UP Board Class 12 Maths Model Papers Paper 1

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Board UP Board
Textbook NCERT Based
Class Class 12
Subject Maths
Model Paper Paper 1
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Maths Model Papers Paper 1

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 100

निर्देश प्रारम्भ के 15 मिनट परीक्षार्थियों को प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित हैं। इस प्रश्न पत्र में कुल 31 प्रश्न हैं। सभी प्रश्न अनिवार्य हैं। दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों में अथवा का विकल्प दिया गया है। प्रश्नों के अंक उनके सम्मुख अंकित हैं।

प्रश्न 1
यदि P(E)= 0.35 व P (E∪F)= 0.6 है तथा E व F स्वतन्त्र घटनाएँ हैं, तब.P(F) का मान है [1]
(a) [latex]\frac { 5 }{ 13 } [/latex]
(b) [latex]\frac { 7 }{ 13 } [/latex]
(c) [latex]\frac { 9 }{ 13 } [/latex]
(d) [latex]\frac { 11 }{ 13 } [/latex]

प्रश्न 2
यदि सुसंगत क्षेत्र परिबद्ध है, तो उद्देश्य फलन के मान प्राप्त होंगे। [1]
(a) अधिकतम
(b) न्यूनतम
(C) अधिकतम एवं न्यूनतम
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 3
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प्रश्न 4
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प्रश्न 5
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प्रश्न 6
फलन f(x) = sin 3x + 4 के लिए उच्चतम मान (यदि कोई विद्यमान हो) ज्ञात कीजिए। [1]

प्रश्न 7
यदि P(A) = [latex]\frac { 3 }{ 5 } [/latex], P(B) = [latex]\frac { 1 }{ 5 } [/latex] तथा A व B स्वतन्त्र घटनाएँ हैं, तब P(A∩B) ज्ञात कीजिए। [1]

प्रश्न 8
दो 2×2 कोटि के आव्यूह P तथा Q इस प्रकार लिखिए कि P ≠ 0, Q ≠ 0 परन्तु PQ = 0 तथा QP ≠ 0 है। [1]

प्रश्न 9
A तथा B ऐसी घटनाएँ हैं कि P(A) = x, P(B) = y, तब P(A∪B) + P (A∩B) का मान ज्ञात कीजिए। [1]

प्रश्न 10
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प्रश्न 11
फलन f(x) जो निम्न प्रकार परिभाषित है f(x) =
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x = [latex]\frac { \pi }{ 2 } [/latex] पर f(x) की सतत्ता का परीक्षण कीजिए। [2]

प्रश्न 12
यदि सदिश [latex]\hat { i } +\hat { j } +\hat { k } [/latex] को सदिशों [latex]\hat { 2i } +\hat { 4j } -\hat { 5k } [/latex] और [latex]\hat { \lambda i } +\hat { 2j } +\hat { 3k }[/latex] के योगफल की दिशा में मात्रक सदिश के साथ अदिश गुणनफल 1 के बराबर है, तब λ. का मान ज्ञात कीजिए। [2]

प्रश्न 13
प्रारम्भिक पंक्ति संक्रिया के आव्यूह
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का व्यत्क्रम ज्ञात कीजिए। [2]

प्रश्न 14
यदि 2P(A) = P(B) = [latex]\frac { 5 }{ 12 } [/latex] व P([latex]\frac { A }{ B } [/latex]) = [latex]\frac { 1 }{ 5 } [/latex] है, तब P (AUB) ज्ञात कीजिए। [2]

प्रश्न 15
निम्न आव्यूह समीकरण में से 4 तथा y के मान ज्ञात कीजिए। [2]
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प्रश्न 16
यदि सदिश [latex]\hat { 2i } +\hat { j } +\hat { k } [/latex] तथा [latex]\hat { i } -\hat { 4j } +\hat { \lambda k }[/latex] परस्पर लम्ब हैं, तब λ का मान ज्ञात कीजिए। [2]

प्रश्न 17
ज्ञात कीजिए कि x के किन मानों के लिए फलन [latex]\frac { ax }{ { a }^{ 2 }+{ x }^{ 2 } } [/latex] उच्चिष्ठ अथवा निम्निष्ठ है। [2]

प्रश्न 18
समीकरण निकाय 3x – y + 72 = 3, 2x + y + 32 = 5, x + 49 – 2z = 1 की संगतता की जाँच कीजिए। [2]

प्रश्न 19
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प्रश्न 20
यदि sin-1x+ tan-1x = [latex]\frac { \pi }{ 2 } [/latex], तो सिद्ध कीजिए कि 2x2 +1 = √5   [5]

प्रश्न 21
पासों के एक जोड़े को 4 बार उछाला जाता है। यदि ‘पासों पर प्राप्त अंकों का द्विक होना एक सफलता मानी जाती है, तब 2 सफलताओं की प्रायिकता ज्ञात कीजिए। [5]

प्रश्न 22
एक विशेष प्रकार के केक को 200 ग्राम आटा व 25 ग्राम वसा की आवश्यकता होती है तथा दूसरे प्रकार के केक के लिए 100 ग्राम आटा तथा 50 ग्राम वसा की आवश्यकता होती है। केकों की अधिकतम संख्या ज्ञात कीजिए, जोकि 5 किग्रा आटे तथा 1 किग्रा वसा से बना सकते हैं, यह मान लिया गया है कि केकों को बनाने के लिए अन्य पदार्थों की कमी नहीं रहेगी। [5]

प्रश्न 23
किन्हीं तीन सदिशों a, b व c के लिए सिद्ध कीजिए कि a-b, b-c तथा c-a समतलीय हैं। [5]

प्रश्न 24
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प्रश्न 25
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प्रश्न 26
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प्रश्न 27
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प्रश्न 28
फलन {{x – 1) (x – 2) (x – 3)}, का उच्चिष्ठ मान ज्ञात कीजिए। [5]

प्रश्न 29
रेखा [latex]\frac { x+2 }{ 3 }[/latex] = [latex]\frac { y+1 }{ 2 }[/latex] = [latex]\frac { z-3 }{ 2 }[/latex] पर स्थित उस बिन्दु के निर्देशांक ज्ञात कीजिए, जोकि बिन्दु (1,2, 3) से 3√2 की दूरी पर स्थित हैं। [8]
अथवा
उस समतल का समीकरण ज्ञात कीजिए, जोकि समतलों 2x+y-z = 3, 5x -3y+4z+9= 0 के प्रतिच्छेदन से होकर जाता है और रेखा [latex]\frac { x-1 }{ 2 }[/latex] = [latex]\frac { y-3 }{ 4 }[/latex] = [latex]\frac { z-5 }{ 5 }[/latex] के समान्तर है। [8]

प्रश्न 30
क्षेत्र {(x,y): y2<4x, 4x2 + 4y2 < 9} का क्षेत्रफल ज्ञात कीजिए। [8]
अथवा
परवलय x2=y, रेखा y = x + 2 एवं x.अक्ष से घिरे क्षेत्र का क्षेत्रफल ज्ञात कीजिए। [8]

प्रश्न 31
सिद्ध कीजिए कि [8]
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अथवा
अन्तराल [1, 3] में फलन f(x) = x3 – 5x2 – 3x के लिए माध्यमान प्रमेय सत्यापित कीजिए। [8]

Solutions

उत्तर 1
(a)

उत्तर 2
(c)

उत्तर 3
(c)

उत्तर 4
(d)

उत्तर 5
(c)

उत्तर 6
5

उत्तर 7
[latex]\frac { 3 }{ 25 } [/latex]

उत्तर 8
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उत्तर 9
x + y

उत्तर 10
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उत्तर 11
सतत्

उत्तर 12
λ =1

उत्तर 13
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उत्तर 14
[latex]\frac { 13 }{ 24 } [/latex]

उत्तर 15
x = 2, y = -2

उत्तर 16
λ = 2

उत्तर 17
x = a पर उच्चिष्ठ तथा x = -a पर निम्निष्ठ।

उत्तर 18
असंगत

उत्तर 19
प्रान्त =R-{-1,1} तथा परिसर = (-∞,0)∪(1,∞)

उत्तर 21
[latex]\frac { 25 }{ 216 } [/latex]

उत्तर 22
कुल केकों की संख्या = 30, जहाँ 20 विशेष प्रकार के तथा 10 दूसरे प्रकार के केक हैं।

उत्तर 24
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उत्तर 25
0

उत्तर 27
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उत्तर 28
[latex]\frac { 2 }{ 3\sqrt { 3 } } [/latex]

उत्तर 29
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उत्तर 30
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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 20 Interest, Attention and Education

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 20 Interest, Attention and Education (रुचि, अवधान तथा शिक्षा) are part of UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 20 Interest, Attention and Education (रुचि, अवधान तथा शिक्षा).

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 20
Chapter Name Interest, Attention and Education
(रुचि, अवधान तथा शिक्षा)
Number of Questions Solved 34
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 20 Interest, Attention and Education (रुचि, अवधान तथा शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
रुचि का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। बालकों में रुचि उत्पन्न करने के उपायों को भी स्पष्ट कीजिए।
या
रुचि क्या है? विषय-वस्तु में रुचि पैदा करने के लिए अध्यापक को कौन-से उपाय करने चाहिए? स्पष्ट कीजिए।
या
रुचि से आप क्या समझते हैं? सीखने में रुचि के महत्त्व की विवेचना कीजिए। [2015]
या
रुचि के स्वरूप पर प्रकाश डालिए। किसी पाठ को पढ़ाते समय अध्यापक अपने छात्रों पर किस प्रकार रुचि उत्पन्न कर सकता है? [2009, 11]
या
वे कौन-से कारक हैं जो रुचियों के निर्माण को आगे बढ़ाते हैं? [2015]
या
रुचिसे आप क्या समझते हैं?”रुचि सीखने की वह दशा है जो अध्यापक और विद्यार्थी दोनों के लिए आवश्यक है।” इस कथन की विवेचना कीजिए। [2008, 11, 13]
या
रुचि क्या है? क्या यह जन्मजात अथवा अर्जित होती है? अधिगम में इसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। [2016]
या
रुचि का अर्थ स्पष्ट कीजिए। छात्रों में रुचि उत्पन्न करने की विधियों का वर्णन कीजिए। [2016]
उत्तर :
रुचि का अर्थ एवं परिभाषा
रुचि अवधान का अन्तरंग प्रेरक है। रॉस (Ross) के अनुसार, रुचि का अर्थ है-लगाव अर्थात् जिस वस्तु के प्रति हमारा लगाव होता है, उसमें हमारी रुचि होती है। एक किशोर का लगाव पाठ्य-पुस्तकों की अपेक्षा उपन्यास में अधिक होता है। इस प्रकार यह लगाव ही रुचि है। रुचि में अन्तर करने की भावना होती है। हम किसी वस्तु में इस कारण रुचि रखते हैं, क्योंकि उसे अन्य वस्तुओं से अधिक महत्त्वपूर्ण समझते हैं।

रुचि की कुछ परिभाषाओं का विवरण निम्नलिखित है

  1. क्रो व क्रो के अनुसार, “रुचि उस प्रेरक शक्ति को कहा जाता है, जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए प्रेरित करती है।”
  2. डॉ० एस० एम० माथुर के अनुसार, “रुचि को प्रेरक शक्ति कहा जाता है, जो हमारे ध्यान को एक व्यक्ति, वस्तु या क्रिया की तरफ उन्मुख करती है या इसे प्रभावपूर्ण कहा जा सकता है, जो स्वयं ही अपनी सक्रियता से उत्तेजित होती है।”
  3. भाटिया के अनुसार, “रुचि का अर्थ है-अन्तर करना। हम वस्तुओं में इस कारण रुचि रखते हैं, क्योंकि हमारे लिए उनमें और दूसरी वस्तुओं में अन्तर होता है, क्योंकि उनका हमसे सम्बन्ध होता है।

उपर्युक्त विवरण द्वारा रुचि का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। रुचियों के दो प्रकार या वर्ग निर्धारित किये गये हैं, जिन्हें क्रमश :

  • जन्मजात रुचियाँ तथा
  • अर्जित रुचियाँ कहते हैं।

[संकेत : रुचियों के प्रकार के विस्तृत विवरण हेतु लघु उत्तरीय प्रश्न 1 का उत्तर देखें।]

बालकों में रुचि उत्पन्न करने के उपाय
निम्नांकित उपायों या विधियों द्वारा बालकों में पाठ के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है

  1. छोटे बालक सबसे अधिक रुचि अपने आप में लेते हैं। अत: किसी नीरस विषय को बालकों के अपने मन से सम्बन्धित करके पढ़ाया जाए।
  2. छोटे बालकों की रुचि मूल-प्रवृत्तियों पर आधारित होती है। अतः अध्यापक को चाहिए कि पढ़ाते समय मूल-प्रवृत्यात्मक रुचियों को सुविधानुसार पाठ से सम्बन्धित करें।
  3. आयु के विकास के साथ-साथ बालकों की रुचियों में भी परिवर्तन होता है। अतः इस बात को ध्यान में रखकर ही पाठ्य विकास का आयोजन किया जाए।
  4. रुचि का आधार जिज्ञासा प्रवृत्ति है। अतः विषय के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करना आवश्यक है।
  5. रुचि के अनुसार विषय में परिवर्तन भी किया जाना चाहिए।
  6. पाठ पढ़ाते समय बालकों को उसका उद्देश्य भी बता दिया जाए, क्योंकि बालक किसी कार्य में । तभी रुचि लेते हैं, जब उन्हें उद्देश्य को पता चल जाता है।
  7. पाठ्य वस्तु का सम्बन्ध यथासम्भव जीवन की आवश्यकताओं से किया जाए।
  8. किसी पाठ का अध्ययन करते समय प्रभावशाली स्थूल दृश्य-श्रव्य साधनों या सहायक सामग्री का प्रयोग करना चाहिए।
  9. बालक रचनात्मक कार्यों में विशेष रुचि लेते हैं। अत: पाठ का यथासम्भव सम्बन्ध रचनात्मक कार्यों में किया जाए।
  10. लगातार मौखिक शिक्षण बालकों में नीरसती उत्पन्न कर देता है। अतः बीच में उन्हें प्रयोग व निरीक्षण आदि के अवसर दिये जाएँ।
  11. प्राथमिक स्तर पर खेल विधि का प्रयोग उचित है।
  12. नवीन ज्ञान का सम्बन्ध पूर्व ज्ञान से करना परम आवश्यक है, क्योंकि छात्र उसे वस्तु में ही विशेष रुचि लेते हैं, जिनका उन्हें पहले से ही ज्ञान होता है।
  13. पढ़ाते समय किसी तथ्य की आवश्यकता से अधिक पुनरावृत्ति न की जाए, क्योंकि अधिक पुनरावृत्ति से नीरसता उत्पन्न होती है।
  14. पाठ्य विषयं को रोचक व प्रभावशाली बनाने में पर्यटन का सहारा लेना अधिक उपयोगी है। अतः अध्यापक को समय-समय पर शैक्षिक भ्रमण यात्राओं का आयोजन करना चाहिए।

शिक्षा या सीखने (अधिगम) में रुचि का महत्त्व
वास्तव में अध्यापक के लिए आवश्यक है कि वे विद्यार्थी में शिक्षा के प्रति रुचि जाग्रत करें और स्वयं भी शिक्षण-कार्य में रुचि लें, क्योंकि “रुचि सीखने की वह दशा है जो अध्यापक और विद्यार्थी दोनों के लिए आवश्यक है।” शिक्षा के क्षेत्र में रुचि का अत्यधिक महत्त्व एवं आवश्यकता है। रुचि के नितान्त अभाव में शिक्षा की प्रक्रिया सुचारु रूप से चल ही नहीं सकती।

इनके विपरीत यह भी सत्य है कि यदि किसी विषय के प्रति रुचि जाग्रत हो जाए तो उस दशा में शिक्षा की प्रक्रिया सरल, उत्तम तथा शीघ्र सम्पन्न होने लगती है। रुचि से जिज्ञासा उत्पन्न होती है तथा जिज्ञासा से ज्ञान प्राप्ति के हर सम्भव प्रयास किये जाते हैं तथा परिणामस्वरूप ज्ञान प्राप्त भी कर लिया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिक्षा के लिए रुचि आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 2
अवधान का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। अवधान की विशेषताओं का भी विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
अवधान का अर्थ एवं परिभाषा
‘अवधान’ वह मानसिक क्रिया है, जिसमें हमारी चेतना किसी वस्तु या पदार्थ पर केन्द्रित होती है। उदाहरण के लिए, हम किसी पार्क में बैठे एक गुलाब के फूले को देख रहे हैं। यद्यपि पार्क में स्त्री, पुरुष, बच्चे, फव्वारे भी हमारी कुछ-न-कुछ चेतना में हैं, परन्तु हमने अपने चेतना को केन्द्रित केवल गुलाब के फूल पर ही कर रखा है। इस प्रकार सेञ्चेतना का किसी वस्तु-विशेष पर केन्द्रित करना ही अवधान क्रहलाता है।

अवधान की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

  1. डूमवाइल के अनुसार, “अन्य वस्तुओं की अपेक्षा एक ही वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण ही अवधान है।”
  2. रॉस के अनुसार, “अवधान विचार की वस्तु को मन के समक्ष स्पष्ट रूप से प्रकट करने की प्रक्रिया है।”
  3. वेलेण्टाइन के अनुसार, “अवधान मस्तिष्क की शक्ति नहीं है, वरन् सम्पूर्ण रूप से मस्तिष्क की क्रिया या अभिव्यक्ति है।’
  4. बी० एन० झा के अनुसार, “किसी विचार या संस्कार को चेतना में स्थिर करने की प्रक्रिया को अवधान कहते हैं।”
  5. मन के अनुसार, “हम चाहे जिस दृष्टिकोण से विचार करें, अन्तिम निष्कर्ष में अवधान एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया है।”
  6. मैक्डूगल के अनुसार, “ज्ञानात्मक प्रक्रिया पर पड़े प्रभाव की दृष्टि से विचार करने पर अवधान एक चेष्टा या प्रयास भर है।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि जब चेतना के समक्ष आने वाले पदार्थों में एकता स्थापित करने की चेष्टा की जाती है तो उस मानसिक प्रक्रिया को अवधान कहा जाता है।

अवधान की विशेषताएँ
अवधान की ‘निम्नांकित विशेषताएँ पायी जाती हैं

1. एकाग्रता :
अवधान किसी वस्तु पर चेतना को एकाग्र करना है। अतः अवधान के लिए चित्त की एकाग्रता परम आवश्यक है।

2. मानसिक क्रियाशीलता :
अवधान की एक प्रमुख विशेषता क्रियाशीलता है। बिना मानसिक क्रियाशीलता के हम किसी वस्तु पर अवधान नहीं लगा सकते। उदाहरण के लिए, यदि हमें गुलाब के फूल पर अवैधान केन्द्रित करना है, तो इसके लिए मन को क्रियाशील बनाना होगा।

3. चयनात्मकता :
जिस वस्तु पर हम अवधान केन्द्रित करते हैं, उसका चयन अनेक वस्तुओं में से होता है। किसी बगीचे के अनेक फूलों में से किसी एक विशेष फूल पर हमारा अवधान केन्द्रित होता है।

4. प्रयोजनशीलता :
हम उन वस्तुओं पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, जिनमें हमारा किसी-न-किसी प्रकार का प्रयोजन होता है। बालक का ध्यान रसगुल्ले पर क्यों एकदम चला जाता है, क्योंकि वह उसे खाने में अच्छा लगता है।

5. परिवर्तनशीलता :
अवधान अस्थिर तथा चंचल प्रकृति का होता है। कठिनता से ही एक वस्तु पर हम अपना ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं, परन्तु प्रयास द्वारा अवधान केन्द्रित करने की शक्ति को बढ़ाया जा सकता है।

6. संकीर्ण या संकुचित प्रसार :
अवधान का विस्तार संकीर्ण या सन्तुलित होता है। हमारा अवधान विभिन्न पहलुओं में से किसी एक वस्तु पर ही केन्द्रित होता है। कुछ देर बाद हमारा अवधान दूसरी वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है।

7. सजीवता :
अवधान चेतना के कारण प्रतिपादित होता है। अत: वह सजीव है। हम जिस वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, उसका अस्तित्व हमारी चेतना में होता है।

8. तत्परता :
वुडवर्थ (wood worth) के अनुसार, “अवधान की आवश्यक क्रिया तत्परता है।” अवधान की दशा में हमारा शरीर एक प्रकार की तत्परता की दशा में होता है।

9. गति-समायोजन :
अवधान में गतियों का समायोजन होता है, अर्थात् जब हम किसी वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, उस समय हमारी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के संचालन का समायोजन उस प्रक्रिया की प्रकृति के अनुसार हो जाता है। भाषण सुनते समय श्रोता के आँख, कान, गर्दन तथा बैठने की स्थिति नेता या भाषणकर्ता की ओर समायोजन कर लेती हैं।

प्रश्न 3
अवधान में सहायक दशाओं का वर्णन कीजिए।
या
अवधान केन्द्रित करने में सहायक बाह्य तथा आन्तरिक दशाओं का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
अवधान की दशाएँ।
अवधान का केन्द्रीकरण किस प्रकार होता है ? अथवा वे कौन-कौन-सी दशाएँ हैं, जो अवधान केन्द्रित करने में सहायक होती हैं ? इन प्रश्नों के लिए हमें उन दशाओं का अध्ययन करना होगा, जो कि अवधान केन्द्रित करने में सहायक होती हैं। ये दशाएँ दो वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं-बाह्य दशाएँ तथा आन्तरिक दशाएँ।

अवधान केन्द्रित करने की बाह्य दशाएँ
अवधान केन्द्रित करने की बाह्य दशाएँ निम्नलिखित हैं अवधान केन्द्रित करने में सहायक बाह्य दशाओं के अन्तर्गत जिन कारकों को सम्मिलित किया जाता है, उनका सम्बन्ध मुख्य रूप से बाह्य विषय-वस्तु से होता है। इस वर्ग की दशाओं यो कारकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है।

1. स्वरूप :
अधान का केन्द्रीकरण उद्दीपन की प्रकृति या स्वरूप पर निर्भर करता है। छोटे बालक चटकीले रंग की वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाते हैं। जिन पुस्तकों में रंगीन चित्र होते हैं, उनमें बालक का ध्यान अधिक लगती है।

2. आकार :
अधिक या बड़े आकार की वस्तु की ओर हमारा ध्यान शीघ्र आकर्षित होता है। अखबारों के प्रथम पृष्ठ पर किसी मुख्य समाचार को मोटे-मोटे अक्षरों में इस कारण ही छापा जाता है। बड़े-बड़े विज्ञापन के पोस्टर भी इसके उदाहरण हैं।

3. गति :
स्थिर वस्तु की अपेक्षा गतिशीलं या चलती वस्तु की ओर, अवधान केन्द्रित करने हमारा ध्यान शीघ्र आकर्षित होता है। बैठे हुए मनुष्य की ओर हमारा ध्यान की बाह्य दशाएँ। नहीं जाती, परन्तु सड़क पर दौड़ता मनुष्य हमारा ध्यान आकर्षित कर लेता है।

4. विषमता :
विषमता के कारण भी हमारा ध्यान आकर्षित होता है। एक गोरे परिवार के व्यक्तियों में यदि कोई काला व्यक्ति है तो उसकी ओर विषमता के कारण हमारा ध्यान अवश्य जाता है।

5. नवीनता :
किसी नवीन या विचित्र वस्तु की ओर हमारा ध्यान तत्काल जाता है। यदि कोई अध्यापक प्रतिदिन कोट-पैंट में विद्यालय आते हैं। और किसी दिन वे धोती-कुर्ता पहनकर आ जाते हैं तो समस्त छात्रों का ध्यान । उनकी ओर आकर्षित हो जाता है।

6. अवधि :
जिस वस्तु पर जितना देखने का अवसर मिलती है, उतना ही उस पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है। इसी कारण भूगोल के शिक्षण में । मानचित्र बार-बार दिखाये जाते हैं।

7. परिवर्तन :
कक्षा में यदि शान्त वातावरण है, परन्तु सहसा किसी कोने से शोर होने लगता है, तो तुरन्त ही हमारा ध्यान उस ओर चला जाता है। इस प्रकार उद्दीपन में जब भी परिवर्तन होता हैं, तो उस परिवर्तन की ओर हमारा ध्यान तुरन्त चला जाता है।

8. प्रकार या रूप :
हमारा ध्यान आकर्षक, सुन्दर तथा सुडौल वस्तुओं की ओर शीघ्र जाता है और उन्हें बार-बार देखने की इच्छा होती है।

9. स्थिति :
उद्दीपन या वस्तु की स्थिति के समान हमारे अवधान की अवस्था होती है। प्रतिदिन हम सड़क पर वृक्षों के नीचे से गुजरते हैं, किन्तु हमारा ध्यान उनकी ओर आकर्षित नहीं होता है। परन्तु यदि किसी दिन उनमें से किसी वृक्ष को गिरा हुआ देखते हैं, तो हमारा ध्यान उसकी ओर तुरन्त चला जाता है।

10. तीव्रता :
शक्तिशाली और तीव्र उद्दीपन हमारा ध्यान अधिक आकर्षित करते हैं। मन्द ध्वनि की अपेक्षा तीव्र ध्वनि की ओर हमारा ध्यानं शीघ्र जाता है।

11. पुनरावृत्ति :
जिस बात को बार-बार दोहराया जाता है, उस ओर हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से चला जाता है। इसी कारण किसी पाठ के तत्त्वों को बार-बार दोहराया जाता है।

12. रहस्यमयता :
रहस्यपूर्ण बातों की ओर हमारा ध्यान शीघ्र आकर्षित होता है। दो व्यक्तियों में यदि कोई सामान्य बात हो रही हो तो उस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता, परन्तु जब वे कानाफूसी करने लगते हैं तो तुरन्त ही हम उनकी ओर देखने लगते हैं।

अवधान केन्द्रित करने की आन्तरिक दशाएँ

अवधान की वे दशाएँ जो व्यक्ति में विद्यमान होती हैं, आन्तरिक दशाएँ कहलाती हैं। इन दशाओं का विवरण इस प्रकार है
1. अभिवृत्ति :
जिन वस्तुओं में हमारी अभिवृत्ति होती है, प्राय: उन वस्तुओं में हमारा ध्यान अधिक केन्द्रित होता है।

2. रुचि :
रुचि का ध्यान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। हम उन्हीं वस्तुओं की ओर ध्यान देते हैं, जिनमें हमारी रुचि होती है। अरुचिकर वस्तुओं की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है।

3. मूल-प्रवृत्तियाँ :
ध्यान को केन्द्रित करने में मूल-प्रवृत्तियों का भी योग रहता है। रोमांटिक उपन्यास तथा कहानियों में किशोर-किशोरियों मूल-प्रवृत्तियों का ध्यान सामान्य पुस्तकों की अपेक्षा अधिक लगता है। साबुन, पाउडर, तेल आदि के विज्ञापनों पर स्त्रियों के चित्र इसी उद्देश्य से लगाये जाते हैं।

4. पूर्व अनुभव :
ध्यान के केन्द्रीकरण का एक अन्य कारण हमारे पूर्व अनुभव भी होते हैं। पूर्व अनुभव के आधार पर ही हम अपना ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं।

5. मस्तिष्क :
जो विचार हमारे मस्तिष्क पर जिस समय छाया रहता है, उस समय उससे सम्बन्धित बात पर ही हम ध्यान देते हैं। उदाहरण के लिए, हमारे मस्तिष्क में किसी रोजगार का विचार है तो अखबार में हमारा सर्वप्रथम ध्यान रोजगार के विज्ञापनों पर ही जाएगा।

6. जानकारी या ज्ञान :
जिस विषय की हमें विशद जानकारी होती है, उस विषय पर हमारा ध्यान सरलता से केन्द्रित हो जाता है। जब बालक गणित के प्रश्न ठीक प्रकार से समझ जाता है तो वह उन पर अपना ध्यान सरलता से केन्द्रित कर लेता है।

7. आवश्यकता :
जो वस्तु हमारी आवश्यकताओं को पूरा करती है, उसकी ओर हमारा ध्यान स्वतः हीं चला जाता है। भूख के समय हमारा ध्यान भोजन की ओर तुरन्त चला जाता है।

8. जिज्ञासा :
जिज्ञासा अवधान को केन्द्रित करने में विशेष योग देती है। जिस वस्तु में हमारी जिज्ञासा होती है, उस पर हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से केन्द्रित हो जाता है।

9. लक्ष्य :
जब व्यक्ति को अपना लक्ष्य ज्ञात हो जाता है तो उस पर उसका ध्यान केन्द्रित हो जाता है। परीक्षा के दिनों में छात्रों का अध्ययन पर इस कारण ही केन्द्रित हो जाता है।

10. आदत :
आदत के कारण भी ध्यान केन्द्रित होता है, जो व्यक्ति किसी कारखाने के पास रहता है, उसे कारखाने के शोरगुल में भी ध्यान केन्द्रित करने की आदत पड़ जाती है। जो बालक शाम के पाँच बजे खेलने के अभ्यस्त हैं, तो प्रतिदिन पाँच बजे उनका ध्यान खेल की ओर चला जाता है।

प्रश्न 4
कक्षा में बालकों के अवधान को केन्द्रित करने के मुख्य उपायों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
बालकों का अवधान केन्द्रित करने के उपाय
शिक्षण को उत्तम एवं प्रभावकारी बनाने के लिए बालकों के अवधान को पाठ्य विषय पर केन्द्रित होना आवश्यक माना जाता है। कक्षा में बालकों को अवधान केन्द्रित करने के लिए निम्नांकित उपाय काम में लाये जा सकते हैं

1. शान्त वातावरण :
ध्यान की एकाग्रता के लिए शान्त वातावरण का होना अत्यन्त आवश्यक है। शोरगुल बालकों के ध्यान को विचलित कर देता है। अतः अध्यापक का कर्तव्य है कि वह कक्षा में सदा शान्ति बनाये रखने का प्रयत्न करें।

2. विषय के प्रति रुचि जाग्रत करना :
यह बात सर्वमान्य है। कि जिस विषय में बालक की रुचि होती है, उसे वह कम समय में और कुशलता से सीख लेता है। अतः रुचि उत्पन्न करना अध्यापक का एक आवश्यक कार्य हो जाता है। वास्तव में विषय में रुचि उत्पन्न हो जाने पर छात्रों के ध्यान के भटकने को प्रश्न ही नहीं उठता।

3. बालकों की रुचियों का ध्यान :
विषय के प्रति रुचि जाग्रत करने के साथ-साथ अध्यापक को बालकों की रुचियों का भी ध्यान अतः शिक्षण के समय बालकों की रुचियों का ध्यान रखा जाए।

4. जिज्ञासा प्रवृत्ति का उपयोग :
बालकों का ध्यान पाठ पर केन्द्रित करने के लिए उनमें जिज्ञासा जाग्रत करना भी अत्यन्त आवश्यक है।

5. विषय में परिवर्तन :
ध्यान स्वभाव से चंचल होता है। अतः बालक अधिक काल तक किसी विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकते। अत: एक विषय को अधिक समय तक न पढ़ाकर किसी दूसरे विषय का शिक्षण प्रारम्भ करना चाहिए।

6. सहायक सामग्री का प्रयोग :
सहायक सामग्री बालक के ध्यान को विषय पर केन्द्रित करने में विशेष योग देती है। ऐसी दशा में यथासम्भव सहायक सामग्री का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।

7. उचित शिक्षण विधियों का प्रयोग :
व्याख्यान विधि जैसी परम्परागत शिक्षण विधियाँ छात्रों का ध्यान अधिक देर तक विषय पर केन्द्रित नहीं रख पातीं। अतः बालक को ध्यान आकर्षित करने के लिए। अध्यापक को चाहिए कि वह खेल विधि, निरीक्षण विधि तथा प्रयोगात्मक विधि आदि का उपयोग भी करें।

8. पूर्व ज्ञान का नवीन ज्ञान से सम्बन्ध :
बालकों के पूर्व ज्ञान से नवीन ज्ञान को सम्बन्धित करना आवश्यक है। जब नवीन ज्ञान पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित हो जाता है तो बालक का ध्यान सरलता से केन्द्रित हो। जाता है।

9. उचित वातावरण :
अनुचित वातावरण बालकों के ध्यान की एकाग्रता में सहायक नहीं होता है। यदि प्रकाश का अभाव है, बैठने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है तथा आसपास बदबू आती है तो छात्रों को। अपना ध्यान केन्द्रित करने में कठिनाई होगी। अत: कक्षा के वातावरण को अनुकूल बनाना चाहिए।

10. बालक का स्वास्थ्य :
कमजोर बालक, जिसके सिर में दर्द रहता है, जिनकी आँखें कमजोर हैं। तथा जो कम सुनते हैं, वे पाठ पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं। अतः बालक के स्वास्थ्य के विषय में अध्यापक को अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए।

11. सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार :
अध्यापक को बालकों के ध्यान को विषय के प्रति आकर्षित करने के लिए उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। कठोर व्यवहार से बालक ध्यान को एकाग्र नहीं कर पाते हैं।

12. पर्याप्त विश्राम :
थकान ध्यान को विचलित करने में सहायक होती है। अत: प्रधानाचार्य को कर्तव्य है कि वह विद्यालय की समय-सारणी का निर्माण इस ढंग से करे कि बालकों को पर्याप्त विश्राम मिल सके तथा उन्हें कम-से-कम थकान का अनुभव हो।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
रुचि के प्रकारों का उल्लेख कीजिए। [2007]
या
मानवीय रुचियों का स्पष्ट वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
रुचि मुख्यतः दो प्रकार की होती है

  1. जन्मजात एवं
  2. अर्जित।

1. जन्मजात रुचि :
जन्मजात रुचि, मूल-प्रवृत्तियों (Instincts) पर आधारित होती है और मनुष्य के स्वभाव तथा प्रकृति में निहित होती है। इनका स्रोत व्यक्ति के अन्दर जन्म से ही विद्यमान होता है। भोजन में हमारी रुचि भूख की जन्मजात प्रवृत्ति के कारण है। काम-वासना में रुचि होने के कारण हमारा ध्यान विपरीत लिंग की ओर आकृष्ट होता है। चिड़िया दाना खाने, गाय तथा भैंस हरा चारा खाने तथा हिंसक पशु मांस खाने में रुचि रखते हैं। यह जन्मजात क्रियाओं के कारण।

2. अर्जित रुचि :
अर्जित करने का अर्थ है उपार्जित करना (अर्थात् कमाना)। अर्जित रुचियों को व्यक्ति अपने वातावरण से अर्जित करता है। इनका निर्माण मनुष्य के अनुभव के आधार पर होता है। मनुष्य के मन की भावनाएँ तथा आदतें इनकी आधारशिला हैं। अतः भावनाओं तथा आदतों में परिवर्तन के साथ ही इनमें परिवर्तन आता रहता है। अपने हित या लाभ की परिस्थितियों के प्रति व्यक्ति की रुचियाँ बढ़ जाती हैं। किसी वस्तु या प्राणी के प्रति आकर्षण के कारण उसके प्रति हमारी रुचि पैदा हो जाती है। एक फोटोग्राफर को अच्छे कैमरे में रुचि होती है तथा बच्चों की रुचि नये-नये खिलौनों में।

प्रश्न 2
अवधान के मुख्य प्रकार कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर :
अवधान के मुख्य प्रकारों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है

1. ऐच्छिक अवधान :
जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु या उद्दीपन पर अपनी समस्त चेतना को केन्द्रित कर देता है तो इस अवस्था को ऐच्छिक अवधान कहते हैं। इस प्रकार के अवधान में हमें किसी वस्तु या विचार पर ध्यान लगाने के लिए अपनी संकल्प-शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। सामान्य शब्दों में हम कहते हैं कि पूर्ण प्रयास करने पर ही ऐच्छिक अवधाने को लगाया जा सकता है। इस प्रकार के अवधान को सक्रिय अवधान भी कहते हैं।

2. अनैच्छिक अवधान :
जब किसी वस्तु या विचार पर हम बिना किसी प्रयत्न के अवधान लगाते हैं तो इस प्रकार के अवधान को अनैच्छिक अवधान कहते हैं। अनैच्छिक अवधान के लिए हमें अपनी संकल्प शक्ति का प्रयोग नहीं करना पड़ता। इस प्रकार के अवधान को निष्क्रिय अवधान भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए, किसी जोर की आवाज पर, तीव्र प्रकाश पर तथा मधुर संगीत पर हमारा ध्यान अपने आप चला जाता है।

प्रश्न 3
अवधान और रुचि के सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मनोवैज्ञानिकों में अवधान और रुचि के विषय में परस्पर मतभेद है। रुचि और अवधान के परस्पर सम्बन्ध में तीन मत प्रचलित हैं

1. अवधान रुचि पर आधारित है :
इस मत के प्रतिपादकों का कहना है कि व्यक्ति उन्हीं बातों पर ध्यान देता है, जिनमें उसकी रुचि होती है। दूसरे शब्दों में, अवधान रुचि पर आधारित है। जिसे वस्तु में हमारी रुचि नहीं होगी, उस पर हमारी चेतना केन्द्रित नहीं होगी।

2.रुचि अवधान पर आधारित है-कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि रुचि का आधार ध्यान है। जब हम किसी वस्तु पर ध्यान देंगे ही नहीं तो हमारी उस वस्तु के प्रति रुचि उत्पन्न होगी ही नहीं। रुचि की। जागृति तभी होती है, जब हम किसी वस्तु पर ध्यान देते हैं।

3. समन्वयवादी मत :
यह मत उक्त दोनों मतों का समन्वय करता है। इस मत के समर्थकों के अनुसार अवधान और रुचि दोनों ही एक-दूसरे पर आधारित हैं। रॉस (Ross) के अनुसार, “अवधान तथा रुचि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि रुचि के कारण कोई व्यक्ति किसी वस्तु पर ध्यान देता है तो अवधान के कारण उस वस्तु में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाएगी।” मैक्डूगल ने भी लिखा है, “रुचि गुप्त अवधान है और अवधान सक्रिय रुचि है।”

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
व्यक्ति की रुचियों के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
यह सत्य है कि व्यक्ति की कुछ रुचियाँ जन्मजात होती हैं, परन्तु रुचियों का समुचित विकास जीवन में धीरे-धीरे तथा क्रमिक रूप से होता है। शिशु की रुचियों का आधार उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, अर्थात् शैशवावस्था में रुचियों का विकास ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित होता है। बाल्यावस्था में बालक की सक्रियता बढ़ जाती है; अतः इस अवस्था में उसकी रुचियों का विकास क्रियात्मक खेलों के माध्यम से होता है।

बाल्यावस्था के उपरान्त किशोरावस्था में व्यक्ति की रुचियों का विकास कल्पनाओं, संवेगों तथा जिज्ञासा के माध्यम से होता है। इसके उपरान्त प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति की नयी रुचियाँ प्रायः उत्पन्न नहीं होती। इस अवस्था में व्यक्ति की रुचियाँ स्थायी रूप ग्रहण करती हैं।

प्रश्न 2
रुचि और योग्यता का घनिष्ठ सम्बन्ध है।” इस कथन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
हम जानते हैं कि रुचि एक शक्ति है जो व्यक्ति को किसी विषय, वस्तु या कार्य के प्रति ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रेरित करती है। रुचि से लगन उत्पन्न होती है तथा व्यक्ति की शक्तियाँ अभीष्ट दिशा या कार्य में केन्द्रित हो जाती हैं। रुचि की इन विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही कहा जाता है कि रुचि और योग्यता को घनिष्ठ सम्बन्ध है।

वास्तव में रुचि की दशा में व्यक्ति अधिक ध्यानपूर्वक, लगन से तथा अपनी समस्त शक्तियों को जुटा कर कार्य करता है। इस स्थिति में योग्यता को विकास होना स्वाभाविक ही हो जाती है। यही कारण है कि हम कह सकते हैं कि रुचि और योग्यता का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

प्रश्न 3
अनभिप्रेत अवधान से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
अनभिप्रेत अवधान एक विशेष प्रकार का अवधान है जिसमें व्यक्ति को विशिष्ट प्रयास की जरूरत होती है। यह अवधान ऐच्छिक होकर भी ऐच्छिक अवधान से भिन्न होता है। अनभिप्रेत अवधान के अन्तर्गत व्यक्ति किसी उत्तेजना या वस्तु पर अपनी इच्छा तथा रुचि के विरुद्ध जाकर ध्यान केन्द्रित करता है, लेकिन ऐच्छिक अवधान में व्यक्ति उस उत्तेजना या वस्तु की ओर अपनी इच्छा और रुचि के अनुकूल ध्यान केन्द्रित करने को प्रयास करता है।

उदाहरणार्थ :
माना एक कवि अपनी इच्छा एवं रुचि के अनुकूल काव्य-रचना में लगा है। उसी समय उसे किसी बीमार आदमी के लिए जरूरी तौर पर दवा लेने जाना पड़े। कविता से हटकर उसका जो ध्यान दवाइयों की दुकान पर केन्द्रित होगा; उसे अनभिप्रेत अवधान कहेंगे।

प्रश्न 4
व्यक्ति के अवधान का आदत से क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर :
व्यक्ति के अवधान में आदत का विशेष योगदान होता है। आदत को अवधान की सबसे अधिक अनुकूल या सहायक दशा माना गया है। व्यक्ति की जब जिस वस्तु की आदत होती है, उससे सम्बन्धित पदार्थ की ओर एक निर्धारित समय पर उसका अवधान अवश्य केन्द्रित हो जाता है। उदाहरण के लिए–यदि किसी व्यक्ति की दोपहर बाद तीन बजे चाय पीने की आदत हो तो निश्चित समय पर उसका ध्यान चाय की ओर केन्द्रित हो जाएगा।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
“रुचि को वह प्रेरक शक्ति कहा जाता है, जो हमें किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है।”-रुचि की यह परिभाषाकिसके द्वारा प्रतिपादित है?
उत्तर :
रुचि की प्रस्तुत परिभाषा क्रो तथा क्रो द्वारा प्रतिपादित है।

प्रश्न 2
ध्यान या अवधान का क्या अर्थ है ?
उत्तर :
ध्यान या अवधान वह मानसिक क्रिया है, जिसमें हमारी चेतना किसी व्यक्ति, विषय या वस्तु पर केन्द्रित होती है।

प्रश्न 3
अवधान की प्रक्रिया की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अवधान की प्रक्रिया की मुख्य विशेषताएँ हैं

  1. एकाग्रता
  2. मानसिक क्रियाशीलता
  3. चयनात्मकता तथा
  4. प्रयोजनशीलता

प्रश्न 4
कोई ऐसा कथन लिखिए जिससे अवधान एवं रुचि के सम्बन्ध को जाना जा सके।
उत्तर :
“अवधान तथा रुचि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि रुचि के कारण कोई व्यक्ति किसी वस्तु पर ध्यान देता है तो अवधान के कारण उस वस्तु में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाएगी।” [रॉस]

प्रश्न 5
“रुचि अपने क्रियात्मक रूप में एक मानसिक प्रवृत्ति है।” यह किसका कथन है ? [2007, 10]
उत्तर :
प्रस्तुत कथन जेम्स ड्रेवर का है।

प्रश्न 6
रुचियों के मुख्य वर्ग या प्रकार कौन-कौन से हैं? [2007, 2016]
या
रुचि के कितने प्रकार हैं?
उत्तर :
रुचियों के मुख्य वर्ग या प्रकार दो हैं

  1. जन्मजात रुचियाँ तथा
  2. अर्जित रुचियाँ

प्रश्न 7
रुचि क्या है? [2013]
उत्तर :
रुचि किसी उत्तेजना, वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति की ओर आकर्षित होने की प्राकृतिक, जन्मजात या अर्जित प्रवृत्ति है।

प्रश्न 8
अवधान के मुख्य दो प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
अवधान के मुख्य दो प्रकार हैं

(1) ऐच्छिक अवधान तथा
(2) अनैच्छिक अवधान।

प्रश्न 9
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. अवधान अपने आप में एक चयनात्मक प्रक्रिया है।
  2. प्रबल उत्तेजनाओं के प्रति व्यक्ति का अवधान केन्द्रित नहीं हो पाता।
  3. अवधान तथा रुचि का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं होता।
  4. रुचि गुप्त. अवधान है और अवधान सक्रिय रुचि है।
  5. अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए शान्त तथा अनुकूल वातावरण आवश्यक होता है।
  6. रुचिकर विषय-वस्तुओं के प्रति अवधान शीघ्र केन्द्रित हो जाता है।

उत्तर :

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. असत्य
  4. सत्य
  5. सत्य
  6. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए

प्रश्न 1
“किसी दूसरी वस्तु की अपेक्षा एक वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण अवधान है।” यह परिभाषा किसने दी है?
(क) जे० एस० रॉस ने
(ख) मैक्डूगल ने
(ग) डम्बिल ने
(घ) वुडवर्थ ने
उत्तर :
(ग) डम्बिल ने

प्रश्न 2
“किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, अन्तिम विश्लेषण में अवधान एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया है।” यह किसका कथन है ?
(क) मन का
(ख) जंग का
(ग) डम्बिल का
(घ) मैक्डूगल का
उत्तर :
(क) मन का

प्रश्न 3
“अवधान गतिशील होता है, क्योंकि वह अन्वेषणात्मक है।” यह कथन है
(क) वुडवर्थ का
(ख) मैक्डूगल का
(ग) हिलेगार्ड का
(घ) डम्बिल को
उत्तर :
(क) वुडवर्थ का

प्रश्न 4
रुचि एक
(क) अर्जित शक्ति है
(ख) प्रेरक शक्ति है
(ग) नैसर्गिक शक्ति है
(घ) बौद्धिक शक्ति है
उत्तर :
(ख) प्रेरक शक्ति है

प्रश्न 5
रुचि अपने क्रियात्मक रूप में एक मानसिक संस्कार है।” यह कथन है
(क) मैक्डूगल का
(ख) वुडवर्थ को
(ग) डेवर का
(घ) गेट्स का
उत्तर :
(ग) ड्रेवर का

प्रश्न 6
“रुचिं गुप्त अवधान है और अवधान सक्रिय रुचि है।” यह मत किसका है ?
(क) को तथा क्रो का
(ख) स्किनर का
(ग) वुडवर्थ को
(घ) मैक्डूगल का
उत्तर :
(घ) मैक्डूगल का

प्रश्न 7
विचार की किसी वस्तु को मस्तिष्क के सामने स्पष्ट रूप से लाने की प्रक्रिया है
(क) रुचि
(ख) कल्पना
(ग) अवधान
(घ) संवेदन
उत्तर :
(ग) अवधान

प्रश्न 8
पाठ को रुचिकर बनाने के लिए क्या आवश्यक है। [2012]
(क) शांतिपूर्ण वातावरण हो
(ख) पाठ के क्रियात्मक पद पर ध्यान दिया जाए
(ग) उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर :
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 9
अवधान तथा रुचि के आपसी सम्बन्ध के विषय में सत्य है
(क) रुचि ध्यान पर आधारित होती है
(ख) ध्यान रुचि पर आधारित होता है
(ग) रुचि तथा ध्यान परस्पर फूक होते हैं
(घ) ये सभी कथन सत्य हैं
उत्तर :
(ग) रुचि तथा ध्यान परस्पर पूरक होते हैं।

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 5 Administration, Society, Art and Literature during Mughal Period

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 5
Chapter Name Administration, Society, Art
and Literature during
Mughal Period
(मुगलकालीन शासन-व्यवस्था,
कला व साहित्य)
Number of Questions Solved 25
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 5 Administration, Society, Art and Literature during Mughal Period (मुगलकालीन शासन-व्यवस्था, कला व साहित्य)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए|
1. 1631 ई०
2. 1739 ई०
3. 1580 ई०
4. 1639 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ-संख्या- 107 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 107 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 108 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 108 व 119 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“मुगल शासक स्थापत्य कला के संरक्षक थे।” स्पष्ट कीजिए।
उतर:
मुगल शासन में भारत में स्थापत्य कला का बहुमुखी विकास हुआ। मुगलों ने शानदार किलों, राजमहलों, दरवाजों, सार्वजनिक इमारतों, मस्जिदों, मकबरों आदि का निर्माण करवाया। इस दृष्टि से मुगलकाल को गुप्तकाल के बाद उत्तर भारत का दूसरा स्वर्ण-युग कहा जा सकता है। मुगलों की स्थापत्य कला ने भारतीय स्थापत्य के इतिहास में नवीन युग का प्रादुर्भाव किया। इस युग में मध्य एशियाई तथा भारतीय दोनों शैलियों का समन्वय हुआ जो अकबर के समय में चमत्कर्ष पर पहुंच गया। अकबर के काल में इस्लामी और हिन्दू कला के मिश्रण से स्थापत्य कला का विकास हुआ। शेरशाह का मकबरा, बुलन्द दरवाजा, ताजमहल, आगरा का लाल किला, दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद, अकबर का मकबरा, मोती मस्जिद आदि मुगलकाल की स्थापत्य कला के उदाहरण आज भी विद्यमान हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि मुगल शासक स्थापत्य कला के संरक्षक थे।

प्रश्न 2.
मुगलकालीन चित्रकला पर प्रकाश डालिए।।
उतर:
भवन निर्माण कला के समान ही चित्रकला को भी मुगल सम्राटों ने राजाश्रय प्रदान किया। बाबर और हुमायूं चित्रकला के शौकीन थे। अकबर को चित्रकला से विशेष अनुराग था। अकबर ने चित्रकला में भी देशी तथा विदेशी तत्वों का सुन्दर सम्मिश्रण करने में सफलता प्रदान की। फतेहपुर सीकरी की दीवारों पर उसने सुन्दर चित्रकारी करवाई। दरबार में साप्ताहिक प्रदर्शनियों की व्यवस्था करके उसने चित्रकला को प्रोत्साहन दिया। जहाँगीर का काल मुगल चित्रकला का स्वर्ण-युग था। जहाँगीर स्वयं चित्रकार था। इस समय चित्रकला में नवीनता, मौलिकता, स्वाभाविकता, गतिशीलता एवं सजीवता थी। प्राकृतिक दृष्यों का सूक्ष्म, भावपूर्ण तथा स्वाभाविक चित्रण एवं व्यक्ति चित्र और युद्धों व आखेट के चित्रों का निर्माण इस कला की विशेषता थी। शाहजहाँ के उत्तराधिकारी औरंगजेब के काल में चित्रकला का पतन हो गया। इस्लाम धर्म का कट्टर अनुयायी होने कारण व किसी भी कला को राजाश्रय प्रदान करना पाप समझता था। उसने अपने दरबार के सभी चित्रकारों को निकलवा दिया। बीजापुर के महल और सिकंदरा में अकबर के मकबरें की चित्रकारी को नष्ट करवा दिया।

मुगलकाल की चित्रकला शैली की दृष्टि से सजीव एवं स्वाभाविक है। मुगलकाल के चित्र हिन्दूकाल के चित्रों के समान धार्मिक भावनाओं पर आधारित नहीं थे। इन चित्रों को दरबारी चित्र कहा जा सकता था। मुगलकाल के चित्रकारों में मीर सैयद, अब्दुल समद, फारुख बेग, जमशेद दशवन्त, हरिवंश, जगन्नाथ, धर्मराज, उस्ताद मंसूर विशनदान, मनोहर आदि प्रमुख थे।

प्रश्न 3.
ताजमहल की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उतर:
ताजमहल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं

  1. ताजमहल शाहजहाँ द्वारा सफेद संगमरमर से निर्मित अमूल्य और सुन्दरतम कृति है।
  2. शाहजहाँ ने ताजमहल अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में बनवाया।
  3. मुमताज महल और शाहजहाँ के कब्रे इसी सुन्दर मकबरे में बनाई गई हैं।
  4. ताजमहल का निर्माण 22 वर्ष में पूर्ण हुआ, जिसमें प्रतिदिन 20 हजार मजूदरों ने काम किया।
  5. ताजमहल चार खूबसूरत बागों के बीचो-बीच स्थित है।
  6. ताजमहल के चबूतरे के चारों कोनों पर सफेद मीनारें हैं।
  7. ताजमहल सुन्दर चित्रकारी से अलंकृत है।
  8. चाँदनी रात में ताजमहल की शोभा अतुलनीय प्रतीत होती है।

प्रश्न 4.
मुगलकालीन चार पुस्तकों और उनके लेखकों पर प्रकाश डालिए।
उतर:
मुगलकालीन चार पुस्तक और उनके लेखक निम्नवत् हैं–
UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 5 Administration, Society, Art and Literature during Mughal Period 2

प्रश्न 5.
मुगलकाल में हिन्दी साहित्य की प्रगति का विवरण दीजिए।
उतर:
मुगलकाल में फारसी साहित्य के समान हिन्दी साहित्य की भी खूब उन्नति हुई। अकबर की सहिष्णुता नीति से हिन्दी साहित्य अत्यन्त समृद्ध हुआ। राजा बीरबल, राजा मानसिंह, राजा भगवान दास, नरहरि और हरिनाथ अकबर के राजदरबार से सम्बन्धित विद्वान थे। नन्ददास, बिट्ठलनाथ, परमानन्ददास आदि कवियों के व्यक्तिगत प्रयत्नों ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया। इस काल में तुलसीदास ने 25 ग्रन्थों की रचना की जिसमें ‘रामचरितमानस’ और ‘विनय पत्रिका प्रमुख है। सूरदास ने ‘सूससागर’ रहीम ने ‘रहीम सतसई’ और रसखान ने ‘प्रेमवाटिका’ नामक ग्रन्थों की रचना। की। जहाँगीर का भाई हिन्दी में कविता करता था। शाहजहाँ के संरक्षण में सुन्दर कविराम, कविन्द्र आचार्य, शिरोमणि मणि बनारसीदास आदि हिन्दी के विद्वान थे।

प्रश्न 6.
उद्यान निर्माण कला में मुगलों की अभिरूचि एवं उनकी देन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उतर:
बाबर को बागवानी का बहुत शौक था। उसने आगरा और लाहौर के पास कुछ बगीचे बनवाए। जहाँगीर द्वारा निर्मित उद्यान जैसे- कश्मीर का निशातबाग, लाहौर का शालीमार और पंजाब की तलहटी का पिंजौर बाग आज तक कायम हैं, जो उसकी कला-प्रेमी प्रकृति के ज्वलन्त प्रमाण हैं।

प्रश्न 7.
मुगलकाल में कृषकों की दशा का वर्णन कीजिए।
उतर:
सदैव की भाँति मुगलकाल में भी भारत का प्रमुख व्यवसाय खेती था। सिंचाई के उपयुक्त साधनों के अभाव में कृषक अधिकतर प्रकृति पर निर्भर रहते थे। अतिवृष्टि या अनावृष्टि के समय दुर्भिक्ष पड़ने पर कृषकों की दशा अत्यन्त दयनीय हो जाती थी। सरकार की सहायता मिलने पर भी उनकी दशा में कोई विशेष सुधार नहीं होता था। दुर्भिक्ष के अतिरिक्त बहुधा युद्धों और सेनाओं के आगमन के कारण भी कृषकों को काफी कष्ट उठाना पड़ता था। बादशाह की निरन्तर चेतावनी के बाबजूद भी कई बार सैनिक उनके खेतों को रौंद डालते थे।

प्रश्न 8.
मुगलकाल में स्त्रियों की दशा पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
उतर:
मुगलकाल में स्त्रियों का कोई स्थान नहीं था। वे केवल विलास के लिए उपयुक्त समझी जाती थीं। बहु विवाह प्रथा, पर्दा प्रथा, तथा अशिक्षा के दुर्दशों ने स्त्री-समाज को पतित बना दिया था। तदापि कुछ प्रसिद्ध स्त्रियाँ इस काल में हुई, जिनमें गुलबदन बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, रोशनआरा तथा जेबुन्निसा के नाम उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त अहमदनगर की चाँदबीबी, गोंडवाना की दुर्गाबाई, शिवाजी की माता जीजाबाई तथा राजाराम की विधवा ताराबाई भी नारी रत्न थीं, जिन्होने अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर ख्याति प्राप्त की। हिन्दू स्त्रियों में बाल-विवाह, सती–प्रथा आदि अनेक कुप्रथाएँ विद्यमान थीं, जिनके कारण उनका समाज में घोर अध:पतन हो रहा था।

प्रश्न 9.
किन्हीं दो मुगल बादशाहों के नाम लिखिए, जिन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी।
उतर:
अपनी आत्मकथा लिखने वाले दो मुगल बादशाह बाबर और जहाँगीर थे। बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुके बाबरी’ तथा जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुके जहाँगीरी’ के नाम से लिखी।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मुगलकाल में साहित्य एवं चित्रकला के विकास पर प्रकाश डालिए।
उतर:
मुगलकाल में साहित्य का विकास- मुगल शासनकाल साहित्यिक दृष्टि से प्रगतिशील था। इस काल में फारसी, हिन्दी, संस्कृत, उर्दू तथा अन्य सभी प्रकार के साहित्य का विकास हुआ। मुगल सम्राटों ने साहित्य की प्रगति में योगदान दिया और इसे संरक्षण प्रदान किया। इस काल के साहित्यिक विकास को निम्न रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है

1. फारसी साहित्य – मुगलों के समय में फारसी राजभाषा बन गई थी। अकबर के शासनकाल तक फारसी का ज्ञान इतना फैल चुका था कि अब राजस्व के दस्तावेज फारसी के साथ-साथ स्थानीय भाषा (हिन्दी) में भी रखने की जरूरत खत्म हो गई। प्रथम मुगल सम्राट बाबर स्वयं तुर्की और फारसी का विद्वान था। उसने अपनी आत्मकथा ‘तुजुके-बाबरी’ अथवा बाबरनामा’ की रचना तुर्की में की। एल्फिंस्टन के अनुसार बाबर की यह जीवनी ही सारे एशिया में वास्तविक ऐतिहासिक सामग्री है। बाबर का कविता संग्रह ‘दीवान’ (तुर्की) बहुत प्रसिद्ध हुआ। हुमायूं मुगल शासकों में अत्यन्त शिक्षित था। वह न केवल तुर्की तथा फारसी साहित्य का अच्छा ज्ञाता था अपितु दर्शन, गणित आदि का भी ज्ञाता था। दुर्भाग्यवश वह साहित्यिक प्रोत्साहन को विशेष योगदान नहीं दे सका।

अकबर का काल सांस्कृतिक प्रगति के साथ-साथ साहित्यिक पुनरुत्थान का भी युग था। मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुदित रचनाएँ भी बाहुल्यता में प्रकाश में आईं। अकबर के शासनकाल के दौरान अबुल फजल का ‘अकबरनामा’ और ‘आइने-अकबरी’, निजामुद्दीन अहमद का ‘तबकाते अकबरी’, गुलबदन बेगम का ‘हुमायूँनामा’, अब्बास सरवानी का ‘तौफीक-ए-अकबरशाही’, बदायूँनी का मुन्तखब-उत-तवारीख’, अहमद यादगार का ‘तारीखे सलातीने अफगाना’, बयाजिद सुल्तान का ‘तारीखे हुमायूँ और फैजी सरहिन्दी का ‘अकबरनामा’ आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं। इस काल में अकबर के प्रोत्साहन से महाभारत का अनुवाद ‘रज्यनामा’ नाम से नकीब खाँ, बदायूँनी, अबुल फजल, फैजी आदि के सम्मिलित प्रयत्नों से फारसी में किया गया। बदायूँनी ने रामायण का अनुवाद किया। उसने अथर्ववेद का अनुवाद आरम्भ किया और उसको हाजी इब्राहिम सरहिन्दी ने पूरा किया। ‘लीलावती’ का अनुवाद फैजी ने किया। राजतरंगिणी का अनुवाद शाह मुहम्मद शाहाबादी ने, कालियदमन का अबुल फजल ने और नल-दमयन्ती का फैजी ने अनुवाद किया।

2. हिन्दी साहित्य – मुगलकाल में फारसी साहित्य के समान हिन्दी साहित्य की भी खूब उन्नति हुई। यद्यपि अकबर से पूर्व हिन्दी साहित्य का विकास प्रारम्भ हो चुका था और ‘पद्मावत’ तथा ‘मृगावत’ जैसे उच्चकोटि के ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी तथापि अकबर की सहिष्णु नीति से हिन्दी साहित्य अत्यन्त समृद्ध हुआ। राजा बीरबल, राजा मानसिंह, राजा भगवानदास, नरहरि और हरिनाथ अकबर के राजदरबार से सम्बन्धित विद्वान थे। नन्ददास, विट्ठलनाथ, परमानन्ददास, कुम्भनदास आदि कवियों ने व्यक्तिगत प्रयत्नों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया। इस काल में तुलसीदास ने लगभग 25 ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘रामचरितमानस’ और ‘विनय पत्रिका प्रमुख हैं। सूरदास ने ‘सूरसागर’, रहीम ने ‘रहीम सतसई और रसखान ने प्रेमवाटिका’ नामक काव्य ग्रन्थों की रचना की।

मीराबाई के भजन भी हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अकबर का समय हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल था। जहाँगीर के दरबार में राजा सूरजसिंह, अगरूप गोसाई और बिशनदास जैसे हिन्दी के विद्वान थे। जहाँगीर का भाई दानियाल हिन्दी में कविता करता था। शाहजहाँ के संरक्षण में सुन्दर कविराय, सेनापति, कविन्द्र आचार्य, शिरोमणि मिश्र, बनारसीदास आदि हिन्दी के विद्वान थे। इनके अतिरिक्त अहमदाबाद के दादू ने, जिन्होंने दादू-पन्थी सम्प्रदाय को प्रारम्भ किया, अनेक धार्मिक कविताओं की रचना की। हिन्दी के महान् कवि बिहारी को राजा जयसिंह का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इसी समय में केशवदास ने कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचन्द्रिका की रचना की। औरंगजेब ने हिन्दी को संरक्षण नहीं दिया।

3. संस्कृत साहित्य – मुगलकाल में संस्कृत साहित्य की श्रेष्ठ मौलिक रचनाओं का अभाव रहा, परन्तु तब भी संस्कृत भाषा की स्थिति दिल्ली सुल्तानों के काल से अच्छी रही। अकबर ने संस्कृत को राज्याश्रय प्रदान किया। ‘पारसी प्रकाश’ नामक संस्कृत व फारसी का कोष इसी समय लिखा गया। महेश ठाकुर ने अकबर के समय का संस्कृत में इतिहास लिखा। जैन विद्वानों में पद्मसुन्दर कृत ‘अकबरशाही शृंगार-दर्पण’, सिद्धचन्द्र उपाध्याय कृत ‘भानुचन्द चरित्र’, देव मिलन कृत ‘हीर सौभाग्यम्” आदि महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रन्थ हैं। संस्कृत के महान् पण्डित कवीन्द्र आचार्य सरस्स्वती और पण्डित जगन्नाथ शाहजहाँ के राजकवि थे। शाहजहाँ के दरबार में अनेक संस्कृत कवि अपनी कविताओं पर पुरस्कार प्राप्त करते थे। औरंगजेब और उसके उत्तराधिकारियों ने संस्कृत को न तो संरक्षण दिया और न प्रोत्साहन।

4. उर्दू साहित्य – अमीर खुसरो पहला विद्वान था, जिसने उर्दू भाषा को अपनी कविताओं का माध्यम बनाया। उसके पश्चात् सूफी सन्तों और भक्ति मार्ग के कुछ सन्तों ने भी अपने विचारों के प्रचार के लिए इसका प्रयोग किया तथा इसे लोकप्रिय बनाने में सहायता दी, परन्तु उर्दू को किसी भी तुर्क अथवा शक्तिशाली मुगल बादशाहों ने सरंक्षण नहीं दिया। मुहम्मदशाह (1719-1748 ई०) पहला बादशाह था, जिसने उर्दू को प्रोत्साहन दिया। उसने प्रसिद्ध कवि शम्सुद्दीन वली को दरबार में सम्मान दिया। इसके पश्चात् उर्दू का विकास होता गया और उर्दू दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश में पर्याप्त लोकप्रिय हो गई। उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने भी उर्दू को प्रोत्साहन दिया।

5. बंगला साहित्य – बंगला साहित्य का उत्थान भी इस युग में सम्भव हो सका। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रसारित कृष्णभक्तिमार्गी अनेक सन्त भक्तों ने भजन, पद तथा गीत निर्मित किए। चैतन्य के जीवन-चरित्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए, जिन्होंने बंगाल के निवासियों को भगवत् प्रेम तथा उदारता की भावना से ओत-प्रोत कर दिया। इस समय कई महाकाव्यों तथा ‘भागवत्’ का बंगला भाषा में अनुवाद किया गया तथा चण्डी देवी और मनसा देवी पर ग्रन्थों की रचनाएँ हुई। काशी, रामदास, जयचन्द (चैतन्य चरितामृत) और मुकुन्दराम चक्रवर्ती (कवि-कंकन-चण्डी) इस युग के प्रमुख विद्वान थे।

6. मराठी साहित्य – इस समय का मराठी साहित्य भी धार्मिक एवं भक्ति की भावनाओं से ओत-प्रोत है। प्रारम्भ में ‘रामायण’, ‘महाभारत’ तथा ‘भागवत्’ को आधार मानकर कुछ ग्रन्थों की मराठी में रचना की गई, जिनमें ‘हरि-विजय’, ‘राम विजय’, ‘शिवलीलाकृत’ आदि प्रमुख हैं। इस काल के मराठी विद्वानों में रघुनाथ पण्डित’, ‘मुक्तेश्वर’ तथा ‘समर्थ गुरु रामदास प्रमुख हैं। रामदास भक्त, कवि एवं उपदेशक थे, जिन्होंने राष्ट्रप्रेम की भावनाएँ प्रसारित की। इनका प्रमुख ग्रन्थ ‘दास-बोध’ है। तुकाराम भी इसी युग की विभूति हैं, जिनके भक्ति से ओत-प्रोत पद मराठी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।

7. गुजराती साहित्य – हिन्दी, बंगला तथा मराठी भाषाओं के समान गुजराती भाषा में भी इस समय उच्चकोटि के साहित्यिक ग्रन्थों की रचना की गई। गुजरात के प्रसिद्ध कवि अरबा ने अकबर के काल में ‘चित-विचार’, ‘संवाद-शतपद’, ‘कैवल्य गीता’ आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। तदुपरान्त प्रेमानन्द ने भक्ति रस के पदों से गुजराती साहित्य में एक अपूर्व परिवर्तन ला दिया। उन्होंने 26 ग्रन्थों की रचना की तथा उनके पद आज भी गुजरात में लोकप्रिय हैं। इसके पश्चात सामल ने पौराणिक कथाओं का सुन्दर ढंग से वर्णन करने की ख्याति प्राप्त की। इनके अतिरिक्त वल्लभ’, ‘मुकुन्द’, ‘देवीदास’, ‘शिवदास’, ‘विष्णुदास’ आदि अन्य प्रसिद्ध कवि इस युग में उपन्न हुए।

8. पुस्तकालय – मुगल बादशाहों को हस्तलिखित पुस्तकें संकलित करने में विशेष अभिरुचि थी। हुमायूँ ने लाहौर में एक पुस्तकालय बनवाया, जिसकी सीढ़ियों से गिरकर उसकी मृत्यु हुई। अकबर ने पुस्तकालय में 24,000 हस्तलिखित पुस्तकों का संग्रह किया था, जिनमें अनेक पुस्तकों में सुन्दर-सुन्दर चित्र अंकित थे। जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने भी अपने महान् पूर्वजों का अनुसरण करते हुए पुस्तकालय में महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह करवाया था।

मुगलकाल में चित्रकला का विकास – भवन निर्माण कला के समान ही चित्रकला को भी मुगल सम्राटों ने राज्याश्रय प्रदान किया तथा इस समय चित्रकला का चरम् विकास हुआ। भारत में प्राचीनकाल से ही हिन्दू राजाओं के दरबारों में चित्रकला को प्रोत्साहन मिलता रहा था तथा उस समय के भित्तिचित्र तथा मनुष्यों के चित्र आज भी दर्शनीय हैं, परन्तु सल्तनत काल में मुस्लिम सुल्तानों ने चित्रकला को प्रोत्साहित नहीं किया अपतुि फिरोज तुगलक ने तो दीवारों पर चित्र बनाने अथवा मनुष्यों के चित्र बनाने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया था, अतः सल्तनत काल में चित्रकला नष्ट हो गई। मुगलकाल में उसका पुनरुत्थान हुआ। इस समय भारतीय तथा ईरानी चित्रकला का सुन्दर सम्मिश्रण हुआ।

1. बाबर और हुमायूँ – बाबर अपने पूर्वजों के समान चित्रकला का शौकीन था तथा उसने चित्रकला को प्रोत्साहित किया। वह प्रकृति का प्रेमी था तथा उसकी आत्मकथा ‘तुजुके-बाबरी’ इस बात की पुष्टि करती है कि प्राकृतिक रमणीय दृश्यों को देखकर वह कितना आनन्दित हो उठता था। परन्तु उसके काल के विशेष चित्र इस समय उपलब्ध नहीं हैं। उसके उत्तराधिकारी हुमायूँ को भी चित्रकला का शौक था तथा ईरान से लौटते समय वह अपने साथ दो ईरानी चित्रकारों मीर सैयद अली तबरीजी और ख्वाजा अब्दुल समद को भारत लाया था। हुमायूं का निर्वासन के दौरान सफाविद दरबार में सर्वप्रथम फारसी कला से परिचय हुआ। वहाँ के शासक तहमास्प ने फारसी कला को अत्यधिक प्रश्रय दिया लेकिन वह धीरे-धीरे कट्टरवाद की ओर अग्रसर हो गया।

2. अकबर – अकबर को चित्रकला से विशेष अनुराग था तथा उसके दरबार में लगभग सौ हिन्दू तथा मुसलमान चित्रकार रहते थे। इनमें अब्दुल समद, फारुख बेग, जमशेद, दशवन्त, बसावन, मुकुन्द, लालगेसू, हरिवंश, जगन्नाथ, भवानी तथा धर्मराज प्रमुख चित्रकार थे। उसके दरबार के 17 प्रमुख चित्रकारों में अधिकतर हिन्दू ही थे तथा ईरानी अथवा विदेशी कलाकारों की संख्या बहुत कम थी। विदेशी चित्रकारों में मीर सैयद अली, अब्दुल समद, अकारिजा और फर्रुखबेग मुख्य थे। अकबर ने चित्रकला में भी देशी तथा विदेशी तत्वों का सुन्दर सम्मिश्रण करने में सफलता प्राप्त की तथा उसके काल की कला पूर्णतः भारतीय थी। अकबर ने जफरनामा, चंगेजनामा, कालियादमन, रज्मनामा, नल-दमयन्ती तथा रामायण के चित्रों का निर्माण करवाया। फतेहपुर सीकरी की दीवारों पर उसने सुन्दर चित्रकारी करवाई। दरबार में साप्ताहिक प्रदर्शनियों की व्यवस्था करके तथा पुरस्कार प्रदान करके उसने चित्रकला को प्रोत्साहन दिया। उसने चित्रकारों को उच्च मनसब प्रदान किए तथा उनके लिए चित्रशालाओं की व्यवस्था की।

3. जहाँगीर – नि:सन्देह मुगल चित्रकला का स्वर्ण-युग जहाँगीर का काल माना जाता है। जहाँगीर स्वयं चित्रकार था तथा प्रकृति के दृश्यों से उसे अगाध प्रेम था। वह चित्रकला की सूक्ष्म वृत्तियों से परिचित था तथा चित्रकारों का ध्यान उनकी त्रुटियों की ओर आकर्षित करता रहता था। कहा जाता है कि वह चित्र देखकर चित्रकार का नाम बतला सकता था। उसके काल में पौधों, वृक्षों, पुष्पों तथा पशु-पक्षियों के चित्र निर्मित हुए। प्राकृतिक दृश्यों को भी अनेक चित्रकारों ने अपनी तूलिका से विविध रंगों एवं आकृतियों में चित्रित किया।

जहाँगीर के काल में चित्रकारी पुष्ट तथा परिपक्व होकर पूर्णता को प्राप्त हुई। सम्राट को भारतीय चित्रकला की शैली पसन्द थी तथा उसने ईरानी प्रभाव से चित्रकला को मुक्त किया तथा विदेशी तत्वों का भारतीय शैली से सुन्दर सामंजस्य स्थापित किया। इस प्रकार जहाँगीर का काल मुगल चित्रकला का स्वर्ण-युग था। इस समय चित्रकला में नवीनता, मौलिकता, स्वाभाविकता, गतिशीलता तथा सजीवता थी। प्राकृतिक दृश्यों का सूक्ष्म, भावपूर्ण तथा स्वाभाविक चित्रण एवं व्यक्ति चित्र और युद्धों व आखेट के दृश्य चित्रों का निर्माण इस कला की विशेषता थी। इस समय के चित्रकारों में उस्ताद मंसूर, आगार खाँ, फारुखबेग, मुहम्मद नादिर, केशव, बिशनदास, मनोहर, माधव, गोवर्धन, तुलसी आदि प्रमुख थे। लेकिन पर्सी ब्राउन के अनुसार- “जहाँगीर के निधन के साथ ही मुगल चित्रकला की आत्मा विलीन हो गई।

4. शाहजहाँ – वैसे तो शाहजहाँ के काल में भी चित्रकला को प्रोत्साहन मिला, परन्तु शाहजहाँ को चित्रकला से उतना प्रेम नहीं था, जितना भवन निर्माण कला से। उसके काल में चित्रकला अलंकरण से युक्त होकर अपनी मौलिकता तथा सजीवता को खो बैठी। शाहजहाँ ने रंगो के स्थान पर बहमल्य पत्थरों का प्रयोग आरम्भ करवाया। उसके द्वारा निर्मित भवनों में चित्रकला शाही वैभव को प्रदर्शित करती है, जिसमें स्वर्ण तथा बहुमूल्य रत्नों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है, परन्तु इस समय चित्रकला का धीरे-धीरे पतन आरम्भ होने लगा। इस काल के चित्र नीरस तथा भाव विहीन हैं, जिनमें केवल रंगों को प्रधानता दी गई है। शाहजहाँ ने अपने शासनकाल के 8वें वर्ष में अपने शासन के आधिकारिक इतिहास ‘पादशाहनामा’ लिखने का आदेश दिया था, जिसके मूल पाठ के साथ दिए गए चित्र दरबारी समारोहों और महत्वपूर्ण घटनाओं का चित्रण करते हैं।

इस समय के चित्रों का प्रमुख विषय सामन्ती दरबार के दृश्यों तथा रत्नजड़ित वस्त्राभूषण आदि का प्रदर्शन मात्र रह गया था, जिसमें कला की सूक्ष्मता का सर्वथा अभाव था। शाहजहाँ के काल के व्यक्ति चित्र (Portraits) वास्तव में अत्यन्त सुन्दर, सजीव तथा भावपूर्ण थे। भावव्यंजना, मुख मुद्रा तथा आन्तरिक अभिव्यक्ति में ये चित्र श्रेष्ठ थे, परन्तु इन चित्रों की माँग बढ़ने पर व्यक्ति चित्र के स्वतन्त्र चित्रण के स्थान पर उनकी प्रतिकृतियाँ बनाई जाने लगीं, जिन्होंने कला को निम्न स्तर पर पहुंचा दिया। इसी प्रकार पशुओं के चित्रों में भी अस्वाभाविकता की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। शाहजहाँ के काल के
प्रमुख चित्रकार मीर हाशिम, मुहम्मद नादिर, विचित्र, चित्रमन, अनूप तथा चिन्तामणि थे।

मुगलकालीन चित्रकला की विशेषताएँ- मुगलकाल में चित्रकला के अनेक विषय थे, जैसे- आखेट, युद्ध, शाही राजसभा, सामन्तों के जीवन के दृश्य, पौराणिक कहानियों के विभिन्न दृश्य, व्यक्ति चित्र, पशु-पक्षियों, वृक्षों, पुष्पों तथा पौधों के चित्र आदि। ये चित्र हिन्दूकाल के चित्रों के समान धार्मिक भावनाओं पर आधारित नहीं थे। इन चित्रों को दरबारी चित्र कहा जा सकता है क्योंकि जनता की भावनाओं का चित्रण इनमें नहीं है।

मुगलकाल की चित्रकला शैली की दृष्टि से सजीव एवं स्वाभाविक है। धीरे-धीरे ईरानी कला के प्रभाव से मुक्त होकर वह पूर्णतया भारतीय हो गई। इसकी विशेषता रेखाओं की गोलाई और कोमलता, आकृतियों में गति और स्फूर्ति, हस्तमुद्राओं में सजीवता और उनके प्रयोग की बाहुल्यता है। इस समय के चित्रकारों ने चटकीले तथा रुपहले रंगों का खूब प्रयोग किया है। इस काल के व्यक्ति चित्रों में आकृति का अंकन अत्यन्त सूक्ष्म व स्वाभाविक है परन्तु मुगल वैभव तथा विकास की परिधि में
बँधी होने के कारण यह कला उन्मुक्त नहीं हो पाई, जिसके कारण इसमें एक प्रकार की कृत्रिमता तथा जड़ता उत्पन्न हो गई।

प्रश्न 2.
अकबर और जहाँगीर के काल में मुगल चित्रकला के विकास पर टिप्पणी कीजिए एवं मुगल चित्रकला की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
अकबर द्वारा किए गए भूमि सुधारों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
अकबर द्वारा किए गए भूमि सुधार निम्नलिखित हैं
1. भूमि की पैमाइश – इस नवीन व्यवस्था के अनुसार सर्वप्रथम अकबर ने समस्त कृषि योग्य भूमि की पैमाइश करवायी। अकबर से पूर्व शेरशाह ने भी भूमि की पैमाइश करवायी थी परन्तु तब पैमाइश के लिए रस्सी का प्रयोग किया गया था। रस्सी बरसात में सिकुड़कर छोटी हो जाती थी तथा अन्य समय में बढ़ जाती थी; अत: वह पैमाइश का उचित तरीका नहीं था। अकबर ने बाँसों को लोहे के छल्लों से जुड़वा कर भूमि नापने के उपकरण निर्मित करवाए, उसने सिकन्दर लोदी के गज को प्रामाणिक माना, जिसका लम्बाई 32 इंच के लगभग होती थी। सम्पूर्ण राज्य में इसी गज के द्वारा भूमि नापी गई। कर्मचारियों के सम्राट के कठोर आदेश थे कि भूमि की पैमाइश बिलकुल ठीक ढंग से करें तथा रिश्वत के लालच में गलत पैमाइश करने वालों को कठोर दण्ड का भय दिखाया जाता था। सरकार ने पैमाइश करने वाले व्यक्तियों को उचित वेतन दिया जिससे वे बेईमानी न करें। इस प्रकार समस्त कृषि योग्य भूमि की पैमाइश करवाई गई।

2. भूमि का वर्गीकरण – पैमाइश के पश्चात समस्त कृषि योग्य भूमि को चार भागों में विभाजित किया गया-

  • भूमि की उपज के अनुसार सर्वश्रेष्ठ भूमि, जिस पर प्रत्येक वर्ष कृषि की जा सकती थी तथा जिसे कभी परती नहीं छोड़ना पड़ता था। पोलज भूमि कहलाती थी;
  • परौती भूमि, जिस पर एक वर्ष कृषि करके उपजाऊ बनाने हेतु एक वर्ष के लिए छोड़ दिया जाता था;
  • चाचर वह भूमि है जिसको दो-तीन वर्ष तक परती छोड़ना पड़ता था तथा
  • बंजर को पाँच अथवा उससे अधिक वर्ष तक परती छोड़ना पड़ता था, जिससे वह कृषि योग्य बन सके। सरकार कर्मचारियों के पास रजिस्टर रहते थे, जिनमें समस्त प्रदेशों की चारों वर्गों की भूमि की पैमाइश लिखित रूप में रहती थी। उदाहरणार्थ-इलाहाबाद की भूमि के सम्बन्ध में रजिस्टरों में लिखा था कि वहाँ 400 बीघा पोलज, 300 बीघा परौती, 50 बीघा चाचर तथा 20 बीघा बंजर भूमि है।

3. नकद रुपयों में कर संग्रह करना – अकबर अनाज से अधिक नकद कर वसूल करना चाहता था; अत: विभिन्न प्रदेशों में अनाज की दर, प्रत्येक वर्ष, पिछले दस वर्षों के अनुपात से निर्धारित की जाता थी। गेहूँ, कपास, तिल आदि 95 वस्तुओं की दर की सूची प्रत्येक प्रदेश के लिए तैयार की जाती थी। कर सर्वप्रथम अनाज और उत्पादित की जाने वाली वस्तुओं के रूप में। निश्चित किया जाता था, तत्पश्चात उस प्रदेश की दर के हिसाब से उसका मूल्य निर्धारित करके उसे वसूल किया जाता था।

4. राज्य-कर संग्रह करने की पद्धति – राजस्व-कर वर्ष में दो बार वसूल किया जाता था- रबी की उपज से तथा खरीफ की उपज से। गाँव के मुखिया भूमि-कर वसूल करने में आमिल, गुजार, पोतदार आदि की सहायता करते थे तथा इस सहायता के लिए उन्हें 2% प्रतिशत कमीशन मिलता था। सम्राट का आदेश था कि कर वसूल करने वाले कर्मचारी पहले कृषकों से बकाया वसूल करें, तत्पश्चात उस वर्ष की उपज का कर संग्रह करें। कृषकों को कर्मचारियों के अत्याचारों से बचाने के लिए प्रत्येक कृषक को पट्टा प्रदान किया जाता था जिसमें उसके द्वारा प्रयोग की जाने वाली भूमि की पैमाइश तथा निश्चित कर अंकित रहता था। इस पट्टे द्वारा सरकार भूमि पर कृषक का अधिकार स्वीकार करती थी तथा निश्चित कर के अतिरिक्त कृषक से और कुछ भी वसूल नहीं कर सकती थी। कर प्रदान करने पर कृषक को रसीद दी जाती थी जिससे कई कर्मचारी दुबारा कर वसूल न कर सके।

5. भूमि-कर पद्धति का व्यावहारिक रूप – भूमि सुधारों के द्वारा अकबर ने रैयतवाड़ी प्रथा प्रचलित की तथा कृषकों का सरकार से सीधा सम्पर्क स्थापित किया तथा उन दोनों के बीच के वर्ग का उसने अन्त कर दिया। अकबर ने कृषकों की सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा। भूमि पर उनका अधिकार स्वीकृत कर उन्हें पट्टे दिए गए तथा उनके कबूलियत पर हस्ताक्षर करवाए गए। खालसा भूमि पर सफल प्रयोग करने के उपरान्त उसने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में पूर्ण रूप से भूमि सम्बन्धी सुधारों को लागू किया तथा भागीदारी प्रथा का लगभग अन्त कर दिया। कुछ व्यक्तियों को छोड़कर अन्य सभी पदाधिकारियों से जागीर छीनकर सम्राट ने उनके लिए नकद वेतन की व्यवस्था की, जिससे किसानों पर होने वाले अत्याचार बन्द हो जाएँ।

बंजर भूमि के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करके कृषकों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। आरम्भ में सरकार बंजर भूमि पर बहुत कम भूमि-कर लेती थी तथा धीरे-धीरे उसकी दर बढ़ाती थी। दुर्भिक्ष अथवा फसल के खराब होने पर राज्य के उन पीड़ित प्रदेशों पर कर माफ करके सरकार उनकी आवश्यक सहायता करती थी। कर वसूल करने वाले कर्मचारियों (आमिल, वितिक्ची, कानूनगो, पटवारी, मुकद्दम आदि) को राज्य की ओर से यह आदेश रहता था कि वे कृषकों पर अत्याचार न करें तथा उनके साथ अच्छा व्यवहार करें। सेना द्वारा यदि कृषकों के खेतों की क्षति हो जाती थी तो सरकार उसकी क्षतिपूर्ति करती थी। आवश्यकता पड़ने पर वह कृषकों को ऋण भी देती थी। यदि कृषकों के पास कर का कुछ भाग शेष रह जाता था तो वह भी बलपूर्वक वसूल नहीं किया जाता था। कर वसूल करने वाले कर्मचारियों को कृषकों की दशा की रिपोर्ट प्रतिमान भेजनी पड़ती थी।

प्रश्न 4.
मुगलकालीन सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक दशाओं का वर्णन कीजिए।
उतर:
मुगलकाल की सामाजिक दशा
1. समाज का विभाजन – मुगलकालीन समाज में मुख्यत: दो वर्ग थे- उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग। इन दोनों वर्गों के बीच मध्यम वर्ग (हकीम, दुकानदार आदि) भी था, जो संख्या में बहुत कम होने के कारण नगण्य-सा माना जा सकता है। मुगलकालीन समाज सामन्तवादी प्रथा पर आधारित था, जो मध्ययुग की एक विशेषता रही है। समाज में सर्वोच्च स्थान बादशाह तथा उसके उन सम्मानित सामन्तों के होते थे, जिनका सम्राट से सीधा सम्पर्क होता था तथा जिनको विविध प्रकार के ऐश्वर्य तथा विशेषाधिकार प्राप्त थे। यद्यपि इस सामन्त वर्ग आरम्भ में विदेशी लोगों का वर्चस्व था, परन्तु मुगल सामन्त भारत से बाहर कभी धन नहीं ले गए। इसलिए विदेशी सामन्त वर्ग के होते हुए भी उसका दुष्प्रभाव देश की आर्थिक स्थिति पर नहीं पड़ा।

इस सामन्त वर्ग के नीचे छोटे कर्मचारियों द्वारा निर्मित मध्यम वर्ग था तथा भारत की अधिकांश जनता, जो ग्रामों में रहकर कृषि अथवा घरेलू उद्योग-धन्धे करती थी, निम्न वर्ग में आती थी। मुगलकाल में सल्तनत काल के समान समाज हिन्दू और मुसलमान वर्गों में विभाजित नहीं था। यह काल हिन्दू तथा मुस्लिम संस्कृति के बीच सामंजस्य का काल रहा। अकबर के काल से सामन्त तथा निम्न दोनों ही वर्गों में हिन्दू तथा मुसलमान समान रूप से सम्मिलित थे।

2. वस्त्राभूषण – मुगलकाल में बादशाह तथा उसका सामन्त वर्ग बहुमूल्य वस्त्रों का प्रयोग करता था। जरी के बहुमूल्य वस्त्र, रेशमी तथा मलमल के वस्त्रों का उच्च वर्ग में प्रयोग होता था। ढाका की मलमल तथा मुर्शीदाबाद का रेशम उस समय अत्यधिक प्रसिद्ध थे। उच्च सामन्त वर्ग के सभी व्यक्तियों की, चाहे वे मुसलमान हों अथवा हिन्दू, वेशभूषा समान थी तथा जाति-चिह्न के बिना उन्हें पहचान पाना असम्भव था। बादशाह भेट तथा खिलअत के रूप में अमीरों को बहुमूल्य वस्त्र प्रदान करता था तथा अबुल फजल के कथनानुसार उसे अकबर के लिए प्रतिवर्ष 1000 पोशाक निर्मित करवानी पड़ती थीं। उच्च वर्ग में अचकन तथा पाजामा पहनने का रिवाज था, परन्तु साधारण हिन्दू वर्ग अधिकतर धोती-कुर्ता पहनता था। आभूषणों का प्रयोग दोनों जातियाँ समान रूप से करती थीं।

3. आमोद-प्रमोद – मुगलकाल में आमोद-प्रमोद के प्रमुख साधन शिकार, पोलो, पशु-युद्ध, कुश्ती लड़ना तथा कबूतर उड़ाना थे। घरेलू खेलों में चौपड़, पासा तथा शतरंज के खेल प्रमुख थे। उच्च वर्ग के लोग मदिरापान के दुर्व्यसन से वंचित नहीं थे वरन् मुगल सम्राटों का मदिरापान तथा अफीम सेवन का व्यसन तो विख्यात है। बाबर के आमोद-प्रमोद, हुमायूँ का अफीम के नशे में मस्त रहना, अत्यधिक मदिरापान के कारण अकबर के दो पुत्रों की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाना और जहाँगीर का मदिरा प्रेम आदि बातें इस मत की पुष्टि करती हैं।

4. स्त्रियों की दशा – इस समय समाज में स्त्रियों का कोई स्थान नहीं था। वे केवल विलास के लिए उपयुक्त समझी जाती थीं। बहुविवाह प्रथा, पर्दा प्रथा तथा अशिक्षा के दुर्गुणों ने स्त्री-समाज को पतित बना दिया था, तथापि कुछ प्रसिद्ध स्त्रियाँ इस काल में भी हुई, जिनमें गुलबदन बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, रोशनआरा तथा जेबुन्निसा के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त अहमदनगर की चाँदबीबी, गोंडवाना की दुर्गाबाई, शिवाजी की माता जीजाबाई तथा राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई भी नारी-रत्न थी, जिन्होंने अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करके ख्याति प्राप्त की। हिन्दू स्त्रियों में बाल-विवाह, सती–प्रथा आदि अनेक कुप्रथाएँ विद्यमान थीं, जिसके कारण उनके समाज का घोर अध:पतन हो रहा था।

5. सामाजिक पतन – शाहजहाँ के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में भारतीय समाज के पतन के चिह्न स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगे थे तथा औरंगजेब के काल में सामाजिक पतन आरम्भ हो गया था। इस समय उच्च सामन्त वर्ग की नैतिकता, पवित्रता, साहस तथा शक्ति विनष्ट हो गई थी। विलासिता, मदिरापान तथा दुराचार उस समाज के सामान्य अवगुण बन गए थे। अमीर रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार में लिप्त रहते थे तथा राजदरबार में कुचक्र एवं षड्यन्त्र रचना उनका एकमात्र कार्य रह गया था। मस्जिदों में भी ये सामान्य दुर्गुण दृष्टिगोचर हो रहे थे। उच्च वर्ग के साथ-साथ अन्य वर्गों का नैतिक पतन भी होने लगा था। सरकारी कर्मचारी निर्लज्जतापूर्वक रिश्वत लेते थे तथा प्रजा पर अत्याचार करते थे, जिनको रोकने वाला कोई नहीं था। औरंगजेब के पश्चात मुगल सम्राट प्रजा के प्रति अपने समस्त कर्तव्यों को भूलकर विलासिता में लिप्त हो गए। इस प्रकार 18 वीं शताब्दी में भारत के सामाजिक पतन की पराकाष्ठा हो गई। अशिक्षा, नैतिक पतन, अधर्म, भ्रष्टाचार और मदिरापान आदि दुर्गुणों ने समाज को अधोगति तक पहुँचा दिया।

6. सामाजिक प्रथाएँ – मुगलकाल में हिन्दू व मुस्लिम दोनों जातियों में अनेक प्रकार की सामाजिक रूढ़ियाँ तथा प्रथाएँ समान रूप से विद्यमान थीं। दोनों ही ज्योतिष में विश्वास रखते थे, पीरों के मजारों की पूजा करते थे तथा गुरु की भक्ति करते थे। इस समय समाज में समान रूप से अन्धविश्वास तथा अनेक कुप्रथाएँ पनप चुकी थीं। हिन्दुओं में सती प्रथा, बाल-विवाह प्रथा तथा दहेज की प्रथाएँ प्रचलित थीं। विधवा पुनर्विवाह पंजाब तथा महाराष्ट्र के कुछ भागों के अतिरिक्त अन्य कहीं प्रचलित नहीं था। हिन्दुओं के प्रमुख त्योहार होली, दीवाली, रक्षाबन्धन आदि थे, जिन्हें मुसलमान भी उत्साहपूर्वक मनाते थे। मुसलमानों के त्योहार ईद तथा मुहर्रम को हिन्दू लोग भी मनाते थे।

यद्यपि हिन्दू समाज में इस समय छुआछूत तथा जाति-भेद विद्यमान था तथापि हिन्दू वर्ग की सहिष्णुता की भावना ने उनको मुसलमानों के अधिक निकट ला दिया था। उच्च वर्ग के अतिरिक्त साधारण वर्ग सामान्यतः ईमानदार तथा धर्मभीरु था। ट्रैवनियर ने लिखा है- “नैतिकता में हिन्दू अच्छे हैं, विवाह करने पर वे कदाचित ही अपनी पत्नियों के प्रति अश्रद्धा और अविश्वास रखते हैं। उनमें व्यभिचार का अभाव है और उनके अस्वाभाविक अपराधों के विषय में तो कभी कोई सुनता ही नहीं है। इस प्रकार दरिद्र होते हुए भी साधारण प्रजा का चरित्र उच्चकोटि का था तथा वह सामान्यत: मितव्ययी होने के कारण सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती थी।

मुगलकाल की आर्थिक दशा – मुगलों के शासनकाल में भारत एक समृद्ध देश था, जिसका प्रमुख श्रेय यहाँ के व्यापारियों को था, जिन्होंने विदेशों के साथ व्यापारिक सम्पर्क स्थापित करके देश को सोने-चाँदी तथा बहुमूल्य पत्थरों से परिपूर्ण कर दिया। यद्यपि इस समय भी भारत एक कृषिप्रधान देश ही था तथा यहाँ की अधिकांश ग्रामीण जनता की जीविका कृषि पर निर्भर करती थी, परन्तु कृषि तथा व्यापार के सुन्दर सामंजस्य के कारण देश में समृद्धि थी तथा आवश्यक वस्तुओं के मूल्य कम थे।

‘हुमायूँनामा’ में भारत में प्रचलित सस्ते मूल्यों का विवरण प्राप्त होता है। इसके अनुसार अमरकोट में एक रुपए में एक बकरा बिकता था। इसी प्रकार अन्य खाद्य सामग्री भी काफी सस्ती थी। अकबर के कृषि सम्बन्धी तथा आर्थिक सुधारों के कारण भाव और भी सस्ते हो गए तथा दरिद्रों को भी पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री उपलब्ध थी। उस समय दरिद्रों की दशा चिन्तनीय नहीं थी। तथा वे सन्तोषपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे।

1. कृषि – सदैव की भाँति मुगलकाल में भी भारत का प्रमुख व्यवसाय कृषि ही था। अकबर के भूमि सुधारों से कृषकों की दशा में सुधार हुआ। गन्ना, नील, कपास तथा रेशम प्रमुख उत्पादित वस्तुएँ थीं। तम्बाकू की कृषि भी मुगलकाल में आरम्भ हो गई थी। कृषि के सामान्य उपकरण अधिकतर वही थे, जो आज तक प्रचलित हैं। सिंचाई के उपयुक्त साधनों के अभाव में कृषक अधिकतर प्रकृति पर निर्भर रहते थे तथा अतिवृष्टि या अनावृष्टि के समय दुर्भिक्ष पड़ने पर उनकी दशा अत्यन्त दयनीय हो जाती थी। सरकार की सहायता मिलने पर भी उनकी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं होता था। अकाल के पश्चात महामारी का प्रकोप होता था, जिससे असंख्य व्यक्ति मृत्यु के शिकार हो जाते थे। दुर्भिक्ष के अतिरिक्त बहुधा युद्धों तथा सेनाओं के आवागमन के कारण भी कृषकों को काफी कष्ट उठाना पड़ता था और बादशाह की निरन्तर चेतावनी के उपरान्त भी कई बार सैनिक उनके खेतों को रौंद डालते थे।

अकबर के पश्चात जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल में अनेक बार दुर्भिक्ष पड़ा, जिसके कारण जनता की दशा इतनी शोचनीय हो गई कि उसका वर्णन करना असम्भव है। इस काल में आने वाले विदेशी यात्रियों ने दुर्भिक्ष पीड़ितों की दयनीय दशा का वर्णन किया है। यातायात के समुचित साधनों के अभाव में उनकी दशा बद से बदतर हो जाती थी। 18 वीं शताब्दी की अराजकता तथा अव्यवस्था में तो कृषकों की दशा अत्यन्त दयनीय हो गई और वे ऋणग्रस्त हो गए।

2. उद्योग-धन्धे – यद्यपि मुगलकाल में आधुनिक ढंग की मशीनें तथा कारखाने उपलब्ध नहीं थे परन्तु हस्त उद्योग-धन्धे उस काल में प्रचलित थे तथा अपने देश की खपत से अधिक माल तैयार करके व्यापारीगण भारत का बना हुआ माल विदेशों में भी ले जाते थे। व्यापार द्वारा भारत को लाभ होता था, जिससे देश उत्तरोत्तर धनी बनता जा रहा था। इस समय भारत का सबसे महत्वपूर्ण उद्येाग कपड़ा बुनना, राँगाई तथा छपाई करना था।

बंगाल तथा बिहार के प्रान्त सूती कपड़ा बुनने के लिए प्रसिद्ध थे, जहाँ प्रत्येक घर में कपड़ा बुना जाता था। ऊनी वस्त्र कश्मीर में निर्मित किए जाते थे। गुजरात भी सूती वस्त्रों के लिए विख्यात था। यहाँ के व्यापारियों की ईमानदारी की प्रशंसा बारबोसा तथा मनूची जैसे विदेशी यात्रियों ने भी की है।

वस्त्र उद्योग के अतिरिक्त अन्य छोटे-छोटे उद्योग-धन्धे भी इस समय भारत में प्रचलित थे। विदेशों के साथ व्यापार करने के लिए जहाजों का भी निर्माण होता था। यद्यपि भारतीय बहुत उत्तम जहाज निर्मित करना नहीं जानते थे तथापि यह उद्योग भी इस समय प्रचलित था। विविध प्रकार के टूक, कलमदान, शमादान, अलंकृत तश्तरियाँ. छोटी-छोटी सन्दकचियाँ तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो सामन्तों के आवासगृहों को सुसज्जित करने के काम में आती थीं, भारत में निर्मित होती थीं।

3. अन्तरप्रान्तीय व्यापार – भारत के भिन्न-भिन्न भागों में व्यापार प्रचुर मात्रा में होता था। व्यापार के लिए समृद्ध नगरों का निर्माण करवाया गया था, जो सड़कों अथवा नदियों के द्वारा परस्पर सम्बन्धित थे। लाहौर, बुरहानपुर, अहमदाबाद, बनारस, पटना,, बर्दवान, ढाका, दिल्ली तथा आगरा आदि इस काल के प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे। बुरहानपुर और आगरा उत्तर भारत में व्यापार के मुख्य केन्द्र थे। बंगाल से वहाँ खाद्यान्न और रेशमी कपड़ा आता था तथा मालाबार से काली मिर्च भी पहुँचती थी। गुजरात में जैन और बोहरा मुसलमान, राजस्थान में ओसवाल, माहेश्वरी और अग्रवाल, कोरोमण्डल तट पर चेट्टी और मालाबार में मुसलमान व्यापारी थे। व्यापार नदियों तथा सड़कों दोनों मार्गों से होता था। मुगल सम्राटों ने व्यापार के लिए सड़कों का निर्माण करवाया, जो दोनों ओर छायादार वृक्षों से आच्छादित थीं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सरायों का प्रबन्ध था, जहाँ यात्रियों के ठहरने की पूर्ण सुविधा प्राप्त थी। चोरों तथा डाकुओं से सड़कों की सुरक्षा के लिए सरकारी कर्मचारी नियुक्त होते थे।

4. विदेशी व्यापार – मुगलकाल में भारत के विभिन्न बाह्य देशों से सम्पर्क थे, जिनके साथ भारत का व्यापार होता था। विदेशों के साथ भी जल मार्ग तथा स्थल मार्ग के द्वारा व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे। इस समय उत्तर-पश्चिम प्रान्तों में दो प्रमुख स्थल मार्ग थे- प्रथम, लाहौर से काबुल होते हुए बाहर जाता था तथा द्वितीय, मुल्तान से कंधार होकर। इन स्थल मार्गों के अतिरिक्त अनेक बन्दरगाह थे जिनसे जल मार्गों के द्वारा व्यापार होता था। सिन्ध में लाहौरी बन्दर, गुजरात में सूरत, भड़ौच, खम्भात, बम्बई (वर्तमान-मुम्बई) में गोआ, मालाबार में कालीकट तथा कोचिन प्रमुख बन्दरगाह थे तथा पूर्वी तटों पर मछलीपट्टम, नीमापट्टम और बंगाल में श्रीपुर, सतगाँव और सोनारगाँव नामक बन्दरगाह थे। इन सभी बन्दरगाहों में सूरत का बन्दरगाह प्रमुख था, जहाँ से सबसे अधिक विदेशों के लिए व्यापार होता था।

भारत सामान्यतः सुती और रेशमी वस्त्र, नील, अफीम, काली मिर्च तथा विलास की सामग्री बाहर भेजता था तथा बाहर से इन वस्तुओं के बदले में सोना, चाँदी, ताँबा, घोड़े, कच्चा रेशम, बहुमूल्य रत्न, सुगन्धित द्रव तथा मखमल आदि वस्तुएँ मंगाई जाती थी। फ्रांस से ऊनी वस्त्र, फारस व इटली से रशम, फारसे से कालान फारस व इटली से रेशम, फारस से कालीन, चीन से कच्चा रेशम और अरब तथा मध्य एशिया से घोड़े मॅगाए जाते थे। मुगल बादशाह विदेश जाने वाली और विदेश से आनी वाली वस्तुओं पर 3.5% तक कर लेते थे। चुंगी की दर कम होने के कारण व्यापार को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला तथा भारत निरन्तर धन सम्पन्न देश बनने लगा था। यह समृद्धि मुगल युग को स्वर्ण युग के रूप में परिणत करने में सहायक बनी।

मुगलकाल की धार्मिक दशा
प्रो० एस०आर० शर्मा के मतानुसार मुगल साम्राज्य गैर-कट्टरपंथी राज्य था। अकबर, जो वास्तविक रूप से मुगल वंश का संस्थापक था, उदार और सहिष्णु था तथा उसने धर्म को राजनीति से पृथक करके एक अलौकिक साम्राज्य स्थापित किया था। मजहबी राज्य में सम्राट को धार्मिक अधिकार प्राप्त होते हैं तथा सम्राट एवं धर्माचार्यों का विरोध करना पाप समझा जाता है, परन्तु मुगलकाल में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं थी। इस काल में न्यायालय भी अधिकतर धर्म से प्रभावित हुए बिना निष्पक्ष रूप से अपना कार्य करते थे।

मुगल सम्राटों ने मुसलमान होते हुए भी धर्मान्धता की नीति का अनुसरण नहीं किया तथा देश के सभी व्यक्तियों को उत्थान का समान अवसर प्रदान किया। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे धर्मान्ध सम्राट के काल में भी (जिसने धर्म प्रभावित राज्य स्थापित करने का प्रयास किया था) अनेक कट्टर मुसलमान तक सम्राट की न्याय नीति के विरोधी थे; अतः मुगल राज्य संस्था को धर्म निरपेक्ष कहना अधिक न्यायसंगत प्रतीत होता है।

प्रश्न 5.
“शाहजहाँ का काल मुगल स्थापत्य का स्वर्ण-काल था।” विवेचना कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल स्थापत्य कला अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। उसका काल विद्वानों द्वारा मुगल स्थापत्य कला का ‘स्वर्ण-युग’ कहा जाता है। शाहजहाँ ने नवीन इमारतों के अलावा आगरा और लाहौर के किलो में अकबर द्वारा बनवाई गई कई इमारतों को तुड़वाकर नवीन इमारतें भी बनवाई। आगरा के किले में दीवाने आम, दीवाने खास, शीश महल, शाहबुर्ज, खासमहल, मच्छीभवन, झरोखा दर्शन का स्थान, अंगूरी बाग, नगीना मस्जिद और मोती मस्जिद उसके द्वारा बनवाई गई इमारतों में प्रमुख हैं। ये सभी इमारतें अत्यन्त सुन्दर हैं। हालाँकि शाहजहाँ के भवन दृढ़ता तथा मौलिकता में अकबर के भवनों की अपेक्षा निम्न कोटि के हैं परन्तु सौन्दर्य रमणीयता, अलंकरण व सादगी में उनका कोई सानी नहीं है।

1639 ई० में शाहजहाँ ने दिल्ली के पास शाहजहाँनाबाद नगर की नींव डाली। दिल्ली में यमुना नदी के दाएँ किनारे एक किला बनवाया, जो लाल किले के नाम से विख्यात है। इस किले के भीतर सफेद संगमरमर की सुन्दर इमारतें बनवाई गई हैं, जिनमें मोती महल, हीरा महल और रंग महल विशेष उल्लेखनीय हैं। दीवाने आम और दीवाने खास आदि सरकारी इमारतों के अतिरिक्त नौबतखाना, शाही निवास, नौकरों के निवास आदि भी बने हुए हैं। दीवाने खास में चमकीले संगमरमर के फर्श, उसकी दीवारों पर फूल-पत्तियों की सुन्दर नक्काशी और मेहराबों का सुनहला रंग इतना आकर्षक है कि वहाँ लिखा है- “अगर भूमि पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं हैं, यहीं है, यहीं है।’ यहाँ पानी और फव्वारों का प्रबन्ध अत्यन्त भव्य है।

 

शाहजहाँकालीन मस्जिदों में दिल्ली की जामा मस्जिद देश की सबसे प्रसिद्ध मस्जिद है। एक दूसरी जामा मस्जिद शाहजहाँ की बड़ी पुत्री जहाँआरा ने आगरा में बनवाई। पर्सी ब्राउन ने आगरा की जामा मस्जिद को दिल्ली की जामा मस्जिद से स्थापत्य कला की दृष्टि से भव्य और सुन्दर बताया है। मोती मस्जिद जिसे शाहजहाँ ने आगरा के किले में बनवाया था, स्थापत्य कला की दृष्टि से एक उच्चकोटि की कृति है। दूध की तरह सफेद संगमरमर से बनी हुई यह मस्जिद अपने नाम ‘मोती की तरह ही है।

लेकिन जिस इमारत के लिए शाहजहाँ को आज भी याद किया जाता है, वह है ताजमहल, जो उसने अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में बनवाया, जिसे 22 वर्षों में लगभग चार करोड़ रुपए की रकम से बनाया गया था। जन्नत के बागों की तरह खूबसूरत चार बाग के बीचों-बीच स्थित इस संगमरमर की इमारत का ज्यामितीय ग्रिडों की श्रृंखला के अनुसार यथानुपात निर्माण किया गया था। चबूतरे के चारों कोनों पर चार सफेद मीनारें हैं और इसकी बगल में यमुना नदी बहती है। सुन्दर चित्रकारी से अलंकृत जालियाँ, बेल-बूटों से सजी हुई दीवारें तथा लम्बाई,

 

चौड़ाई और ऊँचाई की दृष्टि से इमारत को एक इकाई का रूप प्रदान करने वाली कला न केवल ताजमहल के सौन्दर्य को बढ़ाने वाली है अपितु ताजमहल एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में संगमरमर में ढाला गया एक स्वपन है, जो एक महान् सौन्दर्य का प्रतीक माना जा सकता है। हावेल ने इसे ‘भारतीय नारीत्व की साकार प्रतिमा कहा है। ताजमहल के निर्माण की योजना के बारे में यह धारणा गलत सिद्ध कर दी गई है कि इसके नक्शे को बनाने में किसी यूरोपियन कलाकार ने सहयोग दिया था। यह प्रमाणित किया जा चुका है कि इसका मुख्य कलाकार उस्ताद अहमद लाहौरी था, जिसे शाहजहाँ ने ‘नादिर-उज-असर’ की उपाधि प्रदान की थी।

शाहजहाँ ने मयूर सिंहासन भी बनवाया था, जिसकी छत मयूर स्तम्भों पर आधारित थी। ये स्तम्भ हीरे, पन्ने, मोती तथा लाल रत्नों से बने हुए थे। इस सिंहासन के बनने में 14 लाख रुपए से अधिक व्यय हुआ था। 1739 ई० में नादिरशाह इस सिंहासन को लूटकर अपने साथ ईरान ले गया था।

लाहौर के किले में दीवाने आम, शाहबुर्ज, शीशमहल, नौलखा महल और ख्वाबगाह आदि शाहजहाँ के समय में बनाई गई मुख्य इमारतें हैं। इनके अतिरिक्त काबुल, कश्मीर, अजमेर, कन्धार, अहमदाबाद आदि विभिन्न स्थानों पर भी शाहजहाँ ने अनेक मस्जिदें, मकबरे आदि बनवाए थे।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए
(क) मुगलकालीन कृषि-व्यवस्था
(ख) मुगलकालीन स्थापत्य कला
(ग) मुगलकालीन व्यापार
( घ) मुगलकालीन समाज
उतर:
(क) मुगलकालीन कृषि-व्यवस्था – मुगलकालीन कृषि-व्यवस्था के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या- 3 के उत्तर अवलोकन कीजिए।
(ख) मुगलकालीन स्थापत्य कला – मुगल सम्राट वास्तुकला या स्थापत्य कला अथवा भवन निर्माण कला के महान् पोषक एवं संरक्षक थे। मुगल कला अनेक प्रभावों का सम्मिश्रण थी तथा अपने पूर्वकाल की कला की अपेक्षा अधिक विशिष्ट और अलंकरणयुक्त थी। इसकी रमणीयता और अलंकरण; सल्तनतकालीन काल की सादगी और धीमकायता के विपरित था। मुगलकाल में निर्मित स्थापत्य कला की प्रमुख विशेषताएँ विराट गोल गुम्बद, पतले स्तम्भ तथा विशाल खुले हुए प्रदेश द्वार हैं।

1. बाबर तथा हुमायूँ – मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर था, जिसे भारत की भवन निर्माण कला पसन्द नहीं आई। उसने कुस्तुनतुनियाँ से कलाकारों को बुलवाया और उनके द्वारा उसने कुछ इमारतों का निर्माण करवाया। उसने लगभग 1500 कारीगरों से प्रतिदिन कार्य करवाया तथा आगरा, ग्वालियर, बयाना और धौलपुर में कुछ भवनों का निर्माण करवाया परन्तु उसके काल के भवन अधिकाशंत: नष्ट हो चुके हैं, केवल पानीपत में काबुली बाग की मस्जिद तथा रुहेलखण्ड में सम्भल की जामा मस्जिद शेष हैं जो उसके कला प्रेम की द्योतक हैं। बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूँ को इतना समय नहीं मिला कि वह भवनों का निर्माण करवा सकता, परन्तु हिसार जिले के फतेहाबाद में उसके द्वारा निर्मित मस्जिद आज भी विद्यमान है जिसमें ईरानी कला का बाहुल्य है।

2. शेरशाह सूरी – हुमायूं के भारत से चले जाने के बाद शेरशाह सूरी ने अपना साम्राज्य स्थापित किया। वह भी कला का महान पोषक था तथा अनेक दुर्गों का निर्माण करवाया जो शिल्पकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दिल्ली में आज भी उसके द्वारा निर्मित दुर्ग के कुछ अवशेष प्राप्त होते हैं, जो उसकी आकस्मिक मृत्यु के कारण अपूर्ण रह गया था। शेरशाह के काल की सुन्दरतम कृति बिहार में सासाराम में उसका मकबरा है जो झील के बीचों-बीच निर्मित किया गया है। यह मकबरा भव्यता, सुन्दरता तथा सुडौलपन में अद्वितीय है। इसमें देशी तथा विदेशी कलाओं का सुन्दर सम्मिश्रण है।

3. अकबर – मुगल सम्राटों में अकबर प्रथम सम्राट था जिसके काल की अनेक कला-कृतियाँ आज भी उपलब्ध हैं। अकबर ने देशी तथा विदेशी दोनों कलाओं के सुन्दर तत्त्वों का समावेश अपनी कला में किया तथा कला को व्यापक संरक्षण प्रदान किया। यद्यपि अकबर की कला में भारतीय तथा ईरानी तत्त्व विद्यमान हैं परन्तु उसमें भारतीय तत्त्वों का बाहुल्य है। बौद्ध तथा जैन शैली को भी सम्राट ने उदारतापूर्वक अपनाया है।

उसके काल के अधिकांश भवन आगरा तथा फतेहपुर सीकरी में निर्मित हुए। आगरा का प्रसिद्ध दुर्ग अकबर ने निर्मित करवाया जिसमें दीवान-ए-आम, जहाँगीरी महल आदि प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। फतेहपुर सीकरी की समस्त इमारतें सुदृढ़ लाल पत्थर द्वारा निर्मित हैं जिसमें दीवान-ए-आम, जोधाबाई का महल तथा अन्य दो रानियों के महल, संगमरमर की जामा मस्जिद, दक्षिण विजय को चिरस्मरणीय बनाने के लिए निर्मित विशाल बुलन्द दरवाजा, बौद्ध विहारों के आधार पर निर्मित पंचमहल तथा विशुद्ध संगमरमर की शेख सलीम चिश्ती की दरगाह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त बीरबल का महल तथा बादशाह की ख्वाबगाह भी दर्शनीय इमारतें हैं।

अकबर की अन्य इमारतों में हुमायूँ का मकबरा है, जो दिल्ली में है और ईरानी कला के अनुरूप बनाया गया है। इलाहाबाद के दुर्ग का निर्माण भी अकबर ने करवाया जिसमें चालीस स्तम्भों का प्रासाद हिन्दू शैली के आधार पर निर्मित है। सिकन्दरा में अकबर ने अपने मकबरे का निर्माण आरम्भ करवाया था जिसकी योजना उसी ने बनाई थी तथा जिसके ऊपर एक सुनहरी छत वाला संगमरमर का गुम्बद बनवाने का सम्राट का विचार था। परन्तु उसके पूर्ण होने से पूर्व ही सम्राट की मृत्यु हो गई तथा उसके पुत्र जहाँगीर ने उस मकबरे को पूर्ण करवाया।

4. जहाँगीर – अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर को भवन निर्माण कला से उतना प्रेम नहीं था जितना चित्रकला से; अतः उसके काल में अधिक भवनों का निर्माण नहीं हुआ। परन्तु एक तो उसने अपने पिता द्वारा आरम्भ किए गए सिकन्दरा के मकबरे को पूर्ण करवाया जिसके दर्शनार्थ वह बहुधा पैदल जाया करता था। और जहाँगीर के काल की दूसरी कलाकृति आगरा में नूरजहाँ के पिता एतमादुद्दौला का मकबरा है जो शुद्ध संगमरमर का बना हुआ है और उसमें विभिन्न रंगों के बहुमूल्य पत्थर जड़े हुए हैं। जहाँगीर का मकबरा लाहौर में है, जिसे उसकी मृत्यु के पश्चात नूरजहाँ ने बनवाया था।

5. शाहजहाँ – शाहजहाँ भवन निर्माण कला का प्रेमी सम्राट था तथा उसके काल में मुगल युग की सर्वाधिक सुन्दर कलाकृतियाँ निर्मित हुईं। शाहजहाँ के भवन दृढ़ता तथा मौलिकता में अकबर के भवनों से निम्न कोटि के हैं परन्तु सौन्दर्य, रमणीयता, अलंकरण तथा सरलता से बेजोड़ हैं। शाहजहाँ ने बहुमूल्य पत्थरों तथा स्वर्ण का अत्यधिक प्रयोग किया है जिससे उसके भवनों की जगमगाइट एवं आकर्षण में चार चाँद लग गए हैं। शाहजहाँ ने दिल्ली में शाहजहाँनाबाद का दुर्ग निर्मित करवाया जिसके भवनों में दीवान-ए-आम जो लाल पत्थर से बना है, दीवान-ए-खास जो शुद्ध संगमरमर से बना है, रंगमहल, खासमहल आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दीवान-ए-खास अधिक अंलकरण युक्त है जहाँ पर मयूर सिंहासन पर सम्राट बैठा करता था। उसकी छत पर सोने की नक्काशी दर्शनीय है। श्वेत संगमरमर के इस भवन पर लिखा हुआ यह शेर सत्य ही प्रतीत होता है कि यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं पर है

गर फिरदौस बर रू-ए-जमीं अस्त।
हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्तो॥

दिल्ली में जामा मस्जिद शाहजहाँ के काल की अन्यतम कृति है, जो लाल पत्थर द्वारा निर्मित है। दिल्ली के अतिरिक्त आगरा में शाहजहाँ के काल की सर्वश्रेष्ठ इमारतें उपलब्ध होती हैं। अकबर के द्वारा निर्मित आगरा के दुर्ग में शाहजहाँ ने सफेद संगमरमर की मोती मस्जिद तथा मुसम्मन बुर्ज का निर्माण करवाया। इसी मोती मस्जिद में, बन्दी के रूप में शाहजहाँ ने अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्ष व्यतीत किए तथा मुसम्मन बुर्ज में, ताजमहल को देखते-देखते उसने अपने प्राण त्यागे।।

शाहजहाँ तथा मुगलकाल की सर्वश्रेष्ठ कृति आगरा का ताजमहल है जो सम्राट ने अपनी दिवंगत पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में बनवाया था। यह शुद्ध संगमरमर द्वारा निर्मित मकबरा 22 वर्षों में बनकर तैयार हुआ तथा इस पर तीन करोड़ रुपया व्यय हुआ। सौन्दर्य, अलंकरण तथा कला की दृष्टि से यह अद्वितीय एवं सर्वश्रेष्ठ इमारत है।

6. औरंगजेब – शाहजहाँ के पश्चात औरंगजेब मुगल सम्राट बना। वह धर्मानुरागी शासक था। वह संयमित जीवन जीने
का आदि था तथा शरियत के अनुसार शासन संचालित करता था। उसने रास-रंग के सभी आयोजनों पर रोक लगा दी। वह जनहित के कार्यों में रुचि रखता था। उसने जनता की मेहनत की धनराशि वास्तुशिल्प पर खर्च न कर जनता के हित में खर्च करने का आदेश दिया और सभी प्रकार की ललित कलाओं के निर्माण व आयोजन पर कड़ी रोक लगा दी गई। उसके काल में तीन मस्जिदों के अतिरिक्त अन्य किसी भवन का निर्माण नहीं हुआ। इन मस्जिदों में दिल्ली के किले में
संगमरमर की छोटी-सी मोती मस्जिद, लाहौर की एक मस्जिद तथा बनारस में बनवाई गई मस्जिदें प्रमुख हैं।।
(ग) मुगलकालीन व्यापार – मुगलकालीन व्यापार के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-4 के अन्तर्गत मुगलकालीन आर्थिक दशा का अवलोकन कीजिए।
(घ) मुगलकालीन समाज – मुगलकालीन समाज के लिए विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या-4 के अन्तर्गत मुगलकाल की सामाजिक दशा का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 7.
‘मुगलकाल साहित्य के विकास के लिए प्रसिद्ध युग था।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-4 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 8.
मुगलकालीन शासन-व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
उतर:
मुगलकालीन शासन-व्यवस्था- अकबर को ही मुगलों की शासन-व्यवस्था का मुख्य श्रेय दिया जाता है, क्योंकि उसके उत्तराधिकारियों ने विशेष परिवर्तन किए बिना उसी के द्वारा स्थापित शासन-प्रणाली का अनुसरण किया। औरंगजेब के काल तक शासन-व्यवस्था उसी प्रकार चलती रही, किन्तु उसकी मृत्यु के बाद उसके अयोग्य उत्तराधिकारियों के काल से मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।

मुगलकाल में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह दिखाई देता है कि मुगल शासक केवल शान्ति स्थापना और देश-विजय को ही अपना कर्तव्य नहीं मानते थे बल्कि अपनी प्रजा के लिए अच्छी और सुसभ्य जीवन की परिस्थितियों का निर्माण करना भी अपना कर्तव्य समझते थे। इसी कारण मुगलकाल में आर्थिक ही नहीं बल्कि सभ्यता और संस्कृति की भी उन्नति सम्भव हो पाई। महान् मुगल बादशाहों की शासन-व्यवस्था धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित थी। केवल औरंगजेब ही ऐसा बादशाह था, जिसने धार्मिक असहिष्णुता की नीति को अपनाया। औरंगजेब ने शासन-व्यवस्था में जो परिवर्तन किए वे मुगल साम्राज्य के आधार स्तम्भ न होकर उसके लिए घातक सिद्ध हुए। अतः इसके फलस्वरूप मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

केन्द्रीय शासन-व्यवस्था
1. मुगल बादशाह – मुगल बादशाह राज्य का प्रधान अधिकारी था। वह राज्य का अन्तिम कानून-निर्माता, शासक व्यवस्थापक, न्यायाधीश और सेनापति था। राज्य में बादशाह की स्थिति सर्वोच्च और शक्ति असीमित थी। बादशाह के मन्त्री, सरदार और सलाहकार उसे सलाह तो दे सकते थे परन्तु बादशाह उनकी सलाह को माने या न माने, उसकी इच्छा पर निर्भर था। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से मुगल बादशाहों के अधिकार कुछ सीमित थे। केन्द्रीय मन्त्रियों के अतिरिक्त, जिनकी सलाह बादशाह के लिए अवश्य ही प्रभावपूर्ण होती होगी, राज्य के बड़े-बड़े सामन्तों के प्रभाव को भी बादशाह को मानना पड़ता था। डॉ० ताराचन्द्र ने मुगल शासन को कुलीनों का शासन (Rule by Aristocracy) बताया है।

अकबर के समय से बादशाह को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में माना जाने लगा। मुगलों का राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त हिन्दू राजत्व सिद्धान्त के समान था। किन्तु मुगल बादशाह निरंकुश होते हुए भी स्वेच्छाचारी एवं अत्याचारी न थे। अकबर का कहना था “एक राजा को न्यायप्रिय, निष्पक्ष, उदार, परिश्रमी और अपनी प्रजा का संरक्षक एवं शुभचिन्तक होना चाहिए।’ औरंगजेब भी अपने इस कर्त्तव्य के प्रति जागरूक था। मुगल बादशाह अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए अत्यधिक परिश्रम करते थे। आरामपसन्द जहाँगीर भी स्वयं सात या आठ घण्टे राज्यकार्य में लगा रहता था, जबकि औरंगजेब रात्रि में कठिनाई से तीन या चार घण्टे ही आराम करता था।

2. शासक वर्ग- बादशाह के अतिरिक्त मुगल राज्य में कई वर्ग ऐसे थे, जो शासन में प्रभावशाली थे। उनमें एक वर्ग अमीरों का था। बाबर के साथ ईरानी, तुर्रानी, मुगल आदि बहुत बड़ी संख्या में भारत आए थे। अकबर के समय में अमीरों की संख्या में वृद्धि हुई तथा राजपूतों और योग्य भारतीय मुसलमानों को भी इस श्रेणी में सम्मिलित किया गया। जबकि औरंगजेब के समय में मराठे भी इस श्रेणी में सम्मिलित किए गए। ये अमीर राज्य में सभी प्रकार के सैनिक और असैनिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति करते थे और इस प्रकार ये शासन में शरीर की धमनियों के समान थे।

राज्य-प्रशासन में इनकी भूमिका प्रभावशाली होती थी। इनके अतिरिक्त जागीरदार तथा जमींदार वर्ग भी शासन में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। आरम्भ में जागीरदार राजस्व वसूल करके अपना और अपने सैनिकों का व्यय पूरा करके बचा हुआ राजस्व केन्द्रीय सरकार में जमा करते थे। किन्तु धीरे-धीरे इस व्यवस्था में इतने दोष उत्पन्न हो गए कि उन्होंने मुगल साम्राज्य के पतन में भाग लिया। जमींदार-वर्ग का सम्पर्क प्रत्यक्षतः किसानों से होता था। इस कारण वे आर्थिक, प्रशासकीय और सांस्कृतिक दृष्टि से भी साम्राज्य के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।

3. बादशाह के मन्त्रा – शासन में अपनी सहायता के लिए बादशाह विभिन्न मन्त्रियों की नियुक्ति करता था। ये अधिकारी अपने
अपने विभागों के प्रधान होते थे तथा व्यक्तिगत रूप से या सम्मिलित रूप से आवश्यकता पड़ने पर बादशाह को सलाह देते थे। राज्य के प्रमुख मंत्री और अधिकारी निम्नलिखित थे
(क) वजीर या दीवान (प्रधानमन्त्री) – वजीर राज्य का प्रधानमन्त्री होता था। अकबर के समय में प्रधानमन्त्री को दीवान के कार्य दे दिए गए और बाद के समय में दीवान ही राज्य का वजीर और प्रधानमन्त्री होने लगा। यह बादशाह और पदाधिकारियों के बीच की कड़ी थी। बादशाह के पश्चात् शासन में इसका ही प्रभुत्व था, जिसको समय-समय पर वकील-ए-मुतलक अथवा वकील पुकारा गया और जो वित्त विभाग का प्रधान होने के नाते राज्य का दीवान भी था। प्रधानमन्त्री की सहायता के लिए अनेक अधिकारियों के अतिरिक्त पाँच अधिकारी प्रमुख थे- दीवाने-खालसा, दीवाने-तन, मुस्तौफी, वाकिया-ए-नवीस और मुशरिफ।।

(ख) खानेसामाँ (मीर-ए-सामाँ) – खानेसामाँ का प्रमुख कार्य राजकीय परिवार से सम्बन्धित सदस्यों की जरूरतों की पूर्ति व देखरेख का था। यह घरेलू विभाग का प्रधान होता था। अकबर के समय में यह मंत्री पद न था, परन्तु बाद के बादशाहों के समय में इसे मन्त्री पदों में स्वीकार किया गया। उसका एक मुख्य उत्तरदायित्व शाही कारखानों की देखभाल करना था। यह सम्राट के भोजनालय की भी देखरेख करता था। यह पद बहुत ही विश्वासपात्र व्यक्ति को दिया जाता था क्योंकि इसका सम्बन्ध सम्राट के व्यक्तिगत विभागों से होता था। यह पद बाद में इतना महत्वपूर्ण हो गया कि वजीर के पद के पश्चात् यह पद ही महत्वपूर्ण माना जाने लगा।

(ग) मीर बख्शी – मीर बख्शी सेना विभाग का प्रधान था तथा सेना सम्बन्धी सभी कार्यों जैसे सैनिकों की भर्ती, अनुशासन, प्रशिक्षण, वेतन, शस्त्र, रसद आदि के प्रति उत्तरदायी था। इसे ‘अफसर-ए-खजाना’ भी कहा जाता था। वह सैनिकों का हुलिया आदि सही रखता था तथा घोड़ों पर दाग लगवाता था। सैनिकों के वेतन के लिए भी यही उत्तरदायी था। उसकी सहायता के लिए अनेक कर्मचारी होते थे। मनसबदारों की नियुक्ति भी इसी के द्वारा होती थी। मुख्य काजी- मुगल शासन-व्यवस्था में बादशाह के पश्चात् न्याय विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी मुख्य काजी (मुख्य न्यायाधीश) होता था। इसे ‘काजी-उल-कुजात’ कहा जाता था। प्रत्येक बुधवार को बादशाह स्वयं न्याय के लिए बैठता था, परन्तु वह सभी मुकदमों का निर्णय नहीं कर सकता था। इस कारण मुख्य काजी की नियुक्ति की जाती थी। काजी मुस्लिम कानून के अनुसार न्याय करता था। उसकी सहायता के लिए मुफ्ती’ होते थे, जो इस्लामी कानूनों की व्याख्या करते थे। न्याय के मामलों में सम्राट के बाद उसी का निर्णय अन्तिम होता था।

(ङ) सद्र-उस-सुदूर – यह धार्मिक विभाग का अध्यक्ष होता था। धार्मिक मामलों में वह बादशाह का मुख्य सलाहकार होता था। दान-पुण्य की व्यवस्था, धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था, विद्वानों को जागीरें प्रदान करना और इस्लाम के कानूनों के पालन की समुचित व्यवस्था को देखना इसके प्रमुख कर्त्तव्य थे। अकबर के शासनकाल में इस पद का महत्व कम हो गया था। डा० आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार, “प्रधानसद्र धार्मिक धन-सम्पत्ति तथा दान विभाग का प्रधान होता था। सद्र का काम योग्य व्यक्तियों के प्रार्थना-पत्रों की जॉचकर उनकी संस्तुति करना होता था। वह दान की भूमि और सम्पत्ति का निर्णायक एवं निरीक्षक होता था। अकबर के शासनकाल में सद्र घूस तथा निर्दयता के कारण कुख्यात हो गए थे।

(च) मुहतसिब – प्रजा के नैतिक चरित्र की देखभाल करना तथा मुस्लिम प्रजा इस्लाम के कानूनों के अनुसार जीवनयापन करती है या नहीं, यह देखना इसका मुख्य काम था। कभी-कभी इन्हें वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने तथा माप-तोल के पैमाने की देखभाल करने की जिम्मेदारी भी दी जाती थी। इनका काम सिपाहियों के साथ नगर का दौरा करके, शराब, जुए आदि के अड्डों को समाप्त करना भी था। औरंगजेब के काल में हिन्दू मन्दिरों और पाठशालाओं को नष्ट करने का उत्तरदायित्व भी उसे सौंपा गया था।

(छ) मीरे आतिश – मीरे आतिश अथवा दरोगा-ए- तोपखाना का पद मन्त्री स्तर का न होते हुए भी प्रभावशाली होता था। शाही तोपखाना इसके अधीन था। तोपों को बनवाना, किलों में उनकी व्यवस्था और बन्दूकों का निर्माण आदि उसकी देखरेख में होता था। अधिकांशतः यह पद किसी तुर्क या ईरानी को दिया जाता था क्योंकि उन देशों का तोपखाना अधिक श्रेष्ठ था। शाही गढ़ की रक्षा करना उसका प्रमुख कर्त्तव्य था।

(ज) दरोगा-ए-डाकचौकी – यह सूचना एवं गुप्तचर विभाग का अध्यक्ष होता था। प्रान्तों से सूचनाएँ प्राप्त कर उनको बादशाह तक पहुँचाना इसका प्रमुख कर्त्तव्य था। गुप्तचर विभाग का प्रधान होने के कारण शासन में इसका विशेष महत्व था। प्रान्तीय दरोगा इसी को ही सूचनाएँ भेजा करते थे।

प्रान्तीय शासन-व्यवस्था – सम्पूर्ण मुगल-साम्राज्य को सूबों या प्रान्तों में बाँटा गया था। अकबर के समय में सूबों की संख्या 15 या 18 थी जो औरंगजेब के समय साम्राज्य विस्तार होने से 21 हो गई थी। प्रान्तीय शासन-व्यवस्था का ढाँचा केन्द्रीय शासनव्यवस्था के समान ही था। सर जदुनाथ ने लिखा है “मुगल सूबों में शासन-व्यवस्था केन्द्रीय शासन-व्यवस्था का लघु रूप थी।” प्रत्येक सूबे की अपनी पृथक राजधानी थी, जहाँ का प्रधान सूबेदार होता था। सूबेदार को निजाम, सिपहसालार अथवा केवल सूबा के नाम से भी पुकारा जाता था। प्रत्येक सूबे में मुख्य अधिकारी सूबेदार, दीवान, बख्शी, सद्र और काजी, कोतवाल तथा वाकिया-ए-नवीस होते थे। सूबेदार स्वतन्त्र होने का प्रयास न करें, इसलिए अकबर के शासनकाल में यह व्यवस्था थी कि दो-तीन वर्ष पश्चात् सूबेदार को भी स्थानान्तरित कर दिया जाता था।

1. कोतवाल – सूबे की राजधानी तथा बड़े नगरों में शान्ति और सुरक्षा, स्वच्छता और सफाई, यात्रियों की देखभाल आदि कोतवाल करता था। यह एक पुलिस अधिकारी होता था और उसकी अधीनता में पर्याप्त सैनिक रहते थे। नगर प्रबन्ध का भार कोतवाल पर ही था। अबुल फजल के अनुसार, “इस पद के लिए पुरुष को योग्य, बलवान, अनुभवी, चुस्त, गम्भीर, कुशाग्र बुद्धि तथा उदार हृदय होना चाहिए।’

2. वाकिया-ए-नवीस – यह सूबे के गुप्तचर विभाग का प्रधान था। यह सूबे के शासन की प्रत्येक सूचना यहाँ तक कि सूबेदार व दीवान के कार्यों की सूचना भी यह केन्द्रीय सरकार को भेजता था।

3. बख्शी – प्रान्त के सैनिकों की देखरेख, उनको ठीक दशा में रखना, रसद की व्यवस्था करना एवं सरकारी निर्देशों का पालन कराना उसका मुख्य कर्तव्य था। इसकी नियुक्ति केन्द्रीय मीर बख्शी की सलाह से की जाती थी। बख्शी को कभी कभी सूबे का वाकिया-ए-नवीस भी बना दिया जाता था।

4. सद्र और काजी – धार्मिक और न्याय कार्य हेतु प्रान्त में सद्र और काजी का पद साधारणतया एक ही व्यक्ति को प्रदान किया जाता था, जिसकी नियुक्ति केन्द्र के सद्र-उस-सुदूर की सिफारिश पर सम्राट द्वारा की जाती थी।

5. दीवान – दीवान सूबे का वित्त अधिकारी था। सूबे में सूबेदार के पश्चात् शासन में उसी का पद महत्वपूर्ण था। वह सूबेदार के अधीन न था बल्कि वह केन्द्र के दीवान के अधीन था। सूबे की वित्त-व्यवस्था पर नियन्त्रण, आय-व्यय का हिसाब, लगान और कृषि की देखभाल, अधीनस्थ वित्त-अधिकारियों पर नियन्त्रण, सूबे की आर्थिक स्थिति की सूचना केन्द्रीय सरकार को देना तथा दीवानी मुकदमों पर निर्णय आदि दीवान के प्रमुख कर्त्तव्य एवं अधिकार थे।

6. सूबेदार – सूबेदार की नियुक्ति बादशाह द्वारा की जाती थी। सामान्यतः यह पद राजवंश के लोगों या उच्च मनसबदारों को ही दिया जाता था। अपने सूबे में उसकी स्थिति एक छोटे बादशाह के समान थी। उसके साथ एक बड़ी सेना होती थी। उसे अपने सूबे में एक बड़ी जागीर भी प्राप्त होती थी। सूबे के सभी अधिकार उसके अधीन होते थे। सूबे में शान्ति और सुरक्षा की व्यवस्था, प्रजा के हित की रक्षा, फौजदारी मुकदमों का निर्णय करना, विद्रोहों को दबाना, पुल, सराय, सड़कों आदि की सुरक्षा और निर्माण, सूबों के अधीन राज्यों से कर-वसूली आदि उसके विभिन्न कार्य थे।

बादशाह अपने प्रान्त के अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति, तबादले आदि सूबदार की सलाह से ही करता था। अपने सूबे में बादशाह जैसी स्थिति होने के बावजूद भी सूबेदार के अधिकारों की एक सीमा भी थी। वह दरबार लगा सकता था। परन्तु झरोखे से अपनी प्रजा को दर्शन नहीं दे सकता था। इसका केवल बादशाह को ही अधिकार था। बादशाह की अनुमति के बिना वह युद्ध या सन्धि भी नहीं कर सकता था। वह मीर अदल तथा काजी के फैसलों की अपील सुन सकता था।, किन्तु मृत्युदण्ड देने का उसे अधिकार न था। धार्मिक मामलों में भी वह कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता था।

औरंगजेब के साम्राज्य में सूबे
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स्थानीय शासन व्यवस्था–
(i) सरकार अथवा जिले का शासन- प्रत्येक प्रान्त (सूबा) कई सरकारों अथवा जिलों में विभक्त था। प्रत्येक सरकार में अनेक अधिकारी होते थे

  • खजानदार – यह सरकार का खजांची था। सरकारी खजाने की सुरक्षा इसका मुख्य उत्तरदायित्व था।
  • बितिक्ची – बितिक्ची अमलगुजार के अधीन अधिकारी था, जो भूमि तथा लगान सम्बन्धी सभी कार्य करता था और किसानों को लगान वसूली की रसीदें देता था।
  • अमलगुजार – यह सरकार में राजस्व अधिकारी था। सरकार में लगान वसूल करना, कृषि की देखभाल करना, किसानों की सुरक्षा करना, चोर-लुटेरों को दण्ड देना तथा सरकारी खजाने की देखभाल करना उसके प्रमुख कर्तव्य थे।
  • फौजदार – प्रत्येक सरकार में एक फौजदार होता था, जो सम्राट द्वारा नियुक्त किया जाता था। सरकार में आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था का भार उसी पर रहता था।

2. गाँवों का शासन – मुगलों ने गाँव के शासन का उत्तरदायित्व अपने हाथों में नहीं लिया था बल्कि परम्परागत ग्राम पंचायतें ही अपने गाँव की सुरक्षा, सफाई तथा छोटे-मोटे झगड़ों का निपटारा करती थी। गाँवों के अधिकांश झगड़ों का निपटारा भी ग्राम-पंचायतें ही करती थीं। गाँव के अधिकारियों में मुकद्दम, पटवारी, चौकीदार आदि प्रमुख थे। साधारणतया सरकारी कर्मचारी ग्राम्य जीवन और शासन में हस्तक्षेप नहीं करते थे और न ही गाँव में किसी सरकारी कर्मचारी की नियुक्ति की जाती थी। अतः सरकारी कर्मचारियों की अधीनता में गाँव शासन की स्वतन्त्र इकाइयाँ थीं।

3. नगरों का शासन – नगर के शासन का प्रधान कोतवाल होता था। वह उन सभी कार्यों को करता था, जो आधुनिक समय में नगरपालिकाएँ और पुलिस अधिकारी करते हैं। नगर सुरक्षा, सफाई व्यवस्था, बाजार पर नियन्त्रण, यात्रियों पर निगरानी, नगर को वार्डों में बाँटना, स्थानीय करों की वसूली आदि उसके प्रमुख कार्य होते थे। उसकी अधीनता में पर्याप्त सैनिक होते थे।

4. परगने का शासन – प्रत्येक सरकार कई परगनों में बँटी होती थी। इसमें शिकदार, आमिल, फौतदार, काजी, कानूनगो तथा अनेक लेखक होते थे। शिकदार का कर्तव्य परगने में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना तथा लगान वसूलने में सहायता करना था। आमिल परगने का वित्त अधिकारी था तथा किसानों से लगान वसूल करना उसका मुख्य काम था। फौतदार परगने का खजांची था तथा खजाने की सुरक्षा उसका मुख्य उत्तरदायित्व था। परगने में न्याय का कार्य काजी के सुपुर्द था तथा कानूनगो परगने के पटवारियों का प्रधान था। लगान, भूमि और कृषि सम्बन्धी सभी कागजों को देखना और तैयार करना उसका कर्त्तव्य था। परगने में अनेक लेखक (कारकून) भी थे, जो लिखा-पढ़ी का कार्य करते थे।

प्रश्न 9.
मुगलकालीन सैनिक व्यवस्था पर टिप्पणी लिखिए।
उतर:
मुगल सम्राट बाबर ने अपने सैनिक बल के आधार पर ही भारत में मुगल सत्ता स्थापित की थी। औरंगजेब के समय तक यह सत्ता अपनी शक्ति को स्थापित रख सकी। लेकिन बाद के शासक सैनिक-व्यवस्था को ठीक नहीं रख सके, जिससे उनकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई और मुगल साम्राज्य का पतन हो गया। मुगल सेना में मुख्यत: तीन प्रकार के सैनिक और अधिकारी होते थे

  1. मनसबदार और उनके सैनिक – प्रत्येक सैनिक अधिकारी को मनसब (पद) प्रदान किया गया था। बादशाह के अधीन राजाओं को भी मनसबदारों की श्रेणी में सम्मिलित किया गया था। बादशाह उनको उनके मनसब के अनुसार वेतन देता था। | मनसबदार स्वेच्छा से अपने सैनिकों की भर्ती करता था।
  2. अहदी सैनिक – अहदी सैनिक बादशाह के सैनिक थे। बादशाह की तरफ से इनकी भर्ती, वेतन, शिक्षा, वस्त्र, घोड़े आदि की व्यवस्था की जाती थी। एक अहदी घुड़सवार को 500 तक वेतन दिए जाने का उल्लेख है जबकि साधारण घुड़सवार को 12 से 15 तक वेतन मिलता था। अकबर के समय तक इनकी संख्या 12 हजार थी।
  3. दाखिली सैनिक – ये वे सैनिक थे, जिनकी भर्ती बादशाह की तरफ से की जाती थी। यद्यपि इनको मनसबदारों की सेवा में रखा जाता था।

सेना – मुगल सेना मोटे तौर पर पाँच भागों में बँटी हुई थी। ये पाँच भाग थे- पैदल सेना, घुड़सवार सेना, तोपखाना, नौसैना और हस्ति सेना।

1. पैदल सेना – पैदल सैनिक मुख्यत: दो भागों में बँटे होते थे,

  • बन्दूकची और
  • शमशीरबाज (तलवारबाज)। इनमें लड़ने वाले सैनिकों के अतिरिक्त दास, सेवक, पानी भरने वाले आदि भी सम्मिलित होते थे।

2. घुड़सवार सेना – घुड़सवार सेना मुगल सेना का श्रेष्ठतम भाग था। इसमें मुख्यतया दो प्रकार के सैनिक थे

  • बरगीर; जिन्हें घोड़े, अस्त्र और शस्त्र राज्य की ओर से मिलते थे और
  • सिलेदार; जो अपने शस्त्र और घोड़े स्वयं लाते थे। इसके अतिरिक्त वह घुड़सवार, जो दो घोड़े रखता था, दो अस्पा कहलाता था। जिसके पास एक घोड़ा होता था वह एक अस्पा घुड़सवार होता था। निम्न-अस्पा वे घुड़सवार थे जिनके दो सैनिकों के पास केवल एक घोड़ा होता था।

3. तोपखाना – भारत में बाबर ने सर्वप्रथम तोपखाने का उपयोग किया। अकबर ने इसे और शक्तिशाली बनाया। इस क्षेत्र में अकबर का प्रमुख कार्य ऐसी छोटी-छोटी तोपों का निर्माण करना था, जो एक हाथी अथवा ऊँट की पीठ पर ले जायी जा सकती थी। डॉ०आर०पी० त्रिपाठी के अनुसार “तुर्की तोपखाने को छोड़कर अकबर का तोपखाना एशिया में किसी से कम न था क्योंकि अकबर के समय में वह श्रेष्ठता की चरम सीमा पर था।” तोपखाने में यूरोपियनों की नियुक्ति की जाती थी। कहा जाता था कि वे तोपखाने के प्रयोग में दक्ष थे।

4. नौसेना – मुगल सैनिक-शक्ति का यह कमजोर अंग था। अकबर ने पहली बार इस ओर ध्यान दिया था और इसके लिए मीर-ए-बहर की अध्यक्षता में एक अलग विभाग स्थापित किया गया था। वास्तव में मुगल सम्राट नौसेना की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे सके तथा कालान्तर में यूरोपीय जातियों से पराजित हुए।

5. हस्ति सेना – अकबर ने अपनी सेना में ‘हस्ति सेना’ के संगठन पर विशेष महत्व दिया। उसे हाथियों से विशेष लगाव था। उसकी सेना में एक हजार शाही हाथी थे और बाद में इनकी संख्या पचास हजार तक पहुंच गई। इनका प्रयोग युद्ध में व सामान ढोने में किया जाता था। सम्राट जिन हाथियों का प्रयोग करता था, उन्हें ‘खास’ कहा जाता था। अन्य श्रेणियों के हाथी ‘हलकह’ कहे जाते थे।

प्रश्न 10.
मुगलकालीन वित्त-व्यवस्था पर निबन्ध लिखिए।
उतर:
मुगलकालीन वित्त-व्यवस्था का अध्ययन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
1. राज्य की आय के साधन – मुगल बादशाहों की आय के मुख्य साधन युद्ध में लूटी हुई सम्पत्ति का पाँचवाँ भाग, व्यापारिक कर, टकसाल, अधीनस्थ राजाओं एवं मनसबदारों से समय-समय पर प्राप्त होने वाले उपहार, लावारिस सम्पत्ति, नमक कर, राज्य के उद्योगों से आय और लगान (भूमिकर) था। बाबर और हुमायूँ ने हिन्दुओं से ‘जजिया’ और मुसलमानों से ‘जकात’ नामक धार्मिक कर लिए। अकबर ने इन्हें समाप्त कर दिया। औरंगजेब के समय में ये धार्मिक कर पुन: लगाए गए। अधिकांश उत्तरकालीन मुगल बादशाहों ने भी इन करों को लगाने का प्रयत्न किया।

2. लगान व्यवस्था – मुगल साम्राज्य की लगभग दो-तिहाई आय लगान ( भूमिकर) से होती थी, जो एक प्रकार से आर्थिक संगठन का मुख्य आधार थी। अकबर प्रथम मुगल बादशाह था, जिसने लगान-व्यवस्था को सुचारु रूप से स्थापित किया और मध्य युग की सर्वश्रेष्ठ लगान पद्धति का निर्माण किया। उसने विभिन्न लगान अधिकारियों तथा अर्थ-मन्त्रियों को नियुक्त करके विभिन्न अन्वेषण किए। उसने टोडरमल की सहायता से जिस लगान व्यवस्था को स्थापित किया, उसे दहसाला प्रबन्ध (जाब्ता) कहा जाता है और वह मुगल लगान-व्यवस्था का सफल आधार बनी।

3. दहसाला प्रबन्ध – 1580 ई० में अकबर ने दहसाला प्रबन्ध को आरम्भ किया और उसे लगान व्यवस्था का स्थायी स्वरूप दिया गया। उस समय राजा टोडरमल अर्थ मन्त्री था और उसका मुख्य सहायक ख्वाजा शाह मंसूर था। इस बन्दोबस्त की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीं

  • सर्वप्रथम सम्पूर्ण राज्य की खेती योग्य भूमि की नाप करवाई गई। भूमि की नाप के लिए रस्सी की जरीब के स्थान
    पर बॉस की जरीब का प्रयोग किया गया, जिसके टुकड़े लोहे की पत्तियों से जुड़े होते थे।
  • क्षेत्रफल की इकाई बीघा मानी गई, जो 60 गज x 60 गज अर्थात् 3600 वर्ग गज होता था।
  • नापने के लिए सिकन्दरी गज के स्थान पर अकबरी गज जो 41 अंगुल का था, प्रयोग किया गया।
  • कृषि योग्य भूमि को चार भागों में बाँटा गया-
    • पोलज
    • पड़ौती
    • छच्चर (चाचर) और
    • बंजर भूमि।
  • प्रत्येक प्रकार की भूमि की पिछले दस वर्षों की पैदावार का पता लगाकर उस भूमि की औसत पैदावार का पता लगाया जाता था और उस औसत पैदावार को लगान निश्चित करने का आधार मानकर अगले दस वर्षों के लिए किसानों से लगान निश्चित कर दिया जाता था।
  • इस व्यवस्था के अनुसार राज्य का हिस्सा उपज का 1/3 भाग होता था।
  • किसानों से लगान सिक्कों के रूप में लिया जाता था। अकबर ने किसानों को भूमि का स्वामी स्वीकार किया और राज्य के किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित किया। इस प्रकार शेरशाह की भाँति उसकी व्यवस्था भी रैयतवाड़ी थी।
  • लगान के लिए किसानों को पट्टे दिए जाते थे, जिसमें उनकी भूमि और लगान का विवरण होता था। किसानों से उनकी स्वीकृति (कबूलियत) भी ली जाती थी।
  • भूमि सुधार को प्रोत्साहन दिया जाता था और आपत्तिकाल में लगान कम अथवा माफ भी कर दिया जाता था।
  • दहसाला प्रबन्ध सम्पूर्ण राज्यों में लागू नहीं किया गया था। वह प्रमुख रूप से बिहार, इलाहाबाद, मालवा, अवध, आगरा, दिल्ली, लाहौर और मुल्तान में लागू था।

अकबर की उपर्युक्त लगान-व्यवस्था की कुछ ब्रिटिश इतिहासकारों ने आलोचना की है। उनके अनुसार लगान कर्मचारी भ्रष्ट थे, जो किसानों पर अत्याचर करते थे और किसानों से अधिक मात्रा में लगान वसूल किया जाता था। परन्तु अधिकांश भारतीय इतिहासकार अकबर की लगान-व्यवस्था को श्रेष्ठ और सफल मानते हैं। इनके अनुसार उपज का 1/3 भाग मध्य युग का न्यूनतम लगान था। लगान के अतिरिक्त अकबर अन्य कोई कर नहीं लेता था। इस प्रकार अकबर की लगान-व्यवस्था के सम्बन्ध में लेनपूल ने लिखा है, “ मध्य युग के इतिहास में आज तक किसी व्यक्ति का नाम इतना ख्यातिपूर्ण नहीं माना गया है, जितना टोडरमल का और इसका कारण यह है कि अकबर के सुधारों में से कोई भी सुधार इतनी अधिक मात्रा में प्रजा के हितों की पूर्ति करने वाला न था, जितनी इस महान् अर्थशास्त्री द्वारा की गई लगान की पुनर्व्यवस्था।”

जहाँगीर के समय में लगान-व्यवस्था का मूल स्वरूप अकबर के समय की भाँति ही रहा परन्तु उसका प्रबन्ध शिथिल हो गया। डॉ० बी०पी० सक्सेना के अनुसार, राज्य की 70% भूमि जागीरदारों को दे दी गई और राज्य का सम्पर्क जागीरदारी भूमि के किसानों से न रहा। शाहजहाँ ने किसानों के कर-भार में वृद्धि कर दी। उसने लगान वसूल करने के लिए भूमि को ठेकेदारों को दिया जाना भी आरम्भ कर दिया। औरंगजेब के समय में राज्य की आर्थिक कठिनाइयों के कारण किसानों पर अधिक दबाव डाला गया। किसानों से लगान वसूल करने के लिए कठोरता भी की गई, जिससे किसानों की स्थिति खराब हो गई। उत्तरकालीन मुगल बादशाहों के समय में तो यह व्यवस्था पूर्णतया समाप्त हो गई और भूमि को ठेकेदारों को देने के अतिरिक्त और कोई कार्य शेष न रहा। इससे किसानों की स्थिति खराब हो गई और राज्य का आर्थिक ढाँचा नष्ट हो गया।

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

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Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Samanya Hindi
Chapter Name राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

राष्ट्रीय भावनापरक निबन्ध

राष्ट्रभाषा हिन्दी [2009, 13]

सम्बद्ध शीर्षक।

  • राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में बाधाएँ
  • राष्ट्रभाषा हिन्दी : राष्ट्र की एकता का प्रतीक
  • देश के विकास में राष्ट्रभाषा की भूमिका
  • हिन्दी ही राष्ट्रभाषा क्यों ? [2009]
  • राष्ट्रभाषा का महत्त्व [2009]
  • भारत की भाषा-समस्या और हिन्दी (2012)

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. भाषा के विभिन्न रूप,
  3. हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का औचित्य,
  4. अंग्रेजी को अपदस्थ करना आवश्यक,
  5. उपसंहार : हिन्दी के गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा में बाधक तत्त्व और समस्या का समाधान।।

प्रस्तावना—किसी भी पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए तीन वस्तुएँ अनिवार्य होती हैं(1) राष्ट्रध्वज, (2) राष्ट्रगान तथा (3) राष्ट्रभाषा। भारत के पास राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान तो हैं, किन्तु राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को उसका उचित स्थान अब तक न मिल पाना बड़े दुर्भाग्य की बात है। किसी भी स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का प्रश्न मूलभूत महत्त्व का होता है; क्योकि राष्ट्रभाषा समस्त राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने वाली, उसकी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने वाली एवं उसे उसके प्राचीन गौरव का स्मरण दिलाकर उसमें अस्मिता-बोध जगाने वाली संजीवनी है, जिसके बिना राष्ट्र मृतप्राय होकर कालान्तर में अपनी सम्प्रभुता भी खो देता है। भारतेन्दु जी ने ठीक ही लिखा है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल ॥

वस्तुतः राष्ट्रभाषा के बिना कोई व्यक्ति गर्व से किसी स्वतन्त्र राष्ट्र का नागरिक कहलाने का अधिकारी नहीं होता। आज जो भारतीय किसी कार्यवश संसार के ऐसे देशों में जाते हैं, जहाँ की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नहीं है, वहाँ अंग्रेजी के प्रयोग के कारण उन्हें जिस असुविधा एवं अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ता है, उसका विवरण कितने ही सज्जनों ने स्वयं ही दिया है। यही कारण है कि किसी भी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का प्रश्न सब प्रकार के विवादों से ऊपर होता है, किन्तु संसार में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ राष्ट्रभाषा के प्रश्न को भी क्षुद्र राजनीतिक, क्षेत्रीय एवं साम्प्रदायिक विवादों में फंसाकर व्यवहार में अब तक अनिर्णीत रखा गया है। इसके दुष्परिणाम भी देश के उत्तरोत्तर बढ़ते जाते विघटन के रूप में दीख पड़ते हैं। अतः राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की स्थिति, इसके उचित स्थान-ग्रहण में बाधक तत्त्व एवं इस समस्या के समाधान पर विचार करना उचित होगा।

भाषा के विभिन्न रूप-सर्वप्रथम क्षेत्रीय (प्रादेशिक) भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के अन्तर को स्पष्ट करना उचित होगा। किसी देश के प्रदेश विशेष की भाषा को प्रादेशिक या क्षेत्रीय भाषा कहते हैं; जैसे—भारत में बाँग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, तेलुगू आदि भाषाएँ। जब कोई प्रादेशिक भाषा किन्हीं राजनीतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या साहित्यिक कारणों से समग्र देश में फैलकर विभिन्न प्रदेशवासियों के पारस्परिक व्यवहार का माध्यम बन जाती है तो उसे राष्ट्रभाषा’ कहते हैं। आशय यह है कि किसी प्रदेश विशेष के निवासी आपसी व्यवहार में तो अपनी प्रादेशिक भाषा का ही प्रयोग करते हैं, किन्तु भिन्न भाषा-भाषी दूसरे प्रदेश वालों के साथ व्यवहार के समय एक ऐसी भाषा का प्रयोग करने को बाध्य हैं, जो सारे देश में थोड़ी-बहुत समझी-बोली जाती हो। इसी को राष्ट्रभाषा कहते हैं।

भारत में मध्यकाल से ही हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव-सरकार की ओर से नहीं, अपितु जनता-जनार्दन की ओर से—प्राप्त हुआ; क्योंकि कोई भी राष्ट्रभाषा जनता द्वारा ही स्वीकृत होती है। यहाँ राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय भाषा के अन्तर को भी स्पष्ट करना आवश्यक है। वस्तुतः किसी राष्ट्र में प्रचलित समस्त भाषाएँ वहाँ की राष्ट्रीय भाषाएँ (National Languages) होती हैं, किन्तु राष्ट्रभाषा (Lingua Franca) केवल वही हो सकती है, जिसे विभिन्न प्रादेशिक भाषाएँ बोलने वाले आपसी व्यवहार के लिए अपनाएँ। इस प्रकार समस्त भारतीय भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ हैं; राष्ट्रभाषा केवल हिन्दी है।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का औचित्य-देश की चौदह सम्पन्न भाषाओं के रहते हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा का पद क्यों दिया गया, इस सम्बन्ध में हिन्दी भाषा के प्रमुख क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश के; जिसे प्राचीन काल में मध्यदेश कहते थे; विशिष्ट भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व पर दृष्टिपात करना होगा। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० धीरेन्द्र वर्मा लिखते हैं, “वैदिक साहित्य के अनुसार आर्यों का प्रारम्भिक निवास स्थान मध्य प्रदेश के मध्य में न होकर उसकी पश्चिमोत्तर सीमा पर सरस्वती नदी के निकटवर्ती प्रदेश में गंगा की घाटी के उत्तरी भाग तक फैला हुआ था। यही प्रदेश बाद में कुरु-पांचाल जनपदों के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रदेश से आर्य-संस्कृति चारों ओर फैली। यूरोपीय विद्वानों के अनुसार भी आर्यों की संस्कृति का प्राचीनतम तथा शुद्धतम रूप भारत में मध्यदेश में ही मिलता है। यहीं से इसका प्रभाव पश्चिम में (ईरान, ग्रीस आदि देशों) तथा अन्य दिशाओं में फैला।”

वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों की रचना यहीं हुई। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ का सम्बन्ध मध्यदेश से ही है। राम और कृष्ण की क्रीड़ा-स्थलियाँ–अयोध्या और ब्रज-मध्यदेश में ही हैं। ‘गीता’ का उपदेश कुरुक्षेत्र में दिया गया। कई प्रमुख हिन्दू राजवंशों की राजधानियाँ इसी क्षेत्र में रहीं। बाद में विदेशी शासकों-तुर्क, अफगान, मुगल, अंग्रेज आदि ने भी अपने साम्राज्यों का केन्द्र मध्यदेश में ही दिल्ली (प्राचीन इन्द्रप्रस्थ) को बनाया और आज भी भारतवर्ष की राजधानी यही है। प्रधान साहित्यिक आर्य भाषाओं; जैसे-संस्कृत, पालि, शौरसेनी, ब्रजभाषा आदि का घर मध्यदेश ही रहा है। खड़ी बोली हिन्दी का सम्बन्ध भी यहीं से है; अत: किसी भी दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय आर्य-संस्कृति के इतिहास में इसका असाधारण महत्त्व है।

विख्यात भाषाशास्त्री डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी भी उपयुक्त मत की पुष्टि करते हुए लिखते हैं, वैदिक युग के बाद से प्राचीन काल में उत्तर भारत के जिस भाग को मध्यदेश कहा जाता था, उसके सांस्कृतिक तथा राजनीतिक प्राधान्य के कारण ही प्रत्येक युग में वहाँ की भाषा का प्राधान्य रहा है और इसी प्रदेश तथा इसके आसपास की भाषा भिन्न-भिन्न युगों में संस्कृत, पालि, शौरसेनी प्राकृत, ब्रज भाषा और अन्त में हिन्दी (खड़ी बोली) के रूप में सम्पूर्ण भारत की सहज एवं स्वाभाविक अन्तर्घान्तीय भाषा के रूप में विराजमान रही है।”

इस प्रकार यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही भारत को अखिल भारतीय व्यवहार के लिए सदा से राष्ट्रभाषा देता आया है, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता पुष्ट हुई है। अत: यदि आज खड़ी बोली हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद मिला है तो वह किसी पक्षपात या कृपा का फल न होकर उसके पारम्परिक अधिकार की ही स्वीकृति है। वस्तुतः वह मध्यकाल से ही इस देश की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वभावत: ही आसीन रही है। आज ही कोई नयी बात नहीं हुई। सच तो यह है कि इस देश के गौरवमय सुदीर्घ इतिहास में भाषा सम्बन्धी विवाद कभी उठे ही नहीं। फिर आज ही ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका कारण यह है कि विदेशी भाषा की गुलामी ने हमें अपनी अतीव समृद्ध परम्परा से काट दिया, जिससे हम अलगाववादी सुर अलापने लगे।

डॉ० चटर्जी अन्यत्र लिखते हैं, भारत की वर्तमान दशा पर विचार करने से राष्ट्रभाषा या जातीय भाषा के स्वीकृत होने की योग्यता हिन्दी में ही सबसे अधिक है। हिन्दी भाषा अखण्ड भारत की एकता के आदर्श को मुख्य प्रतीक है। अंग्रेजी न जानने वाले दो भिन्न-भिन्न प्रान्तों के भारतीय जब आ मिलते हैं, तब वे परस्पर वार्तालाप करते समय हिन्दी में ही बोलने की चेष्टा करते हैं। सम्भव है कि वह हिन्दी अत्यन्त अशुद्ध या टूटी-फूटी हो, किन्तु हिन्दी ही होती है। समस्त भारत के घुमक्कड़ साधु-संन्यासी, जो एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में घूमते हैं, हिन्दी ही सीखते हैं और हिन्दी ही बोलते हैं। भारतीय सेना-विभाग में हिन्दुस्तानी का ही बोलबाला है। भारत के बाहर, जैसे बर्मा में भारतीय भाषा’ से लोग हिन्दी को ही समझते हैं। इसी प्रकार द्रविड़ भाषा-भाषी दक्षिण भारत में उत्तर भारत की जिस भाषा को सबसे अधिक बोल सकते हैं, वह हिन्दी ही है।

अंग्रेजी को अपदस्थ करना आवश्यक-हिन्दी के इसी अखिल भारतीय स्वरूप का यह परिणाम है कि हिन्दी-प्रदेश में प्रादेशिकता की भावना कभी नहीं उभरी, सदा भारतीयता पर बल दिया गया। यही कारण है कि हिन्दी-प्रदेश में आकर भारत के किसी भी अन्य प्रदेश के व्यक्ति को किसी प्रकार के अलगाव का अनुभव नहीं होता, सर्वथा अपनेपन का ही अनुभव होता है। वस्तुतः हिन्दी को उचित स्थान दिलाने का आग्रह समस्त भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के आग्रह का ही नामान्तर है; क्योंकि यदि हिन्दी को हिन्दी-भाषी प्रदेशों एवं केन्द्र में उसका उचित स्थान मिलता है तो समस्त प्रान्तों में वहाँ की प्रादेशिक भाषाओं को भी उनका उचित स्थान मिलकर रहेगा। अंग्रेजी ने आज हिन्दी का ही नहीं, अपितु समस्त प्रादेशिक भाषाओं का भी अधिकार छीन रखा है। यदि समस्त भारतवासी इस बात पर राष्ट्रीय स्वाभिमान की दृष्टि से विचार करें, तो सारा देश एकता के सूत्र में बँधकर अपने लुप्त गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है।

उपसंहार : हिन्दी के गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा में बाधक तत्त्व और समस्या का समाधान-यही वह भावना थी, जिससे प्रेरित होकर 14 सितम्बर, सन् 1949 ई० को संविधान सभा के 324 सदस्यों में से 312 ने हिन्दी को भारतीय गणतन्त्र की राजभाषा बनाने के पक्ष में मत दिया। इन सदस्यों में भारत की प्रत्येक प्रादेशिक भाषा एवं बोली के प्रतिनिधि थे, किन्तु व्यापक राष्ट्रहित में उन्होंने प्रादेशिक भावना का परित्याग कर दिया। खेद है कि संविधान-निर्माताओं की दृढ़ राष्ट्र-प्रेम से प्रेरित इस उदार भावना के विपरीत आज भी देश पर दासता की प्रतीक एक विदेशी भाषा को थोपे रखा गया है। वस्तुत: यह निहित स्वार्थ वाले उन कतिपय दास मनोवृत्ति से ग्रस्त सत्ताधारियों का काम है, जो शरीर से स्वतन्त्र होने पर भी मन से अंग्रेजों के गुलाम हैं; क्योंकि उन्हें अपने महान् देश के गौरवमय अतीत एवं विश्वविजयिनी संस्कृति का रंचमात्र भी ज्ञान नहीं। हम आज भी विदेशी तकनीक का आयात कर रहे हैं और प्रत्येक क्षेत्र में उन पर निर्भर हैं।

इसका कारण यही है। कि हमने अपनी भाषाओं के माध्यम से स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा नहीं दिया, वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुसन्धान को प्रश्रय नहीं दिया। राजभाषा के रूप में हिन्दी को संविधान के अनुसार जो अधिकार मिले हैं। अभी भी अंग्रेजी ही उनका उपभोग कर रही है। अंग्रेजी को अपदस्थ करने के लिए हमें भारत में भी ‘कमालपाशा’ (अरब के शासक कमालपाशा ने एक ही दिन में अपनी भाषा को राजभाषा घोषित कर लागू कर दिया था और अब वही अरबी भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ की छठी मान्य विश्वभाषा बन चुकी है।) उत्पन्न करने होंगे। भारत भी उस दिन की प्रतीक्षा में है, जव भारत के राजनीतिज्ञों में से कोई कमालपाशा की भूमिका निभाएगा। बिना अपनी भाषा को अपनाये किसी भी राष्ट्र के लिए किसी क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय मौलिक योगदान करना सम्भव नहीं। अपनी भाषा को अपनाने के कारण ही जापान ने आज विश्व में आश्चर्यजनक प्रगति की है।

अभी तक सत्ताधारियों का अंग्रेजी के प्रति मोह भंग नहीं हुआ है और देश निरन्तर अध:पतन की ओर बढ़ता जा रहा है। इसे विनाश से बचाने एवं विश्वराष्ट्रों के मध्य गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का एकमात्र उपाय है-अपनी भाषाओं को अपनाना अर्थात् प्रादेशिक भाषाओं को अपने-अपने प्रदेश में और राष्ट्रभाषा को केन्द्र में प्रतिष्ठित करना; क्योंकि बिना राष्ट्रभारती की आराधना के कोई भी राष्ट्र गौरव का अधिकारी नहीं बनती।

राष्ट्रीय एकता [2010]

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्रीय एकीकरण और उसके मार्ग की बाधाएँ
  • राष्ट्रीय एकता और अखण्डता
  • राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्त्व
  • वर्तमान परिवेश में राष्ट्रीय एकता का स्वरूप
  • राष्ट्रीय एकता एवं सुरक्षा
  • राष्ट्रीय एकता : आज की अनिवार्य आवश्यकता [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय,
  2. भारत में अनेकता के विविध रूप,
  3. राष्ट्रीय एकता का आधार,
  4. राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता,
  5. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ—(क) साम्प्रदायिकता; (ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता; (ग) भाषावाद; (घ) जातिवाद; (ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति,
  6. राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय—(क) सर्वधर्म समभाव; (ख) समष्टिहित की भावना; (ग) एकता का विश्वास; (घ) शिक्षा का प्रसार; (ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना : राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय-एकता एक भावात्मक शब्द है जिसको अर्थ है-‘एक होने का भाव’। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है-देश का सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि से एक होना। भारत में इन दृष्टिकोणों से अनेकता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु बाह्य रूप से दिखाई देने वाली इस अनेकता के मूल में वैचारिक एकता निहित है। अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है। किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय एकता उसके राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक होती है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव पर अभिमान नहीं होता, वह मनुष्य नहीं-

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नरपशु है निरा, और मृतक समान है।

भारत में अनेकता के विविध रूप-भारत एक विशाल देश है। उसमें अनेकता होनी स्वाभाविक ही है। धर्म के क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलम्बी यहाँ निवास करते हैं। इतना ही नहीं, एक-एक धर्म में भी कई अवान्तर भेद हैं; जैसे-हिन्दू धर्म के अन्तर्गत वैष्णव, शैव, शाक्त आदि। वैष्णवों में भी रामपूजक और कृष्णपूजक हैं। इसी प्रकार अन्य धर्मों में भी अनेकानेक अवान्तर भेद हैं। सामाजिक दृष्टि से विभिन्न जातियाँ, उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर आदि विविधता के सूचक हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, पूजा-पाठ आदि की भिन्नता ‘अनेकता’ की द्योतक है। राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद आदि अनेक वाद राजनीतिक विचार-भिन्नता का संकेत करते हैं। साहित्यिक दृष्टि से भारत की प्राचीन और नवीन भाषाओं में रचित साहित्य की भिन्न-भिन्न शैलियाँ विविधता की सूचक हैं। आर्थिक दृष्टि से पूँजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि विचारधाराएँ भिन्नता दर्शाती हैं। इसी प्रकार भारत की प्राकृतिक शोभा, भौगोलिक स्थिति, ऋतु-परिवर्तन आदि में भी पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारत अत्यन्त प्राचीन काल से एकता के सूत्र में बंधा रहा है।

राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं सार्वभौमिक सत्ता बनाये रखने के लिए राष्ट्रीयता की भावना का उदय होना परमावश्यक है। यही वह भावना है, जिसके कारण राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र के सम्मान, गौरव और हितों का चिन्तन करते हैं।

राष्ट्रीय एकता का आधार–हमारे देश की एकता के आधार दर्शन (Philosophy) और साहित्य (Literature) हैं। ये सभी प्रकार की भिन्नताओं और असमानताओं को समाप्त करने वाले हैं। भारतीय दर्शन सर्व-समन्वय की भावना का पोषक है। यह किसी एक भाषा में नहीं लिखा गया है, अपितु यह देश की विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है। इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्र के निवासियों द्वारा लिखे जाने के बावजूद क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता, वरन् सबके लिए भाई-चारे, मेल-मिलाप और सद्भाव का सन्देश देता हुआ देशभक्ति के भावों को जगाता है।

राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता–राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता है। भारत के सन्तों ने तो प्रारम्भ से ही मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं माना। वह तो सम्पूर्ण मनुष्य जाति को एक सूत्र में बाँधने के पक्षधर रहे हैं। नानक का कथन है–

अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे ।
एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मन्दे ॥

यदि हम भारतवासी अपने में निहित अनेक विभिन्नताओं के कारण छिन्न-भिन्न हो गये तो हमारी फूट का लाभ उठाकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने का प्रयास करेंगे। ऐसा ही विचार राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने व्यक्त किया था, “जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी।” अत: देश की स्वतन्त्रता की रक्षा और राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय एकता का होना परम आवश्यक है।

राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ—मध्यकाल में विदेशी शासकों का शासन हो जाने पर भारत की इस अन्तर्निहित एकता को आघात पहुँचा था, किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अनेक समाज-सुधारकों और दूरदर्शी राजपुरुषों के सद्प्रयत्नों से यह आन्तरिक एकता मजबूत हुई थी, किन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद अनेक तत्त्व इस आन्तरिक एकता को खण्डित करने में सक्रिय रहे हैं, जो इस प्रकार हैं

(क) साम्प्रदायिकता–साम्प्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टिकोण है। संसार के विविध धर्मों में जितनी बातें बतायी गयी हैं, उनमें से अधिकांश बातें समान हैं; जैसे—प्रेम, सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा, पवित्रता आदि। सच्चा धर्म कभी भी दूसरे से घृणा करना नहीं सिखाता। वह तो सभी से प्रेम करना, सभी की सहायता करना, सभी को समान समझना सिखाता है। जहाँ भी विरोध और घृणा है, वहाँ धर्म हो ही नहीं सकता। जाति-पाँति के नाम पर लड़ने वालों पर इकबाल कहते हैं-मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।

(ख) क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता-अंग्रेज शासकों ने न केवल धर्म, वरन् प्रान्तीयता की अलगाववादी भावना को भी भड़काया है। इसीलिए जब-तब राष्ट्रीय भावना के स्थान पर प्रान्तीय अलगाववादी भावना बलवती होने लगती है और हमें पृथक् अस्तित्व (राष्ट्र) और पृथक् क्षेत्रीय शासन स्थापित करने की माँगें सुनाई पड़ती हैं। एक ओर कुछ तत्त्व खालिस्तान की माँग करते हैं तो कुछ तेलुगूदेशम्। और ब्रज प्रदेश के नाम पर मिथिला राज्य चाहते हैं। इस प्रकार क्षेत्रीयता अथवा प्रान्तीयता की भावना भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए बहुत बड़ी बाधा बन गयी है।

(ग) भाषावाद–भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। यहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। प्रत्येक भाषा-भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों से बढ़कर मानता है। फलत: विद्वेष और घृणा का प्रचार होता है और अन्तत: राष्ट्रीय एकता प्रभावित होती है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत को एक संघ के रूप में गठित किया गया और प्रशासनिक सुविधा के लिए चौदह प्रान्तों में विभाजित किया गया, किन्तु धीरे-धीरे भाषावाद के आधार पर प्रान्तों की माँग बलवती होती चली गयी, जिससे भारत के प्रान्तों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया गया। तदुपरान्त कुछ समय तो शान्ति रही, लेकिन शीघ्र ही अन्य अनेक विभाषी बोली बोलने वाले व्यक्तियों ने अपनी-अपनी विभाषा या बोली के आधार पर अनेक आन्दोलन किये, जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना को धक्का पहुंचा।

(घ) जातिवाद-मध्यकाल में भारत के जातिवादी स्वरूप में जो कट्टरता आयी थी, उसने अन्य जातियों के प्रति घृणा और विद्वेष का भाव विकसित कर दिया था। पुराकाल की कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था ने जन्म पर आधारित कट्टर जाति-प्रथा का रूप ले लिया और हर जाति अपने को दूसरी से ऊँची मानने लगी। इस तरह जातिवाद ने भी भारत की एकता को बुरी तरह प्रभावित किया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् हरिजनों के लिए आरक्षण की राजकीय नीति का आर्थिक दृष्टि से दुर्बल सवर्ण जातियों ने कड़ा विरोध किया। विगत वर्षों में इस विवाद पर लोगों ने तोड़-फोड़, आगजनी और आत्मदाह जैसे कदम उठाकर देश की राष्ट्रीय एकता को झकझोर दिया। इस प्रकार जातिवाद राष्ट्रीय एकता के मार्ग में आज एक बड़ी बाधा बन गया है।

(ङ) संकीर्ण मनोवृत्ति–जाति, धर्म और सम्प्रदायों के नाम पर जब लोगों की विचारधारा संकीर्ण हो जाती है, तब राष्ट्रीयता की भावना मन्द पड़ जाती है। लोग सम्पूर्ण राष्ट्र का हित न देखकर केवल अपने जाति, धर्म, सम्प्रदाय अथवा वर्ग के स्वार्थ को देखने लगते हैं।

राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के उपाय–वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रस्तुत हैं-

(क) सर्वधर्म समभाव-विभिन्न धर्मों में जितनी भी अच्छी बातें हैं, यदि उनकी तुलना अन्य धर्मों की बातों से की जाए तो उनमें एक अद्भुत समानता दिखाई देगी; अत: हमें सभी धर्मों का समान आदर करना चाहिए। धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर किसी को ऊँचा या नीचा समझना नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से एक पाप है। धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने के लिए गहरे विवेक की आवश्यकता है। सागर के समान उदार वृत्ति रखने वाले इनसे प्रभावित नहीं होते।

(ख) समष्टि-हित की भावना–यदि हम अपनी स्वार्थ-भावना को त्यागकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें तो धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के नाम पर न सोचकर समूचे ‘राष्ट’ के नाम पर सोचेंगे और इस प्रकार अलगाववादी भावना के स्थान पर राष्ट्रीय भावना का विकास होगा, जिससे अनेकता रहते हुए भी एकता की भावना सुदृढ़ होगी।

(ग) एकता का विश्वास–भारत में जो दृश्यमान अनेकता है, उसके अन्दर एकता का भी निवास है-इस बात का प्रचार ढंग से किया जाए, जिससे कि सभी नागरिकों को अन्तर्निहित एकता का विश्वास हो सके। वे पारस्परिक प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास जगा सकें।

(घ) शिक्षा का प्रसार–छोटी-छोटी व्यक्तिगत द्वेष की भावनाएँ राष्ट्र को कमजोर बनाती हैं। शिक्षा का सच्चा अर्थ एक व्यापक अन्तर्दृष्टि व विवेक है। इसलिए शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थी की संकुचित भावनाएँ शिथिल हो। विद्यार्थियों को मातृभाषा तथा राष्ट्रभाषा के साथ एक अन्य प्रादेशिक भाषा का भी अध्ययन करना चाहिए। इससे भाषायी स्तर पर ऐक्य स्थापित होने से राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी।

(ङ) राजनीतिक छल-छद्मों का अन्त–विदेशी शासनकाल में अंग्रेजों ने भेदभाव फैलाया था, किन्तु अब स्वार्थी राजनेता ऐसे छलछम फैलाते हैं कि भारत में एकता के स्थान पर विभेद ही अधिक पनपता है। ये राजनेता साम्प्रदायिक अथवा जातीय विद्वेष, घृणा और हिंसा भड़काते हैं और सम्प्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक छलछद्मों का अन्त और राजनीतिक वातावरण के स्वच्छ होने से भी एकता का भाव सुदृढ़ करने में सहायता मिलेगी।

उपर्युक्त उपायों से भारत की अन्तर्निहित एकता का सभी को ज्ञान हो सकेगा और सभी उसको खण्डित करने के प्रयासों को विफल करने में अपना योगदान कर सकेंगे। इस दिशा में धार्मिक महापुरुषों, समाज-सुधारकों, बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों और महिलाओं को विशेष रूप से सक्रिय होना चाहिए तथा मिल-जुलकर प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने पर सबल राष्ट्र के घटक स्वयं भी अधिक पुष्ट होंगे।

उपसंहार--राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा, क्योंकि मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना ही संसार में समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। इसीलिए जब तक हममें मानवीयता की भावना विकसित नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। यह भाव उपदेशों, भाषणों और राष्ट्रीय गीत के माध्यम से सम्भव नहीं।

हमारे राष्ट्रीय पर्व [2011, 12]

सम्बद्ध शीर्षक

  • भारत के राष्ट्रीय त्योहार
  • कोई राष्ट्रीय पर्व

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. गणतन्त्र दिवस,
  3. स्वतन्त्रता दिवस,
  4. गाँधी जयन्ती,
  5. राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना-भारतवर्ष को यदि विविध प्रकार के त्योहारों का देश कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। इस धरा-धाम पर इतनी जातियाँ, धर्म और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं कि उनके सभी त्योहारों को यदि मनाना शुरू कर दिया जाए तो शायद एक-एक दिन में दो-दो त्योहार मना कर भी वर्ष भर में उन्हें पूरा नहीं किया जा सकता। पर्वो का मानव-जीवन व राष्ट्र के जीवन में विशेष महत्त्व होता है। इनसे नयी प्रेरणा मिलती है, जीवन की नीरसता दूर होती है तथा रोचकता और आनन्द में वृद्धि होती है। पर्व या त्योहार कई तरह के होते हैं; जैसे-धार्मिक, सांस्कृतिक, जातीय, ऋतु सम्बन्धी और राष्ट्रीय। जिन पर्वो का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, जाति या धर्म के मानने वालों से न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र से होता है तथा जो पूरे देश में सभी नागरिकों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाये जाते हैं, उन्हें राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस एवं गाँधी जयन्ती हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं। ये राष्ट्रीय पर्व समस्त भारतीय जन-मानस को एकता के सूत्र में पिरोते हैं। ये उन अमर शहीदों व देशभक्तों का स्मरण कराते हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए जीवन-पर्यन्त संघर्ष किया और राष्ट्र की स्वतन्त्रता, गौरव व इसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए अपने प्राणों को भी सहर्ष न्योछावर कर दिया।

गणतन्त्र दिवस-गणतन्त्र दिवस हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को देशवासियों द्वारा मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 ई० में हमारे देश में अपना संविधान लागू हुआ था। इसी दिन हमारा राष्ट्र पूर्ण स्वायत्त गणतन्त्र राज्य बना, अर्थात् भारत को पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न गणराज्य घोषित किया गया। यही दिन हमें 26 जनवरी, 1930 का भी स्मरण कराता है, जब जवाहरलाल नेहरू जी की अध्यक्षता में कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पारित किया गया था।

गणतन्त्र दिवस का त्योहार बड़ी धूमधाम से यों तो देश के प्रत्येक भाग में मनाया जाता है, पर इसको मुख्य आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में ही किया जाता है। इस दिन सबसे पहले देश के प्रधानमन्त्री इण्डिया गेट पर शहीद जवानों की याद में प्रज्वलित की गयी जवान ज्योति पर सारे राष्ट्र की ओर से सलामी देते हैं। उसके बाद प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रिमण्डल के सदस्यों के साथ राष्ट्रपति महोदय की अगवानी करते हैं। राष्ट्रपति भवन के सामने स्थित विजय चौक में राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ ही मुख्य पर्व मनाया जाना आरम्भ होता है। इस दिन विजय चौक से प्रारम्भ होकर लाल किले तक जाने वाली परेड समारोह का प्रमुख आकर्षण होती है। क्रम से तीनों सेनाओं (जल, थल, वायु), सीमा सुरक्षा बल, अन्य सभी प्रकार के बलों, पुलिस आदि की टुकड़ियाँ राष्ट्रपति को सलामी देती हैं। एन० सी० सी०, एन० एस० एस० तथा स्काउट, स्कूलों के बच्चे सलामी के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए गुजरते हैं। इसके उपरान्त सभी प्रदेशों की झाँकियाँ आदि प्रस्तुत की जाती हैं तथा शस्त्रास्त्रों का भी प्रदर्शन किया जाता है। राष्ट्रपति को तोपों की सलामी दी जाती है। परेड और झाँकियों आदि पर हेलीकॉप्टरों-हवाई जहाजों से पुष्प वर्षा की जाती है। यह परेड राष्ट्र की वैज्ञानिक, कला व संस्कृति के उत्थान को दर्शाती है। रात को राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और अन्य राष्ट्रीय महत्त्व के स्थलों पर रोशनी की जाती है, आतिशबाजी होती है और इसे प्रकार धूम-धाम से यह राष्ट्रीय त्योहार सम्पन्न हुआ करता है।

स्वतन्त्रता दिवस-पन्द्रह अगस्त के दिन मनाया जाने वाला स्वतन्त्रता दिवस का त्योहार दूसरा मुख्य राष्ट्रीय त्योहार माना गया है। इसके आकर्षण और मनाने का मुख्य केन्द्र दिल्ली स्थित लाल किला है। यों सारे नगर और सारे देश में भी अपने-अपने ढंग से इसे मनाने की परम्परा है। स्वतन्त्रता दिवस प्रत्येक वर्ष अगस्त मास की पन्द्रहवीं तिथि को मनाया जाता है। इसी दिन लगभग दो सौ वर्षों के अंग्रेजी दासत्व के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हुआ था। इसी दिन ऐतिहासिक लाल किले पर हमारा तिरंगा झण्डा फहराया गया था। यह स्वतन्त्रता राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के भगीरथ प्रयासों व अनेक महान् नेताओं तथा देशभक्तों के बलिदान की गाथा है। यह स्वतन्त्रता इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इसे बन्दूकों, तोपों जैसे अस्त्र-शस्त्रों से नहीं वरन् सत्य, अहिंसा जैसे शस्त्रास्त्रों से प्राप्त किया गया।

इस दिने सम्पूर्ण राष्ट्र देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले शहीदों का स्मरण करते हुए देश की स्वतन्त्रता को बनाये रखने की शपथ लेता है। इस दिवस की पूर्व सन्ध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपना सन्देश प्रसारित करते हैं। दिल्ली के लाल किले २ ट्रीय ध्वज फहराने से पहले प्रधानमन्त्री सेना की तीनों टुकड़ियों, अन्य सुरक्षा बलों, स्काउटों आदि ३; निरीक्षण कर सलामी लेते हैं। फिर लाल किले के मुख्य द्वार पर पहुँचकर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर उसे सलामी देते हैं तथा राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इस सम्वोधन में पिछले वर्ष सरकार द्वारा किये गये कार्यों का लेखा-जोखा, अनेक नवीन योजनाओं तथा देश-विदेश से सम्बन्ध रखने वाली नीतियों के बारे में उद्घोषणा की जाती है। अन्त में राष्ट्रीय गान के साथ यह मुख्य समारोह समाप्त हो जाता है। रात्रि में दीपों की जगमगाहट से विशेषकर संसद भवन व राष्ट्रपति भवन की सजावट देखते ही बनती है।

गाँधी जयन्ती-गाँधी जयन्ती भी हमारा एक राष्ट्रीय पर्व है, जो प्रति वर्ष गाँधी जी के जन्म-दिवस 2 अक्टूबर की शुभ स्मृति में देश भर में मनाया जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन में गाँधी जी ने अहिंसात्मक रूप से देश का नेतृत्व किया और देश को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन से शक्तिशाली अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। गाँधी जी ने राष्ट्र एवं दीन-हीनों की सेवा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। प्रति वर्ष सारा देश उनके त्याग, तपस्या एवं बलिदान के लिए उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके बताये गये रास्ते पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इस दिन सम्पूर्ण देश में विभिन्न प्रकार की सभाओं, गोष्ठियों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। गाँधी जी की समाधि राजघाट पर देश के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व अन्य विशिष्ट लोग पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। महात्मा गाँधी अमर रहे’ के नारों से सम्पूर्ण वातावरण गूंज उठता है।

राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य पर्व-इन तीन मुख्य पर्वो के अतिरिक्त अन्य कई पर्व भी यहाँ मनाये जाते हैं और उनका भी राष्ट्रीय महत्त्व स्वीकारा जाता है। ईद, होली, वसन्त पंचमी, बुद्ध पंचमी, वाल्मीकि प्राकट्योत्सव, विजयादशमी, दीपावली आदि इसी प्रकार के पर्व माने जाते हैं। हमारी राष्ट्रीय अस्मिता किसी-न-किसी रूप में इन सभी के साथ जुड़ी हुई है, फिर भी मुख्य महत्त्व उपर्युक्त तीन पर्वो का ही है।

उपसंहार-त्योहार तीन हों या अधिक, सभी का महत्त्वं मानवीय एवं राष्ट्रीय अस्मिता को उजागर करना ही होता है। मानव-जीवन में जो एक आनन्दप्रियता, उत्सवप्रियता की भावना और वृत्ति छिपी रहती है, उनका भी इस प्रकार से प्रकटीकरण और स्थापन हो जाया करता है। इस प्रकार के त्योहार सभी देशवासी मिलकर मनाया करते हैं, इससे राष्ट्रीय एकता और ऊर्जा को भी बल मिलता है, जो इनका वास्तविक उद्देश्य एवं प्रयोजन होता है।

हमारे राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीय एकता के प्रेरणा-स्रोत हैं। ये पर्व सभी भारतीयों के मन में हर्ष, उल्लास और नवीन राष्ट्रीय चेतना का संचार करते हैं। साथ ही देशवासियों को यह संकल्प लेने हेतु भी प्रेरित करते हैं कि वे अमर शहीदों के बलिदानों को व्यर्थ नहीं जाने देंगे तथा अपने देश की रक्षा, गौरव व इसके उत्थान के लिए। सदैव समर्पित रहेंगे।

देश की प्रगति में विद्यार्थियों की भूमिका

सम्बद्ध शीर्षक

  • राष्ट्र-निर्माण में युवा-शक्ति का योगदान
  • राष्ट्रीय विकास एवं युवा-शक्ति
  • वर्तमान युवा : दशा और दिशा [2016]
  • छात्र जीवन तथा राष्ट्रीय दायित्व
  • छात्र–संघों का गठन : वरदान या अभिशाप
  • समय नियोजन और विद्यार्थी जीवन
  • भारत की सुरक्षा और युवा पीढ़ी।

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. विद्यार्थी जीवन का महत्त्व,
  3. कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थान,
  4. शहरी सभ्यताओं का मोह-त्याग,
  5. भ्रष्टाचार व दुराचार का उन्मूलन,
  6. काले धन की समाप्ति हेतु प्रयास,
  7. चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव,
  8. उपसंहार

प्रस्तावना–विद्यार्थी राष्ट्र का भावी नेता और शासक है। देश की उन्नति और भावी विकास का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व उसके सबल कन्धों पर आने वाला है। वास्तव में राष्ट्र की उन्नति और प्रगति के लिए वह मुख्य धुरी का काम कर सकता है। जिस देश का विद्यार्थी सतत जागरूक, सतर्क और सावधान होता है वह देश प्रगति की दौड़ में कभी पीछे नहीं रह सकता। विद्याथीं एक नवजीवन का सशक्त संवाहक होता है। उसमें रूढ़ियों और परम्पराओं के अटकाव नहीं होते, पूर्वाग्रह से उसकी दृष्टि धूमिल नहीं होती, वरन् वह नये विचारों एवं योजनाओं को क्रियान्वित करने की भरपूर क्षमता से ओतप्रोत होता है।

विद्यार्थी जीवन का महत्त्व-विद्यार्थी शब्द की संरचना है-‘विद्या + अर्थी’ अर्थात् जो विद्यार्जन में सदा संलग्न रहने वाला हो। विद्या प्राप्त करने के लिए परिश्रम और लगन की आवश्यकता होती है। जिस विद्यार्थी को विद्योपार्जन की सच्ची लालसा हो, उसे सभी सुख-सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है। आचार्य चाणक्य ने ठीक ही कहा है, “सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ ? सुख चाहने वाला विद्या को छोड़ दे और विद्या चाहने वाला सुख छोड़ दे।” विद्यार्थी के जीवन में आत्म–संयम, इन्द्रिय-निग्रह, सद्-असद् का विवेक, दया, प्रेम, क्षमा, औदार्य, परोपकार आदि सद्गुण होने चाहिए। शास्त्रों में आदर्श विद्यार्थी को एकाग्रचित्त, सजग, चुस्त, कम भोजन करने वाला और चरित्र- सम्पन्न बताया गया है–

काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी सदाचारी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम् ॥

अर्थात् विद्यार्थी कौवे के समान चेष्टा वाला, बगुले के समान ध्यान वाला, कुत्ते के समान नींद वाला, भूख से कम भोजन करने वाला और सदाचार का पालन करने वाला होता है। इसके साथ विद्यार्थी में नम्रता, अनुशासन, परिश्रम, संयम और अनासक्ति भाव होना चाहिए।

उपर्युक्त गुणों से युक्त विद्यार्थियों को कला, साहित्य, चिकित्सा, अभियान्त्रिकी आदि का पूर्ण अध्ययन-अभ्यास करके अपने विषय का विशेषज्ञ बनना चाहिए। एक अच्छा साहित्यिक विद्यार्थी सत् साहित्य का सृजन कर देशवासियों में देशभक्ति की भावना उजागर कर सकता है। देश की एकता व संगठन की भावना को सबल बनाकर भावात्मक एकता को पुष्ट कर सकता है। एक सच्चा चिकित्सक देश को स्वस्थ व नीरोग बनाने के लिए अपनी सेवाएँ समर्पित कर सकता है। एक सच्चा अभियन्ता राष्ट्र-निर्माण के अनेक कार्यों को निष्ठापूर्वक सम्पन्न कर देश की महान् सेवा कर सकता है।

कुप्रथाओं का उन्मूलन एवं ग्रामोत्थान-आज देश में कई अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ तथा कुप्रथाएँ प्रचलित हैं। इससे देश की यथोचित प्रगति नहीं हो पा रही है। विद्यार्थियों को इन रूढ़ियों और कुप्रथाओं के उन्मूलन के लिए बीड़ा उठाना होगा। आज भी गाँवों में बाल-विवाह, अशिक्षा व अज्ञान का बोलबाला है। गाँव के लोग ऋणग्रस्त और शोषण के शिकार हैं। भारत की अधिकांश जनता गाँवों में रहती है; अत: जब तक ग्रामोत्थान का बिगुल नहीं बजाया जाता, तब तक भारत प्रगति नहीं कर सकता। विद्यार्थियों को गाँवों में जाकर साक्षरता, सहकारिता आदि कार्यक्रम चलाने में सहयोग करना चाहिए। गाँवों में लघु और कुटीर उद्योगों के प्रचलन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। पशुधन व गोपालन को लोकप्रिय बनाना चाहिए। इसके लिए डेयरी उद्योग, कपड़ा बुनना, मधुमक्खी-पालन आदि का महत्त्व ग्रामीण भाइयों को समझाकर उनके विकास के लिए प्रोत्साहित कर इस कार्य में मार्गदर्शन किया जा सकता है। विद्यार्थियों को ग्रामोत्थान की ओर आकर्षित करने के लिए उन्हें आवश्यक रूप से वहाँ कुछ सुविधाएँ; जैसे—आवागमन के साधन, विद्युत उपकरण, सरकारी अनुदान आदि उपलब्ध कराने चाहिए। साथ ही उन्हें पर्याप्त प्रशंसा, प्रोत्साहन व सम्मान भी देना चाहिए, अन्यथा यह केवल एक आदर्श स्वप्न बनकर ही रह जाएगा।

शहरी सभ्यताओं का मोह-त्याग-–आज के अधिकांश शिक्षित व्यक्ति, शिक्षक, चिकित्सक, अभियन्ता गाँवों में सेवा देने से कतराते हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। युवाओं को शहरी जीवन की सुख-सुविधाओं को त्यागकर देश की प्रगति और उत्थान को लक्ष्य में रखकर काम करना है।

भ्रष्टाचार व दुराचार का उन्मूलन-आज देश में सर्वत्र भ्रष्टाचार व्याप्त है। एक साधारण चपरासी से लेकर बड़ा अफसर, कर्मचारी, नेता तथा मन्त्री सभी इसमें लिप्त हैं। कोई भी कार्य रिश्वत के बिना नहीं चलता। पुलिस व न्यायालय-कर्मचारी खुले रूप में रिश्वत माँगते हैं। रक्षक ही भक्षक बन गये हैं। व्यापारी व भी खाद्य-पदार्थों में मिलावट करते हैं। मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। इस भ्रष्टाचार से लड़ना कोई सामान्य बात नहीं है। इसके लिए निर्भीक विद्यार्थियों को आगे आकर इस भ्रष्टाचाररूपी दानव से लड़ना होगा। जब तक देश से भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा, देश की प्रगति होना मुमकिन नहीं है। इसके लिए विद्यार्थियों को सूझ-बूझ, धैर्य और साहस के साथ संघर्ष करने के लिए तत्पर होना होगा।

देश में दुराचार की विभीषिका भी बढ़ती जा रही है। लूटपाट, हत्याएँ और बलात्कार की घटनाओं से समाचार-पत्रों के पृष्ठ के पृष्ठ राँगे रहते हैं। प्रजातन्त्र की व्याख्या करते हुए कहा जाता है कि प्रजा द्वारा प्रजा के लिए प्रजा का शासन, किन्तु लगता है कि देश में प्रचलित शासन-व्यवस्था भले और ईमानदार आदमियों के हाथों में न रहकर भ्रष्ट, बदमाश, सफेदपोश लोगों के हाथों में चली गयी है। इस विषम काल में हर आदमी सन्त्रस्त और दु:खी है। इससे लोहा लेने के लिए विद्यार्थी वर्ग ही तत्पर हो सकता हैं। स्वच्छ और सुन्दर प्रशासन के लिए नि:स्वार्थ सेवाभाव रखने वाले और कार्यकुशल व्यक्तियों की आवश्यकता है। इस अभाव की पूर्ति विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है। उसे इस महामारी से लड़कर इसका उन्मूलन करना होगा, तब ही देश को प्रगति की राह पर आगे बढ़ाया जा सकता है।

काले धन की समाप्ति हेत प्रयास-काला धन अथवा काला बाजाररूपी महादानव भी बड़ा शक्तिशाली, दुर्धर्ष और महा भयंकर है। आज काले धन वालों की समानान्तर सरकार शासन-सत्ता को दबोचे हुए है। करोड़ों की हेरा-फेरी करने वाले आबाद हो रहे हैं। उनको कोई आँख नहीं दिखा सकता। दो रुपये की चोरी करने वालों पर कहर बरसाया जाता है। महँगाई हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती जा रही है। ईमानदारीरूपी सोने की लंका जलती जा रही है। ऐसी विकराल परिस्थिति में सबकी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये हैं। जनता किसी ऐसे सहयोग व नेतृत्व की आकांक्षा रखती है, जो इस विषम स्थिति से देश की रक्षा कर सके। इससे लोहा लेने के लिए भी विद्यार्थी वर्ग ही तत्पर हो सकता है।

चरित्र-निर्माण से ही देश की उन्नति सम्भव-बड़े-बड़े कल-कारखाने खोलने से तथा बड़े-बड़े बाँध बनाने से राष्ट्र सच्चे अर्थों में विकास नहीं कर सकता। हमें आने वाली पीढ़ियों के चरित्र-निर्माण की ओर विशेष ध्यान देना है। चरित्र-निर्माण ही शिक्षा का मुख्य व पवित्र उद्देश्य होना चाहिए। जिस देश में चरित्रवान् लोग रहते हैं, उस देश का सिर गौरव से सदा ऊँचा रहता है। आज के विद्यार्थी को राष्ट्र-भक्ति की भावना से भी ओत-प्रोत होना चाहिए। उसे स्वयं को राष्ट्रीय गौरव का आभूषण बनाये रखना चाहिए। उसे कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे देश की मान-मर्यादा को ठेस पहुँचती हो। राष्ट्र-निर्माण ही उसका लक्ष्य होना चाहिए। अपने जीवन के उत्थान के लिए उसे भौतिकता की ओर उन्मुख न होकर आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होना चाहिए। इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि विश्व के किसी भी क्षेत्र में भौतिक शक्ति आध्यात्मिक शक्ति के सम्मुख ठहर नहीं सकी है।

उपसंहार–किसी देश की वास्तविक उन्नति उसके परिश्रमी, लगनशील, पुरुषार्थी और चरित्रवान् पुरुषों से ही सम्भव है। भारत के विद्यार्थी भी चरित्रशील बनकर देश में वर्तमान में व्याप्त सभी बराइयों का उन्मूलन कर देश की प्रगति में सच्चा योगदान कर सकते हैं। आज का विद्यार्थी वर्ग राजनैतिक पार्टियों के चक्कर में उलझकर अपने भविष्य को अन्धकारमय बना रहा है। घटिया किस्म के नेता इनके द्वारा अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में आज के विद्यार्थी को इन सबसे अलग रहकर अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। उसकी भावना राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर करने की होनी चाहिए।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘द्वापर’ काव्य में युवा-शक्ति का आह्वान करते हुए लिखा है-

रखते हो तो दिखलाओ कुछ आभा, उगते तारे,
आओ तेज, साहस के दुर्लभ दिन हैं यही हमारे ।
X                      X                                   X
एक एक, सौ सौ अन्यायी कंसों को ललकारो ।
अपनी पुण्यभूमि पर धन-जीवन सब वारो ॥

स्वदेश-प्रेम

सम्बद्ध शीर्षक

  • जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. देश-प्रेम की स्वाभाविकता,
  3. देश-प्रेम का अर्थ,
  4. देश-प्रेम का क्षेत्र,
  5. देश के प्रति कर्तव्य,
  6. भारतीयों का देश-प्रेम,
  7. ‘देशभक्तों की कामना,
  8. उपसंहार।

प्रस्तावना-ईश्वर द्वारा बनायी गयी सर्वाधिक अद्भुत रचना है ‘जननी’, जो नि:स्वार्थ प्रेम की प्रतीक है, प्रेम का ही पर्याय है, स्नेह की मधुर बयार है, सुरक्षा का अटूट कवच है, संस्कारों के पौधों को ममता के जल से सींचने वाली चतुर उद्यान रक्षिका है, जिसका नाम प्रत्येक शीश को नमन के लिए झुक जाने को प्रेरित कर देता है। यही बात जन्मभूमि के विषय में भी सत्य है। इन दोनों का दुलार जिसने पा लिया उसे स्वर्ग का पूरा-पूरा अनुभव धरा पर ही हो गया। इसीलिए जननी और जन्मभूमि की महिमा को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है। यही कारण है कि स्वदेश से दूर जाकर मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी एक प्रकार की उदासी और रुग्णता का अनुभव करने लगते हैं।

देश-प्रेम की स्वाभाविकता–प्रत्येक देशवासी को अपने देश से अनुपम प्रेम होता है। अपना देश चाहे बर्फ से ढका हुआ हो, चाहे गर्म रेत से भरा हो, चाहे ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हो, वह सबके लिए प्रिय होता है। इस सम्बन्ध में कविवर रामनरेश त्रिपाठी की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं–

विषुवत् रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर ।।
धुववासी जो हिम में तम में, जी लेता है काँप-काँप कर।
वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ।।

प्रात:काल के समय पक्षी भोजन-पानी के लिए कलरव करते हुए दूर स्थानों के लिए चले जाते हैं। परन्तु सायंकाल होते ही एक विशेष उमंग और उत्साह के साथ अपने-अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं। पशु-पक्षियों में उसके लिए इतना मोह और लगाव हो जाता है कि वे उसके लिए मर-मिटने हेतु भी तत्पर रहते हैं-

आग लगी इस वृक्ष में, जलते इसके पात,
तुम क्यों जलते पक्षियो ! जब पंख तुम्हारे पास ?
फल खाये इस वृक्ष के, बीट लथेड़े पात,
यही हमारा धर्म है, जलें इसी के साथ।

पशु-पक्षियों को भी अपने घर से, अपनी मातृभूमि से इतना प्यार है तो भला मानव को अपनी जन्मभूमि से, अपने देश से क्यों प्यार नहीं होगा ? वह तो विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि, बुद्धिसम्पन्न एवं सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी है। माता और जन्मभूमि की तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ है। संस्कृत के किसी महान् कवि ने ठीक ही कहा है-जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

देश-प्रेम का अर्थदेश-प्रेम का तात्पर्य है-देश में रहने वाले जड़-चेतन सभी प्राणियों से प्रेम, देश की सभी झोपड़ियों, महलों तथा संस्थाओं से प्रेम, देश के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेश-भूषा से प्रेम, देश के सभी धर्मों, मतों, भूमि, पर्वत, नदी, वन, तृण, लता सभी से प्रेम और अपनत्व रखना व उन सभी के प्रति गर्व की अनुभूति करना। सच्चे देश-प्रेमी के लिए देश का कण-कण पावन और पूज्य होता है।

सच्चा प्रेम वही है, जिसकी तृप्ति आत्मबल पर हो निर्भर।
त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥
देश-प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित।।
आत्मा के विकास से, जिसमें मानवता होती है विकसित ॥

सच्चा देश-प्रेमी वही होता है, जो देश के लिए नि:स्वार्थ भावना से बड़े-से-बड़ा त्याग कर सकता है। स्वदेशी वस्तुओं का स्वयं उपयोग करता है और दूसरों को भी उनके उपयोग के लिए प्रेरित करता है। सच्चा देशभक्त उत्साही, सत्यवादी, महत्त्वाकांक्षी और कर्तव्य की भावना से प्रेरित होता है। वह देश में छिपे हुए गद्दारों से सावधान रहता है और अपने प्राणों को हथेली पर रखकर देश की रक्षा के लिए शत्रुओं का मुकाबला करता है।

देश-प्रेम का क्षेत्र देश-प्रेम का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। सैनिक युद्ध-भूमि में प्राणों की बाजी लगाकरे, राज-नेता राष्ट्र के उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर, समाज-सुधारक समाज का नवनिर्माण करके, धार्मिक नेता मानव-धर्म का उच्च आदर्श प्रस्तुत करके, साहित्यकार राष्ट्रीय चेतना और जन-जागरण का स्वर फेंककर, कर्मचारी, श्रमिक एवं किसान निष्ठापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करके, व्यापारी मुनाफाखोरी व तस्करी का त्याग कर अपनी देशभक्ति की भावना प्रदर्शित कर सकता है। ध्यान रहे, सभी को अपना कार्य करते हुए देशहित को सर्वोपरि समझना चाहिए।

देश के प्रति कर्तव्य-जिस देश में हमने जन्म लिया है, जिसका अन्न खाकर और अमृत समान जल पीकर, सुखद वायु का सेवन कर हमें बलवान् हुए हैं, जिसकी मिट्टी में खेल-कूदकर हमने पुष्ट शरीर प्राप्त किया है, उस देश के प्रति हमारे अनन्त कर्तव्य हैं। हमें अपने प्रिय देश के लिए कर्तव्यपालन और त्याग की भावना से श्रद्धा, सेवा एवं प्रेम रखना चाहिए। हमें अपने देश की एक इंच भूमि के लिए तथा उसके सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देनी चाहिए। यह सब करने पर भी जन्मभूमि या अपने देश से हमें कभी भी उऋण नहीं हो सकते हैं।

भारतीयों को देश-प्रेम-भारत माँ ने ऐसे असंख्य नर-रत्नों को जन्म दिया है, जिन्होंने असीम त्याग-भावना से प्रेरित होकर हँसते-हँसते मातृभूमि पर अपने प्राण अर्पित कर दिये। कितने ही ऋषि-मुनियों ने अपने तप और त्याग से देश की महिमा को मण्डित किया है तथा अनेकानेक वीरों ने अपने अद्भुत शौर्य से शत्रुओं के दाँत खट्टे किये हैं। वन-वन भटकने वाले महाराणा प्रताप ने घास की रोटियाँ खाना स्वीकार किया, परन्तु मातृभूमि के शत्रुओं के सामने कभी मस्तक नहीं झुकाया। शिवाजी ने देश और मातृभूमि की सुरक्षा के लिए गुफाओं में छिपकर शत्रु से टक्कर ली और रानी लक्ष्मीबाई ने महलों के सुखों को त्यागकर शत्रुओं से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, अशफाकउल्ला खाँ आदि न जाने कितने देशभक्तों ने विदेशियों की अनेक यातनाएँ सहते हुए, मुख से ‘वन्दे मातरम्’ कहते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूम लिया। ऐसे ही वीरों के बलिदान को ध्यान में रखकर कवि ने कहा है

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ॥

भारत का इतिहास ऐसे अनेक वीरों का साक्षी है, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा और मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को त्याग दिया और मन में मर-मिटने का अरमान लेकर शत्रु पर टूट पड़े। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपतराय आदि अनेक देशभक्तों ने अनेक कष्ट सहकर और प्राणों का बलिदान करके देश की स्वाधीनता की ज्योति को प्रज्वलित किया। इसी स्वदेश प्रेम के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अनेकों कष्ट सहे, जेलों में रहे तथा अन्त में अपने प्राण निछावर कर दिये। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, सरदार बल्लभभाई पटेल, पं० जवाहरलाल नेहरू आदि देशरत्नों ने आजीवन देश की सेवा की। श्रीमती इन्दिरा गाँधी देश की एकता और अखण्डता के लिए नृशंस आतंकवादियों की गोलियों का शिकार बनीं।

देशभक्तों की कामना–देशभक्तों को सुख-समृद्धि, धन, यश, कंचन और कामिनी की आकांक्षा नहीं होती है। उन्हें तो केवल अपने देश की स्वतन्त्रता, उन्नति और गौरव की कामना होती है। वे देश के लिए जीते हैं और देश के लिए मरते हैं। मृत्यु के समय भी उनकी इच्छा यही होती है कि वे देश के काम आयें। कविवर माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में एक पुष्प की भी यही कामना है-

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक ॥

उपसंहार-खेद का विषय है कि आज हमारे नागरिकों में देश-प्रेम की भावना अत्यन्त दुर्लभ होती जा रही है। नयी पीढ़ी का विदेशों से आयातित वस्तुओं और संस्कृतियों के प्रति अन्धाधुन्ध मोह, स्वदेश के बजाय विदेश में जाकर सेवाएँ अर्पित करने के सजीले सपने वास्तव में चिन्ताजनक हैं। हमारी पुस्तकें भले ही राष्ट्रप्रेम की गाथाएँ पाठ्य सामग्री में सँजोये रहें, परन्तु वास्तव में नागरिकों के हृदय में गहरा व सच्चा राष्ट्रप्रेम ढूंढ़ने पर भी उपलब्ध नहीं होता। हमारे शिक्षाविदों व बुद्धिजीवियों को इस प्रश्न का समाधान ढूंढ़ना ही होगा कि अब मात्र उपदेश या अतीत के गुणगान से वह प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। हमें अपने राष्ट्र की दशा व छवि अनिवार्य रूप से सुधारनी होगी।

प्रत्येक देशवासी को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके देश भारत की देशरूपी बगिया में राज्यरूपी अनेक क्यारियाँ हैं। किसी एक क्यारी की उन्नति एकांगी उन्नति है और सभी क्यारियों की उन्नति देशरूपी उपवन की सर्वांगीण उन्नति है। जिस प्रकार एक माली अपने उपवन की सभी क्यारियों की देखभाल समान भाव से करता है उसी प्रकार हमें भी देश का सर्वांगीण विकास करना चाहिए। किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष को लक्ष्य न मानकर समग्रतापूर्ण चिन्तन किया जाना चाहिए; क्योंकि सबकी उन्नति में एक की उन्नति तो अन्तर्निहित होती ही है। प्रत्येक देशवासी का चिन्तन होना चाहिए कि “यह देश मेरा शरीर है और इसकी क्षति मेरी ही क्षति है।” जब ऐसे भाव प्रत्येक भारतवासी के होंगे तब कोई अपने निहित स्वार्थों के पीछे रेल, बस अथवा सरकारी सम्पत्तियों की होली नहीं जलाएगा और न ही सरकारी सम्पत्ति का दुरुपयोग ही करेगा।

स्वदेश-प्रेम मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। इसे संकुचित रूप में ग्रहण न कर व्यापक रूप में ग्रहण करना चाहिए। संकुचित रूप में ग्रहण करने से विश्व शान्ति को खतरा हो सकता है। हमें स्वदेश-प्रेम की भावना के साथ-साथ समग्र मानवता के कल्याण को भी ध्यान में रखना चाहिए।

स्वाधीनता का महत्त्व

सम्बद्ध शीर्षक

  • पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
  • परतन्त्रता अथवा दासता

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. पराधीनता एक अभिशाप है,
  3. पराधीनता के विविध रूप-(क) राजनीतिक; (ख) आर्थिक; (ग) सांस्कृतिक; (घ) सामाजिक; (ङ) धार्मिक,
  4. स्वाधीनता का महत्त्व,
  5. उपसंहार

प्रस्तावना-‘पराधीनता से तात्पर्य दूसरे के अधीन या वश में रहने से है। जब हमारे मनन-चिन्तन और कार्य पर दूसरों की इच्छा और शक्ति का अंकुश लग जाता है तो हम पराधीन कहलाते हैं। इस स्थिति में प्राप्त सुख-सुविधाएँ भी सच्चा आनन्द प्रदान नहीं कर पातीं। सोने के पिंजरे में रहकर विभिन्न फल व स्वादिष्ट पदार्थ खाने वाला पक्षी भी इस बन्धन से छूटकर खुले आकाश में स्वच्छन्द विचरण के लिए उड़ जाना चाहता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास की उक्ति सत्य चरितार्थ होती है कि ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। सूखी रोटी खाने वाला और पत्थर की चट्टान पर सोने वाला स्वाधीन व्यक्ति पराधीन व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ, प्रसन्न व निर्भीक होता है। किसी कवि ने उचित ही कहा है

बस एक दिन की दासता, शत कोटि नरक समान है।
क्षण मात्र की स्वाधीनता, शत स्वर्ग की मेहमान है।

पराधीनता एक अभिशाप है-पराधीनता मानव की समस्त शक्तियों को कुण्ठित करने वाला पक्षाघात (लकवा) है। पराधीन व्यक्ति का व्यक्तित्व पंगु हो जाता है, उसकी इच्छाशक्ति मर जाती है और कठपुतली के समान दूसरों के आदेश-निर्देशों का अनुवर्तन ही उसकी नियति बन जाती है। फलतः उसका आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है और वह हर बात में दूसरों का मुँह ताकता रहता है। इसलिए एक संस्कृत कवि ने कहा है-‘पारतन्त्र्यं महदुःखम् स्वातन्त्र्यं परमं सुखम्”, अर्थात् परतन्त्रता से बड़ा दु:ख और स्वतन्त्रता से बड़ा सुख और कुछ नहीं है।

पराधीन मनुष्य का हृदय मात्र गति करता है। उसमें भावना के फूल नहीं लहराते। उसकी जिह्वा होती है। पर स्वर कहीं खो जाते हैं। उसकी आँखें देखती हैं, किन्तु उनमें प्रतिक्रिया का कोई स्पन्दन नहीं होता, उसमें विचार उपजते हैं किन्तु शीघ्र ही विलीन हो जाने को बाध्य होते हैं। उसमें जीवन होता है किन्तु उसमें और मृतक में कोई विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता।

पराधीन मनुष्य को तो कुछ सोचने और करने का अवसर ही नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो पराधीन बनाने वाले व्यक्ति की इच्छा और तेवर के अनुसार यानि वह जो सोचता है और करने को कहता है, पराधीन वही सब कर सकता है, वरन् करने को बाध्य हुआ करता है। अपनी इच्छा और सोच के अनुसार कुछ करने की उसकी चेष्टा पर उसे बड़ी बेशरमी से दण्डित किया जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी इच्छाएँ, भावनाएँ, सोच-विचार की शक्ति समाप्त हो जाती है। ऐसी अवस्था में उसे किसी सुख की प्राप्ति या अनुभूति मात्र का भी प्रश्न नहीं उठता। इसके विपरीत स्वाधीन व्यक्ति अपनी इच्छा और भावना के अनुसार सोच-विचार कर वह सब कुछ करने के लिए स्वतन्त्र होता है, जिसे करने से उसे सुख-प्राप्ति होती है। स्वतन्त्रता पूर्व और पश्चात् की भारतवासियों की स्थिति की तुलना करके इस अन्तर को सरलता के साथ समझा जा सकता है।

मानव सचमुच स्वाभिमान के लिए ही जीता है। स्वाभिमान से शून्य जीवन नरक भोगने से भी असह्य है और स्वाभिमान की रक्षा बिना स्वाधीनता के सम्भव नहीं। इसीलिए एक लेखक ने कहा है, “It is better to reign in hell than to be a slave in heaven.” अर्थात् स्वर्ग में दास बनकर रहने से नरक में स्वाधीन रहना अच्छा है।

पराधीनता के विविध रूप–पराधीनता चाहे व्यक्ति की हो या राष्ट्र की दोनों ही गर्हित हैं; क्योंकि व्यक्तिगत पराधीनता व्यक्ति के एवं राष्ट्रगत पराधीनता राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास को अवरुद्ध कर उसे पंगु बना देती है। उसकी चेतना शक्ति शून्य और निष्कर्म हो जाती है। पराधीनता के कई रूप हैं, जिनमें मुख्य हैं—(1) राजनीतिक, (2) आर्थिक, (3) सांस्कृतिक, (4) सामाजिक और (5) धार्मिक।

(क) राजनीतिक पराधीनता-इससे आशय है कि किसी देश का दूसरों द्वारा शासित होना। राजनीतिक पराधीनता सबसे भयावह स्थिति है। वह शासित देश के समस्त गौरव का नाश कर उसे संसार में उपहास, घृणा और दया का पात्र बना देती है। विजेता द्वारा ऐसे देश का सर्वांगीण शोषण करके उसे हर दृष्टि से निःसत्त्व, श्रीहीन और अपदार्थ बना दिया जाता है। भारत का उदाहरण सामने है। जो भारत किसी समय सोने की चिड़िया कहलाता था, वही सैकड़ों वर्षों की गुलामी के परिणामस्वरूप अन्न के दाने-दाने को मोहताज हो गया था। यही कारण है कि प्रत्येक पराधीन देश बंड़े-से-बड़ा बलिदान देकर भी सबसे पहले राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्त करना चाहता है।

(ख) आर्थिक पराधीनता-आज के युग में किसी देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाये रखना कठिन हो गया है, इसलिए संसार के शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्रों, मुख्यत: अमेरिका, ने दूसरे देशों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने हेतु यह एक नया हथकण्डा अपनाया है। वे उन्हें आर्थिक सहायता या ऋण देकर उनके आन्तरिक मामलों में मनमाने हस्तक्षेप का अधिकार पा लेते हैं। यह पराधीनता वर्तमान में तो क्षणिक सुखकर अवश्य प्रतीत होती है, परन्तु भविष्य में यह बहुत ही कष्टकर होती है। महाजनों और जमींदारों के अत्याचार ऐसी पराधीनता के ही फल रहे हैं।

(ग) सांस्कृतिक पराधीनता-इसका आशय है किसी देश द्वारा दूसरे देश पर अपनी भाषा और साहित्य थोप कर उसके साहित्य, कला और संस्कृति के सहज विकास को अवरुद्ध कर, वहाँ के बुद्धिजीवियों के स्वतन्त्र चिन्तन को नष्ट कर, उन्हें मानसिक दृष्टि से अपना गुलाम बनाना। भारत पर मुसलमानी शासनकाल में फारसी और अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी भाषा का थोपा जाना इस देश के स्वाभाविक सांस्कृतिक विकास के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ। वस्तुतः राजनीतिक और आर्थिक पराधीनता तो किसी देश के शरीर को ही गुलाम बनाती है, किन्तु सांस्कृतिक पराधीनता उसकी आत्मा को ही बन्धक रख लेती है। मैकाले (Macaulay) ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की वकालत करते हुए यही तर्क दिया था कि इससे यह देश मानसिक दृष्टि से हमारा गुलाम बन जाएगा और उसकी बात आज अत्यधिक सत्य सिद्ध हो रही है। सन् 1947 ई० में राजनीतिक स्वाधीनता पाकर भी इस देश में पनपे अंग्रेजी के मानस-पुत्रों ने भारत को आज पहले से कहीं भयंकर सांस्कृतिक पराधीनता में जकड़कर खोखला बना दिया है।

(घ) सामाजिक पराधीनता-सामाजिक पराधीनता से आशय है समाज के विभिन्न वर्गों में असमानता का होना, जिससे कुछ वर्ग अधिक सुविधाएँ भोगते हुए दूसरों को दबाकर रखें। हिन्दू समाज में पराधीनता का यह रूप छुआछूत, ऊँच-नीच और स्त्रियों पर अत्याचार के कारण अपनी निकृष्टतम स्थिति में दीख पड़ता है। भारतीय नारी की तो नियति सचमुच दयनीय है; क्योंकि कौमार्यावस्था में पिता, यौवन में पति और वृद्धावस्था में पुत्र उसका अभिभावकत्व करते हैं। इस प्रकार बचपन से वार्धक्य तक वह बेचारी किसी-न-किसी के अधीन रहने को बाध्य है, स्वाधीनता उसके भाग्य में नहीं।

(ङ) धार्मिक पराधीनता–धार्मिक पराधीनता के कारण मनुष्य अनेक नियमों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं और अन्धविश्वासों के अधीन हो जाता है। वह पुरोहितों-पुजारियों, मुल्लाओं-मौलवियों और पादरियों का दास बन जाता है। शिक्षा, व्यवसाय, साहित्य, कला आदि में उसे प्रचलित रूढ़िवादिता का अनुकरण करना ही पड़ता है।

स्वाधीनता का महत्त्व-स्वतन्त्रता से मधुर कोई मनोदशा नहीं है। मनुष्य की गरिमा इसी कारण है। कि वह स्वतन्त्र है। पशु को इसीलिए पशु कहा जाता है कि वह पाश (बन्धन) में है। जो मनुष्य भी पाश में हो तो उसका जीवन भी पशुवत् ही है। स्वतन्त्रता से उच्च स्वर्ग और कहीं नहीं है। स्वतन्त्र व्यक्तित्व व विचार से युक्त मानव का तेज अलौकिक होता है। जब प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बालक चन्द्रशेखर को न्यायालय में पेश किया गया तो न्यायाधीश ने उससे पूछा-तुम्हारा नाम। बालक चन्द्रशेखर ने उत्तर दिया-‘आजाद’। ‘तुम्हारे पिता का नाम’, न्यायाधीश ने फिर पूछा। स्वतन्त्र’, चन्द्रशेखर ने निडरता के साथ उत्तर दिया। तात्पर्य यह है कि मानव का मन स्वतन्त्रता का प्रेमी है, परतन्त्रता तो उसके लिए मरण तुल्य है।

उपसंहार-आज हम स्वाधीन हैं, स्वतन्त्र हैं। हमें सभी प्रकार के व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। इसे प्राप्त करने के लिए न जाने कितने लोग कुर्बान हुए और न जाने कितने कष्ट सहे, इसका अनुभव बहुत कम ही लोग कर सके हैं। हमें स्वाधीन होकर भी स्वच्छन्द नहीं होना चाहिए। हमें स्वतन्त्रता का वास्तविक प्रयोग कर देश का सहयोग करना चाहिए, जिससे देश की स्वाधीनता अमर बनी रहे। इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। करि बिचार देखहु मन माहीं ॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वाधीनतारूपी अमृत-फल चखने के लिए हमें पराधीनतारूपी कण्टकों को निर्मूल करना होगा, सब प्रकार की पराधीनता के कलंक को मिटाना होगा। तभी भारतमाता का मुख उज्ज्वल होकर सारे विश्व को अपनी आभा से दीप्त कर सकेगा, उसका मार्गदर्शन कर सकेगा।

यदि मैं शिक्षामन्त्री होता [2014]

प्रमुख विचार-बिन्दु–

  1. प्रस्तावना,
  2. धर्म-निरपेक्ष शिक्षण व्यवस्था,
  3. सम-स्तरीय शिक्षण व्यवस्था,
  4. मातृभाषा हिन्दी में शिक्षण,
  5. ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षण व्यवस्था,
  6. शहरी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-प्रणाली,
  7. प्रतिभावान शिक्षकों के पलायन को रोकना,
  8. अध्यापकों की मनोवृत्ति-परिवर्तन,
  9. उपसंहार

प्रस्तावना-आज भारत को अंग्रेजी शासन-श्रृंखला से मुक्त हुए छ: दशकों से भी अधिक समय हो चुका है, परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में आज तक देश में विविध प्रयोगों से, देश की भावी पीढ़ी के साथ खिलावाड़ ही हुआ है। अभी तक हम न सभी को साक्षर कर पाये हैं, न ही राष्ट्र-भाषा हिन्दी को अपना यथोचित स्थान दिला पाये हैं। शिक्षा भी ऐसी दी गयी है कि जिसे ठोस रूप में न सांस्कृतिक कह सकते हैं और न ही वैज्ञानिक। इस शिक्षा ने केवल बाबुओं की संख्या बढ़ाई है और बेरोजगारी को बढ़ावा दिया है।
यदि मैं शिक्षामन्त्री होता तो मैं सबसे पहले शिक्षा को राष्ट्रीय, वैज्ञानिक, कर्मप्रधान तथा सर्वसुलभ बनाने को प्राथमिकता देता।

धर्म-निरपेक्ष शिक्षण व्यवस्था-आज विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की निजी संस्थाओं के अन्तर्गत सारे देश में ऐसे स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं जिसमें उन धर्मों की जातियों को प्रश्रय दिया जाता है, जिनके विचार संकुचित होते हैं। ये राष्ट्रीय भावना के स्थान पर साम्प्रदायिक तथा जातिगत श्रेष्ठता को महत्त्व देकर, नयी पीढ़ी को अनुदार विचारों वाला बनाते हैं। इस प्रकार की शिक्षा का परिणाम हम पहले ही देश-विभाजन के रूप में देख चुके हैं।

हमारा देश धर्म-निरपेक्ष है। संविधान में ऐसा माना जा चुका है, फिर भी सनातनी, आर्य समाजी, ब्रह्म समाजी, मुस्लिम, सिख, ईसाई मिशनरियों द्वारा क्यों अलग-अलग शिक्षा संस्थान चलाये जा रहे हैं? यदि मैं शिक्षामन्त्री पद को प्राप्त कर लें तो मैं इन संस्थाओं को प्रेरित करूगा कि भले ही वे अपने स्कूलों में धार्मिक शिक्षा अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दें, परन्तु राष्ट्रीय चरित्र की उपेक्षा करके निश्चित रूप से नहीं।।

सम-स्तरीय शिक्षण व्यवस्था-धार्मिक भेदभावों के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न शिक्षा-संस्थान भी इस देश में पब्लिक स्कूल चला रहे हैं। इन स्कूलों की फीस बहुत अधिक होती है। अत: बड़े-बड़े अमीरों और ऊँचे पदों पर विराजमान नेताओं-अफसरों के बच्चे ही इनमें स्थान पा सकते हैं। देश का गरीब तो क्या, मध्यम वर्ग का योग्य बच्चा भी इनमें प्रवेश नहीं पा सकता। इन महँगे शिक्षा-संस्थानों में अंग्रेजी को माध्यम भाषा का स्थान देकर देश की नयी पीढ़ी में वर्गभेद के अनुचित संस्कार पैदा किए जा रहे हैं। शिक्षामन्त्री बनने के बाद में इन पब्लिक स्कूलों तथा अन्य स्कूलों को समान स्तर पर लाने की नीति अपनाऊंगा।

मातृभाषा हिन्दी में शिक्षण-इसके बाद प्रश्न आता है-शिक्षा के माध्यम का। यह सच है कि भारत की सभी भाषाओं में सर्वाधिक बोली, लिखी व समझी जाने वाली भाषा हिन्दी ही है। परन्तु खेद है, अभी तक इसे व्यावहारिक रूप में समुचित स्थान नहीं दिया जा रहा है, दो-तीन प्रतिशत अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही अपनी अंग्रेजियत लाद रखने की तानाशाही चला रहे हैं। इन्हीं के कारण आज साधारण किसानों व मजदूरों की सन्ताने शिक्षा से दूर हैं। उन्हें अनपढ़ ही रहने दिया जा रहा है। यदि में शिक्षामन्त्री बना तो समस्त देश में प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में दिलवाने का प्रबन्ध करूगा। स्कूली शिक्षा में हिन्दी प्रथम भाषा रहेगी। अन्य विषय भी हिन्दी माध्यम से पढ़ाये जाने की व्यवस्था करूगा।।

ग्रामीण छात्रों के लिए शिक्षण व्यवस्था—हमारा देश कृषिप्रधान देश है। देश की लगभग 75% आबादी गाँवों में बसती है। मैं चाहता हूँ कि गाँववाले शहर की ओर न देखकर पहले खुद के जीवन को उन्नत एवं गतिशील करें। इसके लिए उनकी शिक्षा व्यवस्था और शहर की शिक्षा-व्यवस्था में अन्तर रखना ही पड़ेगा। यदि मैं शिक्षामन्त्री बना तो गाँवों की जरूरतों के अनुसार, वहीं पर ऐसे शिक्षण व प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना करूगा जो गाँववासियों को आत्मनिर्भर बनाएँ, उनके परम्परागत कार्य को आधुनिक युग के अनुरूप ढालें, जैसे खेती के लिए खाद–निर्माण, नलकूपों की व्यवस्था करना, बीजों की उन्नत किस्में तैयार करना, वैज्ञानिक विधि अपनाकर उत्पादन बढ़ाना, पशुओं की नस्लों का स्तर सुधारना, सूत कातना, कपड़े बुनना, घरेलू सामान तैयार करना आदि। इन अनगिनत कुटीर उद्योगों की स्थापना हेतु उचित ज्ञान व प्रशिक्षण देना उन शिक्षा केंद्रों का कार्य होगा। इसके लिए गाँधी जी द्वारा स्वीकृत बेसिक शिक्षा प्रणाली वहुत उपयुक्त रहेगी।

शहरी विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-प्रणाली-शहरी विद्यार्थियों के लिए भी ऐसी शिक्षा का प्रबन्ध होगा जो केवल बाबुओं का निर्माण न करे, बल्कि प्रतिभाशाली छात्रों को समुचित शिक्षा-सुविधाएँ दे। शिक्षा महँगी न हो। स्कूल-स्तर की सम्पूर्ण शिक्षा नि:शुल्क रहे। उस शिक्षा में विज्ञान को प्राथमिकता होगी। इन विद्यार्थियों से योग्य डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वकील, अर्थशास्त्री, व्यापारी व उच्चाधिकारी बनने की क्षमता रखने वाले योग विद्यार्थी भी निकलेंगे जिन्हें उच्च शिक्षण संस्थानों में उपयुक्त पदों पर पहुँचने का समुचित शिक्षण व प्रशिक्षण दिया जाएगा। मैं शिक्षामन्त्री होकर यह नियम भी अनिवार्य कर दूंगा कि प्रत्येक सुशिक्षित डॉक्टर, इंजीनियर, प्राध्यापक, वकील, अर्थशास्त्री आदि बहुसंख्यक व्यक्ति गाँवों में कम-से-कम । तीन वर्षों तक कार्य करें। इससे शहर और गाँवों की दूरी कम की जा सकेगी।

प्रतिभावान शिक्षकों के पलायन को रोकना-प्राय: यह देखने में आता है कि धन, प्रतिष्ठा व अन्य प्रलोभनों के वशीभूत होकर अनेक उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक विदेशों को चले जाते हैं। मैं शिक्षामन्त्री बनूंगा तो उनको अपने देश में ही ऐसी सुविधाएँ प्रदान करूंगा, जिससे वे विदेशों की ओर मुंह न करें ताकि देश की प्रतिभा देशवासियों के लाभ में काम करे।।

अध्यापकों की मनोवृत्ति-परिवर्तन-शिक्षा की कैसी भी श्रेष्ठतम प्रणाली क्यों न स्वीकृत की जाए, यदि उसको लागू करने में ढील रहेगी अर्थात् योग्य, ईमानदार, परिश्रमी अध्यापकों, प्राध्यापकों, प्रशिक्षकों का अभाव रहेगी तो वह प्रणाली केवल कागजों एवं फाइलों में ही शोभा बढ़ाने वाली बनकर रह जाएगी। उससे देश की नई पीढ़ी का कुछ भी भला नहीं होगा। अध्यापकों या शिक्षकों की मनोवृत्ति को बदलना भी जरूरी है। उन्हें समाज में सम्मानित व प्रतिष्ठित करना होगा। उन पर अध्यापन-कार्यक्रम के अतिरिक्त दूसरे व्यवस्थागत कार्यों का बोझ लादना उचित नहीं है। मैं अपने शिक्षामन्त्रित्व काल में देश के निर्माता शिक्षकों की सुविधाएँ, उनके वेतनमान, उनकी पदोन्नति में न्याय तथा औचित्य का ध्यान रखेंगा।।

उपसंहार-यह सच है कि उक्त शिक्षा-योजनाओं के लिए बहुत धन की आवश्यकता पड़ेगी। धन की इतनी मात्रा एक विकासशील देश के लिए जुटा पाना सम्भव नहीं जान पड़ता। पर यह भी सच है कि अन्य क्षेत्रों में लगाये जाने वाले धन की कटौती करके, फिलहाल शिक्षा क्षेत्र में नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए खर्च करना देश के भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए जरूरी है। शुरू की कठिनाइयाँ बाद के लिए लाभकारी सुविधाएँ ही सिद्ध होगी।

यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता [2016]

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. मेरी कल्पना प्रधानाचार्य बनना,
  3. अध्यापकों पर ध्यान देना,
  4. पुस्तकालय, खेल आदि का स्तर सुधारने पर बल,
  5. विद्यालय की दशा सुधारना,
  6. शिक्षा-परीक्षा पद्धति में परिवर्तन,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना--कल्पना भी क्या चीज होती है। कल्पना के घोड़े पर सवार होकर मनुष्य न जाने कहाँ-कहाँ की सैर कर आता है। यद्यपि कल्पना की कथाओं में वास्तविकता नहीं होती तथापि कल्पना में जहाँ मनुष्य क्षण भर के लिए आनन्दित होता है, वहीं वह अपने लिए कतिपय आदर्श भी निर्धारित कर लेता है। इसी कल्पना से लोगों ने नये कीर्तिमान भी स्थापित किये हैं। एडीसन, न्यूटन, राइट बंधु आदि सभी वैज्ञानिकों ने कल्पना का सहारा लेकर ही ये नये आविष्कार किये। कल्पना में मनुष्य स्वयं को सर्वगुणसम्पन्न भी समझने लगता है।

मेरी कल्पना प्रधानाचार्य बनना-मेरी कल्पना अपने आप में अत्यन्त सुखद है कि काश मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता। प्रधानाचार्य का पद गौरव एवं उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। मैं प्रधानाचार्य होने पर अपने सभी कर्तव्यों का भली-भाँति पालन करता। हमारे विद्यालय में तो प्रधानाचार्य यदा-कदा ही दर्शन देते हैं जिससे विद्यार्थी और अध्यापकगण कृतार्थ हो जाते हैं। मैं नित्य- प्रति विद्यालय आता। अपने विद्यार्थियों व अध्यापकगणों की समस्याएँ सुनता और तदनुरूप उनका समाधान करता।

अध्यापकों पर ध्यान देना-सामान्यत: विद्यालयों में कुछ अध्यापक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने ही आते हैं। वे स्वतन्त्र व्यवसाय करते हैं तथा विद्यार्थियों को पढ़ाना अपना कर्तव्य नहीं समझते। हमारे गणित के अध्यापक शेयरों का धन्धा करते हैं। मन्दी आने पर वे सारा क्रोध विद्यार्थियों पर निकालते हैं। यदि कोई विद्यार्थी उनसे प्रश्न हल करवाने चला जाता है तो वे उसकी पिटाई कर देते हैं। अंग्रेजी के अध्यापक बीमा कम्पनी के एजेन्ट हैं। वे अभिभावकों को बीमा करवाने की नि:शुल्क सलाह देते रहते हैं। अधिकांश अध्यापक ट्यूशन पढ़ाने के शौकीन हैं। वे कक्षा में बिल्कुल नहीं पढ़ाते। जो छात्र उनसे ट्यूशन नहीं पढ़ते, उन्हें वे अनावश्यक रूप से परेशान करते हैं। यहाँ तक कि उनको परीक्षाओं में भी असफल कर देते हैं। यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो सर्वप्रथम अध्यापकों की बुद्धि की इस मलिनता को दूर करता। ट्यूशन पढ़ाने को निषेध घोषित करता तथा ट्यूशन पढ़ाने वालों को दण्डित करता। जो अध्यापक अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते उनको विद्यालय से निकालने अथवा उनके स्थानान्तरण की संस्तुति कर देता। सभी अध्यापकों को आदर्श अध्यापक बनने के लिए येन-केन प्रकारेण विवश कर देता।।

पुस्तकालय, खेल आदि का स्तर सुधारने पर बल-हमारे विद्यालय के पुस्तकालय की दशा अत्यन्त शोचनीय हैं। छात्रों को पुस्तकालय से अपनी रुचि एवं आवश्यकता की पुस्तकें नहीं मिलतीं। मैं विद्यालय के पुस्तकालय की दशा सुधारता। शिक्षाप्रद पुस्तकों तथा महान साहित्यकारों की पुस्तकों की पर्याप्त मात्रा में प्रतियाँ खरीदवाता। किसी भी विषय की पुस्तकों का पुस्तकालय में अभाव नहीं रहने देता। और निर्धन विद्यार्थियों को नि:शुल्क पुस्तकें भी उपलब्ध कराता।।

हमारे विद्यालय में खेलों का आवश्यक सामान नहीं है। प्रधानाचार्य होने पर मैं विद्यार्थियों की आवश्यकतानुसार खेल का सामान उपलब्ध करवाता। विद्यालय की टीम के जीतने पर खिलाड़ियों को पुरस्कृत कर उनका मनोबल बढ़ाता। अपने विद्यालय की टीमों को खेलने के लिए बाहर भेजता, साथ ही अपने विद्यालय में भी नये-नये खेलों का आयोजन करता। राज्यीय और अन्तर्राज्यीय प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करता।

विद्यालय की दशा सुधारना-मैं विद्यार्थियों से श्रमदान करवाता। श्रमदान के द्वारा विद्यालय के बगीचे में नाना-प्रकार के पेड़-पौधे लगवाता। विद्यार्थियों को पर्यावरण के विषय में सचेत करता। विद्यालय के चारों ओर खुशबूदार फूलों के पौधे लगवाता, जिससे विद्यालय का वातावरण फूलों की सुगन्ध से खुशनुमा हो जाता।

सांस्कृतिक कार्यक्रमों के विषय में मेरा विद्यालय अपने क्षेत्र का अवॉम विद्यालय होता। संगीत, कला, आदि की शिक्षा की विद्यालय में समुचित व्यवस्था करवाता। प्रत्येक महीने चित्रकला व वाद-विवाद प्रतियोगिता करवाता। विद्यार्थियों के मस्तिष्क में कला के प्रति आकर्षण पैदा करता। इस प्रकार मैं अपने विद्यालय को नवीन रूप प्रदान करता।

शिक्षा-परीक्षा पद्धति में परिवर्तन-इतना करने के उपरान्त में सर्वप्रथम शिक्षा पद्धति में परिवर्तन लाने पर ध्यान केन्द्रित करता। शिक्षा विद्यार्थियों के लिए सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक विकास में सहायक होती है। मैं विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा पर तो ध्यान देत ही मा ही व्यावसायिक प्रशिक्षण की भी सुविधा प्रदान करवाता। इस प्रकार विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्ति के बाद पाश्रित नहीं रहना पड़ता। मैं अपने विद्यालय में हिन्दी को अनिवार्य विषय घोषित करता। इसमें विद्यार्थियों में भाषा के प्रति सम्मान की भावना जाग्रत होती, साथ ही उनमें देश-प्रेम की भावना भी आती।

हमारे विद्यालय की परीक्षा प्रणाली बहुत दोषपूर्ण है। परीक्षा एहले ही विद्यार्थी अत्यधिक तनावग्रस्त हो जाते हैं। मेरे प्रधानाचार्य बनने पर विद्यार्थियों को परीक्षाओं का भूत इस तरह नहीं सताता कि उन्हें अनैतिक विधियाँ अपनाकर परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़े। शर्षिक परीक्षा के मथ- साथ आन्तरिक मूल्यांकन भी उनकी योग्यता का मापदण्ड होता। लिखित और मोखिक दोनों रूप में परीक्षा होती। शारीरिक स्वास्थ्य भी परीक्षा का एक भाग होता तथा परीक्षा छात्रों के चहुंमुखी विकास का मूल्यांकन करती।

उपसंहार-यदि मैं प्रधानाचार्य होता तो विद्यालय का रूप ही दूसरा होता! यह सब मेरी कल्पना में रचा-बसा है। यदि मैं प्रधानाचार्य बनूंगा तो अपनी सभी कल्पना को पराकार करूगा, यह मेरा दृढ़संकल्प है। मैं ऐसी सूझबूझ से विद्यालय का संचालन करूगा कि राज्य में ही नहीं पूरे देश में मेरे विद्यालय का नाम रोशन हो जायेगा। मुझे आशा है कि भगवान मेरी इस कल्पना को अवश्य साकार रूप प्रदान करेगा।

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UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 4 Indian Education during British Period

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 4
Chapter Name Indian Education during British Period (ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा)
Number of Questions Solved 40
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Pedagogy Chapter 4 Indian Education during British Period (ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के आरम्भ एवं विकास का सविस्तार वर्णन कीजिए।
या
भारतीय शिक्षा के लिए वुड-डिस्पैच की सिफारिशों का वर्णन कीजिए।
उत्तर
ब्रिटिशकालीन शिक्षा का आरम्भ व विकास भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ ब्रिटिश शासन काल में हुआ था। ईसाई मिशनरियों ने देश में आधुनिक शिक्षा की नींव डाली। उन्होंने शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार और प्रसार रखा था, लेकिन ब्रिटिश काल में मैकाले के घोषणा-पत्र के बाद शिक्षा का व्यवस्थित रूप से विकास किया गया। ब्रिटिशकालीन शिक्षा 1947 ई० तक कायम रही। इसे स्वतन्त्रता से पूर्व शिक्षा का काल भी कहे। सकते हैं।
ब्रिटिशकालीन या आधुनिक भारतीय शिक्षा के विकास को निम्नलिखित शीर्षकों में रखा जा सकता
1. ईसाई मिशनरियों द्वारा शिक्षा का प्रसार-भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ ईसाई मिशनरियों द्वारा किया गया। वे समझते थे कि शिक्षा द्वारा लोग ईसाई धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसीलिए वे भारत में शिक्षा प्रचार के कार्य में लग गए। इस क्षेत्र में पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी, डेन एवं अंग्रेज धर्म-प्रचारकों ने प्रमुख कार्य किया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस कार्य में अत्यधिक योगदान दिया। वे भारत में ईसाई प्रचारकों को कम्पनी के कर्मचारियों में धार्मिक भावना बनाए रखने तथा भारतीय लोगों को ईसाई बनाने के लिए भेजते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए देश में अनेक स्थानों पर मिशनरी स्कूलों की स्थापना की गई।

2. भारतीय समाज-सुधारकों द्वारा शिक्षा का प्रसार-ईसाई मिशनरियों के साथ-साथ राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राधाकान्त देव आदि समाज-सुधारकों ने शिक्षा के प्रचार और प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस कार्य को पूरा करने के लिए उन्होंने जनता का सहयोग प्राप्त करके अनेक विद्यालयों की स्थापना की।

3. सन् 1798 का आज्ञा-पत्र-इस आज्ञा–पत्र के अनुसार कम्पनी ने अपने कर्मचारियों तथा सैनिकों को निःशुल्क शिक्षा देने के लिए अनेक विद्यालयों की स्थापना की। कम्पनी ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) और बंगाल में अठारहवीं शताब्दी में बहुत-से विद्यालयों की स्थापना कर दी। अंग्रेजों की देखा-देखी हिन्दू तथा मुसलमानों ने भी अपने विद्यालय खोलने आरम्भ कर दिए।

4. सन 1813 का आज्ञा-पत्र-इस आज्ञा-पत्र ने भारतीय शिक्षा को ठोस और व्यवस्थित रूप प्रदान किया। ब्रिटिश संसद में यह प्रस्ताव रखा गया कि कम्पनी की सरकार भारतवासियों की शिक्षा में रुचि ले और इस कार्य के लिए धन व्यय करे। कम्पनी के संचालकों ने इस प्रस्ताव का बहुत विरोध किया, लेकिन ब्रिटिश संसद ने एक आज्ञा-पत्र पास कर दिया, जिसे सन् 1813 का आज्ञा-पत्र कहा जाता है। इसमें निम्नलिखित बातें थीं—

  • ईसाई पादरियों को भारत में धर्म-प्रचार के लिए छूट दे दी गई।
  • शिक्षा को कम्पनी का उत्तरदायित्व माना गया।
  • भारत में शिक्षा के प्रचार के लिए प्रतिवर्ष एक लाख रुपए की धनराशि व्यय करने की अनुमति दे दी गई।

5. सन् 1814 का कम्पनी का आदेश-कम्पनी ने अपने प्रथम आदेश में शिक्षा की उन्नति, देशी , शिक्षा तथा प्राच्य भाषाओं की उन्नति, भारतीय विद्वानों को प्रोत्साहन व विज्ञान के प्रचार आदि पर ब्र दिया, परन्तु इस आदेश से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।

6. लॉर्ड मैकाले का विवरण-पन्न-सन् 1835 में लॉर्ड मैकाले ने एक विवरण-पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें शिक्षा सम्बन्धी निम्नलिखित सुझाव सम्मिलित थे

  • अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए। ब्रिटिशकालीन शिक्षा का आरम्भ
  • अंग्रेजी पढ़ा-लिखा व्यक्ति ही विद्वान् माना जाए और साहित्य का अर्थ केवल अंग्रेजी साहित्य होना चाहिए।
  • विद्यार्थियों को रुझान फारसी और अरबी की अपेक्षा अंग्रेजी पर अधिक हो।
  • अनेक भारतीय भी अंग्रेजी भाषा को ही ज्ञान का भण्डार शिक्षा का प्रसार मान चुके हैं।

7. छनाई का सिद्धान्त-मैकाले के विवरण-पत्र ने शिक्षा के क्षेत्र में एक विवाद खड़ा कर दिया। इसी सन्दर्भ में छनाई का सन् 1814 का कम्पनी का सिद्धान्त सामने आया। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि शिक्षा समाज में आदेश उच्च वर्ग को प्रदान की जाएगी तो वह उच्च वर्ग से निम्न वर्ग में स्वत: चली जाएगी। दूसरे शब्दों में, सरकार का कर्तव्य है कि वह केवल उच्च वर्ग के लिए शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करे, निम्न । वर्ग तो उसके सम्पर्क में आकर स्वयं शिक्षित हो जाएगा। आर्थर मैथ्यू के शब्दों में, “सर्वसाधारण में शिक्षा ऊपर से भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर छन-छन कर पहुँचती थी। बूंद-बूंद करके भारतीय जीवन के हिमालय से लाभदायक शिक्षा नीचे बहे, जिससे वह कुछ समय में चौड़ी और विशाल धारी में परिवर्तित होकर शुष्क मैदानों का सिंचन प्रचार करे।” इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक पाश्चात्यवादी थे।

ईसाई मिशनरियों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया। लॉर्ड मैकाले ने भी इस सिद्धान्त का प्रबल समर्थन करते हुए कहा, “हमें इस समय एक ऐसे वर्ग का निर्माण करने की चेष्टा करनी चाहिए जो हमारे और उन लाखों व्यक्तियों के मध्य जिन पर हम शासन करते हैं, दुभाषिए का कार्य करे।” इस सिद्धान्त को स्वीकार करके 1844 ई० में लॉर्ड हार्डिज ने घोषणा की कि “अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाएगी। इस घोषणा के बाद शिक्षा की प्रगति तीव्रता से हुई और स्थान-स्थान पर विद्यालयों की स्थापना होने लगी।

8. वुड की घोषणा-पत्र-सन् 1854 में चार्ल्स वुड ने शिक्षा सम्बन्धी एक घोषणा-पत्र बनाया। इस घोषणा-पत्र में शिक्षा सम्बन्धी निम्नलिखित प्रस्ताव रखे गए थे

  • भारतीय शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजी साहित्य और पाश्चात्य ज्ञान का प्रचार होना चाहिए।
  • भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए।शिक्षा विभाग में शिक्षा सचिव एवं शिक्षा निरीक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए, जिससे विभाग का कार्य सुचारु रूप से चल सके।
  • समस्त व्यय बड़े विद्यालयों में ही नहीं खर्च करना चाहिए। भारतीयों को शिक्षा देने से वह अपने अन्य सम्बन्धियों को शिक्षा देने में समर्थ हो सकेंगे।
  • नए विद्यालयों की स्थापना की जाए, जिनमें शिक्षा को माध्यम भी भारतीय भाषाएँ हों।

9. थॉमस और स्टैनले के प्रयास-थॉमस और स्टैनले ने भी भारत में शिक्षा की उन्नति के लिए प्रयास किया। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप तहसीलों एवं ग्रामों में भी हल्काबन्दी के विद्यालय खोले गए। इसके साथ ही प्राथमिक शिक्षा के लिए प्रत्येक राज्य में विद्यालय स्थापित किए गए। इसके फलस्वरूप सभी प्रान्तों में निम्नलिखित शिक्षा संस्थाएँ हो गयीं

  • राजकीय शिक्षा संस्थाएँ,
  • मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्थाएँ,
  • व्यक्तिगत शिक्षा संस्थाएँ।

10. भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन (1882 ई०)-इस आयोग की नियुक्ति विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा पर विचार करने के लिए की गई थी, लेकिन उसने शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुझाव दिए। इस आयोग द्वारा प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक में सरकारी और व्यक्तिगत प्रयासों के मिश्रण
की बात की गई और भारतीयों को शिक्षा के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया गया। इस आयोग ने निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए-

  1. प्राथमिक शिक्षा का विकास करना आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान स्थिति बहुत असन्तोषजनक है।
  2. जिला परिषद् एवं नगरपालिका को यह आदेश दिया जाए कि वे विद्यालयों के लिए एक निश्चित. संख्या में धन रखें।
  3. भारतीय भाषा एवं अंग्रेजी भाषा के विद्यालयों को अन्तर समाप्त किया जाए।
  4. प्राथमिक शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाए।
  5. सरकारी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। गैर-सरकारी विद्यालयों में प्रबन्धकों की इच्छानुसार धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है।
  6. स्त्री-शिक्षा की विशेष व्यवस्था की जाए।

11. स्वदेशी आन्दोलन एवं शिक्षा का प्रचार-उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत समाज-सुधारकों का मत था कि भारतीय विद्यालयों में ही भारत के नवयुवकों का चारित्रिक निर्माण हो सकता है। देश में राष्ट्रीय भावना के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीयता लाने पर बल दे रहे थे। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी जैसी संस्थाएँ स्वदेशी भावना का प्रचार एवं प्रसार कर रही थीं; अतः स्वदेशी आन्दोलन के फलस्वरूप अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की गई। इनमें दयानन्द वैदिक कॉलेज, लाहौर; सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज, बनारस; फग्र्युसन कॉलेज, पूना विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

12. भारतीय विश्वविद्यालय आयोग (1904 ई०)-लॉर्ड कर्जन ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के उद्देश्य से 1901 ई० में शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन आयोजित करवाया। इस सम्मेलन के निर्णय के अनुसार भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की गई। लॉर्ड कर्जन की नीति थी कि भारत में शिक्षा का अधिक-से-अधिक प्रचार और प्रसार हो। उसने गैर-सरकारी संस्थाओं को अनुदान देने की प्रथा का प्रचलन किया। इसके साथ ही उसने शिक्षा के विभिन्न स्तरों के विकास तथा प्रसार का भी प्रशंसनीय प्रयास किया।

13. राष्ट्रीय शिक्षा का विकास-लॉर्ड कर्जन की उग्र राष्ट्रीयता से सशंकित होकर तथा बंगाल के विभाजन को देखकर अनेक भारतीयों ने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार और प्रसार में द्रुत गति से कार्य करना आरम्भ कर दिया। बंगाल में गुरुदास बनर्जी की अध्यक्षता में स्थापित समिति में बहुत-से ‘राष्ट्रीय हाईस्कूलों की स्थापना की। इसी समय कलकत्ते (कोलकाता) में नेशनल कॉलेज की स्थापना हुई। गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शान्ति निकेतन में एक ब्रह्मचर्य आश्रम खोला, जो आज विश्व भारती विश्वविद्यालय का रूप धारण कर चुका है। आर्य समाज ने गुरुकुलों की स्थापना करके प्राचीन वैदिक शिक्षा को प्रोत्साहन दिया।

14. गोपालकृष्ण गोखले का प्रस्ताव-मार्च, 1911 ई० में उदार दल के नेता गोपालकृष्ण गोखले ने केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी एक प्रस्ताव रखा, जो अस्वीकृत हो गया। इस प्रस्ताव की प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं–

  • शिक्षा का पुनर्गठन होना चाहिए।
  • प्रत्येक प्रान्त प्राथमिक शिक्षा की एक योजना तैयार करे।
  • प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य एवं नि:शुल्क हो।
  • जिला बोर्ड एवं म्युनिसिपल बोर्डों को शिक्षा सम्बन्धी कार्य अवश्य करना चाहिए।

15. कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग-सन् 1917 ई० में सैडलर की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की गई, जिसका मूल उद्देश्य कलकत्ता विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में अपने सुझाव देना तथा उच्च शिक्षा के सन्दर्भ में कुछ विचार प्रस्तुत करना था। इस आयोग ने देश के सभी विश्वविद्यालयों, माध्यमिक शिक्षा, स्त्री-शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। इस आयोग ने अन्त:विश्वविद्यालय परिषद् की स्थापना का भी सुझाव दिया। आज का विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग उसी का विकसित रूप है।

16. हर्टाग समिति-सन् 1927 में श्री फिलिप हर्टाग ने प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में एक कमेटी नियुक्त की, जिसने निम्नलिखित सुझाव दिए-

  1. नए विद्यालयों को खोलने की अपेक्षा पुराने विद्यालयों का ही सुधार किया जाए।
  2. प्राथमिक शिक्षा नि:शुल्क एवं अनिवार्य होनी चाहिए।
  3. प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने की आयु 6 से 10 वर्ष निश्चित की गई।
  4. पाठ्यक्रम में सुधार किया जाए।
  5. निरीक्षण कार्य अधिकं कर दिया जाए तथा पढ़ाई का समय भी निश्चित किया जाए।

17. व्यावसायिक शिक्षा तथा वुड-एबट प्रतिवेदन-प्रथम विश्वयुद्ध के अनुभवों ने ब्रिटिश सरकार को इस बात को सोचने के लिए प्रेरित किया कि भारत में औद्योगिक शिक्षा का प्रचार और प्रसार होना चाहिए। इसी के फलस्वरूप सन् 1936-37 में श्री एबट और श्री वुड ने व्यावसायिक शिक्षा की समस्याओं पर विचार किया। इन्होंने भारत में व्यावसायिक शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के सम्बन्ध में व्यापक सुझाव दिए। इन्होंने सामान्य शिक्षा के सन्दर्भ में भी अनेक सुझाव प्रस्तुत किए, जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लागू किया गया।

18. बेसिक शिक्षा-या वर्धा योजना महात्मा गाँधी ने 1937 ई० में वर्धा में हुए एक शिक्षा सम्मेलन में बेसिक शिक्षा की एक योजना प्रतिपादित की। इसमें 7 से 10 वर्ष के बालक-बालिकाओं की नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था थी। बेसिक शिक्षा आज देश की राष्ट्रीय प्राथमिक शिक्षा बन गई है। श्री टी० एम० निगम के अनुसार, “बेसिक शिक्षा महात्मा गाँधी द्वारा दिया गया अन्तिम एवं सबसे अधिक मूल्यवान उपहार है। इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी आधारभूत शिल्प को केन्द्र मानकर सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान की जाती है।”

19. सार्जेण्ट योजना-सन् 1944 में भारतीय शिक्षा सलाहकार जॉन सार्जेण्ट को भारत में युद्धोत्तर शिक्षा विकास पर एक स्मृति-पत्र तैयार करने का आदेश दिया गया। उन्होंने शिक्षा के विभिन्न स्तर और विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में व्यापक सुझाव दिए, जिनमें से प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे

  1. तीन से छह वर्ष के बालकों के लिए नर्सरी विद्यालयों की स्थापना की जाए और यह शिक्षा निःशुल्क हो।
  2. छह से चौदह वर्ष के बालकों की शिक्षा बेसिक शिक्षा के सिद्धान्तों के आधार पर की जाए।
  3. हाईस्कूल शिक्षा के पाठ्यक्रम को साहित्यिक और औद्योगिक दो भागों में बाँटा जाए।
  4. बी० ए० का पाठ्यक्रम तीन वर्ष का हो।

इस प्रकार स्वतन्त्रता से पूर्व इन सुझावों को लागू करने का प्रयास किया गया, किन्तु ब्रिटिश सरकार के पैर अब भारत की पृथ्वी पर लड़खड़ा रहे थे। भारत-विभाजन सम्बन्धी समस्या के कारण शिक्षा सम्बन्धी सुझावों के प्रति लोगों का ध्यान न रहा और स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक शिक्षा के क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण सुधार ने हो सका।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
हमारे देश में आधुनिक शिक्षा के आरम्भ होने में ईसाई मिशनरियों की क्या भूमिका थी?
उत्तर
पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप से अनेक व्यापारिक कम्पनियाँ भारत में व्यापार के लिए आने लगी थीं। इनके साथ-ही-साथ यूरोप की अनेक ईसाई मिशनरियों का भी भारत में आगमन होने लगा। इन ईसाई मिशनरियों का भारत आगमन का मुख्यतया उद्देश्य तो ईसाई धर्म का प्रचार एवं प्रसार करना था परन्तु इस मुख्य उद्देश्य की निश्चित एवं शीघ्र प्राप्ति के लिए इन ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा की व्यवस्था को एक प्रबल साधन के रूप में इस्तेमाल करना प्रारम्भ कर दिया। इन ईसाई मिशनरियों ने भारतीय जनता से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करने के लिए तथा अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए देश के विभिन्न भागों में शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया।

इन शिक्षण संस्थाओं में सामान्य शिक्षा के साथ-ही-साथ ईसाई धर्म के प्रचार एवं प्रसार का कार्य भी किया जाने लगा। इन शिक्षण संस्थाओं में मिशनरियों द्वारा शिक्षा के पाश्चात्य प्रारूप को अपनाया गया। इस प्रयास से हमारे देश में आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इस तथ्य को ही ध्यान में रखते हुए विभिन्न विद्वान ईसाई मिशनरियों को ही भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रवर्तक मानते हैं। स्पष्ट है कि हमारे देश में आधुनिक शिक्षा को आरम्भ करने में ईसाई मिशनरियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका तथा उल्लेखनीय योगदान है।

प्रश्न 2
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के सन्दर्भ में लॉर्ड मैकाले के विवरण-पत्र का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
सन् 1835 में लॉर्ड मैकाले ने एक विवरण-पत्र प्रस्तुत किया, इस विवरण-पत्र के माध्यम से मैकाले ने भारतीय शिक्षा में अंग्रेजी की प्राथमिकता प्रदान करने की प्रबल सिफारिश की थी। इस सन्दर्भ में उसने भारतीय भाषाओं और साहित्य को अनुपयोगी तथा निरर्थक बताया। उसका कहना था, एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी को भारत और अरब के सम्पूर्ण साहित्य से कम महत्त्व नहीं है। इस प्रकार के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से मैकाले ने भारतीय शिक्षा के लिए निम्नलिखित सिफारिशें या सुझाव प्रस्तुत किये

  1. अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए।
  2. अंग्रेजी पढ़े-लिखे व्यक्ति को विद्वान् माना जाए और साहित्य का अर्थ केवल अंग्रेजी साहित्य ‘ होना चाहिए।
  3. विद्यार्थियों का रुझान फारसी और अरबी की अपेक्षा अंग्रेजी पर अधिक हो।
  4. अनेक भारतीय अंग्रेजी भाषा को ही ज्ञान का भण्डार मान चुके हैं।
  5. मैकाले ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीयों को अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान करके, उन्हें अंग्रेजी का अच्छा विद्वान बनाना सम्भव है; अतः इस दिशा में समुचित प्रयास अवश्य किये जाने चाहिए।
  6. मैकाले ने अंग्रेजों के स्वार्थ को भी विशेष महत्व दिया तथा इस दृष्टिकोण से भी एक तर्क प्रस्तुत किया, “अंग्रेजी की शिक्षा द्वारा इस देश में एवं ऐसे वर्ग का निर्माण किया जा सकता है जो रक्त और रंग से भले ही भारतीय हो परन्तु रुचियों, विचारों, नैतिकता और विद्वता से अंग्रेज होगा।

लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रस्तुत किया गया ‘‘विवरण-पत्र’ तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक द्वारा स्वीकार कर लिया गया तथा सरकार ने 7 मार्च, 1835 में एक विज्ञप्ति जारी करके भारत में अंग्रेजी शिक्षा को लागू कर दिया। इस निर्देश के बाद ब्रिटिशकालीन भारतीय शिक्षा का आगामी स्वरूप निश्चित हो गया। इस तथ्य को टी० एन० सिक्वेस ने इन शब्दों में स्पष्ट किया था, “इस विज्ञप्ति ने भारत में शिक्षा के इतिहास को एक नया मोड़ दिया। यह उस दिशा के विषयँ में, जो सरकार सार्वजनिक शिक्षा को देना चाहती थी, निश्चित नीति की प्रथम सरकारी घोषणा की थी।

प्रश्न 3
टिप्पणी लिखिए-वुड का घोषणा-पत्र
उत्तर
सन् 1854 में चार्ल्स वुड्ने शिक्षा सम्बन्धी एक घोषणा-पत्र बनाया। इस घोषणा-पत्र में शिक्षा सम्बन्धी निम्नलिखित प्रस्ताव रखे गए थे

  1. भारतीय शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजी साहित्य और पाश्चात्य ज्ञान का प्रचार होना चाहिए।
  2. भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए।
  3. शिक्षा विभाग में शिक्षा सचिव एवं शिक्षा-निरीक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए, जिससे विभाग | का कार्य सुचारु रूप से चल सके।
  4. समस्त व्यय बड़े विद्यालयों में ही नहीं खर्च करना चाहिए। भारतीयों को शिक्षा देने से वह अपनेb अन्य सम्बन्धियों को शिक्षा देने में समर्थ हो सकेंगे।
  5. नए विद्यालयों की स्थापना की जाए, जिनमें शिक्षा का माध्यम भी भारतीय भाषाएँ हों।
  6. “वुड के घोषणा-पत्र में जन-सामान्य की शिक्षा को प्राथमिकता दी गई थी। इस योजना को
    सफल बनाने के लिए इस घोषणा-पत्र में शिक्षा संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए सहायता अनुदान प्रणाली को लागू करने की सिफारिश की गई थी। इस योजना के अन्तर्गत शिक्षा-संस्थाओं के भवन निर्माण के लिए, पुस्तकालयों के लिए, अध्यापकों के वेतन के लिए तथा छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्तियों के लिए अलग-अलग अनुदान की सिफारिश की गई थी।

उपर्युक्त वर्णित्न सिफारिशों के कारण वुड के घोषणा-पत्र को विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कुछ विद्वानों ने तो इसे भारतीय शिक्षा का ‘महाधिकार-पत्र’ (Magnakarta) की संज्ञा दी है।

प्रश्न 4
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
भारत में ब्रिटिशकालीन शिक्षा के प्रमुख गुण निम्नलिखित थे

  1. इस शिक्षा के अन्तर्गत भारतीय पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के सम्पर्क में आए और उनका वैज्ञानिक, | राजनीतिक तथा औद्योगिक क्षेत्र में ज्ञान विकसित हुआ।
  2. अंग्रेज भारतीय सभ्यता और संस्कृति से बहुत प्रभावित थे। अत: उन्होंने प्राचीन भारतीय ग्रन्थों का अंग्रेजी में अनुवाद कराया और उनका अध्ययन किया। इसके फलस्वरूप भारतीयों को भी अपनी | प्राचीन संस्कृति के गौरव का ज्ञान हुआ और उनमें राजनीतिक चेतना का जन्म हुआ।
  3. इस शिक्षा के अन्तर्गत भारत की प्रान्तीय भाषाओं का समुचित विकास हुआ।
  4. ब्रिटिशकालीन शिक्षा ने भारतीयों के अन्धविश्वास और सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  5. अंग्रेजों ने स्त्री-शिक्षा के विकास के लिए काफी प्रयास किए, फलस्वरूप देश में स्त्रियों की दशा | में विशेष सुधार आया।
  6. अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीयों में राजनीतिक पुनर्जागरण किया, फलस्वरूप भारतीय ब्रिटिश दासता से
    मुक्त होने में सफल हो सके।
  7. ब्रिटिश काल में शिक्षा के प्रचार व प्रसार के अनेकानेक साधनों का भी विकास हुआ।
  8. ब्रिटिश शिक्षा के कारण विश्व की विभिन्न देशों की सभ्यताओं और संस्कृतियों का भारतीयों को
    ज्ञान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 5
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के मुख्य दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
ब्रिटिशकालीन शिक्षा के प्रमुख मेषों का विवेचन निम्नलिखित है-

  1. अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया, फलस्वरूप भारतीय भाषाओं का समुचित विकास ने हो सका।
  2. ब्रिटिशकालीन शिक्षा ने भारतीयों को पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रँग दिया। वे अपनी संस्कृति को भूलकर भौतिकता के सागर में डूज़ गए।
  3. इस शिक्षा ने समाज में ‘बाबू वर्ग नामक एक नए वर्ग को जन्म दिया था। इस वर्ग ने ब्रिटिश सरकार को सहयोग देकर राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात किया।
  4. ब्रिटिश शिक्षा ने भारतीयों को अधार्मिक, अनैतिक तथा भौतिकवादी बना दिया तथा उन्हें प्राचीन भारतीय आध्यात्मिकता के महत्त्व का ज्ञान न रहा।
  5. ब्रिटिश शिक्षा ने जनसाधारण की शिक्षा की पूर्ण उपेक्षा की और देश में निरक्षरता का बोलबाला ही रहा।।
  6. ब्रिटिशकालीन शिक्षा भारतीय हितों के प्रतिकूल रही। इस शिक्षा का मूल उद्देश्य भारत में अंग्रेजी शासन को स्थायी और सुदृढ़ बनाना ही था।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित निस्यन्दन सिद्धान्त का सामान्य विवरण संक्षेप में लिखिए।
उत्तर
लॉर्ड मैकाले ने भारत में शिक्षा की व्यवस्था के विषय में एक विवरण-पत्र प्रस्तुत किया था, जिसके आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में पूर्व-पश्चिम सम्बन्धी विवाद उठ खड़ा हुआ। इसी सन्दर्भ में मैकाले ने निस्यन्दन सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इस सिद्धान्त की मान्यता के अनुसार, यदि समाज के उच्च वर्ग को समुचित शिक्षा प्रदान कर दी जाए तो उस स्थिति में शिक्षा उच्च वर्ग से स्वतः ही निम्न वर्ग तक पहुँच जाएगी। इस तथ्य को आर्थर मैथ्यू ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “सर्वसाधारण में शिक्षा ऊपर से छन-छन कर पहुँचानी थी। बूंद-बूंद करके भारतीय जीवन के हिमालय से लाभदायक शिक्षा नीचे बहे, जिससे वह कुछ समय में चौड़ी और विशाल धारा में परिवर्तित होकर शुष्क मैदानों का सिंचन करे।” मैकाले के निस्यन्दन सिद्धान्त के अनुसार सरकार का दायित्व केवल उच्च वर्ग को शिक्षित करना था तथा निम्न वर्ग स्वत: ही उच्च वर्ग के सम्पर्क में आकर क्रमशः शिक्षित हो जाएगा।

प्रश्न 2
टिप्पणी लिखिए-भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन।
उत्तर
भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन की नियुक्ति विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा पर विचार करने के लिए की गई थी, लेकिन उसने शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुझाव दिए। इस आयोग द्वारा प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक में सरकारी और व्यक्तिगत प्रयासों के मिश्रण की बात की गई और भारतीयों को शिक्षा के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया गया। इस आयोग ने निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए.

  1. प्राथमिक शिक्षा का विकास करना आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान स्थिति बहुत असन्तोषजनक है।
  2. जिला परिषद् एवं नगरपालिका को यह आदेश दिया दिया जाए कि वे विद्यालयों के लिए एक निश्चित संख्या में धन रखें।।
  3. भारतीय भाषा एवं अंग्रेजी भाषा के विद्यालयों को अन्तर समाप्त किया जाए।
  4. प्राथमिक शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाए।
  5. सरकारी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। गैर-सरकारी विद्यालयों में प्रबन्धकों की इच्छानुसार धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है।
  6. स्त्री-शिक्षा की विशेष व्यवस्था की जाए।

प्रश्न 3
भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लॉर्ड मैकाले का तटस्थ मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर
भारत में आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था स्थापित करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका लॉर्ड मैकाले की रही है। लॉर्ड मैकाले प्रशंसा एवं निन्दा दोनों के ही पात्र रहे हैं। लॉर्ड मैकाले के प्रशंसक उन्हें आधुनिक भारतीय शिक्षा के पथ-प्रदर्शक स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार मैकाले द्वारा की गई। शिक्षा-व्यवस्था के ही परिणामस्वरूप भारतीय जनता उन्नति एवं प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हुई। इसके विपरीत लॉर्ड मैकाले के चिन्दकों का कहना है कि मैकाले ने अपनी शैक्षिक नीतियों के माध्यम से भारतीय जनता का घोर अहित किया है। मैकाले ने भारतीय जनता को मानसिक रूप से गुलाम बना दिया। उसके द्वारा की गई अंग्रेजी शिक्षा की व्यवस्था से भारतीय संस्कृति को गहरी ठेस पहुँची। भारतीय भाषाओं का विकास रुक गया तथा एक अलग से ‘बाबू वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न1
भारत में आधुनिक शिक्षा-प्रणाली को आरम्भ करने के लिए सर्वप्रथम किन संस्थाओं द्वारा सफल प्रयास किए गए?
उत्तर
भारत में आधुनिक शिक्षा-प्रणाली को आरम्भ करने के लिए सर्वप्रथम ईसाई मिशनरियों द्वारा सफल प्रयास किए गए।

प्रश्न 2
भारत में आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात किस शासनकाल में हुआ?
उत्तर
भारत में आधुनिक शिक्षा का सूत्रपात मुख्य रूप से अंग्रेजों के शासनकाल में हुआ।

प्रश्न 3
ईसाई मिशनरियों के अतिरिक्त किन भारतीय समाज-सुधारकों ने देश में आधुनिक शिक्षा के विकास में योगदान प्रदान किया?
उत्तर
आधुनिक शिक्षा को आरम्भ करने में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, गोपालकृष्ण गोखले, सर सैयद अहमद खाँ आदि समाज-सुधारकों ने उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया।

प्रश्न 4
लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त को किस नाम से जाना जाता
उत्तर
लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त को निस्यन्दन सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 5
‘छनाई के सिद्धान्त का सुझाव किसने दिया था ?
उत्तर
छनाई के सिद्धान्त’ का सुझाव लॉर्ड मैकाले ने दिया था।

प्रश्न 6
आधुनिक भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में लॉर्ड कर्जन के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
आधुनिक भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में लॉर्ड कर्जन ने संख्यात्मक एवं गुणात्मक विकास के लिए उल्लेखनीय प्रयास किए।

प्रश्न 7
1854 की शिक्षा नीति की घोषणा किसने की ?
उत्तर
चार्ल्स वुड ने।

प्रश्न 8
किस अभिलेख को अंग्रेजी शिक्षा का महाधिकार पत्र’ के नाम से जाना जाता है?
उत्तर
‘वुड के घोषणा-पत्र’ को अंग्रेजी शिक्षा का महाधिकार पत्र के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 9
शिक्षा में सहायता अनुदान प्रणाली की घोषणा किसने की थी?
उत्तर
शिक्षा में सहायता अनुदान प्रणाली’ की घोषणा चार्ल्स वुड ने सन् 1854 के घोषणा-पत्र में की थी।

प्रश्न 10
भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन का गठन कब तथा किसलिए किया गया था?
उत्तर
भारतीय शिक्षा आयोग या हण्टर कमीशन का गठन सन् 1882 ई० में किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा-व्यवस्था पर विचार करना था।

प्रश्न 11
स्वदेशी आन्दोलन के अन्तर्गत मुख्य रूप से कौन-कौन-से कॉलेज स्थापित किए गए थे?
उत्तर
स्वदेशी आन्दोलन के अन्तर्गत स्थापित किए गए मुख्य कॉलेज थे—दयानन्द वैदिक कॉलेज-लाहौर, सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज–बनारस, फग्र्युसन कॉलेज-पूना।

प्रश्न 12
कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग किस सन में गठित किया गया तथा इसका अध्यक्ष कौन था?
उत्तर
कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग 1917 ई० में गठित किया गया तथा इसका अध्यक्ष माइकेल सैडलर था।

प्रश्न 13
सार्जेण्टे योजना के अन्तर्गत छोटे बच्चों की शिक्षा के लिए मुख्य रूप से क्या सुझाव दिया गया था?
उत्तर
सार्जेण्ट योजना के अन्तर्गत सुझाव दिया गया कि 3 से 6 वर्ष के बालकों के लिए नर्सरी विद्यालय स्थापित किए जाएँ तथा यह शिक्षा नि:शुल्क हो।

प्रश्न 14
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. भारत में आधुनिक शिक्षा को आरम्भ करने में ईसाई मिशनरियों का कोई योगदान नहीं था।
  2. सन् 1813 के आज्ञा-पत्र में भारत में शिक्षा को कम्पनी का उत्तरदायित्व माना गया।
  3. लॉर्ड मैकाले के अनुसार समाज के उच्च एवं निम्न दोनों ही वर्गों के लिए शिक्षा की समान व्यवस्था की जानी चाहिए।
  4. लॉर्ड कर्जन ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के उद्देश्य से सन् 1901 में शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया था।
  5. भारत में औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था का सुझाव वुड-एबट प्रतिवेदन में दिया गया था।

उत्तर

  1. असत्य,
  2. सत्य,
  3. असत्य,
  4. सत्य,
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-
प्रश्न 1
भारत में आने वाला प्रथम यूरोपियन था
(क) अंग्रेज
(ख) डच
(ग) पुर्तगाली
(घ) फ्रांसीसी
उत्तर
(ग) पुर्तगाली

प्रश्न 2
वास्कोडिगामा कालीकट के बन्दरगाह पर कब उतरा?
(क) अप्रैल, 1492 ई०
(ख) मई, 1498 ई०
(ग) दिसम्बर, 1599 ई०
(घ) जून, 1613 ई०
उत्तर
(ख) मई, 1498 ई०

प्रश्न 3
यूरोपियनों के आगमन के समय भारत की देशी शिक्षा की क्या दशा थी?
(क) सामान्य
(ख) उच्चतर
(ग) उन्नतशील
(घ) दयनीय
उत्तर
(घ) दयनीय

प्रश्न 4
वारेन हेस्टिग्स ने कलकत्ता दरसा की स्थापना कब की?
(क) 1685 ई०
(ख) 1774 ई०
(ग) 1780 ई०
(घ) 1791 ई०
उत्तर
(ग) 1780 ई०

प्रश्न 5
कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज का संस्थापक कौन था?
(क) वारेन हेस्टिग्स
(ख) लॉर्ड वेलेजली
(ग) लॉर्ड विलियम बैंटिंक
(घ) लॉर्ड डलहौजी
उत्तर
(ख) लॉर्ड वेलेजली

प्रश्न 6
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में शिक्षा प्रसार हेतु कब से अनुदान देना आरम्भ किया?
(क) 1798 ई०
(ख) 1813 ई०
(ग) 1833 ई०
(घ) 1853 ई०
उत्तर
(ख) 1813 ई०

प्रश्न 7
भारत में अंग्रेजी शिक्षा का आरम्भ हुआ था
(क) लॉर्ड कर्जन द्वारा।
(ख) लॉर्ड ऑकलैण्ड द्वारा।
(ग) लॉर्ड मैकाले द्वारा
(घ) विलियम हण्टर द्वारा
उत्तर
(ग) लॉर्ड मैकाले द्वारा

प्रश्न 8
“एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की अलमारी भारत और अरबी के सम्पूर्ण देशी साहित्य के बराबर होगी।” यह कथन किसका है?
क) लॉर्ड विलियम बैंटिंक
(ख) लॉर्ड आर्कलैण्ड
(ग) लॉर्ड मैकाले
(घ) लॉर्ड कर्जन
उत्तर
(ग) लॉर्ड मैकाले

प्रश्न 9
ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा का माध्यम था
(क) हिन्दी,
(ख) अंग्रेजी
(ग) फारसी
(घ) संस्कृत
उत्तर
(ख) अंग्रेजी

प्रश्न 10
चार्ल्स वुड का शिक्षा घोषणा-पत्र कब प्रकाशित हुआ?
(क) 1813 ई०
(ख) 1835 ई०
(ग) 1854 ई०
(घ) 1882 ई०
उत्तर
(ग) 1854 ई०

प्रश्न 11
अंग्रेजी शिक्षा का मैग्नाकार्टा किसे कहा जाता है?
(क) ऑकलैण्ड का विवरण-पत्रे
(ख) लॉर्ड मैकाले का विवरण-पत्र
(ग) वुड का विवरण-पत्र ।
(घ) हण्टर कमीशन की रिपोर्ट
उत्तर
(ग) वुड का विवरण-पत्र

प्रश्न 12
भारत में आधुनिक विश्वविद्यालय की स्थापना का सुझाव दिया गया था
(क) 1813 के आज्ञा-पत्र द्वारा
(ख) 1833 के आज्ञा-पत्र द्वारा
(ग) 1837 के मैकाले के विवरण-पत्र द्वारा।
(घ) 1854 के वुड के घोषणा-पत्र द्वारा
उत्तर
(घ) 1854 के वुड के घोषणा-पत्र द्वारा

प्रश्न 13
भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम किसने पारित करवाया?
(क) लॉर्ड डलहौजी
(ख) लॉर्ड लिटन
(ग) लॉर्ड रिपन :
(घ) लॉर्ड कर्जन
उत्तर
(घ) लॉर्ड कर्जन

प्रश्न 14
भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास और समस्याओं पर विचार करने वाला पहला आयोग था
(क) सैडलर आयोग।
(ख) हण्टर आयोग
(ग) सार्जेण्ट आयोग ।
(घ) हर्टाग समिति
उत्तर
(ख) हण्टर आयोग

प्रश्न 15
भारत में पहला विश्वविद्यालय कहाँ पर खोला गया था?
(क) कोलकाता
(ख) बनारस
(ग) आगरा
(घ) मुम्बई
उत्तर
(क) कोलकाता

प्रश्न 16
भारत में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की स्थापना कब हुई?
(क) 1932 ई०
(ख) 1935 ई०
(ग) 1940 ई०
(घ) 1944 ई०
उत्तर
(ख) 1935 ई०

प्रश्न 17
भारतीय स्कूलों के लिए सहायता अनुदान प्रणाली कब प्रारम्भ हुई?
(क) 1814 ई० में
(ख) 1834 ई० में
(ग) 1854 ई० में ।
(घ) 1864 ई० में
उत्तर
(ग) 1854 ई० में

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