Class 9 Sanskrit Chapter 10 UP Board Solutions त्याग एवं परो धर्मः Question Answer

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Textbook NCERT
Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 10
Chapter Name त्याग एवं परो धर्मः (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 27
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 10 Tyag Evam Paro Dharmah Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 10 हिंदी अनुवाद त्याग एवं परो धर्मः के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय-हमारे देश की रत्नगर्भा वसुन्धरा में स्थित राजस्थान की धरती सदा से ही वीर-प्रसविणी रही है। विदेशी आक्रमणों के झंझावात को मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश ने जिस अदम्य साहस एवं वीरता से झेला है उसकी मिसाल विश्व-इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलती। महाराणा प्रताप इसी राजवंश रूपी गनन के प्रचण्ड मार्तण्ड हैं, जिनकी प्रखर किरणों के समक्ष मुगल सम्राट् अकबर का कान्ति-मण्डल भी निस्तेज प्रतीत होता है। मातृभूमि की रक्षा हेतु राणा प्रताप को अकबर के साथ अनेक युद्ध करने पड़ते हैं, जिसमें उनका सारा राज्य छिन जाता है और उनको पर्वत-कन्दराओं और निर्जन वनों में रहकर कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ता है। अकस्मात् घटित एक घटना (UPBoardSolutions.com) से राणा प्रताप विचलित तो होते हैं, परन्तु उनका स्वाभिमान उन्हें अकबर से सन्धि करने से रोकता है। अकबर से निरन्तर युद्ध करते रहने के कारण महाराणा प्रताप सेना और कोष के अभाव से चिन्ताकुल रहते हैं। तब ही उनका वंशानुगत मन्त्री भामाशाह उन्हें अपने जीवन की अर्जित समस्त सम्पत्ति समर्पित क़र देता है। प्रस्तुत पाठ में भामाशाह और प्रताप के त्यागमय जीवन-वृत्तान्त का वर्णन है।

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पाठ सारांश  

प्रताप की विपन्न दशा- अरावली पर्वत के ऊपर की भूमि पर विपन्नावस्था में बैठे हुए महाराणा प्रताप मन्त्रियों के साथ भावी योजना पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। उसी समय उन्हें अपने पुत्र के रोने का करुण स्वर सुनाई देता है। महाराणा प्रताप उसका आलिंगन करके उसे चुप कराते हुए उससे रोने का कारण पूछते हैं। बालक अपने रोने का कारण अपना भूखा होना बताता है। उसी समय राजमहिषी घास की (UPBoardSolutions.com) रोटी का एक टुकड़ा लेकर आती है। बालक रोटी का टुकड़ा लेकर दूर चला जाता है। उसी समय उसकी रोटी का टुकड़ा एक वन-बिलाव लेकर भाग जाता है और बालक फिर रोने लगता है। प्रताप के पूछने पर राजमहिषी बताती है कि और रोटी नहीं है तथा बालक को चुप कराने के लिए वह उसे एक गुफा के भीतर ले जाती है।’

प्रताप की चिन्ता- महाराणा प्रताप एक शिला पर बैठकर अपनी दशा पर दुःखी हो रहे हैं और स्वयं से कह रहे हैं कि मुझे धिक्कार है, जो मेरे जीवित रहते हुए भी मेरा पुत्र भूखा रह जाता है। उनके लिए यह कष्ट असह्य हो जाता है। वे मातृभूमि की रक्षा का व्रत छोड़कर दिल्ली नरेश से सन्धि करने का विचार करने लगते हैं। अचानक नेपथ्य से आने वाली किसी ध्वनि को सुनकर वे विचार-विरत हो जाते हैं। पुनः चिन्ताकुल होकर सोचते हैं कि मेरे पास मातृभूमि की रक्षा के लिए न तो धन है और न ही पर्याप्त सेना।

भामाशाह का अपूर्व त्याग- उसी समय अपने सेवकों के साथ भामाशाह वहाँ पहुँचता है और महाराणा प्रताप को विपन्न और चिन्तित अवस्था में देखता है। प्रताप मातृभूमि की स्वतन्त्रता की चिन्ता से व्याकुल हैं, इस बात को वह पहले से ही जानता है। भामाशाह देश की रक्षा के लिए अपनी सारी पूँजी प्रताप के चरणों में अर्पित कर देता है। महाराणा प्रताप भामाशाह का आलिंगन करके उसकी प्रशंसा करते हैं। दोनों की जय-जयकार होती है।


चरित्र चित्रण

महाराणा प्रताप

परिचय– मेवाड़ केसरी महाराणा प्रताप सिसोदिया कुल के भूषण थे। उन्होंने वीरप्रसविणी भारतभूमि के राजस्थान प्रान्त में जन्म लिया था। वे अदम्य साहसी, शक्तिसम्पन्न और स्वाभिमानी थे। अकबर से निरन्तर युद्ध करते-करते वे अपना सब कुछ आँवा बैठते हैं और पर्वत-कन्दराओं-वनों में रहकरे जीवन-यापन के लिए विवश हो जाते हैं। उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं ।

(1) अदम्य साहसी एवं वीर- महाराणा प्रताप में अद्भुत साहस एवं अतुल पराक्रम था। वे शत्रु-पक्ष से सदा निर्भीक रहे और निरन्तर युद्ध करते रहे। दिल्ली के सम्राट् अकबर से इस वीर ने ही लोहा लिया और उसकी दासता कभी स्वीकार नहीं की। वे अपने सीमित साधनों और सीमित सेना से ही अकबर से लोह्म लेते रहे। वे विपत्ति में कभी नहीं घबराये। अत्याचार, अन्याय और परतन्त्रता को सहन करना ही सबसे बड़ा (UPBoardSolutions.com) पाप है और सबसे बड़ा पुण्य है, इनके निराकरण के लिए संघर्षरत रहना; इसी को इन्होंने अपने जीवन का सिद्धान्त बना लिया था। इन्होंने मातृभूमि के समक्ष अपनी और अपने परिवार की कभी चिन्ता नहीं की। वे विपन्नता में भी मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करते रहे। |

(2) सहृदय- महाराणा प्रताप सहृदय व्यक्ति थे। पुत्र को भूख से बिलखते देखकर उनको हृदय विचलित हो जाता है। संसार में लोग पुत्र के लिए क्या-क्या उचित-अनुचित नहीं करते, परन्तु पुत्र को दु:खी नहीं देख सकते; लेकिन महाराणा प्रताप का पुत्र भूख से बिलख रहा है। वे पुत्र की इस वेदना से विचलित हो जाते हैं और अकबर से सन्धि करने का विचार करने लगते हैं।

(3) असाधारण स्वाभिमानी- महाराणा प्रताप का स्वाभिमान उन्हें अकबर से सन्धि करने से रोकता है। उन्होंने स्वाभिमान की रक्षा के लिए घास की रोटियाँ खाकर जीवनयापन करना अधिक पसन्द किया, परन्तु स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। उन्होंने अकबर की दासता कभी स्वीकार नहीं की, सदा अपना सिर ऊँचा रखा। उन्होंने टूटना सीखा था, मगर झुकना नहीं।

(4) त्याग की जीवन्त मूर्ति- महाराणा प्रताप त्याग की जीवन्त प्रतिमा थे। उनके जीवन का व्रत ‘था कि या तो मेवाड़ को स्वतन्त्र बनाऊँगा अन्यथा शरीर का त्याग कर दूंगा।’ उनकी यह दृढ़ प्रतिज्ञा उनके त्याग की मूर्तिमान कहानी है। वे जीवनपर्यन्त भूमि पर-शयन करते रहे और पत्तल पर भोजन करते रहे; क्योंकि उनका मेवाड़ उनके जीवन-काल में स्वतन्त्र नहीं हो पाया था।

(5) देश-प्रेमी– महाराणा प्रताप मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए अनवरत संघर्ष करते रहे। उन्हें केवल चिन्ता थी तो देश की स्वतन्त्रता की। उन्होंने मेवाड़ की स्वतन्त्रता के लिए अनेक कष्ट सहे। भामाशाह से अतुल धनराशि प्राप्त कर सेना को पुनः एकत्र करके देश को स्वतन्त्र करने हेतु लड़ाई लड़ी। आज भी मेवाड़ के कण-कण में महाराणा प्रताप की देशभक्ति और उनका मातृभूमि के प्रति प्रेम समाया हुआ है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महाराणा प्रताप मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए शहीद होने वाले वीरों की पंक्ति में अग्रिम स्थान के अधिकारी हैं। वे असाधारण वीर, अप्रतिम साहसी, स्वाभिमानी, कष्ट-सहिष्णु, मातृभूमि के अनन्य सेवक तथा त्याग की जीवन्त मूर्ति थे। 

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भामाशाह

परिचय– देशभक्तों में जहाँ महाराणा प्रताप का नाम अग्रगण्य है, वहीं भामाशाह का नाम भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। भामाशाह एक देशभक्त श्रेष्ठ । वे महाराणा प्रताप के वंशानुगत मन्त्री हैं। उनके पास स्वयं की और पूर्वजों की अर्जित अपार सम्पत्ति है। उनके चरित्र की विशेषताएँ इस प्रकार हैं|

(1) महान् देशभक्त- मातृभूमि की रक्षा करते युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वालों की गणना ही देशभक्तों में नहीं की जाती, वरन् देश की रक्षा के लिए संसाधन जुटाने वाले लोगों की गणना भी देशभक्तों में ही का जाती है। ऐसे ही एक देशभक्त वीर थे–भामाशाह। वे मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने सम्पूर्ण (UPBoardSolutions.com) जीवन की सम्पत्ति महाराणा के श्रीचरणों में समर्पित करके निराश राणा को पुनः मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी देशभक्ति को देखकर राणा स्वयं कह उठते हैं–‘यस्या मातृभूमेः त्वादृक् पुत्ररत्नम् विद्यते, न ताम् कश्चिदपि आक्रान्ता पराधीनां कत्तुं शक्तः ।

(2) स्पष्टवक्ता एवं आदर्श मन्त्री- भामाशाह एक आदर्श मन्त्री हैं। उन्हें छल-कपट अथवा मिथ्यालाप नहीं आता। उनका यह कथन है ‘महाराज! निधिरयं मन्त्रिरूपेण अस्माभिः कुलपरम्परया श्रीमद्भ्यः एवोपार्जितः’ उनके इस गुण को स्पष्ट कर देता है। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि यह विपुल धनराशि मेरे कुल द्वारा आप ही से एकत्रित की गयी है।

(3) त्यागी- देशभक्त होने से पहले त्यागी होना अत्यावश्यक है। भामाशाह में यह गुण विद्यमान है। देश के लिए अपने द्वारा अर्जित की गयी सम्पूर्ण सम्पत्ति का त्याग कर देना उनके त्यागी होने का स्पष्ट प्रमाण है। अपने घर आये हुए याचक को दान देते हुए दानियों को तो सहज की देखा जा सकता है किन्तु ऐसे दानी जो दानार्थी को उसके स्थान पर पहुँचकर सर्वस्व दे दें, विश्व-इतिहास में भामाशाह के अतिरिक्त गिने-चुने ही होंगे।

(4) दूरदर्शी- भामाशाह दूरद्रष्टा हैं। वे सोचते हैं कि यदि देश परतन्त्र हो गया तो उनके द्वारा अर्जित समस्त सम्पत्ति को आक्रान्ता लूट ही ले जाएँगे और वे खाली हाथ रह जाएँगे। अब यदि बिना। सम्पत्ति के रहना ही है तो क्यों न वह सम्पूर्ण सम्पत्ति देश की रक्षा के लिए अर्पित कर दी जाये। इससे उनकी यश:-कीर्ति ही बढ़ेगी। कदाचित् यही सोचकर वे अपनी सम्पूर्ण धनराशि देशहित में दे देते हैं। उनकी इस दूरदर्शिता में मातृभूमि की हित-कामना निहित है। |

(5) वीर पुरुष– युद्धवीर, दानवीर, धर्मवीर, दयावीर–वीर पुरुष के चार प्रकार होते हैं। भामाशाह को युद्धवीर नहीं कहा जा सकता; किन्तु वे दानवीर अवश्य हैं। दानवीर व्यक्ति में धर्म (UPBoardSolutions.com) और दया तो निहित होती ही है; क्योंकि इन दोनों गुणों के अभाव में कोई भी व्यक्ति दानी नहीं हो सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भामाशाह जहाँ देशभक्त व आदर्श मन्त्री हैं, वहीं वे दयालु, परम धार्मिक, राजवंश प्रेमी, वीर पुरुष और भारतीय सन्तान हैं। ऐसे ही महापुरुषों पर देश की स्वाधीनता निर्भर करती है।

लघु उत्तरीय संस्कृत  प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
कुत्र अवसत्?
उत्तर
प्रतापः अर्बुदपर्वतस्य अधित्यकायाम् अवसत्।

प्रश्‍न 2
प्रतापः बालकाय भक्षणार्थम् किमददात्?
उत्तर
प्रतापः बालकाय भक्षणार्थं घासकरपट्टिकायाः खण्डम् अददात्।

प्रश्‍न 3
बालकस्य करपट्टिका केनापहृता? ।
उत्तर
बालकस्य करपट्टिका वनमार्जारण अपहृता।

प्रश्‍न 4
वनमार्जारेणापहृते करपट्टिकाशकले राजमहिषी प्रतापं किम् अवोचत्?
उत्तर
वनमाजरेण अपहृते करपट्टिकाशकले राजमहिषी प्रतापम् अवोचत् यत्-नाथ! एतदेव करपट्टिकाकाशकलम् आसीत्। इदानीं नास्ति किमपि अन्यभक्षणाय।।

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प्रश्‍न 5
राजमहिषीवचः निशम्य वीक्ष्य च क्रन्दन्तं बालकं प्रतापः किमचिन्तयत्?
उत्तर
राजमहिषीवच: निशम्य वीक्ष्य च क्रन्दन्तं बालकं प्रताप: स्व परिवारस्य दीनां दशाम्। अचिन्तयत्। ।

प्रश्‍न 6
केन नेपथ्यध्वनिना प्रतापः विरमति?
उत्तर
‘त्वयि सन्धौ गते राजन्! कुत्र गता स्वतन्त्रता।’ इत्यनेन नेपथ्यध्वनिना प्रतापः विरमति।

प्रश्‍न 7
नेपथ्यभाषितं श्रुत्वा प्रतापः किं चिन्तयामास?
उत्तर
नेपथ्यभाषितं श्रुत्वा प्रतापः चिन्तयामास यत् मम पाश्वें वराटिकापि नास्ति, अपेक्षिता सेना न विद्यते, कथं करोमि मातृभूमि रक्षाविधानम्।

प्रश्‍न 8
भामाशाहः कः आसीत्?
उत्तर
भामाशाह: प्रतापस्य कुलक्रमागत: मन्त्री आसीत्।

प्रश्‍न 9
चिन्तामग्नं प्रतापं दृष्ट्वा भामाशाहः किम् अकथयत्?
उत्तर
चिन्तामग्नं प्रतापं दृष्ट्वा भामाशाहः अकथयत् यत् कथं श्रीमन्तः चिन्ताहुताशनपरीताः इव आलक्ष्यन्ते।

प्रश्‍न 10
भामाशाहः प्रतापाय किमददात्? उत्तर-भामाशाहः प्रतापाय प्रभूतं धनम् अददात्।

वस्तुनिष्ठ प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों में से प्रत्येक प्रश्न के उत्तर रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए

1. ‘त्याग एव परो धर्मः’पाठ वर्तमान भारत के किस राज्य से सम्बन्धित है?
(क) राजस्थान से
(ख) उत्तर प्रदेश से
(ग) गुजरात से
(घ) मध्यप्रदेश से

2. ‘त्याग एव परो धर्मः पाठ में किनके त्याग का वर्णन किया गया है?
(क) महाराणा प्रताप और भामाशाह के
(ख) महाराणा प्रताप और अकबर के
(ग) भामाशाह और अकबर के
(घ) इनमें से किसी के नहीं।

3. महाराणा प्रताप का युद्ध किससे और कहाँ हुआ था?
(क) बाबर से, पानीपत में।
(ख) हुमायूँ से, दिल्ली में ।
(ग) अकबर से, हल्दीघाटी में
(घ) औरंगजेब से, पानीपत में।

4.अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य हुए युद्धों का अन्ततः क्या परिणाम हुआ?
(क) प्रताप का सम्पूर्ण धन और सेना नष्ट हो गयी |
(ख) प्रताप ने आत्म-समर्पण कर दिया।
(ग) अकबर का कोष खाली हो गया
(घ) अकबर ने हार मान ली

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5. राज्य के हाथ से चले जाने पर महाराणा प्रताप ने किन पहाड़ियों में शरण ली?
(क) सतपुड़ा की पहाड़ियों मे
(ख) अरावली की पहाड़ियों में
(ग) हिमालय की पहाड़ियों में
(घ) विन्ध्य की पहाड़ियों में .

6.महाराणा के पुत्र के रोने का क्या कारण था?
(क) भूख
(ख) प्यास
(ग) वनमार्जारम्
(घ) युद्ध .

7. पुत्र को भूख से व्याकुल देखकर प्रताप ने क्या निश्चय किया?
(क) वहाँ से चले जाने का ।
(ख) भोजन सामग्री लाने का
(ग) अकबर से सन्धि करने का |
(घ) बच्चे को चुप कराने का

8. वनबिलाव बालक के हाथ से क्या छीन ले गया?
(क) रोटी का टुकड़ा
(ख) लड्डू
(ग) खिलौना
(घ) कपड़ा

9. महाराणा प्रताप भामाशाह को अपनी चिन्ता का क्या कारण बताते हैं? |
(क) पत्नी की दीनदशी को
(ख) मातृभूमि की स्वतन्त्रता को
(ग) अपने कुटुम्ब को ।
(घ) अपने पुत्र की भूख को

10. भामाशाह ने प्रताप को धन क्यों दिया?
(क) क्योंकि भामाशाह को उस धन के चोरी जाने का भय था
(ख) भामाशाह के पास धन रखने को स्थान नहीं था।
(ग) क्योंकि भामाशाह मातृभूमि की सेवा करना चाहते थे
(घ) क्योंकि प्रताप ने वह धन मँगाया था ।

11. ‘वत्स! किमर्थम् ………………. ।’ वाक्य में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) ‘रोदिहि’ से
(ख) ‘रोदते’ से
(ग) ‘रोदति’ से
(घ) “रोदिषि’ से

12. ‘त्वया वीरप्रसू गोत्रा त्वयि धर्मः प्रतिष्ठितः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) महाराणा प्रताप
(ख) अकबर ।
(ग) मानसिंह
(घ) कश्चित् नास्ति

13. ‘बुभुक्षय मे प्राणाः उत्क्रामन्ति।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) महाराणा प्रतापः।
(ख) प्रतापस्य बालकः
(ग) प्रतापस्य राजमहिषी
(घ) भामाशाहः

14. ‘क्वेदानीं श्रूयते फेरूणाम् •••••••••• ध्वनिः।’ में रिक्त-पद की पूर्ति होगी
(क) “तीव्रतरो’ से
(ख) ‘कर्णकटुको’ से
(ग) ‘मधुरो’ से
(घ) “कोलाहलो’ से

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15. मयि जीवत्येव ममात्मजः क्षुधार्तः तिष्ठति।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति?
(क) महाराणा प्रतापः
(ख) प्रतापस्य बालकः
(ग) प्रतापस्य राजमहिषी
(घ) कश्चित् नास्ति ।

16. ‘ …… रक्षणार्थमपेक्षिता सेनापि न विद्यते।’ में वाक्य-पूर्ति होगी
(क) मातृभूमि’ से ।
(ख) ‘आत्मसम्मान’ से
(ग) “प्रजा’ से ।
(घ) ‘सिंहासन’ से ।

17.’…….. अयं मन्त्रिरूपेण अस्माभिः कुलपरम्परया श्रीमद्भ्यः एवोपार्जितः।’ में रिक्त-पद | की पूर्ति होगी ।
(क) “सम्पत्ति’ से
(ख) ‘धनम्’ से
(ग) “निधि’ से
(घ) “वराटिका’ से

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Class 9 Sanskrit Chapter 4 UP Board Solutions शकुन्तलाया पतिगृहगमनम् Question Answer

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Class Class 9
Subject Sanskrit
Chapter Chapter 4
Chapter Name शकुन्तलाया पतिगृहगमनम् (कथा – नाटक कौमुदी)
Number of Questions Solved 6
Category UP Board Solutions

UP Board Class 9 Sanskrit Chapter 4 Shakuntalaya Patigrih Gamanam Question Answer (कथा – नाटक कौमुदी)

कक्षा 9 संस्कृत पाठ 4 हिंदी अनुवाद शकुन्तलाया पतिगृहगमनम् के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

परिचय- संस्कृत वाङ्मय में कालिदास को महाकवि की पदवी प्राप्त है। निम्नलिखित श्लोक इस बात को सूचित करता है कि कालिदास के समान दूसरा कवि संस्कृत साहित्य में नहीं हुआ।

पुरा कवीनां गणना प्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः।।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावादनामिको सार्थवती बभूव ॥ 

कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ एवं ‘कुमारसम्भवम्’ नाम के महाकाव्यों को ‘ऋतु-संह्मरः’ और ‘मेघदूतम्’ नामक खण्डकाव्यों की तथा ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’, ‘मालविकाग्निमित्रम्’ औरविक्रमोवशीयम्’ नामक नाटकों की रचना की। यदि कालिदास ने केवल ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ र्की ही रचना की होती, तब भी उनका संस्कृत-साहित्य में इतना ही यश होता। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित श्लोक प्रसिद्ध है ।

काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला।
तत्रापि चतुर्थोऽङ्कः तत्र श्लोकचतुष्टयम् ॥

प्रस्तुत पाठ ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के चतुर्थ अंक का संक्षिप्त रूप है। शकुन्तला की कथा ‘महाभारत’ के ‘आदिपर्व’ (अध्याय 67 से 74) में वर्णित ‘शकुन्तलोपाख्यानम्’ से संकलित है, जिसे कालिदास ने अपनी प्रखर प्रतिभा से निखार दिया है।

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पाठ-सारांश

कण्व का गला भर आना- शकुन्तला के पतिगृह-गमन की बात सोचकर कण्व का गला भर आता है। वे सोचते हैं कि जब पुत्री की विदाई के समय मुझ जैसा तपस्वी अपने आँसू नहीं रोक पा रहा है, तब इस अवसर पर सद्गृहस्थों की क्या दशा होती होगी। शकुन्तला कण्व के चरण-स्पर्श करती है। (UPBoardSolutions.com) कण्व उसें चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति का वरदान देकर अपने शिष्य शाङ्गरव और शारवत् से शकुन्तला को लेकर चलने को कहते हैं। दोनों शकुन्तला को लेकर चलते हैं।

कण्व का वन- वृक्षों से शकुन्तला को विदाई देने के लिए कहना-महर्षि कण्व वन के वृक्षों से कहते हैं कि हे वन-वृक्षों! पहले तुम्हें जल देकर स्वयं जल पीने वाली, अलंकरण-प्रिया होने पर भी तुम्हारे फूल-पत्ते न तोड़ने वाली शकुन्तला आज अपने पति के घर जा रही है। अतः तुम उसे उसके अपने घर जाने की आज्ञा दो। तभी कोयल के रूप में वन-वृक्ष उसे अपने पति के घर जाने की आज्ञा देते हैं।

शकुन्तला के विरह में सभी जीव-जन्तुओं का दुःखी होना- शकुन्तला बड़े भारी मन से कदम आगे बढ़ा रही है। उसके विरह में वृक्ष और दूसरे जीव-जन्तु भी दुःखी हैं। उसके पतिगृह-गमन की बात सुनकर हरिणी ने घास खाना छोड़ दिया है, मयूरों ने नाचना छोड़ दिया है तथा लताएँ पीले पत्तों के रूप में (UPBoardSolutions.com) मानो आँसू बहा रही हैं। शकुन्तला वनज्योत्सना नामक लता को बाँहों में भरकर उसका आलिंगन करती है तथा अपनी सखियों से उसकी देखभाल करने को कहती है।

मृगशावक का शकुन्तला को रोकना- कण्व शकुन्तला को सान्त्वना दे रहे होते हैं; तभी एक मृगशावक शकुन्तला का आँचल मुँह में दबाकर खींचता हुआ, उसे रोकने का प्रयत्न करता है। इस मृगशावक को शकुन्तला ने घायलावस्था में पाया था और उसका उपचार करके उसका पुत्रवत् लालन-पालन किया था। शकुन्तला उसे सान्त्वना देती है कि मेरे बाद पिता मेरे समान ही तेरी देखभाल करेंगे।

शाङ्गरव का सबको लौट जाने के लिए कहना- पतिगृह जाती शकुन्तला के साथ सभी लोग आश्रम से दूर एक जलाशय तक आ जाते हैं। यहाँ पर शाङ्गुरव कण्व से कहता है कि गुरुवर विदाई के समय परिजनों को जलाशय के मिलने पर लौट जाना चाहिए, ऐसा सुना जाता है। अब आप इस जलाशय के तट पर से आश्रम वापसे जा सकते हैं।

कण्व का शकुन्तला को गृहस्थ- जीवन की शिक्षा देना-महर्षि कण्व शकुन्तला को सफल गृहस्थ-जीवन का रहस्य समझाते हुए कहते हैं कि तुम पतिगृह में सभी बड़े लोगों की सेवा करना, सपत्नीजनों (सौतनों) के साथ सखियों जैसा व्यवहार करना, पति को कभी अपमान न करना, सेवकों से उदारता का व्यवहार करना। जो कन्याएँ ऐसा करती हैं, वे पतिगृह में सम्मान पाने के साथ-साथ अपने पिता के कुल (UPBoardSolutions.com) की कीर्ति को भी बढ़ाती हैं। गौतमी भी उससे कण्व के इन उपदेशों को न भूलने के लिए कहती है।शकुन्तला का सबसे विदा लेना-शकुन्तला अधीर होती हुई अपनी सखियों प्रियंवदा और अनसूया से लिपटती है। कण्व उसे सान्त्वना देते हैं। शकुन्तला उनके पैरों में गिरती है। कण्व उसे उसकी इच्छाएँ पूरी होने का आशीर्वाद देते हैं।

शकुन्तला की विदाई पर कण्व का सन्तोष व्यक्त करना- शकुन्तला की दोनों सखियाँ जहाँ भारी मन से आश्रम लौटती हैं, वहीं महर्षि कण्व शकुन्तला की सकुशल विदाई पर सन्तोष व्यक्त करते हुए मन-ही-मन कहते हैं कि कन्या तो माता-पिता के पास धरोहर रूप में रखे गये पराये धन के समान होती है। मैं उसे योग्य पति के पास भेजकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो गया हूँ।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शकुन्तला का पतिगृह- गमन, उसे कण्व द्वारा दिया गया उपदेश तथा शकुन्तला की विदाई का करुण एवं भावपूर्ण मार्मिक वर्णन प्रस्तुत अंश की महत्ता को बढ़ाने वाले हैं।

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चरित्र – चित्रण

शकुन्तला

परिचय- शकुन्तला  ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक की मुग्धा नायिका है। वह महर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री है। उसका लालन-पालन महर्षि कण्व ने पुत्रीवत् किया है। शकुन्तला भी उनको अपना पिता ही मानती है। उसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं|

(1) प्रकृति प्रेमिका- शकुन्तला प्रकृति की गोद में पली है; अतः उसके हृदय में सभी चेतन-अचेतन के लिए प्रेम का अथाह सागर तरंगायित होता है। हरिणशावक को वह अपने शिशु-सदृश मानती है। वृक्षों एवं लताओं के प्रति भी उसका अनुराग उसी प्रकार का है। पशु-पक्षी, लता, पत्ते सभी उसके सगे-सम्बन्धी हैं। उसके इसी प्रकृति-प्रेम के विषय में महर्षि कण्व के उसे कथन से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है, जिसमें वे वनवृक्षों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जो तुमको सींचे बिना पहले जल नहीं पीती थी, जो अलंकारप्रिय होने पर भी (UPBoardSolutions.com) स्नेह के कारण तुम्हारे फूल-पत्तों को नहीं तोड़ती थी, जो तुम्हारे पहले-पहल फूलने पर उत्सव मनाती थी, वही शकुन्तला अब अपने पति के घर जा रही है। अपने प्रति शकुन्तला के स्नेह को देखकर मानो वृक्षों और लताओं को भी उससे प्रेम हो गया है, इसीलिए तो उसके पतिगृह-गमन के समय लताएँ अपने पीले पत्तों के रूप में आँसू गिराती हुई विलाप कर रही हैं।

(2) दयालु और परोपकारिणी- प्रकृति के प्रति तो शकुन्तला को अपार स्नेह है ही, वन्य जीव-जन्तुओं के प्रति भी उसके मन में दया और प्रेम का अथाह सागर हिलोरें लेता है। यही कारण है। कि वह सभी जीवों पर परोपकार करती रहती है। घायलावस्था में उपचार किया गया और बाद में पुत्रवत् पाला गया मृगशावक उसके इसी स्नेह से अभिभूत होकर पतिगृह जाते समय उसका मार्ग रोकता है। उसकी इसी दयालु और परोपकारिणी प्रवृत्ति से प्रभावित होकर सभी जीव भी उसको अत्यधिक स्नेह करते हैं। यही कारण है कि उसके पतिगृह-गमने का समाचार सुनकर हरिणी ने कुशग्रास को उगल दिया है और मयूरों ने नाचना छोड़ दिया है।

(3) सच्ची सखी- शकुन्तला एक सच्ची सखी के रूप में यहाँ चित्रित की गयी है। वह अपनी सखियों प्रियंवदा एवं अनसूया से अगाध प्रेम रखती है। पतिगृह-गमन के समय प्रियंवृदा, अनसूया एवं नवमालिका के छूट जाने का उसे अत्यधिक दुःख है।

(4) सरल स्वभाव वाली- शकुन्तला का स्वभाव सरल है। शकुन्तला की सरलता के सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन है कि “शकुन्तला की सरलता अपराध में, दुःख में, धैर्य में और क्षमा में परिपक्व है, गम्भीर है और स्थायी है।” ज्योत्स्ना लता से चेतन प्राणियों की तरह बाँहों में भरकर मिलना, फिर (UPBoardSolutions.com) नवमालिका लता को धरोहर के रूप में अपनी सखियों प्रियंवदा और अनसूया को सौंपना उसके सरल स्वभाव को प्रमाणित करते हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रस्तुत नाट्यांश में शकुन्तलाको भावुक, परोपकारिणी, दयालु और प्रकृति-संरक्षिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

महर्षि कण्व 

“परिचय–महर्षि कण्व भी कालिदासकृत ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक के प्रमुख पात्र हैं। शकुन्तला उन्हीं की पालिता पुत्री है। उनकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) सरल और उदारहृदय- महर्षि कण्व का हृदय महर्षियोचित सरल एवं उदार है। वन-देवताओं एवं वृक्षों से शकुन्तला को पतिगृह-गमन की आज्ञा प्रदान करने के लिए कहना उनके सरल और उदार हृदय होने का प्रमाण ही है।

(2) मानव-भावों के पारखी– महर्षि कण्व यद्यपि ऋषि हैं, तथापि वे सामान्यजनों के भावों को परखने की विद्या में निपुण हैं। तभी तो वे वनज्योत्स्ना से लिपटती हुई भावुक शकुन्तला से कहते हैं कि मैं इस पर तुम्हारे सहोदर प्रेम को भली प्रकार जानता हूँ।।

(3) मानवोचित गुणों से सम्पन्न- दैवी सम्पत्ति से सम्पन्न महर्षि भी तो मानव ही हैं, उन्हें भी पिता का कोमल हृदय मिला है। इसीलिए वे शकुन्तला के विदा होते समय करुणा से आप्लावित हो जाते हैं। मुनि को हृदय शकुन्तला के भावी गमनमात्र की चिन्ता से भर जाता है। दूसरों को धीरज बँधाने (UPBoardSolutions.com) वाले गम्भीर मुनि स्वयं कह उठते हैं-‘यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया’ और वे दु:खभरी लम्बी साँस लेकर अन्तत: उसे आशीर्वाद देते हुए कहते हैं–‘गच्छ शिवास्ते पन्थानः सन्तु।’

(4) लोकाचार के ज्ञाता- यद्यपि कण्व ऋषि हैं, तथापि वे गृहस्थों के लोकाचार को भली-भाँति समझते हैं। इस सन्दर्भ में वे स्वयं शकुन्तला से कहते हैं-“वत्से! इस समय तुम्हें शिक्षा देनी है। वनवासी होते हुए भी हम लोकाचार समझते हैं। इसी लोकाचार का पालन करते हुए वे शकुन्तला को शिक्षा देते हैं-“तुम पतिकुल में पहुँचकर गुरुजनों की सेवा करना, उनकी सपनियों के साथ प्रिय सखी के सदृश व्यवहार करना। यदि स्वामी अपमान भी कर दें तो भी क्रोध से उनके विरुद्ध आचरण न करना। दास-दासी आदि सेवकजनों से उदारता का व्यवहार करना। भाग्य के अनुकूल होने पर भी कभी अभिमान न करना। इस प्रकार का आचरण करने वाली युवतियाँ गृहिणी पद को प्राप्त कर लेती हैं। इसके विपरीत चलने वाली तो कुल के लिए विपत्ति हैं।”

(5) श्रेष्ठ पिता- जब शकुन्तला चली जाती है, तब महर्षि कण्व शान्ति की साँस लेते हैं और अपने को परम शान्त एवं भारमुक्त पाते हैं। वे जानते हैं कि कन्या-धन परकीय धन होता है। वह पिता के पास एक धरोहर के रूप में रहता है और वह तब तक उस भार से मुक्त नहीं होता, जब तक वह (UPBoardSolutions.com) उसे धनी के पास लौटा नहीं देता। आज महर्षि कण्व भी अपनी पुत्री को उसके परिगृहीता के पास भेजकर विशदान्तरात्म होकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महर्षि कण्व समस्त श्रेष्ठ गुणों से ओत-प्रोत हैं। उनका चरित्र-चित्रण सामान्य मानव एवं महर्षियोचित गुणों का उत्कृष्ट संगम है।

लघु-उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
शकुन्तला का आसीत्?
उत्तर
शकुन्तला कण्वस्य औरसपुत्री आसीत्। .

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प्रश्‍न 2
गृहिणः कथं पीड्यन्ते?
उत्तर
गृहिणः तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः पीड्यन्ते।

प्रश्‍न 3
शकुन्तलायाः उत्सवः कदा भवति?
उत्तर
वृक्षाणां कुसुमप्रसूतिसमये शकुन्तलायाः उत्सवः भवति।

प्रश्‍न 4
प्रियंवदा का आसीत्?
उत्तर
प्रियंवदा शकुन्तलायाः सखी आसीत्।

प्रश्‍न 5
कीदृशः युवतयः गृहिणीपदं यान्ति
उत्तर
याः युवतयः गुरुन् शुश्रूषन्ति, सपत्नीजने प्रियसखीवृत्तिं कुर्वन्ति, पतिं प्रति क्रोधं न कुर्वन्ति, ता: गृहिणीपदं यान्ति।

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प्रश्‍न 6
कन्या कीदृशः अर्थः अस्ति?
उत्तर
कन्या परकीया अर्थः अस्ति।

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Class 10 Sanskrit Chapter 16 UP Board Solutions दीनबन्धु ज्योतिबाफुले Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 16 Deenbandhu Jyotiba Phule Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 16 हिंदी अनुवाद दीनबन्धु ज्योतिबाफुले के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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पाठ का सारांश

ग्यारह अप्रैल, सन् 1827 ई० में पुणे नामक स्थान पर जन्मे ज्योतिबा फुले एक भारतीय विचारक, समाज-सेवक, लेखक, दार्शनिक और क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। इन्होंने महाराष्ट्र में सत्यशोधक संस्था को संगठित किया था। दलित स्त्रियों के उत्थान के लिए अनेक कार्यों को करने वाले ज्योतिबा फुले का विचार था कि भारतीय समाज में सभी शिक्षित हों।

ज्योतिबा फुले के पूर्वज सतारा से पुणे आकर फूलों की माला बेचकर जीवन-यापन करते थे। इसी कारण से ये ‘फुले’ नाम से विख्यात हुए। आरम्भ काल में मराठी भाषा का अध्ययन करने वाले फुले की शिक्षा बीच में ही रुक गयी। इक्कीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने (UPBoardSolutions.com) अंग्रेजी भाषा से सातवीं कक्षा की शिक्षा पूरी की। 1840 में इनका विवाह सावित्री नाम की कन्या के साथ हुआ। पत्नी के साथ मिलकर इन्होंने स्त्री-शिक्षा के लिए कार्य किया। उन्होंने विधवा तथा अन्य स्त्रियों के साथ-साथ कृषकों की दशा को सुधारने का प्रयत्न किया। 1848 में स्त्रियों के लिए प्रथम विद्यालय संचालित किया। इस प्रयत्न में उच्चवर्गीय लोगों ने अवरोध भी उत्पन्न किया किन्तु वे उनके आगे टिक न सके।

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फुले के मन में सन्तों के प्रति अगाध श्रद्धा थी। दलितों की सहायता के लिए ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। इनके सेवा कार्य को देखकर इन्हें मुम्बई की एक सभा में महात्मा’ की उपाधि दी गई। ज्योतिबा ने बिना ब्राह्मण के विवाह कराने की मान्यता मुम्बई न्यायालय से दिलाई। उन्होंने तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। ज्योतिबा फुले क्रान्तिकारी विचारक, समाजसेवक, दार्शनिक और लेखक थे। अस्पृश्यता के दु:ख के उन्मूलन में इनकी भूमिका अकथनीय रही है। इन महापुरुष का स्वर्गवास 28 नवम्बर, 1890 ई० में पुणे में हुआ था। माली समाज के महात्मा ज्योतिबा फुले एक ऐसे महामानव थे जिन्होंने निम्न जाति को समानता का (UPBoardSolutions.com) अधिकार दिलाने के लिए आजीवन कार्य किया। हमारे देश के इतिहास में सावित्री फुले को प्रथम दलित शिक्षिका का गौरव प्राप्त हुआ था।

गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
ज्योतिराव गोविन्दराव इत्याख्यस्य जन्म अप्रैलमासस्य एकादशदिनाङ्के सप्तविंशत्याधिके अष्टादशखीष्टाब्दे पुणे नामके स्थानेऽभवत्। अयं महात्मा फुले एवं ज्योतिबा फुले नाम्ना प्रचलितो एको महान् भारतीय विचारकः, समाजसेवकः, लेखकः, दार्शनिकः क्रान्तिकारी कार्यकर्ता चासीत्। त्रयोधिकसप्ततिः अष्टादशशते ख्रीष्टाब्दे अयं महाराष्ट्र ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्थां संगठितवान्। नारीणां दलितानाञ्चोत्थानायायमनेकानि कार्याण्यकरोत्। ‘भारतीयाः मानवाः सर्वे शिक्षिताः स्युः’, अस्य एतत् चिन्तनमासीत्।।

शब्दार्थ इत्याख्यस्य = इस नाम वाले। स्थानेऽभवत् =स्थान पर हुआ। संगठितवान् = संगठित किया। दलितानाञ्चोत्थानायायमनेकानि = और दलितों के उत्थान के लिए अनेक, सर्वे शिक्षिताः स्युः = सभी शिक्षित हों।।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘दीनबंधु ज्योतिबा फुले’ शीर्षक पाठ से उधृत है।

प्रसंग इस गद्यांश में ज्योतिबा फुले के जन्म और उनके गुणों के विषय में बताया गया है।

अनुवाद ज्योतिराव गोविन्दराव इस नाम वाले (पुरुष) का जन्म ग्यारह अप्रैल अठारह सौ सत्ताईस ई० में पुणे नामक स्थान पर हुआ। यह महात्मा फुले और ज्योतिबा फुले नामों से प्रचलित एक महान् भारतीय विचारक, समाजसेवक, लेखक, दार्शनिक और क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। सन् अठारह सौ तिहत्तर ई० में इन्होंने महाराष्ट्र में ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था को संगठित किया। नारियों और दलितों के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए। सभी भारतीय मानव शिक्षित हों, यह इनका चिन्तन था।

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(2)
तस्य पूर्वजाः पूर्वं सतारातः आगत्य पुणे नगरं प्रत्यागत्य पुष्पमालां गुम्फयन् स्वजीवनं निर्वापयामास। परिणामस्वरूपे मालाकारस्य कार्ये संलग्नाः इमे ‘फुले’ नाम्ना विख्याताः अभवन्। महानुभावोऽयं प्रारम्भिककाले मराठीभाषां अपठत् किन्तु दैववशात् अस्य शिक्षा मध्येऽवरुद्धा संजाता। सः पुनः पठितुं मनसि विचार्य एकविंशतिं वर्षस्यावस्थायां आंग्लभाषायाः सप्तम्याः कक्षायाः शिक्षा पूरितवान्। चत्वारिंशत् अधिकाष्टादशशतमे (1840) खीष्टाब्दे अस्य विवाहः सावित्री नाम्न्याः कन्यया साकमभवत्। अस्य भार्यापि स्वयमपि एका प्रसिद्ध समाजसेविका संजाता। समाजस्योन्नतये स्वभार्यया सह मिलित्वाऽयं दलितोत्थानाय स्त्रीशिक्षायै च कार्यमकरोत्।। (UPBoardSolutions.com) शब्दार्थ सतारातः आगत्य = सतारा से आकर पुष्पमालां गुम्फयन् =फूलमाला बनाते हुए। मालाकारस्य कायें संलग्नाः = माली के कार्य में संलग्न होने से। दैववशात् =भाग्यवश होकर| मनसि विचार्य = मन से सोचकर। भार्यापि = पत्नी भी। स्त्रीशिक्षायै = स्त्री-शिक्षा के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में लेखक दीनबंधु ज्योतिबा के उपनाम तथा शिक्षा के विषय में बताते हुए लिखता है।

अनुवाद उनके पूर्वज पहले सतारा से आकर पुणे नगर में पुनः लौटकर फूलमाला बनाते हुए अपने जीवन का निर्वाह करने लगे। इसके परिणामस्वरूप माली के कार्य में संलग्न होने के कारण ये ‘फुले’ नाम से विख्यात हो गये। इस महोदय ने प्रारम्भिक काल में मराठी को पढ़ा किन्तु भाग्यवश इनकी शिक्षा बीच में ही रुक गयी। उन्होंने पुनः पढ़ने का विचार करके इक्कीस वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी भाषा से सातवीं कक्षा की शिक्षा पूरी की। सन् 1840 ई० में इनका विवाह सावित्री नाम की कन्या के साथ हुआ। इनकी पत्नी भी स्वयं ही एक प्रसिद्ध समाजसेविका हुईं। समाज की उन्नति के लिए अपनी पत्नी के साथ मिलकर इन्होंने दलितों के उत्थान और स्त्री-शिक्षा के लिए कार्य किए।

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(3)
ज्योतिबा फुले भारतीयसमाजे प्रचलिताः जात्याः आधारिताः विभाजनस्य पक्षौ नाऽसीत्। सः वैधव्ययुक्तानां नारीणाम् एवम् अपराणां नारीणां कृते महत्त्वपूर्ण कार्यं कृतवान्। कृषकाणां दशां वीक्ष्य दुःखितोऽयं तेषाम् उद्धाराय सतत् प्रयत्नशीलः आसीत्। ‘स्त्रीणामसफलतायाः कारणं तेषामशिक्षैव विद्यते’ इति विचार्य सः अष्टाचत्वरिंशत् अधिकाष्टदशखष्टाब्दे एकः विद्यालयः संचालितवान् अस्य कार्याय देशस्यायं प्रथमो विद्यालयः आसीत्। बालिका शिक्षायै शिक्षिकायाः स्वल्पतां दृष्ट्वा सः स्वयमेव शिक्षकस्य भूमिका निर्वहत्। अनन्तरं स्वभार्या शिक्षिकारूपेण नियुक्तवान्। उच्च सवंर्गीयाः जनाः प्रारम्भ कालादेव तस्य कार्ये बाधां स्थापयितु कटिबद्धाः आसन्। परञ्च अयं (UPBoardSolutions.com) स्वकार्ये प्रयतमानः अग्रगण्यः अभवत्। तं अग्रे गतिशीलं दृष्ट्वा ते दुर्जनाः तस्य पितरं प्रति अशोभनीयं कथनमुक्ता। दम्पत्तिं स्वगृहात् बहिः प्रेषितवान्। स्वगृहात् बर्हिगमने सतितस्य कार्यावरुद्धं संजातम् परंच शीघ्रातिशीघ्रमेव सः बलिकाशिक्षायै त्रयोः विद्यालयाः उदघाटितवान्।

शब्दार्थ प्रचलितजात्याधारितविभाजनस्य = प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन के वैधव्ययुक्तानां नारीणाम् = विधवा स्त्रियों के अपराणां नारीणाम् = अन्य (दूसरी) नारियों के वीक्ष्य = देखकर/जानकर/समझकरे त्रीणामसफलतायाः कारणम् =स्त्रियों की असफलता का कारण स्वल्पता दृष्ट्वा = अपनी कमी को जानकर कार्ये बाधां स्थापयितुम = कार्य में अड़चन (बाधा डालने के लिए प्रयतमानः = प्रयास में लगे रहने वाले

प्रसंग इस गद्यांश में समाजसेवी ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद ज्योतिबा फुले भारतीय समाज में प्रचलित जातिगत विभाजन के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने विधवा स्त्रियों और दूसरी नारियों के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए, किसानों की दशा को देखकर दु:खी होकर ये उनके उद्धार के लिए सतत् प्रयत्नशील हुए। ‘स्त्रियों की असफलता का कारण उनकी अशिक्षा ही है। ऐसा विचार करके उन्होंने सन् 1848 ई० में एक विद्यालय चलाया। इस कार्य के लिए देश का यह प्रथम विद्यालय था। लड़कियों की शिक्षा के लिए अध्यापिकाओं की कमी जानकर (देखकर) उन्होंने स्वयं ही शिक्षक की भूमिका का निर्वहन किया। बाद में अपनी पत्नी को शिक्षिका के रूप में नियुक्त किया। उच्चवर्गीय लोग प्रारम्भिक काल से ही उनके कार्य में बाधा डालने के लिए कटिबद्ध थे। परन्तु ये अपने कार्य में निरन्तर अग्रगण्य रहे। उनकी आगे बढ़ने की गतिशीलता को देखकर उन दुर्जनों ने उनके पिता के प्रति अशोभनीय बातें भी कहीं। पति-पत्नी को अपने घर से बाहर भेज दिया। अपने घर से बाहर निकलने से उनका कार्य रुक गया, परन्तु अति शीघ्र ही उन्होंने बलिकाओं की शिक्षा के लिए तीन विद्यालय खोल दिए।

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(4)
अस्य हृदि सन्त-महात्मानं प्रति बहुरुचिरासीत्। तस्य विचारेषु ‘ईश्वस्य सम्मुखे नर-नारी सर्वे समानाः सन्ति, तेषु श्रेष्ठता लघुता अशोभनीया विद्यते। दलितजनानामसहायञ्च न्यायार्थं महापुरुषोऽयं ‘सत्यशोधक समाजम्’ स्थापितवान्। अस्य सामाजिक सेवाकार्यं विलोक्य अष्टाशीति अष्टादशशतख्रीष्टाब्दे मुम्बईनगरस्य एका विशाला सभा तं ‘महात्मा’ इत्युपाधिना अलङ्कृतवान्। ज्योतिबा महोदयेन ब्राह्मणेन पुरोहितेन बिनैव विवाहसंस्कारमकारयत्। (UPBoardSolutions.com) अस्य संस्कारस्य मुम्बई न्यायालयात् मान्यता संप्राप्ता। सः तु बालविवाहस्य विरोधं एवञ्च विधवाविवाहस्य समर्थकः आसीत्।

शब्दार्थ हृदि = हृदय में। विचारेषु = विचारों में। दलितजनानामसहायांनाञ्च = दलितों और असहाय जनों का। विलोक्य = देखकर

प्रसंग इस गद्यांश में लेखक ज्योतिबा फुले की रुचियों का ज्ञान तथा उनको मिली उपाधि आदि के विषय में चर्चा करता हुआ कहता है।

अनुवाद इनके (ज्योतिबा फुले के) हृदय में संत-महात्माओं के प्रति अत्यधिक रुचि थी। उनके विचारों में भगवान के सामने स्त्री-पुरुष सभी समान हैं और उनके बीच लघुता और श्रेष्ठता प्रकट करना अशोभनीय है। दलितों और असहाय जनों के न्याय के लिए इस महापुरुष ने ‘सत्यशोधक समाज’ स्थापित किया। इनके सामाजिक सेवा कार्य को देखकर 1888 ई० में मुम्बई नगर की एक विशाल सभा में इन्हें महात्मा’ इस उपाधि से अलंकृत किया गया। ज्योतिबा महोदय के द्वारा ब्राह्मण और पुरोहितों के बिना विवाह संस्कार कराया गया। इस संस्कार की मुम्बई न्यायालय से मान्यता मिली। वे बाल विवाह के विरोधक और विधवा विवाह के समर्थक थे।

(5)
स्वजीवनकाले स तु अनेकानि पुस्तकानि अलिखत्, यथा—तृतीयरत्नं, छत्रपतिशिवाजी, राजाभोसले इत्याख्यस्य पँवाडा, ब्राह्मणानां चातुर्यम्, कृषकस्य कशा अस्पृश्यानां समाचारं इत्यादयः। महात्मा ज्योतिबा एवं तस्य संगठनस्य संघर्ष कारणात् सर्वकारेण ‘एग्रीकल्चरएक्ट’ इति स्वीकृतम्। धर्मसमाजस्य परम्परायाः सत्यं सर्वेर्षां सम्मुखमानेतुं तेन अन्यानि अपराणि पुस्तकानि-रचितानि। ज्योतिबा बुद्धिमान् महान् क्रान्तिकारी-भारतीयविचारकः समाजसेवकः लेखकः दार्शनिकश्चासीत्। महाराष्ट्रनगरे धार्मिकसंशोधनमान्दोलनं प्रचलनासीत्। जातिप्रथामुन्मूलनार्थमेकेश्वरवादं स्वीकर्ते ‘प्रार्थना समाजस्य स्थापना संजाता। अस्य प्रमुखः (UPBoardSolutions.com) गोविन्द रानाडे आरजी भण्डारकरश्चासीत्। अयं महान् समाजसेवकः अस्पृश्यानां उद्धाराय सत्यशोधक समाजस्य स्थापनाम् अकरोत्। महात्मा ज्योतिबा फुले (ज्योतिराव गोविन्दराव फुले) महोदयस्य मृत्युः नवम्बर मासस्य अष्ट विंशति दिनांके नवत्यधिक अष्टादशशततमे खीष्टाब्दे (28 नवम्बर, 1890 ई०) पुणे नगरे अभवत्।।

शब्दार्थ स्वजीवनकाले = अपने जीवनकाल में। कृषकस्य कशाः = किसानों का कोड़ा। अस्पृश्यानां समाचारम् =अछूतों की कैफियत। सर्वेषां सम्मुखमानेतुम् = सभी के सामने लाने के लिए। जातिप्रथामुन्मूलनार्थम् =जाति प्रथा को जड़ से मिटाने के लिए।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में महात्मा ज्योतिबा फुले के लेखन कार्य के द्वारा दी गई समाज-सेवा का उल्लेख किया गया है।

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अनुवाद अपने जीवनकाल में तो उन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की; जैसे–तीसरे रत्न छत्रपति शिवाजी, राजा भोसले आदि की जीवनियाँ, ब्राह्मणों की चतुरता, किसानों का कोड़ा, अछूतों की कैफियत
आदि। महात्मा ज्योतिबा एवं उनके संगठन के संघर्ष के कारण से सरकार के द्वारा ‘एग्रीकल्चर एक्ट स्वीकार किया गया। धर्म समाज की परम्परा की सत्यता को सबके सम्मुख लाने के लिए इनके द्वारा अनेक दूसरी पुस्तकों की रचना की गई। ज्योतिबा बुद्धिमान, महान् क्रान्तिकारी, भारतीय विचारक, समाजसेवक, लेखक और दार्शनिक थे। महाराष्ट्र नगर में धार्मिक संशोधन आन्दोलन प्रचलित था। जाति प्रथा को जड़ से उखाड़ने के लिए और एक ईश्वरवाद को स्वीकार करने के लिए प्रार्थना समाज’ की स्थापना की गई। इसके प्रमुख गोविन्द रानाडे और आर०जी० भण्डारकर थे। इस महान् समाजसेवक ने अछूतों के उद्धार के लिए सत्यशोधक समाज की स्थापना की। महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु 28 नवम्बर, 1890 ई० में पुणे नगर में हुई।

(6)
अस्पृश्यनां दुःखेनोन्मूलने अस्य भूमिका अकथनीया विद्यते। पुणेनगरे दलितानां गृतिः शोचनीयासीत्। उच्चजातीनां कुपात् जलं नेतुं ते मुक्ताः नासन्। ते दलितानामेतादृशीं दुर्दशां दृष्ट्वा-दृष्ट्वा तस्य हृदयं विदीर्णोजातः तदैव सः स्वमनसि विचारयामास यत् एषाम् दुःखम् दूरीकरणीयम्। अयं महापुरुषः तेषाम्। अमानवीयव्यवहारं दृष्ट्वा सः स्वगृहस्य जलसंचय कूपम् अपृश्यानां कृते मुक्तं कृतवान्। सः नगरपालिकायाः सदस्यः आसीत् अतः तेषां कृते सार्वजनिकस्थाने (UPBoardSolutions.com) जलसंचय कूपं स्यात् एतत् प्रबन्धनं कृतम्। मालाकारसमाजस्य महात्मा ज्योतिबा फुले एव एतादृशः महामानवः आसीत् यः निम्नजातीनां जनानां कृते समानतायाः अधिकारस्य आजीवनं कार्यमकरोत्।।

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शब्दार्थ दलितानां गतिः = दलितों की स्थिति हृदयं विदीर्णोजातः = मन दुःखी हो जाता था, जलसंचय कूपम् = पानी की हौज।।

प्रसंग अछूत जातियों के दुःख के उन्मूलन में इनकी भूमिका का वर्णन इस गद्यांश में किया गया है।

अनुवाद अछूत वर्ग (की जाति) के दु:खों को दूर करने में इनकी भूमिका अकथनीय है। पुणे नगर में दलितों की गति सोचनीय थी। उच्च जाति के लोगों के कुएँ से पानी लेने के लिए वे मुक्त नहीं थे (अर्थात् पानी नहीं ले सकते थे)। उन दलितों की ऐसी दुर्दशा देख-देखकर उनका हृदय विदीर्ण हो जाता था तभी उन्होंने अपने मन में विचार किया कि इनके दुःख को दूर करना होगा। इन महापुरुष ने उनके अमानवीय व्यवहार को देखकर अपने घर में जलसंचय करने के लिए कुएँ को अछूतों के लिए मुक्त कर दिया। वे नगरपालिका के सदस्य थे अत: उनके लिए सार्वजनिक स्थानों से जलसंचय करने के लिए कुआँ हो, ऐसा प्रबन्ध किया। माली समाज के महात्मा ज्योतिबा फुले ऐसे ही महामानव थे जिन्होंने निम्न जाति के लोगों के समानता के अधिकार के लिए आजीवन कार्य किया।

(7)
अस्य सहधर्मचारिणी सावित्रीबाई अस्य कार्येण प्रभाविता आसीत्। अतः सा नारी शिक्षयितुं कटिबद्धासीत्। यदा सा नारी पाठयितुं प्रारब्धवती तदैव दलितविरोधिनः उच्चस्वरैः विरोधं प्रकटयन उक्तवन्तः यत् एकाहिन्दूनारी शिक्षिका भूता समाजस्य धर्मस्य च विरोधं कर्तुं शक्नोति। नारी जातेः पठनं पाठनं वा धर्मविरुद्धं वर्तते। सावित्रीबाई यदा विद्यालयं गच्छति स्म तदा तस्योपरि मृत्तिका-गोमय-प्रस्तरखण्डान् नारीशिक्षाविरोधिनः प्रक्षेपयन्ति स्म एवञ्च व्यंग्यबाणैः अपीड़यन् तथापि सा स्वकर्तव्यात् विमुखा न सजाता| मराठी शिक्षकः शिवराम भवालकरः अस्याः प्रशिक्षकः आसीत्। इयं उपेक्षितानां दलितनारीणां कृते बहुविद्यालयं संचालितवती।।

शब्दार्थ सहधर्मचारिणी = धर्मपत्नी। पाठयितुं प्रारब्धवती = पढ़ाना आरम्भ किया, उच्चस्वरैः = ऊँची आवाजों में उक्तवन्तः = कहने लगे। गोमयम् = गोबर व्यंग्यबाणैः = उपहास के बाणों से।

प्रसंग इस गद्यांश में ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई के स्वभाव और सामाजिक कार्यों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई इनके कार्यों से प्रभावित थीं। अतः वे नारी शिक्षा के लिए कटिबद्ध थी। जब उन्होंने नारियों को पढ़ाना प्रारम्भ किया तभी दलित विरोधियों ने उच्च स्वरों में विरोध प्रकट करते हुए कहा कि एक हिन्दू नारी शिक्षक होने से समाज और धर्म का विरोध कर सकती है। नारी जाति को पढ़ना या पढ़ानी धर्म के विरुद्ध है। सावित्रीबाई जब विद्यालय जाती थीं तब उनके ऊपर मिट्टी-गोबर-पत्थर के टुकड़े नारी-शिक्षा के विरोधी फेंकते थे और व्यंग्य के बाणों से पीड़ित करते थे। तब भी वे अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं हुईं। मराठी शिक्षक शिवराम भवालकर इनके प्रशिक्षक थे। इन्होंने उपेक्षित दलित स्त्रियों के लिए अनेक विद्यालय संचालित किए।

(8)
द्विपंचाशताधिकाष्टादशखीष्टाब्दे फरवरीमासस्य सप्तदशदिनाङ्के अस्य विद्यालयस्य निरीक्षणं सजातम् परिणामस्वरूपे अस्य अष्टादशविद्यालयाः संचालिताः अभवन्। नवम्बरमासस्य षोडशदिनाङ्के ‘विश्रामबाडा’ इति स्थाने सार्वजनिव-अभिनन्दनसमारोहे अस्याः अभिनन्दनं सम्पन्नम्। अस्माकं देशस्य इतिहासे सावित्री फूले प्रथमा दलिताशिक्षिकायाः गौरवेणालङ्कृता।

शब्दार्थ निरीक्षणं सञ्जातम् = निरीक्षण किया गया। इति स्थाने = इस नाम वाले स्थान पर। देशस्य इतिहासे = देश के इतिहास में।।

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प्रसंग इस गद्यांश में ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई’ के द्वारा शिक्षा जगत् के लिए किया गया प्रयास और उनकी सफलता का वर्णन किय गया है।

अनुवाद सत्रह फरवरी, सन् 1852 ई० में इनके (UPBoardSolutions.com) विद्यालय का निरीक्षण हुआ जिसके परिणामस्वरूप इनके अठारह विद्यालय संचालित हुए। नवम्बर मास की सोलह दिनांक को विश्रामबाडा नामक स्थान पर सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह में इनका अभिनन्दन किया गया। हमारे देश के इतिहास में सवित्री फुले प्रथम दलित शिक्षिका के गौरव से अलंकृत हुईं।

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Class 10 Sanskrit Chapter 11 UP Board Solutions जीवनं निहितं वने Question Answer

UP Board Class 10 Sanskrit Chapter 11 Jeevanam Nihitam Vane Question Answer (गद्य – भारती)

कक्षा 10 संस्कृत पाठ 11 हिंदी अनुवाद जीवनं निहितं वने के प्रश्न उत्तर यूपी बोर्ड

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परिचय

भारतवर्ष के लोगों द्वारा वनों का सदा से आदर किया जाता रहा है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि वनों में ही आश्रम बनाकर रहते थे। वैदिक धर्म में जो चार आश्रम माने गये हैं उनमें तीसरा आश्रम, अर्थात् वानप्रस्थाश्रम; वनों से ही सम्बन्धित है। वैदिक वाङ्मय के एक भाग ‘आरण्यक्’ ग्रन्थ हैं। अरण्य में रचित होने के कारण ही इन्हें यह नाम दिया गया है। वनों का ऐतिहासिक, आध्यात्मिक महत्त्व होने के साथ-साथ भौतिक महत्त्व भी है। वनों से (UPBoardSolutions.com) हमें लकड़ी, ओषधियाँ तथा अन्य बहुत-सी उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से आज वातावरण दूषित हो गया है, वर्षा कम हो रही है, गरमी बढ़ रही है और भूमिगत जल का स्तर भी कम होता जा रहा है। अतः जीवन को सुचारु रूप से चलाने, पर्यावरण को सुरक्षित करने तथा वन्य-जीवों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि वनों की अनियन्त्रित कटाई पर रोक लगायी जाए तथा जो वृक्ष काटे जा चुके हैं, उनके स्थान पर नये पौधे लगाये जाएँ। प्रस्तुत पाठ में उपर्युक्त सभी तथ्यों पर प्रकाश डालकर जीवन में वन के महत्त्व को समझाया गया है।

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पाठ-सारांश [2006,07,08, 10, 11, 12, 14]

वनों का महत्त्व ‘वन’ शब्द सुनने से ही मन में कुछ भय और आदर उत्पन्न होता है। भय इसलिए कि वन में सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक पशु और अजगर आदि सर्प रहते हैं। वन में इतनी निर्जनता होती है कि विपत्ति में पड़े हुए मानव को करुण-क्रन्दन वन में ही विलीन हो जाता है। आदर इसलिए कि हमारे भौतिक
और सांस्कृतिक विकास में वनों का बड़ा योगदान है। ब्रह्म विद्या के विवेचक, उपनिषद् आदि ग्रन्थों की रचना वनों में ही हुई। तपोवनों में दशलक्षणात्मक मानव धर्म और पुरुषार्थ चतुष्टयों का आविर्भाव हुआ है। इसलिए प्राचीन काल में लोगों ने वन के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की। वन मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप में जो कुछ प्रदान करते हैं उससे कहीं अधिक वे परोक्ष रूप में देते हैं। इसलिए प्राचीन लोग वृक्षों को पुत्रवत् । पालते थे और वन्य जन्तुओं की रक्षा करते थे।

वनों की रक्षा के प्रयास लोभी मनुष्य अपने थोड़े-से लाभ के लिए वनों को इस प्रकार लगातार काटता जा रहा है कि एकाएक उसके स्वयं के जीवन के लिए भी संकट पैदा हो गया है; क्योंकि जीवन अन्नमय है। अन्न कृषि से उत्पन्न होता है और कृषि हेतु अनुकूल वातावरण बनाने के लिए वनों की अत्यधिक आवश्यकता है। यही कारण है कि आजकल संसार में सभी राष्ट्र वनों की रक्षा करने में लगे हुए हैं। भारत में भी सरकार के द्वारा लोगों को वन-संरक्षण के प्रति जागरूक करने के लिए आन्दोलन चलाये जा रहे हैं और वन-महोत्सव आयोजित किये जा रहे हैं। इनके माध्यम से लोगों को अधिकाधिक वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

वनों के प्रकार वनों की रचना वनस्पति और पक्षियों सहित जन्तुओं से होती है। मनुष्य को दोनों से ही पर्याप्त लाभ हैं। वृक्षों से फल, फूल, ईंधन और मकान बनाने की लकड़ी प्राप्त होती है। औद्योगिक उत्पादन के लिए उपयोगी जैतून का तेल और दूसरे उपयोगी द्रव-पदार्थ भी वनस्पतियों से ही उपलब्ध होते हैं। आजकल प्रचलित वस्त्रों के निर्माण में काम आने वाले तन्तुओं को बनाने में एक विशिष्ट प्रकार के वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग होता है। वृक्षों की शाखाओं से सन्दूक आदि गृहोपयोगी सामग्री का निर्माण होता है। रस्सी और चटाइयाँ भी वनस्पति से ही निर्मित होती हैं। इस प्रकार वनस्पतियों को बिना विचारे काटना महापाप है। यदि (UPBoardSolutions.com) किसी विशेष परिस्थिति में वृक्ष काटने ही पड़े तो वृक्षों की हानि की पूर्ति के लिए अतिरिक्त वृक्षों को लगाया जाना चाहिए। हरे वृक्षों के काटने पर रोक लगायी जानी चाहिए। वन वायु-शुद्धि, भू-क्षरण निरोध और बादलों को बरसने में सहायता करके मानव का उपकार करते हैं।

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पशु-पक्षियों की रक्षा वृक्षों के काटने के समान ही मनुष्यों ने जंगली जानवरों का भी विनाश किया है। खाल, दाँत, पंख आदि के लालच से मनुष्य ने इतने अधिक पशु-पक्षियों का वध कर दिया है कि उनकी न जाने कितनी जाति-प्रजातियाँ ही नष्ट हो गयीं। वह सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं को ही नहीं, वरन् हिरन जैसे भोले-भाले, सुन्दर पशुओं को भी मारने लगा है। हिंसक पशु भी प्रकृति का सन्तुलन कर मनुष्य को महान् उपकार करते हैं। पक्षी कृषि को हानि पहुँचाने वाले कीड़ों को, तीतर दीमकों को, सिंह आदि भी अन्य पशुओं को मारकर उनको अधिक बढ़ने से रोकते हैं। अतः मनुष्य को वन्य जन्तुओं और पशु-पक्षियों की रक्षा करनी चाहिए।

भारत में पक्षियों की साढ़े बारह सौ प्रजातियाँ पायी जाती हैं। वे ऋतु-परिवर्तन, प्रजनन और भोजन-प्राप्ति के कारणों से अन्यत्र जाते हैं और वापस यहाँ आते हैं। शीतकाल में साइबेरिया से हजारों पक्षी भरतपुर के पास घाना पक्षी-विहार में आते हैं। पक्षियों की मित्रता, दाम्पत्य-प्रेम, काम-व्यापार, भोजन की विधियाँ, घोंसले बनाना और विपत्ति में अपनी रक्षा करना, ये सब मनुष्य के लिए अध्ययन के विषय हैं।

विश्नोई जाति द्वारा वृक्षों का संरक्षण हमारे देश में सलीम अली ने पक्षी-विज्ञान के सम्बन्ध में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। हरियाणा और राजस्थान में विश्नोई सम्प्रदाय के लोग प्राण देकर. भी पशु-पक्षियों और हरे वृक्षों की रक्षा करते हैं। वृक्षों को न काटने देने और उनका संरक्षण-संवर्द्धन करने में इस जाति के लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जोधपुर नरेश की आज्ञा से वृक्षों को काटे जाने पर 300 विश्नोई स्त्री-पुरुषों ने अपने प्राण त्याग दिये थे। हमें भी वृक्षों के संरक्षण-संवर्द्धन हेतु इनके जैसा ही उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।

वनों से ग्राह्य लाभ वनों से जो लाभ प्राप्त करने योग्य हैं, उन्हें अवश्य प्राप्त करना चाहिए। योजना बनाकर ही पुराने वृक्षों को काटना चाहिए और उनसे दुगुने नये वृक्ष पहले ही लगा देने चाहिए। घरों के आँगनों में, खेतों की सीमाओं पर, पर्वतों की तलहटियों में, खेल के मैदान में चारों ओर तथा मार्गों के दोनों ओर जितना भी स्थान मिले, वृक्ष लगाने चाहिए। यह कार्य योजनाबद्ध रूप में किया जाना चाहिए। जन्म-मृत्यु और विवाह के अवसरों पर वृक्ष लगाये जाने चाहिए। यदि योजना बनाकर उत्साहपूर्वक वृक्ष लगाये जाएँ और उनका पोषण किया जाए तो अभी भी क्षतिपूर्ति हो सकती है। वन-संरक्षण के लिए हमें-‘वनेन जीवनं

रक्षेत्, जीवनेन वनं पुनः– आदर्श का पालन करना चाहिए।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
वनमिति शब्दः श्रुतमात्र एव कमपि दरमादरं वा मनसि कुरुते। तत्र सिंहव्याघ्रादयो भयानका हिंस्रकाः पशवोऽजगरादयो विशालाश्च सरीसृपाः वसन्ति, निर्जनता तु तादृशी यत्तच्छायायामापदि निपतितस्य जनस्य आर्तः स्वरो मानवकणें प्रविशेदिति घुणाक्षरीयैव सम्भावना, प्रायशस्तु स वनगहन एव विलीयेतेति नियतिः। एतां स्थितिमेव विबोध्य संस्कृते मनीषिभिररण्यरोदनन्याय उद्भावितः। सत्यमेव स्थितिमेतामनुस्मृत्यापि भिया वपुष्येकपदे एव रोमाञ्चो जायते। परन्त्वस्माकं न केवलं भौतिके प्रत्युत सांस्कृतिकेऽपि विकासे वनानां सुमहान् दायो यत आरण्यकोपनिषदादयः पराविद्याविवेचका ग्रन्थाः वनेष्वेवाविर्भूताः। वनस्थेषु (UPBoardSolutions.com) तपोवनेष्वेव दशलक्षणात्मको मानवधर्मश्चतुष्टयात्मकं जीवनोद्देश्यं च उत्क्रान्तमितीतिहासः सुतरां प्रमाणयति तस्मात् वनेष्वस्माकमादरोऽपि भवति। प्राक्तनैस्तु वनं विना जीवनमेव न परिकल्पितम्। संस्कृतकवीनां वनदेवताकल्पना वानप्रस्थाश्रमे च वननिवासविधानं तदेव सङ्केतयति। एतदपि बोध्यं यत् प्रत्यक्षतो वनानि मनुजजात्यै यावद् ददति परोक्षतस्तु ततोऽप्यधिकम्, तस्मादेव कारणात् प्राञ्चः स्वपुत्रकानिव पादपान् पालयन्ति स्म जन्तूञ्च रक्षन्ति स्म, अजर्यं तेषां तैः सङ्गतमासीत्।

शब्दार्थ श्रुतमात्र एव = सुनते ही दरम् = भय। आदरम् = आदर। हिंस्रकाः = हिंसा करने वाले। सरीसृपाः = सर्प आदि रेंगने वाले जन्तु। तादृशी = उसी प्रकार की। यत्तच्छायायामापदि (यत् + तत् + छायायाम् + आपदि) = कि उसकी छाया में आपत्ति में। घुणाक्षरीयः = घुणाक्षर न्याय से, संयोग से, अकस्मात्। विलीयेत = नष्ट हो जाये। नियतिः = भाग्य। विबोध्य = जानकर। अरण्यरोदनन्यायः = वन में रुदन करने की कहावता उद्भावितः = कल्पना की है। वपुष्येकपदे (वपुषि + एकपदे) = शरीर में एक साथ)। दायः = योगदान आरण्यकोपनिषदादयः = आरण्यक उपनिषद् आदि। पराविद्या = आध्यात्मिक विद्या। वनेष्वेवाविर्भूताः (वनेषु + एव + आविर्भूताः) = वन में ही प्रकट हुए हैं। वनस्थेषु = वनों में स्थिता तपोवनेष्वेव = तपोवनों में ही। उत्क्रान्तम् = प्रकट हुआ। प्राक्तनैः = प्राचीन विद्वानों के द्वारा| वननिवासविधानम् = वन में निवास करने का नियम्। बोध्यम् = जानना चाहिए। मनुजजात्यै = मनुष्य जाति के लिए यावद् ददति = जितना देते हैं। परोक्षतस्तु = अप्रत्यक्ष रूप से तो। प्राञ्चः = प्राचीन पुरुष। अजय॑म् = अटूट, कम न होने वाला। सङ्गतमासीत् = सम्बन्ध था।

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सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संगृहीत ‘जीवनं निहितं वने’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों में यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग इस गद्यावतरण में वनों की भयंकरता तथा आध्यात्मिक महत्व के बारे में बताया गया है।

अनुवाद ‘वन’ यह शब्द केवल सुननेमात्र से ही मन में कुछ डर और आदर (उत्पन्न) करता है। वहाँ सिंह, व्याघ्र आदि भयानक हिंसक पशु, अजगर आदि विशाल सर्प (रेंगने वाले विषैले जीव) रहते हैं। वहाँ निर्जनता वैसी है कि उसकी छाया में आपत्ति में पड़े मनुष्य का करुण-क्रन्दन मानव के कान में प्रवेश कर जाये, यह घुणाक्षर न्याय; अर्थात् संयोग से ही सम्भव है, प्रायः वह (आर्त स्वर) वन की गहनता में स्वाभाविक रूप से विलीन हो जाता है। इस स्थिति में जान करके संस्कृत में विद्वानों ने ‘अरण्यरोदन न्याय की कल्पना की है। सचमुच में ही, इस स्थिति को याद करके भी डर से शरीर में एकदम ही रोमांच हो जाता है, परन्तु हमारे केवल भौतिक विकास में ही नहीं, प्रत्युत सांस्कृतिक विकास में भी वनों का बहुत बड़ा योगदान है; क्योंकि आरण्यके, उपनिषद् आदि अध्यात्म विद्या का विवेचन करने वाले ग्रन्थ वनों में ही रचे गये। वनों में स्थित तपोवन में ही दस लक्षणों वाला मानव धर्म, पुरुषार्थ चतुष्टयों से युक्त जीवन का उद्देश्य प्रकट हुआ, ऐसा (यह) इतिहास अच्छी तरह प्रमाणित करता है। इस कारण (UPBoardSolutions.com) वनों के विषय में हमारा आदर भी होता है। प्राचीन विद्वानों ने वन के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की। संस्कृत कवियों की वन-देवता की कल्पना करना और वानप्रस्थ आश्रम में वन में रहने का नियम उसी (बात) का संकेत करता है। यह भी समझ लेना चाहिए कि प्रत्यक्ष रूप से वन मनुष्य जाति को जितना देते हैं, परोक्ष रूप से उससे भी अधिक देते हैं। इसी कारण से प्राचीन लोग वृक्षों का अपने पुत्र के समान पालन करते थे और वन के प्राणियों की रक्षा करते थे। उनके साथ उनका अटूट सम्बन्ध था।

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(2)
किन्तु हन्त! निरन्तरविवर्धितसङ्ख्यो विवृद्धलोभो मानवस्तात्कालिकाल्पलाभहेतोर्विचारमूढ़तया वनानि तथा अचीकृन्तत् चङकृन्तति च यत्तस्य निजजीवनस्यैव नैकधा भीरुपस्थिता, जानात्येव लोको यज्जीवनमन्नमयम्, अन्नं च कृष्योत्पाद्यम्, कृषिविकासार्थं समुचितं वातावरणं घटयितुं प्राकृतिकं सामञ्जस्यं च रक्षितुं वनानामद्यत्वे यादृश्यावश्यकता न तादृशी क्वापि पुराऽन्वभूयत्। यतोऽहर्निशं विद्यमानानां वनानां तावानेवांशोऽवशिष्टः यावान् भारतभूभागस्य प्रतिशतं केवलमेकादशमंशमावृणोति, तत्राप्युत्कृष्टवनानि तु प्रतिशतं चतुरंशात्मकान्येव। भद्रमिदं यदधुना विश्वस्य सर्वेष्वपि राष्ट्रेषु वनानां रक्षार्थं प्रयासाः क्रियन्ते। भारतेऽपि सर्वकारेण तदर्थं जनं प्रबोधयितुमेकमान्दोलनमेव चालितं यदधीनं समये-समये नैकत्र वनमहोत्सवा आयोज्यन्ते, व्यक्तयः सार्वजनीनाः संस्थाश्चापि वृक्षान् रोपयितुं प्रोत्साह्यन्ते।

शब्दार्थ निरन्तरविवर्धितसङ्ख्यः = लगातार बढ़ती हुई संख्या वाला। मानवस्तात्कालिकालाभहेतोर्विचारमूढतया = मनुष्य ने तुरन्त होने वाले थोड़े लाभ के कारण विचारहीनता से। अचीकृन्तत् = काट डाला। कृन्तति = काट रहा है। नैकधा (न + एकधा) = अनेक प्रकार से। भीः = भय। कृष्योत्पाद्यम् = खेती (कृषि) के कारण उत्पन्न होने वाला। घटयितुम् = जुटाने (बनाने के लिए। सामञ्जस्यम् = सन्तुलन, तालमेल। पुरा = पहले। अन्वभूयत् = अनुभव की गयी। अहर्निशम् = रात-दिन। तावानेवांशोऽवशिष्टः (तावान् + एव + अंशः + अवशिष्टः) = उतना ही भाग बचा है। आवृणोति = ढकता है। तत्रापि = उनमें भी। चतुरंशात्मकान्येव = चार भाग ही है। सर्वकारेण = सरकार ने। प्रबोधयितुम् = जाग्रत करने के लिए। नैकत्र = अनेक स्थानों पर। आयोज्यन्ते = आयोजित किये जाते हैं। प्रोत्साह्यन्ते = प्रोत्साहित किये जाते हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में अल्प लाभ के लिए स्वार्थी मनुष्य के द्वारा वनों के काटे जाने और सरकार द्वारा वृक्षारोपण को प्रोत्साहित किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद किन्तु खेद है, निरन्तर बढ़ी हुई संख्या (जनसंख्या) वाले और बढ़े हुए लोभ वाले मानव ने तात्कालिक थोड़े-से लाभ के लिए विचारशून्य होने से वनों को इस प्रकार काट डाला और अभी भी काट रहा है कि उसके अपने जीवन को ही अनेक प्रकार से भय उत्पन्न हो गया है। संसार जानता ही है कि जीवन अन्नमय है और अन्न कृषि से उत्पन्न होता है। कृषि के विकास के लिए समुचित वातावरण जुटाने के लिए और प्रकृति के सन्तुलन की रक्षा (बनाये रखने) के लिए आज के समय में वनों की जैसी आवश्यकता है, वैसी पहले कहीं भी अनुभव नहीं की गयी; क्योंकि रात-दिन विद्यमान वनों का उतना ही अंश बचा है, जितना (UPBoardSolutions.com) भारत की भूमि के केवल 11 प्रतिशत भाग को ही ढक पाता है। उसमें भी अच्छे वन तो चौथाई प्रतिशत ही हैं। यह अच्छा है कि अब विश्व के सभी राष्ट्रों में वनों की रक्षा के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। भारत में भी सरकार ने उसके लिए लोगों को जागरूक करने के लिए एक आन्दोलन ही चला रखा है, जिसके अन्तर्गत समय-समय पर अनेक जगह वन-महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, व्यक्तियों और सार्वजनिक संस्थाओं को भी वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

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(3)
वनसङ्घटकास्तावद् द्विविधा वनस्पतयः सविहगा जन्तवश्च। उभयस्मादपि मानवस्य लाभस्तद् द्वयमपि च यथायोग्यं रक्षणीयम्। वृक्षेभ्यो न केवलं फलानि, पुष्पाणि, इन्धनार्माणि भवनयोग्यानि च काष्ठानि, अपितु भैषज्यसमुचितानि नानाप्रकाराणि वल्कलमूलपत्रादीनि वस्तून्यपि लभ्यन्ते, नानाविधौद्योगिकोत्पादनसमुचितानि जतूनि, तैलानि तदितरद्रवपदार्थाश्चापि प्राप्यन्ते। स्वास्थ्यकरं मधुरं सुस्वादु औषधभोजनं मधु अपि वनपतिभ्यः एवोपलभ्यते। कर्गदस्येव नाइलोन इति प्रसिद्धस्य उत्तमपटनिर्मितिप्रयुक्तस्य सूत्रस्योत्पादनेऽपि वृक्षविशेषाणां काष्ठमुपादानं जायते। तेषां शाखानामुपयोगो मञ्जूषापेटिकादिनिर्माण क्रियते। रज्जवः कटाश्चापि वानस्पतिकमुत्पादनमिति कस्याविदितम्? एवंविधस्य वनस्पतिसमूहस्य अविचारितकर्तनं न केवलं कृतघ्नता, अपितु ब्रह्महत्येव महापातकमपि। सम्प्रति यावद् वनानां या हानिः कृता तत्पूर्त्यर्थं हरितवृक्षाणां कर्तनावरोधो नूतनानां प्रतिदिनमधिकाधिकारोपश्च सर्वेषामपि राष्ट्रियं कर्तव्यम्। वायुशुद्धिः, भूक्षरणनिरोधः पर्जन्यसाहाय्यं च वनानां मानवस्य जीवनप्रदः परोक्ष उपकारः।

वनसङ्कटकास्तावद …………………………………………… पदार्थाश्चापि प्राप्यन्ते।

शब्दार्थ वनसङ्कटकास्तावत् = वनों का संघटन करने वाली। सविहगाः = पक्षियों सहिता ईन्धनार्माणि = ईंधन के योग्य। भैषज्यसमुचितानि = दवाई के योग्य। जतूनि = लाख। औषधभोजनम् = औषध और भोजन। कर्गदस्येव = कागज़ के समान ही। उत्तमपटनिर्मितिप्रयुक्तस्य = उत्तम कपड़ों के बनाने में प्रयुक्त होने वाले को। उपादानम् = प्रमुख कारण। मञ्जूषा = सन्दूका रज्जवः = रस्सियाँ। कटाः = चटाइयाँ। वानस्पतिक-मुत्पादनमिति = वनस्पतियों से होने वाला उत्पादन है, ऐसा। अविचारितकर्तनम् = बिना विचारे काटना। महापातकमपि = महापाप भी। कर्त्तनावरोधः = काटने पर रोका आरोपः = लगाना| पर्जन्यसाहाय्यम् = मेघों की सहायता।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में वनों में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लाभों को बताया गया है।

अनुवाद वनों के संघटक (रचना करने वाले तत्त्व) दो प्रकार के होते हैं-वनस्पतियाँ और पक्षियोंसहित जीव-जन्तु। दोनों से ही मनुष्य का लाभ है। इसलिए उन दोनों की यथायोग्य रक्षा करनी चाहिए। वृक्षों से केवल फल, फूल, ईंधन के योग्य और मकान बनाने के योग्य लकड़ियाँ ही प्राप्त नहीं होती हैं, अपितु ओषधियों के योग्य नाना प्रकार के वल्कल (छाल), जड़े, पत्ते आदि. वस्तुएँ भी प्राप्त होती हैं। नाना प्रकार के औद्योगिक उत्पादन के योग्य लाख, तेल और द्रव पदार्थ भी प्राप्त होते हैं। स्वास्थ्यकारी, मीठा, स्वादिष्ट, औषध में खाने योग्य शहद भी वनस्पतियों से ही प्राप्त होता है। कागज के समान नाइलोन नाम से प्रसिद्ध, उत्तम कपड़ों के बनाने के काम में आने वाले धागे के उत्पादन में भी विशेष वृक्षों की लकड़ी सामग्री (कच्चे माल) का काम करती है। उनकी शाखाओं का उपयोग सन्दूक, पेटी आदि के बनाने में (UPBoardSolutions.com) किया जाता है। रस्सियाँ और चटाइयाँ भी वनस्पतियों से ही बनती हैं, यह किसे अज्ञात है? इस प्रकार की वनस्पतियों के समूह का बिना विचारे काटना केवल कृतघ्नता ही नहीं है, अपितु ब्रह्म-हत्या के समान महान् पाप भी है। अब तक वनों की जो हानि की गयी, उसकी पूर्ति के लिए हरे वृक्षों के काटने पर रोक और प्रतिदिन अधिक-से अधिक नये (वृक्षों को) लगाना सभी का राष्ट्रीय कर्तव्य है। वायु की शुद्धता, पृथ्वी के कटाव को रोकना और मेघों की सहायता करना वनों का मनुष्यों को जीवन प्रदान करने वाला परोक्ष (अप्रत्यक्ष) उपकार है।

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(4)
यथा वृक्षाणामुच्छेदस्तथैव मानवेन वन्यजन्तूनामप्यमानवीयो विनाश आचरितः।। चर्मदन्त-पक्षादिलोभेन मांसलौल्येन च पशुपक्षिणां तावान् वधः कृतो यदनेकास्तेषां प्रजातयो भूतलाद् विलुप्ताः, नैकाश्च लुप्तप्रायाः। सिंहव्याघ्रादीनां तु दूर एवास्तां कथा, हरिणादिमुग्धपशूनु तित्तिरादिकान् उपयोगिनः पक्षिणोऽपि निघ्नन्नासौ विरमति। हिंस्रकाः जन्तवोऽपि प्राकृतिक सन्तुलनं रक्षन्ति मनुष्यस्य चोपकारका एव भवन्ति। पक्षिणः कृषिहानिकरान् कीटान् भक्षयन्ति यथा तित्तिरः सितपिपीलिकाः तथैव सिंहादयाः पशून हत्वा परिसीमयन्ति। एवं स्वत एवं प्रकृतिः स्वयं सन्तुलनं साधयति। एवमद्यानुभूयते यत् मनुष्यस्य तदितरेषां प्राणिनां च मध्ये सौहार्दै स्थापनीयम्। तत्र मनुष्य एव प्रथमं प्रबोधनीयः शिक्षणीयश्च यतः स निरर्थकं मनोरञ्जनायापि मृगयां क्रीडन् हिंसा करोति।

यथा वृक्षाणामुच्छेदः …………………………………………… एव भवन्ति [2008]

शब्दार्थ वृक्षाणां = वृक्षों को। उच्छेदः = काटना| पक्ष = पंख। लौल्येन = लालच से। दूर एव आस्तां कथा = दूर ही रहे कहानी। तित्तिरादिकान् = तीतर आदि को। निघ्नन् = मारते हुए। विरमति = रुकता है। सितपिपीलिकाः = दीमक परिसीमयन्ति = सीमित कर देते हैं। एवमद्यानुभूयते = इस प्रकार आज अनुभव किया जा रहा है। सौहार्दम् = मित्रता। मृगयां क्रीडन् = शिकार खेलता हुआ।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में मानव द्वारा वन्य पशु-पक्षियों के विनाश करने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद मानव ने जिस प्रकार वृक्षों को काटा, उसी प्रकार जंगली जानवरों का भी अमानवीय (नृशंस) विनाश किया। खाल, दाँत, पंख आदि के लालच से और मांस के लालच से पशु-पक्षियों का इतना वध किया है। कि उनकी अनेक जातियाँ पृथ्वी से ही लुप्त हो गयीं और अनेक समाप्त होने वाली (लुप्तप्राय) हैं। सिंह, बाघ आदि की बात तो दूर है, हिरन आदि भोले-भाले पशुओं, तीतर आदि उपयोगी पक्षियों को भी मारते हुए (वह) नहीं रुक रहा है। हिंसक जानवर भी प्रकृति के सन्तुलन की रक्षा करते हैं और मनुष्य का उपकार करने वाले ही। होते हैं। पक्षी खेती को हानि पहुँचाने वाले कीड़ों को खाते हैं। जैसे तीतर सफेद चीटियों (दीमकों) को, उसी प्रकार सिंह आदि (भी अन्य) पशुओं को मारकर (उनकी वृद्धि को) सीमित कर देते हैं। इस प्रकार प्रकृति स्वयं ही अपना सन्तुलन कर लेती है। इस प्रकार आज अनुभव किया जा रहा है कि मनुष्य और उससे भिन्न प्राणियों के बीच में मित्रता स्थापित होनी चाहिए। उनमें पहले मनुष्य को ही समझाना चाहिए और शिक्षा देनी चाहिए, क्योंकि वह व्यर्थ ही मनोरंजन के लिए भी शिकार खेलता हुआ हिंसा करता है।

(5)
अस्माकं विशाले भारतवर्षे सार्धद्वादशशतजातीयाः पक्षिणः प्राप्यन्ते। तेषु बहवः ऋतुपरिवर्तनकारणात् प्रजननहेतोभॊजनस्य दुष्प्राप्यत्वात् काले-काले पत्र व्रजन्ति। एवमेव देशान्तरादपि बहवः पक्षिणोऽत्रागत्य प्रवासं कुर्वन्ति। रूसप्रदेशस्य साइबेरियाप्रान्तात् सहस्रशो विहगाः शीतकाले (UPBoardSolutions.com) भारतस्य भरतपुरनिकटस्थे घानापक्षिविहारम् आगच्छन्ति। पक्षिणां मैत्रीभावः, दाम्पत्यं, मिथो व्यापाराः, भोजनविधयः, नीइनिर्माणं विपदि आचरणं सर्वमपि प्रेक्षं प्रेक्षमध्येयं भवति। तन्न केवलं मनोरञ्जकमपितु शिक्षाप्रदमात्मानन्दजनकं चापि भवति।

शब्दार्थ सार्धद्वादशशतजातीयाः = साढ़े बारह सौ जातियों वाले। प्राप्यन्ते = प्राप्त होते हैं। परत्र = दूसरे स्थान पर। व्रजन्ति = चले जाते हैं। देशान्तरादपि = दूसरे देश से भी। प्रवासं = निवास। मिथो व्यापाराः = काम-व्यापार नीडनिर्माणम् = घोंसला बनाना। विपदि आचरणम् = विपत्ति में आचरण| प्रेक्षं-प्रेक्षं = देख-देखकर।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में भारत में विद्यमान पक्षी-प्रजातियों और दूसरे देशों से आने वाले पक्षियों के बारे में बताया गया है।

अनुवाद हमारे विशाल भारत देश में साढ़े बारह सौ जाति के पक्षी प्राप्त होते हैं। उनमें बहुत-से ऋतु-परिवर्तन के कारण, प्रजनन के लिए, भोजन कठिनाई से प्राप्त होने के कारण समय-समय पर दूसरी जगह चले जाते हैं। इसी प्रकार दूसरे देशों से भी बहुत-से पक्षी यहाँ आकर निवास करते हैं। रूस देश के ‘साइबेरिया’ प्रान्त से ठण्ड के समय में हजारों पक्षी भारत के ‘भरतपुर’ नामक स्थान के समीप घाना पक्षीविहार में आते हैं। पक्षियों की मित्रता, दाम्पत्य-प्रेम, आपसी व्यवहार (काम-व्यापार), भोजन के तरीके, घोंसले बनाना, विपत्ति के समय उनका व्यवहार सभी के लिए बार-बार दर्शनीय और अध्ययन के योग्य होता है। वह केवल मनोरंजन करने वाला ही नहीं, अपितु शिक्षाप्रद और आत्मा से आनन्द उत्पन्न करने वाला भी होता है।

(6)
अस्माकं देशे सलीमअलीनामा महान् विहगानुवीक्षको जातो येन पक्षिविज्ञानविषये बहूनि पुस्तकानि लिखितानि सन्ति। हरियाणाप्रदेशे राजस्थाने च निवसन्तो विश्नोईसम्प्रदायस्य पुरुषा वनानां पक्षिणां च रक्षणे स्वप्राणानपि तृणाय मन्यन्ते। न ते हरितवृक्षान् छिन्दन्ति नापि चान्यान् छेत्तुं सहन्ते। वन्यपशूनामाखेटोऽपि तेषां वसतिषु नितरां प्रतिषिद्धः। जोधपुरनरेशस्य प्रासादनिर्माणार्थं काष्ठहेतोः केजरीवृक्षाणां कर्तनाज्ञाविरुद्धम् एकैकशः शतत्रयसङ्ख्यकैर्विश्नोईस्त्रीपुरुषैः विच्छेदिष्यमाणवृक्षानालिङ्गदिभः, प्रथममस्माकं वपुश्छेद्यं पश्चाद् वृक्षाः इत्येवं जल्पभिः स्वप्राणा दत्ता इति तु जगति विश्रुतं नामाङ्कनपुरस्सरं तत्राङ्कितं च।

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शब्दार्थ तृणाय मन्यन्ते = तिनके के समान मानते हैं। आखेटः = शिकार। वसतिषु = बस्तियों में। नितरां = पूर्ण रूप से। प्रतिषिद्धः = निषिद्ध है। प्रासादनिर्माणार्थं = महल बनाने के लिए। कर्तनाज्ञाविरुद्धम् = काटने की आज्ञा के विरोध में। एकैकशः = एक-एक करके। शतत्रय = तीन सौ। विच्छेदिष्यमाणवृक्षानालिङ्गभिः = काटे जाते हुए वृक्षों का आलिंगन करते हुए। वपुः = शरीर। छेद्यम् = काटना चाहिए। जल्पभिः = कहते हुए। विश्रुतं = प्रसिद्ध है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में विश्नोई जाति के स्त्री-पुरुषों का वृक्षों की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद हमारे देश में ‘सलीम अली’ नाम का महान् पक्षी-निरीक्षक हुआ है, जिसने पक्षियों के विज्ञान के विषय में बहुत-सी पुस्तकें लिखी हैं। हरियाणा प्रदेश और राजस्थान में रहने वाले ‘विश्नोई सम्प्रदाय के पुरुष वनों और पक्षियों की रक्षा करने में अपने प्राणों को भी तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं। वे हरे वृक्षों को नहीं काटते, न ही दूसरों के द्वारा काटना सह सकते हैं। जंगली पशुओं का शिकार भी उनकी बस्तियों में बिल्कुल निषिद्ध है। जोधपुर के राजा की; महल (UPBoardSolutions.com) बनाने हेतु लकड़ी के लिए केजरी वृक्षों के काटने की; आज्ञा के विरुद्ध एक-एक करके तीन सौ ‘विश्नोई जाति के स्त्री-पुरुषों ने काटे जाने वाले वृक्षों का आलिंगन करते हुए पहले हमारा शरीर काटो, बाद में वृक्ष काटना’ ऐसा कहते हुए अपने प्राण दे दिये थे। ऐसा जगत् । प्रसिद्ध है और नामांकित हुआ वहाँ (घटनास्थल पर) अंकित है।

(7)
नास्त्येषोऽस्माकमभिप्रायो यद्वनेभ्यः प्राप्यो लाभो ग्राह्य एव न। स तु अवश्यं ग्राह्यः यथा मधुमक्षिका पुष्पाणां हानि विनैव मधु नयति तथैव भवननिर्माणाय अन्यकारणाद् वा काष्ठं काम्यत एव, किन्तु पुरातना एव वृक्षा योजना निर्माय कर्तनीया, न नूतनाः। यावन्तः कर्त्तनीयास्तद्विगुणाश्च पूर्वत एव आरोपणीयाः। गृहाणां प्राङ्गणेषु, केदाराणां सीमसु, पर्वतानामुपत्यकासु, मार्गानुभयतः क्रीडाक्षेत्राणि परितश्च यत्रापि यावदपि स्थलं विन्दते तत्र यथानुकूल्यं विविधा वृक्षा रोपणीयाः। प्रत्येकं देशवासिनैवमेव विधेयं, प्रत्येक जन्म मृत्युर्विवाहश्च वृक्षारोपणेनानुसृतः स्यात्। यद्येवं सोत्साहं योजनाबद्धं च कार्यं भवेत् आरोपितानां वृक्षाणां च निरन्तरपोषणमुपचर्येत तर्हि वर्षदशकेनैव निकामं क्षतिपूर्तिर्भवेत्। किं बहुना, वृक्षाणां पशुपक्षिणां चं रक्षणे विश्नोई सम्प्रदायस्यादर्शः सर्वैरपि पालनीयः। एवं च ब्रूमः

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वनेन जीवनं रक्षेत् जीवनेन वनं पुनः।
मा वनानि नरश्छिन्देत् जीवनं निहितं वने ॥

शब्दार्थ मधुमक्षिका = शहद की मक्खी। काम्यत = चाहा जाता है। तद्विगुणाः = उससे दोगुने। आरोपणीयाः = लगाये जाने चाहिए। केदाराणां सीमसु = खेतों की सीमाओं पर। उपत्यकासु = निचली घाटियों में। मार्गानुभयतः = मार्गों के दोनों ओर परितः = चारों ओर। देशवासिनैवमेव (देशवासिना + एवं + एव) = देशवासियों के द्वारा इसी प्रकार। विधेयम् = करना चाहिए। अनुसृतः = अनुसरण किया हुआ। पोषणमुपचर्येत = पोषण किया जाए। निकामम् = पर्याप्त। सम्प्रदायस्यादर्शः = सम्प्रदाय का आदर्श। बूमः = कहते हैं। जीवनेन = : जीवन के द्वारा। मा = नहीं। नरश्छिन्देत् = मनुष्य को काटना चाहिए। निहितं = सुरक्षित है।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में वनों से प्राप्त होने वाले लाभों को प्राप्त करने व पुराने वृक्षों के काटने से पूर्व नये वृक्ष लगाने के लिए उपदेश दिया गया है।

अनुवाद हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि वनों से प्राप्त करने योग्य लाभ को ग्रहण ही नहीं करना चाहिए। उसे तो अवश्य ग्रहण करना चाहिए। जैसे मधुमक्खी पुष्पों की हानि के बिना ही पराग ले जाती है, उसी प्रकार भवन-निर्माण के लिए अथवा अन्य कारणों के लिए लकड़ी तो चाहिए ही, किन्तु योजना बनाकर पुराने वृक्षों को ही काटना चाहिए, नये नहीं। जितने काटे जाने हों, उससे दुगुने पहले से ही लगाये जाने चाहिए। घरों के आँगनों में, खेतों की सीमाओं पर, पर्वतों की तलहटियों में, मार्गों के दोनों ओर तथा खेल के मैदानों के चारों ओर जहाँ भी जितना भी स्थान मिलता है, वहाँ अनुकूलता के अनुसार अनेक प्रकार के वृक्ष लगाये जाने चाहिए। प्रत्येक देशवासी को ऐसा ही करना चाहिए। प्रत्येक जन्म, मृत्यु और विवाह वृक्षों के लगाने के साथ ही हों। यदि इस प्रकार उत्साहसहित योजना बनाकर कार्य किया जाये और लगाये (UPBoardSolutions.com) गये वृक्षों का निरन्तर पोषण किया जाये तो दस वर्ष में ही अत्यधिक क्षतिपूर्ति हो सकती है। अधिक क्या कहें, वृक्षों और पशु-पक्षियों की रक्षा करने में विश्नोई सम्प्रदाय के आदर्श का सबको पालन करना चाहिए। हम इस प्रकार कहते हैंवन से जीवन की रक्षा करनी चाहिए और जीवन से वन की रक्षा करनी चाहिए। मनुष्य को वनों को नहीं काटना चाहिए। वन में जीवन निहित है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वन और मनुष्य में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध के विषय में लिखिए।
या
वनों का महत्त्व समझाइए। [2006,07,08, 10, 12, 14]
या
वृक्षों के महत्त्व पर आलेख लिखिए। [2012]
उत्तर :
हमारे केवल भौतिक विकास में ही नहीं, प्रत्युत् सांस्कृतिक विकास में भी वनों का बहुत बड़ा योगदान है। आरण्यक, उपनिषद् आदि अध्यात्म विद्या का विवेचन करने वाले ग्रन्थ वनों में ही रचे गये। वनों में स्थित तपोवन में ही दस लक्षणों वाला मानव धर्म, पुरुषार्थ चतुष्टयों से युक्त जीवन का उद्देश्य प्रकट हुआ। यह इतिहास अच्छी तरह प्रमाणित करता है। प्राचीन विद्वानों ने वन के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की। संस्कृत कवियों की वन-देवता की कल्पना करना और वानप्रस्थ आश्रम में वन में रहने का नियम इसी बात की ओर संकेत करता है। प्रत्यक्ष रूप से वन मनुष्य जाति को जितना देते हैं, परोक्ष अर्थात् अप्रत्यक्ष रूप से उससे भी अधिक देते हैं। इसी कारण से प्राचीन लोग वृक्षों को अपने पुत्र के समान पालन करते थे और वन के प्राणियों की रक्षा करते थे। इनके साथ उनका अटूट और अन्योन्याश्रय सम्बन्ध उचित ही था।

प्रश्न 2.
वनों से हमें किस प्रकार लाभ ग्रहण करना चाहिए?
उत्तर :
वनों से प्राप्त होने वाले लाभों को हमें उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिस प्रकार मधुमक्खी फूलों को हानि पहुँचाए बिना उससे पराग ले जाती है। भवन निर्माण अथवा अन्य प्रयोजनों हेतु लकड़ी की आवश्यकता पड़ने पर पुराने वृक्षों को ही योजनाबद्ध रूप से काटना चाहिए, नये वृक्षों को नहीं और जितने वृक्ष काटे जाने हों उनसे दुगुने वृक्ष पहले ही लगाये जाने चाहिए।

प्रश्न 3.
‘वन में जीवन निहित है’, अतः इस जीवन को बचाये रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर :
‘वन में जीवन निहित है, अत: इस जीवन को बचाये रखने के लिए हमें नये वृक्षों को नहीं काटना चाहिए और पुराने वृक्षों को भी योजनाबद्ध रूप से काटना चाहिए। जितने वृक्ष काटे जाने हों उससे पहले उनसे दुगुने वृक्षों को लगाया जाना चाहिए। घरों के आँगनों में, खेतों की सीमाओं पर, पर्वतों की तलहटियों में, मार्गों के दोनों ओर, खेल के मैदानों के चारों ओर तथा जहाँ भी जितना भी स्थान मिलता हो वहाँ अनुकूलता के अनुसार अनेक प्रकार के वृक्ष लगाये जाने चाहिए। प्रत्येक देशवासी को प्रत्येक जन्म, मृत्यु, विवाह आदि अवसरों पर निश्चित ही वृक्षारोपण करना चाहिए।

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प्रश्न 4.
वन में पाये जाने वाले पशु-पक्षियों से हमें क्या लाभ हैं?’जीवनं निहितं वने’ पाठ के आधार पर बताइए।
उत्तर :
वनों के समान वन्य जन्तु और पशु-पक्षी भी हमें अनेक लाभ पहुँचाते हैं। ये प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं। पक्षी खेती को नुकसान पहुँचाने वाले दीमक आदि कीड़ों को खा जाते हैं। सिंह
आदि हिंसक पशु अन्य पशुओं को मारकर उनकी अनियन्त्रित वृद्धि को रोकते हैं। पशु-पक्षी हमारे (UPBoardSolutions.com) मनोरंजन में तो सहायक होते ही हैं, उनके जीवन से हमें बहुत कुछ सीखने को भी मिलता है। अतः हमें इनके मांस, चर्म, दाँत, पंख आदि के लोभ में इनका संहार नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 5.
आज हमारे देश में वनों का प्रतिशत क्या है? [2006, 11, 14]
उत्तर :
आज हमारे देश के 11% भाग पर ही वन विद्यमान हैं।

प्रश्न 6.
पर्यावरण की सुरक्षा पर पाँच/तीन वाक्य लिखिए। [2011, 12, 13]
उत्तर :
पर्यावरण की सुरक्षा पर पाँच वाक्य निम्नलिखित हैं

  • योजना बनाकर ही पुराने वृक्षों को काटना चाहिए। नये वृक्षों को कभी नहीं काटना चाहिए।
  • जितने भी वृक्ष काटे जाने हों, उससे दो-गुने वृक्ष पहले ही लगा लिये जाने चाहिए।
  • घर के आँगन में, खेतों की सीमाओं पर, पर्वतों की तलहटियों में, मार्गों के दोनों ओर, खेल के मैदानों के चारों ओर; अर्थात् जहाँ भी स्थान मिले; वृक्ष लगाये जाने चाहिए।
  • प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में होने वाले प्रत्येक कार्यक्रमों; यथा-जन्म, मृत्यु, विवाह आदि; का प्रारम्भ वृक्षों के लगाने के साथ ही करना चाहिए।
  • वृक्षों को लगाने के साथ-साथ उनकी निरन्तर देखभाल और पोषण भी करना चाहिए।

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प्रश्न 7.
वन-संरक्षण और वृक्षारोपण से क्या-क्या लाभ हैं?
उत्तर :
वृक्षों से हमें केवल फल, फूल, ईंधन के लिए व मकान बनाने के लिए लकड़ियाँ ही प्राप्त नहीं होती हैं वरन् ओषधियों के योग्य नाना प्रकार की छालें, जड़े, पत्ते आदि वस्तुएँ भी प्राप्त होती हैं। नाना प्रकार के औद्योगिक उत्पादन के योग्य लाखे, तेल और द्रव पदार्थ भी प्राप्त होते हैं। शहद भी वृक्षों-वनस्पतियों से ही प्राप्त होता है। कागज और धागे के उत्पादन में भी वृक्षों की लकड़ी कच्चे माल का काम करती है। सन्दूक, रस्सी, चटाइयाँ आदि विभिन्न सामान वृक्षों और वनस्पतियों से ही बनते हैं। वायु की शुद्धता, भूमि के कटाव को रोकना, मेघों की सहायता करना आदि भी वृक्षों के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए हमें वन-संरक्षण और वृक्षारोपण करना चाहिए।

प्रश्न 8.
‘अरण्य-रोदन न्याय’ का आशय स्पष्ट कीजिए। [2005]
उत्तर :
वन निर्जन प्रदेश होते हैं। अत: यदि विपत्ति आने पर कोई व्यक्ति वहाँ बैठकर रोने लगे कि मेरे रुदन (UPBoardSolutions.com) को सुनकर कोई मेरी सहायता के लिए आएगा, तो उसका रोना व्यर्थ होता है, क्योकि वहाँ उसके रोने को सुनने वाला कोई नहीं होता। इसी प्रकार जब व्यावहारिक जीवन में किसी की बात को सुनने वाला कोई नहीं होता, तब उसके व्यर्थ प्रयत्न को ‘अरण्य-रोदन न्याय’ की संज्ञा दी जाती है।

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UP Board Class 5 English Chapter 10 Question Answer People Who Help Us

Rainbow Class 5 English Chapter 10 UP Board solutions People Who Help Us (हमारे सहायक)

People Who Help Us Word Meanings (शब्दार्थ)

postman – डाकिया, medicine – दवा, patient – मरीज, take care – देखभाल करना, sick – बीमार, ploughing – जोत रहा है, field – खेत, grows – उपजाना, sewing-सिल रहा है, stitching-सिल रहा है, watering-सींच रहा है, tailor – दर्जी, carpenter – बढ़ई, gardener – माली, washerman – धोबी

People Who Help Us Translation Of The Lesson (पाठ का हिन्दी अनुवाद)

Arun is wearing …………………………………………………………… food for us.

हिन्दी अनुवाद – अरुण ने सफेद कोट पहना है। वह अस्पताल जा रहा है। वह एक डॉक्टर है। वह मरीजों का इलाज करता है। रेणु भी अस्पताल में काम करती है। वह डॉक्टर की मदद करती है। वह एक नर्स है। वह बीमार लोगों की देखभाल करती है। रशीद डाकखाने में काम करता है। उसके बैग में पत्र हैं। वह एक डाकिया है। वह हमारे लिए पत्र लाता है। सोहन अपने खेत में काम कर रहा है। वह अपने खेतों को जोत रहा है। वह एक किसान है। वह हमारे लिए अन्न उपजाता है।

John is ………………………………………………………………………………. our clothes.

हिन्दी अनुवाद – जॉन अपनी दुकान में है। वह एक कोट सिल रहा है। वह एक दर्जी है। वह हमारे लिए कपड़े सिलता है। हमीद लकड़ी काट रहा है। वह इससे एक कुसी बनाएगा। वह बढ़ई है। वह हमारे लिए फर्नीचर बनाता है। भोलू बगीचे में है। वह पौधों को पानी दे रहा है। वह एक माली है। वह बगीचे में फूल-पौधों की देखभाल करता है। रामू एक तालाब के पास है। वह कपड़े धो रहा है। वह धोबी है। वह हमारे कपड़े धोता है।

People Who Help Us Exercise (अभ्यास)

Answer the following questions.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए

Question 1.
What does a nurse do? नर्स क्या करती है?
Answer:
A nurse takes care of the sick. नर्स बीमार लोगों की देखभाल करती है।

Question 2.
Who grows food for us? हमारे लिए अन्न कौन उगाता है?
Answer:
A farmer grows food for us. किसान हमारे लिए अन्न उगाता है।

Question 3.
What does a washerman do? धोबी क्या करता है?
Answer:
A washerman washes our clothes. धोबी हमारे कपड़े धोता है।

Question 4.
What does a gardener do? माली क्या करता है?
Answer:
A gardener waters the plants. माली पौधों को पानी देता है।

Let’s Talk आओ बातचीत करें

Question 1.
What would you like to become? तुम क्या बनना चाहते हो?
Answer:
Do it yourself. विद्यार्थी स्वयं करें।

Question 2.
Find out some more people who help us.
कुछ और व्यक्तियों के नाम .. बताइए जो हमारी मदद करते हैं।
Answer:
Teacher, driver, milkman, mason, engineer, etc.
शिक्षक, ड्राइवर, दूधवाला, राजमिस्त्री, इंजीनियर, आदि।

Let’s Do आओ करें –

Question 1.
Fill in the blanks to complete the words.
शब्द पूरे करने के लिए रिक्त स्थानों को भरिए।
Answer:
farmer, carpenter, doctor, gardener, tailor, washerman

Question 2.
Match column ‘A’with column ‘B’to make meaningful sentences.
वाक्य बनाने के लिए तालिका ‘अ’ और तालिका ‘ब’ का मिलान करें
Answer:
A                               B
A A postman       – brings letters.
A tailor                 – stitches clothes.
A farmer              – grows crops.
A gardener          – takes care of a garden.
A nurse                 – looks after the sick.
A carpenter          – makes chairs and tables.

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