UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 12 लोकमान्य तिलकः (गद्य – भारती)

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परिचय

बाल गंगाधर तिलक ने एक सामान्य परिवार में जन्म लिया और ‘लोकमान्य’ की उपाधि पाकर अमर हो गये। जिस बालक के माता और पिता का स्वर्गवासे क्रमशः दस और सोलह वर्ष की अवस्था में हो गया हो, उसको अपने सहारे उच्च शिक्षा प्राप्त करना, निश्चय ही आश्चर्य का विषय है। तिलक जी को सरकारी नौकरी भी मिल सकती थी और वे वकालत भी कर सकते थे; किन्तु उन्होंने सुख-सुविधा को जीवन-लक्ष्य स्वीकार नहीं किया वरन् (UPBoardSolutions.com) सामान्यजन की सेवा और भारतमाता की स्वतन्त्रता को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘मराठा’ पत्र निकालकर इन्होंने अपने दोनों ही लक्ष्यों को प्राप्त करने का सार्थक प्रयास किया। “स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, इस सिंह-गर्जना हेतु तिलक जी को सदा याद रखा जाएगा। प्रखर देशभक्त तिलक जी एक प्रतिभाशाली लेखक भी थे। इनकी लिखी पुस्तकें-‘गीता रहस्य’, ‘वेदों का काल-निर्णय’ और ‘आर्यों का मूल निवास-स्थान’ आज भी विद्वज्जनों के मध्य समादृत हैं। प्रस्तुत पाठ लोकमान्य तिलक जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से छात्रों को पूर्णरूपेण परिचित कराता है और उससे प्रेरणा प्राप्त करने को प्रेरित करता है।

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पाठ-सारांश [2006,07, 09, 10, 11, 12, 13, 15]

नामकरण लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के सैनिकों में अग्रगण्य थे। इनका नाम ‘बाल’, पिता का नाम ‘गंगाधर’, वंश का नाम ‘तिलक’ तथा यश ‘लोकमान्य’ था—इस प्रकार इनका पूरा नाम लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक था। इनके जन्म का नाम ‘केशवराव’ था तथा इनकी प्रसिद्धि ‘बलवन्तराव’ के नाम से थी।

जन्म, माता-पिता एवं स्वभाव तिलक जी का जन्म विक्रम संवत् 1913 में आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की षष्ठी के दिन रत्नगिरि जिले के ‘चिरबल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचन्द्र गंगाधरराव तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। इनकी माता सुशीला, धर्मपरायणा, पतिव्रता और ईश्वरभक्तिनी थीं। तिलक उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता थे। इन्होंने महाराष्ट्र के युवकों में राष्ट्रीयता उत्पन्न करने के लिए देशहित के अनेक कार्य किये। इनका स्वभाव धीर, गम्भीर और निडर था।

शिक्षा तिलक जी का बचपन कष्टमय था। दस वर्ष की अवस्था में माता का और सोलह वर्ष की अवस्था में पिता का स्वर्गवास हो गया था। फिर भी इन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा। ये तीक्ष्ण बुद्धि के थे और अपनी कक्षा में सबसे आगे रहते थे। संस्कृत और गणित इनके प्रिय विषय थे। ये गणित के कंठिन प्रश्नों को भी मौखिक ही हल कर लिया करते थे। दस वर्ष की आयु में इन्होंने संस्कृत में श्लोक-रचना सीख ली थी। कॉलेज में पढ़ते समय ये दुर्बल शरीर के थे। बाद में इन्होंने तैरने, नौका चलाने आदि के द्वारा अपना शरीर पुष्ट कर लिया था। इन्होंने बीस वर्ष की आयु में बी०ए० और तेईस वर्ष की आयु में एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सरकारी नौकरी और वकालत छोड़कर ये देशसेवा और लोकसेवा के कार्य में लग गये। इन्होंने पीड़ित भारतीयों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। इन्होंने आजीवन अपना मन पीड़ित प्राणियों के उद्धार में लगाया और प्रिय-अप्रिय किसी भी घटना से कभी विचलित नहीं हुए।

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स्वतन्त्रता के लिए प्रयास तिलक जी ने हमें स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है यह उनका प्रिय नारा था। इन्होंने राजनीतिक जागरण के लिए केसरी (मराठी) और मराठा (अंग्रेजी) दो पत्र प्रकाशित किये। इन पत्रों के माध्यम से इन्होंने अंग्रेजी शासन की सच्ची आलोचना, राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग के लिए भारतीयों को प्रेरित करने के कार्य किये। यद्यपि सरकार की तीखी आलोचना के कारण इन्हें कड़ा दण्ड मिलता था तथापि किसी भी भय से इन्होंने सत्य-मार्ग को नहीं छोड़ा।

‘केसरी’ पत्र में प्रकाशित इनके तीखे लेखों के कारण इन्हें सरकार ने अठारह मास के सश्रम कारावास का कठोर दण्ड दिया। इस दण्ड के विरोध में भारत में जगह-जगह पर सभाएँ हुईं और आन्दोलन भी हुए। सम्मानित लोगों ने सरकार से प्रार्थना की, परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। सन् 1908 ई० में सरकार ने इन्हें राजद्रोह के अपराध में छ: वर्ष के लिए माण्डले जेल में भेज दिया। वहाँ इन्होंने बहुत कष्ट सहे।

रचनाएँ माण्डले जेल में रहकर इन्होंने गीता पर ‘गीता रहस्य’ नाम से भाष्य लिखा। इनकी अन्य रचनाएँ ‘वेदों का काल-निर्णय’ तथा ‘आर्यों का मूल निवास स्थान हैं। जेल से छूटकर ये पुनः देशसेवा के कार्य में लग गये।

मृत्यु राष्ट्र के लिए अनेक कष्टों को सहन करते हुए तिलक जी का 1977 विक्रम संवत् में स्वर्गवास हो गया। इन्होंने भारत के उद्धार के लिए जो किया, वह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है।

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गद्यांशों का ससन्दर्भ अनुवाद

(1)
लोकमान्यो बालगङ्गाधरतिलको नाम मनीषी भारतीयस्वातन्त्र्ययुद्धस्य प्रमुखसेनानीष्वन्यतमे, आसीत्। ‘बालः’ इति वास्तविकं तस्याभिधानम्। पितुरभिधानं, ‘गङ्गाधरः’ इति वंशश्च ‘तिलकः’ एवञ्च ‘बालगङ्गाधर तिलकः’ इति सम्पूर्णमभिधानं, किन्तु ‘लोकमान्य’ विरुदेनासौ विशेषेण (UPBoardSolutions.com) प्रसिद्धः। यद्यप्यस्य जन्मनाम ‘केशवराव’ आसीत् तथापि लोकस्तं ‘बलवन्तराव’ इत्यभिधया एव ज्ञातवान्। शब्दार्थ मनीषी = विद्वान्। अन्यतमः = अद्वितीय, प्रमुख अभिधानम् = नाम। विरुदेन = यश से, प्रसिद्धि से। अभिधया = नाम से। ज्ञातवान् = जाना।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के गद्य-खण्ड ‘गद्य-भारती’ में संकलित ‘लोकमान्य तिलकः’ पाठ से उद्धृत है।

[ संकेत इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा। ]

प्रसंग प्रस्तुत गद्यावतरण में तिलक के ‘लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ नाम पड़ने का कारण बताया गया है।

अनुवाद लोकमान्य बालगंगाधर तिलक नाम के विद्वान् भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में एक थे। उनका ‘बाल’ वास्तविक नाम था। पिता का नाम ‘गंगाधर’ और वंश ‘तिलक था। इस प्रकार ‘बाल गंगाधर तिलक’ यह पूरा नाम था, किन्तु ‘लोकमान्य’ के यश से ये विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। यद्यपि इनका जन्म का नाम ‘केशवराव’ था, तथापि लोग उन्हें ‘बलवन्तराव’ इस नाम से भी जानते थे।

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(2)
एष महापुरुषस्त्रयोदशाधिकनवदशशततमे विक्रमाब्दे (1913) आषाढमासे कृष्णपक्षे षष्ठ्यां तिथौ सोमवासरे महाराष्ट्रप्रदेशे रत्नगिरिमण्डलान्तर्गत ‘चिरवल’ संज्ञके ग्रामे जन्म लेभे। चितपावनः दाक्षिणात्यब्राह्मणकुलोत्पन्नस्य पितुर्नाम ‘श्री रामचन्द्रगङ्गाधर राव’ इत्यासीत्। सः कुशलोऽध्यापकः आसीत्। गङ्गाधरः स्वपुत्रं तिलकं बाल्ये एव गणितं मराठीभाषां संस्कृतचापाठयत्। अस्य जननी ‘श्रीमती पार्वतीबाई’ परमसुशीला, पतिव्रतधर्मपरायणा, ईश्वरभक्ता, सूर्योपासनायाञ्च रता बभूव। येनायं बालस्तेजस्वी बभूव इति जनाश्चावदन्। अस्य कार्यक्षेत्रं महाराष्ट्रप्रदेशः विशेषेणासीत्। स महाराष्ट्र उग्रराष्ट्रियतायाः जन्मदाता वर्तते स्म। तिलको महाराष्ट्र-नवयुवकेषु देशभक्ति-आत्मबलिदान आत्मत्यागस्य भावनां जनयितुं देशहितायानेकानि कार्याणि सम्पादितवान्। तस्य स्वभावः धीरः गम्भीरः निर्भयश्चासीत्। तस्य जीवने वीरमराठानां प्रभावः पूर्णरूपेणाभवत्।।

शब्दार्थ त्रयोदशाधिकनवदशशततमे = उन्नीस सौ तेरह में। संज्ञके ग्रामे = नाम वाले गाँव में चितपावनः = परम पवित्र। संस्कृतञ्चापाठयत् = और संस्कृत पढ़ायी। सूर्योपासनायाञ्च = और सूर्य की पूजा में। जनयितुम् = उत्पन्न करने के लिए। सम्पादितवान् = किये। निर्भयश्चासीत् = और निर्भय था।।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के जन्म, माता-पिता का नाम एवं उनके स्वभाव का उन पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इस महापुरुष ने 1913 विक्रम संवत् में आषाढ़ महीने में कृष्णपक्ष में षष्ठी तिथि को सोमवार के दिन महाराष्ट्र प्रदेश में रत्नगिरि जिले के अन्तर्गत ‘चिरबल’ नामक ग्राम में जन्म लिया था। हृदय को पवित्र करने वाले दाक्षिणात्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न पिताजी का नाम श्री रामचन्द्र गंगाधरराव’ था। वे कुशल अध्यापक थे। गंगाधर ने अपने पुत्र तिलक को बचपन में ही गणित, मराठी भाषा और संस्कृत भाषा पढ़ायी। इनकी माता श्रीमती पार्वतीबाई अत्यन्त सुशीला, पातिव्रत धर्म में परायणा, ईश्वरभक्तिनी और सूर्योपासना में लगी रहती थीं। इसी से यह बालक तेजस्वी हुआ, ऐसा लोग कहते थे। इनका कार्य-क्षेत्र विशेष रूप से महाराष्ट्र प्रदेश था। वे महाराष्ट्र में उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता थे। तिलक ने महाराष्ट्र के नवयुवकों में देशभक्ति, आत्म-बलिदान, आत्म-त्याग की भावना उत्पन्न करने के लिए देशहित के अनेक कार्य किये। (UPBoardSolutions.com) उनका स्वभाव धीर, गम्भीर और निडर था। उनके जीवन पर पूर्णरूप से वीर मराठों का प्रभाव था।

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(3)
अस्य बाल्यकालोऽतिकष्टेन व्यतीतः। यदा स दशवर्षदेशीयोऽभूत तदा तस्य जननी परलोकं गता। षोडशवर्षदेशीयो यदा दशम्यां कक्षायामधीते स्म तदा पितृहीनो जातोऽयं शिशुः। एवं नानाबाधाबाधितोऽपि सोऽध्ययनं नात्यजत्। विपद्वायुः कदापि तस्य धैर्यं चालयितुं न शशाक। अस्मिन्नेव वर्षे तेन प्रवेशिका परीक्षा समुत्तीर्णा। इत्थमस्य जीवनं प्रारम्भादेव सङ्घर्षमयमभूत्। [2006, 12]

शब्दार्थ पुरलोकंगता = स्वर्गवास हो गया। अधीते स्म = पढ़ते थे। नानाबाधाबाधितोऽपि = अनेक प्रकार की बाधाओं से बाधित होते हुए भी। नात्यजत् = नहीं छोड़ा। विपद्-वायुः = विपत्तिरूपी वायु। चालयितुम् = चलाने के लिए, डिगाने के लिए। अस्मिन्नेव वर्षे = इसी वर्ष में।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के प्रारम्भिक जीवन के संघर्षमय होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद इनका बाल्यकाल अत्यन्त कष्ट से बीता। जब वे दस वर्ष के थे, तब उनकी माता परलोक सिधार गयी थीं। सोलह वर्ष के जब यह दसवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब यह पिता से विहीन हो गये। इस प्रकार अनेक बाधाओं के आने पर भी उन्होंने अध्ययन नहीं छोड़ा। विपत्तिरूपी वायु कभी उनके धैर्य को नहीं डिगा सकी। इसी वर्ष उन्होंने प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार इनका जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षपूर्ण था।

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(4)
बाल्यकालादेवायं पठने कुशाग्रबुद्धिः स्वकक्षायाञ्च सर्वतोऽग्रणीरासीत्। संस्कृत-गणिते तस्य प्रियविषयौ आस्ताम्। छात्रावस्थायां यदाध्यापकः गणितस्य प्रश्नं पट्टिकायां लेखितुमादिशति तदा से कथयति स्म। किं पट्टिकायां लेखनेन, मुखेनैवोत्तरं वदिष्यामि। स गणितस्य कठिनप्रश्नानां (UPBoardSolutions.com) मौखिकमेवोत्तरमवदत्। परीक्षायां पूर्वं क्लिष्टप्रश्नानां समाधानमकरोत्। दशमे वर्षेऽयं शिशुः संस्कृतभाषायां नूतनश्लोकनिर्माणशक्ति प्रादर्शयत्। [2008,09,12,14]

शब्दार्थ कुशाग्रबुद्धिः = तेज बुद्धि वाला। सर्वतोऽग्रणीः = सबसे आगे। पट्टिकायां = पट्टी (स्लेट) पर। लेखितुमादिशति = लिखने के लिए आज्ञा देते थे। मुखेनैवोत्तरं = मुख से ही उत्तर। नूतनश्लोकनिर्माणशक्ति = नये श्लोकों को बनाने (रचना करने) की शक्ति प्रादर्शयत् = प्रदर्शित की।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के कुशाग्रबुद्धि होने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद बचपन से ही ये पढ़ने में तीक्ष्ण बुद्धि और अपनी कक्षा में सबसे आगे थे। संस्कृत और गणित उनके प्रिय विषय थे। छात्रावस्था में जब अध्यापक इन्हें गणित के प्रश्न पट्टी (स्लेट) पर लिखने के लिए आज्ञा देते थे, तब वे कहते थे—स्लेट पर लिखने से क्या (लाभ)? मैं मौखिक ही उत्तर बता दूंगा। वह गणित के कठिन प्रश्नों का मौखिक ही उत्तर बता देते थे। परीक्षा में वे पहले कठिन प्रश्नों को हल करते थे। दसवें वर्ष में इस बालक ने संस्कृत में नये श्लोक रचने की शक्ति प्रदर्शित कर दी थी।

(5)
महाविद्यालये प्रवेशसमये स नितरां कृशगात्र आसीत्। दुर्बलशरीरेण स्वबलं वर्धयितुं नदीतरणनौकाचालनादि विविधक्रियाकलापेन स्वगात्रं सुदृढं सम्पादितवान्। सहजैव चास्य महाप्राणताऽऽविर्बभूव। तत आजीवनं नीरोगतायाः निरन्तरमानन्दमभजत्। [2012]

शब्दार्थ नितरां = अत्यधिक कृशगात्र = दुर्बल शरीर वाले। वर्धयितुम् = बढ़ाने के लिए। नदीतरणनौकाचालनादि विविधक्रियाकलापेन = नदी में तैरने, नाव चलाने आदि अनेक क्रिया-कलापों से। महाप्राणताऽऽविर्बभूव = अत्यधिक शक्तिशालित उत्पन्न हो गयी। निरन्तरमानन्दमभजत् = लगातार आनन्द को प्राप्त किया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के व्यायाम आदि द्वारा स्वास्थ्य-लाभ करने का वर्णन किया गया है।

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अनुवाद महाविद्यालय में प्रवेश के समय वे अत्यधिक दुर्बल शरीर के थे। कमजोर शरीर से अपना बल बढ़ाने के लिए नदी में तैरना, नाव चलाना आदि अनेक प्रकार के क्रिया-कलापों से उन्होंने अपने शरीर को बलवान् बनाया। इनमें स्वाभाविक रूप से ही महान् शक्ति उत्पन्न हो गयी। तब जीवनभर नीरोगिता का निरन्तर आनन्द प्राप्त किया।

(6)
विंशतितमे वर्षे बी०ए० ततश्च वर्षत्रयानन्तरम् एल-एल०बी० इत्युभे परीक्षे सबहुमानं समुत्तीर्य , देशसेवानुरागवशाद् राजकीय सेवावृत्तिं अधिवक्तुः (वकालत) वृत्तिञ्च विहाय लोकसेवाकार्ये.. संलग्नोऽभवत्। भारतभूमेः पीडितानां भारतीयानाञ्च कृतेऽयं स्वजीवनमेव समर्पयत्। (UPBoardSolutions.com) पीडितानां करुणारवं श्रुत्वा स नग्नपादाभ्यामेवाधावत्। एतादृशा ऐव महोदया ऐश्वर्यशालिनो भवन्ति। पठनादारभ्याजीवनं स स्वधियं सर्वसत्त्वोदधृतौ निदधे। प्रिययाप्रियया वा कयापि घटनया स स्वमार्गच्युतो न बभूव। “सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता” इति तस्य आदर्शः।

शब्दार्थ उभे = दोनों। सबहुमानम् = सम्मानसहित देशसेवानुरागवशात् = देशसेवा के प्रेम के कारण। अधिवक्तुः = वकालता वृत्तिम् = आजीविका को। विहाय = छोड़कर। कृते = के लिए। करुणारवम् = करुण स्वर नग्नपादाभ्यामेवाधावत् = नंगे पैरों ही दौड़ते थे। पठनादारभ्याजीवनं = पढ़ने से लेकर जीवन भर स्वधियम् = अपनी बुद्धि को। सर्वसत्त्वोधृतौ = सब प्राणियों के उद्धार में निदधे = लगाया। प्रिययाप्रियया = प्रिय और अप्रिय से। स्वमार्गच्युतः = अपने मार्ग से च्युत होने वाले।

प्रसंग” प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के देश-प्रेम एवं मानवता की सेवा किये जाने का वर्णन किया गया है।

अनुवाद बीसवें वर्ष में बी०ए० और उसके तीन वर्ष पश्चात् एल-एल० बी० ये दोनों परीक्षाएँ सम्मानसहित उत्तीर्ण करके, देशसेवा के प्रेम के कारण सरकारी नौकरी और वकालत के पेशे को छोड़कर, लोकसेवा के कार्य में संलग्न हो गये। भारत-भूमि के पीड़ित भारतीयों के लिए इन्होंने अपना जीवन ही अर्पित कर दिया। पीड़ितों के करुण स्वर को सुनकर वे नंगे पैर ही दौड़ पड़ते थे। इस प्रकार के ही महापुरुष ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं। पढ़ने से लेकर जीवनपर्यन्त उन्होंने अपनी बुद्धि को सभी प्राणियों के उद्धार में लगाया। प्रिय या अप्रिय किसी घटना से वे कभी अपने मार्ग से च्युत (हटे) नहीं हुए। “सम्पत्ति (सुख) में और विपत्ति (दुःख) में महापुरुष एक-से रहते हैं, यह उनका आदर्श था।

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(7)
सोऽस्मान् स्वतन्त्रतायाः पाठमपाठयत्”स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः” इति घोषणामकरोत्। स्वराज्यप्राप्त्यर्थं घोरमसौ क्लेशमसहत लोकमान्यो राजनीतिकजागर्तेरुत्पादनार्थं देशभक्तैः सह मिलित्वा मराठीभाषायां ‘केसरी’ आङ्ग्लभाषायाञ्च ‘मराठा’ साप्ताहिकं पत्रद्वयं प्रकाशयामास। तेन (UPBoardSolutions.com) स्वप्रकाशितपत्रद्वयद्वारा आङ्ग्लशासनस्य सत्यालोचनं राष्ट्रियशिक्षणं वैदेशिकवस्तूनां बहिष्कारः स्वदेशीयवस्तूनामुपयोगश्च प्रचालिताः। स स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकार इति सिद्धान्तञ्च प्रचारयामास। एतयोः साप्ताहिकपत्रयोः सम्पादने सञ्चालने चायं यानि दुःखानि सहते स्म तेषां वर्णनं सुदुष्करम्। शासनस्य तीव्रालोचनेन पुनः पुनरयं शासकैर्दण्डयते स्म। कदापि कथमपि लोभेन, भयेन, मदेन, मात्सर्येण वा सत्पक्षस्यानुसरणं नात्यजत्। एवं शासकैः कृतानि स बहूनि कष्टानि असहत।

सोऽस्मान् स्वतन्त्रतायाः …………………………………………….. प्रचारयामास। [2006]

शब्दार्थ पाठमपाठयत् = पाठ पढ़ाया। स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः = स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। क्लेशम् = कष्ट| जागर्तेरुत्पादनार्थं = जागृति को उत्पन्न करने के लिए प्रकाशयामास = प्रकाशित किया| सत्यालोचनं = सच्ची आलोचना। स्वदेशीयवस्तूनामुपयोगश्च = और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग। प्रचालिताः = प्रचलित किये गये। प्रचारयामास = प्रचार किया। सुदुष्करम् = अत्यन्त कठिन है। पुनः पुनः अयं = बार-बार ये। मात्सर्येण = ईर्ष्या के द्वारा। सत्पक्षस्य = सत्य के पक्ष का। नात्यजत् = नहीं छोड़ा।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के द्वारा स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए किये गये कार्यों और सहे गये कष्टों का मार्मिक वर्णन है।

अनुवाद उन्होंने हमें स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ यह घोषणा की। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए इन्होंने भयानक कष्ट सहे। लोकमान्य ने राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने के लिए देशभक्तों के साथ मिलकर मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ ये दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किये। उन्होंने अपने द्वारा प्रकाशित दोनों पत्रों द्वारा अंग्रेजी शासन की सच्ची आलोचना, राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और अपने देश की वस्तुओं का उपयोग प्रचलित किया (चलाया)। उन्होंने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ इस सिद्धान्त का प्रचार किया। इन दोनों साप्ताहिक पत्रों के सम्पादन और संचालन में उन्होंने जिन कष्टों को सहा, उनका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। शासन की तीव्र आलोचना से वे बार-बार शासकों के द्वारा दण्डित हुए। (उन्होंने) कभी किसी प्रकार लोभ, भय, अहंकार या ईर्ष्या से सच्चे पक्ष का अनुसरण करना नहीं छोड़ा। इस प्रकार उन्होंने शासकों के द्वारा किये गये बहुत से कष्टों को सहा।।

(8)
‘केसरी’ पत्रस्य तीक्ष्णैर्लेखैः कुपिताः शासकाः तिलकमष्टादशमासिकेन सश्रम-कारावासस्य दण्डेनादण्डयन्। अस्य दण्डस्य विरोधाय भारतवर्षे अनेकेषु स्थानेषु सभावर्षे सभा सजाता। देशस्य सम्मान्यैः पुरुषैः लोकमान्यस्य मुक्तये बहूनि प्रार्थनापत्राणि प्रेषितानि। अयं सर्वप्रयासः विफलो जातः। शासकः पुनश्च 1908 खीष्टाब्दे तिलकमहोदयं राजद्रोहस्यापराधे दण्डितं कृतवान्। षड्वर्षेभ्यः दण्डितः स द्वीपनिर्वासनदण्डं बर्मादेशस्य माण्डले कारागारे कठोरकष्टानि सोढवा न्याय्यात् पथो न विचचाल।।

शब्दार्थ तीक्ष्णैः = तीखे। अष्टादशमासिकेन = अठारह महीने के। मुक्तये = छुटकारे के लिए। प्रेषितानि = भेजे। राजद्रोहस्यापराधे = राजद्रोह के अपराध में। सोढ्वा = सहकर। न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से। न विचचाल = विचलित नहीं हुए।

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प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के द्वारा स्वतन्त्रता के लिए सहे गये कष्टों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद ‘केसरी’ पत्र के तीखे लेखों से क्रुद्ध हुए शासकों ने तिलक जी को अठारह मास के सश्रम कारावास के दण्ड से दण्डित किया। इस दण्ड के विरोध के लिए भारतवर्ष में अनेक स्थानों पर सभाएँ हुईं। देश के सम्मानित लोगों ने लोकमान्य जी की मुक्ति के लिए बहुत-से (UPBoardSolutions.com) प्रार्थना-पत्र भेजे। यह सारा प्रयास विफल हो गया। शासकों ने फिर से सन् 1908 ईस्वी में तिलक जी को राजद्रोह के अपराध में दण्डित किया। छ: वर्षों के लिए दण्डित वे (भारत) द्वीप से निकालने (निर्वासन) के दण्ड को बर्मा देश की माण्डले जेल में कठोर कष्टों को सहकर भी न्याय के मार्ग से विचलित नहीं हुए।

(9)
अत्रैव निर्वासनकाले तेन विश्वप्रसिद्धं गीतारहस्यं नाम गीतायाः कर्मयोग-प्रतिपादकं नवीनं भाष्यं रचितम्। कर्मसु कौशलमेव कर्मयोगः, गीता तमेव कर्मयोगं प्रतिपादयति। अतः सर्वे जनाः कर्मयोगिनः स्युः इति तेन उपदिष्टम्। कारागारात् विमुक्तोऽयं देशवासिभिरभिनन्दितः। तदनन्तरं स ‘होमरूल’ सत्याग्रहे सम्मिलितवान्। इत्थं पुनः स देशसेवायां संलग्नोऽभूत्। ‘गीता रहस्यम्’, ‘वेदकालनिर्णयः’, ‘आर्याणां मूलवासस्थानम्’ इत्येतानि पुस्तकानि तस्याध्ययनस्य गाम्भीर्यं प्रतिपादयन्ति।

अत्रैव निर्वासनकाले …………………………………………….. अभिनन्दितः।
अत्रैव निर्वासनकाले …………………………………………….. संलग्नोऽभूत्। [2012]

शब्दार्थ निर्वासनकाले = देश-निकाले के समय में। प्रतिपादयति = सिद्ध करती है। कर्मयोगिनः = कर्मयोगी। विमुक्तोऽयं = छूटे हुए थे। गाम्भीर्यम् = गम्भीरता को। प्रतिपादयन्ति = बतलाती हैं।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में कारावास के समय में तिलक जी के द्वारा रचित ग्रन्थों का वर्णन किया गया है।

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अनुवाद यहीं पर निर्वासन के समय में उन्होंने ‘गीता-रहस्य’ नाम का कर्मयोग का प्रतिपादन करने वाला गीता का नया भाष्य रचा। कर्मों में कुशलता ही कर्मयोग है। गीता उसी कर्मयोग का प्रतिपादन करती है। अत: सभी लोगों को कर्मयोगी होना चाहिए, ऐसा उन्होंने उपदेश दिया। कारागार से छूटे हुए इनका देशवासियों ने अभिनन्दन किया। इसके बाद वे ‘होमरूल’ सत्याग्रह में सम्मिलित हुए। इस प्रकार पुनः वे देशसेवा में लग गये। ‘गीता रहस्य’, ‘वेदों का काल-निर्णय’, आर्यों का मूल-निवास स्थान’-ये पुस्तकें उनके अध्ययन की गम्भीरता को बताती हैं।

(10)
देशोद्धारकाणामग्रणीः स्वराष्ट्रायानेकान् क्लेशान् सहमानः लोकमान्यः सप्तसप्तत्यधिक नवदशशततमे विक्रमाब्दे (1977) चतुष्पष्टिवर्षावस्थायामगस्तमासस्य प्रथमदिनाङ्के नश्वरं शरीरं परित्यज्य दिवमगच्छत। एवं कर्तव्यनिष्ठो निर्भयः तपस्विकल्पो महापुरुषो लोकमान्य तिलको (UPBoardSolutions.com) भारतदेशस्योद्धरणाय यदकरोत् तत्तु वृत्तं स्वर्णाक्षरलिखितं भारतस्वातन्त्र्येतिहासे सदैव प्रकाशयिष्यते। केनापि कविना सूक्तम् दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या, चिन्ता परेषां सुखवर्धनाय। परावबोधाय वचांसि यस्य, वन्द्यस्त्रिलोकी तिलकः स एव ।

शब्दार्थ देशोद्धारकाणामग्रणीः = देश का उद्धार करने वालों में प्रमुख सहमानः = सहते हुए। सप्तसप्तत्यधिकनवदशशततमे = उन्नीस सौ सतहत्तर में। परित्यज्य = छोड़कर। दिवम् = स्वर्ग को। अगच्छत् = गये। तपस्विकल्पः = तपस्वी के समान। वृत्तम् = वृत्तान्त स्वर्णाक्षरलिखितम् = सोने के अक्षरों में लिखा गया है। प्रकाशयिष्यते = प्रकाशित करेगा। सूक्तम् = ठीक कहा है। सुकृताय = पुण्य करने के लिए, उत्तम कर्मों के लिए। परावबोधाय = दूसरों के ज्ञान के लिए। वन्द्यः = नमस्कार के योग्य

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश में तिलक जी के जीवन के अन्तिम दिनों और उनके राष्ट्रीय महत्त्व का वर्णन किया गया है।

अनुवाद देश का उद्धार करने वालों में अग्रणी, अपने राष्ट्र के लिए अनेक कष्टों को सहते हुए लोकमान्य तिलक विक्रम संवत् 1977 में 64 वर्ष की अवस्था में 1 अगस्त को नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। इस प्रकार कर्तव्यनिष्ठ, निडर, तपस्वी के समान महापुरुष लोकमान्य तिलक ने भारत देश के उद्धार के लिए जो किया, वह वृत्तान्त स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में सदा ही चमकता रहेगा। किसी कवि ने ठीक कहा हैजिसकी लक्ष्मी दान के लिए, विद्या शुभ कार्य के लिए, चिन्ता दूसरों का सुख बढ़ाने के लिए, वचन दूसरों के ज्ञान के लिए होते हैं, वही तीनों लोकों का तिलक (श्रेष्ठ) व्यक्ति वन्दना के योग्य है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकमान्य तिलक के प्रारम्भिक जीवन के विषय में लिखिए।
या
तिलक के पिता का क्या नाम था? [2008]
या
तिलक का जन्म कब और कहाँ पर हुआ था? [2009]
उत्तर :
तिलक जी को जन्म विक्रम संवत् 1913 में आषाढ़ कृष्णपक्ष षष्ठी के दिन रत्नगिरि जिले के ‘चिरबल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचन्द्रगंगाधर राव तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनका प्रारम्भिक (UPBoardSolutions.com) जीवन बड़े कष्ट से बीता। इसके बावजूद इन्होंने अध्ययन नहीं छोड़ा। संस्कृत और गणित इनके प्रिय विषय थे। गणित के प्रश्नों को ये
मौखिक ही हल कर लिया करते थे। इन्होंने बीस वर्ष की आयु में बी०ए० और तेईस वर्ष की आयु में एल-एल०बी० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। सरकारी नौकरी और वकालत छोड़कर इन्होंने देश-सेवा की
और पीड़ित भारतीयों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

प्रश्न 2.
तिलक जी द्वारा लिखी गयी प्रमुख पुस्तकों के नाम लिखिए।
या
‘गीता-रहस्य’ किसकी रचना है? [2007,11]
या
लोकमान्य के गीता भाष्य का क्या नाम है? [2007]
उत्तर :
सन् 1908 ई० में अंग्रेजी सरकार ने तिलक जी को राजद्रोह के अपराध में छः वर्ष के लिए माण्डले जेल भेज दिया। जेल में इन्होंने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ पर ‘गीता-रहस्य’ नाम से भाष्य लिखा। इसके अतिरिक्त इन्होंने ‘वेदों का काल-निर्णय’ और ‘आर्यों का मूल निवासस्थान’ शीर्षक पुस्तकें भी लिखीं।

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प्रश्न 3.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में तिलक जी के योगदान को ‘लोकमान्य तिलकः’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
या
लोकमान्य तिलक के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
या
तिलक के सामाजिक कार्यों का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर :
उच्च शिक्षा प्राप्त करके भी तिलक जी सरकारी नौकरी और वकालत का लोभ छोड़कर देश-सेवा के कार्य में लग गये। इन्होंने अनेक आन्दोलनों का संचालन किया तथा जेल-यात्राएँ भी कीं। तिलक जी ने भारतवासियों को स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया। “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, यह इनका प्रिय नारा था। राजनीतिक जागरण के लिए इन्होंने केसरी (मराठी में) और मराठा (अंग्रेजी में) दो पत्र प्रकाशित किये। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने अंग्रेजी शासन की तीखी आलोचना करने के साथ-साथ भारतीयों को राष्ट्रीयता की शिक्षा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने भारत के उद्धार के लिए जो कार्य किये वे भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे रहेंगे।

प्रश्न 4.
तिलक का पूरा नाम व उनकी घोषणा लिखिए। [2012, 13]
उत्तर :
तिलक का पूरा नाम “लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ था। इनके जन्म का नाम ‘केशवराव’ था तथा इनकी प्रसिद्धि बलवन्तराव’ के नाम से थी। इनकी घोषणा थी-“स्वराज्यम् अस्माकं जन्मसिद्धः अधिकारः”, अर्थात् स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

प्रश्न 5.
‘गीतारहस्यम्’ कस्य रचना अस्ति? [2013]
उत्तर :
‘गीतारहस्यम्’ लोकमान्य-बालगङ्गाधर-तिलकस्य रचना अस्ति।। [ ध्यान दें-‘गद्य-भारती’ से संस्कृत-प्रश्न पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं हैं।]

प्रश्न 6.
तिलक का स्वभाव कैसा था? [2006]
या
तिलक जी के जीवन पर किनका प्रभाव था? [2008,09, 14]
उत्तर :
तिलक का स्वभाव, धीर, गम्भीर एवं निडर था। उनके जीवन पर पूर्ण रूप से वीर मराठों का प्रभाव था।

प्रश्न 7.
तिलक के किस पत्र के लेखों से कुपित अंग्रेजों ने उनको 18 मास का सश्रम कारावास दिया था? [2010]
उत्तर :
तिलक जी के ‘केसरी’ (मराठी भाषा) में प्रकाशित तीखे लेखों के कारण (UPBoardSolutions.com) अंग्रेजी सरकार ने इन्हें अठारह मास के सश्रम कारावास को दण्ड दिया था। इसके विरोध में देशभर में सभाएँ और आन्दोलन हुए।

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प्रश्न 8.
‘स्वराज्यमस्माकं जन्मसिद्धोऽधिकारः’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह नारा भारतीयों को जाग्रत करने के लिए दिया था। उनका मानना था कि ईश्वर ने सबको समान रूप से जन्म देकर उनके समान पोषण की व्यवस्था की है, अर्थात् ईश्वर ने सभी को समान रूप से स्वतन्त्र बनाया है। तब हमारे समान ही जन्म लेने वाले मनुष्यों को हम पर शासन करने का अधिकार कैसे हो सकता है। स्वतन्त्रता तो प्रकृति प्रदत्त अधिकार है, जिसे हमें जन्म से ही प्रकृति ने प्रदान किया है। अतः हम सबको इस अधिकार को प्रत्येक स्थिति में प्राप्त करना ही चाहिए।

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UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 2 कारुणिको जीमूतवाहनः (कथा – नाटक कौमुदी)

UP Board Solutions for Class 10 Sanskrit Chapter 2 कारुणिको जीमूतवाहनः (कथा – नाटक कौमुदी)

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परिचय

प्रस्तुत पाठ महाकवि हर्ष द्वारा विरचित ‘नागानन्द’ नामक नाटक से संगृहीत है। इसमें जीमूतवाहन नामक विद्याधर-राजकुमार के द्वारा आत्मोत्सर्ग करके शंखचूड़ नामक सर्प को गरुड़ से बचाने का वर्णन है। नाटक में पाँच अंक हैं। इस नाटक पर बौद्ध धर्म का (UPBoardSolutions.com) प्रभाव परिलक्षित होता हैं। बौद्ध धर्म में अहिंसा का बहुत अधिक महत्त्व है। यह नाटक भी अहिंसा, आत्म-बलिदान और परोपकार का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस नाटक की भाषा अत्यधिक सरल और सुबोध है तथा भाव-सौन्दर्य की दृष्टि से भी यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इस नाटक में शान्त और करुण रस की प्रधानता है।

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पाठ-सारांश

जीमूतवाहन की खोज – जीमूतवाहनं समुद्र-तट को देखने के कुतूहल से समुद्र-तट पर गया हुआ था। वह बहुत देर तक लौटकर नहीं आता है; अतः महाराज विश्वावसु द्वारपाल को उसके घर यह पता करने के लिए भेजते हैं कि जीमूतवाहन वहाँ पहुँचा या नहीं। द्वारपाल वहाँ जाकर देखता है कि जीमूतवाहन के पिता जीमूतकेतु की सेवा उनकी पत्नी और पुत्रवधू द्वारा की जा रही है। वह जाकर कहता है कि महाराज विश्वावसु ने जीमूतवाहन का समाचार न मिल पाने के कारण उसे जानने के लिए आपके पास भेजा है। यह सुनकर जीमूतकेतु, उसकी पत्नी और पुत्रवधू अत्यन्त चिन्तित होते हैं कि जीमूतवाहन कहाँ गया? कहीं उसका कोई अमंगल तो नहीं हो गया? इसी समय अमंगलसूचक उनका बायाँ नेत्र भी फड़कता है।

चूड़ामणि की प्राप्ति – उसी समय गीले मांस और बालों से युक्त एक चूड़ामणि उनके पैरों पर आकर गिरती है।इस मणि को वे जीमूतवाहन का ही समझकर दुःखी हो जाते हैं। लेकिन द्वारपाल उन्हें सान्त्वना देते हुए कहता है कि ऐसे चूड़ामणि तो गरुड़ के द्वारा खाये गये सर्यों के गिरते हैं। (UPBoardSolutions.com)  इसके बाद जीमूतकेतु अपने पुत्र जीमूतवाहन का पता लगाने के लिए प्रतिहार को उसके ससुर के घर भेज देते हैं।

शंखचूड़ का आगमन – द्वारपाल के चले जाने के बाद रक्तवस्त्र पहने शंखचूड़ नामक सर्प वहाँ आता है। उसे देखकर और चूड़ामणि को उसी का समझकर सब निश्चिन्त हो जाते हैं। तब शंखचूड़ उनसे कहता है कि यह चूड़ामणि मेरा नहीं है। मुझे वासुकि ने पूर्व निश्चित शर्त के अनुसार गरुड़ के भोजन के लिए उसके पास भेजा था। किन्तु किसी दयालु विद्याधर ने गरुड़ को अपने प्राण देकर मेरी रक्षा की है। दूसरों का उपकार करने वाला वह जीमूतवाहन ही है, ऐसा सोचकर जीमूतवाहन के माता-पिता एवं पत्नी तीनों मूर्च्छित हो जाते हैं।

उन्हें ऐसी अवस्था में देखकर शंखचूड़ रोता हुआ सोचता है कि ये दोनों निश्चित ही उसे महाभाग के माता-पिता हैं। मैंने अप्रिय वचन कहकर इनके हृदय को दुःखी किया है। अब मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं अपने प्राण दे ६ या इन दोनों को धैर्य दिलाऊँ? अन्ततः वह उन्हें धैर्य दिलाने का निश्चय करता है।

गरुड़ के पास जाना – इसके बाद शंखचूड़ उन्हें सान्त्वना देता हुआ कहता है कि उसे नाग न जानकर सम्भव है कि गरुड़ उसे न खाये। अत: हम खून की धारा का अनुसरण करते हुए गरुड़ के पास चलते हैं। शंखचूड़ के पीछे-पीछे जीमूतवाहन के माता-पिता भी गरुड़ के पास जाते हैं।

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अपने सम्मुख पड़े हुए जीमूतवाहन के पास गरुड़ बैठा हुआ है और सोच रहा है कि जन्म के बाद से मैंने अभी तक केवल नागों को ही खाया है, परन्तु यह महान् प्राणी कौन है, जो मेरे द्वारा खाया जाता हुआ भी प्रसन्न दिखाई दे रहा है। तब गरुड़ उसको खाना छोड़कर उससे पूछता है कि वह कौन है? जीमूतवाहन कहता है कि पहले तुम मेरे मांस और रक्त से अपनी भूख मिटा लो, परन्तु गरुड़ उसका मांस खाने का विचार छोड़ देता है।

इसके बाद गरुड़ के पास जाकर शंखचूड़ उससे कहता है कि यह नाग नहीं है; अत: तुम इसे छोड़कर मुझे ही खाओ, क्योंकि पूर्व शर्त के अनुसार वासुकि ने तुम्हारे खाने के लिए मुझे ही भेजा है।

जीमूतकेतु का आगमन – उसी समय जीमूतवाहन के पिता उसकी माता और पत्नी समेत वध-स्थल पर पहुँच जाते हैं। जीमूतवाहन उन्हें देखकर शंखचूड़ से चादर द्वारा अपने शरीर को ढकने के लिए कहता है, क्योंकि उसे आशंका है कि उसके माता-पिता उसे इस अवस्था में देखकर निश्चित ही अपने प्राण त्याग देंगे।

जीमूतवाहन की मृत्यु – इसके बाद जीमूतकेतु पत्नी व पुत्रवधू के साथ वहाँ आते हैं। गरुड़ जीमूतकेतु को आया हुआ देखकर अत्यधिक दु:खी और लज्जित होता है। पहले तो जीमूतवाहन को देखकर उसके माता-पिता प्रसन्न होते हैं परन्तु जब (UPBoardSolutions.com) जीमूतवाहन के उठने पर उसकी चादर गिर जाती है और जीमूतवाहन स्वयं मूच्छित हो जाता है तब उसकी उस अवस्था को देखकर उसके माता-पिता व पत्नी भी मूच्छित हो जाते हैं। जीमूतवाहन की माता लोकपालों से अमृत की वर्षा करने के लिए प्रार्थना करती है। गरुड़ इन्द्र की प्रार्थना करके अमृत को लाने तथा जीमूतवाहन और पहले खाये गये नागों को जीवित करने के लिए चला जाता है।

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जीमूतवाहन का जीवित होना इसके बाद पार्वती आकर जीमूतवाहन पर जल छिड़ककर उसे जीवित करती हैं। सभी पार्वती के चरणों में गिरते हैं। उसी समय गरुड़ के द्वारा जीमूतवाहन और सभी नागों को जीवित करने के लिए अमृत की वर्षा की जाती है। सभी नाग जीवित हो जाते हैं।

इस नाटक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि दूसरे के प्राणों की रक्षा के लिए हमें अपने प्राणों की बाजी लगा देने में भी संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि परोपकार सबका कल्याण करने वाला होता है। हमें किसी भी कार्य को करने से पूर्व भली-भाँति विचार लेना चाहिए तथा किये हुए अशुभ कार्य का प्रायश्चित्त अवश्य करना चाहिए।

चरित्र-चित्रण

जीमूतवाहन [2006,07,08, 10, 11, 12, 13, 15]

परिचय जीमूतवाहन विद्याधर जाति का और गन्धर्वराज जीमूतकेतु का पुत्र है। उसकी पत्नी का नाम मलयवती है। वह परोपकारी, दयालु, मातृ-पितृभक्त और असाधारण व्यक्तित्व का प्राणी है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1.त्यागमय जीवन – जीमूतवाहन का जीवन त्यागमय है। गरुड़ के साथ वासुकि की यह शर्त थी कि वह गरुड़के भोजन के लिए प्रतिदिन एक सर्प को भेज दिया करेगा। क्रमशः शंखचूड़ नामक सर्प की बारी आती है। शंखचूड़ की माता की करुण-क्रन्दन सुनकर जीमूतवाहन शंखचूड़ के प्राणों की रक्षा करने हेतु वध के लिए निश्चित लाल वस्त्रों को पहनकर गरुड़ के पास वधस्थल पर चली जाती है और गरुड़ के द्वारा रक्त पिये जाते हुए भी तनिक विचलित नहीं होता, यह उसके महान् त्याग का परिचायक है।

2. निर्भीक – जीमूतवाहन निर्भीक व्यक्ति है। गरुड़ के भक्षणार्थ जाने के लिए वह तनिक भी विचलित नहीं होता। गरुड़ के द्वारा पेट फाड़ डालने पर भी उसकी मुखकान्ति मलिन नहीं होती। वह गरुड़ को अपने रक्तऔर मांस से तृप्त हो जाने के लिए कहता है। इससे उसकी निर्भीकता सिद्ध होती है।

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3. मातृ-पितृभक्त – जीमूतवाहन अपने माता-पिता का भक्त है। वह उन्हें दु:खी नहीं देखना चाहता। इसीलिए उनको वध-स्थल पर आया हुआ देखकर शंखचूड़ से अपने शरीर पर चादर डालने के लिए कहता है, क्योंकि वह नहीं चाहता है कि वे उसकी विपन्न दशा देखें। घायल होने पर भी (UPBoardSolutions.com) वह उनका अभिवादन करने के लिए उठता है। उसकी यह गुण उसके मातृ-पितृभक्त होने का परिचायक है।

4. दयालु – जीमूतवाहन स्वभाव से दयालु है। वह किसी के कष्ट को नहीं देख पाता। शंखचूड़ की माँ को विलाप सुनकर वह गरुड़ का भोजन बनने के लिए स्वयं वधस्थल पर पहुँच जाता है और उसे आसन्न मृत्यु से बचा लेता है।

5. प्रभावशाली – जीमूतवाहन एक प्रभावशाली युवक है। शंखचूड़ उसके अनुपम त्याग से तो प्रभावित होता ही है; गरुड़ के ऊपर भी उसका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह सदा के लिए हिंसा करना छोड़ अहिंसक बन जाता है तथा सभी नागों को जीवित करने के लिए अमृत की वर्षा करता है।

6. विनयशील – जीमूतवाहन विनम्र और विनयशील है। वह सभी के साथ विनम्रता का व्यवहार करता है। तथा अपने व्यवहार से किसी को भी कष्ट देना नहीं चाहता। उसके इसी गुण के कारण उसके पिता तथा श्वसुर दोनों ही उससे अपार स्नेह करते हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जीमूतवाहन त्यागी, परोपकारी, मातृ-पितृभक्त, दयालु और प्रभावशाली व्यक्तित्व का स्वामी है।

गरुड़ [2010, 1]

परिचय गरुड़ पक्षीराज तथा विष्णु का वाहन है, ऐसी पौराणिक मान्यता है। गरुड़ का सर्वप्रिय खाद्य सर्प है। प्रस्तुत नाट्यांश में भी उसका इसी रूप में वर्णन आया है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. दयालु – यद्यपि गरुड़ मांसाहारी जीव है, तथापि उसमें दया का अभाव नहीं है। अपने भक्ष्य के रूप में आये जीमूतवाहन को देखकर उसके हृदय में दया-भाव जाग्रत होता है और वह उसे खाना छोड़कर उसका परिचय पूछता है। जीमूतवाहन की मृत्यु से उसके माता-पिता-पत्नी (UPBoardSolutions.com) को मूर्च्छित होते देखकर वह दु:खी हो जाता है। इन्द्र से अमृत वर्षा कराकर समस्त सर्यों को जीवित कराने के पुनीत कार्य से भी उसकी दयालुता को भान होता है।

2. बलशाली – गरुड़ बलशाली पक्षी है। भगवान् विष्णु का वाहन होने के कारण उसके बलशाली होने का संकेत भी मिलता है। दूसरे सर्प जाति का विनाश करने और सर्पराज वासुकि द्वारा उससे समझौता कर स्वयं उसका भोज्य पदार्थ उसे उपलब्ध कराने के प्रसंग से भी उसके बलशाली होने की पुष्टि होती है।

3. प्रायश्चित्त करने वाला – सर्यों के राजा वासुकि के प्रार्थना करने पर वह सर्यों के अन्धाधुन्ध विनाश को रोक देता है और अपने भोजन हेतु प्रतिदिन एक सर्प देने के लिए वासुकि से कहता है। जीमूतवाहन के प्रसंग मे भी उसे अपने किये पर पश्चात्ताप होता है और वह उसके प्रायश्चित्त के लिए इन्द्र से अमृत वर्षा कराकर सभी सर्यों को पुनर्जीवित तो करता ही है, साथ ही प्रायश्चित्तस्वरूप सदैव के लिए अहिंसक भी बन जाता है।

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4. गुणग्राही और विवेकशील – गरुड़ गुणग्राही पक्षी है। जीमूतवाहन के त्याग, परोपकार एवं आत्म-बलिदान के गुणों को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठता है। उसके गुणों से प्रभावित होकर वह उसे खाना त्यागकर उसका परिचय पूछता है और अन्ततः अपने कर्म के अनौचित्य पर पश्चात्ताप करता हुआ सभी सर्यों को जीवित करा देता है। यह तथ्य उसके गुणग्राही और विवेकशील होने को इंगित करता है। निष्कर्ष रूमें कहा जा सकता है कि गरुड़ समझौतावादी, सिद्धान्तवादी, विवेकशील, गुणग्राही, क्षमाशील, दयालु और पराक्रमी पक्षी है।

शंखचूड़ [2009,10, 12, 15]

परिचय शंखचूड़ एक गुणग्राही सर्प है, जिसको सर्पराज वासुकि के समझौतानुसार गरुड़ का भोजन बनने के लिए उसके पास भेजा गया है। उसके माता-पिता का उस पर विशेष स्नेह है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. दयावान् – शंखचूड़ एक दयावान् सर्प है। वह दूसरे के दुःखों को सहन नहीं कर (UPBoardSolutions.com) पाता है। जीमूतवाहन के माता-पिता एवं उसकी पत्नी की दीनदशा को देखकर उसका हृदय दया से भर जाता है। वह अपने को धिक्कारने लगता है कि यह मैंने क्या कर दिया।

2. बुद्धिमान्  जीमूतवाहन के माता-पिता जब उसके द्वारा सुनाये गये वृत्तान्त को सुनकर मूर्च्छित हो जाते हैं तो वह यह जान लेता है कि ये दोनों उस उपकारी के ही माता-पिता हैं। उसकी चेतना लौट आने पर वह उनसे कहता है कि गरुड़ ने जीमूतवाहन को सर्प न होने के कारण शायद न खाया हो और वह जीवित हो। हमें रक्त के चिह्नों का अनुसरण करते हुए उसकी खोज करनी चाहिए। अन्तत: वह उसे खोजने में सफल भी हो जाता है। ये दोनों ही घटनाएँ उसके बुद्धिमान् होने का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं।

3. सत्यवादी – शंखचूड़ सत्यवादी सर्प है। वह जीमूतवाहन के माता-पिता से सम्पूर्ण वृत्तान्त सही-सही बता देता है। इसके उपरान्त वह गरुड़ के पास पहुँचकर अपने प्राणों की चिन्ता न करते हुए उससे सच-सच बता देता है कि तुम्हारा भक्ष्य जीमूतवाहन नहीं, मैं हूँ। तुम मुझे खाकर अपनी क्षुधा शान्त करो।

4. आशावादी – शंखचूड़ एक आशावादी नाग है। उसे आशा है कि नाग न होने के कारण गरुड़ ने जीमूतवाहन को छोड़ दिया होगा। इसी आशा से वह जीमूतवाहन के शरीर से टपकते हुए रक्त के सहारे गरुड़ तक पहुँच जाता है।

5. निर्भीक – शंखचूड़ एक निर्भीक सर्प है। उसे मृत्यु का भय नहीं है। इसीलिए वह जीमूतवाहन को (UPBoardSolutions.com) बचाने के लिए गरुड़ के पास जाता है और उससे कहता है कि उसका (गरुड़ का) भोजन बनने की आज उसकी (शंखचूड़ की) बारी है। अतः वह जीमूतवाहन को छोड़कर उसे खा ले।

निष्कर्ष रूप में हमें कह सकते हैं कि शंखचूड़ एक दयावान्, निर्भीक, आशावादी, सत्यवादी और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण चरित्र वाला एक नाग है, जो अन्तत: जीमूतवाहन के प्राण बचाने में सफल होता है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जीमूतवाहनस्य वार्तामन्चेष्टुं महाराजविश्वावसुना प्रतीहारः कुत्र प्रेषितः ?
उत्तर :
जीमूतवाहनस्य वार्ताम् अन्वेष्टुं महाराजविश्वावसुनी प्रतीहारः जीमूतकेतोः समीपं प्रेषितः।

प्रश्न 2.
जीमूतवाहनः कस्य पुत्रः आसीत् ? [2008, 09, 11]
उत्तर :
जीमूतवाहन: जीमूतकेतोः पुत्रः आसीत्।

प्रश्न 3.
शङ्खचूडः कः आसीत् ? [2006,09, 11, 12, 13, 14, 15]
उत्तर :
शङ्खचूड: एकः नागः आसीत्।

प्रश्न 4.
जीमूतवाहनः फणिनः प्राणान् परिरक्षितं किमकरोत् ?
उत्तर :
जीमूतवाहनः फणिनः प्राणान् रक्षितुं गरुडाय स्वदेहं समर्पयत्।

प्रश्न 5.
गरुडेनकः व्यापादितः ? [2006,07,09, 10]
उत्तर :
गरुडेन जीमूतवाहन: व्यापादितः।

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प्रश्न 6.
जीमूतवाहनः कथं प्रत्युज्जीवितः कृतः ? [2008]
उत्तर :
जीमूतवाहनः गौर्या कमण्डलु-उदकेन अभिषिच्य (UPBoardSolutions.com) प्रत्युज्जीवितः अभवत्।

प्रश्न 7.
अनभ्रा वृष्टिः कथम् अभवत् ? [2009, 15]
उत्तर : 
जीमूतवाहनम् अस्थिशेषान् उरगपतीन् च प्रत्युज्जीवयितुम् अनभ्रा वृष्टिः अभवत्।

प्रश्न 8.
जीमूतवाहनस्य पिता कः आसीत् ? [2006,07,08,09]
या
जीमूतवाहनः पितुः किं नाम? [2011]
उत्तर :
जीमूतवाहनस्य पिता जीमूतकेतुः आसीत्।

प्रश्न 9.
जीमूतवाहनः केन व्यापादितः ?
उत्तर :
जीमूतवाहनः गरुडेन व्यापादितः।

प्रश्न 10.
नागानन्दनाटकस्य प्रणेतुः किं नाम आसीत् ? [2011]
उत्तर :
नागानन्दनीटेकस्य प्रणेतुः नाम महाकवि हर्षः आसीत्।

प्रश्न 11.
जीमूतवाहनः कः आसीत् ? [2013]
उत्तर :
जीमूतवाहनः गन्धर्वराज जीमूतकेतोः पुत्रः विद्याधर-वंशतिलकः च आसीत्।

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प्रश्न 12.
नागानन्दस्य नाटकस्य रचयिता कः आसीत् ? [2014]
उत्तर :
नागानन्दस्य नाटकस्य रचयिता महाकविः (UPBoardSolutions.com) हर्षः आसीत्।

बहुविकल्पीय प्रश्न

अधोलिखित प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न के उत्तर-रूप में चार विकल्प दिये गये हैं। इनमें से एक विकल्प शुद्ध है। शुद्ध विकल्प का चयन कर अपनी उत्तर-पुस्तिका में लिखिए –
[संकेत – काले अक्षरों में छपे शब्द शुद्ध विकल्प हैं।]

1. ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’ शीर्षक पाठ किस कृति से संकलित है?

(क) “पुरुष-परीक्षा से
(ख)‘नागानन्दम्’ से
(ग) “बुद्धचरितम्’ से
(घ) “जातकमाला’ से

2. जीमूतवाहन के अनुपम त्याग को दर्शाने वाला नाटक ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’ किस धर्म से सम्बद्ध है?

(क) बौद्ध धर्म
(ख) सिक्ख धर्म
(ग) जैन धर्म
(घ) पारसी धर्म

3. परोपकारी विद्याधर राजकुमार का क्या नाम है?

(क) विश्वावसु
(ख) शंखचूड़
(ग) जीमूतवाहन
(घ) जीमूतकेतु

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4. जीमूतवाहन और जीमूतकेतु का परस्पर क्या सम्बन्ध है ?

(क) पुत्र-पिता
(ख) पिता-पुत्र
(ग) भाई-भाई
(घ) स्वामी-सेवक

5. मलयवती जीमूतवाहन की कौन थी ?

(क) माता
(ख) पत्नी
(ग) पुत्री
(घ) दासी

6. जीमूतवाहन किसकी रक्षा करता है ?

(क) शंखचूड़ की
(ख) वासुकि की
(ग) गरुड़ की
(घ) विश्वावसु की

7. ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’पाठ में सर्पराज किसे कहा गया है?

(क) वासुकि को
(ख) गरुड़ को
(ग) शंखचूड़ को
(घ) विश्वावसु को

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8. गरुड़ ने जीमूतवाहन का मांस क्यों खाया?

(क) उसकी जीमूतवाहन से शत्रुता थी
(ख) उसको जीमूतवाहन का मांस प्रिय था
(ग) उसने जीमूतवाहन को नाग समझा था
(घ) इनमें से कोई नहीं

9. ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’ शीर्षक पाठ में ‘नायिका’ कौन है?

(क) शंखचूड़ की माता
(ख) जीमूतवाहन की सास
(ग) जीमूतवाहन की माता
(घ) जीमूतवाहन की पत्नी

10. ‘कारुणिको जीमूतवाहनः’ पाठ में ‘देवी’ के रूप में किसको प्रस्तुत किया गया है ?

(क) शंखचूड़ की माँ को
(ख) जीमूतवाहन की माँ को
(ग) पार्वती को।
(घ) जीमूतवाहन की पत्नी को

11. “वत्स! अवितथैषा तव भारती भवतु। वयमपि त्वरितमेवानुगच्छामः।’ वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) शंखचूडः
(ख) जीमूतवाहनः
(ग) गरुडः
(घ) जीमूतकेतुः

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12. जीमूतवाहन को किसने जीवित किया?

(क) अमृत वर्षा ने
(ख) गौरी ने
(ग) गरुड़ ने
(घ) इन्द्र ने

13. अमृत लेने के लिए इन्द्र के पास कौन जाता है ?

(क) शंखचूड़
(ख) गरुड़
(ग) वासुकि
(घ) जीमूतकेतु

14. “सुनन्द! यावदनया वेलया ………………… सदनमेव गतो मे पुत्रको भविष्यति।” वाक्य में रिक्त स्थान की पूर्ति होगी –

(क) ‘वधू’ से
(ख) मातु से
(ग) श्वशुर’ से
(घ) “पितु से

15. “शङ्खचूडः नाम नागः खल्वहं वैनतेयस्याहारार्थमवसरप्राप्तो वासुकिना प्रेषितः। वाक्यस्य वक्ता कोऽस्ति?

(क) गरुडः
(ख) जीमूतकेतुः
(ग) मलयकेतुः
(घ) शंखचूडः

16. “अहं तव” ……………………… “प्रेषितोऽस्मि वासुकिना।” में रिक्त-स्थान की पूर्ति होगी

(क) ‘रक्षार्थम्’ से
(ख) ‘हन्तुम्’ से
(ग) ‘आहारार्थम्’ से
(घ) “नष्टार्थम्’ से

17. ‘‘शङ्खचूडः समुपविश्यानेनोत्तरीयेण आच्छादितशरीरं कृत्वा धारयमाम्।” वाक्यस्य वक्ता कः अस्ति ?

(क) जीमूतवाहनः
(ख) जीमूतकेतुः
(ग) मलयकेतुः
(घ) मलयवती

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18. जीमूतवाहनस्य पिता …………………. आसीत्। [2008, 09, 10]

(क) शङ्खचूडः
(ख) मलयकेतुः
(ग) जीमूतकेतुः
(घ) सत्यकेतुः

19. नागानन्दस्य नाटकस्य रचयिता …………………… अस्ति। [2007]

(क) कालिदासः
(ख) हर्षवर्धनः
(ग) भवभूतिः
(घ) विशाखदत्तः

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20. विद्याधरेण केनानि ………………… आविष्ट चेतसा। [2009]

(क) क्रोध
(ख) भय
(ग) पीड़ा
(घ) करुणा

21. विद्याधरः ……………………… रक्षां करोति। [2009,11]

(क) गरुडस्य
(ख) शङ्खचूडस्य
(ग) वासुकेः
(घ) जीमूतकेतोः

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UP Board Solutions for Class 8 Sanskrit Chapter 19 संगणकः अस्मि

UP Board Solutions for Class 8 Sanskrit Chapter 19 संगणकः अस्मि

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संगणकः अस्मि

हिन्दी अनुवाद-

कम्प्यूटर- छात्रों!
छात्र- (सुनकर) अरे! किसका स्वर है?
कम्प्यूटर- हे बालकों! मैं यहाँ हूँ।
छात्र- (देखने के लिए और पास में जाकर) तुम्हारा नाम क्या है?
कम्प्यूटर- मेरा नाम कम्प्यूटर है। मैं घर-घर में (प्रत्येक घर में) रहता हूँ। क्या (तुम) नहीं जानते हो?
एक छात्र- नहीं, तुम यहाँ विद्यालय में रहते हो मेरे घर में तो नहीं रहते हो?
कम्प्यूटर- हाँ! इस समय तुम्हारे घर में नहीं रहता हूँ। जब मेरे साथ तुम्हारा परिचय हो जायेगा, तब तुम्हारे घर में भी रहूँगा।
एक छात्र- सच कह रहे हो। परिचय के बिना घर में प्रवेश नहीं हो सकता। हे कम्प्यूटर! तुम्हारा पूरा परिचय क्या है?
सब छात्र- तुम्हारा परिचय क्या है? तुम्हारा परिचय क्या है? छात्र शोर करते हैं।
कम्प्यूटर- हे छात्रों! शोर मत करो। सुनो। तुम (UPBoardSolutions.com) सब ध्यान देकर और चुप होकर सुनना चाहते हो।
(सब छात्र चुप बैठ जाते हैं।) ।
छात्र- श्रीमान् कम्प्यूटर महोदय! हम ध्यान से सुनेंगे।
कम्प्यूटर- सूचनाओं का संग्रह, उनकी व्यवस्था दोबारा शीघ्रता से प्रदान करना ही मेरा कार्य है। अतः सब जगह मैं हूँ। मैं विद्यालय के परीक्षा-कार्य में, अंक-पत्र निर्माण में और प्रमाणपत्र निर्माण में योगदान करने में समर्थ हूँ। मैं इन्टरनेट के माध्यम से सूचनाओं की वर्षा करता हूँ।।
छात्र  कम्प्यूटर! इन्टरनेट के माध्यम से क्या होता है?
कम्प्यूटर- इन्टरनेट के माध्यम से विश्व (सारा संसार) एक घर होता है (बन जाता है)। घर में ही (रहकर) रेलयान के, वायुयान के आरक्षण (सीट बुक करना), वस्तुओं के क्रय-विक्रय, ईमेल द्वारा संदेश (UPBoardSolutions.com) भेजना, वेबकैम द्वारा शब्द सहित चित्र तथा सन्देश भेजना (सब) हो जाता है। अरे बालकों। क्या-क्या नहीं होता है? क्षण भर में सूचना
आ जाती है और भेज दी जाती है।
छात्र  अहो, अद्भुत! यह इन्टरनेट व्यवस्था। (बालक कम्प्यूटर के चारों ओर घूमते हैं और गाते हैं)

“तुम कम्प्यूटर हो। तुम कम्प्यूटर हो। निश्चय ही तुम्हारा अच्छी तरह विकास हो। जहाँ, तहाँ, सब जगह दिखाई देते हो। दिन-रात तुम्हारा खेल (क्रीड़ा) हो।

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अभ्यासः

प्रश्न 1.
उच्चारणं कुरुत
उत्तर
नोट-विद्यार्थी स्वयं करें।

प्रश्न 2.
एकपदेन उत्तरत
(क) काः कोलाहलं कुर्वन्ति?
उत्तर
छात्राः।।

(ख) परिचयं बिना कुत्र प्रवेशः न भवति?
उत्तर
गृहे।

(ग) कः सर्वत्र अस्ति?
उत्तर
संगणकः।

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(घ) केन माध्यमेन विश्वम् एकनीडं भवति?
उत्तर
अन्तर्जालमाध्यमेन।

प्रश्न 3.
शुद्धं रूपं लिखत ( लिखकर)
उत्तर
UP Board Solutions for Class 8 Sanskrit Chapter 19 संगणकः अस्मि q3

प्रश्न 4.
दत्तेन शब्देन वाक्यानि पूरयत ( करके)-
उत्तर
(क) तव नाम किम् अस्ति?
(ख) अये! कस्य स्वर:?
(ग) त्वं कुत्र निवससि?
(घ) कः कोऽत्र भोः?

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प्रश्न 5.
विलोमानां परस्परं मेलनं कुरुत (करके)-
उत्तर
UP Board Solutions for Class 8 Sanskrit Chapter 19 संगणकः अस्मि q5

प्रश्न 6.
संस्कृतभाषायाम् अनुवादं कुरुत (अनुवाद करके)
(क) मैं विद्यालय में रहता हूँ।
उत्तर
अनुवाद – अहं विद्यालये निवसामि।

(ख) चुप होकर ध्यान से सुनो।
उत्तर
अनुवाद – तूष्णीं भूत्वा ध्यानेन शृणुत।

(ग) प्रमाण-पत्र में योगदान करता है।
उत्तर
अनुवाद – प्रमाण-पत्रे योगदानं करोति।।

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प्रश्न 7.
संगणकः इति विषये निबंध लिखत।
उत्तर
विद्यार्थी स्वयं करे।।

• नोट – विद्यार्थी ‘स्मरणीयम् और शिक्षण-सङ्केत’ स्वयं करें।

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UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 3 मीराबाई (काव्य-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 9 Hindi Chapter 3 मीराबाई (काव्य-खण्ड)

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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. निम्नलिखित पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए तथा काव्यगत सौन्दर्य भी स्पष्ट कीजिए :

1. बसो मेरे नैनन में ….…………………………………….. भक्त बछल गोपाल।
शब्दार्थ- मकराकृत = मछली के आकार के। छुद्र = छोटी। रसाल = मधुर । भक्त-बछल = भक्त-वत्सल।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका मीराबाई के काव्य-ग्रन्थ ‘मीरा-सुधा-सिन्धु’ के अन्तर्गत ‘पदावली’ शीर्षक से अवतरित है।
प्रसंग- प्रेम-दीवानी मीरा भगवान् कृष्ण की मोहिनी मूर्ति को अपने नेत्रों में बसाना चाहती हैं। इस पद में कृष्ण की मोहिनी मूर्ति का सजीव चित्रण है।
व्याख्या- कृष्ण के प्रेम में दीवानी मीरा कहती हैं कि नन्दजी को आनन्दित करनेवाले हे श्रीकृष्ण! आप मेरे नेत्रों में निवास कीजिए। आपका सौन्दर्य अत्यन्त आकर्षक है। आपके सिर पर मोर के पंखों में निर्मित मुकुट एवं कानों में ऊली की आकृति के कुण्डल सुशोभित हो रहे हैं। मस्तक पर लगे हुए लाल तिलक और सुन्दर विशाल नेत्रों से आपका श्यामवर्ण का शरीर अतीव सुशोभित हो रहा है। अमृतरस से भरे आपके सुन्दर होंठों पर बाँसुरी शोभायमान हो रही है । आप हृदय पर वन के पत्र-पुष्पों से निर्मित माला धारण किये हुए हैं। आपकी (UPBoardSolutions.com) कमर में बँधी करधनी में छोटी-छोटी घण्टियाँ सुशोभित हो रही हैं। आपके चरणों में बँधे हुँघरुओं की मधुर ध्वनि बहुत रसीली प्रतीत होती है । हे प्रभु! आप सज्जनों को सुख देनेवाले, भक्तों से प्यार करनेवाले और अनुपम सुन्दर हैं। आप मेरे नेत्रों में बस जाओ।
काव्यगत सौन्दर्य

  1. यहाँ भगवान् कृष्ण की मनमोहक छवि का परम्परागत वर्णन किया गया है।
  2. मीराबाई की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्तिभावना प्रकट हुई है।
  3. भाषा-सुमधुर ब्रज।
  4. शैली-मुक्तक काव्य की पद शैली है।
  5. छन्द-संगीतात्मक गेय पद।
  6. रस- भक्ति एवं शान्त।
  7. अलंकार-मोर मुकुट मकराकृति कुण्डल’ तथा ‘मोहनि मूरति साँवरि सूरति’ में अनुप्रास है।
  8. भाव-साम्य-कविवर बिहारी भी मीरा की तरह कृष्ण के इस रूप को अपने मन में बसाना चाहते हैं –

“सीस मुकुट, कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
इहिं बानक मो मन सदा, बसौ बिहारीलाल॥”

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2. पायो जी म्हैं तो राम रतन ………………………………………… जस गायो।
शब्दार्थ- अमोलक = अनमोल । खेवटिया = खेनेवाला। भव सागर = संसाररूपी सागर । म्है = मैंने।
सन्दर्भ – यह पद मीराबाई की ‘पदावली’ से लिया गया है, जो हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित है।
प्रसंग- प्रस्तुत पद में मीराबाई भगवान् राम के नाम के महत्त्व की चर्चा करती हुई कहती हैं –
व्याख्या- मैंने भगवान् के नामरूपी रत्न सम्पदा को प्राप्त कर लिया। मेरे सच्चे गुरु ने यह अमूल्य वस्तु मुझ पर दया करके मुझे प्रदान की थी, मैंने उसे अंगीकार किया था। इस प्रकार मैंने गुरुदीक्षा के कारण कई जन्मों की संचित पूँजी (पुण्य फल) प्राप्त कर ली और संसार की सारी मोह-मायाओं का त्याग (UPBoardSolutions.com) कर दिया। यह राम नाम की पूँजी ऐसी विचित्र है कि यह खर्च करने पर भी कम नहीं होती और न इसे चोर हो चुरा सकते हैं। यह प्रतिदिन अधिक होती जाती है। मैंने इसी सत्यनाम (ईश्वर का नाम) रूपी नौका पर सवार होकर, जिसके केवट मेरे सच्चे गुरु हैं, संसाररूपी सागर को पार कर लिया है। अंत में मीराबाई कहती हैं कि गिर धरनागर श्रीकृष्ण भगवान् ही एकमात्र मेरे स्वामी हैं। मैं प्रसन्न होकर उनका गुणगान कर रही हूँ।
काव्यगत सौन्दर्य

  1. इस पद में भक्तिकालीन कवियों की परम्परा के अनुसार भगवान् के नाम के महत्त्व को बतलाया गया है।
  2. मीरा कृष्ण की उपासिका हैं, किन्तु यहाँ ‘राम’ रतन धन की चर्चा करती हैं। यहाँ राम का तात्पर्य घट-घट व्यापी राम से है।
  3. अलंकारअनुप्रास और रूपक।
  4. भाषा-राजस्थानी मिश्रित ब्रज।
  5. शैली-मुक्तक।
  6. छंद-गेयपद।
  7. रस-शान्त और भक्ति।

3. माई री मैं ……………………………………………….. जनम कौ कौल।
शब्दार्थ- छाने = छिपकर । बजन्ता ढोल = ढोल बजाकर, सबको जताकर, खुले आम । मुँहघो = महंगा । सुंहघो = सस्ता । कौल = वचन ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं मीरा द्वारा रचित ‘पदावली’ से संकलित है।
प्रसंग- प्रस्तुत पद में मीरा श्रीकृष्ण से अपने सच्चे प्रेम को निस्संकोच भाव से स्वीकार कर रही हैं।
व्याख्या- मीरा कहती हैं- मैंने तो अपने गोविन्द को मोल ले लिया है। लोग मेरे इस प्रेम-व्यापार पर नाना प्रकार के आक्षेप करते हैं। कोई कहता है कि मैंने श्रीकृष्ण को छिपकर अपनाया है और कोई कहता है कि मैंने उससे चुपचाप प्रेम-सम्बन्ध जोड़ा है, पर मैंने तो ढोल बजाकर-सभी को बताकर-उसे अपनाया है। कोई कहता है कि मेरा यह सौदा बड़ा महँगा (कष्टदायक) है और कोई कहता है कि मैंने श्रीकृष्ण को बड़े सस्ते में (सहज प्रयत्न से) पा लिया है, पर मैंने उसे सब प्रकार से परखकर, हृदयरूपी तराजू पर तौलकर मोल (UPBoardSolutions.com) लिया है। चाहे उसे कोई काला कहे चाहे गोरा, मेरे लिए तो वह जैसा भी है, अमूल्य है, क्योंकि उसे हृदय जैसी मूल्यवान वस्तु के बदले खरीदा गया है। सभी जानते हैं कि मीरा ने कृष्ण को आँख बन्द करके-अंधविश्वास में लिप्त होकर स्वीकार नहीं किया है। उसने तो आँखें खोलकर, सब कुछ सोच समझकर उससे प्रीति सम्बन्ध जोड़ा है। मीरा कहती हैं-मेरे प्रभु पूर्वजन्म से मेरे साथ वचनबद्ध हैं, अत: उन्होंने मुझे दर्शन देकर कृतार्थ किया है।
काव्यगत सौन्दर्य

  1. मीरा और कृष्ण के पवित्र प्रेम-बन्धन की झाँकी इस पद में साकार हुई है।
  2. भाषा सरस, सरल और मिश्रित शब्दावली युक्त ब्रजी है।
  3. शैली-आत्मनिवेदनात्मक, भावात्मक तथा व्यंग्य का संस्पर्श लिये है।
  4. अनेक मुहावरों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। रस-भक्ति। गुण-प्रसाद। छन्द-गेय पद।

4. मैं तो साँवरे ………………………………………………………. भगति रसीली जाँची॥
शब्दार्थ- साँची = सत्य । ब्याल = सर्प । खारो = नीरस, व्यर्थ । काँची = कच्ची, (क्षणभंगुर)। जाँची = प्रतीत हुई।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं मीराबाई द्वारा रचित ‘पदावली’ से उद्धृत है।
प्रसंग- इस पद में मीरा भगवान् कृष्ण के प्रेम में निमग्न होकर पूर्णरूप से उन्हीं के रंग में रंग गयी हैं, इसलिए संसार की अन्य किसी वस्तु में उनका मन नहीं लगता।
व्याख्या- मीरा कहती हैं कि मैं तो साँवले कृष्ण के श्याम रंग में रँग गयी हूँ अर्थात् उनके प्रेम में आत्मविभोर हो गयी हूँ। मैंने तो लोक-लाज को छोड़कर अपना पूरा श्रृंगार किया है और पैरों में सुँघरू बाँधकर नाच भी रही हैं। साधुओं की संगति से मेरे हृदय की सारी कालिमा मिट गयी है और मेरी दुर्बुद्धि भी सद्बुद्धि में बदल गयी है और मैं श्रीकृष्ण की सच्ची भक्त बन गयी हूँ। मैं प्रभु श्रीकृष्ण का नित्य गुणगान करके (UPBoardSolutions.com) कालरूपी सर्प के चंगुल से बच गयी हूँ अर्थात् अब मैं जन्म-मरण के चक्र से छूट गयी हूँ। अब कृष्ण के बिना मुझे यह संसार निस्सार और सूना लगता है, अतः उनकी बातों के अलावा अन्य बातें व्यर्थ लगती हैं। मीराबाई को केवल श्रीकृष्ण की भक्ति में ही आनन्द मिलता है, संसार की किसी अन्य वस्तु में नहीं।
काव्यगत सौन्दर्य

  1. श्रीकृष्ण के प्रति मीरा की एकनिष्ठ भक्ति का सुन्दर चित्रण हुआ है।
  2. कृष्ण की दीवानी मीरा को उनके बिना यह संसार निस्सार और सूना लगता है।
  3. भाषा-राजस्थानी मिश्रित ब्रज
  4. शैली-मुक्तक।
  5. छन्द-गेय पद।
  6. रस- भक्ति और शान्त।
  7. गुण-माधुर्य ।
  8. अलंकार-अनुप्रास, रूपक।।

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5. मेरे तो गिरधर …………………………………… तारो अब मोई।
शब्दार्थ-कानि = मर्यादा, प्रतिष्ठा। ढिंग = समीप । आणंद = आनन्द । राजी = प्रसन्न।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद ‘हिन्दी काव्य’ में संकलित एवं श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका मीरा द्वारा रचित ‘पदावली’ से उद्धृत है।
प्रसंग- मीरा एकमात्र श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व घोषित कर रही हैं। संसार के सारे नाते तोड़कर, लोकलाज छोड़कर, केवल श्रीकृष्ण के प्रेम के आनन्द-पल का आस्वाद ले रही हैं।
व्याख्या- मीरा कहती हैं-अब तो मैं अपना नाता केवल एक श्रीकृष्ण से मानती हूँ और कोई भी मेरा इस संसार में अपना नहीं है। सिर पर मोरमुकुट धारण करनेवाले नटवर-नागर ही मेरे पति हैं। पिता, माता, भाई, बन्धु आदि से अब मेरा कोई नाता नहीं रहा। मैंने तो कृष्ण-प्रेम के लिए अपने कुल की प्रतिष्ठा को भी त्याग दिया है। अब मेरा कोई क्या कर लेगा? सभी कहते हैं कि मैंने सन्तों का सत्संग करके स्त्रियोचित लोक-लज्जा को भी तिलांजलि दे दी है। पर मुझे इसकी चिन्ता नहीं। मैंने अपनी कृष्ण-प्रेम की लता को अपने आँसुओं (UPBoardSolutions.com) से सींचकर (महान् कष्ट सहन करके) बढ़ाया है। अब तो यह प्रेम-लता बहुत फैल चुकी है, अब तो इस पर आनन्दरूपी फल लगनेवाले हैं। मुझे तो अब केवल प्रियतम कृष्ण की भक्ति में ही सुख मिलता है। सांसारिक विषयों को देखकर मेरा मन दु:खी होता है। मीराबाई कह रही हैं कि हे गिरिधर गोपाल ! अब आप अपनी दासी मीरा का उद्धार कीजिए और उसे अपनाकर धन्य बना दीजिए।
काव्यगत सौन्दर्य

  1. श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम-भाव और भक्ति को मीरा ने हृदयस्पर्शी शब्दावली में साकार किया है।
  2. अलंकार-अनुप्रास, रूपक (‘प्रेम-बेलि’ और ‘आनन्द-फल’) तथा पुनरुक्ति अलंकार हैं।
  3. भाषी सरस, सरल, किन्तु भाव-वहन में पूर्ण समर्थ है।
  4. शैली-आत्मनिवेदनात्मक एवं भावात्मक है। गुण-प्रसाद, छन्द-गेय पद।

प्रश्न 2. मीराबाई का जीवन-परिचय बताते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा मीराबाई का जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक सेवाओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा मीरा की रचनाओं एवं भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।

मीराबाई
(स्मरणीय तथ्य)

जन्म-सन् 1498 ई० । मृत्यु- 1546 ई० के आसपास।
पति- महाराणा भोजराज । 
पिता- रतन सिंह।
रचना- गेय पद।
काव्यगत विशेषताएँ
वर्य-विषय -विनय, भक्ति, रूप-वर्णन, रहस्यवाद, संयोग वर्णन।
रस- श्रृंगार (संयोग-वियोग), शान्त।।
भाषा- ब्रजभाषा, जिसमें राजस्थानी, गुजराती, पूर्वी पंजाबी और फारसी के शब्द मिले हैं।
शैली- गीतकाव्य की भावपूर्ण शैली।
छन्द- राग-रागनियों से पूर्ण गेय पद।
अलंकार- उपमा, रूपक, दृष्टान्त आदि ।

  • जीवन-परिचय- मीराबाई का जन्म राजस्थान में मेड़ता के पसि चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई० के आसपास हुआ था। इनके पिता का नाम रतनसिंह था। उदयपुर के राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ इनका विवाह हुआ था, किन्तु विवाह के थोड़े। ही दिनों बाद इनके पति की मृत्यु हो गयी।
                      मीरा बचपन से ही भगवान् कृष्ण के प्रति अनुरक्त थीं । सारी लोक-लज्जा की चिन्ता छोड़कर साधुओं के साथ कीर्तन-भजन करती रहती थीं। उनकी इस प्रकार का व्यवहार उदयपुर के राज-मर्यादा के प्रतिकूल था। अतः उन्हें मारने के लिए जहर का प्याला भी भेजा। गया था, किन्तु ईश्वरीय कृपा से उनका बाल-बाँका तक नहीं हुआ। परिवार से विरक्त होकर वे वृन्दावन और (UPBoardSolutions.com) वहाँ से द्वारिका चली गयीं। औंर सन् 1546 ई० में स्वर्गवासी हुईं।
  • रचनाएँ- मीराबाई ने भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम में अनेक भावपूर्ण गेय पदों की रचना की है जिसके संकलन विभिन्न नामों से प्रकाशित हुए हैं। नरसीजी को मायरा, राम गोविन्द, राग सोरठ के पद, गीत गोविन्द की टीका मीराबाई की रचनाएँ हैं।

काव्यगत विशेषताएँ

  • (क) भाव-पक्ष- मीरा कृष्णभक्ति शाखा की सगुणोपासिका भक्त कवयित्री हैं। इनके काव्य का वर्ण्य-विषय एकमात्र नटवर नागर श्रीकृष्ण का मधुर प्रेम है।
    1. विनय तथा प्रार्थना सम्बन्धी पद- जिनमें प्रेम सम्बन्धी आतुरता और आत्मस्वरूप समर्पण की भावना निहित है।
    2. कृष्ण के सौन्दर्य वर्णन सम्बन्धी पद- जिनमें मनमोहन श्रीकृष्ण के मनमोहक स्वरूप की झाँकी प्रस्तुत की गयी है।
    3. प्रेम सम्बन्धी पद- जिनमें मीरा के श्रीकृष्ण प्रेम सम्बन्धी उत्कट प्रेम का चित्रांकन है। इनमें संयोग और वियोग दोनों पक्षों का मार्मिक वर्णन हुआ है।
    4. रहस्यवादी भावना के पद- जिनमें मीरा के निर्गुण भक्ति का चित्रण हुआ है।
    5. जीवन सम्बन्धी पद- जिनमें उनके जीवन सम्बन्धी घटनाओं का चित्रण हुआ है।
  • (ख) कला-पक्ष-
    1. भाषा-शैली- मीरा के काव्य की भाषा ब्रजी है जिसमें राजस्थानी, गुजराती, भोजपुरी, पंजाबी भाषाओं के शब्द हैं। मीरा की भाषा भावों की अनुगामिनी है। उनमें एकरूपता नहीं है फिर भी स्वाभाविकता, सरसता और मधुरता कूट-कूटकर भरी हुई है।
    2. रस-छन्द-अलंकार- मीरा की रचनाओं में श्रृंगार रस के दोनों पक्ष, संयोग और वियोग का बड़ा ही मार्मिक वर्णन हुआ है। इसके अतिरिक्त शान्त रस का भी बड़ा ही सुन्दर समावेश हुआ है। मीरा का सम्पूर्ण काव्य गेय पदों में है जो विभिन्न रोगरागनियों में (UPBoardSolutions.com) बँधे हुए हैं। अलंकारों का प्रयोग मीरा की रचनाओं में स्वाभाविक ढंग से हुआ है। विशेषकर वे उपमा, रूपक, दृष्टान्त आदि अलंकारों के प्रयोग से बड़े ही स्वाभाविक हुए हैं।
  • साहित्य में स्थान- हिन्दी गीति काव्य की परम्परा में मीरा का अपना अप्रतिम स्थान है । प्रेम की पीड़ा का जैसा मर्मस्पर्शी वर्णन मीरा की रचनाओं में उपलब्ध होता है वैसा हिन्दी साहित्य में अन्यत्र सुलभ नहीं है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. मीरा ने संसार की तुलना किस खेल से की है और क्यों?
उत्तर- मीरा ने संसार की तुलना चौपड़ के खेल से की है क्योंकि चौपड़ का खेल कुछ देर चलता है फिर समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार संसार की वस्तुएँ कुछ समय रहती हैं और फिर नष्ट हो जाती हैं।

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प्रश्न 2. मीरा गिरिधर के घर जाने की बात क्यों कहती हैं?
उत्तर-
मीरा श्रीकृष्ण को अपना आराध्य ही नहीं, पति भी मानती हैं। वे स्वयं को श्रीकृष्ण के साथ दाम्पत्य-सूत्र में बँधा हुआ अनुभव करती हैं और अपने पति (श्रीकृष्ण) का सामीप्य पाने के लिए उनके घर जाना चाहती हैं।

प्रश्न 3. ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो ने कोई’-पद में मीरा के भक्ति-भाव पर प्रकाश डालिए।
अथवा ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई’ -मीरा द्वारा रचित इस पद का सारांश लिखिए।
उत्तर- कृष्ण की भक्ति में डूबी मीरा उन्हें ही अपना पति मानती हैं और कहती हैं कि उनके तो केवल गिरिधर गोपाल ही हैं, दूसरा कोई नहीं है। जिनके सिर पर मोर-मुकुट हैं वे ही उनके पति हैं। माता-पिता, भाई-बन्धु आदि इस संसार में कोई भी कृष्णु के सिवा उनका अपना नहीं है। उन्होंने कृष्ण-भक्ति में सबको त्याग दिया है। यहाँ तक कि अपने कुल को भी त्याग दिया है। लोग इसके लिए उन्हें क्या कहते हैं, इसकी (UPBoardSolutions.com) चिन्ता भी उन्हें नहीं है। उन्होंने संत एवं साधुओं की संगति में बैठकर लोक-लज्जा का त्याग कर दिया है। उन्होंने आँसुओं से सींचकर जिस कृष्ण-भक्ति की बेल (लता) को बोया, वह अब फैलकर फल दे रही है। अब तो वे सांसारिकता को देखकर संसार के प्रति मनुष्य की अज्ञानता पर रोती हैं और जहाँ भक्ति देखती हैं वहाँ उनका मन प्रसन्न हो उठता है । मीरा कहती हैं-‘हे गिरिधर गोपाल ! मैं तुम्हारी दासी हूँ, अब तुम ही मेरा उद्धार करो।’

प्रश्न 4. धर्म के अन्तर्गत केवल बाहरी कर्मकाण्ड करने से क्या होता है?
उत्तर- बाहरी कर्मकाण्डों से व्यक्ति उन्हीं में फँसा रहता है और भगवान् के सच्चे स्वरूप को नहीं जान पाता है। इस प्रकार उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। वह बाह्याडम्बरों में फँसा ही जन्म-मरण के चक्र से कभी नहीं छूट पाता है, अत; धर्म में केवल बाहरी कर्मकाण्ड उचित नहीं है।

प्रश्न 5. मीरा के काव्य में व्यक्त भक्ति एवं रहस्यवाद का परिचय दीजिए।
उत्तर-

  1. भक्ति- मीरा की भक्ति प्रेम प्रधान है। उनका कृष्ण राममय और राम कृष्णमय हैं, अर्थात् दोनों ही एक हैं। राम भी कृष्ण ही हैं। भावों की तीव्रता में कोमलता और मधुरता इनकी भक्ति की विशेषता है। वे गोपियों के समान कृष्ण के प्रति माधुर्य भक्ति से प्रेरित हैं। वे कृष्ण के रंग में रंग कर कहती हैं
    ‘‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई।
    जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई॥’
  2. रहस्यवाद- मीरा के काव्य में जिस रहस्यवाद के दर्शन होते हैं, उसमें दाम्पत्य प्रेम की प्रधानता है। वे कहती हैं
    “जिनका पिया परदेश बसत है, लिख-लिख भेजत पाती।
    मेरा पिया हृदय बसत है, ना कहुं आती जाती।”

प्रश्न 6. कृष्ण के क्रय के सम्बन्ध में संसार के लोगों की क्या धारणा है?
उत्तर- मीरा के कृष्ण को क्रय के सम्बन्ध में संसार के लोगों की धारणा है कि मीरा ने गोविन्द को छानबीन कर खरीद लिया है। कोई कहता है कि चुपके से खरीद लिया है, कोई कहता है कि वह काला है, कोई कहता है कि वह गोरा है।

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प्रश्न 7. मीरा ने संसार की तुलना किससे की है और क्यों?
उत्तर- मीरा ने संसार की तुलना चौसर खेल से की है। जिस तरह चौसर खेल क्षण भर में समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार यह संसार भी क्षणभंगुर है। क्षण भर में नष्ट होनेवाला है।

प्रश्न 8. मीरा को कौन-सा धन प्राप्त हो गया है? उस धन की क्या विशेषता है?
उत्तर- मीरा को रामरतन रूपी धन प्राप्त हो गया है । इस धन की विशेषता है कि इसको खर्च नहीं किया जा सकता है और न चुराया जा सकता है अपितु प्रयोग करने से दिन-प्रतिदिन बढ़ता रहता है ।

प्रश्न 9. मीरा ने संसार सागर को पार करने का क्या उपाय बताया है?
उत्तर- मीरा संसार सागर को पार करने के विषय में बताती हैं कि राम नाम का बेड़ा बाँधकर संसार सागर से पार हुआ जा सकता है। राम नाम का बेड़ा बाँधने से मीरा का अभिप्राय भगवान् की भक्ति करने से है।

प्रश्न 10. मीरा भगवान् के किस प्रकार के रूप को अपने नयनों में बसाना चाहती हैं?
उत्तर- मीरा मोर मुकुट, मकराकृत कुण्डल और माथे पर अरुण तिलक लगे नन्दलाल के नटवर नागर रूप को अपनी आँखों में बसाना चाहती हैं।

प्रश्न 11. मीरा शरीर पर गर्व न करने का उपदेश क्यों देती हैं?
उत्तर- मीरा का मत है कि यह शरीर नाशवान है, मिट्टी से बना है और एक दिन मिट्टी में ही मिल जायेगा, इसलिए इस शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. मीरा की किन्हीं दो रचनाओं के नाम बताइए।
उत्तर- नरसी जी का मायरा और राग गोविन्द ।

प्रश्न 2. मीरा ने किस भाषा में रचना की है?
उत्तर- मीरा ने ब्रजभाषा में अपने गीतों की रचना की है।

प्रश्न 3. मीरा ने प्रेम की लता को किस प्रकार पल्लवित किया?
उत्तर- मीरा ने प्रेम की लता को आँसुओं के जल से सींच-सींचकर पल्लवित किया। उसे लता से उसे आनन्दरूपी फल प्राप्त हुआ।

प्रश्न 4. निम्नलिखित में से सही वाक्य के सम्मुख सही (√) का चिह्न लगाइए –
(अ) मीरा भगवान् के सगुण रूप की उपासिका थीं।                                      (√)
(ब) मीरा के अनुसार शरीर पर गर्व करना चाहिए।                                         (×)
(स) मीरा श्रीकृष्ण को पति रूप में मानती हुई उनके घर जाना चाहती हैं।        (√)
(द) मीराबाई रतन सिंह की पुत्री थीं।                                                               (√)

प्रश्न 5. मीरा ने क्या मोल लिया है?
उत्तर- मीराबाई ने गोविन्द श्रीकृष्ण को मोल लिया है।

प्रश्न 6. मीरा भगवान् के किस रूप की उपासिका थीं?
उत्तर- मीरा भगवान् के साकार रूप की उपासिका थीं। कृष्ण को श्याम सुन्दर रूप, कान में कुण्डल, हाथ में मुरली और गले में वनमाला, श्रीकृष्ण के इस रूप पर मीरा मोहित थीं।

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प्रश्न 7. मीरा किस भक्ति-शाखा की कवयित्री हैं?
उत्तर- मीरा सगुण भक्ति शाखा की कवयित्री हैं।

प्रश्न 8. मीरा किसके रंग में रँगी हैं?
उत्तर- मीरा भगवान् श्रीकृष्ण के रंग में रँगी हैं।

प्रश्न 9. मीरा के काव्य को मुख्य स्वर क्या है?
उत्तर- मीरा के काव्य का मुख्य स्वर कृष्ण-भक्ति है।

काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध

प्रश्न 1. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम बताइए
(अ) बसो मेरे नैनन में नन्दलाल।
(ब) काल ब्याल हूँ बाँची।
(स) मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल।
उत्तर-
(अ) इस पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।
(ब) काल ब्याल हूँ बाँची में रूपक अलंकार है।
(स) मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल में वृत्त्यनुप्रास अलंकार है।

प्रश्न 2. निम्नलिखित पंक्ति का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए
गसी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोई।
उत्तर- काव्य सौन्दर्य :
(अ) इस पंक्ति में मीरा अपने को श्रीकृष्ण की दासी बताया है।
(ब) भाषा-ब्रज।
(स) रस-भक्ति एवं शांत।
(द) छंद-गेय।
(य) शैली-मुक्तक।

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प्रश्न 3. निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए-
भगति, सबद, नैनन, बिसाल, किरपा, आणंद, अँसुवन।
उत्तर- भक्ति, शब्द, नयन, विशाल, कृपा, आनंद, आँसुओं।

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UP Board Solutions for Class 8 Sanskrit Chapter 18 एत बालकाः

UP Board Solutions for Class 8 Sanskrit Chapter 18 एत बालकाः

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एत बालकाः

शब्दार्थाः – एत = आओ, नयाम = ले आएँ, अन्धकारकम् = अंधकार को, परिमाम = नाप लें, जहाम = त्याग करें, विभराम = पूर्ण करें, भरें, अतुलिताम् = अतुलनीय, अपरिमित, लब्ध्वा = प्राप्त कर, बद्ध्वा = बाँधकर, विदध्म = विधान करें, पूरयेम = पूर्ण करें, वाञ्छाकमनीयम् = इच्छित सुन्दर कामना को, सेवामहै = सेवा करें, निकामम् = पर्याप्त, यथेच्छ, सुधीपाः = अमृतपान करने वाले, कामम् = कामना के अनुसार, इह = यहाँ, विकुर्मः = दूर करते हैं, दर्शयेम = दिखाएँ, नवमार्गारोहम् नए मार्ग पर चलना, अनल्पम् = सम्पूर्ण, कलयेम = बनावें।

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हिन्दी अनुवाद – आओ बालक! स्वयं चलें, कठिनाई (परेशानी) दूर करें।
आओ! आकाश के तारे ले आएँ और अन्धकार को दूर करें।
आओ! पर्वतों को भी नापें और एकता का त्याग न करें।
आओ! सागर की ओर चलें । जीवन (UPBoardSolutions.com) रूपी कलश को मिश्रित रूप में भरें।
आओ! अतुलित शक्ति प्राप्त करके पुरुषार्थ से निश्चय ही भाग्य को बाँध लें ।
आओ! नवीन तप का विधान करें, इच्छित सुन्दर कामना को पूर्ण करें।
अमृतपान करने वाली कामना के अनुसार और वि- लोभ के लोगों की सेवा करें।
आओ! इस जीवन में सकल नर-नारी के मनों को जीत लें।
आओ! भ्रान्ति-समूह (भ्रान्तियाँ) को दूर करें ! चढ़ने का नया मार्ग दिखाएँ।
आओ! बहुत कल्याण (भलाई) करें और विश्व की कमी दूर करें।

अभ्यासः

प्रश्न 1.
उच्चारणं कुरुत पुस्तिकायां च लिखत
उत्तर
नोट – विद्यार्थी स्वयं करें।

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प्रश्न 2.
एकपदेन उत्तरत –
(क) काठिन्यं किं करवाम ?
उत्तर
दूरे।

(ख) वयं किं परिमाम ?
उत्तर
पर्वतान।

(ग) किं दूरे कुर्मः ?
उत्तर
अन्धकारम् ।

(घ) किं विभराम ?
उत्तर
जीवनक्लेशं ।

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प्रश्न 3.
एकवाक्येन उत्तरत —
(क) काठिन्यं दूरं कर्तुं वयं किं करवाम ?
उत्तर
काटिन्यं दूरं कर्तुं वयं स्वयं चलाम।

(ख) वयं किं नैव जहाम ? |
उत्तर
वयं शक्ति समुदयं नैव जहाम।।

(ग) तपः कृत्वा किं पूरयेम ?
उत्तर
तपः कृत्वा वाञ्छाकमनीयं पूरयेम।।

(घ) भ्रान्तिसमूहं दूरं कृत्वा वयं किं दर्शयेम ?
उत्तर
भ्रान्तिसमूहं दूरं कृत्वा वयं नवमार्गारोहं दर्शयेम।

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प्रश्न 4.
रेखांकितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) जनानां मनांसि जयेम।।
उत्तर
जनानां किम् जयेम?

(ख) मङ्गलं बहु वितरेम।।
उत्तर
किम् बहु वितरेम?

(ग) वयं नभस्तारकं नयाम।।
उत्तर
वयं कर्म नयाम?

प्रश्न 5.
मञ्जूषातः क्रियापदानि चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत (पूरा करके) –
उत्तर
(क)
अहं काठिन्यं दूरे करवाणि।
(ख) त्वं नभस्तारकम् नय।
(ग) सः सागरं प्रति गच्छतु।।
(घ) ते जनानां मनांसि जयन्तु।

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प्रश्न 6.
संस्कृते अनुवादं कुरुत (अनुवाद करके)
(क) कठिनता को हम दूर करें।
उत्तर
अनुवाद – वयं काठिन्यं दूरे करवाम।।

(ख) हम सब अन्धकार को दूर करें।
उत्तर
अनुवाद – वयं सर्वे-अन्धकारमू (UPBoardSolutions.com) दूरे कुर्म ।।

(ग) सागर की ओर चलें।
उत्तर
अनुवाद – सागरं प्रति गच्छाम।।

(घ) हम भ्रान्तियों को दूर करें।
उत्तर
अनुवाद – वयं भ्रान्तिसमूहाः दूरे कुर्म।

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प्रश्न 7.
धातुः, लकारः, पुरुषं च लिखत (लिखकर) –
उत्तर
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