UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 21 Rural Economy

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Economics
Chapter Chapter 21
Chapter Name Rural Economy (ग्रामीण अर्थव्यवस्था)
Number of Questions Solved 74
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 21 Rural Economy (ग्रामीण अर्थव्यवस्था)

विस्तृत उतरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1
ग्राम्य विकास में पंचवर्षीय योजनाओं की विभिन्न उपलब्धियों को समझाइए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के पश्चात् देश को तीव्र गति से आर्थिक विकास करने के लिए नियोजन का मार्ग अपनाया गया। भारत एक ग्राम-प्रधान देश है। यदि हम भारत का आर्थिक विकास करना चाहते हैं तो ग्राम्य विकास के बिना आर्थिक विकास की कल्पना करना निरर्थक होगा; अतः भारत के आर्थिक विकास के लिए 1950 ई० में योजना आयोग की स्थापना की गयी। देश की प्रथम पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1951 ई० से प्रारम्भ की गयी तथा अब तक 11 पंचवर्षीय योजनाएँ अपना कार्यकाल पूरा कर चुकी हैं। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में ग्राम्य विकास की ओर सर्वाधिक ध्यान केन्द्रित किया गया है, जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. प्रथम पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1951 ई० से 31 मार्च, 1956 ई० तक) – प्रथम पंचवर्षीय योजना की रूपरेखा में कहा गया था कि नियोजन का केन्द्रीय उद्देश्ये जनता के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना है और उसके लिए एक अधिक सुख-सुविधापूर्ण जीवन प्रदान करना है। प्रथम पंचवर्षीय योजना मुख्य रूप से कृषिप्रधान योजना थी। इस योजना में सम्पूर्ण योजना की लगभग तीन-चौथाई धनराशि कृषि, सिंचाई, शक्ति तथा यातायात पर व्यय की गयी।

2. द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1956 ई० से 31 मार्च, 1961 ई० तक) – द्वितीय पंचवर्षीय योजना में भी कृषि को महत्त्व प्रदान किया गया था, परन्तु औद्योगिक विकास को अधिक प्राथमिकता दी गयी थी। ग्राम्य विकास की ओर द्वितीय योजना में भी पूर्ण ध्यान दिया गया था।

3. तीसरी पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1961 ई० से 31 मार्च, 1966 ई० तक) – तीसरी योजना में ग्राम्य विकास हेतु कृषि विकास को पर्याप्त महत्त्व दिया गया था। योजना आयोग ने कृषि को प्राथमिकता देते हुए लिखा था–“तृतीय योजना की विकास युक्तेि में कृषि को ही अनिवार्यतः सर्वाधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिए। पहली दोनों योजनाओं का अनुभव यह प्रदर्शित करता है कि कृषि-क्षेत्र की विकास-दर भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास को प्रतिबन्धात्मक कारण है, इसलिए कृषि-उत्पादन को बढ़ाने के यथा-सम्भव अधिक प्रयास करने होंगे।”

4. तीन वार्षिक योजनाएँ (1966-67, 1967-68, 1968-69) – तृतीय पंचवर्षीय योजना 31 मार्च, 1966 ई० को समाप्त हो गयी थी। चतुर्थ योजनों को 1 अप्रैल, 1966 ई० से प्रारम्भ होना चाहिए था, किन्तु तृतीय योजना की असफलता के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादन लगभग स्थिर हो गया था; अतः चौथी योजना को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया तथा उसके स्थान पर तीन वार्षिक योजनाएं लागू की गयीं। कुछ अर्थशास्त्रियों ने तो 1966 ई० से 1969 ई० तक की अवधि को ‘योजना अवकाश’ का नाम दिया। चौथी पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1969 ई० से ही आरम्भ हो सकी।

5. चौथी पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1969 ई० से 31 मार्च, 1974 ई० तक) – तीन वर्ष के योजना अवकाश के बाद देश में कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति की सफलता के वातावरण में चौथी योजना प्रारम्भ हुई। इस योजना के दो मुख्य उद्देश्य थे – स्थिरता के साथ विकास तथा देश को आत्मनिर्भर बनाना। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इस योजना में ग्राम्य विकास हेतु निम्नलिखित कदम उठाये गये

  • आर्थिक विकास लगभग 5.5% वार्षिक दर से करना,
  •  कृषि के उत्पादन में वृद्धि करना,
  •  सामाजिक सेवामा को बढ़ाना तथा
  •  पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर विशेष बल देना।

इस प्रकार चौथी पंचवर्षीय योजना में ग्राम्य विकास की ओर विशेष महत्त्व दिया गया। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना के छ रूप से ग्राम्य विकास हेतु बनाये गये कार्यक्रम थे

  • लघु कृषक विकास एजेन्सी (S.ED.A.),
  • सीमान्त किसान एवं कृषि-श्रमिक एजेन्सी (M.FA.L.A.),
  • सूखा प्रवृत क्षेत्र कार्यक्रम (D.PA.P),
  • ग्रामीण रोजगार के लिए पुरजोर स्कीम (Crash Scheme for Rural Employment) आदि।

6. पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1974 से 31 मार्च, 1978 ई० तक) – पाँचवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल चार वर्ष ही रहा, क्योंकि इस योजना को एक वर्ष पहले ही 1978 ई० में स्थगित कर दिया गया था। इस योजना में ऐसी व्यवस्था की गयी थी कि व्यय की जाने वाली राशि से सभी क्षेत्रों का विशेषत: पिछड़े वर्गों व क्षेत्रों का अधिकतम सन्तुलित विकास हो सके; अत: इस योजना में कृषि, सिंचाई, शक्ति एवं सम्बन्धित क्षेत्रों पर और पिछड़े वर्गों व पिछड़े क्षेत्रों की उन्नति करने पर अधिक बल दिया गया था।

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में न्यूनतम आवश्यकताओं को राष्ट्रीय कार्यक्रम; जिसमें प्राथमिक शिक्षा, पीने का पानी, ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा, पौष्टिक भोजन, भूमिहीन श्रमिकों को मकानों के लिए जमीन, ग्रामीण सड़कें, ग्रामों का विद्युतीकरण एवं गन्दी बस्तियों की उन्नति एवं सफाई पर अधिक बल दिया गया।
पाँचवीं योजना में, काम के बदले अनाज कार्यक्रम व न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम चलाये गये। ये समस्त योजनाएँ ग्रामीण क्षेत्रों के अति निर्धन लोगों के लिए थीं। इन परियोजनाओं के द्वारा दो प्रकार से सहायता दी जाती थी-एक तो वित्तीय तथा दूसरे, सरकारी लोक कार्य परियोजनाओं से अति निर्धन किसानों व मजदूरों के लिए प्रत्यक्ष रोजगार की व्यवस्था। जनता पार्टी के शासनकाल में समाज के सर्वाधिक निर्धन व्यक्तियों को उत्पादक रोजगार अवसर उपलब्ध कराकर उन्हें निर्धनता के कुचक्र से बाहर निकालने के लिए ‘अन्त्योदय कार्यक्रम’ वर्ष 1977-78 में प्रारम्भ किया गया।

7. छठी पंचवर्षीय योजना ( 1 अप्रैल, 1980 ई० से 31 मार्च, 1985 ई० तक) – जनता पार्टी की सरकार द्वारा 1 अप्रैल, 1978 ई० से ही छठी पंचवर्षीय योजना एक अनवरत योजना के रूप में लागू की गयी थी। लेकिन कांग्रेस सरकार द्वारा इस योजना को दो वर्ष बाद ही 1980 ई० में समाप्त घोषित कर दिया गया और 1 अप्रैल, 1980 ई० से छठी संशोधित पंचवर्षीय योजना लागू की गयी। छठी योजना में ग्रामीण क्षेत्रों में समन्वित विकास का कार्यक्रम चलाया गया। रोजगार के अवसर बढ़ाकर बेरोजगारी दूर करने के लिए श्रमप्रधान क्षेत्रों; जैसे–कृषि, लघु और ग्रामीण उद्योगों तथा इनसे जुड़े हुए कार्यक्रमों को बढ़ाया गया। रोजगार के अवसर बढ़ने से गरीबों की आय बढ़ी और जीवन-स्तर में सुधारे हुआ।

छठी योजना के दौरान 1980 ई० में सरकार ने ग्रामीण श्रम-शक्ति कार्यक्रम, पुरजोर योजना तथा काम के बदले अनाज योजना के स्थान पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। इस कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य लाभकारी रोजगार के अवसरों में वृद्धि, स्थायी सामुदायिक सम्पत्तियों का निर्माण तथा ग्रामीण निर्धनों के आहार स्तर में वृद्धि करना था। ग्रामीण युवा वर्ग की बेरोजगारी को दूर करने के लिए अगस्त, 1979 ई० में ‘ट्राइसेम’ योजना प्रारम्भ की गयी। 1983 ई० में ‘ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। S.ED.A., M.E.A.L.A आदि योजनाओं के दोहरेपन को दूर करने के लिए 1978-79 ई० में एकीकृत ग्राम्य विकास कार्यक्रम (I.R.D.P) प्रारम्भ किया गया तथा 2 अक्टूबर, 1980 ई० से उसे पूरे देश में लागू कर दिया गया।

8. सातवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1985 ई० से 31 मार्च, 1990 ई० तक) – ग्रामीण विकास हेतु सातवीं पंचवर्षीय योजना में अनेक कार्यक्रम चलाये गये। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए सातवीं योजना में अप्रैल, 1989 ई० से एक व्यापक योजना ‘जवाहर रोजगार योजना प्रारम्भ की गयी थी। पूर्व में चल रहे दो प्रमुख ग्रामीण रोजगार कार्यक्रमों-राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम’ तथा ‘ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम का विलय अप्रैल, 1989 ई० में जवाहर रोजगार योजना में ही कर दिया गया।

9. आठवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1992 ई०से 31 मार्च, 1997 तक) – तत्कालीन प्रधानमन्त्री एवं योजना आयोग के अध्यक्ष पी०वी० नरसिंह राव के अनुसार, आठवीं योजना के मूलभूत उद्देश्य निम्नलिखित थे

  •  सभी गाँवों एवं समस्त जनसंख्या हेतु पेयजल तथा टीकाकरण सहित प्राथमिक चिकित्सा सुविधाओं का प्रावधान करना तथा मैला ढोने की प्रथा को पूर्णतः समाप्त करना।
  • खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता एवं निर्यात योग्य बचत प्राप्त करने हेतु कृषि का विकास एवं विस्तार करना।
  • प्रारम्भिक शिक्षा को सर्वव्यापक बनाना तथा 15 से 35 वर्ष की आयु के मध्य के लोगों में निरक्षरता को पूर्णतः समाप्त करना।
  • शताब्दी के अन्त तक लगभग पूर्ण रोजगार के स्तर को प्राप्त करने की दृष्टि से पर्याप्त रोजगार का सृजन करना।
  •  2 अक्टूबर, 1993 ई० से सरकार ने रोजगार आश्वासन योजना लागू की।

10. नौवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1997 ई० से 31 मार्च, 2002 ई० तक) – नौवीं पंचवर्षीय योजना में निम्नलिखित उद्देश्य स्वीकार किये गये

  1.  पर्याप्त उत्पादक रोजगार पैदा करना तथा निर्धनता उन्मूलन की दृष्टि से कृषि एवं ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देना।
  2.  सभी के लिए, विशेष रूप से समाज के कमजोर वर्गों के लिए, भोजन एवं पोषण की सुरक्षा सुनिश्चित करना।
  3. स्वच्छ पेयजल, प्राथमिक स्वास्थ्य देख-रेख सुविधा, सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा एवं आवास जैसी मूलभूत न्यूनतम सेवाएँ प्रदान करना तथा समयबद्ध तरीके से आपूर्ति सुनिश्चित करना।
  4. गाँवों में रहने वाले गरीबों के लिए स्वरोजगार की ‘स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना’ 1 अप्रैल, 1999 ई० से प्रारम्भ की गयी। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में भारी संख्या में कुटीर उद्योगों की स्थापना करना था। इस योजना में सहायता प्राप्त व्यक्ति स्वरोजगारी कहलाएँगे, लाभार्थी नहीं। इस योजना का उद्देश्य सहायता प्राप्त प्रत्येक परिवार को 3 वर्ष की अवधि में गरीबी रेखा से ऊपर उठाना था। कम-से-कम 50% अनु० जाति/जनजाति, 40% महिलाओं तथा 30% विकलांगों को योजना को लक्ष्य बनाया गया। आगामी 5 वर्षों में प्रत्येक विकास-खण्ड में रहने वाले ग्रामीण गरीबों में से 30% को इस योजना के अन्तर्गत लाने का प्रस्ताव है।

नौवीं पंचवर्षीय योजना में ग्राम्य विकास हेतु विभिन्न मदों पर निम्नलिखित व्यय किये गये
1. कृषि और सम्बद्ध कार्यकलाप                                          ₹ 42,462.00 करोड़
2. ग्रामीण विकास                                                               ₹74,686.00 करोड़
3. सिंचाई और बाढ़ नियन्त्रण                                               ₹55,420.00 करोड़
4. शिक्षा, चिकित्सा व जन-स्वास्थ्य परिवार – कल्याण            ₹1,83,273.00 करोड़
आवास व अन्य सामाजिक सेवाएँ।

11. दसवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 2002 से 31 मार्च, 2007 तक) – 10वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र में विकास हेतु जो लक्ष्य निर्धारित किये गये थे, उनमें निर्धनता अनुपात को 2007 ई० तक 20 प्रतिशत तथा 2012 ई० तक 10 प्रतिशत तक लाना, 2007 तक सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना, 2001-2011 के दशक में जनसंख्या वृद्धि को 16.2 प्रतिशत तक

सीमित रखना, साक्षरता-दर को 2007 ई० तक 72 प्रतिशत तथा 2012 ई० तक 80 प्रतिशत करना, वनाच्छादित क्षेत्र को 2007 ई० तक 25 प्रतिशत तथा 2012 ई० तक 33 प्रतिशत करना, 2012 ई० तक सभी गाँवों में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था कराना तथा सभी प्रमुख प्रदूषित नदियों की 2007 ई० तक व अन्य अधिसूचित प्रखण्डों की 2012 ई० तक सफाई कराना आदि सम्मिलित थे।

12. बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) – भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के निर्माण की दिशा का मार्ग अक्टूबर, 2011 में उस समय प्रशस्त हो गया जब इस योजना के दृष्टि पत्र (दृष्टिकोण पत्र/दिशा पत्र/Approach Paper ) को राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) ने स्वीकृति प्रदान कर दी। 1 अप्रैल, 2012 से प्रारम्भ हो चुकी इस पंचवर्षीय योजना के दृष्टि पत्र को योजना आयोग की 20 अगस्त, 2011 की बैठक में स्वीकार कर लिया था तथा केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् ने इसका अनुमोदन 15 सितम्बर, 2011 की अपनी बैठक में किया था। प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय विकास परिषद् की नई दिल्ली में 22 अक्टूबर, 2011 को सम्पन्न हुई इस 56वीं बैठक में दिशा पत्र को कुछेक शर्तों के साथ स्वीकार किया गया। राज्यों द्वारा सुझाए गए कुछ संशोधनों का समायोजन योजना दस्तावेज तैयार करते समय योजना आयोग द्वारा किया जायेगा।

12वीं पंचवर्षीय योजना में वार्षिक विकास दर का लक्ष्य 9 प्रतिशत है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में राज्यों के सहयोग की अपेक्षा प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने की है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि, उद्योग व सेवाओं के क्षेत्र में क्रमश: 4.0 प्रतिशत, 9.6 प्रतिशत व 10.0 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि प्राप्त करने के लक्ष्य तय किये गये हैं। इनके लिए निवेश दर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की 38.7 प्रतिशत प्राप्त करनी होगी।

बचत की दर जीडीपी के 36.2 प्रतिशत प्राप्त करने का लक्ष्य दृष्टि पत्र में निर्धारित किया गया है। समाप्त हुई 11वीं पंचवर्षीय योजना में निवेश की दर 36.4 प्रतिशत तथा बचत की दर 34.0 प्रतिशत रहने का अनुमान था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में वार्षिक विकास दर 8.2 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था। 11वीं पंचवर्षीय योजना में थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) में औसत वार्षिक वृद्धि लगभग 6.0 प्रतिशत अनुमानित था, जो 12वीं पंचवर्षीय योजना में 4.5-5.0 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य है। योजनावधि में केन्द्र सरकार का औसत वार्षिक राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.25 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य इस योजना के दृष्टि पत्र में निर्धारित किया गया है।

12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) :
दृष्टि पत्र में निर्धारित महत्त्वपूर्ण वार्षिक लक्ष्य एक दृष्टि में
सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि                                            9.0 प्रतिशत
कृषि क्षेत्र में वृद्धि                                                            4.0 प्रतिशत
उद्योग क्षेत्र में वृद्धि                                                         9.6 प्रतिशत
सेवा क्षेत्र में वृद्धि                                                          10.0 प्रतिशत
निवेश दर                                                                    38.7 प्रतिशत  (जीडीपी के प्रतिशत के रूप में)
बचत दर                                                                      36.2 प्रतिशत (जीडीपी के प्रतिशत के रूप में)
औसत वार्षिक राजकोषीय घाटा                                    3.25 प्रतिशत (जीडीपी के प्रतिशत के रूप में)
थोक मूल्य सूचकांक में औसत वार्षिक वृद्धि                   4.5-5.0 प्रतिशत

प्रश्न 2
भारतीय ग्रामीण जलापूर्ति पर एक टिप्पणी लिखिए। जलापूर्ति पर सरकार क्या कदम उठा रही है, उसका वर्णन कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति के जीवन के लिए सुरक्षित पेयजल एक अनिवार्य आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की जिम्मेदारी राज्यों की है और इस प्रयोजन के लिए पहली पंचवर्षीय योजना से ही राज्यों के बजट में निधियों का प्रावधान किया जाता रहा है। पेयजल आपूर्ति की गति में तेजी लाने, राज्यों तथा संघ शासित प्रदेशों को मदद पहुँचाने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1972-73 में त्वरित ग्रामीण जल-आपूर्ति योजना शुरू की थी। कार्य-निष्पादन में सुधार करने, चालू कार्यक्रमों की लागत में मितव्ययिता लाने तथा स्वच्छ पेयजल की पर्याप्त आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीण जल-आपूर्ति क्षेत्र में वैज्ञानिक तथा तकनीकी जानकारी पहुँचाने के उद्देश्य से पूरे कार्यक्रम को एक मिशन का रूप दिया गया। पेयजल तथा इससे सम्बन्धित जल व्यवस्था पर प्रौद्योगिकी मिशन 1986 ई० में शुरू किया गया। इसे राष्ट्रीय पेयजल मिशन भी कहा गया और यह भारत सरकार द्वारा चलाये जा रहे पाँच सामाजिक मिशन में से एक था। राष्ट्रीय पेयजल मिशन का नाम बदलकर 1991 ई० में इसे राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन कर दिया गया।

यह महसूस किया गया था कि स्वच्छ पेयजल आपूर्ति के लक्ष्यों को तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब तक जल की स्वच्छता सम्बन्धी पहलुओं तथा स्वच्छता से जुड़े मुद्दों पर एक साथ ध्यान न दिया जाए। ग्रामीण लोगों के जीवन-स्तर को सुधारने के समग्र लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए 1986 ई० में केन्द्र प्रायोजित ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया गया था।

ऐसी परिकल्पना की गयी कि त्वरित ग्रामीण जल-आपूर्ति कार्यक्रम तथा केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रमों को साथ-साथ चलाए जाने पर पानी से पैदा होने वाली बीमारियों तथा अस्वच्छता की स्थितियों के कारण रोग, रुग्णता तथा गिरते स्वास्थ्य के कुचक्र को तोड़ने में मदद मिलेगी।

त्वरित ग्रामीण जल-आपूर्ति कार्यक्रम का उद्देश्य राज्य-क्षेत्र के न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के अधीनं राज्य सरकारों/संघ शासित प्रदेशों के प्रयासों में सहायता देकर ग्रामीण लोगों को स्वच्छ तथा पर्याप्त पेयजल सुविधाएँ प्रदान करना है। ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजले प्रदान करते समय सामान्यतया होने वाली विभिन्न समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सभी राज्यों/संघ शासित प्रदेशों के लिए 56 मिनी-मिशनों (प्रायोगिक परियोजनाओं) की पहचान की गयी थी। इन प्रायोगिक परियोजनाओं से उन मॉडलों, जो दुबारा काम में लाए जा सकते थे तथा चालू कार्यक्रमों में सम्मिलित करने योग्य थे, को विकसित करने में सहायता मिली।

ग्रामीण जल-आपूर्ति कार्यक्रम – प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। भारत सरकार ने ग्रामीण लोगों के वास्तविक रहन-सहन में सुधार लाने के लिए उनकी बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी करने को उच्च प्राथमिकता प्रदान की है। इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रधानमन्त्री द्वारा वर्ष 2000-01 में प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना शुरू की गयी। प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना में विशेष प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को चुनिन्दा बुनियादी न्यूनतम सेवाओं के लिए अतिरिक्त केन्द्रीय सहायता देने की परिकल्पना है। प्रारम्भ में इसमें पाँच घटक थे, किन्तु वर्ष 2001-02 में इसमें एक नया घटक और जोड़ दिया गया।

इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य, ग्रामीण आश्रय, ग्रामीण पेयजल, पोषाहार तथा ग्रामीण विद्युतीकरण प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना के छः घटक हैं। प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना निधियों को 10% ग्रामीण जल-आपूर्ति के लिए निर्धारित किया गया है। राज्य उनके विशेषाधिकार के अन्तर्गत रखी गयी प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना-निधियों के 30% में से अपनी प्राथमिकता के अनुसार और अधिक निधियाँ आवंटित करते हैं।

प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना (ग्रामीण पेयजल) के अन्तर्गत कुल निधियों का कम-से-कम 25% जल-संरक्षण, जल-संग्रहण, जलपुनर्भरण तथा पेयजल स्रोतों के स्थायित्व सम्बन्धी परियोजनाओं और योजनाओं के लिए प्रयोग किया जाता है। सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रमों और मरुभूमि विकास कार्यक्रमों के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्रों पर जोर दिया जाता है। निधियों का शेष 75% राज्यों द्वारा जल-गुणवत्ता की समस्याओं का निदान करने तथा कवर न की गयी और अंशत: कवर की गयी आबादियों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना की कुल निधियों का लगभग 35% ग्रामीण पेयजल हेतु इस प्रावधान के साथ निर्धारित किया गया है कि राज्य अपने पास प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना के अन्तर्गत उपलब्ध गैर-आवंटित निधियों के शेष 25% में से अपनी प्राथमिकता के अनुसार और ज्यादा निधियाँ आवंटित कर सकते हैं।
ग्रामीण पेयजल आपूर्ति में प्राप्त उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं

  1.  सरकार के राष्ट्रीय एजेण्डा में 2004 ई० तक सभी आबादियों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी है तथा इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एक वृहत् कार्य-योजना तैयार की गयी है, जिसका कार्यान्वयन शुरू किया जा चुका है।
  2. त्वरित ग्रामीण जल-आपूर्ति कार्यक्रम के अन्तर्गत बजट प्रावधान को बढ़ाकर चालू वर्ष में 2,010 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
  3.  देश में कुल ग्रामों में से 90% ग्रामों को पेयजल सुविधाएँ पूर्ण रूप से मुहैया करवा दी गयी हैं। तथा शेष 10% ग्रामों को पेयजल सुविधाएँ आंशिक रूप से उपलब्ध करवाई गयी हैं।
  4. ग्राम-स्तर पर सतत मानव विकास पर और अधिक बल देने के लिए वर्ष 2000-01 में प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना शुरू की गयी थी, जिसके अन्तर्गत अन्य पाँच घटकों के साथ-साथ ग्रामीण पेयजल को प्राथमिकता दी जाती है। वर्ष 2001-02 में निर्धारित आवंटन राशि की तुलना में अधिक राशि जारी की गयी।
  5.  जल-गुणवत्ता की समस्याओं के बारे में एक दो-चरणीय राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण शुरू किया गया है।
  6.  ग्रामीण पेयजल क्षेत्र में माँग आधारित और सहभागिता-नीति के आधार पर एक नयी पहल शुरू की गयी है। 26 राज्यों के 63 जिलों में क्षेत्र सुधार प्रायोगिक परियोजनाएँ मंजूर की गयी हैं तथा उसके लिए राज्यों को राशि का आंशिक आवंटन भी किया जा चुका है।

प्रश्न 3
ग्रामीण स्वच्छता पर एक निबन्ध लिखिए। इसके लिए सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्वच्छता के अन्तर्गत मल-मूत्र को हटाने, वर्षा-जल और प्रवाहित द्रव्य के निकास तथा कूड़ा-करकट के निस्तारण के प्रबन्ध आते हैं। उचित एवं पर्याप्त स्वच्छता स्वास्थ्य, उत्पादकता एवं जीवन की गुणवत्ता में सुधार की अनिवार्य शर्ते हैं। देश में स्वच्छता की स्थिति विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में दयनीय है।

केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम ग्रामीण लोगों के रहन-सहन को सुधारने तथा महिलाओं को गोपनीयता तथा अस्मिता प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ष 1986 में शुरू किया गया। स्वच्छता की धारणा में ठोस व तरल कूड़ा-करकट, जिसमें मानव मल-मूत्र भी सम्मिलित है, का सुरक्षित तरीके से समापन और व्यक्तिगत, घरेलू तथा वातावरण की स्वच्छता सम्मिलित है। केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम के अन्तर्गत आवंटित केन्द्रीय निधियों से राज्यों को क्षेत्र की न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के अन्तर्गत उपलब्ध कराये गये संसाधनों की अनुपूर्ति की जाती है।

इस कार्यक्रम के उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1.  ग्रामीण जनता, विशेषकर गरीबी की रेखा से नीचे बसर करने वाले परिवारों को स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध कराने में तेजी लाना, जिससे ग्रामीण जलापूर्ति के प्रयासों में सहायता मिले।
  2.  स्वैच्छिक संगठनों तथा पंचायती राज संस्थाओं की सहायता से और स्वास्थ्य शिक्षा के माध्यम से सफाई के प्रति जागरूकता पैदा करना।
  3.  सभी विद्यमान शुष्क शौचालयों को कम लागत वाले स्वच्छ शौचालयों में बदलकर सिर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करना।
  4. अन्य उद्देश्यों के लिए कम लागत वाली और उपयुक्त प्रौद्योगिकियों को प्रोत्साहन देना।

कार्यक्रम के घटक

  1. गरीबी की रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करने वाले परिवारों के लिए, जहाँ आवश्यक हो, 80 प्रतिशत सब्सिडी सहित अलग-अलग शौचालयों का निर्माण करना।
  2.  अन्य परिवारों को सैनिटरी मार्ट सहित बाजारों से सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन देना।
  3. सैनिटरी मार्ट की स्थापना में मदद करना।
  4.  चयनित क्षेत्रों में जोरदार जागरूकता अभियान शुरू करना।
  5.  विशेष रूप से महिलाओं के लिए स्वच्छ शौचालय परिसरों की स्थापना करना।
  6. शौचालयों के स्थानीय रूप से उपयुक्त तथा स्वीकार्य मॉडलों को प्रोत्साहन देना।
  7. तरल व ठोस कूड़ा-करकट के निपटान के लिए सोखता-गड़ों का निर्माण करके गाँव की पूर्ण स्वच्छता को बढ़ावा देना।

सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदम – केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम को वर्ष 1999 में नये सिरे से तैयार किया गया, जिसका उद्देश्य ग्रामीण गरीब लोगों को पर्याप्त स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध कराना, स्वास्थ्य शिक्षा के सम्बन्ध में जागरूकता बढ़ाना, मौजूद सभी शुष्क शौचघरों को कम लागत के सुलभ शौचालयों में परिवर्तित कर सिर पर मैला ढोने की समस्या का उन्मूलन करना है। इसके अन्तर्गत देश में विभिन्न चरणों में समग्र तौर पर स्वच्छता अभियानों को कार्यान्वयन किया जा रहा है। प्रथम चरण के अन्तर्गत राज्यों द्वारा 58 पायलट जिलों में कार्यान्वयन हेतु पहचान की गयी और इसे सम्पूर्ण देश में 150 जिलों तक बढ़ाया गया है।
ग्रामीण स्कूल स्वच्छता कार्यक्रम को एक मुख्य अवयव के रूप में और ग्रामीण लोगों की प्रारम्भिक स्तर पर इसे व्यापक स्वीकृति के तौर पर आरम्भ किया गया है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य नौवीं योजना के अन्त तक सभी ग्रामीण स्कूलों में शौचघरों का निर्माण कराना है।

नौवीं योजना के प्रारम्भ में स्वच्छता सुविधाओं के साथ ग्रामीण जनसंख्या का कवरेज नौवीं योजना के प्रारम्भ में लगभग 17 प्रतिशत था। इसमें इस योजना के प्रथम कुछ वर्षों के दौरान लगभग तीन प्रतिशत अथवा इसके आसपास वृद्धि हुई।

गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले व्यक्तियों विशेष रूप से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा मुक्त बन्धुआ श्रमिकों के लिए व्यक्तिगत सुलभ शौचालयों का निर्माण किया जाता है।

वर्ष 2007-08 के बजट में ₹1,060 करोड़ की ग्रामीण स्वच्छता के लिए व्यवस्था की गयी है, जो 75 प्रतिशत आवंटनों सहित राज्यों द्वारा निर्णय किये जाने वाले चयनित जिलों में सम्पूर्ण सफाई अभियान के लिए है।

प्रश्न 4
भारत में स्वास्थ्य से सम्बद्ध समस्याओं के क्या कारण हैं? सरकार ने इस समस्या को हल करने के लिए क्या कदम उठाये हैं?
या
भारत में स्वास्थ्य समस्या पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2011]
उत्तर:
भारत में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या गम्भीर है। देश में मुख्य बीमारियाँ; जैसे – मलेरिया, कालाजार, क्षय रोग, कुष्ठ रोग, कैन्सर, अन्धता, एड्स आदि लगातार बढ़ती जा रही हैं। भारत में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या के निम्नलिखित कारण हैं

1. कुपोषण – देश की लगभग 46 प्रतिशत जनसंख्या की मासिक आय इतनी कम है कि वे अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने में भी असमर्थ हैं। परिणामस्वरूप उनका जीवन-स्तर अत्यन्त निम्न है। ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता स्तर के नीचे रहने वाली जनसंख्या की मासिक आय केवल ₹62 और शहरी क्षेत्रों में ₹71 है। स्पष्ट है कि इस आय द्वारा कोई व्यक्ति अपनी न्यूनतम आवश्यकता, दो समय का भोजन, तन ढकने को सामान्य वस्त्र और रहने को सामान्य आवास भी पूरा नहीं कर सकता। इस प्रकार देश की जनसंख्या का इतना बड़ा भाग अत्यन्त दीन-हीन स्थिति में जीवन व्यतीत कर रहा है। पौष्टिक आहार तो उनके लिए कल्पना समान है। जो माताएँ शिशुओं को जन्म दे रही हैं, उन शिशुओं को न तो दूध प्राप्त हो रहा है और न ही माताओं को पौष्टिक आहार मिल रहा है। इसके अभाव में शिशु व माता मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं या अन्य बीमारियों से प्रभावित हो रहे हैं।

2. पर्यावरण प्रदूषण – पर्यावरणीय प्रदूषण मानव-जाति, समस्त जीव-जन्तुओं एवं वनस्पति के जीवन के लिए भयावह है। प्रदूषण से जान लेवा बीमारियाँ; जैसे–फेफड़े की और साँस की बीमारियाँ, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों के कैन्सर, हैजा, पीलिया आदि बढ़ती जा रही हैं जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।

3. बढ़ती हुई गन्दगी – ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में गन्दगी बढ़ती जा रही है। निर्धनता व अज्ञानता के कारण भारत में अधिकांश व्यक्ति स्वच्छता की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते। वे अनेक प्रकार की ऐसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य खराब हो जाता है।

4. स्वास्थ्य सुधारों की समस्या – ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सालयों का अभाव है। यदि कोई चिकित्सालय है भी तो वहाँ पर दवाइयों तथा उपकरणों का अभाव है। योग्य एवं अनुभवी डॉक्टर गाँवों में रहना पसन्द नहीं करते। चिकित्सालयों एवं डॉक्टरों के अभाव में स्वास्थ्य बिगड़ जाता है।

5. ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता की ओर ध्यान देना – गाँव के व्यक्ति स्वच्छता की ओर विशेष ध्यान नहीं देते हैं। गाँव के पास कूड़ा-करकट इकट्ठा करना, मल-मूत्र त्याग करना, गन्दे तालाबों से पशुओं को पानी पिलाना व नहलाना, खुले हुए बिना छत के कुओं का होना आदि बातें स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।

6. स्वास्थ्य के नियमों के प्रति अज्ञानता – अधिकांश ग्रामीण जन आज भी अशिक्षित हैं। उन्हें सन्तुलित आहार, दिनचर्या, योग आदि के विषय में पूर्ण जानकारी नहीं होती है। वे कार्य में इतने अधिक व्यस्त रहते हैं कि स्वास्थ्य की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते।

7. अशिक्षा एवं अन्धविश्वास – भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकांश जनता अशिक्षित है; अतः रोगी को अच्छे डॉक्टरों से उपचार न कराकर भूत-प्रेत आदि में विश्वास करके बीमारी को भाग्य के सहारे छोड़ देते हैं, जिसके कारण रोगी गम्भीर रोग से पीड़ित हो जाते हैं तथा दिन-प्रतिदिन उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जाता है।

8. निर्धनता – भारत जैसे विकासशील देश में गरीबी का दुश्चक्र चलता रहता है जिससे व्यक्ति निर्धनता की स्थिति में ही बना रहता है। निर्धनता के कारण पर्याप्त भोजन का अभाव रहता है जिससे लोग कुपोषण के शिकार होते हैं और उनका स्वास्थ्य खराब रहता है।

सरकार द्वारा उठाये गये कदम
स्वतन्त्रता के पश्चात् से देश में चिकित्सा, स्वच्छता तथा शिक्षा-सम्बन्धी सुविधाओं के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया है। यही कारण है कि देश में जहाँ एक ओर मृत्यु-दर में तेजी से कमी आयी है, वहीं स्त्री तथा पुरुष दोनों की जीवन-प्रत्याशा बढ़ती जा रही है। सरकार ने विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में स्वास्थ्य के प्रति विशेष ध्यान दिया है। स्वतन्त्रता के बाद स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार का श्रेय निम्नलिखित घटकों को जाता है

  1. संक्रामक बीमारियों के नियन्त्रण कार्यक्रम।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य देखभाल के लिए उचित संरचना (अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, आदि) निर्माण।
  3.  स्वास्थ्य सुविधाओं एवं स्वास्थ्यकर्मियों की संख्या में वृद्धि।
  4. चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसन्धान का विकास।
  5. परिवार-कल्याण कार्यक्रम का विस्तार एवं जन्म-दर में कमी।

केन्द्रीय आयोजन पंरिव्यय का लगभग 54 प्रतिशत मलेरिया, तपेदिक, कुष्ठ रोग, एड्स, दृष्टिहीनता आदि के नियन्त्रण हेतु केन्द्रीय प्रायोजित रोग-नियन्त्रण कार्यक्रमों हेतु रखा गया है। रोग-नियन्त्रण कार्यक्रमों के लिए विभिन्न द्विपक्षीय और बहुपक्षीय एजेन्सियों से भारी विदेशी सहायता भी जुटाई गयी है।

गत चार वर्षों के दौरान, केन्द्र और राज्य सरकारों ने प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का सुदृढ़ीकरण, चल स्वास्थ्य क्लिनिकों का उपयोग, ओषधियों तथा उपभोज्य की आपूर्ति के सम्भारतन्त्र में सुधार और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को गैर-सरकारी संगठनों को सौंपने जैसे महत्त्वपूर्ण प्रयास किये हैं। सात राज्यों ने विश्व बैंक की सहायता से प्रथम रेफरल यूनिटों, जिला अस्पतालों की स्थापना हेतु परियोजनाएँ प्रारम्भ की हैं और उनके साथ गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों के लिए प्रयोक्ता प्रभारों का चार्ज करने विषयक एक अवयव की शुरुआत की है। तृतीयक स्वास्थ्य देखभाल केन्द्रों में भी दक्ष जनशक्ति, उपस्कर तथा उपभोज्य के सामान्य अभाव के साथ जटिल नैदानिक तथा रोगोपचार तौर-तरीकों की तेजी से माँग बढ़ रही है।

नवीं योजना में क्षमता निर्माण सम्बन्धी निधि-व्यवस्था, गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों के सम्बन्ध में प्रयोक्ता प्रभारों की उगाही और देखभाल की बढ़ती लागत को पूरा करने हेतु वैकल्पिक तौर-तरीकों का पता लगाने जैसे उपायों को भी रेखांकित किया गया है।

प्रश्न 5
स्वतन्त्रता के पश्चात से भारतीय शिक्षा की प्रगति पर एक निबन्ध लिखिए। या भारत में शिक्षा की प्रगति पर एक लेख लिखिए। [2014]
उत्तर:
शिक्षा राष्ट्र के समग्र विकास एवं उसकी समृद्धि का एक सशक्त माध्यम है। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में शिक्षा का प्रकाश प्रत्येक नागरिक को प्राप्त होना आवश्यक है। अत: सर्वसुलभ शिक्षा हमारी संवैधानिक प्रतिबद्धता है, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 58 वर्षों के पश्चात् भी हम भारत में शत-प्रतिशत साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाये हैं। वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार, देश में साक्षरता की दर 52.21 प्रतिशत थी। वर्ष 2011 के आँकड़ों के अनुसार देश में साक्षरता की दर 74.04 प्रतिशत है। पुरुषों व महिलाओं में साक्षरता की अलग-अलग दरें क्रमशः 82.14 प्रतिशत व 65.46 प्रतिशत रही है। साक्षरता के मामले में राज्यों में अग्रणी स्थान केरल का है और सबसे कम साक्षरता बिहार राज्य में है।

भारत एक ग्राम-प्रधान देश है। यदि भारत के ग्रामों का आर्थिक विकास होता है तो सम्पूर्ण भारत का आर्थिक विकास होता है। परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षा की दृष्टि से भारतीय ग्रामीण क्षेत्र आज भी पिछड़ी हुई स्थिति में हैं। शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी निर्धनता, अन्ध-विश्वास आदि व्याप्त है, जिसका प्रमुख कारण निरक्षरता ही

भारत में इस समय शिक्षा पर किया जाने वाला कुल व्यय सकल घरेलू उत्पाद का 3.8 प्रतिशत (1998 के आधार वर्ष) है। शिक्षा पर योजनागत व्यय में पहली पंचवर्षीय योजना से आगे तीव्र वृद्धि भी हुई है। नौवीं पंचवर्षीय योजना में इस क्षेत्र को उच्च प्राथमिकता दी गयी है। इस क्षेत्र को उपलब्ध निधियों में तीन गुना वृद्धि इसका सूचक है। शिक्षा के लिए कुल योजनागत आवंटन में बुनियादी शिक्षा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है।

राष्ट्रीय शिक्षा-नीति, 1986 और वर्ष 1992 में यथा समीक्षित इसके कार्यक्रम में सभी क्षेत्रों में शिक्षा के सुधार और विस्तार, शिक्षा प्राप्त करने में वैषम्य की समाप्ति, सभी स्तरों पर शिक्षा के स्तर तथा उसकी प्रासंगिकता में सुधार किये जाने के साथ तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा पर जोर देने की बात कही गयी है। शिक्षा नीति का उद्देश्य सभी के लिए शिक्षा प्राप्त करना रहा है, जिसमें प्राथमिक क्षेत्र स्वतन्त्र हो और 6-14 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों को कक्षा पाँच तक नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, निरक्षरता का पूर्ण उन्मूलन, व्यवसायीकरण, विशेष जरूरतों वाले बच्चों पर ध्यान देना, महिलाओं, कमजोर वर्गों और अल्पसंख्यकों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देना है।

वर्ष 1950-51 से वर्ष 2010-11 की अवधि के दौरान प्राथमिक स्कूलों की संख्या में तीन गुनी और उच्च प्राथमिक विद्यालयों की संख्या में 15 गुनी वृद्धि हुई है। इस समय राज्य और केन्द्रीय विधान के द्वारा स्थापित 326 विश्वविद्यालय, 131 सम-विश्वविद्यालय और 113 निजी विश्वविद्यालय हैं। उच्च शिक्षा क्षेत्र में मान्यता रहित संस्थानों के अतिरिक्त 1,520 महिला महाविद्यालयों सहित लगभग 11,831 महाविद्यालय हैं।

छठे अखिल भारतीय शिक्षा सर्वेक्षण 1993 ई० के अनुसार, ग्रामीण बस्तियों की 83 प्रतिशत और ग्रामीण जनसंख्या के 94 प्रतिशत हिस्से को 1 किमी की परिधि में प्राथमिक स्कूलों की सुविधा उपलब्ध है। ग्रामीण बस्तियों के 76% और ग्रामीण जनसंख्या के 85 प्रतिशत हिस्से को 3 किमी की परिधि में उच्च प्राथमिक स्कूलों की सुविधा उपलब्ध है। 1993 ई० के पश्चात् से प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा की उपलब्धता में पर्याप्त सुधार हुआ है।

देश में सकल नामांकन अनुपात महत्त्वपूर्ण रूप से सुधरकर प्राथमिक स्तर के लिए 42.6 प्रतिशत (1950-51) से बढ़कर 94.90 प्रतिशत (1999-2000) और उच्च प्राथमिक स्तर के लिए 12.7 प्रतिशत (1950-51) से बढ़कर 58.79 प्रतिशत (1999-2000) हो गया है। ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में पुरुष व महिला दोनों की साक्षरता में प्रशंसनीय सुधार हुआ है।

प्रश्न 6
राष्ट्रीय शिक्षा-नीति, 1986 ई० पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
मानवीय सम्भावनाओं के विकास में शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बदलते समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रत्येक देश अपनी शिक्षा-व्यवस्था विकसित करता है। भारत के सन्दर्भ में विकासोन्मुख शिक्षा-व्यवस्था हमारे अतीत के अनुभवों व वर्तमान की आवश्यकताओं पर आधारित होकर हमारी जनता के साथ-साथ मानवता के लिए एक अच्छे भविष्य का निर्माण कर सकेगी।

राष्ट्रीय शिक्षा-नीति का निर्माण व क्रियान्वयन इसी सन्दर्भ में देखा व समझा जाना चाहिए। संसद ने 1986 ई० के अपने बजट अधिवेशन में राष्ट्रीय शिक्षा-नीति को स्वीकार किया था। इसमें शिक्षा के क्षेत्र में सामान्य निर्देशों व विशेष महत्त्व के क्षेत्रों की ओर संकेत किया गया है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 ई० इस मूलभूत सिद्धान्त पर आधारित है-“शिक्षा वर्तमान और भविष्य में विशिष्ट पूँजी निवेश है। इसका अर्थ है कि शिक्षा सभी के लिए है। शिक्षा समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और प्रजातन्त्र जो हमारे संविधान के आदर्श हैं, के उद्देश्यों को आगे बढ़ा सकती है और अर्थव्यवस्था के विशेष क्षेत्रों में प्रशिक्षित जनशक्ति प्रदान कर सकती है।

1. शिक्षा के बारे में राष्ट्रीय दृष्टिकोण – शिक्षा-नीति शिक्षा के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है। यह इस बात की ओर संकेत करती है कि राष्ट्रीय शिक्षा-व्यवस्था के विकास के लिए निरन्तर प्रयत्नों की आवश्यकता है। राष्ट्रीय शिक्षा-व्यवस्था का अर्थ एक समान व संकीर्ण व्यवस्था नहीं है। यह एक व्यापक ढाँचे के अन्तर्गत लचीला रुख अपनाने की अनुमति देती है। राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धान्त का अर्थ है

  • सभी के लिए शिक्षा, सफलता व उच्च स्तर प्राप्ति के अवसर,
  • शिक्षा का समान ढाँचा,
  • एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा तथा
  •  हर चरण में एक निश्चित अध्ययन का स्तर।

2. समानता के लिए शिक्षा – राष्ट्रीय शिक्षा-नीति असमान अवसरों को दूर करने तथा उन सभी लोगों को शिक्षा के समान अवसर देने पर जोर देती है, जिन्हें अभी यह अवसर नहीं मिल पाया है

(i) लड़कियों के लिए – राष्ट्रीय शिक्षा नीति सभी के अधिकारों में वृद्धि करने के लिए सकारात्मक भूमिका निभाएगी। शिक्षा द्वारा स्त्रियों के सम्मान के स्तर में वृद्धि की जाएगी, स्त्रियों के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया जाएगा तथा उनके विकास के लिए सक्रिय कार्यक्रम अपनाये जाएँगे। स्त्रियों में अशिक्षा को दूर करने, शिक्षा के अवसर में आने वाली बाधाओं को दूर करने व उन्हें
आरम्भिक शिक्षा में बनाये रखने के लिए सर्वाधिक प्राथमिकता दी जाएगी। इसके लिए विशेष साधन प्रदान किये जाएँगे तथा उसके बारे में निरन्तर सूचना प्राप्त की जाएगी।

(ii) अनुसूचित जातियों के लिए  – राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अनुसूचित जातियों सहित समाज में पिछड़े वर्ग के सभी लोगों के लिए शिक्षा के समुचित क्षेत्र में प्रोत्साहन की सिफारिश की गयी है।

(iii) अनुसूचित जनजातियों के लिए – जनजाति क्षेत्र में स्कूल खोलने को प्राथमिकता दी जाएगी। आरम्भिक वर्षों के लिए विशेष पढ़ाई की व्यवस्था की जाएगी जिससे उन्हें क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देने का प्रबन्ध हो सके। अनुसूचित जातियों की भाँति यहाँ भी अध्यापक शिक्षित जनजाति के युवकों में से चुने जाएँगे।

(iv) अन्य पिछड़े वर्ग व क्षेत्र के लिए –
शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों को खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, समुचित प्रोत्साहन दिया जाएगा।

(v)अल्पसंख्यकों के लिए – 
कुछ अल्पसंख्यक समूह शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं, वे शिक्षा से वंचित हैं। इन समूहों के लिए शिक्षा की व्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया जाएगा।

(vi) विकलांगों के लिए – 
जिला मुख्यालयों पर विकलांग छात्रों के लिए विकलांगों को व्यावसायिक शिक्षा देने के भी पर्याप्त प्रबन्ध होंगे। राष्ट्रीय शिक्षा-नीति के अन्तर्गत अपंग लोगों की विशेष कठिनाइयों को दूर करने के लिए प्राथमिक कक्षा के अध्यापकों के प्रशिक्षण पर जोर दिया गया है।

(vii) शिक्षा का समान ढाँचा –
शिक्षा आयोग (1964-66) ने 10+2+3 के रूप में सारे देश के लिए समान ढाँचे की सिफारिश की है। 1968 के बाद देश के अधिकांश राज्यों ने इस ढाँचे को स्वीकार किया है और बाकी राज्य इसे अपनाने की प्रक्रिया में जुटे हैं।

इस उपलब्धि की प्रशंसा करते हुए राष्ट्रीय शिक्षा-नीति, 1986 ने सिफारिश की है कि प्रथम दसवर्षीय शिक्षा में 5 वर्ष प्राथमिक, 3 वर्ष उच्च प्राथमिक व 2 वर्ष माध्यमिक शिक्षा को दिये जाएँ। 5 वर्ष प्राथमिक व 3 वर्ष उच्च प्राथमिक, इस प्रकार कुल मिलाकर 8 वर्ष की आरम्भिक शिक्षा होगी।

3. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढाँचा – राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा बनायी है, जिसमें कुछ समान तत्त्व होंगे। साथ ही कुछ ऐसे तत्त्व भी होंगे जहाँ लचीली नीति अपनायी जाएगी। आरम्भिक व माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम की आधारभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • विकास के राष्ट्रीय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानव संसाधनों का विकास।
  • सभी बच्चों के लिए प्राथमिक, उच्च प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर तक व्यापक सामान्य शिक्षा का प्रावधान।
  • प्राइमरी, उच्च प्राइमरी तथा माध्यमिक स्तर पर पढ़ाई की समान रूपरेखा।
  • पाठ्यक्रम में भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन, संवैधानिक दायित्व, राष्ट्रीय अस्मिता को मजबूत बनाना, भारत की समान संस्कृति परम्परा, समता, प्रजातन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, स्त्री-पुरुष समानता, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक विभेद का निराकरण तथा वैज्ञानिक स्वभाव का निर्माण ये प्रमुख तत्त्व हैं। जो समान रूप से सभी स्कूलों में पढ़ाए जाएँगे।

प्रश्न 7
शिक्षा के सामाजिक आधारभूत ढाँचे को सुदृढ़ करने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा चलायी गयी योजनाओं में से किन्हीं तीन का वर्णन कीजिए।
या
सर्व शिक्षा अभियान पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए। [2011]
उत्तर:
शिक्षा की दृष्टि से साधनहीन लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने और शिक्षा हेतु सामाजिक आधारभूत ढाँचे को मजबूत बनाने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा अनेक योजनाएँ प्रारम्भ की गयी हैं, जो निम्नलिखित हैं

  1. ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड (ओ०बी०)
  2. जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डी०पी०ई०पी०)
  3. अनौपचारिक शिक्षा (एन०एफ०ई०)
  4. शिक्षा गारण्टी योजना और वैकल्पिक तथा नवीन शिक्षा (ई०जी०एस०एण्डए०ई०आई०)
  5. महिला समाख्या, शिक्षक शिक्षा (टी०ई०)
  6. दोपहर के भोजन की योजना-लोक जुम्बिश, शिक्षाकर्मी परियोजना (जी०एस०के०पी०)
  7. वर्ष 2001-02 में राज्यों के साथ मिलकर ‘सर्व शिक्षा अभियान

उपर्युक्त योजनाओं में से तीन का वर्णन निम्नलिखित है

1. ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड – ‘प्रारम्भिक शिक्षा सबको दी जाए’ यह हमारी शिक्षा-नीति का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है। हमारे संविधान में 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान है। राष्ट्रीय शिक्षा-नीति, 1986 ई० और प्रोग्राम ऑफ ऐक्शन’ के अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा को सभी दृष्टियों से सुधारने के लिए कई सुझाव दिये गये हैं, इनमें से एक है – ‘ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड’। यह एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। इसका लक्ष्य है-प्राथमिक स्कूलों को दी जाने वाली भौतिक सुविधाओं में आवश्यक सुधार। ‘ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड में अभी तक के सभी प्राइमरी स्कूलों को दी जाने वाली कम-से-कम सुविधाओं का स्तर निश्चित किया गया है।

  • प्रत्येक प्राथमिक स्कूल को कम – से – कम दो बड़े कमरे दिये जाएँ जो हर मौसम में काम आ सकें। उनके साथ एक बड़ा बरांडा और दो टॉयलेट होने चाहिए–एक लड़कों के लिए और दूसरा लड़कियों के लिए।
  • प्रत्येक प्राथमिक स्कूल में कम – से – कम दो शिक्षक होने चाहिए। अगर सम्भव हो सके तो एक महिला शिक्षिका भी होनी चाहिए।
  • प्रत्येक प्राथमिक स्कूल को आवश्यक अध्ययन-अध्यापन सामग्री दी जाए; जैसे – ग्लोब, नक्शे, शिक्षण-चार्ट, कार्यानुभव क्रियाकलापों के टूल्स, विज्ञान किट, गणित किट, पाठ्य-पुस्तकें, पाठ्यरूम, पत्रिकाएँ आदि।

2. अनौपचारिक शिक्षा – ऐसे बच्चे जो बीच में स्कूल छोड़ गये हैं या जो ऐसे स्थान पर रहते हैं, जहाँ स्कूल नहीं हैं या जो काम में लगे हैं और वे लड़कियाँ जो दिन के स्कूल में पूरे समय नहीं आ सकतीं, इन सबके लिए एक विशाल और व्यवस्थित अनौपचारिक शिक्षा का कार्यक्रम चलाया गया है।

अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों में सीखने की प्रक्रिया को सुधारने के लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी के उपकरणों की सहायता ली जाएगी। इन केन्द्रों में अनुदेशक के तौर पर काम करने के लिए स्थानीय समुदाय के प्रतिभावान् और निष्ठावान् युवकों और युवतियों को चुना जाएगा और उनके प्रशिक्षण की विशेष व्यवस्था की जाएगी। अनौपचारिक धारा में शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चे योग्यतानुसार औपचारिक धारा के विद्यालयों में प्रवेश पा सकेंगे। इस बात पर पूरा ध्यान दिया जाएगा कि अनौपचारिक शिक्षा का स्तर औपचारिक शिक्षा के समतुल्य हो। अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को चलाने का अधिकतर कार्य स्वयंसेवी संस्थाएँ और पंचायती राज की संस्थाएँ करेंगी। इस कार्य के लिए इन संस्थाओं को पर्याप्त धन, समय पर दिया जाएगा। इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र का उत्तरदायित्व सरकार पर होगा।

3. सर्व शिक्षा अभियान – वर्ष 2001-02 में राज्यों के साथ मिलकर, सर्व शिक्षा अभियान, प्रारम्भ करके एक समयबद्ध समेकित दृष्टिकोण अपनाकर सभी को प्राथमिक शिक्षा देने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए महत्त्वपूर्ण उपाय किये गये। ‘सर्व शिक्षा अभियान’ की योजना को विकेन्द्रीकृत किया। जाएगा और सामुदायिक स्वामित्व और अनुवीक्षण को उच्चतम प्राथमिकता दी जाएगी। यह कार्यक्रम आगे चलकर विदेशी सहायता प्राप्त कार्यक्रमों सहित सभी मौजूदा कार्यक्रमों को अपनी संरचना में सम्मिलित कर लेगा, जिसमें कार्यक्रम कार्यान्वयन की इकाई जिला होगी।
यह मिशन के रूप में प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण हेतु एक केन्द्र प्रायोजित स्कीम है। इस नये ढाँचे के अन्तर्गत केन्द्रीय और केन्द्र द्वारा प्रायोजित श्रेणी में राज्यों की भागीदारी एवं परामर्श से प्राथमिक शिक्षा के सभी विद्यमान कार्यक्रमों को समाविष्ट किया जाना है। सर्व शिक्षा अभियान के लक्ष्य निम्नलिखित हैं

  • वर्ष 2003 तक 6 – 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चे स्कूलों/शिक्षा गारण्टी केन्द्रों/ब्रिज पाठ्यक्रमों में हों।
  • वर्ष 2007 तक 6 – 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चे पाँच वर्ष की प्राथमिक शिक्षा पूरी करें।
  • वर्ष 2010 तक 6 – 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चे स्कूली शिक्षा के आठ वर्ष पूरे करें।
  • जीवन के लिए शिक्षा पर जोर देते हुए सन्तोषजनक स्तर की बुनियादी शिक्षा पर ध्यान देना।
  • प्राथमिक स्तर पर वर्ष 2007 तक और बुनियादी शिक्षा के स्तर पर वर्ष 2010 तक सभी लिंग – सम्बन्धी और सामाजिक वर्गीकरण के अन्तरों को समाप्त करना।
  • वर्ष 2010 तक सार्वजनिक तौर पर स्कूली शिक्षा लेना।

प्रश्न 8
सामाजिक वानिकी किसे कहते हैं? सामाजिक वानिकी की आवश्यकता एवं महत्त्व को बताइए।
उत्तर:
सामाजिक वानिकी का अर्थ
वनों को समाजोन्मुख बनाकर सम्वर्द्धन तथा संरक्षण की नीति को सामाजिक वानिकी नीति कहा गया है।” वनों के समीप के ग्रामीण वनों से अनियन्त्रित चारा एवं लकड़ी काटते हैं। ठेकेदार आदि लाभ के लोभ में वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई कर देते हैं जिसके कारण दिन-प्रतिदिन वनों का ह्रास हो रहा है। वनों के विनाश को देखकर वन-विभाग द्वारा वनों के रक्षण की नीति अपनायी गयी। ग्रामीणों को चारा तथा लकड़ी काटने पर वन विभाग द्वारा रोक लगा दी गयी। इस प्रकार वन-विभाग द्वारा वनों की सुरक्षा होने लगी। वन विभाग की कंड़ी सुरक्षा के कारण लोगों को असुविधा होने लगी जिसके कारण सामान्य जन का वनों से लगाव कम हो गया। ऐसी स्थिति में वन नीति पर पुनर्विचार किया गया तथा यह अनुभव किया गया कि वनों का विकास तभी सम्भव है जब वनों तथा सामान्य लोगों के मध्य पारस्परिक निर्भरता तथा उत्तरदायित्व का विकास किया जाए, वनों को समाजोन्मुख बनाकर ही वनों का विकास एवं संरक्षण किया जा सकता है।

सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत समाज के लोग स्वयं वृक्षों को लगाते हैं, वनों को सुरक्षा प्रदान करते हैं तथा वनों के विकास में सहयोग देते हैं। यह योजना जन सहयोग पर आधारित है। लक्ष्य यह कि कोई भी भूमि जहाँ पेड़ लग सकते हैं पेड़ों से खाली न रहे। ग्राम समाजों, विकास खण्डों, जिला पंचायतों, स्कूलों, कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के माध्यम से वृहद् स्तर पर वृक्षारोपण का कार्यक्रम क्रियान्वित किया जाए। वनों की सुरक्षा के लिए अलग चरागाह होने चाहिए।

सामाजिक वानिकी की आवश्यकता एवं महत्त्व
सन्तुलित पर्यावरण की संरचना पर मानव-जीवन का सुख निर्भर है और वन सन्तुलित पर्यावरण का प्रमुख घटक है। यह तभी सम्भव है जब हम अपनी प्राकृतिक निधियों को नष्ट न होने दें, बल्कि उन्हें संजोकर रखें। पर्यावरण में सन्तुलन होगा तो वर्षा होगी, स्वच्छ जल मिलेगा तथा वन बने रहेंगे, परिणामस्वरूप वनों की रक्षा से पर्यावरण सन्तुलित होगा, जिससे सम्पूर्ण प्राणि-जगत् को कल्याण होगा। वातावरण और पारिस्थितिकी में सन्तुलन स्थापित होगा।

वृक्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे साथी हैं। मनुष्य प्राचीन काल से अद्यतन दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ वनों से ही प्राप्त करता आ रहा है; यथा-भवन निर्माण हेतु इमारती लकड़ी, बाँस, घास, फर्नीचर की लकड़ी, ओषधियाँ, खाने के लिए विभिन्न प्रकार के फल-फूल आदि।

सुखमय भविष्य एवं स्वच्छ पर्यावरण के लिए वृक्षों को लगाना, वनों का संरक्षण एवं सम्वर्द्धन करना अति आवश्यक है। वृक्षों के द्वारा ही पर्यावरण के प्रदूषण पर नियन्त्रण किया जा सकता है। वृक्षारोपण से रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं। कुछ वृक्ष ओषधियाँ प्रदान करते हैं। उपर्युक्त बातों से सामाजिक वानिकी की उपयोगिता सिद्ध होती है। इसी से विश्व-कल्याण एवं मानव-कल्याण सम्भव है।

पालतू पशुओं एवं वन्य-जन्तुओं के लिए घास-पत्ती, फल-फूल तथा आवासीय सुविधा वृक्षों से ही प्राप्त होती है। मांसाहारी पशु-शाकाहारी जन्तुओं पर आश्रित रहते हैं। शाकाहारी जन्तु वनस्पतियों पर आश्रित रहते हैं। इस प्रकार सभी जीवधारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों पर आश्रित रहते हैं।

अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल वृक्षों से ही प्राप्त होता है; जैसे – दियासलाई, कागज, प्लाइवुड, पैकिंग केस, लाख, कत्था, तारपीन, बिरोजा, खेलकूद का सामान तथा विभिन्न प्रकार के काष्ठोपकरण हेतु उपयोगी काष्ठ।

वृक्ष प्राण-वायु (ऑक्सीजन) प्रदान करते हैं। श्वसन में प्रत्येक जीवधारी अशुद्ध वायु (कार्बन डाइ-ऑक्साइड) छोड़ते हैं और शुद्ध वायु (ऑक्सीजन) ग्रहण करते हैं। वृक्ष अशुद्ध वायु (कार्बन डाइ-ऑक्साइड को अपने भोजन बनाने में ग्रहण करते हैं और शुद्ध वायु (ऑक्सीजन) छोड़ते हैं। यह शुद्ध वायु हमें सभी प्राणियों की प्राण वायु है। इस प्रकार वृक्ष वायुमण्डल में विभिन्न गैसों को सन्तुलन बनाये रखते हैं।

वृक्षों से जलवायु का नियन्त्रण एवं भूमि संरक्षण होता है। वर्षा को सन्तुलित करना, गर्मी-सर्दी को अनुकूल रखना तथा हवा व पानी के वेग को नियन्त्रित रखकर मिट्टी के कटाव को रोकना, वृक्षों और वनों का ही काम है।

प्रश्न 9
“वन हमारी राष्ट्रीय निधि हैं।” स्पष्ट कीजिए।
या
भारतीय अर्थव्यवस्था में वनों के महत्त्व की विवेचना कीजिए। [2010]
या
वनों से होने वाले प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ लिखिए। [2011, 16]
उत्तर:
वन राष्ट्रीय निधि हैं या वनों का महत्त्व
किसी देश के आर्थिक विकास व समृद्धि में वनों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। वनों से राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है, व्यक्तियों को रोजगार मिलता है, उद्योगों का विकास होता है, बाढ़ पर नियन्त्रण होता है तथा मिट्टी के कटाव को रोकने के साथ-साथ जलवायु को नियन्त्रित करके वन नागरिकों के शारीरिक व मानसिक विकास में अपना योगदान देते हैं। इसी कारण वनों को राष्ट्र की निधि’ माना जाता है। वनों से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से लाभ प्राप्त होते हैं।

प्रत्यक्ष लाभ
वनों से प्राप्त होने वाले प्रत्यक्ष लाभ निम्नलिखित हैं

  1. वन बहुमूल्य एवं उपयोगी लकड़ी के एकमात्र स्रोत हैं। वनों से प्राप्त होने वाली आय का 75% भाग लकड़ियों के रूप में ही प्राप्त होता है। इन लकड़ियों का उपयोग फर्नीचर बनाने तथा ईंधन के लिए किया जाता है।
  2. पशुओं का प्रिय चारों वनों में उगने वाली घास तथा पेड़ों की हरी-भरी पत्तियाँ हैं; अतः वन पशुओं को चराने के लिए उत्तम एवं विस्तृत चरागाह की सुविधा भी प्रदान करते हैं।
  3. वनों में अनेक प्रकार के पशु-पक्षी निवास करते है; अतः शिकारियों के लिए वन प्रमुख आखेट-स्थल होते हैं। इन वन्य पशुओं से मांस, खाल, हड्डी, सींग एवं हाथीदाँत जैसी उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। सरकार ने पशुओं के शिकार पर अब रोक लगा दी है।
  4. वृक्षों की पत्तियाँ भूमि पर गिरकर सड़-गल जाती हैं, जो भूमि को प्राकृतिक खाद प्रदान करती हैं। इस प्रकार वनों से भूमि की उर्वरा-शक्ति में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है।
  5. वनों से प्राप्त अनेक वस्तुओं का निर्यात विदेशों को किया जाता है, जिससे सरकार को करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। लाख, प्लाइवुड, खेल का सामान तथा चन्दन की लकड़ी एवं विशिष्ट जीवों की खालों का विदेशों को निर्यात किया जाता है। इन वस्तुओं के निर्यात से प्रतिवर्ष भारत सरकार को लगभग ₹ 50 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
  6. वनों से प्राप्त कच्चे माल पर अनेक उद्योग-धन्धे निर्भर हैं। वन हमें गोंद, रबर, लाख, बाँस, कत्था, तारपीन का तेल तथा चन्दन जैसे उपयोगी पदार्थ प्रदान करते हैं। इन पदार्थों का उपयोग अनेक उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है।
  7. वृक्ष फल-फूलों के विशाल भण्डार हैं; अत: वनों से हमें अनेक प्रकार के फल-फूल प्राप्त होते हैं। इनका उपयोग विभिन्न प्रकार से किया जाता है।
  8. वनों से हमें अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियाँ तथा ओषधियाँ प्राप्त होती हैं। हरड़-बहेड़ा, आँवला इसी प्रकार की बहु-उपयोगी ओषधियाँ हैं। वनों से हमें अमृत-तुल्य शहद भी प्राप्त होता है।
  9. वन राष्ट्रीय आय का एक प्रमुख स्रोत हैं। वनों से प्राप्त प्राकृतिक सम्पत्ति देश के लिए आय का एक मुख्य स्रोत है।

अप्रत्यक्ष लाभ
वनों से प्राप्त होने वाले अप्रत्यक्ष लाभ निम्नलिखित हैं

  1. वन वायुमण्डल में नमी उत्पन्न कर देते हैं। यह नमी वर्षा करने में सहायक होती है।
  2. वन मरुस्थल के प्रसार को भी रोकते हैं। वृक्ष वायु के कटाव-कार्य एवं गति में बाधक बनते हैं। बालू का प्रसार वृक्षों के होते हुए नहीं हो पाता।।
  3. वृक्षों की जड़े जल-शोषण का कार्य करती हैं। वर्षा होते ही वृक्षों की जड़े पानी को चूसकर नीचे पहुँचा देती हैं जिससे भूमिगत जल का स्तर ऊँचा हो जाता है, जिसका उपयोग हम करते हैं।
  4. वन देश की प्राकृतिक सुन्दरता में वृद्धि करते हैं। वनाच्छादित हरी-भरी भूमि नयनों को बड़ी सुहावनी प्रतीत होती है। भारतीय चिन्तन और दर्शन वनों की ही देन हैं। वन सैर-सपाटे और मनोरंजन के केन्द्र होते हैं।
  5. वन जल के वेग को नियन्त्रित करके बाढ़ों की रोकथाम करते हैं। जिन क्षेत्रों में वन हैं वहाँ बाढ़ों का प्रकोप बहुत कम होता है।
  6. वन मिट्टी के कटाव को रोकते हैं, क्योंकि वृक्षों के कारण पवन एवं जल अपना कटाव-कार्य नहीं कर पाते; क्योंकि वृक्षों की जड़े भूमि को जकड़ लेती हैं तथा अपरदन के कारकों की गति पर नियन्त्रण करती हैं।
  7. वन वायुमण्डल प्रदूषण को रोकते हैं। वृक्ष कार्बन डाइऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलकर वायुमण्डल की गैसों का सन्तुलन ठीक रखते हैं, तापमान को सन्तुलित बनाये रखते हैं तथा वायुमण्डल की शुष्कता को कम करते हैं।
  8. वन कृषि के क्षेत्र में अनेक प्रकार से सहायता करते हैं। ये कृषि के लिए उपजाऊ क्षेत्र, खाद, कृषि-यन्त्र बनाने के लिए काष्ठ, पशुओं के लिए चारा तथा भूमि-संरक्षण जैसी सुविधाएँ प्रदान करते हैं।
    वनों के उपर्युक्त महत्त्व को देखते हुए वनों को राष्ट्रीय निधि अथवा हरा सोना भी कहते हैं।

पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “उगता हुआ वृक्ष प्रगतिशील राष्ट्र का प्रतीक है।” वन राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। वन मनुष्य को उसकी प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति कराते हैं। वन राष्ट्र की समृद्धि की नींव तथा राष्ट्रीय आय के प्रमुख स्रोत हैं। वनों से ढकी हरी-भरी भूमि तथा पर्वतीय ढाल रमणीक और सुरम्य प्रतीत होते हैं। प्रकृति द्वारा मानव को प्रदत्त निःशुल्क उपहारों में से वन सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 10
वनों के संरक्षण हेतु कुछ सुझाव प्रस्तुत कीजिए।
या
वन संरक्षण के लिए कोई दो सुझाव दीजिए। [2016]
उत्तर:
भारत में वनों को संरक्षण देने एवं उन्हें विकसित करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं

1. वन-क्षेत्रों का विकास – वन व्यवसाय की उन्नति के लिए अधिक आवश्यक कार्य वन-क्षेत्र का विस्तार करना है। राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार देश के एक-तिहाई भाग तक वन विस्तार की परियोजना अपनायी जानी चाहिए। किन्तु इस दशा में सफलता नहीं मिली है। वृक्षारोपण कार्य को गति दी जानी चाहिए जिससे इस उद्देश्य की पूर्ति हो सके।

2. वनों का उचित दोहन – पिछले तीन दशकों में 43 लाख हेक्टेयर भूमि से वनों का सफाया किया जा चुका है। वनों के अनुचित दोहन को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए

  • सरकार को वनों के संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए।
  • वनों पर सरकारी नियन्त्रण कठोर होना चाहिए।
  • वन अधिकारियों को भली प्रकार प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
  • वनों के अन्धाधुन्ध कटने पर पूर्णत: रोक लगा देनी चाहिए एवं उस पर सख्ती से अमल करना चाहिए।

3. वन-क्षेत्रों में परिवहन की सुविधाएँ जुटाना – भारतीय वन ऊँचे एवं दुर्गम क्षेत्रों में हैं, परन्तु यातायात की सुविधा न होने के कारण उनका दोहन सम्भव नहीं है। वन-क्षेत्रों तक सस्ते और द्रुत साधनों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

4. उद्योगों का विकास-वन – उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए वनों से प्राप्त पदार्थों के उपयोग की समुचित व्यवस्था तथा उन वस्तुओं से सम्बन्धित उद्योगों का विकास किया जाना चाहिए। वन्य-पदार्थों का निर्यात विदेशों को किया जाए तथा पूँजीपतियों को इस उद्योग में अधिक-से-अधिक पूँजी लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

5. वनों को काटने पर रोक – गाँवों एवं वन-क्षेत्रों के निकटवर्ती भागों में लकड़ी को ईंधन के रूप में जलाकर नष्ट कर दिया जाता है। लकड़ी के इस अनुचित उपयोग को रोका जाना चाहिए, जिससे इसका उपयोग अधिक महत्त्वपूर्ण कार्यों में किया जा सके।

6. वन-सम्बन्धी शिक्षा तथा अनुसन्धान को प्रोत्साहन – वन व्यवसाय की उन्नति के लिए वन सम्बन्धी शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए। व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने के लिए वन विद्यालय खोले जाने चाहिए। वन सम्बन्धी शिक्षा देकर ही वनों को समाज के बीच लगाया या समृद्ध किया जा सकता है। सामाजिक वानिकी’ इसकी एक उदाहरण है।

7. वन महोत्सव – वनों को विनाश से बचाने के लिए भारत में 1952 ई० से वन महोत्सव कार्यक्रम का प्रारम्भ किया गया। इसके जन्मदाता भूतपूर्व केन्द्रीय कृषि मन्त्री श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी थे। उनके शब्दों में, “वृक्षों का अर्थ है जल, जल का अर्थ है रोटी और रोटी ही जीवन है। सरकार द्वारा अपनी वन-नीति के आधार पर जुलाई, 1952 ई० से लगातार वन महोत्सव मनाना प्रारम्भ किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत खेतों की मेंड़ों, नदियों एवं नहरों के किनारे, सड़क एवं रेलमार्गों के किनारे एवं सार्वजनिक स्थानों पर वृक्ष लगाए जाते हैं। आशा की जाती है कि इस कार्यक्रम से भारत के 33.33% क्षेत्रफल पर वनों का विस्तार होगा।

8. नवीन 20-सूत्री कार्यक्रम – नवीन 20-सूत्री कार्यक्रम के अन्तर्गत वृक्षारोपण एवं पेड़-पौधों की रक्षा का विशेष प्रावधान है। 1980-85 ई० में छठी पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत एक अरब रुपये के खर्चे से केन्द्रीय सरकार द्वारा एक नयी योजना का शुभारम्भ किया गया था ‘ग्रामीण ईंधन वृक्षारोपण सहित सामाजिक वृक्षारोपण।’ इस योजना में 100 जिलों में पेड़ लगाये गये तथा निम्नलिखित कार्यक्रमों को प्रधानता दी गयी

  • गाँव के आस-पास बेकार पड़ी भूमि पर वृक्षों को लगाना।
  •  किसानों को खेतों की मेड़ पर पेड़ लगाने के लिए मुफ्त में पेड़ देना आदि।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सुनियोजित नीति को अपनाये जाने के साथ-साथ जन-सहयोग भी आवश्यक है।

प्रश्न 11
ग्राम्य विकास हेतु भारत सरकार द्वारा किये गये विभिन्न प्रयासों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
ग्राम्य विकास हेतु भारत सरकार द्वारा किये गये प्रयास
भारत की 75 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् गाँवों का सर्वांगीण विकास करने के उद्देश्य से अनेकों कार्यक्रम एवं योजनाएँ संचालित की गयीं जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. सामुदायिक विकास योजना – गाँवों के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य से देश में 1952 ई० से सामुदायिक विकास योजना आरम्भ की गयी। सामुदायिक विकास आत्म-सहायता का कार्यक्रम है। अर्थात् ग्रामीण जनता स्वयं ही योजनाएँ बनाये और उन्हें कार्यान्वित करे तथा सरकार की ओर से केवल तकनीकी मार्गदर्शन एवं वित्तीय सहायता ही मिले। अन्य शब्दों में, “सामुदायिक विकास का अर्थ ग्रामीण जनता के सर्वांगीण विकास से है।” सामुदायिक विकास में कृषि, पशुपालन, सिंचाई, सहकारिता, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्राम पंचायत तथा ग्रामीण जीवन के सभी पक्ष सम्मिलित होते हैं।

सामुदायिक विकास योजना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  • जनता के परम्परावादी दृष्टिकोण को धीरे-धीरे बदलकर उन्हें स्वस्थ व वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करना।
  • जनता में सहकारिता की भावना जागृत करना।
  • कृषि-उत्पादन में वृद्धि करना तथा किसानों को वैज्ञानिक विधि से खेती करने, बागवानी करने, पशुपालन वे मछली-पालन के तरीकों का ज्ञान कराना।
  • ग्रामीण कुटीर एवं लघु उद्योगों का विस्तार एवं विकास करके रोजगार सुविधाओं में वृद्धि करना।
  • गाँवों को अपनी आधारभूत आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र और आवास के मामलों में आत्मनिर्भर बनाना।
  • गाँवों में सड़कों, पाठशालाओं, स्वास्थ्य केन्द्रों आदि का निर्माण कराना तथा इस प्रकार ग्राम्य विकास करना।
  • ग्रामीण अशिक्षा को दूर करने का प्रयास करना।
  • गाँवों में स्वच्छता लाना, शुद्ध पीने के पानी की व्यवस्था करना तथा बीमारियों से बचने के विषय में जानकारी देना।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में कच्ची तथा पक्की सड़कों का निर्माण कराना, पशु परिवहन का नवीनीकरण करना तथा मोटर परिवहन का विकास करना।
  • विभिन्न उपायों द्वारा ग्रामीण परिवारों की आय में वृद्धि करना।
    उपर्युक्त उद्देश्यों को प्राप्त करने की दृष्टि से सम्पूर्ण देश को 5,011 सामुदायिक विकास-खण्डों में बाँटा गया है। वर्तमान समय में एक खण्ड में 100 गाँव हैं जिनकी जनसंख्या 1 लाख तथा क्षेत्रफल 620 वर्ग किमी है।

इस योजना का ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अच्छा प्रभाव पड़ा है, जिसका संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित है

  1. सामुदायिक विकास योजना कृषि विकास के उद्देश्य में पर्याप्त रूप से सफल रही है। उत्तम बीजों, उर्वरकों, कृषि-यन्त्रों, सिंचाई सुविधाओं आदि के कारण कृषि-उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
  2. इस योजना के फलस्वरूप गाँवों में कच्ची तथा पक्की सड़कों का निर्माण हुआ है।
  3. विकास-खण्डों ने अपने क्षेत्र की हजारों हेक्टेयर बंजर भूमियों को कृषि योग्य बनाया है। भूमि कटाव को रोकने के लिए नयी मेड़े भी बनायी गयी हैं।
  4. विकास-खण्डों ने पशुओं की नस्लों में सुधार करने के लिए हजारों कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र खोले हैं।
  5. सामुदायिक विकासखण्डों ने गाँवों में पक्की नालियाँ, पक्की गलियाँ, शौचालय, कुओं आदि का निर्माण कराया है।
  6. ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा-प्रचार एवं प्रसार हेतु प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र तथा सिलाई केन्द्र खोले गये हैं।
  7. ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर तथा लघु उद्योग खोलने के लिए किसानों को वित्तीय सहायता दी जाती है तथा ग्रामीण कारीगरों को करोड़ों रुपये के ऋण दिये जाते हैं।
  8. गाँवों में आय की असमानताओं को दूर करने के लिए तथा रोजगार के अवसरों में वृद्धि करने के लिए सम्पूर्ण ग्राम विकास कार्यक्रम’ को आरम्भ किया गया है।

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम से ग्रामीण जनता की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।

2. जवाहर ग्राम समृद्धि योजना – जवाहर ग्राम समृद्धि योजना पहले की जवाहर रोजगार योजना का पुनर्गठित, सुव्यवस्थित और व्यापक स्वरूप है। यह योजना अप्रैल, 1999 ई० को प्रारम्भ की गयी।

उद्देश्य – जवाहर ग्राम समृद्धि योजना का उद्देश्य गाँव में रहने वाले गरीबों को जीवनस्तर सुधारना और उन्हें लाभप्रद रोजगार के अवसर प्रदान कराना है। जवाहर ग्राम समृद्धि योजना दिल्ली और चण्डीगढ़ को छोड़कर समग्र देश में सभी ग्राम पंचायतों में लागू की गयी है। योजना में खर्च की जाने वाली राशि 75: 25 के अनुपात में केन्द्र व राज्य सरकार वहन करेगी। केन्द्रशासित प्रदेशों के मामले में सम्पूर्ण व्यय केन्द्र वहन करेगा। योजना को पूर्णत: ग्राम पंचायत स्तर पर ही लागू किया गया है।

योजना के अन्तर्गत मजदूरी राज्य सरकार निर्धारित करेगी तथा ग्राम पंचायतों को जनसंख्या के आधार पर धनराशि का आवंटन बिना किसी सीमा के किया जाएगा। योजना की 22.5 प्रतिशत धनराशि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की अलग लाभार्थी योजनाओं के लिए निर्धारित की गयी है।

3. कुटीर ज्योति कार्यक्रम – भारत में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले ग्रामीण परिवारों के जीवन-स्तर में सुधार करने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1988-89 में ‘कुटीर ज्योति कार्यक्रम प्रारम्भ किया। इसके अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों को एक बत्ती विद्युत कनेक्शन उपलब्ध कराने के लिए ₹400 की सरकारी सहायता उपलब्ध कराई जाती है।

4. अन्नपूर्णा योजना – यह योजना निर्धन एवं असहाय वरिष्ठ नागरिकों को नि:शुल्क खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए, केन्द्र सरकार के ग्रामीण विकास मन्त्रालय द्वारा मार्च, 1999 ई० में प्रारम्भ की गयी, जो निर्धनता रेखा से नीचे के 14 लाख नागरिकों के लिए लक्षित थी। अन्नपूर्णा योजना के अन्तर्गत पात्र नागरिकों को प्रति माह 10 किग्रा अनाज नि:शुल्क उपलब्ध कराने का प्रावधान है।

5. स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना (A.S.G.S.Y.) – स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना को 1 अप्रैल, 1999 ई० से प्रारम्भ किया गया था। इस योजना का उद्देश्य लघु उद्यमों को बढ़ावा देना तथा ग्रामीण निर्धनों को अपने स्व-सहायता समूहों (एस०एस०जी०) में संगठित करने में सहायता प्रदान करना है। यह योजना ग्रामीण निर्धनों को अपने स्व-सहायता समूहों के संगठन और उनकी क्षमता निर्माण, प्रशिक्षण, सामूहिक गतिविधियों का नियोजन, ढाँचागत विकास, बैंक ऋण और विपणन सम्बन्धी सहायता आदि जैसे स्वरोजगार के सभी पक्षों को कवच प्रदान करती है। इस योजना को केन्द्र और राज्यों के बीच 75 : 25 के लागत बँटवारे के अनुपात के आधार पर केन्द्रीय प्रायोजित योजना के रूप में कार्यान्वित किया जा रहा है।

स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना में इससे पहले के स्वरोजगार से सम्बद्ध कार्यक्रमों तथा समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम (IRDP), स्वरोजगार के लिए ग्रामीण युवाओं का प्रशिक्षण कार्यक्रम (TRYSEM), ग्रामीण क्षेत्र में महिला एवं बाल विकास कार्यक्रम (DwCRA), ग्रामीण दस्तकारों को उन्नत औजारों के किट की आपूर्ति का कार्यक्रम (SITRA), गंगा कल्याण योजना तथा दस लाख कुआँ योजना को भी समेकित कर दिया गया है। अब ये कार्यक्रम अलग से नहीं चल रहे हैं।

6. रोजगार आश्वासन योजना (EAS) – रोजगार आश्वासन योजना 2 अक्टूबर, 1993 ई० से ग्रामीण क्षेत्रों के 257 जिलों के 1,770 विकास-खण्डों में प्रारम्भ की गयी थी। बाद में यह योजना वर्ष 1997-98 तक देश के सभी 5,448 ग्रामीण पंचायत समितियों में विस्तारित कर दी गयी। इस योजना को एकल-मजदूरी रोजगार कार्यक्रम बनाने के लिए वर्ष 1999-2000 में इसकी पुनः संरचना की गयी और 75: 25 के लागत : अनुपात के आधार पर इसे केन्द्रीय प्रायोजित योजना के रूप में कार्यान्वित किया गया।

इस योजना का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक परिवार से अधिकतम दो युवाओं को 100 दिन तक का लाभप्रद रोजगार उपलब्ध कराना है। योजना का दूसरा गौण उद्देश्य पर्याप्त रोजगार तथा विकास के लिए आर्थिक अधोरचना तथा सामुदायिक परिसम्पत्तियों का सृजन करना है। रोजगार आश्वासन एक माँग चालित कार्यक्रम है; अत: इसके अन्तर्गत भौतिक लक्ष्य निर्धारित नहीं किये गये हैं।

7. सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (SGRY) – ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा के लिए प्रस्तावित नयी सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना का शुभारम्भ प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 25 सितम्बर, 2001 ई० को किया। ग्रामीण विकास मन्त्रालय द्वारा संचालित की जाने वाली इस योजना के लिए के ₹10 हजार करोड़ वित्तीय वर्ष 2001-02 के लिए मन्त्रिमण्डल द्वारा स्वीकृत किये गये। ₹10 हजार करोड़ की इस राशि में से है ₹5,000 करोड़ का भुगतान भारतीय खाद्य निगम को उसके द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले अनाज के मूल्य के रूप में किया जाएगा, जबकि शेष ₹ 5,000 करोड़ की अदायगी लाभान्वित होने वाले श्रमिकों को मजदूरी के रूप में दी जाएगी।

पंचायती संस्थाओं के माध्यम से लागू की जाने वाली इस योजना के द्वारा प्रतिवर्ष 100 करोड़ मानव दिवस रोजगार सृजित होने की सम्भावना है। योजना को दो चरणों में लागू किया जाएगा। पहले चरण में इसमें जिला व ब्लॉक पंचायत को सम्मिलित किया जाएगा। योजना के अन्तर्गत आवंटित 50 प्रतिशत राशि इस चरण में व्यय होगी, जिसमें जिला परिषद् को 20 प्रतिशत व पंचायत समितियों को 30 प्रतिशत हिस्सा मिलेगा। दूसरे चरण में ग्राम पंचायतों को सम्मिलित किया जाएगा। योजना के अन्तर्गत 50 प्रतिशत राशि इस चरण में व्यय होगी। इस योजना के अन्तर्गत कार्य करने वाले बेरोजगारों को प्रतिदिन 5 किलो खाद्यान्न दिया जाएगा तथा शेष भुगतान मुद्रा में किया जाएगा। योजना के जरिये ग्रामीण क्षेत्रों में सूखे से निपटने के उपाय व भूसंरक्षण के साथ पारम्परिक जल स्रोतों के निर्माण, सड़क, विद्यालय सहित अन्य भवनों के निर्माण कार्य भी किये जाएँगे।

8. प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना (PMGY) – ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के जीवन-स्तर में सुधार लाने के समग्र उद्देश्य से स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, पेयजल, आवास तथा ग्रामीण सड़कों जैसे पाँच महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में ग्रामीण स्तर पर विकास करने पर ध्यान देने के लिए यह योजना वर्ष 2000-01 में प्रारम्भ की गयी।

9. ग्रामीण आवास के लिए कार्य-योजना – 1991 ई० की जनगणना के अनुसार, लगभग 3.1 मिलियन परिवार बेघर हैं और अन्य 10.31 मिलियन परिवार कच्चे घरों में रहते हैं। इस समस्या की व्यापकता को देखते हुए वर्ष 1998 में राष्ट्रीय गृह आवासन नीति की घोषणा की गयी थी, जिसका उद्देश्य ‘सबके लिए आवास उपलब्ध कराना है और जो निर्धन एवं साधनहीन लोगों को लाभ देने पर जोर देते हुए प्रति वर्ष 20 लाख अतिरिक्त आवास यूनिटों (13 लाख ग्रामीण क्षेत्रों में और 7 लाख शहरी क्षेत्रों में) के निर्माण को सुसाध्य बनाती है। सरकार दसवीं योजनावधि के अन्त तक सभी के लिए आश्रय-स्थल सुनिश्चित करने के लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्ध है। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ग्रामीण आवास हेतु एक व्यापक कार्य-योजना बनायी गयी है, जिनमें मुख्य रूप से अग्रलिखित योजनाएँ भी सम्मिलित हैं

  • इन्दिरा आवास योजना (IAY) – इन्दिरा गांधी आवास योजना का उद्देश्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मुक्त किये गये बँधुआ मजदूरों की श्रेणियों से सम्बन्धित गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों को सहायता प्रदान करना है।
  • प्रधानमन्त्री ग्रामोदय ग्रामीण आवास योजना – ग्राम स्तर पर स्थायी मानव-विकास का उद्देश्य पूरा करने के लिए प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना वर्ष 2000-01 के मध्य प्रारम्भ की गयी व्यापक प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना का एक भाग है। वर्ष 2001-02 के दौरान प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना के घटक ग्रामीण आश्रय-स्थल’ को कार्यान्वित करने के लिए 280 करोड़ उपलब्ध कराये गये हैं।
  • आवास हेतु हुडको को सहायता –  ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों और कम आय के वर्गों की आवश्यकता को पूरी करने और ग्रामीण क्षेत्रों में आवास वित्त पहुँचाने की स्थिति में सुधार करने के लिए, नौवीं पंचवर्षीय योजना की अवधि में हुडको को दी जाने वाली इक्विटी सहायता ₹ 5 करोड़ से बढ़ाकर ₹ 355 करोड़ कर दी गयी है।

उम्मीद की जा सकती है कि यदि इन योजनाओं को ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से संचालित किया गया तो ग्रामीण विकास में हमें अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन एवं सुधार देखने को मिलेंगे।

लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)

प्रश्न 1
सामाजिक वानिकी में निहित उद्देश्यों को संक्षेप में लिखिए। [2008, 10, 16]
या
सामाजिक वानिकी के कोई दो उद्देश्य लिखिए। [2012]
उत्तर:
सामाजिक वानिकी के उद्देश्यों में प्रमुख निम्नलिखित हैं

  1. वनों के क्षेत्रफल में वृद्धि करना जिससे ईंधन, फल, चारा आदि की पूर्ति करके स्थानीय लोगों को लाभ पहुँचाया जा सके।
  2. भूमि के कटाव को रोकना।
  3. भूमि की नमी का संरक्षण करना।
  4. पर्यावरण को स्वच्छ एवं सन्तुलित रखना।
  5. भूमि की उर्वरा-शक्ति में वृद्धि करना।
  6. किसानों के लिए अतिरिक्त आय के स्रोतों का सृजन करना।
  7. ग्रामीणों को अतिरिक्त रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना।
  8. अनुपयोगी भूमि का समुचित उपयोग करना।
  9. वायु के प्रवाह से कृषि-भूमि का बचाव करना।

उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों की बेकार पड़ी भूमि, बंजर भूमि, ऊसर भूमि, सड़कों के किनारे खाली पड़ी भूमि आदि पर वृक्षारोपण किया जाता है। इसके अलावा एक ही भूमि पर फसलों के साथ वृक्षों को उगाने की प्रक्रिया भी सामाजिक वानिकी की परिधि में आती है।

प्रश्न 2
सामाजिक वानिकी का ग्रामीण विकास में क्या महत्त्व है?
उत्तर:
सामाजिक वानिकी ग्रामीण अंचलों के बेरोजगार व्यक्तियों को रोजगार एवं अतिरिक्त आय के साधन उपलब्ध कराने में सहायक है; क्योंकि

  1. सीमान्त एवं लघु कृषक अपने खेतों के चारों ओर तथा खाली पड़ी बंजर भूमि पर बहुउद्देशीय वृक्ष (जैसे-यूकेलिप्ट्स आदि) उगाकर उनसे चारा, जलाने की लकड़ी आदि प्राप्त कर सकते हैं।
  2. इस पद्धति द्वारा पेड़ों से सम्पूर्ण फसल प्रणाली के सूक्ष्म वातावरण में सुधार होता है।
  3. लगाये गये पेड़ों के रख-रखाव में छोटे किसान अतिरिक्त रोजगार प्राप्त कर सकते हैं।
  4. इस पद्धति से किसान अपनी भूमि से दोहरा लाभ प्राप्त करने में सफल होता है, क्योंकि पेड़ों के साथ ही खाद्यान्न फसलों का भी उत्पादन सम्भव हो पाता है, जिससे किसानों की आय में वृद्धि होती है।
  5. भूमि-सुधार और पर्यावरण सन्तुलन करने में सहायता मिलती है।
  6. इस प्रक्रिया में विकसित किये गये पेड़ों से कुटीर उद्योग-धन्धे आरम्भ किये जा सकते हैं। सामाजिक वानिकी द्वारा ऐसे अनेक वन-उत्पादों की पूर्ति की जा सकती है जिनसे लघु एवं कुटीर उद्योग-धन्धे विकसित किये जा सकें।
  7. सामाजिक वानिकी द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों की परती एवं बेकार पड़ी भूमि का व्यावसायिक उपयोग किया जाना सम्भव होता है।
  8. सामाजिक वानिकी द्वारा मृदा में नमी का संरक्षण बनाये रखना सम्भव हो पाता है, जिससे बाढ़ और सूखे का प्रकोप कम हो जाता है।

उपर्युक्त लाभ ग्रामीण अंचलों में सामाजिक वानिकी की उपादेयता को प्रदर्शित करते हैं। यही कारण है कि विगत वर्षों में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम भारत में लोकप्रिय हो रहा है और ग्रामीण अंचलों में इसे अपनाने के लिए जागरूकता पैदा हो रही है।

प्रश्न 3
प्राथमिकता शिक्षा एवं साक्षरता के क्षेत्र में सरकार द्वारा चलायी जा रही निम्नलिखित योजनाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए
(1) अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम,
(2) राष्ट्रीय पोषणिक सहायता कार्यक्रम,
(3) महिला समानता के लिए शिक्षा,
(4) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा।
उत्तर:
(1) अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम
शिक्षा सम्बन्धी राष्ट्रीय नीति और कार्रवाई कार्यक्रम, 1986 ई० के अनुसार देश में एक सक्षम संस्थागत आधारभूत ढाँचा खड़ा करने हेतु शैक्षणिक और तकनीकी संसाधन आधार अभिमुखीकरण, प्रशिक्षण और ज्ञान के सतत उन्नयन, देश में प्राथमिक विद्यालय शिक्षक की सामर्थ्य और शैक्षणिक कौशल बढ़ाने के लिए 1987 ई० में अध्यापक शिक्षा की पुनर्संरचना और पुनर्गठन के लिए केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना शुरू की गयी थी। इस स्कीम के निम्नलिखित पाँच घटक थे

  • सभी जिलों में जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना करना।
  • अध्यापक शिक्षा महाविद्यालयों का सुदृढ़ीकरण और उनमें से कुछ का शिक्षा के उच्च अध्ययन संस्थानों के रूप में विकास करना।
  • राज्यों के शैक्षणिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषदों का सुदृढीकरण।
  • विद्यालय अध्यापकों के लिए विशेष अभिमुखी कार्यक्रम और अध्यापक प्रशिक्षण से दूरस्थ शिक्षा पद्धति शुरू करना।
  • विश्वविद्यालयों में शिक्षा संकायों की स्थापना और सुदृढ़ीकरण।

(2) राष्ट्रीय पोषणिक सहायता कार्यक्रम
देश में पहली बार प्राथमिक शिक्षा के लिए पोषणिक सहायता का एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम 15 अगस्त, 1995 ई० को आरम्भ किया गया था। इसका उद्देश्य प्राथमिकता शिक्षा के सार्वभौमीकरण को बढ़ावा देना और प्राथमिक कक्षाओं में छात्रों के पोषण में अभिवृद्धि करना था। कार्यक्रम का अन्तिम लक्ष्य पौष्टिक पके हुए वे सन्तुलित भोजन की व्यवस्था करना था, जिसमें 100 ग्राम गेहूँ या चावल के बराबर कैलोरी हो। इसका वितरण पंचायतों और नगरपालिकाओं के माध्यम से किया जाना है जिनको इस प्रयोजन हेतु संस्थागत प्रबन्ध विकसित करना है।

(3) महिला समानता के लिए शिक्षा
भारत सरकार द्वारा स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय से ही विभिन्न कार्यक्रमों और योजनाओं के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में लिंग सम्बन्धी असमानताओं को दूर करने के प्रयास किये जा रहे हैं। 1986 ई० की राष्ट्रीय शिक्षा नीति तथा 1992 ई० की संशोधित नयी शिक्षा-नीति स्वीकार करने के बाद से इन प्रयासों को विशेष बल मिला है। नयी शिक्षा नीति में महिलाओं के हित संरक्षण का संकल्प व्यक्त किया गया है कि विकास की प्रक्रिया में लड़कियों व महिलाओं की भागीदारी के लिए उनकी शिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है। सरकारी और गैर-सरकारी प्रयत्नों के परिणामस्वरूप स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् महिलाओं की साक्षरता दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 1951 ई० में महिला साक्षरता मात्र 7.3 प्रतिशत थी, जबकि 2011 ई० में यह बढ़कर 65.46 प्रतिशत हो गयी।

(4) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा
वर्ष 1950-51 से 2010-11 ई० तक माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में निम्नलिखित उल्लेखनीय प्रगति हुई

  • माध्यमिक स्तर के शिक्षा संस्थान 7,416 से बढ़कर 2.15 लाख हो गये।
  • माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की संख्या 13.3 प्रतिशत से बढ़कर 72.10 प्रतिशत पर पहुँच गयी।
  • लड़कियों के दाखिले 2 लाख से बढ़कर 1 करोड़ हो गये।

उच्च शिक्षा की दृष्टि से भी देश प्रगति की ओर अग्रसर है। वर्तमान में देश में 376 विश्वविद्यालय, 131 सम-विश्वविद्यालय और 113 निजी विश्वविद्यालय हैं, जो उच्च शिक्षा उपलब्ध करा रहे हैं। देश में कॉलेजों की कुल संख्या 16,615 है। देश के सभी विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या 1 करोड़ से ऊपर है, जबकि अध्यापकों की संख्या 4.16 लाख है।

प्रश्न 4
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा-व्यवस्था पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
स्वास्थ्य विकास में उच्चतम प्राथमिकता ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा (देखभाल) व्यवस्था के निर्माण को दी गयी है। यह मद न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रमों तथा नये बीस सूत्री कार्यक्रम में सम्मिलित की गयी है। जून, 1999 ई० तक ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था जिसमें स्वास्थ्य सेवा को परिवार नियोजन के साथ संयोजित किया गया है, के अन्तर्गत देश में उपकेन्द्र, प्राथमिक केन्द्र तथा सहायक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र थे। सन् 2000 तक 5,000 जनसंख्या के लिए (पहाड़ी तथा आदिवासी क्षेत्रों में 3,000 के लिए) एक उपकेन्द्र तथा 30,000 जनसंख्या (पहाड़ी तथा आदिवासी क्षेत्रों में 20,000) के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया था, जिसे वर्ष 1990-91 में ही प्राप्त कर लिया गया।

प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र – प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा का केन्द्र बिन्दु है। यह योजना पहली पंचवर्षीय योजना में आरम्भ की गयी थी। उस समय से इनकी संख्या में वृद्धि हो गयी है। वर्ष 1977-78 से वर्तमान ग्रामीण डिस्पेन्सरियों का दर्जा बढ़ाकर उन्हें एक नये वर्ग सहायक स्वास्थ्य केन्द्रों में बदल दिया गया। उनके कार्यों में अब लोक स्वास्थ्य कार्य भी जोड़ दिया गया है।

उपकेन्द्र – उपकेन्द्र परिवार कल्याण कार्यक्रम के लिए अति आवश्यक है, क्योंकि इन उपकेन्द्रों से ग्रामीण लोगों को सेवाएँ और सप्लाई (सामग्री) प्रदान की जाती है। पिछले समय में सहायक नर्स-दाइयों की सीमित प्रशिक्षण क्षमता तथा वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण उपकेन्द्रों की स्थापना में बाधा पड़ी है। हाल के वर्षों में इनमें पुन: तेज प्रगति हुई है और जिन उपकेन्द्रों के पास अपने भवन नहीं थे, उन्हें अपने भवन देने का लक्ष्य रखा गया है।

सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र – 1,00,000 व्यक्तियों के लिए एक गुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित करने की योजना है, जिसमें कम-से-कम 30 बिस्तर उपलब्ध हों तथा साथ ही स्त्री रोग चिकित्सा, शारीरिक रोग चिकित्सा, शल्य चिकित्सा और ओषधि सहित विशिष्ट सुविधाएँ उपलब्ध हों।

प्रश्न 5
संक्रामक रोगों पर नियन्त्रण के सन्दर्भ में किये गये सरकारी प्रयास पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
चेचक, मलेरिया, हैजा, प्लेग, फाइलेरिया, क्षय रोग (टी०बी०), कुष्ठ रोग आदि संक्रामक रोगों के नियन्त्रण को नियोजन काल में उच्च प्राथमिकता दी गयी।

चेचक का उन्मूलन कर दिया गया और देश को अप्रैल, 1977 ई० से इस रोग से मुक्त घोषित कर दिया गया है।
राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम 1958 ई० में आरम्भ किया गया। वर्ष 1976 ई० में जहाँ 65 लाख व्यक्ति मलेरिया से पीड़िते हुए, वहीं चलाये गये कार्यक्रमों के कारण वर्ष 2010 में केवल 12 लाख व्यक्ति ही इस रोग से पीड़ित हुए।

देश की जनसंख्या का लगभग पाँचवाँ भाग फाइलेरिया से प्रभावित क्षेत्रों में रहता है। उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं आन्ध्र प्रदेश के कुछ चुने हुए जिलों में प्रयोग के तौर पर 1978 में फाइलेरिया नियन्त्रण

की एक व्यूहरचना लागू की गयी थी। मार्च, 1989 ई० में राष्ट्रीय फाइलेरिया नियन्त्रण कार्यक्रम लागू । किया गया, जिससे इस संक्रामक रोग को नियन्त्रित करने में पर्याप्त सफलता मिली है।
भारत में क्षय रोग (टी०बी०) एक मुख्य स्वास्थ्य समस्या है। पूरे विश्व के क्षय रोगियों का एक-तिहाई भाग भारत में है। वर्तमान में क्षय रोग पूर्णत: उपचार योग्य है। देश के राष्ट्रीय क्षय रोग नियन्त्रण कार्यक्रम को विश्व बैंक की सहायता से चलाया जा रहा है।

कुष्ठ रोग यद्यपि देश के सभी भागों में पाया जाता था, किन्तु तमिलनाडु, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, नागालैण्ड, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मणिपुर तथा बिहार में इस रोग का विस्तार बहुत अधिक था। वर्तमान में कुष्ठ रोग पर नियन्त्रण पा लिया गया है तथा अब 13 राज्यों में प्रति 10,000 जनसंख्या पर केवल एक कुष्ठ रोगी है। राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम भी देश में विश्व बैंक की सहायता से चलाया जा रहा हैं।

देश में एड्स सर्वाधिक गम्भीर जनस्वास्थ्य समस्या के रूप में सामने आया है। वर्ष 1998 से राष्ट्रीय स्तर पर एक निगरानी कार्यक्रम को हाथ में लिया गया है जो एच०आई०वी० के जीवाणुओं से ग्रस्त कुल रोगियों की संख्या का अनुमान लगाता है। एड्स के सर्वाधिक मामले कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर तथा नागालैण्ड राज्यों में पाये गये हैं। राष्ट्रीय एड्स नियन्त्रण कार्यक्रम भी देश में विश्व बैंक की सहायता से चलाया जा रहा है।

प्रश्न 6
भारत में ग्रामीण विकास की किन्हीं तीन योजनाओं को स्पष्ट कीजिए। [2011]
उत्तर:
स्वतन्त्रता के पश्चात् देश को तीव्र गति से आर्थिक विकास करने के लिए नियोजन का मार्ग अपनाया गया। भारत एक ग्राम-प्रधान देश है। यदि हम भारत का आर्थिक विकास करना चाहते हैं तो ग्राम्य विकास के बिना आर्थिक विकास की कल्पना करना निरर्थक होगा; अतः भारत के आर्थिक विकास के लिए 1950 ई० में योजना आयोग की स्थापना की गयी। देश की प्रथम पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1951 ई० से प्रारम्भ की गयी तथा अब तक 11 पंचवर्षीय योजनाएँ अपना कार्यकाल पूरा कर चुकी हैं। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में ग्राम्य विकास की ओर सर्वाधिक ध्यान केन्द्रित किया गया है, जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. प्रथम पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1951 ई० से 31 मार्च, 1956 ई० तक) – प्रथम पंचवर्षीय योजना की रूपरेखा में कहा गया था कि नियोजन का केन्द्रीय उद्देश्ये जनता के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना है और उसके लिए एक अधिक सुख-सुविधापूर्ण जीवन प्रदान करना है। प्रथम पंचवर्षीय योजना मुख्य रूप से कृषिप्रधान योजना थी। इस योजना में सम्पूर्ण योजना की लगभग तीन-चौथाई धनराशि कृषि, सिंचाई, शक्ति तथा यातायात पर व्यय की गयी।

2. द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1956 ई० से 31 मार्च, 1961 ई० तक) – द्वितीय पंचवर्षीय योजना में भी कृषि को महत्त्व प्रदान किया गया था, परन्तु औद्योगिक विकास को अधिक प्राथमिकता दी गयी थी। ग्राम्य विकास की ओर द्वितीय योजना में भी पूर्ण ध्यान दिया गया था।

3. तीसरी पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1961 ई० से 31 मार्च, 1966 ई० तक) – तीसरी योजना में ग्राम्य विकास हेतु कृषि विकास को पर्याप्त महत्त्व दिया गया था। योजना आयोग ने कृषि को प्राथमिकता देते हुए लिखा था – “तृतीय योजना की विकास युक्तेि में कृषि को ही अनिवार्यतः सर्वाधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिए। पहली दोनों योजनाओं का अनुभव यह प्रदर्शित करता है कि कृषि-क्षेत्र की विकास-दर भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास को प्रतिबन्धात्मक कारण है, इसलिए कृषि-उत्पादन को बढ़ाने के यथा-सम्भव अधिक प्रयास करने होंगे।”

प्रश्न 7:
रोजगार आश्वासन योजना के उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
रोजगार आश्वासन योजना (EAS) – रोजगार आश्वासन योजना 2 अक्टूबर, 1993 ई० से ग्रामीण क्षेत्रों के 257 जिलों के 1,770 विकास-खण्डों में प्रारम्भ की गयी थी। बाद में यह योजना वर्ष 1997-98 तक देश के सभी 5,448 ग्रामीण पंचायत समितियों में विस्तारित कर दी गयी। इस योजना को एकल-मजदूरी रोजगार कार्यक्रम बनाने के लिए वर्ष 1999-2000 में इसकी पुन: संरचना की गयी और 75:25 के लागत बँटवारे के अनुपात के आधार पर इसे केन्द्रीय प्रायोजित योजना के रूप में कार्यान्वित किया गया।

इस योजना का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक परिवार से अधिकतम दो युवाओं को 100 दिन तक का लाभप्रद रोजगार उपलब्ध कराना है। योजना का दूसरा गौण उद्देश्य पर्याप्त रोजगार तथा विकास के लिए आर्थिक अधोरचना तथा सामुदायिक परिसम्पत्तियों का सृजन करना है। रोजगार आश्वासन एक माँग चालित कार्यक्रम है; अतः इसके अन्तर्गत भौतिक लक्ष्य निर्धारित नहीं किये गये हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)

प्रश्न 1
संगम योजना पर अति संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
15 अगस्त, 1996 ई० को सरकार ने विकलांगों के कल्याण के लिए जिन समाज-कल्याण योजनाओं की घोषणा की, उनमें संगम योजना एक प्रमुख योजना है। इस योजना के अन्तर्गत विकलांगों को एक समूह के रूप में संगठित करके प्रत्येक समूह को आर्थिक क्रियाओं के संचालन हेतु ₹ 15,000 की आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है। विकलांगों के प्रत्येक समूह को ‘संगम’ नाम दिया गया।

प्रश्न 2
अन्त्योदय अन्न-योजना के उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
इस योजना का उद्देश्य निर्धनों को अन्न सुरक्षा उपलब्ध कराना है। यह योजना 25 दिसम्बर, 2000 ई० को लागू की गयी। इस योजना के अन्तर्गत देश के एक करोड़ निर्धनतम परिवारों को प्रति माह 25 किलोग्राम अनाज विशेष रियायती मूल्य पर उपलब्ध कराया जाएगा।

प्रश्न 3
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ने ग्रामीण क्षेत्रों में क्या योगदान दिये हैं?
उत्तर:
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ने ग्रामीण क्षेत्रों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण योगदान दिये हैं

  1. उन्नत बीज, ट्रैक्टर आदि उपकरण, रासायनिक उपकरण, कीटनाशक दवाएँ आदि सभी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की देन हैं।
  2. गोबर गैस प्लाण्ट से महिलाओं को धुएँ से मुक्ति मिली है।
  3. ग्रामीण औद्योगीकरण को बढ़ावा मिला है।
  4. परिवहन, संचार-सुविधाओं का विकास हुआ है।
  5. ग्रामीण विकास में सहायता मिली है।

प्रश्न 4
ग्रामीण विकास के मार्ग में क्या-क्या बाधाएँ हैं?
उत्तर:
ग्रामीण विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं का विवरण निम्नलिखित है

  1. सरकार द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों में कमियाँ,
  2. ग्रामीण जनता को शहरों की ओर पलायन,
  3. निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा उपेक्षा,
  4. अशिक्षा,
  5. जाति-प्रथा,
  6. मध्यस्थों व जन-सेवकों द्वारा योजना के अन्तर्गत प्रदत्त धन का दुरुपयोग।

प्रश्न 5
ग्रामीण विकास हेतु कुछ सुझाव प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
ग्रामीण विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं

  1. शिक्षित ग्रामीणों का गाँवों में ही निवास,
  2. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से जवाबदेही सुनिश्चित की जाए,
  3. जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण,
  4. योजनाओं के स्वरूप का निर्धारण ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं के आधार पर,
  5. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रौढ़-शिक्षा, बाल-शिक्षा कार्यक्रमों का विस्तार तथा
  6. ग्रामीण विकास में बाधक कर्मचारियों को दण्डित किया जाए।

प्रश्न 6
कुटीर ज्योति कार्यक्रम अब और किस उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया? [2013]
उत्तर:
हरिजन और आदिवासी परिवारों सहित गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले ग्रामीण परिवारों के जीवन-स्तर में सुधार के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1988-1989 में ‘कुटीर ज्योति कार्यक्रम प्रारम्भ किया। इसके अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों को एक बत्ती विद्युत कनेक्शन उपलब्ध कराने के लिए ₹400 की सरकारी सहायता उपलब्ध कराई जाती है।

प्रश्न 7
प्रधानमन्त्री रोजगार योजना का उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
शिक्षित बेरोजगार युवाओं के लिए 2 अक्टूबर, 1993 ई० से प्रारम्भ की गयी प्रधानमन्त्री रोजगार योजना के अन्तर्गत 8वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान उद्योग सेवा तथा कारोबार में सात लाख लघुतर इकाइयाँ स्थापित करके लगभग 10 लाख से भी अधिक व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था। 9वीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) में कतिपय संशोधनों के साथ इस योजना को जारी रखा गया। .

प्रश्न 8
सामाजिक वानिकी के क्या लाभ हैं? [2007, 12]
या
सामाजिक वानिकी से प्राप्त होने वाले किन्हीं दो प्रमुख लाभों का उल्लेख कीजिए। [2013, 14, 16 ]
उत्तर:

  •  सामाजिक वानिकी द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों की परती एवं बेकार पड़ी भूमि का व्यावसायिक उपयोग किया जाना सम्भव होता है।
  •  सामाजिक वानिकी द्वारा मृदा में नमी का संरक्षण बनाए रखना सम्भव हो पाता है, जिससे बाढ़ और सूखे का प्रकोप कम हो जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
सामुदायिक विकास कार्यक्रम के दो उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
(1) कृषि एवं ग्रामीण उद्योगों का विकास करना तथा
(2) ग्रामीण लोगों को आत्मनिर्भर बनाना।

प्रश्न 2
राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन का उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन का उद्देश्य सम्पूर्ण ग्रामीण जनसंख्या को आगामी कुछ वर्षों में ही पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराना है।

प्रश्न 3
ग्रामीण रोजगार की किन्हीं दो योजनाओं के नाम लिखिए। [2010]
उत्तर:
(1) रोजगार आश्वासन योजना (EAS)
(2) सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (SGRY)।

प्रश्न 4
वनों से होने वाले किन्हीं दो लाभों का उल्लेख कीजिए। [2014, 15, 16]
उत्तर:
(1) वन पर्यावरण को स्वच्छ रखते हैं तथा वर्षा के होने में सहायता करते हैं।
(2) वन मृदा-अपरदन को रोकते हैं।

प्रश्न 5
कृषि-श्रमिक सामाजिक सुरक्षा योजना क्या है?
उत्तर:
यह योजना जुलाई, 2001 ई० में 18 से 60 वर्ष की आयु-वर्ग के खेतिहर एवं मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा-लाभ देने के उद्देश्य से शुरू की गयी है।

प्रश्न 6
राष्ट्रीय मानव संसाधन कार्यक्रम किस उद्देश्य के लिए प्रारम्भ किया गया था?
उत्तर:
ग्रामीण जलापूर्ति एवं स्वच्छता क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दक्ष व्यक्तियों के मानव संसाधन आधार की स्थापना हेतु 1994 ई० के प्रारम्भ में राष्ट्रीय मानव संसाधन कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया था।

प्रश्न 7
भारत में विभिन्न प्रकार की बेरोजगारी के नाम बताइए।
उत्तर:
(1) छिपी बेरोजगारी या अदृश्य बेरोजगारी।
(2) अल्प बेरोजगारी।
(3) पूर्ण बेरोजगारी।
(4) मौसमी बेरोजगारी।
(5) शिक्षित बेरोजगारी।

प्रश्न 8
स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना को समझाइए। [2011]
उत्तर:
स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना को एक अप्रैल, 1999 ई० से प्रारम्भ किया गया था। इस योजना का उद्देश्य लघु उद्यमों को बढ़ावा देना तथा ग्रामीण निर्धनों को अपने स्व-सहायता समूहों (एस०एच०जी०) में संगठित करने में सहायता प्रदान करना है।

प्रश्न 9
प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना’ को समझाइए।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के जीवन-स्तर में सुधार लाने के समग्र उद्देश्य से स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, पेय जल, आवास तथा ग्रामीण सड़कों जैसे पाँच महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में ग्रामीण स्तर पर विकास हेतु यह योजना वर्ष 2000-01 में प्रारम्भ की गयी।

प्रश्न 10
अन्नपूर्णा योजना क्या है?
उत्तर:
निर्धन एवं असहाय वरिष्ठ नागरिकों को निःशुल्क खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए यह योजना चलाई जा रही है।

प्रश्न 11
कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम का उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
इस कार्यक्रम का उद्देश्य देश की चुनी हुई बड़ी और मझोली परियोजनाओं की सिंचाई क्षमता को तेजी से बेहतर उपयोग सुनिश्चित करना था।

प्रश्न 12
सर्व शिक्षा अभियान क्या है ? [2015, 16]
उत्तर:
‘सर्व शिक्षा अभियान’ प्राथमिक शिक्षा देने के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए चलाया गया। अभियान है।

प्रश्न 13
सर्व-शिक्षा अभियान के प्रमुख उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। [2007, 11]
उत्तर:
(1) 2010 ई० तक 6-14 वर्ष की आयु के सभी बच्चे स्कूली शिक्षा के आठ वर्ष पूरी करें।
(2) जीवन के लिए शिक्षा पर जोर देते हुए सन्तोषजनक स्तर की बुनियादी शिक्षा पर ध्यान देना।

प्रश्न 14
सामुदायिक विकास कार्यक्रम (C.D.P) कब प्रारम्भ किया गया?
उत्तर:
सामुदायिक विकास कार्यक्रम 2 अक्टूबर, 1952 ई० में प्रारम्भ किया गया।

प्रश्न 15
सघन कृषि जिला कार्यक्रम (IADP) कब प्रारम्भ किया गया था?
उत्तर:
सघन कृषि जिला कार्यक्रम वर्ष 1960-61 ई० में प्रारम्भ किया गया था।

प्रश्न 16
ग्रामीण विद्युतीकरण निगम की स्थापना कब की गयी? [2013]
उत्तर:
जुलाई, 1969 ई० में ग्रामीण विद्युतीकरण निगम की स्थापना की गयी।

प्रश्न 17
राष्ट्रीय पेयजल मिशन की स्थापना कब की गयी थी?
उत्तर:
राष्ट्रीय पेयजल मिशन की स्थापना 1986 ई० में की गयी थी।

प्रश्न 18
‘राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
वर्ष 1991 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन का नाम बदलकर ‘राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन कर दिया गया।

प्रश्न 19
‘राष्ट्रीय मानव संसाधन कार्यक्रम कब प्रारम्भ किया गया?
उत्तर:
वर्ष 1994 में राष्ट्रीय मानव संसाधन कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया।

प्रश्न 20
कुटीर ज्योति कार्यक्रम कब प्रारम्भ किया गया? [2014]
उत्तर:
भारत सरकार ने 1988-89 में कुटीर ज्योति कार्यक्रम प्रारम्भ किया।

प्रश्न 21
प्रधानमन्त्री रोजगार योजना कब प्रारम्भ की गयी? [2009]
उत्तर:
प्रधानमन्त्री रोजगार योजना 2 अक्टूबर, 1993 ई० से प्रारम्भ की गयी।

प्रश्न 22
सम्पूर्ण ग्रामीण योजना कब प्रारम्भ की गयी?
उत्तर:
15 अगस्त, 2001 ई० से सम्पूर्ण ग्रामीण योजना प्रारम्भ की गयी।

प्रश्न 23
प्राथमिक शिक्षा के लिए पोषणिक सहायता कार्यक्रम कब से प्रारम्भ किया गया?
उत्तर:
प्राथमिक शिक्षा के लिए पोषणिक सहायता कार्यक्रम 15 अगस्त, 1995 ई० से प्रारम्भ किया गया।

प्रश्न 24
‘काम के बदले अनाज’ कार्यक्रम कब आरम्भ हुआ था?
उत्तर:
‘काम के बदले अनाज’ कार्यक्रम पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में 1974 में आरम्भ हुआ था।

प्रश्न 25
सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना की विशेषता लिखिए।
उत्तर:
25 सितम्बर, 2001 को केन्द्र द्वारा प्रायोजित इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अतिरिक्त एवं सुनिश्चित अवसर उपलब्ध कराने के साथ-साथ खाद्यान्न उपलब्ध कराना है।

प्रश्न 26
वनों पर आधारित किन्हीं चार उद्योगों के नाम लिखिए। [2011, 13, 16]
उत्तर:
कागज, लकड़ी, माचिस एवं रबर उद्योग।

प्रश्न 27
ग्राम विकास के किन्हीं दो घटकों का उल्लेख कीजिए। [2014]
या
भारत में ग्रामीण विकास के किन्हीं दो प्रमुख घटकों का उल्लेख कीजिए। [2015]
उत्तर:
1. प्राकृतिक संसाधन (कृषि एवं गैर-कृषि उत्पाद)।
2. मानवीय संसाधन (गुणवत्ता और भंजन)।

प्रश्न 28
राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम कब शुरू किया गया ? [2014]
उत्तर:
राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम 15 अगस्त, 1945 में शुरू हुआ।

प्रश्न 29
इन्दिरा आवास योजना कब प्रारम्भ की गई ? [2015]
उत्तर:
इन्दिरा आवास योजना 1985 में प्रारम्भ की गई।

प्रश्न 30
भारत में योजना आयोग के स्थान पर किस आयोग की स्थापना की गई ? [2016]
उत्तर:
‘नीति आयोग की।

प्रश्न 31
सामाजिक वानिकी से आप क्या समझते हैं? [2011, 14]
उत्तर:
वनों का समाजोन्मुख बनाकर सम्वर्द्धन तथा संरक्षण की नीति को सामाजिक वानिकी नीति कहा जाता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1
जवाहर ग्राम समृद्धि योजना प्रारम्भ की गयी
(क) 1960 ई० में
(ख) 1965 ई० में
(ग) 1969 ई० में
(घ) 1999 ई० में
उत्तर:
(घ) 1999 ई० में।

प्रश्न 2
स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना प्रारम्भ की गयी
(क) 1 अप्रैल, 1999 ई० में
(ख) 1 अप्रैल, 2000 ई० में
(ग) 1 अप्रैल, 2001 ई० में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) 1 अप्रैल, 1999 ई० में।

प्रश्न 3
रोजगार आश्वासन योजना प्रारम्भ की गयी
(क) 2 अक्टूबर, 1993 ई० में
(ख) 2 अक्टूबर, 1995 ई० में
(ग) 2 अक्टूबर, 1999 ई० में
(घ) 2 अक्टूबर, 2001 ई० में
उत्तर:
(क) 2 अक्टूबर, 1993 ई० में।

प्रश्न 4
प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना प्रारम्भ हुई
(क) 2000-01 ई० में
(ख) 1994-95 में
(ग) 1993-94 ई० में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) 2000-01 ई० में।

प्रश्न 5
सर्व शिक्षा अभियान प्रारम्भ किया गया [2006, 14]
या
भारत में सर्व शिक्षा अभियान (एस०एस०ए०) किस वर्ष में शुरू किया गया था ? [2015, 16]
(क) 1986 ई० में
(ख) 2001-02 ई० में
(ग) 1 अप्रैल, 1992 ई० में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) 2001-02 ई० में।

प्रश्न 6
ट्राइसेम योजना प्रारम्भ की गयी
(क) 15 अगस्त, 1979 ई० को
(ख) 2 अक्टूबर, 1980 ई० को
(ग) 5 सितम्बर, 1982 ई० को
(घ) 15 अगस्त, 1983 ई० को
उत्तर:
(क) 15 अगस्त, 1979 ई० को।

प्रश्न 7
‘ट्राइसेम कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य था
(क) ग्रामीण युवाओं को स्वरोजगार हेतु प्रशिक्षण देना
(ख) शहरी युवाओं को स्वरोजगार हेतु प्रशिक्षण देना
(ग) ग्रामीण एवं शहरी युवाओं को स्वरोजगार हेतु प्रशिक्षण देना
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(क) ग्रामीण युवाओं को स्वरोजगार हेतु प्रशिक्षण देना।

प्रश्न 8
ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने एवं उनमें बचत की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए महिला समृद्धि योजना कब प्रारम्भ की गयी थी?
(क) 2 अक्टूबर, 1992 ई० को
(ख) 2 अक्टूबर, 1993 ई० को
(ग) 2 अक्टूबर, 1995 ई० को
(घ) 1 जनवरी, 1996 ई० को।
उत्तर:
(ख) 2 अक्टूबर, 1993 ई० को।

प्रश्न 9
ग्रामीण विद्युतीकरण निगम कब स्थापित किया गया ? [2013]
(क) 1969 ई० में
(ख) 1974 ई० में
(ग) 1979 ई० में
(घ) 1984 ई० में
उत्तर:
(क) 1969 ई० में।

प्रश्न 10
सामाजिक वानिकी योजना का शुभारम्भ किस सन में हुआ था?
(क) 1979 ई० में
(ख) 1969 ई० में
(ग) 1974 ई० में।
(घ) 1984 ई० में
उत्तर:
(क) 1979 ई० में।

प्रश्न 11
देश में किस संक्रामक रोग का उन्मूलन कर दिया गया है?
(क) एड्स
(ख) कुष्ठ रोग
(ग) मलेरिया
(घ) चेचक
उत्तर:
(घ) चेचक।

प्रश्न 12
प्रधानमन्त्री ग्राम सड़क योजना आरम्भ की गयी थी [2009, 11, 13]
(क) वर्ष 1999 में
(ख) वर्ष 2000 में
(ग) वर्ष 2001 में
(घ) वर्ष 2002 में
उत्तर:
(ख) वर्ष 2000 में।

प्रश्न 13
निम्नलिखित में से कौन-सी बेरोजगारी दूर करने की एक योजना है
(क) महिला समृद्धि योजना
(ख) ट्राइसेम
(ग) गंगा कार्य योजना
(घ) मिलियन कूप योजना
उत्तर:
(ख) ट्राइसेम।

प्रश्न 14
सामाजिक वानिकी का मुख्य उद्देश्य है
(क) इमारती लकड़ी की आपूर्ति
(ख) चारे की आपूर्ति
(ग) ईंधन लकड़ी की आपूर्ति
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(घ) इनमें से कोई नहीं।

प्रश्न 15
भारत सरकार ने ट्राइफेड की स्थापना कब की थी? [2013]
(क) 1964 में
(ख) 1987 में
(ग) 1990 में
(घ) 1992 में
उत्तर:
(ख) 1987 में।

प्रश्न 16
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना किस वर्ष पूरे देश में लागू हुई थी? [2015]
(क) 2005
(ख) 2006
(ग) 2007
(घ) 2008
उत्तर:
(घ) 2008.

प्रश्न 17
वन अनुसन्धान संस्थान कहाँ स्थित है? [2016]
(क) जोधपुर
(ख) देहरादून
(ग) बंगलुरु
(घ) राँची
उत्तर:
(ख) देहरादून।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 8 Indian Educationist: Mahatma Gandhi

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 8 Indian Educationist: Mahatma Gandhi (भारतीय शिक्षाशास्त्री-महात्मा गांधी) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 8 Indian Educationist: Mahatma Gandhi (भारतीय शिक्षाशास्त्री-महात्मा गांधी).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 8
Chapter Name Indian Educationist: Mahatma Gandhi (भारतीय शिक्षाशास्त्री-महात्मा गांधी)
Number of Questions Solved 26
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 8 Indian Educationist: Mahatma Gandhi (भारतीय शिक्षाशास्त्री-महात्मा गांधी)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

 

प्रश्न  1
महात्मा गाँधी के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त क्या हैं? गाँधी जी के अनुसार शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
या
महात्मा गाँधी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
महात्मा गाँधी एक प्रमुख राजनीतिज्ञ, दार्शनिक एवं समाज-सुधारक होने के साथ-साथ महान् शिक्षाशास्त्री भी थे। डॉ० पटेल के अनुसार, “गाँधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों से यह स्पष्ट है, कि वे पूर्व में शिक्षा सिद्धान्त एवं व्यवहार के प्रारम्भिक बिन्दु हैं।” महात्मा गाँधी ने अपने लेखों एवं भाषणों में अपने शैक्षिक विचारों को व्यक्त किया है। वे शिक्षा को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक प्रगति का आधार मानते थे। गाँधी जी का शिक्षा दर्शन उनके जीवन दर्शन पर आधारित है। गाँधी जी का विचार है कि शिक्षा के द्वारा सत्य, अहिंसा, सेवा, आत्मनिर्भरता आदि को प्राप्त किया जा सकता है। डॉ० पटेल के अनुसार, “गाँधी जी ने उन महान् शिक्षकों एवं उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में अनोखा स्थान प्राप्त किया है, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र को नवज्योति दी है।”

गाँधी जी के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त

गाँधी जी ने जिन शिक्षा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, उनका विवेचन इस प्रकार है

  1. साक्षरता स्वयं में शिक्षा नहीं है।
  2. शिक्षा स्वावलम्बी होनी चाहिए।
  3. शिक्षा को बालकों की समस्त शक्तियों तथा उनमें निहित गुणों का विकास करना चाहिए।
  4. शिक्षा किसी दस्तकारी अथवा हस्तकार्य के द्वारा दी जानी चाहिए, जिससे बालकों को | व्यावहारिक बनाया जा सके।
  5. शिक्षा सह-सम्बन्ध के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिए।
  6. शिक्षा द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व-शरीर, मस्तिष्क तथा हृदय का सर्वांगीण विकास होना चाहिए।
  7. शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उत्तम एवं उपयोगी नागरिकों के निर्माण में सहायक हो।
  8. शिक्षा का जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से तथा मौलिक एवं सामाजिक वातावरण से सम्बन्ध होना चाहिए।
  9. सारे देश में सात वर्ष (7 से 14 वर्ष) तक शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिए।
  10. शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जानी चाहिए।
  11. शिक्षा में प्रयोग, कार्य तथा खोज का स्थान होना चाहिए।
  12. शिक्षा को बेरोजगारी से बालकों की सुरक्षा करनी चाहिए।

शिक्षा का अर्थ

गाँधी जी ने शिक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक एवं मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में निहित सर्वोत्तम गुणों के सर्वांगीण विकास से है।” गाँधी जी शिक्षा के द्वारा बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे। उनका मत था“सच्ची शिक्षा वही है जो बालकों की आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों को व्यक्त और प्रोत्साहित करे।” स्पष्ट है कि गाँधी जी ने शिक्षा के व्यापक अर्थ को स्वीकार किया है।

शिक्षा के उद्देश्य

गाँधी जी ने शिक्षा के दो प्रकार के उद्देश्यों का उल्लेख किया है। ये उद्देश्य हैं-शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य तथा शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य। शिक्षा के इन दोनों उद्देश्यों का सामान्य परिचय निम्नवर्णित है
1. शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य
गाँधी जी ने शिक्षा के निम्नांकित तात्कालिक उद्देश्य बताये हैं

(i) जीविकोपार्जन का उद्देश्य-गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को जीविकोपार्जन के योग्य बनाना है, जिससे वह आत्मनिर्भर हो सके और समाज पर भार न रहे।
(ii) सामंजस्यपूर्ण व्यक्तित्व के विकास का उद्देश्य-गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा द्वारा बालक की समस्त शक्तियों का सामंजस्यपूर्ण विकास होना चाहिए।
(iii) सांस्कृतिक उद्देश्य-गाँधी जी ने सांस्कृतिक विकास को भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना है। उन्होंने संस्कृति को जीवन का आधार माना और इस बात पर बल दिया कि मानव के प्रत्येक व्यवहार पर संस्कृति की छाप होनी चाहिए।
(iv) चारित्रिक विकास का उद्देश्य-गाँधी जी चरित्र-निर्माण के उद्देश्य को बहुत ही महत्त्वपूर्ण मानते थे। चरित्र के अन्तर्गत उन्होंने साहस, बल, सविचार, नि:स्वार्थ, सहयोग, सहिष्णुता, सत्यता आदि गुणों को सम्मिलित किया है। शिक्षा द्वारा वे इन गुणों का विकास करना चाहते थे।
(v) मुक्ति का उद्देश्य-गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सांसारिक बन्धनों से मुक्त करना है और उसकी आत्मा को उत्तम जीवन की ओर उठाना है। वे शिक्षा द्वारा व्यक्ति कोआध्यात्मिक स्वतन्त्रता देना चाहते थे, जिससे कि आत्मा का विकास सम्भव हो सके।

2. शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य
गाँधी जी ने शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य आत्मानुभूति एवं ईश्वर की प्राप्ति बतलाया है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक स्वतन्त्रता आवश्यक है। अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो आत्मानुभूति की प्राप्ति अथवा अन्तिम वास्तविकता जानने में व्यक्ति की सहायता करे।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा के पाठ्यक्रम का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी का विचार था कि शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो केवल बौद्धिक विकास ही न करे, वरन् बालकों का सामाजिक एवं भौतिक वातावरण से सामंजस्य स्थापित करे, जिससे कि विद्यार्थी समाज के उपयोगी अंग बन सकें और आत्मनिर्भर रह सकें। इस दृष्टि से गाँधी जी ने किसी हस्तकार्य या दस्तकारी के माध्यम से शिक्षा देने का सुझाव रखा और क्रियाप्रधान पाठ्यक्रम की योजना बनायी। उन्होंने शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नांकित को सम्मिलित किया

  1. हस्तकौशल-बागवानी, कृषि कार्य, मिट्टी का काम, काष्ठ शिल्प, चर्म शिल्प और धातु शिल्प आदि।
  2. भाषाएँ-मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा, राष्ट्रभाषा।
  3. सामाजिक विषय-इतिहास, भूगोल और नागरिकशास्त्र आदि।
  4. सामान्य विज्ञान-विभिन्न वैज्ञानिक विषय, गृह विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान आदि।
  5. शारीरिक शिक्षा-खेलकूद, व्यायाम, ड्रिल आदि।
  6. गणित-अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, नाप-तौल आदि।
  7. कला-चित्रकला, प्रकृति चित्रण तथा संगीत आदि।
  8. चारित्रिक शिक्षा-नैतिक तथा समाज सेवा कार्य आदि।

प्रश्न 2
गाँधी जी के अनुसार मुख्य शिक्षण-विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
महात्मा गाँधी द्वारा बतायी गयी शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं-”

  1. मनोवैज्ञानिक विधि-इस विधि के अनुसार बालक को लिखने से पहले पढ़ना और अक्षर ज्ञान से पहले चित्रकला सिखानी चाहिए, जिससे उसका समुचित विकास हो सके।
  2. क्रिया विधि-गाँधी जी ने पुस्तकीय, शिक्षा का विरोध किया और क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया। वे बालकों के हाथों और मस्तिष्क दोनों की एक साथ सक्रिय बनाना चाहते थे। वह किसी हस्तकला के माध्यम से शिक्षा देना चाहते थे, क्योंकि इससे बालकों को क्रिया द्वारा सीखने के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं।
  3. सह-सम्बन्धविधि-गाँधी जी ने सह-सम्बन्ध विधि को स्वीकार करते हुए किसी हस्तकला को केन्द्र बनाकर उसी के माध्यम से सभी विषयों की शिक्षा देने का समर्थन किया है।
  4. अनुकरण विधि-गाँधी जी ने अनुकरण विधि का भी समर्थन किया है। उनका कहना है कि बालक अपने माता-पिता व शिक्षकों आदि के क्रिया-कलापों का अनुकरण करके भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।
  5. अनुभव विधि-गाँधी जी का मत था कि अपने अनुभव से प्राप्त किया हुआ ज्ञान अधिक स्थायी होता है। इस प्रकार प्राप्त किए हुए ज्ञान का बालक अपने व्यावहारिक जीवन में सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते हैं।
  6. मौखिक विधि-नये तथ्यों को प्रदान करने के लिए गाँधी जी ने मौखिक विधि के प्रयोग को आवश्यक बताया है। इसके अन्तर्गत प्रश्नोत्तर विधि, व्याख्यान, कहानी, वाद-विवाद, निर्देश आदि सम्मिलित
  7. संगीत विधि-गाँधी जी ने शारीरिक ड्रिल तथा हस्तकला कौशल की शिक्षा में अंगों के संचालन को लयबद्ध करने और क्रिया में बालकों की रुचि उत्पन्न करने के लिए संगीत का प्रयोग बहुत उपयोगी बताया है।

प्रश्न 3
शिक्षा के क्षेत्र में गाँधी जी के योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
शिक्षा के क्षेत्र में गाँधी जी के योगदान को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है|

  1. शिक्षा के नवीन सिद्धान्त व प्रयोग-गाँधी जी ने शिक्षा के सिद्धान्तों एवं प्रयोगों में नवीन विचारधारा का समावेश किया। उन्होंने बेसिक शिक्षा योजना में अपने शैक्षिक विचारों का प्रयोग किया और चरित्र, ज्ञान एवं क्रिया के विकास के सिद्धान्त खोज निकाले।
  2. भारतीय विचारकों पर प्रभाव-गाँधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों से न केवल जनसाधारण, अपितु बौद्धिक वर्ग भी प्रभावित हुए बिना न रह सका। परिणामस्वरूप भारतीय विचारक वर्ग यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने लगा, जिसका दिग्दर्शन भारतीय शिक्षा के बदलते हुए स्वरूप में किया जा सकता है।
  3. राष्ट्रीय शिक्षा में योगदान-गाँधी जी ने राष्ट्रीय शिक्षा का समर्थन किया और बेसिक शिक्षा योजना को राष्ट्रीय शिक्षा का आधार बनाया।
  4. जनसाधारण की शिक्षा-गाँधी जी ने प्रौढ़ शिक्षा, ग्रामीण शिक्षा, समाज-सुधार की शिक्षा आदि आन्दोलनों का सूत्रपात करके जनसाधारण की शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान किया।
    अन्त में हम कह सकते हैं कि महात्मा गाँधी एक उच्चकोटि के शिक्षाशास्त्री थे और उनके विचार मौलिक थे। हुमायूँ कबीर के शब्दों में, “गाँधी जी की राष्ट्र को बहुत-सी देनों में से नवीन शिक्षा के प्रयोग की देन सर्वोत्तम है।”

प्रश्न4
गाँधी जी की शैक्षिक विचारधारा वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में कितनी प्रासंगिक है?
उत्तर
गाँधी जी ने अपनी शैक्षिक विचारधारा उस समय प्रस्तुत की थी जब भारत में ब्रिटिशु-शासन था तथा ब्रिटिश शासन के कुछ निहित उद्देश्यों के लिए ही शिक्षा-व्यवस्था की गयी थी। आज देश की परिस्थितियाँ काफी बदल गयी हैं। इस स्थिति में गाँधी जी की शैक्षिक विचारधारा कुछ क्षेत्रों में तो आज भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, जब कि कुछ पक्षों का अब कोई व्यावहारिक महत्त्व नहीं है। सर्वप्रथम अनिवार्य एवं नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा की धारणा आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार स्त्री-शिक्षा तथा प्रौढ़ शिक्षा को प्रोत्साहन देने की बात भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण मानी जा रही है।

गाँधी जी के आत्मानुशासन की धारणा भी हर किसी को मान्य है। शिक्षा के माध्यम से बालक के सर्वांगीण विकास की मान्यता भी उचित है। इससे भिन्न गाँधी जी द्वारा हस्तकलाओं को दी जाने वाली अतिरिक्त मान्यता आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं मानी जाती। बेसिक शिक्षा प्रणाली में शिक्षा के खर्च के लिए बालकों द्वारा निर्मित वस्तुओं की बिक्री की बात कही गयी थी। यह अव्यावहारिक तथा अप्रासंगिक है। इसी प्रकार आज विज्ञान की शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है, जब कि गाँधी जी की विचारधारा में यह मान्यता नहीं थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में गाँधी जी की शैक्षिक विचारधारा एक सीमित रूप में ही प्रासंगिक है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
गाँधी जी की अनुशासन सम्बन्धी मान्यता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन को विशेष महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक मानते थे। शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों के लिए भी वे अनुशासन को अति आवश्यक मानते थे परन्तु वे अनुशासन स्थापित करने के लिए हर प्रकार के दण्ड के विरुद्ध थे, अर्थात् वे दमनात्मक अनुशासन के विरुद्ध थे। गाँधी जी आत्मानुशासन के समर्थक थे। अनुशासन को बनाये रखने के उपायों का उल्लेख करते हुए गाँधी जी कहते थे कि यदि विद्यार्थियों को क्रियाशील एवं व्यस्त रखा जाए तो अनुशासनहीनता की समस्या ही नहीं उठती। यही कारण था कि उन्होंने बेसिक शिक्षा-प्रणाली में क्रियाओं को अधिक महत्त्व दिया है।

प्रश्न 2
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक के आवश्यक गुणों एवं भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी का कथन था कि शिक्षा की बहुत कुछ सफलता शिक्षकों पर निर्भर है। अत: शिक्षक ऐसे होने चाहिए जो मानवीय गुणों से युक्त हों, बालकों की जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ाएँ और उनकी भावनाओं, रुचियों और आवश्यकताओं का मार्गदर्शन करें तथा उनकी चिन्ताओं व समस्याओं को सुलझाएँ। उन्हें स्थानीय परिस्थितियों का पूर्ण ज्ञान हो जिससे कि वे स्थानीय व्यवसायों, हस्तकार्यों एवं उद्योग-धन्धों की शिक्षा के लिए उनका सफलतापूर्वक उपयोग कर सकें। गाँधी जी के अनुसार शिक्षकों को बालकों का विश्वासपात्र बन जाना चाहिए और उन्हें अपने उत्तरदायित्वों को पूर्णरूप से निभाने का प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न 3
स्त्री-शिक्षा के विषय में गाँधी जी के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी का विचार था कि भारतीय समाज के उत्थान, विकास एवं प्रगति के लिए स्त्रियों की दशा को सुधारना आवश्यक है। इसके लिए स्त्रियों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जिससे स्त्रियाँ अपने कर्तव्यों और अधिकारों से परिचित हो जाएँ। इसके लिए वे स्त्रियों को गृह विज्ञान, पाक-शास्त्र, गृह परिचर्या, बाल मनोविज्ञान, स्वास्थ्य व सफाई के नियम आदि तथा सामान्य शिक्षा प्रदान करने के पक्ष में थे। वे स्त्रियों को सामाजिक कार्यों के लिए भी शिक्षा देना चाहते थे।

प्रश्न 4
प्रौढ़-शिक्षा के विषय में गाँधी जी के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी प्रौढ़-शिक्षा की व्यवस्था को आवश्यक मानते थे। वे प्रौढ़-शिक्षा के द्वारा भारतीयों को इसे योग्य बनाना चाहते थे, जिससे वे समाज के साथ अपना समायोजन कर सकें। गाँधी जी ने प्रौढ़-शिक्षा का एक विस्तृत कार्यक्रम बनाया, जिसके द्वारा उन्होंने प्रौढ़ों के ज्ञान, स्वास्थ्य, अर्थ, संस्कृति एवं सामाजिकता का विकास करने का प्रयास किया। प्रौढ़-शिक्षा के पाठ्यक्रम में उन्होंने साक्षरता प्रसार, सफाई, स्वास्थ्य-रक्षा, समाज-कल्याण, व्यवसाय, उद्योग, पारिवारिक बातें, संस्कृति, नैतिकता आदि को सम्मिलित किया।

प्रश्न 5
धार्मिक शिक्षा तथा राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में गाँधी जी के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी के अनुसार व्यक्ति के अन्दर सब गुणों एवं मूल्यों को विकास करना ही उसे धार्मिक शिक्षा देना है। धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत गाँधी जी ने सार्वभौमिक धर्म के सिद्धान्तों एवं उपदेशों का ज्ञान तथा सत्य, अहिंसा और प्रेम की शिक्षा को सम्मिलित किया था। गाँधी जी का मत था कि राष्ट्रीय शिक्षा के माध्यम से ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जो राष्ट्रीय भावना, देशप्रेम एवं जागरूकता की भावना का विकास करे। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा की एक योजना का भी निर्माण किया, जो बेसिक शिक्षा के नाम से विख्यात है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
गाँधी जी के अनुसार व्यक्ति के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में निहित सर्वोत्तम गुणों का सर्वांगीण विकास ही शिक्षा है।

प्रश्न 2
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य क्या है?
या
गाँधी जी की शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य क्या है?
उत्तर
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य आत्मानुभूति तथा ईश्वर की प्राप्ति है।

प्रश्न 3
जन-शिक्षा के विषय के गाँधी जी का क्या विचार था?
उत्तर
गाँधी जी जन-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे, उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का शिक्षित होना | अनिवार्य है।

प्रश्न4
गाँधी जी के शिक्षा-दर्शन पर आधारित शिक्षा-प्रणाली किस नाम से जानी जाती है?
या
महात्मा गाँधी जी ने कौन-सी शिक्षा-पद्धति बनायी थी?
उत्तर
गाँधी जी के शिक्षा-दर्शन पर आधारित शिक्षा-प्रणाली है-बेसिक शिक्षा-प्रणाली।

प्रश्न 5
गाँधी जी किस प्रकार के अनुशासन के विरुद्ध थे तथा उन्होंने किस प्रकार के अनुशासन का समर्थन किया है?
उत्तर
गाँधी जी दमनात्मक अनुशासन के विरुद्ध थे तथा उन्होंने आत्मानुशासन का समर्थन किया

प्रश्न 6
गाँधी जी के अनुसार छात्रों को अनुशासित रखने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?
उत्तर
गाँधी जी के अनुसार छात्रों को अनुशासित रखने का सर्वोत्तम उपाय है उन्हें क्रियाशील रखना।

प्रश्न 7
“महात्मा गाँधी की देश की बहुत-सी देनों में से बेसिक शिक्षा के प्रयोग की देन सर्वोत्तम है।” यह कथन किसका है?
उत्तर
प्रस्तुत कथन हुमायूँ कबीर का है।

प्रश्न8
किस भारतीय शिक्षाशास्त्री ने सत्य और ईश्वर की अनुभूति के लिए अहिंसा को ही एकमात्र साधन समझा?
उत्तर
मोहनदास करमचन्द गांधी ने।

प्रश्न 9
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. गाँधी जी के अनुसार साक्षरता स्वयं में शिक्षा नहीं है।
  2. गाँधी जी का शिक्षा-दर्शन उनके जीवन-दर्शन से सम्बन्धित है।
  3. गाँधी जी के शैक्षिक-विचार कोरे सैद्धान्तिक थे।
  4. गाँधी जी शिक्षा में शारीरिक श्रम को विशेष महत्त्व देते थे।
  5. गाँधी जी स्त्री-शिक्षा के समर्थक नहीं थे।

उत्तर

  1. सत्य
  2. सत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
महात्मा गाँधी का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
(क) 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबन्दर में
(ख) 10 अक्टूबर, 1891 को बोरीबन्दर में
(ग) 20 अक्टूबर, 1902 को कटक में
(घ) 15 जनवरी, 1904 को पूना में
उत्तर
(क) 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबन्दर में

प्रश्न 2
महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित शिक्षा योजना का नाम था
(क) वर्धा योजना
(ख) स्त्री-शिक्षा योजना
(ग) बेसिक शिक्षा योजना
(घ) गुरुकुल योजना
उत्तर
(ग) बेसिक शिक्षा योजना

प्रश्न 3
गाँधी जी द्वारा प्रतिपादित शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है
(क) जीविकोपार्जन
(ख) व्यक्तित्व का विकास
(ग) अहिंसा-पालन
(घ) व्यावसायिक विकास
उत्तर
(ख) व्यक्तित्व का विकास

प्रश्न 4
गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का माध्यम होना चाहिए
(क) हिन्दी .
(ख) अंग्रेजी
(ग) मातृभाषा
(घ) विदेशी भाषा
उत्तर
(ग) मातृभाषा

प्रश्न 5
गाँधी जी ने किस शिक्षा पर बहुत कम बल दिया?
(क) गणित
(ख) विज्ञान
(ग) हस्तकला
(घ) स्त्री-शिक्षा
उत्तर
(ख) विज्ञान

प्रश्न 6
गाँधी जी शिक्षा द्वारा कैसा समाज स्थापित करना चाहते थे?
(क) अहिंसक समाज
(ख) राज्यरहित समाज
(ग) सर्वोदयी समाज
(घ) रामराज्य
उत्तर
(ग) सर्वोदयी समाज

प्रश्न 7
“सच्ची शिक्षा वही है जो बालकों की आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों कये व्यक्त और प्रोत्साहित करे।” यह कथन किसका है?
(क) रवीन्द्रनाथ टैगोर का
(ख) महात्मा गाँधी का
(ग) एनी बेसेण्ट का
(घ) जवाहरलाल नेहरू का
उत्तर
(ख) महात्मा गाँधी का

प्रश्न 8
निम्न में से कौन एक गाँधी जी की शिक्षा योजना नहीं थी?
(क) बेसिक शिक्षा
(ख) वर्धा योजना
(ग) नई तालीम
(घ) हस्तशिल्प शिक्षा
उत्तर
(ग) नई तालीम

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 22 Mental Health and Mental Hygiene

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 22
Chapter Name  Mental Health and Mental Hygiene
(मानसिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान)
Number of Questions Solved 55
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 22 Mental Health and Mental Hygiene (मानसिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानसिक स्वास्थ्य से क्या आशय है? मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के मुख्य लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
या
मानसिक स्वास्थ्य से क्या तात्पर्य है? अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य की जानकारी क्यों होनी चाहिए? [2010, 11, 13]
या
मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? अच्छी शिक्षा के लिए मानसिक स्वास्थ्य की जानकारी क्यों आवश्यक है? [2011]
या
मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? मानसिक स्वास्थ्य के महत्त्व पर प्रकाश डालिए। (2016)
या
मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? (2015)
या
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति की किन्हीं दो विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ
मानसिक स्वास्थ्य से तात्पर्य व्यक्ति की उस योग्यता से है जिसके माध्यम से वह अपनी कठिनाइयों को दूर कर हर परिस्थिति में अपने को समायोजित कर लेता है। सुखी जीवन के लिए जितना शारीरिक स्वास्थ्य आवश्यक है, उतना ही मानसिक स्वास्थ्य भी। चिकित्साशास्त्रियों के अनुसार, सामान्य शारीरिक व्याधियाँ; जैसे-रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग आदि मानसिक कारकों से उत्पन्न होती हैं।

मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति चिन्तारहित, पूर्णतः समायोजित, आत्मनियन्त्रित, आत्मविश्वासी तथा संवेगात्मक रूप से स्थिर होता है। उसके व्यवहार में सन्तुलन रहता है तथा वह अधिक समय तक मानसिक तनाव की स्थिति में नहीं रहता। वह प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं को शीघ्र ही समायोजित कर लेता है। वर्तमान परिस्थितियों में, सम्पूर्ण समाज में, उसके विभिन्न अंगों में तथा उसके नागरिकों के बीच अच्छे-से-अच्छा समायोजन व्यापक कल्याण का द्योतक है जिसके लिए मानसिक स्वास्थ्य एक पूर्ण आवश्यकता है।

मानसिक स्वास्थ्य की परिभाषा
विभिन्न विद्वानों ने मानसिक स्वास्थ्य की अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. हैडफील्ड के अनुसार, “साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण सामंजस्य के साथ कार्य करना है।”
  2. लैडेल के मतानुसार, “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है–वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से पर्याप्त सामंजस्य करने की योग्यता।”
  3. प्रो० भाटिया के शब्दों में, “मानसिक स्वास्थ्य यह बताता है कि कोई व्यक्ति जीवन की माँगों और अंवसरों के प्रति कितनी अच्छी तरह समायोजित है।”

मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण
जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य को कुछ विशिष्ट लक्षणों के आधार पर पहचाना जा सकता है, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य की भी कुछ लक्षणों के आधार पर पहचान सम्भव है। कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार पूर्ण मानसिक स्वास्थ्य एक कल्पना मात्र है और कोई भी व्यक्ति मानसिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ नहीं होता, तथापि मानसिक स्वास्थ्य से सम्पन्न व्यक्ति के कुछ विशिष्ट लक्षण अवश्य हैं। इनमें सर्वप्रथम हैडफील्ड के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य की नितान्त आवश्यकताओं का उल्लेख किया जाएगा और इसके बाद अन्य प्रमुख लक्षणों का विवेचन किया जाएगा। ये निम्न प्रकार हैं।

1.पूर्ण :
अभिव्यक्ति पर निर्भर है। इसके अवद्मन से वृत्तियाँ दमित वे कुण्ठित होकर व्यक्तित्व में मानसिक विकारों तथा कुसमायोजन का कारण बनती हैं, जिससे मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।

2. सन्तुलन :
व्यक्ति को भावना ग्रन्थियों के निर्माण, प्रतिरोध व मानसिक द्वन्द्व जैसे दोषों से बचाने के लिए आवश्यक है कि उसकी मूल-प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं तथा समस्त क्षमताओं के बीच आपसी सन्तुलन व वातावरण से समायोजन बना रहे। मानसिक स्वास्थ्य के लिए सन्तुलन और समायोजन परमावश्यक है।

3. सामान्य लक्षण :
विभिन्नताओं, क्षमताओं, इच्छाओं वे प्रवृत्तियों के बीच सन्तुलन व समन्वय तथा उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति सिर्फ तभी सम्भव है, जब वे एक सामान्य एवं
व्यापक लक्ष्य की ओर उन्मुख हों। ये लक्ष्य मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से निर्धारित किये जाने चाहिए।

मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व से सम्बन्धित है जिसके लिए व्यक्तित्व के गुणों की पूर्ण अभिव्यक्ति, उनकी सन्तुलित क्रियाशीलता तथा सामान्य एवं व्यापक लक्ष्य आवश्यक हैं।

I. अन्य प्रमुख लक्षण
मानसिक स्वास्थ्य को कुछ अन्य प्रमुख लक्षणों के आधार पर भी पहचाना जाता है, जो अग्र प्रकार वर्णित हैं।

1. अन्तर्दृष्टि एवं आत्म-मूल्यांकन :
जिस व्यक्ति में स्वयं के समायोजन सम्बन्धी समस्याओं की अन्तर्दृष्टि होती है, वह अपनी सामर्थ्य की अधिकतम और निम्नतम दोनों सीमाओं से भली-भाँति परिचित होता है। ऐसा व्यक्ति अपने दोषों को स्वीकार कर या तो उन्हें दूर करने की चेष्टा करता है या उनसे
समझौता कर लेता है। वह आत्म-दर्शन तथा आत्म-विश्लेषण की क्रिया द्वारा अपनी उलझनों, तनावों, पूर्वाग्रहों, अन्तर्द्वन्द्वों तथा विषमताओं का सहज समाधान खोजकर उन्हें समाप्त या कम करने की कोशिश करना है। वह अपनी इच्छाओं, क्षमताओं तथा शक्तियों का वास्तविक मूल्यांकन करके उन्हें सही दिशा प्रदान पर सकता है।

2. समायोजनशीलता :
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के लचीलेपन के गुण के कारण नवीन एवं परिवर्तित परिस्थितियों से शीघ्र एवं उचित समायोजन स्थापित करने में सफल रहता है। वह विषम परिस्थितियों से भय खाकर या घबराकर उनसे पलायन नहीं करता, अपितु उनको दृढ़ता से सामना करती है और उनके बीच से ही अपना मार्ग खोज लेता है। समायोजनशीलता के अन्तर्गत दोनों ही बातें सम्मिलित हैं

  • परिस्थितियों को अपने अनुसार ढाल लेना या
  • स्वयं परिस्थितियों के अनुसार ढल जाना। स्वस्थ व्यक्ति समाज के परिवर्तनशील नियमों तथा रीति-रिवाजों से परिचित होने के कारण उनसे उचित सामंजस्य स्थापित कर लेता है।

3. बौद्धिक तथा सांवेगिक परिपक्वता :
मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बौद्धिक एवं सांवेगिक परिपक्वता की नितान्त आवश्यकता है। बौद्धिक परिपक्वता से युक्त मनुष्य अपने ज्ञान का विस्तार करता है, उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है तथा अपना निर्माण स्वयं करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। प्रखर बुद्धि से अहम् भाव तथा मन्द बुद्धि से हीनमन्यता का जन्म हो सकता है। अतः बौद्धिक स्वास्थ्य की दृष्टि से इनके प्रति सतर्कता आवश्यक है। सांवेगिक रूप से परिपक्व व्यक्ति अपने संवेगों तथा भावों पर उचित नियन्त्रण रखता है। वह सांवेगिक ग्रन्थियों (यथा-ईष्र्या, उन्माद आदि) से पूर्णतया मुक्त होता है। स्पष्टतः मानसिक तौर पर स्वस्थ व्यक्ति में बौद्धिक एवं सांवेगिक परिपक्वता आवश्यक है।

4. यथार्थदृष्टिकोण एवं स्वस्थ अभिवृत्ति :
मानसिक स्वास्थ्य से युक्त व्यक्ति जीवन के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण तथा स्वस्थ अभिवृत्ति अपनाता है। ऐसे व्यक्ति के विचारों, वृत्तियों, आकांक्षाओं तथा कार्य-पद्धति के बीच उचित सन्तुलन रहने से वह कल्पना प्रधान, अतिशयवादी या कोरा स्वप्नदृष्टा नहीं – होता। वह उच्च एवं हीन भावना ग्रन्थियों के विकार से मुक्त होकर स्वविवेक के आधार पर कार्य करता है। उसकी प्रवृत्तियों तथा अभिवृत्तियों के बीच विरोधाभास दिखायी नहीं देता। वह जो कुछ है उसका यथार्थ मूल्यांकन कृरता है और तद्नुसार ही कार्य में रत हो जाता है। उसकी कथनी-करनी में भेद नहीं रहता। इस प्रकार वह अपने जीवन के विषय में वास्तविक दृष्टि एवं श्रेष्ठ अभिवृत्तियाँ अपनाकर सन्तुलित एवं संयमित जीवन व्यतीत करता है।

5. व्यावसायिक सन्तुष्टि :
मानसिक स्वास्थ्य की एक प्रमुख विशेषता अपने व्यवसाय अथवा कार्य के प्रति पूर्ण सन्तुष्टि की अनुभूति भी है। अपने कार्य से सन्तुष्ट व्यक्ति मन लगाकर कार्य करता है और श्रम से पीछे नहीं हटता। उसकी कार्यक्षमता में उत्तरोत्तर वृद्धि उसे अपने व्यावसायिक उद्देश्यों के प्रति सुनिश्चित एवं दृढ़ बनाती है। परिणामतः वह व्यावसायिक सफलता प्राप्त कर श्रीसम्पन्न जीवन बिताता है। इसके विरुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से असन्तुष्ट व्यक्ति आर्थिक विपन्नता, निराशा, चिन्ता तथा तनावों से ग्रस्त रहते हैं। वे मानसिक रोगी हो जाते हैं।

6. सामाजिक सामंजस्य :
व्यक्ति अपने समाज का एक अविभाज्य अंग है और उसकी एक इकाई है। उसकी अपूर्ण सत्ता समाज की पूर्णता में समाहित होकर परिपूर्ण होती है। अत: उसका समाज के साथ समायोजन, अनुकूलन तथा संमन्वय सर्वथा प्राकृतिक एवं अनिवार्य कहा जाएगा। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति समाज के साथ सामंजस्य बनाकर रखता है। वह हमेशा समाज की समस्याओं और मर्यादाओं का ध्यान रखता है।

वह केवल अपने सामाजिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए ही प्रचेष्ट नहीं रहता, अपितु समाज के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति भी करता है। वह स्व-हित और पर-हित के मध्य सन्तुलन बनाकर चलता है। समाज के साथ प्रतिकूल एवं तनावपूर्ण सम्बन्ध मानसिक अस्वस्थता के परिचायक हैं। उपर्युक्त लक्षणों के अतिरिक्त, मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति नियमित जीवन बिताने वाले आत्मविश्वासी, सहनशील, धैर्यवान एवं सन्तोषी मनुष्य होते हैं। उनकी इच्छाएँ तथा आवश्यकताएँ सामाजिक मान्यताओं की सीमाओं में और उसकी आदतें समाज के लिए हितकर होती हैं।

प्रश्न 2
मानसिक अस्वस्थता से आप क्या समझते हैं ? मानसिक अस्वस्थता के कुछ लक्षणों का वर्णन कीजिए।
या
दो प्रमुख लक्षणों का संक्षेप में विवरण दीजिए जिनके आधार पर यह कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है। [2017,2010]
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता का आशय
जब कोई मनुष्य अपने कार्य में आने वाली बाधाओं को दूर करने में असमर्थ रहता है, अथवा उने बाधाओं से उचित समायोजन स्थापित नहीं कर पाता तो उसका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और उसमें मानसिक-अस्वस्थता’ पैदा हो जाती है। मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति स्वयं को अपने वातावरण की परिस्थितियों के साथ समायोजित न करने के कारण सांवेगिक दृष्टि से अस्थिर हो जाता है, उसके आत्मविश्वास में कमी आ जाती है, मानसिक उलझनों, तनावों, हताशा व चिन्ताओं के कारण उसमें भाव-ग्रन्थियाँ बन जाती हैं तथा वह व्यक्तित्व सम्बन्धी अनेकानेक अव्यवस्थाओं का शिकार हो जाता है।

इस प्रकार से, मानसिक अस्वस्थता वह स्थिति है जिसमें जीवन की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में व्यक्ति स्वयं को असमर्थ पाता है तथा संवेगात्मक असन्तुलन का शिकार हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में बहुत-सी मानसिक विकृतियाँ या व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। और उसे मानसिक रूप से अस्वस्थ कहा जाता है।”

मानसिक अस्वस्थता के लक्षण
मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति में उन सभी लक्षणों का अभाव रहता है जिनका मानसिक स्वास्थ्य के लक्षणों के रूप में अध्ययन किया गया है। व्यक्ति के असामान्य व्यवहार से लेकर उसके पागलपन की स्थिति के बीच में अनेकानेक स्तर या सोपान दृष्टिगोचर होते हैं, तथापि मानसिक अस्वस्थता के प्रमुख लक्षणों का सोदाहरण, किन्तु संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है

1. साधारण समायोजन सम्बन्धी दोष :
साधारण समायोजन सम्बन्धी दोष के लक्षण प्राय: प्रत्येक व्यक्ति में पाये जाते हैं। इसे मानसिक अस्वस्थता का एक सामान्य रूप कहा जा सकता है। अक्सर देखने में आता है कि कोई बावा या अवरोध उत्पन्न होने के कारण अपने कार्य की सम्पन्नता में असफल रहने वाला व्यक्ति अति संवेदनशील, हठी, चिड़चिड़ा या आक्रामक हो जाता है। यह मानसिक अस्वस्थता की शुरुआत है।

2. मनोरुग्णता :
सामान्य जीवन वाले कुछ लोगों में भी मानसिक अस्वस्थता के संकेत दिखाई पड़ते हैं। लिखने-पढ़ने, बोलने या अन्य क्रियाकलापों में अक्सर लोगों से भूल होना स्वाभाविक ही है। और इसे मानसिक अस्वस्थता का नाम नहीं दिया जा सकता, किन्तु यदि इन भूलों की आवृत्ति बढ़ जाए और असामान्य-सी प्रतीत हो तो इसे मनोविकृति कहा जाएगा। तुतलाना, हकलाना, क्रम बिगाड़ कर वाक्य बोलना, बेढंगे तथा अप्रचलित वस्त्र धारण करना, चलने-फिरने में असामान्य लगना, अजीब-अजीब हरकतें करना, चोरी करना, धोखा देना आदि मानसिक अस्वस्थता के लक्षण हैं।

3. मनोदैहिक रोग :
मनोदैहिक रोगों का कारण व्यक्ति के शरीर में निहित होता है। उदाहरण के लिए-शरीर के किसी संवेदनशील भाग में चोट या आघात के कारण स्थायी दोष पैदा हो जाते हैं और व्यक्ति को जीवनभर कष्ट देते हैं। सिगरेट, तम्बाकू, अफीम, चरस, गाँजा या शराब आदि पीने से भी अनेक मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। दमा-खाँसी से चिड़चिड़ापन, निम्न या उच्च रक्तचाप के कारण मानसिक असन्तुलन तथा यकृत एवं पाचन सम्बन्धी व्याधियों से बहुत-से मानसिक विकारों का जन्म होता है। इसी के साथ-साथ किसी प्रवृत्ति का बलपूर्वक दमन करने से रक्त की संरचना, साँस की प्रक्रिया तथा हृदय की धड़कनों में परिवर्तन आता है, जिसके परिणामत: व्यक्ति का शरीर हमेशा के लिए रोगी हो जाता है। इस प्रकार शरीर और मन दोनों ही मानसिक अस्वस्थता से प्रभावित होते हैं।

4. मनस्ताप :
मनस्ताप (Psychoneuroses) का जन्म समायोजन-दोषों की गम्भीरता के परिणामस्वरूप होता है। ये व्यक्तित्व के ऐसे आंशिक दोष हैं जिनमें यथार्थता से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हो पाता। इसमें

  1. स्नायु दौर्बल्य तथा
  2. मनोदौर्बल्य रोग सम्मिलित हैं।

1. स्नायु दौर्बल्य
इसमें व्यक्ति अकारण ही थकावट अनुभव करता है। इससे उसमें अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, विभिन्न अंगों में दर्द, काम के प्रति अनिच्छा, मंदाग्नि, दिल धड़कना तथा हमेशा अपने स्वास्थ्य की चिन्ता के लक्षण दिखायी पड़ते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी एक डॉक्टर के पास नहीं टिकता और अपनी व्यथा कहने के लिए बेचैन रहता है।

2. मनोदौर्बल्य
मनोदौर्बल्य में निम्नलिखित मानसिक विकार आते हैं

  • कल्पना गृह या विश्वासबाध्यता के रोगी के मन में निराधार वे असंगत विचार, विश्वास और कल्पनाएँ आती रहती हैं।
  • हठप्रवृत्ति से पीड़ित व्यक्ति कामों की निरर्थकता से परिचित होते हुए भी उन्हें हठपूर्वक करता : रहता है और बाद में दु:ख भी पाता है।।
  • भीतियाँ के अन्तर्गत व्यक्ति विशेष प्रकार की चीजों, दृश्यों तथा विचारों से अकारण ही भयभीत रहता है; जैसे-खुली हवा से डरना, भीड़, पानी आदि से डरना।
  • शरीरोन्माद में व्यक्ति के अहम् द्वारा दमित कामवासनाओं को शारीरिक दोषों के रूप में प्रकटीकरण होना; जैसे-हँसना, रोना, हाथ-पैर पटकना, मांसपेशियों का जकड़ना, मूच्छ आदि।
  • चिन्ता रोग में अकारण ही भविष्य सम्बन्धी चिन्ताएँ लगी रहती हैं।
  • क्षति क्रमबाध्यता से ग्रस्त व्यक्ति अकारण ही ऐसे काम कर बैठता है जिससे अन्य व्यक्तियों को, हानि हो; जैसे—मारना-पीटना, हत्या या दूसरे के घर में आग लगा देना। इस रोग का सबसे अच्छा उदाहरण ‘कनपटीमार व्यक्ति का आतंक है जो कनपटी पर मारकर अकारण ही लोगों की हत्या कर देता था।

5. मनोविकृतिये :
गम्भीर मानसिक रोग हैं, जिनके उपचार हेतु मानसिक चिकित्सालय में दाखिल होना पड़ता है। मनोविकृति से पीड़ित व्यक्तियों का यथार्थ से पूरी तरह सम्बन्ध टूट जाता है। वे अनेक प्रकार के भ्रमों व भ्रान्तियों के शिकार हो जाते हैं और उन्हें सत्य समझने लगते हैं। मनोविकृति के अन्तर्गत ये रोग आते हैं—स्थिर भ्रम (Parangia) से ग्रसित किसी व्यक्ति को पीड़ा भ्रम (Delusions ofPersecution) रहने के कारण वह स्वयं को पीड़िते समझ बैठता है, तो किसी व्यक्ति में ऐश्वर्य भ्रम (Delusion of Prosperity) पैदा होने के कारण वह स्वयं को ऐश्वर्यशाली या महान् समझता है। उत्साह-विषाद चक्र, मनोदशा (Manic Depressive Psychosis) का रोगी कभी अत्यधिक प्रसन्न दिखाई पड़ता है तो कभी उदास।

6. यौन विकृतियाँ :
मानसिक रोगी का यौन सम्बन्धी या लैंगिक जीवन सामान्य नहीं होता। यौन विकृतियाँ मानसिक अस्वस्थता की परिचायक हैं और अस्वस्थता में वृद्धि करती हैं। इनके प्रमुख लक्षण ये हैं–विपरीत लिंग के वस्त्र पहनना, स्पर्श से यौन सुख प्राप्त करना, स्वयं को या दूसरे को पीड़ा पहुँचाकर काम सुख प्राप्त करना, बालकों, पशुओं, समलिगियों तथा शव से यौन क्रियाएँ करना, हस्तमैथुन तथा गुदामैथुन आदि।

उपर्युक्त वर्णित विभिन्न मनोरोगों का उनके सम्बन्धित लक्षणों के साथ वर्णन किया गया है। यह आवश्यक नहीं है कि किसी व्यक्ति में ये सभी लक्षण दिखायी पड़े, इनमें से कोई एक लक्षण भी मानसिक अस्वस्थता का संकेत देता है। व्यक्ति में इन लक्षणों के प्रकट होते ही उसका मानसिक उपचार किया जाना चाहिए।

प्रश्न 3
मानसिक अस्वस्थता के कारणों अथवा मानसिक स्वास्थ्य में बाधक कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
मानसिक स्वास्थ्य से आप क्या समझते हैं? बालक के मानसिक स्वास्थ्य के विकास में बाधा डालने वाले तत्त्वों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य के अर्थ एवं परिभाषा के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 का उत्तर देखें। मानसिक अस्वस्थता के कारण
अथवा
मानसिक स्वास्थ्य में बाधक कारक मानसिक अस्वस्थता के कारण ही वास्तव में मानसिक स्वास्थ्य में बाधक कारक होते हैं। इस वर्ग के मुख्य कारकों का विवरण निम्नलिखित है

1. शारीरिक कारण :
कभी-कभी मानसिक अस्वस्थता के मूल में शारीरिक कारण निहित होते हैं। प्रायः क्षय, संग्रहणी, कैंसर आदि असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्तियों की शारीरिक शक्ति काफी घट जाती है, जिसकी वजह से उन्हें शीघ्र ही थकान का अनुभव होने लगता है। ऐसे व्यक्ति स्वभाव से चिड़चिड़े और दुःखी होते हैं, क्योंकि उनमें जीवन के प्रति निराशा छा जाती है।

2. वंशानुगत देन :
कुछ मनुष्य वंशानुक्रम से ऐसी विशेषताएं लेकर उत्पन्न होते हैं जिनकी वजह से वे सामान्य प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मानसिक विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं। वंशानुक्रमणीय विशेषताओं के कारण ही मनोविकृति का रोग एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रमित होता रहता है।

3. संवेगात्मक कारण :
मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि संवेग मानसिक रोगों के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। व्यक्ति की। विभिन्न मूल-प्रवृत्तियाँ किसी-न-किसी संवेग से सम्बन्धित हैं। इनमें से क्रोध, भय तथा कामवासना की प्रवृत्तियाँ और संवेग अत्यधिक प्रबल हैं, जिनके दमन से या केन्द्रीकरण से असन्तुलन पैदा होता है। वस्तुतः मानसिक स्वस्थ्य की समस्या मूल-प्रवृत्ति संवेग (Instinct emotion) की समस्या है। जब व्यक्ति में कोई प्रवृत्ति जाग्रत होती है। तो उससे सम्बन्धित संवेग भी जाग जाता है

उदाहरणार्थ :
आत्म-स्थापन के साथ गर्व का, पलायन के साथ भय का तथा कामवृत्ति के साथ वासना का संवेग जाग्रत होता है। जाग्रत संवेग की असन्तुष्टि ही मानसिक रोग को जन्म देती है।

4. पारिवारिक कारण :
कुछ घरों में माता या पिता अथवा दोनों के अभाव से अथवा विमाता या विपिता के होने से बच्चे को पूरा पालन-पोषण, सुरक्षापूर्ण बरताव या स्नेह नहीं मिलता। ऐसे बच्चों की आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पातीं और वे अभावग्रस्त बने रहते हैं। कहीं-कहीं माता-पिता के लड़ाई-झगड़े के कारण कलह का वातावरणं रहता है, जिसकी वजह से बालक को मानसिक घुटन अनुभव होती है और वह घर से दूर भागता है। इस प्रकार ‘भग्न परिवार (Broken House) मानसिक अस्वस्थता का मुख्य कारण बनता है।

5. विद्यालयी कारण :
बालकों का मानसिक स्वास्थ्य खराब रहने का एक प्रमुख कारण विद्यालय भी हैं। जिन विद्यालयों में बच्चों पर कठोरतम अनुशासन थोपा जाता है, बच्चों को अकारण डाँट-फटकार या कठोर दण्ड सहने पड़ते हैं, अध्यापकों का स्नेह नहीं मिल पाता, पाठ्य विषय अनुपयुक्त होते हैं तथा बालकों को अमनोवैज्ञानिक विधियों से पढ़ाया जाता है, अध्यापक यो प्रबन्धक बच्चों को अपनी स्वार्थसिद्धि में भड़काकर आपस में या अध्यापकों से लड़ा देते हैं। ऐसे विद्यालयों में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है।

6. सामाजिक कारण :
कभी-कभी कुछ समाज-विरोधी तत्त्व व्यक्ति के मन पर भारी आघात पहुँचाकर उसे मानसिक दृष्टि से असन्तुलित कर देते हैं। यदि व्यक्ति के कार्यों व विचारों का व्यर्थ ही विरोध किया जाए तो उसके मित्रों, पड़ोसियों तथा अन्य लोगों द्वारा उसे समाज में उचित मान्यता, स्थान या प्रतिष्ठान प्राप्त हो, तो उसमें प्रायः हीनता की ग्रन्थियाँ पड़ जाती हैं। उसका व्यक्तित्व कुण्ठा और तनाव का शिकार हो जाता है। आत्म-स्थापन की प्रवृत्ति के सन्तुष्ट न होने की वजह से भी व्यक्ति दुःखीं और खिन्न हो जाते हैं।

7. जीवन की विषम परिस्थितियाँ :
हूर एक व्यक्ति को अपने जीवन में कभी-न-कभी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। ये परिस्थितियाँ निराशा और असफलताओं के कारण जन्म ले सकती हैं। आर्थिक संकट, व्यवसाय या परीक्षा या प्रेम में असफलता तथा सामजिक स्थिति के प्रति असन्तोष—इनसे सम्बन्धित प्रतिकूल एवं विषम परिस्थितियाँ मानव मन पर बुरा असर छोड़ती हैं। विषम परिस्थितियों के कारण समायोजन के दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे मानसिक अस्वस्थता सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते हैं।

8. आर्थिक कारण :
“आर्थिक तंगी के कारण व्यक्ति की आवश्यकताएँ तथा इच्छाएँ अतृप्त रह जाती हैं और उसे अपनी इच्छाओं का दमन करना पड़ता है। दमित इच्छाएँ नाना प्रकार के अपराध तथा समाज-विरोधी व्यवहार को जन्म देती हैं। धन की कमी से बाध्य होकर व्यक्ति को अधिक एवं अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ता है, जिससे उसका मन दु:खी रहता है। दुःखी मन मानसिक विकारों को पैदा करते हैं। अत्यधिक धन के कारण भी जुआ, शराब तथा वेश्यागमन की लत पड़ जाती है, जिससे मानसिक असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।

9. भौगोलिक कारण :
भौगोलिक कारण अप्रत्यक्ष रूप से मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं। अधिक गर्मी या सर्दी के कारण लोगों का समायोजन बिगड़ जाता है, शारीरिक दशा गिरने लगती है, उनके स्वभाव में चिड़चिड़ापन या तनाव पैदा होता है, जिससे मानसिक असन्तुलन उत्पन्न होता है।

10. सांस्कृतिक कारण :
यदा-कदा सांस्कृतिक परम्पराएँ व्यक्ति की भावनाओं तथा इच्छाओं की पूर्ति के मार्ग में बाधक बनती हैं। प्रायः व्यक्ति को अपनी प्रवृत्तियों का दमन कर कुछ कार्य विवशतावश करने पड़ते हैं, जिससे मानसिक असन्तोष तथा कुण्ठा उत्पन्न होती है। एक संस्कृति में जन्मा तथा पलता। हुआ व्यक्ति जब किसी दूसरी संस्कृति में कदम रखता है तो उसे मानसिक संघर्ष का सामना करना पड़ता है, जिससे असमायोजन के दोष उत्पन्न होते हैं। अतः सांस्कृतिक कारणों से भी मनोविकार उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 4
मानसिके अस्वस्थता की रोकथाम के उपायों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता की रोकथाम
यदि तटस्थ भाव से देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य शारीरिक स्वास्थ्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतः बलिक के मानसिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाये रखने के सभी सम्भव उपाय किये जाने चाहिए। मानसिक अस्वस्थता से बचाव तथा मानसिक स्वास्थ्य बढ़ाने की दृष्टि से परिवार और पाठशाला की विशेष भूमिका है। इनका उल्लेख बारी-बारी से निम्न प्रकार किया गया है

(अ) परिवार और मानसिक स्वास्थ्य 
परिवार के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा और वृद्धि सर्वोत्तम ढंग से की जा सकती है। इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत अंकित किया गया।

1. प्रारम्भिक विकास और सुरक्षा :
मानव जीवन के प्रारम्भिक 5-6 वर्षों में बालक का सर्वाधिक विकास हो जाता है। यह बालक की कलिकावस्था है, जिसे उचित सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए। परिवार का इसमें विशेष दायित्व है, उसे शिशु की देख-रेख तथा रोगों से रक्षा करनी चाहिए। शिशु को सन्तुलित आहार दिया जाना चाहिए तथा उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जानी चाहिए। कुपोषण और असुरक्षा की भावना से बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

2. माता-पिता का स्नेह :
बालक के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए उसे माता-पिता का प्रेम, स्नेह तथा लगाव मिलना चाहिए। प्रायः देखा गया है कि जिन बच्चों को माता-पिता का भरपूर स्नेह नहीं मिलता, वे स्वयं को अकेला महसूस करते हैं तथा असुरक्षा की भावना से भय खाकर मानसिक ग्रन्थियों के शिकार हो जाते हैं। ये ग्रन्थियाँ स्थायी हो जाती हैं और उसे जीवन-पर्यन्त असन्तुलित रखती हैं।

3. परिवार के सदस्यों का व्यवहार :
परिवार के सदस्यों, खासतौर से माता-पिता का व्यवहार, सभी बालकों के साथ एकसमान होना चाहिए। उनके बीच पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाना अनुचित है। उनकी असफलताओं के लिए भी बार-बार दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ता है और वे कुसमायोजन के शिकार हो जाते हैं।

4. उत्तम वातावरण :
परिवार का उत्तम एवं मधुर वातावरण बालक के मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि करता है। परिवार के सदस्यों के बीच आपसी प्यार, सहयोग की भावना, सम्मान की भावना व प्रतिष्ठा, एकमत्य, माता-पिता के मधुर सम्बन्ध तथा परिवार को स्वतन्त्र वातावरण मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा रखने में योग देते हैं। इसके अलावा बालक की भावनाओं व विचारों को उचित आदर, मान्यता व स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए।

5. संवेगात्मक विकास :
बालक को संवेगात्मक विकास भी ठीक ढंग से होना चाहिए। परिवार में यथोचित सुरक्षा, स्वतन्त्रता, स्वीकृति, मान्यता तथा स्नेह रहने से संवेगात्मक विकास स्वस्थ रूप से होता है तथा नये विश्वासों और आशाओं का जन्म होता है। बालक के स्वस्थ सांवेगिक विकास के लिए परिवार में पाँच मुख्य बातों का होना आवश्यक बताया गया है—आनन्द, खिलौने, खेल, पशु-पक्षी और उदाहरण (Joy, Tby, Play, Pet and Example) अधिक नियन्त्रण से भी संवेग विकसित नहीं हो पाते।

6. खेलकूदं और घूमना :
मानसिक स्वास्थ्य को शारीरिक स्वास्थ्य के साथ गहरा सम्बन्ध है। परिवार को चाहिए कि बालकों के लिए खेलकूद का पर्याप्त प्रबन्ध किया जाए। उन्हें दर्शनीय स्थल दिखाने, पिकनिक सर ले जाने, ऐतिहासिक स्थलों पर घुमाने तथा भाँति-भाँति की वस्तुओं का निरीक्षण कराने का प्रयास भी किया जाना चाहिए।

7. अनुशासन और अनुकरण :
बालक अधिकांश बातें अनुकरण के माध्यम से सीखते हैं। अनुकरण आदर्श वस्तु या विचार का होता है। अत: माता-पिता का जीवन अनुशासित एवं आदर्श जीवन होना चाहिए। परिवार से आत्मानुशासन की शिक्षा प्रदान की जाए।

(ब) पाठशाला और मानसिक स्वास्थ्य 
बालक की दिनचर्या का अधिक समय परिवार में ही व्यतीत होता है। परिवार के बाद पाठशाला या विद्यालय की बारी है। बालक का मानसिक स्वास्थ्य बनाये रखने, मानसिक अस्वस्थता रोकने तथा मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए पाठशाला महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इसका निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है

1. पाठशाला का वातावरण :
पाठशाला को सम्पूर्ण वातावरण शान्ति, सहयोग और प्रेम पर आधारित होना चाहिए। अध्यापक का विद्यार्थी के प्रति प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, विद्यार्थी के मन में अध्यापक के प्रति रुचि और आदर उत्पन्न करता है। इससे बालक स्वतन्त्रता का अनुभव करते हैं जिससे उनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक बना रहता है। विद्यार्थियों के प्रति अध्यापक का भेदभावपूर्ण बरताव बालकों के मन में अनादर और खीझ को जन्म देता है, जिसके परिणामस्वरूप अध्यापक के निर्देशों की अवहेलना हो जाती है और परस्पर कुसमायोजन पैदा हो सकता है। इसके अतिरिक्त, पाठशाला में किसी प्रकार की राजनीति, गुटबाजी व साम्प्रदायिक भेदभाव नहीं रहना चाहिए। इनसे मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

2. श्रेष्ठ अनुशासन :
पाठशाला में अनुशासन को उद्देश्य बालकों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करना है न कि उनके मन और जीवन को पीड़ा देना। अनुशासन सम्बन्धी नियम कठोर ने हों, उनसे बालकों में विरोध की भावना उत्पन्न न हो तथा उनका पालन सुगमता से कराया जा सके। बालकों को आत्मानुशासन के महत्त्व से परिचित कराया जाए, उन्हें अनुशासन समिति में स्थान देकर कार्य सौंपे जाएँ ताकि उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके। इससे बालक का व्यक्तित्व विकसित व समायोजित होता है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य में योगदान मिलता है।

3. सन्तुलित पाठ्यक्रम :
बालकों के ज्ञान में अपेक्षित वृद्धि तथा उनके बौद्धिक उन्नयन के लिए पाठ्यक्रम का सन्तुलित होना आवश्यक है। पाठ्यक्रम लचीला और बच्चों की रुचि के अनुरूप होजा चाहिए। रुचिजन्य अध्ययन से विद्यार्थियों को मानसिक थकान नहीं होती और उनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। इसके विपरीत असन्तुलित पाठ्यक्रम के बोझ से बालक मानसिक थकान महसूस करते हैं, अध्ययन में कम रुचि लेते हैं तथा पढ़ने-लिखने से जी चुराते हैं। अतः सन्तुलित पाठ्यक्रम मानसिक सन्तुलन एवं स्वास्थ्य में सहायक है।

4. पाठ्य सहगामी क्रियाएँ :
पाठशाला में समय-समय पर पाठ्य सहगामी गतिविधियाँ आयोजित की जानी चाहिए। इनसे बालक के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा उसकी रुचियों का उचित अभिप्रकाशन होता है। खेलकूद और मनोरंजन द्वारा मस्तिष्क में दमित भावनाओं को मार्ग मिलता है तथा मानसिक स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

5. उपयुक्त शिक्षण विधियाँ :
पाठशाला में अध्यापक को चाहिए कि वह विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग करे। नीरस शिक्षण से बालकों में अरुचि तथा थकान पैदा होती है, जिससे उनमें कक्षा से पलायन की प्रवृत्ति उभरती है तथा अनुशासनहीनता के अंकुर विकसित होते हैं।

6. शैक्षिक, व्यावसायिक तथा व्यक्तिगत निर्देशन :
विद्यार्थियों की व्यक्तिगत भिन्नताओं को ध्यान में रखकर उनकी मानसिक योग्यता तथा रुचि के अनुसार ही विषय दिये जाने चाहिए। इसके लिए कुशल मनोवैज्ञानिक द्वारा शैक्षिक निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके अलावा उनके भावी जीवन को ध्यान में रखकर उन्हें उचित व्यवसाय चुनने हेतु भी परामर्श व दिशा-निर्देशन दिये जाएँ। व्यक्तिगत निर्देशन की सहायता से उनकी व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाया जा सकता है, जिससे मानसिक ग्रन्थियाँ समाप्त हो जाती हैं तथा मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। इस प्रकार परिवार और पाठशाला अपने उत्तरदायित्वों का समुचित निर्वाह करके बालक की मानसिक उलझनों व तनावों को समाप्त या कम कर सकते हैं। इससे मानसिक अस्वस्थता की रोकथाम सम्भव है। तथा मानसिक स्वास्थ्य का उचित संवर्धन सम्भव होता है।

प्रश्न 5
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के महत्त्व एवं उपयोगिता का भी उल्लेख कीजिए।
या
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के अर्थ और महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इसके विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए। [2008]
या
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से आप क्या समझते हैं? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए। [2010]
या
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके कार्यों का वर्णन कीजिए। [2007, 13, 15]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ व परिभाषा
सामान्य रूप से शारीरिक स्वास्थ्य तथा शारीरिक स्वास्थ्य विज्ञान या चिकित्साशास्त्र की बात की। जाती है, परन्तु आधुनिक युग में मानसिक स्वास्थ्य तथा मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान को भी समान रूप से आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान को जन्म देने का श्रेय सी० डब्ल्यू० बीयर्स (C. W. Bears) को प्राप्त है। सन् 1908 में उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें मानसिक रोगों से ग्रस्त बस्तियों की दशा सुधारने के विषय में अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया था।

इसी वर्ष ‘मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान समिति (Association of Mental Hygiene) की स्थापना हुई। कुछ समय बाद इसी सम्बन्ध में एक राष्ट्रीय परिषद् स्थापित की गयी। धीरे-धीरे सम्पूर्ण यूरोप में मानसिक स्वास्थ्य का प्रचार हो गया। सन् 1930 में मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान सम्बन्धी प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन वाशिंगटन (अमेरिका) में हुआ। कालान्तर में विश्व के सभी प्रगतिशील देशों में मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का प्रचार व प्रसार होने लगा। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का शाब्दिक अर्थ है, मन के रोगों का निदान करने वाला विज्ञान, अर्थात् वह विज्ञान जो मस्तिष्क को स्वस्थ रखने में सहायता देता है।

शारीरिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध हमारे शारीरिक स्वास्थ्य से है, तो मानसिक वास्थ्य विज्ञान को सम्बन्ध मस्तिष्क से। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है, जो मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने तथा मानसिक रोगों का निदान और नियन्त्रण करने के उपाय बताता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है, जो व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करता है, उसे मानसिक रोगों से मुक्त रखता है तथा यदि व्यक्ति मानसिक रोग या समायोजन के दोषों से ग्रस्त हो जाता है, तो उसके कारणों का निदान करके समुचित उपचार की व्यवस्था का प्रयास करता है।”

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. ड्रेवर के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है–मानसिक स्वास्थ्य के नियमों का अनुसन्धान करना और उनकी सुरक्षा के उपाय करना।”
  2. क्रो एवं क्रो के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है, जो मानव कल्याण से सम्बन्धित है और मानव सम्बन्धों के समस्त क्षेत्रों को प्रभावित करता है।”
  3. रोजानक के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान व्यक्ति की मानसिक कठिनाइयों को दूर करने में सहायता देता है तथा कठिनाइयों के समाधान के लिए साधन प्रस्तुत करता है।”
  4. हैडफील्ड के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है-मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा और मानसिक रोगों की रोकथाम।”
  5. भाटिया के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मानसिक रोगों से बचने और मानसिक स्वास्थ्य को कायम रखने का विज्ञान तथा कला है। यह कुसमायोजनाओं के सुधारों से सम्बन्धित है। इस कार्य में यह आवश्यक खेप से कारणों के निर्धारण का कार्य भी करता है।

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का महत्त्व या उपयोगिता या कार्य
मानसिक स्वास्थ्य एक लक्ष्य है जिसकी पूर्ति के लिए मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है। यह विज्ञानं मानसिक रोगियों की समस्याओं का समाधान तथा उनका उपचार करने की दिशा में एक वैज्ञानिक प्रयास है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का आधुनिक दृष्टिकोण सहानुभूति, सहृदयतापूर्ण और सुधारवादी है। पेरिस (फ्रांस) के प्रसिद्ध कारागार चिकित्सक फिलिप पिने (Phillipe Pinel) ने सर्वप्रथम इन रोगियों को सुधारने के लिए सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार तथा नैतिक उपचार का मार्ग सुझाया। उसने मानसिक रोगियों की जंजीरें खुलवा दीं और उन्हें घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता प्रदान की। इसके परिणामस्वरूप बहुत-से रोगी अधिक सहयोगी व आज्ञाकारी बन गये और दूसरों के बेहतर उपचार का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसका समस्त श्रेय मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की विचारधारा को ही जाता है। वर्तमान समय में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का। महत्त्व निम्नलिखित है।

1. सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों-सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा सांवेगिक आदि–को सन्तुलित रूप से विकसित होने के स्वस्थ सामाजिक जीवन का अवसर प्रदान करता है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की मदद से मानसिक संघर्ष कम होता है तथा भावना ग्रन्थियाँ नहीं पनपने पातीं।

2. सुसमायोजित जीवन :
मनुष्य का सन्तुलित व्यक्तित्व उसे सन्तुलित जीवन जीने में मदद देता है। इससे व्यक्ति को सम-विषम परिस्थितियों को अनुकूलन स्थापित करने में सहायता मिलती है। सन्तुलित जीवन के अवसर मिलने का अर्थ है–सुखी और सुसमायोजित जीवन-यापन का सौभाग्य प्राप्त होना।

3. स्वस्थ सामाजिक जीवन :
व्यक्ति समाज की इकाई है। सामागको एक और व्यक्तियों के समूह से समाज बनता है। समाज के सभी व्यक्तियों का सन्तुलित व्यक्तित्व तथा समायोजित जीवन सामाजिक जन को सौम्य एवं स्वस्थ बनाता है। ऐसे सन्तुलित समाज में सामाजिक विषमता और संघर्ष नहीं होंगे। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान, सामाजिक जीवन को स्वस्थ और सुन्दर बनाता है।

4. स्वस्थ पारिवारिक वातावरण :
स्वस्थ व्यक्तित्व के निर्माण से पारिवारिक सन्तुलन सुसमायोजन, शान्ति-व्यवस्था और सुख में वृद्धि होती है। परिवार के सदस्यों में आपसी प्रेम और सौहार्दपूर्ण व्यवहार से हर प्रकार के आनन्द तथा स्वस्थ वातावरण का सृजन होता है।

5. शिशुओं का समुचित पालन :
पोषण-मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के माध्यम से शिशुओं के माता-पिता एवं परिवारजन भली प्रकार यह समझ सकते हैं कि नवजात शिशुओं की देखभाल किस प्रकार की जाए। इससे शिशुओं की उचित सेवा-सुश्रूषा हो सकेगी तथा उनका विकास भी सुचारु रूप से हो सकेगा। यह पारिवारिक सन्तुलन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।

6. शैक्षिक प्रगति :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के नियम और सिद्धान्त बालकों के स्वस्थ संवेगात्मक विकास में सहायक होते हैं। भावना ग्रन्थियों तथा मानसिक संघर्ष से मुक्त रहकर वे पास-पड़ोस तथा विद्यालय में समायोजन स्थापित कर सकते हैं। शिक्षा के मार्ग में बाधक मानसिक रोग ग्रन्थियाँ हटने से शैक्षिक प्रगति सम्भव होती है।

7. उपचारात्मक महत्त्व :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मात्र स्वस्थ रहने और समायोजित जीवन व्यतीत करने सम्बन्धी नियम और सिद्धान्त ही निर्धारित नहीं करता, अपितु उपचार लेकर मानव-समाज की सेवा में उपस्थित होता है। रोकथाम और बचाव के साधन प्रयोग में लाने पर भी यदि कोई व्यक्ति मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है तो मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान उसके प्रारम्भिक उपचार की व्यवस्था करता है।

8. व्यावसायिक सफलता :
व्यावसायिक सफलता के लिए व्यक्ति का जीवन सन्तुलित एवं समायोजित होना चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान सन्तुलित व्यक्तित्व का सृजन करके व्यक्ति की व्यावसायिक क्षमता में वृद्धि करता है।

9. राष्ट्रीयता की भावना एवं सांवेगिक एकता :
विषमता और विघटनकारी प्रवृत्तियों के प्रभाव से वर्तमान परिस्थितियों में हमारा राष्ट्र सम्प्रदायवाद, भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि दूषित विचारधाराओं से जूझ रहा है। इससे राष्ट्रीय एकता भंग होती है तथा देश की शक्ति कमजोर पड़ती जाती है। इससे बचाव के लिए देश के नागरिकों में संवेगात्मक एकता का संचार करना होगा। यह कार्य मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की सक्रियता के अभाव में नहीं हो सकता।

10. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सहयोग :
अन्तर्राष्ट्रीय (या विश्व शान्ति के लिए आवश्यक है कि दुनिया के सभी देशों के नेतागण, चिन्तक, विचारक, समाज-सुधारक तथा नागरिक सन्तुलित और समायोजित व्यक्तित्व वाले हों। यदि देश के कर्णधारों का मानसिक स्वास्थ्य खराब होगा तो विभिन्न देशों के बीच तनाव और संघर्ष निश्चित रूप से होगा। प्रायः एक ही व्यक्ति का असन्तुलित मस्तिष्क समूची मानव-संस्कृति को युद्ध एवं विनाश की अग्नि में झोंक देगा। उस असन्तुलिते मस्तिष्क के उपचार का दायित्व मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान पर है। इससे विश्व-स्तर पर उत्पन्न तनाव और संघर्ष समाप्त होगा और विरोधी विचारधारा वाले देश निकट आकर मित्रता में बँध जाएँगे।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानसिक स्वास्थ्य का क्या अर्थ है? इसका महत्त्व लिखिए। [2007, 08, 11, 12, 14]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य से आशय ‘मानव को अपने व्यवहार में सन्तुलन से है। यह सन्तुलन प्रत्येक अवस्था में बना रहना चाहिए। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति की एक दशा एवं लक्षण है। किसी भी व्यक्ति के स्वस्थ एवं सफल जीवन के लिए उसके मन का स्वस्थ होना अतिआवश्यक है, क्योंकि मन द्वारा ही शरीर की समस्त क्रियाओं को संचालन किया जाता है। मन ही हमारे शरीर की बाह्य एवं आन्तरिक क्रियाओं को संचालित एवं नियन्त्रित करता है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही परिवार, कार्यस्थल तथा अपने आस-पास के वातावरण से समायोजन स्थापित कर सुखी रहता है।

मानसिक स्वास्थ्य का महत्त्व
सामान्य रूप से माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक रूप से स्वस्थ होना चाहिए, परन्तु यह मान्यता केवल आंशिक रूप से सत्य है। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वस्थ होना चाहिए। सम्पूर्ण स्वास्थ्य का प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष महत्त्व है। हम उस व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वस्थ कह सकते हैं जो शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक रूप से स्वस्थ होता है। वास्तव में शारीरिक स्वास्थ्य भी बहुत अधिक हद तक मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करता है तथा उससे प्रभावित होता है।

यदि व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक न हो, तो वह शारीरिक रूप से भी स्वस्थ नहीं रह पाता। इसके अतिरिक्त जीवन में प्रगति करने तथा समुचित आनन्द प्राप्त करने के लिए भी व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक होना आवश्यक है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही भौतिक, दैहिक तथा आत्मिक रूप से सन्तुष्ट हो सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक होना। आवश्यक है। शैक्षिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य अति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में मानसिक स्वास्थ्य तथा सीखने में सफलता के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है।

वास्तव में सीखने की प्रक्रिया को सुचारू रूप से सम्पन्न करने के लिए शिक्षार्थी तथा शिक्षक दोनों का मानसिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति को दृष्टिकोण सामान्य तथा सकारात्मक होता है। वह सभी कार्यों को पूर्ण उत्साह एवं लगन से सीखने को तत्पर रहता है। ऐसी परिस्थितियों में नि:सन्देह सीखने की प्रक्रिया तीव्र तथा सुचारू होती है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपनी त्रुटियों के प्रति जागरूक होता है तथा उन्हें सुधारने का भी प्रयास करता है। इससे उसकी सीखने की प्रक्रिया अच्छे ढंग से चलती है। इन समस्त तथ्यों को ही ध्यान में रखते हुए क्रेन्डसन ने कहा है, “मानसिक स्वास्थ्य । और सीखने में सफलता का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है।”

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति भी समान रूप से जागरूक रहना चाहिए तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए हर सम्भव उपाय एवं प्रयास करना चाहिए। वास्तव में कोई भी व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की मौलिक मान्यताओं एवं नियमों तथा निर्देशों का पालन करके अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकता है तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि नियमित जीवन, समुचित व्यायाम तथा योगाभ्यास एवं जीवन के प्रति सर्वांगीण दृष्टिकोण अपनाकर व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकता है तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकता है।

प्रश्न 2
मानसिक अस्वस्थता के क्या कारण हैं?
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करने में विभिन्न कारकों का योगदान हो सकता है, जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है।

1. मानसिक दुर्बलता :
ऐसे व्यक्ति जो मानसिक रूप से दुर्बल होते हैं, उनमें पर्याप्त ज्ञानात्मक योग्यता का अभाव पाया जाता है, ये व्यक्ति अक्सर मानसिक रोगों का शिकार हो जाते हैं।

2. संवेगात्मक असन्तुलन :
संवेगात्मक असन्तुलन की स्थिति में व्यक्ति क्षुब्ध हो जाता है। यदि यह अवस्था निरन्तर बनी रहती है, तो व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है।

3. मानसिक संघर्ष :
स्थायी मानसिक संघर्ष अनेक बारे भयंकर रूप धारण कर लेते हैं तथा इनके कारण व्यक्ति असामान्य तथा गम्भीर मानसिक रोगी बन जाता है।

4. अत्यधिक थकान एवं काम का बोझ :
काम के अधिक बोझ एवं परिश्रम से व्यक्ति थक जाता है। निरन्तर बनी रहने वाली थकान मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करती है।

5. हीन भावना :
व्यक्ति में विभिन्न कारणों से उत्पन्न हीन भावनाएँ जब एक ग्रन्थि का रूप धारण कर लेती हैं, तो ये ग्रन्थियाँ अनेक मानसिक विकारों को उत्पन्न करती हैं।

6. यौन-हताशाएँ :
यौन इच्छा की तृप्ति न हो पाने पर व्यक्ति प्राय: हताश हो जाते हैं। यह हताशा व्यक्ति को असामान्य बना देती है तथा व्यक्ति मानसिक रोगी, बन जाता है।

7. भावनाओं का दमन :
भावनाओं का दमन भी मानसिक अस्वस्थता का एक प्रमुख कारण है। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर विभिन्न प्रकार की भावनाएँ होती हैं, अनेक बार हर प्रकार की भावना को प्रदर्शित कर पाना सम्भव नहीं होता। दमित भावनाएँ अन्दर-ही-अन्दर सक्रिय रहती हैं, तथा भयंकर मानसिक अस्वस्थता का कारण बनती हैं।

प्रश्न 3
मानसिक अस्वस्थता के निदान के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता के निदान के अन्तर्गत मानसिक अस्वस्थता के कारणों का पता लगाने के लिए रोगी के व्यक्तित्व सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाओं का प्राप्त करना आवश्यक है। ये सूचनाएँ इन बिन्दुओं से सम्बन्धित होती हैं।

  1. शारीरिक दशा
  2. पारिवारिक दशा
  3. शैक्षणिक दशा
  4. सामाजिक दशा
  5. आर्थिक दशा
  6. व्यावसायिक दशा
  7. व्यक्तित्व सम्बन्धी लक्षण तथा
  8. मानसिक तत्त्व।

इन सूचनाओं को निम्नलिखित विधियों की सहायता से उपलब्ध कराया जाता है

  1. प्रश्नावली
  2. साक्षात्कार
  3. निरीक्षण
  4. जीवनवृत्त
  5. व्यक्तित्व परिसूची
  6. डॉक्टरी जाँच
  7. विभिन्न मनोवैज्ञानिक (बुद्धि, रुचि, अभिरुचि तथा मानसिक योग्यता सम्बन्धी) परीक्षण
  8. विद्यालय का संचित आलेख
  9. प्रक्षेपण विधियाँ तथा
  10. प्रयोगात्मक एवं अन्वेषणात्मक विधियाँ।

प्रश्न 4
साधारण मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सामान्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
सार्धारण मानसिक अस्वस्थता के उपचार में आवश्यकतानुसार निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है

1. सुझाव :
मानसिक रोगी को सीधे-सीधे सुझाव देकर समझाया जाए कि उसे अपनी अस्वस्थता के विषय में क्या सोचना व करना है। उसके भ्रम व भ्रान्तियों का भी निवारण किया जाए।

2. उन्नयन :
इस विधि में यह जाँच की जाती है कि मानसिक रोग का किस प्रवृत्ति या संवेग से सम्बन्ध है। फिर उसी प्रवृत्ति/संवेग का स्तर उन्नत करके उसे किसी उच्च लक्ष्य के साथ जोड़ दिया जाता

3. निद्रा :
अचानक आघात या दुर्घटना के कारण यदि कोई व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा है तो रोगी को ओषधि देकर कई दिनों तक निद्रा में रखा जाता है। शरीर की ताकत को बनाये रखने की दृष्टि से ताकत के इंजेक्शन दिये जाते हैं।

4. विश्राम :
अधिक कार्यभार, थकावट, तनाव तथा मानसिक उलझनों और कुपोषण के कारणं अक्सर मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। ऐसे रोगियों को शान्त वातावरण में विश्राम करने हेतु रखा जाता है और उन्हें पौष्टिक भोजनं खिलाया जाता है।

5. पुनर्शिक्षण :
इसके अन्तर्गत मानसिक रोगी में व्यावहारिक शिक्षा, संसूचन तथा उपदेश के माध्यम से आत्मविश्वास व आत्म-नियन्त्रण पैदा किया जाता है। इसके लिए अन्य व्यक्ति, समूह या दैवी-शक्तियों में विश्वास के लिए भी उसे प्रेरित किया जा सकता है। इस विधि की सफलता रोगी द्वारा दिये गये सहयोग पर निर्भर करती है। कमजोर तथा कोमल भावनाओं वाले व्यक्तियों की इस विधि से चिकित्सा की जा सकती है।

6. ग्रन्थ विधि :
पढ़े-लिखे विभिन्न प्रकार के मानसिक रोगियों के लिए ऐसे विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की गयी है जिनके पढ़ने से मानसिक तनावे व असन्तुलन घटता है। रोग के अनुसार सम्बन्धित ग्रन्थ पढ़ने के लिए दिया जाता है और इसके पश्चात् उचित निर्देशन प्रदान कर रोग का पूर्व उपचार कर दिया जाता है।

प्रश्न 5
गम्भीर मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
गम्भीर मानसिक अस्वस्थता का उपचार साधारण विधियों के माध्यम से सम्भव नहीं है। इसके लिए रोगी को दीर्घकाल तक मानसिक रोग चिकित्सालय में किसी अनुभवी चिकित्सक की देख-रेख में रहना पड़ सकता है। इसके लिए अग्रलिखित विधियाँ प्रयुक्त होती हैं

1. आघात विधि :
पहले कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऑक्सीजन के मिश्रण को सुंघाकर रोगी के मस्तिष्क को आघात (Shock) दिया जाता था, जिससे क्षणिक लाभ होता था। इसके बाद अधिक मात्रा में इन्सुलिन या कपूर या मेट्राजॉल के द्वारा आघात दिया जाने लगा। रोगी को 15 से 60 तक आघात पहुँचाये जाते हैं। आजकल रोगी के मस्तिष्क पर बिजली के हल्के आघात देकर मानसिक रोग ठीक किये जाते हैं।

2. रासायनिक विधि :
रासायनिक विधि (Chemo Therapy) में कुछ विशेष प्रकार की ओषधियों या रसायनों का प्रयोग करके रोगी की चिन्ता तथा बेचैनी कम की जाती है। भारत में आजकल सर्पगन्धा (Rauwolfia) नामक ओषधि काफी प्रचलित व लाभदायक सिद्ध हुई है।

3. मनोशल्य चिकित्सा :
मनोशल्य चिकित्सा (Psycho-Surgery) के अन्तर्गत मस्तिष्क का ऑपरेशन करके थैलेमस व फ्रण्टल लोब के सम्बन्ध का विच्छेद कर दिया जाता है। इससे मानसिक उन्माद और विकृतियाँ ठीक हो जाती हैं। यह देखा गया है कि ऑपरेशन के बाद दूसरी मानसिक असामान्यताएँ पैदा हो जाती हैं। यह विधि सुधारे की दृष्टि से उपयुक्त कही जा सकती है, किन्तु इससे पूर्ण उपचार नहीं हो सकता।

प्रश्न 6
“अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होगा तो वह अपने विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर सकता।” यदि आप इस कथन से सहमत हैं, तो क्यों ? मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर :
विद्यालय में अध्यापक की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका तथा दायित्व होता है। घर में बच्चों के लिए जो स्थान माता-पिता का होता है, विद्यालय में वही स्थान शिक्षक या अध्यापक का होता है। अध्यापक का दायित्व है कि वह अपने विद्यार्थियों को शिक्षित करने के साथ-ही-साथ उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के उत्तम विकास में भी भरपूर योगदान प्रदान करे। इस स्थिति में यह अनिवार्य है कि अध्यापक अपने विषय में पारंगत होने के साथ-ही-साथ मानसिक रूप से भी स्वस्थ हो।

यदि अध्यापक मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है तो उसका गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव उसके विद्यार्थियों के विकास एवं मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ सकता है। विद्यार्थी अध्यापक का अनुकरण करते हैं, उससे प्रेरित होते हैं तथा प्रभावित होते हैं। ऐसे में मानसिक रूप से अस्वस्थ अध्यापक के सम्पर्क में आने वाले विद्यार्थी भी मानसिक रूप से अस्वस्थ हो सकते हैं। यही कारण है कि कहा जाता है कि “अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होगा तो वह अपने विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर सकता।”

प्रश्न 7.
अध्यापक के मानसिक स्वास्थ्य में बाधा डालने वाले कारकों का वर्णन कीजिए। [2010]
उत्तर :
शिक्षा की प्रक्रिया को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा छात्रों के सामान्य एवं उत्तम विकास के लिए अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य सामान्य होना अति आवश्यक है, परन्तु व्यवहार में देखा गया है कि अनेक अध्यापकों का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होता। वास्तव में विभिन्न कारक अध्यापकों के मानसिक स्वास्थ्य पर निरन्तर प्रतिकूल प्रभाव डालते रहते हैं। इस प्रकार के मुख्य कारक हैं

  1. वेतन का कम होना
  2. सेवाओं को सुरक्षित न होना
  3. समाज में समुचित प्रतिष्ठा न होना
  4. विद्यालय में आवश्यक शैक्षिक उपकरणों को उपलब्ध न होना
  5. कार्य-भार को अधिक होना
  6. विद्यालय का वातावरण अच्छा न होना
  7. प्रधानाचार्य और प्रबन्धकों से विवाद
  8. स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध न होना
  9. पारिवारिक प्रतिकूल परिस्थितियाँ तथा
  10. आवासीय समस्याएँ।

प्रश्न 8
‘मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से आप क्या समझते हैं? विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने में अध्यापक (विद्यालय) की भूमिका की विवेचना कीजिए। [2011]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान’ वह विज्ञान है, जो व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करता है, उसे मानसिक रोगों से मुक्त रखता है तथा यदि व्यक्ति मानसिक विकार, रोग अथवा समायोजन के दोषों से ग्रस्त हो जाता है तो उसके कारणों का निदान करके समुचित उपचार की व्यवस्था का प्रयास करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान एक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विज्ञान है। इस विज्ञान द्वारा मुख्य रूप से तीन प्रकार के कार्य किये जाते हैं। ये कार्य निम्नलिखित हैं

  1. मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा
  2. मानसिक रोगों की रोकथाम तथा
  3. मानसिक रोगों का प्रारम्भिक उपचार।

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा ड्रेवर ने इन शब्दों में प्रतिपादित की है, “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है-मानसिक स्वास्थ्य के नियमों की खोज करना और उसको सुरक्षित रखने के उपाय करना।” बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक बनाये रखने तथा आवश्यकता पड़ने पर उसमें सुधार करने में विद्यालय एवं शिक्षक द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। सर्वप्रथम विद्यालय का वातावरण उत्तम, सौहार्दपूर्ण तथा हर प्रकार की राजनीति, गुटबाजी तथा साम्प्रदायिक भेदभाव से मुक्त होना चाहिए। शिक्षकों का दायित्व है कि विद्यालय में श्रेष्ठ अनुशासन बनाये रखें।

उन्हें मूल पाठ्यक्रम के साथ-साथ पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का भी आयोजन करना चाहिए। बालकों को मानसिक रूप से स्वस्थ बनाये रखने के लिए शिक्षकों को उपयुक्त शिक्षण विधियों को ही अपनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त बालकों के लिए शैक्षिक, व्यावसायिक तथा व्यक्तिगत निर्देशन की भी व्यवस्था होनी चाहिए। इससे बालकों की हर प्रकार की समस्याओं का समाधान होता रहेगा तथा वे मानसिक रूप से स्वस्थ रहेंगे।

प्रश्न 9
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान तथा मानसिक स्वास्थ्य में क्या अन्तर है? [2012, 15]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान और मानसिक स्वास्थ्य दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानसिक स्वास्थ्य एक मानसिक दशा है, जब कि मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान उस मानसिक दिशा का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। इन दोनों में अन्तर को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

  1. मानसिक स्वास्थ्य सम्पूर्ण व्यक्तित्व की पूर्ण एवं सन्तुलित क्रियाशीलता को कहते हैं। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान व्यक्तित्व की इस क्रियाशीलता का अध्ययन करता है।
  2. मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति की एक विशिष्ट स्थिति को बताता है। यह स्थिति दो प्रकार की हो सकती है-

मानसिक स्वस्थता तथा मानसिक अस्वस्थता। इन स्थितियों का अध्ययन करने वाला विषय ही मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान कहलाता है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मानसिक स्वास्थ्य के लक्षणों, मानसिक अस्वस्थता के लक्षणों, मानसिक रोग तथा उनके कारणों और मानसिक अस्वस्थता को दूर करने के उपायों का अध्ययन व विवेचन करता है। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का एक विशिष्ट स्थान है, क्योंकि विद्यार्थी और शिक्षक के मानसिक स्वास्थ्य पर ही शिक्षण प्रक्रिया की गतिशीलता निर्भर करती है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानसिक स्वास्थ्य के तीन पक्ष कौन-से हैं?
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य के तीन पक्ष निम्नलिखित हैं

  1. प्रत्येक व्यक्ति को उसकी मानसिक प्रवृत्तियों, क्षमताओं, शक्तियों तथा अर्जित क्षमताओं को प्रकट करने का अवसर मिलना चाहिए।
  2. व्यक्ति की क्षमताओं में पारस्परिक समायोजन होना चाहिए।
  3. व्यक्ति की समस्त प्रवृत्तियाँ एवं कार्य किसी उद्देश्य की ओर सक्रिय होने चाहिए।

प्रश्न 2
मानसिक स्वास्थ्य का ठीक होना क्यों आवश्यक है?
या
मानसिक स्वास्थ्य के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2007, 15]
उत्तर :
स्वास्थ्य का प्रत्येक व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्त्व है। हम उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वस्थ कह सकते हैं जो शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक रूप से स्वस्थ होता है। वास्तव में शारीरिक स्वास्थ्य भी बहुत अधिक हद तक मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करता है तथा उससे प्रभावित होता है। यदि व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक न हो, तो वह शारीरिक रूप से भी स्वस्थ नहीं रह पाता। इसके अतिरिक्त जीवन में प्रगति करने तथा समुचित आनन्द प्राप्त करने के लिए भी व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक होना। आवश्यक है।

प्रश्न 3
मानसिक स्वास्थ्य और सीखने में सफलता का क्या सम्बन्ध है?
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य तथा सीखने में सफलता के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। वास्तव में सीखने की प्रक्रिया को सुचारु रूप से सम्पन्न करने के लिए शिक्षार्थी तथा शिक्षक दोनों का मानसिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का दृष्टिकोण सामान्य तथा सकारात्मक होता है। वह सभी कार्यों को पूर्ण उत्साह एवं लगन से सीखने को तत्पर रहता है। ऐसी परिस्थितियों में नि:संदेह सीखने की प्रक्रिया तीव्र तथा सुचारु होती है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति अपनी त्रुटियों के प्रति जागरूक होता है तथा उन्हें सुधारने का भी प्रयास करता है। इससे उसकी सीखने की प्रक्रिया अच्छे ढंग से चलती है। इन समस्त तथ्यों को ही ध्यान में रखते हुए क्रेन्डसन ने कहा है, “मानसिक स्वास्थ्य और सीखने में सफलता का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है।”

प्रश्न 4
मानसिक रोगों के उपचार की व्यावसायिक चिकित्सा का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
खाली मस्तिष्क शैतान का घर है, किन्तु कार्य में रत व्यक्ति में कई विशिष्ट गुण उत्पन्न होते हैं; जैसे—सहयोग, प्रेम, सहनशीलता, धैर्य और मैत्री। इन गुणों से मानसिक उलझन और तनाव में कमी आती है। इसी सिद्धान्त को आधार बनाकर रोगियों को उनके पसन्द के कार्यों (जैसे—चित्रकारी, चटाई-कपड़ा-निवाड़, बुनना, टोकरी बनाना आदि) में लगा दिया जाता है, जिससे धीरे-धीरे उनका मानसिक सन्तुलन सुधर जाता है।

प्रश्न 5
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सामूहिक चिकित्सा का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सामूहिक चिकित्सा विधि में दस से लेकर तीस तक समलिंगी रोगियों की एक साथ चिकित्सा की जाती है। चिकित्सक समूह के सभी रोगियों को इस प्रकार प्रेरित करता है कि वे एक-दूसरे से अपनी समस्याएँ कहें तथा दूसरों की समस्याएँ खुद सुनें। एक-दूसरे को समस्या कहने-सुनने से पारस्परिक सहानुभूति उत्पन्न होती है। रोगी जब अपने जैसे अन्य पीड़ित व्यक्तियों को अपने साथ पाता है तो उसे सन्तोष अनुभव होता है। धीरे-धीरे चिकित्सक के दिशा-निर्देशन में सभी रोगी मिलकर समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते हैं और मानसिक सन्तुलन की अवस्था प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 6
मानसिक रोगियों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली खेल एवं संगीत विधि का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
बालकों तथा दीर्घकाल तक दबाव महसूस क़रने वाले मानसिक रोगी व्यक्तियों के लिए खेल विधि उपयोगी है-रोगी को स्वेच्छा से स्वतन्त्रतापूर्वक नाना प्रकार के खेल खेलने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। खेल खेलने से उसकी विचार की दिशा बदलती है तथा खेल जीतने से उसमें आत्मविश्वास बढ़ता है। इसी प्रकार संगीत भी मानसिक उलझनों तथा तनावों को दूर करने की एक महत्त्वपूर्ण कुंजी है। रुचि का संगीत सुनने से उत्तेजित स्नायुओं को आराम मिलता है, संवेगात्मक उत्तेजनाओं का अन्त होता है, पाचन क्रिया तथा रक्तचाप सामान्य हो जाते हैं।

प्रश्न 7
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मनो-अभिनय नामक विधि का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली एक सफल एवं लोकप्रिय विधि है-मनो-अभिनय विधि। मनो-अभिनय विधि (Psychodrarma), सामूहिक विधि से मिलती-जुलती विधि है। इसमें समूह के रोगी आपस में समस्या की व्याख्या नहीं करते, बल्कि अभिनय के माध्यम से अपनी समस्या का स्वतन्त्र रूप से अभिप्रकाशन करते हैं। इससे समस्या का रेचन हो जाता है। मनो-अभिनय चिकित्सक के निर्देशन में किया जाना चाहिए।

प्रश्न 8
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली सम्मोहन विधि का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर :
सम्मोहन, अल्पकालीन प्रभाव वाली एक मनोवैज्ञानिक विधि है, जिससे मनोरोग के लक्षण दूर होते हैं, रोग दूर नहीं होता। सम्मोहन क्रिया में चिकित्सक मानसिक रोगी को कुछ समय के लिए अचेत कर देता है और उसे एक आरामकुर्सी पर विश्रामपूर्वक बिठलाता है। अब उसे किसी ध्वन्यात्मक या दृष्टात्मक उत्तेजना पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए कहा जाता है। संसूचनाओं के माध्यम से उसे अचेत ही रखा जाता है। रोगी को निर्देश दिया जाता है कि वह अपनी स्मृति से लुप्त हो चुकी अनुभूतियों को कहे। अनुभूति के स्मरण मात्र से ही रोगी का रोग दूर हो जाती है।

प्रश्न 9
मानसिक रोगों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मनोविश्लेषण विधि का सामान्य वर्णन कीजिए।
उत्तर :
फ्रायड (Freud) नामक विख्यात मनोवैज्ञानिक ने सम्मोहन विधि की कमियों को ध्यानावस्थित रखते हुए ‘मनोविश्लेषण विधि (Psychoanalysis) की खोज की। रोगी को एक अर्द्ध-प्रकाशित कक्ष में आरामकुर्सी पर इस प्रकार विश्रामपूर्वक बिठलाया जाता है कि मनोविश्लेषक तो रोगी की क्रियाओं को पूर्णरूपेण अध्ययन व निरीक्षण कर पाये, लेकिन रोगी उसे न देख सके। अब मनोविश्लेषक के व्यवहार से प्रेरित व सन्तुष्ट व्यक्ति उस पर पूरी तरह विश्वास प्रदर्शित करता है। यद्यपि शुरू में प्रतिरोध की अवस्था के कारण रोगी कुछ व्यक्त करना नहीं चाहता, किन्तु उत्तेजके शब्दों के प्रयोग से उसे पूर्व-अनुभव दोहराने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसके बाद स्थानान्तरण की अवस्था के अन्तर्गत दो बातें हैं-

  1. रोगी चिकित्सक को भला-बुरा या गाली बकता है अथवा
  2. रोगी मनोविश्लेषक पर मुग्ध हो जाता है और उसकी हर बात मानता है।

शनैः – शनै: रोगी अपनी समस्त जानकारी मनोविश्लेषक को दे देता है, जिससे उसकी उलझनें समाप्त हो जाती हैं और वह सामान्य व समायोजित हो जाता है।

प्रश्न 10
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मुख्य उद्देश्य क्या हैं ? [2007, 13, 14, 15]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के निम्नलिखित उद्देश्य हैं

  1. क्रो एवं क्रो के अनुसार, मानसिक अव्यवस्था एवं अस्वस्थता को नियन्त्रित करना तथा मानसिक रोगों को दूर करने के उपायों की खोज करना।
  2. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का उद्देश्य ऐसे साधनों को एकत्र करना है, जिससे साधारण मानसिक रोगों को नियन्त्रित किया जा सके।
  3. प्रत्येक व्यक्ति को सामंजस्यपूर्ण और सुखी जीवन व्यतीत करने में सहायता देना।
  4. मानसिक तनाव और चिन्ताओं से मुक्ति दिलाने में सहायता देना।

प्रश्न 11
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मुख्य पक्षों का उल्लेख कीजिए।
या
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सकारात्मक पक्ष क्या है?
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के तीन प्रमुख पक्ष हैं

1. सकारात्मक पक्ष :
सकारात्मक पक्ष में उन नियमों तथा परिस्थितियों को उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है जिनके द्वारा मनुष्य व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करते हुए जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में सफल हो सके। इनमें मानसिक रोगों की खोज करना तथा उनकी रोकथाम करना आते हैं।

2. नकारात्मक पक्ष :
मानसिक रोगों की सहानुभूतिपूर्ण ढंग से तथा कुशलता से चिकित्सा करना, उन परिस्थितियों से बचने का प्रयास करना जिनके कारण मानसिक संघर्ष तथा भावना-ग्रन्थियों के उत्पन्न होने की सम्भावना होती रहती है।

3. संरक्षणात्मक पक्ष :
व्यक्ति को उन विधियों का ज्ञान कराना, जिनसे मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्ध को कायम रखा जा सकता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की एक उत्तम परिभाषा दीजिए।”
उत्तर :
“मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अर्थ है – मानसिक स्वास्थ्य के नियमों का अनुसंधान करना और उनकी सुरक्षा के उपाय करना।” [ ड्रेवर ]

प्रटन 2
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के मुख्य कार्य क्या हैं ? [2011]
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान मानसिक स्वास्थ्य के लक्षणों, मानसिक अस्वस्थता के लक्षणों, मानसिक रोग तथा उनके कारणों और मानसिक अस्वस्थता को दूर करने के उपायों का अध्ययन व विवेचन करता है।

प्रश्न 3
मानसिक स्वास्थ्य की एक संक्षिप्त परिभाषा लिखिए। [2008, 14]
उत्तर :
“मानसिक स्वास्थ्य यह बताता है कि कोई व्यक्ति जीवन की माँगों और अवसरों के प्रति कितनी अच्छी तरह से समायोजित है।” -भाटिया

प्रश्न 4
मानसिक स्वास्थ्य और सीखने के बीच कैसा सम्बन्ध है?
उत्तर :
मानसिक स्वास्थ्य और सीखने के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। सामान्य मानसिक स्वास्थ्य की दशा में सीखने की प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती है तथा मानसिक स्वास्थ्य के असामान्य हो जाने की दशा में सीखने की प्रक्रिया को सुचारु रूप से चल पाना सम्भव नहीं होता।

5
किस प्रकार आदमी (व्यक्ति) अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकता है?
उत्तर :
कोई भी व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य के नियमों का भली-भाँति पालन करके अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकता है।

प्रश्न 6
मानसिक अस्वस्थता से क्या आशय है ?
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता वह स्थिति है जिसमें जीवन की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने में व्यक्ति स्वयं को असमर्थ पाता है तथा संवेगात्मक असन्तुलन का शिकार हो जाता है।

प्रश्न 7
मानसिक अस्वस्थता का प्रमुख लक्षण क्या है ?
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता का प्रमुख लक्षण है – जीवन में समायोजन का बिगड़ जाना।

इन 8
‘स्वप्न विश्लेषण विधि किस उपचार के लिए प्रयोग में लाई जाती है ?
उत्तर :
मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए स्वप्न विश्लेषण विधि’ को अपनाया जाता है।

प्रश्न 9
मानसिक रोगियों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मनोविश्लेषण विधि को किसने प्रारम्भ किया था ?
उत्तर :
मनोविश्लेषण विधि को फ्रॉयड (Freud) नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रारम्भ किया था।

प्रश्न 10
गम्भीर मानसिक अस्वस्थता के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियाँ कौन-कौन-सी हैं ?
उत्तर :
गम्भीर मानसिक अस्वस्थता के उपचार हेतु अपनायी जाने वाली मुख्य विधियाँ हैं।

  1. आघात विधि
  2. रासायनिक विधि तथा
  3. मनोशल्य चिकित्सा।

प्रश्न 11
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक कौन-सा है? [2015]
उत्तर :
जीवन में सामंजस्य तथा सकारात्मक सोच, मानसिक सोच को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक हैं।

प्रश्न 12
हैडफील्ड के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध किससे है? [2013]
उत्तर :
हैडफील्ड के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध मुख्य रूप से मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा तथा मानसिक रोगों की रोकथाम है।

प्रश्न 13
मनोग्रन्थियों का निर्माण क्यों होता है? (2013)
उत्तर :
निरन्तर असफलताओं, हताशाओं, कुण्ठाओं तथा भावनाओं की अस्त-व्यस्तता के कारण मनोग्रन्थियों का निर्माण हो जाता है।

प्रश्न 14
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के चार पहलू हैं।
  2. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान केवल मानसिक रोगियों के लिए उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है।
  3. मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति जीवन में सुसमायोजित होता है।
  4. बालक के मानसिक स्वास्थ्य में परिवार का कोई योगदान नहीं होता।
  5. मानसिक अस्वस्थता का कोई उपचार सम्भव नहीं है।

उत्तर :

  1. असत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. असत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1.
“मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है – वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से पर्याप्त सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता।” यह परिभाषा दी है
(क) शेफर ने
(ख) लैण्डेल ने
(ग) मर्फी ने
(घ) ड्रेवर ने
उत्तर :
(ख) लैण्डेल ने

प्रश्न 2
“साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण सामंजस्य के साथ कार्य करता है। ऐसा कहा गया है
(क) ड्रेवर द्वारा
(ख) हैडफील्ड द्वारा
(ग) लैडेल द्वारा
(घ) कुप्पू स्वामी द्वारा
उत्तर :
(ख) हैडफील्ड द्वारा

प्रश्न 3
“मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है, जो मानव कल्याण के विषय में बताता है और मानव सम्बन्धों के सब क्षेत्रों को प्रभावित करता है। यह परिभाषा दी है
(क) क्री एवं क्रो ने
(ख) थॉमसन ने
(ग) शेफर ने
(घ) हैडफील्ड ने
उत्तर :
(क) क्रो एवं क्रो ने।

प्रश्न 4
“मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने और मानसिक असन्तुलन को रोकने से है।” ऐसा कहा गया है
(क) हैडफील्ड द्वारा
(ख) क्रो और क्रो द्वारा
(ग) कुल्हन द्वारा
(घ) शेफर द्वारा
उत्तर :
(क) हैडफील्ड द्वारा

प्रश्न 5
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के निम्नलिखित पहलू हैं, सिवाय (2009)
(क) संरक्षणात्मक पहलू
(ख) सांस्कृतिक पहलू
(ग) उपचारांत्मक पहलू
(घ) निरोधात्मक पहलू
उत्तर :
(ख) सांस्कृतिक पहलू

प्रश्न 6
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का निम्नलिखित कार्य नहीं है
(क) मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करना
(ख) संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
(ग) मानसिक रोगों की रोकथाम करना
(घ) मानसिक रोगों का उपचार करना
उत्तर :
(ख) संक्रामक रोगों की रोकथाम करना

प्रश्न 7
मानसिक अस्वस्थता का कारण नहीं है [2008, 12, 13]
(क) चिन्ता
(ख) निद्रा
(ग) तनाव
(घ) भग्नाशा
उत्तर :
(ख) निद्रा

प्रश्न 8
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का महत्व है
(क) जीवन के कुछ क्षेत्रों में
(ख) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
(ग) जीवन के असामान्य क्षेत्र में
(घ) जीवन के किसी भी क्षेत्र में नहीं
उत्तर :
(ख) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में

प्रश्न 9
व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है
(क) उसके सौन्दर्य का
(ख) उत्तम पोषण का
(ग) शारीरिक विकलांगता को
(घ) उच्च शिक्षा का
उत्तर :
(ग) शारीरिक विकलांगता का

प्रश्न 10
निम्नलिखित में से कौन-सा मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण नहीं है?
(क) स्व-मूल्यांकन की योग्यता
(ख) समायोजनशीलता
(ग) आत्मविश्वास
(घ) संवेगात्मक अस्थिरता
उत्तर :
(घ) संवेगात्मक अस्थिरता

प्रश्न 11
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का उद्देश्य है [2007, 09, 11, 18]
(क) सामाजिक विकास करना
(ख) सांस्कृतिक विकास करना
(ग) मानसिक रोगों का उपचार करना
(घ) भावात्मक विकास करना
उत्तर :
(ग) मानसिक रोगों का उपचार करना

प्रश्न 12
निम्नलिखित में से कौन-सा मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण हैं? [2008]
(क) स्व-मूल्यांकन की योग्यता
(ख) समायोजनशीलता
(ग) आत्मविश्वास
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 13
मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के उद्देश्यों का एकमात्र पहलू है [2013]
(क) उपचारात्मक पहलू
(ख) निरोधात्मक पहलू
(ग) संरक्षणात्मक पहलू
(घ) ये सभी
उत्तर :
(घ) ये सभी

प्रश्न 14
निम्नलिखित में से कौन-सा उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का नहीं है? [2010, 13]
(क) अधिकतम प्रभावोत्पादक और सन्तुष्टि
(ख) जीवन की वास्तविकताओं को स्वीकार करना
(ग) व्यक्तियों का आपसी सामंजस्य
(घ) तेज गति से आर्थिक समृद्धि
उत्तर :
(घ) तेज गति से आर्थिक समृद्धि

प्रश्न 15
‘ए माइन्ड दैट फाउण्ड इटसेल्फ’ पुस्तक का सम्बन्ध है [2014]
(क) गणित से
(ख) मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से
(ग) दर्शनशास्त्र से
(घ) विज्ञान से
उत्तर :
(ख) मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान से

प्रश्न 16
मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति में निम्न में से क्या पाया जाता है। [2016]
(क) आत्मविश्वास की अधिकता
(ख) तनाव की अधिकता
(ग) क्रोध की अधिकता
(घ) हर्ष की अधिकता
उत्तर :
(क) आत्मविश्वास की अधिकता

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 7 Indian Educationist: Mrs. Annie Besant

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 7 Indian Educationist: Mrs. Annie Besant (भारतीय शिक्षाशास्त्री-श्रीमती एनी बेसेण्ट) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 7 Indian Educationist: Mrs. Annie Besant (भारतीय शिक्षाशास्त्री-श्रीमती एनी बेसेण्ट).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 7
Chapter Name Indian Educationist: Mrs. Annie Besant (भारतीय शिक्षाशास्त्री-श्रीमती एनी बेसेण्ट)
Number of Questions Solved 28
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 7 Indian Educationist: Mrs. Annie Besant (भारतीय शिक्षाशास्त्री-श्रीमती एनी बेसेण्ट)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
श्रीमती एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के अर्थ, उद्देश्यों तथा पाठ्यक्रम का उल्लेख कीजिए।
या
एनी बेसेण्ट के शैक्षिक विचारों का उल्लेख कीजिए।
या
डॉ० एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।
या
अधोलिखित प्रसंगों के ऊपर एनी बेसेण्ट के शैक्षिक विचारों को लिखिए

  1. शिक्षा का पाठ्यक्रम
  2. शिक्षण पद्धति
  3. शिक्षा के उद्देश्य या एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षण विधियाँ क्या हैं?

उत्तर
एनी बेसेण्ट भारत की तत्कालीन शिक्षा प्रणाली से बहुत असन्तुष्ट थीं और उन्होंने उसकी कटु आलोचना भी की। उन्होंने प्रचलित शिक्षा को एकांगी और अव्यावहारिक बताते हुए कहा-“आजकल भारत में शिक्षा का उद्देश्य उपाधि प्राप्त करना है। शिक्षा तब असफल होती है, जब कि बहुत से असंयुक्त तथ्यों के द्वारा बालक का मस्तिष्क भर दिया जाता है और इन तथ्यों को उसके मस्तिष्क में इस प्रकार डाला जाता है, मानो रद्दी की टोकरी में फालतू कागज फेंके जा रहे हों और फिर उन्हें परीक्षा के कमरे में उलटकर टोकरी खाली कर देनी है।”

शिक्षा का अर्थ

एनी बेसेण्ट ने शिक्षा की परिभाषा देते हुए कहा है-“शिक्षा का अर्थ है बालक की प्रकृति के प्रत्येक पक्ष में उसकी सभी आन्तरिक क्षमताओं को बाहर प्रकट करना, उसमें प्रत्येक बौद्धिक व नैतिक शक्ति का विकास करना, उसे शारीरिक, संवेगात्मक, मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली बनाना ताकि विद्यालय की अवधि के अन्त में वह एक उपयोगी देशभक्त और ऐसा पवित्र व्यक्ति बन सके जो अपना और अपने चारों ओर के लोगों का आदर करता है।”

एनी बेसेण्ट के अनुसार, शिक्षा और संस्कृति में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके अनुसार जन्मजात शक्तियों या क्षमताओं का बाह्य प्रकाशन एवं प्रशिक्षण ही शिक्षा है। ये शक्तियाँ बालक को पूर्व जन्म से प्राप्त होती हैं। एनी बेसेण्ट के अनुसार, “शिक्षा एक ऐसी सांस्कारिक विधि या क्रिया है, जिसका फल संस्कृति है। व्यक्ति पर शिक्षा का प्रभाव अनवरत रूप से पड़ता रहता है और जैसे-जैसे संस्कारों की ऊर्ध्वगति होती जाती है, वे संस्कृति में बदलते जाते हैं।”

शिक्षा के उद्देश्य

एनी बेसेण्ट ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताये हैं

  1. शारीरिक विकास–एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक विकास करना होना चाहिए, जिससे बालकों के स्वास्थ्य, शक्ति एवं सुन्दरता में वृद्धि हो सके।
  2. मानसिक विकास–शिक्षा व्यक्ति को इसलिए देनी चाहिए जिससे वह अपनी विभिन्न मानसिक शक्तियों—चिन्तन, मनन, विश्लेषण, निर्णय, कल्पना आदि-का उचित विकास और प्रयोग कर सके।
  3. संवेगों का प्रशिक्षण–एनी बेसेण्ट ने शिक्षा के द्वारा बालकों के संवेगात्मकें विकास पर बहुत बल दिया है। उन्होंने कहा है कि शिक्षा द्वारा व्यक्ति में उचित प्रकार के संवेग, अनुभूतियाँ और भाव उत्पन्न किये जाने चाहिए। शिक्षा के द्वारा सुन्दर और उत्तम के प्रति, दूसरों के सुख-दु:ख में सहानुभूति, माता-पिता एवं बड़ों का सम्मान, संमान अवस्था वालों के प्रति भाई-बहनों का-सा भाव और छोटों को बच्चों के समान तथा दूसरों के प्रति भुलाई का भाव उत्पन्न किया जाना चाहिए।
  4. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास-एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के द्वारा बालकों का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास भी होना चाहिए।
  5. आदर्श नागरिक का निर्माण करना-शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को आदर्श नागरिक के गुणों से अलंकृत करना है, जिससे वह अपने आगे के सामाजिक, राजनीतिक एवं नागरिक जीवन में सुखी हो सके।

शिक्षा का पाठ्यक्रम

  1. जन्म से 5 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-इस अवस्था में बालक शारीरिक एवं मानसिक रूप से बहुत कोमल होता है और उसका विकास इच्छित दिशा में आसानी से किया जा सकता है। इस अवस्था में बालक के इन्द्रिय विकास पर अधिक ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इसी समय वह चलना-फिरना, बैठना-उठना, बोलना आदि सीखता है। अतः इस अवस्था के पाठ्यक्रम में शारीरिक क्रिया, खेलकूद, गणित, भाषा, गीत, धार्मिक पुरुषों की कहानियों आदि को सम्मिलित करना चाहिए।
  2. 5 से 7 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-इस अवस्था के पाठ्यक्रम में गणित, भाषा, खेलकूद, सफाई और स्वास्थ्य की आदतों का निर्माण और प्रकृति निरीक्षण को शामिल किया जाए। इसके अतिरिक्त चित्रों एवं धार्मिक कहानियों की सहायता लेनी चाहिए, जिससे बालक का कलात्मक एवं धार्मिक विकास हो सके।
  3. 7 से 10 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-इस अवस्था में बालक की वास्तविक और औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ होती है। इसके अन्तर्गत मातृभाषा, संस्कृत, अरबी, फारसी, इतिहास, भूगोल, गणित, शारीरिक व्यायाम आदि विषयों को सम्मिलित करना चाहिए। इस स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए
  4. 10 से 14 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-इस अवस्था में बालक माध्यमिक स्तर पर प्रवेश करते हैं। इसके पाठ्यक्रम के अन्तर्गत मातृभाषा, संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, भूगोल, इतिहास, प्रकृति एवं कौशल आदि विषयों को सम्मिलित करना चाहिए।
  5.  14 वर्ष से 16 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-यह हाईस्कूल की शिक्षा की अवस्था होती है। इसके पाठ्यक्रम को एनी बेसेण्ट ने चार भागों में विभाजित किया है

(क) सामान्य हाईस्कूल-
(अ) साहित्यिकसंस्कृत, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, मातृभाषा।
(ब) रसायनशास्त्र-भौतिकशास्त्र, गणित, रेखागणित, बीजगणित आदि।
(स) प्रशिक्षण-मनोविज्ञान, शिक्षण कला, विद्यालय व्यवस्था, शिक्षण अभ्यास, गृह विज्ञान आदि।

(ख) तकनीकी हाईस्कूल-मातृभाषा, अंग्रेजी, भौतिक एवं रसायन विज्ञान, व्यावसायिक इतिहास, प्रारम्भिक इंजीनियरी, यन्त्र विद्या, विद्युत ज्ञान आदि।
(ग) वाणिज्य हाईस्कूल-विदेशी भाषाएँ, व्यापारिक व्यवहार, हिसाब-किताब, व्यापारिक कानून, टंकण,व्यापारिक इतिहास, भूगोल एवं शॉर्ट हैण्ड आदि।

(घ) कृषि हाईस्कूल-संस्कृत, अरबी, फारसी या पालि, मातृभाषा, ग्रामीण इतिहास, भूगोल, गणित हिसाब-किताब, कृषि सम्बन्धी प्रयोगात्मक, रासायनिक एवं भौतिक विज्ञान, भूमि की नाप आदि। इसके अतिरिक्त बालकों के शारीरिक विकास के लिए खेलकूद, व्यायाम हस्तकलाएँ, सामाजिक क्रियाएँ वे समाज सेवा के कार्य कराए जाएँ तथा साथ में भावात्मक विकास भी किया जाए।

6. 16 से 21 वर्ष तक का पाठ्यक्रम-उच्च शिक्षा के इस पाठ्यक्रम को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

  • स्नातकीय पाठ्यक्रम-16 से 19 वर्ष तक की शिक्षा में बालकों को साहित्यिक, वैज्ञानिक, तकनीकी एवं कृषि की शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
  • स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम-19 से 21 वर्ष तक की शिक्षा में भी उपर्युक्त विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए

शिक्षण-पद्धतियाँ

एनी बेसेण्ट ने इन विधियों के द्वारा शिक्षा देने पर अधिक बल दिया है

  1. क्रियाविधि-एनी बेसेण्ट का कहना था कि बालक स्वभाव से क्रियाशील होते हैं और खेलों में उनकी रुचि होती है, इसलिए शिक्षा प्रदान करने के लिए खेल-कूद, कसरतें, कृषि, उद्योग व हस्तकार्यों की सहायता लेनी चाहिए। इससे बालकों का शारीरिक विकास होगा और उन्हें ज्ञानार्जन का अवसर भी प्राप्त होगी।
  2. निरीक्षण विधि-एनी बेसेण्ट का कहना था किं बालकों को उचित वातावरण में शिक्षा प्रदान करने के लिए घर के बाहर वास्तविक क्षेत्र में ले जाकर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निरीक्षण कराना चाहिए। इससे उनकी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों का विकास होगा।
  3. अनुकरण विधि-एनी बेसेण्ट का मत था कि बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। इसलिए माता-पिता एवं शिक्षकों को चाहिए कि वे बालकों के सामने ऐसे व्यवहार प्रस्तुत करें, जिससे वे उनका अनुकरण कर अच्छे नैतिक आचरण का विकास करें।
  4. स्वाध्याय विधि–उनका कहना था कि प्रत्येक विद्यार्थी को अध्ययन, चिन्तन एवं मनन में लीन रहना चाहिए। उच्च शिक्षा में इस विधि का बहुत महत्त्व है।
  5. निर्देशन विधि-एनी बेसेण्ट का विचार था कि विद्यार्थियों को समय-समय पर शिक्षकों से अच्छे एवं उपयोगी निर्देश मिलते रहने चाहिए, जिससे विद्यार्थियों का आध्यात्मिक और मानसिक विकास होगा।
  6. व्याख्यान विधि-एनी बेसेण्ट के अनुसार, उच्च शिक्षा के स्तर पर छात्रों को व्याख्यान विधि के द्वारा इतिहास, राजनीति, दर्शनशास्त्र, भूगोल, भाषा आदि की शिक्षा दी जानी चाहिए।
  7. प्रायोगिक विधि-इस विधि का प्रयोग सभी क्रियाप्रधान और वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन में किया जाना चाहिए; जैसे-भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान, कला-कौशल, पाक विज्ञान, गृह-विज्ञान आदि।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न1
एक महान शिक्षाशास्त्री के रूप में एनी बेसेण्ट के जीवन का सामान्य परिचय दीजिए।
उतर
विश्व की महान् महिला शिक्षाशास्त्री, समाज-सुधारक, हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की समर्थक एनी बेसेण्ट का जन्म 1847 ई० में लन्दन के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके माता-पिता मूलतः आयरलैण्ड के निवासी थे। एनी बेसेण्ट बाल्यावस्था से ही बड़ी कुशाग्र बुद्धि वाली, मननशील तथा अध्ययनरत थीं। 19 वर्ष की आयु में उनका विवाह एक पादरी के साथ हो गया। उनका पति संकुचित दृष्टिकोण वाला कट्टर, धार्मिक तथा अनुदार व्यक्ति था। इस कारण एनी बेसेण्ट अधिक समय तक वैवाहिक जीवन व्यतीत न कर सकीं और उन्होंने अपने पति से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। वैवाहिक जीवन से मुक्ति पाकर एनी बेसेण्ट समाज-सेवा के कार्य में जुट गईं। उन्होंने अपने व्याख्यानों तथा प्रभावशाली लेखों के कारण शीघ्र ही अपार ख्याति अर्जित कर ली। सन् 1887 ई० में वे इंग्लैण्ड की थियोसोफिकल सोसायटी के सम्पर्क में आई और उन्होंने इस संस्था के प्रचार एवं प्रसार में अपना तन, मन व धन सब कुछ लगा दिया।

1892 ई० में ये थियोसोफिकल सोसायटी के अधिवेशन में आमन्त्रित होकर ‘भारत आयीं और फिर वे भारत-भूमि को छोड़कर स्वदेश कभी नहीं गयीं। भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए उन्हें कई बार जेलयात्रा भी करनी पड़ी। भारतीय जन-जीवन को सुखी बनाने के लिए उन्होंने ‘होमरूल सोसायटी की स्थापना की। उन्होंने भारत में रहकर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का गहन अध्ययन किया और इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को पाश्चात्य धर्म एवं संस्कृति से श्रेष्ठ बताया। उन्होंने यहाँ रहकर भगवद्गीता का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया और वैदिक एवं उपनिषद् सिद्धान्तों का व्यापक प्रचार किया। उनका शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान बनारस में ‘सेन्ट्रल हाईस्कूल की स्थापना करना था। भारतीय समाज की सेवा करते हुए सन् 1933 ई० में भारत में ही उनकी मृत्यु हुई।

प्रश्न 2
एनी बेसेण्ट के शैक्षिक योगदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
शिक्षा के क्षेत्र में एनी बेसेण्ट के योगदान को निम्नवत् समझा जा सकता है|

  1. शिक्षा और धर्म में समन्वय-एनी बेसेण्ट ने धर्म और शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर धर्मप्रधान शिक्षा योजना का निर्माण करने पर बल दिया। भारतीय धर्मों ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया था, इसीलिए उन्होंने भारतीय धर्म-ग्रन्थों के आधार पर अपने शैक्षिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।
  2. शिक्षा एवं संस्कृति में सम्बन्ध-एनी बेसेण्ट ने शिक्षा और संस्कृति में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध बताया है। उनका कहना था कि शिक्षा के द्वारा संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार होना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा के द्वारा भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करना चाहिए, क्योंकि भारतीय संस्कृति सब संस्कृतियों में सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वश्रेष्ठ है।
  3. शिक्षा एवं यथार्थ जीवन में सम्बन्ध-एनी बेसेण्ट ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा एवं यथार्थ जीवन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि शिक्षा वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास का साधन है। अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो युवकों की जीविकोपार्जन की समस्याओं का समाधान करे और देश की समृद्धि एवं रचनात्मक विकास में योग दे।
  4. शिक्षा को सार्वजनिक बनाना-एनी बेसेण्ट की इच्छा थी कि देश के सभी नागरिकों को ये अवसर एवं सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे वे अपनी योग्यता एवं शक्ति के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सकें। उनका कहना था कि सभी को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा देनी चाहिए। शिक्षा को सार्वजनिक बनाने के लिए राज्य को अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।
  5. सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना-एनी बेसेण्ट ने अपने शैक्षिक विचारों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। इससे पाश्चात्य एवं भारतीय शिक्षण विधियों का सुन्दर समन्वय किया गया है।
  6. राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास-एनी बेसेण्ट ने राष्ट्रीय शिक्षा पर बहुत बल दिया। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय विचारकों का पथ-प्रदर्शन किया। उनका विचार था कि जो शिक्षा अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा एवं उद्योग का संवर्धन नहीं करती, उसे वास्तविक अर्थों में शिक्षा नहीं कहा जा सकता और ऐसी शिक्षा से देश का कल्याण नहीं हो सकता।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
एनी बेसेण्ट के स्त्री-शिक्षा सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट ने स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल दिया, क्योंकि उनका विचार था कि यदि स्त्रियों को समुचित शिक्षा प्राप्त हो जाए तो वे आदर्श पत्नियाँ एवं माँ बनकर व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र का कल्याण करेंगी। एनी बेसेण्ट ने बालिकाओं के लिए नैतिक शिक्षा, शारीरिक शिक्षा, कलात्मक शिक्षा (सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, संगीत, कला), साहित्यिक शिक्षा और वैज्ञानिक शिक्षा का समर्थन किया है।

प्रश्न 2
ग्रामीण शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट के समय में भारत के गाँवों में अज्ञानता का अन्धकार फैला हुआ था। अंग्रेज़ों ने भारतीय ग्रामीणों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था, क्योंकि वे भारतीयों को अज्ञानी ही रखना चाहते थे। एनी बेसेण्ट ने अंग्रेजों की इस नीति की कटु आलोचना करते हुए इस बात पर बल दिया कि राष्ट्रीय-जागृति उत्पन्न करने के लिए गाँवों में शिक्षा का प्रसार होना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि ग्रामीण शिक्षा में कृषि, उद्योग और कला-कौशल को प्रधानता देनी चाहिए और इसके साथ-ही-साथ लिखने-पढ़ने की शिक्षा भी देनी चाहिए।

प्रश्न 3
पिछड़े वर्गों की शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट के विचार लिखिए।
उत्तर
भारतीय समाज में एक ऐसा भी वर्ग है, जो सदियों से उपेक्षित होता चला जा रहा है। इस वर्ग में घृणित मनोवृत्तियाँ, पिछड़ा रहन-सहन एवं खानपान तथा अभद्र रीति-रिवाजों का आधिक्य होता है। एनी बेसेण्ट के मतानुसार इस वर्ग के लिए कुछ अधिक सुविधाएँ एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। इनकी शिक्षा में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा को विशेष स्थान देना चाहिए।

प्रश्न 4
प्रौढ़-शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट के विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट के अनुसार भारत में प्रौढ़-शिक्षा की व्यवस्था भी अति आवश्यक थी। उनके अनुसार उन प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए जो विभिन्न कारणों से सामान्य विद्यालयी शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाये हों। उनके मतानुसार प्रौढ़ शिक्षा व्यवस्था के लिए रात्रि पाठशालाओं की स्थापना की जानी चाहिए। इन पाठशालाओं के माध्यम से प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को शिक्षा प्रदान की जा सकती है।

प्रश्न 5
एनी बेसेण्ट के अनुशासन सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट एक आदर्शवादी महिला थीं। इसलिए वह प्रेम, सहानुभूति, सद्व्यवहार, आत्म-प्रेरणा तक इच्छा-शक्ति के बल पर अनुशासन स्थापित करना चाहती थीं। वह चाहती थीं कि विद्यार्थियों में इस प्रकार के गुण उत्पन्न हों, जिससे उनमें आत्म-नियन्त्रण के द्वारा आत्म-अनुशासन की स्थापना हो सके। इसके लिए उन्होंने दमनात्मक अनुशासन का विरोध किया है। उनका कहना था कि विद्यर्थियों को अनुशासित करने के लिए उन पर शिक्षक के प्रभाव का भी प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 6
एनी बेसेण्ट के अनुसार विद्यालय का वातावरण तथा शिक्षक-विद्यार्थी सम्बन्ध कैसे होने चाहिए?
उत्तर
एनी बेसेण्ट का विचार था कि विद्यालय का वातावरण अत्यधिक शान्त एवं अध्ययन कार्य में सहायक होना चाहिए। उनके अनुसार विद्यालयों को तपोवन की तरह शान्त वातावरण में स्थापित किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थियों में समुचित गुणों का विकास हो सके। जहाँ तक शिक्षक-विद्यार्थी सम्बन्धों का प्रश्न है, एनी बेसेण्ट का दृष्टिकोण आदर्शवादी था। उनका मत था कि विद्यार्थियों को शिक्षकों को सम्मान करना चाहिए और शिक्षकों को भी अपने शिष्यों के प्रति पुत्रवत् व्यवहार करना चाहिए। इनसे दोनों के मध्य सौहार्द की भावना का विकास होगा।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री एनी बेसेण्ट का जन्म कब और किस देश में हुआ था?
उत्तर
एनी बेसेण्ट का जन्म सन् 1847 ई० में लन्दन में हुआ था।

प्रश्न 2
एनी बेसेण्ट मूल रूप से किस देश की नागरिक थीं?
उत्तर
एनी बेसेण्ट मूल रूप से आयरलैण्ड की नागरिक थीं।

प्रश्न 3
श्रीमती एनी बेसेण्ट किस महान संस्था की सक्रिय सदस्या थीं?
उत्तर
श्रीमती एनी बेसेण्ट महान् संस्था ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की सक्रिय सदस्या थीं।

प्रश्न 4
एनी बेसेण्ट ने किस सोसायटी की स्थापना की थी?
उत्तर
एनी बेसेण्ट ने ‘होमरूल सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की थी।

प्रश्न 5
एनी बेसेण्ट ने किस शिक्षा-संस्था की स्थापना की थी?
उत्तर
एनी बेसेण्ट ने बनारस में ‘सेण्ट्रल हाईस्कूल’ नामक शिक्षा-संस्था की स्थापना की थी।

प्रश्न 6
एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के मुख्य उद्देश्य हैं-

  1. शारीरिक विकास,
  2. मानसिक विकास
  3. संवेगों का प्रशिक्षण
  4. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास तथा
  5. आदर्श नागरिकों को निर्माण

प्रश्न 7
जनसाधारण की शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट की क्या धारणा थी ?
उत्तर
एनी बेसेण्ट जनसाधारण की शिक्षा को अनिवार्य मानती थीं। उनके अनुसार प्रत्येक बालक के लिए नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।

प्रश्न 8
धार्मिक शिक्षा के विषय में एनी बेसेण्ट का क्या मत था?
उत्तर
एनी बेसेण्ट धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य मानती थीं।

प्रश्न 9
एनी बेसेण्ट के अनुसार ग्रामीणों के लिए किस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए?
उत्तर
एनी बेसेण्ट के अनुसार ग्रामीणों के लिए कृषि, उद्योग एवं कला-कौशल की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए, साथ ही उन्हें पढ़ने-लिखने की भी शिक्षा दी जानी चाहिए।

प्रश्न 10
डॉ० एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा के माध्यम का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
डॉ० एनी बेसेण्ट का विचार था कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा के माध्यम से होनी चाहिए। उच्च शिक्षा के लिए सुविधानुसार अंग्रेजी भाषा को भी माध्यम के रूप में अपनाया जा सकता है।

प्रश्न 11
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य-

  1. श्रीमती एनी बेसेण्ट के माता-पिता आयरलैण्ड के मूल निवासी थे।
  2. सन् 1892 ई० में श्रीमती एनी बेसेण्ट थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा बनीं।
  3. श्रीमती एनी बेसेण्ट किसी राष्ट्रीय शिक्षा योजना के पक्ष में नहीं थीं।
  4. श्रीमती एनी बेसेण्ट आत्मानुशासन की समर्थक थीं।
  5. श्रीमती एनी बेसेण्ट स्त्री-शिक्षा के विरुद्ध थीं।

उत्तर

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. सत्य
  5. असत्या

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
श्रीमती एनी बेसेण्ट मूल रूप से भारतीय न होकर
(क) अंग्रेज थीं
(ख) आइरिश थीं
(ग) फ्रेंच थीं
(घ) जापानी थीं।
उत्तर
(ख) आइरिश थीं

प्रश्न 2
एनी बेसेण्ट का जन्म हुआ था-
(क) फ्रांस में
(ख) जर्मनी में
(ग) इटली में
(घ) लन्दन में
उत्तर
(घ) लन्दन में

प्रश्न 3
श्रीमती एनी बेसेण्ट किस संस्था से सम्बद्ध थीं?
(क) आर्य समाज
(ख) ब्रह्म समाज
(ग) थियोसोफिकल सोसायटी
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर
(ग) थियोसोफिकल सोसायटी

प्रश्न 4
श्रीमती एनी बेसेण्ट को विशेष लगाव था
(क) पाश्चात्य संस्कृति से
(ख) भौतिक संस्कृति से।
(ग) प्राचीन भारतीय संस्कृति से
(घ) अंग्रेजी सभ्यता से
उत्तर
(ग) प्राचीन भारतीय संस्कृति से

प्रश्न 5
“जब तक भारत जीवित रहेगा, तब तक श्रीमती एनी बेसेण्ट की भव्य सेवाओं की स्मृति भी अमर रहेगी।” यह कथन किसका है?
(क) रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) डॉ० राधाकृष्णन्
(घ) जवाहरलाल नेहरू
उत्तर
(ख) महात्मा गाँधी

प्रश्न 6
एनी बेसेण्ट के अनुसार शिक्षा से आशय था
(क) विभिन्न विषयों का ज्ञान अर्जित करना
(ख) निर्धारित डिग्री प्राप्त करना
(ग) अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास की प्रक्रिया
(घ) विद्यालय में अध्ययन करना
उत्तर
(ग) अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास की प्रक्रिया

प्रश्न 7
बनारस में सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना किसने की ?
(क) रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) एनी बेसेण्ट
(घ) श्री अरविन्द
उत्तर
(ग) एनी बेसेण्ट

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements (नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements (नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 20
Chapter Name NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements
(नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ)
Number of Questions Solved 36
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements (नीति आयोग, पंचवर्षीय योजनाएँ-लक्ष्य तथा उपलब्धियाँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग से क्या तात्पर्य है? इसके प्रमुख उद्देश्य क्या हैं?
या
नीति आयोग की संरचना एवं उद्देश्य या कार्य बताइए।
उत्तर :
नीति आयोग 1950 ई० के दशक में अस्तित्व में आया योजना आयोग अब अतीत की बात हो गया है। इसके स्थान पर 1 जनवरी, 2015 से एक नई संस्था ‘नीति आयोग’ (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान (National Institution for Transforming India)] अस्तित्व में आ गई है।

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाला यह आयोग सरकार के बौद्धिक संस्थान के रूप में कार्य करेगा तथा केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के लिए भी नीति निर्माण करने वाले संस्थान की भूमिका निभाएगा। यह आयोग केन्द्र व राज्य सरकारों को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर रणनीतिक व तकनीकी सलाह भी देगा। इसके अलावा यह सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं के भावी स्वरूप आदि के सम्बन्ध में सलाह भी देगा।

नीति आयोग की अधिशासी परिषद् (Goverming Council) में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा केन्द्रशासित क्षेत्रों के उपराज्यपालों को शामिल किया गया है। इस प्रकार नीति आयोग का स्वरूप योजना आयोग की तुलना में अधिक संघीय बनाया गया है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले इस आयोग में एक उपाध्यक्ष व एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Chief Executive Officer; CEO) का प्रावधान किया गया है। अमेरिका में स्थित कोलम्बिया विश्वविद्यालय में कार्यरत रहे। प्रो० अरविन्द पनगढ़िया को नवगठित आयोग का उपाध्यक्ष तथा योजना आयोग की सचिव रहीं सिंधुश्री खुल्लर को इसका प्रथम सीईओ (1 वर्ष के लिए) नियुक्त किया गया। इनके अलावा प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विवेक देवराय व डी०आर०डी०ओ० के पूर्व प्रमुख वी०के० सारस्वत नीति आयोग के पूर्णकालिक सदस्य बनाए गए हैं जबकि 4 केन्द्रीय मन्त्री राजनाथ सिंह (गृह मंत्री), अरुण जेटली (वित्त एवं कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री), सुरेश प्रभु (रेल मंत्री) तथा राधा मोहन सिंह (कृषि मंत्री) इस आयोग के पदेन सदस्य हैं। विशेष आमंत्रितों के रूप में तीन केन्द्रीय मन्त्रियों-नितिन गडकरी, स्मृति ईरानी व थावरचन्द गहलोत को इसमें शामिल किया गया है।

नीति आयोग के उद्देश्य अथवा कार्य

नीति आयोग के निम्नलिखित उद्देश्य हैं।

  1. राष्ट्रीय उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं, क्षेत्रों और रणनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करेगा। नीति आयोग का विजन विकास को बल प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को राष्ट्रीय एजेंडा’ का प्रारूप उपलब्ध कराना है।
  2. महत्त्वपूर्ण हितधारकों तथा समान विचारधारा वाले राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय थिंक टैंक और साथ-ही-साथ शैक्षिक और नीति अनुसंधान संस्थानों के बीच भागीदारी को परामर्श और प्रोत्साहन देगा।
  3. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों, प्रैक्टिसनरों तथा अन्य हितधारकों के सहयोगात्मक समुदाय के जरिए ज्ञान, नवाचार, उद्यमशीलता सहायक प्रणाली तैयार करेगा।
  4. विकास के एजेंडे के कार्यान्वयन में तेजी लाने के क्रम में अन्तर-क्षेत्रीय और अन्तर-विभागीय मुद्दों के समाधान के लिए एक मंच प्रदान करेगा।
  5. सशक्त राज्य ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। इस तथ्य की महत्ता को स्वीकार करते हुए राज्यों के साथ सतत आधार पर संरचनात्मक सहयोग की पहल और तन्त्र के माध्यम से सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देगा।
  6. ग्राम स्तर पर विश्वसनीय योजना तैयार करने के लिए तंत्र विकसित करेगा और इसे निरन्तर उच्च स्तर तक पहुँचाएगा।
  7. अत्याधुनिक कला संसाधन केन्द्र का निर्माण जो सुशासन तथा सतत और न्यायसंगत विकास की सर्वश्रेष्ठ कार्यप्रणाली पर अनुसंधान करने के साथ-साथ हितधारकों तक जानकारी पहुँचाने में भी सहायता करेगा।
  8. आवश्यक संसाधनों की पहचान करने सहित कार्यक्रमों और उपायों के कार्यान्वयन के सक्रिय मूल्यांकन और सक्रिय निगरानी की जाएगी ताकि सेवाएँ प्रदान करने में सफलता की सम्भावनाओं को प्रबल बनाया जा सके।
  9. कार्यक्रमों और नीतियों के क्रियान्वयन के लिए प्रौद्योगिकी उन्नयन और क्षमता निर्माण पर ध्यान देना।
  10. आयोग यह सुनिश्चित करेगा कि जो क्षेत्र विशेष रूप से उसे सौंपे गए हैं, उनकी आर्थिक कार्य-नीति और नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को शामिल किया गया है अथवा नहीं।
  11. भारतीय समाज के उन वर्गों पर विशेष रूप से ध्यान देगा, जिन तक आर्थिक प्रगति का लाभ न पहुँच पाने का जोखिम होगा।
  12. रणनीतिक और दीर्घावधि के लिए नीति तथा कार्यक्रम का ढाँचा तैयार करेगा और पहल करेगा। साथ ही उनकी प्रगति और क्षमता की निगरानी करेगा। निगरानी और प्रतिक्रिया के आधार पर समय-समय पर संशोधन सहित नवीन सुधार किए जाएँगे।
  13. राष्ट्रीय विकास के एजेंडा और उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य आवश्यक गतिविधियाँ संपादित करना।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 20 NITI Aayog, Five Year Plans: Aims and Achievements

प्रश्न 2.
आर्थिक नियोजन का क्या आशय है? योजना आयोग को संगठन एवं कार्य बताइए।
या
आर्थिक नियोजन से क्या अभिप्राय है? भारत में योजनाबद्ध विकास के संगठन की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
आर्थिक नियोजन

आर्थिक नियोजन को तात्पर्य यह है कि आर्थिक विकास की निश्चित योजना बनाकर राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक सेवाओं के सन्तुलित विकास का प्रयत्न किया जाए और इस बात का भी प्रबन्ध किया जाए कि इस विकास के लाभ न केवल कुछ ही व्यक्तियों अथवा वर्गों को वरन् सभी व्यक्तियों और वर्गों को प्राप्त हों। इस प्रकार निश्चित योजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास का जो प्रयत्न किया जाता है उसे ही आर्थिक नियोजन कहते हैं। नियोजित विकास को लागू करने वाला सबसे पहला देश सोवियत संघ है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सोवियत संघ से प्रभावित होकर संशोधित रूप में भारत में नियोजित विकास की धारणा को लागू किया है।

भारत का योजना आयोग

दिसम्बर, 1946 में के०सी० नियोगी की अध्यक्षता में स्थापित एक बोर्ड की सलाह पर 15 मार्च, 1950 को भारत सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा योजना आयोग का गठन किया गया। योजना आयोग एक संवैधानिक या विधिक संस्था न होकर एक कार्यकारी संस्था है। योजना आयोग का प्रथम अध्यक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया। योजना आयोग की स्थापना के समय पाँच पूर्णकालिक सदस्य मनोनीत किए गए। देश का प्रधानमंत्री योजना आयोग का पदेन अध्यक्ष होता था। इसके उपाध्यक्ष एवं सदस्यों के लिए कोई निर्धारित योग्यता आधार नहीं था। साथ ही, उपाध्यक्ष एवं सदस्यों का कोई निश्चित न्यूनतम कार्यकाल नहीं होता। उल्लेखनीय है कि भारत द्वारा 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति को लागू किया गया है। इस नीति के अन्तर्गत आर्थिक विकास में सरकारी क्षेत्र की भूमिका सीमित होती है। इसी आलोक में 1991 के बाद भारत में योजना रणनीति में भी परिवर्तन किया गया है तथा विस्तृत योजना के स्थान पर सांकेतिक योजना (Indicative Planning) की धारणा को अपनाया गया है। इसके अन्तर्गत दीर्घकालीन विकास लक्ष्यों के आलोक में सरकार द्वारा विकास को सुविधाजनक बनाने के प्रयास किये जाते हैं।

योजना आयोग के कार्य

  1. देश के भौतिक, अभौतिक, पूँजीगत एवं मानवीय संसाधनों का अनुमान लगाना।
  2. राष्ट्रीय संसाधनों का अधिकतम सम्भव विदोहन एवं प्रयोग के लिए रणनीति बनाना।
  3. प्राथमिकताओं का निर्धारण करना और इन प्राथमिकताओं के आधार पर योजना के उद्देश्य निर्धारित करके संसाधनों का आबंटन करना।
  4. योजना के सफल संचालन के लिए संभावित अवरोधों को दूर करने के उपाय सरकार को बताना।
  5. योजनावधि में विभिन्न चरणों पर योजना प्रगति का मूल्यांकन करना।
  6. समय-समय पर केन्द्रीय और राज्य सरकारों को आवश्यकता पड़ने पर परामर्श देना।

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प्रश्न 3.
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
या
भारत के आर्थिक विकास में पंचवर्षीय योजनाओं के योगदान का परीक्षण कीजिए। [2016]
उत्तर :
भारत के आर्थिक विकास में पंचवर्षीय योजनाओं का योगदान
भारत के आर्थिक विकास में विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के योगदान को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।

1. विकास दर आर्थिक प्रगति का महत्त्वपूर्ण मापदण्ड विकास की दर के लक्ष्य की प्राप्ति है। पहली योजना में आर्थिक विकास की दर 3.6% थी, जो बढ़कर दसवीं योजना में 7.80% हो गई, जबकि 12वीं योजना 2012-17 के लिए 9.0% का लक्ष्य रखा गया है।

2. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय – योजनाकाल में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। भारत में 1950-51 ई० में चालू मूल्यों के आधार पर शुद्ध राष्ट्रीय आय ₹ 9,142 करोड़ थी, जोकि 2009-10 ई० में बढ़कर ₹ 51,88,361 करोड़ तथा 2015-16 ई० में बढ़कर ₹ 119.62 करोड़ हो गई जबकि प्रति व्यक्ति आय ₹ 255 से बढ़कर ₹ 93,231 हो गई अर्थात् राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर वृद्धि हुई है।

3. कृषि उत्पाद – योजनाकाल में कृषि उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। सन् 1950-51 ई० में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन मात्र 50.8 मिलियन टन था, जो 2015-16 ई० में बढ़कर 253.16 मिलियन टन हो गया।

4. औद्योगिक उत्पादन – योजनाकाल में औद्योगिक उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई। 1950 51 ई० में, 1993-94 ई० की कीमतों पर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक 7.9 था जो बढ़कर 167 हो गया।

5. बचत एवं विनियोग – योजनाकाल में भारत में बचत एवं विनियोग की दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। चालू मूल्य पर सकल राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में 1950-51 ई० में सकल विनियोग और बचत की दरें क्रमशः 10.4% और 9.3% थी, जो कि 2009-10 ई० में क्रमशः 31.0% और 27.2% हो गई।

6. यातायात एवं संचार – यातायात एवं संचार क्षेत्रों में योजनाकाल में उल्लेखनीय प्रगति हुई। 1950-51 ई० में रेलवे लाइनों की लम्बाई 53,600 किमी से बढ़कर 67,312 किलोमीटर हो गई और रेलवे द्वारा ढोए जाने वाले माल की मात्रा 9.3 मि० टन से बढ़कर 887.89 मि० टन । हो गई। वर्ष 2015 में रेलवे द्वारा लगभग 914.8 मि०टन माल ढोया गया। सड़कों की लम्बाई 1,57,000 किमी से बढ़कर 38 लाख किमी हो गई। जहाजरानी की क्षमता 3.9 लाख G.R.T. से बढ़कर 31 लाख G.R.T. हो गई। हवाई परिवहन, बन्दरगाहों की स्थिति और अन्तर्देशीय जल परिवहन का भी विकास किया गया। संचार-व्यवस्था के अन्तर्गत विकास के क्षेत्रों में डाकखानों, टेलीफोन, टेलीग्राफ, रेडियो-स्टेशन एवं प्रसारण-केन्द्रों की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई।

7. शिक्षा – योजनाकाल में शिक्षा का भी व्यापक प्रसार हुआ है। इस अवधि में स्कूलों की संख्या 2,30,683 से बढ़कर 8,21,988 तथा विश्वविद्यालयों और विश्वविद्यालय स्तर की संस्थाओं की संख्या 27 से बढ़कर 306 हो गई है। भारत की साक्षरता की दर 1951 ई० में 16.7% थी जोकि 2011 ई० की जनगणनानुसार 73% हो गई। 11वीं पंचवर्षीय योजनाकाल के मध्य में शिक्षा को मूल अधिकारों में शामिल कर 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के बालक-बालिकाओं को अब निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य को संवैधानिक दायित्व हो गया है।

8. विद्युत उत्पादन क्षमता – योजनाकाल में विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। प्रथम योजना के आरम्भ में भारत में विद्युत उत्पादन क्षमता मात्र 2.3 हजार मेगावाट थी, जो 2011 में एक लाख मेगावाट से भी अधिक हो गई और हर वर्ष इसमें निरन्तर वृद्धि हो रही है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष 1950-51 में विद्युत सुविधा मात्र 3,000 गाँवों में उपलब्ध थी, जोकि वर्ष 2010 के अन्त में लगभग 7 लाख गाँवों में उपलब्ध हो गई।

9. बैंकिंग संरचना – प्रथम योजना के आरम्भ में देश में बैंकिंग क्षेत्र अपर्याप्त और असन्तुलित था, परन्तु योजनाकाल में और विशेष रूप से बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् देश की बैंकिंग संरचना में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। 30 जून, 1969 को व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 8,262 थी, जो दिसम्बर, 2009 में बढ़कर 82,511 हो गई।

10. स्वास्थ्य सुविधाएँ – योजनाकाल में देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई। टी०बी० कुछ महामारियों आदि के उन्मूलन तथा परिवार कल्याण कार्यक्रमों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। आयोडीन की कमी से होने वाली बीमारियों पर काफी अंकुश लगाना सम्भव हुआ है। राष्ट्रीय कैंसर नियन्त्रण कार्यक्रम में अच्छे नतीजे सामने आए हैं।

11. खाद्य अपमिश्रण रोकथाम – खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए 1954 ई० से कार्यक्रम हर पंचवर्षीय योजना में चलाया जा रहा है। आठवीं योजना के दौरान इस कार्यक्रम में बड़ी सफलता मिली लेकिन दसवीं व ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं के कालखण्ड में मिलावट करने के नए-नए तरीके ढूंढ़ लिए गए विशेष रूप से दूध व मावे के पदार्थों में मिलावट की समस्या गम्भीर व खतरनाक स्तर तक बढ़ चुकी है। खाद्य पदार्थों में मिलावटी अपमिश्रण को रोकने के लिए खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम (1954 का 37) में तीन बार संशोधन किया जा चुका है। मिलावट करने वाले और ऐसा सामान बेचने वालों के खिलफ कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में राज्य पुलिस बल को अधिक कारगर कानूनी अधिकारों से सुसज्जित किया गया।

प्रश्न 4.
भारत की नवीं पंचवर्षीय योजना की विवेचना कीजिए।
या
नवीं पंचवर्षीय योजना का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर :
नवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल, 1997 से 31 मार्च, 2002)

भारत में आर्थिक नियोजन 1 अप्रैल, 1951 से प्रारम्भ हुआ। 1 अप्रैल, 1997 से नवीं पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ हुई थी। इस योजना का कार्यकाल 31 मार्च, 2002 को समाप्त हो गया है।

इस योजना का प्रारम्भिक प्रारूप तत्कालीन योजना आयोग उपाध्यक्ष मधु दण्डवते ने 1 मार्च, 1998 को जारी किया था, जिसे भाजपा सरकार ने संशोधित किया। संशोधित प्रारूप में निहित उद्देश्य, विभिन्न क्षेत्रों के सम्बन्ध में लक्ष्य आदि अग्रलिखित थे –

योजना के उद्देश्य

इस योजना के निम्नलिखित उद्देश्य स्वीकार किये गये थे –

  1. पर्याप्त उत्पादक रोजगार पैदा करना और गरीबी उन्मूलन की दृष्टि से कृषि और विकास को प्राथमिकता देना।
  2. मूल्यों में स्थायित्व लाना और आर्थिक विकास की गति को तेज करना।
  3. सभी लोगों को भागीदारी के विकास के माध्यम से विकास प्रक्रिया की पर्यावरणीय क्षमता सुनिश्चित करना।
  4. जनसंख्या-वृद्धि को नियन्त्रित करना।
  5. सभी के लिए भोजन व पोषण एवं सुरक्षा सुनिश्चित करना, लेकिन समाज के कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देना।
  6. समाज को मूलभूत न्यूनतम सेवाएँ प्रदान करना तथा समयबद्ध तरीके से उनकी आपूर्ति सुनिश्चित करना; विशेष रूप से पेय जल, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा व आवास सुविधा के सम्बन्ध में।
  7. महिलाओं तथा सामाजिक रूप से कमजोर वर्गो-अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व अन्य पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यकों को शक्तियाँ प्रदान करना, जिससे कि सामाजिक परिवर्तन लाया जा सके।
  8. पंचायती राज संस्थाओं, सहकारी संस्थाओं को बढ़ावा देना और उनका विकास करना।
  9. आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के प्रयासों को मजबूत करना।

इस प्रकार नौवीं योजना का प्रमुख उद्देश्य ‘न्यायपूर्ण वितरण और समानता के साथ विकास (Growth with Equity and Distributive Justice) करना था। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित चार बातें चिह्नित की गयी थीं –

1. गुणवत्तायुक्त जीवन – इसके लिए गरीबी उन्मूलन व न्यूनतम प्राथमिक सेवाएँ (स्वच्छ पेय जल, प्राथमिक स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा व आवास) उपलब्ध कराने के प्रयास किये जाएँगे।

2. रोजगार संवर्द्धन – रोजगार के अवसर बढ़ाये जाएँगे। कार्य की दशाएँ सुधारी जाएँगी। श्रमिकों को कुल उत्पादन में न्यायोचित हिस्सा दिया जाएगा।

3. क्षेत्रीय सन्तुलन – नौवीं योजना में क्षेत्रीय सन्तुलन को कम किया जाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र में उन राज्यों में अधिक निवेश किया जाएगा, जो अपेक्षाकृत कम साधन वाले राज्य हैं। पिछड़े राज्यों या क्षेत्रों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तेज की जाएगी।

4. आत्मनिर्भरता – नौवीं योजना में निम्नलिखित क्षेत्रों को आत्मनिर्भरता के लिए चुना गया है

  1. भुगतान सन्तुलन सुनिश्चित करना।
  2. विदेशी ऋण-भार में कमी लाना।
  3. गैर-विदेशी आय को बढ़ावा देना।
  4. खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
  5. प्राकृतिक साधनों का समुचित उपयोग करना।
  6. प्रौद्योगिकीय आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।

प्रमुख विकास दरें
नौवीं योजना में विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में लक्ष्य निम्नलिखित रूप में निर्धारित किये गये थे –

विकास दर : सकल घरेलू उत्पादन (GDP) की 6.5 प्रतिशत
कृषि विकास दर : 3.9 प्रतिशत
खनन विकास दर : 7.2 प्रतिशत
विनिर्माण विकास दर : 8.2 प्रतिशत
विद्युत विकास दर : 9.3 प्रतिशत
सेवा क्षेत्र विकास दर : 6.5 प्रतिशत
घरेलू बचत दर : 26.1 प्रतिशत
उत्पादन निवेश दर : 28.2 प्रतिशत
निर्यात वृद्धि दर : 11.8 प्रतिशत
आयात वृद्धि दर : 10.8 प्रतिशत
चालू खाता घाटा : 2.1 प्रतिशत

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प्रश्न 5.
दसवीं पंचवर्षीय योजना का संक्षिप्त विवरण देते हुए इसकी प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :

दसवीं पंचवर्षीय योजना
राष्ट्रीय विकास परिषद् ने 21 दिसम्बर, 2002 को दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) को स्वीकृति दी। इस योजना में परिषद् के निर्देशों को और बेहतर करने का फैसला किया गया। परिषद् का निर्देश दस वर्ष में प्रति व्यक्ति आय को दोगुना करना तथा प्रतिवर्ष घरेलू उत्पाद की दर आठ प्रतिशत हासिल करने का था। चूंकि आर्थिक विकास ही एक मात्र लक्ष्य नहीं होता है, इसलिए इस योजना का लक्ष्य आर्थिक विकास के लाभ से आम लोगों की जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए ये उद्देश्य निश्चित किये गये हैं-2007 तक गरीबी का अनुपात 26 प्रतिशत से घटाकर 21 प्रतिशत करना, जनसंख्या विकास की दर को (प्रति दस वर्ष) 1991-2001 के 21 प्रतिशत से घटाकर 2001-2011 में 16.2 प्रतिशत करना, लाभप्रद रोजगार की व्यवस्था कम-से-कम श्रम-शक्ति में हो रही वृद्धि के अनुपात में करना, सभी बच्चों को 2003 ई० तक स्कूलों में दाखिल करना और 2007 ई० तक सभी बच्चों की स्कूली पढ़ाई के पाँच साल पूरा करना, साक्षरता और मजदूरी के मामले में फर्क 50 प्रतिशत तक घटाना, साक्षरता की दर वर्ष 1999-2000 के 60 प्रतिशत से बढ़ाकर 2007 ई० तक 75 प्रतिशत तक पहुँचाना, सभी गाँवों में पेयजल पहुँचाना, शिशु मृत्यु-दर वर्ष 1999-2000 के 72 से घटाकर 2007 ई० तक 45 तक पहुँचाना, प्रसूति मृत्यु-दर को वर्ष 1999-2000 के चार से घटाकर 2007 ई० तक दो तक पहुँचाना, वानिकीकरण में वर्ष 1999-2000 के 19 प्रतिशत से बढ़ाकर 2007 ई० में 25 प्रतिशत तक पहुँचाना और नदियों के प्रमुख प्रदूषण स्थलों की सफाई कराना। दसवीं योजना की कई नयी विशेषताएँ हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं –

सर्वप्रथम इस योजना में श्रम-शक्ति के तीव्र विकास को स्वीकार किया है। विकास की मौजूदा दर और उत्पादन के क्षेत्र में मजदूरों की बढ़ती संख्या को देखते हुए देश में बेरोजगारी की सम्भावना बढ़ती जा रही है, जिससे सामाजिक अस्थिरता पैदा हो सकती है। इसीलिए दसवीं योजना में रोजगार के पाँच करोड़ अवसर सृजित करने का लक्ष्य तय किया गया है। इसके लिए कृषि, सिंचाई, कृषिवानिकी, लघु एवं मध्यम उद्योग सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी तथा अन्य सेवाओं के रोजगारपरक क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

द्वितीयत: इस योजना में गरीबी और सामाजिक रूप से पिछड़ेपन के मुद्दों पर ध्यान दिया गया है। हालांकि पहले की योजनाओं में भी ये लक्ष्य रहे हैं, पर इस योजना में विशेष लक्ष्य रखे गये हैं। जिन पर विकास के लक्ष्यों के साथ ही निगरानी रखने की व्यवस्था है।

तृतीयतः चूँकि राष्ट्रीय लक्ष्य सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के स्तर पर अनिवार्यतः लागू नहीं हो पाते और हर साल की क्षमता और कमियाँ अलग-अलग होती हैं, इसलिए दसवीं योजना में विकास की अलग-अलग कार्यनीति अपनायी गयी हैं। पहली बार राज्यवार विकास के और अन्य लक्ष्य इस तरह तय किये गये हैं जिनकी निगरानी रखी जा सके और इसके लिए राज्यों से भी सलाह ली गयी है जिससे उनकी अपनी विकास योजनाओं को विशेष महत्त्व दिया जा सके।

इस योजना की एक और विशेषता इस बात को महत्त्व देना है कि योजना को ज्यों-का-त्यों लागू करने में प्रशासन एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। इसलिए इस योजना में प्रशासनिक सुधार की एक सूची तय की गयी है।

अन्ततः, मौजूदा बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था को देखते हुए दसवीं योजना में उन नीतियों और संस्थाओं के स्वरूप पर विस्तार से विचार किया गया है जो जरूरी होंगी। दसवीं योजना में न सिर्फ एक मध्यावधि व्यापक आर्थिक नीति केन्द्र और राज्य दोनों के लिए अत्यन्त सतर्कतापूर्वक तैयार की गयी है, बल्कि हर क्षेत्र के लिए जरूरी नीति और संस्थागत सुधारों को निर्धारित किया गया है।

अर्थव्यवस्था में विर्गत पूँजी के अनुपात में वृद्धि को नौवीं योजना में 4.5 से घटाकर 3.6 होने का अनुमान है। यह उपनिधि मौजूदा क्षमता के बेहतर उपयोग और पूंजी के क्षेत्रवार समुचित प्रावधान और इसके अधिकतम उपयोग के जरिए सम्भव होगी। इसलिए विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए सकल घरेलू उत्पादन के 28.4 प्रतिशत के निवेश दर की आवश्यकता होगी। यह आवश्यकता सकल घरेलू उत्पादन में 26.8 प्रतिशत की बचत और 1.6 प्रतिशत की बाहरी बचत से पूरी की जाएगी अतिरिक्त घरेलू बचत का अधिकतम सरकार में बचत घटे को वर्ष 2001-02 के 4.5 से वर्ष 2006-07 में 0.5 तक कम करके प्राप्त किया जा सकता है।

दसवीं योजना में क्षमता बढ़ाने, उद्यमी ऊर्जा को उन्मुक्त करने तथा तीव्र और सतत विकास को बढ़ावा देने के उपायों का भी प्रस्ताव दिया गया है। दसवीं योजना में कृषि को केन्द्रीय महत्त्व दिया गया है। कृषि क्षेत्र में किये जाने वाले मुख्य सुधार इस प्रकार हैं-वाणिज्य और व्यापार में अन्तर्राज्यीय बाधाओं को दूर करना, आवश्यक उपभोक्ता वस्तु अधिनियम में संशोधन करने, कृषि उत्पाद विपणन कानून में संशोधन, कृषि व्यापार, कृषि उद्योग और निर्यात का उदारीकरण होने पर खेती को प्रोत्साहित करना और कृषि भूमि का पट्टे पर देने और लेने की अनुमति देने, खाद्य क्षेत्र से सम्बन्धित विभिन्न कानूनों को एक व्यापक ‘खाद्य कानून में बदलना, सभी वस्तुओं में वायदा व्यापार को अनुमति तथा भण्डारण और व्यापार के पूँजी-निवेश पर प्रतिबन्धों को हटाना।

सुधार के कुछ अन्य प्रमुख उपायों में एसआईसीए को निरस्त करना और परिसम्पत्ति के हस्तान्तरण को सुगम बनाने के लिए दिवालिया घोषित करने और फोर क्लोजर के कानूनों को मजबूत करना, श्रम कानूनों में सुधार, ग्राम और लघु उद्योग क्षेत्रों की नीतियों में सुधार तांकि बेहतर ऋण प्रौद्योगिकी, विपणन और कुशल कारीगरों की उपलब्धता सम्भव हो, विद्युत विधेयक का शीघ्र कार्यान्वयन, कोयला राष्ट्रीयकरण संशोधन विधेयक और संचार समरूप विधेयक में संशोधन, निजी सड़क परिवहन यात्री सेवा को मुक्त करना तथा सड़क की मरम्मत आदि में निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित करना, नागरिक उड्डयन नीति को शीघ्र मंजूरी देना, इस क्षेत्र को शीघ्र विनियमित करना और प्रमुख हवाई अड्डों पर निजी भागीदारी के जरिए विकास शामिल है। बढ़ता क्षेत्रीय असन्तुलन भी चिन्ता का विषय है। दसवीं योजना में सन्तुलित और समान क्षेत्रीय विकास का लक्ष्य तय किया गया है। इस पर आवश्यक ध्यान देने के लिए योजनाओं में राज्यवार लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं। तत्काल नीतिगत और प्रशासनिक सुधारों की जरूरत को भी स्वीकृति दे दी गयी है।

शासन व्यवस्था योजनाओं को लागू करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। इस दिशा में कुछ आवश्यक उपाय इस प्रकार है–बेहतर जन भागीदारी, खासतौर पर पंचायती राज संस्थानों और शहरी स्थानीय निकायों को मजबूत बनाकर, नागरिक समाज को शामिल करना, खासतौर पर स्वैच्छिक संगठनों को विकास में भागीदारी की भावना बनाकर, सूचना के अधिकार सम्बन्धी कानून को लागू करना, पारदर्शिता, क्षमता और जिम्मेदारी की भावना को बढ़ावा देने के लिए लोक सेवाओं में सुधार, कार्यकाल को संरक्षण, पुरस्कृत और दण्डित करने की बेहतर और समान व्यवस्था, सरकार के आकार और उसकी भूमिका को ठीक करना, राजस्व और न्यायिक सुधार तथा अच्छे प्रशासन के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
नीति आयोग शब्द ‘नेशनल इन्स्टीट्यूट फॉर ट्रांस्फांर्मिंग इंडिया का संक्षिप्त रूप है। नीति आयोग का गठन योजना आयोग के स्थान पर किया गया है, जो 1 जनवरी, 2015 को गठित किया गया। योजना आयोग के समान ही नीति आयोग का अध्यक्ष भी प्रधानमंत्री ही होता है। नीति आयोग का गठन इस प्रकार होगा –

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नीति आयोग के थिंक टैंक के रूप में स्थापित किया गया है, जो राष्ट्रीय उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए उनकी सक्रिय भागीदारी के साथ विकास प्राथमिकताओं क्षेत्रों और राजनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करेगा।

प्रश्न 2.
योजना क्या है ? इसका क्या महत्त्व है ? [2012]
या
भारत के योजना आयोग पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने देश के सामाजिक विकास की भावी रूपरेखा तैयार करने के लिए, नवम्बर, 1947 ई० में पण्डित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में आर्थिक कार्यक्रम समिति गठित की थी। इस समिति ने 25 जनवरी, 1948 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें एक स्थायी योजना अयिोग की स्थापना की सिफारिश की गयी। इस सुझाव के अनुरूप भारत सरकार के 15 मार्च, 1950 के एक सुझाव के अनुसार योजना आयोग की स्थापना की गयी।

प्रस्ताव में समाजवादी ढाँचे पर नवीन आर्थिक व्यवस्था की स्थापना में सरकार की सहायता के लिए योजना आयोग के महत्त्व को स्वीकार किया गया। प्रस्ताव में यद्यपि ‘समाजवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, परन्तु निहितार्थ यही था। यह माना गया कि योजना आयोग की सरकार के लिए सलाहकारी भूमिका होगी। उक्त प्रस्ताव के अनुच्छेद 6 में स्पष्ट किया गया कि योजना आयोग अपनी संस्तुति केन्द्रीय मन्त्रालय को देगा। योजना बनाने और संस्तुतियाँ तैयार करने में यह केन्द्र सरकार के मन्त्रियों और राज्य सरकारों से निकट का सम्पर्क बनाये रखेगा। संस्तुतियों को लागू करने का दायित्व राज्य सरकारों का होगा। इन अपेक्षाओं के साथ सरकार ने देश के समस्त संसाधनों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विकास का एक ढाँचा तैयार करने के लिए 15 मार्च, 1950 को योजना आयोग की स्थापना की।

प्रश्न 3.
नीति आयोग तथा योजना आयोग में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
योजना आयोग और नीति आयोग में अन्तर

नीति आयोग राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के विभिन्न नीतिगत मुद्दों पर केन्द्र और राज्य सरकारों को जरूरी रणनीतिक व तकनीकी परामर्श देगा। साथ ही, इसमें मुख्यमन्त्रियों और निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को भी महत्त्व दिया जाएगा। इसके विपरीत योजना आयोग की प्रकृति केन्द्रीयकृत थी, साथ ही उसमें कभी मुख्यमन्त्रियों की सलाह नहीं ली जाती थी। मुख्यमन्त्रियों को यदि कभी सुझाव देना भी होता था, तो वे विकास समिति को देते थे और जिनकी समीक्षा के बाद योजना आयोग को उस बाबत जानकारी दी जाती थी। इसके अलावा, उसमें निजी क्षेत्र की कोई भागीदारी नहीं थी। नीति आयोग में देश भर के शोध संस्थानों और विश्वविद्यालय से व्यापक स्तर पर परामर्श लिए जाएँगे तथा विश्वविद्यालय और शोध संस्थानों के प्रतिनिधियों को भी इसमें शामिल किया जाएगा। योजना आयोग में ऐसा कुछ भी नहीं था। शायद इसलिए कभी दिवंगत प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने योजना आयोग को जोकरों का समूह कहा था। हालाँकि उन्होंने इसे भंग करने की कोई कोशिश नहीं की।

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प्रश्न 4.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012)

भारत की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दृष्टिकोण-पत्र को राष्ट्रीय विकास परिषद् ने 9 दिसम्बर, 2006 को स्वीकृति प्रदान की। योजना (2007-2012) के निर्धारित लक्ष्य निम्नलिखित हैं –

  • जीडीपी वृद्धि दर का लक्ष्य बढ़ाकर 9 प्रतिशत कर दिया गया।
  • वर्ष 2016-17 तक प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो जायेगी।
  • 7 करोड़ नए रोजगार का सृजन किया जायेगा।
  • शिक्षित बेरोजगार दर को घटाकर 5 प्रतिशत से कम कर दिया जायेगा।
  • वर्तमान में स्कूली बच्चों के पढ़ाई छोड़ने की दर 52 प्रतिशत है, इसे घटाकर 20 प्रतिशत किया जायेगा।
  • साक्षरता दर में वृद्धि कर 75 प्रतिशत तक पहुँचाना।
  • जन्म के समय नवजात शिशु मृत्यु दर को घटाकर 28 प्रति हजार किया जायेगा।
  • मातृ मृत्यु दर को घटाकर प्रति हजार जन्म पर 1 करने का लक्ष्य।
  • सभी के लिए वर्ष 2009 तक स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना।
  • लिंगानुपात दर को सुधारते हुए वर्ष 2011-12 तक प्रति हजार 935 और वर्ष 2016-17 तक 950 प्रति हजार करने का लक्ष्य।
  • वर्ष 2009 तक सभी गाँवों एवं गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों तक बिजली पहुँचाई जायेगी।
  • नवम्बर, 2007 तक प्रत्येक गाँव में दूरभाष की सुविधा उपलब्ध होगी।
  • वर्ष 2011-12 तक प्रत्येक गाँव को ब्रॉडबैंड से जोड़ दिया जायेगा।
  • वर्ष 2009 तक 1,000 की जनसंख्या वाले गाँवों को सड़क की सुविधा होगी।
  • वनीकरण की अवस्था में 5 प्रतिशत की वृद्धि की जायेगी।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित स्वच्छ वायु के मापदण्डों को लागू किया जायेगा।
  • नदियों की सफाई के क्रम में शहरों से प्रदूषित जल का उपचार किया जायेगा।
  • गरीबी अनुपात को 15 प्रतिशतांक तक घटाया जायेगा।
  • दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर को वर्ष 2001-2011 के बीच 16.2 प्रतिशत तक घटाकर लाना। 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार 2001-11 के मध्य जनसंख्या वृद्धि की
  • दर 17.64 रही है जो कि 11वीं योजना के लक्ष्य से पीछे है।

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प्रश्न 5.
बारहवीं पंचवर्षीय योजना के प्रस्तावित प्रारूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17)

राष्ट्रीय विकास परिषद् (एन०डी०सी०) ने 2012-17 तक चलने वाली 12वीं योजना को मंजूरी दे दी है। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में 27 दिसम्बर, 2012 को 57वीं एन०डी०सी० की बैठक में यह योजना दी गई। इस योजना में वृद्धि का लक्ष्य 8.2 फीसदी से घटाकर 8.0 फीसदी किया गया है। योजना के पाँच साल में पाँच करोड़ रोजगार के अवसर पैदा करने और बिजली, सड़क, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं में निवेश बढ़ाने पर जोर दिया गया है। योजना दस्तावेज में कृषि, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास के क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गई है। 12वीं योजना में केन्द्र का सकल योजना आकार ₹ 43,33,739 रहने का अनुमान है, जबकि राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को सफल योजना व्यय ₹ 37,16000 करोड़ प्रस्तावित है।

इससे पहले 12वीं योजना के दृष्टिकोण-पत्र में 9.0 फीसदी आर्थिक वृद्धि का लक्ष्य रखने का सुझाव था। लेकिन वैश्विक आर्थिक चिन्ताओं और घरेलू अर्थव्यवस्था में गहराती सुस्ती के चलते सितम्बर 2012 में इसे कम करके 8.2 फीसदी कर दिया गया था। चालू वित्त वर्ष 2012-13 के दौरान आर्थिक वृद्धि 5.7 से 5.9 फीसदी के दायरे में रहने का अनुमान लगाया गया है। पिछले एक दशक में यह सबसे कम आर्थिक वृद्धि होगी।

12 वीं योजना के लक्ष्य

  • सरकारी कामकाज के ढंग सुधारे जाएँगे इसके लिए सरकारी कार्यक्रम नए सिरे से तय किए जाएँगे।
  • शत-प्रतिशत वयस्क साक्षरता हासिल करने का लक्ष्य।
  • स्वास्थ्य और शिक्षा पर फोकस किया जाएगा, स्वास्थ्य पर खर्च को जीडीपी के 1.3 से
  • बढ़ाकर 2.0-2.5 फीसदी किया जाएगा। ० एफडीआई नीति को उदार बनाकर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को नई गति प्रदान करने पर जोर दिया जायेगा।

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प्रश्न 6.
राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
या
राष्ट्रीय विकास परिषद् के प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर :
राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC)

6 अगस्त, 1952 को नियोगी समिति की संस्तुति पर सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा राष्ट्रीय विकास परिषद् का गठन किया गया। यह एक गैर-सांविधिक निकाय है। प्रधानमंत्री इस परिषद् के पदेन अध्यक्ष होते हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना योजना आयोग की सलाह पर की गयी थी। राष्ट्रीय विकास परिषद् के अनुमोदन के उपरान्त ही कोई पंचवर्षीय योजना अन्तिम रूप प्राप्त करती है। यह एक गैर-सांविधिक निकाय है जिसका उद्देश्य राज्यों और योजना आयोग के बीच सहयोग का वातावरण बनाकर आर्थिक नियोजन को सफल बनाना है। वर्तमान समय में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् के सभी सदस्य, केन्द्रशासित प्रदेशों के प्रशासक तथा योजना आयोग के सभी सदस्य राष्ट्रीय विकास परिषद् के पदेन सदस्य होते हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) के प्रमुख कार्य हैं –

  1. योजना आयोग को प्राथमिकताएँ निर्धारण में परामर्श देना।
  2. योजना के लक्ष्यों के निर्धारण में योजना आयोग को सुझाव देना।
  3. योजना को प्रभावित करने वाले आर्थिक एवं सामाजिक घटकों की समीक्षा करना।
  4. योजना आयोग द्वारा तैयार की गई योजना का अध्ययन करके उसे अन्तिम रूप देना तथा स्वीकृति प्रदान करना।
  5. राष्ट्रीय योजना के संचालन का समय-समय पर मूल्यांकन करना।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
आर्थिक नियोजन का क्या अर्थ है?
उत्तर :
एक निश्चित समय में पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों व लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अपनाये गये कार्यक्रमों को आर्थिक नियोजन अथवा विकास योजनाएँ कहते हैं। विकास योजनाओं के अन्तर्गत भावी विकास के उद्देश्यों को निर्धारित किया जाता है और उनकी प्राप्ति के लिए आर्थिक क्रियाओं का एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा नियमन व संचालन होता है। अलग-अलग क्षेत्रों; जैसे-कृषि उद्योग, सेवा आदि के लिए लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। इन लक्ष्यों को एक निश्चित अवधि में पूरा करने के लिए राष्ट्र के दुर्लभ साधनों के प्रयोग की एक ‘व्यूह-रचना’ तैयार की जाती है। इस व्यूह-रचना के विभिन्न कार्यक्रमों को एक केन्द्रीय सत्ता की देख-रेख में इस प्रकार क्रियान्वित किया जाता है। कि दुर्लभ साधनों का सर्वोत्तम उपयोग हो और निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके।

संक्षेप में, “आर्थिक नियोजन से अभिप्राय, एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा देश में उपलब्ध प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का सन्तुलित ढंग से, एक निश्चित अवधि के अन्तर्गत निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति करना है जिससे देश का तीव्र आर्थिक विकास किया जा सके।

प्रश्न 2
योजना आयोग के चार कार्य बताइए। [2008, 14]
उत्तर :
विकास कार्यों की परामर्शदात्री संस्था के रूप में योजना आयोग एक शीर्षस्थ संस्था है। 15 मार्च, 1950 को किये गये प्रस्ताव के अनुसार देश के सामाजिक विकास के सन्दर्भ में योजना आयोग के चार कार्यों का उल्लेख निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है –

  1. संसाधनों का अनुमान करना – योजना आयोग का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य देश में उपलब्ध पदार्थगत, पूँजीगत और मानवीय संसाधनों का अनुमान करना है।
  2. संसाधनों का सन्तुलित उपयोग – योजना आयोग संसाधनों के प्रभावी और सन्तुलित उपयोग के लिए योजनाएँ बनाता है।
  3. प्राथमिकताओं का निर्धारण – योजना आयोग विभिन्न विकास/कार्यक्रमों की प्राथमिकता का निर्धारण करता है जिससे राष्ट्रीय आवश्यकता के अनुरूप विकास के लिए विभिन्न वरीयता प्राप्त क्षेत्रों का त्वरित विकास किया जा सके।
  4. विकास के बाधक तत्त्वों का आकलन – योजना आयोग आर्थिक विकास के विभिन्न बाधक तत्त्वों की जानकारी कराता है और उसके निराकरण के उपाय खोजता है।।

प्रश्न 3.
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर :
पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्य निम्नवत् हैं –

  1. कृषि, विद्युत एवं सिंचाई का विकास करना।
  2. औद्योगीकरण करके समाजवादी समाज की स्थापना करना।।
  3. लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना (विशेष रूप से कमजोर वर्ग में)।
  4. गरीबी उन्मूलन एवं ग्रामीण विकास करना।

प्रश्न 4.
आर्थिक नियोजन की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए
उत्तर :
आर्थिक नियोजन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. नियोजित अर्थव्यवस्था आर्थिक संगठन की एक पद्धति है।
  2. आर्थिक नियोजन की समस्त क्रियाविधि एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा सम्पन्न की जाती है।
  3. आर्थिक नियोजन सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में लागू होता है।
  4. नियोजन के अन्तर्गत साधनों का वितरण प्राथमिकताओं के अनुसार विवेकपूर्ण नीति से किया जाता है?
  5. नियोजन में पूर्ण, पूर्व निश्चित एवं निर्धारित उद्देश्य होते हैं।
  6. उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक निश्चित अवधि निर्धारित की जाती है।
  7. उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में नियन्त्रण स्थापित किए जाते हैं।
  8. आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए जन-सहयोग की आवश्यकता होती है।
  9. नियोजन सामान्यतया एक निरन्तर दीर्घकालीन प्रक्रिया है।

प्रश्न 5.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के चार लक्ष्यों का उल्लेख कीजिए। [2008]
उत्तर :
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं के चार लक्ष्य निम्नलिखित हैं –

  1. विकास दर के लक्ष्य को बढ़ाकर 10% कर दिया गया।
  2. निर्धनता अनुपात में 15% तक की कमी लाना
  3. उच्च गुणवत्ता युक्त रोजगारोन्मुखी योजनाओं को प्रारम्भ करना
  4. दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर को 16% के स्तर पर लाकर स्थिर करना।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
नीति आयोग का गठन कब किया गया?
उत्तर :
नीति आयोग का गठन 1 जनवरी, 2015 को किया गया।

प्रश्न 2.
नीति आयोग का अध्यक्ष कौन होता है?
उत्तर :
नीति आयोग का अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होता है।

प्रश्न 3.
नीति आयोग का प्रथम उपाध्यक्ष किसे नियुक्त किया गया?
उत्तर :
नीति आयोग का प्रथम उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया को नियुक्त किया गया।

प्रश्न 4.
‘बम्बई योजना किसके द्वारा तैयार की गयी थी?
उत्तर :
‘बम्बई योजना’ बम्बई के आठ उद्योगपतियों द्वारा तैयार की गयी थी।

प्रश्न 5
प्रथम पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए। [2008]
या
भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना कब प्रारम्भ हुई? [2014]
उत्तर :
1 अप्रैल, 1951 से 31 मार्च, 1956 तक।

प्रश्न 6.
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
1 अप्रैल, 1969 से 31 मार्च, 1974 तक।

प्रश्न 7.
योजना आयोग का अध्यक्ष कौन होता था ?
उत्तर :
प्रधानमन्त्री।

प्रश्न 8.
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल बताइए।
उत्तर :
1 अप्रैल, 2007 से 31 मार्च, 2012 तक।

प्रश्न 9
राष्ट्रीय विकास परिषद् का अध्यक्ष कौन होता है? [2009, 11]
उत्तर :
राष्ट्रीय विकास परिषद् का अध्यक्ष भारत का प्रधानमन्त्री होता है।

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प्रश्न 10
योजना आयोग की स्थापना कब हुई थी? [2009, 11]
उत्तर :
योजना आयोग की स्थापना 1950 ई० में हुई थी।

प्रश्न 11.
वित्त आयोग का गठन कौन करता है? उसका कार्यकाल कितना होता है? [2010]
उत्तर :
वित्त आयोग का गठन भारत का राष्ट्रपति करता है। इसका गठन हर पाँचवें वर्ष या आवश्यकतानुसार उससे पहले भी किया जा सकता है। व्यवहार में एक वित्त आयोग का कार्यकाल प्रायः एक वर्ष या दो वर्ष का रहा है।

प्रश्न 12.
12वीं पंचवर्षीय योजना कब आरम्भ हुई? [2013]
उत्तर :
12वीं पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 2012 को आरम्भ हुई।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
भारत में योजना आयोग की स्थापना हुई [2009, 11]
(क) 1947 ई० में
(ख) 1948 ई० में
(ग) 1950 ई० में
(घ) 1956 ई० में

प्रश्न 2.
देश में राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना हुई –
(क) 15 अगस्त, 1947 को।
(ख) 20 जनवरी, 1950 को
(ग) 22 अक्टूबर, 1956 को
(घ) 6 अगस्त, 1956 को

प्रश्न 3.
योजना आयोग का अध्यक्ष होता है [2010, 12, 13]
(क) वित्तमन्त्री
(ख) योजना मन्त्री
(ग) प्रधानमन्त्री
(घ) राष्ट्रपति

प्रश्न 4.
Planned Economy for India (प्लाण्ड इकोनॉमी फॉर इण्डिया) पुस्तक के लेखक हैं –
(क) के० सी० पन्त
(ख) मनमोहन सिंह
(ग) जवाहरलाल नेहरू
(घ) एम० विश्वेश्वरैया

प्रश्न 5.
योजना आयोग के प्रथम अध्यक्ष थे [2007]
(क) सरदार पटेल
(ख) पं० जवाहरलाल नेहरू
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) डॉ० सम्पूर्णानन्द

प्रश्न 6.
नीति आयोग के प्रथम अध्यक्ष कौन हैं [2016]
(क) नरेन्द्र मोदी
(ख) अरुण जेटली
(ग) अरविन्द पनगढ़िया
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 7.
भारत में नीति आयोग का पदेन अध्यक्ष कौन होता है? [2016]
(क) भारत का राष्ट्रपति
(ख) भारत का प्रधानमन्त्री
(ग) भारत का उपराष्ट्रपति
(घ) भारत का विदेशमन्त्री

प्रश्न 8.
नीति आयोग की स्थापना हुई –
(क) जनवरी, 2015 में
(ख) दिसम्बर, 2014 में
(ग) फरवरी, 2016 में
(घ) अप्रैल, 2015 में

उत्तर

  1. (ग) 1950 ई० में
  2. (घ) 6 अगस्त, 1956 ई० को
  3. (ग) प्रधानमन्त्री
  4. (घ) एम० विश्वेश्वरैया
  5. (ख) पं० जवाहरलाल नेहरू
  6. (क) नरेन्द्र मोदी
  7. (ख) भारत का प्रधानमन्त्री
  8. (क) जनवरी, 2015 में।

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