Class 10 Sanskrit Chapter 9 UP Board Solutions संस्कृतभाषायाः गौरवम् Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 9 Sanskrit Bhashaya Gauravam Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 9 हिंदी अनुवाद संस्कृतभाषायाः गौरवम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में सर्वाधिक प्राचीन भाषा है। यह ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, मधुर, सरस और मनोहर है। इस बात को सभी पाश्चात्य भाषाविद् भी स्वीकार करते हैं। संस्कृत भाषा के दो रूप हैं—

  • वैदिक और
  • लौकिक।

हमारे प्राचीनतम ग्रन्थों, वेद, उपनिषद् आदि में जो भाषा मिलती है, (UPBoardSolutions.com) वह वैदिक संस्कृत है और जिस भाषा का आजकल अध्ययन किया जाता है वह लौकिक संस्कृत। वैदिक संस्कृत की तुलना में लौकिक संस्कृत अधिक सरल है।

संस्कृत को सभी भारतीय भाषाओं की जननी कहा जाता है। संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और विभिन्न अपभ्रंशों से वर्तमान समय की विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं का विकास माना जाता है। भारत का समस्त प्राचीन साहित्य संस्कृत में ही है। गद्य, पद्य, नाटक, व्याकरण, ज्योतिष, दर्शन, गणित आदि विषयों का विशाल साहित्य इस भाषा को आदरणीय बनाता है। इसीलिए इसका देववाणी, गीर्वाणवाणी, देवभाषा कहकर आदर किया जाता है।

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प्रस्तुत पाठ में संस्कृत भाषा की प्राचीनता, वैज्ञानिकता, ज्ञान-सम्पन्नता, भावात्मकता आदि का परिचय देते हुए इसके महत्त्व को समझाया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि इसी के द्वारा विश्व-शान्ति की स्थापना की जा सकती है।

पाठ-सारांश [2006, 07,08, 09, 10, 11, 12, 13, 14]

प्राचीनता संस्कृत भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में प्राचीनतम, विपुल साहित्य और ज्ञान-सम्पन्न, सरल, मधुर, सरसे और मनोहर है। संस्कृत भाषा को देववाणी या गीर्वाणभारती भी कहा जाता है। इस बात को पाश्चात्य भाषाविद् भी मानते हैं कि यह ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं से भी पुरातन और प्रचुर साहित्य सम्पन्न भाषा है। इस बात को दो सौ वर्ष पहले ही सर विलियम जोन्स ने घोषित कर दिया था। प्राचीन काल में यही भाषा सर्वसाधारण लोगों की और व्यवहार की भाषा थी। इस भाषा की प्राचीनता एवं अन्न- समान्य के भाई होने के विश्व में एक दृ ५५ति है। कल जाता है कि कोई रातकड़ी का गट्ठर सिर पर रखे हुए जा रहा था। (UPBoardSolutions.com) उसे देखकर राजा ने पूछा—-** भो भार धति?” अरे भार परेशान कर रहा है)। तब लकड़हारे ने कहा कि राजन् लकड़ियों का भार इतना परेशान नहीं कर रहा है, जितना कि आपके द्वारा प्रयुक्त ‘बाधति’ शब्द। राजा द्वारा प्रयुक्त ‘बाधति’ परस्मैपदी होने के कारण अशुद्ध था, यहाँ आत्मनेपद का रूप ‘बाधते’ प्रयुक्त होना था। यही बात लकड़हारे ने राजा से अन्योक्ति के माध्यम से कहीं है, जो संस्कृत का लोक-भाषा होना प्रमाणित करती है। इसके अतिरिक्त रामायणकालीन समाज में भी यह भाषा लोकभाषा के रूप में व्यवहृत होती थी। ‘रामायण’ में एक स्थान पर संस्कृत को द्विजाति की भाषा कहा गया है।

विशाल और प्राचीन साहित्य संस्कृत भाषा का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। यह गद्य, पद्य और चम्पू तीन प्रकार का है। संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद’ इसी भाषा में है। इसी भाषा में वेद, वेदांग, दर्शन, उपनिषद्, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र, महाभारत, रामायण आदि लिखे गये हैं। इन सभी में साहित्य के विषयानुरूप सरल और क्लिष्ट रूप प्रकट होते हैं। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, कालिदास, अश्वघोष, बाण, सुबन्धु, दण्डी, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि संस्कृत के महान कवि और लेखक हैं, जो संस्कृत भाषा के गौरव को द्योतित करते हैं। संस्कृत का व्याकरण तो संसार में अद्वितीय है। इसमें सन्धि, समास, अलंकारों आदि का सूक्ष्म विवेचन है। इसके काव्य में ध्वनि-माधुर्य और श्रुति-माधुर्य है।

भाषागत विशिष्टता संस्कृत भाषा के वाक्य-विन्यास में शब्दों का स्थान निर्धारित नहीं होता, अर्थात् वाक्य के अन्तर्गत प्रयुक्त शब्दों को कहीं भी रखा जा सकता है। इससे वाक्य के अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता। संस्कृत में व्युत्पत्ति अर्थ के अनुसार और व्युत्पत्ति के अनुसार सार्थक शब्दों की रचना की जाती है।

सामाजिक विशिष्टता संस्कृत भाषा की सामाजिक विशिष्टता भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी कुछ एक सूक्तियों का अधोलिखित हिन्दी रूपान्तर इसे स्पष्ट करता है–

  • जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से। बढ़कर है।
  • यह अपना है और यह पराया है; यह भावना संकीर्ण विचारकों की हैं।
  • उदार चरित वाले व्यक्तियों के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी ही कुटुम्ब के समान हैं।
  • कुत्ते और चाण्डाल के प्रति भी समान भाव रखने वाले पण्डित होते हैं, आदि।

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अध्ययन की आवश्यकता संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना एकता और अखण्डता का पाठ निरर्थक है। प्राचीन भारतीय मनीषियों के उत्तमोत्तम विचार और अन्वेषण इसी भाषा में निबद्ध हैं। अपनी सभ्यता, धर्म और संस्कृति को अच्छी तरह समझने के लिए संस्कृत का अध्ययन परमावश्यक है। (UPBoardSolutions.com) इस भाषा की उन्नति करने के लिए हमें सदैव तत्पर रहना चाहिए। पं० जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में संस्कृत भाषा के महत्त्व के विषय में लिखा है कि “संस्कृत भाषी भारत की अमूल्य निधि है। इसकी सुरक्षा का दायित्व स्वतन्त्र भारत पर है।”

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
संस्कृतभाषा विश्वस्य सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा विपुलज्ञानविज्ञानसम्पन्ना सरला सुमधुरा हृद्या चेति सर्वैरपि प्राच्यपाश्चात्यविद्वद्भिरेकस्वरेणोररीक्रियते। भारतीयविद्याविशारदैस्तु “संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः” इति संस्कृतभाषा हि गीर्वाणवाणीति नाम्ना सश्रद्धं समाम्नाता।

शब्दार्थ प्राचीनतमा = सबसे अधिक प्राचीन सम्पन्ना = परिपूर्ण। हृद्या = हृदय को आनन्दित करने वाली। प्राच्य = पूर्वीया उररीक्रियते = स्वीकार किया जाता है। विद्याविशारदैः = विद्या में कुशल वागन्याख्याता = ।वाणी कही गयी। सश्रद्धम् = श्रद्धासहित। समाम्नाता = मानी गयी है। सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘संस्कृतभाषायाः गौरवम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की प्राचीनता और उसे देवभाषा होना बताया गया है।

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अनुवाद संस्कृत भाषा विश्व की सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन, अत्यधिक ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, अत्यन्त मधुर और सभी के मनों को हरने वाली है। ऐसा पूर्वी (भारतीय) और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा एक स्वर से स्वीकार किया गया है। भारतीय विद्वानों के द्वारा “संस्कृत महर्षियों द्वारा दैवी वाणी कही गयी है” इस प्रकार (मानी गयी) संस्कृत भाषा देवताओं की वाणी इस नाम से श्रद्धा के साथ मानी गयी।

(2)
ग्रीकलैटिनादि प्राचीनासु भाषासु संस्कृतभाषैव प्राचीनतमा प्रचुरेसाहित्यसम्पन्ना चेति। श्रीसरविलियमजोंसनाम्ना पाश्चात्यसमीक्षकेणापि शतद्वयवर्षेभ्यः प्रागेव समुद्घोषितमिति सर्वत्र विश्रुतम्।।

शब्दार्थ प्रचुरसाहित्यसम्पन्ना = अधिक साहित्य से युक्त। शतद्वयवर्षेभ्यः = दो सौ वर्ष से। प्रागेव = पहले ही। विश्रुतं = प्रसिद्ध है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की प्राचीनता और विपुल साहित्य की पुष्टि के लिए पाश्चात्य विद्वान् का सन्दर्भ दिया गया है।

अनुवाद ग्रीक, लैटिन आदि प्राचीन भाषाओं में संस्कृत भाषा ही सबसे प्राचीन और विशाल साहित्य से युक्त है। श्री सर विलियम जोन्स नाम के पाश्चात्य आलोचक ने भी दो सौ वर्ष पहले ही घोषणा कर दी थी, ऐसा सब जगह प्रसिद्ध है।

(3)
संस्कृतभाषा पुराकाले सर्वसाधारणजनानां वाग्व्यवहारभाषा चासीत्। तत्रेदं श्रूयते यत्.पुरा कोऽपि नरः काष्ठभारं स्वशिरसि निधाय काष्ठं विक्रेतुमापणं गच्छति स्म। मार्गे नृपः तेनामिलदपृच्छच्च, भो!भारं बाधति? काष्ठभारवाहको नृपं तत्प्रश्नोत्तरस्य प्रसङ्गेऽवदत्, (UPBoardSolutions.com) भारं न बाधते राजन्! यथा बाधति बाधते। अनेनेदं सुतरामायाति यत्प्राचीनकाले भारतवर्षे संस्कृतभाषा साधारणजनानां भाषा आसीदिति। रामायणे यदा भगवतो रामस्य प्रियसेवको हनूमान् कनकमयीं मुद्रामादाय सीतायै दातुमिच्छति तदा विचारयति स्म [2014]

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वाचं चोदाहरिष्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ॥

एतेनापि संस्कृतस्य लोकव्यवहारप्रयोज्यता अवगम्यते।

संस्कृतभाषा पुराकाले ………………………………………………… भाषा आसीदिति। [2010]

शब्दार्थ वाग्व्यवहार-भाषा = बोल-चाल के व्यवहार की भाषा। तत्रेदं = इस विषय में यह पुरा = पहले, प्राचीन काल में। निधाय = रखकर विक्रेतुमापणं = बेचने के लिए बाजार को अपृच्छत् = पूछा। बाधते = कष्ट दे रही है। अनेनेदम् = इससे यह कनकमयीम् = सोने की बनी। मुद्राम् = अँगूठी को। द्विजातिरिव = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों के समान। संस्कृताम् = संस्कार की हुई। मन्यमाना = मानती हुई। भीता = डरी हुई। प्रयोज्यता = प्रयोग में आना। अवगम्यते = जानी जाती है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में उदाहरणों द्वारा बताया गया है कि प्राचीनकाल में संस्कृत सामान्यजन की बोलचाल की भाषा थी।

अनुवाद संस्कृत भाषा प्राचीन काल में सर्वसाधारण लोगों की वाणी और व्यवहार की भाषा थी। इसके विषय में यह सुना जाता है कि प्राचीन काल में कोई मनुष्य लकड़ी का बोझे अपने सिर पर रखकर लकड़ी बेचने के लिए बाजार को जा रहा था। मार्ग में राजा उससे मिला और पूछा-“अरे! क्या बोझ पीड़ा पहुँचा रहा है (भो! भारं बाधति)?” लकड़ी का बोझा ढोने वाले (लकड़हारे) ने राजा से उसके प्रश्न के उत्तर के प्रसंग में कहा-“हे राजन्! बोझ पीड़ा नहीं दे रहा है, (UPBoardSolutions.com) जैसा ‘बाधति’ (का प्रयोग) पीड़ा पहुँचा रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में भारतवर्ष में संस्कृत भाषा साधारणजनों की भाषा थी। रामायण में जब भगवान् राम के प्रिय सेवक हनुमान् सोने की अँगूठी को लेकर सीता को देना चाहते हैं, तब वह सोचते हैं मैं ब्राह्मण के समान संस्कृत वाणी बोलूंगा तो सीता मुझे रावण समझते हुए डर जाएँगी। इससे भी संस्कृत का – लोक-व्यवहार में प्रयोग होना माना जाता है।

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(4)
अस्याः भाषायाः साहित्यं सर्वथा सुविशालं विद्यते। तत्र संस्कृतसाहित्यं गद्य-पद्य-चम्पू-प्रकारैः त्रिधा विभज्यते। संस्कृतसाहित्यं नितान्तमुदात्तभावबोधसामर्थ्यसम्पन्नसाधारणं श्रुतिमधुरञ्चेति निर्विवादम्। वस्तुतः साहित्यं खलु निखिलस्यापि समाजस्य प्रत्यक्ष प्रतिबिम्बं प्रस्तौति। अस्मिन् साहित्ये विश्व-प्राचीनतमा ऋग्यजुः सामाथर्वनामधेयाश्चत्वारो वेदाः, शिक्षा-कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमित्येतानि वेदानां षडङ्गानि, न्याय-वैशेषिक-साख्य-योग-मीमांसा-वेदान्तेति आस्तिकदर्शन शास्त्राणि; चार्वाक्-जैन-बौद्धेति नास्तिकदर्शनशास्त्राणि, उपनिषदः, स्मृतयः, सूत्राणि, धर्मशास्त्राणि, पुराणानि, रामायणं महाभारतमित्यादयः ग्रन्थाः संस्कृतसाहित्यस्य ज्ञानरत्नप्राचुर्यं समुद्घोषयन्ति। वाल्मीकि-व्यास-भवभूति-दण्डि-सुबन्धु-बाण-कालिदास-अश्वघोष-भारवि-जयदेव-माघ-श्रीहर्षप्रभृतयः कवयः लेखकाश्चास्याः गौरवं वर्धयन्ति। अहो! संस्कृतभाषायाः भण्डारस्य’ निःसीमता, यस्याः शब्दपारायणस्य विषये महाभाष्ये लिखितं वर्तते यद दिव्यं वर्षसहस्रं वृहस्पतिः इन्द्राय शब्दपारायणमिति कोष-प्रक्रिया आसीत्। संस्कृतव्याकरणेन एवंविधा शैली प्रकटिता पाणिनिना, यथा शब्दकोषाः अल्पप्रयोजना एवं जाता। तस्य व्याकरणं विश्वप्रसिद्धम् एव न अपितु अद्वितीयमपि मन्यते।।

अस्याः भाषायाः ………………………………………………… समुदघोषयन्ति । [2015]

शब्दार्थ सर्वथा सुविशालं = अत्यन्त विस्तृत। त्रिधा = तीन प्रकार से। विभज्यते = विभक्त किया जाता है। निर्विवादम् = विवाद से रहित प्रस्तौति = प्रस्तुत करता है। षडङ्गानि = छ: अंग। प्राचुर्यम् = अधिकता को। समुद्घोषयन्ति = उद्घोषित करते हैं। वर्धयन्ति = बढ़ाते हैं। निःसीमता = असीमता, सीमाहीनता। दिव्य वर्षसहस्रम् = हजार दिव्य वर्षों तक पारायणम् = पढ़ना। अल्पप्रयोजना = थोड़े प्रयोजन वाले।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत-साहित्य की विशालता बतायी गयी है तथा उसके ग्रन्थ, कवि, व्याकरण-कोशादि का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस भाषा का साहित्य सब प्रकार से अत्यन्त विशाल है। वहाँ संस्कृत-साहित्य गद्य, पद्य और चम्पू के भेद से तीन प्रकार का विभाजित किया जाता है। संस्कृत-साहित्य अत्यन्त उच्च भावों के ज्ञान की योग्यता से युक्त, असाधारण वे सुनने में मधुर है-यह बात विवादरहित है। वास्तव में साहित्य निश्चय ही सम्पूर्ण समाज का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है। इस साहित्य में विश्व के सबसे प्राचीन ऋक्, यजुः, साम और अथर्व नाम के चार वेद; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष—ये वेदों के छ: अंग; न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त-ये आस्तिक दर्शनशास्त्र; चार्वाक, जैन, बौद्ध–ये नास्तिक दर्शनशास्त्र; उपनिषद्, स्मृतियाँ, सूत्र, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ संस्कृत-साहित्य के ज्ञान-रत्न की अधिकता को घोषित करते हैं। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाण, (UPBoardSolutions.com) कालिदास, अश्वघोष, भारवि, जयदेव, माघ, श्रीहर्ष आदि कवि और लेखक इसके गौरव को बढ़ाते हैं। अहो! संस्कृत भाषा के भण्डार का सीमारहित होना आश्चर्यजनक है, जिसके शब्दों के पारायण (व्याख्यान) के विषय में महाभाष्य में लिखा है कि बृहस्पति ने दिव्य हजार वर्ष तक इन्द्र को शब्द का व्याख्यान किया। यह कोश की प्रक्रिया थी। महर्षि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के द्वारा ऐसी शैली का प्रतिपादन किया, जिससे शब्दकोश कम प्रयोजन वाले ही हो गये। उनका व्याकरण विश्वप्रसिद्ध ही नहीं, अपितु अद्वितीय भी माना जाता है।

(5)
अन्यासु भाषासु वाक्ययोजने प्रथमं कर्तुः प्रयोगः पुनः अन्येषां कारकाणां विन्यासः, पश्चात् क्रियायाः उक्तिः। कस्याञ्चित् भाषायां क्रियायाः विशेषणानां कारकाणाञ्च पश्चात् प्रयोगः, किन्तु संस्कृतव्याकरणे नास्ति एतादृशाः केऽपि नियमाः। यथा–आसीत् पुरा दशरथो नाम राजा अयोध्यायाम्। अस्यैव वाक्यस्य विन्यासः एवमपि भवति-पुरा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा आसीत्, अयोध्यायां दशरथो नाम राजा पुरा आसीत्, इति वा। कस्यापि पदस्य कुत्रापि स्थानं भवेत् न कापि क्षतिः। [2008, 10]

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शब्दार्थ वाक्ययोजने = वाक्य की योजना (प्रयोग) में। अन्येषां = दूसरे। विन्यासः = रचना। उक्तिः = कथन। एतादृशाः = इस प्रकार के। अस्यैव = इसका ही। कुत्रापि = कहीं भी। क्षतिः = हानि।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत की वाक्य-योजना के विषय में बताया गया है।

अनुवाद” अन्य भाषाओं में वाक्य-योजना में पहले कर्ता का प्रयोग, फिर दूसरे कारकों का प्रयोग, बाद में क्रिया का कथन होता है। किसी भाषा में क्रिया का प्रयोग विशेषणों और कारकों के बाद होता है, किन्तु संस्कृत व्याकरण में इस प्रकार के कोई नियम नहीं हैं; जैसे—आसीत् पुरा दशरथो नाम राजा अयोध्यायाम्। (प्राचीन काल में अयोध्या में दशरथ नाम का राजा था।) इसी वाक्य की रचना ऐसी भी होती है-पुरा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा आसीत्, अथवा अयोध्यायां दशरथो नाम राजा पुरा आसीत्; ऐसी भी। किसी भी पद का कहीं भी स्थान हो, कोई हानि नहीं है।

(6)
सन्धीनां विधानेन वाक्यस्य विन्यासे सौकर्यं जायते। एकस्यां पङ्क्त समासेन बहूनां शब्दानां योजना भवितुं शक्या, यथा-कविकुलगुरुकालिदासः। एकस्याः क्रियायाः विभिन्नार्थद्योतनाय दशलकारा वर्णिताः। लकाराणां प्रयोगज्ञानेन इत्थं ज्ञायते इयं घटना कियत्कालिकी, किंकालिकी, यथा—हरिश्चन्द्रो राजा बभूव। रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह वनं जगाम अत्र लिट्प्रयोगेण ज्ञायते इयं घटना पुरा-कालिकी सहस्रवर्षात्मिका लक्षात्मिका वा स्यात्। गन्तास्मि वाराणसी (UPBoardSolutions.com) कथनेनैव ज्ञायते श्वः गन्तास्मि। सामान्यभविष्यत्काले लुट् प्रयोगो भवति, एवं भूतकालेऽपि अद्यतनस्य अनद्यतनस्य च भूतकालस्य कृते पृथक् पृथक् लकारस्य प्रयोगोऽस्ति।

शब्दार्थ सौकर्यम् = सरलता। विभिन्नार्थ = भिन्न-भिन्न अर्थ। द्योतनाय = बताने के लिए। कियत्कालिकी = कितने समय की। किंकालिकी = किस समय की। सहस्रवर्षात्मिका = हजार वर्ष की। लक्षात्मिका = एक लाख वर्ष की। गन्तास्मि = जाने वाला हूँ। अद्यतनस्य = आज का। अनद्यतनस्य = आज से भिन्न का।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत में सन्धि, समास तथा लकारों के प्रयोग के महत्त्व को बताते हुए इस भाषा की लोकप्रियता बतायी गयी है।

अनुवाद सन्धियों के करने में वाक्य की रचना में सरलता हो जाती है। समास के द्वारा एक पंक्ति में बहुत-से शब्दों का प्रयोग हो सकता है; जैसे-कविकुलगुरुकालिदासः (कवियों के समूह के गुरु कालिदास)। एक क्रिया के विभिन्न अर्थों को बताने के लिए दस लकारों का वर्णन किया गया है। लकारों के प्रयोग के ज्ञान से इस प्रकार ज्ञात हो जाता है कि यह घटना कितने समय की और किस समय की है; जैसे—हरिश्चन्द्रो राजा बभूव (हरिश्चन्द्र राजा थे)। रामो लक्ष्मणेन सीतया च सह वनं जगाम (राम, लक्ष्मण और सीता के साथ वन गये)। यहाँ (बभूव और जगाम में) लिट् लकार का प्रयोग करने से ज्ञात होता है कि यह घटना प्राचीन समय की-हजार वर्ष की या लाख वर्ष की-है। गन्तास्मि वाराणसीम् (वाराणसी जाऊँगा) कहने से ही ज्ञात हो जाता है—कल जाऊँगा। सामान्य भविष्यकाल में लुट् लकार का प्रयोग होता है। इसी प्रकार भूतकाल में भी अद्यतन, अनद्यतन और भूतकाल के लिए अलग-अलग लकार का प्रयोग है।

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(7)
संस्कृते अर्थान् गुणांश्च क्रोडीकृत्य शब्दानां निष्पत्तिः, यथा-पुत्रः कस्मात् पुत्रः? पुं नरकात् त्रायतेऽसौ पुत्रः, आत्मजः कस्मादात्मजः? आत्मनो जायतेऽसौ आत्मजः, सूर्यः कस्मात् सूर्यः? सुवति कर्मणि लोकं प्रेरयति अतः सूर्यः। सूर्यः यदा नभोमण्डलमारोहति प्रेरयति लोकं, कस्मात् शेषे? उत्तिष्ठ, वाति वातः, स्वास्थ्यप्रदायकं प्राणवायुं गृहाण, नैत्त्यिकानि कर्माणि कुरु, इत्थं प्रेरयन्, आकाशमागच्छति अतः सूर्य इति। खगः कस्मात्? खे (आकाशे) गच्छति अस्मात् खगः? एवमर्थज्ञानाय व्यवस्थान्यासु भाषासु नास्ति। अव्युत्पन्नाः शब्दाः तेषामपि निरुक्तिः अर्थानुसन्धानिकी भवत्येव इति नैरुक्ताः। सर्वं नाम च धातुजमाह इति शाकटायनः, उणादिसूत्रेषु एषैव प्रक्रिया वर्तते।।

शब्दार्थ क्रोडीकृत्य = मिलाकर, क्रोड में लेकर। निष्पत्तिः = निर्माण, व्युत्पत्तिा पुं नरकात् त्रायते =’पुम्’ नामक नरक से रक्षा करता है। सुवति = प्रेरित करता है। नभोमण्डलमारोहति = आकाश-मण्डल पर चढ़ता है। प्रेरयति = प्रेरित करता है। नैत्यिकानि = नित्य करने योग्य। इत्थं प्रेरयन् = इस प्रकार प्रेरणा करता हुआ। खे = आकाश में। अव्युत्पन्नाः = बिना व्युत्पत्ति के अर्थानुसन्धानिकी = अर्थ की खोज से होने वाली। नैरुक्ताः = निरुक्त शास्त्र के आचार्य। धातुजमाह = धातु से उत्पन्न कहा है। एषैव = यह ही।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में शब्दों की निष्पत्ति के बारे में बताया गया है।

अनुवाद संस्कृत में अर्थ और गुणों को मिलाकर शब्दों की व्युत्पत्ति होती है; जैसे-‘पुत्र’ किस कारण से पुत्र है? (पुम् नाम्नः नरकात् त्रायते इति पुत्रः) पुम्’ नामक नरक से बचाता है; अत: वह ‘पुत्र’ है। ‘आत्मज’ किस कारण से आत्मज (पुत्र) है? अपने से उत्पन्न होता है; अतः वह ‘आत्मज’ (आत्मनः जायते) है। ‘सूर्य’ किस कारण से सूर्य हैं? संसार को कर्म में प्रेरित करता है; अत: वह ‘सूर्य’ (सुवति कर्मणि लोकम्) है। सूर्य जब आकाशमण्डल में चढ़ता है, संसार को प्रेरित करता है। (UPBoardSolutions.com) किस कारण सो रहे हो? उठो, हवा चल रही है, स्वास्थ्यप्रद प्राणवायु को ग्रहण करो। नित्य के कर्मों को करो-इस प्रकार प्रेरित करता हुआ आकाश में आता है; अतः वह सूर्य (सुवति कर्मणि लोकम्) है। ‘खग’ (पक्षी) किस कारण खग है? आकाश में जाता है, इस कारण से ‘खग’ (खे गच्छति) है। इस प्रकार अर्थ को जानने की व्यवस्था अन्य भाषाओं में नहीं है। जो व्युत्पत्तिरहित शब्द हैं, उनकी भी व्याख्या अर्थ की खोज से ही होती है; ऐसा निरुक्त में कहा गया है। सभी संज्ञाशब्द धातु से बनते हैं-ऐसा शाकटायन ने कहा है। उणे आदि सूत्रों में भी यही प्रक्रिया है।।

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(8)
इयं वाणी गुणतोऽनणीयसी, अर्थतो गरीयसी, एकस्य श्लोकस्य षषडर्थाः प्रदर्शिताः नैषधे, वाङ्मयदृष्ट्या महीयसी, भावतो भूयसी, अलङ्कारतो वरीयसी, सुधातोऽपि स्वादीयसी, सुधाशनानामपि प्रेयसी, अत एव जातकलेखकाः बौद्धाः सर्वात्मना पालिं प्रयोक्तुं कृतप्रतिज्ञा अपि संस्कृतेऽपि स्वीयान् ग्रन्थान् व्यरीरचन्। एवं जैनाः कवयः दार्शनिका अपि संस्कृतभाषामपि स्वीकृतवन्तः यद्यपि ते विचारेषु विपक्षधरा एवं आसन्।

शब्दार्थ गुणतोऽनणीयसी = गुणों के कारण अधिक विस्तृता गरीयसी = गौरवशालिनी। वाङमयदृष्ट्या = साहित्य की दृष्टि से। महीयसी = महत्त्वपूर्ण भूयसी = श्रेष्ठ। वरीयसी = वरिष्ठ। सुधांतोऽपि = अमृत से भी। स्वादीयसी = अधिक स्वादिष्ट सुधाशनानाम् = अमृत का भोजन (UPBoardSolutions.com) करने वालों की। स्वीयान् = अपनों को। व्यरीरचन् = रचना की। स्वीकृतवन्तः = स्वीकार किया। विपक्षधराः = विरोधी पक्ष धारण करने वाले।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा का महत्त्व बताते हुए इसकी लोकप्रियता बतायी गयी है।

अनुवाद यह वाणी गुण से भी बड़ी है, अर्थ से महान् है, नैषध (श्रीहर्ष द्वारा रचित ग्रन्थ) में एक श्लोक के छः-छः अर्थ दिखाये हैं। वाङ्मय (साहित्य) की दृष्टि से महान् है। भाव से भी अधिक (धनी) है, अलंकार से श्रेष्ठ है, अमृत से भी स्वादिष्ट है। अमृतपान करने वालों को भी प्रिय है। अतएव जातक’ (बौद्ध ग्रन्थ) के लेखक बौद्धों ने सब प्रकार से पालि का प्रयोग करने की प्रतिज्ञा करते हुए संस्कृत में भी अपने ग्रन्थों की रचना की। इसी प्रकार जैन दार्शनिकों और कवियों ने भी संस्कृत भाषा को स्वीकार किया। यद्यपि वे विचारों में विरोधी पक्ष को धारण करने वाले थे।

(9)
अस्याः काव्यभाषायाः शब्दगतमर्थगतञ्च ध्वनिमाधुर्यं श्रावं आवं सुराङ्गनापदनूपुरध्वनिमाधुर्यं धिक्कुर्वन्ति वाङ्मयाध्वनीनाः, काव्यक्षेत्रे शब्दगतानर्थगतांश्च विस्फुरतोऽलङ्कारान् विलोक्य पुनर्नावलोकयन्ति मणिमयानलङ्कारान्।।

अस्याः काव्यभाषायाः ………………………………………………… मणिमयानलङ्कारान् [2011]

शब्दार्थ ध्वनिमाधुर्यं आवं आवं = ध्वनि की मधुरता को सुन-सुनकर। सुराङ्गनापदनूपुरध्वनिमाधुर्यम् = देवांगनाओं के पैरों के नूपुरों की ध्वनि की मधुरता को। धिक्-कुर्वन्ति = अपमानित करते हैं। विस्फुरतः = स्फुरित होते हुए। मणिमयान् = मणि के बने।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में संस्कृत भाषा की मधुरता का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इसके काव्य की भाषा की शब्दगत और अर्थगत ध्वनि की मधुरता को सुन-सुनकर संस्कृत-साहित्य का अध्ययन करने वाले विद्वान् देवांगनाओं की पायलों की ध्वनि की मधुरता की भी निन्दा करते हैं। काव्य के क्षेत्र में शब्दगत और अर्थगत अलंकारों को स्फुरित होते हुए देखकर फिर मणि के बने आभूषणों को नहीं देखते हैं।

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(10)
भारतीय धर्म इव संस्कृतभाषापि भारतीयानां वरिष्ठः शेवधिः। इयमेव भाषा शाखाप्रशाखारूपेण प्रान्तीयासु तासु-तासु भाषासु तिरोहिता वर्तते। अद्य केचन धर्मान्धाः राजनीतिभावनाभाविताः भारतस्य खण्डनमभिलषन्ति। कारणं तेषां संस्कृतभाषायाः अज्ञानम्। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”, “अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्”, “उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्”, “शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः”, “मा हिस्स र्वभूतानि”;”मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव” इमे उपदेशाः यदि भारतीयानां संमक्षं समीक्ष्यन्तां तदा सकलं भारतं स्वयमेव एकसूत्रे अखण्डतासूत्रे च निबध्येत| “अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः”, “मानसं यान्ति हंसाः न पुरुषा एव?” इति सडिण्डिमं घोषयति इयं भाषा। [2006]

भारतीय धर्म इव ………………………………………………… निबध्येत [2009,11]
भारतीय धर्म इव ………………………………………………… तिरोहिता वर्तते [2011]

शब्दार्थ वरिष्ठः = उत्तम शेवधिः = निधि, खजाना। तासु-तासु = उन-उन। तिरोहिता = छिपी हुई। खण्डनमभिलषन्ति = टुकड़े करना चाहते हैं। परोवेति = अथवा पराया है, ऐसी| वसुधैव = धरती ही। शुनि = कुत्ते में। श्वपाके = चाण्डाल में प्रोतं = पिरोया हुआ है। निबध्येत = बँध जाएगा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने संस्कृत भाषा के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।

अनुवाद भारतीय धर्म के समान संस्कृत भाषा भी भारतीयों की सर्वश्रेष्ठ निधि है। यही भाषा शाखा-प्रशाखा के रूप में प्रान्तों की उन-उन भाषाओं में छिपी हुई है। आज कुछ धर्मान्ध राजनीतिक भावना से युक्त होकर भारत के टुकड़े करना चाहते हैं। इसमें उनका संस्कृत को न जानना कारण है। “माता और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है’, “यह अपना अथवा यह पराया है, यह तुच्छ चित्तवृत्ति वालों का विचार है, “उदार चरित्र वाले मनुष्यों के लिए तो सारी पृथ्वी (UPBoardSolutions.com) ही कुटुम्ब के समान है”, “पण्डित कुत्ते और चाण्डाल में समान दृष्टि रखने वाले होते हैं”, “सब प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए”, “मुझ (कृष्ण) में यह सारा संसार धागे में मणियों के समान पिरोया हुआ है, ये उपदेश यदि भारतीयों के समक्ष समीक्षा करके देखे जाएँ तो सारा भारत स्वयं अखण्डता के एक सूत्र में बँध जाए। “उत्तर दिशा में देवात्मस्वरूप हिमालय नाम को पर्वतराज है”, “क्या मानसरोवर पर हंस ही जाते हैं, पुरुष नहीं यह भाषा इस प्रकार ढिंढोरा पीटकर घोषणा करती है।

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(11)
संस्कृतं विना एकताया अखण्डतायाः पाठः निरर्थक एव प्रतीयते। नेहरूमहाभागेनापि स्वकीयायाम् आत्मकथायां लिखितं यत् संस्कृतभाषा भारतस्य निधिस्तस्याः सुरक्षाया उत्तरदायित्वं स्वतन्त्रे भारते आपतितम्। अस्माकं पूर्वजानां विचाराः अनुसन्धानानि चास्यामेव भाषायां सन्ति। स्वसभ्यतायाः धर्मस्य राष्ट्रियेतिहासस्य, संस्कृतेश्च सम्यग्बोधाय संस्कृतस्य ज्ञानं परमावश्यकमस्ति। केनापि कविना मधुरमुक्तम्
भवति भारतसंस्कृतिरक्षणं प्रतिदिनं हि यया सुरभाषया। सकलवाग्जननी भुवि सा श्रुता बुधजनैः सततं हि समादृती ॥ तथा भूतायाः अस्याः भाषायाः पुनरभ्युदयाय भारतीयैः पुनरपि सततं यतनीयम्।

अस्माकं पूर्वजानां ………………………………………………… सततं यतनीयम्। [2010]
संस्कृतं विना ………………………………………………… परमावश्यकमस्ति
संस्कृतं विना ………………………………………………… भाषायां सन्ति।

शब्दार्थ निरर्थक = व्यर्थ, बेकार प्रतीयते = प्रतीत होती है। निधिः = खजाना। आपतितम् = आ पड़ा है। अनुसन्धानानि = खोजें। सम्यग्बोधाय = अच्छी तरह से ज्ञान के लिए। भारतसंस्कृतिरक्षणम् = भारत की संस्कृति की रक्षा। सुरभाषया = देवभाषा संस्कृत के द्वारा। सकलवाग्जननी = सभी भाषाओं की माता। सततं = सदा। समादृता = आदर के योग्य| यतनीयम् = प्रयत्न करना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में भाषा की सुरक्षा, उसका ज्ञान और उसका अभ्युदय करने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया गया है।

अनुवाद संस्कृत के बिना एकता और अखण्डता का पाठ व्यर्थ ही प्रतीत होता है। नेहरू जी ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि संस्कृत भाषा भारत की निधि है, उसकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वतन्त्र भारत पर आ पड़ा है। हमारे पूर्वजों के विचार और खोजें इसी भाषा में हैं। अपनी सभ्यता, धर्म, राष्ट्रीय इतिहास और संस्कृति के अच्छी तरह से ज्ञान के लिए संस्कृत का ज्ञान परम आवश्यक है। किसी कवि ने अपनी मधुर वाणी में कहा हैजिस संस्कृत भाषा के द्वारा प्रतिदिन भारत की संस्कृति की रक्षा होती है, पृथ्वी पर वह सभी भाषाओं की जननी है, ऐसा विद्वानों ने सुना है। निश्चय ही, वह निरन्तर आदर के योग्य है। ऐसी इस भाषा के पुनरुत्थान (UPBoardSolutions.com) के लिए भारतीयों को फिर से निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए।

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लघु उत्तटीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृत भाषा में निबद्ध वेदांगों की संख्या तथा नाम लिखिए। [2009]
या
वेदांगों के नाम लिखिए। [2006, 08,09, 10, 11, 12, 13, 14]
उत्तर :
संस्कृत भाषा में निबद्ध वेदांगों की संख्या छः है। इनके नाम हैं—

  • शिक्षा,
  • कल्प,
  • व्याकरण,
  • निरुक्त,
  • छन्द तथा
  • ज्योतिषः

प्रश्न 2.
चार वेदों के नाम लिखिए। [2007, 15]
उत्तर :
चार वेदों के नाम हैं-

  • ऋग्वेद,
  • यजुर्वेद,
  • सामवेद और
  • अथर्ववेद।

प्रश्न 3.
संस्कृत भाषा का महत्त्व समझाइए। [2006,07]
उत्तर :
संस्कृत भाषा विश्व की सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन, अत्यधिक ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, सरल, अत्यन्त मधुर और सभी के मन को हरने वाली है। यह बात पूर्वी (भारतीय) और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा एक स्वर से स्वीकार की गयी है। ग्रीक, लैटिन आदि प्राचीन भाषाओं में संस्कृत (UPBoardSolutions.com) भाषा ही सबसे प्राचीन और विशाल साहित्य से युक्त है।

प्रश्न 4.
दर्शन मुख्य रूप से कितने भागों में विभक्त हैं?
उत्तर :
दर्शन मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त हैं-
(क) आस्तिक दर्शन और
(ख) नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन के अन्तर्गत छ: दर्शन आते हैं-

  • न्याय,
  • वैशेषिक,
  • सांख्य,
  • योग,
  • मीमांसा तथा
  • वेदान्त।

नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत तीन दर्शन आते हैं—

  • चार्वाक,
  • जैन और
  • बौद्ध।

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प्रश्न 5.
संस्कृत भाषा की विपुल साहित्य-राशि का संक्षेप में परिचय दीजिए।
उत्तर :
संस्कृत साहित्य में विश्व के सबसे प्राचीन ऋक्, यजुः, साम और अथर्व नाम के चार वेद; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष-ये वेदों के छ: अंग; न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त-ये छः आस्तिक दर्शन; चार्वाक, जैन, बौद्ध-ये तीन नास्तिक दर्शन; उपनिषद्, स्मृतियाँ, सूत्र, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ संस्कृत साहित्य की विपुल राशि के परिचायक हैं।

प्रश्न 6.
संस्कृत साहित्य किन तीन प्रकारों में से विभाजित है? इसके कुछ प्रमुख कवियों-लेखकों के नाम बताइए। [2006,09]
या
सुप्रसिद्ध संस्कृत कवियों में से पाँच के नाम लिखिए। [2006, 09, 12]
या
सुप्रसिद्ध संस्कृत कवियों के नाम बताइए। [2014]
उत्तर :
संस्कृत साहित्य-गद्य, पद्य और चम्पू-तीन प्रकारों में विभाजित है। वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दण्डी, सुबन्धु, बाण, कालिदास, अश्वघोष, भारवि, जयदेव, माघ, श्रीहर्ष आदि कवि और लेखक इसके गौरव को बढ़ाते हैं।

प्रश्न 7.
राजा ने लकड़हारे से किस शब्द का गलत प्रयोग किया था? सही शब्दक्या होना चाहिए था?
उत्तर :
राजा ने लकड़हारे से ‘बाधति’ क्रिया का प्रयोग किया था, जो कि परस्मैपदी होने के कारण अशुद्ध था। इसके स्थान पर क्रिया को आत्मनेपदी प्रयोग ‘बाधते’ होना चाहिए था।

प्रश्न 8.
रामायण के अनुसार हनुमान ने सीताजी से किस भाषा में बातचीत की थी? उद्धरणपूर्वक लिखिए।
उत्तर :
रामायण के अनुसार हनुमान ने सीताजी से सामान्य लोगों में प्रचलित संस्कृत भाषा में निम्नवत् विचार करते हुए बातचीत की थी–

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वाचं चोदाहरिष्यामि, द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमानां मां, सीता भीता भविष्यति ॥

प्रश्न 9.
भारतीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने वाली भाषा कौन-सी है? [2010, 12]
उत्तर :
भारतीय संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने वाली भाषा संस्कृत है, क्योंकि इस भाषा में (UPBoardSolutions.com) रचित सम्पूर्ण साहित्य भारतीय समाज को प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 10.
संस्कृत भाषा के सम्बन्ध में नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा में क्या लिखा था?
उत्तर :
पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्म-कथा में संस्कृत के महत्त्व के विषय में लिखा है कि, संस्कृत भाषा»भारत की अमूल्य निधि है। उसकी सुरक्षा का दायित्व स्वतन्त्र भारत पर है।”

प्रश्न 11.
हनुमान् ने सीता को मुद्रिका देते समय सीता से संस्कृत में वार्तालाप क्यों नहीं किया? [2010]
उत्तर :
सीता को मुद्रिका देते समय हनुमान ने उनसे ब्राह्मणों के द्वारा बोली जाने वाली संस्कृत में वार्तालाप इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें भय था कि सीता उनको रावण समझते हुए डर जाएँगी।

प्रश्न 12.
भारत की अखण्डता को बनाये रखने वाली दो सूक्तियाँ लिखिए। [2012]
उत्तर :
भारत की अखण्डता को बनाये रखने वाली दो सूक्तियाँ निम्नलिखित हैं

  • अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
  • मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।

प्रश्न 13.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कथन का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
प्रस्तुत कथन का अर्थ है-माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् हैं। वास्तव में स्वर्ग को किसी ने देखा नहीं है कि वह है भी या नहीं और वहाँ वास्तव में परम सुख मिलता भी है अथवा नहीं । लेकिन माता
और जन्मभूमि हमारे समक्ष प्रत्यक्ष उपस्थित हैं। माता हमें जन्म देती है और अनेकानेक दुःख-कष्ट सहनकर हमें हर सम्भव सुख प्रदान करती है। इसी प्रकार हमारी मातृभूमि हमारे भरण-पोषण के लिए अन्न-जल और विविध प्रकार के धन-धान्य उपलब्ध कराकर हमें स्वर्ग (UPBoardSolutions.com) का-सा सुख प्रदान करती है। इसीलिए यह कहना उचित ही है कि “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”

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प्रश्न 14.
“शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः” का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर  :
ण्डाल और कुत्ते दोनों का स्वभाव एक जैसा होता है, क्योंकि ये दोनों अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। अपना पेट भरने के लिए ये अपने परिजनों, माता-पिता, पुत्र-पुत्री आदि किसी को भी मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसलिए विद्वान् लोग चाण्डाल और कुत्ते को एक समान दृष्टि से देखते हैं।

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Class 10 Sanskrit Chapter 4 UP Board Solutions सूक्ति – सुधा Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 4 Sukti Sudha Question Answer (पद्य – पीयूषम्)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 4 हिंदी अनुवाद सूक्ति – सुधा के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

प्रस्तुत पाठ के अन्तर्गत कुछ सूक्तियों का संकलन किया गया है। ‘सूक्ति’ का अर्थ ‘सुन्दर कथन है। सूक्तियाँ प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में प्रत्येक मनुष्य के लिए समान रूप से उपयोगी होती हैं। जिस प्रकार सुन्दर वचन बोलने से बोलने वाले और सुनने वाले दोनों का (UPBoardSolutions.com) ही हित होता है, उसी प्रकार काव्यों में लिखित सूक्तियाँ आनन्ददायिनी होने के साथ-साथ जीवन में नैतिकता और सामाजिकता भी लाती हैं। ये मनुष्यं को अमृत-तत्त्व की प्राप्ति की ओर बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करती हैं।

पाठ-सारांश

प्रस्तुत पाठ में नौ सूक्तियाँ संकलित हैं। उनका संक्षिप्त सार इस प्रकार है

  1. संसार की समस्त भाषाओं में देववाणी कही जाने वाली भाषा संस्कृत सर्वश्रेष्ठ है। इसका काव्य सुन्दर है। और इसके सुन्दर एवं मधुर वचन (सूक्तियाँ) तो अद्वितीय हैं।
  2. मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न मानते हैं, जब कि इस पृथ्वी पर रत्न तो अन्न, जल एवं मधुरं वचन हैं।
  3. बुद्धिमान् लोग अपना समय ज्ञानार्जन में लगाते हैं, जब कि मूर्ख लोग अपने समय को सोने अथवा निन्दित कार्यों में व्यर्थ गॅवाते हैं।
  4. जहाँ सज्जन निवास करते हैं, वहाँ संस्कृत के मधुर श्लोक सर्वत्र आनन्द का प्रसार करते हैं। इसके विपरीत जहाँ दुर्जन निवास करते हैं, वहाँ ‘श्लोक’ के ‘ल’ का लोप होकर केवल ‘शोक’ ही शेष रह जाता है, अर्थात् वहाँ पर आनन्द का अभाव हो जाता है।
  5. व्यक्ति को सदैव समयानुसार ही बात करनी चाहिए। समय के विपरीत बात करने पर तो बृहस्पति भी उपहास के पात्र बने थे।
  6. श्रद्धा के साथ कही गयी तथा पूछी गयी बात सर्वत्र आदरणीय होती है और बिना श्रद्धा के वह वन में रोने के समान व्यर्थ होती है।
  7. विद्या सर्वश्रेष्ठ धन है; क्योंकि यह राजा द्वारा छीनी नहीं जा सकती, भाइयों द्वारा विभाजित नहीं की जा सकती। इसीलिए देवताओं और विद्वानों द्वारा इसकी उपासना की जाती है।
  8. याचकों के दु:खों को दूर न करने वाली लक्ष्मी, विष्णु की भक्ति में मन को न लगाने (UPBoardSolutions.com) वाली विद्या, विद्वानों में प्रतिष्ठा प्राप्त न करने वाला पुत्र, ये तीनों न होने के बराबर ही हैं।
  9. व्यक्ति की शोभा स्नान, सुगन्ध-लेपन एवं आभूषणों से नहीं होती है, वरन् उसकी शोभा तो एकमात्र सुन्दर मधुर वाणी से ही होती है।

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पद्यांशों की ससन्दर्भ हिन्दी व्याख्या

(1)
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्माद्धि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम् ॥ [2009, 10, 12, 13]

शब्दार्थ भाषासु = भाषाओं में मुख्या = प्रमुख। मधुरा = मधुर गुणों से युक्त। दिव्या = अलौकिक गीर्वाणभारती = देवताओं की वाणी, संस्कृत। तस्मात् = उससे। हि = निश्चयपूर्वका अपि = भी। सुभाषितम् = सुन्दर या उपदेशपरक वचन। सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ में संकलित ‘सूक्ति-सुधा’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में संस्कृत भाषा और सुभाषित की विशेषता बतायी गयी है।

अन्वय भाषासु गीर्वाणभारती मुख्या, मधुरा दिव्या (च अस्ति)। तस्मात् हि काव्यं मधुरम् (अस्ति), तस्मात् अपि सुभाषितम् (मधुरम् अस्ति)।।

व्याख्या विश्व की समस्त भाषाओं में देवताओं की वाणी अर्थात् संस्कृत प्रमुख, मधुर गुण से युक्त (UPBoardSolutions.com) और अलौकिक है। इसलिए उसका काव्य भी मधुर है। उससे भी मधुर उसके सुन्दर उपदेशपरक वचन अर्थात् सुभाषित हैं। तात्पर्य यह है कि संस्कृतभाषा सर्वविध गुणों से युक्त है।

(2)
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढः पाषाण-खण्डेषु रत्न-संज्ञा विधीयते ॥ [2006,07,08,09, 10,12]

शब्दार्थ पृथिव्यां = भूतल पर, पृथ्वी पर त्रीणि रत्नानि = तीन रत्न। सुभाषितम् =अच्छी वाणी। मूढः = मूर्ख लोगों के द्वारा पाषाणखण्डेषु = पत्थर के टुकड़ों में। रत्नसंज्ञा = रत्न का नाम विधीयते = किया जाता है।

प्रसग प्रस्तुत श्लोक में जल, अन्न और सुन्दर वचन को ही वास्तविक रत्न बताया गया है।

अन्वय पृथिव्यां जलम्, अन्नं, सुभाषितम् (इति) त्रीणि रत्नानि (सन्ति)। मूढ: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।

व्याख्या पृथ्वी पर जल, अन्न और सुन्दर (उपदेशपरक) वचन–ये तीन रत्न अर्थात् श्रेष्ठ पदार्थ हैं। मूर्ख लोगों ने पत्थर के टुकड़ों को रत्न का नाम दे दिया है। तात्पर्य यह है कि जल, अन्न और मधुर वचनों का प्रभाव समस्त संसार के कल्याण के लिए होता है, जब कि रल जिनके पास होते हैं, केवल उन्हीं का कल्याण करते हैं। अत: जल, अन्न और मधुर वचन ही वास्तविक रत्न हैं।

(3) काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्। व्यँसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥ [2007,08, 10]

शब्दार्थ काव्यशास्त्रविनोदेन = काव्य और शास्त्रों के अध्ययन द्वारा मनोरंजन से। कालः = समय। गच्छति = बीतता है। धीमताम् = बुद्धिमानों का। व्यसनेन = निन्दनीय कर्मों के करने से। निद्रया = निद्रा द्वारा कलहेन = झगड़ा करने से। वा = अथवा।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में मूर्खा और बुद्धिमानों के समय बिताने के साधन में अन्तर बताया गया है।

अन्वय धीमतां कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति, मूर्खाणां (कालः) च व्यसनेन, निद्रया कलहेन वा (गच्छति)।

व्याख्या बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्रों के अध्ययन द्वारा मनोरंजन (आनन्द प्राप्त करने) और पठन-पाठन में व्यतीत होता है। मूर्खा का समय निन्दित कार्यों के करने में, सोने में अथवा झगड़ने में व्यतीत होता है।

(4)
श्लोकस्तु श्लोकतां याति यत्र तिष्ठन्ति साधवः।
लकारो लुप्यते यत्र तत्र तिष्ठन्त्यसाधवः ॥ [2006,08,09, 10]

शब्दार्थ श्लोकस्तु = यश तो। लोकताम् याति = कीर्ति की प्राप्ति करता है। यत्र = जहाँ। (UPBoardSolutions.com) तिष्ठन्ति = रहते हैं। साधवः = सज्जन पुरुष लकारो लुप्यते = श्लोक का ‘ल’ वर्ण लुप्त हो जाता है अर्थात् श्लोक ‘शोक’ बन जाता है। तत्र = वहाँ। असाधवः = दुर्जन पुरुष।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में सज्जनों और दुर्जनों की संगति का प्रभाव दर्शाया गया है।

अन्वय यत्र साधवः तिष्ठन्ति, श्लोकः तु श्लोकताम् याति। यत्र असाधवः तिष्ठन्ति, तत्र लकारो लुप्यते (अर्थात् श्लोकः शोकतां याति)।

व्याख्या जहाँ सज्जन रहते हैं, वहाँ श्लोक (संस्कृत का छन्द) कीर्ति की प्राप्ति करता है। जहाँ दुर्जन रहते हैं, वहाँ श्लोक का ‘लु’ लुप्त हो जाता है अर्थात् श्लोक ‘शोक’ की प्राप्ति कराता है। तात्पर्य यह है कि अच्छी बातों, उपदेशों या सूक्तियों का प्रभाव सज्जनों पर ही पड़ता है; दुष्टों पर तो उसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। यह भी कहा जा सकता है कि सज्जनों की उपस्थिति वातावरण को आनन्दयुक्त कर देती है और दुर्जनों की उपस्थिति दुःखपूर्ण बना देती है।

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(5)
अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन्।
प्राप्नुयाद् बुद्ध्यवज्ञानमपमानञ्च-शाश्वतम् ॥ [2011]

शब्दार्थ अप्राप्तकालम् = समय के प्रतिकूल वचन = बात। बृहस्पतिः = देवताओं के गुरु बृहस्पति अर्थात् अत्यधिक ज्ञानवान् व्यक्ति। अपि = भी। बुवन् = बोलता हुआ। प्राप्नुयात् = प्राप्त करता है। बुद्ध्यवज्ञानम् = बुद्धि की उपेक्षा; बुद्धि की अवमानना। शाश्वतम् = निरन्तर।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में समय के प्रतिकूल बात न कहने की शिक्षा दी गयी है।

अन्वय अप्राप्तकालं वचनं ब्रुवन् बृहस्पतिः अपि बुद्ध्यवज्ञानं शाश्वतम् अपमानं च प्राप्नुयात्।

व्याख्या समय के विपरीत बात को कहते हुए देवताओं के गुरु बृहस्पति भी बुद्धि की अवज्ञा और सदा रहने वाले अपमान को प्राप्त करते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को समय के अनुकूल बात ही करनी चाहिए।

(6)
वाच्यं श्रद्धासमेतस्य पृच्छतश्च विशेषतः
प्रोक्तं श्रद्धाविहीनस्याप्यरण्यरुदितोपमम् ॥

शब्दार्थ वाच्यम् = कहने योग्य। श्रद्धासमेतस्य = श्रद्धा से युक्त का। पृच्छतः = (UPBoardSolutions.com) पूछने वाले का। प्रोक्तं = कहा हुआ। श्रद्धाविहीनस्य = श्रद्धारहित के लिए। अरण्य-रुदितोपमम् = अरण्यरोदन के समान निरर्थक है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में श्रद्धा के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है।

अन्वये श्रद्धासमेतस्य विशेषतः पृच्छतः च वाच्यम्। श्रद्धाविहीनस्य प्रोक्तम् अपि अरण्यरुदितोपमम् (अस्ति )।

व्याख्या श्रद्धा से युक्त अर्थात् श्रद्धालु व्यक्ति की और विशेष रूप से पूछने वाले की बात कहने योग्य होती है। श्रद्धा से रहित अर्थात् अश्रद्धालु व्यक्ति का कहा हुआ भी अरण्यरोदन अर्थात् जंगल में रोने के समान निरर्थक है। तात्पर्य यह है कि ऐसे ही व्यक्ति या शिष्य को ज्ञान देना चाहिए, जो श्रद्धालु होने के साथ-साथ जिज्ञासु भी हो।

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(7)
वसुमतीपतिना नु सरस्वती, बलवता रिपुणा न च नीयते
समविभागहरैर्न विभज्यते, विबुधबोधबुधैरपि सेव्यते ॥ [2006, 10]

शब्दार्थ वसुमतीपतिना = राजा के द्वारा| सरस्वती = विद्या| बलवता रिपुणी = बलवान् शत्रु के द्वारा न नीयते = नहीं ले जायी जाती है। समविभागहरैः = समान हिस्सा लेने वाले भाई-बहनों के द्वारा। न विभज्यते = नहीं विभक्त की जाती है। विबुधबोधबुधैः = ऊँचे से ऊँचे विद्वानों के द्वारा। सेव्यते = सेवित होती है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में विद्या को अमूल्य धन बताया गया है।

अन्वय सरस्वती वसुमतीपतिना बलवता रिपुणा च न नीयते। समविभागहरैः न विभज्यते, विबुधबोधबुधैः अपि सेव्यते।।

व्याख्या विद्या राजा के द्वारा और बलवान् शत्रु के द्वारा (हरण करके) नहीं ले जायी जाती है। यह समान हिस्सा लेने वाले भाइयों के द्वारा भी बाँटी नहीं जाती है तथा देवताओं के ज्ञान के समान ज्ञान वाले विद्वानों के द्वारा भी सेवित होती है। तात्पर्य यह है कि विद्या को न तो राजा ले सकता है और न ही बलवान् शत्रु। इसे भाई-बन्धु भी नहीं बाँटते अपितु यह तो ज्ञानी-विद्वानों द्वारा भी सेवित है।

(8)
लक्ष्मीनं या याचकदुः खहारिणी, विद्या नयाऽप्यच्युतभक्तिकारिणी।
पुत्रो न यः पण्डितमण्डलाग्रणीः, सा नैव सा नैव स नैव नैव ॥ [2012]

शब्दार्थ या = जो लक्ष्मी। याचकदुःखहारिणी = याचकों के दुःख को दूर करने वाली। अच्युतभक्तिकारिणी = विष्णु की भक्ति उत्पन्न करने वाली। पण्डितमण्डलाग्रणीः = पण्डितों के समूह में आगे रहने वाला, श्रेष्ठ। सानैव = वह नहीं है।

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वास्तविक लक्ष्मी, विद्या तथा पुत्र के विषय में बताया गया है।

अन्वय या लक्ष्मीः याचकदु:खहारिणी न (अस्ति) सा (लक्ष्मीः) नैव (अस्ति)। या विद्या अपि अच्युतभक्तिकारिणी न (अस्ति) सा (विद्या) नैव (अस्ति)। यः पुत्रः पण्डितमण्डलाग्रणी: न (अस्ति) सः (पुत्र) एव न (अस्ति), नैव (अस्ति)।

व्याख्या जो लक्ष्मी याचकों अर्थात् माँगने वालों के दु:खों को दूर करने वाली नहीं है, वह लक्ष्मी ही नहीं है, जो विद्या भी भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करने वाली नहीं है, वह विद्या ही नहीं है, जो पुत्र पण्डितों के समूह में आगे रहने वाला (श्रेष्ठ) नहीं है; वह पुत्र ही नहीं है। (UPBoardSolutions.com) तात्पर्य यह है कि वास्तविक धन वही है, जो परोपकार में प्रयुक्त होता है; विद्या वही है, जिससे आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है और पुत्र वही है जो विद्वान् होता है।

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(9)
केयूराः न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः।
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्द्धजाः ॥ [2012]
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥ [2009]

शब्दार्थ केयूराः = बाजूबन्द (भुजाओं में पहना जाने वाला सोने का आभूषण)। हाराः = हार। विभूषयन्ति = सजाते हैं। चन्द्रोज्ज्वलाः = चन्द्रमा के समान उज्ज्वला विलेपनम् = शरीर में किया जाने वाला चन्दन आदि का लेप। कुसुमं = फूल। अलङ्कृताः = सजे हुए। मूर्द्धजाः = बाल। वाण्येका (वाणि + एका) = एकमात्र वाणी। समलङ्करोति = सजाती है। संस्कृती = संस्कार की गयी, भली-भाँति अध्ययन आदि के द्वारा शुद्ध की गयी। धार्यते = धारण की जाती है। क्षीयन्ते = नष्ट हो जाते हैं। खलु = निश्चित ही। भूषणानि = समस्त आभूषण। सततं = सदा| वाग्भूषणम् = वाणीरूपी आभूषण। भूषणं = आभूषण।।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक में संस्कारयुक्त वाणी का महत्त्व बताया गया है।

अन्वय केयूराः पुरुषं न विभूषयन्ति, चन्द्रोज्ज्वला: हाराः न (विभूषयन्ति)। न स्नानं, न विलेपनं, न कुसुमं, न अलङ्कृताः मूर्द्धजाः पुरुषं (विभूषयन्ति)। एकावाणी, या संस्कृता धार्यते, पुरुषं समलङ्करोति। भूषणानि खलु क्षीयन्ते। वाग्भूषणं (वास्तविकं) सततं भूषणम् (अस्ति)।

व्याख्या पुरुष को सुवर्ण के बने बाजूबन्द सुशोभित नहीं करते हैं। चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार शोभित नहीं करते हैं। स्नान, चन्दनादि का लेप, फूल, सुसज्जित बाल पुरुष को शोभित नहीं करते हैं। एकमात्र वाणी, जो अध्ययनादि द्वारा संस्कार करके धारण की गयी है, पुरुष को सुशोभित करती है। अन्य आभूषण तो निश्चित ही नष्ट हो जाते हैं। वाणीरूपी आभूषण ही सदा आभूषण है। तात्पर्य यह है कि वाणी-रूपी आभूषण ही सच्चा आभूषण है, जो कभी नष्ट नहीं होता।

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सूक्तिपरक वाक्यांशों की व्याख्या

(1) भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती। [2011]

सन्दर्भ प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के पद्य-खण्ड ‘पद्य-पीयूषम्’ के . ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ की शेष सभी सूक्तियों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग इस सूक्ति में संस्कृत भाषा के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ सभी भाषाओं में संस्कृत सबसे प्रमुख, मधुर और अलौकिक है।

व्याख्या विश्व की समस्त भाषाओं में संस्कृत भाषा को ‘गीर्वाणवाणी’ अर्थात् देवताओं की भाषा बताया गया है। यह भाषा शब्द-रचना की दृष्टि से दिव्य, भाषाओं की दृष्टि से मधुर तथा विश्व की भाषाओं में प्रमुख है। इस भाषा में उत्तम काव्य, सरस नाटक और चम्पू पाये जाते हैं। (UPBoardSolutions.com) इस भाषा में धर्म, दर्शन, इतिहास, चिकित्सा आदि सभी विषयों पर प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। इतनी सम्पूर्ण भाषा विश्व में कोई और नहीं है।

(2) भाषासु काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्। [2005]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सुभाषित के महत्त्व को बताया गया है।

अर्थ (संस्कृत) भाषा में काव्य मधुर है तथा उससे भी अधिक सुभाषित।

व्याख्या भाषाओं में संस्कृत भाषा सबसे दिव्य, मुख्य और मधुर है। इससे भी अधिक मधुर इस भाषा के काव्य हैं और काव्यों से भी अधिक मधुर हैं इस भाषा के सुभाषित। सुभाषित से आशय ऐसी उक्ति या कथन से होता है जो बहुत ही अच्छी हो। इसे सूक्ति भी कहते हैं। सूक्तियाँ प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में प्रत्येक मनुष्य के लिए समान रूप से उपयोगी होती हैं। जिस प्रकार सुन्दर वचन बोलने से वक्ता और श्रोता दोनों का ही हित होता है, उसी प्रकार काव्यों में निहित सूक्तियाँ आनन्ददायिनी होने के साथ-साथ जीवन में नैतिकता का समावेश कराती हैं तथा अमृत-तत्त्व की प्राप्ति में प्रेरणा प्रदान करती हैं। यही कारण है कि (संस्कृत) भाषा में सूक्ति को सर्वोपरि मान्यता प्रदान की गयी है।

(3)
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषितम्। [2006,07, 08, 11, 12, 14]
मूढः पाषाणखण्डेषु, रत्नसंज्ञाविधीयते ॥ [2007,08, 11, 15]

प्रसंग इन सूक्तियों में जल, अन्न और अच्छे वचनों को ही सर्वोत्कृष्ट रत्न की संज्ञा प्रदान की गयी है।

अर्थ पृथ्वी पर जल, अन्न और सुभाषित ये तीन रत्न हैं। मूर्ख व्यक्ति ही पत्थरों को रत्न मानते हैं।

व्याख्या मानव ही नहीं पशु-पक्षी भी अन्न-जल और सुन्दरवाणी के महत्त्व को भली प्रकार पहचानते हैं। अन्न से भूख शान्त होती है, जल से प्यास बुझती है और सुन्दर वचनों से मन को सन्तोष मिलता है। बिना अन्न और जल के तो जीवधारियों का जीवित रहना कठिन ही नहीं वरन् असम्भव ही है। इसीलिए इन्हें सच्चे रत्न कहा गया है। सांसारिक मनुष्य अपनी अल्पज्ञता के कारण सभी प्रकार से धन-संग्रह की प्रवृत्ति में लगा रहता है। वह हीरे, रत्न, जवाहरात, मणियों का संचय करके धनी एवं वैभवशाली बनना चाहता है। वह इन्हें ही अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण मानता है, परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। ये तो पत्थर के टुकड़े मात्र हैं। वास्तव में जल, अन्न और सुवाणी (अच्छे वचन) ही सच्चे रत्न हैं।

(4) काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्। [2006,07,08, 09, 10, 11, 14, 15]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सज्जनों के समय व्यतीत करने के विषय में बताया गया है।

अर्थ बुद्धिमानों का समय काव्य-शास्त्र के पठन-पाठन में ही बीत जाता है।

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व्याख्या विद्वान् और सज्जन अपने समय को शास्त्रों और काव्यों का अध्ययन करने में लगाते हैं। वे यदि अपना मनोरंजन भी करते हैं तो इसी प्रकार के अच्छे कार्यों से करते हैं और सदैव लोकोपकार की बात सोचते हैं, क्योंकि वे समय के महत्त्व को जानते हैं। वे समझते हैं कि “आयुषः क्षण एकोऽपि न लभ्यः स्वर्णकोटिकैः । सचेन्निरर्थकं नीतः का नु हानिस्ततोऽधिकाः ।।”; अर्थात् आयुष्य का एक भी क्षण सोने की करोड़ों मुद्राओं के द्वारा नहीं खरीदा जा (UPBoardSolutions.com) सकता। यदि इसे व्यर्थ बिता दिया गया तो इससे बड़ी हानि और क्या हो सकती है? इसीलिए वे अपना समय काव्य-शास्त्रों के अध्ययन में व्यतीत करते हैं क्योंकि आत्म-उद्धार के लिए भी ज्ञान परम आवश्यक है।

(5) व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रयाकलहेन वा। [2010]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में मूर्ख लोगों के समय व्यतीत करने के विषय में बताया गया है।

अर्थ मूख का समय बुरी आदतों, निद्रा व झगड़ने में व्यतीत होता है।

व्याख्या मूर्ख लोग अपना समय सदैव ही व्यर्थ के कार्यों में बिताते हैं। समय बिताने के लिए वे जुआ, शराब आदि के व्यसन करते हैं और स्वयं को नरक में धकेलते हैं। कुछ लोग अपना समय सोकर बिता देते हैं। और कुछ लड़ाई-झगड़े में अपना समय लगाकर दूसरों को पीड़ा पहुँचाते हैं। इनके किसी भी कार्य से किसी को कोई लाभ अथवा सुख नहीं मिलता है; क्योंकि परोपकार करना इनको आता ही नहीं है। इन्हें तो दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में ही सुख की प्राप्ति होती है।

(6), श्लोकस्तु श्लोकतां याति यत्र तिष्ठन्ति साधवः। [2012]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सज्जनों की उपस्थिति का महत्त्व समझाया गया है।

अर्थ जहाँ सज्जन निवास करते हैं, वहाँ श्लोक तो यश को प्राप्त करता है।

व्याख्या सज्जन अच्छी और सुन्दर बातों को बढ़ावा देकर उनके संवर्द्धन में अपना योगदान देते हैं। इसीलिए सज्जनों के मध्य विकसित श्लोक; अर्थात् संस्कृत कविता का छन्द; कवि की कीर्ति या यश को चतुर्दिक फैलाता है। आशय यह है कि कविता सज्जनों के मध्य ही आनन्ददायक होती है तथा कवि को यश व कीर्ति प्रदान करती है। दुर्जनों के मध्य तो यह विवाद उत्पन्न कराती है तथा शोक (दुःख) का कारण बनती है।

(2) वसुमतीपतिना नु सरस्वती।। [2011]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में विद्या के विषय में वर्णन किया गया है।

अर्थ राजा के द्वारा भी विद्या (नहीं छीनी जा सकती है)।

व्याख्या विद्या न तो राजा के द्वारा अथवा न ही किसी बलवान् शत्रु के द्वारा बलपूर्वक छीनी जी सकती है। यह विद्यारूपी धन किसी के द्वारा बाँटा भी नहीं जा सकता, अपितु यह तो जितनी भी बाँटी जाए, उसमें उतनी ही वृद्धि होती है। यह धन तो बाँटे जाने पर बढ़ता ही रहता है। प्रस्तुत सूक्ति विद्या की महत्ता को परिभाषित करती है।

(8) लक्ष्मीनं या याचकदुःखहारिणी। [2012]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में लक्ष्मी की सार्थकता पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ जो याचक (माँगने वालों) के दु:खों को दूर करने वाली नहीं है, (वह) लक्ष्मी (नहीं है)।

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व्याख्या किसी भी व्यक्ति के पास लक्ष्मी अर्थात् धन है तो उस लक्ष्मी की सार्थकता इसी में है कि वह उसके द्वारा याचकों अर्थात् माँगने वालों के दु:खों को दूर करे। आशय यह है कि धनसम्पन्न होने पर भी कोई व्यक्ति यदि किसी की सहायता करके उसके कष्टों को दूर नहीं करता है तो उसका धनसम्पन्न होना व्यर्थ ही है। व्यक्ति का धनी होना तभी सार्थक है जब वह याचक बनकर अपने पास आये लोगों को निराश न करके अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनकी सहायता करे। (UPBoardSolutions.com) कविवर रहीम ने सामर्थ्यवान् लेकिन याचक की मदद न करने वाले लोगों को मृतक के समान बताया है रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाय। उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाय ॥

(9) विद्या न याऽप्यच्युतभक्तिकारिणी।। [2008, 1]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में विद्या की सार्थकता पर प्रकाश डाला गया है।

अर्थ जो विद्या भगवान विष्णु की भक्ति में प्रवृत्त करने वाली नहीं है, (वह विद्या नहीं है)।

व्याख्या वही विद्या सार्थक है, जो व्यक्ति को भगवान विष्णु अर्थात् ईश्वर की भक्ति में प्रवृत्त करती है। जो विद्या व्यक्ति को ईश्वर की भक्ति से विरत करती है, वह किसी भी प्रकार से विद्या कहलाने की अधिकारिणी ही नहीं है। विद्या वही है, जो व्यक्ति को जीवन और मरण के बन्धन से मुक्त करके मोक्ष-पद प्रदान करे। मोक्ष-पद को भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्ति को भक्ति में विद्या ही अनुरक्त कर सकती है। इसीलिए विद्या को प्रदान करने (UPBoardSolutions.com) वाले गुरु को कबीरदास जी ने ईश्वर से भी श्रेष्ठ बताया है गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाँय।। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥

(10) पुत्रो न यः पण्डितमण्डलाग्रणीः। [2006,09]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सच्चे पुत्र की विशेषता बतायी गयी है।

अर्थ जो पुत्र विद्वानों की मण्डली में अग्रणी नहीं, वह पुत्र ही नहीं है।

व्याख्या सूक्तिकार का तात्पर्य यह है प्रत्येक व्यक्ति पुत्र की कामना इसीलिए करता है कि वह उसके कुल के नाम को चलाएगा; अर्थात् अपने सद्कर्मों से अपने कुल के यश में वृद्धि करेगा और यह कार्य महान् पुत्र ही कर सकता है। मूर्ख पुत्र के होने का कोई लाभ नहीं होता; क्योंकि उससे कुल के यश में वृद्धि नहीं होती। ऐसा पुत्र होने से तो नि:सन्तान रह जाना ही श्रेयस्कर है। वस्तुतः पुत्र कहलाने का अधिकारी वही है, जो विद्वानों की सभा में अपनी विद्वत्ता का लोहा मनवाकर अपने माता-पिता तथा कुल के सम्मान को बढ़ाता है।

(11) वाण्येको समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते [2006, 11]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में वाणी को ही वास्तविक आभूषण कहा गया है।

अर्थ मात्र वाणी ही, जो शुद्ध रूप से धारण की जाती है, मनुष्य को सुशोभित करती है।

व्याख्या संसार का प्रत्येक प्राणी सांसारिक प्रवृत्तियों में उलझा रहता है और उन्हीं प्रवृत्तियों में वह (भौतिक) सुख का अनुभव करता है। इसीलिए वह अपने आपको सजाकर रखना चाहता है और दूसरों के समक्ष स्वयं को आकर्षक सिद्ध करना चाहता है, अर्थात् आत्मा की अपेक्षा वह शरीर को अधिक महत्त्व देता है। वह विभिन्न आभूषणों को धारण करता है, परन्तु ऐसे आभूषण तो समय बीतने के साथ-साथ नष्ट हो जाते हैं। सच्चा आभूषण तो मधुर वाणी है, जो कभी भी नष्ट नहीं होती। मधुर वाणी मनुष्य का एक ऐसा गुण है। जिसके कारण उसकी शोभा तो बढ़ती ही है, साथ ही वह समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा को भी अर्जित करता है तथा इससे (UPBoardSolutions.com) उसको आत्मिक आनन्द की भी अनुभूति होती है।

(12)
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं, वाग्भूषणं भूषणम् ॥ [2009, 12, 13]
वाग्भूषणं भूषणम्।। [2007,08,09, 10, 12]

प्रसंग प्रस्तुत सूक्ति में सुसंस्कारित वाणी को ही मनुष्य का एकमात्र आभूषण बताया गया है।

अर्थ सभी आभूषण धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं, सच्चा आभूषण वाणी ही है।

व्याख्या मनुष्य अपने सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के आभूषणों और सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग करता है। ये आभूषण और सुगन्धित द्रव्य तो नष्ट हो जाने वाले हैं; अत: बहुत समय तक मनुष्य के सौन्दर्य को बढ़ाने में असमर्थ होते हैं। मनुष्य की संस्कारित मधुर वाणी सदा उसे आभूषित करने वाली है; क्योंकि वह सदा मनुष्य के साथ रहती है, वह कभी नष्ट नहीं होती। उसका प्रभाव तो मनुष्य के मरने के बाद भी बना रहता है। मनुष्य अपनी प्रभावशालिनी वाणी से ही दुष्टों और अपराधियों को भी बुराई से अच्छाई के मार्ग पर ले जाता है; अत: वाणी ही सच्चा आभूषण है।

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श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) भाषासु मुख्या …………………………………………………….. तस्मादपि सुभाषितम् ॥ (श्लोक 1) [2009, 10, 14, 15]

संस्कृतार्थः अस्मिन् श्लोके संस्कृतभाषायाः महत्त्वं प्रतिपादयन् कविः कथयति-संस्कृतभाषा सर्वासु भाषासु श्रेष्ठतमा अस्ति। इयं भाषा अलौकिका मधुरगुणयुक्ता च अस्ति। तस्मात् हि तस्य काव्यं मधुरम् अस्ति। तस्मात् अपि रम्यं मधुरं च तस्य सुभाषितम् अस्ति। अस्मात् कारणात् इयं गीर्वाणभारती कथ्यते। |

(2) पृथिव्यां त्रीणि …………………………………………………….. रत्नसंज्ञा विधीयते ॥ (श्लोक 2) [2006, 09, 14]

संस्कृतार्थः कविः कथयति-भूतले जलम् अन्नं सुभाषितं च इति त्रीणि रत्नानि सन्ति। मूर्खः पाषाणखण्डेषु रत्नस्य संज्ञा विधीयते। वस्तुत: जलम् अन्नं सुभाषितञ्च अखिलं विश्वं कल्याणार्थं भवन्ति।

(3) काव्यशास्त्रविनोदेन …………………………………………………….. निद्रया कलहेन वा ॥ (श्लोक 3) [2008, 10, 12, 13, 14, 15]

संस्कृतार्थः
कवि मूर्खाणां बुद्धिमतां च समययापनस्य अन्तरं वर्णयति यत् बुद्धिमन्तः जनाः स्वसमयं काव्यशास्त्राणां पठनेन यापयन्ति, एतद् विपरीतं मूर्खाः जनाः स्वसमयं दुराचारेण, शयनेन, विवादेन वा यापयन्ति।

(4) श्लोकस्तु श्लोंकता …………………………………………………….. “यत्र तिष्ठन्त्यसाधवः॥ (श्लोक 4) [2006, 08, 15]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति-यत्र सज्जनाः निवसन्ति, तत्र श्लोकः तु कीर्ति याति। यत्र दुर्जना: निवसन्ति, तत्र श्लोकस्य लकारः लुप्यते। एवं श्लोकः शोकं भवति। सदुपदेशैः सज्जना प्रभाविताः दुष्टाः न इति भावः।

(5) अप्राप्तकालं वचनं …………………………………………………….. अपमानञ्च शाश्वतम् ॥ (श्लोक 5) [2009]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति यत् बृहस्पतिः अपि असामयिकं वचनं ब्रुवन् बुद्धेः अधोगति शाश्वतम् अपमानञ्च प्राप्नोति। अतएव असामयिकं वचनं कदापि न ब्रूयात्।।

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(6) वाच्यं श्रद्धासमेतस्य …………………………………………………….. रुदितोपमम् ॥ (श्लोक 6) [2011]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति-श्रद्धायुक्तस्य पुरुषस्य पृच्छतः सन् विशेषरूपेण वक्तव्यम्। श्रद्धाहीनस्य पुरुषस्य पृच्छतः वचनम् अरण्ये रुदितम् इव भवति।

(7) वसुमतिपतिना नु …………………………………………………….. बुधैरपि सेव्यते ॥ (श्लोक 7) [2010]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके सरस्वत्याः विशेषता वर्णिता अस्ति। सरस्वती राज्ञा तथा बलवता रिपुणा न नेतुं शक्यते न च भ्रातृबन्धुभिः विभक्तुं शक्यते अपितु विद्वद्भिः सेव्यते।

(8) लक्ष्मीनं या …………………………………………………….. स नैव नैव॥ (श्लोक 8) [2007]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोके कविः कथयति-या लक्ष्मी याचक दुःखहारिणी न भवति, सा (UPBoardSolutions.com) लक्ष्मीति कथितुं न शक्यते। या विद्या विष्णुभक्तिकारिणी न भवति सापि विद्या कथितुं न शक्यते। यः पुत्रः पण्डितमण्डलाग्रणीः न भवति सः पुत्रः कथितुं न शक्यते।।

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(9)
केयूराः न विभूषयन्ति …………………………………………………….. वाग्भूषण भूषणं ॥ (श्लोक 9) [2002]
केयूराः न विभूषयन्ति …………………………………………………….. नालङ्कृता मूर्द्धजाः॥ [2005]

संस्कृतार्थः
अस्मिनु श्लोके वाणीम् एव सर्वश्रेष्ठं भूषणं कथितम् अस्ति। कर्णाभूषणानि चन्द्रोपमः रमणीयः हारः स्नान-विलेपनादि पुष्पाणि विभूषिता मूर्द्धजा: पुरुषं न भूषयन्ति परन्तु संस्कृता वाणी एव (या अमृतोपमा मधुरावाणी) सा एव वास्तविकम् आभूषणम्। अन्यानि आभूषणानि कालक्रमेण क्षीयन्ते परन्तु वाग्भूषणं कदापि न क्षीयते।

(10) वाण्येका समलङ्करोति …………………………………………………….. वाग्भूषण भूषणम् ॥ (श्लोक 9) [2007]

संस्कृतार्थः
अस्मिन् श्लोकाद्धे कविः कथयति–अस्मिन् संसारे एकावाणी, या अध्ययनेन विनयेन च संस्कृता धार्यते, सर्वोत्तमं भूषणं अस्ति। सा पुरुषं विभूषयन्ति। अन्यानि भूषणानि खलु नष्टाः भवन्ति। वाग्भूषणं वास्तविक भूषणम् अस्ति, यः कदापि न विनश्यति।।

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Class 10 Sanskrit Chapter 7 UP Board Solutions भरते जनसंख्या – समस्या Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 7 Bharat Jansankhya – Samasya Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 7 हिंदी अनुवाद भरते जनसंख्या – समस्या के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

आज हमारा देश भारत जनसंख्या-वृद्धि की भयंकर समस्या से ग्रसित है जिससे ‘बढ़ता मानव घटता अन्न’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है, क्योंकि भूमि तो बढ़ाई नहीं जा सकती। मकान, दुकान, सड़क, कारखाने, विद्यालय, अस्पताल आदि सभी का निर्माण भूमि (UPBoardSolutions.com) पर ही होता है; अत: कृषि-योग्य भूमि दिनों-दिन कम होती जा रही है। सरकार के पास साधन सीमित हैं, फलतः असीमित जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं हो सकती। आज भारत की जनसंख्या लगभग एक सौ बीस करोड़ से भी अधिक हो गयी है, जिससे जनता को लगभग सभी आवश्यक स्थानों पर स्थानाभाव की समस्या झेलनी पड़ रही है। इन सभी समस्याओं का निदान परिवार नियोजन से ही सम्भव है। यदि एक परिवार में मात्र एक-दो बच्चे जन्म लेंगे, तभी यह समस्या सुलझ सकती है।

प्रस्तुत पाठ जनसंख्या वृद्धि की विकराल समस्या के परिप्रेक्ष्य में परिवार नियोजन की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से सामने रखता है।

पाठ-सारांश [2006, 08, 09, 10, 12, 14]

प्रस्तावना स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 67 वर्ष (पाठ में उल्लिखित है ‘40 वर्ष) बाद भी भारत में दरिद्रता की समस्या हल नहीं हुई है। आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें भोजन के लिए मुट्ठीभर अनाज और शरीर ढकने के लिए दो हाथ कपड़ा भी नहीं मिल पाता है। खाद्य और उपभोग की वस्तुओं में उत्पादन-वृद्धि के अनुपात में जनसंख्या की वृद्धि अधिक हो रही है। यहाँ पर प्रतिवर्ष सवा करोड़ बच्चे पैदा होते हैं; अत: सुरसा के मुँह के समान निरन्तर वृद्धिमान जनसंख्या की वृद्धि से अधिक बढ़ा हुआ उत्पादन भी ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान सिद्ध हो रहा है।

जनसंख्या-वृद्धि के दुष्परिणाम :
(क) वर्ग-संघर्ष जनसंख्या की अबाधगति से वृद्धि से नगरों, ग्रामों, बाजारों, स्कूलों, अस्पतालों में सभी स्थानों पर भीड़-ही-भीड़ दिखाई देती है। योग्य व शिक्षित युवक भी रोजगार न मिलने से दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। ऐसी विकट स्थिति में सब जगह मैं-मैं के कारण अव्यवस्था और भ्रष्टाचार व्याप्त है जिसके परिणामस्वरूप गलत सिफारिश, रिश्वत, भाई-भतीजावाद, जाति और वर्ग-संघर्ष समाज को दूषित कर रहे हैं।.

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(ख) प्रदूषण की समस्या मनुष्य के पास व्यक्तिगत साधन और राष्ट्र के पास साधन सीमित ही हैं, अतः जनसंख्या वृद्धि पर रोकथाम की आवश्यकता है। बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए प्रतिवर्ष लाखों भवनों, हजारों विद्यालयों और सैकड़ों अस्पतालों की आवश्यकता पड़ती है। छोटे-छोटे घरों में रहने वाले अधिक लोग पशुओं के बाड़े में रहने वाली भेड़ों की तरह रह रहे हैं और चारों ओर गन्दगी फैला रहे हैं। रोजगार की तलाश में गाँव के लोग (UPBoardSolutions.com) नगरों की ओर भाग रहे हैं, जिससे नगरों में भी आवास की समस्या जटिल होती जा रही है। वहाँ फुटपाथों पर, सार्वजनिक उपवनों और झोपड़ियों में रहकर लोग नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनके यत्र-तत्र मल-मूत्र त्याग के द्वारा वातावरण दूषित हो रहा है और जन-सामान्य को पेयजल भी शुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।

(ग) शान्ति-व्यवस्था की समस्या विभिन्न प्रकार के अभावों के कारण उन वस्तुओं की प्राप्ति और जीविका के लिए आपाधापी मची हुई है। आपसी सौहार्द समाप्त हो गया है और हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जीविका के अभाव में युवक असामाजिक हो रहे हैं, जिससे अपराध बढ़ रहे हैं और बिना कारण के झगड़े हो रहे हैं। शान्ति-व्यवस्था की समस्या भी उत्पन्न होती जा रही है और परिवारों में अधिक बच्चे होने से उनका पालन-पोषण भी ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है।

(घ) बाढ़ एवं भूक्षरण की समस्या जनसंख्या की निरन्तर वृद्धि के कारण वन काट डाले गये हैं और अब पर्वतों को नग्न किया जा रहा है अर्थात् पर्वतों पर उगी वनस्पतियाँ भी काटी जा रही हैं। वृक्षों और वनों को अन्धाधुन्ध काटने से भूमि का क्षय हो रहा है। बाढ़े आती हैं जिससे खेतों की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। और अरबों की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। नदियों के किनारे स्थित नगरों की गन्दगी नदियों में बहा दी जाती है, जिससे गंगा जैसी पवित्र नदियों का जल भी अपेय हो गया है।

समस्याओं का निदान : परिवार-नियोजन जनसंख्या के विस्फोट के कारण सभी तरह का विकास होने पर भी जन-जीवन संघर्षमय, जीने की इच्छा से व्याकुल, निराश और क्षुब्ध हो गया है। हत्या जैसी पाप-कथाओं को सुनकर अब मन उद्विग्न नहीं होता। यद्यपि विचारक, विद्वान्, नेता और प्रशासक इस समस्या के समाधान में लगे हुए हैं तथापि इसका एकमात्र हल परिवार नियोजन है; अर्थात् परिवार सीमित रहे और एक परिवार में दो से अधिक बच्चे पैदा न हों। बच्चों का पालन-पोषण ठीक प्रकार से हो। अधिक बच्चों के होने पर भोजन, वस्त्र आदि की आवश्यकता भी अधिक होती है। सीमित आय में उनकी शिक्षा-दीक्षा सही ढंग से नहीं हो सकती है। परिवार नियोजन से आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणिक आदि समस्त प्रकार के असन्तुलन समाप्त हो जाएँगे और मानव-जीवन में सुख-समृद्धि का संचार हो जाएगा।

सरकारी प्रयास एवं परिणाम राष्ट्रसंघ, भारत सरकार और राज्य सरकारें जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए विविध योजनाएँ बना रही हैं और उनको लागू कर रही हैं। इसके लिए उनके द्वारा अनेक साधन सुलभ कराये जा रहे हैं। लेकिन सभी वर्गों के सहयोग के अभाव में अपेक्षित परिणाम नजर नहीं आ रहे हैं। सरकार तो साधन जुटा सकती है और वह यथाशक्ति जुटा भी रही है। परिवार नियोजन तो सबको अपने देश के, कुल के, समाज के विकास और कल्याण के लिए करना चाहिए। हम सभी का यह परम कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने परिवार को संयमित तथा सीमित रखे।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
स्वतन्त्रताप्राप्तेश्चत्वारिंशद्वर्षपश्चादपि अस्माकं देशे दरिद्रतायाः समस्या नैव समाहिता। अद्यापि कोटिशो जना निर्धनतायाः स्तरादपि अधस्ताद वर्तमाना उदरपूरणाय मुष्टिपरिमितं धान्यं शरीराच्छादनाय च हस्तद्वयं यावत् कर्पटं च नो लभन्ते, अन्येषां सौविध्यानां तु कथैव का। नास्त्येतद् यद् अस्मिन् काले साधनानां विकासो, भोज्यानां भोग्यानां च वस्तूनां परिवृद्धिर्न जातेति। वस्तुतः सत्यप्यनेकगुणिते धान्यादीनामुत्पादने तस्य लाभो नैव दृश्यते यतो हि जनसङ्ख्यापि तदनुपातेन ततोऽप्यधिकं वा वर्धते। सम्प्रति तु दशेयं जाता सपादैककोटिसख्यका बालकाः प्रतिवर्षमुत्पद्यन्ते। एवं वक्तव्यं यद् आस्ट्रेलियामहाद्वीपे यावन्तो जनाः निवसन्ति तावन्तः प्रतिवर्षमत्र भारते जन्म लभन्ते। एवं सुरसाया मुखस्येव जनस्य वृद्धिरत्र भवति येन सर्वात्मना प्रभूतवृद्धि गतमपि उत्पादनम् उष्ट्रस्य मुखे जीरकमिव एकपदे एव विलीयते।।

शब्दार्थ पश्चादपि = बाद भी। दरिद्रतायाः = निर्धनता की। नैव = नहीं ही। समाहिता = हल हुई। अधस्तात् = नीचे। मुष्टिपरिमितम् = मुट्ठीभरा शरीराच्छादनाय = शरीर ढकने के लिए। हस्तद्वयम् = दो हाथ| कर्पटम् = कपड़ा। सौविध्यानाम् = सुविधाओं की। कथैव = बात ही। नास्त्येतद् = नहीं है, (UPBoardSolutions.com) ऐसा। सत्यप्यनेकगुणिते = वस्तुतः अनेक गुना होने पर भी न दृश्यते = दिखाई नहीं देता। तदनुपातेन = उसके अनुपात से। ततोऽप्यधिकम् (ततः +,अपि + अधिक) = उससे भी अधिक। सम्प्रति = आजकल। सपादैककोटिसङ्ख्य काः = सवा करोड़ की संख्या में उत्पद्यन्ते = जन्म लेते हैं। यावन्तः = जितने। तावन्तः = उतने। सुरसायाः मुखस्येव = सुरसा के मुख के समान। सर्वात्मना = सभी प्रकार से। प्रभूतवृद्धि गतमपि = अधिक वृद्धि होने पर भी। उष्ट्रस्य मुखे जीरकम् इवे = ऊँट के मुँह में जीरे के समान। एकपदे = एक साथ ही। विलीयते = समा जाता है, विलीन हो जाता है।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘भारते जनसंख्या-समस्या’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में भारत में जनसंख्या-वृद्धि की समस्या पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद स्वतन्त्रता-प्राप्ति के सड़सठ वर्ष पश्चात् भी (मूल पाठ में उल्लिखित है 40 वर्ष) हमारे देश में गरीबी की समस्या हल नहीं हुई है। आज भी करोड़ों लोग गरीबी के स्तर से भी नीचे रहते हुए पेट भरने के लिए मुट्ठीभर धान्य (अन्न) और शरीर ढकने के लिए दो हाथ जितना वस्त्र नहीं प्राप्त करते हैं। दूसरी सुविधाओं का तो कहना ही क्या? ऐसी बात नहीं है कि इस समय साधनों का विकास, खाने योग्य और उपयोग के योग्य वस्तुओं की वृद्धि नहीं हुई है। वास्तव में अनेक गुना धन-धान्यादि का उत्पादन होने पर भी उसका लाभ नहीं दिखाई देता है; क्योंकि जनसंख्या भी उस अनुपात से या उससे भी अधिक बढ़ जाती है। इस समय तो यह दशा हो (UPBoardSolutions.com) गयी है कि सवा करोड़ बच्चे प्रतिवर्ष पैदा होते हैं। ऐसा कहना चाहिए कि ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में जितने लोग रहते हैं, उतने प्रतिवर्ष यहाँ भारत में जन्म लेते हैं। इस प्रकार सुरसा के मुख के समान लोगों की वृद्धि यहाँ पर हो रही है, जिससे बहुत बढ़ा हुआ उत्पादन भी ‘ऊँट के मुंह में जीरा के समान एक बार में ही समाप्त हो जाता है।

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(2)
जनसङ्ख्याया अनिरुद्धवृद्धेः परिणामोऽयं जातो यत् नगरेषु, ग्रामेषु, आपणेषु, चिकित्सालयेषु, विद्यालयेषु, न्यायालयेषु किं बहुना, यत्र तत्र सर्वत्रापि जनानां महान्तः सम्मर्दाः दृश्यन्ते। यात्रिणो यानेषु, छात्राः विद्यालयेषु, रोगिणः चिकित्सालयेषु च स्थानं न लभन्ते। योग्याः प्रशिक्षिताः शिक्षिता अपि युवानो जीविकामलभमाना द्वाराद् द्वारं भृशम् अटन्ति। ‘एकं दाडिमं, शतं रोगिणाम्’ एवंविधे व्यतिकरे सर्वत्रापि अहमहमिकाकारणात् न केवलम् अव्यवस्था अपितु भ्रष्टाचारोऽपि अलर्कविषमिव प्रसरति। कुसंस्तुतिः, उत्कोचः, भ्रातृ-भ्रातृजवादः, जातिदलसङ्घर्ष इत्यादयो विकाराः समाजशरीरं दूषयन्ति। येन सर्वोऽपि समाजो मनोरोगीव सजायते।

जनसङ्ख्याया अनिरुद्धवृद्धेः ………………………………………………………….. स्थानं न लभन्ते।

शब्दार्थ अनिरुद्धवृद्धेः = बेरोक-टोक वृद्धि से। आपणेषु = बाजारों में। किंबहुना = अधिक क्या। सम्मर्दाः = भीड़। प्रशिक्षिताः = प्रशिक्षित लोग। युवानः = युवा लोग। जीविकामलभमानाः = जीविका न प्राप्त करते हुए। द्वाराद्वारम् = द्वार से द्वार तक। भृशम् = अधिक अटन्ति = घूमते हैं। दाडिमम् = अनार। व्यतिकरे = कठिन परिस्थिति में अहमहमिकाकारणात् = पहले मैं, पहले मैं के कारण। अलर्कविषमिव = पागल कुत्ते के विष के समान। प्रसरति = फैल रहा है। कुसंस्तुतिः = गलत सिफारिश। उत्कोचः = घूस भ्रातृ-भ्रातृजवादः = भाई-भतीजावाद। मनोरोगीव = मानसिक रोगी के समान। सञ्जायते = हो रहा है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की बेरोक-टोक वृद्धि के दुष्परिणाम के विषय में बताया गया है।

अनुवाद जनसंख्या की बेरोक-टोक वृद्धि का परिणाम यह हुआ कि नगरों, ग्रामों, बाजारों, अस्पतालों, विद्यालयों, न्यायालयों में अधिक क्या, जहाँ-तहाँ सभी जगह लोगों की बहुत भीड़ दिखाई देती है। गाड़ियों में यात्री, विद्यालयों में छात्र और चिकित्सालयों में रोगी स्थान नहीं प्राप्त करते हैं। (UPBoardSolutions.com) योग्य, प्रशिक्षित, पढ़े-लिखे युवक भी रोजगार न प्राप्त करते हुए द्वार-द्वार पर अधिकता से घूम रहे हैं। एक अनार सौ बीमार’ इस प्रकार की कठिन परिस्थिति में सभी जगह पहले मैं पहले मैं’ के कारण केवल अव्यवस्था ही नहीं, अपितु भ्रष्टाचार भी पागल कुत्ते के विष के समान फैल रहा है। गलत सिफारिश, घूस, भाई-भतीजावाद, जाति और वर्ग को संघर्ष इत्यादि विकार समाज के शरीर को दूषित कर रहे हैं, जिससे सारा समाज ही मानसिक रोगी के समान हो रहा है।

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(3)
मनुष्याणां व्यक्तिगतसाधनानि राष्ट्रस्य च साधनानि तु सीमितान्येव, आवश्यकता तु जनवृद्धेः वारणान्महती आपद्यते। प्रतिवर्षी लक्षशः आवासाः, सहस्रशो विद्यालयाः, शतशश्चिकित्सालयाः, बहूनि चान्यानि साधनान्यपेक्ष्यन्ते न सीमितसाधनैः सम्पादयितुं शक्यन्ते। फलतो लघिष्ठेष्वपि गृहेषु अतिसङ्ख्यकाः जना पशुवाटेषु अजा मेषा इव निवसन्ति परितश्च मालिन्यं प्रसारयन्ति। जीविकां मृगयमाणाः ग्रामीणाः जनाः नगरं धावन्ति। तत्रे च सहस्रशो लक्षशो जनाः पद्धतिमभितः, सार्वजनिकेषु उद्यानादिस्थानेषु, अनधिकारनिर्मितेषु पर्पोटजेषु निवसन्तः निषिद्धस्थान एव यत्र तत्र मलमूत्रादित्यागेन वातावरणं मलिनयन्ति रोगग्रस्ताश्च जायन्ते। चिकित्साशिक्षादि सौविध्यस्य तु दूर एवास्तां कथा शुद्ध पेयं जलमपि नोपलभ्यते। एतादृशं जीवनमपि किं जीवनमू? [2013]

शब्दार्थ व्यक्तिगतसाधनानि = व्यक्तिगत साधन। सीमितान्येव = सीमित ही हैं। आपद्यते = आ पड़ी है। लक्षशः = लाखों। सहस्रशः = हजारों। शतशः = सैकड़ों। अपेक्ष्यन्ते = अपेक्षित हैं। सम्पादयितुं शक्यन्ते = बनाये जा सकते हैं। लघिष्ठेषु = अत्यन्त छोटे। पशुवाटेषु = पशुओं के बाड़े में। (UPBoardSolutions.com) अजा मेषा इव = भेड़-बकरियों के समान/ परितश्च = और चारों ओर। मालिन्यं = गन्दगी। प्रसारयन्ति = फैलाते हैं। मृगयमाणाः = ढूंढ़ते हुए। पद्धतिमभितः = मार्ग के दोनों ओर। पर्पोटजेषु = झोपड़ियों में। मलिनयन्ति,= मलिन (दूषित) करते हैं। सौविध्यस्य = सुविधा की। दूर एवास्तां कथा = दूर ही रहे बात। नोपलभ्यते = नहीं प्राप्त होता है।।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या-वृद्धि के दुष्परिणामों के विषय में बताया गया है।

अनुवाद मनुष्यों के व्यक्तिगत साधन और राष्ट्र के साधन तो सीमित ही हैं, तो जनवृद्धि को रोकने की बड़ी आवश्यकता आ पड़ी है। प्रतिवर्ष लाखों आवास, हजारों विद्यालय, सैकड़ों अस्पताल और बहुत-से दूसरे साधनों की आवश्यकता है, किन्तु सीमित साधनों से वे सम्पादित (बनाये) नहीं किये जा सकते हैं। फलस्वरूप अत्यन्त छोटे घरों में अधिक संख्या में लोग पशुओं के बाड़ों में भेड़-बकरियों की तरह रहते हैं।
और चारों ओर गन्दगी फैलाते हैं। जीविका को ढूंढ़ते हुए गाँव के लोग नगर की ओर दौड़ते हैं और वहाँ हजारों-लाखों लोग मार्ग के दोनों ओर, सार्वजनिक उपवन आदि स्थानों में, अनधिकार रूप से बनी हुई। झोपड़ियों में रहते हुए, गलत स्थान पर इधर-उधर मल-मूत्र आदि के त्याग द्वारा वातावरण को गन्दा करते हैं। और बीमार हो जाते हैं। चिकित्सा, शिक्षा आदि की सुविधा की बात तो दूर रहे, उनको पीने का शुद्ध जल भी प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार का जीना भी क्या जीना है?

(4)
विभिन्नानामभावानां कारणात् तत्तद्वस्तुप्राप्तये जीविकार्थं च महती प्रतिद्वन्द्विता प्रवर्तते। मिथः सौमनस्यं विलीयते, हिंसायाः भावः प्रादुर्भवति यतो हि क्षीणा जनाः निष्करुणा भवन्ति। क्षुधाहतः किं न कुरुते। अवृत्तिका युवानः असामाजिका जायन्ते। अपराधा वर्धन्ते। स्थाने स्थाने (UPBoardSolutions.com) अकारणादेव कलहा जायन्ते शान्तिव्यवस्थायाः महती समस्या उत्पद्यते। परिवारेषु बालकानामधिकताय तेषां पालनं सुष्ठ न भवति। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ इति नीतिवाक्यानुसारेण सम्प्रति बालकानामपि सङ्ख्यावृद्धिर्वर्जनीया एव। [2007]

शब्दार्थ विभिन्नानामभावानां = विभिन्न प्रकार के अभावों का। जीविकार्थम् = रोजगार के लिए। प्रतिद्वन्द्विता = होड़। प्रवर्त्तते = बढ़ रही है। मिथः = आपस में। सौमनस्यम् = सद्भाव। विलीयते = नष्ट हो रहा है। यतो हि = क्योंकि निष्करुणाः = निर्दयी, करुणाहीन। क्षुधाहतः = भूख से पीड़िता अवृत्तिकाः = बेरोजगार। कलहाः = झगड़े। उत्पद्यते = उत्पन्न होती है। सुष्टुः = भली प्रकार वर्जयेत् = त्यागनी चाहिए। वर्जनीया एव = वर्जनीय; अर्थात् त्याज्य ही है।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए बल दिया गया है।

अनुवाद अनेक प्रकार के अभावों के कारण उस-उस वस्तु की प्राप्ति के लिए और जीविका के लिए अत्यधिक होड़ बढ़ती जाती है। आपसी सद्भाव नष्ट हो जाता है, हिंसा का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि कमजोर मनुष्य निर्दयी होते हैं। भूख से पीड़ित क्या नहीं करता? बेरोजगार युवक असामाजिक हो जाते हैं। अपराध बढ़ जाते हैं। जगह-जगह बिना कारण ही झगड़े हो जाते हैं। शान्ति-व्यवस्था की बड़ी समस्या उत्पन्न हो जाती है। परिवारों में बच्चों की अधिकता से उनका पालन भी ठीक नहीं हो पाता है। अति सब जगह छोड़ देनी चाहिए’ इस नीति-वाक्य के अनुसार इस समय बच्चों की भी संख्या की वृद्धि को रोकना चाहिए।

(5)
निरन्तरं वर्धमानया जनसङ्ख्यया बहूनि वनान्यपि निगिलितानि। पर्वताः नग्ना कृताः। वृक्षेषु प्रतिक्षणं कुठाराघातः क्रियते। वृक्षाणां वनानां च अन्धान्धकर्तनेन वर्षासु भूक्षरणं जायते। उर्वरकां मृत्स्नां वर्षाजलम् अपवाहयति, नदीनां तलानि उत्थलानि भवन्ति। येन जलप्लावनानि भवन्ति अर्बुदानां च सम्पत् प्रतिवर्ष नश्यति। नदीतटे स्थितानां नगराणाम् उत्तरोत्तरं विवर्धमानं मालिन्यं महाप्रणालैनंदीषु पात्यते येन गङ्गासदृश्योऽपि सुधास्वादुजला नद्यो स्थाने स्थाने अपेया अस्नानीया च जायन्ते। [2006, 07 08]

शब्दार्थ वनान्यपि = वन भी। निगिलितानि = नष्ट हो गये हैं। अन्धान्धकर्तनेन = अन्धाधुन्ध काटने से। भूक्षरणम् = भूमि का कटाव उर्वरकां = उपजाऊ। मृत्स्नाम् = मिट्टी को। अपवाहयति = बहा ले जाता है। उत्थलानि = उथले, कम गहरे। जलप्लावनानि = बाढे। अर्बुदानां (UPBoardSolutions.com) च सम्पत् = अरबों की सम्पत्ति। उत्तरोत्तरं = दिन-प्रतिदिन विवर्धमानं = बढ़ता हुआ। महाप्रणालैः = बड़े नालों के द्वारा पात्यते = गिराया जाता है। सुधास्वादुजला = अमृत के समान स्वादयुक्त जल वाली। अपेया = न पीने योग्य अस्नानीया = स्नान के अयोग्य।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की वृद्धि के दुष्परिणामों पर प्रकाश डाला गया है।

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अनुवाद निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या से बहुत-से वन भी नष्ट कर दिये गये। पर्वत नग्न कर दिये गये। वृक्षों पर प्रत्येक क्षण कुल्हाड़ी से प्रहार किया जा रहा है। वृक्षों और वनों के अन्धाधुन्ध काटने से वर्षा-ऋतु में भूमि का कटाव हो जाता है। उपजाऊ मिट्टी को वर्षा का जल बहा ले जाता है। नदियों के तल उथले (कम गहरे) हो जाते हैं, जिससे बाढ़े आती हैं और अरबों की सम्पत्ति प्रतिवर्ष नष्ट हो जाती है। नदी के किनारे पर स्थित नगरों की लगातार बढ़ती हुई गन्दगी बड़े नालों से नदियों में गिरायी जाती है, जिससे गंगा जैसी अमृत के समान स्वादिष्ट जल वाली नदियाँ भी जगह-जगह न पीने योग्य और स्नान न करने योग्य हो गयी हैं।

(6)
अभिप्रायोऽयं यज्जनसङ्ख्याविस्फोटकारणात् सर्वविध विकासे सत्यपि राष्ट्रे जन-जीवनं सङ्घर्षमयं जिजीविषाकुलं, नैराश्यपीडितं मनःक्षोभकरं च जातम्। मानवीयगुणानां हासो भवति। अत एव तु हत्यादिमहापातकानां श्रवणं न मनुष्यान् पुरेव उद्वेजयाति। यद्यपि सर्वेऽपि विचारकाः, मनीषिणः, नेतारः, प्रशासकाश्च समस्यामेनां समाधातुं प्रयतमानाः सन्ति। अस्या एकमात्र समाधानं परिवार नियोजनम्। परिवारः सीमितो भवेत्। तच्च तदैव सम्भवति यदा परिवारे बालकानाम् उत्पत्तिरधिका न भवेत्, एक एव द्वौ वा बालकौ स्यातां, येन तत्पालनं पोषणं च सुष्ठ भवेत्। अधिकानां कृते अधिकानि भोजनवस्त्रादिवस्तूनि अपेक्ष्यन्ते, परिवारस्य आयस्तु सीमितो भवति।।

शब्दार्थ अभिप्रायोऽयम् = अभिप्राय यह है। यज्जनसङ्ख्याविस्फोटकारणात् = जनसंख्या की अधिक वृद्धि के कारण से। सत्यपि = हो जाने पर भी। जिजीविषाकुलम् = जीवित रहने की इच्छा से व्याकुला मनः क्षोभकरं = मन में दुःख उत्पन्न करने वाला। ह्रासः = घटती। पुरेव (पुरा + इव) = पहले की तरह उद्वेजयति = पीड़ित करता है। समाधातुम् = समाधान करने के लिए। प्रयतमानाः = प्रयत्नशील। उत्पत्तिरधिका = अधिक उत्पत्ति। सुष्टुं भवेत् = अच्छी प्रकार से हो जाए। अपेक्ष्यन्ते = अपेक्षित होती है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की वृद्धि को रोकने का उपाय परिवार नियोजन को बताया गया है।

अनुवाद अभिप्राय यह है कि जनसंख्या के विस्फोट के कारण से सभी प्रकार का विकास होने पर भी राष्ट्र में लोगों का जीवन संघर्षों से भरा, जीने की इच्छा से व्याकुल, निराशा से पीड़ित तथा मन को क्षुब्ध करने वाला हो गया है। मानवीय गुणों का ह्रास होता जा रहा है। इसीलिए हत्या आदि बड़े पापों का सुनना मनुष्यों को पहले की तरह दु:खी नहीं करता है। यद्यपि सभी विचारक, विद्वान्, नेता, प्रशासक इस समस्या का समाधान करने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, तथापि इसका एकमात्र समाधान परिवार नियोजन है। परिवार सीमित होना चाहिए। वह तभी हो सकता है, जब परिवार में बच्चों की उत्पत्ति अधिक न हो, एक या दो ही बालक (UPBoardSolutions.com) होवें, जिससे उनका पालन-पोषण अच्छी तरह से हो सके। अधिक के लिए अधिक भोजन, वस्त्र आदि वस्तुओं की आवश्यकता होती है। परिवार की आय तो सीमित होती है।

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(7)
अधिका बालका भविष्यन्ति चेत् तेषां शिक्षा-दीक्षाऽपि चारुतया न भविष्यति। एकः द्वौ वा बालको दम्पत्योः स्यातां यथाकाले शिक्षाविवाहादयः करणीयाः। एतदेव परिवार नियोजनम्। राष्ट्रसङ्घन भारतसर्वकारेण राज्यशासनेन च जनसङ्ख्यां नियन्तुं विविधाः परिवारकल्याणयोजनाः प्रवर्तिताः अनेकानि साधनानि च प्रापितानि तथापि अपेक्षितः परिणामो नाद्यापि दृश्यते। कारणं त्विदं यद्देशवासिनां सर्वेषां वर्गाणां सहयोगो नैव प्राप्यते।

शब्दार्थ चारुतया = ठीक से, भली प्रकार से। भारतसर्वकारेण = भारत सरकार ने। प्रवर्तिताः = आरम्भ की है। प्रापितानि = प्राप्त करा दिये हैं। अपेक्षितः = मनचाहा। नाद्यापि = आज भी नहीं। त्विदम् (तु + इदम्) = तो यह है। प्राप्यते = प्राप्त होता है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए किये गये शासकीय प्रयासों की चर्चा की गयी है।

अनुवाद यदि अधिक बच्चे होंगे तो उनकी शिक्षा-दीक्षा भी ठीक प्रकार से नहीं होगी। पति-पत्नी के एक या दो बच्चे ही हों तो उचित समय पर शिक्षा, विवाह आदि करना चाहिए। यही परिवार-नियोजन है। राष्ट्रसंघ, भारत सरकार और राज्य सरकार द्वारा जनसंख्या को रोकने के लिए अनेक प्रकार की परिवार कल्याण की योजनाएँ प्रारम्भ की गयी हैं और अनेक साधन उपलब्ध कराये गये हैं तो भी अपेक्षित परिणाम आज भी नहीं दिखाई दे रहे हैं। इसका कारण यह है कि देशवासियों के सभी वर्गों का सहयोग प्राप्त नहीं हो रहा है।

(8)
एषा समस्या तु न केवलं राष्ट्रस्यैव अपितु सर्वस्यापि परिवारस्यैव मुख्यतया विद्यते। नियोजित एव परिवारः प्रत्येकपरिवारजनस्य सुखशान्तिकारको भविष्यति। सर्वकारस्तु यथाशक्ति साधनानि दातुं शक्नोति तच्चासौ करोत्येव। सन्ततिनिरोधस्तु प्रत्येक मनुष्येण स्वस्य, स्वकुलस्य, समाजस्य, राष्ट्रस्य, विश्वस्य च उन्नतये शान्तये च धर्मानुष्ठानमिव स्वत एव सर्वात्मना विधेयस्तदैव समस्यायाः समाधानं भवेत्, मातृकल्याणं बालकल्याणं च स्यात्। [2015]

शब्दार्थ प्रत्येकपरिवारजनस्य = परिवार के प्रत्येक जन का। करोत्येव = करती ही है। सन्ततिनिरोधस्तु = परिवार नियोजन, सन्तानोत्पत्ति का रोकना तो। उन्नतये = उन्नति के लिए। धर्मानुष्ठानमिव = धार्मिक अनुष्ठान की तरह। सर्वात्मना = पूरी तरह से। विधेयः = करना चाहिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में बताया गया है कि नियोजित परिवार ही सुख और शान्ति का मूल कारण है।

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अनुवाद यह समस्या तो केवल राष्ट्र की नहीं है, अपितु मुख्य रूप से सभी परिवारों की ही है। नियोजित परिवार ही परिवार के प्रत्येक व्यक्ति की सुख-शान्ति का करने वाला अर्थात् कारक होगा। सरकार तो यथाशक्ति साधनों को दे सकती है, यह तो वह करती ही है। सन्तति-निरोध (UPBoardSolutions.com) तो प्रत्येक मनुष्य को अपनी, अपने कुल की, समाज की, राष्ट्र की और विश्व की उन्नति और शान्ति के लिए धर्मानुष्ठान की तरह स्वयं ही पूरी तरह से करना चाहिए, तभी समस्या का समाधान हो सकेगा, (इसी से) माता का कल्याण और बच्चों का कल्याण होगा।

लघु उत्तटीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने के उपाय बताइए। या जनसंख्या वृद्धि के समाधान क्या हैं? [2006,07]
उत्तर :
भारत में जनसंख्या वृद्धि को रोकने का एकमात्र उपाय परिवार-नियोजन है। परिवार-नियोजन का तात्पर्य है-सीमित परिवार, अर्थात् किसी दम्पति के एक या दो बच्चे होना ही परिवार नियोजन है। नियोजित परिवार ही परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को सुख-शान्ति प्रदान कर सकता है। सरकार तो केवल साधनों की उपलब्धता ही सुनिश्चित कर सकती है लेकिन इसके लिए प्रयास तो प्रत्येक व्यक्ति को इसे एक धर्मानुष्ठान मानकर करना होगा। तभी इस समस्या का समाधान हो सकता है।

प्रश्न 2.
जनसंख्या विस्फोट का क्या अर्थ है? इसका राष्ट्र के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? [2006,07,08, 11]
या
यो जनसंख्या विस्फोट से क्या तात्पर्य है? [2011]
उत्तर :
जनसंख्या विस्फोट का अर्थ है-जनसंख्या को उपलब्ध साधनों की तुलना में तीव्र गति से बढ़ना। जनसंख्या का विस्फोट होने पर सभी प्रकार के साधनों के रहने पर भी राष्ट्र में जन-जीवन संघर्षपूर्ण हो जाता है, जीने की इच्छा व्याकुल करने लगती है, मन में निराशा-क्षोभ उत्पन्न हो जाता है तथा मानवीय गुणों की हानि होती है।

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प्रश्न 3.
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने में सबसे बड़ी बाधा क्या है? [2006]
उत्तर :
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने में सबसे बड़ी बाधा देशवासियों का अल्पशिक्षित होना है। यही वह प्रमुख बाधा है, जिसके चलते सरकार द्वारा चलाये जा रहे परिवार कल्याण कार्यक्रम को जनता का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता, क्योंकि भारतवासी यह नहीं समझते कि यह मुख्य रूप से राष्ट्र की समस्या है। वे यह समझते हैं कि यह परिवारों की समस्या है, राष्ट्र की नहीं।

प्रश्न 4.
जनसंख्या-वृद्धि से होने वाली किन्हीं दो समस्याओं का उल्लेख कीजिए। [2006]
उत्तर जनसंख्या वृद्धि से होने वाली दो समस्याएँ निम्नलिखित हैं

(क) जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि होने के कारण योग्य, प्रशिक्षित और पढ़े-लिखे युवकों को भी रोजगार नहीं मिल पा रहा है।
(ख) जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न होने वाली दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या है–भूमि की सीमितता की समस्या।

प्रश्न 5.
जनसंख्या-वृद्धि में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ उक्ति की समीक्षा कीजिए।
या
राष्ट्र की उन्नति के लिए जनसंख्या-वृद्धि किस प्रकार घातक है?
या
प्रत्येक व्यक्ति को सन्तति-निरोध क्यों करना चाहिए? [2007]
उत्तर :
“अति सर्वत्र वर्जयेत्” उक्ति का तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु की अति सर्वथा वर्जना योग्य अर्थात् त्यागने योग्य होती है। भारत के पास विश्व में उपलब्ध भू-भाग का मात्र 2% ही है, लेकिन जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 1/6 भाग (लगभग 17%) से अधिक है। भारत में प्रतिवर्ष उतने (UPBoardSolutions.com) लोग जन्म ले लेते हैं, जितनी ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप की कुल जनसंख्या है। इसके चलते खाद्यान्नों के उत्पादन में हो रही अत्यधिक वृद्धि भी ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान व्यर्थ सिद्ध हो रही है। निश्चित ही यह जनसंख्या-वृद्धि या की अति है। अतः जनसंख्या-वृद्धि से उत्पन्न समस्याओं के समाधान के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सन्तति-निरोध करना चाहिए।

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प्रश्न 6.
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने के उपाय बताइए। [2011]
या
हमारे देश में जनसंख्या समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? [2006,07, 11, 12]
उत्तर :
भारत में जनसंख्या-वृद्धि को रोकने का एकमात्र उपाय परिवार-नियोजन है। परिवार-नियोजन को तात्पर्य है-सीमित परिवार अर्थात् किसी दम्पति के एक या दो बच्चों का होना । देश और राज्य की सरकारें तो केवल साधनों की उपलब्धता ही सुनिश्चित कर सकती हैं, लेकिन इसके (UPBoardSolutions.com) लिए प्रयास तो प्रत्येक व्यक्ति को करना होगा। जब प्रत्येक व्यक्ति परिवार के नियोजन को एक धर्मानुष्ठान मानकर प्रयास करेगा, तभी जनसंख्या की समस्या का समाधान हो सकता है।

प्रश्न 7. प्राकृतिक वातावरण पर जनसंख्या-वृद्धि का क्या प्रभाव पड़ रहा है? [2009]
उत्तर :
जनसंख्या वृद्धि के कारण वन काटे जा रहे हैं और पर्वतों को नंगा किया जा रहा है। वनों और वृक्षों के कट जाने से भूमि का कटाव बढ़ता जा रहा है, बाढ़ आ रही है, खेतों की उपजाऊ मिट्टी समाप्त होती जा रही है। नगरों के मल-मूत्र नदियों में बहाये जाने से इनका जल प्रदूषित हो रहा है। गंगा जैसी पवित्र और सदानीरा नदी का जल अपेय; अर्थात् न पीने योग्य; हो गया है।

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Class 9 Sanskrit Chapter 2 UP Board Solutions वत्सराजनिग्रहः Question Answer

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी) are the part of UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit. Here we have given UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 2 वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 2
Chapter Name वत्सराजनिग्रहः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 29
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 2 Vatsrajnigrah Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 2 हिंदी अनुवाद वत्सराजनिग्रहः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय–महाकवि भास संस्कृत नाट्य-साहित्य में अपना अन्यतम स्थान रखते हैं। स्वयं महाकवि कालिदास ने उनकी प्रशंसा की है। श्री टी० गणपति शास्त्री द्वारा उनका समय ईसा पूर्व चतुर्थ.

शताब्दी निश्चित किया गया है। इनके द्वारा लिखित नाटकों की संख्या ‘तेरहू’ है, जिनमें ‘स्वप्नवासवदत्तम्’, ‘प्रतिमानाटकम्’, ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ आदि अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इनकी भाषा प्रभावोत्पादक और मुहावरेदार है तथा शैली अत्यन्त प्रौढ़ है। इनके नाटकों की विशिष्टता यह है कि ये

आज भी सफलता के साथ अभिनीत किये जा सकते हैं। । प्रस्तुत अंश महाकवि भास द्वारा रचित ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ नाटक के प्रथम अंक से संगृहीत है। इसमें उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत द्वारा कृत्रिम नीलहस्ती के व्याज से वत्सराज उदयन को बन्दी बनाने तथा उसके मन्त्री यौगन्धरायण द्वारा अपने स्वामी को छुड़ाने की प्रतिज्ञा करने का वर्णन है।

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पाठ-सारांश

यौगन्धरायण की सालक से बातचीत–यौगन्धरायण को यह समाचार मिलता है कि उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत कृत्रिम नीलहस्ती (नीला हाथी) बनाकर वत्सराज उदयन के साथ छल करना चाहता है। वत्सराज उदयन अगले दिन ही नागवन को जाने वाले थे, अत: वह पहले ही सालक के साथ स्वामी (उदयन) से मिलना चाहता है। राजमाता यौगन्धरायण और सालक को उदयन के लिए पत्र और रक्षासूत्र देना चाहती हैं। | हंसक द्वारा उदयन के नागवन पहुँचने की सूचना-इसी बीच वत्सराज (उदयन) के पास से हंसक आता है और मन्त्री यौगन्धरायण को सूचना देता है कि स्वामी (उदयन) वत्सराज एक दिन पहले ही बालुका. तीर्थ से नर्मदा को पार करके केवल राजछत्र धारण करके हाथियों का मर्दन करने योग्य थोड़ी-सी सेना लेकर नागवन चले गये हैं। वहाँ कुछ योजन चलकर (UPBoardSolutions.com) उन्होंने भयंकर हाथियों के एक झुण्ड को देखा। उस झुण्ड में से कोई पैदल सिपाही स्वामी (उदयन) के सम्मुख आया और उसने बताया कि एक कोस की दूरी पर उसने चमेली और साल के वृक्षों से ढके हुए शरीर वाले, नाखून और दाँतरहित ‘नील कुवलय तनु’ नामक एक नीला हाथी देखा है। उस छली सैनिक को उपहारस्वरूप सौ स्वर्णमुद्राएँ देकर स्वामी ने नील बलाहक हाथी से उतरकर, सुन्दर पाटल घोड़े पर बैठकर केवल बीस पैदल सिपाहियों को साथ लेकर उस ‘नील ‘कुवलय तनु’ नामक हाथी को पकड़ने के लिए प्रस्थान कर दिया। उस छली सैनिक द्वारा बताये गये स्थान पर पहुँचकर स्वामी (उदयन) ने वहाँ साल वृक्षों की छाया में कुछ कम दूरी से उस कृत्रिम नीले हाथी को देखा। स्वामी (उदयन) ने घोड़े से उतरकर जैसे ही वीणा हाथ में ली वैसे ही एक महान् बलशाली सिंह पीछे से प्रकट हुआ।

वत्सराज उदयन का बन्दी बनाया जाना—उसी समय बहुत अधिक सेना के साथ वह मिथ्या हाथी प्रकट हुआ। तब वत्सराज उदयन ने उससे युद्ध करना आरम्भ किया। लगातार युद्ध करने से थककर, प्रहारों से घायल होकर, घोड़े के गिर जाने पर वत्सराज उदयन भी बेहोश हो गये। तब कठोर (UPBoardSolutions.com) लताओं से बाँधकर बेहोश उदयन को कठोर यन्त्रणाएँ दी गयीं। उदयन के होश में आने पर वे प्रतिपक्षी तो भाग गये, लेकिन उनमें से एक वत्सराज का वध करने की इच्छा से तलवार लेकर दौड़ा, लेकिन रक्तरंजित धरती पर वह दुष्ट स्वयं फिसल कर गिर पड़ा।

शालंकायन द्वारा उदयन की रक्षा-उसी समय ‘दुस्साहस मत करो’ कहता हुआ प्रद्योत का मन्त्री शालंकायन उस स्थान पर आया और उसने प्रणाम करके स्वामी को बन्धन से मुक्त कर दिया। तब वह सज्जन उपचारसहित शान्ति वचन कहकर स्वामी को पालकी में बैठाकर उज्जयिनी की ओर ले गया। इसी बीच रक्षासूत्र लेकर आयी हुई विजया से यौगन्धरायण ने पूज्या माताजी को स्वामी के पकड़ लिये जाने की बात न बताने के लिए कहा।

यौगन्धरायण द्वारा प्रतिज्ञा-हंसक ने यौगन्धरायण को बताया कि मुझे स्वामी (उदयन) ने सन्देश देने के लिए आपके (यौगन्धरायण के) पास भेजा है। तब यौगन्धरायण (UPBoardSolutions.com) मोचयामि न राजानम्, नास्मि यौगन्धरायणः’ (अर्थात् यदि मैं राजा को नहीं छुड़ाता हूँ, तो मैं यौगन्धरायण नहीं हूँ) कहकर राजा को शत्रु से मुक्त कराने की कठिन प्रतिज्ञा करता है।

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चरित्र – चित्रण

वत्सराज उदयन

परिचय–प्रस्तुत पाठ में वत्सराज उदयन प्रत्यक्ष रूप से मंच पर नहीं आते। पात्रों के वार्तालाप से ही उनके विषय में कुछ परिचय मिलता है। उदयन कौशाम्बी के राजा और नाटक के नायक हैं। उन्हें ।

‘वत्सराज’ के विशेषण से सम्बोधित किया जाता है। वह एक निश्चिन्त प्रकृति के और मृगया-प्रेमी शासक हैं। उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत उन्हें छलपूर्वक बन्दी बना लेता है। उदयन को मुक्त कराने के लिए ही उनका मन्त्री यौगन्धरायण प्रतिज्ञा करता है। उदयन की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं|

(1) कला मर्मज्ञ-वत्सराज उदयन कला-प्रेमी शासक हैं। संगीत के वे महान् ज्ञाता हैं। वीण बजाने में तो वे इतने निपुण हैं कि क्रुर हाथियों को भी अपनी वीणा के मधुर स्वरों से मदमस्त कर उन्हें अपने वश में कर लेते हैं। उनका वीणावादन द्वारा हाथियों को पकड़ने का कौशल ही उनको बन्दी (UPBoardSolutions.com) बनाये जाने का कारण बनता है। वह समय-समय पर कला-गोष्ठियों और प्रदर्शनियों का आयोजन का कलाकारों का सम्मान करते हैं। वह स्वयं अपनी महारानी वासवदत्ता को वीणावादन की शिक्षा देते हैं। प्रत्येक कलाविद् की भाँति वह स्वभाव से रसिक और कोमल है।

(2) मृगया-प्रेमी-वत्सराज उदयन की मृगया (शिकार खेलने) में विशेष रुचि है। उनके मृगया-प्रेम से उनके मन्त्री इत्यादि सभी राज-पुरुष चिन्तित रहते हैं। उनकी मृगया में रुचि कम करने के लिए ही एक बार उनका प्रधानमन्त्री यौगन्धरायण मृगया के समय उनकी प्राणप्रिय रानी वासवदत्ता को छिपा देता है, जिसके वियोग में उदयन अत्यन्त दु:खी होते हैं। मृगया में वे निपुण भी हैं, तभी तो नील-कुवलय हाथी को पकड़ने के लिए बहुत थोड़ी-सी सेना लेकर प्रस्थान करते हैं। नील कुवलय हाथी को देखकर वे स्वयं हाथ में वीणा लेकर अकेले उसे पकड़ने का प्रयत्न करते हैं।

(3) विलासी एवं कर्तव्यपराङ्मुख-कला-प्रेमी उदयन स्वभावोचित विलासी राजा हैं। प्रजा के सुख-दुःख से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। वे प्रतिपल वासवदत्ता के प्रेम में आकण्ठ निमग्न रहते हैं। अथवा वीणावादन में संलग्न रहते हैं। उनके शासन का सम्पूर्ण कार्यभार प्रधानमन्त्री यौगन्धरायण के ऊपर है।

(4) धीरललित नायक-नाट्यशास्त्रियों ने नायकों के मुख्य रूप से चार भेद बताये हैंधीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित एवं धीरप्रशान्त। उदयन धीरललित कोटि के नायक हैं। इस प्रकार के नायक की विशेषता यह होती है कि वह प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं करता है। और करता भी है तो अत्यल्प मात्रा में। वत्सराज उदयन की भी यही दशा है।

(5) वीर एवं साहसी-वीर एवं साहसी एक राजा के मुख्य गुण हैं। उदयन इन गुणों से सम्पन्न राजा है। युद्ध अथवा शिकार के लिए वे अधिक सेना को आवश्यक नहीं मानते। नील कुवलय हाथी को पकड़ने के लिए वे वीरता का परिचय देते हुए अकेले ही आगे बढ़ते हैं। चण्डप्रद्योत की सेना से वे साहस (UPBoardSolutions.com) के साथ लड़ते हुए घायल होकर गिर पड़ते हैं। उन्हें होश में आती देखकर उनके शत्रु उन्हें छोड़कर भाग खड़े होते हैं; यह तथ्य उनके वीर एवं साहसी होने की पुष्टि करता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वत्सराज उदयन कोमल एवं निश्चिन्त प्रकृति के, श्रृंगारी, रसिक, कला-प्रेमी, सुन्दर एवं युवा शासक हैं।

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यौगन्धरायण

परिचय-प्रस्तुत नाट्यांश में यौगन्धरायण ही प्रभावशाली पात्र के रूप में मंच पर अवतरित होता है। वह नृत्सराज उदयन का स्वामिभक्त एवं नीति-निपुण प्रधानमन्त्री है। उसके नाम पर ही नाटक का नाम ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ रखा गया है। उसका चरित्रांकन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) राजनीति-निपुणे मन्त्री–यौगन्धरायण राऊँनीति में निपुण योग्य मन्त्री है। वह प्रत्येक कार्य को योजनाबद्ध रूप से सम्पन्न करता है। उसके राजनीतिक ज्ञान से प्रभावित होकर ही उदयन ने उसे अपना प्रधान अमात्य नियुक्त किया है और वही शासन का सम्पूर्ण कार्य भी देखता है। (UPBoardSolutions.com) उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना राजमाता को न देने के लिए विजया को आदेश देना उसकी नीति-निपुणता का परिचायक है।

(2) स्वामिभक्त कुशल मन्त्री-कुशल मन्त्री के लिए राजा का विश्वासपात्र एवं स्वामिभक्त होना अनिवार्य है। यौगन्धरायण में ये दोनों गुण विद्यमान हैं। उदयन उसे अपने राज्य का समस्त कार्य देखने का उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपता है, जिसे वह पूर्ण निष्ठा के साथ सम्पन्न करता है। उसका यह गुण उसके कुशल मन्त्री होने का द्योतक है। स्वामिभक्ति तो उसके रक्त की एक-एक बूंद में समायी।हुई है। उदयन के बन्दी बनाये जाने का समाचार सुनकर वह तुरन्त अपने स्वामी को मुक्त कराने की .: प्रतिज्ञा करता है

यदि शत्रुबलग्रस्तो राहुणा चन्द्रमा इव ।
मोचयामि न राजानं नास्ति यौगन्धरायणः ॥

(3) दूरदर्शी-मन्त्रियोचित गुणों से सम्पन्न यौगन्धरायण दूरदर्शी मन्त्री है। वह चन्द्रप्रद्योत के छल की बात जानकर सालक के साथ उदयन के नागवन जाने से पूर्व मिलना चाहता है और उन्हें सम्भावित विपत्ति से अवगत कराना चाहता है। उसकी आशंका अन्ततः सही निकलती है। उदयन के बन्दी बनाये जाने की सूचना राजमाता को न देने के लिए विजया से कहना भी उसके दूरदर्शी होने का द्योतक है।

(4) कर्तव्यपरायण-जो व्यक्ति स्वयं कर्तव्यपरायण हो, वह दूसरों को भी उसी रूप में देखना चाहता है। यौगन्धरायण स्वयं कर्तव्यपरायण मन्त्री है तभी तो वह हंसक से उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना पाकर उत्तेजित स्वर में पूछता है कि “रुमण्वान् उस समय कहाँ था? उसके होते हुए यह (UPBoardSolutions.com) विपत्ति कैसे आयी?” उसे आशंका होती है कि कहीं रुमण्वान् के कर्तव्यच्युत् होने के कारण ही तो राजा (उदयन) बन्दी नहीं बनाये गये हैं। इसलिए वह उत्तेजित हो जाता है।

(5) वीर-यौगन्धरायण महान् वीर भी है। अपने स्वामी उदयन को बन्दी बनाये जाने की सूचना पाकर वह तनिक भी विचलित नहीं होता, अपितु वीरता के साथ आयी हुई विपत्ति के निवारण का उपाय सोचता है और अन्ततः अपने स्वामी को मुक्त कराने की प्रतिज्ञा करता है। यह घटना उसके वीर पुरुष होने का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। | निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यौगन्धरायण, राष्ट्रप्रेमी, प्रजावत्सल, कर्तव्यपरायण, वीर, साहसी, कुशल राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी और विशिष्ट गुणों से युक्त व्यक्ति है।

हंसक

परिचय-प्रस्तुत नाट्यांश में यौगन्धरायण के पश्चात् हंसक ही प्रमुख पात्र है। निर्मुण्डक के साथ मंच पर प्रवेश करने के पश्चात् वह अन्त तक मंच पर बना रहता है और यौगन्धरायण को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के साथ-साथ आगामी योजना में भी वह उसका सहायक बनता है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) श्रेष्ठ सन्देशवाहक-हंसक एक श्रेष्ठ सन्देशवाहक है। वह यौगन्धरायण को अपने स्वामी (उदयन) को बन्दी बनाये जाने की सूचना देता है और सम्पूर्ण वृत्तान्त को क्रमशः कह देता (UPBoardSolutions.com) है। एक-एक घटना का वर्णन वह विस्तार के साथ करता है। उसकी संवाद-प्रेषण की कुशलता को जानकर ही सम्भवत: उदयन उसे ही अपना सन्देश यौगन्धरायण तक पहुँचाने के लिए चुनते हैं। |

(2) स्वामिभक्त–यौगन्धरायण की भाँति हंसक भी स्वामिभक्त है। उदयन को बन्दी बनाये जाने से वह दु:खी है। अपने स्वामी को बन्दी बनाये जाने की पीड़ा उसके इन शब्दों में स्पष्ट रूप से झलकती। है-
‘अस्यानर्थस्योत्पादकः कश्चिन्पदातिः भत्तरमुपस्थितः।”••••••••• ततः सुवर्णशत प्रदानेन तं नृशंसं प्रतिपूज्य भक्तम्’ इत्यादि संवादों से शत्रु के प्रति उसकी ग्लानि एवं स्वामी के प्रति स्वामिभक्ति प्रकट होती है।

(3) विश्वासपात्र –सेवक का मुख्य गुण स्वामी का विश्वासपात्र होना है। हंसक अपने स्वामी का विश्वासपात्र सच्चा सेवक है तभी तो उदयन अपने बन्दी बनाये जाने का समाचार यौगन्धरायण को देने के लिए उसे नियुक्त करते हैं। यौगन्धरायण भी उससे मन्त्रणा करता है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि हंसक वाक्पटु, श्रेष्ठ सन्देशवाहक, स्वामिभक्त व सच्चा सेवक है। सेवक है। 

शालकायन

प्रस्तुत पाठ में शालंकायन भी मंच पर नहीं आता है। वह राजा चण्ड प्रद्योत का मन्त्री है। वह साहसी, बुद्धिमान्, शिष्ट और सज्जन है। वह युद्ध-स्थल में जाकर राजा उदयन को प्रणाम करता है, शान्त वचनों से उन्हें धैर्य बँधाता है और बन्धन से मुक्त कर देता है। वह अपने स्वामी के शत्रु के प्रति भी शिष्टाचार का व्यवहार करता है तथा सैनिक को उदयन का वध करने से रोककर अपने दयावान होने का परिचय भी देता है।

लघु-उत्तीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिएप्रश्न

प्रश्‍न 1
यौगन्धरायणः कः आसीत्?
उत्तर
यौगन्धरायणः वत्सराजस्य उदयनस्य अमात्यः आसीत्।

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प्रश्‍न 2
प्रतिसरा किमर्थं युज्यते?
उत्तर
प्रतिसरा रक्षार्थं युज्यते।

प्रश्‍न 3
राजा उदयनः नीलहस्तिनं वशीकर्तुं कुत्रं गतः? तत्र किं दृष्टम्?
उत्तर
राजा उदयनः नीलहस्तिनं वशीकर्तुं नागवनं गतः। तत्र सः गजबूंथम् एकं पदाति च अपश्यत्।।

प्रश्‍न 4
तेन का नदी तीर्णा?
उत्तर
तेन नर्मदा नदी तीर्णा।

प्रश्‍न 5
कतिभिः पदातिभिः सह राजा प्रयातः?
उत्तर
राजा विंशत्या पदातिभिः सह प्रयातः

प्रश्‍न 6
‘कृतकहस्ती’ इति तेन कथं ज्ञातम्?
उत्तर
यदा स हस्ती सैन्येन सह प्रकटितः तदा राज्ञा सः कृतकहस्ती इति ज्ञातः

प्रश्‍न 7
कथं मोहं गतो राजा? ।
उत्तर
अनुबद्धदिवसयुद्धपरिश्रान्तः बहुप्रहारनिपतिततुरगः स राजा मोहं गतः

प्रश्‍न 8
केन विमुक्तेः राजा?
उत्तर
प्रद्योतस्य अमात्येन शालङ्कायनेन विमुक्तः राजा उदयनः।

प्रश्‍न 9
यौगन्धरायणेन का प्रतिज्ञा कृता?
उत्तर
“यदि शत्रुबलग्रस्तं राजानं न मोचयामि, नाहमस्मि यौगन्धरायणः”, इति यौगन्ध- रायणेन प्रतिज्ञा कृता।।

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प्रश्‍न 10
राजा कुत्रानीतः?
उत्तर
राजा उज्जयिनीम् आनीतः।।

वस्तुनिष्ठ  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए-

1. ‘वत्सराजनिग्रहः’ नामक पाठ महाकवि भास के किस नाटक से संगृहीत है?
(क) प्रतिमानाटकम्
(ख) स्वप्नवासवदत्तम् ।
(ग) दूतवाक्यम् ।
(घ) प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् ।

2. ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्’ नाटक के नाटककार हैं–
(क) महाकवि भवभूति
(ख) महाकवि शुद्रक
(ग) महाकवि कालिदास
(घ) महाकवि भास

3. निम्नलिखित में से कौन-सी रचना महाकवि भास द्वारा लिखी हुई नहीं है ?
(क) स्वप्नवासवदत्तम् ।
(ख) प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् ।
(ग) उत्तररामचरितम्
(घ) प्रतिमानाटकम्

4. ‘वत्सराजनिग्रहः’ नाट्य-रचना में ‘वत्सराज’ कौन है?
(क) कौशाम्बी का राजा
(ख) कौशाम्बी का मन्त्री
(ग) उज्जयिनी का राजा
(घ) उज्जयिनी का मन्त्री

5. वत्सराज किस विद्या में निपुण थे?
(क) अश्वविद्या में
(ख) शासन-संचालन में
(ग) शस्त्रविद्या में
(घ) वीणावादन में …

6. उदयन नर्मदा नदी को पार करके कहाँ गये थे?
(क) कौशाम्बी
(ख) बालुका तीर्थ :
(ग) उज्जयिनी ।
(घ) नागवन

7. उदयन कहाँ का राजा था?
(क) उज्जयिनी का
(ख) कौशाम्बी का
(ग) काशी का
(घ) मगध का

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8. उदयन अश्व पर चढ़कर कितने सैनिकों के साथ हाथी को पकड़ने के लिए गया?
(क) बीस
(ख) तीस
(ग) चालीस
(घ) पचास

9. चण्डप्रद्योत ने उदयन के साथ किसके द्वारा छल किया?
(क) वीणा के द्वारा
(ख) पाटल घोड़े के द्वारा
(ग) नील कुवलय हाथी के द्वारा।
(घ) नीलबलाहक हाथी के द्वारा

10. यौगन्धरायण किसका मन्त्री है?
(क) चण्डप्रद्योत का
(ख) शालंकायन का
(ग) हंसक का
(घ) उदयन का

11. यौगन्धरायण में कौन है? नहीं था?
(क) राजभक्ति
(ख) प्रजामंगल और स्वामिभक्ति
(ग) मृगयाप्रेम।
(घ) कूटनीतिज्ञ

12. उदयन के बन्दी होने की सूचना यौगन्धरायण को कौन देता है?
(क) सालक
(ख) हंसक
(ग) शालंकायन
(घ) विजया

13. यौगन्धरायण ने विजया को उदयन के बन्दी होने का समाचार उनकी माता को देने से क्यों मना कर दिया?
(क) क्योंकि उदयन की ऐसी ही आज्ञा थी। |
(ख) क्योंकि राजनीतिक दृष्टि से यह उचित नहीं था।
(ग) क्योंकि उदयन की माता दुर्बल हृदय की थीं।
(घ) क्योंकि मन्त्री यौगन्धरायण राजमाता से रुष्ट थे

14. ‘नागयूथम्’ शब्द का क्या अभिप्राय है?
(क) हाथियों का झुण्ड
(ख) घोड़ों का झुण्ड |
(ग) नागों का झुण्ड
(घ) सिंहों का झुण्ड

15.’••••••••••नाम प्रद्योतस्य अमात्यः।’ में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) यौगन्धरायणो
(ख) सालको
(ग) हंसको
(घ) शालङ्कायनो

16. ‘इदानीं रुमण्वान् क्व गतः? इदानीम् अश्वारोहणीयं क्व गतम्?’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?
(क) यौगन्धरायणः
(ख) शालङ्कायनः
(ग) उदयनः
(घ) हंसक

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17.’अस्त्येष चक्रवर्ती …………….. नीलकुवलयतनुर्नाम हस्तिशिक्षायां पठितः।’ वाक्य में रिक्त स्थान में आएगा
(क) ऊष्ट्रः
(ख) अश्वः
(ग) राजा
(घ) हस्ती

18. ‘अहो नु खलु वत्सराजभीरुत्वं प्रद्योयतस्य।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(कु) सालकः :
(ख) प्रद्योतः
(ग) यौगन्धरायणः
(घ) हंसकः

19. ‘यदि शत्रुबलग्रस्तो राहुणा चन्द्रमा इव।’ वाक्यस्य वक्ताकः अस्ति?
(क) यौगन्धरायणः
(ख) उदयन:
(ग) शालङ्कायनः
(घ) चण्डप्रद्योतः

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Class 9 Sanskrit Chapter 9 UP Board Solutions आजादः चन्द्रशेखरः Question Answer

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 9
Chapter Name आजादः चन्द्रशेखरः (गद्य – भारती)
Number of Questions Solved 4
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 9 Azad Chandrashekhar Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 9 हिंदी अनुवाद आजादः चन्द्रशेखरः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

पाठ-सारांश

परिचय और जन्म–राष्ट्र के लिए अपना जीवन बलि-वेदी पर चढ़ाने वाले देशभक्तों में अग्रगण्य चन्द्रशेखर आजाद का नाम भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा। इन्हें भुला देना अत्यधिक कृतघ्नता होगी। चन्द्रशेखर तो जीवन-पर्यन्त आजाद ही रहे, निरन्तर प्रयासरस पुलिसकर्मी कभी उनके हाथों में हथकड़ी न डाल सके। | चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के ‘भाँवरा’ नामक (UPBoardSolutions.com) ग्राम में 23 जुलाई, सन् 1906 ईसवीं में हुआ था। इनकी माता का नाम जगरानी और पिता का नाम सीताराम था। इनके पिता उन्नाव जनपद के बदरका ग्राम से जाकर अलीराजपुर राज्य में 8 रुपये मासिक की नौकरी करते थे और वहीं रहने लगे थे।

घर से निष्कासन और अध्ययन-एक दिन चन्द्रशेखर ने राजा के उद्यान का एक फल तोड़ लिया था। क्रोधित हुए पिता ने ग्यारह वर्ष के उस बालक को घर से निकाल दिया; क्योंकि पिता के कहने पर भी चन्द्रशेखर ने माली से क्षमा न माँगी। घर से निकलकर दो वर्ष तक नगर-नगर घूमकर उन्होंने कठिन परिश्रम करके किसी प्रकार अपनी जीविका चलायी। दैवयोग से वाराणसी आये और वहाँ एक संस्कृत पाठशाला में संस्कृत का अध्ययन करने लगे।

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युवती की रक्षा-एक दिन किसी दुष्ट युवक को एक भद्र युवती को परेशान करते हुए चन्द्रशेखर ने देख लिया। चन्द्रशेखर उसे पृथ्वी पर गिराकर और उसकी छाती पर चढ़कर उसे तब तक पीटते रहे, जब तक कि उस बेशर्म युवक ने उस युवती से क्षमा नहीं माँगी। इस घटना से प्रभावित होकर आचार्य नरेन्द्रदेव ने उनके अध्ययन की व्यवस्था काशी विद्यापीठ में करा दी।

असहयोग आन्दोलन में भाग–विद्यापीठ के अनेक छात्रों को असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित होते देखकर आजाद भी तिरंगा झण्डा लेकर भारतमाता की जय’ और ‘गाँधी जी की जय बोलते हुए आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। सैनिकों द्वारा उन्हें न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित करने पर उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम ‘स्वाधीन’ और घर जेल’ बताया। इस पर क्रुद्ध होकर न्यायाधीश ने उनको 15 कोडे मारे (UPBoardSolutions.com) जाने की सजा दी। कोडों से पीटे जाने पर भी ‘भारतमाता की जय करते हुए उन्होंने ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। जेल से छूटने पर नागरिकों ने उनका स्नेहसिक्त अभिनन्दन किया। जब गाँधी जी ने हिंसा के कारण अपना आन्दोलन वापस ले लिया, तब आजाद बहुत दु:खी हुए। “

क्रान्तिकारी दल के सदस्य–दैवयोग से आजाद प्रणवेश चटर्जी, मन्मथनाथ गुप्त आदि . क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आये। उनकी सत्यनिष्ठा को देखकर मन्मथनाथ गुप्त ने उन्हें क्रान्तिकारी दल का सदस्य बना लिया। थोड़े ही समय में वे क्रान्तिकारियों की केन्द्रीय परिषद् के सदस्य हो गये। उन्होंने गोली चलाने और निशाना लगाने में कौशल प्राप्त कर लिया। उन्होंने सन् 1925 ई० में काकोरी काण्ड में सक्रिय भाग लिया। इस अवसर पर आजाद को छोड़कर उनके अन्य सहयोगी पकड़े गये और हथकड़ी लगाकर शूली पर चढ़ा दिये गये। उस समय चन्द्रशेखर को बहुत दु:ख हुआ किन्तु वे क्रान्ति : से विरत नहीं हुए और उन्होंने क्रान्तिकारी दल का नेतृत्व सँभाला।।

आजाद ने अनेक अंग्रेज अधिकारियों और सैनिकों को मारा। लाला लाजपत राय के हत्यारे ‘साण्डर्स को भी आजाद ने मौत के घाट उतार दिया।

विधानसभा-भवन में बम-विस्फोट–सन् 1929 ई० में 8 अप्रैल को आजाद की सलाह से सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा भवन में बम विस्फोट कर दिया। चन्द्रशेख़र विधानसभा भवन के बाहर ही उपस्थित थे। उसमें भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने आत्मसमर्पण कर (UPBoardSolutions.com) दिया और उन्हें शूली पर चढ़ा दिया गया। आजाद के अनेक साथी भगवतीचरण, सालिगराम आदि भी मारे गये। आजाद बहुत दु:खी हुए। यशपाल और वीरभद्र के विश्वासघात से आजाद को गहरा दु:ख पहुंचा था।

अमर बलिदान–सन् 1931 ई० में फरवरी की 27 तारीख को आजाद प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में यशपाल और सुखदेव के साथ बैठे हुए बातचीत कर रहे थे। उसी समय वीरभद्र दिखाई पड़ा और यशपाल उठकर चल दिया। आजाद सुखदेव के साथ बातचीत कर ही रहे थे कि सैनिकों ने वहाँ आकर आजाद को घेर लिया।

आजाद ने अपने सहयोगी सुखदेव को किसी तरह पार्क से बाहर निकाला और पिस्तौल भरकर । खड़े हो गये। विपक्षियों ने आजाद पर गोलियाँ बरसायीं। आजाद ने भी निरन्तर गोलियाँ बरसाकर

अनेक को मूर्च्छित और घायल कर दिया। अन्त में जब उनकी पिस्तौल में एक गोली रह गयी, तब उन्होंने स्वयं को ही मार लिया। इस प्रकार चन्द्रशेखर अमर शहीद हो गये।

ऐसे क्रान्तिकारी देशभक्त सदा उत्पन्न नहीं होते। उनका जन्म कभी-कभी ही होता है। ऐसे अमर युवक युगान्तर उपस्थित करने के लिए जन्म लेते हैं। भारतभूमि धन्य है, जहाँ ऐसे शूरवीर उत्पन्न होते हैं, जो अपने जन्म से भारतभूमि को पवित्र करते हैं और खून से सींचते हैं।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1) राष्ट्रहितेऽनुरक्तानामात्मबलिं कर्तुं सहर्षमुद्यतानाम् अग्रगण्यः चन्द्रशेखरः भारतस्य स्वातन्त्र्येतिहासेऽसौ सततमुल्लेखनीयः स्मरणीयश्च। स्वतन्त्रतायाः मधुरं फलं भुञ्जानाः वयमधुना प्रकामं मोदामहे। तद् वृक्षारोपकास्तु त एवात्मबलिदायकास्तादृशाः वीराः एवासन्। प्रातः स्मरणीयास्ते वीराः कदापि भारतीयैरस्माभिः नैव विस्मर्तुं शक्यन्ते। तेषां विस्मृतिस्तु महती कृतघ्नता स्यात्। तेष्वेव वीरेषु मूर्धन्यः परमस्वतन्त्रश्चन्द्रशेखरः आजीवनं स्वतन्त्र एवासीत्। सततं प्रयतमानैरपि आरक्षकैः तत्करे लौहशृङ्खला न पिनद्धा। मातृभूमिपरिचारकः राणाप्रताप इव असावपि आत्मबलिदायको वीरः रक्तस्नातोऽपि स्वतन्त्र एव परिभ्रमन् प्राणानत्यजत्। (UPBoardSolutions.com) जीवितः स तैः कथमपिन गृहीतः। देशभक्तानामादर्शभूतस्य चन्द्रशेखरस्य जन्म षडधिकैकोनविंशतिशततमे . (1906) ख्रीष्टाब्दे जुलाईमासस्य त्रयोविंशतितयां तारिकायां मध्यप्रदेशस्य भाँवरा ग्रामेऽभवत्। तस्य जनकः श्री सीतारामः स्वीययो धर्मपत्न्या जगरानी नामधेयया सह उन्नावजनपदस्य बदरकाग्रामात् गत्वा तत्रैव व्यवसत्। सः तत्र ‘अलीराजपुरराज्ये’ वृत्त्यर्थं कार्यमकार्षीत्। अष्टमुद्रात्मकं मासिकं वेतनञ्चालभत्।

शब्दार्थ
आत्मबलिं कर्तुम् = अपना बलिदान करने के लिए।
उद्यतानाम् = उद्यत रहने वालों में।
सततमुल्लेखनीयः स्मरणीयश्च = सदैव उल्लेख करने और स्मरण रखने योग्य।
भुञ्जानाः = भोगते हुए।
प्रकामम् मोदामहे = अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।
तवृक्षारोपकास्तु = उस वृक्ष को लगाने वाले तो।
नैव = नहीं ही। विस्मर्तुं शक्यन्ते = भुलाये जा सकते हैं।
कृतघ्नता = उपकार न मानना।
मूर्धन्यः = सर्वश्रेष्ठ।
पिनद्धा = पहनायी।
असावपि (असौ + अपि) = यह भी।
परिभ्रमन् = घूमते हुए।
स्वीययाय धर्मपत्न्या = अपनी धर्मपत्नी के साथ।
वृत्त्यर्थम् = जीविका के लिए।
अकार्षीत् = करता था।

सन्दर्भ
प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत गद्य-भारती’ में संकलित ‘आजादः चन्द्रशेखरः’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।

संकेत
इस पाठ के शेष गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में राष्ट्रहित के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले चन्द्रशेखर आजाद के जन्म तथा पारिवारिक स्थिति के विषय में बताया गया है।

अनुवाद
राष्ट्रहित में लगे हुए स्वयं को बलिदान करने के लिए सहर्ष तैयार लोगों में सबसे पहले गिने जाने वाले चन्द्रशेखर भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में मिरन्तर उल्लेख करने योग्य और स्मरणीय हैं। स्वतन्त्रता के जिस मधुर फल को खाते हुए हम आज अत्यन्त प्रसन्न हो रहे हैं, उस वृक्ष को लगाने वाले वे ही अपना बलिदान करने वाले उस प्रकार के वीर ही थे। प्रातः समय स्मरण करने योग्य ये वीर हम भारतीयों के द्वारा कभी भी भुलाये नहीं जा सकते। उनको भूल जाना तो बड़ी कृतघ्नता होगी। उन्हीं वीरों में सर्वश्रेष्ठ अत्यधिक स्वतन्त्र चन्द्रशेखर (UPBoardSolutions.com) जीवनभर स्वतन्त्र ही रहे। निरन्तर प्रयत्न करते हुए भी सिपाहियों ने उनके हाथों में लोहे की जंजीर (हथकड़ी) नहीं पहनायी। मातृभूमि की सेवा करने वाले राणाप्रताप की तरह अपनी बलि देने वाले इसी वीर ने रक्त में स्नान करते हुए भी स्वतन्त्र घूमते हुए ही प्राणों को त्याग दिया।

उनके द्वारा वह जीवित कभी नहीं पकड़े गये। देशभक्तों में आदर्शस्वरूप चन्द्रशेखर का जन्म सन् 1906 ईसवी में जुलाई महीने की 23 तारीख को मध्य प्रदेश के ‘‘भाँवरा’ नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री सीताराम अपनी जगरानी नाम की धर्मपत्नी के साथ उन्नाव जिले के बदरका ग्राम से जाकर वहीं रहते थे। वे वहाँ अल्लीराजपुर के राज्य में जीविका के लिए कार्य करते थे और आठ रुपये मासिक वेतन पाते थे।

(2) एकदा चन्द्रशेखरः तस्यैवोद्यानस्य फलमेकं पितरमपृष्ट्वैव अत्रोटयत्। क्रोधाविष्टस्तज्जनकः सीतारामः प्रियं सुतमेकादशवर्षदेशीयं चन्द्रशेखरं गृहान्निस्सारयामास। क्रोधाविष्टः जनकः अवोचत् , गत्वा मालाकारं क्षमा याचस्व, परं स एवं कर्तुं नोद्यतः। गृहान्निर्गत्य वर्षद्वयमितस्ततः सः प्रतिनगरं भ्रामं-भ्रामं घोरं श्रमं कृत्वा जीविकां निरवहत्। दैववशात् सः बालकः वाराणसीमुपगम्य कस्याञ्चित् संस्कृतपाठशालायां संस्कृताध्ययनमकरोत्।।

शब्दार्थ-
एकदा = एक बार
तस्यैवोद्यानस्य = उसी बगीचे का।
पितरम् अपृष्ट्वैव = पिता से पूछे बिना ही।
निस्सारयामास = निकाल दिया।
क्रोधाविष्टः = क्रोध में भरे हुए।
मालाकारं = माली से।
नोद्यतः (न + उद्यतः) = तैयार नहीं हुआ।
इतस्ततः = इधर-उधर।
निरवहत् = निर्वाह किया।
दैववशात् = भाग्य से।
उपगम्य = जाकर।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में पिता द्वारा चन्द्रशेखर को घर से निकालने और उनके वाराणसी जाकर अध्ययन करने का वर्णन है। |

अनुवाद
एक बार चन्द्रशेखर ने उसी (अल्लीराजपुर) के उद्यान का एक फल पिता से बिना पूछे ही तॉड़ लिया। क्रोध से युक्त उनके पिता सीताराम ने प्रिय पुत्र ग्यारह वर्षीय चन्द्रशेखर को घर से निकाल दिया। क्रुद्ध पिताजी बोले–‘जाकर माली से क्षमा माँगो’, परन्तु वह ऐसा करने को तैयार नहीं हुआ। घर से निकलकर दो वर्ष तक उसने इधर-उधर प्रत्येक नगर में घूम-घूमकर कठोर परिश्रम करके जीविका चलायी। दैवयोग से वह बालक वाराणसी पहुँचा और किसी संस्कृत की पाठशाला में संस्कृत का अध्ययन करने लगा।

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(3) एकदा कोऽपि दुष्टो युवा कामप्येकां भद्रयुवतीं पीडयन् चन्द्रशेखरेण बलात् गृहीतः। तं धराशायिनं कृत्वा तस्योरसि उपविष्टश्च, चन्द्रशेखरः तं तावन्नमुमोच यावत् स चञ्चलो दुष्टः धृष्टः निर्लज्जो युवा तां युवतिं भगिनिकेति नाकथयत् क्षमायाचनाञ्च नाकरोत्। अनया घटनया चन्द्रशेखरस्य महती ख्यातिः जाता। आचार्यनरेन्द्रदेवस्तेन प्रभावितः काशीविद्यापीठे तस्याध्ययनव्यवस्थां कृतवान्। यदा (UPBoardSolutions.com) विद्यापीठस्यानेके छात्राः असहयोगान्दोलने सम्मिलिताः जाताः तदाजादोऽपि तत्र सम्मिलितः त्रिवर्णध्वजमादाय ‘जयतु महात्मा गाँधी’, ‘जयतु भारतमाता’ इति घोषयन् न्यायाधीशस्य सम्मुखमानीतः।

तदा स स्वकीयं नाम ‘आजाद’ इति पितुर्नाम ‘स्वाधीन’ इति गृहञ्च कारागारमवोचत् , तदा क्रुद्धो न्यायाधीशः तस्मै पञ्चदशकशाघातदण्डमददात्। तदपि सः ‘जयजय’ कारं कृत्वा मनसि ब्रिटिशसाम्राज्यमुन्मूलयितुं सङ्कल्पमकरोत्। कशाघातेन पीड्यमानोऽपि सः निश्चल एवासीत्। ततः बहिरागत्य सः जनैरभिनन्दितः। द्वाविंशत्यधिकैकोनविंशतिशततमे (1922) वर्षे यदा महात्मना गान्धिमहोदयेनान्दोलनम् निवारितं तदाजादो दुःखितो जातः यतोऽहिसंकान्दोलने तस्य निष्ठा नासीत्।।

शब्दार्थ-
भद्रयुवतीम् = शिष्ट युवती को।
बलात् = बलपूर्वक।
धराशायिनं कृत्वा = पृथ्वी ।
पर गिराकर।
उरसि = छाती पर।
भगिनिकेति = बहन ऐसा।
ख्यातिः जाता = प्रसिद्धि हुई।
त्रिवर्णाध्वजम् आदाय = तिरंगे झण्डे को लेकर।
आनीतः = लाये गये।
घोषयन्= घोषणा करते हुए।
अवोचत् = कहा।
कशाघातदण्डम् = कोड़े मारने का दण्ड।
उन्मूलयितुम् = जड़ से उखाड़ के लिए।
कशाघातेन = कोड़ों की चोट से।
निवारितम् = रोक दिया।
निष्ठा = श्रद्धा, विश्वास।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रशेखर के द्वारा दुष्ट के हाथों से एक युवती को बचाने एवं महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित होने का वर्णन है।

अनुवाद
एक दिन किसी एक शिष्ट युवती को सताते हुए किसी दुष्ट युवक को चन्द्रशेखर ने बलपूर्वक पकड़ लिया और उसे भूमि पर गिराकर उसकी छाती पर बैठ गया। चन्द्रशेखर ने उसे तब तक नहीं छोड़ा, जब तक उस चंचल, दुष्ट, धृष्ट, बेशर्म युवक ने उस युवती को ‘बहन’ नहीं कहा और क्षमा नहीं माँगी। इस घटना से चन्द्रशेखर की बड़ी प्रसिद्धि हो गयी। आचार्य नरेन्द्रदेव ने उससे प्रभावित होकर काशी विद्यापीठ में उसके अध्ययन की व्यवस्था करा दी। जब काशी विद्यापीठ के अनेक छात्र असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हुए, तब आजाद भी उसमें सम्मिलित हुए और तिरंगा झण्डा लेकर ‘महात्मा गाँधी की जय’, ‘भारतमाता की जय’ बोलते हुए न्यायाधीश (जज) (UPBoardSolutions.com) के सामने लाये गये। तब उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वाधीन’ और घर ‘कारागार’ बताया। तब क्रुद्ध जज ने उनको 15 कोड़े मारने का दण्ड दिया। तब भी उन्होंने जय्-जयकार करके मन में ब्रिटिश शासन को जड़ से उखाड़ने का संकल्प किया। कोड़ों से पीटे जाते हुए भी वे निश्चल ही रहे। इसके बाद बाहर आने पर उनका लोगों ने अभिनन्दन किया। सन् 1922 ई० में जब महात्मा गाँधी ने आन्दोलन रोक दिया, तब आजाद दुःखी हुए; क्योंकि अहिंसक आन्दोलन में उनको विश्वास नहीं था।

(4) दैवात् आजादस्य परिचयः क्रान्तिकारिणा प्रणवेशचटर्जीमहोदयेन सह सञ्जातः। अनेन प्रसिद्धक्रान्तिकारिणी मन्मथनाथगुप्तेन साकं तस्य परिचयः कारितः। आजादस्य सत्यनिष्ठामवलोक्य मन्मथनाथगुप्तः क्रान्तिकारिदलस्य सदस्यं तमकरोत्। तदानीं क्रान्तिकारिदलस्य नेता अमरबलिदायी रामप्रसादबिस्मिलः आसीत्। अल्पीयसैव समयेन आजादः केन्द्रियक्रान्तिकारिदलस्य सदस्यो जातः। गुलिकाचालने लक्ष्यभेदने च तेन महत् कौशलमवाप्तम्। अतः सः तस्मिन् दले अतीव समादृतः आसीत्। (UPBoardSolutions.com) पञ्चविंशत्यधिकैकोनविंशतिशततमे (1925) वर्षे अगस्तमासस्य नवम्यां तारिकायां जायमाने काकोरीकाण्डे आजादेन सक्रियभागो गृहीतः। तस्मिन्नवसरे आजादं विहाय अन्ये बहवः सहयोगिनः निगडिताः शूलमारोपिताश्च। तदानीं परमदुःखितोऽपि आजादः क्रान्तेर्विरतो न जातः, प्रत्युत क्रान्तिकारिसेनायाः नायको जातः।।

तेनानेकानि कार्याणि कृतानि अनेकेऽधिकारिणः आरक्षिणश्च हताः। लालालाजपतरायस्य हन्ता प्रधानरक्षी ‘साण्डर्स’ नामधेयोऽपि आजादेन निहतः।।

शब्दार्थ-
सञ्जातः = हुआ।
साकम् = साथ।
कारितः = कराया।
अल्पीयसैव (अल्पीयसा + एव) = थोड़ी ही।
अल्पीयसैव समयेन = थोड़े से ही समय में।
गुलिकाचालने = गोली चलाने में।
लक्ष्यभेदने = निशाना लगाने में।
अवाप्तम् = प्राप्त कर लिया।
जायमाने = होने वाले।
निगडिताः = गिरफ्तार कर लिये गये, बेड़ी पहना दिये गये।
शूलमारोपिताः = शूली पर चढ़ा दिये गये।
विरतः = उदासीन।
आरक्षिणः = सिपाही।
हन्ता = मारने वाला।
निहतः = मारा।।

प्रसंग”
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रशेखर की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों तथा क्रान्तिकारी दल के नेतृत्व को सँभालने का वर्णन है।

अनुवाद
भाग्य से आजाद का परिचय क्रान्तिकारी प्रणवेश चटर्जी महोदय के साथ हुआ। इस प्रसिद्ध क्रान्तिकारी ने मन्मथनाथ गुप्त के साथ उसका परिचय कराया। आजाद की सत्यनिष्ठा को देखकर मन्मथनाथ गुप्त ने उसे क्रान्तिकारी दल को सदस्य बना लिया। उस समय क्रान्तिकारी दल के नेता अमर बलि देने वाले ‘रामप्रसाद बिस्मिल’ थे। थोड़े ही समय में आजाद केन्द्रीय क्रान्तिकारी दल के सदस्य हो गये। गोली चलाने और निशाना लगाने में उन्होंने महान् कौशल प्राप्त कर लिया; अतः वह उस दल में अत्यन्त आदरणीय (UPBoardSolutions.com) हो गये थे। सन् 1925 ई० में अगस्त महीने की नौ तारीख को होने वाले काकोरी काण्ड में आजाद ने सक्रिय भाग लिया। उस अवसर पर आजाद को छोड़कर दूसरे बहुत-से सहयोगी पकड़े गये (अर्थात् हथकड़ियाँ पहना दीं) और शूली पर चढ़ा दिये गये। इस समय अत्यन्त दु:खी होते हुए भी आजाद क्रान्ति से उदासीन नहीं हुए, अपितु क्रान्तिकारियों की सेना के नायक हो गये।

उन्होंने अनेक कार्य किये, अनेक अधिकारियों और सैनिकों को मारा। लाला लाजपत राय के … हत्यारे सेना के प्रधान ‘साण्डर्स’ को भी आजाद ने मार दिया।

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(5) एकोनत्रिंशदधिकैकोनविंशतिशततमे (1929) वर्षे अप्रैलमासस्य अष्टम्यां तारिकायाम् आजादस्य परामर्शेनैव सरदारभगतसिंहः बटुकेश्वरदत्तश्च विधानसभाभवने बमविस्फोटमकुरुताम्। तस्मिन् समये चन्द्रशेखरोऽपि विधानसभाभवनाद् बहिः मोटरयानमादायोपस्थितः आसीत्। परं भगतसिंहः बटुकेश्वरदत्तश्च विधानसभाभवने एव आत्मसमर्पणं कृतवन्तौ। पश्चात् तौ द्वावपि शूलमारोपितौ। (UPBoardSolutions.com) एवम् आजादस्य अनेके सहयोगिनः भगवतीचरणसालिकरामप्रभृतयो मृताः। अतः आजादश्चन्द्रशेखरो नितरां खिन्नो जातः, केन्द्रियक्रान्तिकारिदलस्य सदस्ययोः यशपालवीरभद्रयोः सन्दिग्धाचरणेन तु आजादो विक्षुब्धोऽभवत्। यदी दलस्य सदस्याः एव विश्वासघातिनो जाताः तदा तस्य दुःखानुभूतिः स्वाभाविकी एव आसीत्। तदपि सः स्वमार्गात् विचलितो न जातः। कर्णपुरस्य वीरभद्रत्रिपाठिनः विश्वासघात एवं आजादस्य कृतेऽनिष्टकारको जातः।

शब्दार्थ
परामर्शेनैव = परामर्श से ही।
अकुरुताम् = किया।
मोटरयानमादायोपस्थितः = मोटर वाहन लेकर उपस्थित।
कृतवन्तौ = कर दिया। द्वावपि (द्वौ + अपि) = दोनों ही।
मृताः = मारे गये।
सन्दिग्धाचरणेन = सन्देह भरे आचरण से।
विक्षुब्धः = व्याकुल, असन्तुष्ट।
विश्वासघातिनः = विश्वासघात करने वाले।
कर्णपुरस्य = कानपुर के।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में क्रान्तिकारी गतिविधियों में चन्द्रशेखर के अनेक सहयोगियों के मारे जाने एवं दल के कुछ लोगों द्वारा विश्वासघात किये जाने का वर्णन है।

अनुवाद
सन् 1929 ई० में अप्रैल महीने की आठ तारीख को आजाद के परामर्श से ही सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त ने विधानसभा भवन में बम विस्फोट किया। उस समय चन्द्रशेखर भी विधानसभा भवन के बाहर मोटरगाड़ी लेकर उपस्थित थे, परन्तु भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानस भवन में ही आत्मसमर्पण कर दिया। बाद में उन दोनों को शूली पर चढ़ा दिया गया। इसे प्रकार आजाद के अनेक साथी (UPBoardSolutions.com) भगवतीचरण, सालिगराम आदि मारे गये। इसलिए चन्द्रशेखर आजाद अत्यन्त दु:खी हुए। केन्द्रीय क्रान्तिकारी दल के दो सदस्यों यशपाल और वीरभद्र के सन्देहपूर्ण आचरण से आजाद नाराज हुए। जब दल के सदस्य ही विश्वासघाती हो गये, तब उनको दु:ख का अनुभव होना स्वाभाविक ही था। तब भी वह अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। कानपुर के वीरभद्र त्रिपाठी को विश्वासघात ही आजाद के लिए अनिष्टकारी हुआ।

(6) एकत्रिंशदधिकैकोनविंशतिशततमे (1931) वर्षे फरवरीमासस्य सप्तविंशतितमायां तारिकायां प्रातः नववादने प्रयागस्य अल्फ्रेड नाम्नि उद्याने एकस्य वृक्षस्याधश्छायायाम् आजादः यशपालेन सुखदेवेन च समं वार्तालापं कुर्वन् उपविष्टः आसीत्। तस्मिन्नेव समये गच्छन् वीरभद्रत्रिपाठी दृष्टः, यशपालोऽपि उत्थाय चलितः, आजादः सुखदेवराजेन सह वार्तालाप कुर्वन्नेवासीत्। तदा आरक्षिणः आगत्य परितोऽवरुद्धवन्तस्तम्। ।

शब्दार्थ-
नववादने = नौ बजे।
वृक्षस्याधश्छायायाम् = वृक्ष के नीचे छाया में।
समम् = साथ।
उपविष्टः आसीत् = बैठे हुए थे।
उत्थाय = उठकर।
परितः = चारों ओर।
अवरुद्धवन्तः = घेर लिया।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रशेखर के सिपाहियों द्वारा घेरे जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद
सन् 1931 ईसवी में फरवरी महीने की 27 तारीख को प्रातः नौ बजे प्रयाग के अल्फ्रेड नामक बगीचे में एक वृक्ष के नीचे छाया में आजाद यशपाल और सुखदेव के साथ बातचीत करते हुए बैठे थे। उसी समय जाता हुआ वीरभद्र त्रिपाठी दिखाई पड़ा। यशपाल भी उठकर चल दिया। आजाद सुखदेव के साथ बातचीत कर ही रहे थे, तब ही सैनिकों ने आकर चारों ओर से उसे घेर लिया।

(7) स्वकीयं सहयोगिनं कथञ्चित्ततः उद्यानात् निःसार्य. आजादः पेस्तौलअस्त्रं संसाधितवान्। तगा विपक्षतः गुलिकावृष्टिः जाता। विपक्षतः आरक्षिणां गुलिकावृष्टिं दर्श-दर्शम् आजादस्य मनः आकुलं नाभूत्। आजादोऽपि स्वकीयेनास्त्रेणानेकान् विमुग्धान् आहतांश्चाकरोत्। यदास्त्रे एका गुलिकावशिष्टा आसीत् तदा तया स्वमेवाहन्। एवमाजादश्चन्द्रशेखरो यशः शरीरेणामरतामभजत्। |

शब्दार्थ-
स्वकीयम् = अपने।
कथञ्चिद् = किसी प्रकार।
निःसार्य = निकालकरे।
संसाधित- वान् = तैयार किया।
विपक्षतः = शत्रु की ओर से।
गुलिकावृष्टिः = गोलियों की वर्षा।
आरक्षिणां = पुलिस वालों की।
आकुलं नाभूत् = व्याकुल नहीं हुआ।
विमुग्धान् = मूर्च्छित।
स्वमेवाहन (स्वम् + एव + अहन्) = अपने को ही मार दिया।
अभजत् = प्राप्त हुआ। |

प्रसंग

प्रस्तुत गद्यांश में आजाद का अपनी ही गोली से शहीद हो जाने का वर्णन है।

अनुवाद
अपने साथी (सुखदेव) को किसी तरह पार्क से निकालकर आजाद ने पिस्तौल सँभाली। तब विपक्ष की ओर से गोलियों की वर्षा हुई। विपक्ष की ओर से सैनिकों की गोलियों की वर्षा को देख-देखकर आजाद का मन व्याकुल नहीं हुआ। आजाद ने भी अपने अस्त्र से अनेक को मूर्च्छित और घायल कर दिया। जब पिस्तौल में एक गोली बची थी, तब उसने उसने स्वयं को मार लिया। इस प्रकार आजाद चन्द्रशेखर यशरूपी शरीर से अमर हो गये।।

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(8) एवं विधाः अमरबलिदानिनो देशाभिमानिनो देशसंरक्षकाः क्रान्तिकारिणो नवयुवानः प्रतिदिनं नोत्पद्यन्ते। तेषा जन्म युगे कदाचिदेव जायते। यतश्च एतादृशाः अमरयुवानः युगान्तरमुपस्थापयितुमेवोत्पद्यन्ते। एतेषामावश्यकतापि क्वाचित्की कदाचित्की एव भवति। एवंविधाः आजादस्य चन्द्रशेखरस्य द्रष्टारः साक्षात्कर्तारः अद्यापि जीवन्ति ये आत्मानं पावनं मन्यन्ते। भारतभूरपि धन्यैव यत्र एतादृशा आत्मबलिदायिनो शूराः स्वीयेन जन्मना भूमिं पावनां कृतवन्तः, शोणितेन सिञ्चितवन्तश्च।।

स्वातन्त्र्यमाप्तुकामोऽयं क्रान्तिकारी दृढव्रतः।
जातोऽमरो बलेर्दानादाजादश्चन्द्रशेखरः॥

शब्दार्थ
नोत्पद्यन्ते = उत्पन्न नहीं होते।
कदाचिदेव = कभी ही।
उपस्थापयितुं = उपस्थित करने के लिए।
क्वाचित्की = कहीं।
कादाचित्की = आकस्मिक।
द्रष्टारः = देखने वाले।
अद्यापि = आज भी।
पावनं मन्यते = पवित्र मानते हैं।
शोणितेन = रक्त से।
बलेर्दानाद् = बलिदान करने से।

प्रसंग
प्रस्तुत गद्यांश में चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान का स्मरण किया गया है।

अनुवाद
इस प्रकार के अमर बलिदानी, देश पर अभिमान करने वाले, देश की रक्षा करने वाले क्रान्तिकारी नवयुवक प्रतिदिन उत्पन्न नहीं होते हैं; अर्थात् जन्म नहीं लेते हैं। उनका ज़न्म युग में कभी ही होता है; क्योंकि इस प्रकार के अमर युवक युग-परिवर्तन उपस्थित करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं। इनकी आवश्यकता भी कहीं-कहीं, कभी-कभी ही होती है। चन्द्रशेखर आजाद के देखने वाले और साक्षात्कार करने वाले इस प्रकार के लोग आज भी जीवित हैं, जो अपने आप को पवित्र मानते हैं। भारतभूमि भी धन्य है, जहाँ इस प्रकार के आत्मबलि को देने वाले शूरवीर अपने जन्म से भूमि को पवित्र करते हैं और खून से सींचते हैं।

स्वतन्त्रता-प्राप्ति का इच्छुक वह चन्द्रशेखर नाम का युवक अत्यन्त क्रान्तिकारी और दृढ़-प्रतिज्ञ था। वह आत्म-बलिदान देकर अमर हो गया।

लघु उत्तरीय प्ररन

प्ररन 1
चन्द्रशेखर आजाद का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर
[संकेत-‘पाठ-सारांश’ मुख्य शीषक के अन्तर्गत दी गयी सामग्री को संक्षेप में अपने शब्दों में लिखें।] ।

प्ररन 2
चन्द्रशेखर के घर से निकलने की घटना का वर्णन कीजिए।
उत्तर
जब चन्द्रशेखर केवल ग्यारह वर्ष के थे, तब उन्होंने अल्लीराजपुर राज्य के बगीचे से एक फल बिना अपने पिताजी से पूछे तोड़ लिया। इस पर उनके पिता जी बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने चन्द्रशेखर से उद्यान के माली से माफी माँगने के लिए कहा। लेकिन चन्द्रशेखर ने माली से क्षमा न माँगी। इस पर उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया।

प्ररन 3
चन्द्रशेखर आजाद किस प्रकार क्रान्तिकारियों में सम्मिलित होकर क्रान्तिकारी सेना के नायक बने?
उत्तर
असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के बाद आजाद का परिचय भाग्य से प्रणवेश चटर्जी नामक क्रान्तिकारी के साथ हो गया। प्रणवेश चटर्जी ने इनका परिचय मन्मथनाथ गुप्त से करवाया। इनकी सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर मन्मथनाथ गुप्त ने इन्हें क्रान्तिकारी दल का सदस्य बना लिया। गोली चलाने और निशाना लगाने में इन्होंने शीघ्र ही कुशलता प्राप्त कर ली। ‘काकोरी काण्ड में इन्होंने सक्रिय भाग लिया। इस काण्ड के पश्चात् जब प्रमुख सदस्य पकड़ लिये गये, तब ये क्रान्तिकारी सेना के नायक बना दिये गये।

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प्ररन 4
अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
सत्ताइस फरवरी उन्नीस सौ इकतीस को प्रातः नौ बजे आजाद, अल्फ्रेड पार्क में एक वृक्ष की छाया में बैठे हुए यशपाल और सुखदेव से बात कर रहे थे। इसी समय उनका विश्वासघाती साथी वीरभद्र त्रिपाठी दिखाई दिया, जिसे देखकर यशपाल उठकर चला गया। इसी समय पुलिस ने आकर पार्क (UPBoardSolutions.com) को चारों ओर से घेर लिया। आजाद ने किसी प्रकार सुखदेव को पार्क के बाहर निकाल और पिस्तौल सँभाल लिया। पुलिस की ओर से गोलियों की बौछार होने लगी। आजाद ने भी अपनी गोलियों से बहुतों को घायल किया। जब उनके पास केवल एक ही गोली शेष रह गयी तो उन्होंने उससे स्वयं को मार लिया और शहीद हो गये।

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