UP Board Solutions for Class 8 Home Craft Chapter 3 खाद्य पदार्थों का संरक्षण

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पाठ-3  खाद्य पदार्थों का संरक्षण
अभ्यास

1. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
(1) सही मिलान करिए।
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(2) निम्नलिखित वाक्यों के आगे सहीं (✔️) अथवा गलत (✗) का चिह्न लगाएँ
(क) शून्य अंश सेल्सियस तापक्रम पर जीवाणु सक्रिय हो जाते हैं।               (✗)
(ख) परिरक्षण विधि से मुरब्बा, जैम एवं जैली बनाकर सुरक्षित रखते हैं।    (✔️) 

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2. लघुउत्तरीय प्रश्न
(क) फ्यूमीगेशन विधि में किस चीज का प्रयोग करते हैं?
उत्तर : फ्यूमीगेशन विधि में इथायलीन डाइब्रोमाइड, (UPBoardSolutions.com) इथायलीन, ट्राइक्लोराइड एवं कार्बन टेट्राक्लोराइड जैसे रसायनों का प्रयोग करते हैं।

(ख) शीघ्र नष्ट होने वाले पदार्थों का नाम लिखिए।
उत्तर : इस समूह में ऐसे भोज्य पदार्थ आते हैं, जो अधिक नमीयुक्त होते हैं- दूध, दही, फल, सबियाँ, अंडा, मांस, मछली।

3. लघु उत्तरीय प्रश्न ।
(क) घरेलु विधि में पदार्थों को संरक्षण कैसे करते हैं?
उत्तर : इस विधि में लाल मिर्च व सूखी नीम की पत्तियों को अनाज में मिलाकर वायुरुद्ध बंद डिब्बे में पैक करके रखें। मसाले, मेवे आदि को सुरक्षित रखने का सबसे अच्छा तरीका है कि उन्हें धूप दिखाकर ऐसे डिब्बे में पैक करके रखें जिनमें नमी या वायु न जा सके।

(ख) निर्जलीकरण विधि क्या है?
उत्तर : खाद्य-पदार्थों से नमी का हटाना ही निर्जलीकरण है। इस विधि में खाद्य-सामग्री में उपस्थित नमी धूप के माध्यम से सूखकर निकल जाती है। जब खाद्य-पदार्थ में नमी नहीं रहती है तो जीवाणु, (UPBoardSolutions.com) कवक एवं एंजाइम सक्रिय नहीं हो पाते हैं। एवं खाद्य पदार्थ सुरक्षित रहती है।

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4. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ।
(क) भोजन बर्बाद न हो, इसके लिए आप क्या करेंगे?
उत्तर : अधिकांशतः देखा जाता है कि अनेक घरों, होटलों, दावतों आदि में अधिक भोजन लेकर उसे फेंक दिया जाता है। ऐसा कदापि न करें। बचे भोजन को गरीबों में बाँट दें तथा पशु-पक्षियों को खिला देना चाहिए। थाली में आवश्यकता से अधिक भोजन न लें।

(ख) खाद्य पदार्थों के संरक्षण के कारण एवं महत्त्व लिखिए।
उत्तर : घुन, फफूदी और कीटाणुओं से खाद्य-पदार्थों को संरक्षित रखना जरूरी होता है। बिना मौसम वाले फलों व सब्जियों की उपलब्धता के लिए संरक्षण आवश्यक है। आवश्यकता से अधिक पैदा होने वाले अनाज को सुरक्षित रखना भी आवश्यक है। अनाज, फलों और सब्जियों को दूर के स्थानों पर भेजना उनके संरक्षण के कारण ही सम्भव (UPBoardSolutions.com) हो सका है। पके हुए भोज्य पदार्थों को संरक्षित रखकर उनका दुबारा उपयोग करने से समय और ईंधन की बचत होती है।

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प्रोजेक्ट कार्य
नोट : विद्यार्थी स्वयं करें।

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UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 12 भोजन का पाचन एवं सम्बन्धित शरीर-क्रिया विज्ञान

UP Board Solutions for Class 9 Home Science Chapter 12 भोजन का पाचन एवं सम्बन्धित शरीर-क्रिया विज्ञान

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
पाचन तन्त्र के अंगों का चित्र सहित वर्णन कीजिए। छोटी आँत में भोजन किस प्रकार पचता है?
या
आहारनाल का चित्र बनाइए और उसके मुख्य भागों के नाम लिखिए। या पाचन नलिका का चित्र बनाइए तथा पाचन में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले अंगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आहारनाल एवं पाचन तन्त्र

भोजन एवं पेय पदार्थों का हमारे शरीर में प्रवेश मुख द्वारा होता है तथा पाचन क्रिया के पश्चात् इनके अवशिष्ट पदार्थों का निकास मल द्वार द्वारा होता है। मुख एवं मल द्वार को परस्पर सम्बन्धित करने वाली नली को पाचन नली अथवा आहारनाल कहते हैं। आहारनाल के विभिन्न भाग हैं, जिनका आकार तथा कार्य भिन्न-भिन्न होता है। आहारनाल के सभी भाग मुख्य रूप से ग्रहण किए गए आहार के पाचन का कार्य करते हैं। (UPBoardSolutions.com) आहारनाल के अतिरिक्त अर्थात् इसके बाहर भी कुछ ऐसे अंग हैं जो आहार के पाचन में विशेष सहायता एवं योगदान प्रदान करते हैं। इन अंगों को आहार के पाचन में सहायक अंग माना जाता है। यकृत, अग्न्याशय तथा पित्ताशय इसी वर्ग के अंग हैं। आहारनाल तथा इससे सम्बन्धित पाचन क्रिया में सहायक अंग सम्मिलित रूप से पाचन तन्त्र अथवा पाचन संस्थान का निर्माण करते हैं अर्थात् आहार के पाचन एवं शोषण में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने वाले तथा अप्रत्यक्ष रूप से सहायता प्रदान करने वाले सभी अंगों को सम्मिलित रूप से पाचन तन्त्र कहा जा सकता है। इस प्रकार हमारे पाचन तन्त्र के दो भाग होते हैं
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(1) आहारनाल तथा
(2) पाचन क्रिया में सहायक अंग।

(i) आहारनाल
यह पाचन तन्त्र को मुख्य भाग है। यह लगभग 9 मीटर लम्बी होती है। समान व्यास की न होकर यह ‘भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न आकार के अंगों का निर्माण करती है। आहारनाल के मुख्य अंग निम्नलिखित हैं

  1. मुख तथा मुखगुहा,
  2.  ग्रसनी,
  3. ग्रासनली,
  4.  आमाशय,
  5.  पक्वाशय,
  6.  छोटी आँत,
  7. बड़ी आँत।

(i) मुख तथा मुखगुहा:
दो ओष्ठों से घिरा आहारनाल का प्रवेश द्वार मुख कहलाता है, जो कि अन्दर की ओर मुखगुहा में खुलता है। मुखगुहा आगे की ओर ऊपर-नीचे जबड़ों तथा पीछे की ओर गालों से घिरी होती है। मुखगुहा की छत तालू कहलाती है। दाँत मुखगुहा के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। ये ऊपर व नीचे के जबड़ों में कुल (UPBoardSolutions.com) मिलाकर संख्या में 32 होते हैं। ये भोजन को चबाने का कार्य करते हैं। मुखगुहा में तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ होती हैं, जिनसे निकलने वाली लार चबाते समय भोजन में मिलकर उसे लसलसा बनाती है। लार में टायलिन नामक किण्व (एन्जाइम) होती है जो कि श्वेतसारी पदार्थ (स्टार्च) को शर्करा में परिवर्तित कर देती है।

(ii) ग्रसनी( फैरिंक्स):
यह कीप के आकार की रचना होती है जो कि मुखगुहा के पीछे की ओर स्थित होती है।

(iii) ग्रासनली (इसोफेगस):
यह लगभग 25 सेमी लम्बी नली होती है जो कि गर्दन से उदरगुहा तक स्थित होती है। इसे अन्ननलिका (oesophagus) भी कहते हैं। इसकी भीतरी सतह श्लेष्मिक कला की बनी होती है, जिससे श्लेष्म निकला करता है।

(iv) आमाशय-आमाशय (stomach):
मशक के आकार का होता है तथा उदरगुहा में अनुप्रस्थ रूप में स्थित होता है। इसका एक सिरा बड़ा, परन्तु दुसरा सिरा सँकरा होता है। भोजन नलिका (इसोफेगस) का अन्तिम सिरा आमाशय से जुड़ा रहता है। इसकी लम्बाई 25 सेमी तथा चौड़ाई 10 सेमी होती है। इसमें ग्रास नली से भोजन आता है। आमाशय की दीवार में श्लेष्म ग्रन्थियों के अतिरिक्त जठर ग्रन्थियाँ भी होती हैं।

(v) पक्वाशय-आमाशय से आगे चलने पर पाचन:
तन्त्र का जो अंग प्रारम्भ होता है, उसे पक्वाशय या ग्रहणी (duodenum) कहते हैं। इसका आरम्भ आमाशय के निचले द्वारे से होता है। इसकी आकृति अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘C’ के समान होती है। इसकी लम्बाई लगभग 25 सेमी होती है। यकृत से पित्त-नली तथा अग्न्याशय से क्लोम नली इसके निचले हिस्से में आकर मिलती है।

(vi) क्षुद्रांत्र अथवा छोटी आँत:
रचना-यह लगभग 5 मीटर लम्बी अत्यधिक कुण्डलित नली होती है, इसको दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

(क) मध्यान्त्र:
यह लगभग 2.5 मीटर लम्बी व 4 सेमी चौड़ी नली होती है। इसकी दीवारों में रुधिरवाहिनियों का जाल बिछा होता है।
(ख) क्षेषान्त्र:
यह लगभग 2.25 मीटर लम्बी व 4 सेमी चौड़ी अत्यधिक कुण्डलित नली होती है। ग्रहणी को छोड़कर शेष छोटी आँत में अँगुली के आकार की रचनाएँ होती हैं, जो कि रसांकुर कहलाती हैं। सलवटों एवं रसांकुरों जैसे उभारों के फलस्वरूप आंत्रीय दीवार की अवशोषण सतह कई सौ गुना बढ़ (UPBoardSolutions.com) जाती है। आन्त्रीय दीवार में रसांकुरों के बीच-बीच में श्लेष्मिक कला आन्त्रीय ग्रन्थियों का निर्माण करती हैं, जिनमें भोजन के पाचन में सहायक आन्त्रीय रस बना करते हैं।

(vii) बड़ी आँत अथवा वृहदान्त्र:
बड़ी आँत लगभग 1.5 से 2.0 मीटर लम्बी व 6 सेमी चौड़ी होती है। इनके तीन प्रमुख भाग होते हैं

(क) अन्धात्र:
यह लगभग 6 सेमी लम्बी व 7.5 सेमी चौड़ी थैली के आकार की रचना होती है। इसके एक ओर लगभग 9 सेमी लम्बी उँगली के आकार की अवशेष रचना निकलती है। इसे कृमिरूप परिशेषिका (वर्मीफोर्म एपेन्डिक्स) कहते हैं। इसका हमारे शरीर में कोई उपयोग या कार्य नहीं है।

(ख) कोलोन:
यह लगभग 1.25 मीटर लम्बी व 6 सेमी चौड़ी नलिका होती है। यह उल्टे ‘C’ के आकार में रहकर सम्पूर्ण छोटी आँत को घेरे रहती है। यह अन्त में मलाशय में खुलती है।

(ग) मलाशय:
यह लगभग 12 सेमी लम्बी व 4 सेमी चौड़ी नली होती है, जिसका अन्तिम सिरा शरीर से बाहर खुलता है। इसे गुदाद्वार (एनस) कहते हैं। इसमें पाई जाने वाली मांसपेशियाँ
आवश्यकतानुसार संकुचित होकर व फैलकर गुदाद्वार को बन्द करती व खोलती हैं।

(2) पाचन क्रिया में सहायक अंग:

(1) यकृत (लिवर):
पाचन क्रिया के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण सहायक अंग है। यह शरीर के दाहिने ओर नीचे की पसलियों के पीछे तथा मध्य पट के ठीक नीचे पाई जाने वाली भूरे रंग की शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि होती है। इसका भार लगभग 1.5 किलोग्राम होता है। यकृत लगभग हरे-पीले रंग का पित्त नामक पाचक रस बनाता है जो कि यकृत वाहिनी द्वारा पित्ताशय तक पहुँचता रहता है।

(2) पित्ताशय(गॉल ब्लेडर ):
यह नाशपाती के आकार की एक थैली होती है जो कि यकृत के पीछे की ओर स्थित होती है। इसमें पित्त रस संचित रहता है, जो कि समय-समय पर आवश्यकतानुसार पित्तवाहिनी के द्वारा ग्रहणी में पहुँचता है।

(3) क्लोम अथवा अग्न्याशय (पैंक्रियास):
यह आमाशय के ठीक पीछे उदर की पिछली दीवार से सटी हुई होती है। यह ग्रहणी से प्लीहा तक फैली हुई होती है। यह लगभग 16 सेमी लम्बी व 4 सेमी चौड़ी होती है। यह अग्न्याशय रस बनाती है जो कि ग्रहणी में अग्न्याशय वाहिनी द्वारा पहुँचकर पाचन क्रिया में सहायता करता है।

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प्रश्न 2:
दाँत कितने प्रकार के होते हैं? विभिन्न प्रकार के दाँतों के क्या कार्य हैं?
उत्तर:
दाँतों के प्रकार एवं कार्य दाँतों का मुख्य कार्य भोजन चबाना है। मनुष्य के दाँत जीवन में दो बार निकलते हैं; अतः मनुष्य द्विबार-दन्ती होता है। इस आधार पर मनुष्य के दाँत निम्नलिखित प्रकार के होते हैं
(1) अस्थायी या दूध के दाँत,
(2) स्थायी दाँत।

(1) अस्थायी या दूध के दाँत:
जन्म के समय ये दाँत बच्चे के मसूड़ों के अन्दर छिपे होते हैं। जन्म के 6 से 7 माह बाद बढ़ते हुए 2-3 वर्ष की आयु होने तक ये पूर्णरूप से निकल आते हैं। ये संख्या में 20 होते हैं।

(2) स्थायी दाँत:
लगभग 6 वर्ष की आयु अथवा इसके बाद दूध के दाँत गिरने लगते हैं। प्रायः 18 वर्ष तक की आयु में 28 दाँत निकलते हैं। पिछले 4 दाँत (अकल दाढ़) सामान्यत: 20-25 वर्ष की आयु में निकलते हैं। इस प्रकार कुल 32 दाँत होते हैं। इनमें से प्रत्येक जबड़े में 16 दाँत होते हैं।

स्थायी दाँतों के प्रकार

आकार एवं कार्य के आधार पर समस्त दाँतों को निम्नलिखित चार प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है
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(i) कृन्तक अथवा छेदक (इनसीजर्स ):
ये सबसे आगे कीओर के संख्या में चार होते हैं। इनमें से प्रत्येक छैनी के समान धारदार होता है। ये भोजन को कुतरने के काम आते हैं।

(ii) रदनक (केनाइन):
यह कृन्तक के दोनों ओर स्थित होते हैं तथा संख्या में दो होते हैं। ये लम्बे एवं नुकीले होते हैं तथा भोजन को । चीरने-फाड़ने का कार्य करते हैं। चर्वणकर

(iii) अग्रचर्वणक( प्रिमोलर्स):
ये संख्या में चार तथा रदनक दाँतों के दोनों ओर दो-दो की संख्या में स्थित होते हैं। इनके सिरे चपटे व चौकोर होते हैं। ये भोजन को कुचलने व पीसने का कार्य करते हैं।

(iv) चर्वणक( मोलर्स):
ये संख्या में 6 तथा अग्रचर्वणक के पीछे तीन-तीन दोनों ओर स्थित होते हैं। इनके सिरे भी चपटे व चौकोर होते हैं तथा भोजन को कुचलने व पीसने का कार्य करते हैं। (UPBoardSolutions.com) दाँत ऊपर तथा नीचे के जबड़ों में बने गड्डों में दृढ़ता से स्थित होते हैं। मसूड़े इनको और दृढ़ता प्रदान करते हैं। एक वयस्क मनुष्य के 32 दाँतों को निम्नलिखित दन्त सूत्र के द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है
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सभी प्रकार के दाँतों की संरचना लगभग समान होती है। ये जबड़े की अस्थि के गड्ढों में अपने मूल वाले भाग में जमे रहते हैं। एक सीमेन्ट जैसे पदार्थ से दाँत की अस्थि के साथ पकड़ अत्यधिक मजबूत होती है। इसके अतिरिक्त इसके निचले भाग पर मसूढ़े चढ़े रहते हैं। सभी दाँत डेन्टाइन (dentine) नामक पदार्थ से बने होते हैं। यह पदार्थ हड्डी से भी मजबूत होता है। प्रत्येक दाँत तीन भागों में विभक्त होता हैं। (UPBoardSolutions.com) दाँत अन्दर से खोखला होता है। इस खोखले भाग को दन्त गुहा (pulp cavity) कहते हैं, जो दन्त मज्जा से भरी होती है। इसमें अनेक सूक्ष्म रक्त नलिकाएँ, स्नायु जाल तथा तन्तु पाए जाते हैं। प्रत्येक दाँत के मूल में एक छोटा छेद होता है। इसी छेद से ये कोशिकाएँ तथा नलिकाएँ इत्यादि दन्त मज्जा में आती

प्रश्न 3:
आमाशय की रचना का वर्णन कीजिए। आमाशय में भोजन का पाचन किस प्रकार होता है? समझाइए।
या
आमाशय का सचित्र वर्णन कीजिए। यह भोजन की पाचन-क्रिया में किस प्रकार सहायता देता है?
या
‘आमाशय में उपस्थित जठर रस भोजन को पचाने में सहायक होता है।’ सिद्ध कीजिए।
या
आमाशय की रचना एवं उसके कार्य का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आमाशय की रचना:

आमाशय आहार-नाल को एक प्रमुख भाग है। आमाशय एक थैले के आकार की रचना होती है। इसकी लम्बाई लगभग 25 सेमी व चौड़ाई। 10 सेमी होती है। यह ऊपर की ओर ग्रासनली से तथा नीचे की ओर ग्रहणी से जुड़ा रहता है। उदरगुहा में इसका चौड़ा सिरी बाई ओर तथा सँकरा सिरा दाहिनी ओर होता है। यह मध्य पट के ठीक नीचे की ओर स्थित होता है। यह ऊपर की ओर हृदय प्लीहा द्वार तथा नीचे की ओर जठर-निर्गम द्वार द्वारा खुलता है। इसकी दीवार की संरचना ग्रासनली की दीवार की भाँति होती है, परन्तु यह ग्रासनली (UPBoardSolutions.com) से अपेक्षाकृत मोटी व दृढ़ होती है। इसमें पेशियों के अधिक स्तर होते हैं। आमाशय की दीवार में प्रायः वर्तुल व अनुलम्ब पेशियों के अतिरिक्त तिर्यक पेशियों का एक स्तर और होता है। आमाशय की दीवार में श्लेष्म अग्न्याशय ग्रन्थियों के अतिरिक्त जठर ग्रन्थियाँ भी पाई जाती हैं। इन ग्रन्थियों में जठर रस बनता है। आमाशय की दीवार में अनेक ग्रहणी जठर निर्गम द्वार उभरी हुई सलवटें होती हैं जो कि इसके क्षेत्रफल को कई गुना बढ़ा देती हैं।
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भोजन का पाचन:
आमाशय में आने वाला भोजन पिसी हुई अवस्था में होता है तथा इसमें लार तथा श्लेष्मक मिली हुई होती है। आमाशय की भीतरी दीवार में श्लेष्मिक झिल्ली होती है, जिसमें नली के आकार की अनेक जठर ग्रन्थियाँ होती हैं। इनसे जठर रस नामक पाचक रस का स्राव होता है। (UPBoardSolutions.com) आमाशय धीमी व तरंग गति से संकुचन व प्रसरण की क्रिया करता है, जिसके फलस्वरूप भोजन और महीन पिसता है तथा इसमें जठर रस भली प्रकार मिल जाता है। जठर रस में नमक का अम्ल (हाइड्रोक्लोरिक एसिड) व कुछ महत्त्वपूर्ण किण्व होती हैं। आमाशय में आते समय भोजन क्षारीय होता है, परन्तु जठर रस के मिलने पर यह अम्लीय हो जाता है। जठर रस के दो महत्त्वपूर्ण कार्य हैं

  1. भोजन में उपस्थित कीटाणुओं को मार देता है,
  2. पेप्सिन नामक किण्व को प्रोटीन्स पर क्रिया करने के लिए प्रोत्साहित करता है। जठर रस में निम्नलिखित किण्व पाई जाती है

(क) रेनिन:
यह किण्व नमक के अम्ल की उपस्थिति में क्रियाशील होती है। यह दूध को फाड़कर उसकी प्रोटीन को अलग कर देती है तथा दूध के ठोस भाग केसीन को जमाकर पाचन क्रिया में मदद करती है। यह किण्व केवल बच्चों में ही पाई जाती है तथा वयस्क पुरुष एवं महिलाओं में इसका पूर्णरूप से अभाव होता है।

(ख) पेप्सिन:
यह किण्व प्रारम्भ में पेप्सिनोजन नामक निष्क्रिय अवस्था में स्रावित होती है। बाद में यह जठर रस में उपस्थित नमक के अम्ल के सम्पर्क में आकर पेप्सिन में परिवर्तित हो जाती है। पेप्सिन प्रोटीन्स से क्रिया कर उन्हें प्रोटिओजिज व पेप्टोन्स में बदल देती है। आमाशय में भोजन प्रायः तीन-चार घण्टों तक (UPBoardSolutions.com) रहता है। इस अवधि में भोजन अम्लीय हो जाता है। तथा भूरे रंग की लेई (पल्प) के समान हो जाता है। भोजन की इस अवस्था को ‘काइम’ कहते हैं।

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प्रश्न 4:
पक्वाशय तथा छोटी आँत में होने वाले आहार के पाचन एवं शोषण का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
आहार के पाचन में पक्वाशय तथा छोटी आँत का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। आहार नाल के इन भागों में होने वाले पाचन एवं शोषण का विवरण निम्नलिखित है

पक्वाशय की रचना:

आमाशय से आगे चलने पर पाचन-तन्त्र का जो अंग प्रारम्भ होता है, उसे पक्वाशय या ग्रहणी (duodenum) कहते हैं। इसका आरम्भ आमाशय के निचले द्वार से होता है। इसकी आकृति अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘C’ के समान होती है। इसकी लम्बाई लगभग 25 सेमी होती है। यकृत (UPBoardSolutions.com) से पित्त-नली तथा अग्नाशय से क्लोम-नली इसके निचले हिस्से में आकर मिलती हैं। जैसे ही भोजन आमाशय से आहारनाल के इस भाग (पक्वाशय) में आता है, वैसे ही विभिन्न रस यहाँ पहुँचने लगते हैं, जो भोजन के पाचन में सहायक होते हैं।
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छोटी आँत की रचना:
आहार नाल के पक्वाशय से आगे वाले भाग को छोटी आँत कहते हैं। छोटी आँत की लम्बाई लगभग 5 मीटर होती है तथा आकार में यह कुण्डलित-नली जैसी होती है। इसका प्रथम आधा भाग
लगभग 2.5 मीटर लम्बी तथा 4 सेमी चौड़ी नली के रूप में होता है। इस नली की दीवारों में रुधिर-वाहिनियों का जाल वाहिनी बिछा होता है। छोटी आँत का शेष आधा भागे लगभग 2.5 मीटर लम्बी तथा 4 सेमी चौड़ी अत्यधिक कुण्डलित नली के रूप में होता है। छोटी आँत में भीतरी सतह पर छोटे-छोटे उँगली के आकार के उभार आँत की गुहा में लटके ते हैं, जिन्हें रसांकुर (villus) कहते हैं। सिलवटों तथा (UPBoardSolutions.com) रसांकुर जैसे उभारों के कारण आंत्रीय दीवार के इस भीतरी तल का क्षेत्रफल कई सौ गुना बढ़ जाता है। प्रत्येक रसांकुर (villus) में एक मोटी लसिका। वाहिनी (lymph vessel) तथा कई रुधिर वाहिनियाँ (blood vessels) होती हैं, जो जाल बनाती हैं। शेष दीवा में रसांकुरों के बीच-बीच में श्लेष्मिक कला सँसकर नालाकार, आंत्रीय ग्रन्थियाँ (intestinal glands) बनाती है। ये ग्रन्थिया पाचक आत्रीय रस (intestinal juice) बनाती है।

पक्वाशय तथा छोटी आँत में भोजन का पाचन

पाचन-क्रिया में ग्रहणी का बहुत महत्त्व है। इसमें पित्ताशय व यकृत से ‘पित्त नली’ तथा अग्न्याशय अथवा पेंक्रियास से ‘अग्न्याशय नली आकर खुलती है। पित्ताशय से पित्त-रस व अग्न्याशय से अग्न्याशय रस, वाहिनियों अथवा नलियों द्वारा ग्रहणी में प्रवेश कर भोजन के पाचन में सहायता करते हैं।

पित्त-रस:
इसमें कोई किण्व अथवा एन्जाइम नहीं होता है। पित्त-रस में सोडियम बाइकार्बोनेट अधिक मात्रा में होता है। इसके प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं

  1. यह भोजन की अम्लीय प्रकृति को उदासीन कर इसे क्षारीय बना देती हैं, जिसके फलस्वरूप
    विभिन्न किण्व भोजन पर क्रिया कर पाते हैं।
  2. यह वसा का विखण्डन करके उसे छोटी-छोटी बूंदों में परिवर्तित कर देता है। इस स्थिति में वसा का पाचन सरल हो जाता है।

अग्न्याशय-रस:
यह आमाशय के पीछे स्थित अग्न्याशय ग्रन्थि में बनता है। यह एक महत्त्वपूर्ण पाचक-रस है, जिनमें तीन प्रकार के किण्व पाए जाते हैं। इनके नाम व प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं

(i) एमिलॉप्सिन:
यह किण्व भोजन के अवशेष स्टार्च को माल्टोज शर्करा में बदल देता है।

(ii) ट्रिप्सिन:
यह एक महत्त्वपूर्ण किण्व है, जो कि भोजन की शेष प्रोटिओजिन एवं पेप्टोन्स से क्रिया कर उन्हें पेप्टाइड्स व अमीनो अम्ल में परिवर्तित कर देता है।

(iii) स्टीएप्सिन:
यह तृतीय प्रकार का किण्व है, जो कि इमल्सिफाइड वसा को वसीय अम्लों व ग्लिसरॉल में परिवर्तित कर देता है।

शेष क्षुद्रान्त्र अथवा छोटी आँत में भोजन का पाचन एवं अवशोषण होता है। छोटी आँत में एक प्रकार का आन्त्र-रसे बनती है, जो कि पाचन-क्रिया में सहायता करता है। इसमें निम्न प्रकार के किण्व पाए जाते हैं।

(i) इप्सिन( पेप्टिडेज):
यह भोजन में शेष बची प्रोटीन व पेप्टाइड्स को अमीनो अम्ल में बदल देता है।
(ii) माल्टेस:
यह माल्टेस शर्करा को ग्लूकोस शर्करा में परिवर्तित कर देता है।
(iii) लैक्टेस:
यह किण्व लैक्टोस को ग्लूकोस एवं गैलेक्टोस शर्करा में बदल देता है।
(iv) सुक्रेस (इंवरटेस):
यह किण्व सुक्रोस शर्करा को ग्लूकोस व फ्रक्टोस शर्करा में परिवर्तित कर देता है।
(v) लाइपेस:
यह अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में पाया जाने वाला किण्व है, जो कि वसा को वसीय अम्लों एवं ग्लिसरॉल में परिवर्तित करता है।

भोजन का अवशोषण:
छोटी आँत में भोजन पूर्णरूप से पचकर रक्त में मिल जाने योग्य हो जाता है। अमीनो अम्ल वे सामान्य शर्करा (ग्लूकोस, फ्रक्टोस व गैलेक्टोस) रसांकुरों द्वारा अवशोषित होकर रक्त में पहुँच जाते हैं। शर्करा का शरीर की आवश्यकता से अधिक भाग ग्लाइकोजन के रूप में यकृत में (UPBoardSolutions.com) संचित होता रहता है तथा आवश्यकता पड़ने पर ही उपयोग में आता है। पचे हुए वसा पदार्थों (वसीय अम्ल एवं ग्लिसरॉल) का अवशोषण लिम्फ वैसल्स अथवा लसीकाओं द्वारा होकर लसीका तन्त्र में पहुँचता है। छोटी आँत में भोजन बहुत धीरे-धीरे चलकर लगभग चार घण्टों में बड़ी आँत तक पहुँचता है।

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प्रश्न 5:
पाचन तन्त्र में यकृत के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
यकृत की रचना चित्र बनाकर समझाइए। इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
यकृत का शरीर में क्या महत्त्व है? पाचन क्रिया में इसके प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यकृत (लिवर) की रचना

यह शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि होती है। इसका आकार थैले के समान तथा भार लगभग डेढ़ किलोग्राम तक होता है। इससे लगी हुई एक छोटी थैली जैसी रचना होती है, जिसे पित्ताशय कहते हैं। यह पित्तवाहिनी द्वारा ग्रहणी में खुलती है। एक गहरी दबी रेखा यकृत को दो भागों में विभाजित करती है। दाहिना भाग बीच से बड़ा होता है। यह अष्ट्रकोणीय कोशाओं से बना होता है। यकृत में दो (UPBoardSolutions.com) रक्तवाहिकाएँ रक्त लेकर आती हैं। यकृत-धमनी यकृत में शुद्ध तथा पोर्टल शिरा यकृत से अशुद्ध रक्त ले जाती है। यकृत में प्रतिदिन 500 से 700 ग्राम पित्त रस का निर्माण होता है। पित्त रस असंख्य छोटी-छोटी यकृत नलिकाओं द्वारा एक बड़ी यकृतवाहिनी तक पहुँचता है जो कि इस पित्ताशय तक ले जाती है।
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यकृत के कार्य

यकृत मानव शरीर की एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थि है। मानव-शरीर में यकृत की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यकृत के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं।

(1) पित्त रस का निर्माण:
यकृत प्रतिदिन लगभग 500 से 700 ग्राम पित्त रस बनाता है जो कि पित्ताशय में संचित रहता है।

(2) शर्करा को संचित करना:
यकृत रक्त शर्करा का सन्तुलन बनाए रखने में सहायता करता है। यह पाचन क्रिया के फलस्वरूप बनी शर्करा की आवश्यकता से अधिक मात्रा को ग्लाइकोजने में परिवर्तित कर अपने भीतर संचित कर लेता है तथा आवश्यकता पड़ने पर पुनः शर्करा में परिवर्तित कर रक्त में प्रवाहित कर देता है।

(3) पौष्टिक तत्वों को संचित करना:
यकृत लोहा, ताँबा व अनेक विटामिन्स को संचित रखता है।

(4) हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करना:
यकृत की कोशिकाएँ अनेक जीवाणुओं को नष्ट कर देती हैं।

(5) मृत लाल रक्त कोशिकाओं को नष्ट करना:
यकृत रक्त में उपस्थित मृत लाल कोशिकाओं को नष्ट करता रहता है।

(6) फाइब्रिनोजन का निर्माण:
यह फाइब्रिनोजन नामक प्रोटीन का निर्माण करता है जो कि रक्त को जमाने में सहायता करती है।

(7) हिपेरिन का निर्माण:
यकृत हिपेरिन बनाता है जो कि ऍक्त को जमने से रोकती है।

(8) नाइट्रोजनयुक्त हानिकारक पदार्थों को दूर करनी:
आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्लों के विखण्डन के फलस्वरूप यूरिया तथा शर्करा बनते हैं। यूरिया गुर्दो के द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है।

(9) रक्त के आयतन में वृद्धि करना:
यकृत अस्थायी रूप से जल को संचित कर रक्त को तनु अथवा जलयुक्त करता रहता है।

(10) पाचन क्रिया में सक्रिय सहयोग:
यकृत पित्त रस का निर्माण करता है जो कि वसा के पाचन में सहायता करता है तथा भोजन की अम्लीयता को प्रभावहीन कर उसे क्षारीय बनाता है।

(ii) विषैले पदार्थों का निष्कासन:
यकृत विषैले पदार्थों तथा धात्वीय विषौं को निष्कासित करता है। अतः भोजन के माध्यम से विष के फलस्वरूप हुई मृत्यु में मृतक के यकृत का पोस्टमार्टम परीक्षण में अत्यधिक महत्त्व रखता है।

(12) लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण:
भ्रूण अवस्था में इन कोशिकाओं का निर्माण यकृत द्वारा होता है, जबकि वयस्कों में ये अस्थि-मज्जा में बनती हैं।

यकृत का शरीर में महत्त्व

यकृत शरीर में सबसे बड़ी ग्रन्थि है। इसका शरीर के सम्पूर्ण चयापचय में अत्यधिक महत्त्व है। शरीर की लगभग सभी क्रियाओं में इसका कोई-न-कोई हिस्सा होता है अथवा इस क्रिया को करने में यह नियन्त्रक का कार्य करता है। इसके महत्त्व को कुछ बिन्दुओं द्वारा इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं

  1.  यह शरीर की अनेकानेक उपापचई क्रियाओं को चलाता है; जैसे— भोजन में आए विभिन्न पोषक पदार्थों को तोड़ना-जोड़ना अथवा उनका आवश्यकतानुसार स्वरूप परिवर्तित करना।
  2. शरीर के लिए संग्राहक (store house) का कार्य करना; जैसे-ग्लाइकोजन के रूप में श्वेतासार (कार्बोज) एकत्र करना।।
  3.  पित्त रस का निर्माण करना जो शरीर की मुख्य पाचक क्रिया में सहायता करता है।
  4.  शरीर में आए हुए अथवा उप-उत्पादों के रूप में शरीर में बन गए विषों को नष्ट करना।
  5.  विभिन्न बेकार मृत तथा टूटी-फूटी कोशिकाओं को नष्ट करना तथा उन्हें पित्त रस के द्वारा शरीर से बाहर निकालने का प्रब्रन्ध करना; जैसे- शरीर के साथ आई तथा रुधिर की बेकार कोशिकाओं को नष्ट करता है।

प्रश्न 6:
पाचन प्रणाली में पाए जाने वाले विभिन्न पाचक रसों के नाम व उनके कार्यों का वर्णन कीजिए।
यो
पाचन क्रिया में भाग लेने वाले किन्हीं दो सहायक रसों के विषय में बताइए तथा उनके कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भोजन में प्राय: कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन्स एवं वसा होते हैं। पाचन प्रणाली में इनका पचन सामान्यत: मुखगुहा, आमाशय तथा छोटी आँत में होता है। पाचन तन्त्र के इन तीन अंगों में विभिन्न प्रकार के पाचक रस पाचन क्रिया में अपना-अपना योगदान देते हैं। मानव पाचन प्रणाली में प्रायः चार निम्नलिखित प्रकार के पाचक रस पाए जाते हैं

  1.  लार एवं लार ग्रन्थियाँ,
  2.  आमाशयिक रस (गैस्ट्रिक जूस),
  3. पित्त रस,
  4.  क्लोम अथवा अग्न्याशय रस।

(1) लार एवं लार ग्रन्थियाँ:
मुखगुहा के अन्दर सामान्यतः तीन जोड़े अथवा कुल छह लार ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। इनका विवरण निम्नलिखित है–

(क) कर्ण पूर्व अथवा पेरोटिड ग्रन्थियाँ:
ये संख्या में दो तथा कान के नीचे स्थित होती हैं।

( ख) जिह्वाधर अथवा सबलिंगुअल ग्रन्थियाँ:
ये भी संख्या में दो होती हैं तथा जिह्वा के नीचे स्थित होती हैं।

(ग) अधोहनु अथवा सबमैक्सिलरी ग्रन्थियाँ:
ये निचले जबड़े के नीचे स्थित होती हैं। इनकी संख्या भी दो होती है।

लार के कार्य:

  1.  भोजन को गीला व चिकनी करके निगलने में सहायता करती है।
  2. चबाते समय भोजन में मिलकर उसे लेई के समान बनने में सहायता करती है, जिससे यह सहज ही ग्रसनी में चला जाता है।
  3. लार के अन्दर टायलिन नामक किण्व होती है जो कि श्वेतसार पर क्रिया कर उसे शर्करा में परिवर्तित करती है।
  4. लार विभिन्न पदार्थों को अपने में घोलकर उनका स्वाद बोध कराती है।
    6 मास तक शिशुओं में लार-ग्रन्थियों के स्राव का अभाव होता है; अतः उन्हें श्वेतसारयुक्त भोजन न देना हितकर रहता है।

(2) आमाशयिक रस:
आमाशय की श्लेष्मिक झिल्ली से बनी दीवार में अनेक आमाशयिक अथवा जठर ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। इनसे जठर रस स्राव होता है, जिसमें कि हाइड्रोक्लोरिक अथवा नमक का अम्ल एवं दो प्रकार की किण्व पाई जाती हैं। ये किण्व होते हैं-रेनिन तथा पेप्सिन। रेनिन के प्रभाव से दूध दही के रूप में परिवर्तित हो जाता है तथा पेप्सिन के प्रभाव से प्रोटीन, पेप्टोन में परिवर्तित हो जाती
है।

(3) पित्त रस:
यकृत प्रतिदिन 500 से 700 ग्राम पित्त रस का निर्माण करता है। पित्त रस पित्ताशय में संचित होता है, जहाँ से यह पित्त वाहिनी द्वारा समय-समय पर ग्रहणी में पहुँचकर पाचन क्रिया (UPBoardSolutions.com) में सहायता करता है। पित्त रस में कोई एन्जाइम या किण्व नहीं होते परन्तु यह अग्न्याशयिक रस की सहायता करता है तथा इसकी सहायता से वसा का पाचन सरल हो जाता है।

(4) क्लोम अथवा अग्न्याशय रस:
यह आमाशय के पीछे स्थित अग्न्याशय ग्रन्थि अथवा पैंक्रियास में बनता है। इसमें तीन प्रकार की किण्व पाई जाती हैं जो कि पाचन क्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। ये किण्व होते हैं

  1.  एमिलॉप्सिन,
  2.  ट्रिप्सिन तथा
  3. लाइपेस। ऐमिलॉप्सिन भोजन में बिना पचे हुए स्टार्च को शक्कर में बदल देता है। ट्रिप्सिन नामक खमीर भोजन के प्रोटीन को पेप्टोन में परिवर्तित कर देता है तथा लाइपेस नामक किण्व के प्रभाव से आहार की वसा क्रमश: ग्लिसरॉल तथा वसी-अम्ल में परिवर्तित हो जाती है।

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प्रश्न 7:
शरीर में अग्न्याशय के कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अग्न्याशय के कार्य

अग्न्याशय एक बाह्य ग्रन्थि है जो आहारनाल के आमाशय तथा पक्वाशय के मध्य स्थित होती है। यह एक संयुक्त ग्रन्थि है तथा दो प्रकार के प्रमुख कार्य करती है

  1. पाचक ग्रन्थि के रूप में इसकी अनेक कोशिकाएँ, जो विभिन्न पिण्डकों को बनाती हैं, अग्न्याशिक रस (pancreatic juice) बनाती हैं। यह इससे पक्वाशय में एक अग्न्याशिक नलिका के द्वारा पहुँचाता है तथा भोजन में आए हुए विभिन्न अवयवों को पचाने का कार्य करता है। इस (UPBoardSolutions.com) रस में कई पाचक एन्जाइम होते हैं; जैसे-ट्रिप्सिन, एमाइलॉप्सिन, लाइपेस आदि जो भोजन के विभिन्न अवयवों; जैसे प्रोटीन्स, पेप्टोन्स, मण्ड, वसा आदि पर क्रिया करके इनको सरल तथा रुधिर में अवशोषण के योग्य स्वरूप प्रदान करते हैं।
  2. अग्न्याशय की संयोजी ऊतक में विशेष प्रकार की कोशिकाओं के समूह होते हैं, जिन्हें लैंगरहेन्स की द्विपिकाएँ कहा जाता है। ये अन्तःस्रावी (endocrine) ग्रन्थियाँ हैं तथा इन्सुलिन, ग्लूकैगॉन आदि हार्मोन्स स्रावित करती हैं। ये हार्मोन्स रुधिर द्वारा यकृत (liver) में पहुँचते हैं। ये हॉर्मोन्स ग्लाइकोजेनेसिस, ग्लाइकोजेनोलिसस आदि क्रियाओं में भाग लेते हैं। इन्हीं क्रियाओं के फलस्वरूप रुधिर में ग्लूकोस की मात्रा का नियमन होता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
मनुष्य के मुख में कौन-सा रस बनता है? उसका भोजन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
मनुष्य के मुख में तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। ये लार स्रावित करती हैं। लार प्रारम्भिक पाचक रस है जो कि मुखगुहा में भोजन के पाचन में सहायता करता है।
लार भोजन को गीला एवं चिकना कर निगलने में सहायता करती है। लार द्वारा लेई के समान बना चिकना भोजन सहज ही ग्रसनी में प्रवेश कर जाता है। लार भोजन को घोलकर उसके विभिन्न तत्त्वों का स्वाद बोध कराती है। इसमें टायलिन नामक किण्व होती है। टायलिन भोजन के श्वेतसार को अंगूरी शर्करा में परिवर्तित करती है। यही कारण है कि श्वेतसारयुक्त भोजन मुंह में चबाने के पश्चात् मीठा लगने लगता है। ।

प्रश्न 2:
जीभ में पाई जाने वाली स्वादग्रन्थियाँ कितने प्रकार की होती हैं और उनके क्या कार्य हैं।
उत्तर:
मुखगुहा के तल पर एक मांसल जीभ होती है जो कि पीछे की ओर मुखगुहा से जुड़ी होती है तथा आगे की ओर स्वतन्त्र रहती है। यह भोजन को ग्रहण करने में सहायता देती है। जीभ के ऊपर छोटे-छोटे दाने होते हैं, जिन्हें संवेदी अंकुर अथवा स्वादांकुर कहते हैं। इन्हीं स्वादांकुरों के द्वारा हम भोजन के (UPBoardSolutions.com) विभिन्न स्वादों का ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं। जीभ पर इनका क्रम होता है-खट्टा, मीठा, नमकीन एवं कड़वा। बच्चों के स्वादांकुर वयस्कों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होते हैं। स्वादांकुर हमारे लिए दो प्रकार से महत्त्वपूर्ण हैं

  • ये भोजन के विभिन्न स्वादों (खट्टा, मीठा, कड़वी आदि) का ज्ञान कराते हैं।

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  • हानिकारक एवं अप्राकृतिक स्वाद वाली खाद्य सामग्रियों से परिचित कराते हैं। इस प्रकार हम इनके उपभोग से बच पाते हैं।

प्रश्न 3:
दाँत की सामान्य रचना स्पष्ट करते हुए उसके मुख्य भागों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
दाँत की रचना

बाहरी रूप से दाँत भिन्न-भिन्न आकार के तथा भिन्न-भिन्न कार्य करने वाले होते हैं, परन्तु जहाँ तक दाँत की संरचना का प्रश्न है, सभी दाँतों की संरचना एक समान ही होती है। सभी दाँत एक बहुत अधिक मजबूत पदार्थ के बने होते हैं जिसे डेण्टाइन कहते हैं। यह पदार्थ हड्डी से भी अधिक मजबूत होता है। (UPBoardSolutions.com) सभी दाँत अपने मूल वाले भाग से जबड़े की हड्डी में बने गड्डे जैसे स्थान पर जमे रहते हैं। दाँत को हड्डी के साथ मजबूती से जोड़ने के लिए एक सीमेण्ट जैसा पदार्थ सहायक होता है। दाँत को स्थिर रखने में मसूड़े भी महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं। दाँत के तीन मुख्य भाग होते हैं ।

(i) शिखर (Crown):
मसूड़े के बाहर दिखाई देने वाले भाग को शिखर कहते हैं। इस भाग पर एक सफेद चमकीली परत चढ़ी रहती है, जिसे इनेमल (enamel) कहते हैं। यह इनेमल ही दाँत की बाहरी प्रहारों से रक्षा करता है।

(ii) ग्रीवा (Neck):
यह मसूड़े के अन्दर दबा हुआ भाग है। इस भाग में इनेमल नहीं होता परन्तु यह भाग कठोर डेण्टाइन से बना होता है। डेण्टाइन के आन्तरिक भाग में दन्त कोष्ठ होता है। इस कोष्ठ या गुहा में पल्प या दन्त मज्जा भरा रहता है। यह लसलसा पदार्थ होता है, जिसमें रक्त वाहिनियाँ तथा स्नायु तन्तु फेले रहते हैं। यदि पल्प नष्ट हो जाए, तो सारा दाँत ही नष्ट हो जाता है।

(iii) मूल (Root):
यह दाँत का अन्तिम भाग है। यह ग्रीवा के नीचे तथा मसूड़ों के अन्दर स्थित होता है। यह पीले रंग की एक विशेष पर्त से ढका रहता है, जिसे सीमेण्ट कहते हैं। यह मसूड़ों के भीतर दाँतों की जड़ों को भली-भाँति जमाने का कार्य करता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के दाँतों के मूल भाग की संख्या भिन्न-भिन्न होती है। चर्वणक दाँतों में तीन, प्रचर्वणक में दो तथा अन्य दाँतों में केवल एक-एक मूल ही होती है।

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प्रश्न 4:
किण्व अथवा एन्जाइम क्या हैं? पाचन प्रणाली में पाई जाने वाली विभिन्न एन्जाइम के नाम व उत्पत्ति स्थान बताइए।
उत्तर:
किण्व सिद्धान्त रूप से प्रोटीन्स के बने होते हैं, तु सभी प्रोटीन्स किण्व के समान कार्य नहीं करती हैं। अतः किण्व वे जटिल प्रोटीन्स हैं जो कि उत्प्रेरक के समान कार्य करती हैं। ये श्वेतसार, प्रोटीन्स तथा वसा आदि से क्रिया कर उन्हें शरीर द्वारा स्वीकार योग्य छोटे-छोटे घुलनशील अणुओं में परिवर्तित कर देती हैं तथा स्वयं इन पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता है। पाचन प्रणाली में पाई जाने वाली कुछ प्रमुख किण्व निम्नलिखित हैं
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प्रश्न 5:
भोजन के पाचन तथा स्वांगीकरण में क्या अन्तर है?
उत्तर:
भोजन को जिस रूप में ग्रहण करते हैं उसे हमारा शरीर तब तक नहीं स्वीकारता जब तक कि वह घुलनशील रूप में परिवर्तित न हो जाए। भोजन का उसके घुलनशील रूप में रक्त द्वारा अवशोषण होता है तथा इसके बाद रक्त परिभ्रमण के द्वारा वह शरीर के विभिन्न अंगों में वितरित होता है। पाचन प्रणाली के विभिन्न भागों में स्रावित पाचक रसों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप भोजन का घुलनशील तथा रक्त में अवशोषित होने योग्य हो जाना ही भोजन का पाचन कहलाता है।
क्षुद्रान्त्र अथवा छोटी आँत में भोजन का अवशोषण होता है। क्षुद्रान्त्र की विलाई में पाई जाने वाली कोशिकाएँ जल, लवण, शर्करा व अमीनो अम्ल का अवशोषण करती हैं। यह (UPBoardSolutions.com) अवशोषित भोजन छोटी आँत की श्लेष्मिक झिल्ली की कोशिकाओं द्वारा रक्त में पहुँचा दिया जाता है तथा वसा एवं ग्लिसरॉल आदि अवशोषित होकरे लसीका-वाहिनियों में पहुंचते हैं। इस प्रकार पचे हुए भोजन के आवश्यक तत्त्वों का रुधिर तथा लसीका तन्त्र में पहुँचने को स्वांगीकरण कहते हैं। स्वांगीकरण के परिणामस्वरूप ही शरीर ग्रहण किए गए आहार से लाभान्वित होता है। यदि किसी कारणवश आहार के स्वांगीकरण की प्रक्रिया बिगड़ जाए, तो उस स्थिति में पौष्टिक एवं सन्तुलित
आहार ग्रहण करना भी व्यर्थ ही होता है।

प्रश्न 6:
अग्न्याशय ग्रन्थि पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अग्न्याशय अथवा क्लोम ग्रन्थि (पेंक्रियास)

आमाशय के ठीक पीछे उदर की पिछली दीवार से सटी हुई अग्न्याशय अथवा क्लोम नामक ग्रन्थि होती है। यह ग्रहणी से प्लीहा तक फैली हुई होती है। इसका दाहिना सिरा ग्रहणी की ओर तथा बायाँ भाग प्लीहा की ओर होता है। यह 16 सेमी लम्बी व 4 सेमी चौड़ी होती है। अग्न्याशय वाहिनी द्वारा अग्न्याशय रस ग्रहणी तक पहुँचता है। अग्न्याशय वाहिनी के साथ-साथ पित्ताशय वाहिनी भी ग्रहणी में खुलती है। अग्न्याशय ग्रन्थि से अग्न्याशय रस स्रावित होता है। इसमें तीन महत्त्वपूर्ण किण्वे

  1.  एमिलप्सिन,
  2. स्ट्रीएप्सिन तथा
  3.  ट्रिप्सिन होती हैं। ये तीनों ही किण्व या एन्जाइम पाचन क्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं।

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प्रश्न 7:
टिप्पणी लिखिए-प्लीहा या तिल्ली।
उत्तर:
प्लीहा या तिल्ली हमारे शरीर में पाई जाने वाली एक ग्रन्थि है। इसका रंग बैंगनी तथा आकार सेम के बीज के समान होता है। यह ग्रन्थि हमारे शरीर में आमाशय के बाईं ओर पसलियों के बीच में तथा क्लोम ग्रन्थि के दाहिनी ओर स्थित होती है। इसकी लम्बाई 12 सेमी तथा वजन 375 ग्राम होता है। यह आँत तथा वृक्क से भी मिली हुई रहती है। यह ग्रन्थि मुलायम और पिलपिली-सी होती है। इसके भीतर की ओर एक दबा हुआ (UPBoardSolutions.com) गड़ा-सा होता है, जो इसका द्वार है। इस द्वार से ही रक्त-नलिकाएं इसेमें प्रवेश करती हैं और बाहर निकलती हैं। यद्यपि प्लीहा का पाचन-संस्थान से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता, तथापि यह मानव शरीर का एक आवश्यक अंग है और पाचन क्रिया में भी कुछ सहायता करता है। इसके बढ़ जाने पर भोजन ठीक प्रकार से नहीं पचता और प्रायः पेट में पीड़ा होती है। यह अपने अन्दर रक्त को शोषित करके संचित कर लेती है। इस प्रकार तिल्ली रक्त-कोषागार का कार्य करती है तिल्ली के मुख्य कार्य हैं-रक्त जमा करना, रक्त बनाना, पुराने एवं घिसे हुए रक्त कणों को नष्ट करना, यूरिया बनाने में सहायता करना तथा शरीर को सुरक्षित रखना।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1:
पाचन-तन्त्र से क्या आशय है?
उत्तर:
आहार के पाचन एवं शोषण में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने वाले तथा इस कार्य में अप्रत्यक्ष रूप से सहायता प्रदान करने वाले सभी अंगों को सम्मिलित रूप से पाचन-तन्त्र कहा जा सकता है।

प्रश्न 2:
आहारनाल या आहार मार्ग से क्या आशय है?
उत्तर:
शरीर के अन्दर मुख से लेकर मल-द्वार तक के मार्ग को आहारनाल या आहार मार्ग कहा जाता है।

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प्रश्न 3:
आहारनाल के मुख्य अंगों या भागों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आहारनाल के मुख्य अंग या भाग हैं

  1.  मुख तथा मुख-गुहा,
  2.  ग्रसनी,
  3. ग्रासनली,
  4.  आमाशय,
  5. पक्वाशय,
  6. छोटी आँत तथा
  7. बड़ी आँत।

प्रश्न 4:
आहारनाल के अतिरिक्त पाचन-तन्त्र के अन्य सहायक अंगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आहारनाल के अतिरिक्त पाचन-तन्त्र के अन्य सहायक अंग हैं—यकृत, पित्ताशय तथा क्लोम या अग्न्याशय।

प्रश्न 5:
दाँतों को सुरक्षित रखने के दो उपाय बताइए।
उत्तर:

  1.  सुबह उठकर तथा रात्रि को सोने से पूर्व प्रतिदिन दाँतों को मंजन अथवा पेस्ट से साफ करना चाहिए।
  2.  दाँतों में दर्द अथवा अन्य कोई परेशानी होने पर तुरन्त दन्त चिकित्सक को दिखाना चाहिए।

प्रश्न 6:
दाँतों के कौन-कौन से तीन भाग होते हैं?
उत्तर:
प्रत्येक दाँत के तीन भाग होते हैं

  1. मूल अथवी जड़े,
  2. ग्रीवा तथा
  3.  शिखर।

प्रश्न 7:
मनुष्यों में कितने प्रकार के दाँत पाए जाते हैं?
उत्तर:
मनुष्यों में चार प्रकार के दाँत पाए जाते हैं।

प्रश्न 8:
पचे भोजन का अवशोषण आहारनाल के किस भाग में होता है?
उत्तर:
पचे भोजन का अवशोषण आहारनाल के छोटी आँत नामक भाग में होता है।

प्रश्न 9:
मनुष्यों में कितनी लार ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं?
उत्तर:
मनुष्य में तीन जोड़ी (कुल छह) लार ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।

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प्रश्न 10:
हमें लार से क्या लाभ हैं?
उत्तर:
लार भोजन को चिकना व लेई के समान बनाती है। इसमें पाई जाने वाली टायलिन नामक किण्व श्वेतसीर को अंगूरी शर्करा में बदल देती है।

प्रश्न 11:
पित्त रस किस ग्रन्थि में बनता है तथा कहाँ संचित रहता है?
उत्तर:
पित्तं रस यकृत में बनता है तथा पित्ताशय में संगृहीत होता है।

प्रश्न 12:
रेनिन आहारनाल के किस भाग में मिलता है तथा इसका क्या कार्य है?
उत्तर:
यह आमाशय के जठर रस में पाया जाता है तथा दूध को फाड़कर इसके केसीन (ठोस भाग) को पृथक् कर देता है।

प्रश्न 13:
भोजन के पाचन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
भोजन के पाचन से तात्पर्य है किण्व की उपस्थिति में भोजन के अघुलनशील (अविलेय) अवयवों का घुलनशील (विलेय) अवस्था में परिवर्तित होना, जिससे कि वे रक्त में अवशोषित हो सकें।

प्रश्न 14:
भोजन का पाचन आहारनाल में कहाँ-कहाँ होता है?
उत्तर:
भोजन का पाचन आहारनाल में मुखगुहा, आमाशय तथा छोटी आँत में होता है।

प्रश्न 15:
यकृत के कोई दो महत्त्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर:
(1) यकृत पित्त रस का निर्माण करता है।
(2) अतिरिक्त श्वेतसार; ग्लाइकोजन के रूप में यकृत में संचित रहती है।

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प्रश्न 16:
जठर रस में कौन-सा अम्ल पाया जाता है?
उत्तर:
जठर रस में नमक का अम्ल पाया जाता है।

प्रश्न 17:
एन्जाइम क्या हैं? पाचन में इनका क्या कार्य है?
उत्तर:
एन्जाइम या किण्व वे जटिल प्रोटीन्स हैं जो कि उत्प्रेरक के समान कार्य करती हैं। ये श्वेतसार, प्रोटीन्स तथा वसा आदि से क्रिया कर इन्हें शरीर द्वारा स्वीकार योग्य, छोटे-छोटे घुलनशील अणुओं में परिवर्तित कर पाचन क्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।

प्रश्न 18:
वमन या उल्टी क्यों होती है?
उत्तर:
जब मस्तिष्क में वमन केन्द्र उत्तेजित हो जाता है तथा जी मिचलाने लगता है तो ऐसी दशा में ग्रासनली का द्वार खुल जाता है और पेशियों के संकुचन में उल्टियाँ हो जाती हैं।

प्रश्न 19:
स्वांगीकरण का क्या अर्थ है?
उत्तर:
भोजन का कोशिकाओं में पहुँचकर जीवद्रव्य का अंश बन जाना स्वांगीकरण कहलाता है।

प्रश्न 20:
वसा के पाचन में सहायक पाचक रसों के नाम लिखिए।
उत्तर:
वसा के लिए पाचक रस मुख्यतः पित्त रस की उपस्थिति में अग्न्याशिक रस है, जिसमें लाइपेस नामक किण्व होता है। इसके अतिरिक्त यह किण्व आन्त्र रस में भी होता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न:
प्रत्येक प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। इनमें से सही विकल्प चुनकर लिखिए

(1) पाचन तन्त्र का प्रमुख कार्य है ।
(क) प्राणी की भूख को शान्त करना,
(ख) ग्रहण किए गए आहार के स्वाद का आनन्द लेना,
(ग) आहार को ग्रहण करना, उसका पाचन तथा पोषक तत्वों का अवशोषण करना
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं।

(2) ग्रसनी के बाद भोजन कहाँ जाता है?
(क) आमाशय में,
(ख) क्षुद्रान्त्र में,
(ग) ग्रहणी में,
(घ) बड़ी आँत में।

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(3) एक वयस्क मनुष्य के कितने दाँत होते हैं?
(क) 28,
(ख) 30,
(ग) 32,
(घ) 34

(4) रदनक दाँतों की संख्या कितनी होती है?
(क) दो जोड़े,
(ख) चार जोड़े,
(ग) छह जोड़े,
(घ) एक जोड़ा।

(5) पाचन तन्त्र में सर्वाधिक अवशोषण कहाँ होता है?
(क) यकृत में,
(ख) पित्ताशय में,
(ग) प्लीहा में,
(घ) छोटी आँत में।

(6) भोजन पीसने का कार्य करते हैं
(क) रदनक दाँत,
(ख) अग्र चर्वणक दाँत,
(ग) कृन्तक दाँत,
(घ) चवर्णक दाँत।

(7) मुँह में कितनी लार ग्रन्थियाँ होती हैं?
(क) छः,
(ख) आठ,
(ग) दस,
घ) दो।

(8) लार में टायलिन नामक किण्व नहीं पाई जाती है
(क) महिलाओं में,
(ख) पुरुषों में,
(ग) छः मासे तक के शिशुओं में,
(घ) छः वर्ष के बच्चों में।

(9) यकृत को भार होता है
(क) 1.5 किलोग्राम,
(ख) 2.5 किलोग्राम,
(ग) 0.5 किलोग्राम,
(घ) 5.0 किलोग्राम।

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(10) रेनिन नामक किण्व पाया जाता है
(क) केवल महिलाओं में,
(ख) केवल बच्चों में,
(ग) केवल पुरुषों में,
(घ) इन सभी में।

(11) वसा को वसीय अम्लों एवं ग्लिसरॉल में परिवर्तित करने वाला किण्व है
(क) लैक्टेस,
(ख) लाइपेस,
(ग) सुक्रोस,
(घ) माल्टेस।

(12) स्टार्च को माल्टोज शर्करा में परिवर्तित करने वाला किण्व है
(क) ट्रिप्सिन,
(ख) स्टीएप्सिन,
(ग) इरेप्सिन,
(घ) एमिलप्सिन।

(13) सिद्धान्त रूप से सभी किण्व होते हैं
(क) श्वेतसार,
(ख) शर्करा,
(ग) प्रोटीन्स,
(घ) वसा।

(14) छोटी आँत की सामान्यतः लम्बाई होती है
(क) 5 मीटर,
(ख) 10 मीटर,
(ग) 15 मीटर,
(घ) 20 मीटर।

(15) यकृत अतिरिक्त शर्करा को किस वस्तु में परिवर्तित कर देता है?
(क) ग्लाइकोजन में,
(ख) सेलुलोस में,
(ग) एन्जाइम में,
(घ) ग्लिसरॉल में।

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(16) लार में उपस्थित किण्व का क्या नाम है?
(क) लाइपेस,
(ख) रेनिन,
(ग) टायलिन,
(घ) पेप्सिन।

उत्तर:
(1) (ग) आहार को ग्रहण करना, उसका पाचन तथा पोषक-तत्त्वों का अवशोषण करना,
(2) (क) आमाशय में,
(3) (ग) 32,
(4) (क) दो जोड़े,
(5) (घ) छोटी आँत में,
(6) (घ) चर्वणक दाँत,
(7) (क) छः,
(8) (ग) छ: मास तक के शिशुओं में,
(9) (क) 1.5 किलोग्राम,
(10) (ख) केवल बच्चों में,
(11) (ख) लाइपेस,
(12) (घ) एमिलॉप्सिन,
(13) (ग) प्रोटीन्स,
(14) (क) 5 मीटर,
(15) (क) ग्लाइकोजन में,
(16) (ग) टायलिन।

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UP Board Solutions for Class 10 Computer Science Revision Problem

UP Board Solutions for Class 10 Computer Science Revision Problem

Question 1.
Write about the different components of the computer.
Answer:
The three components of the computer are:
1. Computer Hardware: The electronic and mechanical components that make up a computer are called hardware. All computer systems contain four types of hardware components:

  • Input Devices
  • Output Devices
  • Computer Processor
  • Secondary Storage (UPBoardSolutions.com) Devices.

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2. Computer Software: Software is a series of instructions that tell the hardware how to perform tasks. Without software, hardware is useless. Hardware needs the instructions provided by the software to process data (UPBoardSolutions.com) into information. Computer software can be divided into two parts Le., System software and Application software.

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3. Computer User: The person who communicates with a computer or uses the information it generates is called a User.
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Question 2.
Define different data types used in ‘C’ language. (UP 2011, 12, 19)
Answer:
Data Types in ‘C’ Language: In ‘C’ language, the foil- owing Data Types are used:

  1. Numeric data type
  2. Alphanumeric data type
  3. Date and time data type
  4. Logical data type.

1. Numeric data type: Numbers of any type constitute numeric data. The numeric data can contain only the numeric characters of 0 to 9, with or without the decimal point. Some important numeric data types are int, float and double types.

Type int: The data type, which stores numeric data, is one of the basic data types in any programming language. It contains a sequence of one or more digits. For example—int sum. The variable ‘sum’ can store an integer value. It stores non-fractional values and occupies 2 bytes.

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Type float: The float data type can be used for storing values containing decimal places. The difference between int and float is only that the int type includes only whole numbers but the float type includes both whole as well (UPBoardSolutions.com) as fractional numbers. It occupies 4 bytes.

Type double: The type double is used, when the accuracy obtained using the variable of the type float is not sufficient. Variables of the type double can store twice the number of digits as can a float type. It occupies 8 bytes. The type float saves memory as it takes only half as much space as a double.

2. Alphanumeric data type: This data type can be made up of any type of characters.
Numeric = 0 to 9
Alphabetic = A to Z and a to z
Special Characters = #, $, *, etc.
These types of characters are generally enclosed within quotes “122” is considered alphanumeric data. On alphanumeric data mathematical calculations cannot be performed.
For example:
Char can store a single character
e.g., char A = ‘X’ char A[5] = “HARSH”
A char type can also store a collection of characters known as a string.

3. Date and Time data type: These are special data types for date and time values.
Date: It is a single data type that handles both date and time values.
Time: It can handle date and time values separately.

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4. Logical data type: Logical data can have only two values le., true and false.(UPBoardSolutions.com)  A single data type handles logical data. It is represented by Boolean data type.

Question 3.
WAP that reads an integer N and calculate its factorial. (UP 2004, 05)
Answer:

#include<stdio.h>
#include<conio.h>
main()
{
int n, i, fact = 1;
printf (“Enter Non-Negative value \n”);
scanf (“%d”, &n);
for (i = 1; i <= n; i ++)
{
fact = fact * i;
}
printf (“factorial of %d = %d”, n, fact);
}

Question 4.
Write a program in C language which can arrange ten numbers in ascending order. Print the output in a column. (UP 2007, 12, 19)
Or
Write a program in C language which will find out prime numbers between 1 and 100 and will print them in a column. (UP 2008)
Answer:

#include<stdio.h>
#include<conio.h>
void main ()
{
int x [10];
int * i, sum = 0;
printf (“ Enter 10 numeric values \n”);
for (i = 0; i< = 10; i + +)
{
scanf (“% d \n”, & x [i]);
sum = sum + x [1];
}
printf (“sum of the elements is % d ”, sum);
getch ();
}

Question 5.
WAP to create a file in write mode and accept data from the user, and write it on file “student.txt.”
Answer:
Program:

#include<stdio.h>
#include<conio.h>
void main ()
{
char ch;
FILE *fp = fopen (“Student.txt”, “w”);
clrscr ();
if (fp = = NULL)
{
perror (“Error in opening file”);
exit (1);
}
ch = getc (stdin);
while (ch ! = ‘*’)
{
void main ()
{
char ch;
FILE *fp = fopen (“Student.txt”, “a”);
clrscr ( );
if (fp = = NULL)
}

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Question 6.
Write a program to take the contents of a text file and copy them into another text file, character by character. (UP 2008, 16)
Answer:
Program:

#include<stdio.h>
#include<conio.h>
void main()
{
FILE * fsrc, *ftgt;
char ch;
clrscr();
fsrc = fopen(“tryl.c”,“r”);
if (fs == NULL) .
{
puts (“Cannot open source file”)
exit ();
}
ftgt = fopen (“try2.c”, “w”);
if(ft == NULL)
{
puts (“Cannot open target file”);
fclose(fs);
exit();
}
while(l)
{
ch = fgetc(fsrc);
if (ch == EOF)
break;
else
fputc(ch.ftgt);
}
fclose(fsrc);
fclose(ftgt);
}

Question 7.
What is a programming language? Write the classification of programming language. (UP 2010)
Or
Explain the following:

  1. Low-Level Language
  2. High-Level Language.

Or
What ‘Generation of programming language? Explain.(UP 2018)
Answer:
Programming Language: Language is a means of communication. Whenever we want to communicate with com- puter system, we need to do so using a language which is acceptable and understood by a computer. A language which (UPBoardSolutions.com) is used to accomplish a task and write a solution to a given problem in the form of a program is known as the programming language.
A programming language has its own set of characters, terms, instructions, Commands, syntaxes and guidelines to use these commands. A program is always written following these rules and guidelines.

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Classification of Programming Languages: Programming languages can be classified on the basis of generations of computers as follows:
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This classification is according to the generic upgradations in the languages as per time. As time passed by, every language made significant improvements and showed some additional features.
Similar kinds of classification of programming languages can be written as following on the basis of characteristics and features of languages.
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The above classification is in increasing order of developmental phases of languages too.
Low-Level Language: The languages that were used in the first-generation and early second generation are called as low-level languages. They directly used computer memories and other storage hardware like registers to write programs. (UPBoardSolutions.com) These languages were highly hardware dependent or machine-dependent. Programs written for one kind of hardware platform cannot be used on some other machine. Low-level languages are further divided into the following two categories :

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  1. Machine Language,
  2. Assembly Language.

1. Machine Language: As the name suggests, it used the data in writing programs which were directly understood by the computer. A computer can only accept and work on electronic signals. These electronic signals are actually a presence or absence of electronic current in a circuit. The presence of a pulse in a circuit is denoted by 1 and absence is symbolised by ‘O’. These are the only two digits which are used by a computer system and they are known as Binary digits (or abbreviated as Bits). A language that uses these two binary digits to write computer program is known as machine language.
A program written in machine language comprises instructions in the form of a series of 1’s and 0’s.
Machine language instruction is divided into two parts:

  • Opcode,
  • Operand (Address part).

OpCode: This is the first part of an instruction which tells to the computer, what is to be done or which operation is to be performed.

Operand: This is the second part of a machine language instruction which tells (UPBoardSolutions.com) the address and location of data on which operation is to be performed.
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2. Assembly Language: Assembly language was an advancement over machine language. It is considered as a low-level language of the second generation. In this language, binary representations for various types of data are replaced by some codes. These codes are known as ‘Mnemonics’. In assembly language, there are predefined mnemonics for an opcode, operands, registers (memory locations) etc. They collectively form an assembly language program.

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High-Level Languages: Languages that were developed after machine language and assembly languages were put under the category of high-level languages.

Characteristics of High-Level Languages:

  1. High-level languages use simple English words and commonly used mathematical symbols. This feature of high-level language makes it easier for programmers to write programs in it.
  2. Programs written in high-level languages are highly readable simply by looking at a program. Any computer literate can understand the objective of the program. These languages provide better documentation facility in programs.
  3. High-level languages are procedure-oriented. It means that they concentrate (UPBoardSolutions.com) more on procedures followed to solve any given problem.
  4. Debugging of programs written in high-level languages is much easier and fast as compared to assembly language.
  5. Programs written in high-level languages are machine-independent. It means that these programs can run on a wide variety of hardware platforms by making slight modifications if needed.
  6. High-level languages are translator based languages. This translator could either be an interpreter or a compiler.

Translator Based Languages: High-level languages can also be called as translator based languages. As explained earlier, the computer only understands machine language [le., language of 0’s and 1’s) and any other form of instruction given to it needs to be translated into machine language. High-level languages generally use simple English words and phrases which must be translated into its machine-level equivalents before execution. Therefore, for every high-level language, a separate translator is essential.

Translator: It is a kind of system software which converts a program written in high level language into machine language. This machine language code is actually executed by the computer to achieve results.

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Translators can be divided into following two categories and accordingly languages are also classified as either :

  1. Interpreter based language
  2. Compiler based language.

1. Interpreter: It is a translator for high level languages. It translates every single instruction linewise and then executes it. This process continues until the end of the program. If it encounters any error, it is informed to the user immediately. Until an error is removed, the interpreter does not proceed in a forward direction. Thus, we can say that every single line of a program (also known as source program) is checked for errors, translated and executed sequentially. Basic is an interpreter based language.

2. Compiler: It is a translator for converting programs written in high level language into machine language. Its major function is the same as that of interpreter but it works differently. It scans the entire program and lists all errors at a time. Until or unless programmer rectifies all errors, program is not translated into machine code. On successful removal of all errors, object code is created. (UPBoardSolutions.com) This object code is executed to obtain the desired result. The original program before the compilation process is called a source program.
Some compiler based languages are. ‘C\ C++, JAVA, COBOL, PASCAL, FORTRAN etc.

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Fourth Generation Languages (4 GLs): These are a group of languages that made problem solving further easier than what was available in high level languages. High level languages are procedure-oriented languages, le., they focus more on the way of solving a problem. 4 GLs are a category of languages that focus more on the objective of the given problem than on the ways and (UPBoardSolutions.com) means to solve it. These languages were designed in view of managing databases (Database is a collection of similar types of records).

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UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data

UP Board Solutions for Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data (आंकड़ों का आलेखी निरूपण)

UP Board Class 12 Geography Chapter 3 Text Book Questions

UP Board Class 12 Geography Chapter 3 पाठ्यपुस्तक के अभ्यास प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर चुनिए
(i) जनसंख्या वितरण दर्शाया जाता है
(क) वर्णमात्री मानचित्रों द्वारा
(ख) सममान रेखा मानचित्रों द्वारा
(ग) बिन्दुकित मानचित्रों द्वारा
(घ) ऊपर में से कोई भी नहीं।
उत्तर:
(ग) बिन्दुकित मानचित्रों द्वारा।

(ii) जनसंख्या की दशकीय वृद्धि को सबसे अच्छा प्रदर्शित करने का तरीका है–
(क) रेखाग्राफ
(ख) दण्ड आरेख
(ग) वृत्त आरेख
(घ) ऊपर में से कोई नहीं।
उत्तर:
(क) रेखाग्राफ।

(iii) बहुरेखाचित्र की रचना प्रदर्शित करती है
(क) केवल एक चर
(ख) दो चरों से अधिक
(ग) केवल दो चर
(घ) ऊपर में से कोई भी नहीं।
उत्तर:
(ख) दो चरों से अधिक।

(iv) कौन-सा मानचित्र “गतिदर्शी मानचित्र” माना जाता है
(क) बिन्दुकित मानचित्र
(ख) सममान रेखा मानचित्र
(ग) वर्णमात्री मानचित्र
(घ) प्रवाह संचित्र।
उत्तर:
(घ) प्रवाह संचित्र।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रश्नों के 30 शब्दों में उत्तर दीजिए :
(i) थिमैटिक मानचित्र क्या है?
उत्तर:
प्राकृतिक अथवा सांस्कृतिक वातावरण के किसी तत्त्व का किसी क्षेत्र में वितरण प्रदर्शित करने वाले मानचित्र को ‘थिमैटिक (वितरण) मानचित्र’ कहते हैं।

(ii) आँकड़ों के प्रस्तुतीकरणा से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
आँकड़ों के प्रस्तुतीकरण का तात्पर्य आँकड़ों द्वारा तथ्यों की विशेषताओं को प्रदर्शित किया जाना है। यह प्रस्तुतीकरण आलेख, आरेख अथवा मानचित्र, चार्ट आदि द्वारा किया जाता है।

(iii) बहुदण्ड आरेख और यौगिक दण्ड आरेख में अंतर बताइए।
उत्तर:
बहुदण्ड आरेख- यह आरेख तुलना के उद्देश्य के लिए दो या दो से अधिक चरों को प्रदर्शित करता है। पुरुष-स्त्री अनुपात, ग्रामीण और नगरीय जनसंख्या अथवा विभिन्न साधनों द्वारा सिंचाई दर्शाने के लिए यह आरेख बनाया जाता है।
यौगिक दण्ड आरेख- इसे मिश्रित दण्ड आरेख भी कहते हैं। इसमें विभिन्न घटकों को चर के एक समूह में वर्गीकृत किया जाता है अथवा एक घटक के विभिन्न चर साथ-साथ रखे जाते हैं। .

(iv) एक बिन्दुकित मानचित्र की रचना के लिए क्या आवश्यकताएँ हैं?
उत्तर:
एक बिन्दुकित मानचित्र की रचना के लिए आवश्यक तत्त्व

  1. जिस क्षेत्र का बिन्दु मानचित्र बनाना है, उसका प्रशासनिक इकाइयों वाला रेखा मानचित्र।
  2. प्रत्येक प्रशासनिक इकाई के जनसंख्या सम्बन्धी निरपेक्ष आँकड़े।
  3. बिन्दु उचित स्थान पर लग सकें, इसके लिए उस क्षेत्र के धरातलीय मानचित्र, मृदा मानचित्र, जलवायु मानचित्र व सिंचाई मानचित्र इत्यादि का अवलोकन भी आवश्यक है। इन मानचित्रों से हमें यह अनुमान लगता है कि जनसंख्या का सांद्रण कहाँ-कहाँ हो सकता है।

(v) सममान रेखा मानचित्र क्या है? एक क्षेपक को किस प्रकार कार्यान्वित किया जाता है?
उत्तर:
सममान रेखा मानचित्र- काल्पनिक रेखाएँ जो समान मान के स्थानों को जोड़ती हैं, ‘सममान रेखाएँ’ कहलाती हैं। इन रेखाओं द्वारा भौगोलिक सत्य को मानचित्र पर दिखाना ‘सममान रेखा मानचित्र’ कहलाता है।
क्षेपक का कार्यान्वयन– क्षेपक का उपयोग दो स्टेशनों के प्रेक्षित मानों के बीच मध्यमान को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, जैसे—आगरा और मेरठ का तापमान या दो बिन्दुओं की ऊँचाइयाँ।
समान मानों के स्थानों को जोड़ने वाली सममान रेखाओं का चित्रण ‘क्षेपक’ कहलाता है। क्षेपक के कार्यान्वयन करने के लिए निम्न बातों की पालना करनी पड़ती है

  1. मानचित्र पर न्यूनतम और अधिकतम मान को निश्चित करना।
  2. मान की परास की गणना, जैसे-परास = अधिकतम मान – न्यूनतम मान।
  3. श्रेणी के आधार पर 5, 10, 15 आदि में अन्तराल निश्चित करना। . . .

(vi) एक वर्णमात्री मानचित्र को तैयार करने के लिए अनुसरण करने वाले महत्त्वपूर्ण चरणों की सचित्र व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
वर्णमात्री मानचित्र को तैयार करने के लिए अनुसरण करने वाले महत्त्वपूर्ण चरण
(1) जिस क्षेत्र के लिए वर्णमात्री मानचित्र बनाना है, उस क्षेत्र की प्रशासनिक इकाइयों वाला रेखा मानचित्र।
(2) मानचित्र पर जिस वस्तु का वितरण प्रदर्शित करना है, उसके सभी प्रशासनिक इकाइयों से सम्बन्धित नवीनतम आँकड़े।

उपर्युक्त दो वस्तुएँ प्राप्त करने के बाद सापेक्षिक आँकड़ों का वर्ग-अन्तराल निर्धारित करना होता है। वर्ग अन्तराल बहुत अधिक अथवा बहुत कम नहीं होना चाहिए। सामान्यत: 3 से 6 वर्ग अन्तराल उचित रहते हैं। इन चुने हुए वर्ग अन्तरालों के लिए आभा चुनते समय ध्यान रखना चाहिए कि घनत्व या मान बढ़ने के साथ आभा की गहराई भी उत्तरोत्तर बढ़नी चाहिए। निर्धारित की गई आभाओं का सूचक बनाना भी आवश्यक होता है।

(vii) आँकड़े को वृत्त आरेख की सहायता से प्रदर्शित करने के लिए महत्त्वपूर्ण चरणों की विवेचना ‘कीजिए।
उत्तर:
आँकड़े को वृत्त आरेख की सहायता से प्रदर्शित करने के लिए महत्त्वपूर्ण चरण

  • आँकड़ों को बढ़ते क्रम में लिखें।
  • आँकड़ों के लिए कोणों की गणना के लिए [latex]\frac{360}{100}[/latex] से गुणा करें।
  • उपयुक्त त्रिज्या का चयन करें।
  • वृत्त बनाएँ।
  • शीर्षक, उपशीर्षक और सूचिका द्वारा आरेख को पूरा किया जाता है तथा रंग भरे जा सकते हैं।

क्रियाकलाप

प्रश्न 1.
निम्न आँकड़े को अनुकूल/उपयुक्त आरेख द्वारा प्रदर्शित कीजिए :
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 1
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 2
उत्तर:
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 3

प्रश्न 2.
निम्नलिखित आँकड़े को उपयुक्त आरेख की सहायता से प्रदर्शित कीजिए:
भारत : प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय में साक्षरता और नामांकन अनुपात
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 4
उत्तर:
(नोट–अध्यापक की सहायता से छात्र स्वयं करें।)

प्रश्न 3:
निम्नलिखित आँकड़े को वृत्त आरेख की सहायता से प्रदर्शित कीजिए :
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 5
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 6
उत्तर:
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 7

प्रश्न 4.
नीचे दी गई तालिका का अध्ययन कीजिए और दिए हुए आरेखों/मानचित्रों को खींचिए :
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 8
(क) प्रत्येक राज्य में चावल के क्षेत्र को दिखाने के लिए एक बहुदण्ड आरेख की रचना कीजिए।
(ख) प्रत्येक राज्य में चावल के अन्तर्गत क्षेत्र के प्रतिशत को दिखाने के लिए एक वृत्त आरेख की रचना कीजिए।
(ग) प्रत्येक राज्य में चावल के उत्पादन को दिखाने के लिए एक बिन्दुकित मानचित्र की रचना कीजिए।
(घ) राज्यों में चावल उत्पादन के प्रतिशत को दिखाने के लिए एक वर्णमात्री मानचित्र की रचना कीजिए। .
उत्तर:
(नोट-अध्यापक की सहायता से छात्र स्वयं करें।)

प्रश्न 5.
कोलकाता के तापमान और वर्षा के निम्नलिखित आँकड़े को एक उपयुक्त आरेख द्वारा दर्शाइए:
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 9
उत्तर:
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 10

UP Board Class 12 Geography Chapter 3 Other Important Questions

UP Board Class 12 Geography Chapter 3 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
दण्ड आरेख बनाने सम्बन्धी आवश्यक निर्देशों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
दण्ड आरेख बनाने सम्बन्धी आवश्यक निर्देश
किसी भी आरेख को बनाने के लिए यूँ तो कोई विश्वव्यापी नियम तो नहीं होते, फिर भी कुछ हिदायतों का ध्यान रखना आवश्यक होता है

  1. सभी दण्ड एकसमान मोटाई के होने चाहिए। दण्डों की मोटाई दण्डों की संख्या व कागज के आकार पर निर्भर करती है।
  2. दण्ड समान दूरी पर स्थित होने चाहिए। दण्डों के बीच की दूरी दण्डों की चौड़ाई से कुछ कम होनी चाहिए ताकि तुलना करने में आसानी हो।
  3. दण्ड बनाने से पहले दिए गए आँकड़ों को पूर्णांक में बदल लेना चाहिए।
  4. आँकड़ों में न्यूनतम व उच्चतम सीमा और कागज पर स्थान देखकर ही मापनी का चुनाव करना चाहिए।
  5. आधार-रेखा के शून्य से दण्डों की लम्बाई मापी जाती है।
  6. दण्डों को सुन्दर, तुलनीय व आकर्षक बनाने के लिए उनमें काला रंग या आभा भरी जाती है। कई बार इन दण्डों में रंग भी भरे जाते हैं।

प्रश्न 2.
बिन्दु विधि के गुण व दोषों को समझाइए।
उत्तर:
बिन्द विधि के गण

  1. मात्रात्मक वितरण मानचित्र बनाने की सभी विधियों में बिन्दु विधि वितरण को सर्वाधिक शुद्ध रूप से प्रस्तुत करती है।
  2. यह विधि वस्तु की मात्रा और समानता दोनों गुणों को भली-भाँति प्रदर्शित करती है।
  3. इस विधि में वितरण की तीव्रता बिन्दुओं के सांद्रण से एकदम स्पष्ट हो जाती है।
  4. बिन्दु मानचित्र का दृष्टिक प्रभाव वितरण के अन्य मानचित्रों से अधिक होता है।
  5. बिन्दुओं को गिनकर पुनः आँकड़े प्राप्त किए जा सकते हैं।

बिन्दु विधि के दोष

  1. बिन्दु मानचित्रों की रचना कठिन होती है, अत: अभ्यास और कुशलता के बिना इन्हें नहीं लगाया जा सकता।
  2. यह विधि केवल निरपेक्ष आँकड़ों को प्रदर्शित करती है।
  3. बिन्दु द्वारा मानचित्र पर घेरा हुआ स्थान वास्तविक क्षेत्रफल से काफी बड़ा होता है।
  4. प्रयास करने के बावजूद भी कई बिन्दु सही स्थिति पर नहीं लग पाते।
  5. क्षेत्र के भौगोलिक ज्ञान के बिना गए बिन्दु भ्रामक परिणाम प्रस्तुत करते हैं।

प्रश्न 3.
आरेखों की उपयोगिता/महत्त्व/लाभ पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आरेखों की उपयोगिता/महत्त्व/लाभ .
आरेखों की उपयोगिता/महत्त्व/लाभ अग्रलिखित हैं
1. सुबोध और सरल सूचना- आँकड़ों की लम्बी-लम्बी नीरस सूचनाएँ आरेखों द्वारा सहज ही समझ में आ जाती हैं। एक दृष्टि डालते ही बहुत-सी विशेषताएँ पता चल जाती हैं।

2. चिरस्मरणीय- इनके द्वारा प्रस्तुत आँकड़े लम्बे समय तक याद रहते हैं।

3. विशेषज्ञता आवश्यक नहीं- आरेखों को समझने के लिए किसी विशेष ज्ञान या प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। सामान्य व्यक्ति भी इनको समझ सकता है।

4. आकर्षक और प्रभावशाली- आरेख चित्रमय होते हैं। इन्हें आकर्षक बनाया जाता है।

5. समय व श्रम की बचत- आरेखों द्वारा आँकड़ों को समझने से अपेक्षाकृत कम समय लगता है तथा श्रम भी कम करना पड़ता है। एक चीनी कहावत है कि “एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है।” छोटे से आकार का आरेख कई पृष्ठों पर लिखे विवरण की जानकारी दे देता है।

6. तुलना में सहायक- आरेखों से तथ्यों की तुलना करना सरल है।

7. सूचना के साथ मनोरंजन– इनसे मनोरंजन भी होता है।

8. अनुमान में सहायक- इनके द्वारा भावी प्रवृत्ति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

प्रश्न 4.
लखनऊ में मध्यमान मासिक वर्षा के आँकड़ों से एक सरल दण्ड आरेख की रचना कीजिए।
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 11
उत्तर:
रचना विधि-दिए गए आँकड़ों में वर्षा की मात्रा समय के सन्दर्भ अर्थात् जनवरी, फरवरी इत्यादि के रूप में दी गई है। ऐसे आँकड़ों को आरोही या अवरोही क्रम में बिल्कुल नहीं करते। इनके लिए दण्ड भी खड़े बनाने होते हैं ताकि समय का आधार मानकर तुलना की जा सके।

सबसे पहले ग्राफ पेपर या ड्राइंगशीट को सामने रखकर, मापनी से मापकर यह अनुमान लगाइए कि शीर्षक की जगह छोड़ देने के बाद अधिकतम वर्षा 27.16 सेमी को दिखाने के लिए आरेख को कागज़ के निचले हिस्से में कहाँ से शुरू करें।

शीट या ग्राफ पेपर के निचले हिस्से में एक आधार रेखा लीजिए। उस पर वर्ष के 12 महीनों के दण्डों की चौड़ाई व उनके बीच की दूरी को अंकित कीजिए। आधार रेखा के बाएँ सिरे पर एक लम्बवत् रेखा 15 सेमी ऊँची लीजिए व उस पर 0 से 30 अंकित कीजिए। एक मापनी के अनुसार 1 सेमी की ऊँचाई 2 सेमी वर्षा प्रदर्शित करेगी। अब वर्ष के 12 महीनों के लिए मापनी के अनुसार दण्डों की लम्बाई निर्धारित कीजिए। जनवरी महीने की वर्षा 4.20 सेमी मापक के दुगुना हो जाने के कारण अब वास्तविक फुटे के अनुसार 4.20 ÷ 2 = 2.10 सेमी द्वारा तथा फरवरी की वर्षा 5.18÷ 2 = 2.59 सेमी लम्बे दण्ड से प्रदर्शित होगी। इसी प्रकार अन्य महीनों के दण्डों की लम्बाई ज्ञात करके उन्हें आधार-रेखा पर बनाइए। (चित्र)

कई बार हमें ग्राफ पेपर के स्थान पर ड्राइंगशीट पर दण्ड आरेख बनाने होते हैं। ऐसे में दण्ड सीधे रहें और उनकी आपसी दूरी बराबर रहे तो इसके लिए हमें आरेख के लगभग बीच में एक नकली आधार-रेखा बना लेनी चाहिए जिसे बाद में मिटा दिया जाता है। इस नकली आधार-रेखा पर भी दण्डों की चौड़ाई व उनके बीच के अन्तर को अंकित किया जाता है। बाद में प्रत्येक दण्ड को बनाते समय असली व नकली दोनों आधार रेखाओं के ‘ समान बिन्दुओं को मिलाकर दण्ड की ऊँचाई बनानी होती है। इससे दण्ड सीधे बनते हैं।
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 12

प्रश्न 5.
निम्नलिखित तालिका में भारत की जनसंख्या के आँकड़े दिए गए हैं। इन्हें साधारण दण्ड आरेख द्वारा प्रदर्शित कीजिए
UP Board Class 12 Geography Practical Work Chapter 3 Graphical Representation of Data 13
उत्तर:
रचना विधि-दिए गए आँकड़े समयानुसार हैं इसलिए इन्हें खड़े दण्ड आरेख द्वारा प्रदर्शित किया जाएगा। जब ‘स्थान एक समय अनेक’ हो तो ऐसे आँकड़ों को आरोही या अवरोही क्रम में नहीं किया जाता। आधार X-अक्ष पर समान दूरियों पर समान चौड़ाई वाले दण्ड बनाने के लिए चिह्न अंकित कीजिए। इस आधार-रेखा के बाएँ सिरे पर एक लम्बवत् रेखा खींचिए जिस पर जनसंख्या को दिखाने के लिए मापनी बनाई जाएगी। अब 1901 से 2011 की जनसंख्या के आँकड़ों को पूर्णांक बनाइए जो क्रमशः इस प्रकार होंगे23.84, 25.21, 25.13, 27.90, 31.87, 36.11, 43.92, 54.82, 68.38, 84.63, 102.70 व 121 करोड़। उच्चतम व न्यूनतम आँकड़ों को देखते हुए उचित मापनी लेनी होगी। उदाहरणत: 20 करोड़ जनसंख्या को प्रदर्शित करने के लिए यदि हम 1 इंच लम्बा दण्ड निश्चित करते हैं तो विभिन्न जनगणना वर्षों के दण्डों की लम्बाई क्रमश: 1.96, 1.26, 1.25, 1.39, 1.59, 1.80, 2.19, 2.74, 3.41, 4.23, 5.13 व 6.0 इंच होगी। शीर्षक व अन्य आवश्यक सूचनाएँ लिखकर आरेख तैयार कीजिए। (चित्र)
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प्रश्न 6.
नीचे दिए गए भारत के विदेश व्यापार से सम्बन्धित विभिन्न आँकड़ों को बहुदण्ड आरेख द्वारा प्रदर्शित कीजिए।
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उत्तर:
रचना विधि-दिए गए आँकड़े एक ही तत्त्व ‘विदेश व्यापार’ के दो सम्बन्धित विषयों आयात और निर्यात के हैं, अत: हमें इन्हें दो-दो दण्डों के समुच्चयों द्वारा प्रदर्शित करेंगे।

इस आरेख के निर्माण के लिए ड्राइंगशीट या ग्राफ पेपर पर नीचे की तरफ एक आधार-रेखा लीजिए। इस पर दो-दो दण्डों के 10 समुच्चयों व उनके बीच की दूरी को अंकित कीजिए।

आँकड़ों तथा कागज के विस्तार को देखते हुए आधार रेखा के आरम्भिक बिन्दु से एक लम्बवत् रेखा खींचिए जो आयात-निर्यात के आँकड़ों को दिखाने के लिए मापनी का कार्य करेगी। मान लीजिए कि 1 सेमी का दण्ड आरेख 2,00,000 करोड़ रुपये को प्रदर्शित करता है तो हमें 14 सेमी ऊँचा मापक बनाना होगा जिसमें प्रत्येक सेमी का 1 टुकड़ा (1 mm) 20 हजार करोड़ रुपये को प्रदर्शित करेगा। अब संख्याओं को पूर्णांकों में बदलकर उनके मापक के अनुसार दण्ड-समुच्चय बनाइए। शीर्षक, अन्य सूचनाएँ व आभाओं को निर्देशिका बनाकर आरेख को पूर्ण कीजिए। (चित्र)
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प्रश्न 7.
भारत में साक्षरता दर के दिए गए आँकड़ों के आधार पर एक बहुदण्ड आरेख की रचना कीजिए। .
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उत्तर:
रचना विधि-उपर्युक्त तालिका में दिए गए आँकड़ों में भारत की कुल साक्षर जनसंख्या तथा पुरुष एवं महिला साक्षरता का प्रतिशत दिया गया है। ऐसे आँकड़ों को दर्शाने के लिए बहुदण्ड आरेख उपयुक्त है।
पहले दिए गए प्रश्नों की भाँति आधार रेखा तथा मापनी रेखा बनाकर कुल साक्षरों, पुरुष व महिला साक्षरों की प्रतिशत जनसंख्या को दर्शाने के लिए प्रत्येक वर्ष के तीन-तीन दण्ड समुच्चय बनाइए। इन दण्डों में विभिन्न आभाएँ भरकर उनका इंडेक्स बना दीजिए। इस तरह आरेख पूरा होगा। (चित्र)
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प्रश्न 8.
भारत में सिंचाई के 2010-11 के दिए गए आँकड़ों को वृत्तारेख की सहायता से प्रदर्शित कीजिए
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उत्तर:
रचना विधि—इस तालिका में विभिन्न घटकों के कोण ज्ञात करने से पूर्व इन्हें अवरोही क्रम में कर लें लेकिन ध्यान रहे कि ‘अन्य’ (Others) घटक को सबसे अन्त में रखे क्योंकि इसमें कई आँकड़े शामिल होते हैं। उपर्युक्त तालिका के आँकड़ों के कोण इस प्रकार निकाले गए हैं—
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प्रश्न 9.
निम्नलिखित आँकड़ों को वृत्तारेख द्वारा प्रदर्शित कीजिए :
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उत्तर:
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प्रश्न 10.
मानचित्र में दिए गए वार्षिक तापान्तर (Annual Range of Temperature) के आँकड़ों के आधार पर एक समताप रेखा (Isotherm) मानचित्र बनाइए।
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उत्तर:
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प्रश्न 11.
चित्र में मुख्य नदी एवं उसकी सहायक नदियों में बहने वाली जल की मात्रा हजार घन फुट/प्रति घण्टा दी गई है। इसकी सहायता से इस नदी बेसिन के लिए एक जल प्रवाह आरेख बनाइए।
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उत्तर:
रचना विधि-नदी के प्रवाह क्षेत्र में स्थित विभिन्न बेसिनों के आँकड़ों को देखते हुए एक उचित मापनी का निर्धारण कीजिए जैसा कि चित्र में दिखाया गया है, जल की मात्रा के अनुपात में फीता बनाइए। यह – आपेक्षिक प्रवाह आरेख है।
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लघ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
वर्णमात्री अथवा छाया मानचित्र की उपयुक्तता को समझाइए।
उत्तर:
वर्णमात्री मानचित्र की उपयुक्तता-जनसंख्या का घनत्व, कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत, जनसंख्या में लिंग तथा साक्षरता अनुपात, कुल भूमि में कृषि भूमि का अनुपात, कृषि-भूमि की प्रति हेक्टेयर उपज, जोत का औसत आकार, प्रति व्यक्ति आय, किसी वस्तु का प्रति व्यक्ति उपभोग आदि के आर्थिक तथ्यों के आँकड़ों को वर्णमात्री मानचित्रों के द्वारा बहुत अच्छी तरह प्रदर्शित किया जाता है। मानचित्र के प्रदर्शन की यह विधि भूगोलवेत्ता का महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

प्रश्न 2.
वर्णमात्री मानचित्र के दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
वर्णमात्री मानचित्र के दोष

  1. भौगोलिक तथ्य के घनत्व में अन्तर भौगोलिक दशाओं के प्रभाव में आता है, प्रशासनिक इकाइयों के द्वारा नहीं। इससे भ्रम पैदा हो जाता है।
  2. राजनीतिक सीमाएँ अस्थिर होती हैं।
  3. पूरी इकाई की गहनता समान नजर आती है, जबकि वास्तव में प्रशासनिक इकाई (जिले) में भी गहनता में भारी अन्तर पाया जाता है।
  4. इस विधि में ऋणात्मक क्षेत्र भी शामिल होता है जो कि गलत है।

प्रश्न 3.
सममान रेखा मानचित्र के दोष बताइए।
उत्तर:
सममान रेखा मानचित्र के दोष

  • सममान रेखा मानचित्र बनाना एक कठिन कार्य है क्योंकि इसके लिए हमें पर्याप्त व सही आँकड़े तथा अनेक स्थानों पर शुद्ध अवस्थिति की आवश्यकता होती है।
  • मानचित्र पर मूल्यों को खोजने के लिए अन्तर्वेशन करना पड़ता है जिससे गलती होने की संभावना रहती है।
  • कम आँकड़ों के आधार पर बनाई गई सममान रेखाएँ भ्रामक परिणाम प्रस्तुत कर सकती हैं।
  • आकस्मिक या तीव्र परिवर्तनों को इन रेखाओं द्वारा प्रदर्शित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 4.
आरेखों की रचना में सावधानियों को समझाइए।
उत्तर:
आरेखों की रचना में सावधानियाँ

  1. आरेख आकर्षक और प्रभावशाली होने चाहिए।
  2. इनको उपयुक्त शीर्षक दिया जाना चाहिए।
  3. आरेख उचित मापनी पर बनाए जाने चाहिए।
  4. इनमें केवल चिह्नों व रंगों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  5. आरेखों को सरल बनाना चाहिए।
  6. आरेखों के साथ सारणी भी दी जानी चाहिए।

प्रश्न 5.
वर्णमात्री मानचित्रों के गुणों को समझाइए।
उत्तर:
वर्णमात्री मानचित्र के गुण

  1. वस्तु के वितरण को समझाने के लिए यह एक सरल और प्रभावशाली विधि है।
  2. वितरण के तुलनात्मक अध्ययन के लिए वर्णमात्री विधि सर्वोत्तम मानी जाती है।
  3. वर्णमात्री विधि सापेक्षिक आँकड़ों जैसे प्रतिशत मान या प्रति इकाई घनत्व को दर्शाने की सर्वश्रेष्ठ विधि है।
  4. वस्तुओं के वितरण में आने वाले आकस्मिक और भारी परिवर्तनों को दिखाने के लिए इससे बेहतर विधि और कोई नहीं है।

प्रश्न 6.
सममान रेखा मानचित्रों के गुणों को समझाइए।
उत्तर:
सममान रेखा मानचित्र के गुण

  1. अन्य विधियों की तुलना में सममान रेखा विधि अधिक वैज्ञानिक है।
  2. ये रेखाएँ ढाल प्रवणता या घनत्व में होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट रूप से प्रकट कर देती हैं।
  3. बिन्दु आँकड़ों के माध्यम से भौगोलिक वितरण दर्शाने की यह सर्वोत्तम विधि है।
  4. संक्रमण पेटी में स्थित तत्त्वों को प्रदर्शित करने के लिए सममान रेखा विधि उत्तम मानी जाती है।

प्रश्न 7.
प्रवाह आरेखों के महत्त्व को समझाइए।
उत्तर:
प्रवाह आरेखों का महत्त्व-प्रवाह आरेखं किसी क्षेत्र के प्रमुख परिवहन केन्द्रों व परिवहन मार्गों के निर्धारण में हमारी सहायता करते हैं। हमें इनसे उन केन्द्र बिन्दुओं (Nodal Points) का पता चलता है जहाँ अनेक मार्ग आकर मिलते हैं। क्षेत्रीय आयोजन में प्रवाह आरेखों का महत्त्व निर्विवाद है।

प्रश्न 8.
वर्णमात्री मानचित्र क्या हैं?
उत्तर:
वर्णमात्री (छाया) मानचित्र-ये वे मानचित्र हैं जिनमें प्रशासकीय इकाइयों को आधार मानकर आँकड़ों की सहायता से भौगोलिक तत्त्वों का क्षेत्रीय वितरण दर्शाया जाता है। वर्णमात्री विधि में क्षेत्रीय तथ्यों की मात्रा या घनत्व को दिखाने के लिए विभिन्न छायाओं (Shades) का प्रयोग किया जाता है। इस विधि की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसमें केवल सापेक्षिक.आँकड़ों का प्रयोग किया जाता है, शुद्ध या निरपेक्ष आँकड़ों का नहीं।

मौखिक प्रश्नों के उत्तर

प्रश्न 1.
सांख्यिकीय आरेख क्या होते हैं?
उत्तर:
सांख्यिकीय आरेख ऐसे रेखाचित्र होते हैं जिनकी रचना सांख्यिकीय आँकड़ों के आधार पर की जाती है। .

प्रश्न 2.
क्या सांख्यिकीय आरेख आँकड़ों का शुद्ध प्रदर्शन कर पाते हैं?
उत्तर:
सांख्यिकीय आरेखों द्वारा आँकड़ों का शुद्ध प्रदर्शन सम्भव नहीं हो पाता क्योंकि आरेख बनाते समय हमें शुद्ध आँकड़ों को पूर्णांकों में बदलना पड़ता है।

प्रश्न 3.
क्या आरेख आँकड़ों का प्रतिस्थापन है?
उत्तर:
आरेख आँकड़ों का प्रतिस्थापन कभी नहीं हो सकता क्योंकि आँकड़ों की समस्त खूबियों को रेखाचित्रों के माध्यम से प्रदर्शित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 4.
दण्ड आरेख का गुण बताइए।
उत्तर:
दण्ड आरेख को आम आदमी समझ सकता है तथा इनसे तुलनात्मक अध्ययन भी आसान हो जाता है।

प्रश्न 5.
प्रवाह आरेख क्या है?
उत्तर:
परिवहन के साधनों, व्यक्तियों, वस्तुओं, नदियों व नहरों के जल के प्रवाह को दर्शाने वाले रेखाचित्र ‘प्रवाह आरेख’ कहलाते हैं।

प्रश्न 6.
प्रवाह आरेखों की क्या उपयोगिता है?
उत्तर:

  • प्रवाह आरेखों से महत्त्वपूर्ण मार्गों व केन्द्रों के निर्धारण में सहायता मिलती है।
  • इनसे प्रमुख केन्द्रों के प्रवाह क्षेत्र को निर्धारित करने में भी सहायता मिलती है।

प्रश्न 7.
सममान रेखा विधि क्या होती है?
उत्तर:
यह मानचित्र पर बिन्दु आँकड़ों की सहायता से वितरण दिखाने की वह विधि है जिसमें समान मूल्य वाले बिन्दुओं को एक रेखा द्वारा मिला दिया जाता है।

प्रश्न 8.
अन्तर्वेशन क्या होता है? .
उत्तर:
सममान रेखा मानचित्र बनाते समय दो ज्ञात मूल्य वाले बिन्दुओं के बीच में किसी और मान वाले बिन्दु की स्थिति निर्धारित करना ‘अन्तर्वेशन’ कहलाता है।

बहविकल्पीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
आरेखों, आलेखों और मानचित्रों के चित्रांकन का सामान्य नियम है
(a) उपयुक्त विधि का चयन
(b) उपयुक्त मापनी का चयन
(c) अभिकल्पना
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 2.
थिमैटिक मानचित्र का प्रकार है
(a) बिन्दुकित मानचित्र
(b) वर्णमात्री मानचित्र
(c) सममान रेखा मानचित्र
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 3.
आरेख का प्रकार है
(a) रेखाचित्र
(b) दण्ड आरेख
(c) वृत्त रेखाचित्र
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।।

प्रश्न 4.
दण्ड आरेख का प्रमुख प्रकार है.
(a) क्षैतिज दण्ड आरेख
(b) लम्बवत् दण्ड आरेख
(c) संश्लिष्ट दण्ड आरेख
(d) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 5.
वितरण मानचित्र के प्रकार हैं
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) पाँच।
उत्तर:
(a) दो।

प्रश्न 6.
परिवहन के साधनों, मनुष्यों, वस्तुओं की गति आदि को दर्शाने वाले आरेख को कहते हैं
(a) वृत्त रेखाचित्र
(b) प्रवाह आरेख
(c) मिश्रित दण्ड आरेख
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(b) प्रवाह आरेख।

UP Board Solutions for Class 12 Geography

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 8 उत्सर्जन तन्त्र

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 8 उत्सर्जन तन्त्र (Excretory System)

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 8 उत्सर्जन तन्त्र

UP Board Class 11 Home Science Chapter 8 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उत्सर्जन एवं उत्सर्जन तन्त्र से आप क्या समझती हैं? मुख्य उत्सर्जक अंग के रूप में गुर्दो की संरचना एवं कार्य-विधि का वर्णन कीजिए।
अथवा उत्सर्जन अंग कौन-कौन से हैं? वृक्क का चित्र बनाकर उसके कार्य समझाइए।
अथवा उत्सर्जन तन्त्र से क्या तात्पर्य है? वृक्क की रचना व कार्य चित्र द्वारा स्पष्ट कीजिए।
अथवा उत्सर्जन तन्त्र से आप क्या समझती हैं? इसके विभिन्न अंगों के नाम लिखिए।वृक्क की रचना एवं कार्य नामांकित चित्र की सहायता से समझाइए।
उत्तर:
उत्सर्जन तथा उत्सर्जन तन्त्र (Excretion and Excretory System):
शरीर में विभिन्न प्रकार की उपापचयी (metabolic) क्रियाओं के फलस्वरूप ऐसे पदार्थ बनते रहते हैं, जिन्हें शरीर में एकत्र नहीं किया जा सकता है। ये पदार्थ या तो व्यर्थ होते हैं अथवा हानिकारक। अधिक मात्रा में एकत्र होने पर व्यर्थ पदार्थ भी हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं; अतः इन पदार्थों को शरीर से बाहर निकालना आवश्यक है। व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों की शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को उत्सर्जन अथवा विसर्जन (excretion) कहते हैं। शरीर के जिन अंगों के माध्यम से व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकाला जाता है, उन अंगों को उत्सर्जक अंग कहा जाता है। हमारे शरीर में विभिन्न उत्सर्जक अंग हैं। अत: हम कह सकते हैं-“उन विभिन्न अंगों की व्यवस्था को उत्सर्जन तन्त्र के रूप में जाना जाता है, जो शरीर में से व्यर्थ पदार्थों को बाहर निकालने का कार्य करते हैं।”

उत्सर्जी अंग तथा उनके कार्य (Excretory Organs and their Functions):
व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने का कार्य करने वाले शरीर के अंगों को उत्सर्जक या उत्सर्जी अंग कहा जाता है। गुर्दे या वृक्क, फेफड़े, त्वचा तथा बड़ी आँत शरीर के मुख्य उत्सर्जक अंग हैं। इनके अतिरिक्त यकृत भी अप्रत्यक्ष रूप से कुछ उत्सर्जी क्रिया करता है।

फेफड़े प्रमुखतः श्वसन क्रिया में सहायक होते हैं, किन्तु कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी दूषित गैस को बाहर निकालने के कारण उत्सर्जी अंग की भूमिका भी निभाते हैं। त्वचा से पसीना निकलता है। पसीने में अनेक उत्सर्जी पदार्थ होते हैं। अत: त्वचा सुरक्षा करने का साधन होने के साथ-साथ उत्सर्जन का कार्य भी करती है। यकृत रुधिर में से अधिक मात्रा में प्राप्त अमीनो अम्लों (amino acids) को तोड़कर अमोनिया को यूरिया, यूरिक अम्ल आदि कम हानिकारक पदार्थों में बदलता है। ये हानिकारक पदार्थ गुर्दो के माध्यम से मूत्र में घुलित अवस्था में विसर्जित होते हैं। इस स्थिति में गुर्दे या वृक्क महत्त्वपूर्ण उत्सर्जन-अंग के रूप में कार्य करते हैं। बड़ी आँत मल या विष्ठा के साथ अपच पदार्थों को तो निकालती ही है, कुछ अन्य उत्सर्जी पदार्थों को भी यह बाहर निकाल देती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गुर्दे, त्वचा, फेफड़े तथा बड़ी आँत मुख्य उत्सर्जक अंग हैं।

वृक्क की संरचना (Structure of Kidney):
बाह्य संरचना: उत्सर्जन तन्त्र का एक मुख्य अंग वृक्क या गुर्दे (kidneys) हैं। वृक्क संख्या में दो होते हैं। ये उदर गुहा में कशेरुक दण्ड (रीढ़ की हड्डी) के इधर-उधर (दाएँ व बाएँ) स्थित होते हैं। ये भूरे रंग की तथा सेम के बीज के आकार की संरचनाएँ हैं। प्रत्येक वृक्क लगभग 10 सेमी लम्बा, 6 सेमी चौड़ा तथा 2.5 सेमी मोटा होता है। बायाँ वृक्क दाएँ की अपेक्षा कुछ पीछे स्थित होता है। सामान्यतः वयस्क पुरुष के वृक्क का भार लगभग 125 ग्राम किन्तु स्त्री के वृक्क का भार 115-120 ग्राम होता है।

प्रत्येक वृक्क का बाहरी किनारा उभरा हुआ किन्तु भीतरी किनारा धंसा हुआ होता है, जिसमें से मूत्र नलिका (ureter) निकलती है। इस धंसे हुए भाग को नाभि कहते हैं। मूत्र नलिका नीचे जाकर एक पेशीय थैले में खुलती है जिसे मूत्राशय कहते हैं। मूत्र नली की लम्बाई 30 से 35 सेमी होती है।
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 1 45
मनुष्य के वृक्क तथा उससे सम्बन्धित अंग। मूत्राशय श्रोणि गुहा में स्थित होता है (उदर गुहा का निचला भाग) और नीचे की ओर क्रमश: संकरा होकर मूत्र मार्ग का निर्माण करता है, जो अन्त में बाहर खुलता है।

आन्तरिक संरचना: वृक्क को बाहर से अन्दर की ओर लम्बाई में काटने से उसकी आन्तरिक संरचना देखी जा सकती है। इसके मध्य में लगभग खोखला तथा कीप के आकार का भाग होता है। यही भाग क्रमश: संकरा होकर मूत्र नलिका का निर्माण करता है। यह स्थान शीर्ष गुहा (pelvis) कहलाता है। वृक्क का शेष भाग ठोस तथा दो भागों में बँटा होता है। बाहरी, हल्के बैंगनी रंग का भाग वल्कुट या कॉर्टेक्स तथा भीतरी, गहरे रंग का भाग मेड्यूला कहलाता है।

वृक्क में असंख्य सूक्ष्म नलिकाएँ होती हैं। ये अत्यन्त कुण्डलित तथा लम्बी संरचनाएँ हैं। इन्हें वृक्क नलिकाएँ कहते हैं। प्रत्येक वृक्क नलिका के दो प्रमुख भाग होते हैं-एक प्याले के आकार का ग्रन्थिल भाग मैल्पीघियन कणिका (malpighian corpuscle) तथा दूसरा अत्यन्त कुण्डलित नलिकाकार भाग। यह नलिकाकार भाग एक स्थान पर ‘U’ के आकार में भी स्थित होता है और बाद में फिर शीर्ष गुहा कुण्डलित हो जाता है। यह नलिका एक बड़ी संग्रह । नलिका में खुलती है। प्रत्येक संग्रह नलिका एक मीनार जैसे भाग, पिरामिड में खुलती है। वृक्कों में ऐसे 10-12 पिरामिड दिखाई देते हैं जो अपने सँकरे भाग से शीर्षआन्तरिक संरचना का गुहा में खुलते हैं।
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 1 46
वृक्क नलिका द्वारा मूत्र छनना : वृक्क की क्रिया-विधि (Filteration of Urine by Renal Duct : Mechanism of Kidney):
मैल्पीघियन कणिका में दो भाग होते हैं-
(i) प्याले के आकार का बोमेन सम्पुट तथा
(ii) वृक्क में आई धमनी की एक छोटी शाखा से बना केशिकाओं का जाल अर्थात् केशिकागुच्छ। केशिकागुच्छ में धमनी की जो शाखा आती है, वह इससे निकलने वाली शाखा से काफी चौड़ी होती है। इस प्रकार केशिका गुच्छ में अधिक रुधिर आता है, किन्तु निकल कम पाता है; अत: इसका प्लाज्मा केशिकाओं की पतली भित्ति से छन जाता है और सम्पुट में होकर वृक्क नलिका में आ जाता है। इस छने हुए तरल में आवश्यक तथा अनावश्यक सभी प्रकार के पदार्थ उपस्थित होते हैं। बाद में नलिका के अन्दर आगे बढ़ते हुए प्लाज्मा (तरल पदार्थ) से भोजन, लवण आदि आवश्यक पदार्थ वृक्क नलिका तथा उस पर लिपटी अनेक रुधिर केशिकाओं की भित्ति में होकर रुधिर में अवशोषित कर लिए जाते हैं; किन्तु अन्य पदार्थ, जिनमें हानिकारक उत्सर्म्य पदार्थ भी सम्मिलित हैं, अधिकांश जल के साथ वृक्क नलिका में ही रह जाते हैं। यही तरल मूत्र (urine) है। वृक्क नलिकाओं से मूत्र संग्रह नलिका, पिरामिड, शीर्ष गुहा से होता हुआ मूत्र नलिका द्वारा मूत्राशय में एकत्रित होता रहता है।
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 1 47
वृक्क नलिका के ‘U’ भाग पर लिपटी हुई रुधिर केशिकाओं का निर्माण, केशिकागुच्छ से निकलने वाली धमनी की शाखा से होता है। बाद में केशिकाओं के जाल से छोटी-सी एक शिरा बन जाती है तथा वृक्क के अन्दर इस प्रकार की सभी शिराएँ मिलकर वृक्कीय शिरा (renal vein) का निर्माण करती हैं।

प्रश्न 2.
त्वचा की संरचना चित्र द्वारा समझाइए और इसके मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा त्वचा की रचना समझाइए एवं उसके मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा चित्र द्वारा त्वचा की बनावट तथा कार्य लिखिए।
उत्तर:
त्वचा की संरचना (Structure of Skin):
सम्पूर्ण शरीर के बाहरी आवरण को त्वचा कहते हैं। त्वचा की आन्तरिक रचना का अध्ययन करने के लिए जब हम त्वचा के किसी भाग की अनुदैर्घ्य काट को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र के द्वारा देखते हैं, तो ज्ञात होता है कि इसके मुख्य दो भाग होते हैं-
(1) अधिचर्म (Epidermis)
(2) चर्म (Dermis)

(1) अधिचर्म (Epidermis): यह त्वचा की मोटी और ऊपरी परत होती है। इसमें कोशिकाओं की 3 या 4 परतें होती हैं। सबसे बाहरी परत में कोशिकाएँ मृत होती हैं, जिसको सिंगी स्तर (horny layer) कहते हैं। इसके नीचे की ओर जीवित कोशिकाओं की बनी परत, मैल्पीघियन स्तर (malpighian layer) कहलाती है। इसकी कोशिकाएँ विभाजित होती रहती हैं। जब शरीर की बाहरी त्वचा का सिंगी स्तर समाप्त हो जाता है, तब उसका स्थान मैल्पीघियन स्तर की सबसे बाहरी परत लेती है। यह परत भी इसके अन्दर उपस्थित परतों से बनती है। अधिचर्म (epidermis) के बाहरी ओर कुछ बाल और नलिकाएँ होती हैं, ये दोनों ही आन्तरिक त्वचा के भाग कहलाते हैं।
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 1 48
(2) चर्म (Dermis): यह परत अधिचर्म से काफी मोटी होती है। इसमें निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण भाग पाए जाते हैं

  • रोम ग्रन्थियाँ (hair glands): ये ग्रन्थियाँ सम्पूर्ण शरीर में पायी जाती हैं। इनके स्तरों में एक ऊँची जगह होती है, जिनमें रक्त केशिकाएँ पायी जाती हैं। इनके अन्दर से एक पतला बाल निकलता है, जो ऊपर की ओर बाल नली द्वारा एक छिद्र से बाहर निकलता है।
  • पसीने की ग्रन्थियाँ (sweat or sebaceous glands): रोम ग्रन्थियों के ही आस-पास कुण्डलीदार आकृति वाली ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। प्रत्येक ग्रन्थि एक लहरदार नलिका द्वारा अधिचर्म के बाहरी भाग में एक अलग छिद्र द्वारा खुलती है। इन ग्रन्थियों से शरीर में बना दूषित पदार्थ पसीने के रूप में बाहर निकलता रहता है। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इन ग्रन्थियों का विशेष महत्त्व होता है।
  • तेल ग्रन्थियाँ (oil glands): पसीने की ग्रन्थियों के कुछ ऊपर बाल नलिका के दोनों ओर अनियमित आकार की ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। इनसे एक तेल जैसा चिकना पदार्थ निकलता है, जो बालों के छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकलता रहता है।
  • नाड़ी सूत्र (nerve fibre): पिन चुभने या काँटा लगने पर इसका अनुभव तुरन्त हो जाता है। यह अनुभव नाड़ी सूत्रों के द्वारा होता है, जो त्वचा में जाल के रूप में बिछे रहते हैं।
  • रक्त केशिकाएँ (blood capillaries): चर्म भाग में शिरा और धमनियों की रक्त केशिकाएँ पायी जाती हैं। इनके द्वारा ही त्वचा के प्रत्येक भाग को रक्त मिलता है।
  • मांसपेशियाँ (muscles): शरीर के कुछ भागों में पेशियाँ पायी जाती हैं; जैसे-पेट तथा तलवे की त्वचा।
  • क्रोमेटोफोर्स (chromatophores): इनसे मनुष्य की त्वचा का रंग बनता है।
  • वसा के कण (fat granules): इन छोटे-छोटे कणों के गुच्छे चर्म की निचली सतह पर पाए जाते हैं। इनको वसा स्तर भी कहते हैं। त्वचा में पाए जाने वाले इन वसा स्तरों का मुख्य कार्य शरीर के ताप को नियमित बनाए रखना होता है।

त्वचा के कार्य (Functions of Skin):

  • सुरक्षा: त्वचा शरीर के भीतरी कोमल अंगों पर एक रक्षक आवरण बनाती है। उन्हें रगड़, धक्के या चोट से बचाती है तथा जीवाणुओं व अन्य हानिकारक जीवों को शरीर में नहीं घुसने देती है।
  • उत्सर्जन: मनुष्य व अन्य दूध देने वाले प्राणियों में त्वचा में विद्यमान पसीने की ग्रन्थियाँ (स्वेद ग्रन्थियाँ) पसीने के रूप में अनेक हानिकारक, दूषित एवं विजातीय पदार्थों का विसर्जन करती हैं। विसर्जन के इस गुण के कारण ही त्वचा को तीसरा गुर्दा भी कहा जाता है।
  • ताप नियन्त्रण: त्वचा में पाए जाने वाले वसा स्तर शरीर की गर्मी को रोकते हैं। पसीने के द्वारा भी शरीर के ताप का नियमन होता है। त्वचा से निकलने वाले पसीने के वाष्पन के लिए शरीर से गुप्त ऊष्मा ली जाती है। इससे शरीर का तापमान सामान्य बना रहता है तथा शरीर को वातावरण की
  • गर्मी परेशान नहीं करती।
  • संवेदनशीलता: त्वचा में तन्त्रिकाओं के सूत्र समाप्त होते हैं, इसलिए यह स्पर्श, दबाव, सर्दी, गर्मी, पीड़ा इत्यादि का अनुभव कराती है।
  • पोषण: मादा स्तनधारी प्राणियों की त्वचा में दूध की ग्रन्थियाँ मिलती हैं। इनसे उत्पन्न दूध शिशुओं के पोषण का सर्वोत्तम साधन है।
  • सौन्दर्य: आन्तरिक अंगों और पेशियों पर चढ़ा त्वचा का आवरण शरीर को सुन्दरता प्रदान करता है। त्वचा में एकत्र वसा भी इस कार्य में अंगों को सुडौल बनाने में सहायक होती है। यदि शरीर की त्वचा को उतार दिया जाए तो शरीर भयानक एवं कुरूप दिखाई देगा।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 8 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उत्सर्जन तन्त्र के महत्त्व का उल्लेख कीजिए। अथवा उत्सर्जन तन्त्र की शरीर में क्या उपयोगिता है?
उत्तर:
उत्सर्जन तन्त्र के महत्त्व शारीरिक स्वास्थ्य एवं सुचारु क्रियाशीलता के लिए उत्सर्जन तन्त्र का विशेष महत्त्व है। उत्सर्जन तन्त्र के विभिन्न अंग शरीर में उत्पन्न होने वाले सभी व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर विसर्जित करने का अति महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य कार्य करते हैं। शारीरिक आवश्यकताओं के लिए निरन्तर आहार, जल तथा वायु ग्रहण किए जाते हैं। ये पदार्थ जहाँ एक ओर पोषण के लिए तथा शरीर की क्रियाशीलता के लिए आवश्यक होते हैं, वहीं दूसरी ओर इनके पाचन आदि के उपरान्त शरीर में कुछ व्यर्थ एवं विजातीय तत्त्व भी उत्पन्न होते हैं। ये व्यर्थ पदार्थ गैसीय, द्रव, ठोस एवं अर्द्ध-ठोस अवस्था में पाए जाते हैं।

ये व्यर्थ पदार्थ न केवल व्यर्थ एवं विजातीय ही होते हैं बल्कि ये शरीर के लिए हानिकारक तथा विषैले भी होते हैं; अतः इन पदार्थों का शरीर से शीघ्र बाहर निकलना अति आवश्यक होता है। इन व्यर्थ पदार्थों के नियमित विसर्जन की स्थिति में हमारा शरीर स्वस्थ तथा नीरोग बना रहता है। यदि इन विजातीय तत्त्वों का समुचित विसर्जन रुक जाए तो निश्चित रूप से शरीर विकार-युक्त हो जाता है। इसीलिए उत्सर्जन तन्त्र का शरीर में विशेष महत्त्व है। वास्तव में उत्सर्जन तन्त्र शरीर की आन्तरिक सफाई की व्यवस्था को बनाए रखता है।

प्रश्न 2:.
वृक्क के चार प्रमुख कार्य लिखिए।
उत्तर:
वृक्क के चार प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं

  • उत्सर्जन (excretion): वृक्क मूत्र के रूप में नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालता है।
  • जल सन्तुलन (water balance): शरीर की विभिन्न क्रियाओं को सुचारु रूप में चलाने के लिए हम अत्यधिक मात्रा में जल पीते हैं। वृक्क मूत्र के रूप में जल की अतिरिक्त मात्रा को शरीर से बाहर निकालकर शरीर में जल का सन्तुलन बनाए रखते हैं।
  • लवण सन्तुलन (salt balance): मूत्र के साथ रुधिर में प्राप्त अतिरिक्त व व्यर्थ लवणों को वृक्क शरीर से बाहर निकालते हैं।
  • भ्रूणावस्था में वृक्क लाल रुधिर कणिकाओं का निर्माण करते हैं।

प्रश्न 3.
यकृत के प्रमुख उत्सर्जी कार्यों को बताइए।
उत्तर:
यकृत की उत्सर्जन में भूमिका यकृत की उत्सर्जन क्रिया में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यकृत के उत्सर्जन सम्बन्धी कुछ विशेष कार्य निम्नलिखित हैं
1. पित्त रस का स्राव करता है: यकृत शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि है, जो एक विशेष प्रकार का क्षारीय द्रव बनाती है, जिसे पित्त रस कहते हैं। पित्त रस यद्यपि भोजन के पाचन आदि में सहायता करता है, तथापि इसके द्वारा उत्सर्जन का कार्य भी किया जाता है। पित्त वर्णक; लवण आदि उत्सर्जी पदार्थों को यकृत से लेकर आहार नाल में पहुँचा देता है। यहाँ से ये पदार्थ मल के साथ शरीर से बाहर कर दिए जाते हैं।

2. अतिरिक्त ऐमीनो अम्लों को यूरिया, यूरिक अम्ल आदि में बदलता है: यकृत ही अतिरिक्त ऐमीनो अम्लों को निम्नलिखित प्रक्रिया द्वारा यूरिया में बदलता है

(क) डीएमीनेशन: अतिरिक्त ऐमीनो अम्लों को यकृत कोशिकाओं में ऑक्सीजन की उपस्थिति में तोड़ा जाता है। इस क्रिया में अमोनिया बनती है। इसमें पाइरुविक अम्ल भी बनता है जो श्वसन के काम में आ जाता है।

(ख) यूरिया का निर्माण: अमोनिया एक हानिकारक गैस है। इसको यकृत कोशिकाएँ ही कार्बन डाइ-ऑक्साइड के साथ मिलाकर यूरिया (urea) का निर्माण करती हैं। इस कार्य के लिए अनेक जैव-रासायनिक क्रियाएँ होती हैं। ये सब क्रियाएँ एक चक्र के रूप में होती हैं।

प्रश्न 4.
एक रोगी मनुष्य के यकृत ने कार्य करना बन्द कर दिया है। उस मनुष्य पर इसका क्या प्रभाव होगा?
उत्तर:
यकृत का कार्य करना बन्द कर देना
मनुष्य का यकृत सभी कशेरुकीय प्राणियों की तरह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थि है। यह ग्रन्थि यदि किसी मनुष्य में कार्य करना बन्द कर दे तो वह मनुष्य अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकेगा क्योंकि इसके निम्नलिखित दुष्प्रभाव होते हैं-

  1. यकृत के द्वारा सम्पादित उत्सर्जी कार्यों में बाधा पड़ जाएगी, जिसके कारण शरीर में हानिकारक पदार्थ एकत्रित हो जाएँगे।
  2. शरीर में टूटी-फूटी कोशिकाएँ; जैसे मृत रुधिर कोशिकाएँ एकत्रित हो जाएँगी, जो इन पदार्थों या अंगों को कार्य नहीं करने देंगी। इससे श्वसन क्रिया पर प्रभाव पड़ेगा।
  3. रोगी के शरीर का ताप नियन्त्रित नहीं रहेगा।
  4. रोगी का पाचन बिल्कुल बन्द.हो जाएगा क्योंकि यकृत पाचन के लिए पित्त बनाकर क्षारीय माध्यम बनाता है।

प्रश्न 5.
मूत्र क्या है? यह कहाँ एकत्रित रहता है? मूत्र त्याग करने से शरीर को क्या लाभ होते हैं?
उत्तर:
मूत्र तथा मूत्र त्याग मत्र हल्के पीले रंग का जल-जैसा तरल पदार्थ है, जिसमें अधिकतर भाग जल (लगभग 96%) तथा अन्य उत्सर्जी पदार्थ; प्रमुखत: यूरिया (urea), यूरिक अम्ल (uric acid) आदि कार्बनिक पदार्थ (लगभग 2%) होते हैं। शेष पदार्थों में लवण (लगभग 1.5%) होते हैं।

साधारण अवस्था में, एक स्वस्थ मनुष्य प्रतिदिन लगभग 1.5 से 2 : 0 लीटर मूत्र त्याग करता है। मूत्र वृक्क नलिकाओं से बनकर हर समय बूंद-बूंद मूत्राशय में आता रहता है। मूत्रमार्ग के निरन्तर बन्द रहने के कारण मूत्र इसी में एकत्रित होता रहता है। इसके द्वार पर वर्तुल पेशियाँ (circular muscles) होती हैं, जो फैलने पर ही मूत्र को बाहर जाने देती हैं। मूत्राशय में मूत्र की पर्याप्त मात्रा (लगभग 200-250 मिली) एकत्र हो जाने पर मूत्र त्याग की इच्छा अनुभव होने लगती है तथा मूत्र त्याग कर दिया जाता है। इस प्रकार मूत्र त्याग करने से मूत्र के माध्यम से शरीर के अनेक व्यर्थ एवं विषैले पदार्थ शरीर से विसर्जित हो जाते हैं।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 8 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उत्सर्जन तन्त्र से क्या आशय है?
उत्तर:
शरीर के उन विभिन्न अंगों की व्यवस्था को उत्सर्जन तन्त्र के रूप में जाना जाता है जो शरीर से व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालने का कार्य करते हैं।

प्रश्न 2.
हमारे शरीर के मुख्य उत्सर्जक अंग कौन-कौन से हैं? अथवा मलोत्सर्जन संस्थान ( उत्सर्जन तन्त्र) के विभिन्न अंगों के नाम लिखिए।
उत्तर:
हमारे शरीर के मुख्य उत्सर्जक अंग हैं-गुर्दे या वृक्क, फेफड़े, त्वचा, बड़ी आँत तथा यकृत।

प्रश्न 3.
किसी भी उत्सर्जक अंग के कार्य न करने की स्थिति में क्या होता है?
उत्तर:
किसी भी उत्सर्जक अंग के कार्य न करने की स्थिति में शरीर में व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती है तथा इससे स्वास्थ्य एवं जीवन को खतरा उत्पन्न हो जाता है।

प्रश्न 4.
फेफड़े मुख्य रूप से किस हानिकारक गैस का उत्सर्जन करते हैं?
उत्तर:
फेफड़े मुख्य रूप से कार्बन डाइ-ऑक्साइड नामक हानिकारक गैस का उत्सर्जन करते हैं।

प्रश्न 5.
त्वचा किस रूप में व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों का उत्सर्जन करती है?
उत्तर:
त्वचा पसीने के रूप में व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों का उत्सर्जन करती है।

प्रश्न 6.
स्वेद ग्रन्थियों की स्थिति और कार्य लिखिए।
उत्तर:
हमारे शरीर में त्वचा के चर्म (Dermis) भाग में स्वेद ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। स्वेद ग्रन्थियों का मुख्य कार्य शरीर में से दूषित पदार्थों को पसीने के माध्यम से बाहर निकालना है।

प्रश्न 7.
उत्सर्जन कार्यों को ध्यान में रखते हुए त्वचा को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
उत्सर्जन कार्यों को ध्यान में रखते हुए त्वचा को तीसरा गुर्दा कहा जाता है।

प्रश्न 8.
गुर्दे शरीर के हानिकारक पदार्थों को किस माध्यम से शरीर से विसर्जित करते हैं?
उत्तर:
गुर्दे मूत्र के माध्यम से हानिकारक पदार्थों को शरीर से विसर्जित करते हैं।

प्रश्न 9.
मूत्र के माध्यम से मुख्य रूप से किन दूषित पदार्थों का विसर्जन किया जाता है?
उत्तर:
मूत्र के माध्यम से मुख्य रूप से यूरिया, यूरिक अम्ल तथा कुछ लवण विसर्जित किए जाते हैं।

प्रश्न10.
स्वस्थ व्यक्ति के मूत्र में किन पदार्थों का अभाव होना चाहिए?
उत्तर:
स्वस्थ व्यक्ति के मूत्र में ग्लूकोज, ऐल्बुमिन, पीव-कोशिकाएँ तथा लाल रक्त कण नहीं होने चाहिए।

प्रश्न 11.
गर्मी के मौसम में मूत्र की मात्रा कम क्यों हो जाती है?
उत्तर:
गर्मी के मौसम में शरीर के तापक्रम को नियमित रखने के लिए त्वचा से पसीने की अधिक मात्रा विसर्जित होने लगती है। इस स्थिति में शरीर की अतिरिक्त जल की मात्रा पसीने के माध्यम से निकल जाने के कारण मूत्र की मात्रा घट जाती है।

प्रश्न 12.
बड़ी आँत किस रूप में हानिकारक पदार्थों का शरीर से विसर्जन करती है?
उत्तर:
बड़ी आँत मल के रूप में हानिकारक पदार्थों का शरीर से विसर्जन करती है।

प्रश्न 13.
मल क्या होता है?
उत्तर:
ग्रहण किए गए भोजन का व्यर्थ तथा बिना पचा दूषित भाग मल होता है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 8 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए

प्रश्न 1.
शरीर में बनने वाले व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने वाले अंगों की व्यवस्था को कहते हैं
(क) गुर्दे एवं मूत्र प्रणाली
(ख) बड़ी आँत
(ग) पाचन तन्त्र
(घ) उत्सर्जन अथवा विसर्जन तन्त्र।
उत्तर:
(घ) उत्सर्जन अथवा विसर्जन तन्त्र

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा अंग उत्सर्जक अंग नहीं है
(क) गुर्दे (ख) त्वचा
(ग) हृदय/आमाशय
(घ) बड़ी आँत।
उत्तर:
(ग) हृदय/आमाशय।

प्रश्न 3.
उत्सर्जन तन्त्र द्वारा कार्य करना बन्द कर देने पर क्या होगा
(क) शरीर अत्यधिक मोटा हो जाएगा
(ख) व्यक्ति अधिक शक्तिशाली हो जाएगा
(ग) व्यक्ति का स्वास्थ्य एवं जीवन खतरे में हो जाएगा
(घ) कोई प्रभाव नहीं होगा।
उत्तर:
(ग) व्यक्ति का स्वास्थ्य एवं जीवन खतरे में हो जाएगा।

प्रश्न 4.
रक्त में से हानिकारक पदार्थों को छानकर अलग करने का कार्य करते हैं
(क) हृदय
(ख) गुर्दे
(ग) बड़ी आँत
(घ) तिल्ली।
उत्तर:
(ख) गुर्दे।

प्रश्न 5.
रुधिर की शुद्धि किस अंग में होती है
(क) श्वसन नलिका
(ख) आमाशय
(ग) फेफड़े
(घ) हृदया
उत्तर:
(ग) फेफड़े।

प्रश्न 6.
पसीना किस अंग द्वारा निकलता है
(क) हृदय
(ख) फेफड़े
(ग) त्वचा
(घ) कान।
उत्तर:
(ग) त्वचा।

प्रश्न 7.
सामान्य दशाओं में मूत्र में नहीं पाया जाता
(क) यूरिया
(ख) यूरिक अम्ल
(ग) लवण
(घ) रक्त कण।
उत्तर:
(घ) रक्त कण।

प्रश्न 8.
मूत्र की शुद्धि किस अंग में होती है
(क) आमाशय
(ख) फेफड़े
(ग) वृक्क
(घ) हृदय।
उत्तर:
(ग) वृक्का

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