्नि तत्त्व न होने के कारण, भूमि तत्त्व के न होने के कारण, वायु का अंश न होने के कारण और आकाश के ज्ञेयत्व न होने के कारण उसको रूप पंचभूतों से नहीं बना है; अर्थात् वृक्षों का पाँच महाभूतों से सम्बन्ध नहीं है।

(8)
घनानामपि वृक्षाणामाकाशोऽस्ति न संशयः
तेषां पुष्पफलव्यक्तिर्नित्यं समुपपाद्यते ॥

शब्दार्थ घनानाम् अपि = ठोस रूप होते हुए भी। वृक्षाणां = वृक्षों में। आकाशः अस्ति = आकाश तत्त्व है। न संशयः = सन्देह नहीं है। तेषां = उन (वृक्षों) के पुष्पफलव्यक्तिः = फूल और फलों की उत्पत्ति। नित्यं = निरन्तर। समुपपाद्यते = सम्भव होती है।

प्रसंग वृक्षों की भौतिकता के सन्देह का समाधान करते हुए महर्षि भृगु आकाश तत्त्व की विद्यमानता सिद्ध कर रहे हैं।

अन्वय घनानाम् अपि वृक्षाणाम् आकाशः अस्ति, (अत्र) संशयः न (अस्ति)। तेषां (UPBoardSolutions.com) पुष्प-फल-व्यक्तिः नित्यं समुपपाद्यते।

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व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि ठोस रूप होते हुए भी वृक्षों में आकाश तत्त्व अवश्य होता है, इसमें सन्देह नहीं है; क्योंकि उनमें फूल और फलों की उत्पत्ति नित्य सम्भव होती है। तात्पर्य यह है कि फलों और फूलों में आकाश तत्त्व होता है। बिना आकाश तत्त्व के उनका अस्तित्व ही नहीं है। अत: वृक्षों में आकाश-तत्त्व के अभाव में फल और फूले उत्पन्न हो ही नहीं सकते थे।

(9)
ऊष्मतो म्लायते पर्णं त्वक् फलं पुष्पमेव च।
म्लायते शीर्यते चापि स्पर्शस्तेनात्र विद्यते ॥

शब्दार्थ ऊष्मतः = गर्मी के कारण। म्लीयते = कुम्हला जाता है। पर्ण = पत्ता। त्वक् = छाला शीर्यते = बिखर जाता है। स्पर्शः = स्पर्श। तेन = इस (कारण) से। अत्र = यहाँ। विद्यते = है।

प्रसंग महर्षि भृगु यह बता रहे हैं कि वृक्षों में स्पर्श का अनुभव करने की शक्ति है।

अन्वय ऊष्मतः पर्णं म्लायते। त्वक् फलं पुष्पम् एव च म्लायते शीर्यते अपि च। तेन अत्र स्पर्शः विद्यते।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि गर्मी के कारण वृक्षों के पत्ते मुरझा जाते हैं। छाल, फल (UPBoardSolutions.com) और फूल भी कुम्हला जाते हैं और बिखर जाते हैं। इस कारण वृक्षों में स्पर्श होता है क्योंकि बिना स्पर्श का अनुभव किये मुरझाना एवं सूखना सम्भव नहीं है। स्पर्श को वायु तत्त्व का गुण माना जाता है, अतः वृक्षों में वायु तत्त्व की विद्यमानता भी सिद्ध होती है।

(10)
वाय्वग्न्यशनिनिर्घोषैः फलं पुष्पं विशीर्यते
श्रोत्रेण गृह्यते शब्दस्तस्माच्छृण्वन्ति पादपाः ॥

शब्दार्थ वाय्वग्न्यशनिनिर्घोषः (वायु + अग्नि + अशनिनिर्घोषः) = वायु, अग्नि और बिजली की कड़के से। विशीर्यते = बिखर जाता है। श्रोत्रेण = कर्णेन्द्रियों के द्वारा। गृह्यते = ग्रहण किया जाता है। शब्दः = शब्द। तस्मात् = इस कारण से। शृण्वन्ति = सुनते हैं।

प्रसंग महर्षि भृगु वृक्षों में श्रवणेन्द्रिय की विद्यमानता बता रहे हैं।

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अन्वय वाय्वग्न्यशनिनिर्घोषैः (वृक्षाणां) फलं पुष्पं (च) विशीर्यते। श्रोत्रेण शब्दः गृह्यते। तस्मात् पादपाः शृण्वन्ति।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि वायु, अग्नि और बिजली की कड़क से फल और फूल बिखर जाते हैं। शब्द कान से ग्रहण किया जाता है। इसलिए वृक्ष सुनते हैं, यह सिद्ध होता है। यह तो सभी जानते हैं कि आकाश का गुण शब्द होता है; अत: इससे वृक्षों में आकाश तत्त्व (UPBoardSolutions.com) की विद्यमानता भी सिद्ध होती है।

(11)
वल्ली वेष्टयते वृक्षं सर्वतश्चैव गच्छति
न ह्यदृष्टेश्च मार्गोऽस्ति तस्मात् पश्यन्ति पादपाः ॥ [2008]

शब्दार्थ वल्ली = लता, बेल। वेष्टयते = लपेट लेती है। वृक्षं = वृक्ष को। सर्वतः = चारों ओर। अदृष्टेः = बिना दृष्टि वाले को मार्गोऽस्ति (मार्गः + अस्ति) = मार्ग है।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सिद्ध किया गया है कि वृक्षों में देखने की शक्ति होती है।

अन्वय वल्ली वृक्षं वेष्टयते, सर्वतः गच्छति च। अदृष्टे: च मार्गः न अस्ति। तस्माद् (सिध्यति यत्) पादपाः पश्यन्ति।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि बेल वृक्ष को लपेट लेती है और चारों ओर फैल जाती है; अर्थात् जिधर मार्ग मिल जाता है उधर निकल जाती है। बिना दृष्टि वाले का कोई मार्ग नहीं होता। इस कारण सिद्ध होता है। कि वृक्ष देखते भी हैं।

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(12)
पुण्यापुण्यैस्तथा गन्धैर्भूपैश्च विविधैरपि।
अरोगाः पुष्पिताः सन्ति तस्माज्जिघ्रन्ति पादपाः

शब्दार्थ पुण्यापुण्यैः = पुण्य और अपुण्य से, अच्छा बुरा, शुभ-अशुभ। गन्धैः = गन्धों से। धूपैः = धूपों (ओषधियों का धुआँ) से। अरोगाः = रोगरहित। पुष्पिता: = पुष्पयुक्त। जिघ्रन्ति = सँघते हैं। पादपाः = वृक्ष।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृक्षों का सँघना अर्थात् घ्राणेन्द्रिय की विद्यमानता सिद्ध की गयी है।

अन्वय (वृक्षाः) पुण्यापुण्यैः तथा गन्धैः विविधैः धूपैः अपि च अरोगाः पुष्पिताः सन्ति। तस्मात् पादपाः जिघ्रन्ति (इति सिध्यति)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि वृक्ष पुण्यों और अपुण्यों से तथा अनेक प्रकार की गन्धों और धूपों से रोगमुक्त और पुष्पित होते हैं। इस कारण वृक्ष सँघते हैं, यह सिद्ध होता है।

(13)
पादैः सलिलपानाच्च व्याधीनां चापि दर्शनात्।
व्याधिप्रतिक्रियत्वाच्च विद्यते रसनं द्रुमे॥

शब्दार्थ पादैः = जड़ों से, पैरों से। सलिलपानात् = जल पीने से। व्याधीनां = रोगों के चापि (च + अपि) = और भी। दर्शनात् = दिखाई पड़ने से। व्याधिप्रतिक्रियत्वात् = रोगों की प्रतिक्रिया (चिकित्सा) होने के कारण। विद्यते = है। रसनम् = स्वाद लेने की सामर्थ्य।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में महर्षि भृगु द्वारा वृक्षों में रसनेन्द्रिय का होना सिद्ध किया गया है।

अन्वये पादैः सलिलपानात् व्याधीनां च अपि दर्शनात् व्याधि प्रतिक्रियत्वात् च द्रुमे रसनं विद्यते (इति सिध्यति)।

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व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि अपनी जड़ों के द्वारा जल पीने के कारण और रोगों के दिखाई पड़ने के कारण और रोगों का उपचार सम्भव होने के कारण वृक्षों में स्वाद लेने की सामर्थ्य सिद्ध होती है। तात्पर्य यह है कि रसनेन्द्रिय के अभाव में जल पीना और रोगों की दवा पीना सम्भव नहीं है और बिना स्वाद के दवा का प्रभाव हो ही नहीं सकता।

(14)
वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोर्ध्वं जलमाददेत्
यथा पवनसंयुक्तः पादैः पिबति पादपः ॥

शब्दार्थ वक्त्रेण = मुख द्वारा। उत्पलनालेन = कमल की डण्डी से। यथा = जैसे, जिस प्रकार। ऊर्ध्वम् = ऊपर की ओर। आददेत् = ग्रहण करता है। तथा = उसी प्रकार पवनसंयुक्तः = पवन से युक्त।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृक्षों में चेतना का होना सिद्ध किया गया है।

अन्वय यथा उत्पलनालेन वक्त्रेण जलम् ऊर्ध्वम् आददेत्। तथा पवनसंयुक्तः पादपः पादैः (जलं)। पिबति।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि जैसे कमल डण्ठल के द्वारा ऊपर की ओर जल ग्रहण करता है, अर्थात् खींचता है, उसी प्रकार वृक्ष वायु से युक्त होकर अपनी जड़ों से पानी पीता है।

(15)
सुखदुःखयोश्च ग्रहणाच्छिन्नस्य च विरोहणात्।
जीवं पश्यामि वृक्षाणामचैतन्यं न विद्यते ॥ [2008]

शब्दार्थ सुख-दुःखयोः = सुख और दुःख का। ग्रहणात् = अनुभव करने के कारण। छिन्नस्य = कटे हुए का। विरोहणात् = पुनः उगने के कारण। जीवं = जीवन को। पश्यामि = देखता हूँ, अनुभव करता हूँ। अचैतन्यम् = चेतना का अभाव।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृक्षों में चेतनता की विद्यमानता को सिद्ध किया गया है।

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अन्वय (वृक्षाणां) सुखदुःखयोः ग्रहणात्, छिन्नस्य विरोहणात् च (अहं) वृक्षाणां जीवं पश्यामि। (तेषाम्) अचैतन्यं न विद्यते।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि सुख और दुःख का अनुभव करने के कारण तथा कटे हुए वृक्ष (UPBoardSolutions.com) के पुनः उगने के कारण मैं वृक्षों में जीवन देखता हूँ। उनमें चेतना का अभाव नहीं है।

(16)
तेन तज्जलमादत्तं जरयत्यग्नि-मारुतौ ।
आहारपरिणामाच्च स्नेहो वृद्धिश्च जायते ॥

शब्दार्थ तेन = उसके (वृक्ष के) द्वारा। आदत्तम् = ग्रहण किया जाता है। तत् = वह (जल)। जरयति = पचाता है। अग्नि-मारुतौ = अग्नि और वायु को। आहारपरिणामात् = भोजन पच जाने के कारण। स्नेहः = चिकनापन, स्निग्धता। वृद्धिः = बढ़ावा।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में वृक्षों में चेतना का होना सिद्ध किया गया है।

अन्वय तेन तत् जलम् आदत्तम्। अग्निमारुतौ जरयति। आहार-परिणामात् च स्नेह: वृद्धिश्च जायते।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि उस वृक्ष के द्वारा जल ग्रहण किया जाता है। वह अग्नि और हवा को पचाता है। भोजन के पच जाने के कारण उसमें स्नेह उत्पन्न होता है और उसकी वृद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि वृक्षों में चेतना होती है, क्योंकि जीवों में वृद्धि प्राप्त करना चेतना का द्योतक है।

(17)
एतेषां सर्ववृक्षाणां छेदनं नैव कारयेत्
चातुर्मासे विशेषेण विना यज्ञादिकारणम् ॥ [2007,12]

शब्दार्थ सर्ववृक्षाणां = सभी वृक्षों की। छेदनम् = कटाई। ‘कारयेत्’ = करना चाहिए। चातुर्मासे = वर्षा के चार महीनों में। विशेषेण = विशेष रूप से। विना यज्ञादिकारणम् = यज्ञ आदि किसी पवित्र उद्देश्य के बिना।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में बिना किसी विशेष प्रयोजन के वृक्षों को न काटने का परामर्श दिया गया है।

अन्वय एतेषां सर्ववृक्षाणां यज्ञादिकारणं विना छेदनं न कारयेत्। विशेषेण चातुर्मासे एव (एतेषां छेदनं न कारयेत्)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि इन सभी वृक्षों की यज्ञादि विशेष कारण के बिना कटायी नहीं करनी चाहिए; अर्थात् यज्ञादि के समय आवश्यकता पड़ने पर ही वृक्षों को काटना चाहिए। विशेष रूप से वर्षा के चार महीनों में इन्हें नहीं काटना चाहिए।

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(18)
एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं वै वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ॥ [2008, 10, 11, 14, 15]

शब्दार्थ एकेनापि = एक भी। सुवृक्षेण = सुन्दर वृक्ष के द्वारा। पुष्पितेन = फूलों से युक्त। सुगन्धिना = सुन्दर महक (गन्ध) वाले। वासितम् = सुगन्धित हो जाता है। वनं सर्वं = सम्पूर्ण वन|

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में पुष्पित और पल्लवित वृक्ष के माध्यम से सुपुत्र के गुणों पर प्रकाश डाला गया है।

अन्वय पुष्पितेन सुगन्धिना एकेन अपि सुवृक्षेण सर्वं वै वनं वासितं सुपुत्रेण कुलं (भवति)।

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि फूलों से युक्त तथा सुन्दर गन्ध से युक्त एक भी सुन्दर वृक्ष के द्वारा सारा वन उसी प्रकार सुगन्धित हो जाता है, जैसे एक ही सुपुत्र के द्वारा वंश प्रतिष्ठित हो जाता है।

सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) अमितानां महाशब्दो यान्ति भूतानि सम्भवम्। [2007]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के ‘वृक्षाणां चेतनत्वम्’ पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ की शेष समस्त सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में महर्षि भृगु पंचभूतों और उसके लिए प्रयुक्त शब्द का वर्णन कर रहे हैं।

अर्थ असीमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द से भौतिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं।

व्याख्या महर्षि भरद्वाज से महर्षि भृगु कहते हैं कि असीमित पदार्थों के लिए ‘महा’ शब्द का प्रयोग होता है। यह शब्द के पूर्व जुड़कर उसके अर्थ में; बहुत अधिक, सर्वश्रेष्ठ, सबसे बड़ा, बहुत बड़ा आदि अर्थों का बोध कराता है; यथा-महात्मा, महाकाव्य, महादेव, महापुरुष, महाभियोग, महायज्ञ, महामारी आदि। अतः स्पष्ट है कि ‘महा’ शब्द का प्रयोग असीमित पदार्थों के लिए होता है। इन असीमित पदार्थों से ही समस्त प्राणी/भौतिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इनके लिए प्रयुक्त ‘महाभूत’ शब्द सार्थक और उपयुक्त है।

(2) शरीरं पाञ्चभौतिकम्। [2012]

प्रसंग इस सूक्ति में बताया गया है कि संसार में जितने भी प्राणी हैं उनके शरीर पाँच तत्त्वों से मिलकर बने

अर्थ शरीर पाँच भौतिक तत्त्वों से निर्मित है।

व्याख्या महर्षि भृगु वृक्षों में चेतना के होने को प्रमाणित करते हुए उनकी तुलना मनुष्य के शरीर से करते हैं। वे बताते हैं कि हमारा शरीर आकाश, वायु, जल, पृथ्वी और अग्नि-इन पाँच तत्त्वों से मिलकर बना है। हमारे शरीर की चेतना के कारण ये पाँच तत्त्व ही हैं। जिस प्रकार (UPBoardSolutions.com) शरीर की गति वायु तत्त्व के कारण, खोखलापन आकाश तत्त्व के कारण, ऊष्मा अग्नि तत्त्व के कारण, रुधिर आदि का प्रवाह जल तत्त्व के कारण और ठोसपन पृथ्वी तत्त्व के कारण है, उसी प्रकार वृक्षों में भी ये पाँचों तत्त्व और लक्षण विद्यमान हैं। इसीलिए ये भी हमारी तरह ही प्राणवान हैं।

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(3)
शरीरे पञ्चधातवः।
ते कथं पाञ्चभौतिकाः।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वृक्षों में पाँच धातुओं अर्थात् पाँच महाभूतों की विद्यमानता में सन्देह व्यक्त किया गया है।

अर्थ शरीर में पाँच धातुएँ अर्थात् पाँच महाभूत तत्त्व कैसे (हो सकते हैं)?

व्याख्या महर्षि भृगु कहते हैं कि सभी स्थावर (एक ही स्थान पर स्थित रहने वाले) और जंगम (चलने-फिरने वाले) पदार्थों में पाँच धातुओं अर्थात् पाँच महाभूतों की विद्यमानता है। इन्हीं पाँच महाभूतों से चर-अचर समस्त विश्व युक्त हैं। पाँच इन्द्रिय संज्ञक-श्रवणेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय और दर्शनेन्द्रिय सूक्ष्म महाभूत हैं। महर्षि भरद्वाज इन पाँच महाभूतों की विद्यमानता जंगम पदार्थों में तो स्वीकार करते हैं, लेकिन स्थावर पदार्थों में नहीं। अपने सन्देह को व्यक्त करते हुए वे विभिन्न तर्को के द्वारा अपनी बात को रखते हैं।

(4)
तथा पवनसंयुक्तः पादैः पिबति पादपः।
पादैः पिबति पादपः।। [2015]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में जीवधारियों और वृक्ष द्वारा जल-ग्रहण करने की विधि का वर्णन किया गया है।

अर्थ जैसे पवन से युक्त होकर वृक्ष जड़ों से जल पीते हैं।

व्याख्या जीवधारी वायु के सहयोग से चूषण-पद्धति द्वारा जल आदि पेय पदार्थों को ग्रहण करते हैं। यह क्रिया केवल जीवधारियों में पायी जाती है। वृक्ष भी इस पद्धति के द्वारा वायु के योग से अपनी जड़ों द्वारा पृथ्वी से जल चूसकर अपना पोषण करते हैं; अतः उनमें भी जीवन है। जिस प्रकार कमल अपनी नाल के द्वारा पानी को ऊपर पहुँचाता (खींचता) है, उसी प्रकार वृक्ष वायु की सहायता से अपने जड़रूपी पैरों से पानी पीकर वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं तक ले जाते हैं। इसीलिए उनको पादप कहा जाता है। भाव यह है कि मूल ही सबका कारण होता है।

(5) एतेषां सर्ववृक्षाणां छेदनं नैव कारयेत्। [2006,07,09, 10, 12]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में महर्षि भृगु वृक्षों में चेतना होने के कारण उन्हें न काटने की ओर संकेत कर रहे हैं।

अर्थ इन सभी वृक्षों को नहीं काटना चाहिए।

व्याख्या सभी वृक्षों में जीवधारियों की तरह ही चेतना होती है। इसी कारण से वे भी हमारी तरह ही सुख और दु:ख का अनुभव करते हैं। अतः व्यर्थ काटकर उन्हें पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए। वर्षा ऋतु में सभी पेड़-पौधों में नवजीवन और नवचेतना का संचार होता है। इसी समय (UPBoardSolutions.com) वे सर्वाधिक वृद्धि करते हैं। अतः वर्षा ऋतु में तो उन्हें कदापि नहीं काटना चाहिए। वर्तमान समय में पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ रहा है, इसलिए उनकी रक्षा करना तो और भी आवश्यक हो जाता है।

(6)
वासितं वै वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा। [2006, 08,09, 10, 14]
सुपुत्रेण कुलं यथा। [2009, 14]

प्रसंग इस सूक्ति में सुपुत्र के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ एक ही पुष्पित एवं गन्ध वाले वृक्ष से पूरा वन सुवासित हो जाता है, जिस प्रकार एक योग्य पुत्र से कुल का यश बढ़ जाता है।

व्याख्या जब किसी वन में सुगन्धित पुष्पों वाला एक वृक्ष भली प्रकार से सुगन्धित हो उठता है, तो उसकी सुगन्ध से सारा वन महकने लगता है। ठीक इसी प्रकार से एक सुपुत्र अपने सम्पूर्ण कुल को अपने सकर्मों की सुगन्ध से महका देता है। तात्पर्य यह है कि पुत्र के सद्कर्मों से उसके सम्पूर्ण कुल की …. यश-कीर्ति चारों ओर फैल जाती है। उसके नाम से उसके कुल का नाम जाना जाने लगता है। यहाँ पर सुपुत्र की तुलना सुवृक्ष से की गयी है और यह बताया गया है कि दोनों को अपने-अपने कुल समूह के लिए महत्त्व है। भाव यह है कि एक भी अच्छा गुण व्यक्ति के विकास में सहायक होता है।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) अमितानां महाशब्दो ……………………………… शब्दोऽयमुपपद्यते ॥ (श्लोक 1)
संस्कृतार्थः महर्षिः भृगुः उवाच-वृक्षाः असीमितपदार्थान् यच्छन्ति, अतएव एभ्यः ‘महा’ शब्दस्य प्रयोगः भवति। अस्मात् कारणात् एव इमान् ‘महाभूत’ संज्ञया अभिहितः।

(2) चेष्टा वायुः ……………………………… शरीरं पाञ्चभौतिकम् ॥ (श्लोक 2)
संस्कृतार्थः महर्षिः भृगुः उवाच–अस्मिन् वृक्षे शरीरे गतिशीलता वायोः रूपम् अस्ति, खम् आकाशस्य रूपम् अस्ति, उष्णत्वम् अग्निरूपम् अस्ति, रुधिरादयः तरलाः पदार्थाः सलिलरूपम् अस्ति, सङ्गातः पृथ्वीरूपम् अस्ति; अतः इदं शरीरं पाञ्चभौतिकम् अस्ति।

(3) पञ्चभिर्यदि भूतैस्तु ……………………………… पञ्चधातवः ॥ (श्लोक 4) [2006]
संस्कृतार्थः महर्षिः भरद्वाजः कथयति यत् यदि स्थावर-जङ्गमाः पदार्थाः पञ्चमहाभूतैः युक्ताः सन्ति तर्हि स्थावराणां पदार्थानां शरीरे पञ्चधातवः पञ्चमहाभूततत्त्व: वा कथं न दृश्यन्ते?

(4) अनूष्माणामचेष्टानां ……………………………… पञ्चधातवः ॥ (श्लोक 5)
संस्कृतार्थः महर्षिः भरद्वाजः उवाच-ऊष्मारहिताणां क्रियाशीलतारहिताणाम् अवकाशरहिताणां चे वृक्षाणां शरीरे वस्तुतः पञ्चधातवः न एव उपलभ्यन्ते।

(5) न शृण्व न्ति नं ……………………………… कथं पाञ्चभौतिकाः ॥ (श्लोक 6) (2010].
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भरद्वाजः शङ्कां करोति यत् ते वृक्षाः न शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, (UPBoardSolutions.com) न गन्ध-रस सेविन: न च स्पर्श विजानन्ति, अतएव ते कथं पाञ्चभौतिकाः सन्ति।

(6) ऊष्मतो म्लायते ……………………………… तेनात्र विद्यते॥ (श्लोक 9) [2009]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भृगुः कथयति उष्मतः अर्थात् तापकारणेन पर्णानि म्लायन्ते। एतत् अतिरिक्तं त्वक् फलं-पुष्पं च अपि म्लायते शीर्यते च। एतेन कारणेन स्पष्टः अस्ति यत् वृक्षेषु स्पर्शगुणस्य विद्यमानता अवश्यमेव भवति।

(7) वल्ली वेष्टयते ……………………………… पश्यन्ति पादपाः ॥ (श्लोक}l) [2010]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भृगुः कथयति यत् वृक्षेषु चक्षु-इन्द्रियम् अपि विद्यते, लता वृक्षम् आरोहति यत्र अलम्बनं मिलति तत्र सर्वत्र गच्छति। अदृष्टे मार्गे लतानाम् आरोहणे गमनं नैव सम्भवतः। तस्मात् पादपाः पश्यन्ति अपि।

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(8) पुण्यापुण्यैस्तथा ……………………………… जिघ्रन्ति पादपाः ॥ (श्लोक 12)
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भृगुः वृक्षाणां घ्राणेन्द्रियस्य सिद्धिः करोति। वृक्षः सुगन्धं दुर्गन्धं च विचारयन्ति। गन्धैः युक्तैः धूपैः पादपाः अरोगाः पुष्पिता: सन्ति। तस्मात् कारणात् पादपाः जिघ्रन्ति।

(9) सुखदुःखयोश्य ……………………………… न विद्यते ॥ (श्लोक 15) [2010, 1]
संस्कृतार्थः महर्षिः भृगुः उवाच-अहं सुखदुःखयोः अनुभवकरणात् छिन्नस्य शरीरस्य पुनः अङ्कुरणात् च वृक्षाणां जीवं पश्यामि। तेषां निर्जीवत्वं न विद्यते। वृक्षा अपि सचेतना नैव जडाः इति भावः।।

(10) एतेषां सर्ववृक्षाणां ……………………………… यज्ञादिकारणम्॥ (श्लोक 17)
संस्कृतार्थः महर्षिः भृगुः कथयति यत् कदापि वृक्षाणाम् अकारणं कर्त्तनं न कुर्यात्। यज्ञादि कारणाय एव छेदनं कारयेत्। विशेषेण चातुर्मासे वृक्षं कर्त्तनं न कुर्यात्। शास्त्रेषु अपि वृक्षाणां कर्त्तनं निषिद्धम् अस्ति।

(11) एकेनापि सुवृक्षेण ……………………………… सुपुत्रेण कुलं यथा ॥ (श्लोक 18) [2007,08,09, 10, 11, 12, 15]
संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके महर्षिः भृगु कथयति यत् यथा एकः सुपुष्पितः सुगन्धित: वृक्षः सर्वं (UPBoardSolutions.com) वनं सुगन्धितं करोति तथैव एकः सुपुत्रः अपि समस्तं कुलं स्वगुणैविभूषितं करोति। अतएव वृक्षाणां समृद्धिः आवश्यकी अस्ति।

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