UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 8 उत्सर्जन तन्त्र

UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 8 उत्सर्जन तन्त्र (Excretory System)

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UP Board Class 11 Home Science Chapter 8 विस्तृत उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उत्सर्जन एवं उत्सर्जन तन्त्र से आप क्या समझती हैं? मुख्य उत्सर्जक अंग के रूप में गुर्दो की संरचना एवं कार्य-विधि का वर्णन कीजिए।
अथवा उत्सर्जन अंग कौन-कौन से हैं? वृक्क का चित्र बनाकर उसके कार्य समझाइए।
अथवा उत्सर्जन तन्त्र से क्या तात्पर्य है? वृक्क की रचना व कार्य चित्र द्वारा स्पष्ट कीजिए।
अथवा उत्सर्जन तन्त्र से आप क्या समझती हैं? इसके विभिन्न अंगों के नाम लिखिए।वृक्क की रचना एवं कार्य नामांकित चित्र की सहायता से समझाइए।
उत्तर:
उत्सर्जन तथा उत्सर्जन तन्त्र (Excretion and Excretory System):
शरीर में विभिन्न प्रकार की उपापचयी (metabolic) क्रियाओं के फलस्वरूप ऐसे पदार्थ बनते रहते हैं, जिन्हें शरीर में एकत्र नहीं किया जा सकता है। ये पदार्थ या तो व्यर्थ होते हैं अथवा हानिकारक। अधिक मात्रा में एकत्र होने पर व्यर्थ पदार्थ भी हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं; अतः इन पदार्थों को शरीर से बाहर निकालना आवश्यक है। व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों की शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को उत्सर्जन अथवा विसर्जन (excretion) कहते हैं। शरीर के जिन अंगों के माध्यम से व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकाला जाता है, उन अंगों को उत्सर्जक अंग कहा जाता है। हमारे शरीर में विभिन्न उत्सर्जक अंग हैं। अत: हम कह सकते हैं-“उन विभिन्न अंगों की व्यवस्था को उत्सर्जन तन्त्र के रूप में जाना जाता है, जो शरीर में से व्यर्थ पदार्थों को बाहर निकालने का कार्य करते हैं।”

उत्सर्जी अंग तथा उनके कार्य (Excretory Organs and their Functions):
व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने का कार्य करने वाले शरीर के अंगों को उत्सर्जक या उत्सर्जी अंग कहा जाता है। गुर्दे या वृक्क, फेफड़े, त्वचा तथा बड़ी आँत शरीर के मुख्य उत्सर्जक अंग हैं। इनके अतिरिक्त यकृत भी अप्रत्यक्ष रूप से कुछ उत्सर्जी क्रिया करता है।

फेफड़े प्रमुखतः श्वसन क्रिया में सहायक होते हैं, किन्तु कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी दूषित गैस को बाहर निकालने के कारण उत्सर्जी अंग की भूमिका भी निभाते हैं। त्वचा से पसीना निकलता है। पसीने में अनेक उत्सर्जी पदार्थ होते हैं। अत: त्वचा सुरक्षा करने का साधन होने के साथ-साथ उत्सर्जन का कार्य भी करती है। यकृत रुधिर में से अधिक मात्रा में प्राप्त अमीनो अम्लों (amino acids) को तोड़कर अमोनिया को यूरिया, यूरिक अम्ल आदि कम हानिकारक पदार्थों में बदलता है। ये हानिकारक पदार्थ गुर्दो के माध्यम से मूत्र में घुलित अवस्था में विसर्जित होते हैं। इस स्थिति में गुर्दे या वृक्क महत्त्वपूर्ण उत्सर्जन-अंग के रूप में कार्य करते हैं। बड़ी आँत मल या विष्ठा के साथ अपच पदार्थों को तो निकालती ही है, कुछ अन्य उत्सर्जी पदार्थों को भी यह बाहर निकाल देती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गुर्दे, त्वचा, फेफड़े तथा बड़ी आँत मुख्य उत्सर्जक अंग हैं।

वृक्क की संरचना (Structure of Kidney):
बाह्य संरचना: उत्सर्जन तन्त्र का एक मुख्य अंग वृक्क या गुर्दे (kidneys) हैं। वृक्क संख्या में दो होते हैं। ये उदर गुहा में कशेरुक दण्ड (रीढ़ की हड्डी) के इधर-उधर (दाएँ व बाएँ) स्थित होते हैं। ये भूरे रंग की तथा सेम के बीज के आकार की संरचनाएँ हैं। प्रत्येक वृक्क लगभग 10 सेमी लम्बा, 6 सेमी चौड़ा तथा 2.5 सेमी मोटा होता है। बायाँ वृक्क दाएँ की अपेक्षा कुछ पीछे स्थित होता है। सामान्यतः वयस्क पुरुष के वृक्क का भार लगभग 125 ग्राम किन्तु स्त्री के वृक्क का भार 115-120 ग्राम होता है।

प्रत्येक वृक्क का बाहरी किनारा उभरा हुआ किन्तु भीतरी किनारा धंसा हुआ होता है, जिसमें से मूत्र नलिका (ureter) निकलती है। इस धंसे हुए भाग को नाभि कहते हैं। मूत्र नलिका नीचे जाकर एक पेशीय थैले में खुलती है जिसे मूत्राशय कहते हैं। मूत्र नली की लम्बाई 30 से 35 सेमी होती है।
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मनुष्य के वृक्क तथा उससे सम्बन्धित अंग। मूत्राशय श्रोणि गुहा में स्थित होता है (उदर गुहा का निचला भाग) और नीचे की ओर क्रमश: संकरा होकर मूत्र मार्ग का निर्माण करता है, जो अन्त में बाहर खुलता है।

आन्तरिक संरचना: वृक्क को बाहर से अन्दर की ओर लम्बाई में काटने से उसकी आन्तरिक संरचना देखी जा सकती है। इसके मध्य में लगभग खोखला तथा कीप के आकार का भाग होता है। यही भाग क्रमश: संकरा होकर मूत्र नलिका का निर्माण करता है। यह स्थान शीर्ष गुहा (pelvis) कहलाता है। वृक्क का शेष भाग ठोस तथा दो भागों में बँटा होता है। बाहरी, हल्के बैंगनी रंग का भाग वल्कुट या कॉर्टेक्स तथा भीतरी, गहरे रंग का भाग मेड्यूला कहलाता है।

वृक्क में असंख्य सूक्ष्म नलिकाएँ होती हैं। ये अत्यन्त कुण्डलित तथा लम्बी संरचनाएँ हैं। इन्हें वृक्क नलिकाएँ कहते हैं। प्रत्येक वृक्क नलिका के दो प्रमुख भाग होते हैं-एक प्याले के आकार का ग्रन्थिल भाग मैल्पीघियन कणिका (malpighian corpuscle) तथा दूसरा अत्यन्त कुण्डलित नलिकाकार भाग। यह नलिकाकार भाग एक स्थान पर ‘U’ के आकार में भी स्थित होता है और बाद में फिर शीर्ष गुहा कुण्डलित हो जाता है। यह नलिका एक बड़ी संग्रह । नलिका में खुलती है। प्रत्येक संग्रह नलिका एक मीनार जैसे भाग, पिरामिड में खुलती है। वृक्कों में ऐसे 10-12 पिरामिड दिखाई देते हैं जो अपने सँकरे भाग से शीर्षआन्तरिक संरचना का गुहा में खुलते हैं।
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वृक्क नलिका द्वारा मूत्र छनना : वृक्क की क्रिया-विधि (Filteration of Urine by Renal Duct : Mechanism of Kidney):
मैल्पीघियन कणिका में दो भाग होते हैं-
(i) प्याले के आकार का बोमेन सम्पुट तथा
(ii) वृक्क में आई धमनी की एक छोटी शाखा से बना केशिकाओं का जाल अर्थात् केशिकागुच्छ। केशिकागुच्छ में धमनी की जो शाखा आती है, वह इससे निकलने वाली शाखा से काफी चौड़ी होती है। इस प्रकार केशिका गुच्छ में अधिक रुधिर आता है, किन्तु निकल कम पाता है; अत: इसका प्लाज्मा केशिकाओं की पतली भित्ति से छन जाता है और सम्पुट में होकर वृक्क नलिका में आ जाता है। इस छने हुए तरल में आवश्यक तथा अनावश्यक सभी प्रकार के पदार्थ उपस्थित होते हैं। बाद में नलिका के अन्दर आगे बढ़ते हुए प्लाज्मा (तरल पदार्थ) से भोजन, लवण आदि आवश्यक पदार्थ वृक्क नलिका तथा उस पर लिपटी अनेक रुधिर केशिकाओं की भित्ति में होकर रुधिर में अवशोषित कर लिए जाते हैं; किन्तु अन्य पदार्थ, जिनमें हानिकारक उत्सर्म्य पदार्थ भी सम्मिलित हैं, अधिकांश जल के साथ वृक्क नलिका में ही रह जाते हैं। यही तरल मूत्र (urine) है। वृक्क नलिकाओं से मूत्र संग्रह नलिका, पिरामिड, शीर्ष गुहा से होता हुआ मूत्र नलिका द्वारा मूत्राशय में एकत्रित होता रहता है।
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वृक्क नलिका के ‘U’ भाग पर लिपटी हुई रुधिर केशिकाओं का निर्माण, केशिकागुच्छ से निकलने वाली धमनी की शाखा से होता है। बाद में केशिकाओं के जाल से छोटी-सी एक शिरा बन जाती है तथा वृक्क के अन्दर इस प्रकार की सभी शिराएँ मिलकर वृक्कीय शिरा (renal vein) का निर्माण करती हैं।

प्रश्न 2.
त्वचा की संरचना चित्र द्वारा समझाइए और इसके मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा त्वचा की रचना समझाइए एवं उसके मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा चित्र द्वारा त्वचा की बनावट तथा कार्य लिखिए।
उत्तर:
त्वचा की संरचना (Structure of Skin):
सम्पूर्ण शरीर के बाहरी आवरण को त्वचा कहते हैं। त्वचा की आन्तरिक रचना का अध्ययन करने के लिए जब हम त्वचा के किसी भाग की अनुदैर्घ्य काट को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र के द्वारा देखते हैं, तो ज्ञात होता है कि इसके मुख्य दो भाग होते हैं-
(1) अधिचर्म (Epidermis)
(2) चर्म (Dermis)

(1) अधिचर्म (Epidermis): यह त्वचा की मोटी और ऊपरी परत होती है। इसमें कोशिकाओं की 3 या 4 परतें होती हैं। सबसे बाहरी परत में कोशिकाएँ मृत होती हैं, जिसको सिंगी स्तर (horny layer) कहते हैं। इसके नीचे की ओर जीवित कोशिकाओं की बनी परत, मैल्पीघियन स्तर (malpighian layer) कहलाती है। इसकी कोशिकाएँ विभाजित होती रहती हैं। जब शरीर की बाहरी त्वचा का सिंगी स्तर समाप्त हो जाता है, तब उसका स्थान मैल्पीघियन स्तर की सबसे बाहरी परत लेती है। यह परत भी इसके अन्दर उपस्थित परतों से बनती है। अधिचर्म (epidermis) के बाहरी ओर कुछ बाल और नलिकाएँ होती हैं, ये दोनों ही आन्तरिक त्वचा के भाग कहलाते हैं।
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(2) चर्म (Dermis): यह परत अधिचर्म से काफी मोटी होती है। इसमें निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण भाग पाए जाते हैं

  • रोम ग्रन्थियाँ (hair glands): ये ग्रन्थियाँ सम्पूर्ण शरीर में पायी जाती हैं। इनके स्तरों में एक ऊँची जगह होती है, जिनमें रक्त केशिकाएँ पायी जाती हैं। इनके अन्दर से एक पतला बाल निकलता है, जो ऊपर की ओर बाल नली द्वारा एक छिद्र से बाहर निकलता है।
  • पसीने की ग्रन्थियाँ (sweat or sebaceous glands): रोम ग्रन्थियों के ही आस-पास कुण्डलीदार आकृति वाली ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। प्रत्येक ग्रन्थि एक लहरदार नलिका द्वारा अधिचर्म के बाहरी भाग में एक अलग छिद्र द्वारा खुलती है। इन ग्रन्थियों से शरीर में बना दूषित पदार्थ पसीने के रूप में बाहर निकलता रहता है। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इन ग्रन्थियों का विशेष महत्त्व होता है।
  • तेल ग्रन्थियाँ (oil glands): पसीने की ग्रन्थियों के कुछ ऊपर बाल नलिका के दोनों ओर अनियमित आकार की ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। इनसे एक तेल जैसा चिकना पदार्थ निकलता है, जो बालों के छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकलता रहता है।
  • नाड़ी सूत्र (nerve fibre): पिन चुभने या काँटा लगने पर इसका अनुभव तुरन्त हो जाता है। यह अनुभव नाड़ी सूत्रों के द्वारा होता है, जो त्वचा में जाल के रूप में बिछे रहते हैं।
  • रक्त केशिकाएँ (blood capillaries): चर्म भाग में शिरा और धमनियों की रक्त केशिकाएँ पायी जाती हैं। इनके द्वारा ही त्वचा के प्रत्येक भाग को रक्त मिलता है।
  • मांसपेशियाँ (muscles): शरीर के कुछ भागों में पेशियाँ पायी जाती हैं; जैसे-पेट तथा तलवे की त्वचा।
  • क्रोमेटोफोर्स (chromatophores): इनसे मनुष्य की त्वचा का रंग बनता है।
  • वसा के कण (fat granules): इन छोटे-छोटे कणों के गुच्छे चर्म की निचली सतह पर पाए जाते हैं। इनको वसा स्तर भी कहते हैं। त्वचा में पाए जाने वाले इन वसा स्तरों का मुख्य कार्य शरीर के ताप को नियमित बनाए रखना होता है।

त्वचा के कार्य (Functions of Skin):

  • सुरक्षा: त्वचा शरीर के भीतरी कोमल अंगों पर एक रक्षक आवरण बनाती है। उन्हें रगड़, धक्के या चोट से बचाती है तथा जीवाणुओं व अन्य हानिकारक जीवों को शरीर में नहीं घुसने देती है।
  • उत्सर्जन: मनुष्य व अन्य दूध देने वाले प्राणियों में त्वचा में विद्यमान पसीने की ग्रन्थियाँ (स्वेद ग्रन्थियाँ) पसीने के रूप में अनेक हानिकारक, दूषित एवं विजातीय पदार्थों का विसर्जन करती हैं। विसर्जन के इस गुण के कारण ही त्वचा को तीसरा गुर्दा भी कहा जाता है।
  • ताप नियन्त्रण: त्वचा में पाए जाने वाले वसा स्तर शरीर की गर्मी को रोकते हैं। पसीने के द्वारा भी शरीर के ताप का नियमन होता है। त्वचा से निकलने वाले पसीने के वाष्पन के लिए शरीर से गुप्त ऊष्मा ली जाती है। इससे शरीर का तापमान सामान्य बना रहता है तथा शरीर को वातावरण की
  • गर्मी परेशान नहीं करती।
  • संवेदनशीलता: त्वचा में तन्त्रिकाओं के सूत्र समाप्त होते हैं, इसलिए यह स्पर्श, दबाव, सर्दी, गर्मी, पीड़ा इत्यादि का अनुभव कराती है।
  • पोषण: मादा स्तनधारी प्राणियों की त्वचा में दूध की ग्रन्थियाँ मिलती हैं। इनसे उत्पन्न दूध शिशुओं के पोषण का सर्वोत्तम साधन है।
  • सौन्दर्य: आन्तरिक अंगों और पेशियों पर चढ़ा त्वचा का आवरण शरीर को सुन्दरता प्रदान करता है। त्वचा में एकत्र वसा भी इस कार्य में अंगों को सुडौल बनाने में सहायक होती है। यदि शरीर की त्वचा को उतार दिया जाए तो शरीर भयानक एवं कुरूप दिखाई देगा।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 8 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उत्सर्जन तन्त्र के महत्त्व का उल्लेख कीजिए। अथवा उत्सर्जन तन्त्र की शरीर में क्या उपयोगिता है?
उत्तर:
उत्सर्जन तन्त्र के महत्त्व शारीरिक स्वास्थ्य एवं सुचारु क्रियाशीलता के लिए उत्सर्जन तन्त्र का विशेष महत्त्व है। उत्सर्जन तन्त्र के विभिन्न अंग शरीर में उत्पन्न होने वाले सभी व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर विसर्जित करने का अति महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य कार्य करते हैं। शारीरिक आवश्यकताओं के लिए निरन्तर आहार, जल तथा वायु ग्रहण किए जाते हैं। ये पदार्थ जहाँ एक ओर पोषण के लिए तथा शरीर की क्रियाशीलता के लिए आवश्यक होते हैं, वहीं दूसरी ओर इनके पाचन आदि के उपरान्त शरीर में कुछ व्यर्थ एवं विजातीय तत्त्व भी उत्पन्न होते हैं। ये व्यर्थ पदार्थ गैसीय, द्रव, ठोस एवं अर्द्ध-ठोस अवस्था में पाए जाते हैं।

ये व्यर्थ पदार्थ न केवल व्यर्थ एवं विजातीय ही होते हैं बल्कि ये शरीर के लिए हानिकारक तथा विषैले भी होते हैं; अतः इन पदार्थों का शरीर से शीघ्र बाहर निकलना अति आवश्यक होता है। इन व्यर्थ पदार्थों के नियमित विसर्जन की स्थिति में हमारा शरीर स्वस्थ तथा नीरोग बना रहता है। यदि इन विजातीय तत्त्वों का समुचित विसर्जन रुक जाए तो निश्चित रूप से शरीर विकार-युक्त हो जाता है। इसीलिए उत्सर्जन तन्त्र का शरीर में विशेष महत्त्व है। वास्तव में उत्सर्जन तन्त्र शरीर की आन्तरिक सफाई की व्यवस्था को बनाए रखता है।

प्रश्न 2:.
वृक्क के चार प्रमुख कार्य लिखिए।
उत्तर:
वृक्क के चार प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं

  • उत्सर्जन (excretion): वृक्क मूत्र के रूप में नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालता है।
  • जल सन्तुलन (water balance): शरीर की विभिन्न क्रियाओं को सुचारु रूप में चलाने के लिए हम अत्यधिक मात्रा में जल पीते हैं। वृक्क मूत्र के रूप में जल की अतिरिक्त मात्रा को शरीर से बाहर निकालकर शरीर में जल का सन्तुलन बनाए रखते हैं।
  • लवण सन्तुलन (salt balance): मूत्र के साथ रुधिर में प्राप्त अतिरिक्त व व्यर्थ लवणों को वृक्क शरीर से बाहर निकालते हैं।
  • भ्रूणावस्था में वृक्क लाल रुधिर कणिकाओं का निर्माण करते हैं।

प्रश्न 3.
यकृत के प्रमुख उत्सर्जी कार्यों को बताइए।
उत्तर:
यकृत की उत्सर्जन में भूमिका यकृत की उत्सर्जन क्रिया में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यकृत के उत्सर्जन सम्बन्धी कुछ विशेष कार्य निम्नलिखित हैं
1. पित्त रस का स्राव करता है: यकृत शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि है, जो एक विशेष प्रकार का क्षारीय द्रव बनाती है, जिसे पित्त रस कहते हैं। पित्त रस यद्यपि भोजन के पाचन आदि में सहायता करता है, तथापि इसके द्वारा उत्सर्जन का कार्य भी किया जाता है। पित्त वर्णक; लवण आदि उत्सर्जी पदार्थों को यकृत से लेकर आहार नाल में पहुँचा देता है। यहाँ से ये पदार्थ मल के साथ शरीर से बाहर कर दिए जाते हैं।

2. अतिरिक्त ऐमीनो अम्लों को यूरिया, यूरिक अम्ल आदि में बदलता है: यकृत ही अतिरिक्त ऐमीनो अम्लों को निम्नलिखित प्रक्रिया द्वारा यूरिया में बदलता है

(क) डीएमीनेशन: अतिरिक्त ऐमीनो अम्लों को यकृत कोशिकाओं में ऑक्सीजन की उपस्थिति में तोड़ा जाता है। इस क्रिया में अमोनिया बनती है। इसमें पाइरुविक अम्ल भी बनता है जो श्वसन के काम में आ जाता है।

(ख) यूरिया का निर्माण: अमोनिया एक हानिकारक गैस है। इसको यकृत कोशिकाएँ ही कार्बन डाइ-ऑक्साइड के साथ मिलाकर यूरिया (urea) का निर्माण करती हैं। इस कार्य के लिए अनेक जैव-रासायनिक क्रियाएँ होती हैं। ये सब क्रियाएँ एक चक्र के रूप में होती हैं।

प्रश्न 4.
एक रोगी मनुष्य के यकृत ने कार्य करना बन्द कर दिया है। उस मनुष्य पर इसका क्या प्रभाव होगा?
उत्तर:
यकृत का कार्य करना बन्द कर देना
मनुष्य का यकृत सभी कशेरुकीय प्राणियों की तरह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थि है। यह ग्रन्थि यदि किसी मनुष्य में कार्य करना बन्द कर दे तो वह मनुष्य अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकेगा क्योंकि इसके निम्नलिखित दुष्प्रभाव होते हैं-

  1. यकृत के द्वारा सम्पादित उत्सर्जी कार्यों में बाधा पड़ जाएगी, जिसके कारण शरीर में हानिकारक पदार्थ एकत्रित हो जाएँगे।
  2. शरीर में टूटी-फूटी कोशिकाएँ; जैसे मृत रुधिर कोशिकाएँ एकत्रित हो जाएँगी, जो इन पदार्थों या अंगों को कार्य नहीं करने देंगी। इससे श्वसन क्रिया पर प्रभाव पड़ेगा।
  3. रोगी के शरीर का ताप नियन्त्रित नहीं रहेगा।
  4. रोगी का पाचन बिल्कुल बन्द.हो जाएगा क्योंकि यकृत पाचन के लिए पित्त बनाकर क्षारीय माध्यम बनाता है।

प्रश्न 5.
मूत्र क्या है? यह कहाँ एकत्रित रहता है? मूत्र त्याग करने से शरीर को क्या लाभ होते हैं?
उत्तर:
मूत्र तथा मूत्र त्याग मत्र हल्के पीले रंग का जल-जैसा तरल पदार्थ है, जिसमें अधिकतर भाग जल (लगभग 96%) तथा अन्य उत्सर्जी पदार्थ; प्रमुखत: यूरिया (urea), यूरिक अम्ल (uric acid) आदि कार्बनिक पदार्थ (लगभग 2%) होते हैं। शेष पदार्थों में लवण (लगभग 1.5%) होते हैं।

साधारण अवस्था में, एक स्वस्थ मनुष्य प्रतिदिन लगभग 1.5 से 2 : 0 लीटर मूत्र त्याग करता है। मूत्र वृक्क नलिकाओं से बनकर हर समय बूंद-बूंद मूत्राशय में आता रहता है। मूत्रमार्ग के निरन्तर बन्द रहने के कारण मूत्र इसी में एकत्रित होता रहता है। इसके द्वार पर वर्तुल पेशियाँ (circular muscles) होती हैं, जो फैलने पर ही मूत्र को बाहर जाने देती हैं। मूत्राशय में मूत्र की पर्याप्त मात्रा (लगभग 200-250 मिली) एकत्र हो जाने पर मूत्र त्याग की इच्छा अनुभव होने लगती है तथा मूत्र त्याग कर दिया जाता है। इस प्रकार मूत्र त्याग करने से मूत्र के माध्यम से शरीर के अनेक व्यर्थ एवं विषैले पदार्थ शरीर से विसर्जित हो जाते हैं।

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प्रश्न 1.
उत्सर्जन तन्त्र से क्या आशय है?
उत्तर:
शरीर के उन विभिन्न अंगों की व्यवस्था को उत्सर्जन तन्त्र के रूप में जाना जाता है जो शरीर से व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालने का कार्य करते हैं।

प्रश्न 2.
हमारे शरीर के मुख्य उत्सर्जक अंग कौन-कौन से हैं? अथवा मलोत्सर्जन संस्थान ( उत्सर्जन तन्त्र) के विभिन्न अंगों के नाम लिखिए।
उत्तर:
हमारे शरीर के मुख्य उत्सर्जक अंग हैं-गुर्दे या वृक्क, फेफड़े, त्वचा, बड़ी आँत तथा यकृत।

प्रश्न 3.
किसी भी उत्सर्जक अंग के कार्य न करने की स्थिति में क्या होता है?
उत्तर:
किसी भी उत्सर्जक अंग के कार्य न करने की स्थिति में शरीर में व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती है तथा इससे स्वास्थ्य एवं जीवन को खतरा उत्पन्न हो जाता है।

प्रश्न 4.
फेफड़े मुख्य रूप से किस हानिकारक गैस का उत्सर्जन करते हैं?
उत्तर:
फेफड़े मुख्य रूप से कार्बन डाइ-ऑक्साइड नामक हानिकारक गैस का उत्सर्जन करते हैं।

प्रश्न 5.
त्वचा किस रूप में व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों का उत्सर्जन करती है?
उत्तर:
त्वचा पसीने के रूप में व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों का उत्सर्जन करती है।

प्रश्न 6.
स्वेद ग्रन्थियों की स्थिति और कार्य लिखिए।
उत्तर:
हमारे शरीर में त्वचा के चर्म (Dermis) भाग में स्वेद ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। स्वेद ग्रन्थियों का मुख्य कार्य शरीर में से दूषित पदार्थों को पसीने के माध्यम से बाहर निकालना है।

प्रश्न 7.
उत्सर्जन कार्यों को ध्यान में रखते हुए त्वचा को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
उत्सर्जन कार्यों को ध्यान में रखते हुए त्वचा को तीसरा गुर्दा कहा जाता है।

प्रश्न 8.
गुर्दे शरीर के हानिकारक पदार्थों को किस माध्यम से शरीर से विसर्जित करते हैं?
उत्तर:
गुर्दे मूत्र के माध्यम से हानिकारक पदार्थों को शरीर से विसर्जित करते हैं।

प्रश्न 9.
मूत्र के माध्यम से मुख्य रूप से किन दूषित पदार्थों का विसर्जन किया जाता है?
उत्तर:
मूत्र के माध्यम से मुख्य रूप से यूरिया, यूरिक अम्ल तथा कुछ लवण विसर्जित किए जाते हैं।

प्रश्न10.
स्वस्थ व्यक्ति के मूत्र में किन पदार्थों का अभाव होना चाहिए?
उत्तर:
स्वस्थ व्यक्ति के मूत्र में ग्लूकोज, ऐल्बुमिन, पीव-कोशिकाएँ तथा लाल रक्त कण नहीं होने चाहिए।

प्रश्न 11.
गर्मी के मौसम में मूत्र की मात्रा कम क्यों हो जाती है?
उत्तर:
गर्मी के मौसम में शरीर के तापक्रम को नियमित रखने के लिए त्वचा से पसीने की अधिक मात्रा विसर्जित होने लगती है। इस स्थिति में शरीर की अतिरिक्त जल की मात्रा पसीने के माध्यम से निकल जाने के कारण मूत्र की मात्रा घट जाती है।

प्रश्न 12.
बड़ी आँत किस रूप में हानिकारक पदार्थों का शरीर से विसर्जन करती है?
उत्तर:
बड़ी आँत मल के रूप में हानिकारक पदार्थों का शरीर से विसर्जन करती है।

प्रश्न 13.
मल क्या होता है?
उत्तर:
ग्रहण किए गए भोजन का व्यर्थ तथा बिना पचा दूषित भाग मल होता है।

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निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए

प्रश्न 1.
शरीर में बनने वाले व्यर्थ एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने वाले अंगों की व्यवस्था को कहते हैं
(क) गुर्दे एवं मूत्र प्रणाली
(ख) बड़ी आँत
(ग) पाचन तन्त्र
(घ) उत्सर्जन अथवा विसर्जन तन्त्र।
उत्तर:
(घ) उत्सर्जन अथवा विसर्जन तन्त्र

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा अंग उत्सर्जक अंग नहीं है
(क) गुर्दे (ख) त्वचा
(ग) हृदय/आमाशय
(घ) बड़ी आँत।
उत्तर:
(ग) हृदय/आमाशय।

प्रश्न 3.
उत्सर्जन तन्त्र द्वारा कार्य करना बन्द कर देने पर क्या होगा
(क) शरीर अत्यधिक मोटा हो जाएगा
(ख) व्यक्ति अधिक शक्तिशाली हो जाएगा
(ग) व्यक्ति का स्वास्थ्य एवं जीवन खतरे में हो जाएगा
(घ) कोई प्रभाव नहीं होगा।
उत्तर:
(ग) व्यक्ति का स्वास्थ्य एवं जीवन खतरे में हो जाएगा।

प्रश्न 4.
रक्त में से हानिकारक पदार्थों को छानकर अलग करने का कार्य करते हैं
(क) हृदय
(ख) गुर्दे
(ग) बड़ी आँत
(घ) तिल्ली।
उत्तर:
(ख) गुर्दे।

प्रश्न 5.
रुधिर की शुद्धि किस अंग में होती है
(क) श्वसन नलिका
(ख) आमाशय
(ग) फेफड़े
(घ) हृदया
उत्तर:
(ग) फेफड़े।

प्रश्न 6.
पसीना किस अंग द्वारा निकलता है
(क) हृदय
(ख) फेफड़े
(ग) त्वचा
(घ) कान।
उत्तर:
(ग) त्वचा।

प्रश्न 7.
सामान्य दशाओं में मूत्र में नहीं पाया जाता
(क) यूरिया
(ख) यूरिक अम्ल
(ग) लवण
(घ) रक्त कण।
उत्तर:
(घ) रक्त कण।

प्रश्न 8.
मूत्र की शुद्धि किस अंग में होती है
(क) आमाशय
(ख) फेफड़े
(ग) वृक्क
(घ) हृदय।
उत्तर:
(ग) वृक्का

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UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 12 जल तथा खाद्य पदार्थ आपूर्ति

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प्रश्न 1.
जल प्राप्ति के प्राकृतिक स्रोतों को बताइए। गाँवों में इन स्रोतों का किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है?
अथवा
जल क्या है? गाँव में जल प्राप्ति के प्रमुख साधनों को समझाइए।
अथवा
जल का संघटन बताइए। जल प्राप्ति के स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
जल से आशय (Meaning of Water) –
जल हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का एक यौगिक है। इसमें दो भाग हाइड्रोजन और एक भाग ऑक्सीजन है। इसका रासायनिक सूत्र H2O है। यही शुद्ध जल होता है। सामान्यत: जल में कई प्रकार के लवण घुले रहते हैं जिसके कारण यह अशुद्ध हो जाता है। जल एक महत्त्वपूर्ण विलायक होने के कारण अनेक पदार्थों (जैसे अनेक तत्त्वों के लवण इत्यादि) को अपने अन्दर घोल लेता है।

जल प्राप्ति के स्रोत (Sources of Water) –
वर्षा ही जल प्राप्ति का प्रमुख स्रोत है। समुद्र और झीलों का जल, वाष्प बनकर वायुमण्डल में पहुँचता है। वायुमण्डल में यह ठण्डा होकर बादलों का रूप ले लेता है और वर्षा के रूप में भूमि पर गिरता है।

वर्षा के जल का कुछ भाग पृथ्वी पर बहता है जबकि उसका काफी भाग मिट्टी से होकर भूमि के अन्दर चला जाता है। यह भूमि के अन्दर उपस्थित कच्ची या पक्की चट्टानों के ऊपर एकत्र होता रहता है। इस प्रकार जल स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जाता है – (1) पृष्ठ स्रोत तथा (2) भूमिगत स्रोत। इनका विवरण निम्नवत् है –

1. पृष्ठ स्रोत (Surface water) –
जैसा उपर्युक्त विवरण में बताया गया है, जल के सभी स्रोत वर्षा के जल से ही बनते हैं, इनका हम निम्नलिखित प्रकार से अध्ययन करते हैं –

(क) वर्षा का जल–अनेक स्थानों पर वर्षा के जल को जलरोधी कुण्डों में एकत्र कर लिया जाता है, वैसे भी गड्डे इत्यादि में यह जल एकत्र हो जाता है। यह जल पीने आदि के लिए उपयोगी नहीं होता है, फिर भी यदि जलकुण्ड साफ-सुथरे हों, तो सामान्य क्रिया द्वारा इसे पीने योग्य बनाया जा सकता है।

(ख) जलधाराएँ-पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षा का जल, जलधाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। प्रारम्भिक रूप में जल शुद्ध होता है किन्तु मिट्टी इत्यादि मिल जाने के कारण इसमें अनेक अशुद्धियाँ व्याप्त हो जाती हैं।

(ग) नदियाँ-बर्फ के पिघलने तथा जलधाराओं आदि के मिलने से नदियाँ बनती हैं। इनके जल में अनेक प्रकार की अशुद्धियाँ हो सकती हैं जो धरातलीय स्रोत अथवा रास्ते में मिलती रहती हैं।

(घ) झीलें-वर्षा और बर्फ के पिघले जल से पहाड़ी क्षेत्रों में झीलें बन जाती हैं। सामान्यतः झीलों का तल जलरोधी होता है। कई बार झीलों में अन्य स्रोत भी मिल जाते हैं। कभी-कभी झरने इत्यादि भी झीलों को भरने में सम्मिलित होते हैं। यह जल भी अनेक कारणों से अशुद्ध होता है।

(ङ) समुद्र-पृथ्वी के सम्पूर्ण तल से बहकर आने वाला जल समुद्र में एकत्रित हो जाता है। यह जल अत्यन्त अशुद्ध एवं खारा होता है। यह न तो पीने योग्य होता है और न ही कृषि-कार्यों के लिए उपयोगी होता है।

(च) परिबद्ध जलाशय-यह एक कृत्रिम झील होती है जो जलधाराओं को रोककर बनाई जाती है। इसको कृत्रिम जलाशय भी कहा जा सकता है। जल की कमी के समय में इनका जल किसी अच्छी विधि द्वारा शुद्ध करके उपयोग में लाया जा सकता है।

2. भूमिगत स्रोत (Ground water) –
वर्षा का जल भूमि के अन्दर धीरे-धीरे समाता रहता है तथा भीतरी भागों में पहुँचकर पक्के स्थानों में, कंकरीली या चट्टानी परतों के ऊपर जमा हो जाता है। इस प्रकार का जल कभी-कभी अपने आप स्रोत के रूप में निकल आता है अन्यथा कृत्रिम विधियों द्वारा इसे बाहर निकाला जाता है। प्रमुख भूमिगत स्रोत – (क) झरने, (ख) कुएँ, (ग) ट्यूबवैल होते हैं।

(क) झरने – यह भूमि द्वारा अवशोषित जल ही है जो किसी स्थान पर जल-स्तर के खुल जाने से बाहर निकल आता है। इसी को झरना (spring) कहते हैं। इसमें भी अनेक पदार्थ घुले हुए हो सकते हैं। विभिन्न स्थानों पर पाए जाने वाले झरनों के पानी के गुण भिन्न-भिन्न होते हैं।

(ख) कुएँ-यह भूमि द्वारा अवशोषित जल है जो किसी चट्टान पर जाकर रुक जाता है। इसमें भी अनेक विलेय अशुद्धियाँ होती हैं। इसे भूमि को खोदकर निकाला जाता है। कुछ कुएँ उथले होते हैं जो ऊपरी जलधारी स्तर तक ही बनाए जाते हैं। अन्य अधिक नीचे तथा अधिक पक्के जलधारी स्तर तक खोदे जाते हैं। यह जल अच्छा तथा पीने योग्य होता है। कुएँ से रहट, घिरौं या शक्तिचालित पम्प द्वारा जल निकालने की व्यवस्था होती है।

(ग) ट्यूबवैल-भूमिगत जल को प्राप्त करने के लिए ट्यूबवैल भी बनाए जाते हैं। ये अत्यधिक गहरे होते हैं तथा इनसे जल प्राप्त करने के लिए विद्युत-चालित पम्प इस्तेमाल किए जाते हैं। इनकी गहराई 100 मीटर तक भी हो सकती है।

गाँवों में परिस्थितियों के अनुसार नदियों, झीलों तथा वर्षा के जल को उपयोग में लाया जाता है। इसके अतिरिक्त भूमिगत जल को भी कुओं. ट्यूबवैल अथवा हैंडपम्प के माध्यम से प्राप्त कर लिया जाता है। इन स्रोतों से प्राप्त जल को सामान्य रूप से किसी घरेलू विधि द्वारा शुद्ध करके ही पीने के काम में लाना चाहिए।

प्रश्न 2.
नगरों में किस प्रकार से पेयजल तैयार किया जाता है?
अथवा
जल को पीने योग्य बनाने की बड़े शहरों में जो व्यवस्था होती है, उसका क्रमवार वर्णन कीजिए।
उत्तरः
नगरों में पेयजल आपूर्ति तथा जल शोधन (Supply of Drinking Water and Purification of Water in Cities) –
नगरों में प्राय: नदियों के जल को जल आपूर्ति के लिए प्रयोग में लाया जाता है। यह जल वर्षा का तथा प्राकृतिक होता है। प्राकृतिक जल में अनेक अवांछित एवं हानिप्रद अशुद्धियाँ होती हैं जिन्हें दूर करने के लिए जल का शोधन होता है। इसमें नदी का जल विभिन्न हौजों; जैसे-स्कन्दन हौज, तलछटी हौज, निस्यन्दन हौज और क्लोरीनीकरण हौज से होकर निकाला जाता है। जब इन हौजों में होकर पानी निकलता है तो इसकी अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं तथा जल पीने योग्य हो जाता है। इसके लिए एक निश्चित विधि निश्चित चरणों में अपनाई जाती है –

1. स्कन्दन हौज (Coagulation tank) – जल को पहले इसी हौज में भेजा जाता है। पानी की अशुद्धियों को दूर करने के लिए स्कन्दन पदार्थ जैसे लोहा और ऐलुमिनियम के लवण प्रयोग में आते हैं।
2. तलछटी हौज (Setling tank) – स्कन्दित जल को निस्तारण हेतु इस हौज में भेजा जाता है जहाँ जल स्थिर रहता है और अशुद्धियाँ हौज की तली में नीचे बैठ जाती हैं।
3. निस्यन्दन हौज (Filtration tank) – जल को छानने के लिए बड़े आयताकार टैंकों में बजरी, कंकड़, मोटी रेत, महीन रेत तथा चारकोल से निर्मित फिल्टर बेड्स (Filter Beds) बनाए जाते हैं।
4. वातन तथा क्लोरीनीकरण (Ventilation and Chlorination) – आवश्यकता पड़ने पर जल का क्लोरीनीकरण तथा वातन किया जाता है।
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 12 जल तथा खाद्य पदार्थ आपूर्ति 1

उपर्युक्त सभी टैंकों से निकालने पर जल की विभिन्न अशुद्धियों और जीवाणुओं का निराकरण हो जाता है। किन्तु जल में अब भी कुछ रोगाणु शेष रह जाते हैं। इन्हें नष्ट करने के लिए द्रव क्लोरीन, ब्लीचिंग पाउडर या ओजोन आदि को निश्चित मात्रा में मिलाया जाता है। ये पदार्थ रोगाणुओं को पूर्णत: नष्ट कर देते हैं।

वातन के लिए जल को फव्वारे के रूप में निकालते हैं। इस प्रकार, जल में वायु के मिलने से इसकी गन्ध इत्यादि दूर हो जाती है तथा कीटाणु आदि को नष्ट करने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 3.
शुद्ध जल से क्या तात्पर्य है? जल में किस प्रकार की अशुद्धियाँ हो सकती हैं? दूषित जल को शुद्ध करने की विधियाँ बताइए।
अथवा
जल किन कारणों से अशुद्ध होता है? दूषित जल को शुद्ध करने की विधियाँ लिखिए।
उत्तरः
शुद्ध जल (Pure Water) –
शुद्ध जल स्वादहीन, गन्धहीन तथा रंगहीन द्रव होता है। यह स्वच्छ एवं पूर्ण रूप से पारदर्शी होता है। इसमें एक प्रकार की प्राकृतिक चमक होती है। जल एक सार्वभौमिक तथा उत्तम विलायक है, इसलिए इसके अशुद्ध होने की अत्यधिक सम्भावना रहती है। यह अनेक वस्तुओं को बिना घुली अवस्था में भी रोके रखता है।

जल की अशुद्धियाँ (Impurities of Water) –
जल में दो प्रकार की अशुद्धियाँ मिलती हैं –

  1. विलेय (घुलित) अशुद्धियाँ तथा
  2. अविलेय (अघुलित) अशुद्धियाँ।

1. विलेय अशुद्धियाँ (Soluble impurities) – जल अनेक पदार्थों के सम्पर्क में आने पर उन्हें घोल लेता है। सामान्य अवस्था में जो जल हम पीते हैं उसमें भी अनेक रासायनिक पदार्थ, विशेषकर लवण आदि थोड़ी मात्रा में घुले रहते हैं। इनकी अधिक मात्रा होने पर ये हानिकारक हो जाते हैं। ये अशुद्धियाँ निम्नलिखित प्रकार की हो सकती हैं –

  • लवण-अनेक तत्त्वों के लवण जल में घुल जाते हैं और जल को दूषित कर देते हैं। कुछ लवण जल को कठोर बना देते हैं। इनमें कैल्सियम तथा मैग्नीशियम के बाइकार्बोनेट, सल्फेट तथा क्लोराइड्स इत्यादि प्रमुख हैं।
  • सड़े हुए जैविक पदार्थ-अनेक जैविक पदार्थों के मृत भाग जल में घुल जाते हैं तथा उनसे प्राप्त लवण इसी में घुले रहते हैं। इनमें नाइट्राइट्स, नाइट्रेट्स व अमोनिया इत्यादि के लवण हो सकते हैं।
  • गैसें-अनेक गैसें जल में घुलनशील हैं। उदाहरणार्थ-हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन डाइऑक्साइड, अमोनिया आदि जल में घुलकर उसे दूषित कर देती हैं।

2. अविलेय अशुद्धियाँ (Insoluble impurities) – अशुद्ध जल में कुछ ऐसी अशुद्धियाँ भी पायी जाती हैं जो जल में घुलती नहीं परन्तु इनका जल में अस्तित्व ही जल को दूषित एवं हानिकारक बना देता है। इस प्रकार की मुख्य अशुद्धियाँ निम्नलिखित हैं –

  • धूल-मिट्टी के कण एवं विभिन्न प्रकार का कूड़ा-करकट; उदाहरणार्थ–पत्ते, घास, तिनके आदि।
  • विभिन्न रोगों के कीटाणु व बीजाणु। पानी में मुख्य रूप से हैजा, पेचिश, मोतीझरा आदि रोगों के कीटाणु विद्यमान हो सकते हैं।
  • विभिन्न कीटाणुओं के अण्डे तथा छोटे बच्चे।
  • विभिन्न पशुओं द्वारा उत्पन्न गन्दगी; जैसे-मल-मूत्र आदि।

उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि जल अनेक प्रकार से प्रदूषित हो सकता है। वास्तव में, किसी भी प्रकार से जल में किसी अशुद्धि के समावेश से जल प्रदूषित हो जाता है।

दूषित जल को शुद्ध करने की विधियाँ (Methods of Purification of Contaminated Water) –
अशुद्ध जल को शुद्ध करने के लिए तीन प्रकार की विधियाँ अपनाई जाती हैं –
(क) भौतिक विधि
(ख) यान्त्रिक विधि तथा
(ग) रासायनिक विधि।

(क) भौतिक विधि (Physical method) –
अशुद्ध जल को भौतिक विधि द्वारा निम्नलिखित तीन प्रकार से शुद्ध किया जा सकता है –

1. उबालकर (By boiling) – अशुद्ध जल को शुद्ध करने के लिए यह सर्वोत्तम उपाय है। जल को उबालने से उसमें घुलित या अघुलित अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं। विभिन्न प्रकार के कीटाणु, जीवाणु या रोगाणु इत्यादि मर जाते हैं। अधिक मात्रा में घुले हुए लवण अलग होकर नीचे बैठ जाते हैं। विभिन्न प्रकार की घुली हुई गैसें उबालने से निकल जाती हैं। इस प्रकार अशुद्ध जल को उबालने से उसकी अधिकांश अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं तथा जल पीने योग्य हो जाता है। घरेलू स्तर पर पीने के लिए जल को शुद्ध करने के लिए यह विधि सर्वोत्तम है।

2. आसवन द्वारा (By distillation) – आसवन की विधि के अन्तर्गत अशुद्ध जल को भाप में परिवर्तित कर लिया जाता है। इसके बाद जलवाष्प को ठण्डा कर पुन: जल में बदल दिया जाता है। इस क्रिया के लिए एक वाष्पीकरण उपकरण प्रयोग में लाया जाता है जिसका एक भाग भाप बनाने का तथा दूसरा भाग भाप को ठण्डा करने का कार्य करता है।

आसवन से प्राप्त जल आसुत जल कहलाता है। इसमें किसी प्रकार की घुलित या अघुलित अशुद्धियाँ नहीं रह जाती हैं। यह सर्वथा शुद्ध जल है किन्तु सामान्य अवस्था में इस जल का पीने के जल के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि आवश्यक लवण इस जल में उपस्थित नहीं रहते हैं। आसुत जल को दवाइयों आदि के लिए तथा इंजेक्शन को घोलने के उपयोग में लाया जाता है। आसवन विधि द्वारा केवल सीमित मात्रा में ही जल को शुद्ध किया जा सकता है।

3. पराबैंगनी किरणों द्वारा (By Ultraviolet rays) – प्रकाश में उपस्थित पराबैंगनी किरणें (Ultraviolet rays) जल को शुद्ध कर देती हैं। ये किरणें जल में उपस्थित रोगाणुओं को भी नष्ट कर देती हैं। बड़े पैमाने पर इस प्रकार की किरणों को यन्त्रों द्वारा बनाकर उपयोग में लाया जा सकता है।

(ख) यान्त्रिक विधि (Mechanical method) –
अशुद्ध जल को शुद्ध करने के लिए अनेक यान्त्रिक साधन भी अपनाए जा सकते हैं जिसमें विभिन्न प्रकार से छानना, निथारना आदि सम्मिलित हैं। पहली विधि में केवल मोटी अघुलित अशुद्धियों को दूर किया जा सकता है। दूसरी विधि में सभी अघुलित अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं परन्तु इसमें घुलित अशुद्धियों को दूर नहीं कर सकते हैं। विभिन्न परिमाप के कणों (पदार्थों) का उपयोग करके कुछ सीमा तक जल को शुद्ध किया जा सकता है। चार घड़ों द्वारा जल को शुद्ध करने की विधि का प्राचीनकाल से भारत में प्रचलन रहा है। इसके अतिरिक्त, अब विभिन्न प्रकार के वाटर फिल्टर उपलब्ध हैं जो पानी को सूक्ष्मता से छानते हैं तथा शुद्ध जल उपलब्ध हो जाता है। कुछ विद्युत-चालित उपकरण भी जल को शुद्ध करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। एक्वागार्ड इसी प्रकार का एक लोकप्रिय उपकरण है।

(ग) रासायनिक विधि (Chemical method) –
जल में घुलित या अघुलित अशुद्धियों को नष्ट करने के लिए कुछ रासायनिक पदार्थों का प्रयोग भी किया जाता है। ये रासायनिक पदार्थ दो प्रकार से क्रिया करते हैं। पहली क्रिया में ये अघुलित या घुलित अशुद्धियों को अवक्षेपण द्वारा अलग कर देते हैं जिसको छानकर अलग किया जा सकता है, जबकि दूसरी विधि, जल में उपस्थित रोगाणुओं को नष्ट करने के लिए होती है।

1. अवक्षेपण विधि (Dispersal method) – कुछ पदार्थ जल में उपस्थित अशुद्धियों को अलग कर उनके साथ तल में नीचे बैठ जाते हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण पदार्थ फिटकरी है। थोड़ी-सी फिटकरी जल के अविलेय तथा विलेय पदार्थों को अवक्षेपित कर जल को शुद्ध करके तल में बैठ जाती है। यद्यपि यह कुछ सीमा तक कीटाणुनाशक भी है किन्तु इसका अधिक प्रभाव नहीं होता। इससे कठोर जल भी मृदु हो जाता है। अवक्षेपण के लिए उपयोगी निर्मली नामक फल का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है।

2. कीटाणुनाशक पदार्थ (Germicidic substances) – अशुद्ध जल में रहने वाले विभिन्न रोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए अनेक रासायनिक पदार्थ प्रयोग किए जाते हैं। इनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं –

(क) लाल दवा – जल को शुद्ध करने के लिए यह उत्तम पदार्थ है। इसका रासायनिक नाम पोटैशियम परमैंगनेट है। इसके प्रयोग से अधिकांश कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। गाँवों में तालाब, कुओं तथा एकत्रित जल में इस दवा का प्रयोग किया जाता है। इसकी थोड़ी-सी मात्रा जल में घोलकर उस जल में डाली जाती है जिसमें कीटाणु उपस्थित होते हैं। इस दवा के प्रभाव से जल में विद्यमान कीटाणु नष्ट हो जाते हैं व जल शुद्ध हो जाता है।

(ख) कॉपर सल्फेट (तूतिया) – यह अत्यन्त अल्पमात्रा में प्रयुक्त किए जाने पर अशुद्ध जल को कीटाणुरहित कर सकता है। इसका रासायनिक नाम कॉपर सल्फेट है। घरेलू रूप में इसका प्रयोग इसलिए वर्जित है क्योंकि थोड़ी भी अधिक मात्रा में यह हानिकारक सिद्ध हो सकता है।

(ग) ब्लीचिंग पाउडर – ब्लीचिंग पाउडर की बहुत कम मात्रा ही जल को कीटाणुरहित कर सकती है। 2.5 किग्रा ब्लीचिंग पाउडर एक लाख गैलन पानी को रोगाणु-मुक्त कर देता है।

(घ) क्लोरीन – यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कीटाणुनाशक गैस है। सभी बड़े नगरों में जल-आपूर्ति की संस्था होती है जिसके द्वारा क्लोरीन गैस का प्रयोग कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए किया जाता है।

पर्वोक्त रासायनिक पदार्थों के अतिरिक्त आयोडीन, ओजोन आदि गैसें भी जल को कीटाणुरहित कर सकती हैं, यद्यपि इनका प्रयोग प्रचलित नहीं है। ऑक्सीजन गैस स्वयं भी बहुत-सी अशुद्धियों का ऑक्सीकरण कर देती है।

प्रश्न 4.
खाद्य-पदार्थों के संग्रह से क्या आशय है? घर पर खाद्य-पदार्थों के उचित संग्रह की व्यवस्था का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
आहार के लिए विभिन्न प्रकार के खाद्य-पदार्थों की निरन्तर आवश्यकता होती है। आहार की नियमित आपूर्ति के लिए घर पर विभिन्न खाद्य-सामग्रियों को संगृहीत करके रखना आवश्यक होता है। बाजार से लाई गई खाद्य-सामग्री को घर में सँभालकर सुरक्षित ढंग से रखना आहार-संग्रह कहलाता है। आहार-संग्रह व्यवस्थित ढंग से तथा खाद्य-सामग्री की प्रकृति के अनुरूप होना चाहिए। घर पर आहार-संग्रह की उचित व्यवस्था को आवश्यक एवं लाभकारी माना जाता है।

इससे रसोईघर के कार्य अर्थात् भोजन तैयार करने में विशेष सुविधा होती है, समय एवं श्रम की बचत होती है तथा आर्थिक लाभ भी होता है। उचित संग्रह से खाद्य-सामग्री नष्ट होने से बची रहती है। उचित संग्रह की समुचित जानकारी होने की दशा में अनाज आदि फसल के अवसर पर एक साथ वर्ष भर की आवश्यकतानुसार ले लिए जाते हैं। इस अवसर पर भाव कम होते हैं जिससे धन की बचत हो जाती है। इसी प्रकार प्याज, आलू, अदरक, लहसुन आदि खाद्य-सामग्रियों को भी एक साथ थोक के भाव खरीदने से आर्थिक लाभ होता है।

खाद्य-सामग्री के संग्रह की विधियाँ (Methods of Food Storage) –
भिन्न-भिन्न प्रकृति वाली खाद्य-सामग्रियों के संग्रह के लिए भिन्न-भिन्न उपाय एवं विधियाँ अपनाई जाती हैं। आहार-संग्रह के दृष्टिकोण से खाद्य-पदार्थों को तीन वर्गों में बाँटा जाता है। ये वर्ग हैं – नाशवान भोज्य-पदार्थ, अर्द्ध-नाशवान भोज्य-पदार्थ तथा अनाशवान भोज्य-पदार्थ।

खाद्य-सामग्री के नष्ट या विकृत होने के लिए दो प्रकार के कारण जिम्मेदार होते हैं। प्रथम वर्ग के कारणों को आहार को नष्ट करने वाले आन्तरिक कारण कहा जाता है तथा द्वितीय वर्ग के कारणों को बाहरी कारण कहा जाता है। आन्तरिक कारणों में मुख्य रूप से आहार में विद्यमान एन्जाइम उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं। बाहरी कारणों में मुख्य हैं-बैक्टीरिया, मोल्ड तथा यीस्ट का प्रभाव। इन सभी कारकों की सक्रियता नमी की उपस्थिति में बढ़ जाती है। इन कारकों के अतिरिक्त विभिन्न घरेलू जीव, कीट एवं पशु-पक्षी भी खाद्य-सामग्री को नष्ट एवं दूषित करते हैं।

नाशवान भोज्य पदार्थों का संग्रह (Storage of perishable food materials) – नाशवान भोज्य पदार्थों को नष्ट या विकृत होने से बचाने के लिए दो विधियों को अपनाया जा सकता है – प्रथम गर्म अथवा ताप पर आधारित विधि है तथा द्वितीय ठण्डी या प्रशीतन पर आधारित विधि है। गर्म अथवा ताप पर आधारित विधि के अन्तर्गत खाद्य-सामग्री को अधिक ताप पर गर्म करके विकृत होने से बचाया जा सकता है। कच्चे दूध को उबालकर रखने से वह फटने एवं विकृत होने से बच जाता है। ठण्डी अथवा प्रशीतन पर आधारित विधि के अन्तर्गत खाद्य-सामग्री को कम या अति कम तापक्रम पर संगृहीत करने की व्यवस्था की जाती है। घरों में इस विधि को फ्रिज के माध्यम से अपनाया जाता है, जबकि व्यापक स्तर पर यह कार्य कोल्ड स्टोरेज के माध्यम से किया जाता है।

अर्द्ध-नाशवान भोज्य पदार्थों का संग्रह (Storage of semi perishable food materials) – अर्द्ध-नाशवान भोज्य पदार्थों में नमी की मात्रा कम होती है जैसे कि आलू, प्याज, अदरक, लहसुन आदि। इस प्रकार के भोज्य पदार्थों के संग्रह के लिए किन्हीं विशिष्ट उपायों को अपनाना आवश्यक नहीं होता। इन खाद्य-पदार्थों को मुख्य रूप से आहार को नष्ट करने वाले बाहरी कारकों तथा नमी से बचाकर रखना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ये खाद्य-पदार्थ अधिक गर्म वातावरण में न रखे जाएँ। साथ ही इन्हें जीव-जन्तुओं से बचाकर रखने की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।

अनाशवान भोज्य पदार्थों का संग्रह (Storage of imperishable food materials) – अनाशवान भोज्य-पदार्थों के संग्रहण में मुख्य रूप से बाहरी कारकों को नियन्त्रित करना अनिवार्य होता है। इस श्रेणी में मुख्य रूप से अनाजों, दालों आदि को सम्मिलित किया जाता है। इन भोज्य पदार्थों को संगृहीत करने के लिए दो प्रकार के उपाय किए जाते हैं। प्रथम प्रकार के उपायों के अन्तर्गत अनाजों एवं दालों को बन्द ढक्कनदार पात्रों या डिब्बों में पूर्ण रूप से नमीरहित दशा में रखा जाता है। द्वितीय प्रकार के उपायों के अन्तर्गत अनाजों में कीटनाशक दवाओं, नीम के सूखे पत्ते, नमक, हल्दी या बोरिक अम्ल को रखकर कीड़ों तथा घुन आदि से बचाया जा सकला है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 12 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पेयजल के मुख्य गुणों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
शुद्ध जल (पेयजल) के गुण बताइए।
उत्तरः
पेयजल के गुण ऐसा जल, जो उन सभी हानिकारक पदार्थों से मुक्त हो जो स्वास्थ्य को हानि पहुँचा सकते हैं तथा जिसमें शरीर के लिए आवश्यक खनिज पदार्थ मौजूद हों, ‘पेयजल’ कहलाता है। आदर्श पेयजल में निम्नलिखित गुण होते हैं

  • यह स्वच्छ (पारदर्शी), गन्धहीन, रंगहीन तथा कुछ आवश्यक खनिज लवणयुक्त होना चाहिए।
  • यह सुस्वादु होना चाहिए।
  • इसका ताप सामान्यत: 4°-10°C के मध्य होना चाहिए।
  • यह जीवाणुओं, विषाणुओं, रोगाणुओं आदि से मुक्त होना चाहिए।
  • इससे बर्तनों, पाइपों तथा कपड़ों पर धब्बे नहीं लगने चाहिए।
  • यह हानिकारक पदार्थों से मुक्त होना चाहिए।
  • यह मृदु जल होना चाहिए।
  • अधिक देर तक रखने पर भी यह ताजा बना रहना चाहिए।

प्रश्न 2.
जल की कठोरता को कैसे दूर करेंगी?
उत्तरः
जल में दो प्रकार की कठोरता हो सकती है – अस्थायी कठोरता तथा स्थायी कठोरता। जल की अस्थायी कठोरता दो उपायों द्वारा दूर की जा सकती है। ये उपाय हैं –

1. जल को उबालना तथा
2. जल में चूना मिलाना। जल की स्थायी कठोरता को दूर करने के तीन उपाय हैं –

  • कपड़े धोने के सोडे द्वारा
  • सोडे तथा चूने द्वारा तथा
  • परम्यूरिट विधि द्वारा।

प्रश्न 3.
पेयजल तैयार करने के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
पेयजल तैयार करने के उपाय –
पेयजल सामान्यतः जल को उबालकर, छानकर तैयार किया जा सकता है। बड़े पैमाने पर विशेषकर शहरों में प्राकृतिक जल से अवांछित एवं हानिप्रद अशुद्धियों को निकालकर जल शोधन किया जाता है, तब यह पीने योग्य होता है। इसके लिए एक निश्चित विधि अपनाई जाती है जिसके निम्नलिखित सोपान होते हैं –

1. स्कन्दन (Coagulation)-इस विधि में अशुद्ध जल को ऐसे हौज में भेजा जाता है जिसमें कुछ स्कन्दन पदार्थ (Coagulants) मिलाए जाते हैं जो सामान्यत: लोहा तथा ऐलुमिनियम के लवण होते हैं। इस प्रकार के लवणों में फिटकरी, फेरस सल्फेट, फेरिक क्लोराइड, चूना आदि प्रमुख हैं। ये पदार्थ जल में घुलकर एक चिपचिपा पदार्थ बना देते हैं जो जल में उपस्थित अशुद्धियों को अपने साथ चिपकाकर भारी बना देते हैं और हौज की तली में बैठ जाते हैं। ये कुछ निलम्बित कणों को उदासीन भी बनाते हैं; अतः वे भारी होकर तली में बैठ जाते हैं और इस प्रकार जल शुद्ध हो जाता है।

2. निथारना-जल में बैठने वाली अशुद्धियों को निकालने का तरीका ‘निथारना’ कहलाता है। इस विधि में जल को कुछ समय के लिए स्थिर रखा जाता है जिससे उसमें उपस्थित अशुद्धियाँ नीचे बैठ जाती हैं। अब ऊपर के साफ जल को निथारकर अलग कर लिया जाता है तथा प्रयोग में लाया जाता है। तली में शेष बचे जल में अशुद्धियाँ रह जाती हैं जिसे विसर्जित कर दिया जाता है।

3. निस्यन्दन-इस विधि में जल को छाना जाता है ताकि छोटी-बड़ी सभी प्रकार की अशुद्धियाँ उसमें से निकल जाएँ।

4. कीटाणुनाशक-जब पानी में से विभिन्न प्रकार की अशुद्धियाँ निकल जाती हैं, तो उसमें कुछ जीवाणु इत्यादि रह जाते हैं जो रोग उत्पन्न कर सकते हैं। इन्हें नष्ट करने के लिए जल में क्लोरीन भेजी जाती है (ब्लीचिंग पाउडर का प्रयोग करके)। इस गैस के प्रभाव से सभी प्रकार के रोगाणु पूर्णत: नष्ट हो जाते हैं। सामान्यतः घरों में पोटैशियम परमैंगनेट (लाल दवा) का प्रयोग भी जल को कीटाणु-रहित करने के लिए किया जाता है। कुओं आदि में भी इस दवा को डलवाया जाता है।

प्रश्न 4.
मनुष्य के शरीर के लिए जल की उपयोगिता बताइए।
अथवा
ल की मानव-जीवन में क्या उपयोगिता है?
उत्तरः
शरीर के लिए जल अत्यन्त आवश्यक है। शरीर के अन्दर जल ही अनेक कार्यों को करने के लिए माध्यम तथा क्रियाशीलता प्रदान करता है। जल के निम्नलिखित मुख्य उपयोग हैं –

  • रुधिर का अधिकतम भाग जल ही होता है तथा रुधिर को तरल बनाए रखने का कार्य यही करता है।
  • जल भोजन को पचाने में सहायक है। पचा हुआ भोजन भी इसी के साथ आंत्र की दीवार में और वहाँ से सम्पूर्ण शरीर में घुलित अवस्था में पहुँचता है।
  • जल शरीर के ताप को नियन्त्रित तथा नियमित करता है।
  • हानिकारक, व्यर्थ तथा विषैले पदार्थों को जल ही अपने अन्दर घोलकर उत्सर्जन क्रिया के द्वारा वृक्कों से मूत्र के रूप में तथा त्वचा से पसीने के रूप में निकालता है।
  • जल शरीर के अनेकानेक भागों को कोमल तथा मुलायम बनाए रखता है, मुख्यतः मांसपेशियों, तन्तु तथा त्वचा आदि को।
  • शरीर जिन कोशिकाओं से मिलकर बना है उनमें प्रमुख भाग लगभग 85% से 90% तक जल ही होता है।
  • शरीर के अन्दर होने वाली सभी छोटी-बड़ी, निर्माण या टने-फटने सम्बन्धी क्रियाओं को. जिन्हें सम्मिलित रूप में उपापचय (metabolism) कहते हैं, जल ही आधार प्रदान करता है (बिना जल के ये क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं)।
  • प्यास लगने पर जल ही प्यास को शान्त करता (बुझाता) है।

प्रश्न 5.
दैनिक कार्यों के लिए हमें कितने जल की आवश्यकता होती है?
उत्तरः
जल एक महत्त्वपूर्ण विलायक है। यह हमारे जीवन, रहन-सहन, व्यवसाय, भोजन, जलवायु के निर्माण आदि के लिए अत्यन्त आवश्यक है। कई बार हम यह भी सोच सकते हैं कि जल के बिना हमारा जीवन असम्भव है। यद्यपि व्यक्ति की जल सम्बन्धी आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती है और इस सम्बन्ध में सामान्यत: नियम बनाना उचित प्रतीत नहीं होता। फिर भी एक सामान्य व्यक्ति को औसतन 120-140 लीटर तक जल की आवश्यकता होती है। यद्यपि जीवित रहने भर के लिए 1 – 1.5 लीटर जल ही प्रतिदिन आवश्यक होता है। निम्नांकित सारणी एक व्यक्ति के दिन भर के सामान्य जल-प्रयोग को प्रदर्शित करती है
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 12 जल तथा खाद्य पदार्थ आपूर्ति 2

जल तथा खाद्य पदार्थ आपूर्ति 145 पूर्वोक्त विभाजन में ग्रीष्मकाल में जल की मात्रा में वृद्धि हो सकती है। इसी प्रकार सामान्यत: गर्म प्रदेशों में ठण्डे प्रदेशों की अपेक्षा निवासियों को अधिक जल की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 6.
अशुद्ध जल क्या है? शुद्ध तथा अशुद्ध जल में अन्तर बताइए।
अथवा
शुद्ध जल तथा अशुद्ध जल में अन्तर लिखिए।
उत्तरः
अशुद्ध जल –
शुद्ध जल एक उत्तम विलायक है, इसी गुण के कारण जल शीघ्र ही विभिन्न लवणों तथा अन्य पदार्थों को घोल लेता है तथा इसके परिणामस्वरूप शीघ्र ही अशुद्ध हो जाता है। कुछ पदार्थ लटकी हुई अवस्था में भी जल को अशुद्ध बनाते हैं। जिस जल में शुद्ध जल के उपर्युक्त गुण नहीं होते वह जल अशुद्ध जल कहलाता है। शुद्ध एवं अशुद्ध जल के अन्तर को निम्नांकित सारणी द्वारा समझा जा सकता है –
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 12 जल तथा खाद्य पदार्थ आपूर्ति 3

प्रश्न 7.
मृदु जल और कठोर जल में अन्तर लिखिए।
उत्तरः
जल में अनावश्यक लवणों की उपस्थिति/अनुपस्थिति के आधार पर जल के दो प्रकार निर्धारित किए गए हैं जिन्हें क्रमश: मृदु जल (soft water) तथा कठोर जल (hard water) कहा जाता है। मृदु जल तथा कठोर जल की पहचान के लिए मुख्य उपाय है-साबुन द्वारा पानी में झाग बनाना। मृदु जल तथा कठोर जल के अन्तर का विवरण निम्नांकित है –
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 12 जल तथा खाद्य पदार्थ आपूर्ति 4

प्रश्न 8.
अशुद्ध जल से होने वाली हानियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
अशुद्ध जल से होने वाले रोगों की सूची बनाइए।
उत्तरः
अशुद्ध जल से होने वाली हानियाँ –
अशुद्ध जल में अनेक प्रकार के हानिकारक पदार्थ हो सकते हैं जिनकी उपस्थिति से ही यह दोषयुक्त होता है। जब ऐसा जल पीने के काम में लाया जाता है तो यह आहारनाल में पहुँचता है। जल में उपस्थित रोगों के जीवाणु इत्यादि आहारनाल के विभिन्न स्थानों में अपनी क्रिया प्रारम्भ कर देते हैं। इस प्रकार शरीर में कुछ ऐसे लक्षण उत्पन्न होते हैं जो किसी रोग को उत्पन्न करते हैं।

अशुद्ध जल से फैलने वाले रोग – अशुद्ध जल से सामान्यतः आहारनाल सम्बन्धी रोग उत्पन्न होते हैं। उदाहरणार्थ – हैजा, टायफॉइड, अतिसार, संग्रहणी, आंत्रक्षय तथा पीलिया आदि।

दूषित जल का स्वास्थ्य पर प्रभाव –
दूषित जल का जन-जीवन पर स्पष्ट रूप से कुप्रभाव पड़ता है। दूषित जल से अनेक प्रकार की महामारियाँ; जैसे-टायफॉइड, पेचिश आदि रोग हो जाते हैं क्योंकि इन रोगों के रोगाणु दूषित जल में उपस्थित रहते हैं। गोलकृमि, सूत्रकृमि आदि आँतों में रहने वाले परजीवी भी दूषित जल द्वारा मनुष्य की आँत में पहुंचते हैं। दूषित जल में ऑक्सीजन की कमी होती है; अत: ऐसे जल में रहने वाली मछलियाँ आदि भी मर जाती हैं। यही नहीं, दूषित जल दुर्गन्ध के कारण वायुमण्डल को अशुद्ध करता है। इस जल का पशुओं को प्रयोग कराना वर्जित होना चाहिए क्योंकि यह उनमें भी रोग पैदा करता है।

दूषित जल, रोगाणु मुक्त होने पर भी अन्य कई प्रकार से स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाला होता है। इससे नज़ला, त्वचा के रोग, उल्टियाँ, हैजा, डायरिया आदि जैसे रोगों के लक्षण भी पैदा होते हैं।

प्रश्न 9.
जल को शुद्ध करने की घरेलू विधियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
जल को शुद्ध करने की चार-घड़ों की विधि का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
जल शुद्ध करने की घरेलू विधियाँ

  1. जल किसी भौतिक साधन से शुद्ध किया जा सकता है; जैसे – उबालना, आसवन आदि।
  2. रासायनिक पदार्थों के प्रयोग के द्वारा भी जल शुद्ध किया जा सकता है; जैसे-कीटाणुनाशक पोटैशियम परमैंगनेट (लाल दवा) का प्रयोग संगृहीत जल में किया जाता है।
  3. अशुद्ध जल को शुद्ध करने के लिए अनेक यान्त्रिक साधन अपनाए जा सकते हैं, जिसमें कपड़े द्वारा छानना तथा छन्ने कागज द्वारा छानना आदि सम्मिलित हैं। पहली विधि में केवल मोटी अघुलित अशुद्धियों को दूर किया जा सकता है। दूसरी विधि में सभी अघुलित अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं, परन्तु इसमें सभी घुलित अशुद्धियों को दूर नहीं कर सकते हैं।

घरेलू फिल्टर बेड विधि : चार घड़ों की विधि –
इस विधि में चार घड़े लिए जाते हैं। इनमें से तीन घड़ों की पेंदी में एक छोटा-सा छिद्र कर लिया जाता है जिससे पानी बूंद-बूंद करके निकल सके। इन घड़ों को एक बड़े स्टैण्ड में एक के ऊपर एक करके इस प्रकार रख दिया जाता है कि ऊपर वाले घड़े का जल बूंद-बूंद करके दूसरे घड़े में आ जाए। इसी प्रकार दूसरे घड़े का जल तीसरे में और तीसरे का चौथे में आ सकता है।

इस प्रकार रखे गए घड़ों में सबसे ऊपरी घड़े में अशुद्ध जल रखा जाता है जो बूंद-बूंद करके निचले घड़े में गिरता रहता है। दूसरे घड़े में रखे । लकड़ी के कोयलों पर यह जल गिरकर छनता है और पेंदी से निकलकर चित्र 12.2-जल शुद्ध करने की तीसरे घड़े में पहुँचता है। इस घड़े में पहले से ही रेत (बालू) भरकर रखी जाती है। इस घड़े में जल एक बार और छनता है और अत्यन्त बारीक कण भी रेत के द्वारा छान लिए जाते हैं। इस प्रकार चौथे (सबसे निचले) घड़े में जल निलम्बित अशुद्धियों से रहित होता है।

यह विधि बड़े पैमाने पर जल शुद्ध करने की आधारभूत विधि है।
UP Board Solutions for Class 11 Home Science Chapter 12 जल तथा खाद्य पदार्थ आपूर्ति 5

प्रश्न 10.
खाद्य पदार्थों की प्राप्ति के मुख्य स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तरः
खाद्य पदार्थों की प्राप्ति के स्रोत –
मनुष्य ने अपने आहार में असंख्य खाद्य-पदार्थों को सम्मिलित किया है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाले व्यक्तियों के आहार में बहुत अधिक विविधता देखी जा सकती है। इस स्थिति में खाद्य पदार्थों की प्राप्ति के स्रोतों का व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए उनका स्पष्ट वर्गीकरण करना आवश्यक है। सामान्य रूप से खाद्य पदार्थों की प्राप्ति के स्रोतों के दो वर्ग निर्धारित किए जाते हैं। खाद्य-प्राप्ति के वनस्पतिजन्य स्रोत तथा खाद्य-प्राप्ति के प्राणिजन्य स्रोत। इन दोनों स्रोतों का सामान्य परिचय निम्नलिखित है –

1.खाद्य-प्राप्ति के वनस्पतिजन्य स्त्रोत-मनुष्य के खाद्य-पदार्थों की प्राप्ति का एक मुख्य स्रोत वनस्पति-जगत है। वनस्पति-जगत से अनाज, दालें, सब्जियाँ तथा फल प्राप्त होते हैं। ये सभी खाद्य पदार्थ विभिन्न पोषक-तत्त्वों से भरपूर तथा भूख को शान्त करने वाले होते हैं। फलों एवं सब्जियों में पर्याप्त मात्रा में विटामिन एवं खनिज लवण पाए जाते हैं। अनाज कार्बोहाइड्रेट से भरपूर होते हैं। दालों में प्रोटीन की प्रचुरता होती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वनस्पति-जगत से प्राप्त होने वाले खाद्य-पदार्थ हमारी आहार सम्बन्धी सम्पूर्ण आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं।

2. खाद्य-प्राप्ति के प्राणिजन्य स्रोत-मनुष्य की खाद्य-सामग्री की प्राप्ति का एक स्रोत प्राणि-जगत भी है। प्राणि-जगत से मनुष्य मुख्य रूप से दूध, मांस तथा अण्डे प्राप्त करता है। प्राणि-जगत से प्राप्त खाद्य-पदार्थ भी विभिन्न पोषक तत्त्वों से भरपूर होते हैं। दूध एक आदर्श एवं सम्पूर्ण आहार है। इसमें आहार के प्रायः सभी पोषक तत्त्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। अण्डों में भी प्रायः सभी पोषक तत्त्व पाए जाते हैं। मांस, प्रोटीन एवं खनिज लवणों की प्राप्ति का उत्तम स्रोत है। मांस में पायी जाने वाली प्रोटीन उत्तम प्रकार की तथा अधिक उपयोगी होती है।

प्रश्न 11.
खाद्य पदार्थों में मिलावट से क्या आशय है?
उत्तरः
खाद्य पदार्थों में मिलावट –
प्रत्येक खाद्य पदार्थ का अपना एक विशेष संघटन होता है। उसमें उपस्थित ये संघटक तत्त्व ही उस खाद्य पदार्थ के पोषक गुणों को निर्धारित करते हैं। किसी खाद्य पदार्थ से, निश्चित मात्रा में उपस्थित उस पोषक तत्त्व को निकाल लिया जाए अथवा अन्य कम मूल्य का या विजातीय कोई पदार्थ मिला दिया जाए तो यह क्रिया मिलावट या अपमिश्रण कहलाती है।

भारत सरकार के खाद्य अपमिश्रण निवारण नियम (Prevention of Food Adulteration Act, 1954) के अनुसार निम्नलिखित स्थितियों में खाद्य पदार्थ को ‘अपमिश्रण’ या ‘मिलावट-युक्त’ कहा जाएगा –

  • खाद्य पदार्थ जब अपने वास्तविक रूप-रंग वाले नहीं रहते हैं।
  • खाद्य पदार्थों में स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाला कोई तत्त्व होता है।
  • खाद्य पदार्थ से कोई पोषक तत्त्व निकाल लिया जाता है।
  • खाद्य पदार्थ में जब कोई घटिया या कम स्तर का कोई पदार्थ मिला दिया जाता है।
  • खाद्य पदार्थ में जब कोई हानिकर या विषैला तत्त्व मिला दिया जाता है या मिल जाता है।
  • जब खाद्य पदार्थ को ऐसे बर्तन (container) में रखा जाता है जिसके सम्पर्क से यह दूषित हो जाता है।
  • जब खाद्य पदार्थ किसी रोगी पशु-पक्षी से प्राप्त किया गया हो।
  • जब खाद्य पदार्थ में कोई वर्जित या न खाने योग्य रासायनिक पदार्थ, रंग आदि मिला दिया गया हो।
  • जब खाद्य पदार्थों के संग्रह करते समय अथवा डिब्बाबन्दी के समय दूषित हाथों या दूषित विधि का उपयोग किया गया हो।
  • जब खाद्य पदार्थ में संरक्षण के लिए प्रयुक्त रंग या संरक्षक पदार्थ निर्धारित सीमा से अधिक मिला दिया गया हो।
  • जब भोज्य पदार्थ के गुणों एवं शुद्धता का गलत विवरण उनके डिब्बे पर दिया गया हो।

इस प्रकार, मिलावट से खाद्य पदार्थ में पोषक तत्त्व या तत्त्वों की कमी हो जाती है अर्थात् उनका पोषक स्तर कम हो जाता है। यही नहीं, वे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं और कभी-कभी तो रोग फैलाने वाले या मृत्यु को निमन्त्रण देने वाले भी हो सकते हैं।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 12 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जल से आप क्या समझती हैं?
अथवा
जल का संघटन लिखिए।।
उत्तरः
जल एक यौगिक है। यह दो तत्त्वों-हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के संयोग से बना है। इसका रासायनिक सूत्र H2O होता है।

प्रश्न 2.
जल का रासायनिक सूत्र लिखिए।
उत्तरः
जल का रासायनिक सूत्र है – H2O.

प्रश्न 3.
जल प्राप्ति के मुख्य स्रोत कौन-कौन से हैं?
उत्तरः
जल प्राप्ति के मुख्य स्रोत हैं-समुद्र, वर्षा, नदियाँ, तालाब, कुएँ, झीलें, झरने एवं सोते।

प्रश्न 4
प्राणियों के लिए जल की मुख्य उपयोगिता क्या है?
उत्तरः
प्राणियों के लिए जल की मुख्य उपयोगिता है – प्यास को शान्त करना।

प्रश्न 5.
हमारे रक्त में जल की क्या भूमिका है?
उत्तरः
जल रक्त को आवश्यक तरलता प्रदान करता है।

प्रश्न 6.
शरीर के तापक्रम पर जल का क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तरः
जल शरीर के तापक्रम का नियमन करता है।

प्रश्न 7.
शुद्ध जल के मुख्य गुण क्या हैं?
अथवा
शुद्ध जल की पहचान कैसे करेंगी?
उत्तरः
शुद्ध जल रंगहीन, गन्धहीन तथा स्वादहीन होता है। यह पारदर्शी होता है तथा इसमें एक विशेष प्रकार की चमक होती है।

प्रश्न 8.
अशुद्ध जल में कौन-कौन सी अशुद्धियाँ पायी जाती हैं?
उत्तरः
अशुद्ध जल में दो प्रकार की अशुद्धियाँ पायी जाती हैं-

  1. घुलित अशुद्धियाँ तथा
  2. अघुलित अशुद्धियाँ।

प्रश्न 9.
अशुद्ध जल को मुख्य रूप से किन-किन विधियों द्वारा शुद्ध किया जा सकता है?
उत्तरः
अशुद्ध जल को मुख्य रूप से तीन विधियों से शुद्ध किया जाता है –

  1. यान्त्रिक विधि
  2. भौतिक विधि तथा
  3. रासायनिक विधि।

प्रश्न 10.
जल के कीटाणुओं को मारने वाले मुख्य रासायनिक पदार्थ कौन-कौन से हैं?
अथवा
अशुद्ध जल को शुद्ध करने के मुख्य रासायनिक पदार्थों के नाम लिखिए।
उत्तरः
जल के कीटाणुओं को मारने वाले मुख्य रासायनिक पदार्थ हैं – लाल दवा, कॉपर सल्फेट, ब्लीचिंग पाउडर तथा क्लोरीन।

प्रश्न 11.
मनुष्य अपना आहार मुख्य रूप से किन स्रोतों से प्राप्त करता है?
उत्तरः
मनुष्य अपना आहार मुख्य रूप से दो स्रोतों से प्राप्त करता है –

  1. वनस्पतिजन्य स्रोत तथा
  2. प्राणिजन्य स्रोत।

प्रश्न 12.
वनस्पति-जगत से मुख्य रूप से कौन-कौन से खाद्य पदार्थ प्राप्त होते हैं?
उत्तरः
वनस्पति-जगत से मुख्य रूप से अनाज, दालें, सब्जियाँ तथा फल प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 13.
प्राणि-जगत से प्राप्त होने वाले भोज्य पदार्थ कौन-कौन से हैं?
उत्तरः
प्राणि-जगत से प्राप्त होने वाले भोज्य पदार्थ हैं-दूध, अण्डा तथा मांस।

प्रश्न 14.
खाद्य पदार्थों में मिलावट से क्या आशय है?
उत्तरः
किसी खाद्य पदार्थ से निश्चित मात्रा में उपस्थित उस पोषक तत्त्व को निकाल लिया जाए अथवा अन्य कम मूल्य का या विजातीय कोई पदार्थ मिला दिया जाए तो यह क्रिया मिलावट कहलाती है।

UP Board Class 11 Home Science Chapter 12 बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

निर्देश : निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चयन कीजिए –
1. जल महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है –
(क) प्यास बुझाने के लिए
(ख) फसलों को सींचने के लिए
ग) दैनिक कार्यों को पूरा करने के लिए
(घ) उपर्युक्त सभी के लिए।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी के लिए।

2. जल का रासायनिक सूत्र है –
(क) H2O2
(ख) H2O
(ग) HO2
(घ) 2HO.
उत्तरः
(ख) H2O

3. हमारे शरीर के लिए जल उपयोगी है –
(क) रक्त को तरलता प्रदान करने में
(ख) पाचन-क्रिया में सहायक के रूप में
(ग) हानिकारक तत्त्वों के विसर्जन में सहायक के रूप में
(घ) उपर्युक्त सभी रूपों में।
उत्तरः
(घ) उपर्युक्त सभी रूपों में।

4. घरेलू स्तर पर जल को शुद्ध करने की उपयुक्त विधि है –
(क) उबालना
(ख) आसवन
(ग) अवक्षेपण
(घ) क्लोरीनीकरण।
उत्तरः
(क) उबालना।।

5. आसवन विधि द्वारा शुद्ध किए गए जल का नाम है –
(क) कठोर जल
(ख) आसुत जल
(ग) प्राकृतिक जल
(घ) मृदु जला
उत्तरः
(ख) आसुत जल।

6. वनस्पति-जगत से प्राप्त होने वाले भोज्य पदार्थ होते हैं –
(क) पोषक तत्त्वों से रहित
(ख) प्रोटीन का नितान्त अभाव होता है
(ग) पोषक तत्त्वों के उत्तम स्रोत
(घ) केवल कार्बोहाइड्रेट युक्त।
उत्तरः
(ग) पोषक तत्त्वों के उत्तम स्रोत।

7. प्राणि-जगत से प्राप्त खाद्य पदार्थों में भरपूर पाया जाने वाला पोषक तत्त्व है –
(क) कार्बोहाइड्रेट
(ख) जल
(ग) प्रोटीन
(घ) विटामिन ‘C’.
उत्तरः
(ग) प्रोटीन।

8. जो जल साबुन के साथ कम झाग देता है, वह होता है –
(क) मृदु जल
(ख) कठोर जल
(ग) शुद्ध जल
(घ) कठोर या मृदु दोनों में से कोई नहीं।
उत्तरः
(ख) कठोर जल।

9. कुएँ के पानी के शुद्धीकरण हेतु क्या मिलाया जाएगा –
(क) पोटैशियम परमैंगनेट ।
(ख) सोडियम क्लोराइड
(ग) जिंक ऑक्साइड
(घ) सिरका।
उत्तरः
(क) पोटैशियम परमैंगनेट।

UP Board Solutions for Class 11 Home Science

UP Board Solutions for Practical Home Science प्रयोगात्मक गृह विज्ञान सम्बन्धी सैद्धान्तिक ज्ञान

UP Board Solutions for Practical  Home Science प्रयोगात्मक गृह विज्ञान सम्बन्धी सैद्धान्तिक ज्ञान (Theoretical Knowledge Regarding Practical Home Science)

UP Board Solutions for Practical Home Science प्रयोगात्मक गृह विज्ञान सम्बन्धी सैद्धान्तिक ज्ञान

पाक-कला

प्रश्न 1.
घर में तरकारियाँ या सब्जियाँ बनाने से पूर्व क्या-क्या सावधानियाँ रखनी आवश्यक हैं?
उत्तरः
तरकारियाँ बनाने से पूर्व सावधानियाँ –
प्रत्येक घर में तरकारियाँ बनाने से पूर्व निम्नलिखित सावधानी रखनी चाहिए –
प्रयोगात्मक गृहविज्ञान सम्बन्धी सैद्धान्तिक ज्ञान –

  • घर में हमेशा ताजी सब्जी प्रयोग में लानी चाहिए।
  • सब्जियाँ गली या सड़ी हुई नहीं होनी चाहिए।
  • पत्ते वाली हरी सब्जियों को अच्छी तरह साफ करके बनाना चाहिए।
  • कुछ सब्जियों में फली के अन्दर कीड़े पड़ जाते हैं; जैसे–मटर, सेम, रमास इत्यादि; इन्हें ध्यानपूर्वक देखकर साफ कर लेना चाहिए। .
  • सब्जियों को काटने से पूर्व अच्छी तरह धो लेना चाहिए।
  • काटने के पश्चात् सब्जी को धोना नहीं चाहिए अन्यथा उसके पोषक तत्त्व नष्ट हो जाएँगे।
  • जिन सब्जियों को घी में तलकर बनाना होता है उनका पानी अच्छी तरह सुखा लेना चाहिए।
  • कटहल तथा जिमीकन्द आदि सब्जियों को काटने से पूर्व, चाकू तथा हाथ में सरसों का तेल लगा लेना चाहिए, जिससे सब्जी चिपकती नहीं है तथा हाथ में जलन भी नहीं होती है।
  • सब्जी को छीलते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि छिलका पतला ही उतारें अन्यथा व्यर्थ में सब्जी नष्ट होती है तथा कुछ पोषक तत्त्व जैसे खनिज तथा विटामिन भी व्यर्थ चले जाते हैं।
  • आलू, अरवी, शकरकन्द, कच्चा केला इत्यादि सब्जियों को छिलके सहित उबालना चाहिए।
  • बथुवे को उबालने के बाद उसके पानी को फेंकना नहीं चाहिए, इसे आटा गूंधने में प्रयोग किया जा सकता है।
  • यदि सब्जी प्रेशर कुकर में बनानी है तो सब्जी के टुकड़े कुछ बड़े काटने चाहिए।

प्रश्न 2.
घरेलू उपयोग में आने वाली निम्नलिखित वस्तुओं को आप कैसे तैयार करेंगी, संक्षेप में उत्तर दीजिए –
(क) सूखी सब्जी तैयार करना।
(ख) पत्तेदार सब्जियों को बनाना।
(ग) अरवी के पत्तों को तैयार करना।
उत्तरः
(क) सूखी सब्जी तैयार करना –
सब्जी को मोटे-मोटे टुकड़ों में काट लीजिए। कड़ाही में घी गर्म करके मसाला व प्याज भून लीजिए, उसी में दही या टमाटर भून लीजिए। फिर कटी हुई सब्जी उसमें डालकर पिसा हुआ नमक डाल दीजिए। पानी मत डालिए। धीमी आँच पर पकने दीजिए। बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तर पर सब्जी को चला दीजिए जिससे वह जले नहीं और सभी टुकड़े समान रूप से गल जाएँ और उसमें मसाला व नमक अच्छी तरह से मिल जाएँ। सब्जी भुन जाने पर उसमें गरम मसाला व खटाई डाल दीजिए और कड़ाही को नीचे उतार लीजिए, अब सब्जी में ऊपर से हरा धनिया व हरी मिर्च डाल दीजिए।

सभी भरवाँ सब्जियाँ सूखी सब्जी के ही अन्तर्गत आती हैं। भरवाँ सब्जी में साबुत सब्जी को बीच से काटकर अन्दर मसाला भरकर बनाया जाता है। कुछ विशेष सब्जियाँ; जैसे परवल, करेला, बैंगन, तोरई, टमाटर, शिमला-मिर्च, टिण्डे, भिण्डी आदि को मसाला भरकर भी बनाया जाता है तथा काटकर भी।

ध्यान रखें कि जिस बर्तन में सब्जी पकाई जाए वह बर्तन भली प्रकार से कलई किया हुआ हो। आजकल उपलब्ध नॉनस्टिक कड़ाहियों तथा तवों पर भरवाँ सब्जियाँ बनाना अधिक अच्छा समझा जाता है।

(ख) पत्तेदार सब्जियों को बनाना –
पत्तेदार सब्जियों को धोकर साफ कर लीजिए, फिर चाकू से मोटा-मोटा काट लीजिए और डेगची में पानी उबलने के लिए रख दीजिए। अधिक बारीक काटने से कुछ पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। उबाल आने पर कटी हुई सब्जी व मूंग की (छिलके वाली) थोड़ी दाल डाल दीजिए और ढककर पका लीजिए। जब वह अच्छी तरह से गल जाए तब उसमें थोड़ा मक्का या गेहूँ का आटा पानी में घोलकर डाल दीजिए और ज्यादा मात्रा में हरा धनिया काटकर डाल दीजिए तथा गाढ़ा होने तक चमचे से चलाती रहिए। फिर हींग व जीरे की छोंक लगाकर थोड़ी मिर्च व खटाई डाल दीजिए। मेथी, पालक, चने, सरसों आदि का साग विशेष रूप से इसी प्रकार काटकर समान मात्रा में मिलाकर पकाया जाता है। बथुआ, मेथी, पालक, मूली, सरसों को एक साथ मिलाकर पकाया जाता है। यह बहुत स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है।

(ग) अरवी के पत्तों को तैयार करना –
अरवी के पत्तों को धोकर साफ कर लीजिए। अब थोड़ा बेसन घोलकर उसमें नमक, मिर्च, धनिया आदि डालकर पत्तों पर लेप कर लीजिए और पत्तों को रोल कर लीजिए। फिर पतीली या भगोने में पानी उबालिए और वे रोल टोस्टर में रखकर उसके ऊपर रख दीजिए तथा किसी तश्तरी आदि से ढक दीजिए। थोड़ी देर पश्चात् नीचे उतार लीजिए। थाली में रखकर गँडेरी की भाँति चाकू से काट लीजिए, अब कड़ाही में घी गर्म करके उन टुकड़ों को बेसन में लपेटकर तल लीजिए। ये चटनी या सॉस के साथ खाने में बहुत स्वादिष्ट लगते हैं। यदि सब्जी बनानी हो तो पिसा मसाला

घी में भूनकर सभी टुकड़ों को उसमें डालकर पानी व नमक डाल दीजिए तथा पक जाने पर खटाई व गरम मसाला डालकर उतार लीजिए। हरा धनिया और काली मिर्च भी डाले जा सकते हैं।

प्रश्न 3.
तलने की सामान्य विधि लिखिए।
उत्तरः
तलने की सामान्य विधि कुछ खाद्य-व्यंजन तलकर तैयार किए जाते हैं। खाद्य-सामग्री को तलकर पकाने के लिए माध्यम के रूप में घी, तेल आदि वसाप्रधान तरल पदार्थों को अपनाया जाता है। कड़ाही में ‘घी’ या ‘तेल’ की मात्रा इतनी डालनी चाहिए कि तली जाने वाली खाद्य-सामग्री अच्छी तरह से डूब जाए। खाद्य-सामग्री तेल में डालने से पूर्व तेल के गर्म हो जाने पर उसमें नीबू की दो-चार बूंदें निचोड़ दीजिए। नीबू के अभाव में थोड़ा पिसा नमक तेल में डाल दीजिए, जिससे तेल में तेज धुआँ निकलेगा। अब तेल को नीचे उतारकर ठण्डा कर लीजिए और छानकर खाद्य-सामग्री बनाने के लिए प्रयोग कीजिए।

ऐसा करने से तली जाने वाली खाद्य-सामग्री में तेल की अरुचिकर गन्ध नहीं आती है और पौष्टिकता की दृष्टि से भी यह सरल और सुपाच्य हो जाता है। यदि खाद्य-सामग्री को घी में तलना हो तो घी को इतना अधिक गर्म मत कीजिए कि उसमें से तेज धुआँ निकलने लगे। उसको इतना ही गर्म करिए कि कड़ाही के तले (कड़ाही का निचला भाग) में कुछ लाली या गर्माहट अनुभव हो। उसी समय तले जाने वाले खाद्य पदार्थ को घी में छोड़ दीजिए। धीरे-धीरे यदि आग के तेज होने का आभास हो तो कड़ाही को नीचे उतार लीजिए। यदि गैस का चूल्हा या स्टोव हो तो आग को थोड़ा कम कर दीजिए। ‘घी’ या ‘तेल’ के अधिक गर्म हो जाने पर आग के तेज होने से खाद्य-सामग्री ऊपर से जल जाती है और अन्दर से भली प्रकार सिक नहीं पाती है। ऐसी खाद्य-सामग्रियाँ स्वादहीन लगती हैं। अत: खाद्य-सामग्री को तलने में विशेष सावधानी रखिए।

मठरी, सेव आदि को तलने के लिए घी को अधिक तेज गर्म मत कीजिए क्योंकि ये वस्तुएँ मैदा या बेसन से बनाई जाती हैं जो ऊपर से शीघ्र ही लाल दिखाई पड़ती हैं। ऊपर से अधिक लाल होने पर देखने में आकर्षक नहीं मालूम होती हैं; अत: इन्हें मन्दी आँच पर तलना चाहिए।

प्रश्न 4.
घर में प्रयोग की जाने वाली विभिन्न प्रकार की निम्नलिखित सब्जियों को कैसे बनाओगी –
(क) भरवाँ केला
(ख) पालक-पनीर कोफ्ता
(ग) भरवाँ करेले.
(घ) भरवाँ टमाटर
(ङ) टमाटर का सूप
(च) बैंगन का भुरता
(छ) दम गोभी।
उत्तरः
(क) भरवाँ केला तैयार करना –
सामग्री – 200 ग्राम कच्चा केला, 200 ग्राम आलू, प्याज, लहसुन, अदरक, हरी मिर्च, हल्दी, नमक, जीरा, गरम मसाला, धनिया, खटाई, घी आदि।

विधि – केलों को छील लीजिए और बीच से थोड़ा गूदा निकाल दीजिए। आलुओं को उबालकर व छीलकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लीजिए। प्याज व लहसुन को कड़ाही में तल लीजिए। प्याज का रंग गुलाबी हो जाने पर कटे हुए आलुओं को डालकर सभी मसाले डाल दीजिए और थोड़ी देर तक भूनिए। अब केलों में आलू भरकर कड़ाही में थोड़ा अधिक घी डालकर केलों को उसमें डालकर ढक दीजिए। मन्दी आग पर पकाइए। केलों के गल जाने पर उतार लीजिए।

सावधानियाँ –

  1. केलों का छिलका अच्छी तरह से थोड़ा मोटा उतारिए अन्यथा गलाने में कठिनाई होगी तथा स्वाद में कसैलापन रहेगा।
  2. केलों के बीच के भाग को भी आलुओं के साथ भून लीजिए।

(ख) पालक-पनीर कोफ्ता –
सामग्री – पालक 250 ग्राम, पनीर 30 ग्राम, डबलरोटी 2 स्लाईस, हल्दी थोड़ी-सी, नमक आवश्यकतानुसार, घी तलने के लिए।

विधि – पालक धोकर बारीक काट लीजिए तथा इसे खुले पतीले में धीमी आँच पर पकाइए। डबल रोटी के टुकड़े को पानी में भिगो दीजिए। जब पालक गल जाए तो उसमें डबल रोटी के टुकड़े को निचोड़ कर भली प्रकार मिलाइए। अब इसमें थोड़ा नमक मिला दीजिए। पनीर में थोड़ा नमक मिलाकर दो भागों में बॉट लीजिए तथा इसके 1/2 भाग में हल्दी मिलाकर पीला बना लीजिए। कोफ्ते इस प्रकार बनाइए कि पहले पनीर का पीला भाग फिर उसके ऊपर सफेद भाग एवं उसके ऊपर पालक की सतह आ जाए। इन्हें गर्म घी में तल लीजिए तथा तरी में डालकर थोड़े समय के लिए पकाइए।

कोफ्ता के लिए तरी –
सामग्री-प्याज 1/2 छोटी, लाल मिर्च 1/4 छोटी चम्मच, अदरक एक छोटा टुकड़ा, गरम मसाला 1/2 छोटा चम्मच, लहसुन 1 टुकड़ा, नमक स्वादानुसार, हरी मिर्च 1, कश्मीरी मिर्च 1/4 चम्मच (रंग के लिए), टमाटर 1/2, हल्दी थोड़ी-सी, हरा धनिया थोड़ा-सा, घी 15 ग्राम, पानी 2 कप।

विधि – प्याज, अदरक, लहसुन एवं हरी मिर्च को पीस लें। टमाटर को गर्म पानी में डालकर निकाल लें तथा छीलकर काट लें। घी को गर्म करके उसमें पिसा हुआ मसाला डालकर तब तक भूने जब तक घी अलग होने लगे। ऊपर के मसाले में टमाटर डालकर नमक, मिर्च एवं हल्दी भी डाल दें। इसे तब तक पकाएँ जब तक वह एक-सा न हो जाए। (यदि जरूरत हो तो थोड़ा पानी डाल दें)। इसमें अब पानी डालकर 10-15 मिनट तक पकाएँ। अन्त में गरम मसाला एवं हरा धनिया डाल दें। यही तरी सभी प्रकार के कोफ्तों के लिए प्रयोग में लाएँ।

(ग) भरवाँ करेले तैयार करना –
सामग्री – 500 ग्राम करेले, 200 ग्राम आलू, प्याज, मसाले, नमक, तेल आदि।

विधि – करेलों को छीलकर बीच में से इस प्रकार काटिए कि वे नीचे से जुड़े रहें। अन्दर व बाहर से अच्छी तरह से नमक लगाकर रख दीजिए। थोड़ी देर पश्चात् स्वच्छ जल से धो लीजिए। आलुओं को उबालकर कद्दूकस से कस दीजिए। प्याज को बारीक काट लीजिए। अब कड़ाही में तेल डालकर प्याज को गुलाबी रंग का भून लीजिए। जीरा डालकर आलुओं को उसमें डालकर सभी मसाले डाल दीजिए और थोड़ा भून लीजिए। नमक डाल दीजिए। उस मसाले को करेले में दबा-दबाकर भर दीजिए। करेलों को धागे से लपेट दीजिए जिससे मसाला बाहर नहीं निकल सकेगा। अब कड़ाही में तेल गर्म करके करेलों को उसमें डाल दीजिए और धीमी आँच पर ढककर पकाइए। जब करेले गल जाएँ तो उन्हें कड़ाही से निकालकर अलग बर्तन में रख दीजिए।

सावधानियाँ –

  1. करेले पके होने पर बीज निकाल दीजिए।
  2. करेलों को अन्दर से ध्यानपूर्वक देख लीजिए कि कीड़े आदि न हों।

(घ) भरवाँ टमाटर तैयार करना –
सामग्री – 500 ग्राम टमाटर, 250 ग्राम आलू, प्याज, लहसुन, सभी मसाले, नमक, घी आदि।

विधि – टमाटरों को धोकर उनके ऊपर के भाग को चाकू से गोला काटकर अलग कर दीजिए और बीच से गूदा निकालकर साफ कर लीजिए। अब आलुओं को उबालकर कद्दूकस में कस लीजिए। देगची में घी डालकर प्याज को बारीक काटकर भून लीजिए। उसी में आलुओं को डालिए। सभी मसाले व नमक डालकर भून लीजिए। खटाई मत डालिए। अब टमाटरों के खोखले भाग में उसे भर दीजिए और टोपी को उस पर ढक दीजिए। कड़ाही में घी गर्म करके टमाटरों को उसमें छोड़ दीजिए और ढक दीजिए। आग बहुत धीमी कर दीजिए और टमाटरों के गलने पर नीचे उतारिए।

(ङ) टमाटर का सूप तैयार करना –

सामग्री – 250 ग्राम टमाटर (लाल), एक छोटा चम्मच मैदा, चीनी, घी, तीन चम्मच दूध, प्याज, अदरक, नमक, काली मिर्च आदि।

विधि – टमाटरों को स्वच्छ जल से धोकर काट लीजिए और थोड़े पानी में उबालने के लिए रख दीजिए। उसी में अदरक व प्याज डाल दीजिए। जब टमाटर अच्छी तरह से गल जाएँ तब चमचे से घोट दीजिए और स्वच्छ कपड़े में छान लीजिए। भगोना आग पर रखकर उसमें घी गर्म कीजिए और मैदा को उसमें डालकर गुलाबी रंग का भून लीजिए। भुन जाने पर दूध डाल दीजिए और चमचे से चलाती रहिए, जिससे गाँठ न पड़ने पाए। जब घोल गाढ़ा हो जाए तब छने हुए टमाटर डालकर नमक डाल दीजिए, थोड़ी देर पकाइए, फिर नीचे उतारकर रख दीजिए। सूप को आकर्षक बनाने के लिए बारीक कटा हुआ धनिया ऊपर से डाल दीजिए।

रोगी का सूप बनाना हो तो उसमें घी और मैदा नहीं डाला जाता है। अधिक लाल रंग लाने के लिए उबालते समय थोड़ा चुकन्दर डाल दीजिए।

(च) बैंगन का भरता तैयार करना –
सामग्री – 500 ग्राम ताजे व गोल बैंगन, घी, प्याज, लहसुन, मसाले, नमक आदि।

विधि – जिन बैंगनों का भुस्ता तैयार करना होता है उनको मन्दी आग पर रखकर भून लीजिए। इससे उनका छिलका नर्म हो जाएगा, उसे उतार दीजिए और बैंगनों को भगोने में रखकर अच्छी तरह से मल लीजिए। अब डेगची में घी गर्म करके पिसा मसाला (प्याज सहित) डालकर भून लीजिए। मसाला भुन जाने पर बैंगन उसमें डालकर नमक डाल दीजिए। डेगची के ऊपर गहरे बर्तन में पानी भरकर रख दीजिए। धीमी आग पर पकाइए। थोड़ी देर पश्चात् चमचे से घोट दीजिए।

(छ) दम गोभी तैयार करना –
सामग्री – 500 ग्राम गोभी के फूल, आधा प्याला दही, 1 चम्मच पिसी अदरक, 1 चम्मच पिसी हरी मिर्च, आधा चम्मच कश्मीरी मिर्च, जीरा, धनिया व गरम मसाला, आधा चम्मच पिसा नमक, हरा धनिया, एक-चौथाई चम्मच पिसी दालचीनी और दो छोटी इलायची पिसी हुई।

विधि – गोभी के फूल के डण्ठल उतार लें और नीचे से डण्ठल को ऐसे काट लें कि गोभी का फूल पतीली में खड़ा रह सके। ऊपर लिखे सारे मसाले दही में मिला लें। गोभी धोकर छुरी या काँटे से छेद दें जिससे नमक अन्दर जा सके, अब सारा दही वाला मसाला लगाकर गोभी को दो-तीन घण्टे ऐसे ही रहने दें, फिर कड़ाही में एक बड़ा चम्मच घी डालकर गोभी के फूल को तब तक पकाएँ जब तक कि दही का पानी सूख न . जाए। फिर नीचे उतारकर रख लें। छुरी से काटकर प्लेट में परोसें, ऊपर से हरा धनिया, मिर्च डाल दें।

विभिन्न प्रकार के अचार 

प्रश्न 1.
घर में विभिन्न प्रकार के अचार तैयार करने की विधि लिखिए।
उत्तरः
घर में विभिन्न प्रकार के अचार तैयार करना –
विभिन्न प्रकार के अचार भोजन को खाते समय उसे स्वादिष्ट बना देते हैं लेकिन अचारों का प्रयोग सीमित मात्रा में करना चाहिए। अधिक मात्रा में अचारों का प्रयोग हानिकारक होता है। आजकल कई प्रकार के अचार तैयार किए जाते हैं जिनमें से कुछ अचारों को तैयार करने की विधि निम्नवर्णित है –

(1) आम का मीठा अचार तैयार करना-

सामग्री –
कच्चा आम – 5 किग्रा
जीरा – 150 ग्राम
लौंग – 15 ग्राम
काली मिर्च – 150 ग्राम
बड़ी इलायची – 100 ग्राम
भुनी हींग – 2 ग्राम
नमक – 600 ग्राम
चीनी – 300 ग्राम

अचार बनाने की विधि – आमों को पानी में भिगो देना चाहिए। इसके पश्चात् उनका छिलका उतार लेना चाहिए। एक आम की 4-4 फाँकें इस प्रकार काटिए कि वे एक-दूसरे से अलग न हों बल्कि एक ही स्थान पर जुड़ी रहें। अब दिए गए मसाले को साफ करके कूटकर उसमें नमक, चीनी व हींग मिलाकर फाँकों के बीच में मसाला भरकर मर्तबान में भरते जाइए। जब मर्तबान भर जाए तो उसके ऊपर कपड़ा बाँध देना चाहिए। मर्तबान को 15-20 दिन तक धूप में रखना चाहिए। आमों के गल जाने पर उन्हें खाने के लिए प्रयोग में लाना चाहिए।

(2) आम का पानी वाला अचार तैयार करना –

सामग्री –
कच्चे आम – 10 किग्रा
नमक – 1(1/2) किग्रा
मेथी – 300 ग्राम
हल्दी -300 ग्राम
लाल मिर्च – 200 ग्राम
तेल – 300 ग्राम
हींग – 4 ग्राम
राई (पिसी हुई) – 500 ग्राम

अचार बनाने की विधि – आमों को पानी में धोकर अलग-अलग फाँकें काट लेते हैं। इन फाँकों में नमक, हल्दी व हींग मिलाकर धूप में रख देते हैं। लगभग एक हफ्ते बाद भली प्रकार सुखाकर इन फाँकों को थोड़े-से उबले हुए पानी में (ठण्डा करके) एक दिन के लिए भीगा रहने देते हैं। अब फाँकों को किसी बर्तन में बाहर निकाल लेते हैं। शेष पानी में राई डालकर, झाग उत्पन्न कर लेते हैं। अब तेल में शेष मसाला डालकर भूनने के पश्चात् फाँकों में मिला लेते हैं तथा राई के पानी में डाल देते हैं। इसे मर्तबान में भरकर 3-4 दिन के लिए धूप में सुखा देते हैं। गल जाने पर अचार को प्रयोग में लाते हैं।

(3) नीबू का मीठा अचार तैयार करना –

सामग्री –
कागजी नीबू – 50 नग
गुड़ या चीनी – 1 किग्रा
नमक – 125 ग्राम
लाल मिर्च – 25 ग्राम
गरम मसाला – 50 ग्राम
काला नमक – 300 ग्राम

अचार बनाने की विधि – सर्वप्रथम नीबुओं को चार फाँकों में विभाजित कर लेते हैं, चीनी या गुड़ को छोड़कर बाकी का मसाला फाँकों में भरकर नीबू का रस भी उसमें छोड़ देते हैं। प्रतिदिन मर्तबान को धूप में सुखाते रहते हैं। जब नीबू का छिलका गल जाए तब उसमें चीनी या गुड़ डालना चाहिए। चीनी या गुड़ धीरे-धीरे गाढ़े हो जाएंगे और उसमें मिल जाएंगे। 1 या 1(1/2) महीने के बाद अचार खाने योग्य बन जाता है।

(4) विभिन्न सब्जियों का मिश्रित अचार तैयार करना –

सामग्री – विभिन्न सब्जियाँ (गोभी, गाजर, शलगम, मूली आदि) 5 किलोग्राम
सरसों का तेल – 1 किलोग्राम
नमक – 500 ग्राम
राई – 250 ग्राम
जीरा – 100 ग्राम
गरम मसाला – 250 ग्राम
लाल मिर्च – 150 ग्राम
गुड़ – 400 ग्राम
सिरका – 400 ग्राम
हींग – 5 ग्राम

अचार बनाने की विधि – जिन सब्जियों का अचार डालना होता है, उन सभी सब्जियों को छीलकर, धोकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लेते हैं। तेल को कड़ाही में गर्म करके फिर उसमें गुड़ पीसकर मिला लेते हैं। जब गुड़ घुल जाए तो ऊपर दिए गए मसाले को मिलाकर सब्जियों के कटे हुए टुकड़ों के साथ भली प्रकार मिला लेते हैं। जब सब्जी व मसाला ठण्डा हो जाए तो मर्तबान में भरकर धूप में सुखाना चाहिए। लगभग एक हफ्ते पश्चात् मर्तबान के अचार में सिरका डाल देते हैं। जब अचार अच्छी तरह गल जाता है तब उसका प्रयोग करते हैं।

मुरब्बा 

प्रश्न 1.
आँवले का मुरब्बा कैसे तैयार करोगी?
उत्तरः
आँवले का मुरब्बा तैयार करना –
सामग्री –
1 किग्रा आँवले, 1 किग्रा चीनी, टाटरी, आवश्यकतानुसार पोटैशियम मेटाबाइसल्फाइट या सोडियम बेंजोएट, ऐसेंस।

बनाने की विधि – आँवलों को स्वच्छ जल से धोकर गोदने के पश्चात् फिटकरी या चूने के घोल में डालकर तीन या चार दिन तक रखा रहने दीजिए। पानी प्रतिदिन बदलती रहिए। फिर स्वच्छ जल से धोकर पानी उबालकर उसमें उन्हें डाल दीजिए और थोड़ी देर आग पर रखा रहने दीजिए। जब आँवले, कुछ मुलायम हो जाएँ तो उतारकर चलनी में डाल दीजिए। चीनी की चाशनी तैयार करके उसमें दूध या खटास डालकर मैल साफ कर लीजिए। फिर छानने के पश्चात् आँवलों को उसमें डालकर आग पर पकाइए, थोड़ी देर पक जाने के पश्चात् उतारकर रात भर के लिए रखा रहने दीजिए। दूसरे दिन ऑवलों को निकालकर चाशनी को पकाइए। फिर वे आँवले उसमें डालकर थोड़ी देर बाद आग से उतारकर रख दीजिए। तीसरे दिन चाशनी को फिर थोड़ा गाढ़ा कीजिए और आँवले तथा टाटरी (पिसी हुई) डालकर थोड़ा पकाइए। ठण्डा होने पर ऐसेंस व सोडियम बेंजोएट डालकर स्वच्छ किए हुए बर्तन में भर दीजिए।

सावधानियाँ –

  • आँवले गुठली तक गुदे हुए होने चाहिए।
  • चूने का घोल प्रतिदिन बदलते रहना चाहिए।
  • चाशनी पकाते समय आँवलों को बाहर निकाल लेना चाहिए।
  • चाशनी अधिक गाढ़ी नहीं होनी चाहिए।

प्रश्न 2.
आँवले का सूखा मुरब्बा कैसे बनता है?
उत्तरः
आँवले का सूखा मुरब्बा तैयार करना –
बनाने की विधि – आँवलों को उबालने तक की क्रिया उपर्युक्त बताए ढंग के अनुसार कर लीजिए। एक किग्रा आँवलों के लिए 1- 250 किग्रा चीनी ले लीजिए। चीनी में पानी मिलाकर उबाल लीजिए। उबाल आ जाने पर खटास या दूध डालकर मैल साफ करने के पश्चात् शर्बत को छान लीजिए। आँवलों को उसमें डालकर पका दीजिए। पीछे बताए गए अनुसार दो दिन तक बराबर पकाइए। तीसरे दिन इतना पकाइए कि चाशनी गाढ़ी हो जाए। इस चाशनी को 221°F पर उतार लीजिए और छलनी के ऊपर डाल दीजिए जिससे . चीनी की चाशनी फलों से अलग हो जाए। अब आँवलों को चीनी के रवे में लपेट लीजिए।

प्रश्न 3.
आम का मुरब्बा कैसे बनाओगी?
उत्तर
आम का मुरब्बा तैयार करना –
सामग्री –
1 किग्रा आम का गूदा, 1 किग्रा चीनी, 20 ग्राम चूना, आम का ऐसेंस, रंग पीला (खाने वाला), 5 ग्राम साइट्रिक एसिड आदि।

बनाने की विधि – आमों को स्वच्छ जल से धोकर बीच से काट लीजिए। (आम बिना रेशे वाला होना चाहिए) एक भगोने में चूने का घोल तैयार कर लीजिए। लकड़ी की तीली या काँटे से आम के टुकड़ों को थाली में रखकर अच्छी तरह से गोद लीजिए, फिर 5 घण्टे तक चूने के घोल में भीगे रहने दीजिए। इसके उपरान्त टुकड़ों को स्वच्छ जल से धोकर उबलने के लिए रख दीजिए और हल्का-सा गला लीजिए। भगोने में 250 ग्राम पानी लेकर आम के टुकड़ों को डालकर चीनी डाल दीजिए। उबाल आने पर दूध डालकर मैल साफ कर लीजिए और स्वच्छ कपड़े में छान लीजिए। उबले हुए आम के टुकड़ों को उसमें डालकर पका लीजिए। 20 मिनट पश्चात् उतारकर रख दीजिए। दूसरे दिन आम के टुकड़ों को चाशनी से निकाल लीजिए और चाशनी को पकाइए। थोड़ी देर पकाने के पश्चात् निकाले गए आम के टुकड़ों को उसी में डालकर पका लीजिए। यह क्रिया तीन दिन तक कीजिए। चौथे दिन थोड़ा-सा रंग पानी में घोलकर मिला लीजिए और थोड़ा पकाइए। साइट्रिक एसिड डाल लीजिए। ठण्डा होने पर ऐसेंस डाल दीजिए।

सावधानियाँ –

  • आम का छिलका पूर्णतः उतार लेना चाहिए।
  • मुरब्बा बनाने के पश्चात् सुरक्षित रखने के लिए सोडियम बेंजोएट डाल दीजिए।

प्रश्न 4.
पेठे का मुरब्बा कैसे तैयार करोगी?
उत्तरः
पेठे का मुरब्बा तैयार करना –
सामग्री – 1 किग्रा पेठा, 11/2 किग्रा चीनी, 5 ग्राम साइट्रिक एसिड इत्यादि।

बनाने की विधि-पेठे को छीलकर 2 1/2 सेमी चौड़े व 5 सेमी लम्बे पीस काट लीजिए। काँटों से टुकड़ों को गोद लीजिए और चने का घोल बताए गए अनुसार तैयार करके उन टुकड़ों को उसमें डाल दीजिए और 4 या 5 घण्टे भीगा रहने दीजिए। फिर स्वच्छ जल से धोकर कपड़े में टुकड़ों को बाँधकर उबलते हुए पानी में इतनी देर डाल दीजिए कि टुकड़े नर्म हो जाएँ। कुल चीनी का आधा भाग लेकर पानी डालकर चाशनी बना लीजिए। दूध डालकर उसका मैल निकालने के पश्चात् छान लीजिए। फिर आग पर चढ़ा दीजिए, उन टुकड़ों को उसमें डालकर पका लीजिए। थोड़ी देर बाद उतारकर रख दीजिए, उन टुकड़ों को उसी में पड़ा रहने दीजिए और रात भर के लिए ढककर रख दीजिए। दूसरे दिन उसको गर्म कीजिए और टुकड़ों को निकाल लीजिए, चाशनी गाढ़ी कीजिए व टुकड़े उसी में डाल दीजिए। यह प्रक्रिया 3 या 4 दिन तक अपनाएँ फिर साइट्रिक एसिड डाल दीजिए।

सावधानियाँ –

  • टुकड़ों को भली भाँति गोदना चाहिए।
  • फल के ऊपर का हरा भाग अच्छी तरह से छीलकर साफ कर दीजिए।
  • तीन या चार दिन तक बराबर पकाइए।

प्रश्न 5.
गाजर का तर मुरब्बा कैसे तैयार करोगी?
उत्तरः
गाजर का तर.मुरब्बा तैयार करना –
सामग्री –
1 किग्रा गाजर, 750 ग्राम चीनी, 5 ग्राम साइट्रिक एसिड, लाल रंग (खाने वाला), दूध।

बनाने की विधि-बहुत छोटी-छोटी गाजरों को छीलकर स्वच्छ जल से धो लीजिए, फिर गोदकर चूने के घोल में डाल दीजिए और लगभग 6 घण्टे तक भीगा रहने दीजिए। फिर स्वच्छ जल से धोकर हल्का-सा उबाल लीजिए। चीनी में 300 ग्राम पानी डालकर आग पर उबाल लीजिए। फिर थोड़ा दूध डालकर मैल निकाल लीजिए और स्वच्छ कपड़े में छान लीजिए। उबाली हुई गाजरों को उसमें डाल दीजिए और थोड़ी देर पकाइए। फिर दूसरे व तीसरे दिन पकाइए। चौथे दिन पानी में थोड़ा-सा रंग घोलकर मिला दीजिए तथा साइट्रिक एसिड डाल दीजिए। ठण्डा होने पर मर्तबान में भरिए।

सावधानियाँ –

  • गाजरों को अच्छी तरह गोदिए।
  • ऊपर का हरा भाग चाकू से काटकर साफ कर दीजिए।
  • यदि अन्दर पीला भाग हो तो पतली छुरी से निकाल दीजिए।

प्रश्न 6.
गाजर का सूखा मुरब्बा कैसे तैयार करोगी?
उत्तरः
गाजर का सूखा मुरब्बा तैयार करना –
सामग्री –
1 किग्रा लाल गाजर, 1 किग्रा चीनी, 5 ग्राम साइट्रिक एसिड, दूध, लाल रंग (खाने वाला), केवड़ा।

बनाने की विधि – गाजरों को धोकर छील लीजिए और बीच से काटकर उनका पीला कड़ा भाग निकाल लीजिए। फिर 6 सेमी लम्बे और 3 सेमी चौड़े टुकड़े काट लीजिए। उनको गोदकर चूने के घोल में 5 घण्टे के लगभग भीगा रहने दीजिए तथा स्वच्छ जल से धोकर भगोने में डालकर हल्का उबाल लीजिए। फिर उतारकर छलनी में डाल दीजिए। थोड़ी चीनी का रवा बना लीजिए। 750 ग्राम चीनी में 300 ग्राम पानी डालकर आग पर रख दीजिए, उबाल आने पर थोड़ा दूध डाल दीजिए। मैल के ऊपर आ जाने पर कलछी से उसे निकालकर हटा दीजिए। शर्बत को स्वच्छ कपड़े द्वारा छान लीजिए। उबली हुई गाजरों को उसमें डालकर पका लीजिए, 10 मिनट पश्चात् उतारकर रख दीजिए। दूसरे दिन गाजरों को निकालकर चाशनी 5 मिनट तक गर्म कीजिए। फिर गाजरों को डालकर 5-7 मिनट पकाइए। तीसरे दिन पुनः यही क्रिया कीजिए। चौथे दिन साइट्रिक एसिड व रंग को पानी में घोलकर डाल दीजिए, चाशनी को 70% से 75% तक गाढ़ा कर लीजिए, फिर उतारकर छलनी में डाल दीजिए। थोड़ा केवड़ा उनके ऊपर डाल दीजिए। जब ठण्डे हो जाएँ तब उन टुकड़ों को रवे में लपेट लीजिए।

सावधानियाँ –

  • गाजर का ऊपर का हरा भाग निकाल देना चाहिए।
  • अधिक न उबालिए वरना टुकड़े टूट जाएँगे।

वस्त्र एवं सिलाई 

प्रश्न 1.
सिलाई की मशीन के मुख्य-मुख्य पुों का वर्णन कीजिए।
उत्तरः
सिलाई की मशीन के मुख्य-मुख्य पुर्जे –
सिलाई की मशीन को यदि खोलकर उसके विभिन्न भागों को देखा जाए तो निम्नलिखित पुर्जे दिखाई देंगे –

  • नीडिल प्लेट (needle plate)—यह प्रेशर फुट के नीचे लगा हुआ स्टील का चमकदार भाग होता है। इसमें एक छिद्र होता है जिसमें होकर सुई नीचे चली जाती है और फन्दा बनाती है। यह कपड़े को सिलाई के स्थान पर समतल रखती है तथा मशीन के निचले भाग में धूल जाने से रोकती है।
  • स्लाइड प्लेट (slide plate)—यह नीडिल प्लेट के बाईं ओर लगी होती है। इसको सुगमता से बाहर की ओर खींचा जा सकता है और उस खुले स्थान से बॉबिन व शटल अन्दर फिट हो जाती है।
  • फीड डॉग (feed dog)-इसमें दाँत होते हैं और नीडिल प्लेट के नीचे लगा होता है तथा कपड़े को आगे बढ़ाता है।
  • प्रेशर फुट (pressure foot) – यह वस्त्र को दबाने का काम करता है जो कि समकोण की आकृति का होता है। यह नीडिल बार के एक सिरे पर एक स्क्रू द्वारा फिट रहता है।
  • नीडिल बार (needle bar)-यह स्टील की एक रॉड होती है। इसके निचले सिरे पर क्लैम्प द्वारा एक सुई कसी रहती है। यह सुई को गति प्रदान करती है।
  • प्रेशर फुट लिफ्टर (pressure foot lifter)–यह लीवर प्रेशर फुट को उठाने व गिराने के काम आता है।
  • टेकअप लीवर (take-up lever)–यह फेस प्लेट पर स्टील का बना होता है। इसके अग्रभाग में छिद्र होता है जिसमें धागा डाला जाता है।
  • फेस प्लेट (face plate)—यह मशीन में बाईं ओर बाहर की तरफ होती है तथा धूल और मिट्टी से मशीन की रक्षा करती है।
  • थैड गाइडर (thread guider)-यह स्टील का बना मोटा छल्ला होता है। टेक अप लीवर के पश्चात् धागा इसमें डाला जाता है। तत्पश्चात् सुई में डाला जाता है।
  • थैड टेंशन डिवाइडर (thread tension divider)—इसमें स्टील की बनी दो गोल चकियाँ होती हैं। इनके बीच से होकर धागा गुजरता है। फेस प्लेट पर लगे इस पुर्जे का प्रयोग सिलाई के टाँकों को ठीक करने के लिए किया जाता है।
  • स्पूल पिन (spool pin)—यह मशीन में ऊपर की तरफ लगी रहती है। पेचक, रील आदि लगाने में इसका प्रयोग किया जाता है।
  • फ्लाई व्हील (fly wheel)—यह मशीन में दाईं ओर लगा हुआ एक पहिया है। इसके घुमाने से मशीन चलती है।
  • बॉबिन वाइण्डर (bobbin winder)-इसमें एक छोटी स्टील की छड़ होती है, जिसमें बॉबिन लगा दी जाती है।
  • बॉबिन वाइण्डर टेंशन ऐंगिल (bobbin winder tension angle)-बॉबिन पर धागा लपेटते समय इसमें धागा लगा देने से धागे का तनाव ठीक रहता है।
  • स्टिच रेग्यूलेटर स्क्रू (stich regulator screw)-सभी कपड़ों पर एक समान बखिया नहीं की जाती है। मोटे कपड़ों पर मोटी सिलाई व महीन कपड़ों पर महीन सिलाई की जाती है। इसके लिए इस स्क्रू का प्रयोग किया जाता है।
  • हैण्डिल ड्राइवर (handle driver)—यह हाथ द्वारा चलाई जाने वाली मशीन में लगा होता है। इसका सिरा लकड़ी का होता है, जिसे पकड़कर मशीन का पहिया घुमाया जाता है।
  • प्रेशर बार रेग्यूलेटिंग स्क्रू (pressure bar regulating screw)-यह प्रेशर बार में बाईं ओर लगा रहता है। कपड़े की मोटाई के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के दबाव की आवश्यकता होती है। इसके द्वारा दबाव को घटाने या बढ़ाने का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 2.
सिलाई में प्रयोग होने वाले उपकरणों का वर्णन कीजिए।
उत्तरः
सिलाई में प्रयोग होने वाले उपकरण –
सिलाई करते समय कुछ विशेष उपकरणों को प्रयोग में लाने से वस्त्र की कटाई व सिलाई में सुगमता हो जाती है तथा सिलने पर वस्त्र सुन्दर दिखाई देता है। ये उपकरण अग्रलिखित हैं –

  • 1. कैंची (scissors) – साधारण वस्त्र काटने के उपयोग में आती है।
  • शियर (shear) – यह कैंची की अपेक्षा बड़ी होती है। पकड़ने वाला एक छिद्र बड़ा तथा दूसरा छोटा होता है। बड़े भाग में चारों उँगलियाँ डालकर इसको चलाया जाता है। यह भारी वस्त्रों को काटने के लिए विशेष उपयोगी होती है।
  • अंगुस्ताना (thimble) – उँगली की सुरक्षा के लिए तुरपन या हेम करते समय यह उँगली में पहन लिया जाता है। ये दो प्रकार के होते हैं-खुले या बन्द।
  • सुइयाँ (needles) – हाथ की सिलाई (कच्चा) या तुरपन, रफू आदि करने के लिए साधारणतया 6, 7, 8, 16 तथा 18 नम्बर की सुइयों का प्रयोग किया जाता है।
  • मिल्टन चॉक (milton chalk) – ये विभिन्न आकारों गोल, चौकोर आदि में मिलते हैं। वस्त्र पर इनसे निशान लगाए जाते हैं जो ब्रुश से झाड़ने पर सुगमता से मिट जाते हैं।
  • फीता (measuring tape) – नाप लेने तथा वस्त्र पर निशान लगाने के प्रयोग में आता है। इसको सुगमता से घुमाया जा सकता है। शरीर के अंगों की नाप लेने के लिए उपयोगी है।
  • हाथ का बुश (hand brush) – यह मुलायम बालों का बना होता है। वस्त्र पर रेशे व निशान आदि को हटाने के लिए इसका उपयोग होता है।
  • इस्तरी (press) – सिलाई से पहले कपड़े को सीधा करने के लिए तथा सिलाई के पश्चात् वस्त्र की समुचित तह बिठाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है।
  • महीन कपड़ा – जो वस्त्र ऐसे होते हैं जिनको सीधे इस्तरी के सम्पर्क में नहीं लाया जा सकता, उन पर प्रेस करने के लिए इस कपड़े को गीला करके प्रेस किए जाने वाले वस्त्र के ऊपर बिछा लिया जाता है।
  • बोर्ड (board) – यह समतल व चिकना तख्ता होता है। इस पर वस्त्र को फैलाकर काटा जाता है।
  • बटन होल कैंची (button hole scissors) – बनावट में कैंची की ही भाँति होता है। केवल एक स्क्रू लगा होता है जिसे एक चौड़ाई पर कस दिया जाता है जिससे सारे काज एक ही साइज में कटते हैं।

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प्रश्न 3.
सिलाई करते समय कौन-कौन सी बातें ध्यान में रखनी चाहिए?
उत्तरः
सिलाई करते समय ध्यान देने योग्य बातें –
सिलाई करते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए –

  • सिलाई करने से पूर्व ध्यान से देख लीजिए कि वस्त्र उल्टा है या सीधा। वस्त्र सिल जाने के पश्चात् उसको उधेड़ने से समय व वस्त्र की सुन्दरता दोनों नष्ट होते हैं।
  • वस्त्र के अनुकूल रंग व नम्बर का धागा प्रयोग में लाना चाहिए।
  • सिलाई करते समय शरीर को सीधा रखना चाहिए। झुककर बैठने से रीढ़ की हड्डी में तनाव उत्पन्न होता है, फेफड़ों तथा आँखों पर जोर पड़ता है।
  • मशीन को 1 फुट ऊँची चौकी पर रखना चाहिए।
  • रेशमी वस्त्र सिलते समय चोर बखिया का प्रयोग कीजिए।
  • सिलाई अधिक किनारे पर मत कीजिए वरना थोड़े दिनों बाद निकल जाएगी और वस्त्र देखने में गन्दा प्रतीत होगा।
  • कपड़ा बाएँ हाथ की ओर रखिए जिससे मशीन की गन्दगी उसमें नहीं लग सकेगी।
  • रेशमी व ऊनी वस्त्रों को थोड़ा-थोड़ा सिलने के पश्चात् प्रेस करते जाइए।
  • वस्त्र सिल जाने के पश्चात् उसमें लटकते धागों को कैंची से काटकर साफ कर दीजिए।
  • छोटी-छोटी सिलाइयों को पृथक्-पृथक् सिलने से धागा व समय दोनों नष्ट होते हैं। जिन सिलाइयों को करना है उन्हें एक के बाद दूसरी उसी से जोड़ते हुए करते चले जाइए। जिन वस्त्रों में कच्चा करने की आवश्यकता हो उन्हें कच्चा करके उसके साथ ही पक्का कर लीजिए। सब सिलाई पूरी होने के पश्चात् थोड़ा कपड़ा (रफ) उसके साथ सिल देना चाहिए। सिलाई करने पर उसे निकाल देना चाहिए।
  • सिले हुए वस्त्र में दो धागे, ऊपर व नीचे के होते हैं। उनको पकड़कर गाँठ बाँध दीजिए।
  • जाली, जार्जट, लेस आदि वस्त्रों को सिलते समय नीचे बारीक कागज लगा लीजिए। बाद में फाड़कर निकाल दीजिए।

प्रश्न 4.
शरीर के विभिन्न अंगों का नाप कैसे लिया जाता है?
उत्तरः
शरीर के विभिन्न अंगों का नाप लेना –
प्रत्येक मनुष्य के शरीर में भिन्नता होती है, फलस्वरूप नाप भी भिन्न-भिन्न होती है। अत: शरीर के विभिन्न भागों का नाप लेना आवश्यक है। नाप लेने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. छाती का नाप लेना
  2. शरीर के विभिन्न अंगों का नाप लेना।

1. छाती का नाप लेना – केवल छाती का नाप लेकर उसी हिसाब से विभिन्न अंगों का नाप निकाला जाता है। माना छाती का नाप 90 सेमी है तो गला बनाने के लिए छाती का 1/6 लेकर गले का निशान लगा लेते हैं। इसी प्रकार विभिन्न अंगों की लम्बाई व नाप छाती के ही नाप से ली जाती है।
2. शरीर के विभिन्न अंगों का नाप लेना – नाप लेने की यह विधि अधिक उपयुक्त है। इस विधि में विभिन्न अंगों की नाप लेकर ही वस्त्रों पर निशान लगाए जाते हैं और इस प्रकार वस्त्र सिल जाने के बाद शरीर पर उचित लगता है। शरीर के ऊपरी भागों के वस्त्र सिलने पर ऊपर के अंगों का नाप लिया जाता है तथा नीचे के वस्त्र सिलने पर ‘हिप’, ‘कमर’, ‘लम्बाई’ तथा ‘मोहरी’ आदि का नाप लिया जाता है।
शरीर के विभिन्न अंगों का नाप निम्न प्रकार लिया जाता है –

  • सीने का नाप लेना-फीते को बगल से सटाकर रखते हुए कमर के चारों ओर से घुमाकर सामने की ओर लाइए। अन्दर की ओर दो उँगलियाँ रखकर नम्बर नोट कर लीजिए।
  • लम्बाई-ऊपर गले के पास फीता रखकर, जितना वस्त्र लम्बा बनाना हो वहाँ तक फीते का नम्बर नोट कर लीजिए।
  • कमर का नाप-कमर का वस्त्र फिट आए, इसके लिए कमर की नाप ली जाती है। कमर के चारों तरफ फीता घुमाकर तीन उँगलियाँ बन्द करके नाप लिया जाता है।
  • आस्तीन का नाप-पूरी आस्तीन बनाने के लिए पूरी बाँह का नाप लिया जाता है। फीते को कन्धे पर रखकर बाँह को मोड़ते हुए कलाई तक नाप लीजिए।
  • नीचे की नाप-नीचे का वस्त्र बनाने के लिए कुछ नाप की आवश्यकता होती है। कमर पर फीता रखकर जितनी लम्बाई रखनी हो वहाँ तक नोट कर लिया जाता है।
  • हिप-पेडू के चारों ओर फीता घुमाकर वस्त्र की चौड़ाई के लिए इस माप की आवश्यकता होती है।
  • मोहरी–पाँयचे की चौड़ाई रखने के लिए इस नाप की आवश्यकता होती है। टखने के पास से गोलाई में फीता घुमाकर यह नाप लिया जाता है।

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 1 वन्दना

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name वन्दना
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 1 वन्दना

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UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य-साहित्य का विकास अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Samanya Hindi
Chapter Chapter 1
Chapter Name 173द्य-साहित्य का विकास अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
Number of Questions 5
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Samanya Hindi गद्य-साहित्य का विकास अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

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प्रश्न 8.
‘अष्टयाम’ की कौन-सी भाषा है ?
उत्तर:
‘अष्टयाम’ शीर्षक से चार लोगों-खुमान, हितहरिवंश, देव, नाभादास–ने रचनाएँ की हैं। इन चारों ही ‘अष्टयाम’ की भाषा ब्रजभाषा है।।

प्रश्न 9.
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प्रश्न 10.
भारतेन्दु युग के किन्हीं दो लेखकों की दो-दो कृतियों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
(1) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र–

  • वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति तथा
  • अकबर और औरंगजेब।

(2) प्रतापनारायण मिश्र–

  • हठी हम्मीर तथा
  • देशी कपड़ा।

प्रश्न 11.
भारतेन्दु युग से पूर्व किन दो राजाओं ने हिन्दी गद्य के निर्माण में योग दिया ?
या
हिन्दी गद्य की उर्दूप्रधान तथा संस्कृतप्रधान शैलियों के पक्षधर दो राजाओं के नाम लिखिए।
या
भारतेन्दु के उदय से पूर्व की खड़ी बोली के दो भिन्न शैलीकार गद्य-लेखकों के नाम लिखिए।

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प्रश्न 12.
हिन्दी गद्य के विकास में ईसाई धर्म-प्रचारकों के योगदान का उल्लेख कीजिए।
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प्रश्न 13.
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प्रश्न 14.
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प्रश्न 15.
खड़ी बोली गद्य का व्यवस्थित विकास कब हुआ ?
उत्तर:
खड़ी बोली गद्य को व्यवस्थित विकास भारतेन्दु युग में हुआ।

प्रश्न 16.
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प्रश्न 17.
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उत्तर:
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प्रश्न 18.
भारतेन्दु युग में किन गद्य-विधाओं का विकास हुआ ?
उत्तर:
भारतेन्दु युग में नाटक, कहानी, उपन्यास एवं निबन्ध गद्य-विधाओं का विकास हुआ।

प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से किन्हीं दो पत्रिकाओं के सम्पादकों के नाम लिखिए-
(1) आनन्द कादम्बिनी
(2) हरिश्चन्द्र चन्द्रिका
(3) नया जीवन
उत्तर:

  1. आनन्द कादम्बिनी – सम्पादक : बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’
  2. हरिश्चन्द्र चन्द्रिका – सम्पादक : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
  3. नया जीवन – सम्पादक : कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’

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प्रश्न 32.
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प्रश्न 33.
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प्रश्न 34.
मुंशी सदासुखलाल की भाषा की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. भाषा में अस्पष्टता अधिक है तथा
  2. वाक्य-रचना पर फारसी शैली का प्रभाव है।

प्रश्न 35.
हिन्दी खड़ी बोली गद्य-साहित्य के विकास में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का योगदान बताइए।
या
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के गद्य की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लोक-प्रचलित शब्दावली, कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रभावपूर्ण प्रयोग से अपनी भाषा को अधिकाधिक सशक्त एवं सजीव बनाया तथा नाटक, कहानी, निबन्ध 
आदि अनेक गद्य-विधाओं में रचनाएँ कीं। इसलिए इन्हें हिन्दी खड़ी बोली गद्य का जनक’ भी कहा जाता है।

प्रश्न 36.
छायावादी युग के गद्य की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. छायावादी युग का गद्य कलात्मक है तथा
  2. उसमें विशिष्ट अभिव्यंजना शक्ति, कल्पना की प्रधानता, स्वच्छन्द चेतना, अनुभूति की सघनता और भावुकता विद्यमान है।

प्रश्न 37.
किन्हीं दो छायावादी पद्य-लेखकों की एक-एक गद्य रचना का नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. जयशंकर प्रसाद — चन्द्रगुप्त (नाटक)
  2. महादेवी वर्मा – स्मृति की रेखाएँ (संस्मरण)

प्रश्न 38.
छायावादोत्तर हिन्दी गद्य (प्रगतिवादी गद्य) की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
छायावादोत्तर काल का हिन्दी गद्य सहज, व्यावहारिक और अलंकारविहीन था। उसमें भावुकतापूर्ण अभिव्यक्ति का स्थान चुटीली उक्तियों ने ले लिया था।

प्रश्न 39.
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प्रश्न 40.
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प्रश्न 41.
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प्रश्न 42.
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प्रन 43.
निम्नलिखित गद्य-लेखकों की एक-एक प्रसिद्ध गद्य-रचना का नाम लिखिए

  1. राजेन्द्र यादव तथा
  2. धीरेन्द्र वर्मा

उत्तर:

  1. लेखक-राजेन्द्र यादव, रचना-चेखव : ‘एक इण्टरव्यू, विधा–भेटवार्ता (काल्पनिक)
  2. लेखक–धीरेन्द्र वर्मा, रचना–मेरी कॉलेज डायरी, विधा-डायरी।

प्रश्न 44.
निम्नलिखित लेखकों की एक-एक प्रसिद्ध गद्य-रचना का नाम लिखिए

  1. महादेवी वर्मा तथा
  2. लक्ष्मीचन्द्र जैन

उत्तर:

  1. लेखिका-महादेवी वर्मा, रचना–पथ के साथी; अतीत के चलचित्र; स्मृति की रेखाएँ, विधा-संस्मरण; संस्मरण/रेखाचित्र।
  2. लेखक-लक्ष्मीचन्द्र जैन, रचना–भगवान् महावीर : एक इण्टरव्यू, विधा–भेटवार्ता । (काल्पनिक)।

प्रश्न 45.
निम्नलिखित लेखकों की एक-एक रचना का नाम लिखिए

  1. विद्यानिवास मिश्र,
  2. डॉ० नगेन्द्र,
  3. हजारीप्रसाद द्विवेदी,
  4. रघुवीर सिंह।

उत्तर:

  1. लेखक-विद्यानिवास मिश्र, रचना-मेरे राम का मुकुट भीग रहा है, विधा-निबन्ध।
  2. लेखक-डॉ० नगेन्द्र, रचना-हिन्दी साहित्य का बृहद् इतिहास, विधा-आलोचना।
  3. लेखक-हजारीप्रसाद द्विवेदी, रचना-कल्पलता (निबन्ध-संग्रह), विधा-निबन्ध।
  4. लेखक–रघुवीर सिंह, रचना–शेष स्मृतियाँ, विधा-संस्मरण।।

प्रश्न 46.
निम्नलिखित कृतियों में से किन्हीं दो कृतियों के रचनाकार और उनकी विधाओं के नाम लिखिए-

  1. अतीत के चलचित्र,
  2. लहरों के राजहंस,
  3. श्रद्धा-भक्ति।

उत्तर:

  1. कृति–अतीत के चलचित्र, रचनाकार-महादेवी वर्मा, विधा–रेखाचित्र।
  2. कृति-लहरों के राजहंस, रचनाकार-मोहन राकेश, विधा–नाटक।

प्रश्न 47.
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प्रश्न 48.
छायावादोत्तर युग में प्रारम्भ एवं समृद्ध होने वाली प्रकीर्ण गद्य-विधाओं में से किन्हीं दो 
विधाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, गद्यकाव्य, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी, भेटवार्ता, पत्र-साहित्य आदि हिन्दी की गौण या प्रकीर्ण गद्य-विधाएँ हैं।

प्रश्न 49.
प्रकीर्ण गद्य-विधाओं का अभूतपूर्व विकास किस युग में हुआ ?
उत्तर:
प्रकीर्ण गद्य-विधाओं का अभूतपूर्व विकास छायावादोत्तर युग में हुआ।

प्रश्न 50.
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प्रश्न 51.
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प्रश्न 52.
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प्रश्न 53.
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प्रश्न 54.
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प्रश्न 55.
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प्रश्न 56.
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प्रश्न 57.
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प्रश्न 58.
कहानी अथवा आधुनिक कहानी किस उद्देश्य से लिखी जाती है ?
उत्तर:
कहानी का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ व्यक्ति या समाज के महत्त्वपूर्ण अनुभवों, अनुभूतियों एवं यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति करना है, जब कि मानव-जीवन की कुण्ठाओं, भटकाव, संत्रास, दिशाहीनता और यान्त्रिक जड़ता का यथार्थ और मार्मिक चित्रण करना आधुनिक कहानी के अन्यतम उद्देश्य हैं।

प्रश्न 59.
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प्रश्न 60.
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प्रश्न 61.
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प्रश्न 62.
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प्रश्न 63.
आधुनिक युग की किन्हीं दो महिला कथाकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. मन्नू भण्डारी तथा
  2. उषा प्रियंवदा

प्रश्न 64.
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प्रश्न 65.
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प्रश्न 66.
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प्रश्न 67.
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प्रश्न 68.
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प्रश्न 69.
हिन्दी के दो कहानी-संग्रहों और उनके लेखकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
हिन्दी कहानियों के दो संग्रहों के नाम हैं-‘आकाशदीप’ तथा ‘ज्ञानदान’। इनके लेखकों के नाम क्रमश: हैं-जयशंकर प्रसाद तथा यशपाल।

प्रश्न 70.
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प्रश्न 71.
आधुनिक युग के किन्हीं दो कहानीकारों के नाम लिखिए।
या
प्रेमचन्द के बाद के किन्हीं दो प्रमुख कहानीकारों के नाम लिखिए।
या
छायावादोत्तर युग के किन्हीं दो कहानी-लेखकों के नाम लिखिए।

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प्रश्न 72.
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प्रश्न 73.
स्वतन्त्रता के पश्चात् के प्रमुख कंहानीकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के पश्चात् के प्रमुख कहानीकारों में विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 74.
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प्रश्न 75.
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प्रश्न 76.
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प्रश्न 77.
द्विवेदी युग के दो प्रमुख उपन्यासकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
द्विवेदी युग के दो प्रमुख उपन्यासकार हैं-

  1. किशोरीलाल गोस्वामी तथा
  2. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

प्रश्न 78.
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प्रश्न 79.
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प्रश्न 80.
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प्रश्न 81.
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प्रश्न 82.
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प्रश्न 83.
प्रेमचन्द के बाद होने वाले आधुनिक युग के प्रमुख उपन्यासकारों के नाम लिखिए।
या
आधुनिक युग के किन्हीं दो उपन्यासकारों के नाम लिखिए।

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प्रश्न 84.
‘उपन्यास’ और ‘कहानी’ का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कहानी का रचना-फलक आकार में छोटा होता है, जब कि उपन्यास का पर्याप्त विस्तृत। कहानी में प्रायः किसी एक घटना अथवा मनोदशा का वर्णन होती है, जब कि उपन्यास में समग्र मानव-जीवन से सम्बन्धित विविध घटनाओं का समावेश किया जाता है।

प्रश्न 85.
उपन्यास का शाब्दिक अर्थ बताइट।
उत्तर:
उपन्यास का शाब्दिक अर्थ है-सामने रखना। इसमें प्रसादन’ अर्थात् प्रसन्न करने का भाव भी निहित है। अत: किसी घटना को इस प्रकार सामने रखना कि दूसरों को प्रसन्नता हो, उपन्यस्त करना कहा जाएगा।

प्रश्न 86.
उपन्यास की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
हिन्दी में उपन्यास को अंग्रेजी के नॉवेल ऍब्द का पर्याय माना जाता है। उपन्यास गद्य की वह विधा है, जिसमें जीवन का व्यापक चित्रण रोचक एवं संजीव शैली में किया गया हो।

प्रश्न 87.
उपन्यास को कितने भागों में विभाजित किया जा सकता है ?
उत्तर:
विषय’ के आधार पर हिन्दी उपन्यासों को निम्नलिखित आठ भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  1. सामाजिक
  2. राजनीतिक
  3. ऐतिहासिक
  4. पौराणिक
  5. मनोवैज्ञानिक
  6. आंचलिक
  7. तिलिस्मी/जासूसी
  8. क्रान्तिकारी आदि।

प्रश्न 88.
हिन्दी के दो प्रसिद्ध उपन्यासकारों एवं उनके उपन्यासों के नाम लिखिए।
उत्तर:
हिन्दी के दो उपन्यासकारों एवं उनके उपन्यासों के नाम निम्नलिखित हैं

  1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी–बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचन्द्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा।
  2. श्री भगवतीचरण वर्मा-चित्रलेखा, भूले-बिसरे चित्र, तीन वर्ष, टेढ़े-मेढ़े रास्ते।

प्रश्न 89.
हिन्दी के प्रमुख मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों एवं उनकी रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
हिन्दी के प्रमुख मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार एवं उनके उपन्यासों के नाम निम्नलिखित हैं

  1. जैनेन्द्र कुमार-परख, सुनीता, त्यागपत्र आदि।
  2. इलाचन्द्र जोशी-जहाज का पंछी, घृणापथ आदि।
  3. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’–शेखर : एक जीवनी (दो भाग), नदी के द्वीप आदि।

प्रश्न 90.
भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि से नाटक के तत्त्व बताइट।
उत्तर:
भारतीय आचार्यों ने नाटकों के पाँच तत्त्व माने हैं—

  1. वस्तु
  2. नेता
  3. रस
  4. अभिनय एवं
  5. वृत्ति

पाश्चात्य विद्वानों ने नाटक के छः तत्त्व स्वीकार किये हैं–

  1. कथावस्तु
  2. पात्र एवं चरित्र-चित्रण
  3. कथोपकथन
  4. देशकाल
  5. भाषा-शैली एवं
  6. उद्देश्य

प्रश्न 91.
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प्रश्न 92.

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प्रश्न 93.
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प्रश्न 94.
भारतेन्दु युग के प्रमुख नाटककारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
भारतेन्दु युग के प्रमुख नाटककारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अतिरिक्त बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, लाला श्रीनिवास दास आदि के नाम प्रमुख हैं।

प्रश्न 95.
जयशंकर प्रसाद के समकालीन प्रमुख नाटककारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
जयशंकर प्रसाद के समकालीन नाटककारों में प्रमुख हैं—

  1. हरिकृष्ण ‘प्रेमी’
  2. लक्ष्मीनारायण मिश्र
  3. गोविन्दवल्लभ पन्त
  4. सेठ गोविन्ददास आदि

प्रश्न 96.
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प्रश्न 97.
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प्रश्न 98.
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प्रश्न 99.
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प्रश्न 100.
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प्रश्न 101.
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प्रश्न 102.
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प्रश्न 103.
हिन्दी गद्य की विविध विधाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. नाटक
  2. उपन्यास
  3. एकांकी
  4. कहानी
  5. निबन्ध
  6. आलोचना
  7. आत्मकथा
  8. जीवनी
  9. यात्रावृत्त
  10. रेखाचित्र
  11. संस्मरण
  12. गद्यकाव्य
  13.  रिपोर्ताज
  14. डायरी
  15.  रेडियो-रूपक
  16.  भेटवार्ता आदि

प्रश्न 104.
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प्रश्न 105.
छायावादी युग के सबसे प्रसिद्ध आलोचना-लेखक (आलोचक) कौन थे ?
उत्तर:
छायावादी युग के सबसे प्रसिद्ध आलोचना-लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल थे।

प्रश्न 106.
हिन्दी के दो प्रसिद्ध आलोचकों के नाम बताइए।
उत्तर:
हिन्दी के दो प्रसिद्ध आलोचक है—

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और
  2. बाबू श्यामसुन्दर दास।

प्रश्न 107.
आधुनिक युग के किसी प्रसिद्ध गद्य-आलोचक का नाम लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में डॉ० नगेन्द्र हिन्दी के एक प्रसिद्ध गद्य-आलोचक हैं।

प्रश्न 108.
शुक्लोत्तर युग के आलोचना-लेखकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
डॉ० रामकुमार वर्मा, डॉ० नगेन्द्र, डॉ० रामविलास शर्मा आदि शुक्लोत्तर युग के प्रसिद्ध आलोचना-लेखक हैं।

प्रश्न 109.
‘समालोचक पत्र किस युग में प्रकाशित हुआ था ?
उत्तर:
‘समालोचक’ पत्र, द्विवेदी युग में प्रकाशित हुआ था।

प्रश्न 110.
व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में ख्यात आलोचकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में ख्यात प्रमुख आलोचक हैं-आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ० विनय मोहन शर्मा, डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत आदि।।

प्रश्न 111.
मार्क्सवादी समीक्षा के क्षेत्र में ख्यातं आलोचकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मार्क्सवादी समीक्षा के क्षेत्र में ख्यात प्रमुख आलोचक हैं-डॉ० रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, डॉ० विश्वम्भरनाथ उपाध्याय आदि।।

प्रश्न 112.
जीवनी किसे कहते हैं ? हिन्दी में जीवनी-लेखन का कार्य किस युग में प्रारम्भ हुआ?
उत्तर:
किसी व्यक्ति विशेष के जीवन की जन्म से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं के क्रमबद्ध विवरण को ‘जीवनी’ कहा जाता है। हिन्दी में जीवनी-लेखन का कार्य भारतेन्दु युग में प्रारम्भ हो चुका था।

प्रश्न 113.
जीवनी लिखने वाले किसी एक लेखक तथा उसकी रचना का नाम लिखिए।
उत्तर:
लेखक–अमृतराय। रचना-‘कलम का सिपाही’

प्रश्न 114.
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प्रश्न 115.
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प्रश्न 116.
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प्रश्न 117.
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प्रश्न 118.
निम्नलिखित जीवनियाँ के लेखक कौन हैं-,
(1) सुमित्रानन्दन पन्त : जीवन और साहित्य,
(2) निराला की साहित्य-साधना।
उत्तर:
(1) शान्ति जोशी एवं
(2) डॉ० रामविलास शर्मा।

प्रश्न 119.
छायावादोत्तर युग के दो प्रसिद्ध जीवनी-लेखकों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. जैनेन्द्र कुमार तथा
  2. काका कालेलकर।

प्रश्न 120.
आत्मकथा का अर्थ बताइए और इसकी परिभाषा दीजिए। हिन्दी में प्रथम आत्मकथा का नाम बताइट।
उत्तर:
आत्मकथा का शाब्दिक अर्थ होता है-अपनी कहानी। यह लेखक को अपने जीवन से सम्बद्ध वर्णन है। अत: आत्मकथा किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा लिखा गया वह आख्यान या वृत्तान्त है जो वह बड़ी बेबाकी से अपने जीवन के बारे में प्रस्तुत करता है। जैन कवि बनारसीदास की ‘अर्द्धकथा’ को हिन्दी के आत्मकथा साहित्य की प्रथम आत्मकथा कहा जाता है।

प्रश्न 121.
हिन्दी के प्रमुख आत्मकथा-लेखकों के नाम लिखिए।’
उत्तर:
बाबू श्यामसुन्दर दास (मेरी आत्मकहानी), वियोगी हरि (मेरा जीवन प्रवाह), डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (मेरी आत्मकथा) आदि प्रमुख आत्मकथा लेखकों के अतिरिक्त डॉ० हरिवंशराय बच्चन, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ तथा गुलाबराय आदि श्रेष्ठ आत्मकथाकार हैं।

प्रश्न 122.
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प्रश्न 123.
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प्रश्न 124.
रेखाचित्र अथवा आत्मकथा की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रेखाचित्र-

  1. रेखाचित्र में कम-से-कम शब्दों के प्रयोग द्वारा किसी व्यक्ति या वस्तु की विशेषता को उभारा जाता है।
  2. रेखाचित्र में लेखक पूर्णत: तटस्थ होकर, किसी वस्तु या व्यक्ति का चित्रात्मक शैली में सजीव तथा भाबपूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है।

आत्मकथा-

  1. महापुरुषों द्वारा लिखी गयी आत्मकथाएँ पाठकों को उनके जीवन के आत्मीय पहलुओं से परिचय कराती हुई मार्गदर्शन करती हैं और प्रेरणा देती हैं।
  2. लेखक स्वयं अपने जीवन के प्रसंगों को पूर्ण निजता के साथ भावात्मक एवं रोचक शैली में प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 125.
रेखाचित्र किसे कहते हैं ? इसको परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
रेखाचित्र साहित्य की वह गद्यात्मक विधा है, जिसमें किसी विषय-विशेष का, उसकी बाह्य विशेषताओं को उभारते और तत्सम्बन्धित विभिन्न संक्षिप्त घटनाओं को समेटते हुए शब्द-रेखाओं के माध्यम से सजीव, सरस, मर्मस्पर्शी एवं प्रभावशाली चित्रे उभारा जाता है।

प्रश्न 126.
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प्रश्न 127.
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प्रश्न 128.
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प्रश्न 129.
संस्मरण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
संस्मरण का शाब्दिक अर्थ होता है सम्यक् स्मरण, जिसके मूल में गम्भीर चिन्तन का भाव निहित होता है। मानव-जीवन की कटु, तिक्त एवं मधुर स्मृतियाँ अनुभूति और संवेदना का संसर्ग प्राप्त करके जब हृदय से निकलती हैं तब वे संस्मरण का रूप धारण कर लेती हैं।

प्रश्न 130.
संस्मरण और रेखाचित्र का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संस्मरण में साहित्यकार अपने जीवन में आये किसी व्यक्ति विशेष पर आधारित घटना को रोचक शैली में, यथार्थ रूप में और अपने व्यक्तित्व में रँगकर प्रस्तुत करता है; जैसे-महादेवी वर्मा कृत ‘प्रणाम। रेखाचित्र में लेखक कम-से-कम शब्दों का प्रयोग करके किसी वस्तु या व्यक्ति का चित्रात्मक शैली में सजीव भावपूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है; जैसे–महादेवी वर्मा कृत ‘गिल्लू’।

प्रश्न 131.
‘संस्मरण’ की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. संस्मरण में व्यक्तियों, घटनाओं अथवा दृश्यों को स्मृति के सहारे पुन: कल्पना में मूर्त किया जाता है।
  2. संस्मरण में लेखक तटस्थ रहने के बाद भी स्वयं को चित्रित कर देता है।
  3. संस्मरण व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना के वैशिष्ट्य को लक्षित करने वाला होता है।

प्रश्न 132.
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प्रश्न 133.
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प्रश्न 134.
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प्रश्न 135.
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प्रश्न 136.
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प्रश्न 137.
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प्रश्न 138.
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प्रश्न 139.
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प्रश्न 140.
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प्रश्न 141.
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प्रश्न 142.
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प्रश्न 143.
‘रिपोर्ताज’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘रिपोर्ताज’ का सम्बन्ध अंग्रेजी के ‘रिपोर्ट’ शब्द से है। रिपोर्ट सामान्य रूप में समाचार-पत्रों में प्रकाशित करने तथा रेडियो-दूरदर्शन पर प्रसारित करने के लिए पत्रकार द्वारा तैयार की जाती है। यही कार्य जब सौन्दर्यचेता साहित्यकार द्वारा किया जाता है तो उसमें उसके व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ, प्रतिक्रियाएँ और व्याख्याएँ भी समाहित हो जाती हैं। इस प्रकार साहित्यकार द्वारा विरचित घटना-विवरण ‘रिपोर्ताज’ कहलाता है।

प्रश्न 144.
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प्रश्न 145.
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प्रश्न 146.
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प्रश्न 147.
हिन्दी में डायरी विधा का आरम्भ किस युग से हुआ ? किसी डायरी लेखक की डायरी का नाम लिखिए।
उत्तर:
हिन्दी में डायरी विधा का आरम्भ छायावाद युग से हुआ। डायरी लेखक-धीरेन्द्र वर्मा, रचना-मेरी कॉलेज डायरी।

प्रश्न 148.
हिन्दी की दो नवीन गद्य विधाओं व उन विधाओं के एक-एक प्रमुख लेखक का नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. रिपोर्ताज’ हिन्दी गद्य की एक नयी विधा है। इस विधा के प्रमुख लेखक– कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं।
  2. ‘डायरी’ हिन्दी की दूसरी नवीन गद्य विधा है। इस विधा के प्रमुख लेखक-धीरेन्द्र वर्मा हैं।

प्रश्न 149.
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प्रश्न 150.
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प्रश्न 151.
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प्रश्न 152.
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प्रश्न 153.
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प्रश्न 154.
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प्रश्न 155.
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प्रश्न 156.
हिन्दी में गद्यकाव्य की रचना करने वाले किन्हीं दो लेखकों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. राय कृष्णदास तथा
  2. वियोगी हरि

प्रश्न 157.
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प्रश्न 158.
‘भेटवार्ता’ अथवा ‘साक्षात्कार’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
जब रचनाकार किसी विशिष्ट व्यक्ति से मुलाकात करके उसके व्यक्तित्व, भावों, क्रिया-कलापों आदि से सम्बन्धित साहित्य की रचना प्रश्न-उत्तर रूप में करता है, तो यह रचना ‘भेटवार्ता या साक्षात्कार कहलाती है। यह विधा वस्तुतः पत्रकारिता की देन है। यह वास्तविक भी हो सकती है और काल्पनिक भी।

प्रश्न 159.
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प्रश्न 161.
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प्रश्न 162.
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प्रश्न 163.
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प्रश्न 164.
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प्रश्न 165.
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प्रश्न 166.
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प्रश्न 167.
हिन्दी के नयी पीढ़ी के चार साहित्यिक रचनाकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कमलेश्वर, हृदयेश, मनोहरश्याम जोशी तथा सुदीप नयी पीढ़ी के रचनाकार हैं।

प्रश्न 168.
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प्रश्न 169.
हिन्दी की दो प्राचीन साहित्यिक पत्रिकाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
हिन्दी की दो प्राचीन साहित्यिक पत्रिकाओं के नाम हैं—

  1. चरित्र एवं
  2. वचनका।

प्रश्न 170.
हिन्दी गद्य के विकास में ‘सरस्वती’ पत्रिका के योगदान पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी गद्य में व्याप्त व्याकरण सम्बन्धी भूलों को दूर किया गया, वाक्य-विन्यास को सुव्यवस्थित किया गया तथा लेखकों और कवियों को प्रेरणा देकर लेखन-कार्य के लिए प्रोत्साहित किया गया।

प्रश्न 171.
द्विवेदी युग के दो प्रसिद्ध सम्पादकों के नाम लिखिए।
उतर:
द्विवेदी युग के दो प्रसिद्ध सम्पादकों के नाम हैं—

  1. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी तथा
  2. श्री गणेश शंकर विद्यार्थी।

प्रश्न 172.
स्वतन्त्रता के बाद प्रकाशित किन्हीं दो साहित्यिक पत्रिकाओं और उनके सम्पादकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के बाद प्रकाशित होने वाली हिन्दी की दो साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं-‘कादम्बिनी तथा ‘धर्मयुग’। इनके सम्पादकों के नाम हैं-राजेन्द्र अवस्थी तथा धर्मवीर भारती। वर्तमान में केवल ‘कादम्बिनी’ को प्रकाशन ही हो रहा है।

प्रश्न 173.
निस्नलिखित में से किन्हीं दो सम्पादकों की पत्रिकाओं के नाम लिखिए
(1) महावीरप्रसाद द्विवेदी,
(2) श्यामसुन्दर दास,
(3) महादेवी वर्मा,
(4) धर्मवीर भारती।
उत्तर:
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विशेष—इस सूची में दिये गये पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक उनकी प्रकाशनावधि के दौरान बहुधा परिवर्तित होते रहते थे। प्रस्तुत सूची में रचना-धर्मिता के कारण बहुचर्चित सम्पादकों के नामों को ही उल्लेख किया जा रहा है। प्रस्तुत सूची की अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन वर्तमान में बाधित है। आजकल मात्र ‘कादम्बिनी’ तथा ‘हंस’ ही नियमित प्रकाशित हो रही हैं।

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