UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 3

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Physics
Model Paper Paper 3
Category UP Board Model Papers

UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 3

समय 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक 70

प्रश्न 1.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (1 x 6 = 6)
(i) वायु में रखे दो धनावेशों के मध्य परावैद्युत पदार्थ रख देने पर इनके बीच 
प्रतिकर्षण बल का मान
(a) बढ़ जायेगा ।
(b) घट जायेगा।
(c) वही रहेगा
(d) शून्य हो जायेगा

(ii) वैद्युत विभव का मात्रक है।
(a) जूल/कूलॉम
(b) जूल-कूलॉम
(c) कूलॉम/जूल
(d) न्यूटन/कूलॉम

(iii) 10 ओम प्रतिरोध तथा 10 हेनरी प्रेरकत्व की एक कुण्डली 50 वोल्ट की बैटरी से जोड़ी गई है। कुण्डली में संचित ऊर्जा
(a) 125 जूल
(b) 62.5 जूल
(c) 250 जूल
(d) 2500 जूल

(iv) दूर दृष्टि से पीड़ित व्यक्ति का निकट बिन्दु स्थित होगा
(a) 25 सेमी पर
(b) 25 सेमी से कम दूरी पर
(c) 25 सेमी से अधिक दूरी पर
(d) अनन्त पर

(v) 5 x 1014 हर्ट्ज आवृत्ति का प्रकाश 1.5 अपवर्तनांक वाले माध्यम में चल रहा है। उसकी तरंगदैर्ध्य होगी
(c = 3 x 10
8मी/से)
(a) 9000 Å
(b) 6000 Å
(c) 4500Å
(d) 4000 Å

(vi) एक प्रकाश वैद्युत पदार्थ को कार्य फलन 3.3 eV है। उसकी देहली आवृत्ति की तरंगदैर्ध्य होगी
(a) 8 x 10
14 हज
(b) 8×1010 हर्ट्ज़
(c) 5×10
23 हज़
(d) 4 x 1011 हर्ट्ज

प्रश्न 2.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (1 x 6 = 6)
(i) चुम्बकीय क्षेत्र में धारावाही चालक को क्षेत्र के सापेक्ष कैसे रखा जाये कि 
चालक पर अधिकतम बल लगे?
(ii) 0.25 मी क्षेत्रफल के लूप में प्रवाहित धारा 0.25 ऐम्पियर है। इसका 
चुम्बकीय आघूर्ण क्या होगा?
(iii) विस्थापन धारा से क्या तात्पर्य है?
(iv) सूक्ष्मदर्शी तथा दूरदर्शी में से किसके दोनों लेन्सों की फोकस दूरियों में ।अधिक अंन्तर होता है?
(v) एनालॉग परिपथ तथा डिजिटल परिपथ में क्या अन्तर है?
(vi) आयाम मॉडुलित तरंग में तीन आवृत्तियाँ कौन-सी हैं? LSB तथा USB 
क्या है?

प्रश्न 3.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (2 x 4 = 8)
(i) एक समान्तर प्लेट संधारित्र की प्रत्येक प्लेट का क्षेत्रफ़ल 3 x 102मी है। तथा प्लेटों के बीच की दूरी 0.6 मिमी है। इसे 1000 वोल्ट विभवान्तर तक
आवेशित किया जाता है। इसमें कितनी ऊर्जा संचित होगी?
(ii) यदि प्राथमिक कुण्डली में प्रवाहित धारा 3 ऐम्पियर की धारा को 
0.002 सेकण्ड में शून्य कर दिया जाये, तो द्वितीयक कुण्डली में 1500 वोल्ट का वैद्युत बल प्रेरित होता है। कुण्डलियों के बीच अन्योन्य प्रेरण गुणांक ज्ञात कीजिये।
(iii) एक पतली स्लिट द्वारा पर्दे पर बने विवर्तन प्रतिरूप की तीव्रता वितरण का आरेखखींचिये।
(iv) किसी ट्रांजिस्टर का निवेशी प्रतिरोध निम्न तथा निर्गत् प्रतिरोध उच्च क्यों होता है? 
 व्याख्या कीजिये।

प्रश्न 4.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (8 x 10 =30)
(i)
(a) धातुओं में मुक्त इलेक्ट्रॉनों के अनियमित वेग तथा अनुगमन वेग में क्या 
अन्तर है? समझाइये।
(b) प्रतिरोधकता तथा चालकता को परिभाषित कीजिये।
(ii) संलग्न चित्र में i
1,i2तथा V के मान ज्ञात कीजिये। इनके ऊपर वाली बैटरी का विद्युत वाहक बल 11V तथा आन्तरिक प्रतिरोध 22 और नीचे वाली बैटरी का विद्युत वाहक बल 9V एवं आन्तरिक प्रतिरोध 1Ω है।
(iii) संलग्न चित्र में प्रदर्शित तारों में प्रवाहित वैद्युत धारा के कारण O पर चुम्बकीय क्षेत्र B का मान ज्ञात कीजिये।
(iv) लौहचुम्बकत्व का डोमेन सिद्धान्त क्या है?
(v) वैद्युत चुम्बकीय तरंगों के चार प्रमुख अभिलक्षणों को बताइये। वैद्युत चुम्बकीय तरंग 
को आरेख द्वारा दिखाइये।।
(vi) परस्पर सम्पर्क में रखे दो पतले लेन्सों की संयुक्त फोकस दूरी के सूत्र का निगमन 
कीजिये।
(vii) सूर्य से पृथ्वी पर 1.4 x 103 जूल प्रति मीटर2 प्रति सेकण्ड ऊर्जा प्राप्त होती है। यदि 
हम सूर्य के प्रकाश की औसत तरंगदैर्ध्य 5500 Å मैं मानें, तो सूर्य से पृथ्वी पर प्रति सेमी प्रति सेकण्ड कितने फोटॉन आते हैं?
(viii) हाइड्रोजन परमाणु की nवीं कक्षा में इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा का सूत्र लिखिये। इससे 
हाइड्रोजन परमाणु के प्रथम उत्तेजन विभव तथा आयनन विभव के मान ज्ञात कीजिये।
(ix) तापायनिक उत्सर्जन से प्राप्त इलेक्ट्रॉनों तथा नाभिकीय विघटन से उत्सर्जित B-कणों में क्या अन्तर है?
(x) आकाश तरंगों के संचरण को समझाइये। इन तरंगों के संचरण के लिये प्रयुक्त 
आवृत्ति परास क्या है? |

प्रश्न 5.
सभी खण्डों के उत्तर दीजिये। (5 x4= 20)
(i) दो बिन्दु आवेश q
A= 3μc तथा qB=-3μc निर्वात् में 20 सेमी की दूरी पर स्थित है।
(a) दो बिन्दु आवेशों को मिलाने वाली रेखा AB के मध्य बिन्दु पर वैद्युत 
क्षेत्र कितना है?
(b) यदि 1.5 x 10-9 C परिमाण का ऋणात्मक परिक्षण आवेश इस बिन्दु पर स्थित है, तो परिक्षण आवेश पर कितना बल लगेगा?
(ii)
(a) L-C-R परिपथ में अनुनादी आवृत्ति को समझाइये।
(b) दर्शाइये कि L-C-R परिपथ में प्रति संरक्षित औसत शक्ति क्षण |
[latex]p={ V }_{ rms }{ i }_{ rms }\times cos\theta [/latex] होता है; जहाँ कली कोण है।
(iii) प्रकाशिक तन्तु क्या होते हैं? किरण चित्र की सहायता से इनके द्वारा प्रकाश 
संचरण की विधि समझाइये। इसमें किस घटना का उपयोग होता है?
(iv) p-n सन्धि डायोड किसे कहते हैं? दो p-n सन्धि डायोड को पूर्ण तरंग 
दिष्टकारी के रूप में कैसे प्रयुक्त किया जाता है? निवेशी व निर्गत् वोल्टताओं के तरंग रूपों को भी दर्शाइये।

Answers

(1)
उत्तर 1(i).
(b)
घट जायेगा।

उत्तर 1(ii).
(a) जूल/कूलॉम

उत्तर 1(iii).
(a) 125 जूल

उत्तर 1(iv).
(c) 25 सेमी से अधिक दूरी पर

उत्तर 1(v).
(d) 4000 Å

उत्तर 1(vi).
(a) 8 x 1014 हज

उत्तर 4(ii).
[latex]\cfrac { 59 }{ 74 } [/latex] ऐम्पियर, [latex]-\cfrac { 30 }{ 74 } [/latex] ऐम्पियर,9.4 वोल्ट
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 3 image 1

उत्तर 4(iii).
शून्य ।
UP Board Class 12 Physics Model Papers Paper 3 image 2
उत्तर 4(vii).
3.89 x 1017 प्रति सेमी2प्रति सेकण्ड ।

उत्तर 4(viii)
10.2 eV तथा 13.6 ev

उत्तर 5(b).
5.4 x 106N/C, 8.1 x 10-3 N

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UP Board Class 10 English Model Papers Paper 3

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Class Class 10
Subject English
Model Paper Paper 3
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UP Board Class 10 English Model Papers Paper 3

Time : 3 hrs 15 min
Maximum Marks : 70

Instruction First 15 minutes are allotted for the candidates to read the question paper.
Note:

  1. This question paper is divided into two sections A and B.
  2. All questions from the two sections are compulsory.
  3. Marks are indicated against each question.
  4. Read the questions very carefully before you start answering them.

Section A

Question 1.
Read the following passage and answer the questions given below it:
The judges listened to him, questioned him and condemned him to death. The old man made no complaint. He leaned on his stick, looking round the crowded courtroom. Plato and his other pupils were there in the court all the time. “No evil can happen to a good man”, he told them, “either in life or after death, so be of good cheer. I have to go. The hour of my departure has arrived and we go our ways, I to die and you to live.”

Then the soldiers came and took him away to prison. His wife followed with his three children. Many of his favourite pupils were also with him. For a long time, they talked to him and he taught them many wise lessons which they treasured in their hearts. But all the time his friends knew that Socrates would die soon. They were sad. “For”, as Plato wrote “he was like a father of whom we were being bereaved and we were about to pass the rest of our lives as orphans.”

  1. Why were the friends of Socrates sad ? (2)
  2. What did the old man say to his pupils? (2)

Question 2.
Answer one of the following questions in about 60 words: (4)

  1. Why does Nehru want much of the past traditions and customs to be discarded ?
  2. How did Tansen make his Guru sing?

Question 3.
Answer two of the following questions in about 25 words each: (2+2=4)

  1. How was Nehru attached to the Ganga?
  2. Who embraced Yudhishthira and blessed him ?
  3. What did the second son do before buying anything?

Question 4.
Match the words of List A with their meanings in List B :(1 x 4=4)

List A List B
Obliged Thankfulness
Obliged Dirty
Obliged Indebted
Shabby Lonely

Question 5.
Read the following lines of poetry and answer the questions given below it:
Into the moonlight, Whiter than snow, Waving so flower – like, When the winds blow !

  1. What is the effect of the moonlight on the fountain? (2)
  2. Point out the words that are rhyming from the above stanza. (2)

Question 6.
Give the central idea of one of the following poems: (3)

  1. The Psalm of Life
  2. A Nation’s Builder.

OR
Write four lines from one of the poems given in your textbook. (Do not copy out the lines given in this question paper.)

Question 7.
Answer two of the following questions in about 25 words each: (2+2 = 4)

  1. How did the great and eventful life of Edison end?
  2. Why was Vikramaditya praised by one and all?
  3. Who was D Coubertin and what was his ideal?

Question 8.
Point out true and false statements in the following: (1 x 4=4)

  1. On 4th September, 1882, for the first time, New York shone in the brightness of electric light.
  2. The last angel allowed the king of Ujjain to sit on the judgement seat of Vikramaditya.
  3. Some of Edison’s experiments were silly but he learnt a lot from them.
  4. Luz Long was an American.

Question 9.
Select the most suitable alternative to complete the following statements: (1×4=4)
1. When Edison tried his experiment on his servant girl
(A) she began to fly
(B) she fell down on the ground
(C) she fell ill
(D) she started running

2. The judgement seat of Vikramaditya was found in
(A) Indore
(B) Delhi
(C) Ujjain
(D) Bhopal

3. The essential thing in life is
(A) fighting well
(B) conquering
(C) earning money
(D) doing bad things

4. Hitler believed in
(A) equality of all races
(B) superiority of German race
(C) winning of a good sportsman irrespective of his country
(D) superiority of English race

Section B

Question 10.
Do as indicated against each of the following sentences:

  1. take should everyone pride job he whatever in does (Frame a correct sentence by re-ordering the words.)(2)
  2. The snowfall destroyed all the crops. (Change into passive voice) (2)
  3. “I am not interested in your fake stories” said Priya to Shubham. (Change into indirect speech) (2)
  4. He on this problem since morning (use correct form of the verb ‘work’ to fill in the blank) (2)

Question 11.

  1. Choose the correct preposition from the ones given below the sentence to fill in the blank: (2)
    A mouse came the hole at the corner of the room, (in, for, from , to)
  2. Complete the following sentence : (2)
    Sunil knows where
  3. Complete the spelling of the following words.
    (i) i _te ig _ n _ (ii) r _ al _ s_ d
  4. Punctuate the following sentence using capital letters wherever necessary: (2)
    the teacher said to the students the moon is the earth’s planet.

Question 12.
Translate the following into English : (4)

शब्द विचारों को व्यक्त करने का बहुत अच्छा माध्यम हैं। हर कोई अच्छे विचारों को सुनना चाहता है। कुछ व्यक्ति बोलकर अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। कुछ लोग कम बोलते हैं। वे अपने विचारों को बोलकर व्यक्त नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्ति अपने सुन्दर विचारों को लिखते हैं। वे कवि एवं लेखक बनते हैं। वे देश-दुनिया में कीर्तिमान स्थापित करते हैं।

Question 13.
Write a letter to the Superintendent of Police complaining
about the incidents of theft and chain snatching in your area. (Do not write your Name and Roll No) (4)
OR
Write an application to the Principal of S.D. Inter College, Muzaffarnagar to allow the cricket team of his college to play a friendly match against your college team. (Do not write your Name and Roll No)

Question 14.
Write a composition on one of the following topics in about 60 words. Points are given below for each topic to develop the composition: (6)
1. A Flood Scene or A River in Floods
(A) Introduction
(B) Sudden Rise of Water
(C) Places Where the Water had Entered
(D Miseries of the People
(E) Relief Work
(F) Conclusion

2. Inventions of Science
(A) Introduction
(B) Electricity
(C) Other Services
(D) A Bad Master
(E) Conclusion

3. My Best Friend
(A) Introduction
(B) Name, Age and Parentage
(C) His Dress and Habits
(D) His Interests in Games & Sports arid Cultural Activities
(E) His Good Qualities
(F) Conclusion

Question 15.
Read the following passage carefully and answer the questions given below it:
A historical fact about Tokyo is that it was a small fishing village, originally. It became the country’s de facto capital, even though the king remained in Kyoto. However in 1869, king Meiji came to the Tokyo area and the Edo Castle was transformed into a spectacular Imperial Palace. Tokyo remained Japan’s capital till 1943, after which, it was merged with Tokyo’s Metropolitan Prefecture.

Tokyo is a dream destination with several famous attractions located here. Some of the popular tourist attractions in the city include the Disney Resort, Dome City, Sony Building, Hanayashiki Amusement Park and the Imperial Palace. Another amazing fact about Tokyo is that it is home to the tallest tower in the world, Sky tree.

  1. How was the spectacular Imperial Palace formed? (3)
  2. Why is Tokyo a dream destination for tourists all over the world ? (3)

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UP Board Class 10 Hindi Model Papers Paper 3

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UP Board Class 10 Hindi Model Papers Paper 3

समय : 3 घण्टे 15 मिनट
पूर्णांक : 70

प्रश्न 1.
(क) निम्नलिखित में से कोई एक कथन सही है। उसे पहचानकर लिखिए। [ 1 ]

  1. ‘हिमालय की पुकार’ जयप्रकाश भारती का प्रसिद्ध नाटक है।
  2. ‘संस्कृति के चार अध्याय दिनकरजी का काव्यसंग्रह है।
  3. ‘गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास है।
  4. ‘कलम का सिपाही’ प्रेमचन्द की कृति है।

(ख) निम्नलिखित कृतियों में से किसी एक कृति के लेखक का नाम लिखिए। [ 1 ]

  1. त्रिवेणी
  2. माटी की मूरतें
  3. मेरी कॉलेज डायरी
  4. लहरों के राजहंस

(ग) किसी एक आलोचना लेखक का नाम लिखिए। [ 1 ]
(घ) ‘नीड़ का निर्माण फिर’ कृति किस विधा पर आधारित है। [ 1 ]
(ङ) ‘गुलाबराय’ की एक रचना का नाम लिखिए। [ 1 ]

प्रश्न 2.
(क) द्विवेदी युग की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [ 1 + 1 = 2 ] 
(ख) ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘पथिक’ के रचयिता के नाम लिखिए। [ 1 + 1 = 2 ] 
(ग) मैथिलीशरण गुप्त की दो काव्य कृतियों के नाम लिखिए। [ 1 ]

प्रश्न 3.
निम्नलिखित गद्यांशों में से किसी एक के नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए। [ 2 + 2 + 2 = 6]

(क)
सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रकृति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जाएँ पर भीतर ही मौतर घृणा करते रहें। मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सके, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीतिपात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए ऐसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे।

  1. उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
  2. गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
  3. अच्छे मित्र की क्या विशेषताएँ बताई गई हैं?

(ख)
इंष्य का यही अनोखा वरदान है। जिस मनुष्य के हृदय में ईष्र्या घर बना लेती हैं। वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। देश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईष्र्यालु मनुष्य करे भी तो क्या? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।

  1. उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
  2. रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
  3. ईर्ष्यालु व्यक्ति कौन-सी वेदना भौगने के लिए विवश होता है और क्यों?

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पद्यांशों में से किसी एक की सन्दर्भ-सहित व्याख्या कीजिए तथा उसका काव्य-सौन्दर्य भी लिखिए। [ 1 + 4 + 1 = 6 ]

(क)
बैठो माता के आँगन में
नाता भाई-बहन का
समझे उसकी प्रसव बेदना
वही लाल है माई का।
एक साथ मिल बाँट लो
अपना हुर्ष विषादं यहाँ है
सबका शिव कल्याण यहाँ हैं,
पावें सभी प्रसाद यहाँ।

(ख)
ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नहिं।
वृन्दावन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की नाहि।।
प्रात समय माता जसुमति अरु नन्दं देखि सुख पावत।
माखन रोटी दहयौ सजायो, अति हित साथ खुवावत
गोपी ग्वाल-बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।
सूरदास धनि-धनि ब्रजवासी, जिनस हित जदुजात।।

प्रश्न 5.
(क) निम्नलिखित लेखकों में से किसी एक का जीवन-परिचय एवं उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2 + 1 = 3]

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
  2. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
  3. डॉ. भगवतशरण उपाध्याय

(ख) निम्नलिखित कवियों में से किसी एक कवि का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी एक रचना का नाम लिखिए। [2 + 1 = 3]

  1. बिहारी लाल
  2. रसवान
  3. सुमित्रानन्दन पन्त

प्रश्न 6.
निम्नलिखित का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद कीजिए। [1 + 3 = 4]
अस्माकं संस्कृतिः सदा गतिशीला वर्तते। मानव जीवनं संस्कर्तुम् एषा यथासमयं नवां नवां विचारधारां स्वीकरोति, नवां शक्ति च प्राप्नोति। अत्र दुराग्रह नास्ति, यत् युक्तियुक्तं कल्याणकारि च तदत्र सहर्ष गृहीतं भवति। एतस्याः गतिशीलतायाः रहस्यं मानवजीवनस्य शाश्वत मूल्येषु निहितम्, तद् यथा सत्यस्य प्रतिष्ठा, सर्वभूतेषु समभावः विचारेषु औदार्यम् आचारे दृढ़ता चेति।
अथवा
रे रे चातक! सावधानमनसा मित्र! क्षणं श्रूयताम्।
अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः।
केचिद वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधांगर्जन्ति केचिद् थाः।।
यं यं पश्यसि तस्य-तस्य पुरतो मा बृहि दीनंवचः।।

7.
(क) अपनी पाठ्यपुस्तक से कण्ठस्थ किया हुआ कोई एक श्लोक लिखिए जो इस प्रश्न-पत्र में न आया हो। [ 2 ]
(ख) निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में दीजिए। [ 1 + 1 = 2 ] 

  1. दाराशिकोह: वाराणसीम आगत्य किम रोत?
  2. कौशगतः भ्रमरः किम् अचिन्तयत?
  3. गीतायाः कः सन्देशः?
  4. चन्द्रशेखरः कः आसीत्?
  5. वातात् शीघ्रतरं किम् भवति?

प्रश्न 8.
(क) हास्य अथवा करुण रस की परिभाषा सोदाहरण लिखिए। [ 2 ]
(ख) रूपक अथवा उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा एवं उदाहरण लिखिए। [ 2 ]
(ग) रोला अथवा सोरठा छन्द की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। [ 2 ]

प्रश्न 9.
(क) निम्नलिखित उपसर्गों में से किन्हीं तीन के मेल से एक-एक शब्द बनाइए। [ 1 + 1 +1 = 3 ]

  1. सु
  2. नि
  3. प्रति
  4. अप
  5. कु

(ख) निम्नलिखित में से किन्हीं दो प्रत्ययों का प्रयोग करके एक-एक शब्द बनाइए। [ 1 + 1 = 2 ]

  1. आस
  2. आइन
  3. मान
  4. आवट

(ग) निम्नलिखित में से किन्हीं दो का समास-विग्रह कीजिए तथा समास का नाम लिखिए। [ 1 + 1 = 2 ]

  1. पथ्यापथ्य
  2. त्रिकोण
  3. महाजन
  4. दशानन
  5. नीलोत्पल
  6. चौराहा

(घ) निम्नलिखित में से किन्हीं दो के तत्सम रूप लिखिए। [ 1 + 1 = 2 ]

  1. आँसू
  2. माथा
  3. सावन
  4. कोयल
  5. अनाज
  6. दूध

(ङ) निम्नलिखित शब्दों में से किन्हीं दो के दो-दो पर्यायवाची लिखिए। [ 1 + 1 = 2 ]

  1. सरोवर
  2. वायु
  3. आकाश
  4. कमल
  5. नदी
  6. शहद

प्रश्न 10.
(क) निम्नलिखित में से किन्हीं दो में सन्धि कीजिए और सन्धि का नाम लिखिए। [ 1 + 1 = 2 ]

  1. यदि + अग्नि
  2. महा + औज:
  3. मम + एव
  4. वधू के आगमनम्।
  5. परम + ऐश्वर्यम्
  6. इति + अलम्

(ख) निम्नलिखित शब्दों के रूप षष्ठी विभक्ति द्विवचन में लिखिए। [ 1 + 1 = 2 ]

  • नदी अथवा मनु
  • तद् (पुलिंग) अथवा युष्मद्

(ग) निम्नलिखित में से किसी एक का धातु, लकार, पुरुष एवं वचन का उल्लेख कीजिए। [ 2 ]

  1. पठे:
  2. दृसतम्
  3. पश्येत

(घ) निम्नलिखित में से किन्हीं दो का संस्कृत में अनुवाद कीजिए। [ 2 ]

  1. हम दोनों मैदान में खेलेंगे।
  2. वे पुस्तकें पढ़ रहे हैं।
  3. विद्या विनय देती हैं।
  4. गंगा हिमालय से निकलती है।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर निबन्ध लिखिए। [ 6 ]

  1. विज्ञान के चमत्कार
  2. शिक्षा में खेलकुद का स्थान
  3. कम्प्यूटर का बढ़ता प्रयोग
  4. परिश्रम का महत्त्व
  5. योग : स्वस्थ जीवन का आधार

प्रश्न 12.
स्वपठित खण्डकाव्य के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों में से किसी एक का उत्तर दीजिए। [ 3 ]
(क)

  1. ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य के आधार पर भामाशाह का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  2. ‘मेवाड़ मुकुट’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा की संक्षिप्त प्रस्तुति कीजिए।

(ख)

(1) ‘अमपूजा’ खण्डकाव्य में तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
(ii) ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के नायक श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।

(ग)

  1. कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
  2. कर्मवीर भरत’ खण्डकाव्य के आधार पर कैकेयी का चरित्र-चित्रण कीजिए।

(घ)

(i) ‘जयसुभाष’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
(ii) ‘जयसुभाष’ खण्डकाव्य के नायक सुभाषचन्द्र बोस का चरित्र-चित्रण कीजिए।

(ङ)

  1. ‘मातृभूमि के लिए’ खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए।
  2. ‘मातृभूमि के लिए’ खण्डकाव्य के आधार पर चन्द्रशेखर आज़ाद के क्रान्तिकारी रूप का चित्रण कीजिए।

(च)

  1. ‘तुमुल’ खण्डकाव्य के सप्तम एवं अष्टम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
  2. ‘तुमुल’ खण्डकाव्य के नायक लक्ष्मण का चरित्र-चित्रण कीजिए।

(छ)

  1. ज्योति जवाहर’ खण्डकाव्य के आधार पर बताइए कि कलिंग युद्ध का अशोक के हृदय पर क्या प्रभाव पड़ा?
  2. ज्योति जवाहर’ के नायक की चार चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

(ज)

  1. कर्ण’ खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण को वीरता का वर्णन कीजिए।
  2. ‘कर्ण’ खण्डकाव्य के छठे सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।

(झ)

  1. ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दो में लिखिए।
  2. ‘मुक्ति दूत’ खण्डकाव्य के आधार पर गांधीजी का चरित्र-चित्रण कीजिए।

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UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods (मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ) are part of UP Board Solutions for Class 12 Civics. Here we have given UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods (मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject Civics
Chapter Chapter 8
Chapter Name Franchise and Electoral Methods
(मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ)
Number of Questions Solved 38
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods (मताधिकार एवं निर्वाचन-प्रणालियाँ)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार से आप क्या समझते हैं? इसके गुण तथा दोषों की विवेचना कीजिए। [2009, 10]
या
मताधिकार का क्या अर्थ है? मताधिकार के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
या
सार्वभौमिक मताधिकार के पक्ष में चार तर्क दीजिए। [2010]
या
वयस्क मताधिकार से आप क्या समझते हैं? इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिएं। [2013]
या
वयस्क मताधिकार का अर्थ बताइए तथा वर्तमान समय में इसकी आवश्यकता के पक्ष में तर्क दीजिए। [2016]
या
वयस्क मताधिकार के समर्थन का मुख्य आधार क्या है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। [2007]
या
लोकतान्त्रिक शासन में वयस्क मताधिकार का महत्त्व समझाइए। [2015]
उत्तर
मताधिकार का अर्थ एवं परिभाषा
‘मताधिकार’ शब्द में दो शब्द सम्मिलित हैं- ‘मत’ और ‘अधिकार’। इसका आशय है- राय या मत प्रकट करने का अधिकार। नागरिकशास्त्र के अन्तर्गत मताधिकार का अपना विशिष्ट अर्थ है। इसके अनुसार देश के नागरिकों को शासन संचालन हेतु अपने उम्मीदवारों को चुनने का जो अधिकार प्राप्त होता है, उसे ही ‘मताधिकार’ कहते हैं। यह अधिकार नागरिक का मौलिक अधिकार माना गया है। केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही नागरिक को मताधिकार से वंचित किया जा सकता है। मताधिकार की परिभाषा देते हुए गार्नर ने लिखा है-“मताधिकार वह अधिकार है जिसे राज्य देश के हित-साधक योग्य व्यक्तियों को प्रदान करता है।” मताधिकार की प्राप्ति के लिए आयु, नागरिकता, निवासस्थान आदि योग्यताएँ महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। कुछ देशों में लिंग व शिक्षा को भी मताधिकार की शर्त माना गया है।

मताधिकार के प्रकार
मताधिकार दो प्रकार का हो सकता है-

  1. सीमित मताधिकार तथा
  2. वयस्क मताधिकार।

1. सीमित मताधिकार
सीमित मताधिकार का अर्थ है कि सम्पूर्ण समाज के कल्याण को ध्यान में रखकर यह अधिकार केवल ऐसे लोगों को ही दिया जाना चाहिए, जिनमें इसके प्रयोग की योग्यता व क्षमता हो। यह मताधिकार शिक्षा, सम्पत्ति या पुरुषों को प्रदान करने तक सीमित किया जा सकता है। ब्लण्टशली, मिल, हेनरीमैन, सिजविक, लैकी इसी विचार के समर्थक हैं। इन विचारकों का मत है कि सम्पूर्ण समाज के हित को ध्यान में रखते हुए मताधिकार केवल ऐसे लोगों को दिया जाना चाहिए, जो मतदान के महत्त्व को समझते हों तथा मतदान करते समय योग्य तथा सक्षम उम्मीदवार की पहचान कर सकें। ये विचारक सम्पत्ति, शिक्षा अथवा लिंग को ही आधार मानकर मतदान को सीमित करना चाहते हैं, इसलिए इसे ‘सीमित मताधिकार’ कहा जाता है। सीमित मताधिकार के समर्थक निम्नलिखित आधारों पर मतदान को सीमित करना चाहते हैं-

(अ) सम्पत्ति का आधार – सम्पत्ति को मताधिकार का आधार मानने वाले विचारक कहते हैं कि मताधिकार केवल उन नागरिकों को ही प्राप्त होना चाहिए, जिनके पास कुछ सम्पत्ति हो तथा जो कर देते हों। यदि सम्पत्तिविहीन या कर न देने वालों को यह अधिकार दिया गया तो वे ऐसे व्यक्तियों को चुनेंगे जो कानूनों द्वारा धनिकों की सम्पत्ति का अधिग्रहण करने का प्रयास करेंगे तथा उने पर अधिक-से-अधिक कर लगाएँगे।

(ब) शिक्षा का आधार – शिक्षा के समर्थक मानते हैं कि निरक्षर अथवा अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। निरक्षर व्यक्तियों में समझदारी नहीं होती है तथा वे राजनीति को नहीं समझते हैं। वे जाति, धर्म व सम्बन्धों से प्रभावित हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप वे गलत निर्णय भी ले सकते हैं।

2. वयस्क या सार्वभौमिक मताधिकार
कुछ विद्वानों ने मताधिकार को प्रत्येक नागरिक का प्राकृतिक अधिकार स्वीकार किया है तथा शिक्षा, लिंग, सम्पत्ति एवं अन्य किसी भेदभाव के बिना एक निश्चित आयु तक के सभी व्यक्तियों को मताधिकार प्राप्त होने का विचार प्रतिपादित किया है। मत की इस व्यवस्था को ही वयस्क मताधिकार कहते हैं। वयस्क मताधिकार क्योंकि सभी वयस्क स्त्री-पुरुषों को प्राप्त रहता है, इसलिए इसे सार्वभौम मताधिकार भी कहा जाता है।
विभिन्न राज्यों में वयस्क होने की आयु अलग-अलग है। उदाहरणार्थ-भारत, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में 18 वर्ष पर, स्विट्जरलैण्ड में 20 वर्ष पर, नार्वे में 23 वर्ष पर और हॉलैण्ड में 25 वर्ष पर व्यक्ति वयस्क माना जाता है। साधारणतया पागल, दिवालिये, अपराधी तथा विदेशी मताधिकार से वंचित रखे जाते हैं।

वयस्क मताधिकार के गुण (पक्ष में तर्क)
संसार के अधिकाश देशों में वयस्क मताधिकार प्रचलित है। वयस्क मताधिकार के निम्नलिखित गुणों के कारण इसको मान्यता प्रदान की गयी है-

  1. सभी के हितों की रक्षा – वयस्क मताधिकार द्वारा सभी वर्गों के हितों की रक्षा होती है। यह लोक-सत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति है। गार्नर के अनुसार, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मताधिकार में ही हो सकती है।”
  2. विकास के समान अवसर – मिल ने कहा है कि “प्रजातन्त्र मनुष्य की समानता को स्वीकार करता है और राजनीतिक समानता तभी हो सकती है जब सभी नागरिकों को मताधिकार दे दिया जाये।
  3. राजनीतिक शिक्षा – वयस्क मताधिकार समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के राजनीतिक जागृति तथा सार्वजनिक शिक्षा प्रदान करता है।
  4. सभी प्रकार के अधिकार व सम्मान की सुरक्षा – मताधिकार के बिना न तो नागरिकों को अन्य अधिकार प्राप्त होंगे और न उनका सम्मान ही सुरक्षित रहेगा। मताधिकार मिलने से नागरिकों को अन्य नागरिक अधिकार भी स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं।
  5. शासन-कार्यों में रुचि – मताधिकार प्राप्त होने से नागरिक शासन-कार्यों में रुचि लेते हैं, जिससे राष्ट्र शक्तिशाली बनता है और नागरिकों में स्वदेश-प्रेम की भावना उत्पन्न होती है।
  6. लोकतन्त्र का आधार – वयस्क मताधिकार को लोकतन्त्र की नींव तथा आधार कहा जाता है, क्योंकि प्रजातान्त्रिक शासन में राज्य की वास्तविक प्रभुसत्ता मतदाताओं के हाथ में ही होती है।
  7. अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व – सभी नागरिकों को मताधिकार प्राप्त होने से समाज के बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक सभी वर्गों को शासन में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है; अतः समाज के सभी वर्ग सन्तुष्ट रहते हैं।
  8. निरंकुशता पर रोक – वयस्क मताधिकार शासन की निरंकुशता को रोकने के लिए अवरोध का काम करता है।

वयस्क मताधिकार के दोष (विपक्ष में तर्क)
कुछ विद्वानों ने वयस्क मताधिकार की निम्नलिखित दोषों के आधार पर आलोचना की है-

1. मताधिकार का दुरुपयोग सम्भव – विद्वानों का तर्क है कि मात्र वयस्कता के आधार पर सभी लोगों को मताधिकार देने से इस अधिकार के दुरुपयोग की सम्भावना बढ़ जाती है।

2. अयोग्य व्यक्तियों का चुनाव सम्भव – लॉवेल के शब्दों में, “अज्ञानियों को मताधिकार दो, आज ही उनमें अराजकता फैल जाएगी और कल ही उन पर निरंकुश शासन होने लगेगा।’ वयस्क मताधिकार प्रणाली में यदि मतदाता अशिक्षित व अज्ञानी हों तो यही सम्भावना बलवती हो जाती है कि वे अयोग्य व्यक्तियों का चुनाव करेंगे, जो प्रजातन्त्र के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।

3. धनी वर्ग के हित असुरक्षित – वयस्क मताधिकार की दशा में बहुसंख्यक निर्धन तथा मजदूर जनता प्रतिशोध की भावना से ऐसे प्रतिनिधियों का चुनाव करती है जिनसे धनिकों व पूँजीपतियों के हितों को हानि पहुँचने की सम्भावना रहती है।

4. वोटों की खरीद – वयस्क मताधिकार का एक बहुत बड़ा दोष यह है कि जनता की निर्धनता तथा अज्ञानता का लाभ उठाकर अनेक प्रत्याशी उनके वोटों को धन या अन्य सुविधाओं का लालच देकर खरीद लेते हैं।

5. चुनाव में भ्रष्टाचार – वयस्क मताधिकार की स्थिति में मतदाताओं की संख्या इतनी अधिक होती है कि चुनाव में लोग अनेक प्रकार के भ्रष्ट साधन अपनाने लगते हैं; जैसे—कुछ कमजोर वर्ग के लोगों को वोट डालने से बलपूर्वक रोकना, मतदाताओं के फर्जी नाम दर्ज कराना, किसी के नाम का वोट किसी अन्य के द्वारा डाल देना आदि।

6. रूढ़िवादिता – सामान्य जनता में रूढ़िवादी व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है। ये लोग सुधारों तथा प्रगतिशील विचारों का विरोध करते हैं। अत: यदि वयस्क मताधिकार दिया गया तो शासन रूढ़िवादी तथा प्रगतिशील विचारों के विरोधी व्यक्तियों का केन्द्र बन जाएगा। इसीलिए हेनरीमैन ने कहा कि “वयस्क मताधिकार सम्पूर्ण प्रगति का अन्त कर देगा।”

हालाँकि वयस्क मताधिकार के विरोध में कतिपय तर्क दिये गये हैं, परन्तु ये तर्क इसके समर्थन में दिये गये तर्को की तुलना में गौण और महत्त्वहीन हैं। व्यावहारिक अनुभव यह है कि अनेक बार अशिक्षित व्यक्तियों ने भी अपने मताधिकार का प्रयोग अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति की तुलना में अधिक विवेक के साथ किया है; अत: शिक्षा के आधार पर मताधिकार को सीमित किया जाना ठीक नहीं है। वयस्क मताधिकार का सर्वत्र अपनाया जाना इस बात का प्रमाण है कि वह प्रजातन्त्र की भावनाओं के सर्वथा अनुकूल और अनिवार्य है। लॉस्की के इस कथन में सत्य निहित है, ”वयस्क मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।”

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods

प्रश्न 2.
स्त्री-मताधिकार के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क दीजिए।
या
महिला मताधिकार के पक्ष और विपक्ष में दो-दो तर्क दीजिए। (2015)
उत्तर
कुछ विद्वानों का विचार है कि मताधिकार स्त्री-पुरुष दोनों को मिलना चाहिए, जब कि अनेक लोग स्त्री-मताधिकार के विरोधी हैं। ऐसे लोग स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में विभिन्न तर्क प्रस्तुत करते हैं-
स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में तर्क
सामान्यतः स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं-

  1. पारिवारिक जीवन पर कुप्रभाव – स्त्री-मताधिकार से स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बढ़ जाता है, फलस्वरूप वे परिवारिक कार्यों के प्रति उदासीन हो जाती हैं। इससे पारिवारिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
  2. मत की मात्र पुनरावृत्ति – ऐसा देखा गया है कि स्त्रियाँ अपने पति के परामर्शानुसार ही अपना मत प्रयोग करती हैं। वे स्वविवेक से अपने मत का प्रयोग नहीं करतीं।
  3. राजनीति के प्रति उदासीनता – प्रायः स्त्रियाँ राजनीति के प्रति उदासीन रहती हैं। उनकी तरफ से भले ही कोई-सा दल शासन करे, इससे उन्हें अधिक सरोकार नहीं होता।
  4. शारीरिक दुर्बलता – ऐसा माना जाता है कि स्त्रियाँ शारीरिक रूप से पुरुष की अपेक्षा कम शक्तिशाली होती हैं। उन्हें मताधिकार प्रदान करने का कोई लाभ नहीं। वे कदम-से-कदम मिलाकर पुरुष का साथ नहीं दे सकतीं।
  5. आत्मविश्वास की कमी – परम्परा से स्त्रियाँ पुरुषों पर निर्भर रहती आयी हैं। उनमें आत्म निर्भरता तथा आत्मविश्वास का अभाव होता है।
  6. भावुक प्रवृत्ति – स्त्रियाँ प्रायः भावुक होती हैं। भावुकता की यह प्रवृत्ति राजनीतिक व्यवहार के लिए उपयुक्त स्थिति नहीं है।
  7. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन – आज की दलगत राजनीति में भ्रष्ट उपायों का प्रयोग बढ़ जाने से स्त्रियों के लिए यह क्षेत्र उपयुक्त नहीं रह गया है।

स्त्री-मताधिकार के पक्ष में तर्क
उपर्युक्त तक के बावजूद स्त्री-मताधिकार के विरोध में आज बहुत कम लोग हैं। लगभग सभी देशों ने आज स्त्री-मताधिकार प्रदान किया हुआ है। स्त्री-मताधिकार के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

1. मताधिकार के सम्बन्ध में लिंग-भेद अनुचित – लिंग-भेद एक प्राकृतिक स्थिति है। इस आधार को मताधिकार का आधार बनाना नितान्त अनुचित है। स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान स्वतन्त्र, बुद्धिमान व नैतिक गुणों से श्रेष्ठ होती हैं। अत: मात्र स्त्री होने के कारण उन्हें मताधिकार से वंचित करना अनुचित ही नहीं, वरनु अन्यायपूर्ण भी है।

2. पारिवारिक जीवन पर कोई बुरा प्रभाव नहीं – स्त्री-मताधिकार से पारिवारिक जीवन पर कुप्रभाव पड़ता है, इस मत में कोई औचित्य नहीं। वास्तविकता यह है कि स्त्री-मताधिकार से स्त्रियों का दृष्टिकोण व्यापक होता है, उनमें विद्यमान संकुचित विचारधारा का अन्त होता है। उनका वैचारिक क्षेत्र पारिवारिक स्तर से उठकर राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ जाता है।

3. राजनीति पर स्वस्थ प्रभाव – यह कहना सर्वथा अनुचित है कि स्त्रियाँ राजनीति के प्रति उदासीन होती हैं। सच तो यह है कि उनके राजनीतिक क्षेत्र में उतर आने से राजनीति में स्वस्थ परम्पराओं का उदय होता है। स्त्रियाँ स्वभावतः शान्ति-प्रिय, व्यवस्था-प्रिय, दयालु तथा सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण रखने वाली होती हैं। स्त्रियों के इन मानवीय गुणों के कारण राजनीति में व्याप्त कठोरता, निर्दयता, बेईमानी, चालबाजी आदि में ह्रास होगा तथा राजनीति में नये आयाम स्थापित होंगे।

4. स्त्रियों को दुर्बल मानना अतार्किक – स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा निर्बल होती हैं, इस तर्क में अधिक तथ्य नहीं है। आज प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियाँ न केवल पुरुष के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल रही हैं, वरन् वे पुरुषों से आगे निकलने के प्रयास में हैं। अतः स्त्रियों को निर्बल मानकर उन्हें मताधिकार से वंचित कर देने का समर्थन करने वाले मिथ्या भ्रम के शिकार हैं।

5. शासन प्रबन्ध हेतु पूर्ण सक्षम – यह मत कि स्त्रियाँ अपने राजनीतिक अधिकारों का सदुपयोग नहीं कर सकतीं और उन्हें मताधिकार नहीं दिया जाना चाहिए, सर्वथा हास्यास्पद है। इतिहास साक्षी है कि स्त्रियों ने सफल शासिका होने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। कैथरीन, एलिजाबेथ विक्टोरिया, इन्दिरा गाँधी, मारग्रेट थैचर, भण्डारनायके, बेनजीर भुट्टो, एक्विनो, बेगम खालिदा जिया, जयललिता आदि महिलाओं ने न केवल शासन किया है, वरन् यह सिद्ध कर दिया है कि नारी होना किसी भी प्रकार से कोई दोष नहीं है। नारी प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष की समानता कर सकती है। अतः स्त्री-मताधिकार का विरोधी मत रखना भ्रामक है।

6. आज के युग के सर्वथा अनुकूल – स्त्री-मताधिकार वर्तमान परिस्थितियों में नितान्त आवश्यक हो गया है। आज स्त्रियाँ जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में पदार्पण कर चुकी हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो स्त्री-मताधिकार अपरिहार्य ही है। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। ऐसा भी नहीं है कि स्त्री-मताधिकार प्रदान कर देने से उनके प्राकृतिक कार्यों में कोई रुकावट आती हो। यदि कोई महिला किसी देश की प्रधानमन्त्री है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका कोई पारिवारिक जीवन ही नहीं। घर में वह पत्नी, माता, बहन, पुत्री आदि रूपों में अपनी पारम्परिक महत्ता बनाये हुए है। अतः इस आधार पर उनको मताधिकार से वंचित करना गलत होगा।

उपर्युक्त पक्ष – विपक्षीय मतों का विवेचन करने पर एक बात जो विशेष रूप से स्पष्ट होती है, वह यह है कि स्त्री-मताधिकार के विपक्ष में दिये गये लगभग सभी तर्क अतार्किक, भ्रामक व पक्षपातपूर्ण हैं। आज स्त्री-मताधिकार लाभप्रद ही नहीं, वरन् परमावश्यक भी है, तभी लोकतन्त्र सुरक्षित रह सकता है। इसी कारण आज लगभग सभी देशों ने स्त्री-मताधिकार प्रदान किया हुआ है।

प्रश्न 3.
प्रतिनिधित्व के विभिन्न तरीकों का परीक्षण कीजिए। [2008]
या
आनुपातिक प्रतिनिधित्व से आप क्या समझते हैं? इसकी विभिन्न प्रणालियों की व्याख्या कीजिए। [2012]
या
‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुणों एवं दोषों की विवेचना कीजिए। [2010, 13, 14]
उत्तर
अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र में प्रतिनिधित्व की विभिन्न प्रणालियों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। सम्पूर्ण प्रणालियों में बहुमत प्रणाली को आशातीत समर्थन प्राप्त हुआ है। परन्तु इसमें सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें अल्पसंख्यकों की समुचित प्रतिनिधित्व की स्थिति का अभाव पाया जाता है। इस दोष को दूर करने के उद्देश्य से ही अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए अन्य प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है।

प्रतिनिधित्व की प्रणालियाँ
आधुनिक काल में अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए निम्नलिखित प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है-

  1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली।
  2. सीमित मत प्रणाली।
  3. संचित मत. प्रणाली।
  4. एकल मत प्रणाली।
  5. पृथक् निर्वाचन प्रणाली।
  6. सुरक्षित स्थानयुक्त संयुक्त प्रणाली।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व
अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए जिन उपायों का साधारणत: प्रयोग किया जाता है। उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध उपाय आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) प्रणाली है। इस प्रणाली का मूल उद्देश्य राज्य के सभी राजनीतिक दलों के हितों का ध्यान रखना एवं उन्हें न्याय प्रदान करना है, जिससे प्रत्येक दल को व्यवस्थापिका में आनुपातिक दृष्टि से लगभग उतना प्रतिनिधित्व अवश्य प्राप्त हो सके, जितना कि न्यूनतम उस वर्ग के लिए युक्तिसंगत हो। प्रतिनिधित्व की इस योजना को जन्म देने वाले 19वीं शताब्दी के एक अंग्रेज विद्वान थॉमस हेयर (Thomas Haire) थे। उन्होंने सन् 1831 ई० में इस प्रणाली का सूत्रपात किया इसीलिए इसे ‘हेयर प्रणाली भी कहते हैं। वर्तमान काल में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग अनेक रूपों में किया जा रहा है। प्रो० सी० एफ० स्ट्राँग के शब्दों में-“आनुपातिक प्रतिनिधित्व का पृथक् रूप में कोई भी अर्थ नहीं है क्योंकि इसके अनेक प्रकार हैं। वास्तव में इतने अधिक, जितने राज्यों ने उसे अपनाया है और सिद्धान्त रूप में उससे भी अधिक।’ आनुपातिक प्रतिनिधित्व के ये सभी प्रकार इन दो रूपों में विभक्त किए जा सकते हैं-

  1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Single Transferable Vote System)
  2. सूची प्रणाली (List System)

1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली – इस प्रणाली में बहुसदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्रों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से तीन या इससे अधिक प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं एक निर्वाचन-क्षेत्र से चाहे कितने ही प्रतिनिधि चुने जाने हों किन्तु प्रत्येक मतदाता को केवल एक ही मत देने का अधिकार होता है। परन्तु वह मत-पत्र पर अपनी पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी और इससे अधिक पसन्द का उल्लेख उतनी संख्या में करता है, जितने उम्मीदवार चुने जाने होते हैं। मतदान समाप्त हो जाने पर यह देखा जाता है कि निर्वाचन-क्षेत्र में कुल कितने मत डाले गए और यह संख्या ज्ञात हो जाने पर निश्चित निर्वाचक अंक (Electoral Quota) निकाला जाता है। निश्चित मत-संख्यो मतों की वह संख्या है जो उम्मीदार को विजयी घोषित किए जाने के लिए आवश्यक है। निश्चित मत-संख्या ज्ञात करने का सूत्र इस प्रकार है-
UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods 1
निश्चित मत संख्या निकाल लेने के बाद सब मतदाताओं की पहली पसन्द (First Preference) के मतपत्र (Ballot-papers) गिन लिए जाते हैं। जिन उम्मीदवारों को निश्चित संख्या के बराबर या उससे अधिक पहली पसन्द के मत प्राप्त होते हैं, वे निर्वाचित घोषित कर दिए जाते हैं। परन्तु यदि इस प्रकार सब स्थानों की पूर्ति नहीं हो पाती है, तो सफल उम्मीदवारों के अतिरिक्त मत (Surplus Votes) अन्य उम्मीदवारों को हस्तान्तरित कर दिए जाते हैं और उन पर अंकित दूसरी पसन्द (Second Preference) के अनुसार विभाजित किए जाते हैं। यदि इस पर भी सब स्थानों की पूर्ति नहीं होती है तो सफल उम्मीदवारों की तीसरी, चौथी, पाँचवीं पसन्द भी इस प्रकार हस्तान्तरित की जाती है और यदि उसके बाद भी कुछ स्थान रिक्त रह जाते हैं तो जिन उम्मीदवारों को सबसे कम मत प्राप्त हुए हैं, वे बारी-बारी से पराजित घोषित कर दिए जाते हैं। और उनके प्राप्त-मत दूसरी, तीसरी, चौथी इत्यादि पसन्द के अनुसार हस्तान्तरित कर दिए जाते हैं। यह प्रक्रिया उस समय तक चलती रहती है, जब तक कि रिक्त स्थानों की पूर्ति न हो जाए। इस प्रणाली का स्पष्ट उद्देश्य यही है कि एक भी मत व्यर्थ न जाए। यह प्रणाली अत्यन्त जटिल है। इसीलिए इसका प्रयोग बहुत कम देशों में होता है, तथापि स्वीडन, फिनलैंड, नार्वे, डेनमार्क आदि देशों में यही प्रणाली प्रचलित है।

2. सूची प्रणाली – सूची प्रणाली आनुपातिक प्रतिनिधित्व का दूसरा रूप है। इस प्रणाली के अन्तर्गत सभी प्रत्याशी अपने-अपने राजनीतिक दलों के अनुसार अलग-अलग सूचियों में सूचीबद्ध किए जाते हैं और प्रत्येक दल अपने उम्मीदवारों की सूची प्रस्तुत करता है, जिसमें दिए गए नामों की संख्या उस निर्वाचन-क्षेत्र से चुने जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से अधिक नही हो सकती है। मतदाता अपने मत अलग-अलग उम्मीदवारों को नहीं, अपितु किसी भी दल की पूरी-की-पूरी सूची के पक्ष में देते हैं। इसके बाद डाले गए मतों की कुल संख्या को निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या से भाग देकर निर्वाचक अंक (Electoral Quota) निकाल लिया जाता है। तदुपरान्त एक दल द्वारा प्राप्त मतों की संख्या को निर्वाचक अंक से भाग दिया जाता है और इस प्रकार यह निश्चय किया जाता है कि उस दल को कितने स्थान मिलने चाहिए उदाहरणार्थ किसी राज्य से 50 प्रतिनिधि चुने जाते हैं और कुल वैध मतों की संख्या 2,00,000 है तो [latex]\frac { 200000 }{ 50 }[/latex] = 4,000 निर्वाचन अंक हुआ। ऐसी स्थिति में किसी राजनीतिक दल ‘अ ब स’ को 21,000 मत प्राप्त हुए हैं, तब (21,000/4,000=5.25) उस दल के 5 प्रत्याशी विजयी घोषित होंगे। सभी सूची प्रणालियों का आधारभूत सिद्धान्त यही है, परन्तु विभिन्न देशों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन अथवा संशोधन करके इसे नए-नए रूप दिए गए हैं और इस प्रकार आज सूची प्रणाली के अनेक प्रकार पाए जाते हैं। ऐसी स्थिति में सूची प्रणाली का कोई सार्वभौमिक सिद्धान्त नहीं है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली व्यवस्थापक-मण्डल में अल्पमतों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने का एक सरल उपाय है। इस प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. यह प्रणाली अल्पसंख्यक दल को उसकी शक्ति के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान करती है। जिसके फलस्वरूप यह व्यवस्थापिका का यथार्थ प्रतिबिम्ब बन जाती है तथा प्रत्येक अल्पसंख्यक वर्ग सन्तुष्ट हो जाता है।
  2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत व्यवस्थापिका में साधारणतया किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता है। इस प्रकार यह प्रणाली अल्पमत दलों को बहुमत दल की स्वेच्छाचारिता से बचाकर शासन में उचित भागीदारी का अवसर प्रदान करती है।
  3. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के परिणामस्वरूप एक प्रकार की राजनीतिक शिक्षा भी प्राप्त होती है। क्योंकि मतदाताओं के लिए अपना मत देने से पहले विभिन्न उम्मीदवारों तथा विभिन्न दलों की नीतियों के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक हो जाता है।
  4. यह प्रणाली मताधिकार को सार्थक एवं व्यावहारिक बनाती है क्योंकि इसमें प्रत्येक मतदाता को अनेक उम्मीदवारों में से चुनाव की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। इसमें किसी मतदाता का मत व्यर्थ नहीं जाता है, उससे किसी-न-किसी उम्मीदवार के निर्वाचन में सहायता अवश्य मिलती हैं शुल्ज (Schulz) का मत है- “एकल संक्रमणीय मत पद्धति निर्वाचकों को अपनी पसन्द के उम्मीदवार चुनने में सबसे अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करती है।”
  5. आनुपातिक प्रणाली में उच्च व्यवस्थापिका स्तर की सम्भावना बनी रहती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष
यदि निर्वाचन का एकमात्र उद्देश्य केवल न्याय अथवा चुनाव लड़ने वाले दलों के बीच अनुपात की स्थापना है तो यह प्रणाली वास्तव में निर्वाचन की आदर्श प्रणाली कही जा सकती है। परन्तु व्यवस्थापिका को केवल विभिन्न दलों तथा वर्गों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करना चाहिए, अपितु अपने कर्तव्यों का भी सुचारु रूप से पालन करना चाहिए। इस दृष्टिकोण से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के विरुद्ध अनेक तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिनमें से कतिपय विशेष महत्त्वपूर्ण तर्क निम्नलिखित हैं-

  1. यह प्रणाली विशाल राजनीतिक दलों की एकता को नष्ट कर देती है तथा इससे अनेक छोटेछोटे दलों और गुटों का जन्म होता है। इसके परिणामस्वरूप सभी समस्याओं पर राष्ट्रीय हित की दृष्टि से नहीं, वरन् वर्गीय हित की दृष्टि से विचार किया जाता है। सिजविक के शब्दों में “वर्गीय प्रतिनिधित्व आवश्यक रूप से दूषित वर्गीय व्यवस्थापन को प्रोत्साहित करता है।”
  2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व ‘अल्पमत विचारधारा को प्रोत्साहन देता है, जिसके परिणामस्वरूप वर्ग-विशेष के हितों और स्वार्थों का उदय होता है। इसके अन्तर्गत व्यवस्थापिका में किसी एक दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होता है और मिश्रित मन्त्रिपरिषद् के निर्माण में छोटे-छोटे दलों की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। वे अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए स्वार्थपूर्ण वर्गहित के पक्ष में अपना समर्थन बेच देते हैं, परिणामतः सार्वजनिक जीवन की पवित्रता नष्ट हो जाती है। फाइनर के अनुसार-“इस प्रणाली को अपनाने से प्रतिनिधि द्वारा अपने क्षेत्र की देखभाल प्रायः समाप्त हो जाती है।”
  3. यह प्रणाली व्यावहारिक रूप में बहुत जटिल है। इसकी सफलता के लिए मतदाताओं और उनमें भी अधिक निर्वाचन अधिकारियों को उच्च कोटि की राजनीतिक शिक्षा प्राप्त करनी आवश्यक होती है। मतदाताओं को इसके नियम समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। साथ ही मतगणना अत्यन्त जटिले होती है, जिसमें भूल होने की अनेक सम्भावनाएँ रहती हैं।
  4. उपचुनावों में जहाँ केवल एक प्रतिनिधि का चुनाव करना होता है, इस प्रणाली का प्रयोग किया जाना सम्भव नहीं होता है।
  5. आनुपातिक प्रणाली में, विशेषतया सूची प्रणाली में, दलों को संगठन तथा नेताओं का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है और साधारण सदस्यों की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है क्योंकि मतदान का आधार राजनीतिक दल होता है।
  6. अनेक दलों के अस्तित्व के परिणामस्वरूप कोई भी दल अकेले ही सरकार निर्माण की स्थिति में नहीं होता है। अत: संयुक्त मन्त्रिपरिषदों का निर्माण होता है और प्राय: सरकारें अस्थायी होती हैं।
  7. दलीय वर्चस्व होने के कारण मतदाता प्राय: अपने-अपने राजनीतिक दलों को मत देते हैं, अत: इस प्रणाली में निर्वाचकों और प्रतिनिधियों में कोई सम्पर्क नहीं होता है।
  8. इस प्रणाली में समय और धन दोनों का अपव्यय होता है।

विश्लेषणात्मक समीक्षा – उपर्युक्त दोषों के कारण ही अनेक राजनीतिक विद्वान् आनुपातिक प्रतिनिधित्व को अनुपयोगी और जटिल निर्वाचन प्रणाली कहते हैं। वास्तव में राष्ट्रीय निर्वाचकों में आनुपातिक प्रणाली को अपनाना एक प्रकार से अव्यवस्था उत्पन्न करना है क्योंकि यह व्यवस्थापिका की सत्ता को निर्बल बना देती है। यह प्रणाली मन्त्रिपरिषदों के स्थायित्व तथा एकरूपता को नष्ट कर संसदीय शासन को असम्भव बना देती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का औचित्य निर्धारण एवं उपयोगिता
प्रथम महायुद्ध के उपरान्त फ्रांस, जर्मनी, आयरलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड आदि अनेक यूरोपीय देशों ने इस प्रणाली को अपनाया था, परन्तु अब इसकी उपयोगिता कम होती जा रही है।
और अनेक देशों ने तो इस परित्याग तक कर दिया है। ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत तथा अन्य अनेक देशों ने अपने साधारण निर्वाचनों के लिए कभी इस प्रणाली को अपनाया ही नहीं, यद्यपि आजकल ब्रिटेन तथा अमेरिका में आनुपातिक प्रतिनिधित्व संस्थाएँ इस प्रणाली को लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रही हैं।

संसदीय निर्वाचनों में तो बहुत कम देश ही इस प्रणाली का प्रयोग करते हैं, परन्तु व्यवस्थापक मण्डलों, स्थानीय निकायों और गैर-सरकारी समुदायों की विभिन्न समितियों का निर्वाचन साधारणतया इस प्रणाली के अनुसार ही होता है। हमारी संविधान सभा का निर्वाचन भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार ही हुआ था। नए संविधान के अन्तर्गत राज्यसभा के सदस्य राज्यों की विधानसभाओं द्वारा इसी प्रणाली के आधार पर निर्वाचित होते हैं और राज्यों के उच्च सदनों जैसे भारत में विधान परिषदों और व्यवस्थापक-मण्डल की समितियों के निर्माण में भी इसी निर्वाचन प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन भी आधुनिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की एकल-संक्रमणीय मत प्रणाली के आधार पर होता है।

प्रश्न 4.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के गुणों और दोषों का मूल्यांकन कीजिए।
या
प्रत्यक्ष निर्वाचन के चार गुण बताइए। [2010]
उत्तर
प्रत्यक्ष निर्वाचन
यदि निर्वाचक प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करें, तो उसे प्रत्यक्ष निर्वाचन कहा जाता है। यह बिल्कुल सरल विधि है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक मतदाता निर्वाचन स्थान पर विभिन्न उम्मीदवारों में से किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करता है और जिस उम्मीदवार को सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। भारत, इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में व्यवस्थापिका के प्रथम सदन के निर्माण हेतु यही पद्धति अपनायी गयी है।

प्रत्यक्ष निर्वाचन के गुण

  1. प्रजातन्त्रात्मक धारणा के अनुकूल – यह जनता को प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अवसर देती है; अत: स्वाभाविक रूप से यह पद्धति प्रजातन्त्रीय व्यवस्था के अनुकूल है।
  2. मतदाता और प्रतिनिधि के मध्य सम्पर्क – इस पद्धति में जनता अपने प्रतिनिधि को प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित करती है; अतः जनता और उसके प्रतिनिधि के बीच उचित सम्पर्क बना रहता है और दोनों एक-दूसरे की भावनाओं से परिचित रहते हैं। इसके अन्तर्गत जनता अपने प्रतिनिधियों के कार्य पर निगरानी और नियन्त्रण भी रख सकती है।
  3. राजनीतिक शिक्षा – जब जनता अपने प्रतिनिधि को प्रत्यक्ष रूप से चुनती है तो विभिन्न दल और उनके उम्मीदवार अपनी नीति और कार्यक्रम जनता के सामने रखते हैं, जिससे जनता को बड़ी राजनीतिक शिक्षा मिलती है और उनमें राजनीतिक जागरूकता की भावना का उदय होता है। इससे सामान्य जनता को अपने अधिकार और कर्तव्यों का अधिक अच्छे प्रकार से ज्ञान भी हो जाता है।
  4. राजनीतिक अधिकार का प्रयोग – प्रत्यक्ष निर्वाचन जनता को अपने राजनीतिक अधिकार का प्रयोग करने का अवसर प्रदान करता है।

प्रत्यक्ष निर्वाचन के दोष

  1. सामान्य निर्वाचकों का मत त्रुटिपूर्ण – आलोचकों का कथन है कि जनता में अपने मत का उचित प्रयोग करने की क्षमता नहीं होती। मतदाता अधिक योग्य और शिक्षित न होने के कारण नेताओं के झूठे प्रचार और जोशीले भाषणों के प्रभाव में बह जाते हैं और निकम्मे, स्वार्थी और चालाक उम्मीदवारों को चुन लेते हैं।
  2. सार्वजनिक शिक्षा का तर्क त्रुटिपूर्ण – प्रत्यक्ष निर्वाचन के अन्तर्गत किया जाने वाला चुनाव अभियान शिक्षा अभियान नहीं होता, अपितु यह तो निन्दा, कलंक और झूठ का अभियान होता है। चुनाव में उम्मीदवारों और उनकी नीतियों को ठीक प्रकार से समझाने के बजाय उनके सामने व्यक्तियों और समस्याओं का विकृत चित्र प्रस्तुत किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप मतदाता गुमराह हो जाता है।
  3. बुद्धिमान व्यक्ति निर्वाचन से दूर – प्रत्यक्ष निर्वाचन में चुनाव अभियान नैतिकता के निम्नतम स्तर तक गिर जाने के कारण बुद्धिमान एवं निष्कपट व्यक्ति निर्वाचन से दूर भागते हैं। जब ऐसे व्यक्ति उम्मीदवार के रूप में आगे नहीं आते, तो देश को स्वभावतः हानि पहुँचती है।
  4. अपव्ययी और अव्यवस्थाजनक – इस प्रकार के चुनाव पर बहुत अधिक खर्च आता है। और बड़े पैमाने पर इसका प्रबन्ध करना होता है। अत्यधिक जोश-खरोश के कारण अनेक बार दंगे-फसाद भी हो जाते हैं।

प्रश्न 5.
मताधिकार की महत्ता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
वर्तमान समय में अप्रत्यक्ष अथवा प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र ही लोकतान्त्रिक शासन का एकमात्र व्यावहारिक रूप है। इस व्यवस्था में सामान्य जनता प्रतिनिधि चुनती है और ये प्रतिनिधि शासन का संचालन करते हैं। प्रतिनिधियों को चुनने के इस अधिकार को ही सामान्यत: मताधिकार अथवा निर्वाचन का अधिकार कहा जाता है, जो कि लोकतन्त्र का आधार है। इसकी महत्ता निम्नलिखित बातों से स्पष्ट हो जाती है-

1. नितान्त औचित्यपूर्ण – राज्य के कानूनों और कार्यों का प्रभाव समाज के केवल कुछ ही व्यक्तियों पर नहीं, वरन् सब व्यक्तियों पर पड़ता है; अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपना मत देने और शासन की नीति का निश्चय करने का अधिकार होना चाहिए। जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसी आधार पर वयस्क मताधिकार को नितान्त औचित्यपूर्ण बताया है।

2. लोकसत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति – लोकसत्ता बीसवीं सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है और आधुनिक प्रजातन्त्रवादियों का कथन है कि अन्तिम सत्ता जनता में ही निहित है। डॉ० गार्नर के शब्दों में, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सार्वजनिक मताधिकार में ही हो सकती है।”

3. अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित – वयस्क मताधिकार अल्पसंख्यकों को अपने प्रतिनिधियों द्वारा अपने हितों की रक्षा का पूरा अवसर देता है। ये प्रतिनिधि व्यवस्थापिका में विधेयकों के सम्बन्ध में अल्पसंख्यकों को दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं और इस प्रकार अल्पसंख्यक अपने हितों की रक्षा में विधिकर्ताओं की सहायता ले सकते हैं।

4. राष्ट्रीय एकीकरण का साधन – इस प्रणाली के अन्तर्गत राष्ट्र की शक्ति एवं एकता मेंवृद्धि होती है। अपने ही प्रतिनिधियों द्वारा बनाये गये कानूनों का पालन लोगों को एक-दूसरे के निकट लाता है और राष्ट्रीय एकीकरण में सहायक होता है। वयस्क मताधिकार को अपनाने पर जनता में क्रान्ति की सम्भावना कम हो जाती है, क्योंकि जनता स्वयं द्वारा निर्मित सरकार को पूर्ण सहयोग देती है।

5. सार्वजनिक शिक्षा का साधन – वयस्क मताधिकार सार्वजनिक शिक्षा और राजनीतिक जागृति का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधन है। मताधिकार व्यक्ति की राजनीतिक उदासीनता दूर कर देता है और उसको यह अनुभव कराता है कि राज्य शासन में उसका भी हाथ है। ऐसी स्थिति में वह देश के सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अधिक रुचि लेना प्रारम्भ कर देता है।

6. आत्मसम्मान में वृद्धि – सार्वजनिक मताधिकार नागरिकों में आत्मसम्मान की भावना पैदा करता है। मताधिकार का जनता पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है और जनता यह महसूस करती है कि राज्य की अन्तिम शक्ति उसी के हाथ में है। इससे उनके आत्मसम्मान में वृद्धि होती है और जैसा कि ब्राइस कहते हैं, “इससे उनके नैतिक चरित्र का उत्थान होता है।”

7. सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति रुचि में वृद्धि – वयस्क मताधिकार की व्यवस्था में जब नागरिकों को मताधिकार का प्रयोग करना होता है तो स्वाभाविक रूप में उनके द्वारा सार्वजनिक समस्याओं पर विचार किया जाता है और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति उनकी रुचि में वृद्धि होती है।

8. देशभक्ति की भावना में वृद्धि – वयस्क मताधिकार के परिणामस्वरूप नागरिक राज्य और शासन के प्रति अपनत्व की भावना अनुभव करते हैं और उनमें देशभक्ति की भावना बढ़ती है। ऐसी स्थिति में वे देश के लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान करने को तत्पर हो जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
मताधिकार सम्बन्धी सिद्धान्तों को समझाइए।
उत्तर
मताधिकार सम्बन्धी सिद्धान्त
मताधिकार दिए जाने के सम्बन्ध में विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इससे सम्बन्धित कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार एक प्राकृतिक अधिकार है तथा सभी व्यक्तियों को समान रूप से इसे प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार मत देने का अधिकार स्वाभाविक है और यह अधिकार मनुष्य को प्राकृतिक रूप से प्राप्त होता है। इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक मॉण्टेस्क्यू, टामस पेन तथा रूसो हैं।

2. वैधानिक अथवा कानूनी सिद्धान्त – इसे सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार प्राकृतिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह राज्य द्वारा प्रदान किया गया अधिकार है। कानूनी सिद्धान्त के अन्तर्गत नागरिक द्वारा मताधिकार का दावा नहीं किया जा सकता है।

3. नैतिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार नैतिक मान्यताओं पर आधारित होता है। यह राजनीतिक मामलों में व्यक्ति द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्ति करने का एक माध्यम मात्र है। मताधिकार व्यक्ति का नैतिक और आध्यात्मिक विकास करता है तथा यह मानव के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।

4. सामुदायिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार सामुदायिक जीवन का एक प्रमुख अंग है, इसलिए सीमित क्षेत्र में मताधिकार मिलना चाहिए। यह सिद्धान्त इटली और जर्मनी की देन है।

5. सामन्तवादी सिद्धान्त – यह सिद्धान्त मध्य युग में प्रचलित हुआ। इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्राप्त होना चाहिए, जिनका समाज में उच्च स्तर हो तथा जो सम्पत्ति के स्वामी हों।

6. सार्वजनिक कर्तव्य का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार मतदान एक सार्वजनिक कर्तव्य है। अत: मतदान अनिवार्य होना चाहिए। बेल्जियम, नीदरलैण्ड्स, चेक गणराज्य व स्लोवाकिया देशों में मतदान अनिवार्य है। इन देशों में मताधिकार का प्रयोग न करना दण्डनीय माना गया है।

प्रश्न 2.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुणों को लिखिए। [2008, 14]
या
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2014]
उत्तर
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली व्यवस्थापक मण्डल में अल्पमतों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने का एक सरल उपाय है। इस प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व – यह प्रणाली प्रत्येक दल को उसकी शक्ति के अनुपात में ही प्रतिनिधित्व प्रदान करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका लोकमत का यथार्थ प्रतिबिम्ब बन जाती है।
  2. बहुमत की निरंकुशता का भय नहीं – आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत व्यवस्थापिका में साधारणतया किसी एक दल का स्पष्ट बहुमत नहीं हो पाता। इस प्रकार यह प्रणाली अल्पमत दलों को बहुमत दल के अत्याचारों से सुरक्षित करके शासन में उचित रूप से भाग लेने की क्षमता प्रदान करती है।
  3. राजनीतिक शिक्षा की व्यवस्था – आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा भी प्रदान करती है, क्योंकि मतदाताओं के लिए अपना मत देने से पहले विभिन्न उम्मीदवारों तथा विभिन्न दलों की नीतियों के विषय में विचार करना आवश्यक हो जाता है।
  4. कोई मत व्यर्थ नहीं जाता – यह प्रणाली मताधिकार को सार्थक एवं व्यावहारिक बनाती है, क्योंकि इसमें प्रत्येक मतदाता को अनेक उम्मीदवारों में से कुछ उम्मीदवारों को चुनने की स्वतन्त्रता होती है। इसमें किसी मतदाता का मत व्यर्थ नहीं होता है, उससे किसी-न-किसी उम्मीदवार के निर्वाचन में सहायता अवश्य मिलती है। शुल्ज के अनुसार-“एकल संक्रमणीय मत प्रणाली निर्वाचकों को अपनी पसन्द के उम्मीदवार चुनने में सबसे अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करती है।”
  5. व्यवस्थापिका का उच्च स्तर – आनुपातिक प्रणाली के अन्तर्गत निर्वाचकगण उच्च आचरण एवं स्वतन्त्र विचार वाले हो सकते हैं। परिणामस्वरूप उनके प्रतिनिधि स्वतन्त्र रूप से चुने जाएँ और व्यवस्थापिका का स्तर उच्च हो, ऐसी आशा की जा सकती है।
  6. अधिक लोकतान्त्रिक – बहुत-से विद्वान इस पद्धति को अधिक लोकतान्त्रिक मानते हैं, क्योंकि इससे सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। लॉर्ड एक्टन के शब्दों में-“यह पद्धति अत्यधिक लोकतान्त्रिक है…………”

प्रश्न 3
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोषों को लिखिए।
उत्तर
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष निम्नवत् हैं-

1. दलों की एकता नष्ट होती – यह प्रणाली बड़े राजनीतिक दलों की एकता नष्ट कर देती है, क्योंकि संकीर्ण हितों पर आधारित अनेक क्षेत्रीय अथवा स्थानीय दलों के निर्माण की प्रक्रिया तीव्र हो सकती है।

2. अनेक दलों और स्वार्थी गुटों का जन्म – आनुपातिक प्रतिनिधित्व ‘अल्पमत विचारधारा को प्रोत्साहन देता है, जिसके परिणामस्वरूप वर्ग-विशेष के हितों और स्वार्थों का जन्म होता है। इसके अन्तर्गत व्यवस्थापिका में किसी दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होता है और मिश्रित मन्त्रिमण्डल के निर्माण में छोटे-छोटे दलों की स्थिति महत्त्वपूर्ण हो जाती है। वे अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए स्वार्थपूर्ण वर्गहित में अपना समर्थन बेच देते हैं। परिणामतः सार्वजनिक जीवन की पवित्रता नष्ट हो जाती है। फाइनर के अनुसार-“इस प्रणाली को अपनाने से प्रतिनिधि द्वारा अपने क्षेत्र की देखभाल प्रायः समाप्त हो जाती है।”

3. जटिल प्रणाली – यह प्रणाली व्यावहारिक रूप से अत्यन्त जटिल हैं। इसकी सफलता के लिए मतदाताओं में और उनसे भी अधिक निर्वाचन अधिकारियों में उच्चकोटि के ज्ञान की आवश्यकता होती है। मतदाताओं में और इसके नियम समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। साथ ही मतगणना अत्यन्त जटिल है, जिसमें भूल होने की भी अनेक सम्भावनाएँ हैं।

4. उपचुनाव की व्यवस्था नहीं – उपचुनाव में, जहाँ केवल एक प्रतिनिधि का चुनाव करना होता है, इस प्रणाली का प्रयोग असम्भव है। फाइनर के अनुसार-“उपचुनाव से यह ज्ञात होता है कि हवा किस ओर बह रही है, किन्तु इस प्रकार के उपचुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में सम्भव नहीं हैं।”

5. नेताओं के प्रभाव में वृद्धि – आनुपातिक प्रणाली में, विशेषतया सूची प्रणाली में राजनीतिक दलों तथा नेताओं का प्रभाव एवं महत्त्व बहुत बढ़ जाता है और साधारण सदस्यों की स्वतन्त्रता लगभग समाप्त हो जाती है।

6. मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों में सम्बन्ध नहीं – बहुसदस्यीय क्षेत्र होने के कारण मतदाताओं और उनके प्रतिनिधियों में परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं होता, क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र काफी बड़े होते हैं। निर्वाचन क्षेत्र के विस्तृत हो जाने के कारण व्यय भी बढ़ जाता है।

7. अस्थायी सरकारें – इस पद्धति से सामान्यतया संयुक्त सरकारें बनती हैं और वे अस्थायी होती हैं।

प्रश्न 4.
प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा
आधुनिक लोकतन्त्रात्मक शासन में निर्वाचन हेतु देश को विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित कर, सरकार के गठन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव किया जाता है। समस्त देश को भौगोलिक भागों (क्षेत्रों) में विभाजित कर दिया जाता है। निर्वाचन क्षेत्र एकसदस्यीय अथवा बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र हो सकता है। एक प्रतिनिधि उस निर्वाचन क्षेत्र में रहने वाले सभी निर्वाचकों का प्रतिनिधित्व करता है, चाहे वह कोई भी व्यवसाय करता हो। इस प्रथा को प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा’ कहते हैं, किन्तु इस प्रथा का घोर विरोध किया गया। प्रादेशिक अथवा भौगोलिक प्रतिनिधित्व प्रथा के आलोचकों का कथन है कि प्रतिनिधित्व का आधार क्षेत्रीय न होकर कार्यविशेष से सम्बन्धित होना चाहिए। इसको व्यावसायिक प्रतिनिधित्व नाम भी दिया गया है। डिग्बी ने व्यावसायिक प्रतिनिधित्व का समर्थन करते हुए कहा है, “व्यवसाय, वाणिज्य, उद्योग-धन्धे यहाँ तक कि विज्ञान, धर्म आदि राष्ट्रीय जीवन की बड़ी शक्तियों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाना चाहिए।’ इमैनुअल ऐबीसीएज का मत है-“समाज के उद्योगों एवं व्यवसायों का व्यवस्थापिका में विशेष रूप से प्रतिनिधित्व होना चाहिए।

व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में कहा जाता है कि यह जनतन्त्रात्मक आदर्शों के अनुकूल प्रतिनिधित्व की एकमात्र वास्तविक प्रणाली है। इसके समर्थकों का दृष्टिकोण है कि निर्वाचन क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों की विभिन्न आवश्यकताएँ तथा इच्छाएँ होती हैं। व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व केवल व्यवसायों तथा आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व ही कर सकता है। व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के कारण निर्वाचित प्रतिनिधि का ध्यान अपने सभी कार्यकर्ताओं के हितों पर अधिक रहता है। औद्योगीकरण के साथ व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की माँग तीव्र हुई है। साम्यवादियों तथा बहुलवादियों ने भी इस प्रतिनिधित्व का पूर्ण समर्थन किया है। इसे “कार्य-विशेष सम्बन्धी प्रतिनिधित्व प्रणाली” भी कहते हैं।

प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणालियों के बारे में बताइए।
उत्तर
सामान्यतया निर्वाचन की दो प्रणालियाँ हैं- प्रत्यक्ष निर्वाचन और अप्रत्यक्ष निर्वाचन।
प्रत्यक्ष निर्वाचन – प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से तात्पर्य ऐसी निर्वाचन प्रणाली से है जिसमें मतदाता स्वयं अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। प्रत्यक्ष निर्वाचन में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही व्यवस्थापिका के सदस्य और मुख्य कार्यपालिका के अंग बनते हैं। यह बहुत सरल विधि है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक मतदाता मतदान-केन्द्र पर विभिन्न प्रत्याशियों में से किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करता है और जिस प्रत्याशी को सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यह प्रणाली सर्वाधिक लोकप्रिय प्रणाली है। सामान्यत: विश्व के प्रत्येक प्रजातान्त्रिक देश में व्यवस्थापिका के निम्न सदन के सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा ही चुने जाते हैं।

अप्रत्यक्ष निर्वाचन – इस प्रणाली के अन्तर्गत मतदाता सीधे अपने प्रतिनिधि नहीं चुनते हैं। वरन् वे पहले एक निर्वाचक-मण्डल को चुनते हैं। यह निर्वाचक-मण्डल बाद में अन्य प्रतिनिधियों को चुनते हैं। इस प्रकार जनता प्रत्यक्ष रूप से प्रतिनिधियों को निर्वाचन नहीं करती है; अतः इसे अप्रत्यक्ष निर्वाचन–प्रणाली कहा जाता है। भारत के राष्ट्रपति तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति दोनों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है। भारत, फ्रांस आदि देशों में व्यवस्थापिका के द्वितीय सदन का निर्वाचन भी अप्रत्यक्ष निर्वाचन-प्रणाली द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 6.
आदर्श प्रतिनिधित्व प्रणाली की विशेषताएँ बताइए।
या
आदर्श निर्वाचन-प्रणाली के चार प्रमुख तत्त्वों को बताइए। [2012]
उत्तर
आदर्श निर्वाचन प्रणाली के लिए अनेक बातें आवश्यक हैं, जिनमें से निम्न चार प्रमुख हैं-

1. प्रतिनिधि के कार्यकाल का उचित निर्धारण – आदर्श निर्वाचन-प्रणाली में प्रतिनिधियों का कार्यकाल न बहुत अधिक और न बहुत कम होना चाहिए। 3 से 5 वर्ष तक के कार्यकाल को प्रायः उचित कहा जा सकता है।

2. अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था – अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा न होने से अल्पसंख्यक वर्गों के व्यक्तियों की निष्ठा देश के प्रति नहीं होगी तथा उनके हितों को भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा। इस सम्बन्ध में अल्पसंख्यक वर्गों के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था को अपनाया जा सकता है। इसके साथ-साथ पृथक् निर्वाचन-प्रणाली न अपनाकर संयुक्त निर्वाचन-प्रणाली को ग्रहण किया जाना चाहिए।

3. सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार – लोकतन्त्र के मूल सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त समानता है और सभी नागरिकों को समान राजनीतिक शक्ति वयस्क मताधिकार की व्यवस्था के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। इसलिए सभी वयस्क नागरिकों को बिना किसी प्रकार के भेदभाव के मताधिकार प्राप्त होना चाहिए।

4. गुप्त मतदान की व्यवस्था – आदर्श निर्वाचन-प्रणाली में मतदान गुप्त विधि से होना चाहिए, जिससे मत की गोपनीयता बनी रहे और मतदाता स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छानुसार मताधिकार का प्रयोग कर सकें।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार क्या है? [2014]
या
सार्वभौमिक मताधिकार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [2010]
उत्तर
वयस्क या सार्वभौमिक मताधिकार वयस्क मताधिकार से तात्पर्य है कि मतदान का अधिकर एक निश्चित आयु के नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होना चाहिए। वयस्क मताधिकार की आयु का निर्धारण प्रत्येक देश में वहाँ के नागरिक के वयस्क होने की आयु पर निर्भर करता है। भारत में वयस्क होने की आयु 18 वर्ष है। अतः भारत में मताधिकार की आयु भी 18 वर्ष है। वयस्क मताधिकार से तात्पर्य है कि दिवालिए, पागल व अन्य किसी प्रकार की अयोग्यता वाले नागरिकों को छोड़कर अन्य सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए। मताधिकार में सम्पत्ति, लिंग अथवा शिक्षा जैसा कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। मॉण्टेस्क्यू, रूसो, टॉमस पेन इत्यादि विचारक वयस्क मताधिकार के समर्थक हैं। वर्तमान में विश्व के लगभग सभी देशों में वयस्क मताधिकार की व्यवस्था है।

प्रश्न 2.
महिला (स्त्री) मताधिकार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
स्त्री-मताधिकार
स्त्रियों के लिए मताधिकार प्राप्त करने की माँग प्रजातन्त्र के विकास तथा विस्तार के साथ ही प्रारम्भ हुई। यदि मताधिकार प्रत्येक व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है, तो स्त्रियों को भी यह अधिकार प्राप्त होना चाहिए। 19वीं शताब्दी में बेन्थम, डेविड हेयर, सिजविक, ऐस्मीन तथा जे०एस० मिल ने स्त्री मताधिकार का समर्थन किया। इंग्लैण्ड में 1918 ई० में सार्वभौमिक मताधिकार अधिनियम पारित करके 30 वर्ष की आयु वाली स्त्रियों को मताधिकार प्रदान किया गया। 10 वर्ष बाद यह आयु-सीमा घटाकर 21 वर्ष कर दी गई। सन् 1920 में संयुक्त राज्य अमेरिका में पुरुषों के समान स्त्रियों को भी समान अधिकार प्रदान किया गया। भारतीय संविधान में प्रारम्भ से ही स्त्रियों को पुरुषों के समान मताधिकार दिया गया है।

प्रश्न 3.
मताधिकार का महत्त्व बताते हुए दो तर्क दीजिए।
उत्तर
मताधिकार का महत्त्व बताते हुए दो तर्क निम्नवत् हैं-

1. नितान्त औचित्यपूर्ण  – राज्य के कानूनों और कार्यों का प्रभाव समाज के केवल कुछ ही व्यक्तियों पर नहीं, वरन् सब व्यक्तियों पर पड़ता है; अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपना मत देने | और शासन की नीति का निश्चय करने का अधिकार होना चाहिए। जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसी आधार पर वयस्क मताधिकार को नितान्त औचित्यपूर्ण बताया है।

2. लोकसत्ता की वास्तविक अभिव्यक्ति – लोकसत्ता बीसवीं सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है और आधुनिक प्रजातन्त्रवादियों का कथन है कि अन्तिम सत्ता जनता में ही निहित है। डॉ० गार्नर के शब्दों में, “ऐसी सत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सार्वजनिक मताधिकार में ही हो सकती है।

प्रश्न 4.
गुप्त मतदान तथा द्वितीय मत-प्रणाली पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
गुप्त मतदान

1. गुप्त मतदान – जब मतदाता इस प्रकार गोपनीय विधि से मत देता है कि उसे कोई अन्य व्यक्ति नहीं जान सके कि उसने किसे मत दिया है तो इसे गुप्त मतदान कहते हैं। इस प्रकार मतदाता स्वतन्त्रतापूर्वक अपने मतदान का प्रयोग कर सकते हैं और उन पर किसी के दबाव की आशंका नहीं रहती। हेरिंग्टन तथा काउण्ट अण्डरेसी ने गुप्त मतदान का प्रबल समर्थन किया है। आजकल विश्व के सभी लोकतान्त्रिक देशों में गुप्त मतदान-प्रणाली द्वारा ही चुनाव होते हैं। आदर्श रूप में प्रकट मतदान की प्रणाली अच्छी हो सकती है, किन्तु व्यवहार में गुप्त मतदान की प्रणाली ही सर्वश्रेष्ठ है।

2. द्वितीय मत – प्रणाली मतदाताओं के व्यापक प्रतिनिधित्व के लिए द्वितीय मतदान-प्रणाली अपनायी जाती है। इस प्रणाली में प्रत्याशी को विजयी होने के लिए डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक भाग प्राप्त होना आवश्यक होता है। जब एक ही स्थान के लिए दो से अधिक प्रत्याशी चुनाव लड़ते हैं और किसी भी प्रत्याशी को मतदान में पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होता तो अधिक मत प्राप्त करने वाले दो प्रत्याशियों के बीच दुबारा मतदान होता है और जिस प्रत्याशी को निरपेक्ष बहुमत प्राप्त हो जाता है वह विजयी घोषित कर दिया जाता है। फ्रांस के राष्ट्रपति के निर्वाचन में इस प्रणाली को अपनाया जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार के पक्ष में दो तर्क दीजिए। [2007, 08, 09, 12, 15]
उत्तर

  1. अल्पसंख्यको के अधिकारों का सुरक्षित होना तथा
  2. लोकमत की वास्तविक अभिव्यक्ति होना।

प्रश्न 2.
वयस्क मताधिकार के दो दोष लिखिए।
उत्तर

  1. शासनाधिकार अशिक्षित व्यक्तियों के हाथ में होना तथा
  2. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन।

प्रश्न 3.
निर्वाचन पद्धति कितने प्रकार की होती है?
या
निर्वाचन की कोई एक प्रणाली बताइए।
उत्तर
निर्वाचन पद्धति दो प्रकार की होती है-

  1. प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति तथा
  2. अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति।

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 8 Franchise and Electoral Methods

प्रश्न 4.
अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने की दो पद्धतियों के नाम लिखिए।
उत्तर

  1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति तथा
  2. सीमित मत-प्रणाली।

प्रश्न 5.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के दो प्रकार बताइए।
उत्तर

  1. एकल संक्रमणीय प्रणाली तथा
  2. सूची-प्रणाली।

प्रश्न 6.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दो गुण लिखिए।
उत्तर

  1. प्रत्येक वर्ग या दल को उचित प्रतिनिधित्व तथा
  2. अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा।

प्रश्न 7.
वयस्क मताधिकार के दो गुण बताइए। [2008]
उत्तर

  1. राष्ट्रीय एकीकरण में वृद्धि तथा
  2. जनसाधारण को शासकों के चयन का अधिकार।

प्रश्न 8.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के दो गुण बताइए।
उत्तर

  1. सरलता तथा
  2. लोकतान्त्रिक धारणा के अनुकूल।

प्रश्न 9.
प्रत्यक्ष निर्वाचन के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. अपव्ययी व्यवस्था तथा
  2. प्रतिभावान व्यक्तियों की निर्वाचन से दूरी।

प्रश्न 10.
अप्रत्यक्ष निर्वाचन के दो गुण बताइए।
उत्तर

  1. योग्य व्यक्तियों के निर्वाचन की अधिक सम्भावना तथा
  2. पेशेवर राजनीतिज्ञों का अभाव।

प्रश्न 11.
अप्रत्यक्ष निर्वाचन के दो दोष बताइए।
उत्तर

  1. भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन तथा
  2. दल-प्रणाली के कुप्रभाव।

प्रश्न 12.
आदर्श निर्वाचन-प्रणाली का एक प्रमुख तत्त्व क्या है?
उत्तर
गुप्त मतदान की व्यवस्था आदर्श निर्वाचन-प्रणाली का एक प्रमुख तत्त्व है।

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प्रश्न 13.
भारत में वयस्क मताधिकार की न्यूनतम आयु क्या है? [2007, 11, 13, 16]
उत्तर
भारत में वयस्क मताधिकार की आयु 18 वर्ष है।

प्रश्न 14.
स्विट्जरलैण्ड में वयस्क होने की आयु क्या है?
उत्तर
स्विट्जरलैण्ड में वयस्क होने की आयु 20 वर्ष है।

प्रश्न 15.
वयस्क मताधिकार क्या है? [2011]
उत्तर
निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद सभी वयस्क नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मत देने का अधिकार प्राप्त होना ही वयस्क मताधिकार है।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

1. सीमित मताधिकार विचारधारा के समर्थक हैं-
(क) बार्कर
(ख) जे० एस० मिल
(ग) डॉ० गार्नर
(घ) प्लेटो

2. वयस्क मताधिकार विचारधारा के समर्थक हैं-
(क) ब्लण्टशली
(ख) बेन्थम
(ग) सर हेनरीमैन
(घ) जॉन स्टुअर्ट मिल

3. “वयस्क मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।” यह किसका कथन है? [2010]
(क) लॉस्की
(ख) ब्राइस
(ग) ब्लण्टशली
(घ) अरस्तू

4. किसने कहा-“मत देने का अधिकार उन्हीं को प्राप्त होना चाहिए जिनमें बौद्धिक योग्यता की एक सुनिश्चित मात्रा विद्यमान हो, चाहे वे स्त्री हो या पुरुष।” [2010]
(क) अब्राहम लिंकन
(ख) जवाहरलाल नेहरू
(ग) टी० एच० ग्रीन
(घ) जे० एस० मिल

5. “सर्वजनीन मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है।” यह किसका कथन है? [2012]
(क) अरस्तू
(ख) ब्राइस
(ग) लॉस्की
(घ) गार्नर

6. आनुपातिक प्रतिनिधित्व की पद्धति का प्रतिपादन किसके द्वारा किया गया है? [2014, 16]
(क) थॉमस हेयर
(ख) जे० एस० मिल।
(ग) सर हेनरी मेन
(घ) ब्राइस

7. थॉमस हेयर का नाम किस निर्वाचन प्रणाली से सम्बन्धित है? [2016]
(क) प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली
(ख) अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली
(ग) सीमित मतदान प्रणाली
(घ) आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली

8. भारत में प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को सबसे पहले कब लागू किया गया? [2016]
(क) सन् 1909
(ख) सन् 1919
(ग) सन् 1935
(घ) सन् 1950

उत्तर

  1. (ख) जे० एस० मिल,
  2. (घ) जॉन स्टुअर्ट मिल,
  3. (क) लॉस्की,
  4. (क) अब्राहम लिंकन,
  5. (ग) लॉस्की,
  6. (क) थॉमस हेयर,
  7. (घ) आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली,
  8. (ग) सन् 1935

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD)

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 13
Chapter Name Indian National Movement
(1885-1919 AD)
(भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन
(1885-1919 ई०)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 13 Indian National Movement (1885-1919 AD) (भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (1885-1919 ई०)

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में गोपालकृष्ण गोखले की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उतर:
गोपालकृष्ण गोखले कांग्रेस के उदारवादी नेता थे। जब से वे कांग्रेस में आये, मृत्युपर्यन्त अपनी विद्वता, नीतिमत्ता, ज्ञान और सात्विक स्वभाव के कारण उस पर छाए रहे। गाँधी जी के राजनीतिक गुरु गोखले ने 1905 ई० में बनारस अधिवेशन की अध्यक्षता की। बंगाल विभाजन तथा इसके परिणामों के बारे में ब्रिटिश जनता को अवगत कराने के लिए वे 1906 ई० में इंग्लैण्ड गए। वहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 ई० में इन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी’ नामक संस्था स्थापित की, जिसका मुख्य उद्देश्य भारत के राष्ट्रीय हितों का संवर्धन करना,

भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करना तथा इनमें पारस्परिक सौहार्द बढ़ाना था। गोखले ने सरकार से इस बात का अनुरोध किया कि नमक पर टैक्स कम किया जाए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इण्डियन सिविल सर्विस का भारतीयकरण हो। गोखले यह भी चाहते थे कि सेना पर होने वाले व्यय को घटाया जाए। भारतीय मामलों से सम्बन्धित प्रश्नों पर बातचीत के लिए गोखले कई बार इंग्लैण्ड गए। ‘अनिवार्य शिक्षा विधेयक को व्यवस्थापिका परिषद् में उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत किया गया था। गोखले ने भारतीय समाज में व्याप्त कई बुराइयों का भी विरोध किया। 1915 ई० में 49 वर्ष की आयु में गोखले का निधन हो गया।

प्रश्न 2.
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में बाल गंगाधर तिलक के योगदान का वर्णन कीजिए।
उतर:
बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के उग्रवादी दल के प्रतिभासम्पन्न नेता थे। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादी विचारधारा के जन्मदाता वे ही थे। उन्होंने ही सबसे पहला नारा लगाया “स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे प्राप्त करके ही रहूँगा।” वास्तव में, उन्होंने देश में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र गति प्रदान की थी तथा कांग्रेस के आन्दोलन को जन आन्दोलन में परिवर्तित करने का सराहनीय कार्य किया था।

प्रश्न 3.
बाल गंगाधर तिलक व गोपालकृष्ण गोखले के विचारों की भिन्नता पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
तिलक और गोखले दोनों ऊँचे दर्जे के देशभक्त थे। दोनों ने जीवन में भारी त्याग किया था, परन्तु उनके स्वभाव एक-दूसरे से बहुत भिन्न थे। यदि हम उस समय की भाषा का प्रयोग करें तो कह सकते है कि गोखले नरम विचारों के थे और तिलक गरम विचारों के। गोखले मौजूदा संविधान को मात्र सुधारना चाहते थे लेकिन तिलक उसे नए सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले को नौकरशाही के साथ मिलकर कार्य करना था, तिलक को उससे अनिर्वायत: संघर्ष करना था। गोखले जहाँ सम्भव हो, सहयोग करने तथा जहाँ जरूरी हो, विरोध करने की नीति के पक्षपाती थे। तिलक का झुकाव रुकावट तथा अडुंगा डालने की नीति की ओर था। गोखले को प्रशासन तथा उनके सुधार की मुख्य चिन्ता थी, तिलक के लिए राष्ट्र तथा उसका निर्णय मुख्य था।

गोखले का आदर्श थाप्रेम और सेवा, तिलक का आदर्श था- सेवा और कष्ट सहना। गोखले विदेशियों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते थे, तिलक का तरीका विदेशियों को देश से हटाना था। गोखले दूसरों की सहायता पर निर्भर करते थे, तिलक अपनी सहायता स्वयं करना चाहते थे। गोखले उच्च वर्ग और शिक्षित लोगों की ओर देखते थे, तिलक सर्वसाधारण या आम जनता की ओर। गोखले का अखाड़ा था- कौंसिल भवन, तिलक का मंच था-गाँव की चौपाल। गोखले अंग्रेजी में लिखते थे, तिलक मराठी में। गोखले का उद्देश्य था- स्वशासन, जिसके लिए लोगों को अंग्रेजों द्वारा पेश की गई कसौटी पर खरा उतरकर अपने को योग्य साबित करना था, तिलक का उद्देश्य था- स्वराज्य, जो प्रत्येक भारतवासी का जन्मसिद्ध अधिकार था और जिसे वे बिना किसी बाधा की परवाह किए लेकर ही रहेंगे। गोखले अपने समय के साथ थे, जबकि तिलक अपने समय के बहुत आगे।।

प्रश्न 4.
होमरूल आन्दोलन का विवरण दीजिए।
उतर:
होमरूल आन्दोलन स्वशासन प्राप्त करने का वैधानिक संगठन था। सन् 1916 ई० में आयरिश महिला श्रीमति एनी बेसेण्ट ने
मद्रास (चेन्नई) और लोकमान्य गंगाधर तिलक ने बम्बई में होमरूल लीग की स्थापना की। लीग का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत वैधानिक तरीकों से स्वशासन प्राप्त करना और इस दशा में जनमत तैयार करना था। तिलक ने अपने ‘मराठा’ तथा ‘केसरी’ व एनी बेसेन्ट ने ‘कॉमलवील’ तथा ‘न्यू इण्डिया’ समाचार-पत्रों द्वारा गृह-शासन का जोरदार प्रचार किया। शीघ्र ही यह आन्दोलन सम्पूर्ण भारत में फैल गया। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया। इंग्लैण्ड में भी होमरूल लीग की स्थापना हुई। मजदूर दल के नेता ‘होराल्ड लास्की’ ने इसे प्रोत्साहन दिया।

प्रश्न 5.
मार्ले-मिण्टो सुधार पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
मार्ले-मिण्टो सुधार( 1909 ई० )- मार्ले-मिण्टो सुधार वस्तुतः मुसलमानों को खुश करने, नरमपंथियों को उलझन में डालने और अतिवादियों को शान्त करने का प्रयास था। संक्षेप में इस सुधार का उद्देश्य अधिकार देने के स्थान पर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का अनुसरण करना था। इस अधिनियम की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं

  1. इसके द्वारा केन्द्रीय लेजिस्टलेटिव के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर अब 69 कर दी गई, किन्तु न उनके अधिकार बढ़े और न ही उनकी शक्तियाँ।।
  2. अधिनियम के अनुसार वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् तथा प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषदों में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति का प्रावधान किया गया।
  3. इस अधिनियम का सबसे बड़ा दोष मुसलमानों के लिए पृथक् चुनाव मण्डल प्रदान करना था। इसका आशय यह था कि मुसलमान सम्प्रदाय को भारतीय राष्ट्र से पूर्णतया पृथक् वर्ग के रूप में स्वीकार किया गया। इस अधिनियम की उल्लेखनीय उपलब्धि यह भी रही कि इसके द्वारा भारत सचिव की परिषद् तथा भारत के गवर्नर जनरल की कार्यपालिका परिषद् में भारतीय सदस्यों का समावेश किया गया।
  4. इस प्रकार इस अधिनियम में सुधारों के नाम पर चुनाव पद्धति में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया ताकि भारतीय राष्ट्रवादियों की एकता को तोड़कर उन्हें विभिन्न भागों में बाँट दिया जाए। यह अधिनियम एक कूटनीतिक चाल साबित हुआ। इसके माध्यम से मुसलमान युवकों को कांग्रेस में जाने से रोका गया और उग्र राष्ट्रवादियों के भारतीय कांग्रेस में आने पर नियन्त्रण किया गया। महान् उदारवादी मदनमोहन मालवीय और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इन सुधारों की तीव्र आलोचना की। वहीं मुस्लिम लीग इन सुधारों से बहुत प्रसन्न थी।

प्रश्न 6.
उदारवादियों की दो उपलब्धियों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
उदारवादियों की दो उपलब्धियाँ निम्नवत् हैं|
(i) भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधार तैयार करना- यद्यपि उदारवादियों को प्रत्यक्ष रूप से कोई सफलता प्राप्त न हो सकी। तथापि अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने भविष्य में होने वाले आन्दोलनों के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। यदि वे प्रारम्भिक काल में ही पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग करने लगते अथवा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सक्रिय प्रतिरोध की नीति को अपनाते तो सम्भवतया उनके आन्दोलन को शैशवकाल में ही कुचल दिया जाता और स्वतन्त्रता की दिशा में आगामी रणनीति इच्छित रूप में सफल न हो पाती। के०एम० मुंशी के शब्दों में- “यदि पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस के रूप में एक अखिल भारतीय संस्था देश के राजनीति क्षेत्र में कार्यरत न होती तो ऐसी अवस्था में गाँधी जी का कोई विस्तृत आन्दोलन सफल न होता।”

(ii) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 ई०- उदारवादियों की सफलता को 1892 ई० के भारतीय परिषद् अधिनियम के सन्दर्भ में भी लिया जा सकता है। यद्यपि यह भारतीयों को सन्तुष्ट न कर सका, लेकिन फिर भी देश के संवैधानिक विकास की दिशा में यह एक निश्चित प्रगतिशील कदम था।।

प्रश्न 7.
बंगाल के विभाजन के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उतर:
सन् 1905 ई० में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा कर दी जिसके परिणाम स्वरूप बंगाल में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण देश में विद्रोह का तूफान उठ खड़ा हुआ। इससे भारत में गरम आन्दोलन की जो विचारधारा उत्पन्न हुई उसे स्वदेशी आन्दोलन की संज्ञा दी गई। बंगाल विभाजन से देश में समस्त राष्ट्रवादी विचारों को भयंकर आघात पहुँचा तथा इस नीति ने साम्प्रदायिक समस्या को कई गुणा बढ़ा दिया। इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में जन-सभाओं का आयोजन किया गया।

प्रश्न 8.
नरम दल के प्रतिष्ठाता कौन थे?
उतर:
नरम दल के प्रतिष्ठाता गोपालकृष्ण गोखले थे। सन् 1905 ई० में उन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की, जिसका प्रमुख उद्देश्य भारत के राष्ट्रीय हितों का संवर्धन करना, भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करना तथा पारस्परिक सौहार्द बढ़ाना था।

प्रश्न 9.
आप एनी बेसेण्ट और उनके होमरूल संघ के विषय में क्या जानते हैं? या होमरूल आन्दोलन से आप क्या समझते हैं?
उतर:
श्रीमति ऐनी बेसेण्ट- ये एक आयरिश महिला थीं। सन् 1893 ई० में श्रीमति ऐनी बेसेण्ट भारत आईं और अडयार (मद्रास) स्थित थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष बनीं। श्रीमति ऐनी बेसेण्ट ने हिन्दू धर्म की बड़ी प्रशंसा की और बालगंगाधर तिलक के साथ मिलकर भारत की स्वाधीनता के लिए होमरूल आन्दोलन चलाया। ये एक बार कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्ष भी बनीं। इन्होंने शिक्षा के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। होमरूल आन्दोलन के लिए लघुउत्तरीय प्रश्न संख्या-4 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 10.
अतिवादी दल के प्रतिष्ठाता कौन थे?
उतर:
अतिवादी दल के प्रतिष्ठाता बाल गंगाधर तिलक थे। उन्होंने अंग्रेजी शासन का विरोध करने के लिए स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर जोर दिया। अखाड़ा, लाठी, गणपति व शिवाजी महोत्सवों के द्वारा तिलक ने महाराष्ट्र में नवजागृति का संचार किया। इनका नारा था- “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।”

प्रश्न 11.
नरम दल के नेताओं के नाम बताओ।
उतर:
नरम दल के प्रमुख नेता गोपालकृष्ण गोखले, दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रास बिहारी घोष, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि थे।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रथम चरण की विवेचना कीजिए।
उतर:
राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रथम चरण (1885-1919 ई०)- प्रारम्भ में कांग्रेस के आन्दोलन की गति बहुत धीमी थी। इसका मुख्य कारण कांग्रेस का शैशवकाल था। यह समय सुधारवादी तथा वैधानिक युग के नाम से भी विख्यात है। इस समय कांग्रेस पर उदारवादियों का प्रभाव रहा। इन उदारवादियों ने विनय-अनुनय की नीति अपनाई, परन्तु उनकी इस नीति ने 19वीं शताब्दी के अन्तिम एवं 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरणों में अतिवादी विचारधारा को जन्म दिया। 1885-1905 ई० के दौरान कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य संवैधानिक, आर्थिक, प्रशासनिक सुधार एवं नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की माँग करना था। इस समय तक कांग्रेस को जनसमर्थन भी प्राप्त नहीं हो सका था। मुख्य रूप से शिक्षित मध्य वर्ग तक ही इसका प्रभाव रहा। प्रारम्भ में कांग्रेस ने उदारवादी रुख अपनाया।

उदारवादी आन्दोलन का युग- प्रारम्भिक बीस वर्षों में कांग्रेस आम जनता के कष्ट निवारण हेतु ब्रिटिश सरकार को प्रार्थना पत्र ही भेजती रही। इस चरण के प्रमुख कांग्रेसी नेता गोपालकृष्ण गोखले, पंडित मदन मोहन मालवीय, दादाभाई नौरोजी आदि थे। ये सभी नेता शान्तिपूर्वक अंग्रेजी सरकार से अपनी माँगें मनवाने के पक्ष में थे परन्तु इनकी उदारवादी प्रवृत्ति का कांग्रेस को कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि स्वार्थी व कुटिल अंग्रेजों पर प्रार्थना-पत्र व याचना-पत्र कोई प्रभाव नहीं डाल पाए और न ही उदारवादी नेता अंग्रेजों पर किसी भी प्रकार का दबाव बनाने में सफल हो पाए।

1885-1905 ई० के काल को उदारवादियों का काल अथवा उदार राष्ट्रवाद का काल भी कहा जाता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रारम्भ में अत्यन्त नरम थी। आरम्भ से ही कांग्रेस का दृष्टिकोण विशुद्ध राष्ट्रीय रहा। इसने किसी वर्ग विशेष के हित का समर्थन नहीं किया वरन् सभी प्रश्नों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाया। प्रारम्भिक दौर में कांग्रेस की पूरी बागडोर नरम राष्ट्रवादियों के हाथ में थी। इस समय भारतीय राजनीति में ऐसे व्यक्तियों का प्रभाव था, जो उन अंग्रेजों के प्रति श्रद्धा रखते थे, जिनका उदारवादी विचारधारा में विश्वास था। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रासबिहारी घोष, गोपालकृष्ण गोखले इत्यादि नेता नरमपंथी विचारों के प्रमुख स्तम्भ थे।

कुछ अंग्रेज भी उदारवादी विचारधारा के समर्थक थे, जिनमें छूम, विलियम वेडरवर्न, जॉर्ज यूल, स्मिथ प्रमुख थे। इन्हीं उदारवादी नेताओं ने कांग्रेस का दो दशकों (1885-1905 ई०) तक मार्गदर्शन किया। ये उदारवादी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को अभिशाप नहीं वरन् वरदान समझते थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का यह कथन उदारवादियों की मनोवृत्ति को स्पष्ट करता है, “अंग्रेजों के न्याय, बुद्धि और दयाभाव में हमारी दृढ़ आस्था है। विश्व की महानतम प्रतिनिधि संस्था, संसदों की जननी ब्रिटिश कॉमन सदन के प्रति हमारे हृदय में असीम श्रद्धा है।” कांग्रेस की प्रसिद्धी बढ़ती गई। उसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1885 ई० में इसके 72 सदस्य थे, जो 1890 ई० में 2,000 तक पहुंच गए।

कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की यह धारणा थी कि अंग्रेज सच्चे और न्यायप्रिय हैं। कांग्रेस के आरम्भिक नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश सरकार के समक्ष सार्वजनिक मुद्दों से सम्बन्धित माँगों को रखकर देश के प्रबुद्ध देशवासियों, नेताओं व कार्यकर्ताओं के मध्य राष्ट्रीय एकता की भावना जाग्रत की जा सकती है। कांग्रेस के 12वें अधिवेशन पर मुहम्मद रहीमतुल्ला ने कहा था कि, संसार में सूर्य के नीचे शायद ही कोई इतनी ईमानदार जाति हो, जितना की अंग्रेज।”

कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में संवैधानिक सुधारों की माँग की गई, जिसमें 1885 ई० के अधिनियम द्वारा निर्मित भारत सचिव व इण्डियन कौंसिल को समाप्त करने को कहा गया, क्योंकि उसमें कोई भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था। प्रान्तों में भी विधान परिषदों के पुनर्गठन की माँग रखी गई। इन माँगों के फलस्वरूप 1892 ई० का इण्डियन कौंसिल ऐक्ट पास हुआ, जिसके अनुसार केन्द्रीय एवं प्रान्तीय विधायिकाओं की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई।

इस समय कांग्रेस ने देश की स्वतन्त्रता की माँग नहीं की, केवल भारतीयों के लिए रियायतें ही माँगी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया। किन्तु न तो यह शब्द लोकप्रिय हुआ और न ही इसका कांग्रेस के प्रस्तावों में उल्लेख था। न्यायपालिका के क्षेत्र में कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष माँग रखी कि शासन और न्याय कार्यों को अलग रखा जाए। अपने चौथे अधिवेशन में कांग्रेस ने माँग रखी कि भूमि कर को स्थायी, कम व निश्चित किया जाए और किसानों को शोषण से बचाने के लिए कानूनों में सुधार किए जाएँ। नागरिकों के सम्बन्ध में राजद्रोह सम्बन्धी कानून को वापस लिए जाने की माँग की। भारतीय सेना का देश से बाहर प्रयोग न किया जाए तथा सैनिक सेवा में भारतीयों को उच्च स्थान दिए जाएँ। कांग्रेस ने प्रशासन सुधार, प्रेस की स्वतन्त्रता आदि माँगों को भी सरकार के सम्मुख रखा। हालाँकि उदारवादियों का दृष्टिकोण देशहित में था परन्तु वे सरकार के समक्ष अपनी माँगें याचनापूर्वक व हीन शब्दों में रखते थे। जबकि सरकार का रुख प्रतिरोधात्मक था। अत: उनकी माँगों की उपेक्षा की गई। अन्ततः सरकार कांग्रेस को नापसन्द करने लगी।।

प्रश्न 2.
“भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारम्भिक चरण में उदारवादियों का आधिपत्य था।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
उतर:
उत्तर के लिए विस्तृत उत्तरी प्रश्न संख्या-1 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय आन्दोलन में अतिवादियों के उदय की समीक्षा कीजिए।
उतर:
अतिवादियों अथवा गरम दल का उदय (1905-1919 ई०)- उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक कांग्रेस की नरमपंथी नीतियों के विरुद्ध असन्तोष बढ़ता जा रहा था। कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनकी भिक्षा-याचना की नीति के फलस्वरूप कांग्रेस में एक नए तरुण दल का उदय हुआ, जो पुराने नेताओं के ढोंग एवं आदर्शों का कड़ा आलोचक बन गया। फलत: कांग्रेस दो गुटों में बँटने लगी- नरमपंथी और गरमपंथी। नरमपंथी नेताओं ने देश में राजनीतिक ढाँचे का तो निर्माण कर लिया था, परन्तु उसे वैचारिक स्थायित्व न मिला। वे अपनी विद्वता, देशभक्ति और समर्पण भावना में किसी से पीछे न थे, परन्तु उन्हें न तो अंग्रेजों की ईमानदारी और न्यायप्रियता पर सन्देह था और न ही उनका अपना कोई जनाधार। उन्होंने अपने भाषणों, विचारों और लेखों द्वारा शिक्षित समाज को राजनीतिक शिक्षा के सिद्धान्तों से परिचित कराया था, परन्तु अब आवश्यकता उसके व्यावहारिक प्रयोग की थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को स्थापित हुए 20 वर्ष हो चुके थे, परन्तु उसके फायदे समाज के सम्मुख दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। नरमपंथियों का सम्पर्क मुख्यत: कुछ पढ़े-लिखे प्रबुद्ध लोगों तक ही सीमित था। उनकी पहुँच सामान्य जनता, कृषक, मजदूर, मध्यम वर्ग तक न थी। भारतीय जनमानस के बढ़ते हुए असन्तोष, सरकार की अकर्मण्यता और कांग्रेस की उदासीनता की अभिव्यक्ति राष्ट्रीय चेतना के रूप में हुई। इसके उन्नायक लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचन्द्र पाल थे। उन्होंने भारतीय जनमानस में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, देशभक्ति और साहस की भावना का संचार किया। अतिवादियों ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाए

  • निष्क्रिय विरोध अर्थात् सरकारी सेवाओं, न्यायालयों, स्कूलों तथा कॉलेजों का बहिष्कार कर ब्रिटिश सरकार का विरोध।
  • स्वदेशी को बढ़ावा तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।
  • राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा नए राष्ट्र का निर्माण।

राष्ट्रवादियों के अतिवादी विचार 1857 ई० के विद्रोह के बाद धीरे- धीरे बढ़ रहे थे। बदलती हुई परिस्थितियों में सरकार के द्वारा दमन किए जाने के बावजूद अतिवादी विचार तेजी से बढ़े। शताब्दी के अन्त तक असन्तोष की लहर ग्रामीण समाज, किसानों तथा मजदूरों तक फैल गई। इन परिस्थितियों ने कई नेताओं को अपनी माँगों और कार्यवाही को लेकर वाकपटु बना दिया। ये नेता अतिसुधारवादी या अतिवादी के नाम से जाने गए।

क्रान्तिकारी राष्ट्रीयता के बढ़ने के अनेक कारण थे। राजनीतिक रूप से जागरूक लोगों का नरमपंथी नेतृत्व के सिद्धान्तों तथा उनके कार्य के तरीकों से मोहभंग हो चुका था। 1892 ई० के भारतीय कौंसिल अधिनियम से लोगों को बहुत निराशा हुई तथा प्लेग और अकाल जैसी आपदाओं में ब्रिटिश सरकार द्वारा ठीक से प्रबंधन न किए जाने पर उनके प्रति कड़वाहट बढ़ती गई। दमनकारी ब्रिटिश नीतियों; जैसे-1898 ई० के राजद्रोह के विरुद्ध कानून और 1899 ई० के राजकीय गोपनीयता अधिनियम ने आग में घी का काम किया। इसके अन्य कारणों में आयरलैण्ड और रूस का क्रान्तिकारी आन्दोलन जैसी अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएँ, निवेशों में भारतीयों का अपमान, अरविन्द घोष, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचन्द्र पाल जैसे नेताओं के नेतृत्व में एक क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी विचारों की शाखा का अस्तित्व में आना, शिक्षा प्रसार के बावजूद बेरोजगारी का बढ़ना आदि थे। अन्तत: लॉर्ड कर्जन की नीतियों के कारण हुए 1905 ई० के बंगाल विभाजन से जन-विरोध भड़क उठा।

प्रश्न 4.
गरम राष्ट्रवाद के उदय के क्या कारण थे?
उतर:
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गरमवादी विचारधारा के उदय के निम्नलिखित कारण थे
(i) शासन द्वारा कांग्रेस की माँगों की उपेक्षा तथा 1892 ई० के सुधार कानून की अपर्याप्तता- उदारवादी नेताओं की अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा ईमानदारी में गहन आस्था थी। अतः उन्हें पूरी आशा थी कि ब्रिटिश सरकार उनके द्वारा प्रस्तावित सुधार प्रस्तावों को अवश्य ही अपनाएगी। उदारवादियों की प्रार्थनाओं और माँगों की पूर्ति के सन्दर्भ में ब्रिटिश शासन ने जो कुछ दिया, वह 1892 ई० का कौसिल एक्ट था। यह सुधार कानून निराशाजनक और अपर्याप्त था। इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को वास्तविक अधिकार नहीं दिए गए थे। निर्वाचन की प्रणाली भी अप्रत्यक्ष ही रखी गई थी। कांग्रेस इन सुधारों से अप्रसन्न थी।

कांग्रेस निरन्तर विधानपरिषदों के विस्तार, निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि, परिषदों के अधिकारों के विस्तार, न्याय-सुधार तथा सिविल सर्विस परीक्षा भारत में कराए जाने की माँग करती रही, परन्तु सरकार ने उन्हें पूरा नहीं किया। एस०एन० बनर्जी का मत है- “विधानपरिषदों में निर्मित विधियाँ पूर्व-निश्चित होती थीं एवं वादविवाद औपचारिकता मात्र होता था, जिसे कुछ व्यक्ति धोखा कह सकते हैं।” लाला लाजपत राय ने कहा था-“भारतीयों को अब भिखारी बने रहने में सन्तोष नहीं करना चाहिए और उन्हें अंग्रेजों की कृपा पाने के लिए गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए।’

(ii) हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान- कांग्रेस के उदारवादी नेता- गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, रासबिहारी घोष आदि भारत और इंग्लैण्ड के सम्बन्धों को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते थे और ब्रिटिश संस्कृति की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे, जबकि गरम विचारधारा वाले नेता- बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष और विपिनचन्द्र पाल इन विचारों से अप्रसन्न थे। उनके विचारों पर स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमती ऐनी बेसेण्ट के इस विचार का प्रभाव पड़ा कि भारत की वैदिक संस्कृति पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।

धार्मिक पुनर्जागरण के प्रभाव से भारतीयों के मन तथा मस्तिष्क में पाश्चात्य वेशभूषा, शिक्षा, विचारधारा और जीवन पद्धति के विरुद्ध गहन प्रतिक्रिया थी। अरविन्द घोष का मत था- “स्वतन्त्रता हमारे जीवन का एक उद्देश्य है और हिन्दू धर्म हमारे उद्देश्य की पूर्ति करेगा। ……….. राष्ट्रीयता एक धर्म है और ईश्वर की देन है।” इस नवजागरण के प्रभाव के कारण ही उदारवाद ने अति राष्ट्रवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया। ऐनी बेसेण्ट ने कहा था कि सम्पूर्ण हिन्दू प्रणाली पश्चिमी सभ्यता से बढ़कर है। स्वामी दयानन्द तथा स्वामी विवेकानन्द के दिव्य विचारों से प्रभावित होकर अमेरिका के ‘दि न्यूयॉर्क हेराल्ड’ने सम्पादकीय टिप्पणी की थी कि हमें अनुभव हो रहा है कि उन सरीखे धर्म के विद्वत्जनों के देश में ईसाई पादरी भेजना कितनी बड़ी मूर्खता है।

(iii) आर्थिक शोषण- ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों से भी युवा वर्ग में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। सरकार की आर्थिक नीति का मूल लक्ष्य अंग्रेज व्यापारियों तथा उद्योगपतियों का हित करना था, न कि भारतीयों का। भारत सरकार ने भारतीय आर्थिक हितों को नि:संकोच ब्रिटिश व्यापारिक हितों के रक्षार्थ बलिदान कर दिया था। ब्रिटिश सरकार निरन्तर भारत विरोधी आर्थिक नीतियों का अनुसरण कर रही थी। पहले सूती माल पर आयात कर 5% था, सरकार ने इसे घटाकर 3.5% कर दिया और सरकार ने भारतीय मिलों पर 3.5% उत्पादन कर लगा दिया।

इससे भारतीय मिलों का काम-काज ठप हो गया। इस स्थिति ने भारतीयों के लिए बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न कर दी। सरकार की आर्थिक नीति के विरुद्ध भारतीयों में घोर असन्तोष व्याप्त हो गया। वे सरकारी नीति का विरोध करने लगे और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाने लगा। शिक्षित भारतीयों को भी अपनी योग्यतानुसार सरकारी पदों की प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उनमें भी असन्तोष की भावनाएँ तीव्र हो गईं। ए०आर० देसाई के शब्दों में- “शिक्षित भारतीयों में बेकारी से उत्पन्न राजनीतिक असन्तोष भारत में गरम राष्ट्रवाद के उदय का एक प्रमुख कारण रहा।” ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति के कारण भारतीय वस्तुएँ महँगी हो गईं व विदेशी वस्तुएँ सस्ती हो गईं, जिसके कारण प्रतिस्पर्धा में भारतीय वस्तुएँ पीछे छूट गईं।

(iv) अकाल और प्लेग का प्रकोप- उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में देश में अकाल के भीषण बादल मँडराने लगे। 1876 ई० से 1900 ई० तक 25 वर्षों में देश में 18 बार अकाल पड़ा। 1896-97 ई० में बम्बई में सबसे भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल का प्रभाव 70 हजार वर्ग मील के क्षेत्र पर पड़ा तथा लगभग दो करोड़ लोग इसके शिकार हुए। यदि सरकार ने अपनी पूर्ण क्षमता और उत्साह से सहायता कार्य का बीड़ा उठाया होता तो अकाल इतना भीषण रूप धारण नहीं करता। अभी अकाल का घाव भरा भी न था कि बम्बई प्रेसीडेंसी में 1897-98 ई० में प्लेग का प्रकोप व्याप्त हो गया। पूना के आस-पास भयंकर प्लेग फैल गया, जिसमें सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार 1 लाख 73 हजार व्यक्तियों की मृत्यु हुई।

प्लेग कमिश्नर रैंड ने सैनिकों को सेवा-कार्य सौंपा और उन्हें घरों में घुसने, निरीक्षण करने और रोगग्रस्त व्यक्तियों को अस्पताल पहुँचाने का दायित्व सौंपा। सैनिकों के अनैतिक कृत्यों से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएँ आहत हुईं। अनेक स्थानों पर दंगे प्रारम्भ हो गए। एक नवयुवक दामोदर हरि चापेकर ने रैंड तथा उनके सहयोगी लेफ्टिनेन्ट ऐर्ट को अपनी गोली का शिकार बनाया। सरकार इन क्रान्तिकारी गतिविधियों से तिलमिला उठी और उसने कठोर कदम उठाए। महाराष्ट्र में अत्याचार का ताण्डव शुरू हो गया। ‘केसरी’ के सम्पादक तिलक को सरकार विरोधी भावनाएँ उभारने के लिए 18 मास के कठोर कारावास का दण्ड दिया गया। इससे देश में विद्रोह का तूफान उमड़ पड़ा। दामोदर हरि चापेकर द्वारा रैंड की हत्या यह सूचना दे रही थी कि भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रता का प्रवेश हो चुका है।

(v) अंग्रेजों की जाति विभेद की नीति- भारत तथा अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार का एक प्रमुख कारण अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई जाति विभेद की नीति थी। भारतीयों को निम्न जाति का समझा जाता था। आंग्ल-भारतीय समाचार-पत्र खुले रूप में अंग्रेजों को भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करने की भावना को प्रोत्साहन देते थे। लॉर्ड कर्जन की नीतियों ने जाति विभेद की नीति को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अपने एक भाषण में स्पष्ट कहा था- “पश्चिमी लोगों में सभ्यता और पूर्वी लोगों में मक्कारी पाई जाती है। इन जाति विभेद की नीतियों ने भारतीयों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आक्रोश की भावना को उत्तेजित किया और उन्हें अति राष्ट्रवादी बना दिया।

(vi) अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव- इस काल में विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं, जिनका भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा। इन घटनाओं के प्रभाव के कारण भारतीयों में दीनता और निराशा के स्थान पर राष्ट्रीय उत्साह और साहस की भावना का उदय हुआ। ऐसी प्रथम घटना 1897 ई० में अफ्रीका के एक छोटे से राष्ट्र अबीसीनिया द्वारा इटली को पराजित किया जाना था। गैरेट के शब्दों में- “इटली की हार ने 1897 ई० में तिलक के आन्दोलन को बल प्रदान किया। इसी प्रकार 1905 ई० में जापान द्वारा इटली को पराजित किए जाने की घटना से भारतीयों में यह भावना सुदृढ़ हुई कि अनन्य देशभक्ति, बलिदान और राष्ट्रीयता की भावना को अपने जीवन में उतारकर ही भारतीय स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में घटित इन घटनाओं का भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त इसी समय मित्र, फारस व टर्की में स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था। आयरलैण्ड में स्वशासन के लिए व रूस में जारशाही के विरुद्ध आन्दोलन तीव्र गति से चल रहा था। इन सब घटनाओं ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का व्यापक संचार किया। इन सब घटनाओं के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि मैजिनी, गैरीबाल्डी और कावूर के प्रेरक नेतृत्व में इटलीवासियों की राष्ट्रीय एकता एवं स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयासों का भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा। गुरुमुख निहाल सिंह के शब्दों में- “…. भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने अपने देशवासियों में स्वदेश प्रेम जाग्रत करने के लिए इटली के उदाहरण से काम लिया।”

(vii) लॉर्ड कर्जन की दमनकारी नीतियाँ- लॉर्ड लैन्सडाउन और एल्गिन के दमनकारी शासन के बाद 1898 ई० में लॉर्ड कर्जन भारत के वायसराय बनकर आए। कर्जन साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के पक्षपाती थे और राजनीतिक आन्दोलनों को पूर्णतः कुचल देने के पक्षधर थे। उन्होंने शासन-सत्ता सँभालते ही ऐसे कार्य करने प्रारम्भ कर दिए कि जनता में विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी। उन्होंने केन्द्रीकरण की नीति अपनाई, जिससे साम्राज्यवाद की जड़ें गहराई तक पहुँचाई जा सकें। कलकत्ता कॉर्पोरेशन ऐक्ट (1904 ई०) पारित करके स्वायत्तशासी संस्थाओं पर सरकार का नियन्त्रण करने के लिए 25 निर्वाचित प्रतिनिधियों की संस्था कम कर दी।

भारतीय विश्वविद्यालय ऐक्ट (1904 ई०) के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकार के हस्तक्षेप को बढ़ाया गया। शिक्षित वर्ग में इन परिवर्तनों से बहुत अधिक असन्तोष व्याप्त हो गया और उसने इस विश्वविद्यालय ऐक्ट की कटु आलोचना की। ऑफीशियल सीक्रेट ऐक्ट (1904 ई०) के द्वारा सरकारी सूचनाओं का भेद देना व सरकार के विरोध में समाचार-पत्रों की आलोचना भी अपराध घोषित कर दिया गया। उनकी सैन्य नीति भी बहुत विवादास्पद थी। उन्होंने अधिक मात्रा में सैनिक व्यय किया। उनकी सैन्य नीति का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करना था।

इससे भी भारतीयों में असन्तोष बढ़ा। कर्जन का भारतीयों के प्रति बड़ा अभद्र और अन्यायपूर्ण व्यवहार था। 1905 ई० में एक दीक्षान्त भाषण में उन्होंने कहा था- “भारतीयों में सत्य के प्रति आस्था नहीं है और वास्तव में भारतवर्ष में सत्य को कभी आदर्श ही नहीं माना गया है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा था- “भारत राष्ट्र नाम की चीज नहीं है।” अत: लॉर्ड कर्जन की इन नीतियों ने गरम राष्ट्रवादी विचारधारा को पनपने का अवसर प्रदान किया। गोपालकृष्ण गोखले के अनुसार- “कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए वही कार्य किया, जो मुगल शासन के लिए औरंगजेब ने किया था।

(viii) बंगाल का विभाजन- बंगाल विभाजन ने गरम राष्ट्रवाद को कार्य-रूप में परिणत होने का अवसर प्रदान किया। 1905 ई० में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा की। इसके परिणामस्वरूप केवल बंगाल में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण देश में विद्रोह का तूफान उठ खड़ा हुआ। बंगाल के विभाजन के द्वारा कर्जन बंगाल की बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को नष्ट करना चाहते थे। बंगाल विभाजन हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालने के उद्देश्य से किया गया था। पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को भड़काया गया था कि इस विभाजन का ध्येय उनके बहुमत का प्रान्त बनाना है। पूर्वी बंगाल के गवर्नर सर वैम्फाइल्ड फूलर ने कहा था- “उसकी दो स्त्रियाँ हैं- एक हिन्दू व एक मुसलमान, किन्तु वह दूसरी को अधिक चाहता है।”

बंगाल विभाजन से देश में समस्त राष्ट्रवादी विचारों को भयंकर रूप से आघात पहुँचा। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने स्पष्ट किया था बंगाल का विभाजन हमारे ऊपर बम की तरह गिरा है। हमने समझा कि हमारा घोर अपमान किया गया है।” बंगाल विभाजन का विरोध करने के लिए गोपालकृष्ण गोखले इंग्लैण्ड तक पहुँचे, किन्तु वहाँ उनके विरोधी स्वरों पर ध्यान नहीं दिया गया और वे निराशावस्था में ही भारत लौटे। उन्होंने कहा भी था- “नवयुवक यह पूछने लगे कि संवैधानिक उपायों का क्या लाभ है, यदि इनका परिणाम बंगाल का विभाजन ही होना था।” बंगाल विभाजन के विषय में डॉ० जकारिया का कथन है- “उद्देश्य और प्रभाव की दृष्टि से बंगाल का विभाजन-कार्य नितान्त धूर्ततापूर्ण था।” वस्तुत: बंगाल विभाजन का उद्देश्य भारतीयों की राष्ट्रीयता की भावना को कुचलना था, परन्तु व्यवहार में इसका विपरीत परिणाम निकला और गरमवादी राष्ट्रीयता की भावना सम्पूर्ण देश में फैल गई। इसके विरोध में सम्पूर्ण देश में जनसभाओं का आयोजन किया गया। अकेले बंगाल में ही 1,000 सभाएँ की गईं।

(ix) विदेशों में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार- विदेशों में भारतीयों के प्रति बहुत अधिक दुर्व्यवहार किया जा रहा था। अफ्रीका से लौटकर डॉ० बी०सी० मुंजे ने कहा था कि हमारे शासक यह विश्वास नहीं करते कि हम भी मनुष्य हैं। भारतीयों के साथ दक्षिण अफ्रीका में अत्यन्त अपमानजनक व्यवहार किया गया। उन्हें प्रथम श्रेणी में रेल यात्रा की अनुमति नहीं थी। वे पगडण्डी पर नहीं चल सकते थे। रात्रि में 9 बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकल सकते थे। इन्हीं अत्याचारों को समाप्त कराने के लिए गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन का संचालन किया। इस आन्दोलन का प्रभाव भारतीय जनता पर भी पड़ा।

(x) नवयुवकों का भिक्षावृत्ति वाली नीति पर से विश्वास समाप्त हो जाना- कांग्रेस के प्रथम काल (1885-1905 ई०) में कांग्रेस की नीति उदारवादी तथा भिक्षावृत्ति वाली थी। किन्तु युवकों का एक ऐसा वर्ग बन गया था, जिसका इस नीति पर से विश्वास ही उठ गया और वे उग्र नीति का समर्थन करने लगे। इन उग्र राष्ट्रवादियों के तीन प्रमुख नेता थे- लाल, बाल तथा पाला ये नेता अटूट देशभक्त और ब्रिटिश शासन के कट्टर विरोधी थे। बालगंगाधर तिलक के शब्दों में, “हमारा आदर्श

दया की भिक्षा माँगना नहीं, अपितु आत्मनिर्भरता है। इसके साथ ही उनका नारा था- “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” गरम विचारों वाले राष्ट्रवादियों के कार्यक्रम में विदेशी वस्तुओं तथा संस्थाओं का बहिष्कार करना और स्वदेशी आन्दोलन तथा राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना करना मुख्य मुद्दे थे। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में“उनके उपदेश, संगठन-पद्धति, विदेश विरोधी प्रचार और व्यायामशालाओं ने विद्रोह के ऐसे बीज बोए, जिनके अत्यधिक
व्यापक परिणाम हुए।”

(xi) राजनीतिक कारण- गरम राष्ट्रवाद का उदय होने तथा विकास में राजनीतिक कारणों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन् 1892 से 1904 ई० तक ब्रिटेन में कंजर्वेटिव पार्टी का शासन रहा, जिसने उग्र साम्राज्यवादी नीति को अपनाया। वे भारतीयों को किसी भी रूप में राजनीतिक अधिकार प्रदान करने तथा राजनीतिक संस्थाओं की संरचनाओं एवं शक्तियों में किसी भी प्रकार के परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं थे। उनके द्वारा ऐसे कानूनों का निर्माण किया गया, जो भारतीयों के हितों के विरुद्ध थे। इसलिए धीरे-धीरे भारतीयों का ब्रिटिश न्यायप्रियता पर से विश्वास उठने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि अब स्वयं उदारवादी भी खुलकर ब्रिटेन की भारत विरोधी एवं साम्राज्यवादी नीतियों की आलोचना करने लगे।

(xii) पाश्चात्य क्रान्तिकारी आन्दोलनों तथा विचारधाराओं का प्रभाव- भारतीय नवयुवकों पर पाश्चात्य देशों में चलाए जा रहे क्रान्तिकारी आन्दोलनों, साहित्य एवं सिद्धान्तों ने बहुत गहरा प्रभाव डाला। विभिन्न देशों में स्वतन्त्रता के लिए चलाए गए आन्दोलनों ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत में भी संवैधानिक आन्दोलनों के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करना कोई आसान कार्य नहीं है। सफलता को तो केवल शक्ति, विद्रोह एवं क्रान्ति के मार्ग के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। आयरलैण्ड का आदर्श भारतीय नवयुवकों के समक्ष था, जहाँ स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए उन्हें अपने रक्त का बलिदान करना पड़ा। इन परिस्थितियों से बाध्य होकर उदारवादियों में से ही ऐसे नवयवुकों का उदय हुआ, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार की अनौचित्यपूर्ण नीतियों का विरोध करने का साहस किया। ऐसे ही नवयुवकों की विचारधारा को गरम राष्ट्रवाद के नाम से जाना जाता है। आगे चलकर इसी विचारधारा ने क्रान्तिकारी विचारधारा को जन्म दिया।

प्रश्न 5.
उदारवाद व गरम राष्ट्रवाद की विचारधाराओं में क्या अन्तर था?
उतर:
उदारवादी और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी दोनों ही भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की दो विचारधाराएँ रही हैं। इन दोनों विचारधाराओं का अन्तर निम्नप्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है
(i) यद्यपि दोनों का मूल उद्देश्य एक था- स्वशासन की प्राप्ति, लेकिन स्वशासन के सम्बन्ध में दोनों के दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न | थे। उदारवादी ब्रिटिश शासन की अधीनता में प्रतिनिधित्व तथा संसदीय संस्थाओं की स्थापना करना चाहते थे तथा वे क्रमिक राजनीतिक सुधारों के पक्ष में थे। इसके विपरीत, गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी विदेशी शासन के कट्टर विरोधी तथा किसी भी रूप में उसके अस्तित्व के विरोधी थे।

(ii) उदारवादियों को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास था, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों को अंग्रेजों की नीयत तथा उदारता में तनिक भी विश्वास नहीं था।

(iii) उदारवादियों के विचार में ब्रिटेन तथा भारत के हितों में मूलभूत विरोध नहीं था। इसके विपरीत, गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों की धारणा यह थी कि ब्रिटेन तथा भारत के हित एक-दूसरे से नितान्त विपरीत हैं।

(iv) उदारवादी भिक्षावृत्ति जैसे साधनों के समर्थक थे, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी इन साधनों को अपनाना सम्मान के विरुद्ध समझते थे। गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों के प्रमुख साधन विदेशी वस्तुओं एवं संस्थाओं का बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा थे और बहिष्कार इनका सबसे प्रमुख साधन था।

(v) उदारवादी पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के पोषक थे, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी प्राचीन हिन्दू धर्म, सभ्यता और संस्कृति तथा उसके आधार पर विकसित हिन्दू राष्ट्रीयता के समर्थक थे।

(vi) उदारवादियों के नेता गोपालकृष्ण गोखले थे और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों के नेता बाल गंगाधर तिलक थे।

(vii) उदारवादी नौकरशाही व्यवस्था को पसन्द करते थे, किन्तु गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी इस व्यवस्था के विरोधी थे।

(viii) उदारवादी सरकार के साथ सहयोग करने में विश्वास रखते थे, किन्तु गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादी सरकार से असहयोग करने के पक्षपाती थे।

(ix) उदारवादियों का आदर्श प्रेम व सेवा था, जबकि गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों का आदर्श सेवा और कष्ट सहना था।

(x) उदारवादी स्वशासन में विश्वास रखते थे और गरम विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों की स्वराज्य में आस्था थी।

प्रश्न 6.
गोपालकृष्ण गोखले व बाल गंगाधर तिलक का परिचय देते हुए दोनों की विचारधारा के अन्तर को समझाइए।
उतर:
गोपालकृष्ण गोखले- कांग्रेस के उदारवादी नेताओं में गोपालकृष्ण गोखले का प्रमुख स्थान है। ये एक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। इनका जन्म 9 मई, 1866 ई० को महाराष्ट्र के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सन् 1902 ई० में ये फर्युसन कॉलेज के प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए तथा अपनी बुद्धिमता और कर्त्तव्यपरायणता के कारण ‘सार्वजनिक सभा’ के मन्त्री बने। यह सभा बम्बई की एक प्रमुख राजनीतिक संस्था थी। सन् 1889 ई० में इन्होंने भारतीय राष्ट्रीयता कांग्रेस में प्रवेश किया।

सन् 1902 ई० में ये केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्य निर्वाचित हुए। सदस्य बनने के बाद इन्होंने नमक-कर-उन्मूलन, सरकारी नौकरियों में चुनाव, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के प्रसार, स्वतन्त्र भारतीय अर्थव्यवस्था आदि के पक्ष में सराहनीय प्रयत्न किए। मिण्टो-मालें सुधार योजना के निर्माण में उनका सक्रिय योगदान रहा था। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भी प्रयत्न किया। उनके अपने देश के प्रति नि:स्वार्थ सेवा-भाव को देखकर, लॉर्ड कर्जन जैसे व्यक्ति ने भी उनकी प्रशंसा में कहा था, “ईश्वर ने आपको असाधारण योग्यता दी है और आपने बिना किसी शर्त के इसको देश-सेवा में लगा दिया है।

सन् 1905- 1907 ई० में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रतिक्रियावादी कार्यों का कड़ा विरोध किया। इसके साथ ही स्वतन्त्रता को संवैधानिक ढंग से प्राप्त करने में भी प्रयत्न किया। इन्होंने सन् 1905 ई० में भारत सेवक समिति नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था का लक्ष्य मातृ-भाषा के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करना और ऐसे सार्वजनिक कार्यकताओं को शिक्षित करना था, जो देश के उन्नति के लिए संवैधानिक रूप से कार्य करें। गोखले ने भारत में सुधारों की एक योजना भी तैयार की, जिसे गोखले की ‘राजनीतिक वसीयत’ या ‘इच्छा-पत्र’ कहा जाता है।

बाल गंगाधर तिलक- बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के उग्रवादी दल के प्रतिभासम्पन्न नेता थे। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादी विचारधारा के वे ही जन्मदाता थे। उन्होंने ही सबसे पहले नारा लगाया, “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” वास्तव में, उन्होंने ही देश में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र गति प्रदान की थी तथा कांग्रेस के आन्दोलन को जन-आन्दोलन में परिवर्तित करने का सराहनीय कार्य किया था।

बाल गंगाधर तिलक का जन्म 12 जुलाई, 1856 ई० में रत्नागिरि के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अपना अध्ययन कार्य समाप्त करने के बाद वे ‘दक्षिण शिक्षा समिति द्वारा स्थापित पूना के न्यू इंग्लिश स्कूल में गणित के अध्यापक नियुक्त हो गए। तिलक जी स्वभाव से निर्भीक, दृढ़-निश्चयी एवं स्वाभिमानी थे। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन देश की सेवा में समर्पित कर दिया। 1 अगस्त, 1920 ई० को ये 64 वर्ष की आयु पूरी कर स्वर्ग सिधार गए।

तिलक और गोखले की विचारधारा में अन्तर- तिलक एवं गोखले दोनों उच्चकोटि के महान् देशभक्त एवं राष्ट्रीय नेता थे किन्तु दोनों के विचारों में मौलिक अन्तर था। डॉ० पट्टाभि सीतारमैय्या ने अपने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में तिलक और गोखले की तुलना इस प्रकार की है- तिलक और गोखले दोनों ऊँचे दर्जे के देशभक्त थे। दोनों ने जीवन में भारी त्याग किया था, परन्तु उनके स्वभाव एक-दूसरे से बहुत भिन्न थे। यदि हम उस समय की भाषा का प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि गोखले नरम विचारों के थे और तिलक गरम विचारों के। गोखले मौजूदा संविधान को मात्र सुधारना चाहते थे लेकिन तिलक उसे नए सिरे से बनाना चाहते थे। गोखले को नौकरशाही के साथ मिलकर कार्य करना था, तिलक को उससे अनिवार्यतः संघर्ष करना था। गोखले जहाँ सम्भव हो, सहयोग करने तथा जहाँ जरूरी हो, विरोध करने की नीति के पक्षपाती थे।

तिलक का झुकाव रुकावट तथा अडंगा डालने की नीति की ओर था। गोखले को प्रशासन तथा उनके सुधार की मुख्य चिन्ता थी, तिलक के लिए राष्ट्र तथा उसका निर्णय मुख्य था। गोखले का आदर्श था- प्रेम और सेवा, तिलक का आदर्श था- सेवा और कष्ट सहना। गोखले विदेशियों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते थे, तिलक का तरीका विदेशियों को देश से हटाना था। गोखले दसरों की सहायता पर निर्भर करते थे, तिलक अपनी सहायता स्वयं करना चाहते थे। गोखले उच्च वर्ग और शिक्षित लोगों की ओर देखते थे, तिलक सर्वसाधारण या आम जनता की ओर। गोखले का अखाड़ा था- कौंसिल भवन, तिलक का मंच था- गाँव की चौपाल। गोखले अंग्रेजी में लिखते थे, तिलक मराठी में। गोखले का उद्देश्य था- स्वशासन, जिसके लिए लोगों को अंग्रेजों द्वारा पेश की गई कसौटी पर खरा उतरकर अपने को योग्य साबित करना था, तिलक का उद्देश्य था- स्वराज्य, जो प्रत्येक भारतवासी का जन्मसिद्ध अधिकार था और जिसे वे बिना किसी बाधा की परवाह किए लेकर ही रहेंगे। गोखले अपने समय के साथ थे, जबकि तिलक अपने समय के बहुत आगे।।

प्रश्न 7.
होमरूल तथा माले मिण्टो सुधार पर टिप्पणी कीजिए।
उतर:
होमरूल आन्दोलन (1916 ई०)- स्वशासन प्राप्त करने का यह वैधानिक संगठन था। एनी बेसेण्ट ने 1 सितम्बर, 1916 में मद्रास (चेन्नई) में होमरूल लीग की स्थापना की। इसकी आठ स्थानों पर शाखाएँ खोली गई। मद्रास (चेन्नई) के चीफ जस्टिस सुब्रह्मण्यम् अय्यर का इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा। वस्तुतः होमरूल आन्दोलन की शुरूआत ही लोकमान्य तिलक ने की थी। मार्च, 1916 में तिलक ने पूना में होमरूल लीग की स्थापना की। लीग का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत सभी वैधानिक तरीकों से स्वशासन प्राप्त करना और इस दिशा में जनमत तैयार करना था। तिलक ने अपने मराठा तथा केसरी व एनी बेसेण्ट ने अपने ‘कॉमन वील’ तथा ‘न्यू इण्डिया’ नामक समाचार-पत्रों के माध्यम से गृह-शासन की माँग का जोरदार प्रचार किया। शीघ्र ही यह आन्दोलन समस्त भारत में फैल गया। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया था। इंग्लैण्ड में भी होमरूल लीग की स्थापना हुई। मजदूर दल के नेता ‘होराल्ड लास्की’ ने इसे प्रोत्साहन दिया।

1917 ई० तक होमरूल आन्दोलन अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया। सरकार ने तिलक और एनी बेसेण्ट के बढ़ते हुए प्रभाव को गम्भीरता से देखा एवं दमनकारी नीति अपनाई। एनी बेसेण्ट को गिरफ्तार कर लिया तथा तिलक पर भी दिल्ली और पंजाब में आने पर प्रतिबन्ध लगाए गए। एनी बेसेण्ट की गिरफ्तारी के विरोध में जगह-जगह सभाएँ हुईं। स्थान-स्थान पर प्रदर्शन किए गए। मजबूर होकर सरकार ने एनी बेसेण्ट को छोड़ दिया। इन्हीं दिनों 20 अगस्त, 1917 को भारत सचिव मॉण्टेग्यू की प्रसिद्ध घोषणा हुई, इस घोषणा के अनुसार भारत में धीरे-धीरे उत्तरदायी सरकार देने का प्रावधान रखा गया। इस घोषणा के बाद होमरूल आन्दोलन समाप्त हो गया। मार्ले-मिण्टो सुधार (1909 ई०)- उत्तर के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न संख्या-5 के उत्तर का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित के विषय में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

(क) मुस्लिम लीग
(ख) गदर पार्टी
(ग) उदारवादी व अतिवादी
(घ) लखनऊ समझौता

उतर:
(क) मुस्लिम लीग- हिन्दू और मुसलमानों में पारस्परिक वैमनस्य पैदा करना बंगाल विभाजन का प्रमुख उद्देश्य था। लॉर्ड कर्जन अपने इस उद्देश्य में लगभग सफल हो चुका था। अब मुसलमानों को बंगाल विभाजन के पक्ष में करने के लिए अंग्रेजों ने प्रयास करना शुरू कर दिया। अंग्रेज सरकार ने भारतीय मुसलमानों को कांग्रेस विरोधी किसी संस्था को बनाने के लिए प्रेरित किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु अंग्रेजों के समर्थक ढाका के नवाब सलीमुल्ला खाँ ने ‘मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस के अवसर पर मुसलमानों के सामने एक अलग राजनीतिक संस्था बनाने का प्रस्ताव रखा। 30 दिसम्बर, 1906 ई० को नवाब बकर-उल-मुल्क की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग’ की स्थापना करने का निर्णय लिया गया।

इस निर्णय से ब्रिटिश सरकार को बहुत प्रसन्नता हुई। क्योंकि उनकी ‘फूट डालो राज करो’ की नीति सफल हो रही थी। जल्दी ही तत्कालीन अंग्रेजी वायसराय लॉर्ड मिण्टो के निजी सचिव डनलप स्मिथ ने अलीगढ़ कॉलेज के प्रधानाचार्य आर्कबोल्ड को पत्र लिखकर मुसलमानों का एक शिष्टमण्डल अपनी माँगों के साथ वायसराय से मिलने के लिए आमंत्रित किया। अतः 1 अक्टूबर, 1906 ई० को आगा खाँ के नेतृत्व में एक मुस्लिम शिष्टमण्डल लॉर्ड मिण्टो से मिला। लॉर्ड मिण्टो ने मुसलमानों की माँगों को पूरा करने का आश्वासन दिया। परिणामस्वरूप 30 दिसम्बर, 1906 ई० में इसी शिष्टाण्डल ने मुस्लिम लीग की स्थापना की। इस लीग का पहला अधिवेशन नवाब सलीमुल्ला खाँ के नेतृत्व में ढाका में हुआ। अत: मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेजो की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति की सबसे बड़ी सफलता थी।

(ख) गदर पार्टी आन्दोलन- लाला हरदयाल ने 10 मई, 1913 को कैलिफोर्निया के यूली नामक नगर की एक सभा में गदर पार्टी की स्थापना की। पार्टी ने ‘गदर समाचार-पत्र’ भी निकाला। प्रथम महायुद्ध के समय गदर पार्टी ने इंग्लैण्ड के शत्रुओं से साँठगाँठ कर भारत में 21 फरवरी, 1915 को सशस्त्र क्रान्ति की योजना बनाई। लाहौर इसकी योजना का केन्द्र था। विष्णु गणेश पिंगले और रासबिहारी इसके प्रमुख आयोजक थे। किन्तु इस योजना का पता अंग्रेज अधिकारियों को लगने से यह असफल रही। उन्होंने लगभग सभी नेताओं तथा समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया। गदर आन्दोलनकर्ताओं में से सत्रह व्यक्तियों को फाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया। कई लोगों को आजीवन कारावास मिला। इनके अतिरिक्त गदर आन्दोलन से सम्बन्धित दो दर्जन अन्य सिक्खों को भी फाँसी दे दी गई। गदर पार्टी आन्दोलन में लाला हरदयाल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

इनकी गतिविधियों का केन्द्र अमेरिका रहा। भारत में भी इसके विस्तार के प्रयत्न हुए। इस हेतु अनेक प्रतिनिधिमण्डल भारत भेजे गए। भारत सरकार को अमेरिका व कनाड़ा से सिक्खों के आगमन से गहरी चिन्ता हुई। कामा गाता मारू नामक एक जलयान तीन सौ इक्यावन यात्रियों के साथ 26 सितम्बर, 1914 को हुगली पहुँचा। भारत सरकार ने 29 अगस्त को विदेशियों के लिए एक अध्यादेश पारित किया, जिसके अन्तर्गत किसी का भी भारत आगमन अवैध माना जा सकता था। इन भारतीयों को भी उपर्युक्त नियम के अन्तर्गत रोकने की कोशिश की गई। बजबज नामक बन्दरगाह पर जहाज पहुँचने पर तलाशी हुई और संघर्ष हुआ। अठारह यात्री मार दिए गए और लगभग पच्चीस यात्री घायल हो गए। वास्तव में यह विद्रोह नहीं था, क्रूर हत्याकाण्ड था। कुछ यात्रियों को पंजाब भेज दिया गया। इसी भॉति 29 अक्टूबर, 1915 को एक-दूसरा जहाज एस० एस० तोशामारू’ भारत पहुंचा।

(ग) उदारवादी व अतिवादी- सन् 1885- 1905 ई० के काल को उदारवादियों का काल अथवा उदार राष्ट्रवाद का काल भी कहा जाता है। प्रारम्भिक दौर में कांग्रेस की पूरी बागडोर उदारवादियों के हाथ में थी। इस समय भारतीय-राजनीति में ऐसे व्यक्तियों का प्रभाव था, जो उन अंग्रेजों में श्रद्धा रखते थे, जिनका उदारवादी विचारधारा में विश्वास था। दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता, रासबिहारी घोष, पंडित मदन मोहन मालवीय, गोपालकृष्ण गोखले आदि नेता उदारवादी विचारधारा के प्रमुख नेता थे। कुछ अंग्रेज भी उदारवादी विचारधारा के समर्थक थे, जिनमें छूम, विलियम वेडरवर्न, जॉर्ज यूल, स्मिथ प्रमुख थे। उदारवादी नेताओं ने कांग्रेस का दो दशकों (1885-1905 ई०) तक मार्गदर्शन किया। ये उदारवादी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को अभिशाप नहीं वरन् वरदान समझते थे।

1895-1905 ई० के काल में भारत और विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं और कुछ ऐसी शक्तियाँ क्रियाशील हुई, जिन्होंने भारतीय राष्ट्र के अपेक्षाकृत युवा वर्ग को पूर्ण स्वतंत्रता की माँग के लिए प्रेरित किया और कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनकी भिक्षा-नीति के फलस्वरूप कांग्रेस में नए दल का उदय हुआ, जो पुराने नेताओं के ढोंग और आदर्शों का कड़ा आलोचक बन गया। यह दल अतिवादी कहलाया। अतिवादी विचारधारा के समर्थकों में आत्मबलिदान और स्वतंत्रता की भावना के साथ-साथ, प्रबल देश-प्रेम तथा विदेशी शासन के प्रति घृणा थी। इस विचारधारा के समर्थक उग्र नीति का प्रयोग चाहते थे। जिसके अन्तर्गत विदेशी वस्तुओं और शासन का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं स्वशासन की स्थापना आदि को सम्मिलित किया जा सकता था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्रपाल, अरविन्द घोष आदि अतिवादी प्रमुख नेता थे।

(घ) लखनऊ समझौता- 1907 ई० में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस में फूट पड़ने से अतिवादी नेता, उदारवादी कांग्रेस से पृथक् हो गए। 1907 ई० से 1915 ई० तक कांग्रेस पर उदारवादी नेताओं का प्रभुत्व बना रहा। इस समय तक कांग्रेस अपनी भिक्षावृत्ति की नीतियों के कारण एक उत्साहहीन संस्था का रूप धारण कर चुकी थी। इसी पृष्ठभूमि में बम्बई (मुम्बई) कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में संशोधन कर दिया, जिसके अनुसार 1916 ई० में अतिवादी नेता कांग्रेस में प्रवेश कर सकते थे। 1916 ई० में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का अधिवेशन लखनऊ में एक साथ ही आयोजित हुआ।

यह दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण था- एक, इसमें अतिवादियों का पुन: प्रवेश और दूसरा, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य समझौता। इस समझौते के अन्तर्गत कांग्रेस ने अस्थायी रूप से मुसलमानों के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन की बात मान ली और मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की स्वशासन की मॉग का समर्थन करना स्वीकार कर लिया। यह समझौता लखनऊ पैक्ट के नाम से विख्यात है। इस प्रकार अनजाने में एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो गई जिसकी परिणति भारत विभाजन के रूप में हुई। रोचक बात यह है कि लखनऊ समझौते में एक ओर बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेण्ट और दूसरी ओर मुहम्मद अली जिन्ना की अग्रणी भूमिका थी।

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